[[शाक्त्त-उपनिषदः Source: EB]]
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PREFACE
THE first edition of the S’ĀKTA UPANIṢADS was issued by the then Director of the Adyar Library, Pandit A. Mahadeva Sastri in 1925. It went out of print in1948. The demand for copies of the work showed steady increase, and the present edition is now issued to meet the demand. This is only a reprint of the first edition.
***Adyar Library * **
G. SRINIVASA MURTI,
17-4-1950
Hony. Director
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EDITOR’S NOTE TO THE FIRST EDITION
THE materials on which is based this edition of the S’ĀKTA-UPANIṢADS comprised in this volume are the same as those described in the volume of The YogaUpaniṣads.
5th November, 1925
A.MAHADEVASASTRI
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| अस्मिन् सम्पुटे अन्तर्गतानामुपनिषदां सूची | |||
| संख्या | उपनिषन्नाम | ईशादिसंख्या | |
| १ | त्रिपुरोपनिषत् | ८२ | |
| २. | त्रिपुरातापिन्युपनिषत् | ८० | |
| ३. | देव्युपनिषत् | ८१ | |
| ४. | बह्वृचोपनिषत् | १०७ | |
| ५. | भावनोपनिषत् | ८४ | |
| ६. | सरस्वतीरहस्योपनिषत् | १०६ | |
| ७. | सीतोपनिषत् | ४५ | |
| ८. | सौभाग्यलक्ष्म्युपनिषत् | १०५ |
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| विषयसूचिका |
| १. त्रिपुरोपनिषत् |
| चिच्छक्तिस्वरूपम् |
| चिच्छक्तिं प्रति प्रार्थना |
| कामेश्चरस्वरूपम् |
| आवरणदेवताः |
| शिवकामसुन्दरीविद्याफलम् |
| आदिमूलविद्योद्धारः |
| विरक्तानामादिविद्याज्ञानफलम् |
| देवीज्ञानफलम् |
| मन्दाधिकारिणां ध्यानविशेषः |
| अधमाधिकारिणामनुष्ठानं तत्फलं च |
| निष्कामोपासकस्य ब्रह्मत्वप्राप्तिः |
| २. त्रिपुरातापिन्युपनिषत् |
| प्रथमोपनिषत् |
| त्रिपुरास्वरूपम् |
| त्रिपुरामहामनुः |
| शिवशक्तियोगात् प्रपञ्चसृष्टिः |
| वाग्भवकूटस्य गायत्र्या समन्वयः |
| कामकूटस्य गायत्र्या समन्वयः |
| शक्तिकूटस्य गायत्र्या समन्वयः |
| कामाकामधियां विशिष्टविद्याफलम् |
| शक्तिशिवादिद्वादशविद्योद्धारः |
| महात्रिपुरादेवीध्यानप्रकारःः |
| द्वितीयोपनिषत् |
| त्रिपुराविद्यामधिकृत्य प्रश्नः |
| त्रिपुराविद्या |
| महाविद्येश्वरीविद्या |
| सर्वरक्षाकरीविद्या |
| त्रिपुरेशी-आत्मासनरूपिणी-शक्तिशिवरूपिणीविद्याः |
| त्रिपुरवासिनीविद्या |
| त्रिपुराम्बाविद्या |
| श्रीचक्रस्याऽनुलोमक्रमः |
| श्रीचक्रस्य प्रतिलोमक्रमः |
| श्रीचक्रे महात्रिपुरसुन्दरीपूजा |
| पूजाफलम् |
| तृतीयोपनिषत् |
| मुद्रासामान्यलक्षणम् |
| योन्यादिनवमुद्रालक्षणम् . |
| पञ्चबाणमुद्रालक्षणम् |
| नवबीजोद्धारः |
| कामकलाचक्रम् |
| क्षेत्रेशपूजा |
| कुलकुमारीपूजा |
| चतुर्थोपनिषत् |
| मृत्युञ्जयोपदेशः |
| त्र्यम्बकादिशब्दार्थविवरणम् |
| भगवतीदर्शनसाधनमन्त्रः |
| पञ्चमोपनिषत् |
| निर्विशेष ब्रह्मजिज्ञासा |
| परमात्मनिरूपणम् |
| मनोनिरोधः |
| ब्रह्मज्ञानाद्ब्रह्मभावप्राप्तिः |
| सविशेषब्रह्मानुसन्धानान्निर्विशेषब्रह्माधिगमः |
| निरुपाधिकात्मदर्शनम् |
| शब्दब्रह्मध्यानात् परब्रह्माधिगमः |
| परमात्मदर्शनम् |
| श्रीकामराजविद्यामहिमा |
| ३. देव्युपनिषत् |
| चिच्छक्तेः सर्वात्मरूपेण ब्रह्मत्वम् |
| चिच्छक्तेः सर्वधारकत्वम् |
| देवकृतदेवीस्तुतिः |
| आदिविद्योद्धारः |
| आदिविद्यामहिमा |
| भुवनेश्येकाक्षरीमन्त्रः |
| महाचण्डीनवाक्षरविद्या |
| विद्याजपस्तुतिः |
| ४. बह्वृचोपनिषत् |
| चिच्छक्तिस्वरूपम् |
| चिच्छक्तेर्ब्रह्मादिस्थावरान्तकारणत्वम् |
| चिच्छक्तेः शब्दतदर्थरूपभावनम् |
| चिच्छक्तेरद्वितीयत्वम् |
| प्रत्यक्परचिदैक्यभावना |
| अम्बिकाऽऽदिरूपेण चिच्छक्तिभावना |
| ब्रह्मण एव मुख्यज्ञेयत्वम् |
| ५. भावनोपनिषत् |
| शिवस्य शक्तियोगादीश्वरत्वम् |
| अध्यात्मदेहत्रयश्रीचक्रभावना |
| देवताया आवाहनाद्युपचारभावना |
| भावनाफलम् |
| ६. सरस्वतीरहस्योपनिषत् |
| सरस्वतीदशश्लोक्यास्तत्त्वज्ञानसाधनत्वम् |
| दशश्लोक्या ऋष्यादि |
| प्रणो देवीति मन्त्रस्य ऋष्यादि |
| आ नो दिव इति मन्त्रस्य ऋष्यादि |
| पावका न इति मन्त्रस्य ऋष्यादि |
| चोदयित्री इति मन्त्रस्य ऋष्यादि |
| महो अर्ण इति मन्त्रस्य ऋष्यादि |
| चत्वारि वागिति मन्त्रस्य ऋष्यादि |
| यद्वागिति मन्त्रस्य ऋष्यादि |
| देवीं वाचमिति मन्त्रस्य ऋष्यादि |
| उत त्व इति मन्त्रस्य ऋष्यादि |
| अम्बितम इति मन्त्रस्य ऋष्यादि |
| देवताप्रार्थना |
| भगवत्याब्रह्मत्वं प्रकृतित्वं पुरुषत्वं च |
| मायावशाद्भगवत्या ईश्वरत्वम् |
| मायाया विक्षेपावरणशक्तिद्वयम् |
| जीवस्वरूपम् |
| आवृतिनाशे भेदनाशः |
| दृश्यप्रपञ्चे ब्रह्मप्रकृत्यंशयोर्विवेकः |
| ब्रह्मांशे समाधिविधानम् |
| षङ्विधसमाधयः |
| निर्विकल्पसाक्षात्कारः |
| ७. सीतोपनिषत् |
| सीताया मूलप्रकृतित्वम् |
| सीताप्रकृतेरक्षरार्थः |
| सीताया व्यक्ताव्यक्तस्वरूपम् |
| सीताया ब्रह्मत्वम् |
| सीताया इच्छाऽऽदिशक्तित्रयत्वम् |
| इच्छाशक्तेः श्रीभूमिनीलाऽऽत्मकत्वम् |
| सोमरूपा नीला |
| सूर्यादिरूपा नीला |
| अग्निरूपा नीला |
| श्रीदेवीरूपेच्छाशक्तिः |
| भूदेवीरूपेच्छाशक्तिःः |
| इच्छाशक्तेः सर्वरूपत्वम् |
| इच्छाशक्तेर्भुवनाधारत्वम् |
| क्रियाशक्तेर्नादोद्भवः |
| साङ्गोपाङ्गवेदतच्छाखाकथनम् |
| नादस्यैव वेदशास्त्रद्वारा ब्रह्मभवनम् |
| साक्षाच्छक्तिस्वरूपम् |
| योगशक्तिरूपेच्छाशक्तिः |
| भोगशक्तिरूपेच्छाशक्तिः |
| वीरशक्तिरूपेच्छाशक्तिः |
| ८. सौभाग्यलक्ष्म्युपनिषत् |
| प्रथमः खण्डः |
| सौभाग्यलक्ष्मीविद्याजिज्ञासा |
| सौभाग्यलक्ष्मीध्यानम् |
| श्रीसूक्तस्य ऋष्यादि |
| सौभाग्यलक्ष्मीचक्रम् |
| एकाक्षरीमन्त्रस्य ऋष्यादि |
| एकाक्षरीचक्रम् |
| लक्ष्मीमन्त्रविशेषाः |
| द्वितीयः खण्डः |
| उत्तमाधिकारिणां ज्ञानयोगः |
| षण्मुखीमुद्राऽन्वितप्राणायामयोगः |
| नादाविर्भावपूर्वको ग्रन्थित्रयभेदः |
| अखण्डब्रह्माकारवृत्तिः |
| निर्विकल्पभावः |
| समाधिलक्षणम् |
| तृतीयः खण्डः |
| आधारचक्रम् |
| स्वाधिष्ठानचक्रम् |
| नाभिचक्रम् |
| हृदयचक्रम् |
| कण्ठचक्रम् |
| तालुचक्रम् |
| भ्रूचक्रम् |
| ब्रह्मरन्ध्रचक्रम् |
| आकाशचक्रम् |
| एतदुपनिषदध्ययनफलम् |
| नामधेयपदसूची |
| विशेषपदसूची |
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त्रिपुरोपनिषत्
वाङ्मे मनसि—इति शान्तिः
चिच्छक्तिस्वरूपम्
तिस्रः पुरस्त्रिपथा विश्वचर्षणा अत्राकथा अक्षराः संनिविष्टाः।
अधिष्ठायैना अजरा पुराणी महत्तरा महिमा देवतानाम्॥१॥
नवयोनिं नव चक्राणि दीधिरे नवैव योगा नव योगिन्यश्च।
नवानां चक्रा अधिनाथाः स्योना नव भद्रा नव मुद्रा महीनाम्॥२॥
त्रिपुरोपनिषद्वेद्यपारमैश्चर्यवैभवम्।
अखण्डानन्दसाम्राज्यरामचन्द्रपदं भजे॥
इह खलु ऋग्वेदप्रविभक्तेयं त्रिपुरोपनिषत् श्रीविद्येयत्ताप्रकटनव्यग्रा ब्रह्ममात्रपर्यवसन्ना विजयते। अस्याः संक्षेपतो विवरणमारभ्यते। उत्तमाधिकारिण उपलभ्य तेषां चित्तशुद्धिप्राप्यज्ञानद्वारा परमपुरुषार्थसिद्धये श्रुतिरवान्तररूपेण प्रवृत्तेत्याह—तिस्र इति। या स्वाज्ञदृष्टिविकल्पिता व्यष्टिसमष्टिभिदाजुष्टस्थूलसूक्ष्मकारणतनव एव तिस्रः पुरसन्ति, ये देवयानपितृयानादिभेदेन कर्मोपासनाज्ञानकाण्डभेदेन ज्ञानविज्ञानसम्यग्ज्ञानभेदेन वा विश्वेन व्यावहारिकजीवेन चर्षणा
विकल्पिता ये त्रिपथाः त्रयः पन्थानः सन्ति, किंच “अकथादि श्रीपीठ” इत्यादिश्रुत्यनुरोधेन अत्र श्रीचक्रे अकथाद्यक्षराः सन्निविष्टा यान्यकारादिक्ष कारान्तान्यक्षराणि सन्निविष्टानि सन्निवेशितानि सन्ति, ता एनाः पुरश्च एनान् पथश्च एतान्यक्षराणि च जीवेशप्रत्यक्परात्मना अधिष्ठाय ब्रह्मादिदेवतानामपि महिमा सृष्ट्यादिसामर्थ्यरूपिणी स्थूलादिशरीरत्रयवैलक्षण्यात् अजरा सत्तासामान्याप्तिद्वारीभूतचित्सामान्यरूपत्वात् महत्तरा काचन पुराणी चिरन्तना चिच्छक्तिर्विजय॥१॥सेयं चिच्छक्तिः कीदृशीत्यत आह—नवयोनिमिति। यामाश्रित्य नवयोनिं नवयोनयः महात्रिपुरसुन्दर्यादिशक्तयःः सर्वानन्दमयादिनवचक्राणि च यमनियमासनप्राणायामप्रत्याहारधारणाध्यानसमाधिसहजयोगभेदेन नवैव योगाश्च तथा नवचक्रवासिन्यः नवयोगिन्यश्च दीधिरे प्रकाशन्ते नवानां महीनां देवताऽऽधारभूमीनां चक्राविनाथाः स्योनाः द्वारपालिन्यश्च कामेश्चर्यादिभद्राश्च योन्यादिनवमुद्राश्च॥२॥
चिच्छक्तिं प्रति प्रार्थना
एका स आसीत् प्रथमा सा नवासीदा सोनविंशादा सोनत्रिंशात्।
चत्वारिंशादथ तिस्रः समिधा1 उशतीरिव मातरो माऽऽविशन्तु॥
ऊर्ध्वज्वलनं2 ज्योतिरग्रे तमो वै तिरश्चीनमजरं तद्रजोऽभूत्।
आनन्दनं मोदनं ज्योतिरिन्दोरेता उ वै मण्डला मण्डयन्ति॥४॥
यामाश्रित्य सदा दीधिरे सेयं प्रथमा प्रधाना एकैवासीत्। नवभद्रादयस्तद्भिन्ना इत्यत आह—सेति। सैव नवभद्रादयः आसीत् ज्ञानकर्माक्षप्राणपञ्चकान्तःकरणचतुष्टयभेदेन एकोनविंशात् तत्त्वग्रामात् याः शक्तयो निष्पन्नास्तत्स्वरूपेणापीयमेवास। किंच कर्मज्ञानाक्षप्राणपञ्चकान्तःकरणचतुष्टयविषय-
जातपञ्चभूतोपप्राणभेदेन एकोनत्रिंशत्तत्वग्रामात् याः शक्तयो निष्पन्नास्तद्रूपेणापीयमेवास। किंच चतुर्दशाक्षाधीशतूलामूलाविद्याकर्मत्रयविक्षेपावरणमुदितादिगुणचतुष्टयविश्वविश्वादितुर्यप्राज्ञान्तभेदेन चत्वारिंशच्छक्तयो या विद्यन्ते तद्रूपेणापीयमेवासेत्यर्थः। सम्यगिद्धाः समिधाः क्रियाज्ञानेच्छाऽऽत्मकज्ञानविज्ञानसम्यग्ज्ञानशक्तयः तिस्रः स्वस्वसुतान् प्रति उशतीः उशत्यः स्वात्मजक्षेमकामिन्यः मातर इव मा मां ब्रह्मपदवीमात्तुमुद्युक्तं आविशन्तु अजडक्रियाज्ञानेच्छाशक्तयोमां प्रविशन्त्वित्यर्थः॥३॥किंच—ऊर्ध्वेति।“अथ तत ऊर्ध्व उदेता”, “अथ यदतः परो दिवो ज्योतिर्दीप्यते,”“ज्योतिर्ज्वलति ब्रह्माहमस्मि”इति श्रुत्यनुरोधेन पराक्प्रपञ्चेन्धनमाश्रित्य तत ऊर्ध्वं ज्वलतीति ऊर्ध्वज्वलनं प्रत्यग्ज्योतिः अग्रे पराग्वृत्त्युदयात् पूर्वमेव सदा मेऽभूत् तद्वैपरीत्येन तिरश्चीनं पराग्रूपं तमः रजः सत्त्वं च स्वात्तपराग्भावमुत्सृज्य अजरं ब्रह्म अभूत्। एवं ग्रसित्वा अहं ब्रह्मास्मीति प्रत्यगभिन्नब्रह्मभावेन आ समन्तान्नन्दति स्वातिरिक्तं न किंचिदस्तीति मोदत इति आनन्दनं मोदनं ज्योतिः स्वातिरिक्तध्वान्तग्रासप्रत्यगभिन्नपरमात्म—इन्दोः यद्विजयते न हि तदतिरिक्तमस्ति तदेवाहमस्मीति या वै खण्डमण्डलाकाराखण्डसविकल्पनिर्विकल्पवृत्तय एता मण्डयन्ति मां ब्रह्मभावापन्नमलंकुर्वन्ति ता अपि ब्रह्मणि विलीयन्ते। ततः परमात्मा निष्प्रतियोगिक- द्वैतरूपेणावशिष्यत इत्यर्थः॥४॥
कामेश्वरस्वरूपम्
यास्तिस्त्रो रेखाः सदनानि भूस्त्रीस्त्रिविष्टपास्त्रिगुणास्त्रिप्रकाराः3।
एतत्त्रयं पूरकंपूरकाणां मन्त्रप्रतते4 मदनो मदन्या॥५॥
याः पुनः तिस्रो रेखाः जडक्रियाज्ञानेच्छाशक्तयो यानि सदनानि जाग्रत्स्वप्नसुषुप्तितुरीयस्थानानि लोचनकण्ठहृदयसहस्रारचक्राणि भूस्त्रीरित
भूर्भुवः सुवरिति त्रिलोकाः त्रिविष्टपाः तमआदिगुणाः तत्रैकैकगुणस्य तमस्तमइत्यादिभेदेन त्रित्रिप्रकाराश्च यामाश्रित्य वर्तन्ते, त्रिरेखात्रिविष्टपत्रिगुणतया यदुक्तं एतत्त्रयं पूरकाणां ब्राह्म्यादिस्वचक्रावरणानामपि रेखाविष्टपगुणाभिधानकामेश्वर्यादिशक्तित्रयं पूरकं प्रधानमित्यर्थः। साङ्गावरणदेवतां विज्ञाय ये स्वचक्रमर्चयन्ति ते स्वधाम त्रैपुरं विशन्तीत्याह—मन्त्रेति। मन्त्रप्रतते आदिविद्यातदङ्गदेवतामन्त्रप्रतते श्रीचक्रे मदन्या कामिन्या मध्यत्रिकोणरूपिण्या चिच्छक्त्या सह बिन्दुरूपी मदनःकामेश्वरो विजयते॥५॥
आवरणदेवताः
मदन्तिका मानिनी मङ्गला च सुभगा च सा सुन्दरी सिद्धिमत्ता।
लज्जा मतिस्तुष्टिरिष्टा च पुष्टा लक्ष्मीरुमा ललिता लालपन्ती॥६॥
तत्परिवारावरणदेवतास्तु मदन्तिकेत्यादिपञ्चदशनित्या भवन्ति॥६॥
शिवकामसुन्दरीविद्याफलम्
इमां विज्ञाय सुधया5 मदन्ती परिसृता तर्पयन्तः स्वपीठम्।
नाकस्य पृष्ठे महतो वसन्ति परं धाम त्रैपुरं चाविशन्ति॥७॥
एवं परिवारदैवतैर्या परिसृता परितः सेविता सेयं सुधया मदन्ती स्वातिरिक्तं न किंचिदस्त्यहमेवेदं सर्वमिति स्वरूपानुसन्धानविस्मृतस्वातिरिक्ता चिच्छक्तिः शिवेन साकं विजयते। ये मुमुक्षवः इमां शिवकामसुन्दरीं निष्प्रतियोगिकचिन्मात्रपर्यवसन्नां विज्ञाय तज्ज्ञानसमकालं ते तत्पदं यान्ति। य एवं यदि ज्ञातुमशक्तास्ते तदा निष्कामधिया यावज्जीवं स्वपीठं श्रीचक्रं स्ववर्णाश्रमानुरोधेन क्षीरादिभिः तर्पयन्तः सन्तः कालं नयन्ति, अथ देहावसानानन्तरं महतो नाकस्य पृष्ठे श्रीपुरे ज्ञानाभ्यासं कुर्वन्त आभूतसंप्लवं वसन्ति ततः त्रैपुरं परं धाम विशन्ति कृतकृत्यपदं भजन्तीत्यर्थः॥७॥
आदिमूलविद्योद्धारः
कामो योनिः कामकला वज्रपाणिर्गुहा हसा मातरिश्वाऽभ्रमिन्द्रः।
पुनर्गुहा सकला मायया च पुरूच्येषा विश्वमाताऽऽदिविद्या॥८॥
आदिमूलविद्यामुद्धरति— काम इति। मूलविद्या देव्युपनिषदि व्याख्याता॥
विरक्तानामादिविद्याज्ञानफलम्
षष्ठं सप्तममथ वह्निसारथिमस्या मूलत्रिकमादेशयन्तः।
कथ्यं कवि कल्पकं काममीशं तुष्टुवांसो अमृतत्वं भजन्ते॥९॥
केवलविरक्तानामादिविद्यासारं तद्ध्येयवस्तु तज्ज्ञानफलं चाह—षष्ठमिति। मूलविद्यायाः षष्ठं अक्षरं हेति शिवबीजंतत्सप्तमं सेति शक्तिबीजं पुनः वह्निसारथिः केति कामेशबीजं एवं शिवसंपुटितशक्तिबीजं एवं अस्या आदिविद्यायाः हसकेति मूलत्रिकं आदेशयन्तो वाचोपांशुतया जपन्तो मनसा वाचा श्रुतिशिरोभिरतन्निरसनोपायतः कथ्यं अशब्दमस्पर्शमिति कविं क्रान्तदर्शिनं सर्वज्ञं स्वातिरेकेण सर्वं नास्तीति ज्ञत्वाज्जीवेशात्मना व्यष्टिसमष्टिप्रपञ्चकल्पकं, यद्वा स्वातिरिक्तजीवशिवतत्कल्पनीयव्यष्टिसमष्टिप्रपञ्चजातं नेतीति स्वातिरिक्तापवादकृद्वेदान्तशास्त्रकल्पकं निश्वसितश्रुत्यनुरोधेन वेदशास्त्राविर्भावहेतुत्वात्, यथाकामं सर्वापह्नवसिद्धब्रह्ममात्रतयाऽवस्थातुमीशत्वात् काममीशं तुष्टुवांसः ब्रह्माहमस्मीति स्तुतिं कुर्वन्तो मुमुक्षवः अमृतत्वं कैवल्यं भजन्ते विदेहमुक्ता भवन्तीत्यर्थः॥९॥
देवीज्ञानफलम्
पुरं हन्त्रीमुखंविश्वमातू6
रवे रेखा स्वरमध्यं तदेषा।
बृहत्तिथिर्दशपञ्चादिनित्या7
सषोडशिकं पुरमध्यं बिभर्ति॥१०॥
या षोडशावयवपुरमध्यं विभर्ति तत्स्वरूपं तज्ज्ञानफलं चाह—पुरमिति। भक्तानुग्रहायैवं रूपं या बिभर्ति तामेव विश्वमातुर्व्यक्तिं निष्कामधिया ज्ञात्वा स्वस्वभावानुरोधेन तत्तत्फलमेतीत्युक्तं, तत्र सा किं किं रूपं बिभर्तीत्यत्र—“पुरमेकादशद्वारं” इति श्रुत्या पुरं स्वाविद्यापदतत्कार्यजातं विश्ववि- श्वाद्यविकल्पानुज्ञैकरसान्तत्रिपञ्चदशतनुभिस्तद्बिभर्तीत्यर्थः। किं च हसकेति हन्त्रीमुखं आदिविद्यासाररूपं बिभर्तीति सर्वत्रानुषज्यते। रवेः रेखा आदित्यमण्डलरूपं ईं ओं इति वा स्वरमध्यं यत् तदेषा देवी विभर्ति।बृहत्तिथिरिति निमेषादिकल्पान्तकालविशेषः दशपञ्चादिनित्या पञ्चदशतिथिवारनक्षत्रादिरूपं नित्यदेवताभावमापन्नपञ्चदशतिथिभिः सह बृहत्तिथिरूपं सषोडशिकं पूर्वोक्तपुरमध्यं स्वाविद्यापदारोपाधारेश्वररूपं बिभर्ति। एवं देवतापरिग्रहोपाधिषु यत्र यत्र यन्मनः स्पृहयति तत्तत्परदेवताधिया निष्कामचित्ताञ्चितमुनिनोपास्यं भवति, तेनायं चित्तशुद्धिप्राप्यज्ञानद्वारा कृतकृत्यो भवेदित्यर्थः॥१०॥
मन्दाधिकारिणां ध्यानविशेषः
यद्वा मण्डलाद्वा स्तनबिम्बमेकं मुखं चाधस्त्रीणि गुहासदनानि।
कामीकलां कामरूपां चिकित्वा नरो जायते कामरूपश्च
एवं ध्यातुमशक्तानां सकामानां वा ध्यानभेदमाह—यद्वेति। रवीन्द्वादिमण्डलात् आविर्भूतां स्तनबिम्बमेकं मुखं चाधः इत्युपलक्षितसर्वाङ्गसुन्दरीं त्रीणि गुहासदनानि इत्यनेन स्थूलसूक्ष्मकारणभेदेन देहत्रयगुहासनां कामिनः परमेश्वरस्य कलां स्वभक्तपटलचित्तग्राहककामरूपां चिच्छक्तिं चिकित्वा ध्यात्वा कामनापूरितचित्तः काम्यो नरः स्वकामनानुरूपेण कामरूपश्च भवति कामितार्थभाक् भवतीति यत्तत्सामान्यफलमित्यर्थः। काम्यफलस्य जन्मादिहेतुत्वेन त्रैवर्णिकैर्मुमुक्षुभिः काम्योपासना न कार्येत्यत्र—
मोक्तुमिच्छसि चेद्ब्रह्मन् कामनोपासनं त्यज।
निष्कामाञ्चितधीवृत्त्या मामुपास्य विमोक्ष्यसे॥
इति स्मृतेः। त्रैवर्णिकैर्निष्कामबुद्ध्या वाममार्गाचारोऽपि चित्तशुद्धिप्राप्यज्ञानहेतुरिति चेन्न, परधर्मत्वात्। न हि परधर्माचरणं कृत्वा यः कोऽपि स्वातिरिक्तभ्रमतो मोक्तुं पारयति परधर्मानुष्ठानस्यानर्थहेतुत्वादित्यत्र—
श्रेयान् स्वधर्मो विगुणः परधर्मात् स्वनुष्ठितात्।
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः॥
इति स्मृतेः। त्रैवर्णिकैरपि चित्तशुद्ध्यर्थं चिच्छक्त्युपासना कर्तव्येति चेत्, सत्यं दक्षिणाचारेण कर्तव्यम्। त्रैवर्णिकानां निष्कामधिया दक्षिणमार्गाचरणं कर्तव्यमित्यत्र—“निष्कामानामेव श्रीविद्यासिद्धिः न कदाऽपि सकामानाम्” इत्यादिश्रुतेः॥११॥
अधमाधिकारिणामनुष्ठानं तत्फलं च
परिसृतं झषमाजंपलं च भक्तानि योनिः10 सुपरिष्कृताश्च।
निवेदयन् देवतायै महत्यै स्वात्मीकृते सुकृते सिद्धिमेति॥१२॥
सृण्येव सितया विश्वचर्षणिः11 पाशेनैव प्रतिबध्नात्यभीकान्।
इषुभिः पञ्चभिर्धनुषा च विद्धत्यादिशक्तिररुणा विश्वजन्या॥१३॥
शूद्रादीनां निर्विद्यत्वेन स्वच्छन्दाचारत्वात्,“तूष्णीं शूद्रमजनयत्। तस्माच्छूद्रो निर्विद्योऽभवत्” इति श्रुत्यनुरोधेन शूद्रो निर्विद्यः सन् स्वच्छन्दचारी भूत्वा वामाचारानुकूलद्रव्यसेवी भवति। स्वशरीरभोगायेदं मध्वादिसेवनमित्यपेक्षया देवताऽऽराधनधिया चरणस्य वरत्वात्। एवमनुष्ठाता शूद्रः स्वभावनानुरोधेन सिद्धिमेतीत्याह—परिसृतमिति। परिसृतं यथावत् संस्कृतं झषमाजं पलं, चशब्दान्मद्यादिर्गृह्यते, भक्तानि अन्नानि योनिरिति स्पष्टमवगम्यते। एवं
स्वभोज्यद्रव्ये स्वात्मोपभोगधियं त्यक्त्वा पूर्वं देवतायै निवेद्य ततः स्वात्मसात्करणादयमपि सुकृते लोके सिद्धिमेतीति। तथाऽपि शूद्रसामान्येनैवं कर्तव्यमिति न हि नियमोऽस्तीत्यर्थः। स्वस्ववर्णानुरोधेन सर्वैरपि चित्तशुद्ध्यर्थं देवतोपासना कार्येत्यत्र—“विप्राः क्षोणिभुजो विशस्तदितरे क्षीराज्यमध्वासवैः”इति, “चतुर्थपर्याये निवृत्तिरिष्टा” इति च स्मृतेः॥१२॥ एवमननुष्ठातुर्देवताप्रातिकूल्येन वन्धनमाह—सृण्येवेति। सितया सरस्वत्या विश्वजन्या विश्वजनन्या लक्ष्म्या च सह आदिशक्तिररुणा गौरी विश्वं तदुपलक्षिताविद्यापदतत्कार्यजातं स्वातिरिक्तप्रपञ्चं निर्विशेषब्रह्मज्ञानविज्ञानसम्यग्ज्ञानतत्त्वज्ञानरूपेण निष्प्रतियोगिकब्रह्ममात्रावशेषतया चर्षयत्युपसंहरत्यपह्नवं करोतीति विश्वचर्षणिः ब्रह्ममात्रविद्या भूत्वा, अनयैव सृण्या सृत्या काम्यवर्त्मना मुमुक्षुभिरनादरणीयेन य उपासते तान् इदं मे स्यात् इदं मे स्यात् इदं मा भूत् इत्यभितः परितः स्वातिरिक्तविषये कामयन्तीति अभीकान कामिनो जननमरणपरंपराहेतुस्वातिरिक्तास्तितापाशैः स्वाज्ञानवृत्तिभिर्गाढं निरुच्छ्वासं प्रतिबध्नाति सम्यग्बद्ध्वा संसारसागरमहावर्ते पातयति। यथा ते पुनः संसारभ्रमणाद्बहिर्न गच्छन्ति तथा पञ्चवाणेषुभिः धनुषा च विद्धति वेधनं करोति न कदाऽपि तान् प्रत्यङ्मुखान् करोतीत्यर्थः। तथा चेश्वरस्मृतिः—
तानहं द्विषतः क्रूरान् संसारेषु नराधमान्।
क्षिपाम्यजस्रमशुभानासुरीष्वेव योनिषु॥
आसुरीं योनिमापन्ना मूढा जन्मनि जन्मनि।
मामप्राप्यैव कौन्तेय ततो यान्त्यधमां गतिम्॥
इत्यादिः॥ १३॥
निष्कामोपासकस्य ब्रह्मत्वप्राप्तिः
भगः शक्तिर्भगवान् काम ईश उभा दाताराविह सौभगानाम्।
समप्रधानौ समसत्त्वौ समोजौ तयोः शक्तिरजरा विश्वयोनिः॥
परिसृता हविषा भावितेन प्रसंकोचे गलिते वैमनस्कः।
शर्वः सर्वस्य जगतो विधाता धर्ता हर्ता विश्वरूपत्वमेति॥१५॥
इयं महोपनिषत्त्रैपुर्या
यामक्षयं12
परमा13
गीर्भिरीट्टे।
एषर्ग्यजुः परमेतच्च सामायमथर्वेयमन्या च विद्या॥१६॥
ॐ ह्रीमों ह्रीमित्युपनिषत्॥१७॥
यः कोऽपि काम्यसृतिं विहाय निष्कामधिया श्रुतिस्मृत्यनुगृहीतशिष्टाचारानुरोधेन चिच्छक्तिं समप्रधानतयोपास्ते सोऽमनस्कत्वमेत्य कृतकृत्यो भवतीत्याह—भग इति। सकामनिष्कामभक्तपटलप्रवृत्तिनिवृत्तिमार्गप्रवर्तनशक्तिः चिच्छक्तिस्त्रिपुरा च भगः षड्गुणैश्वर्यसंपन्नः भगवान् कामः ईशः कामेश्वरश्च तावुभावपि चित्सामान्यात्मना समप्रधानौ समसत्त्वौ समोजौ दयाकलेबरौ भूत्वा इहअस्मिन्नेव जन्मनि येषां निष्कामानामाशयाः सुभगा ब्रह्मगोचरा भवन्ति सौभगाः तेषां तद्भावानुरोधेन सविशेषनिर्विशेषब्रह्मपद दातारौ भवतः। तयोः दयाल्वोः शक्तिशिवयोर्मध्ये शरीरत्रयविलक्षणेयं अजरा विश्वयोनिः विश्वमाता शक्तिः परमदयातनुर्भूत्वा निष्कामधिया स्वोपासकभावितेन ज्ञानविज्ञानसम्यग्ज्ञानहविषा परिसृता संतृप्ता सती स्वभक्तप्रसादकारिणी विक्षेपावरणे प्रसंकोचे गलिते कृत्वा शिवेन साकं स्वयं स्वोपासकात्मतयाऽवशिष्टा भवति। ततोऽयमुपासकः स्वाज्ञविकल्पितस्वातिरिक्तप्रपञ्चवैमनस्को भूत्वा सर्वस्य जगतो विधाता स्रष्टा धर्ता पालयिता हर्ता उपसंहर्ता शर्वश्च ब्रह्मविष्णुमहेश्वरो भूत्वा विश्वरूपत्वं विश्वारोपापवादाधिकरणब्रह्मतामपि एति इत्यर्थः॥१४-१५॥केयं दयातनुश्चिच्छक्तिरित्यत आह—इयमिति। ऋगादिचतुर्वेदः, एवं अन्या च चतुष्षष्टिकलाविद्या च यामक्षयसंविद्रूपां परमा गीर्भिः सृष्टयादिदशप्रणवैरष्टोत्तरसहस्रमहावाक्यैरपि ईट्टे
महाचिदेकैवेहास्ति महासत्तेति योच्यते।
निष्कलङ्का समा शुद्धा निरहंकाररूपिणी॥
सकृद्विभाता विमला नित्योदयवती समा।
साब्रह्मपरमात्मेति नामभिः परिगीयते॥
इति स्तौति या त्रैपुरीति विख्याता सेयं महोपनिषत् ब्रह्मविद्या निष्प्रतियोगिकब्रह्ममात्रपर्यवसन्ना विजयत इत्यर्थः॥१६॥ तत्तनुः कीदृशीत्यत्र ॐ ह्रीं इति ओंकारार्थतश्चित्त्वं ह्रींकारार्थतश्चिच्छक्तित्वं चेति चिच्छक्तिरित्युच्यते। आवृत्तिरादरार्था। इत्युपनिषच्छब्दस्त्रिपुरोपनिषत्समाप्त्यर्थः॥१७॥
श्रीवासुदेवेन्द्रशिष्योपनिषद्ब्रह्मयोगिना।
त्रिपुरोपनिषद्व्याख्या लिखिता स्वात्मगोचरा।
त्रिपुरोपनिषद्व्याख्याग्रन्थजातं शतं स्मृतम्॥
इति श्रीमदीशाद्यष्टोत्तरशतोपनिषच्छास्त्रविवरणे द्व्यशीतिसङ्ख्यापूरकं
त्रिपुरोपनिषद्विवरणं सम्पूर्णम्॥
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त्रिपुरातापिन्युपनिषत्
भद्रं कर्णेभिः—इति शान्तिः
प्रथमोपनिषत्
त्रिपुरास्वरूपम्
अथैतस्मिन्नन्तरे भगवान् प्राजापत्यं वैष्णवं विलयकारणं रूपमाश्रित्य त्रिपुराऽभिधा भगवतीत्येवमादिशक्त्या भूर्भुवः स्वस्त्रीणि स्वर्गभूपातालानि त्रिपुराणि हरमायाऽऽत्मकेन ह्रींकारेण हृल्लेखाख्या भवती त्रिकूटावसाने निलये विलये धाम्नि महसा घोरेण व्याप्नोति। सैवेयं भगवती त्रिपुरेति व्यापठ्यते॥१॥
त्रिपुरातापिनीविद्यावेद्यचिच्छक्तिविग्रहम्।
वस्तुतश्चिन्मात्ररूपं परं तत्त्वं भजाम्यहम्॥
इह खल्वथर्वणवेदप्रविभक्तेयं त्रिपुरातापिन्युपनिषद् उपासनाकाण्डप्रकटनव्यग्रा निर्विशेषब्रह्ममात्रपर्यवसन्ना विजयते। अस्याः स्वल्पग्रन्थतो विवरणमारभ्यते। यथोक्ताधिकारिण उपलभ्यादौ त्रिपुरास्वरूपं श्रुतिः प्रकटयति—अथेति। अथ प्राण्यदृष्टपरिपाकानन्तरं एतस्मिन् अविद्यापदान्तरे
परमदयालुः भगवान् सदाशिवः परमेश्वरः ब्रह्मविष्णुरुद्ररूपमाश्रित्य सत्यवैकुण्ठकैलासाख्यपुरत्रयाधिपत्यतः त्रिपुराभिधा भगवतीत्येवं स्वीयया आदिशक्त्या भूर्भुवःस्वस्त्रीणि स्वर्गभूपातालानि वा त्रिपुराणि शिवशक्तिरूपेण ह्रींकारेण या सर्वप्राणिहृदि प्रत्यग्रूपेण विद्योतमाना हृल्लेखाख्या भगवती स्वाविद्याऽण्डत्रिकूटावसाने भ्रूयुगोपरि, यद्वा वाग्भवादित्रिकूटावसाने, निलये गुणसाम्यपीठे चित्सामान्यरूपे स्वातिरिक्तप्रपञ्चविलये धाम्नि घोरेण महसा तेजसा व्याप्नोति। सैवेयं भगवती सर्वैः त्रिपुरेति गीयत इत्यर्थः॥१॥
त्रिपुरामहामनुः
तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि।
धियो यो नः प्रचोदयात् परो रजसेऽसावदोम्॥२॥
जातवेदसे सुनवाम सोममरातीयतो निदहाति वेदः।
स नः पर्षदति दुर्गाणि विश्वा नावेव सिन्धुं दुरितात्यग्निः॥३॥
त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्।
