TODO: परिष्कार्यम्
कुमाजाल नाराण संस्कृत विश्वविद्यालय
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GANGANATHAJHA-GRANTHAMĀLĀ (Vol. 6) General Editor DR. BHĀGĪRATHA PRASADA TRIPATHI VAGISA SASTRI’ Director, Research Institute, Varanaseya Sanskrit University, Varanasi. वाराणसंय. fazala Auterve विभाग NYAYAKUSUMĀÑJALI of Udayanacarya Edited with Hindi Translation by Pt. DURGADHARA JHA Research Assistant Varanaseya Sanskrit University, Varanasi VARANASI 1973
Published by: Director, Research Institute Varanaseya Sanskrit University, Varanasi-2 Available at- Publication Section Varanaseya Sanskrit University, Varanasi-2 First Edition Copies Revised Price Rs. 80.00 Printed by: Sudarshan Mudraka Uttar Beniya, Varanasi-2
गङ्गानाथ झा - ग्रन्थमाला ( ६ ) प्रधानसम्पादकः डॉ० भागीरथप्रसादत्रिपाठी ‘वागीशः शास्त्री ’ गवेषणालयसञ्चालकः वाराणसेय संस्कृत विश्वविद्यालये २०३० तमे वैक्रमाब्दे वाराणसंय अश्वविद्यालय आयत विभाग उदयनाचार्यविरचितः न्यायकुसुमाञ्जलिः ( भाषानुवादसहितः ) सम्पादको व्याख्याकारश्च श्रीदुर्गाधरझाः अनुसन्धान सहायकचरः वाराणसेय संस्कृत- विश्वविद्यालये वाराणस्याम् १८९५ तमे शकाब्दे १९७३ तमे ख्रिस्ताब्दे
प्रकाशक:– सञ्चालकः गवेषणालयस्य वाराणसेय संस्कृत विश्वविद्यालये वाराणसी - २ प्राप्तिस्थानम्- प्रकाशनविभागः वाराणसेय संस्कृतविश्वविद्यालयः वाराणसी-२ प्रथमसंस्करणस्य प्रतिरूपाणि परिवर्धितं मूल्यम् ८०-०० रूप्यकाणि मुद्रक: सुदर्शनमुद्रक: उत्तरबेनिया, वाराणसी-२
श्री गद्यपद्यात्मक न्यायकुसुमाञ्जलि की भूमिका महर्षिकल्प श्री उदयनाचार्य के ‘न्यायकुसुमाञ्जलि’ नाम के प्रसिद्ध एवं मौलिक ग्रन्थ को विस्तृत हिन्दी भाषामयी व्याख्या के साथ विद्वानों के हाथ में समर्पित करते हुए मैं संकोच के साथ-साथ हर्ष का भी अनुभव कर रहा हूँ । यह ग्रन्थ अपने मूल रूप में ‘गद्यपद्यात्मक’ है । दो प्रकार के गद्यपद्यात्मक ग्रन्थ उपलब्ध होते हैं : 1 १. जिसमें ग्रन्थ के कुछ अंश गद्य में एवं कुछ अंश पद्य में रहते हैं, किन्तु गद्यांश पद्य की व्याख्या स्वरूप नहीं होते, इस प्रकार के ग्रन्थों में कुमारिल भट्ट का ‘तन्त्रवार्तिक’ जयन्तभट्ट की ‘न्यायमञ्जरीं’ प्रज्ञाकर गुप्त का ‘वार्तिकालङ्कार’ प्रभृति आते हैं । २. दूसरे प्रकार के गद्यपद्यात्मक ग्रन्थों में ग्रन्थकार स्वलिखित पद्य के अर्थ को ही विस्तार के साथ गद्य में लिखता है । इस दृष्टि से गद्यांश पद्य की टीका स्वरूप होता है, किन्तु यह टीका प्रतीक धारणपूर्वक लिखी गयी अन्य टीकाओं के समान नहीं होती । इस गद्यांश को पद्य से पृथक् करके भी पढ़ा और समझा जा सकता है । गद्य और पद्य का स्वातन्त्र्य इसमें इतना स्पष्ट रहता है कि गद्यांश को पद्यांश की व्याख्या समझने के समान ही पद्य को विस्तृत गद्यांश का संक्षिप्त सार भी कहा जा सकता है । इस प्रकार के ग्रन्थों में मण्डन मिश्र का ‘विधिविवेक’ मम्मट का ‘काव्यप्रकाश’ सुरेश्वराचार्य की ‘नैष्कर्म्यसिद्धि’ जगदीश तर्कालङ्कार की ‘शब्दशक्तिप्रकाशिका’ ‘प्रभृति आते हैं । प्रकृतगद्यपद्यात्मक ‘न्यायकुसुमाञ्जलि’ भी इसी कोटि का ग्रन्थ है । परमोपादेयतामूलक अतिप्रसिद्धि के साथ-साथ अति जटिलता के कारण यह ग्रन्थ कुछ दूसरे रूपों में भी प्रसिद्ध है । जिनमें इसके गद्य और प्रकाश टीका के सहारे पद्य की संक्षिप्त व्याख्या दूसरे विद्वानों ने की है । जैसे कि हरिदास भट्टाचार्य एवं रामभद्र तर्कालङ्कार ने की है । इनमें हरिदास भट्टाचार्य की व्याख्या अत्यन्त प्रसिद्ध है, एवं यही
[ २ ] साधारण पठन-पाठन में है । हरिदासी कुसुमाञ्जलि की उपादेयता इसी से समझी जा सकती है, कि इस पर जयनारायण तर्कालङ्कार एवं म० म० कामाख्यानाथ तर्कवागीश जैसे महा नैयायिकों ने व्याख्या लिखी है । म० म० महेशचन्द्र न्यायरत्न के शिष्य प्रसिद्ध अंग्रेज संस्कृतज्ञ कावेल साहब ने हरिदासी कुसुमाञ्जलि का अंग्रेजी में अनुवाद किया है । प्रस्तुत गद्यपद्यात्मक न्यायकुसुमाञ्जलि के ऊपर संस्कृत भाषा से भिन्न किसी भी भाषा में सम्पूर्ण कार्य की सूचना मुझे नहीं है । स्वनामधन्य महात्मा तथा वर्त्तमान काल में प्राच्य एवं प्रतीच्य दोनों ही दृष्टियों से सर्वोत्कृष्ट दार्शनिक अगाधज्ञान सम्पन्न म० म० प० श्री गोपीनाथ जी कविराज ने इस (बंड़ी) कुसुमाञ्जलि को अंग्रेजी में लिखना प्रारम्भ किया था । किन्तु वह प्रारम्भ मात्र ही रहा । दुर्भाग्यवश वह पूर्ण न हो सका । उसका किञ्चित् अंश ‘सरस्वती भवन स्टडीज’ पत्रिका में छप चुका है । के प्रस्तुत ‘गद्यपद्यात्मक न्यायकुसुमाञ्जलि’ के ऊपर नव्य न्याय के प्रवर्त्तक गङ्ग शोपाध्याय पुत्र वर्द्धमान ने ‘प्रकाश’ नाम की टीका लिखी है, जो ‘वर्द्धमान’ नाम से ही प्रसिद्ध है । इस ग्रन्थ पर अन्य जितनी भी टीकायें लिखी गयीं है वे सभी इसी के अवलम्ब से लिखी गयीं हैं । ‘वर्द्धमान’ पर भी कृत ‘मकरन्द’ और भगीरथ ठक्कुर ( प्रसिद्ध मेघ ठक्कुर ) कृत प्रकाशिका ( प्रसिद्ध जलद ) नाम की टीका अति प्रसिद्ध हैं । टीकायें लिखी गयीं हैं, जिनमें रुचिदत्त उपाध्याय वर्द्धमान कृंत ‘प्रकाश’ के अतिरिक्त प्रस्तुत ग्रन्थ के ऊपर वरदराज कृत ‘कुसुमा- ञ्जलिबोधिनी’ शङ्कर मिश्र कृंत आमोद, गुणानन्द विद्या वागीश कृतं विवेक ( शेष दोनों ही टीकायें एक साथ कलकत्ता विश्वविद्यालय के आशुतोष ग्रन्थावली में छप चुकी हैं ) ये तीन टीकायें और उपलब्ध हैं । ये सभी उपर्युपरि हैं, फिर भी इतना उल्लेख अनुचित नहीं होगा कि मूल गद्य के अक्षरार्थ को समझनि की दृष्टि से सहायता मिली। दुर्भाग्यवश मुझे तीन स्तवकों के ही अंश ‘बोधिनी’ से ही मुझे अधिक उपलब्ध हुये, क्योंकि उस पूरी ‘बोधिनी’ टीका ‘मिथिला समय तक उतना ही उपलब्ध था । इधर ज्ञात हुआ है कि विद्यापीठ’ दरभङ्गा से प्रकाशित हो रही है या हो गयी है । यह परम हर्ष का विषय है । इसके अलावा श्री वीरराघवाचार्य की विस्तर’ नाम की एक अत्याधुनिक संस्कृत व्याख्या भी है जो उत्कृष्ट होने के साथ-साथ असाधारण भी है । यद्यपि इन सभी टीकाओं का थोड़ा CCO. Vasishtha Tripathi Collection. Digitized by eGangotriमझी गीश सिद्ध वाद [ ३ ] वहुत उपयोग मैंने किया है, किन्तु ‘वर्धमान’ और ‘बोधिनी’ ये दोनों टीकायें ही मेरे प्रधान अवलम्बन स्वरूप रही हैं। सुनने में आया है कि बङ्गला में पण्डित प्रवर श्री सतीन्द्र भट्टाचार्य जी ने इसकी एक व्याख्या लिखी है जो कलकत्ता वि० वि० से प्रकाशित हो रही है । भी काल म० रंम्भ सका न्याय सिद्ध व से याय दं ) . मा- नों हैं ) चित चक उस 嚐 है । भी ीड़ा ग्रन्थ- परिचय यह ईश्वर निरूपण प्रधान ग्रन्थ पाँच स्तवकों में विभक्त है । इनमें से पहले चार स्तवकों के द्वारा ईश्वर सत्ता की विरोधिनी युक्तियों का खण्डन किया गया है । पाँचवें स्तवक में ईश्वर के साधक प्रमाणों का उल्लेख है । दो प्रकार के लोग ईश्वर की सत्ता के विरोधी हैं: - १ - वेदों को प्रमाण मानने वाले मीमांसक एवं सांख्याचार्यगण एवं २ – वेदों को न माननेवाले चार्वाक, बौद्धादि । इनमें वेद प्रामाण्यवादी ईश्वर विरोधियों को निरस्त करने के लिए अचेतन अदृष्ट के अधिष्ठाता चेतन के रूप में, एवं वेदों के रचयिता सर्वज्ञ आप्त पुरुष रूप में ईश्वर की सिद्धि की गयी है । इसके अलावा ईश्वर के साधक श्रुति एवं स्मृति स्वरूप शब्द प्रमाणो को भी दिखाया गया है । वेदों को प्रमाण न माननेवालों के लिए आचार्य ने शुद्ध वस्तुनिष्ठ शैली अपनायी है । जिस प्रकार आकाश, परमाणु प्रभृति अतीन्द्रिय वस्तुओं की सिद्धि के लिए परिशेषानुमानों का प्रयोग किया जाता है, उसी प्रकार के अनुमानों का प्रयोग आचार्य ने ईश्वर की सिद्धि के लिये भी किया है । इस ग्रन्थ के आदि के ‘सत्पक्षप्रसरः’ यहाँ से लेकर यहाँ से (देखिये पृ० १ से १३ पर्यन्त) पर्यन्त के मङ्गल-प्रतिपाद्य विषय एवं ग्रन्थ निर्माण के लिये प्रयोजन आदि की सूचना प्रथम श्लोक से देकर परमात्मा के निरूपण की प्रतिज्ञा ईश्वर के स्वरूप के विषय में सर्वसम्मति के रहने से ग्रन्थ के अनारभ्यत्व का आक्षेप पूर्वक यह समाधान किया गया है । ग्रन्थ में किया गया ईश्वर का यह निरूपण ‘आत्मा वाऽरे श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्य:’ इस श्रुति के द्वारा श्रवण के बाद निर्दिष्ट मनन रूपा ‘उपासना’ ही है । उक्त श्रुति में जिस मनन का उल्लेख है, उसमें श्रुति स्वरूप शब्द प्रमाण से ज्ञात परमात्मा नें कुतर्काभ्यासियों के द्वारा जो ‘असंभा- लेकर ‘तत्साधकप्रमाणाभावाच्च’ सन्दर्भ से ग्रन्थारम्भ के लिये उपयोगी
6 [ ४ ] वना’ अथवा ‘विपरीत संभावनाओं का उद्भावन किया जाता है, तन्निरासफलकमनन’ स्वरूप है - फलत: ईश्वर की असंभावना एवं विपरीत संभावना प्रभृति दोषों से रहित ईश्वर की ‘विशेष’ अनुमितिस्वरूप है । विषय को विशिष्ठ रूप से समझने की इच्छा से सिद्धविषयक पुनः अनुमिति भी होती है । अतः सिद्धविषयक प्रतिपादक होने के नाते जो इस ग्रन्थ के अनारम्यत्व का आक्षेप किया जाता है, वह युक्त नहीं है । विप्रतिपत्तिवाक्य ‘नाज्ञाते न निश्चितेऽर्थे न्याय: प्रवर्त्तते किन्तु सन्दिग्धेऽर्थे न्याय: प्रवर्त्तते’ इस सिद्धान्त के अनुसार सभी विचारों से पहले विचार्य विषय में संशय आवश्यक है | किन्तु इन स्थलों में तो विप्रतिपत्तिवाक्यजन्य केवल आहार्य्यसंशय ही हो सकता है. क्योंकि दोनों पक्षों में से प्रत्येक का अपना अपना पक्ष निश्चित रहता है । किन्तु संशय से पहले धर्मी का निश्चय दोनों ही पक्षों को चाहिये, एवं दोनों ही कोटियों में से विधिकोटि के पक्ष से भिन्न किसी अधिकरण में निश्चित होना भी आवश्यक है । क्योंकि किसी अप्रसिद्ध वस्तु की न कहीं सत्ता सिद्ध की जा सकती है, न उसके अभाव की ही सिद्धि की जा सकती है । अत: ‘ईश्वरोऽस्ति न वा’ इत्यादि आकार के संशय नहीं होते । अथवा ‘ईश्वरो नास्ति’ यह अनुमान भी नहीं होता । तदनुसार अदृष्ट के अधिष्ठाता के रूप में ईश्वरसिद्धि के अनुकूल यह प्रथम विप्रतिपत्तिवाक्य आचार्य ने लिखा है । १. अलौकिकस्य परलोकसाधनस्याभावात् इस वाक्य के ‘अभाव’ पद में निविष्ट ‘नव्’ विरोध्यर्थक है, अभावार्थक नहीं । एवं अवशिष्ट ‘भाव’ पद सत्ता का बोधक है । अर्थात् अलौकिक परलोक के साधन की जो सत्ता तद्विरोधविषयक जो ‘विप्रतिपत्ति अर्थात् विपरीत बुद्धि उसके निराश से ही ‘अदृष्ट स्वरूप’ ‘अलौकिकपरलोक’ साधन के सभी बाधक निरस्त हो जायेंगे । ‘अलौकिकस्य परलोकसाधनस्याभावात्’ इस वाक्य से [१] अलौकिकविषयक [४] अलौकिक-धर्मिकपरलोकसाधनत्व [२] परलोकविषयक [३] साधनविषयक
‘मनन’ रहित छा से
- नाते ’ इस किन्तु दोनों दोनों भी ३, न कार दृष्ट र्य ने हीं । की ही यक नत्व [ ५ ] विषयक एवं ( ५ ) परलोक साधन में अलौकिकत्व विषयक, ये पाँच विप्रतिपत्तियाँ आचार्य को अभिप्रेत हैं । इनमें से किसी विप्रतिपत्ति अथवा विपरीत बुद्धि के रहने पर कार्य कारणभाव विघटित होंगे । जिससे क्षित्यङ्कुरादि के कर्त्ता के रूप में ईश्वर की सिद्धि विघटित होगी । स्वर्गादिपरलोकविषयक विप्रतिपत्ति से तत्सम्पादक यागादि के उपदेष्टा रूप में ईश्वर की सिद्धि रुक जायगी । १. अलौकिकविषय विप्रतिपत्ति का आकार लौकिकप्रत्यक्षाविषयगुणत्व साक्षाद्व्याप्यजात्य धिकरणत्वमात्मगुणे वर्त्तते न वा ? जिन वस्तुओं का प्रत्यक्ष-संयोगादि लौकिक संसर्गों में से किसी संनिकर्ष से सम्भव हो वे सभी वस्तुएँ ‘लौकिक’ कहलाती हैं । एवं उक्त संनिकर्षजनित प्रत्यक्ष को ‘लौकिक प्रत्यक्ष’ कहते हैं । नैयायिकों के मत से आत्मा के ज्ञान- सुखादि गुण ‘लौकिक’ हैं, क्योंकि उनका लौकिक प्रत्यक्ष होता है । किन्तु आत्मा के ही धर्माधर्मस्वरूप गुण अतीन्द्रिय हैं, उनका लौकिक प्रत्यक्ष नहीं होता । भले ही सामान्य-लक्षणादि अलौकिकसंनिकर्षो से उनका भी अलौकिक प्रत्यक्ष हो । गुणत्व की साक्षाद्व्याप्य जातियाँ हैं रूपत्व, रसत्वादि । तदन्तर्गत आत्मा के गुणों में रहनेवाली ज्ञानत्व इच्छात्वादि एवं धर्मत्व अधर्मत्व जातियाँ भी गुणत्व जाति की साक्षाद्- व्याप्य हैं । इनमें ज्ञानत्वादि जातियाँ लौकिक प्रत्यक्ष के विषय हैं, किन्तु धर्मत्व और अधर्मत्व जातियाँ लौकिक प्रत्यक्ष के विषय न होने के कारण अलौकिक हैं । फलतः आत्मा के धर्म एवं अधर्मस्वरूप गुणों में गुणत्व की साक्षाद्व्याप्य उन धर्मत्व और अधर्मत्व जाति की अधिकरणता है जो अलोकिक हैं । इस प्रकार लौकिकप्रत्यक्षाविषयगुणत्वसाक्षाद्व्याप्य- जात्यधिकरणत्वस्वरूप विधिकोटि आत्मा के धर्माधर्मस्वरूप गुणों में प्रसिद्ध है । चार्वाकों का इस विप्रतिपत्ति की उक्त ‘जात्यधिकरणत्वाभाव’ स्वरूप निषेधकोटि है। वे शरीर को ही आत्मा मानते हैं । अतः शरीर का ‘गुरुत्व’ स्वरूप गुण उनके मत से आत्मा का ही धर्म है । इसलिये ‘लौकिकप्रत्यक्षाविषयगुणत्व साक्षाद्व्याप्यजाति’ पद से इस पक्ष में गुरुत्व ( या गौरव ) को लिया जा सकता है । फलत: गुरुत्वत्व में प्रसिद्ध जो उक्त जात्यधिकरणता उसका अभाव प्रसिद्ध वस्तु का ही अभाव है । ज्ञानादि
[ ६ ] ‘आत्मगुण’ स्वरूप धर्मी न्यायमत से है । एवं चार्वाक मत से गुरुत्वस्वरूप गुण उक्त धर्मी है । इस प्रकार इस विप्रतिपत्ति का धर्मी अप्रसिद्ध नहीं है । अत: विप्रतिपत्ति में कोई अनुपपत्ति नहीं है । इस विप्रतिपत्ति के विधिपक्षावलम्वी नैयायिक यदि आत्मा के किसी गुण में लौकिकप्रत्यक्षाविषयत्व की सिद्धि कर पाते हैं, अर्थात् आत्मा के किसी भी गुण को अती- न्द्रिय करार दे पाते हैं, तो वह गुण धर्म एवं अधर्म स्वरूप ‘अदृष्ट’ ही होगा । इस प्रकार अदृष्ट सिद्धि का पथ प्रशस्त हो जायगा । अदुष्ट सिद्धि की आगे की प्रक्रिया ग्रन्थ में वर्णित है । २. शरीरवृत्तिजातित्वं दुःखावच्छेदकत्वासमानाधिकरणवृत्ति न वा ? इस आकार की दूसरी विप्रतिपत्ति सामान्यतः केवल परलोकविषयक न्याय का संपादन करती है । बालकों के शरीर में रहनेवाली चैत्रत्वादि जातियाँ चैत्रादि के शरीरों में हैं। इन शरीरों में सुख एवं दुःख दोनों का ही उपभोग सर्वसिद्ध है । अत: चैत्रादि के शरीर सुख एवं दुःख दोनों के ही अवच्छेदक हैं । फलतः चैत्रादि शरीरों में रहनेवाली चैत्रत्वादि जातियों के जातित्व स्वरूप धर्म के साथ दुःखावच्छेदकत्व चैत्रादि शरीरों में है । स्वर्गीय शरीर तो केवल सुख का ही अवच्छेदक है, दुःख का नहीं, क्योंकि स्वर्गीय शरीर से केवल सुख का ही उपभोग किया जाता है, दुःख का नहीं । अतः स्वर्गीय शरीर वृत्ति ( स्वाश्रयाश्रयत्व सम्बन्ध से ) जातित्वदुःखावच्छेकत्व के साथ नहीं रहता । ३. कार्यप्रतियोगित्वं प्रतियोगित्वप्रागभावान्यप्रागभावाविषयक- प्रतीत्यविषयवृत्ति न वा ? यह केवल ‘साधन’ विषयक विप्रतिपत्ति है । इससे कार्यकारणभाव का खण्डन होता है । उक्त प्रतीत्यविषयवृत्तित्व प्रागभावत्वत्व में दोनों ही मतों से सिद्ध है । इस विप्रतिपत्ति में विधिकोटि हैं नैयायिकों का, एवं निषेध कोटि है चार्वाकों का । नैयायिक लोग कार्यकारणभाव को स्वीकार कारणत्व का लक्षण है । नियतपूर्ववत्तित्व के शरीर में विषयकप्रतीति नियमतः प्रागभावविषयक होती है विषय नहीं होता, कारणत्व कभी भी उस प्रतीति का । करते हैं । कार्यनियतपूर्ववत्तित्व ही प्रागभाव निविष्ट है, अतः कारणत्व- अतः जिस प्रतीति में प्रागभाव विषय नहीं हो सकता । इस प्रकार
म ई में 7- बर में ? ST में क में यं न स व र [ ७ ] कारणत्वप्रागभावविषयकप्रतीति का अविषय है । कारणत्व प्रतियोगित्व एवं प्रागभाव इन दोनों से भिन्न भी है । एतादृश कारणत्व में कार्यप्रतियोगित्व विद्यमान है । यह नैयायिकों का पक्ष है । चार्वाकगण कारणत्व नाम के किसी वस्तु को स्वीकार नहीं करते । उनके मत से कार्यप्रतियोगित्व कारणत्व में विद्यमान नहीं है । यह ध्यान रखना चाहिये कि विप्रतिपत्तिवाक्य में जो ‘प्रतियोगित्व प्रागभावान्य’ पद में ‘प्रतियोगित्व’ पद है, उसका ‘कार्यत्व’ अर्थ है । जो फलत: प्रागभाव प्रतियोगित्व स्वरूप है । २. अन्यथापि परलोकसाधनानुष्ठानसंभवात् वेदों के आदिवक्ता के रूप में जो ईश्वर की सिद्धि ‘वेदो वत्क्त यथार्थज्ञानजन्यः प्रमाणशब्दत्वात्; इस अनुमान के द्वारा की जाती है । उसके विरुद्ध ‘अन्यथापि परलोक- साधनानुष्ठानसंभवात्’ यह विप्रतिपत्ति खड़ी हो जाती है, अर्थात् वेदार्थज्ञान से युक्त पुरुष के द्वारा उच्चरित न होने पर भी केवल ‘दोषाभाव’ से यागादि का अनुष्ठान हो सकता है । ‘अतः वेदार्थज्ञानविशिष्टपुरुषजन्यत्व’ स्वरूप कथित हेतु ‘अप्रयोजक’ होने के कारण हेत्वाभास हो जाता है । अत: उससे ईश्वर की सिद्धि नहीं हो सकती । ३. तद्भावावेदक प्रमाणसद्भावात् ‘तदभाव’ अर्थात् ईश्वर के अभाव का साधक ‘अनुपलब्धि’ प्रमाण से ईश्वर के साधक सभी अनुमान किसी न किसी प्रकार अवश्य ही बाधित होंगे, अत: ‘तदभावावेदकं- प्रमाण’ के ‘सद्भाव’ अर्थात् सत्ता से ईश्वर की सभी सिद्धियां व्याहत हैं । ४. सत्त्वेऽपि तस्याप्रमाणत्वात् ‘मन्त्रायुर्वेदप्रामाण्यवच्च तत्प्रामाण्यमाप्तप्रामाण्यात्’ इस न्यायसूत्र के द्वारा आयुर्वेद के दृष्टान्त से वेदों में आप्तप्रामाण्य के द्वारा प्रामाण्य की सिद्धि की गयी है । इस ‘आप्तप्रामाण्य’ स्वरूप हेतु में जो ‘आत’ विशेषण है, तत्स्वरूप ईश्वर की जो सिद्धि की जाती है, उसके विरोध में ‘हेत्वप्रसिद्धि’ दोष को इस विप्रतिपत्ति के द्वारा इस प्रकार उपस्थित किया जाता है किं ‘तत्सत्त्वेऽप्यप्रमाणत्वात्, अर्थात् वेदकर्ता यदि कोई पुरुष हो भी तथापि उस पुरुष को प्रमाण नहीं माना जा सकता । अप्रमाणित पुरुष के ऊपर
[ <] विश्वास नहीं किया जा सकता । अत: ‘तदन्यस्मिन्ननाश्वासात्’ इस वाक्य के द्वारा जो वेद कर्त्ता में अतिविश्वास प्रगट किया गया है वह युक्त नहीं है । ५. तत्साधकप्रमाणाभावाच्च कार्यत्वादि जिन हेतुओं से ईश्वर का अनुमान किया जाता है, वे हेतु चूंकि उपाधि- प्रभृति दोषों से युक्त हैं, अत: उससे क्षित्यादि के कर्ता के रूप में ईश्वर की सिद्धि नहीं की जा सकती । इन्हीं पांच विप्रतिपत्तियों का उल्लेख कर आचार्य ने क्रमशः पांच स्तवकों में इनका खण्डन किया है । न्यायशास्त्र का उनसे क्रमशः विचित्रताओं से न्यायशास्त्र में ‘लोकानुभव का सर्वाधिक महत्त्व है तदनुसार ही यह सिद्धान्त है कि संसार अनेकविधिविचित्र कार्यों से भरा पड़ा है। विभिन्न जीवों को विभिन्न प्रकार के सुखदुःख प्राप्त होते हैं । अत: परिपूर्ण कार्यों को विभिन्न समयों में विचित्र, अनेक कारण ही उत्पन्न कर सकते हैं । किसी एक ही वस्तु को सभी कार्यों का कारण मान लेने से कार्यों का यह ‘क्रमिकत्व’ एवं ‘वैचित्र्य’ उत्पन्न नहीं होगा । एवं किसी एक जाति के समान अनेक व्यक्तियों से भी कार्यों की कथित विचित्रता उपपन्न नहीं हो सकती । इसी प्रकार किसी एक ही वस्तु में विभिन्न प्रकार के कार्यों को उत्पन्न करने की ‘शक्ति’ (परास्य शक्तिविविधैव श्रूयते) मान कर भी कार्यों का उक्त वैचित्र्य एवं क्रमिकत्व की उपपत्ति नहीं की जा सकती, क्योंकि ‘शक्ति’ को यदि उस आश्रयीभूत वस्तु से पृथक् मानेंगे तो ‘एककारणवाद’ पक्ष भिन्न उक्त ‘शक्ति’ नाम के अतिरिक्त ही विघटित हो जायगा, क्योंकि उसे ‘एक’ से • वस्तु को ही कारण मान लेना होगा यदि ‘शक्ति’ को उसके आश्रय से अभिन्न मानेंगे तो क्रमिकत्व एवं वैचित्र्य की अनुपपत्ति ज्यों की त्यों रहेगी । इस प्रसंग में ‘स्वभाववादी’ कह सकते हैं कि एक ही वस्तु में वस्तुओं को उत्पन्न करने का स्वभाव देखा जाता है । एक ही वह्नि अनेक प्रकार की दाहक भी है एवं प्रकाशक भी, किन्तु इस स्वभाववाद से भी एक ही कारण के द्वारा उक्त क्रमिकत्व एवं वैचित्र्य की उपपत्ति नहीं हो सकती, क्योंकि कोई भी वस्तु अपने ‘स्वभाव’ को अर्थात् ‘स्व’ के भाव’ सत्ता के प्रयोजकधर्म को छोड़ नहीं सकता, अत: ‘स्वभाव’ का ‘अतिक्रमण’ नहीं हो सकता। इस प्रकार एक वस्तु जिस समय एकवस्तुजनकस्वभाव
जो धि- नहीं इनका त्र का मशः ओं से ite हैं। -’ एवं
- भी स्तु में यते) कती, ’ पक्ष रिक्त मानेंगे र की है एवं मकत्व ब’ को भाव’ भाव [ ९ ] से युक्त रहेगा, उसी समय अपरवस्तुज नकस्वभाव का भी रहेगा । अतः एक ही समय सभी कार्यों की उत्पत्ति अनिवार्य होगी । फलतः उक्त ‘स्वभाववाद’ में ‘वैचित्र्य’ की उपपत्ति कदाचन हो भी सकती है, किन्तु कार्यों का क्रमिकत्व अनुपपन्न ही रहेगा । इस प्रकार कार्यकारणभाव के स्वीकृत होने पर भी अदृष्टाधिष्ठाता के रूप में ईश्वर की सिद्धि में ये विप्रतिपत्तियाँ आड़े आती हैं, कि यद्यपि दण्डादि दृष्ट वस्तुओं में घटादि दृष्ट वस्तुओं की कारणता तो मानते हैं, फिर भी यागादि में स्वर्गादि की कारणता नहीं मानते, फलत: ‘अदृष्ट’ स्वरूप धर्माधर्म को स्वीकार नहीं करते । जब अदृष्ट की ही सत्ता विपन्न है तो तदधिष्ठातृतया ईश्वर की सिद्धि नहीं हो सकती । इस आक्षेप का समाधान यह है कि परलोक की प्राप्ति की आशा से संसारी जन दान, यागादि, इष्टापूर्त्तादि का अनुष्ठान करते हैं - इस विश्वजनीन प्रवृत्ति को झुठलाया नहीं जा सकता । उन्हे क्लेशमात्र फलक भी नहीं माना जा सकता, क्योंकि मनुष्य साधारण क्लेश-जनक कार्य को भी नहीं करता फिर क्लेशद इतने बड़े अनुष्ठान में कैसे प्रवृत्त होगा ? यागादि अथवा इष्टापूर्त्तादि के अनुष्ठानों को केवल लाभ, पूजा, ख्यातिप्रभृति दृष्टफलक भी नहीं माना जा सकता, क्योंकि ऐसे जनों से भी यागादि का अनुष्ठान देखा जाता है, जिन्हे लोकख्याति अथवा द्रव्य की लिप्सा नहीं है । यह भी कहना संभव नहीं है कि इष्टापूर्तादि के अनुष्ठाता धूर्त्त थे, वे केवल लोगों को ठगने के लिये ही इनका अनुष्ठान करते थे, क्योंकि संयमादि के इतने कठोर क्लेश से ठगने में अधिक सुख नही के समान है । में फिर भी यह कहा जा सकता है कि दान-यागादि दृष्टकारणों से ही स्वर्गादि परलोक की उत्पत्ति मान ली जाय, बीच में एक ‘अदृष्ट’ नाम की वस्तु की सत्ता क्यों मानी जाय ? इस आक्षेप का उत्तर यह है कि - कारण को कार्य से अव्यवहित पूर्वक्षण रहना आवश्यक है । यागादि क्रियास्वरूप होने के कारण क्षणिक है । एवं स्वर्गादि फल उससे बहुत समय बाद उत्पन्न होते है, अत: स्वर्ग से अव्यवहित पूर्वक्षण में यागादि का रहना संभव नहीं । अतः स्वर्ग के उत्पादन में समर्थ यागादि से एक ऐसे ‘अदृष्ट’ स्वरूप ‘अतिशय’ की कल्पना करते हैं जिसकी सत्ता स्वर्ग की उत्पत्ति के अव्यवहित पूर्वंक्षण पर्यन्त रहे । इस प्रकार ‘अदृष्ट’ को स्वीकार करना आवश्यक है । फिर भी एक प्रश्न रह जाता है कि यह ‘अदृष्ट’ भोक्ता स्वरूप आत्मा में रहता है, अथवा भोग्यस्वरूप भौतिक पदार्थों में ? इस प्रश्न का उत्तर यह है कि सभी अदृष्ट २
[१०] ‘भोक्ता’ पुरुष में रहकर ही ‘भोग’ का सम्यक् उत्पादन कर सकते हैं, भोग्यस्वरूप चन्दन- वनितादि भौतिक पदार्थों में रहकर अदृष्ट भोगों का सम्यक् उत्पादन नहीं कर सकते । “एक पुरुष के द्वारा अनुष्ठित याग से वही पुरुष स्वर्ग का उपभोग करे” यही है भोगों की सम्यक् उपपत्ति । भौतिक भोग्य पदार्थों का यह स्वभाव है कि उसका उपभोग अनेक पुरुषों के द्वारा होता है । अत: याग से यदि भोग्य पदार्थों में संस्कार ‘अदृष्ट’ को मान लेंगे तो ‘यागकर्ता पुरुष ही यागजनित स्वर्गादि का उपभोग करे’ – इस नियम की उपपत्ति नहीं होगी । अतः अदृष्ट आत्मा का ही गुण है, भौतिक पदार्थों का नहीं । मीमांसकगण’ ‘संस्कार अथवा ‘अदृष्ट’ की सत्ता भौतिक पदार्थों में भी मानते हैं । भोग की कथित ‘सम्यगुपपत्ति’ तो भोग्य पदार्थों में भोगजनक ‘शक्ति’ नाम के उस अतीन्द्रिय एवं स्वत पदार्थ से ही हो जायगी, जिसका मानना अनिवार्य है, क्योंकि यदि केवल ‘वह्नि’ पदार्थ को दाहादि कार्यों का कारण मानें तो केवल वह्नि से दाह होता है, मणिमन्त्रादि के प्रयोगों के रहते उसी वह्नि से दाह नहीं होता - इसकी उपपत्ति नहीं होगी, क्योंकि मणि-मन्त्रादिस्थलों में भी वह्नि की सत्ता तो है ही, उससे भी दाह का होना अनिवार्य हो जायगा । किन्तु मीमांसकों का यह ‘शक्ति’ सिद्धान्तपक्ष केवल इस आग्रह पर टिका है कि ‘अभाव’ किसी का कारण नहीं हो सकता । किन्तु ‘भाव’ पदार्थों के समान ही अभाव पदार्थों को भी कारण मानना आवश्यक हैं । यदि ऐसा मान लेते हैं तो उक्त ‘शक्ति’ पदार्थों को स्वीकार करने की आवश्यकता नहीं रह जाती। जिन स्थलों में वह्नि के रहते दाह की उपपत्ति नहीं होती उन स्थलों में दाह की सामग्री अर्थात् सभी कारण ही नहीं रहते । क्योंकि ‘प्रतिबन्धकाभाव’ भी कार्य का एक कारण है, अतः मणिमन्त्रादि के रहते सामग्री के अन्तर्गत ‘प्रतिबन्धकाभाव’ स्वरूप कारण का विघटन हो जाता है, जिससे कारणों की ‘समग्रता’ खण्डित हो जाती है । समग्रता युक्त कारणों का समुदाय अर्थात् सामग्री ही कार्य की उत्पादिका है, कोई एक कारण या दो कारण नहीं । सामग्री का विघटन ही कार्यों का प्रतिबन्ध अर्थात् प्रतिरोध है, उस प्रतिरोध के सम्पादक को ही ‘प्रतिबन्धक’ कहते हैं । तदनुसार ही मणिमन्त्रादि को दाह् का ‘प्रतिबन्धक’ कहा जाता है । यदि भौतिक पदार्थों में ‘संस्कार’ अथवा ‘अदृष्ट’ को स्वीकार न किया जाय तो ‘ब्रीहीनवहन्ति’ इत्यादि नियम विधिवाक्यों के द्वारा जो अप्रोक्षित व्रीहि का अवहनन
चन्दन- सकते । लोगों की क पुरुषों लेंगे तो पत्ति नहीं नते हैं । के उस क्योंकि होता है, हीं होगी, का होना का है कि अभाव ‘शक्ति’ के रहते ही नहीं मन्त्रादि के जाता है, समुदाय । सामग्री क को ही जाता है । जाय तो अवह्नन [ ११ ] निवृत्त होता है, एवं प्रोक्षित व्रीहि का ही अवहनन प्राप्त होता है, वह न हो सकेगा, क्योंकि प्रोक्षणजनित संस्कार को छोड़ कर उन ब्रीहियों में स्वतः कोई अन्तर नहीं है । मीमांसकों के इस कथन में भी कोई सार नहीं है, क्योंकि ‘समवाय सम्बन्ध से संस्कार अथवा अदृष्ट की उत्पत्ति आत्मा में ही हो’ प्रकृत में नियम का यही स्वरूप है । इससे अदृष्ट का कोई अन्य सम्बन्ध भौतिकपदार्थों में निराकृत नहीं होता । अतः प्रकृत में प्रोक्षणजनित अदृष्ट जिस प्रकार समवायसम्बन्ध से प्रोक्षणकर्त्ता पुरुष में है, उसी प्रकार ‘स्वरूप’ सम्बन्ध से अर्थात् ’ स्वजनकप्रोक्षणजनका भिप्रायविषयत्व’ रूप स्वरूप सम्बन्ध से वही ‘अदृष्ट’ प्रोक्षित व्रीहि में भी है । इसी से पुरोडाश के निष्पादन के लिये अप्रोक्षित व्रीहि का अवहनन निवृत्त हो जायगा । इसके लिये ब्रीहिरूप भौतिकपदार्थ में समवायसम्बन्ध से अदृष्ट अथवा संस्कार का मानना अनावश्यक है । प्रोक्षण क्रिया से उत्पन्न अदृष्टरूप फल उक्त स्वरूपसम्बन्ध से ब्रीहि में रहने के कारण ही ‘ब्रीहीन्’ पद में द्वितीया की उपपत्ति होती है । इसी प्रकार हलकणादि कृषिकार्यो से खेत में भी किसी शक्ति की उपपत्ति नहीं होती है, किन्तु हलकर्षणादि के द्वारा दूसरे खेतरूप अवयवी की ही उत्पत्ति होती है, यही कर्षितभूमि एवं अर्काषितभूमि में अन्तर होता है । चिकित्सा से भी शरीर में किसी शक्ति या अदृष्ट की उत्पत्ति मानने की आवश्यकता नहीं है, किन्तु कफ, पित्त, वायुस्वरूप ‘धातु’ में साम्यस्वरूप दृष्ट व्यापार के द्वारा ही रोगी आरोग्य लाभ करता है । कथित युक्ति से ही ‘यव के बीज से यवाङ्कुर ही उत्पन्न हो’ अथवा ‘धान के बीज से धान के अंकुर ही उत्पन्न हों’ इन नियमों की उपपत्ति के लिये ‘शक्ति’ पदार्थों को स्वीकार करने की आवश्यकता नहीं रह जाती है । क्योंकि यवाङ्कुर के उत्पादक परमाणु और धान्याङ्कुर के उत्पादक परमाणु इन दोनों प्रकार के परमाणुओं में रहने वाले रूप- रसादि भिन्न-भिन्न हैं । रूप-रसादि की यह विभिन्नता पाक से उत्पन्न होती है । अत: यव में यवाङ्कुरजनक शक्ति मानने की आवश्यकता नहीं है । एवं धान्य में धान्याङ्कुरजनन की शक्ति मानने की आवश्यकता नहीं है । इस प्रकार विभिन्न अदृष्टों से युक्त आत्मा के विभिन्न संयोगादि कारणों की विभिन्नता से ही जल, तेज, वायुप्रभृति में उद्भूत रूपादि एवं अनुद्भूत रूपादि अथवा
[ १२ ] द्रवत्व कठिनत्वादि, विभिन्न कार्यों की उत्पत्ति होती है । इसके लिये उनके आरम्भक परमाणुओं में किसी- ‘शक्ति’ का मानना आवश्यक नहीं है । प्रतिमा के प्रसङ्ग में भी नैयायिकों की यही दृष्टि है, कि प्रतिष्ठा के विविध अनुष्ठानों के द्वारा उन प्रतिमाओं में नियमित रुद्र, विष्णु, इन्द्र प्रभृति देवताओं से अभीष्ट देवता का सौविध्य प्राप्त होता है । देवताओं की इस संनिधि के बल से ही प्रतिमाओं में पूज्यता आती है । इसी प्रकार शपथ के लिये प्रयुक्त तुला (तराजू) से जो पापशून्यतास्वरूप ‘जय’ एवं सपापत्वस्वरूप पराजय का निर्णय होता है, वहाँ भी परीक्षाविधि के द्वारा तुला प्रभृति में किसी ‘शक्ति’ की उत्पत्ति नहीं होती है, किन्तु जय एवं पराजय के मूल पुरुष में समवेत जो धर्माधर्म हैं, उन दोनों को कार्योन्मुख करना ही परीक्षा का उद्देश्य है । चेतन आत्मा में अपूर्व न मानने के सिद्धान्त के विपक्ष में जो भोग्य वस्तुओं में जो ‘साधारण्य’ की आपत्ति दी गयी है, उसीसे निम्नलिखित सांख्यसिद्धान्त भी खण्डित हो जाता है । सांख्याचार्यों का कहना है कि पुरुष ‘कूटस्थ’ है । अर्थात् सभी जन्यधर्मों का अनाश्रय एवं चेतन है । अत: उससे न किसी वस्तु की उत्पत्ति होती है, न स्वयं वह किसी से उत्पन्न होता है । किन्तु जड़स्वभावा ‘प्रकृति’ ही अपनी सततपरिणामशीलता के कारण सभी कार्यों का मूल कारण है । उसी के द्वारा महत्तत्वादि के क्रम से जगत् की सृष्टि होती है । इस सांख्यसिद्धान्त का खण्डन पहले ही प्रत्यात्मनियमामुक्तेः’ (श्लो० ४) । इस श्लोक के द्वारा भी संक्षेप में किया जा चुका है, फिर भी कर्तृधर्मा नियन्तारः ’ ( श्लो० १४ ) इस श्लोक से किञ्चिद् विस्तृत रूप में न्यायसिद्धान्त के अनुसार खण्डन इस अभिप्राय से किया गया है कि १. देवदत्तादि कर्त्ताओं में रहनेवाले धर्म ही ‘देवदत्तादि कर्त्ताओं के द्वारा अनुष्ठित यागादि के फल देवदत्तादि कर्त्ताओं को ही मिले’ ? इत्यादि नियमों के प्रयोजक हो सकते हैं । २. एवं चेतन ही कर्त्ता हो सकता है । ‘अन्यथा’ अर्थात् यदि इन दोनों बातों को स्वीकार न करें तो फिर कभी अपवर्ग ही प्राप्त न हो सकेगा, अथवा न कभी संसार ही प्राप्त हो सकेगा । ये सभी बातें इस सिद्धान्त को मानकर लिखी गयी हैं कि शरीरादि से भिन्न आत्मा ही भोक्ता है, एवं वह नित्य एवं विभु है । किन्तु यह पक्ष ही भूतचैतन्यवादियों को CCO. Vasishtha Tripathi Collection. Digitized by eGangotri[ १४ ] जिस प्रकार ‘ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या’ इस ‘वचन’ को मूलसूत्र मान कर वेदान्तिगण जगन्मिथ्यात्व की सिद्धि अनेक युक्तियों और अनुमानों से करते हैं, उसी प्रकार बौद्धों ने भी ‘सर्वक्षणिकम्’ इत्यादि बुद्धवाक्य को ध्रुव मानकर जगत् को क्षणिक सिद्ध करने के लिये अनेक युक्तियों और अनुमानों का उद्भावन किया हैं । वस्तुओं के क्षणिक मानने में बौद्धगण यह कहते हैं कि धान्य का वीज केवल बीज होने के नाते ही अङ्कुर का उत्पादन नहीं कर सकता, अगर ऐसा हो तो घर में स्थिति के समय भी बीज से अङ्कुर की उत्पत्ति होती किन्तु सो नहीं होता । अत: बीज में एक विलक्षण जाति माननी होगी जिसके बल से क्षेत्रस्थ बीज से अङ्कुर की उत्पत्ति होगी किन्तु कुशूलस्थ बीज से नहीं । किन्तु एक ही वस्तु में एक ही जाति की सत्ता कभी रहे कभी नहीं, ऐसा नहीं हो सकता, क्योंकि जाति व्याप्यवृत्ति हैं, अव्याप्यवृत्ति नहीं । अतः अङ्कुर से अव्यवहितपूर्वक्षणवृत्ति वीज को कुशूलस्थ से भिन्न एवं विजातीय मानना होगा । किन्तु एक माने जानेवाले बीज की विभिन्नता उनको क्षणिक मानने के लिये विवश करेगी । अतः वीज क्षणिक हैं, प्रत्येक क्षण में पूर्वबीज का विनाश एवं अन्य बीज की उत्पत्ति की परम्परा चलती रहती है । इस प्रकार अङ्कुराव्यवहितपूर्वंक्षण में जिस बीज की उत्पत्ति होगी, उसी में ‘कुर्वद्रूपत्व’ जाति मानेगें, जिसके बल से वही वीज अव्यवहि- तोत्तर क्षण में अङ्कुर को उत्पन्न करेगा उसके पहले के बीज नहीं यह ध्यान रखना चाहिये कि बौद्धगण एक ही कारण से एक कार्य की उत्पत्ति मानते हैं, प्रधान कारण को अपने कार्य के उत्पादन में सहायक कारणों की अपेक्षा नहीं होती हैं। कारण अङ्कुरादि कार्यों के उत्पादन में अपने आप पूर्ण समर्थ हैं । • । बीजादि प्रधान- नैयायिकादि स्थिरवादी कहते हैं कि कोई भी प्रधान कारण कार्य के उत्पादन में सहायकों से निरपेक्ष अपने आप समर्थ नहीं है, सभी को सहायकों की अपेक्षा होती है । फलतः एक कारण से किसी भी कार्य की उत्पत्ति नहीं होती है, किन्तु अनेक कारणों से कार्य की उत्पत्ति होती है । इन अनेक कारणों का ‘समूह स्वरूप ‘सामग्री’ ही कार्य की उत्पादिका है । यह दूसरी बात है कि उनमें कुछ अन्तरङ्ग - बहिरङ्गभाव अथवा गौण- मुख्यभाव रहे । एक कारण मुख्य होता है बाकी उसके सहायक अथवा ‘सहकारि’ होते हैं । जिसके बिना प्रधान कारण फल (कार्य) का उत्पादन न कर सके वही ‘संहकारि’ कहलाता है । इस वस्तुस्थिति के अनुसार ‘बीज’ केवल अपनी ‘बीजत्व’ जाति के बल
ाण ने
- 16 के ज के एक तु भी कुर TTI वश की ज हि- चना को न- में है । से
- की हैं ।
रि’ बल [ १५ ] से ही अङ्कुरोत्पादन में समर्थ है । कुशूलस्थ वीज से जो अङ्कुर की उत्पत्ति नहीं होती है, उसका हेतु है कषित क्षेत्र, जलादि का अभाव । अर्थात बीजरूप प्रधान कारण को अङ्कुर के उत्पादन में क्षेत्र - सलिलादि सहकारियों की भी अपेक्षा होती है । ये सहकारिगण कुशूलस्थ बीज को प्राप्त नहीं होते, अत: कुशूलस्थ वीज से अङ्कुरोत्पत्ति नहीं होती है । इसके लिए वीज में न कुर्वद्रूपत्व जाति मानने की आवश्यकता है, न उन्हें क्षणिक मानने की आवश्यकता । नैयायिकादि जो क्षणभङ्गवाद का खण्डन करते हैं, उसके मूल में सहकारि कारणों की यह स्वीकृति ही है । अत: इस पक्ष का ‘सहकारिवाद’ नाम से ग्रन्थों में उल्लेख पाया जाता है । इस प्रकार शरीरादि से भिन्न नित्य जीवों के सम्यगुपभोग के लिये उनमें विभिन्न अदृष्टों का मानना आवश्यक है । इसके लिए अदृष्टों के उत्पादक यागादि विधायक वेद- वाक्यों के रचयिता के रूप में एवं अचेतन अदृष्टों के चेतन अधिष्ठाता के रूप में ईश्वर की कल्पना आवश्यक है । शरीरादि से भिन्न नित्य विभु आत्मा को मानने पर यह आक्षेप हो सकता है कि उसे किसी का कारण मानना संभव नहीं है, क्योंकि कारणता का साधक है अन्वय एवं व्यतिरेक । नित्य एवं विभु आत्मा में कार्य का अन्वय भले ही संभव हो किन्तु व्यतिरेक संभव नहीं हैं, क्योंकि आत्मा नित्य होने के कारण सदा सर्वदा विद्यमान ही रहती है, अत: उसका ‘व्यतिरेक’ ही संभव नहीं है, इसलिये तद्वयतिरेकप्रयुक्तकार्यव्यतिरेकरूप ‘व्यतिरेक’ संभव नहीं है । । इस आक्षेप का - उत्तर आचार्य यों देते हैं, कि अन्वय एवं व्यतिरेक ये दोनों मिलकर या पृथक्-पृथक् कारणत्व के ज्ञापक लिङ्ग हैं । किन्तु कारणत्व के स्वरूप के अन्तर्गत नहीं हैं । करणत्व का तो कार्यनियतपूर्ववत्तित्व ही स्वरूप है, इस स्वरूप का कारणत्व कभी अन्वय से कभी व्यतिरेक से बहुधा दोनों के सम्मिलन से ज्ञात होता है । एवं कुछ स्थलों में अन्वयव्यतिरेक से भिन्न ‘धर्मिग्राहक’ मान से भी कारणत्व की सिद्धि होती है । ऐसा नित्य आकाशादिकारणों में होता है । शब्दसमवायिकारणतया आकाश की सिद्धि होती है । फलत: आकाश की सत्ता ही शब्द की समवायिकारणता के ऊपर निर्भर है । अतः कारणत्व स्वरूप ‘धर्म’ का ‘धर्मी’ जो आकाश, उसका साधक (ग्राहक) जो अनुमान -प्रमाण है, उसी (धार्मिग्राहक-प्रमाण)
[ १६ ] से आकाश में कारणत्व की सिद्धि हो जाती है । इस प्रकार यदि आत्मा में अदृष्टादि की कारणता को व्यतिरेक न रहने के कारण स्वीकार नहीं करेंगें तो कारणत्वाभावरूप जिस धर्म की सिद्धि आत्मा में आपको अभिप्रेत है, उसके आत्मास्वरूप ‘धर्मी’ की सिद्धि न हो सकेगी । अतः आत्मा में कारणत्व की कोई अनुपपत्ति नहीं है । इस प्रकार अदृष्ट के अधिष्ठाता के रूप में ईश्वर की सिद्धि निरवाध है । ( २ ) स्वर्गादि परलोक की सिद्धि के लिए उनके यागादि साधनों का अनुष्ठान आवश्यक है । यागादि अनुष्ठानों के लिये वेदों को प्रमाण मानना अनिवार्य है । शब्दस्वरूप वेदों के लिये वेदार्थ ज्ञाता पुरूष की कल्पना आवश्यक है । अखिल ज्ञानराशि वेदों के अर्थो को यथार्थरूप में समझने वाला पुरूष अवश्य ही सर्वज्ञ होगा । इस प्रकार स्वर्गादि परलोक के साधनीभूत यागादि अनुष्ठानों के लिये वेदार्थज्ञानवान् सर्वज्ञ पुरुषस्वरूप पर- मेश्वर की कल्पना आवश्यक है । इस रीति से परमेश्वर की सिद्धि में मीमांसक लोग यह ‘अन्यथासिद्धि’ उपस्थित करते हैं कि वेद किसी प्रामाणिक पुरूष के द्वारा उच्चरित अथवा निर्मित होने के कारण प्रमाण नहीं हैं, किन्तु नित्य होने के कारण चूंकि दोषशून्य हैं, इसीलिये वेद प्रमाण हैं । सुतराम् स्वर्गादि परलोक के लिये अपेक्षित यागादिक के अनुष्ठान के लिये परमेश्वर की आवश्यकता नहीं है । सभी लोग जानते हैं ज्ञान अयथार्थ होते हैं । यदि उत्पादन करते हैं । इससे यह का सांनिध्य प्राप्त है तो उनसे कि चक्षु या श्रोत में दोष के चक्षुरादि में कोई दोष नहीं आ जाने से उनसे होने वाले रहता तो वे यथार्थज्ञान का निष्कर्ष निकला कि ज्ञान के कारणों को जिस समय दोष ‘अप्रमाज्ञान’ की उत्पत्ति होती है । इस प्रकार ज्ञान के सामान्य कारणों से ‘पर’ अर्थात् भिन्न दीष की भी आवश्यकता होती है, अतः ज्ञान का अप्रामाण्य अथवा अप्रमात्व परत: उत्पन्न होता है । एवं जिस ज्ञान से होने वाली प्रवृत्ति विफल होती है, उस ज्ञान को अप्रमा समझा जाता है, अतः ज्ञान का अप्रामाण्य अथवा अप्रमात्व ‘परत: समझा जाता है । तस्मात् ज्ञान का अप्रामाण्य ‘परत: ’ उत्पन्न होता है एवं ‘परत:’ ज्ञात भी होता है । किन्तु ज्ञान का ‘प्रमात्व’ या ‘प्रामाण्य’ स्वतः उत्पन्न होता है, एवं गृहीत होता हैं । अर्थात् दोषाघटितज्ञानसामान्यकारणों से जिस ज्ञान की उत्पत्ति होगी, वह ज्ञान अप्रम
स हो hos क हों ब दि र- त ण । की ले ष के का त वा है । म [ १७ ] तो हो नहीं सकता, क्योंकि ज्ञान की इस सामग्री को दोष का समवधान प्राप्त नही है । दोंषाघटित ज्ञान की सामग्री से ज्ञान की उत्पत्ति अवश्य होती है। ज्ञान या तो प्रमाण होंगा अथवा अप्रमाण । अतः दोषाघटितज्ञान के सामान्य कारणों से जिस ज्ञान की उत्पत्ति होगी वह प्रमाण ( प्रमा) ही होगा । इसलिये ज्ञान का प्रमात्व ‘स्वत:’ अर्थात् ज्ञान के साधारण कारणों से ही उत्पन्न होता है । इसी प्रकार ज्ञान का प्रामाण्य ‘स्वत: ’ अर्थात् ज्ञान के ग्राहक कारणों से ही ज्ञात भी होता हैं । यही है ज्ञान के प्रामाण्य का स्वतस्त्व । फलत: मीमांसकगण ज्ञानों के प्रामाण्य को ‘स्वत:’ एवं ‘अप्रामाण्य’ को ‘परतः ’ मानते हैं । इस पक्ष में वेदार्थविषयक ज्ञानों के प्रामाण्य के लिये चूंकि पुरुषनिष्ठ यथार्थ- ज्ञानस्वरूपगुण की अपेक्षा नहीं है, अत: यागादि परलोक साधनों के लिये सर्वज्ञ पुरुष- स्वरूप ईश्वर की अपेक्षा नहीं है । इस प्रसङ्ग में नैयायिकों का कहना है कि ‘विशेष’ कार्य के लिये ‘विशेष’ कारण की आवश्यकता होती है । ज्ञानसामान्य के ‘प्रमा’ एवं ‘अप्रमा’ ये दो ‘विशेष’ हैं । अत: ‘अप्रमा’ स्वरूप ज्ञान ‘विशेष’ के लिये जिस प्रकार ज्ञान के सामान्य कारणों के अतिरिक्त ‘दोष’ स्वरूप विशेष कारण की आवश्यकता होती हैं, उसी प्रकार ‘प्रमा’ स्वरूप ज्ञान ‘विशेष’ के लिये भी ‘विशेष’ कारण की अपेक्षा अवश्य होगी। प्रमा के प्रायोजक उस विशेष कारणों को गुण शब्द से व्यवहार करते हैं । अतः ज्ञान के सामान्य कारणों से ‘पर’ अर्थात् भिन्न ‘गुण’ स्वरूप कारण की अपेक्षा प्रमा ज्ञान को भी होती है । इसलिये ज्ञान के अप्रामाण्य की तरह ज्ञानों का प्रामाण्य भी ‘परत: ’ हैं । शाब्दी प्रमा के लिये यह ‘गुण’ वह वक्तृनिष्ठ यथार्थज्ञान है जिसका सजातीय शाब्दबोध उत्पन्न होगा । वेद शब्दस्वरूप हैं, सुतराम् वेदार्थविषयक यथार्थज्ञान शाब्द- बोध स्वरूप ही होगा । जिसके लिये वक्तृनिष्ठ यथार्थ ज्ञानस्वरूप ‘गुण’ की अपेक्षा होगी, वह ‘वक्ता’ ही ‘परमेश्वर’ हैं । सुतराम् परमेश्वर के बिना परलोक के साधनीभूत यागादि का अनुष्ठान संभव नहीं है, क्योंकि वह वक्तृनिष्ठयथार्थज्ञानस्वरूप ‘गुण, जनित वेदार्थ- विषयक यथार्थज्ञान सापेक्ष है । इस प्रसङ्ग में मीमांसकों का कहना है कि सकतु क शब्द से उत्पन्न होने वाले प्रमा ज्ञान के लिए भले ही वस्तुनिष्ठयथार्थज्ञानस्वरूप ‘गुण’ की अपेक्षा हो, किन्तु ‘नित्य’ ३
[१८] एवं निर्दोष वेदस्वरूप शब्द से उत्पन्न होने वाले यथार्थज्ञान के लिए उक्त ‘गुण’ की अपेक्षा संभव नहीं है । अतः वेदजनितज्ञान के यथार्थ की प्रयोजक वेदों की दोषशून्यता ही हैं । शाब्दी अप्रमा के प्रयोजक दोषवक्तृनिष्ठभ्रम विप्रलिप्सादि ही हैं, जो नित्य वेदस्थल में सम्भव नहीं हैं, क्योंकि उनका कोई आदिवक्ता नहीं है । अतः वेदार्थज्ञान का प्रामाण्य स्वत: है, एवं उस प्रामाण्य का ग्रहण ‘महाजनों’ के परिग्रह से होता है । वर्तमान काल के ब्राह्मणादि अतीतकाल के महापुरुषों के द्वारा परिगृहीत होने के कारण ही वेदों को प्रमाण मानते हैं । किन्तु मीमांसको का यह पक्ष भी ठीक नहीं हैं, क्योंकि ‘प्रलय’ में अन्य सभी अनित्य वस्तुओं के समान वेदों का भी विनाश हो जाता हैं, प्रलयोत्तर वेदों के प्रामाण्य का ग्रहण कैंसे होगा ? क्योंकि उस समय तो कोई ‘महापुरुष’ भी रहते नहीं, जिनके परिग्रह से वेदों में प्रामाण्य का ग्रहण होगा । इस प्रसङ्ग में यह जान लेना आवश्यक है कि मीमांसक लोग ‘प्रलय’ की सत्ता को स्वीकार नहीं करते । इस सम्बन्ध में उनके द्वारा उपस्थापित चार आपत्तियों का निराकरण प्रस्तुत है - (क) जिस प्रकार आज के ‘अहोरात्र’ से पहले भी कोई ‘अहोरात्र’ अवश्य रहता है, उसी प्रकार सभी अहोरात्रों के पहले कोई अहोरात्र अवश्य रहता है, अहोरात्रों की यह अनियन्त्रित श्रृङ्खला ‘प्रलय’ की सत्ता को ही काट डालती है । किन्तु मीमांसकों की उक्त युक्ति भी ठीक नहीं हैं, क्योंकि जिस प्रकार वर्षा ऋतु के प्रथम दिन को छोड़ कर वर्षा ऋतु के सभी दिन यद्यपि वर्षादिनपूर्वक होते हैं, किन्तु वर्षा ऋतु का प्रथम दिन वर्षादिनपूर्वक नहीं होता, क्योंकि वर्षा ऋतु के प्रथम दिन के पूर्व के दिन वर्षा ऋतु के नही होते, उसी प्रकार सृष्टि के स्थितिकाल के सभी अहोरात्र यद्यपि अहोरात्र- पूर्वक हैं, फिर भी सृष्टि के आदि का पहला अहोरात्र ‘अहोरात्रपूर्वक’ नहीं है । अत: सभी अहोरात्र अहोरात्रपूर्वक नहीं हैं, इसलिये तन्मूलक प्रलय का खण्डन उचित नहीं हैं । (ख) मीमांसकगण प्रलय के खण्डन के लिये इस दूसरी युक्ति का प्रयोग करते हैं कि प्रलय को स्वीकार करनेवालों को यह मानना होगा कि प्रलयकाल में भोग नहीं होता । प्रलय के बाद भोग होता हैं । किन्तु प्रलयकाल में भी आत्मा में अदृष्टों की सत्ता रहती हैं किन्तु प्रलयकाल में अदृष्ट की कार्यक्षमता अवरूद्ध रहती है, पुनः
ETT त्य न ही भी ाण्य ग्रह को करण वश्य है, किन्तु
- दिन तु का
- वर्षा रात्र- सभी
- करते 虐長 भोग अदृष्ट • पुनः [१९] सृष्टि होने पर अदृष्टों में भोग की क्षमता आती है, किन्तु यह सम्भव नहीं है, काल के साथ भोग की परम्परा नियमित है, अतः कोई भी काल ऐसा नहीं हो सकता, जिसमें भोग उत्पन्न न हो । किन्तु प्रलय स्वीकार करने पर प्रलयकाल में भोग सम्भव नहीं होगा । उसके आगे पुनः भोग होगा । इसलिये प्रलयाधिकरणीभूत एक काल में सभी अदृष्टों की भोगोत्पादकत्व शक्ति का अवरोध मानना होगा, किन्तु वैसा सम्भव नहीं है। क्योंकि ‘विषमविपाकजनकत्व’ उसका स्वभाव है । अतः ऐसा कोई काल नहीं हो सकता, जिसमें सभी अदृष्टों की ’ वृत्तियाँ’ अवरुद्ध हो जायें । अतः प्रलय नहीं होता । किन्तु मीमांसकों का यह पक्ष भी ठीक नहीं है, क्योंकि सुषुप्ति के समय सभी भोगों की निवृत्ति सभी मानते हैं । इसलिये सुषुप्ति के समय अदृष्ट की सभी वृत्तियों का निरोध सर्वसम्मत है । अत: यह कहना भी ठीक नहीं है कि सभी अदृष्टों की वृत्ति का निरोध कभी सम्भव नहीं है, क्योंकि सुषुप्ति अवस्था में ही सभी वृत्तियों का निरोध स्पष्ट है । ( ग ) ‘प्रलय’ के विरुद्ध मीमांसकगण तीसरी युक्ति यह देते हैं कि यदि प्रलय को स्वीकार करेंगे तो उस समय ब्राह्मणादिवर्णों की व्यवस्था लुप्त हो जायगी । फिर आगे पुनः सृष्टि होने पर ब्राह्मणादिवर्णो की व्यवस्था न हो पायगी । क्योंकि ब्राह्मण- मातृपितृजन्यत्व ही ब्राह्मणत्व का प्रयोजक है । प्रलयकाल में जव सभी नष्ट हो जायँगे तो ब्राह्मणादि वर्ण भी नष्ट हो जायंगे । इसका यह समाधान है कि स्थितिकाल में यद्यपि ब्राह्मणमातृपितृजन्यत्व ही ब्राह्मणत्व का नियामक होता है, किन्तु सृष्टि के आदि में ब्रह्मा के सङ्कल्प से ही ब्राह्मणादि की उत्पत्ति होती है, जिनकी कथाओं से पुराणादि भरे पड़े हैं। लोक में भी देखा जाता है कि वृश्चिक ( बिच्छू ) की उत्पत्ति उनके नर-मादे से भी होती है, कभी गोबर से भी होती है । एवं चौराई का शाक कभी उसके बीज से होता है, और कभी चावल के धोने के लिये प्रयुक्त पानी से होता है । अतः बीज का नियम प्रायिक है, सार्वत्रिक नहीं । (घ) प्रलय को स्वीकार करने में मीमांसकगण चौथी आपत्ति यह देते हैं कि प्रलय को मानने से शब्दों के सङ्कतग्रहादि नहीं हो सकेंगे, क्योंकि शक्तिग्रह वृद्ध व्यवहार सापेक्ष है । प्रलय में जब सभी पुरुष विनष्ट हो जायेंगे तो किसके व्यवहार से
[२०] कौन शक्ति ग्रहण करेगा ? इसी प्रकार प्रलय को स्वीकार करने से घटादि निर्माण का कौशल लुप्त हो जायगा । अतः प्रलय नहीं होता । यह सृष्टि सदा से यों ही चली आ रही है, एवं यों ही चलती रहेगी । मीमांसकों का यह कथन भी ठीक नहीं है, क्योंकि जिस प्रकार ‘मायावी’ [ कठपुतली को नचाने वाला ] पुरुष कठपुतली के द्वारा घट के नयन एवं आनयन से पार्श्वस्थ बालक सङ्केत का ग्रहण कर लेता है, उसी प्रकार सृष्टि के आदि में ईश्वरगुरु एवं शिष्य दोनों ही शरीर को धारण कर सङ्केत ग्रहण एवं घटादि सम्प्रदायों की परम्परा को कायम रखते हैं । अतः प्रलय के मानने से सङ्केतग्रह की अनुपपत्ति अथवा घटादि सम्प्रदायों की अनुवृत्ति की कोई अनुपपत्ति नहीं है । [ ३ ] ‘तदभावावेदकप्रमाणसद्भावात्’ इस वाक्य द्वारा प्रथम स्तवक में जो ईश्वरसिद्धि के बाधक प्रमाणों की ओर संकेत किया गया है, उसी का विवरण तृतीय स्तवक में है । जिस प्रकार ‘सिद्धि’ के लिये प्रमाण की आवश्यकता होती है, उसी प्रकार ‘बाध’ के लिये भी प्रमाण की आवश्यकता होती है । तदनुसार जितने भी प्रमाण हैं, उन सभी के द्वारा ईश्वरसिद्धि में वाध की सम्भावना है । नैयायिक प्रत्यक्षादि जिन चार प्रमाणों की सत्ता को स्वीकार करते हैं, उनके द्वारा बाधक उद्भावन कर उसका निरास किया गया है । तदतिरिक्त अर्थापत्ति और अनुपलब्धि ये दो प्रमाण मीमांसक और मानते हैं । इन दोनों प्रमाणों के द्वारा ईश्वरसिद्धि में बाध की सम्भावना का निरास उनके पृथक् प्रामाण्य के निराकरण के द्वारा इस अभिप्राय से किया गया है कि अर्थापत्ति वस्तुतः अनुमान - प्रमाण में अन्तर्भूत है । के द्वारा बाध का निराकरण हो जाता है एवं अनुपलब्धि स्वयं अभाव की ग्राहिका नहीं है, किन्तु प्रत्यक्ष के द्वारा अभाव के ग्रहण में सहायकमात्र है । अत: प्रत्यक्ष बाध के निरास से . ही अनुपलब्धि बाध का निरास समझना चाहिये । अतः अनुमान बाध के निराकरण से ही अर्थापत्ति प्रमाण वैशेषिकगण उपमान और शब्द को पृथक् प्रमाण न मान कर अनुमान में ही उन दोनों का अन्तर्भाव करते हैं । उनके मत से अनुमान-बाध के निराकरण से ही उपमान- बाध और शब्द- बाध इन दोनों को भी निराकृत समझना चाहिये । किन्तु नैयायिकगण शब्द एवं उपमान इन दोनों को पृथक्-पृथक् ( स्वतन्त्र ही ) प्रमाण मानते हैं । अत: उनके
का रही वी’ न से रगुरु -परा हादि सद्धि नकार हैं, जिन उसका
- और उनके स्तुतः प्रमाण हृीं है, रास से ही उन पमान- यकगण उनके [ २१ ] मत से उपमान-बाध एवं शब्द-वाध इन दोंनों वाधों का निराकरण अनुमान-वाध के निराकरण से ही सम्पन्न नहीं हो जाता । अतः इस स्तवक में शब्द एवं उपमान इन दोनों के पृथक्-पृथक् (स्वतन्त्र) प्रामाण्य का समर्थन, तथा अर्थापत्ति एवं अनुपलब्धि इन दोंनों के पृथक् प्रामाण्य का खण्डन भी किया गया है । कुछ अन्य अवान्तर स्वतन्त्र विचार भी हैं । १. प्रत्यक्षबाध एवं उसका निराकरण जिस प्रकार भूतल में घट की अनुपलब्धि से घटाभाव का निर्णय होता हैं, एवं उस निर्णय से भूतल में घट की सत्ता बाधित होती है, उसी प्रकार ईश्वर भी चूंकि कहीं उपलब्ध नहीं होते, अत: ईश्वर की इस अनुपलब्धि से इश्वर की सत्ता का बाधित होना अनिवार्य है । फलतः ईश्वर के साधक सभी अनुमान प्रत्यक्ष से बाधित हैं । किन्तु यह प्रत्यक्ष बाध उचित नहीं है, क्योंकि प्रत्यक्ष योग्य वस्तु की अनुप- लब्धि ही उक्त प्रत्यक्ष योग्यवस्तु के अभाव का साधक होतीं हैं । यदि ऐसा न हो अर्थात् योग्यानुपलब्धि को अभाव ग्राहक न मानकर योग्यायोग्य साधारण सभी अनुपलब्धियों को अभाव का साधक मानें तो चक्षुरादि इन्द्रियों की सत्ता भी बाधित हो जायगी, क्योंकि चक्षु अतीन्द्रिय हैं अत: उसकी उपलब्धि नहीं होती है । फलतः चार्वाक का एकमात्र अब- लम्ब प्रत्यक्ष प्रमाण भी विपन्न हो जायेगा | योग्यानुपलब्धि को अभाव - ग्राहक मानने से शशशृङ्गाभाव की असिद्धि कीं जो आपत्ति दी जाती है, वह भी ठीक नहीं है, क्योंकि शशशृङ्गाभाव की सिद्धि कभी होंती ही नहीं, क्योंकि शशशृङ्ग की सत्ता अप्रसिद्ध है । कहीं प्रसिद्ध वस्तु का ही कहीं अभाव भी होता है । अव रही ‘शशशृङ्ग ं नास्ति’ इस प्रयोग की उपपत्ति । उसे उस प्रयोग से में शृङ्ग शशसम्बन्ध के अभाव का बोधक मान कर उपपन्न किया जा सकता है । वस्तुत: यही उचित भी है । ‘शशशृङ्ग नास्ति’ इस वाक्य से खरहे के सींग नहीं होते’ यह प्रतीति होती है । ‘यहाँ शश का शृङ्ग नहीं हैं’ यह प्रतीति नहीं होती। २. अनुमानबाध एवं उसका निराकरण क्षित्यङ्कुरादि के कर्त्ता के स्वरूप में ईश्वर का अनुमान नैयायिकों को अभिप्रेत हैं । किन्तु कोई भी ‘कर्त्ता’ न ‘शरीर’ के बिना कोई कार्य कर सकता है, न बिना किसी प्रयोजन के वशीभूत होकर । शरीरादि से भिन्न नित्य-विभु एवं विभु आप्तकाम जिस अशरीरी
[ २२ ] परमेश्वर की कल्पना नैयायिकों को इष्ट है, उनको न शरीर ही है, न कोई प्रयोजन ही । अतः यह अनुमान किया जा सकता है कि ईश्वर चूंकि शरीर एवं प्रयोजन से रहित है, • अत: वह किसी का भी कर्त्ता नहीं हो सकता । सुतराम् क्षित्यादि के भी कर्ता नहीं हों सकते– ‘ईश्वरो न कर्त्ता अशरीरित्वात् प्रयोजनाभिसन्धिशून्यत्वाद्वा’ इन दोनों अनुमानों के द्वारा ईश्वर में सकर्तृ कत्व के बाध से क्षित्यादि के कर्त्ता के रूप में ईश्वर का अनुमान बाधित हो जायगा । अतः ईश्वर का साधक उक्त अनुमान सदनुमान नहीं है । इसलिये उससे ईश्वर की सिद्धि नहीं हो सकती । इस आक्षेप के उत्तर में नेयायिक का कहना है सकता । क्योंकि अनुमानबाध के लिये बाधक अनुमान का दोषयुक्त हेतु से जिस प्रकार किसी की सिद्धि नहीं हो अनुमान से किसी का बाध नहीं हो सकता । कि उक्त अनुमान बाध नहीं हो दोषरहित होना अनिवार्य है । सकती, उसी प्रकार दुष्टहेतुक प्रकृत में ‘ईश्वरों न कर्त्ता’ इत्यादि अनुमान दिखलाये गये हैं । वह दोषदाता के लिये ‘आश्रयासिद्ध’ है | पक्षतावच्छदेकीभूत ईश्वर रूप से ईश्वर पहिले से सिद्ध नहीं है । अनुमान के लिये पक्षतावच्छेदविशिष्टपक्ष का निश्चय पहले आवश्यक है । यदि उक्त बाधक अनुमानों की उपपत्ति के लिए ईश्वरत्वविशिष्ट ईश्वर का ज्ञान स्वीकार करेंगे, तो ईश्वर की सिद्धि ही हो गयी । फलत: जिस प्रमाण से बाधक अनुमान के ‘धर्मी’ स्वरूप ‘ईश्वर’ का ग्रहण होगा, उसी ‘धर्मिग्राहकमान’ से उक्त बाधक अनुमान बाधित हो जायगा । क्योंकि ‘ईश्वर’ स्वरूप उक्त ‘धर्मो’ का प्रमाज्ञान ’ क्षित्यङ्कुरादिकं सकतृ कम्’ इत्यादि अनुमानों को छोड़कर दूसरा नहीं है । फलत: जिस अनुमानप्रमाण के बल से ईश्वरानुमान में बाध होगा, उस धर्मिग्राहक अनुमान प्रमाण से ईश्वर की सिद्धि ही हो जायगी । बौद्ध एवं मीमांसकगण अत्यन्त ‘असत्’ पदार्थ का भी भान स्वीकार करते हैं । तदनुसार असत्ख्याति के द्वारा ज्ञात परमेश्वर में असर्वज्ञत्व अथवा अकर्त्ती कत्व का अनुमान हो सकता है । ईश्वर सर्वथा अप्रसिद्ध होने पर भी जब असत्ख्याति के द्वारा ज्ञात हो सकता है, तो तर्द्धार्मिक असर्वज्ञत्वादि का अनुमान आश्रयासिद्ध नहीं होगा । अथवा क्षिति में ही ईश्वर कर्तृ कत्वाभाव का अनुमान होगा इस पक्ष का खण्डन करते हुए आचार्य ने अपना यह प्रसिद्ध श्लोक लिखा है-
। है, हों न लये हो है । तुक के है । उक्त तो रूप हो कम्’ ग के सिद्धि हैं। नुमान त हो क्षिति ने ( २३ ) व्यावर्त्याभाववत्तैव भाविकी हि विशेष्यता । अभावविरहात्मत्वं वस्तुनः प्रतियोगिता ॥ अर्थात् अभाव की आश्रयता एवं अभाव की प्रतियोगिता ये दोनों ही परमार्थसद्- विद्यमान वस्तु में ही हो सकती हैं । अत: असत्ख्याति से उपनीत ईश्वर में असर्वज्ञत्वदि की सिद्धि अथवा क्षित्यादि में ईश्वरकर्तृ कत्वाभाव की सिद्धि नहीं की जा सकती । इस प्रसङ्ग में कहा जा सकता है कि शास्त्र-पुराणादि आगम- प्रमाण के द्वारा ज्ञात परमेश्वर में असर्वज्ञत्व अकर्त्त कत्वादि की सिद्धि की जा सकती है । अतः उक्त ईश्वरविरोधी अनुमान अनुपपन्न नहीं । इस प्रसङ्ग में नैयायिक लोग कहते हैं कि यदि ‘आगम’ को प्रमाण मानेंगे तो प्रमाणभूत आगम के द्वारा जो ईश्वर का ज्ञान होगा, वह ‘प्रमा’ रूप होगा । फलत: आगमप्रमाण से ही ईश्वर की सिद्धि हो जायगी। यदि आगम को अप्रमाण मानेंगे तो उससे होने वाला ज्ञान असत्ख्याति रूप ही होगा । है कि असत्ख्याति के द्वारा ज्ञात पक्ष में अनुमिति नहीं हो सकती । पहिले ही कहा जा चुका ईश्वर की अनुपलब्धि से ईश्वर की सत्ता का जो खण्डन किया गया है, उसका समाधान नैयायिकों ने यह किया है कि केवल अनुपलब्धि अभाव का ग्राहक नहीं है, किन्तु ‘योग्यानुपलब्धि’ ही अभाव का ग्राहक है । ईश्वर की अनुपलब्धि चूँकि ‘योग्यानुपलब्धि’ नहीं है, अत: इस अनुपलब्धि से ईश्वर के अभाव का ग्रहण नहीं हो सकता । इस पर चार्वाकों का कहना है कि केवल अनुपलब्धि ही अभाव का ग्राहक है । ‘उसमें ‘योग्यत्व’ विशेषण अनावश्यक है । केवल अनुपलब्धि को अभाव का ग्राहक मानने में जो यह आपत्ति करते हैं कि प्रत्यक्षायोग्य वस्तु की सिद्धि के लिये ही अनुमान का प्रयोग किया जाता है, यदि केवल अनुपलब्धि को ही अभाव का ग्राहक मानेंगे तो प्रत्यक्षा- योग्य वस्तुओं की सत्ता ही लुप्त हो जायगी, फिर अनुमान अपना प्रयोजन खो देने के कारण अपनी सत्ता को ही खो बैठेगा - उसके प्रसङ्ग में चार्वाकों का कहना है कि अनुमान की सत्ता का लोप इष्ट ही है । इसके उत्तर में आचार्य कहते हैं कि ‘सन्देह’ भावाभावकोटिक होता है तथा भावकोटिक निश्चय एवं अभावकोटिक निश्चय इन दोनों में से किसी के भी रहने पर संशय या सन्देह नहीं होता है । फलतः दोनों कोटियों में से किसी एक कोटि का निश्चय संशय का विरोधी है । CCO. Vasishtha Tripathi Collection. Digitized by eGangotri[ २४ ] ऐसी स्थिति में यदि सन्देह के विषयीभूत वह्निप्रभृति का ज्ञान ‘उपलब्धि’ होगा तो वह निश्चयात्मक ही होगा, उनके रहने से सन्देह नहीं होगा । यदि उनकी उपलब्धि नहीं रहेगी तो अनुपलब्धिप्रयुक्त अभाव का ही निश्चय रहेगा जिसके रहने से भी संशय अनुपपन्न होगा । अतः योग्यत्व विशेषणाघटित केवल अनुपलब्धि को मानने से संशय ही अनुपपन्न हो जायगा । इसलिये संभावनामात्र से भी इस पक्ष में नहीं की जा सकती । अभाव का ग्राहक प्रवृत्ति की उपपत्ति इस पर चार्वाकों का कहना है कि यदि सभी अनुपलब्धियों को अभाव का निश्चायक न मानें, केवल योग्यानुपलब्धि को ही अभाव का ग्राहक मानें तों अनुमान की सत्ता ही उठ जायगी । क्योंकि अनुमान के लिये हेतु में उपाध्यभाव का ग्रहण आवश्यक है। योग्य उपाधि की अनुपलब्धि से योग्य उपाधि के अभाव का ही निश्चय होगा । फिर भी अयोग्य उपाधि की शङ्का वनी ही रहेगी । उपाधि की शङ्का के रहने पर भी व्याप्ति निश्चय नहीं हो पाता है । व्याप्ति-निश्चय के न रहने से अनुमान की सत्ता ही विपन्न है, अनुपपत्ति होगी ही । 1 दूसरी रीति से भी व्याप्ति का निश्चय संभव न होने के कारण अनुमान की सत्ता संकटग्रस्त है, क्योंकि देश और काल दोनों ही अनन्त हैं । अतः इस संभावना का प्रतिरोधक कोई नहीं दीखता । किसी भी देश और काल में धूम विना वह्नि के नहीं रह सकता । जब कि सभी देशों का एवं सभी कालों का प्रत्यक्ष किसी को हो ही नहीं सकता, तब उन अप्रत्यक्ष देशों और कालों में व्यभिचार की शंका अवश्य बनी रहेगी । इन्हीं सब आपत्तियों को दूर करने के लिये आचार्य ने यह प्रसिद्ध श्लोक लिखा है। किसी देश में व्यभिचरित न हों । सहारे ही की जा सकती है । किन्तु आवश्यक है । यह निश्चय केवल शङ्का चेदनुभात्येव, न चेच्छङ्का ततस्तराम् । व्याघातावधिराशङ्का तर्कः शङ्कावधिर्मतः ॥ अर्थात् सभी हेतु कदाचित् किसी काल अथवा इस प्रकार की आशङ्का भावी काल एवं भावी देश के इसके लिये भाव-देश एवं भावी काल का निश्चय अनुमान प्रमाण से ही हो सकता है । अतः ‘शङ्का’ अगर है तो अनुमान भी अवश्य ही है । यदि व्यभिचार शङ्का नहीं है, तब तो अनुमान का कोई बाधक ही नहीं । ‘सुतराम्’ अनुमान प्रमाण है ही ।
T क त का की क र प्ति है, त्ता का नहीं नहीं कोक हों । किन्तु केवल है । ह्रीं । . [ २५ ] तर्क ही व्यभिचार शङ्का की अवधि है । अर्थात् तर्क से ही व्यभिचार शङ्का एवं उपाधि शङ्का दोनों का ही विनाश होगा। सभी हेतुओं में व्यभिचार की शङ्का नहीं होती । जिन हेतुओं में व्यभिचार की शङ्कायें होती हैं, उसकी निवृत्ति तर्क से होती है । उसके बाद व्याप्ति के निश्चय में कोई बाधा नहीं रह जाती । अनुमिति निर्विघ्न हो जाती है । जबतक यह उपाधि शङ्का अथवा व्यभिचार शङ्का का चक्र चलता रहेगा, तब तक तर्क की धारा भी उनको विनष्ट करने के लिये चलती रहेगी। जब प्रमाता पुरुष को अपेक्षित व्याप्ति -ज्ञान प्राप्त हो जायगा, तब तर्क की धारा भी रुक जायगी । यह जो आपत्ति दी जाती है कि तर्क भी अपनी उपपत्ति के लिये अविनाभाव या व्याप्ति की अपेक्षा रखता है, अतः तर्क के सहारे व्याप्ति - निश्चय के सम्पादन में ‘अनवस्था’ होगी, वह आपत्ति भी युक्त नहीं, क्योंकि ‘सभी हेतुओं में व्यभिचार की शङ्का अवश्य हो’ ऐसी कोई भी राजाज्ञा नहीं । कहने का इतना ही अभिप्राय है कि जिन हेतुओं में व्यभिचार की शङ्का होगी, उसकी निवृति ‘तर्क’ से होगी । यदि सभी हेतुओं में ब्यभिचार अवश्य माना जाय तो आपत्ति देने वाले की अपनी ही प्रवृत्तियाँ व्याहत हो जायँगी । अर्थात् धूम में यदि वह्निजन्यत्व को सन्दिग्ध मान ले, तो उक्त शङ्का करने वाले पुरुष की वह्नि को लाने की निष्काम प्रवृत्ति में ‘व्याघात’ उपस्थित हो जायगा, जो धूम के लिये ही होती है । अतः व्यभिचार शङ्का को यदि निरवधि मानेंगे तो उक्त ‘प्रवृति व्याघात’ उपस्थित होगा’ । खण्डन- खाद्य में श्री हर्ष ने अनुमान खण्डन के प्रसङ्ग में उदयन की इस कारिकोक्त- युक्तियों का खण्डन करते हुए उपसंहार में लिखा है कि:- तस्मादस्माभिरप्यस्मिन्नयँ न खलु दुष्पठा । त्वद्गार्थैवान्यथाकारमक्षराणि कियन्त्यपि ॥ व्याघाती यदि शङ्कास्ति न चेच्छङ्का ततस्तराम् । व्याघातावधिराशङ्का तर्कः शङ्कावधिः कुतः । श्रीहर्ष प्रथम श्लोक के द्वारा कहते हैं कि इस प्रसङ्ग में हम लोग ‘वेदान्तीगण’ भी तुम्हारी ‘गाथा’ उदयनकारिका’ को ही कुछ अक्षरों के पक्ष की पुष्टि के लिये भी पढ़ सकते हैं । अर्थात् तुम्हारे . हेरफेर के साथ सहजतः अपने श्लोक को ही कुछ पाठभेद के साथ पढ़ कर तुम्हारा प्रतिवाद कर सकते हैं । उदयन - कारिका का अन्यथा पाठ स्वरूप ही द्वितीय श्लोक है । १ देखिये इसी ग्रन्थ का तृतीयस्तबक, पृ० ३०८ ४
- [ २६ ]
- उदयन ने लिखा है - ‘शङ्का चेदनुभास्त्येव’ । श्रीहर्षं उस स्थान पर लिखते हैं कि ‘व्याघातो यदि शङ्कास्ति’ । उदयन लिखते हैं ‘शङ्खावधिर्मतः । श्रीहर्ष लिखते हैं ‘शङ्का वधिः कुतः ’ - यही है उदयन के श्लोक का प्रकृत में श्रीहर्षोक्त अन्यथा पाठ ।
- श्रीहर्ष द्वारा अन्यथाकृत श्लोक का अभिप्राय है कि ‘व्याघातो यदि’ अर्थात् ‘व्याघात’ यदि है, तो ‘शङ्कास्ति’ शङ्का भी अवश्य ही रहेगी । अर्थात् आपने जिस
- नहीं सकता । ’ न चेत्, अर्थात्
- व्याघात का उद्भावन किया है. वह शङ्का के बिना रह ही व्याघात यदि नहीं है, तो फिर शङ्का का प्रतिबन्धक न रहने से शङ्का अवश्य ही रहेगी । ऐसी स्थिति में शङ्का की अवधि व्याघातपर्यंन्त ही है ‘व्याघातावधिराशङ्का’ यह कैसे कहा जा सकता है ? ऐसी स्थिति में ‘तर्कः शङ्कावधिर्मतः ’ इस उक्ति के द्वारा जो
’ तर्क को शङ्का का प्रतिबन्धक कहा गया है, वह आयुक्त हो जाता है । अर्थात् व्याघात के रहने पर यदि शङ्का अवश्य ही रहेगी, शङ्का को छोड़ कर व्याघात जब रह ही नहीं सकता, तो व्याघात से शङ्का की निवृत्ति नहीं हो सकती । यदि व्याघात शङ्का का निवर्त्तक नहीं है तो कथित शङ्का के कारण कथित तर्क की अवतारणा ही नहीं हो सकती । अतः तर्क से भी शङ्का की निवृत्ति नहीं हो सकती, क्योंकि यह असम्भव है । श्रीहर्ष का अभिप्राय है कि यदि यह कहा जाय कि शङ्का से स्वप्रवृत्ति का व्याघात होता है, इसलिये शङ्का नहीं होती, तो इसका यही फलितार्थ है कि - स्वप्रवृत्ति- व्याघात ही शङ्का का प्रतिबन्धक है । यही बात उदयन ने ‘व्याघातावधिराशङ्का’ इस वाक्य से कही है । ‘व्याघात’ शङ्का का ‘अवधि’ अर्थात् ‘सीमा’ है, फलतः प्रतिबन्धक है । अब यह देखना है कि यह ‘व्याघात’ कौन-सी वस्तु है ? ‘धूम वह्नि से उत्पन्न होता है ? अथवा नहीं ? इस शंका के रहते धूंमार्थी पुरुष की वह्नि में निष्काम प्रवृत्ति होती है, वह न हो सकेगी कथित शङ्का का कथित प्रवृत्ति के साथ जो यह ‘विरोध’ है, वही ‘व्याघात’ शब्द से व्यक्त किया गया है । दो या दो से अधिक वस्तुओं में ही विरोध होता पदार्थों का रहना आवश्यक है । केवल एक ही है । अत: विरोधस्थल में अन्ततः दो पदार्थ के अबलम्बन से ‘विरोध’ नहीं हो सकता। जिन पदार्थों में परस्पर विरोध होता है, वे दोनों पदार्थ विरोध के आश्रय हैं । उन दोनों में से किसी एक के न रहने पर भी विरोध की उपपत्ति नहीं हो सकती । कथित शङ्का एवं प्रवृत्ति के विरोध (जिसको उदयन ने ‘व्याघात’ कहा है) की जहाँ सत्ता रहेगी, वहाँ विरोध के आश्रय अथवा प्रतियोगी शंका की सत्ता भी अवश्य ही रहेगी। विरोध अपने इस आश्रय अथवा प्रतियोगी को छोड़ कर नहीं रह सकता ।
क स वि ही पह जो के ता, तक तर्क घात त्ति- इस है। होता है, वही होता कही ता है, र भी है) की श्य ही [ २७ ] इसलिये यह मानना होगा कि उदयनोक्त ‘व्याघात’ अथवा विरोध जहाँ रहेगा वहाँ शङ्का भी अवश्य ही रहेगी। इसी से श्रीहर्ष ने लिखा है कि ‘व्याघातो यदि’ अर्थात् व्याघात यदि है तो ‘शङ्का’ अवश्य ही रहेगी। यदि व्याघात के रहने पर शङ्का अवश्य रहेगी तो व्याघात शङ्का का प्रतिबन्धक नहीं हो सकता । अतः हेतु में व्यभिचार शङ्का के अनुच्छेद से तर्क के मूलभूत व्याप्तिनिश्चय की कोई सम्भावना नहीं रह जायगी । अतः तर्क ही असम्भव हो जायगा । इसलिये तर्क शङ्का का प्रतिबन्धक नहीं हो सकता । इसी अभिप्राय से श्रीहर्ष ने श्लोक के अन्त में लिखा है - तर्कः शङ्कावधिः कुतः ? तत्त्वचिन्तामणिकार श्री गङ्गेशोपाध्याय ने ‘तर्कप्रकरण’ में श्रीहर्ष के ‘व्याघातो यदि’ इस द्वितीय श्लोक को उद्धृत कर आलोचना करते हुए लिखा है कि
“अतएव व्याघातो यदि शङ्कास्ति …. • इति खण्डनकारमतमपास्तम्, न हि व्याघातः शङ्काश्रितः, किन्तु स्वक्रियैव शङ्काप्रतिबन्धिकेति । न वा विशेषदर्शनात् शङ्कानिवृत्तिरेवं स्यात् " ‘गङ्गेश का कहना है- १] उदयन ने अपने श्लोक में ‘व्याघातावधिराशङ्का’ इस वाक्य के द्वारा कथित प्रवृत्ति - व्याघात को शङ्का का प्रतिबन्धक नहीं कहा है । उदयन का अभि- प्राय है कि सार्वजनीन अनुभव के अनुसार शङ्का वहीतक की जाती है, जहाँतक स्वप्रवृत्तिव्याघादिदोष उपस्थित न हों । इससे इतना ही सिद्ध होता है कि जहाँ शङ्का करने वाले पुरुष की अपनी प्रवृत्ति ही व्याहत होती है, वहाँ वस्तुतः शङ्का की उत्पत्ति नहीं होती । शङ्का की यह अनुत्पत्ति शङ्का के किसी अन्य कारण के न रहने से हो, अथवा किसी प्रतिबन्धक के रहने से हो, यह दूसरी बात है । किन्तु उक्त स्थल में शङ्का की उत्पत्ति नहीं होती । उदयन ने व्याघात को शङ्का का प्रतिबन्धक नहीं कहा है । [ २ ] ‘न वा’ इत्यादि सन्दर्भ के द्वारा चिन्तामणिकार ने श्रीहर्ष की युक्ति को मानते हुए कहा है कि यदि व्याघात को शङ्का का प्रतिबन्धक मान भी लें तथापि कोई हानि नहीं । क्योंकि जिस प्रकार ‘विशेषदर्शन’ शङ्का का प्रतिबन्धक होता है, उसी प्रकार ‘व्याघात’ भी शङ्का का प्रतिबन्धक होगा। नहीं तो फिर ‘विशेषदर्शन’ स्वरूप प्रति- बन्धक से भी शङ्का की निवृत्ति नहीं होगी । । १ तत्त्वचिन्तामणि तर्कप्रकरण पृ० २३३ पं० १ सोसाइटी से
[ २८ ] पुरुष क्योंकि ‘स्थाणुर्वा पुरुषः’ इत्यादि संशयस्थलों में ‘अयं स्थाणुरेव’ अथवा ‘अयं एव’ इत्यादि विशेषदर्शनों से संशय की निवृत्ति को सभी स्वीकार करते हैं । उक्त ‘विशेष - दर्शन’ को ‘विरोधिदर्शन’ भी कहते हैं, क्योंकि वह संशय का विरोधी है । किन्तु श्री हर्ष की कथित युक्ति के अनुसार जिसके साथ जिसका विरोध होगा, उन दोनों की सत्ता रहने से ही विरोध उपपन्न होगा । इसलिये श्रीहर्ष के अनुसार जिस प्रकार शङ्का के विना शङ्काश्रित व्याघात नहीं रह सकता, उसी प्रकार संशय के बिना संशयाश्रितविशेषदर्शन नहीं रह सकता । सुतराम् इससे विशेषदर्शन की जो सर्वसिद्धिसंशय निवर्तकता है, वह अनुपयुक्त हो जायगी । अतः जिस प्रकार संशय के बाद विशेषदर्शन के उत्पन्न होने से संशय मिट जाता है, उसी प्रकार शङ्का के बाद व्याघात के उपस्थित होने पर शङ्का जायगी, अत: श्रीहर्षकृत उक्त प्रतिवाद युक्त नहीं । उपमानबाध का निरास मिट ईश्वर की सिद्धि में उपमान प्रमाण के द्वारा यह वाध उपस्थित किया जा सकता है कि जिस पदार्थ की सत्ता होती है, उसके सदृश कोई दूसरा पदार्थ अवश्य होता है । अथवा वह स्वयं किसी दूसरे पदार्थ का सादृश्य रखता है, किन्तु ईश्वर के समान न कोई दूसरा है, न ईश्वर ही किसी के समान है । ईश्वर चूंकि सादृश्यसे विहीन है, अतः गगन- कुसुमादि के समान उसकी सत्ता नहीं । इस प्रकार ईश्वर की सिद्धि में सम्भावित उपमान बाधका ‘निरास वैशेषिकगण इस दृष्टि से करते हैं कि उपमान चूंकि अनुमान में ही अन्तर्भूत है, अतः अनुमानबाध के निरा- करण से ही उपमान के बांध को भी निरस्त समझना चाहिये । किन्तु, नैयायिकगण ऐसा नहीं कह सकते क्यों कि वे लोग उपमान को स्वतन्त्र प्रमाण मानते हैं । अत: तात्त्विक दृष्टि से अनुमान में उपमान के अन्तर्भाव का खण्डन एवं स्वतन्त्र प्रामाण्य का समर्थन कर वैशेषिकों के मत का खण्डन किया गया है । उपमान के द्वारा ईश्वरसिद्धि में बाध के प्रसङ्ग में नैयायिकों का कहना है कि उपमान प्रमाण चूंकि केवल सादृश्य की प्रमिति का ही कारण है, अत: उससे किसी ऐसे ज्ञान की उत्पत्ति नहीं हो सकती, जिससे ईश्वर की सिद्धि में उपमान प्रमाण से भी ईश्वर की सिद्धि में बाधा नहीं आ सकती । बाधा पड़े । अतः
रुष षि- हर्ष ने बना र्शन वह • से मिट कता है । कोई गगन- इस निरा- प्रमाण न एवं है कि che. किसी अतः [ २९ ] मीमांसकगण उपमान के प्रामाण्य का समर्थन इस दृष्टि से करते हैं कि ‘सादृश्य’ एक स्वतन्त्र पदार्थं ही है । प्रत्यक्षादि प्रमाणों से जिन द्रव्यादि पदार्थों कीं सिद्धि होती है, उनसे यह भिन्न है । अतः सादृश्य नाम के अतिरिक्त पदार्थ के लिये उपमान नाम के अतिरिक्त प्रमाण की आवश्यकता है । किन्तु, नैयायिक एवं वैशेषिक दोनों ही एक स्वर से इस युक्ति का विरोध करते हैं, क्योंकि ये दोनों ही सादृश्य को अतिरिक्त पदार्थ न मान कर क्लृप्तद्रव्यादिस्वरूप ही मानते हैं । अत: उपमान को स्वतन्त्र प्रमाण मानने वाले नैयायिक भी यहाँ वैशेषिक के साथ हैं । फिर भी यह कहा जा सकता है कि भले ही सादृश्यक्लृप्त द्रव्यादि पदार्थों में से ही कोई एक हो, तथापि प्रत्यक्षादि प्रमाण उसके ग्राहक नही हैं, अत: उसके ग्रहण के लिये उपमान प्रमाण की आवश्यकता तो है ही । उपमान प्रमाण की सत्ता के ज्ञापक इस कथन का खण्डन वैशेषिकगण प्रतिवन्दि के द्वारा करते हैं, कि यदि ऐसा मानें तो “वैधर्म्य’ अर्थात् वैसादृश्य के बोध के लिये भी एक स्वतन्त्र प्रमाण मानना होगा । यदि “वैधर्म्य का बोध अर्थापत्ति प्रमाण से मानेंगे तो अर्थापत्ति के द्वारा साधर्म्य का भी बोध हो सकता है । अतः उक्त युक्ति ठीक नहीं है । इस प्रसङ्ग में नैयायिकों का कहना है कि गवयादि पदों का जो गवयत्वविशिष्ट अर्थ में अभिधावृति (शक्ति) नाम का सम्बन्ध है, उसका बोध चूंकि प्रत्यक्षादिप्रमाणों से सम्भव नहीं है, अतः उपमान नाम का एक स्वतन्त्र प्रमाण मानना आवश्यक है । ‘शक्ति धीरुपमा फलम्’ । • इस प्रसङ्ग में वैशेषिक लोग कह सकते हैं, गवयत्वावशिष्ट यह धर्मी चूंकि गोसदृश है, अत: यह गंवय पद का वाच्य अर्थ है “गवयंत्वविशिष्टो धर्मी गवयपदवाच्यो गो सदृशत्वात्] इस अनुमान के द्वारा भी उक्त शक्तिज्ञान हो सकता है, अतः उपमान प्रमाण मानने की आवश्यकता नहीं है । .
“इस प्रसङ्ग में नैयायिकों का कहना है कि अनुमान के लिये हेतु और साध्य का ``परामर्श के द्वारा’ पहिले से ज्ञात होना आवश्यक है । प्रकृत में गवयपदवाच्यत्वस्वरूप -साध्य- पहिले से ज्ञात नहीं है, अतः उसकी अनुमिति नहीं हो सकती । देखिये ३६० पृ०
[ ३० ] इसी प्रकार शब्द प्रमाण से भी उक्त शक्तिज्ञान की उपपत्ति नहीं हो सकती, क्योंकि शक्तिज्ञान के लिये भी शक्यार्थ का पहिले से ज्ञात होना आवश्यक है, गवयत्व तो पहिले से सर्वथा अज्ञात है । शब्दप्रमाण के द्वारा प्राप्त बाध का निरास ईश्वर की सिद्धि में शब्दप्रमाण से सम्भावित बाध का निरास वैशेषिकगण इस दृष्टि से करते हैं कि शब्द नाम का कोई स्वतन्त्र प्रमाण नहीं है, अपितु वह अनुमान के ही अन्तर्गत है, अत: अनुमानबाधकत्व के निरस्त होने से ही शब्दप्रमाण के द्वारा सम्भावित बाध को भी निरस्त समझना चाहिये । किन्तु नैयायिक लोग शब्द को अतिरिक्त प्रमाण मानते हैं, अत: सांख्याचार्यों के द्वारा ईश्वर की सिद्धि में जो ‘प्रकृतेः क्रियमाणानि’ इत्यादि गीता वचनों को बाधक रूप में उपस्थित किया जाता है, उसका निरास करते हुए कहते हैं कि ‘प्रकृतेः क्रियमाणानि’ इत्यादि जिस शब्दप्रमाण को उपस्थित किया है, वह अतीन्द्रियार्थं विषयकज्ञान का सम्पादक है, अतः तभी प्रमाण हो सकता है, जबकि अतीन्द्रियार्थदर्शी सर्वज्ञपुरुषस्वरूप आप्त के द्वारा वह उच्चरित हो । क्योंकि अनाप्तोक्तशब्दप्रमाण नहीं हैं, एवं शब्द नित्य भी नहीं है, यतः नित्यत्व प्रयुक्त भी वेद में प्रामाण्य सम्भव नहीं है । इसलिये उक्त शब्द- प्रमाण से ईश्वरसिद्धि में बाधा नहीं आ सकती । दूसरी बात यह भी है कि जिस प्रकार ‘प्रकृतेः क्रियमाणानि’ इत्यादि - ईश्वर में जगत्कर्तृत्व के बाधक वाक्य उपलब्ध होते हैं, उसी प्रकार ईश्वर में जगत्कर्तृत्व के साधक ‘द्यावा भूमीं जनयन् देव एकः’ इत्यादि वाक्य भी उपलब्ध होते हैं । अतः यह समझना चाहिये कि जितने भी ईश्वर में कर्तृत्वादि के बाधक वाक्य हैं, वे सभी वाक्य ईश्वर में विशेषगुणों के अभाव बोध के अभिप्राय से लिखे गये हैं, ईश्वर के अभाव का बोध उनसे अभिप्रेत नहीं है । अर्थापत्ति के द्वारा ईश्वरसिद्धि में बाध का उपपादन तथा खण्डन चूंकि ईश्वर वेदों के उपदेश द्वारा ही लोगों को यागादि कार्यों में प्रवृत्त करा सकते हैं, बिना उपदेश के नहीं, अतः यह मानना होगा कि उपदेश के बिना यागादि में प्रवृत्त कराने की विधि ईश्वर को ज्ञात नहीं है, अतः उन्हें सर्वज्ञ नहीं माना जा सकता । फलतः यह उपदेश ही ईश्वर के सर्वज्ञत्व को अनुपपन्न कर देता है ।
1, तो स ही त के में ‘न’ का रूप त्य द-
- में के यह क्य का वृत्त बिना नाना : [ ३१ ] कथित आक्षेप भी उचित नहीं है, क्योंकि वेदों के उपदेष्टा पुरुष को सर्वज्ञ मानें ? अथवा असर्वज्ञ ? दोनों ही स्थितियों में वेदोपदेश की उपपत्ति हो सकती है, इसके लिये वेदों के उपदेष्टा पुरुष को असर्वज्ञ मानना अनिवार्य नहीं, अतः कथित रीति से अर्थापत्तिप्रमाण के द्वारा ईश्वर की सिद्धि में बाध को उपस्थित नहीं किया जा सकता । क्योंकि यह सभी मानते हैं कि ‘हेतु’ के न रहने पर ‘फल’ की उत्पत्ति नहीं होती । इसीलिये प्रमाण के न रहने पर ‘प्रमा’ की उत्पत्ति नहीं होती । इस नियम के अनुसार ही उपदेश के बिना हम लोगों की वाजपेयादियागों की प्रवृत्ति उपपन्न नहीं हो सकती । • यदि ऐसी बात न हो तो ‘कर्मवादी’ मीमांसकों के मत में समान युक्ति से यह आक्षेप किया जा सकता है कि ‘अदृष्ट’ सभी कार्यों का कारण है, वाजपेयादि यागविषयक- प्रवृत्ति स्वरूप कार्य का भी कारण है, ऐसी स्थिति में वेदों के उपदेश व्यर्थ हैं, क्योंकि वेदों के उपदेश के रहने पर भी अदृष्ट के विना याग की प्रवृत्ति नहीं उत्पन्न होती । अतः उक्त आक्षेप व्यर्थ है । अनुपलब्धि के द्वारा बाध का निराकरण अनुपलब्धि चूंकि स्वतन्त्र प्रमाण नहीं है, अभावप्रत्यक्ष एवं अभावानुमान का सहायक मात्र है, अतः प्रत्यक्षबाध एवं अनुमानबाध के निराकरण से ही अनुपलब्धि- बाध भी निराकृत हो जाता है । जिसका निरूपण क्रमशः ‘योग्यादृष्टि:’ इत्यादि श्लोक के द्वारा एवं ‘क्वानुमानमनाश्रयम्’ इत्यादि सन्दर्भ के द्वारा किया जा चुका है । इस प्रसङ्ग में केवल यह विचारणीय रह जाता है कि अनुपलब्धि प्रत्यक्षादि प्रमाणों से अतिरिक्त प्रमाण क्यों नहीं है ? अभाव की प्रतीति के लिये ही अनुपलब्धि को प्रमाण मानते हैं । किन्तु ‘घटभाव- -वद्भूतलम्’ इत्यादि प्रतीतियाँ चूँकि अपरोक्षात्मक हैं, अंतः उनके लिये इन्द्रिय को कारण मानना आवश्यक है । अभाव की उक्त प्रतीतियों में चूंकि इन्द्रिय का अन्वय और व्यतिरेक अन्यमूलक नहीं, अतः इन्द्रियाँ उक्त अभाव प्रतीतियों की कारण ही हैं, अन्यथा- सिद्ध नहीं । फलतः इन्द्रियजनित होने के कारण अभाव की उक्त प्रतीतियाँ चूंकि प्रत्यक्षा- त्मक हैं, अतः इन्द्रिय ही उनका कारण भी है । यद्यपि अनुपलब्धि का साहाय्य इन्द्रियों कों
[ ३२ ] अपेक्षित होता है । फलतः अनुपलब्धि अभाव प्रतीति में अपेक्षित होने से कारण अवश्य हैं किन्तु ‘करण’ नहीं, अतः प्रमाकरण स्वरूप प्रमाण नहीं |* चतुर्थ स्तबक [ ४ ] मीमांसकगण ईश्वर के विरुद्ध चौथी बाधा यह उपस्थित करते हैं कि यदि ईश्वर को मान भी लिया जाय, तथापि उन्हें ‘प्रमाण’ नहीं माना जा सकता, वही ‘प्रमाण पुरुष’ है, जिसके ज्ञान ‘प्रमा’ हों । प्रमाज्ञान को अज्ञातविषयक होना अनिवार्य है, अन्यथा स्मृति को भी ‘प्रमा’ मानना होगा। ईश्वर का कोई भी ज्ञान अज्ञातविषयक नहीं है । एवं ‘प्रमा’ ज्ञान स्वरूप क्रिया ( धात्वर्थ) का कर्ता अथवा करण ही प्रमाण है ईश्वर ज्ञान चूंकि नित्य है, अत: उसका न कोई कर्त्ता है, न करण। इस प्रकार किसी भी प्रकार से ईश्वर को ‘प्रमाण’ नहीं माना जा सकता । इसलिये ईश्वरोच्चरित होने के कारण वेद को प्रमाण नहीं माना जा सकता । अतः वेद अपनी नित्यता एवं दोषशून्यता के कारण ही प्रमाण है । इसके उत्तर में नैयायिकों का कहना है कि ‘अगृहीतग्राहित्व’ प्रमाज्ञान का लक्षण ही नहीं । क्योंकि प्रमाज्ञान का यह लक्षण धारावाहिकज्ञान में अव्याप्त है, एवं शुक्ति में ‘इदं रजतम्’ इत्यादि आकार की विषर्ययात्मक बुद्धियों में अतिव्याप्त भी है । अतः ‘यथार्थानुभवत्व’ भी प्रमाज्ञान का प्रकृत लक्षण है । धारावाहिक बुद्धि ज्ञान विषयक होने पर भी चूंकि यथार्थानुभवस्वरूप है अर्थात् तद्वति तत्प्रकारक अनुभव स्वरूप है, अतः प्रमा है । उक्त विपर्यय अज्ञातविषयक होने पर भी चूंकि यथार्थानुभव स्वरूप नहीं है, अतः प्रमा नहीं है । 4 प्रमा के लक्षण में ‘अग्रहीतग्राहित्व’ देने का इतना ही स्वारस्य है, स्मृति में प्रमा लक्षण की अतिव्याप्ति न हो । यह अतिव्याप्ति तो ‘तद्वति तत्प्रकारकानुभवो यथार्थः’ ऐसा अनुभवत्वधटित लक्षण करने से ही हो जाती है । दूसरी बात यह है कि - ‘प्रमात्व के लिये ‘इतरानपेक्षत्व’ आवश्यक है । स्मृति में प्रमात्व उसके कारणीभूत पूर्वानुभव के प्रमात्व के अधीन है । इसलिये भी स्मृति में प्रमात्व की आपत्ति मिट जाती है । अतः प्रमा के देखिये तृतीय स्तबक पृ० ४३९ ।
T चं न से को ही ही में ज्ञान रूप नहीं प्रमा र्थः ’ 管 व के मात्व मा के [ ३३ ] लक्षण में अगृहीतग्राहित्व विशेषण देने से जो ईश्वर में अप्रामाण्य की आपत्ति दी गयी है, वह अयुक्त है । ईश्वर साधक अनुमान में मीमांसकगण यह दोष उपस्थित करते हैं कि ज्ञान से विषय में ‘ज्ञातता’ नाम की एक वस्तु की उत्पत्ति माननी होगी, जिससे धारावाहिक बुद्धि प्रमा लक्षण की अव्याप्ति दूर हो जायगी । ज्ञातता के न मानने से “घट ही घटज्ञान का विषय हो, पट नहीं” इस नियम की उपपत्ति नहीं हो सकेगी। ज्ञातता के स्थिर हो जाने पर यह मानना होगा कि क्षित्यङ्कुरादि में जो सकतृ कत्वसिद्धि अनुमान से होगी, उसके बल से ‘ज्ञातता’ स्वरूप कार्य में भी सकतृ कत्व की सिद्धि होगी, क्योंकि कार्यत्व एवं सकतु कत्व की व्याप्ति तभी स्थिर रहेगी । किन्तु ज्ञातता में यदि सकर्तृ कत्व को स्वीकार करेंगे तो अनवस्था होगी । ऐसी स्थिति में घट में उत्पन्न होने वाली ज्ञाततास्वरूप कार्य में सकर्तृ - कत्व की रक्षा के लिये उक्त ज्ञातता में घटज्ञानजन्यता को स्वीकार करना आवश्यक है । किन्तु घटज्ञान से जब घट में ज्ञातता की उत्पत्ति हो जायगी तभी वह ज्ञान घट- विषयक होगा । अतः उपादानज्ञानस्वरूप घटज्ञान में घटविषयकत्व नियम की उपपत्ति उसके बाद उत्पन्न होनेवाली ज्ञातता से नहीं हो सकती । इसके लिये दूसरी ज्ञातता की आवश्यकता होगी । किन्तु द्वितीय ज्ञातता में भी उक्त शङ्काएँ उपस्थित होकर अनवस्था में परिणत हो जायँगी । अतः ज्ञातता को स्वीकर करना आवश्यक है जिससे उक्त ईश्वरा- नुमान संकटग्रस्त हो जायगा ।* इस प्रसङ्ग में नैयायिकगण कहते हैं कि ‘घटज्ञान की विषयता घट में ही रहे’ इस नियम की उपपत्ति के लिये ‘ज्ञातता नाम’ की किसी वस्तु को मानना आवश्यक नहीं है । क्योंकि घटज्ञान का ही यह स्वभाव स्वीकार करेंगे कि ‘घटज्ञान घटविषयक अवश्य हो’ । यदि इस स्वभाव को स्वीकार न करें तो ‘ज्ञातता’ के प्रसङ्ग में भी यह अभियोग उपस्थित होगा कि ‘घटज्ञान से घट में ही ज्ञातता की उत्पत्ति क्यों हो ? पट में भी उसी ज्ञान से ज्ञातता की उत्पत्ति क्यों न हो ? इसके उत्तर में यही कहना पड़ेगा कि ‘घटज्ञान का यही स्वभाव है कि वह धट में ही ज्ञातता का उत्पादन करे’ किन्तु घटज्ञान का ऐसा स्वभाव स्वीकार करने की अपेक्षा इस कल्पना में ही लाघव है कि ‘घटज्ञान अवश्य ही घटविषयक हो’ अथवा घटज्ञान की विषयता घट में अवश्य ही रहे’ इसके लिये ज्ञातता को स्वीकार करने की आवश्यकता नहीं है ।
- देखिये पृ० ५१४-५१५ । ५ CCO. Vasishtha Tripathi Collection. Digitized by eGangotri( ३४ ) ज्ञातता की सिद्धि के लिये मीमांसकगण अनुमानप्रमाण उपस्थित करने के अभि- प्राय से कहते हैं कि सकर्मक क्रिया का यह स्वभाव है कि वह कर्मकारक में किसी फल का उत्पादन करे । ज्ञान क्रिया ( धात्वर्थ) भी चूंकि क्रिया है. अतः वह अपने कर्मकारक स्वरूप घटादि विषयो में किसी वस्तु का उत्पादन अवश्य करे, यही वस्तु है ‘ज्ञातता’ । अतः ज्ञातता को स्वीकार करने में यह अनुमान ही प्रमाण है कि ‘ज्ञानक्रिया स्वविषये किञ्चित् फलमुत्पादयति, क्रियात्वात्; या या सकर्मिका क्रिया सा सा स्वकर्मणि नूने किञ्चि- त्फलमुत्पादयति, यथा गमनक्रिया’ । किन्तु अनुमान के हेतु क्रियात्व को यदि धात्वर्थत्व रूप मानें तो ‘गगनं सन्धापयति चैत्र:’ इत्यादि स्थलों में हेतु व्यभिचरित होगा । यदि ‘क्रियात्व’ स्पन्दनस्वरूप मानें तो हेतु स्वरूपासिद्ध होगा, क्योंकि ज्ञान स्पन्दात्मक नहीं है, अतः उक्त अनुमान से ज्ञातता की सिद्धि नहीं हो सकती । ज्ञातता की सिद्धि के लिये मीसांसकगण एक युक्ति यह भी देते हैं, कि ‘ज्ञातोऽयमर्थः साक्षात्कृतोऽयमर्थः’ इत्यादि आकार के प्रत्यक्ष ही ज्ञातता अथवा साक्षात्कृतता के साधक हैं । किन्तु उक्त समाधान भी उपयुक्त नहीं है, क्योंकि जिस प्रकार सावयव घटादि पदार्थों में अवयवों के भेद से परस्पर भेद की उपपत्ति होती है, उस प्रकार निरवयव ज्ञानों में परस्पर भेद संभव नहीं है । अतः उनमें विषय के भेद से ही भेद मानना होगा । अत: जिस प्रकार ज्ञान विशेष्य होता है, वैसे ही विशेषण भी हो सकता है, अतः ‘ज्ञातो घट:’ इस स्थल में ज्ञान विशेषण है । तस्मात् जिस प्रकार निरवयव ज्ञानों में ‘अर्थ’ अर्थात् विषय के भेद से भेद होता है, उसी प्रकार ‘ज्ञानो घटः’ इत्यादि स्थलों में ‘ज्ञान’ स्वरूप विशेषण के द्वारा ही ‘ज्ञातघट’ अज्ञातघटों से व्यावृत्त होगा । इसके लिये ज्ञातता को स्वीकार करने की आवश्यकता नहीं है । यदि ऐसा न मानें तो जिस प्रकार ‘ज्ञातो घट:’ इस प्रतीति से विषय में ज्ञातता की उत्पत्ति मानते हैं, उसी प्रकार ‘कृतो घट?’ इत्यादि प्रतीतियों से घटादि विषयों में ‘कृतता’ प्रभृति धर्मो की उत्पत्ति भी माननी होगी, किन्तु ऐसा मीमांसक लोग भीं स्वीकार नहीं करते अतः ज्ञातता की सिद्धि इस प्रकार भी नहीं हो सकती ।
# देखिये ५२६ पृ० ।
1 [ ३५ ] ‘प्रमाण से उत्पन्न ज्ञान ही प्रमा है’ प्रमाज्ञान के इस लक्षण के अनुसार ईश्वर- ज्ञान प्रमा नहीं सिद्ध होता, क्योंकि नित्य होने के कारण वह ‘अजन्य’ है, अतः प्रमाण- जन्य भी नहीं है । इस प्रकार ईश्वरीय ज्ञान में अप्रमात्व के द्वारा ईश्वर में अप्रामाण्य का आपादन भी मीमांसकगण करते हैं, किन्तु वह भी ठीक नहीं । इस आक्षेप के उत्तर में नैयायिकगण कहते हैं कि प्रमाणजन्यत्व प्रमाज्ञान का लक्षण नहीं, किन्तु ‘सम्यक् परिच्छित्ति’ ही, अर्थात् यथार्थानुभवत्व ही प्रमाज्ञान का लक्षण है । इस प्रमाज्ञान का रहना ही प्रमातृता है । यह प्रमातृता ईश्वर में है ही । ज्ञानकर्तृ ता प्रमातृता नहीं हो सकती। क्योंकि कर्तृत्व क्रिया स्वातन्त्र्य स्वरूप है। ज्ञान क्रिया में कोई भी स्वतन्त्र नहीं है, अर्थात् ज्ञान कर्त्तृ परतन्त्र नहीं । । । । गौतम के मत से इस प्रमा के साथ ! अयोगव्यवच्छेद’ ही ‘प्रामाण्य’ है । प्रमा- करणत्व प्रामाण्य नहीं । ईश्वर में ज्ञान का यह अयोगव्यवच्छिन्न सम्बन्ध अर्थात् सतत सम्बन्ध है ही, अत: उनके प्रामाण्य में कोई बाधा नहीं । अथ पञ्चमस्तबक: पाँचवे स्तबक में आचार्य ने ईश्वर की सिद्धि के लिये प्रमाणों का उल्लेख किया है, क्योंकि बाधक प्रमाणों के निराकरण मात्र से ईश्वर की सिद्धि नहीं हो सकती । इस स्तबक के प्रथम के श्लोक से ही आचार्य ने उन ९ हेतुओं का उल्लेख कर दिया है, जिन ईश्वर साधक ९ अनुमानों का विवरण आगे के ग्रन्थों में दिया है । इन ९ हेतु बोधक पदों के दो प्रकार के अर्थ कर अठारह ईश्वरसाधक अनुमानों का निरूपण आचार्य ने किया है । इनमें आदि के ९ अनुमान वेदों को माननेवाले और न मानने वाले सभी ईश्वर विरोधियों को समझाने के लिये लिखे गये हैं । अन्तिम ९ अनुमान केवल मीमांसकों को समझाने के लिये ही लिखे गये हैं । ये अठारहों अनुमान यद्यपि इस स्तबक के तत्तत्स्थलों में वर्णित हैं, फिर भी मैंने इस स्तबक के आदि के व्याख्यान की टिप्पणी में सभी अनुमानों का संक्षिप्त विवरण दे दिया है ।* प्रथमोक्त ९ अनुमानों के प्रसङ्ग में संक्षेप से लिखने से पाठकों को कोई लाभ होने की आशा नहीं, विस्तृतरूप से यथामति यथास्थान विवरण लिख दिया गया है । अतः यहाँ केवल उत्तरार्द्ध के नौ अनुमानों के प्रसङ्ग में ही लिखा जाता है, क्योंकि वे सभी अनुमान मीमांसादि अन्य शास्त्रों से सम्बन्ध रखते हैं ।
- देखिये ५७९ पृ० |
[ ३६ ] पञ्चम स्तबक श्लोक ६ से कार्यत्वकथित हेतुबोधक पदों के अर्थान्तरमूलक अनुमानप्रदर्शन का क्रम प्रारम्भ होता है । इनमें आदि के ६ अनुमानों का विचार छठवें श्लोक से संक्षेप में कर दिया गया है । ‘प्रत्यय’ लिङ्गक सातवें अनुमान का प्रयोग ७ वें श्लोक से आरम्भ कर १४ वें श्लोक में समाप्त किया है । इस अनुमान का स्वारस्य यह है कि ‘आप्ताभिप्राय’ ही विधि - प्रत्यय का अर्थ है । तदनुसार वेदों में विधि- प्रत्यय प्रयुक्त है, उसका अर्थ भी आप्ताभिप्राय ही है, वही आप्त- पुरुष परमेश्वर है । किन्तु मीमांसकगण आप्ताभिप्राय को विधि- प्रत्यय का अर्थ नहीं मानते । इस प्रसङ्ग में उनके स्वतन्त्र विचार हैं, जो कथित नैयायिक मत के विरोधी हैं । अतः उन मतों का निराकरण आवश्यक है । इसलिये आचार्य ने ‘प्रवृत्तिः कृतिरेवात्र’ ( पञ्चम- स्त० श्लो० ७ ) इत्यादि श्लोक से प्राचीन नैयायिकों के अनुसार ‘इष्टसाधनत्व’ ही विध्यर्थं है, एवं स्वमतानुसार इष्टसाधनत्व का ज्ञापक ‘आप्ताभिप्राय’ ही विध्यर्थ है, इन दो मतों को प्रतिज्ञाबद्ध किया है, आगे चलकर ‘इष्टसाधनता तु स्यात् ’ ( पृ० ७९४ ) इत्यादि से इस पक्ष का किञ्चिद् रुचिपूर्वक समर्थन किया गया है। मध्य में ‘इष्टहानेरनिष्टापत्तेः ’ (श्लो० ८ से लेकर श्लो० १३ पर्यन्त विध्यर्थं के प्रसङ्ग में अनभिमत पक्षों का खण्डन किया है । विधिवाक्य से ‘प्रवृत्ति’ की उत्पत्ति होती है, तदनुसार प्रवृत्ति का कारणीभूत वाक्य ही विधि वाक्य होगा । किन्तु ‘प्रवृत्ति’ का अर्थ इस प्रसङ्ग में विचारणीय है । जानाति, इच्छति, यतते, करोति ऐसा क्रम ज्ञान से उत्पन्न । ‘कार्य’ का है । विधि वाक्य से पहले बोध होता है, फिर ‘बोध्य’ विषयीभूत वस्तु प्राप्ति की इच्छा होती है, फिर तदनुकूल ‘यत्न’ उत्पन्न होता है, उसके बाद जाकर अभीष्ट कार्य उत्पन्न होता है । इस क्रम में ज्ञान के बाद इच्छा, यत्न, ये दोनों ही ‘स्थल’ भेद से ‘प्रवृत्ति’ शब्द के द्वारा अभिहित होते हैं । इनमें पहली ‘इच्छा’ और दूसरी ‘कृति’ ‘है । ‘अत: ‘आद्याप्रवृत्तिरिच्छेव’ ऐसी प्रसिद्धि है । किन्तु प्रकृत विधि प्रस्ताव में ‘प्रवृत्ति’ शब्द से ‘कृति’ ही अभिप्रेत है, इच्छा नहीं । क्योंकि कृतिविषयिणी इच्छा स्वरूपा ‘चिकीर्षा’ से ही कृति की उत्पत्ति होती है । यदि ‘इच्छा’ को प्रकृत में प्रवृत्ति शब्द का अर्थ मानेंगे तो स्वर्गादि की इच्छा करने मात्र से विधि वाक्य चरितार्थ हो जायगे, यागादि के अनुष्ठान की अपेक्षा नहीं रहेगी । इस प्रकार विधिवाक्यों से ‘अनुष्ठान-लक्षण’ अप्रामाण्य की आपत्ति होगी ।
F न त से ल न्त
’ है, नी ने । [ ३७ ] यह ‘कृति’ रूपा प्रवृत्ति स्वविषयिणी चिकीर्षास्वरूपा इच्छा से उत्पन्न होती है । इस चिकीर्षास्वरूपा प्रवृत्ति के इष्टसाधनताज्ञान एवं कृतिसाध्यताज्ञान ये दोनों ही कारण हैं, इन दोनों के विषय इष्टसाधनत्व एवं कृतिसाध्यत्व दोनों ही विधि प्रत्यय के अर्थ हैं’ किं वा इन दोनों के अनुमापक ‘वस्तु’ ही विध्यर्य है । इष्टसाधनत्व एवं कृतिसाध्यत्व ये दोनों के अनुमान से जिस “अर्थ’ को विधि- प्रत्यय का अर्थ कहा गया है, वह क्या (१) कर्त्ता में रहनेवाला (क) स्पन्द (ख) प्रयत्न अथवा (ग) इच्छास्वरूप है ? अथवा (२) कर्मकारकस्वरूप जो याग अथवा ‘अपूर्व’ इनमें रहनेवाले ‘कर्यत्व’ स्वरूप हैं किं वा (३) करणीभूत यागादि में ‘रहनेवाला ‘इष्टसाधनत्व’ स्वरूप है, अथवा (४) नियोक्ता में अथवा प्रवर्तयिता में रहने- वाला ‘अभिप्राय’ स्वरूप है ? (१) कर्तृगत धर्म विध्यर्थ नहीं हो सकते (क) यदि ‘नियोज्य’ स्वरूप कर्त्ता में रहनेवाले ‘स्पन्द’ को विधि- प्रत्यय का अर्थ मानेंगे तो ‘आत्मानं विजानीयात्’ इस विधिवाक्य से आत्मज्ञान में प्रवृत्ति की उपपत्ति नहीं होगी । क्योंकि वहाँ नियोज्य पुरुष में स्पन्द ( चेष्टा ) की उत्पत्ति नहीं होती, किन्तु वहीं प्रवृत्ति इष्ट है । एवं कथित स्पन्द को विधि- प्रत्यय का अर्थं मानेंगे तो ‘ग्रामं गच्छति’ इत्यादि वाक्यों से प्रवृत्ति की आपत्ति भी होगी, क्योंकि कथित प्रवृत्ति के प्रयोजकी- भूत स्पन्द की वही सत्ता है । (ख) एवं नियोज्य पुरुष में रहनेवाले ‘प्रयत्न’ (कृति) स्वरूप धर्मं को भी विधि- प्रत्यय का अर्थ नहीं माना जा सकता । क्योंकि नियोज्य पुरुष में कृति के रहने पर भी उससे पूर्वं विधिवाक्य को सुनने की प्रवृत्ति अवश्यम्भाविनी नहीं । एवं लिङ् से अतिरिक्त यत्नार्थक लट् प्रभृति दूसरे आख्यातघटित वाक्य के सुनने से भी प्रवृत्ति नहीं होती । अतः यत्नार्थक शब्दघटित कुछ वाक्यों को सुनने के बाद जब प्रवृत्ति नहीं भी होती, तो यत्न को लिङ् प्रत्यय (विधि) का अर्थ नहीं माना जा सकता । इस प्रसङ्ग में प्रश्न हो सकता है, यत्न लिङ् प्रत्यय का ही अर्थ है, सभी आख्यात प्रत्ययों का नहीं । अगर ऐसा मानेंगे तो ‘करोति’ इत्यादि प्रयोग पुनरुक्ति से दुष्ट हो जाँयगे, क्योंकि ‘कृव्’ धातु भी यत्नार्थक है एवं ‘तिप्’ प्रत्यय को भी आख्यात होने के कारण ‘यत्नार्थक मानते हैं; सुतराम् ‘ग्रामं गच्छति’ इत्यादि वाक्यों से प्रवृत्ति की आपत्ति नहीं दी जा सकती ।
[ ३८ ] इस प्रसङ्ग में आचार्य का उत्तर है कि ‘कृव्’ धातु को ‘यत्नार्थक’ मानना आवश्यक है, क्योंकि ऐसा न मानने पर ‘घटः कृतः’ एवं ‘अङ्कुरो न कृतः’ यह ‘कृताकृतव्यवहार उपपन्न नहीं होगा । अर्थात् कुलाल के द्वारा घट उत्पन्न होने पर ‘कुलालेन घट: कृत: ’ ऐसा व्यवहार होता है, किन्तु किसान के द्वारा वोयेजाने पर भी ‘कृषीवलेन अङ्कुरः कृतः ’ ऐसा व्यवहार नहीं होता । अतः मानना होगा कि - कृति के साक्षात् सम्बन्ध का रहना और न रहना ही उक्त ‘कृताकृतविभाग’ का नियामक है । अतः कृन् धातु अवश्य ही यत्न का बाधक है । इसके चलते जो तिवादि प्रत्ययों में यत्नादि पदों के पर्याय (समानार्थक) होने की आपत्ति आती है, उसका समाधान यह है कि जिस यत्न का फल आगे विद्यमान हो, उस फल के अनुकूल प्रयत्न ही आख्यात प्रत्ययों का अर्थ है । किन्तु ‘यत्न’ एवं ‘कृति’ प्रवृति शब्द यत्न सामान्य के वाचक हैं । इस प्रकार उक्त पर्यायत्वापत्ति का वारण किया जा सकता है । कृव् धातु के यत्नार्थकत्व में एवं आख्यातपद के यत्नार्थकत्व में क्या अन्तर है ? इस प्रश्न के उत्तर में आचार्य ने यह लिखा है कि ‘पूर्वापरस्मिन् सैव भावना’ (श्लो०९ (पञ्चमस्तबक) अर्थात् (‘परस्मिन्’ उत्तरकालवत्तिनि फले ‘पूर्वा’ कारणीभूता ‘सव’ कृतिरेव भाव्यते फलमनया व्युत्पत्त्या आख्यातपदवाच्या) । अर्थात् आख्यात पदों का अर्थ वह विशेष प्रकार की कृति है जो उत्तरकाल में उत्पन्न होने वाले फल की ‘पूर्वा’ अर्थात् नियत- पूर्ववर्ति होने के कारण है । उत्तरवर्ति फलजनक इस ‘कृति’ को ही ( भाव्यते फलमनया, इस व्युत्पत्ति के अनुसार) ‘भावना’ भी कहते हैं । कृति में आख्यात की शक्ति मानने के विपक्ष में वैयाकरणों के पक्ष से यह कहा जा सकता है कि जिसमें पाकानुकूल व्यापार की सत्ता रहती है, उसमें पाकानुकूल कृति भी अवश्य रहती है । इस प्रकार ‘चैत्रः पाकानुकूलकृतिमान्, पाकानुकूलव्यापारवत्त्वात्’ इस अनुमान स्वरूप आक्षेप के द्वारा कृति का भान हो सकता है, अतः उसमें आख्यात पद की शक्ति की कल्पना आवश्यक नहीं । अतः कृति आख्यात पद का अर्थ नहीं, किन्तु ‘फलानुगुणत्व’ ही आख्यात का अर्थ है । किन्तु उक्त आक्षेप उचित नहीं, क्योंकि ‘कुन्’ धातु से ही सभी आख्यात पद का विवरण होता है । जैसे कि ‘पचति’ पाकं करोति - ‘गच्छति’ गमनं करोति इत्यादि ।
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- पद किन्तु पद दि । [ ३९ ] एवं कथित रीति से उक्त अनुमान सम्भव भी नहीं । क्योंकि सभी धात्वर्थ के साथ कृति का भान नहीं होता । जिस धात्वर्थ की उत्पत्ति में कृति की अपेक्षा होती है, उसी धात्वर्थ के साथ कृति का भान होता है | ‘अस्ति’ विद्यते इत्यादि पदों से होने वाले सत्तादि नित्यधात्वर्थ की प्रतीति में कृति का भान नहीं होता । अतः धात्वर्थ के साथ कृति की व्याप्ति नहीं । धात्वर्थ से कृति का आक्षेप नहीं हो सकता । जिस प्रकार ‘पचति’ पद का ‘पाकं करोति’ यह विवरण होता है, उसी प्रकार ‘प’व यत्नवान्’ पाकानुकूलकृतिमान् यह विवरण भी होता है | एवं कृति विना कर्त्ता के नहीं रहती, अतः कर्त्ता के साथ कृति की व्याप्ति है । फलतः कर्त्ता से कृति का अनुमान हो सकता है कि ‘चैत्रः पाकानुकूलकृतिमान्, पाककर्तृ त्वात्, सुतराम् आक्षेपलभ्य होने के कारण कृति में आख्यात की शक्ति नहीं, किन्तु कर्त्ता में ही आख्यात की शक्ति है । कृति शक्तिवादी नैयायिकों का कहना है कि आख्यातार्थ संख्या के अन्वय के लिये कर्त्ता की आवश्यक उपस्थिति जब आक्षेप से ही हो सकती है, तो कर्त्ता में आख्यात की शक्ति को स्वीकार करना अनावश्यक हैं, क्योंकि शब्दार्थं अनन्यलभ्य होना चाहिये । कर्त्ता में विहित आख्यात - प्रत्यय के अर्थ संख्या का अन्वय नियमतः कर्त्ता में ही हो, कर्मप्रभृति कारकों में नही, इसके लिये यह युक्ति है कि ‘भावना’ नियमतः कर्त्तृ साकांक्ष है, अतः कर्त्ता में विहित प्रत्यय के अर्थ ‘भावना’ का अन्वय नियमतः कर्त्ता में ही होता है । ‘यं यं भावनान्वेति तं तं संख्यापि’ इस दूसरे नियम के अनुसार कर्तृ प्रत्यय के अर्थ- संख्या का अन्वय नियमतः भावनान्वयी कर्त्ता भावनान्वयी कर्त्ता में ही होता है, कर्मादि कारकों में नहीं । अतः कर्त्ता में आख्यात की शक्ति न मानने पर भी यह व्यवस्थासंभव है कि कर्त्ता में विहितप्रत्यय के अर्थसंख्या का अन्वय कर्त्ता में ही हो, एवं कर्म में विहित आख्यात के अर्थ संख्या का अन्वय कर्म में ही हो । जिस प्रकार कर्ता में रहनेवाले किसी धर्म को विध्यर्थं नहीं माना जा सकता उसी प्रकार ‘कर्म’ में रहने वाले किसी को भी विधि- प्रत्यय का अर्थ नहीं माना जा सकता । ‘क्रियते इति कर्म’ इस व्युत्पत्ति के अनुसार (१) स्वर्गस्वरूप ‘फल’ एवं (२) ‘अपूर्व’ स्वरूप व्यापार एवं (३) ‘याग’ स्वरूप करण ये तीनों ही प्रकृत में ‘कर्म’ शब्द से अभिप्रेत हैं । फलतः प्रकृत में ये तीन पूर्वपक्ष निष्पन्न होते हैं (२) स्वर्गवृत्ति-
[ ४० ] कार्यत्व ही विधि प्रत्यय का अर्थ है । (२) अपूर्वनिष्ठकार्यत्व ही विधि प्रत्यय का अर्थ है । (३) यागादिगतकार्यत्व ही विधि प्रत्यय का अर्थ है । (१) कथित प्रथमपक्ष को स्वीकार करने से अतिप्रसङ्ग होगा, क्योंकि यह निर्णीत हो चुका हैं कि वही विधि प्रत्यय का अर्थ हो सकता है, जो ज्ञात होकर प्रवृत्ति का उत्पादक हो । तदनुसार स्वर्गगतकार्यत्व तभी विधि- प्रत्यय का अर्थ हो सकता है, जब कि उक्त कार्यत्वविषयकज्ञान से प्रवृत्ति उत्पन्न हो । स्वर्गस्वरूप फल के लिये लोग ‘यागादि का अनुष्ठान करते हैं । अतः स्वर्ग की प्रवृत्ति का कारण यागविषयकज्ञान ही हो सकता है । यदि स्वर्गनिष्ठकार्यत्वविषयक ज्ञान को यागविषयकप्रवृत्ति का कारण मानें, तो इसका अर्थं यह होगा, विभिन्नविषयकज्ञान को विभिन्नविषयकप्रवृत्ति का कारण मानना । किन्तु ऐसा स्वीकार करने पर घटविषयकज्ञान से पटविषयकप्रवृत्ति की आपत्ति स्वरूप ‘अतिप्रसङ्ग’ होगा । (२) याग से उत्पन्न जिस ‘अपूर्व’ के द्वारा स्वर्ग उत्पन्न होता है, उस ‘अपूर्व- निष्ठकर्यत्व’ को भी विधि- प्रत्यय का अर्थ नहीं माना जा सकता, क्योंकि इससे ‘अपूर्व’ का ‘तत्त्व’ जो ‘अपूर्वत्व है वही भङ्ग हो जायगा । उसे ‘अपूर्व’ इसलिये कहा जाता है कि शाब्दबोध से ‘पूर्व’ वह सर्वथा अज्ञात रहता है । यदि अपूर्वनिष्ठकार्यत्व में विधि- प्रत्यय की शक्ति (अभिधा ) मानेंगे तो उस शक्ति के ज्ञान के लिये अपूर्व का किसी भी प्रकार से ज्ञात रहना आवश्यक है । क्योंकि सर्वथा अज्ञात वस्तु में शक्ति गृहीत नहीं हो सकती । तस्मात् अपूर्व की ‘तत्त्वहानि’ अर्थात् अपूर्वत्व की हानिस्वरूप दोष के कारण अपूर्वनिष्ठकार्यत्व को भी विधि- प्रत्यय का अर्थ नहीं माना जा सकता । (३) क्रियानिष्ठकार्यत्व को भी विधि- प्रत्यय का अर्थ नहीं माना जा सकता, क्योंकि विध्यर्थ के लिये यह आवश्यक है कि वह ज्ञात होकर प्रवृत्ति का उत्पादक हो । स्वज्ञानद्वारा प्रवृत्ति का उत्पादक अवश्य ही ‘इष्टसाधक’ होगा । अन्ततः उसके लिये इष्टसाधकत्वस्वरूप से समझा जाना आवश्यक है, भले ही वास्तव में इष्ट का साधन न हो । यागस्वरूप ‘क्रिया’ में रहनेवाला कार्यत्व न ज्ञात होकर प्रवृत्ति का कारण है, न इष्टसाधनस्वरूप से वह ज्ञात ही रहता है । अतः यागादि क्रियाओं में रहनेवाला कार्यत्वस्वरूप धर्म भी विधिप्रत्यय का अर्थ नहीं हो सकता । जिस प्रकार शाब्दबोध ‘क्रिया’ (धात्वर्थ) के कर्तृ कारक एवं कर्मकारक में रहने बाली किसी धर्म को विध्यर्थं नहीं माना जा सकता, उसी प्रकार उक्त ‘क्रिया’ के शब्द
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- शब्द [ ४१ ] स्वरूप ‘करण’ के ‘अभिधा’ (शाब्दी भावना) प्रभृति धर्मो को भी विधिप्रत्यय का अर्थ नहीं माना जा सकता, क्योंकि कथित शब्दस्वरूप करण के [१] अमिधा अथवा शाब्दी भावना एवं [ २ ] इष्टसाधनत्व ये दो ही धर्मं प्रकृत में पूर्वपक्षियों को अभिप्रेत हो सकते हैं । ( १ ) इन में शब्दनिष्ठ ‘अभिधा’ ( शाब्दीभावना ) नाम को विधि- प्रत्यय का अर्थ मानने में यह बाधा है कि अभिधा या शाब्दीभावना के किसी पदार्थ की सत्ता ही नहीं, दूसरी बात यह है कि जो ज्ञात होकर प्रवृत्ति का कारण हो वही विधि - प्रत्यय का अर्थ हो सकता है - उक्त ‘अभिधा’ से उस प्रकार प्रवृत्ति नहीं होती है । अतः उक्त ‘अभिधा’ को भी ( शाब्दीभावना ) विधि - प्रत्यय का अर्थ नहीं माना जा सकता ।* ( २ ) इष्टसाधनता को विधि- प्रत्यय का अर्थ किसी प्रकार माना भी जा सकता है जिसकी सूचना ‘तज्ज्ञापकोऽथवा’ इत्यादि से ( पृ० ७१२ दी जा चुकी है । किन्तु, प्राचीन नैयायिक के इस मत को भी आचार्य स्वीकार नहीं करते । क्योंकि विधि- प्रत्थय से इष्टसाधनत्वविषयक अन्वयबोध की उत्पत्ति ‘सन्दिग्ध’ है । क्योंकि प्रकृत में सन्देह हो सकता है कि जिस प्रकार बालक के स्तन-पान से उसके इष्टसाधनत्व की साक्षात् अनुमिति होती है, उसी प्रकार लिङ् प्रत्यय से स्पष्टरूप में इष्टसाधनत्व का अन्वयबोध होता है ? अथवा लिङ् प्रत्यय के द्वारा प्रतिपादित किसी दूसरे अर्थ ( आप्ताभिप्राय ) के द्वारा इष्टसाधनत्व का अनुमान होता है ? जिस प्रकार ‘समयाभिज्ञ’ अर्थात् शब्दसङ्केत से अभिज्ञ पुरुष को विशेष प्रकार की चेष्टा से विशेष प्रकार के अभिप्राय का अनुमान होता है । इस सन्देह के कारण यही निर्णय करना पड़ता है कि इष्टसाधनत्व विधि- प्रत्यय का अभिधेयार्थ नहीं । इष्टसाधनत्व चूंकि आप्त पुरुष के अभिप्राय का विषय है, अत: आप्ताभिप्रायविषयत्व हेतु से इष्टसाधनत्व का अनुमान होता है । अत: ‘अनन्यलभ्यो हि शब्दार्थ:’ इस न्याय के अनुसार इष्टसाधनत्व विधि- प्रत्ययरूप शब्द का अर्थ नहीं हो सकता । इष्टसाधनत्व को यदि विधि-प्रत्यय का अर्थ मानें तो ’ न हन्यात्’ निषेधवाक्य का ‘हनन भावना इष्टसाधन नहीं है’ इस आकार का बोध मानना होगा । किन्तु इससे हननभावना में अनिष्टसाधनत्व का लाभ नहीं होगा, क्योंकि कोई वस्तु इष्ट न होने से ही अनिष्ट नहीं हो जाता, इष्ट और अनिष्ट इन दोनों से भिन्न ‘उपेक्षणीय’ वस्तुओं का नाम भी है । इष्टसाधनत्व को विधि- प्रत्यय का अर्थ माननेवाले प्राचीन नैयायिकों के मत से
- देखिये पृ० ७८८ । ६
[ ४२ ] निषेधवाक्य के द्वारा अनिष्टसाधनत्व का बोध ही अभिप्रेत है, वह भी अनुपपन्न हो जायगा । चूंकि ‘अभिधा’ प्रभृति वस्तुओं में कोई भी विधि - प्रत्यय का अर्थ नहीं हो सकता, अभिप्राय ही विधि - प्रत्यय का अर्थ है, इस बाद इष्टाभ्युपायता अथवा इष्टसाधनत्व अतः प्रवृत्ति एवं निवृत्तिविषयक वक्ता का अभिप्राय को विधिप्रत्यय से समझ लेने के का अनुमान होता है । यद्यपि इष्टसाधनता का ज्ञान ही प्रवृत्ति का साक्षात् कारण है, किन्तु लाघव की दृष्टि से आप्ताभिप्राय को ही विधिप्रत्यय का अर्थ मानते हैं । श्रुति के द्वारा परमेश्वर को समझ लेने के बाद उनके सन्बन्ध में असंभावनाओं एवं विपरीत संभावनाओं का निरास अनुमानों के द्वारा किया जाता है, किसी महात्मा को समाहित मन के द्वारा उनका दर्शन भी होता है । • ( देखिये ५ स्त, श्लो १४ की व्याख्या )
नों को ग्रन्थकार का परिचय परमर्षिकल्प श्री उदयनाचार्य का जन्म ‘मिथिला’ देश के ‘करिजन’ ग्राम में हुआ था । यह प्रसिद्धि किसी प्रबल विरोधी प्रमाण के न रहने से सर्वसम्मति पा चुकी है । यह बात भी सर्वसम्सत है कि न्याय एवं वैशेषिक दोनों ही दर्शनों की प्राचीन परम्पराओं के वे श्रेष्ठ एवं अन्तिम प्रतिनिधि थे । • वाचस्पति मिश्र एवं जयन्तभट्ट ने न्यायदर्शन के सम्बन्ध में अपनी-अपनी रचनाएँ प्रस्तुत की हैं । किन्तु इन लोगों ने वैशेषिकदर्शन के सम्बन्ध में कुछ भी नहीं लिखा है । यद्यपि अपने-अपने ग्रन्थों में सिद्धान्त रूप से वैशेषिकों के बहुत से निष्कर्षो को मानकर लिखा है । किन्तु उदयनाचार्य ने जिस प्रकार न्यायदर्शन में ‘तात्पर्यपरिशुद्धि’ (अथवा न्याय- निबन्ध) की रचना की, उसी प्रकार वैशेषिकदर्शन में ‘किरणावली’ की भी रचना की । जो दोनों ग्रन्थ अपने-अपने शास्त्र के आकरग्रन्थों में परमादरणीय स्थान पर विद्यमान है । जिस प्रकार न्यायदर्शन एवं वैशेषिकदर्शन इन दोनों दर्शनों के उपर अधिकारपूर्वक उदयनाचार्य ने लिखा है वैसा किसी भी अन्य विद्वान् ने नहीं लिखा । न्याय एवं वैशेषिक इन दोनों समान तन्त्रों को एक सूत्र में बाँध कर ग्रन्थ लिखने की प्रणाली भी प्रथमतः उन्होंने ही चलायी यह बात न्यायकुसुमाञ्जलि में भी देखी जा सकती है । इस ग्रन्थ में उन्होंने न्यायशास्त्रसम्मत शब्द एवं उपमान इन दोनों के स्वतन्त्र - प्रामाण्य का समर्थन बड़े ही ऊहापोह से साथ तृतीय स्तबक में किया है, जिन दोनों प्रमाणों का पृथक् प्रामाण्य वैशेषिकगण स्वीकार नहीं करते । . इसी प्रकार प्रसङ्ग स्वप्नं के विषय में न्यायसिद्धान्त की आलोचना की है, एवं वैशेषिक दर्शन के ही कुछ परिवर्तनों के साथ सिद्धान्त को ग्रहण किया है । नैयायिक एवं वैशेषिकाचार्यगण दोनों ही यद्यपि स्वप्नज्ञान को मिथ्या मानते हैं, किन्तु नैयायिक उसे स्मृत्यात्मक मानते हैं और वैशेषिकाचार्यगण उसे अनुभव रूप मानते हैं । उदयनाचार्य का कहना हैं कि स्वप्नस्मृत्यात्मक ज्ञानस्वरूप ही है, किन्तु सभी स्वप्न नियमतः मिथ्या ही नहीं होते कुछ स्वप्न सत्य भी होते हैं । उपमान के लिये श्लो० ८ से १२ पर्यन्त एवं शब्द के लिये श्लो० १३ से १५ पर्यन्त द्रष्टव्य CCO. Vasishtha Tripathi Collection. Digitized by eGangotri[ ४४ ] उदयनाचार्य के न्यायकुसुमाञ्जली एवं आत्मतत्त्वविवेक’ ये दोनों ही ग्रन्थ अत्यन्त सुन्दर एवं हृदयग्राही युक्तियों से परिपूर्ण हैं । इन दोनों ग्रन्थों के द्वारा आत्मा की स्थिरता एवं ईश्वर के ऊपर वौद्धों के प्रचण्ड प्रहार को बहुत सरलता से विफल कर दिया गया है । उदयनाचार्यं दशवीं शताब्दी के अन्त समय तक विद्यमान थे । इनके समय के सम्बन्ध में कोई विवाद नहीं है, क्योंकि अपने ‘लक्षणावली’ नामक ग्रन्थ में उन्होंने स्पष्ट लिखा है । तर्काम्बरप्रमितेऽतीतेषु शकान्ततः । वर्षेषूदयनश्चक्रे सुबोधां लक्षणावलीम् ॥ इससे प्रतीत होता है कि ९०६ शकाब्द ९८४ ए० डी० के समीप लक्षणावली की रचना हुई होगी । ऐसा भी भासित होता है यह उनकी अन्तिम रचना नहीं होगी । 1 उदयनाचार्य शिव के विशेष भक्त थे । यह ‘शिवं प्रति नमन्, प्रमाणं शिवः’, उनके इत्यादि वाक्यों से स्पष्ट है । किन्तु वे ‘शैव’ सम्प्रदाय के नहीं थे । वे तो वेदानुग मनु याज्ञवल्क्यादि स्मृतिकारों से समर्थित वैदिकसंप्रदाय के थे । जिस प्रकार आज भी मैथिलाह्मणगण साधारणतः पञ्चदेवोपासक होते हुए भी किसी देवता में अधिक भक्ति रखते हैं उसी प्रकार वे भी शिव के भक्त थे । अपने उपास्य ईश्वर के स्वरूप का जो उन्होंने न्यायकुसुमाञ्जलि में वर्णन किया हैं, वह शैव सम्प्रदाय के उपास्य से सर्वथा भिन्न है ।
न 5 T उदयनाचार्य की रचनायें १ – न्यायपरिशिष्ट’ - गौतमसूत्र की टीका २ - ‘किरणावली’ ( वैशेषिक दर्शन के प्रशस्तपाद भाष्य की टीका ) इस ग्रन्थ में आत्मतत्त्वविवेक और न्यायकुसुमाञ्जलि के सन्दर्भ उपलब्ध होते हैं । ३ – तात्पर्यं परिशुद्धि — अथवा न्यायनिबन्ध ( यह उद्योतकर कृत ‘न्यायवार्त्तिक’ की वाचस्पतिमिश्रकृत ‘तात्पर्यटीका’ की टीका है ) । ये तीन इनके व्याख्याग्रन्थ हैं । इसके अतिरिक्त निम्नलिखित ये चार मौलिक रचनायें भी हैं ।
१ - आत्मतत्त्वविवेक - - यह ग्रन्थ ‘बौद्धाधिकार’ अथवा ‘बौद्धधिक्कार’ नाम से भी प्रसिद्ध है । इस ग्रन्थ में शरीर से भिन्न नित्य आत्मा के ऊपर बौद्धों के ऊपर किये गये आक्षेपों का परिहार है । न्यायकुसुमाञ्जलि के समान ही इस ग्रन्थ पर भी कई टीकायें हैं । २ – न्यायकुसुमाञ्जलि – इसका गद्यपद्यात्मक मूलस्वरूप पाठकों के समक्ष प्रस्तुत है । इस ग्रन्थ में किरणावली एवं आत्मतत्त्वविवेक के नाम एवं न्याय निबन्ध का संकेत उपलब्ध है । ३ - लक्षणावली - इस ग्रन्थ में वैशेषिक दर्शन में प्रसिद्ध शब्दों की परिभाषा है । इसकी रचना ९०६ शकाब्द में हुई थी । ४ - प्रबोधसिद्धि - न्यायशास्त्रसम्बन्धी यह एक मौलिक रचना है । यह उद्योत- कर एवं वाचस्पति मिश्र के विचारों का निर्गलितार्थं है ।
- कृतज्ञता ज्ञापन सर्वप्रथम अपने इष्टदेवता के चरणों में कोटिशः प्रणाम समर्पित करता हूँ, जिनकी अनुकम्पा से इस दीर्घकालिक कार्य को सम्पन्न करने के उपयुक्त उत्साह उद्यम, स्वास्थ्य एवं अन्य सभी साधनों का संबल उपलब्ध हो सका । माताजी मुझे दो वर्षों का छोड़कर स्वर्गवासिनी हुई । उनके स्वरूप तक का मुझे स्मरण नहीं है ऐसी स्थिति में पिताजी स्वयं हम लोगों का रक्षणावेक्षण करते रहे । मेरे उपनयनसंस्कार के तीन वर्षों बाद उन्होंने भी काशीलाभ किया । किन्तु उनकी स्मृति अबतक बनी हुई है । उनकी सदाचारनिष्ठा, अध्ययन-अध्यापन के प्रति निष्काम अभिरुचि, सर्वतोऽधिक मौलिक मर्यादा का पालन एवं ब्राह्मण्य आज भी मेरे परिवार की प्रतिष्ठा के लिये गौरव की वस्तु है । उन लोगों की कृपा से हम सभी भाई-बहन उनकी प्रतिष्ठा को यत्किञ्चित् मात्रा में ही सही रखने को तत्पर रहे, शास्त्राध्ययन एवं अध्यापन का कार्य भी कुछ अंशों में चालू रखा । पिताजी के पौत्र दौहित्रगण भी अच्छे-अच्छे पदों पर हैं। भूसंपत्ति भी उनके समय से बढ़ी । यह सब उन्हीं लोगों के पुण्य का प्रभाव है । पिताजी के काशीलाभ के बाद हमलोगों की असहायावस्था में अवलम्ब देने वाले थे पिताजी के शिष्यप्रवर वैद्यनाथ मिश्रजी और लक्ष्मीपति झा जी । ये दोनों महानुभाव अपने आश्रम में रखकर हमलोगों के आवास भोजन तथा अध्ययन की व्यवस्था की एवं मेरे सम्पत्ति की रक्षा का भी प्रबन्ध किया । यह व्यवस्था उन लोगों ने मेरे’ ज्येष्ठ भ्राता के दार ग्रहण तक जारी रखा । उनलोगों की अहैतुकी कृपा को मैं किन शब्दों में व्यक्त करूँ ? केवल उनके उपकारों का स्मरण कर ही अपने को धन्य और पवित्र कर सकता हूँ । मैं अपने गायत्री मन्त्र के प्रदाता आचार्य तथा तान्त्रिकमन्त्र के उपदेष्टा एवं न्यायशास्त्र के प्रथम गुरु महानैयायिक धर्मशास्त्री स्व० नीलाम्बर झा जी के चरणों में कोटिशः प्रणाम समर्पित करता हूँ । इसके बाद काशी आकर मैंने सर्वप्रथम म० म० पं० स्व० फणिभूषणजी तर्क- वागीश के चरणों में बैठकर अध्ययन प्रारम्भ किया । मेरे जीवनपथ के निर्वाचन में
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[ ४७ ] उनकी त्यागशीलता, अगाधपाण्डित्य, लोभशून्यता और सारल्य आलोकस्तम्भ के समान रहे हैं । तदनन्तर मैंने आठवर्षों तकं स्वनामधन्य म० म० बामाचरण जी भट्टाचार्य ‘महाशय’ के चरणों में बैठकर शिक्षा प्राप्त की, जिसके वल से अद्य पर्यन्त शास्त्रचचस्वरूप अपने कौलिकवृत्ति में स्थिर हूँ एवं अवशिष्ट जीवन भी उसी में बिताने की आशा रखता हूँ । इत तीनों ही महानुभावों का भास्वर रूप अपनी स्मृति के द्वारा आज भी मेरे अन्त:करण में समय-समय पर आनेवाले मालिन्य को दूर करने में समर्थ है । स्वर्गीय भट्टाचार्य महाशय के चरणों में बैठने का दुर्लभ सुयोग मेरे आचार्य परीक्षा उत्तीर्ण करने से दो वर्ष पहिले ही छूट गया । यद्यपि अनुमानखण्ड के सभी ग्रन्थों का वे अध्ययन करा चुके थे । इसके बाद के कार्यो को मैंने तत्कालिक गवर्नमेण्ट कालेज के न्यायशास्त्र के प्रधान अध्यापक भट्टाचार्य महाशय के प्रधान शिष्य एवं अनेक ग्रन्थों के प्रणेता श्री शिवदत्त मिश्र जी गौड़ से सम्पन्न किया । उनकी कृपा आजीवन मेरे ऊपर बनी रही । । अध्ययन के लिये काशी आने के मूल में थे मेरे श्वसुर स्व० म० म० डा० सर गंगानाथ झा जी । उनके उपकारों को कहाँ तक गिनाया जाय, उन्होंने मेरे पैतृक संपत्ति को ऋणमुक्त किया एवं अपने दान से सम्बंधित किया, तथा जिनकी कृपा से अन्य जीविका के बिना भी जीवन निर्वाह की निश्चिन्तता मुझमें आयी, उनके स्मरण मात्र से भी मैं अपने को धन्य समझता हूँ, जिनकी अहैतुकी कृपा ने मुझ जैसे अज्ञात और अप्रसिद्ध व्यक्ति को विद्वानों के समक्ष लाकर खड़ा किया। जिनकी अनुकम्पा से मुझे पूर्णसौविध्य से युक्त बारह वर्षों का काशीवास का अलभ्य लाभ मिला । जिनकी मूलभूत कृपा के बल पर ही अन्य महत्त्वपूर्ण महानुभावों का आनुकूल्य प्राप्त हुआ – उन स्वनामधन्य स्व० पं० आदित्य नाथ झा जी की कृपाओं का केवल अनुभव ही किया जा सकता है - वर्णन नहीं किया जा सकता । उनकी कृपा के प्रतिदान में अयोग्य मैं, उनकी साधारण सी आज्ञा के पालन में विमुख अकृतज्ञ मैं किस बूते पर उनकी गुणावलियों की चर्चा करूँ ? अत: अक्षम व्यक्ति के परमावलम्ब श्री १०८ साम्बसदाशिव से केवल यह प्रार्थना ही कर सकता हूँ कि उन्हें शान्ति दें और पुत्रादि को स्वस्थ सन्तति संपत्ति से पूर्ण सुखी रखें । अन्य जिन महानुभावों का इस ग्रन्य के प्रकाशन में प्रमुख सहयोग रहा है, उनमें परमश्रद्धाभाजन पं० श्री क्षेत्रेशचन्द्र चट्टोपाध्याय जी महानैयायिक पं० श्री
[ 85 ] बदरीनाथ शुक्ल जी, डा० श्री गौरीनाथ जी शास्त्री, पं० श्री बलदेवजी उपाध्याय एवं पं० श्री भागीरथ प्रसादजी त्रिपाठी प्रमुख हैं । इन सभी महानुभावों के प्रति मैं अपनी कृतज्ञता व्यक्त करता हूँ । इन महानुभावों के सहयोग के बिना यह ग्रन्थ इतने समय बाद भी प्रकाशित नहीं हो पाता । सुदर्शन प्रेस के स्वत्वाधिकारी आचार्यप्रवर श्री सीताराम जी चतुर्वेदी सपरिकर के प्रति भी मैं अपनी कृतज्ञता व्यक्त करता हूँ जिनके सहयोग के बिना इस ग्रन्थ का मुद्रण सम्भव नहीं था । कई बार इनलोगों ने अन्य आवश्यक छपाई को रोक कर भी इसे आगे बढ़ाया है । अन्त में विश्वविद्यालय के ज्येष्ठ एवं कनिष्ठ सभी सहकर्मियों के प्रति अपनी शुभेच्छा व्यक्त करता हूँ जिनके सहयोग, सदाशयता और मैत्रीभाव के कारण इस भीषण दुःसमय में एक युग के समान बारह वर्षों का समय मैंने पूर्ण शान्ति से बिताया । अन्त में श्री तन्त्रेश्वर झा लाइब्रेरियन काशीविद्यावीठ के प्रति अपनी मैं कृतज्ञता व्यक्त करता हूँ, जिन्होंने विश्वविद्यालय की सेवानिवृत्ति के बाद अपने आश्रम में आश्रय दिया एवं मेरी सभी सुविधाओं के प्रति सजग रहे । यह निःसङ्कोच कह सकता हूँ कि उनकी कृपा के बिना इस ग्रन्थ के मुद्रण का अवशिष्ट कार्य कदापि न हो श्री १०८ साम्ब सदाशिव उन्हें सर्वविध समृद्धि से पूर्ण करें । सकता, प्रेस कापी तैयार करने से लेकर संशोधन तक मैंने इस कार्य को अकेले ही किया पाठकों से क्षमा चाहता हूँ है, जो इस ग्रन्थ में अशुद्धियाँ रह गयी हैं, उनके लिये क्योंकि इतने बड़े गम्भीर विषयक ग्रन्थ के लेखन में और मुद्रण में भ्रम और प्रमाद दोनों की ही सम्भावनायें हैं, अतः जिन्हें वे प्रतिभात हों, वे कृपया सूचित करें, जिससे यदि मेरे अवशिष्ट जीवन काल में इसका पुनः संस्करण हो पाया तो उन सूचनाओं का मैं पुनः संशोधन कार्य में उपयोग कर सकूँ । अन्त में भट्टपाद कुमारिल की इस युक्ति के साथ अपनी भूमिका को समाप्त करता हूँ । न्या प्र तद्विद्वांसोऽनुगृह्णन्तु चित्तश्रोत्रैः सन्तः प्रणयिवाक्यानि गृह्णन्ति प्रसादिभिः । नसूयवः ॥ वर्तमान सङ्केत ग्राम पो० गङ्गोली भाया - लोहना रोड जि० दरभङ्गा (बिहार मिथिला) श्रीदुर्गाधरक्षा सेवानिवृत्त अनुसन्धानसहायक वा० सं० वि० वि०, वाराणसी
विषयसूची विषयः भूमिका पृष्ठम् १-४८ न्यायकुसुमाञ्जलिकारिकाः अ-उ प्रथमस्तबकः १-१०२ T मङ्गलश्लोकः (ग्रन्थप्रतिपाद्यविषयप्राशस्त्यव्यञ्जकः ) १ परमात्मोपासनस्य मोक्षोपयोगित्वम् १० T ईश्वरसम्प्रतिपतौ तैंथिकानामभिमतानि ईश्वरसम्प्रतिपत्तौ सन्देहाभावादीश्वरे न्याय प्रवृत्त्यनुपपत्त्याऽऽक्षेपस्तत्परिहारश्च ईश्वरविचारोपयोगिन्यो विप्रतिपत्तयः ११ १२ १३ Pho ना कार्यकारणभावसाधनोपक्रमः तत्प्रक्रमे आकस्मिकत्ववादोपक्षेपस्तत्परिहारश्व में स्वभाववादोप्रक्रमस्तन्निरासश्च १४ १५ १७ ह हो कार्यकारणप्रवाहस्यानादित्वप्रतिपादनम् विभिन्नजातीयात् कारणादेकजातीयकार्योत्पत्तिप्रयोजकस्य तृणारणिमणिन्याय- मीमांसकसम्मतशक्तिपदार्थं पुरस्कृतकारणत्वस्य खण्डनम् २० स्योपपादनम् २१ न्या २१ Phcc बौद्धसम्मतस्य कुर्वद्रूपत्वरूपातीन्द्रियजातिपुरस्कृतकारणत्वस्य खण्डनम् २२ नों अपोहवादे व्याप्त्यनुपपत्तिसूचनम् २३ मेरे पुनः विभिन्नजातीयात् कारणादेकजातीय कार्यस्योत्पत्तिखण्डनम् २४ सामान्यकार्यकारणभावविशेषकार्यकारणभावयोः पार्थक्यप्रदर्शनम् २५ साथ एकस्मादेव कारणात् किमपि कार्यं नैव भवितुमर्हतीति न्यायमतप्रतिपादनम् २६ कारणत्वमुखेनादृष्टस्य समर्थनम् २९ दृष्टकारणसत्वेऽप्यदृष्टस्य कारणत्वानङ्गीकारपक्षोपपादनम् मोमांसकसम्मतातीन्द्रियस्वतन्त्रशक्तिपदार्थस्य निर्देशोपक्रमः अभावपदार्थस्य कारणत्वसमर्थनमुखेन शक्तेरतिरिक्तपदार्थत्वखण्डनम् प्रतिबन्धकत्वपदार्थनिर्वचनोपक्रमः ३३ ३४ ३५ ३७
[ 85 ] बदरीनाथ शुक्ल जी, डा० श्री गौरीनाथ जी शास्त्री, पं० श्री वलदेवजी उपाध्याय एवं पं० श्री भागीरथ प्रसादजी त्रिपाठी प्रमुख हैं । इन सभी महानुभावों के प्रति मैं अपनी कृतज्ञता व्यक्त करता हूँ । इन महानुभावों के सहयोग के बिना यह ग्रन्थ इतने समय बाद भी प्रकाशित नहीं हो पाता । सुदर्शन प्रेस के स्वत्वाधिकारी आचार्यप्रवर श्री सीताराम जी चतुर्वेदी सपरिकर के प्रति भी मैं अपनी कृतज्ञता व्यक्त करता हूँ जिनके सहयोग के बिना इस ग्रन्थ का मुद्रण सम्भव नहीं था । कई वार इनलोगों ने अन्य आवश्यक छपाई को रोक कर भी इसे आगे बढ़ाया है । अन्त में विश्वविद्यालय के ज्येष्ठ एवं कनिष्ठ सभी सहकर्मियों के प्रति अपनी शुभेच्छा व्यक्त करता हूँ जिनके सहयोग, सदाशयता और मैत्रीभाव के कारण इस भीषण दुःसमय में एक युग के समान बारह वर्षों का समय मैंने पूर्ण शान्ति से बिताया । अन्त में श्री तन्त्रेश्वर झा लाइब्रेरियन काशीविद्यावीठ के प्रति अपनी मैं कृतज्ञता व्यक्त करता हूँ, जिन्होंने विश्वविद्यालय की सेवानिवृत्ति के बाद अपने आश्रम में आश्रय दिया एवं मेरी सभी सुविधाओं के प्रति सजग रहे । यह निःसङ्कोच कह सकता हूँ कि उनकी कृपा के बिना इस ग्रन्थ के मुद्रण का अवशिष्ट कार्य कदापि न हो सकता, श्री १०८ साम्ब सदाशिव उन्हें सर्वविध समृद्धि से पूर्ण करें । इस कार्य को अकेले ही किया पाठकों से क्षमा चाहता हूँ प्रेस कापी तैयार करने से लेकर संशोधन तक मैंने है, जो इस ग्रन्थ में अशुद्धियाँ रह गयी हैं, उनके लिये क्योंकि इतने बड़े गम्भीर विषयक ग्रन्थ के लेखन में और मुद्रण में भ्रम और प्रमाद दोनों की ही सम्भावनायें हैं, अतः जिन्हें वे प्रतिभात हों, वे कृपया सूचित करें, जिससे यदि मेरे अवशिष्ट जीवन काल में इसका पुनः संस्करण हो पाया तो उन सूचनाओं का मैं पुनः संशोधन कार्य में उपयोग कर सकूँ । अन्त में भट्टपाद कुमारिल की इस युक्ति के साथ अपनी भूमिका को समाप्त करता हूँ । त्य 43 प्र तद्विद्वांसोऽनुगृह्णन्तु चित्तश्रोत्रः सन्तः प्रणयिवाक्यानि गृह्णन्ति प्रसादिभिः । नसूयवः ॥ वर्तमान सङ्केत ग्राम पो० गङ्गोली भाया - लोहना रोड जि० दरभङ्गा (बिहार मिथिला) श्रीदुर्गाधरझा सेवानिवृत्त अनुसन्धानसहायक वा० सं० वि० वि०, वाराणसी
विषयसूची विषयः भूमिका पृष्ठम् १-४८ न्यायकुसुमाञ्जलिकारिकाः अ-उ प्रथमस्तबकः १-१०२ मङ्गलश्लोकः (ग्रन्थप्रतिपाद्यविषयप्राशस्त्यव्यञ्जकः ) १ परमात्मोपासनस्य मोक्षोपयोगित्वम् १० ११ T T ईश्वरसम्प्रतिपतौ तैंथिकानामभिमतानि ईश्वरसम्प्रतिपत्तौ सन्देहाभावादीश्वरे न्याय प्रवृत्त्यनुपपत्त्याऽऽक्षेपस्तत्परिहारश्च १२ ईश्वरविचारोपयोगिन्यो विप्रतिपत्तयः कार्यकारणभावसाधनोपक्रमः T तत्प्रक्रमे आकस्मिकत्ववादोपक्षेपस्तत्परिहारश्च it he to में स्वभाववादोप्रक्रमस्तन्निरासश्च व्ह हो १३ १४ १५ १७ २० स्योपपादनम् नः FhsFiE ना कार्यकारणप्रवाहस्यानादित्वप्रतिपादनम् विभिन्नजातीयात् कारणादेकजातीयकार्योत्पत्तिप्रयोजकस्य तृणारणिमणिन्याय- मीमांसकसम्मतशक्तिपदार्थं पुरस्कृतकारणत्वस्य खण्डनम् २१ २१ हूँ बौद्धसम्मतस्य कुर्वद्रूपत्वरूपातीन्द्रियजातिपुरस्कृतकारणत्वस्य खण्डनम् २२ नों अपोहवादे व्याप्त्यनुपपत्तिसूचनम् २३ रे विभिन्नजातीयात् कारणादेकजातीयकार्यस्योत्पत्तिखण्डनम् सामान्यकार्यकारणभावविशेषकार्यकारणभावयोः पार्थक्यप्रदर्शनम् २४ २५ ाथ एकस्मादेव कारणात् किमपि कार्यं नैव भवितुमर्हतीति न्यायमतप्रतिपादनम् २६ कारणत्वमुखेनादृष्टस्य समर्थनम् २९ दृष्टकारणसत्वेऽप्यदृष्टस्य कारणत्वानङ्गीकारपक्षोपपादनम् ३३ मोमांसकसम्मतातीन्द्रियस्वतन्त्रशक्तिपदार्थस्य निर्देशोपक्रमः ३४ अभावपदार्थस्य कारणत्वसमर्थनमुखेन शक्तेरतिरिक्तपदार्थत्वखण्डनम् ३५ प्रतिबन्धकत्वपदार्थनिर्वचनोपक्रमः ३७
विषयः ( ख ) शक्त ेः सहजत्वाधेयत्वमूलकभेदमवलम्ब्य व्रीह्यादिभूतपदार्थेष्वपि प्रोक्षणादिन! काचित् संस्काररूपा शक्तिरुत्पद्यत इति मीमांसकमतोपपादनम् प्रध्वंसस्य व्यापारत्वखण्डनम् उपलक्षणस्य ज्ञानातिरिक्तपदार्थानां कारणत्वखण्डनम् व्रीह्यादिभौतिकपदार्थानां प्रोक्षणादिनापि प्रोक्षणादिकर्तृ पु पुरुषेष्वेव संस्कार उत्पद्यत इति न्यायमतप्रतिपादनम् दिव्यात्मके शपथे प्रयुज्यमानायां तुलायामपि तुलादिभौतिकपदार्थे परीक्षा- विधिना न कश्चिदतिशय उत्पद्यते, तत्रापि लोकपालादिदेवगणा एव सूक्ष्म- शरीरेण तत्रागत्य परीक्षाविधि संपादयन्ति । प्रतिमादावपि तथैव स्वसंनिधा- नेन स्वप्रत्यभिज्ञया वा देवता एव प्रतिमासु पूजनीयतां संपादयन्ति । अतः प्रतिष्ठाविधिनापि प्रतिमादिभौतिकपदार्थेन कश्चिदतिशय उत्पद्यते सांख्यमतोपपादनम् सांख्यमतनिरास: भूतचैतन्यवादोपपादनम् भूतचैतन्यवादखण्डनम् क्षणभङ्गमतोपवादोपक्रमः तन्निरास: समनियतजातिद्वयकल्पना न साधीयसी प्रत्यक्षप्रमाणेन क्षणभङ्गसमर्थनं तन्निराशश्च सन्देह्वादमाश्रित्य क्षणिकत्वसन्देहात् स्थैर्यवादखण्डनप्रयासः कारणत्वस्य स्वाभाविकत्वौपाधिकत्वविकल्पेन खण्डनप्रयासः विषय पृष्ठम् ४६ ४६ ४८ ५० ५७ ६६ ६९ ७४ ७५ ७६ ७६ ८० ८६ ८८ ९१ ९३ नित्यविभोरीश्वरस्य व्यतिरेकानुपपत्त्या कारणत्वनिराकरणम् कार्यंनियतपूर्ववत्तित्वमेव कारणत्वस्य लक्षणम्, न तु नियतान्वयव्यतिरेकित्वम् ९४ समवाय्यसमवायिनिमित्तकारणानां प्रत्येकस्यावश्यकत्वव्यवस्थापनम् स्तबकार्थसंग्रहात्मकः ईश्वरसंस्तवश्लोकः द्वितीयस्तबकः अदृष्टाधिष्ठातृतयेश्वरसिद्धिप्रतिज्ञा ईश्वरभिन्ने कस्मिश्चिदपि पुरुषे नाखिल वेदार्थविषयकज्ञानसमाश्वासः ९९ १०१ १०३-२४८ १०३ १०३
रम् विषयः प्रमाया गुणमूलकत्वम् (π) ( ग ) पृष्ठम् सर्गप्रलययोंः सत्त्वम् १०३ ४६ प्रमाया उत्पत्तौ ज्ञानसामान्यकारणभिन्नस्य गुणस्यापि कारणत्वम् १०४ ४६ वेदानामपौरुषेयत्वोपपादनप्रयासस्तत्खण्डनञ्च १०९ ४८ ज्ञाननिष्ठप्रमात्वस्य ज्ञानमपि परत एव भवति १११ अभावो न नियमतः प्रतियोग्याधारोभयनिरूप्यः १३८ ५० शब्दप्रध्वंसस्य प्रत्यक्षवेद्यत्वम् १४२ आश्रयनाशात् कार्यनाशविचारः १५२ प्रतियोगिसमवायिदेशेनैव प्रध्वंसस्य निरूपणमिति न नियम: १५६ शब्दध्वंशे निरूपितानां प्रत्यक्षवेद्यत्वादीनां शब्दप्रागभावेऽतिदेश: १६२ ५७ शब्दानां वायुगुणत्वपक्षोपपादनं तत्खण्डनञ्च ६६ ६९ ७४ ७५ ७६ शब्दानित्यत्वानुमानप्रयोगाः शब्दनित्यत्वसाधकानुमानेषु दोषोद्भावनम् उत्पत्त्या सह नित्यत्वस्य विरोधोपपादनम् जातिशक्तिवादोपपादनम् तत्खण्डनञ्च वेदस्य प्रवाहाविच्छेदस्वरूपनित्यत्वपक्षोपक्षेपः १६२ १६८ १७४ १८८ अस्थिरेण शब्देन सहार्थस्य सङ्केतग्रहणप्रकारोपपादनम् १९१ १९४ २०० ७६ सर्गप्रलयसंभावनया वेदनित्यत्वनिराकरणम् २०१ ८० सृष्टेर्नित्यत्वप्रतिपादनं तन्निराशश्च २०७ ८६ प्रलयावस्थायां सुषुप्तिदृष्टान्तेन सर्वथा वृत्तिरोधोपपादनम् २१७ ८८ ९१ प्रलयानन्तरभाविनि सर्गे वृश्विकतण्डुलीयकन्यायेन वर्णव्यवस्थोपपत्तिप्रदर्शनम् २१७ ९३ शब्दार्थयोः सङ्केतग्रहणरूपस्य समयस्य प्रलयानन्तरसृष्टावुपपत्ति: " ९४ ९९ १०१
- २४८ १०३ १०३ सृष्टेः प्रलयस्य च साधकानुमानप्रयोगाः जन्म संस्कारादेह्रसिदर्शनेन वेदानामत्यन्तविनाशोपपादनम् वेदाशाखानामनुच्छेदपक्षोपपादनं तत्खण्डनञ्च स्मृत्याचारादीनां न स्वातत्र्येण प्रामाण्यम्, किन्तु वेदमूलकत्वेनैव वेदाध्यापकानां भारतवर्षाद् बहिर्गमनचर्चा 77 " 33 २२७ CCO. Vasishtha Tripathi Collection. Digitized by eGangotri(घ ) विषय: पृष्ठम् कालक्रमभाविवेदह्रास एव कल्पसूत्रादीनां प्रणयने हेतु: " त्रयीबाह्यबौद्धाद्यागमपरिग्रहे संभाविता हेतव: २३३ प्रलयानन्तरं स्तिमिताकाशकल्पे जगति कुतो विशेषात् पुनः सर्ग इत्यत्र तैथिकानां मतभेदा: २३४ कर्मयोगसिद्धानामपि कपिलादीनां वेदनिर्माणकर्त्तृत्वनिरासः २३८ ब्रह्माण्डान्तर्वत्तिवर्णव्यवस्थया सम्प्रदायप्रवर्त्तनपक्ष निरास: २३७ स्तबकार्थसंग्रहात्मक: शिवनमस्कारात्मकः श्लोकः २४७ तृतीयस्तबक: २४९-४९० अनुपलब्धेरीश्वरबाधकत्वनिरासः २४९ योग्यानुपलब्धेरेवाभावनिश्चायकत्वम् २५० ईश्वरस्याप्रत्यक्षत्वात् तदनुपलब्ध्येश्वराभावनिश्चयोपपादनम् २५१ सुषुप्त्यवस्थायां ज्ञानोत्पत्तिप्रसङ्गे मनौ वैभववादात्रतारस्तन्निरासश्च २५३ ज्ञानयोगपद्यपक्षोपपादनं तत्खण्डनञ्च २६२ सुषुप्तेः समयः २६७ परात्मन: प्रत्यक्षं परात्मनः कस्मान्न भवतीत्युपपादनम् २६८ परमात्मज्ञापककायवाग्व्यापारेभ्य ईश्वराभावसाधनप्रक्रमस्तत्परिहारश्च २७४ सर्वेषामीश्वरपक्षकनास्तित्वसाधक हेतूनामाश्रयासिद्धत्वोपपादनम् २८२ विशेष्यत्वं प्रतियोगित्वञ्च वास्तविकसत्तासिद्धस्यैव भवति २८३ शशश्रृङ्ग नास्तीति प्रतीतिविषयत्वं शशश्रृङ्गाभावस्य कदापि न भवितुमर्हति २८५ ईश्वरे सार्वज्ञयत्व निरासोपक्रमस्तत्परिहारश्च प्रत्यक्षमात्रस्य प्रामाण्यम्, संभावनामात्रेण च लोकव्यवहारः चार्वाकमतानुसारेणेश्वरनिराकरणोपक्रमेऽनुपलब्धिमात्रस्याभाव ग्राहकत्वम् २८६ तन्निरासोपक्रमः सर्वत्रानुमानेषूपाधिसंभावनया अनुमानमात्रोच्छेदप्रसक्तिः अत्र समाधानोपाया: तर्काद् व्यभिचारशङ्कायाः समुच्छेदः, प्रवृत्तिव्याधातश्च शङ्काया अवधिः
२९० २९२ २९७ २९८ ३०७ न् विषयः ३ [ङ ] तर्कस्य न्यायाङ्गत्वे सूत्रकारानुमति: अप्रयोजकहेतोर्भट्टोक्तं लक्षणम् पृष्ठम् ३१४ " ८ अप्रयोजकस्वरूपासद्धेतोः कुत्र हेत्वाभासेऽन्तर्भाव इति प्रश्नस्तत्समाधानञ्च यौगिकार्थानुसारेणासिद्धहेत्वाभासस्य लक्षणम्, तद्भ ेदाः, तत्रैव चाप्रयोजक- सिद्धसाधनयोरन्तर्भावः अप्रयोजकस्य सन्दिग्धानैकान्तिकत्वपक्षनिरास: ३१८ ३२१ ३२२ 6 6 ईश्वरानुमाने उपमानबाधकोपन्यासस्तत्खण्डनञ्च ३२२ उपमानप्रमाणवेद्यस्य सादृश्यस्य पदार्थान्तरत्वनिरास: ३२३ ० सादृश्यस्य जातिपदार्थत्वोपन्यासस्तत्खण्डनश्च ९ दृष्टा संनिकृष्ट प्रत्यभिज्ञानस्य सादृश्यपदाभिधेयत्वपक्षोपन्यासस्तत्खण्डनश्च o ३२६ ३३२ उपमानस्य प्रमाणान्तरत्वनिषेधपक्षोपसंहारो वैशेषिकामिमत: ३३२ 1 उपमानस्य स्वतन्त्रप्रामाण्यपक्षोपन्यासो न्यायदर्शनानुमोदितः ३३३ ३ २ ७ उपमानस्य शब्देऽन्तर्भावपक्षोपन्यासस्तत्खण्डनश्च ३४७ उपमानप्रमाणस्यानुमानेऽन्तर्भावपक्षोपन्यासस्तत्खण्डनच ३४७ शब्दस्यानुमानेऽन्तर्भावपक्षोपन्यासस्तन्निरसनपूर्वकं शब्दस्य स्वतन्त्रप्रामाण्य- ८ ४ IS समर्थनम् ३५५ शाब्दाबोधे प्रयोजकीभूताया आकांक्षायाः स्वरूपविचार: ३६७ :२ आकांक्षाया न्यायशास्त्रानुसारिलक्षणम् ३८३ ६३ ८५ ८६ m वैदिकशब्द एव स्वतन्त्रं प्रमाणम्, लौकिकशब्दस्यानुमानविधयैव प्रामाण्य- میں کو मिति प्रभाकरमतोल्लेखस्तन्निरासश्च ३८३ अन्विताभिधानवादस्योपक्षेपः ३९६ भट्टमतेनान्विताभिधानपक्षनिरास: ४०६ १२० न्यायसिद्धान्तानुसारेणान्विताभिधानपक्षखण्डनम् ४१२ २२ सर्वज्ञपरमेश्वरे शब्दप्रमाणस्य बाधकत्वपक्षोपन्यासस्तत्खण्डनं च ४१४ अर्थापत्तिप्रमाणस्येश्वरबाधकत्वपक्षोपन्यासः ४१७ ९७ ९८ तन्निरास: ४१८ ०७
- अर्थापत्तेरनुमानतोऽभेदप्रतिपादनम् ४२१
( च ) विषयः पृष्ठम् अर्थापत्तौ व्याप्तिः स्वरूपसत्येव प्रयोजिका, अनुमाने तु ज्ञातेति अर्थापत्त्यनु- मानयोर्भेद इति मीमांसकमतोपपादनम् ४२५ तन्निरास: ४२६ आपन्ने प्रमाणद्वयविरोधेऽविरोधोपपादिकार्थापत्तिः, न त्वनुमितिरित्यनु- मानादर्थापत्तेर्वैलक्षण्यमूलकमर्थापत्तेः प्रमाणान्तरत्वोपपादनम् ४३० तन्निरास: ४३३ केवलव्यतिरेक्यनुमानमेवार्थापत्तिरित्यत्र मीमांसकनैयायिकयोरैकमत्यम् अनुपलब्धेर्न स्वतन्त्रं प्रामाण्यम्, किन्तु प्रत्यक्षाद्युत्पादकत्वेनैव ४३७ ४३९ याऽनुपलब्धिः स्वयमेवाभावज्ञानं जनयति, सानुमानप्रयोजिका, या तु ज्ञाता सत्येवाभावज्ञानं जनयति, सानुमानप्रयोजिकेति विभागः ४४३ अधिकरणप्रत्यक्षे चरितार्थत्वादिन्द्रियसंनिकर्षो नाभावप्रमायाः करणमिति भट्टमतोपपादनम् ४४४ अन्यत्र चरितार्थत्वं न प्रमाकरणत्वे बाधकमिति न्यायमतसमर्थनम् ४५० ‘वायावनुपलब्धिलिङ्गाद् रूपाभावोऽनुमेयः’ इति मीमांसकमतोपपादनम् अभावप्रमाया इन्द्रियकरणत्वे प्रयोजकान्तराणि इन्द्रियाणामाश्रयग्रहणस्वरूपव्यापारेण व्यवधानेऽपि नाभावप्रमाकरणत्व- ४५१ ४६९ व्याघातः अभावविषयेऽपीन्द्रियसामर्थ्यस्य सत्त्वोपसंहारः नियमत इतरपदार्थनिरूप्यपदार्थविषयक विशिष्टबुद्धावेव विशेषणज्ञानस्य पूर्वापेक्षा भवति, अतो नियमतः प्रतियोगिनिरूप्याभावविषयकविशिष्टबुद्धौ नाभावस्वरूपविशेषणज्ञानस्यापेक्षेत्युपपादनम् स्तबकार्थसंग्रहात्मक ईश्वरनमस्कारः चतुर्थस्तबकः अनधिगतार्थाबाधितविषयकज्ञानं प्रमेति भट्टमतसिद्धप्रमालक्षणानुसारेण ईश्वरज्ञानस्याप्रमात्वापादनम् अव्याप्त्यतिव्याप्तिदोषाभ्यां प्रमाया उक्तलक्षणखण्डनम् न्यायमतानुसारिप्रमाज्ञानस्य लक्षणम्
४७६ ४७९ ४८३ ४९० ४९१-५७८ -४९१ ४९२ ४९२ [ छ ] विषयः पठम् स्मृतिः पूर्वानुभवसापेक्षेति न प्रमा ४९३ ज्ञाततायाः सत्त्वसूचनं तत्खण्डनसूचनञ्च ५०१ प्रमालक्षणेऽनधिगतार्थं विषयकत्वविशेषणे दत्ते दोषाः ५०४ ज्ञाततायाः खण्डनम् ५१५ ज्ञाततासाधकानुमाने दोषोद्भावनम् ५२० प्रत्यक्षप्रमाणेन ज्ञातता सिद्धयुपक्षेपः ५२५ तन्निरास: ५२६ ज्ञातताया अस्वीकारेऽपि विषये ज्ञानक्रियाकर्मत्वोपपत्तिः ५३० ज्ञानस्यातीन्द्रियत्वं तदनुमानप्रकारश्व ५३७ ज्ञानप्रत्यक्षे तदुपयुक्तसंन्निकर्षविचारः ५६६ ईश्वरज्ञानस्य नित्यत्वात् प्रमानुपपत्तिपक्षोपन्यासः ५६८ ईश्वरज्ञानसाधारणं प्रमाज्ञानस्य लक्षणं तदनुकूले प्रमातृत्वप्रामाण्य- . लक्षणे च ५६९ शिवप्रणामात्मकः स्तवकार्थ संग्रहश्लोकः पञ्चमस्तबक ईश्वरसत्त्वसाधकप्रमाणसत्त्वशङ्का तन्निरासश्च ५७९-८३४ ५७९ कार्यत्वादिनवानामीश्वरसाधकहेतूनां प्रदर्शनमुखेनेश्वरसाधकाष्टादशसंख्यकानु- मानानां सूचनम् ५८० कार्यत्वहेतुकप्रथमानुमानप्रयोगः ५८१ उक्तानुमाने बाधादिपञ्चविधानां हेत्वाभासानामाशङ्का तत्समाधान सूचना च ५८५ बाधदोषस्योपपादनम् ५८७ स्वरूपासिद्धयुद्भावनम् ५८८ प्रकारान्तरेण बाधोद्भावनम् ५८८ परव्याप्तिस्तम्भनमूलकबाधसत्प्रतिपक्षयोरुद्भावनम् उक्तेषु विपरीतानुमानेषु प्रथमद्वितीययोः सिद्धा तिना आश्रयासिद्धिबाध- ५८९ अपसिद्धान्त-प्रतिज्ञाविरोधानामुद्भावनम्
५८९ विषयः [ ज ] तृतीयविपरीतानुमानमूलकदोषोद्धारः पृष्ठम् ५९१ चतुर्थे विपरीतानुमाने बाधानैकान्तिकयोरुद्भावनम् ५९१ प्रकृतानुमाने विशेषविरोधोद्भावनं तत्परिहारश्च ५९६ उपाध्युद्भावनं तत्परिहारश्च ५९१ ईश्वरे जगतः साक्षात्कर्तृ त्वमुत परम्परया ? इति विकल्पमुद्भाव्य कर्तृत्वानु- पपत्तिपक्षोपक्षेपक्रमः, तत्परिहारश्व ६०५ घटादेः कुलालादिकर्तुंरु त्पन्नत्वात् कुतः पुनरीश्वरस्वरूपकर्त्रन्तरजन्यत्वम् ६०५ परमाणूनां साक्षाच्चेतनाधिष्ठेयत्वाभावोपसंहारः ६०५ परमाणूनामीश्वरशरीरत्वोपपादनं शरीरलक्षणञ्च विकल्पपूर्वकम् कार्यं त्रिविधम् – एककर्तृकम्, द्विकर्तृकं बहुकर्तृ कञ्च कार्यत्वहेतुकेश्वरानुमाने आपन्नविरोधितर्काणां निरसनम् अनुमानात् सिद्धस्येश्वरगतसर्वज्ञत्वादेरागमात् संवादः आयोजनहेतुकेश्वरानुमानप्रकमः (द्वितीयानुमानम् ) चेष्टाया लक्षणम् धृतिहेतुकेश्वरानुमानम् (तृतीयानुमानम्) संहारहेतुकेश्वरानुमानम् (चतुर्थानुमानम् ) ६१३ ६२६ ६३६ ६४४ ६४६ ६५१ ६६१ पदहेतुकेश्वरानुमानम् (पञ्चमानुमानम्) ईश्वरोप शरीरं धारयति प्रत्ययहेतुकेश्वरानुमानम् (षष्ठानुमानम् ) श्रुतिहेतुकेश्वरानुमानम् (सप्तमानुमानम् ) वाक्यत्वहेतुकेश्वरानुमानम् (अष्टानुमानम् ) संख्याहेतुकेश्रानुमानम् (नवमानुमानम् ) कार्यत्वहेतुकानुमानान्तरम् ( दशमानुमानम् ) पदार्थवाक्यार्थयोर्लक्षणम् नात्पर्यार्थलक्षणप्रकमः तात्पर्यशब्दस्य यौगिकार्थकत्वम् तात्पर्यस्य न्यायमतानुसारिलक्षणम्
६६६. ६६९ ६७० ६७१ ६७३ ६९४ ६९४ ६९४ ६९५ ७०१ न्यायकुसुमाञ्जलावुद्धृतानामन्यग्रन्थस्थवचनानामकारादिक्रमेण सूचीपत्रम् अजामेकाम् ( श्वेताश्वतर० ) ७३ अज्ञो जन्तुरनीशोऽयम् ( महाभारतवनपर्व, अ० ३, श्लोक २८ ) ६६० अनन्तरञ्च वक्त्रेभ्यः ( मत्स्यपुराणम्, अ० ३ ) ६७४ अन्धं तमः प्रविशन्ति ( ईशावास्योपनिषद् ) ७४३ अन्ये परप्रयुक्तानाम् ( श्लोकवात्तिकम् ) ३१५ अहं सर्वस्य प्रभवः ( गीता ) ६४६ आगमेनानुमानेन ( योगसू० व्यासभाष्योधृतवचन १।४८ ) १२ आप्तप्रामाण्यात् ( न्या० सू०, २-२-६७ ) ५७१ आर्षं धर्मोपदेशच ( मनु०, अ० १२ श्लोक १०६ ) ६६४ उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः ( गीता ) ६६४-७०५ उत्सीदेयुरिमे लोकाः ( गीता ) ६६९ उभयोरन्तरं ज्ञात्वा १९३ एष सर्वाणि भूतानि ( मनु०, अ० १२, श्लो० २२४ ) ६६५ कार्यकारणभावाद्वा ( प्रमाणवार्तिकम् ) २३ गच्छ गच्छसि चेत् कान्त ! ६९८ जनानुरागप्रभवा हि संपदः ( किरातार्जुनीयम् ) ३० तरति ब्रह्महत्यां योऽश्वमेधेन यजेत ७४३ ताँस्तु देवाः प्रपश्यन्ति ( मनुस्मृतिः ) ६१ न द्रष्टुदृष्टेविपरिलोपो विद्यते ७४३ नमः कुलालेभ्यः ( शुक्लयजुर्वेदसंहिता ) ६७० न ह्येषं स्थाणोरपराध: ( निरुक्तम् ) ५७८ प्रकृतेः क्रियमाणानि ( गीता ) ४१४ पिताहमस्य जगतः ( ) ६६९ प्राथम्यादभिधातृत्वात् ( प्रकरणपञ्जिका, परिच्छेद० २, श्लो० ११ ४१० परित्राणाय साधूनाम् ( गीता ) पश्यत्यचक्षुः स शृणोत्यकर्ण: ( श्वेताश्वतर० ). ,७४३ भावकर्म्मणोः ( पाणिनीयसूत्रम् ) ७४२ भोक्तारं यज्ञतपसाम् ( गीता ) ७४२
[ ८३६ ] मुख्यं वा पूर्वचोदनाल्लोकवत् ( मीमांसासूत्रम् अ० १२, पा० २, सू० २३) ७४२ मन्मना भव मद्भक्तो ( गीता ) यज्ञा वै देवाः यज्ञार्थात् कर्म्मणोऽन्यत्र यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवा: यदा स देवो जागति ( मनु०, अ० १२, श्लो० ५२ ) ६४६ यदि ह्यहं न वर्त्तेयम् ( गीता ) विश्वतश्चक्षुरुत विश्वतोमुखः ( शुक्लयजुर्वेदसंहिता, अ० १७-१९ ) ६४७ वह्ने दह्यम् विनाश्यानुविनाशवन्ताद्विमांश : ( न्या० सू०, ४-१-२८ ) शेषात् कर्तरि परस्मैपदम् ( पाणिनीयसूत्रम् ) ७४३ श्रोतव्यो मन्तव्यः ( वृहदारण्यकोपनिषद् १।४।५ . १२ सद्भ्यामभावो निरूप्यंते सर्वज्ञतातृप्तिरनादिबोध ७०६ सर्वधर्मान् परित्यज्य ( गीता ) सर्वभूतानि कौन्तेय स्वव्यापारे च कर्त्तृत्वम् ६६५ ७३१
२३) ७४२ न्याय कुसुमाञ्जलिकारिकाणामकाराद्यनुक्रमणी स्त० का० पृ० ६४६ अ अतिप्रसङ्गाङ्ग फलम् ५ १२ ७६४ ६४७ अनियम्यस्य नायुक्तिः अनैकान्तः परिच्छेदे ७४३ अनैकान्त्यात् १२ अर्थेनैव विशेषः ४ अवच्छेदग्रहौव्यात् mr momr ३ १९ ४२१ ३ १३ ३६२ ३ ५२० ४ ५२६ ३ २२ ४८२ ७०६ अव्याप्तेरधिक ४ १ ४९२ अमत्त्वादप्रवृत्तेश्च ५ १३ ७८७ ६६५ अस्माकन्तु निसर्ग ५ १९ ८३३ ७३१ आ आगमादेः प्रमाणत्वे ३ लभ्ये M5 २९० ११ ७४४ इ इत्येवं श्रुतिनीति ५ १८ ८३३ इत्येष नीतिकुसुमा ५ २० ८३४ इत्येषा सहकारिशक्ति १ २० १०१ ईष्टसिद्धिः ३ ४ २८७ इष्टहानेर निष्टास े: ५ ८ ७१६ उ उद्देश्य एव तात्पर्यम् एकस्य न क्रमः क्वापि क कर्त्तृ धर्मा नियन्तार: कारङ्कारमलौकिकाद्भुत कार्यत्वान्निरुपाधित्वम् 57 ६ १ ७ w 9 ६९२ २६ १ १४ ६९ २ ४ २४७ ५ ५ ६६६
८३८ कार्यायोजनधृत्यादेः गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जलौ कृताकृतविभागेन कृत्स्न एव हि वेदोऽयम् च स्त० का० पृ० .५ ५ ५ ک کو १ ५७९ ९ ७२६ १६ ८१३ १ ९ चिरध्वस्तम् ३३ ज जन्मसंस्कारविधादे: २ ३ २१७ जयेतरनिमित्तस्य १ १३ ६० त तर्काभासतया द दृष्टोपलम्भसामग्री दृष्ट्यदृष्ट्योः न m ३ ३ ६३६ את W २८५ २९२ न चासो क्वचिदेकान्त: न प्रमाणमनांप्तोक्तिः mm १७ ३ १६ न बाधोऽस्योपजीव्यत्वात् ५ १२ न वैजात्यम् १ नान्यदृष्टम् १ १५ निमित्तभेद १ निर्णीतशक्तेः ३ १४ न्यायचर्चेयम् १ 2 w ≈ w I ≈ L m ४१५ ४१४ ५८५ १६ ७७ ७५ १२ ५७ ३८६ ३ १२ प परस्परविरोधे हि ३ ८ ३२४ पूर्वभावो हि हेतुत्वम् १ १९ ९५ प्रतिपत्तेः ३ २० ४३९ प्रतियोगिनि ३ प्रत्यक्षादिभि ३ प्रमायाः परतन्त्रत्वात् لله الله له २१ ४६९ २३ ४८९ २ १ १०३
कारिकाणामकाराद्यनुक्रमणी ८३९ पृ० १७९ स्त० का० ७२६ प्रवाहोऽनादिमानेष प्रवृत्तिः कृतिरेवात्र पृ० १ ५ ८१३ ६ ७ 6 9 २० ७१२ भ ३३ भावनैव हि यत्रात्मा ५ १० भावो यथा ७३३ १ १० ३५ २१७ ६० म मितिः सम्यक् परिच्छित्तिः ४ ५ ५६९ य ६३६ योग्यादृष्टिः ३ १ २५१ व २८५ वर्षादिवद्भवोपाधिः २ २ २९२ विधिर्वक्तुरभिप्रायः ५. १५ २०३ विफला विश्ववृत्तिः १ ८ २९ व्यस्तपुंदूषणाशङ्कः ३ १५ ३९४ ४१५ व्यावर्त्त्याभाववत्तैव ३ २ २८३ ४१४ ५८५ ७७ ७५ ५७ ३८६ १२ ३२४ ९५ ४३९ ४६९ ४८९ १०३ श शङ्का चेदनुमास्त्येव श्रुतान्वयादनाकांक्षं स संस्कारः पुंसः सत्पक्षप्रसरः सम्बन्धस्य परिच्छेदः साक्षात्कारिणि नित्ययोगिनि सादृश्यस्यानिमित्तत्वात् साधर्म्यमिव साक्षेपत्वादनादित्वात् स्थैर्यदृष्टयोः स्वर्गापवर्गयो ३ 9 ७ ३०७ ३ १२ ३४४ १ ११ ५० १ १ १ ३ १० ३३३ ४ ६ ५७८ ३ ३ لله الله ११ ३४० ९ ३२९ ४ १४ १ १७ ८८ १ १ १० CCO. Vasishtha Tripathi Collection. Digitized by eGangotri८४० स्वातन्त्र्ये जडताहानिः स्यामभूवे भविष्यामि गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली स्त० का० पृ० ५ ४ ६४६ ५ १७ ह हेतुत्वादनुमानाच्च हेतुभूति: हेतुशक्तिमनादृत्य हेत्वभावे फलाभावात् १४ १ ५ १५ १ १८ ९१ ३ १८ ४१८ इति गद्यपद्यात्मकन्याय कुसुमाञ्जलौ कारिकाणामकाराद्यनुक्रमणी
[झ ] विषयः पृष्ठम आयोजनहेतुकानुमानान्तरम् ( एकादश ) ७०२ पदहेतुकानुमानान्तरम् ( द्वादश ) ७०५ महेश्वरस्य षडङ्गानि ७०६ प्रत्ययहेतुकानुमानान्तरम् ( त्रयोदश ) ७१२ विधिप्रत्ययार्थं विमर्शः ७१२ विधिप्रस्तावे ‘प्रवृत्ति’ शब्दस्य कृतिपरत्वम् ७१२ इष्टसाधनत्वकृतिसाध्यत्वयोरेव विधिप्रत्ययार्थत्वम्, किं वा तज्ज्ञापक आप्ताभि- प्राय एव विध्यर्थं इति न्यायमतानुसारिणी प्रतिज्ञा इष्टहानेरनिष्टाप्तेश्च स्पन्दस्वरूपकर्तृ धर्मस्य विध्यर्थं तवनिरासः ७१२ ६१६ ७१६ आख्यातस्य यत्नार्थत्वोपसंहारः कृतेर्विधिप्रत्ययव्यभिचारित्वात् कृतिस्वरूपकर्तृ धर्मस्य विध्यर्थत्वनिरासः. विरोधादसत्त्वात् प्रत्ययत्यागात् संकराश्च चिकीर्षास्वरूपस्य कर्तृ धर्मस्य न विध्यर्थत्वम् कृव् धातुः कृतिपर्यायस्य यत्नसामान्यस्य वाचकः, आख्यातश्च भावनापर- पर्यायस्य यत्न विशेषस्य वाचक इति तयोरेकार्थं कत्वम् फलानुगुणत्वस्याख्यातार्थत्वखण्डनम् ७२६ ७२६ ७३२ ७३३ आक्षेपान्नाख्यातेन यत्नस्य बोघसंभवः ७३४ आख्यातानां कर्त्तर्येव शक्तिरिति वैयाकरणमतोपस्थापनम् ७३८ आख्यातार्थ संख्याया अन्वयविचारः ७३९ आख्यातस्य कर्त्तर्य्येव शक्तिरिति वैयाकरणमतखण्डनोपक्रमः ७४४ शिष्टसम्मतत्वमेव प्रयोगाणां साधुत्वनियामकम्, महर्षिपाणिनेरनुशासनमपि शिष्टसम्मतिमूलकमेव ७५२ कर्तृ गतधर्मस्य विध्यर्थत्वनिरासोपसंहारः ७६३ व्युत्पत्तिभेदेन कर्मपदबोध्यस्वर्गापूर्वयागादौ विद्यमानस्य कार्यत्वस्वरूपधर्मस्य विध्यर्थत्वनिरासोपक्रमः ७८७ इष्टसाधनता न लिङाभिधीयते, किन्त्वाप्साभिप्रायविषयत्वेनानुमीयते ७९४ वेदाध्यापकानामभिप्रायस्य वैदिकविधिप्रत्ययार्थत्वं न संभवति ८१३ द
विषय: [ ञ ] पृष्ठम् श्रुतिहेतुकेश्वरानुमानान्तरनिर्देश: ( चतुर्दशानुमानम् ) वाक्यलिङ्गकेश्वरसाधकानुमानान्तरनिर्देश: ( पञ्चदशानुमानम् ) संख्याविशेषलिङ्गकेश्वरसाधकानुमानान्तरनिर्देश: ( षोडशानुमानम् ) समाख्यापरपर्यायसंख्यालिङ्गकेश्वरानुमानान्तरनिर्देश: ( सप्तदशानुमानम् ) स भगवान् श्रुतोऽनुमितश्च कैश्चित् साधकप्रवरैः साक्षादपि दृश्यते स्वप्नस्यानुभवस्वरूपत्वम् 17 ८१८ ८१८ ८२० ८२० ८२७ स्वप्नस्य कदाचित् सत्यत्वम् ८२८ यागिनामतीन्द्रिय विषयकं योगजं ज्ञानं प्रत्यक्षात्मकं प्रमाणश्च ८२९ ईश्वरसिद्ध्युपसंहारः ८३० ईश्वरानङ्गीकतृणां कृते प्रार्थना ८३३ स्वकृते ईश्वरविषयिण्यैकानेकतायै प्रार्थना ८३३ ईश्वराय ग्रन्थसमर्पणम् ८३४ कारिकाणामकाराद्यनुक्रमणी ३३५-३३८ अस्मिन् ग्रन्थे उद्धृतानां वचनानामकारादिक्रमेण सूचीपत्रम् १-१० अध्वरमीमांसाकुतूहलवृत्तेविषयवाक्यानामुद्धृतवाक्यानाश्वाजादीनाम् आकारसूची न्यायकुसुमाञ्जलावुद्धृतानामन्यग्रन्थस्थवचनानामकारादिक्रमेण सूचीपत्रम्
११-२७ २९-३० न्याय कुसुमाञ्जलिकारिकाः सत्पक्षप्रसरः प्रथमस्तबकः सतां परिमलप्रोद्बोधबद्धोत्सवो विम्लानो न विमर्द्दनेऽमृतरसप्रस्यन्दमाध्वीकभूः । ईशस्यैष निवेशित: पदयुगे भृङ्गायमाणं भ्रम- च्चेतो मे रमयवविघ्नमनघो न्यायप्रसूनाञ्जलिः ॥ १ ॥ स्वर्गापवर्गयोगंमामनन्ति मनीषिणः । यदुपां स्तिमसावत्र परमात्मा निरूप्यते ।। २ ।। न्यायचर्चेयमीशस्य उपासनैव क्रियते प्रत्यात्मनियमाद् भुक्तेरस्ति सापेक्षत्वादनादित्वाद् वैचित्र्याद् विश्ववृत्तितः । मननव्यपदेशभाक् । श्रवणानन्तरागता ॥ ३ ॥ हेतुरलौकिकः ॥। ४ ॥ नैवमवधेर्नियतत्वतः ॥ ५ ॥ हेतुभूतिनिषेधो न स्वानुपाख्यविधिर्न च । स्वभाववर्णना प्रवाहोऽनादिमानेष न विजात्येकशक्तिमान् । तत्त्वे यत्नवता भाव्यमन्वयव्यतिरेकयोः ॥ ६ ॥ एकस्य न क्रमः क्वापि वैचित्र्यञ्च समस्य न । शक्तिभेदो न चाभिन्नः स्वभावो दुरतिक्रमः ॥ ७ ॥ विफला विश्ववृत्तिर्नो न दुःखेकफलापि वा । दृष्टलाभफला नापि विप्रलम्भोऽपि नेदृशः । ८ ।। चिरध्वस्तं फलायालं न कर्मातिशयं विना । सम्भोगो निर्विशेषाणां न भूतैः संस्कृतैरपि ॥ ९ ॥ कार्यंवन्मतः । भावो यथा तथाभावः कारणं प्रतिबन्धो विसामग्री तद्धेतुः प्रतिबन्धकः ॥ १० ॥ संस्कारः पुंस एवेष्टः प्रोक्षणाभ्युक्षणादिभिः । स्वगुणाः परमाणूनां विशेषाः पाकजादयः ॥ ११ ॥
[ आ ] निमित्तभेदसंसर्गादुद्भवानुद्भवादयः 1 । देवताः संनिधानेन प्रत्यभिज्ञानतोऽपि वा ॥ १२ ॥ जयतेरनिमितस्य वृत्ति लाभाय केवलम् । परीक्ष्य समवेतस्य परीक्षाविधयो मताः ॥ १३ ॥ कर्तृधर्मा नियन्तारश्चेतिता च स एव नः । अन्यथाऽनपवर्गः स्यादसंसारोऽथवा ध्रुवः ।। १४ ।। नान्यदृष्टं स्मरन्त्यन्यो नैकं भूतमपक्रमात् । वासनासङ्क्रमो नास्ति न च गत्यन्तरं स्थिरे ॥ १५ ॥ न वैजात्थं विना तत् स्याद् न तस्मिन्ननुमा भवेत् । विना तेन न तत्सिद्धिर्नाध्यक्षं निश्चयं विना ॥ १६ ॥ स्थैर्यदृष्टयोर्न सन्देहो न प्रामाण्ये विरोधत: । एकतानिश्चयो येन क्षणे तेन स्थिरे मतः ॥ १७ ॥ हेतुशक्तिमनादृत्य नीलाद्यपि न वस्तु सत् । तद्युक्तं तत्र तच्छक्तमिति साधारणं न किम् ॥ १८ ॥ पूर्वभावो हि हेतुत्वं मीयते येन केनचित् । व्यापकस्यापि नित्यंस्य धर्मिधीरन्यथा न हि ॥ १९ ॥ इत्येषा सहकारिशक्तिरसमा माया दुरुनीतितो मूलत्वात् प्रकृतिः प्रबोधमयतोऽविद्येति यस्योंदिता । देवोऽसौ विरतप्रपञ्चरचनाकल्लोलकोलाहलः साक्षात्साक्षितया मनस्यभिरति बध्नातु शान्तो मम ॥ २० ॥ द्वितीयस्तबक: प्रमाया: परतन्त्रत्वात् सर्गप्रलयसंभवात् । तदन्यस्मिन्ननाश्वासान्न विधान्तरसंभवः ॥ १ ॥ वर्षादिवद्भवोपाधिर्वृत्तिरोधः सुषुप्तिवत् । उद्भिद्वृश्चिकवद्वर्णा मायावतसमयादयः ॥ २ ॥ जन्मसंस्कारविद्यादेः शक्तेः स्वाध्यायकर्म्मणोः । ह्रासदर्शनतो ह्रासः संप्रदायस्य मीयताम् ॥ ३ ॥ कारङ्कारमलौकिकाद्भुतमयं मायावशात् संहरन् हारं हारमपीन्द्रजालमिव यः कुर्वन् जगत् क्रीडति । तं देवं निरवग्रहस्फुरदभिध्यानानुभावं भवं विश्वासैकभुवं शिवं प्रति नमन् भूयासमन्तेष्वपि ॥ ४ ॥
[इ] तृतीयस्तबकः योग्या दृष्टिः कुतोऽयोग्ये प्रतिबन्दिः कुरुतस्तराम् । क्वायोग्यं बाध्यते शृङ्ग क्वानुमानमनाश्रयम् ॥ १ ॥ व्यापत्त्याभाववत्तैव भाविकी हि विशेष्यता । अभावविरहात्मत्वं दुष्टोपलम्भसामग्री वस्तुन: प्रतियोगिता ॥ २ ॥ शशशृङ्गादियोग्यता । न तस्यां नोपलम्भोऽस्ति नास्ति सानुपलम्भने ।। ३ ।। इष्टसिद्धि: प्रसिद्धेऽशे हेत्व सिद्धिरगोचरे । नान्या सामान्यतः सिद्धिर्जातावपि तथैव सा ॥ ४ ॥ आगमादेः प्रमाणत्वे बाधनादनिषेधनम् । आभासत्वे तु सैव स्यादाश्रयासिद्धिरुद्धता ॥ ५ ॥ दृष्टयदृष्टयोः क्व सन्देहो भावाभावविनिश्चयात् । अदृष्टिबाधिते हेतौ प्रत्यक्षमपि दुर्लभम् ॥ ६ ॥ शङ्का चेदनुमास्त्येव न चेच्छङ्का ततस्तराम् । व्याघातावधिराशङ्का तर्कः शङ्कावधिर्मतः ॥ ७ ॥ परस्परविरोधे हि न प्रकारान्तरस्थितिः । नैकतापि विरुद्धानामुक्तिमात्रविरोधतः ॥ ८ ॥ साधर्म्यमिव वैधर्म्यं मानमेवं प्रसज्यते । अर्थापत्तिरसौ व्यक्तिमिति चेत् प्रकृते न किम् ॥ ९ ॥ सम्बन्धस्य परिच्छेदः संज्ञायाः संज्ञिना सह । प्रत्यक्षादेरसाध्यत्वादुपमानफलं विदुः ॥१०॥ सादृश्यस्यानिमित्तत्वाद् निमित्तस्याप्रतीतितः । समयो दुर्ग्रहः पूर्व शब्देनानुमयापि वा ॥११॥ श्रुतान्वयादनाकांक्षं न वाक्यं ह्यन्यदिच्छति । पदार्थान्वयवैधुर्य्यात् तदाक्षिप्तेन संगतिः ॥१२॥ अनैकान्तः परिच्छेदे संभवे च न निश्चयः । आकांक्षा सत्तया हेतुर्योग्यासत्तिरनिबन्धना ॥१३॥ निर्णीतशक्तेर्वाक्याद्धि प्रागेवार्थस्य निर्णये । व्याप्तिस्मृतिविलम्बेन लिङ्गस्यैवानुवादिता ||१४|| व्यस्तपुंदूषणाशङ्कः स्मारितत्वात् पदैरमी । अन्विता इति निर्णीते वेदस्यापि न तत्कुतः ॥१५॥
न [ ई ] प्रमाणमनाप्तोक्तिर्नादृष्टे क्वचिदाप्तता । अदृश्यदृष्टी सर्वज्ञो न च नित्यागमः क्षमः ॥ १६॥ न चासौ क्वचिदेकान्तः सत्त्वस्यापि प्रवेदनात् । निरञ्जनावबोधार्थो न च सन्नपि तत्परः ॥१७॥ हेत्वभावे फलाभावात् प्रमाणेऽसति न प्रमा । तदभावात् प्रवृत्तिर्नो कर्मवादेऽप्ययं विधिः || १८ || अनियम्यस्य नायुक्तिर्नानियन्तोपपादकः । न मानयोर्विरोधोऽस्ति प्रसिद्धेवाप्यसौ समः ॥१९॥ प्रतिपत्तेरपारोक्ष्यादिन्द्रियस्यानुपक्षयात् 1 अज्ञातकरणत्वाच्च भावावेशाच्च चेतसः ॥२०॥ प्रतियोगिनि सामर्थ्याद् व्यापाराण्यवधानतः । अक्षाश्रयत्वाद् दोषाणामिन्द्रियाणि विकल्पनात् ॥२१॥ अवच्छेदग्रहो धौव्यादध्रौव्ये सिद्धसाधनात् । . प्राप्त्यन्तरेऽनवस्थानान्न चेदन्योऽपि दुर्घटः ||२२|| प्रत्यक्षादिभिरेभिरेवमधरोदूरे विरोधोदयः प्रायो यन्मुखवीक्षणैकविधुरैरात्मापि नासाद्यते । सर्वानुविधेयमेकमसमस्वच्छन्दलीलोत्सवं तं 2. देवानामपि देवमुद्भवदतिश्रद्धा: प्रपद्यामहे ।। २३ ।। चतुर्थस्तबकः अव्याप्त रधिकव्याप्त रलक्षणमपूर्वदृक् यथार्थानुभवो मानमनपेक्षतयेष्यते स्वभावनियमाभावादुपकारोऽपि दुर्घटः सुघटत्वेऽपि सत्यर्थेऽसति । 119 11 1 का गतिरन्यथा ॥ २ ॥ अनैकान्तादिसिद्धेर्वा न च लिङ्गमिह क्रिया । तद्वैशिष्ट्यप्रकाशत्वान्नाध्यक्षानुभवोऽधिके 113 11 अर्थेनैव विशेषो हि निराकारतया धियाम् । क्रिययैव विशेषो हि व्यवहारेषु कर्मणाम् ॥ ४ ॥ मितिः सम्यक् परिच्छित्तिस्तद्वत्ता च प्रमातृता । तदयोगव्यवच्छेदः प्रामाण्यं गौतमे मते ॥ ५ ॥
[ उ ] साक्षात्कारिणि नित्ययोगिनि परद्वारानपेक्षस्थितौ भूतार्थानुभवे निविष्टनिखिलप्रस्तावि वस्तुक्रमः । लेशादृष्टिनिमित्तदुष्टिविगमप्रभ्रष्टशङ्कातुषः शङ्कोन्मेखकलङ्किभिः किमपरैस्तन्मे प्रमाणं शिवः ॥ ६ ॥ पञ्चमस्तबकः कार्यायोजनधृत्यादेः पदात् प्रत्ययतः श्रुतेः । वाक्यात् संख्याविशेषाच्च साध्यो विश्वविदव्ययः ॥ १ ॥ न बाधोस्योपजीव्यत्वात् प्रतिबन्धो न दुर्वलैः । सिध्यसिध्योर्विरोधो न नासिद्धिरनिवन्धना ॥ २ ॥ तर्काभासतयाऽन्येषां अनुकूलस्तु तर्कोऽत्र तर्काशुद्धिरदूषणम् । कार्यलोपो विभूषणम् ॥ ३ ॥ स्वातन्त्र्ये जड़ताहानिर्नादृष्टं दृष्टघातकंम् हेत्वभावे फलाभावो विशेषस्तु विशेषवान् ॥ ४ ॥ कार्यत्वान्निरुपाधित्वमेवं धृतिविनाशयोः । विच्छेदेन पदस्यापि प्रत्ययादेश्व पूर्ववत् ॥ ५ ॥ उद्देश एव तात्पर्यं व्याख्या शिवदृशः सती । ईश्वरादिपदं सार्थं लोकवृत्तानुसारतः ॥ ६ ॥ प्रवृत्तिः कृतिरेवात्र सा चेच्छातो यतश्च सा । तज्ज्ञानं विषयस्तस्य विधिस्तज्ज्ञापकोऽथवा ।। ७ ।। इष्टहानेरनिष्टाप्त’ रप्रवृत्तेविरोधत: असत्त्वात् प्रत्ययत्यागात् कर्तृधर्मो न सङ्करात् ॥ ८ ॥ कृताकृतविभागेन कर्त्तृ रुपव्यवस्थया । यत्न एव कृतिः पूर्वा परस्मिन् सैव भावना ।। ९ ।। भावनैव हि यत्नात्मा तया आक्षेपलभ्ये सर्वत्राख्यातगोचरः । विवरण धौव्यादाक्षेपानुपपत्तितः ॥ १० ॥ संख्येये नाभिधानस्य कल्पना । संख्येयमात्रलाभेऽपि साकांक्षेण व्यवस्थितिः ॥ ११ ॥ अतिप्रसङ्गान्न फलं नापूर्वं तत्त्वहानित: । तदलाभान्न कार्यञ्च न क्रियाप्यप्रवृत्तितः ॥ १२ ॥
[ ऊ ] असत्त्वादप्रवृत्तेश्च नाभिधापि गरीयसी । बाधकस्य समानत्वात् परिशेषोऽपि दुर्लभः ॥ १३ ॥ हेतुत्वादनुमानाच्च अन्यत्र विधिवक्तुरभिप्रायः मध्यमादौ वियोगतः । क्लृप्तसामर्थ्यान्निषेधानुपपत्तितः ॥ १४ प्रवृत्त्यादौ लिङादिभिः । अभिधेयोऽनुमेया तु कर्त्तुं रिष्टाभ्युपायता ॥ १५ ॥ कृत्स्न एव हि वेदोऽयं परमेश्वरगोचरः । स्वार्थद्वारैव तात्पर्यं तस्य स्वर्गादिवद्विधौ ॥ १६ ॥ स्यामभूवं भविष्यामीत्यादिसंख्या च प्रवक्तृगा । समाख्यापि न शाखानां नाद्यप्रवचनादृते ॥ १७ ॥ इत्येवं श्रुतिनीति संमलवजलैर्भू योऽभिराक्षालिते येषां नास्पदमादधासि हृदये ते शैलसाराशयाः । किन्तु प्रस्तुतविप्रतीपविधयोऽप्युच्चैर्भवच्चिन्तकाः काले कारुणिक त्वयैव कृपया ते तारणीया नराः ।। १८ ।। अस्माकन्तु निसर्गसुन्दरचिराच्चेतो निमग्नं त्वयी- त्यद्धानन्दनिधे तथापि तरलं नाद्यापि संतृप्यते । तन्नाथ त्वरितं विधेहि करुणां येन त्वदेकाग्रतां याते चेतसि नाप्नुवाम शतशो याम्याः पुनर्यातनाः ॥ १९ ॥ इत्येष नीतिकुसुमाञ्जलिरुज्वलश्री- र्यद्वासयेदपि नो वा ततः प्रीतोऽस्त्वनेन च दक्षिणवामकौ किममरेश गुरोर्गुरुस्तु पदपीठसमर्पितेन ॥ २० ॥ ॥ इति कुसुमाञ्जलिकारिकाः ॥
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॥ श्रीगणेशाय नमः ॥ न्यायकुसुमाञ्जलिः ( गद्यपद्यात्मकः ) प्रथमः स्तबकः
सत्पक्षप्रसरस्सतां परिमल प्रोद्बोधबद्धोत्सवो विम्लानो न विमर्दनेऽमृतरस प्रस्यन्दमाध्वीकभूः । ईशस्यैष निवेशित: पदयुगे भृङ्गायमाणं भ्रम- चचेतो मे रमयत्व विघ्नमनघो न्यायप्रसूनाञ्जलिः ॥ १॥ ‘न्यायपक्षीय अनुवाद पक्षगत दोषों से रहित, परामर्श में निपुण पुरुष के उपयुक्त व्याप्तिज्ञान के कारण एव विरोधी अनुमान के रहते हुये भी अपने ( ईश्वर-साधन रूप ) कार्य में क्षम, अभीष्ट प्राप्त्यर्ह मोक्ष रूप मधु के उत्पादक अञ्जलि के ये न्यायरूपी पुष्प ईश्वर के साधन में नियुक्त होकर मेरी आत्मा को दुःखों के सभी कारणों से दूर रखें, जो दुःखों से सर्वथा मुक्त होने के लिए भ्रमरों के समान भटक रही है ॥ १ ॥ पुष्पपक्षीय अनुवाद अच्छी तरह फूले हुये एवं सूघने को शक्ति से युक्त पुरुषों को सुगन्ध की अनुभूति कराने- वाले, हाथों की रगड़ खाने पर भी म्लान न होनेवाले, अमृत के समान रस रूप मधु के आश्रय, अंजलि के ये पुष्प परमेश्वर के श्रीचरणों में समर्पित होकर भ्रमरों के समान दुःखों से छूटने के लिये इधर-उधर भटकनेवाली मेरी आत्मा को दुःख के कारणों से दूर रखें ॥ १ ॥ १. प्रस्तुत पद्य के ‘सत्पक्षप्रसरः’ इत्यादि विशेषणों से न्यायगत कितने दोषों का परिहार किस रीति से ग्रन्थकार को अभिप्रेत है, उन सबों का विवरण नीचे दिया जाता है । दूसरों को अनुमान के द्वारा किसी विषय को समझाने के लिये परार्थानुमान का ही सहारा लेना पड़ता है । उस दूसरे (बोद्धा) पुरुष की अभीष्ट अनुमिति के उत्पादन में समर्थ परामर्श रूप ज्ञान जिस शब्दराशि के द्वारा हो सके, वह शब्दराशि ही नैयायिकों के यहाँ ‘न्याय’ शब्द से व्यवहृत होती है । ‘नीयते प्राप्यते विवक्षितार्थसिद्धिरनेनेति म्वाय:’ इस व्युत्पत्ति के द्वारा भी ‘न्याय’ शब्द से उसी अर्थ का समर्थन होता है । उपयुक्त बल से युक्त हेतु का ज्ञान ही अनुमिति का उत्पादक है । व्याप्ति और पचधर्मता ये दोनों ही हेतु के प्रधान बल हैं, जिसके लिये (१) पक्षसस्व, (२) सपक्षसरव, (३) विपक्षासव, (४) अबाधितत्व और (५) असत्प्रतिपक्षितत्व इन पाँच धर्मो CCO. Vasishtha Tripathi Collection. Digitized by eGangotriう गद्यपद्यात्मक-न्यांयकुसुमाञ्जली का हेतु में रहना आवश्यक है | चूँकि हेतु के प्रधानबल के ये पाँचों साधक हैं, अर्थात् इनके रहते ही हेतु में साध्य के साधन की क्षमता रहती है, इनके न रहने से नहीं, अतः इन पाँचों को भी हेतु का बल कहा जाता है । जिन वाक्यों के द्वारा इन पाँचों बलों से युक्त हेतु का प्रतिपादन हो, उन पाँच वाक्यों का समूह ही प्रकृत में ‘न्याय’ शब्द का अर्थ है । उन पाँचों में से पहिले का नाम है (१) प्रतिज्ञा, दूसरे का नाम है ( २ ) हेतु, तीसरे का नाम है ( ३ ) उदाहरण, चौये का नाम है ( 8 ) उपनय और पाँचवें का नाम है ( ५ ) निगमन । साध्यज्ञान के प्रयोजक हेतु के उक्त पाँचों बलों के बोधक पाँच श्रवयव वाक्य ही श्रह्लादकत्व रूप साम्य के कारण प्रकृत में ‘कुसुमाञ्जलि’ शब्द से कहे गये हैं । विन्यस्त पुष्पाञ्जलि में अनेक रङ्ग के फूल रहते हैं । न्याय रूप इस कुसुमाञ्जलि में भी प्रतिज्ञावाक्य, हेतुवाक्य प्रभृति विविधि प्रकार के कुसुम हैं । काव्य के जो शब्दगत और अर्थंगत दो प्रकार के दोष हैं, उनमें से प्रथम प्रकार के दोषों का निराकरण इस श्लोक के पूर्वाद्ध से किया गया है और दूसरे प्रकार के दोषों का निराकरण ‘अनघः’ पद से किया गया है । ईशस्य पदयुगे निवेशितः ज्ञापक ‘पद्यते ज्ञायते अनेनेति पदम्’ इस व्युत्पत्ति के अनुसार प्रकृत पद’ शब्द का अर्थ है ज्ञापक | ‘तद्युगम् पदयुगम्’ इस दुप्तत्ति के अनुसार ईश्वर के प्रमाण और उनके सहायक तर्क ये दोनों ही प्रकृत में ‘पदयुग’ शब्द से श्रभिप्रेत हैं । ‘तत्र निवेशितः’ अर्थात् ‘तद्विषयतया उत्पादितः’ अर्थात् तर्क के साहाय्य से ईश्वर साधक अनुमान के द्वारा जिन विषयों की सिद्धि अभिप्रेत है, उन्हीं विषयों को समझाने के लिये इस ग्रन्थ में न्यायवाक्यों का प्रयोग भी किया गया है । सत्पक्षप्रसरः ‘सति अर्थात् पचतावच्छेदकाश्रयीभूते एवं सिषाधयिषिते च धर्मिणि ‘प्र’ प्रकर्षेण ‘सर’ ज्ञानं यस्मात् स सत्पक्षप्रसरः’ इस व्युत्पत्ति के अनुसार पहतावच्छेदक एवं पक्षता इन दोनों के श्राश्रय रूप प्रामाणिक पक्ष में साध्य का प्रमाज्ञान जिन वाक्यों के द्वारा हो सके, वही न्यायवाक्य ‘सत्पक्षप्रसर’ है । इस विशेषण के द्वारा इस ग्रन्थ में प्रयुक्त अनुमानों के हेतुओं में श्राश्रयासिद्धि, बाघ, सिद्धसाधन, स्वरूपासिद्धि एवं भागासिद्धि इन पाँच दोषों का न रहना दिखलाया गया है । सदनुमान के लिये यह आवश्यक है कि पक्ष में पक्षतावच्छेदक धर्म की सत्ता रहे। अनुमिति में जिस रूप से पक्ष का ज्ञान इष्ट हो उसे पचतावच्छेदक कहते हैं ।
व ST , न्य त र का क । क स य ता TIT द्धि उत्त हैं । प्रथमः स्तबक: ३. पक्ष में पचतावच्छेदक का न रहना ही ‘श्राश्रयासिद्धि’ दोष कहलाता है । इस दोष का । उदाहरण है ‘काञ्चनमयपर्वतो वह्निमान् धूमात् ’ । यहाँ काञ्चनमयत्व रूप से पर्वत का भान अनुमिति में अभिप्रेत है, थतः काञ्चनमयत्व पक्षतावच्छेदक है, किन्तु चूँकि पक्ष में काञ्चनमयत्व रूप पचतावच्छेदक नहीं है, अतः उक्त हेतु श्राश्रयासिद्धि दोष से युक्त होने के कारण हेतु नहीं है, किन्तु श्राश्रयासिद्ध नाम का हेत्वाभास है । इस अनुमान के हेतु में और कोई भी दोष नहीं है । प्रकृत श्लोक में ‘सत्पक्षप्रसरः’ इस विशेषण के द्वारा इस ग्रन्थ में प्रयुक्त अनुमानों के पक्षों को चूँकि पक्षतावच्छेदक का श्राश्रय कहा गया है, छातः उक्त विशेषण से सूचित होता है कि इस ग्रन्थ में प्रयुक्त ईश्वर- साधक अनुमानों के हेतु आश्रयासिद्धि से दूषित नहीं हैं । पचतावच्छेदक के न रहने से श्राश्रयासिद्धि, साध्या प्रसिद्धि हेतु में हेतुतावच्छेदक के न 1 यह ध्यान रखना चाहिये कि पक्ष में एवं साध्य में साध्यतावच्छेदक के न रहने से रहने से हेत्वप्रसिद्धि, पक्ष में साध्य के न रहने से बाध, पक्ष में हेतु के न रहने से स्वरूपा- सिद्धि इत्यादि जो भी दोष जहाँ भी जिस के भी न रहने से हों, किन्तु उस दोष के द्वारा हेतु ही दुष्ट कहलायेगा और कोई नहीं । इसी प्रकार ‘सम्पदप्रसरः’ इस विशेषण के द्वारा ही इस ग्रन्थ में प्रतिपादित अनुमानों में उस के ‘पक्षता’ रूप कारण की सत्ता भी बतलायी गयी है । क्योंकि पक्षधर्मता प्रभृति सहाय में से परामर्श के संवलन के बाद भी ‘पक्षता’ की आवश्यकता. अनुमति के लिये बनी ही रहती है । अनुमान को प्रमाण माननेवाले सभी विचारकों को यह स्वीकार है कि जिस क्षण में एक प्रकार का अनुमान रहता है, उसके रहते उसी प्रहार का दूसरा अनुमान नहीं होता । किन्तु परामर्श रूप अन्तिम कारण की सत्ता धनुमिति की उत्पत्ति के बाद भी एक चम तक बनी रहती है । अतः उस के बल से प्रथम अनुमिति की उत्पत्ति के दूसरे चरण में भी उसी श्राकार की अनुमिति की उत्पत्ति किस प्रकार प्रतिरूद्ध की जा सकती है ? क्योंकि प्रथम अनुमिति की उत्पत्ति के क्षण में भी परामर्शादि कारणों की सत्ता है ही । अनुमिति की इसी पुनरुत्पत्ति को रोकने के लिए अनुमिति के ‘पक्षता’ नाम के एक और कारण की कल्पना की जाती है । पक्षता के उद्देश्य के प्रसङ्ग में विवाद न रहने पर भी उस के स्वरूप या लक्षण के प्रसङ्ग में विभिन्न मत अवश्य हैं। अतः ‘पक्षता’ एक स्वतन्त्र ही सूक्ष्म निरूपण की अपेक्षा रखती है । यहाँ इतना ही समझना आवश्यक है प्रकृत में सिपाधयिषित साध्य रूप धर्म को ‘ही ‘पक्षता’ मान कर याँ के सन्दर्भ लिखे गये हैं सदनुमिति के पक्ष में इस प्रकार की ‘पक्षता’ का रहना भी आवश्यक है । ‘सिद्धि की । इच्छा’ को ‘सिषाधयिषा’ कहते हैं ।
५ गद्यपद्यात्मक-न्याय कुसुमाञ्जली पक्ष में साध्य का निश्चय ही प्रकृत ‘सिद्धि’ शब्द से अभिप्रेत है । तदनुसार प्रकृत में ‘पक्षता’ का यह लक्षण निष्पन्न होता है कि पक्ष में साध्यनिश्चय की इच्छा में विषयीभूत साध्य रूप धर्म की सत्ता ही पक्षता है । यह स्वाभाविक नियम है कि प्राप्त वस्तु को इच्छा नहीं होती है। इस नियम के अनुसार जिस पुरुष को साध्य का निश्चय हो चुका है, उसे साध्य के निश्चय की इच्छा अर्थात् ‘सिषाधयिषा’ नहीं होगी, अत: अगर पहिले क्षण में पुरुष को साध्य का निश्चय रहेगा ( साध्य की अनुमिति रहेगी ) तो उस के श्रागे के क्षण में पक्ष में अगर साध्य रहेगा भी तो वह पक्ष सिपाधयिषित साध्य धर्म से युक्त नहीं होगा, क्योंकि उस साध्य में सिषाधयितत्व नहीं है । अतः सिद्धि की दशा में परामर्शादि के रहने पर भी उक्त पक्षता रूप कारण के न रहने से ही अनुमिति की उत्पत्ति प्रतिरुद्ध हो जायगी । प्रकृत ग्रन्थ में ईश्वर की सिद्धि के लिये जिन अनुमानों का प्रयोग किया गया है, उन अनुमानों के समान आकार की सिद्धि पहिले से नहीं है, अत: इन अनुमानों के हेतु सिद्धसाधन से दूषित नहीं हैं । फलतः इन अनुमानों में पता रूप कारण की अनुपपत्ति नहीं है । इसी की सूचना ‘सत्प्रक्षप्रसरः ’ इस पद के विवरण में प्रयुक्त ‘सिषाधयिपित’ पद से दी गयी है । ‘सत्पक्षप्रसरः’ पद के विवरण में ‘साध्यधर्म’ पद के प्रयोग से उक्त अनुमानों के हेतुओं में बाध दोष की शून्यता सूचित की गयी है। पक्ष में साध्य का न रहना हो ‘बाघ’ है । पक्ष में विशेषणीभूत ‘साध्यधर्म’ पद का अर्थ है साध्य रूप धर्म से युक्त । अतः उक्त बाघ दोष का परिहार उस विशेषण से स्पष्ट है । प्रकृत पद के विवरण में जो ‘धर्मिणि’ पद दिया गया है, उस से प्रकृत अनुमान के हेतुओं में ‘स्वरूपासिद्धि’ दोष का राहित्य सूचित होता है । प्रकृत ’ धर्मिणि’ पद में जो ‘धर्म’ शब्द है उस का अर्थ है ’ हेतु’ रूप धर्मं । तदनुसार ‘धर्मिणि’ पद का अर्थ होता है— हेतु रूप धर्म से युक्त धर्मी । पक्ष में हेतु का न रहना ही स्वरूपासिद्धि दोष है । जिस पक्ष में ‘हेतु’ रूप धर्म की सत्ता रहेगी, उसमें कथित स्वरूपासिद्धि दोष नहीं रह सकता । अतः प्रकृत ‘धर्मिणि’ पद का उपादान यह सूचित करने के लिये किया गया है कि इन अनुमानों के हेतुओं में स्वरूपासिद्धि दोष नहीं है । ‘सत्पक्षप्रसरः ’ इस पद में प्रयुक्त ‘प्र’ शब्द से प्रकृत अनुमान के हेतुत्रों में ‘भागा- सिद्धि’ दोष का न रहना दिखलाया गया है । ‘प्र’ शब्द का अर्थ है ‘प्रकर्ष’ । प्रकृत ‘प्र’ शब्द से हेतु के ज्ञान में व्याप्ति का विषय होना ही ‘प्र’ शब्द के उक्त प्रकर्ष रूप अथं से अभिप्रेत है, क्योंकि किसी पक्ष विशेष में हेतु का न रहना ही ‘भागासिद्धि’ दोष है । अतः भागासिद्धि दोष की दशा में हेतु में साध्य की प्राप्ति नहीं रह सकती । श्रतः प्रकृत में
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骂 प्रथमः स्तवक: ५. ईश्वरानुमान के हेतुश्नों को अगर ‘प्र’ शब्द के द्वारा व्याप्ति से युक्त कह दिया जाता है, तो फिर उनमें उक्त भागासिद्धि दोष की सम्भावना नहीं रह जाती है । सतां परिमल प्रोवोधबद्धोत्सवः - इस वाक्य में प्रयुक्त ‘सत्’ शब्द से ( न्यायपक्ष में ) परामर्श स्वरूप अनुमिति के चरम कारण परामर्श में कुशल पुरुष ही अभिप्रेत हैं, अतः इस ‘सताम्’ पद का विवरण है ‘परामशंकुशलानाम्’ । ‘परिमलप्रोद्बोधबद्धोरपवः’ इस पद की व्युत्पत्ति निम्नलिखित रूप से प्रकृत में श्रभिप्रेत है परिमलः परि परितः, पक्षे सनया विपक्षे चासत्तया यो ‘मल:’ सम्बन्धो व्याप्तिरूपः, तस्य यः ‘प्रोबोध’ साध्यसाधनयोः साध्याभावसाधना- भावयोः अबाधितप्रतिबन्धनिश्चयः तेन ‘बद्धः’ स्थिरीकृत: ‘उत्सव’ श्रानन्दो येन स परिमलप्रोबोधबद्धोत्सव:’ । अर्थात् इस ग्रन्थ के द्वारा परामर्श में निपुण व्यक्तियों को ईश्वर के अनुमान में सहायक अन्वयव्याप्ति और व्यतिरेकव्य प्ति इन दोनों की श्रानन्दजनक उपलब्धि होती है । फलतः इस विशेषण के द्वारा प्रकृत ईश्वरानुमान के हेतुत्रों में यथासम्भव श्रन्वयव्याप्ति और व्यतिरेकव्याप्ति की सूचना दी गयी है, जिससे उक्त हेतुओं में व्याप्ति के विरोधी व्याप्यत्वासिद्धि, सव्यभिचार और विरुद्ध दोषों का न रहना सूचित होता है । व्याप्यत्वासिद्धि का निरास उपाधि से युक्त हेतु को ही व्याप्यत्वासिद्ध हेत्वाभास कहते हैं । इस ग्रन्थ में उपाधि के बहुत से प्रसङ्ग श्रानेवाले हैं । अतः इस प्रसङ्ग में संक्षेपतः अभी इतना ही जान लेना पर्याप्त होगा कि जिस हेतु में उपाधि रहेगी, उसमें व्याप्ति नहीं रह सकती । सम्बन्ध दो प्रकार के हैं (१) स्वाभाविक और ( २ ) औपाधिक । हेतु में साध्य का स्वाभाविक सम्बन्ध या साध्य के अभाव के साथ हेतु के अभाव का स्वाभाविक सम्बन्ध ही ‘व्याप्ति’ है | चौपाधिक सम्बन्ध स्वाभाविक सम्बन्ध के विपरीत है । जपाकुसुम में अरुणिमा का स्वाभाविक सम्बन्ध है, उसी अरुणिमा का जपाकुसुम के समीपवर्ती स्फटिक में औपाधिक सम्बन्ध है । अतः इस ग्रन्थ में कहे हुये हेतुत्रों में जब व्याप्ति की सत्ता कही जाती है तो फिर उनमें उपाधि का अभाव स्वभावतः सूचित हो जाता है, क्योंकि व्याप्ति और उपाधि दोनों परस्पर विरोधी हैं। सुतराम् कथित विशेषण से ग्रन्थ में कथित हेतुओं में व्याप्यस्वा- सूचना होती है । सिद्धि दोष के परिहार की व्यभिचार और विरोध दोष का परिहार (१) अन्वय और ( २ ) व्यतिरेक-भेद से व्याप्ति के दो प्रकार कह आये हैं । अन्वयव्याप्ति का विपरीत ही व्यभिचार दोष हैं । ध्यप्ति का चाहे जो भी लक्षण करें, उसी को उल्लट देने से व्यभिचार का लक्षण बन जायगा । अगर साध्यशून्य स्थानों में हेतु का
गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली न रहना ही व्याप्ति है तो फिर साध्यशून्य स्थान में हेतु का रहना ही व्यभिचार है । वस्तुतः जो व्यभिचार का विरोधी न हो वह व्याप्ति है ही नहीं । सुतराम्, अगर इस ग्रन्थ के द्वारा प्रतिपादित हेतुओं में श्रन्वयव्यप्ति की सत्ता कह दी जाती है तो फिर उनमें व्यभिचार दोष का न रहना स्वत: सूचित हो जाता है । इसी प्रकार इस ग्रन्थ में कथित हेतुओं में व्यतिरेकव्य प्ति की सत्ता कह देने से ही उक्त हेतुथों में ‘विरोध’ दोप का प्रभाव समझना चाहिये, क्योंकि साध्य के अभाव में हेतु के अभाव की व्याप्ति के द्वारा सूचित व्याप्ति को ही हेतु में साध्य की व्यतिरेकव्याप्ति कहते हैं एवं हेतु में साध्य के अभाव की व्याप्ति को ही ‘विरोध’ कहते हैं । इस प्रकार व्यतिरेकव्याप्ति और विरोध दोनों परस्पर विरोधी हैं । अतः एक हेतु में ये दोनों नहीं रह सकते । इस प्रकार इस ग्रन्थ में कथित हेतुश्नों में व्यतिरेकव्याप्ति की सूचना से विरोध दोष का परिहार समझना चाहिये । विम्लानो न विमर्दने न्याय पक्ष में इस विशेषण के द्वारा ईश्वर-साधक हेतुश्नों में श्राचार्य ने सत्प्रतिपक्ष दोष का न रहना सूचित किया है । अत: इस पक्ष में ‘विमर्दने’ शब्द की व्याख्या है ‘विरोधिप्रमाणसश्वदशायाम्’ और ‘न दिज्ञान:’ का अर्थ है ‘न कार्यातम:’ । कहने का अभिप्राय यह है कि जहाँ वादी और प्रतिवादी एक ही पक्ष में परस्पर विरोधी भाव और अभाव को समान बल के विभिन्न हेतुओं के द्वारा साधन करने का प्रयास करते हैं, वहाँ सम्प्रतिपक्ष दोष होता है । जैसे, किसी ने प्रयोग किया कि जिस प्रकार कृति से उत्पन्न होने के कारण घट अनित्य है, उसी प्रकार शब्द भी चूँकि कृति से उत्पन्न होता है, अतः, वह भी अनित्य है । इस पर अगर प्रतिवादी ने शब्द रूप पक्ष में ही शब्दस्व हेतु के द्वारा व्यतिरेक दृष्टान्त के बल से नित्यत्व के साधन के लिये ‘शब्दो नित्यः शब्दस्वात्’ इस विरोधी अनुमान वाक्य का प्रयोग किया तो यहाँ सत्प्रतिपक्ष दोष होगा, क्योंकि दोनों ही हेतु समान बल के होने के साथ-साथ परस्पर विरुद्ध श्रर्थ के एक ही पक्ष में साधन के लिये प्रयुक्त हुये हैं, अतः एक भी अपना काम नहीं कर सकता । उक्त हेतुओं में इस अक्षमता के हेतुभूत दोष को ही ‘पतेपक्ष’ कहते हैं । अगर विरोधी हेतु दुर्बल रहेगा तो पहिले हेतु की कार्यक्षमता को विनष्ट नहीं कर पावेगा, तो फिर उस स्थिति में सत्प्रतिपक्ष नहीं होगा । प्रकृत ग्रन्थ में ईश्वर साधन के लिये जिन हेतुश्रों का हेतुओं में उक्त प्रकार की अक्षमता नहीं है । वे से प्रबल होने के कारण अपने कार्य में क्षम हैं । प्रयोग किया गया है, उन अपने विरोधी हेतुओं के रहते हुये भी उन अतः ये हेतु सम्प्रतिपक्ष दोष से दुष्ट नहीं हैं। इसी की सूचना ‘दिम्जानो न विमर्दने’ इस वाक्य से दिया गया है । न्याय रूप कुसुमों की यह ऋञ्जलि ईश्वर के ‘पदयुग’ में समर्पित है । ‘पदयुग’ शब्द में प्रयुक्त ‘पद’ शब्द का ‘पद्यते ज्ञायते अनेन’ इस व्युत्पत्ति के अनुसार ईश्वर के
Ť न ’ के प्रथमः स्तबक: ق ज्ञापक प्रमाण और उसके सहायक तर्क अभिप्रेत हैं । वे हैं (१) अनुमान और ( २ ) तर्क; इन दोनों का युग, अर्थात् ये दोनों । इन में अनुमान रूप पहिले ‘पद’ में ‘सम्प्रक्षप्रसरः’ इत्यादि तोनों विशेषणों की योजना लगा दी गयी है। तर्क रूप दूसरे ‘पद’ में उन विशेषणों का संयोजन अवशिष्ट है, इसके लिये यह आवश्यक है रूप से समझ लिया जाय । इस ग्रन्थ में तर्कों की भरमार है । कि ‘तर्क’ को सामान्य साधारण लोग यद्यपि तर्क शब्द को अनुमान का ही पर्याय मानते हैं, किन्तु न्याय- दर्शन में इस का विशेष अर्थ है । नैयायिक लोग इसे अनुमिति का सहायक ‘ऊह’ रूप मानते हैं । अनेक स्थानों में हेतु को साध्य के साथ देखने से ( भूयोदर्शन से ) हेतु में साध्य की व्याप्ति निर्णीत होती है, किन्तु जीवमात्र की दर्शन-शक्ति सीमित है एवं साध्य और हेतु के श्राश्रय भी असंख्य हैं । अतः कोई भी व्यक्ति यह दावा नहीं कर सकता कि ‘अमुक हेतु को और अमुक साध्य को जितने भी स्थानों में साथ रहने की सम्भावना है, उन सभी स्थानों में दोनों को मैं साथ देख चुका हूँ’ | धूम श्रौर वह्नि का प्रसिद्ध उदाहरण ही लिया जाय । रसोईघर में, गोशाला में, जंगल में, पहाड़ पर इन कुछ ही स्थानों में धूम को वह्नि के साथ आपने देखा होगा । इन कुछ स्थानों में साध्य के साथ हेतु को देखने से ही यह नहीं कहा जा सकता कि ‘सभी धूम वह्नि के साथ ही रहते हैं, क्योंकि कोई भी पुरुष सभी धूम - व्यक्तियों और सभी वह्निव्यक्तियों और उन दोनों के सभी श्राश्रयों को नहीं देख सकता । अतः यह शङ्का बनी ही रहेगी कि ‘धूम विना वह्नि के भी रह सकता है’ अथवा यों कहिये कि ‘जहाँ वह्नि नहीं है वहाँ भी धूम रह सकता है ।’ यही है वह व्यभिचार शङ्का, जिसका कोई निवारण करनेवाला नहीं दीखता, और जब तक व्यभिचार की यह शङ्का मिट नहीं जाती, तब तक व्याप्तिनिय की शुद्धता की अपेक्षा करना व्यर्थ है । अतः अनुमान को प्रमाण माननेवालों के सामने यह विपत्ति श्रा खड़ी होती है कि शुद्ध व्याप्ति- निर्णय से होनेवाली अनुमिति किस प्रकार हो ? इंस विपत्ति से उन्हें केवल यह तर्क ही उबार सकता है, अर्थात् व्यभिचार की उक्त शङ्का से व्याकुल होकर प्रमाता पुरुष यह ‘ऊह’ या तर्क करता है कि धूम में अगर वह्नि का व्यभिचार रहता, अर्थात् जहाँ वह्नि नहीं है, वहाँ भी अगर धूम रहता तो धूम वह्नि से उत्पन्न ही न होता । अतः जिन असंख्य धूम-व्यक्तियों को मैं नहीं देख सकता, वे सभी धूम भी वह्नि के विना न होंगे, वह्नि के साथ ही होंगे । अतः धूम में वह्नि के व्यभिचार की कोई शङ्का नहीं है । व्याप्य के आरोप के द्वारा व्यापक के आरोप को तर्क कहते हैं। एक वस्तु में दूसरी वस्तु का भ्रमात्मक निर्णय ही ‘आरोप’ है। व्यप्ति के निश्चय से अनुमिति होती है, एवं ।
1.30 गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली । व्यभिचार की शङ्का व्याप्ति का प्रतिरोधी है । व्यभिचार - शङ्का की निवृत्ति तर्क से होती है । इस प्रकार व्यभिचारशङ्का की निवृत्ति के द्वारा व्याप्त निश्चय का सहायक होने के कारण तर्क अनुमिति का भी सहायक है । यह तो है तर्क का बाल रूप | अब उसके आन्तरिक रूप पर भी ध्यान देना श्रावश्यक है । अनुमान को प्रमाण माननेवाले उक्त ‘आरोप’ या ’ श्रापत्ति’ रूप तर्क के द्वारा व्याप्तिनिश्चय के विघटक व्यभिचार शङ्का को दूर करते हैं । विचार की सुविधा के लिये कथित वह्नि और धूम की व्यक्ति को उदाहरण के तौर पर रखना उचित होगा । धूम में वह्नि के व्यभिचार की जिस शङ्का का उल्लेख किया गया है उस शङ्का का निवारक तर्क है ‘धूमो यदि वह्नि व्यभिचारी स्यात्चदा वह्निजन्यो न स्यात्’ – अर्थात् धूम को पक्ष मान कर उल में वह्निव्यभिचारित्व के श्रारोप के द्वारा उस में वह्नि से उत्पन्न न होने की प्रापत्ति ही कथित तर्क का स्वरूप है। तर्क को समझने के लिये आपत्ति श्रपादक और उसके पक्ष इन तीन वस्तुओं को समझ लेना आवश्यक है । कथित श्रापत्ति रूप तर्क में धूम हेतु ही पक्ष है एवं कथित आरोप या आपत्ति का विषय वह्निव्यभिचारित्व या वह्नि का व्यभिचार ही उक्त आपत्ति का कारण अर्थात् ‘आपादक’ है । ‘आापाय’ अर्थात् श्रापत्ति का विषय है धूम का वह्नि से उत्पन्न न होना ( बह्निजन्यत्वाभाव ) । आपत्ति देनेवाले को पहिले से ही निश्चित रहता है कि उक्त ‘आपाथ’ पक्ष में नहीं है । इस निश्चय के विना वह आपत्ति दे ही नहीं सकता । अतः पक्ष में आपाथ के प्रभाव का निश्चय भी तर्क का एक हेतु है । अतः पक्ष में थापाथ का अभाव अगर निर्णीत न हो तो तर्क हो ही नहीं सकता । इसी प्रकार श्रापाद्य में आपादक की व्याप्ति का रहना भी तर्क के लिये आवश्यक है, क्योंकि ‘जिन सभी वस्तुओं में वह्नि का व्यभिचार रहेगा, वे कभी भी वह्नि से उत्पन्न नहीं हो सकतीं’ इस नियम के कारण ही किसी के द्वारा धूम में वह्नि के व्यभिचार की स्थिति उठाने पर धूम में वह्नि से उत्पन्न न होने की आपत्ति देना सम्भव होता है । अगर ऐसी बात न हो-वह्नि से उत्पन्न होकर भी कोई वस्तु वह्नि के बिना भी रह सके तो फिर उक्त तर्क के द्वारा दी गयी आपत्ति को इष्ट किया जा सकता है, जिससे तकं का अपना स्वरूप ही नष्ट हो जायगा, क्योंकि तर्क तो ‘अनिष्टापत्ति’ रूप है । अतः आपाथ में आपादक की व्याप्ति का निश्चय भी तर्क का एक कारण है । अनुमिति में अपेक्षित व्याप्ति-निश्चय को व्यभिचार शङ्का से बचाने के लिये जिस तर्क का आश्रय लिया गया है, उस में भी अगर व्याप्ति की अपेक्षा हो तो फिर अनवस्था दोष आ पढ़ेगा । इस दोष का परिहार प्राचार्य ने तीसरे स्तबक में स्वयं किया है । इन कारणों से जब तर्क के सभी पक्षों में, अर्थात् अनुमिति के हेतुओं में अनिष्ट- प्रसक्ति रूप आपत्ति दी जाय, तभी तर्क अनुमान का सहायक हो सकता है । प्रकृत में ·
3 प्रथमः स्तबक: .w ( सभी धूमों में ) अगर वह्नि से उत्पन्न न होने की आपत्ति न देकर किसी विशेष प्रकार के धूम में अथवा कुछ धूमों के समुदाय में ही वह्नि से उत्पन्न न होने की आपत्ति दी जाय तो सामान्यतः सभी धूमों में सामान्यतः सभी वह्नि की व्याप्ति के निश्चय में कोई भी सहायता न मिलेगी । यतः तर्क से होनेवाली अनिष्टापत्ति को पक्ष का व्यापक भी होना चाहिये । इस प्रकार तर्क को सामान्य रूप से समझ लेने पर ‘ईश’ के ‘पदयुग’ में से तर्क रूप पद में ‘सत्पक्षप्रसरः’ इत्यादि विशेषणों की योजना को समझना सुलभ होगा । सत्पक्षप्रसरः ‘सन्’ निर्दोषः ‘पक्षप्रसरः’ अनिष्टप्रसञ्जनरूपस्तर्कों यस्मात्’ इस उत्पत्ति के अनुसार इस विशेषण के द्वारा इस ग्रन्थ में प्रयुक्त अनुमानों के लिये जिन तर्कों का प्रयोग किया गया है, उनकी समीचीनता यक्त होती है। तकं की समीचीनता यह है कि तर्क के सभी पक्षों में अनिष्टापत्ति देने की क्षमता, अर्थात् इस ग्रन्थ में प्रयुक्त सभी तर्क सभी पक्षों में अनिष्टापत्ति रूप हैं, किसी एक पक्ष में या कुछ पक्षों में नहीं । सतां परिमल प्रोद्बोधवद्धोत्सवः इस विशेषण के द्वारा सत्पुरुषों के आनन्द का उत्पादन और तर्क के लिये व्यप्ति की अपेक्षा ये दोनों उपपादित हो चुके हैं । तदनुसार तर्क पक्ष में इस विशेषण का अभिप्राय है सत्पुरुष में श्रापाद्य में रहनेवाली आापादक की व्याप्ति के निश्चय का रहना । अर्थात् इस ग्रन्थ में जितने भी तर्क प्रयुक्त हुये हैं, वे सभी श्रपाद्य में रहनेवाली श्रपादक की व्याप्तिमूलक ही हैं । अतः उनमें व्याप्ति के न रहने के कारण तर्काभासता नहीं आ सकती । विम्लानो न विमनदंने तर्कपक्ष में इस विशेषण के द्वारा इस ग्रन्थ में अभीष्ट पक्ष की सिद्धि के लिए प्रयुक्त तर्कों में विरोधी तर्कों के रहते हुये भी पूर्ण क्षमता सूचित होती है, जिसका पर्यवसान विरोधी तर्कों की दुर्बलता और अपने तर्कों की सबलता में होता है । अन्य सभी विशेषण प्रमाण और तर्क दोनों पदों में समान रूप से लगते हैं । ‘सत्पक्षप्रसरः’ इत्यादि विशेषणों से । 1 युक्त कुसुमाञ्जलि के उक्त विवरण से ग्रन्थ के प्रतिपाद्य विषयों की सूचना दी गयी है किन्तु उस से भी आवश्यक है प्रयोजन की सूचना, अर्थात् यह उपादान आवश्यक है कि इस ग्रन्थ के अध्ययन से लाभ क्या होगा ? ‘अमृतरसप्रस्यन्दमाध्वीकभू:’ इस विशेषण के द्वारा इसी प्रश्न का समाधान किया गया है । मोक्ष को ‘अमृत’ कहते हैं । तद्नुसार उक्त विशेषण के द्वारा यह अर्थ व्यक्त होता है कि यह न्यायकुसुमाञ्जलि नामक ग्रन्थ परम अभीप्सित मोक्षरूप मधु का उत्पत्तिस्थान या कारण है । अतः इस ग्रन्थ के मर्म को यथार्थ रूप से समझ कर सन्मार्ग के द्वारा ईश्वर की आराधना करने से अवश्य ही मोक्ष प्राप्त होगा ॥ १ ॥ २
१० गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जलौ स्वर्गापवर्गयोर्मार्गमामनन्ति मनीषिणः । यदुपास्तिमसावत्र परमात्मा निरूप्यते ॥ २ ॥ . स्वर्ग के ही समान अत्यन्त काम्य जीवन्मुक्ति और परममुक्ति- इन दोनों प्रकार के मोक्षों के लिये विद्वान् लोग जिनकी उपासना करते हैं, उन्हीं परमात्मा का निरूपण रूप उपासना ही ( इस ग्रन्थ में ) करता हूँ ॥ २ ॥’ १. जिस मोक्ष की चर्चा मङ्गल श्लोक में की गयी है उस के प्रसंग. में यह विवाद उपस्थित होता है कि क्या इसका होना संभव भी है ? नयायिकों के मत से दुःखों की श्रात्यन्तिक निवृत्ति ही मोक्ष है। वैशेषिकों के सिद्धान्त में आत्मा के सभी विशेष गुणों के नाश को ही मुक्ति की संज्ञा दी गयी है, किन्तु दोनों सिद्धान्तों के अनुसार मोक्ष के लिये जन्म का उच्छेद आवश्यक है। जन्म का उच्छेद या विनाश कर्मों के विनाश के विना संभव नहीं है । भोग से ही कर्मों का क्षय होगा । भोग से फिर दूसरे कर्म ( अदृष्ट ) भी अवश्य उत्पन्न होंगे । फलतः जीव कभी ग्रदृष्टों ( कर्मों) से रहित हो ही नहीं सकते । अदृष्ट के रहते किसी भी प्रकार का मोक्ष संभव नहीं है । दूसरी बात यह है कि ईश्वर के प्रसङ्ग में प्रमाणों के प्रदर्शन से और मोक्ष से क्या सम्बन्ध ? इस प्रसङ्ग में यह कहा जा सकता है कि ईश्वर के साधक प्रमाणों का उपपादन वस्तुतः ईश्वर का मनन ही है। ईश्वर के मनन से अपवर्ग की प्राप्ति श्रुति स्मृत्यादि में शतशः वर्णित है । अतः मोक्ष के लिये ईश्वर की सत्ता के अनुगुण प्रमाणों का व्युत्पादन असङ्गत नहीं है, किन्तु यह समाधान भी ठीक नहीं जँचता । यद्यपि ईश्वर आत्मस्वरूप ही है, तथापि ‘श्रात्मा वारे श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितभ्यः’ इसी श्रुति के द्वारा ईश्वर - के मनन को मोक्ष का कारण नहीं कहा गया है। इस वाक्य के द्वारा आत्मा के निदिध्यासनरूप साक्षात्कार को ही मोक्ष का चरम कारण कहा गया है । उक्त वाक्य में प्रयुक्त एक ही ‘श्रात्मा’ पद का अन्वय ‘श्रोतव्यः’ और ‘मन्तव्यः’ दोनों के साथ है । इस से स्पष्ट है कि जिस आत्मा का निदिध्यासन रूप साक्षात्कार मोक्ष का कारण है, उसी आत्मा का श्रवण और मनन भी उक्त साक्षात्कार में सहायक होने के नाते मोक्ष का सहकारी कारण है । जो बद्ध होगा, वही मुक्त भी होगा । बद्ध है जीव, अतः वही मुक्त भी होगा । अज्ञान या भ्रम के द्वारा कल्पित वस्तु का ही साक्षात्कार रूप तथ्वज्ञान से नाश होता है । यह भी नियम है कि जिस विषय में भ्रम या अज्ञान से जिस वस्तु की कल्पना होगी, उसी विषय के तत्वज्ञान से उक्त अविद्या या भ्रम के द्वारा कल्पित वस्तु का विनाश होगा। प्रकृत में तत्तज्जीव का अज्ञान या भ्रम ही उस जीव के संसार का कारण
15 द ये ET 1 न मॅ न प र के से री नी श ना श ; 冬 प्रथमः स्तबक: ११ इह यद्यपि यं कमपि पुरुषार्थमर्थयमानाः शुद्धबुद्धस्वभाव इत्यौपनिषदाः, आदिविद्वान् सिद्ध इति कापिलाः, क्लेशकर्मविपाकाशयैरपरामृष्टो निर्माणकायमधिष्ठाय संप्रदायप्रद्योतको ऽनुग्राहकश्चेति पातञ्जला:, लोकवेदविरुद्धेरपि निर्लेपः स्वतन्त्रश्चेति महापाशुपताः, शिव इति शैवाः, पुरुषोत्तम इति वैष्णवाः, पितामह इति पौराणिकाः, यज्ञपुरुष इति याज्ञिकाः, सर्वज्ञ इति सोगताः, निरावरण इति दिगम्बराः, उपास्यत्वेन देशित इति मीमांसकाः, यावदुक्तोपपन्न इति नैयायिकाः, लोकव्यवहारसिद्ध इति जिस किसी पुरुषार्थ की प्रेप्सा से सभी विचारकों ने किसी न किसी रूप में ईश्वर की सत्ता स्वीकार कर रखी है । जैसे:- १ ) वेदान्ती सभी प्रकार के द्वैतों से रहित स्वप्रकाश ज्ञान स्वरूप परब्रह्म के रूप में, (२) सांख्यविद् ’ आदि विद्वान्’ अर्थात् स्वाभाविक चैतन्य से युक्त, कूटस्थ, नित्य, विशेष प्रकार के पुरुष के रूप में, (३) योगिजन अविद्या आदि पाँच प्रकार के क्लेश, धर्म और अधर्म के साधक याग- हिंसादि कर्म एवं (जाति, आयु और भोग इन तीन प्रकार के) विपाक, ( धर्म और अधर्म रूप ) आशय, इन सबों के सम्बन्ध से सर्वथा रहित, ( वेदादि के ) निर्माण के लिये विशेष प्रकार के शरीर को धारणकर वेदों के प्रवर्त्तक, ( सृष्टि के आदि में कुलालादि के ) शरीरों को धारणकर घटादि के निर्माण की शिक्षा के द्वारा जीवों के ऊपर अनुग्रह करनेवाले पुरुष-विशेष के रूप में, (४) महापाशुपत ( चिताभस्मादि धारण रूप ) लोक - विरुद्ध एवं (द्विजवधू विप्लवादि रूप ) वेद- विरुद्ध आचरणों से भी पाप और लोकनिन्दा से सर्वथा मुक्त विशिष्ट पुरुष के रूप में, ( ५ ) शैव त्रिगुणातीत पुरुष के रूप में, (६) वैष्णव ‘पुरुषोत्तम’ अर्थात् सभी पुरुषों से उत्कृष्ट पुरुष के रूप में, (६) पौराणिक ‘पिनामह’ अर्थात् संसार को उत्पन्न करनेवाले विशिष्ट पुरुष के रूप में, (८) याज्ञिक ‘यज्ञपुरुष’ अर्थात् जिसके उद्देश्य से यागों में अग्नि में आहुतियां डालो जाती हैं - उस विशिष्ट पुरुष के रूप में, (९) बौद्ध क्षणिक एवं सर्वज्ञ पुरुष के रूप में, (१०) दिगम्बर जैन ( धर्म और अधर्म से उपार्जित शरीरादि ) आवरणों से रहित विशेष प्रकार के पुरुष के रूप में, (११) मीमांसक वेदों के द्वारा स्तूयमान पुरुष अथवा वेदों में उपास्य रूप से निर्दिष्ट मन्त्र के रूप में, ( १२ ) नैयायिक ( संप्रदाय भेद से ) ईश्वर के ये जितने भी विशेषण कहे गये हैं— उन में से मोक्ष होगा, सभी दोनों साक्षात्कार मोक्ष के कारण नहीं हो अतः तत्तज्ञ्जीव के साक्षात्कार से उन-उन जीवों के संसार का नाश या जीवों के तस्वज्ञान या अन्य जीवों के तत्वज्ञान से नहीं । जब ये कथञ्चित् जीव रूप समान विषय के होने पर भी अन्य जीव के सकते, तो फिर ईश्वर-विषयक साक्षात्कार, जो जीव से सर्वथा भिन्न विषय का है, किसी जीव के मोक्ष का कारण कैसे हो सकता है ? अतः ईश्वर का निरूपण करनेवाले इस ग्रन्थ की रचना ही व्यर्थ है । इसी आक्षेप के समाधान के लिये ‘स्वर्गापवर्गयोः’ इत्यादि कारिका लिखी गयी है ॥२॥ CCO. Vasishtha Tripathi Collection. Digitized by eGangotri१२ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जलौ चार्वाकाः किं बहुना, यं कारदोऽपि विश्वकर्मेत्युपासते, तस्मिन्नेवं जातिगोत्र- प्रवरचरणकुलधर्मादिवदा संसारं प्रसिद्धानुभावे भगवति भवे सन्देह एव कुत: ? कि निरूपणीयम् ||२|| तथापि - न्यायचर्चेयमीशस्य मननव्यपदेशभाक् । । उपासनैव क्रियते श्रवणानन्तरागता ॥३॥ श्रुतौ हि भगवान् बहुशः श्रुतिस्मृतीतिहासपुराणेष्विदानीं मन्तव्यो भवति, ‘श्रोतव्यो मन्तव्यः’ ( बृहदारण्यकोपनिषद् २।४५ ) इति श्रुतेः । जितने विशेषण युक्तियों से उपपन्न हो सकें उतने विशेषणों से युक्त पुरुष के रूप में, (१३) चार्वाक सर्वसाधारण जनों से उत्कृष्ट सर्वमान्य एवं ( श्रदृश्य चैतन्य से रहित ) चतुर्भुज दशभुज आदि प्रतिमाओं के रूप में, यहाँ तक कि राज, बढ़ई प्रभृति साधारणजन भी ईश्वर को ‘विश्वकर्मा’ अर्थात् विश्वस्रष्टा के रूप में ईश्वर को मान कर अपना उपास्य बना रखा है, तो इस प्रकार जो ईश्वर संसार के आदिकाल से ही ब्राह्मणत्वादि जातियों, काश्यपादि गोत्रों, और्व च्यवनादि प्रवरों, वेदों को बहूवृच की मादि शाखाओं, एवं प्रत्येक कुल में प्रचलित विशेष प्रकार से शिखाधारण. दि कुल धर्मो के समान सभी जनों में अत्यन्त प्रसिद्ध है, उसकी सत्ता के सम्बन्ध में सन्देह ही क्यों होगा ? और फिर उसके अस्तित्व को प्रमाणित करने के लिये न्याय- प्रयोग की श्रावश्यकता ही कैसे उपस्थित होगी ? ईश्वर के निरूपण के प्रसङ्ग में यद्यपि इस प्रकार के प्रश्न उठते हैं ॥२॥ तथापि इनका कोई श्रीचित्य नहीं, क्योंकि ईश्वर का निरूपण, ईश्वर के अस्तित्व के बारे में किसी प्रकार के सन्देह के निवारणार्थं नहीं करना है. किन्तु श्रवण-रूप उपासना के बाद कत्तंव्य- रूप से मनन-रूप उपासना के रूप में करना है । अतः ईश्वर के सम्बन्ध में प्रस्तुत होनेवाला यह न्यायप्रयोग उनकी मननात्मक उपासना ही है । आशय यह है कि ‘श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्यः’ इत्यादि श्रुतियों के अनुसार एवं ‘आगमेनानुमानेन’ इत्यादि स्मृतियों के द्वारा श्रवण-रूप उपासना के बाद मनन-रूप उपासना का विधान किया गया है । अतः ( उपनिषदादि ) श्रुतियों से, ( मनु प्रभृति की ) स्मृतियों से एवं ( महाभारतादि ) इतिहासों से एवं ( श्रीमद्भागवतादि) पुराणों से अनेक वार परमेश्वर की विस्तीर्ण एवं विशद चर्चा सुनने के बाद अब उसकी मनन रूप उपासना अवश्य कर्त्तव्य में आ जाती है । ‘श्रोतव्यः’ इत्यादि वाक्य के द्वारा स्पष्ट रूप से कहा गया है कि पहिले ईश्वर का श्रवण करना चाहिए, फिर उसके बाद मनन करना चाहिये और उसके बाद निदिध्यासन रूप उपासना करनी चाहिए || ३ ||
त्र- क त कि दि व जो रों, दि यों ही । में 5- 2+15 ho य- यह एवं का एवं की आ वण रूप प्रथमः स्तबक: आगमेनानुमानेन ध्यानाभ्यासरसेन च । त्रिधा प्रकल्पयन् प्रज्ञां लभते योगमुत्तमम् ॥ इति स्मृतेश्च ! १३ ( यो० सू० व्या भा० भाष्यधृत १।४८ ) तदिह संक्षेपतः पञ्चतयी विप्रतिपत्तिः - ( १ ) अलौकिकस्य परलोकसाधन- स्याभावात् । ( २ ) अन्यथापि परलोकसाधनानुष्ठान संभवात् । ( ३ ) तदभावावे- दकप्रमाणसद्भात्रात् । ( ४ ) सत्त्वेऽपि तस्याप्रमाणत्वात् । ( ५ ) तत्साधकप्रमारणा- भावाच्चेति ||३|| ( यही बात ) ’ आगमेनानुमानेन’ इत्यादि श्लोक के द्वारा इस प्रकार कहो गयी है कि ‘आगम’ अर्थात् शब्द प्रमाण, अनुमान ( मनन ) प्रमाण एवं ‘ध्यानाभ्यासरस’ अर्थात् निदिध्यासन (क्रमश:) इन तीनों प्रकार की उपासनाओं से ईश्वर विषयगी प्रज्ञा को विभक्त ( निर्मल कर लेने के बाद ही ईश्वर - विपयक ) ‘उत्तमयोग’ अर्थात् ईश्वर का चरम साक्षात्कार होता है । ( अतः ईश्वर मनन रूप परमेश्वर को सिद्धि का प्रयास असङ्गत या व्यर्थ नहीं है ) । ईश्वर मनन-रूप ( ईश्वर के इस निरूपण में अङ्गीभूत ) विप्रतिपत्तियाँ संक्षेप में पाँच प्रकार की हैं- ( १ ) ( चार्वाकों से स्वीकृत प्रथम प्रकार की अदृष्ट रूप) परलोक के अलौकिक साधन के अभाव से उत्पन्न होनेवाली ( ‘अलौकिकपरलोकसाधनं वर्त्तते न वा’ इस आकार की है ) । ( २ ) वेदकर्त्ता सर्वज्ञ परमेश्वर को माने विना भी परलोक के यागादि साधनों का अनुष्ठान हो सकता है ( मीमांसकों के इस सिद्धान्त से उत्पन्न होनेवालो वेदकर्त्ता कश्चित्सर्वज्ञः परमेश्वरोऽस्ति न वा ) इस आकार की विप्रतिपत्ति है । अथवा (कपिलादि मुनियों के द्वारा ही वेदों की रचना मानकर आप्तरचित होने के कारण हो वेदों में निर्दिष्ट यागादि का अनुष्ठान हो सकता है । इस के लिए सर्वज्ञ परमेश्वर की कल्पना आवश्यक नहीं है अतः ) ‘अन्यथापि ’ जीवों से भिन्न वेदों के रचयिता परमेश्वर की कल्पना न करने पर भी ‘परलोक के साधन’ यागादि का अनुष्ठान हो सकता है । ( सांख्याचार्यों के इस अभिमत के कारण भी ‘जीवातिरिक्तः सर्वज्ञः परमेश्वरोऽस्ति न वा’ इस आकार को विप्रतिपत्ति उपस्थित होती है ) । ( ३ ) ( सभी अनुपलब्धियों से अभाव का बोध होता है केवल योग्यानुपलब्धि से ही नहीं । अतः अभाव के प्रत्यक्ष के लिये प्रतियोगी का प्रत्यक्ष आवश्यक नहीं है । सुतरां क्षित्यादि में. सक कर के सावक ईश्वर-सम्बन्धी सभी अनुमान अन्ततः अनुपलब्धि के द्वारा बाधित होंगे ही। चार्वाक के इस कुमति के द्वारा यह विप्रप्रपत्ति घ्रा खड़ी होती है कि ) ‘अनुपलब्धिः प्रभाव-ग्राहिका न वा’ । ४ ) ( वही ‘प्रमाणपुरुष’ कहलाता है, जो प्रमाज्ञान का आश्रय हो। उसी विषय का ज्ञान प्रमा हो सकता है जो पहिले से ज्ञात न हो। तथाकथित सर्वज्ञ परमेश्वर से कोई विषय
१४ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली तत्र न प्रथमः कल्पः यतः- • सापेक्षत्वादनादित्वाद्व चित्र्याद्विश्ववृत्तितः । प्रत्यात्मनियमाद्भुक्तेरस्ति हेतुरलौकिकः ॥ ४॥ न ह्ययं संसारोऽनेकविधदुःखमयो निरपेक्षो भवितुमर्हति । तदा हि स्यादेव, न स्यादेव वा, न तु कदाचित् स्यात् ॥४॥ अज्ञात नहीं रह सकता । इस लिये उनके सभी ज्ञानों के विषय पूर्वज्ञात ही होंगे । अत: वे प्रमाण नहीं हो सकते । अप्रामाणिक पुरुष के ऊपर विश्वास करना सम्भव नहीं है । मीमांसकों- के ही इस विश्वास के द्वारा ) ‘नित्यसवंज्ञः परमेश्वरः प्रमाणं न वा’ इस प्रकार की विप्रतिपत्ति उपस्थित होती है । ( ५ ) ( ईश्वर की सिद्धि में बाधक इन चार विप्रतिपात्तियों का खण्डन कर देने से ही ईश्वर की सिद्धि स्वत: नहीं हो सकती। उस के लिये साधक हेतु-युक्त अनुमान का अलग से प्रयोग करना पड़ेगा। प्रकृत में यह संभव नहीं है, अतः ईश्वर के विरोधी मीमांसक, चार्वाक, बौद्ध-प्रभृति सभी पक्षों से यह विप्रतिपत्ति श्राती है कि ), ‘ईश्वरसाधने प्रमाणमस्ति न वा ॥३॥ (- इस ग्रन्थ के पांच स्तबकों में क्रमशः इन्हीं विप्रतिपत्तियों के आधार पर विचार कर अपना मत स्थिर किया गया है। इन सभी विप्रतिपत्तियों में विधिपक्ष है नैयायिकों का श्रीर निषेवपक्ष है कथित पूर्वपक्षियों का ) । इन में प्रथम विकल्प उचित नहीं है, क्योंकि ( १ ) सभी कार्य अपनी उत्पत्ति के लिये किसी वस्तु की अपेक्षा रखते हैं, (अत: कार्यों का कोई कारण अवश्य है ) । ( २ ) ( जो किसी कार्य का कारण है, उसका भी कोई कारण अवश्य है । कार्य और कारण की यह परम्परा बीज नौर अंकुर की परम्परा की तरह ) अनादि है, ( अतः यह अनवस्था दोषावह नहीं है ) । ( ३ ) प्रत्यक्ष से सिद्ध है कि संसार के कार्य विविध प्रकार के हैं, श्रतः एक ही ब्रह्म को अथवा एक ही जाति के बुद्धितत्त्वों का सभी कार्यों का कारण नहीं माना जा सकता । ( ४ ) कार्यों के ये कारण लोकप्रत्यक्ष से सिद्ध दण्डादि स्वरूप ही हैं । अतः केवल ‘कारण’ की सिद्धि से अलौकिक कारण रूप प्रदृष्ट की सिद्धि नहीं को जा सकती । अतः अदृष्ट के अधिष्ठाता रूप में ईश्वर की सिद्धि नहीं हो सकती । किन्तु यह आक्षेप ठोक नहीं है, क्योंकि विश्व के सभी परलोक चाहनेवाले (यागादि के अनुष्ठानों में) प्रवृत्त दोखते हैं । (५) (परलोक का अदृष्ट रूप यह अलौकिक साधन भोग करनेवाले पुरुष की श्रात्मा में रहता है ? या ‘चन्दनादि भोग्यपदार्थों में ? इन दोनों में ‘अदृष्ट भोक्ता पुरुष की आत्मा में ही रहता है’ यह पहिला पक्ष ही ठीक है, क्योंकि प्रत्येक आत्मा में विभिन्न प्रकार के भोग नियमित हैं । अतः ( दण्डादि प्रत्यक्ष सिद्ध कारणों के प्रतिरिक्त कार्यों का श्रदृष्ट रूप ) अलौकिक हेतु भी अवश्य है । न हायम्० ( कार्यों के कारण प्रवश्य हैं, क्योंकि ) अनेक प्रकार के दुःखों से परिपूर्ण यह संसर विना किसी की अपेक्षा के उत्पन्न नहीं हो सकता । ( यदि ऐसो बात हो तो फिर यह संसार )
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अकस्मादेव भवतीति चेन्न, प्रथमः स्तबकः हेतुभूति निषेधो न स्वानुपाख्यविधिर्न च । स्वभाववर्णना नैवमवधेर्नियतत्वतः ॥ ५ ॥ L हेतु निषेधे भवनस्यानपेक्षत्वेन सर्वदा भवनमविशेषात्, भवनप्रतिषेधे प्रावि पश्चादप्यभवनमविशेषात् । उत्पत्तेः पूर्वं स्वयमसतः स्वोत्पत्तावप्रभुत्वेन स्वस्मादिति निरन्तर उत्पन्न ही होता रहेगा या फिर कभी उत्पन्न ही नहीं होगा ( बिना कारण के यह नहीं हो सकता कि वह ) ‘कदाचित् ’ उत्पन्न हो ( अर्थात् किसी नियमित समय में ही उत्पन्न हो, उससे भिन्न समयों में नहीं ) ॥ ४ ॥ पू० प० – अकस्मादेव…… (पू.) (विश्व के सारे कार्य ) ‘अकस्मात् ’ ही उत्पन्न होते हैं । ( उ ) ( यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि उक्त वाक्य के ये ( पाँच ) ही अर्थ हो सकते हैं: - ( १ ) कार्यों का कोई भी कारण नहीं है । ( २ ) कार्यों की उत्पत्ति ही नहीं होती है । ( ३ ) कार्य स्वयं अपने द्वारा ही उत्पन्न होते हैं । ( ४ ) ‘अनुपाख्य’ अर्थात् गगनकुसुमादि की तरह अप्रसिद्ध किसी पदार्थ से ही सभी कार्यों की उत्पत्ति होती है । ( ५ ) ‘स्वभाव’ से ही सभी कार्य उत्पन्न होते हैं । ये सभी पक्ष निम्नलिखित युक्तियों से प्रयुक्त ठहरते हैं, क्योंकि ( १ ) यदि सभी कारणों को अस्वीकार कर दिया जाय तो कार्यों को उत्पत्ति में किसी की अपेक्षा नहीं रह जायगी । इस से सदा सर्वदा सभी कार्यों की उत्पत्ति होती रहेगी, क्योंकि ( जिस समय कार्य की उत्पत्ति अनुभव से सिद्ध है और जिन क्षणों में कार्यों की उत्पत्ति अनुभव के विरुद्ध है, उन दोनों समयों अन्तर नहीं रह जाता है । में कारण की सत्ता न मानने पर कोई ( २ ) इस लिये कि सभी ) कार्य अपने नियत समय में ही उत्पन्न होते हैं, प्रत: ‘अकस्मादेव भवति’ इस वाक्य से कार्यों की उत्पत्ति को ही अस्वीकार करनेवाला पक्ष भी स्वीकार नहीं किया जा सकता । ( अगर ऐसा करें तो फिर जिस प्रकार कारणों के एकत्र होने के ) पहिले कार्यों की उत्पत्ति नहीं होती है, उसी प्रकार ( कारणों के एकत्र होने के अव्यवहित ) उत्तरकाल में भी कार्यों की ( अनुभवसिद्ध ) उत्पत्ति न हो सकेगी, क्योंकि ( कारणों से कार्यों की उत्पत्ति को ही अस्वीकार कर देने पर कारणों के एकत्र होने से पूर्वकाल और उत्तर काल ) दोनों में कोई अन्तर नहीं रह जाता है । (३) ‘स्व’ रूप कार्य से ही ‘स्व’ रूप उसी कार्य की उत्पत्ति इस लिये संभव नहीं है कि उत्पत्ति से पहिले के क्षणों में ‘स्व’ रूप उस वस्तु की सत्ता संभव नहीं है । जिस समय जिस वस्तु की अपनी ही सत्ता नहीं हैं, उस वस्तु में आगे के क्षणों में ‘स्व’ रूप उसी कार्य के उत्पादन की क्षमता नहीं मानी जा सकती । 1
१६ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली पक्षानुपपत्तेः । पौर्वापर्यनियमश्च कार्यकारणभावः । न चैकं पूर्वमपरञ्च तत्त्वस्य भेदाधिष्ठानत्वात् । अनुपाख्यस्य हेतुत्वे प्रागपि सत्त्वप्रसक्तौ पुनः सदातनत्वापत्तेः स्यादेतत् । नाकस्मादिति कारण निषेधमात्रं वा, भवन प्रतिषेधो वा, स्वात्महेतुकत्वं वा, निरुपाख्य हेतुकत्वं वाऽभिषित्सितमपि त्वनपेक्ष एव कश्चिन्नियत- देशवन्नियतकालस्वभाव इति ब्रूमः । निरवधित्वे अनियतावधित्वे वा कादाचि- दूसरी बात यह भी है कि ‘कारण’ वही है जो कार्य के (श्रव्यवहित) पूर्व क्षण में नियमतः रहे । ‘कार्य’ वही है जो कारणों के अव्यवहित उत्तर क्षण में उत्पन्न हो । पहिले रहने का श्रीर पीछे उत्पन्न होने का यह ‘पौर्वापर्य’ नियम परसर भिन्न दो वस्तुओं में ही हो सकता है । ( ४ ) ( अगर गगनकुसुमादि के समान ‘अनुपाख्य’ अर्थात् सर्वथा अप्रसिद्ध किसी वस्तु को ही सभी कार्यों का कारण मानें तो फिर जिस समय जिस की उत्पत्ति नियमित है ) उससे पहिले उस के सभी समय में भी कार्यों की उत्पत्ति माननी पड़ेगी । जिस से कार्यों में ‘सदातनत्व’ की अर्थात् नित्यत्व की आपत्ति होगी । ( फलतः कार्यों’ का ‘कादाचित्कत्व’ अनुपपन्न हो जायगा ) नाकस्मादिति……. ( पू. प.) ‘कार्यमकस्मादेव भवति’ इस वाक्य के द्वारा कारणत्व का निषेध, अपनी उत्पत्ति का " कार्य स्वयं अपना कारण है” इस पक्ष का विशेष विधान, अथवा अलीक किसी विशेष वस्तु में सभी कार्यों के कारणत्व का विधान इन अर्थों में से कोई भी अभिप्रेत नहीं है, किन्तु उक्त वाक्य का यह अभिप्राय है कि ( ५ ) जिस प्रकार ( नैयायिक भी मानते हैं कि ) संसार के सभी वस्तुनों का यह स्वभाव है कि वे किसी ‘विशेष देश’ में ही रहें। जैसे कुछ नित्य पदार्थ सभी मूर्त्त द्रव्यों के साथ सम्बद्ध रहते हैं, यथा-आकाशादि । कुछ ऐसे भी नित्य पदार्थ हैं, जो किसी देश विशेष में ही रहते हैं, सर्वत्र नहीं, जैसे परमाणु । एवं पटों के तुरी, वेमा प्रभृति सभी समान रूप से कारण हैं, फिर भी पट की उत्पत्ति तन्तुओं में ही होती है, या घट की उत्पत्ति कपालों में ही होती है । वस्तुओं की उक्त नियत देश- वृत्तित्व का नियामक जैसे कि ‘स्वभाव’ को छोड़कर किसी दूसरे को नैयायिक भी नहीं मानते ) उसी प्रकार सभी कार्यों का यह स्वभाव ही मान सकते हैं कि वे (नियत देश की तरह) नियत काल में ही उत्पन्न हों । (नियतकालवृत्तित्व को ही नैयायिक ‘कादाचित्कत्व’ कहते हैं । इसकी उपपत्ति भी उक्त ‘स्वभाववाद’ से ही हो जायगी ) । निरवधित्वे… } (सि. प.) कार्यों को यदि विना किसी अवधि का मानें या अनियत कारणों से उत्पन्न मानें ( दोनों ही स्थितियों में ) ‘कार्य किसी समय उत्पन्न होता है, किसी समय नहीं’ इस ( कादाचित्कत्व ) की उपपत्ति नहीं हो सकती ( क्योंकि निरवधित्व और अनियतावधित्व इन दोनों ही के साथ कादाचित्कत्व का विरोध है ) । ‘कार्यों की कोई अवधि है’ इस वाक्यका इतना
प्रथमः स्तबक: १७ एकत्वव्याघातात् । न ह्युत्तरकालसिद्धित्वमात्रं कादाचित्कत्वम्, किन्तु प्रागसत्वे सति । सावधित्वे तु स एव प्राच्यो हेतुरित्युच्यते । अस्तु प्रागभाव एवावधिरिति चेन्न, अन्येषामपि तत्काले सत्वात् । अन्यथा तस्यैव निरूपणानुपपत्तेः । तथा च न । तदेकावधित्वमविशेषात् । इतरनिरपेक्षस्य प्रागभावस्थावधित्वे प्रागपि तदवधे: कार्यसत्वप्रसङ्गात् । सन्तु ये केचिदवधयो न तु तेऽपेक्ष्यन्त इति स्वभावार्थं इति ही अर्थ नहीं है कि ‘कारणों के एकत्र होने के बाद कार्य की सत्ता होती है’ किन्तु ( उक्त वाक्य का यह अर्थ है कि) जो ( कारणों के एकत्र होने से ) पहिले न रहे और कारणों के एकत्र होने के वाद रहे । इस प्रकार ’ कादाचित्कत्व’ हेतु के द्वारा कार्यों में ‘सावधित्व’ की सिद्धि होती है । कार्यों के पहिले अवश्य रहनेवाली यह ‘अवधि’ ही ‘कारण’ कहलाती है । पू० प० - अस्तु.. कार्यसे पहिले अवश्य रहनेवाली ‘अवधि’ को अगर मान भी लें, तथापि वह ‘प्रागभाव’ रूप ही है ( दण्डादि भाव पदार्थों को घटादि कार्यो की अवधि अर्थात् कारण मानना आवश्यक नहीं है ) सि० प० – अन्येषामपि ……
ऐसी बात नहीं हो सकती, क्योंकि प्रागभाव की तरह दण्डादि भाव पदार्थ भी उस ( कार्य ) की उत्पत्ति से पहिले नियमतः विद्यमान रहते हैं। अगर दण्डादि भाव पदार्थों को घटादि कार्यो का कारण न मानें तो फिर ( घटादि ) प्रागभावों का निरूपण ही असंभव हो जायगा । ( क्योंकि दण्डादि भाव कारणों के संबलन के वाद जबतक घटादि कार्यों की उत्पत्ति नहीं हो जाती, उस मध्यवर्ती समय में जो ‘घटो भविष्यति’ इत्यादि आकार को प्रतीतियाँ होती हैं, उन्हीं से प्रागभाव की स्थिति मानी जाती है ) । अतः केवल प्रागभाव ही कार्यो का कारण नहीं हो सकता, क्योंकि ( कार्यो के नियतपूर्ववर्त्ती प्रागभाव और नियतपूर्ववर्त्ती ही दण्डादि भाव पदार्थ इन दोनों में ही कारणत्व मानने की ) स्थिति में कोई अन्तर नहीं है । इतर निरपेक्षस्य ……… …… यदि दण्डादि भावों से निरपेक्ष केवल ( घटादि के ) प्रागभावों को ही ( घटादि ) कार्यों का कारण मानें तो फिर ( दण्डादि भाव पदार्थों के एकत्र होने के क्षण के श्रव्यवहित जिस क्षण में घटादि की उत्पत्ति नियत है ) उस से पहिले भी ( घटादि ) कार्यो की उत्पत्ति की आपत्ति होगी। क्योंकि ( सृष्टि के आदि से लेकर घट के उत्पत्ति-क्षण से पहिले तक घंट का प्रागभाव रूप कारण तो विद्यमान ही है ) । पू० प० – सन्तु केचित् ………. “घटादि कार्य अपने ‘स्वभाव’ से ही उत्पन्न होते हैं” इस वाक्य का इतना ही ‘अर्थ’ अर्थात् तात्पर्य है कि यद्यपि घटादि कायों के दण्डादि अवधि भी हैं, तथापि कार्यों को अपनी ३
१५ . गद्यपद्यात्मक न्यायकुसुमाञ्जली चेत् — नाऽपेक्ष्यन्त इति कोऽर्थः ? किन नियता: ? आहोस्विन्नियता अप्यनुप- कारकाः १ । प्रथमे घूमो दहनवद्गर्दभमप्यवधीकुर्यात्, नियामकाऽभावात् । द्वितीये तु किमुपकारान्तरेण, नियमस्यैवाऽपेक्षार्थत्वात्, तस्यैव च काररणात्मकत्वात्, ईदृशस्य च स्वभाववादस्येष्टत्वात् । नित्यस्वभावनियमवदेतत् । न ह्याकाशस्य तत्त्वमाक- स्मिकमिति सर्वस्य किं न स्यादिति वक्तुमुचितमिति चेन्न - सर्वस्य भवतस्स्वभाव- उत्पत्तिके लिये उन अवधियों की अपेक्षा नहीं होती है । ( वे अपने ‘स्वभाव’ से ही उत्पन्न होते हैं ) । सि० प० - नापेक्ष्यन्त इति……. ( घटादि ) ‘कार्य अपनी उत्पत्ति के लिये ( दण्डादि ) भाव कारणों की अपेक्षा नहीं रखते’ इस वाक्य का क्या अर्थ ? इस वाक्य के ये दो ही अर्थ हो सकते हैं कि १ दण्डादि भाव पदार्थ रूप कारण घटादि कार्यों से श्रव्यवहित पूर्वं क्षण में नियत रूप से नहीं रहते । अथवा (२) नियत रूप से रहने पर भी ( घटादि कार्यो की उत्पत्ति में ) किसी प्रकार का उपकार नहीं करते । इन दोनों पक्षों में से पहिला पक्ष इस लिये सङ्गत नहीं है कि कार्य अगर अपने अव्यवहित पूर्व क्षण में नियत रूप से न रहनेवाले पदार्थों से भी उत्पन्न हो सकते हैं, तो फिर जिस प्रकार धूम रूप कार्य की ‘अवधि’ वह्नि होती है, उसी प्रकार ‘रासभ’ भी घूम की अवधि हो सकता है । अगर दूसरा पक्ष मानें तो ( उसका यह उत्तर है कि ) कार्यों की उत्पत्ति से श्रव्यवहित पूर्व क्षण में नियत रूप से रहना ही ‘अवधि’ या ‘कारण’ का कार्य के उत्पादन में ‘उपकार’ स्वरूप है । प्रकृत में ‘उपकार’ शब्द से किसो दूसरे की अपेक्षा नहीं है । इस प्रकार का ‘स्वभाववाद’ स्वीकार करने में कोई बाधा नहीं है । पू० प० - नित्यस्वभाव .. जिस प्रकार आकाश के नित्य होने पर भी उसका आकाशत्व ( शब्दाश्रयत्व — फलतः शब्द ) नित्य नहीं होता । किन्तु इससे यह नहीं कहा जा सकता कि सभी नित्य पदार्थों के सभी धर्म नित्य ही होते हैं ( क्योंकि श्रात्मा स्वयं भो नित्य है और उसका श्रात्मत्व-रूप धर्म भी नित्य है ) उसी प्रकार कारणों से अनपेक्ष अर्थात् ‘आकस्मिक’ कार्यों का भी यह स्वभाव स्वीकार किया जा सकता है कि वे किसी कालविशेष के साथ ही सम्बद्ध हों, अर्थात् ‘कादाचित्क’ हों । सि० प० - सर्वस्य भवत:- " अनन्त कार्यों में रहनेवाला ‘कादाचित्कत्व’ किसी ‘स्व’ रूप कार्यविशेष का ‘भाव’ नहीं हो सकता ( क्योंकि केवल तद्व्यक्ति में रहनेवाला उसका धर्म ही तद्व्यक्ति का ‘स्वभाव’ होता है ) कोई भी एक धर्म अनेक वस्तुओं का स्वभाव नहीं हो सकता । क्योंकि किसी भी धर्म का अनेक वस्तुओं में रहना और ‘स्वभाव’ शब्द से अभिहित होना दोनों बातें परस्पर विरुद्ध हैं ।
प- ये य क- व- न हृीं ) -। का र ते मी की के स नः के र्म “व व प्रथमः स्तबक: १९ स्वानुपपत्तेः । न ह्य ेकमनेकस्वभावं नाम, व्याघातात् । नन्वेवमिहाऽपि सर्वदा भवतः कादाचित्कत्वस्वभावव्याघात इति तुल्यः परिहारः । न तुल्यः, निरवधिएवेऽ- नियतावघित्वे वा कादाचित्कत्वव्याघातात् । नियतावधित्वे हेतुवादाभ्युपगमात् ॥५॥ स्यादेतत् । उत्तरस्य पूर्वः पूर्वस्योत्तरो मध्यमस्य उभयमवधिरस्तु । दर्शनस्य दुरपह्नवत्वात्, त्वयाऽप्येतदभ्युपगन्तव्यम् । न हि भाववदभावेऽप्यु- भयाऽवधित्वमस्ति । तद्वद्भावेष्वप्यनुपलभ्यमाने के ककोटिषु स्यात् । न स्यात्, अनादित्वात् ॥५॥ पू० प० - नन्वेवमिहापि किन्तु यह विरोध तो ‘कादाचित्कत्व’ के साथ भी समान रूप से है, क्योंकि वह भी सभी कार्यों का धर्म है । ( उक्त न्याय के अनुसार ) सभी कार्यों में रहनेवाला ( अर्थात् अनेक वृत्ति) ’ कादाचित्कत्व’ भी किसी ‘स्व’ का ‘भाव’ नहीं हो सकता ) । सि० प० - न तुल्य ं” ( कार्यों का आकस्मिकत्व और कादाचित्कत्व ये दोनों पक्ष पूर्वपक्षी की कथित युक्ति के अनुसार ) समान नहीं हैं। क्योंकि बिना किसी अवधि के कार्यों का होना और अनियत अवधि में होना इन ( निरवधित्व और अनियतावधित्व ) दोनों के साथ कादाचित्कत्व का विरोध है । ( कथित युक्ति के द्वारा कथित दोनों धर्मों में से जब अनियतावधित्व रूप धर्म का प्रतिषेध कर दिया जाता है तो फिर ) कार्यों का नियत अवधि के भीतर उत्पन्न होना सिद्ध हो जाता है जिसकी ‘परिणति’ ‘हेतुवाद’ अर्थात् कार्य-कारणभाव को स्वीकार करने में होती है। पू० प० – स्यादेतत् उत्तरस्य '
4 ‘उत्तर’ अर्थात् ध्वंस का केवल उत्पादक कारण रूप पूर्व अवधि ही स्वीकार करेंगे ( नाशक रूप उत्तर श्रवधि नहीं ) । ‘पूर्व’ का अर्थात् प्रागभाव का केवल नाशक रूप उत्तर श्रवधि ही स्वीकार करेंगे ( उत्पादक कारण रूप पूर्व अवधि नहीं ) । ‘मध्यमों’ की अर्थात् उत्पत्ति और विनाश दोनों के बीच रहनेवाले घटादि पदार्थों की ( उत्पादक और नाशक रूप ) दोनों ही अवधियाँ स्वीकार करेंगे, क्योंकि प्रमाणों के द्वारा निश्चित इस वस्तुस्थिति का अपलाप नहीं किया जा सकता । तुम लोगों ( नैयायिकों ) को भी यह मानना ही होगा कि ( घटादि भाव पदार्थों के समान प्रागभाव और ध्वंस इन दोनों प्रभावों की दोनों अवधियों नहीं हैं । अतः किसी प्रभाव की जिस प्रकार केवल ‘पूर्व अवधि’ रूप एक ही कोटि है, एवं किसी अभाव की ‘उत्तरावधि’ रूप दूसरी कोटि ही है, उसी प्रकार जिन भाव पदार्थों की एक ही कोटि उपलब्ध होगी, उन भाव पदार्थों की भी एक ही कोटि मानेंगे । अर्थात् यह नियम भाव पदार्थों में भी नहीं मानेंगे कि जिस की एक कोटि हो, उस की दूसरी भी कोटि हो ही ) । सि० प० - न, अनादित्वात् … यह बात नहीं हो सकती, क्योंकि कार्यों और कारणों की यह परम्परा अनादि है ||५||
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- गद्यपद्यात्मक न्यायकुसुमाञ्जली
- प्रवाहोऽनादिमानेष न विजात्येकशक्तिमान् ।
- ।
- तत्त्वे यत्नवता भाव्यमन्वयव्यतिरेकयोः ॥ ६ ॥ प्रागभावो ह्युत्तरकालावधिरनादिः एवं भावोऽपि घटादिस्स्यात् । अनुपलभ्यमान प्राक्कोटिकघटादिविषयं नेदमनिष्टमिति चेन्न । तावन्मात्रावधि- स्वभावत्वे तदर्हवत्पूर्वेद्युरपि तमवधीकृत्य तदुत्तरस्य सत्त्वप्रसङ्गात् । श्रपेक्षरणी- यान्तराभावात् । एवं पूर्वपूर्वमपि । भावे, तदेव सदातनत्वम् । तदहरेवानेन भवितव्य- मित्यस्य स्वभाव इति चेन्न । तस्याप्यह्नः पूर्वन्यायेन पूर्वमपि सत्त्वप्रसङ्गात् । प्रवाहोऽनादिमानेष…
- कार्यकारण की यह धारा अनादि है । विभिन्न जातियों की अनेक वस्तुओं में एक जाति की वस्तुओं के उत्पादन करने की शक्ति भी नहीं मानी जा सकती । ‘कौन किसका कारण है और कौन किसका कार्य है’ इसको समझने के लिये अन्वय और व्यतिरेक को समझने के पीछे यत्नपूर्वक तत्पर होना चाहिए ।
- सि० प० - प्रागभावो हि
- प्रागभाव का तो ( नाशक रूप ) उत्तर अवधि ही है, पूर्व अवधि नहीं, अतः वह अनादि है । ( यदि प्रागभाव के दृष्टान्त से पूर्व अवधिरूप कारण के बिना ही घटादि भाव पदार्थों में भी कादाचित्कत्व की उपपत्ति करें तो फिर प्रागभाव के समान ) घटा द भाव पदार्थ भी अनादि हो जायेंगे ।
- पू० प० - अनुपलभ्यमान
जिन ( भावपदार्थी ) का पूर्व श्रवधिरूप कारण उपलब्ध नहीं होगा, उन घटादि भाव पदार्थों के प्रसङ्ग में उक्त अनादित्व की आपत्ति को इष्ट मान लेने में कोई बाधा तो नहीं है ? सि० प० - न, तावन्मात्रावधि……. एसी बात नहीं हो सकती ( क्योंकि यदि घटादि पदार्थों को नित्य मानें तो फिर ) उन घटादि पदार्थों से आज उत्पन्न होनेवाले ( जलाहरणादि ) कार्यों के समान श्राज से पूर्व दिन भी उन से होनेवाले जलाहरणादि कार्यों की उत्पत्ति माननी होगी। क्योंकि उन ( जलाहरणादि ) कार्यों को अपनी उत्पत्ति के लिये कोई और वस्तु अपेक्षित नहीं है । इसी प्रकार फिर उससे भी पहिले उन ( जलाहरणादि ) कार्यों की उत्पत्ति माननी पड़ेगी, जिससे सभी समयों में कार्यों की उत्पत्ति रूप सदातनत्व की आपत्ति होगी । पू० प० - तदहरेवानेन … ( जलाहरणादि ) कार्यों का ही यह स्वभाव स्वीकार करें कि वे उसी दिन उत्पन्न हों ( उस से पहिले के दिनोंमें नहीं ) । सि० प० - तस्याप्यह्नः “पहिले ही जलाहरणादि कार्योंकी उत्पत्ति क्यों नहीं होती ?” इस आपत्ति के समाधान के लिये जो युक्ति दी गयी है, उसी युक्ति से यह भी कहा जा सकता है कि “वह निर्दिष्ट दिन ही ‘उस से पहिले क्यों नहीं उत्पन्न हो जाता ?” अतः ( कार्यों के प्रत्यक्षसिद्ध कादाचित्कत्व
- 4 । ध- प-
। ति है the As छे न्तः दि व दि ETT न ती से न न ही स्व प्रथमः स्तबकः २१ तस्मात्तस्यापि तत्पूर्वकत्वमेवं तत्पूर्वस्यापीत्यनादित्वमेव ज्यायो न त्वपूर्वानुत्पादे कस्यचिदपूर्वस्य सम्भव इति । तथापि व्यक्तयपेक्षया नियमोऽस्तु, न जात्यपेक्षयेति चेन्न । नियतजातीयतास्वभावव्याघातात् । यदि हि यतः कुतश्चिद्भवन्नेव तज्जातीयस्वभावस्स्यात्, सर्वस्य सर्वजातीयत्वमेकजातीयत्वं वा स्यात् । एवं तज्जातीयेन यतः कुतश्चिद्भवितव्यमित्यस्य स्वभाव:, तदाऽपि सर्वस्मात् सर्वजातीय- मेकजातीयं वा स्यात् । कथं तर्हि तृणारणिमणिभ्यो भवन्नाशुशुक्षरिणरेकजातीयः ? एकशक्तिमत्त्वादिति चेन्न । यदि हि विजातीयेष्वप्येकजातीय कार्यकारणशक्तिस्सम- की अनुपपत्ति से बचनेके लिए ) यही मानना उचित है कि ‘घटादि कार्यों के उत्पादक- कारणों का समूह भी किसी दूसरे कारणों के समूह से उत्पन्न होता है, यह दूसरा कारण- समूह भी किसी तीसरे कारणों के समूह से उत्पन्न होता है । अतः ( कार्य और कारण की धारा को ) अनादि मानना ही उचित है । यदि ‘अपूर्व’ की ( अर्थात् पहिने से अविद्यमान कारणों की ) उत्पत्ति न मानें तो फिर ‘अपूर्व’ को ( अर्थात् पहिले से श्रविद्यमान कार्यों की ) उत्पत्ति भी न हो सकेगी । पू० प० - तथापि … ( अन्वय और व्यतिरेक से युक्त कोई व्यक्ति विशेष ही किसी कार्यव्यक्ति विशेष का कारण है— इस प्रकार ) व्यक्ति के आधार पर ही कार्यकारणभाव को मानना उचित है । ( अर्थात् जिस कार्यव्यक्ति का अन्वय और व्यतिरेक जिस कार्यव्यक्ति के साथ है, उस कार्य - व्यक्ति की सजातीय जितने भी कार्यव्यक्ति हैं, उन सबके प्रति उक्त कारणव्यक्ति की सजातीय जितने भी कारणव्यक्ति हैं, सभी कारण हैं, इस प्रकार ) जाति के आधार पर कार्यकारणभा का मानना उचित नहीं है । सि० प० – न, नियतजातिस्वभावता ऐसा मानने से एक दण्डव्यक्ति से जिस जाति की घटव्यक्ति की उत्पत्ति होती है, एवं दूसरी दण्डव्यक्ति से जिन दूसरी घटव्यक्ति की उत्पत्ति होती है, उन दोनों ही घटों में ‘श्रयं घट:’ इस एक ही आकार की प्रतीति होती है । व्यक्तिसापेक्ष कार्यकारणभाव के मानने पर विभिन्न कार्य- व्यक्ति में जो एकनियतजातीयता की उक्त प्रतीति होती है, वह न हो सकेगी । अगर जिस किसो जातिके कारणों से एक सजातीय कार्यों की हो उत्पत्ति मानें तो फिर सभी जाति के कारणों से सभी जाति के कार्यों को उत्पत्ति माननी होगी, या फिर सभी जाति के कारणों से एक ही जाति के कार्यों की उत्पत्ति स्वीकार करनी होगी । पू० प० - कथं तर्हि ……. ( यदि ऐसी स्थिति है तो फिर ) तिनकों से, लकड़ियों से एवं सूर्यकान्तमणि से वह्नि रूप एक ही जातिके कार्य की उत्पत्ति किस प्रकार होती है ? मीमांसकमत से इस का समाधान - एकशक्तिमत्वात् तृण ( तिनका ) अरणि (काष्ठ) और ( सूर्यका त ) मणि इन विभिन्न जाति की वस्तुत्रों में वह्निस रूप एक जाति की विभिन्न वह्निभ्यक्तियों को उत्पन्न करने की ‘एक जाति की CCO. Vasishtha Tripathi Collection. Digitized by eGangotri२२ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली वेयान्न कार्यात्कारणविशेषः काप्यनुमीयेत । कारणव्यावृत्त्या च न तज्जातीयस्यैव कार्यस्य व्यावृत्तिरवसीयेत । तदभावेऽपि तज्जातीयशक्तिमतोऽन्यस्मादपि तदुत्पत्ति- संभवात् । प्रावद्दर्शनं व्यवस्था भविष्यतीति चेन्न । निमित्तस्याऽदर्शनात् दृष्टस्य चानिमित्तत्वात् । एतेन सूक्ष्मजातीयादिति निरस्तम् । श्रवह्नेरपि तत्सौक्ष्म्याद्धू- शक्ति’ है । इस ( एकजातीय शक्ति के बल से ही तृणादि विभिन्न जातीय वस्तुओं ) से भी वह्नि रूप एकजातीय कार्य की उत्पत्ति होती है । सि० प० - मीमांसकों की इस उपपत्तिका खण्डन – न, यदि हि ………
हि……………. यह ( उपपत्ति ठीक ) नहीं है, क्योंकि विभिन्न जाति को व्यक्तियों में भी यदि एक जाति के कार्यों को उत्पन्न करने की शक्ति मानी जाय, तो फिर विशेष प्रकार के कार्य (रूप हेतु) से विशेष प्रकार के कारण का जो अनुमान होता है, एवं कारणविशेष के प्रभाव से जो उस जाति के कार्य के अभाव का अनुमान होता है, ये दोनों ही अनुमान न हो सकेंगे। क्योंकि उस जाति के कारण के न रहने पर भी विशेष प्रकार कार्य के उत्पादन की शक्ति से युक्त किसी अन्य जाति के कारणों से भी उसी जाति के कार्यों को उत्पत्ति ( मीमांसकों के उक्त मत के अनुसार ) हो सकती है । पू० प० - ( मीमांसा के मत से ) यावद्दर्शनम् जिन कारणों से जिस कार्य की उत्पत्ति प्रमाण के द्वारा सिद्ध होगी, उन्हीं कारणों में उस कार्य के उत्पादन की शक्ति स्वीकार करेंगे ( इस प्रकार तृणादि में से प्रत्येक में परस्पर निरपेक्ष वहूति के उत्पादन की शक्ति की कल्पना करेंगे, क्योंकि वह प्रमाण से अनुमोदित है । किन्तु प्रमाण से विरुद्ध होने के कारण तन्तुत्रों में घट के उत्पादन की शक्ति नहीं मानेंगे ) । सि० प० – निमित्तस्य…… ( इस का तो यह अर्थ हुआ कि शक्ति के प्रतीन्द्रय होने के कारण जो शक्तिविशिष्ट तृणादि अप्रत्यक्ष हैं उन को ( आप मीमांसक ) कारण मानते हैं; किन्तु वे ही तृणादि जिन तृणत्वादि रूपों से प्रत्यक्षसिद्ध हैं, उन तृणत्वादि रूपों से उन में वह्नि की कारणता नहीं मानते । एतेन …………. ( “कार्य के उत्पादन को शक्ति से युक्त तृणादि ही कारण हैं, केवल तृणत्वादिविशिष्ट तृणादि कारण नहीं हैं” इस पक्ष के खण्डन की युक्ति से ही यह ‘कुर्वद्रूपत्व’ रूप ) " सूक्ष्म जातिसे युक्त वस्तुओं से ही कार्य की उत्पत्ति होती है” यह बौद्धों का पक्ष भी खण्डित हो जाता है । क्योंकि वह्नि से भिन्न अथ च घूमकुर्वद्रूपत्वविशिष्ट अन्य पदार्थों से भी घूम की उत्पत्ति इस पक्ष में संभव होगी ।
मोत्पत्यापत्तेः । प्रथमः स्तबक: २३ कायंजातिभेदाभेदयोस्समवायिभेदाभेदावेव तन्त्रं न - निमित्ता- समवायिनी इति चेन्न । तयोरकारणत्वप्रसङ्गात् । न हि सति भावमात्रं तत्, किन्तु सत्येव भावः । न च जातिनियमे समवायिकारणमात्रं निबन्धनम् अपि तु सामग्री । अन्यथा द्रव्यगुणकर्मणामेकोपादानकत्वे विजातीयत्वं न स्यात् । न च कार्यद्रव्यस्यैषा रीतिरिति युक्तम् । श्रारब्धदुग्बेरेवाऽत्रयवैर्दध्यारम्भदर्शनात् । एतेनाsपोहवादे नियमो निरस्तः, कार्यकारणभावाद्वेत्यादि विप्लवप्रसङ्गात् । पू० प० – कार्यजाति”
विभिन्न समवायिकारणों से उत्पन्न होने से ही कार्य विभिन्न होते हैं । निमित्तकारण असमवायिकारण इन दोनों की विभिन्नता कार्यों में परस्पर भेद के नियामक नहीं हैं । सि० प० - न तयो:….. ऐसी बात नहीं हो सकती, क्योंकि ऐसा मानने पर निमित्तकारण और असमवायिकरण ये दोनों अपना कारणत्व ही खो बैठेंगे । ‘कार्य से पूर्व जो विद्यमान रहे’ कारण का यही लक्षण नहीं है, किन्तु ‘जिसके रहने से ही कार्यकी उत्पत्ति हो’ यही कारण का लक्षण है । ‘कौन सा कार्य किस जाति का हो ?’ इसका नियमन किसी भी एक कारण से संभव नहीं है । किन्तु कार्य की उत्पत्ति के लिये जितने भी कारण अपेक्षित हों - वे सभी अर्थात् सामग्री ही कार्यों के जातिभेद की नियामिका हो सकती है । अगर ऐसी बात न हो ( केवल समवायिकारण को ही कार्य में रहनेवाली विभिन्न जातियों का नियामक मान लें तो फिर ) द्रव्य, गुण और कर्म ये तीनों विभिन्न जातिके न रह जायेंगे, क्योंकि इन तीनों के ही समवायिकारण द्रव्य ही हैं । पू० प० - न च कार्यद्रव्यस्य " द्रव्य रूप कार्यों में रहनेवाली जातियों का ही नियसन समवायिकारण से मानेंगे ( गुण एवं कर्म रूप कार्यों में रहनेवाली जातियों का नहीं ) । सि० प० – न, आरब्ध दुग्धे ….. यह भी संभव नहीं है, क्योंकि दूध के उत्पादक अवयवों से ही ( अर्थात् दूध के उत्पादक पार्थिवपरमाणुओं से ही ) दही की भी उत्पत्ति होती है। ( श्रर्थात् दूध और दही दोनों विभिन्न द्रव्य रूप कार्य हैं, किन्तु दोनों के समवायिकरण एक ही पृथिवीत्व जाति के परमाणु हैं ) । एतेन ( मीमांसकों के इस शक्तिकारणतावाले पक्ष में “कार्य से कारणानुमान और कारणों के अभाव से कार्याभाव का अनुमान इन दोनों अनुमानों की अनुपपत्ति के लिये कही गयी युक्ति से ही बौद्धों के ) ‘अपोहवाद’ में भी ‘नियम’ की अर्थात् व्याप्ति की अनुपपत्ति प्रदर्शित हो जाती है, क्योंकि ( उन दोनों अनुमानों की अनुपपत्ति से बौद्धों के ) ‘कार्यकारणभावाद्वा’ इत्यादि श्लोक के द्वारा कथित व्याप्तिके नियामक अनुपपन्न हो जाते हैं ।
२४ गद्यपद्यात्मक-न्यायंकुसुमाञ्जली तस्मान्नियतजातीयतास्वभावभङ्ग ेन व्यक्त्यपेक्षयैव नियम इति न, फूत्कारेण तृणादेरेव, निर्मन्थनेनारणेरेव, प्रतिफलिततरणि किरणैर्मणेरेवेति प्रकारनियम- वत्तेनैव व्यज्यमानस्य कार्यजातिभेदस्य भावात् । दृश्यते च पावकत्वाविशेषेऽपि प्रदीपः प्रासादोदरव्यापकमालोकमारभते, न तथा ज्वालाजालजटिल ेऽपि दारुदहनो न तराञ्च क़ारीषः ॥ यस्तु तं नाऽऽकलयेत् स कार्यसामान्येन कारणमात्रमनुमिनुयादिति किमनुप- पन्नम् ? एवं तर्हि घूमादावपि कश्चिदनुपलक्षणीयो विशेषः स्याद्यस्य दहनापेक्षेति न घूमा दिसामान्याद्वह्निसामान्यासिद्धिः । एतेन व्यतिरेको व्याख्यातः । तथा च कार्यानुपलब्धिलिङ्गभंगे स्वभावस्याप्यसिद्धेर्गतमनुमानेनेति चेत्. प्रत्यक्षानुपलम्भगोचरो जातिभेदो न कार्यंप्रयोजक इति वदतो बौद्धस्य शिरस्येष प्रहारः । अस्माकन्तु तस्मात् “अमुक विशेष प्रकार के कारणसमुदाय से उत्पन्न होने के कारण अमुक कार्यव्यक्ति ही अमुक जाति की हो” इस प्रकारका व्यक्तिविश्रान्त” कार्यकारणभाव स्वीकार नहीं किया जा सकता । क्योंकि ऐसा स्वीकार करनेपर “अमुक जाति के कारणों से उत्पन्न सभी कार्यों का किसी नियत जाति के ही होने का जो स्वभाव सर्वसिद्ध है, वह अनुपपन्न हो जायगा । फूत्कारेरण…… जैसे फुकने से केवल तृण के द्वारा रगड़ खाने से केवल लकडियों के द्वारा, और सूर्य के उपयुक्त तेजःसंयोग से केवल सूर्यकान्तमणि के द्वारा ही वह्नि की उत्पत्ति होतो है, उसी प्रकार तत्तद्वह्नि में रहनेवाली जो तार्णत्वादि ( वह्नित्व की ) अवान्तर जातियाँ हैं, उन की अभिव्यक्ति भी उन्हीं सहकारिकारणों से होती है । देखा भी जाता है कि प्रदीप से कोठरी में जिस प्रकार का नियमित प्रकाश होता है, उस से बड़े दावानल से भो उस प्रकार का नियमित प्रकाश नहीं होता । गोइठे को आग से तो, जरा भी उस प्रकार का प्रकाश नहीं होता, यद्यपि तीनों ही वह्नियोंमें वह्नित्व-जाति समान भाव से है ! यस्तु तम्….. अतः यदि इन विशेषों की आलोचना न करनेवाला कोई पुरुष सामान्यतः वह्नि रूप- कार्य से उसके सामान्य कारणों का ही अनुमान करे तो इसमें कौन सी हानि है ? पू० प० - एवं तहि….. इस प्रकार तो ( अग्नि मे तार्णत्वादि जातियों के समान ) धूम में भी वह्नजनित किसी ‘विशेष जाति’ की सत्ता माननी पड़ेगी, जिस से धूम सामान्य के द्वारा वह्निसामान्य का अनुमान अनुपपन्न हो जायगा । एवं इसी अनुपपत्ति से ‘व्यतिरेक’ अर्थात् अनुपलब्धिमूलक सामा- न्याभाव के अनुमान की अनुपपत्ति भी जान लेनी चाहिए। इन दोनों अनुपपत्तियों से ‘स्वभाव- लिङ्गक’ अनुमान स्वतः अनुपपन्त हो जाता है ।
पं T- न च रो तु क्त या भी र है, याँ कि उस का -प- सी का HT- व- प्रथमः स्तबक: यत्सामान्याक्रान्तयोर्ययोरन्वयव्यतिरेकवत्ता तयोस्तथैव २५ हेतुहेतुमद्भावनिश्चयः । तथा चाऽवान्तरविशेषसद्भावेऽपि न नो विरोधः । किं पुनस्तारर्णादौ दहनसामान्यस्य प्रयोजकम् ? तृणादीनां विशेष एव नियतत्वादिति चेत् ? तेजोमात्रोत्पत्ती पवनो निमित्तम्, प्रवयवसंयोगोऽसमवायी, तेजोऽवयवाः समवायिनः । इयमेव सामग्री गुरुत्ववद् द्रव्यसहिता पिण्डितस्य । इयमेव तेजोगतमुद्भूनस्पर्शमपेक्ष्य दहनम्, तत्राऽपि जलं प्राप्य दिव्यम्, पार्थिवं प्राप्य भौमम्, उभयं प्राप्यौदर्यमारभत इति स्वयमूह- नीयम् ॥६॥ सि० प० प्रत्यक्षानुपलम्भ” जो प्रत्यक्ष से सिद्ध अन्वय और व्यतिरेक (अनुपलम्भ) इन दोनों से निर्णीत वीजत्वादि जातियों को अंकुरादि कार्यों की उत्पत्ति का प्रयोजक नहीं मानते, उन बौद्धों के शिर पर ही यह ( अनुमानमात्रोच्छेद का ) प्रहार हो सकता है । यत्सामान्याक्रान्तयो… हम लोगों के मत में जिस जाति के जिस कार्य के साथ जिस जाति से युक्त जिस कारणव्यक्ति का अन्वय और व्यतिरेक गृहीत होता है, उस जाति की सभी कार्यव्यक्तियों के साथ उस जाति की सभी कारणव्यक्तियों का कार्यकारणभाव गृहोत होता है । इस रीति को मान लेने पर कार्यों में ( महासामान्य के ) अवान्तर किसी व्याप्य जाति की सत्ता - यदि है भी, तथापि हम लोगों को कोई आपति नहीं है । पू० प० किं पुनः ….. तृणादि से उत्पन्न विशेष प्रकार के अग्नियों में जिस वह्नित्व जाति को आप ने स्वीकार किया है, उस का प्रयोजक कौन है ? क्योंकि अग्नि के तृण- प्रभृति जितने भी कारण उपलब्ध हैं, वे सभी नियमतः विशेष प्रकार के वह्नि के ही उत्पादक हैं ( अर्थात् वे तार्णत्वादि विशेष धर्मो के ही प्रयोजक हो सकते हैं, वह्नित्व रूप सामान्य धर्म के नहीं ) । सि० प० तेजोमात्रोत्पत्तौ … केवल तेज की उत्पत्ति में तेजस अवयवों के संयोग असमवायिकारण हैं, तैजस अवयव समावायिकारण हैं, और वायु प्रभृति निमित्तकारण हैं ( अर्थात् तृगादि-जनित विशेष प्रकार के अग्नियों में जो ‘तेजस्त्व’ जाति है, उसका प्रयोजक कारणों का उक्त समूह है ) । इसी कारणसमूह में जब गुरुत्व से युक्त द्रव्य भी सम्मिलित हो जाता है ( तो वही गुरुद्र - यघटित ) सामग्री सुवर्णादि घनीभूत तैजस द्रव्यों का उत्पादन करती है ( अर्थात् यही सामग्री तेजस्त्व- व्याप्य सुवर्णत्वादि जातियों की नियामिका होती है ) । ( गुरुद्रव्यघटित उक्त ) सामग्री में जब प्रत्यक्ष के योग्य उष्ण स्पर्श जा मिलता है, तब वही उक्त उष्णस्पर्श-घटित सामग्री वह्नि को उत्पन्न करती है ( अर्थात् यही उद्भूत-उष्णस्पर्शघटित सामग्री तार्णादि सभा वह्नियों में रहनेवाली वह्निव जाति की प्रयोजिका है । ( वह्निव प्रयोजिका इस ) सामग्री को ही जब जल का सहयोग प्राप्त होता है, तो उस जलघटित सामग्री से ही (विद्युत् प्रभूति) दिव्य तेजों की ४
२६ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली तथाप्येकमेकजातीयमेव वा किञ्चित् कारणमस्तु कृतं विचित्रेण । दृश्यते ह्यविलक्षरणमपि विलक्षरणाऽनेककार्यकारि । यथा प्रदीप एक एव तिमिरापहारी, वतिविकारकारी, रूपान्तरव्यवहारकारीति चेन्न, वैचित्र्यात् कार्यस्य । एकस्य न क्रमः क्वापि वैचित्र्यञ्च समस्य न । शक्तिभेदो न चाभिन्नः स्वभावो दुरतिक्रमः ॥७॥ उत्पत्ति होती है । उसी सामग्री को जब (जल के बदले ) लकड़ी प्रभृति पार्थिव द्रव्यों का सहयोग प्राप्त होता है, तो उसी से भौमवह्नि की उत्पत्ति होती है । वह्नित्व जाति की प्रयोजिका सामग्री को ही जब जल और पार्थिव द्रव्य दोनों का सहयोग एक साथ प्राप्त होता है, तो उसी से औदर्य वह्नि की उत्पत्ति होतो है । इसी प्रकार और स्थितियों में अन्य प्रकार से ऊहन करना चाहिए ॥ ६ ॥ पू० प० तथापि …… ‘कार्यो’ का कोई कारण है’ यह मान लेने पर भी ( १ ) किसी एक (ब्रह्म) को ही सभी कार्यों का कारण मानिये या (२) उन अनेक वस्तुओं को ही कार्यों का कारण मानिये जो ( व्यक्तिशः भिन्न होते हुए भी) जातित: एक हैं । उन व्यक्तियों में विभिन्न जातियों को स्वीकार करने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि एक ही जाति के कारणों से विविध प्रकार के कार्य वैसे ही उत्पन्न हो सकते हैं, जैसे कि एक ही दीप अन्धकार का भी अपहरण करता है, वर्तिका में विकार को भी उत्पन्न करता है एवं स्व से भिन्न घटादि द्रव्यों के रूपों को भी प्रकाशित करता है । सि० प० न, वैचित्र्यात्.. 1 ऐसी बातें नहीं हो सकतीं, क्योंकि कार्य विभिन्न प्रकार के देखे जाते हैं । एकस्य न क्रमः ….. (१) सभी कार्यों का एक ही कारण स्वीकार कर लेने से कार्यों की क्रमशः उत्पत्ति नहीं हो सकेगी । ( २ ) सभी कार्यों की उत्पत्ति अनेक कारणों से मान लेने पर भी उन कारणों को यदि एकजातीय मानेंगे तो फिर कार्यों में परस्पर जो विचित्रता है उस की उपपत्ति नहीं हो सकेगी । (३) (एक ही जाति के उन विभिन्न कारणों में) विविध प्रकार के कार्यों की उत्पत्ति के अनुकूल विशेष प्रकार की शक्तियों को स्वीकार कर लेने पर भी कार्यों का कथित वैचित्र्य अनुपपन्न ही रहेगा, क्योंकि उक्त शक्तियाँ अपने श्राश्रयीभूत उन कारणों से भिन्न हैं । ( ४ ) एक जाति के उन कारणों में विचित्र प्रकार के कार्यों को उपन्न करने का ‘स्वभाव’ यदि स्वीकार कर लेंगे, तथापि कार्यों का उक्त वैचित्र्य अनुपपन्न ही रहेगा । ( क्योंकि एक कार्य को उत्पन्न करने के समय भी उनमें दूसरे कार्यों को उत्पन्न करने का वह स्वभाव बना ही रहेगा ) अतः ‘स्वभाव’ का प्रतिक्रमण किसी भी समय नहीं किया जा सकता !