उर्वारुकमिव वन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्॥४॥
शताक्षरी परमा विद्या त्रयीमयी साष्टार्णा त्रिपुरा परमेश्वरी।
आद्यानि चत्वारि पदानि परब्रह्मविकासीनि।14 द्वितीयानि शाक्तानि।
तृतीयानि शैवानि॥५॥
सदाशिवशक्तेस्त्रित्रिपुरायाश्चिच्छक्तिरूपतया तद्गोचराष्टोत्तरशताक्षरीमन्त्रं प्रकाशयति—तदिति। इयमष्टोत्तरशताक्षरीमन्त्रानुष्ठानात् त्रिपुरा प्रसीदतीत्यर्थः॥२-४॥त्रयीमयी वेदत्रयस्वरूपिणी। तत्सवितुरिति आद्यानि
चत्वारि पदानि परब्रह्मविकासीनि। जातवेदस इति द्वितीयानि शाक्तानि। त्र्यम्बकमिति तृतीयानि शैवानि॥५॥
शिवशक्तियोगात् प्रपञ्चसृष्टिः
तत्र लोका वेदाः शास्त्राणि पुराणानि धर्माणि वै चिकि-
त्सितानि ज्योतींषि शिवशक्तियोगादित्येवं घटना व्यापठ्यते॥६॥
एवं चिच्छिवशक्तियोगादेव लोकादिर्जायत इत्याह—तत्रेति। भूरादिचतुर्दशलोकाः। ऋगादिचत्वारो वेदाः। भरतमन्त्रशब्दादिषट् शास्त्राणि। भागवतादीनि पुराणानि। मन्वादिप्रणीतानि धर्माणि सर्वाणि धर्मशास्त्राणि वै चिकित्सितानि भिषक्शास्त्राणि। ज्योतींषि ज्योतिरशास्त्राणि। एतानि सर्वाणि, यदुक्तमनुक्तं वै तत् सर्वं शिवशक्तियोगादेव जायत इत्यर्थः॥६॥
वाग्भवकूटस्य गायत्र्या समन्वयः
अथैतस्य परं गह्वरं व्याख्यास्यामः। महामनुसमुद्भवं तदिति ब्रह्म शाश्वतं परो भगवान् निर्लक्षणो निरञ्जनो निरुपाधिराधिरहितो देव उन्मीलते पश्यति विकासते चैतन्यभावं कामयत इति स एको देवःशिवरूपी दृश्यत्वेन विकासते यतिषु यज्ञेषु योगिषु कामयते कामं जायते। स एष निरञ्जनोऽकामत्वेनोज्जृम्भते अकचटतपयशान् सृजते। तस्मादीश्वरः कामोऽभिधीयते। तत्परिभाषया कामः ककारं व्याप्नोति। काम एवेदं तत्तदिति ककारो गृह्यते। तस्मात्तत्पदार्थ इति य एवं वेद॥७॥
सवितुर्वरेण्यमिति षूङ् प्राणिप्रसवे सविता प्राणिनः सूते प्रसूते शक्तिः सूते॥८॥
त्रिपुरा शक्तिराद्येयं त्रिपुरा परमेश्वरी।
महाकुण्डलिनी देवी जातवेदसमण्डलम्॥९॥
** योऽधीते सर्वं व्याप्यते। त्रिकोणशक्तिरेकारेण महाभागेन प्रसूते। तस्मादेकार एवा गृह्यते॥१०॥**
वरेण्यं श्रेष्ठं भजनीयमक्षरं नमस्कार्यम्।तस्माद्वरेण्यमेकाराक्षरं15 गृह्यत इति य एवं वेद॥११॥
भर्गो देवस्य धीमहीत्येवं व्याख्यास्यामः। धकारो धारणा। धियैव धार्यते भगवान् परमेश्वरः। भर्गो देवो मध्यवर्ति तुरीयमक्षरं साक्षात्तुरीयं सर्वं सर्वान्तरभूतं तुरीयाक्षरमीकारं पदानां मध्यवर्तीत्येवं व्याख्यातं भर्गोरूपं व्याचक्षते। तस्माद्भर्गो देवस्य धीत्येवमीकाराक्षरं16 गृह्यते॥१२॥
महीत्यस्य व्याख्यानं महत्त्वं जडत्वं काठिन्यं विद्यते यस्मिन्नक्षरे तन्महि। लकारः परं धाम। काठिन्याढ्यं ससागरं सपर्वतं ससप्तद्वीपं सकाननमुज्ज्वलद्रूपं मण्डलमेवोक्तं लकारेण। पृथ्वी देवी महीत्यनेन व्याचक्षते॥१३॥
धियो यो नः प्रचोदयात्। परमात्मा सदाशिव आदिभूतः परः17 स्थाणुभूतेन लकारेण ज्योतिर्लिङ्गमात्मानं धियो बुद्धयः परे वस्तुनि ध्यानेच्छारहिते निर्विकल्पके प्रचोदयात् प्रेरयेदित्युच्चाररहितं चेतसैव18 चिन्तयित्वा भावयेदिति॥१४॥
परो रजसेऽसावदोमिति तदवसाने परज्योतिरमलं हृदि दैवतं चैतन्यं चिल्लिङ्गं हृदयागारवासिनी हृल्लेखेत्यादिना स्पष्टं वाग्भवकूटं पञ्चाक्षरं पञ्चभूतजनकं पञ्चकलामयं व्यापठ्यत इति। य एवं वेद॥१५॥
आदौ त्रिपुरास्वरूपं तद्गोचरमहामनुं तद्वाच्यशिवशक्तियोगतः स्वातिरिक्तप्रपञ्चसृष्टिं चाभिधायाथ परब्रह्मार्थगायत्र्याः प्रातिस्विकेनाऽऽदिविद्याऽभिधानपञ्चदशीखण्डत्रयेण समन्वयार्थमयमारम्भ इत्याह—अथेति। अथ महामन्त्रप्रदर्शनानन्तरं तस्यैव महामनाः परं गह्वरं परमगूढार्थं श्रुतयो वयं विशेषेण आख्यास्यामः कथयाम इत्यर्थः। किं तद्गूढार्थप्रकटनमित्यत्र, महामनोस्तदित्याद्यक्षरस्याऽऽदिविद्याप्रथमखण्डाद्यक्षरस्य ककारस्य चार्थतः समन्वय उच्यते। तत् कथमित्यत्र—महामन्विति। तत्पदलक्ष्यार्थस्य निष्प्रतियोगिकसन्मात्रत्वेन शाश्वतत्वम्। यः स्वरूपतः शाश्वतपदं गतः स हि परो भगवान् लक्षणसापेक्षलक्ष्यताऽभावात् निर्लक्षणः, स्वाज्ञदृष्टिविकल्पितस्वातिरिक्तप्रसक्तावपि तत्रात्मात्मीयाभिमानाभावात् निरञ्जनो निरुपाधिराधिरहितोऽपि देवः मूलाविद्याबीजांशयोगत ईश्वरत्वमवलम्ब्य “स ईक्षत बहु स्यां प्रजायेयेति^(”)इति श्रुत्यनुरोधेन उन्मीलते इत्यादि। दृश्यत्वेन विकासते जगद्रूपेण भासते। ततः स्वान्तःस्थेषु यतिषु यज्ञेषु चानुप्रविश्येदानीं ज्ञानफलं कर्मफलं वा मे स्यादिति कामयते। एवंकामनया कामं कामफलं जायते। य एवमवस्थाऽऽपन्नोऽपि परमेश्वरः स्वेन रूपेण स एष निरञ्जनोऽकामत्वेनोज्जृम्भते। ततोऽयं अकचटतपयशान् अष्टवर्गान् सृजते। यस्मादेवं सृजति तस्मादीश्वरः कामोऽभिधीयते कार्यकारणयोरेकत्वात्। यस्मादेवं तस्मात् ककारः तत्पदार्थः। य एवं वेद स मुनिः ईश्वरो भवतीत्यर्थः॥७॥ सवितुर्वरेण्यमिति महामन्वंशस्यादिविद्याऽऽद्यखण्डद्वितीयवर्णात्मकैकारस्य च समन्वय उच्यते। तत् कथमित्यत्र—
सवितुर्वरेण्यमितीति।तत्र सवितृशब्दार्थस्तु पूङ् प्राणिप्रसवे सविता प्राणिनः सूते तदभिन्ना सावित्री प्रसूते॥८॥ सेयं सावित्री केत्यत्र—त्रिपुरा शक्तिरिति।सैव व्यष्टिरूपेण महाकुण्डलिनी देवी जातवेदसमण्डलं मूलाधारत्रिकोणं व्याप्यवतिष्ठते॥९॥ एवंरूपां विद्यां योऽधीते सः सर्वं व्याप्यते व्याप्नोति।त्रिकोणशक्तिः कुण्डलिनी एकारेण महाभागेन सर्वं प्रसूते सविता।यस्मादेवं तस्मादेकार एव गृह्यते॥१०॥ सवितुरेकारस्य समन्वयमुक्त्वा वरेण्यैकारयोः समन्वयमाह—वरेण्यमिति।यदेकाराक्षरं सर्वकारणतया ख्यातं तदेव वरेण्यं इत्यादि।य एवं वेद स विद्वान् स्वावरेभ्यो वरिष्टो भवतीत्यर्थः॥११॥ भर्गो देवस्य धीतिशब्दस्य ईकारस्य च समन्वयमाह—भर्ग इति।तत्र धीत्यत्र धकारो धारणा।तत् कथं ? धियैवेति।भर्गो देव स्वयं ज्योतिः स्वरूपेण दीप्यमानत्वात्।तन्मध्यवर्ति तुरीयमक्षरं अर्धमात्राऽऽत्मकम्।ईकारस्याप्यक्षरसामानाधिकरण्यमाह—ईकारमिति।यस्मादेवं धीकारयोः साम्यमुक्तं तस्मात्॥१२॥ महीति पदस्य लकारस्य च समन्वयमाह—महीति।महीत्यस्य व्याख्यानं, किं तदियत्र—महत्त्वमित्यादि।बीजं तु—लकार इति।धरणीमण्डलमेवोक्तम्॥१३॥ महीबीजलकारेण महीमण्डलमुक्तं, तद्गतनामरूपविलक्षणतया यो नः अस्माकं धियः ध्यानेच्छारहिते निर्विकल्पके परमात्मनि प्रचोदयात् तं ज्योतिर्लिङ्गं आत्मानं अनिर्वचनीयं ब्रह्माकारपरिणतचेतसा सोऽहमस्मीति भावयेदित्यर्थः॥१४॥ गायत्रीतुरीयपादस्य हल्लेखायाश्च समन्वयमाह—पर इति।रजसे रजसः रजउपलक्षितगुणत्रयात् यः परः सोऽसौ अहमोङ्कारार्थतुर्यतुर्योऽस्मि यन्मत्तोऽदो विप्रकृष्टं तदवसाने परंज्योतिरमलं हृदि दैवतं चैतन्यं चिल्लिङ्गंसर्वप्राणिहृदि प्रत्यगभेदेन विद्योतमानं तदभेदेन हृदयागारवासिनी चिच्छक्तिः हृल्लेखा ह्रींकाररूपिणीति प्रसिद्धां तत्सवितुरित्यादिना पादचतुष्टयेनाऽऽदिविद्याया यदाद्यं वाग्भवकूटं पञ्चा पञ्चभूतजनकं निवृत्तिप्रतिष्ठाविद्याशान्तिशान्त्यतीतकलाभेदेन पञ्चकलामयं स्पष्टं व्यापठ्यते वाग्भवकूटं गायत्रीसमन्वयतो विस्पष्टं व्याख्यातमित्यर्थः॥१५॥
कामकूटस्य गायत्र्या समन्वयः
अथ तु परं कामकालभूतंकामकूटमाहुः। तत् सवितुर्वरेण्यमित्यादिद्वात्रिंशदक्षरीं पठित्वा तदिति परमात्मा सदाशिवोऽक्षरं विमलं निरुपाधितादात्म्यप्रतिपादनेन हकाराक्षरं शिवरूपं अनक्षरमक्षरं19 व्यालिख्यत इति तत्परागव्यावृत्तिमादाय शक्तिं दर्शयति॥१६॥
तत् सवितुरिति पूर्वेणाध्वना सूर्याधश्चन्द्रिकां व्यालिख्य मूलादिब्रह्मरन्ध्रगं साक्षरमद्वितीयमाचक्षत इत्याह भगवन्तं देवं शिवशक्त्यात्मकमेवोदितम्॥१७॥
शिवोऽयं परमं देवं शक्तिरेषातु जीवजा।
सूर्याचन्द्रमसोर्योगाद्धंसस्तत्पदमुच्यते॥१८॥
तस्मादुज्जृम्भते कामः कामान् कामः परः शिवः।
कर्णोऽयं कामदेवोऽयं वरेण्यं भर्ग उच्यते॥१९॥
तत् सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवः क्षीरं सेवनीयमक्षरं20 समधुघ्नमक्षरं परमात्मजीवात्मनोर्योगात् तदिति स्पष्टमक्षरं तृतीयं ह इति तदेव सदाशिव एव निष्कल्मषो द्यो21 देवोऽन्त्यमक्षरं व्याक्रियते परमं पदम्॥२०॥
धीति धारणं विद्यते जडत्वधारणं महीति लकारः शिवाधस्तात्तु लकारार्थः स्पष्टमन्त्यमक्षरं परमं चैतन्यं धियो यो नः प्रचोदयात्॥२१॥
परो रजसेऽसावदोमित्येवं कूटं कामकलाऽऽलयं षडध्वपरिवर्तको वैष्णवं परमं धामैति भगवांश्चैतस्माद्य एवं वेद॥२२॥
वाग्भवकूटं गायत्रीसमन्वयतो व्याख्याय ततः कामकूटमपि पूर्ववद्गायत्रीसमन्वयपूर्वकं योजनीयमित्याह—अथेति। अथ तु परं कामकलाभूतं कामकलापरिणतं संप्रदायविदः कामकूटमाहुः। द्वितीयखण्डात्मककामकूटप्रविभक्तवर्णषट्कस्य गायत्र्या समन्वयप्रकारमाह—तदिति। पठित्वा तत्र यदाद्यं तदिति तत्पदार्थः परमात्मा सदाशिवः यत्स्वरूपं कालत्रयेऽपि न क्षरति तत् अक्षरं विमलं निरुपाधि कामकूटाद्यवर्णहकारस्य निरुपाधिकाक्षरतादात्म्यप्रतिपादनेन हकाराक्षरं शिवरूपं, न हि तच्छिवरूपमक्षरं भवति ताल्वोष्टादिव्यापारानर्हत्वात्, किंतु अनक्षरं तत्समन्वयाभिप्रायेण अक्षरं अक्षरतया व्यालिख्यते व्याख्यायत इति तत्परागव्यावृत्तिमादाय शक्तिं दर्शयति पराग्व्यावृत्तिसिद्धं शिवरूपं यदेतद्विपरीतं हकाराद्यक्षरं तद्गतपराग्भावादव्यावृत्तिं पराग्भावमेवादाय हकारादिशक्तिं दर्शयति॥१६॥ तत् कथमित्यत्र—तदिति। अध्वना वर्त्मना। सूर्यबीजं हकारःपुरस्तात् तत्पदेन समन्वितस्तदधस्तत्पश्चाच्चन्द्रिका चन्द्रबीजं सकारः सवितृशब्देन समन्वयितव्यः। सवितृचैतन्यं कीदृशं क्वासनमर्हतीत्यत्र मूलादिब्रह्मरन्ध्रगं मूलाधारमारभ्य ब्रह्मरन्ध्रपर्यन्तं व्याप्य स्थितं साक्षरमद्वितीयं सकाराक्षरमपि तेनाद्वितीयमाचक्षते तद्विदःइत्याह श्रुतिः। श्रुतिः किमित्याहेत्यत्र यस्तत्त्वेन सवितृत्वेन च ध्यातस्तं भगवन्तं देवं शिवशक्त्यात्मकमेवोदितं इत्याहेत्यर्थः॥१७॥कथं शिवशक्त्यात्मकतेत्यत्र—शिवोऽयमिति। यं देवं सवितारं ब्रह्मविदः परमं परमात्मानमाहुः सोऽयं शिवो भवति।
अपरेयमितस्त्वन्यां प्रकृतिं विद्धि मे पराम्।
जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत्॥
इति स्मृत्यनुरोधेन या तु जीवतया जाता सैषा मूलशक्तिरित्यर्थः। हकारार्थः सूर्यः तत्पदार्थः शिवः सकारार्थचन्द्रमास्त्वंपदार्थजीवभूता प्रकृतिस्तद्गतहेयांशत्यागपूर्वकं तयोर्लक्ष्यभूतसूर्याचन्द्रमसोर्योगात् हंसः प्रत्यगभिन्नपरमात्मा तत्त्वेन पद्यत इति तत्पदं निर्विशेषं ब्रह्म उच्यते॥१८॥ ककारः कस्मादाविर्भूत इत्यत्र—तस्मादिति। यः परः शिवो विविधान् कामान् सृजति तस्मात् परमशिवात् कामः ककारः उज्जृम्भते। यत्स्वरूपं वरेण्यं भर्गः निरतिशय-
ज्योतिःस्वरूपं सोऽयं कार्णः ककारः कामदेवः परमेश्वरो भवति॥१९॥ तत् सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवः चिद्धातुः तत्स्वरूपस्य क्षीणाविद्याऽऽधारत्वात् क्षीरं मुमुक्षुकोटिभिः स्वात्मधिया सेवनीयमक्षरं ईश्वरचैतन्यं समधुघ्नमक्षरं मधु स्वार्जितकर्मफलेन सह स्वात्मानमपि हन्ति भक्षयतीति समधुघ्नमक्षरं जीवचैतन्यं चैतन्यद्वयगतहेयांशापायसिद्धलक्ष्ययोः परमात्मजीवात्मनोर्योगात् यदेवमैक्यसिद्धं तदिति स्पष्टमक्षरं परमाक्षरं तृतीयं,
क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते।
उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः परमात्मेत्युदाहृतः॥
इति स्मृतेः। यदक्षरं तुरीयं ह इति विख्यातं तदेव सदाशिव एव तद्गतविकारापाये निष्कल्मषो द्योतनात्मको देवः तत्स्वरूपमेव अन्त्यमक्षरं परमाक्षरमिति व्याक्रियते। किमिति? परमं पदमिति॥२०॥ धीमहीति यत् धारणं विद्यते महीगतजडत्वधारणं शिवाधस्तात् हकाराधस्तात् विद्यमानलकारार्थः स्पष्टः लकारवाच्यमहीगतजडत्वविकारापाये लकारो ब्रह्मेति स्पष्टोऽर्थः। यन्निर्विशेषं ब्रह्म तदेव अन्त्यमक्षरम्॥२१॥ कामकलाऽऽलयं कामकूटस्य वाग्भवकूटाख्यकामकलाऽऽधारत्वात्। वर्णाध्वेत्यादितत्त्वाध्वान्तभेदेन षडध्वपरिवर्तको मन्त्री वैष्णवं परमं धामैतीति। य एवं वेद स वैष्णवं धामैति, तस्मादतिरिक्तं न किंचिदस्तीति भगवानाहेत्यर्थः॥२२॥
शक्तिकूटस्य गायत्र्या समन्वयः
अथैतस्मादपरं तृतीयं शक्तिकूटं प्रतिपद्यते22
द्वात्रिंशदक्षर्या गायत्र्या॥२३॥
तत् सवितुर्वरेण्यं तस्मादात्मन आकाश आकाशाद्वायुः स्फुरते तदधीनं वरेण्यं समुदीयमानं सवितुर्वा योग्यो जीवात्मपरमात्मसमुद्भवस्तं प्रकाशशक्तिरूपं जीवाक्षरं स्पष्टमापद्यते॥२४॥
भर्गो देवस्य धीत्यनेनाधाररूपशिवात्माक्षरं गण्यते महीत्यादिना शेषं काम्यं रमणीयं दृश्यं काम्यं रमणीयं शक्तिकूटं स्पष्टीकृतमिति॥२५॥
वाग्भवकूटं कामकूटं चैवं प्रकाशयित्वा महामनुशक्तिकूटयोरपि समन्वयमाह—अथेति। प्रतिपद्यते कयेत्यत्र—द्वात्रिंशदक्षर्या गायत्र्या शक्तिकूटमपि समन्वयमर्हतीत्यर्थः॥२३॥ तत् सवितुर्वरेण्यमिति सकाराक्षरः समन्वितः॥२४॥ भर्गो देवस्य धीत्यनेन ककारोऽपि समन्वितो भवति। महीत्यादिना लकारः समन्वित इति ज्ञेयः। शेषं धियो यो नः प्रचोदयात् परो रजसेऽसावदोमिति काम्यं रमणीयं दृश्यं काम्यं रमणीयं हृल्लेखाऽपि समन्विता स्यात्। एवं शक्तिकूटमपि स्पष्टीकृतमित्यर्थः॥२५॥
कामाकामधियां विशिष्टविद्याफलम्
एवं पञ्चदशाक्षरं त्रैपुरं योऽधीते स सर्वान् कामानवाप्नोति स सर्वान् भोगानवाप्नोति स सर्वान् लोकान् जयति स सर्वा वाचो विजृम्भयति स रुद्रत्वं प्राप्नोति स वैष्णवं धाम भित्त्वा परं ब्रह्म प्राप्नोति य एवं वेद॥२६॥
कामाकामधियां विशिष्टविद्याफलमाह—एवमिति। वैष्णवं धाम मायाशबलं भित्त्वा अतिक्रम्य॥२६॥
शक्तिशिवादिद्वादशविद्योद्धारः
एवमाद्यां23 विद्यामभिधायैतस्याः शक्तिकूटं शक्तिशिवाद्या24। लोपामुद्रेयं द्वितीये धामनि॥२७॥
पूर्वेणैव मनुना बिन्दुहीना शक्तिभूतहृल्लेखा क्रोधमुनिनाऽधिष्ठिता तृतीये धामनि॥२८॥
पूर्वस्या एव विद्याया यद्वाग्भवकूटं तेनैव मानवीं चान्द्रीं कौबेरीं विद्यामाचक्षते॥२९॥
मदनाधः शिवं वाग्भवम्, तदूर्ध्वं कामकलामयम्, शक्त्यूर्ध्वं शाक्तमिति25 मानवी विद्या चतुर्थे धामनि॥३०॥
शिवशक्त्याख्यं26 वाग्भवं तदेवाधः शिवशक्त्याख्यमन्यत्तृतीयं चेयं चान्द्री विद्या पञ्चमे धामनि ध्येयेयम्॥३१॥
चान्द्री कामाधः शिवाद्यकामा27 सैव कौबेरी षष्ठे धामनि व्याचक्षत इति य एवं वेद॥३२॥
हित्वेकारं तुरीयस्वरं सर्वादौ सूर्याचन्द्रमस्केन कामेश्वर्यैवागस्त्यसंज्ञा सप्तमे धामनि॥३३॥
तृतीयमेतस्या एव पूर्वोक्तायाः कामाद्यं द्विधाऽधः कं मदनकलाऽऽद्यं शक्तिबीजं वाग्भवाद्यं तयोरर्धावशिरस्कं कृत्वा नन्दिविद्येयमष्टमे धामनि॥३४॥
वाग्भवमागस्त्यं वागर्थकलामयं कामकलाऽभिधं सकलमायाशक्तिः प्रभाकरी विद्येयं नवमे धामनि॥३५॥
पुनरागस्त्यं वाग्भवं शक्तिमन्मथशिवशक्तिमन्मथोर्वीमायाकामकलालयं चन्द्रसूर्यानङ्गधूर्जटिमहिमायं तृतीयं षण्मुखीयं विद्या दशमे धामनि॥३६॥
विद्याप्रकाशितया भूय एवागस्त्यविद्यां पठित्वा भूय एवेमामन्त्यमायां परमशिवविद्येयमेकादशे धामनि॥३७॥
भूय एवागस्त्यं पठित्वा एतस्या एव वाग्भवं यद्धनजं कामकलाऽऽलयं च तत्सहजं कृत्वा लोपामुद्रायाः शक्तिकूटराजं पठित्वा वैष्णवी विद्या द्वादशे धामनि व्याचक्षत इति य एवं वेद॥३८॥
एवं आद्यां विद्यां श्रीमत्पञ्चदशाक्षरीं खण्डशो ब्रह्मगायत्र्या समन्वितां अभिधायैतस्याः मध्ये तृतीयं सकलह्रीमिति शक्तिकूटं स क इति शक्तिशिवाऽऽद्याप्रथमे धामनि व्यष्टिसमष्टिजागरणे संभाव्या। हसकहलह्रीमिति लोपामुद्रेयं विद्या द्वितीये धामनि व्यष्टिसमष्टिस्वप्ने संभाव्या॥२७॥यो लोपामुद्रामनुर्द्वितीये धामनि विन्यस्तः हसकहलह्री इति क्रोधमुनिना अधिष्ठिता दुर्वाससा आराधिता सेयं तृतीये धामनि समष्टिस्वापे संभाव्येत्यर्थः॥२८॥एवं पूर्वस्या एव विद्याया लोपामुद्राविद्यायाः यद्वाग्भवकूटं योजितं तदा तेनैव योजनेन मनुचन्द्रकुबेरेरैवमाराधितेति तामेव विद्यां संप्रदायविदः मानवीं चान्द्रीं कौबेरीं विद्यामाचक्षते॥२९॥तत्र मानवी विद्या केत्यत्र—मदनेति। मदनशब्देन कामकूटं क्लीं इति वोच्यते तदधस्तात् पश्चात् हादिविद्यायाः पर शिवं वाग्भवं कामकलामयं कादिविद्यारूपं, तदूर्ध्वं शाक्तं शक्तिकूटं सादिविद्यारूपं, पूर्वं हादिविद्या ततः कादिविद्या ततः सादिविद्येति प्रतिपादनात् शक्त्यूर्ध्वमित्युक्तम्। या मनुनैवमुपासिता सेयं मानवी चतुर्थे धामनि, व्यष्टिजागरणारेपाधारविश्वे तदभेदेन संभाव्येत्यर्थः॥३०॥केयं चान्द्री विद्येत्यत्र—शिवेति। आदौ शिवशक्त्त्याख्यं हादि ततः वाग्भवं कादि तदेवाधः शिवशक्त्याख्यं पुनर्हादि अन्यत् तृतीयं सादि च येयं खण्डचतुष्टयविशिष्टविद्या चन्द्रेणाराधिता सेयं चान्द्री पञ्चमे धामनि व्यष्टिस्वप्नप्रपञ्चारोपाधारतैजसे संभाव्येत्यर्थः॥३१॥केयं कौबेरी विद्येत्यत्र—चान्द्रीति। या चान्द्री विद्या खण्डचतुष्टयात्मिकाभिहिता तदधः पश्चात् शिवाद्यकामा हादिविद्या योजिता यदि तदा पञ्चखण्डात्मिकेयं विद्या कुबेरेणाराधिता सेयं कौबेरीत्युच्यते। सेयं षष्ठे धामनि व्यष्टिस्वापप्रपञ्चारोपाधारप्राज्ञे सदा ध्येयेति व्याचक्षत इति। य एवं वेद सोऽयं संपदा कुबेरतुल्यो भवतीत्यर्थः॥३२॥अगस्त्यविद्या कीदृशी-
त्यत्र—हित्वेकारमिति। कादिविद्याऽलंकारतुरीयस्वरमीकारं हित्वा सर्वादौ सर्वखण्डादौ हसेति सूर्याचन्द्रमस्केन संयोजितं यदि खण्डत्रयं तदा कामेश्वर्यै तुष्टिकरं भवति। यद्वा—एवमुपासकस्य स्वेप्सितकामश्च निरवधिकैश्वर्यं च कामैश्वर्यै भवत इत्यगस्त्येन योपासिता सेयं अगस्त्यसंज्ञा विद्योच्यते, सा सप्तमे धामनि समष्टिजाग्रत्प्रपञ्चारोपाधारे विराजि तदभेदेन ध्येयेत्यर्थः॥३३॥केयं नन्दिविद्येत्यत्र—तृतीयमिति। या पूर्वोक्तागस्त्यविद्या एतस्या अधः पूर्वं द्विधा कामाद्यं मदनकलाऽऽद्यं हहेति सेति शक्तिबीजं केति वाग्भवाद्यं तयोः सकारककारयोः अर्धावशिरस्कं प्लुतोच्चारणभवार्धमात्रामस्तकं कृत्वा येयं नन्दिनोपासिता सेयं नन्दिविद्या अष्टमे धामनि समष्टिस्वप्नप्रपञ्चारोपाधारसूत्रात्मनि तदभेदेन चिन्त्येयमित्यर्थः॥३४॥प्रभाकरी विद्या कीदृशीत्यत्र—वाग्भवमिति। आदौ वाग्भवकूटं कादि तत आगस्त्यं अगस्त्यविद्याकार्त्स्न्यंवागर्थकलामयं शिवशक्त्यात्मकं कामकलाऽभिधं हादि सकलमायाशक्तिः शक्तिकूटं चैकीकृत्य या प्रभाकरेण सूर्येणैवमुपासिता सेयं प्रभाकरी विद्या नवमे धामनि समष्टिस्वापप्रपञ्चारोपाधारबीजेश्वरात्मनि तदभेदेन ध्येयेत्यर्थः॥३५॥षण्मुखी विद्या कीदृशीत्यत्र—पुनरागस्त्यमिति। वाग्भवं कादि, ह्रीमिति शक्तिबीजं, क्लीमिति मन्मथबीजं, हंस इति शिवशक्तिबीजे, पुनर्मन्मथबीजं क्लीमिति, लमित्युर्वीबीजं, ह्रीमिति मायाबीजं, कामकलाऽऽलयं हादिषडक्षरं, सोऽहमिति चन्द्रसूर्यबीजे, क्लीमित्यनङ्गबीजं, हमिति धूर्जटिबीजं, स इति महिमाबीजं, पुनः तृतीयं हंसः सोऽहं हंसः इति, एवं षण्मुखेनोपासिता षण्मुखीयं विद्या दशमे धामनि व्यष्टिसमष्ट्यात्मकजाग्रत्प्रपञ्चापवादाधिकरण ओतृचैतन्ये तदभेदेन भावयेदित्यर्थः॥३६॥परमशिवविद्या कीदृशीत्यत्र—विद्येति। पूर्वोक्तषण्मुखीविद्याप्रकाशितया षण्मुखीविद्यात्वेन या प्रकाशिता तया साकं भूय एव आगस्त्यविद्यां पठित्वा भूय एवेमामन्त्यमायां अन्त्यमां तुर्यरूपिणीमधिष्ठाय यः शिवः सर्वसाक्षी भवति सेयं परमशिवविद्या, षण्मुख्यगस्त्यविद्याद्वयं मिलितं चेत् परमशिवविद्या भवति, सेयमेकादशे धामनि समष्टिस्वप्नप्रपञ्चापवादाधिकरणेऽनुज्ञातृचैतन्ये तदभेदेन भावनीये–
यमित्यर्थः॥३७॥केयं वैष्णवी विद्येत्यत्र—भूय इति। अगस्त्यविद्यया साकं वाग्भवं कादि यद्धनजं धनदं कौबेरं कामकलाऽऽलयं च हादिषट्कं तत्सहजं कृत्वा एकीकृत्य पूर्वोक्तलोपामुद्रायाः हादिविद्यायाः परिणतं सादिशक्तिकूटराजं पठित्वा एतत्सर्वं चित्सामान्यमहाविद्याऽऽत्मकं सम्यग्ज्ञानरूप विष्णुनाऽधिष्ठितमिति वैष्णवी विद्येत्युच्यते। सेयं द्वादशे धामनि व्यष्टिसमष्ट्यात्मकजाग्रत्स्वप्नसुषुप्तिप्रपञ्चापवादाधिकरणेऽनुज्ञैकरसचैतन्ये तदभेदेन भावनीयेति। य एवं वेद स विष्णुरेव भवतीत्यर्थः॥३८॥
अथ द्वादशविद्यामुद्धरति—एवमित्यादिना। आदिविद्या तु क ए ई ल ह्रीं, हसकहलह्रीं, सकलह्रीम्। अत्राद्यखण्ड वाग्भवकूटं, द्वितीयं कामकूटं, तृतीयं शक्तिकूटम्। व्यष्टिसमष्टिजाग्रदादिद्वादशधामसु भावनीयशक्तिशिवादिद्वादशविद्योच्यते। सक इति शक्तिशिवविद्या(१), हसकहलह्रीमिति लोपामुद्राविद्या (२), हसकहलह्रीइति क्रोधमुनिविद्या (३), हसकहलह्रीक ए ई ल ह्रीं सकलह्रीं इति मानवी विद्या (४). हसकहलह्रीं क ए ई ल ह्रीं हसकहलह्रीं सकलह्रीं इति चान्द्री विद्या (५), हसकहलह्रीं क ए ई ल ह्रीं हसकहलह्रीं सकलह्रीं हसकहलह्रीं इति कौबेरी विद्या (६), हसकएलह्रीं हसहसकहलह्रीं हससकलह्रीं इत्यगस्त्यविद्या (७), हहसकहसकएलह्रीं हसहसकहलह्रीं हससकलह्रीं इति नन्दिविद्या (८), क ए ई ल ह्रीं हसकएलह्रीं हसहस कहलह्रीं हससकलह्रीं हसकहलह्रीं सकलह्रीं इति प्रभाकरी विद्या (९), ह्रीं28 क्लीं हं सःक्लीं लं ह्रीं हसकहलह्रीं सोहं क्लीं हंसः ह्रीं हंसः सोहं हंसः इति षण्मुखी विद्या (१०) ह्रीं क्लीं हंसः क्लीं लं ह्रीं हसकहलह्रींं सोहं क्लीं हंसः ह्रीं हंसः सोहं हंसः हसकएलह्रीं हसहसकहलह्रीं हससकलह्रीं इति परमशिवविद्या (११), हसकएलह्रीं हसहसकहलह्रीं हससकलह्रीं क ए ई ल ह्रीं हसकहलह्रीं क ए ई ल ह्रीं हसकहलह्रीं सकलह्रीं हसकहलह्रीं हसकहलह्रीं सकलह्रीं29 इति वैष्णवी विद्या (१२)॥
महात्रिपुरादेवीध्यानप्रकारः
तान् होवाच भगवान् सर्वे यूयं श्रुत्वा पूर्वां कामाख्यां तुरीयरूपां तुरीयातीतां सर्वोत्कटां सर्वमन्त्रासनगतां पीठोपपीठदेवतापरिवृतां सकलकलाव्यापिनीं देवतां सामोदां सपरागां सहृदयां सामृतां सकलां सेन्द्रियां सदोदितां परां30 विद्यां स्पष्टीकृत्वा हृदये निधाय विज्ञायानिलयं गमयित्वा त्रिकूटां त्रिपुरां परमां मायां श्रेष्ठां परां वैष्णवीं संनिधाय हृदयकमलकर्णिकायां परां भगवतींलक्ष्मीं मायां सदोदितां महावश्यकरीं मदनोन्मादनकारिणीं धनुर्बाणधारिणीं वाग्विजृम्भिणीं चन्द्रमण्डलमध्यवर्तिनीं चन्द्रकलां सप्तदशीं महानित्योपस्थितां पाशाङ्कुशमनोज्ञपाणिपल्लवां समुद्यदर्कनिभां त्रिणेत्रां विचिन्त्य देवीं महालक्ष्मीं सर्वलक्ष्मीमयीं सर्वलक्षणसंपन्नां हृदये चैतन्यरूपिणीं निरञ्जनां त्रिकूटाख्यां स्मितमुखीं सुन्दरीं महामायां सर्वसुभगां महाकुण्डलिनीं त्रिपीठमध्यवर्तिनीमकथादिश्रीपीठे परां भैरवीं चित्कलां महात्रिपुरां देवीं ध्यायेन्महाध्यानयोगेनेयमेवं वेदेति महोपनिषत्॥३९॥
ये महाविद्यां श्रुतवन्तस्तान् प्रति भगवानुवाचेत्याह—तानिति। तान् होवाच भगवान् सदाशिवः। किमिति—हे देवाः सर्वे यूयं मयोक्तां वक्ष्यमाणां च विद्यां श्रुत्वा पूर्वां कामाख्यां कामेश्वरविद्यामर्धमात्राकलातीतात्मना तुरीयरूपां तुरीयातीतां सर्वोत्कटां असमाहितचित्तैर्दुराराध्यां सर्वमन्त्रासनगतां समस्तयन्त्रालयां पीठोपपीठदेवतापरिवृतां उड्याणादिचतुष्पीठमध्यवर्तिपरिवारदेवताबृन्दसेवितां प्राणादिनामान्तसकलकलाव्यापिनीं देवतां सामोदां स्वानन्दभरितां
सपरागां परचितैक्यं गच्छतीति सपरागां ब्रह्माभिन्नां स्वभक्तपालने सहृदयां सामृतां सकलां सेन्द्रियां निरावृतसम्यग्ज्ञानात्मना सदोदितां परां विद्यां अहं ब्रह्मास्मीति स्पष्टीकृत्वा हृदये निधाय ब्रह्मातिरिक्तं न किंचिदस्तीति विज्ञाय यद्यदतिरिक्तमस्तीति भ्रान्तिस्तदा तामपि अनिलयं निरालम्बं ब्रह्म गमयित्वा त्रिकूटां वाङ्मया [ग्भवा] दित्रिकूटार्थरूपिणीम्। स्वपदं भजतां महतां करणग्रामं स्वपदध्यानानुकूलतया वश्यं स्वाधीनं करोतीति महावश्यकरीम्। स्वभक्तपटलोन्मादनकरमदनोन्मादनकारिणीम्। सरस्वत्यात्मना वाग्विजृम्भिणीम्। सप्तदशीं सप्तदशप्रजापतिरूपां महानित्योपस्थितां महानित्यात्वेन स्वयमुपस्थिताम्। मूलोड्याणजालन्धरभेदेन त्रिपीठमध्यवर्तिनीं अकथादिश्रीपीठे निषण्णां परां स्वाज्ञानतत्कार्यभैरवीं ब्रह्मरूपेण ध्यात्वा कृतकृत्या भवतेत्यर्थः। यः कोऽप्येवमेनां ध्यायेत् स महाध्यानयोगेन इयं इमां एवं वेद यथावद्विदित्वा कृतकृत्यो भवेदित्यर्थः। इति महोपनिषच्छब्दःप्रथमोपनिषत्समाप्त्यर्थः॥३९॥
इति प्रथमोपनिषत्
____________
द्वितीयोपनिषत्
त्रिपुराविद्यामधिकृत्य प्रश्नः
अथातो जातवेदसे सुनवाम सोममित्यादि पठित्वा त्रैपुरी व्यक्तिर्लक्ष्यते॥१॥
जातवेदस इत्येकर्चसूक्तस्याद्यमध्यमावसानेषु तत्र स्थानेषु विलीनं बीजसागररूपं व्याचक्ष्वेत्यृषय ऊचुः ॥२॥
प्रथमोपनिषदि येयं त्रिपुरसुन्दरी प्रतिपादिता तदपरोक्षसाक्षात्कारायेयं द्वितीयोपनिषदारभ्यते—अथेति। अथ तत्साक्षात्कारार्हाधिकारिसंपत्त्यनन्तरं यतः
पूर्वोपनिषदर्थश्रवणे कृतेऽपि देवतासाक्षात्कारो न जायते अतः तदर्थमयमुपनिषदारम्भो युज्यते। यः कोऽपि वा परदेवतासाक्षात्कारार्थी “जातवेदसे सुनवाम सोमं”इत्यादि त्रिपुराविद्यामर्थानुसन्धानपुरस्सरं तद्भावभावितः सन् पठित्वा पठन् वर्तते तस्यैव त्रैपुरी व्यक्तिर्लक्ष्यते त्रिपुरासान्निध्यं भवति॥१॥ इति भगवन्मुखतः श्रुत्वा ऋषयस्तदियत्ताबुभुत्सया भगवन्तं पृच्छन्तीत्याह—जातवेदस इति॥२॥
त्रिपुराविद्या
** तान् होवाच भगवान्। जातवेदसे सुनवाम सोमं तदन्त्यमवाणीं विलोमेन पठित्वा प्रथमस्याद्यं तदेव दीर्घं द्वितीयस्याद्यं सुनवाम सोममित्यनेन कौलं वामं श्रेष्ठं सोमं महासौभाग्यमाचक्षते॥३॥**
तत्कृतप्रश्नमङ्गीकृत्य तान् होवाच भगवान्। आदौ जातवेदसे सुनवाम सोमं इत्युच्चार्य तदन्त्यमवाणीं तस्या आदिविद्यायाः सकलह्रीं इति अन्त्यमवाणीं ह्रींलकसेति विलोमेन पठित्वा आदिविद्यायाः प्रथमस्य वाग्भवकूटस्य आद्यं तदेव दीर्घं का इति द्वितीयस्य कामकूटस्य आद्यं हेति बीजद्वययोगतः काहेत्युक्तं भवति। सेयं कुण्डलिनी शक्तिः किमाह? कदा सुषुम्नावदनं भित्त्वा तदन्तः प्रविश्य ग्रन्थित्रयान्वितमूलाधारस्वाधिष्टानमणिपुरकानाहतविशुद्धाज्ञाचक्राणि क्रमाद्विभिद्य तदुपरि विद्योतमानसूर्येन्दुमण्डलद्वयैक्यजसोमं अमृतं दृग्प्राणमनोग्निभिः सह सुनवाम वयं सर्वे मिलित्वा पिबाम ततः सहस्रारचक्रं प्रविश्य तत्रत्यतुर्यैक्यं तुर्यतुर्यैक्यं वा भजाम इत्यनेन। कुः पृथिवी तदुपलक्षिताविद्यापदतत्कार्यजातं यत्र विलयमेत्य तन्मात्रमवशिष्यते तत् कुलं तदेव कौलं, स्वातिरिक्तप्रपञ्चापवादाधिष्ठानं यत्सर्वाधिष्ठानं तदेव स्वाज्ञदृष्टिविकल्पितस्वातिरिक्तग्रसने वामं समर्थं, यत् स्वावशेषतयाऽवस्थातुं वामं तदेव निष्प्रतियोगिकश्रेष्ठं स्वातिरिक्तसामान्यग्रसनात्, किं तत् क्रूरमित्यत्र सर्वप्राण्यात्मतया सर्वाह्लादनकरत्वात् सोमं
संशान्तस्वातिरिक्तभ्रमं निष्प्रतियोगिकब्रह्ममात्रं लोके ब्रह्मविद्वरिष्ठा अपि तन्मात्रावशेषलक्षणविकलेबरकैवल्यमेव महासौभाग्यमाचक्षते प्रवदन्तीत्यर्थः॥३॥
महाविद्येश्वरीविद्या
सर्वसंपत्तिभूतं प्रथमं निवृत्तिकारणं द्वितीयं स्थितिकारणं तृतीयं सर्गकारणमित्यनेन करशुद्धिं कृत्वा त्रिपुराविद्यां स्पष्टीकृत्वा जातवेदसे सुनवाम सोममित्यादि पठित्वा महाविद्येश्वरीविद्यामाचक्षते॥४॥
त्रिपुरेश्वरीं जातवेदस इति जाते आद्यक्षरे मातृकायाः शिरसि बैन्दवममृतरूपिणीं कुण्डलिनीं त्रिकोणरूपिणीं चेति वाक्यार्थः॥५॥
तथाविधसौभाग्यपदवीप्रापकोपायः क इत्यत आह—सर्वेति। यत्सर्वसंपत्तिप्रापकहेतुतया भवतीति सर्वसंपत्तिभूतं वाग्भवादिकूटत्रयं, तत्र प्रथमं वाग्भवकूटं स्वातिरिक्तप्रपञ्चनिवृत्तिकारणं तस्य स्वातिरिक्तोपसंहारकप्रलयकालरुद्रार्थत्वात्, द्वितीयं कामकूटं स्थितिकारणं स्वाज्ञविकल्पितप्रपञ्चजातस्य स्वज्ञानतः स्वाज्ञानभ्रमं मोचयित्वा स्वावशेषीकृत्य परिपालकविष्ण्वर्थत्वात्, तृतीयं शक्तिकूटं स्वातिरिक्तप्रपञ्चसृष्टिकारणं तस्य ब्रह्मार्थत्वात्, इत्यनेन त्रिमूर्तिधिया खण्डत्रयोपासनेन स्वातिरिक्तभ्रमं करोतीति करं अन्तःकरणं शुद्धिं कृत्वा त्रिपुराविद्यां स्पष्टीकृत्वा पुनः जातवेदसे इतीमामृचं पठित्वा नित्यानुसंधानतो या संविदुदेति तामेव सन्तो महाविद्येश्वरीविद्यामाचक्षते कथयन्तीत्यर्थः॥४॥मन्त्रार्थमाह—त्रिपुरेति। त्रिपुरेश्वरीविद्यामधिष्टाय जातवेदस इति जाते वेदाद्यक्षरे अकारादिमातृकायाः शिरसि प्रणवे “बिन्दुरीश्वरसंज्ञस्तु शत्रुघ्नः” इति श्रुत्यनुरोधेन बिन्दुरेव बैन्दवं ईश्वरतत्त्वं, अमृतं तद्भावापन्नां अमृतरूपिणीं
सर्वप्राणिनाडीकन्दाश्रयणतः कुण्डलिनीं मूलाधारत्रिकोणरूपिणीं चेति समष्टिरूपेणेयममृतरूपिणी व्यष्टिरूपेण कुण्डलिनीति वाक्यार्थः॥५॥
सर्वरक्षाकरीविद्या
एवं प्रथमस्याद्यं वाग्भवं द्वितीयं कामकलामयं31 जात इत्यनेन परमात्मनोज्जृम्भणम्॥६॥
जात इत्यादिना परमात्मा शिव उच्यते॥७॥
जातमात्रेण कामी कामयते काममित्यादिना पूर्णं व्याचक्षते॥८॥
तदेव सुनवाम गोत्रारूढं मध्यवर्तिनाऽमृतमध्येनार्णेन मन्त्रार्णान् स्पष्टीकृत्वा गोत्रेति नामगोत्रायामित्यादिना स्पष्टं कामकलालयं शेषं वाममित्यादिना पूर्वेणाध्वना विद्येयं सर्वरक्षाकरी व्याचक्षते॥९॥
एवं प्रथमस्य प्रधानभूतस्याऽऽदिविद्यातत्त्वस्य आद्यं वाग्भवकूटं कादि, द्वितीयं कामकलामयं हादि, तृतीयं शक्तिकूटं सादीति च, एवंरूपी जात इत्यनेन परमात्मोज्जृम्भणं एवंरूपेण परमात्मैव वर्तत इत्युक्तं भवति॥६॥ स्वाज्ञदृष्ट्या एवमुज्जृम्भितोऽपि स्वज्ञदृष्ट्या निर्विशेषं जात इत्यादिना परमात्मा शिव उच्यते स्वातिरिक्तविशेषाशिवग्रासत्वात्॥७॥पुनः स्वाज्ञदृष्ट्या कामी भूत्वा स्वस्येश्वरत्वं कामयते। एवंकामे कुतो मे संकल्पवृत्तिरिति तत्त्यागतस्तत्स्वरूपं ब्रह्मविदः पूर्णं व्याचक्षते कथयन्तीत्यर्थः॥८॥ततः किमित्यत आह—तदेवेति। ब्रह्मविदो यत्पूर्णमामनन्ति तत् पूर्णशिवचैतन्यं एव सुनवाम सुष्ठु वदामः। किमिति? गोत्रारूढमिति। गोत्राशब्देन वाग्भवादिकूटत्रयालङ्कारलकारत्रयमभिधीयते। लकारस्य पृथ्वीबीजत्वाल्लकारत्रयस्य गोत्रात्वमुक्तम्।
तद्गतनामरूपादिविकारमलक्ष्यीकृत्येदमस्ति भाति प्रियमिति सच्चिदानन्दरूपेण तदारूढमिति सुनवामेत्यर्थः। कूटत्रयमध्यवर्तिना लकारत्रयेण अर्णेन अमृतमध्येन लार्णार्थस्य स्ववाच्यपृथिवीगतमार्त्यनामरूपग्राससच्चिदानन्दरूपेणामृतत्वाल्लकारस्यामृतमध्यत्वम्। एवं लकारत्रयोपलक्षितमन्त्रार्णान् स्पष्टीकृत्वा ब्रह्मार्थत्वेन संभाव्य गोत्रेति नाम पृथिव्याः गोत्रायां पृथिव्यां नामरूपविकारास्पृष्टसच्चिदानन्दात्मना शिवतत्त्वमारूढमिति यत् पुरस्तादेवोक्तं तदित्यादिना स्पष्टं कामकलाऽऽलयं व्याख्यातं शेषं तु वाग्भवकूटं शक्तिकूटं च वाममित्यादिना पूर्वेणाध्वना स्पष्टीकृतमित्यर्थः। ईश्वरचैतन्यं स्वातिरिक्तकलनाग्रसने वामं समर्थमित्यनेन शिवादतिरिक्तं न किंचिदस्तीति यैवं व्याख्याता सेयं विद्या सर्वरक्षाकरीति व्याचक्षते॥९॥
त्रिपुरेशी–आत्मासनरूपिणी–शक्तिशिवरूपिणीविद्याः
एवमेतेन विद्यां त्रिपुरेशीं स्पष्टीकृत्वा जातवेदस इत्यादिना जातो देव एक ईश्वरः32 परमो ज्योतिर्मन्त्रतो वेति तुरीयं वरं दत्त्वा बिन्दुपूर्णज्योतिःस्थानं कृत्वा प्रथमस्याद्यं द्वितीयं च तृतीयं च सर्वरक्षाकरीसंबन्धं33 कृत्वा विद्यामात्मासनरूपिणीं स्पष्टीकृत्वा जातवेदसे सुनवाम सोममित्यादि पठित्वा रक्षाकरीं विद्यां स्मृत्वाऽऽद्यन्तयोर्धाम्नोः शक्तिशिवरूपिणीं विनियोज्य स इति शक्त्यात्मकं वर्णं सोममिति शैवात्मकं धाम जानीयात्। यो जानीते स सुभगो भवति ॥१०॥
एवमेतेन शिवादतिरिक्तं न किंचिदस्तीति विद्यां त्रिपुरेशीं स्पष्टीकृत्वा जातवेदस इत्यादिना निर्विशेषस्वरूपेण जातो देवः एक एवेश्वरः परमो
ज्योतिरवशिष्यते तथा कूटत्रयविशिष्टमन्त्रतो वेति कूटत्रयापेक्षया तदवसानविभातं तुरीयचैतन्यं वरं तस्य निर्विकल्पत्वात् कूटत्रये तुरीयस्वरूपं दत्त्वा तुरीयशिवादतिरिक्तं कूटत्रयं नास्तीति ध्यात्वा बिन्दुपूर्णज्योतिः स्थानं कृत्वा पूर्णाहंभावेश्वरभावमापाद्य प्रधानविद्याऽऽद्यं द्वितीयं च तृतीयं च कूटत्रयं पूर्वोक्तसर्वरक्षाकरीविद्यया संबन्धं कृत्वा आत्मासनरूपिणीं विद्यामपि पूर्ववत् स्पष्टीकृत्वा जातवेदसे सुनवाम सोमं इत्यादि पठित्वा पुनश्च रक्षाकरीविद्यां स्मृत्वा सर्वरक्षाकर्या आद्यन्तयोः धाम्नोः आद्यवसानसीम्नोः शक्तिशिवरूपिणीं विनियोज्य किं तच्छक्तिशिवरूपमित्यत्र जातवेदसे सुनवाम सोममित्यस्मिन् वाक्ये स इति शक्त्यात्मकं वर्णं सोममिति शैवात्मकं धाम जानीयात् । यो जानीते स सुभगो महान् भवति॥१०॥
त्रिपुरवासिनीविद्या
इत्येवमेतां चक्रासनगतां त्रिपुरवासिनीं विद्यां स्पष्टीकृत्वा जातवेदसे सुनवाम सोममिति पठित्वा त्रिपुरेश्वरीविद्यां सदोदितां शिवशक्त्यात्मिकामावेदितां जातवेदाः शिव इति सेति शक्त्यात्माक्षरमिति शिवादिशक्त्यन्तरालभूतां त्रिकूटादिचारिणीं सूर्याचन्द्रमस्कां मन्त्रासनगतां त्रिपुरां महालक्ष्मीं सदोदितां स्पष्टीकृत्वा जातवेदसे सुनवाम सोममित्यादि पठित्वा पूर्वां सदात्मासनरूपां विद्यां स्मृत्वा देव इत्यादिना विश्वाहसंततोदयाबैन्दवमुपरि विन्यस्य सिद्धासनस्थां त्रिपुरां मालिनीं विद्यां स्पष्टीकृत्वा जातवेदसे सुनवाम सोममित्यादि पठित्वा त्रिपुरां सुन्दरीं श्रित्वा कले अक्षरे विचिन्त्य मूर्तिभूतां मूर्तिरूपिणीं सर्वविद्येश्वरीं त्रिपुरां विद्यां
स्पष्टीकृत्वा जातवेदस इत्यादि पठित्वा त्रिपुरां लक्ष्मीं श्रित्वाऽग्निं निदहाति॥११॥
ततस्त्रिपुरवासिनीं विद्यां स्पष्टीकुर्यादित्याह—इत्येवमिति। त्रिपुरवासिनीं विद्यां चिच्छक्तिरूपेण स्पष्टीकृत्वा शिवशक्त्यात्मकत्वं कथमित्यत्र—जातवेदा इति। जातवेदा इति शिवश्च सेत्यादिशक्तिश्च तयोः अन्तरालभूतां मध्यस्थां त्रिकूटादिचारिणीं त्रिकूटादिमन्त्रग्रामसंचारिणीं हसेति सूर्याचन्द्रमस्कां मन्त्रासनगतां सर्वमन्त्रविन्याससर्वचक्रासनाम्। अरातीयतो निदहाति वेद इत्यादिना वैराजात्मना विश्वा विश्वरूपिणी हकारार्थसूर्यात्मना सन्ततोदया चिच्छक्तिः, तदुपरि बैन्दवं शैवतत्त्वं चिन्मात्रं विन्यस्य चिन्मात्रादतिरिक्तं न किंचिदस्तीति। कूटत्रयव्यापके शिवशक्त्यात्मके कले ककारलकारे विचिन्त्य ककारलकारमूर्तिभूताम्॥११॥
त्रिपुराम्बा विद्या
सैवेयमग्न्या
नने34 ज्वलतीति विचिन्त्य त्रिज्योतिषमीश्वरीं त्रिपुरामम्बां विद्यां स्पष्टीकुर्यात्॥१२॥
एवमेतेन स नः पर्षदति दुर्गाणि विश्वेत्यादिपरप्रकाशिनी प्रत्यग्भूता कार्या विद्येयमाह्वानकर्मणि सर्वतोधीरेति व्याचक्षते॥१३॥
एवमेतद्विद्याऽष्टकं महामायादेव्यङ्गभूतं व्याचक्षते॥१४॥
स्वारातिवर्गानग्निं शीतलज्ञानाग्निरूपेण या दहाति दहति सैवेयमग्न्यानने अग्न्यानना ज्वलतीति विचिन्त्य सूर्येन्द्वग्न्यात्मना त्रिज्योतिषम्॥१२॥परप्रकाशिनी सम्यग्ज्ञानरूपेण परप्रकाशकत्वात् स्वयं प्रत्यग्भूता कार्या विद्येयमाह्वानकर्मणि कारणीभूतविद्यात्मना ज्ञानरूपिणी कार्यभावमापन्ना विद्यात्मना
इयमाह्वानकर्मणि आकर्षणादिषट्कर्मोपकर्मसु विनियुज्यते। एवं सर्वाकारेणेयं सर्वकार्यकरणे सर्वतो धीरेति समर्थेति तत्स्वरूपज्ञाः व्याचक्षते॥१३॥ एवमेतत् त्रिपुराविद्याऽऽदित्रिपुराम्बाविद्याऽन्तं विद्याऽष्टकं महामायादेव्यङ्गभूतं जातवेदस इति मन्त्रनिमग्नं सम्यगुद्धृत्य चिच्छक्त्यात्मना स्पष्टीकृत्य परतत्त्वतया व्याचक्षते तद्विदो व्याख्यां कुर्वन्तीत्यर्थः॥१४॥
श्रीचक्रस्यानुलोमक्रमः
देवा ह वै भगवन्तमब्रुवन् महाचक्रनायकं नो ब्रूहीति सार्वकामिकं सर्वाराध्यं सर्वरूपं विश्वतोमुखं मोक्षद्वारं यद्योगिन उपविश्य परं ब्रह्म भित्त्वा निर्वाणमुपविशन्ति॥१५॥
तान् होवाच भगवान् श्रीचक्रं व्याख्यास्याम इति॥१६॥
त्रिकोणं त्र्यश्रं कृत्वा तदन्तर्मध्यवर्तिमानयष्टिरेखामाकृष्य विशालं नीत्वाऽग्रतो योनिं कृत्वा पूर्व35योन्यग्ररूपिणीं मानयष्टिं कृत्वा तां सर्वोर्ध्वां नीत्वा योनिं कृत्वाऽऽद्यं त्रिकोणं चक्रं भवति द्वितीयमन्तरालं भवति तृतीयमष्टयोन्यङ्कितं भवति॥१७॥
अथाष्टारचक्राद्यन्तविदिक्कोणाग्रतो रेखां नीत्वा साध्याद्याकर्षणबद्धरेखां नीत्वेत्येवमथोर्ध्वसंपुटयोन्यङ्कितं कृत्वा कक्षाभ्य ऊर्ध्वगरेखाचतुष्टयं कृत्वा यथाक्रमेण मानयष्टिद्वयेन दशयोन्यङ्कितं चक्रं भवति॥१८॥
अनेनैव प्रकारेण पुनर्दशारचक्रं भवति॥१९॥
मध्यत्रिकोणाग्रचतुष्टयाद्रेखाचतुष्टयाग्र36कोणेषु संयोज्य तद्दशारांशतो नीतां37 मानयष्टिरेखां योजयित्वा चतुर्दशारं चक्रं भवति॥२०॥
ततोऽष्टपत्रसंवृतं चक्रं भवति षोडशपत्रसंवृतं चक्रं भवति पार्थिवं चक्रं चतुर्द्वारं भवति॥२१॥
एवं सृष्टियोगेन चक्रं व्याख्यातम्॥२२॥
इन्द्रादयो देवाः सदाशिवमुखतः साङ्गोपाङ्गविशिष्टामादिविद्यां यथावच्छ्रुत्वा तत्पूजापीठसृष्ट्यादिचक्रराजेयत्ताबुभुत्सया भगवन्तमब्रुवन्नित्याह—देवा इति। सर्वकामप्रदत्वात् सार्वकामिकं सर्वाराध्यं सर्वरूपं सर्वरूपेण सर्वैरप्याराधितत्वाद्विराड्रूपत्वाच्च सर्वतोमुखं चित्तशुद्धिप्राप्यज्ञानद्वारा मोक्षहेतुत्वात् मोक्षद्वारं यच्चक्राराधने योगिनः उपविश्य तत्प्रसादलब्धज्ञानद्वारा प्रत्यक्परब्रह्मणोर्भेदग्रन्थि भित्त्वा प्रत्यग्ब्रह्मैक्यलक्षणं निर्वाणमुपविशन्ति तच्चक्रनायकं नो ब्रूहि॥१५॥ इति देवैः पृष्टः तान् होवाच भगवान् सदाशिवः श्रीचक्रं व्याख्यास्याम इति॥१६॥ कस्तत्प्रकार इत्यत्र—आदौ त्रिकोणं त्र्यश्रं कृत्वेत्यादि॥१७–२२॥
श्रीचक्रस्य प्रतिलोमक्रमः
नवात्मकं चक्रं प्रातिलोम्येन वा वच्मि—प्रथमं चक्रं त्रैलोक्यमोहनं भवति साणिमाद्यष्टकं भवति समात्रष्टकं भवति ससर्वसंक्षोभिण्यादिदशकं भवति सप्रकटं भवति त्रिपुरयाऽधिष्ठितं भवति ससर्वसंक्षोभिणीमुद्रया जुष्टं भवति॥२३॥
द्वितीयं सर्वाशापरिपूरकं चक्रं भवति सकामाद्याकर्षिणीषोडशकं भवति सगुप्तं भवति त्रिपुरेश्वर्याऽधिष्ठितं भवति सर्वविद्राविणीमुद्रया जुष्टं भवति॥२४॥
तृतीयं सर्वसंक्षोभणं चक्रं भवति सानङ्गकुसुमाद्यष्टकं भवति सगुप्ततरं भवति त्रिपुरसुन्दर्याऽधिष्ठितं भवति सर्वाकर्षिणीमुद्रया जुष्टं भवति॥२५॥
तुरीयं सर्वसौभाग्यदायकं चक्रं भवति ससर्वसंक्षोभिण्यादिद्विसप्तकं भवति ससंप्रदायं भवति त्रिपुरवासिन्याऽधिष्ठितं भवति ससर्ववशंकरीमुद्रया जुष्टं भवति॥२६॥
पञ्चमं38 तुरीयान्तं सर्वार्थसाधकं चक्रं भवति ससर्वसिद्धिप्रदादिदशकं भवति सकल39कौलं भवति त्रिपुरामहालक्ष्म्याऽधिष्ठितं भवति महोन्मादिनीमुद्रया जुष्टं भवति॥२७॥
षष्ठं सर्वरक्षाकरं चक्रं भवति ससर्वज्ञत्वादिदशकं भवति सनिगर्भं40 भवति त्रिपुरमालिन्याऽधिष्ठितं भवति महाङ्कुशमुद्रया जुष्टं भवति॥२८॥
सप्तमं सर्वरोगहरं चक्रं भवति सवशि41न्याद्यष्टकं भवति सरहस्यं भवति त्रिपुरसिद्धयाऽधिष्ठितं भवति खेचरीमुद्रया जुष्टं भवति॥२९॥
अष्टमं सर्वसिद्धिप्रदं चक्रं भवति सायुधचतुष्टयं भवति सपरापररहस्यं भवति त्रिपुराम्बयाऽधिष्ठितं भवति बीजमुद्रया जुष्टं भवति॥३०॥
नवमं चक्रनायकं सर्वानन्दमयं चक्रं भवति सकामेश्वर्यादित्रिकं भवति सातिरहस्यं भवति महात्रिपुरसुन्दर्याऽधिष्ठितं भवति योनिमुद्रया जुष्टं भवति॥३१॥
संक्रामन्ति वै सर्वाणि छन्दांसि चकाराणि तदेव चक्रं श्रीचक्रम्॥३२॥
बिन्दुस्थानमारभ्य भूपुरान्तं सृष्टिचक्रं प्रकटयित्वाऽथ नवात्मकमिति। तत्रादौ प्रथममिति। ब्राह्म्यादिसमात्रष्टकं भवति॥२३॥ द्वितीयावरणात्मकद्वितीयचक्रेयत्तामाह—द्वितीयमिति॥२४-२६॥ सकलकौलं सर्वाधिष्ठानं भवति॥२७॥ सनिगर्भं भवति अन्तरालरहितमित्यर्थः॥२८-२९॥ पाशाङ्कुशादिसायुधचतुष्टयं भवति॥३०-३१॥ एवं नवचक्रलक्षणमुक्तं, छन्दांस्येवात्राराणि भूत्वा वर्तन्त इत्याह—संक्रामन्तीति। यदेवं निष्पन्नं तदेव चक्रं श्रीचक्रम्॥३२॥
श्रीचक्रे महात्रिपुरसुन्दरीपूजा
तस्य नाभ्यामग्निमण्डले सूर्याचन्द्रमसौ तत्रोंकारपीठं पूजयित्वा तत्राक्षरं बिन्दुरूपं तदन्तर्गतव्योमरूपिणीं विद्यां परमां स्मृत्वा महात्रिपुरसुन्दरीमावाह्य
क्षीरेण स्नापिते देवि चन्दनेन विलेपिते।
बिल्वपत्रार्चिते देवि दुर्गेऽहं शरणं गतः॥
इत्येकयर्चा प्रार्थ्य मायालक्ष्मीमन्त्रेण पूजयेदिति भगवानब्रवीत्॥३३॥
बिन्दुरूपं ईश्वरस्वरूपं तदन्तर्गतव्योमरूपिणीं चित्सामान्यात्मिकां विद्याम्। अनेन मन्त्रेण देवीं ध्यात्वा पूजयेदित्याह — क्षीरेणेति। सदाशिवो भगवान्॥३३॥
पूजाफलम्
एतैर्मन्त्रैर्भगवतीं यजेत्। ततो देवी प्रीता भवति स्वात्मानं दर्शयति। तस्माद्य एतैर्मन्त्रैर्यजति स ब्रह्म पश्यति स सर्वं पश्यति सोऽमृतत्वं गच्छति। य एवं वेदेति महोपनिषत्॥३४॥
तत्तद्भावानुरोधेन सविशेषं निर्विशेषं वा स्वात्मानं दर्शयति। यस्मादेवं तस्मात्। स सर्वं पश्यति, देवताऽतिरिक्तं न किंचिदपि पश्यति। य एवं द्रष्टा सोऽमृतत्वं च गच्छति। देवतासान्निध्यार्थमियमुपनिषदारभ्यत इति यत् प्रतिज्ञातं तत् सम्यगुपसंहृतमित्यर्थः। इति महोपनिषच्छब्दो द्वितीयोपनिषत्समाप्त्यर्थः॥३४॥
इति द्वितीयोपनिषत्
_____________
तृतीयोपनिषत्
मुद्रासामान्यलक्षणम्
देवा ह वै मुद्राः सृजेयमिति भगवन्तमब्रुवन्। तान् होवाच भगवानवनि42कृतजानुमण्डलं विस्तीर्य पद्मासनं कृत्वा मुद्राः सृजेतेति॥१॥
बिन्दुत्रिकोणवसुकोणदशारयुग्मं
मन्वश्रनागदलसंयुतषोडशारम्।
वृत्तत्रयं च धरणीसदनत्रयं च
श्रीचक्रमेतदुदितं परदेवतायाः॥
इत्युक्तरीत्याऽनुलोमप्रतिलोमाभ्यां सृष्टिचक्रमुपसंहारचक्रं च यथा व्याख्यातमवगम्य देवा विशेषतो योन्यादिनवमुद्रालक्षणबुभुत्सया भगवन्तमब्रुवन्नित्याह—देवा इति। कृत्वा बद्धा॥१॥
योन्यादिनवमुद्रालक्षणम्
स सर्वानाकर्षयति यो योनिमुद्रामधीते स सर्वं वेत्ति स सर्वफलमश्नुते स सर्वान् भञ्जयति स विद्वेषिणं स्तम्भयति। मध्यमे अनामिकोपरि विन्यस्य कनिष्ठिकाङ्गुष्ठतोऽधीते मुक्तयोस्तर्जन्योर्द
ण्डवदधस्तादेवं विधा43 प्रथमा संपद्यते॥२॥
सैव मिलितमध्यमा द्वितीया॥३॥
तृतीयाऽङ्कुशाकृतिरिति॥४॥
प्रातिलोम्येन पाणी सङ्घर्षयित्वाऽङ्गुष्ठौ साग्रिमौ समाधाय तुरीया॥५॥
परस्परं कनीयसेदं मध्यमाबद्धे अनामिके दण्डिन्यौ तर्जन्यावालि44ङ्ग्यावष्टभ्य मध्यमानखमि45लिताङ्गुष्ठौ पञ्चमी॥६॥
सैवाग्रेऽङ्कुशाकृतिः षष्ठी॥७॥
दक्षिणशये वामबाहुं कृत्वाऽन्योन्यानामिके कनीयसीमध्यगते मध्यमे तर्जन्याक्रान्ते सरलास्वङ्गुष्टौ खेचरी सप्तमी॥८॥
सर्वोर्ध्वे सर्वसंहृति स्वमध्यमानामिकाऽन्तरे कनीयसे पार्श्वयोस्तर्जन्यावङ्कुशाढ्ये युक्ता साङगुष्ठयोगतोऽन्योन्यं सममञ्जलिं कृत्वाऽष्टमी॥९॥
परस्परमध्यमापृष्ठवर्तिन्यावनामिके तर्जन्याक्रान्ते समे मध्यमे आदायाङ्गुष्ठौ मध्यवर्तिनौ नवमी प्रतिपद्यत इति॥१०॥
तत्र वक्ष्यमाणयोनिमुद्रां स्तुवन् तल्लक्षणमाह—स इति। देवताप्रसादेन स सर्वं वेत्ति। स सर्वान् स्वामित्रान् भञ्जयति भग्नान् करोति। योनिमुद्रालक्षणमाह—मध्यम इति॥२॥द्वितीयं बीजमुद्रालक्षणमाह—सेति॥३॥तृतीयं खेचरीमुद्रालक्षणमाह—तृतीयाङ्कुशाकृतिरिति॥४॥तुरीयं महाङ्कुशमुद्रालक्षणमाह—प्रातिलोम्येनेति॥५॥पञ्चमं महोन्मादिनीमुद्रालक्षणमाह—परस्परमिति॥६॥ षष्टं सर्ववशंकरीमुद्रालक्षणमाह—सैवेति॥७॥सप्तमं सर्वाकर्षिणीमुद्रालक्षणमाह—दक्षिणेति॥८॥अष्टमं सर्वविद्राविणीमुद्रालक्षणमाह—सर्वोर्ध्व इति॥९॥नवमं सर्वसंक्षोभिणीमुद्रालक्षणमाह—परस्परेति। योन्यादिसर्वसंक्षोभिण्यन्तमुद्रानवकलक्षणं सम्यक् प्रपञ्चितमित्यर्थः॥१०॥
पञ्चबाणमुद्रालक्षणम्
सैवेयं कनीयसे समे अन्तरितेऽङ्गुष्ठौ समावन्तरितौ कृत्वा त्रिखण्डापद्यत इति। पञ्च बाणाः पञ्चाद्या मुद्राः स्पष्टाः॥११॥
पञ्चबाणमुद्रालक्षणमाह—सेति॥११॥
नवबीजोद्धारः
क्रोमङ्कुशा हसखप्रें46 खेचरी हस्त्रौं47 बीजाष्टमी वाग्भवाद्या नवमी दशमी च संपद्यत इति य एवं वेद॥१२॥
ततो नवबीजान्युद्धरति—क्रोमिति। क्रों इत्यङ्कुशबीजं हसेति शिवशक्तिबीजे खेति मारणबीजं प्रें इति मोहनबीजं हसखप्रें इति खेचरीबीजं हेति सूर्यबीजं स्त्रौमिति कामबीजं केति वाग्भवाद्यबीजं आहत्य बीजानि नव। आदिशब्दार्थकामकूटाद्यबीजं हेति दशमी च संपद्यते। य एवं वेद स मन्त्रसिद्धो भवतीत्यर्थः॥१२॥
कामकलाचक्रम्
अथातः कामकलाभूतं चक्रं व्याख्यास्यामो ह्रीं क्लीमैं ब्लूँ स्त्रौमेते48 पञ्च कामाः सर्वचक्रं व्याप्य वर्तन्ते। मध्यमं कामं सर्वावसाने संपुटीकृत्य ब्लूङ्कारेण संपुटं व्याप्तं कृत्वा द्विरैंद्वयेन49 मध्यवर्तिना साध्यं बद्ध्वा भूर्जपत्रे यजति। तच्चक्रं यो वेत्ति स सर्वं वेत्ति स सकलान्50 लोकानाकर्षयति स सर्वं स्तम्भयति। नीलीयुक्तं चक्रं शत्रून् मारयति गतिं स्तम्भयति। लाक्षायुक्तं कृत्वा सकललोकं वशीकरोति। नवलक्षजपं कृत्वा रुद्रत्वं प्राप्नोति। मातृकया वेष्टितं कृत्वा विजयी भवति। भगाङ्ककुण्डं कृत्वाऽग्निमाधाय हविषा योषितो वशीकरोति। पुरुषे हुत्वा वर्तुले वा हुत्वा
श्रियमतुलां प्राप्नोति। चतुरश्रे हुत्वा वृष्टिर्भवति। त्रिकोणे हुत्वा शत्रून् मारयति गतिं स्तम्भयति। पुष्पाणि हुत्वा विजयी भवति।महारसैर्हुत्वा परमानन्दनिर्भरो भवति। महारसाः षड्रसाः॥१३॥
निष्कामिनां स्वाप्त्युपायचक्रस्वरूपं सप्रपञ्चं प्रतिपाद्य तद्विपरीतानां कामिनां सर्वकामावाप्तिहेतुतया पञ्चकामभूषितं कामकलाभूतं चक्रं प्रकटयाम इत्याह—अथेति। तत्र ऐमिति मध्यमं कामं सर्वावसाने स्त्रौमित्यन्तिमकामे ऐं स्त्रौं ऐं इति संपुटीकृत्य पुनस्तत् ब्लूंकारेण संपुटं व्याप्तं कृत्वा संपुटं यथा ब्लूंकारान्तरितं भवेत् तथा तेनैव संवेष्ट्य द्विः ऐंद्वयेन मध्यवर्तिना द्विपार्श्वभूषणैंकारद्वयेन मध्यवर्तिना स्त्रौंकारेण सह वाञ्छितार्थसिद्धिं मे कुर्विति साध्यं बध्वा। पुरुषे पुरुषाकारकुण्डे हुत्वा वर्तुले वा कुण्डे हुत्वा। महारसाः षड्रसाः मधुराम्लादय इत्यर्थः॥१३॥
क्षेत्रेशपूजा
गणानां त्वा गणपतिं हवामहे कविं कवीनामुपमश्रवस्तमम्।
ज्येष्ठराजं ब्रह्मणां ब्रह्मणस्पत आ नः शृण्वन्नूतिभिः सीदसादनम्॥
इत्येवमाद्यमक्ष51रं तदन्त्यबिन्दुपूर्णमित्यनेनाङ्गं स्पृशति। गं गणेशाय नम इति गणेशं नमस्कुर्वीत। ॐ नमो भगवते भस्माङ्गरागायोग्रतेजसे हनहन दहदह पचपच मथमथ विध्वंसयविध्वंसय हलभञ्जन शूलमूले व्यञ्जनसिद्धिं कुरुकुरु समुद्रं पूर्वप्रतिष्ठितं शोषयशोषय स्तम्भयस्तम्भय परमन्त्रपरयन्त्र- परतन्त्रपरदूतपरकटकपरच्छेदनकर विदारयविदारय च्छिन्धिच्छिन्धि ह्रीं फट् स्वाहा। अनेन क्षेत्राध्यक्षं पूजयेदिति॥१४॥
अविघ्नेन स्वाभिलषितप्रयोगसिद्धये गणानां त्वेति मन्त्रेण गणेशं नमस्कृत्य क्षेत्रेशं पूजयेदित्याह—गणानामिति। आद्यक्षरं गेति तदन्त्यबिन्दुपूर्णं गमिति।ततः किमित्यत्र—ओमिति। इतिशब्दो मन्त्रसमाप्त्यर्थः॥१४॥
कुलकुमारीपूजा
कुलकुमारि विद्महे मन्त्रकोटि सुधीमहि।
तन्नः कौलिः प्रचोदयात्॥
इति कुमार्यर्चनं कृत्वा यो वै साधकोऽभिलिखति सोऽमृतत्वं गच्छति स यश आप्नोति स परमायुष्यमथ वा परं ब्रह्म भित्त्वा तिष्ठति य एवं वेदेति महोपनिषत्॥१५॥
ततः कुमारीगायत्र्या तामर्चयेदित्याह—कुलेति। अभिलिखति अभिध्यायति। यद्ययं निष्कामस्तदा सोऽमृतत्वं गच्छति ब्रह्मविदिति स यश आप्नोति परं ब्रह्म भित्त्वा ज्ञात्वा तद्भावमेत्य तिष्ठति। इति महोपनिषच्छब्दस्तृतीयोपनिषत्परिसमाप्त्यर्थः॥
इति तृतीयोपनिषत्
चतुर्थोपनिषत्
मृत्युंजयोपदेशः
** देवा ह वै भगवन्तमब्रुवन् देव गायत्रं हृदयं नो व्याख्यातं त्रैपुरं सर्वोत्तमम्॥१॥**
जातवेदससूक्तेनाख्यातं नस्त्रैपुराष्टकम्।
यदिष्ट्वा मुच्यते योगी जन्मसंसारबन्धनात्॥२॥
अथ मृत्युंजयं नो ब्रूहीत्येवं ब्रुवतां सर्वेषां देवानां श्रुत्वेदं वाक्यमथातस्त्रम्बकेनानुष्टुभेन मृत्युंजयं दर्शयति॥३॥
यन्नो वक्तव्यं तत् सर्वं भवतोक्तमवशिष्टमृत्युंजयं ब्रूहीति देवाः पृच्छन्तीत्याह—देवा इति। आदिविद्यासमन्वयतया प्रथमोपनिषदि हृदयं गूढार्थं नो व्याख्यातम्। किं तत् त्रैपुरम्॥१॥ किं च—जातवेदससूक्तेनेति। ततः यदिष्ट्वेति॥२–३॥
त्र्यम्बकादिशब्दार्थविवरणम्
कस्मात् त्र्यम्बकमिति। त्रयाणां पुराणामम्बकं स्वामिनं तस्मादुच्यते त्र्यम्बकमिति॥४॥
अथ कस्मादुच्यतेयजामह इति। यजामहे सेवा
महे वस्तु महे52त्यक्षरद्वयेन कूटत्वेनाक्षरैकेन मृत्युंजयमित्युच्यते तस्मादुच्यते यजामह इति॥५॥
अथ कस्मादुच्यते सुगन्धिमिति। सर्वतो यश आप्नोति तस्मादुच्यते सुगन्धिमिति॥६॥
अथ कस्मादुच्यते पुष्टिवर्धनमिति। यः सर्वान् लोकान् सृजति यः सर्वान् लोकांस्तारयति यः सर्वान् लोकान् व्याप्नोति तस्मादुच्यते पुष्टिवर्धनमिति॥७॥
अथ कस्मादुच्यते उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीयेति। संल53ग्नत्वादुर्वारुकमिव मृत्योः संसारबन्धनात् संलग्नत्वाद्बद्धत्वान्मोक्षी भवति मुक्तो भवति॥८॥
अथ कस्मादुच्यते मामृतादिति। अमृतत्वं प्राप्नोत्यक्षरं प्राप्नोति स्वयं रुद्रो भवति॥९॥