श्यते परी, योग मन्त्री से रना ही जो कार ही कार हो दि " ही के गे, के तः प्रथमः स्तबक: २७ न तावदेकस्मादनपेक्षादनेकम्, अक्रमात् क्रमवत्कार्यानुपपत्तेः । क्रमवत्तावत्- कार्यंकाररणस्वभावस्वात् तस्य तत्तथा यौगपद्यवदिति चेत् ? अयमपि क्षरणभङ्ग परिहारः, न तु सहकारिवादे । पूर्वपूर्वानपेक्षायां क्रमस्यैव व्याहतेः क्रमनियमे त्वनपेक्षानुपपत्तेः । नाप्यनेकमविचित्रम्, यदि ह्यन्यूनमनतिरिक्त’ वा दहन कारण नदहन- सि० प० न तावत्” बिना दूसरे कारणों के साहाय्य से किसो ‘एक’ ही कारण से ‘अनेक’ अर्थात् विविध कार्यों को क्रमशः उत्पत्ति न हो सकेगी, क्योंकि ‘चक्रम’ से अर्थात् विना उत्पादक सहकारि- कारणों के कार्यों की क्रमशः उत्पत्ति संभव नहीं है । पू० प० क्रमवत्तावत् जिस प्रकार एक ही ( प्रदीप ) में एक हो समय अनेक कार्यों के उत्पादन की सामर्थ्य ( नैयायिक ) स्वीकार करते हैं, उसी प्रकार एक कारण में ही अपने सभी कार्यों को क्रमश: उत्पन्न करने का स्वभाव स्वीकार करेंगे । इस प्रकार ‘तत्’ अर्थात् कार्य ’ तथा ’ अर्थात् क्रमशः उत्पन्न हो सकते हैं । सि० प० अयमपि ( १ ) यह समाधान भी क्षणभङ्गवादी बौद्धों के लिये भले ही उपयोगी हो, हम सहकारि- वादियों के लिये उपयोगी नहीं है । (२) एवं (एक ही कारण से या एकजातीय कारणों से उत्पन्न होनेवाले आगे आगे के कार्यों को यदि पहिले पहिले के कार्यों की अपेक्षा न हो तो फिर ) कार्यों का क्रमशः उत्पन्न होना ही संभव नहीं होगा । ( ३ ) ( यदि क्रमशः उत्पन्न होनेवाले कार्यों में से आगे आगे के कार्य को पहिले के कार्य से सापेक्ष मान कर कार्यों का क्रमिकत्व उत्पन्न करें तो फिर ) यह सिद्धान्त ही नहीं स्थिर रहेगा कि “किसी और कारण के साहाय्य के विना ‘एक’ ही कारण से सभी कार्यों की उत्पत्ति होती है ।” सि० प० नाप्यनेकम्… एक जाति की अनेक वस्तुएं भी ( वैचित्र्य के प्रयोजक नहीं हो सकते ) अगर वह्नि के लिये जितने कारण अपेक्षित होते हैं—न उनसे अधिक न उनसे कम-ठीक उतने ही कारणों से वह्नि से भिन्न घटादि कार्यों की भी उत्पत्ति मानें तो फिर वे ( घटादि ) कार्य वह्नि से भिन्न ही न रह जायेंगे । ( अर्थात् वह्नि से भिन्न घटादि भी वह्नि ही हो जायेंगे ) । ( इसी प्रकार ) वह्नि से भिन्न घटादि कार्यों के लिये जितने कारणों की अपेक्षा है-न अधिक न कम - उतने ही कारणों से यदि ‘दहन’ अर्थात् वह्नि रूप कार्य की उत्पत्ति मानी जाय तो फिर वह ‘दहन’ रूप कार्य ‘दहन’ अर्थात् वह्नि रूप न होकर ‘प्रदहन’ अर्थात् वह्नि से भिन्न कार्य स्वरूप ही होगा ।
२६ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जलौ स्यापि हेतु:, नासावदहनो दहनो वा स्यादुभयात्मको वा स्यात् । न चैवम् । शक्तिभेदादयमदोष इति चेन्न, धर्मिभेदाभेदाभ्यां तस्यानुपपत्तेः । श्रसङ्कीर्णोभय- जननस्वभावत्वादयमदोष इति चेन्न, न हि स्वाधीन मस्यादहन त्वम्, ग्रपि तु तज्जनकस्वभावाधीनम् । तथा च तदायत्तत्वाद् दहनस्यापि तत्त्वं केन वारणीयम् ? इसी प्रकार परस्पर विरोध के कारण ‘दहन’ स्वरूप कार्यं दहन और प्रदहन दोनों स्वरूपों का भी नहीं हो सकता । एवं उसी रीति से परस्पर विरोध के कारण ही ‘अदहन’ अर्थात् वह्नि से भिन्न स्वरूप कार्य वह्नि से भिन्न और वह्नि इन दोनों स्वरूपों का भी नहीं हो सकता । शक्तिभेदात् …… सभी कार्यों के एक ही जाति के कारणों में ही यदि विभिन्न जातीय कार्यों को उत्पन्न करने की विशेष प्रकार की शक्तियाँ मान ली जायें तो कथित प्रपत्तियों का उद्धार हो सकता है ( इसके लिये विभिन्न जातीय कारणों की कल्पना आवश्यक नहीं है ) । सि० प० न, धर्मिभेद……. ऐसी बात नहीं हो सकती, क्योंकि उक्त शक्ति को यदि आश्रयीभूत कारणों से भिन्न मान लें तो फिर (एक जाति के कारणों से ही विभिन्न जाति के कार्यों को उत्पत्ति होती है) यह सिद्धान्त ही व्याहत हो जायगा । ( क्योंकि उस कारण से भिन्न उक्त शक्ति को कार्यों की विचित्रता का प्रयोजक मान लिया है ) । यदि उक्त शक्ति को आश्रयीभूत कारणों से अभिन्न मानें तो फिर इस शक्ति को मान लेने से भी कोई अन्तर आने वाला नहीं है । अत: इस पक्ष में भी कार्यो की विचित्रता की अनुपपत्ति ज्यो की त्यों है । पू० प० – सङ्कीर्णोभय…….
एक ही जाति के कारणों में वह्नि रूप कार्य को उत्पन्न करने का एवं वह्नि से भिन्न कार्यों को उत्पन्न करने का परस्पर निरपेक्ष ( एक दूसरे से असम्बद्ध ) दो स्वभावों को स्वीकार कर लेने से ही कथित दोष हट जाँयगे । सि० प० न, न हि ………. ….. । ऐसा भी नहीं हो सकता, क्योंकि घटादि पदार्थ यों ही वह्नि से भिन्न नहीं हैं । वे वह्नि से भिन्न इस लिये हैं कि वह्नि से भिन्न कार्यों को उत्पन्न करने के स्वभाव से युक्त कारणों से वे उत्पन्न होते हैं । उन्हीं कारणों में यदि वह्नि को उत्पन्न करने का स्वभाव भी मान लें तो फिर वह्नि से भिन्न घटादि कार्यों में वह्नित्व की आपत्ति किस प्रकार हटाई जा सकती है ? क्योंकि किसी भी कार्य में वह्नित्व के लिये इतना ही पर्याप्त है कि वह वह्नि को उत्पन्न करने के स्वभाव से युक्त कारणों से उत्पन्न हो । यह तो नहीं कहा जा सकता कि वह्नि से भिन्न कार्यों के उन एक जातीय कारणों में वह्नि को उत्पन्न करने का स्वभाव नहीं रहता ( क्योंकि ऐसा मानने पर वह ‘स्वभाव’ ही न रह पायगा ) । सुतराम् कार्य जिस लिये कि विविध प्रकार के हैं, अतः कारणों
। य- तु ? नों त्ि ।। E the न लें न्त का फर र्यो भन्न को वह्नि से वे फिर पोंकि भाव उन पर रणों प्रथमः स्तबक: रह न हि तस्मि नजनयितव्ये नासौ तत्स्वभावः । तस्माद्विचित्रत्वात् कार्यस्य कारणेनापि विचित्रेण भवितव्यम् । न च तत्स्वभावतस्तथा । ततस्सहकारिवैचित्र्यानुप्रवेशः । न तु क्षणोऽपि तदनपेक्षस्तथा भवितुमर्हतीति ॥ ७ ॥ श्रस्तु दृष्टमेव सहकारिचक्रम्, किमपूर्वकल्पनयेति चेन्न, विश्ववृत्तितः । विफला विश्ववृत्तिर्नो न दुःखंकफलाऽपि वा । दृष्टलाभफला नापि विप्रलम्भोऽपि नेदृशः ॥८॥ यदि हि पूर्वपूर्वभूतपरिणतिपरम्परामात्रमेवोत्तरोत्तरनिबन्धनम्, न परलोकार्थी कश्चिदिष्टापूर्त्तयोः प्रवर्त्तेत । न हि निष्फले दुःखैफले ता कश्चिदेकोऽपि प्रेक्षापूर्व- को भी विभिन्न जातियों का होना ही चाहिये । एकजातीय कारणों में विभिन्न जातियों के कार्यों की नैसर्गिक क्षमता नहीं है । अत: कार्यों के वैचित्र्य के लिये कारणों के समूह में विभिन्न सहकारियों का प्रवेश आवश्यक है । ( वौद्धसम्मत विशेष प्रकार के ) क्षण भी विभिन्न सहकारियों के विना विभिन्न प्रकार के कार्यों का उत्पादन नहीं कर सकते । ॥ ७ ॥ पू० प० ग्रस्तु दृष्टमेत्र ….. ( कार्यों के उत्पादक समूहरूप सामग्री को विवध कारणों का समूह स्वरूप स्वीकार कर लेने पर भी ) वह समूह प्रत्यक्ष योग्य वस्तुनों का ही मान लिया जाय । उस समूह में अपूर्व या अदृष्ट को ले आने को कौन सी आवश्यकता है ? सि० प० न, विश्ववृत्तितः…… ऐसा नहीं हो सकता, क्योंकि विश्व में जितने भी जीव परलोक की इच्छा रखते हैं, वे सभी यागादि कामों में प्रवृत्त दीखते हैं । विफना विश्ववृत्तिर्नो…….. संसार के सभी परलोक चाहने वालों की ( कूप तडागादि कार्यों की ) उक्त प्रवृत्तियाँ निष्फल नहीं हो सकतीं । केवल दुःख ही इन प्रवृत्तियों से उत्पन्न नहीं हो सकता । केवल धनादि दृष्ट फलों के लिये भी इन कार्यों में कोई प्रवृत्त नहीं हो सकता । इस प्रकार की वञ्चना ( ठगी ) भी स्वीकार नहीं की जा सकती ( कि केवल लोगों को ठगने के लिये ही कोई भी इन कार्यों को करता है ) । सि० प० यदि हि… ( अगर ( कार्यों से ) पहिले अवश्य रहने वाले ( प्रत्यक्ष से सिद्ध केवल दण्डादि ) ‘भूत पदार्थ ही आगे आगे होने वाले घटादि रूप सभी कार्यों के कारण हों तो फिर (स्वर्गादि) परलोक’ की कामना से पुरुष (श्रौत यागादि) ‘इष्ट’ कार्यों में एवं (स्मात’ कूप तडागादि के खनन रूप) ‘पूर्त’ कार्यों’ में प्रवृत्त न होता । जिस कार्य का कोई भी फल न हो या जिस से केवल दुखः रूप
३० गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जलौ कारी घटते, प्रागेव जगत् । लाभ पूजाख्यात्यर्थमिति चेत्, लाभादय एव किन्निबन्धना: ? न हीयं प्रवृत्तिः स्वरूपत एव तद्धेतुः यतो वाऽनेन लब्धव्यम्, यो वैनं पूजयिष्यति, स किमर्थम् ? ख्यात्यर्थमनुरागार्थश्च जनो दातरि मानयितरि च रज्यते, ‘जनानुरागप्रभवा हि सम्पदः’ इति चेन्न, नीतिन- सचिवेष्वेव तदर्थं दानादिव्यवस्थापनात् । त्रैविद्यतपस्विनो धूर्तबका एवेति चेन्न, तेषां दृष्टसम्पदं प्रत्यनुपयोगात् । सुखार्थं तथा करोतीति चेन्न, नास्तिकैरपि तथा फल ही मिले, इस प्रकार के किसी भी कार्य में समझ से काम लेने वाला एक भी पुरुष प्रवृत्त नहीं होता है । फिर यह संभव ही नहीं है कि विश्व के परलोक को चाहनेवाले इतने सारे पुरुष निष्फल या दुःखमात्र फलक इष्टापूर्त्तादि कार्यो में प्रवृत्त होंगे । पू० प० लाभपूजा.”: द्रव्य के लाभ, अथवा श्रादर की प्राप्ति या प्रसिद्धि पाने के लिये ही परलोक के वे चाहनेवाले इष्टापूर्त्तादि ( याग कूपतडागादि ) कार्यों में प्रवृत्त होते हैं । । सि० प० लाभादय एव ( इस के प्रसङ्ग में पूछना है कि इष्टापूर्त्तादि अनुष्ठानों से ) लाभ पूजा या ख्याति ही क्यों मिलेंगी ? यागादि के अनुष्ठानों की या कूपतडागादि खनन की प्रवृत्तियाँ स्वतः तो लाभादि की उत्पादिका हैं नहीं । अतः (यह प्रश्न उपस्थित होता है कि ) यागादि का अनुष्ठान करनेवाला पुरुष किसी से द्रव्यादि का लाभ क्यों करेगा ? या क्यों पूजित होगा ? पू० प० ख्यात्यर्थम् …. यागादि के अनुष्ठाताओं को दानादि से पुरस्कृत करनेवाले पुरुष भी अपनी प्रसिद्धि श्रीर जनसाधारण के अनुराग की प्राप्ति के लिये ही ( परलोकाथियों को दान देते हैं या यादर करते हैं ) | ( जैसा कि भारवि कवि की उक्ति है कि ) ‘जनता के अनुराग से ही संपत्तियाँ प्राप्त होतीं हैं’ सि० प० न, नीतिनर्म……. ……… यह उत्तर युक्त नहीं है, क्योंकि जनता की अनुरक्ति के लिये दानादि की व्यवस्था. तो नीति में निपुण पुरुषों के लिए या क्रीडासहचरों के लिए ही उचित है ( यागादि के अनुष्ठाताओं के लिये नहीं ) । पू० प० त्रैविद्यतपस्विनः • • वेदों के ज्ञाता तपस्विगण बक के समान ही धूर्त्त होते हैं (अत: वे भी कथित नीतिनिपुण पुरुषों या क्रीडासहचरों के ही समान हैं ) । सि० प० न, तेषाम्…… ( दोनों प्रकार के पुरुषों में समानता ) नहीं है, क्योंकि, नीतिनिपुण पुरुषों या क्रीडा- सहचरों के सदृश यागादि के अनुष्ठाता पुरुषों का उपयोग सांसारिक संपत्तियों के लिये नहीं किया जाता ।
रे न र Wo ! प्रथमः स्तवकः ३१ करणप्रसङ्गात्, सम्भोगवत् । लोकव्यवहारसिद्धत्वादफलमपि क्रियते, वेदव्यवहार- सिद्धत्वात् सन्ध्योपासनवदिति चेद् गुरुमतमेतत्, न तु गुरोर्मतम् । ततो नेदमनवसर एव वक्तुमुचितम् । वृद्धेविप्रलब्धत्वाद् बालानामिति चेन्न, वृद्धानामपि प्रवृत्तेः । न च विप्रलम्भकाः स्वात्मानमपि विप्रलभन्ते, तेऽपि वृद्धतरैरित्येवमनादिरिति चेत्, न तर्हि विप्रलिप्सुः कश्चिदत्र, यतः प्रतारणशङ्का स्यात् । इदं प्रथम एव कश्चि- पू० प० सुखार्थम्……. · यागादि के अनुष्ठानों से भी ( अन्य सांसारिक सुखों के समान ही एक प्रकार का ) सुख प्राप्त होता है । इसी लिये वे उन में प्रवृत्त होते हैं । सि० प० न, नास्तिकै …….. ( अगर ऐसी बात होती तो फिर ) संभोगादि सुखों के अन्य साधनों के समान ही नास्ति- कादि यागादि के अनुष्ठानों में भी प्रवृत्त होते । पू० प० लोकव्यवहार” जिस प्रकार विना फल के ही वैदिक व्यवहारों से सिद्ध सन्ध्यावन्दनादि का अनुष्ठान किया जाता है, उसी प्रकार लोकव्यवहार से सिद्ध कुछ निष्फल इष्टापूर्त्तादि कार्यों का अनुष्ठान भी किया जाता है | सि० प० गुरुमतम् फल मिलते हैं ) यह तो ‘गुरुमत’ अर्थात् प्रभाकर और उनके अनुयायियों का मत है ( कि संध्यावन्दनादि नित्यकर्मों के फल नहीं मिलते ) । हम लोगों ( नैयायिकों ) के ‘गुरु’ ( श्राचार्यो ) का यह मत नहीं है ( क्योंकि नैयायिकों के मत के अनुसार नित्यकर्मों के भी किन्तु प्रभाकर (गुरु) को बात उठाने का यह अवसर उपयुक्त नहीं है । पू० प० वृद्धेः ( वेदज्ञ धूर्त ) वृद्धों ने बालकों ( के समान अज्ञ पुरुषों ) को ठग लिया है, अतः ( वे इष्टापूर्त्तादि कामों मे प्रवृत्त होते हैं ) । सि० प० वृद्धानाम् ( यह उत्तर उचित ) नहीं है, क्योंकि ( बालकों के सदृश उक्त अज्ञ पुरुषों के समान ही ) वृद्ध ( अर्थात् विचक्षण ) पुरुष भी ( इष्टापूत्तादि कार्यों में ) प्रवृत्त होते हैं । पू० प० न च विप्रलम्भका ये ठगनेवाले वृद्धलोग दूसरों को और स्वयं अपने को भी ठगते हैं और वे भी अपने पूर्ववर्ती वृद्धों से ठगे गये थे । इस प्रकार ठगाई की परम्परा ही चल पड़ी । सि० प० न तर्हि ……. ( तथाकथित ठग लोग स्वयं जिस कार्य को करते हैं, उसी में अगर दूसरों को भी प्रवृत्त क्रराते हैं, तो ) इस परम्परा में कोई भी ठग नहीं, जिस से ठगे जाने की शङ्का की जाय । CCO. Vasishtha Tripathi Collection. Digitized by eGangotri३२ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली 1 दनुष्ठायापि धूर्तः पराननुष्ठापयतीति चेत्, किमसौ सर्वलोकोत्तर एव ? यः सर्वस्वदक्षिणया सर्वबन्धुपरित्यागेन सर्वसुखविमुखो ब्रह्मचर्येण तपसा श्रद्धया वा केवलपरवञ्चन- कुतहली यावज्जीवमात्मानमवसादयति । कथञ्चैनमेकं प्रेक्षाकारिणोऽप्यनुविदध्युः । केन वा चिह्ननायमीदृशस्त्वया लोकोत्तरप्रज्ञेन प्रतारक इति निर्णीत: ? न ह्य ेता. वतो दुःखराशेः प्रतारणसुखं गरीयः । यतः पाखण्डाभिमतेष्वप्येवं दृश्यत इति चेन्न, हेतुदर्शन दर्शनाभ्यां विशेत् । अनादी चैवम्भूतेऽनुष्ठाने प्रतायमाने प्रकारान्तर- पू० प० इदं प्रथम एवं…. अनुष्ठायापि …….. कोई ऐसा महाधूतं था, जिस ने सब से पहिले स्वयं ( इन इष्टापूर्त्तादि का ) अनुष्टान कर के और लोगों को भी इन में फँसाया । सि० प० किमसौ … सभी जनों से विलक्षण, सभी प्रकार के सुखों से मुंह मोड़नेवाला, वह कैसा प्रवञ्चक रहा जो अपने सर्वस्व को दक्षिणा में देकर, अपने सभी बन्धुओं को छोड़कर, ब्रह्मचर्य के पालन और तपस्था के अनुष्ठान के द्वारा केवल दूसरों को ठगने के श्रौत्सुक्य मात्र से जीवन भर अपने को पीडित करता रहा । दूसरी बात यह भी है कि इस प्रकार के एक ही धूर्त के पीछे बुद्धिमान् पुरुषों का इतना बड़ा दल चला कैसे ? एवं ‘वह पुरुष ठग था’ इस का निर्णय तुम ने भी किस विलक्षण प्रतिभा के द्वारा किया ? क्योंकि ( दक्षिणा में सर्वस्त्र दानादि के ) दुःखों से लोगों को ठगने का सुख तो कभी भी श्रेष्ठ नहीं है । पू० प० यतः पाखण्डाभिमतेषु ……….. ( जिन्हें नैयायिक पाखण्डी कहते हैं— उन बौद्धादि के शास्त्रों में भी इस प्रकार के दृष्टफल निरपेक्ष ) चैत्यवन्दनादि कार्यों के उपदेश हैं क्या ( इष्टापूर्त्तादि के अनुष्ठानों की तरह ) उन से भी अदृष्ट की उत्पत्ति माननी होगी ? सि० प० हेतुदर्शन…. ( इष्टापूर्त्ता द और चैन्यवन्दनादि ) दोनों समान नहीं हैं, क्योंकि चैत्यवन्दनादि दृष्ट फल के लिये हो अनुष्ठित होते हैं, किन्तु इष्टापूर्त्तादि अदृष्ट फल के लिये अनुष्ठित होते हैं । सुतराम् इष्टापूर्त्तादि अदृष्ट के हेतु हैं, और चैत्यवन्दनादि श्रदृष्ट के हेतु नहीं हैं । इस प्रकार हेतु के ज्ञान और अज्ञान इन दोंनों से इन दोनों में महान् अन्तर है । एवं बहुत पहिले से प्रसिद्ध एवं स्वयं अपने द्वारा अनुष्ठित किसी कार्य को दूसरे पुरुष को उस प्रकार से समझाना ही ‘प्रतारणा’ कहलाती है, जिसमें उक्त पहिले कार्य से अधिक व्यय हो ।
T- T· न, र. न क न ने ना के श्री के दि די के को प्रथमः स्तबक: ३३ माश्रित्यापि बहुवित्तव्ययायासोपदेशमात्रेण प्रतारणा स्यात्, न त्वनुष्ठानागोचरेण कर्मणा । अन्यथा प्रमाण विरोधमन्तरेण पाखण्डित्वप्रसिद्धिरपि न स्यात् ॥ ८ ॥ अस्तु दानाध्ययनादिरेव विचित्रो हेतुजंगद्वैचित्र्यस्येति चेन्न, क्षणिकत्वात्, अपेक्षितस्य कालान्तरभावित्वात् । चिरध्वस्तं फलायालं न कर्मातिशयं विना । सम्भोगो निर्विशेषारणां न भूतैः संस्कृतैरपि ॥ ९ ॥ । तस्मादस्त्प्रतिशयः कश्चित् । ईदृशान्येवैनानि स्वहेतुबलायातानि येन नियतभोगसाधनानीति चेत् । तदिदममीषामतीन्द्रियं रूपं सहकारिभेदो वा ? स्वयं अपने से श्रनुष्ठित कार्य को उसी रूप में समझाना ‘प्रतारणा’ नहीं है। अगर ऐसी बात हो, अर्थात् उक्त दोनों ही प्रकार के अनुष्ठान प्रामाणिक हों, तो फिर किसी भी व्यवहार को ‘पाखण्डपूर्ण’ कहना दुष्कर होगा, क्योंकि किसी भी अनुष्ठान को ‘पाखण्डपूर्ण’ कहने के लिये उस अनुष्ठान में प्रमाण के विरोध को छोड़कर कोई दूसरा हेतु नहीं है ॥ ८ ॥ पू० प० प्रस्तु ( संसार के विविध प्रकार के कार्यों के लिये विविध प्रकार के कारणों की सत्ता मान लेने पर भी ) दान, वेदाध्ययन प्रभृति विविध प्रकार के दृष्ट कारण हो विविध कार्यों को उत्पन्न कर लेंगे, इस के लिये उन अनुष्ठानों से धर्माधर्म रूप श्रदृष्ट को मध्यवर्ती व्यापार के रूप में स्वीकार करने की आवश्यकता नहीं है । सि० प० न, क्षणिकत्वात्….. चिरध्वस्तम्…. ऐसी बात नहीं हो सकती, क्योंकि दान-यागादि क्रियाएं क्षणमात्र रहनेवाली हैं । उन से होनेवाली स्वर्गादि की उत्पत्ति उन क्रियाओं से बहुत समय बाद होती है । बहुत समय पूर्व विनष्ट हुये (दान यागादि) कर्म ( बहुत समय वाद उत्पन्न होनेवाले ) स्वर्गादि फलों के उत्पादन का सामर्थ्य कर्म-जनित ‘अतिशय’ अर्थात् अदृष्ट के विना नहीं रखते । जीवों में अदृष्ट रूप विशेष वस्तु की सत्ता को माने विना जीवों के भोगों की अच्छी प्रकार से उपपत्ति भी नहीं हो सकती । एवं ( दान यागादि क्रियाओं से भोग के साघनीभूत) भौतिक द्रव्यों में संस्कार (अदृष्ट) के मानने पर भी जीवों के भोगों की उचित उपपत्ति नहीं होगी । अत: ( दान यागादि क्रियाओं से उत्पन्न होनेवाला ) कोई ( मध्यवर्त्ती ) ‘अतिशय’ ( अदृष्ट ) अवश्य है । पू० प० ईदृशानि …… भोगों के संपादक ये ( शरीरादि ) विषय अपने अपने कारणों से इस प्रकार की ‘शक्ति’ को लिए ही उत्पन्न होते हैं कि उन से व्यवस्थित भोग ही उत्पन्न होते हैं | सि० प० तदिदम्…… शरीरादि भोग्य विषयों की यह ‘शक्ति’ इन में रहनेवाला एवं प्रत्यक्ष न दीखने वाला ( श्रतीन्द्रिय) धर्म है ? या उपयुक्त सहकारी का साहाय्य ही उक्त ‘शक्ति’ है ? इन दोनों में से ५
३४ । गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली न तावदैन्द्रियकस्यातीन्द्रियं रूपम्, व्याघातात् । द्वितीये त्वपूर्वसिद्धिः । सिद्धयतु भूतधर्म एव गुरुत्वादिवदतीन्द्रियः । अवश्यं त्वयाप्येतदंगीकरणीयम् । कथमन्यथा मन्त्रादिभिः प्रतिबन्धः । तथाहि — करत लानलसंयोगाद् यादृशादेव दाहो दृष्टस्तादृश। देव मन्त्रादिप्रतिबन्धे सति दाहो न जायते, असति तु जायते । तत्र न दृष्टवैगुण्य- मुपलभामहे, नापि दृष्टसाद्गुण्येऽदृष्टवैगुण्यं सम्भावनीयम्, तस्यैतावन्मात्रार्थत्वात् । अन्यथा कर्मण्यपि विभागः कदाचिन्न जायेत । न च प्रतिबन्धकाभावविशिष्टा पहिला पक्ष इसलिये अयुक्त है कि प्रत्यक्ष दीखनेवाली वस्तुओं का कोई धर्म अतीन्द्रिय नहीं हो सकता, क्योंकि इन्द्रिय-ग्राह्य वस्तु के किसी भी धर्म का प्रतीन्द्रिय होना युक्ति विरुद्ध है । अगर दूसरा पक्ष मानें तो फिर पूर्व या अदृष्ट स्वीकृत ही हो जाता है ( क्योंकि ) ‘अदृष्ट’ को छोड़कर उक्त सहकारि रूप कारण दूसरा नहीं हो सकता । पू० प० सिद्धयतु " जैसे कि प्रत्यक्ष दीखनेवाले पृथिवी श्रौर जल रूप द्रव्यों में गुरुत्व नाम के अतीन्द्रिय धर्म ( गुण ) की सत्ता तुम ( नैयायिक ) स्वीकार करते हो, उसी प्रकार भोग के कारण शरीरादि भूत पदार्थों में भी एक ऐसी अतीन्द्रिय ‘शक्ति’ को स्वीकार कर लेने से ही भोग की उचित उपपत्ति हो जायगी । अवश्यम् इस प्रकारकी ‘शक्ति’ की सत्ता तुम्हें ( नैयायिक को ) भी माननी ही होगी, क्योंकि इस को माने विना मन्त्रादि प्रयोगों के रहते वह्नि से होनेवाले दाहादि कार्यों का प्रतिरोध क्यों कर हो सकेगा ? तथा हि…… ( इस पक्ष का विशदार्थ यह है कि ) हाथ के साथ वह्नि के जिस प्रकार के संयोग के रहने पर हाथ जलने लगता है, उसी प्रकार के संयोग के रहने पर भी प्रतिरोधक मन्त्र के रहते हाथ नहीं जल पाता । प्रतिरोधक मन्त्रादि के हट जाने पर पुनः उसी संयोग से हाथ जलने लगता है । ऐसे स्थलों में वह्नि-प्रभृति मूल कारणों में कोई विघटन भी नहीं देखा जाता । कारणों में कार्यों के अनुकूल जितने भी गुण हैं, उन सभी के रहते हुये कारणों में कार्योत्पत्ति के प्रतिकूल किसी विरोधी ‘अदृष्ट’ की संभावना भी नहीं की जा सकती । क्योंकि ‘अदृष्ट’ रूप कारण का तो इतना ही प्रयोजन है कि वह कार्य के सभी ‘दृष्ट’ कारणों को उपयुक्त रूप से संघटित कर दे । अगर ऐसी बात न हो ( दृष्ट सभी कारणों के उपयुक्त संघटन के बाद भी किसी ‘अदृष्ट’ रूपा शक्ति से कार्योत्पत्ति का प्रतिरोध मानें ) तो फिर क्रिया के रहने पर भी कभी- विभाग की उत्पत्ति रुक जायगी । न च प्रतिबन्धका भावः …
यह कहना भी संभव नहीं है कि प्रतिरोधक पदार्थों के अभाव से युक्त कारणों का समूह (सामग्री) ही कार्यों का उत्पादक है । क्योंकि (१) ‘अभाव’ नाम का कोई पदार्थ प्रमाण से सिद्ध 1
इचतु यथा देव गुण्य- त् । शिष्टा हो अगर को न्द्रिय कारण की योंकि क्यों ग के रहते जलने ता । त्ति के दृष्ट’ प से किसी कभी- समूह सिद्ध प्रथमः स्तन्रक: ३५ सामग्री काररणम्, अभावस्याकाररणत्वात् । तुच्छो ह्यसौ । प्रतिबन्धकोत्तम्भक- प्रयोगकाले च तेन विनापि कार्योत्पत्तेः । प्राक्प्रध्वंसादिविकल्पेन चाऽनियतहेतु. कत्वापातात् । श्रकिञ्चित्करस्य प्रतिबन्धकत्वायोगात् । किञ्चित्करत्वे चातीन्द्रिय- शक्तेः स्वीकारात् । मन्त्रादिप्रयोगे चेतरेतराभावस्य सत्त्वेऽपि कार्यानुदयात् । अतोऽतीन्द्रियं किचिद्दाहानुगुणमनुग्राहक मग्ने रुन्नीयते, यस्यापकुर्वतां प्रतिबन्धकत्व- मुपपद्यते । यस्मिन्नविकले कार्यं जायते । यस्येकजातीयत्वादनियत हेतु कत्वं निरस्यत इति ॥ ६ ॥ अत्रोच्यते— • भावो यथा तथाऽभावः कारणं कार्यवन्मतः । प्रतिबन्धो विसामग्री तद्धेतुः प्रतिबन्धकः ॥ १० ॥ नहीं है, अतः वह किसी का कारण ( या कारणतावच्छेदक) नहीं हो सकता । ( २ ) प्रतिबन्धक के रहते हुये ( प्रतिबन्धकाभ व रूप कारण के न रहने पर भी ) ‘उत्तेजक’ के रहने पर कार्यों की उत्पत्ति होती है । (३) ( प्रतिबन्धक का प्रागभाव कारण है ? या प्रध्वंस रूप अभाव कारण है ? इन विभिन्न विकल्पों की प्रसक्ति के कारण (प्रतिबन्धक के सभी प्रकार के अभावों को परस्पर निरपेक्ष होकर कारण मानना होगा, जिससे ) कार्यों का नियमित सामग्री से ही उत्पन्न होना स्थिर न रह सकेगा । ( ४ ) जो कार्य के उत्पादन में अपने किसी व्यापार के द्वारा प्रतिरोध को उपस्थित नहीं कर सकता, उसे ‘प्रतिबन्धक’ ही नहीं कहा जा सकता । अगर प्रतिबन्धक से उत्पन्न किसी व्यापार के द्वारा कार्यों का प्रतिरोध मानें, तो फिर प्रत्यक्ष न दीखनेवाली एक ‘शक्ति’ स्वोकृत ही हो जाती है । (५) मणिमन्त्रादि अनेक प्रतिबन्धकों में से किसी एक की भी स्थिति दशा में अन्य प्रतिबन्धकों के अभाव के रहने पर भी कार्य की उत्पत्ति नहीं होती है । इन सभी हेतुत्रों से वह्नि में दाह को उत्पन्न करने की एक ‘शक्ति’ को स्वीकार करते हैं । इस ‘शक्ति’ को स्वीकार कर लेने से ही अपकार करने वाले ( कार्य के उत्पादन में बाधा डालने वाले मणिमन्त्रादि ) का ‘प्रतिबन्धक’ होना उपपन्न होता है । जिस ( शक्ति ) के रहने से दाहादि कार्यों की उत्पत्ति होती है एवं जिस (शक्ति) के बल से वह्नि प्रभृति का ( कभो तृण से कभी काठ से और कभी सूर्यकान्तमणि से उत्पन्न होने का ) अनियम भी निरस्त होता है ॥ ६ ॥ सि० प० अत्रोच्यते - भावो यथा तथा…. । इस प्रसङ्ग में हम ( सिद्धान्ती ) कहते हैं कि- जिस प्रकार भाव पदार्थों को ( किसी कारण से उत्पन्न ) ‘कार्य’ एवं किसी कार्य का उत्पादक कारण मानना आवश्यक है, उसी प्रकार ‘अभाव’ पदार्थ को कार्यों का उत्पादक ‘कारण’ एवं उत्पाद्य कार्य मानना भी आवश्यक है । कार्यों के उत्पादक समूह ( सामग्री ) का विघटन हो ‘प्रतिबन्धक’ शब्द का अर्थ है । इसी ‘प्रतिबन्ध’ के सम्पादक हेतु को ‘प्रतिबन्धक’ कहते हैं ।
३६ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली न ह्यभावस्याकाररणत्वे प्रमाणमस्ति । न हि विधिरूपेणासो तुच्छ इति स्वरूपेणापि तथा, निषेधरूपाऽभावे विधेरपि तुच्छ त्वप्रसङ्गात् । कारणत्वस्य भावत्वेन व्याप्तत्वात्तन्निवृत्तौ तदपि निवर्त्तत इति चेन्न, परिवत्तंप्रसङ्गात् । श्रन्वयव्यतिरेकानु- विधानस्य च काररणत्वनिश्चयहेतोर्भाववदभावेऽपि तुल्यत्वात् । अभावस्यावर्जनीयतया सन्निधिनं तु हेतुत्वेनेति चेत्, तुल्यम् । प्रतियोगिनमुत्सारयतस्तस्यान्य प्रयुक्तः सन्निधिरिति चेत्, तुल्यम् । भावस्याभावोत्सारणं स्त्ररूपमेवेति चेदभावस्यापि भावोत्सारणं सि० प० न हि …….. “अभाव किसी भी कार्य का कारण भावत्व रूप से अभाव की स्थिति न रहने के अपलाप नहीं किया जा सकता । ( अगर ऐसी कहा जा सकता है कि जिस लिये अभावत्व रूप से अभाव की सत्ता है, ( एवं इस अभावत्व रूप से भाव पदार्थों की सत्ता नहीं है, अतः ) भाव पदार्थ ही ‘तुच्छ’ अर्थात् श्रप्रामाणिक हैं । पू० प० कारणत्वस्य नहीं है” यह मानने का कोई प्रमाण नहीं है । कारण अभात्व रूप से उसकी अपनी सत्ता का बात मानें तो फिर तुल्य युक्ति से ) यह भी ‘केवल भाव पदार्थ ही कारण होते हैं’ इस नियम के रहते “जो भाव नहीं है वह कारण भी नहीं है” यह बात ‘अर्थत:’ ( अर्थात् विना किसी अन्य प्रमाण के ) सिद्ध हो जाती है । सि० प० परिवर्त…….. उक्त कथन ठीक नहीं है, क्योंकि इस के विपरीत यह भी कहा जा सकता है ( कि ‘जिस लिये ‘कारण’ केवल अभाव ही होता है, अतः जो पदार्थ ‘अभाव’ नहीं है, वह कारण नहीं हो सकता ) । क्योंकि कार्यों के साथ श्रन्वय और व्यतिरेक ये दोनों ही कारणत्व के नियामक हैं । ये दोनों ही भाव और प्रभाव दोनों के साथ समान रूप से हैं । पू० प० अभावस्य कार्य के. श्रव्यवहित पूर्व क्षण में प्रभाव की सत्ता उस के ‘कारण’ होने से नहीं रहती है । प्रभाव की उक्त समय में सत्ता तो इस लिये रहती है कि उस समय उस की सत्ता को हटाया नहीं जा सकता । ( अतः अभाव कारण नहीं, किन्तु अन्यथासिद्ध है ) । सि० प० तुल्यम्…… ( यह समाधान तो अभाव को ही कारण मानें और भाव को कार्य के अव्यवह पूर्व में अनिवार्य स्थिति के हेतु से अन्यथासिद्ध मानें- इन दोनों ही पक्षों में ) समान है । पृ० प० भावस्य " ( मणिमन्त्रादि का.) प्रभाव ( दाहादि ) कार्यों से पहिले इस लिये रहता है कि वह अपने ( मणिमन्त्रादि ) विरोधियों का उच्छदेक है । ( जिस लिये कि कार्य के उत्पादन में सहायक होने के नाते अभाव कार्यों का श्रव्यवहित पूर्ववर्ती नहीं है, सुतराम् अभाव की उक्त नियतपूर्ववर्त्तिता अन्य हेतु से रहती है, अतः ) प्रभाव ‘अन्यथा सिद्ध’ है ।
इति त्वेन कानु- तया रिति रं है । का भी वत्व हैं ।
- वह सिद्ध ( कि कारण त्व के रहती को वहित क वह न में उक्त । प्रथमः स्तंबकः ६७ स्वरूपान्नातिरिच्यते । तस्माद् यथा भीवस्यैव भावो जनक इति नियमोऽनुपपन्नः, तथा भाव एव जनक इत्यपि । को ह्यनयोविशेषः ? प्रतिबन्धको त्तम्भकप्रयोगकाले तु व्यभिचारस्तदा स्यात्, यदि यादृशे सति कार्यानुदयस्तादृश एव सत्युत्पादः स्यात् । न त्वेदम्, तदापि प्रतिपक्षस्याभावात् । असत्प्रतिपक्षो हि प्रतिबन्धकाभिमतो मन्त्र:- प्रतिपक्षः । स च तादृशो नास्त्येव । यस्त्वस्ति, नासौ प्रतिपक्षः । तथापि विशेष्ये सि० प० श्रभावस्यापि ………….. यही बात केवल भाव को ही कारण मानने के विपक्ष में भी कही जा सकती है कि ( वह्नि प्रभृति भाव पदार्थों में दाहादि कार्यों का सांनिध्य इस लिये नहीं है कि, वे दाहादि कार्यों की उत्पत्ति के लिये कुछ करते हैं । दाहादि की उनकी संनिधि तो वहन्यभाव प्रभृति प्रतिबन्धकों को हटाने के लिये है । इस प्रकार भाव पदार्थों की संनिधि को भी अन्य प्रयुक्त मान कर उन्हें अन्यथा सिद्ध कहा जा सकता है ) । पू० प० भावस्याभावोत्साररणम्" भाव पदार्थों का यह स्वभाव ही है कि वे अपने विरोधी अभावों को हटावें । फलतः अभावों का हटाना ही भावों का रहना है । इस प्रकार दोनों एक ही वस्तु हैं । अतः भाव पदार्थों में जो कार्यों’ की संनिधि है, वह ‘अन्य प्रयुक्त’ नहीं है । सि० प० अभावस्यापि भावोत्सारणम्" इस प्रसङ्ग में भी यह कहो जा सकता है कि भावों का रहना और अभावों का न रहना दोनों एक ही बात है । अतः कार्यों में जो अभावों का सांनिध्य है, ‘वह भी ‘अन्य प्रयुक्त’ नहीं है । सुतराम् जिस प्रकार यह नियम, नहीं किया जा सकता कि भाव पदार्थ केवल भावपदार्थों’ के ही कारण हैं, उसी प्रकार यह नियम भी नहीं किया जा सकता कि ‘केवल भाव पदार्थ ही किसी कार्य के कारण हो सकते हैं । सि० प० प्रतिबन्धकोत्तम्भक ( चन्द्रकान्तमणि प्रभृति ) प्रतिबन्धक और ( सूर्यकान्तमणि प्रभृति ) उत्तेजक इन दोनों के रहते हुये प्रतिबन्ध के अभाव के न रहने पर भी दाहादि कार्यों की उत्पति से व्यभिचार तब होता जब कि जिस प्रकार के प्रतिबन्धक के रहते कार्य की उत्पत्ति नहीं होती है, उसी प्रकार के प्रतिबन्धक के रहते कार्य की उत्पत्ति होती । किन्तु बात ऐसी नहीं है । क्योंकि उस ( सूर्यकान्तमणि प्रभूति के रहने के ) समय विद्यमान ( चन्द्रकान्तमण्यादि ) पदार्थ वास्तव में ( दाहादि कार्यों के ) प्रतिबन्धक ही नहीं हैं। क्योंकि जिन मणिमन्त्रादि का कोई विरोधी प्रतिपक्ष न हो वे ही मणिमन्त्रादि दाहादि कार्यों के प्रतिबन्धक हैं । इस प्रकार का ( उत्तेजक के साथ न रहनेवाला) प्रतिबन्धक प्रकृत में नहीं है। जो ( सूर्यकान्त मणि प्रभूति
is । गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली सत्येव विशेषरणमात्राभावस्तत्र स चोत्तम्भकमन्त्र एवेत्यन्येव सामग्रीति चेन्न, विशिष्टस्याप्यभावात् । न हि दण्डिनि सत्यऽदण्डानामन्येषां नाभावः, किन्तु दण्डाभावस्यैव केवलस्येति युक्तम् । यथा हि केवलदण्डसद्भावे उभयसद्भावे द्वयाभावे वा केवलपुरुषाभावः सर्वत्राविशिष्टः, तथा केवलोत्तम्भकसद्भाव प्रतिबन्धको - त्तम्भकसद्भावे द्वयाभावे वा केवल प्रतिबन्धकाभावोऽविशिष्ट इत्यवधार्यताम् । उत्तेजकों के साथ रहने वाले ) चन्द्रकान्त मण्यादि हैं, वे वस्तुत: प्रतिबन्धक ही नहीं हैं । ( क्योंकि प्रतिबन्धक वही है जिसके प्रतिरोध को विफल कर देनेवाला कोई प्रतिपक्ष उत्तेजक ) उस के साथ विद्यमान न रहे । पू० प० ‘तथापि विशेष्ये सत्येव ……… जहाँ ( उत्तेजक के रहते प्रतिबन्धक के रहने पर भी दाह रूप कार्यं उत्पन्न होता है, ऐसे स्थलों में मणिमन्त्रादि प्रतिबन्धक रूप ) विशेष्य का जो उत्तेजकाभाव रूप विशेषण, उस के अभाव से ही दाह रूप कार्य उत्पन्न होता है । वह ( सूर्यकान्तमणि या मन्त्र के अभाव का अभाव ) उत्तेजक मणिमन्त्रादि रूप ही है । इस प्रकार के दाह के उत्पादक कारणों का ( उत्तेजक मन्त्रादि घटित ) समूह ( उत्तेजक मन्त्रादि के न रहने पर भी दाह के उत्पादक केवल वह्निघटित कारणों के समूह से ) भिन्न हो होगा। अत: एक ही कार्य के परस्पर दो निरपेक्ष कारणों को स्वीकार करने से परस्पर दोनों ही कारण व्यभिचरित हो जाँयगे । ( श्रत: दाहानुकूलशक्तिमत्ता रूप एक ही धर्म से वह्निघटित सभी कारण समूह को दाह का उत्पादक मानना चाहिये ) । सि० प० न विशिष्टस्य … -ऐसी बात नहीं हो सकती, क्योंकि उत्तेजक के अभाव रूप एक ही विशेषण से युक्त प्रतिबन्धक स्वरूप एक ही विशिष्ट के प्रभाव को सभी स्थलों में कारण मान लेंगे । ऐसी बात नहीं है कि जहाँ पर दण्ड से युक्त ( दण्डी ) पुरुष की सत्ता है, वहाँ पर दण्ड से रहित अन्य पुरुषों का अभाव भी नहीं रहता । वहाँ तो केवल दण्ड के अभाव का ही अभाव रहता है । जैसे कि ( १ ) जहाँ केवल दण्ड की सत्ता है, ( २ ) एवं जहाँ दण्ड और पुरुष दोनों की ही सत्ता है (अर्थात् दण्ड से युक्त पुरुष की सत्ता है) । ( ३ श्रथवा जहाँ दण्ड और पुरुष दोनों में से एक भी नहीं है, इन तीनों ही प्रकार के स्थलों में केवल ( दण्डाभाव रूप विशेषण से रहित ) पुरुष का प्रभाव समान रूप से रहता है । उसी प्रकार यह मानना ही पड़ेगा कि ( १ ) जहाँ केवल ( चन्द्रकान्तमणि रूप प्रतिबन्धक से रहित सूर्यकान्तमणि रूप ) उत्तेजक है । ( २ ) जहाँ ( सूर्यकान्त मणि प्रकृति ) उत्तेजक एवं ( चन्द्रकान्तमणि एवं मन्त्र प्रभृति दाह के ) प्रतिबन्धक इन दोनों को सत्ता है । ( ३ ) अथवा जहाँ न उत्तेजक है न प्रतिबन्धक- इन तीनों हो प्रकार के स्थलों में ‘केवल’ ( सूर्यकान्तमणि प्रभृति ) उत्तेजकों से सर्वथा असम्बद्ध ( चन्द्रकान्तमणि प्रभूति ) प्रतिवन्धक का अभाव समान रूप से है ।
न्न, न्तु वे को- हैं । नक्ष है, ण, के दक के के हो को क्त ति न्य । ही नों से कि नक ति 5- प्रथमः स्तवकः ३६ अथैवम्भूतसामग्रीत्रयमेव किं नेष्यते ? कार्यस्य तद्ध्यभिचारात् । जातिभेदकल्पनायाञ्च प्रमाणाभावात् । यथोक्तेनैवोपपत्तेः । भावे वा काममसावस्तु । का नो हानिः ? प्रादप्रध्वंस विकल्पोऽपि नानियतहेतुकत्वापादकः । यस्मिन् सति कार्यं न जायते तस्मिन्नसत्येव जायत इत्यत्र संसर्गाभावमात्रस्यैव प्रयोजकत्वात् । पू० प०…..अथैवम्.. । यदि ऐसी बात है तो ( जहाँ प्रतिबन्धक और उत्तेजक इन दोनों के रहते कार्य की उत्पत्ति होती है, वहाँ के लिये ) ( १ ) उत्तेजकाभाव के अभाव से युक्त कारणों के समूह को हो ( दाह का उत्पादक मानिये ) । ( २ ) जहाँ प्रतिबन्धक और उत्तेजक इन दोनों में से कोई भी नहीं है किन्तु दाहादि कार्य उत्पन्न होते हैं, वहाँ के लिये केवल प्रतिबन्धक के प्रभाव से युक्त कारणों के समुदाय को ही दाहादि कार्यों का उत्पादक मानिये । (३) एवं ( जहाँ प्रतिबन्धक तो नहीं है, किन्तु उत्तेजक है, वहाँ के लिये प्रतिबन्धक का अभाव एवं उस में विशेपणीभूत उत्तेजकाभाव का अभाव ) इन दोनों प्रभावों से युक्त कारणों समूह को ही दाहादि कार्यों का उत्पादक मानिये । ( कथित सभी स्थलों के लिये उत्तेजक के प्रभाव से युक्त प्रतिबन्धक का प्रभाव रूप ) विशिष्टाभाव से समन्वित सामग्री को कार्यों का उत्पादक क्यों मानते हैं ? के सि० प० कार्यस्य, जातिभेद…….. ( एक ही जाति के अनेक कार्यों का परस्पर निरपेक्ष अनेक कारण नहीं हो सकते, क्योंकि एक ही जाति के उन कार्यों में से ) प्रत्येक कार्य के पहिले वे सभी कारण नहीं रहते । अतः उक्त तीन प्रकार के कारणों की कल्पना करने से व्यभिचार होगा। एक ही जाति के उन तीनों प्रकार के कार्यों में से प्रत्येक में किसी अवान्तर जाति की कल्पना करके भी उक्त व्यभिचार का वारण नहीं किया जा सकता । क्योंकि प्रकृति दाह कार्यों में से किसी भी दाह कार्य में दाहत्व की अवान्तर किसी जाति की कल्पना का कोई प्रामाणिक साधन नहीं है । क्योंकि एक विशिष्टाभाव को ही कथित रीति से दाहों का कारण मान लेने से सभी प्रकार के दाह कार्यों की उपपत्ति हो जाती है । यदि तीनों ही प्रकार के कारण समूहों की कल्पना के बल पर दाह रूप में प्रवान्तर जातियों की कल्पना कर भी लें तो इससे हम लोगों ( नैयायिकों ) की क्या हानि होगी ? सि० प० प्राक्प्रध्वंस……. ( अभाव को कारण मानने के पक्ष में मणिमन्त्रादि प्रतिबन्धकों का ) प्रागभाव कारण है ? या प्रतिबन्धक का ध्वंस स्वरूप अभाव हेतु है ? किं वा प्रतिबन्धकों का श्रत्यन्ताभाव कारण है ? इन विकल्पों के द्वारा जो कार्यों के अनियत हेतुओं से उत्पन्न होने की आपत्ति दी जाती है, वह भी युक्त नहीं है, क्योंकि - “जिस के रहने से कार्य की उत्पत्ति
४० गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली यस्तु संसर्गाभावतादात्म्यनिषेधयोविशेषमनाकलयन्नितरेतराभावेन प्रत्यव - तिष्ठते, स प्रतिबोधनीयः । तथाप्यभावेषु जातेरभावात् कथं त्रयाणामुपग्रहः स्यात्, अनुपगृहीतानाञ्च कथं कारणत्वावधारणमिति चेत् । माभूज्जातिः । न हि तदुपगृहीतानामेव व्यवहाराङ्गत्वम्, सर्वत्रोपाधिमद्वद्यवहारविलोपप्रसङ्गात् । एतेन प्रतिबन्धके सत्यपि तज्जातीयस्यान्यस्याऽभावसम्भवात् कार्योत्पादप्रसङ्गः, अनुत्पादे । ‘न’ हो सके, उस के ‘न’ रहने से ही कार्य की उत्पत्ति होती है” ( इस व्यतिरेक बोधक वाक्य में प्रयुक्त दूसरे ) ‘न’ शब्द से यही कहना अभिप्रेत है कि प्रतिबन्धकीभूत वस्तु के सभी प्रकार के संसर्गाभाव कार्यों के कारण हैं । यस्तु संसर्गाभाव ……… जो कोई संसर्गाभाव और तादात्म्यनिषेध ( अन्योन्याभाव ) इन दोनों के अन्तर को न समझने से प्रतिबन्धक के अभाव को कारण मानने के पक्ष में ( प्रतिबन्धक के रहते हुये भी कार्य में प्रतिबन्धक के भेद के रहने से ) कार्योत्पत्ति की आपत्ति देते हैं, उन्हें संसर्गाभाव और अन्योन्याभाव में जो अन्तर है, उस को अच्छी तरह समझा कर पराजित करना चाहिये । पू० प० तथाप्यभावेषु …… अभावों में कोई जाति नहीं रहती है । अत: प्रतिबन्धकीभूत मण्यादि के प्रागभाव, प्रध्वंसाभाव और अत्यन्ताभाव इन तीनो को एक रूप में संग्रह करनेवाली कोई जाति भी . नहीं है, सुतराम् प्रतिबन्ध के इन तीनों प्रकार के अभावों में कारणता किस रूप से गृहीत होगी ? सि० प० मा भूत् " प्रागभावादि तीनों प्रभावों में किसी जाति के न रहने पर भी, कोई हानि नहीं है, क्योंकि विभिन्न वस्तुओं का किसी एक रूप से व्यवहार किसी जाति के ही द्वारा हो, ऐसा कोई नियम नहीं है । यदि ऐसा मानें तो ( जाति से भिन्न सखण्ड या अखण्ड ) उपाधियों के द्वारा विभिन्न वस्तुओं की जितनी भी एक आकार की प्रतीतियाँ होती हैं, उन सभी प्रतीतियों का विलोप हो जायगा । एतेन " श्रागे के ‘यथा हि तज्जातीये सति’ इत्यादि सन्दर्भ के द्वारा कही जानेवाली युक्ति से ही “प्रतिबन्धके सत्यपि” इत्यादि सन्दर्भ के द्वारा उठायी गयी आपत्ति का भी समाधान हो जाता है । पू० प० प्रतिबन्धके सत्यपि …….. ( प्रतिबन्धक के अभाव को कारण मानने के विपक्ष में ‘मन्त्रादि प्रयोगे च सन्दर्भ के द्वारा संक्षेप में कथित प्राक्षेप ग्रन्थ का विशदार्थ यह है कि यदि प्रतिबन्धक के
-यव- मात् हि एतेन पादे धिक सभी अन्तर रहते उन्हें जित नाव,
- भी. से है, ऐसा के तयों
- ही धान न्दर्भ के प्रथमः स्तवकः ४१ वा ततोऽप्यधिकं किञ्चिदपेक्षणीयमस्ति’ इति निरस्तम् । यथा हि ‘तज्जातीये सति कार्यं जायते, अर्थादसति न जायते’ इति स्थिते तद्भावेऽपि तज्जातीयान्तराभावान्न भवितव्यं कार्येणेति न; तथैतदपि, अनुकूलवत् प्रतिकूलेऽपि सति तज्जातीयान्त- राभावानामकिञ्चित्करत्वादिति । यत्त्वकिञ्चित्करस्येति, तदप्यसत् । सामग्री वैकल्यं प्रभाव को कारण मानें तो चन्द्रकान्तमणि प्रभृति किसी ) एक प्रतिबन्धक के रहने पर भी ( मन्त्रादि अन्य ) प्रतिबन्धकों का अभाव रह सकता है । अत: एक प्रतिबन्धक के रहते कार्य की उत्पत्ति होनी चाहिये । किन्तु एक भी प्रतिबन्धक के रहते अन्य सभी प्रतिवन्धकों का प्रभाव रहने पर भी कार्य की उत्पत्ति नहीं होती है । श्रतः कार्य के उत्पादन के लिये प्रतिबन्धकों के अभाव से अतिरिक्त किसी वस्तु की अपेक्षा ( नैयायिकों को भी ) माननी होगी । इस प्रकार ‘शक्ति’ पदार्थ अर्थतः स्वीकृत हो जाता है । सिं० प० यथा हि………. जिस प्रकार ( केवल ‘भाव, ही कारण है, अभाव कारण नहीं, इस पक्ष में ) किसी एक बीजादि व्यक्ति के रहने पर भी अङ्करादि कार्यों की उत्पत्ति होती है । " ( बीजादि के ) न रहने पर ( अंकुरादि ) कार्यों की उत्पत्ति नहीं होती है” इस व्यतिरेक के प्राप्त होने पर भी यह आपत्ति नहीं दी जा सकती कि ‘एक बीज के रहने पर भी, चूकि वीजत्व जाति के दूसरे व्यक्ति का अभाव वहाँ विद्यमान है । अतः इस अभाव के रहते अंकुरादि कार्यों का उत्पादन उचित नहीं है । उसी प्रकार प्रकृत में भी ( प्रतिवन्धक के अभाव को कारण मानने के पक्ष में भी ) यह कहा जा सकता है कि प्रतिबन्ध के एक अभाव के रहने की स्थिति में अगर दूसरे प्रतिबन्धक का अभाव नहीं भी है, तथापि दाहादि कार्यों की उत्पत्ति नहीं रुक सकती । जिस प्रकार ‘भाव ही केवल कारण हो सकते हैं’ इस पक्ष में एक ‘अनुकूल’ अर्थात् कारण के रहते हुए यदि उसी अनुकुल व्यक्ति का सजातीय दूसरे व्यक्ति का अभाव कार्य के उत्पादन में कोई विघ्न उपस्थित नहीं कर सकता । उसी प्रकार ‘प्रतिकूल’ अर्थात् प्रतिबन्धक के तीनों अभावों के प्रसङ्ग में भी कहा जा सकता है कि प्रतिबन्धक के एक प्रकार के अभाव के रहते उसी प्रतिबन्धक के अन्य प्रकार के अभावों की सत्ता के न रहने पर भी कार्य का प्रतिरोध नहीं रोका जा सकता । ( क्योंकि प्रतिबन्धकों का सामान्याभाव ही कारण है, एक भी प्रतिबन्धक व्यक्ति के रहते प्रतिबन्धकों का सामान्याभाव नहीं रह सकता । अतः जहाँ कोई एक प्रतिबन्धक व्यक्ति नहीं भी है, किन्तु दूसरा प्रतिबन्धक व्यक्ति है, उस स्थल में प्रतिबन्धक का सामान्याभाव न रहने के कारण कार्यं की उत्पत्ति नहीं होती है ) । सि० प० यत्त्व किञ्चित्करस्येति ………. ( ४ ) यह जो कहा गया है कि “मणिमन्त्रादि दाह के प्रतिबन्धक ही नहीं हैं, क्योंकि ‘प्रतिबध्नातीति प्रतिबन्धक:’ इस व्युत्पत्ति के अनुसार जो कार्य की उत्पत्ति को प्रतिरुद्ध करने के लिये ‘कुछ’ करे वही ‘प्रतिबन्धक’ शब्द का मुख्यार्थ है । मणिमन्त्रादि तो ६ CCO. Vasishtha Tripathi Collection. Digitized by eGangotri४२ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली प्रतिबन्धपदार्थो मुख्यः । स चात्र मन्त्रादिरेव । न त्वसौ प्रतिबन्धकः । ततः किं तस्याकिञ्चित्करत्वेन, तत्प्रयोक्तारस्तु प्रतिबन्धारः । ते च किञ्चित्करा एवेति किमसमञ्जसम् ? ये तु व्युत्पादयन्ति, ‘कार्यानुत्पाद एव प्रतिबन्ध’ इति, तैः प्रतिबन्धमकुर्वन्त एव प्रतिबन्धका इत्युक्तं भवति । तथाहि — कार्यंस्यानुत्पादः प्रागभावो वा स्यात् ? तस्य कालान्तरप्राप्तिर्वा ? न पूर्वः, तस्यानुत्पाद्यत्वात् । न द्वितीयः कालस्य स्वरूपतोऽभेदात् । तदुपाधेस्तु मन्त्रमन्तरेणापि स्वकारणाधीनत्वात् । प्रागभावाव- दाह को रोकने के लिये ‘कुछ’ नहीं करते हैं, अत: वे प्रतिबन्धक शब्द के मुख्यार्थ नहीं हो सकते । अगर कार्य के प्रतिरोध के लिये उन में कोई अदृश्य व्यापार मानेंगे, तो उसका पर्यवसान शक्ति पदार्थ को स्वीकार करने में ही होगा” यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि कारणों के समूह ( सामग्री ) का विघटन ही ‘प्रतिवन्ध’ शब्द का मुख्यार्थ है । मणिमन्त्रादि ‘प्रतिबन्ध’ शब्द के मुख्यार्थ ही हैं ( क्योंकि उनके द्वारा मणिमन्त्रादि के अभाव स्वरूप कारण दाह की सामग्री से हट जाते हैं ) । ‘मणिमन्त्रादि ’ प्रतिबन्धक शब्द के अभिधेय नहीं है । अत: वे यदि कार्य-प्रतिरोधक किसी व्यापार से युक्त नहीं है तो इस में क्या हानि है ? जो कोई चेतन प्राणी दाहादि कार्यों से पहिले मणिमन्त्रादि की सत्ता के लिये प्रयत्न करते हैं, वे ही प्रकृत में ‘प्रतिबन्धक’ हैं । वे कार्य-प्रतिरोध के लिये कुछ व्यापार करते ही हैं । इस में कौन सी असङ्गति है ? सि० प० ये तु व्युत्पादयन्ति ………. । जो संप्रदाय कार्य की अनुत्पत्ति को ही कथित ‘प्रतिबन्धक’ शब्द का मुख्यार्थ मानते हैं, वे कार्यंप्रतिरोध के लिये कुछ न करने वाले को ही वास्तव में ‘प्रतिबन्धक’ शब्द का मुख्यार्थ मानते हैं । क्योंकि ‘कार्यों की अनुत्पत्ति’ के ( १ ) कार्यों के प्रागभाव अथवा ( २ ) इस प्रागभाव का किसी दूसरे काल के साथ सम्बन्ध ये दो स्वरूप ही हो सकते हैं । इन में पहिला पक्ष इस लिये असङ्गत है कि ‘प्रागभाव’ की उत्पत्ति नहीं होती, अतः उसकी उत्पत्ति के लिये कुछ किया ही नहीं जा सकता । दूसरा पक्ष इस लिये ठीक नहीं है कि काल एक अखण्ड और नित्य है । उसके लिये भी कुछ नहीं किया जा सकता, क्योंकि वास्तव में काल अभिन्न है । काल में विभिन्नता के ज्ञापक ( सूर्य की गति प्रभृति ) जितनी भी उपाधियाँ हैं, उनके अपने अपने स्वतन्त्र कारण हैं, जिन से उनकी उत्पत्ति मणिमन्त्रादि के साहाय्य के विना ही होती है । ( इसके लिये भी मणिमन्त्रादि कुछ नहीं कर सकते ) । पू० प० प्रागभावावच्छेदक (काल की सभी उपाधियाँ यद्यपि मणिमन्त्रादि से उत्पन्न नहीं होती हैं, तथापि ) जिन कालों के व्यवच्छेदक प्रागभाव हैं, उन कालों की उपाधियाँ अपनी उत्पत्ति के लिये तो मणिमन्त्रादि की अपेक्षा रखतीं हैं ।
तः किं एवेति कुर्वन्त नात् ? लस्य वाव- तकते । शक्ति समूह शब्द हकी तः वे कोई वे ही कौन ते हैं, यार्थ इस न में पत्ति काल स्तव तनी वादि " पि)
- तो प्रथमः स्तबकः ४३ च्छेदककालोपाधिस्तदपेक्ष इति चेन्न, मन्त्रात्पूर्वमपि तस्य भावात् । तस्मात् सामग्री- तत्कार्ययोः पौर्वापर्यनियमात् तदभावयोरपि पूर्वापरभाव उपचर्यंते । वस्तुतस्तु तुल्यकालत्वमेवेति नायं पन्थाः । न चेदेवं शक्तिस्वीकारेऽपि कः प्रतीकारः ? तथाहि - ( १ ) प्रतिबन्धकेन शक्तिर्वा विनाश्यते । (२) तद्धर्मों वा, (३) धर्मान्तरं वा जन्यते, (४) न जन्यते वा किमपि, इति पक्षाः । सि० प० मन्त्रात् पूर्वम् ( बात ऐसी नहीं है, क्योंकि ) मणिमन्त्रादि के प्रयोग के पहिले भी दाहादि कार्यों के प्रागभाव की सत्ता रहती है । वे काल भी प्रागभाव के व्यवच्छेदक हैं । अतः ऐसा नहीं कहा जा सकता कि दाहादि प्रागभाव के अधिकरणीभूत जिन कालों के व्यवच्छेदक प्रागभाव हैं, उन सभी कालों की उपाधियों के मणिमन्त्रादि कारण हैं । ‘तस्मात् ’ कारणों के अमुक समुदाय ( सामग्री ) से अमुक कार्य की उत्पत्ति होती है, एवं अमुक कारण समुदाय ( सामग्री ) अमुक कार्य की उत्पत्ति के अव्यवहितपूर्वक्षण में अवश्य ही रहता है, कार्य में और कारणों के समूह में जो पूर्वापरीभाव का उक्त नियम है । इसी नियम के द्वारा कारणों के समूह रूप सामग्री के अभाव और कार्यों के प्रभाव इन दोनों में भी पूर्वापरीभाव के उक्त नियम का गौण व्यवहार होता है । वास्तव में कथित सामग्री का श्रभाव और उस सामग्री से उत्पन्न कार्यों का अभाव ये दोनों एक ही समय उत्पन्न होते हैं । श्रतः प्रतिबन्धकाभाव को कारण मानने के पथ को छोड़कर शक्ति पदार्थ को मानने के पथ को अपनाया जाना ठीक नहीं है । न चेदेवम्.. अगर ऐसी बात न हो ( सामग्री के अभाव और कार्यों के अभाव इन दोनों में भी कार्य और कारण के समान ही पूर्वापरीभाव के नियम को मुख्य ही मानें तो फिर आप ( मीमांसक ) ‘शक्ति’ पदार्थ को स्वीकार कर के भी मणिमन्त्रादि प्रतिबन्धकों के रहते कार्य की उत्पत्ति के प्रतिरोध का संपादन किस रीति से करेंगे ? तथा हि…….. क्योंकि ‘शक्ति’ पदार्थ को मानने के पक्ष में निम्नलिखित चार अर्थों की कल्पना के द्वारा ही मणिमन्त्रादि को ‘प्रतिबन्धक’ शब्द का मुख्यार्थ मान कर दाह के अनुत्पाद का निर्वाह हो सकता है, किन्तु ये चारों ही पक्ष प्रयुक्त हैं । अत: ‘कार्यों का अनुत्पाद’ ‘प्रतिबन्ध’ शब्द का मुख्य अर्थ नहीं हो सकता । एवं उस अनुत्पाद के प्रयोजक ‘मणिमन्त्रादि’ भी प्रतिबन्धक शब्द के मुख्यार्थ नहीं हो सकते । ये चारो पक्ष इस प्रकार हैं- (१) अग्नि प्रभृति में दाहादि को उत्पन्न करने की जो शक्ति है, चन्द्रकान्तमणि प्रभृति प्रतिबन्धकों से उसका विनाश हो जाता है ( अतः वह्नि के रहने पर भी चन्द्रकान्तमणि प्रभृति प्रतिबन्धकों के रहने पर दाहादि कार्य उत्पन्न नहीं हो पाते ) ।
४४ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली तत्राकिञ्चित्करस्य प्रतिबन्धकत्वानुपपत्तेः, विपरीतधर्मान्तरजनने ‘तदभावे सत्येव कार्यम्’ इत्यभावस्य कारणत्वस्वीकारः, प्रागभावादिविकल्पावकाशश्च । तद्विनाशे तद्धर्मविनाशे वा पुनरुत्तम्भकेन तज्जननेऽनियतहेतुकत्वम्, पूर्वं स्वरूपो- ( २ ) वह्नि में रहने वाली दाह की अनुकूला शक्ति में ‘जो दाहजनकत्व’ रूप धर्म है, उसका मणिमन्त्रादि प्रतिबन्धकों से विनाश हो जाता है ( अतः वह्नि और उस में रहनेवाली दाहानुकूला शक्ति इन दोनों के रहने पर भी मणिमन्त्रादि के रहते दाह उत्पन्न नहीं होता है ) । ( ३ ) मणिमन्त्रादि प्रतिबन्धकों के द्वारा वह्नि में दाह के प्रतिकूल विरोधिनी दूसरी शक्ति ही उत्पन्न होती है, जिससे दाह का प्रतिरोध होता है । ( ४ ) वह्नि में मणिमन्त्रादि प्रतिबन्धकों से किसी भी वस्तु की उत्पत्ति नहीं होती, अर्थात् मणिमन्त्रादि केवल अपनी संनिधि से ही दाह का प्रतिरोध करते हैं । तत्राकिञ्चित्करस्य" ( इन में चौथा पक्ष इस लिये प्रयुक्त है कि जो कार्योत्पत्ति के प्रतिकूल ) कुछ भी नहीं कर सकता, उस को ‘प्रतिबन्धक’ नहीं कहा जा सकता । ( तीसरे पक्ष के अनुसार ) यदि ( मणिमन्त्रादि प्रतिबन्धकों से वह्नि में दाह की विरोधिनी किसी ‘शक्ति’ की सत्ता मानें तो फिर इस शक्ति के अभाव को दाह का कारण मानना पड़ेगा ( अभाव को किसी का भी कारण मानना मीमांसकों को इष्ट नहीं है ) । इस प्रसङ्ग में दूसरी बात यह भी है कि ( प्रति- बन्धकाभाव को कारण मानने के पक्ष में जिस प्रकार प्रागभावादि के विकल्पों को उठा कर दोष दिया गया है) उसी प्रकार के विकल्प शक्ति के कथित अभाव के प्रसङ्ग में भी उपस्थित होंगे । ( कथित प्रथम पक्ष को स्वीकार कर ) वह्नि में जो दाह की अनुकूल शक्ति है, यदि उसका विनाश मणिमन्त्रादि प्रतिबन्धकों से मानकर दाह के कथित अनुत्पाद का निर्वाह करें, अथवा (द्वितीय पक्ष को स्वीकार कर ) वह्नि में दाह को उत्पन्न करने की जो शक्ति है, उस में रहने वाले ‘दाहानुकूलत्व’ धर्म का विनाश ही मणिमन्त्रादि प्रतिबन्धकों से मान कर दाह के कथित अनुत्पाद का निर्वाह करें तो इन दोनों ही पक्षों में अनुकूलशक्ति रूप कार्य या शक्तिगत कार्यानुकूलत्व रूप कार्यं क्रमशः इन दोनों कार्यों में अनियत हेतु से उत्पन्न होने की आपत्ति होगी, क्योंकि प्रतिबन्धक और उत्तेजक इन दोनों में किसी के भी न रहने पर वह्नि में अनुकूल शक्ति की उत्पत्ति या इस शक्ति में कार्यानुकूलत्व धर्म की उत्पत्ति ‘स्वरूपोत्पादक’ से अर्थात् शक्ति के आश्रयीभूत वह्नि के उत्पादक कारणों से ही मानते हैं । एवं प्रतिबन्धक और उत्तेजक इन दोनों के रहने पर उन दोनों की ही उत्पत्ति सूर्यकान्तमणि प्रभृति उत्तेजकों से मानते हैं । इस प्रकार कथित प्रथम और द्वितीय इन दोनों ही पक्षों में ( अनियत हेतुकत्व ) की श्रापत्ति होती है । 1
तदभावे शश्च । वरूपी- धर्म है, हनेवाली T है ) । रोधिनी होती, भी नहीं ) यदि मानें तो का भी ( प्रति- कर दोष होंगे । विनाश द्वितीय हने वाले मनुत्पाद नुकूलत्व क्योंकि क्ति की शक्ति के न दोनों प्रकार प्रथमः स्तवकः ४५ त्पादकादिदानीमुत्तम्भकादुत्पत्तेः । न च समानशक्तिकतया तुल्यजातीयत्वा- न्नैवमिति साम्प्रतम्, विजातीयेषु समानशक्तिनिषेधात् । न च प्रतिबन्धकशक्तिमेवो- तम्भको विरुणद्धि, न तु भावशक्तिमुत्पादयतीति साम्प्रतम्, तदनुत्पादप्रसङ्गात् । कालविशेषात्तदुत्पादे तदेवानियतहेतुकत्वमिति ॥ ११ ॥ पू० प० न च समान.. दाहादि की अनुकूला शक्ति और इस शक्ति में रहनेवाला कार्यानुकूलत्व धर्म- इन दोनों को उत्पन्न करने की शक्ति स्वरूपोत्पादक और उत्तेजक इन दोनों में ही है । इस प्रकार उक्त उभयमशक्तिमत्त्व रूप एक धर्म के द्वारा उक्त दोनों कारणों का संग्रह संभव है । अतः अनियत- हेतुकत्व की कथित प्रापत्ति नहीं है । ( क्योंकि उक्त ‘उभयशक्तिमत्’ रूप एक ही नियत कारण से दोनों की उत्पत्ति होगी ) । सि० प० विजातीयेषु….. विभिन्न जाति की अनेक वस्तुओं में एक जातीय कार्यों को उत्पन्न करने की शक्ति नहीं मानी जा सकती । ( यह वात ‘न विजात्येकशक्तिमान्’ इत्यादि से कही जा चुकी है ) । पू० प० न च प्रतिबन्धकशक्तिम्…… ( सूर्यकान्तमणि प्रभृति ) उत्तेजकों से वह्नि में चन्द्रकान्तमणि प्रभृति प्रतिबन्धकों के समवधान के समय भावरूपा किसी दूसरी शक्ति की उत्पत्ति नहीं होती है, किन्तु ( चन्द्रकान्तमणि प्रभूति ) प्रतिबन्धकों में कार्य को प्रतिरोध करने की जो शक्ति है, उस शक्ति में ( सूर्यकान्तमणि प्रभृति ) उत्तेजकों से प्रक्षमता ही आती है । सि० प० तदनुत्पाद’’ फिर भी ( प्रतिबन्धक के द्वारा वह्नि की दाहिका शक्ति के विनष्ट हो जाने से ) उत्तेजक का सामीप्य रहने पर भी उक्त वह्नि से दाह की उत्पत्ति नहीं हो सकेगी । पू० प० कालविशेषात्… उत्तेजक के सांनिध्य का जो काल है, वही काल ‘विशेष’ वह्नि में पुनः दाह करने की शक्ति को उत्पन्न करता है । सि० प० तदेव…… ऐसा मानने पर कार्यों में अनियत हेतुकत्व की आपत्ति पुनः आ पड़ेगी क्योंकि वह्नि में जो दाहिका शक्ति है, उसकी उत्पत्ति पहिले वह्नि के उत्पादक कारणों ( अर्थात् स्वरूपोत्पादक ) से मानते हैं, एवं प्रतिबन्धक और उत्तेजक इन दोनों के सांनिध्य के समय वह्नि में उसी दाहिका शक्ति की उत्पत्ति ‘काल’ घटित कारणों से मानते हैं ॥। ११ ॥ है ।
४६ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली स्यादेतत् । मा भूत् सहजशक्तिः, प्राधेयशक्तिस्तु स्यात् । दृश्यते हि प्रोक्षारणादिना व्रीह्यादेरभिसंस्कारः । कथमन्यथा कालान्तरे तादृशानामेव कार्यंविशेषोपयोगः । न च मन्त्रादीनेव सहकारिणः प्राप्य ते कार्यकारिण इति साम्प्रतम्, तेषु चिरध्व- स्तेष्वपि कार्योत्पादात् । नापि प्रध्वंससहायास्ते तथा । एवं हि यागादिप्रध्वंसा एव स्वर्गादीनुत्पादयन्तु कृतमपूर्वकल्पनया ? तेषामनन्तत्वादनन्तफलप्रवाहः प्रसज्यत इति पू० प० स्यादेतत् मा भूत् वह्नि के साथ ही उत्पन्न होनेवाली वह्नि की जो ( सहज ) शक्ति है, प्रतिबन्धक से उस शक्ति के विनष्ट हो जाने के बाद पुनः उस में उक्त सहज शक्ति की उत्पत्ति उत्तेजक के द्वारा भले ही संभव न हो, किन्तु जिस प्रकार व्रीहि में पुरोडाश बनाने की सहज शक्ति के न रहने पर भी प्रोक्षण से पुरोडाश बनाने की शक्ति का उत्पादन व्रीहि में किया जाता है, उसी प्रकार प्रतिबन्धक के आ जाने के बाद उत्तेजक से वह्नि में दाहिका शक्ति उत्पन्न की जा सकती है । अगर प्रोक्षण से व्रीहि में किसी विशेष प्रकार की शक्ति या संस्कार की उत्पत्ति न मानें तो फिर यह नियम कैसे उत्पन्न होगा कि “प्रोक्षण के बहुत समय बाद भी पुरोडाश बनाने के लिये प्रोक्षित व्रीहि का ही उपयोग हो” । न च मन्त्रादीन् ….. यदि ऐसा कहें कि ‘मन्त्रादि रूप सहकारि कारणों को पाकर ही व्रीहि पुरोडाश का संपादन करेंगे ? किन्तु यह कहना भी संभव नहीं होगा, क्योंकि मन्त्रादि सहकारियों के विनष्ट हो जाने के बहुत समय बाद व्रीहि से पुरोडाश बनता है । नापि प्रध्वंस……. ( यदि ऐसा कहें कि ) जिन कारणों से पुरोडाश बनता है, उन्हें पुरोडाश के निष्पादन में मन्त्र एवं प्रोक्षण क्रिया इन दोनों के ध्वंसों के साहाय्य की भी अपेक्षा होती है, किन्तु ऐसा कहना भी संभव नहीं है, क्योंकि अगर ध्वंस के साहाय्य से भी कार्यों का संपादन संभव हो तो फिर यागादि के ध्वंसों से भी स्वर्गादि की उत्पत्ति हो सकती है, इसके लिये ‘अपूर्व’ की कल्पना अनावश्यक हो जायगी । तेषाम् …… यदि ऐसा कहें कि ध्वंस तो अनन्त काल तक रहने वाली वस्तु है, अतः याग के ध्वंस से यदि स्वर्ग की उत्पत्ति मानेंगे तो ( एक याग से एक स्वर्ग की प्राप्ति के बाद अनन्त समय तक उसी याग के ध्वंस से अनन्त स्वर्गों की उत्पत्ति माननी होगी ) । यागादि से स्वर्गादि फलों की व्यवस्थित उत्पत्ति के लिये हो अपूर्व की कल्पना आवश्यक होती है |
प्रथमः स्तवक: ડ चेत्, प्रपूर्वेऽपि कल्पिते तावानेव फलप्रवाह इति कुतः ? प्रपूर्वस्वाभाव्यादिति चेत्, तुल्यमिदमिहाऽपि । तावतापि तत्प्रध्वंसो न विनश्यतीति विशेषः । स्यादेतत् । उपलक्षणं प्रोक्षरणादयो, न तु विशेषरणम् । तथा चाविद्यमानैरपि तैरुपलक्षिता व्रीह्मादयस्तत्रतत्रोपयोक्ष्यन्ते । यथा गुरुणा टीका, कुरुरणा क्षेत्रमिति चेत् । अपूर्वेऽपि …… ( किन्तु ऐसा कहना भी संभव नहीं है, क्योंकि ) याग से स्वर्ग के लिये प्रपूर्व की कल्पना कर लेने पर भी यह प्रश्न वना ही रहता है कि एक याग से उत्पन्न एक अदृष्ट से एक ही स्वर्ग क्यों उत्पन्न होता है ? इस एक अपूर्व से आगे बराबर अनन्तकाल तक अनन्त स्वर्गी की उत्पत्ति क्यों नहीं होती रहती है ? अपूर्वस्वभाव्यात् ( यदि इस का यह उत्तर दें कि ) अपूर्वं का यही स्वभाव है कि एक अपूर्व एक ही स्वर्ग को उत्पन्न करे ( एवं स्वर्ग को उत्पन्न कर स्वयं विनष्ट हो जाय ) | ( तुल्यमिदम्……. ( किन्तु यह उत्तर भी समीचीन नहीं होगा, क्योंकि ) याग के उत्पत्ति के प्रसङ्ग में भी समान रूप से यही बात कही जा सकती है का यह स्वभाव ही है कि वह एक ही स्वर्ग को उत्पन्न करे । द्वारा स्वर्गेत्पत्ति की कल्पना की अपेक्षा याग के ध्वंस से स्वर्ग की कि याग के ध्वंस याग से अपूर्व के ध्वंस से स्वर्ग की उत्पत्ति मानने की उत्पत्ति मानने पर स्वर्ग रूप कार्य में यह लाघव रूप अन्तर अधिक भी है कि अपूर्व से स्वर्ग से अपूर्व रूप कारण का नाश भी मानना पड़ता है । किन्तु याग के ध्वंस से स्वर्ग की उत्पत्ति मानने पर यह ( कार्य से कारण के नाश की ) कल्पना भी नहीं करनी पड़ती है ( क्योंकि सभी ध्वंसों का अविनाशी होना स्वीकृत है ) । स्यादेतत् । उपलक्षणम् 9 ( यदि ऐसा कहें कि ) ‘प्रोक्षिता एव व्रीहयोऽवघाताय ‘कल्पन्ते’ अथवा “भवहनन- निष्पादितैरेव तण्डुलः पुरोडाशो निष्पाद्यः” इत्यादि स्थलों में ) प्रोक्षणादि उपलक्षण हैं, विशेषण नहीं । अतः जिस समय प्रोक्षणादि नहीं भी रहते ( वे विनष्ट हो जाते हैं) उस समय भी उन से उपलक्षित ही व्रीहि प्रभृति का अवहनन या पुरोडाश के निष्पादन में उपयोग हो सकता है । अत: अप्रोक्षित व्रीहि से पुरोडाश के निष्पादन की आपत्ति नहीं है । ( अविद्यमान होते हुये भी उपलक्षण व्यावर्त्तक होते हैं) जैसे कि आज ‘गुरु’ ( प्रभाकर ) की सत्ता न रहने पर भी उन से रचित ( शावर भाष्य की बृहती ) टीका गुरु के द्वारा ही अन्य टीकाग्रन्थों से भिन्न समझी जाती है । एवं आज कुरुओं की सत्ता न रहने पर भी उन का क्षेत्र ( कुरुक्षेत्र ) उन्हीं के द्वारा अन्य क्षेत्रों से भिन्न रूप में व्यवहृत होता है ।
४८ गद्यपद्यात्मक न्याय कुसुमाञ्जली तदसत् । न हि स्वरूपव्यापारयोरभावेऽप्युपलक्षणस्य कारणत्वं कश्चिदिच्छति, प्रति- प्रसङ्गात् । व्यवहारमात्रं तु तज्ज्ञानसाध्यम्, न तु तत्साध्यम् । तज्ज्ञानमपि स्वकार- गाधीनम्, न तु तेन निरन्वयध्वस्तेन जन्यते । अस्तु वा तत्राप्यतिशयकल्पना, किन- रिछन्नम् ! यद्वा यागादेरप्युपलक्षणत्वमस्तु । तदुपलक्षितः कालो यज्वा वा स्वर्गादि साधयिष्यति, कृतमपूर्वेण । न च देवदत्तस्य स्वगुणाकृष्टाः शरीरादयो भोगाय तद्भोगसाधनत्वात् स्रगादिवदित्यन्वयिबलादपूर्वसिद्धेर्ना विशेष इति साम्प्रतम् । इच्छाप्रयत्नज्ञानैर्यथायोगं तदसत् उत्पन्न किसी ( यह समाधान भी उपयुक्त नहीं है ), क्योंकि अविद्यमान उपलक्षणों से इस प्रकार की व्यावृत्ति बुद्धियाँ होने पर भी कार्य से अव्यवहित पूर्व क्षण में उपलक्षण की स्थिति न रहने की स्थिति में उपलक्षण से वस्तु ( व्यापार ) के न रहने पर उपलक्षण में कारणता नहीं मानी जा सकती यदि जिस किसी प्रकार कार्य से पूर्व के समय में रहने से ही कारणता मानी जाय तो ‘अतिप्रसङ्ग’ होगा ( अर्थात् तन्तु प्रभृति में घटादि की कारणता माननी होगी ) । अतीत उपलक्षणों के द्वारा जो गुरुटीका कुरुक्षेत्रादि व्यवहारों की चर्चा की गयी है, वे व्यवहार भी सर्वथा विनष्ट उपलक्षणों से नहीं होते, किन्तु उपलक्षण के ( परोक्ष ) ज्ञान से होते हैं । वे ज्ञान भी अपने कारणों से ही उत्पन्न होते हैं, चिर विनष्ट अपने विषयों से नहीं । अथवा उपलक्षणों से भी ( यागों से अपूर्वं के समान कथित व्यवहार पर्यन्त स्थायी ) किसी ‘अतिशय’ की कल्पना कर लेने से भी हमलोगों ( मीमांसकों ) की कोई हानि नहीं है । ( वे ही अतिशय ‘गुरुटीका’ और ‘कुरुक्षेत्रम्’ इत्यादि व्यवहारों के अव्यवहित पूर्वक्षण पर्यन्त रह कर उन व्यवहारों को उपपन्न कर देंगे ) । अथवा ‘यागात् स्वर्ग:’ ( याग से स्वर्ग उत्पन्न होता है ) इत्यादि व्यवहार भी याग को उपलक्षण मान कर उपपन्न किये जा सकते हैं । ( गुरु और कुरु के समान सर्वथा विनष्ट याग से ) उपलक्षित काल अथवा यागकर्त्ता पुरुष ही स्वर्ग का संपादन कर लेंगे । इस के लिये ( यागजनित ) अपूर्व की क्या आवश्यकता है ? न च देवदत्तस्य ….. जिस प्रकार चन्दन वनितादि ऐहिक भोग्य पदार्थ देवदत्तादि भोक्ताओं की आत्मा में रहनेवाले प्रयत्नादि गुणों के द्वारा समीप लाये जाने पर ही भोगों का संपादन करते हैं, उसी प्रकार ‘यद् यद् भोगसाधनं तत्तत् स्वगुणाकृष्टं सदेव भोगं संपादयति’ ( अर्थात् भोग के जितने भी साधन हैं वे सभी भोक्ता पुरुषों के गुणों से आकृष्ट होकर ही भोग का संपादन अनुसार प्रकृत में भी कहा जा सकता है कि स्वर्गं रूप भोग्य पदार्थ भी याग करनेवाले भोक्ता पुरुष के किसी गुण से आकृष्ट होकर ही उपभुक्त हो सकते हैं । करते हैं ) इस व्याप्ति के
I T T प्रथमः स्तबकः ४६ सिद्धसाधनात् । न च तद्रहितानामपि भोग इति युक्तिमद्, येन ततोऽप्यधिकं सिद्धयेत् नापि स्वगुणोत्पादिता इति साध्यार्थः । मानसाऽनेकान्तिकत्वात् । नापि कार्यत्वे सतीति विशेषणीयो हेतु:, तथाप्युपलक्षणैरेव विद्धसाधनात् । प्रकृत में वह गुण ‘अपूर्व’ रूप ही है । किन्तु यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि ‘स्वर्गादयो भोग्याः स्वगुणाकृष्टा एव भोगं संपादयन्ति भोग्य वस्तुत्वात्, चन्दनवनितादिवत्’ इस अनुमान से ( चन्दनवनितादि दृष्टवस्तुओं के उपभोग के लिये सिद्ध) ज्ञान, इच्छा और प्रयत्न इन्हीं गुणों में से योग्यता के अनुसार किसी की सिद्धि होगी। ये गुण तो पहिले से सिद्ध ही हैं । अतः इन गुणों के विना किसी उपभोग रूप क्रिया की उत्पत्ति संभव ही नहीं है । अतः उक्त अनुमान के द्वारा ज्ञान, इच्छा और प्रयत्न इन तीनों गुणों से भिन्न किसी गुण की सिद्धि संभव नहीं है । उक्त अनुमान में सिद्धसाधन दोष है । नापि स्वगुरणोत्सादितां……… " " स्वगुणाकृष्टा एव भोग्या भोगसाधना:, भोग्यत्वात् स्रगादिवत्" इस अनुमान के साध्यबोधक वाक्य में ‘स्वगुणाकृष्टाः’ के स्थान पर ‘स्वगुणोत्पादिता:’ ऐसा परिवर्तन कर दें तो उक्त सिद्धसावन दोष का परिहार हो जायगा । क्योंकि स्वर्गादि भोग्य पदार्थ भोक्ता के इच्छादि गुणों से उत्पन्न नहीं होते । अतः जिस गुण से स्वर्ग की उत्पत्ति होगी, वह गुण ही प्रकृत ‘अपूर्व’ होगा । 25 1 किन्तु ऐसा कहना भी संभव नहीं है, क्योंकि ( भोग के जो भी साधन हों वे सभी भोक्ता के किसी गुण से उत्पन्न ही हों’ यह नियमं ) ‘मन’ में व्यभिचरित है । ( क्योंकि सुख या दुःख का मानस प्रत्यक्ष ही भोग है । मन उक्त प्रत्यक्ष रूप भोग का साधन होते हुए भी भोक्ता के गुण से उत्पन्न नहीं होता है, क्योंकि मन नित्य है । से भी नहीं होती है ) । : नापि कार्यत्वे सति…….. • अतः उस की उत्पत्ति किसी ( यद् यद् भोगासाधनं ततद् भोक्तृगुणोत्पन्नम्’ व्याप्ति के बोधक इस वाक्य में ‘यद् यद् भोगसाधनम्’ इतना जो हेतु का बोधक अंश है, उस में एक ‘जन्यम्’ पद अधिक जोड़ दें, अर्थात् ‘यद् यद् जन्यं भोगसाधनम्’ ऐसा वाक्य मान लें ( अर्थात् भोग के जो जन्य साधन हैं, वे अवश्य ही भोक्ता के किसी गुण से उत्पन्न होते हैं) तो मन में कथित व्यभिचार का वारण हो जायगा । किन्तु ऐसा करने पर भी उक्त अनुमान से भोक्ता पुरुष में रहनेवाले जन्मान्तरीय । ज्ञान, इच्छा एवं प्रयत्न रूप उपलक्षण की ही सिद्धि होगी ( क्योंकि चिरविनष्ट इच्छादि रूप उन उपलक्षणों से ही स्वर्गादिकी उपपत्ति हो जायगी । जिस से इस अनुमान में सिद्धसाधन दोष ज्यों का त्यों रह जायगा । सुतराम् इस अनुमान से भी ‘अपूर्व’ की सिद्धि नहीं होगी ) ७ । 4
- ५०
- गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली
- •
- असतां तेषां कथमुत्पादकत्वमिति चेत्, तदेतदभिमन्त्रणादिष्वपि तुल्यम् । तस्माद्भावभूतमतिशयं जनयन्त एव प्रोक्षणादयः कालान्तरभाविने फलाय कल्पन्ते, प्रमाणतस्तदर्थमुपादीयमानत्वात् यागकृषिचिकित्सावदिति । अन्यथा कृष्णादयो दुर्घटाः प्रसज्येरन् । बीजादीनामापरमाण्वन्तभङ्गात् तेषु चावान्तरजातेरभावा- नियत जातीय कार्यारम्भानुपपत्तेः ॥१०॥
- श्रत्रोच्यते-
- संस्कारः पुंस एवेष्टः प्रोक्षरणाभ्युक्षरणादिभिः ।
- स्वगुरणाः परमाणूनां विशेषाः पाकजादयः ॥ ११ ॥
- असतां तेषाम्…………….
- भोक्ता पुरुष के दूसरे जन्म के ज्ञान इच्छा प्रभृति ये उपलक्षण इस स्वर्गोत्पत्ति के अव्यवहित पूर्व क्षण में विद्यमान नहीं रहते, अत: इन से स्वर्गोत्पत्ति की संभावना नहीं है । अतः यागादि से अपूर्व का मानना आवश्यक है ।
- तदेतत् ……
- ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि इस अभियोग का अवसर ‘अभिमन्त्रणादि’ में भी समान रूप से है ।
- तस्मात्
- 1
- .
- ।
- ‘तस्मात्’ यह अनुमान निष्पन्न होता है कि जिस प्रकार याग और कृषि ये दोनों क्रमशः अपने द्वारा उत्पन्न अपूर्व एवं क्षेत्र गत ‘बल’ इन दोनों भाव पदार्थों के उत्पादन के द्वारा ही स्वर्ग एवं अन्न का उत्पादन करते हैं, उसी प्रकार प्रोक्षणादि क्रियायें भी व्रीहि प्रभृति पदार्थों में भावपदार्थ रूप किसी ‘अतिशय’ या ‘अपूर्व’ को उत्पन्न करके ही अपनी स्थिति समय के बहुत काल के बाद भी पुरोडाशादि का निष्पादन कर सकती हैं, क्योंकि ( श्रुति रूप ) प्रमाण के द्वारा वे पुरोडाश निर्माण के लिये ही निर्दिष्ट हैं । ‘चं यथा ’ ( भूतद्रव्यों में उक्त अपूर्व या अतिशय न मानें तो ) कृषि कार्य ही दुष्कर हो जायगा, क्योंकि खेत में गिराये गये यवादि के बीज जब परमाणु पर्यन्त विनष्ट हो जाते हैं तो उन में ( पृथिवित्वादि की श्रवान्तर ) यवत्वादि जातियाँ नहीं रहती हैं । फिर यव के बीज से यशङ्ङ्कर ही हो, या यव के अंङ्कर यव के बीज से ही उत्पन्न हों, इसका दूसरा कोई नियामक उस समय ‘अतिशय’ को छोड़कर नहीं है । अतः उक्त नियमों की उपपत्ति भी न हो सकेगी । ( अतः प्रोक्षणादि क्रियाओं से व्रीहि प्रभृति भूतद्रव्यों में भी ‘अपूर्व’ की उत्पत्ति होती है ) । प्रत्रोच्यते संस्कारः…..
- “पुस…….
- पुस
- इस प्रसङ्ग में हम लोग कहते हैं कि-
प्रोक्षण, अभ्युक्षण प्रभृति क्रियाओं से ‘अपूर्व’ अथवा ‘अतिशय’ की उत्पत्ति अवश्य ही होती है । किन्तु वह पुरुष की आत्मा में ही उत्पन्न होती हैं. (ब्रीहि प्रभृति भूतद्रव्यों में नहीं)
म प्रन्ते दयो वा- ति है | द’ में दोनों न के व्रीहि ही. योंकि यथा’ योंकि उन में ज से मिक गी। नही प्रथमः स्तबक: ५१ यथा हि देवताविशेषोद्देशेन हुताशने हविरांहुतयः समन्त्राः प्रयुक्ताः पुरुषम- भिसंस्कुर्वते न वह्निम्, नापि देवताः, तथा व्रीह्माद्युद्देशेन प्रयुज्यमानः प्रोक्षणादि: पुरुषमेव संस्कुरुते, न तम् । यथा च कारीरीज नितसंस्काराधारपुरुष संयोगाज्जलमुचां सञ्चरणजलक्षण ररूपा क्रिया, तथा वह्यादीनां तत्तदुत्तर क्रियाविशेषाः; यथा चेकत्र कर्तृः कर्मसाधनवैगुण्यात् फलाभावस्तथा परत्रापि, आगमिकत्वस्योभयत्रापिं तुल्यत्वात् । न तहि बर्हिष इव व्रीह्यादेः पुनरुपयोगान्तरं स्यात्, उपयोगे वा यवादि बीजों के परमाणुओं के रूप रसादि में पाकादि से उत्पन्न होनेवाले जो ‘विशेष’ हैं ( वे ही उक्त नियमों के प्रयोजक हैं ) । सि० प० यथा हि …. जिस प्रकार ( इन्द्रादि ) किसी देवता के लिये अग्नि में मन्त्रोच्चारण पूक डाली गयी आहुतियाँ ( मीमांसकों के मत से भी ) आहुति डालनेवाले पुरुषों में हो संस्कार ( अपूर्व ) को उत्पन्न करती हैं, देवता भोर वह्नि इन दोनों में से किसी में भी अपूर्व को उत्पन्न नहीं करतीं । इसी प्रकार व्रीहि प्रभृति के लिये प्रयुक्त प्रोक्षणादि क्रियायें ( प्रोक्षण करनेवाले) पुरुष में ही ‘अतिशय’ अथवा ‘अपूर्व’ को उत्पन्न करती है, ब्रीहि प्रभृति भूतद्रव्यों में नहीं । एवं जिस प्रकार कारीरी याग से उत्पन्न अदृष्ट से युक्त पुरुष के (विशेष प्रकार के) संयोग से मेघों में जल गिराने की क्रिया उत्पन्न होती है, उसी प्रकार ( प्रोक्षण करने वाले पुरुष के सम्बन्ध के द्वारा ही ) व्रीहि प्रभृति से ही श्रागे होनेवाली अवहननादिः क्रियायें उत्पन्न होती हैं । जिस प्रकार श्रुति से निर्दिष्ट होने के कारण कारीरी या पुत्रेष्टि प्रभृति यागों के अनुष्ठान के बाद भी उनसे वर्षा एवं पुत्रादि फल के प्राप्त न होनेपर याग के कर्त्ता, यागक्रिया, अथवा याग के अन्य साधनों में वैगुण्य की कल्पना की जाती है उसी प्रकार निष्फल होने पर व्रीहि प्रभृति की प्रोक्षणादि क्रियाओंों में भी वैगुण्य की कल्पना कर ली जायगी । क्योंकि दोनों ही प्रकार के स्थलों में श्रुति -प्रमाण का निर्देश समान है । पू० प० न, तर्हि • ऐसी बात नहीं हो सकती, यदि ऐसा मानें तो फिर जिस प्रकार स्तरण में प्रयुक्त कुशों (बहिष) का ही पुनः- ( हविराधान में ) प्रयोग होता है, उसी प्रकार प्रोक्षण रूप क्रिया में लगे हुए व्रीहि का ही पुनः प्रवहनन रूप दूसरी क्रिया में उपयोग न हो सकेगा । यदि (व्रीहीनवहन्ति, व्रीहिभिर्यजेत - इत्यादि श्रौत विधानों के बलपर प्रोक्षण क्रिया में उपयुक्त होने के बाद ) पुनः उपयोग कर भी लें, तथापि यह अभियोग बना ही रहेगा कि प्रोक्षित व्रीहि के ही समान ही अप्रोक्षित व्रीहि का भी अवहननादि अन्य क्रियानों में उपयोग क्यों नहीं ? ( इस से ‘प्रोक्षिता एव व्रीहयोऽवघाताय कल्पन्ते’ अर्थात् प्रोक्षित. व्रीहि का ही अवहन क्रिया में विनियोग हो ) यह नियम अनुपपन्न हो जायगा । नहीं) CCO. Vasishtha Tripathi Collection. Digitized by eGangotri५२ गद्यपद्यात्मक-न्यायैकुसुमाञ्जलौ तज्जातीयान्तरमप्युपादीयेत, प्रविशेषात् ॥न, विचित्रा ह्यभिसंस्काराः केचिद् व्याप्रिय- : मारणोद्देश्यसहकारिण. एव कार्ये उपयुज्यन्ते । किं क्रियताम्, विधेर्दुलंङ घ्यत्वात् । यथा । चाभिचार संस्कारो यं देहमुद्दिश्य प्रयुक्तस्तदपेक्ष एव तत्सम्बद्धस्यैव दुःखमुपजनयति, नान्यस्य, न वा तदनपेक्षः । एवमभिमन्त्रणादिसंस्कारां अपि भवन्तो न मानागपि ‘नोपयुज्यन्ते । कथं तर्हि व्रीह्मादीनां संस्कार्यं कर्मतेति चेत्, प्रोक्षणादिफलसंबन्धादेव । ननु यदुद्देशेन यत् क्रियते तत्तत्र किञ्चित्करम् । यथा पुत्रेष्टिपितृयज्ञो । तथा सि० प० न, विवित्रा हि 3 .. यह आपत्ति भी ठीक नहीं है, क्योंकि विभिन्न संस्कार विभिन्न रीति से अपना-अपना काम करते हैं ( सभी समान रूपसे अपना कार्य नहीं करते ) । इन में कुछ संस्कार ऐसे हैं जो अपने उत्पादन में सहायक द्रव्य का साहाय्य लेकर ही अपना मुख्य काम करते हैं, क्योंकि वेद के विधानों का उल्लंघन नहीं किया जा सकता । 3. यथा चाभिचार संस्कारः ….. जिस प्रकार ( श्येनयागादिरूप. ) अभिचार से उत्पन्न संस्कार (अपूर्व ) जिस ( शत्रु ) देह के लिये प्रयुक्त होता है, उस देह के साहाय्य से ही उसी देह से सम्बद्ध ( आत्मा ) में दुःख का उत्पादन करता है । वह संस्कार विना उस देह के साहाय्य के न उस देह में दुःख को उत्पन्न कर सकता है, न दूसरी आत्माओं में दुःख को उत्पन्न कर सकता है । इसी प्रकार मन्त्रोच्चारण पूर्वक व्रीहि के प्रोक्षण से जो संस्कार उत्पन्न होता है, वह उन प्रोक्षितम ब्रीहि के साहाय्य से ही अवहननादि क्रियाओं में उपयुक्त होने की सामर्थ्य रखते हैं अतः अवहननादि कियानों में जो अप्रोक्षित व्रीहि के उपयोग की श्रापत्ति दी गयी वह उचित नहीं है । पू० प० कथं तहि …….. यदि प्रोक्षण क्रिया से व्रीहि में संस्कारादि किसी फल की उत्पत्ति नहीं होती है, तो फिर ब्रोहि प्रोक्षण क्रिया का कर्म कारक ही कैसे है ? सि० प० प्रोक्षरणादि……. प्रोक्षणक्रिया से जो व्रीहि में जल का संयोग उत्पन्न होता है, उस संयोगरूप फल के सम्बन्ध से ही व्रीहि में प्रोक्षण ं क्रिया की कर्मता भाती हैं ।. ( अतः ‘ब्रीहीन’ पद में द्वितीया विभक्ति की अनुपपत्ति नहीं है ) । पू० प० नतुः यदुद्देशेन ……… जो कार्य जिस आश्रय ( उद्देश ) में ‘किया जाता है, उस आश्रय में वह अवश्य ही किसी वस्तु को उत्पन्न करता है। जैसे कि पुत्रेष्टि याग पुत्र में अपूर्व का उत्पादन करता है’। एवं पितरों के उद्देश ‘से किये गये. श्राद्ध से उन में प्रीति उत्पन्न होती है । इसी लिये ‘प्रोक्षण, रूप कार्य जिस लिये कि व्रोहि रूप उद्द ेश (आश्रय) में ही किया जाता है, अंतः प्रोक्षण से व्रीहि
प्रिय- यथा यति, गणि -देव | ‘तथा अपना जो क्योंकि शत्रु ) घ) में ख को प्रकार हि के नादि तीं है, ल के तीया यं ही करता क्षण, चीहि प्रथमः स्तबंक: ५३ चाभिमन्त्ररणादयो व्रीह्याद्युद्देशेन प्रवृत्ताः इत्यनुमानमिति चेत्, तन्न; हविस्त्यागादिभि- रनैकान्तिकत्वात् । न हि ते कालान्तरभाविफलानुगुणं किञ्चिद्धताशनादो जनयन्ति । किं वा न दृष्टमिन्द्रियलिङ्ग शब्दव्यापाराः प्रमेयोद्देशेन प्रवृत्ताः प्रमातर्येव किञ्चज्जनयन्ति, निः प्रमेये इति । . कृषिचिकित्से प्रप्येवमेव स्यातामिति चेन्न; दृष्टेनेव पाकजरूपादिभेदेनोपपत्ता- वदृष्टकल्पनायां प्रमाणाभावात् । में किसी वस्तु की उत्पत्ति अवश्य होती है । इस से यह अनुमान निष्पन्न होता है कि प्रोक्षण- क्रिया जिस लिये कि व्रीहि के उद्द ेश से की जाती है, अत: उस से भी (पुत्रेष्टि पितृश्राद्धादि के समान ) अवश्य ही व्रीहि रूपं उद्देश में ही किसी वस्तु की उत्पत्ति होती है । ( प्रोक्षणादयः व्रीह्यादी किञ्चिदुत्पादयन्ति तदुद्द ेशक क्रियात्वात् व्रीह्मादयः प्रोक्षणादिजनित किञ्चिद्वस्तुमान् प्रोक्षणादिक्रियोद्दशत्वात् पुत्रादिवत् ) सि० प० तन्न, हविस्त्यागादिभिः …… यह अनुमान ठीक नहीं है, क्योंकि इसका हेतु हवि के त्याग प्रभृति क्रियानों में • व्यभिचरित है। इन क्रियाओं से वह्नि प्रभृति वस्तुओं में किसी ऐसी वस्तु की उत्पत्ति नहीं होती है, जिस से हविस्त्याग के बहुत समय बाद भी हविस्त्याग के मुख्य फल के लिये कुछ • साहाय्य हो सके । अथवा क्या आप लोग. ( मीमांसक ) यह नहीं देखते कि प्रत्यक्ष, अनुमान अथवा शब्द जिन वस्तुओं को यथार्थ रूप से समझाने के लिए प्रवृत्त होते हैं, उद्देशभूत उन विषयों में किसी वस्तु का उत्पादन नहीं करते, किन्तु वे प्रमाण प्रमाता पुरुषों में ही प्रमाज्ञान रूप अतिशय को उत्पन्न करते हैं । पू० प० कृषि चिकित्से ……… ( ऐसी स्थिति में ) कृषि एवं चिकित्सा ये दोनों कार्य भी क्षेत्रबीजादि में या रोगी के शरीर में किसी ‘अतिशय’ का उत्पादन नहीं करेंगे, किन्तु कृषि करनेवाले पुरुष की आत्मा ‘में या चिकित्सक की आत्मा में ही ‘श्रतिशय’ को उत्पन्न करेंगे । 7 सि० प० न, दृष्टेनैव …… ( ऐसी बात नहीं है ( क्योंकि श्रदृष्ट रूप अतिशय के प्रसङ्ग में ही यह बात कही गयी है कि ‘वे आत्मा में ही रहते हैं, भूतद्रव्यों में नहीं ) कृषि और चिकित्सा ये दोनों तो पाकज- रूपादि दृष्टव्यापारों को उत्पन्न कर उनके द्वारा ही अन्न एवं आरोग्य का संपादन करते हैं, उनसे अदृष्ट रूप किसी व्यापार की उत्पत्ति मानने में कोई प्रमाण नहीं है । ( अतः कृषि और चिकित्सा से उत्पन्न अतिशयों में आत्मनिष्ठ होने की आपत्ति नहीं दी जा सकती ) । अत एव…….. “अगर भौतिक द्रव्यों में • में जो प्ररुणिमा उत्पन्न होती है, अदृश्य संस्कार न मानें तो फिर बीजपूर : ( नीबू ) के फूल वह उत्पन्न न हो सकेगी ( स्वभावतः बीजपुर के फूल मवेत
५४ गद्यपद्यात्मक न्यायकुसुमाञ्जलौ तथा च लाक्षारसावसेको व्याख्यातः । श्रत एव बीजविशेषस्यापरमाण्वन्तभङ्ग ेऽपि परमारणूनामवान्तरजात्य भावेऽपि प्राचीन पाकजविशेषादेव विशिष्टाः परमाणवस्तं तं कार्यविशेषमारभन्ते । यथा हि कलमबीजं यवादेः, नरबीजं वानरादेः, गोक्षीरं माहिषादेर्जात्या व्यावर्तते, तथा तत्परमाणवोऽपि मूलभूताः पाकजैरेव व्यावर्तन्ते । न ह्यस्ति सम्भवो गोक्षीरं सुरभि मधुरं शीतम्, तत्परमारणवश्च विपरीताः । तस्मात् तथाभूताः ही होते हैं ) इस आपत्ति का भी समाधान कृषि और चिकित्सा के प्रसङ्ग में दिये गये समाधान से ही हो जाता है ( अर्थात् बीजपूर स्थल में भी लाह की पानी से उक्त फूल में अरुणिमा की उत्पत्ति उक्त सेक से बीजपूर में उत्पन्न किसी दृष्ट से नहीं होती है, किन्तु उक्त सेक से फूल की अरुणिमा के असमवायिकारणीभूत रूप में पाकादि से होनेवाले किसी दृश्य परिवर्तन से ही होती है ) सि० प० श्रत एव ….. कथत युक्ति से ही ‘यव के बीज से यवाङ्कर ही उत्पन्न हों एवं धान्य के बीज से धान्यांकुर ही उत्पन्न हों’ इस नियम की भी उपपत्ति के लिये ‘शक्ति’ पदार्थ को स्वीकार करने की आवश्यकता नहीं रह जाती। क्योंकि यवांकुर के उत्पादक परमाणु और धान्यांकुर के उत्पादक परमाणु इन दोनों प्रकार के परमाणुओं में रहनेवाले रूपरसादि भिन्न-भिन्न प्रकार के होते हैं । रूप रसादि की यह भिन्नता पाक से उत्पन्न होती है । एक ही जाति पाक के द्वारा विभिन्न प्रकार के के परमाणुओं में किसी अवातर जाति के न रहनेपर भी रूपरसादि उत्पन्न होते है । अतः यव में जिस प्रकार की रूपरसादि की उपलब्धि होती है, उसी प्रकार के रूपससादि से युक्त परमाणुओं से ही अवयवों में युवांकुर की उत्पत्ति होती है, एवं उपलब्धि होती है, 4 उसी प्रकार के रूपरसादि से युक्त । अवयवी में जिस प्रकार के रूप- धान में जिस प्रकार के रूपरसादि की धान के परमाणुओं से धान्यांकुर की उत्पत्ति होती है रसादि की उपलब्धि होगी, भी उसी प्रकार के रूपरसादि की सत्ता माननी होगी । यह तो सम्भव ही नहीं कि गाय के दूध में सुरभि गन्ध हो, मधुर रस हो और शीत स्पर्श हो, किन्तु गाय के दूध के उत्पादक परमाणुओं में उसके विपरीत असुरभि गन्ध हो, विक्त रस हो, एवं अनुष्णाशीत स्पर्श हो । अतः जिस प्रकार धान्य के बीज यव के बीज़ से, मनुष्य के बीज वानर के बीज से एवं गाय का दूध भैंस के दूध से तत्तत् जातियों के द्वारा ही विभिन्न प्रतीत होते हैं, उसी प्रकार धान्य, यव अथवा नर, वानरारादि के उत्पादक परमाणु भी अपने में रहनेवाले विभिन्न प्रकार के पाकज रूपरसादि से ही परस्पर विभिन्न समझे जायेंगे । तस्मात् ( उपलब्ध श्रवयवियों में जिस प्रकार की रूपरसादि की उपलब्धि होती है, उन *. अवयं वियों के उत्पादक परमाणुओं में भी उस प्रकार की रूपरसादि की सत्ता माननी होगी । इन विलक्षण रूपरसावि से युक्त परमाणुओं से ही ) यव बीज से यवाङ्क र के उत्पादक बंधमुक
वेऽपि यथा वर्तते, +भवो भूता: माधान मा. की फूल र्तन से ज से वीकार यांकुर -भिन्न जाति कार के होती ६ एवं
- युक्त -रूप– माननी शीत तिक्त ज़ से, रा ही गुमी यंगे । उन गी। यशुक प्रथमः स्तवक: ५५. पाकजा एव परमाणवो यथाभूतैरेव प्राद्यातिशयोऽन्त्यातिशयोऽङकुरादिवेति किमत्र शक्तिकल्पनया ? कल्पादावप्येवमेव । इदानीं वीजादिसन्निविष्टानामस्मदादिभिरुपसम्पा दनम्, तदानीं तु विभक्तानामहादेव केवलान्मिथः संसगं इति विशेषः । न च वाच्यमिदानीमपि तथैव कि न स्यात् ? यतः कृष्यादिकर्मच्छेदे तत्साध्यानां भोगाना मुच्छेदप्रसङ्गात् । अव्यवस्थाभयाच्चादृष्टानि कर्माणि दृष्टकर्मव्यवस्थयैव भोगसाध- नानीत्युन्नीयते । तस्मात् पाकजविशेषैः संस्थान विशेषैश्च विशिष्टाः परमाणवः रूप ) ‘श्राद्यतिशय’ ( अर्थात् प्रथम कार्य ) अथवा ‘मवांकुर’ रूप ‘अन्त्याशय’ ( अर्थात् चरमकार्य ) की उत्पत्ति होगी, जिस लिये कि इसी से धान्य के बीज से धान्यांकुर ही हों और यव के वीज से यवाङ्कर ही हों–इस नियम को उपपत्ति हो जायगी, अतः उक्त दोनों प्रकार के परमाणुओं में किसी ) ‘शक्ति’ की कल्पना अनावश्यक है । सृष्टि के आदि ने भी इसी प्रकार परमाणुओं में रहनेवाले पाकजनित रूप।दि से ही विभिन्न वस्तुत्रों की नियमित उत्पत्ति में कोई वाधा नहीं है । इस समय की अंकुरादि की उत्पत्ति में एवं सृष्टि की आदि की अंकुरादि की उत्पत्ति में इतना ही अन्तर है कि अभी के अंकुर के उत्पादन में बीजों को क्षेत्रादि सहकारियों का सामीप्य हम लोगों के द्वारा प्राप्त होता है, किन्तु सृष्टि की आदि में बीजों को सहकारियों का यह सामीप्य तत्तत्कार्य के लिये नियमित अदृष्ट से प्राप्त होता है । पू० १० न च वाच्यम् तो फिर वर्त्तमान काल में भी बीज को क्षेत्रादि सहकारियों के समीप्य का लाभ केवल • श्रदृष्ट से ही क्यों नहीं मान लेते ? ( इसके लिये कृषक के द्वारा हलकर्षणादि व्यापार की अपेक्षा क्यों मानते हैं ? ) सि० प० यंतः .. … … यदि ऐसा मानेंगे तो फिर कृषि कार्यों का बिलकुल ही लोप हो जायगा । एवं उनके लोप हो जाने से कृषिकार्य के द्वारा होनेवाले भागों की उपपत्ति नहीं हो सकेगी। ( श्राधुनिक अंकुर के प्रति कृषिकार्य में अन्वय और व्यतिरेक से जो कारणता ) व्यवस्थित है, उसके भंग हो जाने के डर से यह अनुमान करते हैं कि अदृष्ट से भोग का संपादन दृष्टकारणों के द्वारा ही होता है । अतः विभिन्न परमाणुओं में जो विभिन्न प्रकार के रूपादि हैं; अथवा परमाणुओं में जो विभिन्न प्रकार के उत्पादक संयोग ( संस्थान ) है उनके साहाय्य से ही वे विभिन्न प्रकार के कार्यों को उत्पन्न करते हैं। वे पाकज रूपादि अथवा विभिन्न प्रकार के संयोग भी जल, तेज और वायु इन तीन द्रव्यों के विशेष प्रकार के संयोग से ही उत्पन्न होते हैं ( यहाँ भी शक्ति की कोई अपेक्षा नहीं है ) । जहादि द्रव्यों के उक्त संयोग भी इनकी अपनी क्रियाओं से
५६ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली कार्यविशेषमारभन्ते । ते च तेजोऽनिलतोय संसर्गैविशेषः, ते च क्रियया सा च नोदनाभिघात गुरुत्व वेगद्रवत्वा दृष्टवदात्मसंयोगेभ्यो यथायथमिति न किञ्चिदनुपपन् म् । निमित्तभेदाश्च पाके भवन्ति तद्यथा— हारीतमांसं हरिद्राजलावसिक्तं हरिद्राग्निप्लुष्टमुपयोगात् सद्यो व्यापादयति । दशरात्रोषितं कांस्ये घृतञ्चापि विषायते । ताम्रपात्रे पर्युषितं क्षीरमंपि तिक्तायते इत्यादि ॥ ११॥ यत्र तर्हि तोये तेजसि वायौ वा न पाकजो विशेषस्तत्र कथमुद्भवानुद्भव द्रवस्वकठिनत्वादयो विशेषाः ? कथं वा पार्थिवे प्रतिमादौ प्रतिष्ठादिना संस्कृतेऽपि ही उत्पन्न होतीं हैं ( इस में भी शक्ति का कोई उपयोग नहीं है । उक्त संयोग को उत्पन्न करनेवाली यह ) क्रिया भी नोदन संयोग, अभिघात संयोग, गुरुत्व, वेग, द्रवत्व एवं उपयुक्त- प्रदृष्टः से युक्त आत्मा का संयोग इन्हीं सवों में से यथासंभव किसी से उत्पन्न होती है ( इस क्रिया की उत्पत्ति में भी अदृष्ट की कोई आवश्यकता नहीं है ) । अत्र: ( शक्तिः नाम की किसी वस्तु की सत्ता को स्वीकार न करने पर भी ) कोई अनुपपत्ति नहीं है । निमित्तभेदाश्च 10 विभिन्न प्रकार के पाकों से भिन्न प्रकार के कार्य प्रत्यक्ष सिद्ध हैं । जैसे कि हारिल पक्षी के मांस को हल्दी की पानी से भिंगो कर हल्दी की ही आग से पका कर खाने वाले की तत्क्षण मृत्यु हो जाती है । कांसे के पात्र में घृत को दश रात छोड़ देने से वह भी विष हो जाता है। तांबे के पात्र में रखा गया दूध रातभर में ही कडवा हो जाता है ॥११॥ पू० प० यत्र तहि । … ( यदि परमाणुत्रों में रहनेवाले रूपरसादि के पाकजनित परिवर्तन से ही कार्यों की उक्त विभिन्नता मानी जाय, अर्थात् विभिन्न कार्यों की उपयुक्त शक्तियाँ विभिन्न परमाणुओं में न मानीं जायें तो फिर ) जल, तेज, और वायु इन तीन द्रव्यों के रूप-रसादि में तो पाक से कोई परिवर्तन नहीं होता, अतः जलीय परमाणुओं से जो कभी ऐसे जलों की उत्पत्ति होती है जिनके रूप-रसादि और द्रवत्व ये सभी प्रत्यक्ष से गृहीत हो सकते हैं, एवं कभी जलीय परमाणुओं से ही ऐसे जल की उत्पत्ति होती है, जिसके प्रकृत रूप रसादि का प्रत्यक्ष नहीं होता, एवं द्रवत्व के बदले कठिनत्व की उपलब्धि होती है । इस प्रकार एक ही प्रकार के जलीय परमाणुओं से विभिन्न प्रकार के रूपरसादि गुणों से युक्त जलादि की उत्पत्ति नहीं हो सकेगी ।’ एवं एक ही प्रकार के तैजस परमाणुओं से ही जो कभी ऐसे तेज की उत्पत्ति होती है, जिसके प्रकृत रूप स्पर्शादि का प्रत्यक्ष होता है, एवं कभी उन्हीं तैजस परमाणुश्नों से स्वर्णादि ऐसे तेजस पदार्थों की उत्पत्ति होती है, जिनके प्रकृत रूपरसादि की उपलब्धि नहीं होती । कथं वा ……. ( उक्त जलीय वा तैजस पदार्थों की बात छोड़ भी दी जाय तथापि ) देवताओं की पार्थिव प्रतिमाओं में ही देवता की प्रतिष्ठा के बाद, उस प्रतिष्ठित प्रतिमा की पूजा से धर्म होता :
प्रथमः स्तबकः ५७ च म् । नवतं द्रव ऽपि पन्न युक्त. इस
की. रिल की हो की में से है नीय नहीं नीय सके ऐसे की ता । विशेषाभावात् पूजादिना धर्मः, व्यतिक्रमे त्वधर्मः, अप्रतिष्ठिते तु न किञ्चित् । न च तत्र यजमानधर्मेणान्यस्य साहायकमाचरणीयम् अन्यधर्मस्यान्यं प्रत्यनुपयोगात्, उपयोगे वा साधारण्यप्रसङ्गात् । अत्रोच्यते– निमित्तभेद संसर्गादुद्भवानुद्भवादयः 1 देवताः सन्निधानेन प्रत्यभिज्ञानतोऽपि वा ॥१२॥ है, एवं प्रतिष्ठित उसी प्रतिमा के असम्मान करने पर जो पाप होता है, तथा प्रतिष्ठा से पहिले उसी प्रतिमा की पूजा या सम्मान से पुण्यापुण्य कुछ भी नहीं होता - इनकी उपपत्ति तब तक नहीं हो सकेगी जबतक की प्रतिमारूप पार्थिव द्रव्य में प्रतिष्ठा से किसी ‘श्रतिशय’ अथवा शक्ति को उत्पत्ति को न स्वीकार किया जाय । सि० प० न च तत्र प्रतिष्ठा करनेवाले यजमान में प्रतिष्ठा से जो पुण्यरूप धर्म उत्पन्न होता है, वह पुण्य भी प्रतिष्ठित प्रतिमा के पूजन से धर्मं की उत्पत्ति का और उक्त प्रतिमा के अपमान से होनेवाले पाप का सहायक है । इस ‘सहायक पुण्य’ के रहने से ही अप्रतिष्ठित प्रतिमा के पूजन से पुण्य और अपमान से पाप दोनों में से एक भी नहीं होता । ( इसके लिये प्रतिष्ठा से प्रतिमा में किसी ‘अतिशय’ को मानने की आवश्यकता नहीं है ) । पू० प० अन्यधर्मस्य …… यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि एक आत्मा में रहने वाले पाप-पुण्य का उपयोग दूसरी आत्मा में पाप-पुण्य के उत्पादन में नहीं हो सकता । ( यदि किसी प्रकार ऐसा मान भी लें तथापि ) प्रतिष्ठितप्रतिमा और अप्रतिष्ठित प्रतिमा दोनों में ‘साधारण्य’ अर्थात् समानता की आपत्ति होगी ( क्योंकि प्रतिष्ठा करनेवाले पुरुष का प्रतिष्ठाजनित पुण्य जब भोग से विनष्ट हो जायगा, उसके बाद प्रतिष्ठित प्रतिमा के पूजन से धर्म और अपमान से पाप उसी प्रकार नहीं होगा, जैसे कि प्रतिष्ठित प्रतिमा के पूजन से पुण्य और अपमान से पाप दोनों में से एक भी नहीं होता । अतः प्रतिमा की विधिवत् प्रतिष्ठा से श्रवश्य ही प्रतिमा में किसी अतिशय या शक्ति की उत्पत्ति होती है ) । सि० प०….अत्रोच्यते ….. निमित्तभेद संसर्गात् ( मीमांसकों के इन आक्षेपों के प्रसंग में हम लोगों ( नैयायिकों ) का कहना है कि- विभिन्न श्रदृष्टों से युक्त आत्मा के विभिन्न संयोगादि ) कारणों की विभिन्नता से ही जल, तेज, वायु प्रभृति में उद्भूतरूपादि एवं अनुद्भूतरूपादि अथवा द्रवत्व, कठिनत्वादि विभिन्न कार्यों की उपपत्ति हो सकती है ( इसके लिये उनके परमाणुओं में ‘शक्ति’ मानने की आवश्यकता नहीं है । ) 5 .
५८ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली उपनायकादृष्टविशेषसहाया हि परमाणवो द्रव्यविशेषमारभन्ते । तेषां विशेषादुद्भवविशेषाः प्रादुर्भवन्ति । तथा स्वभावद्भवा अप्यापो निमित्तभेदप्रति- बद्धद्रवत्वाः कठिनं करकाद्यमारभन्ते - इत्यादि स्वयम्मूहनीयम् । । प्रतिमादयस्तु तेन तेन विधिना सन्निधापित रुद्रोपेन्द्र महेन्द्राद्यभिमानि देवता- भेदास्तत्र तत्राराधनीयतामासादयन्ति दष्टमूर्छितं राजशरीरमिव विषापनयन- विधिनाऽऽपादितचैतन्यम् । सन्निधानञ्च तत्र तेषामहङ्कारममकारौ, चित्रादावि प्रतिष्ठा के द्वारा प्रतिमायें देवताओं के सामीप्य का लाभ करती हैं । देवताओं के सामीप्य से युक्त प्रतिमाओं के पूजन से ही पुण्य और अपमान से पाप होता है । ( एवं चाण्डालादि के स्पर्श से जब प्रतिमाओं से देवताओं का सांनिध्य हट जाता है, तो उस प्रतिमा के पूजन से न धर्म ही होता है न अधर्म ही, अतः प्रतिष्ठा से प्रतिमा में किसी ‘अतिशय ’ को मानने की आवश्यकता नहीं है ) । अथवा ‘देवताओं का जो स्वरूप शास्त्रों में निर्दिष्ट है, उस स्वरूप के अनुरूप ही यह प्रतिमा है’ इस आकार के प्रत्यभिज्ञान रूप ज्ञान के साहाय्य से ही उक्त पुण्य और पापादि की उपपत्ति हो जायगी ( इसके लिये किसी अतीन्द्रिय शक्ति की कल्पना की आवश्यकता नहीं है ) । उपनायकादृष्टसहायाः ’ परमाणुओं में जिस विशेष प्रकार के ( उपनायकादृष्ट ) अदृष्ट से क्रिया उत्पन्न होती है, उसी विशेष प्रकार के श्रदृष्ट के साहाय्य से एक जाति के परमाणुओं में उद्भूतरूप, अनुद्भूत- रूपादि अनेक प्रकार के विशेषों से युक्त उसी जाति के अनेक प्रकार के द्रव्य उत्पन्न होते हैं । इस विशेष प्रकार के श्रदृष्ट से ही कहीं पर जल के परमाणुओं का द्रवत्व प्रतिरुद्ध हो जाता है, एवं उन विशेष प्रकार के ( अवरुद्ध - द्रवत्ववाले ) परमाणुत्रों से ही करका प्रभृति कठोर जाति के जलीय द्रव्य उत्पन्न होते हैं । इसी प्रकार अन्य स्थलों में भी कह करना चाहिये । प्रतिमादयस्तु प्रतिमा के प्रसङ्ग में हमलोगों की ( नैयायिकों की ) यह दृष्टि है कि प्रतिष्ठा के विविध अनुष्ठानों के द्वारा उन प्रतिमानों में नियमित रुद्र, विष्णु, इन्द्र प्रभृति देवताओं में से अभीष्ट देवता का सामीप्य प्राप्त होता है । देवताओं की इस संनिधि के बल से ही प्रतिमाओं में पूज्यता श्राती है । जैसे कि सर्पादि के काटने से मूच्छित राजा का शरीर मूच्छितावस्था में शासन करने के योग्य न रहने पर भी मन्त्र अथवा औषध से विष के छूट जाने के कारण चैतन्य के आ जाने पर ( वही शरीर ) राजोचित कार्य करने में पुनः समर्थ होता है । एवं जिस प्रकार राजा की अपनी प्रतिकृति में ‘यह मैं ही हूँ’ इस आकार का ‘अहंकार’ अर्थात् ‘अहम्’ विषयक बुद्धि होती है । एवं उसी प्रतिकृति में अंकित अवयवों में ‘ये मेरे ही अवयव हैं’ इस प्रकार का ‘ममकार’ रूप बुद्धि उत्पन्न होती है । उसी प्रकार
तेषां दिप्रति- देवता- पनयन- दावि ताओं के । ( एवं तो उस श्रतिशय’ ही यह पादि की चश्यकता न्न होती ननुद्भूत- न्न होते तिरुद्ध हो प्रभृति भी ऊह तष्ठा के देवताओं के बल T शरीर
- के छूट में पुनः कार का वयवों में प्रकीर प्रथमः स्तबकः ५६ स्वसादृश्यदर्शिनो राज्ञ इति नो दर्शनम् । अन्येषां तु पूर्वपूर्वपूजितप्रत्यभिज्ञान विषयस्य प्रतिष्ठिताभिज्ञान विषयस्य च तथात्वमवसेयम् । एतेनाभिमन्त्रितपयः पल्लवादयो व्याख्याताः ॥ १२ ॥ घटादिषु का वार्ता ? कुशलैवेति चेन्न; न हि सामग्री दृष्टं विघटयति, संपूर्ण प्रतिमा में ‘यह मैं ही हूँ’ देवताओं की इस प्रकार की बुद्धि ही उनका ’ अहंकार’ है । एवं उसी प्रतिमा के अवयवों में ‘ये मेरे ही अवयव हैं’ इस प्रकार की जो देवताओं की बुद्धि होती है, उसे ही देवताओंों का ‘ममकार’ कहते हैं । इसी अहंकार और ममकार के द्वारा प्रतिमा को देवतागण अपना सांनिध्य प्रदान करते हैं । ( इसके लिये प्रतिमारूप पार्थिवभूत पदार्थ में भी किसी ‘शक्ति’ की कल्पना आवश्यक नहीं है) । अन्येषां तु” देवता के चेतन न माननेवाले पूर्ववक्षवादा मीमांसकों के मत से भी ( प्रतिमाओं में प्रतिष्ठा से किसी शक्ति की उत्पत्ति स्वीकार किये विना भी) प्रतिमा में कथित पूज्यत्वादि की उपपत्ति इस प्रकार हो सकती है कि जिस प्रतिमा में लोगों की यह बुद्धि हो कि “यह वही प्रतिमा है जो लोगों के द्वारा पहिले से पूजित होती आयी है ।” अथवा “यह वही प्रतिमा है, जिसकी प्रतिष्ठा हो चुकी है” वे ही प्रतिमायें पूजनीय हैं । एतेन …… इसी प्रकार ( गारुडादि मन्त्रों से ) अभिमन्त्रित जल एवं पल्लवादि से जो विष को हटाने आदि के कार्य होते हैं, उनका भी समाधान ( शक्ति को विना माने ही मन्त्रादि के द्वारा गरुडादि के सांनिध्य से कथित अभिमन्त्रितत्व की प्रत्यभिज्ञां से समझना चाहिए ) ॥१२॥ पू० प० घटादिषु … ( यदि भौतिक द्रव्यों में शक्ति न मानें तो फिर ‘घट’ ( अर्थात् पाप और पुण्य की निर्णायक ) तुला ( तराजू ) के प्रसंग में आप की स्थिति क्या होगी ? (विशेष प्रकार के अनुष्ठान से तुला या तप्तमाप प्रभृति में यदि विशेष प्रकार को शक्ति को स्वीकार न करें तो फिर तुला रोहणादि शपथों के द्वारा जो पुरुष के पाप और निष्पापत्व का निर्णय होता है, वह न हो सकेगा, क्योंकि शक्ति से विहीन तुला एवं शपथ में उपयुक्त होनेवाली अन्य तुलाओं में कोई भी अन्तर नहीं है ) । सि० प० कुशलेव……… … ( कथित तुला भूप्रति में किसी आधेय शक्ति की कल्पना किये विना भी) हम लोगों की स्थियि बहुत अच्छी है । पू० प० न, न हि 100 ऐसा नहीं हो सकता, क्योंकि पुरुष की निष्पापत्व की परीक्षा के तुलारोहण प्रभृति जितने भी कारण हैं, उनमें से प्रतिमान ( बाट ) प्रभृति किन्हीं दृष्ट कारणों एवं पाप प्रभूति
६० गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमांजली नाप्यदृष्टम्, ज्ञापकत्वात्। नाप्यदृष्टमुत्पादयति, धर्मजनने सर्वदा विजयप्रसङ्गात् । विपर्यये सर्वदा भङ्गप्रसङ्गात् । अत्रोच्यते- जयेतरनिमित्तस्य वृत्तिलाभाय केवलम् । परीक्ष्यसमवेतस्य परीक्षाविधयो मताः ॥१३॥ यद्यपि धर्माद्यभिमानिदेवतासन्निधिरत्रापि क्रियते । ताश्च कर्मविभवानुरूपं लिङ्गमभिव्यञ्जयन्तीत्यस्माकं सिद्धान्तः । तथापि परविप्रतिपत्तेरन्यथोच्यते । तेनापि हि विधिना तदेव जयस्य पराजयस्य वा निमित्तमभिव्यक्तं कार्यं सुन्मीलयति । अदृष्ट कारणों में से किसी का नाश कर प्रकृत परीक्षा का निर्वाह नहीं किया जा सकता, वे तुलारोहण प्रभृति कारणों के समूह निष्पापत्व या पापसहितत्व के ‘ज्ञापक’ कारण ही हैं, किसी के उत्पादक कारण नहीं हैं । अतः उनसे किसी दृष्ट कारण का अथवा अदृष्ट कारण का ‘विनाश’ रूप कार्यं उत्पन्न नहीं हो सकता । तुलारोहणादि सामग्री किसी विशेष पाप अथवा पुण्य ( अदृष्ट ) को उत्पन्न करके भी परीक्षा विधि के उद्देश्य को सफल नहीं बना सकती, क्योंकि यदि उन सामग्रियों से पुण्य रूप अदृष्ट के द्वारा परीक्षा की संपन्नता मानी जाय तो परीक्ष्य पुरुष को सदा विजय ही मिलनी चाहिए । यदि पाप रूप श्रदृष्ट के उत्पादन के द्वारा तुलारोहणादि सामग्री से परीक्षाविधि की संपन्नता को स्वीकार करें तो परीक्ष्य पुरुष को सदा पराजय ही मिलनी चाहिए । किन्तु ये दोनों ही स्थितियाँ इष्ट नहीं हैं । अतः परीक्षाविधि के द्वारा उनके सहायक तुला या तप्तमाष प्रभृति में किसी शक्ति को उत्पत्ति को स्वीकार करना आवश्यक है । सिद्धान्त पक्ष… अत्रोच्यते जयेतरनिमित्तस्य इस प्रसङ्ग में हमलोगों का कहना है कि - जय और पराजय इन दोनों के मूल कारण जो परीक्ष्य पुरुष में समवायसम्बन्ध से कार्योन्मुखता रहनेवाले धर्म और अधर्म हैं, इन दोनों में अपने-अपने कार्य को उत्पन्न करने के अनुकूल हो ‘परीक्षा- विवियों’ के द्वारा उत्पन्न होती हैं । सि० प० यद्यपि … यद्यपि इस प्रसङ्ग में भी हम (नैयायिकों) लोगों के मत से प्रतिमावाला वह सिद्धान्त ही लागू होता है । तदनुसार प्रकृत में भी परीक्षाविधि से धर्म के श्रभिमानी देवगण ही अपने कथित अहंकार के द्वारा तुला के समीप आ जाते हैं, एवं पुण्य और पाप के ज्ञापन के अनुकूल नमन, उन्नमनादि हेतुओं को तुला में उत्पन्न करते हैं । किन्तु इस समाधान से पूर्वपक्षवादी मीमांसकों को परितोष नहीं हो सकता ( क्योंकि वे देवताओं में चैतन्य को स्वीकार नहीं करते ) । अतः इस तुला के प्रसङ्ग में यह दूसरा समाधान कहते हैं कि तुलारोहणादि अनुष्ठानों से भी जय और पराजय के कारणीभूत पहिले के पुण्य और पाप ही अभिव्यक्त हो कर जय और पराजय रूप कार्यों का उत्पादन करते हैं ।
त् नुरूपं ते । ति । , वे हैं, का पुण्य नोंकि पुरुष गादि नही को से के ही पने कुल कि रा हले हैं । प्रथमः स्तबक: ६१ कर्म॑णश्चाऽभिव्यक्तिस्सहकारिलाभ एव । तच्च सहकारि, ‘सोऽहमनेन विधिना तुलामधिरूढो योऽहं पापकारी, निष्पापो वा’ इति प्रत्यभिज्ञानम् । यदाहुः — “तांस्तु देवाः प्रपश्यन्ति स्वयं ‘वान्तरपूरुषः । [ अथवा - प्रतिज्ञाऽनुरूपां विशुद्धिमपेक्ष्य तेन धर्मो जायते । निमित्ततो विघाना- द्विजयफलश्रुतेश्च । अविशुद्धि ब्यापेक्ष्या धर्मः । । अविशुद्धिञ्चापेक्ष्याधर्मः । पराजयलक्षरणानपेक्षित फलोपदर्शनेन फलतो निषेधात् । ] अथ शक्तिनिषेधे किं प्रमाणम् ? न हि नो दर्शने शक्तिपदार्थं एव नास्ति । न किञ्चित् । तत् किमस्त्येव ? बाढम् । कोऽसौ तर्हि ? कारणत्वम् । किं तत् ? और पुण्य रूप कार्यों की अभिव्यक्ति है | ऊपर चढता हूँ’ अथवा ‘जो मैं पाप से सहकारिकारणों के साथ सम्बद्ध होना ही पाप ‘जो मैंने पाप किया है वही मैं इस तुला के रहित हूँ, वही मैं तुला के ऊपर चढ़ता हूँ? इस प्रकार के प्रत्यभिज्ञान रूप ज्ञान ही उनके सहकारिकारण हैं । जैसा कि भगवान् मनु ने कहा है कि - " तुलारोही पुरुष की अन्तरात्मा एवं अधिकारी देवतागण उन पापों और पुण्यों को यथार्थ रूप से जानते हैं ।” अथवा ( यह भी कहा जा सकता है कि ) परीक्ष्य पुरुष जिस प्रकार की प्रतिज्ञा करके तुलारोहणादि में प्रवृत्त होता है, उस प्रकार की प्रतिज्ञा के विषयीभूत पाप का प्रभाव वस्तुतः यदि उस पुरुष में है, तो फिर उसी पापाभाव रूप सहकारिकारण के साहाय्य से तुलारोहणादि अनुष्ठानों के द्वारा एक स्वतन्त्र पुण्य ही उत्पन्न होता है ( जिससे परीक्ष्य पुरुष को विजय प्राप्त होती है ) | ( तुलारोहणादि क्रियाओं से निष्पापत्व के ज्ञापक एवं स्वतन्त्र पुण्य को स्वीकार करने में ये दो प्रमाण हैं ) (१) मिथ्या अभियोग को निमित्त बना कर ही ‘जयकामस्तुलामारोहेत’ यह विधान किया गया है । विहित क्रिया से धर्म की उत्पत्ति अवश्य होती है । (२) इसी प्रकार तुलारोहणक्रिया से विजय रूप फल की उत्पत्ति शास्त्रों में निर्दिष्ट है ( तुला रोहणक्रिया से विजय फल की उत्पत्ति उक्त क्रिया से उत्पन्न मध्यवर्त्ती पुण्य रूप व्यापार के विना सम्भव नहीं है ) । परीक्ष्य पुरुष में वस्तुतः विद्यमान ‘अविशुद्धि’ (पाप) रूप दूसरे सहकारी को पाकर उस तुलारोहण क्रिया से ही एक स्वतन्त्र अधर्म की उत्पत्ति होती है, जिसके द्वारा उक्त तुलारोहण से ही परीक्ष्य पुरुष पराजित होता है । इस दूसरे प्रकार की तुलारोहण क्रिया से पाप की उत्पत्ति के लिये उक्त पाप से उत्पन्न होने वाले पराजय रूप अनिष्ट फल के अनुकूल निषेध वाक्य की कल्पना भी सुलभ है । पू० प० शक्तिनिषेघे… ( शक्ति पदार्थ को मानने की अनावश्यकता को दिखाने मात्र से ‘शक्ति का प्रतिषेध’ नहीं किया जा सकता, अर्थात् शक्ति पदार्थ की सत्ता नहीं उठाई जा सकती । उस प्रतिषेध के ज्ञापक स्वतन्त्र प्रमाण का उल्लेख प्रावश्यक है । अतः पूछा जा सकता है कि ) शक्ति पदार्थ को न मानने में कौन सा प्रमाण है ? सि० प० न, कोई भी प्रमाण नहीं है । CCO. Vasishtha Tripathi Collection. Digitized by eGangotri7 ६२ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली पूर्वकालनियतजातीयत्वम्, सहकारिवैकल्य प्रयुक्तकार्याभाववत्त्वं वेति । ततोऽधिकनिषेधे का वार्ता ? -न काचित् । तत्कि विधिरेव ? एतदपि नास्ति, प्रमाणाभावात् । सन्देहस्तर्हि ? कथमेवं भविष्यति ? अनुपलब्धचरत्वात् । विवादस्तहि कुत्र ? पू० प० तत् किम् तो फिर मैं क्या यही समझ” कि आप के मत से भी शक्ति पदार्थ की सत्ता है ही । सि० प० वाढम्" अवश्य ही शक्ति नाम की वस्तु है । ऐसी बात नहीं है कि हम लोगों की दृष्टि में ‘शक्ति’ पद का कोई अर्थ ही नहीं है । पू० प० कोऽसौ … न्यायशास्त्र के अनुसार ‘शक्ति’ पद का कौन-सा अर्थ है ? सिं० प० कारणत्वम् न्यायशास्त्र में ‘कारणत्व’ को ही ‘शक्ति’ कहते हैं । पू० प०….. 000 100 • किं तत्…… ‘शक्ति’ पद का अर्थ यह ‘कारणत्व’ ही कौन-सा पदार्थ है ? सि० प० ….पूर्वकाल … कार्य से ( अव्यवहित ) पूर्व क्षण में नियत रूप से रहने वाले पदार्थं व्यक्ति में विद्यमान जाति से युक्त सभी व्यक्ति उस कार्यजातीय सभी व्यक्तियों के ‘कारण’ हैं ( यह कारणत्व का भावघटित लक्षण है । कारणत्व का अभावघटित लक्षण यह है कि ) सहकारियों के विना जो कार्य का उत्पादन न कर सके वही कारण’ है । पू० प० ततोऽधिक" ( यदि कारणत्व ही शक्ति है - जिस को हम दोनों ही स्वीकार करते हैं, तो फिर ‘कारणत्व’ से भिन्न जिस शक्ति पदार्थ का आप खण्डन करते हैं उस में क्या युक्ति है ? सि० प० न काचित्…’ कोई भी युक्ति नहीं है । पू० प० तत् किम् …… क्या आप ( नैयायिकों ) के मत से भी ( कारणत्व से भिन्न ) ‘शक्ति’ नाम की वस्तु की सत्ता स्वीकृत ही है ? सि० प० एतदपि ऐसी भी बात नहीं है, क्योंकि उस को मानने के लिये कोई प्रमाण नहीं है । पू० प० सन्देह…… तो क्या शक्ति के अस्तित्व के विषय में आप को संशय है ? सि० प० कथम् ……. शक्ति में अस्तित्व का या अन्य किसी वस्तु का संशय भी कैसे हो सकता है ? क्योंकि शक्ति सर्वथा अज्ञात वस्तु है । ( प्रमाण के द्वारा निश्चित किसी वस्तु में ही प्रमाणसिद्ध किसी दूसरी वस्तु का संशय भी हो सकता है ) पू० प० विवादः ऐसी स्थिति में हम लोगों के साथ आप का विवाद ही किस विषय में है ?
षेधे त् त्र ? ट में ে में h -’ हैं क) फिर की ? द्ध 1 प्रथमः स्तबका । ६३ अनुग्राहकत्वसाम्यात् सहकारिष्वपि शक्तिपदप्रयोगात् सहकारिभेदे । तत्रापि दहनादेरनुग्राहकोऽधिकोऽस्त्येव । यः प्रतिबन्धकैरपनीयते इति यदि, तदा न विवदामहे । अस्मदभिप्रेतस्य चाभावादेरनुग्राहकत्वमङ्गीकृत्य निस्साधना मीमांसका अपि न विप्रतिपत्तुमर्हन्ति । ततोऽभावादिरनुग्राहक इत्येके, नेत्यपरे, इति विवाद- काष्ठायां व्युत्पादितञ्चैतस्यानुग्राहकत्वम् । किमपरमवशिष्यते यत्र प्रमाणमभिधा- नीयमित्यलमतिविस्तरेण । तथापि चेतन एवायं संस्क्रियते, न भूतानीति कुतो निर्णय इति चेत् ? उच्यते — भोक्तृणां नित्यविभूनां सर्वदेहप्राप्ताव विशिष्टायां विशिष्टैरपि भूतैर्निया- सि० प० अनुग्राहकत्वसाम्यात्" ( मीमांसकों के मत में भी ) वह्नि से दाह रूप कार्य के सम्पादन में साहाय्य करने के नाते ही वह्नि में ‘शक्ति’ पदार्थ की कल्पना की जाती है । किन्तु दाह कार्य में वह्नि को चन्द्रकान्त मण्यभावादि कुछ अन्यों का भी साहाय्य अपेक्षित होता है । अतः ‘जिस प्रकार ‘शक्ति’ दाह की सहायिका है, उसी प्रकार चन्द्रकान्तमण्यभावादि भी दाह कार्य के सम्पादन में वह्नि के सहायक ।" इस सादृश्य के बल से ‘चन्द्रकान्तमण्यभावादि’ अन्य सहायकों में भी ‘शक्ति’ पद का गौण प्रयोग हो सकता है । ( अतः प्रश्न होता है कि यह ‘सहकारित्व’ कौन-सी वस्तु है ? मीमांसक गण यदि उसका यह लक्षण करें कि प्रतिबन्धक के द्वारा जिसका हटना सम्भव हो, वही सहकारिकारण है, तो इस प्रसङ्ग में हमलोग ( नैयायिकगण ) कोई विवाद नहीं करेंगे | किन्तु इस लक्षण के अनुसार मीमांसकों को ( चन्द्रकान्तमणि के ) अभाव को भी ( दाह का ) सहकारिकारण मानना पड़ेगा, क्योंकि वह भी चन्द्रकान्तमणि रूप प्रतिबन्धक के द्वारा अपसृत होता है, किन्तु अभाव को किसी भी प्रकार का कारण मानने पर मीमांसक शक्ति पदार्थ के स्थापन के अपने प्रधान साधन से ही वञ्चित हो जायगे । ऐसी स्थिति में शक्ति- पदार्थ के हम लोगों के खण्डन के विरुद्ध उन लोगों का कुछ भी कहना असङ्गत होगा । फलतः प्रकृत विवाद का पर्यवसान इसी में होता है कि मीमांसक लोग ‘अभाव को कारण नहीं मानते’ और हम ( नैयायिक ) लोग ‘अभाव को कारण मानते हैं।’ इस प्रसङ्ग में हम में अपने ( अभावकारणत्व ) पक्ष का समर्थन ( श्लोक १०) में कर चुके हैं । अतः इस प्रसङ्ग ऐसा कोई भी विषय अवशिष्ट नहीं रह जाता जिसके लिये प्रमाण दिखाना आवश्यक हो । इस प्रसङ्ग में इतना ही यथेष्ट है। इस से अधिक कहना व्यर्थ है । पू० प० तथापि चेतन एव" तथापि यह निश्चय, कैसे करते हैं कि यागादि के अनुष्ठानों से चेतन आत्मा में ही संस्कार की उत्पत्ति होती है, शरीरादि भौतिक पदार्थों में नहीं । सि० प० उच्यते, भोक्तृणाम् ( शरीरादि भौतिक पदार्थ ) भोग्य हैं, आत्मा ही भोग करने वाला ( भोक्ता ) पुरुष है। वह नित्य है, एवं विभु है । अतः सभी भोग्य द्रव्यों के साथ उसका सम्बन्ध सर्वदा बना रहता है। ऐसी स्थिति भौतिक द्रव्यों में यदि यागादि से उत्पन्न अपूर्व को स्वीकार भी करलें, तथापि उस (अपूर्व रूप ) संस्कार के बल से भी वे ( भौतिक द्रव्य ) नियमित भोगों का
६४ गद्यपद्यात्मक-न्याय कुसुमाञ्जली मकाभावात् प्रतिनियत भोगासिद्धेः । न हि तच्छरीरं तन्मनस्तानीन्द्रियाणि विशिष्टान्यपि तस्यैवेति नियमः, नियामकाभावात् । तथा च साधारण विग्रहवत्स्व- प्रसङ्गः । न च भूतधर्मं एवं कश्चिच्चेतनं प्रत्यसाधारणः, विपर्ययदर्शनात् । द्वित्वादिवदिति चेन्न तस्यापि शरीरादितुल्यतया पक्षत्वात् । नियतचेतनगुणोप- ग्रहेणैव तस्यापि नियमः, न तु तन्यतामात्रेण, स्वयमविशेषात् । संपादन नहीं कर सकते । क्योंकि भोग्य द्रव्यों में अपूर्व के मान लेने पर भी किसी ऐसे धर्मं की संभावना नहीं है कि जिस से नियमित भोग उत्पन्न हो सके । भोग के साधनीभूत शरीर, मन एवं इन्द्रियों में श्रदृष्ट की सत्ता मान भी लें, तथापि यह नियम नहीं किया जा सकता कि “अदृष्ट से युक्त वह शरीर, वह मन एवं वे इन्द्रियां उसी आत्मा की हैं, " क्योंकि इस नियम का कोई हेतु नहीं है । यदि ऐसा मान भी लें तो शरीर, मन और इन्द्रियां भी ( घटादि द्रव्यों के समान ) ‘साधारण’ ( अर्थात् अनेक पुरुषों के द्वारा उपभोग्य हो जाँयगो ) पू० प० न च भूतधर्म एवं …… द्रव्यों में हो कोई ऐसा विलक्षण धर्म स्वीकार कर लेंगे, जिस के रहते उस धर्म का आश्रयीभूत शरीरादि भोग्य द्रव्य साधारण अर्थात् अनेक जनों से उपभोग्य नहीं हो सकेंगे । सि० प० विपर्यय …. ( ऐसा कहना भी संभव ) नहीं है, क्योंकि — घटादि भूतद्रव्यों के रूपादि धर्मों को असाधारण के ‘विपरीत’ साधारण ही ( अनेक पुरुषोपभोग्य ही ) देखा जाता है । पू० प० द्वित्वादिवत् ( अन्य भूत द्रव्यों के रूपादि धर्म ‘साधारण’ भले ही न हों, किन्तु अपेक्षा बुद्धि से उत्पन्न ) द्वित्वादि गुणों को तो ‘असाधारण’ ( अर्थात् उक्त अपेक्षा बुद्धि वाले पुरुष मात्र से ग्राह्य ) ही देखा जाता है । अतः भूत द्रव्यों के द्वित्वादि धर्मों के दृष्टान्त से शरीरादि में रहने वाले धर्मों को भी असाधारण मानेंगे । सि० प० तस्यापि जिस प्रकार शरीरादि भोग्य द्रव्यों में साधारण्य की आपत्ति दी गयी है, उसी प्रकार द्वित्वादि गुणों में भी साधारण्य की आपत्ति देना भी अभीष्ट ही है । अतः द्वित्वादि भी ( साधारण्यानुमान के ) पक्ष के अन्तर्गत ही आते हैं ( अतः उनमें व्यभिचार का प्रदर्शन दोषावह नहीं है । ) नियतचेतन … … जिस चेतन ( आत्मा ) की अपेक्षा बुद्धि से द्वित्वादि गुण उत्पन्न होते हैं, उस चेतन ( आत्मा ) के द्वारा ही वे गृहीत होते हैं । इस प्रकार का जो उन में ‘असाधारण्य’ है, उसका प्रयोजक उक्त द्वित्वादि गुणों का भूतद्रव्यों से उत्पन्न होना नहीं है । ( घटादि भूत | ( घटादि भूत द्रव्यों के ) द्वित्वादि गुण तो इस लिये ‘असाधारण हैं कि उनमें चेतन आत्मा का असाधारण सम्बन्ध है । वैसे शरीरजन्य द्वित्वादि गुणों में एवं शरीरजनित नीलादि गुणों से कोई भी अन्तर नहीं है ।
रिण स्व- त् । गोप- की रीर, कता इस i भी ) कां • को नन्न) ह्य ) वाले कार भी र्शन तन का 5) है | प्रथमः स्तबकः ६५ तथापि तज्जन्यतयैव नियमोपपत्तौ विपक्षे बाधकं किमिति चेत् ? कार्यकारंण- भावभङ्गप्रसङ्गः, शरीरादीनां चेतनधर्मोपग्रहेणैव तद्धर्मंजननोपलब्धेः । तद्यथा— इच्छोपग्रहेण प्रयत्नो ज्ञानोपग्रहेणेच्छादयः, तदुपग्रहेण सुखादय इत्यादि । प्रकृतेऽपि चेतनगता एव बुद्ध्यादयो नियामकाः स्युरिति चेन्न, शरीरादेः प्राक् तेषामसत्त्वात् । तथा च निरतिशयाश्चेतनाः, उपपद्यते ॥ १३ ॥ पू० प० तथापि तज्जन्यतयैव… साधारणानि … भूतानीति न भुक्तिनियम भूत द्रव्यों के नीलादि गुणों को अनेक पुरुषों से उपभोग्य ( साधारण ) मान भी लें, तथापि शरीर के ही ‘अपूर्व’ रूप गुण को यदि भूत द्रव्य से उत्पन्न होने के कारण ही भोगों के नियम को उपपत्ति मान लें तो इसमें कौन सी बाधा है ? सि० प० … कार्यकारण.. ’ ( यही बाधा है कि नियमित भोगों के साथ शरीर का जो ) कार्यकारणभाव का सम्बन्ध स्वीकृत है, वह भङ्ग हो जायगा । शरीरादीनाम् .. क्योंकि शरीरादि भोग्य पदार्थों में प्रतिनियत भोग की कारणता ( इच्छादि ) चेतन ( आत्मा ) के गुणों के सहारे ही देखा जाता है । ( जैसे ) इच्छा के साहाय्य से ही शरीर प्रयत्न को उत्पन्न करता है । एवं ज्ञान के साहाय्य से ही शरीर इच्छा प्रभृति गुणों को भी उत्पन्न करता है । इसी प्रकार इन इच्छादि गुणों के साहाय्य से ही शरीर सुखादि ( एवं सुखादि के उपभोग ) को उत्पन्न करता है । पू० प० प्रकृतेऽपि … … जिस प्रकार चेतन ( आत्मा ) की अपेक्षा बुद्धि रूप गुण से ही द्वित्वादि गुणों के असाधारण्य की उपपत्ति होती है, उसी प्रकार नियमित भोगों की उत्पत्ति भी चेतन ( आत्मा ) के ( साधारण ) बुद्धि प्रभृति गुणों से ही होगी । ( इसके लिये आत्मा में ‘अपूर्व’ नाम के गुण का मानना अनावश्यक है ) । सि० प० न, शरीरादे - … उक्त कथन संगत नहीं है, क्योंकि शरीर से पहिले मात्मा में बुद्धि प्रभृति गुण नहीं रहते ( अतः शरीर परिग्रह से पहिले एक आत्मा से दूसरी श्रात्मा में किसी अन्तर का होना संभव नहीं है । ऐसी स्थिति में ) आत्मा में यदि ‘अपूर्व’ अथवा अतिशय न रहे तो नियमित भोग की उपपत्ति नहीं हो सकती ( क्योंकि प्रात्माओं में कोई अन्तर नहीं है, किन्तु ) चन्दनादिभोग्य विषयों में ‘साधारण्य’ ( अर्थात् अनेक पुरुषों के द्वारा उपयुक्त होने की क्षमता ) है ही । ऐसी स्थिति में श्रात्मा में किसी अतिशय अथवा अपूर्व को माने विना भोगों की नियमित उपपत्ति नहीं की जा सकती ॥१३॥
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६६ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जलो एतेन साङ्ख्यमतमपास्तम् । एवं हि तत्-अकारण मकार्यः कूटस्थचैतन्य- स्वरूपः पुरुषः। आदिकारणं प्रकृतिरचेतना परिणामिनी । ततो महदादिसर्गः । न हि चितिरेव विषयबन्धनस्वभावा, अनिर्मोक्षप्रसंगात् । नापि प्रकृतिरेव तदीयस्वभावा, तथापि नित्यत्वेनानिर्मोक्षप्रसङ्गात् । नापि घटादिरेवाऽऽहत्य तदीयः दृष्टादृष्टत्वा- एतेन …… ( चेतन आत्मा में अपूर्व न मानने के सिद्धान्त के विपक्ष में जो शरीरादि भोग्य वस्तुओं में ‘साधारण्य’ की आपत्ति दी गयी है ) उसी से सांख्यदर्शन के सिद्धान्त भी खण्डित हो जाते हैं । ( सांख्य मत इस प्रकार है ) पुरुष कूटस्थ ( जन्य धर्मो के अनाश्रय ) है और चैतन्य स्वरूप है । अतः उससे न किसी वस्तु की उत्पत्ति होती है और न वह स्वयं किसी से उत्पन्न हो सकता है । किन्तु जड ( अचेतन ) स्वभावा प्रकृति हो अपनी परिणामशीलता के कारण सभी कार्यों का मूल कारण है । उसी के द्वारा महत्तत्वादि की क्रम से सृष्टि होती है । न हि चितिरेव… ( पुरुष रूप ) चिति शक्ति अपने विषयबन्धन ( अविद्यासम्बन्ध ) के कारण ( जगत् का आदि कारण है । प्रचेतना प्रकृति को जगत् का कारण मानने की आवश्यकता नहीं है ) । किन्तु ऐसा नहीं कहा जा सकता, क्योंकि ऐसा मानने पर ( जिस लिये कि चेतनस्वभाव का पुरुष या ब्रह्म नित्य हैं, अतः उनका स्वभाव भी नित्य ही होगा, चाहे वह विषय बन्धन स्वरूप हो अथवा अविद्यासम्बन्ध रूप हो ) । जिस से मोक्ष ही असंभव हो जायगा । नापि प्रकृतिरेव… .. ( तथापि बन्धन रूप स्वभाव से युक्त प्रकृति से साक्षात् ही दृश्य जगत् की उत्पत्ति क्यों म मान ली जाय, महदादिक्रम से सृष्टि मानने की कौन सी आवश्यकता है ? ) । किन्तु यह भी संभव नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर भी मोक्ष की प्राप्ति असंभव हो जायगी । क्योंकि प्रकृति जिस लिये कि नित्य है, अतः उसका बन्धनस्वभाव भी नित्य ही होगा । नित्यबन्ध का नाश नहीं हो सकता । नापि घटादिरेव… यदि घटादि अनित्य विषयों का ही यह स्वभाव स्वीकार करें कि वे प्रकृति या पुरुष के साथ सम्बद्ध रहें । प्रकृति अथवा पुरुष के साथ सम्बन्ध रूप यह स्वभाव जिस लिये घटादि अनित्य विषयों का है, अतः यह ‘स्वभाव’ भी अनित्य ही होगा । उसका उच्छेद असंभव नहीं है, अतः इस पक्ष में अनिर्मोक्ष की आपत्ति नहीं दी जा सकती । क्योंकि ऐसा मानने पर पदार्थों के जो दृष्ट श्रीर किन्तु ऐसा कहना भी संभव नहीं है, अदृष्ट ये दो भेद अनुभवों से सिद्ध हैं, उनकी अनुपपत्ति हो जायगी ( अर्थात् संसार के सभी पदार्थ अतीन्द्रिय ही होंगे अथवा इन्द्रिवेद्य ही होंगे, क्योंकि सभी पदार्थों में प्रकृति का सम्बन्ध समान है ) ।
चैतन्य- गंः । न भावा, ष्टत्वा- भोग्य खण्डित
- चैतन्य
- उत्पन्न कारण ( जगत् है ) व का
- बन्धन क्यों यह भी प्रकृति नाश पुरुष घटादि व नहीं ट श्रौर सभी ति का प्रथमः स्तबकः ६७ नुपपत्तः । नापीन्द्रियमात्रप्रणाडिकया, व्यासङ्गायोगात् । नापीन्द्रियमनोद्वारा, स्वप्नदशायां वराहव्याघ्राद्यभिमानिनो नरस्यापि नरत्वेनात्मोपधानायोगात् । नाप्यहङ्कारपर्यन्तव्यापारेण, सुषुप्त्यवस्थायां तदव्यापारविरमेऽपि श्वासप्रयत्न- सन्तानावस्थानात् । तद् यदेतास्ववस्थासु सव्यापारमेकमनुवर्तते, यदाश्रया नापीन्द्रियमात्र… 110 ( प्रकृति से घटादि विषयों के अतिरिक्त केवल चक्षुरादि बाह्य इन्द्रियों की सृष्टि मानेंगे, किन्तु प्रकृति से बुद्धि अहंकारादि पदार्थों की उत्पत्ति न मानेंगे, अतः ) जिन विषयों के साथ इन्द्रियों के द्वारा प्रकृति सम्बद्ध होगी, उन पदार्थों’ को ‘दृष्ट’ मानेंगे। जिन विषयों के साथ अपने सम्बन्ध के लिये प्रकृति को इन्द्रियों की अपेक्षा नहीं होगी, उन विषयों को ( ‘अदृष्ट’ मानेंगे । इस प्रकार पदार्थों के दृष्ट और श्रदृष्ट ये दोनों भेद उत्पन्न हो सकते हैं ) । किन्तु कह कहना भी संभव नहीं है, क्योंकि बाह्य इन्द्रियों के द्वारा ही यदि प्रकृति का सम्बन्ध विषयों के साथ मानें, मध्यवर्त्ती रूप में मन रूा इन्द्रिय को स्वीकार न करें तो ‘व्यासङ्ग’ की अनुपपत्ति होगी ( अर्थात् किसी ज्ञान की उत्पत्ति शीघ्र होती है और किसी ज्ञान की उत्पत्ति देर से ही है, इसकी उपपत्ति नहीं हो सकेगी । अतः मध्यवर्त्ती मन की सत्ता भी माननी होगी । इसकी उत्पत्ति भी प्रकृति से ही होगी ) । नापीन्द्रियमनोद्वारा…. तथापि ( अहंकार को स्वीकार करने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि ) बाह्य इन्द्रिय और मन रूप अन्तरिन्द्रिय इन्हीं दोनों के द्वारा प्रकृति का सम्बन्ध विषयों के साथ स्वीकार करेंगे । किन्तु ऐसा कहना भी संभव नहीं है । ( क्योंकि ऐसा मानने पर स्वप्नावस्था में जिस मनुष्य को ‘वराहोऽहम्, व्याघ्रोऽहम्’ इत्यादि प्रकार की प्रतीतियाँ होती हैं, उस समय उस मनुष्य को ‘नरोऽहम्’ इस प्रकार की प्रतीति नहीं होती है । वह होने लगेगी । नाप्यहंकारपर्यन्त … तथापि इन्द्रिय, मन और अहंकार इन्हीं सबों के द्वारा प्रकृति का सम्बन्ध विषयों के साथ स्वीकार करेंगे । ( मध्य में बुद्धितत्व को स्वीकार करने की आवश्यकता नहीं है ) । किन्तु ऐसा कहना भी संभव नहीं है, क्योंकि सुषुप्ति अवस्था में इन्द्रिय, मन और हंकार इन तीनों के ही व्यापार नहीं चलते। फिर भी श्वास-प्रश्वास चलते रहते हैं । इनके लिये प्रयत्नों का चलते रहना आवश्यक है । इन प्रयत्नों के लिये ‘बुद्धितत्त्व’ को स्वीकार करना होगा । जिससे जाग्रत्, स्वप्न और सुषुप्ति इन तीनों अवस्थाओं में व्यापार चलते रहें । एवं अनुभव से उत्पन्न वासना ( संस्कार ) के रूप में भी बुद्धितत्व को स्वीकार करना आवश्यक है । इस बुद्धितस्त्र के विषयोभूत पदार्थों के साथ ही पुरुष का सम्बन्ध होता है । ( अर्थात बुद्धितत्त्व के द्वारा ही पुरुष का सम्बन्ध विषयों के साथ होता है ।
६८ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली चानुभववासना, तदन्तःकरणमुपारूढोऽर्थः पुरुषस्योपधानीभवति । भेदाग्रहाच्च निष्क्रियेऽपि तस्मिन् पुरुषे कर्तृत्वाभिमाना, तस्मिन्नचेतनेऽपि चेतनाभिमानः, तत्रैव कर्मवासना | पुरुषस्तु पुष्करपलाशवन्निर्लेपः । । आलोचनं व्यापार इन्द्रियाणाम्, विकल्पस्तु मनसः, अभिमानोऽहङ्कारस्य कृत्यध्यवसायो बुद्धेः । सा हि बुद्धिरंश- त्रयवती । पुरुषोपरागो विषयोपरागो व्यापारावेशश्चेत्यंशाः । भवति हि ‘मयेदं कर्तव्यम्’ इति । तत्र मयेति चेतनोपरागो दर्पणस्येव, मुखोपरागो भेदाग्रहादतात्त्विकः । इदमिति विषयोपराग इन्द्रियप्रणाडिकया परिणतिभेदो दर्पणस्येव निःश्वासाभि- हृतस्य मलिनिमा पारमार्थिकः । एतदुभयायत्तो व्यापारावेशोऽपि । तत्रैवंरूपव्यापार- लक्षणाया बुद्धेर्विषयोपरागलक्षणं ज्ञानम् । तेन सह यः पुरुषोपरागस्यातात्त्विकस्य सम्बन्धो दर्पणप्रतिबिम्बितस्य मुखस्येव मलिनिमा, सोपलब्धिरिति । तदेवमष्टावपि धर्मादयो भावा बुद्धेरेव, तत्सामानाधिकरण्येनाध्यवसीयमान- भेदाग्रहाच्च.. ( क्रियादि से युक्त अन्तःकरण और पुरुष इन दोनों में जो वास्तविक भेद है, उस ) भेद के अज्ञान से ही क्रिया से सर्वथा रहित पुरुषों में कर्तृत्व का अभिमान होता है । यज्ञादि कर्मो से उत्पन्न ( धर्माधर्म रूप ) वासना भी वस्तुतः अन्तःकरण में ही रहती है । पुरुष तो कमल के पत्ते के समान निर्लेप अर्थात् विषयों के है । इनमें आलोचन ( निर्विकल्पक ज्ञान ) इन्द्रियों का व्यापार है सम्बन्ध से सर्वथा रहित । विकल्प ( संशय ) मन का धर्म है । अभिमान अहंकारतत्व का विषय है । कृति, श्रध्यवसाय ( निश्चयात्मकज्ञान ) प्रभृति सीधे बुद्धि के परिणाम हैं । इस ( कृत्यादिधर्मणी ) बुद्धि के (१) पुरुषोपराग, (२) विषयोपराग और (३) व्यापारवेश ये तीन अंश हैं । बुद्धि ‘मयेदं कर्त्तव्यम्’ ( मुझे यह करना चाहिये ) इस आकार की है। इन में ‘मया’ वाला अंश ‘चेतनोपराग’ या पुरुषोपराग है । यह पुरूषोपराग पुरुष और बुद्धि इन दोनों में जो वास्तविक भेद है, उसके प्रज्ञान से उत्पन्न होता है । अतः दर्पण में मुख के प्रतिबिम्ब के समान अवास्तविक (तात्विक ) है । कथित श्रध्यवसाय में जो ‘इदम् ’ बाला अंश है, वही ‘विषयोपराग’ रूप दूसरा अंश है । बुद्धितत्त्व का चक्षुरादि इन्द्रियों के रास्ते निकल कर घटादि विषयों के आकार में जो परिणति होती है, वही वास्तव में ‘विषयोपराग’ है । यह दर्पण में ही निःश्वास के अभिघात से उत्पन्न मालिन्य के समान ही तात्त्विक पदार्थ है । कथित चेतनोपराग और विषयोपराग इन दोनों ही से ‘बुद्धि’ में ‘व्यापार वेिश’ उत्पन्न होता है । यह व्यापारावेश भी विषयोपराग के ही समान तात्त्विक ही है। इन तीनों ही प्रकार के उपरागों से युक्त अन्तःकरण का जो ‘विषयोपराग’ वाला अंश है, वही (सांख्यदर्शन में ) ‘ज्ञान’ शब्द से अभिहित होता है । प्रतिविम्बित मुख से जिस प्रकार दर्पण में अवास्तव मलिनता की उत्पत्ति होती है, उसी प्रकार विषयोपरक्त अन्तःकरण में जो पुरुष का उपराग रूप अतात्विक सम्बन्ध है, वही (सांख्यदर्शन में ) ‘उपलब्धि’ शब्द
ग्रहाच्च ६, तत्रैव रणाम्, द्विरंश- ‘मयेदं त्विकः । साभि- यापार- त्वकस्य यमान- स ) भेद ७. यज्ञादि रहित ) मन कज्ञान ) ग, (२) ह करना है । यह न्न होता व्यवसाय चक्षुरादि
- वास्तव समान ‘बुद्धि’ में तात्विक -’ वाला से जिस न्तःकरण च’ शब्द प्रथमः स्तबकः ६६ त्वात् । न च बुद्धिरेव स्वभावतश्चेतनेति युक्तम्, परिणामित्वात् । पुरुषस्य तु कूटस्थ नित्यत्वादिति । तदेतदपि प्रागेव निरस्तम् । तथा हि- कर्तृधर्मा नियन्तारश्चेतिता च स एव नः । अन्यथाऽनपवर्गः स्यादसंसारोऽथवा ध्रुवः ॥ १४ ॥ कृतिसामानाधिकरण्यव्य स्थितास्तावद्धर्मादयो नियामका इति व्यवस्थितम् । चेतनोऽपि कर्त्तव, कृतिचेतन्ययोः सामानाधिकरण्येनानुभवात् । । नायं भ्रमा, बाधकाभावात् । परिणामित्वाद् घटवदिति वाधकमिति चेन्न, कर्तृत्वेऽपि समान- से व्यवहृत होता है । इसी प्रकार ( धर्म, धर्म, ज्ञान, अज्ञान, वैराग्य, अवैराग्य ऐश्वर्य श्रीर अनैश्वर्य ये ) आठ प्रकार के ‘भाव’ भी अन्तःकरण के ही धर्म हैं, पुरुष के नहीं। क्योंकि अन्तःकरण में ही अभेद सम्बन्ध से धर्मादि की प्रतीति ( ‘धार्मिकोऽहम्’ इत्यादि आकार की ) होती है । यह कहना तो संभव ही नहीं है कि बुद्धि में चैतन्य की वास्तविक सत्ता है, क्योंकि बुद्धि परिणामशील वस्तु है । अतः चैतन्य पुरुष का ही धर्म है, क्योंकि उस में एक भी अनित्य धर्म नहीं है । न्या० सि० तदेतत् ….. सांख्य दर्शन का यह सिद्धान्त यद्यपि ‘प्रत्यात्मनियमाद् भुक्ते:’ इस सन्दर्भ की व्याख्या के द्वारा पहिले ही खण्डित हो चुका है, तथापि ( और भी विस्तृत रूप से ‘कर्तृधर्मानियन्तारः’ इस श्लोक द्वारा खण्डन करते हैं ) । कत्त धर्मा नियन्तारः हम प्रमाणानुयायियों के मत से ( देवदत्तादि ) कर्ताओं में रहने वाले धर्म ही " देवदत्तादि कर्ताओं के द्वारा अनुष्ठित यागादि का फल देवदत्तादि कर्त्ताओं को ही मिले” इत्यादि नियमों के प्रयोजक हो सकते हैं । एवं चेतन ही कर्त्ता हो सकता है । ‘अन्यथा’ अर्थात् यदि इन दोनों बातों को स्वीकार न करें तो फिर न कभी अपवर्ग ही प्राप्त हो सकेगा । अथवा न कभी संसार ही प्राप्त हो सकेगा । कृतिसामानाधिकरण्य…. ( यह सिद्ध किया जा चुका है कि ) कृति ( प्रयत्न ) के साथ नियमत! एक आश्रय में रहनेवाले घर्मादि ही ( नियमित एवं सम्यक् भोग के ) नियामक हैं । ( एवं यह भी सिद्ध ही है कि ) कर्ता चेतन ही हो। क्योंकि ‘चेतनोऽहं करोमि’ इस प्राकार के ज्ञान से कृति और चैतन्य ये दोनों ही एक ( अहम पद के ) अर्थ रूप अधिकरण में ही प्रतीत होते हैं । नायम्…” यह कहना भी संभव नहीं है कि ‘चेतनोऽहं करोमि’ यह ज्ञान भ्रम रूप है । ( अतः इससे केवल कर्त्ता में ही चैतन्य को सिद्धि नहीं की जा सकतो), क्योंकि इस ज्ञान का किसी दूसरे ज्ञान से बाघ नहीं होता है ।
७० गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली त्वात् । तथा च कृतिरपि भाविकी महतो न स्यात् । दृष्टत्वादयमदोष इति चेत्, तुल्यम् । अचेतनकार्यत्वं बाधकम्, कार्यकारणयोस्तादात्म्यादिति चेन्न, असिद्धेः । न हि कत्तु : कार्यत्वे प्रमाणमस्ति, प्रत्युत ‘वीतरागजन्मादर्शनात्’ (न्या० ३-१-२५ ) पू० प० परिणामित्वात् ’ चेतन पदार्थ कभी परिणामशील नहीं हो सकता, एवं परिणामशील पदार्थ ही कर्त्ता होता है ( इन दोनों नियमों से यह अनुमान होता है कि ) ‘कर्त्ता श्रचेतनः परिणामित्वात् कपालादिवत्’, यह अनुमान ही ‘चेतनोऽहं करोमि’ इस ज्ञान का बाधक होगा । सि० प० न, कत्तृत्वेऽपि ……. यह कहना भी उचित नहीं है क्योंकि कपालादि दृष्टान्तों के द्वारा जिस प्रकार परिणामित्व हेतु कर्त्ता में अचैतन्य का साधन कर सकता है, उसी प्रकार कपालादि दृष्टान्तों से ही वही परिणामित्व हेतु परिणामशील वस्तुओंों में अकर्तृत्व का भी साधन कर सकता है ( अर्थात् जिस प्रकार परिणामी होने के कारण कपालादि किसी कार्य के कर्ता नहीं हैं, उसी प्रकार अन्तःकरण भी परिणामशील होने के कारण किसी का कर्त्ता नहीं हो सकता, ‘अर्थात् श्रन्तःकरणं कृतिशून्यं परिणामित्वात् कपालवत्’ यह विरोधी अनुमान भी हो सकता है ) । इस प्रकार सांख्यविद्गण जो अन्तःकरण में भाविकी’ अर्थात् स्वाभाविकी कृति मानते हैं, वह संभव न हो सकेगा । पू० प० दृष्टत्वात् ‘अहं करोमि’ इस प्रकार के प्रत्यक्ष से ही अन्तःकरण में कृति सिद्ध है, अतः प्रत्यक्ष से दुर्बल होने के कारण ( उक्त ) अनुमान से अन्तःकरण में कर्तृत्व बाधित नहीं हो सकता । सि० प० तुल्यम् ( यह तो कर्ता में ही चैतन्य मानने के प्रसङ्ग में भी ) समान रूप से कहा जा सकता है कि ‘चेतनोऽहं करोमि’ इस प्रत्यक्ष से जिस लिये कि चेतन में कर्तृत्व सिद्ध है, अतः ( कर्त्ता अचेतनः परिणामित्वात्’ इस अनुमान के द्वारा चेतन में कर्तृत्व का वाघ नहीं हो सकता ) । पू० प० प्रचेतन कार्यत्वम्…. ‘कार्य अपने उपादान कारणों से अभिन्न ही होते हैं’ इस नियम के अनुसार अन्तःकरण भी अचेतन ही होगा, क्योंकि श्रचेतना प्रकृति ही उसका उपादान कारण है । अतः अन्तःकरण को चेतन मानने में ‘अन्तःकरणमचेतनम् श्रचेतन कार्यत्वात्, घटादिवत्’ यह अनुमान ही बाधक होगा । सि० प० न, प्रसिद्धेा …. कथित समाधान ठीक नहीं है, १- क्योंकि इसमें कोई प्रमाण नहीं है कि ‘कर्ता किसी से उत्पन्न ही हो’ ( इसमें केवल प्रमाणों का अभाव ही नहीं है, किन्तु ) कर्त्ता को नित्य मानने में विशेष प्रमाण भी है, जिसका उल्लेख ‘वीतरागजन्मादर्शनात्’ (न्या०सू०अ०३, भा० १ सू० २५) इस सूत्र में किया गया है । २- दूसरी बात यह भी है कि ‘कार्य में जितने भी
चेत्, सिद्धेः । १-२५) कर्ता मित्वात् प्रकार न्तों से कता है उसी ‘अर्थात् है ) । हैं, वह प्रत्यक्ष ETTI
- सकता ( कर्ता ) ’ तःकरण तःकरण नही किसी नित्य श्रा० १ तने भी प्रथमः स्तंबकः ७१ इति न्यायादनादितैव सिद्धयति । यद्यच्च कार्ये रूपं दृश्यते तस्य तस्य कारणात्मकत्वे । रागादयोऽपि प्रकृतौ स्वीकर्तव्याः स्युः । तथा च सेव बुद्धिनं प्रकृति, भावाष्टक - संपन्नत्वात् । स्थूलतामपहाय सूक्ष्मतया ते तत्र सन्तीति चेत्, चैतन्यमपि तथा भविष्यति । तथाप्यसिद्धो हेतुः । तथा सति घटादीनामपि चैतन्यप्रसङ्गस्तादात्म्यादिति चेत्, रागादिमत्वप्रसङ्गोऽपि दुर्वारः । सौक्ष्म्यन्न समानमिति । तस्मात् यज्जाती- यात्कारणाद्यज्जातीयं कार्यं दृश्यते, तथा भूतात्तथाभूतमात्रमनुमातव्यम्, न तु यावद्धमंकं कारणं तावद्धर्मकं कार्यम्, व्यभिचारादिति किमनेनाप्रस्तुतेन । धर्म देखे जांय, वे सभी उपादान कारणों में रहें ही’ यह नियम स्वीकार नहीं किया जा सकता, क्योंकि ऐसा मानने पर अन्तःकरण में रागादि जितने भी धर्म स्वीकृत हैं, उस सबों की सत्ता प्रकृति में भी माननी होगी, क्योंकि वह अन्तःकरण का उपादान कारण है । ऐसा होने पर प्रकृति ‘प्रधान’ न होकर ‘बुद्धि’ ही हो जायगी, क्योंकि ‘धर्मादि अष्टविध भावों से युक्त को ही आप ( सांख्यविद् गण ) अन्तःकरण’ कहते हैं । पू० प० स्थूलताम्" ( बुद्धि में स्थूल धर्मादि भावों की सत्ता रहती है ) प्रकृति में धर्मादि भावों के सूक्ष्म रूप ही रहते हैं । अतः प्रकृति बुद्धि नहीं कहला सकती, क्योंकि स्थूल धर्मादि अष्टविष भाव ही बुद्धि के लक्षण हैं । सि० प० चैतन्यमपि .. …. इस प्रकार यह भी कहा जा सकता हैं कि सूक्ष्य चैतन्य प्रकृति में भी है । (अत बुद्धि में अचेतन कार्यत्व हेतु के न रहने से ‘अन्तःकरणमचेतनं चेतनकार्यत्वात्’ इस अनुमान का हेतु स्वरूपासिद्ध होगा ) । पू० प० तथा सति … यदि ऐसा मानें तो घटादि ( उभय सिद्ध ) जड पदार्थों को भी चेतन मानना पड़ेगा, क्योंकि चैतन्य से युक्त अन्तःकरण के साथ उनका तादात्म्य सम्बन्ध है । सि० प० रागादिमत्त्व.. यदि घटादि पदार्थों को अन्तःकरण से श्रभिन्न मानें तो उन में भी रागादि की सत्ता माननी ही होगी। जिस प्रकार प्रकृति में सूक्ष्य चैतन्य है, उसी प्रकार धर्मादि अष्टविध भावों के भी सूक्ष्म रूप प्रकृति में हैं ही । अतः यही अनुमान करना चाहिये कि ‘जिस प्रकार के कारणों से जिस प्रकार के कार्य उत्पन्न होते हैं, उस जाति के अन्य कारणों से भी उसी जाति के अन्य कार्य भी उपलब्ध होंगे। इस से यह अनुमान नहीं किया जा सकता कि कारणों में जितने भी धर्म रहें, वे सभी कार्यों में भी अवश्य रहें, क्योंकि यह नियम ‘व्यभिचरित’ है । अर्थात् कार्यों में कारणों के सभी धर्म उपलब्ध नहीं होते, एवं कारणों में न रहने वाले धर्मों की उपलब्धि भी कार्यों में होती है । प्रकृत विचार से असम्बद्ध इन विषयों का भागे विस्तार व्यर्थ है । CCO. Vasishtha Tripathi Collection. Digitized by eGangotri७२ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली यदि च बुद्धिनित्या, अनिर्मोक्षप्रसङ्गः । पुंसः सर्वदा सोपाधित्वे स्वरूपेणान- वस्थानात् । अथ विलीयते, ततो नानादेविलय इत्यादिमत्त्वे तदनुत्पत्तिदशायां को नियन्ता ? प्रकृतेः साधारण्यात्, तथा चासंसारः । पूर्वं पूर्वं बुद्धिवासनानुवृत्तेः साधारण्येऽप्यसाधारणीति चेत्, बुद्धिनिवृत्तावपि तद्धमवासनानुवृत्तिरित्यपदर्शनम् । सौक्ष्म्यान्न दोष इति चेत्, मुक्तावपि पुनः प्रवृत्तिप्रसंग: । यदि च बुद्धिः । ‘आदि’ को भी मानना ही बुद्धि को यदि ‘सादि’ मान एवं ( बुद्धि नित्य है ? अथवा प्रनित्य ? इस विकल्प का यह प्रथम पक्ष मानें कि ) ‘बुद्धि नित्य है’ तो पुरुष कभी मुक्त ही नहीं हो सकेगा, क्योंकि पुरुष ( अपनी बुद्धि रूप उपाधि के नित्य होने के कारण ) सर्वदा उपाधि से युक्त ही रहेगा । कभी अपने स्वरूप में आवेगा ही नहीं । ( मुक्ति के लिये पुरुष को उपाधि से मुक्त होना आवश्यक है ) । बुद्धि को विलयनशील ( अर्थात् अनित्य ) मानें तो बुद्धि की होगा, क्योंकि अनादि (भाव) पदार्थों का नाश नहीं होता लेते हैं, तो यह प्रश्न उपस्थित होता है दोनों का नियामक कौन था ? नित्य एवं सकता, क्योंकि प्रकृति का सभी पुरुषों साथ ‘साधारण’ ( समान ) सम्बन्ध है | अतः प्रकृति के सम्बन्ध से कौन पुरुष बद्ध है ? एवं कौन पुरुष मुक्त है ? इसका निर्णय नहीं किया जा सकता । अत: ( बुद्धि को नित्य मानने के पक्ष में) पुरुष को कभी संसार ही प्राप्त नहीं होगा । पू० प० पूर्वपूर्वबुद्धि… … के कि बुद्धि की उत्पत्ति से मूलभूता प्रकृति से पहिले बन्ध और मोक्ष इन यह नियमन का कार्य हो नहीं यद्यपि केवल प्रकृति का सम्बन्ध सभी पुरुष के साथ समान है, किन्तु पूर्व पूर्व बुद्धियों की वासनाओं की अनुवृत्ति के कारण किसी पुरुष विशेष के साथ प्रकृति का विशेष सम्बन्ध भी हो सकता है । सि० प० बुद्धिनिवृत्ती… … यह मानने योग्य नहीं है कि बुद्धि तो स्वयं विनष्ट हो जाय और उसमें रहनेवाली वासनायें बनी रहें, एवं बुद्धि से सर्वथा असम्बद्ध इन वासनाओं की अनुवृत्ति प्रकृति में बनी रहे !, पू० प० सौक्ष्म्यात्… … बुद्धि स्वयं भी सूक्ष्म रूप से रहती ही है, अतः उसकी वासनाओं की सत्ता एवं इन वासनाओं की प्रकृति में अनुवृत्ति को स्वीकार करने में कोई बाधा नहीं है । सि० प० मुक्तावपि" … यदि ऐसा मानें तो मुक्त हो जाने के बाद पुनः उसी पुरुष को बन्ध की प्राप्ति ( संसार) माननी होगी, क्योंकि उस समय भी उस पुरुष की बुद्धि रूप उपाधि प्रकृति में सूक्ष्म रूप से है ही ।
पेणान- दशायां नुवृत्तेः र्शनम् । क) बुद्धि रूप स्वरूप में है ) । नना ही दि’ मान मोक्ष इन हो नहीं 5। अतः हीं किया ही प्राप्त र्व बुद्धियों सम्बन्ध रहनेवाली बनी रहे.! सत्ता एवं की प्राप्ति प्रकृति में प्रथमः स्तबकः ७३ निरधिकारत्वान्नैवमिति चेत्, तहि साधिकार प्रसुप्तस्वभावा बुद्धिरेव, प्रकृतिरस्तु कृतमन्तरा प्रकृत्यहङ्कारमनः शब्दानामर्थान्तरकल्पनया । सैव हि तत्तद्व्यवहारगोचरा तेन तेन शब्देन व्यपदिश्यते, शारीरवायुवदित्यागमोऽपि संगच्छत इत्यतोऽपि हेतुरसिद्धः । अधिकारनिवृत्त्या बुद्धेरप्रवृत्तिरपवर्गः, वासनायोग- श्चाधिकारः, ततः संसारः । पृ० प० निरधिकारत्वात्….. जिस पुरुष को एक वार मोक्ष मिल जाता है, उस पुरुष के लिये पुनः संसार के निर्माण का ‘अधिकार’ प्रकृति को नहीं रहता है, क्योंकि पुरुष की वृद्धि में रहनेवाली वासनाओं की अनुवृत्ति हो प्रकृति के उक्त ‘अधिकार’ को प्रयोजिका है । श्रतः श्रधिकार के न रहने से ( मुक्त पुरुष को ) पुनः संसार की आपत्ति नहीं दो जा सकती । सि० प० तर्हि " यदि वुद्धि में रहनेवाली वासनायों के सम्बन्ध से ही प्रकृति में सृष्टि को क्षमता आती है, तो प्रकृति, मन, अहंकार प्रभृति अनेक अर्थों की कल्पना की कोई आवश्यकता नहीं रह जाती है । केवल वुद्धि को ही संसार का मूल कारण मान लें, एवं बुद्धि की १ ) साधिकारा और ( २ ) प्रसुप्त स्वभावा ये अवस्थायें मान लो जाँय । ( जिस से वासनाओं की अनुवृत्ति के समय संसार की उत्पत्ति होगी एवं वासनाओं के न रहने से संसार की उत्पत्ति नहीं होगी ) । सैव हि ( प्रकृति के स्वतन्त्र अस्तित्व के ज्ञापक ) ‘अजामेकाम्’ इत्यादि श्रुतिवाक्यों के ( एवं अहंकार के पृथक् अस्तित्व के ज्ञापक ) ‘अहंकार इतीयं में’ इत्यादि स्मृति वचनों के विरोध की भी सम्भावना नहीं है, क्योंकि जिस प्रकार एक ही प्राणवायु स्थान भेद से प्राणापानादि अनेक नामों से अभिहित होता है, एवं उससे प्राणवायु के एकत्व में कोई बाधा नहीं भाती है, उसी प्रकार एक ही बुद्धि अवस्थाओं के भेद से कभी प्रकृति कहलायेगी एवं कभी मन अहङ्कारादि नामों से अभिहित होगी । एवं इस से उक्त शास्त्र वचनों का भी कोई विरोध उपस्थित नहीं होगा । इस प्रकार के उपपादन से यह सिद्ध हो जाता है कि बुद्धि अचेतना प्रकृति से उत्पन्न नहीं होती है । अतः ‘बुद्धिरचेतना, अचेतनकार्यत्वात्’ इस अनुमान का हेतु स्वरूपासिद्ध हो जाता है ( क्योंकि बुद्धि रूप पक्ष में अचेतनकार्यत्व रूप हेतु सिद्ध नहीं है ) | ( केवल बुद्धि को ही स्वीकार कर लेने पर प्रकृति, मन, अहंकार को स्वीकार न करने पर भी ) संसार और अपवर्ग दोनों की उचित व्यवस्था इस प्रकार हो जायगी कि उक्त वासनानुवृत्ति रूप अधिकार के न रहने पर बुद्धि का संसारोत्पादन में अप्रवृत्ति से अपवर्ग होगा । एवं उक्त अधिकार के रहने पर बुद्धि की प्रवृत्ति से ही संसार होगा । १०
७४ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली धर्मधर्मिणोरत्यन्तभेदे च कौटस्थ्याविरोधः । भेदश्च विरुद्धधर्माध्यासलक्षणो घटपटादिवत् प्रत्यक्षसिद्धः । न च सामानाधिकरण्यादभेदोऽपि तद्धि समान- शब्दवाच्यत्वम्, एकज्ञानगोचरत्वम्, एकाधिकरणत्वम् श्राधाराधेयभावः, विशेष्यत्वं, सम्बन्धमात्रं वा, भेद एव भेदेऽपि चोपपद्यमानं नाभेदं स्पृशतीति सर्वमवदातम् ||१४|| स्यादेतत् । नित्यविभुभोक्तृसद्भावे सर्वमेतदेवं स्यात् । स एव कुत: ? भूतानामेव चेतनत्वात् । कायाकारपरिणतानि भूतानि तथा अन्वयव्यतिरेकाभ्यां सि० प० धर्मधमिरणोः" ( बुद्धि को चेतन मानने में सांख्य के आचार्यगण ‘कूटस्थो ह्ययं विरोध का उद्भावन करते हैं, क्योंकि जो किसी भी अनित्य धर्म का पुरुष:’ इस श्रुति के श्राश्रय न हो उसी को कूटस्थ कहते हैं । चूँकि बुद्धि में तो उत्पत्तिविनाशशील ज्ञानादि ‘कूटस्थ’ नहीं है, अत: चेतन भी नहीं है ) । कौटस्थ्य के इस विरोध का परिहार इस प्रकार किया जा सकता है कि धर्म और धर्मी को अत्यन्त भिन्न मान लें। और धर्मी का भेद घट और पट के भेद के समान ही प्रत्यक्ष प्रमाण से सिद्ध है । धर्म रहते हैं, अतः बुद्धि क्योंकि धर्म पू० प० न च… … ( प्रत्यक्ष के द्वारा धर्म और धर्मी में जिस प्रकार भेद सिद्ध है, उसी प्रकार ‘नीलो घट : ’ ‘नीलः पटः’ इत्यादि प्रभेदविषयक प्रत्यक्ष प्रतीतियों से धर्म और धर्मी इन दोनों में प्रभेद / की भी सिद्धि की जा सकती है । सि० प० तद्धि… उक्त ‘सामानाधिकरण्य’ अथवा प्रभेद की प्रतीति से धर्म और धर्मी में प्रभेद की सिद्धि नहीं की जा सकती, क्योंकि कथित सामानाधिकरण्य के ( १ ) समानशब्दवाच्यत्व, (२) एकज्ञानविषयत्व, (३) एकाधिकरणत्व, ( ४ ) आधारआधेयभाव, (५) विशेष्यत्व अथवा ( ६ ) केवल सम्बन्ध, ये छ प्रकार के अर्थ ही हो सकते हैं । इन में प्रथम, द्वितीय और षष्ठ प्रकार के तीन सामानाधिकरण्य तो परस्पर भिन्न एवं परस्पर अभिन्न दोनों ही प्रकार के वस्तुनों में उपपन्न हो सकते हैं । श्रवशिष्ट तीन प्रकार के समानाधिकरण सम्बन्ध तो परस्पर भिन्न दो वस्तुनों में ही हो सकते हैं । अतः उक्त सामानाधिकरण्य सम्बन्ध से इसके प्रतियोगी और अनुयोगी इन दोनों में प्रभेद की उपपत्ति का कोई भी सम्बन्ध नहीं है । इस प्रकार इस प्रसङ्ग की सभी बातें स्वच्छ कर दी गयी हैं ||१४| पू० प० स्यादेत् नित्यविभु ( इस प्रसङ्ग में भूतचैतन्यवादी चार्वाक कहते हैं कि ) ये सभी बातें तभी ठीक हो सकती हैं, जब कि यह सिद्ध हो कि ‘भोक्ता’ पुरुष ‘नित्य’ और ‘विभु’ है । किन्तु यही तो अभी सिद्ध नहीं है, क्योंकि शरीर रूप में परिणत पृथिव्यादि पञ्चभूतों में ही चैतन्य मान कर नियमित भोगादि ) सभी कार्य हो सकते हैं । अन्वय और व्यतिरेक से भी यह सिद्ध होता है
- लक्षणो
- समान-
- शिष्यत्वं,
- ॥१४॥
- कुतः ?
- काभ्यां
- श्रुति के
- उसी को
- बुद्धि र इस कि धर्म घट:’ श्रभेद द की उच्यत्व, शेष्यत्व य और प्रकार न्ध तो इसके हीं है । क हो ही तो न कर ता है, प्रथमः स्तबक: ७५ तथोपलब्धेः । कर्मज्ञानवासने तु सर्वत्र प्रतिभूतनियते धनुवर्तिष्येते यतो भोगप्रति- सन्धान नियम इति चेत्; उच्यते- नान्यदृष्टं स्मरत्यन्यो नैकं भूतमपक्रमात् । वासनासंक्रमो नास्ति न च गत्यन्तरं स्थिरे ॥ २५ ॥ न हि भूतानां समुदायपर्यवसितं चैतन्यम्, प्रतिदिनं तस्यान्यत्वे पूर्वं पूर्वं - दिवसानुभूतस्यास्मरणप्रसंगात् । नापि प्रत्येकपर्यवसितम्, करचरणाद्यवयवापाये तदनुभूतस्य स्मरणायोगात् । नापि मृगमदवासनेव वस्त्रादिषु संसर्गादन्यवासनाऽन्यत्र ( कि शरीर चैतन्य का कारण है ); कर्म से उत्पन्न ( धर्म एवं प्रधर्म रूप ) वासनायें भी उसी शरीर में स्वीकार करेंगे, जिन वासनाथों से जिस शरीर की उत्पत्ति होगी । एवं ज्ञान को वासनायें ( भावनाख्य संस्कार ) भी उसी शरीर में रहेंगी, जिस शरीर के द्वारा उन वासनाओं के मूल अनुभवों की उत्पत्ति होगी । ऐसा स्वीकार कर लेने से ही नियमित भोग और नियमित स्मृति की उपपत्ति हो जायगी । सि० प० उच्यते, नान्यदृष्टम् इस आक्षेप के उत्तर में हम ( नैयायिक) कहते हैं कि :- दूसरे पुरुष को नहीं जिस लिये कि एक पुरुष के द्वारा अनुभूत विषय का स्मरण होता । ( एवं जिन शरीरादि मूलद्रव्यों में से किसी को हम व्यवहार में आपाततः एक समझते हैं, वे भी ) ‘एक’ नहीं हैं, ( क्योंकि प्रति तीसरे क्षण में उनका विनाश एवं दूसरे तत्सदृश अवयवी की उत्पत्ति से होती रहती है ) । अतः शरीर में हो चैतन्य ( ज्ञान ) को मान लेने से देवदत्त के द्वारा अनुभूत विषयों का स्मरण देवदत्त ही में न रह सकेगा । ( जिस लिये कि वासनायें द्रव्य नहीं हैं, श्रतः एक क्षण में एक शरीर में रहनेवाली वासनाओं का सीमित ‘संक्रमण’ दूसरे क्षण में उत्पन्न दूसरे शरीरों में स्वीकार नहीं किया जा सकता । जिससे ( स्मृति की उपपत्ति हो सके ) । अतः चैतन्य के आश्रय को ‘स्थिर’ नित्य माने बिना दूसरी गति नहीं है । सि० प० न हि भूतानाम् १) जिस भौतिक द्रव्य ( अवयवी ) का उत्पादन जितने अवयवों से होता है; उन सभी अवयवों में चैतन्य की पर्याप्ति नहीं मानी जा सकती, क्योंकि अवयवों का वह समुदाय प्रतिदिन बदलता रहता है । अतः उक्त पक्ष को स्वीकार करने पर एक दिन में अनुभूत विषयों का स्मरण दूसरे ही दिन न हो सकेगा । पू० प० नापि प्रत्येक अवयवी के निष्पादक जितने भी श्रवयव हैं, उनमें से प्रत्येक अवयव में यदि चैतन्य मानेंगे तो हाथ पैर प्रभूति किसी एक अवयव के विनष्ट हो जाने पर उस अवयक के द्वारा विषयों का स्मरण कभी नहीं हो सकेगा । पू० प० नापि मृगमद www कस्तूरी के साथ साक्षात् सम्बन्ध के न रहने पर भी कस्तूरी के साथ संश्लिष्ट वस्त्र के साथ संपृक्त दूसरे वस्त्र में भी कस्तूरी के सुगन्धि की उपलब्धि होती है, उसी प्रकार अवयवों के
७६ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली । सङ्क्रामति, मात्रानुभूतस्य गर्भस्थेन भ्रूणेन स्मरणप्रसंगात् । न चोपादानोपादेय- ’ भावनियमो गतिः । स्थिरपक्षे परमाणूनां तदभावात् । खण्डावयविनं प्रति च विच्छिन्नानामनुपादानत्वात् । पूर्वसिद्धस्य चावयविनो विनाशात् । प्रस्तु तर्हि क्षणभंगः। न चातिशयोऽप्यतिरिच्यते, किन्तु सादृश्यतिरस्कृत्वाद् द्रागेव न विकल्प्यते, कार्यदर्शनादध्यवसीयते, अन्त्यातिशयवत् । तथा च भूतान्येव एक समुदाय के द्वारा एक अवयव के अनुभव से उत्पन्न संस्कार का संक्रमण ( उक्त समुदाय के या उक्त एक अवयव के विनष्ट हो जाने पर भी ) स्थापनापन्न दूसरे प्रवयवसमुदाय में श्रथवा अवयव में होता है, अत: स्मृति की कोई अनुपपत्ति नहीं है । सि० प० मात्रानुभूतस्य 489 याद इस प्रकार वासना ( संस्कार ) का संक्रमण ( गति ) मानें तो माता के द्वारा अनुभूत वस्तु का स्मरण गर्भस्थित भ्रूण में भी मानना होगा । पू० प० नचोपादानोपादेय … वासनाओं के संक्रमण के प्रसङ्ग में ऐसा नियम मानते हैं कि उपादान कारणों में स्थित वासना का संक्रमण उपादेय ( कार्य ) में होता है । ( माता यद्यपि भ्रूण का कारण है, किन्तु उपादान कारण नहीं, भ्रूण के उपादान कारण तो भ्रूण के अवयव ही हैं ) । सि० प० स्थिरपक्षे ( वस्तुओं के जो ‘स्थिर’ पक्ष और ‘क्षणिक’ पक्ष नाम के दो मत क्रमशः आस्तिकों और बौद्धों के हैं, उनमें से आस्तिक सम्मत ) स्थिर पक्ष में कथित उपादानोपादेयत्व की युक्ति से परमाणु रूप भूतद्रव्यों में चैतन्य की सिद्धि नहीं की जा सकती, क्योंकि परमाणुओं का कोई उपादान कारण ही नहीं है । शरीर रूप अवयवी में भी ( कथित स्थिर पक्ष में ) चैतन्य नहीं माना जा सकता । क्योंकि जिस समय शरीर रूप एक अखण्ड अवयवी के कोई हाथ पैर प्रभृति अवयव टूट जाते हैं, उस समय ( लूले लंगड़े शरीर रूप ‘खण्डावयवी’ के उपादान कारण वे टूटे हुये हाथ पैर प्रभृति अवयव नहीं हैं, अतः उस हाथ के द्वारा अनुभूत विषयों का स्मरण उन लूले लंगड़े पुरुषों को न हो सकेगा । क्योंकि हाथ पैर से युक्त पहिले का शरीर तो नष्ट हो चुका है । पू० प० अस्तु तर्हि …… आस्तिकों के द्वारा स्वीकृत ‘स्थिर’ पक्ष में यदि ‘भूतचैतन्यवाद’ की उपपत्ति संभव न हो तो बौद्धों के द्वारा स्वीकृत ‘क्षणभङ्ग’ पक्ष ही स्वीकार कर लिया जाय । ( इस पक्ष में ) घर के बीज और खेतों में डाले गये बीज भिन्न हैं । देखने के बाद ही जो इन दोनों में रहने- वाली विभिन्नता का प्रत्यक्ष नहीं हो पाता है, उसका कारण दोनों बीजों का अत्यन्त सादृश्य है । प्रत: जिस प्रकार नैयायिकगण कार्य से ‘अन्यातिशय’ रूप सामग्री का अनुमान करते हैं
. व ६ व य T T प त्रु का 1 ट थ ड़े व ) ने- श्य हैं the प्रथमः स्तंवकः ७७ तथा तथोत्पाद्यन्ते, यथा यथा प्रतिसन्धान नियमादयोऽप्युपपद्यन्ते । क्षणिकत्वसिद्धा- वेवमेतत्, तदेव त्वन्यन्न विस्तरेण प्रतिषिद्धम् ॥ १५ ॥ अपि च- न वैजात्यं विना तत्स्यान्न तस्मिन्ननुमा भवेत् । विना तेन न तत्सिद्धिर्नाध्यक्ष निश्चयं विना ॥१६: । न हि कररणाकरणयोस्तज्जातीयस्य सतः सहकारिलाभालाभो तन्त्र- मित्यभ्युपगमे क्षणिकत्वसिद्धिः । तथैकव्यक्तावप्यविरोधात्, ‘तद्वा तादृग्वा’ इति न कश्चिद्विशेष इति न्यायात् । ततस्तावनादृत्य वैजात्यमप्रामाणिक मेवाभ्युपेयस् । उसी प्रकार वीज के अंकुर रूप कार्य से दोनों बीजों को विभिन्नता एवं अंकुरकुर्वद्रूपत्व का अनुमान हो सकता है । अतः क्षणिक होने के कारण भूतद्रव्यों की उत्पत्ति उस प्रकार से होगी जिससे स्मृति एवं भोगादि की नियमित उत्पत्ति होती रहेगी । सि० प० … ये सभी बातें पदार्थों के क्षणिकत्व की सिद्धि के ऊपर निर्भर करती हैं, किन्तु यह क्षणभङ्गवाद ही ‘अन्यत्र’ आत्मतत्वविवेक ग्रन्थ में विस्तृत रूप से खण्डित हो चुका है ॥ १५ ॥ दूसरी बात यह है कि— न वैजात्यं विना जवतक ’ वैजात्य’ अर्थात् एक ही जाति के एक विशेष व्यक्ति में एक विशेष प्रकार की ( कुद्रूपत्व नाम की ) जाति को स्वीकार नहीं करते तब तक ‘क्षणिकत्व’ की सिद्धि नहीं की जा सकती । यदि विशेष प्रकार की उक्त कुर्वद्रूपत्व जाति को मान लेते हैं तो ( बौद्धों के द्वारा स्वीकृत ) कार्यलिङ्गक कारणानुमान को मानने की आवश्यकता नहीं रह जाती । कार्यलिङ्गक कारणानुमान के विना ‘कुर्वद्रूपत्व’ की सिद्धि ही संभव नहीं है । एवं ‘निश्चय’ के विना अर्थात् कार्यलिङ्गक कारणानुमिति रूप सविकल्पक ज्ञान रूप ‘निश्चय’ के बिना ‘अध्यक्ष’ अर्थात् प्रमा रूप निर्विकल्पक ज्ञान उदित नहीं हो सकता । सि० ० प० न हि कररणाकरणयोः … जिस जाति के एक बीज व्यक्ति को जिस समय सहकारी मिल जाता है, उस समय उस से अंकुर की उत्पत्ति होती है । एवं उसी जाति की दूसरा बीज व्यक्ति को उसी समय यदि सहकारी नहीं प्राप्त होता तो उस व्यक्ति से अंकुर की उत्पत्ति नहीं हो पाती । इन . ( अंकुरोत्पत्ति और अंकुरानुलत्ति ) दोनों के प्रयोजक क्रमशः सहकारियों की प्राप्ति और अप्राप्ति को मान लें तो बीजादि पदार्थों को क्षणिक मानने की आवश्यकता नहीं रह जाती। इसी प्रकार एक व्यक्ति से सहकारियों के मिलने पर कार्य का उत्पादन एवं सहकारियों के न मिलने पर उसी व्यक्ति से कार्य का अनुत्पादन के मान लेने पर कोई विरोध नहीं रह जाता, क्योंकि “वही व्यक्ति सहकारियों के साहाय्य से कार्य का उत्पादन करे, अथवा उस जाति की कोई दूसरी व्यक्ति सहकारियों के साहाय्य से कार्य का उत्पादन करें, इन दोनों में कोई अन्तर नहीं है” इस न्याय के द्वारा सहकारिकारणों के लाभ और आलभ को ही ( एक ही जाति के एक बीज व्यक्ति से अंकुर की उत्पत्ति एवं उसी जाति की दूसरी बीज व्यक्ति से अंकुर की अनुत्पत्ति का ) प्रयोजक न मान कर इसके लिये बीजों को क्षणिक मानना अप्रामाणिक है ।
७६ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जलौ एवञ्च कारणवत् कार्येऽपि किञ्चिद्वेजात्यं स्याद्यस्य कारणापेक्षा, न तु दृष्टजाती- यस्येति शङ्कया न तदुत्पत्तिसिद्धिः । दृष्टजातीयमाकस्मिकं स्यादिति चेन्न तत्रापि किञ्चदन्यदेव प्रयोजकं भविष्यतीत्य विरोधात् । न कार्यस्य विशेषस्तत्प्रयुक्ततयोपलभ्यते । नापि कार्यसामान्यस्यान्यत्प्रयोजकं दृश्यत इति चेत्, तत्कि कारणस्य विशेषः स्वगतस्तत्प्रयोजकतयौपलब्धः, काररणसामान्यस्य वाऽन्यत् प्रयोज्यान्तरं दृश्यते ? सि० प० एवं च कारणवत् 1 -यदि उस कुर्वद्रूपत्व को ही वह्नि के द्वारा घूम की उत्पत्ति का प्रयोजक मानें, जिसका प्रत्यक्ष संभव नहीं है, तो यह शङ्का भी हो सकती है कि कुर्वद्रूपत्वादि के सदृश किसी विशेष प्रकार की जाति से युक्त ) धूम रूप कार्य की ही उत्पत्ति ( उक्त अप्रत्यक्ष जाति से युक्त ) वह्नि से होती है । जिन धूमों को हम लोग प्रत्यक्ष देखते हैं, उनकी उत्पत्ति में वह्नि की अपेक्षा नहीं है । इस शङ्का के रहते प्रत्यक्ष दृष्ट सभी घूमों के प्रति जो सभी वह्नियों में कारणता गृहीत होती है, वह न हो सकेगी । पू० प० दृष्टजातीयम् यदि ( कारणों में कुर्वद्रूपत्व के समान ही ) वह्नि से उत्पन्न धूम रूप कार्य में किसी अवान्तर जाति की कल्पना करें, तो प्रत्यक्ष से दृष्ट एवं धूमत्व जाति से युक्त सभी व्यक्तियों को ‘आकस्मिक’ अर्थात् अनियत हेतुत्रों से उत्पन्न मानना पड़ेगा । सि० प० न, तत्रापि यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि ( इस प्राकस्मिकत्वापत्ति का वारण तो) पिशाचदि किसी भी वस्तु को घूमसामान्य को कारण मान लेने से भी हो सकता है । इसके लिये घूमसामान्य । को वह्निसामान्य का कारण मानना आवश्यक नहीं है । पू० प० न कार्यस्य विशेष… १. (जस प्रकार वह्निस्वरूप कारण में धूमकुर्वद्रूपत्व स्वरूप जाति मानते हैं, उसी प्रकार यदि ) धूम रूप कार्य में भी कोई विशेष धर्म मान लें, तथापि यह नहीं कह सकते कि घूम रूप कार्य में रहनेवाला यह ‘विशेष’ धर्म ‘वह्निजन्यत्व’ ( वह्नि से उत्पन्न होना ) ही है, क्योंकि सभी घूमों को वह्नि से उत्पन्न होते नहीं देखा जाता ( अर्थात् वह विशेषधर्म वह्निजन्यत्व रूप नहीं है यह एक के ‘विरोध’ है ) । नापि कार्यं सामान्यस्य.. २. एवं वह्नि सामान्य को छोड़कर सभी धूमों का कोई कारण उपलब्ध भी नहीं है यह दूसरा विरोध है । इन दोनों विरोधों से यह कल्पना करते हैं कि घूम सामान्य का वह्नि सामान्य ही कारण है । सि० प० तत्कि कारणस्य विशेषः 100 ( तुल्य युक्ति से पूर्वपक्षवादी के उक्त कथन में भी दो विरोधों का उद्भावन किया जा सकता है कि ) (१) जिस लिये कि वह्नि में घूमसामान्य का प्रयोजक कोई ‘विशेष’ धर्म उपलब्ध नहीं होता है, अतः कुर्बुद्रुपत्व से युक्त ‘विशेष’ प्रकार का बह्नि ही यदि घूम का कारण हो तो वह्नि सामान्य किसका कारण होगा ? (२) यदि वह्निसामान्य को किसी
ती- नापि ते । शषः ते ? मानें, सहश ति से की में किसी को किसी मान्य नकार कि ही है, धर्म
- नहीं य का किया ‘धर्म म का किसी प्रथमः स्तवकः ७६ यतो विवक्षितसिद्धिः स्यात् । शङ्का तूभयत्रापि सुलभेति । कार्यजन्माजन्मभ्यामुत्रीयत इति चेन्न । सहकारिलाभालाभाभ्यामेवोपपत्तेः । उन्नीयतां वा, कार्येषु शङ्किष्यते, निषेधकाभावात् । न हि घूमस्य विशेषं दहनप्रयोज्यं प्रतिषेद्धुं स्वभावानुपलब्धिः प्रभवति । कार्यैकनिश्चेयस्य तदनुपलब्धेरेवानिश्चयीपपत्तेः । कार्यस्य चातीन्द्रियस्यापि संभवात् । अत एवानुपलब्ध्यन्तरमपि निरवकाशमिति । कार्य का कारण ही न मानें तो ‘वह्निसामान्य’ की सत्ता ही उठ जायगी, क्योंकि जो किसी कार्य का उत्पादक नहीं है ( अर्थात् अर्थक्रियाकारी नहीं है ) उसकी सत्ता आप लोग ( वौद्धगण ) स्वीकार ही नहीं करते। इस प्रकार पूर्वपक्षवादी यदि कारणों में सर्वथा अनुपलब्ध कुर्वद्रूपत्व रूप विशेष की शङ्का करेंगे तो उसी प्रकार ‘विशेष’ की शंका कार्यों में भी की जा सकती है। क्योंकि किसी बाधक के न रहने की स्थिति तो दोनों ही स्थलों में समान है । ( अतः कुर्यद्रूपत्व को मानने से जो अनुमान की अनुपपत्ति दिखलायी गयी है, वह असङ्गत नहीं है ) । पू० प० कार्यजन्माजन्म… घर के बीज से अंकुर की उत्पत्ति नहीं होती है, एवं खेत के बीज से अंकुर की उत्पत्ति होती है । इस अन्वय और व्यतिरेक से कारण में रहने वाले ‘वैजात्य’ अर्थात् कुर्वद्रूपत्व रूप विशेष धर्म का अनुमान कारणों में करते हैं ( कार्य में इस प्रकार को किसी अवान्तर जाति की कल्पना का कोई हेतु नहीं है, कल्पना नहीं करते हैं ) । सि० प० सहकारिलाभ… अतः कार्य में किसी विशेष धर्म की ऐसा कहना भी संभव नहीं है, क्योंकि घर के बीज से अंकुर की अनुत्पत्ति और खेत के बीज से अंकुर की उत्पत्ति ये दोनों हो क्रमशः सहकारिकारणों के लाभ और लाभ से ही उपपन्न हो सकते हैं ( इसके लिये कारण में कुर्वद्रूपत्व रूप वैजात्य की है ) । यदि अनुमान से कारण में उक्त वैजात्य की सत्ता मान भी लें, कल्पना अनावश्यक तथापि कार्य में भी उसी प्रकार के वैजात्य की शंका तो अन्ततः बनी ही रहेगी, क्योंकि उस शंका का कोई बाघक नहीं है । ( अतः इस शंका के रहते जो अनुमान की अनुपपत्ति दी गयी है, वह वैसी ही बनी रहेगी, क्योंकि व्यभिचार की शंका भी व्याप्ति की विरोधिनी है ) । पू० प० न हि धूमस्य विशेषम् ( इस पर बौद्धलोग कह सकते हैं कि धूम रूप कार्य में वह्निजनित किसी वैजात्य की निश्चयात्मक उपलब्धि नहीं है। धूमादि कार्यों में वैजात्य की यह ‘अनुपलब्धि’ ही बाधक होगी । अतः धूमादि कार्यों में कोई वैजात्य नहीं है । इसका यह उत्तर है कि ) वह्नि के द्वारा उत्पन्न होने से घूम में जिस वैजात्य की चर्चा हो रही है, वह जिस लिये कि प्रतीन्द्रिय
८० गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली एवं विधिरूपयोर्व्यावृत्तिरूपयोर्वा जात्योर्विरोधे सति न समावेश: । समाविष्टयोश्च परापरभावनियमः । अन्यूनानतिरिक्तवृत्तिजातिद्वय कल्पनायां प्रमाणाभावात् । विरोधानवकाशे भेदानुपपत्तेः । व्यावर्त्यभेदाभावेन परस्परपरिहारवत्योदन समावेशे गं स्वास्त्रत्वयोरपि तथाभावप्रसंगात् । १ है, अत: उसकी अनुपलब्धि ( स्वभावानुपलब्धि ‘स्व’ जो घूम, उस में रहनेवाला जो उक्त वैजात्य रूप ‘भाव’ उसकी अनुपलब्धि ) से धूमादिकार्यगत वैजात्य का निषेध नहीं किया जा सकता, क्योंकि उक्त ‘स्वभावानुपलव्धि’ को ‘योग्यानुपलब्धि’ नहीं कहा जा सकता | क्योंकि कार्य की अनुपलब्धि से कारण का अनिश्चय ही उत्पन्न हो सकता है, उससे कारणाभाव का निश्चय नहीं उत्पन्न हो सकता ( कारण का अनिश्चय एवं कारणाभाव का निश्चय ये दोनों पृथक् वस्तुएँ हैं ) । जिस लिये कि धूम रूप कार्यं श्रतीन्द्रिय भी हो सकता है ( अतः उस में रहनेवाले ’ वैजात्य’ का भी अतीन्द्रिय होना पूर्ण संभावित है ) । इसी प्रकार श्रवशिष्ट अन्य सभी ( १५ प्रकार की ) ग्रनुपलब्धियाँ अनुमान की कथित अनुपपत्ति को हटाने में असमर्थ हैं । सि० प० विधिरूपयोः • ….. एवं जातियों को विधि ( भाव ) रूप मानें अथवा व्यावृत्ति ( अभाव अपोह ) रूप मानें (दोनों ही स्थितियों में यह मानना होगा कि परस्पर विरुद्ध दो जातियाँ किसी एक प्राश्रय में नहीं रह सकतीं । एवं जिन दो जातियों की सत्ता किसी एक श्राश्रय में हैं, उन दोनों में से एक जाति दूसरी जाति को व्याप्य ( न्यूनदेशवृत्ति ) अथवा व्यापक ( अधिक देशवृत्ति ) अवश्य होंगी, क्योंकि समान श्राश्रयों में रहनेवाली किन्हीं दो जातियों की कल्पना अप्रमाणिक है । (यदि परस्पर विरोधी दो जातियों का भी एक आश्रय में रहना स्वीकार कर लें तो बौद्धों के मत में घट, पट प्रभृति दो वस्तुओंों में भी ) भेद नहीं रह जायगा । क्योंकि ( श्रघट व्यावृत्ति एवं अपटव्यावृत्ति प्रभृति अपोहों का कोई ) प्रतिषेध्य ही नहीं रह जायगा । परस्पर एक दूसरे के अनाश्रयीभूत वस्तुओं में रहनेवाली दो जातियों का यदि किसी एक आश्रय में समावेश मान लें तो कदाचित् गोत्व और अश्वत्व इन दोनों जातियों का सत्ता गो और अश्व इन दोनों में से किसी एक ही आश्रय में भी संभव हो जायगी । पू० प० सामग्रीविरोधात् .. … अश्त्र को उत्पन्न करनेवाले कारणों का समूह ( सामग्री ) एवं गो को उत्पन्न करनेवाली सामग्री जिस लिये कि विभिन्न देशों में रहती है, अतः दोनों सामग्रियाँ परस्पर विरोधिनी हैं । अतः उन दोनों सामग्रियों से उत्पन्न दोनों वस्तुओं में से प्रत्येक में गोत्व और अश्वत्व इन दोनों जातियों की सत्ता नहीं स्वीकार की जा सकती । सि० प० एतत्… कथित दोनों सामग्रियों में परस्पर विरोध ही क्यों है ?