तत्र त्र्यम्बकशब्दार्थं पृच्छति—कस्मात् त्र्यम्बकमिति। तच्छब्दार्थमाह—त्रयाणामिति। व्यष्टिसमष्ट्यात्मकस्थूलसूक्ष्मकारणशरीराणां जीवेश्वरात्मना अम्बकम्॥४॥ यजामहे स्वात्मधिया सेवामहे स्तुमहेत्यक्षरद्वयेन त्र्यम्बेति तदुपरि कूटत्वेन विद्यमानाक्षरैकेन सबिन्दुकककारेण मृत्युञ्जयमित्युच्यते॥६–७॥ उर्वारुकमिति कश्चन शलाटुविशेषस्तदग्रमारभ्य मध्यान्तं चतुर्धा विदार्य तत्र सलवणबृहन्मरीचिचूर्णमापूर्य पुनः सर्वमेकीकृत्य सूत्रेणाबध्य कालान्तरे तद्बन्धमोक्षणतश्चतुर्धा भिन्नसन्धिबन्धविमोक्षो भवति तथेत्यारोपितबन्धमोक्षणान्मुक्तो भवतीत्यर्थः॥८–९॥
भगवतीदर्शनसाधनमन्त्रः
देवा ह वै भगवन्तमूचुः—सर्वंनो व्याख्यातम्। अथ कैर्मन्त्रैः स्तुता भगवती स्वात्मानं दर्शयति तान् सर्वान् शैवान् वैष्णवान् सौरान् गणेशान् नो ब्रूहीति॥१०॥
स होवाच भगवान्—
त्र्यम्बकेनानुष्टुभेन मृत्युंजयमुपासयेत्।
पूर्वेणाध्वना व्याप्तमेकाक्षरमिति स्मृतम्॥११॥
ॐ नमः शिवायेति याजुषमन्त्रोपासको रुद्रत्वं प्राप्नोति कल्याणं प्राप्नोति य एवं वेद॥१२॥
तद्विष्णोः परमं पदं सदा पश्यन्ति सूरयः।
दिवीव चक्षुराततम्॥१३॥
विष्णोः सर्वतोमुखस्य स्नेहो यथा पललपिण्डमोतप्रोतमनुव्याप्तं व्यतिरिक्तं व्याप्नुत इति व्याप्नुवतो विष्णोस्तत्परमं पदं परं
व्योमेति परमं पदं पश्यन्ति वीक्षन्ते सूरयो ब्रह्मादयो देवास इति सदा हृदय आदधते। तस्माद्विष्णोः स्वरूपं वसति तिष्ठति भूतेष्विति वासुदेव इति॥१४॥
ॐ नम इति त्रीण्यक्षराणि। भगवत इति चत्वारि। वासुदेवायेति पञ्चाक्षराणि। एतद्वै वासुदेवस्य द्वादशार्णमभ्येति। सोपप्लवं तरति स सर्वमायुरेवैति विन्दते प्राजापत्यं रायस्पोषं गौपत्यं च समश्नुते॥१५॥
प्रत्यगानन्दं ब्रह्मपुरुषं प्रणवस्वरूपमकार उकारो मकार इति। तानेकधा संभवति तदोमिति॥१६॥
हंसः शुचिषद्वसुरन्तरिक्षसद्धोता वेदिषदतिथिर्दुरोणसत्।
नृषद्वरसदृतसद्व्योमसदब्जा गोजा ऋतजा अद्विजा ऋतं
बृहत् ॥ इति॥१७॥
हंसः इत्येतन्मनोरक्षरद्वितीयेन प्रभापुञ्जेन सौरेण घृतमब्जा गोजा ऋतजा अद्रिजा ऋतं सत्याप्रभापुञ्जिन्युषासंध्याप्रज्ञाभिः शक्तिभिः पूर्वं सौरमधीयानः सर्वफलमश्नुते। स व्योम्नि परमे धामनि सौरे निवसते॥१८॥
गणानां त्वेति त्रैष्टुभेन पूर्वेणाध्वना मनुनैकार्णेन गणाधिपमभ्यर्च्य गणेशत्वं प्राप्नोति॥१९॥
अथ गायत्री सावित्री सरस्वत्यजपा मातृका प्रोक्ता तया सर्वमिदं व्याप्तमिति॥२०॥
ऐं वागीश्वर विद्महे क्लीं कामेश्वरि धीमहि। सौस्तन्नः शक्तिः प्रचोदयादिति गायत्री प्रातः सावित्री मध्यन्दिने सरस्वती सायमिति निरन्तरमजपा हंस इत्येव मातृका पञ्चाशद्वर्णविग्रहेणाकारादिक्षकारान्तेन व्याप्तानि भुवनानि शास्त्राणि च्छन्दांसीत्येवं भगवती सर्वं व्याप्नोतीत्येव तस्यै वै नमो नम इति॥२१॥
तान् भगवानब्रवीदेतैर्मन्त्रैर्नित्यं देवीं स्तौति स सर्वं पश्यति सोऽमृतत्वं च गच्छति य एवं वेदेत्युपनिषत्॥२२॥
पुनर्देवाः कैर्मन्त्रैः स्तुता सती स्वात्मानं दर्शयति तान्नों ब्रूहीति पृच्छन्तीत्याह—देवा इति। ऊचुः किमिति सर्वमिति। स्वात्मानं दर्शयति तस्याश्चिच्छक्तित्वेन सर्वात्मकत्वात्॥१०॥ देवैरेवं पृष्टः स होवाच भगवान् किमिति त्र्यम्बकेनेति। एकाक्षरमिति स्मृतं “ओमित्येकाक्षरं विद्धि” इति श्रुतेः॥११–१३॥ श्रुतिरेव स्ववाक्यं व्याचष्टे विष्णोरिति॥१४–२१॥ चिच्छक्त्यतिरिक्तं न किंचिदस्तीति दर्शनाच्छक्त्यंशमपि ग्रसित्वा चिन्मात्रादतिरिक्तं न किंचिदस्तीति ज्ञानसमकालं सोऽमृतत्वं च गच्छति॥२२॥
इति चतुर्थोपनिषत्
पञ्चमोपनिषत्
निर्विशेषब्रह्मजिज्ञासा
देवा ह वै भगवन्तमब्रुवन् स्वामिन्नः कथितं स्फुटं54 क्रियाकाण्डं सविषयं त्रैपुरमिति। अथ परमं निर्विशेषं कथयस्वेति॥१॥
देवा भगवन्मुखतः सविशेषब्रह्मस्वरूपं सप्रपञ्चमवगम्य मुख्यामृतत्वसाधननिर्विशेषब्रह्मावगतिबुभुत्सया भगवन्तं पृच्छन्तीत्याह—देवा इति। उपासनाकाण्डमपि सम्यक् प्रपञ्चितमिति यथावदवगतम्॥१॥
परमात्मनिरूपणम्
तान् होवाच भगवान् तुरीयया माययाऽन्त्यया निर्दिष्टं परमं ब्रह्मेति परमपुरुषं चिद्रूपं परमात्मेति। श्रोता मन्ता द्रष्टाऽऽदेष्टा स्प्रष्टाऽऽघोष्टा विज्ञाता प्रज्ञाता सर्वेषां पुरुषाणामन्तःपुरुषः स आत्मा स विज्ञेय इति॥२॥
न तत्र लोकालोका55 न तत्र देवादेवाः56 पशवोऽपशवस्तापसो न तापसः पौल्कसो न पौल्कसो विप्रा न विप्राः। स इत्येकमेव परं ब्रह्म विभ्राजति निर्वाणम्। न तत्र देवा ऋषयः पितर ईशते। प्रतिबुद्धः सर्वविद्ये[ दे ]ति॥३॥
देवैरेवं पृष्टः तान होवाच भगवान्। किमिति? तुरीयया माययाऽन्त्यया ज्ञानविज्ञानसम्यग्ज्ञानरूपया निर्दिष्टं परमं ब्रह्मेति यदवशिष्यते तदेव परमपुरुषं चिद्रूपं परमात्मेति यूयं जानथ। अयमेव हि स्वाज्ञविकल्पितोपाधियोगात् श्रोतेत्यादि। य एवं दृष्टः स एव श्रुत्याचार्यप्रसादसिद्धस्वाज्ञविकल्पितनानोपाध्यसंभवप्रबोधसमकालं सर्वेषां विश्वविराडोत्रादीनां पुरुषाणामप्यन्तः पुरुषः॥२॥न हि तत्र तदतिरेकेण लोकादिविभ्रमोऽस्ति, स्वाज्ञादिदृष्टिमोहे सत्यसति तन्निष्प्रतियोगिकैकं ब्रह्म स्वमात्रमवशिष्यत इत्याह—न तत्रेति। ब्रह्मातिरिक्तं न हि सर्वमस्तीति यो वेद स सर्ववित् तद्ब्रह्म स्वावशेषधियैतीति॥३॥
मनोनिरोधः
तत्रैते श्लोका भवन्ति—
अतो निर्विषयं नित्यं मनः कार्यं मुमुक्षुणा।
यतो निर्विषयो नाम मनसो मुक्तिरिष्यते॥४॥
मनो हि द्विविधं प्रोक्तं शुद्धं चाशुद्धमेव च।
अशुद्धं कामसंकल्पं शुद्धं कामविवर्जितम्॥५॥
मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः।
बन्धनं विषया
सक्तिर्मु57क्त्यै निर्विषयं
मनः58॥६॥
निरस्तविषयासङ्गं संनिरुद्धं59 मनो हृदि।
यदा यात्यमनीभावस्तदा तत्परमं पदम्॥७॥
तावदेव निरोद्धव्यं यावद्धृदि गतं क्षयम्।
एतज्ज्ञानं च ध्यानं च शेषोऽन्यो ग्रन्थविस्तरः॥८॥
अस्मिन्नर्थे एते वक्ष्यमाणा श्लोकाः मन्त्रा भवन्तीत्याह—तत्रेति। ब्रह्मातिरेकेण मनस्तत्कार्यमस्तीति यदि भ्रान्तिस्तदा अत इति॥४॥शुद्धाशुद्धभेदेन तद्द्विधा भिद्यत इत्याह—मनो हीति॥५-८॥
ब्रह्मज्ञानाद्ब्रह्मभावप्राप्तिः
नैव चिन्त्यं न चाचिन्त्यं न चिन्त्यं चिन्त्यमेव च।
पक्षपातविनिर्मुक्तं ब्रह्म संपद्यते ध्रुवम्॥९॥
नैव चिन्त्यं स्वातिरिक्तमस्तीति, नचाचिन्त्यं स्वयमपि नास्तीति, एतदुभयमिति न चिन्त्यं, स्वातिरिक्तापह्नवसिद्धः स्वयं निष्प्रतियोगिकब्रह्ममात्रमवशिष्यत इति चिन्त्यमेव च॥९॥
** सविशेषब्रह्मानुसन्धानान्निर्विशेषब्रह्माधिगमः**
स्वरेण सल्लये60द्योगी स्वरं संभावयेत परम्।
अस्वरेण तु भावेन न भावो भाव इष्यते॥१०॥
तदेव61 निष्कलं ब्रह्म निर्विकल्पं निरञ्जनम्।
तद्ब्रह्माहमिति ज्ञात्वा ब्रह्म संपद्यते क्रमात्॥११॥
निर्विकल्पमनन्तं च हेतुदृष्टान्तवर्जितम्।
अप्रमेयमनाद्यं च यज्ज्ञात्वा मुच्यते बुधः॥१२॥
न निरोधो न चोत्पत्तिर्न बद्धो न च साधकः।
न मुमुक्षुर्न वै मुक्त इत्येषा परमार्थता॥१३॥
स्वरेण हंसयोगेन॥१०-१७॥
निरुपाधिकात्मदर्शनम्
एक एवात्मा मन्तव्यो जाग्रत्स्वप्नसुषुप्तिषु।
स्थानत्रयव्यतीतस्य पुनर्जन्म न विद्यते॥१४॥
एक एव हि भूतात्मा भूते भूते व्यवस्थितः।
एकधा बहुधा चैव दृश्यते जलचन्द्रवत्॥१५॥
घटसंवृतमाकाशं नीयमा62ने घटे यथा।
घटो नीयेत नाकाशं तथा जीवो नभोपमः॥१६॥
घटवद्विविधाकारं भिद्यमानं पुनः पुनः।
तद्भेदे च न जानाति स जानाति च नित्यशः॥१७॥
शब्दमा63यावृतो यावत्तावत्तिष्ठति पुष्कले।
भिन्ने तमसि चैकत्वमेक एवानुपश्यति॥१८॥
स्वाज्ञानविकल्पितप्रपञ्चे भिन्ने॥१८॥
शब्दब्रह्मध्यानात् परब्रह्माधिगमः
शब्दार्णमपरं ब्रह्म तस्मिन् क्षीणे यदक्षरम्।
तद्विद्वानक्षरं ध्यायेद्यदी64च्छेच्छान्तिमात्मनः॥१९॥
द्वे ब्रह्मणी हि मन्तव्ये शब्दब्रह्म परं च यत्।
शब्दब्रह्मणि निष्णातः परं ब्रह्माधिगच्छति॥२०॥
ग्रन्थमभ्यस्य मेधावी ज्ञानविज्ञानतत्परः।
पलालमिव धान्यार्थी त्यजेद्ग्रन्थमशेषतः॥२१॥
प्रणवो हि शब्दार्णमिति॥१९-२२॥
परमात्मदर्शनम्
गवामनेकवर्णानां क्षीरस्याप्येकवर्णता।
क्षीरवत् पश्यति ज्ञानं65 लिङ्गिनस्तु गवां यथा॥२२॥
ज्ञाननेत्रं समाधाय स महत् परमं पदम् \।
निष्कलं निश्चलं शान्तं ब्रह्माहमिति संस्मरेत्66॥२३॥
इत्येकं परंब्रह्मरूपं सर्वभूताधिवासं तुरीयं जानीते सोऽक्षरे परमे व्योमन्यधिवसति॥२४॥
य एतां विद्यां तुरीयां ब्रह्मयोनिस्वरूपां तामिहायुषे शरणमहं प्रपद्ये॥२५॥
“अतो निर्विषयं”इत्यारभ्य “ब्रह्माहमिति संस्मरेत्” इत्यन्तममृतबिन्दूपनिषदि पदशो व्याख्यातं द्रष्टव्यम्॥२३॥एवं वेदनफलमाह—
इतीति॥२४॥ ब्रह्मयोनिस्वरूपां तुरीयमायाया ब्रह्माविर्भावहेतुत्वात्॥२५॥
श्रीकामराजविद्यामहिमा
आकाशाद्यनुक्रमेण सर्वेषां वा एतद्भूतानामाकाशः परायणं सर्वाणि ह वा इमानि भूतान्याकाशादेव जायन्त आकाश एव लीयन्ते तस्मादेव जातानि जीवन्ति तस्मादा
काशं बीजं67 विद्यात्॥२६॥
तदेवाकाशपीठं स्पार्शनं पीठं तेजः पीठममृतपीठं रत्नपीठं जानीयात्। यो जानीते सोऽमृतत्वं च गच्छति॥२७॥
तस्मादेतां तुरीयां श्रीकामराजीयामेकादशधा भिन्नामेकाक्षरं ब्रह्मेति यो जानीते स तुरीयं पदं प्राप्नोति य एवं वेदेति महोपनिषत्॥२८॥
प्रपञ्चकल्पनाबीजं किमित्यत्र ब्रह्मेत्याह—आकाशादीति। यस्मादेवं सर्वाधिकरणं परमाकाशं तस्मात्॥२६॥ रत्नशब्देन शिष्टाबादिभूतद्वयमुच्यते रत्नस्य स्थलजलजत्वात् रत्नपीठं पञ्चभूततत्कार्यप्रपञ्चारोपापवादपीठमधिष्ठानं ब्रह्म जानीयात्॥२७॥यस्मात् तुर्यमायाप्रदर्शितब्रह्मज्ञानात् तन्मात्रावस्थानलक्षणकैवल्यसिद्धिर्भवति तस्मात् तुरीयां श्रीकामराजीयां कामराजस्य परमेश्वस्यानपायिनीम्। यद्वा—कैवल्यश्रीस्वरूपेण यथाकामं यथेच्छं राजत इति श्रीकामराट्परमात्मा तत्संबन्धिनी विद्या श्रीकामराजीया तां केवलप्रणवरूपिणीमकारोकारमकारार्धमात्रा- बिन्दुनादकलाकलाऽतीतशान्तिशान्त्यतीतोन्मनीभेदेन एकादशधा भिन्नां वस्तुतस्तुरीयोङ्काराग्रविद्योतं एकाक्षरं तुर्यतुरीयं ब्रह्म निष्प्रतियोगिकस्वमात्रं इति यो जानीते जानाति स तुरीयं पदं तुर्यप्रविभक्ततुर्यतुर्यं पदं
प्राप्नोति। इतिशब्दः पञ्चमोपनिषत्समासयर्थः। महोपनिषच्छब्दस्तु त्रिपुरातापिन्युपनिषत्समाप्त्यर्थः॥२८॥
इति पञ्चमोपनिषत्
श्रीवासुदेवेन्द्रशिष्योपनिषद्ब्रह्मयोगिना।
श्रीमत्त्रिपुरतपनव्याख्यानं लिखितं स्फुटम्।
त्रिपुरातपनव्याख्याग्रन्थजातं चतुश्शतम्॥
इति श्रीमदीशाद्यष्टोत्तरशतोपनिषच्छास्त्रविवरणेऽशीतिसंख्यापूरकं
त्रिपुरातापिन्युपनिषद्विवरणं संपूर्णम्
______________
देव्युपनिषत्
भद्रं कर्णेभिः—इति शान्तिः
चिच्छक्तेः सर्वात्मरूपेण ब्रह्मत्वम्
सर्वे वै देवा देवीमुपतस्थुः काऽसि त्वं महादेवि॥१॥
**साऽब्रवीदहं ब्रह्मस्वरूपिणी। मत्तः प्रकृतिपुरुषात्मकं जगच्छून्यं चाशून्यं च। अहमानन्दानानन्दाः \। विज्ञानाविज्ञानेऽहम् \।
ब्रह्माब्रह्मणी वेदितव्ये। इत्याहाथर्वणी श्रुतिः॥२॥**
अहं पञ्चभूता
न्य68पञ्चभूतानि। अहमखिलं जगत्। वेदोऽहमवेदोऽहम्। विद्याऽहमविद्याऽहम्। अजाऽहमनजाऽहम्। अधश्चोर्ध्वं च तिर्यक् चाहम्॥३॥
श्रीदेव्युपनिषद्विद्यावेद्यापारसुखाकृति।
त्रैपदं ब्रह्मचैतन्यरामचन्द्रपदं भजे॥
इह खल्वथर्वणवेदप्रविभक्तेयं देव्युपनिषत् स्वसार्वात्म्यप्रकटनव्यग्रा निष्प्रतियोगिकब्रह्ममात्रपर्यवसन्ना विजृम्भते। अस्याः स्वल्पग्रन्थतो विवरणमारभ्यते
देवर्षिपटलश्रीमहादेवीप्रश्नप्रतिवचनरूपेयमाख्यायिका विद्यास्तुत्यर्था। आख्यायिकामवतारयति—सर्व इति॥१॥या चिच्छक्तिस्तैरेवं पृष्टा साऽब्रवीत्। कुतस्ते ब्रह्मतेत्यत्र सर्वात्मरूपेण सर्वकारणब्रह्मतोपपद्यत इत्याह—मत्त इति। स्थावरजङ्गमात्मकं जगत् मत्तः समुद्भूतमित्यर्थः। तज्जगत् स्वज्ञस्वाज्ञदृष्टिभ्यां शून्यं च अशून्यं चेति। अहमपि स्वज्ञादिदृष्ट्या अहमानन्देत्यादि।
यथैवेदं नभः शून्यं जगच्छून्यं तथैव हि।
अज्ञस्य दुःखौघमयं ज्ञस्यानन्दमयं जगत्॥
इत्यादिश्रुत्यनुरोधेन स्वज्ञः स्वातिरिक्तशून्यसिद्धस्वानन्दात्मतया सर्वं पश्यति, स्वाज्ञस्तद्विपरीतं पश्यतीत्यर्थः॥२॥स्वस्य सार्वात्म्यं सर्वकारणतां च प्रकटयति—अहमिति। पञ्चीकृतापञ्चीकृतभेदेन अहं पञ्चभूतान्यपञ्चभूतानि। अवेदोऽहं प्राकृतभाषाप्रबन्धादेरवेदत्वात्॥३॥
चिच्छक्तेः सर्वधारकत्वम्
अहं रुद्रेभिर्वसुभिश्चराम्यहमादित्यैरुत विश्वदेवैः।
अहं मित्रावरुणावुभा बिभर्म्यहमिन्द्राग्नी अहमश्वि
नावुभौ॥४॥
अहं सोमं त्वष्टारं पूषणं भगं दधाम्यहम्।
विष्णुमुरु69क्रमं ब्रह्माणमुत प्रजापतिं दधामि॥५॥
अहं दधामि द्रविणं हविष्मते सुप्राव्ये यजमानाय सुन्वते।
अहं राष्ट्री सङ्गमनी वसूनामहं सुवे पितरमस्य मूर्धन्॥६॥
मम योनिरप्स्वन्तःसमुद्रे य एवं वेद स देवीपदमाप्नोति॥७॥
स्वांशभूतैः रुद्रेभिः रुद्रैः। सर्वाधारात्मना बिभर्मि॥४॥भगं षड्विधैश्वर्यम्। विष्णुमुरुक्रमं चण्डपराक्रमं विष्णुम्॥५॥हविष्मते हविःसंपन्नाय सुप्राव्ये सुप्राव्याय शोभनप्रकृष्टाशयाय प्रत्यक्प्रवणचित्ताय। प्रकर्षेण व्येति नश्यतीति प्रव्यं दुष्टचित्तं तद्यस्मात् शोभनचित्तात् प्रगतं स सुप्राव्यः। मां यथावत् सुन्वते स्तुन्वते यजमानाय तद्भावानुरोधेन द्रविणं धनं ज्ञानं वा दधामि ददामीत्यर्थः। वस्वादीनां सम्यग्गमनीयसंचरणीयराष्ट्ररूपिण्यहमित्यर्थः। गुणसाम्यात्मना अस्य प्रपञ्चस्य मूर्धन् मूर्धा अहं अस्य प्रपञ्चस्य पितरं ईश्वरमपि सुवे सृजे, “जीवेशावाभासेन करोति” इति श्रुतेः॥६॥अन्तः सम्यगुद्रवतीति पुण्डरीकाकारमांसपिण्डः अन्तःसमुद्रः सर्वप्राण्यन्तहृत्कमले अप्सु अबादिपञ्चभूतेषु च जीवशिवात्मना मम योनिः स्वरूपं विद्यत इति य एवं वेद स देवीपदं चित्सामान्यरूपमेतीत्यर्थः॥७॥
देवकृतदेवीस्तुतिः
ते देवा अब्रुवन्—
नमो देव्यै महादेव्यै शिवायै सततं नमः।
नमः प्रकृत्यै भद्रायै नियताः70 प्रणताः स्म ताम्॥८॥
तामग्निवर्णां तपसा ज्वलन्तीं वैरोचनीं कर्मफलेषु जुष्टाम्।
दुर्गां देवीं शरणमहं प्रपद्ये सुतरां नाशय ते तमः॥९॥
देवीं वाचमजनयन्त देवास्तां विश्वरूपाः पशवो वदन्ति।
सा नो मन्द्रेषमूर्जं दुहाना धेनुर्वागस्मानुपसुष्टुतैतु॥१०॥
कालरात्रिं ब्रह्मस्तुतां वैष्णवीं स्कन्दमातरम्।
सरस्वतीमदितिं दक्षदुहितरं नमामः पावनां शिवाम्॥११॥
महालक्ष्मीश्च71 विद्महे सर्वसिद्धिश्च72 धीमहि।
तन्नो देवी प्रचोदयात्॥१२॥
अदितिरिह73 जनिष्ट दक्षया दुहिता तव।
तां देवा अन्वजायन्त भद्रा अमृतबन्धवः॥१३॥
देवीमुखतो देवीतत्त्वं देवा विदित्वा तां नत्वा देवाः स्तुन्वन्तीत्याह—त इति। किमिति? वक्ष्यमाणमन्त्रैरेवं स्तुन्वन्ति। नमो देव्यै शर्वाण्यै महादेव्यै त्रिमूर्तिजनन्यै शिवायै सततं नमः। यैवमुक्तविशेषणविशिष्टा तां त्वां वयं सदा प्रणताः स्मः॥८॥वैरोचनीं स्वतेजसा विरोचमानाम्। मत्कृते सुतरां ते तव अदर्शनात्मकं तमः नाशय। देवाः यां देवीं वाचं अशरीरवाणीं अजनयन्त तां एवं विश्वरूपाः पशवो नानाजन्तवो वदन्ति। किमिति? या देवी वाग्रूपिणी सा नोऽस्मान् प्रति इषं अभिलषितं ऊर्जं अन्नं कर्मफलात्मकं पयो वाग्धेनुः सरस्वती भूत्वा दुहाना सती अस्मानेतु वाग्विभूतयः नः उपसुष्टुत भजत॥१०॥ स्वातिरिक्तभानस्य कालरात्रिम्॥११–१२॥दक्षया दाक्षायण्या त्वया इहादितिः जनिष्ट संजाता। अत इयमदितिः तव दुहिता। तां तस्याः सकाशात् देवा अन्वजायन्त। अतस्ते दौहित्रा वयमिति मत्वाऽस्मान् स्वातिरिक्तास्तित्वभ्रमतो मोचयेत्यर्थः॥१३॥
आदिविद्योद्वारः
कामो योनिः कामकला वज्रपाणि-
र्गुहा हसामातरिश्वाऽभ्रमिन्द्रः।
पुनर्गुहा सकला मायया च
पुरूच्येषा74 विश्वमाताऽऽदिविद्योम्॥१४॥
अथादिविद्यामुद्धरति—काम इति। कामः ककारः योनिः एकारः कामकला ईकारः वज्रपाणिः लकारः गुहा ह्रींकारः हसेत्यत्र हकारःसकारः मातरिश्वा ककारः अभ्रं हकारः इन्द्रो लकारः पुनर्गुहा ह्रींकारः सकलाः सकारककारलकाराः मायया च ह्रींकारः पुरूच्येषा विश्वमाता विशिष्टरूपेयं आदिमूलविद्या प्रणवात्मिका विजृम्भत इत्यर्थः॥१४॥
आदिविद्यामहिमा
एषाऽऽत्म75शक्तिः। एषा विश्वमोहिनी पाशाङ्कुशधनुर्बाणधरा। एषा श्रीमहाविद्या॥१५॥य एवं वेद स शोकं तरति॥१६॥नमस्ते अस्तु भगवति भवति मातरस्मान् पातु सर्वतः॥१७॥सैषाऽष्टौ वसवः। सैषैकादशरुद्राः। सैषा द्वादशादित्याः। सैषा विश्वेदेवाः सोमपा असोमपाश्च। सैषा यातुधाना असुरा रक्षांसि पिशाचा यक्षाः सिद्धाः। सैषासत्त्वरजस्तमांसि। सैषा प्रजापतीन्द्रमनवः। सैषा ग्रहनक्षत्रज्योतींषि कलाकाष्ठाऽऽदिकालरूपिणी। तामहं प्रणौमि नित्यम्॥१८॥
तापापहारिणीं देवीं भुक्तिमुक्तिप्रदायिनीम्।
अनन्तां विजयां शुद्धां शरण्यां शिवदां शिवाम्॥१९॥
येयमादिविद्या एषा॥१५–१६॥सर्वतः सर्वात्मना॥१७–१९॥
भुवनेश्येकाक्षरीमन्त्रः
वियदीकारसंयुक्तं वीतिहोत्रसमन्वितम्।
अर्धेन्दुलसितं देव्या बीजं सर्वार्थसाधकम्॥२०॥
एवमेकाक्षरं मन्त्रं यतयः शुद्धचेतसः।
ध्यायन्ति परमानन्दमया ज्ञानाम्बुराशयः॥२१॥
भुवनेश्येकाक्षरमनुमुद्धरति वियदिति। ह्रीमिति॥२०–२१॥
महाचण्डीनवाक्षरविद्या
वाङ्मया ब्रह्मभूस्तस्मात् षष्ठं वक्त्रसमन्वितम्।
सूर्यो वामश्रोत्रबिन्दुः संयुताष्ट76तृतीयकम्॥२२॥
नारायणेन77 कोशयोर्नोपलभ्यते.”) संयुक्तो वायुश्चाधरसंयुतः।
विच्चे नवार्णकोऽर्णः स्यान्महदानन्ददायकः॥२३॥
हृत्पुण्डरीकमध्यस्थां प्रातः सूर्यसमप्रभाम्।
पाशाङ्कुशधरां सौम्यां वरदाभयहस्तकाम्।
त्रिनेत्रां रक्तवसनां भक्तकामदुघां78 भजे॥२४॥
नमामि त्वामहं देवीं79 महाभयविनाशिनीम्।
महादुर्गप्रशमनीं महाकारुण्यरूपिणीम्॥२५॥
यस्याः स्वरूपं ब्रह्मादयो न80 जानन्ति तस्मादुच्यतेऽज्ञेया। यस्या अन्तो न विद्यते तस्मादुच्यतेऽनन्ता। यस्या ग्रहणं नोपलभ्यते तस्मादुच्यतेऽलक्ष्या। यस्या जननं नोपलभ्यते तस्मादुच्यतेऽजा। एकैव सर्वत्र वर्तते तस्मादुच्यत एका। एकैव विश्वरूपिणी तस्मादुच्यते नैका। अतएवोच्यतेऽज्ञेयाऽनन्ताऽलक्ष्याऽजैका नैका॥२६॥
मन्त्राणां मातृका देवी शब्दानां ज्ञानरूपिणी।
ज्ञानानां चिन्मयातीता शून्यनां शून्यसाक्षिणी॥२७॥
यस्याः परतरं नास्ति सैषा दुर्गा प्रकीर्तिता।
तां दुर्गां दुर्गमां देवीं दुराचारविघातिनीम्।
नमामि भवभीतोऽहं संसारार्णवतारिणीम्॥२८॥
महाचण्डीनवाक्षरमुद्धरति—वाङ्मयेति। योनिमायामन्मथबीजैः साकं चामुण्डायै विच्चे इति मनुः॥२२–२३॥तामेवं ध्यायेदित्याह—हृदिति॥२४–२५॥ अज्ञेयानन्तेत्यादिविशेषणैस्तां निर्वक्ति—यस्या इति॥२६॥प्राधान्यात् मन्त्राणां मातृकादेवी॥२७–२८॥
विद्याजपस्तुतिः
इदमथर्वशीर्षं योऽधीते स पञ्चाथर्वशीर्षजपफलमवाप्नोति।
इदमथर्वणशीर्षं ज्ञात्वा योऽर्चां स्थापयति॥२९॥
शतलक्षं प्रजप्त्वाऽपि नार्चासिद्धिं च विन्दति।
शतमष्टोत्तरं चास्याः पुरश्चर्याविधिः स्मृतः॥३०॥
दशवारं पठेद्यस्तु सद्यः पापैः प्रमुच्यते।
महादुर्गाणि तरति महादेव्याः प्रसादतः॥३१॥
प्रातरधीयानो रात्रिकृतं पापं नाशयति। सायमधीयानो दिवसकृतं पापं नाशयति। तत् सायं प्रातः प्रयुञ्जानः पापोऽपापो भवति। निशीथे तुरीयसंध्यायां जप्त्वा वाक्सिद्धिर्भवति। नूतनप्रतिमायां जप्त्वा देवतासांनिध्यं भवति। प्राणप्रतिष्ठायां जप्त्वा प्राणानां प्रतिष्ठा भवति। भौमाश्चिन्यां महादेवीसंनिधौ जप्त्वा महामृत्युं तरति य एवं वेदेत्युपनिषत्॥३२॥
नारायणादिपञ्चाथर्वशीर्षेति॥२९–३१॥
य एवं वेद स पुरुषो महादेवताप्रसादात् सर्वापह्नवसिद्धं ब्रह्म निष्प्रतियोगिकस्वमात्रमित्यनुसंधानमृत्युं तरति सदैवमनुसंधानपरो भवतीत्यर्थः। इत्युपनिषच्छब्दो देव्युपनिषत्समाप्त्यर्थः।
श्रीवासुदेवेन्द्रशिष्योपनिषद्ब्रह्मयोगिना।
श्रीदेव्युपनिषद्व्याख्या लिखिता ब्रह्मगोचरा।
श्रीदेव्युपनिषद्व्याख्याग्रन्थः पञ्चाशदीरितः ॥
रामतापिन्यादिदेव्युपनिषदन्तं त्रिशताधिकपञ्चसहस्राणि। ईशादिदेव्युपनिषदन्तग्रन्थस्तु चतुर्विंशत्यधिकनवशतोत्तरद्वात्रिंशत्सहस्राणि॥३२९२४॥
इति श्रीमदीशाद्यष्टोत्तरशतोपनिषच्छास्त्रविवरणे एकाशीतिसंख्यापूरकं
देव्युपनिषद्विवरणं संपूर्णम्
बह्वृचोपनिषत्
वाङ्मे मनसि—इति शान्तिः
चिच्छक्तिस्वरूपम्
** ॐ देवी ह्येकाऽग्र आसीत्। सैव जगदण्डमसृजत। कामकलेति विज्ञायते। शृङ्गारकलेति विज्ञायते॥१॥**
बह्वृचाख्यब्रह्मविद्यामहाखण्डार्थवैभवम्।
अखण्डानन्दसाम्राज्यरामचन्द्रपदं भजे॥
अथ खलु ऋग्वेदप्रविभक्तेयं बह्वृचोपनिषद् जगत्कारणत्वप्रकटनपूर्वकं सार्वात्म्यप्रतिपादनव्यग्रा निष्प्रतियोगिकब्रह्ममात्रपर्यवसन्ना विजयते। अस्याः स्वल्पग्रन्थतो विवरणमारभ्यते। आदौ श्रुतिरवान्तरसङ्गत्याऽभिन्ननिमित्तोपादानजगत्कारणचिच्छक्तिस्वरूपं प्रकटयति—ॐ देवीति। स्वज्ञस्वाज्ञदृष्टिमाश्रित्य परापरब्रह्मरूपेण यद्वस्तु तत् ओं इत्योंकारार्थरूपं तस्योंकारस्य स्वार्थपरापरब्रह्ममहिम्ना जगदुपादानतया प्रकृतत्वात् देवीप्रकृतित्वमुच्यते, “प्रणवत्वेन प्रकृतित्वं वदन्ति ब्रह्मवादिनः” इति श्रुतेः। स्वानुप्रविष्टचैतन्यमहिम्ना या दीप्यते सेयं देवी चिच्छक्तिः एकैवाग्रे सृष्टेः पुरा आसीत् सृष्टेः पुराऽव्यक्तशक्तेरनभिव्यक्तनामरूपकर्मरूपत्वात्। यैवमग्रे निष्पन्ना सैव स्वाविद्यापदात्मकं जगत् अविद्याऽण्डं स्वाभेदेन असृजत सृष्टवती बभूव। या जगन्निदानतया भाता
तस्यास्तनुरींकारात्मना प्रणवात्मना च कामकलेति विज्ञायते, “कामो योनिः कामकला” इति श्रुत्या ईकारस्य कामकलात्वेन वर्णितत्वात्। “शृङ्गेष्वशृङ्गं संयोज्य” इति श्रुत्यनुरोधेनाऽकारोकारमकाराणां शृङ्गत्वेन व्यपदेशतः शृङ्गाण्यकारादीनि तेषामरमग्रमर्धमात्रा शृङ्गारकलेति विज्ञायते॥१॥
चिच्छक्तेर्ब्रह्मादिस्थावरान्तकारणत्वम्
तस्या एव ब्रह्माऽजीजनत्। विष्णुरजीजनत्। रुद्रोऽजीजनत्। सर्वे मरुद्गणा अजीजनन्। गन्धर्वाप्सरसः किंनरा वादित्रवादिनः समन्तादजीजनन्। भोग्यमजीजनत्। सर्वमजीजनत्। सर्वं शाक्तमजीजनत्। अण्डजं स्वेदजमुद्भिज्जं जरायुजं यत् किंचैतत् प्राणिस्थावरजङ्गमं मनुष्यमजीजनत्॥२॥
तस्या एव चिच्छक्तेर्ब्रह्मादिस्थावरान्तकारणत्वमाह—तस्या इति। इयं चिदनुप्रवेशतश्चिच्छक्तिर्भूत्वा ब्रह्मविष्णुरुद्रोपाधित्वेन देवगन्धर्वाप्सरः किन्नराद्युपाधित्वेन जङ्गमस्थावरात्मना चेश्वरेच्छया परिणता यदा भवति तदा वस्तुतो व्याप्यव्यापककलनाविरलमपि निर्विशेषं ब्रह्म स्वाज्ञदृष्ट्या प्रकृत्युच्चावचोपाधिपरिणामानुगतमिव भातं सत् तत्तदुपाधिगुणानुरोधेन ब्रह्मविष्णुरुद्रतां देवगन्धर्वादिरूपतामात्तवद्भातीति यत् तदेव प्रकृतितो जातमित्युपचर्यते, न परमार्थतः, ब्रह्मणो निष्प्रतियोगिकाजस्वरूपत्वात् “अज आत्मा महान् ध्रुवः” इति श्रुतेः। ब्रह्मणो निष्प्रतियोगिकभावरूपेणाजत्वं निरङ्कुशमित्यर्थः॥२॥
चिच्छक्तेः शब्दतदर्थरूपभावनम्
सैषा परा शक्तिः। सैषा शांभवी विद्या कादिविद्येति वाहादिविद्येति वा सादिविद्येति वा रहस्यमोमों वाचि प्रतिष्ठा॥३॥
** सैव पुरत्रयं शरीरत्रयं व्याप्य बहिरन्तरवभासयन्ती देशकालवस्त्वन्तरासङ्गान्महात्रिपुरसुन्दरी वै प्रत्यक् चितिः॥४॥**
ब्रह्मणोऽजत्वेऽपि सर्वानर्थमूलमायाशक्तिरेव वस्तुतो नानारूपेण जायते इति चेन्न, तस्या अपि निष्प्रतियोगिकभावरूपतयाऽजत्वात् “अजामेकां” इति श्रुतेः,
स्वतो वा परतो वाऽपि न किंचिद्वस्तु जायते।
सदसत् सदसद्वाऽपि न किंचिद्वस्तु जायते।
एतत्तदुत्तमं सत्यं यत्र किंचिन्न जायते॥
इति श्रीगौडपादाचार्योक्तेः। तथाऽपि या स्वाज्ञदृष्ट्या चिच्छक्तितां गता सैव शब्दरूपेण तदर्थरूपेण च भातीत्याह—सैषेति। सैषा परा शक्तिः चित्सामान्यरूपत्वात्। सैषा शांभवी विद्या शं अस्मात् भवतीति शंभुः ईश्वरः सत्वसत्वविद्यायाः शंभ्वधिष्टितत्वात् शांभवीत्वम्। श्रीमत्पञ्चदशाक्षरीप्रविभक्त–क ए ई ल ह्रीं–इति प्रथमखण्डात्मना कादिविद्येति वा–ह स क ह ल ह्रीं–इति द्वितीयखण्डात्मना हादिविद्येति वा–स क ल ह्रीं– इति तृतीयखण्डात्मना सादिविद्येति वा रहस्यं ॐ ॐ वाचि प्रतिष्ठेति यदनधिकारिणे गोपनीयतया रहस्यं निर्विशेषं ब्रह्म तदभेदेन तुरीयोंकाररूपिणी भूत्वा ॐ वाचि ओंकारप्रभवशब्दजाले तदर्थब्रह्मात्मना तिष्ठतीति ॐ वाचि प्रतिष्ठेत्युच्यते॥३॥यैवं स्थिता सैव ब्रह्मात्मना सर्वावभासकप्रत्यक्चितिर्भवेदित्याह—सैवेति। या चिच्छक्तिः सैव व्यष्टिसमष्टिभेदभिन्नपुरत्रयं स्थूलसूक्ष्मबीजात्मकं शरीरत्रयं विश्वविराडोत्राद्यात्मना व्याप्य बहिः नामरूपविकारजातं अन्तःकामादिवृत्तिसहस्रं च स्वातिरिक्तं नास्तीति प्रकाशयन्ती, यद्वा तद्भावाभावौ प्रकाशयन्ती। देशकालवस्त्वन्तरसङ्गतः प्रकाशकत्वं कुत इत्यत्र देशकालवस्त्वन्तरासङ्गात् सम्यग्ज्ञानात्मना त्रिपुरं शरीरत्रयं तदुपलक्षिताविद्यापदतत्कार्यजातं सुतरां दारयत्यपह्नवं करोतीति महती च सा त्रिपुरसुन्दरी च महात्रिपुरसुन्दरी वै त्रिपुरसुन्दर्येव प्रत्यक्चितिः। स्वातिरिक्तप्रपञ्चप्रातिलोम्येनाञ्चनात् प्रत्यक्त्वं युज्यत इत्यर्थः॥४॥