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- o hb by t स ष्ट ने प य से :) क द्धों त्ति एक • में श्व -पन्न पर और प्रथमः स्तबकः ८१ सामग्रीविरोधान्नैवमिति चेत्, एतत्कुतः ? परस्परपरिहारेण सर्वदा- व्यवस्थितेरिति चेत्, नेदमप्यध्यक्षम् । एकदेशसमावेशेन तु सामग्रीसमावेशोऽप्युन्नीयते । यावत्कार्ययोः परस्परपरिहृतिस्वभावत्वादिति चेत्; तहि कम्पशिशपयोः परस्पर- परिहारवत्योनं समावेशः स्यात् । दृश्यते तावदिदमिति चेत्; गोत्वाश्वत्वयोरपि न पू० प० परस्परपरिहारेण… जिस लिये कि दोनों सामग्रियों में से प्रत्येक सामग्री दूसरी सामग्री को छोड़कर ही रहती है, अतः समझते हैं कि दोनों सामग्रियां परस्पर विरोधिनी हैं । सि० प० नेदमपि … … प्रत्यक्ष प्रमाण से यह सिद्ध नहीं है कि कथित दोनों सामग्रियों में से प्रत्येक सामग्री दूसरी सामग्री के बिना ही रहती है ( क्योंकि सामग्री के अन्तर्गत अदृष्टादि अतीन्द्रिय पदार्थ भी हैं । ‘अतीन्द्रिय पदार्थों से युक्त कोई एक समूह अतीन्द्रिय पदार्थ से युक्त किसी दूसरे समूह से अलग रहता है’ यह प्रत्यक्ष के द्वारा नहीं देखा जा सकता ), प्रत्युत गोत्व और अश्वत्व इन दोनों के एक अधिकरण में रहने की संभावना से गो और अश्व इन दोनों के उत्पादक सामग्रियों के एकत्र रहने का तब तक अनुमान किया ही जा सकता है ( जब तक कोई बाघक उपलब्ध न हो ) । पू० प० कार्ययोः परस्पर….. गो एवं अश्व रूप दोनों कार्य जिस लिये ‘परस्पर परिहृतिस्वभाव’ के हैं, अर्थात् एक को छोड़ कर ही दूसरा रहता है, अतः दोनों कार्यों के उत्पादक सामग्रियों में भी ‘विरोध’ की कल्पना करते हैं । सि० प० तर्हि कम्पशिशपयोः 400 ऐसा स्वीकार करने पर कम्प ( क्रिया ) और शिशपा इन दोनों की भी एकत्र स्थिति को अस्वीकार करना होगा, अर्थात् इन दोनों में भी विरोध मानना पड़ेगा, ( क्योंकि शिशपा से भिन्न जलादि में भी कम्प है एवं शिशपा भी कंप से रहित रहती है, अत: ऐसा नहीं माना जा सकता कि जो कथित ‘परस्पर परिहृतिस्वभाव’ के हों वे परस्पर विरुद्ध ही हों ) । पू० प० दृश्यते … परस्पर परिहृति स्वभाववाली शिशपा एवं कम्पक्रिया इन दोनों की एकत्र स्थिति भी देखते हैं ( अतः उन दोनों में परस्पर परिहृतिस्वभाव और एकत्र स्थिति दोनों ही स्वीकार करते हैं । किन्तु गोत्व और अश्वत्व इन दोनों में केवल परस्पर परिहृतिस्वभाव की ही उपलब्धि होती है, एकत्र स्थिति की उपलब्धि नहीं होती है, अतः दोनों में विरोध को ही स्वीकार करना पड़ता है ) । सि० प० गोत्वाश्वत्वयोः … … तथा च इस का ही कौन सा विश्वास है कि गोत्व धौर श्रश्वत्व इन दोनों की भी एकत्र स्थिति नहीं देखी जायगी ? ( गोत्व और अश्वत्व इन दोनों की एकत्र स्थिति की संभावना अगर स्वीकृत ११ CCO. Vasishtha Tripathi Collection. Digitized by eGangotri८२ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली द्रक्ष्यत इति का प्रत्याशा ? तथा च गतमनुपलब्धिलिंगेनापि क्वचिदपि विरोधा- सिद्धेः । ततो विपक्षे बाधकाभावात् स्वभावहेतुरप्यपास्तः ।
नन्वस्ति तत्, तथाहि — वृक्षजनकपत्रकाण्डाद्यन्तभूता शिशपासामग्री । सा वृक्षमतिपत्य भवन्ती स्वकारणमेवातिपतेत् । एवं शाखादिमन्मात्रानुबन्धी वृक्ष- व्यवहारः, तद्विशेषानुबन्धी च शिशपाव्यवहारः । स कथं तमतिपत्यात्मानमासादये- दिति चेत्; एवं तर्हि शिशपासामग्रचन्तर्भूता चलनसामग्री, ततस्तामतिपत्य चलनादि- रूपता भवन्ती स्वकारणमेवातिपतेत्, तथा शाखादिमद्विशेषानुवन्धी शिंशपाव्यवहारः, तद्विशेषानुबन्धी च चलनव्यवहारः । स कथं तमतिपत्यात्मानमासादयेदिति तुल्यम् । हो जाती है, तो फिर ( कथित कार्यलिङ्गक कारणानुमान के समान ही ) अनुपलब्धि लिङ्गक अनुमान की भी श्राशा छोड़ देनी होगी ( क्योंकि उक्त संभावना के कारण ‘विरोध’ की बात ही छोड़ देनी पड़ेगी ) । ततो विपक्षे ( इस प्रकार विरोध की सत्ता के उठ जाने से ) ‘स्वभाव’ लिङ्गक ‘वृक्ष: शिशपाया: ’ इत्यादि अनुमानों से भी हाथ धो लेना होगा, क्योंकि विपक्ष में साध्यसत्ता का विरोध करनेवाला कोई न रह जायगा । पू० प० नन्वस्ति तत् प्रकृत में विपक्ष का बाधक हेतु है । क्योंकि ( १ ) जिन कारणों से शिशपा की उत्पत्ति होती है, उन में वृक्ष के उत्पादक कारण भी संनिविष्ट हैं । अतः वृक्ष के उत्पादक कारणों को छोड़कर भी शिंशपा की उत्पत्ति यदि स्वीकार की जाय तो इसका यही अर्थ होगा कि शिशपा अपने कारणों के विना भी उत्पन्न होती है । (२) एवं सर्ववृक्ष साधारण शाखादि से युक्त होने के कारण ही शिशपा में वृक्ष का व्यवहार होता है, किन्तु विशेष प्रकार की शाखादि से उसी वृक्ष में शिशपा का व्यवहार होता है । अतः वृक्ष-व्यवहार के कारणों के विना वृक्ष में शिशपा का व्यवहार किस प्रकार हो सकता है ? सि० प० एवं तहि STU इस प्रकार तुल्यन्याय से यह भी कहा जा रहनेवाली चलन क्रिया का समवायिकारण शिशपा है, सकता है कि जिस लिये शिशपा में अतः शिशपा के जितने भी कारण / हैं, वे सभी भी चलन क्रिया के कारण समूह में निविष्ट हैं । अतः शिशपा को छोड़कर यदि चलन क्रिया की उत्पत्ति मानें तो यही कहना पड़ेगा कि ‘चलन क्रिया अपने कारणों के विना ही उत्पन्न होती है’ । एवं ( वृक्षसामग्री सहित ) विशेष प्रकार की शाखादि से युक्त सामग्री के द्वारा शिशपा का व्यवहार होता है, एवं शिशपा के व्यवहार की सामग्री एवं चलन व्यवहार की विशेष क्षमता रखनेवाली शाखा की सामग्री से होनेवाला चलन का व्यवहार यदि शिशपा के व्यवहार के विना भी उत्पन्न हो तो यही कहना पड़ेगा कि चलन का व्यवहार अपने कारणों के बिना ही उत्पन्न होता है ।
त ध त को पा क्त से में में रण लन ही के हार पा पुने प्रथमः स्तबक: ८३ नोदनाद्यागन्तुकनिबन्धनं चलनत्वम्, न तु तद्विशेषमात्राधीनमिति चेत्; यदि नोदनादयः स्वभावभूतास्ततस्तद्विशेषा एव, प्रथाऽस्वभावभूतास्ततः सहकारिण एव, ततस्तानासाद्य निर्विशेषैत्र शिशपा चलनस्वभावत्वमारभत इति । तथा च कुतः क्षणिकत्वसिद्धि: ? तहि स्वभावभूता एवागन्तुक सहकार्यनुप्रवेशाद्भवन्तीति चेत् एवं वृक्षसामग्रचामागन्तुकसहकार्यनुप्रवेशादेव शिशपाऽपि जायत इति न कश्चिद्विशेषः । पू० प० नोदनादि चलन क्रिया के लिये उनसे विशेष रूप से आवश्यक होते शिशपा के लिये जितने कारणों की अपेक्षा होती है, अतिरिक्त (सभी चलन क्रियाओं में अपेक्षित) नोदनादिसंयोग भी हैं । अत: ‘केवल शिंशपा’ के लिये ( अर्थात् चलन स्वभाववाली और प्रचलन स्वभाव वाली सभी शिशपाओं के लिये ) जितने भी विशेष कारणों के समूह अपेक्षित हैं, केवल उतने से ही चलनस्वभाव की शिशिपा की उत्पत्ति नहीं हो सकती । सि० प० यदि नोदनादयः … यदि ( चलन क्रिया के कारणीभूत ) नोदनादि शिशपा के ‘स्वभाव’ हैं अर्थात् शिशपा और नोदनादि श्रागन्तुक कारण ये दोनों अभिन्न हैं, तो नोदन में शिशपा की व्याप्ति ही माननी होगी । यदि नोदन को शिशपा का स्वभाव न मानें अर्थात् नोदन और शिथपा इन दोनों को भिन्न मानें तो यही कहना पड़ेगा कि नोदनादि चलन स्वभाव की शिक्षपा के सहकारी कारण हैं । सहकारिकारणों की सत्ता मान लेने पर फिर ‘कुर्वद्र पत्व’ को स्वीकार करने की श्रावश्यकता ही नहीं रह जाती है, क्योंकि इन सहकारि कारणों का साहाय्य पाकर केवल शिशपा ही अपने में चलन ( स्वभाव ) को उत्पन्न कर सकती है ( इसके लिये शिशपा में चलनकुर्वंद्र पत्व रूप ‘विशेष’ को स्वीकार करने की आवश्यकता नहीं रह जाती । इस प्रकार ) वस्तुओं को क्षणिक मानने की कोई आवश्यकता ही नहीं रह जाती । सुतराम् क्षणिकत्व की सिद्धि कैसे होगी ? पृ० प० स्वभावभूता एव नोदनादि शिशपा के स्वभाव ही हैं, किन्तु इस शिशपा की उत्पत्ति नोदनादि सहकारिकारणों के संबलन के वाद होती है। इन सहकारिकारणों से युक्त ( घटित ) शिवपा के कारणसमूह ( सामग्री ) से ही चलनस्वभावबाली ( अचलनस्वभाव वाली शिशपा से भिन्न ) दूसरी ही शिशपा की उत्पत्ति होती है । सि० प० एवं तहि ऐसा स्वीकार करने पर तुल्यन्याय से सभी शिशपात्रों के प्रसङ्ग में भी यह कहा जा सकता है कि सभी वृक्षों के उत्पादक कारणसमूह ( सामग्री ) में शिशपा के उत्पादक रूप सहकारी के मिल जाने से ही शिशपा की उत्पत्ति होती है ।
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- गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जलौ
- एवमेतत्, किन्तु शिशपाजन कास्तरुसामग्री मुपादायैव चलनजनकास्तु न तामेव, किन्तु मूर्तमात्रम् । तथा दर्शनादिति चेत्; मैवम्, कम्पजनका: शिशपाजनक विशेषा अपि सन्तस्तानतिपतन्ति, न तु वृक्षजनक विशेषाः शिशपाजन- कास्तानिति, नियामकाभावात् । शिशपाजनकास्तद्विशेषा एव, कम्पकारिणस्तु न तथा, किन्त्वागन्तवः सहकारिण इति चेत्, एवं तर्हि तानासाद्य सदृशरूपा अपि पू० प० एवमेतत्, किन्तु
- ( चलन स्वभाववाली शिशपा के प्रसङ्ग में ) आप का कहना ठीक हैं ( किन्तु इतना अन्तर है कि ) शिशपा के जो विशेष कारण हैं, वे सभी वृक्षों के उत्पादक कारणों को लेकर ही शिंशपा को उत्पन्न कर सकते हैं । किन्तु चलन क्रिया के जो असाधारण कारण हैं, वे चलन क्रिया के उत्पादन में केवल सभी शिशपात्रों के लिये अपेक्षित सामग्री के साहाय्य की
- (जिनमें शिशपा भी है) उनकी भी
- ही अपेक्षा नहीं रखते, किन्तु जितने भी मूर्त्तद्रव्य हैं अपेक्षा रखते हैं । जिससे शिशपा के समान ही अन्यमूर्त द्रव्यों में भी चलन क्रिया की उत्पत्ति होती है ( श्रतः ऐसी कल्पना करते हैं ) ।
- सि० प० मैवम्, कम्पजनकाः
- ऐसा कहना भी उचित नहीं है, क्योंकि कम्प ( चलन ) शिशपा में भी रहता हैं, एवं सभी पलाशादि अन्य मूर्त्तद्रव्यों में भी । एवं शिशपा में भी कभी कम्प रहता है कभी नहीं । अथ च कम्प और उसके आश्रय ( बौद्धों के मत से ) अभिन्न हैं । ऐसी स्थिति में जिस प्रकार ‘वृक्ष विशेष’ ही ‘शिशपा’ है, उसी प्रकार ‘शिशपा विशेष’ ही ‘कम्प’ है । अतः तुल्यन्याय से यह कहा जा सकता है कि जिस प्रकार ‘कम्प’ शिशपा का एक विशेष स्वरूप होने पर भी शिशपा से भिन्न पलाशादि मूर्त द्रव्यों में रहता है, उसी प्रकार वृक्ष से भिन्न द्रव्य भी शिशपा हो सकती है । इसका कोई भी नियामक नहीं है कि शिशपात्व की अवान्तर जाति कम्पत्व का तो शिशपात्वातिपात हो ( अर्थात् वह शिशपात्व को छोड़कर भी रहे ) किन्तु वृक्षत्व की अवान्तर जाति शिशपात्व का वृक्षत्वातिपात न हो (अर्थात् वृक्ष न होने पर शिशपा न हो) । अतः जिस युक्ति से बौद्धगण ‘वृक्ष: शिशपाया:’ इस स्वभावलिङ्गक अनुमान की उपपत्ति करेंगे, उसी प्रकार पलाशादि वृक्षों में ‘अयं शिशपा कम्पकारित्वात्’ इस अनुमान को भी आपत्ति होगी ।
- पू० प० शिशपाजनकास्तद्विशेषा एंव
- जिस प्रकार विशेष प्रकार की वृक्षसामग्री शिशपा की उत्पादिका सामग्री है, विशेष प्रकार की शिशपा की उत्पादिका सामग्री ही उसी प्रकार कम्प की उत्पादिका नहीं है, किन्तु नोदनादि संयोगों से युक्त सामग्री ही कम्प की उत्पादिका है (यह नोदनादि से युक्त सामग्री शिशपा की उत्पादिका नहीं है, क्योंकि जैसे कि शिशपात्व वृक्षत्व की अवान्तर जाति है, उसी प्रकार कम्पत्व या कम्पकारित्व शिशपात्व की अवान्तर जाति नहीं है ) ।
- सि० प० एवं तर्हि तानासाद्य
- इससे तो यही निष्पन्न होता है कि शिशपा का सामान्य कारण ही नोदनादि विशेष कारणों का साहाय्य पाकर कम्प स्वभाववाली शिथपा (विशेष) का भी उत्पादन करते हैं ।
प | HT र वे की नी ति हैं, नी में प’ पा में ई त त्व ण क्षों ष है, ग्री है, प्रथमः स्तबक: ८५ केचित्कम्पकारिणोऽनासादितसहकारिणस्तु न तथा । तथा च तद्वा तादृग्वेति न कश्चिद्विशेषः स्यात् । तस्माद्विरुद्धयोरसमावेश एव । समाविष्टयोश्च परापरभाव एव । अनेवम्भूतानां द्रव्यगुरणकर्मादिभावेनोपाधित्वमात्रम् । तेषान्तु विरुद्धानां न समावेशो व्यक्तिभेदात् । जातीनाञ्च भिन्नाश्रयत्वात् । तथा च कुतः क्षणिकत्वम् ? । वैजात्याभ्युपगमे च कुतोऽनुमान वार्ता ? | मा भूदनुमानमिति चेन्न; तेन हि विना न तत्सिद्धय ेत् । एवं शिशपा के ही उक्त सामान्य कारणों को जब कथित नोदनाद सहकारियों का सान्निध्य प्राप्त नहीं होता है तो वे ही कारण ( कम्पस्वभाववाली शिशिपा को उत्पन्न न कर) अकम्प- स्वभाववाली शिशिपा को ही उत्पन्न करते हैं । इस प्रकार कम्पस्वभाव की शिशपा के उत्पादक कारणों के समूह ( सामग्री ) अकम्प स्वभाववाली शिशपा को उत्पन्न करनेवाले कारणों के समूह ( सामग्री ) से यद्यपि भिन्न है, तथापि दोनों सामग्रियों में अत्यन्त सादृश्य के कारण उन दोनों सामग्रियों के भेद जान नहीं पड़ते। क्योंकि ‘तत्’ में और ‘तत्सदृश’ में कार्यतः अधिक अन्तर प्रतीत नहीं होता । तस्माद्विरुद्धयोरसमावेश एव तस्मात् ( पहिले जो यह कह आये हैं कि अन्यूनानतिप्रसक्त ) दो विरुद्ध जातियाँ किसी एक श्राश्रय में नहीं रह सकतीं । एवं जिन दो जातियों का एकत्र समावेश है भी उन में से एक दूसरे से ‘पर’ ( अधिकदेश वृत्ति ) अथवा ‘अपर’ ( न्यूनदेश वृत्ति ) अवश्य होंगी । वह सर्वथा उचित है ) । · जो ‘अनेवम्भूत’ हैं ( अर्थात् जिन दो धर्मों में परस्पर विरोध के रहने पर भी एकत्र स्थिति देखी जाती है, एवं उनमें परापरभाव नहीं देखा जाता ) उनमें से एक ‘धर्म’ कदाचित् जाति स्वरूप हो भी, तथापि दूसरा तो अवश्य ही जाति स्वरूप न होकर ‘उपाधि’ स्वरूप ही होगा । वह ‘उपाधि’ द्रव्यस्वरूप हो अथवा गुणस्वरूप अथवा कर्मस्वरूप हो । जिन परस्पर विरुद्ध दो धर्मों में से प्रत्येक जातिस्वरूप होगा, वे दोनों कभी भी एक आश्रय में नहीं रह सकते, क्योंकि उनके लिये नियमित आश्रय अत्यन्त भिन्न हैं । अतः परस्पर विरुद्ध जातियाँ भिन्न-भिन्न आश्रयों में ही रहती हैं । इस प्रकार ‘वैजात्य’ अथवा कुर्वद्रूपत्व स्वरूप विशेष प्रकार की जाति को माने विना क्षणिकत्व की सिद्धि नहीं हो सकती । एवं ‘वैजात्य’ को स्वीकार कर लेने पर अनुमान की चर्चा ही वृथा हो जाती है । पू० प० मा भूत् … उठ जाय अनुमान की चर्चा ? सि० प० न, तेन हि … .. ऐसा भी नहीं कह सकते, क्योंकि अनुमान प्रमाण के विना क्षणिकत्व की सिद्धि ही नहीं हो सकती ।
IS مورد गद्यपद्यात्मक-न्याय कुसुमाञ्जलौ न हि क्षणिकत्वे प्रत्यक्षमस्ति । तथा निश्चयाभावात् । गृहीतनिश्चत एवार्थे तस्य प्रामाण्यात्, अन्यथाऽतिप्रसङ्गात् । ननु वर्तमानः क्षणोऽध्यक्षगोचरः । न चासौ पूर्वापरवर्तमानक्षरणात्मा । ततो वर्तमानत्वनिश्चय एव भेदनिश्चय इति चेत्; किमन्न तदभिमतमायुष्मतः ? यदि धर्म्येव नीलादिर्न किञ्चिदनुपपन्नम् तस्य स्थैर्यास्थैर्यसाधारण्यात् । अथ न हि क्षणिकत्वे ……. गृहीत एवार्थे ऐसा कहना भी संभव नहीं है कि प्रत्यक्ष प्रमाण से ही क्षणिकत्व की सिद्धि करेंगे ? क्योंकि ‘क्षणिकमिदम्’ इस श्राकार का प्रत्यक्षात्मक ‘निश्चय’ उत्पन्न नहीं होता । निर्विकल्पक प्रत्यक्ष अतीन्द्रिय है । अतः वह इन्द्रिय गोचर नहीं हो सकता । सविकल्पक प्रत्यक्ष रूप ज्ञान का ही प्रत्यक्ष होता है । जिस विषय का सविकल्पक ज्ञान उत्पन्न होगा, उससे उसी विषय के निर्विकल्पक ज्ञान का अनुमान होगा । यदि ’ क्षणिकमिदम्’ इस आकार का सविकल्पक प्रत्यक्ष ही नहीं है तो फिर क्षणिकत्व विषयक निर्विकल्पक ज्ञान रूप प्रत्यक्ष प्रमाण का अनुमान किससे होगा ? अत: ‘क्षणिकमिदम्’ इस आकार के निर्विकल्पक प्रत्यक्ष को संभावना न रहने के कारण प्रत्यक्ष प्रमाण से क्षणिकत्व की सिद्धि नहीं की जा सकती । ‘अन्यथा’ ( यदि ऐसे विषयों का भी निर्विकल्पक प्रत्यक्ष मानें जिनका कि सविकल्पक हो ही नहीं सकता तो ) ‘प्रतिप्रसङ्ग’ होगा ( अर्थात् आकाश परमाणु प्रभृति वस्तुनों के प्रत्यक्ष की आपत्ति होगी ) । पू० प० ननु वर्त्तमानः क्षरणः 444 … 000 जिस लिये कि प्रतीत एवं अनागत वस्तुओं का प्रत्यक्ष नहीं होता है, अतः मानना होगा कि ( वर्त्तमान क्षण में विद्यमान वस्तुओं) का ही प्रत्यक्ष होता है । सुतराम् वर्त्तमान- क्षणात्मक घट अतीतकालिक और भविष्यत्कालिक दोनों ही घटों से भिन्न है । भ्रतः वर्त्तमानत्व विषयक उक्त प्रत्यक्ष रूप निश्चय वस्तुतः पूर्वापरकाल वृत्ति घटों में परस्पर भेद का निश्चय स्वरुप ही है । एक ही वस्तु में काल भेद से परस्पर भेद का निश्चय ही ‘क्षणिकत्व’ का नियामक है । इस दृष्टि के अनुसार प्रत्यक्ष प्रमाण से ही क्षणिकत्व का निश्चय होगा । अनुमान से क्षणिकत्व का निश्चय भले ही संभव न हो । सि० प० किमत्र तत् ‘वर्त्तमानत्व’ शब्द का कौन सा अर्थ श्राप को अभिप्रेत है ? यदि ( ‘अयं नीलः; अयं घट:’ इत्यादि प्रत्यक्ष प्रतीतियों में भासमान ) नीलादि स्वरूप ही वह ‘वर्त्तमानत्व’ है, तो कोई अनुपपत्ति ही नहीं है, क्योंकि इस पक्ष में नीलादि धर्मों को स्थिर मानें अथवा क्षणिक मानें दोनों ही स्थितियों में कोई अनुपपत्ति नहीं है । यदि ‘वर्त्तमानत्व’ को नीलादि का धर्म मानते हैं, तथापि कोई अनुपपत्ति नहीं है, क्योंकि नीलादि धर्मियों में रहनेवाले प्रतीत्व और मनागतत्व से उसी धर्मी में रहनेवाला वर्त्तमानत्व भिन्न है, उनके नीलादि धर्मियों को भी परस्पर भिन्न मानने का कोई कारण नहीं है । एक ही धर्मी के धर्म विभिन्न हो सकते हैं ) । अतः कथित वर्त्तमानत्व एवं प्रवर्त्तमानत्व धर्मों से उनके नीलादि धर्मी भिन्न हैं ।
प्रथमः स्तबक: ८७ धर्मः, तद्भ ेदनिश्चयेऽपि धर्मिणः किमायातम् ? तस्य ततोऽन्यत्वात् । वर्तमाना- वर्तमानत्वमेकस्य विरुद्धमिति चेत्; यदि सदसत्त्वं तत्; तन्न, अनभ्युपगमात् । ताद्रूप्येणैव प्रत्यभिज्ञानात् । सदसत्सम्बन्धश्चेत्; किमसङ्गतम् ? । ज्ञानवत्तदुपपत्तेः । क्रमेणानेकसम्बन्ध एकस्यानुपपन्न इति चेन्न; उपसर्पण प्रत्ययक्रमेणैव तस्याप्यु- पपत्तेः । प्रत्यभिज्ञानमप्रमाणमिति चेत्; अस्ति तावदतो निरूपरणीयम्, क्षरण प्रत्ययस्तु भ्रान्तोऽपि नास्तीति विशेषः || १६ || पू० प० वर्त्तमाना 104 वर्त्तमानत्व एवं अवर्त्तमानत्व ये दोनों परस्पर विरुद्ध हैं, अतः किसी एक धर्मी में इन दोनों की सत्ता नहीं स्वीकार की जा सकती । । सि० प० यदि सदसत्त्वम् 100 … यदि वर्तमानत्व को सत्त्व स्वरूप एवं अवर्त्तमानत्व ( अर्थात् श्रतोतत्व और अनागतत्व इन दोनों ) को असत्व रूप मानें तभी उक्त विरोध उत्पन्न हो सकता है, किन्तु ऐसा हम लोग नहीं मानते। क्योंकि नीलादि को सभी प्रतीतियाँ बरावर (अनागतत्वादि के समय भी ) ‘सत्’ रूप से ही होती है । यदि ‘वर्तमानत्व’ शब्द का अर्थ ‘सत्’ सम्बन्ध, एवं ‘अवर्त्तमानत्व’ शब्द का प्रर्थ ‘असत् सम्वन्ध’ करें तो उन धर्मों में कोई भी विरोध नहीं रह जाता है, क्योंकि ‘योऽहं घटमद्राक्षं सोऽहमिदानीं स्पृशामि’ ( जिस घट को मैंने देखा था उसी घट को मैं छू रहा हूँ ) इत्यादि ‘ज्ञान’ रूप प्रत्यभिज्ञानों में एक ही घट में वर्त्तमानत्व एवं श्रवर्त्तमानत्व दोनों ही भासित होते हैं । पू० प० क्रमेण *** geo ( एक ही समय एक ही वस्तु में अनेक विरुद्ध धर्मों का समावेश कदाचित् हो भी किन्तु ) एक ही वस्तु में ‘क्रमश:’ अनेक धर्मों का सम्बन्ध संभव नहीं है । ( अत: एक ही नील में वर्त्तमानत्व और अवर्त्तमानत्व दोनों का सम्बन्ध संभव नहीं है ) । सि० प० न, उपसर्पण उपसर्पण ( संन्निघान ) के प्रत्यय ( कारण ) जिस लिये कि क्रमशः एकत्र होते हैं, अत: एक धर्मी में क्रमश: अनेक धर्मो के समावेश में भी कोई बाधा नहीं है। पू० प० प्रत्यभिज्ञानम् ( ’ योऽहं घटमद्राक्षं सोऽहमिदानीं स्पृशामि’ इत्यादि प्रत्यभिज्ञानों के बल से ही तो घटादि को स्थिर माना जाता है, किन्तु ) यह प्रात्यभिज्ञा ही तो यथार्थ ( प्रमा) ज्ञान रूप नहीं है । ( अतः इसके द्वारा ज्ञात स्थैर्य से क्षणिकत्व बाधित नहीं हो सकता ) । सि० प० अस्ति तावत् नीलादि वस्तुओं में स्थैर्य की प्रतीति होती है (यह बौद्ध गण भी मानते हैं । यह प्रतीति उनके मत से श्रप्रमा भले ही हो ) क्योंकि प्रतीति में भ्रप्रमात्व ( अथवा प्रमात्व की सिद्धि के लिये प्रतीति की सत्ता को स्वीकार करना आवश्यक है ) । किन्तु क्षणिकत्व विषयिणी तो कोई भ्रमात्मक प्रतीति भी नहीं है । यही स्थैर्यवादियों और क्षणिकत्ववादियों में अन्तर है ॥१६॥
८८ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली स्यादेतत् । मा भूदध्यक्षमनुमानं वा क्षणिकत्वे, तथापि सन्देहोऽस्तु । एतावताऽपि सिद्धं समीहितं चार्वाकस्येति चेत्; उच्यते - 475 स्थैर्यदृष्टयोर्न सन्देहो न प्रामाण्ये विरोधतः । एकतानिश्चयो येन क्षणे तेन स्थिरे मतः ॥१७॥ न हि स्थिरे तद्दर्शने वा स्वरसवाही सन्देहः, प्रत्यभिज्ञानस्य दुरपह्नवत्वात् । पृ० प० स्यादेतत् मा भूत प्रत्यक्ष अथवा अनुमान इन दोनों प्रमाणों से ‘क्षणिकत्व’ की सिद्धि भले ही संभव न हो, तथापि ( क्षणिकत्व के अभाव का भी कोई साधक प्रमाण न रहने से ) क्षणिकत्व का संशय तो हो ही सकता है । इससे भी मेरा ( चर्वाक का ) अभिप्रेत सिद्ध हो जायगा । सि० प० …… इसके उत्तर में हम ( सिद्धान्तियों ) लोगों का कहना है कि :- ( जिस ‘सन्देह’ से आप स्थैर्यवादियों को निरस्त करना चाहते हैं, वह क्या ) ( १ ) स्थैर्यविषयक है, अथवा (२) दृष्टि ( अर्थात स्थैर्य के साधक प्रत्यभिज्ञा रूप ज्ञान ) विषयक है ? ( ३ ) किं वा सभी प्रामाण्यों के विषय में है ? इनमें पहिला सन्देह इस लिये अनुपपन्न है कि वह ‘स एवायं घट:’ इत्यादि प्रत्यभिज्ञाओं से ही बाधित है । प्रत्यभिज्ञा रूप ‘दृष्टि’ विषयक दूसरा संशय ‘प्रत्यभिजानामि’ इस प्रत्यभिज्ञा के द्वारा ही बाधित है, क्योंकि ‘प्रत्यजिज्ञानामि’ इस प्रत्यभिज्ञा से ‘प्रत्यभिज्ञा’ की सत्ता निश्चित है । एवं सभी प्रामाण्य विषयक तीसरा संशय इसलिये नहीं हो सकता कि वह सभी सन्देहों का विनाशक है. क्योंकि ‘सन्देह्मि’ इस आकार का अनुव्यवसाय ही ‘सन्देह’ की सत्ता का ज्ञापक है । अगर सभी ज्ञानों का प्रामाण्य सन्दिग्ध हो तो ‘सन्देह्नि’ इस अनुव्यवसाय रूप ज्ञान का प्रामाण्य भी सन्दिग्ध होगा । जिस ज्ञान का प्रामाण्य सन्दिग्ध हो उससे किसी वस्तुकी सिद्धि संभव नहीं है । तदनुसार सन्दिग्धप्रामाण्य वाले ‘सन्देह्नि’ इस आकार के अनुव्यवसाय से किसी सन्देह की सत्ता ही नहीं मानी जा सकेगी । ( जिससे सन्देह की ही सत्ता उठ जायगी ) । अतः सभी ज्ञानों के प्रामाण्यों में सन्देह नहीं किया जा सकता। इसी प्रकार ‘योऽहं घटमद्राक्षं सोऽहमिदानीं स्पृशामि’ इस प्रत्यभिज्ञा में भी प्रामण्य का सन्देह नहीं हो सकता, क्योंकि जिस प्रमाण के द्वारा ( बौद्धों के मत में ) केवल एक ही क्षण में रहनेवाले घट में ‘एकत्व’ का निश्चय होगा, उसी प्रमाण के द्वारा नाना क्षणों में रहनेवाले घट में भी ‘एकत्व’ का निर्णय होगा । ( इससे उक्त प्रत्यभिज्ञा का प्रामाण्य निश्चित है, अतः उसमें भी प्रामाण्य का संशय नहीं हो सकता ) । सि० प० न हि स्थिरे …… ‘नीलादि पदार्थ अनेक क्षणों तक स्थिर रहते हैं ? अथवा नहीं ? इस प्रकार का स्थैर्य - विषयक संशय नहीं हो सकता, क्योंकि ‘सोऽयं नील:’ इत्यादि प्रत्यभिज्ञानों के द्वारा स्थैर्य का निश्वय निरबाध है । एवं ‘तद्दशन’ में अर्थात् ‘सोऽयं नील’ इत्यादि प्रत्याभिज्ञा रूप
प्रथमः स्तबक: नापि तत्प्रामाण्ये । स हि न तावत्सार्वत्रिको, व्याघातात्, तथाहि - प्रामाण्यासिद्धो सन्देहोऽपि न सिद्धय ेत्, तत्सिद्धी वा तदपि सिद्धय ेत् । निश्चयस्य तदधीनत्वात् । कोटिद्वयस्य चादृष्टस्यानुपस्थाने कः सन्देहार्थः ? । तद्दर्शने च कथं सर्वथा तदसिद्धि: ? । एतेनाऽप्रामाणिकस्तदव्यवहार इति निरस्तम् । सर्वथा । प्रामाण्यासिद्धी तस्याप्पसिद्धेः । प्रकृते प्रामाण्यसन्देहो लूनपुनर्जातकेशादौ व्यभिचारदर्शनादिति । ‘दर्शन’ में भी संशय नहीं हो सकता, क्योंकि ‘सोऽयं नील इति प्रत्यभिजानामि’ इस अनुव्यवसाय का भी अपलाप नहीं किया जा सकता । नापि तत्प्रामाण्ये’ एवं कथित अनुव्यवसाय में भी श्रप्रामाण्य का संशय नहीं किया जा सकता, ( क्योंकि यह सन्देह सभी ज्ञानों के प्रामाण्य को सन्दिग्ध मानकर भी हो सकता है ? अथवा केवल उक्त अनुव्यवसाय रूप ज्ञानों के प्रामाण्य को ही सन्दिग्ध मानकर भी किया जा सकता है ?) । यदि सभी ज्ञानों में प्रामाण्य को सन्दिग्ध माना जाय तो किसी भी ‘सन्देह’ की सिद्धि न हो सकेगी, ( क्योंकि उक्त नियम के अनुसार सन्देह के साधक ‘सन्देह्नि’ इस अनुव्यवसाय रूप ज्ञान के प्रामाण्य को भी सन्दिग्ध मानना होगा ) । यदि ‘सन्देह’ की सत्ता को स्वीकार करना है तो ‘सन्दे’ इस आकार के ज्ञान के प्रामाण्य को भी स्वीकार करना ही होगा, क्योंकि ‘निश्चय’ अर्थात सन्देह विषयक ‘सन्देह्नि’ इस प्रकार का प्रत्यभिज्ञा रूप निश्चय से सन्देह की सिद्धि भी ‘तदधीन’ अर्थात् प्रामाण्य के अधीन है । एवं ‘अदृष्ट’ अर्थात् अनिश्चित दोनों कोटियों की निश्चय रूप ‘उपस्थिति’ के विना ‘सन्देह’ शब्द का अर्थ ही क्या होगा ? यदि संशय के लिये दोनों कोटियों की उपस्थिति आवश्यक है, इसलिये यदि संशय के दोनों कोटियों के निश्चयात्मक ज्ञानों का मानना आवश्यक है, तो प्रामाण्य निश्चय का सर्वथा निराकरण नहीं किया जा सकता ( श्रन्तत: कथित उपस्थिति रूप ज्ञानों में तो प्रामाण्य मानना ही होगा, क्योंकि श्रप्रामाणिक उपस्थिति से संशय उत्पन्न नहीं हो सकता । अतः यह कहना संभव नहीं है कि किसी भी ज्ञान में प्रामाण्य निश्चित नहीं है ) । एतेन ……. इसी समाधान के द्वारा पूर्वपक्षवादियों का यह कथन भी खंडित हो जाता है कि " जितने भी ये व्यवहार हैं, सभी ‘अप्रमाणमूलक’ ही हैं" क्योंकि यदि सभी व्यवहारों को अप्रामाणिक मानेंगे तो पूर्वपक्षवादी के द्वारा उत्थापित ‘अप्रामाणिकस्तद्व्यवहारः’ यह व्यवहार भी अप्रामाणिक हो जायगा । पू० प० प्रकृते अन्यत्र चाहे जो कुछ भी हो, किन्तु वस्तुनों के स्थैर्य के प्रसङ्ग में प्रामाण्य सन्देह का हेतु अवश्य ही विद्यमान है, क्योंकि मुण्डन के बाद जो मस्तक पर केश उग आते हैं, उन केशों में ‘ये वे हो केश हैं’ इस आकार की प्रत्यभिज्ञा को सभी अप्रमाण मानते हैं । १२
L गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली चेन्न; एकत्वनिश्चयस्य स्वपापीष्टत्वात् । अनिष्टो वा न किञ्चित्सिद्धयेत् । सिद्धयतु यत्र विरुद्धधर्मविरह इति चेत्; तेनेव स्थिरत्वमपि निश्चीयते । स इह सन्दिह्यते इति चेत्; तुल्यमेतत् । कचिन्निश्चयोऽपि कथञ्चिदिति चेत्; समः समाधिः ॥ १७॥ सि० प० न, एकत्वनिश्चयस्य ऐसा कहना भी संभव नहीं है, क्योंकि एक क्षणमात्र में रहनेवाले घट में तो ‘एकत्व’ का निश्चय तुम्हें भी अभीष्ट है । ऐसा न मानो तो किसी भी वस्तु की सिद्धि संभव न होगी । पू० प० सिद्ध्ययतु यत्र जहाँ जिस धर्म के विरुद्ध किसी धर्म की सिद्धि संभव न हो वहाँ उस धर्म की सत्ता को स्वीकार करते हैं ( अत: नीलादि वस्तुओं में क्षणिकत्व के विरुद्ध स्थैर्य धर्म की सत्ता संभावित नहीं है, अतः उनमें क्षणिकत्व को स्वीकार करना ही होगा ) | सि० प० तेनैव … इसी रीति से नीलादि वस्तुओं में स्थैर्य की भी सिद्धि होगी ( क्योंकि नीलादि में स्थैर्य के विरुद्ध क्षणिकत्व की उपलब्धि नहीं होती है ) । पू० प० स इह ( नीलादि वस्तुओं में स्थैर्य के ) विरुद्ध क्षणिकत्व का ( निश्चय संभव न भी हो ) किन्तु सन्देह तो हो ही सकता है ( इस सन्देह से भी स्थैर्य पक्ष का विघटन होगा ) । सि० प० तुल्यम्"" समानरूप से ही नीलादि के प्रसङ्ग में यह भी कहा जा सकता है कि नीलादि में क्षणिकत्व के विरुद्ध स्थैर्य का निश्चय भले ही संभव न हो, किन्तु इस स्थैर्य का संशय तो हो ही सकता है । इस सन्देह से भी नीलादि पदार्थों का क्षणिकत्व अवश्य ही विघटित हो जायगा 1 पू० प० कचिन्निश्चयोऽपि ……… ‘एकत्व’ का निश्चय नहीं यदि एकक्षणमात्र में रहनेवाले घटादि भाव पदार्थों में मानेंगे तो किसी भी पदार्थ का निश्चय न हो सकेगा । फलतः लोकव्यवहार ही रुक जायगा । अतः ‘क्वचित्’ अर्थात् घटादि पदार्थों में एकत्व का निश्चय भी स्वीकार करते हैं । सि० प० समः ….. ( यह समाधान तो घटादि पदार्थो को स्थैर्य मानने के प्रसङ्ग में भी सनान रूपसे दिया जा सकता है कि यदि घटादि पदार्थों में स्थैर्य का निर्णय नहीं होगा तो घटादि पदार्थों को ( अतीन्द्रिय क्षणमात्र वृत्ति ) क्षणिक होने के कारण अतीन्द्रिय मानना होगा, जिससे प्रवृत्ति एवं निवृत्ति रूप लोकयात्रा ही विघटित हो जायगी । श्रतः जिस लोकयात्रा की अनुपपत्ति से आप क्षणिक पदार्थों में ‘एकत्व’ का निर्णय करेंगे उसी से उनका स्थैर्य भी निर्णीत हो सकता है ॥ १७ ॥
प्रथमः स्तबक: नन्वेतत्कारणत्वं यदि स्वभावो भावस्य नीलादिवत्तदा सर्वसाधारणं स्यात् । न हि नीलं किञ्चित्प्रत्यनीलम् । अथोपाधिकं, तदा उपावेरपि स्वाभाविकत्वे तथात्वप्रसङ्गः । ग्रौपाधिकत्वे त्वनवस्था । अथाऽसाधारणत्वमप्यस्य स्वभाव एव, तत उत्पत्तेरारभ्य कुर्यात्, उच्यते– स्थिरस्यैकस्वभावत्वादिति चेत्; हेतुशक्तिमनादृत्य नीलाद्यपि न वस्तु सत् । तद्युक्त ं तत्र तच्छक्तमिति साधारणं न किम् ॥१८॥ सर्वसाधारणनीलादिवैधम्येण काल्पनिकत्वं कार्यकारणभावस्य व्युत्पादयता नीला दिपारमार्थिकमेवाभ्युपगन्तव्यम् । अन्यथा तद्वैधर्म्येण हेतुफलभावस्यापार- मार्थिकत्वानुपपत्तेः । न च कार्यकारणभावस्यापारमार्थिकत्वे नीलादि पारमार्थिक पू० प० नन्वेतत्… … ( इस प्रकार परलोक के अदृष्ट रूप साधन की सिद्धि हो जाने पर भी - यह आक्षेप रह जाता है कि ‘कारणत्व’ की सिद्धि संभव होने पर ही परलोक का अदृष्ट रूप कारण की भो सिद्धि सम्भव है, किन्तु यह ‘कारणत्व’ सामान्य ही सिद्ध नहीं है, क्योंकि कारणत्व को यदि दण्डादि वस्तुओं का ‘स्वभाव’ मानें तो दण्ड जिस प्रकार घट रूप कार्य विशेष का सभी कार्यों का कारण मानना होगा, क्योंकि घटादि के नोलादि स्वभाव रूप धर्म सभी पुरुषों के लिये नीलादि ही रहते हैं । ऐसा नहीं होता कि देवदत्त के लिये घट नील स्वभाव का है और यज्ञदत्त के लिये वही घट पीत स्वभाव का । कारण है, उसी प्रकार उसे यदि कारणत्व को ( दण्ड का ) श्रोपाधिक धर्म मानें तो दूसरी उपाधि से युक्त है ? ( उपाधि के प्रसङ्ग में भी अथवा स्वयं स्वाभाविक यह प्रश्न उदित होगा कि ) वह स्वयं ही है ? यदि उपाधि को स्वाभाविक मानें तो कथित ‘साधारण्य’ को आपत्ति होगी । यदि उपाधि की भी कोई दूसरी उपाधि मानें तो अनवस्था होगी। यदि ‘असाधारण्य’ भी कारणों का स्वभाव मानें तो उसे स्वयं उत्पन्न होते ही कार्य का उत्पादन कर देना चाहिये, क्योंकि स्थिर वस्तुओं का एक प्रकार का स्वभाव नियत है । सि० प० उच्यते, हेतुशक्तिमनादृत्य .. इन आक्षेपों के उत्तर में हम ( सिद्धान्तोगण ) कहते हैं कि ‘हेतुशक्ति’ अर्थात् कारणत्व को स्वीकार न करने पर ( पूर्वपक्षियों के दृष्टान्तभूत ) नीलादि पदार्थों की भी सिद्धि नहीं हो सकेगी । ‘तत्’ अर्थात् सहकारिकारणों से युक्त मुख्य कारण ही ‘तत्र’ अर्थात् कार्यं के उत्पादन में समर्थ है ( सहायकों से विहीन मुख्य कारण अपने कार्य के उत्पादन में समर्थं नहीं है ) । इस प्रकार का ‘साधारण्य’ क्य। कारण में नहीं है ? ( अवश्य है ) । सि० प० सर्वसाधारण.. 414 104 सभी पुरुषों के द्वारा एक ही प्रकार से दीखनेवाले नीलादि पदार्थ को वैधम्यंदृष्टान्त बना कर जो संप्रदाय कार्यकारणभाव को ही काल्पनिक प्रतिपन्न करना चाहते हैं, उन लोगों को भी नीलादि पदार्थों की वास्तविक सत्ता माननी ही होगी । ऐसा न मानने पर यह
CCO. Vasishtha Tripathi Collection. Digitized by eGangotri६२ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली भवितुमर्हति नित्यत्वप्रसङ्गात् । तस्मादस्य पारमार्थिकत्वेऽपरमपि तथा, न वोभयम- पीति कथमेकमनेकं परस्परविरुद्धं कार्यं कुर्यात् ? । तत्स्वभावत्वादिति यदि, तदोत्पत्तेरारभ्य कुर्यादविशेषादित्यपि न युक्त तत्तत्सहकारिसाचिव्ये तत्तत्कार्यं करोतीति स्वभावव्यवस्थापनात् । इदञ्च साधारणमेव, सर्वैरपि तथोपलम्भात् । न हि नीलादेरप्यन्यत्साधारण्यमिति ॥ १८ ॥ कहना सम्भव नहीं है कि “जिस लिये वास्तविक वस्तुओं में रहनेवाला ‘साधारण्य’ कार्य- कारणभाव में नहीं है, अतः कार्यकारणभाव वास्तविक नहीं है” । क्योंकि कार्यकारणभाव काल्पनिक हों, किन्तु उसी से अपनी सत्ता को प्राप्त करनेवाले नीलादि पदार्थ वास्तविक हों ये दोनों बातें एक साथ स्वीकरणीय नहीं हैं । क्योंकि जिन वास्तविक वस्तुओं को कारण की अपेक्षा नहीं होती है, वे नित्य ही होती हैं ( जैसे कि आकाशादि ) अत: नीलादि पदार्थों को भी वास्तविक होने के साथ-साथ यदि कारणों से अनपेक्ष मानें तो उन्हें भी नित्य मानना होगा । ‘तस्मात्’ नोलादि पदार्थों की यदि पारमार्थिक सत्ता माननी है तो कार्यकारणभाव को भी पारमार्थिक ही मानना होगा । नहीं तो दोनों में से कोई भी पारमार्थिक न हो सकेगा । कथमेकमनेकम्’’’ दण्डादि एक ही कारण परस्पर विरुद्ध स्वभावों से युक्त ( घट गवादि) अनेक कार्यों का उत्पादन कैसे कर सकता है ? पू० प० तत्स्वभावत्वात्" यदि ऐसा कहें कि ‘एक ही कारण जिस लिये कि परस्पर विरुद्ध स्वभाव वाले कार्यो के उत्पादन के सामर्थ्य रूप स्वभाव से युक्त है, अत: ‘एक’ कारण से भी कथित अनेक प्रकार के कार्यों का उत्पादन हो सकता है" । क्योंकि उक्त एक ही कारण का परस्पर विरुद्ध अनेक कार्यों का उत्पादन स्वभाव ही है । तदोत्पत्तेरारभ्य… किन्तु ऐसा स्वीकार करने पर दण्डादि कारणों के उत्पन्न होते ही उन से घटादि कार्यों की उत्पत्ति माननी होगी, किन्तु सो उचित नहीं हैं । सि० प० तत्तत्सहकारिसाचिव्ये… … ( अतः इस प्रसङ्ग में हम सिद्धान्तीगण ) कारणों का ऐसा स्वभाव स्वीकार करते हैं कि (मुख्य) कारण अपने सहकारिकारणों का सहयोग पाने पर अवश्य ही अपने अपने कार्यों को उत्पन्न करते हैं । ( इदञ्च ) इस प्रकार का ‘कारणत्व’ तो ( नीलादि पदार्थों के ही समान ) ‘साधारण’ हैं ही, क्योंकि कारणों के इस प्रकार के ‘साधारण्य’ की उपलब्धि सभी को होती है। नीलादि पदार्थों के जिस साधारण्य की चर्चा की गयी है, वह भी कारण समुदाय के रहने पर सभी जनों के द्वारा नीलत्वादि रूपों से उनका गृहीत होना छोड़कर मौर कुछ भी नहीं है ।। १८ ॥
1 प्रथमः स्तबक ६३ स्यादेतत् । अस्तु स्थिरं तथापि नित्यविभोर्न कारणत्वमुपपद्यते । तथा ह्यन्वयव्यतिरेकाभ्यां कारणत्वमवधार्यंते; नान्वयमात्रेण अतिप्रसङ्गात् । न च । नित्यविभूनां व्यतिरेकसम्भवः । न च सोपाधेरसावस्त्येवेति साम्प्रतम्; तथाभूत- स्योपाधिसंबन्धेऽप्यनधिकारात् । जनितो हि तेन स तस्य स्यात् ? नित्यो वा ? | न प्रथमः पूर्ववत् । नापि द्वितीयः पूर्ववदेव । पू० प० स्यादेतत् यदि घटादि भाव अस्तु’". … .. पदार्थों को ( क्षणिक न मान कर यदि ) स्थिर ही मान लेते हैं, तथापि ‘आत्मा’ को किसी भी कार्य का ‘कारण’ मानना सम्भव नहीं है, क्योंकि वह नित्य एवं विभु है | चूँकि अन्वय और व्यतिरेक ये दोनों मिलकर ही ‘कारणत्व’ के ज्ञापक हैं, केवल अन्वय नहीं । नित्य एवं विभु आत्मा में सभी कार्यों का अन्वय रहने पर भी किसी भी कार्य का ‘व्यतिरेक’ सम्भव नहीं है । यदि केवल ‘अन्वय’ को ‘कारणत्व’ का ज्ञापक मानें तो ( गगनादि नित्य एवं विभु पदार्थों में भी घटादि कार्यों की कारणता की आपत्ति रूप ) ‘अतिप्रसङ्ग’ होगा । सि० प० न च सोपाधेः … 804 केवल आत्मा में अदृष्टादि कार्य उत्पन्न नहीं होते, किन्तु शरीर रूप उपाधि से युक्त आत्मा में ही अदृष्टादि कार्यों की उत्पत्ति होती है । अदृटादि अन्वय और व्यतिरेक दोनों ही सम्भावित हैं । श्रतः शरीर के कार्यों के साथ शरीर का उक्त अन्वय और व्यतिरेक उपपत्ति की जा सकती है से शरीरविशिष्ट आत्मा में भी व्यतिरेक के व्यवहार की ( विशेष्य का अभाव न रहने पर भी विशेषण के अभाव से विशिष्ट में अभाव का व्यवहार ‘शिखी विनष्टः’ इत्यादि स्थलों में प्रसिद्ध है ) । पू० प० तथाभूतस्य ( यह समाधान भी ठीक नहीं है, क्योंकि ) ‘तथाभूत’ अर्थात् नित्य एवं विभु आत्मा शरीर रूप उपाधि के साथ सम्वद्ध होने का अधिकार ही नहीं रखता । क्योंकि (१) यह शरीर रूप उपाधि यदि अनित्य है तो फिर यही कहना होगा कि उक्त नित्य एवं विभु आत्मा से उत्पन्न उस शरीर रूप उपाधि के साथ ही आत्मा सम्बद्ध है । (२) अथवा शरीर रूप उपाधि भी आत्मा के ही समान नित्य है ? । इन दोनों में प्रथम पक्ष तो ‘पूर्ववत्’ असङ्गत है, ( अर्थात् तत्तत् शरीर का भी उपभोक्ता श्रात्मा में रहने वाला अदृष्ट कारण है । अदृष्ट का कारण है आत्मा । इस प्रकार श्रात्मा भी शरीर का कारण है ) किन्तु प्रभी यह बात चल हो रही है कि- ‘आत्मा किसी का कारण हो ही नहीं सकता" । फलतः जिस प्रकार आत्मा में अदृष्ट की कारणता अनुपपन्न है, उसी प्रकार शरीर की कारणता भी अनुपपन्न ही है ) । (२) शरीर रूप उपाधि को नित्य मानकर भी आत्मा में कारणता की उपपत्ति नहीं की जा सकती। क्योंकि इसमें भी ‘पूर्ववत्’ बाधक विद्यमान है । अर्थात् पूर्व में कही
/ ६४ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली तथापि चोपाघेरेव व्यतिरेको न तस्य, अविशेषात् । तद्वत इति चेन्न; स चोपाधिश्चेत्यतोऽन्यस्य तद्वत्पदार्थस्याभावात् । भावे वा स एव कारणं स्यात् । गयी व्यतिरेकाभाव रूप जिस युक्ति के अनुसार नित्य आत्मा में कारणता अनुपपन्न है, उसी युक्ति से नित्य शरीर में भी कारणता की उपपत्ति प्रतिरुद्ध होगी । ’ तथापि चोपाधेरेव ……. श्रात्मा के सम्बन्ध को स्वीकार भी करलें ) युक्त शरीर विशिष्ट आत्मा के अभाव का ( यदि उपाधि एवं उपाधि के साथ ‘तथापि ’ शरीर रूप उपाधि रूप विशेषण से पर्यवसान केवल शरीर रूप उपाधि के अभाव में ही होगा, क्योंकि शरीरविशिष्ट आत्मा के अभाव को केवल शरीर का प्रभाव रूप मान लेने से भी कोई अन्तर नहीं आता है । सि० प० तद्वत् शरीरविशिष्ट आत्मा एक अतिरिक्त हो वस्तु है, वह शरीर और आत्मा इन दोनों में से प्रत्येक से भिन्न है । अतः केवल आत्मा का ‘व्यतिरेक’ सम्भव न होने पर भी शरीर- विशिष्ट आत्मा का ‘व्यतिरेक’ हो सकता है । अत: शरीर विशिष्ट आत्मा के न रहने एवं अदृष्ट की उत्पत्ति न होने से इन दोनों में अन्वय के समान व्यतिरेक भी सम्भव है । सुतराम् शरीर विशिष्ट आत्मा में कारणता की कोई अनुपपत्ति नहीं है । ३ पू० प० न, सोचोपाधिश्च शरोर रूप उपाधि एवं श्रात्मा इन दोनों से भिन्न शरीर विशिष्ट आत्मा नाम को कोई वस्तु नहीं है । यदि शरीर विशिष्ट आत्मा नाम की एक अलग वस्तु को मान भी लें 1 १. दूसरी यह बात भी है कि उपाधि को नित्य मानिये अथवा अनित्य, किन्तु श्रात्मा के साथ उसका किसी प्रकार का सम्बन्ध मानना ही होगा । एवं वह सम्बन्ध अवश्य ही उन दोनों से ‘अन्य’ होगा । प्रतियोगी और अनुयोगी दोनों ही सम्बन्ध के कारण हैं । श्रतः श्रात्मा और शरीर के सम्बन्ध का भी श्रात्मा को कारण मानना होगा । किन्तु आत्मा में किसी भी प्रकार की कारणता ही अनुपन्न है । चतः इस प्रकार से भी श्रात्मा में व्यतिरेकमूलक कारणता की उपपत्ति नहीं की जा सकती । २. अर्थात् विशेषणाभावप्रयुक्त विशिष्टाभाव को केवल विशेषणाभाव रूप ही स्वीकार करना चाहिये । ‘शिखी विनष्टः’ इत्यादि स्थलों में शिखा से युक्त पुरुष का विनाश प्रत्यक्ष से बाधित है, क्योंकि पुरुष का प्रत्यक्ष होता है । अत: ‘शिखी विनष्ट:’ इस प्रतीति का विषय शिखा रूप विशेषण का अभाव ही है। एवं उक्तस्थल में ‘शिखा. विनष्टा’ यह स्वतन्त्र प्रतीति भी होती है, इस प्रतीति का विषय केवलं शिखा के विनाश को स्वीकार करना ही है । इसी प्रकार शरीरविशिष्ट श्रात्मा का अभाव फलतः केवल शरीर का अभाव ही है । इस से आत्मा के अभाव की उपपत्ति नहीं की जा सकती ।
अत्रोच्यते- प्रथमः स्तबक: पूर्वभाषी हि हेतुत्वं मीयते येन केनचित् । व्यापकस्यापि नित्यस्य धर्मिधीरन्यथा न हि ॥ १९ ॥ ६५ भवेदेवं यद्यन्वयव्यतिरेकावेव कारणत्वम्, किन्तु कार्यान्नियतः पूर्वभावः । स च क्वचिदन्वयव्यतिरेकाभ्यामवसीयते, कचिद्धमिग्राहकात्प्रमाणात् । अन्यथा कार्यात्कारणानुमानं कापि न स्यात्, तेन तस्यानुविधानानुपलम्भात् । उपलम्भे वा कार्यलिङ्गानवकाशात्, प्रत्यक्षत एव तत्सिद्धेः । तथापि केवल आत्मा में कारणता की सिद्धि न होकर कथित व्यतिरेक से युक्त शरीर- विशिष्ट आत्मा में ही कारणता सिद्ध होगी केवल आत्मा में नहीं । अतः नित्य एवं विभु होने के कारण आत्मा किसी का कारण हो ही नहीं सकती । सि० प० अत्रोच्यते ० पूर्वभावो हि … इस श्राक्षेप के उत्तर में हम सिद्धान्ती कहते हैं कि कार्य का नियत पूर्ववत्तित्व ही ‘कारणता’ है । यह कारणता जिस किसी हेतु से निश्चित हो. सकती है ( अर्थात् कभी अन्वय से, कभी व्यक्तिरेक से कभी इन दोनों से एवं कभी धर्मिग्राहक मान से ) । ‘श्रन्यथा’ यदि ऐसा न मानें अर्थात् केवल सम्मिलित अन्वय और व्यतिरेक को हं’ कारणता का ज्ञापक मानें तो नित्य एवं विभु जिस श्रात्मा रूप धर्मी में कारणत्वाभाव रूप धर्म का साधन पूर्वपक्षी करना चाहते हैं, उस धर्मी का ज्ञान ही सम्भव नहीं होगा । भवेदेवम् … 239 आत्मा का व्यतिरेक सम्भव न होने से आत्मा में कारणत्व की अनुपपत्ति तब होती जब कि ‘कारण’ का यह लक्षण होता कि “कार्य का अन्वय और व्यतिरेक जिसके अन्वय और व्यतिरेक से हो वही कारण है”, किन्तु कारण का लक्षण तो ‘कार्यनियतपूर्ववत्तित्व’ रूप है । इस प्रकार का कारणत्व कभी श्रन्वय और व्यतिरेक इन दोनों से गृहीत होता है एवं कभी ‘धर्मिग्राहक’ प्रमाण से । अन्यथा कार्यात् ‘अन्यथा’ यदि केवल अन्वय व्यतिरेक को ही कारणता का ग्राहक मानें तो कार्य रूप हेतु से कारण का कोई भी अनुमान नहीं हो पायेगा । क्योंकि कारण कभी भी कार्य के साथ नहीं देखा जाता । अतः कार्य कारण का ज्ञापक नहीं हो सकेगा । यदि कार्य के साथ १. विशिष्ट बुद्धि के लिये धर्मिज्ञान की अपेक्षा होती है । भूतल रूप धर्मिज्ञान के विना ‘घटवद् भूतलम्’ यह विशिष्ट बुद्धि उत्पन्न नहीं होती है. अतः आत्मज्ञान को ‘आत्मा न कारणम्’ इस विशिष्ट बुद्धि का कारण मानना ही होगा । हम लोगों को ज्ञान इच्छादि के समावायिकारण रूप से ही आत्मा का ज्ञान होता है । अतः आरमा को यदि कारण ही नहीं मानेंगे तो पूर्वपक्षी ‘आत्मा न कस्यापि कारणम्’ इस पक्ष का भी स्थापन न कर सकेंगे । अतः पूर्वपक्षवादी जिस प्रमाण से अपने पक्ष के ‘धर्मी’ रूप आत्मा के ज्ञान का सम्पादन करेंगे, उसी धर्मिग्राहक मान से आत्मा में कारणता की भी सिद्धि होगी ।
गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली तज्जातीयानुविधान दर्शनात्सिद्धिरन्यत्रापि वायंते कारण देखा जाय तो फिर उस कारण का ग्रहण तो प्रत्यक्ष प्रमाण से ही हो जायगा, उसके लिये कार्यलिङ्गक कारण के अनुमान की प्रवृत्ति हो व्यर्थ हो जायगी । तज्जातीयानुविधान दर्शनात् ’ घटादि अन्य द्रव्यों में जो गुण की कारणता श्रन्वय और व्यतिरेक के द्वारा पहिले से सिद्ध है, उसी के बल से द्रव्यत्व से युक्त श्रात्मा रूप द्रव्य में भी गुण की कारणता प्राप्त हो जाती है - इसका प्रतिरोध नहीं किया जा सकता । ( कहने का तात्पर्य है कि तत्कपाल व्यक्ति में जो तट की कारणता सिद्ध की जाती है, उसका प्रयोजक तद्घट के साथ तत्कपाल व्यक्ति का श्रन्वयव्यतिरेक नहीं है, किन्तु अन्य घटों के साथ अन्य कपालों का जो अन्वय और व्यतिरेक पूर्व से गृहोत है, उसी के बल से प्रकृत तत्कपाल व्यक्ति में प्रकृत तद्घट व्यक्ति की कारणता गृहीत होती है। इसी प्रकार घटादि द्रव्यों में घटादिगत रूपादि गुणों की कारणता जिस अन्वयव्यतिरेक से सिद्ध की जाती है, उसी अन्वय व्यतिरेक से आत्मा रूप द्रव्य में भी अदृष्ट रूप गुण की कारणता सिद्ध होगी । फलत: जिस व्यक्ति में जिस व्यक्ति की कारणता सिद्ध करना इष्ट है, उन दोनों व्यक्तियों का अन्वयव्यतिरेक का ग्रहण आवश्यक नहीं है, किन्तु तज्जातीय दूसरी व्यक्तियों में अन्वयव्यतिरेकं का ग्रहण ही आवश्यक है । प्रकृत में अदृष्ट रूप कार्य ‘गुण’ है, एवं आत्मा रूप कारण द्रव्य है । गुण का समवायिकारण द्रव्य है । अर्थात् गुणनिष्ठ कार्यतानिरूपित समवायिकारणता का श्रवच्छेदक द्रव्यत्व है । घट में जो तद्गत रूप की समवायिकारणता है उसका प्रवच्छेद ( व्यावर्त्तक ) धर्म भी द्रव्यत्व ही है, घटत्व नहीं । अर्थात् घट चूकि द्रव्य है इसीलिये समवायि- कारण है । ‘वह घट है’ इसलिये समवायिकारण नहीं है । अतः गुणनिष्ठ समवायिकारणता का प्रवच्छेद जो द्रव्यत्व धर्म है, उसकी सत्ता जब आत्मा में है तो उसमें गुण की समवायि- कारणता भी अवश्य है । श्रात्मा में द्रव्यत्व तो रहे, किन्तु तदवच्छेद्य समवायिकारणता न रहे यह संभव नहीं है । ऐसा होने से द्रव्यत्व समवायिकारणता का अवच्छेदक ही नहीं रह १. कार्यलिङ्गक कारणानुमान की कथित अनुपपत्ति का परिहार इस प्रकार किया जा सकता है कि जिस कार्यव्यक्तिविशेष से जिस कारणव्यक्तिविशेष का अनुमान इष्ट है, उन दोनों का अन्वय और व्यतिरेक भले ही उपलब्ध न हो, किन्तु तत्सजातीय किसी दूसरी कार्यव्यक्ति के साथ तरसजातीय किसी दूसरी कारणव्यक्ति का अन्वय और व्यतिरेक दोनों का गृहीत होना सम्भव है । प्रकृत अनुमेय रूप कारण व्यक्ति में एवं हेतुभूत कार्य व्यक्ति में उन जातियों की अनुसृति देखी जाती है । इसी से किसी कार्यव्यक्तिविशेष से किसी काररव्यक्तिविशेष का अनुमान होगा। इन दोनों के अन्वय और व्यतिरेक का धग्रहण इसका बाधक नहीं होगा ‘तज्जातीयानु- विधानदर्शनात्’ इस सन्दर्भ के द्वारा इसी समाधान का अतिदेश आत्मा में कारणत्व के साधन के लिये भी किया गया है।
तथा प्रथमः स्तबक: 6.3 तथापि कोष्ठगत्यानुविहितान्वयव्यतिरेकमेव कार्यात्कारणं सिद्धय ेत्, अन्यत्र दर्शनादिति चेन्न; बाधेन सङ्कोचात्, सङ्कोचात्, विपक्षे बाधकाभावेन जायगा । आत्मा जिन गुणों का समवायिकारण होगा वे गुण हैं श्रदृष्ट एवं ज्ञानादि । अतः आत्मा का व्यतिरेक संभव न होने पर भी आत्मा कारण हो सकता है । पू० प० तथापि कोष्ठगत्या … फिर भी ‘कोष्ठगत्या’ अर्थात् वस्तुगत्या कार्य रूप हेतु से उसी कारण का अनुमान होगा, जो कारण कार्य के अन्वय और व्यतिरेक दोनों से ही युक्त हो, क्योंकि रूपज्ञान से जो चक्षु का अनुमान होता है, वहाँ ऐसी ही स्थिति देखी जाती है । अतः ज्ञानप्रदृष्टादि कार्यों से जिस आत्मा का अनुमान होगा, उसे भी ज्ञान अदृष्टादि कार्यों के अन्वय श्रीर व्यतिरेक से युक्त होना आवश्यक है । किन्तु आत्मा का ‘व्यतिरेक’ वावित है । अतः आत्मा में कारणत्व का अनुमान साध्याप्रसिद्धि दोष से ग्रसित होगा ( साध्य में विशेषणीभूत धर्म-साध्यतावच्छेदक का अभाव जहाँ साध्य में रहे वहां साध्या प्रसिद्धि दोष होता है । जैसे ‘पर्वतः काञ्चनमयवह्नि- मान्’ इत्यादि ) । अत: कथित युक्ति से धर्मिग्राहकमान के द्वारा मात्मा में कारणत्व की सिद्धि नहीं हो सकती । सि० प० न, बाधेन 830 … उक्त आपत्ति ठीक नहीं है, क्योंकि ( १ ) दृष्टान्त में जिस रूप से साध्य देखा जाता है, उस रूप से युक्त साध्य यदि पक्ष में बाधित रहता है, तो उस बाध के प्रयोजक रूप को छोड़कर संकुचित रूप से युक्त साध्य की भी अनुमिति होती है ( जैसे कि पहिले ‘महानसीय- वह्न्न्यभाववान् पर्वतः ’ इस आकार का बाधनिश्चय पहिले से रहने पर सामान्यतः वह्नित्व रूप से व्याप्ति प्रभृति का निश्चय रहने पर भी पर्वत में सामान्यतः वह्नित्व रूप से वह्निसामान्य का ‘पर्वतो वह्निमान्’ इस आकार की अनुमिति नहीं होती, किन्तु ‘पर्वतो महानसीयवह्नीतरवह्नि- मान्’ इसी आकार की अनुमिति होती है । उसी प्रकार यद्यपि रूपज्ञान स्वरूप कार्यं से उसके अन्वय और व्यतिरेक दोनों रूपों से युक्त चक्षु रूप कारण का ही अनुमान होता है, तथापि श्रात्मा में चू’ कि ‘व्यतिरेक’ रूप धर्म बाधित है, अतः अदृष्टादि रूप कार्यों के केवल अन्वय एवं श्रात्मत्व इन दोनों रूपों से युक्त आत्मस्वरूप कारण का ही अनुमान होगा । विपक्षे बाधकाभावेन (२) ‘विपक्ष’ का अर्थात् व्यतिरेक से रहित कारणत्व की सिद्धि का कोई बाधक नहीं है, अतः आत्मा में ‘व्यतिरेक’ से रहित कारणता की सिद्धि हो सकती है । ( अर्थात् ऐसा कोई नियम नहीं है कि दृष्टान्त में जिन सभी रूपों से युक्त साध्य की सिद्धि रहे, पक्ष में भी उन सभी रूपों से युक्त ही साध्य की अनुमिति हो । अतः ऐसा हो सकता है कि रूपज्ञान स्वरूपकार्य से चक्षु-रूप जिस कारण का जो अनुमान होता है, उस कारण रूप साध्य में कार्य १३
गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली चाव्याप्तेः, दर्शनमात्रेण चोत्कर्षसमत्वात् । अस्य च ईश्वरे विस्तरो वक्ष्यते । सर्वव्यापकानां सर्वान्प्रत्यन्वय मात्रा विशेषे कारणत्वप्रसङ्गो बाधकमिति चेन्न । का अन्वय नौर व्यतिरेक दोनों ही रहे, किन्तु अदृष्टादि गुण रूप कार्य से जो आत्मा रूप कारण का अनुमान होगा उसमें अदृष्टादि रूप कार्य का केवल अन्वय ही रहे व्यतिरेक नहीं ) । दर्शनमात्रेण अन्वय और व्यतिरेक अन्वय और व्यतिरेक आत्मा में कार्यों का ( ‘अन्यत्र तथा दर्शनात्’ इत्यादि सन्दर्भ के द्वारा जो यह आक्षेप किया गया है कि ‘अन्यत्र’ अर्थात् चक्षु प्रभृति दृष्टान्तों में जो कारणता है वह कार्यों के दोनों के साथ है, श्रतः श्रात्मा में भी यदि कारणता रहेगी तो कार्यों के दोनों के हो साथ रहेगी, किन्तु आत्मा का व्यतिरेक संभव न होने से अन्वय और व्यतिरेक दोनों का रहना संभव नहीं है, अत: आत्मा में व्यतिरेक के साथ नियत रूप से रहने वाली कारणता भी नहीं रह सकती ) यह आक्षेप ‘उत्कर्षसम जाति’ नाम का असत् उत्तर है । ’ इस ‘उत्कर्षसम’ जात्युत्तर की और विस्तृत चर्चा आगे ( पञ्चम स्तबक में ) करेंगे । पू० प० सर्वव्यापकानाम् …. कार्य के व्यतिरेक के न रहने पर भी कार्य के अन्वय मात्र से कारणत्व की स्वीकृति में एक यह बाघा है कि जिस प्रकार श्रदृष्टादि कार्यों के साथ केवल श्रात्मां का ही अन्वय नहीं है, बल्कि आकाशादि नित्य विभु पदार्थों का अन्वय विद्यमान है । अतः जिस प्रकार आत्मा में अदृष्टादि कार्यों की कारणता की सिद्धि होगी, उसी प्रकार आत्मा एवं और भी विभु एवं नित्य द्रव्यों में भी सभी कार्यों की कारणता माननी होगी । श्रतः केवल अन्वय के बल से आत्मा में कारणता की सिद्धि नहीं की जा सकती । १. न्यायसूत्र में ‘उत्कर्षसम’ जाति का लक्षण इस प्रकार है ‘दृष्टान्तधर्म’ साध्ये समासञ्जयत: उत्कर्षसमः’ (न्या० सू० अ० ५ ० १ सू० ४) । अर्थात् वादी के द्वारा स्वीकृत दृष्टान्त में विद्यमान जिस धर्म की सत्ता पक्ष में नहीं है, उस धर्म के अभाव के द्वारा पक्ष में प्रकृत साध्य के अभाव का ‘समासञ्जन’ अर्थात् प्रतिवादी के द्वारा दोष का सद्भावन करें तो वह ‘उत्पर्षसम’ नाम का जास्युत्तर होगा । जैसे कि ‘आत्मा सक्रियः, क्रिया- हेतुगुणवत्त्वात् लोष्टवत्’ ऐसा न्याय प्रयोग किये जाने पर अगर प्रतिवादी यह कहें कि आत्मा अगर लोष्ट के समान क्रिया से युक्त हो तो लोष्ट के ही समान उन्हें स्पर्श से युक्त भी होना चाहिये, किन्तु आत्मा चूँकि स्पर्श से युक्त नहीं है, अत: श्रात्मा में क्रिया भी नहीं रह सकती । तदनुसार प्रकृत में चक्षुरादि दृष्टान्तों में ज्ञात कार्यव्यतिरेक की आपत्ति से आत्मा में अकारणत्व की जो आपत्ति दी गयी है वह कथित ‘उत्कर्षसम’ नाम का जात्युचर है।
ส T W से त में न T- कि से क म’ प्रथमः स्तवकः अन्वयव्यतिरेकवज्जातीयतया विपक्षे बाधकेन च विशेषेऽन तिप्रसङ्गात् । तथा हि कार्यं समवायिकाररणवद् दृष्टमित्यदृष्टाश्रयमपि तज्जातीयकारणकम्, श्राश्रयाभावे किं प्रत्यासन्नमसमवायिकारणं स्यात् ? तदभावे निमित्तमपि किमुपकु- र्यात् ? । तथा चानुत्पत्तिः सततोत्पत्तिर्वा सर्वत्रोत्पत्तिर्वा स्यात् । सि० प० न, अन्वयव्यतिरेकवत् जिस प्रकार रूपादि कार्यों के घटादि समवायिकारण अन्वय और व्यतिरेक दोनों से ही युक्त हैं, आत्मा भी अदृष्टादि गुणों के उसी प्रकार समवायिकारण हैं । अतः आत्मा को भी अन्वय और व्यतिरेक दोनों से युक्त होना चाहिये । इस प्रकार आत्मा में जो अन्वय और व्यतिरेक दोनों से युक्त घटादि समवायिकारणों में रहने वाले समवायिकारणत्व रूप समानजातीयता है, इस समान जातीयता रूप ‘विशेष’ अर्थात् अन्तर के कारण हो श्रात्मा में एवं श्राकाशादि में घटादि कार्यों के कारणत्व की आपत्ति नहीं दी जा सकती । विपक्ष बाधक ….. एवं ‘विपक्षबाधक तर्क’ के द्वारा भी उस ‘विशेष’ की सिद्धि की जा सकती है, जिससे ( आत्मा एवं आकाशादि विभु पदार्थों में घटादि सभी कार्यों के कारणत्व की आपत्ति रूप ) अति प्रसङ्ग नहीं होगा । १ तथा हि………. ( विशदार्थ यह है कि समवायिकारणों से घटादि कार्यों को उत्पत्ति प्रत्यक्षसिद्ध है । अदृष्ट भी कार्य है, अतः उसका भी कोई समवायिकारण अवश्य होगा । जिस श्राश्रय में कार्य की उत्पत्ति होती है, वही आश्रय उस कार्य का समवायिकारण कहलाता है । अगर १. प्रकृत में छात्मा में अकारणश्व का पक्ष सिद्धान्तियों के लिये ‘विपक्ष’ है, आत्मा में कारणत्व का पक्ष ही उक्त ‘विपक्ष’ का बाधक है, जो सिद्धान्तियों का ‘स्वपत’ है । इस विपक्ष के बाधक तर्क के द्वारा भी श्रात्मा में सकारणत्व की सिद्धि की जा सकती है । अर्थात् कार्यों के उत्पादन में अगर समवायिकारणों की अपेक्षा न हो तो उनके उत्पादन के लिये किसी नियत देश का नियम न रह जायगा । ज्ञान अदृष्टादि भी कार्य हैं, अतः उनका भी कोई समवायिकारण अवश्य होगा। केवल द्रव्य पदार्थ ही समवायिकारण हो सकता है । धारमा से भिन्न पृथिव्यादि आठ द्रव्यों में से कोई भी ज्ञानादि के समवायिकारण नहीं हो सकते । सुतराम् पृथिव्यादि आठो द्रव्यों से भिन्न कोई अन्य द्रव्य ही ज्ञानादि का सयवायिकारण हो सकता है । वही समवायिकारणीभूत द्रव्य है ‘आत्मा’ । कारणत्व रूप सामान्यधर्म के बिना ‘समवायिकारणत्व’ रूप विशेष धर्म नहीं रह सकता । अतः उक्त समवायिकारणत्व हेतु से भी आत्मा में कारणव सामान्य का अनुमान किया जा सकता है। इस प्रकार नित्य और विभु होने के कारण आत्मा से कार्यों का व्यतिरेक संभव न रहने पर भी आत्मा में कारणता रह सकती है ।
१०० गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली एवमपि निमित्तस्य सामर्थ्यादेव नियतदेशोत्पादे स एव देशोऽवश्यापेक्षणीयः स्यात् । तथा च सामान्यतो देशसिद्धावित रपृथिव्यादिगधे तदतिरिक्तसिद्धि को वारयेत् ? ‘श्राश्रय’ रूप ‘समवायिकारण’ न रहे तो कहाँ पर ‘प्रत्यासन्न’ हो कर ‘श्रसमवायिकारण’ कार्य को उत्पन्न करेगा। क्योंकि ‘समवायिकारण’ में ‘प्रत्यासन्न’ कारण ही असमवायिकारण कहलाता है । अत: कार्यों का कोई ‘समवायिकारण’ अवश्य है । श्रदृष्ट भी एक कार्य हैं, अतः उसका भी कोई ‘समवायिकारण’ अवश्य चाहिये । अदृष्ट का वह समवायिकारण ही आत्मा है । यदि समवायिकारण और प्रसमवायिकारण ये दोनों न रहें तो किन कारणों को साहाय्य पहुंचाने से उन दोनों से भिन्न ‘कारण’ ‘निमित्तिकारण’ कहलायेंगे । क्योंकि उन दोनों के ‘उपकारक’ कारण ही ‘निमित्तकारण’ कहलाते है । अतः समवायिकारण अवश्य है | समवायिकारण के खण्डित होने पर वस्तुत: ‘कारणता’ ही खण्डित हो जाती है। जिससे कार्य की या तो कभी उत्पत्ति ही नहीं हो सकेगी या फिर सभी कार्यों की बराबर उत्पत्ति होती ही रहेगी। यदि असमवायिकारण और निमित्तकारण इन दोनों को स्वीकार कर केवल ‘समवायिकारण’ को ही नहीं मानेंगे तो सभी श्राश्रयों में सभी कार्यों की उत्पत्ति होने लगेगी । एवमपि ………. ( यदि ऐसा कहें कि केवल निमित्तकारण ही मानेंगे, समवायिकारण को स्वीकार नहीं करेंगे, किन्तु निमित्त कारण का ही ऐसा स्वभाव स्वीकार करेंगे कि वह किसी नियत देश में ही कार्यं का उत्पादन करे । इसी से कार्यों के नियत देश में ही उत्पन्न होने का नियम उपपन्न हो जायगा । अतः समवायिकारण को मानने की आवश्यकता नहीं है । फलतः श्रात्मा में ज्ञानादि गुणों के समवायिकारणत्व मूलक जो कारणत्व सामान्य की उपपत्ति दी गयी है, वह युक्त नहीं है । इस प्रसङ्ग में यह पूछना है कि ) ‘एवमपि’ अथात् समवायिकारण को स्वीकार किये विना भी यदि कार्यों के नियत देश में ही उत्पत्ति को स्वीकार करें तो उक्त नियतदेश का कार्य की उत्पत्ति से पूर्व नियत रूप से रहना आवश्यक स्वीकार करेंगे या नहीं ? यदि नहीं तो फिर कार्यो की नियतदेशोत्पत्ति का उक्त नियम उपपन्न नहीं होगा । यदि कार्यों- त्पत्ति से पहिले उक्त नियतदेश कां नियत रूप से रहना आवश्यक मानेंगे? तो उक्त ‘नियतदेश’ में कार्यनियत पूर्ववत्तत्व रूप कारणत्व का लक्षण विद्यमान ही है । अतः उक्त नियतदेश को भी कारण मानना ही होगा । इस प्रकार सभी कार्यों का एकनियतदेश निश्चित हो जाने पर मदृष्ट एवं ज्ञानादि कार्यों के कारणीभूत नियत देश की सत्ता भी माननी होगी । वह ‘नियतदेश’ केवल द्रव्य ही होगा । एवं पृथिवी प्रभृति आठ द्रव्य अदृष्टादि के नियत देश नहीं हो सकते । अतः पृथिव्यादि आठ द्रव्यों से भिन्न आत्मा रूप हव्य में कारणत्व की स्वीकृति का निवारण कौन करेगा ?
प्रथमः स्तवकः एवमसमवायिनिमित्ते चोहनीये । 6 इत्येषा सहकारिशक्तिरसमा माया दुरुन्नीतितो- मूलत्वात्प्रकृतिः प्रबोधभयतोऽविद्येति यस्योदिता । देवोऽसौ विरतप्रपञ्च रचनाकल्लोलकोलाहलः साक्षात्साक्षितया मनस्यभिति बध्नातु शान्तो मम ॥२०॥ इति श्री मदुदयनाचार्यविरचिते गद्यपद्यात्मके न्यायकुसुमाञ्जलौ प्रथमः स्तवकः एवम्…… १०१ ( एवम् ) अर्थात् जिस प्रकार ‘सर्वत्र सर्वकार्योत्पत्ति’ रूप बाधक के बल से ज्ञानादि कार्यों के समवायिकारण की कल्पना आवश्यक समझ कर की गयी है, उसी प्रकार ‘बाधक’ के बल से ही ज्ञानादि कार्यों के असमवायिकारण और निमित्त कारणों की भी ‘कल्पना’ (कह ) करनी चाहिये । ’ इत्येषा…… असमा 30. इस ग्रन्थ के प्रथम स्तवक में प्रधान रूप से उपपादित, एवं सम्पूर्ण विश्व के साघनीभूत इस ‘अदृष्ट’ को ही ( प्रत्येक जीवात्मा में भिन्न-भिन्न होने के कारण ) नैयायिकगण ‘असमा’ ( अर्थात् अन्य सभी साधनों के सादृश्य से रहित ) कहते हैं । एवं ( इन्द्रजाल के कारण बोद्धलोग जिसको ‘माया’ ( अथवा संवृति ) कहते हैं । इस समान ) दुर्ज्ञेय होने के १. ज्ञानादि की उत्पत्ति यदि केवल आत्मा रूप समवायिकारण से ही माने तो ज्ञानादि . की सदा सर्वदा उत्पत्ति होती रहेगी, क्योंकि आत्मा नित्य है । किन्तु ज्ञान की सतत उत्पत्ति नहीं होती है । अतः ज्ञानादि का कोई और ऐसा कारण मानना होगा जिसके न रहने से आत्मा के रहते हुये भी ज्ञानादि की उत्पत्ति रोकी जा सके । वे ज्ञानादि के असमवायिकारण और निमित्त कारण ही होंगे। इसी प्रकार यदि समवायिकारण और असमवायिकारण इन दोनों कारणों को तो मानें, किन्तु निमित्तकारण को न मानें तो इन्द्रिय एवं अर्थ इन दोनों के संनिकर्ष के न रहने पर भी प्रत्यक्ष की उत्पति माननी होगी । इसी ‘प्रत्यक्षापत्ति’ रूप बाधक के बल से ‘इन्द्रियार्थं संनिकर्ष’ रूप निमित कारण की कल्पना की जाती है । एवं समवायिकारण और निमित्तकारण इन दोनों को ही मान कर यदि समवायिकारण को ही अस्वीकार करें तो आत्मा और मन इन दोनों के संयोग के बिना भी ज्ञानादि की उत्पत्ति होने लगेगी । अतः इस ‘ज्ञानापति’ रूप बाधक के बल से ज्ञानादि का आत्ममन:संयोग रूप निमित्तकारण भी मानना पड़ता है । CCO. Vasishtha Tripathi Collection. Digitized by eGangotri१०२ अदृष्ट को ही ‘सांख्याचार्य’ गण है । ‘तत्त्वज्ञान’ रूप ‘विद्या’ से गण ‘अविद्या’ कहते हैं । के गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली ‘प्रकृति’ कहते हैं, क्योंकि यही सम्पूर्ण विश्व का मूल कारण विनष्ट होने के भय से युक्त होने के कारण इसी को वेदान्ती इस प्रकार जिस ‘देव’ ( परमेश्वर ) की विश्वरचना में सहायिका शक्ति रूप ‘अदृष्ट’ प्रसङ्ग का उस मतभेदजनित कोलाहल समाप्त हो चुका है। वही रागषादि से रहित परमेश्वर मेरी आत्मा में प्रत्यक्ष होकर ‘साक्षी रूप से (निष्काम होकर ) अपनी ( परमेश्वर विषयक) चिन्ता को स्थिर बनाये रखें।
॥ श्रीगणेशाय नमः ॥ न्यायकुसुमाञ्जलिः ( गद्यपद्यात्मकः )
| द्वितीयः स्तबक: |
|---|
| तदेवं सामान्यतः सिद्धे अलौकिके हेतौ तत्साधनेनावश्यं भवितव्यम् । न च तच्छक्यमस्मदादिभिर्द्रष्टुम् । न चादृष्टेन व्यवहारः । ततो लोकोत्तरः सर्वानुभावी सम्भाव्यते । ननु नित्यनिर्दोषवेदद्वारको योगकर्मसिद्ध सर्वज्ञद्वारको वा धर्मसम्प्रदायः स्यात्, कि परमेश्वरकल्पनयेति चेत्; प्रत्रोच्यते— |
| सि० प० तदेवम् |
| प्रमायाः परतन्त्रत्वात्सर्गप्रलयसम्भवात् । तदन्यस्मिन्ननाश्वासान्न विधान्तरसम्भवः ॥ १ ॥ |
| इस प्रकार ( सामान्यतो दृष्ट ) दीखनेवाले ‘अदृष्ट’ रूप हेतु की सिद्धि हो रूप हेतु का भी कोई कारण अवश्य है, प्रत्यक्ष अस्मदादिको होने पर भी उनमें साधारण जनों को नहीं हो सकता । |
| अनुमान के कार्यों के द्वारा साधारणदृष्टि से न जाने पर यह भी ( सिद्ध ही है कि ) उस प्रदृष्ट किन्तु ( अदृष्ट के उत्पादक यागादि कारणों का जो अदृष्ट का साधनत्व है, उसका प्रत्यक्ष हम जैसे जिस पुरुष को यागादि में प्रदृष्टसाधनत्व का प्रत्यक्ष साथन हैं’ इस शब्द का प्रयोग रूप ) व्यवहार नहीं |
| न हो उसके द्वारा ( ’ यागादि अदृष्ट के चल सकता । ( व्यवहार की इस अनुपपत्ति से ) अस्मदादि से उत्कृष्ट किसी ऐसे सर्वज्ञ पुरुष की कल्पना सर्वथा उचित है, जिन में यागादि में प्रष्टसाधनत्व का प्रत्यक्षात्मक ज्ञान रहे । |
| पू० प० … … ननु नित्य निर्दोष |
| … |
| १. वेद चूंकि नित्य ( अनुत्पाद्य और अविनाशी ) है ( अत एव शब्द में सम्भावित ) पुरुषगत भ्रमविप्रलित्सादि दोषों से सर्वथा रहित भी है । नित्य एवं निदुष्ट इन वेदों के द्वारा ही ( वह व्यवहार रूप ) घर्म सम्प्रदाय चल सकता है । |
| २. अथवा योगाभ्यास एवं यगादि कर्मों के अनुष्ठानों के द्वारा उपयुक्त ज्ञान से सम्पन्न सर्वज्ञ ( कल्प कपिलादि ) मुनियों के द्वारा भी उक्त धर्म-सम्प्रदाय का प्रचलन हो सकता है । इसके लिये परमेश्वर की कल्पना अनावश्यक है । |
| श्रत्रोच्यते, प्रमायाः |
| ( मीमांसकों के द्वारा एवं कपिलानुयायियों के द्वारा उठायी गयी इन श्रन्यथासिद्धियों के) प्रसङ्ग में हम (नैयायिक) कहते हैं कि - |
१०४ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जलौ तथाहि–प्रमा ज्ञानहेत्वतिरिक्तहेत्वधीना, कार्यत्वे सति तद्विशेषत्वात्, अप्रभावत् । यदि च तावन्मात्राधीना भवेत्, अप्रमापि प्रमेव भवेत् । अस्ति हि तत्र ज्ञानहेतुः । अन्यथा ज्ञानमपि सा न स्यात् । ज्ञानत्वेप्यतिरिक्तदोषानुप्रवेशाद- प्रमेति चेत् ? १. सभी यथार्थ ज्ञान चूंकि ज्ञानों के साधारण कारणों से भिन्न किसी और कारण ( पर ) की भी अपेक्षा रखते हैं ( अतः वेद से उत्पन्न होनेवाले यथार्थज्ञान में भी ज्ञान के अन्य साधारण कारणों से ‘पर’ अर्थात् भिन्न ‘गुण’ रूप यथार्थज्ञान को भी अपेक्षा है, अपेक्षित इस यथार्थ ज्ञान का प्राश्रय ही परमेश्वर हैं ) । २. ( वेदों से होनेवाले यथार्थज्ञान की उपपत्ति वेदों को नित्य मान कर भी नहीं की जा सकती, क्योंकि ) सृष्टि और प्रलय दोनों ही संभव हैं ( श्रतः प्रलय में वेदों का नाश हो जाने पर न वेदों की स्वरूपतः नित्यता सम्भव है, न प्रवाह रूप से ही नित्यता संभव है ) । ३. ( योगाभ्यास से विशेष ज्ञान प्राप्त करनेवाले कपिलादि मुनियों के द्वारा भी घर्मसम्प्रदाय का चलना सम्भव नहीं है, क्योंकि ) ईश्वर से भिन्न किसी व्यक्ति पर ( धर्म- सम्प्रदाय चलाने के उपयुक्त ज्ञान का ) विश्वास करना सम्भव नहीं है । ४. अतः इश्वर को माने विना धर्म सम्प्रदाय को प्रचलित होने का कोई दूसरा उपाय सम्भव ही नहीं है । सि० प० तथा हि प्रमा … … … … यथार्थ ज्ञान ( अप्रमा) की तरह यथार्थज्ञान ( प्रमा ) भी चूकि विशेष प्रकार का ज्ञान ही है, अतः जिस प्रकार ( मीमांसक भी मानते हैं कि ) श्रप्रमा ज्ञान में ज्ञान के साधारण कारणों से अतिरिक्त ( दोष रूप अन्य ) कारण की भी अपेक्षा होती है, उसी प्रकार प्रमा ज्ञान भी चूकि विशेष प्रकार का ज्ञान ही है. भ्रतः उसकी उत्पत्ति के लिये भी ज्ञान के साधारण कारणों से अतिरिक्त (गुण रूप ) कारण की भी अपेक्षा अवश्य होतो है । अगर प्रमा ( यथार्थज्ञान) की उत्पत्ति सभी ज्ञानों के साधारण कारणों से ही हो, तो फिर अप्रमा ( अयथार्थज्ञान) को भी प्रमा ही मानना पड़ेगा, क्योंकि अप्रमा ज्ञान की उत्पत्ति में भी ज्ञान के साधारण कारणों की अपेक्षा अवश्य होती है । अगर अप्रमाज्ञान में ज्ञान के साधारण कारणों की अपेक्षा न मानें तो फिर अयथार्थज्ञान ( श्रप्रमा ) ‘ज्ञान’ भी न कहला पायेगा । पु० प० 610 ज्ञानस्वेऽप्यतिरिक्त 730 ( यद्यपि ज्ञान के साधारण कारणों से उत्पन्न होने से प्रमा की तरह अप्रमा ज्ञान भी प्रवश्य है, फिर भी अप्रमा की उत्पत्ति के लिये जिस कारण समूह को अपेक्षा होती है, उसमें ज्ञान साधारण कारणों के अतिरिक्त काचकामलादि ) दोष भी सम्मिलित हैं । ( अतः श्रप्रमा में कथित रीति से प्रमात्व की आपत्ति नहीं दी जा सकती ) ।
प्रथमः स्तवकः १०५ एवं तहि दोषाभावमधिकमासाद्य प्रमापि जायेत, नियमेन तदपेक्षरणात् । अस्तु दोषाभावोऽधिकः, भावस्तु नेष्यत इति चेत्; भवेदप्येवम्, यदि नियमेन दोषेर्भावरूपैरेव भवितव्यम् । न त्वेवम्, विशेषादर्शनादेरभावस्यापि दोषत्वात् । कथमन्यथा ततः संशयविपर्ययौ ? ततस्तदभावो भाव एवेति कथं स नेष्यते ? स्यादेतत् । शब्दे तावद्विप्रलिप्सादयो भावा एव दोषाः । ततस्तदभावे स्वत एव शाब्दी प्रमेति चेन्न अनुमानादौ लिङ्गविपर्यासादीनां भावानामपि दोषत्वे सि० प० … एवं तहि अगर ऐसी बात हो तो फिर यह भी कहा जा सकता है कि सभी ज्ञानों के साधारण कारणों के समूह में जब दोष का अभाव रूप कारण भी प्रवेश पाता है तभी ( दोषा- भावघटित उक्त सामग्री ) से प्रमा ज्ञान की उत्पत्ति होती है । क्योंकि बराबर ही प्रमाज्ञान ( अपनी उत्पत्ति के लिये सभी ज्ञानों के साधारण कारणों के अतिरिक्त दोष के अभाव रूप ) कारण की भी अपेक्षा रखता है । पू० प० प्रस्तु दोषाभाव माना कि प्रमाज्ञान की उत्पत्ति में दोष के प्रभाव को भी अपेक्षा होती है, किन्तु हम लोग ( मीमांसक ) प्रमाज्ञान की उत्पत्ति में सभी ज्ञानों के साधारण कारणों से अतिरिक्त और किसी भाव रूप कारण की अपेक्षा नहीं मानते । सि० प० भवेदप्येवम् यह बात तब कही जा सकती थी जब कि ‘दोष’ केवल भाव रूप ही हों, किन्तु दोष तो अभाव रूप भी होते हैं। जैसे कि किसी वस्तु के विशेष धर्म का अज्ञान प्रभृति । अगर दोष केवल भाव रूप ही हों तो फिर ‘विशेषादर्शन’ से संशय और विपर्यय की उत्पत्ति कैसे होगी ? इस प्रकार दोष अभाव रूप भी हो सकता है, अतः प्रमा के प्रति दोषाभाव को मीमांसक भी कारण क्यों नहीं मानते ? क्योंकि दोष का अभाव तो भाव रूप भी हो सकता है । पू० प० स्यादेतत् शब्दे तावत् … ( प्रत्यक्षात्मक यथार्थज्ञानों के प्रतिबन्धक रूप दोष कदाचित् प्रभाव रूप हो भी सकते हैं ) किन्तु शब्द प्रमाण से जो प्रमा ज्ञान उत्पन्न होगा, विप्रलिप्सा ( दूसरे को ठगने की इच्छा) प्रभृति दोष तो नियमतः भाव इन भाव रूप दोषों का अभाव शाब्दी प्रमा के लिये अपेक्षित होनेपर उसका प्रतिरोधक रूप ही हैं, अतः भी शाब्दी उसके १४
१०६ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जलौ तदभावमात्रेण प्रमानुत्पत्तेः । अन्यत्र यथातथाऽस्तु, शब्दे तु विप्रलिप्साद्यभावे वक्तृ- गुणापेक्षा नास्तीति चेन्न; गुणाभावे तदप्रामाण्यस्य वक्तृदोषापेक्षा नास्तीति विपर्यय- स्यापि सुवचत्वात् । अप्रामाण्यं प्रति दोषाणामन्वयव्यतिरेकौ स्त इति चेन्न, प्रामाण्यं प्रत्यपि गुरणानां तयोः सत्वात् । स्वतस्त्व में कोई बाधा नहीं है ( सभी ज्ञानों के लिये अपेक्षित सामान्य कारणों से अतिरिक्त किसी ‘भाव’ रूप कारण की अपेक्षा न रखना ही प्रमाज्ञान का ‘स्वतस्त्व’ है ) । सि० प० … न, अनुमानादौ ऐसी बात नहीं हो सकती ( कि केवल दोष के अभाव के रहने से ही प्रमा के उपयुक्त गुण के न रहने पर भीं प्रमा ज्ञान की उत्पत्ति हो जाय ) क्योंकि हेतु के विपर्ययादि रूप भावात्मक दोषों के न रहने से ही अनुमित्यादि प्रमाज्ञानों की उत्पत्ति नहीं हो जाती । ( उनके लिये लिङ्गादि के यथार्थज्ञान रूप गुण की भी अपेक्षा होती है ) । पू० प० … अन्यत्र यथा तथा में चाहे जो कुछ भी हो, किन्तु शब्द ‘अन्यत्र’ अनुमिति प्रभृति यथार्थज्ञानों के प्रसङ्ग में चाहे जो कुछ प्रमाण से उत्पन्न प्रमाज्ञान के प्रसङ्ग में यही तथ्य है कि विप्रलिप्सा प्रभृति दोषों के न रहने पर ( एवं ज्ञानों के साधारण कारणों के रहने पर ) वक्ता में रहने वाले शाब्दीप्रमा के सदृश प्रमाज्ञान रूप गुण के न रहने पर भी शब्द प्रमाण से प्रमाज्ञान की उत्पत्ति होती है । सि० प० न, गुणाभावे ( तुल्यन्याय से ) उक्त कथन के विपरीत यह कहना भी ठीक हो सकता है कि श्रप्रामाण्य के लिये लिये गुण का अभाव ही अपेक्षित है, अतः शब्द प्रमाण से उत्पन्न होने वाले अत्रमा ज्ञान के लिये भी वक्ता में रहनेवाले तत्सजातीय श्रप्रमाज्ञान रूप दोष की अपेक्षा नहीं है ( फलतः अप्रामाण्य का परतस्त्व भीं उपपन्न नहीं हो सकता ) । पू० प० 880 अप्रामाण्यं प्रति … … ( जहाँ अप्रमाज्ञान की उत्पत्ति होती है, वहीं दोष भी आवश्य ही रहते हैं इस प्रकार का) अन्वय एवं ( दोषों के न रहने से कभी भी श्रप्रमाज्ञान की उत्पत्ति नहीं होती है, इस आकार का ) ये दोनों ही हैं ( श्रुतः अप्रमाण्य के लिये दोष श्रावश्यक है ) । सि० प० … प्रामाण्यं प्रत्यपि … यह उत्तर भी ठीक नहीं है, क्योंकि प्रामाण्य प्रोर गुण इन दोनों में भी इस प्रकार का प्रन्वय और व्यतिरेक दोनों ही हैं ( प्रत: धन्वय और व्यतिरेक से अगर दोष को अप्रामाण्य का कारण मानना है तो फिर इन दोनों के बल से ही प्रामाण्य के प्रति गुण को भी कारण मानना ही पड़ेगा ) ।
प्रथमः स्तबक: १०७ पौरुषेयविषये इयमस्तु व्यवस्था, अपौरुषेये तु दोषनिवृत्यैव प्रामाण्यमिति चेन्न; गुणनिवृत्त्याऽप्रामाण्यस्यापि सम्भवात् । तस्या अप्रामाण्यं प्रति सामर्थ्यं नोपलब्धमिति चेत्, दोषनिवृत्तेः प्रामाण्यं प्रति क सामर्थ्यमुपलब्धम् ? लोकत्रच सीति चेत्, तुल्यम् । … पू० प० पोरुषेये विषये पौरुषेय शब्दों से जो ज्ञान रहनेवाले प्रामाण्य की उत्पत्ति के उत्पन्न होंगे ( उक्त अन्वय व्यतिरेक के कारण ) उन में लिये ( वक्ता में रहनेवाले उक्त यथार्थज्ञान रूप गुण की अपेक्षा भले ही स्वीकार कर ली जाय, किन्तु ) अपौरुषेयशब्द रूप वेद से जो ज्ञान उत्पन्न होंगे उन में रहनेवाले प्रामाण्य की उत्पत्ति में उक्त गुण की अपेक्षा नहीं है, केवल ( विप्रलिप्सादि ) दोपों के प्रभाव से ही वे उत्पन्न हो जांयगे । 100 सि० प० न, गुण निवृत्त्या इस प्रकार तुल्य युक्ति से वेद जनित ज्ञान में अप्रामाण्य की भी उत्पत्ति माननी होगी, क्योंकि ( प्रामाण्य में दोषाभाव की तरह अप्रामाण्य के प्रति गुण के प्रभाव को भी कारण मानना होगा । गुण का यह प्रभाव तो वेद जनित ज्ञान से पहिले भो है, अतः ) वेद जनित ज्ञान में अप्रामाण्य की आपत्ति होगी । पू० प० … तस्या प्रमाण्यं प्रति ( जिस प्रकार दोषाभाव में प्रामाण्य को उत्पन्न करने की सामर्थ्य उपलब्ध है, उसी प्रकार ) गुण के अभाव में अप्रामाण्य को उत्पन्न करने की सामर्थ्य कहीं उपलब्ध नहीं है । ( अत. गुणाभाव के द्वारा वेदजनित ज्ञान में अप्रामाण्य की आपत्ति नहीं दी जा सकती ) । सि० प० पू० प० … दोषनिवृत्तेः ……. दोष के अभाव में ही श्रप्रामाण्य को उत्पन्न करने की सामर्थ्य कहाँ उपलब्ध है ? 930 लोकवचसि प्राप्त पुरुषों से उच्चरित वाक्यों से जिन प्रमाज्ञानों की उत्पत्ति होती है, उन ज्ञानों में रहनेवाले प्रमाण्य के पहिले नियमतः विप्रलिप्सादि दोष नहीं रहते, अतः समझते हैं कि दोष के अभाव में प्रमाण्य को उत्पन्न करने की सामर्थ्य है । सि० प तुल्यम् … यह बात तो गुणों के प्रभाव के प्रसङ्ग में भी समान रूप से कही जा सकती है कि अनाप्तपुरुषों से उच्चरित वाक्यों से जिन अप्रमाज्ञानों की उत्पत्ति होती है, उनमें रहनेवाले अप्रामाण्य से पहिले च कि वक्ता में रहनेवाले यथार्थज्ञान रूप गुण कदापि नहीं रहते. अतः समझते हैं कि गुणों के अभाव में महामाष्य को उत्पन्न करने की सामर्थ्य है ।
१०८ तदप्रामाण्ये दोषा गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली एव कारणम्, गुणनिवृत्तिस्त्ववर्जनीयसिद्ध- सन्निधिरिति चेत्, प्रामाण्यं प्रति गुणेष्वपि तुल्यमेतत् । गुणानांदोषोत्सारण प्रयुक्तः सन्निधिरिति चेत्; दोषाणामपि गुणोत्साररणप्रयुक्त इत्यस्तु । निस्स्वभावत्व- मेवमपौरुषेयस्य वेदस्य स्यादिति चेत् । पू० प० तदप्रामाण्ये … ज्ञान में रहनेवाले प्रप्रामाण्य का दोष ही कारण है । अप्रमाण्य से पहिले नियत रूप से गुणों के अभाव की सत्ता तो इस लिये रहती है कि दोषों के रहते उसकी सत्ता हटाई नहीं जा सकती । सि० प० ….. … प्रामाण्यं प्रति… … गुण को प्रामाण्य का कारण मानने के पक्ष में भी इसी तरह यह बात कही जा सकती है कि प्रमाण्य के प्रति गुण ही ‘कारण’ हैं ( दोषों का अभाव नहीं ) । प्रामाण्य की उत्पत्ति से पहिले दोषों का अभाव इस लिये नियत रूप से रहता है कि गुण और दोष परस्पर विरोधी हैं, अतः गुणों के रहते दोष नहीं रह सकते । पू० प० गुणानाम्" प्रामाण्य की उत्पत्ति से पहिले दोषों का हटना श्रावश्यक है । गुण दोष हटाने का यही काम करता है । इसी लिये वह प्रमाण्यज्ञान से पहिले अवश्य रहता है । ( अतः गुण प्रामाण्य का कारण नहीं, किन्तु अन्यथासिद्ध है ) । सि० प० … … … दोषाणामपि… … … इसी प्रकार यह भी कहा जा सकता है कि अप्रामाण्य के प्रति गुणों का अभाव ही कारण है ( दोष नहीं ) किन्तु दोषों से ही गुणों को सत्ता हटाई जा सकती है । अत: अप्रामाण्य से पहिले दोषों का रहना अनिवार्य है ( किन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि दोष अप्रामाण्य का कारण है ) । पू० प० निःस्वभावत्वम्’ इस प्रकार तो अपौरुषेय वेदों के द्वारा उत्पन्न ज्ञान ‘निःस्वभाव’ हो जायँगे (चू कि वेद रूप शब्द पुरुष से उत्पन्न नहीं होते, अतः वक्तृगत विप्रलित्सादि दोष वहां नहीं रह सकते, सुतराम् वेदों से उत्पन्न ज्ञान अप्रमाण नहीं होंगे । एवं उक्त कारण से ही बक्गत सम्यक ज्ञान रूप गुण की भी संभावना भी नहीं है, अतः उक्त ज्ञान प्रमाण भी नहीं होंगे ) ज्ञान के प्रामाण्य और अप्रामाण्य ये दो ही स्वभाव हैं, उक्त वेद जनित ज्ञान में दोनों स्वभावों में से किसी के न रहने से उक्त ज्ञान ‘निःस्वभाव हो जायेंगे !
3 V आत्मानमुपालभस्व । प्रथमः स्तवकः १०६ तस्माद्यथा द्वेषरागाभावाऽविनाभावेऽपि रागद्वेषयोरनु- विधान नियमात् प्रवृत्तिनिवृत्तिप्रयत्नयो रागद्वेषकारणकत्वम्, न तु निवृत्ति प्रयत्नो द्वेषहेतुकः प्रवृत्तिप्रयत्नस्तु सत्यपि रागानुविधाने द्वेषाभावहेतुक इति विभागो युज्यते, विशेषाभावात् । तथा प्रकृतेऽपि । तथापि वेदानामपौरुषेयत्वे सिद्धे प्रपेतवक्तृदोषत्वादेव प्रामाण्यं सेत्स्यति । ततः सिद्धे प्रामाण्ये गुणाभावेऽपि तदिति दोषाभाव एव हेतुरकारणं गुणा इति सि० प० ‘‘आत्मानम् इसी प्रकार प्रकृत में भी ( हम लोगों का ( वेदजनित ज्ञान में निःस्वाभत्व का ) यह उपालम्भ ( मीमांसक) अपने आप को दें ( मुझे नहीं, क्योंकि मेरे मत के अनुसार जैसे कि ) राग प्रवृत्तिप्रयत्न का कारण है और उसके साथ अवश्य रहनेवाले ( अविनाभूत ) द्वेष के अभाव की सत्ता भी अवश्य रहती है ) एवं निवृत्तिजनक प्रयत्न के द्वेष रूप कारणके होते हुये भी द्वेष के साथ अवश्य रहनेवाला राग का अभाव भी अवश्य रहता है । किन्तु उन दोनों अभावों की नियमित सत्ता से राग में प्रवृत्तिप्रयत्न की कारणता और द्वेष में निवृत्तिप्रयत्न की कारणता को नहीं हटाई जा सकती । यह नहीं कहा जा सकता कि निवृत्तिप्रयत्न का कारण तो दोष अवश्य है, किन्तु प्रवृत्तिप्रयत्न का कारण द्वेष का प्रभाव ही है, राग नहीं। भले ही प्रवृत्तिप्रयत्न के साथ राग का अन्वय और व्यतिरेक दोनों ही रहे कहना है कि ) गुण प्रमा का और दोष दोषाभाव में प्रमा का अन्वय और व्यतिरेक दोनों ही देखे जाते हैं, एवं गुणाभाव में जो प्रश्मा का अन्वय और व्यतिरेक ये दोनों ही दोष की तरह देखे जाते है, उसका हेतु है क्रमशः गुण के साथ दोषाभाव की व्याप्ति एवं दोष के साथ गुणभाव की व्याप्ति । इससे दोषाभाव में प्रमात्व की कारणता और गुणभाव में अप्रमात्व की कारणता नहीं आ सकती अतः वेद से उत्पन्न ज्ञान को अगर प्रमा मानना है तो किसी आप्तपुरुष को उसका वक्ता मानना ही होगा । जिससे उक्त पुरुष में रहनेवाले वेदार्थ विषयक यथार्थ ज्ञान रूप गुण के द्वारा वेदजनित ज्ञान में प्रमात्व की उपपत्ति हो सके । पू० प० । तथापि वेदानाम्”” प्रभा का कारण हैं, गुण की तरह जो । फिर भी वेदों में अपौरुषेयत्व के सिद्ध हो जाने पर इस अनुमान से ही प्रामाण्य की सिद्धि हो जायगी ( अनुमान का प्रकार यह है कि ) चूं कि वेदों का कर्त्ता कोई पुरुष नहीं है, अतः वेदों से उत्पन्न होनेवाले ज्ञान से पहिले वक्तृगत विप्रलिप्सादि दोष नहीं रह सकते । इसलिये अपौरुषेय वेदों से उत्पन्न ज्ञान में अगर प्रभात्व की उत्पत्ति होगी तो वक्ता में रहनेवाले दोष की असंभावना से ही होगी । फलतः दोष के अभाव से ही होगी, गुणों से नहीं । सुतराम यह
११० गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली चेन्न, अपेतवक्तृगुरणत्वेन सत्प्रतिपक्षत्वप्रसङ्गात् । स्वत एव प्रामाण्यनिश्चयः । किन्तु शङ्कामात्रमनेनापनीयते, दोषनिबन्धनत्वात्तस्य तदभावेऽभावात् । श्रतो नेदमनुमानवत् सत्प्रतिसाघनीकर्तुमुचितमिति चेन्न; गुण निवृत्तिनिबन्धनायाः शङ्कायाः अनुमान सुलभ है कि ‘वेदाः प्रमाणम् अपेतवक्तृदोषत्वात् यन्नैवम् तन्नैवम् यथा प्रतारक- वाक्यम्, इस अनुमान के द्वारा दोषों के अभाव में प्रामाण्य की कारणता के सिद्ध हो जाने पर वेदों में प्रामाण्य की सिद्धि हो जायगी । सि० प० … … … ..न, अपेतवक्त गुणत्वेन उक अनुमान की तरह यह विरोधी अनुमान भी किया जा सकता है कि ‘वेदा अप्रमाणम् प्रपेतवक्तृगुणत्वात् यन्नैवम् तन्नैवम् यथा प्राप्तवाक्यम्’ अर्थात् वेदों को अगर अपौरुषेय मानते हैं तो फिर दोषों की तरह गुणों की संभावना भी मिट जाती है । सुतराम् जिस प्रकार ( आपके मतके अनुसार प्रमाण्य के प्रयोजक दोषाभाव की सत्ता है, उसी प्रकार मेरे मत के अनुसार प्रमाण्य के प्रयोजक गुणों की भी संभावना नहीं है) इस प्रकार वेद रूप पक्ष में ही अपेतवक्तृगुणत्व रूप दूसरे हेतु से मीमांसकों के अभिमत प्रामाण्य रूप साध्य के अभाव रूप श्रप्रामाण्य का भी अनुमान हो सकता है । ( जहाँ प्रकृत पक्ष में किसी दूसरे हेतु से प्रकृत साध्य के अभाव का अनुमान संभावित हो वहाँ प्रकृत हेतु सत्प्रतिपक्ष हेत्वाभास हो जाता है ) । इस प्रकार वेदों में प्रामाण्य का साधक प्रकृत हेतु सत्प्रतिपक्ष से दूषित होने के कारण वेदों में प्रामाण्य का साधन नहीं कर सकता । पू० प० 14. 180 … स्वत एव 100 कथित अपेतवक्तृदोषत्व हेतु से वेदों में प्रामाण्य की सिद्धि नहीं होती है, वेदों में प्रामाण्य की सिद्धि तो ‘स्वतः’ होती है । कथित ‘अपेतवतृदोषत्व’ हेतु से तो वेदों में स्वाभाविक अप्रामाण्य के संशय का निरास भर होता है। क्योंकि दोष से ही संशय की उत्पत्ति होती है । चूँ कि संशय अप्रमाज्ञान स्वरूप है, अतः वक्तृगत दोष के न रहने से प्रामाण्य का संशय भी स्वभावतः छूट जाता है । सुतराम् उक्त रीति से सत्प्रतिपक्ष दोष के उद्भावन का प्रकृत में कोई अवसर नहीं है । सि० प० ०० … न, गुणनिवृत्ति : जैसे कि दोष प्रमात्व के संशय का कारण है. वैसे हो गुणों की निवृत्ति भी संशय का कारण है । प्रकृत में वेदों का आदि वक्ता किसी को न मानने से जैसे वक्ता में रहनेवाले विप्रलिप्सादि दोष की संभावना नहीं रहती, उसी प्रकार वक्ता में रहनेवाले यथार्थज्ञानादि गुणों की संभावना भी नहीं रह जाती। इस स्थिति में दोष के न रहने से भाषण का सम्बेह भले
प्रथमः स्तवक: १११ सुलभत्वात् । केवलाया अप्रामाण्यं प्रत्यनङ्गत्वान्न शंकेति चेत् ? दोषनिवृत्तेरपि केवलायाः प्रमाण्यं प्रत्यनङ्गत्वान्न तया शङ्कानिवृत्तिरिति तुल्यमिति । एवं प्रामाण्यं परतो ज्ञायते, अनभ्यासदशायां सांशयिकत्वात् प्रप्रामाण्यवत् । यदि तु स्वतो ज्ञायेत; कदाचिदपि प्रामाण्यसंशयो न स्यात्, ज्ञानत्वसंशयवत् । निश्चिते तदनवकाशात् । ही संभव न हो, किन्तु गुण की निवृत्ति से वेदों में जो प्रामाण्य का जो सन्देह प्राप्त होगा, उसका निवारण कौन करेगा ? पू० प० 434 तस्याः केवलायाः दोषों के साहाय्य के बिना केवल गुणों के अभाव से प्रामाण्य का संशय कहीं भी संभव नहीं है । अतः वेदों में अपेतवक्त कत्व हेतु से गुणाभाव मूलक प्रामाण्य के संशय की आपत्ति नहीं दी जा सकतीं । सि० प० 114 दोषनिवृत्तेरपि तुल्य न्याय से यह भी कहा जा सकता है कि जैसे कि दोष से अनपेक्ष केवल गुणाभाव ही अप्रामाण्य का प्रयोजक नहीं है, उसी प्रकार गुणों के बिना केवल दोषों की निवृत्ति भी प्रामाण्य का प्रयोजक नहीं है । अतः गुणों के न रहने से केवल दोषाभाव से अप्रामाण्य के सन्देह का निरसन नहीं हो सकता । एवं प्रामाण्यं परतः इसी प्रकार (ज्ञान में रहने वाले प्रमात्व की उत्पत्ति की तरह) ज्ञान में रहने वाले प्रामाण्य का अर्थात् प्रमात्व का ज्ञान भी ‘परत:’ होता है । (अर्थात् ज्ञान में रहने वाले प्रमाण्य को समझने के लिये भी प्रमात्व के आश्रयीभूत ज्ञान को समझानेवाले प्रमाणों से अतिरिक्त दूसरे प्रमाण की भी आवश्यकता होती है ) । अगर ऐसा न मानें ( ज्ञान में रहने वाले प्रमात्व का ग्रहण भी ज्ञान के ज्ञापक प्रमाणों से ही मानें तो फिर किसी भी ज्ञान में प्रमात्व का संशय नहीं हो सकेगा । किन्तु यह सभी मानते हैं कि कोई नया ज्ञान ( अनभ्यासदशापन्नज्ञान ) होने पर उसमें प्रमात्व का इस आकार का संशय होता है कि’ यह ज्ञान यथार्थ है या नहीं ?’ अगर प्रमात्व के आश्रयीभूत ज्ञान को समझाने वाले प्रमाण को ही उक्त प्रमात्व को निश्चित करने वाला भी मान लें ( अर्थात् प्रमात्व की ज्ञप्ति को परतः न मानें ) तो कथित संशय की उपपत्ति नहीं होगी । ( क्योंकि संशय के दोनों कोटयों ) में से किसी एक कोटि का भी निश्चय संशय को रोक देता है । प्रकृत ज्ञान के बाद उस ज्ञान को समझानेवाला जो प्रमाण है उसी को अगर उस ज्ञान में रहनेवाले प्रमात्व का भी निश्चायक मान लें तो फिर सभी ज्ञानों में नियमतः प्रमात्व का निश्चय भो हो हो जायगा । जो ‘इदं ज्ञानं प्रमा नवा’ इस संशय के एक कोटि का निश्चय स्वरूप है । CCO. Vasishtha Tripathi Collection. Digitized by eGangotri११२ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जलौ न हि साधकबाधकप्रमाणाभावमवधूय समानधर्मादिदर्शना देवाऽसौ । तथा सति तदुदच्छेदप्रसङ्गात् । अथ प्रमाणवदप्रमाणेऽपि तत्प्रत्ययदर्शनाद्विशेषादर्शनाद्भवति शङ्कत्यभिप्रायः; पू० प० ….. न हि साधकबाधकप्रमाणाभावम्’’ 100 धर्मी में संशय के दोनों कोटियों के साथ रहने वाले किसी एक धर्म का ज्ञान संशय का कारण हैं । ( पर्वत में वह्नि धूम के साथ देखा जाता है एवं अयोगोलक में धूमाभाव के साथ | अत एव वह्नि के देखने से धूम का संशय होता है । इस संशय का प्रयोजक धर्म धूम और धूमाभाव दोनों के साथ रहनेवाला वह्नि रूप साधारण धर्म ही है ) । प्रकृत में ज्ञानत्व रूप धर्म प्रमाज्ञान और अप्रमाज्ञान दोनों में ही है । अत: ज्ञानत्व ही प्रामाण्य संशय का जनक साधारण धर्म है, क्योंकि वह प्रामाण्य के साथ भी रहता है और अप्रामाण्य के साथ भी । जिस समय प्रमात्व निश्चित भी रहेगा, उस समय भी ज्ञानत्व रूप उक्त उभयसाधारण धर्म के ज्ञान से प्रमात्व का संशय हो सकता है । सि० प०० तथा सति उक्त साधारण धर्म का ज्ञान भी संशय का कारण अवश्य है, किन्तु केवल वही संशय का कारण नहीं है । संशय के और भी कारण हैं । कार्य की उत्पत्ति सभी कारणों के रहने पर ही होती है । किसी एक भी कारण के न रहने पर कार्य को उत्पत्ति नहीं होती है । जिस प्रकार उक्त साधारण धर्म का ज्ञान संशय का कारण है, उसी प्रकार साधकप्रमाण ओर बाधकप्रमाण इन दोनों का अभाव भी संशय का कारण है । संशय के भाव कोटि का निर्णायक प्रमाण ही है साधकप्रमाण, एवं संशय के अभाव कोटि का साधक प्रमाण ही बाधक प्रमाण है, इन दोनों प्रमाणों में से एक के रहने पर भी एक कोटि का निश्चय अवश्य हो जायगा, अतः दोनों प्रमाणों के अभाव का रहना भी आवश्यक है । अगर ऐसा न मानें तो कभी भी संशय का उच्छेद नहीं होगा । प्रकृत में प्रमात्व की सिद्धि के जनक प्रमाण हैं वे अनुव्यवसायादि, जो ज्ञान के भी ग्राहक प्रमाण हैं । इन साधक प्रमाणों के रहते हुए प्रमात्व एवं अप्रमात्व दोनों के साथ रहने वाले ज्ञानत्व रूप साधारण धर्म का ज्ञान रहने पर भो प्रामाण्य के संगय को आपत्ति नहीं होगी, क्योंकि साधकप्रमाण के रहने पर भी साधकप्रमाण का अभाव और बाधकप्रमाण का प्रभाव ये दोनों अभाव नहीं रहेंगे । पू० ५०० …ग्रथ प्रमाणवत् ज्ञान को समझाने वाले (ज्ञानग्राहक) प्रमाणों से प्रामाण्य का ज्ञान यथार्थज्ञान में भी होता है, एवं अयथार्थज्ञान में भी होता है (क्यों कि प्रयथार्थ को यथार्थज्ञान समझने वाले को कमी नहीं है) अतः ‘यह ज्ञान प्रमा है’ एवं ‘यह ज्ञान प्रयथार्थ है’ इन दोनों के निर्णायक
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ही य । द्धि गों का इने में ले नक द्वितीयः स्तवकं ११३ तत्कि प्रमाणज्ञानोपलम्भेऽपि न तत्प्रामाण्यमुपलब्धम्, प्रमाणज्ञानमेव वा नोपलब्धम् ? प्राद्ये कथं स्वतः प्रामाण्यग्रहः ? प्रत्ययप्रतीतावनि तदप्रतीतेः । द्वितीये, कथं तत्र शङ्का ? धर्मिए एवाऽनुपलब्धेरिति । यदपि झटिति प्रचुरतरसमर्थं प्रवृत्त्यन्यथाऽनुपपत्त्या स्वतः प्रामाण्यमुच्यते, किसी ‘विशेष’ को जब तक नहीं देखा जाता, तबतक संशय को रोकना संभव नहीं है । अत: साधारण धर्मादि के ज्ञानों की तरह ‘विशेषादर्शन’ भी संशय का एक कारण है । तदनुसार जब तक अप्रमात्व कोटि को विघटित करने वाले विशेषधर्म का दर्शन नहीं हो जाता तब तक प्रमात्व का संशय होगा ही । फलतः ऐसे स्थलों में प्रामाण्य का संशय अप्रामाण्य रूप विशेष धर्म के अदर्शन से ही होता है । सि० प०…… … तत्किम् तो फिर इस से मैं आप का यह अभिप्राय समभूँ कि प्रमाज्ञान की उपलब्धि होने पर भी उस में रहने वाला प्रमात्व धर्म उपलब्ध नहीं होता है, अतः प्रमात्व का संशय होता है ? अथवा (२) प्रमाज्ञान ही उपलब्ध नहीं होता, इसी लिये प्रामाण्य का संशय होता है ? इन दोनो में पहिला पक्ष इसलिये असंगत है कि प्रमाज्ञान के ज्ञात हो जाने पर अगर उस में रहने वाले प्रामाण्य का ग्रहण नहीं होता है तो फिर प्रामाण्य की ज्ञप्ति ‘स्वतः’ अर्थात् प्रामाण्य के आषयीभूत ज्ञान को समझाने वाले प्रमाण से ग्राह्य कैसे हुई ? द्वितीय पक्ष इस लिये प्रसंगत है कि अगर प्रामाण्य के आश्रयीभूत ज्ञान की ही उपलब्धि नहीं हुई तो फिर उस ज्ञान में प्रामाण्य का संशय ही क्यों कर होगा ? क्यों कि संशय से पहिले धर्मी का निश्चय आवश्यक है । ( इतने ‘पर्यन्त’ के सन्दर्भ से प्रामाण्य के परतस्त्व के साधक प्रमाणों को दिखलाया गया है । इस के आगे ‘झटिति’ इत्यादि सन्दर्भ के द्वारा प्रामाण्य के स्वतस्त्व की सिद्धि करने के लिये मीमांसकों द्वारा प्रयुक्त प्रमाणों का उल्लेख पूर्वक खंडन किया गया हैं ) । ५० प० …………… यदपि झटिति प्रचुरतर विषय का ज्ञान प्रवृत्ति का कारण है । क्योंकि जब तक घट ज्ञात नहीं हो जाता तब तक घट में प्रवृत्ति नहीं होती। एंव जिस विषय के ज्ञान में अप्रामाण्य की बुद्धि रहती है, उस ज्ञान के रहते भी उस विषय में प्रवृत्ति नहीं होती है । अतः विषय का भी वही ज्ञान प्रवृत्ति का कारण है, जिसमें अप्रामाण्य गृहीत न हो । जल को देखने के वाद प्यासा आदमी तत्क्षण ही जल को ले आने के लिये दौड़ पड़ता है । उसकी वह प्रवृत्ति सफल भी होती है । इस प्रकार की प्रवृत्तियां सैकड़ो हजारों की संख्या के लोगों में देखी जातीं हैं । पहिले कह आये हैं कि विषय का वही ज्ञान प्रवृत्ति को उत्पन्न कर सकता है, जिसका प्रमाण्य निश्चित हो । ऐसी वस्तुस्थिति में अगर प्रामाण्य का ज्ञान ‘स्वतः’ न मान कर ‘परतः’ माने अर्थात् अनुमानादि अन्य प्रमाणों के द्वारा प्रामाण्य का ज्ञान स्वीकार करें तो कथित झटितिप्रवृत्तियों एवं सफलप्रवृत्तियों की उपपत्ति १५
११४ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जलौ . तदपि नास्ति, अन्यथैवोपपत्तेः । झटिति प्रवृत्तिर्हि झटिति तत्कारणोपनिपात- मन्तरेणानुपपद्यमाना तमाक्षिपेत्, प्रचुरप्रवृत्तिरपि स्वकारणप्राचुर्यम् । इच्छा च प्रवृत्तेः कारणम् । तत्कारणमपीष्टाभ्युपायताज्ञानम्, तदपि तज्जातीयत्वलिङ्गा- नुभवप्रभवम् । सोऽपीन्द्रियसन्निकर्षादिजन्मा, न तु प्रामाण्यग्रहस्य क्वचिदप्युपयोगः । एवं कथित सहस्रों व्यक्तियों में होने वाली ‘प्रचुरप्रवृत्तियों’ की उपपत्ति नही हो सकेगी। क्योंकि प्रामाण्य का ज्ञान परतः मानने के अनुसार पहिले विषय का ज्ञान होगा, उसके वाद उस ज्ञान में रहनेवाले प्रामाण्य का अनुमानप्रमाण से ज्ञान के लिये उपयुक्त व्याप्तिज्ञान पक्षधर्मताज्ञान परा- मर्शादि का संबलन होगा । इस संवलन के बाद प्रमात्व का ज्ञान होगा । तब कहीं जाकर प्रवृत्ति की उत्पत्ति होगी । इससे जल को देखने के बाद ही जो ‘झटिति’ अर्थात् कथित परामर्शादि के लिये अपेक्षित समय की अपेक्षा किये विना ही उत्पन्न होने वाली प्रवृत्तियां हैं, वे अनुपपन्न हो जांयगी । एवं हजारों प्यासे पुरुष जल को देख कर जल ले आने के लिये जो प्रवृत्त होते हैं और उनकी ये प्रवृत्तियां सफल भी होती है । जल ले आने की प्रवृत्तियों की यह प्रचुरता या आधिक्य भी प्रामाण्य ज्ञान को स्वतः न मानने से अनुपपन्न हो जायगा । क्यों कि यह . संभव नहीं है कि उक्त हजारों व्यक्तियों में प्रवृत्ति के प्रयोजक प्रमाण्यानुमान के उपयुक्त परामर्शादि का संबलन एक ही समय हो सके । अतः यही कहना पड़ेगा कि जल को समझने के बाद अनुमान की सामाग्री की अपेक्षा किये विना ही केवल जल ज्ञान के ग्राहक सामग्रियों से ही जलज्ञान में रहने वाला प्रमात्व या प्रामाण्य भी गृहीत हो जाता है, अतः यह भी कहा जा सकता है की कथित ‘झटितिप्रवृत्ति’ एवं ‘प्रचुरप्रवृत्ति’ इन दोनों की अनुपपत्तियों से प्रमात्व की ज्ञप्ति के स्वतस्त्व का आक्षेप होता है । अर्थात् प्रामाण्य या प्रमात्व की ज्ञप्ति गत स्वतस्त्व को सिद्धि अर्थापत्ति प्रमाण से भी होती है । सि० प० … तदपि नास्ति …… … सफल होनेवाली कथित ‘झटिति प्रवृत्ति’ एवं सफल होने वाली कथित ’ प्रचुरप्रवृत्ति’ दोनों की उपपत्ति ‘अन्यथा’ भी हो सकती है । अर्थात् प्रामाण्यज्ञान को स्वतः न मानने पर भी हो सकती हैं । कारणों का शीघ्रतापूर्वक संबलन ही झटित्ति प्रवृति का कारण है । अतः झटिति प्रवृत्ति की अनुपपत्ति से सभी कारणों के झटिति संबलन का हो आक्षेप हो सकता है, प्रामाण्यज्ञान के स्वतस्त्व का नहीं । क्योंकि जो वस्तु जिसके बिना अनुपपन्न रहती है, उस से उसी वस्तु का आक्षेप होता है । इसी तरह प्रचुरप्रवृत्ति भी स्वयं अनुपपन्न होकर कारणों के प्राचुर्य का ही आक्षेप कर सकती है, प्रामाण्यज्ञान के स्वतस्त्व का नहीं । क्योंकि कारणों का प्राचुर्य ही प्रचुरप्रवृत्ति का कारण है । एवं उक्त दोनों प्रवृत्तियों की सफलता या सामर्थ्य की अनुपपति से उक्त प्रवृत्तियों के कारणीभूत ज्ञान के प्रमात्व का ही आक्षेप होगा, प्रमात्वज्ञान के स्वतस्त्व का नहीं। क्योंकि प्रामाण्यज्ञान का स्वतस्त्वं प्रवृत्ति के साफल्य का कारण नहीं है । 1 उ ปี स त में उ फ प उ के स f ६ ३
ג T f T 可 द्वितीयः स्तबक ११५ उपयोगे वा स्वत एवेति कुन एतत् ? ततः समर्थप्रवृत्तिप्राचुर्यमपि प्रामाण्यप्राचुर्यात्, तद्ग्रहणप्राचुर्याद्वा । स्वतस्त्वं तु तस्य कोपयुज्यते ? न हि पिपासूनां झटिति प्रचुरा समर्था च प्रवृत्तिरम्भसीति पिपासोपशमनशक्तिस्तस्य प्रत्यक्षा स्यात् । ततः समर्थं 60 जिन झटितिप्रवृति एवं प्रचुरप्रवृत्तियों को चर्चा की गयी है, वे प्रवृत्तियाँ ऐसे ही विषयों में होतीं हैं, जिनके विषय के समान ( सजातीय ) विषयों से पुरुष लाभ उठा चुका होता है । उन्हीं विषयों की इच्छा जीव को होती है, जिन्हें वह अपने इष्ट का संपादक समझता है । फलतः इष्टसाधनत्व का ज्ञान भी प्रवृत्ति का कारण है । जिस जाति के वस्तु से जीव को पहिले सुख मिला रहता है या दुःख छूटा रहता है, उस जाति की वस्तुओं को वह जीव इष्ट अर्थात् सुख या दुःखनिवृत्ति का साधन समझता है । फलतः ‘तदपि’ अर्थात् इष्टसाधनता का वह ज्ञान भी इष्टजातीयत्व लिङ्गक अनुमान से ही होता है । इस अनुमान के इष्टजातीयत्व रूप हेतु का ज्ञान भी इन्द्रियसंनिकर्षादि से होता है । इस प्रकार प्रवृत्ति की जो कारण परम्परा है, उसका अगर अनुसन्धान करते हैं तो ‘क्वचिदपि’ अर्थात् कहीं दूर पर भी प्रवृत्ति की उत्पत्ति के लिए प्रामाण्य के ज्ञान का उपयोग नहीं दीखता । जब प्रवृत्ति में प्रामाण्यज्ञान के उपयोग की ही यह दशा है तो फिर प्रवृत्ति में प्रामाण्यज्ञान के स्वतस्त्व के उपयोग की चिन्ता ही व्यर्थ है । अगर किसी प्रकार प्रवृत्ति में प्रामाण्यज्ञान का उपयोग मान भी लिया जाय, तथापि प्रामाण्यज्ञान के स्वतस्त्व के उपयोग की तो संभावना कदापि नहीं है । अगर मीमांसकों के कथन के अनुसार दृष्टार्थक प्रवृत्तियों में प्रामाण्यनिश्चय का उपयोग न मान कर श्रदृष्टार्थक ज्योतिष्टोमादि यागों में प्रवृत्ति के लिये उसके विधायक वाक्यो में प्रामाण्यनिश्चय का उपयोग मान भी लें, तथापि प्रामाण्यज्ञान के स्वतस्त्व का उपयोग तो प्रवृत्ति में कहीं भी नहीं है । अतः प्रवृत्ति की ‘अन्यथानुपपत्ति’ से प्रामाण्यज्ञान के स्वतस्त्व की सिद्धि नहीं हो सकती । पिपासोपशमन ( एवं प्रवृत्ति के उत्पादन में प्रामाण्यज्ञान का उपयोग मान भी लें फिर भी इस से यह सिद्ध नहीं होता कि प्रामाण्य का ज्ञान ‘स्वत:’ अर्थात् प्रामाण्य के आश्रयीभूत ज्ञान के ज्ञापक प्रमाणों से ही होता है । क्योंकि यह नियम नहीं किया जा सकता कि जिस प्रमाण से धर्मी का ग्रहण हो, उसी प्रमाण के द्वारा उस धर्मी में रहनेवाले धर्म का भी ग्रहण हो । अगर ऐसा मानें तो फिर मीमांसकों को ) जल में जो प्यास को बुझाने की शक्ति 1 रूप धर्म है, उस का भी प्रत्यक्ष चक्षुरिन्द्रिय से मानना होगा। क्योंकि जल रूप धर्मी का प्रत्यक्ष चक्षु से होता है । अर्थात् जिस प्रकार जलानयनप्रवृत्ति के लिये उपयोगी प्यास बुझाने की जल की ( पिपासोपशमन) शक्ति का ज्ञान शक्ति के श्राश्रयीभूत जल के ग्राहक इन्द्रियों से नहीं होता है, किन्तु अनुमान से होता है । उसी प्रकार प्रवृत्ति के लिये प्रामाण्य का ज्ञान अगर आवश्यक भी हो, तथापि यह नहीं कहा जा सकता कि उस प्रामाण्य का ज्ञान स्वाश्रयीभूत ज्ञान के ज्ञापक प्रमाणों से ही होता है । }
११६ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली स्थादेतत् । प्रामाण्यग्रहे सति सर्वमेतदुपपद्यते । स च स्वतो यदि न स्यात्, न स्यादेव | परतः पक्षस्यानवस्थादुःस्थत्वादिति चेन्न । तदग्रहेऽप्यर्थं सन्देहादपि पू० प० स्यादेतत्, प्रामाण्यग्रहे सति प्रकृत में प्रामाण्यज्ञान का स्वतस्त्व भले ही उपयुक्त न हो, किन्तु कथित झटिति प्रवृत्यादि के लिये प्रामाण्यज्ञान का उपयोग आप ( नैयायिक ) भी मानते हैं । किन्तु प्रामाण्यज्ञान की उत्पत्ति अगर होगी तो ‘स्वत:’ ही होगी अर्थात् प्रामाण्य के श्राश्रयीभूत ज्ञान के ज्ञापक सामग्री से ही होगी । ‘परत’ अर्थात् ज्ञान के ज्ञापक कारणों से अतिरिक्त सफल- प्रवृत्ति जनकत्वादि लिङ्गक अनुमानादि से प्रामाण्यज्ञान को उत्पत्ति नहीं हो सकती । क्योंकि जिस ज्ञान का प्रमात्व निश्चित रहता है, उसी ज्ञान से अर्थं को सिद्धि हो सकती है । जिस ज्ञान का प्रामाण्य निश्चित नहीं रहता है, उस से अर्थ की सिद्धि नहीं होती है । इस वस्तु- स्थिति के अनुसार ( परतः प्रामाण्य पक्ष में ) सफलप्रवृत्तिजनकत्वादि लिङ्गक जिस निश्चित नहीं हो जाता, तब तक घटादि विषयक नहीं हो सकता । अतः इस अनुमिति में रहनेवाले प्रमात्व के निश्चय के लिये किसी दूसरे प्रमात्व या प्रायाण्य रूप अर्थ की सिद्धि अनुमान से होगी, उस अनुमान में जबतक प्रामाण्य प्रत्यक्षात्मक ज्ञान में प्रमात्व का निश्चय अनुमान का सहारा लेना होगा। ऐसा मान लेने से इस दूसरे अनुमान में रहनेवाले प्रमात्व में के प्रसङ्ग में भी यह प्रश्न होगा कि इस का प्रामाण्य किस से गृहीत होगा ? क्योंकि प्रमाण्यग्रह के बिना इस से भी तो पहिले के ज्ञान में रहनेवाले प्रामाण्य की सिद्धि नहीं होगी । इस प्रकार प्रमात्वग्रह की सामग्री के अन्वेषण की धारा कभी नहीं रुकेगी । अतः परतः प्रामाण्य पक्ष में अनवस्था दोष की आपत्ति होगी । एवं अनुमिति के लिये पक्षघर्मिक हेतुमत्ता का ज्ञान और हेतु धार्मिक साध्य की व्याप्ति का ज्ञान ये दोनों ही आवश्यक हैं। ये दोनों ही ज्ञान निश्चय रूप ही चाहिये संशय रूप नहीं । एवं यह भी तय है कि वही ज्ञान कारण हो सकता है जिसमें किसी भी प्रकार से श्रप्रामाण्य गृहीत न हो । अतः यह भी आवश्यक है कि अनुमिति के कारणीभूत उन दोनों ज्ञानों में प्रामाण्य. गृहीत रहे। जिस अनुमान के द्वारा उक्त दोनों ज्ञानों में प्रामाण्य गृहीत होगा, उस अनुमान के प्रयोजकीभूत व्याप्तिज्ञान और पक्षधर्मता के ज्ञान में प्रामाण्य के ग्रहण के लिये भी स्वतन्त्र सामग्री का अन्वेषण करना पड़ेगा । इस रीति से भी नैयायिकों के परतः प्रामाण्य- पक्ष में अनवस्था होगी । सुतराम् चूंकि प्रामाण्य का परतः ग्रहण संभव ही नहीं है, अतः उस का ज्ञान ‘स्वत:’ मानते हैं । सि० प० ‘न, तदग्रहेऽपि किसी भी अर्थ के निश्चय के लिये प्रामाण्य या प्रमात्व का ज्ञान आवश्यक नहीं है । यद्यपि यह ठीक है कि जिस ज्ञान में अप्रामाण्य का सन्देह भी रहता है उस ज्ञान से अर्थ की सिद्धि नहीं होती है । किन्तु इस का इतना ही अर्थ है कि वही ज्ञान अर्थ का साधक
द्वितीयः स्तबकः ११७ सर्वस्योपपत्तेः । न चानवस्थाऽपि प्रामाण्यस्यावश्पज्ञेयस्वानभ्युपगमात्, अन्यथा स्वतः पक्षेऽपि सा स्यात् । हो सकता है, जिस में अप्रामाण्य का जिस किसी भी श्रप्रामाण्यज्ञानानास्कन्दित ज्ञान ही अर्थ का साधक है ) । प्रकार का ज्ञान न रहे ( अर्थात् इस से यह सिद्ध नहीं होता कि ज्ञान से अर्थ साधन के लिये ज्ञान में प्रामाण्य का ग्रहण भी कारण है । ( अप्रामाण्य का दोनों एक ही वस्तु नहीं हैं ) । अर्थ के निश्चय के लिये कारण मान भी लें, तथापि प्रवृत्ति के लिये प्रामाण्यनिश्चय क्योंकि अर्थ के सन्देह से भी प्रवृत्ति देखी जाती है । अत: ज्ञान हो प्रवृत्ति का कारण है । अर्थात् श्रर्थ का संशय रूप हो अथवा निश्चय रूप हो । अतः नहीं है । ( सुतराम् ‘प्रामाण्यग्रहे सति सर्वमेत अग्रहण एवं प्रामाण्य का ग्रहण ये कदाचित् प्रामाण्य के निश्चय को की अपेक्षा नहीं मानी जा सकती, संशय निश्चय साधारण अर्थ का केवल ज्ञान ही प्रवृत्ति का कारण है, वह चाहे प्रवृत्ति के लिये प्रामाण्यज्ञान की अपेक्षा ही दुपपद्यते’ यह कहना ही असंगत है ) । पू० प० … … …न चानवस्था । अर्थ की सिद्धि के लिये प्रामाण्य की आवश्यकता अवश्य है । अगर ऐसी बात न हो तो फिर जिस विषय का ज्ञान प्रथमत उत्पन्न होता है ( अनभ्यासदशापन्न ) उस ज्ञान से भी अर्थ की सिद्धि माननी होगी । अतः इस ज्ञान में जो अर्थ सिद्धि का विघटक अप्रामाण्य का सन्देह है, उसको हटाने के लिये प्रामाण्य के निश्चय की आवश्यकता होती है । किन्तु प्रामाण्यज्ञान को ‘परत:’ मानने में अनवस्था का उपपादन कर चुके हैं । अतः प्रामाण्य का ज्ञान ‘स्वत:’ मानना ही उचित है । सि० प० ……. प्रामाण्यस्यावश्य ज्ञान में प्रामाण्य की सिद्धि के लिये सफल प्रवृत्तिजनकत्वादि लिङ्गक जिन अनुमानों की श्रावश्यकता बतायी गयी है, उन सभी अनुमानों में कथित प्रामाण्य की सिद्धि के लिये प्रामाण्य का ग्रहण की आवश्यता नहीं है, अर्थात् अनुमिति से प्रामाण्य के ग्रहण के लिये इतना ही अपेक्षित है कि उस अनुमिति में अप्रामाण्य गृहीत न रहे। इसके लिये इतना ही आवश्यक है कि अनुमिति में अप्रामाण्य का सन्देह न रहे। जिन स्थलों में प्रामाण्य के ज्ञापक अनुमिति में प्रामाण्य का संशय होगा, उन सभी स्थलों में ज्ञाप्य प्रामाण्य की अनुमिति रूप ज्ञान में भी प्रामाण्य का संशय प्रवश्य होगा । उन्हीं स्थलों प्रामाण्य के ज्ञापक अनुमानों में प्रामाण्य के निश्चय की आवश्यकता है । फिर भी प्रामाण्य संशय की धारा जब तब चलेगी तभी तक प्रामाण्य निश्चय की कंथित आवश्यकता रहेगी। जब यह धारा स्वतः प्रमाण रूप अन्तिम ज्ञान पर पहुँचेगी ( जहाँ अप्रामाण्य का संशय नहीं हो सकेगा )
११८. गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली वहाँ प्रामाण्य के संशय की धारा टूट जायगी । उस के बाद प्रामाण्य एवं अप्रामाण्य रूप दोनों कोटियों का स्मरण न रहने से अथवा उसके बाद किसी दूसरे बाधक ज्ञान के उत्पन्न हो जाने से प्रामाण्य का संशय नहीं होंगा। यह कोई नियम नहीं है कि सभी ज्ञानों में प्रामाण्य का संशय अवश्य ही हो । तस्मात् परतः प्रामाण्यपक्ष में अनवस्था दोष की संभावना नहीं है। मीसांसकगण भी अप्रामाण्य को परतः ही स्वीकार करते हैं । इस प्रसङ्ग में उक्त युक्ति से जब अनवस्था दोष की आपत्ति आती है तो वे भी कथित युक्ति से ही अनवस्था दोषं का परिहार करते हैं । ( देखिये श्लो. वा. चोदनासूत्र का ६१ श्लो. ) । यह ध्यान रखना चाहिये कि नैयायिकलोग सभी ज्ञानों के प्रामाण्यों को परतः स्वीकार नहीं करते । अभ्यासदशापन्न ज्ञानों में अर्थात् जिस प्रकार के ज्ञानों में वारम्बार प्रामाण्य गृहीत हो चुका है इस प्रकार के कितने ही ऐसे ज्ञान हैं, जिनमें शामाण्य का संशय उदित ही नहीं होता। इस प्रकार के ज्ञानों में प्रामाण्य के निश्चय के लिये दूसरे कारणों की अपेक्षा नहीं होती है। नैयायिकों का इतना ही अभिप्राय है कि सभी ज्ञानों का प्रामाण्य न स्वतः उत्पन्न होता है, न स्वतः गृहीत होता है । कि सभी ज्ञानों का प्रामाण्य अवश्य ही प्रकृत में कहना है कि यह नियम नहीं है गृहीत हो । अगर यह बात मानी जाय तो फिर मीमांसकों के स्वतस्त्व वाले पक्ष में भी अनवस्था अनिवार्य होगी । कुमारिल भट्ट ज्ञान के ग्राहक ज्ञाततालिङ्गक अनुमान से प्रामाण्य का ग्रहण मानते हैं । एवं मुरारिमिश्र ज्ञान के ग्राहक अनुव्यवसाय को ही प्रामाण्य का भी ग्राहक कहते हैं । इन दोनों ही पक्षों में यह प्रश्न होता है कि उक्त अनुमिति एवं उक्त अनुव्यवसाय के प्रामाण्यों का ग्रहण किस से होता है ? जिस दूसरी अनुमिति को या जिस दूसरे धनुव्यवसाय को कथित अनुमिति एवं कथित अनुव्यवसायगत प्रामाण्यों का ग्राहक मानेंगे, उन अनुमितियों एवं उन अनुव्यवसायों में रहनेवाले प्रामाण्यों के ग्राहक का प्रश्न उपस्थित होकर इस पक्ष में भी अनवस्था को ले आवेगा । प्राभाकर संप्रदाय के लोग ज्ञान के उत्पादक कारणों से ही उस में रहनेवाले प्रामाण्यों की उत्पत्ति एवं ज्ञप्ति ( ज्ञान ) दोनों ही मानते हैं । उन लोगों मे भी यह पूछना चाहिये कि प्रामाण्यों की यह ‘स्वतोग्राह्यता’ किस से गृहीत होती है ? प्रामाण्य के ग्राहकों से फलतः ज्ञान के उत्पादकों से तो यह गृहीत नहीं हो सकती, क्योंकि ज्ञान में रहने वाला प्रामाण्य एवं उस प्रामाण्य में रहनेवाली ‘स्वतो ग्राह्यता’ या स्वतस्त्व ये दोनों दो पदार्थ हैं । अतः उक्त स्वतस्त्व के ज्ञान के लिये परिशेषात् किसी दूसरे प्रमाण का ही खोज करना पड़ेगा । उस दूसरे प्रमाण के प्रसङ्ग में भी ये सभी प्रश्न उपस्थित होकर अनवस्था दोष को ले आयेंगे । अतः मीमांसकों के सभी पक्षों में भी यह अनवस्था दोष अनिवार्य है ।
द्वितीयः स्तबक! ११६ लिङ्ग निश्चितमेव निश्चायकम् । ततस्तन्निश्चयार्थमवश्यं लिङ्गान्तरा- पेक्षायामनवस्थेति चेत् ? तत्किमनुपपद्यमानोऽर्थोऽनिश्चित एव स्वोपपाद- पू० प० लिङ्ग निश्चितमेव ……….. परतः प्रामाण्य पक्ष में कथित रीति से अनवस्था दोष समान होने के कारण वारणीय भले ही न हो किन्तु अन्य रीति से जो अनवस्था दोष होगा, वह हम लोगों के पक्ष में नहीं है । | अनुमिति के लिये पक्षधर्मता का ज्ञान आवश्यक है । ‘पक्षघर्मताज्ञान’ पद से पक्षधर्मिक हेतु प्रकारक निश्चयात्मक ज्ञान ही लेना होगा । संशय से भिन्न ज्ञान ही निश्चय कहलाता है । एवं ज्ञान में प्रामाण्य के संशय से विषय का भी संशय होता है । ‘पर्वतो घूमवान् इदं ज्ञानं प्रमा नवा’ इस प्रकार के संशय से ‘पर्वतो धूमवान् न वा’ इस प्रकार का विषय संशय होता है । प्रामाण्य के निश्चय से ही प्रामाण्यं का संशय विनष्ट होता है । इस प्रकार पक्ष धर्मताज्ञान धार्मिक प्रामाण्य निश्चय भी हेतुनिश्चय के संपादन के द्वारा अनुमिति का कारण है | अतः प्रकृत में नैयायिक लोग सफलप्रवृत्तिजनकत्व हेतु से जो प्रामाण्य की अनुमिति मानते हैं, उस के लिये ‘इदं ज्ञानं सफलप्रवृत्तिजनकम्’ इस प्रकार का पक्षधर्मता का निश्चय आवश्यक होगा । एवं इस पक्षधर्मता के निश्चय के लिये उक्त पक्षधर्मता ज्ञान धार्मिक प्रामाण्य का निश्चय आवश्यक होगा। क्योंकि जब तक पक्षधर्मता का उक्त निश्चय नहीं होगा, तब तक प्रामाण्य की अनुमिति नहीं होगी । इस रीति से पक्षधर्मवाज्ञानगत प्रामाण्य.. के ज्ञापक हेतु के प्रसङ्ग में प्रामाण्य का उक्त प्रश्न उपस्थित होकर अनवस्था में परिणत होगी । अतः प्रामाण्य ज्ञान के परतस्त्व की चर्चा ही छोड़ देने चाहिये । सि० प० तत्किम्… पक्षधर्मता के निश्चय के लिये प्रामाण्य के जिस ज्ञान की अपेक्षा की बात कही गयी है, उस प्रामाण्य के ज्ञान की धारा भी अविश्रान्त नहीं है । अतः इस पक्ष में अनवस्था नहीं होगी । जिस प्रकार प्रामाण्य के ज्ञापक सफलप्रवृत्तिजनकत्व हेतुक अनुमान में ही प्रामाण्यज्ञान की धारा अवरुद्ध होकर अनवस्था को रोक देती है, उसी प्रकार जिस पक्षधर्मताज्ञान में प्रामाण्य का संशय होगा, उसी स्थल में पक्षधर्मता ज्ञान में प्रामाण्य का निश्चय श्रावश्यक होगा । प्रामाण्य के इस निश्चय रूप ज्ञान में प्रामाण्य निश्चय की आवश्यकता नहीं है। अतः इस रीति से भी भाई अनवस्था का परिहार हो सकता है । मीमांसक लोग झटितिप्रवृत्ति की प्रामाण्य के स्वतस्त्व को उपपन्न करते हैं । अर्थापत्ति प्रमाण को उपस्थित करते हैं । उपपाद्य के ज्ञान से जो उपपादक का ज्ञान होता है उसे ‘अर्थापत्ति’ कहते हैं । इन दोनों ज्ञानों में से ( अर्थस्य आपत्तिः कल्पना यस्मात् इस व्युत्पत्ति के अनुसार ) उपपाद्य का ज्ञान है प्रर्थापत्ति प्रमाण । एवं ( प्रर्थस्य आपत्तिः इस अनुपपत्ति एवं प्रचुरप्रवृत्ति की अनुपपत्ति से श्रर्थात् प्रामाण्यज्ञान के स्वतस्त्व के प्रसङ्ग में वे
१२० गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली कमाक्षिपति, येनाऽनवस्था न स्यात् । प्रत्यक्षेण तस्य निश्चयात्तस्य च सत्तयैव निश्चा- यकत्वान्नैवमिति चेत्; ममापि प्रत्यक्षेण लिङ्गनिश्चयात्तस्य च सत्तयैव निश्चायकत्वा- न्नैवमिति तुल्यम् । लिङ्गज्ञानस्य प्रामाण्यांनिश्चये कथं तन्निश्चयः स्यादिति चेत्; अनुपपद्यमानार्थज्ञानप्रामाण्यानिश्चये कथं तन्निश्चय इति तुल्यम् । व्युत्पत्ति के अनुसार ) उपपादक का ज्ञान है अर्थापत्ति प्रमिति । अनुमिति में पक्षधर्मता के निश्चय की तरह उपपाद्य के निश्चयात्मक ज्ञान से ही उपपादक का श्राक्षेप होगा । पक्षधर्मता निश्चय के स्थल में विषयनिश्चय के प्रति प्रामाण्य के निश्चय की अपेक्षा दिखला चुके हैं । सुतराम् प्रथम प्रामाण्यज्ञान के रवतस्त्व के ज्ञापक प्रमाण रूप प्रर्थापत्ति निश्चय के लिये भी किसी दूसरे उपयुक्त प्रामाण्य ज्ञान की अपेक्षा अवश्य होगी। इस दूसरे प्रामाण्य के ज्ञान के लिये स्वतस्त्व के ज्ञापक किसी तीसरी श्रर्थापत्ति प्रमाण रूप निश्चयात्मक ज्ञान की भी अपेक्षा होगी । अतः इस प्रमाण्य ज्ञान को स्वतः मानने के पक्ष में भी अनवस्था दोष अपरिहार्य है । पू० प० प्रत्यक्षेण, तस्य’ ….. प्रामाण्यज्ञान का स्वतस्त्व जिस श्रर्थापत्ति प्रमाण से श्राक्षित होता है, वह अर्थापत्ति प्रमाण प्रत्यक्षात्मक निश्चय रूप हैं। प्रत्यक्ष प्रमाण से प्रमिति के उत्पादन में चक्षुरादि इन्द्रिय अपनी सत्ता से रूप प्रत्यक्ष प्रमाण का ज्ञान अपेक्षित नहीं है । चक्षुरादि प्रत्यक्ष प्रमाण केवल ही प्रमाज्ञान के उत्पादक हैं । अतः अर्थापत्ति प्रमाण रूप निश्चय के लिये प्रामाण्यनिश्चय की अपेक्षा नहीं है । इस प्रकार इस पक्ष में अनवस्था दोष नहीं है । सि० प० ममापि ……… प्रामाण्य की अनुमिति के लिये अपेक्षित ‘इदं ज्ञानं सफलप्रवृत्तिजनकम्’ इस आकार के पक्षधर्मता ज्ञान को भी प्रत्यक्षात्मक ही मानेंगे । सुतराम् प्रामाण्यज्ञान के परतस्त्व पक्ष में भी अनवस्था दोष की प्रापत्ति नहीं है । क्योंकि उक्त लिङ्ग के निश्चय के लिये हेतुज्ञान में प्रामाण्य निश्चय की आवश्यकता नहीं रह जाती है । पू० प० लिङ्गज्ञानस्य…….. चक्षुरादि प्रत्यक्ष प्रमाणों के साहाय्य से अगर पक्षधर्मता का ज्ञान हो भी जायगा, फिर भी उस ज्ञान को तब तक निश्चयात्मक नहीं कहा जा सकता जब तक कि उस ज्ञान में प्रामाण्य का निश्चय न हो जाय । अतः पक्ष में हेतु के निश्चय के लिये प्रामाण्य का निश्चय आवश्यक है । फिर तन्मूलक अनवस्था दोष भी अनिवार्य है ही । सि० प० अनुपपद्यमानार्थं ……. यह आपत्ति (नैयायिक और मीमांसक इन ) दोनों पक्षों में समान है । क्योंकि प्रत्यक्ष प्रमाण के द्वारा उत्पन्न प्रर्थापत्ति रूप अनुपपत्ति का ज्ञान भी प्रामाण्य के निश्चयात्मक अ उ क रि के ि
द्वितीयः स्तबक! १२१ न हि निश्चयेन स्वप्रामाण्य निश्चयेन वा विषयं निश्चाययति प्रत्यक्षम् अपि तु स्वसत्तयेत्युक्तमिति चेत् ? तुल्यम् । तथापि यदि तल्लिङ्गाभासः स्यात्तदा का वार्तेति चेत् ? अनुपपद्यमानोऽप्यर्थो यद्याभासः स्यात्तदा का वार्तेति तुल्यम् । ज्ञान के विना नहीं हो सकता । निश्चयात्मक अर्थापत्ति ही प्रमाण है । अतः प्रत्यक्षप्रमाण के द्वारा अनुपपत्ति या अर्थापत्ति ज्ञान का उत्पादन मानने पर भी प्रामाण्य के निश्चय की अपेक्षा रह जाती है । अतः मीमांसकों के पक्ष में भी अनवस्था दोष अनिवार्य है । पू० प० न हि निश्चयेन … हम ( मीमांसकगण ) तो पहिले ही कह चुके हैं कि प्रत्यक्ष के द्वारा वस्तु की निश्चय के लिये प्रत्यक्ष जनित निश्चयात्मकज्ञान का या प्रत्यक्षप्रमाणगत प्रामाण्यनिश्चय का कोई उपयोग नहीं है । प्रत्यक्षप्रमाण केवल अपनी सत्ता से ही वस्तु को सिद्ध करने की क्षमता रखता है । अतः इस पक्ष में अनवस्था दोष की कोई संभावना नहीं है । सि० प० तुल्यम्""" यह बात तो हम लोगों के पक्ष में भी समान ही है । अर्थात् नैयायिक लोग भी कह सकते हैं कि प्रत्यक्ष के द्वारा जो हेतु का निश्चय उत्पन्न होगा, उसमें प्रामाण्य के निश्चय का कहीं भी उपयोग नहीं है । अतः सिद्धान्त पक्ष में भी तन्मूलक अनवस्था दोष नहीं है । पू० प० तथापि यदि… यह ठीक है कि प्रत्यक्ष प्रमाण केवल अपनी सत्ता मात्र से निश्चयात्मक ज्ञान का उत्पादक है । एवं प्रामाण्यनिश्चय के विना भी उस से हेतु का निश्चय हो सकता है । किन्तु हेतु को हेत्वाभास से भिन्न रूप में समझाने की सामर्थ्य केवल प्रत्यक्ष प्रमाण में नहीं है । अतः प्रत्यक्ष के द्वारा निश्चित हेतु में भी हेत्वाभासत्व का संशय हो सकता है। जिस हेतु में हेत्वाभासत्व का संशय भी संभव हो उससे प्रभा अनुमिति नहीं हो सकती, भतः हेतु में हेत्वाभासत्व की भ्रान्ति को मिटाने के लिये हेतु के ज्ञान में रहने वाले प्रामाण्य का ज्ञान भी अवश्य ही चाहिये । अतः प्रामाण्य की अनुमिति के लिये जिस सफल प्रवृत्तिजनकत्व हेतु का उल्लेख किया गया है, उस हेतु के ज्ञान में रहनेवाले प्रामाण्य के ज्ञान के विना उससे प्रामाण्य की अनुमिति नहीं हो सकती । अतः प्रामाण्य को परतः मानने में धनवस्था दोष अनिवार्य है । सि० प० अनुपपद्यमान’ यह बात तो प्रर्थापत्ति के प्रसङ्ग में भी समान रूप से कही जा सकती है कि प्रत्यक्ष के द्वारा उत्पन्न उपपाद्य का ज्ञान अगर भ्रान्ति रूप होगा तो फिर उस भ्रान्तिरूप ज्ञान से जिस ‘अर्थ’ का निश्चय होगा, वह ‘अर्थाभास’ ही होगा । अतः इस प्रर्थापति के द्वारा ज्ञान १६ CCO. Vasishtha Tripathi Collection. Digitized by eGangotri१२२ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली सोऽपि प्रामाण्यमाक्षिपतीत्युत्सर्गः, स च कचिद्वाधकेनापोद्यते इति चेत् ? लिङ्ग ेऽप्येवमिति तुल्यम् । तर्हि प्रामाण्यानुमानेऽपि शङ्का तदवस्थेवैति निष्फलः प्रयास इति चेत् ? एतदपि तादृगेव । के प्रामाण्य का स्वतस्त्व प्राक्षित नहीं हो सकता । इसलिये मीमांसकों को भी प्रामाण्यज्ञान के स्वतस्त्व की सिद्धि के लिये ज्ञानरूप अर्थापत्तिगत प्रामाण्य के ज्ञान की अपेक्षा अवश्य होगी । फिर तन्मूलक अनवस्था दोष से वे भी बच नहीं सकते । श्रतः अनवस्था दोष दोनों के लिये समान रूप से समाधेय है । सुतराम् किसी एक पक्ष के लिये उसका उद्भावन उचित नहीं है । पू० प० सोऽपि …. भ्रान्ति रूप अर्थापत्ति से भी प्रामाण्य के स्वतस्त्व का आक्षेप होता है। क्योंकि प्रामाण्य के स्वतस्त्व का आक्षेप करना उसका स्वभाव है । जहाँ दोषादि प्रतिबन्धकं उपस्थित हो जाते हैं, वहीं व्यतिक्रम होता है । अर्थात् वहाँ अर्थापत्ति से प्रामाण्य के स्वतस्त्व का आक्षेप नहीं होता । अतः हमलोगों के पक्ष में अनवस्था दोष नहीं है । सि० प० लिङ्गऽप्येवम्………. यही बात तो लिङ्गज्ञान के सम्बन्ध में भी कही जा सकती है कि निश्चत हेतु अगर वस्तुतः हेत्वाभास भी रहेगा, तथापि उससे यथार्थ ज्ञान की उत्पति हो सकती है । पर्वत में वह्नि की अनुमिति अगर जल हेतु से भी होती है तो भी उसे भ्रम नहीं कहा जा सकता । अतः सफलप्रवृत्तिजनकत्व रूप हेतु अगर हेत्वाभास भी होगा, तथापि उससे प्रमात्व की यथार्थ नुमिति ही होगी । अतः प्रमाण्य को परतंत्र मानने के पक्ष में भी अनवस्था दोष संभव नहीं है । पू० प० 800 तर्हि प्रामाण्यानुमानेऽपि .. अगर हेत्वाभास से भी प्रमा अनुमिति हो फलतः सफलप्रवृत्तिजनकत्व रूप हेत्वाभास से भी प्रमाण्य का यथार्थ अनुमिति हो तो प्रामाण्य की अनुमिति के लिये सफलप्रवृत्तिजनकत्व हेतु तक जाने का ‘प्रयास’ व्यर्थ है । क्योंकि घटपटादि जिस किसी हेतु से प्रमाण्य की उक्त यथार्थं अनुमिति हो सकती है । घटादि हेतुओं से प्रामाण्य रूप साध्य की व्याप्ति प्रभृति न रहने से भी तो इतना ही होगा कि वह हेतु न होकर हेत्वाभास होगा । यदि हेत्वाभास से भी यथार्थ अनुमिति हो सकती है तो फिर कथित घटादि हेत्वाभासों से भी प्रामाण्य की यथार्थ अनुमिति होगी । इस के लिये समर्थप्रवृत्तिजनकत्वादि किसी विशेष हेतु का अवलम्बन व्यर्थ है । सि० पी० … एतदपि ……… … कथित रीति से मीमांसकों के पक्ष में भी यह बात कही जा सकती है कि यदि अर्थाभास की अनुपपत्ति के ज्ञान से भी प्रामाण्य का प्राक्षेप संभव हो तो फिर झटितिप्रवृत्ति एवं प्रचुरप्रवृत्ति प्रभुति की अनुपपत्ति का अनुघावन व्यर्थ है ।
द्वितीयः स्तबकः १२३ अनुपपद्यमानोऽर्थं एवासौ तथाविधः कश्चित् यः स्वप्नेऽपि नाभासः स्यात् ततो नाशङ्क ेति चेत् ? लिङ्ग ेऽप्येवमिति समः समाधिः । कः पुनरसावर्थो यः स्वप्नेऽपि नाभासः स्यात् ? यदनुपलम्भे विभ्रमावकाशो यादृगुपलम्भे च तद्वाधव्यवस्था । पू० प० ‘‘अनुपपद्यमानोऽर्थं………………. जो अर्थ जिस के बिना अनुपपन्न हो, उनमें से ऐसा कोई विलक्षण अर्थ भी है जो ‘स्वप्न’ में भी अर्थाभास नहीं हो सकता । अतः अर्थापत्ति प्रमाण से जो प्रामाण्य के स्वतस्त्व का आक्षेप होता है, उस में प्रर्थापत्ति में रहनेवाले प्रामाण्य की प्रांपेक्षा ही नहीं है । अतः मेरे पक्ष में अनवस्था दोष नहीं है । सि० प० … … लिङ्ग प्येवम्……. हम (नययिक) भी इसी प्रकार कह सकते जिस हेतु में साध्य की व्याप्ति रहेगी, वह हेतु ‘स्वप्न’ में भी व्यभिचारी ( हेत्वभास ) नही हो सकता । जिस हेतु में साध्य का व्यभिचार रहता है, वही हेत्वाभास कहलाता है । पू० प० …कः पुनरसो……… ऐसे हेतु भी हेत्वाभास होते हैं, जिन में साध्य की व्याप्ति रहती हैं । जैसे कि जल में वह्नि साधन के लिये प्रयुक्त धूम हेतु । अतः प्रश्न है कि कौन सा ऐसा हेतु है जो स्वप्न में भी हेत्वाभास न हो सके | जैसे कि अनुपपद्यमान कोई भी अर्थ अर्थाभास नहीं होता । सि० प० 300 …यदनुपलम्भे………. ( इस पूर्वपक्ष के दो उत्तर हैं ) (१) वही ‘हेतु’ है जिस की उपलब्धि न रहने पर भ्रान्ति की संभावना हो । (२) अथवा जिस की उपलब्धि के रहने से भ्रान्ति का बाघ हो । ’ । जलं वाभाववत् इस ज्ञान किन्तु वह भ्रान्ति नहीं है । १. इस प्रकार का हेतु कभी भी हेत्वाभास नहीं हो सकता । प्रस्तुत उदाहरण के लिये जल पक्षक वह्नि साध्यक धूम हेतु को लिया जा सकता है । यह हेत्वाभास है, क्योंकि इस में हेतु का लक्षण नहीं है। क्योंकि जल में उक्त हेतु की उपलब्धिं से ‘जलं वह्निमत्’ इस भ्रान्ति की संभावना है । एवं हेतु की उक्त उपलब्धि से उक्त भ्रान्ति के बाघ की संभावना भी नहीं है का भी बाध यद्यपि हेतु की उपलब्धि से संभव है, पर्वत पक्षक वह्नि साध्यक धूम हेतु कभी स्वप्न में भी हेत्वाभास नहीं हो सकता । क्योंकि पर्वत में धूम की उपलब्धि न होने पर पर्वत में वह्नि के अभाव की भ्रान्ति का अवकाश है । एवं पर्वत में धूम की उपलब्धि हो जाने पर पर्वत में वह्नि के प्रभाव की आन्ति का निरास भी सम्भव है । इस प्रकार पर्वत पक्षक वह्नि साध्यक. धूम हेतु में हेतु के दोनों ही लक्षण है, अतः वह कभी भी हेत्वाभास नहीं हो सकता ।
१२४ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जलौ अन्यथा हि तथाभूतस्यापि व्यभिचारे सापि न स्यात् । मा भूदिति चेन्न । भवितव्यं हि तत्त्वात्तत्त्वविभागेन, अन्यथा व्याघातात् । कथं हि नियामकनिःशेष- अन्यथा ( अर्थात् साध्य की व्याप्ति से युक्त हेतु से उत्पन्न ज्ञान को भी यदि ) व्यभिचारी मानें (अर्थात् साध्य का नियामक न मानें तो फिर ‘सा’ अर्थात् ) भ्रम और बाघ की व्यवस्था ही लुप्त हो जायगी । पृ० प० सि० प० .. … …मा भूत् ( माध्यमिकादि कहते हैं कि ) न रहे भ्रम और बाध की व्यवस्था ? न, भवितव्यम् ( भ्रम भौर बाघ की व्यवस्था श्रावश्यक है । ऐसा न मानने पर ) यह तत्व हैं और यह अतस्व है इस प्रकार का आवश्यक विभाग ही लुप्त हो जायगा । ’ क्योंकि ऐसा न मानने पर ‘व्याघात’ होगा । ( अर्थात् जो कोई सद्धेतु प्रभृति से उत्पन्न ज्ञान में भी प्रामाण्य को सन्दिग्ध ही मानते हैं, उनके मत से ‘किमपि न तत्त्वम्’ यही तत्त्व है | मगर संसार से तत्त्व और अतत्त्व की व्यवस्था ही उठ जाय तो फिर उक्त तत्त्व की भी सिद्धि नहीं हो सकेगी । इस प्रकार किसी तत्व को स्वीकार करना एवं तत्त्व और अतत्स्व की व्यवस्था को न मानना ये दोनों बातें परस्पर विरुद्ध है । जो कोई तत्त्व और अतत्व के विभाग को स्वीकार नहीं करते उन के मत से न कोई किसी ज्ञान का बाधक हो सकता है न कोई ज्ञान किसी से बाधित ही हो सकता है । इस स्थिति को स्वीकार करने पर ‘व्याघात’ होगा । अर्थात् वे भी ‘न किमपि तस्त्वम्’ अपने इस मत को उपपन्न नहीं कर पाएंगे । क्योंकि किसी भी वस्तु की सिद्धि प्रमाण के बिना नहीं हो सकती । अतः तत्व निषेध के लिये भी कोई प्रमाण अवश्य ही चाहिये । किसी भी प्रमाण के ऊपर विश्वास न करने पर तत्व के निषेध करनेवाले प्रमाण के ऊपर भी विश्वास नहीं किया जा सकता । अतः तस्व का उक्त निषेध भी संभव नहीं होगा । इसलिये यह सिद्धान्त स्वीकार करना आवश्यक है कि चूंकि प्रमा ज्ञान से भ्रम का बाघ होता है, एवं प्रमाज्ञान का विषय ही ‘तत्त्व’ है, अतः बाधकत्व ही तत्व है एवं बाध्यत्व ही ‘अतस्त्व’ है । १. भ्रम को बाधित करने की क्षमता ही ‘तत्व’ है । एवं प्रमा से बाधित होने का दौर्बल्य ही ‘अतत्व’ है। शुक्तित्व का प्रमाज्ञान शुक्ति में रजतस्वभ्रम का बाधक है, अतः शुक्तित्व ही शक्ति का ‘तव’ है। शुक्ति में भासित होनेवाला रजतत्व शुक्ति का ‘अतश्व’ है, क्योंकि ‘रजतस्व का उक्त अवभास यक्तित्व रूप तथ्य के ज्ञान से बाधित होता है । f ज्ञ र के सं पि a हैं ब हो ’ १
द्वितीयः स्तबक १२५ विशेषोपलम्भेऽपि विपरीतारोपः ? । तथाभावे वा तदतिरिक्तविशेषानुपलम्भे कथं बाधकम् ? । तदभावे त्वबाधस्य कथं भ्रान्तत्वमिति । ज्ञान के द्वारा विषयों में भी बाध्यबाधकभाव होता है । अगर ऐसा न मानें तो शुक्ति में रजतत्व के अभाव का नियामक है शुक्तित्व, इस शुक्तित्व के उपलब्धि होने पर भी रजतत्वाभाव के विपरीत रजतत्व का ‘आरोप’ अर्थात् भ्रम की आपत्ति होगी । जिस वस्तु के अनेक ‘विशेष’ अर्थात् असाधारण धर्म हों, वहाँ दूसरे असाधारण धर्म की अनुपलब्धि से आरोप की संभावना है । इसी लिये ‘विशेष’ पद का उपादन किया गया है ) । )। तथाभावे वा सभी विशेष धर्मो की उपलब्धि रहने पर भी अगर ‘आरोप’ को स्वीकार करें तो फिर वह ‘आरोप’ ही नहीं रह जायगा । क्योंकि नियामक धर्म के ज्ञान से वाधित होना ही ‘आरोप’ अर्थात् भ्रम का लक्षण है । अगर ऐसा न मानें तो फिर सभी ज्ञान भ्रम कहलाएगे । अतः यह मानना होगा ‘कौन सा ज्ञान भ्रम है ? इस को समझाने की सामर्थ्य बाधकज्ञान में ही हैं । ऐसा न मानने पर ‘बाधक’ ( अर्थात् भ्रान्ति रूप ) जो ज्ञान है उसे भ्रम कैसे समझा जायगा । अर्थात् जो ज्ञान किसी दूसरे विरोधी ज्ञान को बाधित नहीं करता उसे ‘भ्रम’ कहते हैं । अगर कोई भी ज्ञान किसी भी ज्ञान का बाधक न हो तो फिर प्रमात्मक ज्ञान भी किसी का बाधक नहीं होगा । इस प्रकार ‘अबाधकत्व’ रूप भ्रम ज्ञान का लक्षण प्रमाज्ञान में अव्याप्त होने के कारण भ्रम का लक्षण ही नहीं होगा । ( इसी अभिप्राय से ‘कथं हि’ यहाँ ले लेकर ‘कथं नान्तत्वम्’ इतने पर्यन्त का ग्रन्थ लिखा गया है । ’ १. इस प्रसङ्ग का उपसंहार करते हुए वर्द्धमान ने लिखा है कि प्रामाण्य को अगर अनुमेय मानते हैं या प्रामाण्य ज्ञान में परतस्त्व को मानते हैं, तथापि बहुत से धन के व्यय से और बहुत परिश्रम से होनेवाले याग में प्रवृत्ति का कारण वाक्य से होने वाला ज्ञानधार्मिक प्रभाव का ज्ञान नहीं हो सकता । क्योंकि कथित प्रवृत्ति और उक्त प्रमात्व ज्ञान ये दोनों अत्यन्त विभिन्न काल में होते हैं । छातः याग में प्रवृत्ति के लिये कारणीभूत प्रवत्त कज्ञान में अप्रामायय का किसी भी प्रकार के ज्ञान का न रहना ही पर्याप्त है । यह आवश्यक नहीं है कि उक्त प्रवत्त क ज्ञान में प्रामाण्य गृहीत ही हो । बात रही कि फिर प्रामायय की अनुमिति का प्रवृत्ति में उपयोग की ? इस प्रश्न का यह समाधान है कि पहिले पहल जो प्रवर्तक ज्ञान उत्पन्न होगा उसमें स्वभावतः अप्रामाण्य की शंका होगी, उस अप्रामायय शंका हो हटाना ही प्रामायय के अनुमिति का प्रयोजन है । फिर आगे उक्त प्रवत्तक ज्ञान के समान ज्ञान ही उत्पन्न होंगे, उस में श्रप्रामाण्य की शंका नहीं होगी ।
१२६ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जलौं स्यादेतत् । परतः प्रामाण्येऽपि नित्यत्वाद्वेदानामनपेक्षत्वं, महाजनपरिग्रहाच्च प्रामाण्यमिति को विरोध’ ? न, उभयस्याप्यसिद्धेः । न हि वर्णा एव तावन्नित्याः । तथा हि ‘इदानीं श्रुतपूर्वो गकारो नास्ति, निवृत्तः कोलाहल’ इति प्रत्यक्षेणैव शब्दध्वंसः प्रतीयते । न हि शब्द एवाऽन्यत्र गतः, अमूर्तत्वात् । नाप्यावृतः, तत एव सम्बन्ध विच्छेदानुपपत्तेः । नाप्यनवहितः पू० प० … … स्यादेतत्, परतः प्रामाण्येऽि ( ‘सर्गप्रलयसम्भवात्’ इस दूसरे चरण की व्याख्या) किसी वक्ता के द्वारा उच्चारित शब्द से उत्पन्न होने वाले ज्ञानों के प्रामाण्य की उत्पत्ति एवं उक्त ज्ञान में प्रामाण्य का ज्ञान इन दोनों को ( प्रामाण्य की उत्पत्ति और ज्ञप्ति दोनों } को ) ‘परत:’ स्वीकार भी करलें, तथापि वेद रूप शब्द से उत्पन्न होनेवाले ज्ञान के प्रामाण्य की उत्पत्ति श्रीर ज्ञप्ति इन दोनो को स्वतः स्वीकार करने में कोई बाधा नहीं है । क्योंकि वेद नित्य हैं, अत: उसका कोई वक्ता नहीं है । शब्द जनित ज्ञान में प्रमात्व के लिये जिस गुण को आवश्यकता है, वह है शब्द का आम से उच्चरित होना । किन्तु वेद किसी के द्वारा उच्चरित नहीं है, अतः वेदजन्य प्रमा ‘परतन्त्र’ नहीं है । इसी प्रकार वेदों से उत्पन्न ज्ञान में रहनेवाले प्रमात्व का ग्रहण भी ( स्वतः ) होता है । फलतः वेदों का प्रामाण्य किसी वक्ता की अपेक्षा नहीं रखता। किसी वक्ता से ‘अनपेक्ष’ प्रामाण्य ही वेदों का ‘अनेपेक्षत्व’ है । इस प्रकार से ‘अनपेक्ष’ होने के कारण ही वेद प्रमाण हैं । वेदों का यह स्वतः प्रामाण्य वशिष्ठादि ‘महाजनों’ के द्वारा परिगृहीत होने के कारण अन्य जनों के द्वारा गृहीत होता है । ( इस प्रकार ईश्वर को न मानने पर भी वेदों के प्रामाण्य में कोई बाधा नहीं है ) । सि० प० …न, उभयस्यापि ……. किन्तु वेदों की नित्यता एवं महाजनपरिग्रह से उनके स्वतः प्रामाण्यं का ग्रहण, ये दोनों ही बातें सिद्ध नहीं हैं । ( अर्थात् इन दोनों में से किसी की भी सिद्धि सम्भव नहीं है ) । चूँ कि गकारादि वर्ण’ नित्य नहीं हैं, अतः वर्णों का समूह रूप पद भी नित्य नहीं हैं । एवं पदों का समूह रूप वाक्य भी अनित्य है, सुतराम् वाक्यों का समूह रूप वेद भी नित्य नहीं हो सकता । वर्ण अनित्य इस लिये हैं कि जिसने पहिले गङ्गा शब्द को सुना है, कुछ क्षण के बाद उसे भी गङ्गा शब्द के ‘ग’ कार की उपलब्धि नहीं होती है । अतः पहिले सुना गया ‘ग’
द्वितीयः स्तबकः १२७ श्रोता, अवधानेऽप्यनुपलब्धेः । नापीन्द्रियं दुष्टम्, शब्दान्तरोपलब्धेः । नापि सहकार्यंन्त - राभावः, अन्वयव्यतिरेकवतस्तस्यासिद्धेः । नाप्यतीन्द्रियम्, तत्कल्पनायां प्रमारणा- ग्रन्यथा घटादावपि तत्कल्पनाप्रसङ्गात् । न च शब्दनित्यत्वसिद्धौ भावात् । तत्कल्पनेति युक्तम् । निराकरिष्यमाणत्वात् । कार अभी नहीं है । अगर शब्द नित्य होता तो अभी भी पहिले सुने हुये ‘ग’ कार का श्रवण होता । अतः यही कहना पड़ेगा कि पहिले सुने गये ‘ग’ कार का विनाश हो गया है । ‘ग’ कार का यह विनाश प्रत्यक्ष प्रमाण से ही समझा जाता है, क्योंकि ‘हल्ला बन्द हो गया’ इस प्रकार की सार्वजनीन प्रतीति से प्रत्यक्ष प्रमाण में शब्द के विनाश को ग्रहण करने की सामर्थ्य परिगृहीत है । ( उक्त स्थल में ) ग कारादि शब्दों की जो पुनः उपलब्धि नहीं होती है उसका कारण यह भी नहीं है कि, वे शब्द कहीं अन्यत्र चले गये हैं । क्योंकि शब्द मूर्तद्रव्य नहीं हैं, अतः उसका कहीं भी जाना सम्भव नहीं है । (२) यह भी नहीं कहा जा सकता कि पूर्ववत गकार चूकि किसी अन्य द्रव्य से आवृत हो गया है, अतः उसका प्रत्यक्ष नहीं होता । शब्द चूकि मूर्त द्रव्य नहीं है, अतः शब्द रूप गकार का किसी से आवृत होना सम्भव नहीं हैं । सुतराम् आवरण स्थल में जो बिषय के साथ इन्द्रिय का सम्बन्ध नहीं हो पाता और इस लिये विषय के रहते हुए प्रत्यक्ष नहीं हो पाता है, यह भी प्रकृत गकार के अप्रत्यक्ष स्थल में नहीं कहा जा सकता । (३) प्रकृत में यह कहना भी सम्भव नहीं है कि चूंकि सुननेवाले का मन अन्यत्र लगा रहता है, अतः कथित गकार का प्रत्यक्ष नहीं हो पाता । इससे ग कार के नाश की कल्पना नहीं किन्तु किसी वस्तु के केवल प्रत्यक्ष न होने से ही उसका अभाव निर्णीत नहीं हो जाता । अतः गकार के अभी के अप्रत्यक्ष से उसका विनाश निश्चित नहीं होता । निम्नलिखित ऐसी सात स्थितियाँ है जिनमें से प्रत्येक में प्रत्यक्ष योग्य वस्तु के विद्यमान रहते हुये भी उसका प्रत्यक्ष नहीं होता । इस प्रकार विद्यमान गकार का भी अप्रत्यक्ष हो सकता है। उक्त सात स्थितियाँ ये हैं (१) विषय का उस प्रदेश से चला जाना, जहाँ इन्द्रिय साथ वह सम्बद्ध न हो सके । (२) किसी दूसरे द्रव्य से धावृत हो जाने पर प्रत्यक्ष नहीं हो पाता । जैसे दिवाल से घिरी हुई वस्तु को बाहर का अगर दूसरी ओर लगा रहता है तब भी वह में दोष उत्पन्न हो जाने पर भी के भी वस्तु का आदमी नहीं देख पाता । (३) सुननेवाले का मन शब्द को सुन नहीं पाता । (४) इन्द्रियों पुरुष देख या सुन नहीं पाता । (५) प्रत्यक्ष के कारणीभूत समुदाय में से किसी के भी विघटन से भी प्रत्यक्षं रुक सकता है । (६) समय विशेष में विषयों का अतीन्द्रिय हो जाना भी प्रत्यक्ष को रोक सकता है । १. ‘न हि वर्णा एव’ यही से लेकर ‘कुतस्तमां च तत्समूहस्य वेदस्य’ इतने पर्यन्त के प्रन्थ से शब्दों के नित्यस्व का पयदन किया गया है ।
१२८ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली ये स्वेकदेशिनो नैवमिच्छन्ति, तान् प्रत्युच्यते । विवाध्यासितः शब्दप्रध्वंसः इन्द्रियग्राह्यः, ऐन्द्रियका भावत्वात् घटाभाववत् । की जा सकती। यह कहना इस लिये सम्भव नहीं है कि श्रोता के पूर्ण एकाग्र रहने पर भी उस स्थल में ग कार का प्रत्यक्ष नहीं हो पाता है । ( ४ ) यह कहना भी सम्भव नहीं है कि उस समय सुननेवाले की श्रोशन्द्रिय में दोष आ गया है जिससे उक्त गकार सुनाई नहीं देता है । क्योंकि उसी समय उस गकार को छोड़ कर दूसरे शब्द का श्रवण उसी पुरुष को होता है । (५) यह भी सम्भव प्रतीत नहीं होता कि उस समय ग कार के प्रत्यक्ष की सामग्री में से ग कार रूप विषय को छोड़ कर कोई अन्य कारण ही वहाँ नहीं है, अतः ग कार का प्रत्यक्ष नहीं होता हैं’ क्योंकि पहिले के गकार प्रत्यक्ष के लिये अन्वय और व्यतिरेक से युक्त एवं गकार रूप विषय से भिन्न जितने भी कारण हैं, वे ही इस गकार के प्रत्यक्ष के लिये भी अपेक्षित हैं । उनमें से किसी के अभाव से भी गकारके अप्रत्यक्ष की उपपत्ति प्रकृत प्रत्यक्ष स्थल में सम्भव नहीं है । सुतराम् गकार के प्रकृत प्रत्यक्ष के अभाव का प्रयोजक गकार रूप विषय के नाश को ही मानना होगा । (६) प्रत्यक्ष न होनेवाले इस गकार को अतीन्द्रिय मान कर भी गकार मानने में कोई प्रमाण के अप्रत्यक्ष की उपपत्ति नहीं की जा सकती, क्योंकि उसको श्रतीन्द्रिय नहीं है । अगर केवल प्रत्यक्ष न होने से ही किसी को श्रतीन्द्रिय माना जाय तो फिर घटादि पदार्थों को भी उनकी अप्रत्यक्षता दशा में अतीन्द्रिय मानना होगा । अगर यह कहें कि ‘शब्द का नित्य होना सिद्ध हैं, अतः अप्रत्यक्षता दशा में गकारादि की प्रसत्ता तो मानी नहीं जा सकती । अतः गकारादि की प्रत्यक्षता की उपपत्ति के लिये गकारादि में सामयिक प्रतीन्द्रियत्व की कल्पना प्रावश्यक होती हैं, क्योंकि शब्द के नित्यत्व का ही आगे खण्डन करना हैं । ये त्वैकदेशिन :…… नैयायिक सम्प्रदाय के ही कुछ लोग शब्दध्वंस का प्रत्यक्ष नहीं मानते, उन्हें सन्तुष्ट करने के लिये अनुमान का प्रयोग कहते हैं। जिससे शब्दध्वंस का प्रत्यक्ष से संगृहीत होना सिद्ध हो सके । ‘जिस प्रकार इन्द्रिय से गृहीत होनेवाले घट का अभाव भी इन्द्रिय से गृहीत होता है, उसी प्रकार शब्द का ध्वंस रूप अभाव भी इन्द्रिय से गृहीत होगा, क्योंकि बहु भी श्रोत्र रूप इन्द्रिय से गृहीत होनेवाले शब्द का अभाव है ।
द्वितीयः स्तबकः १२६ नैतदेवम्, इन्द्रियासंनिकृष्टत्वात्, प्रतीन्द्रियत्वाधारत्वाद्वेतिचेन्न । इदं ह्य पाष्यु- द्भावनं वा स्यात्, व्यापकानुपलब्ध्या सम्प्रतिपक्षत्वं वा ? पू० प० ‘‘नैदंतदेवम्………. रूप पक्ष इन्द्रिय के साथ • उक्त अनुमान ठीक नहीं है, क्योंकि (१) शब्द प्रध्वंस उपयुक्त संनिकर्ष से युक्त नहीं है ( क्योंकि शब्द प्रध्वंस रूप अभाव का प्रत्यक्ष अपने प्रतियोगी शब्द के प्रत्यक्ष के उत्पादक श्रोत्र रूप इन्द्रिय से ही हो सकता है, किन्तु शब्द के प्रध्वंस के साथ श्रोत्र का सम्बन्ध सम्भव ही नहीं है । क्योंकि वह सम्बन्ध श्रोत्रसम्बद्ध- विशेषणता रूप ही हो सकता है । सो प्रकृत में सम्भव नहीं है, क्योंकि शब्दध्वंस के अधि- करणीभूत आकाश के साथ श्रोत्र सम्बद्ध नहीं है । सुतराम् शब्दध्वंस में आकाश रूप विशेष्य की विशेषणता यद्यपि है, किन्तु श्रोत्र सम्बद्धआकाश रूप विशेष्य की विशेषणता नहीं है । अतः इन्द्रिय संनिकर्ष के न रहने के कारण शब्दप्रध्वंस इन्द्रिय से ग्राह्य नहीं हो सकता ) । (२) शब्दप्रध्वंस का आधार आकाश है ( क्योंकि वह शब्द रूप प्रतियोगी का समवायी देश है ) आकाश है अतीन्द्रिय । जिस अभाव का आश्रय प्रतीन्द्रिय हो वह प्रभाव इन्द्रिय के द्वारा गृहीत नहीं हो सकता । ( जैसे कि पिशाचादि गत किसी भी प्रभाव का प्रत्यक्ष नहीं होता ) । सि० प० 800 इदं हि इन दोनों हेतु वाक्यों के द्वारा क्या शब्दप्रध्वंस पक्षक इन्द्रियग्राह्यत्व साध्यक प्रकृत अनुमान में उपाधि का उद्भावन इष्ट है ? या सत्प्रतिपक्ष दोष का उद्भावन अभिप्रेत है ? १ १. प्रकृत धनुमान है ‘शब्दप्रध्वंसः इन्द्रियग्राह्यः ऐन्द्रियकाभावात्वात् घटाभाववत्’ सिद्धान्तियों के इस अनुमान में पूर्वपक्ष ग्रन्थ के (1) इन्द्रियासंनिकृष्टत्वात्’ इस वाक्य के द्वारा उपाधि के उद्भावन पक्ष का अभिप्रेतार्थ यह है कि उक्त अनुमान में इन्द्रियासंनिकृष्टत्व का अभाव रूप इन्द्रियसंनिकृष्टत्व अर्थात् इन्द्रिय का संनिकर्ष उपाधि है । क्योंकि प्रकृत अनुमान का इन्द्रियमाहात्व जहाँ कहीं भी है, उन सभी स्थानों में इन्द्रिय का संनिकर्ष अवश्य है । इस प्रकार उपाधि साध्य का व्यापक है । एवं प्रकृतानुमान का हेतु है ‘ऐन्द्रियकाभावश्व’ वह शब्दप्रध्वंस रूप पक्ष में है, किन्तु उसमें इन्द्रियसंनिकर्ष रूप उपाधि नहीं है । अतः इन्द्रिय संनिकर्ष हेतु का अध्यापक भी है । सुतराम् प्रकृत हेतु सोपाधिक होनेके कारण हेत्वाभास है । अतः उस से शब्दप्रध्वंस में इन्द्रियग्राह्यत्व की सिद्धि नहीं की जा सकती । 1 कथित ‘इन्द्रियासंनिकृष्टत्वात्’ इस वाक्य से प्रकृतानुमान में सम्प्रतिपक्ष दोष का उद्भावन इस प्रकार अभिप्रेत हो सकता है । प्रकृतानुमान का हेतु है ऐन्द्रियकाभावख, यह हेतु शब्दप्रध्वंस रूप पच में ‘इन्द्रिप्राह्मत्व’ रूप साध्य को सिद्ध करने के लिये प्रयुक्त हुआ है । इन्द्रियग्राह्मत्व रूप साध्य जहाँ कहीं भी है, उन सभी स्थानों में; इन्द्रियसंनिकृष्टस्व] और ऐन्द्रियकाधारस्वरूपे दोना धर्म भी अवश्य है। १७
१३० गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली तत्र न प्रथमः, स्वरूपयोग्यतां प्रति सहकारियोग्यताया अनुपाधित्वात् तस्यास्तामपेक्ष्यैव सर्वदाऽव्यवस्थितेः । सि० प० ……. न प्रथमः, स्वरूपयोग्यताम् ( उपाधि उद्भावन का पहिला पक्ष और सत्प्रतिपक्ष उद्भावनवाला दूसरा पक्ष इन दोनों में से ) पहिला पक्ष इस लिये ठीक नहीं है, क्योंकि प्रकृत अनुमान का ‘इन्द्रयग्राह्यत्व’ रूप जा साध्य है, उसका अर्थ है इन्द्रिय के द्वारा गृहीत होने की स्वरूपयोग्यता । श्रतः शब्दध्वंस का प्रत्यक्ष हो सकता है । ( इसका यह अर्थ नहीं है कि सभी शब्दध्वंसों का प्रत्यक्ष होता ही है । अतः सभी शब्दध्वंसों में इन्द्रियसंनिकर्ष रूप उपाधि नहीं हैं, किन्तु सभी शब्दध्वंसों में इन्द्रिय से गृहीत होने की क्षमता है । इस प्रकार ‘स्वरूपयोग्यता’ रूप साध्य का व्यापकत्व छातः ये दोनों धर्मं इन्द्रियग्राह्यत्व रूप साध्य के व्यापक हुए । व्यापक धर्म का जहाँ अभाव होगा वहाँ व्याप्य धर्म का अभाव अवश्य ही रहेगा । सुतराम् प्रकृत में यह विरोधी अनुमान प्रस्तुत किया जा सकता है कि ‘शब्दप्रध्वंसः इन्द्रियाप्राह्यः इन्द्रियासंनिकृष्टत्वात् ऐन्द्रियकाधारत्वाभावाद्वा’ । अर्थात् शब्दप्रध्वंस में चूँकि श्रोत्र रूप इन्द्रिय का संनिकर्ष नहीं है, अतः वह इन्द्रियप्राय नहीं है अर्थात् उसका प्रत्यक्ष नहीं होता । अथवा शब्दप्रध्वंस का आधार चूँकि ऐन्द्रियक नहीं है, अतः वह इन्द्रियास नहीं है । इस प्रकार उक्त दोनों हेतुथों से प्रकृतानुमान में सम्प्रतिपक्ष दोष का उद्भावन पूर्वपक्षवादी का अभिप्रेत हो सकता है। जैसे कि द्वयणुक का ध्वंस इन्द्रियासंनिकृष्ट होने के कारण एवं ऐन्द्रियकानाधार होने के कारण इन्द्रियग्राह्य नहीं होता । द्वारा उक्त अनुमान में अती- उपाधि का उद्भावन अभिप्रेत हो ‘अतीन्द्रियाधारत्वात्’ इस वाक्य के न्द्रिय धारत्व’ का अभाव ‘ऐन्द्रियकाधारत्व रूप सकता है । क्योंकि प्रकृत में साध्य है ‘इन्द्रियग्राह्यस्व । यह साध्य जिन सब स्थानों में है, उन सभी स्थानों में ‘ऐन्द्रियकाधारत्व’ रूप उपाधि भी है, अतः यह उपाधि साध्य का व्यापक हुआ । एवं ऐन्द्रियकाभावश्व रूप हेतु है शब्दप्रध्वंस’ में वहाँ ऐन्द्रियकाधारत्व नहीं है, क्योंकि उसका आधार आकाश ऐन्द्रियक नहीं है । इस प्रकार ऐन्द्रियकाधारत्व हेतु का अध्यापक भी हुआ । अतः इस अनुमान में अतीन्द्रियाधारस्व रूप हेतु के द्वारा उपाधि का उद्भावन भी प्रकृतानुमान में इष्ट हो सकता है। यह ध्यान रखना चाहिये कि शब्दध्वंस में जो इन्द्रियाग्राह्यत्व का प्रत्यनुमान होता है, उसका मूत्र है ‘व्यापकानुपलब्धि’ । अर्थात् इन्द्रियग्राह्यत्व ( प्रत्यक्षस्व ) व्यापकीभूत इन्द्रियसंनिकर्ष और ऐन्द्रियकाधारत्व ये दोनों धर्म चूँकि शब्द में उपलब्ध नहीं है, अतः उक्क अनुमान होता है । इसी अभिप्राय से ‘व्यापकानुपलब्ध्या’ ग्रह पद लिखा गया है ।
द्वितीयः स्तबकः १३१ प्रत्यक्षत्वम् । धर्माद्यभावस्यापि नाप्येन्द्रिय काधारत्वप्रयुक्तमभावस्य तथात्वप्रसङ्गात् । अत एव नोभयप्रयुक्तम् । इन्द्रियसंनिकर्ष में न रहने के कारण प्रकृत अनुमान में कथित रीति से उपाधि की सम्भावना नहीं है ।’ नाप्यैन्द्रियकाधारत्वम् कि उसका श्राधार इन्द्रय से गृहीत प्रत्यक्ष की योग्यता नहीं रहेगी, इसी प्रकार ‘ऐन्द्रियकाधारत्व’ भी प्रकृत में उपाधि नहीं हो सकता । क्योंकि किसी भी वस्तु में प्रत्यक्ष की योग्यता इस लिये नहीं रहती है होने के योग्य है । अगर ऐसा मानेंगे तो फिर त्रसरेणु में क्योंकि उसका आधार द्वयरणुक इन्द्रिय से गृहीत होनेके योग्य नहीं है । सुतराम् जिस अभाव का आधार ‘ऐन्द्रियक’ अर्थात् इन्द्रिय से गृहीत होने के योग्य होता है, उन सभी प्रभावों का भी प्रत्यक्ष नहीं होता है, अगर ऐसा मानें तो फिर धर्म के अभाव का भी प्रत्यक्ष मानना होगा । क्योंकि धर्माभाव का आधार प्रात्मा ‘ऐन्द्रियक’ है । तस्मात् अभाव के प्रत्यक्ष का प्रयोजक उसके आधार का ‘ऐन्द्रियक’ होना नहीं है । अतः कोई अभाव ऐसा भी हो सकता है, जिसका आधार इन्द्रिय से गृहीत होने योग्यता न भी रखता हो, एवं वह प्रभाव स्वयं ऐन्द्रियक हो । इस वस्तुस्थिति के अनुसार प्रकृत अनुमान में ‘ऐन्द्रियकाधारत्व’ उपाधि नहीं हो सकता । क्योंकि इन्द्रियग्रहणयोग्यत्व रूप साध्य त्रसरेणु में है, किन्तु उसमें ऐन्द्रियकाधारत्व रूप उपाषि नहीं है । क्योंकि उसका आधार द्वयक ऐन्द्रियक नहीं है । अतः साध्य का व्यापक न होने के कारण ऐन्द्रियकाधारत्व प्रकृत अनुमान में उपाधि नहीं हो सकता । श्रत एव नोभय प्रयुक्तम् चूकि धर्म के अभाव में मनःसंयुक्तविशेषणता रूप इन्द्रिय का संनिकर्ष एवं ऐन्द्रियका- धारत्व इन दोनों के रहते हुये भी धर्माभाव का प्रत्यक्ष नहीं होता है, ‘अत एव’ उन दोनों को अर्थात् दोनों में से प्रत्येक को प्रभाव के प्रत्यक्ष का प्रयोजक न मानने से दोनों में सम्मिलित रूप से भी प्रत्यक्ष की प्रयोजकता नहीं मानी जा सकती । १. ’ स्वरूप योग्यताम्प्रति अर्थात् इन्द्रियग्रहणयोग्यता रूप साध्य का प्रयोजक ‘सहकारि- योग्यता’ अर्थात् इन्द्रियसंनिकर्ष रूप ‘सहकारिकारण’ की योग्यता ‘उपाधि’ नहीं है अर्थात् प्रयोजक नहीं है । जिस प्रकार स्फटिक में रहनेवाली रक्तिमा का कारण है जपाकुसुम का सानिध्य, क्योंकि उसके बिना स्वभावतः स्वच्छ स्फटिक में रक्तिमा नहीं दीखती है । उसी प्रकार अगर इन्द्रिय से गृहीत की योग्यता इन्द्रियसंनिकर्ष के बिना नहीं रहती तो यह कहा जा सकता था कि वह इन्द्रियसंनिकर्षं रूप हेतु उपाधि मूलक है । किन्तु यह कहना संभव नहीं है, क्योंकि ( तस्यास्तामपेक्ष्यैव सर्वदाऽभ्यवस्थितेः अर्थात् ) इन्द्रिय ग्रहण की योग्यता की अवस्थिति सर्वदा सहकारियोग्यता अर्थात् इन्द्रियसंनिकर्ष को अपेक्षा नहीं रखती है । इस प्रकार इन्द्रियसंनिकर्ष इन्द्रियग्रहणयोग्यता का व्यापक नहीं है । अतः साध्यव्यापक न होने के कारण वह उपाधि नहीं हो सकता । CCO. Vasishtha Tripathi Collection. Digitized by eGangotri१३२ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली नापि द्वितीयः, प्रथमस्यासिद्धेः । अस्ति हि श्रोत्रशब्दाभावयोः स्वाभाविको विशेषरण- नापि द्वितीय:……… प्रर्थात् ‘इन्द्रियासंनिकृष्टत्वात् अतीन्द्रियाधारत्वाद्वा’ इन दोनों वाक्यों से प्रकृतानुमान में सत्प्रतिपक्ष का उद्भावन भी संभव नहीं हैं; क्योंकि ‘शब्दप्रध्वंसः इन्द्रियाग्राह्यः इन्द्रियासंनिकृष्टत्वात् अतीन्द्रियाधारत्वाच्च’ इत्यादि विरोधी अनुमानों से भी प्रकृत मनुमान बाधित नहीं हो सकता । ( सत्प्रतिपक्ष वहीं होता है, जहाँ प्रकृत पक्ष में प्रकृत साध्य के अभाव का साधक दूसरा हेतु प्रकृत हेतु के समान ही बलशाली विद्यमान हो) । व्याप्ति मौर पक्षधर्मता ये दोनों ही ‘हेतु’ के बल हैं । व्यामि का बाधक है व्यभिचार और पक्षधर्मता का बाधक है स्वरूपासिद्धि । सत्प्रतिपक्ष दोष का उद्भावन जिन दो हेतुओं से किया गया है, उनमें व्यभिचार दोष का रहना पहिले दिखा आये हैं । ( प्रथमस्य यहाँ से लेकर शब्दस्याग्रहणप्रसङ्गात्’ इतने पर्यन्त के सन्दर्भ से सत्प्रतिपक्ष के उद्भावक ‘इन्द्रियासंनिकृष्टत्व’ रूप प्रतिहेतु में स्वरूपासिद्धि दोष की सत्ता दिखलाई गयी है ) । पक्ष में हेतु का अभाव ही ‘स्वरूपासिद्धि’ दोष है | पक्ष में हेतु का रहना ही हेतु का साध्यज्ञापकत्व रूप ‘स्वरूप’ है । जो हेतु पक्ष में नहीं रहेगा, वह अपने उक्त ‘स्वरूप’ से विच्युत हो जायगा । अतः इन्द्रिया- संनिकृष्टत्व रूप हेतु चूकिं शब्दध्वंस रूप पक्ष में नहीं है, अतः वह ‘स्वरूपासिद्ध’ है । किन्तु ‘ऐन्द्रियकाभावत्व’ रूप प्रकृत हेतु उक्त ‘स्वरूप’ से विच्युत नहीं है, क्योंकि वह शब्दव्वंस रूप पक्ष में है । अतः हेतु भौर प्रतिहेतु दोनों समान बलशाली नहीं है । सुतराम् उक्त प्रतिहेतु से प्रकृत हेतु में सत्प्रतिपक्ष दोष नहीं दिया जा सकता । ( ‘अस्ति हि’ इत्यादि सन्दर्भ के द्वारा ‘इन्द्रियासंनिकृष्टत्व रूप पहिले प्रतिहेतु में स्वरूपासिद्धि दोष का उपपादन करते हैं ) शब्दप्रध्वंसः इन्द्रियाग्राह्यः इन्द्रियासंनिकृष्टत्वात् ’ यह विरोधी अनुमान भी संभव नहीं है । क्योंकि शब्दप्रध्वंस रूप पक्ष में इन्द्रियसंनिकर्ष है, प्रतः इन्द्रियासंनिकृष्टत्व रूप हेतु का अभाव भी है ( क्योंकि इन्द्रियासंनिकृष्टत्व का अभाव इन्द्रियसंनिकर्ष रूप ही है।) इस प्रकार इन्द्रिया निकृष्टत्व हेतु स्वरूपासिद्ध हेत्वाभास है । ( ‘शब्द- प्रध्वंस में इन्द्रिय का संनिकर्ष किस रीति से है’ इसका उपपादन ही ‘अस्ति हि’ इत्यादि संदर्भ के द्वारा हुआ है । इस सन्दर्भ का अभिप्राय है कि ) श्रोत्र में विशेषणता सम्बन्ध से शब्दाभाव का प्रत्यक्ष होता है । मतः श्रोत्र और शब्दाभाव इन दोनों में कोई ‘स्वाभाविक’ सम्बन्ध अर्थात् संयोग समवायादि से निरपेक्ष किसी प्रत्यक्ष का उत्पादक सम्बन्ध मानना ही होगा, उसी सम्बन्ध का नाम ‘विशेषणता’ होगी। क्योंकि श्रोत्र विशेष्यक एवं शब्दाभाव विशेषणक ‘श्रोत्र: नः निःशब्दवान्’ इस प्राकार की प्रत्यक्ष प्रतीति होती है । इस प्रकार शब्दध्वंस में विशेषणता नाम का इन्द्रिय संनिकर्ष है । अतः इन्द्रियासंनिकृष्टत्व हेतु स्वरूपासिद्ध हेत्वाभास हुमा । इस प्रति हेतु के द्वारा प्रकृत अनुमान का हेतु सत्प्रतिपक्षित नहीं हो सकता ।
द्वितीयः स्तबकः १३३ विशेष्यभावः । विशेष्यस्यातीन्द्रियत्वात् कथमैन्द्रियक विशिष्टज्ञान त्रिषत्वम् ? । तथा विशेष्यमव्यवस्थापयतश्च कथं विशेषणत्वमिति चेन्न । तथा विशेष्यव्यवस्थापनायाः फलत्वात् । न तु तदेव विशेषणत्वम् ग्रात्मा त्वप्रसङ्गात् । विशेषरणभावेन पू० प० ( विशेष्यस्य … कथं विशेषरणत्वम् ) विशेषण वही है जो विशेष्य का व्यावर्तक हो । जैसे कि नीलरूप घट का विशेषण है, क्योंकि अपने नीलघट स्वरूप विशेष्य को पीतघटादि औरों से पृथक् रूप में समझाता है । शब्दध्वंस श्रोत्र का विशेषण तभी हो सकता है, जब कि वह निःशब्द श्रोत्र को सशब्द श्रोत्र से भिन्न रूप में उपस्थित कर सके । किन्तु सो संभव नहीं है । क्योंकि विशेषण स्वविशिष्ट विषयक ज्ञान के द्वारा ही अपने विशेष्य का व्यावर्त्तक होता है । शब्दध्वंस का कथित श्रोत्र रूप विशेष्य तो अतीन्द्रिय है, अतः वह किसी भी विशेषण से युक्त होकर प्रत्यक्ष का विषय नहीं हो सकता । अतः निःशब्द श्रोत्र, का सजातीय जो सशब्द श्रात्र तद्भिन्नत्व विशिष्ट श्रोत्र का भी प्रत्यक्ष. नहीं हो सकता । सुतराम् चूं कि व्यावृत्तिबुद्धि का जनक होना ही विशेषणत्व या विशेषणता है, श्रौर यह विशेषणता शब्दध्वंस में नहीं है । अतः प्रत्यक्ष का प्रयोजक विशेषणता रूप सम्वन्ध शब्दध्वंस में नहीं है । इस प्रकार इन्द्रियासंनिकृष्टत्व रूप प्रतिहेतु शब्दध्वंस रूप पक्ष में है, इसलिये यह प्रतिहेतु स्वरूपासिद्ध हेत्वाभास नहीं है । अतः यह प्रतिहेतु प्रकृत हेतु को सत्प्रतिपक्षित करने में पूर्ण समर्थ है । सि० प० तथा विशेष्यव्यवस्थापनाया । आत्माश्रयप्रसङ्गात् कि उक्त व्यावृत्तिबुद्धिजनकत्व और दोनों को एक मानेंगे तो ‘भ्रात्माश्रय’ दोष लक्षण है । विशेषणता संनिकर्ष से अभाव दृष्टान्त रूप में कह सकते हैं कि घट में विशेषण विशेषण तभी हो सकते हैं जब कि घट में कथित रीति से प्रकृत प्रतिहेतु में स्वरूपासिद्धि दोष का उद्धार नहीं हो सकता । क्योंकि ‘विशेष्यव्यवस्थापना’ अर्थात् विशेष्य में उससे भिन्न पदार्थों की व्यावृत्ति की बुद्धि विशेषण का फल अवश्य है, किन्तु इसका यह अर्थ नहीं है विशेषणत्व दोनों एक ही वस्तु हैं । अगर उन होगा । स्वापेक्षग्रहविषयत्व ही ‘आत्माश्रय’ का और समवाय इन दोनों का प्रत्यक्ष होता है है पटाभाव और समवाय । ये दोना घट के रहनेवाली विशेष्यता निरूपित विशेषणता दोनों में रहे। उसके बाद विशेषणता सम्बन्ध से होनेवाला समवाय और प्रभाव का प्रत्यक्ष होगा । किन्तु विशेषणता को व्यावृत्ति बुद्धि- जनकत्व रूप कहा है । सुतराम् जब तक समवाय और अभाव में विशेषणता नहीं आवेगी, तब तक उनका प्रत्यक्ष नहीं होगा । एवं जब तक प्रत्यक्ष नहीं होगा तब तक उनमें विशेषणता नहीं आवेगी । यही है प्रकृत में ‘आत्माश्रय’ दोष (जिसका उपपादन ‘विशेषणभावेन’ इत्यादि ग्रन्थ से किया गया है ) । तस्मात् श्रोत्र भौर शब्दध्वंस इन दोनों के बीच कोई ‘सम्बन्धान्तर’ अर्थात् इन दोनों से भिन्न संयोगादि किसी सम्बन्ध के न रहते हुए भी श्रोत्र एवं शब्दाभाव
१३४ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली समवायाऽभावयोर्ग्रहणं, तथा ग्रहरणमेव च विशेषरणत्वमिति । तस्मात् संबन्धान्त- सैव च विशिष्टप्रत्यय- रमन्तरेण तदुश्लिष्टस्वभावत्वमेव हि तयोः । जननयोग्यता विशेषरण तेत्युच्यते । सा चात्र दुर्निवारा, प्रतियोग्यधिकरणेन स्वभावत एवाभावस्य मिलितत्वात् । तथापि तया तथैव प्रतीतिः कर्तव्येति चेन्न । । ये दोनों ‘तदुपश्लिष्टस्वभाव’ के हैं । अर्थात् दोनों विशेष्यविशेषणभाव स्वभाव के हैं । ‘सम्बन्ध की सत्ता सम्बन्धि की सत्ता का नियामक है’ यह सत्य है, किन्तु यह सम्बन्ध अपने दोनों सम्बन्धियों से भिन्न ही हो—ऐसा नियम नहीं माना जा सकता । अतः यह कहा जा सकता है कि श्रोत्र में शब्दध्वंस का संयोग समवायादि सम्बन्धों के न रहने पर भी ‘स्वरूप’ सम्बन्ध सम्भव है, जो दोनों सम्बन्धियों से अभिन्न होगा । इस प्रकार श्रोत्र में स्वरूप सम्बन्ध से शब्दाभाव की प्रतीति हो सकती है। विशिष्टप्रतीति को उत्पन्न करने की योग्यता ही ‘विशेषणता ’ है । इस प्रकार की विशेषणता को शब्दध्वंस में कोई रोक नहीं सकता । पू० प० … तथापि तया … 100 अगर यह स्वीकार कर लें कि शब्द ध्वंस में श्रोत्र की विशेषणता है, तो फिर यह भी मानना होगा कि उस विशेषणता सम्बन्ध से जो शब्द ध्वंस का प्रत्यक्ष होगा, उसमें श्रोत्र भासित होगा । क्योंकि विशेष्य सहित ही विशेषण का प्रत्यक्ष विशेषणता सम्बन्ध से होता है । जैसे कि चक्षःसंयुक्त विशेषणता सम्बन्ध से जो घटाभावादि का प्रत्यक्ष होता है, उस प्रत्यक्ष में चक्षुः संयुक्त भूतलादि विशेष्यों का भान भी अवश्य हो होता है । किन्तु प्रकृत में श्रोत्र विशेष्यक शब्दाभाव का प्रत्यक्ष नहीं होता । अर्थात् शब्दाभाव के प्रत्यक्ष में श्रोत्र का विशेष्य विघया भान नहीं होता । श्रतः शब्द ध्वंस में श्रोत्र की विशेषणता नहीं है । १. किन्तु इस प्रसङ्ग में पूर्वपचवादी कह सकते हैं कि सम्बन्ध की सत्ता के अधीन सम्बन्धी वस्तु की सत्ता होती है । एवं सम्बन्ध अपने प्रतियोगी और अनुयोगी रूप दोनों सम्बन्धियों से भिन्न होते हैं। घट की सत्ता भूतल में इस लिये है कि उसके संयोग रूप सम्बन्ध की सत्ता भूतल में है। एवं यह संयोग रूप सम्बन्ध घट - और भूतल इन दोनों सम्बन्धियों से भिन्न भी है। एवं विशेषण को विशेष्य में रहना अनिवार्य है । फलतः विशेषणता के लिये विशेष्य और विशेषण से भिन्न किसी सम्बन्ध का रहना आवश्यक है। श्रोत्रके साथ शब्दध्वंस का ऐसा कोई सम्बन्ध नहीं है। अतः श्रोत्र विशेष्यक शब्दध्वंस विशेषयक प्रत्यक्ष नहीं बन सकता । इसी प्रश्न का समाधान उपसंहार के ब्याज से ‘तस्मात्’ इत्यादि सम्दर्भ के द्वारा किया गया है। •
द्वितीयः स्तबकः १३५ गृह्यमाणविशेष्यत्वावच्छिन्नत्वाद्वघाप्तेः । अन्यथा संयुक्तसमवायेन रूपादी विशिष्ट विकल्पधीजन न दर्शनात् गन्धादावपि तथात्वप्रसंगात् । तथापि नेन्द्रियविशेषरणतया कस्यचिद् ग्रहणम् दृष्टम् । अपि स्विन्द्रियसंबद्ध विशेषणतया, सा चाडतो निवर्तते इति चेन्न । अस्य प्रतिबन्धस्य इन्द्रियसन्निकृष्टार्थप्रति- संबन्धिविषयत्वात् । अन्यथा संयुक्तसमवायेनगन्धादावुपलब्धिदर्शनात्, समवा- येनाऽदर्शनात् शब्दस्याग्रहणप्रसङ्गात् । सि० प० … ‘न, गृह्यमाण ‘विशेषणता सम्बन्ध से होने वाले प्रत्यक्ष में विशेष्य का भी नियमतः भान हो’ ऐसा नियम नहीं है । विशेषण के जिस प्रत्यक्ष के स्थल में विशेष्य विषयक प्रत्यक्ष के कारण समूह ( सामग्री ) भी एकत्र होते हैं, वहीं विशेष्य भी भासित होता है । जैसे कि घटाभाव के प्रत्यक्ष में भूतल भी भासित होता है । प्रकृत में श्रोत्र है आकाश रूप, अतः वह अतीन्द्रिय है । सुतराम् उसके प्रत्यक्ष की सामग्री ही अप्रसिद्ध है, उसका संबलन असंभव है । अतः प्रकृत में केवल शब्दध्वंस रूप अभाव के प्रत्यक्ष की सामग्री का ही संबलन है । इसलिये वहाँ केवल शब्दध्वंस का ही प्रत्यक्ष होता है । ‘अन्यथा’ अगर यह स्वीकार कर लें कि विशेषण का प्रत्यक्ष विशेष्य प्रत्यक्ष के साथ ही हो तो फिर जैसे लाखों से रूप के साथ उसका आश्रय भी प्रत्यक्ष में भासित होता है, उसी प्रकार घ्राणेन्द्रिय से गन्ध के ग्रहण में उसके आश्रय का भी भान मानना पड़ेगा । तस्मात् ‘विशेषण का प्रत्यक्ष विशेष्य के साथ ही हो’ यह व्यामि ही भ्रम मूलक है । पू. प… …तथापि नेन्द्रियविशेषणतया शब्दध्वंस में केवल विशेषणता रूप सम्बन्ध अवश्य है, किन्तु इन्द्रियासम्बद्ध यह केवल विशेषणता सम्बन्ध अभाव के प्रत्यक्ष का उत्पादक संनिकर्ष नहीं है । किन्तु इन्द्रियसम्बद्धविशे- षणता संनिकर्ष ही प्रत्यक्ष का उत्पादक संनिकर्ष है क्योंकि ‘अघटं भूतलन्’ इत्यादि सर्वसिद्ध प्रभाव प्रत्यक्ष स्थल में चक्षुःसंयुक्त विशेषणता संनिकर्ष का ही उपयोग देखते हैं । अतः केवल विशेषणता सम्बन्ध से होनेवाला शब्दध्वंस का प्रत्यक्ष अप्रामाणिक है । सि० प० … “न, अस्य प्रतिबन्धस्य जिस विषय के साथ इन्द्रिय का साक्षात् सम्बन्ध संभव नहीं है, एवं उस विषय का प्रत्यक्ष होता है, उस विषय के प्रत्यक्ष के लिये परम्परा सम्बन्ध की कल्पना करनी पड़ती है । जैसे कि रूप के प्रत्यक्ष के लिये संयुक्तसमवाय सम्बन्ध की, एवं रूप गद्य स्पर्शाभाव के प्रत्यक्ष के लिये संयुक्तसमवेतविशेषणता सम्बन्ध की कल्पना करनी पड़ती है । शब्दध्वंस के साथ तो श्रोत्र का साक्षात ही विशेषणता रूप सम्बन्ध है । श्रतः शब्दध्वंस में श्रोत्रसम्बद्धविशेषणता रूप सम्बन्ध के न रहने पर भी उसके प्रत्यक्ष में कोई बाधा नहीं है । ‘अन्यथा’ मगर ऐसा
१३६ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली नाप्यभावत्वे सतीन्द्रियाधारत्वात् सत्प्रतिपक्षत्वम्, योग्यताविरहप्रयुक्त- स्वाद्वयाप्तेः । नियम मानें कि भूतलादि में घटाभावादि का प्रत्यक्ष इन्द्रियसम्बद्धविशेषणता सम्बन्ध से होता है, अतः प्रभावों के सभी प्रत्यक्षों का उत्पादक संनिकर्ष इन्द्रियसम्बद्धविशेषणता ही है” तो फिर समान रीति से यह भी कल्पना कर सकते हैं कि गन्धादि विशेषगुणों का प्रत्यक्ष चू कि संयुक्त- समवाय संनिकर्ष से होता है, अतः सभी विशेषगुणों का प्रत्यक्ष संयुक्तसमवाय से ही हो’ ऐसी कल्पना करने पर शब्द का प्रत्यक्ष न हो सकेगा। क्योंकि शब्द में श्रोत्र का केवल समवाय सम्बन्ध ही है, संयुक्तसमवाय नहीं । इस प्रकार शब्द का प्रत्यक्ष ही अनुपपन्न हो जायगा । तस्मात् ‘अभाव का प्रत्यक्ष इन्द्रियसम्बद्ध विशेषणता संनिकर्ष से ही हो’ यह नियम उन पटाभावादि विषयक प्रत्यक्ष के लिये है, जो (अभाव) इन्द्रिय से सम्बद्ध घटादि के साथ प्रतिसंवद्ध है । सभी प्रभावों के प्रत्यक्षों के लिये उक्त नियम नहीं है । अर्थात् इन्द्रिय के साथ सम्बद्ध भूतल में रहनेवाले घटाभावादि का प्रत्यक्ष अगर इन्द्रियसम्बद्धविशेषणता सम्बन्ध से होता है, तो इसका यह अर्थ नहीं कि इन्द्रिय के साथ असम्बद्ध श्रोत्र में रहनेवाले शब्दध्वंस रूप प्रभाव का प्रत्यक्ष केवल विशेषणता सम्बन्ध से न हो । तस्मात् शब्दध्वंस इन्द्रियसंनिकृष्ट है, अत: इन्द्रियासंनिकृष्टत्व रूप पहिला प्रतिहेतु शब्दध्वंस रूप पक्ष में नहीं है । इस लिये यह प्रतिहेतु कारण प्रकृत हेतु को सत्प्रतिपक्षित नहीं कर सकता। क्योंकि रहने के कारण प्रकृत हेतु के समान बल नहीं है । स्वरूपासिद्ध हेत्वाभास होने के उस में पक्षधर्मता रूप बल न सि० प० … … … नाप्यभावत्वे सति ‘शब्दध्वंसः इन्द्रियाग्राह्यः प्रभावत्वे सति प्रतीन्द्रियाधारत्वात् परमागतद्वय शुकध्वंसवत्’ यदि इस विरोधी अनुमान को उपस्थित करें तो इसमें ‘योग्यताविरह’ अर्थात् अयोग्यत्व उपाधि होगा । परमाणु में रहनेवाले द्वचरणुकध्वंस का जो प्रत्यक्ष नहीं होता है, उसका हेतु १. ‘माप्यभाववस्वे सति’ इत्यादि सन्दर्भ के द्वारा सत्प्रतिपक्ष के उत्थापक अतीन्द्रियाधारस्व रूप दूसरे प्रतिहेतु से होने वाले सम्प्रतिपक्ष दोष का उद्धार किया गया है । यद्यपि सम्प्रतिपक्ष के उत्थापक प्रत्थ में ‘अतीन्द्रियाधारत्वात्’ यही हेतु वाक्य लिखित है । किन्तु इस हेतु में व्यभिचार दोष अत्यन्त स्फुट है, क्योंकि शब्द में इन्द्रियाप्राहारव रूप विरोधी अनुमान का साध्य नहीं है, किन्तु अतीन्द्रियाधारथ्य रूप हेतु है । अतः प्रतिवादी को प्रतिहेतु में ‘प्रभावस्वे सति इतना और जोड़ना होगा । इसीलिये तस्व- निर्णयेच्छु आचार्य ने पूर्वपक्षवादी के अभीष्ट विशेषण के साथ ही ‘प्रभावत्वे सति’ इत्यादि हेतु वाक्य का अनुवाद किया है। अब शब्द में उक्त व्यभिचार नहीं है, क्योंकि शब्द में अगर इन्द्रियाग्राह्मस्व रूप साध्य नहीं है. तो ‘अभावे सति अतीन्द्रिया- चारस्य’ रूप हेतु भी नहीं है। स्व चे द्व की दु श यो इ भ हे भी अ है न सि म न ही श प्र स अ पू द ह है
द्वितीयः स्तबंर्क : १३७ न चातीन्द्रियाधारत्वमेव तस्य योग्यताविरहा, तद्विपर्ययस्यैव योग्यता- स्वापत्तेः । न चैवमेव, धर्मादिप्रध्वंसग्रहणप्रसङ्गात् । दृश्याधारत्वं दृश्यप्रतियोगिता चेति द्वयमप्यस्य योग्यतेति चेन्न । द्वय कध्वंस के श्राधारभूत परमाणु का अतीन्द्रिय होना नहीं है । किन्तु स्वयं द्वय कध्वंस की अपनी ही अयोग्यता अर्थात् द्वयरकध्वंम का अतीन्द्रिय होना हो. उसका हेतु है । फलतः द्वधकध्वंस के प्रतियोगी द्वयक की प्रयोग्यता ही उसका हेतु है । शब्दध्वंस का प्रतियोगी शब्द अयोग्य नहीं है, अतः शब्द का ध्वंस भी अयोग्य नहीं है । प्रतियोगी की ( प्रत्यक्ष ) योग्यता ही उसके अभाव की योग्यता है, इस रीति के अनुसार जिन सभी स्थानों में इन्द्रियाग्राह्यत्व रूप साध्य है, उन सभी स्थानों में अयोग्यत्वरूप उपाधि भी है हो, अतः अयोग्यत्व साध्य का व्यापक है । शब्द के ध्वंस में ‘प्रभावत्वे सति अतीन्द्रियाधारत्व’ रूप हेतु है, किन्तु अयोग्यत्व रूप उपाधि नहीं है । अतः अयोग्यत्व साधन ( हेनु ) का अव्यापक भी है । सुतराम् अयोग्यत्व को प्रकृतानुमान में उपाधि होने में कोई बाधा नहीं है । चू कि अभावत्वे सति अतीन्द्रियाधारत्व रूप हेतु उपाधि है । अतः उस में व्याप्ति रूप हेतु का वल नहीं है । नहीं कर सकता । सि० प से युक्त होने के कारण व्याप्ति से रहित इसलिये वह प्रकृत हेतु को सत्प्रतिपक्षित न चातीन्द्रियाधारत्वमेव … जैसे कि आप प्रतियोगी की अयोग्यता को अभाव को अयोग्यता प्रयोजक मानते हैं, उसी प्रकार समान युक्ति से यह भी कहा जा सकता है कि अभाव का प्रत्यक्ष न होने का कारण उस के आधार का प्रतीन्द्रिय होना ही है, अर्थात् अतीन्द्रियाधारत्व ही अभाव की अयोग्यता नियामक है । सुतराम् यह भी कहा जा सकता है कि शब्दध्वंस का आधारभूत श्रोत्र चूंकि प्रत्यक्ष के योग्य नहीं है, अतः शब्दध्वंस भी प्रत्यक्ष के योग्य नहीं है । इस प्रकार शब्दध्वंस में अयोग्यत्वरूप उपाधि एवं प्रभावत्वे सति अतीन्द्रियाधारत्व रूप हेतु ये दोनों ही हैं । अतः सावन का व्यापक होने के कारण अयोग्यत्व प्रकृत अनुमान में उपाधि नहीं हो सकता । पू० प० … … द्वयमप्यस्य उसी अभाव का प्रत्यक्ष होता है जिस का प्रतियोगी एवं जिसका आधार दोनों ही प्रत्यक्ष के योग्य हों । फलतः दृश्याधारत्व और दृश्यप्रतियोगित्व ये दोनों ही अभाव प्रत्यक्ष के नियामक हैं । भूतल में रहनेवाले घटाभाव का प्रत्यक्ष इस लिये होता है, चूंकि उसका प्रतियोगी घट और उसका आधार भूतल ये दोनों ही प्रत्यक्ष के योग्य हैं । प्राकाश में रहनेवाले घटभाव का प्रत्यक्ष इसलिये नहीं होता कि उसका आधार आकाश महश्य १८
१३८ गद्यपद्यात्मंक-यायकुसुमाञ्जली उभयनिरूपणीयत्वनियमानभ्युपगमात् । प्रतियोगिमात्रनिरूपणीयो ह्यभावः, अन्यथा, ‘इह भूतले घटो नास्ति’ इत्येषाऽपि प्रतीतिः प्रत्यक्षा घटेऽपि न स्यात् । संयोगो ह्यत्र निषिद्धयते । तदभावश्च भूतलवद् है । भूतल में रहनेवाले दधरणुकाभाव का आधार यद्यपि दृश्य है, किन्तु उसका प्रतियोगी द्वधरक दृश्य नहीं है, अतः उसका प्रत्यक्ष नहीं होता । दृश्यप्रतियोगिकत्व और दृश्यावारत्व के इन दोनों को सम्मिलित रूप से प्रभाव प्रत्यक्ष का नियामक मान लेने से प्रत्यनुमान प्रतीन्द्रियाधारत्व हेतु में अयोग्यत्व उपाधि नहीं होता है, क्योंकि अब अभाव प्रत्यक्ष की अयोग्यता दृश्यप्रतियोगिकत्व और दृश्याधारत्व एतदुभयाभाव रूप होगी । शब्दव्वंस में दृश्य प्रतियोगिकत्व के रहते हुए भी दृश्याधारत्व के न रहने के कारण ( एकसत्त्वेऽपि द्वयं नास्ति’ इस न्याय से ) उक्त उभयाभाव रूप अयोग्यता रहेगी । अतः यह प्रयोग्यत्व हेतु का व्यापक ही हुआ । साधन का अव्यापक न होने से अयोग्यत्व में उपाधि का लक्षण नहीं है । ( कहने का तात्पर्य है कि - शब्दध्वंस में दृश्यप्रतियोगिकत्व अगर है भी तो उस में दृश्याधारत्व नहीं है । सुतराम् शब्दध्वंस में ( प्रत्यक्ष की ) योग्यता नहीं है । अतः प्रत्यक्ष के उपयुक्त इन्द्रिय का संनिकर्ष नहीं है । एवं ( दृश्याधारत्व दृश्य प्रतियोगिकत्व इन दोनों को सम्मिलित रूप से अभाव के प्रत्यक्ष का प्रयोजक मान लेने से ) धर्म के प्रभाव में प्रत्यक्षत्व की आपत्ति नहीं होती है, क्योंकि धर्माभाव का आधार आत्मा यद्यपि दृश्य है, किन्तु उसका प्रतियोगो धर्म दृश्य नहीं है ) । सि० प०, न, उभयनिरुपणीयत्वानभ्युपगमात् पहिली बात तो यह है कि इस में कोई प्रमाण नहीं है कि प्रभाव का निरूपण उसके प्रतियोगी और उसके आधार दोनों के निरूपण के अधीन है । ‘अन्यथा’ अर्थात् अभाव को प्रतियोगी और आधार दोनों के द्वारा निरूप्य मानें तो अनुपपत्ति भी होगी । ‘भूतले घटो नास्ति’ इस आकार की प्रत्यक्ष प्रतीति सार्वजनीन है । इस प्रतीति का विषय वस्तुतः घट के संयोग का अभाव है । जिस प्रकार भूतल में घट के रहने ( अस्तित्व ) की प्रतीति का प्रयोजक घट और भूतल का संयोग है। उसी प्रकार भूतल में घट के प्रभाव की प्रतीति का प्रयोजक भूतल में घट के संयोग का प्रभाव ही है । इससे यह नियम उपपन्न होता है कि जहाँ जिस सम्बन्ध के बल से जिस वस्तु की सत्ता की प्रतीति होंतो है, वहाँ अगर उस आधार में उस वस्तु के अभाव की प्रतीति होगी तो उसका प्रयोजक अस्तित्व के नियामक सम्बन्ध का अभाव ही होगा । इस रीति से ‘भूतले घटो नास्ति’ इस प्रत्यक्ष प्रतीति का विषय है, घटसंयोग का प्रभाव व श्र प्रा अ लि भूत घ घ ही श्र क के स प्र द्व भू f f
5 प व घ च T य ) ना के न्य क्ष नस का के बल व TI नांव द्वितीयः स्तबकः १३६ वर्तते । तत्र यदि प्रत्यक्षतया भूतलस्योपयोगो घटस्यापि तथैव स्यादविशेषात् । अथ घटस्याऽन्यथोपयोगः; भूतलस्याप्यन्यथैव स्यादविशेषात् । कथमन्यथेति चेत् ? प्रतियोगिनिरूपणार्थमभावसन्निकर्षार्थञ्च । तत्र प्रतियोगिनिरूपणं स्मररणलक्षण- अथवा यों कहिये कि उक्त प्रतीति घट संयोगाभाव विषयक है। संयोगभाव के प्रत्यक्ष के लिये पूर्वपक्षी के मत से संयोग एवं संयोग के आधार इन दोनों का प्रत्यक्ष होना आवश्यक है । भूतल के साथ घट के संयोग का आधार जैसे कि भूतल है वैसे ही घट भी है । इस प्रकार घटाभाव के प्रत्यक्ष के लिये घट का प्रत्यक्ष आवश्यक हो जाता है । किन्तु घट का प्रत्यक्ष तो घटाभाव के प्रत्यक्ष का वाधक है । अत: घट के प्रत्यक्ष के बाद घटाभाव का प्रत्यक्ष संभव ही नहीं है । किन्तु पूर्वपक्षी के लिये वह आवश्यक होगा । अतः अभाव के प्रत्यक्ष के लिये अगर उसके प्रतियोगी और आधार दोनों का प्रत्यक्ष अपेक्षित हो तो फिर भूतल में घटाभाव का प्रत्यक्ष नहीं हो सकेगा । पू०प० … • प्रतियोगिमात्र प्रत्यक्षतया भूतलस्योपयोगः अभाव के ज्ञान में प्रतियोगी का ज्ञान अपेक्षित है । अतः संयोगाभाव के ज्ञान के लिये संभोग का ज्ञान आवश्यक है । संयोग है सम्बन्ध रूप, सम्बन्ध के प्रत्यक्ष में दोनों सम्बन्धियों का ज्ञान भर अपेक्षित है । वह ज्ञान प्रत्यक्षात्मक ही हो यह आवश्यक नहीं है । प्रतियोगी के स्मरणात्मकादि परोक्ष ज्ञानों से भी काम चल सकता है । स्मरणादि परोक्षज्ञान के द्वारा घट का उपयोग ही घट का ‘अन्यथोपयोग’ है । अतः घट विषयक प्रत्यक्ष के बिना ‘अघट भूतलम्’ यह प्रत्यक्ष अनुपपन्न नहीं है । सि० प० भूतलस्यापि इस प्रकार तो भूतल का भी ‘अन्यथोपयोग’ हो सकता है। क्योंकि दोनों में कोई अन्तर नहीं है । अर्थात् संयोगाभाव के प्रतियोगी संयोग का सम्बन्धी जैसे कि घट है, वैसे ही भूतल भी है, इन में यदि एक के प्रत्यक्ष के बिना भी उपयोग हो सकता है, तो दूसरे का भी बिना प्रत्यक्ष के ही उपयोग हो सकता है । पू० प० कथम् संयोगाभाव के प्रत्यक्ष में भूतल का उपयोग बिना उसके प्रत्यक्ष के ( श्रन्यथोपयोग ) कैसे हो सकता है ? सि० प० तत्र प्रतियोगिनिरूपणार्थम् ‘अघटं भूतलम्’ इस आकार के प्रत्यक्ष में भासित होनेवाले संयोगाभाव के प्रत्यक्ष में भूतल का दो प्रकारों से उपयोग होता है । (१) प्रतियोगी के निरूपण के लिये और ( २ ) संनिकर्ष के संपादन के लिये । ( प्रतियोगी के निरूपण में प्रत्यक्ष के बिना ही भूतल का उपयोग इस प्रकार होता है कि ) संयोग सम्बन्ध रूप है । सम्बन्ध के ज्ञान में उसके दोनों सम्बन्धियों का जिस किसी भी प्रकार का ज्ञान मात्र आवश्यक है । वह ज्ञान प्रत्यक्षात्मक ही
१४० गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जलौ कुत मनुपलभ्यमानेनाऽपीति न तदथंमध्यक्षगोचरत्वमपेक्षणीय मन्यतरस्यापि, उभयस्य । सन्निकर्षस्तु भूतलघटसंयोगस्येन्द्रियेण साक्षान्नास्ति । येनाऽस्ति, तेनापि यदीन्द्रियं न सन्निकृष्येत कथमिव तं गमयेत् ? हो, इसकी आवश्यकता नहीं है । स्मरणादि परोक्ष ज्ञानों से भी काम चल सकता है । इस वस्तुस्थिति के अनुसार ‘अघटं भूतलम्’ इस प्रत्यक्ष में भूतल का प्रत्यक्ष श्रावश्यक नहीं है । अतः संयोगाभाव के प्रत्यक्ष में भूतल और घट इन दोनों में से एक के प्रत्यक्ष की भी श्रावश्यकता नहीं है । जब दोनों में से किसी एक के भी प्रत्यक्ष की आवश्यकता प्रकृत में नहीं है, तो फिर दृश्यप्रतियोगित्व और दृश्याधारत्व दोनों में ही प्रभाव के प्रत्यक्ष की योग्यता को स्वीकार करना तो सुतराम् अनावश्यक है । संनिकर्षस्तु 900 ( २ ) संयोगाभाव के प्रत्यक्ष के सम्पादक इन्द्रियसंनिकर्षं के सम्पादन में बिना प्रत्यक्ष के भूतल का उपयोग इस प्रकार सम्भव है कि भूतल और घट इन दोनों में संयोग के साथ चक्षुरिन्द्रिय का साक्षात् सम्बन्ध नहीं है । श्रतः परम्परा सम्बन्ध की कल्पना करनी पड़ती है। संयोग का साक्षात् सम्बन्ध भूतल में है या घट में है । अत: इन्हीं दोनों में से किसी के द्वारा चक्षु का संयोग के साथ परम्परा सम्बन्ध स्थापित होगा । जब संयोग के प्रत्यक्ष में ही इन्द्रिय का साक्षात् सम्वन्ध नहीं है, तो फिर संयोग के अभाव के प्रत्यक्ष में इन्द्रिय के परम्परा सम्बन्ध की कल्पना तो अवश्य ही करनी पड़ेगी । इसी कारण संयोगाभाव के प्रत्यक्ष के लिये भी भूतल में चक्षु का संनिकर्ष आवश्यक होता है । न होने पर संयोगाभाव प्रत्यक्ष के लिये आवश्यक इन्द्रियसम्बद्धधिशेषणता नाम के सम्बन्ध की उपपत्ति नहीं होगी । किन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि भूतल की प्रत्यक्षविषयता संयोगभाव के प्रत्यक्षत्व का प्रयोजक है । पू० प० … येनास्ति प्रभाव का प्रत्यक्ष उसके आधार के प्रत्यक्ष के साथ ही होता है । भूतलादि को छोड़कर केवल घटाभाव का प्रत्यक्ष कहीं नहीं होता । अगर संयोगभाव के प्रत्यक्ष में भूतल का केवल इतना ही उपयोग मानें कि संयोगाभाव के साथ इन्द्रियसंनिकर्ष का वह सम्पादन करता है, तो फिर जिस प्रकार गन्ध या गन्धाभाव के प्रत्यक्ष में प्राश्रय का भान कभी होता है कभी नहीं । उसी प्रकार संयोगाभाव के प्रत्यक्ष में भी भूतल का कभी नहीं । गन्ध या गन्धाभाव के प्रत्यक्ष में भी इन्द्रिय का संनिकर्ष ही होता है । अतः प्रकृत में जिस प्रकार इन्द्रिय का संनिकर्ष संयोगाभाव के भान कभी होगा आश्रय के जरिये प्रत्यक्ष का अङ्ग है, उसी प्रकार भूतल का प्रत्यक्ष भी संयोगाभाव के प्रत्यक्ष का अङ्ग हो है । अतः संयोगाभाव के प्रत्यक्ष में भूतल का भान नियमतः होता है । संयोगाभाव में इन्द्रिय का संनिकर्ष होता है। इस प्रत्यक्ष का प्रयोजक है । तस्मात् भूतल के प्रत्यक्ष होने के बाद ही प्रकार आश्रय का प्रत्यक्ष अवश्य ही अभाव
द्वितीयः स्तबकः १४१ न चोपलब्धोपलभ्यमानाभ्यामेवेन्द्रियं सन्निकृष्यते, इतरेतराश्रयप्रसङ्गात् । तस्मात् सन्निकर्षे सति योग्यत्वाद् भूतलमप्युपलभ्यते, न तु तस्योपलभ्यमानत्वमभावो- पलब्धेरंग मिति युक्तमुत्पश्यामः । प्रकृते तु न प्रतियोगिनिरूपणार्थं तदुपयोगः, तस्य संयोगवदाधारानिरूप्य - त्वात् । नापि सन्निकर्षार्थंम्, तदभावस्य साक्षादिन्द्रियसन्निकर्षादिति । सि० प० …न चोपलब्धोपलभ्यमानाभ्यामेव अगर प्रत्यक्ष के द्वारा उपलब्ध भूतल के साथ ही इन्द्रिय का संनिकर्ष मानें तो फिर ‘अन्योन्याश्रय’ दोष होगा। क्योंकि जब तक संनिकर्ष नहीं होगा, तब तक प्रत्यक्ष नहीं होगा, एवं प्रत्यक्ष के विना संनिकर्ष नहीं होगा । तब प्रश्न रहा कि अगर भूतल का प्रत्यक्ष संयोगाभाव के प्रत्यक्ष का अङ्ग नहीं है, तो फिर भूतल प्रत्यक्ष के बिना अभाव का प्रत्यक्ष क्यों नहीं होता है ? इस प्रश्न का यह उत्तर है कि संयोगाभाव का प्रत्यक्ष चक्षुः संयुक्तविशेपणता सम्बन्ध से होता है । इस सम्बन्ध के लिये भूतल के साथ चक्षु का संयोग श्रावश्यक है । एवं चक्षु के साथ भूतल का संयोग हो भूतल के प्रत्यक्ष का भी नियामक है । भूतल में प्रत्यक्ष की योग्यता है ही । अतः संयोगाभाव के प्रत्यक्ष के पहिले जैसे उसके कारणसमूह ( सामग्री ) एकत्र होते हैं, उसी प्रकार उसी समय साथ-साथ भूतल प्रत्यक्ष के कारण समूह भी एकत्र हो जाते हैं । अतः सयोगाभावादि के प्रत्यक्ष में नियमतः भूतलादि श्राश्रय भी विषय होते हैं । इस का यह अर्थ कदापि नहीं है कि भूतलादि श्राश्रयों का प्रत्यक्ष संयोगाभावादि प्रत्यक्ष के कारण हैं । गन्धाभावादि विषयक जिन प्रत्यक्षों से पहिले उस के आश्रयों के प्रत्यक्ष के उत्पादक कारण समूह एकत्र नहीं होते, ऐसे गन्धाभावादि के प्रत्यक्षों में आश्रयों का भान कभी नहीं होता । सि० प०….. …..प्रकृते तु प्रकृत स्थल में अर्थात् श्रोत्र विशेष्यक शब्दध्वंस विशेषणक प्रत्यक्ष स्थल में शब्दव्वंस का प्रतियोगी जो शब्द है, उस के निरूपण के लिये श्रोत्र रूप आश्रय का निरूपण आवश्यक नहीं है । क्योंकि शब्द तो संयोग की तरह सम्बन्ध रूप है नहीं कि उसका निरूपण आधार के निरूपण के अधीन होगा । अतः प्रतियोगिनिरूपणविधया श्रोत्र का निरूपण अनावश्यक है । शब्दध्वंस के साथ श्रोत्र का जो संनिकर्ष होगा, उसके लिये श्रोत्र में शब्द का संनिकर्ष आवश्यक नहीं है । क्योंकि शब्दध्वंस के प्रत्यक्ष के लिये जिस विशेषणता सम्बन्ध की आवश्यकता होती हैं, वह स्वयं साक्षात् सम्बन्ध रूप है ( परम्परा सम्बन्ध रूप नहीं ) । अभाव के प्रत्यक्ष के लिये आधार के प्रत्यक्ष की आवश्यकता के दो ही प्रयोजन संभव हैं (१) प्रतियोगी का निरूपण CCO. Vasishtha Tripathi Collection. Digitized by eGangotri१४२ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली न चेदेवं, कुत एषा प्रतीतिरिदानीं श्रुतपूर्वः शब्दो नास्तीति । अनुमानादिति चेन्न । शब्दस्यैव पक्षीकरणे हेतोरनाश्रयत्वात् । अनित्यत्वमात्रसाधनेऽभावस्य नियत कालत्वासिद्धेः । श्रीर (२) संनिकर्ष का संपादन । प्रकृत में इन दोनों में से किसी भी प्रयोजन के लिये श्राश्रय के प्रत्यक्ष की श्रावश्यकता नहीं है । तस्मात ‘शब्दध्वंस का श्रोत्र रूप आश्रय आकाश चूकि अतीन्द्रिय है, अतः उसका प्रत्यक्ष नहीं हो सकता । इस लिये यह कहना ठीक नहीं है। कि ‘शब्दध्वंस का प्रत्यक्ष भी नहीं हो सकता’ सुतराम् शब्द के ध्वंस का प्रत्यक्ष प्रमाण से सिद्ध है । सि० प० न चेदवम्" अगर यह नियम न मानें कि वे सभी अभाव ( चाहे उनका श्राधार अतीन्द्रिय ही क्यों न हो ) प्रत्यक्ष के द्वारा ग्रहण के योग्य हैं, जिनके प्रतियोगी प्रत्यक्ष के द्वारा गृहीत होने के योग्य हों’ तो फिर ‘इदानीं श्रुतपूर्वः शब्दों नास्ति’ ( अभी वह शब्द नहीं है, जिसे मैंने पहिले सुना था ) इस आकार की प्रत्यक्षप्रतीति कैसे उपपन्न होगी ? ( क्योंकि उक्त प्रतीति के विषय शब्दाभाव का शब्द रूप प्रतियोगी यद्यपि प्रत्यक्ष योग्य है, किन्तु उसका आधार आकाश प्रत्यक्ष के योग्य नहीं है । श्रतः प्रभाव की प्रत्यक्षयोग्यता के लिये प्रतियोगी की प्रत्यक्ष- योग्यता ही केवल अपेक्षित है, उसके साथ आधार के (प्रत्यक्ष की) योग्यता अपेक्षित नहीं है ) । पू० प० … “अनुमानादितिचेत् ‘इदानी श्रुतपूर्वः शब्दो नास्ति’ इस आकार की प्रतीति प्रत्यक्ष रूप नहीं है, क्योंकि शब्दाभाव स्वरूप विषय का आधार है, आकाश वह अतीन्द्रिय है । किन्तु उक्त प्रतीति अनुमिति रूप है । अतः इसके बल पर शब्दध्वंस की प्रत्यक्षता सिद्ध नहीं हो सकती । सि० प०… … … …न, शब्दस्यैव अर्थात् किस आकार के अनुमान के द्वारा उसकी उपपत्ति करेंगे ? (१) शब्द को पक्ष मान कर उस में प्रतियोगित्व सम्बन्ध से ध्वंस का साधन अगर ‘इदानीमनुपलभ्यमानत्व’ हेतु से करेंगे (श्रुतपूर्वः शब्दो घ्वसंप्रतियोगी इदानीमनुपलभ्यमानत्वात् ) तो सो संभव नहीं होगा । क्योंकि वस्तु के साधक अनुमान के लिये पक्ष में हेतु की सत्ता आवश्यक है । श्रविद्यमान वस्तु में किसी की सत्ता नहीं मानी जा सकती । प्रकृत अनुमान का शब्द रूप पक्ष तो ध्वस्त हो चुका है । अतः उसकी अपनी ही सत्ता नहीं है । इसलिये वह किसी का भी भ्राश्रय नहीं हो सकता । सुतराम् पक्षधर्मता न बनने के कारण उक्त आकार की अनुममिति नहीं हो सकती । सि० प० ……. अनित्यत्वमात्रसाधने च (२) ‘इदानीं श्रुतपूर्वः शब्दो नास्ति’ इस प्रतीति के विषय पहिले सुने हुए शब्द में १. इस प्रसङ्ग में पूर्वपचवादी कह सकते हैं कि शब्द की अनिष्यता ही हमलोगों का उसमें अनित्यत्व के साधन लक्ष्य है, वह तो सामान्यतः सभी शब्दों को पक्ष बना कर से भी पूरा हो सकता है । अथवा अनित्य वही कहलाता है जो प्रागभाव का प्रति-
द्वितीयः स्तंवकं १४३ श्राकाशस्य पक्षत्वे तद्वत्तयाऽनुपलभ्यमानत्वस्य हेतोरने का न्तिकत्वात् । शब्दसद्भावकालेऽपि तस्य सत्त्वात् । एवं कालपक्षेऽपि दोषात् । एतत्कालवृत्ति ध्वंस की प्रतियोगिता है । सामान्य रूप से जिस अनित्यत्व का साधन करते हैं, उस अनित्यत्व के शरीर में जो ध्वंस प्रविष्ट है, वह नियमतः एतत्काल में ही रहनेवाला नहीं है । क्योंकि प्रभो वर्त्तमान शब्द में भो अनित्यत्व है, किन्तु उसमें एतत्कालवृत्तिध्वंस की प्रतियोगिता नहीं है । इस शब्द का जब नाश हो जायगा, उस समय विद्यमान ध्वंस की प्रतियोगिता को लेकर विद्यमान शब्द में अनित्यत्व को उपपत्ति होगी । तस्मात् इस अनुमान के द्वारा ‘इदानीं श्रुतपूर्व शब्दो नास्ति’ इस प्रतीति में भासित होनेवाले ‘श्रुतपूर्वशब्द’ में एतत्काल रूप ‘नियतकाल’ में रहनेवाले ध्वंस के प्रतियोगित्व की उपपत्ति नहीं हो सकती । आकाशस्य पक्षत्वे… … … ३. कदाच यह कहें कि आकाश को हो पक्ष करेंगे, शब्द ध्वंस को साध्य करेंगे, एवं शब्दवत्तया अनुपलभ्यमानत्व को हेतु करेंगे करेंगे ( आकाशः शब्दध्वंसवान् शब्दवत्तया अनुपलभ्यमार्गत्वात् ) इस अनुमान से ही ‘इदानीं श्रुतपूर्वः शब्दो नास्ति’ इस प्रतीति की उपपत्ति करेंगे । किन्तु सो भी संभव नहीं है, क्योंकि आकाश स्वयं प्रतीन्द्रिय है, अतः किसी भी विशेषण के साथ उसका प्रत्यक्ष नहीं हो सकता । श्रतः सभी समयों में (जिस समय आकाश में शब्द की सत्ता है उस समय भी आकाश में शब्दवत्तया अनुपलभ्यमात्व हेतु है ही ( क्योंकि अनुपलभ्यमानत्व में जो, उपलब्धि प्रविष्ट है वह प्रत्यक्षात्मक है ) । किन्तु आकाश में उस समय शब्दध्वंस रूप साध्य नहीं है । अतः शब्दवत्तया अनुपलभ्यमानत्व हेतु ( साध्याभाव के अधिकरण में विद्यमान होने के कारण ) अनैकान्तिक हेत्वाभास है । अतः इससे साध्य की सिद्धि नहीं हो सकती । एवं कालपक्षेऽपि … • ४. ( पूर्वपक्षवादी कदाच यह कहें कि ) ! इदानोम्’ काल को ही पक्ष बना कर उस में शब्दवत्तया अनुपलभ्यमानत्व हेतु से शब्दध्वंस की सिद्धि करेंगे । ( एतत्काल योगी होने का साथ ही ध्वंस का भी प्रतियोगी हो । इस प्रकार की अनिश्यता अगर सभी शब्दों में सिद्ध हो जाती है तो फिर पहिले सुने हुए शब्दों में उस अनिष्यता की सिद्धि हो ही जायगी । अतः ‘शब्दः अनि : कृतकत्वात्’ इस अनुमान से ही उत प्रतीति उपपन्न हो जायगी। इसके लिये शब्दध्वंस का प्रत्यक्ष मानना आवश्यक नहीं है । इस प्रसङ्ग में प्रकृत में जिन अनुमानों का उपयोग संभव है उन सभी छनुमानों का उल्लेक पूर्व खयटन ही प्राचार्य ने ‘न, शब्दस्यैत्र पचीकरये’ इत्यादि सन्दर्भ से प्रारम्भ किया है ।
१४४ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जलौ अहमिदानीं निःशब्दश्रोत्रवान्, शब्दोपलब्धिरहितत्वात्, बधिरददिति चेन्न । दृष्टान्तस्य साध्यविकलत्वात्, व्याहतत्वाच्च । बधिरश्च श्रोत्रवाँश्चेति व्याहतम् । । शब्दध्वंसवान् शब्दवत्तया अनुपलभ्यमानत्वात् ) काल पक्षक इस अनुमान के द्वारा ही ‘इदानीं श्रुतपूर्वः शब्दो नास्ति’ इस प्रतीति की उपपत्ति करेंगे । किन्तु यह भी संभव नहीं है, क्योंकि इसमें भी कथितं रीति के अनुसार व्यभिचार दोष है ही । चूंकि काल भी अतीन्द्रिय है, अतः किसी भी विशेषण के साथ उसका भी प्रत्यक्ष संभव नहीं है । अतः जिस स्थिति में काल में शब्द की सत्ता है, उस स्थिति में भी शब्दवत्तया अनुपलभ्यमानत्व हेतु काल में है, अथ च शब्द का ध्वंस उस स्थिति में काल में नहीं है । इस रीति से यह हेतु भी अनैकान्तिक हेत्वाभास होगा । अतः काल पक्षक उक्त अनुमान से भी काम नहीं चल सकता । पू० प० ग्रहमिदानीम् आत्मा को ही पक्ष करेंगे, शब्दध्वंसविशिष्ट श्रोत्र को साध्य करेंगे, एवं शब्दोपलब्धि- रहितत्व को हेतु करेंगे श्रोर बधिर पुरुष को दृष्टान्त बनायेंगे । अनुमान का आकार होगा ‘अहमिदानीं निःशब्दश्रोत्रवान् शब्दोपलब्धिरहितत्वात् बधिरवत् । ’ इस अनुमान से ही ‘इदानीं श्रुतपूर्वः शब्दो नास्ति’ इस प्रतीति की उपपत्ति करेंगे । वीचीतरङ्गन्याय से जब कर्णशष्कुल्यवच्छिन्न श्राकाश में शब्द की उत्पत्ति होती है, तभी शब्दका प्रत्यक्ष होता है । जिस समय श्रात्मा में शब्द का प्रत्यक्ष होता है, उस समय श्रोत्र में शब्द भी रहता है । सुतराम् आत्मा में जिस समय शब्द की उपलब्धि नहीं रहती है, उस समय श्रोत्र भी निःशब्द रहता है । अत: यह व्याप्ति सुलभ है कि जो आत्मा शब्द की उपलब्धि से रहित होती है, वह शब्दविहीन श्रोत्र से युक्त भी होती है । इस प्रसङ्ग बधिर पुरुष को दृष्टान्त दिया जा सकता है, क्योंकि वह शब्द की उपलब्धि से रहित भी होता है, और उसके श्रोत्र निःशब्द भी होते हैं । सि० प० न, दृष्टान्तस्य 110 में पहिला दोष इस अनुमान में यह है कि इसका दृष्टान्त बधिरपुरुष निःशब्दश्रोत्र रूप साध्य से विहीन है । दृष्टान्त में साध्य का रहना आवश्यक है । निःशब्द श्रोत्र रूप साध्य का अभाव दो प्रकार से हो सकता है । १. श्रोत्र में शब्द के न रहने से और २. श्रोत्र के ही रहने से । इन में बधिर पुरुष को श्रोत्र तो है, किन्तु उस में शब्द नहीं है । अतः श्रोत्र निःशब्द भी है । किन्तु इस रीति से दृष्टान्त में साध्य की सत्ता का उपपादन नहीं किया जा सकता । क्योंकि इस बात का कोई प्रमाण नहीं है कि बविर को श्रोत्र तो है, किन्तु उस में शब्द नहीं है । सुतराम् बधिर के श्रोत्र में भी शब्द है ही । अतः दृष्टान्त में निःशब्द श्रोत्र E f च a स f ह S उ f f उ
द्वितीयः स्तबकः १४५ तस्यापि च श्रवसः निःशब्दत्वे प्रमाणं नास्ति । अनुपभोग्यस्य उत्पादवेयथ्यं प्रमाणमिति चेन्न । श्राद्यादिशब्दवदुपपत्तेः । तेषां शब्दान्तरारम्भं प्रत्युपयोगः, अन्त्यस्य न तथेति चेन्न । अन्त्यत्वासिद्धेः । सर्वेषाञ्चोत्पादवतां प्रयोजनतदभाव- रूप साध्य नहीं है । दूसरी बात यह है कि ‘वह पुरुष वधिर है’ एवं ‘उस पुरुष को श्रोत्रन्द्रिय है’ ये दोनों बातें परस्पर विरुद्ध हैं । वधिर पुरुष को श्रोत्रेन्द्रिय होता ही नहीं । अतः दृष्टान्त में निःशब्द श्रोत्र रूप साध्य नहीं है । अतः दृष्टान्त में साध्य वैकल्य दोष विद्यमान है । पू० प० अनुपभोग्यस्य Bwe बधिर के श्रोत्रेन्द्रिय में शब्द की उत्पत्ति हो ही नहीं सकती, क्योंकि बिना प्रयोजन के किसी वस्तु की उत्पत्ति संभव नहीं है । श्रात्र में शब्द की उत्पत्ति का प्रयोजन है शब्द का उपभोग | शब्द के प्रत्यक्ष के बिना शब्द का उपभोग संभव नहीं है कर्ण में शब्द की उत्पत्ति विना प्रयोजन की होगी । सुतराम बधिर के कर्ण में संभव नहीं है । अत: बधिर रूप दृष्टान्त साध्य से शून्य नहीं है । सि० प० न, आद्यादिशब्दवत् । अतः बधिर के शब्द की उत्पत्ति यह सत्य है कि बिना प्रयोजन के किसी की उत्पत्ति नहीं होती है । किन्तु कोई साक्षात् ही प्रयोजन का संपादन करता है, कोई परम्परया । आद्यशब्द श्रोत्र में जैसे कि श्रोत्र में उत्पन्न शब्द साक्षात् ही प्रयोजन का संपादक है और शब्दान्तर के उत्पादन द्वारा प्रयोजन का संपादक है । बधिर के श्रोत्र में उत्पन्न होने वाला शब्द अबधिर पुरुष के श्रोत में उत्पन्न शब्द की तरह साक्षात् प्रयोजन का संपादक भले ही न हो, किन्तु श्राद्यशब्द की तरह परम्परया प्रयोजन का संपादन तो कर ही सकता है । अतः श्रप्रयोजनीय होने के नाते बधिर पुरुष के कर्ण में शब्द की उत्पत्ति को हो अस्वीकार करना उचित नहीं है । पू० प० तेषाम् न तथेति चेत् आद्य शब्द का या मध्य शब्द का यह प्रयोजन हो सकता है कि वह दूसरे शब्द को उत्पन्न करे । किन्तु श्रोत्र में उत्पन्न होनेवाला शब्द तो अन्तिम है । उससे तो दूसरे शब्द की उत्पत्ति संभव नहीं है । अतः शब्द का उपभोग ही केवल उस शब्द का प्रयोजन हो सकता । यह शब्दोपभोग रूप प्रयोजन यदि बधिर पुरुष के श्रोत्र में उत्पन्न शब्द से न हो सके तो फिर यही कहना पड़ेगा उसको उत्पत्ति हो निरर्थक है । चूंकि निरर्थक वस्तु की उत्पत्ति नहीं होती है, अतः बधिर पुरुष के श्रोत्र में शब्द उत्पन्न ही नहीं होता है । सि० प० न, अन्त्यत्वासिद्धेः • अनुपयोगात् श्रोत्र में जो शब्द उत्पन्न होता है, वह अन्तिम है - इसमें कोई प्रमाण नहीं है । अतः जिस प्रकार आद्यशब्द या मध्यशब्द का यह प्रयोजन संभव है कि उनसे दूसरे शब्दों की `उत्पत्ति हो, उसी प्रकार श्रोत्रगत शब्द के प्रसङ्ग में भी यह कहा जा सकता है उससे दूसरे १९
१४६ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली योरस्मादृशेरनाकलनात् । सुषुप्त्यवस्थायां श्वासप्रश्वासप्रयोजनवच्च तदुपपत्तेः । प्रारम्भे सति प्रयोजनमवश्यमिति व्याप्तेः, न त्वापाततः प्रयोजनानुपलम्भमात्रेणा- रम्भनिवृत्तिः । तथा सति कर्णशष्कुल्यवच्छेदोत्पाद एव नभसः तं प्रति निवर्तेत । बधिरस्य तेनाऽनुपयोगात् । विवादकाले बधिरकर्णः शब्दवान्, योग्य देशस्यानावृत- शब्द का उत्पादन रूप प्रयोजन निष्पन्न होगा । अत: प्रयोजन के अभाव से वधिर पुरुष के श्रोत्र में शब्द की उत्पत्ति नहीं रोकी जा सकती । उत्पत्तिशील सभी वस्तुनों का प्रयोजन और अप्रयोजन हम जैसे साधारण व्यक्ति समझ भी नहीं सकते । सुषुप्ति अवस्था में जो श्वास और प्रश्वास चलता है, उसका प्रयोजन हम लोगों को कहाँ ज्ञात है ? किन्तु इस श्वास और प्रश्वास की उत्पत्ति का निराकरण नहीं हो सकता । इसी प्रकार बधिर पुरुष के श्रोत्र में शब्द की उत्पत्ति का भी खण्डन नहीं किया जा सकता । ‘जिसकी उत्पत्ति होती है, उसका कोई प्रयोजन अवश्य रहता है’ इस व्याप्ति के रहते हुये किसी वस्तु के प्रयोजन का श्रापात दृष्टि से ज्ञान न होने पर उसके उत्पादन का ही खण्डन कर देना उचित नहीं है । अगर साधारणजनों के द्वारा प्रयोजन के अज्ञात होने पर उसकी उत्पत्ति ही रुक जाय तो फिर बधिर पुरुष के शरीर में कर्णशष्कुली रूप प्रवच्छेदक का निर्माण ही नहीं होता । कर्णशष्कुली रूप अवच्छेदक की उत्पत्ति तो इसीलिये होती है कि तदवच्छेदेन आकाश में उत्पन्न होकर शब्द की उपलब्धि हो । वधिर पुरुष को जब शब्द की उपलब्धि ही नहीं होती है, तव वधिर पुरुष के शरीर में कर्णशष्कुली का निर्माण ही क्यों ? तस्मात् जैसे साधारण जनों को प्रयोजन को उपलब्धि नहीं है – केवल इसके बल पर जेसे वधिर पुरुष के शरीर में कर्णशष्कुली का निर्माण नहीं रुक सकता, वैसे हो उस बधिर के कर्णशष्कुल्यवच्छिन्न श्राकाश रूप श्रोत्र मे शब्द की उत्पत्ति भी नहीं रोकी जा सकती । अतः बधिर पुरुष के श्रोत्र में भी शब्द है । चूंकि वधिर पुरुष निःशब्द श्रोत्रवाला नहीं हो सकता । अतः उक्त अनुमान के दृष्टान्त में साध्य के नहीं रहने का ( साध्यवैकल्य ) दोष है ही । सि० प० विवादकाले 1 410 … ‘सुषिरवत् जिस समय उस देश में रहनेवाले एवं श्रोत्रोन्द्रिय से युक्त ( अवधिर ) लोगों को शब्द की उपलब्धि होती है, उस ( विवाद ) काल में बधिर पुरुष के कान में भी शब्द, है, क्योंकि बधिरों के कान भी कर्णशष्कुली के बीच का छिद्र रूप ही है, जैसे कि अबधिर पुरुष के कर्णशष्कली के बीच का छिद्र किसी से ढंका नहीं रहने के कारण शब्द की उत्पत्ति के योग्य है १. ‘तस्यापि च श्रवसः’ यहाँ से लेकर ‘तेनानुपयोगात्’ इतने पर्यन्त के सन्दर्भ से यह प्रतिपादन किया गया है कि ‘बधिर के श्रोत्र में शब्द के नहीं रहने का कोई प्रमाण नहीं है’ किन्तु केवल इतने भर से तो उसमें शब्द का रहना सिद्ध नहीं हो सकता, उसके लिये अलग से प्रमाण चाहिये । अत: ‘विवादकाले’ इत्यादि सन्दर्भ के द्वारा बधिर पुरुष के क्षेत्र में शब्द की सिद्धि अनुमान प्रमाण के द्वारा दिखलायी गयी है। क य उ इ पू ज्ञ वि वि घ भू उ वि उ स प्र ह उ จ
T ६. है ह T, रा पी द्वितीयः स्तवकः १४७ कर्णशष्कुली सुषिरत्वात् । तदितरक शष्कुली सुषिरवदिति । निःशब्दाः परणववी- । तदितरकर्णशष्कुली । तदेकज्ञानसंसर्गयोग्यत्वस्य तदनुपलम्भेऽप्युपलभ्यमानत्वात् । यत् गावेणवः, उसी प्रकार वह छिद्र भी किसी से ढँका न रहने के कारण शब्द की उत्पत्ति के योग्य है । अतः इस अनुमान के द्वारा बधिर पुरुष के श्रोत्र रूप दृष्टान्त में शब्द रूप साध्याभाव की सिद्धि हो जाने पर ‘अहमिदानींम्’ इत्यादि अनुमान नहीं हो सकता । पू० प० निः शब्दाः पणववीरणावेणवः … जिस विशेषण के साथ जिस विशेष्य का ज्ञान कभी होता है, उसी विशेष्य के किसी ज्ञान में यदि वह विशेषण कभी भासित न हो सके तो यह समझना चाहिये कि उस समय उस विशेष्य में वह विशेषण नहीं है । जैसे कि जिस समय भूतल में घट रहता है, उस समय का भूतल विषयक ज्ञान घट विषयक भी होता है । अतः ‘घटवद् भूतलम्’ इस आकार के भूतल विषयक ज्ञान घट रूप विशेषण विषयक भी होता है । किन्तु जिस समय भूतल में घट नहीं रहता है, उस समय भूतल की उपलब्धि बिना घट रूप विषयक ही होती है। इससे समझना सुलभ हो जाता है कि उस समय भूतल में घट नहीं है । ( इससे यह निष्कर्ष निकला कि ) जिस विशेषण के ज्ञान की विषयता जिस विशेष्य में सम्भावित है, वह विशेष्य किसी समय यदि किसी ऐसे ज्ञान के द्वारा उपलब्ध होता है, जिसमें वह विशेषण भासित नहीं होता है, तो यह समझना चाहिये कि उस समय उस विशेष्य में वह विशेषण नहीं है । प्रकृत में यह कहना है कि जिस समय वीणा, मृदङ्ग प्रभृति बाजे बजते हैं, उस समय “सशब्दा वीणापणववेणवः " इस आकार की शब्दविशेषणक प्रतोति होती है । अत एव वीणादि में शब्द विषयक एक ज्ञान का ‘संसगित्व’ अर्थात् विषयताकी योग्यता है । किन्तु जिस समय वीणादि वाद्य नीरव रहते हैं, उस समय केवल वीणादि वाद्यों की ही उपलब्धि होती है । इससे यह समझना सुलभ है कि उस समय वीणादि वाद्यों में शब्द नहीं है । ’ । १. ‘नि:शब्दाः पणववीणावेणवः तदेकज्ञानसंसगयोग्यत्वे सति तदनुपलम्मेऽप्युपालम्य- मानत्वात्’ इस अनुमान के हेतु वाक्य में पदों की व्यावृत्तियाँ इस प्रकार हैं। अगर तदेकज्ञानसंसर्गयोग्यत्वे सति’ यह विशेषण नहीं देंगे तो व्यभिचार दोष होगा, क्योंकि धर्म की उपलब्धि न होने पर भी आत्मा की उपलब्धि होती है, किन्तु इस से श्रात्मा में धर्म का अभाव सिद्ध नहीं हो सकता । अगर उक्त विशेषण दे देत हैं तो उक्त व्यभिचार दोष मिट जाता है, क्योंकि आत्मा में धर्म विशिष्ट आत्म प्रत्यक्ष की विषयत्व की योग्यता ही नहीं है। चूँकि धर्मं अतीन्द्रिय है, अतः धर्म विशिष्ट आत्मा का प्रत्यक्ष हो ही नहीं सकता। अगर हेतु वाक्य में ‘तदनुपलम्भे सति’ यह पद नहीं देते हैं तो फिर सशब्द वीणा में व्यभिचार होगा, क्योंकि सशब्द वीणा में शब्द विशिष्ट वीणा के प्रत्यक्ष विषयत्व की योग्यता भी है एवं उपलभ्यमानत्व भी है। अतः हेतु है, किन्तु शब्दाभाव रूप साध्य नहीं है । ‘तदनुपलग्मेऽपि’ यह पद देने पर व्यभिचार दोष मिट जाता है, क्योंकि सशब्द वीणा में ‘सशब्दा वीणा’ इस आकार की प्रत्यक्ष विषयता ही है, अतः हेतु की सत्ता नहीं है ।
१४८ गद्यपद्यात्मंक-न्यायकुसुमाञ्जलौ यदेकज्ञानसंसगंयोग्यस्यानुपलम्भेऽप्युपलभ्यते तत् तदभाववत् । । यथा अघटं भूतलमिति चेन्न । एकज्ञान संसगयोग्यत्वाभावात् । शब्दस्य श्रोत्रत्वाद्वीणादीनां चाक्षुषत्वात् । अभिमानमात्रादिति चेन्न । तथापि शब्दप्रध्वंसस्याऽतद्देशत्वात्, अत्यन्ताभावस्य च कालानियमात् । । सि० प० न, एकज्ञान संसगयोग्यत्वाभावात् वीणादि में ‘स शब्दाः पणववीणावेणव:’ इस आकार के ‘एकज्ञान’ रूप प्रत्यक्ष की योग्यता नहीं है । क्योंकि वीणादि चाक्षुष प्रत्यक्ष के विषय हैं । एवं शब्द श्रावणप्रत्यक्ष का विषय है । अतः ऐसा कोई एक प्रत्यक्ष सम्भव ही नहीं है, जिसमें वीणादि और शब्द दोनों ही विषय हों । इसलिये वीणादि रूप पक्ष में हेतु का ‘तदेकज्ञानसंसर्गयोग्यत्व’ रूप विशेषण नहीं है । अत: पक्ष में उक्त विशेषण से युक्त हेतु भी नहीं है । फलतः प्रकृत हेतु स्वरूपासिद्ध हेत्वाभास हो जाता है । पक्ष में हेतु के अभाव को स्वरूपासिद्धि दोष कहते हैं । पू० प० अभिमान ‘मधुरस्वरा वीणा’ इत्यादि प्रतीतियाँ सार्वजनीन हैं । अतः इन प्रतीतियों की उपपत्ति करनी ही पड़ेगी । यह उपपत्ति चाहे उक्त ज्ञान को भ्रम मानकर हो अथवा उक्त ज्ञान में वीणा का अलौकिक संसर्ग से भान मान कर हो । किन्तु उक्त ज्ञान से वीणादि में शब्द विषयकज्ञान में विषय होने की योग्यता अवश्य था जायगी । ‘एकज्ञान संसर्गयोग्यत्व’ में जो ‘ज्ञान’ पद है, उससे ‘मधुरस्वरा वीणा’ इत्यादि आकार का ‘अभिमान’ रूप भ्रमरूप ज्ञान ही अभिप्रेत है । अतः उक्त हेतु स्वरूपासिद्ध न होने से हेत्वाभास नहीं है । सुतराम् उक्त अनुमान ठीक है । सि० प० … । न, तथापि शब्दप्रध्वंसस्य ‘वीणादि में शब्द के जिस अभाव की सिद्धि आप करते हैं शब्द का वह अभाव (१) ध्वंस रूप है ? या ( २ ) अत्यन्ताभाव रूप ? अगर ( १ ) शब्द ध्वंस को साध्यकरेंगे तो उक्त अनुमान में बाघ दोष होगा। क्योंकि ध्वंस नियमतः उसी देश में रहता है जो देश उसके प्रतियोगी का समवाय सम्बन्ध से नियमतः श्राश्रय हो । वाणादि शब्द के समवायी देश न होने के कारण शब्दध्वंस के आश्रय नहीं है ( शब्द का समवायी देश प्रकाश है ) अतः वीणादि ३. पूर्वपरावादी के उक्त समाधान को तस्वान्वेषक आचार्य ने स्वीकार कर लिया है । अतः ‘न तथापि’ इत्यादि से आरम्भ कर ‘कालानियमात् ’ इतने पर्यन्त के सन्दर्भ से पूर्व- पक्षी के अनुमान में दूसरे दोष दिखलाये हैं । छ इ f स न पू क र ( व यु य से
द्वितीयः स्तबंक: १४६ स्यादेतत् । शब्दवदाकाशोपाधयो हि भेर्यादयः । तेन तेषु विधीयमानः शब्दः आकाश एव विहितो भवति, प्रतिषिद्धयमानश्च तत्रैव प्रतिषिद्धो भवति, शरीरे सुखादिवदिति चेन्न । शब्दध्वंस के आश्रस नहीं हो सकते । अतः वोणादि रूप पक्ष में शब्दध्वंस रूप साध्य के न रहने से प्रकृत में बाघ दोष स्फुट है, क्योंकि पक्ष में साध्य के न रहने से बाध दोष होता है । सुतराम उक्त अनुमान का हेतु स्वरूपासिद्ध न होने पर भो वाधित नाम का हेत्वाभास होगा । (२) अगर शब्द के प्रत्यन्ताभाव का साधन वीणादि में करना चाहते हैं तो उक्त बाध यद्यपि नहीं होगा, फिर भी अभीष्ट की सिद्धि नहीं होगी । क्योंकि जिस प्रकार वायु में रूप का अत्यन्ताभाव सभी समय रहता है, उसी प्रकार वीणादि में भी शब्द का अत्यन्ताभाव सभी समय विद्यमान है । आप को तो ‘इदानीम् ’ रूप नियत काल में पहिले सुने हुए शब्द के अभाव को सिद्ध करना अभीष्ट है । यह कार्य सभी समयों में शब्दाभाव की सिद्ध करनेवाले अनुमान से नहीं हो सकता । वस्तुतः प्रकृत में यह विचार उपस्थित है कि शब्द का ध्वंस प्रत्यक्षवेद्य है ? या (२) प्रत्यक्ष वेद्य नहीं है ? यह विचार तो शब्द के अत्यन्ताभाव को अनुमानगम्य सिद्ध कर देने से निवृत्त नहीं हो सकता । पू० प० स्यादतेत् 408 शरीरसुखादिवत् … आकाश में जो शब्द की अधिकरणता है, भेरी - मृदङ्ग-वीणा प्रभृति द्रव्य उस अघि - करणता के अवच्छेदक ( भेदक ) उपाधि हैं । जिस से यह ज्ञात होता है कि तदवच्छेदेनेव आकाश में शब्द को अधिकरणता है । जैसे शरीरावच्छेदेन आत्मा में सुख की अधिकरणता रहती है । उपधेय वस्तु ( आत्मा आकाश प्रभृति ) में रहनेवाली वस्तु का उनकी उपाधि ( वीणा शरीर प्रभृति ) में भी व्यवहार होता है । जैसे शरीर में सुख या सुख के अभाव का व्यवहार होता है । किन्तु उपाधि में होनेवाले इस गौण व्यवहार से उपाधि में किसी वस्तु की वास्तविक सिद्धि या पारमार्थिक निषेध नहीं हो सकता । वह तो उपाधि से युक्त उपधेय में ही होता है । जैसे कि ‘शरसि में सुखम् ’ या ’ पादे में वेदना’ इत्यादि व्यवहारों से शिर में सुख या पैर में दुःख की सिद्धि नहीं होती है । अथवा ‘शरीरे में सुखं नास्ति’ इत्यादि प्रतीति से शरार में सुख के अभाव की सिद्धि न होकर आत्मा में हा सुख के प्रभाव की सिद्धि होती है । इसी प्रकार प्रकृत में मृदङ्ग वीणा प्रभृति से अवच्छिन्न प्रकाश में जो शब्द की अधिकरणता है, उस का अवच्छेदकीभूत उपाधि है भेरी मृदङ्गादि । अतः, भेर्यां शब्दः, वीणायां शब्दः इत्यादि प्रतीतियों से आपाततः यद्यपि भेरी प्रभृति में शब्द की सत्ता प्रतीत होती हैं । किन्तु वास्तव में उन प्रतीतियों से तद्वच्छिन्न आकाश में ही शब्दकी सत्ता सिद्ध होती है । एवं ‘निःशब्दा भेरी,’ निःशब्दा वीणा’ इत्यादि प्रतीतियों से भी तत्तदवच्छिन्न आकाश में ही शब्द का निषेध होता है 1 ।
१५० गद्यपद्यात्मक न्यायकुसुमाञ्जली तत्र सोपाधावात्मनि प्रत्यक्ष सिद्धे सुखादिनिषेधस्यापि प्रत्यक्ष सिद्धत्वात् । न चैवमिहापि, तदुपहितस्य नभसोऽप्रत्यक्षत्वात् । उपाधयस्तावत् प्रत्यक्षा ‘इति चेन्न । तेरभावानिरूपणात् । निरूपणे वा प्रत्यक्षेणापि ग्रहणप्रसङ्गात् । सुतराम् ‘निःशब्दाः पणव- वीणा-वेणवः’ इत्यादि अनुमानों में वीणादि पक्ष ही नहीं है, किन्तु तदवच्छिन्न आकाश ही पक्ष है । उक्त आकाश तो शव्दध्वंश का देश है ही । अतः शब्दध्वंस साध्यक अनुमान में जो स्वरूपासिद्धि दोष कहा गया है, सो नहीं है । सि० प० न, तत्र सोपाधावात्मनि शरीर में सुख के निषेध से जहाँ आत्मा में सुख का निषेध होता है, वहाँ शरीर रूप उपाधि से युक्त आत्मा का प्रत्यक्ष होता हैं । अतः प्रत्यक्ष आत्मा में प्रत्यक्षयोग्य सुख का निषेध प्रत्यक्ष के द्वारा सिद्ध हो सकता है । प्रकृत में श्राकाश श्रतीन्द्रिय है । अतः भेरी प्रभृति उपाधियों से अवच्छिन्न आकाश भी श्रतीन्द्रिय ही है । सुतराम् शब्द के ध्वंस से युक्त होकर भी आकाश का प्रत्यक्ष नहीं हो सकता । अतः श्राकाश पक्षक अनुमान में जितने भी दोष कहे गये हैं, वे सभी इस अनुमान में भी होंगे । पणववीणादि पक्षक उक्त अनुमान भी वास्तव में आकाशपक्षक ही हैं । ( अर्थात् पक्ष में तदनुपलम्भेऽपि अनुपलम्य- मानत्व हेतु के न रहने से यहाँ भी स्वरूपासिद्धि दोष है ही ) । सि० प० न, तैरभावानिरूपणात् हम यह तो कहते नहीं कि ‘वीणादि का प्रत्यक्ष नहीं होता’ है । किन्तु हम यह कहते हैं कि वीणादि शब्द के समवायिकारणीभूत देश नहीं हैं, अतः उनसे शब्दध्वंस का निरूपण नहीं हो सकता । अगर यह मान लें कि ( शब्द के समवायिकरण न होते हुए भी ) वीणादि से भी शब्दध्वंस का निरूपण हो सकता है, तो फिर शब्दध्वंस के प्रत्यक्ष में कोई वाघा न रह जाने के कारण हम लोगों का मनोरथ अनायास ही सिद्ध हो जायगा । क्योंकि शब्दध्वंस के प्रत्यक्ष में तो इतनी ही बाधा है कि उसके प्रतियोगी का समवायी आकाश अतीन्द्रिय है । एवं किसी दूसरे के द्वारा उसका निरूपण हो नहीं सकता । सो अगर शब्द के समवायिकारणीभूत श्राकाश को छोड़कर उसके निमित्त कारणीभूत वीणादि से भी शब्दध्वंस का निरूपण हो सकता है तो फिर शब्द ध्वंस के प्रत्यक्ष में कोई बाधा नहीं रह जाती। दूसरी बात यह है कि ( ‘एवं सति’ अर्थात् ) वीणादि से भी शब्दध्वस का निरूपण मानने का यह निष्कर्ष होगा कि ध्वंस केवल अपने प्रतियोगी के समवायी रूप ‘पारमार्थिक’ ( वास्तविक ) अधिकरण से ही निरूप्य नहीं है । किन्तु ऐसा मानने पर जिस समय वीणादि ‘व्यवहित’ होने के कारण प्रत्यक्ष योग्य नहीं रहते, उस समय अप्रत्यक्षवीणा द में जो शब्दध्वंस का प्रत्यक्ष होता है, वह न हो सकेगा। क्योंकि वीणादि जब स्वयं शब्दाभाव न स स घ के ८ ह รี
द्वितीयः स्तवकः 1 १५१ न चैवं सति पारमार्थिकाधिकरण निरूपणीयत्वमभावस्य । न च तेऽपि प्रत्यक्ष सिद्धाः । सर्वत्र शब्दकारणव्यवधानेऽप्युपलब्धस्य शब्दस्य नास्तिताप्रतीतेः । आनुमानिके- स्तैस्तथा व्यवहार इति चेन्न । हेतोस्तद्वत्तयाऽनुपलभ्यमानत्वस्याऽनेकान्तिकत्वात् । प्रभावप्रतीतिकाले सन्दिग्धाश्रयत्वाच्च उपलभ्यमान विशेष्यत्वपक्षे . 1 के निरूपक है, तो फिर उनके प्रत्यक्ष के बिना उनमें शब्दाभाव की प्रतीति कैसे होगी ? अत: ( यह मानना पड़ेगा कि ) ध्वंस अपने प्रतियोगी के ( समवायिकारण रूप ) ‘पारमार्थिक’ श्रधिकरण से ही निरूपित हो सकता है, वीणादि निमित्त कारणों के द्वारा नहीं । पू० प० … आनुमानिकैः प्रकार का ज्ञान ही अपेक्षित है। पक्ष के व्यवहित वीणादि में जो शब्दध्वंस का व्यवहार होता है, वह ‘भानुमानिक’ वीणादि से होता है । अर्थात् विशेष प्रकार के शब्द से अनुमित वीणादि में शब्दध्वंस का अनुमान होता है । अनुमिति में पक्ष का जिस किसी भी प्रत्यक्षात्मक ज्ञान की नियमतः अपेक्षा नहीं है । अतः व्यवहित वीणादि में शब्दध्वंस के व्यवहार की कोई अनुपपत्ति नहीं है । सि० प० … 194 न, हेतो: किस आकार के अनुमान से व्यवहित वीणादि में शब्दध्वंस के व्यवहार को उपपत्ति करना चाहते हैं ? ( १ ) ‘व्यवहिताः वीणादयः निःशब्दाः शब्दवत्तया अनुपलभ्यमानत्वात् ’ अगर इस आकार का अनुमान अभीष्ट हो, तो इस अनुमान का हेतु ‘अनैकान्तिक’ दोष से ग्रसित होगा । क्योंकि वीणादि है चाक्षुष एवं शब्द है श्रावण । अतः सशब्द वीणा में भी शब्दवत्तया अनुपलभ्यमानत्व हेतु है, किन्तु वहाँ शब्दध्वंस रूप साध्य नहीं है । ( २ ) इसी अनुमान में दूसरा दोष यह है कि जिस समय व्यवहित वीणादि में शब्दध्वंस का अनुमान करना चाहते हैं, उस समय उन वीणादि पक्षों की ही सत्ता सन्दिग्ध है । जव देखते नहीं हैं, तव कैसे निश्चय करें कि वीणादि की सत्ता है । फलतः उक्त अनुमान ‘सन्दिग्ध- पक्षक’ हो जाता है । किन्तु अनुमान में पक्षसत्ता का निश्चय अपेक्षित है । इस हेतु से भी उक्त अनुमान नहीं हो सकता । पू० प० उपलभ्यमानत्व विशेष्यत्वपक्षे च उक्त दोष को हटाने के लिये उक्त अनुमान के हेतु में ‘उपलभ्यमानत्व’ विशेषण देंगे । अर्थात् ‘शब्दवत्तयाऽनुलभ्यमानत्वे सति उपलभ्यमानत्व’ को हेतु बनावेंगे । व्यवहित वीणादि की भी सत्ता अनुमान प्रमाण या शब्द प्रमाण से सिद्ध हो सकती है । यह आवश्यक नहीं है कि CCO. Vasishtha Tripathi Collection. Digitized by eGangotri१५२ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली चासिद्धेः । इन्द्रियव्यवधानाच्छन्दलिङ्गस्य चानुपलम्भात् । अपि च, नष्टाश्रयाणां द्रव्यगुणकर्मणां नाशोपलम्भः कथम् ? । न कथञ्चिदिति चेत् ? प्राश्रयनाशात्कार्यंनाश इति कुत एतत् ? । अनुमानतस्तथोपलम्भादिति चेन्न । पक्षसत्ता का निश्चय प्रत्यक्ष प्रमाण से ही हो । अतः प्रकृत अनुमान में ’ सन्दिग्धपक्षकत्व’ दोष नहीं है । सि० प० प्रसिद्धेः उक्त अनुमान में सन्दिग्धपक्षकत्व दोष भले ही न हों किन्तु कथित हेतु में उपलभ्य- मानत्व विशेषण देने पर वह हेतु ‘असिद्ध’ हेत्वाभास हो जायगा । क्योंकि व्यवहित वीणादि का ज्ञान प्रत्यक्ष से संभव ही नहीं है । वीणादि के ज्ञापक विशेष प्रकार का शब्द भी उपलब्ध नहीं है, जिससे कि व्यवहित वीणादि का अनुमान हो सके । अगर ऐसा मानेंगे तो उससे वीणादि में शब्द की अनुमिति हो जायगी, जिससे प्रकृत अनुमान बाधित हो जायगा । वीणादि के ज्ञापक आप्तोपदेश रूप शब्द भी उपलब्ध नहीं है इस प्रकार यह सिद्ध है कि वीणादि में उक्त उपलभ्यमानत्व हेतु नहीं है । सुतराम् पक्ष में न रहने से प्रकृत हेतु स्वरूपासिद्ध हेत्वाभास है । तस्मात् यही ठीक है कि ध्वंस के प्रत्यक्ष में उसके अधिकरण का प्रत्यक्ष आवश्यक नहीं है, केवल प्रतियोगी के योग्य होने से ही अभाव का प्रत्यक्ष हो सकता है । सि० प० श्रपि च D 1 दूसरी बात यह है कि अगर ध्वंस के निरूपण में प्रतियोगी के निरूपण की तरह उसके अधिकरण का निरूपण भी श्रावश्यक मानेंगे तो द्रव्य, गुण एवं कर्म इन दोनों में से किसी के श्राश्रय का या सभी के श्राश्रय का यदि नाश हो जाय ( अर्थात् आश्रयनाश से जहाँ द्रव्यगुणादि का नाश हो जाय ) तो उस द्रव्यनाश या गुणनाश या कर्मनाश का निरूपण कैसे होगा ? अगर ऐसा मानेंगे कि ‘ऐसे स्थलों में ध्वंस का प्रत्यक्ष होता ही नहीं है’ तो फिर ‘आश्रयनाशात् कार्यनाश:’ इस व्यवहार की उपपत्ति नहीं हो सकेगी । अतः ध्वंस के प्रत्यक्ष में उसके आश्रय का प्रत्यक्ष कारण नहीं है । पू० प० अनुमानतः श्राश्रय का विनाश हो जाने पर यद्यपि उस में कार्यनाश का किन्तु विनाश प्राप्त आश्रय में भी अनुमान प्रमाण के द्वारा कार्य के प्रत्यक्ष सम्भव नहीं है, ध्वंस का अनुमान हो सकता है । इसी से ‘प्राश्रयनाशात् कार्यनाश:’ इस व्यवहार की भी उपपत्ति हो जायगी । इसके लिये घाषय के प्रत्यक्ष में इस प्रत्यक्ष को कारणता खण्डित नहीं हो सकती ! रि स पू क จ
द्वितीयः स्तवक: १५३ तुल्यन्यायेनोक्तोत्तरत्वात् । तन्तुषु नष्टेष्वपि यदि पटो न नश्येत्तद्वदेवोपलभ्येतेति सि० प० तुल्यन्यायेन … ‘तुल्यन्याय से " अर्थात् जिस प्रकार भानुमानिक श्राकाशपक्षक श्रोर शब्दध्वंस साध्यक अनुमानों में श्रनैकान्तिकत्वादि दोष होते हैं; उसी प्रकार इन अनुमानों में भी दोष आपन्न होंगे। पू० प० 944 तन्तुषु नष्टेष्वपि तन्तुयों के विनष्ट हो जाने पर अगर पट विनष्ट न हों तो फिर उस समय तन्तुनाश की तरह पट की उपलब्धि भी होनी चाहिए । किन्तु तन्तुओं के विनष्ट हो जाने पर पट की उपलब्धि नहीं होती है । अत: समझते हैं कि तन्तुनों के विनाश से पट भी विनष्ट हो जाता है । १. आश्रय नाश के अधीन कार्यनाश के दृष्टान्त रूप में तन्तु नाश के अधीन पटनाश को लिया जाय । इस पटनाश के ये ही सब अनुमान सम्भावित हैं । ( १ ) अगर पट को पक्ष करेंगे और प्रतियोगित्व सम्बन्ध से ध्वंस को साध्य करेंगे, तो जिस किसी को भी हेतु बनावेंगे वह अवश्य ही स्वरूपासिद्ध होगा, क्योंकि विनष्ट पट किसी का भी श्राश्रय नहीं हो सकता । ( २ ) अगर पट में केवल अनित्यत्व की सिद्धि करेंगे तो जिस किसी समय का अनित्यत्व सिद्ध होगा, उससे आश्श्रयनाश के श्रधिकरणीभूत नियत काल में ध्वंस प्रतियोगित्व की सिद्धि नहीं हो सकेगी। जिससे ‘आश्रयनाशात् कार्यंनाश:’ इस प्रतीति की उपपत्ति न हो सकेगी। (३) पटाव- वच्छेदकीभूत आकाश को पक्ष कर उसमें अगर पटवत्तया अनुपलभ्यमानश्व हेतु से पट के ध्वंस का साधन करेंगे तो अन्ततः यह अनुमान व्यभिचरित तो होगा ही । क्योंकि चाकाश अतीन्द्रिय है, अतः अनुपलभ्यमानन्व रूप हेतु नहीं रह सकता । (४) ‘इदानीम्’ काल में अगर पटध्वंस को साध्य करेंगे और पटवत्तया अनुपलभ्यमानत्व को हेतु करेंगे तो व्यभिचार होगा, क्योंकि पट के अधिकरणीभूत काल में पटध्वंसरूप साध्य नहीं है किन्तु हेतु है, क्योंकि काल अतीन्द्रिय है, अतः किसी भी विशेषण से युक्त होकर उसका प्रत्यक्ष नहीं हो सकता । सुतराम् पट के श्रधिकरणीभूत काल में भी पटवत्तया धनुपलभ्यमानत्व हेतु रहेगा ही । अगर पट के वयत्र को पक्ष बना कर उस में पटध्वंस का साधन करेंगे तो बाध होगा, क्योंकि पट का अवयव तो पट का आधार ही है । ये सभी अनुमान वर्द्धमान के स्वरस से लिखे गये हैं । बोधिनी प्रमोद प्रभृति टीकाओं में अनुमानों के और प्रकार भी दिखवाये गये हैं । जिन्हें विद्वान लोग अवश्य देखें । २०
१५४ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली चेत् ? एतस्य तर्कस्यानुग्राह्यमभिधीयताम् ? यदत्रोपलभ्यते न तत् कार्यंपरम्परावत्, योग्यस्य तथाऽनुपलभ्यमानत्वे सति उपलभ्यमानत्वादिति चेन्न । तन्त्ववयवानां पटानाधारत्वे साध्ये सिद्धसाधनात् । पटप्रध्वंसवस्त्वे साध्ये बाधितत्वात् । तस्य स्वप्रतियोगिकारणमात्रदेशत्वात् । … सि० प० ॰॰॰ … . एतस्य ( इस प्रसङ्ग में पूर्ववादी से पूछना है कि ) कथित बातें तर्क रूप हैं। तर्क तो स्वयं प्रमाण नहीं है । किन्तु अनुमान प्रमाण का सहायक ( अनुग्राहक ) है । अतः तर्क का प्रयोग अनुमान की सूचना भर दे सकता है । केवल तर्क से कोई कार्य नहीं हो सकता । श्रतः प्रकृत तर्क से जिस अभिप्रेत अनुमान की सूचना होती है, उस अनुमान का उल्लेख श्रावश्यक है । पू० प० यदत्रोपलभ्यते … तन्तुओं के विनष्ट हो जाने के बाद जब पट का विनाश हो जाता है, उस समय यद्यपि तन्तु एवं पट इन दोनों की सत्ता नहीं रहती है । किन्तु तन्तु का अवयव जो ‘अंशु’ उसकी सत्ता तो उस समय भी बनी रहती है । अत: उसकी उपलब्धि तो हो सकती है । उपलब्ध एवं विद्यमान इन ‘अंशुनों’ में ही ‘कार्यपरम्परा के ( अर्थात् अंशु का कार्य तन्तु एवं तन्तु का कार्य पट-इन कार्यसमूह के ) अभाव - ध्वंस को सिद्ध करेंगे। क्योंकि अंशु प्रभृति यद्यपि अंशुत्वादि अपने धर्मो के साथ उपलब्ध हैं, किन्तु तन्तु एवं पट प्रभृति कार्यों के साथ उपलब्ध नहीं है ( जैसे कि भूतलत्व रूप से उपलब्ध भूतल में जिस समय भूतलत्व घट के साथ उपलब्ध नहीं रहता है, उस समय भूतल घटाभाव का श्राश्रय होता है ) । ( इदानीमशवः तन्तुपटादिस्वकार्य ध्वंसवन्तः तन्तुपटादिवत्वेनानुपलभ्यमानत्वात् ) । सि० प० … न, तन्त्ववयवानाम् प्रश्न है कि तन्तुनों के विनाश से जो पट का नाश होता है, उसकी उपपत्ति कैसे हो ? उक्त अनुमान के प्रयोग से दो ही प्रकार से उक्त ज्ञान की उपपत्ति अभिप्रेत हो सकती है । (१) तन्तुओं के अवयव अंशुओं में पट की अनाधारता की सिद्धि से । एवं (२) तन्तु के अवयव अंशु में पट के विनाश के साधन से । किन्तु ये दोनों ही प्रकार के अनुमानों में दोष हैं । (१) प्रथम अनुमान में ‘सिद्धसाधन’ दोष है, क्योंकि यह मानी हुई बात है कि अंशु तन्तुनों के आधार हैं पट के नहीं । अर्थात् जिस समय अंशुओं में तन्तुओं की सत्ता है, उस समय भी अंशु पट के आधार नहीं है । अतः अंशुओं में पट की अनाधारता पूर्व सिद्ध रहने के कारण साधनीय नहीं है। एवं अंशु पक्षक पटध्वंस साध्यक जो दूसरा अनुमान है, उसका हेतु बाधित है, क्योंकि ध्वंस अपने प्रतियोगी के समवायिकरण में ही रहता है । अंशु तन्तु का समवायिकारण है, पट का नहीं । अतः पटध्वंस रूप साध्य अंशु में कभी रह ही नहीं सकता । सुतराम पक्षीभूत अंशुयु में पटध्वंस रुप साध्य के न रहने से यह हेतु बाधित है । चे प वि ध पू ล न सि प्र अ त इ त स य से न 5 it for 5 ta 159 12 15 गु उ ही सि स्व मं
द्वितीयः स्तवर्क १५५ ये पटध्वंसवन्तस्तन्तवस्तदभाववन्त एते अंशव इति साध्यमिति चेन्न । तन्तुनाशोत्तरकालं पटनाशात् तद्वत्तानुपपत्तेः । योग्यतामात्रसाधने च, पटप्रध्वंसाऽसिद्धेः । तस्य तस्य नाशाऽनाशयोः समानत्वात् । अनन्यगतिकतया विशिष्टनिषेधे कृते विशेषणानामप्यभावः प्रतीतो भवति । गुणक्रियावत्पटा- धारास्तन्तवो न सन्ति स्वावयवेष्विति हि प्रत्यय इति चेत्; तथापि गुणकर्मणां पू०प० … … ये पटध्वंसवन्तः पट का ध्वंस तन्तु में है, एवं तन्तु का ध्वंस अंशु में है । यहां पटध्वंस विशिष्ट जो तन्तु उसके ध्वंस को अंश में साध्य करेंगे । इस अनुमान में सिद्धसाधन अथवा बाघ की संभावना नहीं है । सि० प० न, तन्तुनाशोत्तरम् प्रकृत प्रश्न है तन्तुनाश के अधीन जो पट का नाश होता है, उसकी उपलब्धि का । प्रकृत पटनाश की उत्पत्ति तन्तुनों के विनाश के बाद होती है । अतः इस पटविनाश का आश्रय तन्तु हो ही नहीं सकता, क्योंकि इस पटविनाश के बाद उस पट के श्रवयवीभूत तन्तु की सत्ता ही नहीं हैं । अतः इस अनुमान में ‘साध्याप्रसिद्धि’ दोष है । अगर पटध्वंसवन्तः इस पद का अर्थ ‘पटध्वंसयोग्याः’ ऐसा करें और तदनुसार अंशु में पटध्वंस के योग्य जो तन्तु, उसके अभाव का साधन करें तो ‘साध्याप्रसिद्धि’ दोष यद्यपि नहीं लगेगा, क्योंकि उस समय तन्तु में पटव्वंस के न रहने पर भी पटव्वंस के रहने की योग्यता तो है ही । किन्तु यह योग्यता तो जिस समय पट और तन्तु दोनों विद्यमान है, उस समय भी है । अत: इस से तन्तुनाथ के अधीन पटनाथ को प्रतीति की जो अनुपपत्ति दिखलायी गयी है, वह नहीं मिटेगी । पू० प० अनन्यगतिकतया … प्रत्यय इति चेतु गुण और क्रिया से युक्त तन्तु का प्रभाव अंशु में साधित होने पर तन्तु में विशेषणीभूत गुण और क्रिया का अभाव भी अंशु में सिद्ध हो जाता है । इस से यह नियम निष्पपन्न होता है कि जिस अधिकरण में जिस विशेषण से युक्त (विशिष्ट) का अभाव साधित होता है, उस अधिकरण में उस विशेषण का भी अभाव साधित हो जाता है । इस नियम के अनुसार जैसे कि अंशु में तन्तु के विशेषणीभूत गुण और क्रिया का अभाव साबित होता है, वैसे ही चूकि पट भी तन्तु का विशेषण है, श्रतः पट का अभाव भी अंशु में सिद्ध हो जायगा । सि० प० तथापि गुणकर्मणाम् यद्यपि इस में कोई विवाद नहीं हैं कि ‘गुणक्रियावन्तः पटाधारास्तन्तवो न सन्ति स्वावयवेषु’ ( अर्थात् गुण और क्रिया से युक्त एवं पट के आधार वन्तु अपने अवयव भूत अंशुनों में नहीं हैं ) इस प्रतीति में जैसे कि गुण का ध्वंस और क्रिया का ध्वंस ये दोनों भासित होते हैं, वैसे ही पट का ध्वंस भी भासित होता है । किन्तु पूछना यह है कि उक्त
१५६ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जलौ पटस्य च प्रध्वंसः किमधिकरणः प्रतीयत इति वक्तव्यम् । अंश्वधिकरण एवेति चेत् ? भ्रान्तिस्तर्हीयम्, तस्याऽतद्देशत्वात् । श्राश्रयावच्छेदकतया तेषामप्यदूरविप्रकर्षेण तद्देशत्वम् । एवम्भूतेनापि देशेन तन्निरूपणम्, योग्यताया अव्यभिचारादिति चेत् ? न तहि प्रतियोगिसमवायिदेशेनेव प्रध्वंस निरूपणमिति नियम:, प्रकारान्तरेणापि निरूपणात् । तस्मात् यस्य यावतीग्रहणसामग्री तं विहाय तस्यां सत्यां तदभावो यत्र क्वचिन्निरूप्यो देशे काले वा । प्रतीति में गुणादिध्वंस या पटध्वंस का भान किस अधिकरण में होता है ? अगर ‘अंश’ का ही उक्त ध्वंसविषयक प्रतीति में अधिकरण विषया भान मानें तो उस प्रतीति को भ्रान्ति रूप मानना होगा, क्योंकि प्रतियोगी का समवायिकारण ही ध्वंस का वास्तविक आश्रय होता है । अतः गुणादि के आधार ही उनके ध्वंस के भी वास्तविक आश्रय होंगे । एवं पटध्वंस का वास्तविक आश्रय तन्तु ही होगा। अंशु तन्तु के ध्वंस का या अपने रूपादि के ध्वंस का ही आश्रय होगा, पटादिध्वंसों का नहीं । इस प्रकार अंशु में पटध्वंस की प्रतीति चूंकि तदभाव- वति तत्प्रकारक है, अतः वह भ्रान्ति रूप होगी । किन्तु भ्रम प्रतीति से पूर्वपक्षवादी का काम चलने का नहीं । पू० प० आश्रयावच्छेदकतया… … अव्यभिचारादितिचेत् अंशु तन्तु का आश्रय है, 433 ….. तन्तु पट का आश्रय है, अतः तन्तु में जो पट की आश्रयता है, उसका अवच्छेदक है अंशु । इस प्रकार अंशु तन्तु का समीपवर्ती है । अतः तन्तु यदि पटादि के ध्वंस एवं स्वगत रूपादि के ध्वंस का श्राश्रय है तो उसके समीपी अंशु भी उन ध्वसों का आश्रय अवश्य है । अतः अंशु में जो पटादि ध्वसों की प्रतीति होगी, वह भ्रान्ति रूप नहीं होगी । ’ सि० प० न, तहि अंशु के द्वारा पटध्वंस का निरूपण मानने से यह नियम टूट जाता है कि ‘ध्वंस अपने प्रतियोगी के समवायी देश से ही निरूपित होता है ‘पटध्वंस का प्रतियोगी जो पट, उसका समवायी देश तन्तु है, अंश नहीं । किन्तु अंशु रूप देश के द्वारा पटध्वंस का निरुपण आप स्वीकार कर चुके हैं । ‘तस्मात्’ इस निष्कर्ष पर प्राते हैं कि जिस वस्तु के प्रत्यक्ष में ( विषय विषया कारणीभूत) उस वस्तु को छोड़ कर जिन सभी कारणों की अपेक्षा होती है, उन कारणों का समूह जिस देश में या जिस समय एकत्र हो जायगा, उसी देश में उसी समय उस वस्तु के प्रभाव का प्रत्यक्ष होगा ।” 1 9. घटमें रहने वाले नील रूप के प्रत्यक्ष में घट का प्रत्यक्ष और नील रूप की सत्ता ये दोनों ही कारण हैं । सुतराम् नीलध्वंस के प्रत्यक्ष में घट का प्रत्यक्ष कारण है । चूँ कि नील रूप की लता नीलध्वंस के प्रत्यक्ष से पूर्व रह नहीं सकती, अतः इतना संकोच करना पड़ा कि प्रतियोगि के प्रत्यक्ष में जितने भी कारण अपेक्षित होते हैं, उन में से
द्वितीयः स्तबक: १५७ इयांस्तु विशेषः । सा सती चेत्, प्रत्यक्षेण । असत्येव ज्ञाता चेत्, अनुमाना- दिनेति स्थितिः । एवेन ‘सङ्ख्यामभावो निरूप्यते’ इत्यादिशास्त्रविरोधः परिहृतो वेदितव्यः । उभयनिरूपणीयप्रतियोगि विषयत्वात्, अनुमानविषयत्वाच्च । अन्यथा, इयांस्तु … अन्तर इतना ही है कि ( ‘सा’ अर्थात् ) योग्यानुपलब्धि विद्यमान रहकर ( सती ) जिस अभ, वे पलव्धि में सहायक होती है, वह अभावोपलब्धि प्रत्यक्ष प्रमाण ( इन्द्रिय ) से उत्पन्न होती है । एवं जिस अभावोपलब्धि से पहिले योग्यानुपलब्धि स्वयं न रह कर अपने परोक्ष ज्ञानों के द्वारा ही साहाय्य करती, वह अभावोपलब्धि अनुमानादि परोक्ष प्रमाणों में से किसी से उत्पन्न होती है । एतेन (१) अभाव को अधिकरण निरूप्य न मानने पर ‘सदद्भ्यामभावो निरूप्यते’ इस शास्त्रवचन का विरोध इस लिये नहीं होता है कि ‘सदभ्याम्’ पद में प्रयुक्त द्विवचन का अन्वय प्रतियोगी और अधिकरण रूप दो ‘सत्’ पदार्थों में नहीं है, किन्तु दोनों अधिकरण रूप सत्पदार्थ में हो उक्त द्वित्व का अन्वय है । फलतः संयोगादि जिन प्रतियोगियों का निरूपण संयोगादि के श्राश्रयी भूत ( प्रतियोगी और अनुयोगी इन ) दोनों सम्बन्धियों के प्रधोन हो, तत्प्रतियोगिक संयोगाभावादि का निरूपण दो सम्बन्धी रूप दो सत्पदार्थों से होता है । यही उक्त शास्त्रवचन
प्रतियोगी के ध्वंस यह वाक्य लिखा प्रतियोगी को छोड़कर प्रतियोगिप्रत्यक्ष के और सभी कारण उस के प्रत्यक्ष के भी कारण हैं । अत एव प्रकृत संदर्भ में ‘तम्विहाय’ गया है । प्रकृत में कहना है कि शब्द के प्रत्यक्ष में श्राकाश का प्रत्यक्ष कारण नहीं है, सुतराम् शब्द प्रतियोगिक ध्वंस के प्रत्यक्ष में भी आकाश के प्रत्यक्ष की आवश्यकता नहीं है । अतः प्रकाश के प्रत्यक्ष के न होने से शब्द के प्रत्यक्ष में कोई बाधा नहीं है । अगर अभाव के प्रत्यक्ष में अधिकरण के प्रत्यक्ष की आवश्यकता न हो, तो फिर सभी अभावों का श्रतीन्द्रिय परमाणु प्रभृति में रहने वाले अभावों का भी प्रत्यक्ष मानना पढ़ेगा, किन्तु सो अनुभव के विरुद्ध है । अतः किस अभाव का प्रत्यक्ष हो एवं किस अभाव का प्रत्यक्ष न हो इसका नियमन आवश्यक है । इसी की पूर्ति, ‘इयांस्तु विशेष:’ यहाँ से लेकर ‘इति स्थितिः’ इतने पर्यन्त के सन्दर्भ से की गयी है । प्रथम प्रकार से भूतल में रहने वाले घटाभाव का प्रत्यक्ष होता है । दूसरे प्रकार से तन्तु में तन्तुनाशाधीन पटनाश का ग्रहण होता है । किन्तु अभाव को अगर अधिकरण निरूप्य न मानें तो फिर सद्भया मभावो निरूप्यते’ इस शास्त्रवचन का विरोध होगा । क्योंकि इस वचन का यही अर्थ है कि अभाव अपने प्रतियोगी और श्राश्रय इन्हीं दोनों के द्वारा निरूपित होता है । अगर अभाव के निरूपण में अधिकरण के निरूपण की अपेक्षा न हो तो उक्त शास्त्र वचन का विरोध अनिवार्य है । इसी आक्षेप का ‘एवेन’ है। इत्यादि से अनुवाद और ‘उभयनिरूपणीयत्वात्’ इत्यादि से समाधान हुआ
१५८ गद्यपद्यात्मंक-न्यायकुसुमाञ्जलौ आश्रयासिद्धिप्रसङ्गात् । तत्रापि न ग्रहणे नियमो ज्ञानमात्रन्तु विवक्षितम् । तावन्मात्रस्यैव तदुपयोगात् । कचिद्ग्रहणप्य सामग्रीसंपातायातत्वात् । यदि चाधिकरणग्रहे शास्त्रस्य निर्भरः स्यात्, “वह्नर्दाह्य’ विनाश्यानुविनाश- का अर्थ है । अथवा (२) जो प्रभाव अनुमेय है, उसके लिये ही उक्त ‘शास्त्रवचन’ है । अर्थात् व्यापक के प्रभाव से जो व्याप्य के अभाव का अनुमिति रूप ग्रहण होता है, उसमें प्रभाव के प्रतियोगी और पक्ष रूप आश्रय इन दोनों के ग्रहण की आवश्यकता होती है। क्योंकि अनुमति में पक्ष रूप आश्रय का ज्ञान आवश्यक है। किन्तु अभाव के और प्रकार के ग्रहणों में श्राश्रय का ज्ञान आवश्यक नहीं है । ‘अन्यथा’ अगर अभाव की अनुमिति रुप ग्रहण में आश्रय के ग्रहण की अपेक्षा न मानें तो फिर ‘आश्रयासिद्धि’ की अर्थात् अभाव की अनुमिति में पक्ष (रूप ) श्राश्रय के अग्रहण की आपत्ति होगी । ’ सामग्रीसम्पाता यातत्वा अभाव को अनुमिति रुप ज्ञान में जिस आश्रयज्ञान को आवश्यकता की चर्चा की गयो है, आश्रय का वह ज्ञान ‘ग्रहणरूप’ अर्थात् अनुभव रुप ही हो, इस की आवश्यकता नहीं हैं | उसके लिये ‘ज्ञानमात्र’ अर्थात् स्मृति अनुभव साधारण कोई भी ज्ञान चाहिए । आश्रय के स्मृत्यादि साधारण किसी भी प्रकार के ज्ञान से अनुमिति का निर्वाह हो सकता है । ‘स्वचित्’ श्रर्थात् ‘अघटं भूतलम्’ इत्यादि स्थलों में जो श्राश्रय के ग्रहणात्मक ( अनुभवात्मक) ज्ञान का नियम देखा जाता है, वह आकस्मिक है । अर्थात् उक्त स्थल में घटाभाव के ग्रहण की सामग्री एवं भूतल के ग्रहण की सामग्री दोनों संनिहित रहतीं हैं । अतः घटाभाव का और उसके श्राश्रयीभूत भूतल इन दोनों का ग्रहणात्मक ज्ञान ही उत्पन्न होता है । इसके लिये यह मानने की कोई आवश्यकता नहीं है कि भूतल का उक्त ग्रहणात्मक ज्ञान घटाभाव की उक्त प्रतीति का अङ्ग है । अगर न्यायशास्त्र का यह नियम होता कि अभाव के ज्ञान में अधिकरण का ज्ञान अवश्य अपेक्षित है तो महर्षि गोतम ‘वह्न े दह्यम्’ इत्यादि सूत्र के द्वारा वह्नि के विनाश को दृष्टान्त रूप में उपस्थित न करते । २ १. प्रकृत सन्दर्भ में जो ‘श्राश्रयासिद्धिप्रसङ्ग’ शब्द है, उसका अर्थ ‘अश्रयासिद्धि’ रूप हेत्वाभास का प्रसङ्ग नहीं है, किन्तु ‘आश्रय को श्रग्रहण प्रसङ्ग’ रूप अर्थ में उसका प्रयोग हुआ है । २. न्यायसूत्रकार महर्षि गौतम को भी अभाव के ज्ञान में श्राश्रयज्ञान की नियमतः धावश्यकता अभिप्रेत नहीं है । क्योंकि न्यायसूत्र में ‘सर्वमनित्यम्’ इस प्रकार से आक्षेप करनेवालों से पूछा गया है कि सभी पदार्थों में जिस ‘अनित्यत्व’ की प्रतिज्ञा
द्वितीयः स्तवकः १५६ वत्तद्विनाशः " ( न्या० सु० ४-१-२७) इति नोदाहरेत् श्रसिद्धत्वात् । न हि वह्निविनाशः तदवयवपरम्परास्वनिरूप्यः, तासामनिरूपणात् । नाप्यन्यत्र गमनाभावादिना कथित वह्नि के अन्तिमविनाश की सिद्धि अर्थात् ज्ञान, उसके अवयवों के ज्ञान से संभव नहीं है । अर्थात् किसी वस्तु के विनाश का निरूपण प्रतियोगी के समवायी रूप अधिकरण के निरूपण के बिना न हो सके तो फिर हो ही नहीं सकता । पू० प० नाप्यन्यत्र गमनाभावादिना …… कथित वह्नि के विनाश का प्रत्यक्ष रूप निरूपण भले ही संभव न हो किन्तु परिशेषानुमान रूप निरूपण तो हो सकता है। क्योंकि जहाँ पहिले वह्नि को देखते थे, वहीं की जाती है, वह ‘अनिश्यत्व’ स्वयं नित्य है ? अथवा अनिश्य है ? अगर उक्त ‘अनित्यत्व’ को नित्य मानेंगे तो ‘सर्वमनित्यम्’ यह प्रतिज्ञा ही व्याहत होगी, क्योंकि सर्वान्तर्गत यह ‘अनित्यत्व’ ही अनित्य नहीं है । अगर उक्त ‘अनित्यत्व’ को भी अनित्य ही कहेंगे तो भी सभी पदार्थों की श्रनित्यता सिद्ध नहीं होगी। क्योंकि सभी पदार्थों में रहनेवाले अनित्यत्व धर्म के कारण ही तो सभी पदार्थों को अनित्य कहते हैं, वह ‘अनित्यत्व’ ही जब अनित्य है अर्थात् बिना उसके कोई भी पदार्थ अनित्य हो सकता तो फिर वह श्रनित्यत्व जब अपनी अनित्यता के जायगा, तो और सभी पदार्थ किस धर्म के बल से अनिष्य होंगे ? कारण विनष्ट हो इसी आक्षेप के समाधान के लिये ‘वह्न े दह्यम्’ इत्यादि सूत्र लिखा गया है । इस सूत्र का अभिप्राय है कि यद्यपि अनित्यत्व भी अनित्य ही है, किन्तु उसका विनाश सभी पदार्थों के विनाश के बाद होता है । अनित्यत्व को छोड़कर और सभी पदार्थों का विनाश अनित्यश्व से ही होता है । अनित्यस्व और सभी पदार्थों को विनष्ट करने के बाद स्वयं दिनष्ट होता है । श्रनित्यत्व के विनाश के बाद कोई पदार्थ बच नहीं जाता जिसमें अनित्यत्व के विनष्ट हो जाने से निश्यस्व की आपत्ति हो । इस प्रसङ्ग में दृष्टान्त है ‘वह्नि’ । अर्थात् जिस प्रकार वह्नि अपने दाता काष्ठादि को विनष्ट कर स्वयं भी नष्ट हो जाता है । उसी प्रकार प्रनित्यत्व भी सभी वस्तुओं को विनष्ट कर पीछे स्वयं विनष्ट हो जाता है । प्रकृत में कहना है कि अगर वस्तु द्वारा ही निरूपित हो तो फिर वह्नि के द्वारा हो निरूपित होगा । अगर यह का विनाश प्रतियोगी के” समवायी देश के का विनाश भी वह्नि की अवयव परम्परा संभव हो तो सूत्रकार का वह्नि रूप दृष्टान्त वह्नि का दृष्टान्त दिया है, अतः समझते हैं असङ्गत हो जायगा । चूँकि सूत्रकार ने कि ‘वह्नि का विनाश उसके अवयव परम्परा के द्वारा ही निरूपित हो, यह सिद्धान्त सूत्रकार को इष्ट नहीं है । फलतः कोई भी विनाश अपने प्रतियोगी के अवयव परम्परा के द्वारा निरूपणीय नहीं है । यही सूत्रकार का भी आशय है !
१६० गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली पारिशेष्यादनुमेयः, हेतोरेव निरूपयितुमशक्यत्वात् । श्राश्रयानुपलब्धेः । नापि निमित्त विनाशात्सर्वमिदमेकवारेण सेत्स्यतीति युक्तम् । अब उसे नहीं देखते हैं । अतः यहाँ यह परिशेषानुमान हो सकता है कि उस वह्नि का विनाश हो गया है । अतः सूत्रकार ने अनुमान के द्वारा सिद्ध उदाहरण का ही उल्लेख उक्त सूत्र में किया है। इस से प्रभाव के निरूपण में अधिकरण के निरूपण की आवश्यकता का निराकरण नहीं होता । सि० प० हेतोरेव ….. श्राश्रयानुपलब्धेः उक्त अनुमान नहीं हो सकता, क्योंकि इस अनुमान का हेतु जो ‘अनुपलभ्यमानत्व’ है, वह अभावघटित है, एवं उसका विशेषण ‘अन्यत्र गमनाभावे सति’ भी एक अभाव ही है । पहिले प्रभाव का अर्थ है विषय में रहनेवाला उपलब्धि विषयता का अभाव ( अर्थात् विषय गत विषयत्वसम्बन्धावच्छित्र प्रतियोगिता उपलब्धि का प्रभाव ) एवं दूसरे अभाव का अर्थ है अन्यत्र देश में रहनेवाले गमन का अभाव । इनमें से पहिले अभाव का अधिकरण वह्नि और दूसरे अभाव का अधिकरण ‘अन्यत्रदेश’ दोनों अभाव के इन दोनों श्रधिकरणों का प्रत्यक्ष सम्भव हो नहीं है । क्योंकि वह्नि रूप अधिकरण का यदि प्रत्यक्ष ही हो जायगा तो फिर उसमें उक्त अनुपलभ्यमानत्व हेतु कैसे रहेगा ? एवं ‘अन्यत्रदेश’ रूप अधिकरण विप्रकृष्ट होने के कारण इस देश में रहनेवालें पुरुषों के प्रत्यक्ष का विषय ही कैसे होगा ? सुतराम् पक्ष में चु कि हेतु का रहना सम्भव नहीं है, अतः यह अनुमान नहीं हो सकता । प० प० निमित्तविनाशात् सर्वमिदम् ( उक्त अनुमान भले ही सम्भव न हो किन्तु ) वह्निका निमित्तकारण है इन्धन | उसका विनाश तो प्रत्यक्षसिद्ध है । प्रकृत में उसका विनाश वह्नि से ही हुआ है । अतः यह भी नहीं कह सकते कि वह्नि अन्यत्र चला गया है । सुतराम् इन्धन के विनाश से वह्नि के अन्यत्रगमन के अभाव का अनुमान और इस अन्यत्रगमनाभाव के द्वारा वह्नि के विनाश का अनुमान होगा । ( यही दोनों अनुमिति रूप सिद्धियाँ उक्त ‘सर्वमिदम्’ शब्द से अभिप्र ेत हैं अर्थात् वह्नितदवयवपरम्परा नष्टा नष्टनिमित्तत्वात् इस अनुमान से प्रकृत में काम चलावेंगे । ) १. श्री शंकर मिश्र ने ग्रामोद टीका में कथित परिशेषानुमान का यह आकार लिखा है- दाहाद्युत्पादानन्तरं वह्निरिह नष्टः अन्यत्र गमनाभावे सति योग्यताया- मिहानुपलम्भात्’ । त न म Я Я सि मि व्य न bG पू हो न क दो सि क्य प्रम सूच व का दूस श मा तो पर
द्वितीयः स्तबकः १६१ तस्यानैकान्तिकत्वात् । तेजसा विशेषितत्वादयमदोष इति चेन्न, व्याप्त्यसिद्धेः । न हि इन्धनविनाशात्तेजोद्रव्यमवश्यं विनश्यतीति कचिस्सिद्धम्, प्रत्यक्षवृत्तेरनभ्युपग- मात् । तस्माद् यत्त्यागेनान्यत्र गमनं न संभाव्यते, तेन निमित्तादिनापि देशेन प्रध्वंसो निरूप्यत इत्यकामेनापि स्वीकरणीयम्, गत्यन्तराभावात् । अत एव तमसः प्रत्यक्षत्वेऽप्यभावत्वमामनन्त्याचार्याः । सि० प० तस्यानैकान्तिकत्वात् … निमित्तकारण के विनष्ट होने पर भी कार्य की सत्ता बनी रहती है । दण्डचक्रादि के मिट जाने पर भी घटादि कार्यों की सत्ता बनी रहती है । सुतराम् ‘नष्टनिमित्तत्व’ हेतु व्यभिचारी है, क्योंकि घट एवं उसकी श्रवयवपरम्परा का विनाश न होने पर भी घट में नष्टनिमित्तत्व हेतु है । अतः यह अनुमान नहीं हो सकता । पू० प० तेजसा 800 इस व्यभिचार का वारण तो उक्त नियम को तेजोमात्र में नियन्त्रित कर देने से ही हो जायगा । अर्थात् घटादि पार्थिव वस्तुनों का विनाश निमित्तकारण के विनाश से भले ही न हो, किन्तु तैजस द्रव्यों का विनाश तो निमित्तकारण के विनाश से होता है । फलतः कथित अनुमान का हेतु है ‘नष्टतेजोनिमित्तत्व’ । यह हेतु घट में नहीं रहेगा । अतः व्यभिचार दोष का वारण हो जायगा । सि० प० न व्याप्त्य सिद्धेः … ‘निमित्तकारण के विनाश से ही तेजस् का विनाश हो’ यह व्याप्ति निर्णीत नहीं है, क्योंकि अतीन्द्रिय श्राधार में रहनेवाले अभाव में आप (पूर्वपक्षी ) ‘प्रत्यक्षवृत्ति’ अर्थात् प्रत्यक्ष प्रमाण की प्रवृत्ति को स्वीकार नहीं करते । तस्मात् ‘वह्नेर्दाह्यम्’ इत्यादिसूत्र के बल से सूत्रकार का यह तात्पर्य समझा जा सकता है कि इन्धनादि जिन निमित्तकारणों के विना वह्नि प्रभृति कार्यों का दूसरी जगह जाना सम्भव नहीं है, उन वह्निप्रभृति कार्यों के ध्वंस का निरूपण निमित्तिकारण रूप देशों के द्वारा भी हो सकता है । क्योंकि यह माने विना दूसरी गति नहीं है । ( अतः शब्द के समवायिकारण आकाश के अतीन्द्रिय होने पर भी शब्दध्वंस के प्रत्यक्ष में कोई बाधा नहीं है ) । यही कारण है कि अन्धकार को तेज का अभाव मानते हुए भी प्राचार्यों ने अन्धकार को प्रत्यक्ष का विषय माना है । ( अगर ऐसी बात न हो तो फिर अन्धकार का प्रत्यक्ष सम्भव ही नहीं होगा, क्योंकि उसके प्रतियोगी तेजस् की अवयव- परम्परा की विश्रान्ति परमाणुओं में होने से उनका प्रत्यक्ष सम्भव नहीं है ) । २१ CCO. Vasishtha Tripathi Collection. Digitized by eGangotri१६२ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली एतेन शब्दप्रागभावो व्याख्यातः । एवं स्थिते अनुमानमप्युच्यते- एतेन ……… इससे शब्द के प्रागभाव के प्रत्यक्ष का भी समर्थन जानना चाहिये । ’ एवं स्थिते … … …घटवत् इस प्रकार ( प्रत्यक्ष प्रमाण के द्वारा शब्द की अनित्यता की सिद्धि हो जाने पर भी प्रौढिवश या विशेष प्रकार के ज्ञान के लिये ) शब्द के अनित्यत्व की सिद्धि के लिये श्रनुमान भी कहता हूँ । २ १. अर्थात् जिस प्रकार ध्वंस का निरूपण केवल उसके प्रतियोगी के समवायिकारण के निरूपण के अधीन नहीं है, उसी प्रकार प्रागभाव के निरूपण में भी उसके प्रतियोगी के उपादान कारण का निरूपण नियमतः श्रावश्यक नहीं है । श्रतः शब्दध्वंस की तरह शब्दप्रागभाव का प्रत्यक्ष शाकाश के प्रत्यक्ष के बिना भी हो सकता है | शब्द के ध्वंस और उस के प्रागभाव इन दोनों के प्रत्यक्षके सिद्ध हो जाने पर शब्द की अनित्यता सुतराम् प्रत्यक्ष सिद्ध हो जाती है, क्योंकि वही नित्य कहलाता है जिसका प्रागभाव और ध्वंस ये दोनों ही अभाव संभावित हों। अगर शब्द के ध्वंस और प्रागभाव इन दोनों का प्रत्यक्ष संभव न हो तो फिर इन दोनों प्रभावों से घटित अनित्यत्व का भी प्रत्यक्ष संभव नहीं होगा । किन्तु जब वह होता है तो फिर शब्द के अनित्यस्व को प्रत्यक्ष प्रमाण के द्वारा गृहीत होने में कोई बाधा नहीं है । अतः शब्द ही सिद्ध है । इसी अभिप्राय से ‘तस्माद यत्यागेन’ की अनित्यता प्रत्यक्ष प्रमाण से इस सन्दर्भ से लेकर ‘व्याख्यातः’ इतने पर्यन्त का सन्दर्भ लिखा गया है । गुणों का नाश दो ही प्रकार से संभव है - (१) आश्रय के नाश से एवं (२) सजा- तीय दूसरे गुण की उत्पत्ति से । पहिले प्रकार से घटादि के परिमाण प्रभुति गुणों का नाश होता है। दूसरी रीति से घट में ही पाक के द्वारा रक्त रूप की उत्पत्ति से उसके पहिले के नील रूप का विनाश होता है । शब्द स्वरूप गुण का नाश आश्रय के नाश से संभव नहीं है, क्योंकि उसका आश्रय आकाश नित्य है । अतः शब्दनाश के लिये दूसरी रीति ही माननी होगी । अर्थात् आगे के शब्द से ही पहिले शब्द का विनाश मानना होगा । किन्तु प्रत्यभिज्ञा के द्वारा नाश करने वाले उत्तरवर्ती शब्द के बाद भी जब विनष्ट होनेवाले शब्द की सत्ता सिद्ध होती है, तो मानना ही होगा कि शब्द नित्य है । २. यहाँ पूर्व ग्रन्थ का थोड़ा सा सिंहावलोकन आवश्यक है। नैयायिकों का विवाद है कि शब्द नित्य है ? अथवा अनित्य ? मीमांसकों के साथ इस प्रसङ्ग में नैया- कि अपने पक्ष का उपपादन ‘नहि य एव तावन्निध्याः’ यहाँ से लेकर fi प्र व के ୩ क
द्वितीयः स्तवकः १६३ शब्दोऽनित्यः उत्पत्तिधर्मकत्वाद् घटवत् । न चेदं प्रत्यभिज्ञानबाधितम्, तस्य ज्वालादिप्रत्यभिज्ञानेनाविशेषात् । नैवमबाधितस्य तस्य स्वतः प्रमाणत्वादिति ( १ ) शब्द चूंकि उत्पत्तिशील है, अंतः वह अनित्य है । घटादि जितने भी उत्पत्तिशील (भाव) पदार्थ हैं, वे सभी अनित्य हैं, अतः उत्पत्तिशील होने के नाते शब्द भी अनित्य है । पू० प० न चेदम् .. सोऽयं गकारः ( यह वही ग वर्ण है) इस आकार की प्रत्यभिज्ञा रूप प्रतीति से पहिले सुने गये ‘ग’ वर्ण और भी सुने गये ‘ग’ वर्ण में अभिन्नता सिद्ध है । उक्त प्रत्यभिज्ञा के द्वारा दोनों ‘ग’ वर्णों में जिस श्रभेद की सिद्धि होती है, उसकी परिणति शब्द के नित्यत्व में ही होगी । अतः शब्द में अनित्यत्व का साधक ‘उत्पत्तिधर्मकत्व’ हेतु बाघ दोष से ग्रसित होने के कारण हेत्वाभास है । सि० प० …तस्य ज्वालादि उक्त प्रत्यभिज्ञा तो ‘सेयं दोपज्वाला’ इस प्रकार की दीप शिखा की प्रत्यभिज्ञा की तरह है । ( अर्थात् अत्यन्त सादृश्य के कारण विभिन्न दो वस्तुओं में भी उक्त प्रकार की प्रत्यभिज्ञा होती है, जैसे कि दीपशिखा की उक्त प्रत्यभिज्ञा । दीपशिखा के प्रसङ्ग में यह कोई नहीं कहता कि पहिली वाली दीपशिखा ही अभी दोख पड़ती है, क्योंकि दीपशिखा का विनाश प्रत्यक्ष सिद्ध है । अतः ‘सोऽयं गकार:’ इस प्रत्यभिज्ञा से पूर्वकाल के और परवर्तीकाल के दोनों गकारों में ऐक्य की सिद्धि संभव नहीं है । अत: इस से शब्द का नित्यत्व सिद्ध नहीं हो सकता । पू० प० नैवमबाधितस्य ….. ( शब्द की प्रत्यभिज्ञा और ज्वाला की प्रत्यभिज्ञा इन दोनों में अन्तर है ।) ज्वाला की प्रत्यभिज्ञा बाधित है, अतः ‘पहिले की ज्वाला और अभी की ज्वाला दोनों एक हैं’ यह ही सिद्ध है । किन्तु कुछ नैयायिकों का उसकी अनित्यता प्रत्यक्ष प्रमाण से अनित्यस्व के स्वरूप के अन्तर्गत जो इस गृह विवाद से बचने के लिये ऊहापोह से उपपादन किया है। अनेक शब्दप्रागभावो व्याख्यातः’ इतने परयन्त ’ निराकरिष्यमाणत्वात् ’ इतने पर्यन्त के सन्दर्भ से पहिले प्रारम्भ कर कहा कि शब्द की अनित्यता तो प्रत्यक्ष प्रभाग से ही कहना है ‘शब्द अनित्य तो है, किन्तु नहीं जानी जा सकती। क्योंकि शब्द के शब्दध्वंस है, उसका प्रत्यक्ष नहीं हो सकता’ श्राचार्य ने शब्दध्वंस के प्रत्यक्षस्व का बड़े श्रावान्तर विचारों से युक्त यह विचार ‘एतेन के दीर्घ सन्दर्भ तक आया है। अब पुनः शब्द के अनित्यत्व के प्रकृत प्रसङ्ग पर आचार्य आ गये हैं ।
| | | | | | १६४ चेत् ? तुल्यम् । गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली ज्वालायां तन्नास्ति, विरुद्धधर्माध्यासेन बाधितत्वात् । अन्यथा भेदव्यवहारविलोपप्रसङ्गो निमित्ताभावात् । प्राकस्मिकत्वे वा अतिप्रसङ्ग इति चेत्, तुल्यं शब्देऽपि । सिद्ध नहीं किया जा सकता । ‘सोऽयं गकार:’ इस प्रत्यभिज्ञा में कोई बाध नहीं है, अतः उससे पहिले के ‘ग’ कार और अभी के ‘ग’ कार दोनों को एक मानने में कोई बाधा नहीं है । सि० प० तुल्यम् अर्थात् ‘सोऽयं गकारः’ श्रीर ‘सेयं दीपज्वाला’ ये दोनों प्रत्याभिज्ञायें समान रूप की हैं। अगर विना किसी हेतु के एक प्रत्यभिज्ञा को बाधित कहेंगे तो फिर दूसरी प्रत्यभिज्ञा को भी बाधित मानना ही होगा । अतः ज्वाला की प्रत्यभिज्ञा को अगर बाधित मानते हैं, तो फिर उसी के समान ‘ग’ कार की प्रत्यभिज्ञा को भी बाधित मानना ही होगा । पू० प० ज्वालायाम् … ज्वाला की प्रत्यभिज्ञा अबाधित नहीं है, क्योंकि एक ज्वाला तीव्र है तो दूसरी मन्द । विभिन्न दो प्रकार के परिमाणों का आश्रय कोई एक द्रव्य नहीं हो सकता । उसके आश्रयीभूत द्रव्य विभिन्न ही होंगे । अतः उक्त दोनों ज्वालाओं का अभेद बाधित है। अतः जिनका अभेद बाधित है, उन दोनों ज्वालाओं को अभिन्न समझाने वाली प्रत्याभिज्ञा भी बाधित अवश्य होगी । ‘अन्यथा’ विरूद्ध दो धर्मों के आश्रय में अगर भेद को स्वीकार न करें तो फिर भेद का व्यवहार ही लुप्त हो जायगा । अथवा भेद के व्यवहार की उत्पत्ति ( नियत कारण जन्य न मान कर ) ‘आकस्मिक’ अर्थात् अनियत कारण से मानें तथापि ‘अतिप्रसङ्ग’ होगा अर्थात् एक ही व्यक्ति में उसी व्यक्ति के भेद की प्रतीति होने लगेगी । ( अतः ज्वाला की । प्रत्यभिज्ञा भौर ‘ग’ कार की प्रत्यभिज्ञा इन दोनों में बहुत बड़ा अन्तर है ) | सि० प० तुल्यम् शब्देऽपि ( ज्वाला के प्रसङ्ग में मीमांसक जो भी कहते हैं, मुझे सभी स्वीकार है, किन्तु मेरा इतना ही कहना है कि ) ‘तुल्य’ रूप से गकारादि शब्दों में भी विरुद्ध धर्मों का अभ्यास है ही, क्योंकि गकारादि शब्दों में भी ‘तीव्रः गकारः, मन्दः गकारः’ इत्यादि आकार की प्रतीतियां होती हैं । अतः तीव्रत्व और मन्दत्व इन दोनों धर्मों के आश्रयीभूत दो ‘ग’ कारों को स्वीकार करना अनिवार्य है । सुतराम् ‘सोऽयं गकारः’ इत्यादि प्रत्यभिज्ञाओं से गकारादि में जिस अभेद का बोध होता है, वह बाधित है । अतः जिस युक्ति से ज्वाला की प्रत्यभिज्ञा को भ्रम रूप मानना पड़ता है, उसी युक्ति से ‘ग’ कारादि की प्रत्यभिज्ञाओं को भी भ्रम रूप मानना होगा ।
y द्वितीयः स्तबकः १६५ तीव्रतीव्रतर त्वमन्दमन्दतरत्वादेर्भावात् । तदिह न स्वाभाविकमिति चेन्न; स्वाभाविकत्वावधारणन्यायस्य तत्र तत्र सिद्धस्याऽत्रापि तुल्यत्वात् । न ह्यपां शैत्यद्रवत्वे स्वाभाविके, तेजसो वा श्रौष्ण्यभास्वरत्व इत्यत्रान्यत्प्रमाणमस्ति प्रत्यक्षा- द्विना । तत्तथैव युज्यते श्रन्यस्योपाधेरनुपलम्भान्नियमेन तद्गतत्वेन चोपलम्भादिति चेत्तुल्यमेतत् । पू० प० तदिह
- … तीव्रत्व और मन्दत्व ये दोनों शब्द के स्वाभाविक धर्म नहीं हैं । अतः शब्द में तीव्रत्व और मन्दश्व वस्तुतः नहीं हैं । अतः ‘तीव्रः गकारः’ ‘मन्दः गकारः’ इत्यादि प्रतीतियाँ ही भ्रम रूप हैं । फलतः शब्द में न तीव्रत्व है, न मन्दत्व । सि० प० स्वाभाविकत्वावधारणस्य किसी भी धर्मी के किसी भी धर्म को स्वाभाविक होने के लिये जो युक्ति दी जाती है, वह तीव्रस्व मन्दत्वादि धर्मो को गकारादि शब्दों के स्वाभाविक होने में भी है । यह सभी मानते हैं कि जल में प्रतीत होनेवाले शैत्य और द्रवत्व एवं तेज में ज्ञात होनेवाले उष्णस्पर्श और भास्वर शुक्ल रूप ये उनके स्वाभाविक धर्म हैं । किन्तु जलादि धर्मियों में शैत्यादि के स्पर्श को छोड़ कर उन धर्मों को उन धर्मियों के स्वाभाविक धर्भ मानने में भी कोई दूसरा प्रमाण नहीं है । प्रकृत गकारादि शब्दों में भी तीव्रत्व और मन्दत्व का प्रत्यक्ष समान रूप से होता है । अतः जिस प्रकार प्रत्यक्ष प्रमाण से यह निश्चय किया जाता है कि शैत्यद्रवत्वादि जल के स्वाभाविक धर्म हैं, या उष्णस्पर्श एवं भास्वर रूपादि तेज के स्वाभाविक धर्म हैं, उसी प्रकार प्रत्यक्ष से ही यह सिद्ध होता है कि तोव्रत्वमन्दत्वादि शब्द के स्वाभाविक धर्म ही हैं । पू० प० अन्यस्योपाधेः जलादि में प्रतीत होनेवाले शैत्यादि धर्मों में सीव्रत्व-मन्दत्वादि धर्मों में अन्तर है । जिस धर्मों में एवं गकारादि शब्दों में प्रतीत होनेवाले जिस धर्म की नियमित रूप से उपलब्धि हो एवं दूसरे धर्मी में उस धर्म को उपलब्धि न हो, वही धर्म उस धर्मी का स्वाभाविक धर्म है । इस प्रकार शैत्यादि जलादि के स्वाभाविक धर्म है, धर्म नहीं हैं । अतः केवल प्रत्यक्ष से किसी धर्म को माना जा सकता । सि० प० तुल्यमेतत् और तीव्रत्वादि शब्दों के स्वाभाविक किसी धर्मी का स्वाभाविक धर्म नहीं जिनको आपने धर्म के स्वाभाविकत्व का नियामक माना है वे नियामक भी (भ र्थात् धर्मी में उपलब्धि घोर अन्यत्रानुपलब्धि ) भी गकारादि शब्दों में प्रतीत होनेवाले
१६६ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जलौ तथाऽप्यतीन्द्रियान्यधर्मत्वशङ्का स्यादिति चेत्; एतदपि तादृगेव । तत्कि यद्द्वतत्वेन यदुपलभ्यते, तस्यैव स धर्मः ? नन्वेवं पीतः शङ्खो रक्तः स्फटिको नीलः पट इत्यपि तथा स्यादविशेषात् । न पीतत्वादीनाम् अन्यधर्मं त्वस्थिती शङ्खादीनाश्च तद्विरुद्धधर्मत्वे स्थिते जपाकुसुमाद्यन्वयव्यतिरेकानुविधानाच्च तीव्रत्वादि धर्मों में हैं ही, क्योंकि जिस प्रकार के तीव्रत्वादि की प्रतीति गकारादि शब्दों में होती है, उसी प्रकार की उपलब्धि अन्यत्र नहीं होती है । श्रतः तीव्रत्व मन्दत्वादि गकारादि शब्दों के स्वाभाविक धर्म ही हैं । पू० प० तथाप्यतीन्द्रिय ( चार्वाक मत के अनुसार यह कहा जा सकता है कि ) गकारादि शब्दों में जिन तीव्रत्व मन्दत्वादि धर्मों की उपलब्धि होती है, वे प्रत्यक्ष दीखनेवाले जलादि द्रव्यों के धर्म भले ही न हों क्योंकि जलादि में उनकी उपलब्धि नहीं होती है । फिर भी यह शङ्का बनी ही रह जाती है कि ये तीव्रत्वादि किसी अतीन्द्रिय वस्तु के धर्म न हों ? इतने सन्देह भर से ही तीव्रत्वादि धर्मों को गकारादि शब्दों का स्वाभाविक धर्म होने की संभावना हट जाती है । सि० प० एतदपि 100 जिस धर्मी को प्रत्यक्ष देखा जा सकता है, उसमें प्रत्यक्ष प्रमाण से ही उपलब्ध होने वाले धर्म को भी अगर किसी अन्य अतीन्द्रिय वस्तु के धर्म होने की सम्भावना से उस धर्मी के स्वाभाविक धर्म होने में बाधा उपस्थित होती हो तो फिर शैत्य प्रभृति को भी जलादि का स्वाभाविक धर्म मानना सम्भव नहीं होगा । क्योंकि शैत्यादि के प्रसङ्ग में भी यह सम्भावना बनी है कि कदाचित् यह प्रत्यक्ष दीखनेवाले जल का स्वाभाविक धर्म न होकर किसी अतीन्द्रिय वस्तु का ही स्वाभाविक धर्म न हो ? पू० प० तत्किम् 180 अविशेषात् ( मीमांसकों से यह पूछना है कि ) जिस धर्म की उपलब्धि जहाँ हो उस को उस धर्मी का धर्म माना जाय ? अगर ऐसा मानेंगे तो पीतिमा को शंख का धर्म मानना होगा, क्योंकि ‘शङ्खः पीतः’ (शङ्ख पीला है) इस आकार की प्रतीति होती है । एवं जवाकसुम के समीप में रहनेवाले स्फटिक में ‘रक्तः स्फटिक:’ ( स्फटिक लाल है) इस आकार की प्रतीति होती है, अतः रक्तिमा को भी स्फटिक का स्वाभाविक धर्म मानना होगा । किन्तु यह सम्भव नहीं है । ( प्रकृत में कहना है कि ) ‘मन्दः गकारः’ या ‘तीव्र: गकारः’ इत्यादि प्रतीतियाँ यदि होतीं भी हैं, तथापि केवल इन से ही तीव्रत्वादि धर्मों को गकारादि शब्दों का स्वाभाविक धर्म नहीं माना जा सकता । सि० प० न, पीतत्वादीनाम् अनुविधत्ते यह स्थिर है कि पीतिमा हलदी प्रभृति द्रव्यों का धर्म है । यह भी निर्णीत है कि शङ्ख का वर्ण पाण्डुर है, पीत नहीं । ऐसी स्थिति में ‘शङ्ख पीतवर्ण का है’ यह प्रतीति अगर
द्वितीयः स्तबकः १६७ बाधेन भ्रान्तत्वावधारणात् । न चेह तारतारतरत्वादेरन्यधर्मस्वस्थितिः । नापि शुकसारिकादिगकाराणां तद्विरुद्धधर्मत्वं नाप्यन्यस्य तद्धर्मिणोऽन्वयव्यतिरेका- वनुविधत्ते । तथापि शङ्का स्यादिति चेदेवमियं सर्वत्र । तथा च न क्वचित् किञ्चित् होती भी है, तथापि उससे यह सिद्ध नहीं होता कि ‘शङ्ख का वर्ण पीत है’, या पीतिमा शङ्ख का स्वाभाविक धर्म है, क्योंकि ‘शङ्खः पीतः’ यह प्रतीति बाधित होने के कारण भ्रान्ति रूप है । भ्रान्ति से किसी भी वस्तु की सिद्धि सम्भव नहीं है । इसी प्रकार ‘रक्तः स्फटिक. ’ यह प्रतीति भी भ्रम रूप ही है । क्योंकि जब तक जवाकुसुम स्फटिक के समीप में नहीं रहता, तब तक उसमें रक्तिमा की प्रतीति नहीं होती है । एवं जवाकुसुम का सामीप्य रहने पर रक्तिमा की प्रतीति होती है । इससे यह सिद्ध होता है कि स्फटिक में भासित होनेवाली रक्तिमा उसका स्वाभाविक धर्म नहीं है । एवं जिस धर्मों का जो स्वाभाविक धर्म नहीं है, किन्तु उस धर्म की प्रतीति उस धर्मी में होती है, तो वह प्रतीति अवश्य ही ‘भ्रान्ति’ रूप है । सुतराम् जो धर्म जिस धर्मो का स्वाभाविक धर्म निष्पन्न है, उससे भिन्न धर्म का अगर उस धर्मी में भान होता है, तो वह अवश्य ही उस धर्मों का श्रोपाधिक धर्म है । 1 प्रतीति होती है वे किसी शब्द में जिन तारत्व ( तीव्रत्व ) मन्दत्व प्रभृति धर्मों की अन्य धर्मों के धर्म रूप में गृहीत नहीं हैं । एवं शुक्रादि से उच्चरित विशेष प्रकार के ‘ग’- कारादि वर्णों में तीव्रत्वादि से विरुद्ध कोई धर्म है भी नहीं । इसी प्रकार गकारादि वर्णों में तारत्वादि की प्रतीति के लिये किसी अन्य वस्तु का अन्वय और व्यतिरेक भी अपेक्षित नहीं है । अत: तारत्वादि गकारादि शब्दों के स्वाभाविक धर्म ही हैं, औपाधिक नहीं । पू० प० तथापि ( चार्वाक मत के अनुसार यह कहा जा सकता है कि ) यद्यपि यह ज्ञात भले ही न हो सके कि गकारादि में जिन तारत्वादि धर्मों की उपलब्धि होती है वे किसी अन्य वस्तु के धर्म नहीं है । फिर भी यह शङ्का तो बनी ही रहेगी कि तारत्वादि शब्दों से भिन्न किसी अन्य वस्तु के धर्म न हों ? इस प्रकार के संशय के रहने पर भी यह कहना सम्भव नहीं है कि तारत्वादि शब्दों के स्वाभाविक धर्म हैं । सि० प० एवमियम् इस प्रकार विना मूल की शङ्का तो सभी स्थानों में हो सकती है । फलतः किसी से कहीं भी किसी की भी सिद्धि नहीं हो सकेगी । जिससे अनुमान की बात ही छोड़ देनी होगी । किन्तु सो आप ( मीमांसकों ) को भी इष्ट नहीं है । अतः इस युक्ति से भी तारत्वादि धर्मो को गकादादि के स्वाभाविक धर्म होने में कोई बाधा नहीं डाली जा सकती।
१६८ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली कुतश्वित्सिद्धय ेत् । न चेतच्छङ्कितुमपि शक्यते, श्रप्रतीते संस्काराभावात् । संस्कारा- नुपनीतस्य चारोपयितुमशक्यत्वात् । न च ध्वनिधर्मा एव गृह्यन्ते, स्पर्शाद्यनन्तर्भावेन भावेषु स्वगादीना- मव्यापारात् । न च श्रवणेनैव तद्ग्रहणम् । श्रवायवीयत्वेन तस्य वायुधर्माऽग्राह- कत्वात्, चक्षुर्वत् । न चैतत् आरोपयितुमशक्यत्वात् दूसरी बात यह भी है कि इस प्रकार की शङ्का हो ही नहीं सकती, क्योंकि संशय के लिये उसमें भासित होनेवाले दोनों कोटियों की उपस्थिति आवश्यक है । ‘उपस्थिति’ है स्मरण रूप । स्मरण के संस्कार और संस्कार के पूर्वानुभव कारण हैं । इस प्रकार ‘तारत्वादि धर्म किसी अतीन्द्रिय वस्तु के धर्म हैं या नहीं’ इस संशय से पूर्व ‘तारत्वादि धर्म किसी प्रतीन्द्रिय वस्तु के धर्म हैं’ इस आकार का अनुभव आवश्यक होगा । किन्तु वह सम्भव नहीं है । अतः उक्त संशय हो ही नहीं सकता । पू० प० न च ध्वनिधर्मा गकारादि शब्दों में तारत्वादि जिन धर्मो की प्रतीति होती है, वे वस्तुतः ‘ध्वनि’ के धर्म हैं, शब्दों के नहीं । ‘ध्वनि’ वायु में रहनेवाला एक विशेष प्रकार का गुण है । सि० प० स्पर्शाद्यनन्तर्भावेन 000 100 यह निश्चित है कि त्वगिन्द्रिय से ही वायु एवं वायु में रहनेवाले धर्मो का ग्रहण होता है । त्वगिन्द्रिय का यह स्वभाव है कि वह स्पर्श के साथ रहनेवाले भाव पदार्थों का ही ग्रहण करे । ( गकारादि ) शब्दों में स्पर्श नहीं है, अतः ( गकारादि ) शब्दों में तारत्वादि धर्म स्पर्श के साथ नहीं हैं । इसलिये उनका ग्रहण त्वगिन्द्रिय से नहीं हो सकता । पू० प० न च श्रवणेनैव ……… वायु गत ध्वनि में रहनेवाले जिन तारत्वादि धर्मों की बात हो रही है, उनका ग्रहण श्रवणेन्द्रिय से ही होता है । जिससे कि शब्द का ग्रहण होता है । अगर त्वगिन्द्रिय से उनका प्रत्यक्ष नहीं होता है तो न हो । सि० प० अवायवीयत्वेन वायु में रहनेवाले धर्मो का ग्रहण श्रवणेन्द्रिय ( कान ) से नहीं हो सकता, क्योंकि श्रवणेन्द्रिय वायु रूप द्रव्य नहीं है । यह व्यभिचाररहित नियम है कि जो इन्द्रिय जिस जाति की होती है, वह तज्जातीय द्रव्य एवं तज्जातीय द्रव्य में रहनेवाले धर्मों का ही ग्रहण करती है । ( व्यतिरेक दृष्टान्त यह है कि ) चक्षु चूंकि तेजस द्रव्य है, वायवीय द्रव्य नहीं है, अतः उससे वायु एवं वायु में रहनेवाले धर्मो का ग्रहण नहीं होता । इसी प्रकार श्रवणेन्द्रिय चूकि आकाश रूप है, अतः उससे वायवीय ध्वनि में रहनेवाले तारत्वादि धर्मो का ग्रहण
द्वितीयः स्तवकः १६६ तारतारतरत्वादयो वा न वायुधर्माः, श्रावणत्वात् कादिवत् । वायुर्वा न श्रवणग्राह्यधर्मो मूर्तत्वात् पृथिवीवत् । यदि च नैवम्, कादीनामपि वायवीयत्वप्रसङ्गः । ततः किम् ? श्रवयविगुणत्वेऽनित्यत्वम्, परमाणुगुणत्वेऽग्रहणम् । कि जैसे चक्षु के अवायवीय होने के नहीं होता है, उसी प्रकार श्राकाश नहीं हो सकता। इससे यह अनुभव निष्पन्न होता है कारण वायु या वायु में रहनेवाले धर्मो का ग्रहण रूप श्रवणेन्द्रिय से वायुगत ध्वनि के तारत्वादि धर्मो का ग्रहण भी नहीं हो सकता । ’ जिन तारतरत्वादि धर्मो की उपलब्धि होती है, वे वायु के धर्म नहीं हो सकते, क्योंकि उनका ग्रहण श्रवणेन्द्रिय से होता है । ‘क’ प्रभृति वर्णों की तरह जितने भी श्रवणेन्द्रिय से गृहीत होनेवाले पदार्थ हैं, वे वायु के धर्म नहीं हैं । अतः तारत्वादि जिन धर्मो का ग्रहण श्रवणेन्द्रिय से होता है, वे वायु के धर्म नहीं हो सकते । अतः वे गकारादि शब्दों के ही धर्म हैं । तारतारतरत्वादयः .. ( इस प्रसङ्ग में दूसरा अनुमान यह है कि ) जिस पदार्थ का ग्रहण श्रवणेन्द्रिय से होता है, वह कभी भी मूर्त्त द्रव्य का धर्म नहीं हो सकता । जैसे कि श्रवणेन्द्रिय से गृहीत होनेवाले ‘ग’ कारादि वर्ण पृथिवी प्रभृति के धर्म नहीं होते । वायु भी मूर्त्त द्रव्य है । अत: श्रवणेन्द्रिय से गृहीत होनेवाले तारत्वादि वायु (ध्वनि) के धर्म नहीं हो सकते । इस से अनुमान का यह स्वरूप निष्पन्न होता है कि वायु में श्रवणेन्द्रिय से गृहीत होनेवाले धर्म नहीं हैं, क्योंकि वायु मूर्त्त द्रव्य है । जितने भो मूर्त द्रव्य हैं, उनमें से किसी में भी श्रवणेन्द्रिय से गृहीत होने वाला कोई भी धर्म नहीं है । जैसे कि पृथिवी । अगर श्रवणेन्द्रिय से गृहीत होने वाले धर्म मूर्त द्रव्य में भी रहें तो फिर ककरादि वर्ण भी वायु में रह सकते हैं । 13 O पू० प० ततः किम् "” ककारादि शब्दों को अगर ( श्राकाश का गुण न मान कर ) वायु का ही गुण मान लें तो इसमें हानि ही क्या है ? १. इस अनुमान की व्याप्ति में एक त्रुटि है । चक्षु तैजस है, पार्थिष नहीं । किन्तु पृथ्वी का एवं पृथ्वी में ही रहनेवाले नील रूप का प्रहण उस से होता है। अगर यह व्याप्ति स्वीकार की जाय कि जो इन्द्रिय स्वयं जिस जाति की हो, उस इन्द्रिय से उस जाति के द्रव्य और उस द्रव्य में रहनेवाले गुणों का ही ग्रहण हो’ तो फिर चक्षु से घटादि पार्थिव द्रव्यों का एवं उसमें रहनेवाले नीलरूपादि गुणों का ग्रहण नहीं हो सकेगा । अतः उक्त व्याप्ति उपयुक्त नहीं है । जिससे श्रवणेन्द्रिय के द्वारा वायुगत तारत्वादि धर्म की उपलब्धि में कोई बाधा नहीं रह जाती, इसी लिये श्राचार्य ने इस प्रसंग में ‘तारस्वादयः’ इत्यादि सन्दर्भ के द्वारा दूसरे समाधान का उल्लेख किया है । २२
१७० गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली द्वयमप्येतदनिष्ट भवतः । अवश्यञ्च श्रवसा ग्राह्यजातीयगुणवता भवितव्यम्, बहिरिन्द्रियत्वाद् घ्राणादिवत् । सन्तु ध्वनयोऽपि नाभसाः । तथा च तद्धर्मग्रहरणं श्रवसोपपत्स्यत इति चेन्न; तारस्तारतरो वाऽयं गकार इत्यत्र ध्वनीनामस्फुरणात् । न च व्यक्तचा विना सि० प० अवयविगुरणत्वे अनिष्टं भवतः परमाणु एवं अवयवी ये दो प्रकार के वायु हैं । इनमें शब्द को किस वायु का गुण मानेंगे ? अगर ककरादि शब्दों को प्रवयवी रूप वायु का गुण मानेंगे तो उन शब्दों को अनित्य मानना होगा, क्योंकि अवयवी के विनष्ट हो जाने पर उसमें रहनेवाले गुण का भी अवश्य ही विनाश होगा | अगर ककरादि शब्दों को परमाणु रूप वायु का गुण मानेंगे तो उन शब्दों का प्रत्यक्ष ही संभव नहीं होगा । क्योंकि गुण के प्रत्यक्ष के लिये उसके आश्रय में महत्त्व का होना आवश्यक है । अतः इस पक्ष में शब्द के अप्रत्यक्षत्व की आपत्ति होगी । किन्तु आप ( मीमांसकों ) के लिये ककरादि शब्दों की अनित्यता और उनका प्रत्यक्ष न होना ये दोनों ही अनिष्ट हैं । अतः शब्द वायु का धर्म नहीं हो सकता । अवश्यश्र्च ‘शब्द श्राकाश का गुण है’ इस में अनुमान प्रमाण भी है ) बाह्य इन्द्रियों का यह स्वभाव है कि वह उसी विशेषगुण को ग्रहण कर सकता है, जिस विशेषगुण के सजातीय विशेष गुण की सत्ता उस में रहे । घ्राणेन्द्रिय से गन्ध का ग्रहण होता है, चूकि घ्राण में गन्ध की सत्ता है । ‘श्रवणेन्द्रिय से शब्द का ग्रहण होता है’ यह मानी हुई बात है उक्त नियम के अनुसार उसके लिये आवश्यक है कि शब्द रूप विशेषगुण श्रवणेन्द्रिय में रहे । अतः यह भी मानना होगा कि श्रवणेन्द्रिय में शब्द रूप विशेष गुण है । श्रवणेन्द्रिय चूकि श्राकाश रूप है, अतः शब्द प्रकाश का ही गुण है ( वायु का नहीं ) । पू० प० सन्तु ध्वनयोऽपि … … …श्रवसोत्पत्स्यते ध्वनि को भी वायु का धर्म न मानकर आकाश का ही गुण मान लें। ऐसा मान लेने पर ध्वनि में रहनेवाले तारत्वादि धर्मों की श्रवणेन्द्रिय के द्वारा उपलब्धि होने में कोई बाधा नहीं होगी । सुतराम् श्रवणेन्द्रिय के द्वारा गृहीत न हो सकने के कारण ध्वनि में रहनेवाले तारत्वादि धर्मों का गकारादि वर्णों में आरोप असंभव नहीं होगा । सि० प० तारस्तारतरः….. … ‘तारो गकार:’ ‘गकारस्तारतर:’ इन प्रतीतियों में तारत्वादि धर्म एवं गकारादि शब्द रूप धर्मों ये दो ही विषय होते हैं । इन प्रतीतियों में ध्वनि नाम की किसी तीसरे पदार्थ का मान नहीं होता ! वारस्वादि अगर ध्वनि के धर्म हों तो ये ध्वनि की प्रतीति में ही भासित स स स हो ‘ल व्य स प्र क क Is if he bo ही पू सि ज नि है हो भी पू भ प्र ‘स प्र न
द्वितीयः स्तवक्रः १७१ सामान्यस्फुरणम्, कारणाभावात् । व्यक्तिस्फुरण सामग्री निविष्टा हि जातिस्फुररण- सामग्री । कुत एतत् ? अन्वयव्यतिरेकाभ्यां तथाऽवगमात् । ऐन्द्रियकेष्वेव घटादिषु सामान्यग्रहणात् । अतीन्द्रियेषु च मनःप्रभृतिष्वग्रहणात् । स्वरूपयोग्यतैव तत्र होंगे, ध्वनि को चाहे आकाश का गुण मानें चाहे वायु का ( दोनों ही स्थितियों में ) चूकि व्यक्ति के भान के बिना जाति का भान नहीं होता, श्रतः गकारादि विषयक प्रतीति में अगर ध्वनि का भान नहीं होता है तो फिर उस प्रतीति में तारत्वादि धर्म नहीं भासित हो सकते । अतः ध्वनि को श्राकाश का गुण स्वीकार कर लेने पर भी ‘तारो गकारः’ इत्यादि प्रतीतियों से तारत्वादि धर्म गृहीत नहीं हो सकते । तस्मात् तारत्वादि शब्द के स्वाभाविक धर्म ही है ( औपाधिक नहीं ) । जाति का भान व्यक्ति के भान के विना संभव नहीं है, क्योंकि व्यक्ति का भान जिन कारणों से होता है, उन कारणों के उस समूह (सामग्री) में वे भी निविष्ट हैं जिन कारणों से जाति का भान होता है । सुतराम् जबतक जाति का भान नहीं होगा, तब तक व्यक्ति का भान हो ही नहीं सकता । पू० प० कुत एतत् ? अर्थात् जाति का ज्ञान नियमतः व्यक्ति भान की अपेक्षा रखती है यह कैसे समझते हैं ? सि० प० अन्वयव्यतिरेकाभ्याम् व्यक्ति का भान होने पर जाति का भान अवश्य होता है । एवं व्यक्ति के भान के विना जाति का भान नहीं होता है । इस अन्वय और व्यतिरेक से समझते हैं कि जाति के भान के लिये नियमतः व्यक्ति के भान की आवश्यकता होती है । ( इस अन्वय और व्यतिरेक का उदाहरण यह है कि ) जिन घटादि वस्तुओं का ग्रहण इन्द्रिय से होता है, उनमें ही जाति का ग्रहण भी होता है । मन प्रभृति जिन वस्तुओं का इन्द्रिय से ग्रहण होना संभव नहीं है, उन में रहती हुई भी द्रव्यत्वादि जातियाँ प्रत्यक्ष से गृहीत नहीं होती हैं । पू० प० स्वरूपयोग्यतैव जाति के प्रत्यक्ष के लिये उसके श्राश्रयीभूत ‘व्यक्ति’ का प्रत्यक्ष के योग्य होना श्रावश्यक नहीं है । किन्तु जाति की अपनी ‘स्वरूपयोग्यता’ ही श्रर्थात् जाति का स्वयं प्रत्यक्ष के योग्य होना ही आवश्यक है । घट में रहनेवाली द्रव्यत्वादि जातियाँ प्रत्यक्ष की ‘स्वरूपयोग्य’ हैं, अतः उनका प्रत्यक्ष होता है । मन प्रभृति में रहनेवाली कोई भी जाति प्रत्यक्ष के योग्य नहीं है, अतः मन प्रभूति में रहनेवाली किसी भी जाति का प्रत्यक्ष नहीं होता । CCO. Vasishtha Tripathi Collection. Digitized by eGangotri१७२ गद्यपद्यात्मक न्यायकुसुमाञ्जली निमित्तम्, श्रकारणं व्यक्तियोग्यतेति चेत्; एवं तहि सत्ताद्रव्यत्वपार्थिवत्वादीनां स्वरूपयोग्यत्वे परमाण्वादिष्वपि ग्रहणप्रसङ्गः । अयोग्यत्वे घटादिष्वपि तदनुपलम्भा- पत्तिरिति दुरुत्तरं व्यसनम् । तस्माद् व्यक्तिग्रहरणयोग्यतान्तर्गतैव जातिग्रहरण योग्यतेति तदनुपलम्भे जातेरनुपलम्भ एव । तथा च न तारत्वादीनामारोपसम्भव इति स्वाभाविकत्वस्थिती विरुद्धधर्माध्यासेन भेदस्य पारमार्थिकत्वात् प्रत्यभिज्ञानमप्रमाण- मिति न तेन बाधः । नापि सत्प्रतिपक्षत्वम्, मिथो विरुद्धयोर्वास्तवतुल्यबलत्वाभावात् । एकस्यान्यत- सि० प० एवं तहि . … .. सत्ता, द्रव्यत्व पृथिवीत्व प्रभृति जातियों की प्रत्यक्ष प्रतीति घटादि में होती है, अतः इन्हें प्रत्यक्ष के स्वरूपयोग्य तो मानना ही होगा। ऐसी स्थिति में अगर जाति की अपनी ‘प्रत्यक्ष योग्यता’ ही जाति के प्रत्यक्ष का नियामक हो, उसके लिये व्यक्ति की प्रत्यक्षयोग्यता की कोई भी अपेक्षा न हो, तो फिर कथित सत्ता, द्रव्यत्व पृथिवीत्व प्रमृति जातियों का परमाणु प्रभृति अप्रत्यक्ष द्रव्यों में भी प्रत्यक्ष होना चाहिये । किन्तु सो नहीं होता । श्रतः जाति के प्रत्यक्ष के लिये व्यक्ति का भी प्रत्यक्ष के योग्य होना आवश्यक है । कथित सत्ता प्रभृति सभी जातियों को अगर प्रत्यक्ष के अयोग्य ही मानेंगे, तो घटादि द्रव्यों में उनका प्रत्यक्ष नहीं हो सकेगा, इस प्रकार जातियों को स्वतः प्रत्यक्ष के योग्य मानने और न मानने के दोनों पक्ष में ही असमाधेय संकट उपस्थित हो जाता है । है । अतः व्यक्ति की अगर उपलब्धि नहीं होगी 1 चूं कि जाति का प्रत्यक्षप्रमाण के द्वारा गृहीत होना व्यक्ति के प्रत्यक्ष के द्वारा गृहीत होने की योग्यता के ऊपर निर्भर तो जाति की भी उपलब्धि नहीं होगी । इस युक्ति के अनुसार ध्वनि में रहनेवाले तारत्वादि धर्मों का आरोप गकारादि शब्दों में संभव नहीं है । सुतराम् तारत्वादि धर्मं गकारादि शब्दों के स्वाभाविक धर्म ही हैं । किन्तु तीव्रत्व भीर मन्दत्व ये दोनों परस्पर विरुद्ध धर्म हैं, अतः ये दोनों किसी एक श्राश्रय में नहीं रह सकते । फलतः यह स्वीकार करना होगा कि तीव्रत्व का आश्रयीभूत गकार से मन्दत्व के आश्रयीभूत गकार भिन्न है । तस्मात् ‘सोऽयं गकारः’ इत्यादि प्रत्यभिज्ञायें यथार्थज्ञान (प्रमा) रूप नहीं हैं, अत: इनका पर्यवसान गकारादिशब्दों के नित्यत्व में होना असंभव है । अतः ‘शब्दोऽनित्यः, उत्पत्तिधर्मकत्वात्’ यह अनुमान ‘सोऽयं गकारः ’ इत्यादि श्रप्रमा प्रत्यभिज्ञाओं से बाधित नहीं हो सकता । एवं उक्त प्रत्यभिज्ञानों का पर्यवसान भी शब्द की नित्यता में संभव नहीं है । सि० प० नापि सम्प्रतिपक्षत्वम् … तुल्यबलत्वाभावात् (१) एक पक्ष में समानबल के परस्पर विरुद्ध साध्य के साधक दो हेतुओं का रहना
I T द्वितीयः स्तबकः । १७३ माङ्गवैकल्यचिन्तायामस्य वैकल्ये तस्यैवोद्भाव्यत्वात् । प्रवैकल्ये त्वदीयेनेव विकलेन भवितव्यमिति हीनस्य न सत्प्रतिपक्षत्वम् । १ सम्भव नहीं है । उन दोनों हेतुओं में एक न्यू नबल का और दूसरा अधिक बल का अवश्य होगा । क्योंकि कोई भी पदार्थ परस्पर विरुद्ध दो स्वभावों का या विना स्वभाव का नहीं हो सकता । विषय को स्पष्ट रूप से समझने के लिये ‘शब्दोऽनित्यः’ इस स्थल में ही देखना चाहिये । समानबलत्व के जो दो विकल्प दिये गये हैं, उनमें प्रथम विकल्प के अनुसार शब्द में अगर नित्यत्व की सिद्धि के उपयुक्त एवं अनित्यत्व की सिद्धि के उपयुक्त दोनों हेतु समान बल के रहें तो सत्प्रतिपक्ष हो सकता है । अगर समान बल के उक्त दोनों हेतुनों की सत्ता शब्द में रहेगी तो शब्द को नित्य भी मानना होगा और अनित्य भी । किन्तु यह अनुभव के विरुद्ध है, क्योंकि एक वस्तु विरुद्ध दो स्वभावों का नहीं हो सकता । तदनुसार शब्द या तो नित्य ही होगा या फिर अनित्य ही होगा । अगर शब्द को अनित्य मानेंगे तो अनित्यत्व का साधक हेतु बलवान् होगा । (३) विपक्षासत्त्व, (४) अबाधितत्व और बल हैं । हेतु में अगर इनमें से एक भी धर्म क्षमता जाती रहती है और हेतु निर्बल हो जाता साधक हेतु को निर्बल कहेंगे तो उसमें उक्त पाँच ( १ ) पक्षसत्त्व, ( २ ) सपक्षसत्व, ( ५ ) असत्प्रतिपक्षितत्व में पाँच धर्म हेतु के नहीं रहता है, तो उससे साध्य साधन की है । प्रकृत में अगर शब्द में अनित्यत्व के १. इतने पर्यन्त के प्रन्थ से अनित्यत्व के साधक उक्त अनुमान में बाघ दोष के हटाने के बाद ( नापि ) इत्यादि सन्दर्भ के द्वारा सम्प्रतिपक्ष दोष की सम्भावना का निराकरण किया गया है । अर्थात् उक्त अनुमान में सम्प्रतिपक्ष दोष नहीं हो सकता । सम्प्रतिपक्ष दोष वहाँ होता है, जहाँ कि एक ही पक्ष में साध्य के साधक हेतु के समान ही उस साध्य के अभाव के साधक दूसरे हेतु की सत्ता हो, एवं वह दूसरा हेतु पहिले हेतु के समान ही बलशाली भी हो । सम्प्रतिपक्ष के लक्षण में जो यह ‘समानबल’ की बात कही गयी है उसके प्रसंग में यह पूछना है कि प्रतिहेतु को क्या (१) वास्तव में हेतु के समान बलशाली होना चाहिये ? ( २ ) अथवा प्रतिहेतु के समानबल के न रहने पर भी उसको समान बलशाली समझना ही पर्याप्त है ? इनमें प्रथम पक्ष का खण्डन ‘मिथो विरुद्धयो:’ यहाँ से लेकर ‘न सम्प्रतिपक्षत्वम्’ इतने पर्यन्त के सन्दर्भ से किया गया है । एवं ‘तथापि नित्यः शब्दः’ इत्यादि सन्दर्भ से दूसरे पक्ष का खण्डन किया गया है । इसी अभिप्राय से ‘एकस्य’ इत्यादि सन्दर्भ लिखा गया है। इस सन्दर्भ में लिखित ‘अस्य’ शब्द की व्याख्या है ‘अनित्यत्वसाधकहेतो:’ और ‘तस्यैव’ की व्याख्या है ‘दौर्बल्यप्रयोजक पक्षसरवाद्यभावस्य’ उक सन्दर्भ के द्वारा समानबलत्व की दूसरी व्याख्या के अनुसार शब्द में अनित्यस्व के अनुमान को दूषित करने का प्रयास करते हैं । -T
१७४ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जलौ तथापि नित्यः शब्दोऽद्रव्यद्रव्यत्वादित्यत्रापि साधनदशायां किञ्चिद्वाच्यमिति चेदसिद्धिः । धर्मों में से किसी का अभाव स्वीकार करना होगा । अगर यह सत्य है तो फिर कथित धर्मों में दोष रूप से उपस्थित किया जा सकता से जिस धर्म का अभाव रहेगा, उस अभाव को ही है, सत्प्रतिपक्ष रूप दोषान्तर के उद्भावन की श्रावश्यकता नहीं है । अगर अनित्यत्व के साधक मेरे ( नैयायिक के ) हेतु में पक्षसत्त्वादि ‘वैकल्य’ श्रर्थात् अभाव नहीं है तो फिर शब्द में नित्यत्व के साधक श्राप ( मीमांसक ) के हेतु में ही ‘बल’ के प्रयोजक पक्षसत्त्वादि धर्मों में से किसीका ‘वैकल्य’ मानना होगा । ऐसी स्थिति में नित्यत्व के साधक दुर्बल हेतु से अनित्यत्व का साधक सबल हेतु सत्प्रतिपक्षित नहीं हो सकता । ( यही बात ‘अवैकल्ये’ इत्यादि से कही गयी है ) । तस्मात् ‘समानबलख’ की प्रथम व्याख्या के अनुसार शब्द में अनित्यत्व का साधक उत्पत्तिधर्मकत्व हेतु सत्प्रतिपक्ष दोष से दूषित नहीं हो सकता । पू० प० तथापि नित्यः शब्दः किञ्चिद्वाच्यमिति चेत् यद्यपि यह ठीक है कि एक पक्ष में रहने वाले एवं दो विरुद्ध साध्यों के साधक दो हेतु समान बल के नहीं हो सकते। फिर भी उक्त दोनों प्रकार के हेतुओं को किसी समय समान बल का समझा जा सकता है । श्रतः शब्द में अनित्यत्व के साधन के समय अगर यह ज्ञान हो जाय कि अनित्यत्व के विरुद्ध अनित्यत्व रूप साध्य का साधक कोई हेतु शब्द में है, तब भी शब्द में अनित्यत्व के साधक प्रकृत अनुमान को निरस्त किया जा सकता है | तद्नुसार प्रकृत में इस विरोधी अनुमान का प्रयोग किया जा सकता है कि ‘शब्दः नित्य, अद्रव्यद्रव्यत्वात्’ । अर्थात् शब्द चूँकि ऐसा द्रव्य है जिसका समवायिकारण द्रव्य नहीं है । परमाणु, आकाश प्रभृति जिन द्रव्यों के समवायिकारण द्रव्य नहीं हैं, वे सभी द्रव्य नित्य हैं । अतः शब्द रूप द्रव्य भी नित्य है, क्योंकि उसके समवायि-कारण का भी समवायिकारण कोई द्रव्य नहीं है ।’ सुतराम् इस आकार के अनुमान का प्रयोग किया जा सकता है कि ‘शब्दो नित्य:, अद्रव्यद्रव्यत्वात् आकाशादिवत्’ । जब तक इस अनुमान में कोई दोष प्रदर्शित न हो तब तक वह शब्द में अनित्यत्व के अनुमान को प्रतिहत कर सकता है । सि० प० प्रसिद्धेः …… इस अनुमान के हेतु में ‘असिद्धि’ दोष है । अर्थात् शब्द गुण है द्रव्य नहीं । जब १. ‘न द्रव्यं समवायिकारणं यस्य’ इस व्युत्पत्ति के अनुसार ‘अद्रव्यद्रव्य’ शब्द का अर्थ है ‘बिना द्रव्य समवायिकारण का द्वय’ उसमें रहनेवाला धर्म ही ‘अद्रवद्रव्यस्व’ शब्द का अर्थ है। CCO. Vasishtha. Tripathi Collection. Digitized by eGangotri द्वितीयः स्तबकः १७५ द्रव्यं शब्दः साक्षात्संबन्धेन गृह्यमाणत्वात्, घटवदिति सिद्धयतीति चेन्न; एतस्याऽप्यसिद्धेः । न हि श्रोत्रगुरणत्वे द्रव्यत्वे वाऽसिद्धे साक्षात्संबन्धे शब्दस्य प्रमाणमस्ति । शब्द द्रव्य ही नहीं तब न वह ‘द्रव्यद्रव्य ’ ( समवेतद्द्रव्य ) है, न ‘अद्रव्यद्रव्य’ ( असमवेत द्रव्य है ), अत: शब्द रूप पक्ष में कथित ‘प्रद्रव्यद्रव्यत्व’ हेतु है ही नहीं । जो हेतु पक्ष में न रहे उसमें ‘स्वरूपासिद्धि’ दोष समझना चाहिये | अतः कथित अद्रव्यद्रव्यत्व हेतु चूकि असिद्ध नाम का हेत्वाभास है, अतः उस हेतु से शब्द में अनित्यत्व का साधक प्रकृत अनुमान को सत्प्रतिपक्षित नहीं किया जा सजता । पू० प० द्रव्यं शब्दः द्रव्य का यह स्वभाव है कि इन्द्रिय के द्वारा सादात् सम्बन्ध से ही उसका ग्रहण हो । घटपटादि वस्तुओं में उसका यह स्वभाव देखा जाता है कि उनका ग्रहण चक्षु और विषयों के संयोग रूप साक्षात् सम्बन्ध से ही होता है । द्रव्य से भिन्न गुणकर्म प्रभृति पदार्थों का यह स्वभाव देखा जाता है कि इन्द्रियों से उनका ग्रहण संयुक्तसमवायादि परम्परा सम्बन्धों से ही होता है। जैसे कि घट में रहनेवाले रूप एवं क्रियादि का संयुक्तसमवाय रूप परम्परा सम्बन्ध से ग्रहण होता है । किन्तु श्रोत्रेन्द्रिय से शब्द का ग्रहण ‘समवाय’ रूप साक्षात् सम्बन्ध से ही होता है । अतः शब्द द्रव्य ही है गुण नहीं । सुतराम् ‘द्रव्यं शब्दः; साक्षात् सम्बन्धेन गृह्यमाणत्वाद् घटवत्’ इस अनुमान के द्वारा शब्द में द्रव्यत्व की सिद्धि सम्भव होने के कारण उक्त ‘श्रद्रव्यद्रव्यत्व’ हेतु को स्वरूपासिद्धि ( असिद्धि ) दोष से ग्रसित नहीं कहा जा सकता । सि० प० एतस्याप्यसिद्धे । .. प्रमाणमस्ति जिन सम्बन्धों से वस्तुओं का ग्रहण होता है, ऐसे दो साक्षात् सम्बन्धों में से एक है संयोग और दूसरा है समवाय । इनमें संयोग सम्बन्ध से घटादि द्रव्यों का ग्रहण होता है और समवाय सम्बन्ध से श्रोत्रेन्द्रिय के गुण ( शब्द ) का । इससे यह नियम निष्पन्न होता है कि साक्षात् सम्बन्ध से जिसका ग्रहण होगा वह या तो द्रव्य होगा या फिर श्रोत्र का गुण ही होगा । श्रर्थात् मीमांसक जब शब्द को गुण पदार्थ नहीं कहते, तब उनके मत से शब्द को आकाश का गुण भी स्वीकार नहीं किया जा सकता । शब्द में द्रव्यत्व की अभी सिद्धि हुई नहीं है । अतः अभी शब्द को द्रव्य भी नहीं कहा जा सकता । इसलिये द्रव्यत्व भोर आकाशगुणत्व रूप जिन दो धर्मों को साक्षात् सम्बन्ध से ग्रहण का प्रयोजक माना गया है, उन दोनों में से कोई भी शब्द में नहीं है । अतः शब्द में साक्षात्सम्बन्ध से गृह्यमाणत्व रूप हेतु भी नहीं है । इसलिये शब्द में द्रव्यत्व के साधन के लिये प्रयुक्त ‘साक्षात्’ सम्बन्धेन गृह्यमाणत्व हेतु भी ‘असिद्ध’ अर्थात रूपासिद्ध है ।
382 १७६ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जलो परिशेषोऽस्ति, तथा हि- सदाद्यभेदेन सामान्यादित्रयव्यावृत्तो मूर्तद्रव्य- समवाय निषेधेन कर्मत्वनिषेधात् द्रव्यगुणत्वपरिशेषे संयोगसमवाययोरन्यतरः संबन्ध इति चेन्न; बाघकबलेन परिशेषे द्रव्यत्वस्यापि निषेधाल्लिङ्गग्राहक प्रमाणबाधापत्तेः । पू० प० परिशेषोऽस्ति 108 194 अन्यतरः सम्बन्ध इति चेत् ( शब्द में इन्द्रिय का साक्षात् सम्बन्ध है । उसका ग्रहण इन्द्रिय के साक्षात् सम्बन्ध से ही होता है । अत: ‘साक्षात्सम्बन्धेन गृह्यमाणत्व’ हेतु स्वरूपासिद्ध नहीं है ) । शब्द में साक्षात् सम्बन्ध से गृह्यमाणत्व हेतु को सत्ता में ‘परिशेष’ अर्थात् परिशेषानु- मान प्रमाण है । ह f स क अ गु क मूर्तं द्रव्य में वि ‘शब्दः सन्’ इस आकार की प्रतीति के बल से यह सिद्ध है कि ‘शब्द में सत्ता जाति है’, या ‘शब्द सत् पदार्थ से अभिन्न है ।’ यह समझ लेने के बाद शब्द को ‘सामान्यादित्रय’ से अर्थात् सामान्य, विशेष और समवाय इन तीन पदार्थों से भिन्न समझना सुलभ हो जाता है । शब्द को ‘कर्म’ पदार्थ इस लिये नहीं समझा जा सकता कि वह किसी नहीं रहता है, क्योंकि ‘कर्म’ का स्वभाव है कि वह मूर्त द्रव्यों में ही रहे । अब शब्द के लिये दो हो गतियाँ शेष रहतीं है अर्थात् शब्द या तो द्रव्य होगा अथवा गुण होगा । अगर द्रव्य है तो उसमें इन्द्रिय का संयोग रूप साक्षात् सम्बन्ध होगा । अगर गुण होगा तो इन्द्रिय का समवाय रूप साक्षात् सम्बन्ध होगा । इस प्रकार यह निष्पन्न होता है कि शब्द में इन्द्रिय के साक्षात् सम्बन्ध के द्वारा गृह्यमाणत्व हेतु अवश्य है । फलतः शब्द को द्रव्य निष्पन्न करने वाला ‘साक्षात्सम्बन्धेन गृह्यमाणत्व’ हेतु शब्द रूप पक्ष में रहने के कारण स्वरूपासिद्ध नहीं है | सि० प० न, बाधकबलेन … 2159 13 18 s अ ल में क पू के कौ माना जा सकता किया जा सकता । इन दोनों में से शब्द सि सा स्प चक्ष श्री न्द्रि बुि जिस प्रकार बाधा रहने के कारण शब्द को कर्म पदार्थ नहीं उसी प्रकार ‘बाघा’ रहने के कारण ही शब्द को द्रव्य भी स्वीकार नहीं अतः उक्त परिशेषानुमान से यह नहीं सिद्ध हो सकता कि द्रव्य और गुण कोई एक है ।’ उस परिशेषानुमान से केवल यही सिद्ध किया जा सकता है कि ‘शब्द गुण है ।’ इस प्रकार शब्द में द्रव्यागुणान्यतरत्व ( द्रव्य और गुण इन दोनों में से एक होना) के न रहने के कारण इन्द्रिय का ‘संयोगसमवायान्यतर’ सम्बन्ध भी नहीं रह सकता ( अर्थात् शब्द में संयोग और समवाय इन दोनों में से एक की स्थिति न रहेगी केवल संयोग की ही स्थिति रहेगी ) । इस प्रकार शब्द में द्रव्यत्व की सिद्धि के लिये जिस ‘साक्षात्सम्बन्धेन गृह्यमाणत्व’ लिङ्ग (हेतु ) का प्रयोग किया गया है, पक्ष में उसका साधक कथित ‘परिशेषानु- मान’ रूप प्रमाण ही बाधित हो जाता है ।
T 1 T T न द्वितीयः स्तबकः १७७ बाघके सत्यपि वा द्रव्यत्वाप्रतिषेधे कर्मत्वादीनामप्यप्रतिषेधप्रसक्तो परिशेषासिद्धेः; तस्मादेकदेशपरिशेषो न प्रमारणम्, सन्देहसङ्कोच मात्र हेतुत्वात् । अथ द्रव्यत्वे किं बाधकम् ? उच्यते - शब्दो न द्रव्यम्, बहिरिन्द्रियव्यवस्था- अगर शब्द में द्रव्यत्व की भिन्न नहीं मान लिया जाता है तो निषेध किया गया है, उसका भी सम्भावना ही मिट जायगी । सिद्धि में बाधक हेतुओं के रहते हुये भी ‘शब्द को द्रव्य फिर शब्द में कथित मूर्त्तत्व के न रहने से जो कर्मत्व का अवसर नहीं रहेगा । जिससे उक्त परिशेषानुमान की असल में उक्त परिशेषानुमान प्रमाण ही नहीं है । क्योंकि परिशेषानुमान रूप प्रमाण का यह कार्य है कि पक्ष में जितने धर्मों की सम्भावना ( प्रसक्ति ) उपस्थित हो उन में अनभीष्ट धर्मो का प्रतिषेध कर अभीष्ट धर्म का स्थापन करना । प्रकृत में शब्द में द्रव्यर गुणत्व, कर्मत्वादि सभी धर्मों की सम्भावना को मिटा कर अगर शब्द में द्रव्यत्व को व्यवस्थित कर पाता तो इसको प्रमाण कहा जा सकता था । किन्तु इस परिशेषानुमान ने तो केवल इतना किया है कि शब्द में द्रव्यत्वादि धर्मो की जो सम्भावना थी, उसको केवल छोटी कर दी है । अर्थात् उस सम्भावना को केवल ‘शब्द द्रव्य श्रौर गुण इन दोनों में से एक है’ इस रूप में ला दी है । तस्मात् यह परिशेषानुमान प्रमाण ही नहीं हैं। क्योंकि शब्द में द्रव्यत्व की सिद्धि में जितनी सम्भावनायें बाधक हैं, उनमें से ‘एकदेश’ अर्थात् कुछ ही सम्भावनाओं की निवृत्ति कर सकता है | पू० प० अथ द्रव्यत्वे ….. ( ’ शब्द में द्रव्यत्व की सिद्धि में बाधा है’ यह जो शब्दों को अनित्य माननेवाले नैयायिक के पक्ष से सिद्धवत् कहा गया है, उस प्रसङ्ग में पूछना है कि ) शब्द में द्रव्यत्व के रहने में कौन सी बाधा है ? सि० प० उच्यते .. चक्षु घ्राण प्रभृति बाह्य इन्द्रियों में परस्पर भेद की प्रतीति विभिन्न विषयों को ग्रहण की सामर्थ्य से ज्ञात होती है। जैसे कि चक्षु से रूप का ग्रहण होता है, रसादि का नहीं | त्वचा से स्पर्श का ही ग्रहण होता है, रूपरसादि का नहीं । इस से समझते हैं कि रूप को ग्रहण करने वाली चक्षु रूप इन्द्रिय से स्पर्श को ग्रहण करने वाली त्वचा रूप इन्द्रिय भिन्न है । इस प्रकार रूप और स्पर्श प्रभृति विषय भी ‘चक्षुरादि बहिरिन्द्रियों की व्यवस्था’ के हेतु हैं, अर्थात् बहिरि- न्द्रियों में जो परस्पर भेद है, उसको समझाने के साधन हैं । बहिरिन्द्रियों के परस्पर भेद की बुद्धि रूप यह ‘व्यवस्था’ के कारण रूपादि गुण ही है, उनसे गृहीत होनेवाले द्रव्य नहीं । इस से २३
१७८ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुभाञ्जली हेतुत्वात्, रूपादिवदिति परिशेषात् गुणत्वेन समवायिसिद्धी लिङ्गग्राहक प्रमाणबाधि- तत्वात् नाव्यवहितसंबन्धग्राह्यत्वेन द्रव्यत्वसिद्धिः । न चासिद्धेन सत्प्रतिपक्षत्वम्, श्रसिद्धस्य हीनबलत्वात् । ननु शब्दस्तावदश्रोत्रत्रगुरणो नेवेति त्वयेव साधितं प्रबन्धेन । सि० प० परिशेषात् ’ गुणत्वेन इस निष्कर्ष पर आते हैं कि श्रोत्र रूप बहिरिन्द्रिय में जो चक्षु प्रभृति बहिरिन्द्रियों के भेद है, उनको समझाने वाला ‘शब्द’ स्वरूप गुण ही है द्रव्य नहीं । अतः शब्द में द्रव्यत्व का बाध ‘शब्दों न द्रव्यं बहिरिन्द्रियव्यवस्थाहेतुत्वात् रूपादिवत्’ इस अनुमान से होता है । शब्द में कर्मत्व प्रभृति धर्मों की तरह कथित युक्ति से द्रव्यत्व का भी निषेध हो जाने पर परिशेषानुमान के द्वारा ‘शब्द गुण है’ यह सिद्ध हो जाता है । यह निश्चित हो जाने पर कि ‘शब्द गुण है’ शब्द में समवाय की सिद्धि भी सुलभ हो जाती है, जिससे श्रोत्रेन्द्रिय के द्वारा समवाय रूप साक्षात् सम्बन्ध से शब्द का ग्रहण सम्भव हो जाता है । इस प्रकार जब गुण भी इन्द्रिय के द्वारा साक्षात् सम्बन्ध से गृहीत हो सकता है, तो कथित ‘साक्षात् सम्बन्धेन गृह्यमाणत्व’ हेतु से शब्द में द्रव्यत्व की सिद्धि नहीं की जा सकती। क्योंकि यह हेतु कथित द्रव्यत्व साध्य का व्यभिचारी है । इस प्रकार शब्द से द्रव्यत्व की सम्भावना के हट जाने से शब्द में नित्यत्व के साधन के लिये एवं शब्द में अनित्यत्व साधक अनुमान में सत्प्रतिपक्ष दोष देने के लिये जिस ‘अद्रव्यद्रव्यत्व’ हेतु का प्रयोग किया गया था, वह हेतु शब्द रूप पक्ष में न रहने के कारण स्वयं स्वरूपासिद्ध’ हेत्वाभास हो जाता है । स्वरूपासिद्धि दोष हेतु के पक्षधर्मता रूप बल का विघटक है । सुतराम् ’ स्वरूपासिद्ध’ होने से बलहीन अद्रव्यद्रव्यत्व हेतुक नित्यत्व के अनुमान से शब्द में अनित्यत्व के अनुमान का हेतु सत्प्रतिपक्षित नहीं हो सकता । पू० प० ननु शब्दस्तावत् तुम ( नैयायिकों ) ने इतने बड़े सन्दर्भ से जो यह साधन किया है कि शब्द श्रोत्रेन्द्रिय रूप प्राकाश का ही गुण है, पृथिव्यादि द्रव्यों का नहीं, यह उचित नहीं प्रतीत होता, क्योंकि शब्द का ग्रहण श्रोत्रेन्द्रिय से होता है । चूकि किसी भी इन्द्रिय में स्वगत गुणों १. ‘परिशेषाद गुणत्वेन’ इत्यादि सन्दर्भ से ‘शब्द द्वण्य नहीं है’ इस प्रसङ्ग का उपसंहार किया गया है। उसके बाद ‘न चासिद्धेन’ इत्यादि सन्दर्भ के द्वारा ‘शब्दोऽनित्या उत्पत्तिधर्मकस्वात्’ इस अनुमान में जो ‘नापि सम्प्रतिपक्षस्वम्’ इत्यादि सन्दर्भ से सत्प्रतिपच दोष को मिटाने का उपक्रम किया गया था, उसका उपसंहार किया गया है । न a च व य न से प घ व क f गु
न T i T द न द्वितीयः स्तबकः १७६ न च श्रोत्रगुणः, तेन गृह्यमाणत्वात् । यद् येनेन्द्रियेण गृह्यते नासौ तस्य गुणः । यथा गृह्यमाणो गन्धादिः । श्रोत्रं वा न स्वगुणग्राहकम्, इन्द्रियत्वात् धारण- वदिति न गुणत्वसिद्धिरिति चेत् ? ततः किम् ? । न चैतदपि, घ्राणादिसमवेत- गन्धाद्यग्रहे स्वगुणत्वस्याप्रयोजकत्वात् । प्रयोग्यत्वं हि तत्रोपाधिः । अन्यथा सुखादिर्नात्मगुणः तेन गृह्यमाणत्वात् रूपादिवत् । को ग्रहण करने की क्षमता नहीं है, अतः शब्द को अगर मानेंगे तो श्रोत्रेन्द्रिय से शब्द का ग्रहण संभव नहीं होगा । को ग्रहण करने की क्षमता होती तो चक्षु में रहनेवाले रूप का या रसना में रहने वाले श्रतः शब्द को श्रोत्र रूप से भी शब्द श्राकाश से भिन्न पृथिव्यादि किसी अन्य द्रव्य का गुण नहीं है । फलतः शब्द गुण पदार्थ है ही नहीं । शब्द को कर्म प्रभृति पदार्थ होने की सम्भावना आप ही के द्वारा पहिले निरस्त हो चुकी है, अतः परिशेष से यह निश्चित होता है कि ‘शब्द द्रव्य पदार्थ ही है।’ इससे ये दो अनुमान निष्पन्न होते हैं । ( १ ) शब्द चूंकि श्रोत्र से गृहीत होता है, अतः वह श्रोत्र का गुण नहीं हो सकता । जिसका ग्रहण जिस से होता है, उस ग्राहक में वह गृहीत होने वाला पदार्थ नहीं रहता । जैसे कि प्रत्यक्ष होने वाला कोई भी गन्ध घ्राणेन्द्रिय का गुण नहीं होता । (२) श्रोत्र चूंकि इन्द्रिय है, अतः उससे अपने में रहनेवाले शब्द का ग्रहण नहीं हो सकता । जैसे कि घ्राणादि इन्द्रियों से उनमें रहने वाले गन्धादि गुणों का ग्रहण नहीं होता । श्रोत्रेन्द्रिय रूप आकाश का गुण इन्द्रियों में अगर स्वगत गुणों ग्रहण भी चक्षु से होता । रस का भी ग्रहण रसनेन्द्रिय से होता । किन्तु ऐसा नहीं होता है, आकाश का गुण स्वीकार नहीं किया जा सकता। आपके मत सि० प० ततः किम् 110 पदार्थ इन दोनों अनुमानों के रहने से ही क्या ? अर्थात् ‘शब्द गुण नहीं है’ केवल इतने से ही शब्द को द्रव्य नहीं माना जा सकता । शब्द में द्रव्यत्व की सिद्धि के लिये स्वतन्त्र प्रमाण चाहिये । सो प्रकृत में नहीं है, अतः शब्द को तब तक द्रव्य नहीं स्वीकार किया जा सकता, जब तक उसके लिये स्वतन्त्र प्रमाण उपस्थित न हो । योग्यत्वं हि ‘शब्द गुण पदार्थ नहीं है’ नहीं हैं। क्योंकि दोनों अनुमानों के गुणः तेन गृह्यमाणत्वात्’ इस प्रथम इस को सिद्ध करने वाले ‘कथित दोनों अनुमान भी शुद्ध हेतु में उपाधि’ दोष है । इनमें ( १ ) ‘शब्दो न श्रोत्र अनुमान में ‘अयोग्यत्व’ उपाधि है । घ्राणादि इन्द्रियों में १. इस प्रसङ्ग में पूर्व पक्षी मीमांसक कह सकते हैं कि ‘शब्द भाव पदार्थ है प्रभाव पदार्थ नहीं" हमको सभी सा·ते हैं। यह भी सिद्ध किया जा चुका है ‘शब्द कसं
१८० गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली न वा तेन गृह्यते तत्समवेतत्वात्, अदृष्टवत्, आत्मा वा न तद्ग्राहक: तदाश्रयत्वात्, गन्धाद्याश्रयघटादिवदित्याद्यपि शंकेत, तस्मात् स्वगुणः परगुणो वाsयोग्यो न गृह्यते । गृह्यते तु योग्यो योग्येन । तत्किमत्राऽमुपपन्नम् ? रहनेवाले गन्धादि गुणों का उन इन्द्रियों से प्रत्यक्ष न होने का यह हेतु नहीं है कि वे गन्धादि गुण उन इन्द्रियों में रहते हैं । उनके प्रत्यक्ष न होने का तो यह हेतु है वे गन्धादि प्रत्यक्ष के ‘अयोग्य’ हैं । किन्तु श्रोत्र में रहनेवाले शब्द स्वरूप गुण तो प्रत्यक्ष के योग्य है । अतः श्रोत्र रूप इन्द्रिय में रहने के कारण उसके प्रत्यक्ष में कोई बाधा नहीं है । अगर यह नियम जिसका गुण हो उसके द्वारा उसका ग्रहण नहीं हो सकता या ( २ ) सम्बन्ध से रहे उससे उसका ग्रहण नहीं हो सकता, या ( ३ ) जो मानें कि ( १ ) जो जो जिसमें समवाय जिसका आश्रय हो वह उसका ग्राहक नहीं हो सकता तो फिर ( १ ) सुखादि को आत्मा का क्योंकि सुखादि का ग्रहण श्रात्मा से होता है । अथवा ( २ ) गुण नहीं माना जा सकेगा । यह कहना भी सम्भव होगा कि चूंकि सुखादि आत्मा में समवाय सम्बन्ध से रहते हैं, अतः वे आत्मा से गृहीत नहीं हो सकते । ( ३ ) किं वा यह भी कह सकते हैं कि जिस प्रकार घट में रहने वाले रूप का ग्रहण घट से नहीं होता है, उसी प्रकार श्रात्मा में रहने वाले सुखादि का ग्रहण श्रात्मा से नहीं हो सकता। क्योंकि जो जिसका श्राश्रय हो उसका ग्रहण उससे नहीं हो सकता । कहने का तात्पर्य है कि श्रात्मा में ही रहने वाले सुखादि का ग्रहण आत्मा से होता है, क्योंकि सुखादि प्रत्यक्ष के योग्य हैं । किन्तु श्रात्मा में ही रहनेवाले अदृष्टादि का प्रत्यक्ष किसी से भी नहीं होता है, चूकि वे प्रत्यक्ष के योग्य ही नहीं है । श्रतः यह समझना चाहिए किसी गुण का प्रत्यक्ष किसी साधन से इस लिये नहीं होता कि वह उस साघनीभूत वस्तु का गुण है । एवं इस लिये भी किसी गुण का प्रत्यक्ष किसी साधनसे नहीं होता कि वह उस साघनीभूत वस्तु से भिन्न द्रव्य का गुण है । किन्तु किसी भी विषय के प्रत्यक्ष इस लिये होता है वह विषय स्वयं प्रत्यक्ष के योग्य है । एवं साधन में उस विषय के प्रत्यक्ष के उत्पादन की क्षमता है । घटादि में रहनेवाला रूप प्रत्यक्ष के योग्य है, एवं उस का ग्राहक चक्षु भी उन रूपों के प्रत्यक्ष के उत्पादन की क्षमता से युक्त है, अतः चक्षु से रूप का प्रत्यक्ष प्रभृति पदार्थों में से कोई नहीं है।’ इन दोनों अनुमानों से यह सिद्ध हो चुका है ‘शब्द गुण नहीं है।’ इससे शब्द में द्रव्यश्व की सिद्धि के लिये यह परिशेष नुमान उपस्थित परिशेषानुमान किया जा सकता है कि ‘शब्दो द्रव्यम् भावरखे सति गुणादिष्वनन्तभावात्’ अतः शब्द में द्रव्यश्व के साधक अनुमान का अभाव भी नहीं कहा जा सकता। इसलिये प्राचार्य ने शब्द में गुणश्व को हटाने वाले उक्त दोनों अनुमानों में दोष का उद्भावन किया है ।
द्वितीयः स्तबकः १८१ अवश्यञ्च श्रोत्रेण विशेषगुणग्राहिणा भवितव्यम्, इन्द्रियत्वात् । अन्यथा तन्निर्माण वैयर्थ्यात् । तदन्यस्येन्द्रियान्तरेणैव ग्रहणात् । विशेषरणयोग्यतामाश्रित्यैवेन्द्रियस्य न च द्रव्यविशेषग्रहणे तदुपयोगः द्रव्यग्राहकत्वात्, न द्रव्यस्वरूपयोग्यतामात्रेण । अन्यथा चान्द्रमसं तेजः स्वरूपेण योग्यमिति तदप्युपलभ्येत । आत्मा वा मनोग्राह्य इति सुषुप्त्यवस्थायामप्युपलभ्येत ? अनुभूतरूपेऽपि वा चक्षुः प्रवर्तेत, तस्मात् गुणयोग्यतामेव पुरस्कृत्येन्द्रियाणि द्रव्यमुपाददते, नाऽतोऽन्यथेति स्थितिः । अत एव नाकाशादयश्चाक्षुपाः । होता है । घटादि में रहनेवाला वही रूप प्रत्यक्ष के योग्य होते हुए भी घ्राणेन्द्रिय के द्वारा गृहीत नहीं होता । इसी प्रकार प्रत्यक्ष के उत्पादन में समर्थ होनेपर भी चक्षु से परमाणुओं में रहनेवाले रूप का ग्रहण नहीं होता है । अतः ( शब्द चूंकि श्रोत्र से गृहीत होता है, भ्रतः श्रोत्र का गुण नहीं है ) यह बात नहीं कही जा सकती । श्रवश्यं च श्रोत्रेण … ‘विशेषगुण’ का ग्रहण अवश्य होना कोई न कोई विशेष गुण अवश्य हो घ्राण से गन्ध का प्रत्यक्ष होता है । श्रोत्र चूँकि इन्द्रिय है, अतः उस से किसी चाहिये | क्योंकि जितनी भी इन्द्रियां हैं, उन सबों से गृहीत होता है । जैसे कि चक्षु से ‘रूप’ गृहीत होता है, तदनुसार श्रोत्रेन्द्रिय से जिस विशेष गुण का ग्रहण होगा, वह विशेषगुण शब्द हो हो सकता है, अन्य नहीं । क्योंकि रूपादि दूसरे विशेषगुणों का प्रत्यक्ष तो चक्षु प्रभृति अन्य इन्द्रियों से ही हो जाता है । ऐसी स्थिति में अगर अन्य इन्द्रियों से गृहीत न होनेवाले शब्द स्वरूप विशेषगुण का भी प्रत्यक्ष श्रोत्रेन्द्रिय से न होगा तो श्रोत्रेन्द्रिय का बनना ही व्यर्थ हो जायगा । अतः श्रोत्रेन्द्रिय शब्द स्वरूप विशेष गुण का ही ग्राहक है । सुतराम् शब्द गुण ही है द्रव्य नहीं । सि० प० न च द्रव्यविशेषग्रहरणे जिस द्रव्य में विशेषगुण’ रहता है, उसी द्रव्य का प्रत्यक्ष होता है। अतएव विशेषगुण से युक्त पृथिवी, जल, तेज, और वायु का प्रत्यक्ष होता है । एवं विशेषगुण से रहित काल मीर दिक् का प्रत्यक्ष नहीं होता है । इस लिये यह श्रावश्यक है कि जिस इन्द्रिय से जिस द्रव्य का ग्रहण हो, उसी इन्द्रिय से उस द्रव्य में रहनेवाले विशेषगुण का भी ग्रहण हो । चक्षु, त्वचा और मन इन्हीं तीन इन्द्रियों से द्रव्य का ग्रहण होता है । इन में चक्षु के द्वारा रूप से युक्त द्रव्यों का ग्रहण होता है । त्वगिन्द्रिय के द्वारा रूप से युक्त द्रव्यों से भिन्न किन्तु स्पर्श से युक्त द्रव्य का ग्रहण होता है । अर्थात् त्वगिन्द्रिय से रूप से रहित किन्तु स्पर्शवाले द्रव्यों का ग्रहण होता हैं । मन से आत्मा का प्रत्यक्ष होता है । इस से यह निष्कर्ष निकला कि जिस द्रव्य में जिस विशेषगुण का जिस इन्द्रिय से ग्रहण होता है, उस विशेष गुण से युक्त बहु ब्रव्य भी उसी इन्द्रिय से गृहीत होता CCO. Vasishtha Tripathi Collection. Digitized by eGangotri१८२ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली अस्तु तहि शब्दो नित्यः, नित्याकाशेकगुणत्वात् तद्गतपरममहत्परि मारणवदिति प्रत्यनुमानमिति चेन्न । है । फलतः ‘विशेषण’ का अर्थात् द्रव्य के ‘विशेषगुण’ रूप विशेषण का प्रत्यक्ष के योग्य होना ‘विशेष्य’ अर्थात् उस विशेषण के विशेष्य द्रव्य के प्रत्यक्ष के लिये आवश्यक है । इस वस्तुगतिके कारण ही जिस द्रव्य में रहनेवाले विशेषगुण का जिस इन्द्रिय से ग्रहण नहीं होता है, उस इन्द्रिय से उस विशेषगुण के प्राश्रयीभूत द्रव्य का भी प्रत्यक्ष नहीं होता है । जैसे कि (१) जाग्रत अवस्था क्योंकि उस समय आत्मा में ज्ञान रूप उस में आत्मा का ग्रहण होता हैं, विशेषगुण की सत्ता ग्रहण हो सकता है । रहती है जिसका ग्रहण मन से होता है, अत: उसका मन रूप इन्द्रिय से किन्तु सुषुप्ति की अवस्था में उसी आत्मा का प्रत्यक्ष नहीं होता, क्योंकि उस समय ज्ञान रूप विशेष गुण की सत्ता नहीं रहती है । ( २ ) आकाश का प्रत्यक्ष चक्षु से नहीं होता है, क्योंकि चक्षु से गृहीत होनेवाला विशेषगुण ‘रूप’ उसमें नहीं है । ( ३ ) अथवा उस रूप से युक्त द्रव्य का भी ग्रहण चक्षु से नहीं होता है, जो रूप उद्भूत नहीं है। अगर ऐसा न हो ( अर्थात् विशेषण के अयोग्य होने पर भी द्रव्य स्वरूप विशेष्य का ग्रहण हो, तो फिर चन्द्रमा का तेज रूप द्रव्य स्वयं तो प्रत्यक्ष के योग्य है हो, अतः उसका भी ( उष्णस्पर्शवत्वेन ) प्रत्यक्ष होना चाहिये । अतः मानना होगा कि गुण में होने की योग्यता भाती है । शब्द को द्रव्य मान भी उसमें किसी दूसरे गुण की सत्ता माननी होगी । ऐसा कोई गुण उपलब्ध नहीं है, अतः यही मानिये कि शब्द स्वयं ही गुण स्वरूप है, उसमें कोई भी गुण नहीं है । इस लिये शब्द द्रव्य नहीं है । तस्मात् शब्द में अनित्यत्व का मेरा अनुमान ‘शब्दो नित्यः अद्रव्यद्रव्यत्वात् ’ इस प्रतिपक्षी अनुमान से बाधित नहीं हो सकता । ’ । पू० प० अस्तु तर्हि शब्दो नित्यः …… प्रत्यक्ष की योग्यता से द्रव्य में प्रत्यक्ष लेंगे, तथापि उसके प्रत्यक्ष के लिये ( ‘शब्दोऽनित्यः उत्पत्तिधर्मकत्वात् घटवत्’ यह अनुमान ‘शब्दो नित्यः श्रद्रव्यद्रव्यत्वात्’ इस विरोधी अनुमान से सत्प्रतिपक्षित भले ही न हो किन्तु ) ‘शब्दो नित्यः नित्यैकाशगुणत्वात् ’ इस विरोधी अनुमान से तो सत्प्रतिपक्षित हो सकता है । ( इस प्रत्यनुमान का स्वारस्य है कि ) शब्द चूं कि आकाश रूप नित्य द्रव्य का ही गुण है, श्रतः शब्द भी नित्य ही होगा, क्योंकि
- इस प्रसङ्ग में मीर्मासक कह सकते हैं कि शब्द की द्रव्य मान लेने पर भी श्रोत्रेन्द्रिय की सार्थकता हो सकती है । अर्थात् उसके निर्माण के वैरथ्यं को हटाया जा सकता है । शब्द रूप द्रव्य के ग्रहण से भी श्रोत्रेन्द्रिय का निर्माण सफल हो सकता है । इसके लिये शब्द को गुण या विशेषगुण मानने की आवश्यकता नहीं है । मीमांसकों के इसी अभिप्राय का खण्डन ‘न च द्रव्यविशेषग्रहणे’ यहाँ से लेकर ‘नाकाशाद- यश्चाषाः’ इतने पर्यन्त के सन्दर्भ से किया गय है ।
F द्वितीयः स्तवकः १८३ अकार्यत्वस्यापोधेविद्यमानत्वत् । अन्यथा आत्मविशेषगुणा नित्याः, तदेकगुरण- त्वात्, तद्गतपरममहत्त्ववदित्यपि स्यात् । अस्य प्रत्यक्षबाधितत्वादहेतुत्वमिति चेन्न । निरुपाधेर्ब्राधानवकाशात् । उसका आश्रय आकाश नित्य है । जैसे कि नित्य श्राकाश का परममहत्परिमाण भी नित्य ही होता है । शब्द भी नित्य आकाश का ही गुण है, अतः वह भी नित्य है । अकार्यत्वस्य…. इत्यपि स्यात् आकाशमें रहनेवाला परममहत्परिमाण इस लिये नित्य नहीं है कि वह उस आकाश का ही गुण है जो ‘नित्य’ है । उक्त परममहत्परिमाण तो इस लिये नित्य है कि वह किसी से उत्पन्न नहीं होता है । अर्थात् वह कार्य नहीं है । अगर ऐसा मान लें कि जो केवल नित्यद्रव्य का हो गुण हो वह भी नित्य ही हो तो फिर आत्मा के ज्ञान प्रभृति विशेष गुणों को भी नित्य मानना होगा । अतः केवल नित्यद्रव्य का ही गुण होना किसी गुण के नित्यत्व का प्रयोजक नहीं है । इसलिये शब्द चूंकि ‘कार्य’ रूप गुण है, अत: ज्ञानादि की तरह केवल नित्यद्रव्य का गुण होते हुये भी अनित्य ही हैं । सुतराम् नित्याकाशगुणत्व हेतुक अनुमान में ‘अकार्यत्व’ को उपावि कहा गया है । चूकि उक्त प्रत्यनुमान ‘प्रकार्यत्व’ रूप उपाधि दोष से युक्त है, अत: दुर्बल होने के कारण शब्द में अनित्यत्वानुमान के उत्पत्तिधर्मकत्व हेतु को सत्प्रतिपक्षित नहीं कर सकता । पू० प० अस्य प्रत्यक्षबाधितत्वात् " सिद्ध है, अतः ज्ञानादि अगर अनुमान करेंगे तो किया जा सकता कि “अगर तो फिर आत्मा में रहनेवाले ज्ञानादि नित्यत्व चूकि प्रत्यक्ष से बाधित है, आत्मा के ज्ञानादि विशेष गुणों का विनाश चूँ कि प्रत्यक्ष से की अनित्यता भी प्रत्यक्ष सिद्ध है । अतः ज्ञानादि में नित्यत्व का वह प्रत्यक्ष से वाषित होगा । किन्तु शब्द में नित्यैकाशगुणत्व हेतु से नित्यत्वानुमान के प्रसङ्ग में यह प्रतिकूल तर्क उपस्थित नहीं केवल नित्यद्रव्य में ही रहनेवाले गुण भी नित्य ही हों गुणों को भी नित्य माना जाय’ । अर्थात् ज्ञानादि में अतः केवल नित्य द्रव्य में रहते हुये उनको नित्य नहीं माना जा सकता । शब्द में नित्यत्व तो प्रत्यक्ष से बाधित नहीं है, अतः नित्याकाशगुणत्व हेतु से उसमें नित्यत्व के अनुमान में कोई बाधा नहीं है । सि० प० निरुपाधेः .. 104 … पहिले यह जानना चाहिये कि शब्द में नित्यत्व साधन के लिये जिस ‘नित्यद्रव्यमात्र- वृत्तित्व’ को उपस्थित किया है, वह ‘निरुपाधि’ है ? या नहीं ? ( अर्थात् उसमें नित्यत्व रूप साध्य की व्याप्ति है ? अथवा नहीं ) अगर उक्त हेतु में नित्यत्व की व्याप्ति है ? तो फिर ज्ञानादि गुणों में नित्यत्व बाधित ही नहीं हो सकता । पक्ष में रहनेवाले जिस हेतु में साध्य की
१८४ गद्यपद्यात्मक-न्यायेकुसुमाञ्जली स्वभावप्रतिबद्धस्य च तत्परित्यागे स्वभाव परित्यागप्रसंगात् । तस्मात् बाधेन वोपाधिरुन्नीयते, अन्यथा वेति न कश्चिद्विशेषः । एतेन श्रावणत्वात् शब्दत्ववदित्यपि परास्तम्, अत्रापि तस्यैवोपाधित्वात् । अन्यथा, गन्धरूपरसस्पर्शा अपि नित्या: प्रसज्येरन् । व्याप्ति रहेगी, उस हेतु के द्वारा ज्ञाप्य का बाघ पक्ष में हो ही नहीं सकता । ( ‘निरुपाधि’ शब्द का अर्थ है व्याप्ति ) । ‘स्वभावप्रतिबद्धस्य’’ … न कश्चिद्विशेषः किसी भी वस्तु के असाधारण धर्म को उसका ‘स्वभाव’ कहा जाता है । जैसे कि घूम के ज्ञान से ज्ञात होना वह्नि का स्वभाव है । कोई भी वस्तु अपने ‘स्वभाव’ को छोड़कर नहीं रह सकती । जिस धर्म को छोड़ कर जो वस्तु रह सकती है, वह उस वस्तु का स्वभाव नहीं हो सकता । तदनुसार नित्यद्रव्यवृत्तित्व के ज्ञान से ज्ञात होना गुणों के नित्यत्व का स्वभाव है । अगर यह नित्यत्व अपने उक्त स्वभाव को छोड़ कर भी रहे तो वह अपने स्वभाव को छोड़ कर भी रह सकता है । किन्तु यह सम्भव नहीं है । ऐसी स्थिति में यह कहा जा सकता है कि चूंकि ज्ञान केवल नित्यद्रव्य में ही रहता है, अतः अवश्य ही नित्य है । किन्तु यह कहना संभव नहीं है, अतः यही मानना पड़ेगा कि ‘जो केवल नित्य द्रव्य में रहे, वह नित्य ही हो’ ऐसा नियम स्वीकार नहीं किया जा सकता । अतः शब्द में नित्यत्व साधन के लिये जिस ‘नित्यद्रव्यमात्रवृत्तित्व’ धर्म का उल्लेख किया गया है वह ‘औपधिक’ है, स्वाभाविक नहीं । वह उपाधि ज्ञानादि में अनुमित होनेवाले नित्यत्व के बाघ से हो या ओर ही किसी से हो इससे कोई अन्तर नहीं आता । अनुमान को दूषित करने के लिये जिस किसी भो प्रकार से उपाधि का रहना ही यथेष्ट है । पू० प० एतेन शब्दत्व जाति का ग्रहण श्रवणेन्द्रिय से होता है । शब्दत्व जाति नित्य है । शब्द भी श्रवणेन्द्रिय से ही गृहीत होता है अतः शब्द भी नित्य ही है । ‘शब्दो नित्यः श्रावणत्वात् ’ इस विरोधी अनुमान से नैयायिकों का ‘शब्दोऽनित्यः उत्पत्तिधर्मकत्वात्’ यह अनुमान सत्प्रतिपक्षित हो सकता है । सि० प० अत्रापि … मीमांसकों के इस प्रत्यनुमान में भी कथित ‘अकार्यत्व’ रूप उपाधि है ही । श्रर्थात् शब्दत्व जाति इसलिये नित्य नहीं है कि वह श्रवणेन्द्रिय से गृहीत होता है । वह तो इसलिये १. जहाँ कहीं भी नित्यत्व है उन सभी आश्रयों में अकार्यस्व भी है, अतः श्रकार्यश्व में नित्यत्व रूप साध्य की व्यापकता है । निस्यैकाशगुणत्व रूप हेतु शब्द में हैं, अथ च उसमें अकार्यश्व नहीं है । अतः अकार्यस्व साधन का अध्यापक भी है । सुतराम् प्रकृत अनुमान में ‘कार्यत्व’ उपाधि है । व नि अ ग य सु से अ 13 the हो भ व्य ध रि हे the iss में में द द ये अ จ
द्वितीयः स्तबकः १८५ घ्राणाद्येकै केन्द्रियग्राह्यत्वात्, गन्धत्वादिवदित्यपि प्रयोगसौकर्यात् । विरोघव्यभिचारा- वसम्भावितावेवात्रेत्य सिद्धिरवशिष्यते । नित्य है कि वह उत्पत्तिशील वस्तु नहीं है, अर्थात् किसी भी कारण से उत्पन्न नहीं होता है । अगर ऐसी बात न हो तो फिर गन्ध, रूप, रस स्पर्श प्रभृति को भी नित्य मानना होगा, क्योंकि गन्धत्वादि जातियाँ भी नित्य हैं, एवं घ्राणादि तत्तद् इन्द्रियों से ही गृहीत होती हैं । अतः यह कहा जा सकता है कि घ्राणादि इन्द्रियों से गृहीत होनेवाले गन्धादि भी नित्य ही हैं । सुतराम् जिस प्रकार जातियाँ कार्य होने से ही नित्य हैं, केवल एक इन्द्रिय से गृहीत होने से नित्य नहीं हैं । एवं गन्धादि गुण एक मात्र इन्द्रिय से गृहीत होने पर भी ‘कार्य’ होने से अनित्य हैं । उसी प्रकार शब्दत्व जाति श्रवण रूप एक ही इन्द्रिय से गृहीत होने पर भी अकार्य होने से नित्य है, किन्तु शब्द चूकि कार्य है, अतः श्रवण रूप एक ही इन्द्रिय से ग्राह्य होने पर भी ‘अनित्य’ ही है । तस्मात् यह श्रावणत्व हेतु भी अकार्यत्व रूप उपाधि से युक्त होने के कारण व्याप्ति से रहित है । अत एव दुर्बल होने के कारण शब्द में अनित्यत्व के साधक उत्पत्ति- धर्मकत्व हेतु को सत्प्रतिपक्षित नहीं कर सकता । सि० प० विरोधव्यभिचाराव संभावितो ’ जिस साध्य के हेतु में (साध्य के बदले ) साध्य के अभाव की ही व्याप्ति रहती है, वहाँ हेतु ‘विरुद्ध’ हेत्वाभास होता है । प्रकृत उत्पत्तिधर्मकत्व हेतु साध्य के नित्यत्व रूप अभाव के साथ कहीं भी नहीं है । श्रतः प्रकृत में ‘विरोध’ दोष नहीं है । जिस अधिकरण में साध्य नहीं रहता है, उस अधिकरण में हेतु के रहने से व्यभिचार दोष होता है । प्रकृत में अनित्यत्व साध्य आकाशादि रूप अधिकरणों में नहीं है, उन अधिकरणों में कहीं उत्पत्तिधर्मकत्व रूप हेतु भी नहीं है । अतः प्रकृत अनुमान में विरोध और व्यभिचार इन दोनों दोषों की संभावना ही नहीं है । इत्यसिद्धिरवशिष्यते अतः केवल ‘असिद्धि’ दोष की संभावना का उपपादन और उसका निराकरण ये ही दोनों अवशिष्ट रह गये हैं । क्योंकि व्यभिचार, विरोध, सत्प्रतिपक्ष, असिद्धि, और बाघ ये पाँच ही हेत्वाभास हैं । जिनमें व्यभिचारादि चार हेत्वाभासों की संभावनाओं का निराकरण हो गया है । अतः केवल असिद्धि की संभावना ही रह गयी है, जिसका निराकरण अवशिष्ट है । १. ‘शब्दोऽनित्यः सम्पत्तिधर्मकत्वात्’ इस अनुमान में ‘नापि सम्प्रतिपक्षश्वम्’ यहाँ से लेकर ‘इत्यपि प्रयोगसौकर्यात्’ इतने पर्यन्त के सन्दर्भ से सत्प्रतिपक्ष के सभी संभावनाओं का निराकरण किया गया है । ‘विरोधव्यभिचारौ’ इस सन्दर्भ से उक्त अनुमान में विरोध और व्यभिचार इन दो दोषों की संभावनाओं का निराकरण किया गया है । २४
१८६ गद्यपद्यात्मकन्यायकुसुमाञ्जली सापि नास्ति । तथा हि-शब्दस्तावत् पूर्वन्यायेन स्वाभाविक तीव्रमन्दतरतमादि- भावेन प्रकर्षनिकर्षवानुपलभ्यते । इयञ्च प्रकर्षनिकर्षवत्ता कारणभेदानुविधायिनी सर्वत्रोपलब्धा । अकारणका हि नित्याः प्रकर्षवन्त एव भवन्ति, यथाऽऽकाशादयः । निकृष्टा एव वा, यथा परमाण्वादयः । न तु किञ्चिदतिशयानाः कुतश्चिदपकृष्यन्ते । तदियं नित्येभ्यो व्यावत्तंमाना कारणवत्सु च भवन्ती जायमानतामादायैव विश्राम्यतीति प्रतिबन्ध सिद्धौ प्रयुज्यते, शब्दो जायते, प्रकर्षनिकर्षाभ्यामुपेतत्वात्, माधुर्यादिवत् । अन्यथा नियामकमन्तरेण भवन्ती नित्येष्वपि सा स्यात्, नियमहेतोरभावात् । ( प्रसिद्धि दोष का उद्धार कर देने पर उक्त अनुमान के द्वारा शब्द में अनित्यत्व के साघन में कोई बाधा नहीं रह जायगी । स्वरूपासिद्धि, आश्रयासिद्धि और व्याप्यत्वासिद्धि असिद्धि के ये तीन भेद हैं । इन में आदि की दो असिद्धियों की संभावना पूर्वपक्षो भी नहीं मानते । अतः केवल व्याप्यत्वासिद्धि की संभावना रह जाती है । अतः कथित सन्दर्भ के ‘सा’ शब्द से वही अभिप्रेत है । ‘व्याप्यत्व’ फलतः ‘व्याप्ति’ ही है । श्रतः व्याप्ति की असिद्धि ही व्याप्यत्वासिद्धि है | अनौपाधिकत्व हो, अर्थात् उपाधि का न रहना ही व्याप्ति का रहना है । फलतः उपाधि को ही व्याप्यत्वासिद्धि कहा जाता है । प्रकृत अनुमान का उत्पत्तिधर्मकत्व हेतु शब्द रूप पक्ष में तो है, किन्तु इस में कोई प्रमाण नहीं है कि ‘उस हेतु में अनित्यत्व को व्याप्ति भी है’ । अर्थात् ‘शब्द चूँ कि उत्पत्तिशील है, अतः अवश्य ही अनित्य भी है’ इस नियम को मानने में कोई प्रबल युक्ति नहीं है । अतः अनित्यत्व रूप साध्य की व्याप्ति से रहित उत्पत्तिधर्मकत्व हेतु से शब्द को अनित्य नहीं माना जा सकता ) । सि० प० सापि नास्ति तथा हि.. प्रकृत अनुमान में कथित व्याप्यात्वासिद्धि दोष भी नहीं है, क्योंकि पहिले कह आये हैं कि तीव्रत्व और मन्दत्व शब्द के स्वाभाविक धर्म हैं । इस से यह समझना सरल है कि शब्द ‘प्रकर्षनिकर्ष’ से युक्त है । अर्थात् शब्दों में कोई न्यून है और कोई अधिक । शब्द का यह आधिक्य रूप ‘प्रकर्ष’ और न्यूनता रूप ‘निकर्ष’ को धानत्य माने बिना उपपन्न नहीं हो सकता । विना कारण के जितने भी (नित्य) पदार्थ हैं, वे या तो ‘प्रकृष्ट’ ही होंगे जैसे कि आकाशादि, या फिर ‘निकृष्ट’ ही होंगे जैसे कि परमाणु । जैसे कि माधुर्यादि जितने भी पदार्थ कारणों से उत्पन्न है, उन में ही उक्त प्रकर्ष और अपकर्ष ये दोनों देखे जाते हैं । अतः यह समझना चाहिये कि उसी एक मात्र में कथित प्रकर्ष और निकर्ष दोनों की सत्ता रह सकती है, जो मात्रय स उ ‘f क न 5 to 15 15 क श स f स ६
Tint ཟུ , से ये य द्वितीयः स्तवकः १८७] शब्दादन्यत्रेयं गतिरिति चेन्न; साध्यधर्मिणं विहायेति प्रत्यवस्थानस्य चेद्व्यञ्जकतारतम्याद्यञ्जनीयतारतम्यम्, सर्वानुमान सुलभत्वात् । न उत्पत्तिशील हो, अर्थात् किसी कारण से उत्पन्न हो । सुतराम यह नियम उपपन्न होता है कि ‘जितने भी उत्पत्तिशील पदार्थ हैं, वे सभी प्रकर्ष और निकर्ष से युक्त हैं’ एवं ‘जितने भी कारणों से उत्पन्न होनेवाले पदार्थ हैं वे सभी अनित्य है’ शब्द चूंकि प्रकर्ष और निष्कर्ष से युक्त हैं, अतः वे उत्पत्तिशील हैं । एवं जिस लिये कि शब्द उत्पत्तिशील है, अतः वह अनित्य हैं । इस प्रकार उत्पत्तिमत्त्व हेतु में अनित्यत्व रूप साव्य की व्याप्ति के रहने में कोई बाधा नहीं है । आकाशादि पदार्थों में प्रकर्ष और निकर्ष इन दोनों के एक साथ रहने में किसी को नियामक मानना पड़ेगा । प्रकर्षनिकर्षवत्ता का यह नियामक ‘सकारणकत्व’ या उत्पत्ति- शीलत्व ही है । अतः नित्य पदार्थों में प्रकर्षनिकर्षवत्ता की आपत्ति नहीं होती है । इसलिये शब्द में अनित्यत्व के अनुमान में व्याप्यत्वासिद्धि रूप दोष नहीं है । पू० प० शब्दादन्यत्रेयम् .. माधुर्यं प्रभृति में जो प्रकर्ष और निकर्ष दोनों ही हैं, उसका प्रयोजक उनके उत्पत्ति- शीलत्व को मानते हैं, किन्तु शब्द में जो प्रकर्ष और निकर्ष दोनों की सत्ता है, उसका कारण शब्द की उत्पत्तिशीलता को स्वीकार नहीं करते। अतः शब्द में अनित्यत्व के साधक उत्पत्तिमत्त्व हेतु में कथित व्याप्यत्वासिद्धि दोष है ही । सि० प० न, साध्यर्धामरणं विहाय ……..सर्वानुमान सुलभत्वात् । इस प्रकार तो सभी अनुमानों के हेतुओं को व्याप्यत्वासिद्धि के दोष से युक्त कहा जा सकता है, क्योंकि ‘पर्वतो वह्निमान् धूमात्’ इत्यादि स्थलों में भी कहा जा सकता है कि महानसादि जिन सभी स्थलों में घूम है, उन सभी स्थानों में वह्नि की सत्ता अवश्य मानते हैं । किन्तु पर्वत में ऐसा नहीं मानते । साध्य के धर्मी अर्थात् पक्ष में घूम के रहते हुए भी वह्नि की सत्ता नहीं मानेंगे। इस प्रकार पर्वत में ही घूम में रहने वाली वह्नि की व्याप्ति भङ्ग हो जायगी । इस प्रकार की व्याप्यत्वासिद्धि चूंकि सभी अनुमानों में हो सकती है, अतः यह ‘स्वव्याघातक’ होने से दोष नहीं है । पू० प० न चेत्… शब्द को नित्य मान लेने पर भी उस में प्रकर्षनिकर्षवत्ता की उपपत्ति हो सकती है । जिनको आप शब्द का उत्पादक कारण मानते हैं, वे वास्तव में शब्द को केवल अभिव्यक्त करते हैं, अतः वे शब्द के अभिव्यञ्जक हैं । उन अभिव्यञ्जकों के द्वारा पहिले से विद्यमान शब्द ही अभिव्यक्त होता है । सुतराम् यह कहा जा सकता है कि अभिव्यञ्जक के तारतम्य से ही अभिव्यक्त होनेवाले, अर्थात् अभिव्यङ्गय शब्द में भी तारतम्य मालुम होता है । भ्रतः प्रकर्षनिकर्षवत्ता से
१८८ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जलौ अस्वाभाविकत्वप्रसंगात् । व्यवस्थितञ्च स्वाभाविकत्वम् । न च व्यञ्जकोत्पादकाभ्या- मन्यस्यानुविधानमस्ति । न च स्वाभाविकत्वोपाधिकत्वाभ्यामन्यः प्रकारः सम्भवति । स्यादेतत् । तथाप्युत्पत्तनित्यत्वेन को विरोध: ? येन प्रतिबन्धसिद्धिः स्यात् । प्रसिद्धे च तस्मिन् भवतां व्यापकत्वासिद्धोऽस्माकमप्रयोजकः सौगतानां सन्दिग्ध- विपक्षवृत्तिरयमुपक्रान्तो हेतुरिति चेन्न । शब्द में जिस सकारणकत्व का अनुमान आप लोग करते हैं, उसका पर्यवसान शब्द के मनित्यत्व में नहीं हो सकता। इसलिये कथित उत्पत्तिमत्त्व हेतु में अनित्यत्व की व्याप्ति की ‘असिद्धि’ है ही । सि० प० अस्वाभाविकत्व प्रसङात् .. … …अन्यः प्रकारः सम्भवति यह पहिले उपपादित हो चुका है कि शब्दों में प्रतीत होने वाले तीव्रत्व और मन्दत्व धर्म उसके स्वाभाविक धर्म ही हैं, औपाधिक धर्म नहीं । अगर शब्द की अभिव्यक्ति के कारणों में रहनेवाले तीव्रत्व और मन्दत्व की ही अभिव्यक्ति शब्दों में मानेंगे तो कथित तीव्रत्व और मन्दत्व धर्म शब्द के स्वाभाविक धर्म नहीं हो सकेंगे । शब्दों में प्रतीत होनेवाले ये दोनों धर्म या तो उसके कारणों के तीव्रत्व और मन्दत्व से हो सकते हैं, या फिर उसके अभिव्यंजकों के तीव्रत्व और मन्दत्व से प्रतीत हो सकते हैं । पहिली स्थिति में तीव्रत्वादि शब्द के स्वाभाविक धर्म होंगे, और दूसरी स्थिति में वे औपाधिक धर्म होंगे। यह निश्चित हो चुका है कि शब्दों में प्रतीत होने वाले तीव्रत्वादि धर्म शब्द के स्वाभाविक ही धर्म हैं, श्रोपाधिक नहीं। इस से यह सिद्ध हो जाता है कि शब्दों में चूं कि तीव्रत्व और भन्दत्व रूप उसके स्वाभाविक धर्म हैं, अतः उनके प्रयोजक तीव्रत्व और मन्दत्व से युक्त कारणों से ही शब्द की उत्पत्ति होती है । सुतराम् शब्द में प्रतीत होनेवाले तीव्रत्व-मन्दत्व या प्रकर्ष-निकर्षवत्त्व से शब्द में जिस कारणजन्यत्व की सिद्धि होती है, उस को अन्यथा नहीं किया जा सकता । पू० प० स्यादेततु.. ‘‘तथाप्युत्पत्तेः’’ … …. चूं कि उत्पत्तिमत्त्व और अनित्यत्व इन दोनों में कोई विरोध नहीं है, प्रतः शब्द को नित्य मानते हुए भी उसको उत्पत्तिथोल स्वीकार किया जा सकता है । इस में कोई बाधा नहीं है । अतः यह स्वीकार करने में कोई युक्ति नहीं है कि ‘शब्द चूं कि उत्पत्तिशील है, अतः अनित्य है’ । इस वस्तुस्थिति के अनुसार कथित उत्पत्तिमत्व रूप हेतु में अनित्यत्त्व रूप साध्य की व्याप्ति नहीं है। अतः ‘शब्दोऽनित्यः उत्पत्तिधर्मकत्वात्’ इस अनुमान में आप ( नैयायिकों ) के मत से ‘व्यापकत्वासिद्धि’ है ( अर्थात् व्याप्यत्वासिद्धि दोष है । चूंकि अनित्यत्व रूप साध्य में उत्पत्तिमत्त्व रूप हेतु की व्यापकता सिद्ध नहीं है, अतः उत्पत्तिमत्त्व रूप हेतु में अनित्यत्व रूप साध्य का व्याप्यत्व भी प्रसिद्ध है ) । एवं हम ( मीमांसक ) लोगों fi 10
द्वितीयः स्तवक्रः १८६ इदं ह्युत्पत्तिमत्त्वं विनाशकारणसन्निधिविरुद्धेभ्यो नित्येभ्यः स्वव्यापक- निवृत्तौ निवर्त्तमानं विनाशक सन्निधिमति विनाशिनि विश्राम्यतोति । विनाशकारणे- नाऽवश्यं जायमानस्य भवितव्यमिति कुतो निर्णीतमिति चेन्न । तदसन्निधानं हि के मत से उक्त वस्तुस्थिति के अनुसार ही प्रकृत अनुमान का हेतु ‘अप्रयोजक’ है । क्योंकि उसमें साध्य को सिद्ध करनेवाले ‘प्रयोजक’ अर्थात् सहायक ‘विपक्षव्यावृत्तत्व’ धर्म नहीं है | क्योंकि जो हेतु साध्य का व्याप्य नहीं होगा, वह अवश्य ही साध्य का व्यभिचारी होगा । व्यभिचारी हेतु को विपक्ष में रहना अनिवार्य है । अतः उक्त हेतु साध्य की अनुमिति का प्रयोजक नहीं हो सकता । एवं बौद्धों के मत से शब्द में अनित्यत्व का साधक यह उत्पत्तिमत्स्व हेतु ‘सन्दिग्धविपक्षवृत्ति’ नाम का हेत्वाभास होगा । सि० प० इदं हि उत्पत्तिमत्त्वम्” विरुद्ध है । जिन सभी पदार्थों की । उत्पत्ति के कारणों के एकत्र होने से वस्तुओं की उत्पत्ति होती है और विनाश के कारणों के सम्मिलित होने पर वस्तुनों का विनाश होता है । आकाशादि नित्य पदार्थों के विनाश का कोई कारण ही नहीं है, अतः श्राकाशादि में कभी भी विनाश के कारणों का संमिलन या संनिधान नहीं होता अतः विनाश- कारणों की संनिधि श्राकाशादि पदार्थों के उत्पत्ति होती है, उन के साथ विनाश के कारणों की यह संनिधि या संनिधान अवश्य रहता है । इस प्रकार विनाश के कारणों का संनिधान उत्पत्तिमत्त्व का व्यापक धर्म है । आकाशादि नित्य पदार्थ चूँकि विनाशकारणों के संनिधान के विरोधी हैं, अतः उनमें विनाशकारणों के संनिधान का व्यापक उत्पत्तिमत्त्व भी नहीं रह सकता । फलतः ‘व्यापकाभाव से व्याप्याभाव की सिद्धि’ के अनुसार यह उत्पत्तिमत्व अनित्य पदार्थों में व्यवस्थित हो जाता है । इसलिये शब्द चूंकि उत्पत्तिशील है, अतः अवश्य ही अनित्य है । पू० प० विनाशकारणेन… … ‘उत्पत्तिशील जितने भी पदार्थ हैं, उन सभी पदार्थों में अवश्य ही विनाशकारणों का सामीप्य रहे’ यह किस हेतु से निर्णय करते हैं ? सि० प० न, तदसंनिधानं हि .. जिस प्रकार आकाशादि नित्य पदार्थों में विनाश का असंनिधान ‘स्वभावविरोध’ के कारण होता है, उसी प्रकार उत्पत्तिशील पदार्थों के साथ विनाश के कारणों का ‘असंनिधान’ स्वभावविरोध से नहीं हो सकता, क्योंकि उत्पत्ति एवं विनाश दोनों की प्रतीति एक ही घट में देखी जाती है । ( अतः उत्पत्तिमत्व एवं विनाशित्व या विनाशकारणों का संनिधान ये
१६० गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जलौ न तावदाकाशादेरिव, स्वभावविरोधात् उत्पत्तिविनाशयोः संसर्गदर्शनात् । श्रविरुद्धयोरसन्निधिस्तु देशविप्रकर्षात्, हिमवद्विन्ध्ययोरिव स्यात् । देशयोरपि विप्रकर्षो विरोधाद्वा हेत्वभावाद्वा । पूर्वोक्तादेव न प्रथमः; द्वितीयस्तु पटकुङ्क ुमयोरिव स्यात् । यदि कुक मसमागमादर्वागिव प्रध्वंसकसंसर्गादर्वागेव पटो विनश्येत् । यथा हि विनाशकारणं विना न विनाशः, तथा यदि कुङ्क समागमं विना न विनाशः पटस्येति स्यात्, कस्तयोः संसगं वारयेत् ? तस्मादविरुद्धयोरसंसर्गः काल- विप्रकर्षनियमेन व्याप्तः स चातो निवर्तमानः स्वव्याप्यमुपादाय निवर्तत इति प्रतिबन्धसिद्धिः । दोनों स्वभावतः विरुद्ध नहीं हैं ) । अविरुद्ध दो वस्तुओं की असंनिधि या तो ‘देशविप्रकर्ष’ अर्थात् दोनों के विभिन्न दो दूर देशों में रहने के कारण हो सकता है ? जैसे कि हिमालय पर्वत एवं विन्ध्याचल पर्वत इन दोनों में असंनिधान है। इन दोनों देशों में परस्पर विप्रकृष्टता अथवा दूरत्व भी दोनों देशों के विरोध से हो सकती है ? अथवा दोनों देशों के सान्निध्य के कारणों के प्रभाव से ही हो सकती है । इन में पहिला पक्ष तो इस लिये असंगत है कि ‘उत्पत्तिमत्व एवं नित्यत्व की परस्पर असंनिधि स्वभावविरोध के कारण ही होती है’ यह पहिले कहा जा चुका है । कारणों के प्रभाव से देशों की वह विप्रकृष्टता पट और कंकुम की विप्रकृष्टता की तरह होगी । यह तभी संभव हो सकता है कि यदि किसी पटव्यक्ति और कुकुम इन दोनों में प्रसामानाधिकरण्य की तरह किसी उत्पत्तिशील वस्तु के साथ विनाशकारणों का भी असमानाधिकरण्य देखा जाता । किन्तु ऐसा संभव नहीं है । ( यदि ऐसा संभव हो तो फिर ) जिस प्रकार यह कहना संभव है कि विनाश के कारण जबतक एकत्र न हों तब तक विनाश नहीं हो सकता, उसी प्रकार यह कहना भी संभव होगा कि कुद्धम के संनिधान के कारणों के विना पट का विनाश संभव नहीं है । किन्तु ऐसा कहना असंभव है, अतः उत्पत्तिमत्व एवं अनित्यत्व इन दोनों के व्याप्ति रूप सम्बन्ध का निषेध कौन कर सकता है ? ’ तस्मात् ’ यह अव्यभिचरित नियम है कि अविरुद्ध दो वस्तु परस्पर असम्बद्ध तभी होते हैं जब कि दोनों (हिम और विन्ध्य की तरह ) परस्पर दूर के दो देशों में विद्यमान हों, अतः श्रविरुद्ध दो पदार्थों’ का ‘असम्बन्ध’ कथित ( कालविप्रकर्ष ) के साथ ‘व्याप्ति’ स्वरूप सम्बन्ध से युक्त है । इसलिये व्यापकीभूत वह ‘कालविप्रकर्ष’ जब उत्पत्तिकारणों से निवृत्त होगा, तो अपने साथ अपने व्याप्य ‘असंसर्ग’ को भी निवृत्त करता जायगा । अतः शब्द में अनित्यत्व के साधक उत्पत्तिधर्मकत्व हेतु में अनित्यत्व की व्याप्ति अनुपपन्न नहीं है ।
- द्वितीयः स्तबकः
- १९१
- स्यादेतत् । यद्येवमस्थिरः शब्दः कथमर्थेन संगतिरस्योपलभ्यत इति चेत् ? यथैवाऽर्थस्याऽस्थिरस्य तेन । जातिरेव पदार्थः, न व्यक्तिरिति चेन्न; शब्दात्तद-
- लाभप्रसङ्गात् ।
- पू० प० स्यादेतत्
- …
- यद्येवम स्थिरः शब्द
- यदि शब्द को नित्य नहीं मानेंगे तो शब्द से बोध ही उत्पन्न नहीं होगा । शक्तिज्ञान के साहाय्य से ही शब्द शाब्दबोध का उत्पादन करता है। जिस ‘गो’ शब्द की शक्ति गोरूप अर्थ में गृहीत हुई थी, वह गो शब्द अगर अभी के गो शब्द से सर्वथा भिन्न हो तो फिर अभी के गो शब्द से गोरूप अर्थ का बोध नहीं होगा। क्योंकि जिस शब्द की शक्ति गोरूप अर्थ में गृहीत है, वह गो शब्द बहुत पहिले ही विनष्ट हो चुका है। अभी का गो शब्द न कभी पहिले सुना गया था, न उसकी शक्ति ही कहीं गृहीत है । अतः शाब्दबोध की इस अनुपपत्ति से यह मानना होगा कि जिस गो शब्द की शक्ति पहिले गृहीत हुई थी, उससे यह अभी सुना जानेवाला गो शब्द सर्वथा अभिन्न है । सुतराम् पहिले के जिस गो शब्द में पहिले शक्ति गृहीत है, उस से सर्वया अभिन्न एवं अभी तक ज्ञात होनेवाले इस गो शब्द से शाब्दबोध की अनुपपत्ति नहीं होगी। यह बार बार लिखा जा चुका है कि पहिले के शब्द और बाद के शब्दों के अभेद का पर्यवसान शब्द के नित्यत्व में ही होता है । अतः शब्द नित्य है । सि० प० यथैवार्थस्य
- जिस प्रकार मीमांसकों के मत में ( शब्द को नित्य मानने पर भी ) घटादि प्रथ को अनित्य मानने पर शब्दवोध की अनुपपत्ति नहीं होती है, उसी प्रकार हम लोगों (नैयायिकों ) के मत से भी शब्द और घटादि अर्थ इन दोनों ही को’ अनित्य मानने पर भी शब्दबोध की कोई अनुपपत्ति नहीं होगी ।
- पू० प० जातिरेव
- पद की शक्ति जाति में ही मानते हैं, व्यक्तियों में नहीं ।
- सि० प० न शब्दात्
- …
- ऐसा नहीं हो सकता, क्योंकि गो प्रभृति पदों से अर्थों का बोध सभी स्वीकार करते हैं । यह भी सभी
- बिना लक्षणा वृत्ति के ही गंवादि मानते हैं कि शाब्दबोध में शब्द से
- १. शब्द को नित्य माननेवाले मीमांसक भी घटादि अर्थों को अनित्य ही मानते हैं । किन्तु नित्य घटपद की शक्ति जिस घट रूप अर्थ में पहिले गृहीत थी, उसके विनष्ट हो जाने के बाद भी दूसरे घट का बोध उसी घटपद से जिस प्रकार वे भी स्वीकार करते हैं । अर्थात् सभी घटों में घटपद की एक ही शक्ति को मान कर अगर उक्त शाब्दबोध उपपन्न हो सकता है, तो फिर सभी घटपटों में सभी घटों को समझाने की एक ही शक्ति को स्वीकार कर लेने पर भी उक्त शाब्दबोध की उपपत्ति हो सकती है। इसके लिये शब्द को नित्य मानने की आवश्यकता नहीं है।
- ।
- CCO. Vasishtha Tripathi Collection. Digitized by eGangotri१६२
- गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जलौ
- प्राक्षेपत इति चेत् ? कः खल्वयमाक्षेपो नाम ?
- न तावदनुमानम्, अनन्ताभिः सह सङ्गतिवदविनाभावस्यापि ग्रहीतुमशक्य- स्वात्, शक्यत्वे वा सङ्गतेरपि तथैव सुग्रहत्वात्
- '
- ‘वृत्ति’ के द्वारा अनुपस्थित अर्थ मासित नहीं होते । अतः गो प्रभृति अर्थों में यदि गोपद की शक्ति को स्वीकार नहीं करेंगे तो गो प्रभृति पदों से गो प्रभृति अर्थों का शाब्दबोध नहीं हो सकेगा । अतः व्यक्ति में भी शब्द की शक्ति को स्वीकार करना होगा ।
- पू० प० प्रक्षेपत इति
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- शाब्दबोध में व्यक्ति का भान ‘प्रक्षेप’ से होगा । ( इस के लिये ‘व्यक्ति’ में शक्ति मानना आवश्यक नहीं है, क्योंकि जिन अर्थों की उपस्थिति शब्दों से नहीं होती है, ऐसे कुछ विशेष अर्थ भी शाब्दबोध में विषय होते हैं ) ।
- सि० प० कः खल्वयम्
- सुग्रहत्वात्
- यह ‘आप’ कौन सी वस्तु है ? आक्षेप अनुमान रूप तो हो नहीं सकता, क्योंकि इस स्थिति में ‘आक्षेप से व्यक्ति के वोध’ का अर्थ होगा ‘अनुमान से व्यक्ति का बोध’ । अर्थात् जाति’ में शक्ति से युक्त पद से जब व्यक्ति का बोध नियम पूर्वक होता है, तब पद रूप शब्द
- 9.
- जाति-शक्तिवादी मीमांसकों का कहना है कि श्रानयनादि व्यवहार ही यथपि शक्ति के प्रधान ग्राहक हैं, तदनुसार घटादि व्यक्तियों में ही घटादि पक्षों की शक्ति को मानना श्रापाततः उचित जान पड़ता है, फिर भी व्यक्तियों में शक्ति को स्वीकार करना संभव नहीं है, क्योंकि इस पक्ष में यह विकल्प उपस्थित होता है कि घट की शक्ति कुछ ही घटादि व्यक्तियों में है ? या सभी घटादि व्यक्तियों में ! इन में से अगर पहिला पक्ष स्वीकार करें (यदि घटादि कुछ ही व्यक्तियों में घटादि पदों की शक्ति है, यह स्वीकार करें ) तो यह भी मानना पड़ेगा कि शक्ति के आश्रयीभूत घटादि व्यक्तियों के विनष्ट हो जाने पर उनमें रहनेवाली शक्तियों का भी विनाश हो जाता है । किन्तु ऐसा मानने पर शक्ति और शाब्दबोध इन दोनों में जो कार्यकारणभाव है, उसमें उयभिचार होगा, क्योंकि शक्ति के विनष्ट हो जाने पर, अर्थात् शक्ति के न रहने पर भी घटादि पदों से शाब्दबोध की उत्पत्ति होती है । फलतः यह मानना होगा कि शक्ति के न रहने पर भी शब्दबोध होता है । किन्तु जिसके न रहने पर भी जिसकी उत्पत्ति संभव हो वह उसका कारण नहीं हो सकता । अतः घटादि कुछ व्यक्तियों में घटादि पदों की शक्ति नहीं मानी जा सकती । उक्त व्यभिचार को हटाने के लिये अगर घटादि सभी व्यक्तियों में शक्ति मानेंगे तो अनन्त शक्तियों को स्वीकार करना होगा । एवं ( इस पक्ष में ) ‘गां ददाति’ इत्यादि वाक्य अप्रमाण हो जायेंगे, क्योंकि गोपद के अर्थ सभी गो व्यक्तियाँ होंगी । किसी एक व्यक्ति में संभव
- सभी गायों को दान करने की सामथ्यं ( कस्तुरेव ) ही नहीं है। घटा जैसे कि ‘बह्निना सञ्चति’ इस प्रकार के वाक्य असंभूत विषयों
- भा
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- श्री
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- श्रथ
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- CCO. Vasishtha Tripathi Collection: Digitized by eGangotri
क T व 7 क ’ द्वितीयः स्तवकः १६३ व्यक्तिमात्ररूपेण विनाभाव इति चेन्न व्यक्तित्वस्य सामान्यस्याभावात्, भावे वा तदाक्षेपेऽपि विशेषानाक्षेपात् । वाच्यत्वमपि वा तथैवास्तु, किमाक्षेपेण ? सङ्गतेरविरोधादिति । और व्यक्ति रूप अर्थ इन दोनों में होगा । इस नियत सम्बन्ध रूप रूप बोध ही हो सकता है । अर्थ असंख्य हैं, उनके साथ पद की व्यक्तियों में पद की व्याप्ति गृहीत हो शक्ति भी गृहीत हो सकती है । ऐसा होने मान लेना ही उचित है, क्योंकि पद से और व्यक्तिवाले अंश को अनुमिति रूप ( यह पू० प० व्यक्तिमात्ररूपेण ( वह्नि और धूम की तरह ) नियत सम्बन्ध मानना व्याप्ति के बल से पद के द्वारा व्यक्ति का अनुमिति किन्तु उक्त व्याप्ति का ज्ञान ही संभव नहीं है । चूँकि व्यक्ति रूप व्याप्ति कैसे गृहीत हो सकती है ? अगर उन श्रसंख्य सकती है, तो फिर उन्हीं असंख्य व्यक्तियों में पद की पर पद से व्यक्ति का जो बोध होगा, उसे शाब्दबोध उत्पन्न एक ही बोध को जात्यंश में शान्दवोध रूप अर्धजरती - ) मानना उचित नहीं है । व्यक्तियाँ अनन्त हैं; अतः तत्तद्व्यक्तित्व रूप से प्रत्येक व्यक्ति में व्याप्ति का ग्रहण यद्यपि संभव नहीं है, फिर भी सभी व्यक्तियों में रहनेवाला ‘व्यक्तित्व’ नाम का जो एक धर्म है, उस रूप से सभी व्यक्तियों में पद की व्याप्ति गृहीत हो सकती है । अतः अनुमान रूप आक्षेप से ही व्यक्ति का भान हो जाने के कारण व्यक्ति में पदों की शक्ति को स्वीकार करना आवश्यक नहीं है । सि० प० व्यक्तित्वस्य सामान्यस्य 448 सभी व्यक्तियों में रहनेवाला ‘व्यक्तित्व’ नाम का कोई धर्म है ही नहीं । अगर इस प्रकार का कोई धर्म मान भी लिया जाय, तथापि आक्षेप से उस धर्म का ही बोध होगा, किसी विशेष व्यक्ति का नहीं । शाब्दबोध में विशेष व्यक्ति ही भासित होता है । दूसरी बात यह है कि जिस प्रकार असंख्य व्यक्तियों में व्याप्ति का ज्ञान संभव है, उसी प्रकार शक्ति का ज्ञान भी तो संभव है । श्रतः शक्ति से ही जब व्यक्ति का भी बोध संभव है तो उसके लिये अनुमान रूप आक्षेप का सहारा लेना उचित नहीं है । सुतराम् केवल जाति में हो पद की शक्ति नहीं मानी जा सकती । हो जाते हैं । उसी प्रकार अप्रमाण हो जायँगे । अतः का प्रतिपादक होने से अयोग्य होने के कारण अप्रमाण ‘गां ददाति’ इत्यादि प्रमाण माने जानेवाले वाक्य भी सभी व्यक्तियों में भी शक्ति नहीं मानी जा सकती । व्यक्ति में शक्ति माननेवाला पक्ष चूँकि उक्त दो ही प्रकार से संभव है, अतः उन दोनों के खण्डिन हो जाने पर ‘व्यक्तिशक्तिपक्ष’ ही खण्डित हो जाता है । सुतराम् गोवादि जातियों में ही गो प्रभृति पर्दों की शक्ति मानना उचित है । २५
१६४ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जलौ अर्थापत्तिराक्षेप इति चेन्न; व्यक्तया विना किमनुपपन्नम् ? जातिरिति चन्न; तन्नाशानुत्पाददशायामपि सत्वात् । तथापि न व्यक्तिमात्रं विनेति चेन्न; पू० प० अर्थापत्तिः ….. अर्थापत्ति हो ‘आक्षेप’ है । ’ सि० प० व्यवत्या विना 444 ( १ सौ वर्षों तक जीने वाले देवदत्त का घर में न रहना जब तक उसका बाहर रहना सिद्ध न हो जाय तबतक सिद्ध नहीं हो सकता । श्रतः श्रर्थापत्ति प्रमाण से देवदत्त के बाहर रहने की उपपत्ति होती है । प्रकृत में ) व्यक्ति के विना किस की अनुपपत्ति है, जिसकी उपपत्ति अर्थापत्ति प्रमाण से होगी ? पू० प० जाति: व्यक्ति के विना जाति अनुपपन्न है, अतः प्रकृत में प्रर्थापत्ति प्रमाण से व्यक्ति की उपपत्ति होगी । सि० प० तन्नाशानुत्पाददशायामपि व्यक्ति के विना जाति अनुपपन्न नहीं है, क्योंकि व्यक्ति की उत्पत्ति से पहिले ओर व्यक्ति के नाश के बाद भी जाति की सत्ता बनी रहती है। जिसके विना जो नहीं रह सके, वही उसके विना अनुपपन्न होता है । अगर व्यक्ति के न रहने की स्थिति में भी जाति रह सकती है, तो उसे व्यक्ति के विना अनुपपन्न नहीं कहा जा सकता । पू० प० तथापि न व्यक्तिमात्रं विना यद्यपि यह ठीक है कि एक व्यक्ति की उत्पत्ति से पहिले और एक व्यक्ति के विनष्ट हो जाने पर भी दूसरी व्यक्ति में जाति की सत्ता बनी रहती है । फिर भी इतना कहा जा सकता है कि ‘व्यक्तिमात्र’ का सम्बन्ध जाति में बना रहता है, अर्थात् जाति में किसी न किसी व्यक्ति का सम्बन्ध सदा बना रहता है, वह कभी भङ्ग नहीं होता, चूकि जाति नियमतः किसी व्यक्ति में सदा अवश्य ही आश्रित रहती है, इसलिये पक्षधर्मता के बल से व्यक्ति का भान हो सकता है । १. कुछ मीमांसकों का कहना है कि जिस ‘आक्षेप’ की चर्चा हो रही है, वह ‘अर्थापत्ति’ प्रमाण रूप है । अर्थात् चूँकि व्यक्तिबोध के बिना जाति का बोध नहीं हो सकता, अतः केवल जाति में ही शक्ति के रहने पर भी व्यक्ति का बोध होता है । इसी ‘अर्थापत्ति’ का खण्डन ‘थक्त्या दिना’ इत्यादि सन्दर्भ से प्राचार्य ने किया है । म ि न पू रि न के 9
T र त T र ६, ह हो T न ’ T, द्वितीयः स्तबकं : १६५ मात्रार्थाभावात् । व्यक्तिज्ञानमन्तरेण जातिज्ञानमनुपपन्नमिति चेन्न । तदभावेऽ. प्युत्पादात् । व्यक्तिविषयत्वं विना जातिविषयता तस्यानुपपन्नेति चेन्न; सि० प० मात्रार्थाभावात् पूर्वपक्ष ग्रन्थ में जो ‘मात्र’ शब्द है उसका अर्थ है ‘अशेषत्व’, वह प्रकृत में संघटित नहीं होता’ । 1 … पू० प० व्यक्तिज्ञानमन्तरेण ’ ‘व्यक्तिज्ञान के विना जाति का ज्ञान नहीं होता’ प्रकृत में अर्थापत्ति का मूल जातिज्ञान की यह अनुपपत्ति ही है। इस अनुपत्ति से ही व्यक्तिज्ञान का आक्षेप होता है । सि० प० तदभावेऽपि व्यक्तिज्ञान के न रहने पर भी जाति का ज्ञान होता है । अगर ऐसा न मानें तो जाति के पहिले नियमतः व्यक्ति का ज्ञान मानना होगा । फिर व्यक्तिज्ञान के लिये आक्षेप की आवश्यकता ही नहीं रह जायगी । पू० प० व्यक्तिविषयत्वं विना… जब तक व्यक्ति में ज्ञान की विषयता नहीं आवेगी, तब तक जाति में ज्ञान की विषयता नहीं आ सकती । जाति में ज्ञानविषयता की यह अनुपपत्ति ही अर्थापत्ति है । व्यक्ति जावि के ज्ञान से स्वयं अपने ज्ञानविषयत्व का प्राक्षेप करती हुई स्वयं भी प्राक्षिप्त होती है । १. अर्थात् ‘मान’ शब्द जिस शब्द के साथ प्रयुक्त रहता है, उस पद से जहाँ जितने भी व्यक्तियों का बोध संभव है, उन सभी धर्थों को ‘मात्र’ शब्द के अर्थ ‘अशेष’ शब्द से समझा जाता है । फलतः ‘अशेष’ शब्द स्वंसमभिव्याहत पद से जितने भी बोध्य अर्थ व्यक्तियाँ हैं, उन सर्वो में रहने वाला जो तत्तद्व्यक्तित्वादि असाधारण धर्म हैं, तत्तद्धर्मावच्छिन्न वा बोधक है। तदनुसार प्रकृत ‘व्यक्तिमात्र’ शब्द से कथित सभी व्यक्तियों में रहने वाला जो ‘व्यक्तित्व’ धर्म है, उस धर्म से युक्त सभी व्यक्तियाँ ही अभिप्रेत होंगी। किन्तु पहिले वह आये हैं कि सभी व्यक्तियों में रहने वाला ‘तद्वचक्कित्व’ नाम का कोई धर्म नहीं है । अत: उक्त ‘मान’ शब्द का अर्थ प्रकृत में संघटित नहीं होता। अगर ‘व्यक्तित्व’ नाम के किसी सामान्य ( जाति ) या धर्म की सत्ता मानें तो फिर जिस प्रकार उस व्यक्तित्वावच्छेदेन अनुपपत्ति का ज्ञान सम्भव होगा, उसी प्रकार अनन्तव्यतियों में रहनेवाले उस तत्तद्व्यक्तित्व के आश्रयीभूत असंख्य व्यक्तियों में शक्ति का ज्ञान भी सम्भव होगा ।
१६६ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जलौ एवं तर्ह्य कज्ञानगोचरतायां किमनुपपन्नं किं प्रतिपादयेदिति । जातीनामन्व- यानुपपत्त्या व्यक्तिरवसीयत इति चेन्न; परस्पराश्रयप्रसङ्गात् । सि० प० एवं तर्हि.. … … व्यक्ति विपयता के विना जाति विषयता की यह अनुपपत्ति तभी ठीक हो सकती है, अगर जाति और व्यक्ति दोनों ही नियमतः एक ही ज्ञान में भासित होते हों । किन्तु यह होता नहीं है, क्योंकि व्यक्ति ज्ञान के विना भी जातिज्ञान की बात अभी अभी कही जा चुकी है । अगर जाति और व्यक्ति दोनों का नियमतः साथ ही भान स्वीकार भी कर लें, तथापि जातिविषयता से व्यक्तिविषयता का प्रक्षेप नहीं हो सकता । क्योंकि जाति और व्यक्ति दोनों जब एक ही ज्ञान में नियमतः भासित होते हैं तो कौन भासक होगा ? और कौन भास्य होगा ? इसका निर्णय नहीं किया जा सकता । व्यक्ति और जाति दोनों ही समान रूप से ज्ञात हैं, तो फिर दोनों ही दोनों के भासक होंगे या कोई भी किसी का भासक नहीं होगा । अत: इस रीति से भी आक्षेप के द्वारा व्यक्ति का भान नहीं हो सकता । पू० प० जातीनाम् .. शक्ति के द्वारा उपस्थित जाति का अन्वय चूंकि क्रिया में अनुपपन्न है, अतः इस ‘अन्वयानुपपत्ति’ के द्वारा व्यक्ति का भान लक्षणा से होता है, शक्ति से नहीं । २ सि० प० परस्पराश्रयप्रसङ्गात्” उक्त पक्ष को स्वीकार करने में ‘अन्योन्याश्रय’ दोष की आपत्ति होगी, क्योंकि पद से अभिधा वृत्ति के द्वारा जाति का ज्ञान होने पर लक्षणा वृत्ति से व्यक्ति का बोध होगा । १. केवल जाति में शक्ति मानने के पक्ष में और ‘आक्षेप’ के द्वारा शाब्दबोध में व्यक्ति का मान मानने के पक्ष में वर्द्धमान ने और भी अनेक असमाधेय दोषों का प्रतिपादन किया है । २. मण्डनमिश्र का मत है कि-‘गामान्य’ इस स्थल में गो पद के अभिधेपार्थं गोश्व जाति में पानयन क्रिया का अन्वय बाधित है । अतः व्यक्ति में उसके अन्वय के लिये व्यक्ति का भान शाब्दबोध में आवश्यक होता है । अन्वय की इस अनुपपत्ति से शाब्दबोध मैं जिसका भान होता है, उसकी उपस्थिति के लिये लक्षणा वृत्ति की आवश्यकता को सभी मानते हैं । यतः प्रकृत में भी गो व्यक्ति की उपस्थिति लक्षणा वृत्ति से ही मानेंगे । एवं उक्क रीति से उपस्थित गो व्यक्ति में ही श्रानयन का अन्वय स्वीकार करेंगे । ‘गोर्षाहीकः’ इत्यादि स्थलों में लक्षणा वृत्ति से गोपद का प्रयोग सर्व स्वीकृत है । तस्मात् एक ही गोपद से अभिधावृत्ति के द्वारा गोश्व जाति का और लक्षणा वत्ति के द्वारा गो व्यक्ति का बोध हो सकता है। इसके लिये व्यक्ति में अभिधा वृत्ति मानने की आवश्यकता नहीं है ।
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1 के 优点 नने द्वितीयः स्तबक: १६७ स्यादेतत् । प्रतिबन्धं विनाऽपि पक्षधर्मताबलाद् यथा लिङ्ग विशेषे पर्यवस्यति, तथा सङ्गति विनाऽपि शब्दः शक्तिविशेषाद्विशेषे पर्यवस्यति । स एवाक्षेप इत्युच्यत इति चेत्, न तावत्ातीतिः क्रमेण, अपेक्षरणीयाभावेन विरम्य व्यापारायोगात् । किन्तु व्यक्तिज्ञान के विना जाति का ज्ञान संभव ही नहीं है, अतः जब व्यक्ति का ज्ञान होगा उसके बाद ही जाति का ज्ञान होगा । "
पृ० प० स्यादेतत् प्रतिबन्धम् .. … जिस प्रकार हेतु में विशेष रूप से व्याप्तिज्ञान के न रहने पर भी पक्षधर्मता के बल से हेतु साध्यविशेष का ही अनुमापक होता है, उसी प्रकार शब्द की शक्ति व्यक्ति स्वरूप ‘विशेष’ में न रहने पर भी व्यक्तिविशेष में पर्यवसन्न हो सकता है । २ सि० प० न तावत् जाति और व्यक्ति इन दोनों को प्रतीति एक ही समय साथ-साथ होती है, या क्रमशः होती है ? इन दोनों में से ‘क्रमशः होती है’ यह । दूसरा पक्ष तो उपपन्न हो नहीं सकता, क्योंकि क्रमशः उत्पन्न होने जाति में पद की शक्ति का ज्ञान का कोई कारण नहीं है जाति के शाब्दबोध के लिये अपेक्षित है । एवं व्यक्ति के १. इस प्रसङ्ग में भी वर्द्धमान ने अनेक प्रकाट्य युक्तियाँ दी हैं । शाब्दबोध में व्यक्तिनिष्ठ पद २. अर्थात् पर्वतीय धूम में पर्वतीय वह्नि की व्याप्ति का ज्ञान न रहने पर भी धूमसामान्य में गृहीत वह्नि सामान्य की व्याप्ति से ही पर्वतीयधूम के व्यापक पर्वतीयवह्नि की अनुमिति होती है । यदि उक्त व्याप्तिविशिष्ट धूप का ज्ञान पर्वत रूप पक्ष में रहता है। पक्षधर्मता ज्ञान के बल से जिस प्रकार पर्वतीयर्वाह्न की अज्ञात धूप भी पर्वतीयर्वाह्न रूप विशेष का अनुमापक होता है’ व्याप्ति से युक्त होकर उसी प्रकार जाति में उत्पादन कर सकता शक्ति युक्त रूप से ज्ञात पद भी व्यक्तिविशेष के शाब्दबोध का है । इसके लिये व्यक्ति में अलग से शक्ति मानने की आवश्यकता नहीं है । अर्थात् जाति में शक्ति युक्त रूप से ज्ञात पद ही पहिले जाति विषयक शाब्दबोध को उत्पन्न करेगा । फिर उस शक्ति से स्वरूपतः ( शक्ति ज्ञान के बिना ही ) व्यक्ति विषयकं शाब्दबोध को उत्पन्न करेगा। फलतः जाति में ही रहनेवाली पद की एक ही शक्ति ज्ञात होकर जाति की बोधिका हैं और अज्ञात होकर स्वरूपतः व्यक्ति की बोधिका है। इस रीति से व्यक्ति का बोध ही व्यक्ति का प्राक्षेप है । कहने का तात्पर्य है कि पद की शक्ति जाति और व्यक्ति दोनों में ही है । अन्तर इतना ही है कि उस शक्ति का ज्ञान जाति विषयक शाब्दबोध को उत्पन्न करता है। किन्तु व्यक्ति विषयक शाब्दबोध को वह शक्ति ही उत्पन्न कर देती है । इसके लिये शक्ति को अपने ज्ञान की अपेक्षा नहीं होती है । 1
१६८ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जलौ जातिप्रत्यायनमपेक्षत इति चेत्; कृतं तर्हि शब्दशक्तिकल्पनया ? तावतैव तत्सिद्धेः । श्रमिति चेन्न; व्यक्तचनालम्बनाया जातिप्रतीतेरसम्भवादित्युक्तत्वात्, प्रमारणान्तरापातप्रसङ्गाच्च । स्मरणं तदित्ययमदोष इति चेन्न ; अननुभूतानन्वय- प्रसङ्गात् । । की शक्ति की आवश्यकता है । इस स्थिति में जिस समय जाति का शाब्दबोध होगा, उसी समय व्यक्ति विषयक शाब्दबोध के उत्पन्न होने में भी कोई बाधा नहीं होगी । एवं व्यक्ति विषयक शाब्दबोध के लिये किसी ऐसे दूसरे कारण की भी अपेक्षा नहीं है, जिसका संबलन जातिविषयक शाब्दबोध से पहिले न हो सके, और जिस से व्यक्तिविषयक शाब्दबोध की उत्पत्ति कालान्तर में मानना पड़े । अतः यह स्वीकार करना होगा कि जाति और व्यक्ति दोनों का शाब्दबोध क्रमशः नहीं होता । पू० प० जातिप्रत्यायनम् अतः जातिज्ञान से पहिले व्यक्ति का व्यक्ति का ज्ञान होता है । ( इसलिये जाति का ज्ञान व्यक्ति के ज्ञान का कारण है । ज्ञान नहीं हो सकता । अतः जातिज्ञान के बाद ही ‘पहिले जाति का ज्ञान उसके बाद व्यक्ति का ज्ञान’ इस प्रकार दोनों ज्ञान क्रमशः उत्पन्न हो सकते हैं ) । सि० प० कृतं तहि 16 मगर जाति के ज्ञान से ही व्यक्ति का ज्ञान उत्पन्न हो सकता है तो फिर व्यक्ति में पद की शक्ति को स्वीकार करने की आवश्यकता ही क्या है ? अगर व्यक्ति में पद की शक्ति न मानने के पक्ष में आप अपनी सम्मति दें तो इस प्रसङ्ग में दो बातें कहनी हैं – ( १ ) एक तो जाति की ऐसी कोई प्रतीति हो ही नहीं सकती जिसमें व्यक्ति भावित न होती हो । (२) दूसरी बात यह है कि जातिविषयक शाब्दबोध रूप करण से अगर व्यक्तिविषयक प्रमाज्ञान की उत्पत्ति मानेंगे तो प्रत्यक्षादि प्रमाणों की तरह ‘जाविज्ञान’ नाम का एक अतिरिक्त प्रमाण स्वीकार करना होगा। अतः जाति की प्रतीति से व्यक्ति की प्रतीति की उत्पत्ति स्वीकार नहीं की जा सकती । पू० प० स्मरणं तत् प्रकृत में व्यक्ति के जिस बोध की चर्चा की गयी है वह अनुभव रूप नहीं, किन्तु स्मरण रूप बोध है । यथार्थ अनुभव के करण को ही प्रमाण कहते हैं । सुतराम् जातिविषयक शाब्दबोध चूं कि व्यक्ति की स्मृति का करण है, अनुभव का नहीं, अतः उसे प्रमाण नहीं माना जा सकता । सि० प० अननुभूतानन्वय पहिले अनुभव के द्वारा ज्ञात विषय की ही स्मृति होती है । अगर व्यक्तिविषयक सभी शाब्दबोध स्मृति रूप ही हों तो फिर ‘गामानय’ इत्यादि वाक्यों से पहिले अनुभव के
द्वितीयः स्तबकः १६६ श्रस्त्वेकैव प्रतीतिरिति चेत् ? कृतं तहि शक्तिभेद कल्पनया ? एवञ्च यथा सामान्यविषया शक्तिरेकैव तद्वति पर्यवस्यति, तथा सामान्याश्रया सङ्गतिस्तद्वति पर्यवस्येदिति । न च नित्या अपि वर्णाः स्वरानुपूर्व्यादिहीनाः पदार्थः सङ्गम्यन्ते । द्वारा सर्वथा अज्ञात गोविषयक शाब्दबोध की उत्पत्ति नहीं हो सकेगी । अतः सभी व्यक्ति- विषयक शाब्दबोधों को स्मृति रूप नहीं माना जा सकता । पू० प० अस्त्वेकैव जाति एवं व्यक्ति इन दोनों विषयों का एक ही शाब्दबोध रूप प्रतीति मान लेंगे । एवं च यथा सामान्यविषया ….. इस प्रकार जैसे कि ( मीमांसकों के मत से ) गोत्वादि जातियों में ही रहनेवाली गोपदादि की वाच्यत्व शक्तियाँ ही गो प्रभृति व्यक्ति रूप विशेष में विश्रान्त होती हैं ( इसके लिये व्यक्तियों में अतिरिक्त शक्ति मानने की श्रावश्यकता नहीं होती है) उसी प्रकार शब्दत्व रूप सामान्य में जो वाचकत्व रूप शक्ति है, वही अस्थिर एवं अनित्य पटादि पदों में भी वाचकत्व के व्यवहार को उपपन्न करेगी । इसके लिये पटादि पदों में पटत्वादि जातियों की वाचकता रूप अतिरिक्त शक्ति मानने की आवश्यकता नहीं है । ’ सि० प० न च नित्या अपि … मीमांसकगण भो वर्ण रूप शब्द को ही नित्य मानते हैं, पद रूप शब्द को नहीं । विशेष प्रकार के स्वर एवं विशेष प्रकार की आनुपूर्वी से युक्त वर्ण ही ‘पद’ कहलाते हैं। वर्णों में जो आनुपूर्वी और स्वर हैं, वे दोनों कभी भी नित्य नहीं हो सकतीं । एक ही पद की शक्ति अलग अलग मानेंगे। किन्तु उन दोनों शक्तियों से एक ही शाब्दबोध उत्पन्न होगा, जिसमें जाति और व्यक्ति ये दोनों ही विषय होंगे । ( फलतः नैयायिकों की तरह जाति और व्यक्ति दोनों में एक ही शक्ति को नहीं मानेंगे ) । सि० प० कृतं तहि … अगर एक ही पद से जाति एवं व्यक्ति इन दोनों विषयक एक ही शब्दबोध मानते हैं, तो फिर जाति एवं व्यक्ति इन दोनों में पद की एक हो शक्ति को क्यों अस्वीकार करते हैं ? अगर पद से जाति एवं व्यक्ति इन दोनों का अलग-अलग वोघ संभव होता, तो कदाचित् पृथक् शक्ति मानने की प्रावश्यकता भी होती । किन्तु जब यह संभव नहीं है तो पद की जाति विषयक शक्ति और व्यक्तिविषयक शक्ति इन दोनों में परस्पर भेदकल्पना रूप गौरव ही केवल हाथ आता है । अतः जाति और व्यक्ति इन दोनों में पद की एक ही शक्ति को मानना उचित है । १. शब्द का अगर नित्य ( स्थिर ) नहीं मानेंगे तो अर्थ के साथ उसकी ‘सङ्गति’ अर्थात् वाचकत्वशक्ति कैसे उपपन्न होगी ? यह आक्षेप मीमांसकों ने ‘स्थादेतद् यद्येवमस्थिरः ’ इत्यादि सन्दर्भ से किया था । उसी प्रसङ्ग का उत्तर उपसंहार के ब्याज से ‘एवं च’ इत्यादि सन्दर्भ से प्राचार्य ने दिया है । अर्थात् शक्ति दो प्रकार की है- (१) अर्थों में रहनेवाली पद के द्वारा ज्ञात होने की शक्ति; (२) शब्दों में रहनेवाली अर्थो की ज्ञात कराने की शक्ति | पहिली है वाध्यश्वरूपा शक्ति, दूसरी है वाचकत्वरूपा शक्ति ।
२०० गद्यपद्यात्मक न्याय कुसुमाञ्जली न च तद्विशिष्टत्वमपि तेषां नित्यम् । तस्मात्तत्तज्जातीयक्रोडनिविष्टा एव पदार्थाः पदानि च सम्बध्यन्ते नातोऽन्यथेति नैतदनुरोधेनापि शब्दस्य नित्यत्वमाशङ्कनीयमिति । यदा च वरर्णा एव न नित्यास्तदा कैव कथा पुरुषविवक्षाधीनाऽनुपूर्व्यादिविशिष्टवर्णं- समूहरूपाणां पदानाम्, कुतस्तराञ्च तत्समूहरचना विशेषस्वभावस्य वाक्यस्य ? कुतस्तमां तत्समूहस्य वेदस्य ? परतन्त्रपुरुषपराधीनतया प्रवाहाविच्छेदमेव नित्यतां ब्रूम इति चेत् ? एत- दपि नास्ति । पदार्थों में उन पदों के शब्द की ही शक्ति गृहीत होती है जो श्रनित्यस्वर और अनित्य श्रानुपूर्वी मूलक होने के कारण अनित्य हैं । अतः जिस प्रकार घटादि अनन्त पदार्थों में घटत्वादि जाति रूप से अनुगत एक हो वाच्यत्वरूपा शक्ति मानी जा सकती है, उसी प्रकार पटपदत्वादि रूप से अनन्त पटादि पदों में भी पटादि अनन्त पदार्थों को समझाने वाली एक ही वाचकता रूप शक्ति भी मानी जा सकती है । ( इससे अस्थिर शब्दों की शक्ति अर्थों में गृहीत नहीं हो सकती ) इसके लिये शब्द को नित्य मानने की आवश्यकता नहीं है । चूँकि विशेष प्रकारको भानुपुर्वी और विशेष प्रकार के स्वरादि से युक्त’ वर्ण ही पद है और पदों का समुदाय ही वाक्य है, एवं विशेष प्रकार के वाक्यों का समूह ही वेद है | अतः वर्ण में अनित्यत्व की सिद्धि हो जाने से पदों में नित्यत्व स्वयं निवृत्त हो जाता है । पदों में नित्यत्व के प्रतिषेध से पदसमूहात्मक वेदों में नित्यत्व की सिद्धि का अवसर सर्वथा निवृत्त हो जाता है । पू० पं० परतन्त्रपुरुषपराधीनतया … वेदों की नित्यता श्राकाशादि की नित्यता की तरह अनुत्पत्तिशीलता एवं श्रविनाशिता रूप हम ( मीमांसक ) लोग भी नहीं कहते । किन्तु वेदों के ‘अनवरतप्रवाह’ को ही हम लोग वेदों की नित्यता कहते हैं । किसी सर्वज्ञ पुरुष के द्वारा स्वतन्त्रता पूर्वक वेदों का निर्माण नहीं हुआ । जब भी जिनके मुख से वेदों का उच्चारण हुआ है, वह अपने पूर्ववर्ती पुरुषों के दूसरी शक्ति को ही ‘संगति’ कहते हैं । इस वस्तुस्थिति के अनुसार जैसे कि मीमांसकों के मत में नित्य शब्द की वाच्यत्व रूप शक्ति के केवल नाति में रहने पर भी घटादि व्यक्तियों में विश्रान्ति होती है, उसी प्रकार शब्द को अनिष्य मानने पर भी शब्दस्व के निध्य होने के कारण घटादि पदों की वाचकत्व शक्ति की घटादि अर्थो विश्रान्ति हो सकती है । १. मूल प्रसंग है वेदों के नित्यत्व का । वेदों में अनित्यस्व की सिद्धि के लिये ही वर्णो के अनित्यश्व का प्रस्ताव नैयानिकों ने किया था । उसी प्रसङ्ग का उपसंहार ‘यदा च’ यहाँ से लेकर ‘तत्समूहस्य वेदस्य’ इतने पर्यन्त के सन्दर्भ से किया गया है। द उ a f स प प्र पू ठी મ क क จ શ
सर्गप्रलयसम्भवात् द्वितीयः स्तबकँः ॥ १ ॥ अहोरात्रस्याहोरात्रपूर्वकत्वनियमात् । २०१ द्वारा वेदों के उच्चारण को सुनकर ही । । श्रत एव वेदों के सभी उच्चारण अपने पूर्ववर्ती उच्चारण करनेवाले पुरुष के अधीन हैं। सुतराम् वेदों के सभी उच्चारण ‘परतन्त्रपुरुषाघीन’ हैं । किन्तु ‘परतन्त्रपुरुषों’ के द्वारा भी वेदों का यह प्रचार सभी समयों में था और रहेगा । वेदों की इस प्रकार की सार्वदिक सत्ता ही वेदों का ‘प्रवाहाविच्छेद’ रूप ‘नित्यता’ है । वेदों में इस प्रकार की नित्यता की सिद्धि से भी ‘वेदकर्ता स्वतन्त्र सर्वज्ञ पुरुष’ की कल्पना का अवसर नहीं रह जाता । सुतराम् वेद के कर्ता रूप में ईश्वर की सत्ता नहीं सिद्ध की जा सकती । सि० प० सर्गप्रलय … वेदों की उक्त प्रवाहाविच्छेद रूप नित्यता भी संभव नहीं है ।’ क्योंकि सृष्टि एवं प्रलय का होना निश्चित है, इसलिये प्रलयकाल में वेदों के उच्चारण करनेवाले पुरुषों का भी अत्यन्त विनाश हो जाता है । अतः आगे की सृष्टि में पहिले के वैदिकों द्वारा वेदों का प्रचार संभव नहीं होगा । सुतराम् प्रलय के बाद जो सृष्टि होगी, उस में वेदों के प्रचार की धारा विच्छिन्न हो जायगी। जिससे वेदों में उक्त प्रवाहाविच्छेद रूप नित्यता का भी उपपादन संभव नहीं होगा । इसलिये अगर वेदों को प्रमाण मानना है तो ‘सर्वज्ञ ईश्वर’ को स्वीकार किये बिना कोई दूसरी गति नहीं है ॥ १॥ पू० प० अहोरात्रस्य े… चू’ कि ‘प्रलय’ की संभावना नहीं है, अतः प्रलय के आधार पर कही गयी उक्त बातें ठीक नहीं हैं । प्रलय को स्वीकार न करने की ये पाँच युक्तिया हैं— ( १ ) आजकल के अहोरात्र ( दिनरात ) के प्रसङ्ग यह देखा जाता है कि ए. अहोरात्र के पूर्व भी अहोरात्र रहता है । इस दृष्टान्त के बल से यह सिद्ध किया जा सकता है कि कथित प्रलय के बाद का पहिला अहोरात्र भी चू कि अहोरात्र ही है, अतः उसके पहिले भी अहोरात्र अवश्य था । इस प्रकार अहोरात्र को अविच्छिन्न धारा माननी होगी। सूर्यादि ग्रहों की गतियों से ही अहोरात्र का व्यवहार होता है । अगर सभी समयों में सूर्यादि ग्रहों की सत्ता १. येदों की इस प्रवाहाविच्छेद रूप निस्यता का खंडन प्राचार्य ने कारिका के ‘सर्गप्रलय संभयात्’ इस दूसरे चरण से आदि में ही सूचित किया है । कारिका के उसी अंश की व्याख्या रूप यह सन्दर्भ है । इसको सूचित करने के लिये ही कथित सिद्धान्त सन्दर्भ के ‘कारिका’ के उक्त दूसरे चरण का अविकल अनुवाद किया गया है । २. इससे निष्पन्न अनुमान का प्रयोग इस प्रकार है:- विप्रपितिपन्नमहोरात्रमध्यवहिता होरानपूर्वकम्, अहोरात्रस्वात् अद्यतनाहोरात्रवत् । २६ CCO. Vasishtha Tripathi Collection. Digitized by eGangotri२०२ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली कर्मणां विषमविपाकसमयतया युगपद्वृत्तिनिरोधानुपपत्तेर्वर्णादिव्यवस्थानुपपत्तेः । सिद्ध हो जाय तो किसी काल को प्रलय कहना संभव नहीं होगा। क्योंकि आप ( नैयायिक ) लोग उस काल को ही प्रलय कहते हैं, जिसमें कोई उत्पत्तिशील द्रव्य न रहे। जब सभी समयों में अन्ततः सूर्यादि ग्रह रूप द्रव्य हैं ही तो फिर किसी काल को प्रलय कहना कैसे संभव है ? (२) कर्मरणां विषमविपाकतया "" … प्रलय के वाद पुनः सृष्टि को माननेवालों की दृष्टि से प्रलय काल में जीवात्मा की सत्ता मौर उनमें भागे की सृष्टि में भोग को उत्पन्न करने वाले अदृष्टों की सत्ता ये दो वातें माननी ही होगी । इसके अलावा उस (प्रलय) समय तक उन सभी अदृष्टों को अपने कार्य में अक्षम भी मानना होगा । (जिसे अदृष्ट का कुण्ठन कहते हैं) । अदृष्ट में कार्य को उत्पन्न करने की यह अक्ष- मता ही प्रदृष्ट की ‘वृत्ति’ प्रर्थात् कार्योत्पादनप्रवृत्ति का ‘रोध’ या ‘निरोध’ है । किन्तु यह संभव नहीं जान पड़ता कि सभी जीवों के सभी प्रदृष्ट एक ही समय अपना काम करना छोड़ बैठें । क्योंकि प्रत्येक प्रदृष्ट अपने नियमित समय में ही फल को उत्पन्न करेंगे। कभी भी ‘समसमय’ में फल को उत्पन्न नहीं कर सकते । सुतराम् अदृष्टों का ‘विपाक’ अर्थात् फलोन्मुखता ‘विषम’ प्रर्थात् विभिन्न समयों में ही होगी । अतः ऐसा कोई समय संभव नहीं है, जिस में सभी जीवों के सभी श्रदृष्टों की कार्य करने की शक्ति कुण्ठित हो जाय । सुतराम् उस समय भी किसी जीव का कोई प्रदृष्ट भोगोन्मुख हो सकता है, जिसे आप ‘प्रलय’ कहते हैं । ऐसा होने पर उस समय उस भोग के सम्पादन के लिये उपयुक्त शरीर, इन्द्रिय एवं विषयों की भी सत्ता माननी होगी । जिस समय इतनी वस्तुयें विद्यमान हों, उस को ‘प्रलय’ कैसे कहा जा सकता है ? अतः ऐसा कोई समय नहीं है, जिस में कोई भी जन्य द्रव्य न रहे । सुतराम् जन्य द्रव्यों का अनाश्रय रूप प्रलय नाम का कोई काल नहीं है । ’ (३) वर्णादिव्यवस्था… प्रलय को स्वीकार करने में तीसरी बाधा है ‘वर्णव्यवस्था’ की अनुपपत्ति । क्योंकि ब्राह्मणजाति के माता-पिता से उत्पन्न व्यक्ति को ही ब्राह्मण कहा जाता है । प्रलयकाल में सभी वर्णों के मनुष्यों का विनाश हो जायगा, अतः आगे की सृष्टि में वर्णव्यवस्था का कोई नियामक नहीं रह जायगा । किन्तु वर्णव्यवस्था का सर्वथा लोप तो नैयायिक गण भी नहीं मानते । अतः प्रलय को स्वीकार करना संभव नहीं है। १. इस सन्दर्भ के उपपादन से अमीष्ट अनुमान का प्रयोग इस प्राकर है:- विवादाध्यासितानि कर्माणि न युगपन्निरुद्धवृतीनि विषमविपाकसमयत्वात् इदानीं भुक्तभुज्यमानभोक्ष्यमाणकर्मवत् । २. विप्रतिपन्ना। ब्राह्मणाः ब्राह्मणसन्ताननम्मानः ब्राह्मणत्वात् प्राधुनिक ब्राह्मणवत्’ अनुमान का यही स्वरूप उक्त सन्दर्भ से अभिप्रेत है।
द्वितीयः स्तबक २०३ समयानुपलब्धी शाब्दव्यवहारविलोपप्रसङ्गात्, घटादिसम्प्रदाय भङ्गप्रसङ्गाच्च कथमेवमिति चेत् ? उच्यते- समयानुपलब्धी … वर्षादिवद्भवोपाधिवृतिरोधः सुषुप्तिवत् । उद्भिदूवृश्चिकवद्वर्णा मायावत् समयादयः ॥ २ ॥ अगर प्रलय को स्वीकार करेंगे तो शब्दों से होनेवाले बोघ एवं तन्मूलक अनयनादि व्यवहार ये दोनों ही अनुपपन्न हो जायंगे, क्योंकि शब्दबोध के लिये शक्ति का ज्ञान आवश्यक है । शक्तिग्रह वृद्धों के व्यवहार से होता है । जिस पुरुष को घट पद की शक्ति का ज्ञान घटादि में रहता है, वह यदि ‘घटमानय’ इत्यादि आज्ञासूचक वाक्यों का व्यवहार करता है, तो उसके सुननेवाले भृत्य या शिष्य जिन्हें घट में घटपद की शक्ति गृहीत है—घट को ले आते हैं । वहाँ अगर कोई ऐसा तृतीय व्यक्ति खड़ा रहता है जिसको घट में घटपद की शक्ति का ज्ञान नहीं है- वह पुरुष प्रत्यक्ष दृष्ट उस कम्बुग्रीवादिमान् अर्थ में घटपद की शक्ति को समझ लेता है । प्रलय के बाद जो सृष्टि होगी, उसमें कोई ऐसा पुरुष नहीं रहेगा, जिस को घट में घटपद की शक्ति पहिले से गृहीत हो। तो फिर किसके व्यवहार से कौन शक्ति को समझेगा ? अतः प्रलय को स्वीकार करना संभव नहीं है । " ५. घटादिसम्प्रदाय.. 100 अगर प्रलय को स्वीकार करेंगे तो घटादि का व्यवहार विछिन्न हो जायेगा । सम्प्रति कुम्हार का बेटा अपने पिता का घट बनाना देखकर घड़ा बनाने लगता । हैप्रलयके बाद जो सृष्टि होगी, उसमें पहिले से घट निर्माण कार्य में पटु कोई पुरुष रहेगा नहीं, फिर उस सृष्टि के लोग किससे घड़ा बनाने का काम सीखेंगे ? इस प्रकार सभी कार्यों की श्रृंखला ही टूट जायगी । अत: सभी जन्यद्रव्यों के नाथ का श्राश्रय रूप कोई काल स्वीकार नहीं किया जा सकता? जिसे प्रलय कहा जाय । सि० प०.० … वर्षादिवद् प्रलय की इस अनुपत्ति के प्रसङ्गमें हमलोग कहते कि :- सूर्य जिस दिन मिथुन राशि को छोड़ कर कर्क राशि में आते हैं, उस दिन से वर्षां ऋतु का आरम्भ होता है । एवं जब तक सिंह राशि में रहते हैं, तब तक का समय वर्षा ऋतु कहलाता है । वर्षा ऋतु के इन दिनों में सब से पहिला दिन ( जिस दिन सूर्य मिथुन राशि को १. विप्रतिपन्नाः शाब्दव्यवहाराः वृद्धव्यवहारपूर्वकाः शाब्दम्यवहारस्वात् अद्यतन शताब्द- व्यवहारवत् । २. विप्रतिपचानिः घटादि निर्माणानि तथाभूतदर्शकज्ञानपूर्वकाणि घटादिनिर्माणवादपवन- घटादिनिर्माणवत् ।
२०४ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली छोड़ कर कर्क राशि में आते हैं) वर्षाऋतुदिनपूर्वक नहीं है । क्योंकि उसके पूर्व के दिन वर्षा ऋतु के नहीं हैं । यद्यपि वर्षा ऋतु के दूसरे दिन से लेकर और सभी दिन ( जब तक सूर्य सिंह राशि को छोड़ नहीं देते) वर्षाऋतु दिन पूर्वक हैं, क्योंकि इन सभी दिनों के श्रव्यवहित पूर्व के दिन अवश्य ही वर्षा ऋतु के होते हैं । वस्तुगति की इस स्थिति पर गर कोई यह अनुमान करे कि ‘वर्षा ऋतु के सभी दिन वर्षा ऋतु के होने के कारण अवश्य ही वर्षादिनपूर्वक हैं’ तो इस अनुमान का हेतु व्याप्यत्वासिद्ध हेत्वाभास होगा। क्योंकि यह हेतु ‘वर्षा ऋतु के प्रथमदिनभिन्नत्व’ रूप उपाधि से युक्त है । वर्षा ऋतु पूर्व के जितने अभी दिन हैं वे सभी अवश्य ही ‘वर्षा प्रथमदिन से भिन्न हैं’ एवं वर्षादिनत्व रूप हेतु वर्षा के प्रथम दिन में भी है, किन्तु उसमें वर्षा प्रथम दिनभिन्नत्व रूप कथित उपाधि नहीं है, इस प्रकार वर्षादिनपूर्वकत्व रूप उपाधि साध्य का व्यापक | एवं वर्षादिनत्व रूप हेतु का श्रव्यापक भी है । अतः उसके उपाधि होने में कोई बाधा नहीं है । इसी प्रकार ‘अहोरात्रमहोरात्रपूर्वकम्, अहोरात्रत्वाद् प्रद्यतनाहोरात्रवत, इस अनुमान का ‘अहोरात्रत्व’ हेतु उपाधि से युक्त होने के कारण व्याप्यत्वासिद्ध हेत्वाभास है । क्योंकि सृष्टि का सबसे पहिला अहोरात्र अहोरात्रपूर्वक नहीं है। सृष्टि के दूसरे अहोरात्र से लेकर प्रलय के पूर्व के सभी अहोरात्र अहोरात्रपूर्वक हैं । कथित पहिला अहोरात्र सृष्टि का उत्पत्तिकाल है । आगे के सभी अहोरात्र सृष्टि के स्थिति काल हैं । उत्पत्तिकाल का उक्त पहिला अहोरात्र अहोरात्रपूर्वक नहीं है । एवं स्थिति काल के उक्त सभी अहोरात्र अहोरात्रपूर्वक हैं । इस वस्तुगति के अनुसार ‘अहो - रात्रमहोरात्रपूर्वकम्’ इस अनुमान के हेतु में ‘भव’ अर्थात् स्थितिकालत्व स्वरूप ‘भव’ उपाधि है । क्योंकि कथित अहोरात्रपूर्वकत्व रूप साध्य स्थितिकाल के सभी अहोरात्रों में है, उन सभी अहोरात्रों में स्थितिकालत्व रूप उपाधि भी है, अतः स्थितिकालत्व उपाधि साध्य का व्यापक भी है । एवं उक्त अनुमान का ‘अहोरात्रत्व’ हेतु सृष्टि के प्रथम अहोरात्र में भी है, उसमें प्रकृत स्थितिकालत्व रूप उपाधि नहीं है। इस प्रकार प्रकृत स्थितिकालत्व रूप ‘भव’ में साधन का अव्यापकत्व भी है। इस उपाधि के कारण अहोरात्रत्व हेतु से सभी महोरात्रों में महोरात्र पूर्वकत्व की सिद्धि नहीं हो सकती । (२) वृत्ति रोधः सुषुप्तिवत् जिस प्रकार विभिन्न समयों में फल देने वाले कुछ जीवों के श्रदृष्टों की ‘वृत्ति’ प्रर्थाव कार्य करने की क्षमता सुषुप्ति समय रूप एक ही काल में प्रतिरुद्ध हो जाती है, उसी प्रकार प्रलय
द्वितीयः स्तवकः २०५ तत्पूर्वकत्वमात्रे सिद्धसाधनात् अनन्तरतत्पूर्वकत्वे अप्रयोजकत्वात्, वर्षादि- राश्यादिविशेषसं सगं रूपकालोपाधिप्रयुक्त’ हि दिन पूर्वकत द्दिन नियमभंग वदुपपत्तेः रूप एक ही काल में सभी जीवों के सभी श्रदृष्टों को कार्यक्षमता भी अवरुद्ध हो सकती है । अतः इस कथन में भी कुछ सार नहीं है कि “विभिन्न समयों में फल देने वाले विभिन्न जीवों की वृत्तियों का निरोध चूं कि किसी एक समय संभव नहीं है, अतः प्रलय की संभावना नहीं है ।” (३) उद्भिदवृश्चिक् ( जो चौराई का शाक) उद्भिद पहिले चावल के कणों से उत्पन्न होता है, बाद में उसकी परम्परा उक्त शाक रूप उद्भिद के वीजों से ही चलती है । अथवा विच्छू की पहिलो उत्पत्ति गोबर से होती है, और पीछे उसकी परम्परा विच्छुओं से ही चलती है । उसी प्रकार यह मानने में कोई बाधा नही है कि श्रादि में ब्राह्मणत्वादि जाति के व्यक्तियों की उत्पत्ति उनके लिये नियमिति विशेष प्रकार के भूतबंग से ही होती है, उसके बाद ब्राह्मणत्वादि जातियों के मातापिताओं से ही उनकी उत्पत्ति होती है । अतः प्रलय को स्वीकार करने से वर्णव्यवस्था की अनुपपत्ति भी नहीं है ! (४) मायावत् जिस प्रकार ‘मायावी’ ( कठपुतलियों को नचाने वाला ) के सूत्र में बद्ध कठपुतलियाँ मायावी के कहने पर पटादि वस्तुओंों को ले आतीं हैं, और उस क्रीड़ा को देखनेवाले अव्युत्पन्न बालक मायावी के द्वारा कथित शब्द की शक्ति को कठपुतलियों के द्वारा भानीत वस्तुओं में ग्रहण कर लेता है । इसी प्रकार सृष्टि की आदि में ईश्वर स्वरूप प्रयोज्यवृद्ध ( समझने वाला पुरुष ) एवं प्रयोजक वृद्ध ( समझानेवाला पुरुष ) दोनों शरीरों को धारण कर शक्तिप्रहण का मार्ग प्रशस्त कर देते हैं । भतः प्रलय को स्वीकार करने पर ‘समय’ अर्थात् शब्दों के संङ्केत से होनेवाले व्यवहारों की भी कोई अनुपपत्ति नहीं है । ( इसी प्रकार सृष्टि की श्रादि में सभी प्रकार की शक्तियों से परिपूर्ण परमेश्वर कुलालादि के शरीरों को धारण कर लोगों को घटादि निर्माण की शिक्षा देते हैं । उसके वाद उस शिक्षित व्यक्ति से घटादि निर्माण में समर्थ व्यक्तियों की परम्परा चलती है । अतः प्रलय को स्वीकार करने में कोई बाधा नहीं है । सि० प० तत्पूर्वकत्वमात्रे ? … को दोष ? १ ( मीमांसकों को ) (१) प्रत्येक अहोरात्र से पूर्व कभी न कभी किसी ग्रहोरात्र की सत्ता का साधन इष्ट है ? (२) या यह सिद्ध करना है कि प्रत्येक अहोरात्र से अव्यवहित पूर्व में कभी न कभी श्रहोरात्र अवश्य रहता है ? ) १. ‘सत्वपूर्वकस्वमात्रे’ यहाँ से लेकर ‘श्रवयविश्वाद’ इतने पर्यन्त के सन्दर्भ से आचार्य ने श्लोक के पहिले चरण की व्याख्या की है।
२०६ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जलौ तत्, तदभाव एव व्यावृत्तेः । तथेहापि सर्गानुवृत्तिनिमित्तब्रह्माण्ड स्थितिरूपकालोपाधि- निबन्धनत्वात्तस्य, तदभाव एव व्यावृत्तौ को दोषः ? | अगर सभी अहोरात्रों से पूर्व जिस किसी अहोरात्र की सत्ता को सिद्ध करेंगें तो सिद्धसाधन दोष होगा, क्योंकि हम ( नैयायिक ) लोग भी इस सृष्टि के प्रथम अहोरात्र से पहिले उस से पहिले की सृष्टि के अहोरात्र की सत्ता को स्वीकार ही करते हैं । अगर सभी अहोरात्रों से अव्यवहितपूर्व में अहोरात्र की सत्ता को सिद्ध करना चाहेंगे तो प्रकृत अनुमान का ‘अहोरात्रत्व’ हेतु ‘अप्रयोजक’ होगा । अर्थात् कोई भी अहोरात्र केवल अहोरात्र होने के नाते ही अव्यवहित अहोरात्रपूर्वक नहीं होता । ‘उस में अहोरात्रत्व है ’ केवल इस लिये इस प्रसङ्ग के यह कहने का उसे अव्यवहित अहोरात्र पूर्वक नहीं कहा जा सकता । सुतराम् अवकाश रह जाता है कि सृष्टि के प्रथम ग्रहोरात्र में अहोरात्रत्व रूप हेतु भले ही रहे, किन्तु इस से यह नहीं कहा जा सकता उस अहोरात्र से अव्यवहित पूर्व काल में भी अहोरात्र है ही । अर्थात् अहोरात्र में अव्यवहिताहोरात्रपूर्वकत्व रूप साध्य है ही । जिस प्रकार वर्षा ऋतु के दूसरे दिन से लेकर शरद ऋतु के प्रथम दिन पर्यन्त के सभी दिन अव्यवहितवर्षादिन- पूर्वक हैं ( अर्थात् इन सभी दिनों के अव्यवहित पूर्व के दिन वर्षा ऋतु के श्रवश्य हैं ) किन्तु वर्षा ऋतु का ही पहिला दिन ‘अव्यवहितवर्षादिनपूर्वक’ नहीं है ( अर्थात् उस दिन से अव्यवहित पूर्व का दिन वर्षा ऋतु का नहीं है, किन्तु ग्रीष्म ऋतु का है ) । अतः यह नहीं कहा जा सकता कि वर्षा ऋतु का कोई भी दिन इस लिये वर्षाऋतुदिनपूर्वक है, चूकि वह वर्षा ऋतु का है, क्यों कि वर्षा ऋतु का पहिला दिन स्वयं वर्षा ऋतु का होते हुये भी वर्षाऋतु- दिनाव्यवहितपूर्वक नहीं है । इस वस्तुगति के अनुसार वर्षाव्यवहितदिनपूर्वत्व का प्रयोजक वर्षादिनत्व को नहीं माना जा सकता । वर्षादिनाव्यवहितपूर्वक वही दिन होगा, जिस के अव्यवहितपूर्व दिन में सूर्य रूप ग्रह कर्क या सिंह इन दोनों राशियों में से किसी एक में रहेंगे वर्षा ऋतु के पहिले दिन के अव्यवहितपूर्व दिन में सूर्य मिथुन राशि में रहते हैं, सिंह या कर्क में नहीं । अतः वर्षा ऋतु का पहिला दिन वर्षा ऋतु का होते हुये भी वर्षा ऋतु दिनाव्यवहितपूर्वक नहीं है । शरद के पहिले दिन से अव्यवहित पूर्वदिन में सूर्य चू कि सिंहराशि में ही रहते हैं अतः, शरद ऋतु का पहला दिन वर्षा ऋतु का न होते हुये भी वर्षादिनाव्यवहितपूर्वक अवश्य है । अतः वर्षादिनत्व को वर्षाव्यवहितदिनपूर्वकत्व का प्रयोजक नहीं माना जा सकता । इसी प्रकार अहोरात्राव्यवहितपूर्वकत्व का प्रयोजक अहोरात्रत्व नहीं है, किन्तु ब्राह्माण्ड का स्थितिकाल रूप ‘भव’ ही उसका प्रयोजक है । सृष्टि का पहिला दिन ब्रह्माण्ड का उत्पत्तिकाल है, स्थितिकाल नहीं । अत एव वह अहोरात्राव्यवहित पूर्वक नहीं है । E f
द्वितीयः स्तबके २०७ न च तदनुत्पन्नमनश्वरं वा, प्रवयवित्वात् । वृत्तिनिरोधस्यापि सुषुप्त्यवस्था- वदुपपत्तेः । न ह्यनियतविपाकसमयानि कर्माणीति न तदानीं कृत्स्नान्येव भोग- विमुखानि । न ह्यचेतयतः कश्विद्भोगो नाम, विरोधात् । कस्तर्हि तदानीं शरीरस्योपयोगः ? । तं प्रति न कश्चित् । तर्हि किमर्थमनु- 9… … न च तदनुत्पन्नम् " ब्रह्माण्ड चू कि अवयवी है, अतः इसकी उत्पत्ति भोर विनाश इन दोनों में से किसी का भी खण्डन नहीं किया जा सकता । अतः अवयवी रूप ब्रह्माण्ड नित्य भी नहीं हो सकता । वृत्तिरोधस्यापि 100 जिस प्रकार सुषुप्ति अवस्था में जीवों के शीघ्र फल देने वाले और बिलम्ब से फल देने वाले सभी प्रकार के अदृष्ट एक ही समय फल देने से विमुख हो जाते हैं, उसी प्रकार प्रलय रूप एक ही विशेष काल में वे सभी अदृष्ट फल देने से विमुख हो जाते हैं, जो विभिन्न समयों में फल दे सकते हैं । जिस प्रकार सुषुप्तिकाल में यह नहीं कहा जा सकता कि सोनेवाले पुरुष के सभी प्रदृष्ट चूँकि विभिन्न समयों में ही फल देने की क्षमता रखते हैं, अतः किसी एक ही समय सभी अदृष्ट फल देने से विमुख नहीं हो सकते । उसी प्रकार प्रलयकाल में भी यह कहना संभव नहीं है कि सभी जीवों के विभिन्न समयों में फल देने वाले सभी अष्ट प्रलय रूप एक काल में फल देने में विमुख नहीं हो सकते । न हि प्रचेतयत: … सुख और दुख इन दोनों में से किसी एक के साक्षाकार को ही ‘भोग’ कहते हैं । एवं ज्ञान को ही चैतन्य भी कहते हैं । सुषुप्ति है अचैतन्यावस्था, अर्थात् ज्ञानशून्यावस्था, उसमें ज्ञान से अभिन्न उक्त साक्षाकार रूप भोग की उत्पत्ति कैसे हो सकती है ? तव प्रश्न रहा कि सुषुप्ति समय में जब भोग नहीं हो सकता, तब भोग के आयतन रूप शरीर का उस समय क्या उपयोग ? इसका यह उत्तर हैं कि सोते हुये पुरुष के लिये उस समय कोई उपयोग नहीं । फिर प्रश्न होता है कि तब फिर सुषुप्ति काल में शरीर की अनुवृत्ति क्यों रहती है ? इसका यह उत्तर है कि उत्तर काल में भोग संपादन के लिये ही सुषुप्ति काल में शरीर की अनुवृत्ति बनी रहती है । फिर भी यह प्रश्न रह जाता है कि सुषुप्तिकाल में प्राणवायु की अनुवृत्ति किस लिये रहती है ? वह तो कभी भो भोग का सहायक नहीं होती । इस प्रश्न का यह उत्तर है कि प्राणवायु भी भोग का सहायक है । क्यों कि प्राणवायु के संचार से जीवों के बाल्ययोवनादि अवस्थाओं का निर्णय होता है । । १. किन्तु, ब्रह्माण्ड को अगर निष्य मान लिया जाय’ तथापि प्रलय की उपपत्ति नहीं की जा सकती । अत: ‘न च’ इत्यादि सन्दर्भ के द्वारा ब्रह्माण्ड में अनित्यस्व का साधन किया गया है ।
२०८ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जलौ वत्तंते ? । उत्तरभोगार्थम्, चक्षुरादिवत् । प्राणिति किमर्थम् ? । श्वासप्रश्वास सन्ताने- नाऽऽयुषोऽवस्थाभेदार्थम्, तेन भोगविशेषसिद्धेः । एकस्यैव तत् कथञ्चिदुपपद्यते, न तु विश्वस्येति चेत् ? अनन्ततया, प्रनियत- विपाकसमयतया, उपमद्यपमर्दकस्वभावतया च कर्मणां विश्वस्यैकस्य वा को विशेषो येन तन्न भवेत् ? भवति च सर्वस्यैव सुष्वापः क्रमेण, न तु युगपदिति चेन्न 1 बाल्ययोवनादि विशेष प्रकार की अवस्थायें भी विशेष प्रकार के भोगों के नियामक हैं । ऐसे बहुत से भोग हैं जो विशेष प्रकार की अवस्थाओं की अपेक्षा रखते हैं । इस प्रकार प्राण भी अपने व्यापार के द्वारा भोग का संपादक है । इसलिये सुषुप्ति काल के बाद उन अवस्थाओं में होने वाले विशेष प्रकार के भोगों के संपादन के लिए सुषुप्ति अवस्था में भी प्राण का व्यापार रहता है । अत: सुषुप्ति काल के प्राणव्यापार को व्यर्थं नहीं कहा जा सकता । पू० प० एकस्यैव …… … एक काल में एक व्यक्ति को या कुछ व्यक्तियों को सुषुप्ति हो सकती है । एक ही समय संपूर्ण विश्व को सुषुप्ति भी संभव नहीं है। किसी एक समय किसी एक व्यक्ति के सभी श्रदृष्टों की कार्यक्षमता कदाचित् अवरुद्ध हो भी सकती है, किन्तु किसी एक समय में विश्व के सभी जीवों के सभी अदृष्टों की कार्य को उत्पन्न करने की शक्ति अवरुद्ध नहीं हो सकती । अतः सुषुप्ति के दृष्टान्त से विश्व के सभी जीवों के अदृष्टों की वृत्तियों के निरोध का आश्रयीभूत काल स्वरूव ‘प्रलय’ का समर्थन नहीं किया जा सकता । सि० प० अनन्ततया .. … … येन तन्न भवेत् एक ही समय सभी अदृष्टों की कार्यान्विति को इसलिये असंभव कहा गया है कि वे अनन्त हैं, एवं (विषम विपाक समय के हैं ) वे विभिन्न समयों में फल देने की सामर्थ्य रखते हैं, एवं परस्पर विरोधी स्वभाव भी रखते हैं । इस स्थिति में एक जीव के सभी श्रदृष्ट उक्त तीनों धर्मो से युक्त होते हुये भी अगर एक समय में सर्वथा वृत्तिरुद्ध होकर उस जीव के सुषुप्ति का संपादन कर सकते हैं, तो फिर सभी जीवों के सभी अदृष्ट एक ही समय वृत्तिरुद्ध होकर ‘प्रलय’ का संपादन क्यों नहीं कर सकते ? प्रायः सभी जीव सोते हैं, अतः एक ही समय सभी जीवों के प्रदृष्टों की वृत्ति का रोध भी असंभव नहीं है । पू० प० भवति च सर्वस्यैव… यह ठीक है कि सभी जीवों के लिये सुषुप्ति अवस्था आतो है । किन्तु एक ही समय सभी जीवों की सुषुप्ति प्रवस्था भी तो नहीं भाती है । अतः ऐसा कोई भी ‘एक सुषुप्तिसमय’ भ क या दे यु न य प्र अ रि यु ( के के सु स ए नि प्र ( स कु क
1- में र न्य बों क 6 to व त वं का र य य य’ द्वितीयः स्तबकः २०६ कारणक्रमायत्तत्वात् कार्यक्रमस्य । न च स्वहेतुबलायातेः कारणेः क्रमेणेव भवितव्यम् अनियतत्वादेव, सर्वग्रासवत्, ग्रहाणां ह्यन्यदा समागमानियमेऽपि तथा कदाचित्स्यात् । यथा कालाद्यनियमेऽपि सर्वभण्डलोपरागः स्यात् । त्रिदोषसन्निपातद्वा, यथा हि वातपित्तश्लेष्मरणां चयप्रकोप प्रशमक्रमाऽनियमेऽपि एकदा सन्निपातः स्यात्तदा देहसंहारः, तथा कालानलपवन महार्णवानां सन्निपाते ब्रह्माण्डदेहप्रलयावस्थायां युगपदेव भोगरहिताश्चेतनाः स्युरिति को विरोध: ? नहीं है, जिसमें सभी जीवों के अदृष्टों की कार्यक्षमता अवरुद्ध हो जाती हो । ( अर्थात् एक जीव या कुछ जीवों के श्रदृष्टों की वृत्तियाँ एक ही समय निरुद्ध हो सकतीं हैं । फिर भी यह बात प्रमाणसापेक्ष ही रह जाती है कि ‘एक ही समय सभी जीवों के सभी अदृष्टों की कार्यक्षमता अवरुद्ध हो जाती है । सुत्राम् ‘सुषुप्ति’ उपयुक्त दृष्टान्त नहीं है ) । सि० प० कारणक्रमायत्तत्वात् इसका यह उत्तर है कि कुछ कार्य तो एक ही समय उत्पन्न होते हैं, जैसे कि गाय के दोनों सींग । कुछ कार्य क्रमशः उत्पन्न होते हैं जैसे कि घटपटादि । किं वा कुछ घटपटादि कार्य भी युगपत (एक ही समय ) उत्पन्न होते हैं । इसका यह निष्कर्ष हुआ कि जिन कार्यों के कारणसमूह ( सामग्री ) युगपत् एकत्र होते हैं, उन कार्यों की उत्पत्ति युगपत होती है, एवं जिन कार्यों के कारणसमूह क्रमशः एकत्र होते हैं, उन कार्यों की उत्पत्ति क्रमशः होती है । इस वस्तुगति के अनुसार कुछ जीवों के सुषुप्ति रूप अनेक कार्य एक ही सुषुप्ति रूप कार्य क्रमशः उत्पन्न होते हैं । श्रर्थात् सुषुप्ति के समय होते है, एवं कुछ जीवों के क्रमिकत्व का प्रयोजक है, उसकी सामग्री का ( क्रमिकत्व ) क्रमशः एकत्र होना । इसका यह अभिप्राय नहीं है कि अनेक कार्य एक समय में ( . युगपत् ) उत्पन्न ही न हों । अतः सभी जीवों के सभी अदृष्टों की वृत्तियों के निरोध की सामग्री अगर एक ही समय संबलित हो सके तो सभी जीवों के सभी अदृष्टों की प्रवृत्तियों का निरोध एक ही समय हो सकता है। इस प्रसङ्ग में ( १ ) सर्वग्रास श्रौर (२) त्रिदोषसंनिपात ये दो दृष्टान्त दिये जा सकते हैं । ( १ ) जिस प्रकार किसी समय ग्रहों के विशेष प्रकार के संनिधान से ‘सर्वग्रास’ ग्रहण होता है, एवं उक्त संविधान में कुछ व्यत्यय होने से ‘खण्डग्रास’ ग्रहण होता है । ( २ ) अथवा जिस प्रकार प्रकोपयुक्त कफ, पित्त और वायु के एक ही समय संवलित होने से देह का संहार रूप मृत्यु संघटित होता है, उसी प्रकार ब्रह्माण्ड रूप शरीर का कालानल ही प्रकुपित पित्त है, झंझावात है प्रकुपितवायु, एवं महार्णव है प्रकुपितश्लेष्मा, इन सबों के एक काल में संवलित २७
२१० गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली तथापि विदेहा: कर्मिण इति दुर्घटमिति चेत् ? किमत्र दुर्घटम् ? भोगनिरोध- वच्छरीरेन्द्रिय विषयनिमित्त निरोधादेव तदुपपत्तेः । । वृश्चिक तण्डुलीयकादिवद्वर्णादिव्यवस्थाऽप्युपपद्यते । यथा हि वृश्चिकपूर्व- कस्वेऽपि वृश्चिकस्य गोमयादाद्यः, तण्डुलीयकपूर्वकत्वेपि तण्डुलीयकस्य तण्डुलकरणा- दाद्यः, वह्निपूर्वकत्वेऽपि वह्नररणेराद्यः, एवं क्षीरदधिघृततैलकदलीकाण्डादयः । तथा मानुषपशुगोब्राह्मणपूर्वकत्वेऽपि तेषां प्राथमिकास्तत्तत्कर्मोपनिबद्धभूत- भेदहेतुका एव । स एव हेतुः सर्वत्रानुगत इति सर्वेषां तत्सान्तानिकानां समान- जातीयत्वमिति किमसंगतम् ? | होने से ब्रह्माण्ड स्वरूप देह का नाश रूप प्रलय हो सकता है । उस प्रलय रूप विशेष प्रकार की अवस्था में विशेष कारण वश अगर सभी जीवों की सभी वृत्तियों का निरोध एक ही समय हो जाय, तो इस में कौन सी असङ्गति है ? भोग्य एवं भोग के साधनों के न रहने पर जीवों में अदृष्ट के रहते हुए भी भोग की उत्पत्ति नहीं हो सकती । पू० प० तथापि ….. विदेहाः कर्मिणः … १ ……… फिर भी यह उचित प्रतीत नहीं होता कि शरीरादि तो न रहें, किन्तु आत्मा कर्म ( अदृष्ट ) की सत्ता बनी रहे । किमत्र…… सभी बातें कार्यकारणभाव के ऊपर निर्भर करतीं हैं । तदनुसार जिस प्रकार श्रदृष्ट के रहते हुए भी भोग के भोग्यादि अन्य कारणों के न रहने से भोग की उत्पत्ति नहीं होती है, उसी प्रकार अदृष्ट के रहने पर भी शरीर, इन्द्रिय एवं विषय इन सभी के कारणों के विनष्ट हो जाने पर भी शरीरादि के नाथ की उपपत्ति हो सकती है । वृश्चिक तण्डुलीयकादिवत् अर्थात् जिस प्रकार विच्छू की उत्पत्ति सर्वप्रथम गोबर से होती है, बाद में फिर विच्छू १. यह ठीक नहीं मालूम होता, जीवों के शरीरादि के विनष्ट हो जाने पर भी उत्तर काल में भोग के लिये श्रष्ठ रहते ही हैं—क्योंकि शरीरादि से युक्त जीव ही जब कर्म कर सकता है तब उस कर्म से उत्पन्न दृष्ठ का आश्रय भी शरीरादि से युक्त जीव ही हो सकता है । तस्मात् जीव ‘विदेह’ है, अर्थात् शरीर इन्द्रिय प्रभृति से शून्य है, अथ च उनमें है, ये दोनों बातें एक साथ नहीं मानी जा सकती। इसी संगति का परिहार ‘तथापि विदेहाः किमसमऽञ्जम् इत्यादि सन्दर्भ से आचार्य ने किया है। उक सन्दर्भ से श्लोक के दूसरे चरण की व्याख्या प्रारम्भ होती है !
ध- वं- गा- श्रुत- न-
- की मय नीवों कार नहीं रणों विच्छू काल कर. हो थ च का उक द्वितीयः स्तबंकः २११ गतं तहि गोपूवकोऽयं गोत्वादित्यादिना । न गतम्, योनिजेष्वेव व्यवस्थापनात् । मानसास्त्वन्यथाऽपीति । गोमय वृश्चिकादिवदिदानीमपि किं न स्यादिति चेन्न । से ही बिच्छुओं की उत्पत्ति होने लगती है । अथवा चौराई शाक की उत्पत्ति पहिले चावल के कणों से होती है, बाद में चौर राई के बीज से ही चौराई शाक की उत्पत्ति होती है । कि वा अभी वह्नि से ही वह्नि की उत्पत्ति देखी जाती है, किन्तु आदि में अरणि के मन्थन से ही वह्नि की उत्पत्ति हुई थी। इसी प्रकार दूध, दही, घृत एवं कदलीकाण्ड प्रभृति में भी जानना चाहिए । इसी प्रकार अभी के ( सृष्टि के उत्तर काल में ) ब्राह्मण यद्यपि ब्राह्मण माता पिता से ही उत्पन्न होते हैं, किन्तु ‘प्राथमिक’ अर्थात् सृष्टि की श्रादि में ब्राह्मणादि की उत्पत्ति ब्राह्मणादि से न होकर ब्राह्मणादि शरीरों के सम्पादक विशेष प्रकार के पृथिव्यादि भूतवर्गों से ही हुई थी। जिस प्रकार सदृद्दा कापालों से उत्पन्न सभी द्रव्य घटजातीय ही होते हैं, उसी प्रकार ब्राह्मणादि शरीर के सम्पादक विशेष प्रकार के प्रदृष्टों से नियमित पृथिव्यादि एक जाति के द्रव्यों से जिन शरीरों की उत्पत्ति होगी, वे सभी ब्राह्मण जातीय ही होंगे, इसमें कोई भी असङ्गति नहीं है । तस्मात् सृष्टि के श्रादिकाल में ब्राह्माणत्वादि जाति के शरीरो की अनुपपत्ति से अर्थात् वर्णव्यवस्था की अनुपपत्ति से प्रलय की अनुपपत्ति सिद्ध नहीं की जा सकती । पू० प० गतं तर्हि गोत्व हेतु से गोपूर्वकत्व का अनुमान सार्वजनीन है । अगर सृष्टि के आदि की तरह किसी भी गोत्व में गोपूर्वकत्व न रहे तो गोत्व हेतु में गोपूर्वकत्व की व्यामि भङ्ग हो जाती है । फलतः गोत्व हेतु से गोपूर्वकत्व का सर्वसिद्ध अनुमान न हो सकेगा । पि० प० न गतम् सभी जीव योनिज एवं मानस भेद से दो प्रकार के हैं । इन में योनिज गवादि के प्रसङ्ग में ही गोपूर्वकत्व का नियम है। मानस गवादि ’ अन्यथापि ’ विना गोपूर्वक भी हो सकते हैं । अर्थात् गोपूर्वकत्व के साधन के लिये जिस ‘गोत्व’ को हेतु रूप में उपस्थित किया जाता है, वह योनिज गोनों में रहने वाला गोत्व ही है । एवं तन्मूलक ही उक्त अनुमान है । पू० प० गोमय वृश्चिकादिवत् .. ….. ( यह प्रश्न रह जाता है कि कथित ‘गोमय वृश्चिक’ न्याय से ब्राह्मणादि जाति के शरीरों की उत्पत्ति क्यों नहीं होती ? इस प्रश्न का यह समाधान है कि ) CCO. Vasishtha Tripathi Collection. Digitized by eGangotri२१३ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली कालविशेषनियतत्वात् कार्यविशेषाणाम् । न हि वर्षासु गोमयाच्छालुक इति हेमन्ते कि न स्यात् ? समयोऽप्येकेनैव मायाविनेव व्युत्पाद्यव्युत्पादकभावावस्थितनानाकायाधि- ष्ठानाद् व्यवहारत एव सुकरः । यथा हि मायावी सूत्रसञ्चाराधिष्ठितं दारुपुत्रकमिद- मानयेति प्रयुङ्क्ते । स च दारुपुत्रकस्तथा करोति । तदा चेतनव्यवहारादिवत्तद्दर्शी बालो व्युत्पाद्यते, तथेहापि स्यात् । क्रियाव्युत्पत्तिरपि तत एव कुलालकुविन्दादीनाम् । सर्गादावेव किं प्रमाणमिति चेत् ? सि० प० कालविशेष नियत्वात् कुछ विशेष प्रकार के कार्यों का यह स्वभाव होता है कि वे एक विशेष समय में ही उत्पन्न हों । यह अभियोग नहीं किया जा सकता कि वर्षाऋतु में गोबर से शालूक (कुकुरमुत्ता) की उत्पत्ति होती है, तो हेमन्त ऋतु में उसकी उत्पत्ति गोबर से क्यों न हो ? अतः यह कहा जा सकता है कि सृष्टि के आदिकालिक ब्राह्मणादि शरीरों का यह स्वभाव है कि वे विना ब्राह्मणादि शरीर के ही उत्पन्न हों । एवं अभी के ब्राह्मणादि शरीरों का यही स्वभाव है कि वे ब्राह्मणादि शरीरपूर्वक ही हों । समयोऽप्येकेनैव … जिस प्रकार ‘मायावी’ ( कठपुतली को नचानेवाले ) के सूत्र में बद्ध कठपुतियाँ उस मायावी के कहने पर पटादि वस्तुओं के ले भाती है, एवं उस क्रीड़ा को देखने वाला अव्युत्पन्न बालक मायावी के द्वारा कथित शब्द के ‘समय’ ( अर्थात् संकेत ) को कठपुतलियों के द्वारा लायी गई वस्तुनों में समझ लेता है । उसी प्रकार यह कल्पना सहज है कि सृष्टि की आदि में एक ही ईश्वर प्रयोज्यवृद्ध ( समझनेवाला पुरुष ) एवं प्रयोजकवृद्ध ( समझानेवाला पुरुष ) दोनों शरीरों को धारण कर ‘समयग्रहण’ ( शक्तिज्ञान ) के मार्ग को प्रशस्त कर देते हैं । क्रियाव्युत्पत्तिरपि … … इसी प्रकार सृष्टि की आदि में सभी प्रकार की शक्तियों से परिपूर्ण परमेश्वर कुलालादि शरीरों को धारण कर लोगों को घटादि निर्माण की शिक्षा देते हैं । इसके बाद 1.उन शिक्षित व्यक्तियों से घटादि निर्माण में समर्थ व्यक्तियों को परम्परा चलती है, अतः मलय को स्वीकार करने में कोई बाधा नहीं है । L. पू० प सर्गादावेव ( बाघक प्रमाणों के खण्डन भर से किसी वस्तु की सिद्धि नहीं हो सकती, इसके लिये साधक प्रमाण भी चाहिये । अतः सृष्टि और प्रलय की सिद्धि के लिये प्रमाणों का दिखाना आवश्यक है, इसीलिये ‘सर्गादी’ इत्यादि सन्दर्भ के द्वारा प्रश्न किया गया है कि ) सृष्टि धौर प्रलय की सत्ता में कौन-सा प्रमाण है ?
-तै घ- द- if ही 1) T स न T र WN2 न्द ये T द्वितीयः स्तबकः २१३ विश्वसन्तानोऽयं दृश्यसन्तान शून्यैः समवायिभिरारब्धः, सन्तानत्वादारणेय- सन्तानवत् । वर्तमान ब्रह्माण्ड परमाणवः पूर्वमुत्पादितसजातीयसन्तानान्तराः नित्यत्वे सति तदारम्भकत्वात्, प्रदीपपरमाणुवदित्यादि । श्रवयवानामावापोद्वापादुसत्तिविनाशी च स्याताम्, सन्तानाऽविच्छेदश्चेति को विरोध इति चेन्न । सि० प० विश्वसन्तानोऽयम् वर्त्तमानब्रह्माण्ड परमाणवः संसार में विद्यमान जितने भी पदार्थ हैं, वे सभी परस्पर किसी-न-किसी प्रकार के सम्बन्ध से युक्त हैं । अभी के ( सृष्टि के उत्तर के समय ) विश्व में घटादि को उत्पन्न करनेवाले परमाणु भी हैं, एवं दृश्यघटकपालादि के ‘सन्तान’ अर्थात् समूह भी हैं। इस प्रकार सृष्टि के उत्तरकाल में घटारम्भक सभी परमाणु कपालादि दृश्य पदार्थों से युक्त हैं । अतः यह कहा जा सकता है कि सृष्टि के उत्तरकाल में जिन घटादि द्रव्यों की उत्पत्ति होती है, उनका कारण दृश्यघटकपालादि सन्तान से युक्त परमाणु हैं । एवं सृष्टि के उत्तरकाल में जिनकी उत्पत्ति दृश्यसन्तान से युक्त परमाणुओं से होती है, उस जाति की वस्तु कभी दृश्यतसन्तान से रहित परमाणुओं से भी होती है । जैसे प्राथमिक वह्नि को उत्पत्ति अरणि काष्ठ में संयुक्त वह्निके परमाणुओं से ही होती है, उस समय उसे स्थूलवाह्नि का साहचर्य नहीं मिलता है । इसी प्रकार घटादि के उत्पादक परमाणु समूह जिस समय दृश्यसन्तान से रहित होकर घटादि को उत्पन्न करते हैं, वही काल ‘सृष्टि का आदिकाल’ है । वर्त्तमानब्रह्माण्डपरमाणवः … वर्त्तमान ब्रह्माण्ड के उत्पादक जितने भी परमाणु हैं, वे सभी अवश्य ही इस ब्रह्माण्ड के सजातीय दूसरे ब्रह्माण्ड के भी उत्पादक हैं । क्योंकि परमाणु नित्य हैं, और उनमें ब्रह्माण्ड को उत्पन्न करने की शक्ति है प्रदीपों की सृष्टि करते हैं । कारण ब्रह्माण्ड अनित्य हैं । पू० प० अवयवानाम् । जैसे की प्रदीप के उत्पादक परमाणु प्रत्येक क्षण में अलग-अलग यह पहिले ही लिखा जा चुका है कि उत्पत्ति शील होने के अतीत ब्रह्माण्ड के विनाश एवं वर्त्तमान ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति इन दोनों के बीच ऐसा कोई भी समय नहीं है, जहां उत्पत्तिशील ( कार्य ) द्रव्यों की उत्पत्ति और विनाश की परम्परा मं रहे । श्रतः जैसे कि वर्तमान काल में अवयवों के संयोग और वियोग से कार्यद्रव्यों की उत्पत्ति और विनाश की परम्परा प्रचलित देखी जाती है, इसी प्रकार यह उत्पत्तिविनाश की धारा चालू रहती है। किसी भी समय इसका विराम नहीं होता । इसको मान लेने से
२१४ गद्यपद्यात्मक-न्याय कुसुमाञ्जली एवं हि घटादिसन्तानाऽविच्छेदोऽपि स्यात् । विपर्ययस्तु दृश्यते । कर्त्रादि- भोगविशेषसम्पादन प्रयुक्तोऽसाविति चेन्न । द्वद्यणुकेषु तदभावात् । घटादि कार्यसमूहों के प्रवाह की सर्वानुभवसिद्ध अविच्छिन्नता भी उपपन्न होती है । अतः उक्त अनुमान से प्रलय की सिद्धि नहीं हो सकती । सि० प० न, एवं हि कथित युक्ति के अनुसार जिस प्रकार ब्रह्माण्ड के प्रवाह की अविच्छिन्नता सिद्ध होगी, उसी प्रकार घटादि कार्यों के प्रवाह की अविच्छिन्नता भी सिद्ध होगी । किन्तु ऐसी अनेक वस्तुनों का नाम लिया जा सकता है जो पहिले बनते थे, किन्तु उनके बनने की परम्परा सर्वथा लुप्त हो चुकी है । अतः जो परम्परायें उत्पत्तिशील और विनाशशील हैं, उनका भी कभी न कभी अत्यन्त विनाश अवश्य होगा । ब्रह्माण्ड भी उत्पत्तिशील और विनाशशील है, अतः उसका भी अत्यन्त विनाश कभी अवश्य होगा । इससे यह अनुमान फलित होता है कि ‘ब्रह्माण्ड सन्ततिः, अत्यन्तमुच्छिद्यते सन्ततित्वात् प्रदीपसन्ततिवत् । पू० प० कर्त्रादि उक्त अनुमान का हेतु ‘भोगविशेषप्रयुक्तत्व’ रूप उपाधि से युक्त है । अर्थात् वस्तुत्रोंके विनाश का प्रयोजक ‘सन्ततित्व’ नहीं है, किन्तु विशेष प्रकार के भोग का संपादन ही उसका प्रयोजक है । प्रत्येक विनाश से किसी को सुख मिलता है, तो किसी को दुख । जिस संयय घट जाति के सभी व्यक्तियों के विनाश से होने वाले सुख और दुःख के प्रयोजक अदृष्ट कार्योन्मुख हो जाते हैं, उस समय घटसंप्रदाय का विच्छेद हो जाता है । अतः घटादि समूहों के विनाश का प्रयोजक उनका ‘सन्ततित्व’ नहीं है । किन्तु ‘विशेष प्रकार के भोगों का संपादन ही उसका प्रयोजक है । अतः उक्त अनुमान का हेतु ‘भोगविशेषप्रयुक्तत्व’ रूप उपाधि से युक्त होने के कारण दुष्ट है । सि० प० द्वचरणुकेषु 130 … कथित ‘भोगविशेषप्रयुक्तत्व’ स्वरूप धर्म प्रकृत साध्य का व्यापक न होने से उपाधि नहीं हो सकता । क्योंकि जिस वस्तु की सत्ता सुख का कारण होती है, उसी वस्तु की प्रसत्ता दुःख के उत्पादन के द्वारा भोग की संपादिका होती है । द्वयरमुक भोग्य नहीं है, अतः सुःख का उत्पादक भी नहीं है । फलतः उसके नाश से दुःख की उत्पत्ति एवं दु:ख के साक्षात्कार रूप भोग की उत्पत्ति भी सम्भव नहीं है । सुतराम् द्वयरंशुक का अत्यन्त विनाश तो होता है, किन्तु वह विशेष प्रकार के भोग का संपादक नहीं है । अतः द्वयक के विनाश में व्यापकत्व भङ्ग हो जाने से प्रकृत उपाधि सम्भव नहीं है । 1
द्वितीयः स्तबकः २१५ तथा च तदवयवानामपगमाभावेऽनादित्वप्रसंगे द्वधरणुकत्वव्याघातः । तस्मात् यत्कार्यं यन्निबन्धनस्थिति तदपगमे तन्निवृत्तिः । यत् यद्धेतुकं तदुपगमे तस्योत्पत्तिः । न च कार्यस्य स्थितिनिबन्धनं नित्यमेव नित्यस्थितिप्रसंगात् । न च नित्य एव हेतु:, अकादाचित्कत्वप्रसंगात् । तदतिनिस्त रंगमेतत् । ईदृश्याञ्च वस्तुस्थिती भोगोऽपि कर्मभिरेवमेव वस्तुस्वभावानतिक्रमेण सम्पादनीय इति द्वचरणुकवत् पिपीलिकाण्डादेः ब्रह्माण्डपर्यन्तस्यापि विश्वस्येयमेव गतिरिति प्रतिबन्धसिद्धिः । तथा च तदवयवानाम् अगर सभी विनाशों को विशेष प्रकार के भोग का प्रयोजक मानें तो दरक का कभी नाश ही नहीं हो सकेगा । क्योंकि द्वयरमुक के विनाश से कोई भी भोग संपन्न नहीं होता है । अगर ‘द्वयरक’ नाम के द्रव्य का विनाश नहीं होगा तो फिर उसकी उत्पत्ति भी नहीं मानी जा सकेगी। क्योंकि अविनाशस्वभाव के भावपदार्थ की उत्पत्ति नहीं होती है । इस प्रकार द्वयक नाम का द्रव्य जव अनुत्पत्तिशील एवं अविनाशशील होगा तो फिर वह ‘सावयव’ नहीं हो सकता । इस प्रकार ‘उस’ द्रव्य का ‘द्वयसुक’ नाम ही व्याहत हो जायगा, क्योंकि दो ( परम ) अणुओं से उत्पन्न होने के कारण ही उस को ‘द्वचक’ कहा जाता है । तस्मात् यत्कार्यंम् अतः जिस कार्य की सत्ता के मूल कारण के हट जाने पर उस कार्य का विनाश हो जाता है । एवं वही कारण जब दूसरे देश में और सहकारी कारणों के साथ जा मिलता है, तो फिर उस देश में उससे कार्य की उत्पत्ति होती है । कार्यसत्ता का यह प्रयोजक ( असमवायिकारण ) कारण नित्य नहीं हो सकता । अगर ऐसा मानेंगे तो उस कार्य की सर्वदा स्थिति माननी पड़ेगी । अतः ‘तत्’ अर्थात् ‘तस्मात् ’ ‘एतत्’ अर्थात् सृष्टि के साधक और प्रलय के साधक दोनों अनुमान ‘निस्तरङ्ग’ अर्थात् ‘निर्दोष’ है । इदृश्यां च … कार्यों की स्थिति चूंकि अनित्यकारणमूलक है, इस वस्तुगति के स्वभाव का अतिक्रमण कार्य के द्वारा भोग के उत्पादन में भी नहीं होगा । इसलिये द्वचरतुक के ही समान पिपिलिका से लेकर बह्माण्ड पर्यन्त के सभी कार्यों के प्रसङ्ग में ‘यही गति’ होगी । अर्थात् सन्तानत्व
२१६ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली तथाच ब्रह्माण्डे परमाणुसाद्भवितरि परमाणुषु च स्वतन्त्रेषु पृथगासीनेषु तदन्तःपातिनः प्राणिगणाः क वर्त्तन्ताम् ? । कुपिनकपिकपोलान्तर्गतौदुम्बरमशक- समूहवत्, दवदहनदह्यमानदारुद र विघूर्णमान घुण संघातवत् । प्रलयपवनोल्लासनीयो- र्वानलनिपातिपोतसांयात्रिकसार्थवद्वेति ॥ २ ॥ प्रयुक्त नाशप्रतियोगित्ववालो गति ही होगी । सुतराम् जिन पदार्थों में सन्तानत्व है, उन सभी पदार्थों में अत्यन्त विनाश का प्रतियोगित्व रूप साध्य भी अवश्य ही है । अतः कथित अनुमान के हेतुओं में ‘प्रतिबन्ध’ की अर्थात् व्याप्ति की कोई अनुपपत्ति नहीं है । ब्रह्माण्डे ( १ ) जब ब्रह्माण्ड ‘परमार सात’ हो जायगा अर्थात् ब्रह्माण्ड का जब आपरमाण्वन्त विनाश हो जायगा और जब सभी परमाणु ‘स्वतन्त्र’ अर्थात् परस्पर असम्बद्ध हो जायेंगे । तो वे कार्य के उत्पादन में अक्षम हो जायँगे, उस समय ये ‘प्राणिगण’ या ‘गिरिसागरादि’ कहाँ रहेंगे ? अतः यही मानना होगा कि आश्रय के अभाव में वे भी विनष्ट हो जायेंगे । अर्थात् अवयवों में ही अवयवी की सत्ता रहती है । श्रवयवी परम्परा का विनाश जब द्वचरतुक के विनाश तक पहुँच जायगा, उस समय अन्य किसी अवयवी के अवयव की संभावना ही नहीं रहेगी । इस से ये अनुमान निष्पन्न होते हैं कि ( १ ) प्राणियों का या गिरिसागरादि का भी अत्यन्त विनाश अवश्य होता है, क्योंकि दूसरे महाद्रव्यों के विनाश से उनके आश्रय विनष्ट हो चुके रहते हैं । जैसे कि ( क्षुधा ) से क्रुद्ध वानर के मुंह में पड़े हुये गूलर के बीच रहनेवाले कीड़ों का नाश गूलर के विनाश से हो जाता है । इस से अनुमान का यह वाक्य निष्पन्न होता है कि प्राणिगणा: गिरिसागरादयो वा विनश्यन्ति द्रव्यान्तरेण सह विहन्यमानाधारत्वात् कुपितकपोलान्तर्गतोदुम्बर मशकसमूहवत्" (२) ( ‘दवदहनदह्यमान’ इत्यादि दृष्टान्तवाक्य से सूचित दूसरे अनुमान वाक्य का अभिप्राय है कि ) दावाग्नि से जलते हुये वृक्ष के कोटर में घूमता हुआ ‘घुन’ कीड़ों का समूह जिस प्रकार महादहन से वृक्ष के विनष्ट होनेपर विनष्ट हो जाता है, उसी प्रकार प्रालेय अग्नि से प्राणियों का एवं गिरिसागरादि का विनाश श्रवश्य होता है । ( अनुमान वाक्य इस प्रकार है कि “प्राणिगणा: गिरिसागरादयो वा विनश्यन्ति महादहनदह्यमानाश्रयत्वात् दवदहनदह्यमानदारूदरविघूर्णमानघुणसङ्घातवत् ) । (३) प्रलयपवनोल्लासनीय’ इत्यादि दृष्टान्तवाक्य से अभिप्रेत अनुमान वाक्य का अभिप्राय है कि जिस प्रकार प्रलयकालिक वायु से प्रज्वलित बड़वानल में गिरे हुये नाव के १. मान लिया कि ब्रह्माण्ड का नाश हो जाता है, किन्तु इस लिये गिरि सागरादि या जीवों का विनाश क्यों कर होगा ? इसी प्रश्न का समाधान ‘ब्रह्मा यह’ इत्यादि सन्दर्भ से किया गया है । क bo य ए गि व L है . वे ( सं ( के स से ( कु अ (
अपि च- द्वितीयः स्तवक जन्मसंस्कारविद्यादेः शक्तेः स्वाध्यायकर्मणोः । ह्रासदर्शनतो ह्रासः सम्प्रदायस्य मीयताम् ||३|| २१७ पूर्वं हि मानस्यः प्रजाः समभवन्, ततोऽपत्यैकप्रयोजन मैथुनसम्भवाः, ततः कामावर्जनीयसन्निधिजन्मानः, इदानीं देशकालाद्यव्यवस्थया पशुधर्मादेव भूयिष्ठाः । पूर्वं चरुप्रभृतिषु संस्काराः समाधायिषत, ततः क्षेत्रप्रभृतिषु ततो गर्भादितः, इदानीं तु जातेषु लौकिकव्यवहारमाश्रित्य । पूर्वं सहस्रशाखो वेदोऽध्यगायि, ततो व्यस्तः, ततः षडंग एकः, इदानीं तु कचिदेका शाखेति । तु ० यात्री नाव के साथ ही विनष्ट हो जाते हैं, उसी प्रकार ब्रह्माण्ड के विनष्ट होने पर प्राणिगण एवं गिरिसागरादि भी विनष्ट हो जाते हैं । ( अनुमान इस आकार का है कि प्राणिगणा- गिरिसागरादयो वा विनश्यन्ति महापवनक्षुभितसमुद्रविलीयमानाश्रयत्वात् प्रलयपवनोल्लासनीयो- र्वानलनिपातिपोतसांयात्रिकसार्थवत् ) ॥ २ ॥ (‘जन्म संस्कारविद्यादेः’ इत्यादिकारिका के द्वारा यह उपपादन किया गया है कि ‘वेदों के क्रमिक ह्रास के देखने से भी सभी वेदों के अत्यन्त विनाश का अनुमान किया जा सकता है प्रर्थात् ) जन्म, संस्कार, शक्ति, स्वाध्याय, कर्म इन सबों के क्रमिक ह्रास के देखने से भी : वेदों के अत्यन्त ह्रास (विनाश) का अनुमान करना चाहिये । ( १ ) पूर्व हि . . भूयिष्ठाः पहिले केवल संकल्प से ही पुत्रादि के जन्म होते थे । वाद में सन्तान को कामना से उत्पन्न मैथुन से सन्तान उत्पन्न होने लगे । फिर कामवासना से अनिवार्य स्त्री एवं पुरुष का संयोग ही सन्तान के जन्म का हेतु हो गया । अभी देश और काल की व्यवस्था के भी हट जाने के कारण केवल पशुधर्म से ही अधिकतर सन्तान उत्पन्न होते हैं । ( जन्महास ) (२) पूर्वं चरुप्रभृतिषु व्यवहारमाश्रित्य । पहिले ‘चरु’ प्रभूति में ही (माता के भोजन में ही) संस्कार होता था । (चरु में संस्कार के वैशिष्ट्य से परशुराम विश्वामित्रादि के जन्म प्रसिद्ध हैं ) आगे चलकर सन्तान की क्षेत्र स्त्री में ही ( गर्भाधान ) संस्कार किया जाने लगा । वाद में गर्भ ही (सीमन्तोन्नयनादि संस्कार से युक्त ) संस्कृत होने लगे । अब तो सन्तान के उत्पन्न हो जाने पर लौकिक व्यवहार के अनुसार कुछ संस्कारों का संपादन कर लिया जाता है । ( संस्कार का ह्रास ) (३) पूर्व ही सहखशाखः … पूर्व में सहस्त्रशाखा के वेदों का अध्ययन करने वाले आचार्य थे। बाद में उन में से कुछ शाखाओं का ही अध्ययन होने लगा । फिर षडङ्गों से युक्त एक शाखा का ही केवल अध्ययन रह गया । अब तो एक शाखा मात्र का कहीं-कहीं अध्ययन रह गया है । ( अध्ययन हास ) २३
- २१८
- गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली
- पूर्व ऋतवृत्तयो ब्राह्मणाः प्राद्योतिषत, ततोऽमृतवृत्तयः सम्प्रति प्रमृत- सत्यानृतकुसीदपाशुपाल्यश्ववृत्तयो भूयांसः । पूर्वं दुःखेन ब्राह्मणैरतिथयोऽलभ्यन्त, ततः क्षत्रियातिथयोऽपि संवृत्ताः, ततो वैश्यावेशिनोऽपि सम्प्रति शूद्रान्नभो- जिनोऽपि । पूर्वममृतभुजः, ततो विघसभुजः, ततोऽन्नभुजः, सम्प्रत्यचभुज एव । पूर्व चतुष्पाद्धमं श्रासीत्, ततस्तनूयमाने तपसि त्रिपात् ततो म्लायति ज्ञाने द्विपात्, सम्प्रति जीर्यति यज्ञे दानेकपात्। सोऽपि पादो दुरागतादिविपादिकाशतदुःस्थोऽश्रद्धा- मलकलङ्कितः कामक्रोधादिकण्टकशतजर्जरः प्रत्यहमपचीयमान वीर्यंतया इतस्ततः स्खलन्निवोपलभ्यते ।
- (४) पूर्व ऋतवृत्तयः
- पहिले ब्राह्मणगण ‘ऋतवृत्ति’ से अर्थात् खेतों में गिरे हुये अन्न के बीज को वीन कर ( उञ्छवृत्ति से ) जीते थे। बाद में जीविका के लिये उन्होंने ‘अमृतवृत्ति’ अर्थात् विना याचना के प्राप्त धन का सहारा लिया। अभी तो ‘प्रमृत’ अर्थात् याचना से प्राप्त धन,
- •
- ‘सत्यानृत’ अर्थात् वाणिज्य, ‘कुसीद’ अर्थात् व्याज में प्राप्त धन एवं पशुपालन और ‘श्ववृत्ति’ रूप सेवा से भी जीवन चलाते हैं ।
- (५) पूर्वं दुःखेन
- पहिले ब्राह्मणों को भी विरले ही ( ब्राह्मण ) अतिथि मिलते थे । बाद में ब्राह्मण लोग क्षत्रियों का भी प्रतिथ्य ग्रहण करने लगे । तदनन्तर वैश्यों के घरों में भी भोजन करने लगे । अब तो शूद्रों का अन्न भी खाते हैं ।
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- (६) पूर्वमभृतभुजः
- पहिले ‘अमृत’ अर्थात् यज्ञ से बचा अतिथियों से बचा हुआ अन्न भी खाने लने ।
- में
- हुआ अन्न ही खाते थे । पीछे ‘विघस’ अर्थात्
- क
- इसके बाद ‘अन्न’ अर्थात् भृत्यों को खिलाने
- थे
- के बाद बचा हुआ अन्न भी खाने लगे । अब तो ये ‘अघ’ अर्थात् केवल अपने भोजन के लिये पकाये अन्न से भी जीवन चला रहे हैं’।
- पूर्व चतुष्पात्
- पहिले धर्म को तपस्या, ज्ञान, यज्ञ, एवं दान ये चार पांव थे। इन में पहिले तपस्या क्षीण हो गयी, बाद में ज्ञान भी मलिन हो गया, यज्ञ भी जीर्णशीर्ण हो गया । अब केवल ‘दान’ रूप एक पएर रह गया है । वह भी दूषित उपाय से प्राप्त धन रूप विपादिकाओं (बेबाए ) से युक्त है । श्रश्रद्धा रूप कीचड़ में सना हुआ है । कामक्रोधादि अनेक काँटों से वह विबा हुआ है । इन सबों से प्रतिक्षण उस की शक्ति क्षीण से अतिक्षीण होने के कारण वह ( दान रूप चौथा पाँव भी ) इधर उधर डोल रहा है ।
- १. ‘जम्म संस्कारविद्यादे:’ इस वाक्य में जो ‘आदि’ शब्द है, उसी से ‘विद्या’ रूप
- अध्ययन के बाद ‘वृद्धि’ ह्रास का भी विवरण दिया गया है ।
- म
- क
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- प्रम
- पू
- CCO..Vasishtha Tripathi Collection. Digitized by eGangotri
- द्वितीयः स्तबकः
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- ।
- इदानीमिव सर्वत्र दृष्टान्नाधिकमिष्यत इति चेन्न । स्मृत्यनुष्ठानानुमितानी शाखानामुच्छेददर्शनात् । स्वातन्त्र्येण स्मृतीनामाचारस्य च प्रामाण्यानभ्यु-
- मन्वादीनामतीन्द्रियार्थं दर्शने
- चं
- पगमात् ।
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न T , T’ ण न वि के As ले 1 प दि ण रूप पृ० प० इदानीमिव प्रमाणाभावात् । श्राचारात्स्मृति वेद की जितनी शाखायें अभी उपलब्ध हैं, वास्तव में उतनी ही शाखायें हैं। उनसे अधिक शाखाओं की सत्ता नहीं मानते । अतः वेदों में’ क्रमशः ह्रसमानत्व’ हेतु नहीं है । इसलिये यह हेतु स्वरूपासिद्ध होने के कारण वेदों के अत्यन्त उच्छेद का साधन नहीं कर सकता । सि० प० न, स्मृत्यनुष्ठानानुमितानाम् . . … प्रामाण्यानभ्युपगमात् मन्वादि स्मृतियाँ केवल इसी लिये प्रमाण हैं कि वे वेदों में कथित अनुष्ठानों का निर्देश करतीं हैं । ‘आचार’ भी कर्तव्य का निर्णायक इसी लिये है कि वह वेदविहित अनुष्ठानों का निर्देश करता है । स्मृतियों में ‘अष्टकाः कर्त्तव्याः प्रभृति वाक्यों के द्वारा ऐसे से बहुत से अनुष्ठान निर्दिष्ट हैं, जिनके विधायक वाक्य अभी वेदों में उपलब्ध नहीं है । इसी प्रकार के कुछ अनुष्ठान आचार की परम्परा से भी प्राप्त हैं । मीमांसकों का भी यह सिद्धान्त है कि वेदविहित अनुष्ठानों के विधायक होने के कारण ही स्मृति श्रोर आचार प्रमाण हैं ( द्रष्टव्य शाबरभाष्य एवं तन्त्रवार्तिक अ- १ पा० ३ पृ० १५६ से १६८ पर्यन्त आनन्दाश्रम संस्करण ) अतः सभी प्रास्तिकों को यह मानना ही होगा कि जिन अनुष्टानों का विधान स्मृतियों में उपलब्ध है, किन्तु वेदों में उनके विधान नहीं मिलते । एवं श्राचार से प्राप्त जिन अनुष्ठानों का विधान न वेदों में मिलता है, न स्मृतियों में उन सभी अनुष्ठानों के विधायक वाक्य वेदों में थे । किन्तु वेद की जिन शाखाओं में वे वाक्य थे, वे शाखायें विनष्ट हो चुकी हैं। मन्वादीनाम् ( इस प्रसङ्ग में पूर्वपक्षी की ओर से कहा जा सकता है कि प्रदृष्टों को उत्पन्न करनेवाले जिन अनुष्ठानों के विधान स्मृतियों में उपलब्ध हैं, उन अदृष्टों का प्रत्यक्षात्मक ज्ञान ही मनु प्रभृति स्मृतिकारों को था । मनु प्रभृति के द्वारा रचित स्मृतिग्रन्थ आप्तपुरुष के द्वारा रचित होने के कारण ही प्रमाण हैं । वेदमूलक होने के कारण वे प्रमाण नहीं है । किन्तु यह कहना भी ठीक नहीं है) क्योंकि मन्वादि स्मृतिकारों को अतीन्द्रिय अर्थों का द्रष्टा मानने में कोई प्रमाण नहीं है । अत: आप्तों से रचित होने के कारण स्मृतियों को प्रमाण नहीं माना जा सकता । पू० प० प्राचारात्स्मृतिः मनु प्रभृति स्मृतिकारों ने शिष्टों के आचरणों को देखा था । आचरणों के इस दर्शन से ही उन लोगों ने स्मृतियों की रचना की। बाद में उन स्मृतियों के अवाम से ही माचादी
२२० गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली स्मृतेश्चाचार इत्यनादिताभ्युपगमे अन्धपरंपराप्रसंगात् । श्रासंसारमनाम्नातस्य च वेदत्वव्याघातेनाऽनुमानायोगात् । उत्पत्तितोऽभिव्यक्तितोऽभिप्रायतो वाऽनवच्छिन्न- वर्णमात्रस्य निरर्थकत्वात् । की परम्परा चल पड़ी। अतः स्मृति से या सदाचार से वेद शाखाओं के उच्छेद की कल्पना व्यर्थ है । सि० प० अन्धपरम्परा .. आचार से स्मृति का अनुमान एवं स्मृति के विधान से आचारों को प्रमाणमूलक होने का अनुमान करेंगे तो फिर ‘अन्धपरम्परा’ का प्रसङ्ग उपस्थित होगा । ( श्रर्थात् किसी अन्ध पुरुष के द्वारा उच्चारित ‘नीलो घट:’ इस वाक्य से होनेवाले घट के नील होने के सभी व्यवहार जिस प्रकार अप्रामाणिक हो जाते हैं, उसी प्रकार स्मृति और आचार दोनों ही अप्रामाणिक हो जायगे ) । सि० प० प्रासंसारमनाम्नातस्य …. ( इस प्रसङ्ग में प्राभाकरों का कहना है कि वेदों में विहित हुये बिना जब धर्म का अनुष्ठान संभव ही नहीं है, एवं कुछ अनुष्ठानों के विधायक वाक्य उपलब्ध वेदों में नहीं पाये जाते, ऐसी स्थिति में वेद के ऐसे विधायक वाक्यों का अनुमान करना ही होगा, जिन वेदवाक्यों को किसी ने कभी प्रत्यक्ष नहीं सुना है । एवं संप्रदायविलोप के कारण आज भी उन वेदवाक्यों के प्रत्यक्ष नहीं होते, बराबर अनुमान ही होता है । अतः जिन में उक्त विधायक वाक्यों का उल्लेख था, वे शाखायें ‘नित्यानुमेय’ हैं । कुछ अनुष्ठानों के विधायक वाक्यों की अनुपलब्धि से उन शाखाओं के उच्छेद की कल्पना नहीं की जा सकती । प्राभाकरों का वेद की अनुलब्ध शाखाओं का यह ‘नित्यानुमेयत्व’ पक्ष भी ठीक नहीं है, क्योंकि) ऐसे वर्णों के समूह को ही ‘वेद’ कहा जाता है, जो गुरु से द्विजशिष्यों के द्वारा श्रधीयमान हों, एवं विशेष प्रकार की आनुपूर्वी एवं स्वरादि से युक्त हों । जिस प्रानुपूर्वी से युक्त शब्दों का कभी किसी ने गुरु मुख से सुन कर उच्चारण ही नहीं किया, उन शब्दों में ‘वेद’ का उक्त लक्षण ही संघटित नहीं होता, अतः अष्टकादि आचारों के विधायक नित्यानुमेय ‘अष्टकाः कर्त्तव्याः’ इत्यादि वाक्य ‘वेद’ नहीं’ कड़े जा सकते । उत्पत्तितोऽभिव्यक्तितः 300 विशेष प्रकार की ‘आनुपूर्वी से युक्त वही शब्दराशि ‘वेद’ कहलाता है जो धर्म और अधर्म का ‘वेदक’ हो । ‘वेद’ के इस दूसरे लक्षण के अनुसार भी ‘अष्टकाः कर्तव्याः’ इत्यादि वाक्यों का ‘वेद’ नहीं कहा जा सकता । शब्दों की ‘प्रानुपूर्वी’ तीन कारणों से संभव है । ( १ ) ‘उत्पत्ति’ से ( नैयायिकों के मत से किसी विशेष अर्थ को समझाने की
6 5 T 1, का न ET दि ण दि हे र T: गों की द्वितीयः स्तबक २२१ यदि च शिष्टाचारत्वादिदं हितसाधनं कर्तव्यं वेत्यनुमितं किं वेदानुमानेन ? तदर्थस्यानुमानत एव सिद्धेः । न च घर्मंवेदनत्वादिदमेवानुमानम्, अनुमेयो वेदः, प्रत्यक्ष सिद्धत्वात् अशब्दत्वाच्च । इच्छा से आप्तपुरुष द्वारा उच्चारण से ) (२) ‘अभिव्यक्ति’ से ( मीमांसकों मत से कथित ( इच्छामूलक कण्ठताल्वादि व्यापार जनित ‘अभिव्यक्ति’ से ) ( ३ ) ( उभयमत साधारण ) अभिप्राय से । इस तीनों से भिन्न अनुपूर्वी संपादन का कोई चौथा प्रकार नहीं हो सकता । जो शब्द विश्व में कभी किसी के द्वारा न उच्चारित (आम्नात) नहीं है, ऐसा शब्द न ‘उत्पन्न’ हो सकता है, न अभिव्यक्त ही हो सकता है । एवं न किसी के ‘अभिप्राय’ का विषय ही हो सकता है । इस प्रकार का ‘अनुत्पन्न’ ‘अनभिव्यक्त’ एवं ‘अनभिप्रेत’ शब्द निरर्थक है । इस प्रकार के शब्द धर्म और अधर्म के ‘वेदक’ न होने के कारण ‘वेद’ नहीं हो सकते । सि० प० यदि च शिष्टाचारत्वात् ( इस प्रसङ्ग में प्राभाकर कहते हैं कि भ्रष्टकादि अनुष्ठानों में वेद के द्वारा इष्टत्व की बुद्धि या कर्तव्यत्व की प्रतीति भले ही संभव न हो । किन्तु शिष्टाचार होने के नाते उनमें शिष्ठाचारत्व हेतु से इष्टत्व का या कर्त्तव्यत्व का अनुमान तो हो सकता है । ऐसा संभव होने पर मन्वादि स्मृतिकारों की उन विधायक वाक्यों की रचना वेद को कल्पना के द्वारा ही मानी जा सकती है । इस का यह उत्तर है कि ) जो भी विधायकवाक्य वेदों में उपलब्ध हैं, उनसे भी ज्योतिष्टोमादि के अनुष्ठानों में इष्टत्व की अथवा कर्त्तव्यत्व की बुद्धि ही उत्पन्न होती है । यह बुद्धि अगर शिष्टाचारत्व हेतुक अनुमान से ही संपादित होगी, तो फिर वेदों के अनुमान का कौन सा प्रयोजन रह जायगा ? क्योकि अनुमित वेद से उत्पन्न होनेवाला उक्त इष्टत्व विषयक वुद्धि रूप कार्य तो शिष्टाचारत्व हेतुक अनुमान से ही हो जायगा । सि० प० न च धर्मवदेनत्वात् ( इस प्रसङ्ग में प्राभाकर कह सकते हैं कि धर्म के ‘वेदक’ को ही जब वेद कहते हैं, तो फिर शिष्टाचार चूं कि धर्म का ‘वेदक’ है, अतः अष्टकादि आचारों में इष्टत्वानुमान का हेतु होने से शिष्टाचारत्व रूप अनुमान प्रमाण भी ‘वेद’ ही है । शिष्टाचार रूप धर्मवेदक को ही हम लोग ‘नित्यानुमेय वेद’ कहते हैं । किन्तु प्राभाकरों का यह कहना भी ठीक नहीं है क्योंकि ) ( १ ) शिष्टाचार को अगर धर्म का ‘वेदक’ होने के नाते ‘वेद’ मान भी लें, तथापि वह ‘नित्यानुमेय’ नहीं हो सकता, क्योंकि शिष्टाचार प्रत्यक्षसिद्ध है । जिसका ज्ञान प्रत्यक्ष से भी हो सकता है, वह ‘नित्यानुमेय’ कैसे होगा ? अतः शिष्टाचार ‘नित्यानुमेयवेद’ नहीं हो सकता । ( २ ) दूसरी बात यह है कि केवल धर्म का ‘वेदक’ होने से ही कोई ‘वेद’ नहीं कहला सकता । क्योंकि ‘वेद’ को ‘शब्द’ रूप होना भी आवश्यक है। ‘शिष्टाचार’ धर्म का ‘वेदक’ होने पर भी चू’ कि ‘शब्द’ स्वरूप नहीं है, अतः उसको ‘वेद’ नहीं कहा जा सकता । CCO. Vasishtha Tripathi Collection. Digitized by eGangotri२२२ गद्यपद्यात्मक-न्याय कुसुमाञ्जली अथ शिष्टाचरत्वात्प्रमाणमूलोऽयमिति चेत् ? ततः सिद्धसाधनम्, प्रत्यक्षमूल- त्वाभ्युपगमात् । तदसम्भवेऽप्यनुमानसम्भवात् । नित्यमज्ञायमानत्वात्तदप्रत्यायकं कथमनुमानम् ? कथं च मूलमिति चेत् ? (५.) अथ शिष्टाचारस्वात् 100 … प्राभाकरों का कहना है कि शिष्टाचारत्व हेतु से हम इष्टत्व या कर्त्तव्यत्व का अनुमान नहीं करते, किन्तु प्रमाणसामान्यमूलकत्व का ही अनुमान करते हैं ( अर्थात् श्रष्टकादि चू कि शिष्टों से प्रचरित है, अतः उनका कोई प्रमाण अवश्य ही होगा ) । इस प्रकार अष्टकादि श्राचारों के साधक सामान्य अनुमान की सिद्धि हो जाने पर पक्षधर्मता बलात् उक्त ‘प्रमाणसामान्यमूलकत्व’ रूप साध्यसामान्य का पर्यवसान ‘वेदप्रमाणमूलकत्व’ रूप विशेष में होगा । इस प्रकार अष्टकादि आचारों के विधायक वाक्यों से युक्त वेदशाखाओं का अनुमान किया जा सकता है । सि० प० ततः सिद्धसाधनम् नैयायिक लोग अष्टकादि आचारों को ईश्वरप्रत्यक्ष मूलक मानते हैं, अतः अष्टकादि आचार चू कि ईश्वर के प्रत्यक्ष से सिद्ध है, अतः उन श्राचारों का अनुमान सिद्धसाधन से दूषित है। मीमांसकों के मत में यद्यपि कथित रीति से सिद्धसाधन दोष नहीं हो सकता, फिर भी कथित प्रमाणसामान्यमूलकत्व का पर्यवसान वेदप्रमाणमूलकत्व रूप विशेष में नहीं हो सकता । क्योंकि कथित प्रमाणसामान्यमूलकत्व के अनुमान का भी स्वारस्य उन आचारों में कर्तव्यत्व एवं इष्टत्व के साधन में ही है, सो जब शिष्टाचारत्व हेतु से साक्षात ही संभव है, तो फिर शिष्टाचारत्व हेतु से प्रमाणसामान्यमूलकत्व का अनुमान और उसके बाद पक्षधर्मता के बल पर उसका वेदमूलकत्व में पर्यवसान, ऐसी कल्पना व्यर्थ है । पू० प० नित्यमज्ञायमानत्वात् मनु प्रभृति स्मृतिकारों को भी अष्टकादि श्राचारों के ज्ञापक किसी विशेष हेतु का ज्ञान नहीं था । जिस प्रकार अभी हम लोग शिष्टों के अष्टकादि श्राचरणों को देखकर समझते हैं कि ‘बिना कर्तव्यत्व ज्ञान के शिष्टों के ये आचरण नहीं हो सकते।’ एवं कर्त्तव्यत्व का यह ज्ञान प्रत्यक्ष से सम्भव नहीं है । फिर भी इसका कोई प्रमाण श्रवश्य होगा । मन्वादि स्मृतिकारों को भी प्रमाणमूलकत्व का यह सामान्य ज्ञान ही था । उन लोगों को भी विशेष हेतुनों का ज्ञान नहीं था । जो स्वयं विशेष रूप से अज्ञात ही रहा हो, वह किसी अन्य को विशेष रूप से कैसे समझा सकता है ? अथवा विशेष प्रकार का ज्ञान अनुष्ठाताओं के कर्तव्यत्व विषयक ज्ञान का मूल कैसे हो सकता है ? अतः उक्त प्रमाणसामान्य का अर्थ ही है वेदमूलकत्व ! लिये एक अनुमान में सिद्ध साधन दोष नहीं है ।
द्वितीयः स्तबंक : २२३ वेदः किमज्ञायमानः प्रत्यायको प्रत्यायक एव वा मूलम्, येन जडतम ? तमाद्रियसे ? अनुमितत्वातज्जायमान एवेति चेत् ? लिङ्गमप्येवमेवास्तु | अनुमेय प्रतीतेः प्राक्तनलिङ्गप्रतीतिरपेक्षिता कारणत्वात्, न तु पश्चात्तनीति चेत् १ शब्दप्रतीतिरप्येवमेव । श्राचारस्वरूपेण शब्दमूलत्वमनुमीयते, तेन तु शब्देन कर्त्तव्यता प्रतीयत इति चेन्न श्राचारस्वरूपस्य प्रत्यक्षसिद्धत्वेन मूलान्तरानपेक्षणात् । सि० प० वेदः किम् … शब्द भी तो विशेष रूप से ज्ञात होकर ही ( शाब्द) बोध का कारण है । अतः कथित रीति से सामान्य रूप में वेदमूलकत्व के सिद्ध होने पर भी सामान्य रूप से ज्ञात उस वेद के द्वारा श्रष्टकादि आचारों में इष्टत्व या कर्तव्यत्व की सिद्धि नहीं हो सकती । क्योंकि निस्यानुमेय वेदशाखा रूप शब्द का विशेषज्ञान तो संभव नहीं है । अतः हे जडतम ? वेद रूप शब्द क्या बिना विशेष रूप से ज्ञात होकर ही बोध का कारण है ? इसी लिये क्या वेद का इतना आदर करते हो ? पू० प० अनुमितत्वात् … वेद जब अनुमान प्रमाण से ज्ञात है, तो फिर उसे अज्ञात कैसे कहा जा सकता है ? सि० प० लिङ्गम् • इस प्रकार साधारण रूप से शिष्टाचारत्व हेतु भी तो ज्ञात ही है । पू० म० अनुमेयप्रतीतेः स्वरूप दोनों में अन्तर है, चूंकि हेतु की प्रतीति साध्यप्रतीति का कारण है, अतः हेतुज्ञान की आवश्यक्ता पहिले होती है । प्रकृत में अष्टकादि आचार रूप पक्ष में इष्ठत्व या कर्त्तव्यस्व का साधक शिष्टाचारत्व हेतु भी यदि अनुमेय हो, एवं उसका ज्ञान हितसाधनत्व या कर्त्तव्यत्वबुद्धिसापेक्ष हो तो फिर उससे अष्टकादि आचारों में इष्टस्व या कर्त्तव्यस्व की सिद्धि कैसे की जा सकती है ? सि० पं० शब्दप्रतीतिरपि ….. दोनों कोई अन्तर नहीं है, क्योंकि वेद रूप शब्द के अनुमान को छोड़कर अन्य प्रमाणों से भी यदि भ्रष्टकादि आचारों में कर्त्तव्यत्व की सिद्धि हो सकती है, तो फिर तद्विधायक वेद का अनुमान ही व्यर्थ है । पू० प० श्राचारस्वरूपेण वाजपेयादि दृष्टान्तों से शिष्टों के विशेष प्रकार के आचार स्वरूप हेतु से अष्टकादि आचारों में शब्दमूलकत्व का अनुमान करते हैं (भ्रष्टकाद्याचाराः, शब्दमूलाः, शिष्टाचारस्वात्,
२२४ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली तस्मात्कर्त्तव्यतायां प्रत्यक्षाभावदप्रमिततया च शब्दानुमानानवकाशात्, प्रत्यक्षश्रुतेरसम्भवाच्छिष्टाचारत्वेनैव कर्त्तव्यातामनुमाय तया मूलशब्दानुमानम् । तथा च किं तेन ? तदर्थस्य प्रागेव सिद्धेः । तथाप्यागममूलत्वेनैव तस्य व्याप्तेरिति चेत्, श्रत एव तर्हि तस्य प्रत्यक्षानुमान मूलत्वमनुमेयम् । वाजपेयाद्याचारवत्)। इससे अनुमित ‘अष्टकाः कर्त्तव्याः’ इत्यादि शब्दों के द्वारा अष्टकादि आचारों में कर्त्तव्यत्व की प्रतीति होती है । किन्तु ‘अष्टकाः कर्त्तव्याः’ इत्यादि आकारों के वाक्य वेदों में उपलब्ध नहीं होते । अतः उन्हें ‘नित्यानुमेय’ कहते हैं । सि० प० तस्मात् . … … प्रागेव सिद्धेः ..• ( इस प्रसङ्ग में पूछना है कि प्रकृत वेदानुमान (१) क्या श्राचारों की स्वरूपसिद्धि लिये करते हो ? या (२) प्रत्यक्षादि प्रमाणों से सिद्ध श्राचारों में कर्त्तव्यत्व की सिद्धि के लिये करते हो ? इनमें प्रथम पक्ष का खण्डन ‘आचारस्वरूपस्य’ इत्यादि से इस अभिप्राय से किया गया है कि ) (१) अष्टकादि आचारो का स्वरूप तो प्रत्यक्ष प्रमाण से ही सिद्ध है, इसके लिये वेदादि दूसरे मूलों का अन्वेषण व्यर्थ है । (२) दूसरा पक्ष इस लिये युक्त नहीं है कि जबतक शिष्टाचारत्व हेतु से अष्टकादि की कर्त्तव्यता का ज्ञान नहीं हो जायगा, तब तक उससे वेदों का अनुमान नहीं हो सकता । किन्तु इस कर्त्तव्यत्व का ज्ञान हो जाने पर वेदानुमान की कोई सार्थकता ही नहीं रह जायगी । पू० प० तथापि ••• शिष्टों के द्वारा अनुष्ठित यज्ञादि अनुष्ठानों का वेदमूलक होना प्रसिद्ध है । उसी के बल से शिष्टों के द्वारा भाचरित अष्टकादि के अनुष्ठानों में भी वेदमूलकत्व का अनुमान करेंगे । ( फलतः शिष्टाचारत्व हेतु में आगममूलकत्व की व्याप्ति में कोई बाधा नहीं है ) । अतः इसी ब्याप्ति के बल से शिष्टाचारत्व हेतु से कर्त्तव्यत्व का अनुमान करेंगे । इस अनुमित कर्त्तव्यत्व रूप हेतु के बल से ही ज्योतिष्टोमादि के दृष्टान्तों के साहाय्य से अष्टकादि श्राचारों में बेदमूलकत्व के अनुमान में कोई बाधा नहीं रहेगी । सि० प० अत एव । ( यह ठीक है कि वस्तु की सिद्धि प्रयोजन की अपेक्षा नहीं रखती है । सामग्री का संबलन होने से अनपेक्षित एवं अनभीष्ट वस्तु की भी सिद्धि हो जाती है। ऐसा मान लेने पर हम ( नैयायिकों ) लोगों की प्रभीष्ट सिद्ध हो जाती है । क्योंकि ) शब्द का प्रामाण्य प्रत्यक्ष या अनुमान के अधीन है । ( अतः ऐसा कहने में कोई बाधा नहीं है कि हर एक शब्द चू कि प्रत्यक्ष या अनुमान मूलक होने के नाते ही प्रमाण है । अतः उक्त वेदार्थों का भी प्रत्यक्ष देखने- वाला या अनुमान करनेवाला पुरुष अवश्य ही है । उसी ‘पुरुष’ को हम लोग ‘परमेश्वर’ कहते हैं ) ।
द्वितीयः स्तबकः २२५ श्रादिमतस्तत्त्वं स्यादयं स्वनादिरिति चेत् ? आचारोऽपि तर्हि प्रथमतस्तथा स्यात् । अयं त्वनादिविनाप्यागमं भविष्यति । श्राचारकत्र्त्तव्यताऽनुमानयोरेवमना- दित्वमस्तु, कि नरिछन्नमिति चेत् ? प्रथमं तावन्नित्यानुमेयो वेद इति । द्वितीयञ्च- देशनेन धर्मे प्रमाणमिति । अथायमाशयः - वैदिका अत्याचारा राजसूयाश्वमेधादयः समुच्छिद्यमाना दृश्यन्ते, यत इदानीं नानुष्ठीयन्ते । न चैते प्रागपि नानुष्ठिता एव तदर्थस्य वेदराशेरप्रामाण्यप्रसङ्गात् पू० प० आदिमतः सादि जो हमलोगों के वाक्य, उन्हीं का प्रामाण्य प्रत्यक्ष या अनुमान की अपेक्षा रखता है । वेद तो अनादि है, उनका प्रामाण्य प्रत्यक्ष या अनुमान के अधीन नहीं है । ( अतः उक्त रीति से ईश्वर की सिद्धि नहीं हो सकती ) । सि० प० प्राचारोऽपि तर्हि " … इसी प्रकार श्राचार के प्रसङ्ग में भी कहा जा सकता है कि ज्योतिष्टोमादि जिन आचारों का अनुष्ठान उनके अनुष्ठाताओं ने उन्हें पहिले वेदों में देखकर ही किया, वे सभी अनुष्ठान भले ही वेदमूलक रहे हों । किन्तु शिष्टों ने अष्टकादि जिन आचारों का अनुष्ठान अपने से पूर्व के शिष्टों के अनुष्टानों को देखकर ही करते आये हैं, उन में कर्त्तव्यत्व या इष्टत्व की सिद्धि अनुमान से ही होगी । पू० प० आचारकत्तंव्यतानुमानयोः ..