चिच्छक्तेरद्वितीयत्वम्
सैवात्मा ततोऽन्यदसत्यमनात्मा। अत एषा ब्रह्मसंवित्तिर्भावाभावकलाविनिर्मुक्ता चिद्विद्याऽद्वितीयाब्रह्मसंवित्तिः सच्चिदानन्दलहरी महात्रिपुरसुन्दरी बहिरन्तरनुप्रविश्य स्वयमेकैव विभाति। यदस्ति सन्मात्रम्। यद्भाति चिन्मात्रम्। यत् प्रियमानन्दम्। तदेतत् सर्वाकारा महात्रिपुरसुन्दरी। त्वं चाहं च सर्वं विश्वं सर्वदेवता। इतरत् सर्वं महात्रिपुरसुन्दरी। सत्यमेकं ललिताऽऽख्यं वस्तु तदद्वितीयमखण्डार्थंपरं ब्रह्म॥५॥
पञ्चरूपपरित्यागादर्वरूपप्रहाणतः।
अधिष्ठानं परं तत्त्वमेकं सच्छिष्यते महत्॥इति॥६॥
भास्यभासकभेदतो द्वैतापत्तिः स्यादित्यत आह—सैवेति। चिच्छक्तौ शक्त्यंशापायसिद्धा या चित् सैवात्मा ततोऽन्यत् शक्त्यंशः असत्यमनात्मा। यत एवं अत एषा चिच्छक्त्यंशापायात् ब्रह्मसंवित्तिः संविन्मात्रब्रह्मरूपिणी भवति। भावाभावकलयोः सत्त्वात् संविन्मात्रता कुत इत्यत आह—भावेति। चाक्षुषघटादिकं भावकलोच्यते, अचाक्षुषतया केवलमानसग्राह्यमभावकलेत्युच्यते, चितो निष्प्रतियोगिकज्ञप्तिमात्रतया भावाभावकलाऽयोगात् भावाभावकलाविनिर्मुक्ता चित् इत्यर्थः। चित्त्वं कुत इत्यत्र विद्या वेदनमात्रस्वरूपत्वात्। स्वातिरिक्तवेद्यादिसत्वात् द्वैतापत्तिरित्यत्र अद्वितीया चितः स्वसंवेद्यत्वेन स्वातिरिक्तवेद्याभावात्। निष्प्रतियोगिकाद्वितीयस्वरूपैव ब्रह्मसंवित्तिरित्यर्थः। कथं पुनरद्वितीया ब्रह्मसंवित्तिरनृतजडदुःखप्रपञ्चसत्त्वादित्यत आह—सच्चिदानन्दलहरीति। अनृतजडदुःखजातग्राससच्चिदानन्दलहरी निस्तरङ्गराचिदानन्दसमुद्ररूपेयं महात्रिपुरसुन्दरी स्वाज्ञदृष्टिप्रसक्तबहिरन्तरनुप्रविश्य सर्वाधिष्ठानसर्वान्तर्यामिरूपेण स्वयमेकैव विभाति। यद्येवं बहिरन्तरनुप्रविष्टा तदा
स्वाविद्यापदतत्कार्यरूपतां भजति, तस्याः सच्चिदानन्दत्वं दुर्लभमित्यत आह—यदिति। स्वाविद्यापदतत्कार्यानन्तकोटिब्रह्माण्डपटलं स्वातिरेकेण यदस्ति तत् सन्मात्रं स्वातिरेकेण यद्भाति तत् चिन्मात्रं स्वातिरेकेण यत्प्रियं तत् आनन्दं आनन्दमात्रं सच्चिदानन्दातिरेकेण स्वाविद्यापदतत्कार्यायोगात्। नदेतत्सर्वाकारा महात्रिपुरसुन्दरी भवतीत्यर्थः। त्वमहमित्यादिकलनाकलितविश्वस्य सत्त्वात् कथं सच्चिदानन्दमात्रतेत्यत आह—त्वं चेति। सच्चिदानन्दातिरेकेण त्वमहमिदंशब्दवाच्यप्रपञ्चाभावात् सर्वं महात्रिपुरसुन्दर्यैवेत्यर्थः। सच्चिदानन्दमिति पदत्रययोगतो द्वैतापत्तिः स्यादित्यत आह सत्यमिति। असत्यापह्नवसिद्धं सत्यं सन्मात्रं एकमेव। अनेकभेदसत्त्वादेकत्वं कुत इत्यत्र अनेकलक्षभेदजातमपि यत्र विलीयते तल्लयाधिकरणं ललिताऽऽख्यं यत् वस्तु तदद्वितीयं अखण्डार्थं हि परं ब्रह्म निष्प्रतियोगिकाद्वितीयमित्यर्थः॥५॥ प्रतियोगित्वेन पञ्चब्रह्मतत्कार्यपञ्चभूतभौतिकसत्त्वादित्यत आह—पश्चेति। ब्रह्मातिरिक्तं न किंचिदस्तीति बोधेन सदाशिवादि पञ्चब्रह्मरूपपरित्यागात् विलयात् तदर्वाग्जातानि तत्कार्याणि वियदादिभूतभौतिकानि अर्वाणि तेषां कारणप्रलयसमकालप्रहाणतः कार्यकारणप्रपञ्चल्याधिष्ठानं अधिष्ठेयसामान्याभावात् तदधिष्ठानं निरधिष्ठानं सत सन्मात्रं परं तत्त्वं महत् भूमरूपं एकमेवावशिष्यत इत्यर्थः॥६॥
प्रत्यक्परचिदैक्यभावना
प्रज्ञानं ब्रह्मेति वा अहं ब्रह्मास्मीति वा भाष्यते। तत्त्वमसीत्येव संभाष्यते। अयमात्मा ब्रह्मेति वा अहं ब्रह्मास्मीति वा ब्रह्मैवाहमस्मीति वा॥७॥
इत्थंभूता चित् केन भाव्यत इत्यत आह—प्रज्ञानमिति। उत्तमाधिकारिभिः प्रत्यगभिन्नब्रह्माभिप्रायेण प्रज्ञानं ब्रह्मेति वा अवान्तरवाक्येन अहं ब्रह्मास्मीति वा शिष्यानुभूतिवाक्येन भाष्यते, आचार्यानुभवरूपतत्त्वमसीत्येव
संभाष्यते, पुनरवान्तररूपेण अयमात्मा ब्रह्मेति वा ब्रह्मण्यनात्मताशान्तये स्वात्मन्यब्रह्मताशान्तये च व्यतिहारेण अहं ब्रह्मास्मीति वा ब्रह्मैवाहमस्मीति वा। अयमात्मेत्यादिमहावाक्यानां प्रत्यकपरचितोरैक्यमर्थः। एवं प्रत्यगभिन्नब्रह्मात्मना सदा भाव्यत इत्यर्थः॥७॥
अम्बिकाऽऽदिरूपेण चिच्छक्तिभावना
योऽहमस्मीति वा सोऽहमस्मीति वा योऽसौ सोऽहमस्मीति वा या भाव्यते सैषा षोडशी श्रीविद्या पञ्चदशाक्षरी श्रीमहात्रिपुरसुन्दरी बालाऽम्बिकेति बगलेति वा मातङ्गीति स्वयंवरकल्याणीति भुवनेश्वरीति चामुण्डेति चण्डेति वाराहीति तिरस्करिणीति राजमातङ्गीति वा शुकश्यामलेति वा लघुश्यामलेति वा अश्वारूढेति वा प्रत्यङ्गिरा धूमावती सावित्री सरस्वती गायत्री ब्रह्मानन्दकलेति॥८॥
उत्तमाधिकारिभिर्यैवं भाविता चिता शक्तियोगेन मध्यमाधिकारिदृष्ट्या सैषा चिच्छक्तिः। कार्यशक्त्यात्मना मातङ्गी गायत्री इति भाव्यते। निर्विशेषब्रह्मज्ञानार्थिभिः ब्रह्मानन्दकलेति नित्यतृप्तात्मना भाव्यत इत्यर्थः॥८॥
ब्रह्मण एव मुख्यज्ञेयत्वम्
ऋचो अक्षरे परमे व्योमन् यस्मिन् देवा अधिविश्वे निषेदुः।
यस्तन्न वेद किमृचा करिष्यति य इत्तद्विदुस्त इमे समासते॥
इत्युपनिषत्॥९॥
यज्ज्ञातव्यं तदेव ज्ञेयं केवलर्ग्भिः किं प्रयोजनं, तद्यथावद्ये जानन्ति ते तन्मात्रमवशिष्यन्त इत्याह—ऋच इति। अयं मन्त्रः श्वेताश्वतरोपनिषदि व्याख्यातः। इत्युपनिषच्छब्दो बह्वृचोपनिषत्समाप्त्यर्थः॥९॥
श्रीवासुदेवेन्द्रशिष्योपनिषद्ब्रह्मयोगिना।
बह्वृचोपनिषद्व्याख्या लिखिता ब्रह्मगोचरा।
बह्वृचोपनिषद्व्याख्याग्रन्थः सप्ततिरीरितः॥
इति श्रीमदीशाद्यष्टोत्तरशतोपनिषच्छास्त्रविवरणे सप्तोत्तरशतसङ्ख्यापूरकं
बह्वृचो
पनिषद्विवरण सम्पूर्णम्।
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भावनोपनिषत्
भद्रं कर्णेभिः—इति शान्तिः
शिवस्य शक्तियोगादीश्वरत्वम्
श्रीगुरुः परम81कारणभूता शक्तिः॥१॥
स्वाविद्यापदतत्कार्यश्रीचक्रोपरि भासुरम्।
बिन्दुरूपशिवाकारं रामचन्द्रपदं भजे॥
इह खल्वथर्वणवेदप्रविभक्तेयं भावनोपनिषत् स्वातिरिक्तप्रपञ्चश्रीचक्रासनत्रिपुरातत्त्वप्रकटनव्यग्रा तत्सर्वारोपापवादाधिकरणपरशिवतत्त्वपर्यवसन्ना विजयते। अस्याः संक्षेपतो विवरणमारभ्यते। परमदयावती श्रुतिर्देहादावात्मात्मीयाभिमानकबलितस्वाज्ञलोकमुपलभ्य देहादावात्मात्मीयाभिमतिवारणाय स्थूलादिदेहत्रये श्रीचक्रभावनां प्रकटयति—श्रीगुरुरिति। पराग्भावाश्रीग्रासप्रत्यग्भावश्रीरूपेण गुशब्दवाच्यस्वाज्ञानं रुशब्दवाच्यस्वज्ञानेन द्रावयतीति श्रीगुरुः परमशिवः, तस्य स्वातिरिक्तप्रपञ्चसर्गस्थितिभङ्गकरणपरमकारणभूता शक्तिः, तया योगतः खलु शिव ईश्वरत्वं भजतीत्यत्र—“प्रकृति स्वामधिष्ठाय संभवाम्यात्ममायया” इति स्मृतेः॥१॥
अध्यात्मदेहत्रयश्रीचक्रभावना
केन? नवरन्ध्ररूपो देहो नवशक्तिमयं श्रीचक्रम्। वाराही पितृरूपा कुरुकुल्ला बली82 देवता माता। पुरुषार्थाः सागराः। देहो नवरत्नद्वीपः। आधारनवकमुद्राः शक्तयः। त्वगादिसप्तधातुभिरनेकैः संयुक्ताः संकल्पाः कल्पतरवः। तेजःकल्पकोद्यानम्। रसनया भाव्यमाना मधुराम्लतिक्तकटुकषायलवणरसाः षडृतवः। क्रियाशक्तिः83 पीठम्। कुण्डलिनी ज्ञानशक्तिर्गृहम्। इच्छाशक्तिर्महात्रिपुरसुन्दरी। ज्ञाता होता। ज्ञानमर्घ्यम्। ज्ञेयं हविः। ज्ञातृज्ञानज्ञेयानाम84भेदभावनं श्रीचक्रपूजनम्। नियतिसहितशृङ्गारादयो नव रसा अणिमादयः। कामक्रोधलोभमोहमदमात्सर्यपुण्यपापमया ब्राह्म्याद्यष्टशक्तयः। पृथिव्यापस्तेजोवाय्वाकाशश्रोत्रत्वक्चक्षुर्जिह्वाघ्राणवाक्पाणिपादपायूपस्थविकाराः85 षोडश शक्तयः। वचनादानगमनविसर्गानन्दहानोपादानोपेक्षाबुद्धयोऽनङ्गकुसुमादिशक्तयोऽष्टौ। अलम्बुसा कुहूर्विश्वोदरी वरुणा हस्तिजिह्वा यशस्वत्यश्विनी गान्धारी पूषा शङ्खिनी सरस्वतीडा पिङ्गला सुषुम्ना चेति चतुर्दश नाड्यः सर्वसंक्षोभिण्यादिचतुर्दशारदेवताः। प्राणापानव्यानोदानसमाननागकूर्मकृकरदेवदत्तधनंजया दश वायवः सर्वसिद्धि प्रदाऽऽदिब86हिर्दशारदेवताः। एतद्वायुदशसंसर्गोपाधिभेदेन रेचकपूरकशोषकदाहकप्लावका
अमृतमिति प्राणमुख्यत्वेन पञ्चविधोऽस्ति। मनुष्याणां मोहको87 द्वारकः क्षोभको जृम्भक इति अपान मुख्यत्वेन पञ्चविधोऽस्ति” इत्यधिकः पाठो दृश्यते (अ १, अ २) कोशयोः।”) देहको88 भक्ष्यभोज्यलेह्यचोष्यपेयात्मकं चतुर्विधमन्नं पाचयति। एता दश धनकलाः89 सर्वज्ञत्वाद्यन्तर्दशारदेवताः। शीतोष्णसुखदुःखेच्छासत्वरजस्तमोगुणा वशिन्यादिशक्तयोऽष्टौ। शब्दस्पर्शरूपरसगन्धाः पञ्चतन्मात्राः पञ्च पुष्पबाणा मन इक्षुधनुः। वश्यो बाणो रागः पाशो द्वेषोऽङ्कुशः। अव्यक्तमहत्तत्त्वाहंकारकामेश्वरीवज्रेश्वरीभगमालिन्योऽन्तस्त्रिकोणाग्रगा देवताः। पञ्चदशतिथिरूपेण कालस्य परिणामावलोकनं पञ्चदशनित्या90 श्रद्धाऽनुरूपाधिदेवता91। तयोः कामेश्वरी सदानन्दघना पूर्णा स्वात्मैक्यरूपा देवता॥२॥
केन हेतुना देहस्य श्रीचक्रत्वमित्यत आह—केनेति। नवत्वसाम्यात्, नवरन्ध्ररूपो देहः, विमलादीशानान्तनवशक्तिमयं श्रीचक्रमिति। श्रीचक्रात्मक देहस्य मातापितरौ कावित्यत आह—वाराहीति। वाराही पितृरूपा पुरुषशक्तित्वात् कुरुकुल्लाबलीति काचन देवता माता। देह्याश्रयधर्मादिपुरुषार्थाः सागराः तेषामपारागाधविस्तारत्वात्। तत्र देहो नवरत्नद्वीपः द्वीपस्य सागरमध्यपातित्वात्। तद्द्वीपाधारशक्तयः का इत्यत आह—आधारेति। योनिमुद्राऽऽदिसर्वसंक्षोभिण्यन्तमुद्राऽऽरूढा महात्रिपुरसुन्दर्यादित्रिपुराऽन्ता नवशक्तयो भवन्ति। एतद्द्वीपसञ्जातकल्पकतरवस्तु त्वगादिसप्तधातुभिरनेकैः अन्तर्बाह्यविकारैः संयुक्ताः नानाविधसङ्कल्पा एव कल्पतरवः। तत्रोद्यानं किमित्यत्र स्वातिरिक्तनानाविधतेजः कल्पको जीव एव उद्यानं उद्यानवज्जीवस्य
रमणीयत्वात्। जीवरसनाभाव्यरसाः के इत्यत्र तद्–रसनया भाव्यमाना इति। तत्क्रियाज्ञानेच्छाशक्तिः केत्यत्र—क्रियाशक्तिपीठमिति। तद्–इच्छाशक्तिः ज्ञात्रादित्रिपुटी केत्यत्र—ज्ञानेति। ज्ञात्रादित्रिपुटीनिरसनमेव श्रीचक्रपूजनमित्याह—ज्ञातज्ञानेति। अणिमादिशक्तयस्तु यस्य यस्य या नियतिस्तया नियतिसहितेति। अष्टशक्तयस्तु कामक्रोधेत्यादि। षोडशशक्तयस्तु पृथिवीत्यादिविकाराः कामाकर्षिण्यादि–शरीराकर्षिण्यन्ताः षोडश शक्तयः अनङ्गकुसुमशक्तयस्तु वचनादानेत्यादि। अनङ्गकुसुमादि–अनङ्गमालिन्यन्तशक्तयः। चतुर्दशारदेवतास्तु अलम्बुसेत्यादि। सर्वसंक्षोभिण्यादि–सर्वद्वन्द्वक्षयंकर्यन्तचतुर्दशारदेवताः। सर्वसिद्धिप्रदादि–सर्वसौभाग्यदायिन्यन्तबहिर्दशारदेवताः। सर्वज्ञत्वादि–स्वेप्सितफलप्रदान्ता अन्तर्दशाग्देवताः। वशिन्यादि–कौलिन्यन्तशक्तयोऽष्टौ। तयो वज्रेश्वरीभगमालिन्योराद्या कामेश्वरी॥२॥
देवताया आवाहनाद्युपचारभावना
सलिलं92 सौहित्यकारणं सत्त्वं कर्तव्यमकर्तव्यमिति भावनायुक्त उपचारः। अस्ति नास्तीति कर्तव्यता उपचारः। बाह्याभ्यन्तःकरणानां रूपग्रहणयोग्यताऽस्त्वित्यावाहनम्। तस्य बाह्याभ्यन्तःकरणानामेकरूपविषयग्रहणमामनम्। रक्तशुक्लपदैकीकरणं पाद्यम्। उज्ज्वलदामोदानन्दासनं दानमर्घ्यम्। स्वच्छं स्व93तःसिद्धमित्याचमनीयम्। चिच्चन्द्रमयीसर्वाङ्गस्रवणं94 स्नानम्। चिदग्निस्वरूपपरमानन्दशक्तिस्फुरणं वस्त्रम्। प्रत्येकं सप्तविंशतिधा भिन्नत्वेनेच्छाज्ञानक्रियाऽऽत्मकब्रह्मग्रन्थिमद्रसतन्तुब्रह्मनाडी ब्रह्मसूत्रम्। स्वव्यतिरिक्तवस्तुसङ्गरहितस्मरणं विभूषणम। स्वच्छस्वपरिपूरणानुस्मरणं
गन्धः। समस्तविषयाणां मनसः स्थैर्येणानुसंधानं कुसुमम्। तेषामेव सर्वदा स्वीकरणं धूपः। पवनावच्छिन्नोर्ध्वज्वलनसच्चिदुल्काऽऽका95शदेहो दीपः। समस्तयातायातवर्ज्यं नैवेद्यम्। अवस्थात्रयैकीकरणं ताम्बूलम्। मूलाधारादाब्रह्मरन्ध्रपर्यन्तं ब्रह्मरन्ध्रादामूलाधारपर्यन्तं गतागतरूपेण प्रादक्षिण्यम्। तुर्यावस्था नमस्कारः। देहशून्यप्रमातृतानिमज्जनं बलिहरणम्। सत्वमस्ति कर्तव्यमकर्तव्यमौदासीन्यनित्यात्मविलापनं होमः। स्वयं तत्पादुकानिमज्जनं परिपूर्णध्यानम्॥३॥
कोऽयमुपचार इत्यत्र सलिलं सलीलं गुरुमन्त्रात्मदेवतानां सौहित्यकरणं एकीकरणमिति यत् तदेव सतस्तत्त्वं सत्त्वं कर्तव्यं कदाऽपि गुरुमन्त्रात्मदेवतानामसौहित्यकरणं अकर्तव्यमिति भावनायुक्तः भावनायोग एव उपचारः। ब्रह्मैवास्ति ब्रह्मातिरिक्तं नास्तीति सदाऽनुसन्धानकर्तव्यता उपचारः द्वैतग्रासाद्वैतात्मज्ञानमेवावाहनादिपरिपूर्णध्यानान्तमुपचारो भवतीत्याह—बाह्येति। बाह्याभ्यन्तःकरणानां स्वस्वविषयरूपग्रहणयोग्यताऽस्त्वित्यावाहनम्। आसनं तु तस्य बाह्याभ्यन्तःकरणानां एकरूपविषयग्रहणं यदेकं ब्रह्म तदेवास्मीति ज्ञानं आसनम्। केवलकुम्भकतः सुषुम्नाप्रवेशानन्तरं मूलाधारभ्रूमध्योपरिस्थप्रत्यक्पराभिधानरक्तशुक्लपदैकीकरणं पाद्यम्।अर्घ्यं तु उज्ज्वलदामोदानन्दासनं दानमर्घ्यम्। प्रत्यगभिन्नब्रह्मरूपेण सदोज्ज्वलदामोदानन्दरूपेणासनमवस्थानं सदा कर्तव्यमिति स्वयं निश्चित्य स्वशिष्येभ्यः स्वसिद्धान्तप्रदानमर्घ्यं भवतीत्यर्थः। स्वस्य स्वच्छं स्वच्छत्वम्। ब्रह्मसूत्रं तु प्रत्येकं सप्तविंशतिधेत्यादि। इच्छाऽऽदिशक्तित्रयस्य त्रिगुणात्मकतया प्रत्येकं सप्तविंशतिधा भेद उपपद्यते। नाडीनामपि गुणविकारत्वात् तथात्वम्। तत्प्रवेशनिमित्तात् तद्भेदप्रविलापनपूर्वकं ब्रह्मविष्णुरुद्रग्रन्थिमद्रसनाडी सुषुम्नैव ब्रह्मसूत्रं तस्यापरब्रह्मधामसूचकत्वात्। ब्रह्मातिरिक्तं न किंचिदस्तीति स्वच्छम्।
समस्तविषयाणां मनसः स्थैर्येण तद्विलापनाधिष्ठानानुसंधानं कुसुमम्। योगकाले प्राणापानाग्न्यैक्यतः सुषुम्नायां सच्चिदानन्दोल्कारूप आकाशदेहः परमो वै दीपः। स्वातिरिक्तविषयाद्विषयान्तरेषु समस्तेषु समस्तयातायातवर्ज्यं नैवेद्यम्। तुर्यावस्थायां अवस्थात्रयैकीकरणं ताम्बूलम्। तुर्यावस्था नमस्कारः तुरीयोऽस्मीति ज्ञानस्य नमस्कारार्थत्वात् “नमस्त्वैक्यं” इति श्रुतेः। स्वात्मनः सत्त्वमस्तीति निश्चित्य तदतिरेकेण कर्तव्यमकर्तव्यं वा विद्यत इति सत्त्वप्रसक्तौ तत्र औदासीन्यमात्मविलापनं होमः॥३॥
भावनाफलम्
एवं मुहूर्तत्रयं भावनापरो जीवन्मुक्तो भवति। तस्य देवताऽऽत्मैक्यसिद्धिः। चिन्तितकार्याण्ययत्नेन सिध्यन्ति। स एवशिवयोगीति कथ्यते॥४॥
एवं भावनाफलमाह—एवमिति। न हि तादृशस्य ब्रह्मास्मीति सदा चिन्तनं विना काचन चिन्ता विद्यते। यदि प्राण्यदृष्टानुरोधेन स्यात् तदा स्वपरविषयकचिन्तितकार्याण्ययत्नेन सिध्यन्ति।
शिवो गुरुः शिवो वेदःशिवो देवः शिवः प्रभुः।
शिवोऽस्म्यहं शिवः सर्वं शिवादन्यन्न किंचन॥
इति श्रुतिसिद्धशिवतत्त्वज्ञानी शिवयोगी शिव एवायमित्यर्थः। इत्युपनिषच्छब्दो भावनोपनिषत्समाप्त्यर्थः॥४॥
श्रीवासुदेवेन्द्रशिष्योपनिषद्ब्रह्मयोगिना।
भावनोपनिषद्व्याख्या लिखिता शिवगोचरा।
भावनोपनिषद्व्याख्याग्रन्थः पञ्चाशदीरितः॥
इति श्रीमदीशाद्यष्टोत्तरशतोपनिषच्छास्त्रविवरणे चतुरशीतिमङ्ख्यापूरकं
भावनोपनिषद्विवरण सम्पूर्णम्॥
सरस्वतीरहस्योपनिषत्
वाङ्मे मनसि—इति शान्तिः
सरस्वतीदशश्लोक्यास्तत्त्वज्ञानसाधनत्वम्
ऋषयो ह वै भगवन्तमाश्वलायनं संपूज्य पप्रच्छुः—
केनोपायेन तज्ज्ञानं तत्पदार्थावभासकम्।
यदुपासनया तत्त्वं जानासि भगवन् वद॥१॥
सरस्वतीदशश्लोक्या सऋचा बीजमिश्रया।
स्तुत्वा जप्त्वा परां सिद्धिमलभं मुनिपुङ्गवाः॥२॥
प्रतियोगिविनिर्मुक्तब्रह्मविद्यैकगोचरम्।
अखण्डनिर्विकल्पात्तरामचन्द्रपदं भजे॥
इह खलु कृष्णयजुर्वेदप्रविभक्तेयं सरस्वतीरहस्योपनिषत् महासरस्वतीविद्याप्रकटनपूर्वकं षट्समाधिप्रपञ्चनव्यग्रा ब्रह्ममात्रपर्यवसन्ना विजृम्भते। अस्याः स्वल्पग्रन्थतो विवरणमारभ्यते। ऋषिगणाश्वलायनप्रश्नप्रतिवचनरूपेयमाख्यायिका विद्यास्तुत्यर्था। आख्यायिकामवतारयति—ऋषय इति। किमिति? केनोपायेनेति॥१॥ प्रश्नोत्तरं मुनिराह—सरस्वतीति। वक्ष्यमाणया सरस्वतीदशश्लोक्या॥२॥
दशश्लोक्य ऋष्यादि
ऋषय ऊचुः—
कथं सारस्वतप्राप्तिः केन ध्यानेन सुव्रत।
महासरस्वती येन तुष्टा भगवती वद॥३॥
स होवाचाश्वलायनः—
अस्य श्रीसरस्वतीदशश्लोकमहामन्त्रस्य—अहमाश्वलायन ऋषिः। अनुष्टुप् छन्दः। श्रीवागीश्वरी देवता। यद्वागिति बीजम्। देवीं वाचमिति शक्तिः। प्रणो देवीति कीलकम्। विनियोगस्तत्प्रीत्यर्थे। श्रद्धा मेधा प्रज्ञा धारणा वाग्देवता महासरस्वतीत्येतैरङ्गन्यासः॥४॥
नीहारहारघनसारसुधाकराभां
कल्याणदां कनकचम्पकदामभूषाम्।
उत्तुङ्गपीनकुचकुम्भमनोहराङ्गीं
वाणीं नमामि मनसा वचसां विभूत्यै॥५॥
ऋषयस्तं पुनः पप्रच्छुरित्याह—ऋषय ऊचुरिति॥३॥ तैरेवं पृष्टः स होवाचाश्वलायनः। वक्ष्यमाणविद्याया ऋषिच्छन्दोदेवताबीजशक्तिकीलककराङ्गन्यासादिकमुच्यते—अस्येत्यादिना॥४॥ ध्यानं तु—नीहारेति॥५–३५॥
प्रणो देवीति मन्त्रस्य ऋष्यादि
प्रणो देवीत्यस्य मन्त्रस्य—भरद्वाज ऋषिः। गायत्री छन्दः। श्रीसरस्वती देवता। प्रणवेन बीजशक्तिकी96.")लकम्। इष्टार्थे विनियोगः। मन्त्रेण न्यासः॥६॥
या वेदान्तार्थतत्त्वैकस्वरूपा परमेश्वरी97।
नामरूपात्मना व्यक्ता सा मां पातु सरस्वती॥७॥
ॐ प्रणो देवी सरस्वती वाजेभिर्वाजिनीवती।
धीनामवित्र्यवतु॥८॥
आ नो दिव इति मन्त्रस्य ऋष्यादि
आ नो दिव इति मन्त्रस्य—अत्रिर्ऋषिः। त्रिष्टुप् छन्दः। सरस्वती देवता। ह्रीमिति बीजशक्तिकीलकम्। इष्टार्थे विनियोगः। मन्त्रेण न्यासः॥९॥
या साङ्गोपाङ्गवेदेषु चतुष्वैकैव गीयते।
अद्वैता98 ब्रह्मणः शक्तिः सा मां पातु सरस्वती॥१०॥
ह्रीं आ नो दिवो बृहतः पर्वतादा
सरस्वती यजता गन्तु यज्ञम्।
हवं देवी जुजुषाणा घृताची
शग्मां नो वाचमुशती शृणोतु॥११॥
पावका न इति मन्त्रस्य ऋष्यादि
पावका न इति मन्त्रस्य—मधुच्छन्दा ऋ99षिः। गायत्रीछन्दः। सरस्वती देवता। श्रीमिति बीजशक्तिकीलकम्। इष्टार्थे विनियोगः। मन्त्रेण न्यासः॥१२॥
या वर्णपदवाक्यार्थस्वरूपेणैव वर्तत।
अनादिनिधनाऽनन्ता सा मां पातु सरस्वती॥१३॥
श्रीं पावका नः सरस्वती वाजेभिर्वाजिनीवती।
यज्ञं वष्टु धिया वसुः॥१४॥
चोदयित्री इति मन्त्रस्य ऋष्यादि
चोदयित्रीति मन्त्रस्य—मधुच्छन्दा ऋषिः। गायत्री छन्दः। सरस्वती देवता। ब्लूमिति बीजशक्तिकीलकम्। मन्त्रेण न्यासः॥१५॥
अध्यात्ममधिदैवं च देवानां सम्यगीश्वरी।
प्रत्यगास्ते वदन्ती या सा मां पातु सरस्वती॥१६॥
ब्लूं चोदयित्री सूनृतानां चेतन्ती सुमतीनाम्।
यज्ञं दधे सरस्वती॥१७॥
महो अर्ण इति मन्त्रस्य ऋष्यादि
महो अर्णेति मन्त्रस्य—मधुच्छन्दा ऋषिः। गायत्री छन्दः। सरस्वती देवता। सौरिति बीजशक्तिकीलकम्। मन्त्रेण न्यासः॥१८॥
अन्तर्याम्यात्मना विश्वं त्रैलोक्यं या नियच्छति।
रुद्रादित्यादिरूपस्था सा मां पातु सरस्वती॥१९॥
सौः महो अर्णः सरस्वती प्रचेतयति केतुना।
धियो विश्वा विराजति॥२०॥
चत्वारि वागिति मन्त्रस्य ऋष्यादि
चत्वारि वागिति मन्त्रस्य—उचथ्यपुत्र ऋषिः। त्रिष्टुप् छन्दः। सरस्वती देवता। ऐमिति बीजशक्तिकीलकम्। मन्त्रेण न्यासः॥२१॥
या प्रत्यग्दृष्टिभिर्जीवैर्व्यज्यमानाऽनुभूयते।
व्यापिनी ज्ञप्तिरूपैका सा मां पातु सरस्वती॥२२॥
ऐं चत्वारि वाक् परिमिता पदानि
तानि विदुर्ब्राह्मणा ये मनीषिणः।
गुहा त्रीणि निहिता नेङ्गयन्ति
तुरीयं वाचो मनुष्या वदन्ति॥२३॥
यद्वागिति मन्त्रस्य ऋष्यादि
यद्वाग्वदन्तीति मन्त्रस्य—भार्गव ऋषिः। त्रिष्टुप् छन्दः। सरस्वती देवता। क्लीमिति बीजशक्तिकीलकम्। मन्त्रेण न्यासः॥२४॥
नामजात्यादिभिर्भेदैरष्टधा या विकल्पिता।
निर्विकल्पात्मना व्यक्ता सा मां पातु सरस्वती॥२५॥
क्लींयद्वाग्वदन्त्यविचेतनानि राष्ट्री देवानां निषसाद मन्द्रा।
चतस्रऊर्जं दुदुहे पयांसि क्व स्विदस्याः परमं जगाम॥२६॥
देवीं वाचमिति मन्त्रस्य ऋष्यादि
देवीं वाचमिति मन्त्रस्य—भार्गव ऋषिः। त्रिष्टुप् छन्दः। सरस्वती देवता। सौरिति बीजशक्तिकीलकम्। मन्त्रेण न्यासः॥२७॥
व्यक्ताव्यक्तगिरः सर्वे वेदाद्या व्याहरन्ति याम्।
सर्वकामदुघा धेनुः सा मां पातु सरस्वती॥२८॥
सौः देवीं वाचमजनयन्त देवास्तां विश्वरूपाः पशवो वदन्ति।
सा नो मन्द्रेषमूर्जं दुहाना धेनुर्वागस्मानुपसुष्टुतैतृ॥२९॥
उत त्व इति मन्त्रस्य ऋष्यादि
उत त्व इति मन्त्रम्य—बृहस्पतिर्ऋषिः। त्रिष्टुप् छन्दः। सरस्वती देवता। समिति बीजशक्तिकीलकम्। मन्त्रेण न्यासः॥३०॥
यां विदित्वाऽखिलं बन्धं निर्मथ्याखिलवर्त्मना100।
योगी याति परं स्थानं सा मां पातु सरस्वती॥३१॥
सं उत त्वः पश्यन्न ददर्श वाचमुत त्वः शृण्वन्न शृणोत्येनाम्।
उतो त्वस्मै तन्वां विमस्त्रे जायेव पत्य उशती सुवासाः॥३२॥
अम्बितम इति मन्त्रस्य-ऋष्यादि
अम्बितमइति मन्त्रस्य—गृत्समद ऋषिः। अनुष्टुप् छन्दः। सरस्वती देवता। ऐमिति बीजशक्तिकीलकम्। मन्त्रेण न्यासः॥३३॥
नामरूपात्मकं सर्वं यस्यामावेश्यतां पुनः।
ध्यायन्ति ब्रह्मरूपैका सा मां पातु सरस्वती॥३४॥
ऐं अम्बितमे नदीत
देवितमे101सरस्वति।
अप्रशस्ता इव स्मसि प्रशस्तिमम्ब नस्कृधि॥३५॥
देवताप्रार्थना
चतुर्मुखमुखाम्भोजवनहंसवधूर्मम।
मानसे रमतां नित्यं सर्वशुक्ला सरस्वती॥३६॥
नमस्ते शारदे देवि काश्मीरपुरवासिनि।
त्वामहं प्रार्थये नित्यं विद्यादानं च देहि मे॥३७॥
अक्षसूत्राङ्कुशधरा पाशपुस्तक102धारिणी।
मुक्ताहारसमायुक्ता वाचि तिष्ठतु मे सदा॥३८॥
कम्बुकण्ठी सुताम्रोष्ठी सर्वाभरणभूषिता।
महासरस्वती देवी जिह्वाग्रे संनिवेश्यताम्॥३९॥
या श्रद्धा धारणा मेधा वाग्देवी विधिवल्लभा।
भक्तजिह्वाग्रसदना शमादिगुणदायिनी॥४०॥
नमामि यामिनीनाथलेखाऽलंकृतकुन्तलाम्।
भवानीं भवसंतापनिर्वापणसुधानदीम्॥४१॥
यः कवित्वं निरातङ्कं भुक्तिमुक्ती च वाञ्छति।
सोऽभ्यर्च्यैनां दशश्लोक्या नित्यं स्तौति सरस्वतीम्॥४२॥
तस्यैवं स्तुवतो नित्यं समभ्यर्च्य सरस्वतीम्।
भक्तिश्रद्धाऽभियुक्तस्य षाण्मासात् प्रत्ययो भवेत्॥४३॥
ततः प्रवर्तते वाणी स्वेच्छया ललिताक्षरा।
गद्यपद्यात्मकैः शब्दैरप्रमेयैर्विवक्षितैः॥४४॥
अश्रुतो बुध्यते ग्रन्थः प्रायः सारस्वतः कविः॥४५॥
** **देवतां प्रार्थयति—चतुर्मुखेति॥३६—४५॥
भगवत्याः ब्रह्मत्वं प्रकृतित्वं पुरुषत्वं च
सा103 कोशे.”) होवाच सरस्वती—
आत्मविद्या मया लब्धा ब्रह्मणैव सनातनी104।
ब्रह्मत्वं मे सदा नित्यं सच्चिदानन्दरूपतः॥४६॥
प्रकृतित्वं ततः स्पृष्टं सत्त्वादिगुणमाम्यतः।
सत्यामाभाति चिच्छाया दर्पणे प्रतिबिम्बवत्॥४७॥
तेन चित्प्रतिबिम्बेन त्रिविधा भाति सा पुनः।**
प्रकृत्यवच्छिन्नतया पुरुषत्वं पुनश्च मे105॥४८॥**
मयैव स्तुता भगवती दृष्टिविषये प्रसन्ना भूत्वा स्वानुभूतिप्रकटनेन स्वात्मतत्त्वमुपदिदेशेत्याह—सा होवाच सरस्वतीति। किमुवाचेत्यत्र—आत्मविद्येति। स्वातिरिक्तमनात्मा तदसंभवप्रबोधसिद्ध—स्वयमेवात्मा स्वात्मातिरिक्तं न किंचिदस्त स्वात्मैव निष्प्रतियोगिकाद्वितीय इति—वेदनमेव स्वात्मविद्या सनातनी पुरा विश्वसृजा ब्रह्मणा प्रसन्नेन मया लब्धा विदितेत्यर्थः। स्वात्मवेदनमात्रतो ब्रह्मत्वं ते कुत इत्यत आह—ब्रह्मत्वमिति। ममानृतजडदुःखात्मकनामरूपप्रपञ्चग्राससच्चिदानन्दरूपत्वात् सदा मे ब्रह्मत्वं सिद्धमेवेत्यर्थः॥४६॥प्रकृतिस्त्वद्भिन्नेत्यत आह—प्रकृतित्वमिति। स्वाज्ञदृष्ट्या स्वातिरेकेण या प्रकृता सेयं प्रकृतिस्तद्भावः प्रकृतित्वमपि मया स्पृष्टं कुत इत्यत्र ततो गुणसाम्यतः, सत्त्वादिगुणत्रयं यत्र साम्यं भजति तद्गुणसाम्यं, तद्योगतः प्रकृतित्वमपि स्यादित्यर्थः। किं प्रकृतिर्ब्रह्मवद्वास्तवीत्याशङ्क्य स्वाज्ञदृष्ट्या मयि विकल्पितेत्याह—सत्यामिति। मयि सत्यां दर्पणे प्रतिबिम्बवत् भाविसर्वानर्थगर्भिणी चिच्छाया
चित्सामान्यरूपिणी गुणसाम्यात्मिका मयि विकल्पिता आभातीत्यर्थः॥४७॥ एवं त्वयि प्रकृतिकल्पनातः किं स्यादित्यत आह—तेनेति। येयं चितिर्मयि प्रतिबिम्बिता तेन चित्प्रतिबिम्बेन वपुषा सा पुनः प्रकृत्यावरणविक्षेपभेदतो निर्विभागव्यष्टिसमष्टिभेदतो वा त्रेधा विभातीत्यर्थः। तत्र निर्विभागसमष्टिव्यष्टिप्रकृतियोगतोऽविकल्पेश्वरजीवत्वमपि भवेदित्याह—प्रकृतीति। या त्रेधा प्रविभक्ता तत्कलनाविरलं निर्मयं ब्रह्म निष्प्रतियोगिकमेव। निर्विभागगुणसाम्यसाक्षितया पूरणात् पुरुषत्वं, समष्टिप्रकृतिप्राकृतावच्छिन्नान्तर्यामितया पूरणात् पुरुषत्वमीश्वरत्वं, व्यष्टिप्रकृतिप्राकृतावच्छिन्नतया पुरुषत्वं जीवत्वं च पुनश्च मे न स्वत इत्यर्थः॥४८॥