- इन भ्रष्टकादि आचारों को अगर अनुमान मूलक मान ही लें तो इसमें क्या हानि है ? सि० प० प्रथमं तावत् … पहिली हानि आप ( प्राभाकरों ) की यह होगी ‘नित्यानुमेय’ वेदों की सत्ता लुप्त जायगी । क्योंकि अप्रत्यक्षवेदमूलक श्रष्टकादि आचारों में कर्तव्यत्व या दृष्टत्व की सिद्धि के लिये ही तो नित्यानुमेय वेदशाखाओं की कल्पना करते हैं, सो जब प्रत्यक्ष या अनुमान से ही उपपन्न हो जायगी तो फिर नित्यानुमेय वेदशाखानों की कल्पना अवश्य ही व्यर्थ हो जायगी । दूसरी हानि यह होगी कि आप ( मीमांसक ) धर्म के लिये जो केवल वेदों के विधायक वाक्य रूप ‘देशना’ ( चोदना ) को ही प्रमाण मानते हैं, वह व्याहत हो जायगा । पू० प० प्रथायमाशयः जिन अनुष्टानों के विधायक वाक्य अभी वेदों में उपलब्ध हैं, उन में से भी राजसूय, अश्वमेघादि कुछ अनुष्ठानों का उच्छेद देखा जाता है। यह कहना संभव नहीं है कि ‘राजसूय प्रभृति जिन यज्ञों का अनुष्ठान अभी नहीं होता है, उन सबों का पहिले भी कभी अनुष्ठान नहीं होता था’ । क्योंकि ऐसा मानने पर समुद्रतरण के उपदेशवाक्य के समान उनके विधायक वाक्यों में ‘अननुष्ठान’ लक्षण ( स्वरूप ) अप्रामाण्य की आपत्ति होगी । इस ‘आपत्ति’ को २६
२२६ । गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली समुद्रतरणोपदेशवत् । न चैवमेवास्तु दर्शाद्युपदेशेन तुल्ययोगक्षेमत्वात् । एवं पुनः स कश्वित्कालो भविता यत्रैते अनुष्ठास्यन्ते, तथान्येऽप्याचारा समुच्छेत्स्यन्ते, अनुष्ठा- स्यन्ते चेति न विच्छेदः । ततस्तद्वदागममूलतेति चेत् ? एवं तहि प्रवाहादौ लिङ्गाभावे कर्त्तव्यत्वागमयोरननुमानादसत्यां प्रत्यक्षश्रुतावाचा रसंकथापि कथमिति सर्वविप्लवः । तस्मात्प्रत्यक्षश्रुतिरेवमूलमाचारस्य, सा चेदिदानीं नास्तीति शाखोच्छेदः । इष्ट करना भी संभव नहीं है, क्योंकि अभी जिन दर्शपौर्णमासादि का अनुष्ठान होता है, उनके विधायक वाक्यों में और राजसूयादि के अनुष्ठानों के विधायक वाक्यों में कोई अन्तर नहीं है । प्रतः उनमें एक को प्रमाण और दूसरे को अप्रमाण नहीं माना जा सकता | एवं ऐसा भी समय कभी आ सकता है, जिसमें राजसूय प्रभृति फिर अनुष्ठित हों । अतः जितने भी अष्टकादि श्राचार हैं, उन सबों का उच्छेद, एवं उच्छेद के बाद कालक्रम से पुनः अनुष्ठान अवश्य ही होगा । इसलिये कोई भी आचार ‘अनादि’ नहीं है । यह स्थिर हो जाने पर अष्टकादि श्राचारों को भी श्राचारपरम्परामूलक नहीं माना जा सकता । अगत्या पष्टकादि आचारों का मूल भी वेद रूप आगम प्रमाण को ही मानना होगा । चूँकि उक्त आगम प्रमाणों का किसी को प्रत्यक्ष नहीं हुआ है, सदा सर्वदा उक्त प्रकार के श्रागम वाक्यों का अनुमान ही होता आया है । अतः उन वाक्यों को ‘नित्यानुमेय’ कहते हैं । केवल अनुमान प्रमाण से सिद्ध होना ही ‘नित्यानुमेयत्व’ है ( अष्टकाद्याचाराः वेदमूला: उच्छेदानन्तरभावि- प्रवाहितत्वात् राजसूयाश्वमेघादिवत् ) इस प्रकार उच्छेद के बाद बार-बार अनुष्ठान की सम्भावना रहने के कारण किसी भी आचार के अत्यन्त उच्छेद की सम्भावना भी दूर हो जाती है । सि० प० एवं तह प्रलयकाल में ( प्रलय की सिद्धि की जा चुकी है ) स्मृतिग्रन्थों का एवं अनुष्ठानों का सर्वथा लोप हो जायगा, उस समय कथित ‘प्रवाह’ बिलकुल ही टूट जायगा । अतः ‘विच्छेदानन्तरप्रवाहत्व’ स्वरूप हेतु ही ‘असिद्ध’ है । इसलिये इस हेतु से अष्टकादि श्राचारों में वेदमूलकत्व का अनुमान नहीं किया जा सकता । वेदों में अष्टकादि आचारों के विधायकवाक्य उपलब्ध नहीं है । अतः अष्टकादि श्राचारों की बातें ही उठ जायगी । इस प्रकार अष्टकादि प्राचारों के अनुष्ठानों की सभी बातें ही छोड़ देनी पड़ेगी । इसलिये यह मानना होगा कि प्रत्यक्षश्रुति ही अष्टकादि श्राचारों की मूल हैं, कथित ‘नित्यानुमेय’ श्रुतियाँ नहीं । प्रयत्न करने पर भी जब भ्रष्टकादि आचारों के विधायक वाक्य वेदों में उपलब्ध नहीं हों, तो फिर इसी सिद्धान्त को दृढ़ मान लेना होगा कि वेद के जिन शाखाओं में अष्टकादि आचारों के विधायक वाक्य थे, उन सबों का सर्वथा उच्छेद ( विनाश ) ही हो गया । ( सुनते हैं
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हो ה · में य द न + द्वितीयः स्तवकः २२७ अघुनाप्यस्ति सान्यत्रेतिचेत् ? अत्र कथं नास्ति ? किमुपाध्यायवंशानामन्यत्र गमनात् ? तेषामेवोच्छेदाद्वा ? आहोस्वित् स्वाध्याय विच्छेदात् ? न प्रथमद्वितीयो, सर्वेषामन्यत्र गमने, उच्छेदे वा नियमेन भारतवर्षे शिष्टाचारस्याप्युच्छेदप्रसङ्गात् । तस्याध्येतृसमानकत्तृ कत्वात् । अन्यत आगतैराचारप्रवर्त्तने अध्ययन प्रवत्तनमपि स्यात् । न तृतीयः, आध्यात्मिकशक्तिसंपन्नानामन्तेवासिनामविच्छेदे तस्यासंभवात् । कि व्यासादि सहस्र शाखानों के अध्येता थे । अभी उतनी शाखाओं का अध्ययन नहीं होता है । इस प्रकार वर्तमान काल में अवशिष्ट शाखानों का अध्ययन न होना ही उनका ‘उच्छेद’ है ) । पू० प० अधुनाप्यस्ति ९०० भारतवर्ष में यद्यपि उन, शाखानों की श्रध्ययन परम्परा टूट गयी है, किन्तु ‘अन्यत्र ’ भारतवर्ष से अन्यत्र उन शाखाओं का श्रध्ययन अभी भी जारी रहने की सम्भावना है । अतः उन शाखाओं के सर्वथा उच्छेद की कल्पना नहीं की जा सकती । सि० प० अत्र कथं नास्ति अगर भारतवर्ष से भिन्न देशों में उन शाखानों का अध्ययन या प्रचलन अभी है तो फिर भारतवर्ष में ही उनका अध्ययन जारो क्यों नहीं है ? ( अन्यत्र उक्त शाखाओं का अध्ययन जारी रहने में और भारतवर्ष में अध्ययन की परम्परा टूटने के ये तीन ही कारण हो सकते हैं ) | ( १ ) वेद के जिन शाखाओं में भ्रष्टकादि श्राचारों के विधान थे, उन शाखामों का अध्ययन करनेवाला वंश ही भारतवर्ष से बाहर चला गया । या ( २ ) भारतवर्ष में जो उन शाखाओं के अध्यापक थे, उन सबों का विनाश हो गया । अथवा (३) उन अध्यापकों के रहने पर भी उनका ‘स्वाध्याय’ छूट गया । इनमें प्रथम और दूसरा हेतु इसलिये ठीक नहीं है कि उन शाखाओं का अध्यापकवर्गं अगर अन्य देशों में चला गया अथवा उन लोगों का विनाश हो गया, तो फिर उन शाखाओं में निर्दिष्ट अष्टकादि श्राचारों का अनुष्ठान भी भारतवर्ष से नियमतः विलुप्त हो जाता । क्योकि जो शिष्टाचार जिस शाखा में से ही उस शिष्टाचार का प्रधान रूप द्वारा उन आचारों को प्रवृत्ति को बाधा नहीं है कि उन व्यक्तियों के संभव थे । निर्दिष्ट रहता है, उस शाखा के अध्येता और अध्यापक अनुष्ठान करते हैं । अगर अन्य देशों से आये हुये शिष्टों स्वीकार करें तो फिर यह स्वीकार करने में भी कोई द्वारा उन शाखाओं का अध्ययन एवं अध्यापन भो तीसरा हेतु भी ठीक नहीं जंचता, क्योंकि अन्य अनेक कठिन शाखाओं के अध्ययन की शक्ति से सम्पन्न अन्तवासियों की परम्परा के निरवच्छिन्न रहते हुये केवल उन शाखाओं के अध्ययन की कल्पना उचित नहीं है ।
२२८ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जलौ तस्मादायुरारोग्य-बल-वीर्यं श्रद्धा-शम-दम - ग्रहण -धारणादिशक्त रहरहमपचीय- मानत्वात् स्वाध्यायानुष्ठाने शीर्यमाणे कथञ्चिदनुवर्त्तते । विश्वपरिग्रहाच्च न सहसा सर्वोच्छेद इति युक्तमुत्पश्यामः । गतानुगतिको लोक इत्यप्रामाणिक एवाचारः, न तु शाखोच्छेदः, अनेकशाखा- गवेतिकत्तंव्यतापूरणीयत्वात् । एकस्मिन्नपि कर्मण्यनाश्वासप्रसङ्गादिति चेत् ? एवं हि महाजनपरिग्रहस्योपप्लवसंभवे वेदा श्रपि गतानुगतिकतयैव लोकैः परिगृह्यन्त इति न वेदाः प्रमाणं स्युः । तथा च वृश्चिकभिया पलायमानस्य आशी - विषमुखे निपातः । तस्मात् प्रतिदिन लोगों की आयु, आरोग्य, बल, वीर्य, श्रद्धा, शम, दम, ग्रहण और धारण की शक्ति क्रमशः क्षीण हो रही है । स्वाध्याय और अनुष्ठान ये सभी आयु एवं श्रारोग्यादि की अपेक्षा रखते हैं । श्रतः उन सबों के क्षयक्रम से स्वाध्याय और अनुष्ठान भी क्षीण हो रहे है’ । विश्व का बहुत बड़े जन समुदाय में इन का प्रचार है, अतः एक ही बार सभी अनुष्ठानों का और सभी शाखाओं का उच्छेद नहीं हो जाता । पू० प० गतानुगतिको लोकः … … अनाश्वासप्रसङ्गात् । अष्टाकादि आचारों का मूलप्रमाण वेद नहीं हैं। जनसाधारण ‘गतानुगतिक ’ होता है ( तत्त्व चिन्तक नहीं ) । किसी को कोई अनुष्ठान करते देखा, फिर बिना उसके मूल प्रमाण की चिन्ता के ही उसका अनुष्ठान करने लगे। अगर सभी अनुष्ठानों का मूल वेद को हो माना जाय तो फिर किसी क्रिया के प्रति यथावत् अनुष्ठित होने का विश्वास करना ही संभव नहीं होगा । क्योंकि जिस शाखा में जिस अनुष्ठान का विधान रहता है, उनकी बहुत-सी ‘इतिकर्तव्यताये’ अन्यशाखों में कथित रहतीं है । यह नियम नहीं हैं कि जिस शाखा में जिस अनुष्ठान का विधान हो, उनकी सभी इतिकर्तव्यतानों का उल्लेख उसी शाखा में रहे । (देखिये ब्रह्मसूत्र शाङ्करभाष्य अ० ३ पा० ३ अधि० ३५ सू० ५५ - ५६ ) ऐसी स्थिति में अगर किसी शाखा के अत्यन्त उच्छेद की कल्पना कर लेंगे, तो यह शङ्का सभी भागों की ‘इतिकर्तव्यताओं’ के प्रसङ्ग में होगी कि ‘इस भाग की कोई इतिकर्तव्यता उच्छिन्न शाखाओं में तो नहीं थी, अतः किसी भी भाग के यथावदनुष्ठित होने का विश्वास ही उठ जायगा । अतः शाखोच्छेद की बात ठीक नहीं है । सि० प० एवं हि … निपातः अगर महाजनों से परिगृहीत आचारों को प्रामाणिक न मान कर गतानुगतिक मानें तो फिर वेदों के प्रसङ्ग में ही यह बात उपस्थित होगी कि लोग चूकि गतानुगतिक होते हैं, अत: ‘महाजनो ने वेदों का परिग्रह किया । इसलिये महाजन परिगृहित होने के कारण वेद को प्रमाण नहीं माना जा सकता । मीमांसको’ के लिये ‘महाजनपरिगृहीततत्व’ वेदप्रामाण्य का एक प्रधान स्तम्भ है । वे अगर उच्छिन्न शाखा की कल्पना से
5: चं न हो ’ ल स ये ८, क क के ते द्वितीयः स्तबकः २२९ एनमेव च कालक्रमभाविनमनाश्वासमाशङ्कमाने में हर्षिभिः प्रतिविहितमतो नोकदोषोऽपि । न चायमुच्छेदो ज्ञानक्रमेण, येन श्लाघ्यः स्यात् । अपि तु प्रमाद-मद- मानालस्य- नास्तिक्यपरिपाकक्रमेण । ततश्चोच्छेदानन्तरं पुनः प्रवाहः तदनन्तरन पुनरुच्छेद इति सारस्वतमिव स्रोतः । एक भी क्रिया में ‘अनाश्वास’ रूप विच्छू के डर से भाग कर वे महाजनों से परिगृहीत अष्टकादि आचारों को अप्रमाणिक मानेंगे तो सम्पूर्ण वेदों के प्रामाण्य के परित्याग रूप व्याघ्र के मुँह में वे जा गिरेंगे । अतः यह मानना होगा कि शिष्ट जनों से भ्रष्टकादि जितने भी प्राचार अनुष्ठित हो रहे हैं, एवं उनके विधायकवाक्य वर्तमान वेदशाखाओं में नहीं मिलते, उन सभी वाक्यों से युक्त वेदशाखायें अवश्य थीं। जो विलुप्त हो जाने के कारण उपलब्ध नहीं हो रही है । एनमेव च तब रही उच्छिन्न शाखा की कल्पना से ‘इतिकर्तव्यताओं’ के प्रसङ्ग में ‘अनाश्वास’ की बात, उसका यह समाधान है कि कालक्रम से होनेवाली वेदह्रास की इस संभावना को देख कर ही महर्षियों ने कथित ‘अननुष्ठान’ स्वरूप श्रप्रामण्य दोष को मिटाने के लिये ‘कल्प- सूत्रादि’ ग्रन्थों की रचना कर उसका प्रतीकार कर दिया है । उन में उन इतिकर्तव्यताओं के ऊल्लेख से ही उक्त ‘अनाश्वास’ दोष मिट जायेगा। क्यों कि उन ग्रन्थों के द्वारा उन ‘इतिकर्त्त- व्यता नों’ का निर्णय हो जाता है । न चायमुच्छेदः ( इस प्रसङ्ग में कहा जा सकता है कि अष्टकादि आचार अगर वेदमूलक होते, तो फिर वेदों के अन्य शाखाओं की तरह, वे शाखायें भी परिगृहीत होने के कारण अन्यशाखाओं की तरह विद्यमान रहतीं, सो नहीं हैं । अतः समुद्रतरण के उपदेश की तरह वे शाखायें ही प्रमाणिक थीं । इसी लिये शिष्टों ने उन्हें त्याग दिया । अतः तन्मूलक अष्टकादि प्राचारों की सत्ता स्वीकार करने पर भी उन्हें प्रामाणिक नहीं मानेंगे । इसलिये उन शाखाओं का अगर उच्छेद हो गया तो इससे कोई हानि नहीं है) किन्तु ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि अगर शिष्टजन अप्रामाणिक समझ कर उन शाखाओं को छोड़ देते तो यह बात आप के सुभोते के लिये हो सकती थी । किन्तु उनमें अप्रमाण्य ज्ञान होने के कारण तो शिष्टों ने उनका त्याग नहीं किया । उनका त्याग तो प्रमाद, मद, मान, आलस्य एवं नास्तिक्य प्रभृति दुर्गुणों की वृद्धि के कारण किया गया है, अतः उन शाखाओं का त्याग न प्रशंसनीय है, एवं न वे श्राचार अप्रमाणिक हैं । ततश्च… अतः जिस प्रकार अष्टकादि प्राचारों के विधायकवाक्यों से युक्त वेद की शाखाओं का विनाश हुआ, उसी प्रकार संपूर्ण वेद का ही विनाश हो जायगा (वेदाः उच्छेत्स्यन्ति वेदत्वात्
२३० गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जलौ अन्यथा कृतहानप्रसङ्गात् । तथा च भाविप्रवाहवद्भवन्नप्ययमुच्छेदपूर्वंक इत्यनुमीयते । स्मरति च भगवान् व्यासो गीतासु भगवद्वचनम् — यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत ! अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ॥ परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् । धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे ॥ आचारानुमितवेदवत् ) । अतः सरस्वती नदी की प्रवाह के समान उच्छेद के बाद प्रवाह, प्रवाह के बाद पुनः उच्छेद को धारा चलती रहती है । ( अगर वर्तमान वेदशाखाओं का उच्छेद मानने पर भी इस उच्छेद के वाद पुनः प्रवाह रूप सृष्टि और पुनः उच्छेद की बारा को अगर स्वीकार न करें तो, इस उच्छेद से पहिले की सृष्टि के शरीर से किये गये कर्मों का भोग्य दूसरे शरीर से संभव न होने के कारण उक्त कृतकर्म विफल हो जायगे । क्योंकि इस प्रवाह के शरीर से किये गये कर्म का भोग तो इस शरीर से संभव नहीं है, आगे पुनः प्रवाह रूप सृष्टि होगी नहीं, तो फिर उस कर्म की क्या सार्थकता होगी ? क्योंकि इस प्रवाह के शरीर के द्वारा मनुष्ठित वाजपेयादि अनुष्ठानों का फल इस प्रवाह के शरीर के द्वारा भोगा नहीं जा सकता । एवं आगे जब वह प्रवाह रुक ही जायगा तो फिर दूसरे शरीर की संभावना ही नहीं रह जाती है, फिर उक्त ‘कर्म’ की सार्थकता ही क्या रह जायगी ? तथा भाविप्रवाहवत्.. … … एवं वर्तमान प्रवाह (सृष्टि) से पहिले भी प्रवाह का विच्छेद हो चुका रहता है। अर्थात् जिस प्रकार भावी प्रवाह से पहिले प्रवाह का विनाश हो जाता है, उसी प्रकार वर्तमान प्रवाह से पहिले भी दूसरे प्रवाह का उच्छेद अवश्य रहता है (क्यों कि यह प्रवाह भी प्रवाह ही है ) (अयम् वर्त्तमानप्रवाहः उच्छेदपूर्वकः प्रवाहत्वात् भाविप्रवाहवत् ) ‘सृष्टि और प्रलय की धारा अनादि और अनन्त हैं’ इस प्रसंग में, श्री भगवान् के इन बचनों को श्री महिर्षि व्यासदेव ने भी गीता में स्मरण किया है । (१) जब-जब यागादि धर्मो का ह्रास होता हैं, एवं हिंसादि अधर्मो का उदय होता है, तभी हम पुनःपुनः बार-बार धर्म की स्थपना के लिये और अधर्म के विनाश के लिये अवतार लेता हूँ । (२) सज्जनों की रक्षा के लिये एवं पापियों के विनाश के लिये ‘युग-युग’ में मैं विशेष शरीर को धारण करता हूँ । ( इस दोनों श्लोंको के ‘यदा यदा’ और ‘युगे युगे’ इन दोनों वीप्साओं (द्विरुक्तिनों ) से सृष्टियों मौर प्रलयों की धारा का मनादित्व और अनन्तत्व अभिव्यक्त होता है )
क ह का T ST स ह के ד T 1 र 3 द्वितीयः स्तवकः २३१ कः पुनरयं महाजनपरिग्रहः ? हेतुदर्शन शून्येग्रहण धारणार्थानुष्ठानादिः, स ह्यत्र न स्याहते निमित्तम् । न ह्यस्यालस्यादिनिमित्तम्, दुःखमयकर्मप्रधानत्वात् । नाप्यन्यत्र सिद्धप्रामाण्येऽभ्युप । येऽनधिकारेणास्मिन्नन्यगति कतयाऽनुप्रवेशः, परै:- पूज्यानामप्यत्रावेशात् । नापि भक्ष्यपेयाद्यद्वैतानुरागः, तद्विभागव्यवस्था परत्वात् । पू० प० कः पुनरयम् ( जिस ‘महाजनपरिग्रह’ को वेद के प्रामाण्य का ज्ञापक कहा गया ) वह महाजन- परिग्रह’ क्या वस्तु है ? (3) ** हेतुदर्शन शून्यैः सांसारिक किसी प्रयोजन के अभिप्राय के विना वेदों का अध्ययन, धारण, श्रौर वेदों में विहित क्रियाओं का शिष्टों के द्वारा अनुष्ठान ही वेदों का ‘महाजनपरिग्रह’ है । (वेदों के महाजनपरिगृहीतत्व के ये आठ बाधक हैं (१) आलस्य (२) अनन्यगतिकत्व (६) भक्ष्यपेयाद्यद्वैतानुराग (४) कुतुर्काभ्यास (५) पाषण्ड-संसर्ग (६) अव्यग्रता की अभिसन्धि (७) जीविका और (८) कुहकवंचना । अगर इन हेतुओं में से किसी के द्वारा वेदों का उक्त परिग्रह सिद्ध हो जाय तो वेदों’ के ‘परिग्रह’ को महाजनपरिग्रह नहीं कहा जा सकता । (१) वौद्धादि प्रतिपक्षी कहते हैं कि वेदों का कथित परिग्रह केवल आलसी लोग करते हैं । जिन्हें अन्य कोई सांसारिक कार्य ठीक से नही सभल पाता, वे ही लोग वेदादि के अध्ययन में समयक्षेप करते हैं । इस आक्षेप के विरुद्ध आचार्य कहते हैं कि वेद के उक्त परिग्रह को ‘आलस्य’ मूलक नहीं कहा जा सकता । क्यों कि ‘परिग्रह’ के अन्तर्गत वे सभी अनुष्ठान भी हैं, जो अन्यन्त दुःसाध्य हैं । अतः वेदों के जिस परिग्रह में दुःखबहुलता हो उसे आलस्य मूलक नहीं कहा जा सकता । नाप्यन्यत्र सिद्धप्रामाण्ये अत्राप्रवेशात् परिग्रह के अनधिकारी पुरुषों के द्वारा प्रमाण होंगे तो उन के (२) (बौद्धों का कहना है कि बौद्ध शास्त्र के वेदों का परिग्रह इस संदेह से किया जाता है कि अगर वेद परिग्रह से मेरा अभीष्ट सिद्ध हो जायगा । अगर अप्रमाण भी होंगे तथपि, उसके परिग्रह से कोई हानि नहीं होगी । इसके उत्तर में प्राचार्य का कहना है कि ) बौद्धधर्मावलम्बी जनता के परमपूज्य ‘भिक्षुओं” के लिये भी जब वेदों का परिग्रह निषिद्ध है, तो फिर यह कहना हास्यास्पद है कि ‘बौद्धपक्ष से विचलित पुरुष ही वेदों का परिग्रह करते हैं’। नापि भक्ष्यपेयादि here ( ३ ) बौद्धों का आक्षेप है कि बौद्धशास्त्र में भक्ष्याभक्ष्य के बहुत से विधि-निषेध । अतः जो यथेच्छ भोजन और यथेच्छ पानके अभिलाषी है, उन्हें बौद्धागम के परिग्रह से CCO. Vasishtha Tripathi Collection. Digitized by eGangotri२३२ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली नापि कुतर्काभ्यासाहितव्यामोहा, श्राकुमारं प्रवृत्तेः । नापि सम्भद्विप्रलम्भ- पाषण्डसंसर्गः, पित्रादिक्रमेण प्रवर्त्तनात् । नापि योगाभ्यासाभिमानेनाव्यग्रताभिसन्धिः, प्राथमिकस्य कर्मकाण्डे सुतरां व्यग्रत्वात् । नापि जीविका, प्रागुक्तेन न्यायेन । असुविधा होती है । अतः वे ‘भक्ष्यपेयद्वैत’ के भक्ष्याभक्ष्य के बन्धन से छूट कर ’ भक्ष्यपेयाद्वैत’ की कामना से अर्थात् ‘सभो पदार्थ भक्ष्य है, सभी वस्तु पेय हैं’ कोई पदार्थ अभक्ष्य और झपेय नहीं है’ इस ‘अद्वैत’ कामना से लोग वेदों का परिग्रह करते हैं । आचार्य का कहना है कि यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि वेदों में ( एवं तदनुयायिनी स्मृतियों में ) अत्यधिक भक्ष्याभक्ष्य और पेयापेय के ‘द्वैत’ है । अतः वेदों के परिग्रह’ को कथित ‘अद्वैतानुराग’ मूलक भी नहीं कहा जा सकता । वेदों का परिग्रह कुतर्क के अभ्यास से भी नहीं माना जा सकता, क्योंकि ‘अभ्यास’ के लिये अधिक ‘वय’ की अपेक्षा होती है । किन्तु केवल ‘वयस्क’ लोग ही वेदों का परिग्रह नहीं करते । बच्चे से लेकर बूढ़े तक वेदों के ‘परिग्रह’ करनेवालों में देखे जाते हैं । कुछ ठगनेवाले पाषण्डों के संसर्ग से भी वेदों का परिग्रह नहीं माना जा सकता, क्योंकि वेदों का परिग्रह पितृपितामह से परिगृहीत मार्ग को छोड़ कर अभिनव मार्ग का कोई ग्रहण करे तो उसके प्रसङ्ग में यह शङ्का की जा सकती है कि ‘कदाचित इसने किसी पाषण्डी के भुलावे पड़कर इस अभिनव मार्ग का ग्रहण किया है । नापि योगाभ्यासानुमानेन यह कहना भी संभव नहीं है कि ‘वेदों में चूं कि योग का विधान है, अतः योगाभ्यास के व्याज से सांसारिक व्यग्रताओं से दूर रहनेवालों से ही वेद परिगृहीत हैं, क्योंकि ऐसा वे ही कह सकते हैं जिन्होंने वेदों का अवलोकन नहीं किया हैं । वेदों में प्रथमतः कर्मकाण्डों का ही विधान है । बाद में ब्रह्मकाण्ड का प्रतिपादन है, जिसमें योगाभ्यास की भी चर्चा है । अतः वेदपरिगृहीताओं को पहिले कर्मकाण्ड के पीछे ही व्यग्र रहता पड़ता है । नापि जीविका … पौरोहित्य के व्यवसाय से माना जा सकता, क्योंकि ‘वेदों का जीविका निर्वाह करने के लिये भी वेदों का परिग्रह नहीं परिग्रह जीविकदि दृष्ट फल के नहीं किया जाता ( दृष्ट- लाभफला वापि’ इस श्लोक की व्याख्या द्रष्टव्य ) । ‘कुहक’ अर्थात् ठगनेवालों की ‘वञ्चना’ से वशीभूत होकर ( अर्थात् वेदों श्रादित्य स्तम्भनादि रूप श्रद्भुत कार्यों के उपाय लिखे हुये हैं, अतः वेदों का परिग्रह करना चाहिए इस विप्रलम्भ से वशीभूत होकर भी ) वेदों का परिग्रह स्वीकार नहीं किया जा सकता । क्योंकि वेदों में इस प्रकार उक्तियाँ हैं ही नहीं । ( अतः वेद ‘महाजनपरिगृहीत’ होने के कारण अवश्य ही प्रमाण है । )
न- न AKE IS 1S र ना क क T’ ह IT, का सी स कि डों हीं ष्ट- त्य हए TI के द्वितीयः स्तबकः दृष्ट फलाभावात् । नापि कुहकवञ्चना, प्रकृते तदसंभवात् । २३३ संभवन्ति चेते हेतवो बोद्धाद्यागमपरिग्रहे । तथा हि भूयस्तत्र कर्मलाघव- मित्यलसाः । इतः पतितानामप्यनुप्रवेश इत्यनन्यगतिकाः । भक्ष्यापेयाद्यनियम इति रागिणः । स्वेच्छया परिग्रह इति कुतर्काभ्यासिनः । पित्रादिक्रमाभावात् प्रवृत्तिरिति पाषण्ड संसर्गिणः । ‘उभयोरन्तरं ज्ञात्वा कस्य शौचं विधीयतें’ इत्यादि श्रवरणाद- व्यग्रताभिमानिनः । सप्तघटिका भोजनादिसिद्धेर्जीविकेत्ययोग्याः । आदित्यस्तम्भनं ( वेदों का महाजनों के द्वारा परिगृहीत होने में जितने भी आलस्यादि हेतु दिखलाये वे, सब वेदों के परिग्रह में तो है ही नहीं, प्रत्युत वौद्धादि के आगमों के परिग्रह में ही वे हेतु अवश्य संभावित हैं । क्योंकि:- बौद्धादि श्रागमों का परिग्रह इस आलस्य के वशीभूत होकर किया जाता है कि ( वेदागम की अपेक्षा से ) बौद्धादि आगमों में करने के लिये थोड़े से कर्मों का विधान है । बौद्धादि आगमों का परिग्रह वे ही लोग करते हैं जिनके लिये अनाचारादि के कारण वैदिकमार्ग में फिर लौटने की गति नहीं रह जाती । कुछ भोजन के अनुरागी वेदागमों में भक्ष्य पेय के सम्बन्ध में अति विधिनिषेध के कारण भीत होकर बौद्धादि आगमों का परिग्रह करते हैं । कुतर्क करने में अभ्यस्त कुछ लोग गुरुजनों की आज्ञा का उल्लंघन कर अपनी इच्छा को महत्त्व प्रदान करने के लिये बौद्धादि श्रागमों का परिग्रह करते हैं । कुछ लोग पाखण्डियों के संपर्क में श्राकर वेदमार्ग को छोड़ पितृपितामह क्रम से अप्राप्त भी बौद्धादि श्रागमों का अवलम्बन करते हैं । शरीर’ अत्यन्त मलिन है और आत्मा मलों से सर्वथा रहित है । ( इस प्रकार की शास्त्र की उक्तियों से शरीर और आत्मा के अन्तर को समझ कर यह नहीं जान पड़ता कि किस की शुद्धता का शास्त्रों के विधान हैं ? ) प्रत: वेदादि शास्त्रों से विहित शुचि श्राचारों के पालन के लिये व्यग्र होना उचित नहीं है । इस प्रकार की दृष्टिवाले कुछ ‘अव्यग्रताभिमानी’ लोग भी बीद्धादि श्रागमों का परिग्रह करते हैं । वेद एवं तदनुयायि मार्गों को छोड़ देने से दिनभर भोजन करने में कोई बाधा नहीं होगी । इस प्रकार की दृष्टिवाले कुछ ‘अयोग्य’ लोग ही अर्थात् वेदादि विधानों के पालन में अयोग्य कुछ पुरुष ही बौद्धादि शास्त्रों का परिग्रह करते हैं । कुछ ठग लोग कुछ समय तक सूर्यं १. अत्यन्तमस्तिनः कायो देही चास्यन्तनिर्मलः उभयोरन्तरं ज्ञास्या कस्य शौचं विधीयते ॥ ३०
२३२ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली 1 नापि कुतर्काभ्यासाहितव्यामोहा, आकुमारं प्रवृत्तेः । नापि सम्भद्विप्रलम्भ- पाषण्डसंसर्गः, पित्रादिक्रमेण प्रवर्त्तनात् । नापि योगाभ्यासाभिमानेन व्यग्रताभिसन्धिः, प्राथमिकस्य कर्मकाण्डे सुतरां व्यग्रत्वात् । नापि जीविका, प्रागुक्तेन न्यायेन असुविधा होती है । अतः वे ‘भक्ष्यपेयद्वैत’ के भक्ष्याभक्ष्य के बन्धन से छूट कर ‘भक्ष्यपेयाद्वैत’ की कामना से अर्थात् ‘सभो पदार्थ भक्ष्य है, सभी वस्तु पेय हैं’ कोई पदार्थ अभक्ष्य और प्रपेय नहीं है’ इस ‘अद्वैत’ कामना से लोग वेदों का परिग्रह करते हैं । आचार्य का कहना है कि यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि वेदों में ( एवं तदनुयायिनी स्मृतियों में ) अत्यधिक भक्ष्याभक्ष्य और पेयापेय के ‘द्वैत’ है । अतः वेदों के परिग्रह’ को कथित ‘अद्वैतानुराग’ मूलक भी नहीं कहा जा सकता । वेदों का परिग्रह कुतर्क के अभ्यास से भी नहीं माना जा सकता, क्योंकि ‘अभ्यास’ के लिये अधिक ‘वय’ की अपेक्षा होती है । किन्तु केवल ‘वयस्क’ लोग ही वेदों का परिग्रह नहीं करते । बच्चे से लेकर बूढ़े तक वेदों के ‘परिग्रह’ करनेवालों में देखे जाते हैं । 1 कुछ ठगनेवाले पाषण्डों के संसर्ग से भी वेदों का परिग्रह नहीं माना जा सकता, क्योंकि वेदों का परिग्रह पितृपितामह से परिगृहीत मार्ग को छोड़ कर अभिनव मार्ग का कोई ग्रहण करे तो उसके प्रसङ्ग में यह शङ्का की जा सकती है कि ‘कदाचित इसने किसी पाषण्डी के भुलावे पड़कर इस अभिनव मार्ग का ग्रहण किया है । नापि योगाभ्यासानुमानेन यह कहना भी संभव नहीं है कि ‘वेदों में चूं कि योग का विधान है, अतः योगाभ्यास के व्याज से सांसारिक व्यग्रताओं से दूर रहनेवालों से ही वेद परिगृहीत हैं, क्योंकि ऐसा वे ही कह सकते हैं जिन्होंने वेदों का अवलोकन नहीं किया हैं । वेदों में प्रथमतः कर्मकाण्डों का ही विधान है । बाद में ब्रह्मकाण्ड का प्रतिपादन है, जिसमें योगाभ्यास की भी चर्चा है । अतः वेदपरिगृहीताओं को पहिले कर्मकाण्ड के पीछे ही व्यग्र रहता पड़ता है । नापि जीविका पौरोहित्य के व्यवसाय से माना जा सकता, क्योंकि ‘वेदों का जीविका निर्वाह करने के लिये भी वेदों का परिग्रह नहीं परिग्रह जीविकदि दृष्ट फल के नहीं किया जाता (दृष्ट- लाभफला वापि’ इस श्लोक की व्याख्या द्रष्टव्य ) । ‘कुहक’ अर्थात् ठगनेवालों की ‘वञ्चना’ से वशीभूत होकर ( अर्थात् वेदों श्रादित्य स्तम्भनादि रूप अद्भुत कार्यों के उपाय लिखे हुये हैं, अतः वेदों का परिग्रह करना चाहिए इस विप्रलम्भ से वशीभूत होकर भी ) वेदों का परिग्रह स्वीकार नहीं किया जा सकता । क्योंकि वेदों में इस प्रकार उक्तियाँ हैं ही नहीं । ( अतः वेद ’ महाजनपरिगृहीत’ होने के कारण अवश्य ही प्रमाण है 1 )
व द्वितीयः स्तबकः दृष्ट फलाभावात् । नापि कुहकवञ्चना, प्रकृते तदसंभवात् । २३३ संभवन्ति चैते हेतवो बोद्धाद्यागमपरिग्रहे । तथा हि भूयस्तत्र कर्मलाघव- मित्यलसाः । इतः पतितानामप्यनुप्रवेश इत्यनन्यगतिकाः । भक्ष्यापेयाद्यनियम इति रागिणः । स्वेच्छया परिग्रह इति कुतर्काभ्यासिनः । पित्रादिक्रमाभावात् प्रवृत्तिरिति पाषण्ड संस गिरणः । ‘उभयोरन्तरं ज्ञात्वा कस्य शौचं विधीयतें’ इत्यादि श्रवणाद- व्यग्रताभिमानिनः । सप्तघटिका भोजनादिसिद्धेर्जीविकेत्ययोग्याः । श्रादित्यस्तम्भनं ( वेदों का महाजनों के द्वारा परिगृहीत होने में जितने भी आलस्यादि हेतु दिखलाये वे, सब वेदों के परिग्रह में तो है ही नहीं, प्रत्युत वौद्धादि के आगमों के परिग्रह में ही वे हेतु अवश्य संभावित हैं। क्योंकिः- बौद्धादि श्रागमों का परिग्रह इस आलस्य के वशीभूत होकर किया जाता है कि ( वेदागम की अपेक्षा से ) बौद्धादि आगमों में करने के लिये थोड़े से कर्मों का विधान है । बौद्धादि श्रागमों का परिग्रह वे ही लोग करते हैं जिनके लिये अनाचारादि के कारण वैदिकमार्ग में फिर लौटने की गति नहीं रह जाती । कुछ भोजन के अनुरागी वेदागमों में भक्ष्य पेय के सम्बन्ध में प्रति विधिनिषेध के कारण भीत होकर बौद्धादि श्रागमों का परिग्रह करते हैं । कुतर्क करने में अभ्यस्त कुछ लोग गुरुजनों की आज्ञा का उल्लंघन कर अपनी इच्छा को महत्त्व प्रदान करने के लिये बौद्धादि श्रागमों का परिग्रह करते हैं । कुछ लोग पाखण्डियों के संपर्क में प्राकर वेदमार्ग को छोड़ पितृपितामह क्रम से अप्राप्त भी बौद्धादि श्रागमों का अवलम्बन करते हैं । शरीर’ अत्यन्त मलिन है और आत्मा मलों से सर्वथा रहित है । ( इस प्रकार की शास्त्र की उक्तियों से शरीर और आत्मा के अन्तर को समझ कर यह नहीं जान पड़ता कि किस की शुद्धता का शास्त्रों के विधान हैं ? ) अतः वेदादि शास्त्रों से विहित शुचि आचारों के पालन के लिये व्यग्र होना उचित नहीं है । इस प्रकार की दृष्टिवाले कुछ ‘अव्यग्रताभिमानी’ लोग भी बीद्धादि श्रागमों का परिग्रह करते हैं । वेद एवं तदनुयायि मार्गों को छोड़ देने से दिनभर भोजन करने में कोई बाधा नहीं होगी । इस प्रकार की दृष्टिवाले कुछ ‘अयोग्य’ लोग ही प्रर्थात् वेदादि विधानों के पालन में अयोग्य कुछ पुरुष ही बौद्धादि शास्त्रों का परिग्रह करते हैं। कुछ ठग लोग कुछ समय तक सूर्य १. अत्यन्तमलिनः कायो देही चाध्यन्तनिर्मलः । उभयोरन्तरं ज्ञास्वा कस्य शौचं विधीयते ॥ ३०
२३४ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली पाषाणपाटनं शाखाभङ्गो भूतावेश! प्रतिमाजल्पनं धातुवाद इत्यादिधन्धना- कुहक विश्ञ्चताः । ततस्तान् परिगृह्णन्तीति सम्भाव्यते । श्रतो न ते महाजनपरि- गृहीता इति विभागः । स्यादेतत् । यद्येवं सर्वकर्मणां वृत्तिनिरोधे न किञ्चिदुत्पद्यते, न किञ्चि- द्विनश्यतीति स्तिमिताकाशकल्पे जगति कुतो विशेषात् पुनः सर्गः ? । युज्यते । प्रकृतिपरिणतेरिति साख्यानां शोभते । ब्रह्मपरिणतेरिति भास्करगोत्रे को एक ही स्थान पर रोक कर दिखाते हैं, हाथ से पत्थर को तोड़ते हैं, दूसरों के शरीर में प्रविष्ट हो जाते हैं, पाषाणप्रतिमा से शब्दोच्चारण कराते हैं । ‘धातुवाद’ अर्थात् लोह को सुवर्ण एवं सुवर्ण को लोह बना कर दिखाते हैं । ठगों के इन आश्चर्यजनक कार्यों से प्रभावित कुछ ‘कुहकवश्चित’ लोग भी बौद्धादि आगमों का परिग्रह करते हैं । अतः बौद्धादि के आगम वेदादि आगमों के समान महाजन परिगृहीत नहीं हैं । पू० प० स्यादेतत्… 23 … पुनः सगं ( ‘सर्गप्रलय संभवात्’ इस उक्ति का इस प्रकार समर्थन के बाद कोई उदासीन मित्रभाव से पूछते हैं कि ) प्रलय काल में सभी जीवों के सभी अदृष्टौ की कार्य करने की क्षमता जब रुक जाती है, उसके बाद न किसी का नाश हो सकता है, न किसी की उत्पत्ति हो सकती है । इस प्रकार संसार की स्थिति जब स्तब्ध आकाश की तरह रहती है, उस समय कौन-सा जिससे पुनः ‘विशेष’ उपस्थित होता है, सि० प० प्रकृतिपरिणतेः • 138 सृष्टि होने लगती है ? अनुधावति इस प्रसङ्ग में सांख्यदर्शन के आचार्यों का मत है कि प्रलय के बाद प्रकृति हो महदादि रूप से परिणत होकर पुनः सृष्टि करती है ।’ प्रलय के बाद ब्रह्म के परिणाम स्वरूप ‘विशेष’ से पुनः सृष्टि होती है । यह ‘भास्करा- गोत्रानुयायीं वेदान्तियों का मत है, जो किसी हदतक ठीक है । २ १. इस पक्ष में ‘सांख्यानां शोभते, इस वाक्य के द्वारा श्राचार्य ने अपनी असहमति व्यक्त की है। आचार्य की इस असहमति को व्यक्त करते हुये वरदराज मिश्र ने लिखा है कि ‘मातुलदुहितेव दाक्षिणात्यानाम् न तु प्रामाणिकानाम्’ अर्थात् जिस प्रकार मातुलसुता के साथ परिणय दाक्षिणाथ्यों को ही शोभा देता है, किसी दूसरे प्रान्तवासियों को नहीं । उसी प्रकार प्रकृति से उक्त प्रकार से सृष्टि की उक्ति सांख्य के प्राचार्यों को ही शोभा देती है, किसी प्रामाणिक संप्रदाय को नहीं । २. भास्कराचार्य के इस मत के प्रसङ्ग में प्राचार्य ने जो आदर प्रकट किया है, उसको व्यक्त करते हुए बोधिनीकार ने लिखा है कि ‘भास्कर गोत्रे एत्र युज्यते - कुत्व भूरिव- श्रोत्रियगोत्रे’ । अर्थात् जिस प्रकार श्रोत्रिय वंश में केवल कुलीना वधू ही शोभा वि हे क पु क ᄒ उ अ श्र च पू न सं 1695 प क भ
द्वितीयः स्तबकः २३५ वासनापरिपकादिति सोगतमतमनुधावति । कालविशेषादिति चोपाधि- विशेषाभावादयुक्तम् । असताञ्चोपलक्षणानां न विशेषकत्वम्; सर्वदा तुल्यरूपत्वात् । न च ज्ञानद्वारा, बौद्ध लोगों का कहना है कि प्रलय के बाद पुनः सृष्टि वासना के परिपाक से होती है । ( अर्थात् विज्ञानों का समूह ही संसार है । इस समूह के आगे-आगे के विज्ञानों विषयों का विषय होना ही ‘वासना’ है। इस वासना का का पूर्व पूर्ववर्ती विज्ञानों के ’ परिपाक’ अर्थात् तत्स्वरूप सहकारि कारण का लाभ रूप ‘विशेष’ से ही प्रलय के बाद पुनः सृष्टि होती है । कालविशेषादिति ‘काल विशेष’ से ही प्रलय के बाद पुनः सृष्टि होती है ( यह नैयायिकों का मत भी ) ठीक नहीं है, क्योंकि जो संयोगविभागादि कालों के भेदव्यवहार के नियामक हैं, उनमें से उस समय कोई नहीं रहता । अतः प्रलय के अन्तिम क्षण में और उससे पूर्व के क्षणों में अन्तर का नियामक न रहने से प्रलय काल में भी सृष्टि की आपत्ति होगी । असतां च अगर प्रलय काल में अविद्यमान संयोगविभागादि क्षणों का भेदक ( व्यावर्शक ) मानें और इससे प्रलय के अन्तिम क्षण को प्रलय काल के मोर क्षणों से अन्तर करें तो भी काम नहीं चल सकता, क्योंकि संयोग विभागादि की अविद्यमानता तो प्रलय के अन्तिम क्षण से लेकर उसके पूर्व के प्रलयावधिक सभी क्षगों में है ही । फिर प्रलयकाल में भी सृष्टि की आपत्ति होगी । न च ज्ञान द्वारा 100 (नैयायिक लोग कह सकते हैं कि) प्रलय के सभीक्षणों में या किसी भी क्षण में यद्यपि संयोग विभागादि नहीं रहते, फिर भी उनका ज्ञान प्रलय के किसी क्षण विशेष में रहता है, एवं कुछ क्षणों में नहीं । अतः संयोग विभागादि अपने ज्ञान रूप व्यापार के द्वारा प्रलय के क्षणों में परस्पर व्यावृत्तिबुद्धि को उत्पन्न कर सकता है । अतः प्रलय के अन्तिम क्षण में उक्त संयोगादि का ज्ञान है । जिससे तदव्यवहित उत्तरक्षण में सृष्टि होती है । अभ्यक्षणों में उक्त ज्ञान नहीं है, अतः प्रलय काल में सृष्टि नहीं होती है । पाती है, उसी प्रकार उक्त प्रकार की सदुक्ति केवल भास्कर मतानुयायियों के पास ही शोभा देती हैं। १. बौद्ध मत में चाचार्य की असहमति को ‘अनुधावति’ पद से व्यक्त करते हुये बोधिनीकार ने लिखा है कि ‘सौगतमसमनुधावति — चेशवनिवेव धनवन्तम्’ अर्थात् जिस प्रकार, वेश्यायें केवल धर्मिकों की तरफ दौड़तीं हैं, उसी प्रकार उक्त ‘वासना परिपाक’ वाला पक्ष बोचों की ही तरफ दौड़ता है ।
२३६ गद्यपद्यात्मक न्यायकुसुमाञ्जलौ श्रनित्यस्य तस्य तदानीमभावात् । नित्यस्य च विषयतः स्वरूपतश्व अविशेषादिति चेन्न । शरीशसंक्षोभश्रमजनितनिद्राणां प्राणिनामायुः परिपाक्रमसम्पादनेक प्रयोज- श्रनित्यस्य तस्य ( किन्तु नैयायिकों का ऐसा कहना ठीक नहीं है, क्योंकि उक्त ज्ञान अगर अस्मदादि का अनित्यज्ञान हो, तो फिर उसकी सता प्रलय काल में संभव नहीं है, क्यों कि प्रलयकाल में और सभी भाव पदार्थों की तरह सभी ज्ञानों का भी नाश हो जाता है | I नित्यस्य अगर उक्त ‘ज्ञान’ से नित्यज्ञान अभिप्रेत हो तो फिर प्रलयकाल में भी सृष्टि की आपत्ति होगी, क्यों कि इश्वरोपज्ञान रूप नित्यज्ञाम का स्वरूप या विषय का सम्बन्ध सभी क्षणों में बराबर है । सि० प० न, शरीरसंक्षोभश्रमजनितनिद्रारणास् … ( नैयायिकों का सिद्धान्त है कि ‘अदृष्ट’ विशेष से ही प्रलय काल के वाद सृष्टि होती है। उक्त काल विशेषावच्छिन्न सृष्टि करने की ईश्वर की इच्छा उसकी सहकारिणी है ) । जिस प्रकार सुषुप्ति अवस्था में एक ही समय पर ( युगपत ) अदृष्ट की सभी वृत्तियाँ निरुद्ध रहती हैं। फिर भी सुषुप्ति के समय श्वास और प्रश्वास चलते हैं, उसके बिना पुरुष की प्रायु का यह निर्द्धारण नहीं हो सकता है कि कितनी आयु का भोग हो चुका है और कितना अवशिष्ट है। इसी से प्रलय का जो ब्राह्ममान से सौ वर्ष की प्रायु कही गयी है उस प्रायुःकाल का भी निर्धारण संभव होता है । क्योंकि उसी प्रकार ईश्वर के निःश्वास स्वरूप परमाणुओं की क्रिपाथों से ‘कदाचित्’ अर्थात् प्रलय के अव्यवहित उत्तरकाल में ही सृष्टि होती है, उससे पहिले नहीं । ( अर्थात् ईश्वरीय निःश्वास शब्द से शास्त्रों में प्रसिद्ध परमाणुओं को क्रियामों में से अन्तिम क्रिया ही उक्त ‘काल विशेष’ की उपाधि है । प्रत। प्रलय के अन्तिम क्षण तक सृष्टि नहीं होती है ) । ( संयोग दो प्रकार के हैं, एक आरम्भक संयोग, जिससे घट की उत्पत्ति होती है, वह आरम्भक संयोग है । कपालों में पृष्ठावच्छेदेन जो संयोग है वह अनारम्भक संयोग है, क्योंकि इस से घट का प्रारम्भ नहीं होता है ) । प्रलय काल में परमाणुत्रों में आरम्भक संयोगों के न रहने पर भी अनारम्भक संयोग रूप प्रचय अवश्य रहता है । इस प्रचय की उत्पादिका क्रिप भी प्रलय काल में भी परमाणुत्रों में अवश्य रहती । इन क्रियाओं को ही उपनिषदादि मे ‘ईश्वर का निश्वास’ कहा गया है । अतः प्रलय काल के घटक क्षणों में परस्पर भेद की प्रयोजिका उक्त क्रियायें हो सकती हैं ।
’ द्वितीयः स्तबक २३७ नश्वाससन्तानानुवृत्तिवन्महाभूतसंप्लव संक्षोभ लब्धसंस्काराणां परमाणूनां मन्दतर- तमादिभावेन कालावच्छेदेकप्रयोजनस्य प्रचयाख्य संयोगपर्यन्तस्य कर्मसंतानस्येश्वर- निश्वसितस्यानुवृत्तेः । क्रियान सावित्यत्राऽविरोधादागमप्रसिद्धिमनतिक्रम्य तावन्तमेव कालमित्यनुमन्यते । ब्रह्माण्डान्तरव्यवहारो वा कालोपाधिः । तदवच्छिन्ने काले पुनः सर्गः । यथा खल्त्रलाबुलतायां विततानि फलानि, तथा परमेश्वरशक्तावनुस्यूतानि सहस्र- शोऽण्डानीति श्रूयते । एवं विच्छेदसम्भवे कस्य केन परिग्रहो यतः प्रामाण्यं ( प्रलय काल की उक्त क्रियाये किस से उत्पन्न होती है ? इस प्रश्न का यह उत्तर कि ) पृथिव्यादि महाभूतो के ‘संप्लव’ अर्थात् विनाश के लिए उनमें ‘संक्षोभ’ से ही परमाणुओं में क्रिया उत्पन्न होती है । इन क्रियाओं से परमाणुओं में जो ‘वेग’ नाम का. संस्कार उत्पन्न होता है, उसकी अनुवृत्ति प्रलय काल में भी रहती है, अतः परमाणुषों में प्रलय काल में भी क्रियाओं की उत्पत्ति होती रहती है । (प्रलय काल में परमाणुओं में क्रियाओं की उत्पत्ति किस प्रयोजन से होती है ? इस प्रश्न का यह उत्तर है कि ) ब्रह्माण्ड की प्रलयावस्था कितने समय तक रहती है ? इसका निर्णय संभव नहीं है । क्षणादि का व्यवहार क्रिया रूप उपाधि के बिना संभव नहीं है । अतः विवश होकर प्रलय काल में भी परमाणुत्रों में क्रिया की उत्पत्ति माननी पड़ती है । क्षणादि निर्णय के बिना कियानसो ‘प्रलय’ का वह समय कितना है ? ( इस प्रश्न का उत्तर यह है कि ) पुराणादि में जो ब्राह्ममान से सौ वर्षों का समय कहा गया है, उसी को स्वीकार कर लेते हैं, क्योंकि इसको स्वीकार कर लेने में कोई विरोध नहीं है । (२) ब्रह्माण्डान्तर ………" इति श्रूयते वेदादि शास्त्रों से श्रुत है कि जिस प्रकार लौकी की बेल में अनेक लौकियाँ लटकी रहती हैं, उसी प्रकार परेश्वर की शक्ति में अनेकानेक ब्रह्माण्ड अनुस्यूत रहते हैं । अतः जिस समय एक ब्रह्मण्ड का नाश रूप प्रलय होता है, उसी समय कुछ अन्य ब्रह्माण्डों का सृजन भी होता रहता है । सुतराम् सृज्यमान ब्रह्माण्ड में क्षणादि व्यवहार के प्रयोजक कर्म ही अपर ब्रह्माण्ड के प्रलय काल का एवं तदन्तर काल में सृष्टि का नियामक हो सकता है । एवं विच्छेदसम्भवे • ००० ००० ०.० (१) यदि ईश्वर को नहीं मानेगें तो कथित रीति से सिद्ध प्रलय काल में वेदादि का एवं सभी पुरुषों का नाश हो जायगा । फिर किसका परिग्रह किसके द्वारा होगा ? जिस से
२३८ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली स्यात् । ज्ञापकश्चायमर्थो न न कारकः । ततः कारकाभावान्निवर्तमानं ज्ञापकाभिमतः कथङ्कारमास्थापयेत् । कार्यं स्यादेतत् । सन्तु कपिलादय एव साक्षात्कृतधर्मारण : कर्मयोगसिद्धास्त एव संसाराङ्गारेषु पच्यमानान् प्राणिनः पश्यन्तः परमकारुणिकाः प्रियहितोपदेशे- नाऽनुग्रहिष्यन्ति कृतं परमेश्वरेणाऽनपेक्षितकीटादिसंख्या परिज्ञानवतेति चेन्न । तदन्यस्मिन्ननाश्वासात् । अग्रिम सृष्टि में वेद की धारा बनी रहेगी ? किस शिष्टमहाजन के परिग्रह से अग्रिम सृष्टि में वेद प्रमाण होगा ? अतः ‘महाजन परिग्रह’ हेतु से वेदों में प्रामाण्य की सिद्धि नहीं की जा सकती । (२) ( ‘महाजनपरिग्रह’ से वेदों में प्रमाण्य का साधन न होने में दूसरी युक्ति यह है कि ) महाजन के द्वारा वेदों का परिग्रह वेदों में ग्रामाण्य का उत्पादक हेतु नहीं है, किन्तु शब्द में प्रामाण्य का उत्पादक जो वक्ता का यथार्थज्ञान रूप उत्पादक हेतु है, उससे उत्पन्न प्रामाण्य का वह ज्ञापक हेतु है। मीमांसक लोग ईश्वर को नहीं मानते । प्रलय काल में अन्य सभी पुरुषों का विनाश हो जाता है । इस स्थिति में जब वेद रूप शब्द में प्रामाण्य का कोई उत्पादक ही नहीं है, तब फिर प्रलयकाल के बाद की सृष्टि में वेदप्रामाण्य का स्थापन किस प्रकार किया जा सकेगा ? अतः वेदों में प्रामाण्य की उत्पत्ति और स्थापना के लिये अविनाशी पुरुष की कल्पना आवश्यक है । स्यादेतत् सन्तु कपिलादयः ….. परिज्ञानवता व्याख्या के लिये सृष्टि में वेदों के ( ‘तदन्यास्मन्ननाश्वासात्’ प्रथम श्लोक के इस अन्तिम चरण की उक्त सन्दर्भ से पूर्वपक्ष उपस्थित किया गया है कि ) प्रलय के बाद की उपदेश के लिये, या शब्दों के सतग्रह के लिये, अथवा ब्राह्मणादि वर्णों की व्यवस्था के लिये अनगिनत कीड़े मकोड़ों के ज्ञान से युक्त सर्वज्ञ परमेश्वर की कामना व्यर्थ है । ये काम तो प्राणियों को संसार की प्राग में जलते हुए देखकर दयाशील कपिलादि महर्षि भी कर सकते हैं । वे लोग नित्यनैमित्तिक कर्मों के अनुष्ठान से एवं चित्तवृत्तिनिरोष रूप योग के द्वारा सिद्धियाँ प्राप्त की हैं । भ्रतः उनको प्रतीन्द्रिय धर्म अधर्म एवं उनके साधनों का भी साक्षात्का- रात्मक ज्ञान है । - सर्वज्ञत्व के लिये अवश्यक असंख्य कीड़े मकोड़ों के ज्ञान की तो प्रकृत में आवश्यकता है नहीं । अतः उन लोगों से भी वेदादि उपदेशों के कार्य हो सकते हैं । इसलिये कपिलादि अगर सर्वज्ञ नहीं भी हैं, तथापि कोई क्षति नहीं है । अतः कथित उपदेशादि कार्यों के लिए अनुपयोगी अनगिनत कोड़े मकोड़ों के ज्ञान से युक्त सर्वज्ञ पुरुष को कल्पना अनावश्यक है । I इसी आक्षेप का समाधान प्रथम श्लोक के इस चौथे चरण से दिया गया ‘तदन्यस्मिन्ननाश्वासात्’ । ।
द्वितीयः स्तबक २३६ तथा ह्यतीन्द्रियार्थं दर्शनोपायो भावनेत्यभ्युपगमेऽपि नाऽसो सत्यमेव साक्षा- स्कार मुत्पादयति, यतः समाश्वसिमः । प्रमाणान्तरसंवादादिति चेन्न । अहिंसादि- । हितसाधनमित्यत्र तदभावात् । प्रागमोऽस्तीति चेन्न । ( प्र० ) तथा हि ( कपिलादि ऋषि अतीन्द्रिय अर्थों के द्रष्टा नहीं हो सकते। क्योंकि उनके प्रतीन्द्रियार्थ- दर्शन के प्रसङ्ग में कारण का प्रश्न उठने पर केवल यही उत्तर दिया जा सकता है) कि ‘भावना’ के प्रकर्ष से वे अतीन्द्रिय अर्थों को भी देख सकते थे । ( भावना के प्रकर्ष से अतीन्द्रिय अर्थों का भी साक्षात्कार संभव है । जैसे कि षड्जादि स्वरों की विशिष्ट भावना से उनका साक्षात्कार होता है ) । ( सि० ) नासौ ( यद्यपि यह ठीक है कि भावना के प्रकर्ष से अतीन्द्रिय अर्थ का ज्ञान उत्पन्न होता है, किन्तु ) यह निश्चित नहीं है कि भावना के प्रकर्ष से सर्वदा यथार्थ ज्ञान ही उत्पन्न हो ( क्योंकि कामिनी की भावना के प्रकर्ष से तृणपुञ्जादि में स्त्री का साक्षात्कार होता है ) अतः भावना प्रकर्षं से उत्पन्न कपिलादि के धर्माधर्म ज्ञान के प्रति पूर्ण विश्वास नहीं किया जा सकता । पू० प० प्रमाणान्तरसंवादात् "" भावना के प्रकर्ष से जिस विषय का जिस प्रकार का ज्ञान एक व्यक्ति को होता है, उसी विषय का उसी प्रकार का ज्ञान अगर दूसरे प्रमाणों से भी दूसरे को होता है ( यही प्रमाणान्तर संवाद है) तो भावना प्रकर्ष जनित पहिले ज्ञान को प्रमाण मानना ही होगा । सि० प० 401 न, अहिंसादि … ( यद्यपि घटादि दृष्ट विषयों के भावना प्रकर्षजनित ज्ञानों में यह प्रमाणान्तरसंवाद संभव है, किन्तु अदृष्ट धर्मादि विषयक भावना प्रकर्षजनित ज्ञानों में यह प्रमाणान्तरसंवाद संभव नहीं है । जैसे कि ‘अहिंसा हितसाधनम्’ इस प्राकार का जो अहिंसा में हितसाधनत्व का ज्ञान कपिलादि मुनियों को था वह केवल भावनाप्रकर्ष से ही उत्पन्न हो सकता था । किसी दूसरे प्रमाण से उस ज्ञान की उत्पत्ति संभव ही नहीं है । भावना प्रकर्षजनित ज्ञानों में अप्रामाण्य का सन्देह रहता है । कपिलादि के ज्ञानों में भी यह अप्रामाण्य का सन्देह पूर्ण संभव है । अतः भावना प्रकर्षजनित ज्ञानो में प्रमाणान्तर के संवाद से प्रामाण्य की उपपत्ति नहीं की जा सकती । आगमोऽस्ति … … … भावना के प्रकर्ष से उत्पन्न ज्ञान में प्रत्यक्ष या अनुमान प्रमाण का समर्थन भले ही सुलभ न हो किन्तु ‘मा हिंस्यात् सर्वा भूतानि’ इत्यादि प्रागम प्रमाणों का समर्थन तो मिल हो CCO. Vasishtha Tripathi Collection. Digitized by eGangotri२४० गद्यपद्यात्मक-न्याय कुसुमाञ्जली भावनामात्रमूलत्वेन तस्याप्यनःश्वासविषयत्वात् । एकदेशसंवादेनापि प्रवृत्तिरिति चेन्न । स्वप्नः ख्यान वदन्यथापि सम्भवात् । न चानुपरु ब्धे भावनाऽपि । चौररुपदियो ह्युपलब्धा एवं भीरुभिभव्यिन्ते । न च कर्मयोगयो हितिसाधनत्वं कुतश्विदुपलब्धम् । सकता है। इसी समर्थन या सम्बाद से भावना प्रकजनित ज्ञानों में प्रामाण्य की उपपत्ति होगी । सि० न, भावनामात्रमूलत्वेन … ऐसी बात नहीं हो सकती, क्योंकि वेद रूप उपदेशवाक्य का मूल भी तो भावना का प्रकर्ष ही है । अतः भावना प्रकर्षजनित ज्ञान को उत्पन्न करनेवाले वेदरूप उपदेश वाक्य में ही वैसे विश्वास किया जा सकता है ? यदि वेदागम को ईश्वर निर्मित मानकर कपिलादि को उनका उपदेष्टा मान लिया जाय; तो इसमें हमलोगों ( नैयायिकों ) को कोई विवाद नहीं है । पू० प० एकदेशसम्वादेन ………. वेदों के ‘प्रायुर्वेघृतम्’ इत्यादि वाक्य का प्रामाण्य दूसरे प्रमाणों से भी समर्थित हो सकता है | अतः वेद के एक देश के प्रामाण्य से सम्पूर्ण वेद में प्रामाण्य के निश्चय से लोग यागादि कार्यों में प्रवृत्त होंगे । सि० प० स्वप्नाख्यानवत्" किसी वस्तु के किसी अंश के प्रामाण्य से उस सम्पूर्ण वस्तु को प्रामाणिक नहीं माना जा सकता। क्योंकि प्रामाणरहित किसी वस्तु के किसी एक अंश में कभी-कभी प्रामाण्य देखा जाता है । जैसे कि स्वप्न में देखा गया देवदत्तादि का आगमन कभी-कभी सत्य भी होता है । अत: ‘प्रायुर्वेघृतम्’ इत्यादि कुछ वैदिक वाक्यों के प्रमाणान्तरसंवाद से सम्पूर्ण वेद में प्रामाण्य स्थापित नहीं हो सकता । ( यह तो हुई वेदों में ज्योतिष्टोमादिजनित धर्मविषयक भावना को प्रकर्ष जन्य स्वीकार कर के खण्डन की बातें । दूसरी बात यह भी है कि ) । न चानुपलब्धे … कथित भावनायें कभी धर्मादि विषयणी हो ही नहीं सकतीं। क्योंकि अन्य प्रमाण द्वारा ज्ञात अर्थ की ही ‘भावना’ भी होती है । सर्वथा धनुपलब्ध अर्थ की भावना भी नहीं होती है । जैसे कि डरपोक पुरुषों को चोर या सर्प की ही भावना होती है व्याघ्रादि की नहीं । न च कर्मयोगयो… ( पहिले कह आये है कि कपिलादि ‘कर्मयोगसिद्ध’ हैं इस सिद्धि के बल से ही वे धर्माधर्मादि व्यतीन्द्रिय अर्थों को समझकर चेदादि का उपदेश किया था। इस प्रसङ्ग में नैयायिकों का कहना है कि ) कपिलादि ऋषि जो ज्योतिष्टोमादि फर्मों के अनुष्ठान में अथवा योग के अनुष्ठान में प्रवृत्त हुए उनकी इन प्रवृत्तियों के लिए उपयुक्त इष्टसाधनत्व त ज्ञ अ 6 क द स
द्वितीयः स्तबकः न चेतयोः स्वरुपेणोपलम्भः क्वचिदुपयुज्यते, भावनासाध्यो वा । २४१ न चास्मिन्नन्वयव्यतिरेको सम्भवतः, देहान्तरभोग्यत्वात् फलस्याऽप्रतीततया तदनुष्ठाने तदभावाच्च । ज्ञान की प्राप्ति कहाँ से हुई ? वेदों को छोड़कर कोई दूसरा साधन नहीं है, जिससे ‘कर्म्म’ अथवा ‘योग’ के हितसाधनत्व को सयक्ष सकूँ । वेद तो अभी विवाद में ही पड़ा है। अतः “कपिलादि कर्म्मयोगसिद्ध थे, इसी लिये उन्हों ने वेदों का उउदेश किया” यह बात भी वेदों को ईश्वरमूलक मानने से ही उपपन्न हो सकती है | न चेतयोः भावनासाध्यो वा ( इस प्रसङ्ग में सांख्य के अनुयायी दो बातें कह सकते हैं ( १ ) कर्म और योग इन दोनों में हितसाधनत्व की बुद्धि भले ही न हो किन्तु ये दोनों केवल अपने ( स्वरूप ) ज्ञान के द्वारा ही कथित प्रवृत्तियों को उत्पन्न करेंगे । एवं ( २ ) कथित भावना से उनमें हितसाधनत्व का ज्ञान भी मानेंगे । किन्तु ये दोनों ही बातें इस लिए प्रयुक्त हैं कि ) (१) वस्तुनों के स्वरूप ज्ञान से वस्तुओं में प्रवृत्ति नहीं होती है । मगर ऐसा मानें तो विषपानादि में भी लोगों की प्रवृत्ति माननी पड़ेगी । (२) एवं भावना चूकि स्वयं प्रमाण नहीं है, अतः उससे होने वाले हितसाधनत्व विषयकज्ञान में प्रामाण्य सन्दिग्ध रहेगा । सुतराम् ऐसे हितसाधनत्व के ज्ञानसे प्रवृत्ति की उत्पत्ति नहीं हो सकती जिसका प्रामाण्य सन्दिग्ध हो । न चास्मिन् ( इस प्रसङ्ग में साख्याचार्यगण कह सकते है कि ‘हितसाधनत्व’ वास्तव में ‘कारणत्व’ रूप है । स्वभावतः कारणत्व का ज्ञान धन्वय और व्यतिरेक से होगा । किन्तु उनका यह समाधान इसलिये अयुक्त है कि ) प्रकृत में कर्म और योग दोनों में हितसाघनत्व ज्ञान के उपयोगी अन्वय और व्यतिरेक संभव नहीं है । क्योंकि कर्मादि से उत्पन्न स्वर्गादि फलों का उपभोग होगा दूसरे देह की प्राप्ति के बाद, किन्तु कर्म्म का अनुष्ठान होगा इसी शरीर से, फिर इन दोनों का अन्वय और व्यतिरेक कैसे गृहीत होगा ? फलस्याप्रतीतया ( सांख्यानुयायी कह सकते हैं कि ‘अन्वय मोर व्यतिरेक क्यों गृहीत नहीं होगा ? क्योंकि कर्म या योग में प्रवृत होने के बाद कर्म और योग की सत्ता रूप अन्वय संभव है । इस अन्वय के अधीन फल के अन्वय ज्ञान से एवं इसी प्रकार से व्यतिरेक ज्ञान से कर्म और योग में हित के कारणत्व की प्रतीति हो सकती है । किन्तु यह भी युक्तिसंगत नहीं है क्योंकि ) कर्म और योग में जब हितसाधनत्व का ज्ञान होगा, उसके बाद उनमें प्रवृत्ति होगी। एवं ३१
२४२ गद्यपद्यात्मक न्याय कुसुमाञ्जली न च कत्तू भोक्तृरूपोभय देह प्रतिसन्धानादेव तदुपपद्यते तदभावात्, न ह्य ेतस्य पूर्वकर्मरणः फलमिदमनुभवामीति कश्चित् प्रतिसन्धत्ते । केचित् तथा भविष्यन्तीति सम्भावनामात्रेऽप्यनाश्वासात् । एवम्भूतेक कल्पनयेवोपपत्ती भूय:- प्रवृत्ति के बाद फलों की उत्पत्ति होगी । फल की उत्पत्ति के बाद ही कथित अन्वय और व्यतिरेक का ग्रहण संभव होगा । किन्तु पहिले जब कर्मादि में हित साधनत्व का ज्ञान ही नहीं है तो फिर कर्मादि का अनुष्ठान ही कैसे होगा ? एवं प्रवृत्ति न होने से फलों की उपपत्ति ही किस प्रकार होगी ? उत्पन्न हुए बिना फलों का प्रत्यक्ष कैसे होगा ? फल के प्रत्यक्ष के बिना फल के साथ अन्वय और व्यतिरेक कैसे गृहीत होगा ? इस प्रकार कर्मादि में हितसाधनत्व के ज्ञान से कर्मादि में प्रवृत्ति और प्रवृत्ति के बाद कर्मादि में हितसाधनत्व का ज्ञान यह अन्योन्याश्रय दोष अनिवार्य है । पू० प० न च कर्तृ भोक्तृरूप… एक ही शरीर से उक्त प्रन्वय मोर व्यतिरेक भले ही गृहीत न हो सके । किन्तु उक्त भोग के लिये दूसरे शरीर की प्राप्ति होने पर यह प्रतिसन्धान हो सकता है कि ‘योऽहं विहित निषिद्धकर्मणी कृतवान् सोऽहमिदानीं तत्फलमनुमवामि ( अर्थात् जो मैंने विहित या निषिद्ध कर्म का अनुष्ठान किया था, वही मैं उनके फल का अनुभव करता हूँ ) । इस प्रतिसन्धान अथवा प्रत्यभिज्ञा के द्वारा उक्त अन्वय और व्यतिरेक का ग्रहण हो सकता है । सि० प० तदभावात् प्रतिसन्धत्ते इस आकार की प्रत्यभिज्ञा किसी भी व्यक्ति को नहीं होती कि ‘पहिले जन्म में मैं ने जो अमुक कर्म किया था, उसका यह फल भोग रहा हूँ । पृ० प० केचित्तथा हम लोगों के समान साधरण व्यक्ति को उस प्रकार की प्रत्यभिज्ञा भले ही संभव न हो । किन्तु इस प्रकार के विशिष्ट पुरुष हो सकते हैं, जिन्हें उक्त प्रकार की प्रत्यभिज्ञा होगी । सि० प० संभावना मात्रेऽपि केवल इस प्रकार की संभावना से ही वेदों के उपदेश के प्रति आश्वस्त नहीं हुआ जा सकता । क्योंकि इसमें कोई विशेष युक्ति नहीं है कि जनसाधारण को जो प्रत्यभिज्ञा नहीं होती है, उस प्रकार की प्रत्यभिज्ञा किसी विशिष्टपुरुष को हो सकती है ।
स्त स 5 में द्वितीयः स्तबकः २४३ विनिगमनायां प्रमारणाभावात् । प्रतिपन्निशोथ निद्रारणप्राता प्रतिबुद्धसम- स्तोपाध्यायवदन्योन्यसंवादात् कपिलादिषु समाश्वासइति चेन्न । एकजन्मप्रतिसन्धानवत् जन्मान्तरप्रतिसन्धाने प्रमाणाभावात् । पू० प० GED विनिगमनायाम् सृष्टि की आदि में कपिलादि ऋषिगण बीते हुये उपदेश करते हैं । प्रलय में वेदों के विनिष्ट हो जाने पर भी कल्प के वेदों को स्मरण कर इस कल्प में उसका स्मरण हो स्मृति अनुपान प्रभूति परोक्ष सकता है । क्योकि विषय केवल प्रत्यक्षज्ञान का ही कारण है। ज्ञानों के लिए विषय की सत्ता अपेक्षित नहीं है । अतः विनष्ट शब्द राशि रूप वेदों के स्मरण में कोई अनुपपत्ति नहीं है । तब रही यह बात कि उक्त स्मृति के प्रति आश्वास कैसे हो कि ‘यह अविकल विषयक’ है हो ? क्यों कि यह नियम नहीं है कि स्मृतियाँ अपने कारणीभूत अनुभव के अविकल विषय की ही हों। ऐसी स्थिति में कपिलादि ऋषियों के द्वारा स्मृत शब्द- राशि को वेद ही कैसे माना जाय ? अन्योन्य सम्वादात् इसका यह समाधान है कि महर्षि कपिलादि उक्तरीति से ही विगत कल्प के वेदों को स्मरण कर उपदेश करते हैं किन्तु सभी अपने स्मृत वेदों को जब एक दूसरे से मिला लेते हैं, तो उस शब्द को वेद मान लिया जाता है (एक ऋषि के द्वारा स्मृत शब्द को परस्पर दूसरे ऋषियों के द्वारा वेद स्वीकार करना ही प्रकृति में ‘अन्योन्यसम्वाद; है ) । इस अन्योन्य सम्वाद से यह समझना सुलभ है कि वेदों की यह स्मृति अपने कारणीभूत पूर्वानुभव के अविकल विषय की ही है । क्योंकि यह नियम भो तो नहीं है कि कोई भी स्मृति अपने कारणीभूत पूर्वानुभव के अविकल विषय हो ही नहीं । प्रतिपन्निशीथ … चेत् … क्योंकि प्रतिपत् तिथि की अनाध्याय की रात में सोये हुए अध्यापकों को उस दिन उस समय अध्ययन न रहने पर भो उसके दूसरे दिन द्वितीया तिथि को पुनः उसी वेद का प्रविकल स्मरण होता है। परस्पर के संवाद से यह भी सिद्ध है कि उन लोगों की वे स्मृतियाँ पूर्वानुभव के अविकल विषय की ही हैं। इन्हीं स्मृतियों के सहारे वे उपदेश भी करते हैं । अतः कपिलादि ऋषियों में इस प्रकार का विश्वास किया जा सकता है कि पहिली सृष्टि के वेदों को भविकल स्मृतियों में लाकर इस सृष्टि की आदि में उपदेश करते हैं । अतः इन लोगों में अनाश्वास के कारण ईश्वर की कल्पना व्यर्थ है । सि० प० न, एकजन्मप्रतिसन्धानवत् जिस प्रकार एक जन्म की एक जाग्रत अवस्था में प्रधीत विषयों का स्मरण उसी जन्म
२४४ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जलौ तथापि च अधिकारिविशेषेण ब्राह्मणत्वाद्यप्रतिसन्धानेऽनुष्ठान रूपस्याऽश्वास- स्याभावाद् । न हि पूर्वजन्मनि मातापित्रोंर्ब्राह्यण्यासदुत्तरत्र ब्राह्माण्यमिति नियमो येन सर्गादौ वर्णादिधर्मंध्यवस्था स्यात् । ईश्वरवददृष्टिविशेषोपनिबद्धभूतविशेषानुपलम्भात् । अतीन्द्रियार्थदशित्वे चाडनाश्वासस्योक्तत्वात् । एतेन ब्रह्माण्डान्तरसञ्चारिवर्णव्यवस्थया सम्प्रदाय प्रवर्तन मपास्तम् । की दूसरी जाग्रदवस्था में होती है, उस प्रकार प्रलय के पूर्व प्रधीत वेदों का स्मरण प्रलय के बाद की सृष्टि में नहीं हो सकती । अतः इस रीति से भो परमेश्वर की कल्पना के बिना कपिलादि ऋषियों के द्वारा वेद सम्प्रदाय की पुन प्रवृत्ति नहीं हो सकती । तथापि च ……. अनाश्वास्योक्तत्वात् … कदाचित् जातिस्मर यदि जिस किसी प्रकार उक्त संवाद के द्वारा ‘समाश्वास’ को मान भी लें, तथापि सृष्टि की आदि में वेदों के द्वारा विहित क्रिपानों का अनुष्ठान संभव नहीं होगा । क्योंकि वसन्ते ब्राह्मणो अग्नीनादधीत, ग्रीष्मे राजन्यम्, शरदि वैश्यम्, इत्यादि वाक्यों के द्वारा विहित प्राधानादि क्रियाओं के अनुष्ठान के लिये ब्राह्मणत्वादि जातियों का निर्णय आवश्यक है । किन्तु सृष्टि की आदि काल के कपिलादि ऋषियों में ब्राह्मणस्वादि जातियों का अनुसन्धान संभव नहीं है । यदि यह नियम रहता कि जो व्यक्ति एक जन्म में ब्राह्मण माता पिता से उत्पन्न हो वह बराबर ब्राह्मण माता पिता से ही उत्पन्न होता रहे तो कपिलादि ऋषियों को सृष्टि की आदि के व्यक्तियों में ब्राह्मणत्वादि का होता, किन्तु पहिले कह आये हैं कि जिस प्रकार परमेश्वर को विशेष प्रेरित उन परमाणुओं का ज्ञान संभव है, जिनसे ब्राह्मणत्वादि जातियों से होती है, उसी प्रकार से उक्त परमाणुओं का ज्ञान कपिलादि ऋषियों को संभव नहीं है। अता वेदों का उपदेश कदाचित् कपिलादि ऋषियों के द्वारा सृष्टि की प्रादि में संभव भी हो, तथापि वेदार्थों के अनुष्ठान के अधिकारी पुरुषों की निर्णायका ब्राह्मणात्वादि जातियों का ज्ञान सृष्टि की आदि में कपिलादि ऋषियों को संभव नहीं है, इसके लिए परमेश्वर की कल्पना आवश्यक है । पू० प० एतेन … 830 अनुसन्धान संभव भी प्रकार के श्रदृष्ट से शरीरों की उत्पत्ति कविलादि ऋषि मुनियों की बात छोड़ भी दी जाय । तथापि यह कहा जा सकता है जिस समय एक ब्रह्माण्ड प्रलीन (प्रलयावस्थ ) रहता है, उसी समय दूसरे ब्रह्माण्ड की स्थिति रहती है । उस ‘स्थित ब्रह्माण्ड’ की जो ब्राह्मणादि वर्णों की व्यवस्था उसी से इस सृष्टि के प्रारम्भ में भी ब्राह्मणत्वादि जातियों के निर्णय से वेदों के द्वारा विहित कर्मानुष्ठानों की उत्पत्ति होगी । इसके लिए परमेश्वर की कल्पना अनावश्यक है ।
स } द्वितीयः स्तबकः २४५ सञ्चारशक्तेरभावात् । वर्षान्तरसञ्चरणमेव हि दुष्करम्, कुतो लोकान्तरसञ्चार, कुतस्तराञ्च ब्रह्माण्डान्तरगमनम् । अणिमादिसम्पत्तेरेवमपि स्यादिति चेन्न । तत्रापि प्रमाणाभावात् । सम्भावनामात्रेण समाश्वासानुपपत्तेः प्राद्यमहाजनपरि- ग्रहान्यथानुपपत्तिरेवाऽत्र प्रमाणमिति चेत् । सि० प० सञ्चारशक्तेरभावात्… । ‘व्यवस्था’ कोई मूर्त पदार्थ नहीं है, अतः उसमें ‘सञ्चारशक्ति’ अर्थात् एक स्थान से दूसरे स्थान में चलने की शक्ति नहीं मानी जा सकती । अतः एक ब्रह्माण्ड की ‘व्यवस्था’ दूसरे ब्रह्माण्ड में नहीं आ सकती । वर्षान्तरसञ्चारणमेव हि .. …… सब रही यह बात कि स्थित ब्रह्माण्ड के ब्राह्मणादि इस ब्रह्माण्ड में आकर ब्राह्मणादि व्यवस्थाओं के चलावेंगे - इस प्रसङ्ग में कहना है कि एक ब्रह्माण्ड के व्यक्ति को दूसरे ब्रह्माण्ड में आने की क्षमता ही नहीं है । जिस समय एक सृष्टि की एक तोप ( वर्ष ) से दूसरे द्वीपों में भी जाना संभव नहीं था, उस समय के लिये यह कैसे विश्वास किया जाय कि एक ब्रह्माण्ड से दूसरे ब्रह्माण्ड में आकर कोई वहीं वर्ण व्यवस्था का संचालन किया ? पू० प० प्रणिमादिसम्पत्तेः … … … दूसरे ब्रह्माण्ड के जिन व्यक्तियों की चर्चा की गयी है, वे सभी प्रणिमादि अष्टविष ऐश्वय्यों से युक्त थे । अत: उन लोगों के लिये दूसरे ब्रह्माण्डों में जाना असंभव नहीं था । सि० प० तत्रापि … दूसरे ब्रह्माण्ड के उन व्यवस्थापकों में अणिमादि ऐश्वर्य था ही— इसमें कोई प्रमाण नहीं है । तब रही संभावना की बात अर्थात् उन लोगों प्रणिमादि ऐश्वर्ध्य की सत्ता प्रमाण से निश्चित भले ही न रहे - किन्तु उन लोगों में प्रणिमादि एश्वर्यो को गंभावना तो है ही । इसका यह उत्तर है कि केवल संभावना के ऊपर निर्भर रहना उचित नहीं है। पू० प० श्राद्यमहाजन - दूसरे ब्रह्माण्ड के उन व्यवस्थापकों में अणिमादि ऐश्वर्यो की सत्ता अवश्य थी। इसके लिए यह प्रमाण है कि प्रणिमादि सम्पत्तियों के बिना उन लोगों का इस ब्रह्माण्ड में आना संभव नहीं था । एवं बिना उन लोगों को इस ब्रह्म (ण्ड में आये इस ब्रह्माण्ड के आद्य महाजनों के द्वारा वेदों का परिग्रह संभव नहीं था । किन्तु इस ब्रह्माण्ड में वेद महाजनों के द्वारा परिगृहीत हैं । अत: यह कल्पना करना उचित है कि उन व्यवस्थापकों में अणिमादि शक्तियां अवश्य थी। १. इस सन्दर्भ के ‘एतेन’ पद का अर्थ है ‘वक्ष्यमाण संचारशक्त्यभावरूपदोषेण’ जिसका अन्वय अग्रिम ‘निरस्तम्’ पद के साथ है ।
२४६ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जलौ कल्पनायां गौरवप्रसङ्गात् । विदेहनिर्माण शक्तेरणिमादिविभुतेश्चाविश्य (म्युपगन्तव्य- स्वात् । ग्रस्त्वेक एवेति चेत्; न तर्हीींश्वरमन्तरेणान्यत्र सामाश्वास इति । सि० प० एवम्भूतेक कल्पनयैव… 134 उक्त सभी कल्पनायें ठीक हैं । केवल इस प्रसङ्ग में इतना ही कहना है कि अनेक व्यवस्थापकों में प्रलौकिक शक्तितों को स्वीकार करने में अनेक व्यवस्थापकों की कल्पना करनी पड़ती है। इससे ‘गौरव’ मात्र लाभ होता हैं । उक्त प्रणिमादि ऐश्वर्यों से युक्त एक ही ‘पुरुष’ ( व्यवस्थापक ) की कल्पना कर लेने से सभी कल्पों की व्यवस्था उपपन्न हो जाती है । ( किन्तु इस प्रसङ्ग में पूर्वपक्षवादी कह सकते हैं कि सार्वदिक एक व्यवस्थापक की कल्पना के व्याज से ईश्वर की सिद्धि के इस प्रयास में एक बाधा यह है कि इस पक्ष में बिना देह के ही निर्माण शक्ति की कल्पना एवं अणिमादि ऐश्वर्य की कल्पना ये दोनों करनी पड़ती हैं । किन्तु ये कल्पनायें असङ्गत हैं । अतः हमलोगों के सदेह अनेक व्यवस्थापकों की कल्पना की भसङ्गति के बदले में सिद्धान्तियों को बिना शरीर के पुरुष में निर्माणशक्ति की कल्पना और प्रणिमादि शक्तियों की कल्पना ये दो असङ्गत कल्पनायें करनी पड़ती हैं । अतः हम दोनों बराबर हो जाते हैं, इश आक्षेप का यह समाधान है कि । सि० प० विदेहनिर्माणशक्तेः "
- … व्यवस्थापक एक मानें अथवा अनेक दोनों ही स्थितियों में इनमें अणिमादि ऐश्वय्पों की तरह निर्माणशक्ति भी मानना ही होगा। क्योंकि जिस प्रकार सृष्टि की आदि में वेदों का उपदेश और वर्णव्यवस्था ये दोनों प्रनुपपन्न हैं, इसी प्रकार अचेतन परमाणु स्वरूप उपकरणों से सृष्टि भी अनुपपन्न है । अतः सृष्टि का भी व्यवस्थापक चाहिये । अनेक व्यवस्थापकों की कल्पना में दोष दिखाया जा चुका है। अतः जो भी व्यवस्थापक स्वीकार करेंगे, उन में भणिमादि ऐश्वम्यों की तरह बिना षाट्कोथिक शरीर के हो निर्माण करने की शक्ति भी माननी ही होगी । पू० प० प्रस्तु (सिद्धान्तियों के कथनानुसार कपिलादि ऋषियों में से किसी एक को ही व्यवस्थापक स्वीकार कर लिया जाय ? सि० प० न, तर्हि " ऐसी बात नहीं हो सकती, क्योंकि उस प्रकार का ‘एक व्यवस्थापक’ केवल ईश्वर ही हो सकते हैं। किसी दूसरे ‘एक व्यवस्थापक’ के ऊपर विश्वास नहीं किया जा सकता ।
६ द्वितीय। स्तबका कारङ्कारमलौकिकात्भुतमयं मायावशात्संहरन् हारं हारमपीन्द्रजालमिव यः कुर्वन् जगत् क्रीडति । तं देवं निरवग्रहस्फुरद भिध्यानानुभावं भवं विश्वासैकभुवं शिवं प्रति नमन् भूयासमन्तेष्वपि ॥ ४ ॥ ॥ इति गद्यपद्यात्मके न्यायकुसुमाञ्जली द्वितीयस्तवकः ॥ कारङ्कारम् … . २४७ ( यः शिवः अलोकिकाद्भुतमयं जगत् मायावशात् कारं कार्यं संहरन् हारं हारं कुर्वन् इन्द्रजालमिव क्रीड़ति । तं भवं शिवं निरवग्रहस्फूरद भिध्यानानुभावं विश्वासैकभुवं अन्तेष्वपि नमन भूयासम् ) । ( अखिल कल्याणस्वरूप जो ) शिव अदृष्टरूप माया के द्वारा इस अलोकिक ( अचिन्त्य- रचनावरूप ) अद्भुत संसार के निर्माण और संहार की मनन्त धारा के द्वारा इन्द्रजाल के समान क्रीड़ा करते हैं। संसार ( भव ) के कारणीभूत उन देव की शरण में में अन्त में भी जाऊं। जिस देव की इच्छा शक्ति कभी प्रतिहित नहीं होती एवं सदा जागरूक रहती है । एवं इन सभी वैशिष्टयों के कारण जो एकमात्र विश्वास के स्थल है ।’ १. प्रथम स्तबक में अष्ट की सिद्धि के बाद अष्ट के अधिष्ठाता रूप में परमेश्वर की सिद्धि की गयी है । इस दूसरे स्तबक में पहिली बात यह कही गयी है कि ‘गुण’ प्रमा- ज्ञान का कारण है । शाब्द प्रमा का कारणीभूत गुण है वका में रहनेवाला यथार्थ ज्ञान । वेद भी शब्द रूप है, अतः वेद से उत्पन्न होने वाला वेदार्थ विषयक जिसमें ज्ञान भी शाब्दबोध ही है । अतः वेदों का कोई वक्ता पुरुष अवश्य चाहिये, रहनेवाले प्रमाज्ञान से वेदार्थ विषयक शाब्द बोध प्रमा हो सके । वेदों का यह वका परमेश्वर को छोड़कर और कोई नहीं हो सकता । अतः वेद के ईश्वर की सिद्धि अनिवार्य है । कर्त्ता रूप में भी मीमांसकों ने उक्त बातों का खण्डन इस युक्ति से किया है कि प्रथमतः गुण प्रमा का कारण ही नहीं है । ‘केवल दोषों का प्रभाव ही प्रमाज्ञान का कारण है । चचुरादिजन्य ज्ञानों अथवा लौकिक वाक्यजन्य प्रमाज्ञानों के लिए कदाचिद् कथित ‘गुण’ को कारण मान भी लें तथापि निष्य एवं दोषों से सर्वथा रहित वेदों से होनेवाले प्रमाज्ञानों में ‘गुण’ की अपेक्षा कदापि नहीं है । अतः वेदकर्त्ता के रूप में ईश्वर की कल्पना नहीं की जा सकती । 1
२४८ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली मीमांसकों के इस आक्षेप का आधार वेदों की नित्यता एवं उसकी मूल शब्द की नित्यता ही है। अतः आचार्य ने बड़े उहापोह के साथ शब्दों की कूटस्थ दोनों का खण्डन किया है । इस प्रवाहनित्यता के अनादि और अनन्त मानकर प्रलय का ही खण्डन स्तवक में आचार्य ने सृष्टि और प्रलय दोनों को आचार्य का अभिप्राय है कि सभी सृष्टियाँ किसी प्रलय के बाद ही हुआ करतीं हैं । एवं सभी प्रलयों के बाद भी सृष्टियाँ होगी ही । अतः सृष्टि और प्रलय की यह धारा अनस्त हैं । अतः प्रत्येक प्रलय में नित्यता और प्रवाह नित्यता लिए ही मीमांसकों ने संसार को कर डाला है। इसी लिए इस प्रमाण से सिख किया है। के साथ उन सभी वेदों का भी विनाश हो जायगा, पारलौकिक कर्मों के विधायक वाक्य भरे पढ़े हैं। उसके जब सभी वस्तुओं जिनमें जीव के ऐहिक पौर बाद की सृष्टि की आदि में करुणामय परमेश्वर वेदों के उपदेश के द्वारा अथवा कुलाल कर्मकारादि के शरीरों को धारण करके लोकयात्रा के निर्वाह के अनुकूल उपदेश करते हैं। अतः ईश्वर के बिना दूसरी गति नहीं है । इन सभी बातों की सूचना ‘कारङ्कारम्’ इत्यादि वीप्सा घटित वाक्प युक्त पूर्वार्द्ध से दी गयी है । सांख्य के अनुयायी लोग ईश्वर की सत्ता का अपलाप एक दूसरे ढङ्ग से करते हैं कि सृष्टि की आदि में कथित वेदादि के उपदेश की उपपत्ति के लिए कर्मयोग- सिद्ध कपिखादि महर्षि ही पर्याप्त हैं । एतदर्थं ईश्वर की कल्पना व्यर्थ है । नैयायिक लोग इसका खण्डन इस प्रकार करते हैं कि इतने बड़े काम को सुचारु रूप से संपादन का विश्वास ईश्वर से भिन्न और किसी भी व्यक्ति पर नहीं किया का सकता। इसी युक्ति की सूचना उत्तरार्द्ध के ‘विश्वासैकभुवम्’ इस वाक्य से दिया गया है । इस पथ के अन्य सभी विशेषण केवल ईश्वर की स्तुति के लिये दिये गये हैं । ि स
॥ श्रीगणेशाय नमः ॥ न्यायकुसुमाञ्जलौ तृतीयः स्तबक: -18– नन्वेतदपि कथम् ? । तत्र बाधकसम्भवात् । तथा हि यदि स्यादुपलभ्येत । अयोग्यत्वात् सन्नपि नोपलभ्यत इति चेत् । एवं तहि शशशृङ्गमप्ययोग्यत्वान्नोपलभ्यत इति स्थात् । ( इस तीसरे स्तबक मैं ’ तदभावावेदकप्रमाणसद्भावात् ’ यह तीसरी विप्रतिपत्ति निराकृत हुई है । ) पू० प० नन्वेतदपि नित्य एवं निर्दोष वेदों के द्वारा प्रथवा कर्मयोगसिद्ध कपिलादि ऋषियों के द्वारा सृष्टि की आदि में धर्मसम्प्रदाय का प्रचलन भले ही संभव न हो, तथापि इससे यह सिद्ध नहीं हो सकता कि धर्मसम्प्रदाय का उक्त प्रचलन ईश्वर के ही द्वारा हुआ था। क्योंकि ईश्वर की सत्ता के बाधक प्रमाण विद्यमान हैं । तथा हि यदि स्यात्तुल्यम् ? ईश्वर अगर रहते तो उनकी ‘उपलब्धि’ अर्थात् प्रत्यक्ष अवश्य होता, किन्तु किसी को भी ईश्वर का प्रत्यक्ष नहीं होता है, अतः ईश्वर नहीं हैं । सि० प० प्रयोग्यत्वात् योग्य ( घटादि ) वस्तुओं का ही प्रत्यक्ष होता है, अयोग्य ( परमाणुप्रभृति ) वस्तुओं का प्रत्यक्ष नहीं होता । भ्रतः केवल प्रत्यक्ष न होने से ही किसी वस्तु के अभाव का निश्चय नहीं किया जा सकता। क्योंकि सत्ता के रहते हुये भी अयोग्य वस्तुओं का प्रत्यक्ष संभव नहीं है । अतः यह नहीं कहा जा सकता कि ‘ईश्वर का प्रत्यक्ष नहीं होता, है, अतः वे नहीं है । पू० प० एवन्तर्हि इस प्रकार तो शशश ङ्गादि सर्वथा अविद्यमान वस्तुओं की भी सत्ता माननी होगी । क्योंकि ‘शशश ङ्गादि वस्तुओं को नहीं देखते हैं’ केवल इसी लिए उनकी सत्ता अस्वीकृत होती है । किन्तु जब कुछ विद्यमान वस्तुओं का भी प्रत्यक्ष संभव नहीं है, तो फिर यह नहीं जा ३२ CCO. Vasishtha Tripathi Collection. Digitized by eGangotriगद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली २५० नैतदेवं शृङ्गस्य योग्यतयैव व्याप्तत्वादिति चेत् ; व्याप्तत्वादिति चेत्; चेतनस्यापि योग्यो- पाधिमत्तयेव व्याप्तत्वात् । तद्वाधे सोऽपि बाधित एवेति तुल्यम् । · सकता कि ‘चू ंकि शशश ङ्गादि पदार्थों को नहीं देखते हैं, अतः वे नहीं हैं । सुतराम् अप्रत्यक्षवस्तु को सत्ता नहीं मानी जा सकती। अतः अप्रत्यक्ष परमेश्वर की भी सत्ता नहीं मानी जा सकती । सि० प० नैतदेवम् … ऐसी बात नहीं है । क्योंकि जितने भी शज्ञ हैं, वे सभी प्रत्यक्ष के योग्य ही हैं । अतः शश को भी यदि शृङ्ग होता तो वह भी प्रत्यक्ष के योग्य ही होता । एवं यह भी नियम कि योग्य द्रव्यों का प्रत्यक्ष अवश्य होता है । किन्तु शश के प्शृङ्ग का प्रत्यक्ष नहीं होता है । यदि शश के शृङ्ग की सत्ता रहती तो उसमें शृङ्गत्व का व्यापकीभूत धर्म ( अर्थात् शृङ्गत्व के साथ अवश्य रहनेवाला प्रत्यक्ष ) योग्यत्व भी अवश्य ही रहता, एवं योग्य शशशृङ्ग का प्रत्यक्ष होना अनिवार्य हो जाता । सुतराम् शशशृङ्ग इस लिये अप्रत्यक्ष नहीं है कि वह प्रत्यक्ष के योग्य नहीं, उसका अप्रत्यक्ष इस लिये स्वीकार करना पड़ता है कि उसकी सत्ता हीं नहीं है’ । पू० प० चेतनस्यापि … … । जिस प्रकार यह व्याप्ति है कि श्रृंग प्रत्यक्ष योग्य ही हों, उसी प्रकार यह भी व्याप्ति है कि सभी चेतनों की योग्य ( शरीररूप ) उपाधियां अवश्य हों। क्योंकि बिना शरीर के चेतन ( आत्मा ) की उपलब्धि नहीं होती है । परमेश्र रूप चेतन की कोई भी उपाधि (शरीर) उपलब्ध नहीं है । अतः ( व्यापकाभावात् व्याप्याभावः इस न्याय के अनुसार ) व्यापकीभूत शरीर रूप योग्य उपाधि के प्रभाव से उसके उपधेय एवं व्याप्य परमेश्वर के अभाव की सिद्धि होगी । अतः अप्रत्यक्ष रूप बाधक से परमेश्वर का बाघ भले ही सम्भव न हो किन्तु कथित ‘अनुपलब्धि रूप बाघक से परमेश्वर की सिद्धि अवश्य बाधित होगी । ( यह तो हुई प्रत्यक्षबाध की बात ) । १. कहने का तात्पर्य है कि योग्य और अयोग्य भेद से वस्तुओं के दो प्रकार हैं । यहाँ ‘योग्य’ शब्द से ‘प्रत्यक्षयोग्य’ रूप अर्थ अभिप्रेत है। अयोग्य वस्तुओं की सत्ता रहने पर भी उनका प्रत्यक्ष नहीं होता । जिन वस्तुओं में प्रत्यक्ष की योग्यता है, उन्हीं वस्तुओं के प्रत्यक्ष न होने से उनके प्रभाव का निर्णय होता है । परमेश्वर प्रत्यक्ष के योग्य नहीं हैं, अत: अप्रत्यक्ष से उनकी सत्ता में कोई बाधा नहीं जाती । ।
तृतीयः स्तबक: २५१ व्यापकस्वार्थाद्यनुपलम्भेनाप्यनुमीयते नास्तीति । को हि प्रयोजनमन्तरेण किञ्चित्कुर्यादिति । उच्यते- योग्यादृष्टिः कुतोऽयोग्ये प्रतिबन्दिः कुतस्तरास् । क्वायोग्यं बाध्यते शृङ्ग क्वानुमानमनाश्रयम् ॥ १ ॥ पू० प० व्यापकस्वार्थादि ……. ( दूसरी बात है अनुमानबाध की, वह इस प्रकार है कि ) किसो प्रयोजन से वशीभूत होकर ही कोई किसी भी कार्य को करता है । मूर्ख भी बिना प्रयोजन के कुछ नहीं करता । कामना से युक्त पुरुषों की हो ‘प्रयोजन’ हो सकता है, कामना से सर्वथा रहित पुरुषों को नहीं । जो कोई परमेश्वर की कल्पना करते हैं, वे उनको सभी कामनाओं से रहित मानते हैं । अतः इस प्रकार के परमेश्वर से जगत् की सृष्टि नहीं हो सकती । इससे यह अनुमान निष्पन्न होता है कि चूंकि परमेश्वर के किसी प्रयोजनं की उपलब्धि नहीं होती है, अतः परमेश्वर किसी भी कार्य के कर्ता नहीं है ( परमेश्वरो न कर्त्ता स्वेष्टसाधनता- ज्ञानाभावात् ) । सि० प० उच्यते … … … योग्यादृष्टि ……. ( इन दोनों बाघों में प्रत्यक्षबाध के उद्धार के प्रसङ्ग में ) हम सिद्धान्ती कहते हैं कि योग्पादृष्टिः कुतोऽयोग्ये - अयोग्ये परमात्मनि योग्यादृष्टि। कुतः ? अर्थात् परमात्मा चूकि प्रत्यक्ष के ‘अयोग्य हैं प्रत. उनको ‘अदृष्टि’ ( अनुपलब्धि ) योग्यानुपलब्धि नहीं हो सकती । ( इस प्रसंग में पूर्वपक्षवादी ने प्रतिवन्दि उपस्थित किया था कि यदि सर्वथा अनुपलब्ध पदार्थ की भो सत्ता मान को जाय तो सर्शथा अनुपलब्ध शशशृंगादि पदार्थों की सत्ता भी माननी होगी। इसो प्रतिवन्दि का उद्धार श्लोक के दूसरे और तीसरे चरण से किया गया है । इन दोनों चरणों का आशय है कि ) शशशृंग योग्य है ? अथवा प्रयोग्य ? अगर वह ‘योग्य’ ही है ‘अयोग्य’ नहीं, तब तो कथित प्रतिवन्दि लागू ही नहीं होता है। क्योंकि इस अभिप्राय से प्रतिवन्दि उपस्थित किया गया है कि जिस प्रकार ‘प्रयोग्य शृंग’ की अनुपलब्धि के कारण उसकी सत्ता सिद्ध नहीं हो पाती, उसी प्रकार अयोग्य परमात्मा की भी अनुपलब्मि है, अतः उसकी भी सत्ता सिद्ध नहीं की जा सकती । किन्तु यशश्वग को जब ‘योग्य’ ही मान लेते हैं, तो यह बात ही कहीं उठती है ? ( यही बात ‘प्रतिबन्दिः कुतस्तराम्’ इस चरण से कही गयी है ।
२५२ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली स्वात्मैव तावत् योग्यानुपलब्ध्या प्रतिषेद्धुं न शक्यते, कुतस्त्वयोग्यः परमात्मा ? तथाहि - सुषुप्त्यवस्थायामात्मानमनुपलभमानो नास्तीत्यवधारयेत् । 1 यदि शशशृंग अयोग्य है, तब तो उक्त प्रतिवन्दि और भी ठीक नहीं बैठती, क्योंकि यह मानी हुई बात है कि योग्यानुपलब्धि से ही अभाव का ग्रहण होता है । योग्यानुपलब्धि से योग्य वस्तु के ही अभाव की सिद्धि होगी, अयोग्य वस्तु के अभाव की नहीं । किन्तु शशशृंग तो अयोग्य है अतः उसकी अनुपलब्धि भी अयोग्यानुपलब्धि ही होगी, योग्यानुपलब्धि नहीं । अतः शशश्टंग का अभाव भी किसी अनुपलब्धि से सिद्ध नहीं किया जा सकता। इसलिये उक्त प्रतिबन्दि प्रकृत में लागू नहीं होता है, ( इस प्रकार प्रत्यक्ष बाघ प्रकृत में सम्भव नहीं ) है । ( ‘क्वानुमानमनाश्रयम्’ इस अन्तिम चरण के द्वारा अनुमान बाघ का निराकरण इस रीति से किया जाता है । अनुमानवाघ देने बालों का कहना है कि ) कर्त्त स्व जहां भी रहेगा वह स्वर्थादि अवश्य रहेंगे । अतः कर्त्त स्व के व्यापकीभूत स्वार्थादि का जहाँ अभाव रहेगा बही कत्तं त्व का अभाव भी रहेगा ही । इस रीति से ईश्वर में कर्तृत्व के प्रभाव की सिद्धि रूप अनुमानबाघ के प्रसंग में सिद्धान्तियों का कहना है कि अनुमान से पूर्व पक्षतावच्छेदक से युक्त पक्ष का ज्ञान आवश्यक है । जिस अनुमान में ऐसा सम्भव नहीं होता है, उस अनुमान का हेतु ‘प्राश्रयासिद्ध’ नाम का हेत्वाभास हो जाता है। हेत्वाभास से किसी की सिद्धि नहीं हो सकती । तदनुसार प्रकृत ईश्वर रूप पक्ष में जो कर्त्त त्वाभाव का अनुमान होगा, उसके लिये ईश्वरत्व रूप पक्षतावच्छेदक विशिष्ट ईश्वर का ज्ञान पहिले अवश्य चाहिये । किन्तु ईश्वर न मानने वालों को यह ज्ञान होना सम्भव नहीं है । अगर घर्मितावच्छेदकविशिष्ट धर्मि के उक्त ज्ञान का सम्पादन वे किसी प्रमाण से करेंगे तो धर्मिग्राहक उसी प्रमाण के द्वारा ईश्वर की सत्ता सिद्ध हो जायगी । मत। प्रकृत में अनुमानवाघ भी नहीं है । सि० प० स्वात्मेव तावत् 324 । ( श्लोक के प्रथमचरण की व्याख्या ) अहं सुखी, अहं दुःखी इत्यादि प्राकारों से ही प्रपनी आत्मा का भी प्रत्यक्ष होता है । किन्तु सुषुप्ति अवस्था में चूकि सुखादि की उपलब्धि नहीं होती है, अतः अपनी घात्मा की भी उपलब्धि नहीं होती है । क्योंकि आत्मा का प्रत्यक्ष उनके सुखादि गुणों के साथ ही होता है । केवल आत्मा का प्रत्यक्ष नहीं होता । किन्तु इससे सुषुप्ति काल में अपनी प्रात्मा का अभाव निर्णीत नहीं हो जाता । जब प्रत्यक्ष योग्य अपनी आत्मा का ही अभाव उसकी अनुपलब्धि से सुषुप्तिकाल में निश्चित नहीं होता है तो फिर प्रत्यक्ष के सर्वथा अयोग्य परमात्मा की अनुपलब्धि मात्र से उनके
1 तृतीयः स्तबकः २५३ कस्यापराधेन पुनर्योग्योऽप्यात्मा तदानीं नोपलभ्यते ? । सामग्रीवैगुण्यात् । ज्ञानादिक्षरिणकगुणोपधानो ह्यात्मा गृह्यत इत्यस्य स्वभावः । ज्ञानमेव कुतो न जायते ? इति चिन्त्यते । पश्चाद्वा कथमुत्पत्स्यत इति चेत् मनसोऽनिन्द्रियप्रत्यासन्नतया प्रजननात् तत्प्रत्यासत्तौ च पश्चाज्जननात् । अभाव की सिद्धि कैसे होगी ? अगर ऐसी बात हो तो फिर सुषुप्तिकाल में अपनी मात्मा का भी प्रभाव मानना होगा । तस्मात् प्रत्यक्ष के अयोग्य परमात्मा की अनुपलब्धि से ईश्वर या परमात्मा का अभाव सिद्ध नहीं हो सकता । पू० प० कस्यापराधेन … . … … अपनी आत्मा जब प्रत्यक्ष के योग्य है, तो फिर सुषुप्ति काल में उसकी उपलब्धि किसके ‘अपराध’ से नहीं हो पाती ? सि० प० सामग्रीवैगुण्यात् … ……. जिन सभी कारणों से धात्मा का प्रत्यक्ष होता है, सुषुप्ति के अव्यवहित पूर्वक्षण में या सुषुशिक्षण में उनके न रहने से ही सुषुप्ति काल में आत्मा का प्रत्यक्ष नहीं हो पाता है । सि० प० ज्ञानादि … … सुखी इत्यादि प्राकार के ही भारमा के प्रत्यक्ष कारण हैं । सुषुप्ति काल में अथवा रहते, अतः सुषुप्ति काल में आत्मा कारणों का सम्बलन सम्भव पहिले कह आये हैं कि ज्ञान सुखादि क्षणिक विशेष गुणों के साथ ही आत्मा का प्रत्यक्ष होता है । केवल भात्मा का प्रत्यक्ष नहीं होता । अतः केवल ‘अहम्’ इस आकार का प्रत्यक्ष नहीं होता है, श्रहं जानामि, अहं होते हैं । सुतराम् ज्ञान सुखादि भी आत्मा के प्रत्यक्ष के । सुषुप्ति के अव्यवहित पूर्वक्षण में ये ज्ञानादि कारण नहीं का प्रत्यक्ष नहीं हो पाता । जाग्रत अवस्था में ज्ञानादि रूप इन होता है, अतः जाग्रत अवस्था में प्रात्मा का प्रत्यक्ष होता है । पू० प० ज्ञानमेव … जाग्रत और सुषुप्ति दोनों ही अवस्थामों में आत्मा की सत्ता समानरूप से रहती है, फिर इसका क्या हेतु है कि जाग्रज अवस्था में ज्ञानादि की उत्पत्ति होती है, किन्तु सुषुप्ति अवस्था में नहीं ? सि० प० मनसोऽनिन्द्रियप्रत्यासन्नतया मन अणु परिमाण का है, एवं सुषुप्ति के समय वह शरीर के ‘पुरितति’ नाम के उसे प्रदेश में चला जाता है, जो इन्द्रिय प्रदेश नहीं है । आत्मा का मन के साथ, मन का इन्द्रिय के साथ और इन्द्रिय का अर्थों के साथ सम्बन्ध होने पर ही ज्ञानों की उत्पत्ति होती है ।
२१४ गद्यपद्यात्मक - न्यायकुसुमाञ्जली मनोवैभववादिन मिदमसम्मतम् । तथाहि मनो विभु, (१) सर्वदा स्पर्शरहितद्रव्यत्वात् ( २ ) सर्वदा विशेषगुरणशून्यद्रव्यत्वात्, (३) नित्यत्वे सत्यना- रम्भकद्रव्यत्वात्, (४) ज्ञानासमवायिकारण संयोगाधारत्वादित्यादेरिति चेन्न यद्यपि प्रात्मा विभु है और मन अस्तु परिमाण का है एवं नित्य है-प्रतः मन जहाँ भी कहीं रहेगा मात्मा के साथ उसका सम्बन्ध बना ही रहेगा । किन्तु सुषुप्ति अवस्था में मन कि पुरितति नाम के अनिन्द्रिय प्रदेश में रहता है, अतः वह किसी इन्द्रिय के साथ सम्बद्ध नहीं हो पाता, अतः सुषुप्ति अवस्था में ज्ञानादि की उत्पत्ति नहीं हो पाती । ‘पश्चात् ’ सुषुप्ति बाद जाग्रत अवस्था में मन पुरितति रूप अनिन्द्रिय प्रदेश से हटकर शरीर के इन्द्रिय प्रदेश में आ जाता है, अतः जाग्रत अवस्था में इन्द्रियों के साथ उसके सम्बन्ध में कोई बाधा नहीं रह जाती, प्रत: जाग्रत अवस्था में ज्ञानादि की उत्पत्ति होती है । मनो वैभववादिनाम् … …. 0.0.0 किन्तु जो समुदाय मन को विभु मानते हैं, उनके मत के अनुसार उक्त समाधान उचित नहीं है, क्योंकि मन भी यदि आत्मा के ही समान विभु हो तो फिर चक्षुरादि इन्द्रियों के साथ उसका भी सम्बन्ध कभी विच्छिन्न नहीं होगा । बतः जाग्रत अवस्था के ही समान सुषुप्ति अवस्था में भी ज्ञानादि के उत्पादन की सामग्री के एकत्र होने में कोई बाधा नहीं होगी । इस लिये जाग्रत अवस्था के ही समान सुषुप्ति अवस्था में भी ज्ञानादि की उत्पत्ति माननी होगी । तथाहि ……… संयोगाधारत्वादिति चेत् … … … मन में विभुत्व को सिद्ध करनेवाले निम्न लिखित ये चार हेतु हैं ( १ ) सर्वदा स्पर्थशुभ्यद्रव्यत्व ( २ ) सर्वदा विशेषगुणशून्यद्रव्यस्व ( ३ ) नित्यस्वे सत्यनारम्भकद्रव्यत्व और (४) ज्ञानासमवायिकारणसंयोगाधारत्व । प्रथम हेतु से अनुमान का आकार -मनो विभु सर्वदा स्पर्थशून्यद्रव्यत्वात् आकाशादिवत्ः अर्थात् जिस प्रकार माकाशादि द्रव्य होते हुए भी सर्वदा स्पर्थ रूप गुण से १. कथित हेतु में ‘सर्वदास्पशंशून्यश्व’ रूप अंश नहीं देंगे तो परमाणुओं में व्यभिचार होगा, क्योंकि उनमें विभुत्व नहीं है, किन्तु वे भी द्रव्य हैं । सर्वदास्पर्शशून्यत्व को । हेतु में विशेषण देने से यह व्यभिचार छूट जाता है, क्योंकि परमाणु स्पर्श सहित द्रव्य है स्पर्श रहित द्रम्प नहीं । यदि केवल सर्वदा स्पर्शशून्यत्व मात्र को हेतु बनावें उसमें से ‘द्रम्यस्व’ वाले अंश को हटा लें तो गुणादि पदार्थों में व्यभिचार होगा, क्योंकि गुणादि पदार्थों में विभुत्व रूप साध्य नहीं है किन्तु ‘सर्वदा स्पर्शशून्यत्व’ रूप हेतु है । ‘द्रम्यस्व’ पद देने से उक्त व्यभिचार छूट जाता है, क्योंकि गुणादि में मुध्यस्व ! f f
तृतीय: स्तबक ! २५५ शून्य रहते हैं, उसी प्रकार के द्रव्य होते हुये भी उसमें कभी स्पर्श रूप गुण नहीं रहता, अतः मन भी आकाशादि के समान ही विभु है । ( २ ) मन में विभुत्व के साधक दूसरे अनुमान का आकार है “मनो विभु सर्वदा विशेषगुणशून्यद्रव्यत्वात् कालादिवत्” अर्थात् काल दिक् और मन ये तीन ही द्रव्य ऐसे हैं, जिनमें कभी भी ‘विशेषगुण’ नहीं रहते। इनमें काल मौर दिक् ये किन्तु उनमें से एक मन रूप द्रथ्य विभु न हो — अणु हो इस प्रकार की नहीं की जा सकती । दो द्रव्य तो विभु हों ‘श्रद्ध ‘जरती’ स्वीकार (३) मन में विभुत्व के साधक तीसरे अनुमान का ‘मनो विभु नित्यत्वे सति अनारम्भकद्रव्यत्वात् प्राकाशादिवत्’ ऐसा आकार है। इस अनुमान का स्वारस्य है कि आरम्भक और अनारम्भक भेद से द्रव्य के दो भेद हैं । कपालादि द्रव्य आरम्भक है, क्योंकि वे घटादि द्रव्यों का ‘आरम्भ’ अर्थात् उत्पादन करते हैं। अनारम्भक द्रव्य है श्राकाशादि एवं अन्त्यावयवी घटादि । द्रव्य के नित्य श्रीर अनित्य ये दो भेद भी हैं । नित्य हैं पृथिव्यादि के परभातु और आकाश काल, दिक्, आत्मा और मन । एवं अनित्य हैं द्वयक से लेकर गिरिनगरादि सभी अवयवी द्रव्य । इनमें परमाणु नित्य होकर भी आरम्भक हैं। क्योंकि उनसे द्वयक की उत्पत्ति होती है । घटादि अनित्य द्रव्य ( अन्त्यावयवी होने के कारण ) अनारम्भक हैं, क्योंकि उनसे किसी दूसरे द्रव्य की उत्पत्ति नहीं होती है । आकाशादि जितने भी नित्य एवं अनारम्भक द्रव्य हैं वे सभी विभु ही हैं । मन भी नित्य होने के साथ अनारम्भक द्रव्य है, अतः वह भी आकाशादि द्रव्यों की तरह विभु ही है । ( ४ ) मन में विभुत्व साधक चौथा अनुमान ‘मनो विभु ज्ञानासमवायिकारण- संयोगाधारत्वात्’ इस प्रकार का है। इसका स्वारस्यं है कि आत्मा और मन का संयोग ज्ञानादि का असमवायिकारण है । इस संयोग के आत्मा और मन रूप दोनों आश्रयों में से आत्मा रूप एक प्राश्रय विभु है । अतः मन रूप दूसरा आश्रय भी विभु ही होगा । नहीं है । ‘सचंदा’ पद न देने से ‘उत्पति कालिक घटादि’ द्रव्यों में म्यभिचार होगा, क्योंकि उनमें विभुत्व रूप साध्य नहीं है, अथ च द्रव्यत्व और स्पर्शशूभ्यस्व दोनों ही है, क्योंकि नैयायिक उत्पत्तिकाल में द्रव्यों में गुण की सत्ता नहीं मानते । ‘सर्वदा’ पद देने से उक्त व्यभिचार छूट जाता है, क्योंकि घटादि में उत्पत्ति से भिन्न कालों में स्पर्श की सत्ता रहती है ।
२५६ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली सर्वेषामापाततः स्वरूपासिद्धत्वात् । तथाहि - यदि रूपाद्युपलब्धीनां क्रियात्वेन करणतया मनोऽनुमितिनं तदा द्रव्यत्वसिद्धिः श्रद्रव्यस्यापि करणत्वात् । अथाss- सामेव साक्षात्कारितयेन्द्रियत्वेन तदनुमातव्यम् । सि० प० न, सर्वेषाम् … ये सभी अनुमाम मन को द्रव्य पदार्थ मानकर प्रयुक्त हुए है। अगर मन का द्रव्य होना सिद्ध न हो तो द्रव्यस्वघटित ये सभी हेतु अन्ततः स्वरूपासिद्ध अवश्य होंगे, क्योंकि इनका मन रूप पक्ष में रहना संभव नहीं होगा। इनमें आदि के तीन हेतु तो स्पष्ट रूप से द्रव्यत्व घटित हैं, अन्तिम हेतु में भी ‘संयोगाधारत्व’ वाला जो अन्तिम अंश है, वह भी द्रव्यत्व के ही समान है, क्योंकि संयोग का आधार केवल द्रव्य ही होता है । अतः ‘आपाततः’ अर्थात् मन में द्रव्यत्व की सिद्धि के पूर्व मन रूप पक्ष में निश्चित न होने के कारण कथित सभी हेतु ‘स्वरूपासिद्धि’ दोष से ग्रसित है । तथा हि……. ( निम्नलिखित रीतियों में से भी किसी रीति से मन में द्रव्यत्व की सिद्धि नहीं हो सकती ) मन में द्रव्यत्व की सिद्धि का एक प्रकार यह है कि रूपादि के प्रत्यक्ष भी ( ज्ञा घात्वर्थं होने के नाते ) एक ‘क्रिया’ हैं, अतः उस का भी कोई ‘करण’ अवश्य होगा। क्योंकि जितनी भी छेदनादि क्रियायें हैं, उनका कोई ‘करण’ अवश्य है । ज्ञानों का वह ‘करण’ ही मन है । किन्तु इस रोति से सिद्ध किये गये मन को द्रव्य होना अनिवार्य नहीं है, क्योंकि द्रव्य से भिन्न लिङ्ग ज्ञान, अदृष्ट, प्रयत्न, संयोग प्रभृति अनेक गुण पदार्थ भी ‘करण’ होते हैं । अतः केवल ‘करण’ होने से ही मन द्रव्य नहीं हो सकता । " अगर कथित स्वरूपासिद्धि दोष से बचने के लिये उक्त हेतुओं में ‘द्रव्यत्व’ का निवेश नहीं करेंगे तो रूपादि गुणों में द्रव्यत्व से अघटित वे सभी हेतु व्यभिचरित होंगे, अतः द्रभ्यस्व विशेषण के न देने से उनके द्वारा मन में विभुत्व की सिद्धि नहीं की जा सकती । पृ० प० प्रथासामेव… सभी प्रत्यक्षों का कोई न कोई इन्द्रिय अवश्य ही करण होता है। ‘अहं’ सुखी’ इत्यादि प्राकार के सुख के अनुभव भी प्रत्यक्ष स्वरूप ही है । मतः अवश्य ही इन प्रत्यक्षों का भी कोई इन्द्रिय करण होगा । इस प्रकार की इन्द्रियां घ्राणादि नहीं हो सकतीं। क्योंकि ( घ्राणादि जनित तत्तत्प्रत्यक्षमूलक सुखानुभवों में तत्तत् इन्द्रियों में करणता सम्भव होने पर भी ) सभी इन्द्रियों से होनेवाले प्रत्यक्षों से उत्पन्न सुख के अनुभव की कारणता किसी १. इस सिद्धान्त सन्दर्भ के द्वारा मन में दोषों का सदभावन कर मन में अणु विभुत्व के साधक उक्त अनुमानों के हेतुओं में की सिद्धि का पथ प्रशस्त किया गया है ।
तृतीयः स्तबकः २५७ तथापि व्यापकस्य निरुपा घेर्नेन्द्रियत्वमित्युपाधिर्वक्तव्यः । तत्र यदि करणशष्कुली- वन्नियतशरीरावयवस्योपाघित्वम्, तदा तावन्मात्रे वृत्तिलाभः । तद्दोषे च वृत्तिरोधा श्रोत्रवत् प्रसज्येत । ततः शरीरमात्रमुपाधिरवसेयः । तथा च तदवच्छेदेन वृत्तिलाभे ‘शिरसि मे वेदना, पादे मे सुखम्’ इत्याद्यव्याप्यवृत्तित्वप्रतीतिविरोधः । एक इन्द्रिय में सम्भव नहीं है । जब कारणता की यह दशा है तो फिर करणता की तो कोई बात ही नहीं । अतः घ्राणादि इन्द्रियों से भिन्न कोई इन्द्रिय अवश्य ही सुखानुभवों का करण होगा । उस इन्द्रिय का ही नाम ‘मन’ है । इस अनुमान के द्वारा मन में इन्द्रियत्व के साथ-साथ अवश्य रहनेवाला द्रव्यत्व भी मन में अवश्य सिद्ध हो जायगा । क्योंकि मन को अस्तु माननेवालों को ‘इन्द्रियां द्रव्य ही हों’ इस नियम में कोई विवाद नहीं है । अतः मन मैं विभुत्व के साधक कथित किसी भी हेतु में द्रव्यत्व से घटित होने के कारण स्वरूपासिद्धि दोष नहीं है । सि० प० तथापि व्यापकस्य… … सुखादि प्रत्यक्षों के करण के रूप में जिस मन की सिद्धि होगी, ’ उस मन को यदि विभु मानेंगे तो उसका कोई उपाधि मानना होगा, जिस उपाधि से उपहित होकर वह इन्द्रिय कहलायगा । क्योंकि विभु पदार्थ में बिना किसी उपाधि के इन्द्रियत्व नहीं आ सकता । जैसे विभु प्राकश रूप श्रोत्रेन्द्रिय को कर्णशष्कुल्यवच्छेदेनैव इन्द्रियत्व है । अतः शरीर का कर्णं शष्कुली रूप अवयव ही उसकी उपाधि होती है । यदि कर्णशष्कुली के दृष्टान्त से शरीर के ही किसी अवयव को मन में इन्द्रियस्व का प्रयोजक उपाधि स्वीकार कर लें, तो मन शरोर के उसी उपाधि रूप अंश में सुखादि की उपलब्धि रूप अपने कार्य का सम्पादन करेगा । एवं उस सुखादि की उपलब्धि रूप शरीर के उस अवयव रूप उपाधि में कोई दोष उत्पन्न होने पर उक्त अपने कार्य का उत्पादन बन्द कर देगा । जैसे कि कर्णशष्कुली रूप उपाधि में किसी दोष के उत्पन्न होने पर श्रवणेन्द्रिय अपना ‘शब्द सुनना’ बन्द कर देता है । अतः शरीर के किसी अवयव को मन रूप इन्द्रिय का उपाधि न मानकर पूरे शरीर को ही उसकी उपाधि माननी होगी । किन्तु ऐसा मानने पर ‘शिरसि में वेदना, पादे में सुखम्’ इत्यादि प्रतीतियों के द्वारा आत्मा के विशेष गुणों में अव्याप्यवृत्तित्व यां प्रादेशिकता की जो प्रतीति होती है, वह न हो सकेगी। क्योंकि असमवायिकारणों का यह स्वभाव है कि वे समवायिकारण के जिस अंश में स्वयं रहेंगे, समवायिकारण के उसी अंश में कार्य को उत्पन्न करेंगे । पट का प्रसमवायिकारण १. ‘तथापि व्यापकस्य’ इस सिद्धान्त सन्दर्भ के द्वारा आचार्य ने मन के अस्तित्व साधक उक्त अनुमान को मन में इन्द्रियत्व का साधक मानकर मन के विभुत्व साधक हेतुओं को स्वरूपासिद्धि दोष से निर्मुक्त समझकर मनो वैभववादियों को मन में प्रव साधन के पथ पर कौशल से ले आने का प्रयास किया गया है । ३३
२५८ गद्यपद्यात्मक-न्याय कुसुमाञ्जली असमवायिकारणानुरोधेन विभुकार्याणां प्रादेशिकत्व नियमात् । शरीरतदवयवादि- परमाणुपर्यन्तोपाधिकल्पनायां कल्पनागौरवप्रसङ्गो नियमानुपपत्तिश्चेति । ततोऽन्यदेवैकं तन्तुओं का विलक्षण संयोग तन्तुओं के जिन अंशों में रहता है, उन्हीं अंशों में पट की उत्पत्ति देखी जाती है, अन्य अंशों में नहीं। यदि पूरे शरीर को मन में इन्द्रियत्व का प्रयोजक उपाधि मानें तो फिर सम्पूर्ण शरीरावच्छिन्न मन और आत्मा का संयोग ही सुखादि के प्रत्यक्षों का असमवायिकारण होगा। असमवायिकारणीभूत उक्त संयोग का श्राश्रय संपूर्ण शरीर होगा, उसका कोई एक अवयव नहीं । अतः सुख की उत्पत्ति सम्पूर्ण शरीरावच्छिन्न भ्रात्मा में ही होगी, किसी श्रवयवावच्छिन्न श्रात्मा में नहीं । इस प्रकार सम्पूर्ण शरीर को उपाधि स्वीकार करने से ‘पादे में सुखम्, शिरशि में वेदना’ इत्यादि आकार की जो श्रव्याप्य- वृत्तित्वमूलक अथवा प्रादेशिकत्व मूलक सुख के प्रत्यक्ष होते हैं, वे अनुपपन्न हो जायेंगे । पू० प० शरीरं तदवयवादि … | शरीर रूप श्रवयवी प्रौर उसके हस्त पादादि अवयव ये सभी मन के इन्द्रियत्व के प्रयोजक उपाधि हैं । अतः हस्तापादादि अवच्छेदेन सुखादि की विभिन्न प्रतीतियाँ मौर पूर्णशरीरावच्छेदेन ( निदाघ तप्त पुरुष को स्नान करने के बाद ) सुख की प्रतीति दोनों ही होती हैं । अतः मन को विभु मान लेने पर भी सुखादि के अव्याप्यवृत्तित्व में कोई बाधा नहीं आती है । सि० प० कल्पनागौरवप्रसङ्गः … (१) मन को विभु मानें और उसमें इन्द्रियत्व के लिये पूरे शरीर और उसके अनन्तं अवयवों को उसकी उपाधि मानें, इसकी अपेक्षा मन को अतु ही मान लें इसी में लाघव है, फलतः पूरे शरीर और उनके अवयवों को उपाधि स्वीकार करानेवाली मन के विभुत्व की कल्पना गौरवास्पद है । अतः वह त्याज्य है । (२) नियमानुपपत्तिः •• । दूसरी बात यह है कि जिस समय ‘शिरसि के सुखम् पादे में वेदना’ इत्यादि प्रतीतियाँ होतीं है, उस समय शिरोवच्छेदेनंव आत्मा में सुख है श्रीर पादावच्छेनेव श्रात्मा में दुःख है- यह ‘नियम’ स्वीकार करना ही होगा । किन्तु जब कि सभी अवयव समान रूप से मन के इन्द्रियत्व के प्रयोजक उपाधि हैं तो फिर उक्त नियम की उपपत्ति का जाता । अतः इस पक्ष में उक्त ‘नियम’ की ‘अनुपपत्ति’ भी रहेगी । सि० प० ततोऽन्यदेवेकम् .. कोई प्रयोजक नहीं रह क जिस लिये कि पाद प्रभृति शरीर के किसी अवयव को मन का उपाधि मानने से सुखादि के उक्त नियतत्व की प्रतीति विरुद्ध हो जाती है । एवं सम्पूर्ण शरीर को ही उपाधि
ह से तृतीयः स्तबक: २५ε सूक्ष्ममुपाधित्वेनातीन्द्रियं कल्पनीयम् । तथा च तस्यैवेन्द्रियत्वे स्वाभाविकेऽधिक- कल्पनायां प्रमाणाभावाद्धर्मिग्राहक प्रमाणवाघः । अथ ज्ञानक्रमेणेन्द्रियसहकारितया तदनुमानं ततः सुतरां प्रागुक्तदोषः । मानने से सुखादि में अध्याप्यवृत्तित्व अथवा प्रादेशिकत्व का व्यवहार अनुपपन्न हो जाता है । इसी प्रकार शरीर और उसके प्रवयव दोनों को मन की उपाधि मानने से कल्पनागौरव प्रौर उक्त नियमानुपपत्ति दोनों दोष होते हैं, ( ‘तत’ तस्मात् कारणात् ) शरीर और उनके अवयव इन सबों से भिन्न सूक्ष्म एवं शीघ्र चलनेवाले किसी प्रतिन्द्रिय पदार्थ को ही मन को उपाधि मान लेने में सुविधा है। ऐसा मान लेने पर अतीन्द्रिय एवं आशुसञ्चारी उस उपाधि को ही ‘मन’ स्वीकार कर लेने से उक्त सभी कार्य अच्छे प्रकार से उपपन्न हो जायेंगे। उस से प्रतिरिक्त ‘मन’ नाम के किसी उपधेय की कल्पना अनावश्यक होगी । तस्मात् मन को सिद्ध करनेवाली सुखादि की जो उपलब्धियां हैं, उनकी अनुपपत्ति से ही मन में अगुत्व की भी सिद्धि होगी । मन में प्रस्तुत्व की इस सिद्धि से मन में त्रिभुत्व के साधक अनुमान का ‘धर्म’ जो मन, उसके साधक प्रमाण से ही मन में विभुत्व भो बाबित हो जायगा । क्योंकि पहले कह आये हैं कि मन के जितने भी साधक प्रमाण हैं, वे ही मन में अस्तुत्व के भी साधक हैं ( इसी अभिप्राय से ‘धर्मिग्राहकप्रमाणबाधः’ इतने पर्यन्त का ग्रन्थ लिखा गया है ) । पू० प० अथ ज्ञानक्रमेण … ००० कथित धर्मग्राहक प्रमाणबाध रूप दोष तभी हो सकता है, जब कि मन की सिद्धि सुखादि के साक्षात्कार के जनक इन्द्रिय रूप में हो । परन्तु मन की सिद्धि का तो इससे भिन्न प्रकार भी है। यह मानी हुई बात है कि एक काल में अनेक ज्ञानों की उत्पत्ति नहीं होती है । अगर चक्षुरादि इन्द्रियों का ( मन नाम का ) कोई सहायक स्वीकार नहीं करेंगे तो चक्षुरादि अनेक इन्द्रियों से अनेक ज्ञान एक ही समय एक ही आत्मा में होने लगेंगे। क्योंकि विषयों के साथ इन्द्रियों का सम्बन्ध है, एवं श्रात्मा के साथ भी इन्द्रियों का सम्बन्ध भी अवश्य है । अतः इन्द्रियों का कोई ऐसा सहायक स्वीकार करना होगा, जिसके सम्बन्ध के चलते एक ही समय एक इन्द्रिय से एक ही ज्ञान की उत्पत्ति हो सके । एवं जिसके सम्बन्ध के न रहने से दूसरे इन्द्रियों से उस समय ज्ञान की उत्पत्ति संभव न हो । अतः स्वतन्त्र इन्द्रिय के रूप में ( इन्द्रियत्वेन ) मन की सिद्धि भले ही अनावश्यक हो, चक्षुरादि इन्द्रियों के सहायक के रूप में मन की सिद्धि मानने से मन में कथित वैभव के साधक अनुमान धर्मिग्राहक प्रमाण से बाधित नहीं हो सकता । सि० प० ततः सुतराम् …. प्रागुक्तदोषः मन को यदि विभु मानेंगे तो वह क्रमशः ज्ञानोत्पत्ति का सहायक नहीं हो सकेगा । क्योंकि विभु होने के कारण वह सभी इन्द्रियों के साथ सभी समय सम्बद्ध ही रहेगा । तो फिर किसके न रहने से एक क्षण में दूसरे ज्ञानों की उत्पत्ति निवारित होगी ? इसी प्रकार मन को अगर मध्यम परिणाम का भी मानते हैं तो भी ज्ञान की क्रमशः उत्पत्ति का सम्पादन नहीं हो सकता। क्योंकि मध्यम परिणाम का द्रव्य एक ही समय अनेक CCO. Vasishtha Tripathi Collection. Digitized by eGangotri१६० गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जलौ यदि च मनसोवे भवेऽप्यदृष्टवशात् क्रम उपपाद्येत तदा मनसोऽसिद्धेराश्रया- सिद्धिरेव वैभवहेतुनामिति । अथ यत्रादृष्टस्य दृष्टकारणोपहारेणोपयोगः, तत्र तत्पूतायां कार्यमुत्पद्यत एव, विषयों के साथ सम्बद्ध हो सकता है। जैसे कि एक ही वृक्ष में एक हो समय अनेक फलों का सम्बन्ध हो सकता है । अतः मध्यम परिणाम का एक ही मन चक्षु एवं तद्भिन्न घ्राणादि अनेक इन्द्रियों के साथ सम्बद्ध हो सकता है । इस लिये यह नियम भी नहीं किया जा सकता कि मध्यम परिमाण वाला मन एक समय एक ही इन्द्रिय के साथ सम्बद्ध होता है । सुतराम् ज्ञान के क्रमशः उत्पत्ति की उपपत्ति केवल मन को अशु मानने से ही हो सकती है। चूँकि क्रमशः ज्ञान की उत्पत्ति से अस्तु परिणाम के मन को सिद्धि होती है अनः मन के साधक इस प्रमाण से ही मन का विभुत्व भी बाधित हो जाता है । ( इस धर्मि- ग्राहक प्रमाण के द्वारा बाब को ही ‘प्रागुक्तदोष’ शब्द से कहा गया है । ) । पू० प० यदि च मनसः यह सत्य है कि मन विभु के होने के कारण सभी इन्द्रियों के साथ एक ही समय सम्बद्ध रहता है । किन्तु भदृष्ट के साहाय्य से एक समय एक ही ज्ञान की उत्पत्ति होती है । प्रत० क्लृप्त अदृष्ट से ही ज्ञानों के यौगपद्य का वारण और ज्ञानों के क्रमिकत्व की उपपत्ति दोनों ही हो सकेगी। इसके लिए मन को अरपु स्वीकार करने की आवश्यकता नहीं है । सि० प० :- तदा मनसः OSO ज्ञानों के यौगपद्य के लिए ही अथवा ज्ञानों के क्रमिकत्व की उपपत्ति के लिए ही तो मन की कल्पना की जाती है। इन दोनों की उपपत्ति यदि केवल अदृष्ट से ही मान लिया जाय तो फिर मन को स्वीकार करने का कोई प्रयोजन ही नहीं रह जायगा । मन की प्रसिद्धि हो जाने पर मन में वैभव के साधक सभी अनुमानों के हेतु श्राश्रयासिद्धि दोष से ग्रसित हो जायेंगे | उन आश्रयासिद्ध हेतुओं से मन रूप पक्ष में विभुत्व की सिद्धि की भ्राशा भी छोड़ देनी होगी । पू० प० प्रथ यत्रादृष्टस्य पदार्थ को मानना आवश्यक है । कार्यमुत्पाद्यत एव अदृष्ट को ही ज्ञानों के क्रमशः उत्पन्न होने का प्रयोजक मान लेने पर भी ‘मन’ क्योंकि कार्यों की उत्पत्ति में प्रदृष्ट का उपयोग दो प्रकारों सम्बलन के द्वारा प्रोर (२) साक्षात् । इनमें प्रथम रीति के कारणों को एकत्र कर देता है, उसके बाद कार्य की उत्पत्ति से होता है (१) दृष्टकारणों के मनुसार अदृष्ट जब दृष्ट सभी हो ही जाती है, रुकती नहीं । अर्थात् प्रदृष्ट के वैगुण्य से कार्य की अनुत्पत्ति की कल्पना नहीं E ६ E E a ह व स उ प ( क स उ ह वि वै स से वि
द्वितीयः स्तबक २६१ अभ्यथा अन्त्यतन्तु संयोगेभ्योऽपि कदाचित् पटो न जायेत, जातोऽपि वा कदाचिन्निर्गुणः स्यात् । बलवता कुलालेन दृढदण्डनुन्नमपि चक्रं न भ्राम्येत । यत्र तु दृष्टानुपहारेणादृष्टव्यापारस्तत्र तद्वेगुण्यात् कार्यांनुदयः, यथा परमाणुकर्मणः । तदिहापि यदि विषयेन्द्रियात्मनां समवधानमेव ज्ञानहेतुः, तदा तत्सद्भावे सदेव - कार्यं स्यात् । न ह्य ेतदतिरिक्तमप्यदृष्टस्योपरहरणीयमस्ति न च सदैव ज्ञानोदयः; ततोऽतिरिक्तमपेक्षितव्यम् । तच्च यद्यपि सर्वाण्येवेन्द्रियाणि व्याप्नोति, तथापि करणधर्मत्वेन क्रियाक्रमः सङ्गच्छते, प्रकल्पिते तु तस्मिन्नायं न्यायः, प्रतिपत्तुर- करणत्वाच्चक्षुरादीनामनेकत्वादिति चेत् । प्रदृष्ट का वैगुण्य की जाती। क्योंकि ऐसे स्थलों में श्रदृष्ट का इतना ही कर्तव्य होता है कि वह सभी दृष्ट कारणों को एकत्र कर दे । फलतः ऐसे स्थलों में दृष्टकारणों का विघटन ही होगा । ‘अन्यथा’ अर्थात् अदृष्ट के उक्त प्रथम प्रकार के उपयोग स्थल में भी कार्य की उत्पत्ति का प्रतिरोध अदृष्ट के वैगुण्य से संपादन करें तो फिर (१) वन्तु के अन्तिम संयोग पर्यन्त सामग्री सम्बलन के बाद भी कदाचित् ( प्रदृष्ट के वैगुण्य से ) कार्य की उत्पत्ति रुक जाएगी । अथवा (२) पट की उत्पत्ति के बाद पट सहित सभी कारणों का सम्बलन रहने पर भी उस पट में रूपादि की उत्पत्ति रुक जायेगी। जिससे उस पट को निर्गुण मानना होगा । अथवा (३) कुम्हार अपने चक्र (चाक) को जब पूरे वेग से घुमा देगा, उसके बाद भी चक्र में घूमने की ( भ्रमि) क्रिया काचित् ( मदृष्ट के वैगुण्य से ) उत्पन्न नहीं होगी । किन्तु जहाँ अदृष्ट का उपयोग कार्य के उत्पादन में साक्षात् होता है, वहीं दुष्टकारणों के सम्बलन के बाद भी कार्य का प्रतिरोष होता है, जैसे कि परमाणु में क्रिया रूप कार्य की उत्पत्ति कदाचित् रुक जाती है। प्रकृत में यदि ‘मन’ को स्वीकार नहीं करेंगे, तो फिर ज्ञान के उत्पादक विषय, इन्द्रिय और आत्मा ये तीन ही रह जायेगे । अदृष्ट भी इन तीनों को ही एकत्र कर कृतकार्य हो जायेगा । ज्ञान के उत्पादन में उसका और कोई कर्तव्य अवशिष्ट नहीं रहेगा । ऐसी स्थिति में विषय की सत्ता जब तक बनी रहेगी, तब तक ज्ञान की उत्पत्ति अनबरत होती ही रहेगी । क्योंकि विषय की स्थिति पन्त बराबर सामग्री संबलित ही रहेगी । सुतराम अदृष्ट के वैगुण्य से कार्य के प्रतिरोध का प्रत्युदाहरण ‘ज्ञानसातत्य’ नहीं है । इस लिए इस ज्ञान सातत्य को रोकने के लिए ज्ञान की उत्पादिका सामग्री में भात्मा, इन्द्रिय और विषय इन तीनों से भिन्न किसी अन्य वस्तु को भी रखना होगा । वही अन्य वस्तु है ‘मन’ । मन यद्यपि विभु होने के कारण इन्द्रियों के साथ सम्बद्ध रहने से ज्ञानों के यौगपद्य को रोकने में असमर्थ
२६२ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली नन्वेवमपि युगपत् ज्ञानानि माभूवन् । युगपज्ज्ञानं तु केन वार्यते ? भवत्येव समूहालम्बनमेकं ज्ञानमिति चेन्न । एकेन्द्रिय ग्राह्य ेष्विव नानेन्द्रियग्राह्यष्वपि प्रसङ्गात् । तेष्वपि भवत्येवेति चेन्न । सा जान पड़ता है । किन्तु ‘विभु’ होने पर भी मन करण तो है ही । करणों का यह स्वभाव । है कि वे क्रमशः ही एक कार्य को उत्पन्न करें। एक ही समय अनेक कार्यों को नहीं । यदि मन की कल्पना नहीं करेंगे तो कथित युक्ति के अनुसार ज्ञानों के यौगपद्य का वारण नहीं होगा । क्योंकि ज्ञान की सामग्री में मन को छोड़ कर ज्ञाता पुरुष ( आत्मा ) इन्द्रिय और विषय ये ही तीन है । क्रमिकत्व का नियामक व कि करण ही हो सकता है, कारण नहीं । अतः इनमें से आत्मा क्रमिकत्व का नियामक नहीं हो सकता, क्यों कि वह कारण है, करण नहीं । इन्द्रियाँ यद्यपि करण हैं, किन्तु वे अनेक हैं, एवं अपने विषय के ज्ञान के उत्पादन में समर्थ हैं, अतः पांचों इन्द्रियों से एक ही समय पाँच ज्ञानों उत्पत्ति को नहीं रोकी जा सकती । अतः एक ‘सर्वार्थ’ विषयक मन रूप इन्द्रिय की कल्पना आवश्यक है । जिसके सम्बन्ध के बल से एक समय एक इन्द्रिय से एक ज्ञान ही उत्पन्न हो सकता है । ( कहने का तात्पर्य है कि ) ज्ञान के यौगपद्य से बचने के लिये केवल ‘मन’ की कल्पना ही आवश्यक है, मन के अशुत्व की कल्पना आवश्यक नहीं है । मन को विभु मान लेने पर भी ज्ञानों के यौगपद्य का निवारण और ज्ञानों के क्रमिकत्व की उपपत्ति हो सकती है । सि० प० नन्वेवमपि … | . मन को विभु मान लेने पर कथित रीति के अनुसार एक ही समय अनेक ज्ञानों की प्रापत्ति भले ही न हो, किन्तु एक ही समय अनेक विषयों के एक ज्ञान की आपत्ति तो होगी । पू० प० भवत्येव एक धर्मिक नाना अविरुद्ध विषयक ‘भूतलं घटवत् पटवच्च’ इत्यादि आकारों के समूहालम्बन ज्ञानों को सभी स्वीकार करते ही हैं । अतः उक्त आपत्ति इष्ट है । सि० प० एकेन्द्रियग्राह्येष्विव … 1 जिस समूहालम्बन के प्रसङ्ग में सर्व्वसम्मति दिखलायी गयो है, वह एक ही इन्द्रिय से गृहीत होनेवाले अनेक विषयों के एकज्ञान के प्रसङ्ग में है । मैंने तो नाना इन्द्रियों से एक ही समय नाना विषयों के एक ज्ञान की आपत्ति दी है । अर्थात् मन को यदि विभु मानेंगे तो वह एक ही समय चक्षु, घ्राण, रसना प्रभृति अनेक इन्द्रियों के साथ सम्बद्ध रहेगा । अतः एक ही वस्तु में रहने वाले रूप, रस एवं गन्धं के एक ही ज्ञान का आपत्ति एक ही क्षण में होगी । पू० प० तेष्वपि दीर्घशष्कुली ( बड़ी रोटी) भक्षणादि स्थलों में एक ही समय रोटी के रूप, रस, स्पर्थ और गन्ध का ज्ञान होता ही है । अतः उक्त आपत्ति भी इष्ट ही है । 3. f f स स के म f व ज से वि हो ए को भी का अ उ
तृतीयः स्तबका २६३ व्यासङ्गकाले ज्ञानक्रमेण विवादविषये क्रमानुमानात् । बुभुत्साविशेषेण व्यासङ्ग क्रियाक्रम इति चेन्मेवम् । न ह्य ेष बुभुत्साया महिमा यदनुभुत्सिते विषये ज्ञानसामग्रयां सत्यामपि न ज्ञानस्, अपि तु न तत्र संस्कारातिशयाधायकः प्रत्ययः स्यात् । यदि त्वबुभुत्सिते विषये समग्रीमेव सा निरुन्ध्यात्, घटायोन्मीलितं चक्षुः पटं नैव सि० प० न, व्यासङ्गकाले … आत्मा, इन्द्रिय एवं मन इन सबों का समवधान रहने पर भी एक काल में किसी एक ही विषय का ज्ञान होता है, उपस्थित सभी विषयों का नहीं ( अनेक विषय, अनेक इन्द्रियाँ एवं आत्मा इन सबों का समवधान रहने पर भी एक काल में एक ज्ञानोत्पत्ति की अवस्था ही ‘व्यासङ्गकाल’ है ) । इससे ज्ञानों के क्रमशः उत्पन्न होने का अनुमान होता है । जिन दीर्घशष्कुली भक्षणादि स्थलों में अनेक इन्द्रियों से एक ही समय अनेक विषयक ज्ञान का प्रतिमास होता भी है, वे उक्त क्रमानुमान के अनुसार भ्रान्ति ठहरते हैं । उन सभी स्थलों में भी क्रमशः ही ज्ञान उत्पन्न होते हैं । किन्तु अत्यन्त शीघ्रता से एक के वाद दूसरे ज्ञानों की उत्पत्ति होती है, अतः उनके क्रम का प्रत्यक्ष नहीं हो पाता । पू० प० बुभुत्सा विशेषेरण उक्त ‘व्यासङ्ग’ के समय जिस विषय को समझने की विशेष इच्छा रहती है, उसको समझ लेने के बाद अन्य अनपेक्षित वस्तुओं का ज्ञान होता है । अतः ‘व्यास’ के समय ज्ञानों के क्रमशः उत्पत्ति का नियामक बुभुत्सा ( समझने की इच्छा ) है, इसके लिये मन को अतु मानने की आवश्यकता नहीं । सि० प० मैवम् … बुभुत्सा में यह सामर्थ्य नहीं है कि अनपेक्षित वस्तु के ज्ञान की सामग्री के रहते हुए भी वह अनपेक्षित विषय के ज्ञान को रोक सके । बुभुत्सा से इतना ही होगा कि बुभुत्सित विषयक जो ज्ञान उत्पन्न होगा, वह अपेक्षात्मक होगा ( उपेक्षात्मक नहीं ) । जिसके बल से उस ज्ञान से शीघ्रता से स्मृति को उत्पन्न करनेवाला संकार भर विलक्षण होगा। जिससे बुभुत्सित विषयक की स्मृति शीघ्र होगी । प्रबुभुत्सित विषय का जो ज्ञान होगा, वह ‘उपेशात्मक’ होगा । चूंकि उपेक्षात्मक ज्ञान से संस्कार उत्पन्न नहीं होगा, अतः उससे स्मृति नहीं होगी । एक विषय की बुभुत्सा में इतनी ही सामर्थ्य है कि अनुभुत्सित विषयों के संस्कार रूप अतिशय को उत्पन्न नहीं होने दे। यदि एक विषय की मी मानें तो फिर घट को जानने की इच्छा से का भी जो प्रत्यक्ष होता है, बुभुत्सा को प्रन्य विषयक ज्ञान का प्रतिबन्धक उन्मीलित चक्षु से उसी देश में रहने वाले पट वह न हो सकेगा प्रत. यही कहना होगा कि बुभुत्सा मन को । अनुभुत्सित विषयों से हटाकर बुभुत्सित विषय के ग्राहक इन्द्रिय साथ सम्बद्ध कर देता है । श्रतः उक्त स्थिति में बुभुत्सित विषय का ज्ञान पहिले, एवं प्रबुभुत्सित विषय का ज्ञानवाद में होता
२६४ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली दर्शयेत् । तस्मात् बुभुत्सापीन्द्रियान्तरादाकृष्य बुभुत्सितार्थग्राहिणीन्द्रिये मनो निवेशयन्ती युगपज्ज्ञानानुत्पत्तावुपयुज्यते, न तु स्वरूपतः । विभुनोऽपि मनसो व्यापारक्रमात् क्रम इति चेन्न । तस्य संयोगातिरिक्तस्य कर्मरूपत्वे वैभवविरोधात् । गुणरूपत्वे नित्यस्य क्रमानुपपत्तेः । अनित्यस्य च नित्यैकगुरणस्याऽविभुद्रव्यसंयोगा- समवायिकारणकत्वेन तदन्तरेणाऽनुपपत्तेः । तदपि कल्पयिष्यत इति चेत्; तदेव तहि मनःस्थाने निवेश्यतां लाघवाय । तस्मादण्वेव मन इति । । 1 है । इसी रीति से बुभुत्सा ज्ञानों के क्रमशः उत्पत्ति का नियामक एवं ज्ञानों के यौगपद्य का निवारक है । स्वरूपत: बुभुत्सा ज्ञानयोगपद्य का निवारक या ज्ञानों के क्रमशः उत्पत्ति का प्रयोजक नहीं है । मन को यदि विभु मानते हैं तो मन को एक इन्द्रिय से हटाना सम्भव नहीं होगा । प्रत मन को विभु मानने पर बुभुत्सा के द्वारा ज्ञानों के क्रमशः उत्पत्ति का नियमन और ज्ञानों के यौगपद्य का निवारण नहीं हो सकता । इसके लिये भी मन को अरतु मानना ही आवश्यक है । पू० प० विभुनोऽपि मन यद्यपि विभु है, किन्तु वह स्वतः ज्ञानों का उत्पादक नहीं, किन्तु व्यापार के द्वारा ही ज्ञानों का उत्पादक है । यह व्यापार क्रमशः उत्पन्न होता है, प्रत मन को सर्वदा सभी स्थानों में विद्यमान रहने पर वह ज्ञानों को क्रमशः ही उत्पन्न करता है । सुतराम् मन को विभु मानने पर भी ज्ञानों का क्रमशः उत्पन्न होना उपपन्न हो सकता है | सि० प० - तस्य …अण्वेव मनः ••• ज्ञानों का क्रमशः उत्पन्न होने के लिए मन के जिस ‘व्यापार’ की चर्चा की गयी है, उस ‘व्यापार’ को गुणरूप मानेंगे ? अथवा क्रिया रूप ? क्रिया रूप व्यापार मानेंगे तो मन के विश्व का विरोध होगा, क्योंकि क्रिया मूर्त्तद्रव्यों का ही धर्म है विभुद्रव्यों का नहीं । अतः उक्त ‘व्यापार’ को ‘गुण’ रूप ही मानना होगा । गुण रूप व्यापार के प्रसङ्ग में भी यह प्रश्न होगा कि वह व्यापार रूप वह गुण नित्य है ? अथवा अनित्य ? यदि नित्य मानेंगे तो ज्ञानों की क्रमिकत्व की उपपत्ति उस व्यापार के द्वारा न हो सकेगा । यदि अनित्य मानेंगे तो उसका पर्यवसान मन के अगुत्व में ही होगा । केवल विभु द्रव्यों में रहनेवाले जो अनित्य गुण हैं उनका असमवायिकारण प्रविभु द्रव्यों के संयोगादि ही होते हैं। जैसे आकाश रूप अविभु द्रव्य के शब्द रूप मनित्य गुण का असमवायिकारण भेरी और दण्ड का संयोग होता है । यदि,
तृतीयः स्तबकः २६५ I I T न न तो ण व्य दि. तथा च तस्मिन्ननिन्द्रियप्रत्यासन्ने निरुपधानत्वादात्मनः सुषुप्त्यवस्थायाम- नुपलम्भ: । मन को विभु मानेंगे तो ज्ञानों की क्रमशः उत्पत्ति के लिए एक ऐसे मूर्त द्रव्य की कल्पना भी करनी होगी, जो मन के व्यापार रूप उक्त प्रसमवायिकारणीभूत अनित्य संयोग का प्राश्रय हो। इसके विना ज्ञानों की उत्पत्ति क्रमशः न हो सकेगी । पू० प० तदपि किसी अविभु द्रव्य की भी कल्पना कर लेंगे ? सि० १० तहि तो फिर उस अविभुद्रव्य के स्थान पर मन की ही कल्पना कर लीजिये । ’ सि० प० २ तथा च तस्मिन् सुषुप्ति के समय मन पुरीतति नाम के अनिन्द्रिय प्रदेश में चला जाता है, मतः उस समय ज्ञान को उत्पत्ति नहीं हो पाती है । ज्ञान ही मात्मा का ग्राहक उपाधि है । क्योंकि ज्ञान के साथ ही आत्मा का प्रत्यक्ष होता है । भूतः सुषुप्ति के समय आत्मा का प्रत्यक्ष नहीं होता है । १. कहने का तात्पर्य है कि ज्ञानों की हैं। यदि इस कविपत मन को विभु क्रमिकत्व के सम्पादन के लिए एक अन को हो अणु मान लेते हैं, तो मन से भिन्न किसी अमृतद्रव्य की कल्पना न करने पर भी ज्ञानों का क्रमिकत्व उपपन्न हो जाता है । अतः मन को अणु मानना ही क्रमशः उत्पत्ति के लिए ही मन की कपना करते मानते हैं तो मन का प्रधान प्रयोजन ज्ञानों के मूर्ख द्रम्य की भी कल्पना करनी पड़ती है । यदि चित है। इतने पर्यन्त के सन्दर्भ से मन के अविभु होने का उपपादन किया गया । किन्तु द्रव्य अणु और विभु इन दो ही प्रकार के तो नहीं हैं, जिससे कि मन में विभुरष की सिद्धि से मन में अणुस्व की सिद्धि परिशेषनुमान से हो जायगी । द्रव्य का एक तीसरा भी भेद है, जो भवयवियों में रहता है, वह है मध्यमपरिमाण । वह मध्यमपरिणाम वाला द्रव्य अविभु होने पर भी अणु नहीं है। अतः मन को परमाणु रूप सिद्ध करने के लिए यह भी आवश्यक है कि मन में अवयवित्व का निराकरण किया जाय । आचार्य की इसी न्यूनता के परिहार के लिये वर्द्धमान ने ‘तस्मात् अयवेव मन।’ इस उपसंहार प्रस्थ के अवतरण में मन में प्रवयवित्व का निराकरण किया है । विस्तृति से विरत हुये उसका उल्लेख यहाँ नहीं किया । अनुसन्धासु विद्वान् वर्द्धमान के उक सन्दर्भ का अवश्य अवलोकन करें । २. मध्य में मन में अणुत्व के साधन का यह प्रकरण प्रासङ्गिक था । प्रकृत में बात यह है कि ‘अपनी आत्मा का भी उसके ज्ञानादि गुर्यो के साथ ही प्रत्यक्ष होता है, केवल अपनी आत्मा का भी ग्रहण नहीं होता है । अत एव सुपुति अवस्था ३४
२६६ गद्यपद्यात्मक-न्याय कुसुमाञ्जली एतदेव मनसः शीलमिति कुतो निर्णीतमिति चेत्; चेत् श्रन्वयव्यतिरेका- भ्याम् । न केवलं तस्य, किन्तु सर्वेषामेवेन्द्रियाणाम् । न हि विशेषगुणमनपेक्ष्य चक्षुराद्यपि द्रव्ये प्रवर्तते । स्वापावस्थायां कथं ज्ञानमिति चेत्; तत्तत्संस्कारोद्वोघे पू० प० … .. एतदेव …….. मन की यह सामर्थ्य ही कैसे निश्चित की कि वह ज्ञान से युक्त आत्मा का ही ग्रहण करे । । सि० प० अन्वय …… द्रव्ये प्रवर्तते अन्वय भौर व्यतिरेक इन दोनों से ही समझते हैं कि मन ज्ञान से युक्त आत्मा का ही ग्रहण करता है, क्योंकि प्रात्मा की प्रतीति ‘अहं जानामि’ इत्यादि आकार की ही होती है, केवल ‘अहम्’ इस आकार की प्रात्मा की प्रतीति नहीं होती है । यह स्वभाव केवल मन रूप इन्द्रिय का ही नहीं है। किन्तु चक्षुरादि इन्द्रियों का भी यह स्वभाव अन्वय और व्यतिरेक से निष्पन्न है कि वे इन्द्रियों के द्वारा विशेष गुण के साथ ही द्रव्य का ग्रहण करें, केवल द्रव्य का नहीं। इसी कारण आकाश के प्रत्यक्ष में चक्षुरिन्द्रिय की प्रवृत्ति नहीं होती । क्योकि वह आकाश के विशेषगुण शब्द को ग्रहण करने ये असमर्थ है । पू० प० स्वापावस्थायाम् … … … सभी जानते हैं कि स्वप्तावस्था में अनेक प्रकार में अद्भुत एवं अलौकिक विषयों का प्रत्यक्ष होता है । ये सभी ज्ञान किस प्रकार उत्पन्न होंगे ? क्योंकि स्वप्नावस्था में भी मन इन्द्रिय प्रदेश में नहीं रहता है। अतः सुषुप्ति ज्ञानादि विशेष गुणों का एवं ज्ञानादि विशेषगुणों से युक्त आत्मा का प्रत्यक्ष नहीं होना चाहिए । किन्तु स्वप्नावस्था में उन दोनों प्रत्यक्षों को तो सभी स्वीकार करते हैं । सि० प० तत्तत् संस्कारोद्वोघे ….. अवस्था के समान ही स्वप्नावस्था में भी स्वप्नावस्था में इन्द्रियों का व्यापार न रहने पर भी पूर्वानुभव के द्वारा निष्पन्न उद्बुद्ध संस्कार जनित स्मृति के साहाय्य से मन स्वप्न स्वरूप विभ्रमों का उत्पादन कर सकता है । ज्ञानादि के न रहने से अपनी आत्मा का ग्रहण नहीं होता । किन्तु सुषुप्ति अवस्था में ज्ञान की उत्पत्ति क्यों नहीं होती है ! एवं सुषुप्ति अवस्था के बीतने पर पुनः जाप्रत अवस्था में ज्ञानादि की उत्पत्ति क्यों होती है ? इन्हीं बातों की चर्चा ‘ज्ञानमेव कुतो न जायते’ इत्यादि सन्दर्भ से आरम्भ की गयी थी । इसी प्रसन में मन के अस्व की चर्चा आयी थी। अब आचायं ‘तथा च तस्मिन्’ इत्यादि सम्दर्भ के द्वारा अपने पहिले विषय का उपसंहार करते हैं ।
व J तृतीयः स्तबकः २६७ विषयस्मरणेत स्वप्नविभ्रामाणामुत्पत्तेः । उद्बोध एवं कथमिति चेत्, मन्दतर- तमादिन्यायेन वाह्यानामेव शब्दादीना मुपलम्भात्, अन्जतः शरीरस्येवोष्मादे! प्रतिपत्तेः । यदा च मनः स्ववमपि परिहृत्य पुरीतति वर्तते, तदा सुषुप्तिः । पू० उद्बोध एव … … किन्तु संस्कार का उद्बोधन ही कैसे उद्बोधक है । अर्थात् स्वप्नविभ्रम में इन्द्रिय के किन्तु उद्बोधक ज्ञान सम्पादक के जरिये इन्द्रिय रीति से इन्द्रियों के व्यापार के बिना स्वप्न की भी उत्पत्ति नहीं हो सकती । होता है ? क्योंकि इन्द्रिय जनित ज्ञान ही व्यापार का साक्षात् उपयोग भले ही न हो व्यापार की अपेक्षा रहेगी ही । अतः इस सि० प० मन्दतर … 800 स्वप्न के समय शब्दादि विषयों की अस्फुट प्रतीतियों को अनुवृत्ति रहती है । ( अर्थात् स्वप्न के समय मन श्रनिन्द्रिय प्रदेश में नहीं जाता । अतः इन्द्रियों के साथ उसका कुछ व्यापार बना रहता है) । वह व्यापार मन्द या मन्दतर होता है, अतः उनसे होने वाली प्रतीति स्फुट नहीं होती । ‘अन्ततः … t … यदा च स्वप्नावस्था में अन्य विषयों का सांनिध्य भले ही संभव न हो, तथापि अपने शरीर की उष्णता का सांनिध्य तो संभव है । मन के साथ संयुक्त त्वचा के द्वारा जो उष्णस्पर्श का प्रत्यक्ष होगा, वही स्वप्नावस्था में होनेवाली स्मृतियों के उत्पादक संस्कारों का उद्बोधक होगा । सुतराम स्वप्नावस्था में यदि चक्षुरादि अन्य इन्द्रियों के प्रदेश में मन की सत्ता न भी मानें, तथापि केवल स्वगिन्द्रिय के प्रदेश में मन की सत्ता को स्वीकार कर स्वप्नविभ्रम की उपपत्ति हो सकती है । यदि स्वप्न के समय भी मन की सत्ता निरिन्द्रिय प्रदेश में ही मानेंगे तो स्वप्न और सुषुप्ति इन दोनों में कोई अन्तर नहीं रहेगा। इन दोनों में भेद इतना ही है कि मन जब इन्द्रियों वाले त्वगिन्द्रिय सहित सभी प्रदेशों को छोड़कर ‘पुरोवति’ नाम के सर्वथा इन्द्रिय शून्य प्रदेश में चला जाता है तो ‘सुषुप्त्यवस्था’ कहलाती है । एवं जिस समय इन्द्रियवाले प्रदेशों में रहने पर भी ऐसे व्यापारों से रहित हो जाता है, जिनसे स्फुटज्ञान की उत्पत्ति हो सके तो वह स्वप्नावस्था कहलाती है । अथवा अन्य प्रदेशों को छोड़ने पर भी मन जब केवल त्वगिन्द्रिय के प्रदेश में रह जाता है तो ‘स्वप्नावस्था’ कहलाती है । १. इस प्रसङ्ग में यह प्रश्न हो सकता है कि इन्द्रिय से उत्पन्न होनेवाले ज्ञान में विषय के सांनिध्य की अपेक्षा होती है । स्वप्न के समय शब्दादि विषयों का सांनिध्य तो रहता नहीं। फिर उक्त मन्द या मन्दतर इन्द्रिय व्यापार के द्वारा किस का ग्रहण होगा ? इस प्रश्न का समाधान ‘अन्ततः’ इत्यादि सन्दर्भ से किया गया है।
२६८ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली स्यादेतत् । परात्मा तु कथं परस्याऽयोग्यः ? । न हि साक्षात्कारिज्ञान- विषयतामेवायं न प्राप्नोति, स्वयमप्यदर्शनप्रसङ्गात् । नापि ग्रहीतुरेवायमपराधः, प० पू० स्यादेतत् परात्मा तु … तो फिर दूसरे की जाग्रत अवस्था की आत्मा का प्रत्यक्ष दूसरे पुरुष को होना चाहिये । तब फिर यह कहना सङ्गत नहीं है कि “पर” अर्थात् दूसरे की आत्मा प्रत्यक्ष के योग्य नहीं हैं, पता उनका प्रत्यक्ष नहीं होता है" क्योंकि ऐसी स्थिति वह ‘परात्मा’ स्वयं अपने द्वारा भी गृहीत नहीं हो सकती । यदि परात्मा’ स्वयं अपने लिये प्रत्यक्ष के योग्य हैं, तो दूसरों के लिये प्रत्यक्षायोग्य क्यों है ?’ | नापि गृहीतुः ( कदाचित् यह कहें कि ) ग्रहण करनेवालो ‘परात्मा’ में कोई ऐसा वैगुण्य है, जिससे अपना ग्रहण तो वह करती है किन्तु दूसरे की आत्मा ( परात्मा ) का ग्रहण नहीं कर सकती । किन्तु यह कहना भी ठीक नहीं है क्योंकि— तस्यापि हि आत्मा में जो समवायिकारणत्व रूप धर्म है, वही उसकी ग्रहण करने की योग्यता ( स्वरूप ) है । अन्य कोई भी वैगुण्य ग्रहणकर्त्तृत्व का विरोधी है ही नहीं । अंतः वैगुण्य से उक्त प्रसङ्ग का निवारण नहीं किया जा सकता । १. प्रकृत बात यह है कि परमात्मा चूँकि प्रत्यक्ष के ‘योग्य’ नहीं हैं, इस लिये उनका प्रत्यक्ष नहीं हो पाता । अतः उनकी अतः उनकी अनुपलब्धि चूँकि योग्यानुपलब्धि नहीं है, अतः उससे परमात्मा के अभाव की सिद्धि नहीं हो सकती । इस प्रसन में इष्टान्त रूप से कहा गया है कि ‘अपनी आत्मा तो प्रत्यक्ष के योग्य है’ फिर फिर भी सुषुप्ति के समय उनकी प्रत्यक्ष नहीं होता है, उनकी इस ‘अप्रत्यक्ष’ रूप अनुपलब्धि से अपनी आत्मा का प्रभाव सिद्ध नहीं होता है। जब प्रत्यक्ष के योग्य अपनी आत्मा की अनुपलब्धि से अपनी आत्मा का अभाव भी सिद्ध नहीं होता, तो फिर प्रत्यक्ष के सर्वथा अयोग्य परमात्मा की अनुपलब्धि से परमात्मा की असत्ता की सिद्धि कैसे हो सकती है ? अभी प्रसङ्गतः यह बात उठती है कि चूँकि ज्ञानादि से युक्त आत्मा का ग्रहण करना ही मन का स्वभाव है, अतः सुपुप्ति के समय आत्मा का ग्रहण नहीं होता । सुतराम् ज्ञान ही आत्मा के प्रत्यक्षस्व का प्रयोजक है । किन्तु ऐसी स्थिति में जाग्रदवस्था की दूसरे की आत्मा का प्रत्यक्ष दूसरे पुरुष को होना चाहिये । यही बात स्यादेतत् ‘इत्यादि’ से उठायी गयी है । त न इ भो ना ठी है, एक अ स्व कि एक त अ भी श्र 1566 p भ भी सि प्र भ ज
तृतीयः स्तबकः २१६ तस्यापि हि ज्ञानसमवायिकारणतयैव तद्योग्यता । नापि कररणस्य, साधारणत्वात् । न ह्यासंसारमेकमेव मनः एकमेवात्मानं गृह्णातीत्यत्र नियामकमस्ति । स्वभाव इति चेत्; तर्हि मुक्तौ निःस्वमावश्वप्रसङ्गः, तदेकार्थताया अपायादिति । न । भोजकादृष्टोपग्रहस्य नियामकत्वात् । . नापि करणस्य 460 साधारणत्वात् ( इस प्रसङ्ग में कोई कह सकते हैं कि मन रूप जो करण है, उसी में कोई ऐसा वैगुण्य है, जिस से परात्मा का प्रत्यक्ष किसी दूसरी परात्मा को नहीं होता ) किन्तु यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि करण ‘साधारण’ ही होते हैं। कुठार जिस प्रकार खदिर का छेदक है, उसी प्रकार पलाश का भी । मन भी ‘करण’ है, अतः ‘स्व’ रूप अपनी आत्मा के प्रत्यक्ष एवं परात्म प्रत्यक्ष इन दोनों प्रत्यक्षों की करणता रूप साधारण्य मन में भी है । इस नियम का भी कोई हेतु नहीं है कि एक मन से एक ही श्रात्मा का ग्रहण हो । अतः इस नियम से भी उक्त आपत्ति का समाधान नहीं हो सकता । स्वभाव इति चेत् ‘स्वभाव’ ही उक्त नियम का किया जा सकता । अतः ‘स्वभाव’ के प्रयोजक होगा । स्वभाव के ऊपर कोई अभियोग नहीं अनुसार यह नियम किया जा सकता है कि ‘एक मन एक ही आत्मा का ग्रहण करें’ अतः ‘परात्मा’ का ग्रहण नहीं होता है । तहि मुक्ती 200 किसी भी वस्तु का वहीं धर्म स्वभाव कहला सकता है जो उस ‘स्व’ वस्तु के ‘भाव’ अर्थात् सत्ता पर्यन्त बराबर बना रहे। अतः कोई भी अपने स्वभाव को छोड़ कर एक क्षण भी नहीं रह सकता । ‘वस्तु’ अगर रहेगी तो अपने स्वभाव के साथ ही, नहीं तो फिर जड़-मूल से विनष्ट हो जायगी । इस वस्तु स्थिति के अनुसार एक मन में यदि ‘एक आत्मा के प्रत्यक्ष की करणता’ मान ली जाय तो आत्मा के मुक्त होने के समय मन को ‘एकात्म प्रत्यक्षकरणत्व’ रूप उक्त स्वभाव से मुक्त मानना होगा । क्योंकि मोक्ष के समय आत्मा में कोई ज्ञान नहीं रहता । अतः ‘स्व’ रूप आश्मा का ज्ञान भी नहीं रहेगा । फिर उक्त ‘करणत्व’ को मन का स्वभाव कैसे माना जाय ? क्योंकि मन उक्त करणता को छोड़कर भी अपनी सत्ता को बनाये रखता है, तो फिर वह उसका स्वभाव नहीं हो सकता । सि० प० न, भोजकादृष्टोपग्रहस्य । ‘एक मन से एक ही प्रात्मा का ग्रहण हो’ ‘प्रत्यक्ष ‘की आपत्ति दूसरी श्रात्मा में नहीं होती है अदृष्ट का सम्बध ही उक्त ‘नियम’ का प्रयोजक है । जो मन, जो शरीर एवं जो इन्द्रिय ज्ञानादि कार्यों का इस नियम के बल से ही एक आत्मा के भोक्ता ( ज्ञाता ) के विशेष प्रकार के अत एव जिस भात्मा के अदृष्ट से माकृष्ट संपादन करते हैं, वह मन, वह शरीर CCO. Vasishtha Tripathi Collection. Digitized by eGangotri'२७० गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसमाञ्जली यद्धि मनो यच्छरीरं यानीन्द्रियाणि यस्थादृष्ट ेनाऽऽकुष्टानि तानि तस्यैवेति नियमः । तदुक्त ं प्राक् – ‘प्रत्यात्मा नियमाद्भुक्त’ रिति ।
एतेन परबुद्धद्यादयो व्याख्याताः । तदेवं योग्यानुपलब्धिः परान्मादो नास्ति । तदितरा तु न बाधिकेति तवापि सम्मतम् । अतः किमधिकृत्य प्रतिबन्धि: ? न हि शशशृङ्गमयोग्यानुपलब्ध्या कभिन्निषेधति । न च प्रकृते योग्यानुपलब्धि कश्चिन्मन्यते । मौर वह इन्द्रिय उसी प्रात्मा की होती है । इन सबों से नियम पूर्वक उसी आत्मा में ज्ञानादि कार्यों की उत्पत्ति होती है । इस नियम का उपपादन ‘प्रत्यात्मनियमाद्भुक्ते’ इस वाक्य से युक्त कारिका ( स्व ० १ श्लोक ४ ) में किया जा चुका है। इस युक्ति के अनुसार ही एक पुरुष की बुद्धि का प्रत्यक्ष दूसरे पुरुष को नहीं होता है । तदेव स् इस प्रकार यह स्थिर हो गया कि परमात्मा की अनुपलब्धि योग्यानुपलब्धि नहीं है । तदितरा तु आप ( मीमांसक और सांख्यशास्त्रानुपायियों ) की भी यही सम्मति है कि ‘योग्यानुपलब्धि’ ही वस्तु की सत्ता का बाघक है । अयोग्यानुपलब्धि वस्तु की सत्ता का बाघक नहीं है । अत एव मदृष्ट, देवता, स्वर्गं प्रभृति की सत्ता के ऊपर कोई श्राघात नहीं होता है । अतः परमात्मा की अनुपलब्धि जब योग्यानुपलब्धि नहीं है, तब ‘प्रतिबन्दि’ का कोई भी अवसर नहीं है । ( इसी की युक्ति एवं ‘कायोग्यं बाध्यते शृङ्गम’ इस तृतीय चरण की व्याख्या) ‘न हि शशशृङ्गम्’ इत्यादि से की गयी है । न हि शशश्रृङ्गम् यशश्रृङ्ग की अनुपलब्धि अयोग्यानुपलब्धि है, अतः इस से कोई भी शशशृङ्गाभाव की सिद्धि नहीं करता । एवं कोई भी शशश्रृङ्ग की अनुपलब्धि को योग्यानुपलब्धि नहीं मानता । अतः यह प्रतिबन्दि देना उचित नहीं है कि ‘यदि अनुपलब्ध वस्तु की सत्ता मानेंगे तो शशक की सत्ता भी माननी होगी’ । १. ‘सदेषम्’ इत्यादि से ‘योग्यादृष्टिः कुतोऽपोग्ये’ इस प्रथम चरण की व्याख्या की उपसंहार किया गया है । एवं ‘तदितरा तु’ इत्यादि से ‘प्रतिबन्धिः ‘कुसस्तराम्’ इस दूसरे चरण की व्याक्या प्रारम्भ हुई है । कि पू तो स सि हो पू श के सि स
तृतीयः स्तबक! २७१ अथायमाशयः — प्रयोग्यशशशृङ्गादावनुपलब्धिनं बाधिका स्यादिति । ततः किं ? । तत् सिद्धय ेदिति चेत्; एवमस्तु यदि प्रमाणमस्ति । पू० प० प्रथायम्’ यदि प्रत्यक्ष के अयोग्य परमात्मा की अनुपलब्धि परमात्मा की सत्ता का बाधक न हो तो फिर शशशृङ्ग की अनुपलब्धि भी प्रत्यक्ष के प्रयोग्य शशशृङ्ग की सत्ता का बाधक नहीं हो सकता । -२ सि० प० तत्किम् यदि शशङ्ग की अनुपलब्धि शशशृङ्ग की सत्ता की बाधिका नहीं होगी, तो क्या हो जायगा ? पू० प तत् 500 000 जिस प्रकार बाधक के न रहने मात्र से आप ईश्वर कि सिद्धि करते हैं, उसी प्रकार शशशृङ्ग की भी सिद्धि हो जायगी। क्योंकि शशश्रृङ्ग की अनुपलब्धि योग्यानुपलब्धि न होने के कारण उसकी बाधिका नहीं होगी । सि० प० एवमस्तु यदि शशशु की सिद्धि के उपयुक्त प्रमाण हैं, तो शशवृद्ध की सिद्धि हो जाय । हम लोग ईश्वर की सिद्धि केवल बाघक प्रमाण के न रहने से तो मानते नहीं हैं। इसके लिये तो साधक प्रमाणों का ही अवलम्बन करते हैं । १. प्रकृत में अनुपलब्धि के द्वारा परमात्मा की सत्ता को चिपन्न करने वाले हैं मीमांसक और सांख्प के अनुयायीगण, चार्वाक नहीं । चार्वाकसम्मत अनुपलब्धि से परमात्मा के खण्डन का उद्धार आगे कारिका ६ से किया गया है । अत एव ‘तवापि सम्मतम्’ यह वाक्य सिचवत् लिखा गया है । अर्थात् धर्म और अधर्म रूप अतीन्द्रिय पदार्थों को माननेवाले मीमांसकों और सांख्य के अनुयायीओं को योग्यानुपलब्धि को ही अभाव का साधक विवश होकर मानना होगा । केवल अनुपलब्धि को प्रभाव का साधक मानने से धर्म और अधर्म की सत्ता उठ जायगी जो उन लोगों को भी इट नहीं है । प्रकृत में यह कहना उचित नहीं है कि परमात्मा की अनुपलन्धि चूँकि अयोग्यानुपलब्धि है । अतः प्रतिवन्दि का कोई अवसर नहीं है । २. इस सन्दर्भ का तात्पर्य है कि (१) परमेश्वर की अनुपलब्बि को अयोग्य की अनुपलब्धि ठहरा देने से केवल इतना ही होगा कि ईश्वर सिद्धि का बाधक खण्डित हो जायगा, किन्तु केवल इसने भर से ईश्वर की सिद्धि नहीं होगी । उसके लिये तो साधक प्रमाण की ही आवश्यकता होगी । (२) यदि शश का श्रृद्धः अयोग्य हो तो उसकी अनुपलब्धि अयोग्य की अनुपलब्धि होने के कारण शशशु का बाधक नहीं हो सकता !
२७२ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसमाञ्जली पशुत्वादिकमिति चेत्; परसाधने प्रतिवन्दिस्तहि, न तद्वाधने । तत्रैव भविष्यतीति चेत्; तत्किं तत्र प्रतिबन्दिरेव दूषरणम्, अथ कथञ्चित्तुल्यन्यायतया योग्या एव परात्मबुद्धयादयस्ते च बाधिता एवेत्यपहृतविषयत्वम् ? न प्रथमः, श्रव्याप्तेः । पू० प० पशुत्वादिकस् जिस प्रकार गो प्रभृति पशु होने के नाते श्रृङ्ग से युक्त हैं, उसी प्रकार शश भी चूकि पशु है, अतः श्रृङ्गवान् है ( शश भृङ्गवान् पशुत्वात् गवादिवत् ) पशुत्व हेतुक यह अनुमान ही शश में बङ्ग का साधक होगा । सि० प० परसाधने आप ( पूर्व पक्षवादी) ने अनुपलब्धि रूप ईश्वर का बाधक दिखाकर पहिले यह कहा था कि ‘ईश्वर की अनुपलब्धि रूप बाधक के रहते हुये भी यदि ईश्वर की सिद्धि बाषित न हो, तो शशश्रृङ्ग भी बाधित नहीं होगा । यदि शशशृङ्ग की अनुपलब्धि से शशश्रृङ्ग बाधित हो तो फिर ईश्वर की मनुपलब्धि से ईश्वर भी बाधित होगे ही ( यही है ईश्वर के बाघ का प्रयोजक प्रतिबन्दि ) । अभी ‘परसाधन’ में प्रतिबन्धि देते हैं ( अर्थात् अभी यह कहते हैं कि यदि कार्य्यत्व हेतु से ईश्वर की सिद्धि हो, तो पशुत्व हेतु से शश में श्रृङ्ग की सिद्धि क्यों नहीं । यह तो ‘अर्थान्तर’ नाम का निग्रहस्थान है । पू० प० तत्रैव … उक्त रिति से ‘परसाधन’ में प्रतिबन्धि उपस्थित होने पर भी ईश्वर की सिद्धि प्रतिरुद्ध होगी ही । सि० १० तत्किम् (१) “यदि कार्यत्व हेतु से जगत कर्त्ता के परमेश्वर की सिद्धि उनकी उपलब्धि न रहने पर भी हो, तो फिर पशुत्व हेतु से भी उस शशशृङ्ग की सिद्धि होनी चाहिए जो सर्वथा अनुप- लब्ध है ? इस प्रकार की प्रतिबन्धि स्वयं दोष है ? प्रथ कथञ्चित् (२) अथवा उक्त प्रतिवन्दि के द्वारा ईश्वर के साधक अनुमान में जिस किसी प्रकार बाघ दोष का उद्भावन करना अभिप्रेत है ? ( अर्थात् जिस प्रकार शयरूप पक्ष में पशुत्व हेतु से शृङ्ग को अनुमान शशशृङ्ग की अनुपलब्धि से बाधित होता है, उसी प्रकार जित्यादि पक्ष में कार्यत्व हेतु से सकतु देव का ईश्वर साधक धनुमान ईश्वर की अनुपलब्धि से बाधित होगा’ इस रीति से उक्त प्रतिबन्दि का उद्भावन अभिप्रेत है ? ) ?) न प्रथमः …तस्त्र तिबध्येत 66. (१) कित्यादि पक्षक कार्यस्व हेतुक सकतुकत्व का अनुमान स्वीकार करने पर पशुत्व हेतु से शश से युद्ध की सिद्धि की भापति तभी हो सकती है, जब कि पशुत्व में जो शशवृज्ञ a व क य से अ प्र न ( क क क ब स पू के उ भी उ प्र D K & it क
तृतीयः स्तबक! २७३ न हि पशुत्वादेः शशशृङ्गसाधकत्वेन कार्यत्वादेः कर्तृ मत्त्वादिसाधकत्वं व्याप्तम्, येन तस्मिन्नसति तत्प्रतिषिद्धद्यत । न द्वितीया, मिथोऽनुपलभ्यमानत्वस्य वादिप्रतिवादिस्वीकारात् । तथापि पशुत्वादो को दोष इति चेत् ? न जानिमस्तावत्त- द्विचारावसरे चिन्तयिष्यामः । की साधकता हो, उसमें कार्यत्व के साथ रहने वाले सकतु कत्व की व्याप्ति हो । क्योंकि तब यह कहा जा सकता था कि व्यापकीभूत पशुत्व में जो शृङ्ग की साधकता है, उसके प्रभाव से कार्यत्व के साथ रहने वाले सकतु कस्व के अभाव की सिद्धि होगी, क्योंकि यह दूसरा अभाव पहिले अभाव का व्याप्य है । किन्तु कथित व्याप्ति ही सिद्ध नहीं है, अतः प्रथम प्रकार के अनुसार उक्त प्रतिबन्दि दूषण नहीं हो सकता । न द्वितीय! ( योग्यत्व से रहित ) केवल ‘अनुपलभ्यमानत्व’ को प्रभाव का निश्चायक न वादी ( मीमांसकादि ) ही मानते हैं, न प्रतिवादी ( नैयायिकादि ) ही । क्योंकि ‘परात्मा’ का अर्थात् अपने से भिन्न दूसरी मात्मा का प्रत्यक्ष दूसरी श्रात्मा को नहीं होता । किन्तु वादी को भी प्रतिवादी की आत्मा का ‘निश्चय’ तो है ही । इसी प्रकार प्रतिवादी को भी वादी की आत्मा का निश्चय है । अतः केवल अनुपलब्धि रूप ( अप्रत्यक्ष ) से परमेश्वर का अनुमान बाधित नहीं हो सकता । इस लिये प्रतिवादी के द्वारा इस दूसरी रीति से भी परमेश्वर की सत्ता विघटित नहीं की जा सकती । पू० प० तथापि 434 ईश्वर के अनुमान में इससे कोई बाघा भले ही न हो, तथापि शश में शृङ्ग के साधन के लिए प्रयुक्त पशुत्व हेतु में कौन सा दोष है ? ( अर्थात् यदि इस अनुमान में किसी दोष का उद्भावन नैयायिक करेंगे, तो हम भी उसी दोष का उद्भावन ईश्वर साधक अनुमान के लिये भी करेंगे ) । सि० प० न जानीमः … कथित पशुत्व हेतु में कौन सा दोष है, यह मैं अभी नहीं जानता। जब उसके लिये उपयुक्त प्रवसर आवेगा तब विचार कर लिया जायगा । ( अर्थात् अभी हम ईश्वर के बाघक प्रमाणों का खण्डन कर रहे हैं। ईश्वर के साधक प्रमाणों का उपपादन तो पांचवें स्तवक में करेंगे । अतः ईश्वर के साधक प्रमाण में रहने वाले दोषों की संभावना के निरास का अवसर तभी होगा । अतः अभी इसकी चर्चा अनावश्यक है ) । ३५
२०४ गद्यपद्यात्मक न्याय कुसुमाञ्जली स्यादेतत् । यत्प्रमारणगभ्यं हि यत्, तदभाव एव तस्याभावमावेदयति । यथा रूपादिप्रतिपत्तेरभावश्वक्षुरादेरभावम् । कायवागुव्यापारेकप्रमाणकश्च परात्मा, तदभाव एव तस्याऽभावे प्रमारममङ्करादिषु । तन्न । तदेकप्रमाणकत्वासिद्धेः । प्रन्यथा सुषुप्तोऽपि न स्यात् । पृ० प०’ स्यादेततत् यत्प्रमारणगम्यस् ‘परात्मा’ की सत्ता केवल उसके भोगायतन स्वरूप शरीर के वचनादि व्यवहार के द्वारा अनुमित होती है। ईश्वर भी ‘परात्मा’ ही हैं। अतः उसकी भी सत्ता कथित वचनादि के व्यहार से ही अनुमित हो सकती है । एवं जिस प्रमाण के द्वारा जिस कार्य की सिद्धि होती है, उस कार्य के न होने से ( प्रभाव से ) उस प्रमाण के प्रभाव की सिद्धि होती है, चक्षु स्वरूप प्रमाण से रूपज्ञान स्वरूप कार्यं उत्पन्न होता है, अतः रूप के प्रत्यक्ष के न होने से चक्षु का प्रभाव निश्चित होता है। यह सभी मानते हैं कि ईश्वर को शरीर नहीं है, अतः तन्मूलक वाग् व्यवहार भी नहीं हैं, किन्तु इस ‘वाग् व्यवहार’ रूप कार्य के अभाव की सिद्धि ईश्वर सत्ता के अभाव के विना नहीं हो सकती । अतः ईश्वर की सत्ता का अभाव स्वीकार करना ही होगा । यह मान लेने पर सित्यादि में ईश्वरकर्तृकत्व बाधित हो जायगा । तस्मात् क्षित्यादि में सकतकस्व का अनुमान देवदत्तादि से भिन्न विलक्षण ‘परात्मा’ के अभाव रूप उस लिंग के ग्राहक अनुमान से बाधित है, जिसके अभाव रूप लिङ्ग से कथित ( ईश्वरीय) काय- वाग् व्यवहार के प्रभाव की सिद्धि होती है । सि० प० न, तदेकप्रमारणकत्वासिद्धेो ऐसी बात नहीं हो सकती, क्योंकि जो पदार्थ केवल एक हो प्रमाण से जाना जा सकता है, उसी पदार्थ का प्रभाव प्रपने ज्ञापक प्रमाण के प्रभाव का साधक हो सकता है । हेतुक अनुमान से ही सिद्ध होने वाली वस्तु नहीं परात्मा की सिद्धि यदि उक्त सुषुप्तावस्था ही नहीं प्राती ( अर्थात् सुषुप्तावस्था किन्तु ‘परात्मा’ केवल कायवाग् व्यवहार है । ‘परात्मा’ की सिद्धि अन्य प्रमाणों से भी हो सकती है । अनुमान प्रमाण से ही होती, तो उसकी में कायबाग व्यवहार के न रहने पर भी परात्मा का बाघ नहीं होता है ) अत: कायवाग् व्यंबहार रूप प्रमाण से अन्य प्रमाण के द्वारा सिद्ध होने के कारण ‘परात्मा’ परमात्मा अनुमान के द्वारा भी बाधित नहीं हैं । फलतः प्रकृत में १. ईश्वरानुमान में प्रत्यक्ष बाध के उपपादन और उद्धार के निरूपण के बाद ‘स्यादेतत् यत्प्रमाण गम्यम्’ इत्यादि सन्दर्भ के द्वारा ईश्वरानुमान में अनुमानबाध का उपपादन प्रारम्भ किया गया है।
तृतीयः स्तबक २७५ श्वास सन्तानोऽपि तत्र प्रमाणमिति चेन्न । निरुद्धपवनोऽपि न स्यात् । कायसंस्थानविशेषोऽपि तत्र प्रमाणमिति चेन्न । विषमूच्छितोऽपि न स्यात् । । शरीरोष्मापि तत्र प्रमाणमिति चेन्न । पू० प० श्वासन्तानोऽपि परात्मा का ज्ञापक केवल कायावाग् व्यवहार ही नहीं है, किन्तु ‘श्वासप्रश्वास’ भी है । सुषुप्त अवस्था में कायवाग् व्यवहार के न रहने पर भी श्वासप्रश्वास रूप ज्ञापक रहता है, अत: सुषुप्तावस्था में परात्मा का बाघ नहीं होता । सि० प०न, निरुद्धपवनोऽपि यदि कायवाग् व्यवहार एवं श्वासप्रश्वास इन दोनों को परस्पर असम्बद्ध होकर स्वतन्त्र रूप से परात्मा का ज्ञापक मानें तो सुषुप्तावस्था में परात्मा के प्रभाव की आपत्ति यद्यपि नहीं होगी, तथापि ‘निरुद्धपवन’ अर्थात् कुम्भक प्राणायाम की अवस्था में परात्मा के अभाव को आपत्ति होगी, क्योंकि उस समय कायवागुव्यवहार मोर श्वासप्रश्वास इन दोनों में से एक भी नहीं रहता । पू० प० :- काय संस्थान विशेषोऽपि …” 180 अतिरिक्त काय का विशेष प्रकार जीवित शरीर मोर मृत शरीर कायवाग् व्यवहार भोर श्वासप्रश्वास इन दोनों से का ‘संस्थान’ भी परात्मा का ज्ञापक प्रमाण है । अत एव इन दोनों में वैजात्य का अनुभव होता है । कुम्भक प्राणायाम की अवस्थावाले पुरुष के शरीर का संस्थान जीवित पुरुष के शरीर का सा संस्थान रहता है, अतः, कुम्भक प्राणायाम के समय कायव्यापार और श्वासप्रश्वास इन दोनों के न रहने पर भी परात्मा के अभाव की आपत्ति नहीं है । सि० प० न, विषमूच्छितोऽपि 100 … काय व्यापार, श्वासप्रश्वास और संस्थानविशेष ये तीन ही परात्मा के ज्ञापक प्रमाण नहीं है, क्योंकि यदि ऐसी बात हो तो विष से कोई मूच्छित नहीं होगा । विशेष प्रकार के विषपान से मृत्यु न होने पर भी मूच्र्छा होती हैं, उस समय कायव्यापारादि तीनों व्यापारों में से कोई भी नहीं रहता । फिर भी विष से मूच्छित पुरुष की आत्मा ( स्वरूप परात्मा ) का ज्ञान होता है । पू० प० शरीरोष्मापि उन तीन हेतुभों से अतिरिक्त शरीर की उष्णता रूप चौथा ज्ञापक भी परात्मा का है । बिष से मूच्छित पुरुष का शरीर भी जीवन पर्यन्त उष्ण रहता है । अत विषमूच्छित पुरुष की मात्मा का ( परात्मा का ) ज्ञान शरीर की उष्णता से होता है ।
२७६ गद्यपद्यात्मकं-न्यायकुसुमाञ्जलौ जलावसिक्तविषमूच्छितोऽपि न स्यात् । तस्मात् यद्यत्कार्यं मुपलभ्यते तत्तदनु- गुणश्चेतनस्तत्र तत्र सिद्धयति । सि० प० जलावसिक्त … … . तथापि परात्मा के ज्ञापक प्रमाणों की इयत्ता निर्धारित नहीं हुई, क्योंकि विषमूच्छित पुरुष की मूर्च्छा को हटाने के लिये उनके शरीर को जब जल से भिङो दिया जाता है, तत्र उस पुरुष का शरीर उष्ण नहीं प्रतीत होता । अतः जल से सिश्चित उस पुरुष की आत्मा का अनुमान उक्त चार हेतुत्रों में से किसी से भी नहीं हो सकता । सुतराम यह सत्य है कि जिस प्रमेय की सिद्धि किसी एक ही प्रमाण से सम्भव हो, उस प्रमेय के प्रभाव से उसके साधक प्रमाण के प्रभाव की सिद्धि होती है । जिस प्रमेय की सिद्धि अनेक प्रमाणों से हो सकती हो, उनकी इयत्ता अगर निश्चित हो तो कदाचित् उस प्रमेय को असत्ता से प्रमाणाभाव की सिद्धि हो भी सकती है । किन्तु जिस प्रमेय के ज्ञापक प्रमाणों की इयत्ता अवधारित नहीं हो सकती, उस प्रमेय ज्ञापक अनुपलब्ध प्रमाण की सम्भावना से प्रमाण का समान्याभाव संशयास्पद हो रहता है । तस्मात् कायादि के व्यापारों की अनुपलब्धि से ईश्वर रूप परात्मा का प्रभाव सिद्ध नहीं हो सकता । अतः ईश्वर की सिद्धि में अनुमान बाघ का कोई भी अवकाश नहीं है । सि० प० तस्मात् यद्यत् सिद्धयति … ‘तस्मात् ’ जिस प्रकार के कार्यों की उपलब्धि होती है, उसी के अनुकूल चेतन कर्ता की कल्पना भी की जाती है। तदनुसार ही घट कार्य के लिये दण्डचक्राविज्ञान एवं उनके व्यापारों से युक्त कुलाल की कल्पना मोर पट कार्य के लिए तुरी बेमादि उपकरणों के उपयोग से अभिज्ञ एवं उनको व्यापृत करने में समर्थ जुलाहे की कल्पना की जाती है । कायादि के व्यापार कथित घटपटादि कार्यों में समर्थ कुलाल- जुलाहा प्रभृति परात्माओं के ही ज्ञापक हैं, अतः घटादि कार्यों के न रहने से कदाचित् घटादि कर्ता रूप उक्त परात्माओं का बाघ संभव भी हो, किन्तु मित्यिकुरादि कार्यों के अनुकूल जिस ईश्वर रूप ‘परात्मा’ की कल्पना की जाती है, उनमें सित्यादि कार्यों के सम्पादन के लिये कायादि के व्यापार का कोई भी उपयोग नहीं है । भवः परात्मा के ज्ञापक कायव्यापारादि रूप विशेष प्रमाणों के न रहने पर भी उनके साधक सामान्य प्रमाण तो हैं ही । इस प्रकार ‘परात्मा’ एक ही प्रमाण से सिद्ध होने वाले पदार्थों में से नहीं हैं । यह भी उपपाश्न कर चुके हैं कि उक्त धनुमानबाध एकमात्र प्रमाणगम्य पदार्थों के लिये ही है । अतः अनेक प्रमाणगम्य ईश्वर रूप परात्मा में अनुमान बाध का कोई अवसर ही नहीं हैं । f दृ व f म प न जि प द्वा नि इ सि ज्ञ है. स प्र ย
तृतीयः स्तबंक: २०७ न च कार्यमात्रस्य क्वचिद्वद्यावृतिरिति । न च त्वदभ्युपगतेनैव प्रमाणेन भवितव्यं नान्येनेति नियमोऽस्ति । न च प्रमेयस्य प्रमाणेन व्याप्तिः । सि० प० न च कार्यमात्रस्य १ जिस प्रकार घटादि कार्यों का कर्तृत्व कुलालादि में मान लेने से उसके लिये ईश्वर का मानना श्रावश्यक नहीं होता, उसी प्रकार शिस्यंकुरारादि कार्यों का भी कर्तृत्व यदि किसी व्यक्ति में सम्भव होता, तो परमेश्वर की कल्पना को अनावश्यक कहा जा सकता था । अतः क्षित्यादि कार्यों के कर्ता के रूप में जो ईश्वर की सिद्धि पञ्चमस्तव में की गयी है, वह ठीक है । दृष्ट । सि० प० न च त्वदभ्युपगतेनैव ……….. ( आप भले ही न मानें किन्तु मैं सभी परात्मानों को कायव्यापारों के द्वारा ही शेय मानता हूँ । अतः मैं तो कह हो सकता हूँ कि कायव्यापार के न रहने पर परमेश्वर रूप परात्मा के अनुमान में अनुमानबाध होगा । किन्तु पूर्वपक्षवादी का यह समाधान भी ठीक नहीं है, क्योंकि ) यह कोई निश्चय नहीं है कि जाप ( मीमांसक ) जिस वस्तु का ज्ञापक जितने प्रमाणों को मानें उस वस्तु के ज्ञापक केवल उतने ही प्रमाण हों । अतः प्राप सभी परात्माओं को एक ही कायव्यापार रूप प्रमाण का विषय मानते हैं, उसी प्रसङ्ग में मुक्ति के द्वारा यदि परात्माओं के ज्ञापक अन्य प्रमाणों की भी सत्ता सिद्ध हो जाय, तो केवल आप के नियम से ही सभी परात्माओं को एक प्रमाणगम्य नहीं माना जा सकता । ‘अन्यथा सुषुप्तोऽपि’ इत्यादि सम्दर्भ के द्वारा परात्मा के ज्ञापक अनेक प्रमाणों का उल्लेख किया जा चुका है । सि० प० न च प्रमेयस्य……… ( पूर्वपक्षवादी कह सकते हैं कि कायादि के व्यापार से भिन्न और भी परात्मा के ज्ञापक प्रमाण हों, तथापि कायादि के व्यापार में परात्मा की ग्राहकता में कोई विवाद नहीं है, अतः कायादि के व्यापार के न रहने से परात्मा के अभाव की सिद्धि के द्वारा ईश्वर की सत्ता तो बाधित होगी ही । किन्तु यह कहना भी ठोक ) नहीं है, क्योंकि प्रमाण के साथ प्रमेय की व्यप्ति नहीं हैं । १. उपयुक्त उपपादन से इतना ही सिद्ध होता है कि ईश्वर की सिद्धि में कोई बाधक नहीं है । किन्तु केवल इतने से ही ईश्वर की सिद्धि नहीं की जा सकती। इसी लिये ‘न च कार्यमात्रस्य’ इत्यादि सन्दर्भ लिखा गया है । इसमें प्रयुक्त ‘मात्र’ शब्द का अर्थ है ‘सम्पूर्ण’ जैसे कि मनुष्यमानस्यायं धर्मः इत्यादि स्थलों में होता है । आक्षेप के समाधान के
२७५ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जल सा हि कात्स्येन वा स्यात्, एकदेशेन वा स्यात् ? । न प्रथमः, प्रत्यक्षाद्यन्यत- मासद्भावेऽपि तत्प्रमेयावस्थितः । न द्वितीयः । सि० प० साहि… (क्योंकि) जिस की व्याप्ति जिस वस्तु में रहती है, व्यापकीभूत उस वस्तु के अभाव से ( व्याप्ति से युक्त फलतः ) व्याप्य वस्तु का अभाव सिद्ध होता है । ( जैसे कि वह्नि के अभाव से घूम का अभाव निर्णीत होता है ) तदनुसार प्रमाण के अभाव से प्रमेय का प्रभाव सभी सिद्ध हो सकता है, जब कि प्रमेय की व्याप्ति प्रमाण में रहे । अतः जो समुदाय प्रमाण के अभाव से प्रमेयाभाव की सिद्धि चाहते हैं, उन्हें प्रमेय में प्रमाण की व्याप्ति माननी ही होगी । मर्थात् उन्हें यह कहना होगा कि जहाँ जहाँ प्रमेय है, उन सभी स्थानों में प्रमाण अवश्य है । । इस व्याप्ति के (१) कार्य पक्ष और (२) एकदेश पक्ष ये दो विकल्प हो सकते हैं । कात्स्य पक्ष के अनुसार यह कहना पड़ेगा कि (१) जिस प्रमेय के ज्ञापक जितने भी प्रमाण हैं वे सभी प्रमेय के सभी अधिकरणों में अवश्य रहते हैं । एक देश वाले द्वितीय पक्ष के अनुसार कहना होगा कि (२) जिन स्थानों में प्रमेय रहता है, उन स्थानों में उसके ज्ञापक प्रमाणों में से कोई प्रवश्य रहता है । न प्रथम 600 1 ( इन दोनों पक्षों में से प्रथम पक्ष के खण्डनांथ का यह अभिप्राय है कि ) प्रमेय दो प्रकार के हैं (१) कुछ प्रमेय तो केवल एक ही प्रमाण से समझे जा सकते हैं जैसे कि स्वर्ग, अपूर्व देवता प्रभृति, क्योंकि श्रुति प्रमाण को छोड़ और कोई प्रमाण उनका ज्ञापक नहीं है । (२) दूसरे प्रकार के प्रमेय हैं वह्नि प्रभूति, क्योंकि पहिले पर्वत में वह्नि की प्रतीति प्रतिज्ञा वाक्य रूप शब्द प्रमाण से होती है । उसी वह्नि का इसके बाद धूम ज्ञान से अनुमान होता हैं । तदनन्तर समीप जाने पर उसी की प्रतीति प्रत्यक्ष से भी होती है । अतः वह्नि प्रभृति प्रमेय मनेक प्रमाण गम्य हैं । वह्नि के ज्ञापक कथित शब्दादि प्रमाणों में से किसी एक की सत्ता के न रहने पर भी वह्नि रूप प्रमेय को सत्ता में कोई बाधा नहीं आती है । अतः जो प्रमेय अनेक प्रमाणों के द्वारा ज्ञात हो सकता है, उस की सत्ता किसी एक प्रमाण की असत्ता से मिट नहीं सकती । न द्वितीयः कथित पक्षों में से अगर द्वितीय पक्ष को स्वीकार करेंगे तो इसके भी अवान्तर दो विकल्प हो सकते हैं । (१) यदि किसी नियमित व्यक्ति में किसी प्रमेय के ज्ञापक सभी प्रमाणों हि च का उ ज्ञा (5 नि की सि भ इस अ पू हो कर प्रम सि हेत रूप अव निय नि प्रकु का रहे उन विष
T न दो तृतीय स्तबक: २७९ पुरुषनियमेन सर्वप्रमाणव्यावृतावपि प्रमेयावस्थितेः । श्रनियमेनासिद्धेः । न हि सर्वस्य सर्वदा सर्वथाऽत्र प्रमाणं नास्तीति निश्चयः शक्य इति । कथं तहि चक्षुरादेरभावो निश्चेयः ? । व्यापकानुपलब्धेः । का अभाव रहे तो उस प्रमेय के अभाव की सिद्धि होगी ? अथवा (२) प्रमाणाभाव के द्वारा उसी प्रमेय का अभाव सिद्ध हो सकता है, जिसके ज्ञापक सभी प्रमाणों का प्रभाव सभी ज्ञाताओं में रहे ? (२) पुरुष नियमेन … www इन दोनों भवान्तर विकल्पों में से प्रथम विकल्प इस लिये ठीक नहीं है कि किसी एक नियमित पुरुष में किसी प्रमेय के ज्ञापक सभी प्रमाणों की सत्ता के न रहने पर भी उस प्रमेय की सत्ता नहीं उठ जाती ( अर्थात् उस प्रमेय का विनाश नहीं हो जाता । ) सि० प० अनियमेन .. …… कथित अवान्तर विकल्प का द्वितीय पक्ष इस लिये असङ्गत है कि संसार में पुरुष अनन्त हैं, प्रमाणों में से कुछ प्रमाण अतीन्द्रिय भी हैं । ज्ञाता भी सर्वदा सावधान नहीं रहते । इस स्थिति में यह कैसे समझ सकते हैं कि किस प्रमेय के सभी प्रमाणों का ( जिनमें कुछ प्रमाण अतीन्द्रिय भी हो सकते हैं अभाव है । अतः सभी प्रमाणों के अभाव का ज्ञान ही ‘शक्य’ नहीं है । पू० प० कथन्तहि ..
किन्तु यह तो मानना ही होगा कि रूपज्ञान के प्रभाव से चक्षु का अभाव निर्णीत होता है । रूप का ज्ञान भी तो चक्षु का ज्ञापक प्रमाण ही हैं । तब तो यह भी स्वीकार करना ही होगा रूपज्ञान के अभाव से जो चक्षु के अभाव की सिद्धि होती है, वह वास्तव में प्रमाण के अभाव मूलक प्रमेय के अभाव की सिद्धि ही है। उसका क्या उपाय करेंगे ? सि० प० व्यापकानुपलब्धेः "" … । सिद्धि होती है, उसका यह उसका कारण है चक्षु का व्यक्ति को रूप का ज्ञान भी अभाव का ज्ञापक होता है’ इस व्याप्य स्वरूप चक्षु का प्रभाव रूप विषयक ज्ञान के अभाव से जो चक्षु के अभाव की हेतु नहीं है कि रूप विषयक ज्ञान चक्षु का ज्ञापक प्रमाण है रूपज्ञान का व्यापक होना । क्योंकि जिस व्यक्ति को चक्षु है, उस अवश्य ही होता है । ‘व्यापक वस्तु का अभाव व्याप्य वस्तु के नियम के अनुसार व्यापकीभूत रूप विषयक ज्ञान के अभाव से निर्णीत होता है । अत: प्रमाण के अभाव से प्रमेय के प्रभाव की सिद्धि का चक्षु वाला प्रकृत दृष्टान्त उपयुक्त नहीं है । ( किन्तु वक्षु है कारण, और रूप विषयक ज्ञान है उसका कार्यं । कारण ही कार्य का व्यापक होता है, कार्य कारण का व्यापक नहीं हो सकता । क्योंकि कार्य जिन स्थानों में रहेगा, उन सभी स्थानों में कारण अवश्य रहेगा। किन्तु कारण जिन सभी स्थानों रहता है, उनमें कहीं कहीं प्रतिबन्ध उपस्थित हो जाने पर कार्य नहीं भी होता है । अतः रूप विषयक ज्ञान स्वरूप कार्यं चक्षु (रूप कारण ) का व्यापक नहीं हो सकता । अतः ‘व्यापका- CCO. Vasishtha Tripathi Collection. Digitized by eGangotri२८० गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली चरमसामग्री निवेशिनों हि कार्यमेव व्यापकम् । तन्निवृत्तो तथाभूतस्यापि निवृत्तिः । योग्यमात्रस्य कदाचित्कार्यम्, तन्निवृत्तौ तथाभूतस्याऽपि निवृत्तिः । अन्यथा तत्रापि सन्देहः । भाव से व्याप्याभाव की सिद्धि’ की रीति से रूप विषयक ज्ञान का अभाव चक्षु के अभाव का शापक नहीं है । इस प्राक्षेप के दो समाधान निम्नलिखित हैं-) 1 सि० प० = (१) चरमसामग्री … (१) यह सत्य है कि कारण के रहने पर भी प्रतिबन्धक वश कार्य को उत्पत्ति प्रतिरुद्ध हो जाती है, अतः प्रत्येक कारण कार्य का व्यापक नहीं है । किन्तु ‘सामग्री’ अर्थात् सभी कारणों के रहने से कार्य अवश्य ही उत्पन्न होता है । इस ‘सामग्री’ के अन्तर्गत प्रतिबन्धक का प्रभाव भी है, क्योंकि वह भी एक कारण है । अतः जहाँ सामग्री रहेगी, वहीं प्रतिबन्धक का प्रभाव भी अवश्य रहेगा। अतः जहाँ सामग्री का संबलन हो जायगा वहीं किसी प्रतिबन्धक से कार्य की उत्पत्ति प्रतिरुद्ध नहीं हो सकती । अतः कार्य सामग्री का व्यापक अवश्य है । समूह रूप सामग्री की व्यापकता जब कार्य में है, तो फिर सामग्री के अन्तर्गत प्रत्येक कारण की व्यापकता भी कार्य में अवश्य ही है । अर्थात् रूप का ज्ञान केवल स्वतन्त्र रूप से चक्षु का व्यापक भले ही न हो किन्तु सामग्री में अन्तर्भूतत्व रूप से ( रूप विषयक ज्ञान जनक समग्रधन्तर्गतत्व रूप से ) रूप विषयक ज्ञान चक्षु का व्यापक अवश्य है । अतः ‘तन्निवृत्ति’ अर्थात् कार्य की निवृत्ति से " तथाभूतस्यापि निवृत्तिः" सामग्री के अन्तर्गत कारण की निवृत्ति भी अवश्य होगो । सि० प० (२) योग्यमात्रस्य … …. ( कार्य में कारण की व्यापकता की जो कथित अनुपपत्ति दी गयी है, उसका दूसरा समाधान यह है कि निमत्तकारण, एवं ‘कदाचित्’ समवायिकारण के प्रसङ्ग में भी यह भले ही कहा जा सकता हो कि इन कारणों में कार्य की व्यापकता नहीं है किन्तु ) ‘योग्य’ अर्थात कार्य के उत्पादन में अवश्यक्षम ‘असमवायिकारण’ की व्यापकता अवश्य ही कार्यों में है । अतः कार्य की निवृत्ति से अन्य कारणों की निवृत्ति भले ही न ज्ञात हो सके, किन्तु असमवायिकारण की निवृत्ति का बोध कार्य की निवृत्ति से अवश्य होगा। क्योंकि असम - वायिकारण कार्य का व्यापक है । ‘अन्यथा’" अर्थात् जिस कारण के रहने पर भी कार्य की उत्पत्ति नहीं हो पाती, उस कारण की व्यापकता यदि कार्य में नहीं होगी तो फिर ‘तत्रापि सन्देहः’ अर्थात् उस कारण में कार्य के उत्पादन की क्षमता का भी सन्देह अवश्य होगा । १. इस सन्दर्भ को समझने के लिये कारणों का दो विभाग करना होगा । (१) कुछ ऐसे कारण होते हैं, जो कार्यों की उत्पत्ति के बाद उनसे उदासीन हो जाते हैं, जैसे कि घट के दबवादि एवं पट के तुरीबेमादि । (२) कुछ कारण ऐसे होते हैं, जिनकी पू० जग कि तद T
7 तृतीय स्तवकः प्रकृतेऽपि व्यापकानुपलब्ध्या तत्प्रतिषेधोऽस्तु । पू० प० प्रकृतेऽपि … … २८१. प्रकृत में भी ईश्वर का प्रतिषेध ‘व्यापकानुपलब्धि’ से ही हो। ’ ( अर्थात् नैयायिकगण जगत के कर्ता के रूप में ईश्वर की सिद्धि करते हैं । किन्तु कर्तानों का यह स्वभाव है कि वे किसी स्वार्थ अथवा प्रयोजन के वशीभूत होकर ही किसी कार्य का सम्पादन करते है । तदनुसार यह व्याप्ति सिद्ध होती है जहाँ २ कर्तृत्व है, उन सभी स्थानों में स्वार्थ अथवा प्रयोजन सत्ता कार्य की सत्ता तक बनी ही रहती है जेसे कि घट के कपाल एवं कपाल का संयोग प्रभृति । फलतः समवायिकारण और श्रसमवायिकारण ये दोनों कथित दूसरे प्रकार के कारण हैं। इन में भी छासमवायिकारण जहाँ रहेगा, वहाँ कार्य अवश्य ही रहेगा। श्रतः श्रसमवायिकारण की व्यापकता कार्यों में अनिवार्य है । किन्तु समवायिकारण के सम्बन्ध में यह बात नहीं हैं, क्योंकि कार्य से असम्बद्ध भी समवायिकारण की सचा रहती है। पट के अनुत्पादक भी तन्तु हैं । अतः समवायिकारणों की व्यापकता कार्य में ले जाने के लिये इतना अधिक कहना होगा कि कार्य अपने साथ सम्बद्ध समवायिकारण का व्यापक है । अपने अन्तर्गत तन्तुओं को छोड़ कर पट रूप कार्य कहीं नहीं रहता। इसी विशेष को समझाने के लिये प्रकृत सन्दर्भ में ‘कदाचित् पद है । I ‘अन्यथा’ पद की उक्त व्याख्या वर्द्धम न के अनुसार की गयी है । इनके मत से ‘अन्यथा’ घटित सन्दर्भ ‘योग्य मानस्य’ इत्यादि सन्दर्भ का समर्थक है । बोधिनी टीकाकार श्री वग्दराज मिश्र ने इस ‘अन्यथा’ पद की तीन व्याख्यायें की हैं । पहिली व्याख्या में ‘अन्यथा’ पद की ‘यदि विधाद्वयमपि चक्षुरादौ नास्ति सदा’ इस प्रकार की व्याख्या की है । अर्थात् दो ही प्रकार से कार्य कारण का व्यापक हो कर अपने अभाव ( कार्षाभाव ) के द्वारा कारणाभाव की सिद्धि के प्रयोजक हो सकते हैं, इन में से यदि किसी भी प्रकार से रूपविषयक ज्ञान के प्रभाष से चक्षु के प्रभाव की सिद्धि सम्भव न हो तो फिर रूपविषय कज्ञान के अभाव के रहने पर भी चक्षु का ‘सन्देह’ ही समझना चाहिये । इस पक्ष में ‘अन्यथा’ पद का अन्वय चरमसामग्री- निवेशिनः’ इत्यादि सन्दर्भ एवं ‘योग्यमानस्य’ इत्यादि सन्दर्भ दोनों के साथ समझना चाहिये । ‘अभ्यथा’ पद की शेष दो व्याख्याओं को कुसुमाञ्जलि की बोधिनी टीका में देखना चाहिये । १. ‘प्रकृतेऽपि’ इस सन्दर्भ से प्रकृत श्लोक के ‘क्वानुमानमनाश्रयम्’ इस चौथे चरण की व्याख्या की गयी है । ३६
२५२ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली न, आश्रयासिद्धत्वात् । न हीश्वरस्तज्ज्ञानं वा कचित् सिद्धम् । प्रभास- प्रतिपन्नमिति चेत् । भी अवश्य हैं। इस प्रकार कर्तृत्व का व्यापक है ‘स्वार्थ’ । किन्तु ईश्वर को सभी वस्तुयें प्राप्त है, अतः उन में स्वार्थ नहीं रह सकता। सुतराम व्यापकीभूत स्वार्थ का व्याप्य कर्तृत्व भी ईश्वर में नहीं है । ‘व्यापकाभाव से व्याप्याभाव का अनुमान’ इस रीति से ईश्वर में कर्तृत्व सामान्य के प्रभाव का अनुमान होगा। इस अनुमान के रहते जगत् के कर्ता के रूप में ईश्वर की सिद्धि की प्राशा ही छोड़ देनी होगी । ( यही है ईश्वरानुभान में अनुमानबाध ) । सि० प० न, प्राश्रयासिद्धत्वात् उक्त अनुमान बाघ कथित ईश्वरानुमान में नहीं है । क्योंकि ईश्वर रूप पक्ष में स्वार्थाभाव हेतु से जो कर्तृत्वाभाव का अनुमान आप करेंगे, उसके लिये ईश्वरत्व रूप प्रक्षतावच्छेदक से युक्त ईश्वर रूप पक्ष का ज्ञान आवश्यक होगा। क्योंकि पक्षतावच्छेदक रूप से पक्ष का ज्ञान अनुमान से पहिले आवश्यक है । आप जिस किसी प्रमाण से ईश्वरत्व विशिष्ट ईश्वर रूप पक्ष का ज्ञान संपादन करेंगे, उसी ( धर्मिग्राहकमान ) से ईश्वर की सिद्धि हो जायगी। यदि आप कहेंगे कि ‘ईश्वर का साधक कोई प्रमाण नहीं है। तो फिर ईश्वर पक्षक कर्तृत्वाभाव साध्यक उक्त अनुमान ही नहीं होगा । अतः उक्त रीति से ईश्वर के साधक अनुमानों का बाघक उक्त मनुनान बाघ भी नहीं हो सकता । पू० प० प्राभासप्रतिपन्नम् ( प्रामाणाभास के द्वारा ज्ञात परमेश्वर में ही कर्तृत्वाभास की सिद्धि करेंगे, प्रत ईश्वरानुमान में कथित अनुमानबाध दोष की कोई अनुपपत्ति नहीं । ’ १. मीमांसक वेदान्ती प्रभृति का सिद्धान्त है कि सर्वथा अविद्यमान गगनकुसुमादि का ज्ञान भी शब्द प्रमाण से होता है। इसी का समर्थक श्लोकवार्त्तिक ( ० १-पा० १ सू० २ श्लोक ० ६) का यह श्लोकार्थ है । अत्यन्तासत्यपि ज्ञानमर्थे शब्दः करोति हि । भूतः ‘ईश्वर’ शब्द रूप प्रमाण के द्वारा प्रतिपन्न ईश्वर में ही नास्तिस्व का अनुमान होगा। इसलिये बाघ का प्रयोजक अनुमान आश्रयासिद्ध नहीं है । मूल सन्दर्भ का केवल ‘आभास’ शब्द यहाँ अत्यन्त असत् गगनकुसुमादि के बोधक ‘शब्दप्रमाणाभास’ के लिये प्रयुक्त हुआ है । अत्यन्त असत् वस्तु का उक्त प्रमाणा- मासजनित ज्ञान ही ‘असदकयाति’ शब्द से प्रसिद्ध है । सि प सि कि प्र प्र कु १.
• न तृतीयः स्तंबक न तस्याश्रयत्वानुपपत्तेः प्रतिषेध्यत्वानुपपत्तेश्च । व्यावर्त्याभाववत्तैव भाविको हि विशेष्यता । श्रभावविरहात्मत्वं वस्तुनः प्रतियोगिता ॥ २ ॥ सि० प० न, तस्य २८३ उक्त कथन सङ्गत नहीं है, क्योंकि तथाकथित प्रामाणाभास के द्वारा प्रतिपन्न असत् पदार्थ न किसी का आश्रय हो सकता है, न किसी अभाव का प्रतियोगी ही हो सकता है । ’ सि० प० व्यावर्या भावववत्तेव किसी भी व्यावर्त्य अर्थात् प्रतियोगी के प्रभाव की अधिकरणता रूप ‘विशेष्यता’ किसी प्रामाणिक वस्तु में ही रह सकती है । एवं प्रभावाभावस्व रूपा प्रतियोगिता भी किसी प्रामाणिक पदार्थ में ही रह सकती है । ( अर्थात् अमात्र का अधिकरण और अभाव का प्रतियोगी दोनों ही कोई प्रमाणसिद्ध पदार्थ ही हो सकता है, असत् ख्याति से उपनींत गगन- कुसुमादि नही ) । २ १. कहने का तालयं है कि निम्नलिखित दोनों ही अनुमानों से प्रकृत में ईश्वर का निषेध किया जा सकता है (१) ईश्वर पक्षक कत स्वाभाव साध्यक ‘ईश्वर’ कत्त स्वाभाववान्’ एवं (२) ईश्वर के अभाव को पक्ष कर उसमें ‘अस्तित्व’ साध्यक ‘ईश्वराभावोऽस्ति’ । पहिले अनुमान में ईश्वर को कस स्वाभाव का आश्रय होना चाहिये । एवं दूसरे में ईश्वर को स्वाभाव का प्रतियोगी होना चाहिये । किन्तु ‘श्राभासप्रतिपन्न’ वस्तु न किसी का आभाव हो सकता है, न किसी का प्रतियोगी । यहीं दोनों बातें ‘प्राश्रयानुपपते’ एवं ‘प्रतिषेध्यस्थानुपपत्ते:’ इन दोनों हेतु वाक्यों से कही गयीं है। जिसका ‘प्रतिषेध’ किया जाय फूलतः जिसका अभाव हो वही ‘प्रतिषेष्य’ अर्थात् ‘प्रतियोगी’ है । २. इस श्लोक का अभिप्राय है कि परमार्थिक वस्तु ही किसी का विशेष्य हो सकता है, अपारमार्थिक गगम कुप्रमादि नहीं । ईश्वर में जिस कर्तृत्वाभाववत्ता की चर्चा की गयी है, वह कतृस्वाभाव की विशेष्यता से अतिरिक्त कोई वस्तु नहीं हैं। ‘व्यावस्थ’ शब्द का अर्थ है ‘प्रतियोगीं’ । तदभाववत्ता रूप विशेष्यता ‘भाविकी’ है अर्थात् प्रामाणिक वस्तु में ही रहने वाली है । अतः ईश्वर को पक्ष बना कर उसमें कर्तुं स्वाभाव की सिद्धि नहीं की जा सकती । श्लोक के उत्तरार्द्ध से ईश्वराभाव का साधक वह अनुमान निरस्त किया गया है, जिस में ईश्वराभाव पक्ष है और भस्विश्व साध्य है । ‘ईश्वराभावः अस्ति’ इस शाकार का उक्त दूसरा अनुमान होगा। इस अनुमान के लिये ईश्वर को अभाव का प्रतियोगी होना आवश्यक है । किन्तु आभास से प्रतिपन्न वस्तु किसी प्रभाव का प्रतियोगी भी नहीं हो सकता । इन्हीं दोनों युक्तियों का उपपादन इस श्लोक में किया गया है। श्लोक का अम्बय इस प्रकार
२८६ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जलौ । केन च शशशृङ्ग प्रतिषिद्धयते । सर्वथाऽनुपलब्धस्य योग्यत्वाऽसिद्धेः । तदितरसामग्रीसाकल्यं हि तत् । ननूक्तमाभासोपलब्धं हि तत् । अत एवाऽशक्य- निषेधमित्युक्तम् । अनुपलम्भकाले अभासोपलम्भसामग्र्या अभावात्तत्काले चानुप- लम्भाभावादिति । कस्तहि शशशृङ्ग नास्तीत्यस्यार्थः ? । शशे अधिकरणे विषारणाभावोऽस्तीति ॥ ३ ॥ स्यादेतत् । यद्यपीश्वरो नावगतो, यद्यपि च नाभाससिद्धेन प्रमाणव्यवहार। शक्यसम्पादनः। तथाप्पात्मानः सिद्धास्तेषां सार्वज्ञयं निषिद्धयते, क्षित्यादिकर्तृत्वञ्चति । केन च … … शशशृङ्ग का निषेष किस प्रमाण से करेंगे ? अर्थात् किसी भी का निषेध संभव नहीं है । क्योंकि सर्वथा अनुपलब्ध वस्तु में प्रत्यक्ष की सकती। क्योंकि उक्त ‘योग्यता’ विषय और तद्वद्याप्य इन्द्रियसम्बन्ध को मोर सभी कारणों का सम्बलन रूप ही है । पू० प० ननूक्तम् प्रमाण से शशश्वङ्ग योग्यता नहीं रह छोड़कर प्रत्यक्ष के शशशृङ्ग तो उपलब्धि के सर्वथा अयोग्य नहीं है । क्योंकि कथित दोष घटित सामग्रो से उसकी उपलब्धि हो सकती है । सि० प० अत एव … अगर आप कह आये हैं कि ‘दोष घटित सामप्रो से शशशृङ्ग की उपलब्धि होगी’ तो मैं भी कह ही माया हूँ कि प्रमाणाभास के द्वारा उपलब्ध वस्तु का निषेध भी नहीं किया जा सकता। क्योंकि जिस समय शशशृङ्ग को अनुपलब्धि रहेगी, उस समय दोषघटित सामप्री रूपा योग्यता ही उसमें नहीं रहेगी। एवं जिस समय शशशृङ्ग में उक्त योग्यता रहेगी, उस समय उक्त सामग्री से शशशृङ्ग की उपलब्धि ही उत्पन्न हो जायगी, अतः अनुपलब्धि ही नहीं रहेगी । पू० प० कस्तहि ? फिर ‘शशशृङ्ग’ नास्ति’ इस वाक्य का क्या अर्थ ? उ० शशे……. उस वाक्य का यही अर्थ है कि यश रूप अधिकरण में शृङ्ग नहीं है ॥ ३ ॥ पू० प० स्यादेतत्, यद्यपीश्वर…………….. यह स्वीकार कर लिया कि ( पक्षीभूत ) ईश्वर का ज्ञान संभव नहीं है (जिसमें कर्तृत्वाभाव का अनुमान हो सके। ) । यह भी मान लेते हैं प्रमाणाभास के द्वारा ज्ञात वस्तुओं से प्रमाण प्रमेय व्यवहार का संपादन सम्भव नहीं है । फिर भी यह तो है कि मात्मायें तो सिद्ध हैं, उन्हीं सर्वज्ञता का निषेव करेंगे। कहा ही जा सकता जिस से आत्माओं में
तृतीयः स्तबकः २५१ तथाहि -मदितरेन सर्वंज्ञाश्चेतनत्वादहमिव । न च ते क्षित्यादिकर्तारः पुरुषत्वा- दहमिव । एवं वस्तुस्वादेरपीति । तदेतदपि प्रागेव परिहृतम् । क्षिस्यद्धुरादि कार्यों का कर्तृत्व भी निषिद्ध हो जायगा । फलतः ईश्वर की सिद्धि में इस रीति से अनुमान - बाघ होगा । तथा हि 100 (१) अनुमान वाक्यों का स्वारस्य है कि जिस प्रकार मैं स्वयं प्रात्मा होते हुये भी सर्वज्ञ नहीं है, उसी प्रकार मुझ से भिन्न जितनी आत्मायें हैं, उनमें से कोई भी सर्वज्ञ नहीं है । ( २ ) जिस प्रकार मैं पुरुष (जीव ) होते हुये भी क्षित्यादि कार्यों को उत्पन्न नहीं कर सकता, उसी प्रकार और भी सभी आत्मायें चूं कि जीव हैं, अतः उनमें से भी कोई क्षिस्यादि कार्यों को उत्पन्न नहीं कर सकता । एवम् इस प्रकार वस्तुत्वादि हेतुओं से भी प्रसर्वज्ञत्व एवं क्षित्यादि कार्यों के कर्तृत्व का अभाव सिद्ध किया जा सकता है । ’ सि० प० तदेतदपि यह पक्ष भी निम्नलिखित विकल्पों से खण्डित हो जाता है ( क्योंकि मीमांसकों से पूछना चाहिये ) कि ( १ ) आत्मत्व रूप से वादी भौर प्रतिवादी दोनों के द्वारा सिद्ध जीवों में ही सर्वज्ञत्व का निषेध करते हो ? ( २ ) अथवा विप्रतिपन्न परमात्मा को ही पक्ष मान कर उनमें सर्वज्ञत्व का निषेध करते हो ? किम्बा ( ३ ? किम्बा ( ३ ) सामान्यतः श्रात्मत्व रूप से सिद्ध आत्माओं को ही पक्ष मान कर उनमें सर्वज्ञत्व का निषेध करते हो ? अथवा ( ४ ) आत्मत्व जाति को ही पक्ष मान कर उसमें सर्वज्ञवृत्तित्व का निषेष करते हो ?, १. कहने का तात्पर्य है कि सर्वज्ञष्व एवं क्षिस्यादि कत्तएव ये दोनों केवल ईश्वर में ही सम्भावित है । किन्तु ईश्वर को पक्ष बनाकर उनमें सर्वज्ञत्वादि का निर्णय सम्भव नहीं है। ऐसी स्थिति में जितनी भी नियत वस्तुयें हैं, उन सभी को पक्ष बनाकर उनमें रहनेवाले वस्तुत्वादि जिस किसी धर्म को हेतु बना कर उन सभी वस्तुओं में प्रसर्वज्ञत्व एवं क्षिष्यादि कत्त त्वाभाव इन दोनों की सिद्धि की जा सकती है। इस प्रकार सभी आत्माओं में भी उनके वस्तु होने के नाते असवंशत्व एवं क्षित्यादि कत्तत्वाभाव इन दोनों की सिद्धि होगी । इस रीति से जब सभी आत्माओं से सर्वज्ञत्व और क्षित्यादि कत्त व दोनों हट जायगे, तो सर्वज्ञ एवं क्षित्यादि कर्ता रूप परमात्मा का स्वतः खयडन हो जायगा ।
२८८ तथा हि- गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली इष्टसिद्धिः प्रसिद्धेऽशे हेत्वसिद्धिरगोचरे । नान्या सामान्यतः सिद्धिर्जातावपि तथैव सा ॥४॥ ( इस श्लोक के चार चरणों में से क्रमशः प्रत्येक से कथित पक्षों में से प्रत्येक का क्रमशः खण्डन किया गया है ) । इष्टसिद्धिः प्रसिद्धेऽशे हेत कि वा व्य तथ ही अभिमत ‘जीव’ रूप (१) ‘प्रसिद्ध अंश’ अर्थात् वादी मौर प्रतिवादी दोनों के आत्मा को पक्ष बना कर यदि उनमें असर्वज्ञस्व अथवा क्षित्यादि के कर्तृत्व के अभाव की सिद्धि करें, तो इस अनुमान में ‘इष्टसिद्धि’ अर्थात् सिद्धसाधन दोष होगा। क्योंकि नैयायिक भी जीवों को प्रसर्वज्ञ एवं क्षित्यादि का प्रकर्त्ता मानते ही हैं । (२) यदि ‘अगोचर’ अर्थात् मोमांसकादि के मतों में सर्वथा अगम्य परमात्मा को पक्ष मानकर उनमें असर्वज्ञस्व एवं क्षित्यादि के अकर्तृकत्व की सिद्धि करो, तो इस अनुमान में ‘हेत्वसिद्धि’ दोष होगा । अर्थात् पक्षधर्मता का ज्ञान ही नहीं हो सकेगा। क्योंकि पक्षतावच्छेदक से युक्त पक्ष में पहिले से हेतु का निश्चय प्रनुमिति के लिये अपेक्षित है। किन्तु प्रकृत में परामात्मा रूप ‘पक्ष’ ही जब अप्रसिद्ध हैं, तो फिर वहीं पर हेतु का निश्चय होगा ? ( १ ) आत्मत्व रूप से प्रसिद्ध आत्मपक्षक अनुमान के प्रसङ्ग में पूछना है कि प्रात्मत्व रूप से नैयायिकों में प्रसिद्ध जो क्षित्यादि के कर्ता एवं सर्वज्ञ परमात्मा हैं, वही पक्ष ? अथवा उनसे मिल कथित जीवगण ही पक्ष है ? इन दोनों अनुमानों में कथित ‘सिद्धसाधन’ एवं ‘हेत्वसिद्धि’ क्रमशः दोनों दोष है। ‘सर्वज्ञ’ एवं सभी कार्यों के कर्ता केवल ‘परमेश्वर’ ही हैं । मीमांसकगण उनकी सत्ता स्वीकार नहीं करते । अतः मीमांसकों के मत से ‘सर्वज्ञत्व’ एवं ‘सर्वकार्यकर्तृत्व’ ये दोनों धर्म कहीं भी न रहने के कारण गगनकुसुमादि के समान अलीक हैं । अतः ये दोनों धर्म किसी अभाव के प्रतियोगी नहीं हो सकते । प्रतियोगी को ही ‘निषेध्य’ कहते हैं-अतः सर्वज्ञत्व और सर्वकार्यकर्तृत्व का निषेध नहीं हो सकता । सुतराम् उक्त अनुमान में ‘साध्या- प्रसिद्धि’ दोष होगा । साध्य में साध्यतावच्छेदेक रूप विशेषण का न रहना ही ‘साध्या- प्रसिद्धि’ है ।’ देखिये पृ० २८६ का मूल पं० ६ । १. किन्तु इस तीसरे चरण की गपटीका में आचार्य ने ‘तथा च’ इत्यादि-सन्दर्भ के ‘चाश्रया- सिद्धिरिद्धि’ के द्वारा आश्रयासिद्धि दोष का उपपादन किया है। इस ‘आश्रयासिद्धि’ दोष की व्याख्या करते हुए वज्र मांन ने लिखा है कि जिस विषय की जिज्ञासा हो, उस विषय रूप धर्म से युक्त धर्मों ही अनुमान का ‘पक्ष’ हैं। ‘पर्वतो वह्निमान’ इस अनुमान का ‘पक्ष’ वह्नि रूप धर्मं से युक्त पर्वत ही है ( केवल पर्वत नहीं ) । प्रकृत में सर्वज्ञस्वादि धर्मों के अप्रसिद्ध होने के कारण तद्घटित असर्वज्ञत्वादि ई मी से ईश् बा
तृतीयः स्तबक: २८६ प्रमाणप्रतीतानां चेतनानां पक्षीकरणे सिद्धसाधनम् । ततोऽन्येषामसिद्धो हेतोराश्रया सिद्धत्वम् । आत्मत्वमात्रेण सोऽपि सिद्ध इति चेत्; कोऽस्यार्थः ? किमात्मत्वेनोपलक्षिता सेव वस्तुगत्या सर्वज्ञविश्वकतृ व्यक्ति ? अथ तदन्या ? आत्मत्वमेव वा पक्षः ? । सर्वत्र पूर्वदोषानतिवृत्तेः । अथायमाशय: - ग्रात्मत्वं न सर्वज्ञसर्वकतृ - व्यक्तिसमवेतं, जातित्वात्, गोत्ववदिति । तदसत् निषेध्या सिद्धेर्निषेधस्याशक्यत्वात् । तथा चाप्रसिद्धविशेषरण पक्ष इत्याश्रयासिद्धिरिति स एव दोषः ॥ ४ ॥ ( ईश्वरपक्ष असर्वज्ञत्व और जगत्कर्तृत्वाभाव के साधक अनुमानों में प्रधान दोष है, ईश्वर रूपी पक्ष का किसी दूसरे प्रमाण से ज्ञात होने की असम्भावना ) । इस प्रसङ्ग में मीमांसक नैयायिकों से कह सकते हैं कि ‘द्यावा भूमी जनयन् देव एकः’ इत्यादि श्रुति प्रमाण से सिद्ध परमेश्वर में ही असर्वज्ञत्वादि का अनुमान करेंगे । उक्त श्रुति को नैयायिक भी ईश्वर का ज्ञापक मानते हैं । अतः उन अनुमानों में कथित ‘श्राश्रयासिद्धि’ दोष नहीं है । यही बात ‘स्वदुपागतागम’ इत्यादि सन्दर्भ से उपपादित हुई है ) । किसी साध्य के विशेषण नहीं हो सकते । इस प्रकार ‘आत्मत्व’ एक ऐसा ‘पक्ष’ है, जिसका विशेषण अप्रसिद्ध है । वक्षतावच्छेदक रूप विशेषण से युक्त पक्ष ह्रीं अनुमान में मुख्य विशेष्य रूप से भाषित होता है । यह विशेष प्रकार का ‘पक्ष’ ‘पक्ष’ या केवल ‘आश्रय’ के प्रकृत में ‘आश्रय’ शब्द से अभिप्रेत है । केवल प्रसिद्ध रहने पर भी अप्रसिद्ध विशेषण रूप से वह ‘विशष्टपस’ अप्रसिद्ध हो जाता है । जैसे कि केवल पुष्प प्रसिद्ध है, किन्तु प्राकाश में पुष्पितत्व रूप से आकाशपुष्प प्रशिद्ध है । प्रकृत में पक्ष है ‘आत्मस्व’ और साध्य है ‘सर्वज्ञपुरुषवृत्तित्वाभाव यह ‘विशेषण’ चूँकि अप्रसिद्ध है, अतः उस विशेषण से युक्त आस्मत्व रूप पक्ष भी अप्रसिद्ध ही है, पक्ष की इस ‘अप्रसिद्धि’ को ही आचार्य ने ‘आश्रयासिद्धि’ शब्द से कहीं है । किन्तु नवीन नैयायिकगण ‘पक्ष’ के ‘जिज्ञासितधर्मविशिष्टो धर्मी पद्म, इस स्वरूप को स्वीकार नहीं करते । अतः वर्द्धमान की एक व्याख्या नवीन नैयायिकों के अनुसार उचित नहीं है। इसी को दृष्टि में रखकर ‘प्रकाश’ की ‘मकरन्द’ नाम की टीका में रुचिदत्त ने लिखा है कि ‘प्राचीनम तेनेदम्’ । ३७
२६० गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली स्वदुपगतागम लोकप्रसिद्धस्यैवेश्वरस्याऽसर्वज्ञत्वमंक व साध्यते इति चेतु १ न, श्रागमादेः प्रमाणत्वे बाधनादनिषेधनम् । श्राभासत्वे तु सैव स्यादाश्रयासिद्धिरुद्धता ||५|| निगदव्य रूपातमेतत् । चकस्तवाह, किं योग्यताविशेषाग्रहेण ? | यन्नोपलभ्यते तन्नास्ति, विपरीतमस्ति । न चेश्वरादयस्तथा । ततो न सन्तीत्येतदेव ज्यायः । पू० प० स्वदुपागतागम आप ( नैयायिकों ) के द्वारा स्वीकृत आगम प्रमाण से ही ईश्वर रूप पक्ष की सिद्धि स्वीकार करेंगे ? सि० प० न, प्रागमादे: … … यह स्वीकार करना भी आप के लिये सम्भव नहीं होगा क्योंकि यदि शाप ( मीमांसक ) ’ द्यावा भूमी’ इत्यादि वेदवाक्यों को प्रमाण मानेंगे तो तुल्य न्याय से ‘य: सर्वज्ञः स सर्ववित्’ इत्यादि वेदवाक्यों को भी प्रमाण मानना होगा, जिससे सर्वज्ञ पुरुष की सत्ता माननी होगी। इसी से ईश्वर में असर्वज्ञत्व का अनुमान बाधित हो जायगा । यदि ‘सर्वज्ञत्व के ज्ञापक उक्त वेद वाक्यों को अप्रमाण मानेंगे तो ‘द्यावा भूमी’ इत्यादि वाक्यों को भी अप्रमाण मानना होगा, जिससे पूर्व कथित ‘श्राश्रयासिद्धि’ दोष ज्यों का त्यों रह जायगा । सि० प० निगद पाठ रूप ‘निगद’ ही इस श्लोक की ‘व्याख्या’ हैं । ( अर्थात् इस श्लोक के पाठमात्र से अर्थबोध हो जाता है । अतः इसको समझाने के लिए प्रतिरिक्त कुछ भी लिखने की प्रयोजन नही है ) ।। ५ ।। पू० प० ‘चार्वाकस्तु चार्वाकों का कहना है कि जिन वस्तुओंों को हम देखते हैं, उतनी ही वस्तुयें हैं । जिन वस्तुओं को हम नहीं देखते, वे नहीं हैं। प्रता घटादि पदार्थ हैं, स्वर्गं श्रपूर्व देवता प्रभूति पदार्थ नहीं हैं। क्योंकि केवल अनुपलब्धि ही अभाव का ग्राहक प्रमाण है । योग्यानुपलब्धि को अभाव का ग्राहक मानने की आवश्यकता नहीं । अर्थात् अभाव की ग्राहिका जो अनुपलब्धि है; उसमें ‘योग्यत्व’ विशेषण देने की आवश्यकता नहीं । सुतराम् ईश्वर की उपलब्धि नहीं होती है, अतः ईश्वर नाम की कोई वस्तु नहीं है । १. पीते हुये सन्दर्भों से ईश्वरानुमान में मीमांसक और सांख्य के अनुयायियों के द्वारा उद्भावित दोषों का परिहार किया गया है। अब नास्तिक शिरोमणि चार्वाक के द्वारा सद्भावित दोषों का उद्धार करने के लिए उन दोनों का उपपादन किया जाता है ।
itic से बन जन नृति ब्षि नहीं द्वारा द्वारा 1 तृतीयः स्तबक २६१ एवमनुमानादिविलोप इति चेत्; नेदमनिष्टम् । तथा च लोकव्यवहारोच्छेद इति चेन्न । सम्भावनामात्रेण तत्सिद्धेः । संवादेन च प्रामाण्यामिमानादिति । सि० प० एवमनुमानादि इस प्रकार तो अनुमानादि प्रमाणों की सत्ता भो उठ जायगी ( क्योंकि अनुपलब्धि से जिस वस्तु का अभाव सिद्ध हो जायगा, उस वस्तु को न धनुमान प्रमाण ही सिद्ध कर सकेंगे, न शब्दादि प्रमाण ही ) । पू० प० नेदम् अनुमानादि प्रमाणों का विलोप कोई अनिष्टापत्ति नहीं है । अर्थात् प्रत्यक्ष से प्रतिरिक्त किसी प्रमाण की सत्ता हम स्वीकार ही नहीं करते, अतः उन का विलोप हम लोगों को इष्ट ही है । सि० प० तथा च लोकव्यवहार 9 ( यदि केवल प्रत्यक्ष को हो प्रमाण मानें एवं अनुमानादि को प्रमाण न मानें तो ) ‘लोकव्यवहार’ की उपपत्ति नहीं होगी ( क्योंकि प्रत्यक्ष के द्वारा ज्ञात न होने पर भी धूम हेतु के द्वारा वह्नि का अनुमान कर लोग गोष्ठादि से वह्नि के लाने में निःशङ्क होकर प्रवृत्त होते हैं, और सफल भी होते हैं, इस प्रकार की प्रवृत्तियों की उपपत्ति किस प्रकार होगी ? ) केवल प्रत्यक्ष को ही प्रमाण मानने से लोकव्यवहार का उच्छेद हो जायगा । क्योंकि वह्नि को न देखने पर भी घूम से वह्नि का अनुमान कर लोंग गौष्ठादि से वह्नि के मानयनादि में निःसन्दिग्ध होकर प्रवृत्ति होते हैं ( इस प्रवृत्ति रूप लोकव्यवहार की उपपत्ति किस प्रकार होगी ? ) अवः प्रत्यक्ष से भिन्न अनुमानादि को भी प्रमाण मानना होगा । पृ० प० न, सम्भावना उक्त लोकव्यवहार, तो केवल संभावना से ही होते हैं । उनमें अनुमानादि प्रमाणों से वस्तुसिद्धि की कोई अपेक्षा नहीं है । संभावना मात्र से उत्पन्न उक्त प्रवृत्तियां अनेक बार सफल हो चुकी है, अतः उनसे अनुमानादि में प्रामाण्य का केवल अभिमान उत्पन्न होता है । वास्तव में प्रत्यक्ष से भिन्न अनुमानादि कोई भी प्रमाण नहीं है । CCO. Vasishtha Tripathi Collection. Digitized by eGangotri२६२ श्रत्रोच्यते- गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जलौ दृष्टयदृष्ट्योः क्व सन्देहो भावाभावविनिश्चयात् । अदृष्टिबाधिते हेतौ प्रत्यक्षमपि दुर्लभम् ॥ ६ ॥ सम्भावना हि सन्देह एव । तस्माच्च व्यवहारस्तस्मिन् सति स्यात् । स एव तु कुतः ? । दर्शनदशायां भावनिश्वयात्, प्रदर्शनदशायामभावावधारणात् । तथा च गृहात् बहिर्गतश्चार्वाको वराको न निवत्तेत, प्रत्युत पुत्रदारधनाद्यभावावधारणात् सोरस्ताडं शोकविकलो विक्रोशेत् । सि० प० मत्रोच्यते ‘‘दृण्ट्यदृष्ट्योनं ( दृष्टि ) अर्थात भाव कोटि का निश्चायक प्रमाण के रहते ‘भाव’ कोटि का निश्चय ही उत्पन्न होगा । ‘अदृष्टि’ अर्थात् ‘भाव’ की अनुपलब्धि से ‘अभाव’ का ही निश्चय होगा । इस स्थिति में ‘सम्भावना’ स्वरूप सन्देह का अवकाश ही कहाँ है ? एवं प्रत्यक्ष के उत्पादक चक्षु का भी प्रत्यक्ष से ग्रहण नहीं होता है । अतः चक्षु की भी अनुपलब्धि माननी होगी। क्योंकि सभी अनुपलब्धियां जब अभाव का निश्चय कर सकतीं है, तब फिर चक्षु की उक्त अनुपलब्धि से चक्षु के अभाव का भी निश्चय स्वीकार करना होगा । जिससे चायकि का एक मात्र अवलम्बन प्रत्यक्ष का अस्तित्व भी विपन्न हो जायगा । क्योंकि वह भो ‘अदृष्टि’ अर्थात् केवल अनुपलब्धि से बाधित है । अतः केवल अनुपलब्धि अभाव की ग्राहिका नहीं है, किन्तु योगानुपलब्धि हो अभाव की ग्राहिका है । सि० प० सम्भावना हि लोकव्यवहार के लिए उपयोगी जिस ‘सम्भावना’ की चर्चा की गयी है, वह ‘सन्देह’ स्वरूप ही है । सन्देह से व्यवहार की उपपत्ति तभी हो सकती है, जब कि वह स्वयं अस्तित्व में आवे । किन्तु संशय की सत्ता ही तो भसंभावित है। क्योंकि संशय के साधक प्रमाण के रहते ‘भाव’ का निश्चय ही हो जायगा । यदि भाव का निश्वयाभाव रूप अनुपलब्धि रहेगी, तो अभाव का ही निश्चय हो जायगा । भाव कोटि का ‘प्रदर्शन’ अर्थात् यदि चार्वाक केवल अनुपलब्धि से प्रभाव का निश्वय मानें तो फिर जब कभी वे घर से बाहर निकलें, तो लौट कर घर आने के बदले उन्हें सिर पीट कर रोना चाहिए। क्योंकि उस समय उनको घर में स्थिति पुत्र कन्यादि की उपलब्धि नहीं रहती है । अतः घर से बाहर रहने पर घर में पुत्रादि के अभाव का निश्चय उनको अवश्य होगा । ( प्रतः केवल धनुपलब्धि अभाव का ग्राहक नहीं है, किन्तु योगयानुपलब्धि ही प्रभाव का ग्राहक है ) ।
व 5 र तृतीयः स्तबका २६३ स्मरणानुभवान्नैवमिति चेत् ? न, प्रतियोगिस्मरण एवाऽभावपरिच्छेदात्, परावृत्तोऽपि कथं पुनरासादयिष्यति । सत्त्वादिति चेत् ; अनुपलम्भकालेऽपि तहि सन्तीति न तावन्मात्रेणाभावावधारणम् । तदैवोत्पन्ना इति चेन्न । अनुपलम्भेन हेतूनां बाबात् । पू० प० स्मरणानुभवात् घर से बाहर जाने पर यद्यपि पुत्र कन्यादि का प्रत्यक्ष रूप अनुभव नहीं रहता है, किन्तु उनका स्मरण रूप ज्ञान ( अनुभव ) तो रहता है । इस स्मरण रूप उपलब्धि से पुत्र कन्यादि की सत्ता को समझ कर ही मैं घर लौटता हूँ । सि० प० न, प्रतियोगिस्मरणे स्मरणात्मक ज्ञान से उसके विषय रूप वस्तु की सत्ता नहीं सिद्ध हो सकती, क्योंकि वस्तुओं के विनष्ट हो जाने पर भी उन विषयों को स्मृतियों होतीं रहतीं हैं। इतना ही नहीं वस्तुओं के अभावज्ञान के पहिले प्रतियोगी का स्मरण निश्चित रूप से आवश्यक होता है । अतः पुत्रादि के स्मरण से पुत्रादि के अभाव का निश्चय प्रतिरुद्ध न होकर और भी शीघ्र उत्पन्न होगा । अतः पुत्रादि के स्मरण से घर लौट आने पर उनकी प्राप्ति पूर्ण सम्भावित नहीं हैं । पू० प० सत्वात् उस समय पुत्रादि की सत्ता रहती है, अतः घर धाने पर उनकी प्राप्ति हो सकती है । ( इसी लिए घर लौटता हूँ ) । सि० प० अनुपलम्भकालेऽपि तो फिर यही कहिये कि जिस समय जिस वस्तु की उपलब्धि नहीं होती है, उस समय भी उस वस्तु की सत्ता रह सकती है । प्रत: केवल अनुपलब्धि से किसी वस्तु के अभाव का निर्णय नहीं किया जा सकता । पू० प० तदेव 110 जिस समय घर से बाहर रहते हैं, उस समय पुत्रादि की उपलब्धि नहीं रहती है, अत: उस समय घर में पुत्रादि को सत्ता नहीं रहती है। घर लौट आने पर जिन पुत्रादि की उपलब्धि होती है, वे पूर्वकाल में उपलब्ध पुत्रादि से भिन्न दूसरे ही पुत्रादि हैं। जिनकी उत्पत्ति उसी समय होती है । सि० प० न, अनुपलभ्भेन इन दूसरे पुत्रादि के उत्पादक कारण कौन-कौन हैं ? पुनः घर लौट आने पर पुत्रादि की उपलब्धि तो होती है, किन्तु उनके उत्पादक कारणों की उपलब्धि नहीं होती है । अनुपलब्धि मात्र को आप प्रभाव का ग्राहक मानते है । अतः कथित कारणों की अनुपलब्धि
२६४ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली अबाधे वा स एव दोषः । श्रत एव प्रत्यक्षमपि न स्यात्, तद्धेतूनां चक्षुरादीनामनुपलम्भबाधितत्वात् । उपलभ्यन्त एव गोलकादय इति चेन्न । तदुपलब्धेः पूर्वं तेषामनुपलम्भात् । न च यौगपद्यनियमः । कार्यकारणभावादिति । से उनका अभाव स्वीकार करना होगा । किन्तु कारणों के विना कार्य की उत्पत्ति संभव नहीं है | अतः यह कहना ठीक नहीं है कि ‘घर आने पर दूसरे पुत्रादि की उपलब्धि होती है ।’ यदि अनुपलब्धि के रहते हुये भी पुत्रादि के कारणों की सत्ता को स्वीकार करेंगे तो इससे हम लोगों का यह अभिप्रेत ही सिद्ध होगा कि ‘अनुपलब्ध वस्तुओं की भी सत्ता रहती हैं । सुतराम् केवल अनुपलब्धि से अभाव का निश्चय नहीं हो सकता । ( श्लोक के उत्तराधं की व्याख्या ) श्रत एव जिस लिये कि चार्वाक सम्प्रदाय के लोग योग्यत्य रूप विशेषण से सर्वथा रहित केवल - अनुपलब्धि को अभाव का ग्राहक मानते हैं, अतः उनका एक मात्र अवलम्ब प्रत्यक्ष प्रमाण भी विपन्न हो जायगा। क्योंकि प्रत्यक्ष का प्रधान कारण चक्षु अतीन्द्रिय है । अत: अनुपलब्धि से उसका भी अभाव मानना होगा । जिससे चक्षु से उत्पन्न प्रत्यक्ष भो दुर्लभ हो जायगा । पू० प० उपलभ्यत एव … ( नासिका के दोनों भागों में ) गोल-गोल जिन प्रवयवियों की उलब्धि होती है, उन से अतिरिक्त चक्षु नाम की कोई इन्द्रिय नहीं है । ये गोलक ही प्रत्यक्ष के कारण हैं । ये गोलक तो प्रत्यक्ष से बाधित नहीं हैं । अतः प्रत्यक्ष के ‘दुलर्भत्व’ की भापति नहीं है । सि० प० न, तदुपलब्धेः जब कि उपलब्धि ही वस्तु की सत्ता का नियामक है, तो फिर गोलक की सत्ता भी गोलक के प्रत्यक्ष के अधीन मानना होगा । किन्तु ‘प्रत्यक्ष के प्रति विषय कारण हैं; इस नियम के अनुसार प्रत्यक्ष रूप कार्य से पहिले विषय का रहना आवश्यक है। इस स्थिति में गोलक की सत्ता को स्वीकार करना सम्भव नहीं होगा। क्योंकि गोलक की प्रत्यक्ष रूप उपलब्धि ही सम्भव नहीं है । अथ च सभी अनुपलब्धियों से चूकि प्रभाव का ग्रहण होता है, प्रत। गोलक की इस अनुपलब्धि से भी गोलक के अभाव को सिद्धि होगी, जिससे गोलक का प्रत्यक्ष ही प्रतिरुद्ध हो जायगा । यदि यह कहें कि “जिस समय गोलक की उपलब्धि होती है, उसी समय गोलक का रहना आवश्यक है, उस से पहिले नहीं” किन्तु यह कहना भी ठोक नहीं है, क्योंकि कारण को कार्य की उत्पत्ति से पहिले रहना आवश्यक है । तदनुसार गोलक विषयक प्रत्यक्ष
तृतीयः स्तबकः २६५ एतेन (१) न परमाणवः सन्ति, अनुपलब्धेः । (२) न ते नित्या निरवयवा वा, पार्थिवत्वात् घटादिवत् । (३) न पाथसीयपरमाणुरूपादयो नित्याः, रूपादित्वात्, के कारणीभूत गोलक को भी पहिले रहना आवश्यक है । एवं कार्य को भी कारण के बाद ही रहना उचित है । अतः गोलक रूप विषय और गोलक विषयक प्रत्यक्ष ये दोनों यदि एक ही समय में रहेंगे, तो दोनों में कार्यकारणभाव ही संभव नहीं होगा । एतेन इस प्रकार अतीन्द्रिय परमेश्वर एवं उनमें रहनेवाले सर्वज्ञात्वादि धर्मों के खण्डन के लिये प्रदर्शित अनुमानों में जिन आश्रयासिद्धि प्रभृति दोषों का उद्भावन किया गया है, वे सभी दोष अतीन्द्रिय परमाणु प्रभृति के खण्डन के लिये प्रयुक्त निम्नलिखित अनुमानों में भी समझना चाहिये । ( १ ) यदि कोई यह पहे कि ‘परमाणुओं की सत्ता नहीं है, क्योंकि वे उपलब्ध नहीं होते’ इस व्यक्ति को वही दोष दिखाना चाहिए जो ईश्वराभाव की सिद्धि में दिखला आये हैं । श्रर्थात् केवल अनुपलब्धि अभाव की साधिका नहीं है, किन्तु योग्यानुपलब्धि ही अभाव की साधिका है । परमाणु अतीन्द्रिय हैं, अतः उनकी अनुपलब्धि योग्यानुपलब्धि नहीं हैं । सुतराम् इंस अयोग्यानुपलब्धि से परमाणुओं की सत्ता में किसी प्रकार की क्षति नहीं है । (२) यदि कोई घटादि के दृष्टान्त से पार्थिवत्वादि हेतुओं के द्वारा परमाणु में नित्यत्व और निरवयवत्व का खण्डन करें अर्थात् यह कहें कि जिस प्रकार पार्थिव घटादि नित्यं एवं निरवयव नहीं हैं, उसी प्रकार उनके आरम्भक परमाणु भी नित्य एवं निरवयव नहीं हैं, क्योंकि वे भी पार्थिव हैं। इस प्रकार के अनुमानों में उसी प्रकार ‘धर्मिग्राहक मानबाघ’ का उद्भावन करना चाहिये, जिस प्रकार ईश्वर में सर्वज्ञत्व एवं सर्वकार्यकर्तृत्व के निषेध के अनुमानों में दिखलाया गया है । अर्थात् ‘परमाणवो न नित्या, नापि निरवयवाः पार्थिवत्वात् घटादिवत्’ इस प्रकार के अनुमानों के प्रयोग करनेवालों से पूछना चाहिए कि परमाणु सिद्ध हैं ? अथवा नहीं ? अगर ‘नहीं" तो उक्त अनुमान का हेतु आश्रयासिद्ध है । अगर ‘हाँ’ तो फिर जिस प्रमाण से परमाणु की सिद्धि होगी, उसी प्रमाण से परमाणुओं में नित्यत्व एवं निरवयत्व की भी सिद्धि होगी । अतः उक्त निषेधानुमान के ‘धर्मी’ परमाणु का ‘ग्राहक’ साधक जो प्रमाण है, उसी प्रमाण से परमाणुत्रों में अनित्यत्व और सावयवत्व भी बाषित हो जायेंगे । तस्मात ‘धमिग्राहकमान’ से बाधित होने के कारण उक्त प्रकार के अनुमान नहीं हो सकते । (३) यदि कोई ऐसा अनुभव करे कि ‘जिस प्रकार वत्र्तमान काल के जलगत रूपादि नित्य नहीं हैं, उसी प्रकार जलीय परमाणु के रूपादि भी प्रनित्य ही हैं, क्योंकि वे भी जल
२६६ गद्यपद्यात्मक न्यायकुसुमाञ्जली हृदयमानरूपादिवत् । (४) न रूपत्वपार्थिवत्वादि नित्याऽकार्यातीन्द्रियसमवायि, जाति- स्वात्, शृङ्गत्ववत् । (५) नेन्द्रियाणि सन्ति, योग्यानुपलब्धेः । (६) अयोग्यानि च शशशृङ्गप्रतिबन्धिनिरसनीयानीत्येवं स्वर्गापूर्वदेवतानिराकरणं नास्तिकानां निरस- नीयम् । मीमांसकश्च तोषयितव्यो भीषयितव्यश्चेति । में रहनेवाले रूपादि हैं" तो इस अनुमान में उसी प्रकार ‘आश्रयासिद्धि’ दोष का अद्भावन करना चाहिये, जिस प्रकार ईश्वरीय ज्ञान में सर्वविषयकत्वाभाव के साधन के द्वारा ईश्वर में सर्वज्ञस्य के निषेधक अनुमान में किया गया है । (४) “जिस प्रकार शृङ्गत्व जाति नित्य, अकार्यं एवं अतीन्द्रिय वस्तुनों में नहीं रहती, उसी प्रकार पार्थिवत्वादि जातियाँ भी चूँकि जाति हैं, अतः नित्य, अकार्य एवं प्रनित्य वस्तुओं में नहीं रहती हूँ” यदि कोई इस आकार का अनुमान उपस्थित करे तो आत्मत्व जाति को पक्ष बना कर उसमें सर्वज्ञपुरुषवृत्तित्वाभाव एवं सर्वकार्यकर्त्ता पुरुष- वृत्तित्वाभाव के साधन के लिये प्रयुक्त अनुमानों में जिस प्रकार ‘आश्रयासिद्धि’ दोष का उद्भावन किया गया है, उसी प्रकार प्रकृत अनुमान में भी प्राध्यासिद्धि दोष का उद्भावन करना चाहिये । (५) यदि कोई यह कहे कि “इन्द्रियां नहीं हैं, क्योंकि प्रत्यक्ष की योग्यता के रहने पर भी उनकी उपलब्धि नहीं होती हैं” तो इस अनुमान में उसी प्रकार ‘हेत्वसिद्धि’ दोष का उद्भावन करना चाहिये, जिस प्रकार ईश्वर की योग्यानुपलब्धि के द्वारा ईश्वर की सत्ता के निराकरण के अनुमान में की गयी है । क्योंकि इन्द्रियों के असत्व साधक ‘इन्द्रियाणि न सन्ति योग्यत्वे सत्यनुपलब्धे।’ इस अनुमान के हेतु में भी ‘योग्यत्वे सति’ यह हेतुतावच्छेदक ( हेतुविशेषण) रूप अंश नहीं है। हेतु में हेतुविशेषण का न रहना ही ‘हेत्वसिद्धि’ दोष है । । (६) यदि कोई यह प्रक्षेप करे कि ‘यदि प्रत्यक्ष के भी स्वीकार करें तो प्रत्यक्ष के प्रयोग्य शशशृङ्ग की सत्ता भी अयोग्य इन्द्रियों की सत्ता को माननी होगी’ तो इस प्रसङ्ग रूप प्रतिबन्दि का निराकरण में पहिले परमेश्वर की सत्ता के प्रसङ्ग में जिस प्रकार शशशृङ्ग किया गया है, उसी प्रकार प्रकृत में भी करना चाहिये। इसी प्रकार नास्तिकों के द्वारा स्वर्ग, पपूर्व, देवता प्रभृति पर किये गये असत्वाक्षेपों का खण्डन करना चाहिये । किन्तु प्रतीन्द्रिय वस्तुओं की सत्ता के इस साधन से मीमांसकों की तुष्टि एवं भय दोनों का संपादन करना प्रभूति अतीन्द्रिय पदार्थों के साघन से वे सम्पृष्ट होंगे, -किन्तु ईश्वर रूप अतीन्द्रिय पदार्थ की सिद्धि से वे भयभीत होंगे । चाहिये ( क्योंकि स्वर्ग, अपूर्व, देवता
तृतीयः स्तबकः २६० यद्येवमनुपलम्भेनादृश्यप्रतिषेधो नेष्यते, अनुपलभ्योपाधिप्रतिषेधोऽपि तह नेष्टव्यः । तथा च कथं तथा भूतार्थसद्धिरपि । अनुमान बीजप्रतिबन्धासिद्धेः । तदभावे शब्दादेरभावः, प्रामाण्यासिद्धेः । सोऽयमुभयतः पाशा रज्जुः । पू० प० यद्येवम् (७) चार्वाक का आक्षेप है कि यदि केवल अनुपलब्धि को अभाव का ग्राहक न मानेंगे – योग्यानुपलब्धि को ही प्रभाव का ग्राहक मानेंगे तो अनुमान की सत्ता ही विपन्न हो जायगी । अर्थात् मेरे पक्ष में जिस अनुमान की अनुपपत्ति दिखलायी गयी है—उसके लिये भी सभी अनुग्लब्धियों को अभाव का ग्राहक मानना आवश्यक है । क्योंकि अनुमान को मूल है व्याप्ति । इस व्याप्ति के लिये उपाधियों के अभाव का निश्चय आवश्यक है । उपाधि के संशय मात्र से भी व्याप्ति का भङ्ग हो जाना अनिवार्य है । यदि सभी अनुपलब्धियों को प्रभाव का ग्राहक न मानें ( केवल योग्यानुपलब्धि को हो अभाव का ग्राहक मानें तो सभी हेतुओं में यह शङ्का बराबर बनी रहेगी कि ‘यह हेतु किसी उपाधि से युक्त न हो’ । जिन उपाधियों का प्रत्यक्ष संभव है, उनके न देखने भर से ही उनके अभाव का निर्णय यद्यपि हो जायगा, किन्तु जो उपाधि प्रत्यक्ष के योग्य नहीं हैं, उनके रहने की शङ्का तो बनी ही रहेगी । उसका निवारण कौन करेगा ? क्योंकि उनके न देखने भर से तो उक्त शङ्खा का निवारण होगा नहीं ? क्योंकि उनके रहने पर भी अयोग्य होने के कारण उन्हें देखा नहीं जा सकता है । यदि अयोग्यानुपलधि को भो अभाव का ग्राहक मान लेते हैं, तो प्रकृत में अयोग्य उपाधि के अभाव का निर्णय सुलभ हो जाता है ! इस प्रकार अनुमान की सत्ता के लिये भी अयोग्यानुपलब्धि को प्रभाव का ग्राहक मानना आवश्यक है। ऐसा न मानने पर अनुमान को प्रमाण मानना संभव नहीं होगा । अनुमान का प्रामाण्य खण्डित होने पर शब्दादि का प्रामाण्य स्वतः खण्डित होगा । क्योंकि शब्दादि का प्रामाण्य अनुमान प्रमाण के अधीन है । इस प्रकार सभी अनुपलब्धियों को अभाव का ग्राहक न मानने से एवं केवल योग्यानुपलब्धि को ही अभाव का ग्राहक मानने से- दोनों ही स्थितियों में अनुमान प्रमाण की अनुपपत्ति होगी । अतः अनुमान प्रमाण से ईश्वर की सिद्धि नहीं हो सकती । ( कहने का तात्पर्य है कि योग्यानुपलब्धि और अयोग्यानुपलब्धि दोनों को अभाव का ग्राहक न मानने से अतीन्द्रिय उपाधि की शङ्का से अनुमान प्रमाण का ही उच्छेद हो जागयगा । जिससे अनुमान प्रमाण के द्वारा ईश्वर सिद्धि की माशा छोड़ देनी होगी । यदि सभी अनुपलब्धियों को प्रभाव का ग्राहक मानेंगे तो अनुपलब्धि से ही ईश्वर की सत्ता बाधित हो जायगी। फलतः किसी प्रकार भी ईश्वर की सिद्धि नहीं हो सकेगी ) । ३८
२६८ गद्यपद्यात्मक न्याय कुसुमाञ्जली अत्र कश्चिदाह । मा भूदुपाधिविधूननम्, चतुः पञ्चरूपसम्पत्तिमात्रेणैव प्रतिबन्धनिर्वाहात् । तस्याश्च सपक्षाऽसपक्षदर्शन मात्र प्रमारणकत्वात् । यत्र तु तद्भङ्गः, तत्र प्रमाणभङ्गोऽप्यावश्यकः । न ह्यस्ति सम्भवो दर्शन दर्शन यो र विप्लवे हेतुरुपप्लवते इति । श्रप्रयोजकोऽपि तर्हि हेतुः स्यादिति चेत्। भूयोदर्शनाऽविप्लवे कोऽयमप्रयोजको नाम ? सि० प० मत्र कश्चित् … … .. इस प्रसङ्ग में कोई ( म्यायैकदेशी ) यह समाधान करते हैं कि व्याप्ति के लिये हेतु में उपाधि का न रहना आवश्यक नहीं है, क्योंकि किसी ( केवलान्वयि ) हेतु में (१) पक्षसत्व (२) सपक्षसत्व (३) अबाधितत्व झीर असत्प्रतिपक्षितत्व इन चार धर्मों के रहने से ही व्याप्ति की सत्ता निर्विघ्न हो जायगी । एवं किसी ( केवलव्यातिरेकी) हेतु में उन चार धर्मो में से सपक्ष सत्त्व के स्थान पर विपक्षासत्व को रख कर चार धर्मों से ही व्याप्ति की सत्ता निरबाघ हो जायगी। किसी ( अन्वयव्यतिरेकी) हेतु में सपक्षसत्व एवं विपक्षारुत्व इन दोनों धर्मों सहित पक्षसत्त्वादि पांचो धर्म व्याप्ति सत्ता के प्रयोजक होंगे। इन सबों के लिये उपाधि विधूनन की तो कहीं प्रावश्यकता नहीं जान पड़ती । व्याप्ति के लिये मूलतः इतना ही आवश्यक जान पड़ता है कि हेतु सपक्ष में रहे और विपक्ष में और विपक्षासत्त्व ये दोनों धर्म ही नहीं रहेंगे, उस हेतु में व्याप्ति का हेतु में इन दोनों धर्मों की सत्ता में व्याप्ति सरव के प्रयोजक हैं । न रहे । फलतः सपक्षसत्व जिस हेतु में ये दोनों धर्म अभाव जान लेना होगा। यह कदापि सम्भव नहीं है कि कोई विघटन न रहे भोर हेंतु में साध्य को ज्ञापक करने की क्षमता में कोई विघटन हो । भतः उपाधि विघूमन के असम्भव होने के कारण जो अनुमान प्रमाण का उच्छेद दिखलाया गया है, वह ठीक नहीं है । पू० प० श्रप्रयोजकोऽपि यदि सपक्ष में हेतु का दर्शन और विपक्ष में हेतु का अदर्शन ये दोनों ही हेतु में साध्य के ज्ञापन की सामर्थ्य के नियामक हों तो फिर ‘अप्रयोजक’ हेतु से भी प्रमा धनुमिति माननी होगी’ । सि० प० भूयोदर्शन साध्य के साथ हेतु को बार बार एक आश्रय में देखने ( भूयो दर्शन ) में कोई विघटन न रहने पर भी हेतु में यह ‘प्रप्रयोजकत्व’ नाम की कौन सी वस्तु है ? १. अर्थात् भित्रा नाम की किसी स्त्री के भावी पुत्र अथवा विदेशस्थ ग्रह पुत्र में श्यामत्व के साधक मिश्रातनयत्व हेतु की भी प्रकृत साध्य का साधक मानना होगा ।
तृतीय स्तबक: न तावत् साध्यं प्रत्य कार्यमकारणं वा, सामान्यतो दृष्टानुमानस्वीकारात् । नाऽपि सामग्र्यां कारणैकदेशः, पूर्ववदभ्युपगमात् । नापि व्यभिचारी । पू० प० … …न तावत् । (१) वही हेतु ‘प्रत्रयोजक’ है जो साध्य से उत्पन्न न हो । ( २ ) अथवा वही हेतु ‘अप्रयोजक’ है जिस हेतु से साध्य उत्पन्न न हो । सि० प० … सामान्यतोदृष्ट किन्तु अप्रयोजकत्व के ये दोनों ही लक्षण ठीक नहीं हैं, क्योंकि महर्षि ने सामान्यतो दृष्ट अनुमान को भी स्वीकार किया है । ’ पू० प० नापि ( ३ ) ( कारणों का एक ही कारण नहीं । इस मत में समूह रूप ‘सामग्री’ ही कार्य का ज्ञापक हेतु है, तदन्तर्गन कोई कार्य रूप वस्तु का ही अनुमान होता है, एवं कथित ‘सामग्री’ ही केवल हेतु है । इस स्थिति में सामग्री के अन्तर्गत किसी एक कारण से यदि कोई कार्य का अनुमान करने के लिए प्रस्तुत होगा तो ‘सामग्रचं’कदेश’ रूप एक कारण ‘प्रप्रयोजक’ होगा | अतः ) ‘सामध्येकदेशस्व’ ही ‘प्रप्रयोजकश्व’ है । सि० प० पूर्ववत् सामग्री के अन्तर्गत किसी एक कारण विशेष लिङ्गक अनुमान भी सूत्रकार को प्रभिप्रेत हैं, जिसको उन्होंने ‘पूर्ववत्’ शब्द से व्यक्त किया है । ( क्योंकि अन्तिम तन्तु संयोगादि कुछ ऐसे भी कारण हैं जो स्वतन्त्र रूप से भी साध्य के ज्ञापन की क्षमता रखते हैं ) अत सामग्री के अन्तर्गत किसी एक कारण में भी जब साध्य के ज्ञापन की क्षमता है तो ‘सामथ्र्यन्तर्ग- तत्व’ को ‘प्रयोजकत्व’ का लक्षण नहीं माना जा सकता । पू० प० नापि व्यभिचारी ( ४ ) व्यभिचार से युक्त हेतु ही ‘अप्रयोजक’ हैं । अर्थात् जो हेतु सांप से रहित पाश्रयों में (विपक्षों में ) विद्यमान रहे, वह हेतु साध्यानुमिति का ‘प्रयोजक’ नहीं हो सकता, अतः व्यभिचारी हेतु ही ‘अप्रयोजक’ है । १. अर्थात् यह नियम नहीं है अनुमान कार्यलिङ्गक और कारणलिङ्गक दो ही प्रकार की हो, क्योंकि रूपादि से रसादि का भी अनुमान होता है । अतः साध्या कारणत्व अथवा सांध्याकार्यत्व प्रयोजकत्व नहीं है।
३०० गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली तदनुपलम्भात् । व्यभिचारोपलम्भे वा स एव दोषः । न च शङ्कितव्यभिचारः, निर्बीजशङ्कायाः सर्वत्र सुलभत्वात् । नाऽपि व्याप्यान्तरयहवृत्तिः । एकत्राऽपि साध्येऽनेक साधनोपगमात् । सि० प० तदनुपलम्भात् • किन्तु ‘अप्रयोजकत्व’ का उक्त लक्षण भी ठीक नहीं है ( क्योंकि ‘स श्याम मित्रातन- यत्वात्’ इस अनुमान का ‘मित्रातनयत्व’ हेतु ही ‘अप्रयोजक’ का प्रसिद्ध उदाहरण है, किन्तु उसमें तो ) साध्य का व्यभिचार उपलब्ध नहीं है, क्योंकि मित्रा के जितने भी पुत्र उपलब्ध हैं, वे सभी देखने में श्याम वर्ण के ही हैं । यदि कदाचित् व्यभिचार उपलब्ध भी हो तो फिर उस व्यभिचार रूप दोष के कारण ही वह हेतु दुष्ट हो जायगा । ‘प्रप्रयोजक’ कहकर उसे दुष्ट करार देने की कोई श्रावश्यकता नहीं रह जायगी । पू० प० न च शङ्कित ….. जिस हेतु में व्यभिचार की शङ्का हो वही हेतु ‘अप्रयोजक’ है । एवं जिस हेतु में व्यभिचार निश्चित रहे, वह हेतु है व्यभिचारी । सि प० निर्बीजशङ्काया . बिना कारण के व्यभिचार की शङ्का तो सभी हेतुओं में को जा सकती है, जिससे सभी हेतु अप्रयोजक हो जायगे । भ्रतः अप्रयोजक का यह लक्षण भी ठीक नहीं है । पू० प० व्याप्यान्तर जिस साध्य की सिद्धि के लिये एक हेतु ( व्याप्य ) के प्रयोग की स्थिति में उसी साध्य के ज्ञापन में समर्थ दूसरा ( व्याप्य ) हेतु भी विद्यमान रहे, तो वह पहिला हेतु ‘अप्रयोजक’ है ।’ ( प्रर्थात् जब प्रकृत साध्य की सिद्धि के लिये एक हेतु है ही, तो फिर उसी साध्य की सिद्धि के लिये दूसरा हेतु ‘अप्रयोजक’ है ) । सि० प० एकत्रापि … … किन्तु ‘प्रप्रयोजक’ का यह लक्षण तभी ठीक हो सकता है, जब कि नियमतः एक साध्य का ज्ञापक एक ही हेतु रहे । किन्तु सूवकार ने मात्मा के ज्ञापक इच्छा द्वेषादि अनेक हेतुओं का उल्लेख किया है । एवं इस में कोई युक्ति नहीं है कि जिस साध्य की व्याप्ति अनेक हेतुत्रों में है, उन में से एक ही साधक हैं, एवं अन्य सभा हेतु साध्य सिद्धि के प्रयोजक नहीं ( अप्रयोजक ) हैं । १. ‘व्याप्य’ शब्द का अर्थ है व्याप्ति से युक्त हेतु । ‘अन्तर’ शब्द का अर्थ है ‘तदुभिन्न तरसजातीय’ सदनुसार’ ‘व्याप्यान्तर सहवृत्ति’ शब्द से व्याप्तियुक्त वह हेतु अभिप्रेत है, जिसके साध्य की सिद्धि के लिये व्याप्तियुक्त दूसरा हेतु विद्यमान रहे । …
तृतीय-स्वयकः ३०१ नाप्यल्पविषयः घूमादेस्तथाभावेऽपि हेतुत्वात् । ननु घूमो वह्निमात्रे प्रयोजक एव तम्निवृत्तावति तदनिवृत्तेः । प्राद्रेन्धनवन्तं वह्निविशेषं प्रति तु प्रयोजकः, तन्निवृत्तौ तस्येव निवृत्तेरित्येतदमप्ययुक्तम् । सामान्याप्रयोजकतायां विशेष- साधकत्वायोगात्तदसिद्धौ तस्यासिद्धिनियमात् । सिद्धो वा सामान्यविशेषभावानुपत्तेः । पू० प० अल्पविषय ….. साध्य जितने अधिकरणों में रहे उस से ‘अल्प विषय’ में थोड़े अधिकरणों में रहने बाला हेतु ही ‘अप्रयोजक’ है । इस मत के अनुसार साध्य का समनियत अर्थात् साध्य के समान अधिकरणों में रहने वाला हेतु ही साध्य का ज्ञापक है ) सि० प० किन्तु ‘अप्रयोजकत्व’ का यह लक्षण भी ठीक नहीं है, क्योंकि वह्नि रूप साध्य से न्यून अधिकरण में रहने वाला धूम हेतु वह्नि का साधक है ही । पू० प० ननु घूमो वह्निमात्रे घूम वह्नि सामान्य का ज्ञापक हेतु नहीं है, क्योंकि ज्ञापक हेतु को जिस प्रकार साध्य के सभी अधिकरणों में रहना आवश्यक है, उसी प्रकार यह भो आवश्यक है कि जहाँ बिस समय हेतु ( प्रयोजक ) निवृत्ति हो जाय, उस समय उस अधिकरण में साध्य की भी निवृत्ति अवश्य हो जाय । किन्तु घूम की निवृत्ति हो जाने पर भी वह्नि सामान्य की निवृत्ति नहीं होती है । एवं धूम को निवृत्ति होने पर भी आर्द्र इन्धन से युक्त वह्नि की निवृत्ति होती है । अतः यह मानना होना कि धूम वह्निसामान्य का ज्ञापक हेतु नहीं है, किन्तु आर्द्र इन्धन से युक्त वह्नि विशेष का ही ज्ञापक है । भाई इन्धन से युक्त वह्नि जिन सभी स्थानों में उन सभी स्थानों में धूप भी अवश्य हो है । अतः घूम भाद्र इन्धन से युक्त बह्नि का ‘अल्पविषय’ नहीं है, सुतराम धूम में ‘प्रयोजत्व’ लक्षण को प्रतिव्यप्ति नहीं है । सि० प० इत्येदमप्ययुक्तम्" “… सभी विशेष नियमतः सामान्य पूर्वक होते हैं । कोई भी द्रव्य पहिले द्रव्य होगा, उसके बाद जल अथवा पृथिवी होगा । इ । नियम के अनुसार जो हेतु सामान्य का साधक नहीं होगा, वह विशेष का साधक हो ही नहीं सकता । मतः धूम पहिले वह्नि सामान्य का ज्ञापक हो लेगा, बाद में भाई इन्धन से युक्त वह्नि विशेष का ज्ञापक होगा । सुतराम यदि घूम वह्नि सामान्य का ज्ञापक नहीं है तो वह्नि विशेष का ज्ञापक भी नहीं है । यदि धूम से वह्नि सामान्य की सिद्धि न होने पर भी उससे प्रार्द्रेन्धन से युक्त वह्नि का साधन हो तो फिर आद्रेन्धन प्रभव वह्नित्व रूप धर्म वह्नि सामान्य का विशेष धर्म ही नहीं कहलायगा । मतः ‘अल्पविषयत्व’ भी ‘अपयोजकत्व’ का लक्षण नहीं है । CCO. Vasishtha Tripathi Collection. Digitized by eGangotri३०२ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जलौ नापि वलुप्त सामर्थ्येऽन्यस्मिन् कल्पनीय सामर्थ्योऽप्रयोजकः, नाशे कार्यत्व- सावयवत्वयोरपि हेतुभावादिति । तदेतदपेशलम् । कथं हि विशेषाभावात् कश्चिद्वयभिचरति कश्चिच्च नेति शक्यमवगन्तुम् । ततो निर्णायकाभावे सति साहित्यदर्शनमेव शङ्काबोजमिति कासो निर्बीजा ? एवं सत्यतिप्रसक्तिरपि चार्वाक - नन्दिनी नोपालम्भाय | नापि क्लृप्तसामर्थ्ये……. ( कुछ लोगों का कहना है कि ) एक हेतु में जिस साध्य की सिद्धि की सामर्थ्यं स्वीकृत है, उसी साध्य की सिद्धि के लिये यदि किसी दूसरे हेतु में भी सामर्थ्य की कल्पना करें तो यह दूसरा हेतु प्रकृत साध्य के साधन के लिये ‘अप्रयोजक’ होगा । किन्तु ‘अप्रयोजक’ हेतु का यह लक्षण भी अतिव्याप्ति दोष के कारण ठीक नहीं है । क्योंकि गुणादि नाथ के प्रति भावकार्यत्व में प्रयोजकता स्वीकृत है । किन्तु तथापि द्रव्यनाश के प्रति भावकार्यत्व के व्याप्य सावयवत्व में भी प्रयोजकता स्वीकार की जाती है । मत। द्रव्यनाश के साधक सावयवत्व में अतिव्याप्त होने के कारण ‘अप्रयोजकत्व’ का यह लक्षण भी ठीक नहीं है । पू० प० तदेतदपेशलम् - ( इस सन्दर्भ के द्वारा न्यायैकदेशी पूर्वपक्षवादी खण्डन करते हैं कि ) यदि व्याप्ति के लिये ‘उपाधिविधूनन’ की अपेक्षा न हो तो कैसे समझा जायगा कि किस हेतु में साध्य की व्याप्ति है ? एवं किस हेतु में साध्य का व्यभिचार है ? अतः कोई ऐसा ‘विशेष’ स्वीकार करना होगा, जिससे उक्त व्याप्ति ( प्रव्यभिचार ) और व्यभिचार का निर्णय हो सके । वह ‘उपाधिविधूनन’ ही उक्त ‘विशेष’ है । अतः ‘व्यभिचार’ ही ‘अप्रयोजकत्व’ है । व्यभिचारित्व को प्रप्रयोजकत्व का लक्षण मानने में जो ‘निर्बीजशङ्का की सर्वत्र सुलभता’ का दोष दिखाया गया था, वह भी ठीक नहीं है, क्योंकि कथित व्यभिचार शदा का बीज विद्यमान हैं। वह बीज है विपक्ष में हेतु की असत्ता के निर्णायक के न रहने पर साध्य के साथ एक आश्रय में देखा जाना । अतः व्यभिचार शंका को ‘निर्बीज’ नहीं कहा जा सकता । अतः नैयायिक देशी’ के पक्ष में जो प्रप्रयोजक हेतु में सद्धेतुत्व की आपत्ति दी गयी है, सो सर्वथा मयुक्त है। एवं व्यभिचार शंका के ‘बीन’ की उपपत्ति हो जाने से चार्वाक की प्रत्यन्त आह्लाद- कारिणी ‘आशङ्कया भव्यं नियामकमपश्यताम्’ इस उक्ति से जिस दोष का उपपादन किया गया है, वह भी खण्डित हो जाता है। अब तो जहाँ जिस स्थल में व्यभिचारशङ्का का उक्त बीज रहेगा वहीं के ल व्यभिवार शंका होगी, सर्वत्र नहीं ।
fi स ह तृतीय- स्तवकः ३०३ स्वभावादेव कश्चित् किञ्चिद्वयभिचरति, कश्चिञ्च नेति स्वभाव एव विशेष इति चेत्; केन चिह्नेन पुनरसौ निर्णेय इति निपुणेन विभावनीयम् । भूयोदर्शनस्य शतशः प्रवृत्तस्यापि भङ्गदर्शनात् । यत्र भङ्गो न दृश्यते तत्र तथेति चेत्; आपाततो न दृश्यते इति सर्वत्र कालक्रमेणापि न द्रक्ष्यत इति को नियन्तेति । तस्मा- दुपाधितद्विरहावेव व्यभिचाराऽव्यभिचारनिबन्धनम्, तदवधारणञ्चाशक्यमिति । पू० प० स्वभावादेव… A जिस प्रकार कोई विशेष वस्तु ही किसी दूसरी वस्तु विशेष का कारण अथवा कार्य होता है । सभी वस्तुए सभी वस्तुनों का न कार्य ही होता है न कारण ही । इसके लिये ‘स्वभाव’ को छोड़ कर और किसी को प्रयोजक नहीं माना जा सकता । उसी प्रकार यह भी कहा जा सकता है कि ‘स्वभाव’ से ही कोई किसी का व्याप्य अथवा व्यापक होता है । इसके लिए ‘उपाधिविधूनन’ को प्रयोजक मानना धावश्यक नहीं है । अतः ‘स्वभाव’ ही व्याप्ति का नियामक है ’ उपाधिविधूनन’ नहीं । सि० प० केन चिह्नन " ( उक्त स्वभाववादी से यह पूछिये कि ) प्राप मच्छी तरह विचार कर कहिये कि किस चिह्न’ से आप यह निश्चय करेंगे कि कौन किसके व्यापक स्वभाव का है ? प्रथवा कौन किसके व्याप्य स्वभाव का है ? अर्थात् किसका स्वभाव किससे व्यापक होना है ? अथवा किसका स्वभाव किससे व्याप्य होना है ? जिस हेतु भोर जिस साध्य को सौ स्थानों में साथ-साथ देखा जाता है, उन्हीं दोनों को कहीं अलग-अलग एक दूसरे को छोड़ कर भी देखा जाता है । अतः किसी भी दो वस्तुओं को एकत्र स्थिति में ( सामानाधिकरण्य में ) ‘नियतत्व’ का विश्वास नहीं किया जा सकता । एवं अनियत सामानाधिकरण्य को व्याप्ति का प्रयोजक स्वीकार नहीं किया जा सकता । सि० प० यत्र भङ्गो न दृश्यते … जिन दो वस्तुओंों का सामानाधिकरण्य कहीं भङ्ग होता नहीं दीखता, उन्हीं दोनों वस्तुनों में परस्पर व्याप्यव्यापकभाव स्वीकार करेंगे। फलतः ‘नियतसामानाधिकरण्य’ को ही उक्त स्वभाव का नियामक स्वीकार करेंगे । पू० प० आपातत: … … जिन दो वस्तुओं में अभी साधारण रूप से सामानाधिकरण्य देखा जाता है, उन्हीं दो वस्तुओं में आगे कभी किसी समय उसका भङ्ग नहीं देखेंगे, इसका क्या विश्वास ? अतः यही मानना होगा कि उपाधि ही व्यभिचार का प्रयोजक है, और उपाधि का न रहना हो अव्यभिचार रूप व्यक्ति का नियामक है। इस प्रकार व्याप्ति उपाधि के अभाव का प्रयोज्य है ।
३०४ गद्यपद्यात्मक न्यायकुसुम खुली ननु यः सर्वैः प्रमाणैः सर्वदाऽस्मदादिभिर्यद्वत्तया नोपलभ्यते नासौ तद्वान् । यथा बकः श्यामिकया, नोपलभ्यते च वह्नौ धूम उपाधिमत्तयेति शवयमिति चेन्न । अस्याप्यनुमानतया तदपेक्षायामनवस्थानात् । पहिले फह आए हैं कि “यदि केवल अनुपलब्धि को अभाव का निश्चायक न मानेंगे तो उपाधि के प्रभाव का निश्चय असंभव है।” फलतः सिद्धान्ती का निस्तार किसी भी स्थिति में नहीं है । सि० प० " ननु यः सर्वे उपाधि के प्रभाव का निश्चय हो सकता है । क्योंकि किसी को भी जहाँ जिस वस्तु की उपलब्धि किसी भी प्रमाण से नहीं होती है, उस वस्तु का अभाव वहीं अवश्य रहता है। जैसे कि बक में श्याम रूप की उपलब्धि किसी को भी किसी भी प्रमाण से नहीं होती है, अतः बक में श्याम रूप का अभाव अवश्य रहता है । वह्नि का धूम हेतु उपाधि से युक्त होकर कभी किसी के भी द्वारा किसी भी प्रमाण से उपलब्ध नहीं है । अतः यह कहा जा सकता है कि वह्नि के ज्ञापक धूम हेतु में उपाषि नहीं हैं । अतः यह कहना ठीक नहीं हैं कि उपाधि के अभाव का निश्चय संभव ही नहीं है | पू० प० न, अस्यापि अनुमानतया । उक्त रीति से उपाधि के अभाव का निर्णय वस्तुतः अनुमान ( अनुमिति ) ही है । क्योंकि उक्त सन्दर्भ से इस अनुमान की सूचना दी गयी है “घूमः उपाष्यभाववान् सर्वे: प्रमाणः सर्वदा अस्माभिः उपाधिमत्तया अज्ञायमानत्वात्, बकनिष्ठश्यामाभाववत् किन्तु अनुमान का प्रामाण्य ही तो अभी विवादास्पद है । प्रत. अभी उपाधि के प्रभाव का निश्वय अनुमान प्रमाण के द्वारा उपस्थित नहीं किया जा सकता। क्योंकि अनुमान के लिये उपाध्याभाव का निश्चय अपेक्षित है, एवं उपाध्यभाव के निश्चय के लिए अनुमान अपेक्षित । इस प्रकार कथित रीति में अन्योन्याश्रय दोष होगा । अथवा उक्त पक्ष में अनवस्था दोष भी होगा, क्योंकि घूम हेतुक वह्नि के अनुमान में जिस उपाध्यभाव की आवश्यकता है, उस के निर्णय के लिये अनुमान प्रमाण की आवश्यकता है । एवं उपाध्यभाव विषयक इस अनुमान के लिये जिस व्याप्ति की आवश्यकता होगी, उसके संपादन के लिए दूसरे उपाध्यभाव का निर्णय अपेक्षित होगा, इस के लिए एक अलग अनुमान की आवश्यकता होगी । सर्वाण्टेश्व GON दूसरी बात यह है कि उपाध्यभाव के निश्चय के लिये जिस ‘सर्वदा अनुपलम्यमानत्व’ हेतु को उपस्थित किया गया है, वह ‘सन्दिग्धा सिद्ध’ हेत्वाभास है । क्योंकि सर्वज्ञ पुरुष को छोड़कर कोई यह नहीं कह सकता कि “अमुक वस्तु को कभी किसी ने भी नहीं देखा है” अतः ‘सर्वादृष्टि’ अर्थात् धूमादि हेतुओं का उपाघिमत्तयां “अदर्शन’ सन्दिग्ध है । तब रही बात
तृतीय- स्तवकः ३०५ सर्वादृष्टेश्च सन्देहात् स्वादृष्टेर्व्यभिचारतः, सर्वदेत्य सिद्ध ेः । तादात्म्यत- दुत्पत्तिभ्यां नियम इत्यन्ये । तत्र तादात्म्यं विपक्षे बाधकाद्भवति । तदुत्पत्तिश्च पौर्वापर्येण प्रत्यक्षानुपलम्भाभ्याम् । न ह्येवं सति शङ्कापिशाच्यवकाशमासादयति, ग्राशङ्कयमानकारणभावस्यापि पिशाचादेरेतल्लक्षणाविरोधेनैव तत्त्वनिर्वाहादिति । अपनी ‘अदृष्टि’ की ? उस के प्रसङ्ग में यह कहना है कि वह ‘व्यभिचरित’ है । अर्थात् यह कहना संभव नहीं है कि ‘मैं जिस आश्रय में जिस वस्तु को नहीं देखता हूँ, वह वस्तु उस आश्रय में है ही नहीं’ । अतः किसी भी वस्तु का ‘सर्वदा अनुपलभ्यमानत्व’ हेतु सन्दिग्ध है, अतः यह ‘सन्दिग्धासिद्ध’ है । तादात्म्य तदुत्पत्तिभ्याम् ’ कुछ लोग (बौद्धगण ) ( १ ) ’ तादात्म्य’ और ( २ ) उत्पत्ति अर्थात् कार्यकारणभाव इन दोनों को ‘नियम’ अर्थात् व्याप्ति का प्रयोजक मानते हैं । इन में ( १ ) ‘वादात्म्य’ में व्याप्ति की प्रयोजकता ‘विपक्षवाघक’ से होती है । (२) प्रत्यक्ष’ अर्थात् अन्वय, ‘अनुपलम्भ’ अर्थात् व्यतिरेक इन दोनों से ही कार्यस्व एवं कारणत्व में ‘नियम’ अर्थात् व्याप्ति की प्रयोजकता आती है । इस प्रकार व्याप्ति के नियामक के स्थिर हो जाने पर व्यभिचार शा रूप ‘पिशाचिनी’ को अनुमान रूप कार्य को विनष्ट करने का कोई अवसर नहीं रह जाता । श्रमाशङ्कयमानकारणभावस्यापि कारणत्व अथवा कार्यस्व के ग्राहक अन्वय और व्यतिरेक, ये ही दोनों हैं । षे यदि धूम एवं पिशाचादि में हैं, तो पिशाचादि भी घूम के कारण हैं हीं, अथवा घूम पिशाचादि के भी कार्य अवश्य है । यदि धूम और पिशाचादि में अन्वय और व्यतिरेक नहीं है, तो फिर कौन सी अनुपपत्ति है ? १. इसका उदाहरण शिंशपा में वृक्षत्व का साधक शिंशपा हेतु है ( वृक्षः शिंशपाया। ) । वृक्षत्व रूप साध्य से रहित घटादि हैं ‘विपक्ष’, वे कभी भी ‘शिंशपा’ नहीं हो सकते । घटादि रूप विपक्षों में शिंशपा’ रूप हेतु की असश्च रूप बाधक से शिंशपा रूप हेतु में वृक्षत्व की व्याप्ति व्यवस्थित होती है । २. अर्थात् कारण के ज्ञापक कार्य रूप हेतु में एवं कार्य के ज्ञापक कारण रूप हेतु में जो ‘व्याप्ति’ है, उसका प्रयोजक है, कार्य और कारण का अन्वयव्यतिरेक । ३. इस प्रसङ्ग में यह कहने का अवकाश है कि धूम हेतु में जिस प्रकार अतीन्द्रिय उपाधि की शङ्का की बात की गयी है, उसी प्रकार अतीन्द्रिय पिशाचादि में घूमादि के ३६
३०६ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली न । एवमप्युभयगामिनोऽव्यभिचारनिबन्धनस्यैकस्याऽविवेचनात्, प्रत्येकं चाव्यापकत्वात् । कुतश्च कार्यात्मानौ कारणत्मानञ्च न व्यभिचरत इति ? पू० प० न, एवपप्युभयगामिनः ( ‘तादात्म्य’ और ‘उत्पत्ति’ ) क्या ये दोनों मिलकर व्याप्ति के ग्राहक हैं ? अथवा परस्पर निरपेक्ष दोनों में से प्रत्येक व्याप्ति का ग्राहक है ? इन में पहिला पक्ष इसलिये अयुक्त है कि सम्मिलित दोनों को व्याप्ति का ग्राहक मानने में कोई प्रमाण नहीं है। यदि द्वितीय पक्ष को स्वीकार करेंगे तो उन दोनों का संग्राहक ( अनुगमक ) किसी एक धर्म को मानना होगा । किन्तु वैसा कोई धर्म उपलब्ध नहीं है । कुतश्च दूसरी बात यह है कि कारण कार्यों के बिना न रहे, या कारणों के रहने पर कार्य अवश्य रहें, इसका नियामक कौन है ? ऐसा भी कहा जा सकता है कि कारणों के रहने पर भी कार्य नहीं है । प्रथवा कार्य के रहते हुए भी कारण नहीं रहेंगे । अतः ‘उत्पत्ति’ को व्याप्ति का ग्राहक नहीं माना जा सकता । कारणत्व की शङ्का भी तो की जा सकती है । तदनुसार यह भी कहा जा सकता है कि यह कोई नियम नहीं है कि धूम वह्नि का ही कार्य हो, धूम अतीन्द्रिय पिशाचादि से भी उत्पन्न हो सकता है । एवं यह नियम भी नहीं किया जा सकता कि वह्नि ही धूम का कारण है, अतीन्द्रिय पिशाचादि भी वह्नि का कारण हो सकता है । अतः उपाधि शङ्का के द्वारा अनुमान की अनुपपत्ति भले ही न हो, कथित अतीन्द्रिय कारणाम अथवा अतीन्द्रिय कार्यस्व की शङ्का से तो अनुमान की अनुपपत्ति हो ही सकती है । इसी अनुपपत्ति का बौद्धाभिमत समाधान उक्त संन्दर्भ से किया गया है । १. ‘तादात्म्य’ की व्याति प्राहकता के खण्डन को स्पष्ठ करते हुये व मान ने लिखा है कि ‘तादात्म्य’ के व्याप्तिग्राहकत्व का मूल है ‘विपक्षवाधकत के’ । तर्क के लिये भी व्याप्ति की अपेक्षा होती है। तर्क में जिस व्याप्ति की अपेक्षा होगी, उसके लिये दूसरे तर्क की अपेक्षा होगी तो ‘अनवस्था’ हो जायगी। तर्क के प्रयोजक व्याप्ति में यदि (विपक्षचाधक ) तर्क की अपेक्षा को स्वीकार नहीं करेंगे, तो तर्क में व्याप्ति ग्रहण की कारणता व्यभिचार तुष्ट हो जायगी । अता ‘वादात्म्य’ को भी व्याप्ति का नियामक नहीं माना जा सकता । तस्मात् अनुमान प्रमाण नहीं है ।
シ अत्रोच्यते- तृतीयः स्तबक! शङ्का चेदनुमास्त्येव न चेच्छङ्का ततस्तराम् । व्याघातावघिराशङ्का तर्कः शङ्काऽवधिमंतः ॥ ७ ॥ सि० शङ्काचेत् ३०७ यदि ‘शङ्का’ ( अर्थात् अतीन्द्रिय उपाधियों की कथित ‘शङ्का’ प्रथवा व्यभिचार की ‘शङ्का’ ) है, तो फिर ‘अनुमा’ अर्थात् ‘अनुमान’ भी अवश्य है ( अर्थात् अनुमान को प्रमाण मानना ही होगा ) । यदि पूर्वोक्त शङ्कायें नहीं हैं, तब तो अनुमान प्रमाण सुतराम्’ है हो ( अर्थात् अनुमान की सत्ता को विघटित करनेवाली शायें यदि नहीं हैं, तो फिर अनुमान को प्रमाण मानने में बाघा ही क्या है ? तर्कः शङ्कावधिः तर्क के द्वारा ही उपाधियों की उक्त शङ्का अथवा व्यभिचार विषयक शाओं का निरास होगा । व्याधातावधिराशङ्का … शताओं की उक्त परम्परा तभी तक चल सकती है, जब तक कि प्रवृत्यादि की अनुपपत्तियां उपस्थित न हों ।’ । अतः जिस हेतु में उपाधि न रहे वही हेतु साध्य का ज्ञापक होता है, व्यभिचारी हेतु उपाधि का जा अभाव निश्चित न हो तब तक किन्तु उपाध्यभाव के निश्चय की १. चार्वाकों ने अनुमान के प्रामाण्य के प्रसङ्ग में प्रतिवाद किया था कि ( १ ) उपाधि युक्त हेतु साउथ का व्यभिचारी होता है साध्य का व्याप्य होगा । व्याप्य हेतु हो नहीं । इस स्थिति में जबतक हेतु में उस से अनुमिति की आशा नहीं की सकती । ही कोई सम्भावना नहीं दीखती है। क्योंकि यह कैसे समझा जाय कि अमुक हेतु में उपाधि है या नहीं । ’ उपाधि को केवल नहीं देखने भर से उसके अभाव का निर्णय नैयायिक स्वीकार नहीं करते। वे तो न देखने योग्य वस्तुओं की सत्ता को भी स्वीकार करते हैं । हमलोगों की तरह केवल अनुपलब्धि को प्रभाव का ग्राहक नहीं मानते, वे तो योग्य वस्तुओं की अनुपलब्धि को ही अभाव का ग्राहक मानते हैं । अतः अतीन्द्रिय उपाधियों की शङ्का सभी हेतुओं में रहेगी ही । इस प्रकार व्याप्ति का निश्चय ही संकटग्रस्त है । ( २ ) स्थूल रूप से देखने पर भी व्याप्ति का निश्चय अनुपपच मालूम होता है। क्योंकि देश और काल दोनों ही अनन्त हैं, अतः इस सम्भावना का प्रतिरोधक कोई नहीं दीखता कि किसी भी देश में किसी भी काल में धूम बिना वह्नि के नहीं रह सकता । जब कि सभी देशों एवं सभी कालों का प्रत्यक्ष किसी को हो ही नहीं सकता, तब उन अप्रत्यक्ष देशों और अप्रत्यक्ष कालों में व्यभिचार की शङ्का अवश्य बनी रहेगी ।
३०५ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली कालान्तरे कदाचिद्व्यभिचरिष्यतीति कालं भाविनमाकलय्य शङ्कयत । तदाकलनञ्च नानुमानमवधीर्यं कस्यचित् । मुहूर्तयामाऽहोरात्र पक्षमासत्वंयन संवत्सरा- दयो हि भाविनो भवन्मूहूर्ताद्यनुमेया एव । अनवगतेषु स्मरणस्याप्यनाशङ्कनीयत्वात् । अनाकलने वा, कमाश्रित्य व्यभिचारः शङ्कय े त ? । तथा च सुतरामनुमानस्वीकारः । एवञ्च देशान्तरेऽपि वक्तव्यम् । ! कालान्तरे ‘सभी हेतु किसी काल अथवा किसी देश में व्यभिचरित न हों” इस प्रकार की ‘आशा’ भावी फाल एवं भावी देश के अवलम्बन से ही हो सकती है। किन्तु इसके लिये भावी काल अथवा भावी देश का ‘आकलन’ अर्थात् निश्चय आवश्यक है । यह आकलन रूप निश्चय अनुमान प्रमाण को छोड़कर प्रोर किसी भी प्रमाण से सम्भव नहीं है । क्योंकि मुहूर्त, प्रहर, अहोरात्र, पक्ष, मास, ऋतु, अयन सम्बत्सरादि भावी काल केवल अनुमेय ही हो सकते हैं। २ प्रनवगतेषु R ( यद्यपि स्मृतियों के उनमें भी परम्परया प्रमाण की अपेक्षा होती है। क्योंकि स्मृति पूर्वानुभव से उत्पन्न होती है। किसी भी विषय का प्रथम संस्कार पूर्वानुभव से ही होगा । अत: ‘अनवगत’ अर्थात् सर्वथा अननुभूत विषय का संस्कार भी नहीं हो सकता । अतः भावी देश एवं काल का जब किसी को कभी अनुभव ही नहीं होता, तो फिर उनकी स्मृति भी नहीं हो सकती । अतः भाषी देश काल की स्मृति के सहारे भी कथित व्यभिचार संशय को उपपत्ति नहीं की जा सकती । लिये प्रमाण की साक्षात् आवश्यकता नहीं होती है तथापि अतः अनुमान का प्रामायय सम्भव नहीं है, एवं सभ्मूलक ईश्वर सिद्धि की भी कोई सम्भावना नहीं है । चार्वाक के इन्हीं बातों का समाधान इस श्लोक के द्वारा आचार्य ने किया है। १. ‘कालान्तरे’ यहाँ से लेकर ‘वकन्पम्’ इतने पर्यन्स के सन्दर्भ से कारिका के पूर्वार्द्ध की व्याख्या की गयी है । २. उक्त सन्दर्भ का यह अभिप्राय है कि चार्वाक जिस भाषी काल एवं देश को लेकर हेतुओं मैं व्यभिचार संशय का उद्भावन करते हैं, वे भावी कालादि भी तो प्रत्यक्षवेध नहीं हैं, अतः वे भावी कालादि के द्वारा व्यभिचार संशय का उद्भावन नहीं कर सकते । क्योंकि वे केवल प्रत्यक्ष को ही प्रमाण मानते हैं । अतः अप्रत्यक्ष भावी कालादि तो उनके मत से गगन कुसुमादि के समान प्रतीक हैं । अगर भावी देशकालादि के द्वारा व्यभिचार शंका का उद्भावन उन्हें करना है, तो उनकी सत्ता के लिये अनुमान प्रमाण को भी उन्हें मानना होगा । अतः यदि उक्त व्यभिचार शंका है, तो अनुमान प्रमाण भी अवश्य है । । कोट पल किम पू० &he । की सि विन स्व तर्क उस हो १.
तृतीयः स्तबक ३०६ स्त्रीकृतमनुमानम्, सुहृद्भावेन पृच्छामः कथमाश का निवर्तनीया इति चेत् ? न, यावदाशङ्क तर्कप्रवृत्तेः । तेन हि वर्तमानेनोपाधिकोटौ तदायत्तव्यभिचार- कोटौ वाऽनिष्टमुपनयतेच्छा विच्छिद्यते । विच्छिन्नविपक्षेच्छश्च प्रमाता भूयोदर्शनो- पलब्धसाहचर्यं लिङ्गमनाकुलोऽधितिष्ठति, अधिष्ठिताच्च करणात् क्रियापरिनिष्पत्तिरिति किमनुपपन्नम् ? । पू० प० स्वीकृतम् उक्त संशयों की उपपत्ति के लिये विवश होकर हम अनुमान को प्रमाण मान लेते हैं । तथापि तत्वबुभुत्सा से प्रेरित होकर ‘मित्रभाव’ से पूछते हैं कि उक्त व्यभिवार शङ्काओं की निवृत्ति किस प्रकार हो ! सि० यावदाशङ्कम 100 190 किमनुपपन्नम् जब तक उक्त व्यभिचार शङ्का अथवा उपाधि शङ्का चलेगी, तब तक तर्क भी उनको विनष्ट करने के लिये चलता रहेगा । तर्क अपनी विद्यमानता के द्वारा अपने अनिष्टापति स्वरूप के द्वारा पक्ष विशेष्यक सान्याभाव प्रकारक निश्चय की इच्छा को विनष्ट करता है । तर्क के द्वारा जब उक्त इच्छा रूप ‘विपक्षेच्छा” का विनाश प्रमाता पुरुष में उस प्रमाता पुरुष को जिस प्रकार की व्याप्ति का ज्ञान अपेक्षित रहता है, हो जाता है, इसमें किसी प्रकार की अनुपपति नहीं है ।” १. पाठक्रम के अनुसार तृतीयचरण की अनुसार चतुर्थचरण की ही व्याख्या कि शंका की अवधि तर्क पर्यन्त ही उपाधिशंका दोनों का निरास होगा। है । हो जाता है, तब वह निर्विघ्न प्राप्त व्याख्या पहिले प्रात होने पर भी अर्थक्रम के पहिले की गयी है। इस सन्दर्भ का आशय है अर्थात् तर्क से ही उक्त व्यभिचार शंका एवं सभी हेतुओं में व्यभिचार की शंका नहीं होती । जिन हेतुधा में व्यभिचार की शंका होती है, उनकी निवृत्ति तर्क से होती है । उसके बाद व्याप्ति निश्चय निरबाघ होकर अनुमिति का संपादन करता है। । पर ‘धूमो यदि उक्त व्यभिवार ‘धूमो वह्निव्यभिचारी नवा’ इस आकार का संशय होने वह्निव्यभिचारी स्थात्तदा वह्निजम्यो न स्यात्’ इस आकार के तर्क से शंका की निवृत्ति होती है । वह्नि के रहने पर धूम उत्पन्न होता है धूम के अन्य कारणों रहते हुये भी वह्नि के न रहने पर धूम की उत्पत्ति नहीं होती है। इस प्रकार के अन्वय और व्यतिरेक से यह निःशंसशय समझा जाता है कि वह्नि धूम का कारण है, और धूम वह्नि से उत्पन्न होता है । किन्तु धूम पदि वह्नि का व्यभिचारी हो अर्थात् वह्नि से रहित स्थानों में भी रहे, तो भूम को बह्नि से उत्पन्न नहीं कहा जा सकता । क्योंकि कारण से रहित आश्रय में कार्य की उत्पत्ति नहीं हो सकती । यदि यह
३१० गद्यपञ्चात्मक-न्यायकुसुमाञ्जलौ ननु तर्कोऽप्य विनाभावमपेक्ष्य प्रवर्तते, ततोऽनवस्थया भवितव्यम् । पू० न नु तर्कोऽपि तर्क की प्रवृत्ति मी ‘अविनाभाव’ अर्थात् व्याप्ति की अपेक्षा रखती है । अतः तर्क के सहारे यदि व्याप्ति निश्चय का सम्पादन करें तो अनवस्था होगी । ’ कहना संभव हो कि जिस स्थान में वह्नि नहीं है, उस स्थान में भी धूम है’ तो फिर यह कहना संभव नहीं होगा कि घूम वह्नि से उत्पन्न कार्य हैं। सुतराम् धूम में जो प्रामाणिक वह्निजन्यत्व है, उसका त्याग एवं अप्रमाणिक वह्निजन्यत्वाभाव का स्वीकार रूप अनिष्टापत्ति स्वरूप ही उक्त तर्क है । ‘तेन हि वर्तमानेन’ इत्यादि सन्दर्भ को समझने के लिये यह ध्यान रखना चाहिए कि जिस प्रकार अनुभव के अनुरोध से व्याप्य संशय से व्यापक संशय क्रम के अनुसार घूम संशय से वह्नि का संशय मानना पड़ता है, उसी प्रकार अनुभव के अनुरोध से ही पर्वत में धूम के देखने के बाद धूम में यदि वह्नि के व्यभिचार का संशय होगा, तो व्यभिचार के संशय से पर्वत में वह्नि का भी संशय अवश्य ही होगा। इससे यह इस सामान्य नियम निष्पन्न होता है कि जिस पक्ष में दृष्ट जिस हेतु में जिस साध्य का संशय होगा । उस संशय से पक्ष में साध्याभाव के निश्चय की इच्छा उत्पन्न होगी । जिस पक्ष में साध्याभाव का निश्चय रहेगा, उस पक्ष में रहने वाले हेतु में उस साध्य की व्याप्ति का निश्चय नहीं हो सकता। इस प्रकार पक्ष में साध्याभाव का निश्चय भी पक्ष में विद्यमान हेतु में साध्यव्याप्ति का विरोधी है । इस रीति से पच में साध्याभाव के निश्चय की इच्छा भी पक्षवृत्ति हेतु में साध्यव्याप्ति की विरोधिनी है। क्योंकि जो जिसका प्रतिबन्धक होता है, उसका कारण भी उसका प्रतिबन्धक होता है । जिस समय तर्क विद्यमान रहता है, उस समय व्यभिचार संशय हो ही नहीं पाता । जिससे साध्याभावनिश्चयेच्छा रूप जिज्ञासा स्वतः रुक जाती है । अतः तर्क के बाद हेतु विशेष्यक व्याप्तिज्ञान में कोई बाधा नहीं रह जाती। इस प्रकार वर्क के सहारे व्यभिचार शंका की निवृत्ति होती है, एवं तदन्तर निर्विध्न व्याप्तिज्ञान से अनुमिति की उत्पत्ति में कोई बाधा नहीं रह जाती । १. यह सन्दर्भ ‘प्राघातावधिशशंका’ श्लोक के इस तीसरे घरच की व्याख्या रूप है । इस सन्दर्भ के द्वारा उक्त तृतीय चरण के द्वारा समाधेय पूर्वपक्ष का उत्थापन किया गया है । पूर्वपक्ष को अच्छी तरह समझने के लिए ‘धूमो यदि वह्निम्यभिचारी स्वात्तदा वह्निजन्यो न स्यात्’ इस तर्क को इष्टान्त रूप से लेना होगा । न व्या হश सि व्यि शङ्क धूम प्रवृि . प्रयो में य उपि हैं उन शब्द
तृतीयः स्तबक ३११ न शङ्काया व्याघातावधित्वात् । तदेव ह्याशङ्कयते, यस्मिन्नाशङ्कयमाने स्वक्रिया व्याघातादयो दोषा नावतरन्तीति लोकमर्यादा । न हि हेतुफलभावो न भविष्यतीति शङ्कितुमपि शक्यते । तथा सति शङ्कव न स्यात्, सर्वं मिथ्या भविष्यतीत्यादिवत् । । सि० प० न, शङ्काया FOX 1060 0. भविष्यतीत्यादिवत् यह नियम नहीं है कि सभी हेतुओं में व्यभिचार शक्ता अवश्य हो । जिन हेतुओं में व्यभिचार की शङ्का होगी, उनकी निवृत्ति तर्क से होगी। यदि सभी जगह व्यभिचार की शङ्का अवश्य हो, तो शङ्का करने वाले की अपनी ही प्रवृत्तियाँ अनुपपन्न हो जायेंगी । यदि धूम में वह्निजन्यस्व का सन्देह मान लें तो धूमार्थी पुरुष की वह्नि के ले आने की निष्कम्प प्रवृत्ति अनुपपन्न हो जायगी । किन्तु उक्त शङ्का करने वाले पुरुष को भी जब घूम का प्रयोजन होता है, तो आग लाने के लिये ही दौड़ते हैं, पानी लाने के लिये नहीं । अतः घूम में यदि वह्निजन्यत्व का संशय मानेंगे तो उक्त निष्कम्प प्रवृत्ति की अनुपपत्ति रूप ‘व्याघात’ उपस्थित होगा । इसी प्रकार दूसरे को समझाने के लिये लोग शब्द का प्रयोग यह समझ कर करते हैं कि उस दूसरे व्यक्ति में अभीष्ट बोध को उत्पन्न करने की शक्ति उन शब्दों में है । यदि उन शब्दों में भी उक्त बोध की कारणता को सन्दिग्ध मानलें, तो दूसरों की प्रतीति के लिये शब्द प्रयोग की प्रवृत्ति भी अनुपपन्न हो जायगी । । इस तक’ से धूम में वह्निम्यभिचारिश्व के द्वारा वह्निजन्यत्वाभाव की आपत्ति दी गयी है। ‘आपत्ति’ आहार्यज्ञान स्वरूप है । इस आहार्यज्ञान का विषय वह्निजन्यत्वाभाव है ‘आपाथ’ | जिसकी आपत्ति दी जाय वही है ‘आपाथ’ । धूम में वह्निम्पभिचारिश्व के आरोप का विषय वह्निम्यभिरित्व है ‘श्रपादक’ । अर्थात् आपशि का प्रयोजक । किन्तु यह छावशि तभी दी जा सकती है, जब कि यह स्वीकार करना संभव हो कि जिन सभी स्थानों में वह्निम्याभिचारित्व है, उन सभी स्थानों में वह्निजन्यस्व भी नहीं है । वह्निग्पाभिचारित्व और वह्निजन्यत्वा- भाव इन दोनों का यह नियत सामानाधिकरण्य व्याप्ति को छोड़ कर और कुछ नहीं है। यदि आपाथ में आपादक की यह व्याप्ति स्वीकार न की जाय तो यह कहा जा सकता है कि धूम वह्निम्यभिचारी होने पर भी वह्निह्नजन्य हो सकता है, अतः वह्निम्यभिचारी होने के कारण धूम को वह्निजन्य होने में कोई बाधा नहीं है। ऐसी स्थिति में उक्त अनिष्टापत्ति रूप तर्क भी न हो सकेगा। अतः तक भी व्याप्ति सापेक्ष है । इसलिए कथित तक में अपेक्षित व्याप्ति का विरोधी यह व्यभिचार संशय भी भावी देशकाल के सहारे उद्भूत हो सकता है कि ‘वह्निजन्यत्वाभावो वह्नि- व्याभिचारित्वव्याभिचारी न वा’। इसकी निशि के लिए यदि दूसरे तक का सहारा लेंगे तो अनवस्था होगी। इसी अवनस्था दोष के परिहार के लिए आचार्य ने ‘व्याघाताच धिराशका’ यह तीसरा चरण लिखा है । CCO. Vasishtha Tripathi Collection. Digitized by eGangotri३१२ गच्चपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली तथापि अतीन्द्रियोपाधिनिषेधे किं प्रमाणमित्युच्यतामिति चेत्; न वै कश्चिदतीन्द्रियोपाधिः प्रमाणसिद्धोऽरित, यस्याभावे प्रमाणमन्वेषणीयम् । केवलं साहचर्ये निबन्धनान्तरमात्रं शङ्कयते । ‘है एवं तृप्ति के लिये लोग भोजन में प्रवृत्त होते हैं। यदि भोजन में तृप्ति की कारणता सन्दिग्ध रहे तो भोजन में प्रवृत्ति भी अनुपपन्न होगी । अतः यही ‘लोकमर्यादा’ है कि शङ्का की धारा उतनी ही दूर तक जानी चाहिये, जहाँ से व्याघात दोष उपस्थित न हो । कि प्रवृत्तियों की उक्त अनुपपत्ति रूप यदि सभी कारणों में अपने-अपने कार्यों की कारणता सन्दिग्ध ही रहे तो यह ‘सन्देह’ अथवा ‘शता’ भी अनुपपन्न हो जायगी । क्योंकि शङ्का भी तो विना कारण के नहीं होती । व्यतः ‘हेतुफलभाव’ अर्थात् ‘कार्यकारणभाव’ की धारा निरवधि नहीं चल सकती । सभी विषयों में व्यभिचार की शङ्का तो उसी प्रकार अनुपपन्न है, जैसे कि ‘सर्व मिथ्या कार्यकारणभावभङ्गात्’ इस प्रकार के अनुमानों के प्रयोग अनुपपन्न हैं । अर्थात् कार्य कारणभावभङ्ग को मिथ्यत्व का ज्ञापक कारण मान कर उक्त न्याय प्रयोग भी करते हैं, एवं सभी वस्तुओं को मिथ्या भी मानते हैं । यदि कोई किसी का कारण ही नहीं है, तो उक्त ‘कार्यकारणभावभङ्ग’ रूप हेतु भी मिथ्यास्व सिद्धि का कारण नहीं है । अतः प्रवृत्तियों के इन व्याघातों से व्यभिचारादि शङ्काओं की धारायें अवरुद्ध हो जाती हैं । अतः तर्क को व्यभिचार शङ्खा का निवर्तक मानने में मनवस्था दोष नहीं है । पू० प० तथापि श्रतीन्द्रियोपाधिनिषेधे व्यभिचार शङ्का की निवृत्ति यदि उक्त प्रकार से मान भी लें, तथापि अतीन्द्रिय उपाधि की शङ्का की जो चर्चा की गयी है, उसके निषेध में कौन-सा प्रमाण है ? सि० प० न वै कश्चित् कोई भी प्रमाण नहीं है । अर्थात् पहिले कह आये हैं कि प्रमाणों से सिद्ध पदार्थों का ही निषेध भी होता है । अतीन्द्रिय उपाधि की सत्ता में जब कोई प्रमाण नहीं है, तो फिर उसका निषेधक भी कोई प्रमाण नहीं है । जैसे कि गगनकुसुमादि का निषेधक कोई प्रमाण नहीं है । . जिज्ञ कोई सि० होती है, उ भी उसके में ज ‘अन्य घि शङ्क की का ‘नि ही जि के ‘नि बा केवलम् उपाविशता के प्रसङ्ग में केवल इतना हो अन्वेषणीय है कि हेतु में साध्य का जो सामानाधिकरण्य दृष्ट है, उसके मूल साध्य भौर हेतु ये दोनों स्वयं हैं ? अथवा उसके मूळ में
तृतीयः स्तबक ! । ३१३ ततः शङ्खव फलतः स्वरूपतश्च निवर्तनीया । तत्र फलमस्याविपक्षस्यापि जिज्ञासा तर्कादाहत्य निवर्तते । ततोऽनुमानप्रवृत्ती शङ्कास्वरूपमपीति सर्वं सुस्थम् । कोई दूसरा है ?’ यही शङ्का ‘उपाधिशङ्का’ शब्द से व्यवहृत होती है । सि० प० ततः शङ्क व 904 45 118 केवल भूयोदर्शन से न होती है । किन्तु जिस प्रकार सर्व सुस्थम् व्याप्ति गृहीत होती है, न सभी हेतुओं में व्याप्ति की शङ्का हो घूम में बह्नि का केवल स्वमूलक सामानाधिकरण्य प्रतीत होता है, उसी प्रकार स्फटिकस्व में रक्तिमा का अथवा वह्नि में घूम का अन्यमूलक सामानाधिकरण्य भी ज्ञात होता है ( क्योंकि स्फटित्व में रक्तिमा के सामानाधिकरण्य की जो प्रतीति होती है, उसके मूल में स्फटिकत्व एवं रक्तिमा इन दोनों से ‘अन्य’ जवाकुसुम भी मूल है। एवं वह्नि में जो धूम का सामानाधिकरण्य प्रतीत होता है, उसके मूल में भी वह्नित्व एवं घूमत्व ‘अन्य’ धूम का प्रार्द्रेन्धनप्रभवत्व भी ‘मूल’ है ) । से इस से कुछ हेतुओं में यह शङ्का उत्पन्न होती है कि ‘इन में जो साध्य का सामाना- धिकरण्य देखा जाता है, इसका मूल (निबन्ध) कोई ‘अन्य’ तो नहीं है ? हेतु में इस शङ्का के ‘संसर्ग’ से हेतु में घूम से युक्त पर्वत क्या अग्नि से रहित हो सकता है ? इस आकार की ‘विपक्षसंसर्ग की जिज्ञासा’ उदित होती है। इस जिज्ञासा से घूम में वह्नि निरूपित व्याप्ति का निश्चय प्रतिरुद्ध हो जाता है । श्रतः कारणीभूत ‘निबन्धान्तरथखा’, एवं इस ‘निबन्धान्तरथङ्का’ से उत्पन्न ( फलीभूत) ‘विपक्ष जिज्ञासा’ ( अर्थात् पक्ष स्वरूप पर्वत को ही ‘विपक्ष’ समझने की इच्छा) इन दोनों का विनाश ही अपेक्षित है, इनमें से कथित ‘फलीभूत- जिज्ञासा’ का विनाश हो संघे तर्क से होता है । इसके बाद व्याप्ति निश्चय में किसी बाधा के न रहने से अनुमिति निर्विघ्न उत्पन्न हो जाती है । इस अनुमिति से कारणीभूत कथित ‘निबन्धान्तरशङ्का’ का विनाश स्वतः हो जाता है। इस प्रकार प्रकृत में कही गयी सभी बातें युक्त हैं ! १. स्फटिकाव के साथ रक्तिमा का जो सामानाधिकरयय देखा जाता है, उसका मूल स्फटिकत्व और रक्तिभा इन दोनों से भिन्न जवाकुसुम की रक्तिमा भी है । अथवा वह्नि में जो धूम का सामानाधिकरण्य है, उसका मूल उन दोनों से भिन्न धन- प्रभवश्व भी है। किन्तु धूम में जो वह्नि का सामानाधिकरयय देखा जाता है, उसके मूल में तो धूम और वह्नि इन दोनों से भिन्न कोई तीसरा नहीं है। ४०
३१४ गद्यपद्यात्मक-न्याय कुसुमाञ्जली न चैतदनागमम्, न्यायाङ्गतया तर्क व्युत्पादयतः सूत्रकारस्याभिमतत्वात् । श्रन्यथा तद्वय त्पादनवैयर्थ्यात् । तदयं संक्षेपः यत्रानुकूलतर्को नास्ति सोऽप्रयोजकः । स च द्विविधः शङ्कितोपार्घिनिश्चितोपाधिश्च । यत्रेदमुच्यते— 1 यावञ्चाव्यतिरेकित्वं शतांशेनापि शङ्क्यते । विपक्षस्य कुतस्तावद्ध तोर्गमनिकाबलम् ॥ तत्रोपाधिस्तु, साधनाव्यापकत्वे सति साध्यव्यापकः पा तत नि त नं चेतदनागमस् … .. अनुमिति के प्रति तर्क को कारण मानना न्यायशास्त्र रूप आगम के विरुद्ध भी नहीं है, क्योंकि न्यान्यदर्शन के आदि प्रवर्तक गौतम ऋषि ने तत्वज्ञान के उपयोगी जिन सोलह पदार्थों का उल्लेख किया है, उनमें ‘तर्क’ भी है । इस तर्क का उल्लेख उन्होंने न्याय स्वरूप ‘अवयव’ पदार्थ के बाद ही किया है । इससे यह स्पष्ट है कि ‘न्याय’ के प्रङ्ग रूप में ही उन्होंने तर्क का उल्लेख किया है ‘न्याय’ अनुमिति का कारण है । अतः न्याय का प्रङ्ग तर्क इस प्रकार का अभिप्राय तर्क के उल्लेख से सूत्रकार का समझा जा को यदि मनुमिति के कारण न्याय का अङ्ग न मानें तो सूत्रकार धनुमिति का भी अङ्ग है। सकता है । ‘अन्यथा’ तर्क । के उन सोलह पदार्थों में तर्क का परिगणन एवं तर्क के लक्षण सूत्रादि का प्रणयन सभी व्यर्थं हो जायेंगे । अतः ‘तर्क’ भी न्यायशास्त्र रूप ‘आगम’ प्रमाण मूलक ही है, निरी कल्पना रूप प्रमुलक नहीं है । तदयम् विशेषतः भूयोदर्शना विप्लवे कोऽयमप्रयोजको नाम ? ( विस्तार पूर्वक कहे गये इन सभी बातों का ) संक्षेप में सार ममं रूप उत्तर यह है कि जिस हेतु में व्याप्ति बिरोधिनी व्यभिचारशङ्का को निवृत्त करने के के लिये ‘अनुकूलतर्क’ विद्यमान रहे, वही हेतु अनुमिति का ‘प्रयोजक’ हेतु है । जिस हेतु में व्याप्ति का सहायक उक्त अनुकूल तर्क न रहे, वह हेतुं धनुमिति का ‘अप्रयोजक’ हेतु है । यह ‘अप्रयोजक’ हेतु (१) शङ्कितोंपाधिक और (२) निश्चितोपाधिक भेद से दो प्रकार का है। इनमें से शांकितोपाधिक हेतु ही प्रयोजक है, जिसके प्रसङ्ग में ‘यावच्चाव्यतिरेकित्वम्’ इत्यादि से कहा गया है कि ( जिसमें साध्य का अभाव निश्चित रहे, वही विपक्ष है ) ( विपक्ष ) में जिस हेतु के रहने की शंका सौ ग्रंथों में से एक अंश में भी रहेगी, उस हेतु में साध्य के ज्ञापन की सामर्थ्य कहाँ से आवेगी ? में श्रा सम धू स्व उ उ सा वि भ f
तृतीय स्तबक: ३१५ तद्धर्मभूता हि व्याप्तिजंपाकुसुमरक्ततेव स्फटिके साधनाभिमते चकास्तीत्यु- पाधिरसावुच्यत इति । तदिदमाहु:- ‘अन्ये परप्रयुक्तानां व्याप्तीनामुपजीवकाः । तैरष्टैरपि नैवेष्टा व्यापकांशाऽवधारणा’ ॥ इति ॥ तदनेन विपक्षदण्डभूतेन तर्केण सनाथे भूयोदर्शने, कार्यं वा, कारणं वा, ततोऽन्यद्वा समवायि वा, संयोगि वा, अन्यथा वा, भावोऽभावो वा, सविशेषणं निर्विशेषणं वा लिङ्गमिति निःशङ्कमवधारणीयम् । अन्यथा तदाभास इति रहस्यम् । तद्धर्मभूता हि • ‘उपाधि’ का सामान्य लक्षण ( रुढघर्थं ) यह है कि ‘जो साध्य के सभी प्रधिकरणों में रहे, एवं हेतु के सभी अधिकरणों में न रहे वही ‘उपाधि’ है। ‘उपाधि’ के ( उप-समीपवर्तनि, प्रादधाति स्त्रीयं धर्मंमित्युपाधिः ) इस यौगिक अर्थ के अनुसार जिस प्रकार जवाकुसुम अपने समीप के स्फटिक में रक्तिमा को आहित करने के कारण ‘उपाधि’ कहलाता है, उसी प्रकार घूम की सिद्धि के लिये प्रयुक्त वह्नि हेतु में भी प्राद्वैन्धनसंयोग स्ववृति धूमज्ञापकत्व स्वरूप धर्म का आवान इसलिये करता है कि धूम भाद्रेन्धन संयोग से उत्पन्न होने के कारण उसका समीपवर्ती है । अतः धूम साधन के लिये उपन्यस्त वह्नि हेतु में आर्द्रेन्धन संयोग उपाधि है । यह श्राद्र्धन संयोग में उपाधि शब्द का रूढयर्थं ‘साध्यव्यापकत्व के साथ साथ साधनाव्यापकस्व’ भी है ही, क्योंकि जहाँ भी धूम है, वहां आद्रेन्धन संयोग अवश्य है, किन्तु वह्नि जिन सभी स्थानों में है, उनमें से अयोगोलक में वह्नि के रहने पर भी आन्धनसंयोग नहीं है । ‘अप्रयोजकहेतु’ का यही लक्षण ‘अन्ये परप्रयुक्तानाम्’ इत्यादि से श्लोकवार्तिक (१४-७-१५ ) में भी कहा गया है। जिसका यह अर्थ है कि “अन्य अर्थात् निरुपाधि हेतु से भिन्न सोपाधिक हेतु, जिस लिये कि ‘परप्रयुक्त’ अर्थात् हेतु घोर साध्य से भिन्न ‘उपाधि’ के द्वारा व्याप्ति का उपजीवक है, भतः सोपाधिक हेतु में व्यापकीभूत साध्य का नियत सामानाधिकरण्य अथवा भूयोदर्शन के रहने पर भी उस हेतु से ‘व्यापकांश’ को अर्थात् साध्य की ‘अवधारणा’ अर्थात् अनुमिति इष्ट नहीं है । तदनेन इस प्रकार सद्धेतु भौर हेत्वाभास के प्रसङ्ग में यह निर्वचन समझना चाहिये कि जिस हेतु का साध्य के साथ एक आश्रय में साथ साथ बार बार देखना ( भूवोदर्शन ) कथित ‘विपक्ष बाधक’ तर्क रूप बल से युक्त हो, वही हेतु साध्य का ज्ञापक ‘सद्धेतु’ है । इस प्रकार का हेतु साध्य का कार्य हो, अथवा साध्य का कारण हो, या दोनों में कार्यकारणभाव ही न
३१६ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली तादात्म्यतदुत्पत्त्योरप्येतदेव बीजम् । यदि कार्यात्मानौ कारणात्मानश्चा- तिपतेतां, तदा तयोस्तत्त्वं व्याहन्येत । अत एव सामग्री निवेशिनश्चरमकारणादपि कार्यमनुमिते सौगता अपि । तस्माद्विपक्षबाधकमेव प्रतिबन्धलक्षरणम् । रहे— कोई प्रन्तर नहीं आता । एवं उक्त प्रकार का हेतु पक्ष में संयोग सम्बन्ध से रहे, अथवा समवाय सम्बन्धं से रहे. कि वा इन दोनों सम्बन्ध से भिन्न किसी अन्य सम्बन्ध से ही रहे - सद्धेतुश्व में कोई बाघा नहीं होती है । इसी प्रकार उक्त हेतु भाव रूप हो, अथवा अभाव रूप, पक्ष का विशेषण रहे अथवा पक्ष का विशेषण न रहे - अर्थात् जो हेतु जैसा भी रहे यदि विपक्षबाधकतर्क रूप बल से युक्त भूयोदर्शन का वह विषय है, तो वह प्रकृत ‘हेतु’ अर्थात् सद्धेतु है । जिस हेतु में उक्त बलशाली भूयोदर्शन स्वरूप उक्त विशेष नहीं है, वह ‘हेनु’ नहीं किन्तु ‘हेत्वाभास’ है । तादात्म्य तदुत्पयोः … बोद्धों ने जो तादात्म्य एवं तदुत्पत्ति इन दोनों को व्याप्ति का प्रयोजक मानते हैं, उसके मूल में भी ‘विपक्षब घकतर्क’ का यही बल निहित है। क्योंकि तादात्म्य मूलक व्याप्ति का उदाहरण है, वृक्ष और शिशपा की व्याप्ति। यहां भी यह व्यभिचार शङ्का हो ही सकती है कि ‘यद्यपि साधारणतः यही देखा जाता है कि जो शिथपा है, वह वृक्ष भी अवश्य है’ किन्तु किसी व्यक्ति को ऐसी शिशपा यहाँ भी इस शङ्का का अवकाश है हि कि ‘कदाचित् कहीं का भी प्रत्यक्ष हो सकता है, जो वृक्ष न रहे । ‘तदुत्पत्ति’ मूलक व्याप्ति का उदाहरण है, घूम एवं वह्नि की व्याप्ति | इसमें व्यभिचार शङ्का का उपपादन कर आये हैं । यदि कार्यात्मानो … … … (उक्त शङ्कात्रों के निराकरण के प्रसङ्ग में यह भी कहा जा सकता है कि) ( १ ) यदि कार्य अपने कारण को छोड़कर भी रहे, तो उनमें कार्यकारणभाव ही व्याहत हो जायगा । (२) एवं ‘आत्मा’ अर्थात् स्व स्वरूप कोई वस्तु अपनी ‘आत्मा’ अर्थात् अपने तादात्म्य से युक्त किसी वस्तु को छोड़ कर भी रहे, तो वे दोनों परस्पर तादात्म्य से ही वश्चित हो जायेंगे । ये दोनों ही तर्क को छोड़कर बौर कुछ नहीं हैं । अत एव … … ‘प्रत एव’ जिस लिये कि तर्क रूप बल से युक्त भूयोदर्शन को ही व्याप्ति का प्रयोजक मानते हैं, प्रतः कारण समूह रूप ‘सामग्री’ के अन्तर्गत अन्तिम एक कारण रूप लिङ्ग से मो ना तत | का ‘ल तथ उन उ की ए प्र
तृतीय स्तवक! ३१७ तथाहि — शाकाद्याहारपरिणतिविरहिरिण मित्रातनये न किञ्चिदनिष्टमिति नासौ तस्य व्यापिका, व्यापिका तु श्यामिकायाः, कारणत्वावधारणात् । कारणश्च 2 तत् तस्य तदतिपत्य भवति चेति व्याहतम् । एवमन्यत्राप्यूहनीयमिति । कार्य की अनुमिति बोद्धगण भी स्वीकार करते हैं’ । अतः विपक्षबाधक तर्क ही व्याप्ति का ‘लक्षण’ अर्थात् निश्चायक है । तथा हि … … मित्रा के जिस पुत्र में श्यामत्व का साधन इष्ट है, उससे भिन्न मित्रा के उस पुत्र में जो उनके शाकाहार का परिणाम नहीं है, उसमें श्यामत्व के स्वीकार न करने पर भी किसी अनिष्टापत्ति की संभावना नहीं है, अतः ‘शाकाहारपरिणति’ ( शाफाद्याहारजन्यत्व ) रूप उपाधि भित्रातनयत्व रूप साध्य का ध्यापक है । क्योंकि शाकाद्याहारपरिणति में श्यामत्व की कारणता निश्चित है । कोई भी वस्तु ( शाकाद्याहार जन्यत्व) किसी का कारण भी हो एवं वे दोनों परस्पर एक दूसरे को छोड़कर भी रहें- ये दोनों बातें परस्पर विरुद्ध हैं । इसी प्रकार और सभी स्थलों में कह करना चाहिये । २ १. कहने का तात्पर्य है कि केवल किसी एक कारण के रहने पर भी कार्य की उत्पति नहीं होती है । एवं सभी कारणों के रहने पर अर्थात् सामग्री के रहने पर कार्य की उत्पत्ति अवश्य होती है । अतः कोई एक कारण कार्य का ज्ञापक लिंग नहीं है, किन्तु सामग्री स्वरूप कारणसमूह ही कार्य का ज्ञापक लिंग है । किन्तु ‘चरम कारण ’ अर्थात् असमवायिकारण के रहने पर कार्य अवश्य होता है, अतः जहाँ सभी कारण अर्थात् सामग्री ज्ञात नहीं भी रहते हैं, वहीं सामग्री के अन्तर्गत चरम कारण रूप एक भी कारण से कार्य की अनुमिति बौद्धगण भी मानते हैं । अत एव मुदङ्ग में श्राघात के देखने से बधिरों को भी शब्द का अनुमान होता है । २. जहाँ विपक्षवाधकत के नहीं रहता है, उस अप्रयोजक हेतु में व्याप्ति का निर्णय भी नहीं होता है । जैसे कि ‘स श्यामः मित्रातनयश्वात्’ इस अनुमान के मित्रातनयत्व हेतु में व्याति का निर्णय नहीं हो पाता है। क्योंकि उक्त स्थल में ‘शाकपाकजस्म’ उपाधि है । वेधशास्त्र के अनुसार जिस वर्णं से युक्त द्रम्य का माहार गर्मियी करती है, उसी वर्णं से युक्त सन्तान भी उत्पन्न होता है । मित्रा के पुत्रों में जो श्यामता है, उसका भी कारण गर्भावस्था में मित्रा का श्यामवयं के शाकादि द्रव्यों का आहार करना ही है। अतः यह कहा जा सकता है कि जिस गर्भ के समय मित्राने
३१८ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली क पुनरप्रयोजकोऽन्तर्भवति ? । न । क्वचिदित्येके । तथा हि सिद्धसाधनं न बाधितविषम्, विषयापहाराभावात् । पू० प० क पुनः । ( ‘प्रप्रयोजक’ ) यदि ‘हेतु’ नहीं है तो हेत्वाभास होगा । किन्तु हेत्वाभास तो परिगणित हैं, उनमें ‘अप्रयोजक’ का नाम नहीं है । फलतः यह भी उन्हीं पाँच हेत्वाभासों में से कोई होगा उनमें से ) ‘प्रप्रयोजक’ को किस हेत्वाभास में अन्तर्भूत मानते हैं ? प्रावान्तर पू० प० न कचित् ९०० अप्रयोजक हेतु का अन्तर्भाव सव्यभिचारादि पाँच हेत्वाभासों में से किसी में भी संभव नहीं है । प्रतः जिस प्रकार ‘सिद्धसाधन’ सव्यभिचारादि किसी हेत्वाभास में अन्तर्मूत न होने पर भी ‘हेतुदोष’ होने के कारण एक स्वतन्त्र ही हेत्वाभास है, उसी प्रकार ‘अप्रयोधक’ हेतु भी अतिरिक्त हेत्वाभास ही है । यथा हि जिस प्रकार सिद्धसाधन दोष से युक्त हेतु ‘बाषित’ हेत्वाभास के अन्तर्गत नहीं आता है, क्योंकि उस हेतु से ज्ञाप्य साध्य की सत्ता पक्ष में रहती है ( पक्ष से साध्य का अपहार अर्थात् दूरीकरण नहीं होता) इसलिये सिद्धसाधन रूप हेतु का बाघ दोष के अन्तर्गत श्यामवयं के शाकादि द्रव्यों का आहार न किया होगा, उस गर्भ का उनका सन्तान गौरवणं का भी हो सकता है । अतः शाकपाकजस्व से शून्य जो मिश्रा का उक्त विशेष पुत्र है, उसमें श्यामत्व नहीं है । मित्रा के उस पुत्र में शाकपाकजत्व के न मानने पर भी किसी ‘आपत्ति’ रूप ‘अनिष्ट’ की संभावना नहीं है । अतः यहाँ विपक्षवाधकतर्क नहीं है। इस प्रकार शाकपाकजस्व रूप उपाधि मिश्रातनयत्व रूप हेतु का अध्यापक है । एवं उक्त उपाधि श्यामत्व का व्यापक भी है, क्योंकि शाकपाकजत्व श्यामश्व का कारण है । कार्य कारण के बिना नहीं रह सकता । किसी वस्तु को किसी वस्तु का कारण भी कहें, एवं उसके बिना उसका रहना भी स्वीकार करें- ये दोनों बातें नहीं हो सकतीं । फलतः शाकपाकजत्व रूप उपाधि में श्यामस्व रूप साध्य की व्यापकता को स्वीकार न करने पर यह विषववाधकतकं उपस्थित होगा कि ‘श्यामत्वं यदि शाकपाकजश्वव्यभिचारी स्यात्तदा तज्जभ्यों न स्यात्’ इस तर्क से श्यामस्व एवं शाकपाकजत्यत्व की व्याप्ति के निर्यात होने पर अर्थतः शाकपाकजस्व में श्यामत्व की व्यापकता सिद्ध हो जाती है । अतः शाकपाकजत्व श्यामत्व रूप साध्य का व्यापक और मिश्रातनयत्व रूप हेतु का अध्यापक होने से ‘उपाधि’ लक्षण से श्राक्रान्त है । सुतराम् उपाधि से युक्त होने के कारण उक्त हेतु ‘अप्रयोजक’ है। न च नहीं नहीं भी साध ना है । वि बाव हेव बाघ हेत्व का हो न को १.
तृतीय स्तबक: ३१६ नापि निर्णये सति पक्षत्वातिपातादपक्षधर्मः, कालातीतविलोपप्रसङ्गात् । न चानैकान्तिकादिः, व्यभिचाराद्यभावात्, नहीं आता है, उसी प्रकार यह ‘अप्रयोजक’ हेतु रूप नहीं प्राता है, क्योंकि पक्ष से साध्य का अपहरण भी हेतु अप्रयोजक हो सकता है । ( बाधित हेतु के साध्य पक्ष में न रहे ) | नापि निर्णये … दोष भी बाघ रूप हेत्वाभास के अन्तर्गत नहीं होता । पक्ष में साध्य के रहने पर लिये यह आवश्यक है कि उसका ज्ञाप्य ( किसी सम्प्रदाय का कहना है कि सिद्धसाधन हेत्वाभास नहीं है, किन्तु ‘अपक्षधर्म’ | क्योंकि उससे ज्ञाप्य साध्य पक्ष में निश्चत रहता है । जिससे साध्य सन्देह रूप ‘पक्षता’ विघटित होकर अनुमिति के उत्पादन को रोक देती है । अतः जिस प्रकार ‘सिद्धसाधन’ बाघादि हेत्वाभासों में अन्तर्भूत न होने पर भी ‘पक्षता’ रूप कारण विघटक होने से ही हेत्वाभास कहलाता है, क्योंकि उससे अनुमिति का प्रतिरोध होता है, उसी प्रकार ‘अप्रयोजक’ हेतु बाघादि हेत्वाभासों में अन्तर्भूत न होने पर भी अनुमित्युत्पत्ति का विरोधी होने के कारण हेत्वाभास कहला सकता है । कालातीत किन्तु यह कहना भी ठीक नहीं है ( क्योंकि ‘पक्षता’ का विघटक हेतु हेत्वाभः स नहीं हो सकता ) क्योंकि ऐसा मानने पर ‘कालातीत’ हेत्वाभास न कहला सकेगा । न चैकान्तादि … ‘सिद्धसाधन’ स्थल का हेतु साध्य से रहित आश्रय में नहीं रहता, अतः सिद्धसाधन को ‘मनैकान्तिक’ अर्थात् सव्यभिचार हेत्वाभास के अन्तर्गत भी नहीं माना जा सकत । २ १. जहाँ पक्ष में साध्याभाव निश्चित रहता है वहीं कालातीत अथवा बाघ दोष होता है। जैसे कि पक्ष में साध्य का निश्चय पक्ष में सन्देह रूप पक्षता का विरोधी है, वैसे ही पक्ष में साध्याभाव का निश्चय भी उक्त सन्देह (रूप पक्षता) का विरोधी है । अतः बाधस्थल में भी साध्य सन्देह रूप पक्षता का विघटन अवश्य होता है । इसलिये कालातीत स्थल में पक्षता के विघटन से ही अनुमिति की उत्पत्ति रुक जायगी, फिर कालातीत को हेत्वाभास मानने का क्या प्रयोजन ? अता यह कहना ठीक नहीं है कि ‘सिद्धसाधन’ चूँकि ‘अपक्षधर्म’ है अर्थात् ‘पक्षता’ का विघटक है, अत: हेत्वाभास नहीं है । २. ‘न चैकान्तादि!’ के ‘आदि’ पद से सिद्धसाधन का विषय एवं सत्प्रतिक्ष प्रभूति में अनन्तभव सूचित किया गया है। सिद्धसाधन चूँकि साध्याभाव का व्याप्य नहीं
३२० गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली तथाऽयमपि। सूत्रं तपलक्षणपरमिति । तदसत् । विभागस्य न्यूनाधिकसंख्याव्यवच्छेदफलत्वात् । क र्ताह द्वयोरन्तर्निवेश: ? । असिद्ध एव । तथा B ( जिस प्रकार सिद्धसाधन सव्यभिचारादि पाँच हेत्वाभासों में से किसी में अन्तर्भूत न होने पर भी ‘अपक्षधर्म’ अर्थात् पक्षता का विघटक होने से हेत्वाभास है, क्योंकि अनुमिति की उत्पत्ति का वह विरोधी है) उसी प्रकार ‘अप्रयोजक’ भी प्रतिरिक्त हेत्वाभास ही क्योंकि वह भी ( व्याप्ति निश्चय विघटक होने के नाते अनुमिति की उत्पत्ति का विरोधी है ) । ( सूत्रकार ने हेत्वाभासों के जो पांच नाम गिनाये हैं, उस का अभिप्राय हेत्वाभासों की संख्या का निद्धारण नहीं है। अतः उन की हेत्वाभास की पश्चत्वोंक्ति उपलक्षण मात्र है । प्रतः सूत्रकार की उक्त सूत्र के द्वारा कथित पाँच हेत्वाभासों से अतिरिक्त किन्तु युक्तिसिद्ध हेत्वाभासों का खण्डन नहीं किया जा सकता । सि० प० तदसत् ( कथित रीति से सिद्धसाधन अथवा प्रप्रयोजक हेतु को अतिरिक हेत्वाभास मानना ) उचित नहीं है, क्योंकि ‘सव्यभिचार- विरुद्ध प्रकरणसम - साध्यसम - कालातीता हेत्वाभासाः ( न्यायसू अ० - १ प्रा० - १ सू० ४) इस सूत्र के द्वारा महर्षि गौतम ने हेत्वाभास का ‘विभाग’ किया हैं । ‘विभाग’ का मुख्य उद्देश्य न्यूनाधिक संख्या का व्यवच्छेद ही है । तदनुसार उक्त सूत्र का यह अर्थ भी है कि ‘हेत्वाभास’ पांच ही प्रकार के हैं, इन से अथवा अधिक नहीं’। ऐसी स्थिति में सिद्धसाधन को प्रथवा अप्रयोजक को अतिरिक्त न्यून हेत्वाभास मानने पर उक्त ‘प्रवधारण’ अवश्य ही विरुद्ध होगा । अतः उक्त दोनों दोषों को कथित पाँच हेत्वाभासों में से ही किसी में अन्तर्भूत करना उचित है । पृ० प० क तहि 100 तो फिर सिद्धसाधन और प्रप्रयोजक इन दोनों का कथित पाँच हेत्वाभासों में से किस में अन्तर्भाव होगा ? व्या। यारि पक्ष पक्ष सि० में f ‘असि सम्भ ( ३ प्रथम प्रयुक्त स्वरू आश्र एवं अर्था है । तथा। एवं व्या सि० प० ‘असिद्ध’ एव प्रर्थात् इन दोनों का अन्तर्भाव ‘असिद्ध’ नाम के हेत्वाभास में ही होगा । होता, अतः विरुद्ध में उसका अन्तर्भाव नहीं हो सकता । एवं सिद्धसाधक हेतु से जिस साध्य की अनुमिति अभिप्रेत रहती है, उस साध्य के अभाव का साधक कोई दूसरा हेतु उपस्थित नहीं रहता, अतः सिद्ध साधक हेतु का सस्प्रतिपक्ष में भी अन्तर्भाव नहीं हो सकता ।
‘काल प्रति जिस हेतु में तृनीय स्तबक: ३२१ इयञ्च व्याप्तस्य हि पक्षधर्मताप्रतीतिः सिद्धिः । तदभावोऽसिद्धिः । व्याप्तिपक्षधर्मतास्वरूपाणामन्यतमा प्रतीत्या भवन्ती यथासङ्ख्यमन्यथासिद्धि राश्र- यासिद्धिः स्वरूपासिद्धिरित्याख्यायते । मध्यमाऽप्याश्रयस्वरूपाप्रतीत्या, तद्विशेषण- पक्षत्वाप्रतीत्या वेति द्वयी । तत्र चरमा सिद्धसाधनमिति व्यपदिश्यते । व्याप्तिस्थितौ पक्षत्वस्याहृत्य विघटनात् । न त्वेवं बाधे. व्याप्तेरेव प्रथमं विघटनादिति विशेष: सि० प० ‘व्याप्तस्य हि - ‘व्याप्त’ अर्थात् व्याप्ति से युक्त हेतु में पक्षधर्मता ( पक्ष में रहने ) की प्रतीति ही प्रकृत में ‘सिद्धि’ शब्द से अभिप्रेत है । इस ‘सिद्धि’ का अभाव ही ‘असिद्धि’ दोष है । एवं इस ‘असिद्धि’ दोष से युक्त हेतु ही ‘असिद्ध’ नाम का हेत्वाभास है । यह ‘असिद्धि’ तीन प्रकार से सम्भव है ( १ ) व्याप्ति की प्रतीति के विघटन से ( २ ) पक्षधर्मता की प्रतीति के विघटन से (३) एवं (४) ‘स्व-रूप’ अर्थात् पक्षतावच्छेदकधर्म की प्रतीति के विघटन से । इन में से प्रथम विघटन प्रयुक्त ‘प्रसिद्धि’ को ( १ ) अन्यथा सिद्धि ( व्याप्यत्वासिद्धि ) दूसरे विघटन प्रयुक्त प्रसिद्धि को ( २ ) आश्रयासिद्धि एवं तृतीय विघटन प्रयुक्त ‘असिद्धि’ को ( ३ ) स्वरूपासिद्धि कहते है । इन में से बीचवाली ‘आश्रयासिद्धि’ दो प्रकार से होती है (१) आश्रय की सर्वथा अप्रतीति से ( जैसे कि ‘गगनारविन्दं सुरभि’ इत्यादि स्थलों में होता है ) । एवं ( २ ) पक्ष से विशेषणीभूत ‘पक्षत्व’ अथवा ‘पक्षता’ के विघटन से इन दोनों में ‘घरमा’ अर्थात् अन्तिम जो पक्षत्वाप्रतीति मूलक ‘आश्रयासिद्धि’ है, वही ‘सिद्धसाधन’ दोष कहलाती है । ( अर्थात् सिद्धसाधन दोष यद्यपि ‘पक्षता’ विघटन के द्वारा अनुमिति को रोकता है, तथापि कथित रीति के अनुसार वह ‘आश्रयासिद्ध’ हेत्वाभास ही है, स्वतन्त्र हेत्वाभास नहीं । एवं प्रप्रयोजक का अन्तर्भाव ‘अन्यथासिद्ध’ में ही समझना चाहिए ) । व्याप्तिस्थितो … .co
( साध्यसन्देह रूप पक्षता के विघटन से यदि ‘प्राश्रयासिद्धि’ दोष होता है, तो ‘कालातीत’ का भी इसी प्रसिद्धि में हो अन्तर्भाव हो जाना चाहिए । ‘कालातीत’ नाम का प्रतिरिक्त हेत्वाभास मानने की आवश्यकता नहीं ? इस आक्षेप का यह समाधान है कि ) जिस ‘असिद्धि’ में सिद्धसाधन दोष का अन्तर्भाव किया गया है, वह साध्य की व्याप्ति से युक्त हेतु में ही रहता है । कालातीत हेत्वाभास पहिले हेतु में साध्य की व्याप्ति को ही रोकता ४१ CCO. Vasishtha Tripathi Collection. Digitized by eGangotri३२२ गद्यपद्य (त्मक - न्यायकुसुमाञ्जली यत्त्वप्रयोजकः सन्दिग्धानैकान्तिक इत्यनैकान्तिकेऽन्तर्भाव्यते, तदसत् । व्याप्त्यसिद्धया हि निमित्तेन व्यभिचारः शङ्कनीयोऽन्यथा वा ? । प्रथमे प्रसिद्धिरेव दूषणमुपजीव्यत्वात्, नाऽनैकान्तिकमुपजीवकत्वात् । अन्यथाशङ्का त्वदूषणमेव, निर्णीते तदनवकाशादिति ॥७॥ उपमानं तु बाधकमनाशङ्कनीयमेव, विषयान तिरेकादिति केचित् । है । अतः प्रकृत असिद्धि और कालातीत दोनों में अन्तर है । इस लिये कालातीत का प्रसिद्धि मैं अन्तर्भाव की प्रापत्ति नहीं दी जा सकती ।’ (‘अप्रयोजक’ हेतु नियमता उपाधि से युक्त होने के नाते व्याप्ति का विघटक है, अतः उसका अन्तर्भाव प्रथमा असिद्धि रूप ‘अम्यथासिद्धि’ ‘प्रर्थात् व्याप्यत्वासिद्धि में समझना चाहिए ) । पू० प० यत्त्व प्रयोजकः " कुछ लोग प्रप्रयोजक हेतु का अन्तर्भाव सन्दिग्धानैकान्तिक हेत्वाभास में करते हैं । तदसत् किन्तु यह ठीक नहीं है, जिस लिये कि - उपाधि से हेतु में व्याप्ति का विघटन होता है, इसी लिये हेतु में व्यभिचार की शङ्का होती है । व्याप्ति का विघटन ही ‘व्याप्ति की असिद्धि’ हैं । व्याप्ति की प्रसिद्धि को ही ‘अन्यथासिद्धि’ दोष कहा जाता है। ऐसी स्थिति में अप्रयोजक को व्याप्त्यसिद्धि प्रयुक्त ‘सन्दिग्धानैकान्तिक’ में अतर्भूत करने की अपेक्षा सन्दिग्धानैकान्तिक का मूल जो व्याप्स्यसिद्धि रूप ‘अन्यथासिद्धि’ है, उसी में अन्तर्भूत करना उचित है । यदि उपाधि व्याप्त्यसिद्धि प्रयुक्त व्यभिचारशङ्का का प्रयोजक नहीं है अर्थात् उपाधि के रहने पर भी व्याप्ति की सिद्धि रहती ही है, तब तो व्यभिचार कोई दोष ही नहीं है । क्योंकि व्याप्ति का विघटक होने से ही ‘व्यभिचार’ दोष कहलाता है । व्यभिचार के रहने पर यदि व्याप्ति रहेगी ही तो फिर व्यभिचारशङ्का का रहना और न रहना दोनों बराबर है । अत: अप्रयोजक दोष सन्दिग्धानैकान्तिक नहीं, किन्तु ‘प्रन्यथासिद्ध’ ही है ॥७॥ पू० प० उपमानन्तु …… विषयान तिरेकात् । 1 ( चूंकि अनुमानबाघ ईश्वरानुमान में कथित युक्ति से खण्डित हो चुका है, अतः ) उपमान प्रमाण के द्वारा ईश्वरानुमान में बाघ की शङ्का स्वतः खण्डित हो जाती है; क्योंकि अनुमान का विषय एवं उपमान का विषय दोनों समान हैं, फलतः उपमान का अन्तर्भाव १. वर्द्धमान ने आचार्य की इस उक्ति की आलोचना करते हुए लिखा है कि ‘इदो वह्निमान धूमात्’ इत्यादि स्थलों के हेतुओं में साध्य की व्याप्ति रहते हुये भी कालातीत दोष होता है। अर्थात् यह नियम नहीं किया जा सकता कि बाघ से व्याहि का विघटन अवश्य होता है । तथा अनुम उपम नहीं उपप सम्प संपा से ही लिये फो कहन सात ही ह का अन्त इस स्वत स्वत 9.
तथाहि- तृतीय स्वबक
- न तावदस्य विषयः सादृश्यव्यपदेश्यं पदार्थान्तरमेव सम्भावनीयम् । ३२३ अनुमान में ही समझ लेना चाहिए। उपमान नाम का कोई स्वतन्त्र प्रमाण है ही नहीं । अतः उपमान प्रमाण के द्वारा ईश्वरासिद्धि में किसी बाघ के उपस्थित होने की सम्भावना नहीं है । ’ ( किन्तु यह बात तभी ठीक हो सकती है यदि उपमान का अन्तर्भाव अनुमान में उपपन्न हो अर्थात् अनुमान और उपमान से एक ही रीति से एक ही प्रकार के ज्ञान का सम्पादन हो । क्योकि तभी यह कहा जा सकता है कि उपमान प्रमाण से जितने भी कार्य संपादित हो सकते हैं, उन सभी कार्यों का सम्पादन यदि अवश्यं स्वीकर्तव्य अनुमान प्रमाण से ही हो जाय तो फिर उपमान नाम का कोई अतिरिक्त प्रमाण मानना व्यर्थ है । इसके लिये पहिले यह निर्णय करना आवश्यक है कि उपमान के द्वारा उसको प्रमाण माननेवालों फो किस विषय का प्रमाज्ञान अभिप्रेत है ? इस प्रसङ्ग में प्रभाकर संप्रदाय के मीमांसकों का कहना है कि उपमान प्रमाण का प्रमेय ‘सादृश्य’ पद के द्वारा प्रसिद्ध है । यह ‘सादृश्य’ द्रव्यादि सात पदार्थों से भिन्न एक स्वतन्त्र पदार्थ ही है । अनुमान की प्रवृत्ति इन सात पदार्थों में ही हो सकती है, प्रत ‘सादृश्य’ के प्रमाज्ञान के लिये अनुमान से भिन्न एक ‘उनमान’ नाम का प्रमाण मानना आवश्यक है । इस प्रसङ्ग में वैशेषिक गण कहते हैं कि ‘सादृश्य’ द्रव्यादि सात पदर्थों के ही अन्तर्गत है । द्रव्यादि सात पदार्थों से अतिरिक्त सादृश्य नाम की कोई वस्तु नहीं है । पतंः इसका भी प्रमाज्ञान अनुमान प्रमाण से हो सकता है । इस के लिये उपमान नाम का एक स्वतन्त्र प्रमाण का मानना आवश्यक नहीं है । ‘सादृश्य’ निम्नलिखित इन युक्तियों से स्वतन्त्र पदार्थ नहीं है :- क्योंकि - ७ होता है । उपमान को ईश्वरसिद्धि में १. इस स्ववक के आदि से श्लोकों के द्वारा ईश्वर की सिद्धि में सम्भावित प्रत्यक्षबाध एवं अनुमानबाध का निराकरण हुआ है । अब उपमान प्रमाण के द्वारा ईश्वर सिद्धि में बाघ की सम्भावना का निरास प्रारम्भ बाधक मानने वालों का अहंकार है कि (१) उपमान प्रमाण ही वस्तुओं का साधक है, क्योंकि सभी पदार्थ किसी न किसी प्रकार किसी रूप में किसी वस्तु के समान है, जो किसी के भी समान नहीं है वह ‘वस्तु’ ही नहीं है, जैसे कि गगनकुसुमादि। ( २ ) सभी शब्द किसी साहश्य के बोधक हैं । ‘ईश्वर’ शब्द किसी भी साहश्य का वाचक नहीं है, अतः ईश्वर शब्द का कोई अर्थ नहीं है । २. इस मत का समर्थन प्रकरण पंचिका के पृ० ११० से ११२ पृ० में देखना चाहिए । चौखम्मा सं० । ।
३२४ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जनौ परस्परविरोधे हि न प्रकारान्तरस्थितिः । नैकताऽपि विरुद्धानामुक्तिमात्रविरोधतः ॥ ८ ॥ न हि भावाभावाभ्यामन्यः प्रकारः संभावानीयः, परस्परविधिनिषेधरूपत्वात् । न भाव इति निषेधमात्रेणैवाभावविधिः । ततस्तं विहाय कथं स्ववचनेनैव पुनः सहृदयो निषेधेन्नाभाव इति । एवं नाभाव इति निषेध भावविधिः । ततस्तं विहाय स्ववाचैवानुन्मत्तः कथं पुनर्नषेधेन भाव इति । श्रत एवम्भूतानामेकताऽप्यशक्यप्रति - पत्तिः, प्रतिषेधविध्योरेकत्रासंभवात् । तस्माद्भावावेव तत्त्वम् । भावत्वेऽपि गुणवन्निगुणं वेति द्वयमेव पूर्ववत् । पूर्वं द्रव्यमेव । उत्तरश्च श्रित- मनाश्रितं वेति द्वयमेव, पूर्ववत् । परस्परविरोधे हि 640 । सादृश्य या तो ( १ ) भाव पदार्थ होगा अथवा ( २ ) अभाव पदार्थ । या फिर ( ३ ) इन दोनों से भिन्न होगा । किम्वा ( ४ ) भाव स्वरूप भी होगा, एवं अभाव स्वरूप भी। इन में तीसरा पक्ष इस लिये प्रयुक्त है कि भाव एवं अभाव ये दोनों चूं कि परस्पर विरुद्ध हैं, अतः सादृश्य या तो भाव रूप ही होगा, अथवा प्रभावस्वरूप ( क्योंकि परस्पर विरुद्ध दो कोटियों से भिन्न कोई तीसरों कोटि सम्भव ही नहीं है ) । नैकतापि जिस ‘भाव’ शब्द एवं ‘प्रभाव’ शब्द का बिरोध उच्चारण मात्र से प्रगट है, कोई एक ही पदार्थ इन दोनों से प्रभिन्न नहीं हो सकता । अर्थात् सादृश्य भाव और प्रभाव एतदुभयात्मक नहीं हो सकता । फलतः सादृश्य भाव और अभाव इन दोनों में से कोई एक ही हो सकता है | न हि भावाभावाभ्याम् 300 ‘भाव’ है ‘अभाव’ का निषेध प्रर्थात् अभावाभावस्वरूप । एवं ‘भाव’ का निषेध ही ‘अभाव’ है । इस वस्तु स्थिति के अनुसार ‘भाव’ और अभाव ये दोनों जब परस्पर विरुद्ध हैं, तो संसार के सभी पदार्थ कथित भाव और अभाव- इन दोनों में से कोई एक ही होंगे । पदार्थ का कोई तीसरा प्रकार नहीं हो सकता । सर्वत्र यही ‘न्याय’ विद्यमान हैं । अतः सादृश्य भो से कोई एक ही है । उन में से किसी भी वस्तुओं के सम्बन्ध में ‘अभाव’ इन दोनों में भावत्वेऽपि … परस्पर विरुद्ध दो कथित ‘भाव’ और ( सादृश्य द्रव्यादि छ भाव पदार्थों में से ही कोई है ) क्योंकि जितने भी ‘भाव’ पदार्थ है वे ‘गुण से युक्त’ एवं ‘गुण से रहित’ इन्हीं दोनों प्रकारों में से किसी एक प्रकार के हैं। कोई भी तीसरा प्रकार गुगसहितत्व एवं गुगरहितत्व इन दोनों के परस्पर विरोध के पूर्व इति द्वयमे कार में से अभि ‘नि क्यों पदा है | ‘सम प्रका भावो जो दो प्र तीस सामा दो ह 9.
तृतीय स्तबक: ३२५ तत्रोत्तरं समवाय एव, अनवस्थाभयात् । श्राश्रितन्तु सामान्यवन्निः सामान्यञ्चेति पूर्ववत् द्वयमेव । तत्र प्रथममपि स्पन्दोऽस्पन्द इति द्वयमेव । एतच्च यथासंख्यं कर्मगुण इति व्यपदिश्यते । निःसामान्यं निर्गुणमाश्रितन्त्वेकाश्रितमनेकाश्रितं वेति प्रागिव द्वयमेव । एतदपि यथासंख्यं विशेषः सामान्यञ्चेत्यभिधीयते । कारण संभव नहीं है । क्योंकि पहिले कह आये हैं कि सभी पदार्थ परस्पर विरोधी दो प्रकारों में से किसी एक ही प्रकार के हो सकते हैं । ( इस सन्दर्भ के सभी ‘पूर्ववत्’ शब्द इसी अभिप्राय से लिखे गये हैं ) इन में गुण से युक्त केवल द्रव्य पदार्थ ही है । शेष ‘निर्गुण’ अर्थात् गुन से रहित भाव पदार्थ’ भी ‘आश्रित’ एवं ‘श्रनाश्रित’ दो प्रकार के हैं । क्योंकि आश्रितत्व एवं ‘अनाश्रितस्व’ ये दोनों चूं कि परस्पर विरुद्ध हैं, अतः कोई भी पदार्थ या तो श्राश्रित ही होगा, अथवा अनाश्चित ही, कोई तीसरा प्रकार संभव नहीं है । ( इस की युक्ति पहिले कह आये हैं ) इनमें ‘उत्तर’ अर्थात् अनाश्रितभाव केवल ‘समवाय’ है; क्योंकि ऐसा न मानने पर ‘अनवस्था’ प्रकार के हैं (१) जाति से युक्त एवं (२) जाति से भावों का कोई तीसरा प्रकार नहीं हो सकता । जो निर्गुण श्राश्रित हैं वे (२) ‘स्पन्द’ (क्रिया) दो प्रकारों में से किसी एक ही प्रकार के हैं। क्योंकि पूवकथित युक्ति के अनुसार कोई तीसरा प्रकार संभव नहीं है । इन में प्रथम है कर्म, एवं दूसरा हैं ‘गुग’। इसी प्रकार सामान्य से शून्य निर्गुण जितने भी ‘आश्रित’ है वे (१) एकात्रित एवं (२) अनेकानि भेद से दो ही भागों में घंटे हुए हैं । पूर्वकथित युक्ति के अनुसार इनका मी कोई तीसरा भेद संभव होगी ’ । एवं ‘आश्रित’ भाव भी दो ही रहित । कथित युक्ति के अनुसार आश्रित इनमें से ‘प्रथम’ अर्थात् सामान्य से युक्त एवं (२) ‘अस्पन्द’ ( क्रिया से भिन्न ) इन १. जहाँ जो पदार्थ भक्षित रहता है वहाँ आश्रित एवं माश्रय इन दोनों से भिन्न ‘सम्बन्ध’ स्वरूप एक तृतीय भूतल और घट इन दोनों से बीच है । यदि समचाय को वस्तु उन दोनों के मध्य में भिन्न संयोग नाम का एक 1 अवश्य रहती है । जैसे कि सम्बन्ध है, जो दोनों के द्रव्यादि में आश्रित मानेंगे तो द्रव्यादि एवं समवाय इन दोनों के बीच किसी तीसरे सम्बन्ध की कल्पना आवश्यक होगी। जिस युक्ति से समवाय को आश्रित मानेंगे, उसी युक्ति से उस कल्पित सम्बन्ध को भी भावित ही मानना होगा । इस प्रकार अनन्त सम्बन्धों की अविश्रान्त कल्पना चलेगी, जो ‘अनवस्था’ में परियत होगी । अतः ‘स्वरूप’ समवाय सम्बन्ध से ही समवाय द्रव्यादि पदार्थों में है । उक्त स्वरूप द्रव्यादि पदर्थों में है। उक्त स्वरूप में द्रव्यादि आम्र का भेद रहने पर भी प्रति समवाय का भेद नहीं है अत: स्वरूप सम्बन्ध आश्रितत्व का नियामक नहीं है । सुतराम् समवाय धनाश्रित हैं ।
३२ः गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जलो तदेतत्सादृश्यमेतास्वेकां विधामासादयन्नातिरिच्यते । अनासादयन्न पदार्थीभूय स्थातुमुत्सहते । एतेन शक्तिसंख्यादयो व्याख्याताः । ततोऽभावेन सह सप्तैव पदार्था इति नियमः । अतो नोपमानविषयोऽर्थान्तरमिति । स्यादेतत् । भवतु सामान्यमेव सादृश्यं तदेव तस्य विषयः स्यात् । तत्सदृशोऽयमिति हि प्रत्ययो नेन्द्रियजन्यः, तदापातमात्रेणाऽनुत्पत्तेरिति चेन्न । नहीं है। क्योंकि एकाश्रितत्व एवं अनेकाश्रितस्व ये दोनों परस्पर विरुद्ध हैं । इनमें अनेकाश्रित हैं सामान्य, एवं एकाश्रित हैं विशेष । क्योंकि प्रत्येक जाति अनेक व्यक्तियों में अवश्य रहती है, एवं प्रत्येक परमाण्वादि गत ‘विशेष’ उन परमाण्वादि रूप किसी एक ही व्यक्ति में रहता प्रनेक व्यक्तियों में नहीं ! जितने भी ‘भावपदार्थ’ हैं वे जब इन इन्हीं प्रकारों में से किसी के अन्तर्गत हैं, तो फिर ‘सादृश्य’ रूप भावपदार्थ भी इन्हीं में से किसी प्रकार का होगा । यदि ऐसा नहीं मानेंगे तो ‘साहस्य’ रूप भाव पदार्थ की सत्ता ही दुर्लभ हो जायगी। क्योंकि ‘भावत्व’ धर्म कथित गुणवत्स्वादि धर्मों में से ही किसी का व्याप्य है । जहाँ व्यापक नहीं रहता, वहीं व्याप्य भी नहीं रहता । भ्रतः सादृश्य में यदि गुणवत्वादि धर्मान्यतमत्व धर्म नहीं रहेगा, तो भावत्व भो नहीं रहेगा । अर्थात् सादृश्य भाव ही नहीं रह जायगा । सुतराम् सादृश्य में भावत्व के साथ श्रवश्य रहने वाले गुणवत्वादि धर्मान्यतमत्व भी अवश्य है । इस धर्म से युक्त पदार्थ द्रव्यादि छ पदार्थों में से ही कोई हो सकता है। तस्मात् सादृश्य द्रव्यादि छ पदार्थों में से ही कोई एक है, इनसे भिन्न नहीं । इसी प्रकार शक्ति संख्यादि जिन वस्तुनों को मीमांसक जिस युक्ति से अतिरिक्त पदार्थ मानकर ‘पदार्थ सात ही हैं’ वैशेषिक के इस अवधारण का खण्डन करते हैं, उसका मण्डन करना चाहिये । तस्मात् अनुमान प्रमाग के द्वारा जिन पदार्थों का ज्ञान हो सकता है, उनसे भिन्न कोई ऐसा प्रमेय (विषय) नहीं है, जिसके लिये उपमान को अतिरिक्त प्रमाण मानना आवश्यक हो । अतः उपमान नाम का कोई प्रमाण नहीं हैं । इसलिये ईश्वर की सिद्धि में उसके द्वारा बाघ की चर्चा ही अनावश्यक है । पू० प० स्यादेतत्” … अनुत्पत्तेः ( कुमारिल भट्ट का कहना है कि सादृश्य व्यादि छ प्रकार के भावों के ही अन्तर्गत प्रतिरिक्त पदार्थ नहीं है ( देखिये श्लो० वा० आकृतिवाद पलो० ७६ पृ० ५६५ चौ० सं० एव शास्त्र दीपिका पृ० २८६ सुदर्शनाचार्य सं० ) ‘सादृश्य’ जाति रूप है । यह जाति स्वरूप सादृश्य की प्रतीति का आकार है ‘तत्सदृशोऽम्’ । यह प्रतीति इन्द्रिय से नहीं हो सकती । क्योंकि इन्द्रिय से विषय की प्रतीति में विषय के साथ इन्द्रिय का संनिकर्ष हो जाने पर बिलम्ब नहीं होता । इन्द्रिय को विषय के साथ संनिकर्ष के बाद और किसी की अपेक्षा नहीं पूर्व नवे रहत उक्त भी fad ‘गव भान “विि बुद्धि ज्ञान कि भी E प्रत्यक्ष पद में य होता यह अध्य देवद जाता अत: दूसरे उसी की प्र पू० बुद्धि से उ
तृतीयः स्तबक: पूर्वंपिण्डानुसन्धानुरूपसहकारिवैघुर्येणानुत्पत्तेः सोऽयमिति नन्वेतत्सदृशः स इति नेन्द्रियजन्यम्, तेन तस्यासम्बन्धात् । ३२७ प्रत्यभिज्ञानवदिति । रहती । किन्तु उक्त प्रतीति के विषय ‘अयम्’ पदार्थ के साथ इन्द्रिय संयोग के बाद तुरत ही उक्त प्रतीति नहीं होती है । उस प्रतीति के विषय ‘तत’ पदार्थ के साथ साधर्म्य की चिन्ता भी आवश्यक होती है । अत: ‘सादृश्य’ की प्रतीति प्रत्यक्ष प्रमाण से नहीं हो सकती । सि० प० न, पूर्वपिण्डानुसन्धान .. उक्त कथन ठीक नहीं है, क्योंकि ‘तत्सदृशोऽयम्’ इस प्रतीति में ‘अयम्’ पद का अर्थ ‘गवय’ मुख्य विशेष्य रूप से भासित होता है । एवं विशेषण रूप से जिस ‘सादृश्य’ का उसमें भान होता है, उसमें भी निरूपितत्व सम्बन्ध से ‘गो’ पदार्थ विशेषण है, जो परोक्ष है । “विशिष्ट बुद्धि के प्रति विशेषण का ज्ञान कारण है” इस नियम से ‘तत्सदृशोऽयम्’ इस विशिष्ट बुद्धि के उत्पादन में उक्त ‘सादृश्यज्ञान’ एवं गो का कथित परोक्ष ज्ञान ये दोनों ही ( विशेषण ज्ञान विषया) कारण होंगे। परोक्ष गो में इन्द्रिय संनिकर्ष की संभावना ही नहीं है । जैसे कि गवय रूप पिण्ड में चक्षु का संनिकर्ष होते ही पिण्ड का उसमें रहनेवाले रूपादि के साथ भी स्वसंयुक्तसमवाय प्रभृति सम्बन्ध हो जाता हैं, उसी प्रकार प्रकृत ‘तत्’ पद के अर्थ ‘गो’ के प्रत्यक्ष के प्रयोजक किमी सम्बन्ध की संभावना नहीं हैं । अतः उक्त प्रतीति के लिये ‘तत्’ पद के अर्थ गो प्रभृति का स्मृति रूप अनुसन्धानात्मक ज्ञान ही मानना होगा । अतः प्रकृत में यही क्रम मानना होगा कि सबसे पहिले ‘प्रयम्’ पद के अर्थ गवय में चक्षु का संयोग होता है, फिर ‘तत्’ पद के अर्थ परोक्ष गो का स्मरण होता है, इसके बाद ‘तत्सदृशोऽयम्’ यह बुद्धि उत्पन्न होती है । इसी लिये गवय के साथ चक्षु का संयोग होते ही उसके अभ्यवहित उत्तरक्षण में ‘तत्सदृशोऽयम्’ यह बुद्धि नहीं उत्पन्न होती । जैसे कि ‘सोऽयम् देवदत्त.’ इत्यादि प्रत्यभिज्ञान रूप ज्ञान देवदत्त के साथ चक्षु संयोग के होते ही नहीं हो जाता । उसमें ‘तत्’ शब्द के अनुसंधान के लिये एक क्षण का विम्ब अवश्य होता है । अत: जिस प्रकार ‘सोऽयम् देवदत्त:’ इस प्रत्यभिज्ञा रूप ज्ञान के लिये प्रत्यक्ष से भिन्न किसी दूसरे प्रमाण की अपेक्षा नहीं होती है, ‘स्मृति सहकृत प्रत्यक्ष से ही उसकी उत्पत्ति हो जाती है, उसी प्रकार प्रकृत में ‘तत्सदृशोऽयम्’ इत्यादि स्थलों में भी समझना चाहिये । अतः सादृश्य की प्रतीति के लिये उपमान के स्वतन्त्र प्रमाण की आवश्यकता नहीं है । पू० प० नन्वेतत् सदृशः सः • ••• • ‘तत्सदृशोऽयम्’ इस स्थल में यद्यपि उक्त प्रकार से प्रत्यक्ष प्रमाण के द्वारा सादृश्य बुद्धि हो सकती है, तथापि ‘एतत्सदृश: स:’ इस प्राकार की बुद्धि की उपपत्ति प्रत्यक्ष प्रमाण से उक्त रीति से नहीं हो सकती। क्योंकि प्रत्यक्ष प्रमाण के मुख्य विशेष्य में इन्द्रिय का
२५ गच्चपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली न चेदं स्मरणम्, तत्पिण्डानुभवेऽपि विशिष्टस्याऽननुभवात् । न चैतदपि, ‘अयं स’ इति विपरीतप्रत्यभिज्ञानवदुपपादनीयम् । साक्षात् सनिकर्ष आवश्यक होता है। पूर्व स्थल में मुख्य विशेष्य है ‘अयम्’ पदार्थ, उसमें चक्षु का संयोग रूप संनिकर्ष सम्भव है । किन्तु " एतत्सदृश: स:” इस प्रकार के स्थलों में ‘तत्’ पदार्थ रूप मुख्य विशेष्य में इन्द्रिय का साक्षात्सम्बन्ध सम्भव नहीं है । क्योंकि संनिकर्ष संनिहित एवं वर्तमान वस्तु में ही हो सकता है । ‘तत्’ पद के सभी अर्थ असं निहित तो रहते । ही हैं, अवर्तमान भी हो सकते हैं । अतः ‘तत्’ पद के अर्थो में असंनिहित्व प्रयुक्त तो अवश्य हो, कदाचित् अवर्त्तमानत्व प्रयुक्त भी चक्षु का संनिकर्ष संभव नहीं है । तस्मात् परोक्ष गो विशेष्यक एवं प्रत्यक्ष गवय निरूपित सादृश्य प्रकारक ‘एतत्सदृशः सः’ इस आकार का ज्ञान चू कि प्रत्यक्ष प्रमाण से संभव नहीं है, अतः उपमान नाम का एक स्वतन्त्र प्रमाण का मानना आवश्यक है । न चेदम् ( इस पक्ष में कहा जा सकता है कि ) ‘तत्सदृश: स:’ इस आकार का ज्ञान स्मृति रूप ही है, अनुभव रूप नहीं । प्रमा तो यथार्थानुभव रूप है, अतः उसी का करण प्रमाण हो सकता है । ‘तत्सदृश:’ इस आकार का ज्ञान चू कि अनुभव रूप नहीं है, अतः उसकी उत्पत्ति के लिए प्रमा के करण ( प्रमाण ) की आवश्यकता ही नहीं है । यद्यपि कथित स्मृति से पूर्व ‘तत्’ पदार्थं का अनुभव अवश्य है, किन्तु सादृश्य विशिष्ट तत् पदार्थ का धनुभव नहीं है । क्योंकि विषय का पूर्वानुभव जिस रूप का रहता है, स्मृति भी उसी रूप से या उस से न्यून रूप से होने का हो नियम है । अतः पूर्वानुभव में गृहीत रूपों से अतिरिक्त किसी भी रूप से विषय की स्मृति नहीं हो सकती । तस्मात् ‘तत्सदृशोऽयम्’ इस आकार का पूर्वानुभव चूं कि नहीं है, अतः ‘तत्सदृशोऽयम्’ इस आकार की स्मृति नहीं हो सकती। इसलिये उक्त ज्ञान को स्मृति रूप नहीं माना जा सकता । न चैतदपि … ( इस प्रसङ्ग में वैशेषिकगण कह सकते हैं कि ) जिस प्रकार ‘सोऽयं देवदत्तः" इस प्रत्यभिज्ञा के समान ‘तत्सदृशोऽयम्’ इस ज्ञान को प्रत्यभिज्ञा स्वरूप होने का उपपादन कर चुके है, उसी प्रकार ‘एतत्सदृशः सः’ इम ज्ञान को भी प्रत्यभिज्ञा स्वरूप मानकर इसकी उत्पत्ति स्मृति सहकृत प्रत्यक्ष से ही हो सकती है। इसके लिये भी ‘उपमान’ नाम के अतिरिक्त प्रमाण की आवश्यकता नहीं है । तस त ཟླ,། तत्ते असा इस ‘अयं का से यु इन्द्रि संनिव अर्थ इसके प्रत्यक्ष सादृश है, उ अतिि सि० ‘साघम का ब प्रमाण मान
तृतीयः स्तबक ३२६ तत्तेदन्तोपस्थापनक्रमविपर्ययेऽपि विशेष्यस्येन्द्रियेण सन्निकर्षाविरोधात् । तस्य सन्निहितवर्तमानगोचरत्वात् । प्रकृते तु तद्भावात् तत्पिण्डस्मरणसहायमे- तत्पिण्डवर्तिसादृश्यज्ञानमेव तथाविधं ज्ञानमुत्पादयदुपमानं प्रमाणमिति । एतदपि नास्ति :- तत्तदन्ता… 738 साधर्म्यमिव वैधम्यं मानमेवं प्रसज्यते । श्रर्थापत्तिरसौ व्यक्तमिति चेत्प्रकृते न किम् ? ॥ ९ ॥ ( किन्तु वैशेषिकों का उक्त उत्तर ) युक्त नहीं है । क्योंकि ‘इदम्’ पद के अर्थ का असाधारण धर्म है ‘इन्दन्ता’ एवं ‘तत्’ पद के अर्थ का असाधारण धर्म है ‘तत्ता’ । ‘सोय’ इस वाक्य में ‘तत्ता’ विशिष्ट का पहिले उपादान किया गया है, बाद में ‘हृदन्ता’ विशिष्ट का । ‘अयं स:’ इस स्थल में ठीक इसके विपरीत ‘इन्दता’ विशिष्ट का पहिले श्रर ‘तत्ता’ विशिष्ट का पीछे उपादान हुप्रा है । इस वैपरीत्य के रहते हुए भी ‘अयं स:’ इस स्थल में भी ‘हृदन्त्व’ से युक्त पदार्थ ही विशेष्य है । क्योंकि ‘तत्ता’ से युक्त पदार्थ चूकि परोक्ष है, अतः उसमें इन्द्रिय का संनिकर्ष हो ही नहीं सकता । जिस संनिकर्ष से प्रत्यक्ष प्रमा उत्पन्न होती है, वह किन्तु ‘स’ इस पद का संनिकर्ष वर्त्तमान एवं संनिहित विषय के साथ ही होता है। अर्थ ही इस प्रतीति का मुख्य विशेष्य है, जो ‘तत्ता’ से युक्त होने के कारण परोक्ष है । इसके साथ इन्द्रिय का संनिकर्ष संभव ही नहीं है । अत: ‘एतत्सदृश स:’ इस ज्ञान की उत्पत्ति प्रत्यक्ष प्रमाण से नहीं हो सकती । तस्मात् ‘एतत्ता’ से युक्त गवय रूप ‘एतद्’ पदार्थ के सादृश्य का जो बोध ‘तत्’ शब्द के अर्थ परोक्ष गो में ‘एतत्सदृशः सः इस आकार का होता है, उसी के लिये ‘उपमान’ नाम का स्वतन्त्र प्रमाण मानना पड़ता है । अतः अनुमान से अतिरिक्त उपमान नाम का अतिरिक्त प्रमाण अवश्य है । सि० प० एतदपि नास्ति … … … … साधर्म्यंमिवन किम् । उपमान प्रमाण मानने की यह युक्ति भी ठीक नहीं है, क्योंकि इस प्रकार तो ‘साघम्यं’ अर्थात् सादृश्य के बोधक उपमान प्रमाण के ही समान ‘वैधर्म्य’ अर्थात् वैसादृश्य का बोधक भी एक स्वतन्त्र प्रमाण मानना होगा । यदि वैसादृश्य का बोध प्रर्थापत्ति प्रमाण से मानेंगे तो तुल्य युक्ति से सादृश्य का बोष भी अर्थापत्ति प्रमाण से ही क्यों नहीं मान लेते ? ४२
३३० गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली यदा हि ‘एतद्विसदृशोऽसौ’ इति प्रत्येति, तत्रापि तुल्यमेतत् । न हि तत्प्रत्य- क्षम्, प्रसन्निकृष्टविषयत्वात् । न स्मरणम्, विशिष्टस्याननुभवात् । नोपमानम्, असा - दृश्यविषयत्वात् । नन्वेतंद्धर्माभावविशिष्टत्वमेव तस्य वैधम्र्म्यम्, तच्चाभाव- गम्यमेवेष्यते । न च प्रकृतेऽपि तथाऽस्तु, सादृश्यस्य भावरूपत्वादिति चेन्न । इतो व्यावृत्तधर्मविशिष्टताया अपि वैधर्म्यरूपत्वात् । तस्य च भावरूपत्वात् । यदा हि… … ( श्लोक के पूर्वाद्धं की व्याख्या ) जिस प्रकार ‘एतत्सदृशः सः’ इस आकार की सादृश्य की प्रतीति होती है, उसी प्रकार ‘एतद्विसदृश: स:’ इस आकार की वैसादृश्य की भी प्रतीति होती है । इस वैसा दृश्य विषयक प्रतीति की उपपत्ति प्रत्यक्ष प्रमाण से नहीं हो सकती। क्योंकि इस प्रतीति का मुख्य विशेष्य भी ’ तत्ता’ से युक्त ‘सः’ पद का अर्थ ही है, अतः असंनिहित और अवर्तमान होने के कारण इन्द्रिय संनिकर्ष के योग्य नहीं है । एवं उक्त प्रतीति स्मृति रूप भी नहीं हो सकती, क्योंकि ‘एतद्वंसादृश्य’ से युक्त पदार्थ का अनुभव पहिले नहीं है, यद्यपि ’ तत्ता’ से युक्त ‘सः’ पद के अर्थ का पूर्वानुभव है । प्रस्तुत ‘उपमान’ प्रमाण से भी वैसादृश्य का उक्त अनुभव नहीं हो सकता । क्योंकि उपमान प्रमाण सादृश्य का ही ज्ञापक है, वैसादृश्य का नहीं । तस्मात् ‘एतत्सदृशः सः’ इस प्रतीति के लिये यदि उपमान नाम का अतिरिक्त प्रमाण मानना आवश्यक हो, तो फिर ‘एतद्विसदृशः सः’ इस स्वारसिक प्रतोति के किसी प्रमाण की प्रावश्यकता माननी होगी । पू० प० नन्वेतर्द्धर्माभाव - …भावरुपत्वादिति चेत् लिये भी उपमान से भिन्न एतद्विसदृशः सः इस प्रतीति का विषय है एतत् पदार्थ में रहनेवाले धर्म के प्रभाव से युक्त वस्तु । अर्थात् उक्त धर्माभाव प्रकारक उक्त तद् विशेष्यक प्रतीति ही उक्त वैसादृश्य की प्रतीति है । प्रभाव की प्रतीति के लिये अनुपलब्धि ( अभाव ) नाम का प्रमाण स्वीकृत हो है। अतः ‘प्रभाव’ नाम के प्रमाण से ही उक्तं वैसादृश्य की प्रतीति उत्पन्न हो जायगी । इसके लिये प्रलंग प्रमाण की कल्पना आवश्यक नहीं है । सुतराम् इस प्रतिबन्दि से उपमान के स्वतन्त्रप्रामाण्य का खण्डन नहीं होता । सादृश्य की प्रतीति अनुपलब्धि प्रमाण से नहीं हो सकती। क्योंकि उसमें केवल अभाव के ज्ञापन की ही सामर्थ्य है । साहस्य भावपदार्थ है। तस्मात् सादृश्य रूप भावपदार्थ के ज्ञापन के लिये उपमान को प्रमाण मानना आवश्यक है । एवं वैसादृश्य के ज्ञापन के लिये अतिरिक्त प्रमाण की कल्पना आवश्यक नहीं है । सि० प० न, इतः ….. " … भावरुत्वात् । उपर्युक्त कथन ठीक नहीं है, क्योंकि यह निश्चित नहीं है कि ‘वैधर्म्य’ अथवा ‘वैसादृश्य’ अभाव रूप हो हो । ‘एतद्विसहयः सः इस प्रतीति से जिस प्रकार तत् पदार्थ में एतत पदार्थ सन्त ཁྐྲ, ཝཱ एवं में भवि रूप अत उक्त सि रहने पदा पदा में न हो अय नहीं सि उपय पहि द्वार जिस • होग वस्तु गो गव भी
तृतीयः स्तबकः ३३१ स्थादेतत् । तद्धर्मा इह न सन्तीत्यवगते, अर्थादापद्यते इहाऽविद्यमानास्तत्र सन्तीति । न हि तद्विधर्मत्वमेतस्योपपद्यते । यद्य ेतद्विधर्माऽसौ न भवतीति चेत्; एवं तहिं प्रकृतमप्यर्थापत्तिरेव । में रहनेवाले धर्म का प्रभाव ज्ञात होता है, उसी प्रकार तत् पदार्थ में हो एतत्पदार्थ में श्रविद्यमान धर्म की सत्ता भी प्रतीत होती है । अतः जिसप्रकार ‘वैधर्म्य’ एतद्वृत्तिधर्माभाव रूप है, उसी प्रकार एतत्पदार्थ में अविद्यमान ‘धर्म’ रूप भी है । यह ‘धर्म’ भाव पदार्थ है । अत: केवल अनुपलच्त्र ( प्रभाव ) प्रमाण से ‘वैधर्म्य’ को प्रतीति नहीं हो सकती । इसलिये उक्त प्रतिबन्दि ठोक है । सि० प० तद्धर्म्मा ••• … ••• •." न भवतीति चेत् उक्त स्थल में अनुपलब्धि प्रमाण से जब यह ज्ञात हो जायगा कि एतत् पद के अर्थ में रहनेवाले धर्म तत् पद के अर्थ में नहीं हैं, तो इससे यह ‘अर्थत:’ उपपन्न हो जायगा कि एतत् पदार्थ में न रहनेवाला धर्म तत् पदार्थ में हैं । जब तक किसी वस्तु में वैधर्म्य के अवधि भूत पदार्थ में रहनेवाले धर्म का अभाव नहीं रहेगा, तब तक उस वस्तु में उक्त अवधिभूत पदार्थ में न रहनेवाले धर्म की सत्ता की प्रतोति उपपन्न नहीं हो सकती । अतः वैधर्म्य भाव रूप हो अथवा अभाव रूप, उसका ज्ञान परस्परानुपपत्ति से ही होता है । अर्थापत्ति प्रमाण से ही होगा। इसके लिये किसी अन्य प्रमाण को नहीं है । ( यही बात श्लोक के तीसरे चरण से कही गयी है । सि० प० एवं तहि… अतः वैधर्म्य का ज्ञान स्वीकार करना आवश्यक इस प्रकार तो सादृश्य का ज्ञान भो ‘अर्थापत्ति’ प्रमाण से हो सकता है । इसके लिये उपमान प्रमाण मानने की आवश्यकता नहीं है । क्योंकि प्रत्यक्ष प्रमाण से ज्ञात ‘गवय’ में पहिले देखे हुए गो के सादृश्य विषयक ज्ञान का ही अभिलाप ‘तत्सदृशोऽयम्’ इस वाक्य के द्वारा होता है । किन्तु माट्टगण सादृश्य को जाति पदार्थ मानते हैं । भ्रतः गवय का ज्ञान जिस प्रत्यक्ष प्रमाण से होगा, उसी से उसमें रहनेवाली सादृश्य स्वरूप जाति का भो भान होगा । फलत | उक्त जाति रूप सादृश्य का ज्ञान भी प्रत्यक्ष प्रमाण से ही होगा । यह अनुभव से सिद्ध है कि जिस एक वस्तु में दूसरे वस्तु का सादृश्य रहेगा, उस दूसरे वस्तु में भी उक्त एक वस्तु का सादृश्य अवश्य रहेगा। यह तो संभव नहीं है कि गवय में गो का सादृश्य रहे, किन्तु गो में गवय का सादृश्य न रहे । अतः यह मानना ही होगा कि गवय में यदि गो का सादृश्य है तो फिर गो में भी गवय का सादृश्य अवश्य है । इससे यह भी सिद्ध होता है कि यदि गो में गवय का सादृश्य नहीं है, तो गवय में भी गो का सादृश्य CCO. Vasishtha Tripathi Collection. Digitized by eGangotri३०२ . गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली न हि तत्सादृश्यविशिष्टत्वमेतस्य प्रत्यक्ष सिद्धमपि तस्यैतत्सादृश्य विशिष्टत्वं विनोपपद्यते । एतेन दृष्टासन्निकृष्टप्रत्यभिज्ञानं व्याख्यातम् । तत्रापि तद्धर्मशालित्वं तस्य स्मरणाभिव्यक्तमनुपपद्यमानं तदिदन्तास्पस्यैकतां व्यवस्थापयति । तस्मान्नोपमान- मधिकमिति । नहीं है । इस प्रकार यदि गवय में गो का सादृश्य है ही नहीं, तो फिर उस सादृश्य का ज्ञान इन्द्रिय से कैसे होगा ? अतः गो में रहनेवाले गवय के सादृश्य के बिना गवय में रहने वाले गो का सदृश्य अनुपपन्न है । इस अनुपपत्ति से यह सिद्ध होता है कि गवय में रहनेवाले गो साश्य का ज्ञान प्रत्यक्ष से नहीं हो सकता । ‘अनुपपत्ति का ज्ञान’ ही ‘श्रर्थापत्ति’ है । भ्रतः सादृश्य का ज्ञान भी अर्थापत्ति प्रमाण से ही होता है । जब प्रत्यक्ष प्रमाण से गृहीत होनेवाले गवय निष्ठ गोसादृश्य के ज्ञान की दशा अर्थापत्ति के बिना ऐसी है, तो फिर गो निष्ठ गवय सादृश्य को अनुपपत्तिज्ञान ( अर्थापत्ति) के बिना क्या दशा होगी ? जिसके प्रत्यक्ष की कोई संभावना ही नहीं है । तस्मात् यह कहा जा सकता है कि उक्त अनुपन्नत्व ज्ञान के बिना गोनिष्ठ गवयसादृश्य का ज्ञान संभव नहीं है, अतः उक्त सादृश्य ज्ञान की उत्पत्ति अर्थापत्ति प्रमाण से ही होगी । इसके लिये ‘उपमान’ को स्वतन्त्र प्रमाण मानने की आवश्यकता नहीं है | एतेन ……….दृष्टासंनिकृष्ट किसी सम्प्रदाय का कहना है कि पहिले देखे हुए एवं मध्य में न देखे गये, किन्तु वर्तमान काल में चक्षु से संनिकृष्ट देवदत्त में जो ‘यः मथुरायां पूर्वं दृष्टः स एव अधुना उज्जयिन्यां दृश्यते" इस आकार की प्रत्यभिज्ञा होती है, उसी के करण रूप में उपमान प्रमाण को स्वीकार करना आवश्यक है । अर्थापत्ति प्रमाण के द्वारा साधर्म्य एवं वैधर्म्य के बोध की उपपत्ति के कथन से इस पक्ष का भी समाधान हो जाता है। क्योंकि अर्थापत्ति प्रमाण के द्वारा ही उक्त प्रत्यभिचा की भी उपपत्ति होगी । इसमें यह युक्ति है कि पूर्व प्रतीत एवं अधुना दृष्ट देवदत्त में एकरव को उपपत्ति के बिना उक्त प्रत्यभिज्ञा की उपपत्ति नहीं हो सकती । एकस्व की यह उपपत्ति तबतक संभव नहीं है, जब तक कि पूर्व, अपर जोर मध्य तीनों हो कालों में एक ही देवदत्त का रहना स्वीकृत न हो । अर्थात् जिस वस्तु को पहिले देखा था, एवं अभी देख रहा हूँ, उस वस्तु का यदि मध्यकाल में विनाश हो गया रहता तो अभी उसका देखना संभव न होता । अतः ‘जिस वस्तु को मैंने पहिले देखा था, उसी वस्तु को मैं प्रभो देख रहा हूँ’ इस स्म प्रत्य मध्य फल का की की सि मैं ( ‘संके प्रमा अन्य सि० वाक्य उस के उस १.
एवं प्राप्त अभिधोयते - तृतीयः स्तबंक सम्बन्धस्य परिच्छेदः संज्ञायाः संज्ञिना सह । प्रत्यक्षादेरसाध्यत्वादुपमानफलं विदुः ॥१०॥ ३३३ ‘यथा गौस्तथा गवय’ इति श्रु तातिदेशवाक्यस्य गोसदृशं पिण्डमनुभवतः स्मरतश्च वाक्यार्थमयमसी गवयशब्दवाच्य इति भवति मतिः । प्रत्याभिज्ञान के विषय उक्त एकत्व का प्रयोजक उसका मध्यकाल में रहना ही है। इस मध्यकाल वृत्तित्व की उपपत्ति तबतक नहीं हो सकती जबतक कि ‘तदास्पद’ अर्थात् तरपदवाच्य फलत: परोक्ष ( पूर्वदृष्ट ) देवदत्त एवं ‘इदमासाद’ इदम् शब्द वाच्य फलतः प्रत्यक्ष देवदत्त का एकत्व अथवा अभेद उपपन्न न हो । तस्मात् उक्त अभेद प्रमा की उत्पत्ति मध्यकालवृत्तित्व की अनुपपत्ति विषयक ज्ञान रूप अर्थापत्ति प्रमाण से ही होगी, इसके लिये भी उपमान प्रमाण की श्रावश्यकता नहीं है । सि० प० एवम् … … … प्राप्ते ( कथित रीति से वंशेषकों के द्वारा उपमान के पृथक्प्रामाण्य का खण्डन प्राप्त होने पर मैं ( सिद्धान्ती ) ‘सम्बन्धस्य परिच्छेदः’ इत्यादि श्लोक से ) कहता हूँ कि ‘संज्ञा’ अर्थात् गवयादि नाम, एवं ‘संज्ञी’ अर्थात् गवयादि अर्थ इन दोनों में जो ‘संकेत’ अथवा ‘शक्ति’ नाम का सम्बन्ध है, उसके ‘परिच्छेद’ अर्थात् प्रमाज्ञान को ही उपमान प्रमाण का फल समझना चाहिये। क्योंकि उक्त ‘परिच्छेद’ रूप प्रमाज्ञान की उत्पत्ति प्रत्यक्षादि अन्य किसी भी प्रमाण से संभव नहीं है । ’ सि० प० यथा गो
जहाँ किसी ने किसी आप्त ( प्रामाणिक ) पुरुष के द्वारा ‘गोसदृशो गवय" यह वाक्य सुन रक्खा हैं । वाद में बन में जाने पर ‘गोसदृश’ एक पिण्ड का उसे प्रत्यक्ष हुआ । उसके बाद उसी व्यक्ति को ‘गोसदृशो गवय:’ इस वाक्यार्थ का स्मरण हुभा । इसके वाद उस पुरुष को ‘असौ गवयपदवाच्यः’ ( यही पिण्ड गवय शब्द का अर्थ है ) इस माकार का १. ८ वीं और 8 वीं कारिकाओं से वैशेषिकों की इस दृष्टि से ईश्वरसिद्धि की बाधकता खण्डित हुई है कि उपमान नाम का कोई स्वतन्त्र प्रमाण ही नहीं है । किन्तु नैयायिक सो उपमान को स्वतन्त्र प्रमाण मानते हैं । अतः वैशेषिकों की युक्ति से वे उपमान में ईश्वरसिद्धि की बाधकता का खण्डन नहीं कर सकते । एवं उपमान के स्वतन्त्र प्रामायय का स्थापना भी उन्हें आवश्यक है। अतः १०वीं कारिका से १२वीं कारिका पर्यन्त के सन्दर्भ से आचार्य ने उपमान के स्वतन्त्र प्रामायन का समर्थन एवं उपमान प्रमाण के द्वारा ईश्वर की सिद्धि में बाघ का खण्डन इन दोनों का संपादन किया है । इसी दृष्टि से ‘एवम्’ इत्यादि अवतरण लिखा गया है । ‘यथा गो:’ इत्यादि गयसन्दर्भ के द्वारा श्जोक के पूर्वाद्ध’ की व्याख्या की गयी है ।
३३४ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जलौ सेयं न तावत् वाक्यमात्रफलम्, अनुपलब्धपिण्डस्यापि प्रसङ्गात् । नापि प्रत्यक्षफलम्, अश्रुतवाक्यस्यापि प्रसङ्गात् । नापि समाहारफलम्, वाक्यप्रत्यक्षयो- भिन्नकालत्वात् । बोध होता है । इसी ‘असौ गवयपदवाच्यः’ इस आकार की शक्तिज्ञान रूप प्रमा का करण ‘उपमान’ प्रमाण है । चूकि यह शक्तिज्ञान प्रत्यक्षादि अन्य किसी भी प्रमाण से संभव नहीं है, अतः इसके लिये एक अतिरिक्त प्रमाण का मानना अनिवार्य है । इस अतिरिक्त प्रमाण का ही नाम ‘उपमान’ है । सेयं न तावत् उक्त प्रमाज्ञान की उत्पत्ति ‘गोसदृशो गवय:’ इस अतिदेशवाक्य रूप शब्द प्रमाण से ही नहीं हो सकती । क्योंकि जो पुरुष केवल उस वाक्य को ही सुना है, प्रत्यक्ष के द्वारा ‘गोसदृश’ पिण्ड को नहीं देखा है, उसको उक्त शक्तिज्ञान नहीं होता है । यदि उक्त शक्तिज्ञान की उत्पत्ति केवल उक्त प्रतिदेशवाक्य जनित बोध से मानें तो, फिर जो पुरुष गवय को नहीं देखा है, किन्तु ‘गोसदृशो गवयः’ यह वाक्य सुन चुका है, उसको भी उस शक्ति का ज्ञान होना चाहिये, किन्तु सो इष्ट नहीं है । अतः केवल शब्द प्रमाण से उक्त शक्तिज्ञान की उत्पत्ति नहीं हो सकती । नापि प्रत्यक्ष प्रसङ्गात् ( कदाचित् यह कहें कि चूंकि गवय का प्रत्यक्ष चक्षु से होता है, अतः गवय में रहनेवाले शक्ति का प्रत्यक्ष भी चक्षु से ही होगा । फलतः शक्ति का उक्त ज्ञान भी प्रत्यक्ष प्रमाण से ही हो जायगा, इसके लिये उपमान नाम के प्रतिरिक्त प्रमाण की आवश्यकता नहीं | किन्तु ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि यदि ऐसा स्वीकार करेंगे, तो जो पुरुष ‘गोसदृशो गवय:’ इस वाक्य को कभी नहीं सुना है, किन्तु मरण्य में जाने पर गोसदृश उस पिण्ड को देखा मर है, उस पुरुष में भी शक्ति का बोध मानना होगा । श्रतः शक्ति का उक्त ज्ञान प्रत्यक्ष प्रमाण से नहीं माना जा सकता । नापि समाहार भिन्न कालत्वात् ( इस प्रसङ्ग में यह कहा जा प्रत्यक्ष प्रमाण से गवयपद की शक्ति का प्रमाण दोनों मिलकर तो उक्त शक्तिप्रमा का पर केवल ‘गोसदृशो गवय:’ इस वाक्य को गवयपिण्ड को देखनेवाले पुरुष में उक्त शक्ति प्रमा की धापत्ति नहीं होगी । अत उक्त शक्तिज्ञान के लिये अतिरिक्त प्रमाण मानने की आवश्यकता नहीं है ) । सकता है कि केवल शब्द प्रमाण से अथवा केवल ज्ञान भले ही न हो, किन्तु शब्द प्रमाण और प्रत्यक्ष संपादन कर सकते हैं। ऐसा स्वीकार कर लेने सुननेवाले पुरुष में अथवा केवल आँखों से क p कि है है सक जा पू० का वाक एवं स्वत सि रहने गवय गवय की कि ग भी प्र से हो किन्तु क्योंकि
तृतीयः स्तबक! ३३५ वाक्यतदर्थयोः स्मृतिद्वारोपनीतावपि तद्गतसादृश्यानुपलम्भे समयपरिच्छेदासिद्धेः । . गवयपिण्डसम्बन्धेनापीन्द्रियेण किन्तु यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि जो पदार्थ मिलकर किसी कार्य को उत्पन्न करेंगे, उस कार्य से अव्यवहितपूर्वक्षण में उन दोनों कारणों का सम्मिलन आवश्यक है । किन्तु ‘गोसदृशो गवय:’ इस वाक्य का श्रवण रूप कारण शक्तिप्रमा से बहुत पहिले में रहता है । एवं गवय के साथ चक्षु का संनिकर्ष रूप कारण उससे बहुत पश्चात् काल में उत्पन्न होता है । अतः विभिन्नकालिक ये दोनों पदार्थ मिलकर ‘शक्तिपरिच्छेद’ का संपादन नहीं कर सकते । इसलिये इस प्रकार से भी उपमान के स्वतन्त्रप्रामाण्य का खण्डन नहीं किया ला सकता । पू० प० वाक्यतदर्थंयो 004 e जिस समय गवय में चक्षु का संनिकर्ष है, उस समय ‘गोसदुयो गवय:’ इस वाक्म का श्रवण रूप अनुभव अथवा उक्त वाक्यार्थबोध रूप अनुभव भले ही न रहे, किन्तु उक्त वाक्य की अथवा वाक्यार्थ की स्मृति तो रह सकती है । मत। इस स्मृति के द्वारा प्रत्यक्ष एवं शब्द का समाहार हो सकता है । इसलिये समाहार को असंभव मान कर जो उपमान के स्वतन्त्र प्रामाण्य का मण्डन किया गया है, वह उचित नहीं है । सि० प० गवयपिण्डसम्बन्धेन समाधान का उक्त प्रयास भी ठीक नहीं है, क्योंकि गवयरूप पिण्ड में इन्द्रियसम्बन्ध के रहने पर भी जबतक सादृश्य का ज्ञान नहीं होता, तबतक ‘समयपरिच्छेद’ अर्थात् ‘गोसदृशो गवयपदवाच्यः’ इस आकार का शक्तिज्ञान नहीं उत्पन्न होता । ऐसा कोई निर्णय नहीं है कि गवय प्रत्यक्ष के हो जाने पर गोसादृश्य का ज्ञान हो ही जायगा, क्योंकि भट्टमतानुयायियों जाति नहीं मानते । जिससे यह कहा जा सके की तरह आप ( वैशेषिकगण ) ‘सादृश्य’ को कि गवय का प्रत्यक्ष जिस इन्द्रिय से होता है, उसमें रहनेवाली जाति स्वरूप सादृश्य का भी प्रत्यक्ष उसी से होगा। उक्त ‘समयपरिच्छेद’ अथवा शक्तिप्रमा चाहे जिस किसी प्रमाण से हो, किन्तु वह ‘प्रमाण’ सादृश्यज्ञान रूप व्यापार के द्वारा ही उसका उत्पादन करेगा । किन्तु सादृश्यज्ञान रूप व्यापार के द्वारा प्रत्यक्ष प्रमाण उक्त समय परिच्छेद का जनक नहीं है, क्योंकि यह निश्चित है कि ‘प्रत्यक्ष प्रमाण का व्यापार केवल इन्द्रिय संनिकर्ष’ ही होता है ।
३३६ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली फलसमाहारे तु तदन्तर्भावे अनुमानादेरपि प्रत्यक्षत्वप्रसङ्गः । अतः समयपरिच्छेद रूप प्रमा का करण ( प्रमाण ) प्रत्यक्ष नहीं हो सकता। इस प्रकार उक्त समय परिच्छेद का प्रत्यक्ष प्रमाण से उत्पन्न न होना निश्चित है, तो फिर वह प्रत्यक्ष घटित किसी समाहार का फल हो ही नहीं सकता। ‘गोसदृशो गवय:’ इस आकार के शाब्दबोध से जो संस्कार के द्वारा स्मृति उत्पन्न होती है, वह प्रत्यक्ष का व्यापार नहीं हो सकती, क्योंकि व्यापार को व्यापारी से—करण से उत्पन्न होना चाहिये । १ पू० प० फलसमाहारे तु … ( प्रत्यक्ष प्रमाण एवं शब्द प्रमाण इन दोनों के समाहार से उपमान प्रमाण का निरास भले ही संभव न हो किन्तु ) ‘फलसमाहार’ के द्वारा उपमान के स्वतन्त्र प्रामाण्य का खण्डन किया जा सकता है ( उसकी यह रीति है कि ये दो बातें अवश्य स्वीकरणीय है कि - ‘समय परिच्छेद’ रूप प्रमा सादृश्य ज्ञान से उत्पन्न होती है, एवं सादृश्य का ज्ञान प्रत्यक्ष प्रमाण का व्यापार न होने पर भी उस से उत्पन्न होता है । एवं यह भी सर्वसिद्ध है कि ‘गोसदृशो गवय:’ इस अतिदेश वाक्य के अर्थ भी उक्त समयपरिच्छेद के लिये श्रावश्यक है । इससे यह निष्कर्ष निकला कि प्रत्यक्ष के ‘फल’ सादृश्यज्ञान, एवं वाक्य रूप शब्द प्रमाण के ‘फल’ वाक्यार्थस्मृति इन दोनों फलों के समाहार अर्थात् सम्मिलन से ही उक्त समयपरिच्छेद की उत्पत्ति होती है । जिस प्रमाण होती है, वही प्रमाण उस प्रमिति का करण होता है । शाब्दबोष रूप प्रमिति का करण शब्द प्रमाण होता है, के से उ रूप एवं किसी अनुम क्योंकि भी उ प्रत्यक्ष जायर्ग श्रोत्रेनि ( शा आवश्य के उत्प श्रवश्य फल के द्वारा जो प्रमिति उत्पन्न उपयोग जैसे कि वाक्यार्थस्मरण से उत्पन्न सकतीं एवं इन्द्रिय और विषय के संनिकर्ष ही कह १. अभिप्राय यह है कि व्यापार से युक्त असाधारण कारण ही ‘करण’ है । प्रमा का यह ‘करण’ ही प्रमाण है । ‘समयपरिच्छेद’ स्वरूप प्रमा की उत्पत्ति यदि प्रत्यक्ष प्रमाण से मानेंगे, तो इस प्रत्यक्ष के व्यापार का अन्वेषण करना होगा । इन्द्रिय ही प्रत्यक्ष प्रमाण है, विषयों के साथ इंद्रियों का संनिकर्ष ही उसका व्यापार है । किन्तु इस व्यापार के रहते हुये भी सादृश्यज्ञान के विना ‘समयपरिच्छेद’ रूप प्रमा की उत्पत्ति नहीं होती है । अता साहश्यज्ञान को ही उन प्रमा का रूप फल का व्यापार मानना होगा । यह सादृश्यज्ञान इन्द्रिय रूप प्रत्यक्ष प्रमाण से उत्पन्न होने पर भी प्रत्यक्ष का व्यापार नहीं हो सकता, क्योंकि यह नियत है कि इन्द्रिय और अर्थ का संनिकर्ष ही प्रत्यक्ष प्रमाण का व्यापार हो सकता है। अतः साश्यज्ञान रूप व्यापार से उत्पच ‘समयपरिच्छेद’ प्रत्यक्ष प्रमाण का फल नहीं हो सकता । प्रत्यक्ष कहलाती ज्ञान की प्रमाणों तत्किम् प्रमा प्रह होता है
तृतीय स्तबक ३३०. तत् किं तत्फलस्य तत्प्रमारण बहिर्भाव एव, अन्तर्भावे वा कियती सीमा ? | से उत्पन्न प्रत्यक्ष प्रमिति का करण प्रत्यक्ष प्रमाण होता है, रूप प्रमा शब्द एवं प्रत्यक्ष इन दोनों प्रमाणों के फलों से उसी प्रकार उक्त समयपरिच्छेद निष्पन्न होती है, इसलिये शब्द एवं प्रत्यक्ष ये दोनों ही उक्त ‘समयपरिच्छेद’ रूप प्रमा के करण हैं । अतः उपमान नाम के किसी अतिरिक्त प्रमाण की कोई आवश्यकता नहीं है । अनुमान देरपि —प्रसङ्गः इस प्रकार तो अनुमान और शब्द का भी स्वतन्त्र प्रामाण्य विपन्न हो जायगा । क्योंकि अनुमिति का व्यापार रूप कारण है लिङ्गपरामर्श । प्रायः उसमें प्रत्यक्ष प्रमाण का भी उपयोग प्रवश्य होता है । अतः कथित फलसमाहारन्याय से अनुमिति का करण भी प्रत्यक्ष होगा । जिससे अनुमान नाम के स्वतन्त्र प्रमाण मानने की आवश्यकता नहीं रह जायगी । इसी प्रकार शाब्दबोध का कारण है पदज्ञान । यह पदज्ञान प्रत्यक्षप्रमाण स्वरूप श्रोत्रेन्द्रिय से उत्पन्न होता है । अतः श्रोत्रेन्द्रिय रूप प्रत्यक्ष प्रमाण ही शाब्दी प्रमा ( शाब्दबोध स्वरूप प्रमा) का भी करण होगा। इसके लिये शब्द नाम के अतिरिक्त प्रमाण की आवश्यकता भङ्ग हो जायगी । तस्मात् यह नियम नहीं किया जा सकता कि जिस प्रमिति उत्पादन में जिस-जिस प्रमाण के फलों का उपयोग हो, वे सभी प्रमाण उस प्रमिति के करण अवश्य हों । इसलिये ‘समयपरिच्छेद’ रूप प्रमिति में प्रत्यक्ष एवं शब्द इन दोनों प्रमाणों का उपयोग रहने पर भी ‘समयपरिच्छेद’ प्रत्यक्ष प्रमिति एवं शाब्द प्रमिति दोनों नहीं कहला सकतीं। जैसे कि अनुमिति में प्रत्यक्षादि चारो प्रमाणों का उपयोग होने पर भी वह ‘अनुमिति’ ही कहलाती है- प्रत्याक्षादि नहीं । अथवा शब्द प्रमाण से शाब्द- प्रमिति के उत्पादन में प्रत्यक्ष एवं अनुमान दोनों का उपयोग होने पर भी शब्द प्रमाण जनित प्रमिति शाब्दबोध ही कहलाती है, अनुमिति प्रथवा प्रत्यक्ष नहीं । इसी प्रकार प्रकृत ‘समय-परिच्छेद’ रूप उक्त प्रमा ज्ञान की उत्पत्ति में प्रत्यक्ष एवं शब्द इन दोनों प्रमाणों की अपेक्षा रहने पर भी वह उक्त दोनों प्रमाणों का समाहृत फल नहीं कहला सकती । तत्किम् साहित्यम् ( इस पर वंशेषिकगण कह सकते हैं कि यदि ऐसा ही हो तो सविकल्पकज्ञानस्वरूप प्रमा प्रत्यक्ष प्रमिति नहीं कहलायगी । क्यों कि इन्द्रिय से तो पहिले निर्विकल्पकप्रत्यक्ष ही होता है । उसके बाद सविकल्पक प्रत्यक्ष होता है। यदि इद्रिय रूप प्रत्यक्ष से उत्पन्न ४३
१३८. गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली तत्तदसाधारणेन्द्रियादिसाहित्यम् । निर्विकल्पक ज्ञान के द्वारा उत्पादित सविकल्पक ज्ञान भी प्रत्यक्ष प्रमिति कहला सकती है, तो फिर कथित ‘समयपरिच्छेद’ प्रत्यक्ष प्रमिति एवं शाब्दप्रमिति क्यों नहीं कहला सकती ? अथवा उसके करण शब्द एवं प्रत्यक्ष दोनों ही क्यों नहीं हो सकते, अगर हैं तो उसको ‘सीमा’ कहाँ है ? ( अर्थात् प्रत्यक्ष प्रमाण का कितना अथवा कैसा उपयोग रहने पर प्रमिति प्रत्यक्ष कहलायगी ? अथवा प्रत्यक्ष का उपयोग रहने पर भी किस स्थिति में प्रतीति प्रत्यक्ष नहीं कहलाकर अनुमिति अथवा शाब्दबोध कहलायेगी ? भिन्न-भिन्न प्रकार के किन उपयोगों से प्रत्यक्ष, शब्द प्रभृति भिन्न-भिन्न प्रमाणों का व्यवहार होगा ? ) सि० प० तत्तदसाधारण १०…….. " जिस प्रमिति के अव्यवहित पूर्वक्षण में इन्द्रियादि में से जिसके प्रसाधारण व्यापार की अवश्य ही अपेक्षा होती है, वही ( इन्द्रियांदि ही ) उस प्रमिति का करण है, वही उस प्रमिति का जनक प्रमाण है । उस प्रमाण से ही प्रमितियों में भी प्रत्यक्ष अनुमित्यादि के व्यवहार नियमित रूप से उपपन्न होते हैं । ’ १. कार्यों का एक ‘साधारण’ कारणं होता है एवं दूसरा ‘असाधारण’ । जिस प्रमिति के उत्पादन में जिस प्रमाणं की असाधारणकारणं रूप से उपयोग हो वह ‘प्रमिति पू ‘स स बा जि उ प्रमिति का वही प्रमाण पू प्रमाण के कार्य रूप से प्रसिद्ध होगी । एवं उस होगा। साधारण कारणों में यह नियम नहीं हैं कि वे कार्य के अव्यवहित पूर्वक्षण में अवश्य रहे। ऐसा भी होता है कि साधारण कारण अपने व्यापार का सम्पादन कर पहिले ही निवृत्त हो जाते हैं । प्रत्यक्ष प्रमा सभी प्रमितियों का साधारण कारण है। सभी प्रमाओं की उत्पत्ति में इन्द्रियों का किसी न किसी प्रकार अवश्य उपयोग होता है । किन्तु बिस प्रकार उसका असाधारण उपयोग प्रत्यक्षप्रमिति के लिये अपेक्षित है, उस प्रकार अनुमिति अथवा शाब्द प्रमिति में उसका उपयोग अपेक्षित नहीं है। इसी लिये प्रत्यक्ष प्रमाण से उत्पन्न होने पर भी शाब्दप्रमिति अथवा अनुमितिप्रमिति ‘प्रत्यक्षप्रमिति’ नहीं कहलाती । किं वा शब्द प्रमाण का अथवा अनुमानप्रमाण का अन्तर्भाव प्रत्यक्ष में नहीं होता । bo इ अ स उ 新 ही यो हो को
तृतीय- स्तवकः अस्ति तर्हि सादृश्यादिज्ञानकाले विस्फारितस्य चक्षुषो व्यापारः ? ६३३४ न । उपलब्धगोसादृश्य विशिष्टगवयपिण्डस्य वाक्यतदर्थस्मृतितः कालान्तरेऽप्य- नुसन्धानवलात् समयपरिच्छेदोपपत्तेः ॥ १० ॥ ननु च वाक्यादेवाऽनेन समयः परिच्छन्नः ‘गोसदृशस्य गवयशब्दः संज्ञेति’, केवलमिदानीं प्रत्यभिजानात्ययमसाविति । प्रयोगाद्वानुमितः, यो यत्राऽसति वृत्त्यन्तरे वृद्ध: प्रयुज्यते स तस्य वाचको यथा गोशब्द एव गोः, प्रयुज्यते चायं गोसदृश इति किमुपमानेनेति ? | पू० प० अस्तु तहि •*. . . . यदि कथित व्यवस्था के अनुसार ही प्रमाण प्रमिति की व्यवस्था हो, तो फिर उपमान का अन्तर्भाव प्रत्यक्ष में अनिवार्य है, क्योंकि गवयनिष्ठ गोसादृश्य के ज्ञान के प्रव्यवहित पूर्व क्षण में ‘विस्फारित’ चक्षु के व्यापार की अवश्य अपेक्षा होती है । सि० प० न, उपलब्ध … उपपत्तेः । उपमान प्रमाण का फल है ‘अयं गवयपदवाच्य:’ इस आकार की ‘प्रमिति’ अथवा ‘समयपरिच्छेद’ । यह ‘समयपरिच्छेद’ चक्षुव्यापार के रहने पर भी होता है । किन्तु जिस स्थल में पहिले ही गो सादृश्य से युक्त रूप से गवय का प्रत्यक्ष हो चुका है, उससे बहुत समय बाद भी यदि उस प्रमाता में गवय की अनुरूप स्मृति रहती है ‘तो ‘कालान्तर’ में भी अर्थात् • जिस समय चक्षु का व्यापार नहीं भी रहता है, उस समय भी उक्त अनुसन्धान ( स्मृति ) के द्वारा उक्त ‘समयपरिच्छेद’ रूप उपमिति होती है । अतः उपमिति में प्रत्यक्ष का असाधारण उपयोग नहीं है । इस लिये उपमान का अन्तर्भाव प्रत्यक्ष में नहीं हो सकता ॥ १० ॥ पृ० प० ननु च वाक्यादेव …… ( उपमान का प्रन्तर्भाव प्रत्यक्ष प्रमाण में भले ही न हो किन्तु ) ‘गोसहयो गवय:’ इस वाक्य रूप शब्द प्रमाण से ‘समय’ अर्थात् गोसदृश में गवय पद की शक्ति ‘परिच्छिन्न’ अर्थात् निश्चित ( प्रमित) हो जायगी । उस निश्चय का आकार होगा ‘गवयशब्दः गो सदृशस्य संज्ञा’ । इस प्रकार शब्द प्रमाण से ही उपमान प्रमाण का कार्य उक्त समयपरिच्छेद उपपन्न हो जायगा । अरण्य में जाने पर केवल ‘अयमसी’ ( अर्थात् गोसदृश, जिस धर्मी को मैं ने गवयशब्दवाच्यत्व रूप से समझा था सो ‘यही’ है ) - इस प्रकार की केवल प्रत्यभिज्ञा ही होती है । यो यत्र G किमुपमानेन प्रथवा ‘प्रयोग’ से अर्थात् अनुमान के प्रयोग से ‘समय’ का अर्थात् शक्ति का उक्त परिच्छेद हो सकता है । अर्थात् अनुमान प्रमाण से ही जो समयपरिच्छेद रूप मनुमिति होती है, उसी ★ को ‘यायिकादि ‘उपमिति’ नाम की एक स्वतन्त्र प्रमिति मान कर उसके लिये एक उपमान
३४० न । गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली सादृश्यस्यानिमित्तत्वानिमित्तस्याप्रतीतितः समयो दुग्रहः पूर्वं शब्देनानुमयाऽपि वा ॥११॥ नाम का अतिरिक्त प्रमाण ही मान लेते हैं। अनुमान प्रयोग का स्वारस्य यह है कि वृद्धगण जिस बोध की इच्छा से जिस शब्द का प्रयोग करते हैं, यदि उस शब्द में उस अर्थ को समझाने की लक्षणा प्रभृति कोई ‘वृत्ति’ नहीं है, तो फिर समझना चाहिये कि उस शब्द में उस अर्थ को समझाने की ‘अभिघा’ वृत्ति या ‘शक्ति’ नाम की ‘वृत्ति’ ही है । अतः वह शब्द उस अर्थ का वाचक है । एवं वह अर्थ उस शब्द का वाच्य ‘अर्थ’ है । क्योंकि ‘प्रभिधा’ वृत्ति ही वाच्यत्व पौर बाचकत्व की नियामिका है । प्रकृत में ‘गोसदृश’ अर्थ को समझाने के लिये वृद्धगण ‘गवय’ शब्द का प्रयोग करते हैं । गवय पद में गो सदृश को समझानेवाली लक्षणा प्रभूति कोई अन्य वृत्तियां नहीं हैं । अतः । यह समझना चाहिये कि गवय पद गोसदृश का वाचक है । इस प्रकार उक्त समयपरिच्छेद का कार्य जब अनुमान प्रमाण से ही हो जायगा, तो फिर उपमान नाम के स्वतन्त्र प्रमाण मानने की क्या आवश्यकता है ? सि० प० न, सादृश्यस्यानिमित्तत्वात् गोसादृश्य गवय पद का ‘निमित्त’ अर्थात् प्रवृत्तिनिमित्त’ नहीं है । गवयत्व ही गवयपद का प्रवृत्तिनिमित्त है। क्योंकि बराबर बन में ही रहने वाले लोग सादृश्य को न जानते हुये भी गवय शब्द का प्रयोग करते हैं। जब तक प्रवृत्तिनिमित्त का ज्ञान नहीं हो जाता, जब तक शक्ति का ज्ञान संभव ही नहीं है । ‘गोसदृशो गवयः’ इस वाक्य से उस गोसादृश्य की ही प्रतीति होती है, जो गवय शब्द का प्रवृत्तिनिमित्त नहीं है । गवय पद के प्रवृत्तिनिमित्त गवयस्व का बोध उस वाक्य से नहीं होता है । अतः उक्त वाक्य रूप शब्द प्रमाण से ‘समयपरिच्छेद’ नहीं हो सकता । एवं शक्ति (समय) ज्ञान के बिना पद में वाचकत्व का ज्ञान नहीं हो सकता । इस ‘समयपरिच्छेद की उपपत्ति अनुमान प्रमाण से भी नहीं हो सकती। क्योंकि समय का परिच्छेद जिस अनुमान से वैशेषिकगण करना चाहते हैं, उसका ‘गवयशब्दो गवयस्य वाचकः प्रसति वृस्यन्तरेऽअभियुक्तस्तत्र प्रयुज्यमानत्वात् गवि गोशब्दवत्’ यह आकार है । हेतु वाक्य में जो ‘प्रसति वृत्यन्तरे, पद है, उस से होनेवाला विशिग्रुबोध ‘शक्ति’ ज्ञान के विना असम्भव है । जब यह ज्ञात हो जायगा कि गवय पद की अभिघावृत्ति (शक्ति) ज्ञान से ही गवय रूप अर्थ का बोध होता है, उसके बाद ही यह समझा जा सकता है कि गाय पद से गवयरूप अर्थ को समझाने की लक्षणा प्रभृति वृत्तियाँ नहीं है । ‘वृत्यन्तराभाव’ O न रूप उक्त न का का ज्ञान श्रतः होने का पू० प्रवृ द्वारा करते हो न सि निवा उस के उ 9. 83 * तृतीय- स्तवक! ३४१ न हि गवयशब्दस्य सादृश्यं प्रवृत्तिनिमित्तम्, अप्रतीतगूनामव्यवहारप्रसङ्गात् । न चोभयमपि निमत्तम्, स्वयं प्रतीतसमयसंक्रान्तये अतिदेशवाक्यप्रयोगानुपपत्तेः । रूप हेतु के विशेषण ( हेतुतावच्छेदक ) ज्ञान के न रहने से उस विशेषण से युक्त हेतु से उक्त अनुमिति नहीं हो सकती । ’ न हि गोसादृश्य गवय पद का प्रवृत्तिनिमित्त नहीं है । क्योंकि प्रवृत्तिनिमित्त स्वरूप धर्म का ज्ञान भी शब्द से उत्पन्न अर्थ के व्यवहार का कारण है । यदि गोसादृश्य को गवयपद का प्रवृत्तिनिमित्त मानेंगे तो गवय शब्द के प्रयोग करनेवाले पुरुष के लिए गोसादृश्य का ज्ञान आवश्यक होगा । गोसादृश्य का ज्ञान गोविषयकज्ञान के बिना सम्भव नहीं हैं । अतः बराबर वन में ही रहनेवाले जिस पुरुष ने कभी गाय नहीं देखी हैं, उसके द्वारा होनेवाला गवयपद का व्यवहार अनुपन्न हो जायगा । किन्तु बन में रहनेवाला भी गवयप का व्यवहार करता है, अतः गो सादृश्य गवयपद का प्रवृत्तिनिमित्त नहीं है । पू० प० न चोभयमपि 138 … काचित् यह कहें कि ‘गोसादृश्य एवं गवयत्व ये दोनों ही विकल्प से गवयपद के प्रवृत्तिनिमित्त हैं । नागरिक पुरुष गवय पद का प्रयोग गोवादृश्य रूप प्रवृत्तिनिमित्त के द्वारा करते हैं । अरण्यस्थ पुरुष गवयत्त्र रूप प्रवृत्तिनिमित्त के द्वारा गवय पद का प्रयोग करते हैं । अतः यह नहीं कहा जा सकता कि गोसादृश्य गवयपद का प्रवृत्तनिमित्त है ही नहीं । । सिः प० स्वयमपि … … जिस समय नगरवासी पुरुष अरण्य के उस प्रदेश में जा चहुंचता है, एवं वहाँ के निवासियों के मुख से ‘गवय’ पद से युक्त वाक्य को सुनता है, तो स्वभावतः वह नागरिक उत थारण्यक पुरुष से जिज्ञासा प्रकट करता है कि ‘गवय पद का कौन सा अर्थ है ?’ इस के उत्तर में वह बनस्थ व्यक्ति उस ‘गो’ के बोधक शब्द से युक्त ‘गोसदृशो गवय।’ १. ’ न हि गत्रपशब्दस्प’ यहाँ से लेकर १२ वें श्लोक एवं उसकी गद्यम्पादपा के ‘मानान्तरमनुसरणीयम्’ इतने पर्यन्त के सन्दर्भ प्रकृत श्लोक से उपमान का शब्द प्रमाण में अनन्तर्भाव प्रतिपादक अंश की ही व्याख्या स्वरूप है। इस श्लोक के ‘नानुमयापि वा’ इस अंश से जो उपमान के अनुमान में अनन्तर्भाव की बात कही गयी है । उसी की व्याख्पा ‘ब्रस्वनुमानम्’ आगे के इस गद्यसन्दर्भ से की गयी है।
- ‘श्रप्रतीतगूनाम्’ न प्रतीतो गौर्यस्प असो अप्रतीतगू। तेषाम् । CCO. Vasishtha Tripathi Collection. Digitized by eGangotri३४२ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली
- गवयत्वे ह्ययं व्युत्पन्नो वृद्धव्यवहारान्न सादृश्ये । कथमेतन्निर्धारणीयमिति चेत्; वस्तुगतिस्तावदियम् । तदापाततः सन्देहेऽपि न फलसिद्धिः गन्धवत्त्वमिव पृथिवीत्वस्य, गोसादृश्यं गवयशब्दप्रवृत्तिनिमित्तस्योपलक्षणमिदमेव वा निमित्तमित्यनिर्धारणात् । अर्थ का ज्ञान नागरिक पुरुष को पहिले शक्ति का ज्ञान सम्भव नहीं है । अत: प्रकार का ज्ञान है, उसी आकार के ‘गोसदृशो गवय:’ इस वाक्य का प्रयोग इस वाक्य का प्रयोग करता है, जिस गो शब्द के से ही रहता है। ऐसे स्थलों में ‘व्यवहार’ के द्वारा स्वयं बनस्थ पुरुष में गवय पद की शक्ति का जिस शक्तिज्ञान उत्पादन का नागरिक पुरुष के लिये उक्त वह करता है । किन्तु वनस्थपुरुष को गवय पद के शक्ति का ज्ञान तो वृद्धव्यवहार के द्वारा गवयत्व रूप प्रवृत्तिनिमित्त रूप से ही है, गोसादृश्य रूप से नहीं। फिर अरण्यस्य पुरुष दूसरे को समझाने के लिये ‘गोसदृशो गवय:’ इस आकार के वाक्य का प्रयोग कैसे करेगा ? अतः गोसादृश्य गवयपद का प्रवृत्तनिमित्त नहीं है । पू० प० कथमेतत् यह कैसे निर्णय करेंगे कि गवय पद का प्रवृत्तिनिमित्त गवयत्व ही है, गोसादृश्य नहीं ? ( अर्थात् इस के लिए विशेष युक्ति की आवश्यकता है । सि० प० वस्तुगति
यह तो ‘वस्तुस्थिति’ है । अर्थात् गवयत्व ही प्रवृत्तिनिमित्त है गोस। दृश्य नहीं, यह वो जल के शंत्य की तरह वस्तुस्थिति के अनुसार निर्विवाद है’ । सि० प० तदापातत – यद्यपि कथित युक्ति के द्वारा यह स्थिर है कि गवयपद का प्रवृत्तिनिमित्त गवयत्व ही है, गो सादृश्य नहीं । तथापि ‘प्रापातत:’ इस निर्द्धारण को न मानकर यह सन्देह ही मानें कि ‘गवय पद का प्रवृत्तिनिमित्त गवयत्व है ? अथवा गोसादृश्य ? तथापि वैशेषिकों के ‘फल’ को उपमान का शब्द में अन्तर्भाव रूप अभीष्ट की सिद्धि नहीं होगी। क्योंकि अविदेश • वाक्य से उक्त समय परिच्छेद तभी हो सकता है, जब यह निश्चित रहे कि ‘गोसादृश्य ही गवयपद का प्रवृत्तिनिमित्त है । उक्त अनिर्धारण से यह सन्देह तो उपस्थित हो ही जायगा कि गोसादृश्य ही गवंय पद का प्रवृत्तिनिमित्त है, गवयत्व उसका उपलक्षण है’ अथवा गवयत्व १. सिद्धान्तियों का अभिप्राय है कि गवयत्व है जाति, अतः वह लघु है । गोसाइश्य है उपाधि, अतः गुरु है। यदि किसी लघु रूप धर्म को प्रवृत्तिनिमित्त मानकर कार्य का निर्वाह हो सके, तो किसी गुरु धर्म को प्रवृत्तिनिमिश मानना अन्याय्य है । इस युक्ति के सर्वस्वीकृत होने के कारण ही आचार्य ने उसको ‘वस्तुगति’ की संज्ञा दी है । तदेव व वदात पर्यवसि इदानीं ‘गङ्गाय ही प्रवृत्त प्रयोग के अथवा पू० प सदृशो इस आव अर्थात् फल का का बथ ज्ञान भी न च व ‘सकृदुच्च सुनने के गवयविष गोसां तात्पर्य- वक्ता के के स्थल
तृतीयः स्तबकः ३४३ स्यादेतत् । पूर्वं निमित्तानुपलब्धेर्न फलसिद्धिः, इदानीं तु तस्मिन्नुपलब्धे तदेव वाक्यं स्मृत्तिसमारूढं फलिष्यति, अध्ययनसमयगृहीत इव वेदराशिरङ्गोपाङ्गपर्यं- वदातस्य कालान्तरे । न च वाच्यं वाक्येन स्वार्थस्य प्रागेव बोधितत्वात् प्रागेव पर्यवसितमिति । गोसादृश्यस्योपलक्षरणनिमित्तत्वयोरन्यतरत्र तात्पर्ये सन्देहात् । इदानीं तु गवयत्वेऽवगते तर्कपुरस्कारात् सादृश्यस्योपलक्षरणतायां व्यवस्थितायाम्, ‘गङ्गायां घोष’ इतिवदन्वयप्रतिपत्तिरिति चेत् ? ही प्रवृत्तनिमित्त है, गो सादृश्य ही उपलक्षण है। जैसे कि ‘गन्धवती पृथिवी इस वाक्य के प्रयोग के बाद यह सन्देह उपस्थित होता है कि गन्धवत्त्व पृथिवीपद का प्रवृत्तिनिमित्त है अथवा पृथिवित्व रूप प्रवृत्ति निमित्रा का उपलक्षण है ? पू० प स्यादेतत् पूर्वम्……. कालान्तरे " यद्यपि यह सत्य है कि जबतक गवय का प्रत्यक्ष नहीं हो जाता, तब तक ‘गो सदृशो गवय।’ इस अतिदेश वाक्य के अर्थ का ज्ञान होने पर भी ‘गोसदृशो गवयपदवाच्यः’ इस आकार का शक्तिज्ञान अथवा ‘समयपरिच्छेद’ नहीं उत्पन्न होता । किन्तु ‘इदानीम्’ अर्थात् गवय के प्रत्यक्ष की स्थिति में वही अतिदेशवाक्य स्मृत होकर उक्त शक्तिज्ञान रूप फल का संपादन कर सकता है । जिस प्रकार वेदों के अध्ययन के समय उनसे जिन वस्तुओं का अथवा जिन ‘इतिकर्तव्यता ’ प्रभृति अङ्गों का ज्ञान नहीं हो पाता, उन सब विषयों का ज्ञान भी वेदाङ्गों के अध्ययन से स्मृत वेदों से ही होता है । न च वाच्यम्’’ ‘… ~ … पर्यवसितमिति ( वैशेषिकों के उक्त मभिप्राय का निराकरण इस प्रकार किया जा सकता है कि ) ‘सकृदुचरितः शब्दः सकृदेवार्थङ्गमयति’ इस न्याय से ‘गोसदृशो गवयः’ इस अतिदेश वाक्य को सुनने के बाद जो प्रथम बोध उत्पन्न होता है, उसी से वह वाक्य कृतकार्य हो जाता है । गवयविषयक प्रत्यक्ष के बाद फिर उसी वाक्य से समय परिच्छेद रूप कार्य नहीं हो सकता । गोर्सादृश्यस्य " –.. ( वैशेशिकगण इसका समाधान इस प्रकार करते हैं कि जहाँ श्रोता को वक्ता का - तात्पर्य निश्चित रहता है, वहीं ‘सकृदुचरितः शब्दः’ इत्यादि न्याय उपयुक्त होता है । जहाँ वक्ता के तात्पर्य का सन्देह रहता है, वहीं यह न्याय लागू नहीं होता । क्योंकि तात्पर्य सन्देह के स्थल में शब्द सुनने के बाद यदि आपातत! कोई प्रतीति हो भी जायगी, तथापि तात्पर्य के
३४४ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली श्रुतान्वयादनाकाङ्क्ष न वाक्यं ह्यन्यदिच्छति । न, पदार्थान्वयवै घुर्यात्तदा क्षिसेन सगतिः ॥१२॥ निर्णायक षड्विध लिङ्ग अथवा तर्कादि के सहारे जब तात्पर्य का निर्णय हो जायगा, उसके बाद वही वाक्य पुनः स्मृत होकर उसी विषय के निश्चयात्मक बोध को उत्पन्न करेगा, जो निश्चित तात्पर्य का भी विषय है । प्रकृत में ‘गोसदृशो गवय:’ इस वाक्य के श्रवण के बाद श्रोता को यह सन्देह होता है कि ‘इस वाक्य में प्रयुक्त गवय पद गवयत्व को ‘निमिरा’ बनाकर प्रयुक्त हुआ है ? अथवा गो सादृश्य को ‘निमित्त’ बनाकर ? ( अर्थात् इस वाक्य से गोसादृश्यविशिष्ट गवय का बोध वक्ता को इष्ट है ? अथवा गोसादृश्योपलक्षित गवयत्वविशिष्ट गवय का बोध ? ) इसके बाद जब गवय का प्रत्यक्ष होता है, तब तर्क उपस्थित होता है कि यदि उक्त वाक्य में प्रयुक्त गवय पद का प्रवृत्तनिमित्त गो सादृश्य होता तो जिस अरण्यस्य व्यक्ति ने कभी गाय देखी ही नहीं, एवं उसे यह भी ज्ञात है कि ‘इसका नाम गवय है’ वह कभी भी इस अर्थ को समझाने के लिये ‘गव्य’ शब्द का प्रयोग न करता । अतः गवय पद का प्रवृत्तिनिमित्त गवयत्व ही है, गोसा दृश्य नहीं । गोसादृश्य उक्त गवयत्व का उपलक्षण है तस्मात् ‘गोसदृशो गवयः’ इस वाक्य से चूकि अन्य किसी प्रकार का बोध संभव नहीं है, अतः ‘गोसदृशो गवयपद- वाच्या’ इस प्रकार का शक्तिग्रह अथवा समयपरिच्छेद ही होता है । जैसे कि ‘गङ्गायां घोष:’ इस वाक्य से लक्षणावृत्ति के द्वारा अगत्या गङ्गातीर के घोष का ही बोध मानना पड़ता है । फलतः ‘गोसवृशो गवय:’ इस प्रतिदेशवाक्य में प्रयुक्त ‘गवय’ पद ’ गवयपदवाच्यत्व’ रूप अर्थ में लाक्षणिक है । तस्मात् अतिदेश वाक्य रूप शब्द प्रमाण से ही उक्त समयपरिच्छेद अथवा शक्तिज्ञान की उपपत्ति हो जायगी, इसके लिये ‘उपमान’ नाम के अतिरिक्त प्रमाण को स्वीकार करने की आवश्यकता नहीं है । सि० प० श्रताग्वयात् …सङ्गति: (श्लोक ) । उक्त कथन भी ठीक नहीं है, क्योंकि ‘गो सदृशो गवय:’ इस अतिदेश वाक्य को सुनने के बाद उसमें प्रयुक्त पदों से प्रभिधा वृत्ति के द्वारा जिन अर्थों की उपस्थिति होती है, उन सबको यथा योग्य परस्पर अन्वित होने में कोई बाघा नहीं है । अतः उक्त वाक्य के पदों से अभिधा वृत्ति के द्वारा पर्थो की उपस्थिति के बाद, उन उपस्थितियों से बोध के लिये अन्य किसी की आकांक्षा नहीं रह जाती । अतः प्रतिदेशवाक्य किसी ‘अन्य’ की अर्थात् शाब्द बोध के उत्पादन में प्रत्यक्षादि प्रमाणों से अवगत गवयत्वादि की अपेक्षा नहीं रखते है । जहाँ सुने हुए पदों से श्रभिधावृति के द्वारा अर्थों में परस्पर अन्वय का ‘बंधुर्य’ अर्थात् अभाव रहता हैं, उन्हीं स्थलों में ‘आक्षेप’ अर्थात् लक्षणा प्रभृति वृत्तियों के द्वारा उपस्थित अर्थ के साथ अन्वय करना पड़ता है। सन्देहे ‘घटो सि० ‘विशेष सामान विशेष में से उत्पत्ति नहीं भ मात्र गवयप प्रत्यक्ष ज्ञान ( इस वा ‘उपमि अन्यथ गोसदृ प्रत्यक्ष गवयप ही वा ‘गतोऽस पूर्व के प्रत्यक्ष कथन ‘अन्यथ वाक्य अतिदेश
तृतीय- स्तवक: ३४५ ‘गौसदृशो गवयशब्दवाच्यः’ इति सामानाधिकरण्यमात्रेणान्वयोपपत्तौ विशेष- सन्देहेऽपि वाक्यस्य पर्यवसितत्वेन मानान्तरोपनीतानपेक्षरणात्, रक्तारक्तसन्देहेऽपि ‘घटो भवति’ इति वाक्यवत्, अन्यथा वाक्यभेददोषात् । सि० प० गो सदृशः … … …. … जब तक गवय का प्रत्यक्ष नहीं हो जाता तब तक ‘कोऽसौ गोसदृश:’ इस प्रश्न से ‘विशेष’ विषयक संशय के रहने पर भो ‘यो गवयसदृशः स गवयपदवाच्यः’ इस प्रकार का सामान्य भन्वयबोध हो सकता है। इसके लिये प्रत्यक्षादि किसी अन्य प्रमाण से उत्पन्न विशेष निर्णय की अपेक्षा नहीं होती है । जैसे कि ‘घट रक्त है ? अथवा अरक्त ?’ इन दोनों में से किसी एक पक्ष के निर्णय के न रहने पर भी ‘घटो भवति’ इस वाक्य से अन्वयबोध की उत्पत्ति में कोई बाधा नहीं भाती है । अतः ( गवय के प्रत्यक्ष के समय तक यदि यह निर्णय नहीं भी होता है कि ‘गवय पद का प्रवृत्तिनिमिश गवयत्व ही है, गोसादृश्य उसका उपलक्षण मात्र है’ तथापि ‘गोसदृशो गवय:’ इस अतिदेश वाक्य के सुनने पर ‘यो गोसदृश: स गवयपदवाच्यः’ इस प्रकार के बोध के होने में कोई बाघा नहीं होती है । अर्थात् गवय के प्रत्यक्ष के बाद जो अतिदेशवाक्य के स्मरण से ‘अयं गवयपदवाच्यः’ इस आकार का शक्ति- ज्ञान (समयपरिच्छेद ) होता है— जिसको हमलोग उपमिति कहते हैं - ‘गोसदृशो गवय।’ इस वाक्य से उत्पन्न अन्वयबोध रूप नहीं है । किन्तु उपमान प्रमाण से उत्पन्न होने के कारण ‘उपमिति’ रूप है । अन्यथा …… । ( इस प्रसङ्ग में वैशेषिकगण कह सकते हैं कि अतिदेश वाक्य को सुनने के बाद ‘यो गोसदृशः स गवयपदवाच्यः’ इसी आकार अन्वयबोध भले ही मान लें, किन्तु गवय के प्रत्यक्ष के बाद स्मृतिसमारूढ़ उसी अतिदेशवाक्य से उक्त प्रत्यक्ष के साहाय्य से ‘अयं गवयपदवाच्यः’ इसी प्रकार के अन्वयबोध को स्वीकार करने में कोई बाधा नहीं है । एक ही वाक्य के लिये विभिन्न सहकारियों के साहाय्य से अनेक प्रकार के बोधों का उत्पादन ‘गतोऽस्तमर्क’ इत्यादि वाक्यों से सभी मानते हैं । प्रत। यह कोई बात नहीं है कि प्रत्यक्ष से पूर्व केवल प्रतिदेशवाक्य से उक्त सामान्य श्रन्वयबोध होता है, केवल इसी लिये गवय के प्रत्यक्ष के बाद उसी वाक्य से ‘समयपरिच्छेद’ रूप प्रन्वयबोध न हो । किन्तु वैशेषिकों का यह कथन भी ठीक नहीं है, क्योंकि एक ही वाक्य से अनेक प्रकार के बोध नहीं हो सकते ) ‘अन्यथा’ अर्थात् यदि एक वाक्य से एक ही प्रन्वयबोध को स्वीकार न करें, प्रथवा एक ही वाक्य से अनेक अन्वय बोबों को स्वीकार करें तो ‘वाक्यभेद’ दोष होगा । अतः एक अतिदेशवाक्य से एक ही आकार का अन्वयबोध हो सकता है । ४४
३४४ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली श्रुतायादनाकाङ्क्ष न वाक्यं ह्यन्यदिच्छति । न, पदार्थान्वयवै धुर्यात्तदाक्षिप्तेन सगतिः ॥१२॥ निर्णायक षड्विध लिङ्ग अथवा तर्कादि के सहारे जब तात्पर्य का निर्णय हो जायगा, उसके बाद वही वाक्य पुनः स्मृत होकर उसी विषय के निश्चयात्मक बोघ को उत्पन्न करेगा, जो निश्चित तात्पर्य का भी विषय है । प्रकृत में ‘गोसदृशो गवय:’ इस वाक्य के श्रवण के बाद श्रोता को यह सन्देह होता है कि ‘इस वाक्य में प्रयुक्त गवय पद गवयत्व को ‘निमित्त’ बनाकर प्रयुक्त हुआ है ? अथवा गो सादृश्य को ‘निमित्त’ बनाकर ? ( अर्थात् इस वाक्य से गोसादृश्यविशिष्ट गवय का बोध वक्ता को इष्ट है ? अथवा गोसादृश्योपलक्षित गवयत्वविशिष्ट गवय का बोध ? ) इसके बाद जब गवय का प्रत्यक्ष होता है, तब तर्क उपस्थित होता है कि यदि उक्त वाक्य में प्रयुक्त गवय पद का प्रवृत्तनिमित्त गो सादृश्य होता तो जिस अरण्यस्थ व्यक्ति ने कभी गाय देखी ही नहीं, एवं उसे यह भी ज्ञात है कि ‘इसका नाम गवय है’ वह कभी भी इस अर्थ को समझाने के लिये ‘गवय’ शब्द का प्रयोग न करता । अतः गवय पद का प्रवृत्तिनिमित्त गवयत्व ही है, गोसा दृश्य नहीं । गोसादृश्य उक्त गवयत्व का उपलक्षण है तस्मात् ‘गोसदृशो गवयः ’ इस वाक्य से चूकि अन्य किसी प्रकार का बोध संभव नहीं है, अतः ‘गोसदृशो गययपद- वाच्य’ इस आकार का शक्तिग्रह अथवा समयपरिच्छेद ही होता है । जैसे कि ‘गङ्गायां घोष:’ इस वाक्य से लक्षणावृति के द्वारा अगत्या गङ्गातीर के घोष का ही बोध मानना पड़ता है । फलतः ‘गोसदृधो गवय’ इस प्रतिदेशवाक्य में प्रयुक्त ‘गवय’ पद ’ गवयपदवाच्यत्व’ रूप अर्थ में लाक्षणिक है । तस्मात् अतिदेश वाक्य रूप शब्द प्रमाण से हो उक्त समयपरिच्छेद अथवा शक्तिज्ञान की उपपत्ति हो जायगी, इसके लिये ‘उपमान’ नाम के अतिरिक्त प्रमाण को स्वीकार करने की श्रावश्यकता नहीं है । सि० प० श्रतान्वयात् “सङ्गति: (श्लोक ) । उक्त कथन भी ठीक नहीं है, क्योंकि ‘गो सदृशो गवय:’ इस अतिदेश वाक्य को सुनने के बाद उसमें प्रयुक्त पदों से प्रभिषा वृति के द्वारा जिन अर्थों की उपस्थिति होती है, उन सबको यथा योग्य परस्पर अन्वित होने में कोई बाधा नहीं है । अतः उक्त वाक्य के पदों से अभिधा वृत्ति के द्वारा प्रथों की उपस्थिति के बाद, उन उपस्थितियों से बोध के लिये अन्य किसी की आकांक्षा नहीं रह जाती । अतः अतिदेशवाक्य किसी ‘अन्य’ की अर्थात् शाब्द बोध के उत्पादन में प्रत्यक्षादि प्रमाणों से अवगत गवयत्वादि की अपेक्षा नहीं रखते हैं । जहाँ सुने हुए पदों से श्रभिधावृति के द्वारा अर्थों में परस्पर अन्वय का ‘वधुर्य’ अर्थात् अभाव रहता हैं, उन्हीं स्थलों में ‘आक्षेप’ अर्थात् लक्षणा प्रभूति वृत्तियों के द्वारा उपस्थित अर्थ के साथ अन्वय करना पड़ता है । सन्देह ‘घटो सि० ‘विशेष सामान विशेष में से उत्पत्ति नहीं मात्र गवयप प्रत्यक्ष ज्ञान ( इस व ‘उपमि अन्यथ गोसदृ प्रत्यक्ष गवयप ही वा ‘गतो पूर्व के प्रत्यक्ष कथन ‘अन्यथ वाक्य अतिदेव
तृतीय- स्तवक: ३४५ ‘गोसदृशो गवयशब्दवाच्यः’ इति सामानाधिकरण्यमात्रेणान्वयोपपत्तौ विशेष- सन्देहेऽपि वाक्यस्य पर्यवसितत्वेन मानान्तरोपनीतानपेक्षरणात्, रक्तारक्तसन्देहेऽपि ‘घटो भवति’ इति वाक्यवत्, अन्यथा वाक्यभेददोषात् । सि० प० गो सदृशः ••• जब तक गवय का प्रत्यक्ष नहीं हो जाता तब तक ‘कोऽसौ गोसदृश:’ इस प्रश्न से ‘विशेष’ विषयक संशय के रहने पर भो ‘यो गवयसदृशः स गवयपदवाच्यः’ इस प्रकार का सामान्य श्रन्वयबोध हो सकता है। इसके लिये प्रत्यक्षादि किसी अन्य प्रमाण से उत्पन्न विशेष निर्णय की अपेक्षा नहीं होती है । जैसे कि ‘घट रक्त है ? अथवा अरक्त ? इन दोनों में से किसी एक पक्ष के निर्णय के न रहने पर भी ‘घटो भवति’ इस वाक्य से अन्वयबोध की उत्पत्ति में कोई बाधा नहीं आती है । अतः ( गवय के प्रत्यक्ष के समय तक यदि यह निर्णय गोसादृश्य उसका उपलक्षण नहीं भी होता है कि ‘गवय पद का प्रवृत्तिनिमित गवयश्व ही है, मात्र है’ तथापि ‘गोसदृशो गवय:’ इस अतिदेश वाक्य के सुनने पर ‘यो गोसदृशः स गवयपदवाच्यः’ इस प्रकार के बोध के होने में कोई बाघा नहीं होती है । अर्थात् गवय के प्रत्यक्ष के बाद जो अतिदेशवाक्य के स्मरण से ‘अयं गवयपदवाच्य:’ इस आकार का शक्ति- ज्ञान (समयपरिच्छेद ) होता है - जिसको हमलोग उपमिति कहते हैं— ‘गोसदृशो गवया’ इस वाक्य से उत्पन्न अन्वयबोध रूप नहीं है । किन्तु उपमान प्रमाण से उत्पन्न होने के कारण ‘उपमिति’ रूप है । अन्यथा ….. ( इस प्रसङ्ग में वैशेषिकगण कह सकते हैं कि अतिदेश वाक्य को सुनने के बाद ‘यो गोसदृशः स गवयपदवाच्य:’ इसी आकार अन्वयबोध भले ही मान लें, किन्तु गवय के प्रत्यक्ष के बाद स्मृतिसमारूढ़ उसी अतिदेशवाक्य से उक्त प्रत्यक्ष के साहाय्य से ‘अयं गवयपदवाच्यः’ इसी प्रकार के अन्वयबोध को स्वीकार करने में कोई बाधा नहीं है । एक ही वाक्य के लिये विभिन्न सहकारियों के साहाय्य से अनेक प्रकार के बोधों का उत्पादन ‘गतोऽस्तमर्कः इत्यादि वाक्यों से सभी मानते हैं । अतः यह कोई बात नहीं है कि प्रत्यक्ष से पूर्व केवल प्रतिदेशवाक्य से उक्त सामान्य भन्वयबोध होता है, केवल इसी लिये गवय के प्रत्यक्ष के बाद उसी वाक्य से ‘समयपरिच्छेद’ रूप धन्वयबोध न हो । किन्तु वैशेषिकों का यह कथन भी ठीक नहीं है, क्योंकि एक ही वाक्य से अनेक प्रकार के बोष नहीं हो सकते ) ‘अन्यथा’ अर्थात् यदि एक वाक्य से एक ही मन्वयबोध को स्वीकार न करें, प्रथवा एक ही वाक्य से अनेक अन्वय बोबों को स्वीकार करें तो ‘वाक्यभेद’ दोष होगा । अतः एक अतिदेशवाक्य से एक ही प्रकार का अन्वयबोध हो सकता है | ४४
३४६ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली न च गङ्गायां घोषः इतिवत् पदार्था एवान्वयाऽयोग्याः, येन प्रमाणान्तरोपनी - तेनान्वयः स्यात् । प्रतीतवाक्यार्थं बलायातोऽप्ययर्थो यदि वाक्यस्यैव, दिवाभोजन- निषेधवावयस्यापि रात्रिभोजनमार्थः स्यात् । तस्माद्यथा गयवशब्दः कस्यचित् वाचक:” शिष्टप्रयोगादिति सामान्यतो निश्चितेऽपि विशेषे मानान्तरापेक्षा, तथा ‘गोसदृशस्य गवयशब्दो वाचक इति वाक्यान्निश्चितेऽपि सामान्ये विशेषवाचकत्वेऽस्य मानान्तर - मनुसररणीयमिति । न च गङ्गायास् ‘गङ्गायां घोष:’ इत्यादि स्थलों में, गङ्गा पद के अभिषेय अर्थ प्रवाह में घोष पद के अर्थ का धन्वय संभव नहीं है, अतः दूसरे प्रमाण के द्वारा उपस्थित गङ्गातीर रूप अर्थ में घोष का अन्वय मानना पड़ता है । प्रकृत में सामान्य रूप से उपस्थित ‘गोसदृश पदार्थ में गवयपदवाच्यत्व का प्रन्वयः अनुपपन्न नहीं है, मतः प्रत्यक्ष रूप दूसरे प्रमाण से उपस्थित इदन्त्वविशिष्ट गवय में गवयपदवाच्यत्व का अन्वय स्वीकार करने की आवश्यकता नहीं है । यद्यपि इसको स्वीकार करने में कोई बाधा नहीं है, क्योंकि गोसादृश्य विशिष्ट में गवयपदवाच्यत्व के गृहीत हो जाने पर जब उस व्यक्ति को गवय का दर्शन होता है, तब भी ‘अय: गवयपदवाच्य।’ इस आकार का समयपरिच्छेद होता है । किन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि उक्त सममपरिच्छेद उस प्रतिदेश वाक्य का ही फल है। क्योंकि इस समयपरिच्छेद की उत्पत्ति तो गवयप्रत्यक्ष के बाद होती है । यदि किसी दूसरे प्रमाण से पर्यवसन्न अर्थं को भी प्रकृत प्रमाणजन्य ही मान लें तो फिर ‘पीनो देवदत्तो दिवा न मुक्त" इस वाक्य से उत्पन्न शाब्दबोध के वाद जो प्रर्थापत्ति प्रमाण से अथवा केवलव्यतिरेकी’ अनुमान से ‘रात्रिभोजन’ का निश्चय होता है, उस को भी उक्त वाक्य का ही अर्थ मानना होगा । • तस्मात् जिस प्रकार आप के मत में ‘गवय शब्द किसी अर्थ का वाचक अवश्य है, क्योंकि शिष्टों के द्वारा उसका प्रयोग होता है, जैसे कि गो शब्द प्रभृति’ इस अनुमान के द्वारा सामान्य रूप से किसी वस्तु में गवयपद की शक्ति गृहीत होने पर भी व्यक्तिविशेष में शक्तिंज्ञान के लिये गवयपिण्ड में चक्षुः संनिकर्ष रूप दूसरे प्रमाण को अपेक्षा होती है, उसी प्रकार उक्त अतिदेशवाक्य से गो सादृश्य से युक्त अर्थ में गवयपदवाच्यत्व का ज्ञान साधारण रूप से होने पर भी व्यक्तिविशेष में, शक्तिश्चान के लिये दूसरे प्रमाण की वह दूसरा प्रमाण ही ‘उपमात’ है । अतः ‘समयपरिच्छेद’: प्रतिदेश वाक्य से बोध रूप नहीं है । किन्तु उक्त उपमान प्रमाण से उत्पन्न उपमिति रूप है । भिय वृत्त्य पू० प्रमा रीति तथा हैं । (ल काव होता इस पर्यव सि० प्रयुज बोच ( वृ ज्ञान लक्षण तत्स पद को भ को स तब यह अपेक्षा होगी । उत्पन्न अन्वय- होने 1.
तृतीयः स्तबकः ३४७ अस्त्वनुमानम् । तथा हि-गवयशब्दो गवयस्य वाचकः असति वृत्त्यन्तरेऽ भियुक्तस्तत्र प्रयुज्यमानत्वात्, गवि गोशब्दवदिति चेन्न । असिद्धः । न ह्यसति वृत्त्यन्तरे तद्विषयतया प्रयोगः सङ्गतिमविज्ञाय ज्ञातुं शक्यते । पू० प० १ अस्त्वनुमानम् { वैशेषिकों का यह भी कहना है इति चेत् कि यदि उक्त शक्तिग्रह अथवा समयपरिच्छेद शब्द प्रमाण के द्वारा सम्भव न हो तो फिर अनुमान प्रमाण से ही उसकी उपपत्ति होगी। उसकी रीति यह है कि - ) तथा हि I गो सहरा उक्त पिण्ड को समझाने के लिये प्राप्तगण ‘गवय’ पद का प्रयोग करते यह निश्चित है कि गवय पद में गवय रूप पिण्ड को समझाने के लिये अतः समझते हैं कि गवय शब्द द्वारा ही गवय पद से गबय रूप अभिवा से भिन्न गवय रूप अर्थ अर्थ का बोध ( लक्षणा प्रभृति ) अन्य वृत्तियाँ नहीं हैं। का वाचक है । ( अर्थात् श्रभिधा वृत्ति के होता है ) । जैसे कि गो शब्द गो रूप अर्थ इस प्रकार ‘अयं गवयपदवाच्यः’ इस आकार के समयपरिच्छेद में इस अनुमान का पर्यवसान होगा ! सि० प० न, प्रसिद्धेः … में प्रयुक्त होने के कारण उसका वाचक होता है । प्रकृत अनुमान का आकार है ‘गवय शब्दों गवयस्य वाचकः, प्रसति वृत्यन्तरे वृद्धस्तथ प्रयुज्यमानत्वात् गत्रि गोशब्दवत्’ । इस वाक्य के ‘असति’ इत्यादि पञ्चम्यन्तवाक्य हेतु का बोचक है । इस हेतु का विशेषण है ‘असति वृत्यन्तरे’ अर्थात् किसी दूसरी वृत्ति का जमाव ( वृत्यन्तराभाव ) । यही हेतुतावच्छेदक है । हेतुतावच्छेदक स्वरूप विशेषण से युक्त हेतु का ज्ञान धनुमिति के लिये आवश्यक है । किन्तु ‘गत्रय पद में गवय रूप अर्थ को समझानेवाली लक्षणा प्रभृति कोई अन्य वृत्तियां नहीं हैं" यह कैसे समझेंगे ? क्यों कि ‘अन्तर’ शब्द तद्मिन्न तत्सजातीय अर्थ का बोधक है । अतः प्रभिषा पद के बोधक ‘वृत्ति’ पद से युक्त ‘वृत्यन्तर’ पद का अर्थ होगा ‘अभिघावृत्ति से भिन्न वृत्ति’ । भेद को समझने के लिये उसके प्रतियोगी को भी समझना आवश्यक है | अतः ‘श्रभिषावृत्ति के भेद को समझने के लिये ‘अभिवावृति’ को समझना आवश्यक है । अतः जब तक गवय पद की अभिघावृत्ति को न समझा जायगा तब तक “गवय पद में गवय रूप पिण्डको समझाने की अभिधा से भिन्न कोई वृद्धि नहीं है” यह नहीं समझा जा सकता । अतः प्रकृत में हेतुतावच्छेदक विशिष्ट हेतु का ज्ञान सम्भव न होने से उक्त अनुमिति नहीं हो सकती ।
- “अनुमयापि वर, समयो दुध हः” श्लोक के इस अंश की व्याख्या ‘मस्त्वनुमानम्’ इत्यादि गयसन्दर्भ से की गयी है।
- ३१८
- गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली
- सामानाधिकरण्यादिति चेन्न । दिण्डमात्रे सिद्धसाधनात्, निमित्ते चासिद्ध:,
- ‘सादृश्यस्यानिमित्तत्वात्’ इत्युक्तम् । पू० प० समानाधिकरण्यात् …… आवश्यकता की चर्चा की गयी है, वह गवय अभिघावृत्ति के जिस ज्ञान की सामानाधिकरण्य रूप से ‘गोसदृशो गवयः’ इत्यादि प्रयोग से ही होगा, क्योंकि इसी से गवयपद की अभिधा गवय रूप अर्थ में गृहीत हो सकती है । अतः गवयपद की अभिधा के प्रज्ञान से जो अनुमान की अनुपपत्ति दिखलायी गयी है, वह ठीक नहीं है । सि० प० पिण्डमात्रे 810 इस प्रसङ्ग में वैशेषिकों से पूछना चाहिये कि कथित ‘सामानाधिकरण्य’ शब्द से यदि गवय रूप पिण्ड का सामानाधिकरण्य विवक्षित है ? तो इससे गवय पद में केवल ‘पिण्ड’ की वाचकता की सिद्धि होगी । किन्तु उपमान प्रमाण के द्वारा तो गवय पद में गवयस्व जाति विशिष्ट गवय की वाचकता की सिद्धि अमीष्ट है । यह कार्य यदि अनुमान प्रमाण से नहीं हो सका, तो फिर अनुमान में उपमान के सामानाधिकरण्य की प्रतीति मूलक अनुमान से सिद्ध की गयी तो फिर सिद्ध वस्तु की हो पुनः विशिष्ट की वाचकता जो पहिले से असिद्ध है, निमित्ते च … … . इत्युक्तम् अन्तर्भाष की चर्चा ही व्यर्थ है । अर्थात् उक्त केवल यदि पिण्ड की वाचकता गवय पद में सिद्ध की गयी । गवय पद में गवयत्व जाति वह सिद्ध नहीं हो सकी । यदि उक्त ‘सामानाधिकरण्य’ पद से गवय पद के ‘निमित्त’ अर्थात् ‘प्रवृत्तनिमित्त’, स्वरूप गवयस्व जाति विशिष्ट का सामानाधिकरण्य विवक्षित है, तो इस प्रसङ्ग में यह कहना कि गवयत्व जाति में गवय पद की प्रवृननिमित्तता अभी सिद्ध नहीं है । क्योंकि जब तक गवयत्व विशिष्ट गवय में गवय पद की वाच्यता की सिद्धि नहीं होगी, तबतक ‘गवयत्व’ में गवय पद की प्रवृत्तनिमित्तता की सिद्धि नहीं हो सकती, क्योंकि ‘वाच्यस्वे सति वाच्यवृत्तित्वे सति वाच्योपस्थितीय प्रकारताषयत्वम्’ ऐसा ‘प्रवृत्तिनिमित्त’ का लक्षण है, जिसमें ‘वाच्यता’ अन्नभूत है । गवयत्व विशिष्ट गवय में जब तक गवय पद की शक्ति गृहीत नहीं होगी, तब तक प्रवृत्तिनिमित्त स्वरूप गवयत्व में गवय पद की वाच्यता नहीं आ सकती । सादृश्यस्य …….. पहिले कह आये हैं कि गोसादृश्य गवय पद का प्रवृत्तिनिमित्त नहीं है ।’ १. (कदाचित कोई विसरणशील वैशेषिक यह कहें कि ‘गोसाहश्य’ ही गवय पद का प्रवृत्तिनिमित्त है, तदवच्छेदेन तो गवय पद का वापस्व गृहीत है । उनको स्मरण दिलाने के लिये ही ‘गो साहश्वर’ इत्यादि सन्दर्भ लिखा गया है । च व श यह पू केव का प्रत ध्य rho है । पुरु कि पि गव नाम सि पुरुष किन सक ‘उ है । सा में घ्या गोस की
तृतीयः स्तबकः ३४६ ननु व्याप्तिपरमिदं वाक्यं स्यात् । “यो गोसदृशः स गवयपदार्थः” इति । तथा . च वाक्यादवगतप्रतिबन्धोऽनुमिनुयात् " प्रयमसौ गवयो गोसदृशत्वादतिदेशवाक्या- वगतपिण्डवदिति" न, विपर्ययात् । न हि गोसदृशं बुद्धावारोप्याऽनेन पृष्टः स किं शब्दवाच्य इति, किन्तु सामान्यतो गवयपदार्थमवगम्य स कीदृगिति । तथा च यद्योगप्राथम्याभ्यां तस्यैव व्याप्यत्वम्, ततः किं तेन ? प्रकृतानुपयोगात् । पू० प० ननु व्याप्तिपरम् www जो पुरुष गवय पद के अर्थ को कभी आंखों से नहीं देखा है, किन्तु ‘गवय’ पद को केवल सुन रखा है । वह जब स्वभावतः किसी विज्ञ व्यक्ति से पूछता है कि ‘गवय’ पद का कौन सा अर्थ है ? वह पुरुष ‘विज्ञ’ होने पर भी हठात् इसका उत्तर नहीं दे पाता । भत एव गवय पद वाच्यत्व की अनुमिति के उत्पादक कारणों के समूह ( सामग्री ) में जो ‘व्याप्ति’ निविष्ट है, केवल उस का ही प्रदर्शन ‘गो सदृशो गवय:’ इस वाक्य से कर देता है । इस वाक्य से प्रश्न कर्त्ता को ‘यः गो सदृशः स गवय पद वाक्य:’ इस प्राकार का व्याप्तिनिश्चय होता है, अर्थात् जो गो के सादृश्य से युक्त है, वही गवय पद का वाच्य अर्थ है । इस वाक्य के द्वारा उत्पन्न ‘प्रतिबन्ध’ प्रर्थात् व्याप्ति निश्चय के वाद वह निज्ञासु पुरुष बन में जाने पर गवय पिण्ड को देखता है, तो उसको यह अनुमिति सुलभ हो जाती है कि ‘उस गवय पद का वाच्य अर्थ यही है, क्योंकि यह गो के समान है, जैसे कि गवय का पिण्ड गो के समान है" तस्मात् गोसादृश्य विशिष्ट में गवयपदवाच्यत्व की व्याप्ति से ‘अर्थ’ गवयपदवाच्य:’ इस आकार को समयपरिच्छेदरूप अनुमिति होती है । इस के लिए उनमान नाम के अतिरिक्त प्रमाण की आवश्यकता नहीं है । सि० प० न, विपर्ययात् 930 प्रकृतानुपयोगात् । अर्थात् जिज्ञासु यदि यह प्रश्न करते कि ‘गो सदृशः कि शब्द वाच्यः’ तो उक्त विज्ञ पुरुष का गो सदृय पिण्ड को उद्देश कर ‘गवयशब्दवाच्यः’ यह उत्तर देना सङ्गत होता, किन्तु जिज्ञासु के प्रश्न का आकार है ‘कीदुग्गवय ?" इसका उपयुक्त उत्तर तो यही हो सकता है कि “गवयपदवाच्यः गोसदृश’ यथा गो शब्दस्य वाच्यः सास्नादिमान् " किन्तु ‘उदाहरण’ रूप इस वाक्य से गवयपदवाच्यत्व में ही गोसदृशस्व की व्याप्ति ज्ञात होती . है । क्योंकि उदाहरण वाक्य में जो पहिले प्रयुक्त रहता है एवं ‘यत्’ शब्द का अन्वय जिसके साथ होता है, वही ‘व्याप्य’ माना जाता है । ( जैसे कि ‘यः धूमवान् स वह्निमान्’ इस स्थल में ‘यत्’ पद का अन्वय धूप के ही साथ है, जो प्रथमोपास भी है, अतः उसी मैं वह्नि की व्याप्ति या व्याप्यता समझी जाती है, वह्नि में घूम को व्याप्ति नहीं ज्ञात होती है ) । अतः ‘यो गोसद्ा । स गत्रयपदवाच्य:’ इस उदाहरण वाक्य के द्वारा गृहीत व्याप्ति से प्रकृत अनुमिति की सिद्धि नहीं हो सकती ! CCO. Vasishtha Tripathi Collection. Digitized by eGangotriगद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली अथ किंलक्षणकोऽसाविति प्रश्नार्थः, तदा व्यतिरेकपरं स्यात्, लक्षणस्य तथाभावात् । तथा च ’ गोसदृशो गवयः” इत्यस्यार्थो यो गवय इति न व्यवह्रियते नाऽसौ गोसदृश इति । एवञ्च प्रयोक्तव्यम्, श्रयमसौ गवय इति व्यवहर्तव्यः. - गोसदृशत्वात् । यस्तु न तथा नासौ गोसदृशो यथा हस्ती । । कति सि० पू० प० अथ किं लक्षण म् … … 000 यथा हस्ती … 704 सामान्यतः गवयशब्दवाच्यत्व रूप से ज्ञात किसी विशेष वस्तु के प्रसङ्ग में ‘जिज्ञासु’ प्रश्न करते हैं कि ‘असी गवय शब्दवाच्यः किं लक्षणकः ? ( अर्थात् गवय शब्द के अभिधेय उस अर्थ का स्वरूप क्या है ? ) इस प्रश्न का भी उत्तर ‘गोसहथ ।’ यह हो सकता है | लक्षण रूप हेतु के द्वारा लक्ष्य का पक्ष में इतरभेद का केवलव्यतिरेकी अनुमान ही हो सकता है। जिस उदाहरण वाक्य से व्यतिरेक व्याप्ति सूत्रित होती है, उसमें व्यापक ( साध्य ) का ही उपादान पहिले होता है, एवं ‘यत’ शब्द का अन्वय भी उसी के साथ होता है। ’ १. जैसे कि गन्धश्व रूप लक्षण के द्वारा पृथिवी में इतरभेद की अनुमिति होती है । अनुमिति का छाकार ‘पृथिवी इतरभेदवती गन्धवत्वात्’ इस प्रकार है । यह ‘पृथिवी- तरभेद रूप साध्य केवल पृथिवी में ही है, जो कि प्रकृत में पक्ष है । एवं ‘गन्धवश्व रूप हेतु भी केवल पृथिवी में ही है । अतः पक्ष से भिन्न किसी भी आश्रय में दोनों साथ-साथ नहीं है । अतः ऐसे स्थलों में न कोई अन्वयास मिलेगा, न अन्वय शप्ति हो उपपन्न होगी । धतः व्यतिरेक दृष्टान्त एवं व्यतिरेक व्याप्ति का ही यहां अवलम्बन करना होगा । साध्य का प्रभाव एवं हेतु का प्रभाव, इन दोनों का नियमित रूप से एक आश्रय में रहना ही व्यतिरेक व्याप्ति का प्रयोजक है । प्रकृत में पृथिवीतरभेद रूप साध्य का अभाव जलादि धाठ द्रव्यों एवं गुण, कर्म, सामान्य विशेष, एवं समवाय इन पाँध भावों में है ( अमाव में तो इतरभेद की सम्भावना ही नहीं है ) इन तेरह वस्तुओं में गन्ध का अभाव भी है । अतः कथित जलादि तेरह पदार्थ ही प्रकृत में व्यतिरेक हट्टा है। तदनुसार प्रकृति में उदाहरण वाक्य का स्वरूप यत् व इतर मेदवत् तन्न गन्धवत् यथा जलादिकम्’ इस स्वरूप का होगा, प्रकृत में यह कहना है कि यदि ‘गोडशस्व’ गवय का लक्षण है, तो फिर ‘गो सदृशों गवयः, इस वाक्य से रक्त व्यतिरेक दृष्टान्त ही सूचित होगा, जिससे प्रकृत मैं भी व्यतिरेक व्याप्ति हो सूचित होगी । तदनुसार प्रकृत में व्यतिरेक दृष्टान्तवाक्य का यह स्वरूप होगा- “यो गवय इति न व्यवहृयते नासी गोसदृशः । एवं इस व्यतिरेकमूलक व्याप्ति के से यह केवलभ्यतिरेकी अनुमान निष्पन्न EET गवय अभा अप्रय के सर्वा कि पद उस उक्त कति मान
तृतीय। स्तनक: ३५१ न च हस्त्यादीनां विपक्षत्वे प्रमाण मस्ति, सर्व प्रयोगस्य दुरवधारणत्वात् । कतिपयाव्यवहारस्य चानैकान्तिकत्वात् । सि० प० न च हस्त्यादीनाम् … साध्य का अभाव जहाँ निश्चित रहता है, वही ‘विरक्ष’ है । ‘विपक्ष’ ही व्यतिरेक दृष्टान्त होता है । किन्तु हाथी प्रकृत अनुमान का ‘विपक्ष है’ यह कैसे समझें ? क्योंकि उस में गवयपदवाच्यत्व रूप साध्य का अभाव निश्चित नहीं है । यदि हाथी में गवयपदवाच्यत्व का अभाव ( हाथी के लिये गवयपद के प्रप्रयोग से ) मानलें, तो प्रश्न होगा कि किस के प्रप्रयोग के निश्चय से ? (२) संसार में जितने भी मनुष्य है, उन सभी मनुष्यों के प्रप्रयोग के निश्चय से अथवा (२) कुछ लोगों के अप्रयोग के निश्चय से ? सर्वाप्रयोगस्य .. यदि सभी लोगों के प्रप्रयोग से उक्त निश्चय मानें तो वह इस लिये असंभव होगा कि ) संसार के सभी पुरुषों का यदि निश्चय ( अवधारण ) नहीं है, तो फिर हाथी में गवय पद के ‘सर्वाप्रयोग’ का अवधारण नहीं हो सकता । क्योंकि ‘सर्वाप्रयोग’ को समझने के लिये उसमें विशेषणीभूत ‘सर्व’ को समझना आवश्यक है । किन्तु अस्मदादि असर्वज्ञजनों के लिए उक्त ‘सर्व’ का ज्ञान संभव नहीं है । कतिपयाव्यवहारस्य … …… 9 ( यदि कुछ लोगों के अप्रयोग से हाथी में गवयपदवाच्यत्व के प्रभाव का निश्चय मानें तो सो भो संभव नहीं होगा, क्योंकि ) कोई भी पद किसी भी अर्थ को समझाने के लिये होगा कि “गवयः गवयपदव्यवहारविषयेवरभदेवान् गोसहशत्वात् यद नोक्तेत्तर- भेदवत् न तत् गोसदृशम् यथा हस्त्यादिकम् । स्वगत असाधारण धर्म एवं स्वेतरमेद ये दोनों फलतः एक ही वस्तु है । जैसे कि पृथिवीतरभेद पृथिवीश्व स्वरूप है । तदनुसार ‘गवयपदव्यवहारविषयेतरभेद’ का पर्यवसान ‘गवयपदव्यवहार विषयश्व’ में ही होगा ! यही ‘गवयपदव्यवहारविषयत्व! गवयपदवाच्यस्व है । इसके अनुसार उक्त वाक्य का यह स्वरूप निष्पन्न होगा, ‘छायं गवयपदव्यवहारविषय! गोसहशत्वात् यो न. गवयपदव्यवहारविषया, नासौ गोसदृशः यथा हस्ती’ । इस प्रकार ‘गो सडशी गवया’ पह अतिदेशवाक्य उक्त व्यतिरेकी अनुमान का सूचक होते हुए गवय पद के शक्तिपरिच्छेद का मी सूचक है। अतः उपमान नाम का कोई अतिरिक्त प्रमाण नहीं है ।
३५२ गद्यपद्यात्मक-न्याय कुसुमाञ्जली ननु लिङ्गमात्रे प्रश्नो भविष्यति ? कीदृक् किं लिङ्गमिति ? न, न ह्यनेन लिङ्गमविज्ञाय गव्यशब्दस्य वाचकत्वं कस्यचिद्वाच्यत्वं वाऽवगतं येन तदर्थं प्रश्नः स्यात् । कुछ लोगों के द्वारा प्रयुक्त नहीं होता, केवल इतने से ही उस अर्थ में तरपदवाच्यता का प्रभाव निर्णीत नहीं हो सकता । इस लिये हाथी में गवयपदवाच्य के अभाव का निश्चय इस हेतु से नहीं किया जा सकता कि संसार के कुछ लोग हाथी को समझाने के लिये गवय पद का व्यवहार नहीं करते । अतः केवल व्यतिरेकी अनुमान के द्वारा भी ‘समयपरिच्छेद’ की उपपत्ति नहीं हो सकती । पू० प० ननु लिङ्गमात्रे .. ‘स कि शब्दवाच्य’ इस वाक्य को व्यतिरेक लिङ्ग विषयक प्रश्नार्थकता भले ही संभव न हो, किन्तु इस वाक्य को भन्वय व्यतिरेक साधारण लिङ्ग सामान्य के विषय में प्रश्न का बोधक तो माना हो जा सकता है । जिसका यह प्राकार होगा कि ‘गवय रूप अर्थ में गवय पद की वाच्यता का साधक कौन सा हेतु है !’ प्रथवा ‘उस ज्ञापक में हेतुता किस रूप से है ?’ इन प्रश्नों का भी उत्तर ‘गोसदृश:’ इस वाक्य से देना प्रसङ्गद नहीं होगा । इस प्रकार साधारण रूप से लिङ्गज्ञान के बाद व्याप्ति का कह कर अनुमान के द्वारा ‘समय का परिच्छेद’ उपपन्न हो सकता है सि० प० न, नह्यनेन - ‘समय परिच्छेद’ के अथवा ‘शक्तिज्ञान’ के दो स्वरूप है, एक पद विशेष्यक दूसरा अर्थ विशेष्यक | ‘इदम् पदमसुमर्थं बोधयतु’ प्रथवा ‘इदम् पदम् अस्यार्थस्य वाचकम्’ इन दोनों प्राकार के शक्तिज्ञान पदविशेष्यक हैं । ‘अस्माच्छन्दादयमर्थो बोद्धव्यः’ अथवा ‘श्रयमर्थः एतत्पदवाच्यः’ इन माकारों के शक्ति ज्ञान अर्थ विशेष्यक हैं । यदि किसी दूसरे उपाय से गवय पद में किसी अर्थ की वाचकता ( अर्थात् पदविशेष्यक शक्तिज्ञान की विषयता) अथवा किसी अर्थ में गवय पद की वाच्यता ( अर्थविशेष्यक शक्तिज्ञान की विषयता) अगर ज्ञात रहती तो यह प्रश्न उचित होता कि ‘गचय पद में जो गवय रूप अर्थ की वाचकता है, उसका ज्ञापक कौन है ?’ अथवा ‘वह ज्ञापक हेतु किस प्रकार का है ? । अथवा यह प्रश्न उचित होता कि ‘गत्रय रूप धर्य में गवय पदवाच्यता का ज्ञापक हेतु कौन है ? अथवा ‘वह किस प्रकार का है ?’ क्योंकि गवयपदवाच्यस्व अथवा गवयरूप अर्थ के वाचकत्व का ही तो अनुमान कर रहे हैं, वह हेतुज्ञान के बिना संभव नहीं है । अतः ‘गोसदृशः’ यह वाक्य हेतु सामान्य- विषयक प्रश्न का उत्तर भी नहीं हो सकता । तस्य यत दिि पू० प्रसंज्ञ फे प्रवृि किय सि निय फिर तो मान पू० निमि है । स्वरू हो न, है। ज तो शब्द
तृतीयः स्तबकः ३१३ प्रवृत्तिनिमित्तविशेषलिङ्ग प्रश्नः, येन निमित्तेन गवयशब्दः प्रवत्तंते तस्य किं लिङ्गमिति चेत् ? न, न हि तदवश्यमनुमेयमेवेत्यनेन निश्चितम्, यत इदं स्यात् । ज्ञानोपायमात्रप्रश्ने तद्विशेषेणोत्तरमिति चेन्न । अविशेषा- दिन्द्रियसन्निकर्षमप्युत्तरयेत् पर्यायान्तरं वा । यथा गवयमहं कथं जानीयामिति पू० प० प्रवृत्तिनिमित्तविशेषलिङ्ग 100 14 उक्त प्रश्न गवयं पद के प्रवृत्तिनिमित्त विशेष ( अर्थात् गवयस्व ) के ज्ञापक लिङ्ग के प्रसङ्ग में इस आकार का है कि ‘जिस धर्म को निमित्त बनाकर गवय शब्द अर्थ को समझाने के लिये प्रवृत्त होता है, उसका ज्ञापक लिङ्ग कौन है ?’ इसी प्रश्न के उत्तर में गवय पद के प्रवृत्तिनिमित्त के उपलक्षण एवं गोसादृश्य के बोषक ‘गोसहरा:” इस वाक्य का प्रयोग किया जाता है । सि० प० न, न हि … ‘अनुमिति रूप ज्ञान में ही ज्ञापक हेतु की आवश्यकता होती है । भ्रतः यदि यह नियम हो कि प्रवृत्तिनिमित्त का ज्ञान अनुमिति रूप ही हो, प्रथवा उसी का उपयोग हो तो फिर ज्ञापक लिङ्ग के प्रसङ्ग में उक्त प्रश्न उपयुक्त हो तो है नहीं । माना जा सकता । सकता है। किन्तु ऐसा नियम अतः ‘गोसदृश।’ इस वाक्य को उक्त प्रश्न का उत्तर स्वरूप भी नहीं पू० प० ज्ञानोपायमात्रप्रश्ने … प्रवृत्तिनिमित्त के ज्ञापकलिङ्ग के प्रसङ्ग में प्रश्न भले ही संभव न हो किन्तु ‘प्रवृत्ति निमित्त का ज्ञान किस से होगा ! इस सामान्यज्ञान के लिये तो प्रश्न किया ही जा सकता है । एवं उस सामान्य प्रश्न का उत्तर प्रवृत्तिनिमित्त के धनुमितिरूप ज्ञान विशेष के उपाय- स्वरूप गोसादृश्य रूप लिङ्ग के ज्ञापक ‘गोसदृय:’ इस वाक्य का प्रयोग समुचित उत्तर हो सकता है । क्योंकि विशेषोक्ति के द्वारा ही सामान्य प्रश्न का उत्तर दिया जाता है । न, प्रविशेषात् … … 400 यह सत्य है कि सामान्य विषयक प्रश्न का है । किन्तु गवय पद के जिस प्रकार अनुमिति है, प्रवृत्तिनिमित्त के ज्ञान के विशेषोक्ति के द्वारा उत्तर दिया जा सकता सामान्य विषयक प्रश्न का विशेष उत्तर उसी प्रकार तद्विषयक प्रत्यक्ष अथवा तद्विषयक शाब्द बोध भी तो हैं, प्रत तद्विषयक प्रत्यक्ष का इन्द्रिय संनिकर्ष रूप उपाय, अथवा शाब्दबोध के पर्याय शब्द के उच्चारण रूप उपाय का प्रतिपादन भी उक्त प्रश्न का उत्तर हो सकता है । जैसे कि कोई यदि यह प्रश्न करे कि ‘मुझे गवय का ज्ञान किस प्रकार होगा ?” तो ४५
३५४ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली प्रश्ने, ‘वनं गतो द्रक्ष्यसीति’ यथा वा ‘कः पिकः,’ इत्यत्र कोकिल इति । तस्मान्निमित्तभेदप्रश्न एवायं ’ गवयो गवयपदवाच्यः कीदृक् केन निमित्तेन’ इति युक्तमुत्पश्यामः । यस्य च निमित्तविशेषस्य साक्षादुपदर्शयितुमशक्यत्वात् पृष्टस्तदुपलक्षणं किञ्चिदाचष्टे । तञ्चोपमानसामग्रीसमुत्थापनमेव, तस्य च प्रमाणस्य सतस्तर्कः सहायतामापद्यते । सादृश्यस्यैव निमित्ततायां निमित्ततायां कल्पनागौरवम् । निमित्तान्तरकल्पने च वलृप्तकल्प्यविरोध इति तदेव निमित्तमवगच्छतीति । लक्षरणन्त्वस्याऽनवतसङ्गतिसंज्ञासमभिव्याहृतवाक्यार्थस्य संज्ञिन्यनुसन्धानमुपमानम् । वाक्यार्थश्च क्वचित् साधम्र्म्यम्, कचिद्व धर्म्यमतो नाव्यापकम् । तस्मान्नियतविषयत्वादेव, न तेन बाधो न त्वनतिरेकादितिस्थितिः ॥ १२ ॥ इसका यह उत्तर भी हो सकता है कि ‘जङ्गल जाम्रो, खुद अपनी आंखों से देखोगे ?’ । अथवा कोई यदि यह प्रश्न करे कि ‘पिक’ कौन सी वस्तु है ? तो ‘पिक’ शब्द के पर्याय ‘कोकिल’ शब्द के प्रयोग से भी उसको ‘पिक’ शब्द का अर्थ समझाया जा सकता है । अतः गवय पद के ‘निमित्तभेद’ प्रर्थात् प्रवृत्तिनिर्मित्त के प्रसङ्ग में ही यह प्रश्न है कि ’ गवय पद का अभिषेय कैसा होता है ? एवं किस धर्म को निमित्त बनाकर वह अपने अर्थ का ज्ञापन करता है ? किन्तु जिस पुरुष ने गवय को कभी नहीं देखा है, उसको सीधे ही गवय शब्द के द्वारा यह नहीं समझाया जा सकता कि ‘गवय पद का प्रवृत्तिनिमित्त गवयत्व है’ । अतः गवयत्व के ज्ञापक एवं उपलक्षण के प्रतिपादन के लिये ‘गोसदृशः ’ इस वाक्य का प्रयोग किया जाता है इस वाक्य से प्रतिपादित होनेवाले सादृश्य का ज्ञान ही ‘उपमान’ प्रमाण है । प्रश्न रहा कि गोसादृश्य ही गवय पद का प्रवृत्तिनिमित्त क्यों नहीं है ? गवमत्व ही प्रवृत्ति- निमित्त क्यों है ? यदि सादृश्य ही प्रवृत्तिनिमित्त है, तो फिर समयपरिच्छेद शाब्दबोष रूप ही है ? इन दो पक्षों में से एक के निर्णय में यह तर्क सहायक होता है कि गवयत्व जाति रूप है, अतः अखण्ड है । सुतराम् सखण्ड गोसादृश्य से लघु है । जिसने गाय कभी नहीं देखी है, ऐसे आरण्यक पुरुष के द्वारा प्रयुक्त गवय पद से गवयत्व में उसकी प्रवृत्तनिमित्तता स्वीकृत है । इस प्रकार पूर्व स्वीकृत एवं लघु गवयत्व को गवय पद का प्रवृत्तिनिमित्त न मानकर यदि गुरुभूत गोसादृश्य को गवय पद का प्रवृत्तिनिमित्त मानेंगे तो कल्पनागौरव दोष होगा । यदि गवयत्व मोर गोसादृश्य इन दोनों से भिन्न ही किसी को गवय पद का प्रवृत्ति- मानें तो “क्लुप्त धर्म से ही निर्वाह संभव होने पर अवलुप्त दूसरे धर्म में प्रवृत्ति- निमित्तस्व की कल्पना अनुचित है” इस न्याय का विरोध होगा । प्रत: ‘गोसदृशो गवयः’ इस प्रतिदेशवाक्य से प्रश्नकर्ता गवयत्व को ही गवयपद का प्रवृत्तिनिमित्त समझता है । जिस संज्ञा शब्द की शक्ति ज्ञात नहीं है, उस शब्द से युक्त वाक्य के अर्थ की उस संज्ञा शब्द के अर्थ में प्रत्यभिज्ञा ही उपमान प्रमाण का ‘लक्षण’ है । उस वाक्य का यह अर्थ कहीं साधर्म्य होगा कहीं वैधर्म्य, अतः (वैधर्म्य बोषक पदा वाक् प्रवृत्त अनुम हैं, शब्दे होई पू० वाक्य उन ‘वाक घटः, यह प्रयोज अनुम लेते हैं 9.
तृतीयः स्तबक ३५५ शब्दोऽपि न बाधकमाननुमान तिरेकादिति वैशेषिकादयः । तथा हि-यद्यप्येते पदार्था मिथः संसर्गवन्तः वाक्य स्थल में ) भव्याप्ति दोष नहीं है । इस प्रकार अनुमान एवं उपमान के लक्षण भी भिन्न हैं, अतः वे दोनों लक्षण भिन्नता के कारण भी भिन्न हैं । तस्मात् उपमान प्रमाण चूंकि ( साधर्म्य एवं वैषम्यं रूप ) नियमित विषयों में ही प्रवृत्त होता है, अतः ईश्वरानुमान का बाधक नहीं हो सकता । ( वैशेषिकगण जो ) अनुमान से अभिन्न होने के कारण उपमान को ईश्वरानुमान का बाधक न होने की बात कहते हैं, सो संभव नहीं है । क्योंकि उपमान अनुमान से अभिन्न नहीं है ॥ १२ ॥ शब्देऽऽपि … 100 वैशेषिकगण यह भी कहते हैं कि शब्दप्रमाण भी अनुमान से अभिन्न होने कारण ही ईश्वरानुमान का बाघक नहीं है । पू० प० १ तथाहि … ( शब्त को अनुमान में अर्न्तभाव सूचक अनुमान ये हैं ) ( १ ) ‘ऐते पदार्थाः मिथः संसर्गवन्तः वाक्यत्वात्’ प्रर्थात् ‘घटवद्भूतलम्’ इत्यादि वाक्यों से जो बोध होते हैं, वे अनुमिति रूप हैं। क्योंकि वाक्य में जितने भी पद रहते हैं, उन सभी के अर्थ परस्पर सम्बद्ध ही होते हैं सर्वथा असम्बद्ध अर्थ के बोधक पदों के समूह ‘वाक्य’ ही नहीं हैं । परस्पर सम्बद्ध अर्थों के बोधक पदों का समूह ही ‘वाक्प’ है । इसीलिये घटः, वह्निः, जलम् इत्यादि पदों का समूह वाक्य नहीं है । एवं ‘घटवद्भूतलम्’ इन पदों का यह समूह ‘वाक्य’ है । अतः पदों के अर्थों में परस्पर सम्बन्ध ही वाक्यत्व का प्रयोजक है । प्रयोज्य से प्रयोजक का अनुमान होता है । अतः वाक्यत्व से पदार्थों के परस्पर सम्बन्ध का अनुमान हो सकता है । शब्द को प्रमाण मानने वाले भी शब्द प्रमाण से इतना ही काम लेते हैं । १. यहाँ ‘तथाहि’ से प्रारम्भ कर ‘वदनुमानमिति’ इतने पर्यन्त के प्रन्थ से शब्द में अनुमानाभेद साधक जिन अनुमानों का उल्लेख किया गया है, वे वैशेषिकों के ही किसी संप्रदाय का मत है, अतः वे ही इसके उपपादक हैं । ‘तथापि’ इत्यादि सन्दर्भ से इन में दोषों का उदुभावन वैशेषिकसिद्धान्तियों का ही है । अत इस सन्दर्भ में वैशेषिकगण ही संप्रदाय भेद से पूर्वपक्षी एवं उत्तर पक्षी दोनों है । ‘तथापि’ इत्यादि से वैशेषिकों ने अपने निर्दह अनुमानों का प्रयोग किया है। प्राचार्य ने शब्द प्रमाण को अनुमान से भिन्न प्रमाण रूप से प्रतिपादन ‘अत्रोभ्यते’ इत्यादि सन्दर्भ से किया है ।
३५६ गद्यपद्यात्मक न्यायकुसुमाञ्जलौ वाक्यत्वादिति व्यधिकरणम्, पदार्थत्वादिति चाऽनैकान्तिकम्, पदैः स्मारितत्वा दित्यपि तथा । इसलिये शब्द वस्तुत: अनुमान ही है । अत शब्द नाम का कोई अतिरिक्त प्रमाण नहीं है। सुतराम ईश्वरानुमान में अनुमान से बाधित होने की प्रापत्ति के खण्डन से ही शब्द प्रमाण के द्वारा भी ईश्वरानुमान में बाघ की प्रापत्ति खण्डित हो जाती है । सि० प० व्यधिकरणम् किन्तु उक्त अनुमान ठीक नहीं है, क्योंकि उसका हेतु ‘व्यधिकरण’ है । अर्थात् पक्षतावच्छेद के अधिकरण पक्ष में हेतु नहीं है, क्योंकि गिरिः मुक्त:’ इत्यादि पदों के अर्थों में भी पदार्थत्व हैं, किन्तु वाक्यत्व नही हैं, फलतः हेतु स्वरूपासिद्ध हेत्वाभाव है । पू० प० पदार्थत्वात्… 909
( उक्त अनुमान में वाक्यत्य के स्थान पर ‘पदार्थत्व’ हेतु बना देने से ही उक्त स्वरूपासिद्धि दोष हट जाता है, क्योंकि पदार्थत्व सभी पदों के अर्थों में है— चाहे वे पद वाक्य रूप नहीं भी हों । ) अर्थात् एते पदार्थाः मियः संसर्गवन्तः पदार्थत्वाद’ ऐसा अनुमान करेंगे । इसी अनुमान से सर्वत्र अन्वयबोध की उपपत्ति हो जायगी, अतः शब्द नाम के अतिरिक्त प्रमाण की प्रावश्यकता नहीं । उ०प०अनेकान्तिकम् उक्त अनुमान का ‘पदार्थत्व’ हेतु स्वरूपासिद्धि मले हा न हो, किन्तु ‘अनैकान्तिक’ अर्थात् व्यभिचरित होगा । क्योंकि ‘गिरि: भुक्त), अग्निमान् देवदतेन, इत्यादि निराकॉल पदों के पथों में परस्पर संसर्ग रूप साध्य नहीं है, किन्तु पदार्थत्व रूप हेतु है । अतः यह अनुमान भी नहीं हो सकता । पू० प० पदेः स्मारितत्वात् 000 600 … कोई कथित अनुमान में ‘पदार्थत्वात्’ इस हेतुवाक्य के स्थान पर ‘पद’ स्मारितत्वात् ’ इस हेतु वाक्य का प्रयोग करना उचित समझते हैं । सि० प० इत्यपि तथा …. यह मी हेतु ‘तथैव’ अर्थात् व्यभिचार दोष से ग्रसित ही है । क्योंकि जिस प्रकार निराकांक्ष गिरिः भुक्त:’ इत्यादि पदों के प्रयों में उक्त संसर्गवत्व साध्य के न रहने पर भी पार्थ रूप हेतु है, उसी प्रकार साध्याभाव से युक्त उन्हीं मर्यो’ में ‘पदः स्मारितस्व’ रूप हेतु भी है । अतः यह हेतु भी अनैकान्तिक है ही । भाव संभव पू० अर्थों अनुमा उ० वाक्य १.
तृतीय स्तबक ३१७ यद्यपि चैतानि पदानि स्मारितार्थंसंर्गवन्ति, तत्स्मारकत्वादित्यादौ साध्या- भाव: । न ह्यत्र मत्वर्थः संयोगः समवायस्तादात्म्यं विशेषरणविशेष्यभावो वा संभवति । पू० प० यद्यपि चेतानि " शाब्द बोध के लिये अपेक्षित सभी पदों को पक्ष बना कर उसमें स्मरण किये गये अर्थों के संसर्ग को साध्य करते हैं, और ‘तत्स्मारकत्व’ को हेतु बनाते हैं । इस प्राकार के अनुमानों से शब्द प्रमाण से होने वाले कार्यों का निर्वाह हो सकता है ।’ उ० प० नात्र मत्वर्थः … इस अनुमान में बाघ दोष है, क्योंकि “स्मारितार्थं संसर्गवन्ति” इस साध्यबोधक वाक्य में जो ‘यतुप्’ प्रत्यय है. उसका अर्थ संयोग, समवाय, तादात्म्य, एवं विशेष्यविशेषणभाव १. अनुमान प्रयोग करनेवालों का यह आशय है कि शब्द से अर्थ बोध इस प्रकार होता है कि पहले वाक्य में प्रयुक्त पदों से अलग-अलग अर्थों की स्मग्ण रूप उपस्थिति होती है । जिसको ‘पदजन्यपदार्थोपस्थिति’ कहते हैं। उसके बाद ‘योग्यता’ के बल से उन पदार्थों के परस्पर अभिमत संसगं की प्रतीति होती है, इस प्रतीति को ही श्रन्वयबोध’ अथवा ‘शाब्दबोध कहा जाता है । किन्तु यह भी ‘अनुमिति’ रूप ही अर्थों का स्मरण 1 क्योंकि पहिले यह अनुसन्धान करना चाहिये कि पदों से क्यों होता है ? इस प्रश्न का सर्वसम्मत उत्तर यही है कि पदों में अर्थो के बोध को उत्पन्न करने की अभिधा ‘शक्ति’ नाम का एक सम्बन्ध है । इस सम्बन्ध का प्रतियोगी है अर्थ, एवं अनुयोगी है शब्द | सम्बन्ध चूँ कि द्विनिष्ठ हो होता है, पता इस सम्बन्ध का ‘सम्बन्धी’ पद एवं धर्म ये दोनों ही हैं। अतः ‘एकसम्बन्धि ज्ञानमपरसम्बन्धिस्मारकम्’ इस न्याय से जिस प्रकार हाथी के देखने से महावत का, अथवा महावत के देखने से हाथी का स्मरण होता है, उसी प्रकार पद और अर्थ दोनों चूँकि शक्ति रूप सम्बन्ध के सम्बन्धी हैं, अतः पद के ज्ञान से शक्ति रूप सम्बन्ध के ज्ञाता पुरुष को अथं का स्मरण होता है। इस प्रकार पद अपने अर्थ का स्मारक है । अतः अर्थस्मारकस्व रूप हेतु पक्ष स्वरूप पदों में है । पदजनित पदार्थ स्मृति की इस प्रकार की उपपत्ति से यह सिद्ध होता है कि पद और धर्म इन दोनों में कोई सम्बन्ध अवश्य है । इससे यह व्याप्ति निष्पन्न होती है कि जो पद जिस अर्थ का स्मारक है, उस पद में उस धर्म को समझाने की ‘शक्ति’ अवश्य है । इसी व्पासिमूलक अनुमान का प्रदर्शन ‘यद्यपि चैतानि’ इत्यादि सन्दर्भ से हुआ है । अर्थात् शब्द के द्वारा जिस रीति से उक्त प्रमिति की उत्पति होती है, वह ‘अनुमिति’ रूप ही है । यतः शब्द नाम का कोई अतिरिक्त प्रमाण नहीं है ।
१३५८ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली ज्ञाप्यज्ञापकभावस्तु स्वातन्त्र्येणानुमानान्तर्भाववादिभिर्नष्यते । न च लिङ्गतया ज्ञापकत्वं यल्लिङ्गस्य विषयस्तदेव तस्य, परस्पराश्रयप्रसङ्गात् । तदुपलम्भे हि व्याप्तिसिद्धिस्तत्सिद्धौ च तदनुमानमिति । ये चार सम्बन्ध नहीं हो सकते । अतः प्रश्न होता है कि स्मारित अर्थ का कौन सा सम्बन्ध प्रकृत में साध्य है ? यदि (१) संयोग सम्बन्ध को साध्य मानें तो बाघ स्पष्ट है, क्योंकि संयोग सम्बन्ध द्रव्यों में ही होता है, अतः पद चूंकि शब्द रूप होने के कारण गुण है, अतः उसमें किसी का संयोग सम्बन्ध संभव ही नहीं है ( २ ) ‘समवाय’ सम्बन्ध को साध्य मानने पर भी बाघ दोष का उद्धार नहीं होगा, क्योंकि पद रूप पक्ष चू कि शब्द होने के कारण गुण है, अतः समवाय सम्बन्ध से उसमें केवल जाति ही रह सकती है, ‘स्मारितार्थ संसर्ग’ चूंकि जाति नहीं है, अतः उसकी भी सत्ता पक्ष में संभव नहीं है । ( ३ ) ‘तादात्म्य’ सम्बन्ध के रहने की तो संभावना ही नहीं है, क्योंकि तादात्म्य अभिन्न वस्तुओं में ही होता है । प्रतः पद रूप पक्ष के साथ ‘स्मारितार्थ’ का तादात्म्य संभव नहीं है । ( ४ ) ‘पद’ एवं उक्त ‘अर्थ’ दोनों में ‘विशेष्यविशेषण भाव संबन्ध भी संभव नहीं है, क्योंकि ‘स्मारितार्थसंसर्ग’ परस्पर अन्वित पदार्थों का धर्म, अतः वह पदार्थ का ही विशेषण हो सकता है, पद रूप पक्ष का नहीं । अतः इस पक्ष में भी बाध स्पष्ट है । ज्ञाप्यज्ञापकभावस्तु ( इस प्रसङ्ग में यह कहा जा सकता है कि अन्य सम्बन्ध भले ही संभव न हो, किन्तु उक्त पदार्थ का संसर्ग तो पद का ज्ञाप्य है, एवं पद उसका ज्ञापक है । इस प्रकार ‘पद’ एवं ‘स्मारितार्थ’ इन दोनों में ज्ञाप्यज्ञापकभाव सम्बन्ध सम्भव है । अतः पद रूप पक्ष में इस सम्बन्ध के रहते बाघ दोष की सम्भावना नहीं है । किन्तु यह समाधान भी ठीक नहीं है, क्योंकि ) जो समुदाय शब्द को अनुमान विघया प्रमाण मानते हैं, उनके मत से उक्त संसर्ग में जो पदज्ञाप्यता है, वह ‘अनुमितिविषयता’ रूप ही है । भ्रत। उक्त अनुमिति के बाद ही उक्त संसर्ग में ज्ञाप्यता अथवा पद में ज्ञापकता आवेगी, अनुमिति से पहिले नहीं । अतः धनुमिति से पहिले ज्ञाप्यज्ञापकभाव सम्बन्ध की सत्ता पद में उपपन्न नहीं हो सकती । इसलिये इस प्रकार से भी बाघ दोष का निराकरण नहीं हो सकता । न च लिङ्गतया ( इस प्रसङ्ग में वैशेषिकगण कह सकते हैं कि प्रकृत में जो ‘तत्स्मारकत्व’ हेतु दिया गया है, वह तबतक उपपन्न नहीं हो सकता जबतक कि पद को उक्त संसर्ग का ज्ञापक न मानें। क्योंकि पद में जो ‘अर्थ’ अथवा ‘अर्थसंसर्ग’ की स्मारकता है, उसका मूल ‘एकसम्बन्धिज्ञानमपर सम्बन्धिस्मारकम्’ यह न्याय ही न्याय ही है । किन्तु पद में अर्थ की तथाप स्मारक सम्बन्ध किन्तु ज्ञापक है । है । प्रमाण तब होगी, व्याप्ति नहीं सम्भव तथापि अनुमान प्रथम मडि स्मारित उत्पन्न मत से कहना ही था पदार्थों १. इत ने चैर्म
व 5 3 T तृतीय स्तवक! तथाप्याकांक्षा दिमद्भिः पदेः स्मारितत्वात् ‘गामभ्याज’ इति पदार्थवदिति स्यात् । ३५६ स्मारकता तो सभी स्वीकार करते हैं । सम्बन्ध स्वीकार करना आवश्यक है । किन्तु यह समाधान भी उचित नहीं है, ज्ञापकत्व का उपपादन किया गया है, यह ‘तस्मारकस्वात्’ इस हेतु वाक्य का विवरण मात्र इसके लिए पद और अर्थ दोनों में ज्ञाप्यज्ञापकभाव इस से कथित बाघ दोष का उद्धार हो जाता है । क्योंकि ) पद में लिङ्गविघया जो अर्थ संसर्ग के है । फलतः अनुमिति से पहिले ही हेतु में साध्य की ज्ञापकता को स्वीकार करने के समान में लिङ्गविघया किसी दूसरे अनुमिति हो जायगी ) ज्ञापकता की उपलब्धि • । ऐसा करने पर ‘अन्योन्याश्रयं’ दोष होगा’ क्योकि जव पद प्रमाण से अर्थ संसर्ग की ज्ञापकता की उपलब्धि होगी ( अर्थात् जब तब पद में उक्त ज्ञापकता की उपलब्धि होगी । एवं जब पद में होगी, तव ‘तस्मारकत्व’ रूप हेतु में साध्य की व्याप्ति उपलब्ध होगी । अनुमिति की उत्पत्ति व्याप्ति निश्चय के बाद ही होगी । अतः इस प्रकार प्रकृत अनुमान में बाघ दोष का उद्धार नहीं किया जा सकता । सुतराम् कथित अनुमानों से शब्द प्रमाण से होनेवाले कार्य का निर्वाह सम्भव नहीं है ’ । तथापि अकांक्षादिमद्धि। ( सिद्धान्ती वैशेषिकों का कहना है कि उक्त अनुमानों से शब्द प्रमाण का अन्तर्भाव अनुमान प्रमाण में भले ही सम्भव न हो, किन्तु निम्नलिखित दोनों प्रनुमानों से वह सम्भव है । प्रथम अनुमान का प्राकार है ‘एते पदार्थाः तात्पर्यविषयस्मारितार्थसंसर्गवन्तः प्राकांक्षादि- मपिदै स्मारितत्वात् गामभ्याजेति पदार्थवत् । इस अनुमान में पदों के अर्थ ही पक्ष हैं । एवं वक्ता के अभिप्रेत एवं पदों के द्वारा स्मारित अर्थों का परस्पर सम्बन्ध ही साध्य है । आकांक्षा योग्यता प्रभृति से युक्त पदों से उत्पन्न स्मृति की विषयता हो हेतु है । श्राशय यह है कि जो सम्प्रदाय शब्द को स्वतन्त्र प्रमाण मानते हैं, उन लोगों के मत से भी प्राकांक्षा योग्यता प्रभुति से युक्त पदों से ही शाब्दबोध होता है । मतः यही कहना होगा कि प्राकांक्षा - योग्यतादि से संबलित पदों से पदार्थों की उपस्थिति होने के बाद । ही शाब्दबोध या जन्वयबोध होता है इस से यह निष्कर्ष निकला कि प्रस्वयबोध उन्हीं पदार्थों के परस्परसंसर्ग का होता है, जिनकी उपस्थिति प्राकांक्षा-योग्यता प्रभृति से युक्त १. इतने पर्यन्त के सन्दर्भ से वैशेषिककैक देशी के अनुमानों का सिद्धान्ती वैशेषिकों ने ही खण्डन किया है। अब ‘तथापि आकांक्षादिमध्दिा:’ इत्यादि सन्दर्भ के सिद्धान्ती वैशेषिकों के अनुमान प्रदर्शित हुए है । CCO. Vasishtha Tripathi Collection. Digitized by eGangotri३६० गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली न च विशेषासिद्धिर्दोषः, संसर्गस्य संसृज्यमान विशेषादेव विशिष्टत्वात् । पदों के द्वारा होती है । इस से यह व्याप्ति निष्पन्न होती है कि जिन पदार्थों की उपस्थिति ( स्मृति ) आकांक्षादि से युक्त पदों से होती है, वे पदार्थ अवश्य ही परस्पर उस संसर्ग से युक्त होते हैं, जिस संसर्ग में वक्ता का तात्पर्य है । अत: ‘चैत्र० पचति’ इस वाक्य से यह अनुमान हो सकता है कि “उक्त वाक्य में प्रयुक्त पदों के अर्थ अवश्य ही परस्पर अभिमत संसर्ग से युक्त हैं, क्योंकि उन पदार्थों की उपस्थिति आकांक्षादि से युक्त पदों के द्वारा होती होती । जैसे कि ‘गामम्याज’ इस वाक्य में प्रयुक्त पदों के अर्थ । इस प्रकार जब शब्द प्रमाण से होने वाले बोध का निर्वाह अनुमान प्रमाण से भी हो सकता है, तो फिर शब्द नाम के अतिरिक्त प्रमाण को स्वीकार करना अनावश्यक है । पू० प० न च विशेषासिद्धि - उक्त अनुमान के द्वारा आकांक्षादि से युक्त पदों के द्वारा उपस्थिति भर्थों में परस्पर जिसने भी प्रकार के संबन्ध संभावित हैं, सामान्य रूप से उन सभी सम्बन्धों की सिद्धि होगी । किन्तु शब्द के प्रयोक्ता को तो किसी विशेष सम्बन्ध की सिद्धि ही अभिप्रेत रहती है, प्रबाधित सभी सम्बन्धों की नहीं । अतः यह कार्य तात्पर्य के बल से शाब्दबोध के द्वारा भी हो सकता है । अनुमान में तो उक्त विशेष प्रकार के सम्बन्धमान का नियामक कोई भी नहीं हैं । अतः शब्द प्रमाण से होने वाला यह ‘विशेषसम्बन्ध की प्रतिपत्ति’ रूप कार्य अनुमान प्रमाण से नहीं हो सकता । सि० संसर्गस्य ( यह आक्षेप भी ठीक नहीं है, क्योंकि ) उक्त समान्य विषयक अनुमान का पर्यवसान भी विशेषानुमान में ही होता है । अतः जहां जिस वाक्य से जो बोध अभिप्रेत होगा, उस वाक्य में प्रयुक्त पदों के द्वारा उपस्थित अर्थों को ही पक्ष बना कर उसमें उन पदार्थों के अवाधित संसगों में से जितने ही सम्बन्ध की सिद्धि अभिप्रेत होगी, केवल उतने ही सम्बन्ध को साध्य बनायेंगे। इस प्रकार सामान्यसिद्धि के बाद पक्षधर्मता के बल पर ‘संसर्गविशेष’ की सिद्धि होगी । ’ १. जैसे कि ‘चैत्रः पचति’ इस वाक्य स्थल में चैत्र, सु. पच् तिपू इन चारों पदों के अर्थ पक्ष हैं, एवं सुप के अर्थ एकत्व का चैत्र पदार्थ में समवाय सम्बन्ध, तिवर्थं कृति का पच धातु के अर्थ का धनुकूलस्व सम्बन्ध, विषर्थ कृति का चैत्र में ही समवाय सम्बन्ध का बोध अभिप्रेत है । अतः उक्त पक्ष में उक हेतु से इन्हीं सम्बन्धों की सिद्धि होती है। जिसका आकार है ‘समवायेन एकत्वविशिष्टश्चैत्रः समवायेन पाकानुकूलकृतिमान् ’ शाब्दबोध भी तो इसी आकार का होता है। अतः शब्द भी अनुमान ही है। तत्स यद्वा उपि सहित दृष्टान करने यह प्रयो उनक भान ये स उक्त संसर्ग को है । रूप रहता ‘शा तो पू० हुई हीि सि० बिना “अव के हो
त से ह ho ส ती ब द 1 -4-A द न I तृतीयः स्तनक ३६१ यद्वा एतानि पदानि स्मारितार्थं संसर्गपूर्वकारिण आकांक्षादिमत्त्वे सति तत्स्मारकत्वात् गामभ्याजेति पदवत् । नचैवमर्थासिद्धिः, ज्ञानावच्छेदकतयैव तत्सिद्धेः । यद्वा अथवा अनुमानवाक्य में प्रयुक्त होनेवाले पद को ही पक्ष करेंगे। पदों के द्वारा उपस्थित श्रथ के परस्परसम्बन्धज्ञानपूर्वकत्व को ही साध्य बनावेंगे, एवं आकांक्षादिमत्व सहित पदार्थस्मारकत्व को ही हेतु मानेंगे, ‘गामभ्याज’ इत्यादि वाक्य के पदों को दृष्टान्त मानेंगे | अनुमान के प्रयोक्ता का प्राशय है कि वक्ता को जब श्रोता में किसी बोध को उत्पन्न करने की इच्छा होती है, तभी वह शब्द का प्रयोग करता है । अतः वक्ता के लिये पहिले यह अनुसन्धान आवश्यक है कि ‘श्रोता में किस प्रकार के बोध का उत्पादन करना है’। जब प्रयोक्ता को इस ज्ञान का पता चल जाता है, तब वह उपयुक्त शब्दों का अनुसन्धान कर, उनका प्रयोग करता है । घोता चू कि पदों की सामथ्यों को जानता रहता है, अतः उसे यह । भान होता है कि ‘बक्ता को इस प्रकार के ज्ञान का उत्पादन मेरी आत्मा में इष्ट है’ । फलतः ये सभी पद वक्ता के उक्त ज्ञानपूर्वक हैं। क्योंकि ये सभी पद परस्पर सांकांक्ष होते हुए उक्त ज्ञान के विषयोभूत प्रर्थों के ही उपस्थापक ( स्मारक ) हैं । इस रीति से पदों में उक्त संसर्गज्ञानपूर्वकत्व की वक्ता की अनुमिति से श्रोता को वह ज्ञान स्वतः हो जाता है, जो वक्ता को अभीष्ट रहता है। क्योंकि विशेषण को जाने बिना विशिष्ट को जानना संभव ही नहीं है । अतः यह मान लेना होगा कि जिस ( श्रोता ) को उक्त ‘संसर्गज्ञानपूर्वकत्व’ का धनुमिति रूप विशिष्टज्ञान होता है, उसको उससे पूर्व ही उक्त ‘संसर्ग’ का ज्ञान भी अवश्य हो चुका रहता है । उक्त ‘संसर्गज्ञान’ को ही शब्द को प्रमाण मानने वाले ‘अन्वयबोध’ अथवा ‘शाब्दबोध’ कहते हैं । उक्त रीति से यह प्रन्वयबोध जब अनुमान प्रमाण से भी हो सकता है, तो फिर शब्द को स्वतन्त्र प्रमाण मानने की आवश्यकता नहीं है । पू० प० न चैवस् • किन्तु यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि (१) इस अनुमान से केवल ज्ञान की ही सिद्धि हुई मर्य की नहीं । एवं (२) यदि अर्थ की सिद्धि मान भी लें, तो संसर्गसामान्य रूप अर्थ की ही सिद्धि होगी ‘अभिमत संसर्ग रूप विशेष मर्थ’ की नहीं । सि० प० ज्ञानावच्छेदकतया………. (१) ज्ञान की सिद्धि से अर्थ की भी सिद्धि होगी, क्योंकि अर्थ ही ज्ञान का भेदक है । बिना विषय का ( निर्विषयक ) ज्ञान कभी नहीं होता। इस प्रकार विषय ज्ञान का ‘प्रवच्छेदक’ है अर्थात् ज्ञानों में परस्पर एक दूसरे का ‘भेदक’ है। प्रतः संसर्गविषयक ज्ञान के हो जाने पर ‘ज्ञानावच्छेकतया’ विषय की भी सिद्धि स्वतः हो जायगी । ४६
३६२ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली तस्य च संसृज्यमानोपहितस्यैवावच्छेदकत्वान्न विशेषाप्रतिलम्भ इति । प्रत्रोच्यते- प्रनैकान्तः परिच्छेदे सम्भवे च न निश्चयः । प्राकाङ्क्षा सत्तया हेतुर्योग्यासत्तिरबन्धना ।।१३॥ तस्य च… … .. (२) विशेषसंसर्ग की अप्रतीति का प्रसङ्ग भी नहीं है, क्योंकि ज्ञान में प्रवच्छेदक रूप से जिस संसर्ग का मान होता है, वह किसी वस्तु विशेष ( प्रतियोगी ) का किसी आश्रय ( अनुयोगी ) में रहनेवाला संसर्ग ही है संसर्ग सामान्य नहीं, क्योंकि यदि संसर्ग सामान्य को शान का भेदक मानेंगे तो वह ज्ञानों में परस्पर भेद रूप अपना कार्य नहीं कर सकेगा। प्रतः संसर्ग विशेष का ‘अप्रतिलम्भ’ अर्थात् विशेषसंसर्ग के ज्ञान की अनुपपत्ति भी प्रकृत में नहीं है । भत्रोच्यते. … … …अनेकान्तः परिच्छेदे इस प्रसङ्ग में हम ( सिद्धान्ती ) कहते हैं कि ( कथित पदार्थ पक्षक प्रथम अनुमान के साध्यबोधक वाक्य में जो ‘संसर्गवन्तः’ पद है, वह यदि ) ‘परिच्छेद’ रूप प्रर्थात् निश्चितसंसर्गवत्व रूप रहे, तो उसका साधक ( आकांक्षादिमध्दुिः पदैः स्मारितत्वात् यह हेतु मनैकान्तिक हो जायगा ( क्योंकि मनात पुरुष के द्वारा उच्चरित पदों के द्वारा उपस्थित अर्थों में साध्य नहीं है, अथ च हेतु है ) । ( यदि उक्त साध्यबोधक ‘संसर्गवन्त:’ इस पद के द्वारा पदार्थों में परस्पर संसर्ग की संभावना का साधन अभिप्रेत हो तो उस से) पदार्थों के संसर्गवत्त्व का निश्चय (रूप अम्वय बोध ही ) न सकेगा । ( यदि पदपक्षक अनुमान का अवलम्बन करें तो प्रकृत हेतु में विशेषणीभूत आकांक्षा को ज्ञात होकर अनुमित रूप अन्वय बोध का कारण मानना होगा, किन्तु ) आकांक्षा केवल अपनी सत्ता के द्वारा ही प्रन्वयबोध का हेतु है ( ज्ञात होकर नहीं ) । ( यदि इसके वारण के लिए केवल पासत्ति को कारण न मान कर ) योग्या वसत्ति को शाब्दबोध का कारण मानें, तथापि समाधान संभव नहीं है, क्योंकि ‘योग्यासति’ में साध्य की व्याप्ति ही नहीं है । ’ १. इस श्लोक के द्वारा पदार्थपक्षक एवं पदपचक कथित दोनों ही धनुमानों में दोष दिखलाये गये हैं। इस श्लोक के पूर्वाद्ध से पदार्थ पक्षक अनुमान में एवं उत्तरा से पद पक्षक अनुमान में दोष दिखलाये गये हैं । श्लोक के पूर्वाद्ध की व्याख्या के लिये प्रथम अनुमान वाक्य के प्रसङ्ग में इन विकल्पों का स्थापन करना होगा कि वि वि ए अव है ‘अ ( 0 पर व्य स्प पू० लग प्रयो साध सि से उच्च तभी
तृतीयः स्तबक ३६३ एते पदार्था मिथः संसर्गवन्त इति संसृष्टा एवेति नियमो वा साध्यः, सम्भा- वितसंसर्गा इति वा ? । न प्रथमः, अनाप्तोक्तपदकदम्बस्मारितैनैनकान्तात् । आप्तोक्त्या विशेषरणीयमिति चेन्न । एते पदार्था: … ‘एते पदार्था मिथः संसर्गवन्त:’ इस साध्य बोषक वाक्य के अन्तर्गत पदों के अर्थ अवश्य ही परस्पर संसर्ग से युक्त है ? ’ अथवा ’ पदों के अर्थों में परस्पर संसर्ग की संभावना है ? इन दोनों अर्थों में से पहिला अर्थ इसलिये ठोक नहीं है कि ऐसा स्वीकार करने पर ‘आकांक्षादिमद्भिः पदैः स्मारितत्वात् ’ यह हेतु व्यभिचरित हो जायगा, क्योंकि अनाम ( अप्रामाणिक ) पुरुष के द्वारा उच्चरित पदों में आकांक्षादि का साहित्य रहने पर भी उनमें परस्पर संसर्ग निश्चित नहीं रहता, परस्पर संसर्ग की संभावना भले हो रहे । अतः अनाप्त व्यक्तियों से उच्चरित पदों में साध्य नहीं है, अथ च हेतु है । अतः इस पक्ष में व्यभिचार स्पष्ट है । पू० प० प्राप्तोक्त्या … इस व्यभिचार दोष को हटाने के लिये हेतु घटक पदसमूह में ‘आप्तोक्तत्व’ विशेषण लगावेंगे । अर्थात् “आप्तोक्त: आकांक्षादिमद्भिः पदं स्मारितस्वात् " ऐसे हेतु वाक्य का प्रयोग करेंगे । यह हेतु भी अनाप्त पुरुष से उच्चरित पदों में चूकि नहीं है, अतः उसमें साध्य के न रहने पर भी व्यभिचार दोष की संभावना नहीं है । सि० प० न, वाक्यार्थप्रतीतेः … … किन्तु उक्त समाधान भो उचित नही है, क्योंकि उक्त हेतु में आप्तोक्तत्व विशेषण देने से भी व्यभिचार दोष के हटने की संभावना नहीं है। क्योंकि कौन सा वाक्य प्राप्त पुरुष से उच्चरित है - इसका निर्णय वाक्यार्थबोध के बाद जब उम बोध में प्रामाण्य का निश्चय होगा तभी हो सकता है । वाक्यार्थ बोष से पहिले वाक्य में प्राप्तोक्तत्व का निश्चय हो ही नही (१) पदार्थों में जो परस्पर संसर्ग का साधन करना चाहते हैं, उससे क्या पदार्थों में परस्पर संसर्ग की सता के नियम की साधन करना चाहते हैं अर्थात् ‘क्या ये पदार्थ अवश्य ही परस्पर संबन्ध से युक्त हैं’ यह साधन करना चाहते हैं ? अथवा पदार्थों में परस्पर सम्बन्ध की संभावना को अर्थात् परस्पर सम्बन्ध की योग्यता को साधन करना चाहते हैं ? इन दोनों में से प्रथम विकल्प का खयटन पूर्वा’ प्रथम चरण से एवं उत्तराख’ का उसके द्वितीय चरण से खयडन किया गया है।
३६४ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली वाक्यार्थप्रतीतेः प्राक् तदसिद्ध: : । न ह्यविप्रलम्भकत्वमात्रमिहाप्तशब्देन विवक्षितम्, तदुक्तेरपि पदार्थसंसर्गव्यभिचारात् । अपि तु तदनुभवप्रामाण्यमपि । सकता । वाक्यार्थ का बोध उक्त धनुमिति से ही स्वीकार करते हैं, अतः अनुमिति के बाद होनेवाले आप्तोक्तत्व निश्चय के विषयी भूत ‘आप्तोक्तत्व’ हेतु का विशेषण नहीं हो सकता | क्योंकि हेतुतावच्छेदक विशिष्ट हेतु का निश्चय अनुमिति का कारण है । आप्तोक्तत्व होगा हेतुतावच्छेदक, भ्रतः तद्विशिष्ट हेतु का ज्ञान संभव न होने से अनुमिति नहीं होगी । अतः हेतु में प्राप्तोक्तत्व विशेषण नहीं दिया जा सकता 1 नि यो वि चा शक द्वार कभी न ह्यविप्रलम्भकत्वमात्रम् .. 840 ( इस प्रसङ्ग में वैशेषिकगण कह सकते हैं कि-‘आमोक्तस्व’ का प्रकृत में ‘अविप्रलम्भकत्व’ ही अर्थ है । अर्थात् जिसने कभी किसी को नहीं ठगा है, जिसकी बातें कभी मिथ्या प्रमाणित नहीं हुई है, उक्त व्यक्ति के वाक्य में श्रासोक्तत्व का निश्चय वर्त्तमान वाक्य के बोध से पहिले भी हो सकता है । अतः यह कहना ठीक नहीं है कि “आप्तोक्तत्व का निश्चय जिस लिये कि वाक्यार्थ बोध से पहिले संभव नहीं है, अतः हेतु में प्राप्तोक्तत्व विशेषण नहीं दिया जा सकता” किन्तु ऐसा कहना भी ठीक नहीं है । क्योंकि जिस पुरुष को सभी ‘अविप्रलम्भक’ मानते हैं, उनकी बातें कभी भी मिथ्या न हों - ऐसा विश्वास नहीं किया जा सकता। क्योंकि भ्रान्तिवश वे भी मिथ्यावाक्य का प्रयोग कर सकते हैं । अतः प्रकृत में आप्तत्व का अर्थ प्रविप्रलम्भकत्व नहीं हो सकता। क्योंकि उक्त प्रकार के पुरुषों से प्रयुक्त पदों के अर्थों में भी कभी परस्पर सम्बन्ध का प्रभाव रह सकता है। अतः हेतु में प्राप्तोक्तत्व विशेषण के देने पर भी प्रविप्रलम्भक पुरुष के द्वारा उच्चरित भ्रान्तवाक्य के पदों में व्यभिचार रहेगा ही । अपि तु अतः उक्त व्यभिचार के वारण के लिये जो ‘प्र’तोक्तत्व’ विशेषण दिया है, उसमें प्रयुक्त ‘आत’ शब्द का वाक्य प्रयोग के उपयुक्त प्रमाज्ञान से उक्त पुरुष ही अर्थ करना पड़ेगा । ( वाक्य के प्रयोग से पहिले वक्ता में जो वाक्यार्थं विषयक बोध के समान बोष रहता है, उसको प्रमा रूप होना प्राप्तत्व के लिये आवश्यक है ) । इस प्रकार के प्राप्तोक्तत्व विशेषण के देने से यद्यपि उक्त व्यभिचार का वारण हो जाता है, क्योंकि इस प्रकार के प्राप्तपुरुष के
से प वाक्य जा का बनी आस रीति त अनाप्त अवश्य को न स्वरूप अर्थों प्रकृत करना में ‘प्र अतः अनुमिि विषयक आवश्य विषय ह तृतीयः स्तवकः ३६५ न चैतच्छक्यमसर्वज्ञेन सर्वदा सर्वविषये सत्यज्ञानवानयमिति निश्चेतुम्, भ्रान्तेः पुरुषधर्मत्वात् । तत्र क्वचिदाप्तत्वमनाप्तस्याप्यस्तीति न तेनोप- योगः । ततोऽस्मिन्नर्थेऽयमभ्रान्त इति केनचिदुपायेन ग्राह्यस् । न चैतत् संसर्ग- विशेषमप्रतीत्य शक्यम् ; बुद्ध रथंभेदमन्तरेण निरूपयितुमशक्यत्वात् । पदार्थमात्रे चाऽभ्रान्तत्वसिद्धौ न किञ्चित्, अनाप्तसाधारण्यात् । एतेषां संसर्गेऽयमभ्रान्त इति शक्यमिति चेन्न । ऐतेषां संसर्गे इत्यस्या एव बुद्धेरसिद्धेः । । । द्वारा उच्चरित वाक्य के पदों से उपस्थित अर्थों में परस्पर सम्बन्ध का प्रभाव (रूप साध्याभाव) कभी नहीं रह सकता । किन्तु आतोक्तत्व विशेषण देना संभव ही नहीं है । क्योंकि अनुमिति से पहिले प्राप्तोक्तत्व से युक्त उक्त हेतु का ज्ञान हो संभव नहीं है जिस पुरुष का कोई भी वाक्य आजतक मिथ्या प्रमाणित नहीं हुआ है, उनके प्रसङ्ग में भी यह विश्वास नहीं किया जा सकता कि उनका कोई भो वचन आगे भो मिथ्या नहीं होगा। क्योंकि भ्रान्ति तो पुरुष का धर्म है, अतः कोई कितना भी नैष्ठिक क्यों न हो उसके वाक्य में अप्रामाण्य की संभावना बनी ही रहेगी । ( यदि योगियों में कोई ऐसे पुरुष हों भो, तथापि उनमें भी कथित आसत्व का निश्चय सर्वज्ञ योगियों को हो हो सकता है, अस्मदादि को नहीं ) । अतः उक्त रीति से शब्द मूलक अनुमिति जन साधारण को न हो सकेगी । तत्र कचित् … अनुपपत्तिरिति दूसरी बात यह है कि जिस पुरुष को सभी ठग ही समझते हैं, या जिस को सभी अनाप्त ही मानते हैं, वह पुरुष भी कभी सत्य बोलता ही है। अतः वह भी किसी विषय में अवश्य हो आाप्त है । इसलिए प्राप्त पद से ऐसा को नहीं ठगा है ( सर्वथा अविप्रलम्भक ) है । पुरुष अभिप्रेत होना चाहिए जो कभी किसी ऐसी स्थिति में आप्तोक्तत्वघटित उक्त हेतु शब्द का यहो अर्थ प्रमाज्ञान रहे, वही पुरुष उस विषय माप्तोकत्व उपयोग हो सकता है । स्वरूपासिद्ध हो जायगा । क्योंकि कथित ‘अनाप्त’ पुरुष के द्वारा उच्चरित पदों से उपस्थित अर्थो में आतोक्तत्व विशेषण से युक्त हेतु नहीं है । किन्तु शाब्दबोध तो वहाँ भा इष्ट है। अतः प्रकृत हेतु में यदि ‘आप्तोक्तत्व’ विशेषण देना है, तो उस में प्रयुक्त ‘माम’ करना होगा कि “जिस वक्ता में स्वोश्च्चरितवाक्यार्थ का में ‘प्राप्त’ है “। वस्तुतः अनुमिति में इसी प्रकार के अतः इस प्रकार के प्राप्तोक्तत्व का ज्ञान हो जिस किसी प्रकार आवश्यक होगा । किन्तु अनुमिति से पहिले यह ज्ञान सम्भव ही नहीं है । क्योंकि “अयं एतावत्पदार्थ संसर्ग विशेष- विषयकप्रमाज्ञानवान्” इस ज्ञान के प्रति विशेषणज्ञान विषया उक्त पदार्थों का संसर्गज्ञान आवश्यक है । क्योंकि इस ज्ञान से ही आप्त और अनाप्त के भेद का निर्णय होगा । असाधारण विषय ही ज्ञानों में परस्पर भेद के नियामक हैं । प्रकृत में पदार्थों का परस्पर विशेष संसर्ग
३६६ `गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जलो अननुभूतचरे स्मरणायोगात्, तदनुभवस्य लिङ्गाधीनतया तस्य च विशेषरणा- सिद्धत्वेनानुपपत्तेरिति । नापि द्वितीयः, योग्यतामात्रसिद्धावपि संसर्गानिश्चयात्, वाक्यस्य च तदेक- फलत्वात्, योग्यतामात्रम्य प्रागेव सिद्धेः । अन्यथा तदसिद्धावासन्नसाकाङ्क्षपद- स्मारितत्वादित्येव हेतुः स्यात् । तथा च ‘अग्निना सिञ्चेदि त्यादिना स्मारितैर- नैकान्तः, तथाविधानां सर्वथा सेंसर्गायोग्यत्वादिति । ही उक्त प्रसाधारण विषय हैं। क्योंकि केवल पदार्थों में ही अभ्रान्तत्व के निर्णय से प्राप्त और अनाप्त में जो भेद है— उसको नहीं समझा जा सकता। क्योंकि केवल पदार्थ का ज्ञान तो अनासपुरुषों को भी रहता ही है । अतः प्राप्तत्व के निश्चय के लिए पदार्थों के संसर्ग का ज्ञान आवश्यक है । यह ज्ञान अनुमिति से पहिले सम्भव नहीं है । अननुभूतच रे 930 पदार्थों के संसर्ग का स्मरणात्मक ज्ञान भी अनुमिति से पहिले सम्भव नहीं है, क्योंकि श्रोता को पदार्थों के उक्त संसर्ग का पहिले अनुभव नहीं है । पदार्थों के संसर्ग का अनुभव अनुमिति रूप ही होगा । अनुमिति की उत्पत्ति हेतुतावच्छेदक विशिष्ट हेतु ज्ञान के बिना सम्भव नहीं है । हेतु के विशेषण कोटि में कथित प्राप्तोक्तत्व भी है, जिसमें पदार्थों का उक्त संसर्ग ज्ञान भी अन्तनिविष्ट है । भतः उक्त संसर्गज्ञान के बिना हेतुत्व का उक्त विशिष्टज्ञान ही सम्भव नहीं है । इस लिये प्रथम अनुमान के प्रथम विकल्प के विषय " ऐते पदार्थाः परस्परं संसृष्टा एव’ इस ‘नियम’ विषयक धनुमिति वाला प्रथम पक्ष ठीक नहीं है । नापि द्वितीयः ‘एते पदार्थाः परस्परं सम्भावित संसर्गका:’ इस प्रकार की अनुमिति से भी शब्द प्रमाण से होनेवाले फार्य की उत्पत्ति सम्भव नहीं है, क्योंकि इस अनुमान से एतत् पदार्थों के समूह में परस्पर संसर्ग की ‘योग्यता’ अर्थात् सम्भावना की ही सिद्धि होती है । यह तो अनुमिति से पहिले भी सिद्ध ही है । अतः इस अनुमान में सिद्धसाधन दोष है । पदों के अर्थों में परस्पर संसर्ग की योग्यता तो इस अनुमिति से पूर्व ही सिद्ध है । क्योंकि हेतु वाक्य में प्रयुक्त ‘आकांक्षादिमत्व’ पद के ‘आदि’ शब्द से ‘योग्यता’ भो अभिप्रेत । अगर ऐसा न हो-अर्थात् उक्त आदि पद से केवल ‘प्रासत्ति’ का ही ग्रहण अभिप्रेत हो - तो फिर हेतु कः स्वरूप ‘आसन्न न किांक्षपदस्मारितत्व’ मात्र होगा । किन्तु यह हेतु ‘वह्निना सिञ्चति’ इस वाक्य में प्रयुक्त पदों से उपस्थित अर्थों में व्यभिचरित है । क्योंकि इन पदार्थों में परस्पर संसर्ग रूप साध्य नहीं है, किन्तु ( योग्यता से अघटित) उक्त पदस्मारितत्व रूप हेतु है । अतः उक्त ‘प्रादि’ पद से ‘योग्यता’ का भी ग्रहण करना हो
द्वि नाऽ होग पदा में हो स अनुम से हो द्विती हेतुवा अर्थ न ता ‘आक रूप वस्तुत साध्य को प हो, ज २. है | ही सा १. Я तृतीयः स्तबक द्वितीयेऽपि प्रयोगे हेतुराकाङ्क्षादिमत्त्वे सतीति । तत्र केयमाकाङ्क्षा नाम ? न तावद्विशेषणविशेष्यभावः, तस्य संसर्गस्वभावतया नाऽपि तद्योग्यता, ३६७ साध्यत्वात् । होगा । सुतराम् अनुमिति के लिए हेतुतावच्छेदकीभूत योग्यता के ज्ञान संपादक के रूप में पदार्थों के संसर्ग का ज्ञान अनुमिति के पहिले ही आवश्यक होगा । जिस से प्रकृतानुमिति में सिद्धसाधन अनिवार्य होगा । अतः इस अनुमिति से शब्द प्रमाण का कार्य नहीं हो सकता । दूसरी बात यह भी है कि निश्चयात्मक ज्ञान ही शब्द प्रमाण का फल है । किन्तु प्रकृत अनुमान प्रमाण से तो सम्भावनात्मक ज्ञान ही होगा । अतः इस अनुमान से भी शब्द प्रमाण से होनेवाले कार्य का निर्वाह नहीं हो सकता ।। द्वितीयेऽपि …….. … ( इस न्यायप्रयोग को समझने के लिये पहिले यह विकल्प करना चाहिये कि ) हेतुवाक्य में जिस ‘प्राकांक्षा’ पद का प्रयोग किया गया है, उस ‘आकांक्षा’ पद का क्या अर्थ है ? साध्यखात् न तावत् १) कोई कहते हैं कि पदों से उपस्थित अर्थों में परस्पर विशेष्यविशेषणभाव ही ‘आकांक्षा’ है । किन्तु प्रकृत हेतुबाक्य में प्रयुक्त ‘आकांक्षा’ पद का यदि विशेष्य विशेषणभाव रूप अर्थ रहे, तो उक्त अनुमान ही अनुपपन्न हो जायगा । क्योंकि प्रकृत में विशेष्यविशेषणभाव वस्तुतः पदों के द्वारा उपस्थित अर्थों में परस्पर सम्बन्ध रूप ही है । वही इस अनुमान की साध्यकोटि में भी है। इसलिये वह ‘साध्य’ है ‘सिद्ध’ नहीं । हेतु को अथवा हेतु के विशेषण को पहिले से ‘सिद्ध’ रहना चाहिये । तस्मात् जिस ‘आकांक्षा’ का अर्थ विशेष्यविशेषणभाव हो, उस से युक्त हेतु के द्वारा अनुमान नहीं हो सकता । २. नापि तद्योग्यता ( किसी का कहना है कि विशेष्यविशेषणभाव की योग्यता ही प्रकृत में ‘आकांक्षा’ है । यदि विशेष्यविशेषणभाव पदार्थों का परस्पर सम्बन्ध रूप है भी, तथापि ‘तत्पूर्वकस्व’ ही साध्य है । १. ‘द्वितीयेऽपि प्रयोगे’ इत्यादि सन्दर्भ के द्वारा श्लोक के दूसरे चरण की व्याख्या की गयी है। ‘यद्वा एतानि पदानि’ इत्यादि से कारिका के अवतरण सन्दर्भ में जो अनुमान- वाक्य लिखा गया है, वही यहाँ ‘द्वितीयप्रयोग’ शब्द से अभिप्रेत है । इस अनुमान के हेतु में ‘आकांक्षादि’ पद के उपादान प्रयुक्त ही दोष दिखलाया गया है । किन्तु प्रथम अनुमान के हेतु में भी ‘आकांक्षादि’ विशेषण है ही, अतः प्रकांचादि पद के उपादान से होनेवाले दोषों का सम्बन्ध प्रथम अनुमान में भी समझना चाहिये ।
३६८ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली योग्यतयैव गतार्थत्वात् । नाप्यविनाभाव:, नीलं सरोजमित्यादौ तदभावेऽपि वाक्यार्थ प्रत्ययात् । तत्रापि विशेषाक्षिप्तसामान्ययोरविनाभावोऽस्तीति चेत् ? न, अतः ‘योग्यता’ घटत आकांक्षा को यदि हेतु का विशेषण मान लें तो उक्त सिद्ध- सांधन दोष का उद्धार हो सकता है । योग्यतयेव किन्यु यह समाधान भी ठीक नहीं है क्योंकि इस दूसरे अनुमान के हेतुवाक्य में जो ‘ग्राफीक्षादि’ पद है, उस में प्रयुक्त ‘आदि’ पद से भी ‘योग्यता’ को ही लेना होगा । उसी से विशेष्य विशेषणभाव की योग्यया रूप आकांक्षा भी गतार्थ हो जायगी । फिर हेतु में ‘आकांक्षा’ रूप विशेषण व्यर्थ हो जायागा । जिस अनुमान के हेतु का विशेषण व्यर्थ हो, उसे हेतु दुष्ट हेतु कहा जाता है। अतः प्रकृत में आकांक्षा को विशेष्यविशेषणभाव रूप भी नहीं कहा जा सकता । ३. कोई कहते हैं कि विशेष्य एवं विशेषण इन दोनों के ‘अविनाभाव’ अर्थात् व्याप्ति ही प्रकृत में ‘आकांक्षा’ पद का अर्थ है। इस से पक्ष में उक्त दोषों की सम्भावना नहीं है । किन्तु यह पक्ष भी ठीक नहीं है, क्योंकि ‘नीलम् सरोजम्’ इस वाक्य से नील का मान विशेषणविषया एवं सरोज का विशेष्यविधया भान सभी स्वीकार करते हैं । किन्तु सभी ‘सरोज’ ( कमल) तो ‘नील’ ही नहीं होते । कमल के फूल मवेत एवं लाल भी होते हैं । अतः सरोज एवं नील इन दोनों में व्याप्ति नहीं हो सकती । किन्तु उक्त वाक्य से बोध तो होता है । यदि आकांक्षा को विशेष्य एवं विशेषण की व्याप्ति स्वरूप माने, एवं उस को प्रकृत अनुमान के हेतु में विशेषण मानें, तो वह हेतु ‘नीलं सरोजम्’ इस वाक्य के पदों में न रहने के कारण स्वरूपासिद्ध हो जायगा । अतः प्राकांक्षा को विशेष्य एवं विशेषण का अविनाभाव रूप भी नहीं कहा जा सकता । पू० प० तत्रापि 101 10 नापि त्यस्यै सि० स्वीक आकां वाक्य श्रर्थं ६ सूत्र ए के पद सांकां साकां अविभ इस अ सकता प० प के श बोध ह इस लि निर्वचन दिखला सि० प शुल्को इस प्रकार द्वारा ही व्याप्ति का भवति’ होता है नील रूप एवं सरोज इन दोनों में भविनाभाव रूप सम्बन्ध भले ही संभव न हो । किन्तु द्रव्यसामान्य एवं गुणसामान्य इन दोनों में अविनाभाव है । विशेष सामान्य का उपलक्षक होता है, अतः नीलरूप विशेषगुण से गुणसामान्य एवं सरोज रूप द्रव्य विशेष से द्रव्य सामान्य ही प्रकृति में विवक्षित है। अतः नीलत्वेन सरोजत्वेन श्रविनाभाव सम्बन्ध भले ही सम्भव न हो, किन्तु गुणत्वेन एवं द्रव्यत्वेन अविनाभाव संबन्ध हो सकता है। सामान्यमुखी व्याप्ति के द्वारा नीलरूप गुणविशेष एवं सरोजरूप द्रम्य विशेष में उपादान किया जा सकता है।
तृतीयः स्तबक: ३६६ न, ‘अहो विमलं जलं नद्याः कच्छे महिषश्चरती’ त्यादौ वाक्यभेदानुपपत्तिप्रसङ्गात् । नापि प्रतिपत्तजिज्ञासा, पटो भवतीत्यादौ शुक्लादिजिज्ञासायां ‘रक्तः पटो भवती’ त्यस्यैकदेशवत् सर्वदा वाक्यापर्यंवसानप्रसङ्गात् । सि० प० न, अहो विमलम् ‘अहो विमल जलम् नद्या, कुले महिषश्चरति’ इस स्थल में वाक्य भेद को सभी स्वीकार करते हैं । अर्थात् ‘नद्या’ । पर्यन्त एक वाक्य है, ‘कुले’ इत्यादि से दूसरा वाक्य है । आकांक्षा के उक्त व्याप्तिघटित लक्षण के अनुसार ‘अहो’ यहीं से लेकल ‘चरति’ पर्यन्त एक वाक्य मानना होगा। क्योंकि ‘एकवाक्यत्व’ का लक्षण इस प्रकार है ।- www जो शब्द समूह विभक्त होने पर साकांक्ष रहे, एवं ‘अविभक्त रहने पर एक ही विशिष्ट श्रर्थं का बोधक हो, उन वाक्यों का अथवा पदों का समूह ही ‘एकवाक्य’ है । (देखिये मीमांसा सूत्र एवं शावर भाष्य अ० २ पा० १ अधिकरण १४ सू० ४६ ) । प्रकृत में ‘नथा।’ एतदन्त के पद समूह को अलग कर ‘कूले’ इत्यादि को पृथक् कर देते हैं, तो विभक्त यह समूह परस्पर सांकांक्ष रहते हैं। क्योंकि नदी एवं कूल में व्याप्ति है । फलतः विभक्त रहने पर इन दोनों में साकांक्षत्व है । एवं ‘चरति’ पर्यन्त को यदि एक ही वाक्य मान लेते हैं, अर्थात् सभी पदों को अविभक्त समझ लेते हैं, तो ‘विमलजलविशिष्टनदीकूले महषश्चरतीति ‘अहो’ आश्चर्यम्” इस प्रकार का विशिष्टबोध ही हो सकता है । अतः प्राकांक्षा को व्याप्ति रूप नहीं माना जा सकता, क्योंकि इससे उक्त स्थल में सार्वजनीन ‘वाक्यभेद’ की अनुपपत्ति होगी । प० प० नापि प्रतिपत्तजिज्ञासा ‘प्रतिपत्ता’ अर्थात् बोद्धा को ‘जिज्ञासा’ हो आकांक्षा है । प्रकृत में ‘नद्या:’ पर्यन्त के शब्दों के सुनने से बौद्धा की जिज्ञासा शान्त हो जाती है । एवं ‘फुले’ इत्यादि शब्दों से बोष होने पर कुछ जिज्ञास्य नहीं रहता । अतः उक्त दोनों वाक्य परस्पर साकांक्ष नहीं हैं । इस लिए साकांक्षत्व घटित एकवाक्यता भी उन में नहीं है । मतः हेतु में विशेषणीभूत आकांक्षा के निर्वचन न होने से जो श्राकांक्षा घटित हेतु से उत्पन्न होने वाली अनुमिति की अनुपपन्नता दिखलायी गयी है, वह ठीक नहीं है । सि० प० पटो भवति ‘पटो भवति’ इस वाक्य के प्रयोग के बाद यदि कोई प्रश्न करता है कि ‘स! पट शल्को वा रक्तो वा’ तो वही वक्ता ‘रक्तः पटो भवति’ इत्यादि रक्तादि पदों से युक्त वाक्यों के द्वारा ही उक्त आकांक्षा को निवृत्त करता है । अतः उक्त प्रश्न के प्रव्यवहित पूर्ववर्ती ‘पटो भवति’ यह वाक्य रक्तं पद घटित ‘रक्तः पटो भवति’ इस वाक्य के बाद ही स्वार्थ में पर्यवसित होता है। ४७ CCO. Vasishtha Tripathi Collection. Digitized by eGangotri३७० गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली गुरण क्रियाद्यशेषविशेषजिज्ञासायामपि पदस्मारितविशेषजिज्ञासा आकाङ्क्षा । पट इत्युक्ते किं रूपः कुत्र किं करोतीत्यादिरूपजिज्ञासा । तत्र भवतीत्युक्ते किं करोतीत्येषैव पदस्मारितविषया, न तु किं रूप इत्यादिरपि । यदा तु रक्त इत्युच्यते तदा किं रूप इत्येषापि स्मारितविषया स्यादिति न किञ्चिदनुपपन्नमिति चेतः एवं जहाँ ‘पटो भवति’ इस वाक्य को सुनने के बाद पट में रूप विषयक जिज्ञासा उत्पन्न नहीं होती है, वहीं रक्त पद से रहित उक्त वाक्य अपने अर्थ के बोध में समर्थ होता है । ऐसी स्थिति में यदि बोद्धा की जिज्ञासा को ही आकांक्षा पद का अर्थ मानेंगे तो द्वितीय ‘पटो भवति’ इस वाक्य के पदों में आकांक्षा नहीं रहेगी । अतः निराकांक्ष होने के कारण उस से कोई बोध नहीं हो सकेगा । इस लिये जिस प्रकार पहिले के ‘रक्तः पटो भवति’ इस वाक्य के अन्तर्गत ‘पटो भवति’ यह वाक्य रक्तादि पद घटित वाक्य के बिना अपने कार्य सम्पादन में समर्थ नहीं होता है, उसी प्रकार ‘पटो भवति’ इस आकार के सभी वाक्य सर्वदा अपने कार्यसम्पादन में असमर्थ ही रहेंगे । अतः आकांक्षा ‘प्रतिपत्ता की जिज्ञासा’ स्वरूप भी नहीं है । पू० प० गुरण क्रियादि … न किञ्चिदनुपपन्नमितिचेत् … इस प्रसङ्ग में वैशेषिकों का यह अन्तिम कथन है कि केवल प्रतिपत्ता की जिज्ञासा ‘प्राकांक्षा’ नहीं है, किन्तु पद के द्वारा स्मरण किये गये अर्थो की जो नोद्धा ( प्रतिपत्ता ) की जिज्ञासा, वही ‘प्राकांक्षा’ है। ‘पटा’ केवल इस पद के उच्चारण के वाद ‘असी कि गुणः ? ‘प्रसी कि क्रिया’ इत्यादि जिज्ञासार्ये स्वभावतः उदित हो सकतीं हैं। इसके बाद जब ‘पटो भवति’ इस वाक्य का प्रयोग किया जाता है, तो समझते हैं कि श्रोता को प्रकृत पट में ‘क्रिया’ की ही प्राकांक्षा है, क्योंकि वक्ता ने ‘भवनक्रिया’ से युक्त पट के उपपादन के द्वारा उक्त आकांक्षा को शान्त की है । अतः इस स्थल में ‘भवति’ पद से उसी ‘क्रिया’ की उपस्थिति हुई है, जिसकी जिज्ञासा श्रोता पुरुष को थी । अतः ऐसे स्थलों में चूकि श्रोता की आकांक्षा क्रियाविषयिणी है, अतः केवल ‘पटो भवति’ इस वाक्य को स्वार्थं का प्रपर्यवसायी नहीं कहा जा सकता । ‘रक्तः पटो भवति’ इस स्थल में ‘रक्त’ पद से पट में रहने वाले गुण एवं ‘भवति’ पद से क्रिया, इन दोनों विषयों की जिज्ञासा सूचित होती है । अतः प्रकृत में यही कहना होगा कि ‘रक्त’ पद से गुणाकांक्षा के विषय एवं ‘भवति’ इस क्रिया पद से भवनक्रिया की आकांक्ष के विषय, इन दोनों की उपस्थिति होती है । अतः उक्त स्थल में गुणविषयक एवं क्रिया- विषयक दोनों आकाक्षायें उक्त दोनों पदों के द्वारा उपस्थित विषयक ही हैं। इन में गुणाकांक्षा प्रत्य सत्त का पदों अपय की सि अनु श्रथ दोन ज्ञान ( हे ‘स्व रूप करि होत जि तत्र ‘भा नहीं विशे प्रक ‘श्रा १.
तृतीयः स्तबकः ३७१ एवं तहिं चक्षुषी निमील्य परिभावयतु भवान् किमस्यां जातायामन्वय- प्रत्ययोऽथ ज्ञातायामिति । तत्र प्रथमे नाऽनया व्यभिचारव्यावर्तनाय हेतुविशेषणीयः, मनः संयोगादिवत् सत्तामात्रेणोपयोगात् । का निवर्तक है, ‘रक्त’ पद, एवं क्रिया की आकांक्षा का निवर्तक है ‘भवति’ पद । इन दोनों पदों में से किसी के भी न रहने पर आकांक्षा की पूर्ण निवृत्ति नहीं होगी । अतः वाक्य अपर्यवसन्न ही रह जायगा । इसलिये उक्त स्थल में दोनों पदों के उपादान के बिना वाक्य की अपर्यवसन्नता दूर नहीं की जा सकती । सि० प० एवं तहि "” ( प्राकांक्षा का उक्त लक्षण यद्यपि निर्दुष्ट है, फिर भी आकांक्षादि घटित हेतु से जो अनुमान होगा, उससे शाब्द प्रमिति को गतार्थ नहीं माना जा सकता, क्योंकि ठानुमिति में ‘हेतु’ · श्रथवा हेतु का विशेषण ( हेतुतावच्छेदक ) दोनों ज्ञात होकर ही कारण हैं, स्वरूपतः वे दोनों अनुमिति के कारण नहीं है । क्योंकि घूम अथवा घूमत्व के रहते हुए भी जबतक उनका ज्ञान नहीं होता, तब तक वह्नि की अनुमिति में उनका कोई उपयोग नहीं होता । 1 यदि शब्द जनित अनुमिति में आकांक्षा का उपयोग हेतु में विशेषण के रूप में ( हेतुतावच्छेदक विधया ) मानेंगे तो ज्ञात होकर ही प्राकांक्षा का उपयोग मानना होगा, ‘स्वरूपतः’ नहीं । अर्थात् उक्त जिज्ञासा रूप आकांक्षा के ज्ञान का शब्द जनित अनुमिति रूप बोध में उपयोग मानना होगा। फिर आँख मूंद कर अवधान पूर्वक प्रोप ही विचार करिये कि शब्द से उत्पन्न होनेवाले बोध में उक्त जिज्ञासा रूप आकांक्षा का स्वरूपतः उपयोग होता है ? अथवा ज्ञात होकर ? अर्थात् शब्द से उत्पन्न होनेवाले बोध का कारण उक्त जिज्ञासा है, श्रथवा उक्त जिज्ञासा का ज्ञान कारण है ? तत्र प्रथमे 134 ….. … • इन में यदि प्रथम पक्ष को स्वीकार करते हैं, तो फिर यह पूछना है कि प्रकृत हेतु में ‘आकांक्षा’ रूप विशेषण क्यों लगाते हैं ? क्योंकि उसके न देने से हेतु व्यभिचरित तो होता नहीं । अतः यह नहीं कहा जा सकता कि व्यभिचार के वारण के लिये हेतु में प्राकांक्षा विशेषण देते हैं। क्योंकि जिस प्रकार मनः संयोगादि अनुमिति के स्वरूपसत् कारण हैं, उसी प्रकार ‘आकांक्षा’ भी चन्दजनित प्रमा का स्वतः कारण है, ज्ञात होकर नहीं । अतः हेतु में ‘आकांक्षा’ रूप विशेषण व्यभिचार का वारक नहीं है ।’ १. इस ध गूढ़ अभिप्राय यह है कि यद्यपि निराकांक्ष वाक्यों के घटक जो पद हैं, उनमें ‘परस्परज्ञानपूर्वकरव’ रूप साध्य नहीं है, किन्तु आकांक्षा रूप विशेषण से रहित उक्त ‘पदत्वे सति तत्स्मारकस्व’ रूप जो हेतु है, उसमें श्राकांचा पद के न देने से
३७२ गद्यपद्यात्मक-म्यायकुसुमाञ्जलौ श्रासत्तियोग्यतामात्रेण विशिष्टस्तु निश्चितोऽपि न गमक; ‘अयमेति पुत्रो राज्ञः पुरुषोऽपसार्यताम्’ इत्यादौ व्यभिचारात् । इसलिये प्रकृत हेतु में ‘आकांक्षा’ रूप विशेषण न दें तो आसत्तियोग्यता विशिष्टत्वे सति तत्स्मारकत्व रूप हेतु ‘अयमेति’ इत्यादि वाक्य के घटक पदों में व्यभिचरित हो जायगा । अतः आकांक्षा को स्वरूपतः कारण मान कर उक्त धनुमिति की उपपत्ति नहीं की जा सकती । प्रासत्तियोग्यतामात्रेण … … … ( यदि आकांक्षा रूप विशेषण से किसी व्यभिचार का वारण नहीं होता है, तो अप्रयोजनीय होने से उसको छोड़ देने में लाघव ही है । ‘आसत्तियोग्यतादिमत्वे सवि तत्स्मारकत्व’ को ही हेतु बनावेंगे। आसत्ति एवं योग्यता ये दोनों ज्ञात हो कर ही शब्द जनित बोध के कारण हैं, स्वरूपतः नहीं । यदि आकांक्षा से अघटित इस हेतु से भी ‘प्रन्वयबोध’ की उपपत्ति हो जायगी, तथापि शब्द नाम के स्वतन्त्र प्रमाण की आवश्यकता नहीं रह जाती । वैशेषिकों के इस आपेक्ष का यह समाधान है कि ) पदस्मारितस्व रूप हेतु में आसति एवं योग्यता इन दोनों के निश्वत रहने पर भी उस हेतु से अनुमिति नहीं होती है । क्योंकि ‘अयमेति राज्ञः पुरुषोऽपसार्यताम्’ इस वाक्य में ‘यह राजा के पुत्र आ रहे हैं, पुरुष को हटाओ’ इसी आकार का बोध सभी मानते हैं । किन्तु जिस प्रकार उसे वाक्य में उपर्युक्त बोध के उपयुक्त प्रासत्ति एवं योग्यता है, उसी प्रकार ‘यह पुत्र भा रहा है, व्यभिचार हो सकता है, एवं ‘आकांक्षा’ पद के देने से इस व्यभिचार का वारण भी हो सकता है, क्योंकि उक्त निराकांक्ष वाक्यों के घटक पदों में यदि साध्य नहीं है, तो आकांक्षा रूप विशेषण सहित उक्त हेतु भी नहीं है । उक्त पदों में परस्पर आकांक्षा नहीं है । इस प्रकार व्यभिचार वारक के रूप में आकांक्षा विशेषण की सार्थकता हो सकती है । फिर भी उक्त व्यभिचार का उद्भावन एवं उसका वारण ये दोनों ही निरर्थक हैं । क्योंकि व्यभिचार व्याप्ति के प्रतिरोध के द्वारा ही अनुमिति का प्रतिरोधक है । इस ‘अवयबोध’ रूप अनुमिति का ‘शाकांक्षा’ स्वयं कारण है, अत: निराकांक्ष वाक् के घटक पर्दों से जिन अर्थों की उपस्थिति होगी, उनकी परस्परान्वयबोध रूप अनुमिति तो आकांक्षा रूप कारण के प्रभाव से ही रुक जायगी । हेतु में व्यभिचार रहे चाहे न रहे। जैसे कि अन्य सभी कारणों के रहते हुये भी इन्द्रिय के साथ मन का संयोग न रहने पर प्रत्यक्ष प्रतिरुद्ध हो जाता है । सुतराम् भ्राकांक्षा यदि अन्वयबोध का स्वरूपसत् कारण रहे, तो हेतु में ‘श्रीकांचा’ रूप विशेषण व्यर्थ है । एवं ‘उपर्थविशेषयक’ हेतु से प्रमा धनुमिति नहीं हो सकती । रा भी पस पस से आर योग द्वित ही द्वार जिस है, अर्घा रूप मनुत अम्व किन्त हो, ‘आव से धनु प्रथ हो रूप साथ अन्व का हेतु
द्वितीयस्तु स्यादपि, तृतीयः स्तबका ३७३ राजा के पुरुष को हटा लो’ इस आकार के बोध को उत्पन्न करनेवाली श्रासत्ति एवं योग्यता भी उक्त वाक्य में है । क्योंकि जिस प्रकार उस वाक्य को ‘अयमेति पुत्रो राज्ञः पुरुषोऽ पसार्यताम्’ इस अखण्ड रूप में पढ़ा जाता है, उसी प्रकार ‘अयमेति पुत्रो राज्ञः पुरुषोऽ- पसार्यताम्’ इस सखण्ड रूप में भी पढ़ा जा सकता है । अत: पक्षोभूत उस वाक्य के पदों से उपस्थित अर्थों में कथित द्वितीयबोधविषयसंसर्गपूर्वकत्व रूप साध्य नहीं है, किन्तु आसत्तियोग्यताविशिष्टपदस्मारितत्व रूप हेतु है । अतः व्यभिचार दोष के कारण ‘मासत्ति- योग्यताविशिष्टपदस्मारितत्व’ हेतु नहीं हो सकता । द्वितीयस्तु 634 स्यादपि । यदि आकांक्षा को अन्वयबोध के प्रति स्वरूपतः कारण न मान कर ज्ञात होकर ही कारण मानते हैं, तो हेतु में ‘आकांक्षा’ को विशेषण देने की सार्थकता व्यभिचार वारण के द्वारा हो सकती है, क्योंकि आकांक्षा के न रहने पर भी आकांक्षा का ज्ञान रह सकता है । जिस वाक्य के पद वस्तुतः निराकांक्ष ही हैं, किन्तु किसी ने उनको परस्पर कांक्ष समझ रखा है, उन पदों के अर्थों में परस्परसंसर्गज्ञानपूर्वकत्व रूप साध्य नहीं है, किन्तु आकांक्षा से अघटित उक्त हेतु है, अतः व्यभिचार होगा । इस व्यभिचार के वारण के लिये हेतु में आकांक्षा रूप विशेषण का सार्थक्य हो सकता है । क्योंकि उक्त स्थल में अन्वयबोध रूप अनुमिति की मनुत्पत्ति केवल प्राकांक्ष के अभाव से संपादित नहीं हो सकती । यदि आकांक्षा में स्वरूपता. अन्वयबोध की कारणंता मानते, तो उसके अभाव से अनुमित्यनुत्पाद का निर्वाह हो सकता था । किन्तु आकांक्षा तो कारण है नहीं, प्राकांक्षा का ज्ञान कारण है । वह तो प्रकृत स्थल में है हो, अतः प्राकांक्षाज्ञान को कारण माननेवाले द्वितीयपक्ष में व्यभिचार वारक के रूप में ‘आकांक्षा’ विशेषण का सार्थक्य हो सकता है । 7 किन्तु वह व्यभिचार एवं उसका निवारण दोनों ही निरर्थक हैं। क्योंकि व्यभिचार से व्याप्ति प्रतिरोध के द्वारा अनुमिति ही प्रतिरुद्ध होती है । किन्तु प्रन्वयबोध रूप इस अनुमिति का तो आकांक्षा स्वयं ही कारण है, अतः निराकांत वाक्य के पदों के द्वारा उपस्थित श्रर्थों का परसारान्वयबोध रूप अनुमिति तो आकांक्षा रूप कारण के अभाव से ही प्रतिरुद्ध हो जायगी । व्यभिचार के न रहने पर भी यदि प्राकांक्षा रूप कारण न रहेगा, तो प्रन्वयबोष रूप धनुमिति नहीं हो सकती । जैसे कि और सभी कारणों के रहते हुये भी यदि इन्द्रिय के साथ मन का संयोग नहीं रहता है, तो प्रत्यक्ष नहीं हो पाता है । अतः प्राकांक्षा को यदि अन्वयबोध का स्वरूपसत् कारण मानें तो हेतु में ‘आकांक्षा’ रूप विशेषण व्यर्थ है । जिस हेतु का विशेषण व्यर्थ हो, उस हेतु से होनेवाली अनुमिति भवश्य ही दुष्ट होगी। इसलिये यदि हेतु में प्राकांक्षा रूप विशेषण न दें तो केवल ‘प्रासत्ति-योग्यता विशिष्ट तत्स्मारकस्व’ हेतु
३७४ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जलो यद्यनुमानान्तरवत्तत्सद्भावेऽपि तज्ज्ञानवेधुर्यादन्वयप्रत्ययो न जायते । न त्वेतदस्ति, प्रासत्तियोग्यतामात्रप्रतिसन्धानादेव साकाङ्क्षस्य सर्वत्र वाक्यार्थप्रत्ययात् निवृत्ताकाङ्क्षास्य च तदभावात् । कथमेष निश्चयः, साकाङ्क्ष एव प्रत्येति, न तु ज्ञाताकाङ्क्ष इति चेत् ; तावन्मात्रेणोपपत्तावनुपलभ्यमानज्ञानकल्पनाऽनुपपत्तेः । अन्यत्र तथादर्शनाच्च । ‘प्रयमेति’ इत्यादि वाक्य के पदों में व्यमिचरित होगा, अतः आकांक्षा को स्वरूपसत् अन्वय- बोष का कारण मानकर उक्त अन्वयबोध रूप प्रनुमिति की उपपत्ति नहीं हो सकती । यद्यनुमानान्तरवत् किन्तु ‘भाकांक्षा’ स्वरूपतः ही प्रन्वयबोध का कारण है । ज्ञात होकर आकांक्षा अन्वयबोध का कारण नहीं है। क्योंकि कारणता का ज्ञापक है, अन्वय एवं व्यतिरेक । जिस प्रकार अन्य ‘अनुमान’ अर्थात् अनुमितियां अनुमितिकरण के प्रभाव से प्रतिरुद्ध होती हैं, उसी प्रकार यदि अन्वयबोध रूप अनुमिति आकांक्षाज्ञान के अभाव से प्रतिरूद्ध होती ? तो अन्वयबोध- रूप अनुमिति की कारणता आकांक्षा ज्ञान में मानी जाती । किन्तु सर्वत्र यही देखा जाता है कि सांकाक्षवाक्य के सुनने के बाद जब आसत्ति एवं योग्यता का ‘प्रतिसन्धान’ अर्थात् ज्ञान हो जाता है, तो अन्वयबोध की उत्पत्ति हो जाती है । एवं आकांक्षा के न रहने पर अन्वयबोघ उत्पन्न नहीं होता है । इस प्रकार अन्वयबोध का अन्वयव्यतिरेक आकांक्षा के साथ ही है, आकांक्षा ज्ञान के साथ नहीं । अतः प्राकांक्षा ही अन्वयबोध का कारण है, श्राकांक्षा का ज्ञान अन्वयबोध का कारण नहीं है, क्योंकि उसके साथ अन्वयबोध का अन्वयव्यतिरेक नहीं है | पू० प० कथमेष किस युक्ति से यह निर्णय करते हैं कि अन्वयबोध की उत्पत्ति ‘आकांक्षा’ से ही होती है, आकांक्षा के ज्ञान से नहीं ?. सि० पं० तावन्मात्रेण ) प्रथम युक्ति तो लाघव रूप ही है, क्योंकि यदि केवल आकांक्षा से ही अन्वयबोध की उपपत्ति हो जाय, तो आकांक्षा के ज्ञान से शाब्दबोध की उत्पत्ति की कल्पना गौरवास्पद होगी । फलतः इसी युक्ति से आकांक्षाज्ञान में शाब्दबोध की कारणता का निषेध हो जाता है। । अन्यत्र तथा (२) दूसरी युक्ति यह है कि ‘अन्यत्र’ अर्थात् शाब्दबोध से भिन्न किसी विशेष प्रत्यक्ष की उत्पत्ति केवल आकांक्षा से ( आकांक्षाज्ञान के विना ही ) होती है । ( विशदार्थ यह है कि ) यदा तदा तथे वग यदा रूप इसके रूप स्थाय ( अ धर्म उक्त होता व्याक रूप पू० उत्पा स्थिि उक्त कारण स्वयं किन्तु नहीं १.
तृतीय - स्तवकः ३७५ यदा हि दूरात् दृष्टसामान्यो जिज्ञासते कोऽयमिति, प्रत्यासीदंश्च स्थाणुरयमिति प्रत्येति, तदाऽस्य ज्ञातुमहमिच्छामीत्यनुव्यसायाभावेऽपि स्थाणुरयमित्यर्थप्रत्ययो भवति, तथेहाप्यविशेषात् विशेषोपस्थानकाले संसर्गावगतिरेव जायते, न तु जिज्ञासा- वगतिरिति । न च विशेषोपस्थानात्प्रागेव जिज्ञासावगतिः प्रकृतोपयोगिनी, यदा हि… … जिस समय पुरुष को दूरी के कारण स्थाणु का केवल उच्चैस्तरस्व ( ऊंचाई ) रूप सामान्य धर्म के साथ ही प्रत्यक्ष होता है, उसके स्थारत्व रूप विशेष धर्म के साथ नहीं । इसके बाद उस पुरुष को यह ‘आकांक्षा’ होती है कि “यह कौन सी वस्तु है ?” इस इच्छा रूप आकांक्षा से प्रेरित होकर जब वह स्थाणु के समीप जाता है, तो उस पुरुष को ‘प्रयं स्थास्तु’ इस आकार का प्रत्यक्ष ही होता है । ‘अहं ज्ञातुमिच्छामि’ इस आकार के ( अनुव्यवसायात्मक ) आकांक्षा का ज्ञान नहीं’ । अतः जिस प्रकार कथित प्रत्यक्ष स्थल में जिज्ञासा ( भाकांक्षा ) के बाद स्थाशुत्व धर्म के साथ स्थातु के प्रत्यक्ष की सामग्री का संबलन होने पर स्थाणु का प्रत्यक्ष ही होता है । उक्त जिज्ञासा ( रूप आकांक्षा) का ‘ज्ञातुमिच्छामि’ इस आकार के ज्ञान का उदय नहीं होता, उसी प्रकार शाब्दबोध स्थल में भी शब्द से विशेष अर्थ की उपस्थिति के समय वाकांक्षा के रहने पर भी उसके बाद शब्द जनित उपस्थित विशेष अर्थों का परस्पर संसर्गबोध रूप अन्वयबोध ही होगा, ‘आकांक्षा’ की ‘अवगति’ अर्थात् ज्ञान नहीं । पू० प० न च विशेषोपस्थानात्… … . … उक्त प्रत्यक्ष स्थल में भी जिज्ञासा ( प्राकांक्षा ) के बाद जिज्ञासा के ज्ञान की उत्पादिका सामग्री भी है, एवं स्थाणु का विशेष रूप से प्रत्यक्ष की सामग्री भी है । ऐसी स्थिति में अगले क्षण में किसकी उत्पत्ति होगी ? जिज्ञासाविषयक ज्ञान की ? अथवा उक्त विशिष्ट प्रत्यक्ष को ? यदि स्थाणु का विशेष रूप से प्रत्यक्ष को पहिले स्वीकार करेंगे, तो उसके अन्य कारणों के एकत्र होते-होते आकांक्षा का ज्ञान ही न हो सकेगा, क्योंकि तब तक जिज्ञासा स्वयं विनष्ट हो जायगी । जिज्ञासा का ‘अवगति’ रूप ज्ञान तो प्रत्यक्षात्मक ही होगा । किन्तु विषय भी प्रत्यक्ष का कारण है । अतः जिज्ञासा के विनष्ट हो जाने पर उसका प्रत्यक्ष नहीं होगा । 1 १. अर्थात् शाब्दबोध स्थल में भी उक्त प्रत्यक्ष रूप दृष्टान्त के बल से यह कल्पना करते हैं कि आकांक्षा के उदय होने के बाद अकांक्षा के ज्ञान से पहिले ही शाब्दबोध की उत्पत्ति हो जायगी । अतः शाकांक्षा ही शाब्दबोध का कारण है, आकांक्षा का ज्ञान कारण नहीं है ।
३७६ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली तावन्मात्रस्यानाकाङ्क्षत्वात्। न चैवम्भूतोऽप्ययमैकान्तिको हेतुः यदा ‘ह्ययमेति पुत्रो राज्ञः पुरुषोऽपसार्यतामि’ ति वक्ता उच्चारयति, श्रोता च व्यासङ्गादिना यदि उक्त स्थिति में ‘जिज्ञासा’ ( आकांक्षा ) की अवगति पहिले मानते हैं, एवं स्थार का विशिष्ट प्रत्यक्ष बाद में मानते हैं, तो स्थाणु के प्रत्यक्ष में कोई बाधा नहीं आती है । अतः जिज्ञासा की प्रवगति को ही पहिले स्वीकार करना उचित है । सुतराम् उक्त प्रत्यक्ष स्थल में भी जिज्ञासा ही कारण है, उसका ज्ञान नहीं । इसी प्रकार शाब्दबोध स्थल में भी शब्द विशेष की उपस्थिति से पहिले ही आकांक्षा उत्पन्न होकर शाब्दबोध को उत्पन्न कर सकती है । सि० प० तावन्मात्रस्य ज्ञान की इच्छा ही आकांक्षा है। ज्ञान किसी विषय का ही होता है, बिना किसी विषय का नहीं । एवं ज्ञान जिज्ञासा का कारण है । फलतः जिज्ञासा जिस विषय की होगी, उस विषय का ज्ञान उस जिज्ञासा का कारण होगा । अब यह पूछना है कि किस विषय की जिज्ञासा अथवा आकांक्षा से किस विषय का शाब्दबोध उत्पन्न होगा ? क्योंकि किसी भी विषयक इच्छा से किसी अन्य विषयक शाब्दबोध की उत्पत्ति संभव नहीं है । अतः यही कहना होगा कि पदों से उपस्थित अर्थों के परस्पर संसर्ग विषयक ज्ञान ही उक्त जिज्ञासा का विषय है । ( फलतः तद्विषयक आकांक्षा ही तद्विषयक अन्वयबोध का कारण है ) । इस प्रकार पद जनित पदार्थ विशेष की उपस्थिति रूप ज्ञान उक्त जिज्ञासा रूप आकांक्षा का कारण है । सुतराम् पदार्थ विशेष की उपस्थिति से पहिले जब जिज्ञासा रूप प्राकांक्षा का ही संबलन नहीं हो सकता, तो फिर उक्त जिज्ञासा विषयक ज्ञान रूप ‘जिज्ञासावगति’ के संबलन की बात तो बहुत दूर की बात हो जाती है । नं चैवम्भूतोऽपि . 638 ( दूसरी बात यह है कि यदि आकांक्षा को ज्ञात होकर शाब्दबोध का कारण मान भी लें तथापि ) प्राकांक्षा से घटित उक्त हेतु ‘ऐकान्तिक’ नहीं होगा अर्थात् व्याप्ति से युक्त नहीं ) होगा अर्थात् व्यभिचार से युक्त ही होगा । “से यदा ह्ययमेति क्योंकि जिस समय वक्ता ने ‘अयमेति पुत्रो राज्ञः पुरुषोऽपसार्यताम्’ इस संपूर्ण वाक्य का उच्चारण किया, किन्तु सुननेवाला प्रमादवश ‘राज्ञः पुरुषोऽपसार्यताम्’ केवल इतना अंश ही सुना । सुने गये इस वाक्यांश के पदों में आकांक्षादिमत्व भी है, एवं तत्स्मारकपद समूहत्व भी है, अतः प्रकांक्षाघटित संपूर्ण हेतु की सत्ता है । किन्तु ‘स्मारितार्थ संसर्गज्ञान- पूर्वकत्व’ रूप साध्य वहाँ नहीं है। क्योंकि वक्ता ने इस बोध के अभिप्राय से उक्त वाक्य का उच्चारण किया है कि — नि का ‘राज बोध रूप सकत सुतर d སྤྲེ ཝཿ ཞཱ ཡྻཱ ཁྲུ ཝཱ འ ཡྻཱ ཤྲཱ ཤྲཱ ཨཱ སྠཤཱཿ ། ཤྲཱ སྨྲ तत्व सभी नहीं ‘पुत्र’ है । ‘उदा सि० हैं, त अलि उक्त से अ हेतुत्व वाक्य जिस नहीं 9.