मायावशाद्भगवत्या ईश्वरत्वम्
शुद्धसत्त्वप्रधानायां मायायां विम्बितो ह्यजः।
सत्त्वप्रधाना प्रकृतिर्मायेति प्रतिपाद्यते॥४९॥
सा माया स्ववशोपाधिः सर्वज्ञस्येश्वरस्य हि।
वश्यमायत्वमेकत्वं सर्वज्ञत्वं च तस्य तु॥५०॥
सात्त्विकत्वात् समष्टित्वात् साक्षित्वाज्जगतामपि।
जगत कर्तुमकर्तुं वा चान्यथा कर्तुमीशते।
यः स ईश्वर इत्युक्तः सर्वज्ञत्वादिभिर्गुणैः॥५१॥
ईश्वरत्वं कथमित्यत्र—शुद्धसत्त्वेति। शुद्धसत्त्वप्रधानमायाप्रतिफलनचैतन्यमीश्वर इत्यर्थः। माया कीदृशीत्यत्र सत्त्वप्रधानेति॥४९॥ ईश्वरस्य मायोपाधिकत्वेन तद्वशवर्तित्वं स्यादित्यत आह—सेति। येयमीश्वरत्वहेतुः सा माया सर्वज्ञेश्वरस्य स्ववशोपाधिः। तस्य मायातत्कार्यासङ्गत्वेन वशीकृतमायत्वात् वश्यमायत्वं स्वातिरिक्तद्वयाभावात् एकत्वं स्वाज्ञविकल्पितं सर्वं स्वदृष्ट्या नेतीति
ज्ञातृत्वात् सर्वज्ञत्वं च तस्यैव॥५०॥ किंच—स्वदृष्ट्या निर्गुणत्वेऽपि स्वाज्ञदृष्टिसमर्पितसत्त्वगुणोपाधित्वात् समष्ट्यारोपाधारत्वात् स्वारोपितजगतामपि तद्भावाभावप्रकाशकतया साक्षित्वात् किं बहुना यो जगत् कर्तुं अकर्तुं अन्यथा वा कर्तुं ईष्टे सर्वज्ञत्वादिगुणैः सोऽयं ईश्वरः इत्युक्तो भवतीत्यर्थः॥५१॥
मायाया विक्षेपावरणशक्तिद्वयम्
शक्तिद्वयं हि मायाया विक्षेपा
वृतिरूपकम्106।
विक्षेप
शक्तिर्लिङ्गा107दि ब्रह्माण्डान्तं जगत् सृजेत्॥५२॥
अन्तर्दृग्दृश्ययोर्भेदं बहिश्च ब्रह्मसर्गयोः।
आवृणोत्यपरा शक्तिः सा संसारस्य कारणम्॥५३॥
ईश्वरोपाधिमायास्वरूपमुक्त्वा मायाकार्यशक्तिद्वयं तत्कार्यं चाह—शक्तिद्वयमिति। यत् मायायाः कार्यं विक्षेपावृतिरूपकं तत् शक्तिद्वयम्। हिशब्दोऽवधारणे। तत्र विक्षेपकार्यं तु स्थावरजङ्गमतत्प्रविभक्तविविधाकारेण क्षिपति परिणमत इति विक्षेपशक्तिः लिङ्गादि ब्रह्माण्डान्तं जगत् सृजेत्॥५२॥ विक्षेपकार्यमुक्त्वा आवरणकार्यमाह—अन्तरिति। स्वान्तर्हृदि दृक् प्रत्यक् दृश्यं अन्तःकरणं तयोः भेदं बहिः सच्चिदानन्दं ब्रह्म नामरूपात्मकः सर्गः तयोः भेदं च या आवरणशक्तिःआवृणोति सेयं अपरा शक्तिः संसारस्य कारणं भवतीत्यर्थः॥५३॥
जीवस्वरूपम्
साक्षिणः पुरतो भातं लिङ्गदेहेन संयुतम्।
चितिच्छायासमावेशाज्जीवः स्याद्व्यावहारिकः॥५४॥
तदावृतजीवस्वरूपमाह—साक्षिण इति। साक्षादीक्षत इति साक्षी तस्य पुरतो भातं स्वाज्ञानं स्वकार्यलिङ्गदेहेन संयुतं चितिः चैतन्यं छाया बुद्धिः स्वाज्ञानं पुरस्कृत्य तयोः समावेशात् ऐक्याध्यासात् व्यावहारिकजीवः स्यात् विश्वो भवतीत्यर्थः॥५४॥
आवृतिनाशे भेदनाशः
अस्य जीवत्वमारोपात् साक्षिण्यप्यवभासते।
आवृतौ तु विनष्टायां भेदे भातेऽपयाति तत्॥५५॥
तथा सर्गब्रह्मणोश्च भेदमावृत्य तिष्ठति।
या शक्तिस्तद्वशाद्ब्रह्म विकृतत्वेन भासते॥५६॥
अत्राप्यावृतिनाशे न विभाति ब्रह्मसर्गयोः।
भेदस्तयोर्विकारः स्यात् सर्गे न ब्रह्मणि क्वचित्॥५७॥
जीवस्य जीवत्वं सत्यमित्याशङ्क्य स्वावृत्यपाये जीवो ब्रह्मेत्याह—अस्येति। अस्य प्रतीचः स्वाज्ञारोपात् जीवत्वं सर्वसाक्षिण्यपि स्वस्मिन् अवभासते। स्वज्ञानसवित्रा ध्वान्तावृतौ विनष्टायां स्वान्तर्विलसितदृग्दृश्ययोः भेदे भाते तत् दृग्दृश्यभेदावरणं अपयाति॥५५॥ यथा स्वान्तः या शक्तिः तथा ब्रह्मसर्गयोश्च भेदमावृत्य तिष्ठति तदावरणशक्तिवशात् अविकृतमपि ब्रह्म विकृतत्वेन अवभासते॥५६॥ ब्रह्मसर्गभेददर्शनज्ञानतो भेदावृतिर्नश्यतीत्याह—अत्रेति। अत्र बाह्येऽपि ब्रह्मसर्गयोः भेदावृतिनाशे न तयोः भेदो विभाति। तद्भेदविकारः सर्ग एव न क्वचिद्ब्रह्मणि भवेदित्यर्थः॥५७॥
दृश्यप्रपञ्चे ब्रह्मप्रकृत्यंशयोर्विवेकः
अस्ति भाति प्रियं रूपं नाम चेत्यंशपञ्चकम्।
आद्यं त्रयं ब्रह्मरूपं जगद्रूपं ततो द्वयम्॥५८॥
दृश्यमानप्रपञ्चे कोऽयं ब्रह्मांशः कोऽयं प्रकृत्यंश इत्यत आह—अस्तीति। इदमिदं वस्त्वस्तीत्यत्र घटपटादिभेदेन इदमंशे भिन्नेऽपि तद्गतास्तित्वस्यैकरूपत्वात् तत्सत् सन्मात्रमुच्यते, “सन्मात्रमसदन्यत्” इति श्रुतेः। इदं भाति इदं भाति इत्यत्र इदमंशे भिन्नेऽपि तदनुस्यूतभानं चित्, “चिन्मात्रमेव चिन्मात्रं” इति श्रुतेः। इदं प्रिय इदं प्रियं इत्यत्र नामरूपविकृतितः इदमंशे भिन्नेऽपि तदनुस्यूतप्रियस्य निरतिशयानन्दरूपत्वात् प्रियमानन्दघनमित्यर्थः। यदस्तित्वभावमापन्नं तदेव भातीति प्रतीत्यर्हं, यत् भातं तदेव प्रियं भवति “सद्धनोऽयं चिद्वन आनन्दघनः” इति श्रुतेः। इदमस्य रूपं इदमस्य नाम इति नामरूपे मिथो भिद्येते। अस्तिभातिप्रियाणां सच्चिदानन्दानां सर्वानुस्यूतत्वेनैकरूपत्वात् आद्यं त्रयं ब्रह्मरूपं, यदपरं नामरूपात्मकं द्वयं तन्मायाजगद्रूपं भवतीत्यर्थः॥५८॥
ब्रह्मांशे समाधिविधानम्
उपेक्ष्य नामरूपे द्वे सच्चिदानन्दतत्परः।
समाधिं सर्वदा कुर्याद्धृदये वाऽथ वा बहिः॥५९॥
स्वान्तर्बाह्यविलसितमायांऽशत्यागपूर्वकं ब्रह्मांशे मनः समाधानं कुर्यादित्याह—उपेक्ष्येति॥५९॥
षड्विधसमाधयः
सविकल्पो निर्विकल्पः समाधिर्द्विविधो हृदि।
दृश्यशब्दानुभे108देन सविकल्पः पुनर्द्विधा॥६०॥
कामाद्याश्चित्तगा दृश्यास्तत्साक्षित्वेन चेतनम्।
ध्यायेद्दृश्यानुविद्धोऽयं समाधिः सविकल्पकः॥६१॥
असङ्गः सच्चिदानन्दः स्वप्रभो द्वैतवर्जितः।
अस्मीतिशब्दविद्धोऽयं समाधिः सविकल्पकः॥६२॥
स्वानुभूतिरसावेशाद्दृश्यशब्दावुपेक्षितुः।
निर्विकल्पसमाधिः स्यान्निवातस्थितदीपवत्॥६३॥
हृदि वा109बाह्यदेशेऽपि यस्मिन् कस्मिंश्च वस्तुनि।
समाधिराद्यः सन्मात्रान्नामरूपपृथक्कृतिः॥६४॥
स्तब्धीभावो रसास्वादात् तृतीयः पूर्ववन्मतः।
एतैः समाधिभिः षड्भिर्नयेत् कालं निरन्तरम्॥६५॥
हृदये बाह्ये वा सविकल्पनिर्विकल्पभेदेन समाधिर्भिद्यत इत्याह—सविकल्प इति। दृश्यशब्दभेदेन सविकल्पोऽपि द्विधा भिद्यत इत्याह—दृश्येति॥६०॥ तत्रान्तर्दृश्यानुविद्धसविकल्पकसमाधिमाह—कामाद्या इति।अस्याः कामवृत्तेः संकल्पवृत्तेः संशयादिवृत्तेर्वा भावाभावसाक्षित्वेन यच्चैतन्यं वर्तते तदेवाहमस्मीति ध्यानमनुसन्धानं दृश्यानुविद्धसमाधिः॥६१॥ शब्दानुविद्धसमाधिमाह—असङ्ग इति। असङ्ग इत्यादिविशेषणविशिष्टं ब्रह्मास्मीति कामादिदृश्योपेक्षापूर्वकं केवलशब्दावलम्बनतया स्थितिः शब्दानुविद्धसविकल्पकसमाधिः॥६२॥ स्वान्तर्निर्विकल्पकसमाधिमाह—स्वानुभूतीति। ब्रह्मानुभूत्यनुभवबलात् पूर्वानुष्ठितदृश्यशब्दोपेक्षा जायते। तादृशाधिकारिणो निवातस्थितदीपवत् निर्विकल्पकसमाधिर्भवतीत्यर्थः॥६३॥ स्वान्तःसमाधित्रयमुक्त्वा बाह्यसमाधित्रयमाह—हृदीति। स्वहृदि विभातकामादिदृश्यवत् स्वबाह्यविलसितघटपटादिनामरूपे मिथ्यातदारोपापवादाधारतया यच्चैतन्यं वर्तते तन्नामरूपपृथक्कृतिसिद्धं ब्रह्मास्मीति बाह्यदृश्यानुविद्धसमाधिः। तथा सर्वाधिकरणं ब्रह्मास्मीति नामरूपोपेक्षापूर्वकं शब्दमात्रवृत्तिर्बाह्यशब्दानुविद्धसमाधिर्भवती-
त्यर्थः॥६४॥ बाह्यनिर्विकल्पकसमाधिमाह—स्तब्धीभाव इति। बाह्यदृश्यशब्दानुविद्धसमाध्युपेक्षापूर्वकं निवातस्थितदीपवत् स्तब्धीभावोऽयं तृतीयो निर्विकल्पकसमाधिरित्यर्थः। विद्वानेतैरव कालं नयेदित्या—एतैरिति॥६५॥
निर्विकल्पसाक्षात्कारः
देहाभिमाने गलिते विज्ञाते परमात्मनि।
यत्र यत्र मनो याति तत्र तत्र परामृतम्॥६६॥
भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः।
क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन् दृष्टे परावरे॥६७॥
मयि जीवत्वमीशत्वं कल्पितं वस्तुतो न हि।
इति यस्तु विजानाति स मुक्तो नात्र संशयः॥
इत्युपनिषत्॥६८॥
निर्विकल्पात्मसाक्षात्कारः कदा भवतीत्याशङ्क्य देहादावात्मात्मीयाभिमानासंभवनिर्विशेषब्रह्मज्ञानसमकालं पुरा यत्र यत्र मनो याति तत्र तत्र परामृतपरमात्मैव प्रकाशत इत्याह—देहेति। बहिर्मुग्वदशायां विद्वन्मनो यत्र यत्र धावति तत्र तत्र ब्रह्मैव विभाति। एवं निर्विकल्पकज्ञानवान् मुनिः निष्प्रतियोगिकब्रह्ममात्रमवशिष्यत इत्यर्थः॥६६॥ निष्प्रतियोगिकब्रह्ममात्रज्ञानिनोऽपि स्वाज्ञवत् ग्रन्थिसंशयकर्मसंभवात् कथं विदुषो ब्रह्ममात्रतेत्याशंक्य स्वदृष्ट्या ब्रह्मातिरेकेण ग्रन्थिसंशयकर्मासंभवात्। यद्यस्तीति भ्रान्तिस्तदा निर्विशेषब्रह्मज्ञानेन तद [साऽ]पि विलीयत हत्यह—भिद्यत इति। स्वाज्ञविकल्पितसमष्टिप्रपञ्चाधारः परः, व्यष्टिप्रपञ्चापवादाधारः प्रत्यगवरः, तयोर्भेदाभेदौ यत्रासंभवतां गतौ प्रत्यक्परभेदसापेक्षभेदासहंनिष्प्रतियोगिकाद्वैतात्मनि स्वावशेषतया दृष्टे सत्येवमस्य साधनचतुष्टयसंपत्त्यासादितपारमहंस्यधर्मपूगवदनुष्टितसर्ववेदान्तश्रवणमनननिदिध्यासनप्रादुर्भूततत्त्वज्ञानिनो हृदयग्रन्थिर्भिद्यते—स्वाविद्यापदतत्कार्यजातं हृच्छ-
ब्देनोच्यते, अयंशब्देन तदारोपापवादाधिकरणमुच्यते, तयोस्तादात्म्यं हृदयग्रन्थिः। तस्मिन् भिन्ने अस्य सर्वसंशयाश्छिद्यन्ते निष्प्रतियोगिकब्रह्ममात्रज्ञानं मयाऽऽत्तमनात्तं वा, यद्यात्तं तदा तद्ब्रह्म साक्षात्कृतं न वा, तस्मिन् साक्षात्कृतेऽपि तन्मात्राऽवशेषलक्षणविदेहकैवल्यमस्ति वा न वा, तत्सिद्भावपि कालान्तरे स्वातिरिक्तास्तित्वभ्रमतः पुनर्जन्म भवेन्नवेत्यादिसर्वसंशयास्तत्त्वज्ञानासिना छिद्यन्ते। छिन्ने संशयपटलेऽस्य सर्वकर्माणि च क्षीयन्ते। तानि कर्माणि त्रिविधान्यागामिसंचितारब्धभेदात्। देहिनो देहारम्भात् परं यत् कृतं पुण्यादिकं तदागामिकर्म स्थूलप्रपञ्चासंभवज्ञानेन विलीयते। अनन्तकोटिजन्मोपादानकारणं संचितकर्म, तत् स्थूलसूक्ष्मप्रपञ्चापह्नवसिद्धब्रह्मज्ञानेन नश्यति। देहारम्भात् परं देहावसानावधि सुखादिफलप्रदं प्रारब्धकर्म, तत् स्थूलसूक्ष्मबीजप्रपञ्चापह्नवसिद्धब्रह्ममात्रसम्यग्ज्ञानेन नश्यति। एवं कर्मक्षयसमकालं सदाद्यावृतित्रयं भ्रान्तिजादितादात्म्यत्रयं चाप्यपह्नवं भजति। ततस्तुर्यप्रपञ्चापह्नवसिद्धब्रह्ममात्रतत्त्वज्ञदृष्ट्या ग्रन्थिसंशयकर्मावरणतादात्म्यासंभवाद्विद्वान् निष्प्रतियोगिकब्रह्ममात्रतयाऽवशिष्यत इत्यत्र नहि विवादोऽस्तीत्यर्थः॥६७॥ यत एवं अतः मयि जीवत्वमिति। स्वस्य निष्प्रतियोगिकत्वेन स्वातिरिक्ततत्कल्पनाया मृग्यत्वात्। विद्याफलमाह —इतीति। “आत्मविद्या मया लब्धा” इत्यादि “कल्पितं वस्तुतो नहि” इत्यन्तं यथावत् यो जानाति स मुक्तो भवति इत्यत्र न हि संशयोऽस्ति॥६८॥ इत्युपनिषच्छब्दः सरस्वतीरहस्योपनिषत्समाप्त्यर्थः।
श्रीवासुदेवेन्द्रशिष्योपनिषद्ब्रह्मयोगिना।
सरस्वतीरहस्यस्य व्याख्यानं लिखितं स्फुटम्।
प्रकृतोपनिषद्व्याख्याग्रन्थः षष्ट्युत्तरं शतम्॥
इति श्रीमदीशाद्यष्टोत्तरशतोपनिषच्छास्त्रविवरणे षडुत्तरशतसङ्ख्यापूरकं
सरस्वतीरहस्योपनिषद्विवरणं सम्पूर्णम्॥
सीतोपनिषत्
भद्रं कर्णेभिः—इति शान्तिः
सीताया मूलप्रकृतित्वम्
देवा ह वै प्रजापतिमब्रुवन् का सीता किं रूपमिति॥१॥
** स होवाच प्रजापतिः सा सीतेति—**
मूलप्रकृतिरूपत्वात् सा सीता प्रकृतिः स्मृता।
प्रणवप्रकृतिरूपत्वात् सा सीता प्रकृतिरुच्यते110॥२॥
इच्छाज्ञानक्रियाशक्तित्रयं यद्भावसाधनम्।
तद्ब्रह्मसत्तासामान्यं सीतातत्त्वमुपास्महे॥
अथर्वणवेदप्रविभक्तेयं सीतोपनिषद् ब्रह्मातिरिक्तयाथात्म्यं प्रपञ्चयन्ती प्रवृत्ता। अस्याः स्वल्पग्रन्थतो विवरणमारभ्यते। देवकदम्बप्रजापतिप्रश्नप्रतिवचनरूपेयमाख्यायिका विद्यास्तुत्यर्था। आख्यायिकामनुक्रामति—देवा इति॥१॥ देवैः पृष्टः स होवाच प्रजापतिः। किमिति? सा सीतेति। या हि मूलप्रकृतित्वेन प्रणवत्वेन प्रकृता सेयं प्रणवमूलप्रकृतिः सीतेत्युच्यते॥२॥
सीताप्रकृतेरक्षरार्थः
सीता इति त्रिवर्णात्मा साक्षान्मायामया भवेत्।
विष्णुः प्रपञ्चबीजं च माया ईकार उच्यते॥३॥
सकारः सत्यममृतं प्राप्तिः सोमश्च कीर्त्यते।
तकारस्तारलक्ष्म्या च वैराजः प्रस्तरः स्मृतः॥४॥
सीताप्रकृतेरक्षरार्थमाह—सीता इति। या स्वातिरिक्तमेति प्रतिपादयति सेयं माया ब्रह्मविद्या सीतेति वर्णत्रयसमुदायार्थः। आदौ सीतेत्यत्र—सकारोपरि श्रूयमाण-ईकारार्थमाह—विष्णुरिति। प्रत्यगभेदेन यः सर्वं व्याप्नोति सोऽयं विष्णुः सर्वसाक्षी प्रपञ्चारोपाधिकरणतया प्रपञ्चबीजं ईश्वरचैतन्यं च यामवष्टभ्य आत्मा साक्षीशजीवभावमेति सेयं माया च ईकारस्यार्थ उच्यते॥३॥ सकारार्थमाचष्टे—सकार इति। सत्यं अवितथं स्वरूपं अमृतं मरणधर्मरहितं प्राप्तिः कर्मयोगभक्तिज्ञानफलाप्तिः, उमया सहितः सोमश्च ईश्वरः सकारशब्दार्थः। तकारार्थं स्पष्टयति—तकार इति। तारः प्रणवः “ओङ्कारेण सर्वा वाक् संतृण्या” इति श्रुत्यनुरोधेन तारलक्ष्मीः शब्दराशिः सरस्वती तया तारलक्ष्म्या च सह विराजत इति विराट् स एव वैराजः ब्रह्मा यं प्रणम्य सन्तो भवसागरं तरन्ति सोऽयं विराट् प्रस्तराश्च तकार इति स्मृत इत्यर्थः॥४॥
सीताया व्यक्ताव्यक्तस्वरूपम्
ईकार111रूपिणी सोमाऽमृतावयव देव्यलंकारस्त्र112ङ्मौक्तिकाद्याभरणालंकृता महामायाऽव्यक्तरूपिणी व्यक्ता भवति॥५॥ प्रथमा शब्दब्रह्ममयी स्वाध्यायकाले प्रसन्ना। उद्भवा नरकात्मिका द्वितीया
भूतले हलाग्रेसमुत्पन्ना। तृतीया ईकार113रूपिणी अव्यक्तस्वरूपा भवतीति सीता इत्युदाहरन्ति शौनकीये॥६॥
श्रीरामसान्निध्यवशाज्जगदाधारका114रिणी।
उत्पत्तिस्थितिसंहारकारिणी सर्वदेहिनाम्॥७॥
सीता भवति ज्ञेया115 मूलप्रकृतिसंज्ञिता।
प्रणवत्वात् प्रकृतिरिति वदन्ति ब्रह्मवादिनः॥इति॥८॥
सीताया व्यक्ताव्यक्तस्वरूपं त्र्यक्षरानुरूपस्वरूपं च विशदयति—ईकारेति। गुणसाम्यात्मना ईकाररूपिणी अव्यक्तरूपाऽपि श्रीरामसंकल्पवशात् सोमा सोमवत् प्रियदर्शना अमृतानवद्यावयवैः देवी देदीप्यमाना भगवदलङ्कारदिव्यस्रग्रूपिणी मौक्तिकाद्याभरणैः स्वेच्छाशक्तिविकल्पितैः नित्यालङ्कृता स्वभावतो महामाया अव्यक्तरूपिणी व्यक्ता भवति॥५॥ तस्याः प्रथमरूपं किमित्यत्र या द्विजानां स्वस्वशाखापूर्वकसर्ववेदशास्त्राध्ययनकाले सरस्वत्यात्मना शब्दब्रह्मामयी प्रसन्ना भवति सेयं प्रथमा शक्तिरिति विज्ञेया। भगवदिच्छया स्वातिरिक्ते ये न रमन्ते ते नराः सम्यग्ज्ञानिनः तेषां यत् कं ब्रह्मभावापत्तिसुखं तदेवात्मा स्वरूपं यस्याः सेयं नरकात्मिका। कदेयमुद्भवतीत्यत्र भगवद्भावमापन्नसम्यग्ज्ञहृदये निरावृतसुखरूपेण सकृत् उद्भवा सदा नित्योद्भवेत्यर्थः। येयं कैवल्यश्रीरिति विश्रुता सेयं द्वितीया सीता लक्ष्मीरूपेण भूतले हलाग्राकर्षणतःसमुत्पन्ना भवति नान्यथेत्यर्थः। या अव्यक्तस्वरूपा भवति सेयं गौर्यात्मना ईकाररूपिणी तृतीया भवति। एवं सरस्वत्यादिशक्तित्रयरूपेण कैवल्यश्रीस्वरूपेण च सेयं सीता इति वर्णत्रयार्थतया ज्ञेयेत्यर्थः। एवं ब्राह्मणेन योऽर्थोऽभिहितस्तमेतमर्थमथर्वणवेदप्रविभक्तशौनकशाखामस्तकरामतापनीये मन्त्रा उदाहरन्ति॥६॥ के ते मन्त्रा इत्यत्र श्रीरामेति। कैवल्यध्यात्मना यद्राजते महस्तत् श्रीरामशब्दार्थः। तथा च स्मृतिः—
स्वान्याश्र्यपह्नवात् सिद्धा या मुक्तिश्रीर्विजृम्भते।
तद्रूपतो राजमानं महः श्रीराम ईरितम्॥इति॥
इत्थंभूतश्रीरामसान्निध्यवशात् श्रीराममेव जगदारोपापवादाधारं करोतीति जगदाधारकारिणी भवति। किंच या सर्वदेहिनां अन्तःकरणात्मना जाग्रदादिविमोक्षान्तप्रपञ्चोत्पत्तिस्थितिसंहारान् ईश्वरेण कारयतीति तथोक्ता भवति॥७॥ सेयं मूलप्रकृतिसंज्ञिता सीतेति ज्ञेया भवति। कथमस्याः प्रकृतित्वमित्यत्र तुर्यतुर्यार्थप्रणवत्वेन प्रकृतत्वादियं ब्रह्ममात्रप्रकृतिरिति ब्रह्मवादिनो वदन्तीत्यर्थः॥८॥
सीताया ब्रह्मत्वम्
अथातो ब्रह्मजिज्ञासेति च॥९॥
सेयं सर्व116वेदमयी सर्वदेवमयी सर्वलोकमयी सर्वकीर्तिमयी सर्वधर्ममयी सर्वाधारकार्यकारणमयी महालक्ष्मीर्देवेशस्य भिन्नाभिन्नरूपा चेतनाचेतनात्मिका ब्रह्मस्थावरात्मा तद्गुणकर्मविभागभेदाच्छरीररूपा देवर्षिमनुष्यगन्धर्वरूपा असुरराक्षसभूतप्रेतपिशाचभूतादिभूतशरीररूपा भूतेन्द्रियमनः प्राणरूपेति विज्ञायते॥१०॥
यतो ब्रह्मवादिनामेवमाशयोऽत इयं ब्रह्मेति ज्ञातव्येत्याह—अथातो ब्रह्मजिज्ञासेति चेति। अथ ब्रह्मातिरिक्तं न किंचिदस्तीति श्रुत्याचार्योपदेशानन्तरमपि यतः स्वाज्ञदृष्ट्या इयं ब्रह्मातिरिक्ततया प्रकृतेव भाति अतः स्वज्ञदृष्ट्यवष्टम्भतः स्वातिरिक्तकलनापह्नवसिद्धं ब्रह्म निष्प्रतियोगिकस्वमात्रमिति सम्यग्ज्ञानावधि स्वाज्ञानुभूतप्रकृतिप्राकृतप्रपञ्चे ब्रह्मजिज्ञासा ब्रह्मदृष्टिकर्तव्येत्यर्थः। चशब्दतो जात्वपि तत्र ब्रह्मातिरिक्तदृष्टिर्न कार्येति द्योत्यते॥९॥ स्वातिरेकेण वेदलोकादीनामभिधानादिभेदभिन्नत्वात् कथमियं ब्रह्मतामर्हतीत्याशङ्क्य
वेदलोकादेः स्वविकल्पितत्वेन स्वातिरेकेणाभावात् स्वयमेव सर्वमित्याह—सेति। या ब्रह्ममात्रप्रकृतिः सेयम्॥१०॥
सीताया इच्छाऽऽदिशक्तित्रयत्वम्
सा देवी त्रिविधा भवति शक्त्यात्मना इच्छाशक्तिः क्रियाशक्तिः साक्षाच्छक्तिरिति॥११॥
एवं सार्वात्म्यमापन्नाऽपि परिच्छिन्नदृष्टीनामिच्छाऽऽदिशक्तित्रयवद्भातीत्याह—सेति। या सार्वात्म्यदृष्टीनां सर्वरूपतया स्वयमेकैव भाता सा। त्रिविधा कथमित्यत्र इच्छाशक्तिरित्यादि। साक्षाच्छक्तिर्नाम ज्ञानशक्तिरित्यर्थः॥११॥
इच्छाशक्तेः श्रीभूमिनीलाऽऽत्मकत्वम्
इच्छाशक्तिस्त्रिविधा भवति श्रीभूमिनीलाऽऽत्मिका भद्ररूपिणी प्रभावरूपिणी सोमसूर्याग्निरूपा भवति॥१२॥
इच्छाशक्तेरपि त्रैविध्यमाह—इच्छाशक्तिस्त्रिविधा भवतीति। तत् कथं? इत्यत्र—श्रीभूमिनीलात्मिकेति। श्र्यादिविष्णुपत्न्यभेदरूपत्वात्। श्र्यात्मना भद्ररूपिणी भूम्यात्मना नानाविधपुण्यस्थलरूपेण च प्रभावरूपिणी नीलात्मना सोमसूर्याग्निरूपा भवति इति विज्ञेयेत्यर्थः॥१२॥
सोमरूपा नीला
सोमात्मिका ओषधीनां प्रभवति कल्पवृक्षपुष्पफललतागुल्मात्मिका औषधभेषजात्मिका अमृतरूपा देवानां महस्तोमफलप्रदा अमृतेन तृप्तिं जनयन्ती देवानामन्नेन पशूनां तृणेन तत्तज्जीवानाम॥१३॥
सोमात्मना किं भवतीत्यत आह—सोमेति। “पुष्णामि चौषधीः सर्वाः सोमो भूत्वा रसात्मकः” इति स्मृत्यनुरोधेन सोमात्मिकेति। औषधभेषजयोः न पौनरुक्त्यं, औषधशब्देन तत्तद्रोगहरमूलिकाविशेषा उच्यन्ते, भेषजशब्देन भिषक्चिकित्सका इत्यर्थभेददर्शनात्। अमृतरूपा देवानां तृप्तिहेतुत्वात् महस्तोमफलप्रदा महान् स्तोमः परापरविद्यारूपस्तत्फलप्रदा। तत्तज्जीवानां तत्तद्भोज्यप्रदानेन तृप्तिं जयनतीत्यर्थः॥१३॥
सूर्यादिरूपा नीला
सूर्यादिसकलभुवनप्रकाशिनी दिवा रात्रिः कालकलानिमेषमारभ्य घटिकाऽष्टयामदिवसवाररात्रि117भेदेन पक्षमासर्त्वयनसंवत्सरभेदेन मनुष्याणां शतायुःकल्पनया प्रकाशमाना चिरक्षिप्रव्यपदेशा निमेषमारभ्य परार्धपर्यन्तं कालचक्रं जगच्चक्रमित्यादिप्रकारेण चक्रवत् परिवर्तमाना। सर्वस्यैतस्यैव कालस्य विभागविशेषाः प्रकाशरूपाः कालरूपा118भवन्ति॥१४॥
सूर्यादिरूपेण जगच्चकचालिकेयं भवतीत्याह—सूर्यादीति। स्वयमेव सूर्यचन्द्राद्यात्मना दिवारात्रिर्भूत्वा सकललोकान् प्रकाशयतीत्यर्थः। किंच—कालकलेति। प्रकाशमाना सती स्वविकल्पितानृतजडदुःखप्रपञ्चं सच्चिदानन्दात्मना व्याप्य चिरं रक्षतीति यस्यास्तत्त्वं प्रकर्षेण व्यपदिश्यते सेयं चिरक्षिप्रव्यपदेशा। किंच निमेषमिति। कालचक्रं, कालानां भ्रमणात्मकत्वात् चक्रत्वं, तथा स्वाविद्याद्वयतत्कार्यात्मना जगच्चक्रं, इत्यादिप्रकारेण चक्रवत परिवर्तमाना स्वाधिष्ठानाभेदादित्यर्थः। एवं नानाविभागाः प्रकृतेरेव नाधिष्ठानस्येत्यत आह—सर्वस्येति। स्वातिरिक्तधियं कालयतीति काल ईश्वरः “स एष कालो भुवनस्य गोप्ता” इति श्रुतेः। सर्वस्य सर्वारोपापवादाधिकरणस्य एतस्यैव
कालस्य ईश्वरस्य इच्छाऽऽदिशक्तित्रयप्रविभक्ता नानाविभागविशेषाः स्वाज्ञदृष्ट्या जडत्वेन नानात्वेन च भाता अपि स्वज्ञदृष्ट्या यतः स्वप्रकाशरूपा अतः कालरूपा भवन्ति। स्वातिरेकेण मायाप्रकृतिसत्त्वे एवं विभाग उपपद्यते। वस्तुतः कालरूपेश्वरस्य स्वमात्रप्रकृतित्वेऽपि स्वाज्ञादिदृष्टिमाश्रित्य नानात्वमपि युज्यते न स्वत इत्यर्थः॥१४॥
अग्निरूपा नीला
अग्निरूपा अन्नपानादि प्राणिनां क्षुत्तृष्णाऽऽत्मिका देवानां मखरूपा वनौषधीनां शीतोष्णरूपा काष्ठेष्वन्तर्बहिश्च नित्यानित्यरूपा भवति॥१५॥
तत् कथं स्वाज्ञदृष्ट्या नानात्वम्? इत्यत्र—अग्निरूपेति। अन्नपानादिरूपा। देवानां मखरूपा तेषां तदुपजीवित्वात्। वनौषधीनां शीतोष्णरूपा शीतोष्णादेर्वनौषधिवर्धकत्वात्। स्वाविद्यापदतत्कार्यकाष्ठेष्वन्तर्बहिश्च विश्वविराडोत्रादिद्रवरूपेण व्याप्य चैतन्यजडात्मना नित्यानित्यरूपा भवति॥१५॥
श्रीदेवीरूपेच्छाशक्तिः
श्रीदेवी त्रिविधं रूपं कृत्वा भगवत्संकल्पानुगुण्येन लोकरक्षणार्थं रूपं धारयति श्रीरिति लक्ष्मीरिति लक्ष्यमाणा भवतीति विज्ञायते॥१६॥
या वस्तुतः परमार्थनित्या चिच्छक्तिः सैव श्रीदेवी त्रिविधं श्रीभूमिनीलाऽऽत्मकं रूपं कृत्वा। कथमेवं ज्ञायत इत्यत्र तज्ज्ञैः श्रीरित्यादि॥१६॥
भूदेवीरूपेच्छाशक्तिः
भूदेवी ससागराम्भस्सप्तद्वीपा वसुन्धरा भूरादिचतुर्दशभुवनानामधाराधेया प्रणवात्मिका भवति॥१७॥
भूदेव्यात्मना किं भवतीत्यत आह—भूदेवीति। चिच्छक्त्यात्मना आधाराधेया स्वेन रूपेण प्रणवात्मिका भवति॥१७॥
इच्छाशक्तेः सर्वरूपत्वम्
नीला
च119 विद्युन्मालिनी सर्वौषधीनां सर्वप्राणिनां पोषणार्थं सर्वरूपा भवति॥१८॥
नीलात्मना सर्वरूपा भवतीत्याह—नीलेति। नीला च सर्वतोमुखतया विद्युन्मालिनी भूत्वा॥१८॥
इच्छाशक्तेर्भुवनाधारत्वम्
समस्तभुवनस्याधोभागे जलाकारात्मिका मण्डूकमयेति भुवनाधारेति विज्ञायते॥१९॥
केन रूपेण भुवनाधारेत्यत आह—समस्तेति॥१९॥
क्रियाशक्तेर्नादोद्भवः
क्रियाशक्तिस्वरूपम्। हरेर्मुखान्नादः। तन्नादाद्विन्दुः। बिन्दोरोंकारः। ओंकारात् परतो रामवैखानसपर्वतः। तत्पर्वते कर्मज्ञानमयीभिर्बहुशाखा भवन्ति॥२०॥
इच्छाशक्तिस्वरूपमुक्त्वा क्रियाशक्तिस्वरूपमाह—क्रियाशक्तिस्वरूपमिति। यया सर्वं क्रियते सेयं क्रियाशक्तिः, तस्याः स्वरूपमुच्यत इति शेषः। क्रियाशक्तिस्वरूपमात्मैव स्वातिरिक्तं स्वावशेषं हरतीति हरिः नारायणः परमात्मा
तन्मुखात् वैखरीप्रपञ्चहेतुः नादः प्रादुर्बभूव। तदव्यक्तरूपात् नादात्महदात्मको बिन्दुः। तथाविधबिन्दोः अहंकारात्मक ओङ्कारः। अहंकारादिभौतिकान्तभावमापन्नादोङ्कारात् परतः वैलक्षण्यतो यो राजते महीयते सोऽयं रामो वैखानसवालखिल्यादिमौनिपटलाश्रयसच्चिदानन्दपर्वतो भवति। तथाविधपर्वते परमात्मनि कर्मज्ञानमयीभिः कर्मोपासनाज्ञानकाण्डप्रकाशकैः ऋगादिचतुर्वेदतरुभिः संजाताः बहवः अशीत्यधिकशतोत्तरसहस्रसंख्याकाः शाखाः भवन्ति॥२०॥
साङ्गोपाङ्गवेदतच्छाखाकथनम्
तत्र त्रयीमयं शास्त्रमाद्यं सर्वार्थदर्शनम्।
ऋग्यजुःसामरूपत्वात् त्रयीति परिकीर्तिता॥२१॥
[हेतुना] कार्यसिद्धेन चतुर्धा परिकीर्तिता।
ऋचो यजूंषि सामान्यथर्वाङ्गिरसस्तथा॥२२॥
चातुर्होत्रप्रधानत्वाल्लिङ्गादित्रितयं त्रयी।
अथर्वाङ्गिरसं रूपं सामऋग्यजुरात्मकम्॥२३॥
तथाऽऽदिशन्त्याभिचारसामान्येन पृथक् पृथक्।
एकविंशतिशाखायामृग्वेदः परिकीर्तितः॥२४॥
शतं च नव शाखासु120यजुषामेव जन्मनाम्।
साम्नः सहस्रशाखाः स्युः पञ्चशाखा अथर्वणः॥२५॥
वैखानसमतं तस्मिन्नादौ प्रत्यक्षदर्शनम्।
स्मर्यते मुनिभिर्नित्यं वैखान121समतः परम्॥२६॥
कल्पो व्याकरणं शिक्षा निरुक्तं
ज्योतिषं छन्दः एतानिषडङ्गानि॥२७॥
उपाङ्गमयनं चैव मीमांसा न्यायविस्तरः।
धर्मज्ञसेवितार्थं च वेदवेदोऽधिकं तथा॥२८॥
निबन्धाः स122र्वशाखा च समयाचारसङ्गतिः।
धर्मशास्त्रं महर्षीणामन्तःकरणसंभृतम्॥
इतिहासपुराणाख्यमुपाङ्गश्च प्रकीर्तितः॥२९॥
वास्तुवेदो धनुर्वेदो गान्धर्वो123 दैविकस्तथा।
आयुर्वेदश्च पञ्चैते उपवेदाः प्रकीर्तिताः॥३०॥
दण्डो नीतिश्च वार्ता च विद्या वायुजयः परः।
एकविंशतिभेदोऽयं स्वप्रकाशः प्रकीर्तितः॥३१॥
चतुर्वेदस्वरूपं तच्छाखाभेदं च प्रकटयति—तत्रेति। काण्डत्रयार्थप्रकाशकत्वं सर्वार्थदर्शनत्वम्। कथमेतस्य त्रयीत्वमित्यत्र—ऋग्यजुस्सामरूपत्वादिति॥२१॥ अथर्वणपृथक्करणं किमर्थमित्यत्राऽथर्वणस्योपासनाज्ञानकाण्डप्रकाशकत्वेऽपि कर्मकाण्डाप्रकाशनात् पृथक्करणं केवलोपासनाज्ञानकाण्डकार्यनिष्पत्तेः ऋगादिसाम्यं चाह—कार्येति। उपासनाज्ञानकाण्डनिष्ठितकार्यसिद्धेन हेतुना॥२२॥ ऋगादेस्त्रयीत्वे हेतुः—चातुर्होत्रेति। ब्रह्मा होता अध्वर्युरित्यादिभेदेन “चातुर्होत्रियमग्निं चिन्वानः” इति श्रुतिसिद्धचयनभेदेन वा चातुर्होत्रप्रधानत्वात् लिङ्गादित्रितयं लिङ्गवाक्यप्रकरणात्मकं यत्रोपलभ्यते सेयं त्रयीत्युच्यते। किंच—अथर्वाङ्गिरसमिति। त्रयीरूपमथर्वणरूपं वा कीदृशं
मित्यत्र सामऋग्यजुरात्मकं त्रयीरूपं तस्य कर्मादिकाण्डत्रयप्रकाशकत्वं ब्रह्मवादिनः आदिशन्ति।अथर्वाङ्गिरोभिर्दृष्टमथर्ववेदरूपं तु शान्तिवश्यस्तम्भनविद्वेषोच्चाटनमारणभेदेन आभिचारसामान्यप्रकाशकतया त्रयीतः पृथक् पृथक् आदिशन्तीत्यर्थः। ऋगादिवेदचतुष्टयस्य शाखासंख्याविभागमाचष्टे—एकविंशतीति।एकविंशतिशाखाभेदविशिष्ट ह्यृग्वेदः॥२३–२४॥ नवाधिकशतशाखाविशिष्टो यजुर्वेदः। सहस्रसंख्याविशिष्टः सामवेदः। पञ्चंशाखा अथर्वणः इत्यत्र पञ्चग्रहणं पञ्चाशदुपलक्षणार्थम्, “पञ्चाशच्छाखाः अथर्वणः” इति श्रुत्यन्तगत्॥२५॥ सूत्राण्यपि चतुर्वेदार्थरूपाणीत्याह—वैखानसमिति। यद्वैखानसमुनिना ऋगादिचतुर्वेदार्थः सूत्रितस्तत् सूत्रजातं वैखानसमतं सूत्रजाते तस्मिन्नादौ यद्वैखानसमुनिना सूत्रितं तत् प्रत्यक्षदर्शनं चतुर्वेदार्थसारस्य सूत्रितत्वात्। सर्वे मुनयः कृत्स्नं वैखानससूत्रजातं लब्ध्वा ततः परं तैः मुनिभिः नित्यं सूत्रजातं स्मृतिजातं च स्मर्यते क्रियते कृतमित्यर्थः॥२६॥ वेदाङ्गानि कानि? इत्यत आह—कल्प इति॥२७॥ कान्युपाङ्गानि? इत्यत आह—उपाङ्गमिति। एकस्मिन् वस्तुनि यत् सर्वमयनं पर्यवसानं भवति तत् अयनं वेदान्तशास्त्रमित्यर्थः। मीमांसा जैमिन्यादिप्रणीतशास्त्रम्। न्यायविस्तरः गौतमकणादादिप्रणीतं तर्कशास्त्रम्। धर्मज्ञैर्मन्वादिभिः सेवितोऽर्थो यत्र पुराणे दर्शितस्तत्पुराणजातं धर्मज्ञसेवितार्थम्। कर्मकाण्डगोचरो वेदः, तस्मादपि कर्मकाण्डगोचरवेदादप्यधिकमुपासनाकाण्डमित्यर्थः॥२८॥ निबन्धाः नीतिशास्त्रं, एतदर्थमेवमिति निबन्धनात्। स्वशाखेतरसर्वशाखा च। समयाचारसङ्गतिः वृद्धाचरण प्रवादः। महर्षीणां स्वयंभातवेदानां अन्तःकरणसंभृतं अन्तःकरणनिश्चितोऽर्थः धर्मशास्त्रम्। इतिहासपुराणाख्यं भारतादिः। एतानि दशसङ्ख्याकान्युपाङ्गानीति कीर्तितानीत्यर्थः॥२९॥ वेदतदङ्गोपाङ्गान्युक्त्वोपवेदानाह—वास्त्विति। वास्तुवेदःवास्तुनिर्माणादिशिल्पिशास्त्रम्। धनुर्वेदः ब्रह्मास्त्रादिविषयः। गान्धर्वः गीतिशास्त्रम्। दैविकः देवाचारनिबन्धनशास्त्रम्। आयुर्वेदाः योगशास्त्रं भिषक्छास्त्रं ज्योतिःशास्त्रं वा। पञ्चैते उपवेदा इतिकीर्तिताः॥३०॥ ऋगाद्यायुर्वेदान्तानां स्वप्रकाशब्रह्मगोचरतया स्वप्रकाशत्वं
स्यादित्याह—दण्ड इति। ऋगादिचतुर्वेदवाक्यपटलस्य दण्डोद्यतकरराजशासन वदलङ्घ्यत्वात् दण्डशब्देन ऋगादिचतुर्वेद उच्यते। नीतिशब्देन ऋगादिचतुर्वेदस्वभावनयनकल्पादिषडङ्गमुच्यते। वार्ताशब्देन ऋगादिचतुर्वेदार्थप्रकाशकवृत्तिस्थानीयोपाङ्गमुच्यते। विद्याशब्देन वास्तुवेदादिवायुजयान्तोपवेद उच्यते। तत्र वेदाश्चत्वारः। अङ्गानि षट्। उपाङ्गान्यपि षडेव। शिष्टचतुरङ्गमपि षट्स्वन्तर्भूयते। उपवेदाः पञ्च। आहत्यायमेकविंशतिधा भिन्नः। ऋगादिवायुजयान्तविद्यायाः स्वप्रकाशब्रह्ममात्रपर्यवसन्नतयाऽयं भेदः स्वप्रकाश एवेति परिकीर्तितः कथित इत्यर्थः॥३१॥
नादस्यैव वेदशास्त्रद्वारा ब्रह्मभवनम्
वैखानसऋषेः पूर्वं विष्णोर्वाणी समुद्भवेत्।
त्रयीरूपेण संकल्प्य इत्थं देही विजृम्भते॥३२॥
संख्यारूपेण संकल्प्य वैखानसऋषेः पुरा।
उदितो यादृशः पूर्वं तादृशं शृणु मेऽखिलम्॥
शश्चद्ब्रह्मामयं रूपं क्रियाशक्तिरुदाहृता॥३३॥
पुरा हरिमुखोदितनाद एव कृत्स्नवेदशास्त्राकृतिर्भूत्वा ततो ब्रह्मभावमेत्य ब्रह्मैव भवतीत्याह—वैखानस इति। स्वानन्यभावमापन्नवैखानसहृदये प्रत्यगभिन्नब्रह्मभावमृषति गच्छतीति वैखानस ऋषिः विष्णुः, तस्य विष्णोः मुखात् पूर्वं नादरूपिणी या वाणी समुद्भवेत् “हरेर्मुखान्नादः” इत्युक्तत्वात्, सेयमादौ हरिजा नादरूपिणी वाणी त्रयीरूपेण चतुर्वेदगतानेकसङ्ख्याऽन्वितशाखाभेदेन च विजृम्भते विजृम्भिता भवति॥३२॥ यादृशो नादः वैखानसऋषेः मुखात् उदितः मे मत्तः सकाशात् तादृशमखिलं लयक्रमं शृणु। तत् कथमित्यत्र या पुरा वेदशास्त्ररूपेण विजृम्भिता सा प्रणवात्मना लीयते, सोऽयं प्रणवः स्वावयवाकारादिमात्रात्रयमुपसंहृत्य बिन्द्वात्मना विलीयते, बिन्दुः नादात्मना,
नादो विष्ण्वात्मना, विष्णुः व्याप्यव्यापककलनापह्नवसिद्धं ब्रह्ममयं रूपं निष्प्रतियोगिकब्रह्ममात्रमवशिष्यत इत्यादिकलना यया क्रियते सेयं क्रियाशक्तिरित्यमि धीयत इत्यर्थः॥३३॥
साक्षाच्छक्तिस्वरूपम्
साक्षाच्छक्तिर्भगवतः स्मरणमात्ररूपाऽऽविर्भावप्रादुर्भावात्मिका निग्रहानुग्रहरूपा शन्तितेजोरूपा व्यक्ताव्य124क्तकारणचरणसमग्रावयवमुखवर्णभे125दाभेदरूपा भगवत्सहचारिणी अनपायिनी अनवरतसहाश्रयिणी उदितानुदिताकारा निमेषोन्मेषसृष्टिस्थितिसंहारतिरोधानानुग्रहादिसर्वशक्तिसामर्थ्यात् साक्षाच्छक्तिरिति गीयते॥३४॥
साक्षाच्छक्तिस्वरूपमाह—साक्षादिति। ब्रह्मसाक्षात्कारवृत्तिर्ज्ञानं तद्गोचरा चिच्च साक्षाच्छक्तिः सेयं भगवद्रूपाऽपि भगवतः स्मरणमात्रेण स्वाज्ञदृष्ट्या आविर्भावतिरोभावनिग्रहानुग्रहतत्कलनाशान्तितेजोरूपा व्यक्ताव्यक्तप्रपञ्चकारणीभूतचरणादिसमग्रावयवसंपन्ना स्वाज्ञदृष्ट्या भगवतो भेदाभेदरूपा भगवत्सहचारिणी सृष्ट्यादिपञ्चकृत्यकरणसमर्था सैव साक्षाच्छक्तिरित्यर्थः॥३४॥
योगशक्तिरूपेच्छाशक्तिः
इच्छाशक्तिस्त्रिविधा। प्रलयावस्थायां विश्रमणार्थं भगवतो दक्षिणवक्षःस्थले श्रीवत्साकृतिर्भूत्वा विश्रम्यतीति सा योग126शक्तिः॥३५॥
पुनर्योगभोगवीरशक्तिभेदेनेच्छाशक्तिस्त्रिविधा। तत्र योगशक्तिस्वरूपमाह—प्रलयेति। स्वविश्रमणार्थम्। स्वयं श्रीवत्साकृतिः॥३५॥
भोगशक्तिरूपेच्छाशक्तिः
भोगशक्तिर्भोगरूपा कल्पवृक्षकामधेनुचिन्तामणिशङ्खपद्मनिध्यादिनवनिधिसमाश्रिता भगवदुपासकानां कामनया अकामनया वा भक्तियुक्ता नरं नित्यनैमित्तिककर्मभिरग्निहोत्रादिभिर्वा यमनियमासनप्रा127णायामप्रत्याहारधारणाध्यान128समाधिभिर्वा गो129पुरप्राकारादिभिर्विमानादिभिः130 सह भगवद्विग्रहार्चापूजोपकरणैरर्चनैः स्नानादिभिर्वा पितृपूजादिभिरन्न131पानादिभिर्वा भगवत्प्रीत्यर्थमुक्त्वा सर्वं क्रियते॥३६॥
तत्र भोगशक्तिस्वरूपमाह—भोगेति। भोगरूपा किमाश्रिता सतीत्यत्र—कल्पेति। पद्मनिध्यादिनवनिधिसमाश्रिता सती भगवतो भोगयोग्या भवति। न केवलं भगवतः, किंतु तद्भक्तानामपीत्याह—भगवदिति। ध्यानसमाधिभिर्वा संयोज्य तत्तत्फलभोगिनं करोतीत्यर्थः। यस्तादृशाधिकारी न भवति तं गोपुरेति। क्षुत्तृष्णावत्प्राणिजातस्य तत्तदुचितान्नपानादिदापनशक्तिभिर्वा संयोज्य तत्तत्फलभोगभोगिनं करोति।किमर्थमनयैवं क्रियत इन्यत्र, एवं भगवद्भक्ततोषणं भगवत्प्रीत्यर्थं इत्युक्त्वा पूर्वोक्तं सर्वं अनया भोगशक्त्या क्रियते, न हि कार्यान्तरमुद्दिश्येत्यर्थः॥३६॥
वीरशक्तिरूपेच्छाशक्तिः
अथातो वीरशक्तिश्चतुर्भुजाऽभयवरदपद्मधरा किरीटाभरणयुता सर्वदेवैः परिवृता कल्पतरुमूले चतुर्भिर्गजै रत्नघटैरमृतजलैरभिषिच्यमाना सर्वदेवतैर्ब्रह्मादिभिर्वन्द्यमाना अणिमाद्यष्टैश्वर्ययुता संमुखे132 कामधेनुना स्तूयमाना वेदशास्त्रादिभिः स्तूयमाना जयाद्यप्सरस्त्रीभिः परिचर्यमाणा आदित्यसोमाभ्यां दीपाभिः प्रकाशिष्यमाणा133 तुम्बुरुनारदादिभिर्गीयमाना राकासिनीवालीभ्यां छत्रेण ह्लादिनीमयाभ्यां चामरेण स्वाहास्वधाभ्यां व्यजनेन भृगुपुण्यादिभिरभ्यर्च्यमाना देवी दिव्यसिंहासने पद्मासनारूढा सकलकारणकार्यकरी लक्ष्मीर्देवस्य पृथग्भवनकल्पनालंचकार स्थिरा प्रसन्नलोचना सर्वदेवतैः पूज्यमाना वीरलक्ष्मीरिति विज्ञायत इत्युपनिषत्॥३७॥
वीरलक्ष्मीस्वरूपमाह—अथेति। अनर्घकिरीटाभरणयुता जयजयेति अप्सरस्त्रीभिः अप्सरोभिः परिचर्यमाणा। दीपाभिः स्वतेजसा दीपभावमापन्नाभ्यां दीपाभ्याम्। राकासिनीवालिभ्यां पूर्णिमाऽमावास्याभ्याम्। छत्रेण ह्
लादिनीमयाभ्यां चामरे छत्रचामरहस्ताभ्यामित्यर्थः। व्यजनेन व्यजनहस्ताभ्यां वीज्यमानेत्यर्थः। भृगुपुण्यादिभिः अभ्यर्च्यमाना भृगोस्तपःफलरूपत्वात्। पृथग्भवनकल्पनाभिः अलंचकारेव स्थिता। यदकार्यमकारणं चिन्मात्रं तस्य मिथ्यास्वाविद्याद्वयसंबन्धतः कार्यकारणोपाधिकजीवत्वमीश्वरत्वं च करोतीति कार्यकारणत्वकरीत्यत्र “जीवेशावाभासेन करोति” इति श्रुतेः। स्वाज्ञदृष्ट्या लक्ष्मीः। यैवं सर्वदेवतैः पूज्यमाना सेयम्। सा सीतेत्यारभ्य
वीरलक्ष्मीरिति विज्ञायते इत्यन्तप्रन्थप्रतिपाद्या चिच्छक्तिः सीता चित्सामान्यरूपत्वात्। सीतातत्त्वं तु शक्तित्रयापह्नवसिद्धं चिन्मात्रमित्यर्थः। इत्युपनिषच्छब्दः सीतोपनिषत्समाप्त्यर्थः॥३७॥
श्रीवासुदेवेन्द्रशिष्योपनिषद्ब्रह्मयोगिना।
लिखितं स्याद्विवरणं सीतोपनिषदः स्फुटम्।
सीतोपनिषदो व्याख्याग्रन्थस्तु द्विशतं स्मृतः॥
इति श्रीमदीशाद्यष्टोत्तरशतोपनिषच्छास्त्रविवरणे पञ्चचत्वारिंशत्सङ्ख्यापुरकं
सीतोपनिषद्विवरणं संपूर्णम्
___________
सौभाग्यलक्ष्म्युपनिषत्
वाङ् मे मनसि—इति शान्तिः
प्रथमः खण्डः
सौभाग्यलक्ष्मीविद्याजिज्ञासा
अथ भगवन्तं देवा ऊचुर्हे भगवन्नः कथय सौभाग्यलक्ष्मीविद्याम्॥१॥
सौभाग्यकैवल्यलक्ष्मीविद्यावेद्यसुखाकृति।
त्रिपान्नारायणानन्दरामचन्द्रपदं भजे॥
इह खलु ऋग्वेदप्रविभक्तेयं सौभाग्यलक्ष्म्युपनिषत् श्रीसूक्तवैभवैकाक्षरादिश्रीदेवीमन्त्रग्रामयन्त्रनवचक्रविवेकादियोगसाम्राज्यप्रकटनव्यग्रा निष्प्रतियोगिकब्रह्ममात्रपर्यवसन्ना विजयते। अस्याः संक्षेपतो विवरणमारभ्यते। देवतापटलनारायणप्रश्नप्रतिवचनरूपेयमाख्यायिका विद्यास्तुत्यर्था। आख्यायिकामवतारयति—अथेति। किमिति—हे भगवन्निति॥१॥
सौभाग्यलक्ष्मीध्यानम्
तथेत्यवोचद्भगवानादिनारायणः सर्वे देवा यूयं सावधानमना134 भूत्वा शृणुत। तुरीयरूपां तुरीयातीतां सर्वोत्कटां सर्वमन्त्रासनगतां
पीठोपपीठदेवतापरिवृतां चतुर्भुजां श्रियं हिरण्यवर्णामिति पञ्चदशभिर्ध्यायथ॥२॥
देवबृन्दप्रश्नमङ्गीकृत्य तथेत्यवोचत्। देवानभिमुखीकरणायेदमाह—सर्वे देवा इति। किं तदस्माभिः कर्तव्यमित्यत्र—तुरीयरूपामिति। या प्रणवत्वेन प्रकृता सौभाग्यमहालक्ष्मीस्तामर्धमात्रात्मना तुरीयरूपां नादात्मना तुरीयातीतां एवंरूपेण सर्वैरपि ज्ञातुमशक्यत्वात् सर्वोत्कटां सर्वदुरासदां नादरूपप्रकृतेरसमाहितचित्तैरासादितुमशक्यत्वात्, स्वाज्ञजनानुकम्पयैकाक्षरादिसर्वमन्त्रासनगतां, पीठोपपीठदेवतापरिवृतां पीठं सौभाग्यलक्ष्मीविद्याप्रकटितश्रीचक्रं तत्रत्यैकैककोणविलसितान्युपपीठानि चक्राणि तत्तत्पीठेश्वरीभिर्देवताभिः परिवृतां, चतुर्भुजां श्रियं “हिरण्यवर्णां हरिणीं” इत्यादि पञ्चदशग्
भिः ध्यायथ ध्यानं कुरुत। एवं ध्यायतां देवताप्रसादेन निर्विकल्पात्मकतुरीयतुरीयातीतदेवताध्यानाधिकारो भवेदित्यर्थः॥२॥
श्रीसूक्तस्य ऋष्यादि
अथ पञ्चदशऋगात्मकस्य श्रीसूक्तस्यानन्दकर्दमचिक्लीतेन्दिरासुता ऋषयः। श्रीरित्याद्या[या] ऋचः। चतुर्दशा135नामृचामा नन्दायृषयः। हिरण्यवर्णामित्याद्यृक्त्रयस्यानुष्टुप् छन्दः। कांसोऽस्मीत्यस्य बृहती छन्दः। तदन्ययोर्द्वयोस्त्रिष्टुप्। पुनरष्टकस्यानुष्टुप्। शेषस्य प्रस्तारपङ्क्तिः। श्र्यग्नि136र्देवता। हिरण्यवर्णामिति बीजम्। कांसोऽस्मीति शक्तिः। हिरण्मया चन्द्रा रजतस्रजा हिरण्यस्रजा हिरण्या हिरण्यवर्णेति प्रणवादिनमोऽन्तेश्चतुर्थ्यन्तैरङ्गन्यासः। अथ
वक्त्रत्रयैरङ्गन्यासः। मस्तकलोचनश्रुतिघ्राणवदन
कण्ठ137बाहुद्वय
हृन्नाभि138गुह्यपायूरुजानुजङ्घेषु श्रीसूक्तैरेव क्रमशो न्यसेत्॥३॥
अमल139कमलसंस्था तद्रजः पुञ्ज140वर्णा
करकमलघृतेष्वाभी141तियुग्माम्बुजा च।
मणिमकुटविचित्रालंकृताकल्पजालैः
सकलभुवनमाता संततं श्रीः श्रियैनः142॥४॥
हिरण्यवर्णामित्यादिपञ्चदशर्चामृषिच्छन्दोदेवताऽऽदिकमुच्यते—अथेति। श्रीशब्देनाग्निरुच्यते, वक्ष्यति चैवं “श्र्याग्निर्देवता” इति॥३—४॥
सौभाग्यलक्ष्मीचक्रम्
तत्पीठम्। कर्णिकायां ससाध्यं श्रीबीजम्। वस्वादित्यकलापद्मेषु श्रीसूक्तगतार्घार्धर्चा तद्बहिर्यः शुचिरिति मातृकया च श्रियं यन्त्राङ्गदशकं च विलिख्य श्रियमावाहयेत्॥५॥
अङ्गैः प्रथमाऽऽवृतिः। पद्मादिभिर्द्वितीया। लोकेशैस्तृतीया। तदायुधै स्तुरीयाऽऽवृतिर्भवति। श्रीसूक्तैरावाहनादि। षोडशसहस्र जपः॥६॥
तस्याः सौभाग्यलक्ष्मीदेवतायाः पीठं चक्रमुच्यते। सौवर्णे राजते ताम्रे वा—
उत्तमं दशनिष्कं स्यान्मध्यमं पञ्चनिष्ककम्।
अधमं कर्षमात्रं स्यात् पादहीनं न कारयेत्॥
इति मन्त्रशास्त्रानुरोधेन चतुरश्रं यन्त्रं कृत्वा तन्मध्यकर्णिकायां मम सर्वाभीष्टसिद्धिं कुरुकुरु नम इति साध्येन सहितं ससाध्यं श्रीबीजं विलिख्य वस्वादित्यकलापद्मेषु अष्टद्वादशषोडशदलेषु श्रीसूक्तगतार्घार्धर्चाक्रमेण विलिख्य शिष्टषदपत्रेषु कामधेनुं शङ्खनिधिमकरनिधिसौभाग्यनिधिमोक्षनिधिबोधकल्पकतरूणां मन्त्रान् प्रणवादिनमोऽन्तान् विलिख्य षोडशदलवृत्तात् बहिः यः शुचिरित्यृचा अकारादिलकारान्तपञ्चाशद्वर्णमातृकया च विलिख्य श्रियं श्रीबीजं परितो विलिख्य—
बीजं प्राणं च शक्तिं च दृष्टि वश्यादिकं तथा।
मन्त्रयन्त्राख्यगायत्रीप्राणस्थापनमेव च।
भूतदिक्पालबीजानि यन्त्रस्याङ्गानि वै दश॥
इति यन्त्राङ्गदशकं च विलिख्य श्रियमावाहयेत्॥५॥ अथावरणान्युच्यन्ते—अङ्गैरिति। श्रां हृदयाय नमः इत्यादिषडङ्गैः प्रथमाऽऽवृतिः। पद्मा, पद्मवासिनी, पद्मालया, पद्महस्ता, पद्मप्रिया, वरदा, विष्णुपत्नी, आदिलक्ष्मीरिति प्रणवादिनमोऽन्तैश्चतुर्थ्यन्तैर्यजेत्। इन्द्राय नम इत्यादिलोकेशमन्त्रैः। वज्राय नम इति तदायुधैश्व पूजयेदित्यर्थः। अथ श्रीसूक्तैः आवाहनादिषोडशोपचारपूजां कुर्यात्। श्रीसूक्तपुरश्चरणा तु षोडशसहस्रजपः॥६॥
एकाक्षरीमन्त्रस्यऋष्यादि
सौभाग्यरमैकाक्षर्या भृगुनृचद्गायत्रीश्रिय ऋष्यादयः। शमिति बी143जशक्तिः। श्रामित्यादि षडङ्गम्॥७॥
भूयाद्भूयो द्विपद्माभयवरदकरा तप्तकार्तस्वराभा
शुभ्राभ्रामेमयुग्मद्वयकरधृतकुम्भाद्भिरासिच्यमाना।
रत्नौघा144बद्धमौलिर्विमलतरदुकूलार्तवालेपनाढ्या
पद्माक्षी पद्मनाभोरसि कृतवसतिः पद्मगा श्रीः श्रियैः नः145॥८॥
साङ्गमेकाक्षरीमनुं तत्पीठं चाह—सौभाग्येति॥७॥ ध्यानं भूयादिति॥८॥
एकाक्षरीचक्रम्
तत्पीठम्। अष्टपत्रं वृत्तत्रयं द्वादशराशिखण्डं चतुरश्रं रमापीठं भवति। कार्णिकायां ससाध्यं श्रीबीजम्। विभूतिरुन्नतिः कान्तिः सृष्टिः कीर्तिः सन्नतिर्व्यष्टिरुत्कृष्टि146र्ऋद्धिरिति प्रणवादिनमोऽन्तैश्चतुर्थ्यन्तैर्नवशक्तिं यजेत्॥९॥
अङ्गैः प्रथमाऽऽवृतिः। वासुदेवादिर्द्वि147तीया। बालक्यादिस्तृ148तीया। इन्द्रादिभिश्चतुर्थी भवति। द्वादशलक्षजपः॥१०॥
तत्रैव विभूतिरित्यादि॥९॥ पूर्ववत् अङ्गैः। वासुदेवादिचतुर्व्यूहैः द्वितीयाऽऽवृतिः। बालक्यादिः—आदिशब्देन भुक्तिर्मुक्तिर्विभूतिर्ऋद्धिः समृद्धि स्तुष्टिः पुष्टिर्धात्रीति प्रणवादिनमोन्तैश्चतुर्थ्यन्तैर्यजेत्॥१०॥
लक्ष्मीमन्त्रविशेषाः
श्रीलक्ष्मीर्वरदा विष्णुपत्नी वसुप्रदा हिरण्यरूपा स्वर्णमालिनी रजतस्रजा स्वर्णप्रभा स्वर्णप्राकारा पद्मवासिनी पद्महस्ता पद्मप्रिया मुक्तालंकारा चन्द्रा सूर्या बिल्वप्रिया ईश्वरी भुक्तिर्मुक्तिर्विभूतिर्ऋद्धिः समृद्धिः कृष्टिः पुष्टिर्धनदा149धनेश्वरी श्रद्धा भोगिनी भोगदा धात्री विधात्रीत्यादिप्रणवादिनमोऽन्ताश्चतुर्थ्यन्ता मन्त्राः। एकाक्षरवदङ्गादि-
पीठम्। लक्षजपः। दशांशं तर्पणम्। शतांशं हवनम्। सहस्रांशं द्विजतृप्तिः॥११॥
निष्कामानामेव श्रीविद्यासिद्धिः। न कदापि सकामानामिति॥१२॥
पुनर्लक्ष्मीमन्त्रविशेषानाह—श्रीरित्यादि॥११–१२॥
इति प्रथमः खण्डः
____________
द्वितीयः खण्डः
उत्तमाधिकारिणां ज्ञानयोगः
अथ हैनं देवा ऊचुस्तुरीयया मायया निर्दिष्टं तत्त्वं ब्रूहीति।
तथेति स होवाच—
योगेन योगो ज्ञातव्यो योगो योगात् प्रवर्धते।
योऽप्रमत्तस्तु योगेन स योगी रमते चिरम्॥१॥
देवा नारायणमुखतो मन्त्रोपासनाकाण्डं यथावदवगम्य योगकाण्डबुभुत्सया भगवन्तं पृच्छन्तीत्याह—अथेति। तुरीयया अन्त्यया। तैरेवं पृष्टः तथेति स होवाच। किं तदित्यत्र—योगेनेति। ब्रह्मातिरिक्तं न किंचिदस्तीति ज्ञानमेव योगः, तेन ज्ञानयोगेन तत्त्वंपदगतवाच्यार्थनिरसनपूर्वकं तत्त्वंपदलक्ष्यभूतप्रत्यक्परचितोः योगो ज्ञातव्यः प्रत्यक्परचितोरैक्यस्य स्वाज्ञविकल्पितजीवपरभेदप्रहाणपूर्वकत्वात्। पुनः प्रत्यक्परयोः योगः ऐक्यं
ज्ञानयोगात् प्रवर्धते भेदप्रत्ययवैरल्येन दृढतां भजते। इत्थंभूतज्ञानयोगेन योऽप्रमत्तस्तु सदाऽनुसन्धानपर एव भवति सोऽयं योगी प्रत्यक्परचितोः योगः ऐक्यं तत्रैव चिरं रमते॥१॥
षण्मुखीमुद्राऽन्वितप्राणायामयोगः
समापय्य निद्रां सुजीर्णेऽल्पभोजी
श्रमत्याज्यबाधे विविक्ते प्रदेशे।
सदाऽऽसीत निस्तृष्ण एष प्रयत्नो-
ऽथ वा प्राणरोधो निजाभ्यासमार्गात्॥२॥
वक्त्रेणापूर्य वायुं हुतवहनिलयेऽपानमाकृष्य धृत्वा
स्वाङ्गुष्ठाद्यङ्गुलीभिर्वरकरतलयोः षड्भिरेवं निरुध्य।
श्रोत्रे नेत्रे च नासापुटयुगलमथोऽनेन मार्गेण सम्यक्
पश्यन्तिप्रत्ययांसं150 प्रणवबहुविधध्यानसंलीनचित्ताः॥३॥
इत्युत्तमाधिकारिणामेवं ज्ञानयोगमुक्त्वाऽथ षण्मुखीमुद्राऽन्वितप्राणायामयोगमाह—समापय्येति।
युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु।
युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा॥
इति स्मृत्यनुरोधेन निद्रां समापय्य यथोक्तकाले निद्रां कृत्वाऽथ पूर्वभुक्तान्ने जीर्णे ततोऽल्पभोजी अल्पाहारी योगानुकूलेन मिताहारं कुर्वन् श्रमत्याजी जितश्रमो भूत्वा अबाधे मशकपिपीलिकामत्कुणादिबाधारहिते विविक्तेजनसंबाधरहिते प्रदेशे मृद्वास्तरणे समारोपितपद्माद्यासने सदाऽऽसीत सर्वदा तिष्ठेत्
नानाविधफल्गुसिद्धिजाले निस्तृष्णो विगततृष्णो भूत्वा देशिकमुखतो लब्धनिजाभ्यासमार्गात् अप्रच्युतो भूत्वा एष योगी ग्रन्थित्रयभेदने कृतप्रयत्नो भूयात्। अथवा तादृशशक्त्यभावे तदुपायतयाऽनेन प्राणरोधः प्राणायामः कर्तव्यः॥२॥ षण्मुखीमुद्रां तत्फलं चाह—वक्त्रणेति। केचन योगिनः सीत्कारपूर्वकं वक्त्रेण वायुमापूर्य ऊर्ध्वगतिं प्राणमधोगतिं विधाय तथा हुतवहनिलये मूलाधारत्रिकोणस्थाग्निमण्डले अपानमाकृष्य आकुञ्च्य धृत्वा मूलाधारे धारणां कृत्वा स्वाङ्गुष्ठाद्यङ्गुलीभिः षड्भिः श्रोत्रादिकरणानि पिधाय योगिनः प्रणवप्रविभक्तविश्वविराडोत्रादिद्वितुर्याविकल्पान्तबहुविधध्यानसंलीनचित्ताः सन्तः सहस्रारचक्रे प्रत्ययांसं प्रत्यक्चैतन्यं पराभेदेन सम्यक्पश्यन्ति अपरोक्षीकुर्वन्तीत्यर्थः॥३॥
नादाविर्भावपूर्वको ग्रन्थित्रयभेदः
श्रवणमुखनयननासानिरोधनेनैव कर्तव्यम्।
शुद्धसुषुम्नासरणौ स्फुटममलं श्रूयते नादः॥४॥
विचित्रघोषसंयुक्ताऽनाहते श्रूयते ध्वनिः।
दिव्यदेहश्च तेजस्वी दिव्यगन्धोऽप्यरोगवान्॥५॥
संपूर्णहृदयः शून्ये त्वारम्भे योगवान् भवेत्।
द्वितीयां विघटीकृत्य वायुर्भवति मध्यगः॥६॥
दृढसनोभवेद्योगी पद्माद्यासनसंस्थितः।
विष्णुग्रन्थेस्ततो भेदात् परमानन्दसंभवः॥७॥
अतिशून्यो विमर्दश्च भेरीशब्दस्ततो भवेत्।
तृतीयां यत्नतो भित्त्वा निनादो मद्दलध्वनिः॥८॥
एवं षण्मुखीमुद्राऽभ्यासतो ब्रह्ममन्थ्यादिप्रन्थित्रयमपि भिद्यते, प्रतिप्रन्थिभेदनं विचित्रनानाविधनादाविर्भावो भवति, तन्नादलयतो निर्विकल्पकसमाधिर्जायत
इत्याह—श्रवणेति। श्रवणादिकरणनिरोधलक्षणषण्मुखीमुद्राऽभ्यसनं योगिना कर्तव्यम्। एवं चिरकालाभ्यासतः प्राणवायुः सुषुम्नां प्रविशति, तत्प्रवेशमात्रेण सुषुम्नामार्गे नादाविर्भावो भवतीत्यर्थः॥४॥ एवं नादश्रवणतोऽयं भवति योगीत्याह—विचित्रेति। यदा सुषुम्नायां प्राणः प्रविशति तदा योगिनः अनाहते हृदयकमले विचित्रघोषवति ध्वनिः श्रूयते। तावन्मात्रेण नीरोगो भूत्वा तेजोवद्दिव्यगन्धो भवति॥५॥ संपूर्णविकसितहृदयश्च भवति। शून्ये तत्रत्या काशे तु नादारम्भमात्रेणायं दिव्ययोगवान् भवेदित्यर्थः। ब्रह्मग्रन्थिभेदतो दिव्यदेहादिसिद्धिरुक्ता, अथ विष्णुग्रन्थिभेदतो भेरीध्वनिरुदेतीत्याह—द्वितीयामिति। प्रथमभूमिकां जित्वाऽथ द्वितीयां भूमिकामपि विष्णुग्रन्थिभेदनरूपां विशेषेण घटीकृत्य विष्णुग्रन्थि भित्त्वा तद्भेदतो वायुर्मध्यगतो भवति॥६॥ ततः पद्माद्यासनस्थस्य योगिनः परमानन्द उदेति॥७॥ अतिशून्योऽनाहतमप्यतिक्रम्य ततोऽतिविमर्दो भेरीशब्दो भवेदित्यर्थः। रुद्रग्रन्थिभेदतो वैष्णवनाद उदेति ततस्तच्चितं ब्रह्माकारं—भवतीत्याह तृतीयामिति। रुद्रग्रन्थिरूपां तृतीयभूमिकां दुर्भेद्यामपि यत्नतो भित्त्वा वर्तमानस्य योगिनो महलध्वनिः श्रूयते॥८॥
अखण्डब्रह्माकारवृत्तिः
महाशून्यं ततो याति सर्वसिद्धिसमाश्रयम्।
चित्तानन्दं ततो भित्त्वा सर्वपीठगतानिलः॥९॥
निष्पत्तौ वैष्णवः शब्दः क्वणतीति क्वणो भवेत्।
एकीभूतं तदा चित्तं सनकादिमुनीडितम्॥१०॥
अन्तेऽनन्तं समारोप्य खण्डेऽखण्डं समर्पयन्।
भूमानं प्रकृर्ति ध्यात्वा कृतकृत्योऽमृतो भवेत्॥११॥
ततः तत्प्राणो सर्वसिद्ध्यास्पदं महाशून्यं सहस्राराकाशं याति। तदा चित्तमानन्दाभिमुखं भवति। तत्रानास्वादतश्चित्तानन्दमपि भित्त्वा वर्तमानस्य
प्राणानिलः कामरूपपीठादिसर्वपीठगतो भवति॥९॥एवं योगनिष्पत्तौ क्वणतीति क्वणो वैष्णवः शब्दो भवेत्। यत्प्रत्यग्ब्रह्मैक्यं “पश्यतेहापि सन्मात्रमसदन्यत्”, “ब्रह्ममात्रमसदन्यत्” इत्यादिश्रुतिशतेन सनकादिमुनीडितं तत्रैव चित्तमेकीभूतं ब्रह्माकाराखण्डवृत्तिमद्भवतीत्यर्थः॥१०॥ स्वाज्ञदृष्टिविकल्पितस्वातिरिक्तपरिच्छिन्नखण्डप्रपञ्चे सति कथमखण्डब्रह्ममात्रज्ञानं तत्फलसिद्धिर्वेत्याशङ्कयाह—अन्त इति। स्वाज्ञदृष्ट्या यदि व्यष्ट्यात्मकोऽन्तः परिच्छिन्नपिण्डाण्डः कल्पितो भवति तदा स्वज्ञदृष्टिमवलम्ब्य तदन्ते देहादौ अनन्तं पराक्सापेक्षप्रत्यञ्चं समारोप्य अथ समष्टिप्रपञ्चखण्डं तदपवादाधारतया अखण्डं ब्रह्म समर्पयन् प्रत्यक्परयोरैक्यं कुर्वन् ततः प्रत्यक्पर विभागै क्यासहब्रह्ममात्रप्रकृतिं भूमानं स्वमात्रमिति ध्यात्वा कृतकृत्यो विद्वान् अमृतो विदेहमुक्तो भवेत् भवतीत्यर्थः॥११॥
निर्विकल्पभावः
योगेन योगं संरोध्य भावं भावेन चाञ्जसा।
निर्विकल्पं परं तत्त्वं सदा भूत्वा परं भवेत्॥१२॥
अहंभावं परित्यज्य जगद्भावमनीदृशम्।
निर्विकल्पे स्थितो विद्वान् भूयो नाप्यनुशोचति॥१३॥
सविकल्पप्रपञ्चे सति ब्रह्ममात्रावगतिः कुत इत्यत आह—योगेनेति। निष्प्रतियोगिकब्रह्ममात्रज्ञानयोगेन स्वातिरिक्तयोगं संरोध्य अपह्नवं कृत्वा अञ्जसा भावं विकल्पप्रपञ्चं निम्प्रतियोगिकब्रह्ममात्रभावेन ज्ञात्वा तत्समकालं विद्वान् निर्विकल्पपरब्रह्मतत्त्वं स्वयं भूत्वा सदा परमेव भवेत् भवति, “ब्रह्म वेद ब्रह्मैव भवति ”इति श्रुतेः॥१२॥ अहमिदमिति विकल्पे सति निर्विकल्पता कुत इत्यत आह—अहमिति। देहादौ तद्वाह्ये च अहंभावं जगद्भावं च “ब्रह्मातिरिक्तं न किंचिदस्ति” इति परित्यज्य अनीदृशं निर्विशेषं ब्रह्मास्मीति विद्वान् निर्विकल्पे स्थितः सन् भूयोऽपि न शोचति विषयाभावादित्यर्थः॥१३॥
सलिले सैन्धवं यद्वत् साम्यं भवति योगतः।
तथाऽऽत्ममनसोरैक्यं समाधिरभिधीयते॥१४॥
यदा संक्षीयते प्राणो मानसं च प्रलीयते।
तदा समरसत्वं यत् समाधिरभिधीयते॥१५॥
यत् समत्वं तयोरत्र जीवात्मपरमात्मनोः।
समस्तनष्टसंकल्पः समाधिरभिधीयते॥१६॥
प्रभाशून्यं मनःशून्यं बुद्धिशून्यं निरामयम्।
सर्वशून्यं निराभासं समाधिरभिधीयते॥१७॥
स्वयमुच्चलिते देहे देही नित्यसमाधिना।
निश्चलं तं विजानीयात् समाधिरभिधीयते॥१८॥
यत्रयत्र मनो याति तत्रतत्र परं पदम्।
तत्रतत्र परं ब्रह्म सर्वत्र समवस्थितम्॥१९॥
अशोच्यनिर्विकल्पे स्थितिः केत्यत आह—सलिल इति। सलिलप्रक्षिप्तपेषितसैन्धवपिण्डविलयवत् प्रत्यगभिन्नपरमात्मनि मनःप्राणविलय एव समाधिरित्यर्थः॥१४॥ इतश्च समाधिलक्षणमाह—यदेति। यदा मनः प्राणादिकं विलीयते, यदा च प्रत्यगभिन्नब्रह्मणो यत् समरसत्वं अखण्डैकरसत्वमुदेति तदैव समाधिर्भवतीत्यर्थः॥१५॥ इतश्च संकल्पाद्यनुदय एव समाधिरित्याह—यदिति॥१६॥ जाग्रदाद्यवस्थात्रयकलना यत्र न विद्यते स समाधिरित्याह—प्रभेति। प्रभाशब्देन अहंकृतिपूर्णविकासरूपं जाग्रदुच्यते। मनःशब्देन अहंकृत्यर्धविकासात्मकः स्वप्न उच्यते। स्वातिरिक्तं नास्तीति बुध्यत इति बुद्धिशब्देन अहंकृतिमुकुलीभावरूपेयं सुषुप्तिरुच्यते। एवं जाप्रदाद्यवस्थात्रयं