तृतीय स्तबक. ३७७ निमित्तेनाऽयमेति पुत्र इत्यश्रुत्वैव ‘राज्ञः पुरुषोऽपसार्यतामिति शृणोति, तदाऽस्त्या- काङ्क्षादिमत्त्वे सति पदकदम्बकत्वं न च स्मारितार्थं संज्ञानपूर्वकत्वमिति । स्यादेतत् । यावत्समभिव्याहृतत्वेन विशेषिते हेतौ नायं दोषः, तथाविधस्य व्यभिचारोदाहरणासंस्पर्शात् । कुतस्तहि कतिपयपदश्राविरणः संसर्ग प्रत्यय: ? । प्रलिङ्ग एव लिङ्गत्वाध्यारोपात् । एतावानेवायं समभिव्याहार इति तत्र श्रोतुरभिमानः । ‘राजा के पुत्र भा रहे हैं, अतः इस पुरुष को यहाँ से हटा दो’ । अतः वक्ता जिस बोध के अनुसन्धान से वाक्य का प्रयोग किया है, राजा एवं उनके पुत्र के बीच जो ‘निरूपितत्व, रूप सम्बन्ध है, वही उस बोध का विषय है । किन्तु श्रोता के द्वारा सुने गये अंश में तो ‘पुत्र’ पद नहीं है। अतः इस वाक्यांश में पुत्रानुयोगिकसंसर्गज्ञानपूर्वकस्व रह ही नहीं सकता । अतः आकांक्षा रूप विशेषण से युक्त उक्त हेतु भी व्यभिचार दोष से ग्रसित ही है । सुतराम उससे अन्वयबोधात्मक अनुमिति की सिद्धि नहीं हो सकती । पू० प० स्थादेतत् यावत् जो ‘प्राकांक्षा’ प्रकृत हेतु में विशेषण है, उसमें भी ‘समभिव्याहृतयावत् पदनिरूपि- तत्व’ विशेषण देंगे । अर्थात् जितने भी पदों में ‘परस्पर समभिव्याहार’ ज्ञात हो, उन सभी पदों की प्राकांक्षा को ही हेतु में विशेषण देंगे । ऐसा करने पर कहीं भी व्यभिचार नहीं होगा। क्योंकि ‘अयमेति’ इस स्थल में जितने भी परस्पर समभिव्याहृत पद हैं, उनमें ‘पुत्र’ पद भी है। सन्निरूपिता प्राकांक्षा ‘राज्ञः पुरुषोऽपसार्यताम्’ इस वाक्य के पदों में नहीं है । अतः ‘राज्ञः पुरुषोऽपसार्यताम्’ पुत्र पद से अघटित इस वाक्य के पद उक्त व्यभिचार के ‘उदाहरण’ अर्थात् लक्ष्य नहीं हो सकते । सि० प० कुतस्तहि … … o ( यदि उक्त पुत्र १द से आघटित उक्त वाक्य के पद अन्वयबोध के प्रयोजक ही नहीं हैं, तो फिर उस से श्रोता को अनुमिति स्वरूप शाब्दबोध ही क्यों कर होता है ? प्रलिङ्ग एव … अभिमानः
( इस प्रश्न का यह समाधान है कि ) उक्त वाक्य से घोता को जो पुत्रविषयक उक्त प्रन्ययबोध रूप अनुमिति होती है, उसका कारण है ‘मलिङ्ग’ में अर्थात् पुत्र पद से अघटित राज्ञः पुरुषोऽपसार्यताम् इस वाक्य के पद रूप ‘प्रहेतु’ में ‘लिङ्गत्व’ की अर्थात् हेतुत्व की भ्रान्ति । क्योंकि श्रोता को यह धारणा होती है कि ‘वक्ता के द्वारा उच्चरित वाक्य में इतने ही पद प्रयुक्त हैं, जिनमें परस्पर समभिव्याहार’ है ही । अत उक्त स्थल में जिस अन्वयबोध रूप अनुमिति की उत्पत्ति होती है, उसमें पुत्र प्रतियोगिक संसर्ग विषय नहीं होता है ’ : १. श्रर्थात् श्रोता को राज्ञः पुरुषः, अपसार्थताम् इन्हीं तीन पदों में परस्पर समभिष्धार का ‘अभिमान’ अर्थात् विपर्यय है । प्रकृत में लिन है अथम्, एति, राज्ञः, पुरुषः अप- ४८
गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली न । तत्सन्देहेऽपि श्रुतानुरूपसंसर्गावगमात् । भवति हि तत्र प्रत्यय: ‘न जाने किमपरमनेनोतमेतावदेव श्रुतं यद्राज्ञः पुरुषोऽपसार तामिति’ भ्रान्तिरसाविति चेत् ; न तावदसौ दुष्टेन्द्रियजा, परोक्षाकारत्वात् ? न लिङ्गाऽऽभासजा, लिङ्गाभि- भिमानाभावेऽपि जायमानत्वात् । सि० १० न, तस्सन्देहेऽपि तथापि उक्त हेतु व्यभिचरित है ही, क्योंकि जिन सभी पदों में समभिव्याहतत्व नहीं भी रहता है, किन्तु समव्याहृतत्व का सन्देह भी रहता है वहां भी अन्वयबोध होता है । जैसे कि पूर्वोक्त स्थल में ही जहां श्रोता यह कहता है कि ‘वक्ता के द्वारा उच्चरित सभी पद तो मैंने नहीं सुने’ किन्तु ‘राज्ञः पुरुषा अपसार्यताम्’ ये तीन पद मैंने अवश्य सुने’ एतादृश स्थल में भी घोता को पुत्रानुयोगिक सम्बन्ध विषयक अन्वय बोध होता है । अत: उक्त स्वरूप आकांक्षा को यदि ज्ञात होकर कारण मान कर आकांक्षा को हेतु में विशेषणं दें, तथापि उक्त स्थल में व्यभिचार अनिवार्य है । पू० प भ्रान्तिरसी उक्त स्थल में वक्ता का तात्पर्य जिन पदों के अर्थों के परस्पर सम्बन्ध में है, उनमें पुत्रानुयोगिक सम्बन्ध भी है। श्रोता को जिन सम्बन्धों का अन्वय बोध सुने गये पदों से होता है, उनमें से किसी में भी पुत्रानुयोगिकत्व नहीं है। श्रोता का अन्वयबोध चूंकि वक्ता के तात्पर्य विषयीभूत सम्बन्ध से भिन्न विषय का है, अतः वह भ्रान्ति रूप है । ’ सि० प० न तावदसी उक्त भ्रमात्मक अन्वयबोध किससे उत्पन्न होता है ? सर्वत्र भ्रम की उत्पत्ति प्रमाणाभास से ही होती है। वैशेषिक प्रत्यक्ष मौर अनुमान ये दो ही प्रमाण मानते हैं। इस लिए उनके मत में प्रमाणामास भी ( १ ) दुष्ट इन्द्रिय एवं ( २ ) हेत्वाभास ये दो ही प्रकार के होंगे । उक्त अन्वयबोध यदि भ्रम रूप होगा, तो उसको इन्हीं दोनों प्रमाणामासों में से किसी से उत्पन्न सायंताम्’ इतने पदों में रहने वाला समुदायत्व । राज्ञा, पुरुषः, अपसार्थताम् इम तीन पदों में ही रहने वाला समुदायत्व प्रकृत में हेतु नहीं है, किन्तु श्रोता को इसी धलिङ्ग में अर्थात् हेतु में लिंगस्व का अभिमान होता है। जिससे उस को पुत्र प्रतियोगिक सम्बन्धाविषयक उक्त अन्वयबोध रूप अनुमिति होती है । १. अर्थात् उक्त वाक्य से यदि श्रोता को भ्रान्ति रूप शाब्दबोध होता भी है, तथापि वह शब्द ‘प्रमाण’ नहीं हो सकता । क्योंकि ‘मा’ का कारण ही प्रमाण है । उक्त शब्द में प्रमा की कराता नहीं है, किन्तु भ्रम की करता है । सद प्रत्य होग प्रम अप (हे हेत्वा पुरुष किस प्रमा पू० जा भ्रमा सि० कि ऐसी रहित सकत होता (शब्द होना पू० कारण बोव
तृतीय:- स्तवक ३०६ एतादृक्पदकदम्बप्रतिसंधानमेव तां जनयतीति चेत्; यद्येवमेतदेवादुष्ट’ सदभ्रान्ति जनयत् केन वारणीयम् ? व्याप्तिप्रतिसन्धानं विनाऽपि तस्य संसर्ग- प्रत्यायने सामर्थ्याऽवधारणात्, चक्षुरादिवत् । नास्त्येव तत्र संसर्गप्रत्यय:, असंसर्गाग्रहमात्रेण तु तथाव्यवहार इति चेत्; होगा । किन्तु प्रन्वयबोध चूं कि परोक्षाकारक है, अतः उसकी उत्पत्ति दुष्ट इन्द्रिय रूप प्रमाणमास से नहीं हो सकती। क्योंकि दुष्ट इन्द्रिय रुप प्रत्यक्षाभास से उत्पन्न ज्ञान भी अपरोक्षाकारक ही होता है । एवं उक्त श्रन्वयबोध लिङ्गाभास से भी उत्पन्न नहीं हो सकता, क्योंकि लिङ्गाभास ( हेत्वाभास) के द्वारा जो भ्रमात्मक अनुमिति होती है, उसके लिए यह आवश्यक है कि उस हेत्वाभास को बोद्धा ‘हेतु’ समझे ( अर्थात् हेत्वाभास में हेतुत्व की भ्रान्ति रहे ) । ’ किन्तु राज्ञः पुरुषोऽपसार्यताम्’ इस वाक्य से जो भ्रमात्मक अन्वयबोध होता है, उसमें इस प्रकार के किसी भ्रम की आवश्यकता नहीं होती है । अतः उक्त प्रन्वयबोध भ्रम रूप अनुमान के उत्पादक प्रमाणाभास से भी उत्पन्न नहीं हो सकता । पू० प० एतादृक् भ्रान्ति रूप ज्ञान प्रमाणाभास से ही हो, एसी कोई राजाज्ञा नहीं है । अतः यह कहा जा सकता है, कि ‘राज्ञः पुरुषोऽयसार्यताम्’ इस पद समूह के प्रतिसन्धान से ही श्रोता को उक्त भ्रमात्मक बोध होता है । सि० प० यद्येवम् यदि ऐसी बात है, तो फिर यह स्वीकार करना होगा कि शब्द में ऐसी सामर्थ्य है कि कि वह व्याप्ति प्रभूति के अनुसन्धान का साहाय्य न पाने पर भी अनुभूति को उत्पन्न करे । ऐसी स्थिति में शब्द यदि ‘अदुष्ट’ रहे प्रर्थात् उसमें प्राकांक्षादि रहे, तो उस अदुष्ट अर्थात दोष रहित शब्द से व्याप्ति प्रभृति के अनुसन्धान के बिना ही प्रमात्मक अनुभव को भी उत्पत्ति हो सकती है । जैसे कि चक्षुरादि इन्द्रियां यदि दोष से युक्त रहतीं है, तो उनसे भ्रमात्मक अनुभव होता है । यदि उन में दोष नहीं रहते, तो उन्हीं इन्द्रियों से प्रमात्मक अनुभव उत्पन्न होता है ( शब्दः प्रमाजनक: दोषसाहाय्ये सति भ्रमजनकत्वात् चक्षुरादिवत् ) चूकि प्रमा का करण होना ही प्रामाण्य है, अतः शब्द नाम का भी प्रतिरिक्त प्रमाण अवश्य है । पू० प० नास्त्येव कथित ‘राज्ञा पुरुषोऽपसार्यताम्’ इस स्थल में यदि भ्रान्ति के अनुमानामासादि कारणों में से कोई भी नहीं है, तो फिर वहीं पदार्थों के परस्पर संसर्ग विषयक भ्रमात्मक बोध भी नहीं होता है । किन्तु ‘राज्ञः पुरुषोऽपसार्यताम्’ सुने गये इस वाक्यांश में जितने CCO. Vasishtha Tripathi Collection. Digitized by eGangotri३५० गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली तथाभूतस्यानाप्तवाक्यस्य तर्हि यावत्समभिव्याहारेणापि विशेषणेनाप्रतिकारः, संसर्गज्ञानपूर्वकत्वाभावात् । असंसर्गाग्रहपूर्वकत्वमात्रे साध्ये न व्यभिचार इति चेत्; एवं तर्हि संसर्गो न सिद्धय ेत् । . ही पद परस्पर समभिव्याहार से युक्त हैं, उनके अर्थों में परस्पर ‘असंसर्ग’ का ज्ञापक भी कोई नहीं है । भतः उन पदार्थों के परस्पर सम्बन्ध के ‘अज्ञान’ से श्रोता में ‘असंसर्गाग्रह’ का व्यवहार होता है । सुतराम् व्याप्ति के प्रतिसन्धान के बिना शब्द में भ्रम के उत्पादन की भी सामर्थ्य नहीं है । अतः कथित रीति से भी शब्द के किया जा सकता । सि० प० तहि ००१ क प्रा के स्वतन्त्र प्रामाण्य का समर्थन नहीं कह वाव यदि ऐसी बात है तो फिर हेतु में ‘यावत्पदसमभिव्याहृतत्व’ विशेषण के देने पर भी अनाप्त पुरुष के द्वारा उच्चरित ‘घटमानय’ इस वाक्य के पदों में व्यभिचार अवश्य होगा । ( भले ही ‘राज्ञः पुरुषोऽपसार्यताम्’ सुने गये इस वाक्यांश के पदों में उक्त विशेषण से व्यभिचार का वारण हो जाय ) । क्योंकि आप शब्द से पदार्थों का भ्रान्तिरूप संसर्गबोध को भी स्वीकार करते हैं । अतः उक्त स्थल में उक्त संसर्गज्ञानपूर्वकस्व’ रूप साध्य नहीं है, किन्तु कथित तत्स्मारकत्वरूप हेतु तो है ही । पू० प० प्रसंसर्गाग्रहपूर्वकत्व उक्त अनुमान में ‘पदार्थ संसर्गज्ञानपूर्वकत्व’ के स्थान में ‘पदार्थों के परस्पर असंसर्ग के प्रग्रह’ ( अज्ञान ) को ही साध्य भी करेंगे । अनाप्तपुरुषोंचरित वाक्य के पदों में यह साध्य भी है ही, अतः व्यभिचार दोष नहीं है । सि० प० एवं तहि पदार्थों का असंसर्गाग्रह ही होगा, तो वह भी नहीं होगा । किन्तु सो इष्ट नहीं है, क्योंकि आज्ञापालक श्रोता में जो घटानयन की प्रवृत्ति क्योंकि प्रवृत्ति जिस विषय की होती है, उसी अतः घटानयन की प्रवृत्ति घटानयन विषयक उक्त रीति से शब्द के द्वारा यदि पदार्थों के परस्पर संसर्गरूप भन्वय का बोध ‘घटमानय’ इस वाक्य के द्वारा उत्पन्न बोध से देखी जाती है, यह प्रवृत्ति मनुपपन्न हो जायगी। विषय का ज्ञान उस प्रवृत्ति का कारण होता है, ज्ञान से ही होगी । घटकर्मक आनयन ही ‘घटानयन’ है । फलतः घट में जो प्रानयन का कर्मत्व रूप सम्बन्ध है, एवं आनयन में घट का जो स्वनिष्ठ कर्मतानिरूपितत्व रूप सम्बन्ध है, इन संसर्गे का ज्ञान रूप ही घटानयन का ज्ञान है । इस प्रकार पदार्थ संसर्ग का ज्ञान प्रवृत्ति का कारण है। कथित प्रसंसर्गाग्रह को प्रवृत्ति का कारण नहीं माना जा सकता, क्योंकि जिन पदार्थो के परस्पर संसर्ग का ज्ञान नहीं है. पदार्थों का असंसर्गज्ञान भी नहीं है, उस समय भी पदार्थो पू० होते वाक होते साध में से अक होत सि को जा कभ क आ के
तृतीयः स्तबक ३८१ सर्वंविषयाऽऽप्तत्वस्यासिद्धः । यत्र प्राप्तवाक्येषु सेत्स्यतीति चेन्न । क्वचिदाप्तत्वस्यानैकान्तिकत्वात् । प्रकृतविषये चाऽऽप्तत्वसिद्धौ संसर्ग विशेषस्य प्रागेव सिद्धयभ्युपगमादित्युक्तम् । के असंसर्ग का अग्रह तो है ही, उस समय भी प्रवृत्ति की आपत्ति होगी । अतः यह नहीं कहा जा सकता कि शब्द से भ्रमात्मक ज्ञान उत्पन्न होता ही नहीं, केवल मनाप्त पुरुषोच्चरित वाक्य से पदार्थों का असंसर्गाग्रह मात्र होता है । पू० प० प्राप्तवाक्येषु 606 श्रातपुरुष के द्वारा उच्चरित वाक्य से जो बोध होता है, उसी से प्रवृत्यादि कार्य होते हैं । इसलिए प्राप्तवाक्य से पदार्थों के परस्पर संसर्ग का अन्वय बोध होता है । अनाम- वाक्य से केवल पदार्थो का अससर्गाहग्रह ही होता है, अत: उससे प्रवृत्यादि कार्य नहीं होते । फलतः प्रकृत में दो अनुमान अलग अलग हैं। एक में पदार्थों का संसर्गग्रहपूर्वकत्व साध्य है, जिसका उपयोग आप्तोच्चरित वाक्य से होनेवाले अन्वयबोधात्मक अनुमान . में होता है । दूसरे अनुमान का साध्य है ‘असंसर्गाग्रिहपूर्वकत्व’, जिस का उपयोग अनातवाक्य से अथवा निराकांक्षवाक्य से अथवा वक्ता के अनभिप्रेतार्थ विषयक बोध के जनक किन्तु प्रकांक्षा से युक्त ‘राज्ञः पुरुषोऽपसार्यताम्’ इत्यादि वाक्यों से उत्पन्न उक्त असंसर्गाग्रह में होता है | अतः प्रवृत्ति की कथित अनुपपत्ति रूप दोष नहीं है । सि० प सर्वविषयाप्तत्वस्य वैशेषिकों के उक्त कथन के अनुसार जिस अन्वयबोध रूप अनुमिति से प्रवृत्त्यादि की उत्पत्ति होगी, उस के हेतु में ‘आप्तोक्तत्व’ विशेषण देना आवश्यक होगा । किन्तु यही जानना कठिन है कि ‘प्राप्त’ कौन है ? क्योंकि जिन्हे परम प्राप्त समझा जाता है, उनसे भी कभी भ्रान्तिवश ही सही, झूठ बोला ही जाता है । जिनको सभी ‘प्रनाप्त’ समझते हैं, वे भी कदाचित् सत्य बोलते ही है । अता हेतु में जिस ‘प्राप्तोक्तत्व’ को विशेषण देगें, तद्द्घटक आतत्व से सर्वविषयक प्राप्तत्व विवक्षित हो तो वह संभव नहीं होगा, क्योंकि सभी विषयों के लिए कोई भी ‘आस’ नहीं हैं । यदि कुछ विषयों में ‘प्राप्तत्व’ इष्ट हो, तो फिर उक्त हेतु
३८२ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जलौ न च सर्वत्र जिज्ञासा निबन्धनं, अजिज्ञासोरपि वाक्यार्थप्रत्ययात् । अनाप्तोच्चरितवाक्य में व्यभिचरित होगा । अतः उक्त रीति से भी शब्द का अनुमान में अन्तर्भाव की बात ठीक नहीं है । यदि ‘प्रकृत विषय’ में आप्तस्व विवक्षित रहे प्रर्थात् जिस वक्ता को स्वोच्चरित शब्द से उत्पन्न प्रम/ज्ञान के समान यथार्थ ज्ञान रहे, वही पुरुष उस विषय में आप्त है - इस प्रकार का प्रातत्व यदि विवक्षित रहे, तथापि अनुमिति की अनुपपत्ति रहेगी ही ( उक्त व्यभिचार दोष का वारण भले ही हो जाय ) । क्योंकि ‘प्रकृत विषय में आप्तत्व’ का अर्थ होगा, पदार्थों के परस्पर संसर्ग का ज्ञान । इस प्रकार के आप्तत्व को यदि हेतु में विशेषण देंगे, तो हेतु के विशेषण के रूप में ( हेतुतावच्छेदकज्ञान विधया) पदार्थों के संसर्ग का ज्ञान भी अनुमिति से पहिले ही आवश्यक होगा । इस प्रकार पदार्थों के परस्पर संसर्ग का ज्ञान यदि पहिले ही हो जायगा तो फिर अनुमान की प्रवृत्ति हो व्यर्थ हो जायगी, क्योंकि उसी ज्ञान के संपादन के लिए तो अनुमिति की प्रवृत्ति हो रही है । हेतु में श्राप्तत्व विशेषण के देने से इस दोष का प्रतिपादन पहिले भी कर चुके हैं । सि० प० न च सर्वत्र … …….वाक्यार्थप्रत्ययात् प्राकांक्षा यदि जिज्ञासा स्वरुप हो, तो उसमें ज्ञात होकर अनुमिति कारणत्वं का समर्थन किया भी जा सकता है, किन्तु प्रकृत में ‘प्राकांक्षा’ जिज्ञासा स्वरप हो ही नहीं सकती, क्योंकि ऐसा मानने पर शाब्दबोध के प्रति जिज्ञासा को कारण मानना होगा, किन्तु जिस पुरुष में जिज्ञासा नहीं है, प्रथ व पदों की शक्ति का ज्ञान है, ऐसे ‘आजिज्ञासु’ पुरुष भी जब वाक्य को सुनता है, तो उसको भी शाब्द बोच अवश्य होता है । अतः जिज्ञासा (रुप आकांक्षा) शाब्दबोध का कारण नहीं हो सकती । १. यहाँ प्रकृत सन्दर्भ का थोद्दा पूर्वापर अनुसन्धान आवश्यक है । शब्द प्रमाण से होनेवाले कार्य के संपादन के लिये दो अनुमानों का प्रयोग आदि में किया गया है । इन दोनों ही अनुमानों के हेतु में आकांक्षा विशेषण है। सिद्धान्ती ने पहिले इस युक्ति के द्वारा खण्डन किया है कि शब्द से उत्पन्न होने वाले बोध में आकांक्षा स्वरूपत् (स्वयं ही कारण है, ज्ञात होकर नहीं । यदि आकांक्षाघटित हेतु से अवययोध मनेंगे, तो उस ) बोध में प्राकांक्षा का सकता है, स्वरूपत: नहीं । अतः स्त्ररूपतः प्राकांक्षा से तदा ज्ञान विष नहीं नहीं पू० अर्थात सि० ‘आक पदों 9. उपयोग ज्ञात होकर ही हो ( उत्पन्न होने वाला श्रभ्वयबोध धनुमिति रूप नहीं हो सकता। सिद्धान्ती ने प्रोत्रिय भाकांता को ज्ञात होकर त
तृतीय- स्तवकः ३८३ आकाङ्क्षापदार्थस्तर्हि कः ? । जिज्ञासां प्रति योग्यता । सा च स्मारित- तदाक्षिप्तयोरविनाभावे सति श्रोतरि तदुत्पाद्यसंसर्गावगमप्रागभावः । न चैषोऽपि ज्ञानमपेक्षते, प्रतियोगि निरूपणाधीन निरूपणत्वात् तदभावनिरूपणस्य च विषय निरूप्यत्वादिति । ‘प्रभा’ निश्चयात्मक ही होती है, अतः जो निश्चयात्मक ज्ञान के उत्पादन में समर्थ नहीं है, अथवा आशोक्तत्व के सन्देह से ग्रसित है, उस वाक्य से ‘प्रमा’ रूप ज्ञान की उत्पत्ति नहीं हो सकती, ( क्योंकि वह निश्चयात्मक होता है ) । पू० प० आकांक्षापदार्थस्तह … .. यदि आकांक्षा जिज्ञासा रूप नहीं है तो फिर ‘आकांक्षा’ पद का क्या अर्थ है ? अर्थात् आकांक्षा का क्या स्वरूप ( लक्षण ) है ? सि० प० जिज्ञासाम् जिज्ञासा की ‘योग्यता’ अर्थात् जिज्ञासा की उत्पत्ति की स्थिति अर्थात् संभावना ही ‘आकांक्षा’ पद का अर्थ है | जिज्ञासा की यह योग्यता पदों से वृत्तिज्ञान के द्वारा उपस्थित दो अर्थों में अथवा पदों से आक्षिप्त’ दो अर्थों में परस्पर ‘अविनाभाव’ ( व्याति ) सम्बन्ध के रहते हुये श्रोता अनुमिति का संपादक मानकर मी ‘न चैवम्भूतोऽपि’ इत्यादि सन्दर्भ के द्वारा उक दोनों धनुमानों का खयटन किया है । इसी सन्दर्भ में पुनः आकांक्षा को ज्ञात होकर अनुमिति कारणता के खण्डन के द्वारा पुनः दोनों अनुमानों का खण्डन करने उपक्रम किया गया है । १. ‘तण्डुलम्पचति’ इस वाक्य के दोनों ही पदों में से प्रत्येक से क्रमशः उपस्थित तबुल एवं पाक रूप दोनों ही अर्थों में परस्पर ‘अविनामाव’ या व्याप्ति अवश्य है। क्योंकि अक पाक क्रिया में कर्मस्व सम्बन्ध से ( स्वनिष्ठ कर्मता निरूपितत्व सम्बन्ध से ) तण्डुलादि कर्म अवश्य हैं। क्योंकि कोई भी सकर्मक क्रिया बिना कर्म के नहीं होती । एवं कोई कर्म भी बिना कारक के नहीं रहता । अतः विलक्षण तेजः संयोग रूप पाक भी समवाय सम्बन्ध से उक्त वाक्य घटक ‘तयडलम्’ पद से उपस्थित तबहुल रूप अर्थ में अवश्य है। इस प्रकार पर्दों के द्वारा उपस्थित दो वर्षो में म्याप्ति ( अविनाभाव ) रहती है।
३८४ प्राभाकरास्तु, गद्यपद्यात्मक-न्याय कुसुमाञ्जली लोकवेदसाधारण व्युत्पत्ति बलेनाऽन्विताभिधानं प्रसाध्य का वेदस्यापौरुषेयतया ववतृज्ञानानुमानानवकाशात् संसर्गे शब्दस्यैव स्वातन्त्र्येण प्रामाण्यमास्थिषत । लोके त्वनुमानत एव वक्तृज्ञानोपसर्जनतया संसर्गस्य सिद्ध रन्विताभिधानबलायातेऽपि प्रतिपादकत्वे अनुवादकतामात्रं वावयस्येति निर्णीतवन्तः । पुरुष में वाक्य से उत्पन्न होनेवाले शाब्दबोध या अन्वयबोध रूप ‘अवगम’ के प्रागभाव की सत्ता स्वरूप है । पू० प० प्राभाकारास्तु 006 00 निर्णीतवन्तः प्रभाकर संप्रदाय के मीमांसकों का कहना है कि वेद रूप शब्द राशि ही स्वतन्त्र प्रमाण है । एवं लौकिक शब्द से तदर्थं विषयक अनुमान ही होता है, प्रत: लौकिक शब्द स्वतन्त्र प्रमाण नहीं है । आ देत की युक्त से जो इस गोप इत शति वक्त समान सर्वथ पद रखा गया है । नहीं किन्तु ‘नील सरोजम्’ इत्यादि स्थलों में ‘सरोज’ पद से उपस्थित ‘कमलादि’ अनी भी होते हैं, एवं मील पद से उपस्थित ‘नील रूप’ सरोज से भिन्न पटादि मैं भी रहता है, अत: इन दोनों में अविनाभाव सम्बन्ध संभव नहीं है । किन्तु उक्त स्थल में भी आकांक्षा रहती है, अतः ‘तदाक्षिप्तयो:’ अर्थात् उक्त दोनों अर्थों में व्याप्ति के न रहने पर भी ‘नीज’ पद से उपस्थित ‘नीलरूप’ विशेष गुण से गुणसामान्य का आक्षेप होता है, एवं सरोज पद से उपस्थित कमलपुष्प रूप द्रव्य विशेष से भी द्रव्य सामान्य का चाक्षेप होता है। इस प्रकार ‘आक्षिप्त’ द्रव्य सामान्य एवं गुण सामान्य में जो व्याधि है, उसी के द्वारा ‘नीलं सरोजम्’ इत्यादि स्थलों में आकांक्षा का निर्वाह होता है । २. बक्का को पदार्थों के संसर्ग का ज्ञान यद्यपि वाक्य के प्रयोग से पहिले ही रहता है, किन्तु श्रोता में उक्त शाब्दबोध का प्रागभाव शाब्दबोध से पहिले अवश्य रहता है । क्योंकि प्रागमाच मी कार्य का एक कारण है। अतः शाब्दबोध रूप कार्य का प्रागभाव मी शाब्दबोध का कारण है । प्रागमाच रुपा उक्त आकांक्षा से शाब्दबोध रूप कार्य के उत्पादन में उक्त प्रागभाव का ज्ञान अपेक्षित नहीं है । यदि शाब्दबोध रूप कार्य की कारयता प्रागभाव के ज्ञान में स्वीकार करेंगे तो उस प्रागभाव के ज्ञान संपादन के लिये पदार्थों का ज्ञान आवश्यक होगा। क्योंकि प्रतियोगिज्ञान प्रभाव ज्ञान का कारण है । इस प्रकार प्रागभाव रूपा उक्त आकांक्षा को ज्ञात होकर शाब्दबोध का कारण मानने पर शाब्दबोध रूप ‘स्व’ को ही ‘शाब्दबोध’ रूप कार्य का कारण मानना होगा । अतः आकांक्षा ज्ञात होकर अन्वयबोध का कारण नहीं हो सकती । सुतराम् शव्यजनित अन्वयबोध अनुमिति नहीं है। शब्द अवश्य ही स्वतन्त्र प्रमाण है । शब्द है । से प इस उत्पा रूप प्र वाली होता रूप प्र रहनेव
तृतीय रतबका ३८१ ( उन लोगों का अभिप्राय है कि ) शक्तिज्ञान शाब्दबोध का कारण है । शक्तिज्ञान वाक्य के प्रयोग के बाद युक्त गो रूप अर्थ को ला का सर्वसम्मत प्रकार यह है कि ‘गामानय’ इत्यादि आज्ञा सूचक आज्ञा का पालन करनेवाला भृत्य प्रथवा शिष्यादि सास्नादि से देता है | वहां यदि कोई ऐसा पुरुष रहता है, जिसे ‘मानय’ पद का अर्थ ज्ञात है, किन्तु ‘गोपद’ की शक्ति ज्ञात नहीं है, तो उस अज्ञ पुरुष से श्रानयन रूप क्रिया के कर्म स्वरूप सास्नादि से युक्त उक्त अर्थ में गोपद की शक्ति गृहीत हो जाती है । शक्तिज्ञान की उत्पत्ति की इस रीति से समझते हैं कि केवल गो रूप अर्थ में गोपद की शक्ति नहीं है, किन्तु गो रूप अर्थ से ‘इतर’ जो ‘आनयनादि’ रूप अर्थ, उस इतर अर्थ से अन्वित गो रूप अर्थ में ही गो पद की शक्ति है । इस प्रकार प्राभाकर मीमांसकों के मत में शक्तिज्ञान का अभिलापक शब्द है ‘इतरान्वितो गौः गोपदशक्यः’ । यही मत ‘अन्विताभिधानवाद’ के नाम से प्रसिद्ध है । भर्थात् जिस ‘वाद’ में इसर में अग्वित पर्थ ही पद से ‘अभिहित’ होता हो वही है ‘अन्विताभिधानवाद’ । ‘य एव लौकिकास्त एव वैदिका:’ इस न्याय से वेद में जो शब्द प्रयुक्त हैं, उनके शक्तिज्ञान में भी यही रीति जाननी चाहिये। किन्तु शक्तिज्ञान की इस राति के अनुसार लोकिकवाक्य से जो अन्वयबोध अथवा शाब्दबोध होगा, वह अनुमिति रूप ही होगा। क्योंकि वक्ता का शब्दप्रयोग नियमतः ‘स्व’ में (वक्ता में) शब्द से उत्पन्न होनेवाले ज्ञान के समान ज्ञान के रहने पर ही होता है । अतः उक्त दोनों धनुमान लौकिक वाक्य स्थल के सर्वथा उपयुक्त हैं । किन्तु वेद तो प्रपौरुषेय हैं । उनका तो कोई प्रथम उच्चारण करनेवाला ‘वक्ता’ नहीं है । अतः वैदिकवाक्यों से उत्पन्न होनेवाले पदार्थ संसर्गबोष या अन्वयबोध के लिये शब्द को स्वतन्त्र प्रमाण ही मानना होगा । लौकिक शब्दों से भी यद्यपि पदार्थो के संसर्ग का बोध ( अन्वयबोध ) प्रवश्य होता है । किन्तु लोकिक शब्द अन्वयबोध के उत्पादन में स्वतन्त्र नहीं है । किन्तु लौकिक वाक्य से पहिले उक्त वाक्य में प्रयुक्त पदों में पदार्थ संसर्ग विषयक प्रमाजन्यत्व का अनुमान होता है । इस अनुमान के साध्य में ‘पदार्थ संसर्गप्रमा’ विशेषण है । इस प्रकार विशिष्ट साध्यज्ञान के उत्पादन में विशेषणज्ञान विषया अपेक्षित होने से ( गौणतया ) लौकिकवाक्य से अन्वयबोध रूप प्रमा की भी उत्पत्ति होती है । यह भी सत्य है कि जिस प्रकार वैदिकवाक्यों से शाब्दबोध में ‘अन्विताभिधान’ वाली रीति के उपयोग से शब्दबोध होता है, उसी रीति से लौकिक वाक्यस्थलमें भी शाब्दबोध होता है । तथापि लौकिकशब्दों में स्वतन्त्रप्रामाण्य नहीं है, क्योंकि लौकिकशब्द अम्बयबोध रूप प्रमाज्ञान के उत्पादन में स्वतन्त्र नहीं है, उसको इस कार्य के लिये वक्तापुरुष में रहनेवाले प्रमाज्ञान की भी अपेक्षा होती है । अतः लौकिक शब्द से प्रमाशान की उत्पति तभी ४६
३८६ तदतिस्थवीयः । गद्यपद्यात्मक न्यायकुसुमाञ्जली निर्णीतशक्तेर्वाक्याद्धि प्रागेवार्थस्य निर्णये । व्याप्तिस्मृतिविलम्बेन लिङ्गस्यैवानुवादिता ॥१४॥ यावती हि वेदे सामग्री तावत्येव लोकेऽपि भवन्ती कथमिव नाथं गमयेत् । न ह्यपेक्षणीयान्त रममस्ति, लिङ्ग तु परिपूर्णेऽप्यवगते व्याप्तिस्मृतिरपेक्षणीयाऽस्तीति विलम्बेन कि निर्णेयम् ? । अन्वयस्य प्रागेव प्रतीतेः । होती है, जब कि वह प्रत्यक्षादि प्रमाणों से सिद्ध प्रर्थों को ही विषय करे । इसलिये लौकिक शब्द से होनेवाले प्रमाज्ञानों के स्वतन्त्र करण प्रत्यक्षादि प्रमाण ही हैं । लौकिकशब्द प्रत्यक्षादि प्रमाणों के द्वारा सिद्ध घर्थों के अनुवादक मात्र हैं । अतः लौकिक शब्द अनुवादक होने के कारण प्रमाण ही नहीं है । क्योंकि प्रामाण्य के लिये प्रमाज्ञान के उत्पादन में स्वातन्त्र्य की भी आवश्यकता है । अत एव प्रमारूप स्मृति का करण होने पर भी संस्कार पूर्वानुभव से परतन्त्र होने के कारण प्रमाण नहीं होता । अतः लौकिकशब्द का अनुमान में अन्तर्भाव तो उचित है, किन्तु वैदिक शब्द स्वतन्त्र प्रमाण ही हैं । सि० प० तदति अनुवादिता किन्तु प्रभाकरों का उक्त विभाग भी स्थूलबुद्धि से प्रेरित होने के कारण ठीक नहीं है, क्योंकि:- वैदिक वाक्यों में प्रयुक्त जिन पदों की शक्ति पहिले से निश्चित है, उन्हीं पदों का का प्रयोग लौकिक वाक्यों में भी होता है । इस प्रकार ‘निर्णीतशक्ति” वाले पदों से युक्त लौकिक वाक्य से भी मनुमिति होने से पहिले शाब्दबोध ही हो जायगा । क्योंकि व्याप्ति सापेक्ष होने के कारण अनुमति पीछे होगी। वैदिकशब्द में पहिले से ही शाब्दबोध की स्वतन्त्रकरणता सिद्ध है । भ्रतः प्रकृत में पशब्द प्रमाण के द्वारा ज्ञात अर्थ का प्रतिपादक होने से ‘लिङ्ग’ ही अर्थात् अनुमान प्रमाण ही अनुवादक होगा, शब्दप्रमाण अनुवादक नहीं होगा । सि० प० यावती हि ….. ‘वेद में’ अर्थात् वैदिकवाक्य से उत्पन्न होनेवाले शाब्दबोध में ‘यावती सामग्री’ अर्थात् जितने कारणों के समूह की अपेक्षा होती है, लौकिकवाक्य से होनेवाले अन्वयबोध में भी उतने ही कारणों के समूह की अपेक्षा होती है । उससे अधिक कारणों के समूह को नहीं । ‘आकांक्षादि’ से युक्त वाक्यत्व को ही ‘अन्वय’ का अनुमापक कहा है । किन्तु हेतुज्ञान के बाद व्याप्ति स्मरण की भी अपेक्षा अनुमिति में होती है। हेतुवाक्य में विशेषणीभूत जो शब्द लोके ‘आव ‘आक उत्प की वैदिक पू० होने जाति आतो उसमें होगी सि० शब्द साहा धार्मि के म आप्तो ये य में एक उससे में क्त स्व एवं व नहीं
5 7 तृतीयः स्तबकः ३८७ लोके वक्तुराप्तत्वनिश्चयोऽपेक्षणीय इति चेन्न । तद्रहितस्यापि स्वार्थप्रत्यायने शब्दस्य शक्तेरवधारणात्, अन्यथा वेदेऽप्यर्थप्रत्ययो न स्यात्, तदभावात् । न च लोके अन्यान्येव पदानि येन शक्तिवैचित्र्यं स्यात् । ‘आकांक्षादि’ पद है, उसमें प्रयुक्त ‘आदि’ पद से ‘शक्तिज्ञान’ भी अभिप्रेत है। इस प्रकार ‘आकांक्षा’ एवं ‘शक्तिज्ञान’ प्रभूति से युक्त केवल पदों के ज्ञान से हो जब अन्वयबोध की उत्पत्ति सम्भव है, तो फिर कौन सा पदार्थ ऐसा अवशिष्ट रहता है, जिसके लिये उसमें व्याप्ति की अपेक्षा स्वीकार कर अन्वयबोध को नियमतः अनुमिति रूप स्वीकार किया जाय । अतः वैदिक शब्द के सदृश लौकिक शब्द भो स्वतन्त्र हो प्रमाण है । पू० प० लोके वक्तुः कोफिक शब्द से उत्पन्न होने वाले प्रमाज्ञान की सामग्री एवं वैदिक शब्द से उत्पन्न होने वाले यथार्थ ज्ञान के कारण समूह, दोनों समान नहीं हैं, दोनों में अन्तर है, दोनों विभिन्न जाति के हैं। क्योंकि वेद अपौरुषेय हैं, अतः उनसे उत्पन्न होने वाले बोध की सामग्री में आतोक्तस्व का निश्चय अन्तर्निहित नहीं है । किन्तु लोकिक शब्द से जो भन्वयबोध होता है, उसमें प्राप्तोक्तस्व का निश्चय भी कारण हैं, मत। उसकी सामग्री आमोक्तत्व के निश्चय से युक्त होगी । सुतराम दोनों सामग्रियां समान नहीं हैं । सि० प० न तद्रहितस्यापि जिस श्रोता को वाक्य में आप्तोक्तत्व का निश्चय नहीं भी रहता है, उस श्रोता को भी शब्द से भन्वयबोध अवश्य होता है। इससे यह निष्पन्न होता है कि आप्तोक्तत्व के निश्यचय का साहाय्य रहने पर भो अन्वयबोध को उत्पन्न करने की क्षमता शब्द में ही है। श्रोता में यदि शब्द धार्मिक प्राप्तोक्तत्व के निश्चय को अपेक्षा श्रन्वयबोष में नियमत: स्वीकार करें तो प्रभाकरों के मत से वे वाक्य के द्वारा अभ्वयबोध नहीं होगा। क्योंकि उनके मत से वेदवाक्य धर्मिक आप्तोक्तत्व का निश्चय संभव नहीं है । ‘य एव लौकिकास्त एव वैदिका:’ इस न्याय के रहते हुये यह कहना संभव ही नहीं कि लौकिक शब्द एवं वैदिक शब्द भिन्न हैं, अतः वैदिक शब्दों में एक ऐसी विलक्षण शक्ति है कि जिसके रहते प्राप्तोक्तस्व निश्चय के साहाय्य के विना भी उससे शाब्दबोध होता है”। इस लिए यही मानना होगा कि वैदिक शब्दों से होनेवाले श्रन्वयबोष में प्राप्तोक्तस्व की अपेक्षा नहीं है, तो फिर लोकिक शब्द से होने वाले अन्वयबोध में भी प्राप्तो- क्तस्व के निश्चय की अपेक्षा नही है । अतः लौकिक शब्दों से उत्पन्न होने वाले मन्वयबोष एवं वैदिक शब्दों से उत्पन्न होने वाले बोध, इन दोनों के उत्पादन की रीति में कोई भी अन्तर नहीं है ।
३५८ चेत् ? गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली अनाप्तोक्ती व्यभिचारदर्शनात् तुल्याऽपि सामग्री सन्देहेन शिथिलायत इति न, चक्षुरादौ व्यभिचारदर्शनेन शङ्कायामपि सत्यां ज्ञानसामग्रीतस्तदुत्पत्तिदर्शनात् । पू० प० अनाप्तोको यद्यपि लौकिक शब्द से होने वाले अन्वयबोध एवं वैदिक शब्द से होने वाले प्रन्वयबोष, इन दोनों की उत्पादक सामग्रियों में कोई भी अन्तर आपाततः ज्ञात नहीं होता है, फिर भी इतना अन्तर अवश्य है कि मनात पुरुष के द्वारा उच्चरित लोकिकवाक्य से शाब्दबोध नहीं होता है । इस व्यतिरेक व्यभिचार से निष्पन्न होता है कि वाक्य में प्राप्तोक्तरव निश्चय के नहीं रहने पर अथवा आप्तोक्तत्व के सन्देह के रहने पर भी उस वाक्य से निश्चय रूप शाब्दबोध की उत्पति नहीं होगी । जिस प्रकार किसी वृक्ष के ठूंठ ( स्थातु ) में ‘स्थातुर्वा पुरुष:’ इस प्रकार के सन्देह के रहने पर, उसमें चक्षुः संयोग के रहते हुये भी चक्षु रूप प्रत्यक्ष प्रमाण स्थारत्व या पुरुषत्व के निश्चय का उत्पादन नहीं कर सकता । उसी प्रकार जिस वाक्य में आसोक्तस्व का अथवा मनसोक्तत्व का संशय रहेगा, वह वाक्य निश्चय का उत्पादक नहीं हो सकता। लौकिक वाक्य में इस सन्देह का अवकाश रहता है, किन्तु वैदिकवाक्य में इस संशय का प्रवकाश नहीं रहता, अतः लौकिक वाक्य घटित सामग्री प्रमा के उत्पादन में ‘शिथिल’ पड़ जाती है । इस रीति से लौकिक शब्द से जिस प्रमाज्ञान की उत्पत्ति होगो, उसमें आमोक्तत्व के निश्चय की अपेक्षा अवश्य होगी । किन्तु वैदिकशब्द से जिस प्रमाज्ञान की उत्पत्ति होगी, उसमें आसोक्तस्व निश्चय की आवश्यकता किसी भी प्रकार नहीं होगी । लोकिक शाब्द से होने वाले अन्वयबोध एवं वैदिकशब्द से होने वाले अन्य बोत्र, इन दोनों को उत्पादक सामग्रियों में सर्वथा साम्य नहीं है । ( जिस वाक्य में आप्तोक्तत्व सन्धिग्ध है, उस वाक्य में यद्यपि अपने पथ के बोध’ को उत्पन्न करने की सामर्थ्य है, किन्तु स्वार्थ के ‘निश्चय’ को उत्पन्न करने की सामर्थ्य उसमें नहीं है । इस प्रकार प्रस्वय के निश्चयात्मक बोध की सामग्री में उक्त बोध में असमर्थ वाक्य का न रहना ही, उसकी ‘शिथिलता’ है ) । सि० प० न, चक्षुरादो … • ….. उक्त कथन उपयुक्त नहीं है, क्योंकि चक्षु से प्रमा एवं अप्रमा दोनों ही प्रकार के ज्ञान उत्पन्न होते हैं, इस प्रकार चक्षु में भी प्रमाज्ञान की कारणता सन्दिग्ध है। किन्तु इस प्रकार के सन्देह के रहते हुये भी चक्षु से निश्वयात्मक प्रमाज्ञान की उत्पत्ति होती है । एवं ‘प्रयं पुरुषो न वा’ इस आकार के संशय के रहते पुरुषत्व का निश्चय नहीं होता । भ्रतः यही
सत्त मान संशय संशय प्रति ही अ सामो पू० इससे की स उत्पा उत्पाद ज्ञात स्वज्ञा काउ है । भ रहने प रूप प्र रूप वा सकता i. स स उ स उ ज्ञ तृतीयः स्तबकः ३८६ ज्ञायमानस्यायं विधिर्यत्सन्देहे सति निश्चायकम्, यथा लिङ्गम्, चक्षुरादि तु सत्तयेति चेत् ? न, मानना पड़ेगा कि समानविषयक संशय ही समान विषयक निश्चय का विरोधी है, विभिन्नविषयक संशय विभिन्न विषयक निश्चय का विरोधी नहीं है। संशय से वाक्य धार्मिक आसोक्तत्व का निश्चय ही अतः वाक्य धार्मिक अशोक्तत्व विषयक प्रतिरुद्ध होगा, वाक्यार्थविषयक निश्चय प्रतिरुद्ध नहीं होगा । वाक्यार्थ विषयक निश्चय के लिये वाक्यार्थं विषयक ज्ञान सामान्य की सामग्री ही अपेक्षित है, विशेष इतना ही है कि उस सामग्री को वाक्यार्थ विषयक संशय की सामग्री का सामोप्य न रहे । केवल इतने से ही वाक्यार्थविषयक निश्चय हो जायगा । ’ पू० प० ज्ञायमानस्य 138 चाक्षुष प्रत्यक्ष रूप निश्चय ज्ञान सामान्य की सामग्री से भले ही उत्पन्न हो, किन्तु इससे यह समर्थित नहीं होता है कि वाक्यार्थविषयक निश्चय रूप शाब्दबोध भी ‘केवल शान की सामान्य सामग्री से ही उत्पन्न होता है । क्योंकि ज्ञान के ‘करण’ दो रीतियों से ज्ञान का उत्पादन करते हैं, एक स्वरूपतः दूसरा ज्ञात होकर । ज्ञात होकर लिङ्गादि करण ज्ञानों का उत्पादन करते हैं । चक्षुरादि अपनी सत्ता मात्र से ज्ञानों का उत्पादन करते हैं । जो ‘करण’ ज्ञात होकर ज्ञानों का उत्पादन करते हैं, उनमें लिङ्ग रूप ‘करण’ का यह स्वभाव है कि स्वज्ञाप्य साध्य के संशय के रहने पर ही वह उक्त ज्ञाप्य रूप साध्य के निश्चय रूप (अनुमिति ) का उत्पादन करता है । प्रत एव साध्य सन्देह के रहने पर ही साध्य की अनुमिति होती है । प्रत: ज्ञात होकर ज्ञान के उत्पादक ‘वाक्य’ रूप करण भी अपने अर्थ विषयक संशय के रहने पर ही वाक्यार्थ विषयक निश्चय का उत्पादक हो सकता है । मतः प्रत्यक्षात्मक निश्चय रूप प्रभा केवल ज्ञान सामान्य के उत्पादक सामग्री से भले ही उत्पन्न हो, किन्तु परोक्षज्ञान रूप वाक्यार्थविषयक निश्चय तो संशय की सामग्री से युक्त ज्ञान सामग्रो से ही उत्पन्न हो सकता है, केवल ज्ञानसामग्री से नहीं ।
- कहने का तात्पर्य है कि निश्वयश्व नाम की ज्ञानश्व की व्याध्य कोई जाति नहीं है । संशयान्यज्ञानत्व ही निश्चयत्व है । अतः ज्ञान की उत्पादिका जो सामग्री है, उसीसे संशय और निश्चय दोनों ही प्रकार के ज्ञानों की उत्पत्ति होती है । जिस समय उक्त ज्ञान सामग्री को संशय सामग्री का सामीप्य प्राप्त हो जाता है, तब उक्त ज्ञान सामग्री से संशयरूप ज्ञान की उत्पत्ति होती है । जिस समय ज्ञान की सामान्य सामग्री को संशयसामग्री का सांनिध्य नहीं प्राप्त होता है, उस समय ज्ञान की उक्त सामान्य सामग्री से ही जो ज्ञान उत्पन्न होगा, वह संशय रूप न होने के कारण ‘त्र्यंतः’ निश्चय रूप ही होगा । अतः ज्ञान को सामान्यसामग्री ही निश्चयात्मक ज्ञान का उत्पादक है । CCO. Vasishtha Tripathi Collection. Digitized by eGangotri३६० गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जलो वाक्यस्य निश्चितत्वात् । फलप्रमाण्यसन्देहस्य च फलोत्तरकालीनत्वात् । श्राप्तोक्तत्वस्य चार्थप्रत्ययं प्रत्यनङ्गत्वात् । ।
पाठ न ལ सि० प० न, वाक्यस्य यदि अनुमिति में … साध्यसाय को ( पक्षता विषया ) कारण मान भी लें, तथापि वाक्यार्थबोध के प्रति किसी संशय को कारण अवश्य मानें- ऐसो कोई राजाज्ञा नहीं है । प्रत। यदि अन्वय और व्यतिरेक के द्वारा किसी संशय में अन्वयबोध की कारणता गृहीत होगी, तभी वाक्यार्थ बोघ के प्रति संशय को कारण माना जा सकता है । इसके लिये पहिले यह विचार करना होगा कि किस संशय को वाक्यार्थबोध का कारण माना जाय । ( १ ) वाक्य के संशय को ? कि वा ( २ ) वाक्यार्थ धार्मिक प्रामाण्य संशय को । १) इन दोनों में पहिला पक्ष इस लिये असङ्गत है कि पहिले वाक्य का निश्चय अवश्य रहता है । अतः वाक्यार्थ बोध से कभो रह ही नहीं सकता । सुतराम वाक्यार्थबाध के साथ ‘अन्वय’ वाक्य के सशय को वाक्यार्थबोध का कारण नहीं माना जा सकता । फलप्रामाण्यसंशय I निर 一 लोके इस वेदव अन्व नि सभी वाक्यार्थ बोबों के पहिले वाक्य का संशय में प्राक्षे न रहने के कारण हो प्राप्त भव लो वेदा ( अ हैं, उन्हें न च अन्व -निश्च नहीं नि ( २ ) फलीभूत वाक्यार्थज्ञान धर्मिक प्रामाण्यसंशय को भी फलीभूत वाक्यार्थ बोध का कारण नहीं माना जा सकता, जिसलिये कि वाक्यार्थबोध के पहिले उसका रहना भी संभव नहीं है । क्योंकि वाक्यार्थबोध में जो प्रामाण्य का संशय उत्पन्न होगा, उस संशय में धर्मज्ञान विषया वाक्यार्थबोध स्वयं कारण है । अतः वाक्यार्थबोध से पहिले वाक्यार्थबोध धार्मिक प्रामाण्य संशय भा नहीं रह सकता । अतः ‘अन्वय’ के प्रभाव से ही उक्त प्रामाण्य सशय में भी वाक्यार्थ बाघ की करणता नहीं मानी जा सकती । श्राप्तो कत्वस्य … … ( वस्तुत: ‘लोके वक्तुः’ इत्यादि सन्दर्भ के द्वारा जो लोकिक वाक्य से उत्पन्न होनेवाले बोध में वक्तृ धार्मिक तत्व प्रकारक निश्चय को कारण मानने का उत्थान किया गया है, वही प्रसङ्गत है, क्योंकि ) वाक्य धार्मिक प्राप्तोक्तत्व का निश्चय वाक्यार्थबोध का कारण है ही नहीं, क्योंकि अर्थबोध के साथ वक्तृ धार्मिक आप्तत्व निश्चय का जो प्रन्वय- व्यतिरेक है. उसी के द्वारा वाक्य धार्मिक आप्तोक्तत्व का निश्चय वाक्यार्थबोध का कारण हो सकता है। यदि वक्ता में आतोक्तत्व निश्चय में ही अन्वयबोध का अन्वयव्यक्तितिरेक नहीं रहेगा, तो फिर वाक्य में आसोक्तत्व का निश्चय वाक्यार्थबोध का कारण कैसे होगा ? क्योंकि प्राभाकरों के मत से वक्ता में आप्तत्व निश्चय के न रहने पर भी अथवा ‘वेदवाक्य में प्राप्तोक्तत्व का निश्चय न रहने पर भी वेद वाक्य से शाब्दबोध होता है ।
पू० जिस कार (अ तृतीयः स्तवकः ३९१ लॊकेऽपि चाप्तत्वानिश्चयेऽपि वाक्यार्थप्रतीतेः । भवति हि वेदानुकारेण पाठ्यमानेषु मन्वादिवाक्येषु अपौरुषेयत्वाभिमानिनो गौडमीमांसकस्यार्थंनिश्चयः । न चासौ भ्रान्ति:, पौरुषेयत्वनिश्चयदशायामपि तथा निश्चयादिति । स्यादेतत् । नाऽऽप्तोक्तत्वमर्थं प्रतीतेरङ्गमिति ब्रूमः । किन्त्वनाप्तोक्तत्वशङ्का- निरासः । स च क्वचिदपौरुषेयत्वनिश्चयात् क्वचिदाप्तोक्तत्वावधारणादिति चेत्; लोकेऽपि … वेदों का ( इस प्रसङ्ग में प्राभाकर कह सकते हैं कि कोई प्रादि कर्ता नहीं है, इसलिये वेदवाक्य से जो अन्वयबोध होगा, उसमें वक्ता के आप्तस्व का निश्चय प्रथवा वेदवाक्य में प्राप्तोक्तत्व का निश्चय भले ही अपेक्षित न हो, किन्तु लौकिक्वाक्य से जो अन्वयबोध होगा, उसके लिये वक्ता में आप्तत्व का निश्चय एवं वाक्य में आप्तोक्तत्व का निश्चय अवश्य ही अपेक्षित है, क्योंकि वक्ता में अनाप्तत्व निश्चय के रहने पर अथवा वाक्य में अनाप्तोक्तत्व निश्चय के रहने पर लौकिक वाक्य से शाब्दबोध नहीं होता है । इस आक्षेप का यह समाधान है कि ) वक्ता में आतत्व निश्चय के न रहने पर भी प्राप्तोक्तत्व निश्चय के न रहने पर भी लौकिक वाक्य से अन्वयबोध होता है । भवति हि अथवा वाक्य में जैसे - ‘गौड़ मीमांसक’ (पञ्जिकाकार थालिकनाथमिश्र ) को मनु प्रभुति के उन लोकिक वाक्यों से भी शाब्दबोध होता है, जिन मन्वादि वाक्यों को किसी के द्वारा वेदानुरूप स्वर में पढ़ देने के कारण ही उन लोगों को अपौरुषेयत्व का ‘अभिमान’ होता है । ( अर्थात् वैदिक स्वरों में पढ़े गये मनुस्मृति के वाक्यों को वेद समझकर वे अपौरुषेय ही समझते हैं, प्रत: उसके वक्ता में आप्तत्व का निश्चय अथवा उन वाक्यों में प्राप्तोक्तत्व का निश्चय उन्हें हो ही नहीं सकता ) । न चासो ( इस पर कहा जा सकता है कि गौड़मीमांसक का मन्वादि वाक्यों से उत्पन्न उक्त अन्वयबोध भ्रान्ति रूप है। मैंने प्रमा रूप अन्वयबोध में ही प्राप्तत्वनिश्वय अथवा आसोक्तत्व निश्चय को कारण कहा है, अतः उक्त आपत्ति ठीक नहीं है, किन्तु यह कहना भी उचित नहीं है, क्योंकि मन्वादि के उन वाक्यों में पोरुषेयत्व के निश्चय ( मन्वादि प्रणीतत्व विषयक निश्चय ) के बाद भी उन मन्वादि वाक्यों से होनेवाले बोष उसी प्रकार के होते हैं । पू० प० स्यादेतत्, नाप्तोकत्वम् ( यह नियम है कि जिसका संशय अथवा जिसके अभाव ( व्यतिरेक ) का निश्वय जिस (ज्ञान ) का प्रतिबन्धक होगा, उस विषय का निश्चय उस प्रतिबध्य रूप ज्ञान का कारण होगा। जैसे कि अव्यभिचार ( व्याप्ति) का संशय एवं व्याप्ति के व्यतिरेक ( अर्थात् व्यभिचार ) का निश्चय अनुमिति का प्रतिबन्धक है, अतः प्रव्यभिचार रूप व्याप्ति
३६२ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली . तत्किमपौरुषेयत्वस्याप्रतीतौ सन्देहे वा वेदवाक्याद्विदितपदार्थसङ्गतेरर्थप्रत्यय एव न भवेत्; भवनपि वा न श्रद्ध ेय : ? । प्रथमे सत्यादय एव प्रमाणम् । का निश्चय अनुमिति का कारण है। तदनुसार ही आप्तोक्तत्व का निश्चय वाक्यार्थ बोध का कारण है । क्योंकि आप्तोक्तत्व के संशय और आतोक्तत्व के व्यतिरेक स्वरूप अनाप्तोक्तत्व के निश्चय के बाद अन्वय बोध नहीं होता है । यदि आग्रहवश प्राप्तोक्तत्व के निश्चय को वाक्यार्थं का कारण न भी मानें, तथापि अनातोक्तत्व के संशय को वाक्यार्थ बोध का प्रतिबन्धक मानना ही होगा । किन्तु वेद तो अपौरुषेय है । अतः वेदों में मपीरुषेयत्व के निर्णय के रहने पर वेदों में न प्राप्तोक्तत्व की प्रतीति होगी, न अनातोक्तत्व की ही प्रतीति होगी । मतः वेदों में अनाप्तोक्तत्व शङ्का का निवारण अपौरुषेयत्व के निर्णय से ही होगा, प्राप्तोक्तत्व के निश्चय से नहीं । किन्तु लौकिक शब्द तो अपौरुषेय नहीं है । अतः उनमें अनातोक्तत्व शङ्का का निरास प्राप्तोक्तत्व के निश्चय से ही हो सकता है । इस प्रकार लौकिक वाक्य से उत्पन्न होनेवाले अन्वयबोध में वाक्य धर्मिक आमोक्तत्व का निश्चय भवश्य ही आपेक्षित है । पू० प० तत्किम् .. । उपर्युक्त कथन से वेदों के प्रसङ्ग में ये दो बातें उपस्थित होतीं हैं - ( १ ) वेदवाक्यों से उत्पन्न होनेवाले अन्वयबोध में वेदवाक्य धर्मिक अपौरुषेयत्व का निश्चय कारण है । एतदनुसार जिस पुरुष को वेदवाक्य में अपौरुषेयत्व का निश्चय नहीं है, उस पुरुष को वेदवाक्य में प्रयुक्त पदों के संतज्ञानादि के रहते हुये भी वेदवाक्य से अन्वयबोध नहीं होगा । (२) अथवा जिस पुरुष को वेद में छपीरुषेयत्व का निश्चय नहीं है, उस पुरुष को वेदवाक्य के पदों की शक्ति ज्ञान प्रभूति कारणों के बल से यदि वेदार्थं विषयक शाब्दबोष होगा मी तो वह बोध ‘अश्रद्धेय’ होगा, अर्थात् अप्रामाण्य ज्ञान से ग्रसित ( अप्रामाण्याज्ञाना- स्कन्दित) होगा । प्रथमे … … … … उन दोनों में प्रथम पक्ष इस लिये ठीक नहीं है कि जिस व्यक्ति को वेद में अपौरुषेयत्व का निश्चय नहीं है, उस पुरुष को भी ‘सत्यादि’ पद घटित ‘सत्यज्ञानमानन्दं ब्रह्म’ इत्यादि वाक्यों से अन्वयबोध होता है । अतः वेदवाक्य से होनेवाले अन्वयबोध में वेदवाक्य ’ धार्मिक अपौरुषेयत्व का निश्चय कारण नहीं है । १. प्रकृत सन्दर्भ में जो ‘सत्यादया’ एव प्रमाणम्, यह वाक्य है, उसका विवरण इस प्रकार जानना चाहिये :- वेद धार्मिक निश्चयाभाववतोऽपि पुरुषस्य सथ्यादिपद- घटिस वेदवाक्य जन्य शाब्दबोध एव वेदार्थबोधस्प्रति वेदधार्मिका पौरुषेयत्व निश्वयस्या तत् स्य འ | སྐྱུ पू० अथ निश्र उन होत होत श्रसं सि साम कल्प पदा फिर सर्वत्र द्विती का प्रका होग प्रमा होग का
तृतीयः स्तबक ३९३ न चासंसर्गाग्रहे तदानीं संसर्गव्यवहारः, बाधकस्यात्यन्तमभावात्, तथापि तत्कल्पनायामन्वयोच्छेदप्रसङ्गात् । द्वितीये त्वश्रद्धा प्रत्यक्षवन्निमित्तान्तरान्निवर्त्स्यतीति वेदे यदि, लोकेऽपि तथा स्यादविशेषात् । अन्यथा वेदस्याप्यनुवादकताप्रसङ्गः । पू० प० न चासंसर्गाग्रहे 1
पदार्थों के परस्पर संसर्गी का बोध ही अन्वयबोध है । वेदवाक्य में प्रयुक्त पदों के अर्थों का परस्पर संसर्ग का बोध वेदों में अपीरुषेयस्व के निश्चय से ही होता है । अतः उक्त निश्चय से रहित पुरुष को सत्यादि पद घटित सत्यं ज्ञानमानन्दं ब्रह्म’ इत्यादि वेद वाक्यों से उन वाक्यों में प्रयुक्त पदों के अर्थों में परस्पर संसर्ग के अभाव ( असंसर्ग ) का अग्रह मात्र होता है । इस प्रससर्गाग्रह में ही ( उक्त स्थलों में ) पदार्थों के ससंगबोध का व्यवहार होता है | अतः ‘सत्यादय एव प्रमाणम्’ इससे जो प्रमाण दिखलाया गया है, वह असंगत है । सि० प० बाधकस्यात्यन्तम् जहाँ पदार्थों के संसर्गग्रह का कोई बाधक रहता है, एवं संसर्गाभाव को ग्राहिका सामग्री नहीं रहती है, अथवा पदार्थों की उपस्थिति रहती है, तो अगत्या ‘असंसर्गाग्रह’ की कल्पना करनी पड़ती है । प्रकृत में पदार्थों के संसर्गबोध का कोई बाधक नहीं है । यदि पदार्थों के संसर्ग विषयक बोध के बाधक के न रहने पर भी प्रसंसर्गाग्रह ही माना जाय तो फिर सर्वत्र संसर्गबोध रूप अन्वयबोध का उच्छेद ही हो जायगा । क्योंकि तुल्यन्याय से सर्वत्र प्रसंसर्गाग्रह ही मानना होगा । द्वितीये तु 300 वेदस्याप्यनुवादकताप्रसङ्गः । कथित द्वितीयपक्ष इसलिये प्रयुक्त है कि जिस प्रकार प्रत्यक्षज्ञान में अप्रामाण्यशङ्का का निवारण प्रामाण्य के ज्ञापक संवादिप्रवृत्तिजनकत्वादि लिङ्गक अनुमान से होता है, उसी प्रकार वेदापौरुषेयत्वनिश्चयशून्य पुरुष में वाक्यार्थ का जो प्रप्रामाण्यशङ्कास्कन्दित बोध होगा, उस बोध धर्मिक प्रप्रामाण्यशङ्का की निवृत्ति भी प्रामाण्य के ज्ञापक किसी दूसरे प्रमाण से हो जायगी । अतः यदि उक्त पुरुष का वाक्यार्थबोध अप्रामाण्यज्ञानास्कन्दित भी होगा, तो भी कोई क्षति नहीं है। सुतराम् वेदापौरुषेयत्व का निश्चय वेद जनित वाक्यार्थबोष का कारण नहीं है । करणत्वे ‘प्रमाणम्’ । अर्थात् जिस पुरुष को बेधार्मिक अपौरुषेयत्व का निश्चय नहीं है, उस पुरुष को भी ‘सत्यज्ञानमान्दनन्दं ब्रह्म’ इत्यादि वाक्यों से अन्वयबोध का होना ही वेदापौरुषेयत्वनिश्चय में वेदवाक्यजन्यशाब्दबोध के अकारणश्व का ज्ञापक प्रमाण हैं । ५०
गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली ३९४ तदुच्यते व्यस्त पुं दूषरणाशंकंः स्मारितत्वात्पदैरमी । श्रन्विता इति निरपते वेदस्यापि न तत्कुतः ॥ १५॥ यदा ह्यपरुषेयत्वनिश्चयात् प्राक् वेदो न किञ्चिदभिधत्ते इति पक्षः, तदाऽऽप्तो तत्व निश्चयोत्तरकालं लोकवत् वेदेऽप्यपौरुषेयत्व निश्चयात् पश्चादनुमाना- वतारः । इयांस्तु विशेषो यदत्र’ पदार्थानेव पक्षीकृत्य निरस्तपु दोषाशंकैराकांक्षादि- मद्भिः पदैः स्मारितत्वादाप्तोक्त पदकदम्बकस्मारितपदार्थवत् संसर्ग एवाहत्य साध्यो बुद्धिव्यवहितस्त्वितरत्रेति फलतो न कश्चिद्विशेष इति । तदुच्यते … व्यस्तपु दूषरणाशङ्कः … … .. इसलिये मैं कहता हूँ कि यदि वेद धर्मिक प्रपौरुषेयत्व निश्चय के रहने पर ही वेदार्थ का बोष हो, तो वेद भी ‘अनुवादक’ (ज्ञातज्ञापक) होने के कारण अप्रमाण हो जायगे । क्योंकि इस स्थिति में यह अनुमान हो सकता है कि ‘वेदवाक्य में प्रयुक्त इन पदों के द्वारा उपस्थित ये सभी अर्थ परस्पर संसर्ग से युक्त है, क्योंकि इन की उपस्थिति उन पदों से हुई है, जो भ्रमादिदोषों से युक्त पुरुष के द्वारा प्रणीत न होते हुए आकांक्षादि से भी युक्त हैं ( तदेते पदार्था । मिथः संसृष्टाः दोषवत्पुरुषाप्रणीताकांक्षा दिमत् पदस्मारितत्वात् ) । सि० प० यदा हि … ०० यदि वेदों में अपीरुषेयत्व निश्चय के बाद ही उनसे अन्वयबोध हो तो फिर लौकिक शब्दों के समान ही वेदों में भी अनुवादकता अनिवार्य है । क्योंकि जिस प्रकार लौकिक शब्द से उस में आप्तोक्तत्व निश्चय के होने तक कोई अन्वयबोध नहीं होता है, एवं प्राप्तोक्तत्व- निश्चय के बाद अनुमान के द्वारा प्रत्वयबोष होता है, उसी प्रकार की स्थिति वेदों में भी है, क्योंदि वेदों में अपौरुषेयत्वनिश्चय तक उनसे कोई अन्वयबोध नहीं होता है, एवं वेदों में अपौरुषेयत्वनिश्चय के हो जाने से उनसे अन्वयबोध होता है, तो फिर यह प्रन्वयबोध भी उक्तरीति से अनुमिति रूप ही है । अन्तर केवल इतना ही है कि लौकिकवाक्य से जो अन्वयबोध रूप अनुमिति होती है, उस में पदार्थों का संसर्ग वक्ता की बुद्धि में विशेषण रूप से भासित होता है । अर्थात् १. इस सन्दर्भ का ‘अ’ पद का अर्थ है “वैदिक शब्द जम्यानुमितौ । एवं ‘इतरत्र’ शब्द का अर्थ है ‘लौकिकशब्दजन्यानुमितौ’ । ‘चाहत्य’ शब्द का अर्थ है ‘साचात्’ एवं ‘बुद्धिग्यवहितः’ का अर्थ है वक्त बुद्धि विशेषण तथा अनुमितिविषयः’ तदनुसार ही उक कमायया लिखी गई है। सति परि नुवा इस भासि के स श्रतः मासि अनुप लौकि है | हो स पक्ष कोई तथा लेने प न च की स की क ‘प्रन्वित हो जा जाती ही अन की उ अतः
तृतीयः स्तबक ३६५ तथा चान्विताभिधानेऽपि जघन्यत्वाद्वेदस्यानुवादकत्वप्रसङ्गः । न चैवं सति तत्र प्रमाणमस्ति । विशिष्टप्रतिपत्त्यन्यथानुपपत्त्या हि शब्दस्य तत्र शक्तिः परिकल्पनीया । सा चानुमानेनैवोपन्नेति वृथा प्रयासः । तस्माल्लोके शब्दस्या- नुवादकतेति विपरीतकल्पनेयमायुष्मताम् । इस अनुमान में पदार्थों का संसर्ग साध्य के विशेषण ( साध्यतावच्छेदक विषया) रूप से भासित होता है । किन्तु वैदिकवाक्य से जो अन्वयबोध रूप अनुमिति होगी, उस में पदार्थों के संसर्ग का इस रूप में भान संभव नहीं है, क्योंकि उसका कोई प्रादिवक्ता पुरुष नहीं है । श्रतः इस अनुमिति में पदार्थ रूप पक्ष में पदार्थों का संसर्ग साक्षात् साध्य रूप में ही भासित होता है । इस प्रकार दोनों में स्वरूपतः समानता के न रहने पर भी ‘लोकिकवत्’ यह दृष्टान्त अनुपपन्न नहीं है, क्योंकि - ‘फलतः ’ इन दोनों अनुमानों में कोई अन्तर नहीं है। क्योंकि - लौकिक शब्द के दृष्टान्त से वैदिक शब्दों में अनुवादकत्व की आपत्ति ही है । इस उद्देश्य की पूर्ति पदार्थरूप पक्ष में हो सकती है, एवं परम्परया विशेषण रूप से पक्ष का सर्वांश में सादृश्य न रहने पर भी कोई अनुपपत्ति नहीं है । तथा च – पदार्थससर्ग रूप विधेय भासित होने पर भी हो अनुमिति में कोई बाधा के प्रकृतग्रन्थ का उद्देश्य साक्षात् बोध से भी सकती है । दृष्टान्त में नहीं आती है । अतः इस प्रकार वैदिक पदों के अर्थों में परस्पर संसर्ग का बोध अनुमान प्रमाण से मान लेने पर ‘अन्विताभिधान’ पक्ष में भी वेदों में अनुवादकता अनिवार्य होगी । न चैवम् सि ’ एवं सति’ इस प्रकार की स्थिति में ‘अर्थात् पदार्थ संसर्ग रूप अन्वय के बोध की सम्भावना अनुमान प्रमाण से ही होने पर’ ‘अन्वयविशिष्ट अर्थ’ में शब्द की प्रभिधावृत्ति की कल्पना निरर्थक है । क्योंकि प्रन्वय से युक्त पर्थ के बोध की अनुपपत्ति से ही उक्त ‘प्रन्विताभिधानपक्ष’ स्वीकार किया जाता है, किन्तु यह कार्य जब अनुमान प्रमाण से हो हो जायगा, तो ‘अन्वित’ अर्थ में शब्द की प्रभिषावृत्ति मानने की कोई आवश्यकता नहीं रह जाती है । तस्मात् आकांक्षादि घटित कारणों के समूह ( सामग्री ) के द्वारा शब्द प्रमाण से ही अन्वयबोष की उत्पत्ति ही पहिले सम्भव है । व्याप्ति स्मृति सापेक्ष होने के कारण धनुमिति की उत्पत्ति चूंकि देर से होगी, प्रतः ‘लिङ्ग’ भर्थात् अनुमान प्रमाण ही अनुवादक है । अतः प्राभाकरों का यह कहना निरर्थक है कि ‘लौकिकशब्द’ अनुवादक होने से प्रमाण नहीं हैं ।
३६६ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली किं चेदमन्विताभिधानं नाम ? । न तावदन्वितप्रतिपादनमात्रम्, अविवादात् । नापि स्वार्थाभिधायास्तत्र तात्पर्यम्, श्रविवादादेव । नापि सङ्गतिबलेन तत्प्रतिपादनम् वाक्यार्थस्यापूर्वत्वात् । किच ेदम् … … … … दूसरी बात यह है कि यह ‘अन्विताभिधान’ है क्या वस्तु ? ( १ ) यदि ‘अम्वितस्य अभिधानन्’ इस व्युत्पत्ति के अनुसार अम्वित अर्थ का प्रतिपादन हो ‘प्रम्बिताभिघान’ हो तो फिर सिद्धसाधन दोष होगा, क्योंकि इस में किसी को भी ( अन्विताभिधानवादियों के विरोधी अभिहितान्वयवादियों को भी) इस में कोई विवाद नहीं है, क्योंकि वे लोग भी प्रत्येक पद की शक्ति को इतरान्वयबोध का कारण मानते ही हैं। फिर भी ‘इतरान्वितधर्थं ’ में पद की प्रभिघा’ वृत्ति नहीं मानते । नापि स्वार्थाभिधायाः (२) ( कोई कहते हैं कि ) पद की अभिधा वृत्ति तो केवल अर्थ में ही है, किन्तु उससे भी केवल अर्थ का बोध नहीं होता है । उस अभिधा वृत्ति से भी ‘इतरान्वित अर्थ’ का ही बोध होता है । अतः उस अभिधावृत्ति में इतरान्वित अर्थ के बोध की जनकता मानना आवश्यक है । इस ‘इतरान्वितबोधजनकत्व’ को ही ‘प्रन्विताभिधान’ कहते हैं । किन्तु इस प्रकार के अन्विताभिधान को स्वीकार करने में अभिहितान्वयवादी नैयायिकों को भी कोई बाधा नहीं हैं। इस प्रकार का ‘अन्विताभिधानवाद’ इनको भी अभिप्रेत हो है । प्रतः इस पक्ष में भी सिद्धसाधन दोष समझना चाहिये । नापि सङ्गतिबलेन FOO (३) कोई कहते हैं कि ‘सङ्गति’ के बल से प्रर्थात् अभिधा वृत्ति के बल से अन्वित अर्थ का पदिपादन ही ‘प्रन्विताभिधान’ है । पद से जो इतरान्वित अर्थ का बोध होता है, उसका व्यापार अभिषा वृति ही है । प्रभिहितान्वयवादी नैयायिकादि वाक्यार्थ बोष में प्रत्येक पद की शक्ति को कारण तो मानते हैं, किन्तु इतरान्वितार्थनिरूपित शक्ति रूप व्यापार के द्वारा शक्ति को कारण नहीं मानते । अतः इस पक्ष में सिद्धसाधन दोष नहीं है । किन्तु यह पक्ष भी ठीक नहीं है, क्योंकि वाक्यार्थ ‘अपूर्व’ है । अर्थात् वाक्यार्थं का बोध मुख्य शाब्दबोध से पहिले नहीं होता है । ‘अनन्यलभ्यो हि शब्दार्थ’ इस सिद्धान्त को सभी शब्दप्रामाण्यवादी स्वीकार करते हैं । यदि इतरान्वित स्वार्थ में पद की शक्ति मानेंगे तो मुख्य शाब्दबोध से पहिले उक्त शक्तिज्ञान के द्वारा इतरान्वितस्वार्थ की स्मृति रूप उपस्थिति अवश्य माननी होगी । क्योंकि पद के द्वारा वृतिज्ञानाघीन पदार्थ की उपस्थिति शाब्दबोध का कारण है । अतः इतरान्वितस्वार्थ की स्मृति इतरान्वितस्वार्थ के शाब्दबोध रुभ शून्य का स्वाध भी ध नावि किन्तु पद भिघा तस्य ‘अर्थ’ उससे नापि केवल इस प के लि बाघा निष्ठ साथ ह दोनों नियमन इस क्र अनुपप स्वीका बोध ह
तृतीयः स्तबक ३६० नापि स्वार्थसङ्गतिबलेन, तस्य स्वार्थं एवोपक्षयात् । नापि सैव सङ्गति- रुभयप्रतिपादिका, प्रतीतिक्रमानुपपत्तेः । यौगपद्याभ्युपगमे तु योग्यत्वादिप्रतिसन्धान शून्यस्यापि पदार्थंप्रत्ययवत् वाक्यार्थप्रत्ययप्रसङ्गात् । का कारण प्रवश्य होगा । इसलिये अग्रिम मुख्य शाब्दबोध के समय से पहिले ही इतरान्वित स्वार्थ रूप वाक्यार्थ ज्ञात हो जायेगा । अतः वाक्यार्थ ‘अपूर्व’ नहीं रहेगा । इसलिये यह पक्ष भी प्रसङ्गत है । नापि सङ्गति बलेन 800 14. (४) कोई कहते हैं कि पद की ‘सङ्गति’ प्रर्यात् शक्ति तो उसके अर्थ में ही है, किन्तु पद निष्ठ उस ‘शक्ति’ से ही वाक्यार्थ का भी ‘अभिधान’ अर्थात् प्रतिपादन होता है । पद निष्ठ शक्ति में ‘अन्वित’ के ( अर्थात् वाक्यार्थ ) बोध की यह कारणता ही ‘मन्विता- मिघानवाद’ है । तस्य … किन्तु यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि पद में जो अर्थ ज्ञापन की शक्ति है, उससे केवल ‘अर्थ’ की ही उपस्थिति हो सकती है, पदार्थ से अन्वित अर्थ की ( वाक्यार्थ की ) उपस्थिति उससे नहीं हो सकती है । नापि सेव …. ५) अम्विताभिधान की व्याख्या कोई इस प्रकार करते हैं कि पद की शक्ति तो केवल स्वार्थ में ही है, वही शक्ति पदार्थबोध एवं वाक्यार्थबोध दोनों की उत्पादिका है । इस पक्ष में पद से होनेवाली पदार्थोपस्थिति ही वाक्यार्थवोष का भी कारण है । वाक्यार्थबोध के लिये वाक्यार्थ की उपस्थिति आवश्यक नहीं है । अतः ‘वाक्यार्थ’ के ‘प्रपूर्वत्व’ में कोई बाघा नहीं है । किन्तु यह पक्ष भी युक्त नहीं है, क्योंकि प्रश्न यह होगा कि पद की केवल पदार्थ निष्ठ शक्ति से पदार्थों के बोध एवं वाक्यार्थ का बोध ये दोनों क्रमशः उत्पन्न होंगे ? अथवा साथ ही उत्पन्न होंगे ? दोनों की उत्पत्ति क्रमशः तो हो नहीं सकती, क्योंकि उक्त शक्ति में जब दोनों बोघों की कारणता समानरूप से है, तो उनमें से कौन पहिले ? एवं कौन पीछे ? इसका नियमन कौन करेगा ? किन्तु शक्ति के द्वारा पहिले पदार्थों का ज्ञान, वाद में वाक्यार्थ का ज्ञान, इस क्रम को सभी स्वीकार करते हैं, इस प्रकार दोनों का युगपत् बोध मानने से यह क्रम अनुपपन्न हो जायगा । उत्पत्ति एक ही समय द्वारा जो पथार्थों का यदि सर्वानुभव का तिरस्कार कर हठपूर्वक दोनों बोधों की स्त्रीकार भी कर लें, तथापि निस्तार नहीं है, क्योंकि शक्तिज्ञान के बोध होता है, उसमें योग्यता आदि का अनुसन्धान अपेक्षित नहीं होता । किन्तु उसी शक्ति-
३६८ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली नापि सैव सङ्गतिः स्वार्थे निरपेक्षा, वाक्यार्थे तु परार्थप्रतिपादना- ऽवान्तरव्यापारेति युक्तम्, तस्याः स्वयमकररणत्वात् । सङ्गतानि पदानि हि करणम्, न तु सङ्गतिः । तथापि तत्प्रतिपादनानुगुरणसङ्गतिशालीनि पदानीति चेत्; ज्ञान से जो वाक्यार्थ का होती है। ऐसी स्थिति में को योग्यता प्रभृति का अनुसन्धान नहीं है, उसको वाक्पार्थ का भी बोध मानना होगा । यदि वाक्यार्थ बोध के क्षण में ही पदार्थों का भी बोध मानेंगे, तो जिस पुरुष को शक्ति ज्ञान तो है, किन्तु योग्यतादि का प्रतिसन्धान नहीं है, ऐसे पुरुष को जो पदार्थों का बोध होता है, वह न हो सकेगा । अतः यह पक्ष भी ठीक नहीं है । बोध होता है, उसमें योग्यता आदि के अनुसन्धान की अपेक्षा यदि पदार्थबोध के क्षण में वाक्यार्थ बोष मानेंगे तो जिस पुरुष ६. सेव …… स्वार्थे निरपेक्षा … … कुछ लोग अन्विताभिवान की व्याख्या इस प्रकार करते हैं कि पद में जो अर्थ को समझाने की शक्ति है, वह स्वतन्त्र होकर अपने अर्थ के अनुभव का करण नहीं है, किन्तु पदार्थोंपस्थिति के द्वारा ही वाक्यार्थबोध का ( अन्वयबोध का ) ‘करण’ है । अतः प६ निष्ठा अभिषा वृत्ति के द्वारा पदार्थ की उपस्थिति हो उक्त अभिषावृत्ति रूप करण का व्यापार है । अन्वितार्थ प्रतिपत्ति रूप अन्वयबोध के प्रति पद निष्ठ शक्ति में उक्त करणता हो ‘अन्विताभिधान शब्द का अर्थ है । किन्तु यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि अभिषा रूप शक्ति स्वयं अन्यबोध का करण नहीं है, किन्तु शक्ति से युक्त पद ही उक्त अन्वयबोध के करण हैं । पू० प० तथापि मान लिया कि पद ही अन्वय बोध के करण हैं, किन्तु प्रन्वयबोध के अनुकूल शक्ति से युक्त पद ही अन्वय बोध के करण है । केवल पद तो करण नहीं है । अतः करण के कुक्षि में ‘शक्ति’ भी प्रविष्ट है । शक्ति विशिष्ट पद रूप करण में यदि व्यापार का सम्बन्ध है, तो सम्बन्ध है ही । एवं विशिष्ट में यदि करणता व्यापार के साथ कारणता ही ‘करणता’ है । फिर विशेषणी भूत शक्ति में भी व्यापार का है, तो विशेषण में भी करणता अवश्य है । यदि व्यक्ति में उक्त रीति से व्यापार भी हैं, एवं करणता भी है, तो शक्ति भी करण प्रवश्य है । अतः अन्विताभिधान के उक्त लक्षण में शक्ति में करणता के न रहने से जो दोष दिया गया है, वह नहीं है। तस्मात् पद निष्ठ शक्ति, में जो वाक्यार्थ में ‘भन्वितार्थ के प्रदिपादन की अनुकूलता (अनिगुष्य) है, वही है ‘अम्विताभिधान ।’ गोच दित्यु सि० अन्वित उस कोई भिधान ही ’ की उ न ता बोध क है कि को ही नहीं क रहने व एतत् पद ( वाक्य प्रतिपत्ति नापि कारण संभव न कथित तदनुगुर हम लोग फलत:
तृतीय स्तबक! न तावद्वाक्यार्थप्रतिपादनानुगुणता संगतेस्तदाश्रयत्वेन, सामान्यमात्र- गोचरत्वात्, तद्वन्मात्रगोचरत्वाद्वा । नाऽपि तदनुगुरणव्यापारवत्त्वेन, अकरणत्वा- दित्युक्तम् । तदनुगुरणकररणव्यापारोत्थापकत्वात्तदनुगुणत्वे न नो विवादः । सि० प० न तावत् किन्तु यह षष्ठ पक्ष भी ठीक नहीं हैं, क्योंकि इस पक्षमें पद में रहने वाली शक्ति के अन्वितार्थ प्रतिपत्ति के जिस आनुकूल्य ( आनुगुण्य ) को ‘अन्विताभिधान’ कहा गया है, उस ‘आनुगुण्य’ या ‘आनुकूल्य’ का (अन्विताभिधान का ) निम्नलिखित तीन लक्षणों में से ही कोई लक्षण हो सकता है । - ( १ ) पद निष्ठ शक्ति में अन्वित अर्थ के बोध को साक्षात् करणता ही ‘मन्विता- भिधान’ है ( २ ) अथवा पद निष्ठ व्यक्ति में अन्वितार्थ बोध के अनुकूल व्यावापार का रहना ही ‘अन्विताभिधान’ है । ( ३ ) वाक्यार्थ (अन्वितार्थ) प्रतिपत्ति के अनुकूल जो पदार्थ की उपस्थिति है, पद निष्ठ शक्ति में उसका कारणत्व ही ‘अन्विताभिधान’ है । न तावत् इन में ( १ ) प्रथम पक्ष इस लिये प्रयुक्त है कि शक्ति अपने ज्ञान में भसित होने वाले बोघ का ही कारण हो सकता है । इस प्रसङ्ग में नैयायिक और मीमांसकों में इतना ही अंतर कि नैयायिक पद का अर्थं जात्याश्रय व्यक्ति को मानते हैं, एवं मीमांसक जाति को ही पद का अर्थ मानते हैं । इन दोनों में से कोई भी वाक्यार्थ में पद की व्यक्ति को स्वीकार नहीं करते । घटपद की शक्ति से घट का बोध ही होता है, पट का नहीं । अतः पद में रहने वाली शक्ति के ज्ञान का आकार है ‘प्रयमर्थ एतत् पद वाच्यः’ । अयं वाक्यार्थ | एतत्पद पदवाच्यः’ पद निष्ठ शक्ति ज्ञान का यह प्राकार नहीं है । इसलिये अन्वितार्थ ( वाक्यार्थ ) पद निष्ठ शक्ति का अपना विषय ही नहीं है, अतः पद निष्ठ शक्ति अन्वितार्थ प्रतिपत्ति का साक्षात्कारण नहीं हो सकता । नापि तदनुगुरण 6309 २) उपपादन कर चुके हैं कि पद निष्ठ शक्ति वाक्यार्थ ( अन्वितार्थ ) बोध का कारण नहीं है, अतः पद निष्ठा अभिषा वृत्ति में वाक्यार्थ प्रतिपत्ति के अनुकूल व्यापार का रहना संभव नहीं है, क्योंकि जो जिसका करण होता है, उसी में तदनुकूल व्यापार रहता है । प्रत। कथित द्वितीय विकल्प भीं ठीक नहीं है । तदनुगुणकररण अर्थात् उक्त तृतीयपक्ष अभिहितान्वयवादी नैयायिकों को भी इष्ट ही है । क्योंकि हम लोग भी ‘शक्ति’ को ( ज्ञात होकर ) पदार्थों की उपस्थिति का कारण मानते ही हैं । फलत: इस प्रकार के अन्विताभिधान का साधन व्यर्थ है । CCO. Vasishtha Tripathi Collection. Digitized by eGangotri४०० गद्यपषात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली. अन्वित एवं शक्तिरिति चेत्; उक्तमत्र वावद्यार्थस्यापूर्वत्वात्, प्रतीतिक्रमानुपपत्तेश्चेति स्मृतक्रियान्विते कारके स्मृतकारकान्विततायाञ्च क्रियायां संगतिरतो नोक्तदोषावकाशः । नाऽपि पर्यायतापत्तिः, प्रधान्येन नियमात् । पू० प० अन्वित एव वृद्धव्यवहार ही शक्ति का मुख्य ज्ञापक ( ग्राहक ) है, वृद्ध व्यवहार से तो अन्वय- विशिष्ट (अन्वित ) अर्थ ही गृहीत होता है । अतः इतरान्वित अर्थ में ही पद की शक्ति है, केवल अर्थ में नहीं । सि० प० वाक्यार्थस्य ०• • पहिले ही कह चुके हैं किं अन्वित अर्थ में पद की शक्ति नहीं मानी जा सकती, क्योंकि इससे वाक्यार्थ की ‘अपूर्वता’ भङ्ग हो जायगी । एवं पदार्थं प्रतीति एवं वाक्यार्थ प्रतीति में जो आनुभविक क्रम है, वह अनुपपन्न हो जायगा । पृ० प० स्मृति क्रियान्विते किसी कारणं विशेष में किसी कारक विशेक का प्रन्वय रूप विशेष ही ‘अपूर्व’ है । इस प्रपूर्व रूप विशेष का बोध एवं पदार्थ का बोध इन दोनों का क्रमशः उत्पत्ति ही अनुभव से सिद्ध है, अतः कारक विशेष में अन्वित क्रिया विशेष में पद की शक्ति भले ही स्वीकृत न ही सके । क्योंकि ऐसा मानने पर हो कथित ‘अपूर्वताभङ्ग’ एवं दोनों बोधों के क्रमिकत्वं की अनुपपत्ति ये दोनों दोष होते हैं । किन्तु कारक में क्रिया अवश्य हो भन्वित होती है, एवं कारक भी क्रिया में अवश्य धम्वित होता है” इस प्रकार की सामान्य व्याप्ति से शक्ति का यह स्वरूप निष्पन्न होता है कि “घटपद क्रिया में अन्वित घट का ही वाचक है’ एवं ‘भवति पद भी किसी कारक में अन्वित क्रिया का ही वाचक है”। इस प्रकार के अन्विताभिधान को स्वीकार करने में कथित प्रपूर्वस्व की हानि, एवं कथित प्रतीतिक्रम की अनुपपत्ति रूप दोष, दोनों नहीं होते । अतः यही अन्विताभिधान की हम लोगों की परिभाषा है । नापि पर्यायतापत्ति (१) (अन्विताभिधान के इस लक्षण में कुछ लोग क्रियापद एवं कारकपद इन दोनों में पर्यायता की प्रापत्ति देते हैं। उन लोगों का कहना है कि कारदपद जब क्रिया के अन्वय से युक्त कारक का वाचक है, तो फिर क्रिया का भी वाचक है ही, एवं क्रियापद जब कारक से अन्वित क्रिया का वाचक है, तब क्रियापद भी कारक का वाचक है ही । इस प्रकार कारकपद एवं क्रिया दोनों ही चूकि एक अर्थ के वाचक हैं, अत: इन दोनों में पर्यायता ( एकार्थता) की प्रापत्ति होगी। किन्तु सो उचित नहीं है । किन्तु यह दोष भी देना संगत नहीं है, क्योंकि 1 ) प्राघा अत: किन्तु हैं, क्रियाप प्रधान दूसरे के नापि की प्रा होता है के उच्चा विशेष अथवा इन दोन हो सम्भ के प्रयोग प्रावश्यक नापीत दोष का के प्रति विशेषोप प्रति का
तृतीय स्तवक! ४०१ नापि पौनरुक्त्त्यम्, विशेषान्वये तात्पर्यात् । नापीतरेतराश्रयत्वम्, प्राधान्येन … शक्ति में विशेष्य रूप से जिसका मान होता है, वही पद का ‘प्रधान’ वाच्य है । अत: शक्ति में जो विशेषण विधया भासित होता है, वह भी यद्यपि पद का वाध्य अवश्य है, किन्तु प्रधानवाच्य नहीं है, किन्तु गौणवाच्य है । जिन दो पदों के प्रधान वाच्य एक होते हैं, वे ही दोनों पद पर्याय अथवा एकार्थक होते है । पर्यायत्व का यही नियम है । प्रकृत में क्रियापद का प्रधान अर्थ है क्रिया एवं गौण अर्थ है कारक, इसी प्रकार कारक पद का प्रधान अर्थ है कारक, एवं गौण अर्थ है क्रिया । अतः दोनों पदों में एक के प्रधान के साथ दूसरे के गौण अर्थ के ऐक्य को लेकर दोनों में पर्यायस्व की आपत्ति नहीं दी जा सकती । नापि पौनरुक्त्यम् ( २) अम्विताभिधान की उक्त परिभाषा को स्वीकार करने पर कोई पुनरुक्ति की प्रापत्ति इस प्रकार देते हैं कि–जब क्रियापद के उपादान से ही कारक का भी बोध होता है, एवं कारक पद से ही जब क्रिया का भी बोध होता है, तो फिर उन में से एक पद के उच्चारण के बाद दूसरे पद का उच्चारण केवल पुनरुक्ति का ही प्रयोजक होगा । विशेषान्वये … नहीं है, क्योंकि केवल कारक पद अतः क्रियासामान्य एवं कारकसामान्य किन्तु ‘पुनरुक्ति’ की उक्त आपति भी उचित अथवा केवल क्रिया पद का प्रयोग कोई नहीं करता । इन दोनों का बोध केवल कारक पद के प्रयोंग से अथवा केवल क्रियापद के प्रयोग से भले हो सम्भव हो, किन्तु क्रिया विशेष एवं कारक विशेष इन दोनों की प्रतीति किसी एक पद के प्रयोग से नहीं हो सकती । अतः इस विशेष प्रतीति के लिये दोनों पदों का प्रयोग प्रावश्यक है । तस्मात् प्रकृत में ‘पुनरुक्ति’ दोष नहीं है । नापीतरेतरा ) अन्विताभिधान की उक्त परिभाषा को स्वीकार करने से कोई ‘इतरेतराश्रयत्व’ दोष का उद्घावन इस अभिप्राय से करते हैं कि परस्परान्वित पदार्थ विषयक शाब्दबोध के प्रति क्रिया पद से कारक सामान्य की उपस्थिति, एवं कारक पद जन्य कारक की विशेषोपस्थिति दोनों हो कारण हैं । इसी प्रकार परस्परान्वित पदार्थ विषयक शाब्दबोध के प्रति कारक पद जनित कारक की विशेषोंपस्थिति एवं कारक पद जनित क्रिया की सामान्यो- ५१
४०२ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली स्वार्थस्मृतावनपेक्षणात् । नापि वाक्यभेदापत्तिः, पस्थिति दोनों ही कारण हैं। इस प्रकार चूकि एक उपस्थिति से सापेक्ष दूसरी उपस्थिति शाब्दबोध में कारण है, अतः ‘अन्योन्याश्रय’ दोष अनिवार्य है । क्योंकि क्रियापद जन्य क्रिया की विशेषोपस्थिति के साथ कारकपद जन्य क्रिया की जो विशेषण विधया ( शक्यतावच्छेक विषया) सामान्य उपस्थिति होती है, वह भी अपेक्षित होती है, एवं कारकपदजन्य कारक की विशेषोपस्थिति के साथ साथ कारक पद से जो क्रिया की उक्त सामान्योपस्थिति होती है, वह भी अपेक्षित होती है, इस प्रकार दोनों ही परस्पर सापेक्ष होकर ही शाब्दबोध का उत्पादन कर सकते हैं । अतः इस प्रकार के अन्विताभिधान में अन्योन्याश्रय दोष अनिवार्य है । स्वार्थस्मृती किन्तु यह अन्योन्याश्रय दोष नहीं है, क्योंकि अन्वयबोध ( शाब्दबोध ) में ही उक्त सामान्योपस्थिति एवं विशेषोपस्थिति दोनों की अपेक्षा होती है। किसी एक पद से स्वार्थरूप विशेष की उपस्थिति में इतर पदजन्य उक्त विशेष के सामान्य की उपस्थिति अपेक्षित नहीं है । मर्थात् क्रियापद से जो क्रिया विशेष की उपस्थिति होती है, उसमें कारक पद से किया सामान्य की होने वाली उपस्थिति कारण नहीं है । एवं कारक पद से जो कारक विशेष की उपस्थिति उत्पन्न होती है, उसमें क्रिया पद से होनेवाली कारक सामान्य की उपस्थिति कारण नहीं है। दोनों ही सामान्योपस्थितियाँ एवं दोनों ही विशेषोपस्थितियां स्वतन्त्र रूप से परस्पर मन्वितार्थविषयक शाब्दबोध के साक्षात ही कारण हैं । अतः प्रन्योन्याश्रय दोष की कोई संभावना नहीं है । नापि वाक्यभेदापत्तिः (४) अन्विताभिधान की इस परिभाषा के मानने से कोई ‘वाक्यभेद’ रूप दोष का उद्भावन इस प्रकार करते हैं कि ‘घटमानय’ इस वाक्य के केवल ‘घटम्’ इसी पद से प्रानयन क्रिया में पन्वित घट का बोध हो जायगा । एवं केवल ‘आनय’ पद से भी घट में अन्वित धानयन का भी बोध हो जायगा । विशेष्य एवं विशेषण के इस विनिमय से वे दोनों बोघ फलतः समान- विषयक होने पर भी स्वरूपतः मिन दो बोध ही होंगे । प्रत: ‘घटमानय’ इस एक ही वाक्य से विभिन्न विशेष्य विशेषणों के विभिन्न दो बोध होंगे । यही प्रकृत में ‘वाक्यभेद’ है । सभी मीमांसक वाक्य भेद को गहित मानते हैं । अतः अन्विताभिधान की उक्त परिभाषा ठीक नहीं है। इति न परस भी उ पर्यव प्रकृत अन्तर ‘घटम ‘मान होगी एवं माना पुत्रोऽ पुत्रोऽ एवं विशि बोधों किन्तु दूसरो सि० ( अथ प्रवश्य नहीं है
तृतीयः स्तबकः ४०३ परस्परपदार्थस्मृतिसन्निधौ तदितरानपेक्षरणादिति चेत् ? न, अन्विते संगतिग्रह इति कोऽर्थः ? | यदि यत्र संगतिस्तद्वस्तुगत्या पदार्थान्वितम्, न किञ्चित् प्रकृतोपयोगि । न हि यत्र चक्षुषः सामर्थ्यमवगतं तद्वस्तुगत्या स्पर्शवदिति तद्वत्ताऽपि तस्य विषयः । परस्पर अन्विताभिधान की उक्त परिभाषा के स्वीकार करने पर ‘वाक्यभेद’ की उक्त आक्षेप भी उचित नहीं है, क्योंकि ‘वाक्यभेद’ दोष उस स्थिति में होती है, जहाँ एक ही वाक्यार्थ के पर्यवसन्न होने के बाद पुन: उसी वाक्य से उससे भिन्न वाक्यार्थ विषयक शाब्दबोध होता हो, प्रकृत में विशेष्य-विशेषणभाव में व्यत्यास के रहने पर भी ‘घटकर्मकानयन’ रूप विषय में कोई अन्तर नहीं घाता है । अत: ‘वाक्यभेद’ दोष प्रकृत में संभव नहीं है । यदि प्रकृत में वाक्यभेद दोष को स्वीकार करेंगे तो ‘मनय’ पद के समभिव्याहत ‘घटम्’ इस पद से ‘मानयन’ में अन्वित घट का बोध, एवं ‘घटम्’ इस पद के समभिव्याहृत ‘प्रानय’ पद से घट में अन्वित आनयन का बोध - इस प्रकार दो बोधों की कल्पना करनी होगी । किन्तु ‘संनिधि’ भा शाब्दबोध का एक कारण है, तदनुसार प्रकृत में भी ‘घटमानय’ एवं ‘आनय घटम्’ इन दो संनिषियों की कल्पना करनी होगी, क्योंकि जहाँ वाक्यभेद माना जाता है, वहाँ विभिन्न संनिधियाँ भी माननी पड़ती है । जैसे कि ‘प्रयमेति राज्ञः पुत्रोऽपसार्यताम्’ इस स्थल में ‘अयमेति पुत्रः’ इतने पर्यन्त की संनिषि से एक बोध, एवं ‘राज्ञः पुत्रोऽपसार्यताम्’ इतने पर्यन्त की दूसरी संनिधि की कल्पना से दूसरे प्रकार का बोध होता है । एवं ‘अयम्’ से लेकर ‘अपसार्यताम्’ पर्यन्त एक ही संनिधि से एक तीसरे ही प्रकार का विशिष्टबोष होता है । उसी प्रकार प्रकृत में भी ‘घटमानय’ इस पद से विभिन्न दो बोधों की कल्पना करेंगे तो तदनुकूल विभिन्न दो संनिधियों की भी कल्पना करनी ही होगी । किन्तु ‘घटम्’ और ‘श्रानय इन दो पदों के एक वाक्य से जो बोध होता है, उसमें किसी दूसरी संनिधि की अपेक्षा नहीं होती है । अंत यहां ‘वाक्यभेद’ संभव नहीं है । सि० प० न, अन्विते तस्य विषयः ( अन्विताभिधान का खण्डन करते हुये आचार्य पूछते हैं कि ) ‘अन्तेि सङ्ग विग्रह ’ ( अर्थात् अम्बित में ही पद को सङ्गति है’ ) इस वाक्य का क्या अर्थ है ? १ ) यदि इसका यह अर्थ हो कि “जिस अर्थ में पद की शक्ति है, वह अर्थ कहीं प्रवश्य ही अन्वित है” तो इस प्रकार के ‘अन्विताभिधान’ का शाब्दबोध में कोई उपयोग नहीं है। क्योंकि शक्य अर्थ में इतरान्वितत्व धर्म का रहना इतरान्वितत्वविशिष्ट यक्पार्थबोध
M ४०४ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली अथान्विततयैव तत्र व्युत्पत्तिरित्यर्थः, तदसत् प्रमाणाभावात् । का प्रयोजक नहीं हो सकता । यह तभी संभव हो सकता है, जब कि यह व्याप्ति रहे कि “जिस वस्तु में जिस विषय के ज्ञान के उत्पादन का सामर्थ्य है, उस ज्ञापक वस्तु में उस ज्ञेयवस्तु में जितने भी धर्म हैं, उन सभी धर्मों के ज्ञापन की भी सामर्थ्य है” ( अतः पद में रहनेवाली शक्ति में यदि शक्यार्थ विषयक बोध के उत्पादन की सामर्थ्य है, तो फिर उस शक्य अर्थ में रहनेवाले इतरान्वितत्व रूप अर्थ के ज्ञापन की सामर्थ्य भी है ) किन्तु ऐसी व्याप्ति संभव नहीं है, क्योंकि चक्षु में आम के ज्ञापन की विशेष स्पर्श रूप धर्म है, केवल इतने से चक्षु में उक्त स्पर्श के ज्ञापन की शक्ति नहीं मानी जा सकती । अतः ‘अम्विताभिधान’ शब्द का ‘अन्विते सङ्गति:’ इस आकार का विवरण नहीं माना जा सकता । प्रथ अ स्य पू० शक्ति है’ किन्तु ग्राम में चू कि शि सम् २) यदि ‘अन्विताभिधान’ शब्द का यह अर्थ करें कि ‘इतरान्वितत्व विशिष्ट अर्थ में ही पद की शक्ति है’ तो यह भी स्वीकार नहीं किया जा सकता, क्योंकि इसमें कोई ‘प्रमाण " नहीं है । से १. प्राचार्य ने ‘अन्वितत्वविशिष्ट अर्थ में पद की शक्ति को अस्वीकार करते हुये कुछ युक्ति न देकर केवल इसमें ‘प्रमाण’ के अभाव का सिद्धवत् उल्लेख किया है । अतः बर्द्धमान ने अपनी प्रकाश व्याख्या में उक्त प्रमाणाभाव का बड़े ऊहापोह से विचार किया है। उनका कहना है कि सभी विशिष्टबोधों में विशेष्य नियमित रहता है, एवं विशेषण अनियमित रहते हैं। घट कभी धानयन क्रिया में अन्वित होता है, तो कभी जलाहरण क्रिया में। किन्तु घट पद से युक्त जितने भी वाक्य होंगे, उन सभी वाक्यों से होनेवाले बोधों में घट अवश्य ही मासित होगा । अतः लाघववश घट पद की शक्ति केवल घट रूप कथं में ही मानते हैं । अनन्त इतरान्वितत्व धर्म युक्त घट में शक्ति को स्वीकार करना गौरवदोषाधायक है । घट पद की जो केवल घट में रहनेवाली शक्ति है, उसी से इतराम्वितश्व का भी बोध हो जायगा । जैसे कि जातिशक्तिवादी मीमांसकगण जाति में रहनेवाली ओ पद की शक्ति है, उसी से व्यक्ति का भी भान स्वीकार करते हैं । जाति रूप अथं विषयकबोध को वही शक्ति ज्ञात होकर उत्पन्न करती है, वही शक्ति व्यक्ति विषयकबोध को स्वरूपतः उत्पन्न करती है । इसी प्रकार प्रकृत में भी घट रूप अपने अर्थ की बुद्धि को वही शक्ति ज्ञात होकर उत्पन्न करेगी, एवं घट में जो इतरान्वितत्व धर्म है, उसके बोध को वही शक्ति स्वरूपतः उत्पन्न करेगी। इससे यह निष्पन्न होता है कि जिस अर्थ के बोध को शक्ति ज्ञात होकर उत्पन्न करती है, वही ‘शक्यार्थ’ है । तदनुसार ‘घट’ रूप अर्थ ही घट पद का शक्यार्थ है । इतरान्वितत्व का बोध केवल शक्ति से ही होता है, अतः वह शक्पार्थ नहीं है। विवि अनु प्रमा सि भी उसे बोष पू० दूसरी है कि उदित विषय अंशों रूप । है | अपेक्षित सकती मानना
तृतीयः स्तबक ४०१ अन्वितार्थंप्रतिपत्त्यन्यथानुपपत्तिरिति चेन्न । अनन्विताभिधानेनाप्युपपत्तेः । श्राकाङ्क्षाऽनुपपत्तिरस्तु । न हि सामान्यतोऽन्वितानवगमेऽन्वयविशेषे जिज्ञासा स्यात् । पू० प० श्रन्वितार्थ पदों के जितने ‘शक्य’ अर्थ हैं, वे सभी पदों में रहने वाली अपनी अपनी ज्ञापिका शक्ति के बल से शाब्दबोध में भासित होंगे, किन्तु उन पदार्थों के परस्परान्वय ( परस्पर- सम्बन्ध का फलत: परस्परान्वयविशिष्ट अर्थका बोध किस से होगा ? अतः यदि ‘अन्वितत्व- विशिष्ट’ अर्थ में पद की शक्ति नहीं स्वीकार करेंगे, तो अन्वितत्व विशिष्ट अर्थ का बोध अनुनपन्न हो जायगा । अन्वितत्व - विशिष्ट अर्थ’ विषयक बोध की इस अनुपपत्ति रूप अर्थापत्ति प्रमाण से ही यह सिद्ध होता है कि अन्वितत्वविशिष्ट अर्थ में ही पद की शक्ति है । सि० प० न, अनन्विताभिधानेन ‘अनन्विताभिवाद’ से भी अर्थात् केवल म में ही पद की शक्ति स्वीकार करने पर भी अन्वयविशिष्ट अर्थ की प्रतीति हो सकती है, यदि प्राकांक्षाज्ञानादि अन्य सभी सहकारियों का उसे साहाय्य प्राप्त हो । अतः अन्वितत्वविशिष्ट में शक्ति माने बिना अन्वितत्वविशिष्ट अर्थ के बोष की अनुपपत्ति नहीं है । पू० प० आकांक्षानुपपत्ति … ( उक्त अर्थापत्ति से अन्विताभिधान का समर्थन भले ही सम्भव न हो, किन्तु दूसरी प्रर्थापत्ति के द्वारा अन्विताभिधान का समर्थन किया जा सकता है । उसकी रीति यह है कि) ‘ओदनम्’ इस पद के सुनने पर ‘अन्वय’ के प्रसङ्ग में यह सामान्य जिज्ञासा उदित होती है कि ‘प्रोदनम्पचति’ अथवा ‘मोदनमानयति’ । जिज्ञासा पूर्ण ज्ञात विषय की, अथवा सर्वथा अज्ञात् विषय को नहीं होती, किन्तु कुछ अंशों में ज्ञात एवं कुछ अंशों में अज्ञात विषय को ही जानने की इच्छा ( जिज्ञासा ) होती है। प्राकांक्षा है जिज्ञासा रूप । अतः जिज्ञास्यविषयक या प्राकांक्ष्यविषयक सामान्यज्ञान आकांक्षा के लिये प्रावश्यक है । प्रकृत में आकांक्ष्य या जिज्ञास्य है ‘अन्वितस्व’ अतः उसका सामान्य ज्ञान प्रकृत में प्रपेक्षित है। इसके विना अन्वितत्व विशिष्ट अर्थ में पद की शक्ति उपपन्न ही नहीं हो सकती, फलतः आकांक्षा ही अनुपपन्न है । इसलिये मन्वितत्व विशिष्ट अर्थ में पद की शक्ति मानना उचित है ।
४०६ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जलो न दृष्टे फलविशेषे रसविशेषजिज्ञासावदाक्षेपतोऽप्युपपत्तेः, शब्दमहिमानमन्तरेण यतः कुतश्चिदपि स्मृतेषु पदार्थेषु प्रन्वयप्रतीतिः स्यात् । न चैवम् । ततः शब्दशक्तिरवश्यं कल्पनीयेति चेत् ; कुतस्तहि कविकाव्यानि विलसन्ति ? न हि संसर्गविशेषमप्रतीत्य वाक्यरचना नाम । न च स्वोत्प्रेक्षायां प्रत्यक्षमनुमानं शब्दस्तदाभासा वा संभवन्ति, अन्यत्र चिन्तावशेन पदार्थस्मरणेभ्यः । सि० प० न, दृष्टे 189 यह कक्षानुपपत्ति रूप अर्थापत्ति भी प्रकृत में संभव नहीं हैं। क्योंकि जिस प्रकार ग्राम प्रभृति फलों को देखने पर उसमें दीखनेवाले रूप से रस सामान्य का अनुमान होता है, फिर इस अनुमान से ही विशेष प्रकार के रस की जिज्ञासा होती है । उसी प्रकार पंद से केवल पदार्थ की उपस्थिति होने पर उसमें सामान्य रूप से इतरान्वितत्व का बोध भी अनुमान प्रमाण से ही होगा । इस अनुमान से ही विशेष रूप से अन्वय की जिज्ञासा उत्पन्न हो जायगी । पू० प० शब्दमहिमानम् 000 ‘जो प्राकांक्षा शब्द के द्वारा उठती है, उसकी पूर्ति भी शब्द से ही होना उचित है’ इस नियम को शब्द को प्रमाण माननेवाले सभी लोग स्वीकार करते हैं । अंतः ‘पचति’ पद से उपस्थित पाक में प्रत्यक्ष दृष्ट कलाय का अन्वय कोई भी नहीं मानता। उसको निवृत्ति ‘कलायम्’ पद से उपस्थित कलाय के अन्वय से ही होती है । इसी प्रकार अनुमान के द्वारा जो इतरान्वितत्व सामान्य की उपस्थिति होगी, उसका उपयोग इतरान्वितविशिष्ट विषयक प्याब्दबोध में नहीं हो सकता । सि० प० कुतस्तह 600 वही पदार्थ शाब्दबोध का ‘करण’ है, जिसकी उपस्थिति पद की द्वारा हुई हो । १. ‘कुतरं तर्हि’ इत्यादि सन्दर्भ से प्राचार्य ने भटूटमतावलम्बन कर प्राभाकर सम्मत अन्विता- भिधानवाद का खण्डन किया है । ‘कुतस्तर्हि’ यहाँ से लेकर ‘तस्मात् प्रकारान्तरेण’ इसने तक का सम्म भट्टमत का उपपादक हैं। फलत: माझे एवं प्रभाकरों के विवाद का सूचक है। आगे ‘न चैवम् सति’ से लेकर ‘कृतं प्रसक्तानुप्रसक्त्या’ इतने पर्यन्त के सन्दर्भ से प्राचार्य ने ‘पदार्थ करयस्व’ रूप भट्टमत का भी खण्डन किया है ।
पन ही ‘क है, यह रच उप उप पदा फिर घाव होग एवं बोध शा में श्र शा करन लए के द्व ‘कल प्रत्यक्ष १. तृतीय। स्तबक | ४०७ पद स्वयं शाब्दबोध रूप प्रभा का ‘करण’ नहीं है । शाब्दबोध के उत्पादन में पद का इतना ही उपयोग है कि वह पदार्थ को उपस्थित कर दे । अतः पद शाब्दबोध का कारण ही नहीं है, किन्तु अन्यथासिद्ध है । इसलिए पद में जब शाब्दबोध की कारणता’ ही नहीं है, तो फिर ‘करणता’ तो दूर की बात है । अतः पदार्थ ही स्वोपस्थिति के द्वारा शाब्दबोध का ‘करण’ है, पद नहीं । पदार्थ की यह उपस्थिति जिस किसी से भी हो, इसमें कोई आग्रह नहीं । यदि यह आग्रह रखेंगे कि पदार्थ की उक्त उपस्थिति पद के द्वारा ही हो, रचना नहीं हो सकेगी। क्योंकि कवि की कल्पना मात्र से प्रसूत जो उत्प्रेक्षित अर्थ हैं, उनकी उपस्थिति प्रत्यक्षादि प्रमाणों से तो संभव ही नहीं है, प्रत्यक्षादि प्रमाणाभासों से भी उनकी उपस्थिति संभव नहीं हैं। वहीं कवि की चिन्ता मात्र से उत्पन्न स्मृति से ही उन उत्प्रेक्षित पदार्थों की उपस्थिति माननी होगी । तो फिर ‘नवीन काव्य’ की ( इसी प्रकार यदि कोई वेग से दोड़ते हुये घोड़े का श्वेत रूप की झलक ही देखता है, फिर उसकी हिनहिनाहट एवं उसके टाप को सुनता है, तो बाद में उस पुरुष को ‘श्वेतोऽश्वो घावसि’ ( सफेद घोड़ा दौड़ रहा है ) इस प्राकार का शाब्दबोध होता है। इसलिए मानना ( होगा कि चक्षुरादि प्रमाणों से उपस्थित ‘श्वेतिमा’ प्रभृति का भी भान शाब्दबोध में होता है । एवं शब्द के द्वारा उपस्थित ‘हषा’ ( हिनहिनाहट ) एवं ‘खुर विक्षेप’ ( टाप ) का भान शाब्द- बोघ में नहीं होता है । सुतराम् यह नियम नहीं है कि शब्द के द्वारा उपस्थित मर्ग का ही शाब्दबोध में भान हो, न यही नियम है कि शब्द के द्वारा उपस्थित प्रर्थ का मान शाब्दबोध में अवश्य हो, अतः इतरान्वितत्व की उपस्थिति यदि अनुमान से ही होगी, तथापि उसका शाब्दबोध में भान हो सकता है, इसके लिए इतरान्वितत्व में पद की शक्ति को स्वीकार करना अनावश्यक है । ‘पचति’ पद से उपस्थित पाक में प्रत्यक्ष के द्वारा उपस्थित कलाय के अन्वय के वारण लिए ही ‘शाब्दी आकांक्षा शव्दनैव प्रपूर्यते’ यह नियम माना गया है । प्रकृत में ‘पचति’ पद के द्वारा ही पाक क्रिया के कर्म की प्राकांक्षा जागृत होती है, उक्त नियम के अनुसार चूकि ‘कलायम्’ इस कर्म पद के द्वारा उपस्थित कलाय से ही उसकी निवृत्ति हो सकती है, अतः प्रत्यक्ष के द्वारा उपस्थित कलाय का अन्वयबोध में भान नहीं होता है । ’ ) १. उक्त नियम वाक्य का यह अभिप्राय है कि शाब्दबोध में विषयीभूत जिस अर्थ की आकांक्षा शब्द के द्वारा उत्पन्न होती है, उस आकांक्षा की निवृत्ति शब्द जनित उपस्थिति से ही होती है । इस नियम वाक्य का यह अर्थ नहीं है कि शाब्दबोध में उपयोगिनी जितनी भी आकाक्षायें हों, उन सबों की निवृत्ति शब्द जनित उपस्थिति से ही हो ।
४०८ गच्चपद्यात्मक–यायकुसुमाञ्जलो प्रसंसर्गा ग्रहोऽसाविति चेत्; मम तावत् संसर्गग्रह एवासौ । तवाऽपि सैव पदावली क्वचिदन्वये पर्यवस्यति क्वचिदनन्वयाग्रहे इति कुतो विशेषात् ? प्राप्तानाप्तवक्त कतयेति चेत्; किं तथाविधेन वक्त्रा तत्र कश्चिद्विशेष पू० प असंसर्गाग्रहः पदार्थों के परस्पर संसर्ग का बोध ही अन्वयबोध अथवा शब्दबोध है । अभिनव काव्य से अथवा श्वेतिमा के देखने से एवं हृषा एवं खुर विक्षेपादि के श्रवण से जो " श्वेत मश्व का बोध कहा जाता है, वह बोध वस्तुतः पदार्थों के संसर्ग का बोध है हो नहीं, फलतः अन्वयबोध ही नहीं हैं। वे पदार्थों के संसर्गों के प्रभावों का अज्ञान ( प्रसंसर्गाग्रह ) मात्र हैं । अतः उक्त स्थलों में व्यभिचार नहीं है । सुतराम् इतरान्वितत्व में भी शब्द की शक्ति अवश्य है । पू० प० मम तावत् ‘पदार्थ’ को हो शाब्दबोध का ‘करण’ माननेवाले मेरे ( भट्ट ) मत में अभिनव काव्य से अथवा श्वेतिमा के दर्शनादि से जितने भी बोध उत्पन्न होते हैं, वे सभी पदार्थों के संसर्गबोध रूप शाब्दबोध ही हैं, प्रसंसर्गाग्रह नहीं। आप ( प्रभाकरों) के मत से शब्दों के द्वारा कहीं तो पदार्थों के संसर्ग का बोध होता है, एवं कहीं पदार्थों का असंसर्गाग्रह होता है । इस प्रसङ्ग में यह पूछना है कि एक ही प्रकार की पदावली कभी संसर्गबोध का, एवं कभी असंसर्गाग्रह का उत्पादन करती है ? किन्तु इसका नियामक कौन है कि कब किस प्रकार के ‘विशेष’ वश एक ही प्रकार की सामग्री से संसर्ग बोध होगा ? एवं कब प्रसंसर्गाग्रह होगा ? पृ० प० प्राप्तानाप्त सामग्री में अन्तभूत ‘पद’ जब प्राप्त पुरुष के द्वारा उच्चारित होते हैं, तो उन पदों से युक्त सामग्री से पदार्थो का संसर्गबोध रूप शाब्दबोध होता है । एवं वे ही पद जब अनाम पुरुष के द्वारा उच्चारित होते हैं, तो उन्हीं पदों से युक्त सामग्री के द्वारा असंसर्गाग्रह उत्पन्न होता है । फलतः पद में रहने वाले प्राप्तोक्तत्व रूप ‘विशेष’ वश अन्वयबोध या संसर्गबोध होता है, एवं पदों में ही रहने वाले अनाप्तत्व रूप. विशेष वय असंसर्गाग्रह होता है । सि० प० किं तथाविधेन ( १ ) क्या वक्ता अपने उच्चारण के द्वारा पदों में किसी ‘विशेष’ अतिशय ( सामर्थ्य ) को उत्पन्न करता है ? (२) अथवा पद प्रवच्छेदक विषया स्वयं ही ‘विशेष’ स्वरूप है ? अर्थात् पदों में वक्ता का उच्चारितत्व रूप सम्बन्ध ही ‘विशेष’ या अतिशय है ? ना तव क प्रथ मत की बिशे आ परि इस पू० होने में क 9.
तृतीयः स्तबक! ४०६ प्रहितः ? आहो वक्तैवावच्छेदकतया विशेष: ? । प्रथमे अभिहितान्वयवादिनामिव तवापि शक्तिकल्पनागौरवम् । द्वितीये तु वक्तुरिव पदानामप्यवच्छेदकतयैव विशेष- कत्वमस्तु । एवं तर्हि पदानामप्यन्वयप्रतीतावस्त्युपयोगः ? प्रथमे यदि इनमें पहिला पक्ष स्वीकार करें तो ‘अभिहितान्वयवादियों ( भाट्टमीमांसक) के मत में तुमने जो त्रिविध शक्ति की कल्पना रूप गौरव की आपत्ति दी है, वही त्रिविधशक्ति की कल्पना रूप आपत्ति तुह्यारे मत में भी आ पड़ेगी’ अतः प्रथम विकल्प अयुक्त है । दूसरे पक्ष में यह कहना है कि हम ( भाट्ट ) लोग भी पद को पदार्थोंपस्थिति में विशेषण होने से शाब्दबोध में उपयोगी मानते ही हैं । ( अर्थात् जिस प्रकार पद में आप्तोक्तत्व रूप ‘विशेष’ को प्राभाकर स्वीकार करते हैं, उसी प्रकार भाट्टमत में भी पदार्थों- पस्थिति में हो ’ पदजन्यत्व’ रूप विशेष को स्वीकार कर लेने से ही निर्वाह हो सकता है इसके लिये प्रवितत्वविशिष्ट अर्थ में शक्ति की कल्पना व्यर्थ है ) । पू० प० एवं तहि … यदि पदार्थ को ही शाब्दबोध का ‘करण’ होने के कारण पद का भी उपयोग शाब्दबोध में में पद का उपयोग स्वीकार करना पड़ेगा । मानते हुये भी पदार्थोस्थिति के सम्पादक मानें तो भाट्टों के मत में भी ग्रन्वयबोध १. अभिहितान्वयवादिगण पद से केवल पदार्थोपस्थिति ही मानते हैं, पद से अन्वयबोध नहीं मानते । इस मत के अनुसार पदों से जिस समय पदार्थोंपस्थिति होती है, उसी समय पदार्थों में अन्वयबोध की जनकता रहती है। तदनुसार (१) पदों में पदार्थोंपस्थिति को उत्पन्न करने की शक्ति, (२) एवं पदों में ही पदार्थगत संसर्गबोध के अनुकूल शक्ति के प्राधान की शक्ति (३) पदार्थों में संसगंबोध की शक्ति, इन तीन शक्तियों की कल्पना की प्रापत्ति प्राभाकर देते है, क्योंकि उनके मत से दो ही शक्तियों की कल्पना करनी पड़ती है ( १ ) पत्रों में पदार्थस्मारिका शक्ति एवं (२) अन्धिताभिधान की शक्ति । भव यदि प्राभाकर यह कहते है कि जिस समय पद प्राप्तपुरुष के द्वारा उच्चरित होता है, उसी समय पदों में अन्वयबोध की शक्ति रहती है, तो उनको भी प्राप्तपुरुष में पदनिष्ठ अन्विसत्वविशिष्ट अर्थ के अन्वयबोध जनिका शक्ति भी माननी होगी । फलतः प्राभाकर के मत में भी तीन शक्तियों की कल्पना करनी पड़ेगी । फक्षता दोनों पक्षों में त्रिविध शक्तियों की कल्पना समान है । अतः प्राभाकर उक्त गौरवदोष भाट्ठों के ऊपर नहीं दे सकते । ५२ CCO. Vasishtha Tripathi Collection. Digitized by eGangotri४१० गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली कः सन्देहः ? परं पदार्थाभिधानेन, न त्वन्यथा । अन्यथा गुरुमतविदामेव श्लोक - श्राप्तपदप्रक्षेपेण पठनीयः- “प्राथम्यादभिघातृत्वात् तात्पर्योपगमादपि । आप्तानामेव सा शक्तिर्वरमभ्युपगम्यताम् " इति ॥ सति तस् सि० प० कः सन्देह। … जिस प्रकार प्राप ( प्राभाकरों के ) मत में पदाथसंसर्ग के बोध के अथवा अन्वयबोध के उपयुक्त उच्चारण कर देना ही शाब्दजोष में आप्तों का उपयोग है, आप्त पुरुष का शाब्दबोध में मीर कोई उपयोग नहीं है । उसी प्रकार मेरे मत से पद भी शाब्दबोध में उपयोगी है, किन्तु उसका इतना ही उपयोग है कि वह पदार्थ को उपस्थित कर दे। किसी दूसरी रोति से पद शाब्दबोष में उपयोगी नहीं है ( भाट्टगण पद में शाब्दबोध की कारणता तो मानते हैं, किन्तु ‘करणता’ को अस्वीकार करते हैं)। इस प्रकार अभिहितान्वय क्रम से ही पद शाब्दबोध में उपयोगी है। इसके लिये अन्वितत्व विशिष्ट अर्थ में उसकी शक्ति मानने की आवश्यकता नहीं है । ‘अन्यथा’ यदि पदों को उच्चारण कर देने से भिन्न भी प्राप्त पुरुष का कोई उपयोग शाब्दबोध में आप ( प्राभाकर ) मानें तो गुरुमत के सबसे बड़े ज्ञाता ( पञ्जिकाकार श्री शालिकनाथ मिश्र ) के श्लोक के ‘शब्दानाम्’ के स्थान पर ‘प्राप्तानाम्’ ऐसा पाठ स्वीकार उस श्लोक को इस प्रकार पढ़ देना चाहिये । प्राथम्यादभिघातृत्वात् तात्पर्योपगमादपि । ‘प्राप्तानामेव सा शक्तिवंरमभ्युपगम्यताम् ॥ ’ १. कुमारिभट्ट ‘अभिहितान्वय’ वादी हैं, एवं वे पद की शक्ति केवल ‘अर्थ’ में ही मानते हैं ‘अन्वितत्वविशिष्ट’ अर्थ में नहीं । एवं पदार्थ को ही शाब्दबोध का करण मानते हैं, उनके इन्हीं दोनों सिद्धान्तों का खण्डन प्रभाकर के सबसे बड़े समर्थक श्री शालिकनाथ मिश्र ने निम्नलिखित इस श्लोक से किया है- प्राथम्यादभिधातुस्वत्तात्पर्यो पगमादपि । शब्दानामेव सा शक्तिवंरमभ्युपगम्यताम् ॥ प्रकरण पञ्जिका प्र० परिच्छेद श्लोक ११ (१) प्राथम्यात् पहिले पद की उपस्थिति होती है, बाद में पदार्थ की उपस्थिति होती है, अतः प्रथमोपस्थित पद को ही शाब्दबोध का ‘करण’ मानना उचित है, पश्चादुपस्थित पदार्थ को करया मानना अनुचित है । किस पद अन्वि स्वी (२) (३)
तृतीय- स्तवक: ४११ तस्मात्प्रकारान्तरेण संसर्गप्रत्ययो भवतु मा वा, पदार्थानामाकाङ्क्षादिमत्त्वे सति अभिहितानामवश्यमन्वय इति कुतोऽतिप्रसङ्गः ? तस्मात् इसलिये हम लोगों का केवल यही कहना है कि संसर्गबोध अथवा अन्वयबोध जिस किसी प्रकार से हो, यदि उसके आकांक्षा । प्रभूति अन्य सभी कारणों का समवधान रहे, तो पद की अभिघावृत्ति के द्वारा उपस्थित अर्थ का प्रन्वय कहीं अवश्य हो। इसके लिये अन्वितत्वविशिष्ट अर्थ में पद की श्रभिषा वृत्ति को स्वीकार करना ( अन्विताभिधानवाद को स्वीकार करना ) आवश्यक नहीं है । (२) अभिधातृत्वात् पद में अभिधातृत्व ( श्रभिधा) रूप शक्ति तो भट्ट भी मानते ही हैं । अर्थात् पद में पदार्थोंपस्थिति की कारणता जब स्वीकृत ही है, तो उसी में शाब्दबोध की ‘करणता’ भी क्यों न मान ली जाय ? पद को कारण मान कर फिर ‘पदार्थ’ को ‘करण’ मानें, इसमें गौरव है । (३) तात्पर्योपगमात् = वाक्यार्थबोध की इच्छा से पद का उच्चारण सभी मानते हैं । इस लिये ‘वक्ता की इच्छा’ रूप ‘तात्पर्य’ के निष्पादक के रूप में पद का उच्चारण सभी स्वीकार करते हैं । शाब्दबोध में ‘तात्पर्य’ के उपयोग को भी सभी स्वीकार करते हैं, तो फिर तात्पर्य के सम्पादक पद की ही शाब्दबोध का ‘करण’ भी मान लेना उचित है । अतः पद ही शाब्दबोध का ‘करण’ है । एवं पद में ही अन्वयबोध को उत्पन्न करने की ‘शक्ति’ भी है । सुतराम् अन्वितत्वविशिष्ट अर्थ में ही पद की शक्ति है । केवल अर्थ में नहीं । एवं पद ही शाब्दबोध का ‘करण’ है, पदार्थ नहीं । भाटों का कहना है कि यदि प्राप्तपुरुष का शाब्दबोध में पदोच्चारण से ‘अन्यथा’ अर्थात् ‘अन्य’ उपयोग भी रहे, तो उक्त श्लोक में कथित ‘प्राथम्य’ प्रभृति हेतु से ‘प्राप्तपुरुष’ में ही ‘करणता’ का साधन अधिक सुलभ होगा । क्योंकि (१) पद से पहिले उसके उच्चारण कर्त्ता श्राप्तपुरुष की उपस्थिति ही होती है, अतः उसी की उपस्थिति में ‘प्राथम्य’ है। इसलिये प्रथमोपस्थित आसपुरुष को ही करण मानना उचित है, पश्चादुपस्थित पद को नहीं । (२) एवं वाक्यार्थ के ‘अभिधान’ में भी आसपुरुष का उपयोग है ही, अतः अभिधातृत्व हेतु भी है । (३) तात्पर्य तो उच्चारणकर्त्ता श्राप्तपुरुष का है ही । अतः शाब्दबोध की करणता घासपुरुष में ही मानिये, पदों में नहीं। इसके लिये उक्त श्लोक के ‘पदानाम्’ इस शब्द के स्थान पर ‘आसानाम्’ इस पद को रखकर भी उक्त श्लोक को पढ़ा जा सकता है ।
४१२ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जलौ न चैवं सति पदार्था एव करणम्, तेषामनागतादिरूपतया कारकत्वा- नुपपत्तौ तद्विशेषस्य करणत्वस्यायोगात् । तत्संसर्गे प्रमाणान्तरासङ्कीर्णोदाहरणा- भावाच्च । पू० प० न चैवम् ‘तो क्या इससे यही समझें कि ‘पदार्थ ही शाब्दबोध का करण है पद नहीं” भाट्टों का यह सिद्धान्त ही ठीक है ? सि० प० तेषाम् नहीं, ( अर्थात् पदार्थों को शाब्दबोध का करण स्वीकार करने का भाट्टों का सिद्धान्त ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसा स्वीकार करने पर ) जहां प्रतीत अथवा भावी अर्थ को समझाने के लिए पद प्रयुक्त होते हैं, यहाँ शाब्दबोध न हो सकेगा। क्योंकि उक्त पदों से उपस्थित अर्थों की सत्ता शाब्दबोध से पहिले संभव नहीं है । अविद्यमान पदार्थ किसी का उत्पादक कारण नहीं हो सकता । भ्रतः पदार्थ शाब्दबोध का कारण नहीं हो सकता। जब उसमें कारणत्व ही संभव नहीं, तो फिर उसको ‘करण’ होना तो दूर की बात है । तत्संसर्ग दूसरी बात यह भी है कि पद को करण मानने पर अभिनव काव्य जनित शाब्दबोध की अथवा ‘स्वेतोऽश्वो घाबति’ इस अकार के शाब्दबोध की जो अनुपपत्ति दी गयी है, एवं इसके लिए पदार्थ को ही कारण मानने की अनिवार्यता बतलायी गयी है, वही अयुक्त है, क्योंकि जिन स्थलों के लिए पदार्थ को शाब्दबोध का करण मानना वे आवश्यक समझते है, उन स्थलों में अर्थात् श्रभिनवकाव्यजनितबोध में अथवा कथित ‘श्वेतोऽश्वो घावति’ इस बाकार के बोध में अन्य प्रमाण भी अवश्य रहते हैं, जैसे कि अभिनव काव्य स्थल में उत्प्रेक्षा सहकृत मन रूप प्रत्यक्ष प्रमाण, ‘एवं श्वेतोऽश्वो घावति’ इस स्थल में ‘खुरविक्षेपादिलिङ्ग’ रूप अनुमान प्रमाण भी अवश्य रहते हैं । अतः उन सभी स्थलों में यथा योग्य उन्ही में से कोई ‘करण’ है । उन सभी स्थलों में भी ‘पदार्थ’ करण नहीं हैं । शब्दजनितबोध का कोई ऐसा उदाहरण नहीं है, जिसके लिये पदार्थ को ही करण मानना पड़े। जहाँ प्रत्यक्षादि किसी अन्य प्रभाकरणों की सम्भावना न रहे, सुतराम् पदार्थ शाब्दवोष का करण नहीं है । १. कुतस्तर्हि’ यहाँ से लेकर “कुतोऽतिप्रसङ्गः” इतने पर्यन्त के सन्दर्भ से भट्ट मत के द्वारा प्रभाकर सम्मत अन्धिताभिधान का खण्डन किया गया है। यहाँ भट्ट मत का मूल है ‘पदार्थ’ को ही शाब्द बोध का ‘करण’ मानना । किन्तु यह पच नैयायिकों को स्वीकृत नहीं है। अतः ‘न चैवं सति’ यहाँ से लेकर ‘प्रसक्तानुप्रसक्त्या’ इतने पर्यन्त से आचार्य ने सक्त यह मत का खण्डन कर अपने ‘पदकरणत्व’ पक्ष का समर्थन किया है। इस सन्दर्भ में पूर्वपद्मवादी है भट्ट सम्प्रदाय के लोग, एवं सिद्धान्तवादी है ‘नैयायिक’ । व्या बोध सत्ता हो सभी मान पूर्व ม से रहने नहीं बाद होने पदा पहिले अपने आव नहीं है ) व्या होने लक्ष अय्य कार्य ग्रसित है । पूर्वस्व
तृतीया स्तबक! ४१३ पदानां तु पूर्वभावनियमेन पदार्थस्मारणाञ्चान्तरव्यापारवत्तया तदुपपत्तेः व्यापारस्याव्यवधायकत्वादिति कृतं प्रसक्तानुप्रसक्त्या ॥१५॥ ( पदार्थ को करण न मानने के प्रसङ्ग में जो पहिली यह युक्ति दी गयी है कि शाब्द- बोष चूंकि अतीत एवं अनागत अर्थविषयक भी होता है, किन्तु वहाँ पदार्थ रूप करण की सत्ता संभावित नहीं है, अतः पद ही करण है पदार्थ नहीं। इस युक्ति के प्रसङ्ग में यह आक्षेप हो सकता है कि कुछ स्थल विशेषों में ही शाब्दबोध से पहिले पदार्थ की सत्ता संभावित है, सभी शाब्दबोधों से पहिले पदार्थों की सत्ता असंभावित नहीं है, किन्तु ) पद को करण मानने के पक्ष में तो यह आक्षेप सभी शाब्दबोधों में उपस्थित होगा कि पद शाब्दबोध से पूर्वक्षण में कदापि नहीं रह सकते, क्योंकि पद शब्द स्वरूप हैं, अतः क्षणिक है । शाब्दबोध से पूर्व में न रहने से पद में शब्दबोध की कारणता अथवा करणता संभव ही नहीं है । इसी प्रसङ्ग में दूसरी बात यह कही गयी हैं कि कार्य के अव्यवहित पूर्वक्षण में नियमता रहने वाले ही कारण हैं । पद शाब्दबोध से कतिपय क्षण पूर्व ही रहता है, अव्यवहित पूर्वक्षण में नहीं । क्योंकि पदोक्चारण के बाद पदार्थोपस्थिति प्रभृति अन्य कारणों के समवधान के बाद ही शाब्दबोध होता है । अतः पद शाब्दबोध का कारण ही नहीं हो सकता, उसके करण होने की बात तो बहुत दूर की है। इनमें से प्रथम प्राक्षेप का समाधान यह है कि - ) । I पदानान्तु १) थाम्बोष से अव्यवहित पूर्वक्षण में पद भले ही न रहे, किन्तु शब्दबोध से पहिले तो अवश्य रहता है। उसी से उसमें ‘करणता’ का निर्वाह हो जायगा । क्योंकि अपने व्यापार के उत्पादन के द्वारा ही ‘करण’ कार्य के उत्पादन में उपयोगी होता है । प्रतः आवश्यम्भावी व्यापार के व्यवधान से करणीभूत वस्तु में शब्दबोध का अव्यवहितपूर्वत्व खण्डित नहीं होता । ( अत एव चिरविनष्ट अनुभव से संस्कार के द्वारा स्मृति की उत्पत्ति होतीं है ) । अतः प्रथम प्राक्षेप निराधार है । व्यापारस्य … ( कथित दूसरे प्राक्षेप का समाधान यह है कि ) सर्वत्र ‘करण’ व्यापार के मध्यवर्ती होने के कारण कार्य से एकक्षण व्यवहित हो रहता है । ( अतः करण स्वरूप कारण के लक्षण में कार्य का अव्यवहित पूर्वस्व दो क्षण तक मानना आवश्यक है । इस लिये उक्त अव्यवहित पूर्वत्व की परिभाषा ऐसी बनानी होगी, जिससे ‘करण’ की स्थिति क्षण भी कार्य का श्रव्यवहितपूर्व हो सके । अन्यथा ‘करणत्व’ का उक्त लक्षण ही असम्भव दोष से प्रसित हो जायगा । अतः पद में भी शब्दबोष का उक्त भव्यवहितपूर्वक्षणवृत्तित्व अवश्य है । इस लिये यह द्वितीय प्राक्षेप भी निराधार है, ( द्वितीयादि क्षण साधारण अव्यवहित पूर्वत्व के समझने के लिये ‘पक्षता’ ग्रन्थ का सार्वभौम प्रकरण देखना चाहिए ) 1
४१४ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली अस्तु तर्हि शब्द एव बाधकं सर्वज्ञे कर्त्तरि ? तथा हि- प्रकृतेः क्रियमारणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः । अहङ्कारविमूढात्मा कर्ताऽहमिति मन्यते ॥ इत्यादि पठन्ति । अस्यायमर्थः — न पारमार्थिकं चेतनस्य कर्तृत्वमस्ति श्रभिमानिकं तु तत् । न च सर्वज्ञस्याभिमामः, न चासर्वज्ञस्य जगत्कर्तृ त्वमस्ति । उच्यते— इति कृतम् न प्रमारगमनाप्तोक्तिर्नादृष्टे क्वचिदाप्तता । श्रदृश्यदृष्टौ सर्वज्ञो न च नित्यागमः क्षमः ॥१६॥ शब्द में स्वतन्त्र प्रामाण्य के स्थापन के क्रम में ‘प्रसङ्ग’ वश चू ंकि ‘मन्विताभिधान’ की चर्चा की गयी है, अतः ‘अन्विताभिधान’ ही प्रकृत में ‘प्रसक्त’ अर्थात् ‘प्रसङ्गतः’ आ गया है। इस प्रकार ‘प्रसक्त अन्विताभिधान’ के विचार के क्रम में भी ‘प्रसङ्ग’ वश हो पदार्थ करण मूलक ‘मभिहितान्वयवाद’ भो निरूपित हुआ है । अतः प्रकृत अभिहितान्वयवाद की चर्चा ‘अनुप्रसक्त’ है। इसका विस्तार से खण्डन करना प्रकृत में अनुपयुक्त है, मत। इस विचार को यहीं छोड़ देना उचित है ||१५|| पू० प० प्रस्तु तर्हि " जगत्कत्त त्वमस्ति ( सांख्य के अनुयायियों का प्राक्षेप यह है कि इस प्रकार से समर्थित ) शब्द रूप. स्वतन्त्र प्रमाण ही कथित ईश्वर की सिद्ध में बाधक है । क्योंकि ‘प्रकृतेः क्रियमाणानि ’ इत्यादि श्लोक गीता में पठित है। इस श्लोक का यह अर्थ है कि “चैतन्य से युक्त पुरुष में वस्तुतः कतुत्व नहीं है, क्योंकि श्रभिमानिक चैतन्य है । अर्थात् उसमें चैतन्य का ‘अभिमान’ मात्र है । ‘महङ्कार’ का मूल है ‘मिथ्याज्ञान’ । सर्वज्ञ (ईश्वर) में मिथ्याज्ञान का रहना संभव ही नहीं है। यह मानना होगा कि जिस में अहङ्कारमूलक यह कत्तृस्व रहेगा, उसमें मिथ्याज्ञान भी अवश्य रहेगा। मिथ्याज्ञान से युक्त पुरुष कभी भी सर्वज्ञ नहीं हो सकता । जो सर्वज्ञ नहीं होगा वह जगत् का कर्ता नहीं हो सकता । अतः “सर्वज्ञ परमेश्वर ही जगत कर्त्ता है” यह कहना ठीक नहीं है । सि० प० उच्यते … …..न प्रमाणमनाप्तोक्तिः ( इस प्राक्षेप के समाधान में हम लोग ) कहते हैं कि- ( ‘प्रकृतेः क्रियमाणानि’ इत्यादि वाक्य रूप शब्द तभी प्रमाण हो सकते हैं, जब कि वे प्राप्त के द्वारा उच्चरित हों ? अथवा नित्य हों ? शब्द का नित्यत्व खण्डित हो चुका है, मतः उनके प्रामाण्य के लिये प्राप्तपुरुष द्वारा उच्चरित होना ही एक मात्र उपाय है । वक्ता, कर्त्ता श्रपि प्रतः अथवा होंगे । मानने यथार्थ मैं तद ज्ञान अतीनि इत्यादि सर्वज्ञ सि० करना ही नही प्रतीनि उन्हें ‘प्रकत प्रतिप श्रपि क्योंकि साम्य ज्ञापन करनी
तृतीय:- स्तवक! ४१५ यदि हि सर्वज्ञकर्त्र भावावेदक: शब्दो नाप्तोक्तः, न तर्हि प्रमारणम् । अथाप्तोऽस्य वक्ता, कथं न तदर्थदर्शी । अतीन्द्रियार्थदर्शीति चेत्; कथमसर्वज्ञः ? । कथं वा न कर्त्ता ? | आगमस्यैव प्ररणयनात् । न च नित्यागमसम्भवो विच्छेदादित्यावेदितम् | १६ | श्रपि च, न चासौ क्वचिवेकान्तः सत्त्वस्यापि प्रवेदनात् । निरञ्जनावबोधार्थी न च सन्नपि तत्परः ॥ १७ ॥ प्रतः उक्त वाक्य के प्रसङ्ग में यह विकल्प उपस्थित होता है कि ) वे आप्तों से उच्चरित हैं ? अथवा अनातों से ? यदि उन शब्दों को मनाप्तोच्चरित माना जाय, तो वे प्रमाण ही नहीं होंगे । प्रप्रमाणिक शब्द न किसी के साधक हैं न किसी के बाधक, अतः उन्हें अनाप्तोच्चरित मानने पर उस शब्द से ईश्वर की सिद्धि बाधित नहीं हो सकती । यदि उन शब्दों के वक्ता पुरुष आस हैं, तो फिर उनमें उक्त वाक्य के अर्थो का यथार्थज्ञान अवश्य ही मानना होगा, क्योंकि आप्तत्व का लक्षण ही उच्चारण करनेवाले पुरुष मैं तदविषयक यथार्थज्ञान का रहना है। ‘प्रकृतेः क्रियमाणानि इत्यादि शब्दों से होनेवाला ज्ञान घटादि ज्ञानों के सहय स्थूल विषयक नहीं है, किन्तु अतीन्द्रिय सूक्ष्म विषयक है । अतीन्द्रिय विषयों के द्रष्टा को अवश्य सर्वज्ञ मानना होगा । इस प्रकार ‘प्रकृतेः क्रियमाणानि ’ इत्यादि आगम ( शब्द ) के रचयिता को भी सर्वज्ञ मानना ही होगा । अतः कर्त्ता पुरुष का सर्वज्ञ होना अनुपन्न नहीं है । सि० प० यदि हि शब्दप्रमाणों से कर्त्ता में सर्वज्ञत्व का निषेध द्वारा रचित नहीं हैं, तो फिर वे प्रमाण ‘प्रकृतेः क्रियमाणानि’ इत्यादि जिन करना चाहते हैं, वे शब्द यदि ‘खास’ पुरुष के ही नहीं है । यदि उक्त रचयिता पुरुष आप्त हैं, तो फिर उनमें उक्त शब्द से प्रतिपाद्य अतीन्द्रिय अर्थो का ज्ञान भो क्यों नहीं है ? यदि वे उक्त अतीन्द्रिय अर्थ के ज्ञान से युक्त हैं, तो उन्हें असर्वज्ञ ही कैसे कहा जा सकता है ? एवं यदि वे ‘प्रागम’ के ‘कर्ता’ हैं, तो उन्हें ‘कर्ता’ ही कैसे कहा जा सकता है ? ‘आगम’ ( शब्द ) नित्य नहीं हो सकता, इसका प्रतिपावन द्वितीयस्तवक में कर चुके हैं ।। १६ ॥ अपि च 100 000 न चासौ दूसरी बात यह भी है कि शब्दप्रमाण नियमतः ईश्वरसिद्धि के बाधक ही नहीं हैं, क्योंकि ईश्वर की सत्ता भी (कुछ) शब्दप्रमाणों से ज्ञात होती है । एवं ‘निरञ्जनः परमं साम्यमुपैति’ इत्यादि श्रुतियों का भी तात्पर्य ईश्वर में ज्ञानादि विशेषगुणों की असत्ता के ज्ञापन में नहीं है, किन्तु ‘ईश्वर की उपासना ज्ञानादि विशेषगुणों से शून्य रूप में ही करनी चाहिये’ इसी में उन श्रुतियों का तात्पर्य है । चूकि ‘आगम’ प्रमाण नियमतः ईश्वर
४१६ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली न ह्यसत्त्वपक्ष एवाऽऽगमो नियतः । ईश्वरसद्भावस्यैव भूयःसु प्रदेशेषु प्रतिपादनात् । तथा चाग्रे दर्शयिष्यामः । तथा च सति क्वचिदसत्त्वप्रतिपाद- नमनेकान्तं न बाधकम् । सत्त्वप्रतिपादनमपि तहिं न श्रापाततस्तावदेवमेतत् । साधन मिति साधनमिति चेत्, मवधा प्रामा इत्यादि ईश्वर की पदिश्य भावम की प्रसत्ता का ही प्रतिपादन नहीं करते, क्योंकि ‘द्यावा भूमी जनयत्’ साधक श्रुतियाँ भी उपलब्ध हैं– जिनका उल्लेख पञ्चमस्तवक में किया जायगा । इसलिये ईश्वर की असत्ता के ज्ञापक जो भी प्रागम प्रमाण उपलब्ध होते हैं, वे सभां ‘अनेकान्त’ हैं । उनसे ईश्वर की प्रसत्ता का अप्रमाण्य से रहित निश्चयात्कक बोध नहीं हो सकता । अतः इस प्रकार के ( अप्रमाण्यज्ञानास्कन्दित संशयात्मक ) ज्ञान से ईश्वर की सिद्धि बाधित नहीं हो सकती । … पू० प० सत्त्वप्रतिपादनमपि … ईश्वर सत्ता के साधक जितने वाक्य मिलते हैं, वे यदि इस लिये ‘अनेकान्त’ है कि कुछ वाक्य ईश्वर के साधक भी मिलते हैं, तो फिर तुल्य न्याय ये ईश्वर के साधक जितने भी वाक्य मिलते हैं, वे भी ‘अनेकान्त’ ही होंगे, क्योंकि ईश्वर के बाधक भी कुछ वाक्य मिलते हैं। फलतः ईश्वर के साधक वाक्यों से भी ईश्वर का अप्रामाण्यज्ञानास्कन्दित एवं संशय रूप बोध ही होगा । भ्रतः उक्त शब्द प्रमाणों के बल पर ईश्वर की सिद्धि नही की जा सकती । पू० प० प्रापाततः … तब तक मैं मान लेता है कि उक्त शब्द प्रमाण से ईश्वर की सिद्धि नहीं की जा सकती । किन्तु जब यह निश्चित हो जायगा कि ‘निरञ्चनः परमं साम्यमुपैति’ इत्यादि जितने भी वाक्य उपलब्ध होते हैं, उनका तात्पर्य केवल इतना ही है कि ईश्वर को सभी विशेषगुणों से शून्य समझ कर ही उनकी उपासना करनी चाहिये। उन वाक्यों का तात्पयं १. ‘न प्रमाणममाठोक्ति:’ इस १६ वें श्लोक से यह कहा गया है कि शब्द प्रमाण से ईश्वरानुमान बाधित नहीं हो सकता । ‘न चासौ’ इत्यादि १७ वें श्लोक से यह कहा जाता है कि ईश्वर के साधक भी शब्द प्रमाण हैं । एवं ईश्वर में सर्वज्ञत्वादि गुणों के निषेधक जितनी भी ‘निरञ्जनत्वादि बोधक श्रुतियाँ है, वे सभी ईश्वर में ज्ञानादि विशेषगुणों के अभाव की बोधिका नहीं हैं, किन्तु उनका इतना ही तात्पर्य है कि ईश्वर सभी विशेषगुणों से रहित हैं’ इस रूप में उनकी उपासना करनी चाहिये। इस प्रकार इस श्लोक के द्वारा (१) ईश्वर साधक शब्द प्रमाण की सत्ता का (२) एवं ईश्वर में सर्वज्ञत्वादि निषेधक श्रुतियों का अन्यत्र तात्पर्य है, ये दोनों बातें मुख्यत । उपपादित हुई है। ईश्वर तब ( सर्वज्ञ अप्राम ‘मर्नका न च होते है साधक का अ अन्यत्र उक्त य अंश में ईश्वर पू० प हो न में बा क पुरुष aa उपदे विषय उपदे सेनि
तृतीयः स्तबक: ४१७ यदा तु निःशेषविशेषगुणशून्यात्मस्वरूपप्रतिपादनार्थत्वमकर्तृकत्वागमाना- मवधारयिष्यते, तदा न तनिषेधे तात्पर्यममीषामिति सत्त्वप्रतिपादकानामेवाऽऽगमानां प्रामाण्यं भविष्यतीति । न च तेषामप्यन्यत्र तात्पर्यमिति वक्ष्यामः ॥ १७ ॥ प्रस्त्वर्थापत्तिस्तर्हि बाधिका । तथाहि — यद्यभविष्यन्नोपादेक्ष्यत्, न ह्यसावनु- पदिश्य प्रवर्त्तयितुं न जानाति । अत उपदेश एवान्यथानुपपद्यमानस्तथाविधस्या- भावमौदासीन्यं वाssवेदयति । ईश्वर में सभी विशेष गुणों के अभाव ( फलतः कृत्यभाव रूप कर्तृत्वाभाव ) में नहीं है । तब ( इन दोनों बातों के निश्चित हो जाने पर ) प्रात्मा में कर्तृत्व के साधक अथवा ईश्वर में सर्वज्ञस्व के साधक जितने भी वाक्य हैं, उन सबों से ईश्वर के जितने भी बोध होंगे, उनमें प्रप्रामाण्य की शङ्खा अथवा संशय रूपता नहीं रहेगी । फिर ईश्वर के साधक वाक्यों में ‘मनैकान्तिकता’ भी नहीं रहेगी । न च तेषाम्… ( इस प्रसङ्ग में कहा जा सकता है कि ईश्वर के साधक जितने भी वाक्य उपलब्ध होते हैं, उन सबों का जब अन्यत्र तात्पर्य की कल्पना कर लेते हैं, तभी जाकर ईश्वर के साधक वाक्यों का प्रामाण्य स्थिर हो पाता है । किन्तु जिस प्रकार ईश्वर के बाघक वाक्यों का अन्यत्र तात्पर्यं कल्पित होता है, उसी प्रकार ईश्वर के साधक वाक्यों का भी तात्पर्य अन्यत्र कल्पित होकर ईश्वर के बाधक वाक्यों का प्रामाण्य स्थिर कर सकता है । अतः उक्त युक्ति प्रबल नहीं है । इस प्राक्षेप का यह समाधान है कि:- ) पञ्चम स्तबक के अन्तिम अंश में हम यह दिखलायेंगे कि किस हेतु से ईश्वर के बाधक वाक्यों का अन्यत्र तात्पर्य है । एवं ईश्वर के साधक वाक्यों का श्रन्यत्र तात्पर्य नहीं हैं ॥ १७ ॥ पू० प० अस्त्वर्थापत्ति… … … मीमांसकगण पुनः आक्षेप करते हैं कि शब्दादि प्रमाण ईश्वर सिद्धि का बाघक भले ही न हो, किन्तु उनसे अतिरिक्त एक अर्थापत्ति नाम का भी तो प्रमाण है, वही ईश्वर सिद्धि में बाधक होगा । वेदों के कर्ता रूप में ईश्वर की सिद्धि मानने वालों का अभिप्राय है कि उपदेष्टा पुरुष को उपदेश्य विषयों का ज्ञान प्रवश्य रहता है । अतः यह मानना होगा कि वेदों के उपदेश करने वाले पुरुष को भी वेदार्थ विषयक ज्ञान अवश्य है । वेदों में अनेकानेक इन्द्रियातीत विषयों का उपदेश है । अतीन्द्रियार्थ द्रष्टा पुरुष भवश्य ही सर्वज्ञ होंगे। अतः वेदों का उपदेष्टा पुरुष भी अवश्य ही सर्वज्ञ है। यह ‘सर्वंश पुरुष’ ही ‘परमेश्वर’ है । किन्तु लोगों को यागादि इष्ट कार्यों में प्रवृत्त कराने के लिए एवं हिंसांदि मनष्ट कार्यो से निवृत्त कराने के लिए हो वेदों के उपदेश हैं । अतः यह मानना होगा कि, वेदों का उपदेश ५३
४१८ न, अन्यथैवोपपत्तेः । गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली हेत्वभावे फलाभावात्प्रमाणेऽसति न प्रमा । तदभावात्प्रवृत्तिनों कर्मवादेऽप्ययं विधिः ॥ १८ ॥ करने वाले पुरुष को उपदेश के द्वारा ही पुरुष को इष्ट में प्रवृत्त कराने का एवं अनिष्ट से निवृत्त कराने का ज्ञान है। बिना उपदेश से प्रवृत्त अथवा निवृत्त कराने का ज्ञान उन्हें नहीं है। यदि ऐसी बात न होती तो वेदों के उपदेश का प्रायास वे स्वीकार नहीं करते । तस्मात् वेदोपदेष्टा पुरुष में चूकि बिना उपदेश के प्रवृत्त प्रथवा निवृत्त कराने के उपयुक्त ज्ञान नहीं है, अतः वे सर्वज्ञ नहीं हो सकते, क्योंकि किसी एक विषय को भी न जानने वाला सर्वज्ञ नहीं हो सकता । अतः वेद के कर्त्ता में सर्वज्ञत्व की कल्पना नहीं की जा सकती । एवं अनन्तज्ञानराशि वेदों के कर्ता ही जब सर्वज्ञ नहीं हो सकते, तो फिर दूसरे पुरुष को सर्वज्ञ मानना दुराशा मात्र है । इस प्रकार सर्वज्ञ पुरुष के निराकरण से जगत के कर्ता रूप में परमेश्वर का अनुमान बाधित हो जाता है । सि० प० न, अन्यथोपपत्ते उक्त आक्षेप ठीक नहीं है, क्योंकि वेद रूप उपदेश की उपपत्ति ‘अन्यथा’ भी हो सकती है ( अर्थात् वेदों के उपदेष्टा पुरुष को सर्वज्ञ मानें अथवा असर्वज्ञ, दोनों ही स्थितियों में वेदोपदेश की उपपत्ति हो सकती है, इसके लिए वेदों के उपदेष्टा को प्रसर्वज्ञ मानना अनिवार्य नहीं है । अतः उक्त प्रर्थापत्ति प्रमाण ईश्वर सिद्धि का बाधक नहीं हो सकता ) । हेत्वभावे फलाभावातु- ( यह सभी मानते हैं कि ‘हेतु’ के न रहने पर ( कारण के न रहने पर ) ‘फल’ की प्रर्थात् ‘कार्य’ की उत्पत्ति नहीं होती । इसी लिये ‘प्रमाण’ के न रहने पर ‘प्रमा’ की उत्पत्ति नहीं होती है । ( इस नियम के अनुसार ही उपदेश के बिना हम लोगों की वाजपेयादियागों की) प्रवृत्ति उत्पन्न नहीं हो सकती’ । १. प्रमाज्ञान सफल प्रवृत्ति का कारण है । वेदों में जिन वाजपेयादि यागों के उपदेश किये गये हैं, उनमें प्रवृति के उपयुक्त प्रत्यक्षादि रूप प्रमाज्ञान केवल वेदकर्था पुरुष में ही संभव है। एक पुरुष में रहने वाले ज्ञान के समान दूसरे ज्ञान का पुरुषान्तर में उत्पादन बिना उपदेश के नहीं हो सकता । श्रता हम लोगों में वाजपेयादि की प्रबुद्धि के उपयुक्त प्रमाज्ञान का उत्पादन ‘उपदेश’ के बिना संभव नहीं है । अव! परमेश्वर ने बेदों का उपदेश किया। यदि वे उपदेश नहीं करते तो हम लोगों की वाजपेयादि में प्रवृधि अनुपपन्न हो जाती । अतः वेदों के उपदेश से वेदकर्ता में असावं एवं तन्मूलक जगरक स्वभाव की सिद्धि नहीं की जा सकती । बुद्धि प्रवत्त के म याग क्योिं उक्त सि० तब उपयु का स का संपाद ही भ प्रत्यक्ष वाजप को असर्व उक्त पू० घरी उपयु है, व सकर्त से उप
तृतीयः स्तबका ४१६ बुद्धिपूर्वा हि प्रवृत्तिर्न बुद्धिमनुत्पाद्य शक्यसम्पादना । न च प्रकृते बुद्धिरप्युपदेशमन्तरेण शक्यसिद्धिः ; तस्यैव तत्कारणत्वात् । भूतावेशन्यायेन प्रवर्त्तयेदिति चेत् ? यदि ऐसी बात न हो तो इस प्रकार का प्राक्षेप तो ‘कर्मवाद’ में अर्थात् मीमांसकों के मत में भी किया जा सकता है । अर्थात् ‘अदृष्ट’ सभी कार्यों का कारण है, अतः वाजपेयादि याग विषयक प्रवृत्ति रूप कार्यं का भी कारण है । ऐसी स्थिति में वेदों का उपदेश व्यर्थ है, क्योंकि वेदों का उपदेश रहने पर भी अदृष्ट के बिना याग की प्रवृत्ति नहीं होती है । प्रता उक्त प्राक्षेप व्यर्थ है ) । सि० प० बुद्धिपूर्वा हि.” बुद्धि से प्रवृत्ति की उत्पत्ति होती है । अतः जब तक बुद्धि की उत्पत्ति नहीं होगी, तब तक प्रवृत्ति की उत्पत्ति नहीं हो सकती । जब तक वाजपेयादि के अनुष्ठाताओं में उनके उपयुक्त ज्ञान न हो— वाजपेयादि योगों की प्रवृत्तियां तब तक उत्पन्न नहीं होगी । इस ज्ञान का संपादन बिना उपदेश के संभव नहीं है, क्योंकि उक्त प्रवृत्ति के उत्पादन के उपयुक्त ज्ञान का उत्पादन उपदेश से ही संभव है । अर्थात् जिस पुरुष में प्रवृत्ति के उपयुक्त ज्ञान का संपादन प्रत्यक्षादि प्रमाणों से संभव नहीं रहता है, उनको केवल शब्द प्रमाण रूप उपदेश का ही भरोसा है । अस्मदादि में वाजपेयादि यागों की प्रवृत्ति के उपयुक्त प्रमा ज्ञान की उत्पत्ति प्रत्यक्षादि प्रमाणों से संभव नहीं है । अतः उपदेश रूप शब्द प्रमाण के बिना हमलोगों की वाजपेयादि यागादि की प्रवृत्तियां उपपन्न नहीं हो सकती । अतः सर्वज्ञ होते हुए भी परमेश्वर को उपदेश का प्रायास स्वीकार करना पड़ा । इसलिये उपदेश की अनुपपत्ति से परमेश्वर में असर्वज्ञत्व की कल्पना प्रथवा अकर्तृस्व की कल्पना नहीं की जा सकती । क्योंकि प्रवृत्ति की उक्त अनुपपत्ति से उपदेश की उपपत्ति की जा सकती है । पू० प० भूतावेशन्यायेन ••• उपदेश के बिना भी परमेश्वर लोगों को प्रवृत्त करा सकते हैं। जैसे प्रेत ( पिशाच ) शरीर में प्रविष्ट होकर ऐसे लोगों से भी सप्तशती पाठादि करा देता है, जिन्हें उस पाठ के उपयुक्त ज्ञान नहीं है । जब नगण्य भूत प्रेतादि में भी इस प्रकार की सामर्थ्य देखी जाती है, तो फिर सर्वशक्तिमान परमेश्वर में ऐसी सामर्थ्य की कल्पना निराधार नहीं कही जा सकती । प्रत: उपदेश के बिना प्रवृत्तियां अनुपपन्न नहीं हैं । इस लिए प्रवृत्ति की मनुपपत्ति से उपदेश की कल्पना नहीं की जा सकती । CCO. Vasishtha Tripathi Collection. Digitized by eGangotri४२०. गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जलौ प्रवर्तयेदेव, यदि तथा फलसिद्धिः स्यात् । न त्वेवम् । कुत एतदवसितम् ? उपदेशान्यथानुपपत्त्यैव । यस्यापि मते अदृष्टवशादेव भूतानां प्रवृत्तिस्तस्याऽपि तुल्यमेतत् । यद्यस्ति प्रवृत्तिनिमित्तमदृष्टम् ? किमुपदेशेन ? तत एव प्रवृत्तिसिद्ध ेः । न चेत्; तथापि किमुपदेशेन ? तदभावे तस्मिन् सत्यप्यप्रवृत्तेः । सि० प० प्रवत्तयेत्" यदि उक्त ‘भूतावेशन्याय’ से उपदेश के विना ही वाजपेयादि में प्रवृत्ति रूप फल के उत्पादन की संभावना रहती, तो वे अवश्य ही ऐसा करते, उपदेश के आयास को स्वीकार न करते । किन्तु भूतावेशन्याय से भी यह संभव नहीं है कि उनमें बालुका से तेल के उत्पादन की अथवा सुवर्ण से धान्य के उत्पादन की रीतियां उन्हें ज्ञात हैं, किन्तु वस्तुस्थिति के अनुसार जिन वस्तुओं में जिन कार्यों के उत्पादन की सामर्थ्य है, उन सभी वस्तुनों से उन सभी कार्यों के उत्पादन की रीति उन्हें ज्ञात है—यही उनकी ‘सर्वशक्तिमत्ता’ का अर्थ है । इस लिये उपदेश अनुपन्न नहीं है । भूतों में भी कोई विशेष प्रकार का प्रेन ही अपने आदेश के द्वारा किसी विशेष प्रकार की प्रवृत्ति का उत्पादन कर सकता है। सभी प्रेत सभी प्रवृत्तियों का उत्पादन नहीं कर सकते । एवं वाजपेयादि के प्रत्येक अनुष्ठताता में प्रवृत्ति के लिए सर्वज्ञ परमेश्वर के ‘आवेश’ की कल्पना की अपेक्षा इसी में लाघव भी है कि किसी एक ही पुरुष में उन सभी प्रवृत्तियों के अनुकूल उपदेश करने की क्षमता की कल्पना की चाय । जिससे वाजपेयादि के सभी मनुष्ठाताओं को उक्त प्रवृत्तियों के अनुकूल ज्ञान हो सके । अतः उपदेश वृथा नहीं है । यस्यापि मते ( कारिका के चतुर्थ चरण की व्याख्या ) … 600 रीतियां ज्ञात है, वे सभी पूर्वपक्षवादी मीमांसक गण भी केवल ‘उपदेश’ को वाजयेयादि की प्रवृत्ति का कारण नहीं मानते । क्योंकि जितने पुरुषों को वाजपेयादि के प्रनुष्ठान की पुरुष वाजपेयादि के अनुष्ठानों में प्रवृत्त नहीं होते। भले ही उनके और भी सभी कारणों का सम्बलन रहे। इसके लिये उन लोंगों को भी ‘अदृष्ट’ को उक्त प्रवृत्तियों का कारण मानना पड़ता है। किन्तु जिस प्रकार वे ‘उपदेश’ के द्वारा उपदेष्टा पुरुष की उपेक्षा करते हैं, उसी प्रकार केवल अदृष्ट को ही प्रवृत्ति का कारण मान लेने से ‘उपदेश’ में भी प्रवृत्ति की कारणता उपेक्षित हो जायगी । यद्यस्ति . .. क्योंकि यदि मनुष्ठाता पुरुष में प्रवृत्ति के जनकीभूत मदृष्ट की सत्ता है, तो फिर, वही प्रदृष्ट प्रवृत्ति के उपयुक्त ज्ञान का भी सम्पादन कर देगा । उसी से प्रवृत्ति की उअपत्ति हो जायगी। यदि अनुष्ठाता पुरुष में उक्त अदृष्ट नहीं है, तथापि उपदेश व्यर्थ ही होगा, क्योंकि उपदेश के रहते हुए भी अदृष्ट के विना प्रवृत्ति की उत्पत्ति नहीं होगी ।
臣氏 पू० ‘प अत सि लो कर सि को सके मा की हो जा तथ हो तृतीयः स्वयकः १२१ नित्यः स्वतन्त्र उपदेशो न पर्यनुयोज्य इति चेत्; यूयं पर्यनुयोज्याः, ये तमवधानतो धारयन्ति विचारयन्ति चेति ॥ १८ ॥ न चार्थापत्तिरनुमानतो भिद्यते, लोके तदसंकीर्णोदाहरणाभावात् । प्रकारान्तराभावाच्च । तथा हि- पू० प नित्य श्रनियम्यस्य नायुक्तिर्नानियन्तोपपादकः । न मानयोविरोधोऽस्ति प्रसिद्धे वाऽप्यसौ समः ॥ १९ ॥ पुरुषकृत अत एव प्रनित्य ( पुरुष परतन्त्र ) जो उपदेश हैं, उनके प्रसङ्ग में यह ‘पर्यनुयोग’ ( प्रत्यभियोग ) हो सकता है, किन्तु वेद तो नित्य है, अत एव वे ‘स्वतन्त्र’ है । अतः उनके प्रसङ्ग में ये अभियोग नहीं चल सकते । सि० प० यूयम् वेदों के उपर हमलोगों का कोई भी अभियोग नहीं है, आप मीमांसकों के ऊपर हम लोगों का अभियोग है, क्योंकि आपलोग ज्ञान पूर्वक वेदों का अध्ययन एवं विचार करते हैं ।। १८ ।। सि० प० न चार्थापत्ति वस्तुतः अर्थापत्ति अनुमान से भिन्न कोई प्रमाण ही नहीं है, (१) क्योंकि ऐसी कोई विशेष प्रकार की प्रमिति उपलब्ध नहीं है, जिसका सम्पादन अनुमान प्रमाण से न हो सके, एवं उसके लिए ‘प्रर्थापत्ति’ नाम के अतिरिक्त प्रमाण की आवश्यकता हो । अर्थापत्ति को अनुमान से अभिन्न मानने की दूसरी युक्ति (२) यह है कि जिस रीति से प्रतु- मान प्रमाण के द्वारा प्रमिति की उत्पत्ति होती हैं, उसी रीति से अर्थापत्ति के द्वारा भी प्रमिति की उत्पत्ति होती है | अर्थापत्ति के द्वारा प्रमिति की उत्पत्ति की कोई दूसरी रीति उपलब्ध नहीं होती है, अतः श्रर्थापति अनुमान ही है । ( सुतराम् अनुमान प्रमाण के द्वारा बाघ की संभावना के निराकरण से ही तदभिन्न प्रर्थापत्ति प्रमाण के द्वारा बाघ की संभावना निराकृत हो जाती है ) । ’ तथा हि, श्रनियभ्यस्थ … १) ‘अनियम्य’ की अर्थात् व्याप्ति से रहित की— ‘अयुक्ति’ प्रर्थात् अनुपपत्ति नहीं होती । ( अर्थात् व्यापक के बिना ही व्याप्य की अनुपपत्ति होती है ।’ ) १. ‘नियम’ कहते हैं ‘ध्याप्ति’ को । ‘नियम’ से युक्त ही है ‘नियम्य’ । फलतः ‘नियम्य’ शब्द ‘suits’ का बोधक है । वह्नि का नियम धूम में है, अतः धूम नियम्य
४२२ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली । ( व्याप्य ) है । इसी लिये वह्नि घूम का नियामक है । वह्नि के विना धूम नहीं रह सकता । यही है वह्नि रूप ‘नियन्ता’ के विना धूम रूप नियम्य की ‘अयुक्ति’ अर्थात् अनुपपत्ति | ‘जीवंश्चैत्रो गृहे नास्ति’ इस वाक्य के अर्थबोध के बाद जो चैत्र के बाहर रहने की कक्षपना की जाती है, वही अर्थापत्ति का प्रसिद्ध उदाहरण है । ‘प्रत्यक्ष’ शब्द के समान ही ‘अर्थापत्ति’ शब्द भी व्युत्पत्तिभेद से प्रमाण एवं प्रमिति दोनों का ही बोधक है। ‘अर्थस्य आपत्ति’ इस व्युत्पत्ति के अनुसार ‘अर्थापत्ति’ शब्द प्रमिति का बोधक है । एवं ‘अर्थस्य आपत्तिः यस्मात्’ इस व्युत्पत्ति के द्वारा वही ‘श्रर्थापत्ति’ शब्द प्रमाण का भी बोधक है । प्रकृत में उक्त वाक्यार्थबोध है ‘अर्थापत्ति’ प्रमाण, एवं उस बोध से अनुपपत्ति के अनुसन्धान के द्वारा उत्पन्न बाहिर स्तित्व का ज्ञान है अर्थापत्ति प्रमिति । से श्लोक के प्रथमचरण के द्वारा आचार्य ने अपना यह आशय व्यक्त किया कि जिसमें जिस वस्तु की व्याप्ति रहती है, वही व्याप्य पदार्थ उस व्यापक पदार्थ के बिना अनुपपन्न होता है । बह्नि के विना धूम ही अनुपपन्न होता है, धूम के बिना वह्नि की अनुपपत्ति नहीं होती है । इसी प्रकार गृह में न रहनेवाले एवं जीवन युक्त चैत्र की व्याप्ति चूँकि जीवित चैत्र के बहिरस्तित्व में है, इसी लिये जीवित चैत्र के बहिरस्तिश्व के बिना जीवित चैत्र का घर में न रहना अनुपपन्न है । यदि घर में न रहनेवाले जीवित चैत्र में जीवित चैत्र के बहिरस्तित्व की व्याप्तिन रहती, तो उसके बिना जीवित चैत्र का घर में न रहना अनुपपन्न नहीं होता । अतः ‘अनियम्य’ की अर्थात् व्याप्ति से रहित की ‘अयुक्ति’ अर्थात् अनुपपत्ति नहीं होती । अतः उपपाथ में उपपादक की व्यतिरेक व्याप्ति का रहना श्रर्थापत्ति के लिये आवश्यक है। जिसकी व्याप्ति जिस वस्तु में रहेगी, वह उसका व्यापक अवश्य होगा । इस प्रकार जीवित चैन का बहिरस्तिस्व गृह में न रहनेवाले चैत्र का अवश्य ही व्यापक है। अतः व्याप्य है ‘नियम्य’ एवं व्यापक है ‘नियन्ता’ । जो जिसका व्यापक नहीं है, वह उसका ‘उपपादक’ नहीं हो सकता । वह्नि चूँकि धूम का व्यापक है, इसी लिये यह कहना सम्भव होता है कि पर्वत में चूँकि घूम को देखते हैं, अतः उसमें वह्नि भी अवश्य ही होगा। क्योंकि धूम रह सकता । वह्नि के विना नहीं इसी प्रकार गृह में न रहनेवाले जीवित चैत्र की व्यापकता जीवित चैत्र के बहिरस्तिस्थ में है, इसी लिये यह कहना सम्भव होता है कि ‘चैत्र जीवित है, क्योंकि घर में नहीं दीखते हैं, तो फिर वे घर से बाहर कहीं अवश्य होंगे। यदि जीवित चैत्र के बहिरस्तित्व में गृह में न रहनेवाले जीवित चैत्र की व्यापकता न रहती अर्थात् जीवित चैत्र के बहिरस्तित्व के बिना भी जीवित चैत्र का घर में न रहना ‘उपपन्न’ त्यु नि न सर्प प्रत नहीं बहि प्रथ घूम की कह छत सि अनु को १.
तृतीयः स्तबकः ४२३ ‘जीवंश्चत्रो गृहे नास्ती’ त्यनुपपद्यमानमसति बहिःसद्भावे तमापादयती- त्युदाहरन्ति । तत्र चिन्त्यते किमनुपपन्नं जीवतो गृहाभावस्येति । न ह्यनियम्यस्या- नियामकं विना किञ्चदनुपपन्नम्, अतिप्रसङ्गात् । न मानयो! … ( ३ ) ( चूकि दो विरोधी ज्ञान प्रमा नहीं हो सकते। किसी भी वस्तु में रज्जु एवं सर्प दोनों का ज्ञान प्रमा नहीं हो सकता । दोनों ज्ञानों में से एक मिथ्या भवश्य होगा । प्रत: उनमें से किसी एक ही ज्ञान का करण प्रमाण होगा । भतः ) दो प्रमाणों में कोई विरोष नहीं है । ( ४ ) प्रसिद्धे वाप्यसो अगर ऐसी बात हो ( अर्थात् जीवित देवदत्त के घर में न रहने से जीवित देवदत्त के पर भी अनुमान न मानें तो फिर ) ‘प्रसिद्ध ’ बात समान रूप से लागू होगी । ( क्योंकि कहा जा सकता है, क्योंकि यहाँ भी अर्थापत्ति बहिरस्तित्व की कल्पना को व्याप्ति मूलक होने अर्थात् सर्वसिद्ध अनुमान के प्रसङ्ग में भी यह घूम से होने वाले वह्नि के ज्ञान को भी अर्थापत्ति की अनुपपत्ति एवं दो प्रमाणों का विरोध, ये दोनों ही प्रयोजक विद्यमान है। कहा जा सकता है कि पर्वत में जिस घूम को देखते हैं, वह वह्नि के विमा छाता पर्वत में वह्नि की कल्पना करते हैं । अतः अर्थापत्ति भी मनुमान ही है ।" सि० प० जीवश्चैत्रः ( प्रथम चरण की व्याख्या ) 800 क्योंकि यह धनुपपन्न है, जीवित चैत्र के बहि सत्व के विना जीवित चैत्र का घर में न रहना अनुपपन्न है । इसी प्रनुपपन्नता से जीवित चैत्र के बहिसन की कल्पना ( आपादन ) की जाती है । अर्थापत्ति को अतिरिक्त प्रमाण मानने वाले इसी को प्रर्थापत्ति को उदाहरण मानते हैं । हो सकता तो जीवित चैत्र का बहिरस्तित्व गृह में न रहनेवले चैत्र का अथवा चैत्र में रहनेवाले गृहवृत्तित्व के अभाव का अनुमान के समान ही अर्थापत्ति के भी उपपादक नहीं हो सकता । अर्थात् व्याप्यव्यापकभाव के द्वारा विषय का प्रमापक है, अतः अर्थापत्ति भी अनुमान ही है, उससे अतिरिक प्रमाण नहीं । १. कहने का तात्पर्य है कि वेदों के रचयिता में उपदेश कर्तृव मूलक असर्वज्ञस्य की कल्पना से जो ईश्वर का खयडन करना चाहते हैं, वह सम्भव नहीं है, क्योंकि अर्थापति अनुमान ही है। अतः अर्थापण से भी प्रकृत में यह अनुमान ही करना होगा कि ‘ईश्वर’ सर्वज्ञः सह्निना उपदेशकर्त स्वस्य अनुपपद्यमानत्वात्’ । किन्तु इस प्रकार के अनुमानों का निराकरण ‘क्वानुमानमनाश्रयम्’ इत्यादि से प्राश्रयासिद्धयादि दोषों का उद्भावन के द्वारा कर चुके हैं। उन्हीं दोषों से अर्थापति के द्वारा भी ईश्वर की सिद्धि में होने वाली बाधाओं का निराकरण हो जाता है ।
४२४ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली ननु स्वरूपमेव तत्, न तावद्बहिःसत्त्वेन कर्तव्यम्, तदकार्यत्वात्तस्य । स्थितिरेवास्य तेन विना न स्यादित्यस्य स्वभाव इति चेत्; एवं तर्हि तन्नियतस्वभाव एवासौ, व्याप्तेरेव व्यतिरेकमुखनिरूप्यायास्तथा व्यपदेशात् । इस प्रसङ्ग में यह विचार करना चाहिए कि जीवित चैत्र के बहिःसत्व के विना गृह में न रहने वाले जीवित चैत्र में कौन सी ‘अनुपपत्ति’ है । ‘मनियामक’ के विना ‘अनियम्य’ में कोई भी अनुपपत्ति नहीं होती है। अर्थात् जिस वस्तु में जिस वस्तु की व्याप्ति है, वही व्यापकी भूत वस्तु के विना अनुपपन्न होता है । जिस वस्तु में जिस वस्तु की व्याप्ति नहीं हैं, वह ‘अव्याप्य’ वस्तु मी यदि उक्त प्रव्यापकी भूत वस्तु से अनुपपन्न हो तो ‘अतिप्रतङ्ग’ होगा । प्रर्थात् यह कहना मी सङ्गत होगा कि घट के विना पट अनुपपन्न है’ इसलिये चूँकि घट है, अतः पट भी अवश्य ही होगा। किन्तु इस स्थिति को कोई भी स्वीकार नहीं कर सकता । तस्मात् ’ नियन्ता’ ( व्यापक ) के विना ‘नियम्य, अर्थात् व्याप्य की ही अनुपपत्ति होती है । ननु स्वरूपमेव यह भी मानना संभव नहीं है कि ‘स्वरूप’ का अर्थात् गृह में न रहने वाले जीवित चैत्र का उत्पादन ही जीवित चैत्र के बहिरस्तित्व से होता है, क्योंकि उक्त बहिरस्तित्व चैत्र रूप द्रव्य का उत्पादक कारण नहीं है । पू० प० स्थितिरेव गृह में न रहने वाले जोवित चैत्र का यह स्वभाव ही है कि उसकी सत्ता उक्त बहिर- स्तित्व के विना न हो। इस स्वभाव का संपादन ही उक्त बहिरस्तित्व से होता है । सि० प० एवं तहि 400 य मुख सि गृह जो है, ‘अ बहि सत्य पू० किन बहि सि 74 साथ निय है, अव अभि तो फिर यही कहिये कि वह ‘स्वभाव’ गृह में न रहने वाले जीवित चैत्र में उक्त बहिरस्तित्व के ‘नियम’ स्वरूप ही है। अगर ऐसी बात है तो फिर गृहावृत्ति जीवित चैत्र में उक्त बहिरस्तिस्व की व्याप्ति ही कथित हो जाती है। क्योंकि व्यतिरेकमुखी व्याति ही ‘स्वभाव’ शब्द से प्रसिद्ध है। जिसके बिना जो न रहे उसी में उसकी व्यतिरेकव्याप्ति रहती है । घूम वह्नि के विना नहीं रहता, अतः घूम में वह्नि की व्यतिरेकव्याप्ति है । इसी लिये घूम ‘वह्निनियतस्वभाव’ का कहलाता है । अतः गृह में जीवित चैत्र के न देखने से जो चैत्र के बहिरस्तित्व का बोष होता है, वह उक्त व्यतिरेकव्याप्ति से हो होता है। इसलिये उक्त बोध अनुमिति रूप ही है, एवं उसका करण भी अनुमान प्रमाण ही है, अर्थापत्ति रूप स्वतन्त्र प्रमाण नहीं है । पू० में व्या व्या
तृतीय - स्तवकः कथं वा बहिः सत्त्वमस्योपपादकम् ? । ४२५ न हि अनियामको भवन्नप्यनियम्यमुपपादयति, अतिप्रसङ्गादेव । स्वभावोऽस्य यदनेन बहिः सत्त्वेन गेहासत्त्वं क्रोडीकृत्य स्थातव्यमिति चेत्; सेयं व्याप्तिरेवान्वय- मुखनिरूप्या तथा व्यपदिश्यत इति । न वयमविनाभावमर्थापत्तावपजानीमहे, किन्तु तज्ज्ञानम् । सि० प० कथम्बा । ( कारिका के द्वितीय चरण की व्याख्या ) यदि बहिःसस्य में चैत्र में रहनेवाले गृहाचुरित्व की व्यापकता न रहे, तो फिर बहिःसत्त्व से गृहावृत्तित्व उपपन्न ही कैसे होगा ? जो जिसका व्यापक नहीं होता, वह उसका उपपादक नहीं हो सकता । वह्नि धूम का व्यापक है, इसी लिये वह्नि घूम का उपपादक है अगर यह स्वीकार न करेंगे तो यहां भी ‘अतिप्रसङ्ग’ होगा । अर्थात् यह मानना भी अयुक्त नहीं होगा कि प्रयोगोलक में चूकि वह्नि है, अत: उसमें घूम भी अवश्य रहेगा। किन्तु ऐसा कोई भी नहीं मानता । अतः यही सत्य है कि ‘अनियन्ता’ अर्थात् अव्यापक कभी ‘उपपादक’ नहीं होता । पू० प० स्वभावोऽस्य कथित बहिःसत्व उक्त गृहासत्त्व का व्यापक है, इस लिये उसका उपपादक नहीं है, किन्तु जीवित चैत्र का यह ‘स्वभाव’ ही है कि स्वगत बहिःसत्व के साथ वह नियमपूर्वक बहिःसत्व को भी अपने साथ अवश्य रखे । अतः ‘नानियन्तोपपादकः’ यह वाक्य ठीक नहीं है । सि० प० सेयम् उक्त स्वभाव’ अन्वयमुखी व्याप्ति को छोड़कर और कुछ भी नहीं है । एवं जो जिसके साथ नियमतः रहता है, उसमें उसकी अन्वयव्याप्ति भी अवश्य रहती है । घूम वह्नि के साथ नियमपूर्वक रहता है, अतः वह्नि की अन्वयव्याप्ति घूम में रहती है । इसलिये बाहर रहनेवाले जीवित चैत्र के साथ यदि चैत्र में गृहावृत्तित्व अवश्य रहता है, तो फिर यह मानना ही होगा कि उक्त बहिरस्तित्व में उक्त गृहावृत्तित्व की अन्वयव्याप्ति अवश्य है । सुतराम इस ( अन्वयव्याप्ति प्रदर्शन की ) रीति से भी अर्थापत्ति अनुमान से अभिन्न ही निष्पन्न होता है । पृ० प० न वयम् हम ( मीमांसकगण ) यह नहीं कहते कि अर्थापत्ति प्रमाण से प्रमिति के उत्पादन में व्याप्ति का कोई उपयोग ही नहीं है, हम लोगों का तो इतना ही कहना है कि अनुमान में व्याप्ति का उपयोग ज्ञात होकर होता है । अर्थात् अनुमिति में व्याप्ति का ज्ञान कारण है, व्याप्ति स्वरूपतः कारण नहीं है, किन्तु अर्थापत्ति में व्याप्ति का स्वतः उपयोग होता है, ५४
४२६ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली न चाऽसौ सत्तामात्रेण तदनुमानत्वमापादयतीति चेन्न । अनुपपत्तिप्रतिसन्धानस्यावश्याभ्युपगन्तव्यत्वात् । अन्यथा त्वतिप्रसङ्गात् । अर्थापत्त्याभासाऽनवकाशाच्च । यदा ह्यन्यथैवोपपन्नमन्यथाऽनुपपन्नमिति मन्यते तदाऽस्य विपर्ययः, न त्वन्यथेति । अर्थात् अर्थापत्ति में व्याप्ति ही कारण है, उसके ज्ञान की अपेक्षा नहीं है । इस प्रकार अनुमान एवं अर्थापत्ति में भेद स्पष्ट है, अतः अर्थापति स्वतन्त्र प्रमाण ही है, अनुमान नहीं है । सि० प० न, अनुपपत्तिप्रतिसन्धानस्य अर्थापत्ति में भी व्याप्ति का ज्ञान ही कारण है, व्याप्ति स्वरूपतः कारण नहीं है । क्योंकि जबतक उपपादक ( व्यापक ) के अभाव से उपपाद्य ( व्याप्य ) की अनुपपत्ति का प्रतिसन्धान नहीं होता, तबतक अर्थापत्ति नहीं होती । ( पहिले कह आये हैं कि अनुपपत्ति व्याप्ति ही है ) । यदि अनुपपत्ति ( व्याप्ति ) के विना प्रतिसन्धान के ही अनुपपत्ति रूप व्याप्ति की सत्ता मात्र से अर्थापत्ति माने तो यहां भी ‘प्रतिप्रसङ्ग’ दोष ही होगा । अर्थात् जीवित चैत्र में जो गृहवृत्तित्व का अभाव देखा जाता है, वह उनके बहिरस्तित्व के विना अनुपपन्न है" इस आकार का ज्ञान जिस पुरुष को नहीं भी है, उस पुरुष में भी जीवित चैत्र के बाहिरस्तित्व का बोध मानना होगा । किन्तु यह अनुभव के विरुद्ध है । अर्थापत्त्याभास ( इस प्रसङ्ग में दूसरा दोष यह है कि ) यदि उक्त अनुपपत्ति रूप व्याप्ति का स्वरूपतः उपयोग प्रर्थापत्ति में माने तो ‘प्रर्थापत्त्याभास’ की बात ही छोड़ देनी होगी । जो वस्तुतः अर्थापपत्ति न हो, किन्तु अर्थापत्ति के समान प्रतिभाव होता हो, उसको ही ‘अर्थापत्त्याभास’ कहना होगा । जैसे कि घट पट के बिना प्रनुपपन्न नहीं है, किन्तु यदि कोई यह समझ ले कि घट पट के बिना अनुपपन्न हो तो फिर उस व्यक्ति को अवश्य ही घट के ज्ञान से पट का ज्ञान होगा। किन्तु यहाँ प्रर्थापत्ति मानना किसी को भी अभीष्ट नहीं है। किन्तु इस प्रकार के भ्रमात्मक ज्ञान की सत्ता को अस्वीकार नहीं किया जा सकता । अतः अर्थापत्ति को प्रमाण माननेवालों को उक्त स्थिति को अर्थापत्त्याभास का उदाहरण मानना ही होगा । यदा हि फलतः जो “प्रन्यथैव” उपपन्न है, अर्थात् घट बिना पट के भी उपपन्न है उसमें जो ‘अन्यथानुपपन्नत्व की भ्रान्ति अर्थात् ‘पट के बिना घट उपपन्न नहीं हो सकता’ इस प्रकार की जो भ्रान्ति है, उसी से उक्त ‘विपर्यय’ अर्थात् घटज्ञान विषयक ज्ञान के बाद उक्त अनुपपत्ति के प्रतिसन्धान से पट का भ्रमात्मक निश्चय रूप ‘विपर्यय’ उत्पन्न होता है । एवं इस भ्रमात्मक निश्चय रूप ‘विपर्यय’ की जनिका जो ‘अनुपपत्ति’ वह ‘अर्थापत्याभास’ कहलाती है । A त संस व्या क्य की में अथ वह में पू० सि हूँ, रह इस का पू० घर गृह सभी सम्भ तन्मू सि इसि
तृतीयः स्तबेक ४२७ तथापि कथमत्र व्याप्तिगृह्य ेते इति चेत्; यदाऽहमिह तदा नान्यत्र यदाऽन्यत्र तदा नेहेति सर्वप्रत्यक्ष सिद्धमेतत् । का तत्रापि कथन्ता ? | सर्वदेशाप्रत्यक्षत्वे तत्राभावो दुरवधारण इत्यपि नास्ति, तेषामेव संसर्गस्याऽऽत्मनि प्रतिषेधात् । यदि अर्थापत्ति में उक्त अनुपपत्ति रूप व्याप्ति को स्वरूपतः कारण माने, उसके लिये व्याप्ति के ज्ञान की अपेक्षा न माने तो उक्त ‘अर्थापस्याभास’ की उपपत्ति नहीं हो सकेगी । क्योंकि प्रर्थापत्याभास स्थल में व्याप्ति की स्वरूपतः सत्ता नहीं रहती। अगर वहाँ भी व्याप्ति की स्वरूपतः सत्ता रहे, तो वह अर्थापत्याभास न हो कर अर्थापत्ति हो हो । यदि अर्थापत्ति में व्याति को स्वरूपतः कारण न मान कर उसके ज्ञान को ही कारण मानते हैं, तो फिर अर्थापत्ति एवं अर्थापत्त्याभास इन दोनों की व्यवस्था हो जाती है । जहाँ व्याप्ति नहीं रहेगी, वहीं भी व्याप्ति का ज्ञान ( भ्रमात्मक ही सही ) रह सकता है । अतः तथा कथित अर्थापत्ति में भी व्याप्ति का ज्ञान ही कारण है, स्वरूपतः व्याप्ति कारण नहीं है । पू० प० तथापि प्रर्थापत्ति के कथित प्रसिद्ध उदाहरण में व्याप्ति गृहीत कैसे होगी ? सि० प० यदाहम् सभी को स्वयं अपने में ही प्रत्यक्ष के द्वारा यह सिद्ध है कि जिस समय मैं घर रहता हूँ, उस समय बाहर नहीं रहता । एवं जिस समय बाहर रहता हूं, उस समय घर में नहीं रहता । अतः जीवित चैत्र जिस समय घर में नहीं हैं, उस समय अवश्य ही बाहर कही हैं। इस प्रकार व्याप्ति का ग्रहण प्रकृत में सुलभ है । अतः इस प्रसङ्ग में ‘कथन्ता’ का अर्थात् संशय का कोई प्रसङ्ग नहीं है। पू० प० सवंदेशाप्रत्यक्षत्वे … नैयायिक गण प्रभाव के प्रत्यक्ष में अधिकरण के प्रत्यक्ष को कारण मानते हैं । अतः घर में स्वयं रहने पर जो ‘मैं घर से ‘अन्यत्र’ नहीं हूँ, इस प्रकार का प्रत्यक्ष होगा, उसमें गृह से ‘अन्यत्र’ अर्थात् भिन्न सभी देशों के प्रत्यक्ष की अपेक्षा होगी । किन्तु घर से भिन्न सभी देशों के अन्तर्गत व्यवहित, विप्रकृष्ट एवं भतीन्द्रिय वे सभी देश भी हैं, जिनका प्रत्यक्ष सम्भव ही नहीं है । अतः ‘अन्यत्र’ स्वकीय प्रभाव का प्रत्यक्ष असम्भव है । इस लिये तन्मूलक उस व्याप्ति ज्ञान भी असम्भव है । सि० प० तेषामेव …….. सम्बन्ध द्विनिष्ठ है, मत। वह प्रतियोगी और अनुयोगी दोनों में ही रहता है । इसलिये जिस देश का सम्बन्ध ‘हम’ पद के अर्थ में है, उस देश में भी ‘अहम्’ पदार्थ का
४२८ गद्यपद्यात्मक न्यायकुसुमाञ्जलौ अयोग्यानां प्रतिषेधे का वार्तेति चेत्; तदवयवानां तत्संसर्गप्रतिषेधादेवानुमानात्, अन्येषां न काचित् । न ह्यकारणीभूतेन परमाणुना नेदं संसृष्टमिति निश्चतु ं शक्यमिति । सम्बन्ध अवश्य है । तदनुसार ‘यदाहमिह’ इस वाक्य का यह अर्थ भी हो सकता है कि ‘जिस समय मैं इस देश के सम्बन्ध से युक्त रहता हूँ, ( यदाऽहम् एतद्द ेशसम्बन्धवान् ) । एवं ‘तदा नान्यत्र’ इस वाक्य का यह अर्थ भी हो सकता है कि ‘उस समय मैं अवश्य ही तद्ददेश से भिन्न सभी देशों के सम्बन्ध के प्रभाव से युक्त भी रहता हूँ’ ( तदाऽहम् तद्दशभिन्नयावद्द ेश- सम्बन्धाभाववान् ) तदनुसार ‘यदाहम्’ इत्यादि व्याप्ति के बोधक वाक्य के द्वारा तद्देश से भिन्न यावद्द ेश के सम्बन्ध का अभाव ही ‘अहम्’ पदार्थ में अभिप्रेत है । अतः कोई दोष नहीं है । ’ क्योंकि उक्त एतद्दशभिन्न सभी देशों के सम्बन्ध के अभाव के प्रत्यक्ष में अधिकरणीभूत केवल अस्मत् पदार्थ का ही प्रत्यक्ष आवश्यक है, सो यहाँ सुलभ है । प्रकृत में ‘तदा अन्यत्र’ इस वाक्य के द्वारा जिन देशों के प्रत्यक्ष हो सकते हैं उन्हीं देशों के सम्बन्ध के अभाव का बोध अभिप्रेत है । ( तदनुसार प्रकृत सन्दर्भ के ‘तेषामेव’ का अर्थ है ‘एतद्देशभिन्नसर्व देशानाम् ’ ) । पू० प० प्रयोग्यानाम् 000 ( उक्त रीति से यद्यपि प्रत्यक्ष से ज्ञात होने वाले जितने देश हैं, उनके सम्बन्ध के अभाव का प्रत्यक्ष हो सकता है । क्योंकि प्रतियोगी अथवा प्रतियोगितावच्छेदक का किसी भी प्रकार का ज्ञान ही प्रभाव प्रत्यक्ष के लिये पर्याप्त है, तथापि ) प्रकृत ‘प्रन्यत्र’ शब्द से अतीन्द्रिय परमाणु प्रभृति भी तो लिये जा सकते हैं, उनके सम्बन्धों के निषेध का बोध किस प्रकार होगा ? मत: एतन्मूलक व्याप्ति की दुर्लभता ज्यों की त्यों है । सि० प० तदवयवानाम् 404 ऐसी कोई अनुपपत्ति नहीं है, क्योंकि उक्त प्रकार के परमाणु प्रभृति अतीन्द्रिय देश दो प्रकार के हैं ( १ ) इन्द्रिय गोचर देशों के अवयभूत परमाण्वादि एवं ( २ ) प्रत्यक्ष सिद्ध अवयवियों के अनवयवभूत स्वतन्त्र परमाण्वादि । इन में प्रथम प्रकार के जो परमाण्वादि हैं, उनका ज्ञान अनुमान से संभव है । यह अनुमान हो सकता है कि बिस जवयवी का सम्बन्ध जहाँ नहीं है, उनके अवयवों का सम्बन्ध भी उसमें नहीं है । यह नहीं हो सकता कि भूतल घट का सम्बन्ध न रहे, किन्तु घट के प्रवयव कपालों का सम्बन्ध रहे । अतः प्रत्यक्ष सिद्ध जिन अवयवियों के सम्बन्ध का निषेध किया गया है, उनके अवयवीभूत असीन्द्रिय देशो के सम्बन्ध में १. व्याप्तिज्ञान की उक्त अनुपपरि उक्त दोनों वाक्यों का क्रमशः यह अयं मान कर दी गयी है । (१) यदा अस्मत् सम्बन्धवानेतद्देशः (२) तदा एतद्देशभिन्नाः सर्वे देशा | अस्मरसम्बन्धाभाववन्तः । अनि यदे का परम संभ सम्ब ज्ञान निषे पू० व्या अर्था क्यों अतः नहीं नहीं सि० उपय हो, नहीं मैं अ में को की कर धिकर चैत्रा चरण्य
तृतीय- स्तबक ! ४२३ न चाऽविनाभावनिश्चयेनापि गमयन्नपक्षधर्मोऽर्थापत्तिरिति युक्तम्; पक्षधर्मताया अनिमित्तत्वप्रसङ्गात्, प्रविशेषात् । व्यधिकरेरणेनाविना भावनिश्चयायोगाच्च । यत् यत्र यदेति प्रकारानुपपत्तेः। का निषेध अनुमान प्रमाण से ज्ञात होगा । ‘अन्येषाम्’ अर्थात् उक्त अतीन्द्रियों भिन्न स्वतन्त्र परमाणु प्रभूत जो अतोन्द्रिय देश हैं, उनके सम्बन्धों का निषेध संभव ही नहीं है । कदाचित् संभव होने पर भी उसका कोई उपयोग नहीं हैं । ( कहने का तात्पर्य है कि जिन देशों में सम्बन्ध के रहने पर व्याप्ति भङ्ग की आशङ्का है, उन्हीं देशों के सम्बन्ध के निषेष का ज्ञान प्रकृतोपयोगी है । चैत्र में जिन देशों के सम्बन्ध की संभावना ही नहीं है, उनके निषेध का भी प्रयोजन नहीं है । अतः प्रकृत में व्याप्ति दुर्लभ नहीं है ) । 1 पू० प० न चाविनाभाव किसी प्रमिति को अनुमिति होने के लिए इतना ही आवश्यक है कि नहीं है कि वह व्याप्तिज्ञानजन्य हो, किन्तु उसके लिये यह भी आवश्यक है कि वह पक्षधर्मताज्ञान जन्य भी हो । प्रर्थापत्ति में व्याप्तिजन्यत्व या व्याप्तिज्ञानजन्यस्व के रहने पर भी पक्षधर्मताज्ञानजन्यत्व नहीं है, क्योंकि पक्ष हे चैत्र, हेतु है गृहवृत्ति अभाव, यह अभाव गृह में ही रहेगा, चंत्र रूप पक्ष में नहीं । अतः ‘गृहवृत्ति प्रभाव’ रूप हेतु बहिःसत्व रूप साध्य का व्याप्य होने पर भी ‘पक्षधर्म’ नहीं है। सुतराम् प्रर्थापत्ति में पक्षधर्मताज्ञानजन्यत्व नहीं है। अतः अर्थापत्ति और अनुमान एक नहीं है । सि० प० पक्षधर्मताया। ऐसी बात नहीं है कि जिसको श्राप अर्थापत्ति कहते हैं, उसमें पक्षधर्मता का कोई उपयोग हो नहीं । यदि प्रकृत में ‘चैत्र: बहिरस्ति गृहवृत्ति चैत्राभावात्’ अनुमान का यह प्राकार हो, तो पक्षधर्मता की उक्त अनुपपत्ति अवश्य होगी। किन्तु प्रकृत में ऐसा अनुमान इष्ट ही नहीं है, किन्तु “चैत्रः बहिरस्ति गृहवत्यभावप्रतियोगित्वात्’ इस प्रकार का अनुमान प्रकृत मैं अभिप्रेत है, उक्त ‘प्रतियोगित्व’ रूप हेंतु चैत्र रूप पक्ष में है अतः इस हेतु को ‘पक्षधर्म’ होते में कोई बाधा नहीं है । यदि प्रर्थापत्ति स्थल में हेतु का पक्ष में रहना आवश्यक नहीं मानेंगे ( अर्थात् पक्षधर्मता की प्रावश्यकता को स्वीकार नहीं करेंगे ) तो जिस व्याप्ति की प्रावश्यकता अर्थापत्ति में स्वीकार कर चुके हैं, उसकी भी उपपत्ति नहीं होगी। क्योंकि व्याप्ति है हेतु और साध्य का समाना- धिकरण्यं रूप । प्रकृत में यदि चैत्र में रहनेवाले बहिरस्तित्व साध्य है, एवं गृह में रहने वाला चैत्राभाव हेतु है, तो फिर दोनों का समानाधिकरण्य संभव ही नहीं है, अतः यहाँ समानाषि- घरण्यमूलक व्याप्ति की भी संभावना नहीं है । सुतराम् दो विभिन्न अधिकरणों में रहने वाले CCO. Vasishtha Tripathi Collection. Digitized by eGangotri४३० गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जलों प्रमारणयोविरोधे प्रर्थापत्तिरविरोधोपपादिका, न त्वेवमनुमानमित्यपि नास्ति । विरोधे हि रज्जुसर्पादिवदेकस्य बाध एव स्यान्नतभयोः प्रामाण्यम् । प्रामाण्ये वा न विरोधः । ( व्यधिकरण ) उक्त दोनों में व्याप्य व्यापक भाव ही नहीं हो सकता । अगर व्यधिकरण धर्मों में भी परस्पर व्याप्य व्यापकभाव स्वीकार करें तो यत् ( हेतुः ) यत्र ( देशे ) यदा यस्मिन्काले प्रस्ति, तत्र तदा वा साध्यम्’ इस आकार के शब्दों से जो व्याप्ति का प्रदर्शन किया जाता है-वह अनुपपन्न हो जायगा । इसी प्रकार के कालिक वा दैशिक सामानाधिकरण्य के द्वारा तो व्याप्ति गृहीत होती है । यदि व्याप्ति में हेतु एवं साध्य के समानाधिकरण्य ( दोनों का एक अधिकरण में रहने ) की अपेक्षा ही न तो फिर व्याप्ति प्रदर्शन के लिये उक्त प्रकार के शब्दों के प्रयोगों का वैयर्थ्य अनिवार्य है । अतः अर्थापति में भी पक्षधर्मता का उपभोग अवश्य होता है । पू० प० प्रमाणयोर्विरोधे …… कारिका के तृतीयचरण की व्याख्या ‘जीबी चैत्रः क्वचिदस्ति’ इस वाक्य में जो ‘क्वचित्’ पद है, उसका अर्थ ‘गृह’ भी है । प्रतः उक्त वाक्य से गृह में भी मंत्र के अस्तित्व का बोध होता है । इसके बाद ‘जीवी चैत्रः गृहे नास्ति’ इस वाक्य से गृह में चैत्र के अभाव का बोध होता है । फलतः उक्त अस्तित्व एवं नास्तिस्व का विरोध प्रकृत में उसी प्रकार उपस्थित होता है, जैसे कि ‘चैत्रः गृहे मस्ति’ एवं ‘चैत्रः गृहे नास्ति’ इभ दोनों वाक्यों के अर्थों में होता है। यह ‘विरोधज्ञान’ ही अर्थापति प्रमिति का करण रूप ‘अर्थापत्ति प्रमाण’ है। इस ‘विरोधज्ञान’ के बाद प्रथम वाक्य के ‘कचित्’ पद का ‘गृह रूप देश से भिन्न देश’ रूप अर्थ की ‘कल्पना’ की जाती है । इस कल्पना के द्वारा उक्त विरोध मिट जाता है। अविरोध की यह कल्पना ही ‘अर्थापत्ति’ प्रमिति है । यह कार्य अनुमान प्रमाण से संभव नहीं है । अतः अर्थापत्ति का अन्तर्भाव अनुमान में नहीं हो सकता । सि० प० विरोधे हि 930 परस्पर विरोधि दो ज्ञानों में से कोई एक ही ज्ञान प्रमा होगा । अतः विरोधी दो ज्ञानों में से किसी एक ही ज्ञान का ‘करण’ प्रमाण होगा। दूसरे ज्ञान का करण प्रमाणाभास ही होगा। पुरोति इदंकारास्पद किसी सर्पाकार के वस्तु में किसी को ‘रज्जुरियम्’ इस आकार का ज्ञान उत्पन्न होता है । एवं किसी को उसी वस्तु में ‘सर्पोऽयम्’ इस आकार का ज्ञान उत्पन्न होता है। किसी एक विशेष्यक रज्जुत्व प्रकारक एवं सर्पत्व प्रकार का दोनों ज्ञान प्रमा नहीं हो सकते । प्रतः उक्त दोनों ज्ञानों के करणों में से कोई एक ही प्रमाण होगा, एवं दूसरा प्रमाणामास होगा । प्रकृत कचि वाक्य प्रमाण प्रकृत एवं अथवा ज्ञान गृहवृि की क पू० प द्वारा निर्धार है, उस गृहस न रहन गृहसत यह न सि० मानना समान्य अतः बुद्धिय इसके ‘क्वचिि ‘क्वचिद इन दो से एक हो जाय
तृतीय स्तबक! ४३१ स्थूलमिदमेकमितिवत् सहसंभवात् । चैत्रोऽयमयं तु मैत्र इतिवद्वा विषयभेदात् । प्रकृते क्वाप्यतीति सामान्यतो गेहस्यापि प्रवेशादेकविषयताऽप्यस्तीति चेत् ? यद्य वं क्वचिदस्ति कचिन्नास्तिीतिवन्न विरोधः । अत्रापि विरोध एवेति चेत्; एकं तहि भज्येत । एतदनुसार प्रकृत में चूकि ‘चैत्रः क्वचिदस्ति’ एवं ‘चैत्रो गृहे नास्ति’ इन दोनों वाक्यों से उत्पन्न दोनों ही बोध यथार्थ ( प्रमा) ६, अतः उनके उत्पादक उक्त दोनों वाक्य प्रमाण ही हैं, उनमें से कोई भी वाक्य ’ प्रमाणाभास’ अथवा ‘अप्रमाण’ नहीं है । इस लिये प्रकृत में कोई विरोध ही नहीं हैं । तस्मात् जिस प्रकार किसी एक ही विशेष्य में ‘इदमेकम्’ एवं ‘इदं स्थूलम् इत्यादि अविरुद्ध अनेक विशेषणों ( प्रकारों ) का ज्ञान हो सकता है । प्रथवा विभिन्न विशेष्यक विभिन्न प्रकारक ‘भ्रयं चैत्रः, अयन्तु मैत्र:’ इत्यादि आकारों के ज्ञान हो सकते हैं । उसी प्रकार चैत्र में क्वचिदस्तित्व प्रकारक ज्ञान एवं चैत्र में ही गृहवृशित्वाभाव प्रकारक ज्ञान——ये दोनों ही हो सकते हैं । प्रता प्रकृत में प्रमाणविरोध की कोई बात ही नहीं है । पू० प० प्रकृते ज्योतिः शास्त्र के द्वारा चैत्र का जीवित रहना सिद्ध है । एतन्मूलक धनुमान के द्वारा यह भी सिद्ध है कि ‘चैत्र कहीं किसी देश में अवश्य हैं । उस देश का विशेष रूप से निर्धारण भले ही न हो। इस प्रकार चैत्र के अस्तित्व की जो सिद्धि देश सामान्य में होती है, उस सामान्य के अन्तर्गत चैत्र का गृहसत्व भी है। अतः उक्त सामान्यसिद्धि से चैत्र का गृहसत्व भी अर्थत सिद्ध हो ताता है । एवं अनुपलब्धि रूप प्रमाण के द्वारा चैत्र का गृह में न रहना (गृहासव ) भी सिद्ध होता है। ज्योतिःशास्त्रमूलक इस अनुमान से चैत्र में गृहसत्व की एवं अनुपलब्धि प्रमाण से चैत्र में ही गृहासश्व की सिद्धि प्राप्त होती है । अत: यह नहीं कहा जा सकता कि उक्त दोनों प्रमाणों में कोई विरोध ही नहीं है । सि० प० यद्येवम् यदि ऊपर कही हुई बात मान ली जाय तो उक्त दोनों बातों को प्रामाणिक हो मानना होगा। अतः उन दोनों में कोई विरोध ही नहीं है । ( कहने का तात्पर्य है कि समान्य रूप से क्वचिदस्तित्व का ज्ञान रहने पर भी ‘वचिन्नास्ति’ यह ज्ञान हो सकता है। अत: ‘क्वचिदस्तित्व’ बुद्धि का ‘वचिन्नास्तित्व’ बुद्धि विरोधिनी नहीं है । अतः वे दोनों ही बुद्धियाँ एक ही समय रह सकतीं हैं । ‘कचिदस्तित्व’ की विरोधिनी है ‘सर्वनास्तिस्व’ बुद्धि । इसके रहने पर ही ‘क्वचिदस्तित्व’ बुद्धि प्रतिरुद्ध हो सकती है। इस प्रकार यदि चैत्र में ‘कचिस्तित्व’ की बुद्धि रहेगी, तथापि गृह में न रहने की बुद्धि हो सकती है । तस्मात् ‘क्वचिदस्ति’ एवं ‘क्वचिन्नास्ति’ इन दोनों बुद्धियों की ही तरह ‘क्वचिदस्ति’ एवं ‘गृहे नास्ति’ इन दोनों बुद्धियों में भी कोई विरोध नहीं है) । यदि इन दोनों में भी विरोध माने तो इनमें से एक का भङ्ग हो जायगा । अर्थात् उनमें से एक वाक्यजनित बोध में प्रमात्व का विघटन हो जायगा ।
४३२ विरोध गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली न भज्येत, अर्थापत्त्या उभयोरप्युपपादनादिति चेत्; किमनुपपद्यमानम् ? एवान्यथानुपपद्यमानो विभिन्नविषयतया व्यवस्थापयतीति चेत्; अथाऽभिन्नविषयतयैव किं न व्यवस्थापयेत् ? पू० प० न भज्येत यदि दोनों में विरोध निर्णीत रहता तो विरोधिप्रमाण जन्यत्व हेतु से दोनों में से एक ज्ञान में अप्रमात्व का साधन हो सकता था, किन्तु श्रर्थापत्ति प्रमाण के द्वारा जब दोनों ज्ञानों में अविरोध निष्पन्न हो गया है, अर्थात् विरोध पराहत हो गया है, तो फिर विरोध के द्वारा जो दोनों में से एक में अप्रमात्व के साधन की आशा थी, उसे छोड़ ही देनी होगी । सि० प० किम 000 प्रकृत में अनुपन्न ही कौन सी वस्तु है ? जो अनुपन्न होकर प्रमाणों के श्रविरोष का सम्पादन करेगा । पू० प० विरोध एव यदि ‘कचिदस्ति’ इस वाक्य से गृह में भी चैत्र के अस्तित्व का बोध न माना जाय तो फिर ‘चैत्रो गृहे नास्ति’ इस वाक्य के साथ उसका विरोध ही नहीं रह सकेगा । यह विरोष ही अनुपपन्न होकर इस कल्पना को उत्पन्न करता है कि ‘चैत्रः क्वचिदस्ति’ यह वाक्य गृह से प्रतिरिक्त देशों में चैत्र के अस्तित्व का बोधक है । एवं ‘चैत्रो गृहे नास्ति’ यह वाक्य गृह में चैत्र के नास्तित्व का बोधक है”। इन दोनों में से पहिले वाक्य को यदि आदि में हौं गृह से अतिरिक्त देशों में चंत्र के अस्तित्व का बोधक मान लें, तो दोनों वाक्यों में विरोध ही अनुपपन्न होकर इस निश्चय को उत्पन्न करता कि उक्त दोनों वाक्य दो विभिन्न विषयों के बोधक हैं । अतः दोनों में कोई विरोध नहीं है, क्योंकि विरोध समान विषय के दो विभिन्न प्रमाणों में ही होता है । किन्तु ‘चैत्रः क्वचिदस्ति’ यह वाक्य चैत्र में गृह से अतिरिक्त देशों में मस्तित्व का बोधक है, एवं ‘चैत्रो गृहे नास्ति’ यह वाक्य चैत्र में गृह के प्रवृत्तित्व का बोधक है । अतः दोनों वाक्य अविरुद्ध दो विषयों के बोधक हैं, क्योंकि गृहातिरिक्त निरूपित वृत्तित्व एवं गृहनिरूपितवृत्तित्वाभाव इन दोनों में कोई विरोध नहीं है । गृह दोनों में कोई विरोध नहीं है । गृह में न रहने वाले चंत्र का गृह से अतिरिक्त किसी देश में रहने में कोई बाधा नहीं है । सि० प० प्रथाभिन्नविषयतयेव तयैव एक सर्वत्र पू० में ही उपश पादन मुच्छ में वि सि० दोनों समान पू० प धर्म ए हैं । अतः विभिन्न एवं ए यदि ए ही नही जानना व्यक्ति ही रह उक्त ‘विरोध’ कथित दोनों वाक्यों में विभिन्न विषयक बोध के उत्पादकत्व के सम्पादन द्वारा ही उक्त ‘अविरोध’ का ‘व्यवस्थापन’ क्यों करता है ? ( अभिन्न विषयक बोध के उत्पादकत्व के संपादन द्वारा ही क्यों नहीं अविरोध का व्यवस्थापन करता है ? ) सि० प ‘स्वभाव
तृतीयः स्तबक! ४३३ व्यवस्थापनमविरोधापादनम् । एक विषयतयैव चाग्नयोविरोधः । स कथं तयैव शमयितव्यः ? | न हि यो यद्विषमूच्छितः स तेनैवोत्थाप्यते इति चेत्; एक विषयतया अनयोर्विरोध इत्येतदेव कुत: ? । विभिन्नदेशस्वभावतयैव सर्वत्रोपलम्भादिति चेत्; नन्वियं व्याप्तिरेव । तथा च घट्टकुटयां प्रभातमिति । । पू० प० व्यस्थापनम् 139 इति चेत् प्रकृत में ‘व्यस्थापन’ शब्द का अर्थ है ‘अविरोध का संपादन, विरोध समान विषयों में ही होता है; विभिन्न विषयों में नहीं । विरोध चूँ कि समान विषयत्व मूलक है, अतः उसका उपशम अर्थात् अविरोध का संपादन भी दोनों को समान विषयक बोध के उत्पादकत्व के उप- पादन से नहीं हो सकता । जो व्यक्ति जिस विष से मूर्छित होता है, उसी विष से उस मूर्च्छा का उपथम कदापि नहीं हो सकता । इस लिए प्रर्थापत्ति प्रमाण ही उक्त दोनों वाक्यों में विभिन्न विषयक बोध की जनकता की उपपत्ति करते हुए अविरोध का संपादन कर सकता है । सि० प० एक विषयतया ( मीमांसकों ने यह सिद्धवत् लिखा है कि ) उक्त दोनों वाक्यों में विरोध का मूल है, दोनों से समानविषयक बोषों का उत्पन्न होना । किन्तु इसमें भी यह पूछना है कि समान (एक) विषय में प्रवृत्त होने से ही दोनों में विरोध क्यों है ? पू० प० विभिन्न … धर्म किसी एक व्यक्ति में बहिर्वृत्तित्व ( घर से बाहर रहना ) एवं गृहवृत्तित्व ये दोनों एक ही समय नहीं रह सकते । वे दोनों एक समय विभिन्न व्यक्तियों में ही रह सकते । जिस प्रकार किसी एक अधिकरण में गोत्व एवं अश्वस्व ये दोनों चू कि नहीं रहते, अतः ये दोनों परस्पर विरुद्ध हैं, उसी प्रकार एक काल में एक अधिकरण में न रहने से एवं विभिन्न प्राषयों में रहने से गृहवृत्तित्व एवं बहिर्वृत्तित्व ये दोनों धर्म भी परस्पर विरुद्ध हैं । एवं एक ही समय गृहवृत्तित्व एवं बहिर्वृत्तित्व ये दोनों ही धर्म विभिन्न आश्रयों में रहते हैं । यदि एक ही समय एक ही प्राश्रय में उक्त दोनों धर्म रह सकते तो, उन दोनों में कोई विरोष ही नहीं होता । जैसे रूप एवं रस इन दोनों में कोई विरोध नहीं होता है । तस्मात् यह जानना सुलभ है कि गृहवृत्तित्व एवं बहिर्वृतित्व ये दोनों धर्म नियमतः एक समय में बिभिन्न व्यक्तियों में ही रहते हैं, किसी एक व्यक्ति में नहीं । अतः इन दोनों में जो विभिन्न देशों में ही रहने का ‘स्वभाव’ है, वही उक्त विरोध का नियामक है । सि० प० नन्वियस्… गृहावृत्तित्व एवं बहिषु सित्व इन दोनों के नियमत। विभिन्न देशवृतित्व रूप जिस ‘स्वभाव’ की चर्चा की गयी है, वह ‘स्वभाव’ ‘व्याप्ति’ को छोड़कर कोई अन्य वस्तु नहीं है । ५५
४३४ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली न न धूमोऽपि वा अनुपपद्यमानतयैव वह्नि गमयेत् । न हि तेन विना श्रसावुपपद्यते । विरोधोऽपि धूमाद्वह्निना भवितव्यम्, अनुपलब्धेश्च न भवितव्यमिति । यह ‘अविरोघापादन’ मी ‘चू ँकि व्याप्ति मूलक ही है, अतः यह भी अनुमान को छोड़कर और कुछ नहीं है । अर्थात् उक्त विरोध से इतना ही सिद्ध होता है कि जिस समय जो वस्तु गृह में नहीं रहती, उस समय उसकी सत्ता घर के बाहर कहीं श्रवश्य रहती है । यदि इस व्याप्ति को ही उक्त ‘स्वभाव’ कहें तो फिर ‘घट्टकुटीप्रभात’ न्याय की आपत्ति होगी । अर्थात् व्याप्ति के भय से विरोध के रहने पर प्रविरोधापादन का प्राच्छादन प्रोढ़कर भागने वाले मीमांसकों को आगे भाकर पुनः व्याप्ति के ही सम्मुख उपस्थित हो जाना पड़ेगा । अतः यह ‘अविरोधापादन’ भी व्याप्ति मूलक होने के नाते अनुमान ही है। घूमोऽपि वा ……… ( श्लोक के चतुर्थ चरण की व्याख्या ) । अर्थापत्ति के दो प्रकार कहे गये हैं । ( १ ) एक के बिना दूसरे की अनुपपत्ति से उस ‘एक की कल्पना, एवं ( १ ) दो प्रमाणों में परस्पर विरोध के उपस्थित होने पर प्रविशेष का सम्पादन । इन दोनों ही प्रकार की अर्थापत्तियों का उपयोग अनुमान के प्रसिद्ध उदाहरण ‘वह्निमान् धूमात्’ इस स्थल में हो सकता है । फलतः अनुमान भी श्रर्थापत्ति में अन्तर्भूत होकर अपनी स्वतन्त्र सत्ता को खो बैठेगा । वह (१) घूम भी अपनी अनुपपत्ति के द्वारा ही वह्नि का ज्ञापन कर सकता है । फलत मी प्रथापत्ति प्रमाण होगा। क्योंकि घूम वह्नि से उत्पन्न होता है, अतः घूम वह्नि के विना अनुपपन्न है । किन्तु पर्वत में घूम प्रत्यक्ष दीख पड़ता है । अतः पर्वत में वह्नि भी अवश्य ही होगा । इस प्रकार इस प्रर्थापत्ति का ‘पर्वतो वह्निमान् वह्निम्बिना अनुपपद्यमानधूमवत्त्वात्’ यह स्वरूप निष्पन्न होता है । विरोधोऽपि
(२) चूकि घूम वह्नि के बिना उत्पन्न नहीं हो सकता, अतः धूम अवश्य ही वह्नि के साथ ही रहेगा । पर्वत में धूम का प्रत्यक्ष होता है, किन्तु वह्नि अनुपलब्धि से बाधित है । मत। वह्नि की अनुपलब्धि रूप जो वह्नयभाव का ज्ञापक प्रमाण है, इन दोनों में ‘विशेष’ १. ‘घट्टकुटी प्रभातम्याय, के मूल में यह लौकिक कहानी है कि कोई बणिक राजशुक्कन, देने के अभिप्राय से राजमार्ग को छोड़ कर पगडन्डी के रास्ते चल पड़ा । रात में वह रास्ता भूल गया । किन्तु भूलते भटकते प्रातः काल वह घाट पर की शुल्कशाला (कुटी) पर ही पहुँच गया । फिर तो उसे शुल्क देना ही पहा । इस न्याय का प्रकृतोपयोग स्पष्ट है तथा स्थि अन्य वह्नि उपसि का ज वह्नि अनुमा के जि के दू जाता भी म पू० कीं में व उपसि अवि से हो ही अ से अर्था सि० स्थल रूप जात करण . तृतीयः स्तबक, ४३५ तथा चानुपलब्धेरर्वाग्भागव्यवस्थापनम्, धूमस्य च व्यवधानेनानुपलभ्यवह्निविषयत्व- स्थितिरर्थापत्तिरिति कुतोऽनुमानम् ? । वह्निमानयमित्यनुमानं व्याप्तः । अन्यथाऽनुमानाभावे विरोधासिद्ध ेः । अर्वाग्भागानुपलब्धिविरोधेन परभागेऽस्य वह्निरित्यर्थापत्तिरेवेति चेन्न । व्याप्तिग्राहकेरण प्रमाणेन विरोधस्योक्तत्वात् । उपस्थित होता है । अर्थापत्ति प्रमाण इस विरोध को इस प्रकार मिटा सकता है कि पर्वत का जो श्रंश धूम से ढंका हुआ है, उसी अंश में वह्नि होगा । एवं अनुपलब्धि प्रमाण से जो वह्नि का अभाव ज्ञात होता है, वह पर्वत के किसी दूसरे अंश में होगा । घूम से वह्नि का अनुमान भी पर्वत के सभो अंशो में नहीं हो सकता । श्रतः बह्नि में घूम की व्यापकता से पर्वत के जिस अंश में वह्नि की सिद्धि होगी, अनुपलब्धि प्रमाण से वह्नि के अभाव की सिद्धि पर्वत के दूसरे अंश में होगी। इससे प्रत्यक्ष प्रमाण एवं अनुपलब्धि प्रमाण इन दोनों का विरोध मिट जाता है । इस प्रकार सभी अनुमानों को बात ही मिट जायगी। यह स्थिति तो मीमांसकों भी मान्य नहीं होगी । पू० प० वह्निमानयम् । वह्नि एवं धूम की व्याति से होने वाले जिस बोध को प्रनुमिति कही जाती है, उसका आकार है ‘प्रयम् ( पर्यंत ) वह्निमान्’ । यदि ऐसा न मानें तो प्रर्थापत्ति के द्वारा जो अबिरोध संपादन की रीति दिखलायी गयी है, वह अनुपपन्न हो जायगी, क्योंकि किसी प्रमाण के द्वारा जब पर्वत में वह्नि को प्राप्ति होगी, तभा वह्नयभाव के ज्ञापक अनुपलब्धि प्रभृति प्रमाणों से उसका विरोध उपस्थित होगा । एवं जब किसी प्रकार का विरोध उपस्थित होगा, तभी अर्थापत्ति प्रमाण अविरोध का संपादन करेगा । अतः नैयायिकों को भी यह मानना ही होगा कि उक्त व्याप्ति से होने वाला यह बोध ‘वह्निमानयम्’ इसी आकार होता है । व्याप्ति से होनेवाला यह बोष ही अनुमान है । यह अर्थापत्ति नहीं है । इस अनुमिति के से भिन्न ग्रन्थ में जो वह्नि की सिद्धि होती है, वह प्रर्थापत्ति अर्थापत्ति रूप प्रमिति ही है । सि० प० न, व्याप्तिग्राहकेन बाद पर्वत के चक्षु संनिकृष्ठ अंश प्रमाण से होती है । अत । वह धूम में जो वह्नि की व्याप्ति है, उसका ग्राहक है प्रत्यक्ष प्रमाण, क्योंकि अनेक स्थलों जब घूम भोर वह्नि साथ-साथ देखे जाते हैं, उसके बाद ही ‘नियत सामानाधिकरण्य’ रूप उन दोनों की व्याप्ति भी गृहीत होती है । किन्तु प्रकृत पर्वत में तो केवल घूम ही देखा जाता है, वह्नि नहीं । वह्नि की इस अनुपलब्धि से वह्नि और घूम की जो नियत सामानाधि- करण्य रूप व्याप्ति है, वह खण्डित हो जाती है । अतः व्याप्ति के ग्राहक प्रत्यक्ष प्रमाण के
४३६ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जलो नाप्युत्तरार्थापत्तिः । अन्यथा पाण्डरत्वस्याऽपालालत्वविरोधेन पालालत्व- स्थितिरप्यर्थापत्तिरेव स्यात् । साथ पर्वत में वह्मयभाव के ग्राहक अनुपलब्धि प्रमाण का विरोध उपस्थित होता है, अनुमान प्रमाण के साथ नहीं। इसलिये अनुमान के साथ अनुपलब्धि प्रमाण के विरोध को मिटाने के लिये प्रर्थापत्ति प्रमाण का स्वातन्त्र्य स्वीकार करना उचित नहीं है । सि० प० नाप्युत्तरार्थापत्तिः ’’ ‘पर्वतो वह्निमान्’ इस अनुमिति के वाद जो ‘पर्वतस्य परभागे वह्नि:’ इस आकार का बोध होता है, वह अर्थापत्ति का उदाहरण नहीं हो सकता। अगर ऐसी बात हो तो जिस समय ‘यह वह्नि पलाल ( पुआल ) से उत्पन्न नहीं है’ इस आकार का निश्चय जो घूम के पाण्डरस्व से होता है, उस निश्चय को भी अर्थापत्ति मानना होगा । " १. नैयायिकों ने ‘वह्निमान् धूमात्’ इस स्थल को प्रतिवन्धि रूप से अर्थापति के उदाहरण रूप में उपस्थित कर जो अनुमानोच्छेद की बात कही है, उस प्रसङ्ग में मीमां- सक कह सकते हैं कि उसकी दूसरी उपपथि व्याप्ति के ग्राहक प्रत्यक्षप्रमाण एवं पवंस में वाभाव के ग्राहक अनुपलब्धि प्रमाण इन दोनों में विरोध के द्वारा पहिले कहा जा चुका है। किन्तु ‘वह्निमानयम्’ इत्यादि सन्दर्भ के द्वारा हमलोगों ने अनुमान का स्वतन्त्र उदाहरण, एवं पर्वत के दूसरे अंश में वह्नि को अनुपलब्धि रूप विरोध के द्वारा अर्थापत्ति का स्वतन्त्र उदाहरण भी दिखला दिया है । अतः अर्थापत्ति के इस उदाहरण के मूल में प्रत्यक्ष का विरोध न रहने पर भी कोई हानि नहीं है । मीमांसकों की इसी बात को ध्यान में रखकर आचार्य ने ‘नाप्युत्तरार्थापतिः’ यह सन्दर्भ लिखा है । इस सन्दर्भ का अभिप्राय यह है कि पुमाल ( पलाल ) की आग से उत्पन्क्ष धूम का व पायडर नहीं होता ( अपायडर होता ) है । पर्वत में दीखानेवाले सभी धूम सामान्यतः अपायडर ही दीखते हैं। क्योंकि उन धूमों की उत्पत्ति पुचाल की भाग से नहीं होती। अतः पुचाल की भाग से जिन धूमों की उत्पति होगी, वे पाण्डरवर्णं के हो ही नहीं सकते हैं। यही है ‘पाण्डरव’ के साथ ‘अपालालत्व’ का विरोध । पाण्डरवां के धूम से जिस वह्नि की अनुमिति होती है, उक्त विरोध के कारण उस वह्नि में पालालत्व की अर्थात् पतालजन्यस्व की भी सिद्धि उक्त अनुमिति के बाद होती है। इसका यह स्वारस्य है कि चूँकि यह धूम पाण्डर वयं का है, अतः उसका कारण पालाक्ष से उत्पन्न वह्नि ही होगा । इस लिये धूम के इस माश्रय (पर्वत) में जो वह्नि है, वह पलालजन्य ही है । किन्तु वह्नि में पलाखजन्यस्व की इस सिद्धि को कोई भी अर्थापति प्रमाणजन्य नहीं मानता । किन्तु उक्त अनुमिति के बाद वह ‘मानसबोध’ ही माना जाता है । जैसे कि ‘घटेन जलमाहर’ इत्यादि वाक्यों से होनेवाले शाब्दबोध के बाद घट में छिद्रेतरत्वादि का मानसबोध होता है । वि वि सहि से गृही सि रहने वहि से अर्था पू० ( मं साम व्या रहत सि के क
तृतीयः स्तबक, ४३० तद्विशिष्टस्य तेनैव व्याप्त नैवमिति चेत्; यद्य वमर्वाग्भागानुपलभ्यमानवह्नित्वेन विशिष्टस्य धूमस्य तेनैव व्याप्तेः कथमेवं भविष्यतीति तुल्यम् । केवलव्यतिरेक्यनुमानं पराभिमतमर्थापत्तिरन्वयाभावादिति चेत्; एवमेतावता विशेषेरणानुमानेऽर्थापत्तिव्यवहारं न वारयामः । तद्विशिष्टस्य… पाण्डुर दर्ण के घूम में पलाल से उत्पन्न वह्नि की ही व्याप्ति है । अतः पाण्डर घूम से पलालजन्य वह्नि की ही धनुमिति होगी। क्योंकि जिस रूप में साध्य की व्याप्ति हेतु में गृहीत रहेगी, उसी रूप में साध्य की अनुमिति भी होगी । सि० प० यद्येवम्.. यदि ऐसी बात है तो फिर पर्वत में दीखनेवाले घूम में भी पर्वत के दूसरे भाग में रहनेवाले वह्नि की ही व्याप्ति गृहीत होती है, अतः उक्त धूम से पर्वत के अपरभाग में रहनेवाले वह्नि की ही अनुमिति होगी । फलतः साध्य में विशेषण विषया साध्यतावच्छेदक रूप से अनुमान प्रमाण के द्वारा ही पर भाग के वैशिष्ट्य का बोष हो जायगा । इसके लिये अर्थापत्ति रूप अन्य प्रमाण को कोई अपेक्षा नहीं है । पू० प० केवलव्यतिरेक्यनुमानम् आप ( नैयायिक) जिसको ‘केवलव्यतिरेकी धनुमान’ कहते हो, उसी को हम ( मीमांसकगण ) ‘अर्थापत्ति’ कहते हैं। क्योंकि अनुमिति की उत्पत्ति हेतु में साध्य के नियत सामानाधिकरण्य रूप अन्वयव्याप्ति से ही होती है । केवलव्यतिरेकी स्थल में यह अन्वय व्याति नहीं रहती है, वह तो साध्य के अभाव में हेतु के अभाव का नियतसामानाधिकरण्य रहता है । अतः उसको अनुमान नहीं कहा जा सकता । सि० प० एवमेतावता.. यदि कोई अनुमान केवल व्यतिरेकव्याप्ति से ही उत्पन्न होता है, एवं इस विशिष्टता के कारण उसको घर्थापत्ति कहते हैं, तो इसमें मुझे कोई विवाद नहीं है ।
४३८ गद्यपद्यात्मक - न्यायकुसुमाञ्जलौ तत्रानुमानव्यवहारः कुत इति चेत्; अविनाभूतलिङ्गसमुत्पन्नत्वात् । साध्यधर्मेण विना ह्यभवनमन्वयिन इव व्यतिरेकिरणोऽप्यविशिष्ट, तन्निश्चयश्चाऽन्वयतिरेका- भ्यामन्यतरेण वेति । तस्मादर्थापत्तिरित्यनुमानस्य पर्यायोऽयं तद्विशेषवचनं वा पूर्ववदादिवदिति युक्तम् ॥ १६ ॥ पू० प० तत्र व्यतिरेक व्याप्ति से उत्पन्न बुद्धि को आप ‘अनुमिति’ क्यों कहते हैं ? ( अर्थात् एक शब्द से व्यबहुत होनेवाले दो वस्तुओं में साधारण रूप से रहनेवाला कोई एक धर्म चाहिए । अन्वयव्याप्तिजन्य बुद्धि एवं व्यतिरेकव्याप्तिजन्य बुद्धि इन दोनों बुद्धियों में ऐसा कौन सा साधारण धर्म है ? अर्थात् उन दोनों में रहनेवाला कोई साधारण धर्म नहीं है, अतः दोनों का एक ‘अनुमान’ शब्द से व्यवहार नहीं हो सकता ) । सि० प० प्रविनाभूत … ‘अविनाभूत’ अर्थात् व्याप्ति से युक्त हेतु से उत्पन्न होना ( व्याप्ति विशिष्ट हेतु जन्यत्व ) ही दोनों में एक ही अनुमान शब्द से व्यबहार का प्रयोजक धर्म है । अर्थात् उक्त दोनों ही बुद्धियाँ चूँकि व्याप्ति से युक्त हेतु से उत्पन्न होती है, इसी साधर्म्य के कारण दोनों एक ही ‘अनुमान’ शब्द से व्यवहृत होती है । साध्य रूप धर्म के ‘बिना’ अर्थात् साध्य के बिना जो हेतु न रहे, वही हेतु ‘व्याप्त’ प्रथवा ‘अविनाभूत’ हेतु है । अन्वयी हेतु एवं व्यतिरेकी हेतु दोनों ही साध्य के बिना नहीं रहते, अतः वे दोनों ही हेतु ‘अविनाभूत’ अर्थात् व्याप्त हेतु हैं । अन्तर इतना ही है कि यह ‘नियतसामानाधिकरण्य’ रूप व्याप्तिं कहीं ‘यत्र यत्र हेतुस्तत्र तत्र साध्यम्’ इस ‘भन्वय’ से गृहीत होता है, एवं कहीं वह ‘यत्र यत्र साध्याभावस्तथ तत्र हेत्वभावः इस ‘व्यतिरेक’ से गृहीत होता है। अर्थात् साध्य की व्याप्ति से युक्त हेतु से उत्पन्न होना दोनों बुद्धियों में समानरूप से है, छाता दोनों का ‘प्रनुमान’ शब्द से व्यवहार होता है, क्योंकि वही ( साध्यनिरूपित व्याप्ति विशिष्ट हेतुजन्यत्व) अनुमानत्व व्यवहार का प्रयोजक है। चूंकि व्याप्ति के ग्राहक दोनों के भिन्न-भिन्न हैं, अतः ग्राहक की विभिन्नता से दोनों ‘अन्वयी’ एवं ‘व्यतिरेकी’ क्रमशः इन दो विभिन्न शब्दों से भी व्यवहृत होते हैं । तस्मात् ‘श्रर्थापत्ति’ या तो अनुमान का ही दूसरा नाम है, अथवा अनुमान का ही एक प्रभेद है। जैसे कि पूर्ववत्, शेषवत्, सामान्यतो- दृष्ट प्रभूति उसके भेद हैं । अतः अर्थापत्ति नामका कोई स्वतन्त्र प्रमाण नहीं है ।। १६ ।। तदु अनु इस न च है | का नहीं प्रति प्रमि है । सेह भी अम है इन्द्रि सिरि
तृतीयः स्तबक! ४३६ अनुपलब्धिस्तु न बाधिकेति चिन्तितम् । न च प्रत्यक्षादेरतिरिच्यते, तदुच्यते
अनुपलब्धिस्तु … प्रतिपत्तेरपारोक्ष्यादिन्द्रियस्यानुपक्षयात् । अज्ञातकररणत्वाच्च भावावेशाच्च चेतसः ॥ २० ॥ मीमांसकाभिमत अनुपलब्धि प्रमाण भी ईश्वर की सिद्धि में बाधक नहीं हो सकता इसका विचार कर चुके हैं ।’ न च किन्तु प्रत्यक्षादि प्रमाणों से अतिरिक्त अनुपलधि नाम का कोई स्वतन्त्र प्रमाण नहीं है । ( अतः प्रत्यक्षादि प्रमाणों के ईश्वरबाघकत्व के निराकरण से ही अनुपलब्धि प्रमाण का भी ईश्वर बाधकत्व को भी निराकृत समझना चाहिए ) । ‘अनुपलब्धि स्वतन्त्र प्रमाण क्यों नहीं हैं ? इसकी युक्तियां कहते हैं :- प्रतिपत्तेरपारोक्ष्यात् ( श्लोक के इस प्रथम चरण का यह अभिप्राय है कि ) अनुपलब्धि प्रमाण से जिस प्रमिति रूप ‘प्रतिपत्ति’ को बात कही जाती है, वह प्रतिपत्ति या प्रमिति ‘अपोराक्षाकारक’ है । अर्थात् ‘साक्षात्कार’ रूप हैं । एवं उत्पत्तिशील जितने भी अपरोक्षज्ञान हैं, वे सभी इन्द्रियों से ही उत्पन्न होते है । इसलिए अनुपलधि प्रमाण से उत्पन्न ‘घटाभाववदुभूतलम्’ यह ज्ञान भी अपरोक्ष रूप ही है । अतः इन्द्रिय ही उसका भी ‘करण’ है । इसका यह अर्थ नहीं कि अभाव की प्रतीति में प्रतियोगी की अनुपलब्धि कारण नहीं है। इसका इतना ही अभिप्राय है कि अनुपलब्धि अभाव प्रतीति का ‘करण’ नहीं है, किन्तु सहकारि कारण है । सुतराम इन्द्रिय और अनुपलब्धि दोनों में प्रभाव प्रमिति की कारणता भन्वय पोर व्यतिरेक से सिद्धि है । इन्द्रिय में प्रतीति की करणता पहिले से सिद्ध है । अवः इन्द्रिय में प्रभाव प्रतीति ही १. मीमांसकादि ‘अनुपलब्धि’ नाम का एक स्वतन्त्र प्रमाण मानते हैं, जिस से प्रभाव ईश्वरसिद्धि के बाधक रूप में इस अनुपलब्धि ग्रह दो प्रकार से ईश्वर की सिद्धि में बाधक हो भूतल में घट की अनुपलब्धि । इस रीति से ईश्वर की की प्रमिति खुत्पन्न होती है । वे प्रमाण को भी उपस्थित करते हैं। सकती है ( १ ) स्वरूपतः एवं ( २ ) शास होकर । से जो घटाभाव का महग्र प्रथम प्रकार से होता हैं सिद्धि में अनुपलब्धि प्रमाण का बाधकरण ‘योग्यादृष्टिः’ इत्यादि श्लोक से खडित हो चुका है । अनुपलब्धि प्रमाण के ईश्वरबाधकत्व का दूसरे प्रकार को भी ‘कानुमा- मनाश्रयम्’ इस सन्दर्भ के द्वारा कथित युक्तियों से ही खडित समझना चाहिये । इसकी सूचना ही आचार्य ने ‘अनुपलब्धिस्तु’ इत्यादि सुनवर्भ से ही है । CCO. Vasishtha Tripathi Collection. Digitized by eGangotri6 99. गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली की ‘करणता’ भी मान लेते हैं, तो अतिरिक्त प्रमाण नहीं मानना पड़ता है। अनुपलब्धि में यदि अभाव प्रतीति की करणता मानते हैं, तो ‘अनुपलब्धि’ नाम का एक अतिरिक्त प्रमाण मानना पड़ता है। इससे गौरव दोष की आपत्ति होती है । अतः अनुपलब्धि नाम का स्वतन्त्र प्रमाण नहीं है । (२) इन्द्रियस्यानुपक्षयात् तथे एक अर्थात् अभाव के सक प्रमि “अभाव प्रतीति के अन्वय और व्यतिरेक से युक्त इन्द्रिय ‘अन्यत्र’ प्रधिकरणादि ज्ञान में ‘उपक्षीण’ नहीं है । अर्थात् अभाव के अधिकरण के ज्ञान का संपादक होने के नाते ही इन्द्रिय के साथ प्रभाव ज्ञान का अन्वय और व्यक्तिरेक नहीं है । किन्तु इन्द्रिय | स्वतः प्रभावज्ञान के लिए उपयोगी है, इसीलिये उसका प्रन्वयव्यतिरेक उसमें है । अतः इन्द्रिय अभावज्ञान का कारण ही है, अन्यथासिद्ध नहीं । सुतराम् इन्द्रिय से उत्पन्न होने के कारण अभावज्ञान अपरोक्षात्मक ही है अर्थात् प्रत्यक्षात्मक ही है । ( ३ ) अज्ञातकररणत्वाच्च ‘घटाभाववदभूतलम्’ इत्यादि प्रमितियां अपरोक्षात्मक ही है, क्योंकि वे ‘अज्ञातकरणक’ 1 प्रत्यक्ष से भिन्न जितनी भी पनुभूतियाँ है, उनके ‘करण’ ज्ञात होकर ही अपने कार्यों का उत्पादन करते हैं, व्याप्ति एवं पद रूप करण जैसे कि ज्ञात होकर ही धनुमिति एवं शाब्दबोध रूप परोक्षानुभूतियों का उत्पादन करते हैं। केवल प्रत्यक्षात्मक अनुभूतियों के करण इन्द्रिय ही स्वरूपतः ( ज्ञात होकर नहीं ) अपने कार्यों को उत्पन्न करते हैं । इससे यह निष्पन्न होता है कि जो अनुभूति ‘अज्ञातकरण’ से उत्पन्न हो, वह प्रत्यक्षात्मक है । ‘घटाभाववभूतलम्’ इत्यादि अनुभव मी ‘अज्ञातकरण’ से ही उत्पन्न होते हैं, अतः वे भी प्रत्यक्षात्मक ही है । सुतराम् इन्द्रिय रूप प्रत्यक्ष प्रमाण ही उनका भी ‘करण’ हैं, इसके लिये : अनुपलब्धि रूप स्वतन्त्र प्रमाण मानने की आवश्यकता नहीं है । १. मीमांसकों का कहना है कि ‘घटाभाववद्भूतलम्’ इत्यादि प्रकार के अभाव के प्रत्यक्षों में भूतलादि अधिकरणों के प्रत्यक्ष कारण हैं । प्रत्यक्षों के प्रति इन्द्रिय कारण हैं । फक्षता अधिकरण प्रत्यक्ष के सम्पादक के रूप में प्रभाव प्रतीति के लिये भी इन्द्रिय की अपेक्षा होती है । इस प्रकार इन्द्रिय चूँकि प्रभाव प्रतीति से ‘अन्यत्र, अधिकरण के प्रत्यक्ष में ‘उपक्षीय’ है, चरितार्थ है, अतः अम्वयव्यतिरेक रहने पर भी इन्द्रिय प्रभाव प्रतीति का कारण नहीं है। किन्तु ‘अन्यथासिद्धि’ है । जैसे कि कुलाल पिता घट का कारण नहीं होता | अतः प्रभाव की प्रतीति प्रत्यक्षात्मक नहीं है । इस लिये ‘प्रति- परोरपारोक्ष्याद’ यह वाक्य संगत नहीं है । इसी असङ्गति का परिहार ‘इन्द्रियस्यानु- पायाद’ इस. दूसरे, हेतु वाक्य से आचार्य ने किया है। मन ( य कर में म इन्त्रि या उत्प अर्था आव पू० पक्ष सुतय में इ सि० का
तृतीया स्तबकः ४४१ या हि साक्षात्कारिणी प्रतीतिः सेन्द्रियकरणिका, यथा रूपादि प्रतीतिः । तथेह भूतले घटो नास्तीत्यपि । साक्षात्कारित्वमस्या प्रसिद्धमिति चेन्न । एकजातीयत्वे ज्ञाताज्ञातकरणत्वानुपपत्तेः । (४) भावावेशाञ्च चेतसा मन ( चेतस् ) के साहाय्य के विना कोई भी ‘करण’ ज्ञानों का उत्पादन नहीं कर सकता । अतः अनुपलब्धि को भी यदि प्रभाव प्रमिति का ‘करण’ मानेंगे तो उसको भी उक्त प्रमिति के उत्पादन में मन का साहाय्य अपेक्षित होगा । किन्तु सो सम्भव नहीं है । क्योंकि मन का यह स्वभाव है कि ‘भावपदार्थ’ रूप ज्ञानकरण ( इन्द्रियादि ) का ही सहायक हो । ( यही है मन का चेतस का ‘भावावेश’ अर्थात् भाव पदार्थ रूप ज्ञानकरण करण को साहाय्य करने का स्वभाव ) । अनुपलब्धि है उपलब्धि का प्रभाव रूप, इसलिये उसको ज्ञान के उत्पादन में मन का साहाय्य प्राप्त नहीं हो सकता । अतः अनुपलब्धि प्रभाव प्रभिति की करण नहीं हैं । इन्द्रियाँ हो अभाव प्रभिति करण हैं । या हि नास्तीत्यादि ( प्रथम चरण की व्याख्या) जिस प्रकार रूपादि की साक्षात्कारात्मक सभी प्रतीतियां इन्द्रिय रूप करण से ही उत्पन्न होती है, उसी प्रकार ‘घटाभाववद्भूतलम्’ इत्यादि प्राकारों की प्रभावप्रमितियां भी घूँ कि साक्षात्कारात्मक हैं, अतः उनकी उत्पत्ति भी इन्द्रिय रूप करण से ही होती है, अर्थात् इन्द्रिय ही उनके मी करण हैं। इसके लिए अनुपलब्धि नाम के अतिरिक्त प्रमाण की आवश्यकता नहीं है । ’ पू० प० साक्षात्कारित्वस् … यह निर्णीत नही है अभाव की उक्त प्रतीति साक्षात्कारात्मक ही है। हेतु को पहिले पक्ष में निर्णीत रहना चाहिये । मतः प्रभाव प्रतीति रूप पक्ष में ‘साक्षात्कारत्व’ हेतु नहीं है । सुतराम् उक्त हेतु स्वरूपासिद्ध हेत्वाभास है, हेतु नहीं । अतः इस अनुमान से उक्त अभावप्रतीति में इन्द्रियकरणकत्व की सिद्धि नहीं की जा सकती । सि० प० एकजातीयत्वे 404 ज्ञानों के ( १ ) साक्षात्कार एवं (२) प्रसक्षात्कार ये दो ही भेद हैं। जिन ज्ञानों का करण स्वरूपतः अर्थात् ज्ञात न होकर उन्हें उत्पन्न करते हैं, वे ज्ञान साक्षात्कारात्मक हैं । १. ‘बा हि’ यहाँ से लेकर ‘मास्तीत्यपि’ इतने पर्यन्त के सन्दर्भ से आचार्य ने अपने अभीष्ट अनुमान की सूचना दी हैं। प्रकृत में अनुमान का आकार इस प्रकार का समझना चाहिए ‘भूतले घटो नास्तीत्याद्यभावप्रतीति। इन्द्रियकरणिका साक्षारकार रूपत्वात् रूपादि प्रत्यक्षवत् । ५६
४४२ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली न हि तस्मिन्नेव कार्ये तदेव करणमेकदा ज्ञातमज्ञातञ्चैकदोपयुज्यते, लिङ्गे न्द्रिययोरपि व्यत्ययप्रसङ्गात्, ज्ञानस्याकारणत्वप्रसङ्गाच्च न । हि तदतिपत्यापि भवतस्तत्कारणत्वम्, व्याघातात् । तस्माज्ज्ञातानुपलब्धिजन्यस्यासाक्षात्कारित्वात्, तद्विपरीतजातीयमिति न्याय्यम् ! तद्य नूनं तद्विपरीतका रणकमिदं पू.० अनु विष सि एवं जिन ज्ञानों के करण ज्ञात होकर उन्हें उत्पन्न करते हैं, वे है, असाक्षात्कारात्मक - जैसे कि अनुमित्यादि । अनुपलब्धि कुछ अभाव विषयक ज्ञानों को ज्ञात होकर उत्पन्न करती । हैं, एवं कुछ प्रभाव विषयक ज्ञानों को स्वरूपतः उत्पन्न करती हैं । प्रभावविषयक सभी ज्ञानों को यदि नियमत: ‘असाक्षात्कारात्मक’ ही मानें तो यह स्वीकार करना होगा कि मनुपलन्धि ज्ञात होकर ही अभाव विषयक ज्ञान का उत्पादन करती है । यह तो संभव नहीं है कि बभाव विषयक ज्ञान नियमत प्रसाक्षात्कारात्मक होते हुये भी कभी स्वरूपतः अनुपलब्धि रूप करण से उत्पन्न हों एवं कभी ज्ञात होकर उसी अनुपलब्धि रूप करण से उत्पन्न हों । यह अनुभव के विरुद्ध है कि एक ही जाति के कार्य को एक ही करण कभी स्वरूपता उत्पन्न करें, एवं कभी ज्ञात होकर उत्पन्न करें। यदि ऐसी बात हो तो फिर इन्द्रियां भी कभी प्रत्यक्ष का स्वरूपतः उत्पादन करेगी, एवं कभी ज्ञात होकर प्रत्यक्ष का उत्पादन करेगी । अथवा यह भी कहना संभव होगा कि व्याप्ति भी कभी बिना उत्पादन करती है । यदि ऐसा हो तो फिर इन्द्रिय एवं इन्द्रिय के निरपेक्ष होकर स्वतन्त्र रूप से प्रत्यक्ष की कारणता माननी होगी । एवं इसी प्रकार व्याप्ति भी स्वतन्त्र रूप से अनुमिति की कारणता माननी होगी । एवं व्याप्तिज्ञान इन दोनों में ज्ञात हुये ही अनुमिति का ज्ञान दोनों में ही परस्पर ऐसी स्थिति जो प्रत्यक्ष केवल इन्द्रिय से उत्पन्न होगा, उसके प्रसङ्ग में कहा जा सकता है ‘वह बिना इन्द्रियज्ञान के ही उत्पन्न होती है । एवं जो अनुमिति केवल व्याप्ति से ही उत्पन्न होगी, उसके प्रसङ्ग में भी कहा जा सकता है कि यह अनुमिति विना व्याप्तिज्ञान के ही उत्पन्न होती है। इसी प्रकार इन्द्रिय के ज्ञान से उत्पन्न प्रत्यक्ष की कारणता इन्द्रिय में निरस्त हो जाती है, एवं व्याप्तिज्ञान जनित अनुमिति की कारणता व्याप्ति में खण्डित हो जाती है । क्योंकि जिसके न रहने पर भी जो उत्पन्न हो सके, वह उसका कारण नहीं हो सकता । इसलिये यही कहना पड़ेगा कि अनुपलब्धि के ज्ञान से अभाव की जो प्रतीति उत्पन्न होती है, वह अवश्य ही ‘असाक्षात्कारात्मक’ है। इसके ‘विपरीत’ जो अभावज्ञान केवल- अनुपलब्धि से ( अनुपलब्धि के ज्ञान से नहीं ) उत्पन्न होगा, वह ज्ञान असाक्षात्कार के ‘विरुद्ध’ साक्षात्कारात्मक ही होगा। अत: ‘घटाभाववदभूतलम्’ इत्यादि ज्ञानों में ‘साक्षात्कारित्व’ प्रसिद्ध नहीं है । इसलिये उक्त हेतु स्वरूपासिद्ध नहीं है । ऐसा रूप होतं एते अनुप पू० होत नहीं ( प्र अभ
तृतीय स्तवक ४४३ ननु क्क नाम ज्ञातानुपलब्धिरसाक्षात्कारिणीमभावप्रतीतिं जनयति ? | तद्यथा निपुणतरमनुसृतो मया मन्दिरे चैत्रो न चोपलब्ध इति श्रुत्वा श्रोताऽनुमिनोति, नूनं नासीदेवेति । एतेन प्राङ्नास्तिताऽपि व्याख्याता । पू० प० ननु कनाम ••• ( यह तो समझा कि ‘घटाभाववद्भूतलम’ प्रभाव का यह ज्ञान स्वरूपतः केवल अनुपलब्धि से हो उत्पन्न होता है, किन्तु यह नहीं समझा कि ) अनुपलब्धि ज्ञात होकर प्रभाव विषयक किस प्रतीति को उत्पन्न करती है ? सि० प० तद्यथा 46.0 ‘मैंने मन्दिर में अच्छी तरह देखा, तथापि ‘‘चैत्र’ मुझे नहीं मिले’ किसी आप्त पुरुष से ऐसा सुनने वाले पुरुष को यह अनुमान होता है कि ‘मन्दिर में चैत्र नहीं थे’। यह अनुमिति रूप अभाव की प्रतीति उक्त श्रोता को उक्त शब्द के द्वारा मनुपलब्धि का ज्ञान होने पर ही होती है । एतेन इसी से यह भी जानना चाहिये कि ‘प्राङनास्तिता’ अर्थात् प्रागभाव की भी केवल अनुपलब्धिजन्य एवं अनुपलब्धिज्ञानजन्य दो प्रकार की प्रतीतियाँ होती हैं ।’ पू० प० ननु तथापि www 200 यदि यह निर्णीत भी हो जाय कि अनुपलब्धि के ज्ञान से जो अभाव की प्रतीति होतो है, वह ‘साक्षात्कारात्मक’ ( परोक्षात्मक ) ही होती है, तथापि इससे यह निर्णीत नहीं होता कि केवल अनुपलब्धि से जो प्रभाव की प्रतीति होती है, वह ‘साक्षात्कारात्मक’ ( प्रत्यक्षात्मक ) ही होती है। इससे इतना हो सिद्ध होता है कि अनुपलब्धि के ज्ञान से जो अभाव की प्रतीति होती है, उससे भिन्न जाति की प्रतीति ही स्वरूपतः अनुपलब्धि’ से उत्पन्न १. (1) जहाँ घट के कपालादि सभी कारणों को एकत्र देखा जाता है, किन्तु घट की उपलब्धि नहीं होती है । वहाँ घट की केवल इस अनुपलन्धि से ही ‘यहाँ घट उत्पन्न होगा’ इस प्रकार की जो प्रागभाव की प्रतीति होती है, वह है केवल अनुपलब्धि जन्य ‘प्राङ्नास्तिता’ (प्रागभाव) की प्रतीति । ( २ ) किसी प्राप्तपुरुष के द्वारा “घट के उत्पादक कुछ कारण तो थे, किन्तु घट के अमुक अमुक कारण को नहीं देखा । एवं उनके सम्बलन की कोई संभावना भी नहीं जान पढ़ी” ऐसा सुनने पर श्रोता को अनुमान होता है कि ‘वहाँ घट नहीं उत्पन्न होगा’ प्रागभाव की पह अनुमिति रूप प्रतीति सामग्रपनुपलब्धि की उक्त शब्दज प्रतीति से उत्पन्न होती है । यह अनुपलब्धिज्ञान जनित ‘प्राङ्नास्तिता’ की प्रतीति का उदाहरण है ।
999 गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली ननु तथाप्यवान्तरजातिभेदोऽस्तु, भ्रज्ञातानुपलब्धिजन्ये साक्षात्कारस्तु कुत इति चेत्; कारणविरोधात् कार्यं विरोधेन भवितव्यमित्युक्तमेव । श्रनन्यत्रोपक्षीणेन्द्रिय- ब्यापारानन्तरभावित्वाच्च । श्रधिकरणग्रहणे तदुपक्षीणमिति चेन्न । होती है । इससे यह सिद्ध नहीं होता कि स्वरूपतः अनुपलब्धि से ही उत्पन्न अभाव की प्रतीति में रहनेवाली वह विलक्षण जाति ‘साक्षात्कारख’ रूप ही है । ( प्रर्थात् उक्त अभाव प्रतीति साक्षात्कार स्वरूप है ) । वह ‘भिन्न जाति’ साक्षात्कारस्व को छोड़ कर कोई दूसरी भी जाति हो सकती, जो ज्ञानस्व की व्याप्य ( अवान्तर ) हो । भतः केवल अनुपलब्धि जनित घटाभावव भूतलम्’ इत्यादि अभाव प्रतीतियों में ‘साक्षात्कारत्व’ का निर्णय नहीं किया जा सकता । सि० प० कारणविरोधात् … जितनी भी ‘असाक्षात्कारात्मक’ प्रतीतियां हैं, वे सभो ‘ज्ञातकरणों’ से ही उत्पन्न होती हैं ( स्वरूपतः करणों से उत्पन्न नहीं होती हैं ) मत: ‘असाक्षात्कारत्व’ का व्यापक है ‘ज्ञायमानकारणजन्यत्व’ अर्थात् जो भी प्रतीति श्रसाक्षात्कारात्मक ( परोक्षात्मक ) होंगी वे अवश्य ही ज्ञायमानकरण से उत्पन्न होंगी । ‘व्यापकाभाव व्याप्याभाव का प्रयोजक है’ इस न्याय से ‘घटाभाववद्भूतरुम्’ इत्यादि प्रतीतियाँ चूकि ज्ञातकरण से उत्पन्न नहीं होती है, मत! वे ‘बसाक्षात्कारात्मक’ ( परोक्षात्मक ) नहीं हैं । असाक्षात्कारस्व का अभाव वस्तुतः साक्षात्कारत्व या प्रत्यक्षत्व रूप ही है । अतः यह ठीक है कि ‘घटाभाववभूतलम्’ इत्यादि भावप्रतीतियां साक्षात्कारात्मक ही हैं । यही बात ‘एक जातीयत्वे’ इत्यादि सन्दर्भ के द्वारा दूसरे शब्दों में पहिले मी कही जा चुकी है । अनन्यत्रोपक्षीरणतया … द्वितीयचरण की व्याख्या ‘घटाभाववद्भूवलम्’ इत्यादि प्रभाव की प्रतीतियां प्रवश्य ही साक्षात्कारात्मक हैं, क्योंकि इन्द्रिय के व्यापार के बाद ही उनकी उत्पत्ति होती है । अथ च उस ‘इन्द्रिय व्यापार’ का उपयोग प्रकृत में किसी दूसरे कार्यों में नहीं है । ( उक्त अभाव प्रतीति से ‘अन्यत्र’ अनुपयोग ही प्रकृत में इन्द्रिय व्यापार की ‘अनन्यत्रोपक्षीणता’ है) अतः उक्त अभाव प्रवीति के मव्यवहित पूर्व में नियत रूप से रहनेवाले उक्त इन्द्रियव्यापार को उक्त अभाव प्रतीति का ‘अन्यथा सिद्धि’ होने की कोई संभावना नहीं है। पू० प० अधिकरणग्रहणे उक्त अभाव प्रतीति से भव्यवहितपूर्वकाल में नियत रूप से रहनेवाला जो इन्द्रिय का व्यापार है, उसका इतना ही प्रयोजन है कि अभाव के अधिकरणीभूत भूतलादि के प्रत्यक्ष असि रक्त समा का का उक्त सि० को ( बास्त के सं त्वगि रूपवि पर इस विद्यम इन्द्रिय का व्य चक्षु न को ख होती इन्द्रिय का स्व पू० प मानते होगी
तृतीय। स्तबका ४४५ अन्धस्यापि त्वगिन्द्रियोपनीते घटादौ रूपविशेषाभावप्रतीतिप्रसङ्गात् । अस्ति हि तस्याधिकरणग्रहरणम् अस्ति च प्रतियोगिस्मरणम् अस्ति च श्यामे रक्तत्वस्य योग्यस्याभावोऽनुपलब्धिश्च । अधिकरणग्राहकेन्द्रियग्राह्याभाववादिनोऽपि समानमेतदिति चेन्न । का वह उत्पादन कर दे । प्रभाव के ज्ञान में उसका कोई उपयोग नहीं है । अतः इन्द्रिय का उक्त व्यापार अभावग्रह से ‘अन्यत्र’ अधिकरणग्रह में ‘उपक्षीण’ ( चरितार्थ ) है । अतः उक्त कथन प्रसङ्गत है । सि० प० न, अन्धस्यापि उक्त कथन ठीक नहीं है, क्योंकि प्रभाव के प्रत्यक्षके लिये प्रतियोगी का स्मरण, प्रतियोगी की ( प्रत्यक्ष ) योग्यता, अधिकरण में प्रतियोगो की अनुपलब्धि, एवं अधिकरण में प्रभाव की बास्तविकसत्ता इतने ही यदि अपेक्षित हों ( अर्थात् अभाव के प्रत्यक्ष में अभाव के साथ इन्द्रिय के संनिकर्ष की अपेक्षा न रहे ) तो घट मे न रहने वाले किसी रूपविशेष के प्रभाव का प्रत्यक्ष स्वगिन्द्रिय के द्वारा अन्ध पुरुष को भी होना चाहिये । किन्तु प्रन्यपुरुष को किसी भी वस्तु के रूपविशेष के अभाव का प्रत्यक्ष नहीं होता ( त्वगिन्द्रिय के द्वारा घट के काब्यिादि को समझने पर रूप सामान्य का ज्ञान यद्यपि हो जाता है) । क्योंकि इस रूपविशेषाभाव के प्रत्यक्ष में इस प्रभाव रूप विषय के साथ इन्द्रिय के संनिकर्ष को छोड़ कर कथित अन्य सभी कारण विद्यमान हैं । अतः प्रभाव के प्रत्यक्ष में (अधिकरण प्रत्यक्ष रूप प्रयोजन के अतिरिक्त भो ) इन्द्रिय के व्यापार की अपेक्षा अवश्य है । जिस इन्द्रिय के व्यापार से विशेष प्रकार के रूप का प्रत्यक्ष होता है, उसी इन्द्रिय का व्यापार उस रूप विशेष के अभाव के प्रत्यक्ष का भी कारण होता है । अन्ध पुरुष को चक्षु नहीं रहता, अथवा उसका चक्षु व्यापार करने में असमर्थ होता है, अतः जैसे अन्ध पुरुष को रूपविशेष की प्रतिपत्ति नहीं होती, वैसे ही रूपविशेष के प्रभाव की भी प्रतिपत्ति नहीं होती है । अतः अभाव के प्रत्यक्ष से अव्यवहित पूर्व क्षण में नियत रूप से रहनेवाला इन्द्रिय का व्यापार ‘अन्यत्र’ उपक्षीण नहीं है ( चरितार्थ नहीं है ) । वह अभाव के प्रत्यक्ष का स्वतन्त्र रूप से भी सहायक है । पू० प० अधिकरणग्राहक … जो ( नैयायिक) सम्प्रदाय अधिकरण के ग्राहक इन्द्रिय से ही अभाव का भी ग्रहण मानते हैं, उनके मत में भी अन्ध पुरुष के द्वारा रूप विशेष के अभाव के प्रत्यक्ष की आपत्ति होगी । क्योंकि कोई भी इन्द्रिय हो, अभाव के साथ उसका सम्बन्ध ‘स्वसम्बद्ध विशेषणता '
A ४४६ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली प्रतियोगिग्राहकेन्द्रियग्राह्योऽभाव इत्यभ्युपगमात् । ममापि प्रतियोगिग्राहकेन्द्रिय- गृहीतेऽधिकरणे अनुपलब्धिः प्रमाणमित्यभ्युपगम इति चेन्न । वायौ त्वगिन्द्रियोपनीते रूपाभावप्रतीत्यनुदयप्रसङ्गात् । रूप ही होगा ( स्व इन्द्रिय, उसका सम्बन्ध है भूतल में, उसमें विशेषण है अभाव | इस प्रकार ) चक्षु का स्वसम्बद्धविशेषणता सम्बन्ध ही प्रभाव में रह सकता है। किन्तु विशेषणता रूप यह सम्बन्ध तो घट में रहनेवाले रूपविशेषाभाव के साथ अन्य के स्वागन्द्रिय का भी है हो, क्योंकि स्वगिन्द्रिय से सम्बद्ध है घट, उसमें विशेषण है रूपविशेष का प्रभाव, व्यतः चक्षु. की तरह स्वगिन्द्रिय का भी उक्त विशेषणता रूप सम्बन्ध रूपविशेषाभाव में है ही । एवं यह सम्बन्ध प्रम्ब के स्वगिन्द्रिय में भी निरबाघ है । अतः अन्ध पुरुष में रूप विशेषाभाव की प्रतीति रूप आपत्ति तो दोनों ही पक्षों में समान है। सि० प० न, प्रतियोगिग्राहक दोनों पक्षों में उक्त दोष समान नहीं है, क्योंकि हम लोग यह नहीं कहते कि अभाव के आश्रय का प्रत्यक्ष जिस इन्द्रिय से हो, उसी इन्द्रिय से प्रभाव का भी प्रत्यक्ष हो । हम लोगों का यह कहना है कि अभाव के प्रतियोगी का ग्रहण जिस इन्द्रिय से हो, उसी इन्द्रिय से उसके प्रभाव का भी ग्रहण हो । अतः प्रतियोगी का ग्राहक जो इन्द्रिय, तत्सम्बद्ध विशेषणता ही प्रभाव के प्रत्यक्ष का कारणीभूत सम्बन्ध है । प्रकृत में रूपविशेष ( स्वरूप प्रतियोगी ) का ग्राहक चक्षुरिन्द्रिय है, स्वगिन्द्रिय नहीं । अन्ध को चक्षु नहीं होता । अतः तत्सम्बन्ध विशेषणता रूप सम्बन्ध घटगत रूप विशेष के अभाव में नहीं है, अतः अन्ध को रूपविशेषाभाव का प्रत्यक्ष नहीं होता । यद्यपि उसके स्वगिन्द्रिय का उक्त विशेषणतास्वरूप सम्बन्ध रूपविशेष के प्रभाव में विद्यमान है । पू० प० ममापि इस प्रकार तो हम भी कह सकते हैं कि जिस इन्द्रिय से प्रतियोगी का ग्रहण हो, उसी इन्द्रिय से गृहीत होनेवाले अधिकरण में विद्यमान अभाव का ही ग्रहण अनुपलब्धि प्रमाण से होता है । ‘रूपविशेष’ स्वरूप प्रतियोगी का ग्राहक इन्द्रिय है चक्षु, उस से चू कि. आश्रयीभूत घट का ग्रहण अम्ब को नहीं होता है । अतः अन्ध को अनुपलब्धि प्रमाण से घट में रूपविशेष के अभाव का ज्ञान नहीं होता । सि० प० न, वायो 33 मपेक्ष इति प्रतिय वायुव इन्द्रिय का प्र पू० प है ही सम्बद्ध चक्षु स्वांग से अन्य है, अ सि० है, उ प्रतीति रूप अ के के प्रत्य में होत पू० प ग्रहण है। व्यापा वायु वृक्षावि क्योंकि रूपाभाव का के प त्वगिन्द्रिय से होता है । प्रतीति को सभी मानते उक्त कथंन ठीक नहीं हैं क्योंकि वायु का प्रत्यक्ष केवल त्वगिन्द्रियमात्र से गृहीत होनेवाले वायु में रूप के प्रभाव की है । किन्तु कथित नियम के अनुसार उक्त प्रतीति नहीं हो सकेगी।
तृतीयः स्तबकः ४४० तथापि तत्तत्र सन्निकृष्टमिति चेत्; हन्तैवमनन्यत्र चरितार्थमिन्द्रियमवश्य- मपेक्षणीयं रूपाभावानुभवेन । स्यादेतत् । तथापि वस्त्वन्तरग्रह एव तस्योपयोग इति चेन्न । प्रतियोगी है रूप, एवं रूप का ग्राहक इन्द्रिय है चक्षु । किन्तु रूपाभाव के अधिकरणीभूत वायु का प्रत्यक्ष चक्षु से संभव नहीं है । इस प्रकार प्रकृत अभाव के प्रतियोगी के ग्राहक इन्द्रिय से उसके अधिकरण का ज्ञान संभव नहीं है । अतः अनुपलब्धि से वायु में रूपाभाव का प्रत्यक्ष नहीं होगा । इस लिये उक्त नियम को स्वीकार नहीं किया जा सकता । पू० प० तथापि … चक्षु से वायु का ग्रहण भले ही न हो, तथापि चक्षु का सम्बन्ध तो वायु के साथ है ही ( अर्थात् नियम का यह स्वरूप स्वीकार करते है कि " प्रतियोगी के ग्राहक इन्द्रिय से सम्बद्ध अधिकरण में ही अनुपलब्धि रूप करण के द्वारा प्रभाव का प्रमाज्ञान हो” अन्ध को चक्षु नहीं है, उसके चक्षु का सम्बन्ध घट रूप प्रतियोगी में नहीं है । इसी लिये अन्ध के स्वगन्द्रिय से गृहीत होनेवाले घट में भी रूप विशेष के अभाव की प्रतीति अनुपलब्धि प्रमाण से अन्ध को नहीं होती है । ( रूपाभाव के प्रतियोगी रूप के ग्राहक चक्षु का सम्बन्ध वार में है, अत: वायु में रूपाभाव का प्रमाज्ञान अनुपलब्धि रूप प्रमाण से होता है ) । सि० प० हन्तेवम् . जिस इन्द्रिय से प्रतियोगी का ग्रहण होता ज्ञान हो चाहे न हो, तथापि अभाव की तो फिर इस से यह निष्कर्ष निकला कि है, उस से अधिकरणादि किसी अन्य वस्तु का प्रतीति में उसके प्रतियोगी के ग्राहक उस इन्द्रिय की अपेक्षा अवश्य होती है । क्योंकि वायु रूप अधिकरण के प्रत्यक्ष में अनुपयोगी भी चक्षुरिन्द्रिय का उपयोग वायु धर्मिक रूपाभाव के प्रत्यक्ष में आपने स्वीकार कर लिया है । इस से यह सिद्ध होता होता है कि प्रधिकरणादि के प्रत्यक्ष से अनुपक्षीण ( अचरितार्थ ) भी इन्द्रिय का उपयोग रूपाभाव की प्रतीति में में होता है । अतः ‘इन्द्रियस्यानुपक्षयात्’ इस वाक्य का कथित अर्थ ठीक है । पू० प० स्यादेततु ‘प्रतियोगी के ग्राहक इन्द्रिय के द्वारा गृहीत ‘आश्रय’ में अनुपलब्धि से अभाव का ग्रहण हो’ इस नियमवाक्य का ‘आश्रय’ पद प्रभाव से भिन्न सभी मयों में लाक्षणिक । अर्थात् अमाव से भिन्न किसी भी पदार्थ के ज्ञानार्थं प्रतियोगी के शाहक इन्द्रिय का व्यापार रहने पर प्रभिमत मात्रय में अनुपलब्धि से उक्त प्रतियोगिक अभाव का ग्रहण हो । वायु में जो रूपाभाव का ग्रहण होता है, उस में भी ‘वस्त्वन्तर’ का अर्थात् वायु से भिन्न वृक्षादि वस्तुओं का ग्रहण तो चक्षु के व्यापार से होता ही है । अतः उक्त परिष्कृत नियम के अनुसार अनुपलब्धि प्रमाणों से वायु में प्रभाव का ग्रहण होने में कोई वाघा नहीं है ।
· १४८ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली तस्य तं प्रत्यकाररणत्वात् । कारणत्वे वा महान्धकारे करपरामर्शेन स्पर्श- वद्दृव्याभावं न प्रतीयात् । प्रतीयाच्च पुरोविस्फारिताक्षः पृष्ट लग्नस्याऽश्यामत्वम् । नार्जवावस्थानमप्यधिकररणस्योपयुज्यते इति चेत्; सि० प० तस्य तम्प्रति ……. चूंकि ‘वस्त्वन्तर’ का ज्ञान अर्थात् मभाव के आश्रय से भिन्न उदासीन पदार्थों का ज्ञान प्रभावज्ञान का कारण नहीं है, प्रवः जिस इन्द्रिय के व्यापार से ‘वस्त्वन्तर’ का ग्रहण होता है, उस इन्द्रिय व्यापार की सत्ता को अभाव ग्रह के अव्यवहितपूर्वक्षण में नियमतः स्वीकार करने में कोई प्रमाण नहीं है। यदि प्रभावज्ञान के लिये उक्त ‘वस्त्वन्तर’ के प्रत्यक्ष को कारण मानें तो ( १ ) अत्यन्त घने अन्धेरे में भी टटोल कर स्पर्श से युक्त घटादि द्रव्यों के अभाव का जो बोध होता है, वह अनुपपन्न हो जायगा । क्योंकि प्रतियोगि स्वरूप एवं स्पर्श से युक्त द्रव्यों के ग्राहक स्वगिन्द्रिय के द्वारा उस गहरे अन्धेरे में किसी उदासीन वस्तु का प्रत्यक्ष नहीं होता । प्रतीयाञ्च (२) एवं यदि प्रभाव के ज्ञान के प्रति उसके प्रतियोगि के ग्राहक इन्द्रिय के द्वारा उत्पन्न उदासीन किसी पदार्थ ( वस्त्वन्तर ) का ज्ञान कारण रहे, तो जो पुरुष ( जो कि माँख फाड़कर सामने की तरफ देख रहा है ) किन्तु उसके पीछे रक्तघट रखा है, रक्तघट में जो ‘अश्यामत्व’ प्रर्थात् श्याम रूप का प्रभाव है, उसका ज्ञान उस पुरुष में मानना होगा । क्योंकि श्यामरूप के अभाव का प्रतियोगी जो श्याम रूप उसके ग्राहक चक्षुरिन्द्रिय के द्वारा वह पुरुष सामने की किसी वस्तु को तो देखता ही है । किन्तु उस ‘पुरोविस्फारिताक्ष’ पुरुष को ‘पृष्ठलग्न’ रक्तघट में रहने वाले श्याम रूप के अभाव का ज्ञान नहीं होता । अतः उक्त ‘कार्यकारणभाव’ की कल्पना असङ्गत है । पू० प० प्रार्जवावस्थानस् अभावग्रहण के प्रति उसके अधिकरण की ‘आर्जवस्थिति प्रर्थात् ज्ञाता पुरुष के सामने रहना भी एक कारण है । उक्त श्यामरूपाभाव का आश्रय रक्तषट ज्ञाता पुरुष के पीठ की तरफ है, सामने नहीं, पता उस प्रभाव का ग्रहण उस पुरुष को नहीं होता । सि० प० तह यदि प्रभाव के प्रत्यक्ष मैं उसके अधिकरण का ज्ञाता के सम्मुख रहना भी कारण है, तो फिर इन्द्रिय का सन्निकर्ष भी अभाव के ग्रहण में अवश्य होगा। क्योंकि अंधेरे में सामने अन यो नि अव दीख सिं है वा मान अत पू० में स्व ‘केव है । नहीं श इस भी गोर प्रति इस योग्य का
तृतीयः स्तबकः ४४६ तर्हि नयनसन्निकर्षोऽप्युपयोक्ष्यते । तदेकसहकारि प्रभासन्निकर्षापेक्षरणात् । अन्यथा वातायनविवरविसारिकरपरामृष्टेऽप्यधिकरणे तदुलम्भप्रसङ्गाच्च । तथापि योग्यताऽऽपादनोपक्षीरणञ्चक्षुः । यदितरसामग्रीसाकल्ये ह्यनुपलभ्यमानस्याभावो निश्चीयते तच्च चक्षुष्यधिकरणसन्निकृष्टे सति स्यादिति चेत्; अवस्थित अधिकरण में आखों को सावधानता पूर्वक व्यापृत करने पर भी कोई भी वस्तु नहीं दीखती । अतः अधिकरण की प्राजंवावस्थिति से होनेवाला अभाव का ग्रह हो, अथवा चक्षुः संनिकर्ष से उत्पन्न होने वाला घट का प्रत्यक्ष ही हो - सभी में ‘प्रभा’ का संनिकर्ष प्रावश्यक | अतः प्रकाश में अवस्थित अधिकरण में ही अभाव का भी ग्रहण होता है । ‘अन्यथा ’ वातायन के छिद्र में हाथ डाल कर छुए हुये रक्त घट में श्याम रूप के प्रभाव का ग्रहण मानना होगा। क्योंकि चक्षु से वातयनादि के कुछ वस्तुओंों का ग्रहण तो वहाँ भी होता ही है । अत: अभाव के ग्रहण में भी अभाव गत इन्द्रिय संनिकर्ष आवश्यक है । पू० प० तथापि … ‘अनुपलब्धि प्रभावज्ञान का कारण है’ इसमें किसी को भी विवाद नहीं है । अनुपलब्धि में प्रभावज्ञान की ‘करणता’ को स्वीकार करने में ही विवाद है ( अर्थात् अनुपलब्धि को स्वतन्त्र प्रमाण मानने में ही विवाद है ) किन्तु ( चार्वाक को छोड़कर ) किसी के भी मत से ‘केवल अनुपलब्धि’ प्रभाव का ग्राहक नहीं है । किन्तु ‘योग्यानुपलब्धि’ ही अभाव का ग्राहक । अत एव स्वर्ग, अपूर्व, देवता एवं परमाणु प्रभृति की अनुपलब्धि से उनके अभाव का निर्णय नहीं होता । ‘योग्या चासो अनुपलब्धिश्चेति’ इस व्युत्पत्ति के अनुसार ‘योग्यानुपलब्धि’ शब्द का अर्थ है योग्य’ जो अनुपलब्धि । यह विचारणीय है कि ‘अनुपलब्धि’ में रहनेवाली इस ‘योग्यता’ का स्वरूप क्या है ? इसका यही उत्तर है कि प्रतियोगी के प्रत्यक्ष में जितने । भी कारण अपेक्षित होते हैं, उनमें से ‘विषय’ को छोड़कर ( अर्थात् प्रतियोगी को छोड़कर ) और सभी कारणों का समवधान ही ‘अनुपलब्धि’ की योग्यता है । प्रतियोगी से इतर प्रतियोगि प्रत्यक्ष के सभी कारणों में इन्द्रिय एवं अधिकरण के साथ इन्द्रिय का संनिकर्ष भी है । इस प्रकार इन्द्रिय अथवा इन्द्रियसंनिकर्ष प्रभाव ग्रहण से ‘अन्यत्र’ उक्त ‘अनुपलब्धि’ के योग्यता संपादन में उपक्षीण है । अतः इन्द्रिय में ‘अनन्यत्रोपक्षीणस्व’ नहीं है । इसलिये अभाव का ज्ञान इन्द्रियजनित नहीं हैं। ५७ CCO. Vasishtha Tripathi Collection. Digitized by eGangotriगद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली ननु परिपूर्णानि कारणान्येव साकल्यम् । तथा च किं कुत्रोपक्षीणम् ? | अथान्योन्यमेलकं मिथः प्रत्यासत्त्यादिशब्दवाच्यं तदुपक्षयः, न तर्हि कचिच्चक्षुः कारणं स्यादिति। न हि रूपाद्युपलब्धिमप्यसन्निकृष्टमेतदुपजनयति । सि० प० ननु परिपूर्णानि " इन्द्रिय के व्यापार से अनुपलब्धि में जिस ‘योग्यता’ के संपादन की बात कही गयी है, उसको प्रतियोगी से भिन्न एवं प्रतियोगिप्रत्यक्ष के अन्य सभी कारणों का साकल्य रूप कहना ठीक नहीं है, क्योंकि ‘कारणसाकल्य’ नाम की कोई अतिरिक्त वस्तु नहीं है, जिसकी उत्पत्ति अनुपलब्धि में इन्द्रिय संनिकर्ष से हो। किन्तु ‘कारणों की परिपूर्णता’ ही कारणों का साकल्य है । उसके अन्तर्गत इन्द्रिय एवं अधिकरणं का संनिकर्ष भी है । फलत । इन्द्रिय भी है । अतः इन्द्रिय के न रहने पर भी कारणों की परिपूर्णता अवश्य भङ्ग होगी । किन्तु यह बात तो कारण समूह घटक प्रत्येक कारण के प्रसङ्ग में कहा जा सकता है। किसी भी एक कारण के न रहने पर ही उक्त परिपूर्णता अथवा साकल्य विघटित हो जायगा । इस युक्ति से सभी कार्यों का प्रत्येक कारण ‘अन्यत्रोपक्षीण’ है । फलतः एक कार्य का एक कारण उसी कार्य के दूसरे कारण में कारणत्व संपादक होने के नाते ‘अन्यत्रोपक्षीण’ होगा । अत: इस रीति से इन्द्रिय को अमावोपलब्धि का ‘अन्यथासिद्ध’ नहीं कहा जा सकता । पू० प० प्रथान्योन्यमेलकम् ••• एक कार्य के कारणों का जो समूह है, उन में से प्रत्येक कारण परस्पर एक दूसरे के साथ किसी विशेष रूप से सम्बद्ध होकर ही कार्य को उत्पन्न कर सकता है । परस्पर असम्बद्ध ( विश्लेष से युक्त - विश्लिष्ट ) कारणों के समूह मात्र से कार्य की उत्पत्ति नहीं हो सकती । प्रता कारणों में जो परस्पर सम्बन्ध की सम्पादकता है, वही है ‘अन्यत्रोपक्षीणत्व’ । सि० प० न, तर्हि " यह उत्तर भी युक्त नहीं है, क्योंकि इस प्रकार का ‘अन्यत्रोपक्षीणत्व’ यदि ‘कारणत्व’ का विघटक हो तो फिर चक्षु भी रूप विषयक प्रत्यक्ष का कारण नहीं हो सकेगा। क्योंकि रूप के साथ सम्बद्ध इन्द्रिय ही रूप विषयक प्रत्यक्ष का उत्पादक है । अतः कहा जा सकता है कि उक्त संनिकर्ष का संपादन ही इन्द्रिय का प्रयोजन है । रूप विषयक प्रत्यक्ष में उसका कोई उपयोग नहीं है । अर्थात् रूप विषयक प्रत्यक्ष से ‘अन्यत्र’ इन्द्रिय और विषय के संनिकर्ष में ‘उपक्षीण’ होने के कारण रूपादि प्रत्यक्ष के प्रति इन्द्रिय ‘अन्यथासिद्ध’ है, कारण नहीं है । जब कारण ही नहीं है, तो फिर करण की बात तो दूर है । ततस पू० समव अधिक श्रभाव होता उसक वाय्व का उ रहनेव जितनी नहीं प्रत्यक्ष वास्त होता इस ज्ञ इन्द्रिय fero क्योिं रूप न ज्ञान उपल हो स
तृतीयः स्तबका ४५१ अथाऽधिकरणसमवेत किञ्चिदुपलम्भोऽपि तद्विषयाभावग्रहेऽनुपलब्धेरपेक्षणीयः । ततस्तत्रेदं चरितार्थम् । वाय्वादिषु तु रूपाद्यभावप्रतीतिरानुमानिकी । तथाहि — प्रनुपलब्ध्या ह्यनुमीयते, अयं नीरूपो वायुरिति । न, असिद्ध ेः । पू० प० प्रथाधिकरणसमवेत .. जिस श्रधिकरण में अनुपलब्धि के द्वारा अभाव का ज्ञान होगा, उस अधिकरण में समवाय सम्बन्ध से रहनेवाले किसी अन्य वस्तु का ज्ञान भी उक्त अनुपलब्धि का सहायक है । अधिकरण में समवाय सम्बन्ध से रहनेवाली वस्तु का यह ज्ञान इन्द्रिय से ही होता है । भतः प्रभाव ग्रह से ‘अन्यत्र’ इस अधिकरणसमवेत वस्तु के ज्ञान में इन्द्रिय का उपयोग ( उपक्षय ) होता है । अत: अभावग्रह में इन्द्रिय को अपेक्षा रहते हुए भो ‘अन्यत्रोपक्षीण’ होने से इन्द्रिय उसका कारण नहीं है । वाय्वादिषु तु … ( किन्तु रूप की अनुपलब्धि से वायु में जो रूपाभाव का ज्ञान होता है, उस में चक्षु का उपयोग तो होता है, किन्तु उसकी उपपत्ति कैसे हो ? क्योंकि वायु में समवाय सम्बन्ध से रहनेवाले किसी वस्तु का ज्ञान चक्षु से नहीं होता । इसका यह समाधान है कि ) अभी जितनी भी बातें हो रहीं हैं, वे सभी स्वरूपतः केवल अनुपलब्धि से ( अनुपलब्धि के ज्ञान से नहीं ) होनेवाले प्रभाव ग्रह के प्रसङ्ग में ही हो रही है । इस अभावज्ञान को नैयायिक प्रत्यक्ष कहते हैं । । ज्ञातानुपलब्धि मूलक ( अर्थात् अनुपलब्धि के ज्ञान से उत्पन्न जो अभावग्रह है) वह वास्तव में अनुमिति स्वरूप है, उसमें कोई विवाद ही नहीं है। वायु में जो रूपाभाव का ज्ञान होता है, वह अनुमिति रूप ही है, क्योंकि अनुपलब्धि के ज्ञान से ही ‘वायु में रूप नहीं है’ इस ज्ञान की उत्पत्ति होती है । अनुपलब्धि स्वरूपतः उसका कारण नहीं है । अतः इसमें यदि इन्द्रिय का उपयोग उपपन्न नहीं भी हो, तथापि को क्षति नहीं है । सि० प० न, असिद्धे! ….. अनुपलब्धि रूप हेतु से वायु में रूपाभाव की अनुमिति हो ही नहीं सकती । क्योंकि वह अनुमिति ‘वायुः नीरूपः रूपानुपलब्धे।’ इस आकार की होगी, अर्थात् वायु में रूप नहीं है, क्योंकि वायु में रूप की उपलब्धि अर्थात् प्रत्यक्ष नहीं होता) । किन्तु मोमांसकगण ज्ञान को अतीन्द्रिय मानते हैं, प्रकृत में हेतु स्वरूप अनुपलब्धि है, उपलब्धि का अभाव । उपलब्धि है ज्ञान रूप । अतीन्द्रिय भाव पदार्थ की तरह उसके अभाव का मो प्रत्यक्ष नहीं हो सकता | अतः उपलब्धि चूँ कि अतीन्द्रिय है, अतः उपलब्धि का अभाव अर्थात् अनुपलब्धि
४३२ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली न हा पलम्भाभावो भवतामभावोपलम्भः, उपलम्भस्यातीन्द्रियत्वाभ्युपगमात् । ह्य प्राकट्याभावेनानुमेय इति चेन्न । वायौ रूपवत्ताप्राकट्या भावस्याप्यसिद्ध े:, रूपाभावेन समानत्वात् । व्यवहाराभावेनानुमेय इति चेन्न । भी अतीन्द्रिय ही है, अतः उसका प्रत्यक्ष नहीं हो सकता। इसलिये वायु रूप पक्ष में रूपानुपलब्धि हेतु की सिद्धि अर्थात् प्रत्यक्ष नहीं है । सुतराम् पक्षधर्मता ज्ञान के अभाव से ही अनुमिति अनुपपन्न है । पू० प० प्राकट्याभावेन ज्ञान यद्यपि अतीन्द्रिय है, अतः उसका प्रत्यक्ष भले हो न हो, तथापि ज्ञान से जो ज्ञातता अथवा ‘प्राकट्य’ की उत्पत्ति विषयों में होती है, उससे ज्ञान का अनुमान तो होता है ! वायु में यदि रूप की प्रतीति होती तो वायु धार्मिक रूप निष्ठ कोई ‘प्राकट्य’ स्वीकृत होता, विन्तु किसी भी ज्ञान के बाद ‘वायी प्रकटं रूपम्’ इस आकार की प्राक्ट्य की प्रतीति नहीं होती. है । अतः यह समझते हैं कि ‘वायु’ रूपवान्’ इस आकार की उपलब्धि ( ज्ञान ) नहीं है जिस से उक्त प्राकट्य की उत्पत्ति हो सके । अतः ‘वायुः (विशेष्यता सम्बन्धेन ) रूपानुप- लब्धिमान् उक्तप्राकट्या भावात्’ इस अनुमान से ही वायु स्वरूप पक्ष में रूपानुपलब्धि हेतु का निश्चय होगा। यह कोई राजाज्ञा नहीं हैं कि पक्ष में हेतु की सिद्धि प्रत्यक्ष के द्वारा रहे तभी अनुमिति हो । अत: ‘वायुः रूपाभाववान् रूपानुपलब्धे।’ इस अनुमान में कोई बाषा नहीं है । सि० प० न, वायो प्राकट्याभावेन उक्त अनुमान के द्वारा भी वायु में रूपानुपलब्धि स्वरूप हेतु का निश्चय नहीं हो सकता । क्योंकि ‘रूपवान् वायुः’ यह प्रतोति यदि कहीं प्रसिद्ध होती, तो वायु धर्मिक रूप में प्राट्य मां सकता था । उक्त प्रतीति चूं कि कहीं भी नहीं है, अतः उक्त प्राकट्य भी कभी कहीं भी नहीं है । अतः प्राकट्य का प्रभाव भी कहीं नहीं रह सकता । अतः जो दशा ‘वायुः रूपाभाववान् रूपानुपलब्धे।’ इस अनुमान का है, वही दशा ‘वायुः विशेष्पत्वसम्बम्बवच्छिन्न प्रतियोगित1क रूपानुपब्धिमान् प्राकट्याभावात्’ इस पक्षधर्मता साधक अनुमान का भी होगा । अतः वायु में रूपाभाव की सिद्धि का यह प्रकार भी ठीक नहीं है । पू० प० व्यवहाराभावेन जिस में जिसकी उपलब्धि होती है, उस में उसका ‘व्यवहार’ भी होता है । (१) कायिक एवं (२) वाचिक भेद से व्यवहार के दो भेद हैं । घट की प्राप्ति की इच्छा वाले जिस पुरुष को में घट की उपलब्धि होती है, वह या तो दूसरे के द्वारा घट को मंगवाने के लिये ‘घटमानय’ इत्यादि शब्द प्रयोग रूप व्यवहार करता है, प्रथवा घटानयन के उपयोगी व्यापार का संपादन स्वयं अपने शरीर से ही करता है। वायु में यदि रूप की उपलब्धि होती भूतल तो स्व रूपं जा तस्म ཤྲཱ ཤྲཱ ཤྲཱ ཤྲཱ ཝཿ ལྔ, सि अव निय प्राि विष वस्तु इष्ट विष उप ‘निय अव न अत हो मूक को ही है खि बा
तृतीयः स्तबकः कायवाग्व्यापाराभावेऽप्युपेक्षाज्ञानाभावाभ्युपगमात् । नकस्वप्नोपपत्तेश्च । ४५३ तो वह व्यक्ति ‘वायुरूपम्पश्य’ इस आकार का शाब्दिक व्यवहार ही करता, अथवा पुनः स्वयं वायु को देखने के लिये चक्षु का उन्मीलनादि व्यापार ही करता । किन्तु वायु धर्मिक रूपोपलब्धि मूलक उन में से एक भी व्यापार नहीं उपलब्ध होता है । अत: यह अनुमान किया जा सकता है कि ‘वायु’ विशेष्यतासम्बन्धेन रूपा नुपब्धिमान् रूपोपलब्धिजन्यव्यवहाराविषयत्वात्’ । तस्मात् वायु में रूपव्यवहाराभाय हेतु से रूपानुपलब्धि को सिद्ध कर इस रूपानुपलब्धि से वायु में रूपाभाव का अनुमान बिना किसी बाधा के हो सकता है । सि० प० कायवागू यदि यह नियम रहे कि जितनी भी उपलब्धियां हों, वे किसी न किसी व्यवहार को अवश्य उत्पन्न करें, तो वायु में रूपानुमान की उक्त उपपत्ति ठीक हो सकती है, किन्तु ऐसा नियम नहीं है । क्योंकि कथित कायिक और वाचिक दोनों ही व्यवहार या तो इष्ट की प्राप्ति के लिये होती है, या फिर अनिष्ट के परिहार के लिये होती है । इन में इष्ट वस्तु विषयक उपलब्धि से इष्ट की प्राप्ति के उपयोगी व्यवहार की उत्पत्ति होती है । एवं अनिष्ट वस्तु विषयक उपलब्धि से अनिष्ट के परिहार के जनक व्यवहार की उत्पत्ति होती है । किन्तु इष्ट एवं अनिष्ट इन दोनों से भिन्न भो विषय हैं, जिन्हें ‘उपेक्ष्य’ कहा जाता है । उपेक्ष्य विषयक भी उपलब्धि होती है । जैसे कि राह चलते व्यक्ति को राह पर पड़े सूखे पत्ते की उपलब्धि होती है । उपेक्ष्य विषयक उपलब्धि से कोई व्यवहार नहीं होता । मतः यह ‘नियम’ नहीं किया जा सकता कि जितनी भी उपलब्धियां हों, उन से कोई न कोई व्यवहार अवश्य हो । इस नियम के खण्डित होने पर इस नियम के द्वारा उत्पन्न ‘जिसका व्यवहार न हो, उसकी उपलब्धि भी अतः व्याप्ति के न रहने से हो सकता । मकस्वप्न न दूसरी बात यह भी है कोई भी व्यवहार नहीं होता ही नहीं है । वाचिक व्यवहार । हो’ यह नियम भी खण्डित हो जाता है । ‘नियम’ ही है व्याप्ति, व्यवहाराभाव के द्वारा प्राकट्याभाव का उक्त अनुमान नहीं कि गूगे मनुष्य को जो स्वप्नात्मक उपलब्धि होती है, उस से क्योंकि स्वप्न में देखे गये पदार्थों में कायिक व्यवहार सम्भव गूँगे पुरुष से हो ही नहीं सकता । यह कहना भी सम्भव नहीं है कि मूक पुरुष को स्वप्न होता ही नहीं । इस युक्ति से मो व्यवहार में उपलब्धि की व्याप्ति खण्डित हो जाती है, मतः तन्मूलक व्यवहाराभाव से अनुपलब्धि का अनुमान भी निरस्त हो जाता है । सुतराम् अनुपलब्धि हेतु से वायु में रूपाभाव का अनुमान नहीं हो सकता ।
४५४ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जलो न च व्यवहाराभावमात्रेणाऽनुमातुमपि शक्यते । अनैकान्तिकत्वादसिद्धेश्च । तद्विषयस्तु व्यवहारस्तद्विषयज्ञानजन्यो वा ? । तद्विषयज्ञानजनको वा ? तदाश्रय- धर्मजनको वा ? | के हेतु वायु इस व्या वस्तु न च व्यवहाराभावमात्रेण ( इस प्रसङ्ग में कहा जा सकता है कि जिस व्यवहार से इष्टवस्तु की प्राप्ति हो सके, उस विशेष प्रकार के व्यवहार का इष्ट विषयक उपलब्धि ही कारण है । एवं जो विशेष प्रकार का व्यवहार अनिष्टवस्तु के परिहार का उत्पादक है, उस व्यवहार की उत्पत्ति श्रनिष्टवस्तु की उपलब्ध से ही होती है । इस ‘व्यवहारविशेष’ का कारण ‘उपलव्धिविशेष’ है । अतः कायिक व्यवहार विशेष से उपलब्धि सामान्य के अभाव का अनुभान भले ही न हो सके । किन्तु ‘यद्विशेषयों: कार्यकारणभावः तत्सामान्ययोरपि कार्यकारणभाव:’ इस न्याय के अनुसार व्यवहार सामान्य के प्रति उपलब्धि सामान्य भो कारण हैं हो । अतः वायु में रूप के व्यवहार सामान्य के अभाव से रूपोपलब्विसामान्य का अभाव भी उपलब्ध होगा हो । इस प्रकार वायु में रूपानुपलब्धि का अनुमान होता है। इस युक्ति के खण्डन के लिये यह पूछना है कि ) स्वकीय जो व्यवहार सामान्य है, उसके अभाव से अनुपलब्धि सामान्य की सिद्धि अभिप्रेत है ? प्रथवा सभी के व्यवहार सामान्य के अभाव से अनुपलब्धि सामान्य की सिद्धि श्रभोष्ट है ? इन में प्रथम पक्ष को स्वीकार करने से ‘श्रनैकान्तिक’ दोष होगा, क्योंकि जिस समय स्वयं व्यवहार नहीं भी करते है, उस समय भी दूसरे जन जिस विषय का व्यवहार करते हैं, उस विषय की उपलब्धि रहती है । द्वितीयपक्ष स्वीकार करने पर ‘हेत्वसिद्धि’ होगी । क्योंकि सभी जनों के व्यवहार का ज्ञान ही संभव नहीं है । अतः सभी जनों के व्यवहार के अभाव ( रूप हेतु ) का ज्ञान हो संभव नहीं है । तद्विषयस्तु ( यद्यपि कुछ विषय ऐसे भी हैं जो न ग्राह्य हो हैं, न त्याज्य ही किन्तु ‘उपेक्ष्य’ है । इस उपेक्ष्य विषय की भी उपलब्धि होती है । ‘व्यवहार’ की व्याप्ति यद्यपि खण्डित हो जाती है, है कि अनुपेक्ष्य विषय की उपलब्धि के साथ अनुपेक्ष्य ‘रूप’ उपेक्य विषय नहीं है, किन्तु अपेक्ष्य विषय है । की उपलब्धि से रूप का व्यवहार अवश्य होता है। कि चूंकि वायु में रूप का व्यवहार नहीं होता है, रूप की उपलब्धि नहीं है । जैसे कि घट में स्वशरीरगत रूपव्यवहार के प्रभाव से स्वशरीर इस प्रकार ‘उपलब्धि’ के साथ तथापि यह कहने का अवकाश रह जाता विषयक व्यवहार की व्याप्ति अवश्य है । अत: यह कहा जा सकता है कि ‘रूप’ ऐसा होने पर यह कहना मो संभव है अत: वायु में (विशेष्यता सम्बन्ध से ) । धूमा उपल रहस क्यों उत्प कार्य यदि होती व्याि सम्ब वही एवं रहस ( व्य अत व्यव रूपवि एतदु उपल होगी ‘भ्रात्म
तृतीयः स्तबक। ४५१ निर्णीत होता है । अत: रूपवद्वयवहाराभाव स्वरूप अनुमिति रूप सिद्धि हो सकती है । इस प्रकार वायु में रूपाभाव का अनुमान हो सकता है । जिस वस्तु में जिस वस्तु की व्याप्ति रहती है, प्रभाव ( व्याप्याभाव ) की व्याप्ति व्यापकी भूत उक्त वह्नि की व्याप्ति घूम में है, अत: वह्नि के अभाव में तद्विषयक व्यवहार की व्याप्ति चूकि तद्विषयक अभाव में तद्विषयक उपलब्ध्यभाव की व्याप्ति के रूप को उपलब्धि का प्रभाव घट में हेतु से वायु में रूपानुपब्धि रूप हेतु की वायु में सिद्ध रूपानुपलब्धि रूप हेतु से इस समाधानाभास का यह उत्तर है कि ) व्याप्ति से युक्त ‘व्याप्य’ उस वस्तु के वस्तु के अभाव में अवश्य रहती है । धूमाभाव की व्याप्ति रहती है । इसी युक्ति से उपलब्धि में है, अतः तद्विषयक व्यवहार के रह सकती है । किन्तु यही विचारणीय है कि तद्विषयक व्यवहार की व्याप्ति तद्विषयक उपलब्धि में क्यों है ? ( १ ) यह हो सकता है कि चूं कि तद्विषयक व्यवहार तद्विषयक उपलब्धि से उत्पन्न होता है, इसीलिये तद्विषयक व्यवहार की व्याप्ति तद्विषयक उपलब्धि में हैं। क्योंकि कार्य की व्याप्ति कारण में रहती है । ( २ ) अथवा यह भी हो सकता है कि व्यवहार ही यदि उपलब्धि का ‘जनक’ हो ( ऐसा भी होता है, क्योंकि व्यवहार से शक्तिग्रह रूप उपलब्धि होती है ) तथापि व्यवहार की व्याप्ति उपलब्धि में रह सकती है, क्योंकि कारण की भी व्याप्ति कार्य में रहती है । ( ३ ) ऐसा भी हो सकता है कि तद्विषयक ज्ञान के ( विषयता सम्बन्ध से ) विषय स्वरूप ‘आश्रय’ में रहनेवाली जो ज्ञातता श्रथवा प्राकस्य रूप धर्म है, वही व्यवहार से उत्पन्न हो । फलतः यह ज्ञातता अथवा प्राकट्य रूप ‘धर्म’ चूकि उपलब्धि एवं व्यवहार दोनों से ही उत्पन्न होता है, इसलिये भी व्यवहार की व्याप्ति उपलब्धि में रह सकती है, क्योंकि एक कार्य के जितने भी कारण होते हैं, उनमें उस कार्यकाल में नैयत्य ( व्याप्ति) रहता है । अतः उपलब्धि में चूकि इन तीन ही प्रकार से व्याप्ति का रहना संभव है, अता व्यवहाराभाव में भी उपलब्धि के अभाव की व्याप्ति इन्हीं तीनों प्रकारों से संभव है । अर्थात् (१) व्यवहार चूँकि ज्ञान ( उपलब्धि ) से उत्पन्न होता है, अतः जहाँ व्यवहार नहीं है, वहीं उपलब्धि भी नहीं है । बायु में रूप का व्यवहार नहीं है, अतः रूपविषयक ज्ञान भी ( विशेष्यता सम्बन्ध से ) नहीं है । किन्तु अपेक्षाज्ञान एवं उपेक्षाज्ञान एतदुभयसाधारण व्यवहार एवं ‘उपलब्धि’ एक ही वस्तु है । अतः व्यवहार के प्रभाव से बो उपलब्ध्यभाव की अनुमिति होगी, वह वास्तव में ज्ञानाभाव से ज्ञानाभाव की ही अनुमिति होगी । ‘स्व’ से ‘स्व’ की उत्पत्ति की आपत्ति है ‘आत्माश्रय’ दोष । इस पक्ष में यह ‘श्रात्माश्रय’ दोष अनिवार्य है ।
४५६ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली तदभावश्च तज्ज्ञानतदाश्रयधर्माभावान्तर्भूत श्रात्माश्रयेतरेतराश्रयचक्रकप्रवृत्तिप्रसङ्गात् । इतरेतराश्रयः एवेत्यशक्यनिश्चय एव, न (२) यदि यह मानें कि व्यवहार ज्ञान का कारण है, अतः ’ कारणाभावात् कार्याभाव:’ इस न्याय से व्यवहार रूप कारण के अभाव से उपलब्धि रूप कार्य का अभाव मनुमित होता है, तो इस पक्ष में ‘अन्योन्याश्रय’ दोष होगा। क्योंकि चक्षुरादि व्यापार जैसे ज्ञान के कुछ कारण अतीन्द्रिय भी हैं, वे भी ज्ञानजनक व्यवहार के अन्तर्गत आते हैं । किन्तु चक्षुरादि व्यापार रूप कारण का ज्ञान उन के कार्य के ज्ञान से ही हो सकता है, कारण के ज्ञान से नहीं । अतः अतीन्द्रिय स्वरूप चक्षुरादि के व्यवहार का अभाव उपलब्धि के अभाव से ही समझा जा सकता है । इसका यह फलितार्थ हुआ कि उपलध्यभाव से व्यवहाराभाव को समझे; एवं व्यवहाराभाव से उपलब्ध्यभाव रूप अनुपलब्धि को समझें। इस प्रकार इस पक्ष में ‘अन्योन्याश्रय’ दोष है । (३) यदि कथित तीसरा पक्ष मानें तो ‘चक्रकापत्ति’ दोष होगा । क्योंकि प्राकट्याभाव के ज्ञान से उपलब्ध्यभाव का ज्ञान’ उपलब्ध्यभाव के ज्ञान से व्यवहाराभाव का ज्ञान, व्यवहाराभाव से प्राकट्याभाव का ज्ञान, प्राकट्याभाव के ज्ञान से उपलब्ध्यभाव का ज्ञान । अथवा ज्ञानाभाव से प्राकट्याभाव का ज्ञान, प्राकट्याभाव से व्यवहाराभाव का ज्ञान, व्यवहाराभाव से ही ज्ञानाभाव ( अनुपलब्धि ) का ज्ञान यदि मानें तो चक्रकापत्ति दोंष होगा । इस प्रकार कथित आत्माश्रय, अन्योन्याश्रय एवं चक्रकापत्ति रूप दोषों के कारण विशेष व्यवहाराभाव से विशेष विषयक अनुपलब्धि की सिद्धि भी नहीं हो सकती । १. ( इस प्रसङ्ग में मीमांसक कह सकते हैं कि - वायु पक्षक रूपाभाव साध्यक अनुमिति में जो रूपानुपलब्धि को, एवं रूपानुपलब्धि के अनुमिति में प्राकट्याभाव को हेतु माना गया है. उन में ये आत्माश्रयादि दोष तभी हो सकते हैं, जब कि उक्त हेतुओं के ज्ञानों को अनुमिति का कारण मानें । अर्थात् उन हेतुओं को ज्ञात होकर उन धनुमितियों का उत्पादक मानें। यदि स्वरूपतः उन हेतुओं को ही अनुमितियों का उत्पादक मानें, तो वे आत्माश्रयादि दोष नहीं आ सकते, अता ऐसा ही स्वीकार करेंगे । इसके समाधान के लिये यह पूछना है कि अनुपलब्धि अथवा प्राकट्याभाव स्वरूपत। वायु में रूपाभाव का ज्ञापक क्यों है ? (1) रूप का साधक है उपलब्धि, अथवा प्राकट्य भी 9.