यत्र शून्यं अपह्नवं वा भजति यस्तदपह्नवसिद्धः सोऽयमसंप्रज्ञातसमाधिरुच्यते॥१७॥ इतश्च निश्चलतास्थितिरेव समाधिरित्याह—स्वयमिति। “ब्रह्मातिरिक्तं न किंचिदस्ति” इति नित्यसमाधिना देहे तदुपलक्षिताविद्यापदतत्कार्यजाते स्वात्मात्मीयाभिमतिवैरल्येन स्वयमेवोच्चलिते नामरूपकलनां त्यक्त्वा ब्रह्मभावं गते सति, अथ देही योगी यो निर्विशेषतयाऽवशिष्टस्तमात्मानं यदा स्वावशेषतया विजानीयात् तद्वेदनावस्थैवाऽखण्ड निर्विकल्पकसमाधिरित्यर्थः॥१८॥ मनः प्रचारविलयाधिकरणं ब्रह्मेत्याह—यत्रेति। स्वातिरिक्तं मनोऽस्तीति ये मन्यन्ते तद्दृष्टिमाश्रित्य स्वातिरिक्तकल्पकं मनो यत्र प्रचरति यत्र वा विलीयते तत्कल्पनालयाधिष्ठानं ब्रह्म सर्वगतं सर्वव्यापकं, वस्तुतोमनस्तत्कार्यव्याप्याभावाद्व्यापकत्वमपि न युज्यत इत्यर्थः, “व्याप्यव्यापकता मिथ्या सर्वमात्मेति शासनात्” इति श्रुतेः॥१९॥
इति द्वितीयः खण्डः
_____
तृतीयः खण्डः
आधारचक्रम्
अथ हैनं देवा ऊचुर्नवचक्रविवेकमनुब्रूहीति।
तथेति स होवाच—
आधारे ब्रह्मच151क्रं त्रिरावृत्तभङ्गि152मण्डलाकारं तत्र मूलकन्दे शक्तिः पावकाकारं ध्यायेत् तत्रैव कामरूपपीठं सर्वकामप्रदं153 भवति इत्याधारचक्रम्॥१॥
पुनर्देवा नवचक्रबुभुत्सया पृच्छन्तीत्याह—अथेति। नवचक्रविवेकमनुब्रूहि इति तैरेवं पृष्टः तथेति स होवाच भगवान् नारायणः। अत्राद्यं चक्रमाह—आधार इति। मूलाधारे त्रिरावृत्तभङ्ग्या वह्निमण्डलाकारं ब्रह्मचक्रं विराजते। तत्र मूलकन्दे काचन शक्तिरस्ति, तद्रूपं पावकाकारं ध्यायेत्। तत्रैव मूलाधारे सर्वकामप्रदतया कामरूपपीठं विराजते इति यत् तत् आधारचक्रं भवति॥१॥
स्वाधिष्ठानचक्रम्
द्वितीयं स्वाधिष्ठानचक्रं षड्दलं तन्मध्ये पश्चिमाभि
मुख्यं154 लिङ्गं प्रवालाङ्कुरसदृशं ध्यायेत् तत्रैवोड्याणपीठं जगदाकर्षणसिद्धिदं भवति॥२॥
द्वितीयचक्रमाह—द्वितीयमिति। षड्लाख्यं स्वाधिष्ठानचक्रम्। तत्र मांसाकारं पश्चिमाभिमुख्येन ज्योतिर्लिङ्गमस्ति, तत्प्रवालसदृशं ध्यायेत्। तत्रैव जगदाकर्षणशक्तिमत् उड्याणपीठं विराजत इति॥२॥
नाभिचक्रम्
तृतीयं नाभिचक्रं पञ्चावर्तं155सर्पकुटिलाकारं तन्मध्ये कुण्डलिनीं बालार्ककोटिप्रभां तटित्संनिभां ध्यायेत् सामर्थ्यशक्तिः सर्वसिद्धिप्रदा भवति मणिपूरकचक्रम्॥३॥
तृतीयचक्रमाह—तृतीयमिति। मणिपूरकचक्रमाश्रित्य कुण्डलिनी वर्तते तटित्प्रभा, तां ध्यायतः सर्वसिद्धिर्भवति॥३॥
हृदयचक्रम्
हृदयचक्रमष्टदलमधोमुखं तन्मध्ये ज्योतिर्मयलिङ्गाकारं ध्यायेत सैव हंसकला सर्वप्रिया सर्वलोकवश्यकरी156 भवति॥४॥
तुरीयचक्रमाह—हृदयेति। अष्टपत्राढ्यं अधोमुखं अनाहतचकं भवति। तत्रत्याकाशमध्ये कामादिवृत्तिसहस्रभावाभावप्रकाशकं ज्योतिर्लिङ्गाकारं प्रत्यञ्चमात्मानं ध्यायेत्। येह सर्वप्राणिनां हृदयाष्टदले संचरति सैव हंसकला सर्वात्मकतया सर्वजनप्रियकरी। तत्स्वरूपध्यानं सर्वलोकवश्यकरं भवति॥४॥
कण्टचक्रम्
कण्ठचक्रं चतुरङ्गुलं तत्र वामे इडा चन्द्रनाडी दक्षिणे पिङ्गला सूर्यनाडी तन्मध्ये सुषुम्नां श्वेतवर्णां ध्यायेत् य एवं वेदानाहतसिद्धिदा भवति॥५॥
पञ्चमचक्रमाह—कण्ठेति॥५॥
तालुचक्रम्
तालुचक्रं तत्रामृतधाराप्रवाहो घण्टिकालिङ्गं मूलचक्ररन्ध्रे राजदन्तावलम्बिनीविवरं दशमद्वारं157 तत्र शून्यं ध्यायेत् चित्तलयो भवति॥६॥
चित्तलयफलदं षष्ठं चक्रमाह—ताविति। तालुमूलचके लक्ष्यं ध्यायतः सूर्याचन्द्रमसोरैक्यं भवति। तत अमृतधाराप्रवाहो भवति। तत्रोर्ध्वमूलचक्ररन्धे यदन्तर्जिह्वेति प्रसिद्धं घण्टिकालिङ्गं वर्तते राजदन्तावलम्बिनीविवरं दशमद्वारं तत्र वृत्तिशून्यं ध्यायतः चित्तलयो भवति॥६॥
भ्रूचकम्
सप्तमं भ्रचक्रमङ्गुष्ठमात्रं तत्र ज्ञाननेत्रं दीपशिखाऽऽकारं ध्यायेत् तदेव कपालकन्दं वाक्सिद्धिदं भवत्याज्ञाचक्रम्॥७॥
सप्तमचक्रलक्षणमाह—सप्तममिति। आज्ञाचक्रे ज्ञाननेत्रं ध्यायतः परापरब्रह्मज्ञानं वाक्सिद्धिश्च भवतीत्यर्थः। आज्ञाचक्रं तदेव भवति॥७॥
ब्रह्मरन्ध्रचक्रम्
ब्रह्मरन्धं निर्वाणचक्रं तत्र सूचिकागृहेतरं धूम्रशिखाऽऽकारं ध्यायेत् तत्र जालन्धरपीठं मोक्षप्रदं भवतीति परब्रह्मचक्रम158॥८॥
अष्टमचक्रलक्षणमाह— ब्रह्मेति। सूचिकागृहेतरं ततोऽपि सूक्ष्माकारं बिलं धूमशिखाऽऽकारं ध्यायेत्॥८॥
आकाशचक्रम्
नवममाकाशचक्रं तत्र षोडशदलपद्ममूर्ध्वमुखं तन्मध्यकर्णिकात्रिकूटाकारं तन्मध्ये ऊर्ध्वशक्तितांपरशून्यं ध्या159येत् तत्रैव पूर्णगिरिपीठं सर्वेच्छासिद्धिसाधनं भवति॥९॥
नवमचक्रलक्षणमाह—नवममिति। षोडशदलान्वितं ऊर्ध्वमुखमाकाशचक्रं भवति। तन्मध्ये त्रिकूटाकारं ज्योतिर्वर्तते। त्रिकूटशब्देन भ्रूमध्यमुच्यते। तन्मध्ये “ऊर्ध्वमुन्नयते इत्योंकारः” इति श्रुत्यनुरोधेन ऊर्ध्वशक्तितां तुरीयोङ्काररूपतां तत्परमर्धमात्राप्रविभक्तभागत्रयमपि ब्रह्मातिरिक्तं नेतीति शून्यं
_________________________________________________________________
- अष्टमं ब्र—उ. उ १. मु.
ध्यायेत्। तत्रैव पूर्णमेवावशिष्यत इति पूर्णगिरिपीठं निष्प्रतियोगिकपूर्णब्रह्ममात्रमवशिष्यते। तदेवं “सर्वं खल्विदं ब्रह्म” इति सर्ववर्जितचिन्मात्रमिति चेच्छासिद्धिस्थानं ब्रह्मैव भवतीत्यर्थः॥९॥
एतदुपनिषदध्ययनफलम्
सौभाग्यलक्ष्म्युपनिषदं नित्यमधीते सोऽग्निपूतो भवति सवायुपूतो भवति स सकलधनधान्यसत्पुत्रकलत्रहयभूगजपशुमहिषीदासीदासयोगज्ञानवान् भवति न स पुनरावर्तत इत्युपनिषत्॥१०॥
विद्याफलमाह—सौभाग्येति। उपनिषच्छन्दः सौभाग्यलक्ष्म्युपनिषसमात्यर्थः॥१०॥
इति तृतीयःखण्डः
श्रीवासुदेवेन्द्रशिष्योपनिषद्ब्रह्मयोगिना।
सौभाग्यलक्ष्म्युपनिषद्व्याख्यानं लिखितं स्फुटम्।
सौभाग्यवृत्तिग्रन्थस्तु चत्वारिंशाधिकं शतम्॥
इति श्रीमदीशाद्यष्टोत्तरशतोपनिषच्छास्त्रविवरणे पञ्चोत्तरशतसङ्ख्यापुरकं
सौभाग्यलक्ष्म्युपनिषद्विवरणं संपूर्णम्
________
| नामधेयपदसूची | |
| यत्र पुटसंख्याऽनन्तरं तिर्यग्रेस्वायाः परं संख्या वर्तते तत्र तावती पदावृतिर्वोध्या | |
| पदम् | पदम् |
| अजपा | उमा |
| अग्निः | उषा |
| अलम्बुसा | ऋद्धिः |
| अश्वारूढा | कण्ठचक्रम् |
| अश्विनी | कपालकन्दम् |
| आकाशचक्रम् | कान्तिः |
| आज्ञाचक्रम् | कामकला |
| आदिनारायणः | कामकूटम् |
| आधारचक्रम् | कामदेवः |
| आश्वलायनः | कामरूपपीठम् |
| इडा | कामेश्वरी |
| इष्टा | कीर्तिः |
| ईश्वरी | कुरुकुल्लाबली |
| उचथ्यपुत्रः | कुहूः |
| उड्याणपीठम् | कृष्टिः |
| उत्कृष्टिः | गान्धारी |
| उन्नतिः | गायत्री |
| नामधेयपदसूची | |
| पदम् | पदम् |
| गृत्समदः | धूमावती |
| घटिकालिङ्गम् | नाभिचक्रम |
| चण्डा | निर्वाणचक्रम् |
| चन्द्रनाडी | पञ्चदशाक्षरी |
| चन्द्रा | पद्मप्रिया |
| चामुण्डा | पद्मवासिनी |
| चिल्लिङ्गम् | पद्महस्ता |
| जालन्धरपीठम् | परब्रह्मचक्रम् |
| ज्ञाननेत्रम् | पिङ्गला |
| तालुचक्रम् | पितृरूपा |
| तिरस्करिणी | पुष्टा |
| तुष्टिः | पुष्टि |
| त्रिपुरमालिनी | पूर्णगिरिपीठम् |
| त्रिपुरवासिनी | पुषा |
| त्रिपुर सिद्धा | प्रज्ञा |
| त्रिपुरसुन्दरी | प्रत्यङ्गिरा |
| त्रिपुरा | प्रभापुञ्जिनी |
| त्रिपुरामहालक्ष्मी | बगला |
| त्रिपुराम्बा | बालाम्बिका |
| त्रिपुरेशी | बिल्वप्रिया |
| त्रिपुरेश्वरी | बृहस्पतिः |
| देवी | ब्रह्मचक्र्म् |
| धनदा | बह्मरन्ध्रम् |
| धनेश्वरी | ब्रह्मानन्दकला |
| धात्री | भगमालिनी |
| नामधेयपदसूची | |
| पदम् | पदम् |
| भरद्वाजः | लज्जा |
| भार्गवः | ललिता |
| भुक्तिः | वज्रेश्वरी |
| भुवनेश्वरी | वरदा |
| भृगुनचद्गायत्रीश्रियः | वरुणा |
| भोगदा | वसुप्रदा |
| भोगिनी | वाग्भवकूटम् |
| भ्रूचक्रम् | वाराही |
| मङ्गला | विधात्री |
| मणिपूरकचक्रम् | विभूतिः |
| मतिः | विश्वमोहिनी |
| मदनः | विश्वोदरी |
| मदन्तिका | विष्णुपत्नी |
| मधुच्छन्दाः | वीरलक्ष्मीः |
| महात्रिपुरसुन्दरी | व्यष्टिः |
| मातङ्गी | शक्तिकूटम् |
| मातृका | शंखिनी |
| मानिनी | शुकश्यामला |
| मुक्तालंकारा | श्रृङ्गारकला |
| मुक्तिः | श्रद्धा |
| यशस्वती | श्रीः |
| रजतस्रजा | श्रीमहात्रिपुरसुन्दरी |
| राजमातङ्गी | श्रीमहाविद्या |
| लक्ष्मीः | श्रीलक्ष्मीः |
| लघुश्यामला | श्रीविद्या |
| नामधेयपदसूची | |
| पदम् | पदम् |
| षोडशी | सूर्या |
| सत्या | सृष्टिः |
| सदाशिवः | सौभाग्यलक्ष्मीविद्या |
| सन्ध्या | स्वयंवरकल्याणी |
| सन्नतिः | स्वर्णप्रभा |
| समृद्धिः | स्वर्णप्राकारा |
| सरस्वती | स्वर्णमालिनी |
| सामर्थ्यशक्तिः | स्वाधिष्ठानचक्रम् |
| सावित्री | हस्तिजिह्वा |
| सिद्धिमत्ता | हिरण्मया |
| सीता | हिरण्यरूपा |
| सुन्दरी | हिरण्यवर्णा |
| सुभगा | हिरण्यस्त्रजा |
| सुषुम्ना | हृदयचक्रम् |
| सूर्यनाडी | हंसकला |
_____________
| विशेषपदसूची | |
| यत्र पुटसंख्यामन्तरं तिर्यखायाः परं संख्या वर्तते तत्र तावसी पदावृतिर्बोध्या | |
| पदम् | पदम् |
| अक्षरम् | अष्टमी |
| अङ्कुशः | अष्टयोन्यङ्कितम् |
| अङ्कुशाकृतिः | आकाशः |
| अङ्गानि | आकाशपीठम् |
| अज | आचमनीयम् |
| अज्ञेया | आत्मशक्तिः |
| अनङ्गकुसुमादिशक्तयः | आत्मा |
| अनन्ता | आत्मासनरूपिणी |
| अनाहतसिद्धिदा | आदिविद्या |
| अन्तरालम् | आदिशक्तिः |
| अन्तर्दशारदेवताः | आवाहनम् |
| अमनीभावः | आसनम् |
| अमृतः | इक्षुधनुः |
| अमृतपीठम् | इच्छाशक्तिः |
| अमृतबन्धवः | ईश्वरः |
| अर्घ्यम् | उच्चाररहितम् |
| अलक्ष्या | उतत्वः |
| विशेषपदसूची | |
| पदम् | पदम् |
| उपचारः | गणेशत्वम् |
| उपवेदाः | गन्धः |
| उपाङ्गः | गह्ववरम् |
| ऋग्वेदः | गुहासदनानि |
| ऋतवः | गृहम् |
| एका | घटना |
| एकारः | चक्राणि |
| ओङ्कारः | चतुर्थी |
| ओङ्कारपीठम् | चतुर्दशारदेवताः |
| कल्पकोद्यानम् | चित्तम् |
| कल्पतरवः | चित्तलयः |
| कादिविद्या | चोदयित्री |
| कामः | जगद्रूपम् |
| कामकलाभूतचक्रम् | जीवः |
| कामकलामयम् | जीवन्मुक्तः |
| कामरूपः | जीवाक्षरम् |
| काम्यः | ज्ञाननेत्रम् . |
| कालरूपाः | तत्त्वम् |
| कुमार्यर्चनम् | तत्पदार्थः |
| कुसुमम् | तर्पणम् |
| कौबेरी | ताम्बूलम् |
| क्रियाकाण्डम् | तुरीया |
| क्रियाशक्तिः | तृतीया |
| खेचरी | त्रयी |
| विशेषपदसूची | |
| पदम् | पदम् |
| त्रिकोणचक्रम् | द्विजतृप्तिः |
| त्रिकोणशक्तिः | द्वितीया |
| त्रिखण्डा | धनकलाः |
| त्रिज्योतिषम् | धर्मशास्त्रम |
| त्रिपुरवासिनी | धारणा |
| त्रिपुरा | धूपः. |
| त्रिपुराणि | ध्वनिः |
| त्रिपुरेश्वरीविद्या | नन्दिविद्या |
| त्रैपुरम् | नमस्कारः |
| त्रैपुराष्टकम् | नवचक्रविवेक |
| त्रैपुरीव्यक्तिः | नवमी |
| त्रैलोक्यमोहनम् | नवरत्नद्वीपः |
| त्र्यम्बकम् | नवरसाः |
| दशयोन्यङ्कितम् | नवलक्षजपम् |
| दशारचक्रम् | नवशक्तिः |
| दीपः | नवात्मकचक्रम् |
| दुर्गा | नाड्यः |
| देवता | नादः |
| देवतासान्निध्यम् | निवृत्तिकारणम् |
| देवी | निर्विकल्पः |
| देवीपदम् | निर्विकल्पसमाधिः |
| देहः | नीला |
| देही | नीलीयुक्तम् |
| द्वादशलक्षजपः | नैवेद्यम् |
| द्वादशार्णम् | पञ्चदशनित्याः |
| विशेषपदसूची | |
| पदम् | पदम् |
| पञ्चदशाक्षरम् | प्राणरोधः |
| पञ्चमी | प्रादक्षिण्यम् |
| पञ्चविधः | बलिहरणम् |
| पञ्चशाखाः | बहिर्दशारदेवताः |
| परब्रह्मविकासीनि | बहुशाग्वाः |
| परमशिवविद्या | बाणः |
| परमात्मा | बिन्दुः |
| परमानन्दसंभवः | बीजम् |
| परमार्थता | बीजमुद्रा |
| परामृतम् | बीजसागररूपम् |
| परिपूर्णध्यानम् | बीजाष्टमी |
| पाद्यम | ब्रह्म |
| पार्थिवचक्रम् | ब्रह्मजिज्ञासा |
| पाशः | ब्रह्मरूपम् |
| पीठम् | ब्रह्मसूत्रम् |
| पुरमध्यम् | ब्रह्मंस्तितिः |
| पुरश्चर्याविधिः | ब्रह्मस्वरूपिणी |
| पुष्टिवर्धनम् | भगाङ्ककुण्डम् |
| पुष्पबाणाः | भद्ररूपिणी |
| पुरुषत्वम् | भद्राः |
| पूरकम् | भर्गोरूपम् |
| प्रथमावृतिः | भावः |
| प्रभाकरीविद्या | भुवनाधारा |
| प्रभावरूपिणी | भूदेवी |
| प्रयत्नः | भेरीशब्दः |
| पदम् | पदम् |
| भोगशक्तिः | योगी |
| मण्डलाः | योनिमुद्रा |
| मण्डूकमया | रत्नपीठम् |
| मद्दलध्वनिः | रमापीठम् |
| मनः | रामवैखानसपर्वतः |
| महाङ्कुशमुद्रा | लकारः |
| महाचक्रनायकम् | लक्षजपः |
| महात्रिपुरसुन्दरी | लाक्षायुक्तम् |
| महात्रिपुरा | लिङ्गादित्रितयम् |
| महाध्यानयोगः | लोपामुद्रा |
| महामृत्युः . | वरेण्यम् |
| महारसाः | वशिन्यादिशक्तयः |
| महाविद्येश्वरीविद्या | वस्त्रम् |
| महाशून्यम् | वाक्सिद्धिः |
| महासौभाग्यम् | वाग्भवम् |
| महिमा | वाग्भवकूटम् |
| महोन्मादिनीमुद्रा | वादित्रवादिनः |
| मानवीविद्या | वासुदेवः |
| माया | विकारः |
| मुक्तः | विक्षेपशक्ति |
| मुद्राः | विद्याऽष्टकम् |
| योगाः | विद्वान् |
| योगवान् | विभूषणम् |
| योगशक्तिः | विश्वजन्या |
| योगिन्यः | विश्वयोनिः |
| पदम् | पदम् |
| विश्वरूपत्वम् | षोडशशक्तयः |
| वीरशक्तिः | षोडशसहस्रजपः |
| वेदवेदः | सकलकौलम् |
| वैखानसम् | सगुप्तम् |
| वैष्णवीविद्या | सगुप्ततरम् |
| शक्तिः | सदनानि |
| शक्तिभूतहृल्लेखा | सनिगर्भम् |
| शक्तिशिवरूपिणी | सपरापररहस्यम् |
| शब्दब्रह्म | सप्रकटम् |
| शब्दविद्धः | समात्रष्टकम् |
| शरीरत्रयम् | समाधिः |
| शाक्तानि | सरहस्यम् |
| शाम्भवीविद्या | सर्गकारणम |
| शिवः | सर्वरक्षाकरी |
| शिवयोगी | सर्वरोगहरम् |
| शिवशक्त्यात्मकम् | सर्वविद्राविणीमुद्रा |
| शैवानि | सर्वसिद्धिप्रदम् |
| श्रीगुरुः | सर्वसौभाग्यदायकम् |
| श्रीचक्रम् | सर्वसंक्षोभणम् |
| श्रीचक्रपूजनम् | सर्वाकर्षिणीमुद्रा |
| श्रीदेवी | सर्वानन्दमयम् |
| श्रीविद्यासिद्धिः | सर्वार्थसाधकचक्रम् |
| षडध्वपरिवर्तकः | सर्वाशापरिपूकम् |
| षण्मुखीविद्या | सविकल्पः |
| षष्ठी | सवशिन्याद्यष्टकम् |
| पदम् | पदम् |
| सविता | सुभगः |
| ससर्वज्ञत्वादिदशकम् | सोमसूर्याग्निरूपा |
| ससर्ववशंकरीमुद्रा | सोमात्मिका |
| ससर्वसिद्धिप्रदादिदशकम् | सौरम् |
| ससर्वसंक्षोभिणीमुद्रा | संलीनचित्ताः |
| ससर्वसंक्षोभिण्यादिदशकम् | स्थितिकारणम् |
| ससर्वसंक्षोभिण्यादिद्विसप्तकम् | स्नानम् |
| सहस्रशाखाः | स्पार्शनपीठम् |
| साक्षाच्छक्तिः | स्वपीठम् |
| सागरः | स्वप्रकाशः |
| साणिमाद्यष्टकम् | हकाराक्षरम् |
| सातिरहस्यम् | हवनम् |
| सादिविद्या | हविः |
| सानङ्गकुसुमाद्यष्टकम् | हादिविद्या |
| सायुधचतुष्टयम् | हृल्लेखा |
| सारस्वतः | होता |
| सिद्धिः | होमः |
| सीता | हंसः |
| सुगन्धिः |
_______________
]
-
“समिद्ध—अ २.” ↩︎
-
“ऊर्ध्वज्वलज्ज्वलन—मु, उ. ऊर्ध्वज्वलन् ज्वलन—उ १.” ↩︎
-
" प्रकाशाः—क." ↩︎
-
" मन्त्रप्रथते—अ १, अ २, क. मन्त्रः प्रथते—3. मन्त्री प्रथथे—मु, अ." ↩︎
-
" सुदया—उ १." ↩︎
-
“विश्वमाभू —क. विश्वमात्म—अ १” ↩︎
-
" पञ्चाचनि—अ, अ २, क." ↩︎
-
" कामः—अ, अ २, क." ↩︎
-
“1 कामः—अ, अ २, क.” ↩︎
-
“योनीः—उ,मु.” ↩︎
-
" चर्षणीः—उ१. 1" ↩︎
-
" यामक्षरं—अ २ C 2 ." ↩︎
-
“परमो —अ,अ २ , क, मु.” ↩︎
-
" विकासिनी—अ १, अ २, क, उ." ↩︎
-
“मेकाक्षरं—अ १, अ २ क. " ↩︎
-
" मेकाक्षरं—अ २” ↩︎
-
“परस्था—अ १, अ २, क.” ↩︎
-
“चेतसैवं—उ, उ १.” ↩︎
-
" निरक्षरं—अ १, अ २, क, मु. " ↩︎
-
“सेचनीय—उ.” ↩︎
-
" निष्कलोद्यो—क. निष्कल्मषो ह्याद्यो—उ" ↩︎
-
" पाद्यते-" ↩︎
-
" इत्याद्यां—अ १, अ २, क. " ↩︎
-
“शिवाद्यां —अ १, अ २, क, मु.” ↩︎
-
" शान्तमिति —उ." ↩︎
-
“शक्त्यामकं—अ १, अ " ↩︎
-
“शिवाद्या—उ.” ↩︎
-
“अत्र व्याख्यापर्यालोचनेन आदावागस्त्यवाग्भवयोः संयोजनं युक्तं स्यादितिभाति.” ↩︎
-
“अत्र व्याख्यापर्यालोचनेन “सकलह्रीं”इत्यत्र “सकहलह्रीं”इति मन्त्रोद्धारः साधुरिवभाति .” ↩︎
-
“परमां अ २, क, उ १.” ↩︎
-
“लयं—अ १, अ २, क, मु.” ↩︎
-
“एको हीश्वरः—3. " ↩︎
-
“संबद्धं—क.” ↩︎
-
“सने—क.” ↩︎
-
“पूर्वे—अ १, अ २, क.” ↩︎
-
“चराग्र—अ १, अ २, क, मु.” ↩︎
-
“‘नीतां’ इति नास्ति — उ.” ↩︎
-
“‘पञ्चमं’ इति नास्ति—अ १, अ २, क, मु. " ↩︎
-
“सकुल—अ १, अ २.” ↩︎
-
“सनिर्गर्भं—अ १, अ २. " ↩︎
-
“सर्ववशि—अ १, मु.” ↩︎
-
“नवनी—अ १, अ २, क.” ↩︎
-
“विधाय—अ २. विधया —उ १.” ↩︎
-
“वा आलि—अ १, अ २,क.” ↩︎
-
“नमि — उ.” ↩︎
-
“हसखफ्रें—अ २,मु. " ↩︎
-
" हस्रौं अ १, अ २. हस्रीं —क.” ↩︎
-
“स्रौमे—अ १, अ २. स्त्रामे—क. " ↩︎
-
“द्वमद्वै —अ १, अ २, क.” ↩︎
-
“सकललो—अ १, अ २, क.” ↩︎
-
“माद्यक्ष—अ १, उ.” ↩︎
-
“महे स्तुम—अ २. महे वस्तुवहे—अ १,उ १” ↩︎
-
“सुल—अ १, अ २.” ↩︎
-
“सर्वं—अ १. स्पष्टं—अ” ↩︎
-
“लोका अलोका—उ, मु.” ↩︎
-
“देवा अदेवा—उ, मु.” ↩︎
-
“सक्तं मु—अ १.” ↩︎
-
“स्मृतं—अ १. " ↩︎
-
“संनिरुध्य—अ १.” ↩︎
-
“सल्लयो —अ १.” ↩︎
-
“तदेवं—अ १.” ↩︎
-
“भिद्यमा—अ १, उ.” ↩︎
-
“स च मा—अ १.” ↩︎
-
“द्यदि—क अ १, अ २.” ↩︎
-
“ज्ञानी—मु. " ↩︎
-
“ब्रह्मैवाहमिति स्मरेत्—उ, उ १.” ↩︎
-
“काशजं—अ, अ १, मु.” ↩︎
-
“न्यहं प —अ १, अ २, क.” ↩︎
-
“विष्णवुरु—अ, अ १, अ २, क.” ↩︎
-
“नियतं—अ, अ १.” ↩︎
-
“लक्ष्मी च—अ १, अ २, क. लक्ष्म्यै च—अ.” ↩︎
-
“सिद्धी च—अ १, क. सिद्धि च—अ २. सिद्धयै च—अ.” ↩︎
-
“अदितिर्ह्यज— मु.” ↩︎
-
“पुनः कोशा—अ १, अ २, क, मु.” ↩︎
-
“एषाऽस्य —उ, उ १.” ↩︎
-
" संयत्य कः—अ, अ २, क. संयुक्ताष्ट—अ.” ↩︎
-
“एतच्छ्लोकार्धं, (उ,उ १ ↩︎
-
“दुधं— अ २, क. दुहं—अ.” ↩︎
-
“त्वां महादेवीं—अ २.त्वामहं देवि—अ, अ १, क.” ↩︎
-
“ब्रह्मादयोऽपि न —अ २.” ↩︎
-
“सर्वका—मु.” ↩︎
-
" भेरुण्डादे—अ. क.” ↩︎
-
“शक्ति पी— उ, क.” ↩︎
-
“ज्ञेयमेया—अ १, अ २,क. प्रदा देवी ब—अ १, अ २, क.” ↩︎
-
“पस्थमनोवि—अ, मु. पस्थावि - अ १.” ↩︎
-
“प्रदा देवी ब—अ १, अ २, क.” ↩︎
-
““जाठराभिर्भवति क्षारको (मारको ↩︎
-
“दाहको—मु.” ↩︎
-
“वह्निकलाः—मु.” ↩︎
-
" नित्याः। श्र — मु.” ↩︎
-
“धीर्देवता—अ १, अ २, क.” ↩︎
-
“सलिलमिति —अ १, अ २, क, मु” ↩︎
-
“स्वच्छस्व —अ १, अ २, क” ↩︎
-
“मयमिति सर्वाङ्गस्मरणं — उ, उ१.” ↩︎
-
“दुल्कादाका —अ २, क.” ↩︎
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“शक्तिः की—मु, उ. (एवमुत्तरपर्यायेष्वपि ↩︎
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“परमार्थतः—अ १, अ २, क, मु. " ↩︎
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“अद्वैत—अ २, क.” ↩︎
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“मधुच्छन्दऋ— उ, मु. " ↩︎
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“मलवर्त्मनाम्—अ १, अ २, क.” ↩︎
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“देवीत—उ१.” ↩︎
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“मस्तक—उ.” ↩︎
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““इत्येवं निश्चयं विप्राः”इत्यधिकः(मु ↩︎
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“सनातना—अ १, क, उ १.” ↩︎
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" ते—अ २. क, मु.” ↩︎
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“वरणात्मकम्—अ १, अ २, क. " ↩︎
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“शक्तिलिङ्गा —अ १, क, उ.” ↩︎
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“दिभे— क.” ↩︎
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“हृदीव—उ, मु.” ↩︎
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“रित्युच्यते—अ १, क.” ↩︎
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“इकार—अ १, अ २, क.” ↩︎
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" दिव्या —मु. देव्यलंकारास्र —उ.” ↩︎
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“इकार— अ, अ १, अ २, उ १.” ↩︎
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“नन्दका—मु. " ↩︎
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“सीता भगवती ज्ञेया— मु.” ↩︎
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“सा सर्व—अ १, अ २, क.” ↩︎
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“दिवसरात्रि—उ,उ १. " ↩︎
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“कालारूपा —उ, उ १.” ↩︎
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“च मुखवि—मु.” ↩︎
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“शाखाः स्युः—अ, उ, उ १.” ↩︎
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“लब्ध्वा वै—-अ, अ २, उ १ क.” ↩︎
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“निबन्धा स—अ १, अ २, क.” ↩︎
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“गान्धर्वश्च तथा मुने —अ, अ १, २, क, मु.” ↩︎
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“व्यक्तोव्य—अ १, अ २, क.” ↩︎
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“वर्णाभे—उ १.” ↩︎
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“स्वयो— उ, उ १. स्वाथोक—अ, अ १, अ २.” ↩︎
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“नियमप्रा—अ १, उ, उ १,” ↩︎
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“हारध्यान— उ, उ १.” ↩︎
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“लमनण्वपि गो—अ १, अ २, क, मु.” ↩︎
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“दिभिर्वा भ—अ १. दिभिर्वा सह भ—अ.” ↩︎
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“दिभिर्वान्न – अ १.” ↩︎
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“सन्मुखे—अ १, अ २, क.” ↩︎
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“प्रकाश्यमाना—मु.” ↩︎
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“मनसो—मु.” ↩︎
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“एतदादि “प्रस्तारपङ्क्तिः” इत्यन्तो प्रन्थः उ, उ १, कोशयोः नास्ति.” ↩︎
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“श्रीरग्नि—अ २, क” ↩︎
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“कर्ण—अ १, अ २, क.” ↩︎
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“नाभि —क.हृदयनाभि—अ १, अ २.” ↩︎
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“अरुण—मु. " ↩︎
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“पूर्ण—अ, अ १, उ १. " ↩︎
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“तेष्ठाभी— मु.” ↩︎
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“नमः—उ १.” ↩︎
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“शमीं बी—अ, अ १.” ↩︎
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“रक्तौध—मु.” ↩︎
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“नमः –उ, १. " ↩︎
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“र्व्युष्टि—अ १, अ २. पुष्टि—क. व्युष्टिः सत्कृष्ट —मु” ↩︎
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“दिभिर्द्वि—उ, मु. " ↩︎
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“दिभिस्तृ—उ,मु” ↩︎
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“.र्वर्धना— उ,उ १.” ↩︎
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“प्रत्ययांशं—मु.” ↩︎
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“प्रथमं—उ, उ ०.” ↩︎
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“भग—उ, क.” ↩︎
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“कामफलप्रदं—अ १, अ २” ↩︎
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“मुखलि—उ १. " ↩︎
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“पञ्चावृत्तं—उ १.” ↩︎
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“करं—अ १, अ २. करा—क. " ↩︎
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“दशमद्वादशारं—अ २, क.” ↩︎
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“ब्रह्मरन्ध्रचकं—उ, उ १.” ↩︎
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“पश्यन् ध्या—अ २, क. " ↩︎