तृतीयः स्तबक! ४५७ न चाऽज्ञातस्योपलम्भाद्यभावस्य लिङ्गता । न चाज्ञातस्य ’ … यह नियम नहीं है कि जो जिसका ( ज्ञापक ) लिङ्ग हो, उस ( लिङ्ग ) का अभाव भी उक्त ज्ञाप्य के अभाव का ज्ञापक हो । अगर ऐसा हो तो धूम वह्नि का ज्ञापक है, अतः घूम तदभाव रूप है अनुपलब्धि, श्रथवा प्राकट्याभाव रूप है अनुपलब्धि, अथवा प्राकट्य- भाव, इस लिये वे ( धनुपलब्धि अथवा प्राकट्याभाव ) रूपाभाव के साधक हैं । अथवा (२) रूपानुपलब्धि एवं रूपगत प्राकट्य के अभाव में रूपाभाव की व्याि है, अतः वे रूपाभाव के अनुमापक हैं ? ( ३ ) अथवा रूप का कार्य है, रूप की उपलब्धि, एवं रूप गत प्राकट्य (प्राकट्य चूँकि उपलब्धि जनित है, अतः उपलब्धि जनक उसका विषय भी प्राकट्य का कारण है ) अत: ‘कार्याभाव से कारणाभाव की अनुमिति’ की न्याय से वे दोनों रूपगत प्राकट्याभाव एवं रूपानुपलब्धि ये दोनों वायु में रूपाभाव का साधन करते हैं। इन में ‘नचाज्ञातस्य’ इत्यादि सन्दर्भ के द्वारा प्रथम विकल्प एव तृतीय विकल्प खण्डित हुये हैं, एवं ‘अविनाभावबलेन’ इस सन्दर्भ के द्वारा कथित द्वितीय विकल्प मिरस्त हुआ है । १. अर्थात् प्रत्यक्ष प्रमाण से रूप प्रमाण से ही वायु में अगर रूपानुलब्धि का ज्ञान बायु में होगा तो फिर चक्षु रूपाभाव का भी ज्ञान होगा। इस शिरोवेष्टनेन नासिका स्पर्श की कोई आवश्यकता नहीं है कि प्रत्यक्ष से रूपानुपलब्धि को समझ कर उस से वायु में रूपाभाव का अनुमान किया जाय । यदि रूपोपलब्धि के प्रभाव को वायु में समझाने की शक्ति ज्ञान ग्राहक सन रूप इन्द्रिय में हैं, तो फिर रूप ग्राहक चक्षु में भी रूपाभाव को समझाने की सामथ्यं क्यों नहीं है ? किन्तु इस प्रसङ्ग में कहा जा होता है, उसी इन्द्रिय से उसके प्रभाव का प्रत्यक्ष उस इन्द्रिय से सकता है कि प्रभाव का प्रत्यक्ष जिस इन्द्रिय से अधिकरण का प्रत्यक्ष भी होना चाहिए। तभी हो सकता है । एतदनुसार वायु में रूपानुपलब्वि के प्रत्यक्ष में कोई बाघा नहीं है, क्योंकि रूपानुपलब्धि है रूपज्ञानाभाव, ज्ञान का ग्राहक इन्द्रिय ही उस का ग्राहक है । इसलिये मन रूप इन्द्रिय से अधिकरणीभूत आत्मा का भी ग्रहण हो सकता है । किन्तु रूपाभाव का प्रतियोगी है रूप, उसका नहीं हो सकता । अतः बायु में रूपाभाव का ग्राहक है चक्षु, उससे वायु रूप अधिकरण का प्रत्यक्ष रूपानुपलब्धि का ज्ञान प्रत्यक्ष के द्वारा प्राप्त कर उसी से अनुसानु करना पड़ेगा। क्योंकि वायु में रूपाभाव का प्रत्यक्ष नहीं हो सकता । इसी का खण्डन भाचार्य ने प्रकृत सुन्दर्भ से किया है कि अभाव के प्रत्यक्ष में अधिकरण के प्रत्यक्ष की कोई अववश्यकता ही नहीं है। ५०
गद्यपद्यात्मक-न्याय कुसुमाञ्जली न च प्राकट्याभावः सत्तामात्रेणोपलम्भाभावमावेदयतीति युक्तम्; लिङ्गाभावस्य तथात्वेऽतिप्रसङ्गात् । श्रविनाभावबलेन तु नियते तत्प्रतिसन्धानापत्तेः । तु न ह्यविनाभावः सत्तामात्रेण ज्ञानहेतुं नियमयति, धूमादावपि तथाभाव- प्रसङ्गादिति । ज्ञानप्रत्यक्षत्वेन त्वद्दिशा भविष्यतीति चेन्न । का अभाव भी बह्नि के अभाव का ज्ञापक होगा । जिससे अयोगोलक में घूम के अभाव से बह्नधभाव की अनुमिति माननी होगी । तस्मात् रूपव्यवहार अथवा रूपप्राकट्य ये दोनों रूपानुमिति के हेतु हैं, इस लिये रूपव्यवहार के अभाव अवथा रूपप्राकट्य के अभाव से रूपानुपलब्धि की अनुमिति नहीं हो सकती । श्रविनाभावबलेन यदि रूपानुपलब्धि की व्याप्ति रूपव्यवहार के प्रभाव में अथवा रूपप्राकट्य के अभाव में है, इसी लिये रूप व्यवहाराभाव से अथवा रूप प्राकट्याभाव से वायु में रूपानु- पलब्धि की अनुमिति हो, तो फिर उक्त दोनों ही हेतुओं में रूपानुपलब्धि स्वरूप साध्य की व्याप्ति का प्रतिसन्धान भी उक्त अनुमिति में अपेक्षित होगा । फलतः रूपानुपलब्धि की व्याप्ति से युक्त ही दोनों हेतुओं का ज्ञान आवश्यक होगा। क्योंकि व्याप्ति स्वरूपतः अनुमिति के हेतु का नियमन नहीं करता । अर्थात् हेतु में साध्य की व्याप्ति के रहने से ही वह साध्य की मनुमिति के उत्पादन में उपयोगी नहीं होती । प्रती व्या सि करते ( देि श्रपि उसके है, उ है" य उस में उ हैं ? होगा । अर्थात् जिस व्याप्ति न ता यदि ऐसा न हो तो घूमादि हेतुओं में भी ‘तथाभावप्रसङ्ग’ व्यक्ति को धूम में वह्नि की व्याप्ति गृहीत नहीं हैं । उस व्यक्ति को भी घूम से वह्नि की अनुमिति होगी । अतः इस पक्ष में अनुपलब्धि रूप हेतु से रूपाभाव के अनुमान में अनुपलब्धि का ज्ञान आवश्यक है । उक्त दोनों ही हेतुओं के ज्ञानों की अनुपपन्नता आत्माश्रयादि दोषों के द्वारा प्रदर्शित हो चुकी है । पू० प० ज्ञानप्रत्यक्षत्वेन … 1 नैयायिकों के समान ही हम ( मीमांसक लोग ) भी ज्ञानों का प्रत्यक्ष मान लेंगे । सुतराम् अनुपलब्धि ( ज्ञानाभाव ) का प्रत्यक्षात्मक ज्ञान ही हो सकता है। क्योंकि नैयायिकों के मत से जिसका प्रत्यक्ष जिस इन्द्रिय के द्वारा हो, उसके अभाव का प्रत्यक्ष भी उसी इन्द्रिय से होना उचित है । अतः ज्ञान का ग्रहण यदि मन स्वरूप इन्द्रिय के द्वारा हो, तो फिर ज्ञानाभाव (अनुपलब्धि ) का ग्रहण भी मन से ही होगा । रूप विषयक ज्ञान का प्रभाव ही ‘रूपानुपब्धि’ है । श्रतः प्रत्यक्ष प्रमाण से ज्ञात रूपानुपलब्धि के द्वारा ही वायु में रूपाभाव का अनुमान हो सकता है । प्रभाव
तृतीयः स्तबकः ४५ शब्दध्वंसादिनोक्तोत्तरत्वात् । अपि च प्रतियोगिग्राहकेन्द्रियेणाधिकरणधर्म- तद्रहितायास्तस्याः कार्यंव्यभिचाराद्वयवस्थाप्येत, प्रतीतिरनुपलब्धेरनमिति, व्याप्तिबलाद्वा ? | न तावदुक्तरूपानुपलब्धिस्तां विना श्रभावप्रत्ययमजनयन्ती दृश्यते । सि० प० न, शब्दध्वंसादिना उक्त’ समाधान भी युक्त नहीं है, इसका उपपादन द्वितीयस्तवक में यह उपपादन करते हुए दें चुका हूं कि अभाव प्रत्यक्ष में उसके प्रधिकरण का प्रत्यक्ष आवश्यक नहीं है । ( देखिये द्वितीय स्तवक “तस्मात्संनिकर्षे सति’ इत्यादि सम्दर्भ ) श्रपि’ च दूसरी बात यह है कि - " मनुपलब्धि के द्वारा जो अभाव को प्रतीति होगो; उसके लिए यह भी आवश्यक है कि उस अभाव के प्रतियोगी का ग्रहण जिस इन्द्रिय से संभव है, उस इन्द्रिय से उस अभाव के अधिकरण में रहने वाले किसी भी धर्म का ज्ञान भी आवश्यक है” यह कैसे समझते हैं ? (१) क्या उक्त अधिकरण में रहनेवाले धर्म का ज्ञान उक्त इन्द्रिय से नहीं रहने पर उस प्रधिकरण में अभाव का ग्रहण नहीं होता है, इस हेतु से अनुपलब्धि के द्वारा प्रभाव के ग्रहण में उक्त अधिकरण वृत्ति किसी धर्म के इन्द्रिय से उत्पन्न ज्ञान को अनुपलब्धि का सहायक मानते हैं ? अथवा ( २ ) इन्द्रियजनित उक्त अधिकरणवृत्ति धर्म के ज्ञान में उक्त अनुपलब्धि की व्याप्ति ही है, इसी लिये उक्त ज्ञान को अनुपलब्धि का ‘अङ्ग’ मानते हैं ? न तावत्" इनमें प्रथम पक्ष तभी युक्त हो सकता है जब कि अधिकरणवृत्ति धर्म के ज्ञान के बिना प्रभाव की प्रतीति कहीं भी नहीं होती ( किन्तु श्रवणेन्द्रिय से श्राकाशवृत्ति किसी धर्म का १. वायु में रूपानुपब्धि का ज्ञानी प्रत्यक्ष के द्वारा हो सकता है, किन्तु वायु में रूपाभाव का ज्ञान प्रत्यक्ष से नहीं हो सकता इसमें दूसरी युक्ति मीमांसक लोग यह देते हैं कि जिस इन्द्रिय के द्वारा जिस अधिकरण में प्रभाव का प्रत्यक्ष होगा, उस इन्द्रिय से ठक्क अधिकरण में रहनेवाले किसी धर्म का ज्ञान भी आवश्यक है । श्रात्मा में रूपानुलब्धि के ग्राहक मन रूप इन्द्रिय से आत्मा रहनेवाले इच्छादि अनेक गुणों का ज्ञान होता है, किन्तु वायु में रूपाभाव के ग्राहक चक्षुरिन्द्रिय के द्वारा वायु में रहनेवाले किसी भी धर्म का ज्ञान नहीं होता है, अतः वायु में रूपाभाव का प्रत्यक्ष चक्षु से नहीं हो सकता। इसी समाधानाभास का खण्डन आचार्य ने ‘अपि च’ इत्यादि सन्दर्भ से किया है। CCO. Vasishtha Tripathi Collection. Digitized by eGangotri४६० गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जलौ नापि व्याप्तेः । तथा सति वायौ रूपाभावप्रत्ययस्ता माक्षिपेत् एवम्भूतत्वात् । अनाक्षेपे, वा, न तत्कारणको भवेत्, न वा भवेत् । ततो न भवत्येव, लिङ्गात्त दुत्पत्तिरिति चेत्; ननु लिङ्गमपि सैव न तत्त्वान्तरम् । ज्ञान न रहने पर भी आकाश में अनुपलब्धि के द्वारा शब्दध्वंस रूप अभाव के प्रत्यक्ष का उपपादन ( द्वितीयस्तबक में तस्मात् संनिकर्षेसति इत्यादि सन्दर्भ से ) कर चुके हैं । अतः ‘कार्य व्यभिचार’ से अर्थात् अनुपलब्धि स्वरूप कारण के रहने पर भी अधिकरणवृत्ति उक्त धर्मं के ज्ञान के बिना उक्त प्रभाव प्रतीति की अनुत्पत्ति स्वरूप ‘व्यभिचार’ से प्रधिकरणवृत्ति उक्त घर्मंज्ञान में अनुपलब्धि की ‘अङ्गता’ (सहायक होना - सहकारिता) उपपादित नहीं हो सकती नापि - – … तद च उत्प रूपा आव को भी । पू० दूसरा पक्ष इस लिये प्रयुक्त है कि अधिकरणवृत्ति धर्म के उक्त इन्द्रियजनित ज्ञान में धनुपलब्धि की व्याप्ति नहीं है। अगर ऐसी बात होती तो वायु में जो विशेष्यता सम्बन्ध में ) { रूपाभाव की प्रतीति होती है, वहीं भी वायु में रहनेवाले किसी धर्म का ज्ञान चक्षु से अवश्य रहता । किन्तु वायु में उसका रहना संभव ही नहीं है। क्योंकि वायुगत किसी धर्म का ग्रहण रूपग्राहक चक्षुरिन्द्रिय से संभव ही नहीं है । यदि अनुपलब्धि की व्याप्ति उक्त अधिकरणवृत्ति धर्म के ज्ञान में रहती, तो वायु में रूप ग्रहण से भी यह आक्षेप ( कल्पना ) हो सकता था कि वहाँ भी उक्त अधिकरणवृत्तिधर्म का ज्ञान आवश्यक है । चूँ कि यह प्राक्षेप संभव नहीं है, अतः यह कहना भी संभव नहीं है कि अनुपलब्धि से होनेवाली वायु में रूपाभाव की प्रतीति का कारण वायुगत किसी धर्म का चाक्षुषज्ञान भी है । तस्मात् या तो वायु में रूपाभाव की प्रतीति हो न हो, यदि हो तो उसके लिये वायुगत किसी धर्म का चाक्षुषज्ञान भी आवश्यक है; किन्तु दोनों में से एक भी पक्ष स्वीकार नहीं किया जा सकता । अतः यही मानना होगा कि प्रधिकरणवृत्ति धर्म का ज्ञान अधिकरण वृत्ति अभाव विषयक ज्ञान का कारण नहीं है । पू० प० ततो न… वायु में रूपाभाव की प्रतीति उक्त आपत्तियों के कारण अधिकरणवृत्ति धर्म के ज्ञान से भले ही न हो, किन्तु ‘लिङ्ग’ से होती है । प्रर्थात् वायु से रूपाभाव का अनुमान ही होता हैं । सि० प० ननु लिङ्गमपि…
वायु में रूपाभाव की अनुमिति जिस ‘लिङ्ग’ से होंगी, वह लिङ्ग ‘अनुपलब्धि’ ही है । अर्थात् अनुपलब्धि रूप हेतु से ही वायु में रूपाभाव की अनुमिति होती है । अतः मनुपलब्धि से उत्पन्न होनेवाले किसी मी ज्ञान में यदि अभाव की प्रतियोगी के ग्राहक इन्द्रिय के द्वारा
ज्ञात अथां रूप अपेक्ष का अनुप के अ वही है, व में ख श्रतः सि० हेतुवि विशु इन्द्रि विभि साम से वा तृतीय- स्तवकः ४६१ यथा योनिसम्बन्धोऽलिङ्गदशायामिन्द्रियसन्निकर्ष मपेक्षते, लिङ्गदशायां तु तदनपेक्ष एव ब्राह्मण्यज्ञाने, तथैतत् स्यादिति चेन्न । कार्यजातिभेदात्तदुपपत्तेः । प्रकृते च तदनभ्युपगमात् । 1 उत्पन्न अधिकरण गत धर्म का ज्ञान आवश्यक है, तो फिर अनुलब्धि स्वरूप हेतु से जो वायु में रूपाभाव का अनुमित्यात्मक ज्ञान होगा, उसके लिए भी वायुगत किसी धर्म का चाक्षुषज्ञान आवश्यक होगा ही । अतः अनुपलब्धि के द्वारा प्रभाव के ज्ञान में उक्त इन्द्रियजनित ज्ञान को अधिकरणगत धर्म का सहायक मानने से वायु में अनुपविषं लिङ्गक रूपाभाव की अनुमिति भी अनुपन्न हो जायगी । पू० प० यथा योनिसम्बन्ध … जिस प्रकार किसी ब्राह्मण में किस समय इन्द्रिय का संनिकर्ष नहीं है, किन्तु यह ज्ञात है कि इस पुरुष के माता-पिता ब्राह्मण थे। ऐसी अवस्था में माता-पिता रूप ‘योनि’ अर्थात् कारणों के सम्बन्ध से उस व्यक्ति में ‘ब्राह्मण्य’ की अनुमिति होती है । ‘योनिसम्बन्ध’ रूप इस हेतु को ब्राह्मणत्व के ज्ञापन में ब्राह्मण व्यक्ति स्वरूप आश्रय में इन्द्रिय सनिकर्ष की अपेक्षा नहीं होती है । किन्तु वही ‘योनिसम्बन्ध’ जब ‘अलिङ्गविषया’ उसी व्यक्ति में ब्राह्मणत्व का ज्ञापन करता है, तो ब्राह्मणगत इन्द्रिय संनिकर्ष की अपेक्षा होती है । उसी प्रकार अनुपलब्धि जब ‘लिङ्गविषया’ प्रभाव के ज्ञान को उत्पन्न करती है, तो उसे अभाव प्रतियोगी के अधिकरण में रहने वाले किसी धर्म के इन्द्रियजनित ज्ञान की अपेक्षा नहीं होती है । किन्तु वही अनुपलब्धि जब ‘अलिंगविषय ।’ स्वतन्त्र रूप से अभाव विषयक ज्ञान को उत्पन्न करती है, तो उसे प्रधिकरण गत किसी धर्म के इन्द्रियज्ञान का साहाय्य अपेक्षित होता है । अतः वायु में रूपानुपलब्धि चूंकि लिंगविधया रूपाभाव की अनुमिति स्वरूप ज्ञान को उत्पन्न करती है, अतः वायु के किसी भी धर्म का चाक्षुषज्ञान यदि प्रकृत में नहीं भी है, तथापि कोई क्षति नहीं । सि० प० न, कार्यजातिभेदात् ……. सामग्री का वैजात्य ही कार्यों के वैजात्य का प्रयोजक है । प्रकृत में ‘योनिसम्बन्ध’ हेतुविषया ब्राह्मण्य के जिस ज्ञान का उत्पादन करता है, वह ज्ञान ‘अनुमिति’ रूप है । एवं विशुद्ध मातापितृजन्यत्व रूप योनिसम्बन्ध के अनुसन्धान के के साहाय्य से ब्राह्मणगत इन्द्रियसंनिकर्ष के द्वारा ब्राह्मण्य का जो बोध होता है, वह ‘प्रत्यक्ष’ रूप है । अतः ब्राह्मण्य के विभिन्न दोनों ही बोघों की सामग्री अवश्य ही विभिन्न होंगी । यह विभिन्नता पहिली सामग्री में इन्द्रियसंनिकर्ष के प्रवेश एवं दूसरी में उसके अंप्रवेश से होती है । किन्तु अनुपलब्धि में रूपाभाव का जो ज्ञान होता है, एवं भूतल में घटाभाव का जो ज्ञान होता है, से वायु . 6 ४६२ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली पारोक्ष्यापारोक्ष्ये विहायान्यथाऽप्यसौ भविष्यतीति चेन्न । अनुपलम्भात् । सम्भाव्यते तावदिति चेत्; सम्भाव्यताम्, न त्वेतावताऽपि तमाश्रित्य करणनियमनिश्चयः । उन दोनों में किसी ‘वैजात्य’ का अनुभव नहीं होता ( क्योंकि इन दोनों में तो वैजात्य पारोक्ष्य एवं अपारोक्ष्य रूप ही होता, सो आप मीमांसक मानते नहीं हैं ) । अत: अभाव के इन दोनों ज्ञानों में कोई अन्तर नहीं होगा । इसलिये इसमें कोई विशेष युक्ति नहीं है कि अनुपलब्धि से उत्पन्न अभाव विषयक एक ज्ञान में अधिकरणगत किसी धर्म के इन्द्रियजनित बोध को अपेक्षा है, एवं अनुपलब्धि जनित ही दूसरे बोध में उक्त इन्द्रियजनित बोध की अपेक्षा नहीं है । पू० प० पारोक्ष्यापारोक्ष्ये उक्त दोनों ज्ञानों में पारोक्ष्य ( परोक्षता ) एवं अपारोक्ष्य ( अपरोक्षता ) दोनों के द्वारा वैजात्य भले ही न हो, किन्हीं दूसरे धर्मों के द्वारा ही उनमें वैजात्य हो सकता है । उसी दूसरे प्रकार से वैजात्य के संपादन के लिये अभाव के एक ज्ञान में अधिकरणगत धर्म के इन्द्रियजनित ज्ञान की अपेक्षा मानेंगे। अभाव विषयक ही दूसरे ज्ञान में उसकी अपेक्षा नहीं मानेंगे, इसमें कोई बाधा नहीं है । सि० प० अनुपलम्भात् उक्त दोनों ही ज्ञानों में पारोक्ष्य एवं प्रपारोक्ष्य इन दोनों से भिन्न किसी अन्य प्रकार के वैजात्य का अनुभव नहीं होता । अतः उक्त कथन उचित नहीं है । पू० प० संभाव्यते 400 अभावविषयक उक्त दोनों ज्ञानों में पारोक्ष्य एवं प्रपारोक्ष्य रूप वैजात्य की संभावना भले ही न रहे। प्रथवा किसी अन्य वैजात्य का भी अनुभव भले ही न हो । तथापि पारोक्य एवं अपारोक्ष्य इन दोनों धर्मो को छोड़कर किन्हीं अन्य धर्मो के द्वारा उन दोनों अभाव ज्ञानों में वैजात्य की संभावना तो है ही । सि० प० संभाव्यतास् ऐसी संभावना भले ही रहे, तथापि उस संभावना के बल पर यह निर्णय नहीं किया जा सकता कि ‘घटाभाववद्भूतलम्’ इत्यादि अभाव विषयक प्रतीतियों का ‘करण’ अनुपलब्धि ही है । भतः इससे यह भी निर्णय नहीं किया जा सकता कि अनुपलब्धि नाम का एक स्वतन्त्र प्रमाण है । यथ स्मर संस्क अज ( अ प्रत्यक्ष होती ‘करण से ही करण अतः नास्ती चद्वा ) अतः स्वतन्त्र पू० प साभार होता है करता इन्द्रिय होता है है, उस सि० प से हो
तृतीय - स्तवक! ४६३ अज्ञातकरणत्वाच्च । यदज्ञायमानकररणजं ज्ञानं तत्साक्षादिन्द्रियजम् यथा रूपप्रत्यक्षम् । तथा चेह भूतले घटो नास्तीति ज्ञानमिति । यथा वा स्मरणमज्ञायमानकरणजं साक्षान्मनोजन्म । कुतस्तर्हि न साक्षात्कार्यंनुभवरूपम् ? | संस्कारातिरिक्तसन्निकर्षाभावादिति वक्ष्यामः । अज्ञातकरणत्वाच्च … मनोजन्म ( तृतीय चरण की व्याख्या ) जिन ज्ञानों की उत्पत्ति के लिये उनके करणों के ज्ञात होने की अपेक्षा नही होती वे ( अज्ञात करणक ज्ञान ) अवश्य ही साक्षात् हो इन्द्रिय के द्वारा उत्पन्न होते हैं । जैसे कि ‘रूप प्रत्यक्ष’ स्वरूप ज्ञान को चक्षु से उत्पन्न होने के लिये चक्षु के ज्ञात होने की आवश्यकता नहीं होती है, अतः वह साक्षात् चक्षु स्वरूप इन्द्रिय से ही उत्पन्न होती है | अथवा जैसे कि स्मरण रूप ज्ञान को अपनी उत्पत्ति के लिये ‘पूर्वानुभव’ स्वरूप अपने ‘करण’ के ज्ञात होने की प्रावश्यकता नहीं होती है, अतः स्मरण साक्षात् मन स्वरूप इन्द्रिय से ही उत्पन्न होता है । उसी प्रकार ‘भूतले घटो नास्ति’ इस प्रभाव प्रतीति को भी अपनी उत्पत्ति के लिये करण के ज्ञात होने की आवश्यकता नहीं होती है, अतः वह भी ‘अज्ञातकरणक’ ज्ञान ही है । अतः वह भी अवश्य ही साक्षात् इन्द्रिय से ही उत्पन्न होता है । तस्मात् ( इह भूतले घटो नास्तीत्याभावबुद्धिः साक्षादिन्द्रियजा यज्ञायमानकरणजन्यत्वात् रूपप्रत्यक्षवत्’ स्मरण वद्वा ) " इस प्राकार के अनुमान से उक्त अभाव बुद्धि में साक्षात् इन्द्रियजन्यत्व सिद्ध है । अतः उसकी उत्पत्ति प्रत्यक्ष प्रमाण से ही हो जायगी। इसके लिये अनुपलब्धि नाम के स्वतन्त्र प्रमाण को स्वीकार करने की प्रावश्यकता नहीं है । पू० प० कुतस्तर्हि स्मृति यदि इन्द्रिय से साक्षात् ही उत्पन्न होती है, तो फिर ‘अयम् घटा’ इत्यादि साक्षात्कारात्मक अनुभवों की तरह उसका अभिलाप ( शब्दों से अभिव्यक्ति ) क्यों नहीं होता है? (किन्तु स्मृति को तो कोई प्रसाक्षात्कारात्मक अनुभव रूप भी स्वीकार नहीं करता ) क्योंकि साक्षात्कार तो अनुभव रूप ही होता है, अतः स्मृति की उत्पत्ति में इन्द्रिय का साक्षात् उपयोग नहीं होता है, किन्तु संस्कार के द्वारा उसमें इन्द्रिय का उपयोग होता है । अत: उक्त प्रनुमान स्मृति रूप दृष्टान्त में व्यभिचरित होने के कारण असदनुमान है, उससे अनुपलब्धि का स्वतन्त्र प्रामाण्य खण्डित नहीं हो सकता । सि० प० संस्कारातिरिक्त वही ज्ञान साक्षात्कारात्मक है, जिसकी उत्पत्ति विषय एवं इन्द्रिय के ऐसे संनिकर्ष से हो जिस के मध्य में संस्कारादि की कोई बात न हो । स्मृति की उत्पत्ति में मन का
५६४ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली तथापि भावविषये इयं व्यवस्था, अभावज्ञानं त्वज्ञातकरणत्वेऽपि न साक्षा- दिन्द्रियजं भविष्यतीति चेन्न । उत्सर्गस्य बाधकाभावेन सङ्कोचानुपपत्तेः । अन्यथा सर्वव्याप्तीनां भावमात्रविषयत्वप्रसङ्गोऽविशेषात् । तथापि विपक्षे किं बाधकमिति चेत्; ‘स्वजन्यसंस्कारविषयस्थ’ रूप संनिकर्ष ही प्रयुक्त होता है, मन के किसी अन्य संनिकर्ष की वहाँ संभावता नहीं है। क्योंकि स्मृति भूत एवं भविष्यत् वस्तुओं का भी होता है । अतः स्मृति अज्ञात् करण जन्य होती हुई भी साक्षात्कारात्मक नहीं है । सुतराम् उक्त अनुमान का हेतु दृष्टान्त में व्यभिचरित नहीं है । पू० प० तथापि भावविषये ‘अज्ञात करणजन्य ज्ञान साक्षात् इन्द्रिय जन्य ही हो’ यह नियम भाव विषयक ज्ञान के ही प्रसङ्ग में स्वीकार करेंगे। अतः ‘घटाभाववद्भूतलम्’ इत्यादि अभाव विषयक ज्ञान यदि प्रज्ञात करण जन्य हैं भी, तथापि उनमें साक्षात् इन्द्रियजन्यत्व नहीं है । अत: कथित युक्ति से अनुपलब्धि के स्वतन्त्र प्रामाण्य का खण्डन नहीं हो सकता । सि० प० उत्सगंस्य ‘उत्सर्ग’ में अर्थात् सामान्य नियम में तव तक कोई सङ्कोच नहीं किया जा सकता, जबतक कोई विशेष बाधक उपस्थित न हो । यदि ऐसी बात हो तो फिर यह भी कहा जा सकता है कि व्याप्तिज्ञान केवल भावविषयक अनुमिति को ही उत्पन्न कर सकती है, बसाव विषयक अनुमिति को नहीं। इस प्रकार प्रभाव विषयक प्रत्यक्ष की तरह प्रभाव विषयक अनुमिति की भी सत्ता उठ जायगी। इसी प्रकार शब्द प्रमाण की प्रवृत्ति प्रभाव में निरस्त हो जायगी । अतः यदि भाव विषयक ज्ञान में साक्षात् इन्द्रियजन्यत्व का ज्ञापक आज्ञातकरणजन्यत्व ‘चूंकि प्रभाव विषयक ज्ञान में भी है, अतः उसमें भी साक्षात् इन्द्रिय- जन्यस्य प्रवश्य है । पू० प० तथापि फिर भी ‘विपक्ष में’ अर्थात् यह स्वीकार करने में कि प्रभाव विषयक ज्ञान में प्रज्ञा तकरणजन्यत्व के रहते हुये भी साक्षात् इन्द्रिय जन्यात्व को नहीं स्वीकार करेंगे ? ऐसी स्वीकार करने में कोई बाधक तो नहीं है, जैसे कि घट एवं पट दोनों कभी साथ-साथ रहते हैं, और कभी कभी अकेले अकेले भी रहते हैं, उसी प्रकार यह कहा जा सकता है कि भाव विषयक ज्ञान में अज्ञातकरणजन्यत्व कभी साक्षात् इन्द्रिय जन्यत्व के साथ ही रहता है, किन्तु वही अज्ञातकरणजन्यत्व. अभाव विषयक ज्ञान में कभी साक्षात् इन्द्रियजन्यस्व को छोड़कर भी रहता है। रूपा तु ख सि० अनुप है, उ तद्यथ एवं ‘अका अन्वय उत्पति भी क में वि रूपा विना विषयव उसकी धन्य है पुरुष हुए पु रूपादि जो चक्षुरि का नि
तृतीय- स्तबक ४६५ नन्विदमेव तावत् । अन्यदप्युच्यमानमाकरय । तद्यथा - प्रकारणककार्यं प्रसंगः, रूपाद्य पलब्धीनामपि वाऽनिन्द्रियकरणत्वप्रसंग: । न ह्यनुमित्यादिभिरुपलभ्यमानक रणिकाभिश्चक्षुरादिव्यवस्थापनम् अपि तु रूपाद्य पलब्धिभिरेव । सि० प नन्विदमेव पहिले तो ( इदमेव ) अर्थात् प्रभाव विषयक अनुमिति एवं शाब्दबोध की कथित अनुपपति को हो उक्त ‘विपक्ष’ का बाधक समझें । अन्य भी विपक्ष के वाषकों का उल्लेख करता है, उसे ध्यान पूर्वक सुनिये । तद्यथा …… … अकारण … 400 यदि अज्ञातकरणक केवल भाव विषयक ज्ञान में ही साक्षत् इन्द्रियजम्यन्व मानेंगे, एवं प्रज्ञात करणजन्य ही अभाव विषयक ज्ञान में साक्षात् इन्द्रियजन्यत्व नहीं मानेंगे, तो ‘अकारणक कार्यप्रसङ्ग’ रूप आपत्ति होगी । अर्थात् अज्ञातकरणजन्य जिसने भी ज्ञान हैं, इन्द्रिय में उन सभी ज्ञानों की कारणता अन्वय और व्यतिरेक से सिद्ध है। ऐसी स्थिति में अज्ञात करणक अभाव विषयकज्ञान की उत्पत्ति बिना इन्द्रिय रूप कारण के ही मानें, तो इसका यह अर्थ होगा कि बिना कारण के भी कार्य की उत्पत्ति होती है। किन्तु सो इष्ट नहीं है । अतः यह ‘अनिष्टापति’ मी प्रकृत में विपक्ष का बाधक है । रूपाधुपलब्धिभिरेव … (३) प्रकृत में तीसरा ‘विपक्षवाधक’ यह है कि यदि प्रज्ञातकरणक होने पर भी विमा इन्द्रिय के साक्षात् उपयोग के भी ज्ञान उत्पन्न हो, तो यह भी मानना होगा कि ‘रूपादि विषयक ज्ञान भी विमा इन्द्रिय रूप कारण के ही उत्पन्न होते हैं। क्योंकि चक्षु है पतीन्द्रिय, उसकी सत्ता अथवा कारणता रूपादि की उन्हीं उपलब्धियों से जानी जाती है, जो अज्ञातकरण- धन्य हैं, शांतकरणक रूपादि की अनुमित्यादि रूप उपलब्धियों से नहीं । ( ‘विस्फारिताक्ष’ पुरुष की व्याप्ति प्रभृति के अनुसन्धान के बिना भी रूपादि की उपलब्धि होती है, भांख सुवे हुए पुरुष को रूप की उपलब्धि नहीं होती है ) । प्रत। यह कल्पना करनी पड़ती है कि रूपादि की जो व्याप्त्यादि ज्ञानों से निरपेक्ष उपलब्धि होती है, उसका कोई ऐसा कारण है जो प्रासंस्थान में रहता है, एवं प्रतीन्द्रिय है । इस ‘चक्षुराविव्यवस्था’ का अर्थात् चक्षुरिन्द्रिय के अनुमान का मूल है प्रज्ञातकरणजन्यत्व, एवं साक्षात् इन्द्रियजन्यस्व इन दोनों का नियमित रूप से साथ रहने का ‘प्रसंकुचित नियम’। उस में यदि यह विपक्षवाचक ५६ P
६६ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जको यद्यपि साक्षात्कारिताऽपि तत्रैव पर्यवस्यति, तथापि प्रथमतोऽनुपलभ्यमान- करणत्वमेव प्रयोजकं चक्षुरादिकल्पने । रहे कि ज्ञान प्रज्ञात करणजन्य होने पर भी इन्द्रिय के साक्षात् उपयोग के बिना भी उत्पन्न हो सकता है, तो यह कहना भी संभव होगा कि रूपादि की उक्त उपलब्धि भी बिना इन्द्रिय के ही हो सकती है। इसके लिये अतीन्द्रिय चक्षु की कल्पना व्यर्थ है । इस प्रकार चक्षुरादि इन्द्रियों की सत्ता ही विपक्ष हो जायगी । तस्मात् व्याप्ति प्रभृति के उत्पन्न होने वाली रूपादि की इन उपलब्धियों में चूकि विना इन्द्रिय के प्रसङ्ग ( आपत्ति ) उपस्थित हो जायगा, अतः इस नियम को स्वीकार करना आवश्यक है कि जितने भी ज्ञान प्रज्ञातकरणक है, वे सभी अवश्य ही साक्षात् इन्द्रिय से उत्पन्न होते हैं । पू० प० यद्यपि साक्षात्कारितापि कश्चि स्त्वर्थ साक्षा ज्ञानों के बिना भी ही उपपन्न होने का करण साक्षा अनुमा अन्यथ साक्षात्करात्मक ज्ञान उन व्याप्ति प्रभूति करणों से भिन्न करणों के द्वारा ही उत्पन्न होते हैं, जो ( व्याप्यादिकरण ) ज्ञात होकर ही अपने कार्य को उत्पन्न नहीं करते। इस प्रकार साक्षात्कारात्मक ज्ञान में सिद्ध अज्ञातकरणजन्यता से ही साक्षात्कारत्व के प्रयोजक बिस ‘अशावकरणजन्यत्व’ का जाक्षेप होता है, उसी से चक्षुरादि इन्द्रियों का भाक्षेप ( स्वरूप सिद्धि ) होती है । अतः रूपादि की उपलब्धियों में साक्षात्कारत्व है। वही चक्षुरावि इन्द्रियों का शापक है, ‘अज्ञातकरणजभ्यत्व’ से चक्षुरादि का प्राक्षेप नहीं होता । अतः प्रकृत में रूप की उक्त उपलब्धि को यदि ‘ज्ञातकरण’ जन्य मान भी लेते हैं, तथापि चक्षुरादि की कल्पना में कोई बाधा नहीं आती है । नियमतः ज्ञात होकर उपयोगी होने वाले व्याप्ति प्रभृति कारणों की जन्यता जब उक्त रूपोपलब्धि में ज्ञात हो जाती है, तभी जाकर व्याप्ति प्रभूति ज्ञात होकर उपयुक्त होनेवाले व्याप्यादि कारणों से भिन्न किसी कारण सामान्य का अनुमान होता है । इसके बाद यह बात उपस्थित होती है कि उक्त चक्षुरादि करण व्याति प्रभृति करणों की तरह ज्ञात होकर ही उपयुक्त होती है ? अथवा दण्डादि की तरह स्वतः उपयुक्त होतीं हैं ? इसके बाद अन्वय और व्यतिरेक के द्वारा जब चक्षुरादि में स्वरूपतः कारणत्व का निश्चय हो जाता हैं, तब यह जानने की स्थिति आती है कि ‘साक्षात्कारात्मक ज्ञानं अज्ञात करणक हैं । अतः यह कहना प्रयुक्त है कि रूपादि की उपलब्धि में जो प्रज्ञातकरण- जन्यता है, वही चक्षुरादि इन्द्रियों का ज्ञापक है । सि० प० तथापि … चक्षुरादि कल्पने । ‘रूपादि की उपलब्धिय साक्षात्कारात्मक हैं’ यह पहिले उनके अज्ञातकरणङ्गम्यत्व से ही समझा जाता है। अन्यथा यह कैसे समझेंगे कि रूपादिकी उक्त उपलब्धियाँ हैं" यह जा सके अतएव है, इस ही स्मृ मन स्त्र करणज होगा ि इन्द्रिय साक्षा चर्चा ह जन्यत्वम स्मृतिक चन्यत्व संस्कार ही क्यों है ।
तृतीय। स्तबक ! ४६७. न ह्य् पलभ्यमाने करणान्तरे साक्षात्कारिणीष्वपि तासु चक्षुराद्यनुपलभ्यमानं कश्चिदकल्पयिष्यत् । अत एव साक्षात्कारित्वेऽपि स्मृतेर्मन एव करणमुपागमन् धीराः । संस्कार- स्त्वर्थं विशेषप्रत्त्यासत्तावुपयुज्यते, इन्द्रियाणां प्राप्यकारित्वव्यवस्थापनात् । साक्षात्कारात्मक हैं’ अतः यह मानना होगा कि रूपादि की उपलब्धियों में पहिले प्रज्ञात- करणजन्यत्व स्वरूप हेतु के द्वारा साक्षात्कारत्व की सिद्धि होती है । उसके बाद उस साक्षात्कारात्मक ज्ञान की ‘अन्यथानुपपत्ति’ से चक्षुरादि इन्द्रिय स्वरूप उनके अज्ञ(तकरणों का अनुमान होता है । अत: ‘प्रज्ञातकरणस्व भी चक्षुरादि की सिद्धि का प्राथमिक हेतु अवश्य है । अन्यथा “साक्षात्कार (त्मक उपलब्धि का करण ज्ञात होकर अपने कार्य का ‘उत्पादन’ करता हैं” यह निर्णय हो जाने पर उस प्रतीति के करण स्वरूप में ऐसे चक्षुरादि की जा सकेगी, जो अज्ञात होकर स्वतः ही उक्त उपलब्धि का संपादन करे । अतएव " -धीराः । कल्पना नहीं की “अत एव " अर्थात् जिस लिये कि प्रज्ञातकरणजन्यत्व ही इन्द्रियजन्यत्व का प्रयोजक है, इसी लिये ‘वीर’ विद्वद्वन्द स्मृति में साक्षात्कारत्व के न रहने पर भी मन स्वरूप इन्द्रिय को ही स्मृति का ‘करण’ मानते हैं । अर्थात् स्मृति यद्यपि साक्षात्कारात्मक नहीं है, तथापि पण्डितगण मन स्वरूप इन्द्रिय को स्मृति का करण कहते हैं । यह तभी हो सकता है जब कि भज्ञात- करणजन्यत्व को इन्द्रियजन्यत्व का प्रयोजक मानें। ऐसा स्वीकार करने पर ही यह कहना संभव होगा कि रूपादि की उपलब्धियों की तरह स्मृतियां भी चूकि प्रज्ञातकरणजन्य हैं, मतः इन्द्रियजन्य भी अवश्य हैं । वह इन्द्रिय है ‘मन’ । अतः स्मृति का साक्षात्कारित्व को इन्द्रियजन्यत्व का प्रयोजक मानें तो फिर स्मृति में करण ‘मन’ है । यदि इन्द्रियजन्यत्व की कोई फिर स्मृति में इन्द्रिय- चर्चा ही नहीं उठ सकती, क्योंकि स्मृति साक्षात्कारात्मक नहीं हैं। जन्यत्वमूलक मन स्वरूप करणजन्यत्व की कोई बात ही नहीं उठेगी। इसके बाद तो मन में स्मृतिकरणत्व की बात स्वतः खण्डित हो जायगी । तस्मात् अज्ञातकरणजन्यत्व ही इन्द्रिय- जन्यत्व का प्रयोजक है, साक्षात्कारित्व इन्द्रियजन्यत्व का प्रयोजक नहीं है। संस्कारस्तु ( इस प्रसङ्ग में यह मापत्ति हो सकती है कि तो फिर स्मृति को साक्षात्कारात्मक ही क्यों नहीं मान लिया जाय ? क्योंकि इन्द्रिय जन्य ज्ञान तो साक्षात्कारात्मक होता ही है। स्मृति भी मन स्वरूप इन्द्रिय से उत्पन्न होता है, फिर उसे साक्षात्कार स्वरूप मान लेने में
४६५ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली भावावेशाञ्च चेतसः । सर्वत्र हि बाह्यार्थानुभवे जनयितव्ये भावभूतप्रमाणा- विष्टमेव चेत उपयुज्यते, नातोऽन्यथेति व्याप्तिः । मु तवे कौन सी बाघा है ? इस आक्षेप का यह समाधान है कि ) केवल इन्द्रियजन्य होने से ही । कोई ज्ञान साक्षात्कारात्मक नहीं होता । किन्तु जो ज्ञान इन्द्रिय के उस संनिकर्ष के द्वारा उत्पन्न हो, जिस संनिकर्ष में ‘संस्कार’ का प्रवेश न हो, वही इन्द्रियजन्य ज्ञान साक्षात्कारात्मक होता है। स्मृति के उत्पादन में मन का ‘स्वजन्य संस्कारवत्व’ स्वरूप सम्बन्ध ही प्रयोजक है । मन का धन्य कोई उपयुक्त सम्बन्ध स्मृति के विषय के साथ संभव ही नहीं है । अतः स्मृति इन्द्रिय से उत्पन्न होने पर भी स्मृति साक्षात्कारात्मक नहीं है । ’ भावावेशाच्च चेतसः ••• • चेतस् अर्थात् मन का यह स्वभाव है कि वह बाह्य घटादि विषयों के अर्थ विषयक अनुभव का उत्पादन किसी भाव रूप प्रमाण के साथ सम्बद्ध होकर ही करे । ‘अभाव’ भी बाह्य पदार्थ ही है ( क्योंकि प्रात्मा में रहने वाले ज्ञानादि मान्तर पदार्थों से वह भी भिन्न १. उक्त ‘धीर’ पण्डितगण संस्कार को ही स्मृति का करण क्यों नहीं मान लेते ? मन रूप इन्द्रिय को स्मृति का करण मान लेने से जो स्मृति में साक्षात्कारत्व की आपत्ति भाती है, उसको हटाने के लिये इतना प्रयास क्यों करते हैं ? इस आक्षेप का यह समाधान हैं कि न्यायसूत्रादि प्रत्थों में यह वर्णित है कि इन्द्रियां ‘प्राप्यकारी’ है अर्थात् अर्थों के साथ सम्बद्ध होकर ही ज्ञान की उत्पादिका है । इस सिद्धान्त के अनुसार मन से जो स्मृति की उत्पत्ति होगी, उसके लिए यह आवश्यक है कि स्मृति के विषय के साथ मन का ‘सम्बन्ध’ हो । उक्त विषय के साथ मन का ‘स्वसम्बद्धचि संस्कार विषयत्व’ रूप सम्वन्ध ही हो सकता है ( ‘स्व’ है मन, तत्सम्बद्ध है आत्मा, उसमें संस्कार है, इस संस्कार की विषयता स्मृति के विषय में है ) इस सम्बन्ध के सम्पादक रूप में ही संस्कार का उपयोग स्मृति के उत्पादन में है । संस्कार केवल इसी लिये अपेक्षित होता है । अतः संस्कार स्मृति का करण नहीं है ।
धूम है सम् मन ज्ञान से अभ उक्त वाल अपेक्ष मन है । द्वार मन भाद्रे रहि स्वी सि० कि इन्द्रि का १. तृतीय:- स्तवक ॥ ४६८ तथैव शक्तेरवधारणात् । न ह्यनुपलब्धिमात्रसहायं तदभावेऽप्यनुभवमाधातु- मुत्सहते । शब्दलगादेरप्रेक्षादर्शनात् । न च यत्र यदपेक्षं यस्य जनकत्वमुपलब्धम्, तदेव तस्यैव तदनपेक्षं जनकमिति न्यायसहम्; श्रन्धन संबन्धमन्तरेणापि दहनात् धूमसम्भावनापत्तेः । तथा च गतं कार्यकारणभावपरिग्रहव्यसनेन ॥ २० ॥ अपि च- प्रतिनो गिनि सामर्थ्याद्वयापाराव्यवधानतः ॥ अक्षाश्रयत्वाद्दोषारणामिन्द्रियाणि विकल्पनात् ॥ २१ ॥ है ) अतः मन अभाव विषयक अनुभव का उत्पादन भी किसी भाव रूप प्रमाण के साथ सम्बद्ध होकर ही कर सकता है । अभावों के साथ शाब्द तथा अनुमिति रूप अनुभवों में मन का यह ‘भावावेश’ (अर्थात् किसी भाव प्रमाण के साथ मिलकर ही प्रभाव विषय को ज्ञान के उत्पादन की क्षमता ) को सभी स्वीकार करते हैं । अतः मन शाब्दादि प्रनुभवों से भिन्न ‘घटा भाववद्भूतलम्’ इस प्रकार के प्रभावानुभव को भी अनुपलब्धि रूप अभाव प्रमाण के साथ सम्बद्ध होकर उत्पन्न नहीं कर सकता। क्योंकि यहां भी उसका उक्त ‘भावावेश’ रूप स्वभाव का व्यक्तिक्रम संभव नहीं है । जिस लिये कि ‘जिस वस्तु में रहने वाली कारणता जिस वस्तु के सहाय्य की अपेक्षा रखती है, उस वस्तु की सहाय्य की अपेक्षा को छोड़कर वह कारण अपने कार्य का संपादन करे यह अनुभव के विरुद्ध है । मन मैं प्रभाव के ज्ञान की कारणता भावरूप प्रमाण के साथ सम्बन्ध सापेक्ष होकर ही गृहीत है | अभाव के कुछ ( अनुमिति शाब्दादि ) अनुभव तो भावाविष्ट ( भावावेश से युक्त ) मन के द्वारा हो, एवं प्रभाव के कुछ अन्य अनुभव अनुपलब्धि रूप प्रभाव प्रमाण से प्राविष्ट मन के द्वारा हो यह ‘प्रर्द्धजरती’ नहीं स्वीकार की जा सकती । यदि ऐसा हो तो प्राद्रेन्धन से संयुक्त वह्नि में हो घूम की कारणता के गृहीत रहने पर भी, उक्त संयोग से रहित वह्नि से भी घूम की उत्पत्ति की प्रापत्ति होगी। जिससे किसी भी कार्यकारणभाव को स्वीकार करना ही व्यर्थ हो जायेगा ।। २० ॥ सि० प० अपि च प्रयियोगिनि सामर्थ्यात् ( १ ) ’ प्रतियोगिनि सामार्थ्याद’ इस प्रथम हेतुवाक्य से यह प्रतिपादन प्रमोष्ट है कि घटाभाववभूतलम् इत्यादि अभाव प्रतीतियों का करण भी इन्द्रियाँ ही हैं। क्योंकि इन्द्रियों घटादि के अभाव के प्रतियोगी घटादि की उपलब्धि की करण हैं। जो जिसके मनुभव का करण होता है, वह उसके अभाव के अनुभव का भी करण होता है। यह व्याप्ति शब्द १. इद्रिय में प्रभाव के अनुभव की करयता के साधक एवं अनुपक्षब्धि के स्वतन्त्रप्रामायम के प्रतिक्षेपक अन्य चार हेतु भी प्राचार्य ने दिखलाये हैं । CCO. Vasishtha Tripathi Collection. Digitized by eGangotri४७०. गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली प्रमाण रूप करण एवं अनुमान प्रमाण रूप करण में सिद्ध है । तस्मात् इन्द्रियां मी अभावो- पलब्धि की करण हैं । मनुमिति एवं शाब्द से भिन्न प्रभाव के अनुभव के लिये ‘अनुपलब्धि’ स्वरूप स्वतन्त्र प्रमाण की आवश्यकता नहीं है । ( १ ) व्यापाराव्यवधानतः ’ सभी ‘करण’ व्यापार के द्वारा ही कार्यों का उत्पादन करते हैं । अथवा यह कहिये कि व्यापार के द्वारा कार्य सम्पादन करना ही ‘करण’ का स्वरूप है। अनुमिति का करण व्याप्ति ज्ञान भी परामर्श के द्वारा ही अनुमिति का, शाब्दबोध का करण भी पदार्थोपस्थिति रूप व्यापार के द्वारा ही शाब्दबोध का उत्पादन करता है। इसी प्रकार इन्द्रियाँ भी घटादि प्रत्यक्ष का उत्पादन घटादिगत स्वकीय संयोग रूप व्यापार के द्वारा ही करती हैं, अतः करण में जो कार्य का अव्यवहित पूर्वस्व है, उसमें व्यापाराविरिक्तत्वेन संकोच करना पड़ेगा । अर्थात् करण का यही लक्षण करना होगा कि व्यापार से भिन्न वस्तुओंों से अव्यवहित नियतपूर्ववर्ती ही कारण है, । इन्द्रिय में जो अभावोपलषि की ‘करणता’ है, उसका व्यापार अधिकरणज्ञान ही है। अधिकरणज्ञान स्वरूप व्यापार से व्यवहित होने पर भी इन्द्रिय में प्रभावोपलब्धि को करणता में कोई बाधा नहीं है । अक्षाश्रयत्वाद्दोषाणाम् • करण में रहने वाले दोष से ही विपर्यय ( निश्वयात्मक भ्रम ) की उत्पत्ति होती है । चक्षु में कमलादि रोगों के उत्पन्न होने पर ही पाण्डुर रङ्ग के शङ्ख में पीतिमा की भ्रान्ति होती है । जो करण स्वगत दोष के द्वारा जिस विषय के विपर्यय को उत्पन्न करेगा, वही १. मीषांसकों का कहना कि ‘घटाभावद्भूतलम्’ इस ज्ञान का विशेष्य जो भूतल, उसी का ज्ञान इष्ट्रिय से होता है । उस ज्ञान में प्रकार जो घटाभाव-उसका ज्ञान इन्द्रिय से नहीं होता है, क्योंकि इन्द्रिय ‘अन्य’ अर्थात् उससे भिन्न भूतल में चरितार्थ है । अतः घटाभाव के ज्ञान के लिए ‘अनुपलब्धि, नाम के प्रमाण की आवश्यकता है। इसी का उत्तर इन हेतुवाक्यों के द्वारा आचार्य ने दिया है । बोधक है । उसके बाद अध्याहार करना चाहिये । इस श्लोक का ‘इन्द्रियाणि’ पद पक्ष का ‘प्रभावोपलब्धिकरणम्’ साध्यबोधक इस वाक्य का अवशिष्ट पञ्चम्यन्त तीनों ही वाक्य एवं पञ्चमी का प्रतिरूपक तसिल् प्रत्यान्त ‘व्यापारव्यवधानतः’ यह वाक्य, ये चारो ही हेतुवोधक वाक्य हैं। इससे निम्न- लिखित न्यायवाक्प निष्पन्न होते हैं । (1) इन्द्रियाणि प्रभावोपलब्धिकरणानि प्रतियोगिनि सामर्थ्यात् (२) व्यापाराव्यवधानात् (३) दोषांणामाश्रयत्वात् (४) विकरूपनात् । घट एव मा ‘कर रहने ( इ ( ४ के में की उस विशेष एवं क्योिं से विधि रूप प्र इतनी को स्व रूप इस प्र मानन कि यदि समछा
तृतीयः स्तबका ४७१ यद्धि प्रमाणं यद्भावावगाहि, तत् तदभावावगाहि, यथा लिंगं शब्दो वा । घटाद्यवगाहि चेन्द्रियमिति । अन्यथा हि शब्दादिकमपि नाऽभावमावेदयेत् भाव एव सामर्थ्यावधारणात् । न चैवमेव न्याय्यम् । ‘देवदत्तो गेहे नास्ती’ ति शब्दात् मया तत्र जिज्ञास- मानेनापि न दृष्टो मैत्र इत्यवगतानुपलब्ध्याऽनुमानादप्यवगतेः । । में ‘करण’ उस विषय के प्रमाज्ञान को भी उत्पन्न करेगा, भूतल में घट के रहने पर भी चक्षु मै रहने वाले दौर्बल्यादि दोषों से घटाभाव का विपर्यय रूप ज्ञान उत्पन्न होता है । प्रत । भूतल में घट के न रहने पर जो घटाभाव का प्रमात्मक ज्ञान होता है, उसका भी करण चक्षु ( इन्द्रिय ) हो है । (४) विकल्पनानात् ‘घटाभाव वदुभूतलम्’ यह विशिष्टबुद्धि रूप ‘विकल्प’ सर्वसिद्ध है। इस प्रतीति में इन्द्रिय के उपयोग को सभी स्वीकार करते हैं। यदि इस ‘विकल्प’ ( विशिष्टज्ञान ) के ‘विशेष्य’ भूतल में चरितार्थ होने के कारण चक्षु अभाव ज्ञान का उत्पादन नही कर सकता, फलता अभाव की विशिष्ट बुद्धि का संपादन नहीं कर सकता । तो यह भी कहा जा सकता है कि ‘अनुपलब्धि’ घूँ कि उक्त अभावज्ञान के प्रकारी भूत ‘घटाभाव’ के ज्ञान का ही सम्पादक है, अतः उससे उस विशिष्टबुद्धि का उत्पादन नहीं हो सकता, जिसमें कि मनुपलब्धि से प्रज्ञाप्य भूतल विशेष्य है । अर्थात् उक्त विशिष्टबुद्धि में कारणीभूत के ज्ञान का उत्पादक है ‘अनुपलब्धि’ एवं उसी विशेषणविशिष्टबुद्धि रूप कार्य का संपादक इन दोनों में से कोई भी नहीं है । क्योंकि दोनों ही अन्यत्र चरितार्थ हैं। इस विशिष्ट बुद्धि के लिए मीमांसकों को मनुपलब्धि से भिन्न ही कोई सातर्वा प्रमाण मानना होगा । किन्तु ऐसा वे भी नहीं मानते । किन्तु विशेषणज्ञान जनक अनुपलब्धि प्रमाण से ही उक्त विशिष्टबुद्धि की उत्पत्ति मानते हैं । ऐसी स्थिति में यदि केवल विशेष्यज्ञान के जनक इन्द्रिय रूप प्रमाण से ही हम ( नैयायिकगण ) विशिष्ट बुद्धि की उत्पत्ति मान लेते हैं, तो इसके लिये इतनी व्यग्रता क्यों ? जब कि ‘प्रन्यत्र’ उपक्षीण (चरितार्थ) अनुपलब्धि प्रमाण से वे भी विशिष्टबुद्धि को स्वीकार करते हैं, तो हम भी अगर ‘मन्यत्र’ उपक्षीण ही इन्द्रिय से प्रभाव की विशिष्टबुद्धि रूप ‘विकल्पन’ को स्वीकार कर लें तो कम से कम लाघव तो होगा ही। क्योंकि ‘घटवत्सूतलम्’ इस प्रतीति के उत्पादन के लिये प्रत्यक्ष ( इन्द्रिय) में स्वतन्त्रप्रामाण्य मीमांसकों को भी मानना ही है । तस्मात् ‘घटा भावभूतलम्’ इत्यादि प्राकार की विशिष्ट प्रतीति रूप ‘विकल्पन’ चूं कि अवश्य है, मतः इन्द्रिय भी अभाव का ज्ञापक ‘करण’ ( ज्ञापकप्रमाण ) अवश्य है । यद्धि ….. अवगते।। ( प्रथमचरण की व्याख्या ) जो प्रमाण जिस भाव पदार्थ को समझाता है, वही प्रमाण उसके प्रभाव को भी समझा सकता है। जैसे कि शब्द प्रमाण भथवा अनुमान प्रमाण । इन्द्रिय रूप प्रत्यक्ष प्रमाण-
६७२ गद्यपद्यात्मक-न्याय कुसुमाञ्जली ग्राहयतु वा ऽऽश्रयमिन्द्रियम् । तथापि न तेनेदं व्यवधीयते व्यापारत्वात् । अन्यथा सर्वस विकल्पकानां प्रत्यक्षत्वाय दत्तो जलाञ्जलिः स्यात् । भी घटादि भाव पदार्थों को अवगत कराता है, अत: वह घटादि के अभावों का भी ज्ञापन कर सकता है । यदि यह नियम न रहे कि ‘जो प्रमाण जिस भाव पदार्थं का ग्राहक हो, उससे उस पदार्थ के अभाव का भी बोध हो’ तो शब्द प्रमाण एवं अनुमान प्रमाण से भी अभाव का ग्रहण नहीं हो सकेगा । अनुमानादि में भी तो पहिले भावपदार्थों के ग्रहण की सामर्थ्य ही उपलब्ध होती है। उसके बाद ही प्रभाव के ग्राहक उक्त नियम के अनुसार अनुमानादि में अभाव ग्रहण की सामर्थ्य उपलब्ध होती है। यदि यही ‘न्याय्य’ मानें कि शब्द प्रथवा अनुमान से भी केवल भावपदार्थों का ही ग्रहण हो तो ‘देवदत्तो गेहे नास्ति’ इस शब्द के द्वारा गृह विशेष्यक देवदत्ताभाव की शाब्द प्रतीति, एवं “मैंने वहां पूछने पर भी ‘मंत्र’ को कहीं नहीं देखा’ इस प्रकार की ज्ञात अनुपलब्धि के द्वारा उत्पन्न ‘उस समय वहाँ मंत्र नहीं थे’ इस प्रकार का सार्वजनीन अनुमान स्वरूप प्रतीति, ये दोनों अनुपपन्न हो जायगी । अतः जिस इन्द्रिय से भाव का ग्रहण होता है, उस से अभाव का भी ग्रहण अवश्य होगा । (२) ग्राहृयतु वा ……. । जलाञ्जलिः स्यात् ( द्वितीयचरण की व्याख्या) भूतल का ज्ञापन भले ही कर ले, इससे इन्द्रिय में मव्यवहित पूर्व रहने में इसलिये भले ही व्याघात हो जाय इन्द्रिय घटाभाव के प्राय ‘घटाभाववभूतलम्’ इस बुद्धि के कि मध्य में अधिकरण का ज्ञान है तथापि इन्द्रिय में अभाव की विशिष्टबुद्धि की. कारणता मैं कोई अन्तर नहीं आता है। क्योंकि कोई भी ‘करण’ मध्यवर्ती व्यापार के अवश्य रहने से कार्य का व्यवहितपूर्ववर्ती नहीं हो जाता । अतः ‘करण’ में रहनेवाला जो कारणत्व का लक्षण है, उसमें निविष्ट मव्यवहितपूर्वत्व घटक ‘व्यवहितस्व’ व्यापार से भिन्न वस्तुओं का व्यवहितत्व ही समझना चाहिये । अधिकरण का ज्ञान प्रभाव की उक्त विशिष्टबुद्धि का व्यापार ही है। अतः उससे व्यवहित होने पर भी इन्द्रिय में प्रभाव की विशिष्टबुद्धि के अव्यवहितपूर्वस्व मैं कोई बाधा नहीं भाती है। यदि ऐसा न मानें ( अर्थात् व्यापार की व्यवधानता को भी करणत्व का विघटक मानें तो जितने भी सविकल्पक ज्ञान हैं, उनमें से किसी को भी ‘प्रत्यक्ष’ नहीं कहा जा सकेगा । क्योंकि घटादि में चक्षुः पात के बाद ‘घट घटत्वे’ इस प्रकार का जो परस्पर विशेष्य विशेषणभाव शून्य ज्ञान होता है— जिसे निर्विकल्पक कहते है–उसके बाद ही सविकल्पक ज्ञान उत्पन्न होता है । यह सविकल्पक ज्ञान ‘प्रत्यक्ष’ नहीं कहला सकेगा 1 क्योंकि वही ज्ञान ‘प्रत्यक्ष प्रमिति’ शब्द से व्यबहुत होता है, जो इन्द्रिय से उत्पन्न हो । किन्तु इन्द्रिय एवं सविकल्पकज्ञान के मध्य में तो निर्विकल्पक ज्ञान बैठा है। अतः अव्यवहित पूर्ववर्ती न होने के कारण इन्द्रियां जब सविकल्पकशान का कारण ही नहीं है, तो फिर उसका चेन्न । व्यापा संयोगव ‘करण’ में रहन के उत्पा का विघ ‘करणत बाघा न पू० प० पर्वत में प्रतः प इन्द्रिय आकार सभी अनु है । अत हो जाय विशिष्टबु सि० प० वही क्रिय १. यहाँ प्रमि ( १ भिन्द है। ‘निि ६
तृतीय स्तवक। ४७३ नन्वेवं सति धूमोपलम्भोऽप्यस्य व्यापारः स्यात् । तथा च गतमनुमानेनापीति चेन्न । यया क्रियया विना यस्य यत्कारणत्वं न निर्वहति, तं प्रति तस्या एव व्यापारत्वात् । न च घूमाद्य पलब्धिमन्तरेण चक्षुषो वह्निज्ञानकारणत्वं न निर्वहति, संयोगवदिति । ‘करण’ होना तो दूर की बात है । अतः यही कहना होगा कि व्यापार की व्यवधानता ( बीच में रहना ) करणत्व के लिये कोई बाधक नहीं है । निर्विकल्पकज्ञान चूं कि सविकल्पकज्ञान के उत्पादन में व्यापार रूप है, अतः उसका व्यवधान इन्द्रिय में सविकल्पकज्ञान की करणता का विघटक नहीं हो सकता । अतः इन्द्रिय में सविकल्पक ज्ञान की करणता की अनुपपत्ति से ‘करणता’ की अनुपपत्ति नहीं होती । अतः व्यापार के बीच में रह जाने से ‘करण’ होने में बाधा नहीं आती है । ’ पू० प० नन्वेवं सति अनुमानेनापीति चेत् इन्द्रिय यदि स्वजनित एक ज्ञान रूप व्यापार के द्वारा दूसरे ज्ञान का ‘करण’ हो, तो पर्वत में जो घूम का दर्शन होता है, वह भी पर्वत में वह्निज्ञान का प्रत: पर्वत धर्मिक वह्नि का यह ज्ञान भी इन्द्रियकरणक होगा । व्यापार हो सकता है । जिस प्रमिति का करण वह भी प्रत्यक्ष ही कहलायेगी । इस प्रकार किसी प्रकार इन्द्रिय का उपयोग अवश्य अनुमान का स्वतन्त्र प्रामाण्य ही विनष्ट इन्द्रिय हो, वही प्रमिति प्रत्यक्ष कहलाती है । अतः घूम दर्शन जनित ‘पर्वतो वह्निमान’ इस प्राकार के जिस प्रमिति को आप धनुमिति कहते हैं, सभी अनुमितियों में साक्षात् या परम्परा किसी न है । अतः सभी अनुमितियाँ प्रत्यक्ष हो जायगी । हो जायगा । प्रत अधिकरण ज्ञान को मध्यवर्ती व्यापार मानकर इन्द्रिय से अभाव की विशिष्टबुद्धि नहीं हो सकती । सि० प० न, यया क्रियया जिस क्रिया के द्वारा जिस कारण में वही क्रिया उस कारण का उस कार्य का जिस कार्य का कारणत्व ही उपपन्न न हो सके, उत्पादक ‘व्यापार’ है । संयोग रूप क्रिया । १. यहाँ ध्यान रखना चाहिये कि इन्द्रिय रूप करण के द्वारा उत्पन्न होने से ही कोई प्रमिति ‘प्रत्यक्ष’ कहलाती है । व्यापार से युक्त असाधारण कारण ही ‘करण’ है । (१) सविकल्पक (२) एवं निर्विकक्षपक भेद से प्रत्यक्ष प्रमिति दो प्रकार की है। यद्यपि दोनों के ही करण इन्द्रिय हैं, फिर भी दोनों के भिन्न भिन्न हैं । निर्विकल्पक ज्ञान के लिये विषय ‘व्यापार’ है । एवं सर्विकल्पक ज्ञान के उत्पादन में एक निर्विकल्पकज्ञान ही व्यापार है । अत: आगे के ‘चक्षुषि वह्निज्ञानकारणत्वम्’ इस वाक्य में प्रयुक्त ‘ज्ञान’ पद से ‘निर्विकषपक’ ज्ञान ही समझना चाहिये । ६० उत्पादन में इन्द्रिय के व्यापार एवं इन्द्रिय का संनिकर्ष ही
४०४ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली अस्ति च भावाभावविपर्ययः । सोऽयं यस्य दोषमनुविधत्ते, तदेवात्र करणमिति न्याय्यम् । न चानुपलब्धिः स्वभावतो दुष्टा, नाप्यधिकरणग्रहणं प्रतियोगिस्मरणं वा स्वभावतो दुष्टम् । अनुत्पत्तिदशायामनुत्पत्तेरुत्पत्तिदशायाश्च स्वार्थप्रकाशनस्वभावताया अपरावृत्तेः । ( घास्वर्थ ) के बिना इन्द्रिय में निर्विकल्पक ज्ञान की कारणता अनुपपन्न है, अतः निर्विकल्पक ज्ञान के उत्पादन में विषयनिष्ठ इन्द्रिय का संयोग इन्द्रिय का व्यापार है । किन्तु आगे रखी हुई प्राग का चक्षु से जो ज्ञान होता है, उसमें चक्षु को घूमदर्शन रूप क्रिया की अपेक्षा नहीं होती है । जैसे कि उक्त स्थल में चक्षु की कारणता वह्नि के साथ अपने संयोग की अपेक्षा रखता है । अतः चक्षु में जो वह्नि प्रत्यक्ष की कारणता है, उसका निर्वाहक व्यापार उक्त घूमदर्शन रूप क्रिया नहीं है । पर्वत में जो वह्नि का ज्ञान होता है, उसकी कारणता ही जब चक्षु में नहीं है, तो फिर आगे उसके व्यापार की चर्चा निरर्थक है । प्रस्ति च ~~ … -~. … ( श्लोक के तीसरे चरण की व्याख्या ) जिस प्रकार भावविषयक विपर्यय होता है, उसी प्रकार अभाव विषयक विपर्यय का होना भी सर्वसिद्ध है । यह स्वभावसिद्ध है कि जिस वस्तु में रहनेवाले ‘दोष’ से विपर्यय होगा, उसी वस्तु से वद्विषयक प्रमाज्ञान भी होगा । चक्षु के दोष से शंख में पीतिमा का विपर्यय होता है, अतः हरिद्रा में जो पोतिमा का प्रमात्मक ज्ञान होगा, उसका भी कारण उक्त दोष का प्राश्रय चक्षु ही होगा । प्रभाव का भी विपर्ययात्मक ज्ञान होता है । कथित नियम के अनुसार जिसमें रहनेवाले दोष से अभाव का उक्त विपर्ययात्मक ज्ञान होगा, वही प्रभाव विषयक प्रमात्मक ज्ञान का कारण होगा । अभाव के विपर्यय में चक्षु भी कारण है । चक्षु के अतिरिक्त अभाव के विपर्यय में अधिकरण का ज्ञान, प्रतियोगी का स्मरण, एवं प्रतियोगी की अनुपलब्धि ये सभी भी अपेक्षित होते हैं । अतः चक्षु, अधिकरण ज्ञान, प्रतियोगिस्मरण एवं अनुपलब्धि इन चारों में विपर्यय होगा। जिस में रहनेवाले दोष से अभाव का विपर्यय होगा, वही अभाव की विशिष्ठबुद्धि रूप प्रमा का ‘करण’ होगा । न चानुपलब्धि | श्वासंसृ तथा च तत् त क्रमण न सम्भावन रहने वाले प्रतियोि सम्भाव सम्भव उठती । किसी द ग्रहण इ सकता प्रभाव पू० प० का प्रति रहेगा । उस प्रति विपर्यय किन्तु य से ही किसी में रहनेवाले दोष से प्रभाव का जिससे के स्मर आधेय अधिकर अधिक क्योंकि इन चारों में से ‘मनुपलब्धि’ ‘चूंकि प्रभाव स्वरूप है, अतः उसमें दोष की कोई सम्भावना नहीं है । अतः अनुपलब्धि के दोष से प्रभाव का विपर्यायात्मक ज्ञान नहीं हो सकता। इसलिये अभाव की प्रमा अनुपलब्धि से नहीं हो सकती । अधिकरणग्रह एवं प्रतियोगि- स्मरण ये दोनों ही ( ज्ञान स्वरूप होने के कारण ) चूं कि ‘प्रकाश’ स्वरूप हैं, अतः इन दोनों की जब उत्पत्ति हो जायगी, तब भी वे दोनों ही अपने ‘प्रकाश’ रूप स्वभाव का यति- सि० प उस अ
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i T तृतीयः स्तबंक ४७५ असंसृष्टयोरधिकरणप्रतियोगिनोः संसृष्टतया प्रतिभानं दुष्टम्, संसृष्टयो- श्वासंसृष्टतयेति चेत्; नन्वयमेव विपर्ययः तथाच श्रात्माश्रयो दोषः । तस्मात् दुष्टेन्द्रियस्य तद्विपर्ययसामर्थ्ये दुष्टस्य तत्समीचीनज्ञानसामर्थ्यमपि । तथा च प्रयोगः इन्द्रियमभावप्रमाकरणम्, तद्विपर्ययकरणत्वात् । यत् यद्विपर्ययकरणं तत् तत्प्रमाकरणम्, यथा रूपप्रमाकरणम् चक्षुरिति । क्रमण नहीं कर सकते । अतः उत्पत्ति को दशा में चूं कि इन दोनों में किसी भी दोष की सम्भावना नहीं है, अतः अधिकरणग्रहण एवं प्रतियोगिस्मरण इन दोनों में से किसी में भी रहनेवाले दोष से अभाव का विपर्यय नहीं हो सकता । जिस समय अधिकरणग्रहण एवं प्रतियोगिस्मरण ये दोनों अनुत्पन्न रहते हैं, उस समय प्रभाव के किसी भी ज्ञान की तो सम्भावना ही नहीं है । अतः उस समय अभावज्ञान की जब कारणता ही उन दोनों में सम्भव नहीं है, तो फिर उनमें रहनेवाले दोषों से अभाव के विपर्यय की कोई बात ही नहीं उठती । तस्मात् अधिकरण ग्रहण एवं प्रतियोगिस्मरण इन दोनों में से किसी में भी रहनेवाले किसी दोष से अभाव का विपर्यय नहीं हो सकता । इसीलिये प्रतियोगिस्मरण एवं अधिकरण- ग्रहण इन दोनों में से किसी के दोष से प्रभाव का प्रमात्मकज्ञान नहीं हो सकता । अब केवल इन्द्रिय हो भवशिष्ट है, जिसमें रहनेवाले दोष से प्रभाव का विपर्यय हो सकता है । अतः इन्द्रिय में रहनेवाले दोष से हो प्रभाव का विपर्यय होता है । इसलिये प्रभाव के प्रमात्मकज्ञान का करण भी इन्द्रिय ही हैं । पू० प० प्रसंसृष्टयोः ….०० जिस अधिकरण में जिस अभाव का विपर्यय होगा, उस अधिकरण में उस प्रभाव का प्रतियोगी अवश्य रहेगा । अतः उस प्रतियोगी का सम्बन्ध भी उस अधिकरण में अवश्य रहेगा । किन्तु उस अधिकरण में उस प्रतियोगी के सम्बन्ध का ज्ञान जब नहीं रहेगा, तभी उस प्रतियोगी के अभाव का विपर्यय उस अधिकरण में होगा । अतः तद्धमिक अभाव के विपर्यय से पहिले इस प्रतियोगी के असम्बद्ध रूप से उस व्यधिकरण का ज्ञान आवश्यक किन्तु यह ज्ञान भी भ्रान्ति रूप ही होगा । इस ज्ञान का यह ‘भ्रमस्व’ ही वह ‘दोष’ है जिससे अभाव का विपर्यय होगा । इसी दोष से, अथवा अधिकरण सम्बद्धत्व रूप से प्रतियोगी के स्मरण रूप दोष से ही अभाव का विपर्यय होगा । एवं अधिकरण में असम्बद्धत्व रूप से आधेय के ज्ञान में रहनेवाले भ्रमत्व रूप दोष से प्रथवा भाषेय से प्रसम्बद्धस्व रूप से अधिकरण के ज्ञान में रहनेवाले भ्रमस्व रूप दोष से ही अभाव का विपर्यय होगा | भता अधिकरण का ग्रहण अथवा प्रतियोगी का स्मरण ही प्रभाव के प्रमात्मकज्ञान का कारण है । क्योंकि उन्हीं दोनों में रहनेवाले किसी के भ्रमत्व दोष से प्रभाव का विपर्यय होता है । सि० प० नन्वयमेव … … जिस प्रधिकरण में जो वस्तु है, उस अधिकरण धर्मिक उस वस्तु के अभाव का ज्ञान ही उस अभाव का विषय है। यह विपर्यय वस्तुतः प्रतियोगी से ‘असंसृष्ट’ प्रधिकरण का ग्राहक है 1
४७६ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली । विकल्पनात् खल्वपि । ‘अघटं भूतलम्’ इति हि विशिष्टधीरवश्यमिन्द्रिय- करणिका स्वीकर्तव्या, प्रमाणान्तरं वा सप्तममास्थेयम् । यथा हि विशेष्यमात्रो- पक्षीरणमिन्द्रियमकरणमत्र, तथा विशेषरणमात्रोपक्षीणा अनुपलब्धिरपि न करणं स्यात् । स्वस्वविषयमात्रप्रवृत्तयोः प्रमाणयोः समाहारः कारणमिति चेन्न । प्रसंसृष्ट रूप से भान भ्रान्ति स्वरूप ही है । प्रत: तजन्य अभाव की भ्रान्ति को ‘तजन्य’ कहना फलतः ‘स्व’ को ‘स्वजन्य’ ही कहना है । स्व में स्वजन्यत्व हे ‘श्रात्माश्रय’ दोष । सो इस पक्ष में अनिवार्य है । अतः अधिकरण का ग्रहण अथवा प्रतियोगी का स्मरण इन दोनों में से किसी में रहनेवाले किसी दोष से विपर्यय की उत्पत्ति नहीं हो सकती । श्रतः केवल ‘इन्द्रिय’ ही एक अवशिष्ट रहता है, जिसमें रहनेवाले दोष से प्रभाव का विपर्यय हो सकता है । अतः ‘इन्द्रिय’ ही प्रभाव के प्रमात्मकज्ञान का भी करण है । इससे यह अनुमान निष्पन्न होता है कि जिस प्रकार रूप के विपर्यय का जनक चक्षु ही रूपप्रमा का करण होता है, उसी प्रकार इन्द्रिय ही अभाव प्रमा का करण है, क्योंकि जो जिसके विपर्ययात्मक ज्ञान का करण होता है, वही उसके प्रमाज्ञान का भी करण होता है । सुतराम् अनुपलब्धि अभावप्रमा की करण नहीं है, इसलिये अनुपलब्धि को स्वतन्त्र प्रमाण मानने की मावश्यकता नहीं है । विकल्पनात् खलु 900 ( चथुर्थचरण की व्याख्या ‘घटाभाववद्भूत लम्’ इस विशिष्टबुद्धि का करण इन्द्रिय को ही मानना होगा, ऐसा न मानने पर मीमांसकों को ( धनुपलब्धि से भिन्न ) एक सातवां प्रमाण बोर मानना होगा । क्योंकि जिस प्रकार विशिष्ट से ‘प्रन्यत्र’ विशेष्य ज्ञान में (अधिकरण ज्ञान में ) चरितार्थ होने के कारण ‘इन्द्रिय’ में उक्त विशिष्टबुद्धि की कारणता निरस्त होगी, उसी प्रकार ‘विशिष्ट’ से अन्यत्र केवल प्रभाव रूप विशेषणज्ञान में ही चरितार्थ होने के कारण अनुपलब्धि में भी प्रभाव की उक्त विशिष्टबुद्धि की कारणता निरस्त जायगी ( देखिये इस श्लोक का विवरण ) पू० प० स्वस्वविषय …… कारणमिति सप्तम प्रमाण न मानने पर भी एवं इन्द्रिय को प्रभाव प्रमा का करण न मानने पर भी ‘अघटं भूतलम्’ इस प्राकार की विशिष्टबुद्धि की उपपत्ति हो सकती हैं। क्योंकि उक्त विशिष्टबुद्धि के दो विषय हैं एक भूतल, दूसरा घटाभाव । इन्द्रिय, एवं घटाभाव का ग्राहक है अनुपलब्धि । इन दोनों ग्राहकों के इनमें भूतल का ग्राहक है समाहार (एकत्रीकरण ) से भूतल एवं घटाभावविषयक प्रतीति होगी । भवः केवल अपने-अपने विषय में प्रवृत्त उक्त दोनों करणों के समाहार ही उक्त विशिष्टबुद्धि का करण है । व स
तृतीयः स्तबक ४७७ विषयभेदे फलवैजात्ये च तदनुपपत्तेः । न हि मृत्सु तन्तुषु च व्याप्रियमारणयोः कुलालकुविन्दयोः समाहारः स्यात् । नापि घटपटादिकारिणां चक्रवेमादीनां समाहारः क्वचिदुपयुज्यते । तत्र कर्बुरकार्याभावान्न तथा, प्रकृते तु विशिष्टप्रत्ययस्य परोक्षापरोक्षरूपस्य दर्शनात्तथेति चेत् ? विरुद्धजातिसमावेशाभावात् । सि० प० न, विषयभेदे उक्त उपपत्ति ठीक नहीं है, क्योंकि मीमांसकों मत से इन्द्रिय से भावविषयकज्ञान हो होता है, एवं वह ‘साक्षात्कारात्मक’ ही होता है । एवं अनुपलब्धि से केवल प्रभाव का हो ज्ञान होता है, एवं वह ज्ञान ‘परोक्षात्मक’ ही होता है । इस प्रकार इन्द्रिय एवं अनुपलब्धि इन दोनों के फल के विषय एवं जातियाँ भिन्न हैं । दण्ड एवं कपाल का समाहार घटत्व रूप एक ही जाति के कार्यों का उत्पादन करता है। ऐसा नहीं होता कि मिट्टी में व्यापृत कुम्हार एवं तन्तु में व्यापृत जुलाहे के समाहार से घट और पट से भिन्न किसी ‘विशेष’ कार्य की उत्पत्ति हो । एवं घट के कारण चक्रादि एवं पट के कारण तुरीबेमादि इन सबों के समाहार से भी किसी विचित्र कार्य का उत्पत्ति नहीं होती है । तस्मात् इन्द्रिय एवं अनुपलब्धि इन दोनों के समाहार से भी ‘प्रघटं भूतलम्’ इस प्रकार की विशिष्टबुद्धि की उत्पत्ति नहीं हो सकता । पृ० प० तत्र कबुर घट एवं पट इन दोनों में से प्रत्येक कार्य ‘कर्बुर’ अर्थात् दोनों से भिन्न किसी विचित्र जाति का नहीं है । अतः कुम्हार एवं जुलाहे के समाहार से अथवा चक्रबेमादि के समाहार से किसी कर्बुर जाति के कार्य की उत्पत्ति नहीं हो सकती । क्योंकि उन समाहारों में से कोई भी समाहार विचित्र जाति के कार्य का जनक नहीं है । प्रकृत में ‘अघटं भूतलम्’ इस प्रकार का विशिष्टबुद्धि रूप कार्य ‘परोक्ष’ एवं ‘अपरोक्ष’ एतदुमयात्मक है । अर्थात् एक ही ज्ञानव्यक्ति परोक्षत्व एवं अपरोक्षत्व रूप विभिन्नजातीय होने के कारण ‘कबु’र’ ( विचित्र ) रूप है । प्रतः इन्द्रिय एवं अनुपलब्धि इन दोनों के समाहार की अपेक्षा उसके लिये होती है । घट एवं पट का प्रतिदृष्टान्त देना यहाँ उचित नहीं है । सि० प० विरुद्धजाति परस्पर विरुद्ध दो जतियों से युक्त किसी एक कार्य की सत्ता को मानना ही अप्रामाणिक है । जैसे कि कोई कार्य व्यक्ति जल एवं क्षितित्व इन दोनों जातियों से युक्त CCO. Vasishtha Tripathi Collection. Digitized by eGangotri- ४७८ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली भावे वा करम्बित एव कार्ये द्वयोरपि शक्तिरभ्युपगन्तव्या, दर्शनबलात् । न हि नियतविषयेण सामर्थ्येन कर्बुरकार्यंसिद्धिः ; अन्यथापि तथाप्रसङ्गात् । ननूभयोरप्युभयत्र सामर्थ्ये कोऽर्थो मिथः सन्निधानेनेति चेन्न । तत्सहितस्यैव तस्य तत्र सामर्थ्यादिति । मानना होगा। इसमें यह विभाग नहीं हो नहीं हो सकता, उसी प्रकार ‘प्रघटं भूतलम्’ यह विशिष्ट प्रतीति रूप कार्य परोक्षत्व एवं अपरोक्षत्व इन दोनों जातियों से युक्त नहीं हो सकता । यदि विरूद्ध जाति के दो विषयों के किसी एक ज्ञान व्यक्ति की उत्पत्ति में उन विषयों में से प्रत्येक के ज्ञापक विभिन्न प्रमाणों का उपयोग होता है तो प्रकृत में ‘अघटं भूतलम्’ इस विशिष्ट प्रतीति रूप एक ही कार्य व्यक्ति में प्रत्यक्ष एवं अनुपलब्धि इन दोनों का उपयोग सकता कि उक्त विशिष्ट प्रतीति के भूतलांश का ज्ञापक प्रत्यक्ष है, एवं घटाभाव रूप अँश की ज्ञापिका अनुपलब्धि है । यही मनना होगा कि प्रत्यक्ष एवं अनुपलब्धि इन दोनों के संमिलन से ‘अघर्ट भूतलम्’ इस प्राकार के परोक्षापरोक्षात्मक ‘कर्बुर’ विचित्र एक ही कार्य की उत्पत्ति होती है । ‘कर्बुर’ जाति के सभी कार्यों में यही स्थिति देखो जाती है । अतः केवल भाव के ‘अपरोक्ष’ ज्ञान में समर्थ इन्द्रिय, एवं केवल अभाव विषयक ‘परोक्ष’ ज्ञान में समर्थ अनुपलब्धि इन दोनों के समाहार से ‘परोक्षापरोक्षात्मक अघटं भूतलम्’ इस प्रकार की एक विशिष्ट बुद्धि रूप ‘कर’ कार्य की उत्पत्ति नहीं हो सकती । यदि ऐसा स्वीकार करेगें तो ‘अन्यत्र’ मी ऐसे कबुर कार्यों की उत्पत्ति माननी होगी ( अर्थात् जहाँ घट के उत्पादक कपालदि के साथ साथ पट के उत्पादक तन्तु प्रादि भी है, वहां घट एवं पट रूप विभिन्न जाति के कार्य की उत्पत्ति न होकर ‘घटपटात्मक’ एक विलक्षण कार्य की उत्पत्ति माननी होगी) । अतः उक्त समाधान भी ठीक नहीं है । पू० प० ननुभयोरपि 800 धनुपलब्धि एवं प्रत्यक्ष इन दोनों में से प्रत्येक में अपने अपने विषय घटाभाव एवं भूतक इन दोनों विषयों के ज्ञापन की क्षमता है हो, तो फिर इन्द्रिय एवं अनुपलब्धि इन दोनों के ‘साहित्य को ‘अघट भूतलम्’ इस विशिष्टबुद्धि का प्रयोजक मानने से क्या लाभ ? सि० प० तत्सहितस्तव । अनुपलब्धि ‘सहित’ इन्द्रिय में ही चं कि उक्त विशिष्ट बुद्धि के उत्पादन की सामन्यं है, केवल इन्द्रिय में नहीं । इसी लिये उक्त ‘साहित्य’ को उक्त विशिष्ट बुद्धि का प्रयोजक मानना पड़ता है । सामथ्र्यं की कल्पना तो अन्वय और व्यतिरेक से ही होती है, इस पर कोई ‘पर्यनुयोग’ अर्थात् प्रभियोग नहीं किया जा सकता कि ऐसा क्यों ? एवं ऐसा क्यों नहीं ?
तृतीयः स्तबक | ४७६ एतेन ‘सुरभिचन्दनमि’ त्यादयो व्याख्याताः । तथा चाभावविषयेऽपीन्द्रिय- सामर्थ्यस्य दुरपह्नवत्वादलमसद्ग्रहेणेति ॥२१॥ एतेन इसीयुक्ति से ‘सुरभिवन्दनम्’ इत्यादि प्रतीतियों की उपपत्ति भी हो जाती है १ सि० प० तथा चाभावविषये .. इस प्रकार चूँकि प्रभाव रूप विषय को समझाने की सामर्थ्य भी इन्द्रिय में अवश्य है । अतः अभाव प्रमा के लिये अनुपलब्धि नाम के स्वतन्त्र प्रमाण की कल्पना का दुराग्रह व्यर्थ १२ ॥ २० ॥ १. अनेक प्रमाणों से उत्पन्न एक प्रमिति के उदाहरण के रूप में मीमांसकगय ‘सुरभिचन्दनम्’ इस प्रमिति को उपस्थिति करते हैं। उन लोगों का कहना है कि ‘सौरभ’ का प्रत्यक्ष घ्राणेन्द्रिय से ही, एवं चन्दन का प्रत्यक्ष चक्षु से ही हो सकता है । अतः इन दोनों इन्द्रियों को जबतक परस्पर साहित्य रूप सहयोग प्राप्त नहीं, होता तब तक ‘सुरभिचन्दनम्’ इस प्रतीति की उत्पत्ति नहीं हो सकती । अता यह प्रतीति चक्षु एवं प्राण एतदुभयकरणक है । इसी के खण्डन के लिये ‘तत्सहितस्यैव’ इत्यादि सन्दर्भ से कहीं हुई युक्ति का प्रतिदेश ‘सुरभिचन्दनम्’ इस स्थल में भी ‘पतेन’ इत्यादि सम्यर्भ से किया गया है। २. अभिप्राय यह है ति ‘सुरभिवन्दनम्’ इस स्थल में भी ‘चक्षु’ ही करण है ‘प्राप’ उसका ‘सहकारी’ है । यदि ‘चन्दन’ को विशेषण मान कर ‘सुरभि’ को ही विशेष्य मान लें, तो फिर ‘चन्दनम् सुरभि’ बोध का यह धाकार होगा । एवं इस बोध का ‘प्राण’ ही करण होगा, एवं ‘चक्षु’ ही ‘सहकारी’ होगा । अर्थात् विशिष्टबुद्धि में केवलि विशेष्य मात्र का प्रयोजक जो ‘करण’ है, वही विशेषय विशिष्ट विशेष्य दुखि ‘का अर्थात् ‘विशिष्ट’ बुद्धि का भी ‘करण’ है विशेषया भासक ‘करण’ उसका सहकारी है । इस दृष्टि के अनुसार ‘अघटं भूतकम्’ इस ज्ञान के भूतल रूप विशेष्य का भासक जो ‘इंद्रिय’ रूप ‘करण’ है, वही ‘घटाभाव विशिष्ट भूतल’ रूप ‘विशिष्ट’ का भी मासक है। ‘घटाभाव’ रूप विशेषय की भासिका अनुपलब्धि इन्दिय की सहकारिणी है । अतः प्रभावप्रमा के सम्पादन की सामर्थ्य भी ‘इन्द्रिय’ में है ही, इसके लिये ‘अनुपलब्धि’ स्वरूप एक अतिरिक्त प्रमाया मानने की आवश्यकता नहीं है। CCO. Vasishtha Tripathi Collection. Digitized by eGangotri४५० गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली स्यादेतत् । नागृहीते विशेषणे विशिष्टबुद्धिरुदेति, तत्कार्यत्वात् । न च विशिष्टसामर्थ्ये केवलविशेषणेऽपि सामर्थ्यम् ; केवलसौरभेऽपि चाक्षुषो वृत्तिप्रसङ्गात् । अतोऽभावविशेषग्रहरणाय मानान्तरसम्भवः । अपि च कथमनालोचितोऽयं इन्द्रियेरण विकल्प्येत ? । न च मानान्तरस्याप्येषा रीतिः ; अनुमानादिभि- रनालोचितस्याप्यर्थस्य विकल्पनात्, पू० प० स्यादेतत् नागृहीते… … … (१) ‘अघटं भूतलम्’ यह ‘विशिष्टबुद्धि’ है । विशेषण का ज्ञान भी विशिष्टबुद्धि का कारण है । अत: उक्त विष्टिबुद्धि से पहिले ‘घटाभाव’ रूप विशेषण का ज्ञान आवश्यक है । केवल घटाभाव का ज्ञान इन्द्रिय से नहीं हो सकता, क्योंकि अधिकरण के द्वारा ही अभाव में इन्द्रिय का संनिकर्ष होता है । अतः अभाव की विशिष्टबुद्धि में उसका अधिकरण अवश्य गृहीत होगा। फिर प्रभाव की सभी बुद्धियां विशिष्टबुद्धि ही होंगी । अतः यही कहना होगा कि उक्त स्थल में विशेषणज्ञान विषया अपेक्षित प्रभाव का ज्ञान ‘अनुपलब्धि’ रूप ‘करण’ से ही होता है । यदि ऐसा न मानकर ऐसा मानें कि विशिष्टज्ञान में समर्थ जो इन्द्रिय है, उसी में केवल विशेषण ज्ञान के उत्पादन की भी सामर्थ्य मानें ( अर्थात् चूकि इम्रिय घटाभावभूतल’ रूप ‘विशिष्ट’ का ग्राहक है, अतः विशेषणीभूत घटाभाव का भी ग्राहक है, ऐसा स्वीकार करें ) तो सीरम विशिष्ट चन्दन रूप विशिष्ट के ग्राहक जो चक्षुरिन्द्रिय उससे ही विशेषणीभूत केवल सौरभ का भी भान मानना होगा । किन्तु सो उचित नहीं है । तस्मात् यह मानिये कि जिस प्रकार केवल घ्राणोन्द्रिय से ही ज्ञात होनेवाले सौरभ का भान ‘सुरभिचन्दनम्’ इस आकार की विशिष्टबुद्धि में चक्षु से ही होता है, उसी प्रकार अनुपलब्धि से ज्ञात होनेवाले घटाभाव रूप विशेषण का भी ‘घटाभाववभूतलम्’ इस आकार की विशिष्ट बुद्धि मैं चक्षु से ही मान होता है । अतः प्रभावविशिष्ट की उक्त प्रतीति इन्द्रिय रूप प्रत्यक्ष प्रमाण से भले ही उत्पन्न हो, किन्तु उसके लिये अवश्य प्रपेक्षित विशेषणज्ञान के सम्पादक विषया अनुपलब्धि को भी स्वतन्त्र प्रमाण मानना धावश्यक है । प्रपि च कथम् (२) अभाव का सविकल्पक ज्ञान ही होता है अभाव का कभी निर्विकल्पक ( आलोचन ) ज्ञान नहीं होता । यह भी निश्चित है कि प्रत्यक्षात्मक विशिष्ट बुद्धि से पहिले निर्विकल्पक बुद्धि भवश्य रहेगी, क्योंकि यह उसका कारण है। अतः यह कहा जा सकता है कि प्रभाव रूप विशेषण ज्ञान से उत्पन्न अभाव की विशिष्टबुद्धि निर्विकल्पक ज्ञानजनित नहीं है, छात! वह प्रत्यक्षात्मक भी नहीं है। फलतः जो परोक्षात्मक नहीं होता है, उसमें निर्विकल्पज्ञान की आवश्यकता अनुमित्यादि परोक्षं विशिष्टज्ञानों के दृष्टान्त से खण्डित है । प्रवा अभाव के निर्विकल्पज्ञान के न रहने से अभाव की उक्त विशिष्ट बुद्धि को परोक्षात्मक होने में कोई बाधा सभ बा ‘पर हैं प्रा (E अ क्य स सम वि स लि सर २
तृतीयः स्तबक ४८१ अप्राप्तेश्च, न ह्यभावेनेन्द्रियस्य संयोगादिः संभवति । न च विशेषरणत्वम्, सम्बन्धान्तरपूर्वंकत्वात्तस्य । बाधा नहीं है । अतः ‘अघंटे भूतलन्’ इस प्रकार की अभाव विषयक विशिष्ट बुद्धि ‘परोक्षात्मक’ ही है, प्रत्यक्ष रूप नहीं है । अनुमानादि परोक्षज्ञान के व्याप्तिज्ञान प्रभूति करणों के न रहने पर भी ‘अघटं भूतलम्’ इस आकार की परोक्षात्मक विशिष्टबुद्धि की उत्पत्ति होती हैं । इस विशिष्टबुद्धि रूप प्रमा के करण रूप ‘अनुपलब्धि’ नाम के प्रमाण को मानना प्रावश्यक है । (३) प्रप्राप्तेश्च इन्द्रिय जिस विषय के ज्ञान का उत्पादन करता है, उसके साथ इन्द्रिय की ‘प्राप्ति’ अर्थात् सम्बन्ध श्रावश्यक है । अभाव के साथ इन्द्रिय का साक्षात् सम्वन्ध नहीं हो सकता । क्योंकि ‘संयोग’ रूप सम्बन्ध दो द्रव्यों में ही होता है | अतः अभाव के साथ इन्द्रिय का संयोग सम्भव नहीं है । समवाय सम्बन्ध भो द्रव्य, गुण एवं कर्म इन तीन पदार्थों में ही रहता है (अर्थात् समवाय के अनुयोगी ये तीन हैं । प्रतियोगी भले ही इन तीनों के प्रतिरिक्त सामान्य एवं विशेष ये दोनों पदार्थ भी हों ) । अतः प्रभाव में सकता । अवशिष्ट है’ ‘विशेषणता’ रूप सम्बन्ध, लिये दूसरे सम्बन्ध की अपेक्षा रखता है । अतः सम्बन्ध भी नहीं माना जा सकता । • इन्द्रिय का समवाय सम्बन्ध भी नहीं रह यह सम्बन्ध तो स्वयं ही अपनी स्थिति के अभाव में इन्द्रिय का विशेषणता रूप १. इन्द्रिय का प्रभाव के साथ विशेषणता सम्बन्ध इस प्रकार हो सकता है कि भूतल में विशेषण है घटाभाव । भूतल के साथ चक्षु का संयोग रूप सम्बन्ध है । भूतल में रहनेवाली जो विशेष्यता है, तन्निरूपित विशेषणता घटाभाव में है । अतः इन्द्रिय का स्वसंयुक्तविशेषणता रूप सम्बन्ध घटाभाव में है (स्वसंयुक्त है भूतल, उसकी विशेषणता घटाभाव में है ) । इन्द्रिय का अभाव में रहनेवाले विशेषणता’ रूप सम्बन्ध का उपपादन इस प्रकार किया जा सकता है | २. किन्तु इन्द्रिय का यह विशेषयता रूप सम्बन्ध भी अभाव में नहीं माना जा सकता । क्योंकि विशेष्य में किसी सम्बन्ध से विद्यमान वस्तु ही उसका ‘विशेषण’ होता है । भूतल में संयोग सम्बन्ध से विद्यमान घट ही उसका विशेषण होता है । अथवा घट में समवाय सम्बन्ध से विद्यमान ‘रूप’ ही उसका विशेषय होता है। अतः यह निर्णय करना पड़ेगा कि भूतल में घटाभाव का कौन सा सम्बन्ध है ? जिससे भूतल रूप विशेष्य का वह विशेषण होगा । यह हिय हो जाने पर ही घटाभाव भूतल का विशेषण हो सकता है । ६१
1 ४८२ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली अवश्याभ्युपगन्तव्यत्वाच्चानुपलब्धेः । न हि तदुपलब्धौ तस्याभावोपलम्भ इति चेत् ; उच्यते- श्रवच्छेदग्रहीष्यावधौव्ये सिद्धसानात् । प्राप्त्यन्तरेऽनवस्थानान्न चेदन्योऽपि दुर्घटः ॥ २१॥ प्रवश्याभ्युपगन्तव्यत्वाच्च .. .. यह सर्व सम्मत है कि घट की उपलब्धि रहने पर घटाभाव की उपलब्धि नहीं होती है । घटाभाव के ज्ञान के लिये घट की अनुपलब्धि की अपेक्षा स्वीकार करनी ही होगी । अतः अनुपलब्धि को प्रभावबुद्धि का कारण स्वीकार करना ही होगा । फिर उसे ‘करण’ मान लेने में ही कौन सी बाघा है ? अतः बाघक के न रहने से भी अनुपलब्धि प्रमा का करण है, अर्थात् प्रमाण है । सि० प० उच्यते, अवच्छेदग्रह प्रोव्यात् (१) अवच्छिद्यते भिद्यते अनेन’ इस व्युत्पत्ति के अनुसार ‘अवच्छेद’ शब्द का अर्थ का अर्थ है प्रतियोगी । ’ प्रतियोगी’ के निरूपण के अधीन ही अभाव का निरूपण है । जैसा कि ज्ञान का निरूपण विषय के निरूपण के प्रधीन है । फलतः अभाव का ज्ञान प्रतियोगी के ज्ञान के विना संभव नहीं है। ( अभाव ज्ञान के प्रति ‘अवच्छेद’ का अर्थात् प्रतियोगी के ग्रह की यह मवश्य अपेक्षा ही प्रतियोगिग्रह का ‘प्रोव्य’ है ) । एवं इसके बाद ही अभाव में इन्द्रिय का विशेषयता सम्बन्ध भी उपपन्न हो सकता है। नैयाधिक गण अधिकरण में प्रभाव का ‘स्वरूप’ नाम का सम्बन्ध मानते हैं, किन्तु यह भी युक्त नहीं है, क्योंकि सम्बन्ध को अनुयोगी और प्रतियोगी रूप दोनों ही सम्बन्धियों से भिन्न ही होना चाहिए। क्योंकि संयोग एवं समवाय इन दोनों से भिन्न वस्तु ही उनके अनुयोगी एवं प्रतियोगी होते हैं । किन्तु उक्त ‘स्वरूप’ सम्बन्ध या तो अपने प्रतियोगी के प्रभाव का स्वरूप होगा ? अथवा भूततादि अनुयोगी स्वरूप ही होगा, अतः उक्त ‘स्वरूप’ नाम के किसी सम्बन्ध में उन दोनों का भेद नहीं रह सकता । इसलिये ‘स्वरूप’ नाम के किसी सम्बन्ध का मानना संभव नहीं है । अत ‘स्वरूप’ सम्बन्ध के द्वारा भी अभाव में विशेषणता सम्बन्ध का उपपादन नहीं किया जा सकता । सुतराम् अभाव में चूँकि इन्द्रिय का कोई भी सम्वन्ध संभव नहीं है, अतः इन्द्रिय रूप प्रत्यक्ष प्रमाण से प्रभावप्रमा की उत्पत्ति नहीं हो सकती, अतः उसके लिये अनुपलब्धि नाम का अतिरिक्त प्रमाण मानमा आवश्यक है ।
होने में अ रूप तो हो घट विशे क्यों निक ज्ञान इसमे ‘आ ज्ञान प्रकृत उक्त विवि नहीं विशे है । विवि ‘घट ‘घट है । निख आव चू तृतीयः स्तबकः उसी ‘विशिष्टबुद्धि’ में विशेषण के ज्ञान की अपेक्षा होने वाला विशेषण नियमत: ‘इतर निरूप्य’ नहीं होता । ४८३ होती हैं, जिस बुद्धि में भासित इसी लिये प्रभाव की विशिष्टबुद्धि में अभाव रूप विशेषण के पृथक ज्ञान की आवश्यकता नहीं है । यदि उक्त इतर निरूप्य पदार्थ रूप विशेषण विषयक विशिष्ट बुद्धि में भी उक्त विशेषण के ज्ञान की पृथक् रूप से अपेक्षा स्वीकार करें, तो घटज्ञान विषयक ज्ञान रूप ‘घटमहं जानामि’ इस आकार का अनुव्यवसान्त्मक बुद्धि अनुपपन्न हो जायगी, क्योंकि वह भो ‘विशिष्टबुद्धि’ रूप ही है । इस बुद्धि में आत्मा है विशेष्य, एवं घटज्ञानादि हैं विशेषण | किन्तु अनुव्यवसाय स्वरूप उक्त विशिष्ट बुद्धि में ‘घटज्ञान’ ही विशेषण रूप से भानित होता है । यह विशेषण रूप ‘घटज्ञान’ भी स्वयं विशिष्टबुद्धि रूप है । क्योंकि विशेषणी भूत ‘घटज्ञान’ घट विशेषणक ‘ज्ञान’ विशेष्यक ज्ञान रूप ही है । इससे यह निष्कर्ष निकला कि ‘घटमहं जानामि’ इस अनुव्यवसाय रूप विशिष्टबुद्धि में ‘घटज्ञान’ ज्ञप विशेषण का ज्ञान कारण है । एवं यह ‘घटज्ञान’ रूप विशेषण भी चूकि ‘विशिष्टबुद्धि’ स्वरूप ही है, अतः इसमें भासित होने वाले ‘घट’ रूप विशेषण का ज्ञान भी प्रावश्यक है, जिसका पर्यवसायन ‘आत्माश्रय’ दोष में होता है, क्योंकि अनुव्यवसाय रूप घट विषयक ज्ञान में घट विषयक ज्ञान को ही कारण कहा गया है। इस प्रकार की ‘स्व’ में स्वापेक्षा आत्माश्रय दोष है । अथवा प्रकृत में मात्माश्रय दोष का उपपादन इस प्रकार भी किया जा सकता है कि अनुव्यवसाय रूप उक्त विशिष्टबुद्धि में ‘चटज्ञान’ रूप बिस विशेषण के ज्ञान को प्रावश्यक बतलाया गया है, उस विशिष्ट ज्ञान रूप ‘घटज्ञान’ का उक्त अनुव्यवसाय रूप विशिष्ट बुद्धि को छोड़कर और कोई कार्य नहीं है, अतः साक्षात् हो उक्त विशिष्टबुद्धि रूप अनुव्यवसाय में उसी अनुव्यवसाय रूप उक्त विशेषण ज्ञान की अपेक्षा हो गया । किन्तु कुछ विशिष्टबुद्धियों में तो विशेषणज्ञान की अपेक्षा अन्वय एवं व्यतिरेक से सिद्ध । इस लिये यह व्यवस्था करनी होगी कि जो विशेषण नियमत: इतर निरूप्य हो, तद्विषणक विशिष्टबुद्धि में विशेषण के ज्ञान की अपेक्षा नहीं स्वीकार करेंगे। अतः अनुव्यवसायस्थल में ‘घटज्ञान रूप विशेषण चूंकि नियमतः ‘घट’ रूप विषय निरूप्य है, अतः घटज्ञान विशेषणक ‘घटमहं जानामि’ इस अनुव्यवसाय रूप विशिष्ट बुद्धि में विशेषणज्ञान की श्रावश्यकता नहीं है । ‘अयं घट:’ इस विशिष्टबुद्धि में जो ‘घटत्व’ रूप विशेषण भासित होता है, वह इतर निरूप्य नहीं है, अतः तद्विशेषणक उक्त विशिष्टबुद्धि में घटत्व रूप विशेषण के ज्ञान की आवश्यकता होती है । • प्रकृत में ‘अघट ‘भूतलम्’ इस विशिष्ट बुद्धि में भासित होने वाला ‘अभाव’ रूप विशेषण चूकि नियमतः ‘अवच्छेद’ अर्थात् प्रतियोगी निरूप्य है, अतः तद्विशेषणक उक्त विशिष्टबुद्धि में
४८४ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जलौ ‘प्रभाव’ रूप विशेषण के ज्ञान की पृथक् श्रावश्यकता नहीं है । अतः विशेषण रूप अभाव के ज्ञान के लिये ‘अनुपलब्धि’ नाम के स्वतन्त्र प्रमाण की कल्पना अनावश्यक है । उक्त नियम से ही अनुपलब्धि के पृथक् प्रामाण्य के साधक दूसरी युक्ति का मी खण्डन हो जाता है । श्रर्थात् उक्त युक्ति के अनुसार ‘विशिष्ट प्रत्यक्ष में निर्विकल्पक ज्ञान की अपेक्षा होती है’ इस नियम में भो यह सङ्कोष करना होगा कि जिस विशिष्ट प्रत्यक्ष में भासित होने वाला विशेषण नियमत: इतर पदार्थ से निरूप्य हों, उस विशेषण विषयक विशिष्ट प्रत्यक्ष में विशेषण के निर्विकल्पक ज्ञान की आवश्यकता नहीं है। यदि ऐसा स्वीकार नहीं करेंगे तो ‘घटमहं जानामि’ यह अनुव्यवसाय रूप प्रत्यक्ष ही अनुपपन्न हो जायगा । इस विशिष्टबुद्धि में अपेक्षित ‘घटज्ञान’ रूप विशेषण का ज्ञान नियमतः सविकल्पक हो होता है । इसी प्रकार घटाभावादि रूप विशेषणों का ज्ञान भी नियमतः सविकल्पक ही होता है । अत: यह नियम नहीं किया जा सकता कि ‘सभी विशिष्ट प्रत्यक्षों में निर्विकल्पक ज्ञान की अपेक्षा अवश्य होती है।’ इसलिये यह कहना ठीक नहीं है कि ‘अभाव विशेषणक ‘अघट भूतलम्’ यह विशिष्टबुद्धि चूँकि निर्विकल्पकज्ञान से उत्पन्न नहीं होती है, अतः वह प्रत्यक्ष रूप नहीं है’ तस्मात् चूकि अभाव की उक्त विशिष्ट बुद्धि को प्रत्यक्ष रूप मानने में कोई बाघा नहीं है, अत: उसको परोक्ष मानना भी आवश्यक नहीं है । सुतराम इस परोक्षज्ञान के संपादन के लिये अनुपलब्धि नाम का स्वतन्त्र प्रमाण मानना अनावश्यक है । अध्रौव्ये सिद्धसाधनात् 980 अवच्छेदग्रह ( प्रतियोगिज्ञान ) का “घ्रोव्य” अर्थात् नियतपूर्ववत्तिस्व यदि भाव ज्ञान के लिये न स्वीकार करें तो ‘अनुपलब्धि के स्वतन्त्र प्रामाण्य के ज्ञापक उक्त दोनों ही अनुपपत्तियां स्वतः खण्डित हो जाती हैं । ’ भासित होने वाला ‘घट- ज्ञान की अपेक्षा न हो । ‘घटाभाव’ का ज्ञान भी १. कहने का तात्पर्यं कि धनुष्यवसाय रूप विशिष्ट प्रत्यक्ष में ज्ञान’ भी विशिष्टज्ञान ही है, अतः उसमें यदि विशेषण के एवं ‘घर्ट भूलम्’ इस विशिष्ट बुद्धि में भासित होने वाले ( प्रतियोगित्व सम्बन्ध से घट विशिष्ट प्रभाव का ) विशिष्टज्ञान ही है, उसमें यदि विशेषयज्ञान की अपेक्षा न हो, तो फिर विशिष्टज्ञान में विशेषयज्ञान की अपेक्षा ही निरस्त हो जाती है। इस स्थित में यह कहना पूर्ण युक्त होगा कि ‘विशिष्टबुद्धि में विशेषण ज्ञान चूँकि कारण ही नहीं है, में विशेषणीभूत ‘प्रभाव’ के ज्ञान के लिए अनुपलब्धि नाम के प्रमाण की कोई आवश्यकता नहीं है । एवं यदि यह कहे कि ‘अनुव्यवसाय रूप ज्ञान विषयक प्रत्यक्ष में छातः ‘घटाभावव भूतलम्’ इस विशिष्ट बुद्धि व्यञ्ज प्राप्त्य करते अत: विशेष्य सम्बन्ध घटाभ ‘वह अनवस अर्थात् युक्ति न चेन दूसरा अनुपल प्रभा लिये का स्व सहि विशिष्ट किसी दी गय f के
तृतीयः स्तबकः ४८५ स ह्यर्थविशेषरणीभविष्यन् केवलोऽपि विस्फुरेत्, यस्यावच्छेदकज्ञानं न व्यञ्जकम् । प्राप्त्यन्तरेऽनवस्थनात्” (४) ‘घटाभाववद्भू तलम्’ इस आकार की ‘विशिष्ट प्रतीति को सभी स्वीकार करते हैं । भूतल में घटाभाव को विशेषण माने विना यह प्रतीति उपपन्न नहीं हो सकती । अतः भूतल में घटाभाव को विशेषण मानना ही होगा । किन्तु सभो ‘विशेषणतायें’ यदि विशेष्य में विशेषण के ( स्वरूप से ( अतिरिक्त ) किसी स्वाभाविक ( संयोंग समवायादि ) सम्बन्ध की अवश्य अपेक्षा रखतों हों, तो प्रकृत में ‘अनवस्था’ दोष होगा। क्योंकि भूतल में घटाभाव का जो भी सम्बन्ध मानेंगे, उन सभी सम्बन्धों के प्रसङ्ग में यह प्रश्न उपस्थित होगा ‘वह सम्बन्ध भूतल में किस सम्बन्ध से है ? इस प्रकार की अबाधित प्रश्न की परम्परा अनवस्था दोष की जननी है | अतः अभाव में भूतल की ‘विशेषणता’ के लिए ‘प्राप्त्यन्तर’ अर्थात् किसी दूसरे सम्बन्ध का अनुसरण करने से ‘अनवस्था’ दोष होगा । अतः उक्त तीसरी युक्ति भी असङ्गत है । न चेन्योऽपि ••• यदि भूतल की विशेषणता घटाभाव में इस लिये न मानें कि उसके सम्बन्ध का कोई दूसरा सम्बन्ध भूतल में नहीं है, तो फिर ‘अन्य’ प्रमाण से भी अर्थात् प्रत्यक्षादि से अन्य अनुपलब्धि रूप प्रमाण से भी ‘घटाभावभूतलम्’ यह भूतल विशेष्यक एवं घटाभाव विशेषणक प्रमा ‘दुर्घट’ हो जायगी। जिस किसी भी प्रमाण से उत्पन्न घटाभाव विशेष गक बुद्धि के लिये घटाभाव में विशे-ग्णता का होना आवश्यक है। अतः उक्त तृतीय युक्ति से भी अनुपलब्धि का स्वतन्त्रप्रामाण्य व्यवस्थित नहीं हो सकगा । स हि … ……. विशिष्टबुद्धि में विशेषण रूप से भासित होने वाली उसी वस्तु का ‘केवल’ अर्थात् उस विशिष्टबुद्धि को छोड़कर ज्ञान भी आवश्यक है, जिसकी अभिव्यक्ति के लिये ‘अवच्छेदक’ रूप किसी ( प्रतियोगी या विषय दूसरे का ज्ञान आवश्यक नहीं होता । अतः ‘नागृहीते’ इत्यादि से दी गयी आपत्ति, ठोक नहीं है ) । निर्विकल्पक ज्ञान कारय नहीं है’ तो यह भी कह सकते हैं कि प्रभाव के ‘अघट भूतलम्’ इस आकार के प्रत्यक्ष में भी निर्विकल्पक ज्ञान की आवश्यकता नहीं है । छातः यह कहा जा सकता है कि ‘सभी प्रत्यक्षों में निर्विकरूपकज्ञान की अपेक्षा नहीं है । इस लिये यह कथन अयुक्त हो जाता है कि- “अभाव को विशिष्ट बुद्धि चूिँ निर्विक रुपक ज्ञान जनित नहीं है, अतः वह प्रत्यक्ष ही नहीं है, इसलिये प्रभाव की उक्त विशिष्ट बुद्धि के लिये अनुपलब्धि को प्रमाण मानना चाहिये ।” तस्मात् अनुपलब्धि के प्रामायय का साधक यह द्वितीय युक्ति भी असव है ।
• ४८६ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली स च विकल्पयितव्य आलोच्यते, यो विशेषरणज्ञाननिरपेक्षेणेन्द्रियेण विज्ञाप्यते । यस्तु तत्पुरः सर एव प्रकाशते, तत्र तस्य विकल्पसामग्रीसमवधानवत एव सामर्थ्यान्नायं विधिः । स्वभावप्राप्तौ सत्यामप्यधिका प्राप्तिः प्रतिपत्तिबलेन रूपादावभ्युपगता । । इह त्वनवस्थादुस्थतया न तदभ्युपगमो न तु स्वभावप्रत्यासत्तिरेतावतैव विफलायते । स च… … … … द्वितीय चरण की व्याख्या ‘विकल्प’ अर्थात् सविकल्पकज्ञान के उसी ‘विषय’ का निर्विकल्पकज्ञान हो सकता है, इन्द्रिय के द्वारा जिसके ज्ञान की उत्पत्ति में किसी ‘इतर’ अर्थात् दूसरे के ज्ञान की अपेक्षा न हो ’ ‘घटाभाववद्भूतलम्’ इस विशिष्टबुद्धि में भासित होनेवाले घटाभाव का इन्द्रियजनित ज्ञान अपनी उत्पत्ति के लिये नियमतः घटज्ञान की अपेक्षा रखता है । इस लिये घटाभाव रूप उक्त विशेषण का ज्ञान भी नियमतः सविकल्पक ही होता है । अतः यह ‘विधि’ प्रर्थात् नियम ही नहीं हो सकता कि प्रत्यक्षात्मक सभी विशिष्टबुद्धियों में निर्विकल्पकज्ञान की अपेक्षा अवश्य हो । स्वभाव प्राप्ती……… तृतीय चररण की व्याख्या ( रूपवान् घट: इस स्थल में ) घट में विशेषण रूप से भासित होनेवाले ‘रूप’ का ‘स्वभावप्राप्ति’ अर्थात् समवाय रूप स्वाभाविक सम्बन्ध है । एवं यह सम्बन्ध मान लेने पर भी अनवस्थादि किसी दोष की संभावना नहीं है, अतः उस सम्बन्ध के मानने में कोई बाधा नहीं है । भूतल में विशेषणीभूत घटाभाव का भूतल में कोई ‘स्वभावप्राप्ति’ स्वाभाविक सम्बन्ध मान लेने पर ‘अनवस्था’ दोष की संभावना है, अतः भूतल में घटाभाव का कोई स्वाभाविक सम्बन्ध नहीं मानते । किन्तु भूतल में घटाभाव की विशेषणता भी अनुभव सिद्ध है, अतः यह नियम ही स्वीकार नहीं किया जा सकता कि ‘जिसमें जो विशेषण हो, उसमें उसका कोई स्वाभाविक सम्बन्ध भी अवश्य रहे । न चे ह्यनुम विकल मशक विशेष न चे वभूत कथित किसी प्रत्यक्ष यह अ भी अ न च होता अभाव का ‘अ निर्विक से है कि ज्ञान नि की विि तथा, हो तो ’ १. घटाभाववद्भूनतम् इस सविकल्पक ज्ञान में भासित होने के लिये ‘घटाभाव’ का स्वतन्त्र रूप से निर्विकल्पकज्ञान में भासित होना घावश्यक नहीं है, क्योंकि ‘घटाभाव’ अपनी ‘अभिव्यक्ति’ के लिये ‘घट’ रूप ‘अवच्छेद’ का अर्थात् प्रतियोगी के प्रह का नियमतः अपेक्षा रखता है। इसी प्रकार ‘घटमहं जानामि’ इस अनुव्यवसाय रूप विशिष्टबुद्धि में भासित होने के लिये ‘घटज्ञान’ को निर्विकल्पक ज्ञान में भासित होना आवश्यक नहीं है, घटज्ञान भी स्वयं अपनी अभिव्यक्ति के लिये नियमत: ‘घट’ रूप ‘अवच्छेदक’ के निरूपण की अपेक्षा रखता है । प्रभाव में भी अ के लिये में ‘विशे अनुमाना
तृतीय - स्तवक | न चेदेवम्, प्रमाणान्तरेऽपि सर्वमेतदुर्घटं स्यात् । ४८७ तथाहि — सर्वमेव मानं साक्षात्परंपरया वा निर्विकल्पकविश्रान्तम् । न ह्यनुमानादिकमप्यनालो चनपूर्वकम् । ततोऽनालोचितोऽभावः कथमनुपलब्ध्याऽपि विकल्प्येत । न च तया तदालोचनमेव जन्यते, प्रतियोग्यनवच्छिन्नस्य तस्य निरूपयितु- मशक्यत्वात्। शक्यत्वे वा किमपराद्धमिन्द्रियेण ? तथा सम्बन्धान्तरगर्भत्वनियमेन विशेषणत्वस्य, मानान्तरेऽपि कः प्रतीकारः ? तदभावस्य तदानीमपि समानत्वात् । न चेदेवम्– … चतुर्थ चरण की व्याख्या यदि मीमांसकों की कथित युक्तियों को स्वीकार कर लिया जाय एवं उन से ‘घटाभाव- बभूतलम्’ इस विशिष्टबुद्धि को प्रत्यक्ष प्रमाण के द्वारा अनुत्पन्न मानी जाय, तो अनुमान अथवा कथित अनुपलब्धि प्रमाण से भी उक्त विशिष्टबुद्धि की उत्पत्ति न हो सकेगी। क्योंकि किसी न किसी प्रकार सभी प्रमाण प्रत्यक्ष की अपेक्षा अवश्य रखते हैं । इस स्थिति में सभी प्रत्यक्षों में यदि ‘मालोचन’ अर्थात् निर्विकल्पक की प्रपेक्षा को भी स्वीकार करें, तो इसका यह अर्थ होगा कि ‘सभी प्रमाणों को निर्विकल्पक ज्ञान की अपेक्षा है । फिर अनुपलब्धि से भो अभाव की विशिष्टबुद्धि कैसे होगी ? क्योंकि अभाव का निर्विकल्पज्ञान ही नहीं हो सकता । न च तया तदा ……. यदि यह कहें कि उस समय अनुपलब्धि में प्रभाव का निर्विकल्पक ज्ञान ही उत्पन्न होता है" तो सो भी ठीक नहीं होगा, क्योंकि केवल अभाव का तो मान होगा ही नहीं, अभाव का जब भी मान होगा, प्रतियोगि रूप विशेषण के साथ ही होगा । इस लिये अभाव का ‘मालोचन’ अर्थात् निर्विकल्पक ज्ञान असम्भव है । यदि अनुपलब्धि से प्रभाव का निर्विकल्पक ज्ञान ही मानें तो फिर इन्द्रिय रूप प्रत्यक्ष प्रमाण ने ही कौन सा मपराध किया कि उससे अभाव का निर्विकल्पक ज्ञान नहीं होगा । अतः यदि यह नियम मानें कि ‘जो ज्ञान निर्विकल्पक ज्ञान से उत्पन्न हो वही प्रत्यक्ष है’ तो फिर किसी अन्य प्रमाण से भी अमाव की विशिष्टबुद्धि नहीं होगी। तथा, सम्बन्धान्तर ….. चतुपंचरण की व्याख्या इसी प्रकार ‘यदि विशेषण होने के लिये विशेष्य का कोई अन्य सम्बन्ध प्रावश्यक हो तो ’ ‘मानान्तर’ अर्थात् अनुपलब्धि अनुमानादि जो प्रत्यक्ष से ‘अन्य प्रमाण’ है, उन से जो प्रभाव की विशिष्टबुद्धि रूप प्रमायें होंगी, उन्हीं का क्या उपाय करेंगे ? क्योंकि उन स्थलों में भी अभाव रूप विशेषणों में भूतलादि विशेष्यों की विशेषणता आवश्यक है । विशेषणता के लिये उससे भिन्न किसी दूसरे सम्बन्ध को आवश्यक मानते हैं । किन्तु अभाव का भूतल में ‘विशेषणता’ को छोड़कर कोई दूसरा सम्बन्ध संभव नहीं है । अत: प्रत्यक्ष से ‘अन्य’ अनुमानादि प्रमाणों से हो अभाव की विशिष्टबुद्धि किस प्रकार होगी ?
४८५ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली परस्य तादात्म्यमस्तीति चेत् ; ननु यद्यसावस्ति, अस्त्येव न चेन्नव । न ह्यभ्युपगमेनार्थाः क्रियन्ते, अनभ्युपगमेव वा निवर्तन्त इति । अवश्याभ्युपगन्तव्यत्वे कारणत्वं सिद्धय ेत, न तु मानान्तरत्वम् । अन्यथा भावोपलम्भेऽप्यभावानुपलब्धिरेव प्रमाणं प्रमाणं स्यात्, नेन्द्रियम् । प्रभावोपलम्भे भावानुपलम्भवत् भावोपलम्भे प्रभावानुपलम्भस्यापि वज्रलेपा- यमानत्वादिति । पू० प० परस्य मीमांसकगण अभाव को प्रधिकरण स्वरूप मानते हैं । अतः उनके मत से भूतल में घटाभाव का विशेषणता को छोड़ कर एक अभेद ( तादात्म्य ) सम्बम्ध भी संभव है । अतः उनके मत से धनुमानादि अन्य प्रमाणों से घटाभाव की विशिष्टबुद्धि उपपन्न हो सकती है । सि० प० ननु 300 किसी के मानने और न मानने से न किसी की सत्ता किसी में हो सकती है, न जिसमें जिसकी सत्ता नहीं है, वह स्वीकृत ही हो सकती है । अतः मीमांसकगण ऐसा मानते हैं कि ‘अभाव अधिकरणात्मक है’ इससे घटाभाव में भूतल का तादात्म्य हो नहीं जाता । अतः उक्त कथन ठीक नहीं है।’ प्रवक्ष्याम्युपगन्तव्यत्वे अभावप्रमा से पूर्वं प्रतियोगी की अनुपलब्धि की नियम से अपेक्षा होती है, प्रता प्रतियोगी की अनुपलब्धि को कारण मानेंगे। किन्तु अनुपलब्धि में कारणत्व के ‘अवश्याम्युपगम’ से ‘करणता’ एवं तन्मूलक ‘मानान्तरता’ नहीं स्वीकार की जा सकती । धन्यथा भावोपलम्भेऽपि अनु तं प्रप (म गयी की पर एवं घटाभाव की उपलब्धि के न विर इसलिये भावोपलब्धि में भी सर्व घमि ‘अन्यथा’ अर्थात् केवल प्रवश्य अपेक्षित होने से ही अनुपलब्धि अभाव प्रमा का ‘करण’ हो । एवं अवश्य प्रपेक्षित ही इन्द्रिय ‘करण’ न हो तो घटादि भाव पदार्थों की जो इन्द्रियजनिंत प्रमायें होंगी, उनका ‘करण’ भी ‘अनुपलब्धि’ ही होगी, इन्द्रियादि नहीं। क्योंकि घटाभाव की उपलब्धि के रहने पर घट का प्रमाज्ञान नहीं होता है। रहने पर घट रूप भावपदार्थ का प्रमाज्ञान होता है । अभावानुपलब्धि अवश्य अपेक्षित है, अतः वह ‘करण’ भी होगी। इसलिये ‘अनुपलब्धि’ स्वतन्त्र प्रमाण है, यह स्वीकार नहीं किया जा सकता ।’ १. क्योंकि मीमंसकों का उक्त कथन उनके स्वीकृत सिद्धान्त के ही विरुद्ध है। घटाभाव एवं भूतल यदि एक ही वस्तु रहे, तो जिससे भूतल की प्रमा होगी, उसीसे भूतक्षाभिन्न घटाभाव की भी प्रमा होगी । फलतः ‘घटाभाववद्भूतलम्’ विशिष्टबुद्धि रूप यह प्रभाव की प्रमा भी प्रत्यक्ष से ही हो जायगी। इसके लिये अनुपलब्धि प्रमाण को स्वीकार करने की कौन सी आवश्यकता है ?
दंति लोग ‘अ तृतीयः स्तबकः प्रत्यक्षादिभिरेभिरेवमधरो दूरे विरोधोदयः प्रायो यन्मुखवीक्षणैकविधुरैरात्माऽपि नासाद्यते । तं सर्वानुविधेयमेकमसमस्वच्छन्दलीलोत्सवं देवानामपि देवमुद्भवदतिश्रद्धाः प्रपद्यामहे ॥२३॥ ॥ इति गद्यपद्यात्मके श्रीन्यायकुसुमाञ्जलौ तृतीयस्तबकः ॥ ४=१ ( ईश्वर नमस्कारात्मक एवं इस स्तवक में कहे गये विषयों का संक्षेप में अनुसन्धान प्रयोजक इस श्लोक का अन्वय इस प्रकार है :-) एवम् यन्मुखवीक्षणैकविधुरैः प्रत्यक्षादिभिः प्रायः आत्मापि न मासाद्यते । तं सर्वानुविधेयम्, एकम्, असमस्वच्छन्दलीलोत्सवम् देवानामपिदेवम्, उद्भवदति श्रद्धाः, ( वयम् ) प्रपद्यामहे । अर्थापति एवं अनुपलब्धि बाधा डालने की चर्चा की अर्थात् इस स्तवक में प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, शब्द, ( प्रभाव ) स्वरूप जिन छः प्रमाणों के द्वारा ईश्वर की सिद्धि में गयी है, वे सभी प्रत्यक्षादि प्रमाण ‘प्रायः’ जिन ( परमेश्वर ) का मुँह जोहे बिना अपने स्वरूप ( की सत्ता को ही नहीं लाभ कर सकते ( अर्थात् प्रत्यक्षादि प्रमाणों की अपनी ही सत्ता जिन परमेश्वर की सत्ता के बिना खतरे में है) उन प्रत्यक्षादि प्रमाणों के द्वारा ईश्वर की सिद्धि में विरोध की बात बहुत दूर है | ( इनमें प्रत्यक्षापदि सभी प्रमाण ‘कार्य’ होने के कारण सर्वकारण स्वरूप परमेश्वर की अपेक्षा रखते है । अनुमानादि प्रमाण तो अपनी सत्ता के लिये घर्मिज्ञान के संपादन के लिये ईश्वर के साधक प्रमाणों की मी अपेक्षा रखते हैं ) । इस प्रकार प्रत्यक्षादि प्रमाणों के विरोध के निरस्त हो जाने के कारण ‘उद्भव- देतिषद्धाः’ उनके ऊपर अति उत्कृष्ट ( अवश्य ही मुक्ति देने वाली ) श्रद्धा के कारण हम लोग उन परमेश्वर को प्रणाम करते हैं, जो इन्द्रादि देवों के भी स्तुत्य हैं, सभी जिनके ‘अनुविधेय’ अर्थात् अधीन हैं ( अथवा जो सभी के अधिष्ठान स्वरूप हैं ) एवं जो ६२ CCO. Vasishtha Tripathi Collection. Digitized by eGangotri४६० गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली ‘एक’ हैं अर्थात् सजातीय द्वितीय रहित हैं, जिनके समान दूसरा कोई भी नहीं है । एवं जिनकी ‘लीला’ स्वरूपा इच्छा अथवा यत्नात्मक कृति कभी अन्य किसी की अपेक्षा नहीं रखती और विफल नहीं होती । एवं जिनमें सदा ही दुःखभाव स्वरूप ‘उत्सव’ विद्यमान रहता है।" रा शिकोह ! भाव ताथ पू० नहीं १. ‘प्रन्यान्ते प्रन्य मध्ये वा हरि । सर्वत्र गीयते’ इस शास्त्र बचन को ध्यान में रखकर ‘श्रेयांसि बहुविध्नानि’ इस उक्ति के अनुसार इस महत्कार्य में बहुविध विघ्न की शङ्का से एवं इस स्ववक में कहे गये विषयों को संक्षेप संग्रह की दृष्टि से आचार्य ने ‘प्रत्यचादिभि:’ इस श्लोक की रचना कर ग्रन्थ में निबद्ध किया है ।
पहि अगुल नित्य १. ॥ श्रीगणेशाय नमः ॥ गद्यपद्यात्मके न्यायकुसुमाञ्जलौ चतुर्थः स्तबकः -::— ननु सदपीश्वरज्ञानं न प्रमारणम् ; तल्लक्षणायोगात् । श्रनधिगतार्थंगन्तुस्तथा- भावात् । अन्यथा स्मृतेरपि प्रामाण्यप्रसङ्गात् । न च नित्यस्य सर्वविषयस्य चानविग - तार्थता : व्याघातात् । } पू० प० ननु सदपि यदि (सर्वज्ञ) ईश्वर की सत्ता मान भी लें, तथापि उन का ज्ञान प्रमाण ( प्रमा ) नहीं हो सकता, क्योंकि प्रमाज्ञान का लक्षग उस में नहीं रह सकता । जिस पुरुष का ज्ञान पहिले से अज्ञात विषय का ( अगृहीतग्राही ) होता है, वही ज्ञान प्रमाण ( प्रमा) है, यदि अगृतप्राहित्व को प्रमा का लक्षण न मानें, तो स्मृति में प्रभा के लक्षण की अतिव्याप्ति होगी । नित्य एवं सर्व विषयक ज्ञान कभी भी मग्गृहीतग्राही नहीं हो सकता ’ १. ‘सत्वेऽपि तस्याप्रमाणत्वात्’ इस वाक्य द्वारा जो चौथी विप्रतिपत्ति की सूचना प्रथम स्तबक में दी गयी है, उसी का निराकरण इस चौथे स्तबक में किया गया है । मीमांसक गण ‘अनधिगतावाधितार्थविषयकत्व को ही प्रमाज्ञान का लक्षण कहते हैं । अर्थात् जो विषय पहले से अबगत न रहे, एवं जिसके विशेष्य में विशेषण का बाध न रहे, वही ज्ञान प्रमा है। स्मृति को नैयायिकगण भी प्रमा नहीं मानते, यदि केवल ‘अबाधितार्थविषयकत्व’ ही प्रमा का लक्षण कहेंगे, तो स्मृति में भी प्रमा लक्षण की आपत्ति ( श्रतिव्याप्ति - अधिकव्याप्ति ) होगी । अतः ‘अनधिगतविषयत्व’ विशेषण देना आवश्यक है। क्योंकि स्मृति नियमतः पूर्वज्ञात विषयक ही होती है । किन्तु प्रमा का यह लक्षण ईश्वर ज्ञान में नहीं रह सकता, क्योंकि उनका ज्ञान ‘निश्य’ एवं ‘सर्वविषयक’ है । अत: उन्हें सभी विषयों का ज्ञान सभी समयों में है ही । इसलिये उनका कोई भी ज्ञान किसी भी समय अज्ञात विषयक नहीं हो सकता । यदि उनके किसी ज्ञान को अनधिगतार्थं विषयक मानेंगे तो यह स्वीकार करना होगा कि उससे पूर्व उनको उस विषय का ज्ञान नहीं था । इससे उस ‘अनधिगम ‘क्षण’ में उनकी संज्ञता खण्डित हो जायगी । अतः यदि अट के किसी अधिष्ठाता पुरुष की कल्पना भी करेंगे, एवं उनका सर्वज्ञ होना भी संभव हो, तथापि उनका ज्ञान ‘प्रमाण’ ( प्रमा) नहीं हो सकता । जिनका ज्ञान यथार्थ ( प्रमा) नहीं है, उस पुरुष को ‘प्रमाण’ ही कहा जायगा । ‘अप्रमाणपुरुष’ के ऊपर विश्वास नहीं किया जा सकता । सुतराम् वेद के कर्त्ता परमेश्वर नहीं हो सकते । अतः वेद के कर्ता रूप में ईश्वर की कल्पना निराधार है ।
४६२ अत्रोच्यते— गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जलो अप्राप्तेरधिकप्राप्ते श्रव्याप्तेरधिकव्याप्तेिरलक्ष गमपूर्वदिक । यथार्थानुभवो माऩमनपेक्षतयेष्यते ॥ १ ॥ 964 इस आक्षेप के उत्तर में हम ( नैयायिक ) कहते हैं कि ‘अपूर्वदृक्त्व’ अर्थात् अगृहीत ग्राहित्व प्रमा का लक्षण नहीं है, क्योंकि इस लक्षण में ‘प्राप्ति’ एवं ‘अधिकव्याप्ति’ प्रर्थात् श्रतिव्याप्ति दोनों ही दोष हैं । यथार्थत्व से युक्त अनुभवस्व ही प्रमा का लक्षण है ( यथार्थत्व से युक्त केवल ज्ञानत्व नहीं, क्योंकि इस से स्मृति में अतिव्याप्ति होगी । स्मृति इस लिये प्रमा नहीं है कि उस का तद्वति तत्प्रकारकत्व रूप प्रमात्व ‘अनपेक्ष’ अर्थात् स्वतन्त्र नहीं है, किन्तु कारणीभूत अनुभव में रहनेवाले प्रामाण्य के अधीन है ) हम नैयायिक गण प्रमात्व से युक्त ‘अनपेक्ष’ ज्ञान को ही प्रमा मानते हैं’ । १. ‘अपूर्वडक्व’ अर्थात् अगृहीतग्राहित्व प्रमा का लक्ष्य है ही नहीं, क्योंकि इसमें अव्याप्ति एवं अतिव्याप्ति दोनों ही दॉप है। प्रभा का यह लक्षण घटादि के धारावाही ज्ञान में नहीं है । सामग्री का सम्बलन रहने पर एक ह्रीं विषय के एक ही आकार के कभी कभी कई ज्ञान कुछ क्षणों तक निरन्तर होते रहते है । एक ही विषय के एक ही आकार के ये अनेक ज्ञान ‘धारावाहिक’ ज्ञान कहलाते हैं .. योगिगण जब ध्यान से एकाग्रता का साधन करते हैं, सब इसी प्रकार के ज्ञान उन्हें अनेक क्षयों तक होते रहते हैं। अतः धारावाहिक ज्ञानों के द्वितीयादिज्ञान अवगतार्थ विषयक ही होते हैं, अतः वे प्रमा नहीं हो सकेंगे। किन्तु ‘एक ही प्रकार का एक ज्ञान प्रमा है, एवं उसी आकार प्रकार के दूसरे ज्ञान प्रमा नहीं हैं, यह स्वीकार नहीं किया जा सकता । एवं प्रमा का यह लक्षण शुक्ति में ‘इदं रजतम्’ इत्यादि आकार के विपर्ययों में भी है, क्योंकि विपर्यय रूप यह ज्ञान भी पूर्वज्ञात विषयक नहीं है, अतः यह लक्षण विपर्यय में अतिव्यास भी हैं। इसलिये यथार्थानुभवस्व ही प्रमा का लक्षण है । प्रमा का यह लक्षण ईश्वर के ज्ञान में भी है ही । सुतराम् ईश्वर में अप्रामाण्य की संभावना नहीं है । V यहाँ एक प्रश्न उठता है कि ‘यथार्थस्व’ को ही यदि ‘प्रमात्व’ का प्रयोजक मानें तो स्मृति भी प्रमा क्यों नहीं होगी। क्योंकि यथार्थत्व है ‘तद्वति सत्प्रकार कस्व’ रूप, सो स्मृति में भी है ही। यह भी नियम नहीं है कि स्मृति अर्थात् तदभावति तत्प्रकारक ही हो । अतः यथार्थत्व को प्रभाव का यथार्थ ही हो प्रयोजक नहीं मा सि जि रह प्र प्र भ प्र न से वि कहा जा सकता |
चतुर्थ स्तबक | ४६१ न ह्यधिगतेऽर्थे अधिगतिरेव नोत्पद्यते, कारणानामप्रतिबन्धात् । न चोत्पद्य- मानाऽपि प्रमातुरनपेक्षितेति न प्रमा; प्रमाण्यस्याऽतदधीनत्वात् । सि० प० न हि अधिगते ऐसा कोई नियम नहीं है कि एक वार जाने हुये विषय का पुनः ज्ञान ही न हो, क्योकि जिन सभी कारणों से एक बार जिस विषय का ज्ञान उत्पन्न होता है, उन सभी कारणों के रहते उस विषय के ही दूसरे दूसरे ज्ञानों की उत्पत्ति तब तक होती रहेगी, जब तक कोई प्रतिबन्ध न उपस्थित हो जाय । श्रतः एक क्षण के उत्पन्न घट के प्रमाज्ञान के बाद जो उसी प्रकार के ज्ञान उत्पन्न होते हैं, उन में भी अवश्य ही प्रमात्व है । किन्तु उन ज्ञानों में अनधिगत विषयकत्व नहीं है । अतः अनधिगत विषयंस्त्र अथवा अगृहीतग्राहित्व प्रमात्व का प्रयोजक नहीं हो सकता । न’ चोत्पद्यमानापि ज्ञान में रहनेवाले प्रमात्व को ज्ञाता के प्रयोजन की कोई अपेक्षा नहीं है । ऐसे बहुत से ज्ञान हैं, जिन्हें ज्ञाता नहीं चाहता । अथ च उन ज्ञानों को सभी प्रमा मानते हैं । जैसे कि व्याघ्रादि के ज्ञान । इसी प्रश्न का समाधान ‘अनपेक्षतयेष्यते’ इस अन्तिम चरण से किया गया है । जो स्मृति यथार्थ अनुभव से । नियम नहीं है कि यथार्थानुभव से उत्पन्न होती है, वही प्रमा होती है। (यह भी उत्पन्न सभी स्मृतियाँ प्रमा ही होती है) इस से यह निष्पन्न होता है कि स्मृति की यथार्थता का मूल है, कारणीभूत अनुभव की यथार्थता । अतः स्मृति के यथार्थत्व से होनेवाले सभी व्यवहार उस कारणीभूत अनुभव के यथार्थश्व से ही उपपन्न हो जायगे - स्मृति में अलग से प्रमात्व मानने की कोई आवश्यकता नहीं है । जब तक कारणीभूत अनुभव में यथार्थत्व निर्णीत नहीं हो जाता, तब तक स्मृति से मी यथार्थत्व मूलक कोई व्यवहार नहीं होता । छातः जिस ज्ञान की यथार्थता किसी दूसरे ज्ञान की पथार्थता के अधीन न हो, उसी ज्ञान को प्रमा मानना चाहिये । स्मृति की जो यथार्थता है वह अनुभव की यथार्थता के अधीन है, अता स्मृति में प्रमा लक्षण की प्रतिष्पाति नहीं है। १. इस प्रसङ्ग में कहा जा सकता है कि प्रथम क्षण में जो घट विषयक ज्ञान उत्पन्न होता है, उसी से घटज्ञान से होनेवाले सभी कार्यों का सम्पादन हो ही जायगा । उसके बाद ज्ञाता को घटज्ञान की कोई भी ‘अपेक्षा’ नहीं रहेगी । अतः प्रयोजन संपादक होने के नाते प्रथम पोत्पन्न (प्राथमिक) ज्ञान ही प्रमा है, द्वितीयाविज्ञान प्रमा नहीं है । C
४६४ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली नापि पूर्वाविशिष्टतामात्रेणाप्रामाण्यम्; उत्तराविशिष्टतया पूर्वस्याप्यप्रामाण्य- प्रसङ्गात् । तदनपेक्षत्वेन तु तस्य प्रामाण्ये तदुत्तरस्यापि तथैव स्यादविशेषात् । छिन्ने कुठारादीनामिव परिच्छिन्ने नयनादीनां साधकतमत्वमेव नास्तीत्यपि नास्ति । फलोत्पादानुत्पादाभ्यां विशेषात् । नापिरे … … किसी ज्ञान की अपेक्षा किसी ज्ञान में विशेष या पविशेष का रहना उसके प्रमात्व का प्रयोजक नहीं है । अगर ऐसी बात हो तो फिर यह भी कहा जा सकता है कि द्वितीयादि ज्ञान चूकि अप्रमा हैं, एवं प्राथमिक ज्ञान में उन से कोई विशेष नहीं है, अतः प्राथमिक ज्ञान भी अत्रमा है । यदि प्राथमिक ज्ञान के प्रमात्व के लिये उस में उत्तर ज्ञान से किसी विशेष की अपेक्षा नहीं है, तो फिर उत्तर ज्ञानों में प्रमात्व के लिये भी उन में प्राथमिक ज्ञानु की किसी विशेष की अपेक्षा क्यों हो ? अतः यह बात नहीं है कि उत्तर ज्ञानों में प्राथमिकज्ञान की अपेक्षा कोई ‘विशेष’ नहीं है, अतः वे प्रमा नहीं है । पू० प० छिन्ने प्रमाण से उत्पन्न ज्ञान ही प्रमा है, एवं प्रमा का करण ही प्रमाण है । ‘क्रिया’ के ‘साधकतम’ को ‘करण’ कहते हैं । किन्तु काठ का छेदन हो जाने पर जैसे कि कुठार छेदन क्रिया का ‘साधकतम ’ नहीं रह जाता, उसी प्रकार नयन रूप करण से एक बार घटज्ञान रूप क्रिया की निष्पत्ति हो जाने पर नयन दूसरे क्षणों में उत्पन्न घटज्ञान रूप क्रियानों का ‘साधकतम’ ही नहीं रह जाता । भतः उक्त धारावाहिकज्ञान के अन्तर्गत जो द्वितीयादिज्ञान हैं, वे प्रमाणजन्य ही नहीं हैं । अतः वे प्रमा नहीं हैं । इस लिये प्रमात्व का प्रगृतीत ग्राहित्व रूप लक्षण ठोक है । सि० प० फलोत्पादानुत्पादाभ्याम् काठ के छेदन हो जाने पर कुठार अवश्य ही छेदन क्रिया का साधकतम नहीं रह जाता। क्योंकि ‘साधकतम’ वहीं है जिससे ‘कर्म कारक’ में प्रकृत क्रिया के फल का उत्पादन हो सके । काठ का जैसा छेदन हो गया रहता है, ठीक वैसा ही छेदन पुनः नहीं हो सकता । काठ के उक्त छेदन के बाद कुठार उक्त छेदन क्रिया का साधकतम नहीं रह जाता । किन्तु एक बार घटज्ञान की उत्पत्ति के बाद भी तत्सहथ ही दूसरे घटज्ञान की उत्पत्ति होती है। ‘ज्ञाक्रिया’ का फल है ‘ज्ञान की विषयता’ । घट में एक यथ विष सम् द्विर्त की द्वित हैं । वह पू० क्यों करण द्विती सि है, अथ “दिस ‘यथ विष यथा समा यथा अनुम बार घटज्ञान की ज्ञान दोष प्राहि २. किसी समुदाय का कहना है कि द्वितीयादिषयों में उत्पन्न उक्त ज्ञानों में प्रथमक्षण में उत्पन्न ज्ञान से कोई ‘विशेष’ नहीं रहता, अतः द्वितीयादिज्ञान प्रमा नहीं है । इसी का लडन ‘नापि’ इत्यादि सन्दर्भ से किया गया है।
चतुर्थः स्तबकः ४६१ तत्फलं प्रमैव न भवति, गृहीतमात्रगोचरत्वात्, स्मृतिवदिति चेन्न । यथार्थानुभवत्वनिषेधे साध्ये बाधितत्वात् । विषयता के आ जाने के बाद भा जब घट दूसरे घटज्ञान का विषय होता है, तो यह कहना सम्भव नहीं है कि घट रूप कर्म कारक में एक बार घटज्ञानीय विषयता के आ जाने पर पुन: द्वितीयघट ज्ञान की विषयता की उत्पत्ति नहीं हो सकती’ । प्रतः चक्षु से एक बार घटज्ञान की उत्पत्ति के बाद पुनः घटज्ञान की उत्पत्ति के होने में कोई बाधा नहीं है । तस्मात् द्वितीयादि ज्ञान भी चूकि इन्द्रिय रूप प्रमाण से उत्पन्न होते हैं, अतः वे ज्ञान अवश्य ही प्रमा हैं । किन्तु उन में अगृहीतग्राहित्व नहीं हैं, प्रत। धारावाहिकज्ञान में जो अव्याप्ति दी गयी है, वह ठीक है । पृ० प० तत् फलम् ‘तत्’ प्रर्थात् धारावाही ज्ञान के अन्तर्गत द्वितीयादि ज्ञान रूप फल ‘प्रमा’ नहीं है, क्योंकि वे ( फल रूप ज्ञान ) ‘गृहीतग्राही’ हैं । गृहीतग्राही ज्ञान रूप फल प्रमाण ( प्रमा के करण ) से उत्पन्न होने पर भी प्रमा नहीं होते, जैसे कि स्मृति रूप फल | अतः उक्त द्वितीयादिज्ञान प्रमालक्षण के लक्ष्य ही नहीं हैं । सि० प० यथार्थानुभवत्वनिषेघे ( कथित ‘प्रमेव न भवति’ इस साध्यबोधक वाक्य में जो ‘प्रमा’ शब्द प्रयुक्त है, उसका कौन सा अर्थ अभिप्रेत है ? (१) यथार्थानुभवत्व अथवा ( २ ) मग्गृहीतग्राहित्व अथवा ( ३ ) प्रमा का व्यवहार । ( १ ) इनमें प्रथम अर्थ के अनुसार अनुमान का आकार होगा । ‘तत्’ प्रर्थात् “द्वितीयाविज्ञानरूपं फलम् यथार्थस्वाभाववत् गृहीतग्राहित्वात् " किन्तु इस अनुमान का साध्य ‘यथार्थानुभवत्वाभाव’ पक्ष में बाधित है। क्योंकि ये द्वितीयादिज्ञान भी प्रथमज्ञान के समान विषयक ही हैं। जो प्रकार विशेष्य प्रथमज्ञान में हैं, वे ही द्वितीयादि ज्ञानों में भी हैं । यथार्थस्व है, तद्वति तत्प्रकारकत्व रूप । यदि प्राथमिकज्ञान में यह प्रमात्व है, तो उसी के समान प्रकार विशेष्यक द्वितीयादिज्ञानों में भी प्रमात्व अथवा यथार्थत्व है ही । इस प्रकार यथार्थनुभवत्व के रहने से उक्त पक्ष में यथार्थानुभवत्वाभाव रूप साध्य नहीं है । अतः इस अनुमान में बाघ दोष स्पष्ट है । (२) दूसरा अर्थ मानने पर अनुमानवाक्य का यह भाकार होगा ‘तत्’ द्वितीयादि- ज्ञानरूपं फलम् गृहीतग्राही गृहीतग्राहित्वाद’ इस अनुमान में सिद्धसाधन एवं साध्यसमत्व ये दो दोष हैं । हेतु को पहिले से ही पक्ष में निश्चित रहना आवश्यक हैं। तदनुसार यदि ‘गृहीत- प्राहित्व’ रूप हेतु उक्त द्वितीयादज्ञान रूप पक्ष में सिद्ध है, तो फिर साध्य भी सिद्ध ही है ।
A ४६६ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली अनधिगतार्थत्वे सिद्धसाधनात् साध्यसमत्वाच्च । व्यवहारनिषेधे तन्निमित्त- विरहौपाधिकत्वात्, बाधितत्वाच्च । न चानधिगतार्थत्वमेव तन्निमित्तम् । बुद्ध क्षय अभेद तो है ही । साध्य और सि क्योंकि उक्त साध्य श्रीर हेतु दोनों अभिन्न हैं । अतः सिद्धसाधन दोष अनिवार्य है । यदि पक्ष मैं गृहीतग्राहित्व रूप हेतु सिद्ध नहीं भी है तथापि दोनों में हेतु का ‘अविशेष’ अर्थात् अभिन्न होना ही ‘साध्यसम’ दोष है । तस्मात् प्रमा’ शब्द के द्वितीय अर्थ के अनुसार अनुमान में सिद्धिसाधन एवं साध्यसम इन दोषों के कारण अप्रमात्व की सिद्धि नहीं हो सकती । ३) ‘प्रमा’ शब्द के तीसरे अर्थ के प्रसङ्ग में यह कहना है कि ‘व्यवहार’ शब्द का मर्थ है ‘शब्द प्रयोग’ । जो प्रकृत में ‘प्रमाशब्दवाच्यस्व’ रूप होगा । तदनुसार अनुमान वाक्य का यह स्वरूप निष्पन्न होता है ‘तत्’ अर्थात् फलीभूतम् द्वितीयादिज्ञानम् प्रमापद- वाष्यत्वाभाववत् अगृहीतग्राहित्वात्’ इस अनुमान में ’ तन्निमित्त विरहः अर्थात् प्रमापद का प्रवृत्तिनिर्मित्त का बिरह रूप’ ‘उपाधि’ एवं ‘बाघ’ ये दो दोष हैं । पू० प० न चानधिगतार्थम् …… ‘तद्वति तत्प्रकारकत्वा मुभवस्व’ स्वरूप धर्म प्रमा पद का प्रवृत्तिनिमित्त नहीं है, किन्तु ‘प्रगृहीतग्राहित्य’ ही प्रमा पद का प्रवृत्तिनिमित्त है । अतः जितने ज्ञान अग्रहीतग्राही हैं, वे ही प्रमा पद के वाय अर्थ हैं। इसलिये प्रमापदप्रवृत्तिनिमित्ताभाव वास्तव में ‘अग्रहित प्राहित्वाभाव’ ही है। अतः उक्त अनुमान में उपाधि दोष नहीं है, क्योंकि प्रमापदवाच्यत्वाभाव रूप साध्य की व्यापकता के रहने पर भी ‘प्रगृहीतग्राहित्वभाव’ फलतः गृहीतग्राहित्व रूप हेतु का व्यापक ही हैं। क्योंकि स्व-स्व का व्यापक होता ही है । प्रकृंत उपाधि एवं हेतु दोनों एक हैं, क्योंकि प्रमापदप्रवृत्तिनिमित्ताभाव रूप उपाधि का पर्यवसित अर्थ ‘गृहीतग्राहित्व ’ ही होता है । अतः उक्त अनुमान में प्रमा पदप्रवृत्तिनिमित्ताभाव रूप उपाधि दोष नहीं है । 1 १. सांध्यांपकर संतिं साधनाव्यापकत्व है ‘उपाधि’ । प्रकृत में साध्य हैं प्रमापद- वात्वाभाव उसका अधिकरण हैं प्रमाज्ञान, उसमें प्रमापदवाच्यत्वाभाव रूप उपाधि है; अंतः प्रमापदवाच्यत्वाभाव में साध्य का व्यापकरव है । एवं हेतु है अग्रहीत माहित्व उसका अधिकरण है पक्षीभूत उक्त द्वितीयादिज्ञान, उनमें प्रमापद का प्रवृति- निमित्त जो सतितत्प्रकारकत्व वह भी है- इसलिये उसमें प्रमापद के प्रवृत्तिनिमित्त का प्रभाव नहीं है, इसलिये प्रमापद के प्रवृत्तिनिमित्त के अभाव में साधन का अध्यापकत्व भी है।
२. संक अनुमान में बांध दोष स्पष्ट है, क्योंकि-ठक्क द्वितीयादिज्ञानों में भी प्रमापद का व्यवहार होता ही है । अतः उन गृहितग्राही द्वितीयाविज्ञानों में प्रमापदापत्वा- भाव नहीं है, क्योंकि उनमें प्रमापदं वाध्यत्व ही हैं। वाच घट उस (प्र माने होग अतः नाि यथा पद सिव प्रमा स्वरू के न च अति ज्ञान मी उक्त प० फाल क्षणवि
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त द T- चतुर्थः स्तवक ४६७ विपर्ययेऽपि प्रमाव्यवहारप्रसङ्गात् । नाऽपि यथार्थत्वविशिष्टमेतदेव; धारावहन- बुद्धधव्याप्तेः । न च तत्तत्कालकला विशिष्टतया तत्राप्यनधिगतार्थत्वमुपपादनीयम्; क्षरणोपाधीनामनाकलनात् । सि० प० विपर्ययेऽपि जो धर्म जिस पद का प्रवृत्तिनिमित्त होता है, उस धर्म से युक्त अर्थं ही उस पद का वाच्य होता है । घट पद का प्रवृत्तिनिमित्त है घटत्व, इसलिये घटत्व से युक्त घट रूप मर्थ घटपद का वाध्य है । इस नियम के अनुसार जो धर्म प्रमा पद का प्रवृत्तिनिमित्त होगा, उस धर्म से युक्त वस्तु प्रमा पद का वाच्य भी अवश्य होगा । अगृहीतग्राहित्व रूप धर्म ( प्राथमिक) विपर्ययात्मक ज्ञान में भी है । यदि अगृहीतग्राहित्व को प्रमा पद का प्रवृत्तिनिमित्त मानेंगे तो प्रगृहीतग्राहित्व रूप धर्म से युक्त उक्त विपर्यय को प्रमा पद का वाच्य अर्थ मानना होगा । अतः विपर्यय रूप अप्रमाज्ञान में भी प्रमा पद का स्वारसिक प्रयोग होने लगेगा । अतः अगृहीतग्राहित्व प्रमा पद का प्रवृत्तिनिमित्त नहीं हो सकता । नापि … केवल ‘अगृहीतग्राहित्व’ प्रमा पद का प्रवृत्तिनिमित्त भले ही न हो सके, किन्तु यथार्थत्व विशिष्ट अगृहीतग्राहित्व को प्रमा पद का प्रवृत्तनिमित्त मान कर विपर्यय में प्रमा पद के स्वारसिक प्रयोग की प्रापत्ति को दूर किया जा सकता है । सि० प० धारावहन धारावाहिक बुद्धियों में अर्थात् उक्त द्वितीयादि ज्ञानों की धारा के प्रत्येक ज्ञान में प्रमा पद का स्वारसिक प्रयोग होता है । किन्तु इन ज्ञानों में उक्त ‘विशिष्ट’ प्रवृत्तिनिमित्त स्वरूप धर्म नहीं है, क्योंकि उनमें प्रगृहीतग्राहित्व नहीं है । उनके विषय प्राथमिक ज्ञान के द्वारा गृहीत हैं । अतः उक्त कथन भी ठीक नहीं है । न च प्रथम ज्ञान में जितने विषय भासित होते हैं, द्वितीयादि ज्ञानों में उन विषयों के अतिरिक्त उन ज्ञानों के आश्रयीभूत काल भी भासित होते हैं । काल रूप यह विषय प्राथमिक ज्ञान से अवगत नहीं रहता है । अतः उक्त क्षण रूप अनधिगत विषयक होने से द्वितीयादि ज्ञान मी अनधिगतार्थ विषयक हैं। इसलिये उनमें भी अगृहीतग्राहित्व भी है, यथार्थत्व तो है ही । अतः उक्त ज्ञानों में उक्त विशिष्ट प्रवृत्तिनिमित्त की सत्ता में कोई विवाद नहीं है । प० स० क्षणोपाधीनास् द्वितीयादि ज्ञानों में उनके आश्रयीभूत क्षणों का मान नहीं होता है । अर्थात् क्षण रूप काल माश्रय होने पर भी वे उन ज्ञानों के विषय नहीं है । अतः द्वितीयादि ज्ञानों में भी उक्त क्षणविषयकत्व रूप विशेष से भी अगृहीतग्राहित्व का उपपादन नहीं किया जा सकता । ६३
४९८ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली न चाज्ञातेष्वपि विशेषणेषु तज्जनितविशिष्टता प्रकाशत इति कल्पनीयम्; स्वरूपेण तज्जननेऽनागतादिविशिष्टताऽनुभवविरोधात् । तज्ज्ञानेन तु तज्जनने सूर्यगत्यादीनामज्ञाने तद्विशिष्टताऽनुत्पादात् । पू० प० न चाज्ञातेषु विशेषण से विशेष्य में ‘विशिष्टता’ नाम के एक धर्म की उत्पत्ति होती है । विशिष्टता की यह उत्पत्ति ज्ञात विशेषण से भी होती है, अज्ञात विशेषण से भी होती है। जो विशेषण विशेष्य के ज्ञान में स्वयं नहीं भी भासित होते है, तथापि उनकी विशिष्टता अवश्य भासित होती हैं । अतः द्वितीयादि ज्ञानों के आश्रयीभूत क्षण की विशिष्टता भी उनमें अवश्य उत्पन्न होती हैं, एवं भासित भी होती है। प्राथमिक ज्ञान के विषय एवं द्वितीयादिज्ञानों के विषय यद्यपि स्वरूपतः एक ही हैं, तथापि प्रथमक्षणविशिष्ट घटादि एवं द्वितीयक्षणवृत्ति घटादि दोनों भिन्न हैं । मता धारावाहिक ज्ञान के घटक प्रत्येक ज्ञान का तत्तत्क्षणविशिष्ट विषय भिन्न-भिन्न ही है। इस प्रकार उनमें से कोई भी ज्ञान अधिगतार्थविषयक नहीं है । अतः धारावाहिक ज्ञान में अगृहीत ग्राहित्व के रहने में कोई अनुपपत्ति नहीं है । सि० प० स्वरूपेण’ 00:0 ‘स्वरूपतः’ अर्थात् केवल विशेषण से, फलतः विशेष्य में विद्यमान धर्म मात्र से विशेष्य में ‘विशिष्टता’ की उत्पत्ति मानें, एवं उसका भान विशिष्टबुद्धि में मानें तो अनधिगत घट में ‘मनागतत्व’ की जो स्वारसिक प्रतीति होती है, वह अनुपपन्न हो जायगी। क्योंकि उस समय घट की सत्ता ही नहीं है, फिर बनागतत्व रूप विशेषण कहाँ ‘स्वविशिष्टता’ का संपादन करेगा ? अता यह भी पक्ष ठीक नहीं है । तज्ज्ञानेन यदि विशेषण के ज्ञान से विशेष्य में ‘विशिष्टता’ की उत्पत्ति मानेंगे, तो प्रकृत द्वितीयादि ज्ञानों के विशेष्य में तत्काल ‘विशिष्टता’ की उत्पत्ति नहीं हो सकेगी, क्योंकि सूर्यादि की गति ही काल की ज्ञापिका हैं। सूर्यादि की गतियां अत्यन्त सूक्ष्म हैं । अतः स्थानान्तर प्राप्रि से उक्त गतियों की अनुमिति ही होती है । क्षण की ज्ञापिका ये गतियाँ अपनी प्रत्यन्त सूक्ष्मता २. इस समाधान सन्दर्भ को समझने के लिये पूर्वपक्षी के उक्त कथन के प्रसन में यह विकल्प उपस्थित करना चाहिये कि (१) विशेष्य में उक्त विशिष्टता की उत्पत्ति केवल विशेषण से होती है ? अथवा (२) विशेषण के ज्ञान से होती है। इनमें प्रथम पक्ष का खण्डन ‘स्वरूपेया’ इत्यादि सन्दर्भ से किया गया है । एवं ‘तज्ज्ञानेन’ इत्यादि से द्वितीय पक्ष खडित हुआ है । क त के क के है क न कि བྷ के वि हो वि उ सि न
安临 म ने की के त सत हैं, हक नमें इत्व वष्य में मय T? दि की से नता यह नति इनमें निन’ चतुर्थः स्तबक: ४६६ न चैतस्यां प्रमाणमस्ति । नन्वनुपकार्यानुपकारकयोर्विशेषणविशेष्यभावे कथमतिप्रसङ्गो वारणीयः ? व्यवच्छित्तिप्रत्यायनेन व्यवच्छित्तौ स्वभावेन । अन्यथा तवाप्यनवस्थानादिति । के कारण द्वितीयादि ( प्रत्यक्षात्मक ) ज्ञानों में भासित नहीं हो सकती । भतः उस समय काल रूप विशेषण का ज्ञान संभव ही नहीं है । यदि उक्त द्वितीयादि ज्ञानों में अनधिगतविषयत्व के संपादन के लिए ही उनमें काल के वैशिष्ट्य का भान मानना है, और वह मान संभव नहीं है, तो फिर विशेषण से विशेष्य में ‘विशिष्टता’ नाम की किसी वस्तु की उत्पत्ति को स्वीकार करना ही व्यर्थ है । न चैतस्याम् इसमें कोई प्रमाण भी नहीं है कि ‘विशेष्य में विशेषण के द्वारा विशिष्टता नाम की किसी वस्तु की उत्पत्ति होती है’ । पू० प० नन्वनुपकार्य 484 विशेषण वही हो सकता है जो ‘विशेष्य का कोई ‘उपकार’ कर सके । विशेष्य में केवल विद्यमान रहने से ही विशेषण नहीं हो जाता । यदि ऐसा स्वीकार करे तो भूतल रूप विशेष्य का जैसे कि घट विशेषण है, उसी प्रकार भूतल में रहने वाले प्रमेयत्वादि उसके विशेषण हो जायगे । इस अतिप्रसङ्ग को हटाने के लिए मानना होगा कि विशेष्य में विद्यमान रहकर जो उसके किसी उपकार का संपादन कर सके वही ‘विशेषण’ है । यह ‘उपकार’ विशेष्य में ‘विशिष्टता’ नाम की वस्तु के उत्पादन को छोड़कर और कुछ नहीं है । अतः किन्हीं दो वस्तुनों में विशेष्यविशेषण भाव को स्वीकार करने के लिए दोनो में उपकार्य - उपकारभाव का मानना भी आवश्यक है । इसका पर्यवसान ही विशेष्य में विशेषण से विशिष्टता नाम की वस्तु के उत्पादन को स्वीकार करने में होती है । अतः ‘विशिष्टता’ प्रमाणिक नहीं है । सि० प० व्यवच्छित्तिप्रत्यायनेन विशेष्यविशेषणभाव के लिए उपकार्योपकारकभाव का स्वीकार करना आवश्यक नहीं है, विशेषण का प्रयोजन है विशेष्य को उसके सजातीयों से पृथक् रूप में समझाना, स्व १. ‘म चा ज्ञातेषु’ इत्यादि सन्दर्भ के द्वारा ‘विशेष्य में विशेषण के द्वारा विशिष्टता नाम की कोई वस्तु उत्पन्न होती है’ इस पक्ष के बाघक युक्तियों का प्रदर्शन किया गया है । किन्तु इस प्रसन में कहा जा सकता है कि यदि उक्त पक्ष प्रमाण के द्वारा सिद्ध है, तो फिर सहस्रों बाधक उसको धन्यथा नहीं कर सकते । इसलिये प्राचार्य ने ‘न चैतस्याम्’ यह सन्दर्भ लिखा है । अर्थात् उक्त सिद्धान्त के बाधक प्रमाण ही केवल नहीं है किन्तु साधकप्रमाण का अभाव भी है। CCO. Vasishtha Tripathi Collection. Digitized by eGangotri१०० गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जलौ ज्ञाततैवोपाधिरिति चेत् ? में स्वेतर भिन्नत्व की बुद्धि ही ‘व्यवच्छिसि अथवा ‘व्यवच्छेद’ है । भूतल का घट रूप विशेषण अपने आश्रयीभूत भूतल प्रदेश को घटशून्य अन्य प्रदेशों से विलक्षण रूप से उपस्थित करता है । यह कार्य भूतल में रहने वाले घट के द्वारा ही हो सकता है, उसी में रहने वाले प्रमेयत्वादि घर्मो के द्वारा नहीं । क्यों कि प्रमेयत्वादि तो व्यवच्छेद्य स्वरूप घट शून्य प्रदेशों में भी हैं । 9 कहने का अभिप्राय यह है कि ‘व्यवच्छिति’ प्रत्यय को उत्पन्न करना ( व्यवच्छिति - प्रत्ययजनकत्व ) ही ‘विशेषण का लक्षण है । यह लक्षण कथित घटादि में हैं, अतः वे विशेषण हैं, प्रमेयत्वादि में नहीं है, अतः वे भूतल के विशेषण नहीं हैं । यह काम तो विशेष्य में विशेषण के सम्बन्ध को मान लेने से ही अच्छी रीति से सम्पन्न हो सकता है। इसके लिए विशेष्य में विशेषण के द्वारा विशिष्टता नाम के किसी पदार्थ की उपत्ति की स्वीकार करना आवश्यक नहीं हैं । ‘अन्यथा’ यदि विशेषण का विशेष्य में सम्बन्ध के रहते हुये भी वह अपने व्यच्छिति- प्रत्यय’ रूप कार्य को न कर सके तो फिर उक्त ‘विशिष्टता’ को स्वीकार करने पर भी यह प्रश्न उपस्थित होगा कि यह ‘विशिष्टता’ अपने आश्रयी भूत विशेष्य में व्यवच्छित्तिप्रत्यय रूप ‘उपकार’ का सम्पादन ही किस प्रकार करेगी ? यदि विशेष्य में उस विशिष्टता के द्वारा भी किसी अतिरिक्त वस्तु की उत्पत्ति मानेंगे तो ‘अनवस्था’ होगी । यदि ‘विशिष्टता’ विशेष्य में किसी अतिरिक्त वस्तु के उत्पादन के बिना भी यदि ‘व्यवच्छित्ति’ प्रत्यय रूप अपने कार्य का संपादन कर सकती है, तो फिर विशेषण भी विशेष्य में केवल अपने सम्बन्ध से ही व्यवच्छित्ति प्रत्यय का उत्पादन कर सकता है, इसके लिये विशेषण से विशेष्य में ‘विशिष्टता’ नाम के किसी पदार्थ के उत्पादन को स्वीकार करना अनावश्यक है । पू० प० ज्ञाततैव 0-00 घटज्ञान के बाद ‘ज्ञातो घट:’ इस आकार की प्रतीति को सभी मानते हैं । ऐसी स्थिति में ऐसा मानना होगा कि धारावाहिकज्ञानों में से जो पहिला ज्ञान है, उसमें भासित होनेवाले घट में ज्ञातता नहीं है। अतः यह घटज्ञान ज्ञातता से रहित घट विषयक है । द्वितीयादि ज्ञानों में भी यद्यपि वही घट मासित होता है, उस समय घट में प्रथमज्ञान से ज्ञानता की उत्पत्ति हो गयी रहती है से युक्त घट विषयक हैं। प्रथमज्ञान के द्वितीयदिज्ञान ‘ज्ञातता’ रूप मनवगत ज्ञातताओं का मान होता है, एक है प्रथमज्ञानजन्य ज्ञातता जो द्वितीयज्ञान में भासित होने के कारण ‘अवगत’ है। दूसरी है द्वितीयज्ञानजन्य ज्ञातता जो पहिले से अवगत नहीं है । । अतः द्वितीयादि ज्ञान प्रथमज्ञान से उत्पन्न ज्ञातता द्वारा केवल घट ही अवगत है, ज्ञातता नहीं । छात विषयक हैं । इसी प्रकार तृतीयज्ञान में दो ज अ अ घ न ho त से स जा स्म पूर्व स २.
3 चतुर्थ स्तबक! ५०१ न, निराकरिष्यमाणत्वात् । तत्सद्भावेऽपि वा स्मृतेरपि तथैव प्रामाण्यप्रसङ्गात् । जनकागोचरत्वेऽप्युत्तरोत्तरस्मृतौ पूर्वपूर्वस्मरणजनितज्ञातताऽवभासनात् । अतः तृतीयज्ञान भी अनवगत विषयक है ही । इसी प्रकार धारावाहिक चतुर्थादि ज्ञानों में अनवगत विषयकत्व का सम्पादन करना चाहिये । अतः प्रमा का ‘अपूर्वदृक्त्व’ लक्षण धारावाहिकज्ञानों में अव्याप्त नहीं है । ’ न, निराकरिष्यमाणत्वात् १ ) ( पहिली बात यह है कि ज्ञातता नाम की कोई वस्तु ही नहीं है ) ज्ञातता ही मागे (श्लोक ३ ) खण्डनीय है । तत्सद्भावेऽपि … … यदि ज्ञातता की रूप अनविगत विषय का सत्ता को स्वीकार भी करलें, एवं उक्त द्वितीयादि ज्ञानों में ज्ञांतता भान मान कर उनमें प्रामाण्य का सम्पादन करें, तो फिर इसी रीति से स्मृति में भी प्रामाण्य को स्वीकार करना होगा । अर्थात् उक्त अपूर्वहत्व रूप प्रमा लक्षण स्मृति में प्रतिव्याप्त हो जायगा । २ जनकागोचरत्वेऽपि … .. ( मीमांसक कह सकते हैं कि उक्त अतिव्याप्ति दोष नहीं है, क्योंकि नियमानुसार स्मृति में उतने ही विषय भासित हो सकते हैं, जिनका पूर्वानुभव में भान हो चुका हो । पूर्वानुभव में ज्ञातता का भान नहीं होता, अतः स्मृति में ज्ञातता का भान हो ही नहीं सकता । अतः स्मृति ज्ञातता रूप अनविगत विषयक नहीं है, किन्तु पूर्वानुभव के द्वारा ज्ञात १. इस सन्दर्भ का ‘उपाधि’ पद का अर्थ है ‘अनधिगत विषयत्व का प्रयोजक विशेष धर्म’ । अर्थात् ‘ज्ञतता’ ही धारावाहिकज्ञानों में ‘अनधिगत विषयत्व’ का प्रयोजक विशेष धर्म है । २. अप्रिय यह है कि अनुभव के द्वारा पहिले जो विषय ज्ञात रहता है, स्मृति उसी विषय की होती है । अतः स्मृति के जितने भी विषय होंगे वे सभी पूर्वानुभव के विषय होने से ज्ञातता से भी अवश्य युक्त होंगे। किन्तु यह ‘ज्ञातता’ पूर्वानुभव के द्वारा ज्ञात नहीं रहती है। अतः एतद्विषयक स्मृति रूप ज्ञान अनवगतार्थं विषयक हो जायगी । अतः जिस स्मृति में प्रमात्व के वारण के लिये आप प्रमा के लक्षण में अगृहीतग्राहित्व विशेषण देते है, प्रमात्व लक्षण की वह प्रतिव्याप्ति उक्त विशेषण देने पर भी है ही । अतः उक्त विशेषण को हो चैयर्थ्य हो जायगा ।
५०२ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जलौ अस्तु वा प्रत्यक्षे यथा तथा, गृहीतविस्मृतार्थंश्रुतौ का वार्ता ? अप्रमैवाऽसा- विति चेत्; गतमिदानीं वेदप्रामाण्यप्रत्याशाया ? विषयक ही है । अतः स्मृति अनधिगत विषयक नहीं है, इस लिये स्मृति में प्रमा लक्षण को प्रतिव्याप्ति नहीं है । किन्तु यह समाधान भी ठीक नहीं है क्योंकि— उत्तरोत्तरस्मृती …
जिस प्रकार धारावाहिक अनुभव होता है, उसी प्रकार स्मृति की भी धारा होती है । एवं जिस अनुभव के बल पर अनुभव के विषय में अनुभव से ज्ञातता का उत्पत्ति माननी पड़ती है, उसी प्रकार अनुभव के बल पर हो स्मृति के विषय में स्मृति से ’ स्मृतता’ (रूप ज्ञातता) की उत्पत्ति भी माननी होगी। इससे धारावाहिक स्मृतियों की जो दूसरी तीसरी स्मृतियां होंगी, उनमें प्रमा लक्षण की अतिव्याप्ति होगी । क्योंकि ये स्मृतियाँ भी ’ स्मृतता’ रूप ज्ञातता विषयक हैं । यह स्मृतता पूर्व से ज्ञात नहीं है । अतः यदि ज्ञातता के द्वारा धारावाहिक द्वितीयस्मृति में अतिव्याप्ति के वारण का प्रयास करेंगे, तो धारावाहिक स्मृति की द्वितीयादिस्मृतियों में अतिव्याप्ति हो जायगी । (३) अस्तु वा … … जिस श्रुति से एकबार शाब्दबोध हो चुका है, बाद में उस श्रुति का अर्थ विस्मृत भी हो जाता है। फिर उसी श्रुति के सुनने से पुरुष को उस श्रुति के अर्थ का प्राथमिक ही बोध होता है । यह द्वितीय बोध मी ‘प्राथमिक शाब्दबोध’ हो है, अतः उसमें प्रगृहीतग्राहित्व घटित प्रमा लक्षण की अव्याप्ति अनिवार्य है । पू० प० भ्रप्रमेव सा •~ उक्त द्वितीय प्राथमिकज्ञान ‘मप्रमा’ ही है, अतः प्रमा लक्षण का वह लक्ष्य ही नहीं है, फिर अव्याप्ति कैसी ? सि० प० गतम् आशा को छोड़ ही देनी उचित होगी । एवं वेद नित्य हैं । आत्मा भी नित्य है । तो फिर मीमांसकों को वेद प्रामाण्य की क्योंकि उनके मत से संसार अनादि एवं अनन्त है, ऐसी स्थित में जिस समय जिस पुरुष को ‘स्वर्ग कामो यजेत’ इस वाक्य से बोध होगा, उससे पूर्व भी उसी विषय का उसी प्रकार का बोध अवश्य हुआ रहेगा । फलतः श्रुतियों से होनेवाले सभी बोध ‘गृहीतग्राही’ ही होंगे। अतः वेदार्थ विषयक सभी बोध प्रप्रमा हो जायेंगे | अतः वेद के प्रामाण्य की आशा छोड़ देनी होगी ।
६ T न ET T त
से हो चतुर्थः स्तवक। १०३ न ह्यनादौ संसारे ‘स्वर्गकामो यजेते’ ति वाक्यार्थः यजेते’ ति वाक्यार्थः केनचिन्नावगतः । सन्देहेऽपि प्रामाण्यसन्देहात् । न च तत्रापि कालकलाविशेषाः परिस्फुरन्ति । न चैकजन्मावच्छेदपरिभाषयेदं लक्षणम् । सन्देहेऽपि 134 ) ( यदि मीमांसक ऐसा कहें कि यह कोई निश्चित नहीं है कि जिस पुरुष को जिस समय स्थर्य का बोध होगा, उससे पूर्व भी उस पुरुष को श्रुत्यर्थं विषयक बोध अवश्य हुआ होगा | अतः श्रुत्यर्थं विषयक सभी बोधों में अगृहीतग्राहित्व सन्दिग्ध है, निर्णीत नहीं । इसका यह समाधान है कि मीमांसकों के मत से सृष्टि चूकि अनादि है, एवं वेद और बात्मा दोनों ही नित्य हैं, अतः प्रत्येक व्यक्ति के वेदार्थं विषयक बोध में यह सन्देह अवश्य होगा कि ‘इसका विषय कदाचित् पूर्वं ज्ञात न हो, इस व्यक्ति को कदाचित पहिले भी इसका ज्ञान म हो गया हो। जिसका निश्चय जिसके निश्चय का कारण होता है, उसका संशय भी उसके संशय का कारण होता है । अर्थात् व्याप्य का संचय व्यापक के संशय का कारण होता हैं अतः घूम का संशय भी वह्नि संशय का ( जैसे कि घूम का निश्चय वह्नि के निश्चय का कारण है, कारण होता है ) । प्रकृत में ज्ञान में अगृहीतग्राहित्व का निश्चय यदि ज्ञान में प्रमात्व निश्चय का कारण है, तो ज्ञान में प्रगृहीतग्राहित्व का संशय भी ज्ञान में प्रमात्व के संशय को अवश्य ही उत्पन्न करेगा | न च तत्रापि ……… ( यदि यह कहें कि जिस प्रकार धारवाहिक ज्ञानों के अन्तर्गत द्वितीयादि ज्ञानों में स्वाश्रयीभूत काल रूप अनवगत विषय के परिस्फुरण से अगृहीतग्राहित्व का सम्पादन कर आये हैं, उसी प्रकार वेदार्थं विषयक इन शाब्दबोधों में भी स्वाश्रयीभूतं काल के परिस्फुरण से ही प्रगृहीतग्राहित्व का संपादन कर लेंगे, तो सो भी संभव ) नहीं होगा, क्योंकि ‘स्वर्गकामो- यजेत’ इत्यादि शब्दजनित बोधों में स्वर्गादि विषयों के आश्रयीभूत काल का परिस्फुरण अनुभव के विरुद्ध है । न चेक । एक पुरुष की एकजन्म की अवधि में जो प्रमाज्ञान उत्पन्न होता है, ‘अगृहीत ग्राहित्व ’ उसी प्रमाज्ञान का लक्षण किया गया है । अतः सृष्टि की अनादि होने से जो अन्य जन्म के सप्तद्वेदार्थं विषयकज्ञान से इस जन्म के वेदार्थ विषयकज्ञान में गृहीतग्राहित्व की कोई सम्भावना नहीं है’ ) । १. अर्थात् एतज्जन्मावधिक एतद्वयक्ति के एतद्विषयक प्रमाज्ञान का लक्षण है, एसइबकि का एतज्जन्मावधिक एतद्विषयक ज्ञाना गृहीत बियकरव । अतः अन्यजन्म के वेदार्थ विषयकबोध से इस जम्म के वेदार्थ विषयकबोध में गृहीतग्राहित्य की आपत्ति नहीं दी जा सकती ।
१०४ गद्यपद्यात्मक - न्यायकुसुमाञ्जली तत्राप्यनुभूतविस्मृतवेदार्थं प्रति अप्रामाण्यप्रसङ्गात् । कथं तर्हि स्मृतेव्यं- वच्छेदः ? । अननुभवत्वेनैव । यथार्थो ह्यनुभवः प्रमेति प्रामाणिकाः पश्यन्ति । ‘तत्त्वज्ञानात्’ इति सूत्ररणात् । ‘अव्यभिचारिज्ञानमिति च । यह समाधान भी उचित नहीं है, क्योंकि (१) पहिली बात यह है कि एकजन्म के प्रमाज्ञान के लिये प्रमा का एक लक्षण करना ही अनुचित है । दूसरी बात यह है कि यदि ऐसा मान भी लिया जाय, तथापि यह कहने का अवसर है कि जिस पुरुष को इसी जन्म में अनुभूत वेदार्थ रूप विषय का विस्मरण इसी जन्म में हो गया है, उस व्यक्ति को वेदों में अप्रामाण्य की प्रापत्ति होगी ही । अतः प्रमा के लक्षण में मगृहोंत ग्राहित्व रूप विशेषण देना ही अनुचित है । पू० प० कथं तहि यदि प्रमा के लक्षण में अगृहीत प्राहित्व विशेषण न देंगे, तो स्मृति में प्रमात्व व्यवहार का प्रतिरोध कैसे होगा ? सि० प० ‘अननुभवस्वेनैव स्मृति चूकि अनुभव से भिन्न है, केवल इसी से उसमें प्रमात्य का व्यवहार नहीं होता है । तद्वति तत्प्रकारकानुभवत्व ही प्रमा का लक्षण प्रामाणिकों को अभिप्रेत है । क्योंकि महर्षि गौतम ने प्रथम सूत्र में ‘तत्त्वज्ञानात्’ इस वाक्य का एवं ‘इन्द्रियार्थ संनिकर्षोत्पन्नम् ’ इत्यादि प्रत्यक्षसूत्र में ‘अव्यभिचारिज्ञानम्’ इस वाक्य का प्रयोग किया है। १. ‘अननुभवत्वेनैव’ इत्यादि सम्दर्भ के द्वारा आचार्य ने श्लोक के तीसरे चरण की व्यक्या आरम्भ की है। कहने का अभिप्राय है कि प्रथम सूत्र के द्वारा तत्वज्ञान से निःश्रेयस के अधिगम की बात कही है। निःश्रेयस है मोक्ष । एवं प्रागे ‘दुःख जन्म प्रवृति’ इत्यादि सूत्र के द्वारा तत्वज्ञान से मोक्ष की उत्पत्ति क्रम का उपपादन करते हुये महर्षिने कहा है कि ज्ञान से मिथ्याज्ञान का नाश होता है, एवं मिथ्याज्ञान के नाश से दोष, प्रवृत्ति, जन्म इनके नाश क्रम से दुःखनिवृत्ति रूप मोक्ष की उत्पत्ति होती है। इससे यह फलित होता है कि बम्ध के कारणीभूत ज्ञान चूँकि मिथ्या हैं- अयथार्थ हैं, अतः तरणज्ञान से उनका नाश होता है । तदभागावि तम्प्रकारकतुभवास्व ही अयथार्थता है। वज्ञान को इस अयथार्थज्ञान का विरोधी अवश्य होना चाहिये | अतः ‘तत्वज्ञान’ अर्थात् वहसितस्प्रकारकतुभवा ही यथार्थज्ञान है । चेन्न व्यव पु० अन है ? एवं सि मी के प्र सत्ता स्मृति ‘पर के प्र न र नुभव स्मृति व अति
चतुर्थः स्तबक ५०५ ननु स्मृतिः प्रमैव किं न स्यात् ? यथार्थज्ञानत्वात्, प्रत्यक्षाद्यनुभूतिवदिति चेन्न । सिद्धे व्यवहारे निमित्तानुसरणात् । न च स्वेच्छाकल्पितेन निमित्तेन लोकव्यवहारनियमनम्; अव्यवस्थया व्यवहारविप्लवप्रसङ्गात् । पु० प० ननु यदि ( तद्वतितत्प्रकारक ज्ञान रूप ) यथार्थज्ञान ही प्रमा है ( प्रमा के लक्षण में अनधिगत विषयस्व का देना आवश्यक नहीं हैं ) तो फिर ‘स्मृति’ भो यथार्थज्ञान क्यों नहीं है ? क्योंकि कुछ स्मृतियां भी प्रत्यक्षादि मनुभवों के समान ही तद्वति तत्प्रकारक होतीं हैं । एवं ज्ञान तो वे हैं ही । सि० प० न, सिद्धे व्वहार के अनुसार ( प्रवृत्त) ‘निमित्त’ की कल्पना की जाती है। यदि स्मृति में मी प्रामाणिक गण ‘प्रमा’ पद का प्रयोग रूप व्यवहार करते, तो प्रभा पद के इस प्रकार के प्रवृत्तिनिमित्त की कल्पना की जा सकती थी, जिससे उस प्रवृत्तिनिमित्तभूत धर्म की सत्ता स्मृति में भी रहे। जिससे स्मृति में भी प्रमा पद का व्यवहार हो, किन्तु प्रमाणिकगण स्मृति से भिन्न तद्वतितत्प्रकारक अनुभव में ही प्रमा पद का व्यवहार करते आये है । यदि ‘परम्परा व्यवहार’ रूप ‘व्यवस्था’ को स्वीकार न कर अपनी इच्छा के अनुसार ही पदों के प्रवृत्तिनिमित्त की कल्पना करें तो लोक व्यवहार में विप्लव उपस्थित हो जायगा । मत प्रभा पद के ऐसे ही प्रवृत्तिनिमित्त की कल्पना करनी पड़ती है, जो स्मृतियों में न रहे, एवं यथार्थ प्रत्यक्षादि अनुभवों में रहे। वह प्रवृतिनिमित्त धर्म है ‘तद्वति तत्प्रकारका - नुभवस्व’ रूप । तद्वतितत्प्रकारकतुभवत्व रूप यह प्रमा पद का प्रवृत्तिनिमित्त धर्म चूकि स्मृतियों में नहीं है, अत: उनमें प्रमा पद का व्यवहार नहीं होता है। क्योंकि स्मृति में तद्वतितत्प्रकारकत्व के रहने पर भी अनुभवत्व नहीं है। अतः स्मृति में प्रमा लक्षण की अतिव्याप्ति ( अगृहीतग्राहित्व के न देने पर भी ) नहीं है । इसी प्रकार कथित ‘श्रव्यभिचारि विशेषण से भी प्रमाज्ञान का उक लक्षण अभिप्रेत जान पड़ता है। जो विशेषण विशेष्य में न रहे, उस विशेष्य में विशेषया का ज्ञान ही ‘व्यभिचारि’ ज्ञान है। इसका पर्यवसान तदभावावति तत्प्रकारकत्व में होता है । इससे स्पष्ट है कि गौतमादि ‘प्रामाणिक’ गण तद्वति तत्प्रकारकज्ञान को ही यथार्थज्ञान मानते हैं, क्योंकि तत्वज्ञान को मिथ्याज्ञान का विरोधी होना चाहिये । यह तभी हो सकता है जब कि प्रमाज्ञान को सद्वति तत्प्रकारकज्ञान रूप माना जाय । ६४
५०६ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली न च स्मृतिहेतौ प्रमाणाभियुक्तानां महर्षीणां प्रमारणव्यवहारोऽस्ति, पृथगनुपदेशात् । उक्तेष्वन्तर्भावादनुपदेश इति चेन्न । प्रत्यक्षस्यासाक्षात्कारिफलत्वा- नुपपत्तेः, लिङ्गशब्दादेश्च सत्तामात्रेरण प्रतीत्यसाधनत्वादिति । तद्यथ व्यव नित्य न च स्मृति हेती ( प्रश्न रह जाता है कि प्रमाणिकगण स्मृति में प्रभा पद का प्रयोग ( व्यवहार ) नहीं करते हैं - इसमें क्या प्रमाण है ? इसका यह उत्तर है कि स्मृति में भी प्रमा पद का व्यवहार यदि महर्षियों को अभीष्ट रहता तो वे स्मृति रूप प्रमा के करणभूत प्रमाण का मी स्वतन्त्र रूप से उल्लेख करते । चूंकि उन्होंने ऐसा नहीं किया है, अतः यह समझना सरल है कि वे स्मृति में प्रमा पद का व्यवहार वे नहीं करते थे । अतः स्मृति प्रमा नहीं है । पू० प० उक्तषु …. प्रमा के जिन ‘करणों’ का महर्षियों ने उल्लेख किया है, उन्हीं कारणों से स्मृति रूप प्रमा की भी उपपत्ति हो जायगी । श्रतः उन्होंने स्मृति रूप प्रभा के करणों का अलग से उल्लेख नहीं किया है । प्रत: स्मृति के करणीभूत प्रमाणों के स्वतन्त्र रूप से उल्लेख न रहने से स्मृति में प्रमात्व का निराकरण नहीं हो सकता । सि० प० न, प्रत्यक्षस्य … महर्षि ने प्रत्यक्षादि जिन चार प्रमाणों का उल्लेख किया है, उनमें से किसी से भी स्मृति की उपपत्ति नहीं हो सकती। स्मृति परोक्षाकारक होती है, प्रत्यक्ष प्रमाण से परोक्षाकारक ज्ञान नहीं उत्पन्न होता, अतः प्रत्यक्ष प्रमाण से स्मृति की उत्पत्ति नहीं हो सकती। अनुमान और शब्द ये दोनों ही प्रमाण स्वयं ज्ञात होकर ही अपने प्रपने फल रूप प्रमा ज्ञानों का उत्पादन करते हैं । स्मृति में पूर्वानुभव को छोड़कर अन्य किसी ज्ञान की अपेक्षा नहीं होती है। अतः अनुमान घोर शब्द इन दोनों में से भी किसी के करण से स्मृति की उत्पत्ति नहीं हो सकती । उपमान प्रमाण से तो स्मृति की उत्पत्ति संभव ही नहीं है, क्योंकि उससे तो केवल ‘शक्तिज्ञान’ ही उत्पन्न होता है । प्रत्यक्षादि प्रमाणों से चूंकि स्मृति की उत्पत्ति संभव नहीं है, मतः महर्षि के स्मृति रूप प्रभा के लिये स्वतन्त्र रूप से किसी प्रमाण के समझा जा सकता है कि स्मृति में वे प्रमा पद का व्यवहार नहीं करते थे । अनुल्लेख से यह माप एवं के द्व विषय अतः यथा गत जोह कार पूर्वानु उसके ही नहीं भी नहीं पू० रूप सि पे किय में होग
स्ति, त्त्वा- र ) का का ना रूप से इने मी से हो ना हीं हीं ल ह चतुर्थ स्तबक ! १०७ एवं व्यवस्थिते ततेऽपि । यदियमनुभवेकविषया सती तन्मुखनिरीक्षणेन तद्यथार्थत्वायथार्थत्वे अनुविधीयमाना तत्प्रामाण्यमव्यवस्थाप्य न यथार्थतया व्यवहतु शक्यत इति । व्यवहारेऽपि पूर्वानुभव एव प्रमितिरनपेक्षत्वात् । न तु स्मृतिः, नित्यं तदपेक्षरणात् । प्रसमीचने ह्यनुभवे स्मृतिरपि तथैव । नन्वेवमनुमानमप्यप्रमाण- मापद्येत, मूलप्रत्यक्षानुविधानात् । न । विषयभेदात् । एवं स्थिते यद्यपि उक्त ( चतुर्थ चरण की व्याख्या ) रीति से स्मृति में अप्रभात्व की सिद्धि की जा चुकी है, तथापि ‘तर्क’ के द्वारा भी स्मृति में अप्रभाव की उपपत्ति इस प्रकार की जा सकती है कि स्मृति में वे ही विषय भासित होते हैं, जिनका मान उसके कारणी भूत पूर्वानुभव में हो चुका रहता है । अतः पूर्वानुभव यदि प्रमात्मक होगा, तभी तज्जनित स्मृति प्रभा होगी। इसलिये स्मृति की यथार्थता या प्रमात्व पूर्वानुभव की यथार्थता के अधीन है । (स्मृति के प्रभात्व में जो पूर्वानुभव गत यथार्थत्व की अधीनता है, वही स्मृति का अपनी यथार्थता के लिये पूर्वानुभव का मुंह जोहना है ) । सुतराम किसी स्मृति में तब तक प्रभाव स्थिर नहीं हो सकता, जब तक कि उसके कारणीभूत पूर्वानुभव का प्रभात्व स्थिर न हो जाय। इस प्रकार चूकि स्मृति का प्रभाव पूर्वानुभव के प्रभाव के प्रधीन है, अत: स्मृति में जो प्रभा पद का व्यवहार या प्रयोग होगा, उसके लिए भी पूर्वानुभव का प्रामाण्य अपेक्षित होगा । अतः स्मृति के मूलभूत पूर्वानुभव में ही प्रमात्व एवं प्रभा पद का प्रयोग (व्यवहार) उचित है, पूर्वानुभव सापेक्ष स्मृति में नहीं । एवं अनुभव यदि ‘असमीचीन’ रहेगा अप्रमात्मक रहेगा, तो उससे होने वाली स्मृति भी प्रप्रमा ही होगी । सुतराम् स्मृति चूकि नियमतः पूर्वानुभव को अपेक्षा रखती है, अंतः प्रमा नहीं हो सकती । पू० प० नन्वेवमनुमानम् इस प्रकार तो अनुमिति भी प्रमा न रह जायगी, क्योंकि उसे भी किसी न किसी रूप में प्रत्यक्ष प्रमा की अपेक्षा अवश्य होती है । सि० प० न, विषय धनुमिति में हेतु प्रभृति के प्रत्यक्ष की ही अपेक्षा होती है, साध्य विषयक प्रत्यक्ष की छपेक्षा नहीं होती हैं । स्मृति के प्रामाण्य में पूर्वानुभव के प्रामाण्य की जिस अपेक्षा का वर्णन किया गया, वह इससे भिन्न प्रकार की है । क्योंकि स्मृति जिस विषय की होती है, स्मृति मैं प्रामाण्य के लिए उसी विषय के पूर्वानुभव के प्रामाण्य की अपेक्षा होती है । अतः माननां होगा कि ज्ञान गत प्रमात्व के लिये जिस ‘अनपेक्षत्व की चर्चा की गयी है वह स्वाम्यूनानतिरिक्त-
१०५ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली आगमस्तर्हि न प्रमाणं, तद्विषयमानान्तरानुविधानात् । न । प्रमातृभेदात् । धारावाहिकबुद्धयस्तर्हि न प्रमारणम्, ग्राद्यप्रमारणानुविधानात् । विषय का किसी दूसरे ज्ञान में रहने वाले प्रमात्व के प्रयोजकत्व की अनपेक्षा स्वरूप ही है । अतः अनुमिति में प्रमात्व की कोई अनुपपत्ति नहीं है । पू० प० श्रागमस्त हि उक्त रीति से यद्यपि अनुमिति में प्रमात्व की अनुपपत्ति का उद्धार हो सकता है, फिर भी ‘भागम’ जनित ज्ञान ( शाब्दबोध ) में ‘मप्रमात्व’ की आपत्ति हो जायगी । क्योंकि श्रोता को जिस विषयक जैसा ज्ञान होता है, उसी विषय का वैसा ही ज्ञान वक्ता को पहिले से रहता है, क्योंकि उसी के अनुसार वह शब्द का प्रयोग करता है । अतः श्रोता में पुरुष गत शाब्दबोध का प्रभाव उच्चारयिता पुरुषगत बोध में रहने वाले प्रमात्व के अधीन है । क्योंकि उच्चारयिता का बोध अगर यथार्थ है, तो श्रोता का बोध भी यथार्थ होता है । यदि उच्चारयिता का बोष अयथार्थ रहता हैं, तो धोता का बोध भी भयथार्थ ही होता है । अतः श्रोतागत बोघ अर्थात् शाब्दबोध का प्रमात्व चूकि उच्चारयिता पुरुष के बोध में रहने वाले प्रमात्व के अधीन है, अतः शाब्दबोध अप्रमा है । एवं प्रमा का करण नहीं होने से भागम प्रमाण नहीं रह जाता है । तस्मात् उक्त सापेक्षश्व प्रमात्व का विघटक नहीं है, अथवा उक्त अनपेक्षत्व प्रमात्व का साधक नहीं है । सि० प० न, प्रमातृभेदात् किन्तु श्रोता में होने • होती है, वह बोष रूप उच्चारयितृगत ऐसी बात नहीं है, क्योंकि स्मृति के पूर्वानुभव को सापेक्षत्व एवं शान्धबोध में उच्चारयिता गत बोध की सापेक्षता इन दोनों में बड़ा अन्तर है । जिस पुरुष में स्मृति की उत्पत्ति होती है, उसी पुरुष में उत्पन्न पूर्वानुमत्र को सापेक्षता ही स्मृति में रहती है, वाले जिस ( शाब्द) बोध को स्वसमान विषयक दूमरे बोध की अपेक्षा उच्चारयिता पुरुष में रहता है । अतः प्रयोग रूप शाब्दवत्र एवं प्रयोजक बोध दोनों के भाश्रय भिन्न हैं । तत्पुरुष में रहने वाले तद्विषयक बोध के प्रमात्व का प्रयोजक तो उसी पुरुष में रहने वाले उसी विषयक बोध निष्ठ प्रमात्व का अनपेक्षता ही है। इस प्रकार की प्रनपेक्षता शाब्दबोधादि में है, अतः वे प्रमा है, उक्त अनपेक्षता स्मृति में नहीं है, अतः वे प्रमा नहीं हैं । पू० प० घारावाहिक बुद्धयः ** तब तो धारावाहिक ज्ञान के अन्तर्गत जो द्वितीयादि बुद्धियाँ हैं, उनमें अप्रमात्व की प्रापत्ति होगी। क्योंकि धारावाहिक ज्ञान का पहिला ज्ञान अगर यथार्थ (प्रमा) होता है, तो तदन्तर्गत मागे के ज्ञान भी प्रमा होते हैं, अन्यथा नहीं । अतः प्रथमज्ञान रूप माद्य ‘प्रमाण’ अर्थात् प्रमा, में रहने वाला प्रमात्व — उसका मनु-विधान (अनुगमन) द्वितीयादि ज्ञानों के प्रमात्व में है। एवं प्रथम ज्ञान एवं द्वितीयादि ज्ञान सभी समान विषयक एवं समान पुरुषीय भी है । अतः उक्त ‘अनपेक्षत्व’ प्रमात्व का प्रयोजक नहीं हो सकता ।
|- क में न चतुर्थः स्तबक | ५०६ न । कारण विशुद्धिमत्रापेक्षया प्रथमवदुत्तरासामपि पूर्वमुख निरीक्षणाभावात् । कारणबलायातं काकतालीयं पौर्वापर्यंमिति । यदि हि स्मृतिर्न प्रमितिः, पूर्वानुभवे किं प्रमारणम् ? सि० प० कारणविशुिद्धि … … … जहां प्राथमिक ज्ञान की रहने से उत्तरोत्तरक्षणों में धारावाहिक ज्ञानों की उत्पत्ति उस स्थिति में होती है, सामग्री अनेक क्षणों तक रहती है । उन क्षणों में उस सामग्री के एक ही प्रकार के ज्ञानों की परम्परा उत्पन्न होती है। ज्ञानों की यह परम्परा ही धारावाहिक ज्ञान कहलाती है । इनमें प्रथमज्ञान की प्रपेक्षा द्वितीयादि ज्ञानों को नहीं है । अतः जिस प्रकार धारावाहिक ज्ञानों के अन्तर्गत प्राथकिक ज्ञान अपने कारणों की विशुद्धि से ही प्रभा है; तदन्तर्गत द्वितीयादिज्ञान भी अपने अपने कारणों की विशुद्धि से ही प्रमा हैं । ( अर्थात् विशुद्ध कारणों से उत्पन्न होने से ही वे प्रमा हैं ) । अतः जिस प्रकार उक्त प्राथमिक ज्ञान अपनी प्रमात्व के लिये किसी दूसरे ज्ञान के प्रमात्व की अपेक्षा नहीं रखता है, उसी प्रकार द्वितीयादि ज्ञान भी अपने प्रमात्व के लिये किसी ज्ञान के प्रमात्व की अपेक्षा नहीं रखते ।
- तब रही बात धारावाहिक ज्ञानों के अन्तर्गत सभी ज्ञानों में नियमित पौर्वापर्य के क्रम की उसका यह उत्तर है कि काकतालीयन्याय से उक्त सभी ज्ञानों के कारणों का सम्बलन उतने समय तक रहता है, अतः ज्ञानों का पौक्रम भी बना रहता है । इससे उन ज्ञानों में से कोई किसी का कारण या कार्य नहीं है । जिन क्षण में जिस ज्ञान की सामग्री सम्बलित होगी, उसके अव्यवहिततोत्तर क्षण में उस ज्ञान को उत्पत्ति होगी । अतः धारा- वाहिक ज्ञान के प्रति द्वितीयादि ज्ञानों में ममास को प्रापत्ति नहीं है ।
- पू० प० यदि हि
- स्मृति भी अवश्य ही प्रमा है । क्योंकि प्रभावकज्ञान से ही वस्तु की सिद्धि होती है । स्मृति का आकार हैं ‘सः अथवा ‘स एवयम्’ इत्यादि । स्मृति से कारणीभूत पूर्वानुभव के विषय में ‘तत्ता’ की सिद्धि होती है । ‘तता’ अतीन अनुभव की विषयता रूप है । अनुभव के समय उसके विषय में यह ‘वत्ता’ नहीं थी । अतः स्मृति में जिन घटादि विषयों का भान होता है, वे यद्यपि पूर्वानुभव के विषय हैं, किन्तु स्मृति में भासित होने धर्म है ( अर्थात् ) गतीतानुभव विषयत्व रूप धर्म है- वह पूर्वानुभव से ‘तत्ता’ रूप अज्ञात विषयक होने के कारण स्मृति भी प्रमा है ।
- वाली जो ‘तत्ता’ रूप
- ज्ञात नहीं है । अतः
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- CCO. Vasishtha Tripathi Collection. Digitized by eGangotri५१०
- गद्यपद्यात्मक-न्यायकुंसुमाञ्जली
स्मृत्यन्यथाऽनुपपत्तिरिति चेन्न । तया कारणमात्रसिद्ध ेः । न तु तेनानुभवेनैव भवितव्यमिति नियामकमस्ति । अननुभूतेऽपि तर्हि स्मरणं स्यादिति चेत् ; यदि ऐसा न हो तो इसमें प्रमाण ही क्या है ? कि स्मृति से पहिले पूर्वानुभव है ही । क्योंकि वस्तु की सिद्धि प्रमात्मक ज्ञान से ही होती है । स्मृति से पूर्वानुभव की सिद्धि तभी हो सकती है, जब कि स्मृति प्रमा हो । स्मृति में चूकि ’ तत्ता’ में अन्तःप्रविष्ट ‘पूर्वानुभव’ भी विषय होता है, इसी लिये स्मृति से पूर्वानुभव की सिद्धि होती है । प्रतः स्मृति भी प्रमा है । सि० प० स्मृत्यन्यथा चूंकि स्मृति कार्य है, अतः उसका कोई कारण भी अवश्य है । वह कारण पूर्वानुभव ही है । अत: स्मृति रूप कार्य की उत्पत्ति हो जाती है, तो उससे पूर्वानुभव रूप कारण की सिद्धि होती है । स्मृति से पूर्वानुभव की सिद्धि के लिये स्मृति के प्रमात्व की अपेक्षा नहीं है । पू० प० न, तया स्मृति के कार्यत्व से तो इतना ही सिद्ध होता है कि ‘उसका कोई कारण है’ उससे यह सिद्ध नहीं होता कि ‘वह कारण पूर्वानुभव ही है’ ’ सि० प० अननुभूतेऽपि … १ यदि स्मृति के प्रति पूर्वानुभव को कारण न मानें तो प्रननुभूत विषयों को भी स्मृति होने लगेगी । अतः स्मृति के प्रति पूर्वानुभव को कारण मानना आवश्यक है । ऐसी स्थिति में स्मृति में प्रमात्व को माने विना ही स्मृति रूप कार्य से पूर्वानुभव रूप कारण की सिद्धि हो सकती है । इसके लिए स्मृति को प्रमा मानना व्यर्थ है । 6. जहाँ ज्ञान में विषय विधया भासित होने से विषय की सिद्धि होती हैं, वहाँ ज्ञान के प्रभाव की भी आवश्यकता होती है । किन्तु जहाँ ज्ञान हेतु विधया वस्तु का ज्ञापक होता है, वहाँ ज्ञान के प्रमात्व की आवश्कता नहीं होती है। क्योंकि भ्रमात्मक ज्ञान रूप कार्य से भी तो उसके कारणीभूत वस्तु का अनुमान होता है । प्रकृत में जब यह सिद्ध नहीं है कि ‘स्मृति पूर्वानुभव का कारण है’ उस स्थिति में स्मृति से जो पूर्वानुभव की सिद्धि होगी, वह ‘सत्ता के द्वारा पूर्वानुभव का स्मृति में भान होने से ही हो सकता हैं, इसके लिये स्मृति में प्रमात्व का मानना आवश्यक नहीं है ।
चतुर्थः स्तबक ५११ कि न स्यात् । न ह्यत्र प्रमाणमस्ति । पूर्वानुभवाकारोल्लेखः स्मृतेदृश्यते, सोऽन्यथा न स्यादिति चेत्; तत्कि बौद्धवद्विषयाकारान्यथाऽनुपपत्त्या विषय- सिद्धिस्त्वयाऽपीष्यते, तथाभूतं ज्ञानमेव वा तत्सिद्धि: ? । कान्ति- कत्वम् । न हि यदाकारं ज्ञानं तत्पूर्वकत्वं तस्येति नियमः अनागतज्ञाने विभ्रमे च व्यभिचारात् । पू० प० किं न किसी वस्तु की सिद्धि केवल बाधक के न रहने से ही नहीं हो जाती । उसके लिए अलग से साधक प्रमाण की भी आवश्यकता होती है। स्मृति में यदि अननुभूत वस्तु के मान का ज्ञापक कोई प्रमाण रहे, तो अननुभूत विषयक का भी भान स्मृति में हो सकता है । किन्तु सो नहीं है, अतः स्मृति में पूर्वानुभव को कारण न मानने पर केवल किसी बाघक के न रहने से ही स्मृति में पूर्वाननुभूत विषय का भान नहीं हो सकता । सि० प० पूर्वानुभवाका रोल्लेख ‘सः’ यह स्मृति के मान का आकार है, उसी का अभिलाप ‘स’ पद से होता है । अतः यह मानना होगा कि स्मृति में ’ तत्ता’ का मान अवश्य होता है । पूर्वानुभव की विषयता ही ‘तत्ता है । ऐसी स्थिति में स्मृति से पहिले यदि पूर्वानुभंत्र नियमतः नहीं रहेगा, तो स्मृति में पूर्वानुभव की विषयता रूप ‘तत्ता’ का मान उपपन्न नहीं होगा । अतः यह माना जाता है कि स्मृति जिस विषय की होगी, उससे पूर्व उसी विषय का पूर्वानुभव भी भवश्य रहेगा । इस रीति से जो स्मृति के पहिले पूर्वानुभव की सिद्धि होती है, उसके लिये स्मृति को प्रमा होने की आवश्यकता नहीं है । पू० प० तत्किम् बोद्धे गण ज्ञान में विषयाकार की अनुपपत्ति से जो विषय की सांवृत सत्ता को स्वीकार करते हैं । क्या आपलोग (स्मृति को अप्रमा मानने वाले नैयायिकादि ) भी ऐसा ही मानते हैं ? (२) अथवा विषय के भान को ही विषय की सिद्धि समझते हे ? ore प्रथम पक्ष का तात्पर्य यह है कि स्मृति से पहिले पूर्वानुभव की सत्ता के बिना स्मृति में यदि पूर्वानुभवाकार ( तत्ता ) का उल्लेख सम्भव नहीं है, इसीलिये स्मृति से पहिले पूर्वानुभव की सत्ता की स्वीकृति आवश्यक हो तो क्षणिक विज्ञानवादी बौद्धमतावलम्बी हो जाना पड़ेगा । उन लोगों का कहना है कि विज्ञान से भिन्न घटादि किसी भी वस्तु की अपनी पृथक् ‘सत्ता’ नहीं है ? विज्ञान में घटादि विभिन्न विषयों के प्राकार संपादन के
५१२ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली द्वितीये तु स्मृतिप्रामाण्यमवर्जनीयम् । मा भूत्पूर्वानुभवसिद्धिः, कि नरिछन्न- मिनि चेत्; न तर्हि स्मृत्यनुभवयोः कार्यकारणभाव सिद्धिरिति । न । तदप्रामाण्येऽपि पूर्वापरावस्थावदात्मप्रत्यभिज्ञातप्रामाण्यादेव तदुपपत्तेः । 1 1 लिये घटादि विषयों की संवृत सत्ता को वे स्वीकार कर लेते हैं । इस रीति के अनुसार स्मृति से पूर्व पूर्वानुभव की सिद्धि इस प्रकार होगी कि तद्विषयक अनुभव अवश्य था, क्योंकि स्मृति पूर्वानुभवाकारक होती है । जो ज्ञान जिस वस्तु के श्राकार का होता है, वह वस्तु उस ज्ञान से पहिले प्रवश्य रहती है । जैसे कि घटानुभव से पहिले घट रहता है । स्मृतेः पूर्वम् तद्विषय- यकानुभवोऽवश्यमस्ति तम्विना स्मृतेः पूर्वानुभवाकारानुपपत्तेः, यद्धि ज्ञानम् यद्विषयाकारकम् भवति तज्ज्ञानात्पूर्वम् तद्विषयी भूत वस्त्ववश्य मस्ति, यथा घटज्ञानात् पूर्वम् घटादि, इस अनुमान का हेतु अनैकान्तिक है प्रर्थात् व्यभिचारी है । क्योंकि ‘घटो भविष्यति’ इस सनागत विषयक ज्ञान से पहिले घट की सत्ता नहीं रहती है। अथवा यह नियम भी नहीं है कि शुक्ति में रजत की भ्रान्ति से पहिले रजत की सत्ता अवश्य रहती है । अतः उक्त हेतु के द्वारा स्मृति से पहिले स्मृति में विषयी भूत पूर्वानुभव की सिद्धि नहीं हो सकती । द्वितीये ……. यदि ‘विषय की सिद्धि’ उस ‘विषय’ का ‘ज्ञान’ रूप ही हो, तो फिर पूर्वानुभव विषयक स्मृति ही पूर्वानुभव विषयक स्मृति रूप है । किन्तु तव तो स्मृति में प्रमात्व का मानना अनिवार्य होगा । क्योंकि प्रभाज्ञान विषयसिद्धि रूप ही है । प्रमात्मक ज्ञान विषयसिद्धि रूप नहीं है, क्योंकि पहिले विषय की सत्ता के न रहने पर भी तद्विषयक भ्रमात्मक ज्ञान की उत्पत्ति होती है । अतः स्मृति को जब तक प्रमा न मानी जाय, तब तक स्मृति से पहिले नियमतः पूर्वानुभव की सत्ता सिद्ध नहीं की जा सकती । सि० प० मा भूत स्मृति से पूर्व यदि नियमतः पूर्वानुभव की सिद्धि नहीं होगी, तो इस से हम लोगों को क्षति ही कौन सी होगी ? पृ० प० न तर्हि यदि तद्विषयक स्मृति से पहिले तद्विषयक अनुभव की सत्ता की सिद्धि नहीं होगी, तो स्मृति एवं पूर्वानुभव इन दोनों में जो कार्यकारणभाव सर्वजन सिद्ध है; वह विघटित हो जायगा । सि० प० तदप्रामाण्येऽपि 800 .1. स्मृति में प्रमात्व के न रहने पर भी उससे पूर्व नियमतः तद्विविषयक अनुभव का रहना सिद्ध हो सकता है। क्योंकि स्मृति के बाद ‘योsहमन्वभवममुमर्थं सोऽहमिदानीं स्मरामि’ इस ग्रा भे श्रा अ हो प्र त ए सि ही वि त भ ई f व क्ष U क
चतुर्थ - स्तबकः ५१३ ‘योऽहमन्वभवममुमंर्थं सोऽहं स्मरामी ‘ति मानसप्रत्यक्षमस्तीति । न च गृहीत- ग्राहित्वमीश्वरज्ञानस्य; तदीयज्ञानान्तरागोचरत्वाद्विश्वस्य । न च तदेव ज्ञानं काल- भेदेनाप्रमारणम्; अनपेक्षत्वस्यापरावृत्तेः । तथापि वा प्रप्रामाण्येऽतिप्रसङ्गादिति ॥ १ ॥ आकार का प्रत्यभिज्ञा रूप यथार्थं अनुभव उत्पन्न होता है । इस प्रत्यभिज्ञा से जिस प्रकार अनुभवितृत्व रूप पूर्वावस्था से युक्त एवं स्मर्त्तृस्व रूप अपरावस्था से युक्त आत्मा की सिद्धि होती है; उसी प्रकार स्मृति में विषय होने वाले पूर्वानुभव की भी सिद्धि होती है । क्योंकि उक्त प्रत्यभिज्ञा में पूर्वानुभव के द्वारा विषयीभूत अर्थ में स्मृति की विषयता भो भासित होती है । तस्मात् केवल अनुभव में प्रमात्व को स्वीकार कर लेने से ही, स्मृति में प्रमात्व के न मानने पर भी, तद्विषयक पूर्वानुभव में स्मृति की नियतपूर्वात्तता की सिद्धि हो सकती है। इससे स्मृति एवं पूर्वानुभव में जो कार्यकारणभाव सर्वसिद्ध है, उसमें भी कोई बाधा नहीं आती है । सि० प० न च गृहीतग्राहित्वम् ईश्वर का ज्ञान ‘गृहीतग्राही’ है ही नहीं। यदि प्रमा को अग्रहीतग्राही होना आवश्यक मान ही लें तथापि ईश्वरज्ञान में प्रप्रमात्व की आपत्ति नहीं दी जा सकती। क्योंकि ईश्वर को सभी विषयों का एक ही अखण्डज्ञान है । गृहीतग्राहित्व तत्पुरुषीयत्व घटित है । अर्थात् तत्पुरुषीय तद्विविषयक प्रमाज्ञान में तत्पुरुषोय तद्विविषयक किसी दूसरे ज्ञान में विषयीभूत किसी पदार्थ का भासित न होना ही प्रगृहीतग्राहित्व है । ईश्वर को जब किसी विषय का दूसरा ज्ञान है ही नहीं, तो फिर उनके किस विषय के दूसरे ज्ञान के द्वारा गृहीत विषयक होने के कारण ईश्वर का ज्ञान गृहीतग्राही होगा ? सि० प० न च तदेवज्ञानम् ( इस प्रसङ्ग में मीमांसक कह सकते हैं कि जो ज्ञान प्रथम क्षण में अगृहीत ग्राही है, वही ज्ञान दूसरे क्षण में गृहीतग्राही हो सकता गृहीतग्राही हो सकता है। क्योंकि द्वितीय क्षण में वह विषय प्रथम क्षणवत ज्ञान के द्वारा गृहीत हो चुका रहता है । इस प्रकार हम लोगों की तरह ईश्वर का मी एक ही प्रखण्डज्ञान गृहीतग्राही होने के कारण अप्रमा हो सकता है । अतः हम लोगों की तरह ईश्वर में भी अनाश्वास की सम्भावना विद्यमान है। इसका यह उत्तर है कि ) यह सम्भव नहीं है कि एक ही ज्ञान एक ही क्षण में प्रमा हो और दूसरे क्षण में वही ज्ञान प्रप्रमा हो जाय । क्योंकि आप ( मीमांसक ) प्रमात्व में जिस ‘अनपेक्षत्व’ को प्रयोजक मानते है, वह द्वितीय क्षणवत ज्ञान में भी है ही । अतः एक ही ज्ञान विभिन्न क्षणों में प्रमा और प्रत्रमा दोनों नहीं हो सकता । ६५
५१४ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली स्यादेतत् । अनुपकारकं विषयस्य तदीयमेतदीयं वा न भवितुमर्हत्य विशेषात् । न च तस्येत्यनियतं तत्र प्रमाणमतिप्रसङ्गात् । न च तदभिज्ञमन्तरेण तदुपकार- स्योपत्तिः, तथाऽनभ्युपगमात्। अभ्युपगमे वा, कार्यत्वस्यानैकान्तिकत्वात् । ‘तथापि’ अर्थात् प्रथम क्षण में विद्यमान ‘स्व’ रूप ज्ञान के द्वारा गृहीत विषयक होने के कारण द्वितीय क्षणवति उसी ज्ञान में प्रप्रमात्व की सम्भावना हो तो सभी अपनी स्थिति क्षण रूप द्वितीय क्षण में प्रमा होंगे। फलत! सभी ज्ञानों में प्रमात्व एवं प्रप्रमात्व एतदु भयापत्ति रूप ‘प्रतिप्रसङ्ग’ होगा । अतः इश्वरीय ज्ञान में अप्रमात्व की सम्भावना नहीं ॥१॥ पू० प० स्यादेतत्, अनुपकारकस् … ज्ञान से विषय में ‘ज्ञातला’ नाम की एक वस्तु की उत्पत्ति अवश्य माननी होगी । ऐसा मानने पर धारावाहिक बुद्धि में प्रगृहीतग्राहित्व घटित प्रमा लक्षण की अव्यामि हट जाती है। क्योंकि ऐसा सार्वजनीन अनुभव है कि ‘घट ही घटज्ञान का विषय है, पट नहीं । यदि घट में घटज्ञान से किसी ‘उपकार विशेष’ ( ज्ञातता का आधान रूप ) न हो तो ‘घटज्ञान घट विषयक ही हैं, पट विषयक नहीं” इस नियम का प्रयोजक कौन होगा ? घट ज्ञान में घट के ही समान पट का भी कोई सम्बन्ध तो है ही । अतः घट ज्ञान से घट में एक ‘ज्ञातता’ नाम की वस्तु की उत्पत्ति माननी होगी । जिस से यह कहना सम्भव हो कि ‘घट में ज्ञातता को उत्पन्न करने वाला ज्ञान घट विषयक ही हो सकता है, पटादि विषयक नहीं । ( स्व निष्ठ ज्ञताता जनकत्व ही ज्ञान में स्व विषयकत्व का नियामक है ) । फलतः घटज्ञानीय घट में रहने वाली विषयता घटज्ञान से उत्पन्न ज्ञातता का आश्रयत्व रूप है । यह प्राश्रयता पट में नहीं है, अतः पट में घटज्ञान की विषयता नही है । इस प्रकार घटज्ञान से घट में ‘ज्ञावता’ रूप कार्य की उत्पत्ति के स्थित हो जाने पर यह पूछना है कि कार्यत्व हेतु से मित्यादि में जो ‘सकर्तृत्व’ का अनुमान रूप ज्ञान होता है, उसके बल से ‘ज्ञातता’ रूप कार्य में भी ‘सकर्तृकत्व’ की सिद्धि होनी चाहिये। क्योंकि तभी कार्यस्व मौर सकतकत्व की व्याप्ति स्थिर रह सकती है । यदि कार्यत्व रूप हेतु की प्राश्रयीभूत ज्ञातता में सकर्तृकत्व रूप साध्य न रहे तो उक्त नियम व्यभिचरित हो जायगा । किन्तु ज्ञातता में यदि सकत कित्व को स्वीकार करेंगे तो ‘अनवस्था’ होगी। क्योंक्ति ‘सकर्तृकत्व’ है ‘उपादानगोचरा परोक्षज्ञान चिकीर्षा कृतिम जन्यत्व’ रूप ( घट में कुलालक कत्व इसी लिये घट के उपादान कारण कपालों का अपरोक्षज्ञान, ‘कपालेन घटं कर्तुं ‘मिच्छामि’ इस धाकार की चिकीर्षा एवं तदनन्तर कृति; कुलाल इन तीनों से युक्त है । इस लिये कुलाल जन्यत्व घट में है । घट बनाने के लिये जलादि जुटानेवाला पुरुष भी यद्यपि घट का कारण अवश्य है, किन्तु उसका ‘कर्ता’ रूप कारण वह नहीं है, क्योंकि उस में घट के उपादान के उक्त अपरोक्षज्ञानादि नहीं है ) । है हि ज्ञ फे हो ई सि क अ अ य उं घ प घ भ ‘ज्ञ ह
1 अत्रोच्यते-
चतुर्थः स्तबकं दुर्घटः । स्वभावनियमाभावादुपकारोऽपि सुघटत्वेऽपि सत्यर्थेऽसति का गतिरन्यथा ॥ २॥ ५१५ ऐसी स्थिति में घट में उत्पन्न होने वाले ज्ञातता रूप कार्य में सकर्तृकत्व की रक्षा के लिये उक्त ज्ञातता के उपादानभूत घट की जन्यता का मानना आवश्यक है । किन्तु घटज्ञान से जब घट में ज्ञातता की उत्पत्ति हो जायगी, तब वह ज्ञान घट विषयक हो सकेगा । अतः उक्त उपादान ज्ञान रूप घटज्ञान में घटविषयकत्व नियम की उपपत्ति उससे आगे उत्पन्न होनेवाले ज्ञातता से नहीं हो सकती । अतः इस घटविषयक ज्ञान में घटविषयकत्व के नियम की उपपत्ति के लिये दूसरे घटज्ञान से उत्पन्न होनेवाली दूसरी ही ज्ञातता माननी होगी । ऐसा स्वीकार करने पर द्वितीय ज्ञातता के कारणीभूत द्वितीय घट विषयक ज्ञान में भी उक्त शक्ता उत्पन्न होकर अनवस्था में परिणत हो जायगी । तस्मात् अवश्य स्वीकर्तव्य उक्त ज्ञातवता के द्वारा ईश्वर के साधक उक्त अनुमान प्रमाण की सत्ता संकटापन्न हो जायगी । सि० प० स्वभावनियमाभावात् …….. ( कारिका ) इस प्रसङ्ग में हम लोग कहते हैं कि ‘घटज्ञान की विषयता घट में ही रहे’ इस नियम की उपपत्ति के लिये ज्ञान से विषय में ‘ज्ञातवा’ नाम की वस्तु की उत्पत्ति को स्वीकार करना आवश्यक नहीं है । क्योंकि घटज्ञान में ही ऐसे ‘स्वभाव’ की कल्पना करेंगे कि ‘घंट ज्ञांन अवश्य ही घटविषयक हो, उसी से घटज्ञान में घटविषयकत्व की उपपत्ति हो जायगी । यदि उक्त ‘स्वभाव’ को स्वीकार न करें तो ‘ज्ञातता’ के प्रसङ्ग में भी यह अभियोग उपस्थित होगा कि ‘घटज्ञान से घट में ही ज्ञातता की उत्पत्ति क्यों हो ? पट में भी घटज्ञानं से ‘ज्ञातता’ की उत्पत्ति क्यों न हो ? इस अभियोग के उत्तर में यही कहना पड़ेगा कि ‘घटज्ञान का यही ‘स्वभाव’ है कि वह घट में ही ‘ज्ञातता’ का उत्पादन करे, घटज्ञान का ऐसा स्वभाव स्वीकार करने की प्रपेक्षा इसी कल्पना में लाघव है कि ‘घटज्ञान प्रवश्य ही घट विषयक हो’ वा ‘घटज्ञानीयविषयता अवश्य ही घट में रहे’ इस के लिये ‘ज्ञातता’ को स्वीकार करने की आवश्यकता नहीं है । यदि शांतता की उपपत्ति किसी प्रकार ‘सुघट’ भी हो तो वह वर्तमान विषय में हो होगी, अतीत का विषय में नहीं’ । १. अभिप्राय यह है कि चूंकि घटज्ञान वर्त्तमान घट विषयक भी होता है, प्रतीत घट विषयक भी। वर्त्तमान पट विषयक जो ज्ञान है, वह कदाचित् ‘ज्ञातता’ का प्राधान कर भी सकता है, किन्तु अतीत घट विषयक जो ज्ञान हैं, वह ज्ञातता का प्रधान किस विषय में करेगा ?
५१६ गद्यपद्यात्मक-न्याय कुसुमाञ्जली विशेषाभावात्तत्रैव फलं नान्यत्रेत्येस्यापि नियमस्यानुपपत्तेः । स्वभावनियमेन चोपपत्तौ तथैव विषयव्यवस्थोपपत्तेः । अवश्यञ्च तदनुमन्तव्यम्, प्रतीतादिविषयत्वा- नुरोधातु । न हि तत्र ज्ञानेन किञ्चित् क्रियत इति शक्यमवगन्तुम्, असत्त्वात् । अतः ज्ञातता की सिद्धि हो जब नहीं हो सकती, तब ईश्वरानुमान में तन्मूलक विघटन का प्रयास व्यर्थ है । सि० प० विशेषाभावात् यदि ‘स्वभाव नियम’ रूप ‘विशेष’ को स्वीकार न करें तो ‘घटज्ञान से घट में हो ज्ञातता की उत्पत्ति हो, पट में नहीं’ इस नियम की भो उपपत्ति न हो सकेगी । श्रत। घटज्ञान के इस ‘स्वभाव नियम’ को स्वीकार ही करना होगा कि ‘घटज्ञान से घट में ही ज्ञातता की उत्पत्ति हो ‘पट में नहीं’। अगर यह नियम मानना ही है तो फिर तुल्य युक्ति से घटज्ञान का ही यह ‘स्वभाव’ रूप ‘नियम’ विशेष माना जा सकता है कि ‘घटज्ञान का विषय घट ही हो’ । इस नियम को स्वीकार कर लेने से ही ज्ञातता से होनेवाले ‘विषयनियम’ रूप कार्य की भी उपपत्ति हो जायगी । इस के बाद ‘ज्ञातता’ को स्वीकार करने की कोई श्रावश्यकता नहीं रह जायगी । सि० प० प्रवश्यश्च ( कारिका के उत्तरार्द्ध की व्याख्या ) 700 000 ज्ञातता के मानने पर भी ‘विषयनियम’ के लिये ‘घटज्ञान घट विषयक ही हो’ ऐसा नियम मानना ही होगा। क्योंकि व्यतीतादि अवर्तमान घट विषयक ज्ञान में ‘विषयनियम’ की उपपत्ति ‘ज्ञातता’ के द्वारा नहीं हो मकतो | क्योंकि ‘धर्म’ को उत्पत्ति में ‘धर्म’ भी एक कारण है । प्रतः प्रतीतादि घट विषयक ज्ञान से ज्ञातता रूप धर्म की उत्पत्ति नहीं हो सकती, क्योंकि अतीतादि धर्म रूप कारण की सत्ता वहाँ नहीं है । इस स्थिति में प्रश्न यह होता है कि वर्तमान घट विषयक ज्ञान की विषयता घट में इस लिये है कि घटज्ञान जनित ज्ञातता का वह घाश्रय है । किन्तु अतीवादि घट विषयक ज्ञानीय विषयता अतीतादि घटों में हो रहे - फलतः ‘प्रतीतादि घट विषयक ज्ञान अतीतादि घट विषयक ही हो’ इस नियम का प्रयोजक कौन होगा ? इस प्रश्न के उत्तर में यहो कहना पड़ेगा कि ‘ज्ञतीतादि घट विषयक ज्ञान का यह ‘स्वभाव’ ही है कि वह ‘प्रतीतादि घट विषयक हो हो’। इस प्रकार का ‘नियम’ जब मानना ही पड़ता है तो फिर यह सामान्य नियम हों क्यों नहीं स्वीकार कर लेते कि ‘सभी घट विषयक ज्ञानों का यही स्वभाव है कि वे घट विषयक ही हों’ इस सामान्य नियम से ही सभी घट विषयक ज्ञानों में घट विषयकत्व की उपपत्ति हो जायगी, ज्ञातता को स्वीकार करने की क्या मावश्यकता है ? प्रा रस पू ज्ञा की से जा 55 सि अ नि अ में हो पू लि प अ की सि ‘र १.
चतुर्थः स्तबकः ५१७ न च तद्धर्मसामान्याधारं किञ्चित् क्रियत इति युक्तम्; तेन तस्यैव विषयत्व- प्राप्तेः । तादात्म्याद्विशेषस्यापि सैव ज्ञाततेति चेत् ; तत्कि चक्षुषा घटे ज्ञायमाने रसोऽपि ज्ञायते, तादात्म्यात् ? पू० प० न च तद्धर्म घट विषयक सभी ज्ञानों में घटत्वादि धर्म भी विषय होते हैं । अतीतघट विषयक ज्ञान के समय घट की सत्ता भले ही न रहे, किन्तु घट में विशेषण होने वाले घटत्वादि धर्मो की सत्ता अवश्य रहती है । उन घटत्वादि विशेषणों में ही ज्ञातता की उत्पत्ति होगी, उसी से अतीत अथवा भविष्यत्कालिक घटविषयक ज्ञानों में भी ‘विषयनियम’ की उपपत्ति हो जायगी । इस के लिये ‘घटज्ञान घट विषयक ही हो’ इस दूसरे नियम को मानने की आवश्यकता नहीं है । ● सि० प० तेन तस्यैव 0:0 … ज्ञातता को स्वीकार कर जो नियम उपपन्न होता है, उसका प्राकार इस प्रकार का है ‘जो ज्ञान जिस विषय में ज्ञातता को उत्पन्न करे, वह ज्ञान उस विषय का अवश्य हो’ । तदनुसार प्रतीत घट विषयकज्ञान से यदि घटत्व में ज्ञातता की उत्पत्ति स्वीकार करेंगे, तो इससे यही नियम निष्पन्न होगा कि ‘प्रतीतघट विषयक ज्ञान अवश्य ही घटत्व विषयक हो’ किन्तु अतीतघट विषयक ज्ञान में अतीतघटविषयकत्व का नियम भी तो है— उसकी उपपत्ति घटत्व में ज्ञावता के भाषान से नहीं हो सकती । वह तो अतीतघट में ज्ञातता के भाधान से ही हो सकती है । किन्तु प्रतीत घट में ज्ञातता का आधान संभव ही नहीं है । पू० प० तादात्म्यात् धर्म एवं धर्मी दोनों अभिन्न हैं । प्रत: घट और घटत्व ये दोनों ही प्रभिन्न हैं । इस लिये घट में रहनेवाली ज्ञातता और घटत्व में रहनेवाली ज्ञातता ये दोनों भी अभिन्न हैं । अतः जो ज्ञान घटत्व में ज्ञातता का प्राधान करता है, वही ज्ञान घट में भी ज्ञातता का आधान अवश्य करता है । इस प्रकार प्रतीतादि घट विषयक ज्ञानों में भी घटविषयकत्व नियम की कोई अनुपपत्ति नहीं है । सि० प० तत्किम् तो क्या जिस समय चक्षु से घट स्वरूप धर्मों का ज्ञान होता है, उस समय घट के ‘रस’ स्वरूप धर्म का भी प्रत्यक्ष होता है ’ । १. धर्म एवं धर्मी ये दोनों यदि अभिन्न रहें, इस अभेद के कारण यदि धर्म के ग्रहण से धर्मी का भी ग्रहण हो जाय, तो फिर तुल्प युति से धर्मी के ग्रहण से धर्म का भी ग्रहण मानना होगा । ऐसा मानने पर घट के चातुष प्रत्यक्ष से सद्गत रस का भी चाक्षुष प्रत्यक्ष मानना होगा । छतः धर्म और धर्मी न एक हैं, न दोनों में से किसी एक के ग्रहया से छूपरे का ग्रहण हो सकता है।
1 ५१८ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली घटाकारेण ज्ञायत एवासौ रसः इति चेत् । अथ रसाकारेण किं न ज्ञायते ? | तेन रूपेण ज्ञातताऽनाधारत्वादिति चेत् । पू० प० घटाकारेण ……. धर्म प्रोर धर्मी ये दोनों जब एक हैं, तो यह मानना होगा कि घटादि धर्मियों के दो आकार हैं। एक ‘स्व’ रूप घटादि आकार, एवं दूसरा धर्म रूप रसादि आकार । इन में चक्षु से जब ‘स्व’ रूप के आकार का ग्रहण होता है, तब चक्षु से हो तद्गत रस रूप धर्म का भी अनुभव अवश्य होता है । एवं जिस समय रसनेन्द्रिय से रस का ग्रहण होता है तो रसना से रसाकार से घट का ग्रहण भी अवश्य होता है । इनमें घटा कारक जो घट का ग्रहण होता है वह ‘घटग्रहण’ कहलाता है, एवं रसाकारक जो रस का ग्रहण होता हैं, वह रस प्रहण कहलाता है । इसीलिये चाक्षुष घटग्रहण को रसग्रहण नहीं कहा जाता है | अतः रसाकारक रस का चाक्षुष ही अनुपपपन्न है, घटाकारक रस का चाक्षुष अनुपपन्न नहीं है । तस्मात् उक्त दोष नहीं है । । सि० प० अथ रसाकारेल……… घट एवं उसमें रहनेवाला रस ये दोनों जब एक हैं, तब जिस प्रकार चक्षु से घंट का ‘घट’ इत्याकारक ग्रहण होता है, उसी प्रकार चक्षु से ही ‘रस’ इस आकार से ही घट का ग्रहण क्यों नहीं होता ? प्रथवा ऐसा कहिये कि चक्षुरान्द्रिय से उत्पन्न ‘घट’ इस प्रकार की बुद्धि से जैसे घट का ग्रहण होता है, उसी प्रकार चक्षु से ही उत्पन्न ‘घट’ इस आकार की बुद्धि से ही तद्गत रस का भी ग्रहण क्यों नहीं होता है ? अथवा रसनेन्द्रिय से “रस:’ इस आकार की जो प्रतीति होती है, उसी से घट का भी ग्रहण क्यों नहीं हो जाता ? अतः धर्म और धर्मी एक है ही नहीं । तस्मात् धर्म और धर्मी को एक मान कर जो समाधान किया गया है, वह ठीक नहीं है । पू० प० तेन रूपेण … ज्ञानविषयता की नियामिका है ज्ञातता । जिस रूप से युक्त होकर जो ज्ञातता का भाषार होता है, उसी रूप से वह ज्ञान का भी विषय होता है । जिस रूप से युक्त होकर जो जिस ज्ञान का विषय होगा, उस ज्ञान से सद्रूप विशिष्ट आकार की बुद्धि ही उसका ‘प्रहण’ कहलायेगा । प्रकृत में चक्षु से घट ग्रहण के द्वारा जिस ज्ञातता को उत्पत्ति होती है, उसका अधिकरण घटत्व रूप से घट एवं रस हैं ( पर्यात् उक्त घटज्ञान जन्य ज्ञातता का आधार यद्यपि रस भी है, किन्तु रस में जो ज्ञातता की अधिकरणता है, वह रसत्वावच्छिन्न नहीं है किन्तु घटत्वावच्छिन्न है। उक्त ज्ञान जन्य ज्ञावता की रस निष्ठ व्यधिकरणता का अवच्छेदक घटत्व ही है रसत्व नहीं। रस निष्ठा जो ज्ञातता की रसत्वावच्छिन्ना अधिकरणता है, वही ज्ञान में रसाकारत्व की नियामिका है । इसीलिये ‘घट’ इस प्राकार प्राक के ज्ञा इस श्र सि० ज्ञातत क्योंकि
चतुर्थः स्तबक न तहि वर्तमान सामान्यज्ञानेऽप्यतीतानागतादिज्ञानम्, प्राकट्यानाधारत्वादिति ॥ २ ॥ ५१8 तेनाकारेण के ज्ञान से रसाकार से तद्गत रस का ग्रहण नहीं होता है । किन्तु घट एवं रस चूकि ‘घट’ इस प्रकार के ज्ञान में भी है, अतः रस का भी भान अवश्य होता है । सि० प० न तर्हि " तब तो अतीत घट विषयक जिस ज्ञान से वर्तमान रूप सामान्य धर्म से युक्त घट में ज्ञातता का प्राधान होता है, उस मतीत घट विषयक ज्ञान से घट गृहीत नहीं हो सकेगा । क्योंकि वर्त्तमानत्व रूप से घट ज्ञावता अधिकरण नहीं है । १. 1. अभिप्राय यह है कि ‘जिस रूप से जो ज्ञातता का अधिकरण हो, वह अधिकरणीभूत वस्तु उस ज्ञातता के जनकी भूत ज्ञान में तद्रूपविशिष्ट प्राकार से ही भासित हो’ इस नियम को मान लेने पर अतीत घटादि विषयक ज्ञान के द्वारा अतीतस्व विशिष्ट घट अतीतत्वविशिष्ट घटाकार से गृहीत नहीं हो सकता, क्योंकि पहिले कहा जा चुका कि अतीतत्व विशिष्ट घट ज्ञातता का आधार हो ही नहीं सकता । उक्त ज्ञान के द्वारा अतीत घट का मान फेवल इस रीति से हो सकता है कि घट एवं घटत्व चू कि अभिन्न हैं, एवं घटत्व अतीत घट में भी हैं, अतः घटस्थ निष्ठः ज्ञातता के द्वारा भतीत घट के भान की उपपत्ति हो सकती है । किन्तु घटस्व चूँकि वर्तमान है, केवल इसी लिये वह ज्ञातता का अधिकरण है, तब घटत्व में जो ज्ञातता की अधिकरणता है, उसका भवच्छेदक भी वच मानत्व ही है, अर्थात् घटत्व में जो ज्ञानता की अधिकस्यता है, वह वर्त्तमानत्वावच्छिना है । युक्त घटत्व में जो ज्ञानता है, वर्तमानत्व सकता है । यह अलग विषय है कि वह अथवा घटत्व से अभिन्न घट रूप हो । भत। उक्त नियम के बल से वर्त्तमानत्व से रूप से ही विषय के भान का नियामक हो वर्तमानात्व विशिष्ट वस्तु घटत्व स्वरूप हो, तस्मात् उक्क रीति से ज्ञातता के. ‘विषयनियम’ में अतीत घटादि विषयक ज्ञान में म्यभिचार अवश्य होगा । चतः विषयनियम के लिये ज्ञातता का मानना अनावश्यक है । ● CCO. Vasishtha Tripathi Collection. Digitized by eGangotri५२० ननु गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली क्रियया कर्मरिण किश्चित् कर्त्तव्यमिति व्याप्तेरस्त्वनुमानम् ? | न, अनैकान्त्यादसिद्धर्वा न च लिङ्गमिह क्रिया । सबैशिष्ट्य प्रकाशत्वान्नाध्यक्षानुभवोऽधिके पू० प० क्रियया … … ॥ ३ ॥ ‘घटं जानाति’ यह प्रयोग सर्व सिद्ध है । इसमें घट है कर्म कारक । क्रिया से उत्पन्न फल से युक्त ही ‘कर्मकारक’ होता है । ‘ग्रामं गच्छति’ इस वाक्य में प्रयुक्त ग्राम इसी लिए कर्म कारक है कि गमन क्रिया से उत्पन्न ग्राम संयोग रूप फल का आधार है । ‘घट जानाति’ इस वाक्य में घट पद का अर्थ भी कर्मकारक है, अतः उसको ‘जानाति’ पद से वोष्य क्रिया से उत्पन्न किसी फल से युक्त होना ही चाहिये । यदि ऐसा न हो तो उक्त घट में कर्मता ही अनुपपन्न हो जायगी । अतः घट रूप विषय में ज्ञान क्रिया से जिस वस्तु की उत्पत्ति होगी, वही वस्तु है ‘ज्ञावता’ । इस से यह अनुमान निष्पन्न होता है कि जिस प्रकार गमन रूपा क्रिया अपने कर्मीभूत ग्राम में कर्तृ संयोग रूप फल का उत्पादन करती है, उसी प्रकार ज्ञान क्रिया भी कर्मीभूत अपने विषयों में किसी फल का उत्पादन अवश्य करती है । क्योंकि सभी ( सकर्मक ) क्रियायें अपने कर्म में किसी फल का उत्पादन अवश्य करतीं है । ( ज्ञानक्रिया स्वविषये किश्चित् फलमुत्पादयति क्रियात्वात्, या सकर्मिका क्रिया सा स्वकर्मणि किञ्चिदवश्यमुत्पादयति, यथा गमनक्रिया ) । वह किश्चित् फल ‘ज्ञातता’ ही है । सि० प० न, अनेकान्स्यादसिद्धेर्वा … 800 …. (पूर्वार्द्ध ) ( उक्त अनुमान वाक्य में जिस ‘क्रिया’ पद का प्रयोग किया गया है, वह ‘क्रिया’ क्या ‘घात्वर्थ’ रूप है ? अथवा चलनात्मक (स्पन्द ) रूप है ? यदि इन में प्रथम पक्ष अभिप्रेत हो, तो धनुमान का हेतु वाक्य ‘घस्वर्थत्वात्’ इस आकार का होगा । ( अर्थात् ज्ञान रूप क्रिया चूकि घात्वर्थ है, अतः अपने विषय में किसी वस्तु का उत्पादन अवश्य करती है ) । किन्तु ‘घास्वर्थत्व’ रूप क्रियास्व हेतु ‘विषयनिष्ठकिचिज्जनकस्व’ रूप साध्य का व्यभिचारी है । क्योंकि ‘गगनं सन्धापयति चैत्र।’ इस स्थल में धात्वर्थ है ‘शर का संयोग’, किन्तु उससे गगन में किसी वस्तु की उत्पत्ति नहीं होती है । अत: क्रियाजन्य फलशालित्व रूप कर्मत्व । गगन में नहीं है। इसी प्रकार ‘अन्त्यशब्दं जानाति चैत्र:’ इस स्थल में ज्ञान क्रिया से अन्त्यशब्द मैं ज्ञातता की सिद्धि हो ही नहीं सकती, क्योंकि प्रकृत में ज्ञातता का उपादानकारण होगा ‘अन्तिमशब्द’ । उपादान कारण को कार्य के उत्पतिक्षण पर्यन्त रहना आवश्यक होता है । किन्तु अन्तिम शब्द का विनाश उसकी उत्पत्ति के अध्यवहित उत्तर क्षण में ही हो जाता है । पतः ‘अन्तिम शब्द’ में भी क्रियात्व हेतु व्यचरित है । गग व्या का होती क्रिय क्रिय तद्वे इस प्रत्य भाि सिद्ध ‘अ प्रभु हो सि तो सन्ध Carf ही सि रूप जाय सि r
न 1 से स्व उद गा 1 चतुर्थः स्तवकः ५२१ घात्वर्थं मात्राभिप्रायेण प्रयोगे संयोगादिभिरनेकान्तात् । न हि शरसंयोगेन गगने किञ्चित् क्रियते, अन्त्यशब्दाभिव्यक्त्या वा । स्पन्दाभिप्रायेणासिद्धेः । व्यापाराभिप्रायेण शब्द लिङ्ग न्द्रियव्यापारैर्व्यभिचारात् । यदि उक्त ‘क्रिया’ पद का अर्थ ‘चलनात्मक स्पन्द’ रूप ‘क्रिया’ है, तो प्रकृतानुमान का हेतु ‘स्वरूपासिद्धि’ दोष से ग्रप्त हो जायगा । पक्ष में हेतु के न रहने से ‘स्वरूपासिद्धि’ होती है । प्रकृत में पक्ष है ‘ज्ञान’ उसमें वह ‘क्रियात्व’ नहीं रह सकता, । क्रिया ( स्पन्द ) में रहता है। जो चलनात्मक क्योंकि ज्ञान गुण पदार्थ है, कर्म पदार्थ नहीं । अतः उक्त क्रियास्व’ हेतु से ज्ञातता की सिद्धि महीं हो सकती । तद्वैशिष्टचप्रकाशत्वात् 186 … ( कोई कहते हैं कि ‘ज्ञातो घट:’ इस प्रकार का इस प्रत्यक्ष में ‘ज्ञातता’ विशेषण रूप से भासित होती है । प्रत्यक्ष सर्वसिद्ध है । एवं ज्ञातता का उक्त प्रत्यक्ष घट ज्ञान के बाद ही होता है । इस अन्वय व्यतिरेक से समझते हैं कि प्रत्यक्ष में इस प्रकार जो ज्ञातता को प्रत्यक्ष से ) ‘ज्ञातो घट:’ इस प्रकार के भासित होनेवाली ’ ज्ञातता’ घटज्ञान से उत्पन्न होती है । सिद्ध मानते हैं । उनके प्रतिपक्ष में यह कहना है कि ‘अध्यक्ष’ में प्रत्यक्ष में ‘ज्ञान’ का ही वैशिष्टय भासित होता है। उससे ‘अधिक’ ज्ञातता प्रभूति कोई भी धर्म भासित नहीं होता । अतः प्रत्यक्ष प्रमाण से ज्ञातता की सिद्धि नहीं हो सकती है । सि० प० धात्वर्थमात्राभिप्रायेण … 134 । यदि उक्त अनुमान वाक्य में प्रयुक्त ‘क्रिया’ पद से केवल घातु का अर्थ ही अभिप्रेत हो, तो उक्त अनुमान का हेतु ’ अनैकान्तिक’ अर्थात् व्यभिचारी होगा, क्योंकि घर संयोग रूप सन्धान से आकाश में किसी वस्तु की उत्पत्ति नहीं होती है । अथवा अन्तिम शब्द की ‘अभिव्यक्ति’ अर्थात् ज्ञान से अन्तिम शब्द में किसी की उत्पत्ति संभव ही नहीं है ( इन दोनों ही युक्तियों का उपपादन कारिका की व्याख्या में हो चुकी है ) । सि० प० स्पन्दाभिप्रायेण .. उक्त अनुमान वाक्य में प्रयुक्त ‘क्रया’ पद का अर्थ ‘स्पन्द’ अर्थात् चलनात्मक क्रिया रूप अभिप्रेत हो, तो उक्त अनुमान का हेतु ‘असिद्ध’ अर्थात् स्वरूपासिद्ध हेत्वाभास हो जायगा ( असिद्धि का उपपादन भी श्लोक को व्याख्या में हो चुका है ) । सि प० व्यापाराभिप्रायेण … (जो यह कहते हैं कि उक्त अनुमान वाक्य में जो ‘क्रिया’ पद प्रयुक्त हुआ है, उसका अर्थ हैं ‘व्यापार’ । ज्ञान भी एक ‘व्यापार’ है । व्यापार से ‘कर्मकारक’ में ‘कुछ’ अवश्य उत्पन्न ६६
५२२ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली न हि ते. प्रमेये किञ्चित् क्रियते, अपि तु प्रमातर्येव । फलाभिप्रायेणापि तथा । अन्ततस्तेनैवानेकान्तात्, अनवस्थानाच्च । ● होता है । जैसे कि गमन रूप व्यापार से ग्राम रूप कर्म कारक में संयोग रूप ‘किसी वस्तु ’ की उत्पत्ति होती है । इस दृष्टि से उक्त अनुमान से ‘विषय’ में ज्ञान रूप व्यापार’ से ‘ज्ञातवा’ की सिद्धि की जा सकती है। यह समाधानाभास इस लिये अयुक्त है कि )’ देवदत्तः घटं शब्दापयति, घटमनुमिनोति, घटम्पश्यति’ इत्यादि स्थलों में क्रमशः ‘शब्द’ का व्यापार है पदार्थोपस्थिति, अनुमान का व्यापार है परामर्श, एवं प्रत्यक्ष का व्यापार हैं इन्द्रिय संयोग– इनमें से कोई भी व्यापार घट रूप कर्म कारक में किसी वस्तु को उत्पन्न नहीं करता । किन्तु वे सभी व्यापार देवदत्त रूप प्रमाता में ही ज्ञान को उत्पन्न करते हैं । अतः ‘कर्मकारक’ का * व्यापार जन्य फलशालित्व’ रूप लक्षण ही कथित रीति से घट में प्रव्याप्ति एवं देवदत्त में अतिव्याप्ति के कारण अनुपपन्न है । सि० प० फलाभिप्रायेण ( किसी का कहना है कि उक्त अनुमान में जो ‘क्रिया’ पद प्रयुक्त हुआ है, उसका अर्थ है ‘फल’ । ‘घर्ट जानाति’ इस स्थल में ‘जानाति’ क्रिया से जो ‘ज्ञान’ रूप ‘फल’ उत्पन्न होता है, वही उक्त ‘क्रिया’ शब्द से अभिप्रेत है। इससे यह अनुमान निष्पन्न होता है कि ज्ञान रूप फल ज्ञेय में ‘किसी वस्तु’ को अवश्य उत्पन्न करता है, क्योंकि वह भी फल है । इस रीति से ज्ञातता के समर्थन में यह दोष है कि ) ‘एक फल से दूसरे फल की उत्पत्ति अवश्य हो’ इस नियम का कहीं विश्राम भी है? अथवा यह नियम निरवधि है? यदि इसको निरवधि मानेंगे तो अनवस्था होगी। यदि कहीं विश्राम देंगे तो विभान्ति स्थल रूप फल में उक्त अनुमान का हेतु व्यभिचरित हो जायगा । ’ १. शाम चूकि इन्द्रियादि व्यापार का फल है, केवल इसी लिये विषय में ज्ञातता रूप दूसरे फल को उत्पन्न करें, तो इस प्रसङ्ग में यह पूछना हैं कि इस ज्ञातता रूप फल से किसी तीसरे फल की उत्पति होती है या नहीं ? यदि उससे भी फलान्तर की सम्पति होती है तो फिर उसे तीसरे फल को भी किसी चतुर्थ फल का उत्पादक मानना होगा, इस प्रकार यह कल्पना धनवस्था में परिणत हो जायगी । यदि ज्ञातता रूप फल से किसी फलान्तर की उत्पत्ति नहीं मानते हैं, तो फिर यह नियम ही नहीं रह जाता कि ‘सभी फल फलान्तर के जनक अवश्य हो’ अतः ‘ज्ञानरूपं फलं स्व- विषय निष्ठकिञ्चित्फखान्तरोत्पादकम् फलत्वात्’ इस अनुमान का ‘फजत्व’ हेतु ही व्यभिचरित हो जाता है । यही अनैकान्तिक दोष प्रकृत सन्दर्भ के ‘तथा’ पद से कहा गया है, एवं ‘तेनैव’ पद से ज्ञातता रूप उस स्थल का निर्देश किया है, जहाँ तक फञ्चश्व हेतु व्यभिचरित होता है ।
f ( अ अ चतुर्थः स्तबंक प्राशुविना शिधर्माभिप्रायेण द्वित्वादिभिरनियमात् । सि० प० आशुविनाशि 11. ५२३ ( किसी का कहना है कि उक्त अनुमानवाक्य के ‘क्रिया’ पद का अर्थ है ‘आशु विनाशि धर्म’ अपनी उत्पत्ति से चौथे क्षण पर्यन्त जो न रह सके, वही प्रकृत में ‘प्राशु विनाथि’ शब्द से अभिप्रेत है । इससे पूर्व द्वितीय वा तृतीय क्षण पर्यन्त जो न रह सके, वह तो अवश्य ही ‘आशु निवाथि’ है । ‘आशु विनाशि’ पदार्थ का यह स्वभाव होता है कि वह अपने सम्बन्धी में किसी वस्तु को उत्पन्न कर तद्द्वारा हो कार्य का उत्पादक हो । जैसे कि क्षणिक ज्ञान से प्रवृत्ति तभी होती है, जब कि ज्ञान से उसके सम्बन्धी भारमा में इच्छा की, एवं इच्छा से प्रयत्न की उत्पत्ति होती है । अर्थात् ज्ञान से इच्छा, इच्छा से प्रयत्न एवं प्रयत्न से प्रवृत्ति, यही क्रम मानना होगा । इसी लिये ज्ञान से भात्मा में इच्छादि गुणों की उत्पत्ति होती है । क्योंकि घट विषयक इच्छा से ज्ञान का इस वस्तु स्थिति के अनुसार प्रायुतर विनाशी ज्ञान से उसके सम्बन्धी ‘विषय’ में भी ‘किसी वस्तु की’ उत्पत्ति माननी होगी । यदि ऐसा नहीं मानेंगे तो ‘घट विषयक ज्ञान से घट विषयक ही इच्छा उत्पन्न हो’ यह नियम अनुपपन्न हो जायेगा। ज्ञान को घट विषयक इच्छा का कारण मानना सम्भव नहीं है । क्योंकि नाश हो जाता है । अतः यही मानना होगा कि ज्ञान से विषय में ‘ज्ञातता’ नाम की एक वस्तु उत्पन्न होती है । इस ज्ञातता से युक्त विषय हो प्रर्थात् ज्ञात विषय ही इच्छा का कारण है । भतः ज्ञान से विषय में ज्ञावता रूप धर्म की उत्पत्ति मानना मावश्यक है । तदनुसार न्याय का प्रयोग इस प्रकार का होगा ‘आयुविनाशिघर्मरूपं ज्ञानं स्वविषये किञ्चिदुपा- दकम् आयुविनाशिधर्मत्वात् इच्छावत् । किन्तु यह अनुमान भी शुद्ध नहीं है, क्योंकि ) उक्त ‘मायविनाशित्त्व’ हेतु द्वित्व में व्यभिचरित है । ’ १. इसमें सन्दर्भ का विशदार्थ यह है कि घटादि दो वस्तुओं में चक्षु । पात के बाद ‘अयमेको घटः’ अयमेको घट? इस प्रकार की बुद्धि उत्पन्न होती है, जिसको ‘अपेक्षा बुद्धि’ कहते हैं, इस बुद्धि से उक्त घटादि दोनों वस्तुओं में द्वित्व संख्या की उत्पत्ति होती है। इसके बाद ‘द्वित्व द्विस्वत्वे’ इस आकार का द्विस्व का निर्विकल्पक प्रत्यक्ष उत्पन्न होता है। इस के बाद ‘इमौ हौ’ इस आकार का सविकक्षपक प्रत्यक्ष उत्पन्न होता है ।
५२४ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली यहाँ प्रश्न होता है कि यह द्वित्व संख्या क्या अपने छाश्रय भूत ब्रध्य की सत्ता पर्यन्त उसी प्रकार रहती है, जिस प्रकार एकत्व संख्या श्राश्रय की सत्ता पर्यन्त रहती है ? अथवा उसके विनष्ट होने से पहिले ही अर्थात् आश्रय के रहते ही विनष्ट हो ‘जाती है ? इन में प्रथम पक्ष का मानना तो संभव नहीं है, क्योंकि एक वार द्वित्वबुद्धि के उत्पन्न हो जाने पर पुनः अपेक्षा बुध्यादि के संबलन के बिना एकत्व बुद्धि की तरह द्वित्व की बुद्धि नहीं होती है । अतः यही मानना होगा कि आश्रय के नाश से पहिले ही हिस्व का नाश हो जाता है । अब विचारणीय है कि श्राश्रय के नाश से जब द्विश्व का नाश नहीं होता है, तो द्वित्व का नाश किससे होता है ? इस प्रश्न का एक ही उत्तर है कि अपेक्षाबुद्धि रूप कारण के नाश से ही द्वित्वादि संख्याओं का नाश होता हैं । अब प्रश्न होता है कि नाश कब होता है ? क्योंकि अपेक्षा बुद्धि के नाश के अगले ही क्षण में द्विश्व का नाश होगा । अतः उक्त प्रश्न के उत्तर के पहिले इस प्रश्न का समाधान आवश्यक है कि द्विश्व की सत्ता कबतक रहनी चाहिये ? इस प्रश्न का यह उत्तर है चूँकि प्रत्यक्ष के प्रति विषय कारण है, छात। द्विस्व प्रत्यक्ष के अव्यवहित पूर्वं क्षण पर्यन्त द्वित्व को अवश्य ही रहना चाहिये। इस वस्तुस्थिति के अनुसार क्षणों का यह क्रम निर्यात होता है – (1) अपेक्षा बुद्धि (२) द्विश्व की उत्पत्ति (३) द्वित्व का निर्वि- साध्य स्यादे साक्षा सि० अनुमा करवात भो अ किन्तु विकल् एवं ( कर्मण्य जायग यदि ऐसा सि० विशिष्ठ बुद्धि की उत्पत्ति एवं ‘अनेक व्यापा ही श से वि उत्पति कक्षपक प्रत्यक्ष ( ४ ) द्विश्व का सविकल्पक प्रत्यक्ष रूप अपेक्षा बुद्धि का नाश (५) तदनन्तर क्षण में द्विश्व का नाश । द्विश्व की इस विशिष्टबुद्धि के लिये ही अपेक्षा बुद्धि की सत्ता अन्य सभी बुद्धियों के विपरीत तीन क्षणों तक माननी पड़ती है । अन्यथा यदि अन्यबुद्धियों के समान ही अपेक्षा बुद्धि का नाश भी तीसरे ही क्षण में एक मान लें तो द्वित्व नारा चतुर्थ क्षण में ही हो जायगा । ऐसा होने पर चतुर्थ क्षया में जो द्वित्व का प्रत्यक्ष होता है सो न हो सकेगा । अस्तु । प्रकृत में यह कहना है कि—चूँकि द्वित्व भी चार क्षणों तक नहीं रहता है, अतः वह भी ‘प्राशुतरविनाशी’ है, किन्तु यह अपने प्रत्यक्ष से धतिरिक अपने सम्बन्धी में किसी का उत्पादन नहीं करता, अतः उक्त ‘आशुविनाशिव’ हेतु व्यभिचरित है । इस लिये इस हेतु से ज्ञातता की सिद्धि नहीं हो सकती । रूप स किञ्चि इनमें पू० प के बा
चतुर्थः स्तवक आशुकारकाभिप्रायेण कर्मण्यसिद्धेः । कर्मण्याशुकारकं 1 ५२१ ज्ञानमित्येव हि साध्यम् । कर्त्तर्याशुकारकत्वस्य कर्मो का रत्वेनाव्याप्तेः । शब्दा दिव्यापारैरेवाने कान्तात् । स्यादेतत् । अनुभवसिद्धमेव प्राकट्यम् । तथा हि-ज्ञातोऽयमर्थं इति सामान्यतः, साक्षात्कृतोऽयमर्थं इति विशेषतो विषयविशेषणमेव किञ्चित् परिस्फुरतीति चेत् ॥ ३॥ सि० प० प्राशुकारकाभिप्रायेण – … ( किसी का कहना है कि प्रकृत में ‘क्रिया’ शब्द का अर्थ है ‘आशुकारक’ । तदनुसार अनुमान प्रयोग का आकार इस प्रकार का होगा ‘क्रिपा स्वकर्मणि किञ्चिजनिका आकार- कत्वात्’ अर्थात् सभी छिपायें चूकि ‘आयुकारक’ हैं । एवं ‘ज्ञान’ भी एक क्रिया है, अतः वह भी अपने कर्म में किसी को अवश्य उत्पन्न करता है, वही उत्पद्यमान वस्तु है ‘ज्ञातता’ | किन्तु ज्ञाता की यह उपपत्ति भी ठोक नहीं है, क्योंकि उक्त पक्ष के निम्नलिखित तीन ही विकल्प संभव हैं, जिन में से एक भी ठीक नहीं है । (१) कर्म रूप अधिकरण में आयुकारकत्व (२) कर्ता रूप अधिकरण में प्राशुकारकत्व एवं (३) सामान्य जिस किसी अधिकरण में आशुकारकत्व । कर्मण्यसिद्धेः 800 इन में अगर पहिला पक्ष स्त्रीकार करें तो उक्त अनुमान का हेतु ‘स्वरूपासिद्ध’ हो जायगा। क्योंकि ज्ञान क्रिया के कर्म ( विषय ) में किञ्चिदाशुकारकत्व ही साध्य भी है । यदि इसकी सिद्धि ज्ञान में पहिले से ही स्वीकर कर लें, तो ‘सिद्धसाधन’ हो जायगा । यदि ऐसा नहीं मानेंगे, तो पक्ष में हेतु की सिद्धि न रहने से ‘स्वरूपासिद्धि’ दोष होगा । सि० प० कर्त्तर्याशुकारकत्वस्य स्वीकार करने से ) प्रकृतानुमान का हेतु व्यापार पदार्थस्मरण एवं अनुमान प्रमाण का क्षणिक हैं । सुतराम् ये दोनों अत्यन्त शीघ्र करते हैं । किन्तु ज्ञान स्वरूप इन व्यापारों ( शेष दोनों में किसी भी पक्ष को ‘अनैकान्तिक’ होगा। क्योंकि शब्द प्रमाण का व्यापार परामर्श ये दोनों ही ज्ञान रूप हैं, अतएव ही शाब्दबोध एवं अनुमिति इन दोनों का उत्पादन से विषय रूप कर्म कारक में ‘प्राशु’ की तो बात हो दूर है - विलम्ब से भी किसी वस्तु की उत्पत्ति नहीं होती है । अतः पदार्थस्मृति में अथवा परामर्श में ‘कर्मनिष्ठ किञ्चिदुत्पादकत्व’ रूप साध्य नहीं है, प्रथ च कर्तृनिष्ठ आशुकारकत्व रूप हेतु है । इसी रोति से ‘किञ्चिन्निष्ठ किञ्चिदुत्पादकत्व’ रूप तीसरा हेतु भी है । अतः उक्त दोनों ही हेतु अनैकान्तिक हैं, इसलिये इन में से किसी से भी ज्ञातता की सिद्धि नहीं हो सकती । पू० प० स्थादेतत् अनुभवसिद्धेन " … “श्लोक के उत्तरार्द्ध की व्याख्या अनुमान के द्वारा विषय में ज्ञातता की सिद्धि भले ही संभव न हो, तथापि सभी ज्ञानों के बाद सामान्य रूप से ‘अयमर्थो ज्ञात:’ इस आकार की प्रतीति होती है । एवं प्रत्यक्ष रूप
५२६ तदसत् । यथा हि- तथा- गद्यपद्यात्मक न्याय कुसुमाञ्जली श्रथैनैव विशेषो हि निराकारतया धियाम् । क्रिययैव विशेषो हि व्यवहा रेषु कर्मरणास् ॥ ४ ॥ विशेष प्रकार के ज्ञान के बाद ‘साक्षात्कृतोऽयमर्थ:’ इस आकार की प्रतीति भी होती है । इन प्रत्यक्षात्मक ज्ञान के अनुभवों में पूर्वज्ञान के विषय रूप ‘अयम्’ पद के अर्थ में ‘ज्ञातत्व’ अथवा ‘साक्षात्कृतस्व’ रूप ‘प्राकट्य’ का भान अवश्य होता है । इसकी उपपत्ति तब तक नहीं हो सकती, जब तक कि ‘प्राकटय’ अथवा उसका पर्यायवाची ‘ज्ञाततादि’ नामों से बोध्य किसी अर्थं की सत्ता न मानी जाय । अतः ज्ञान से विषय में ज्ञानवा नाम को कोई वस्तु अवश्य उत्पन्न होती है ॥ ३ ॥ तथैव मीमां प्रती प्रती रूप ‘कृत घ को फिर सि० प० तदसत्” . अर्थेनैव विशेषो हि … … (पूर्वाद्ध की व्याख्या ) उक्त समाधान ठीक नहीं है, क्योंकि जिस प्रकार घट पटादि साकार ( सावयव ) विषयों में परस्पर भेद की प्रतीति होती है, उसी प्रकार घटज्ञान एवं पटज्ञानादि निराकार ( निरवयव ) वस्तुओं में भी परस्पर भेद की प्रतीति होती है । घटादि सावयव वस्तुनों में परस्पर भेद बुद्धि के प्रयोजक हैं, उनके भिन्न भिन्न अवयव, किन्तु निरयव अत एव निराकार ज्ञानों में कथित भेद का नियामक कौन होगा ? इस प्रश्न के उत्तर में यही कहना होगा कि ‘अर्थ’ अर्थात् विषयों के भेद से ही ज्ञानों में परस्पर भेद होता है । घट ज्ञान का विषय घट है, पट ज्ञान का पट । घट एवं पट चूकि परस्पर भिन्न हैं, अतः घट विषयक ज्ञान से पट विषयक ज्ञान भी भिन्न हैं । तस्मात् जिस प्रकार ज्ञान विशेष्ध हो सकता है, उसी प्रकार ज्ञान विशेषण भी हो सकता है । घटज्ञानम्’ इस स्थल में ज्ञान विशेष्य है, एवं घट विशेषण है । एवं ‘ज्ञातो घट:’ इस स्थल में ज्ञान ही विशेषण है और घट विषय ही विशेष्य है । अतः जिस प्रकार निराकार (निरवयव ) विषय विशेषणक ज्ञान में ‘अर्थसे’ अर्थात् विषय से ‘विशेष’ अर्थात् सजातीय दूसरे विषयक ज्ञान से व्यावृत्ति की उपपत्ति होती है, उसी प्रकार ‘ज्ञातो घटः’ इत्यादि स्थलों में भी ‘ज्ञान’ रूप विशेषण से ही ‘ज्ञातघट’ से ‘अज्ञातघट’ की व्यावृत्ति की उपपत्ति हो सकती है । इस लिये ज्ञातता को मानने की आवश्यकता नहीं है । तथा क्रिययेव - ( उत्तरार्द्ध की व्याख्या) - यदि ऐसा न मानें तो जिस प्रकार ‘ज्ञातो घट:’ इस प्रतीति के बल से ‘ज्ञातता’ को स्वीकार करेंगे, उसी प्रकार ‘कृति’ से विषय में ‘कृतता’ को उत्पत्ति भी माननी होगी। किन्तु होता प्रका स्थल लिये कि उसी समय इत्य 1.
चतुर्थ स्तबक १२० किं न पश्यसि ? घटक्रिया पटक्रियेतिवत् कृतो घट, करिष्यते घट इत्यादि । तथैव गृहारण, घटज्ञानं पटज्ञान मितिवत् ज्ञातो घटो ज्ञास्यते ज्ञायते इति । मीमांसकगण भी कृति से विषय में ‘कृतता’ की उत्पत्ति नहीं मानते । अतः ‘कृतो घट:’ इस प्रतीति स्थल में उन लोगों को भी यही कहना होगा कि जिस प्रकार ‘इयं घटक्रिया’ इस प्रतीति में ‘क्रिया’ रूप विशेष्य में ‘घट’ विशेषण होकर घटक्रिया को पटादि क्रियाओं से भिन्न रूप में समझाती है, उसी प्रकार ‘कृतो घट:’ इस स्थल में ‘कृति’ ही ‘घट’ में विशेषण होकर ‘कृतघट’ को ‘अकृत घटों’ से व्यावृत्त करेगा । इस के लिये एक ऐसे ‘कृतता’ नामक पदार्थ को स्वीकार करने की आवश्यकता नहीं है, जिस की उत्पत्ति कृति से मानी जाय । तो फिर यही बात ज्ञान जन्य ज्ञातता के प्रसङ्ग में कही जा सकती है । ( फलितार्थ यह है कि मीमांसकों के मत से भी जिस प्रकार ‘घटक्रिया’ का ‘विशेषक’ होता है ‘अर्थ’ अर्थात् विषय, एवं ‘कृतो घट:’ इस स्थल में ‘अर्थ’ की विशेषिका है कृति, उसी प्रकार ‘घटज्ञानम्’ इस स्थल में ज्ञान का व्यावर्तक है ‘अर्थ’ ( विषय ) । एवं ‘ज्ञातो घट:’ इस स्थल में इसके विपरीत ‘अर्थ’ का विशेषक ( व्यावर्तक ) है ज्ञान । इन व्यावृत्तिबुद्धियों के लिये ज्ञातता, कृतता, प्रभुति पदार्थों को मानने की आवश्यकता नहीं है ) । किं न पश्यसि तुम यह नहीं देखते कि जिस प्रकार ‘घटक्रिया, पटक्रिया’ इत्यादि व्यवहार होते हैं, उसी प्रकार ‘कृतो घट । करिष्यते घटः इत्यादि व्यवहार भी होते हैं । उसी रीति से यह भी समझो कि ‘घटज्ञानम्, पटज्ञानम्’ इत्यादि व्यवहारों के समान ही ‘घटो ज्ञायते, घटो ज्ञास्यते’ इत्यादि व्यवहार भी हो सकते हैं, इन के लिये ज्ञातता की आवश्यकता नहीं है । ’ । १. कहने का अभिप्राय यह है कि ‘घटक्रिया’ इस व्यवहार की उत्पति के लिये घट में क्रिया के द्वारा किसी धर्म की उत्पत्ति किसी प्रकार स्वीकृत भी हो सकती है । किन्तु ‘कृतो घटः’ करिष्यते घटः’ इत्यादि स्थलों में तो इस प्रकार की कल्पनाओं का कोई अवकाश ही नहीं है । क्योंकि ‘कृतो घट:’ इस व्यवहार के समय ‘कृति’ विनष्ट हो गई रहती है, अता घट में ‘कृतता’ की उत्पति किससे होगी ? एवं ‘करिष्यते घट!’ इस व्यवहार के समध घट की ही सथा नहीं रहती है । अतः कृति से ‘कृतता’ की उत्पथि किस में होगी ? अतः मीमांसक गण भी यह स्वीकार करते हैं घटादि में कृति से कृतता की उत्पत्ति के बिना ही उक्त म्युवहारों की उपपत्ति होती है । इसी प्रकार घटादि में क्रिया से किसी की उत्पति के बिना ही घटक्रियादि के यवहार हो सकते हैं ।
१२८ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली कथमसम्बद्धयोधंमंधर्मिभाव इति चेत्; ध्वस्तो घट इति यथा । एतदपि कथमिति चेत्; नूनं ध्वंसेनापि घटे किञ्चित् क्रियत इति वक्तुमध्ववंसितोऽसि ? पू० प० कथम् ‘ज्ञातो घटः, ज्ञास्यते घटः, इन दोनों व्यवहारों के अव्यवहित पूर्वक्षण में घट का ज्ञान नहीं है । अतः यह मानना होगा कि उस समय घट एवं ज्ञान इन दोनों में कोई सम्बन्ध नहीं है । यह भी निश्चित है कि असम्बद्ध दो वस्तुओं में परस्पर विशेष्य विशेषण भाव नहीं हो सकता । अतः उन प्रतीतियों को ‘ज्ञान विशेषणक’ कैसे कहा जा सकता है । सि० प० ध्वस्तो घटः रेरणे ( अथ से ’ मी ज उपाय स्वीक आकार की प्रतीति पू० प्रतिय जिस प्रकार घट के विनष्ट हो जाने पर ‘घटो ध्वस्ता, इस होती है, उसी प्रकार घट के न रहने की स्थिति में भी ‘ज्ञातो घट:’ ज्ञास्यते घटः, इत्यादि प्रतीतियां भी होगी । पू० प० एतदपि … .. विशेष विशेषण भाव जब विद्यमान दो वस्तुओं में ही होता है, तो घटो ध्वतः, यह . यह प्रतीति भी कैसे होगी ? ( क्यकि नैयायिकों के युक्ति के अनुसार ‘घटो ध्वस्त:’ इस प्रतीति में भी घट विशेष्य रूप से एवं ध्वंस विशेषण रूप से भासित होता है । किन्तु जिस समय घट की सत्ता रहती है, उस समय उसके ध्वंस की सत्ता नहीं रहती है, एव जिस समय ध्वंस की सत्ता रहती है’ उस समय घट की सत्ता नहीं रहती है । फलतः घंट और उसकी ध्वंस ये दोनों एक समय में रह ही नहीं सकते । अतः ध्वंस विशेषणक घट विशेष्यक प्रतीति भी अनुपपन्न ही है । अतः इस दृष्टान्त के बल पर ‘ज्ञातो घटः, इत्यादि प्रतीतियों की उपपत्ति नहीं की जा सकती ) । सि० प० नूनम् नहीं नि सम्बन के अनुय है । की स अपेक्ष ज्ञास्यते घटः ’ सेवि लिये सि० तो क्या तुम ( मीमांसक ) यह कहने के लिये तो उद्यत नहीं हो कि ध्वंस से उसके घटादि प्रतियोगियों में ( ज्ञातता की तरह ) किसी पदार्थ की उपपत्ति होती है ? इस प्रकार की स्थिति के स्थिर हो जाने पर यह कहा जा सकता है कि जिस प्रकार ‘घटज्ञानम्, पटज्ञानम्’ इत्यादि व्यवहार होते है, उसी प्रकार ‘ज्ञातो घटः, ज्ञास्यते घटः’ इत्यादि व्यवहारों की भी उपपति हो सकती है। अर्थात् ज्ञायते घटः ज्ञातो घट!’ इत्यादि स्थलों में घट में ज्ञान से ज्ञातता की उत्पत्ति किसी प्रकार मानी भी जा सकती हैं, किन्तु ‘शास्यते घटः’ इस व्यवहार के समय घट की सता ही ही नहीं हैं, फिर ज्ञान से ज्ञातता की उत्पति कहाँ पर होगी ? अतः ‘ज्ञातता’ को स्वीकार नहीं किया जा सकता । विषय विषय समय होती होती प्रका विशे
चतुर्थः स्तबकः १२६ तन्निरूपणाधीननिरूपणो ध्वंसः स्वभावादेव तदीय इति किमत्र सम्बन्धान्त- रेणेति चेत् ? प्रकृतेऽप्येवमेव । ( अर्थात् मीमांसक गण भी ‘ध्वस्तो घट:’ इस प्रतीति को स्वीकार करते हैं । किन्तु ध्वंस से ‘ध्वस्तता’ प्रभृति किसी पदार्थ की उत्पत्ति प्रतियोगी में नहीं मानते । अतः जो कुछ मी उपाय वे लोग ध्वस्तता को न मानकर उक्त प्रतीति की उपपत्ति के लिये करेंगे, उसी उपाय से ‘ज्ञातो घटः’ ज्ञास्यते घटः’ इत्यादि प्रतीतियों की उपपत्ति भी ( विना ज्ञातता को स्वीकार किये ही ) हमलोग भी करेंगे । पू० प० तन्निरूपणाधीन 105 ध्वंस का ( अभाव का ) निरूपण प्रतियोगी के प्रतियोगियों के निरूपण के विना ध्वंस का ( किसी भी निरूपण की अपेक्षा रखता है अभाव का) निरूपण हो ही नहीं सकता। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि अभाव का स्वभाव प्रतियोगी के निरूपण से निरूपित होना है। अतः अभाव में प्रतियोगी का ‘निरूप्यत्व’ नाम का सम्बन्ध है । इस सम्बन्ध के बल पर ‘ध्वंस घटीया’ इत्यादि सार्वजनीन प्रतीतियां होतीं हैं ( अर्थात् वृत्तिता के ( प्रधाराधेयभाव के ) नियामक संयोगादि सम्बन्धों के लिये ही उनके प्रतियोगी और अनुयोगी रूप, अथवा विशेष्य एवं विशेषण रूप दोनों सम्बन्धियों की सत्ता अपेक्षित होती है । ‘निरूप्यत्व’ प्रभूत्ति जो वृत्तिता के अनियामक सम्बन्ध हैं, उनके लिये दोनों सम्बन्धियों की सत्ता की आवश्यकता नहीं है । विशेष्य विशेषण भाव के लिये दोनों के सम्बन्ध को ही अपेक्षा है, दोनों की सत्ता की नहीं । वृत्तिता के अनियामक उक्त निरूप्यत्वादि सम्बन्ध दोनों में से किसी की सत्ता के विना भी उपपन्न हो सकता है । तस्मात् ‘ध्वंस्तो घट:’ इस प्रतीति के लिये ‘ध्वस्तता’ प्रभृति किसी धर्म को मानने की आवश्यकता नहीं है ) सि० प० प्रकृतेऽपि जिस प्रकार नियमतः प्रतियोगी प्रभाव निरूप्य है, उसी प्रकार ज्ञान भी नियमतः विषय निरूप्य है । इसी प्रकार विषय भी नियमतः ज्ञान निरुम्य है । अतः ज्ञान और विषय इन दोनों में विशेष्य विशेषण भाव के लिये ज्ञान और विषय इन दोनों की एकही समय सत्ता अपेक्षित नहीं है । प्रतः जिस प्रकार विनाश के न रहने पर भी ‘विनाशी घट।’ इस प्रकार की प्रतीतियाँ होती हैं । अथवा घट की सत्ता के न रहने पर भी ‘विनष्टी घट:’ इस प्रकार को प्रतीतियाँ होती है, उसी प्रकार अव्यवहित पूर्व क्षण में ज्ञान के न रहने पर भी ‘ज्ञातो घट:’ इस प्रकार की प्रतीति, एवं पूर्व क्षण में घट के न रहने पर भी ‘ज्ञास्यते घट।’ इस प्रकार की ज्ञान विशेष्यक प्रतीति हो सकती हैं। इसके लिये ‘ज्ञातता’ को मानने की आवश्कता नहीं है । ६७ CCO. Vasishtha Tripathi Collection. Digitized by eGangotri१३० गद्यपद्यात्मक-न्याय कुसुमाञ्जली एतेन फलानाधारत्वादथं कथं कथं कर्मेति कर्मेति निरस्तम् । करणव्यापारविषयत्वेन तदुपपत्तेः । स्वाभाविकफल निरूपकत्वञ्च तुल्यम् । विनाश्यवत् अप्रत कल्प तद्वय सिं० प० एवेन … ( ज्ञातता के न मानने पर मीमांसकों का एक प्रधान वक्तव्य है कि ‘घटं जानाति ’ इस सर्व सिद्ध वाक्य से जो घट में कर्मता की प्रतीति होती है, उसकी अनुपपत्ति । क्योंकि ज्ञान रूप क्रिया से यदि घट में किसी फल की उत्पत्ति न हो, तो घट ज्ञान क्रिया का कर्म क्यों कर होगा ? चूंकि क्रिया से उत्पन्न फल का आश्रय ही उस क्रिया का कर्म होता है, अतः ज्ञान से घट में किसी वस्तु की उत्पत्ति माने विना उक्त प्रयोग धनुपपन्न हो जायगा । प्रतः ज्ञान से विषय में किसी वस्तु की उत्पत्ति मानगी होगी । उसी वस्तु को हमलोग ‘ज्ञातता’ कहते हैं । फलतः नाम में विवाद हो सकता है, अर्थ में नहीं। इसका यह उत्तर है कि) जिस प्रकार घट में किसी भी कृति की उत्पत्ति में होने पर भी प्रर्थात् नाथानुकूल कृतिमत्त्व रूप कतृत्व के न रहने पर भी ‘घटो नश्यति’ यह प्रयोग होता है, उसी प्रकार क्रिया जन्य फल शालित्व के न रहने पर भी घट में ज्ञान क्रिया की कर्मता आ सकती है, जिसका प्रयोजक चक्षु प्रभुति प्रत्यक्षादि प्रमाणों का विषय होना है ( अर्थात् घट में ज्ञान क्रिया का कर्मत्व एतज्जन्य फल शालिश्व रूप नहीं है, किन्तु चक्षुषादिकरण व्यापार विषयत्व स्वरूप है, इसी से घट में ज्ञान क्रिया के कर्मत्व का व्यवहार होता है। इसका इतना हो प्रयोजन है कि ‘घटं जानाति’ यह प्रयोग ‘साधु’ हो । वस्तुतः घट ज्ञानक्रिया का कर्म कारक है ही नहीं । क्योंकि विशेष प्रकार का कारक ही कर्म है। कारकत्व है क्रियाजनकत्व रूप । जककता विद्यमान पदार्थ में ही रहती है । किन्तु प्रततीत और अनागत वस्तु भी ज्ञान का अर्थ (विषय) होता है । क्यों कि ‘अतीतानागतं जानाति’ इस प्रकार के प्रयोग भी होते हैं । अतः इस प्रकार के प्रयोगों की साधुता की रक्षा के लिए मर्थ (विषय) में ज्ञानक्रिया की कर्मता का केवल गौणव्यवहार होता है । जिस प्रकार घटविनाश रूप क्रिया प्रतियोगिभूत घट निरुप्य होने के कारण घटक क है (भर्थात् विनाश क्रिया का कर्तृत्व घट में है, ) उसी प्रकार ज्ञान क्रिया भी विषय निरूप्य होने के कारण ही ‘विषयकर्मक’ है (अर्थात् ज्ञानक्रियां विषयकर्मिका है ) अत: इस रोति से भी ज्ञातवा का समर्थन नहीं किया जा सकता । ननु है, जि स्वरू नहीं असा कार्य हो स व्यव की सि० से ज्ञ नुमि ज्ञात विघ वसा इस कुत 169. होना श्राव युक्ति पू० योग्य
चतुर्थः स्तबकः ५३१ ननु ज्ञानमतीन्द्रियत्वादसाधारणकार्यानुमेयं तदभावे कथमनुमीयेत ? । अप्रतीतश्च कथं व्यवहारपथमवतरेदिति ज्ञानव्यवहारान्यथाऽनुपपत्या ज्ञातता- कल्पनम् । तदप्यसत् । परस्पराश्रयप्रसङ्गात् । ज्ञाततया हि ज्ञानमनुमीयेत, ज्ञाते च तद्वयवहारान्यथ (ऽनुपपत्तिस्तां ज्ञापयेत् । कुतश्च ज्ञानमतीन्द्रियम् ? । ननु ज्ञानम् घट ज्ञान के बाद ‘घटमहं जानामि’ इस आकार का ज्ञान रूप व्यवहार सार्वजनीन है, जिसको अनुव्यवसाय कहा जाता है । यह अनुम्यवसाय हा व्यवहार ज्ञान विषयक ज्ञान स्वरूप है, ज्ञान अतीन्द्रिय है । अता ज्ञान का उक्त अनुपवसाप रूप ज्ञान इन्द्रिय से उत्पन्न नहीं हो सकता । अतः उसको ज्ञान विषयक अनुमान रूप ही मानना होगा । ज्ञान का असाधारण कार्य ही उसका अनुमापक लिङ्ग हो सकता है । अतः ज्ञान से किसी ऐसे असाधारण कार्य की उत्पत्ति माननी होगी, जिससे ज्ञान का उक्त व्यवहार ( अनुव्यवसाय रूप अनुमिति ) हो सके । ज्ञान का वह ‘असाधारण’ कार्य हो ‘ज्ञासता’ है । अतः ज्ञान विषयक ज्ञान रूप व्यवहार ( अनुव्यवसाय ) को ‘अन्यथानुपपत्ति’ से की अनुपपत्ति से वशीभूत होकर ज्ञातता को स्वीकार करना ही होगा । सि० प० तदप्यसत् परस्पराश्रय 1 अर्थात् ज्ञातता को माने बिना उक्त व्यवहार ( १ ) इस कल्पना में ‘परस्पराधय’ अर्थात् अन्योन्याश्रय दोष है । क्योंकि ‘ज्ञातता’ से ज्ञान का व्यवहार रूप अनुमान उत्पन्न होगा । एवं ‘ज्ञानव्यववहार’ का अर्थात् ज्ञाना- नुमिति की अन्यथानुपपत्ति से ज्ञातता का अनुमान होगा । ‘ज्ञानान्यथानुपपत्ति’ रूप हेतु से बो ज्ञातता की अनुमिति होगी, उसमें ज्ञान विषयक अनुमिति रूप ज्ञान ( हेतुतावच्छेदकज्ञान विषया) अपेक्षित होगा । इस प्रकार ज्ञाता की अनुमिति में उक्त व्यवहार ( रूप अनुष्य- वसाय) की अपेक्षा, एवं व्यवहार रूप उक्त अनुमिति में ज्ञातता की अपेक्षा स्पष्ट है । अतः इस रीति से ज्ञातता की सिद्धि नहीं हो सकती । कुतश्च ( २ ) इसमें दूसरा यह दोष है कि इन सभी बातों का मूल है ज्ञान का अतीन्द्रिय होना । अतः इस प्रसङ्ग में सबसे पहले यही परिक्षणीय है कि ज्ञान को प्रतीन्द्रिय मानना आवश्यक है या नहीं ? अथवा यों कहिये कि ज्ञान को अतीन्द्रिय स्वीकार करने के पक्ष में युक्ति है ? अथवा नहीं ? पू० प० इन्द्रियेणानुपलभ्यमानत्व 40 000 ( इस प्रसङ्ग में मीमांसकों का कहना है कि ) इन्द्रिय के द्वारा उपलब्ध होने की योग्यता जिस वस्तु में नहीं रहती है, उसी को प्रतीन्द्रिय’ कहते है । इसी युक्ति से परमाणु
५३२ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली इन्द्रियेणानुपलभ्यमानत्वादिति चेन्न । अनुमानोपन्यासे साध्या विशिष्टत्वात् । अनुपलब्धिमात्रोपन्यासे तु योग्यताऽविशेषिताऽसो कथमेन्द्रियकोपलम्भाभावं गमयेत् । प्रभृति अतीन्द्रिय कहे जाते हैं । जिस प्रकार परमाणु आदि अतीन्द्रिय हैं, उसी प्रकार ज्ञान भी इन्द्रियवेद्य न होने के कारण अतीन्द्रिय हैं । ज्ञान भी किसी इन्द्रिय के द्वारा गृहीत होने की क्षमता नहीं रखते । अतः ज्ञान भी अतीन्द्रिय है । सि० प० न, अनुमानोपन्यासे ( क्या मीमांसकों को ) (१) ‘इन्द्रियेणानुपलभ्यमानत्व’ हेतु से ज्ञान में अतीन्द्रियस्व का यह अनुमान अभिप्रेत है कि ‘ज्ञानमतीन्द्रियम् इन्द्रियेणानुपलभ्यमानत्वात् परमाण्वादिवत्’ (२) अथवा ज्ञान में इन्द्रियगोचरत्व की अनुपलब्धि रूप प्रमाण से ‘अतीन्द्रियत्व’ की सिद्धि अभिप्रेत है ? ( अर्थात् ‘इन्द्रियेणानुपलभ्यमानत्वात्’ यह हेतु बोधक वाक्य से ज्ञान पक्षक अतीन्द्रियस्व का साधक यह अनुमान ( ज्ञानमतीन्द्रियमिन्द्रियेणानुपलभ्यामानत्वात् ) प्रभिप्रेत है ? अथवा उक्त हेतुवाक्य अनुपलब्धि प्रमाण का उपपादक है ? इनमें से यदि उक्त प्रथम पक्ष को माने अर्थात् उक्त हेतु वाक्य को अनुमान का ज्ञापक माने तो अनुमान का आकार होगा ‘ज्ञानमतीन्द्रियमिन्द्रियेणानुपलभ्यमानत्वात् परमाण्वादिवत्’ ( अर्थात् चूंकि परमातुप्रभृति के समान ही ज्ञान का ग्रहण किसी इन्द्रिय से नहीं होता है, अतः ज्ञान भी अतीन्द्रिय हैं ) । किन्तु इस अनुमान में ‘सिद्धसाधन’ दोष है । क्योंकि ‘अतीन्द्रियत्व’ रूप साध्य एवं ‘इन्द्रियेणोपलभ्यमानत्व’ रूप हेतु दोनों वस्तुतः एक ही वस्तु है । उक्त अनुमिति में पक्षधर्मताज्ञान विषया ज्ञान विशेष्यक इन्द्रियेणोपलभ्यमानश्व का ज्ञान पहिले आवश्यक है। यह पक्षधर्मता ज्ञान ‘ज्ञानमतीन्द्रियम्’ पक्ष विशेष्यक प्रतीन्द्रियत्व रूप साध्य प्रकारक इस अनुमिति स्वरूप ही होगा । अतः अनुमिति से पहिले उक्त पक्षधर्मता ज्ञान रूप सिद्धि के रहने से ‘पक्षता’ विघटित हो जायगी। फलतः प्रथम पक्ष नहीं स्वीकार किया जा सकता । ( यह सिद्धसाधन अथवा पक्षता का विघटन ही प्रकृत ग्रन्थ में ‘साध्य | विशिष्टत्व’ पद से अभिप्रेत है ) । ( द्वितीय पक्ष को समझने के लिये यह विकल्प करना चाहिये कि जिस ‘अनुपलब्धि’ चे त श प्रठ्ठ जो ज्ञान अत पू० प्रत ना सक ना का भी ‘स है ( से ज्ञान में प्रतीन्द्रियत्व का साधन है ? अथवा योग्यानुपलब्ध है ? अनुपलब्धि मात्रोपन्यासे ••• करना चाहते है, वह अनुपलब्धि क्या ‘अनुपलब्धि’ मात्र इनमें यदि प्रथम पक्ष स्वीकार करें । ) सि ( तो यह संभव नहीं है, क्योंकि) योग्यानुपलब्धि ही अभाव का साधक है, योग्यायोग्य साधारण सभी अनुपलब्धिव नहीं । अतः योग्यता से अविशेषित केवल अनुपलब्धि इन्द्रिय गोचर विषय के उपलम्भ के प्रभाव रूप अतीन्द्रियत्व का साधक किस प्रकार होगा ?
से रह भत चतुर्थः स्तनक ५३३ तद्विशेषणे तु कथमतीन्द्रियं ज्ञानमिति । तथाविधज्ञातताऽनाश्रयत्वादिति चेन्न । प्राश्रयासिद्धेः । तद्विशेषणे तु… यदि योग्यानुपलब्धि से ज्ञान में अतीन्द्रियत्व की सिद्धि करना चाहेंगे, तो इसी ज्ञान से ‘अतीन्द्रियत्व’ के विरोधी ‘इन्द्रियग्राह्यत्व’ की ही सिद्धि हो जायगी। क्योंकि ‘योग्यानुपलब्धि’ शब्द का अर्थ है ‘योग्य’ की अर्थात् प्रत्यक्ष के ‘योग्य’ वस्तु की अनुपलब्धि । फलतः प्रकृत में उक्त ‘योग्यत्व’ इन्द्रियवेद्यत्व रूप होगा । योग्यत्व का अन्वय अनुपलब्धि की प्रतियोगी जो उपलब्धि उसके विषय के साथ है । तदनुसार योग्य जो ज्ञान उसको अनुपलब्धि से यदि ज्ञान का अभाव गृहीत हो तो अर्थतः ज्ञान में ऐन्द्रियकत्व की सिद्धि अवश्य हो जायगी । अतः योग्पानुपलब्धि से ज्ञान में अतीन्द्रियत्व की सिद्धि नहीं हो सकती । पू० प० तथाविध… घटादि वस्तुनों के साक्षात्कार के बाद ‘साक्षात्कृतो घटः’ इत्यादि आकार की प्रतीतियाँ सार्वजनीन हैं । जब तक साक्षात्कार से घटादि वस्तुओं में ‘साक्षात्कृतता’ ( ज्ञातता ) नाम की वस्तु की उत्पत्ति नहीं होगी, तबतक उक्त सार्वजनीन प्रतीति को उपपत्ति नहीं हो सकती । अतः यह मानना होगा कि जितने भी इन्द्रियवेद्य विषय हैं, उनमें ‘साक्षात्कृतता’ नाम की वस्तु अवश्य है । इस प्रकार ‘इन्द्रियवेद्यत्व का व्यापक है ‘साक्षात्कृतता’ । एवं ‘व्यापकभाव से व्याप्याभाव की सिद्धि’ इस न्याय से साक्षात्कृतता का अभाव इन्द्रियवेद्यत्वाभाव का ज्ञापक होगा । अर्थात् यह मानना होगा कि ‘जहाँ साक्षात्कृतता नहीं है, वहां इन्द्रियवेत्व भी नहीं है । प्रकृत में ‘ज्ञानं साक्षात्कृतम्’ इस आकार की प्रतीति नहीं होती है । अतः ज्ञान में ‘साक्षात्कृत |’ नहीं है । जब ज्ञान में साक्षात्कृतता नहीं है, तो फिर इन्द्रियवेद्यत्व भी नहीं है । इससे यह अनुमान निष्पन्न होता है कि ‘ज्ञानमतीन्द्रियम् तथाविध ज्ञाततानामयत्वात्’ ( साक्षात्कृतता ही ‘तथाविध ज्ञातता’ है ) सि० प० न, श्राश्रयासिद्धे! व्यवहार से वस्तु की सिद्धि होती है । प्रत। ‘ज्ञान’ की भी सिद्धि ज्ञान के व्यवहार ही होगी । ज्ञान का व्यवहार ज्ञातता के अधीन है । ज्ञातता की सिद्धि चूकि ज्ञान में रहनेवाले अतीन्द्रियस्व धर्म के अधीन है, अतः ज्ञान के भी अधीन है। अभी ( ज्ञान में प्रतीन्द्रियत्व साधन के समय ) ‘ज्ञान’ सिद्ध नहीं है । क्योंकि अनुमिति में पक्षतावच्छदेक ।
५३४ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जलौ । व्यवहारान्यथाऽनुपपत्यैव सिद्ध आश्रय इति चेन्न । ज्ञानहेतुनेव तदुपपत्तेः । तस्याऽऽत्ममनः संयोगादिरूपस्य सस्वेऽपि सुषुप्तिदशायामर्थव्यवहाराभावान्नेवमिति चेन्न । सावन्मात्रस्य व्यवहारा हेतुत्वात् । अन्यथा ज्ञानस्वीकारेऽपि तुल्यत्वात् । विशिष्ट पक्ष का ज्ञान अपेक्षित है। पक्ष का यह विशेष प्रकार का ज्ञान प्रकृत अनुमिति के पहिले सम्भव नहीं है। पक्ष में उसके विशेषण का ( पक्षतावच्छेदक का ) न रहना ही ‘आषयासिद्धि’ दोष है । सो इस अनुमिति में भी है, पतः इस अनुमान से ज्ञान में अतीन्द्रियस्व की सिद्धि नहीं हो सकती । पू० प० व्यहारान्यथनुत्रपत्या ज्ञात घटादि का ही व्यवहार होता है, अज्ञात घटादिका नहीं । श्रतः व्यवहार के प्रति ‘व्यव हर्तव्य’ विषय का ज्ञान कारण है । इसलिये ‘ज्ञानव्यवहार’ के लिये भी व्यवहर्तव्य विषय स्वरूप ‘घटज्ञान’ कारण है ही । सुतराम् उक्त ‘ज्ञानव्यवहार’ रूप कार्य से व्यवहर्त्तव्य विषयक अनुमान सुलभता से हो सकता है । अतः उक्त अतोन्द्रियत्व के अनुमान में आश्रयासिद्धि दोष नहीं है । सि० प० ज्ञानहेतुनैव यद्यपि घटादि व्यवहार के प्रति घटादि व्यवहर्तव्य विषयों का ज्ञान कारण है । तथापि ‘ज्ञान व्यवहार’ के प्रति ‘ज्ञान’ को कारण मानना आवश्यक नहीं है। ज्ञान की उत्पत्ति के लिए जिन वस्तुओं को कारण मानना पड़ता है, उन्हीं कारणों से ‘ज्ञान व्यवहार’ की भी उत्पत्ति मान लेंगे । इस कारण समूह रूप सामग्री में ज्ञान के उत्पादक कारणों से प्रतिरिक्त ‘ज्ञान’ का भी संनिवेश स्वीकार करना अनावश्यक है । श्रवः ज्ञान ‘ज्ञान व्यवहार’ का कारण नहीं हैं । इस लिये ज्ञान के विना ज्ञान का व्यवहार अनुपपन्न भी नहीं है, अत । उक्त रीति से आश्रयासिद्धि दोष का उद्धार नहीं हो सकता । पू० प० तस्यात्मनः संयोगादि – … जिन कारणों से ज्ञान की उत्पत्ति होती है, केवल उन्हीं कारणों से यदि ज्ञान का व्यवहार भी मानें तो सुषुप्ति अवस्था में भी ज्ञान का व्यवहार मानना होगा, क्योंकि उस समय ज्ञान के उत्पादक प्रात्मनः संयोगादि कारणों का समूह व्यवश्य रहता है, प्रत। ज्ञान को भी ज्ञानव्यहार का कारण मानना होगा, इस लिये उक्त अनुमान में आश्रयासिद्धि दोष का बो हम ने उद्धार किया है, वह ठीक है । सि० प० तावन्मात्रस्य … … … ज्ञान व्यवहार के प्रति ‘तावन्मात्र’ अर्थात् ज्ञान की उत्पादिका सामान्य सामग्री मात्र कारण नहीं हैं । अतः सुषुप्ति काल में ज्ञान के साधारण कारणों के रहते हुए भी ज्ञान य वि द f म
चतुर्थ स्तबक | स्मरणान्यथानुपपत्येति चेन्न । तस्याप्यसिद्धेः । 1 १३५ का व्यवहार नहीं होता है। क्योंकि ज्ञानव्यवहार ‘ज्ञान विशेष’ स्वरूप ही है, प्रतः जब तक ज्ञानव्यवहार रूप ‘विशेषज्ञान’ के असाधारण ( विशेष ) कारणों का भी संबलन न हो, तब तक सामान्य कारणों के रहते हुए भी ‘ज्ञानव्यवहार’ की उत्पत्ति नहीं हो सकती। इसीलिये सुषुप्ति काल में ज्ञान का व्यवहार नहीं होता’ है । पू० प० स्मरणान्यथानुपपत्त्या व्यवहार की ‘अन्यथानुपपत्ति’ से ज्ञान की सिद्धि भले ही न हो सके, स्मरण की अन्यथानुपपत्ति से ज्ञान की सिद्धि होगी ( स्मृति के प्रति पूर्वानुभव कारण है । यदि ‘ज्ञान’ को स्वीकार नहीं करेंगे तो स्मृति की अनुपपत्ति हो जायगी । अतः स्मरण की उपपत्ति चुकि विना ज्ञान के नहीं हो सकती, अतः स्मरण की अन्यथानुपपत्ति से ज्ञान की सिद्धि अनिवार्य है । अतः उक्त प्राश्रयासिद्धि दोष नहीं है । सि० प० तस्यापि अगर स्मृति की सिद्धि रहे तो उसकी अनुपपत्ति से ज्ञान की सिद्धि हो सकती है, किन्तु अभी स्मृति भी सिद्ध नहीं है, क्योंकि स्मृति भी ज्ञान ही है । इसलिये जब ज्ञान सामान्य ही असिद्ध है, तो तदन्तर्गत स्मृति भी प्रसिद्ध ही है। इस रीति से भी ज्ञान की सिद्धि के द्वारा माश्रयासिद्धि का उद्धार नहीं हो सकता । • १. अभिप्राय यह है कि सुषुप्ति अवस्था में तो कोई भी ज्ञान उत्पन्न नहीं होता । किन्तु ज्ञान की उत्पादिका सामान्य सामग्री ( आत्मनः संयोगादि रूपा ) तो रहती है । अता प्रश्न यह होता है कि सुषुप्ति अवस्था में ज्ञान की सामान्य सामग्री के रहते ज्ञान की ही उत्पत्ति क्यों नहीं होती है ! कौन उसका प्रतिरोधक है ? इस प्रश्न का यदि यह उत्तर दें कि सुषुप्ति समय में भी रहने वाले आत्मना संयोग प्रभृति सामान्य कारणों के अतिरिक्त ज्ञान के और भी विशेष कारण हैं जिनके न रहने से सुषुप्तिकाल में ज्ञान की उत्पधि नहीं होती है, तो फिर यह कहना पूर्ण सत है कि ज्ञान के उत्पादक दिसने भी सामान्य और विशेष कारण हैं, उन्हीं सबों को ‘ज्ञान व्यवहार का भी उत्पादक मान लेने से सुषुप्ति अवस्था में ज्ञानव्यवहार का प्रतिरोध हो जायगा । इसके लिये ज्ञान के व्यवहार के कारणों में ‘ज्ञान’ रूप विषय को भी रचना अनावश्यक है । अतः ज्ञान के विना ज्ञान व्यवहार की अनुपपथि नहीं है । अन्यथा ज्ञान व्यवहार की अन्यथानुपपत्ति वश उक्त अतीन्द्रियास्वानुमान के पक्षीभूत ज्ञान की सिद्धि सम्भव नहीं है। तस्मात् उक्त अनुमान में भाश्रयासिद्धि दोष लागरूक है।
५३६ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली प्रस्ति तावद्व्यवहारनिमित्तं किञ्चिदिति चेन्न ; किमतः ? । न ह्य ेतावता ज्ञानं तदिति सिद्धयति, तस्यैवा सिद्धेः । तथापि नियतस्य कतुः प्रवृत्तेः कर्तृधर्मेणैव केनचित्प्रवृत्तिहेतुना भवितव्यमिति चेत्; अस्त्विच्छा प्रत्यक्षसिद्धा, न तु ज्ञानम् । सैव कथं नियताधिकरणे उत्पद्यतामिति चेन्न । पू० प० अस्ति तावत् ‘घट जानामि’ इस व्यवहार का प्रयोजक ( घट से भिन्न ) कोई वस्तु अवश्य है । यदि ऐसा न मानें तो घट की सत्ता जब तक रहेगी, तब तक निरन्तर घट का व्यवहार होता ही रहेगा । किन्तु ऐसा नहीं होता । इस लिये उक्त घटव्यवहार का घट से भिन्न कोई कारण अवश्य है, वही कारण है ‘ज्ञान’ । अतः ज्ञान प्रसिद्ध नहीं है । इसलिये प्रकृत अनुमान में तन्मूलक आश्रयासिद्धि दोष नहीं है। सि० तो फिर ( विषय से भिन्न ) व्यवहार के जिस कारण • प० किमतः .. … जब ज्ञान मभी सिद्ध नहीं है की आप बात कर रहे है, वह ज्ञान से भिन्न ही कोई वस्तु होगी। इससे इतना ही सिद्ध होता है ‘घटव्यवहार का घट से भिन्न कोई कारण अवश्य है’ किन्तु इससे यह सिद्ध नहीं होता है कि वह कारण ‘ज्ञान’ ही है। इसके लिए कोई दूसरा साधक ढूढ़ना होगा | अतः केवल इतने भर से ज्ञान की सिद्धि एवं तन्मूलक अश्रयासिद्धि दोष का निवारण नहीं हो सकता । पू० प० तथापि नियतस्य कर्त अपने इष्ट के साधनों में जीवों की स्वाभाविक प्रवृत्ति को सभी स्वीकार करते हैं। जीव ही प्रवृत्ति का कर्ता अथवा समवायिकारण है। जिस जीव में जो कोई भी प्रवृत्ति होगी, वे सभी प्रवृत्तियाँ उस जीव में रहने वाले किसी धर्म से ही उत्पन्न होंगी, अन्य जीवों में रहने वाले किसी धर्म से नहीं । अतः यह मानना होगा कि प्रवृत्ति के आश्रयीभूत मात्मा (जीव ) में प्रवृत्ति का कारणीभूत कोई धर्म भवश्य है । ‘ज्ञान ही वह ‘धर्म’ है । सि० प्रस्तु जीव में रहनेवाले जिस धर्म को आप ने प्रवृत्ति का कारण माना है, वह धर्म ‘इच्छा’ रूप हो स्वीकार करेंगे, क्योंकि वह प्रत्यक्ष सिद्ध है । ( मीमांसक इच्छा का प्रत्यक्ष मानते हैं)। इसके लिये प्रतीन्द्रियज्ञान की कल्पना अनावश्यक है। अतः प्रवृत्ति के किसी कारण की अपेक्षा मानने पर भी वह कारण ‘ज्ञान’ ही हो—इसका कोई नियामक जब तक सिद्ध नहीं हो जाता, तबतक उक्त रीति से भी ज्ञान की सिद्धि नहीं हो सकती । पू० प० सेव कथम् प्रवृत्ति के कारण रूप में जिस इच्छा की सिद्धि के द्वारा ‘ज्ञान’ की सिद्धि का प्रतिरोष उपस्थित किया गया है। उस ‘इच्छा’ के कारण के प्रसङ्ग में भी चर्चा उठेगी कि कि या कि नि इच हो सि सि उ से को पू ह सि इ अ अ सं पू य हो इ स सु न
चतुर्थः स्तबक ५३७ ज्ञानाभ्युपगमेऽपि तुल्यत्वात् । स्वहेतोः कुतश्चिदिति चेत्; तत एव इच्छा अस्तु, कि ज्ञानकल्पनयेति । स्यादेतत् । प्रकाशमाने खल्वर्थे तदुपा दित्सादिरुपजायते, न तु सुषुप्त्यवस्था- यामप्रकाशमानेऽप्यर्थे इत्यनुभवसिद्धम् । तत इच्छायाः कारणं विलक्षणमेव किञ्चित्परिकल्पनीयम्, यस्मिन् सति सुष्वापलक्षण मोदासीन्यमर्थविषयमात्मनो निवत्तंते इति चेत् । 401 इच्छा भी चूँ कि आत्मा का धर्म है, अतः उसे भी श्रात्मा के होना चाहिये । वही प्रात्मधर्म है ज्ञान । तस्मात् इच्छा के सिद्धि सर्वथा सम्भावित है । सि० प० ज्ञानभ्युगमेऽपि इस प्रकार इच्छा के उपस्थित होगा कि ज्ञान भी से ही उत्पन्न होगा । फिर भी यह प्रश्न कौन सा है ? पू० प० स्वहेतो: " 0. ही किसी दूसरे धर्म से उत्पन्न कारण के रूप में ही ज्ञान की कारण के रूप में ज्ञान की सिद्धि होने पर भी यह प्रश्न चूकि आत्मा का धर्म है, अतः वह भी किसी दूसरे आत्मधर्म उपस्थित होता है कि ज्ञानजानक यह आत्मधर्मं आत्मा का ज्ञान रूप धर्म भी अपने किसी दूसरे आत्म धर्म से उत्पन्न होगा, इससे इच्छा के जनक रूप में ज्ञान की सिद्धि में कौन सी बाधा है ? सि० प० तत एव "” ज्ञान के कारण रूप में प्रात्मा के जिस दूसरे धर्म का आप आक्षेप करते है, उसी से इच्छा की भी उत्पत्ति मान लें। उसके लिये मध्य में ज्ञान को स्वीकार करने की कौन सी आवश्यकता है ? अतः ज्ञान में अतीन्द्रियत्व के साधक अनुमान का हेतु अवश्य ही आश्रयासिद्धि से दूषित है । लसलिये ज्ञान में अतीन्द्रियत्व मूलक ज्ञातता की सिद्धि संभव नहीं है । पू० प० स्यादेतत् .. जाग्रत अवस्था में ही घटादि अर्थ प्रकाशित होते हैं, सुषुप्ति अवस्था में नहीं । एवं यह भी सभी मानते हैं कि प्रकाशित प्रथ की ही उपादानेच्छा उत्पन्न होती है । अर्थात् जाग्रत अवस्था में चूकि अर्थ प्रकाशित रहता है, अतः उपादान रूप व्यर्थ की इच्छा उत्पन्न होती है । सुषुप्ति अवस्था में अर्थ का प्रकाश नहीं रहता । इसलिये धर्थ रूप उपादान की इच्छा ( उपादित्सा) उत्पन्न नहीं होती है । इस अन्वय और व्यतिरेक इन दोनों से यह समझते हैं कि इच्छा का कारण कोई ऐसी वस्तु है जो जाग्रत अवस्था में ही रहती है, सुषुप्ति अवस्था में नहीं । फलतः इच्छा का कारण कोई ऐसी वस्तु है, जिसके रहते सुषुप्ति नहीं होती । वही कोई ‘प्रकाश स्वरूप वस्तु’ हे ‘ज्ञान’ । अतः ज्ञान प्रसिद्ध नहीं है । । ६व
५३८ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली हन्तेवं सुष्वापनिवृत्तिमनुभवसिद्धां प्रतिजानानेन ज्ञानमेवा परोक्षमिष्यते । प्रचेतयन्नेव हि सुषुप्त इत्युच्यते, अचेतन्यनिवृत्तिरेव हि चेतन्यं ज्ञानमिति । तथा च कालात्ययापदिष्टो हेतुः । एतेन क्षणिकत्वादिति निरस्तम् । सि० प० हन्तेवम्”" ‘सुब्बाप’ अर्थात् सृषुप्ति अवस्था की निवृत्ति हो जाग्रत अवस्था है। इस जाग्रत अवस्था को यदि ‘अनुभव’ अर्थात् प्रत्यक्ष से सिद्ध मानें तो इसी से ज्ञान की अपरोक्षता मी सिद्ध हो जायगी। क्योंकि पुरुष जिस समय अचेतन अवस्था में रहता है, तभी उसमें ‘सुष्वाप’ का व्यवहार होता है । अचैतन्य की निवृत्ति ही चैतन्य है, एवं चैतन्य ज्ञान स्वरूप है । मतः ज्ञान की अपरोक्षता ही ‘जाग्रदवस्था’ है । इस प्रकार ज्ञान रूप पक्ष में प्रत्यक्षस्व सिद्ध है, मतः प्रत्यक्षत्व का अभाव रूप अतीन्द्रियत्व उसमें नहीं रह सकता। ऐसी स्थिति में ज्ञान में अतीन्द्रियत्व के साधन के लिए जो भी हेतु प्रयुक्त होगा, उसको ‘कालात्यापदेश’ अर्थात् बाघ दोष से ग्रसित होना अनिवार्य होगा । अतः ज्ञान में अतीन्द्रियत्व का साधक उक्त अनुमान से ज्ञान में प्रतीन्द्रियत्व की सिद्धि नहीं हो सकती । ऐतेन… … इसी प्रकार ‘ज्ञानमतीन्द्रियं क्षणिकत्वात्’ इस अनुमान को भी निरस्त समझना चाहिये ।’ १. क्षणभङ्गवादी बौद्धगण भी ज्ञान को अतीन्द्रिय मानते हैं। इसी प्रकार ज्ञान को क्षणिक मानने वाले अन्य लोग भी हैं। उन लोगों का कहना है कि ज्ञान चूँ कि क्षणिक है, अतः इन्द्रिय के द्वारा उसका ग्रहण नहीं हो सकता । क्योंकि प्रत्यक्ष के प्रति इन्द्रियसंनिकर्ष के समान ही विषय भी कारण है । एवं विषय एवं इन्द्रिय इन दोनों के संनिकर्ष का भी विषय कारण है । इस स्थिति में क्षणिक ( एक तय मात्रवर्त्ति वा क्षणन्त्रयावस्थायी ) ज्ञान रूप विषय के इन्द्रियसंनिकर्ष का संचलन तक ज्ञान रूप विषय की सत्ता नहीं रह सकती । अतः पहिली बात तो यह है कि जिस इन्द्रिय संनिकर्ष से ज्ञान का प्रत्यक्ष होगा, उसका संबलन ही असंभव है। यदि उसका संचलन मान भी लें, तथापि उस समय तक क्षणिक ज्ञान की सत्ता ही संभव नहीं है। अतः यह कहा जा सकता है कि ज्ञान चूँकि क्षणिक है, अतः इन्द्रिय से उसका ग्रहण नहीं हो सकता। इस प्रकार का अभिप्राय रखनेवालों के अभीष्ट अनुमान का प्रयोग ‘ज्ञानमतीन्द्रियम् क्षणिकत्वात्’ इस आकार का है। इसी अनुमान में कथित ‘कालात्ययापदेश’ (बाघ) दोष का अतिदेश प्राचार्य ने ‘एतेन’ इत्यादि सन्दर्भ से किया है। त अ क्य ( वि मा वि दो वि थी क्ष सा ’ F ज्ञ दो मा सि के अ क्ष
चतुर्थं स्तबक ५३६ अपि च - किमिदं क्षणिकत्वं नाम ? | यद्याशुतरविनाशित्वम्, तदाऽनैकान्तिकम् । अथैकक्षणावस्थायित्वं तदसिद्धं प्रामाणाभावात् । अपि च … … " क्षणिकत्व हेतुक ज्ञान पक्षक उक्त अनुमान का हेतु व्यभिचार दोष से भी प्रसित है । क्योंकि क्षणिकत्व क्या वस्तु है ? इस प्रश्न के उत्तर में यदि क्षणिकत्व को ‘भाशुतर ( तृतीयक्षण ) विनाशित्व रूप कहें तो ‘अनेकान्तिक’ दोष इस प्रकार होगा कि पाथुतर विनाशित्व का अर्थ नैयायिक मीमांसकादि सभी लोग तृतीयक्षणवृत्तिध्वंस प्रतियोगित्व मानते हैं । अर्थात् प्राशुतर विनाशो वह वस्तु है, जिसका उत्पत्ति के तीसरे क्षण में ही विनाश हो जाय । इन लोगों के मत से किसी भी वस्तु को आयु दो क्षणों से कम नहीं है । दो क्षणों तक ही रहने वाले ज्ञान इच्छा प्रभृति जितने भी पदार्थ हैं, उन सभो पदार्थों का विनाश तृतीय क्षण में होता है । सुतराम् विनाशथील जितने भी पदार्थ हैं, उनमें सब से शीघ्र विनष्ट होनेवाले ज्ञान इच्छादि पदार्थ ही है । मीमांसक लोग भी इच्छादि पदार्थों को क्षणिक मानते हुए भी प्रतीन्द्रिय नहीं मानते । भतः इच्छादि पदार्थो में अतीन्द्रियत्व रूप साध्य नहीं है, प्रथच क्षणिकत्व ( आवृत रविनाशित्व ) रूप हेतु हैं । उक्त प्रत। क्षणिकत्व हेतु ‘अनैकान्तिक’ अर्थात् व्यभिचारी भी है । पू० प० प्रथेकक्षण… ( बौद्धगण कहते हैं कि ) क्षणिकत्व का अर्थ है केवल एक ही क्षण तक रहना । ज्ञान को ही एक क्षणावस्थायी (क्षणिक) मानेंगे, इच्छादि को नहीं । अतः उक्त व्यभिचार दोष नहीं है । क्योंकि इच्छादि में यदि प्रतीन्द्रियस्व रूप साध्य नहीं है तो उक्त ( एक क्षण मात्र वृत्तित्वरूप ) क्षणिकत्व हेतु भी नहीं है । सि० प० तदसिद्धम् … हेतु को अनुमान से पूर्व अपने स्वरूप से सिद्ध रहना चाहिये, किन्तु किसी पदार्थ का केवल एक क्षण भर ही रहना ( एकक्षणमात्रवृत्तित्व ) किसी भी प्रमाण से सिद्ध नहीं है । अतः एक क्षणमात्रवत्तित्व रूप क्षणिकत्व ही अलोक ( सर्वथा अप्रसिद्ध ) है । अतः उक्त क्षणिकत्व ‘हेतु’ ही नहीं है, किन्तु ‘असिद्ध’ ( हेत्वसिद्ध ) नाम का हेत्वाभास है । इस अतिदेश ग्रन्थ का वेद्यत्व निर्णय हो चुका है, श्रमिप्राय है कि उक्त रीति से जब ज्ञान में इन्द्रिय- तो उसके बाद ज्ञान में इन्द्रियवेषस्वाभाव रूप अनीन्द्रियत्व के साधक जो भी हेतु प्रयुक्त होंगे, वे सभी कालाध्ययापदेश दोष से प्रसित अवश्य होंगे । अत: इस क्षणिकत्व हेतुक अनुमान से भी ज्ञान में प्रतीन्द्रियस्व की सिद्धि नहीं हो सकती । CCO. Vasishtha Tripathi Collection. Digitized by eGangotri५४० गद्यपद्यात्मक-न्याय कुसुमाञ्जलौ ननु स्थायिविज्ञानं यादृशमथंक्षणं गृह्यदुत्पद्यते, द्वितीयेऽपि क्षरणे किं तादृशमेव गृहूणति, अन्यादृशं वा न वा कमपीति । न प्रथमः, तस्य क्षणस्यातीत्वात् । प्रत्यक्षज्ञानस्य च वर्तमाना भत्वात् । पू० प० स्थायिविज्ञानस् ● ( बौद्धों का कहना है कि ) जो समुदाय विज्ञान का ‘स्थायीत्व’ अर्थात् अनेक क्षणों तक रहना मानते हैं, उन लोगों को भी घटादि पदार्थों की तरह सजातीय विलक्षण ज्ञान को उत्पत्ति ही माननी पड़ेगी। क्योंकि घटादि स्थूल पदार्थों में से कोई एक ही वस्तु अनेक क्षणों तक रहनेवाली नहीं है । किन्तु निरन्तर अनेक क्षणों तक एक सजातीय विज्ञान समूह की उत्पत्ति होती है। उन्हीं में परस्पर अत्यन्त सादृश्य वश केवल ऐक्य का व्यवहार होता है। इसके अनुसार ज्ञान का द्वितीयक्षण तक रहना भी द्वितीय क्षण में सजातीय द्वितीय ज्ञान की उत्पत्ति रूप ही है । इस वस्तु स्थिति के अनुसार जो सम्प्रदाय ज्ञान को स्थायी ( अर्थात् द्वितीय क्षण तक स्थिति शील) मानते हैं, उनसे पूछना चाहिये कि ( १ ) एक स्थायी विज्ञान प्रथम क्षण में जिस प्रकार के जितने अर्थों का ग्रहण करता है, क्या द्वितीय क्षण में भी वह उसी प्रकार के उतने ही अर्थों का ग्रहण करता है ? ( २ ) अथवा प्रथम क्षण में गृहीत अर्थों से भिन्न अर्थों का ही प्रहण द्वितीय क्षण में करता है ? (३) कि वा द्वितीय क्षण में वह किसी भी अर्थ का ग्रहण नहीं करता, बिना किसी मर्थ ग्रहण किये ही स्थित रहता है । (१) इन में से प्रथम पक्ष इसलिये उपपन्न नहीं हो सकता कि ज्ञान में जिस प्रकार घटादि अर्थ भासित होते हैं, उसी प्रकार अर्थ में विशेषणीभूत वर्तमानकालादि भी भासित होते हैं। जैसे कि प्रथम क्षण में वर्तमानत्वविशिष्ट घट भासित होता है । किन्तु द्वितीय क्षण मैं तो वह प्रथम क्षणः अतसीत हो जाता है, अतः द्वितीय क्षण में विद्यमान विज्ञान यदि प्रथम क्षण वृत्तिस्व विशिष्ट घटादि का ग्रहण स्वरूप होगा तो वह प्रतीतत्वविशिष्टघट विषयक ही होगा । अतः यह कहना पम्भव नहीं है कि ‘जिस प्रकार के अर्थ का ग्रहणः प्रथम क्षण में होता है, द्वितीयक्षण में भी तद्ग्रहण स्वरूप में हो वह स्थित रहता है । यह तो हुई परोक्षापरोक्ष साधारण सभी ज्ञानों के प्रसङ्ग में 1, किन्तु प्रत्यक्षात्मक ज्ञान तो नियमतः वर्त्तमानत्व विशिष्ट घट विषयक ही होता है, मतः द्वितीयक्षण में स्थित प्रत्यक्षात्मक ज्ञान के प्रसङ्ग में यह मनुपपत्ति. तो अत्यन्त परिस्फुट है । क्योंकि प्रथम क्षण में उत्पन्न प्रत्यक्षात्मक विज्ञान के ठीक समानविषयक विज्ञान का द्वितीय क्षण में रहना असंभव है। न ग्र क्ष वि सम सि क्य त्व संग न द्विस है" ग्रह का करे काः व्या प्रथ ‘व्य एक बिर्त
चतुर्थः स्तबक: ५४१ न चातीतमेव वर्तमानागतयोल्लिखति; भ्रान्तत्वप्रसङ्गात् । न द्वितीयः, विरम्य व्यापारायोगात् । प्रथमतोऽपि तथाऽभ्युपगमेऽनागतावेक्षणप्रसङ्गात् । न चातीतमेव … … ) ( इस प्रसङ्ग में यह कहा जा सकता है कि जिस क्षण में ज्ञान की उत्पत्ति होती है, वह वर्तमानकाल द्वितीयक्षण में प्रतीत होता है । द्वितीय क्षण में इस अतीतकाल का ही ग्रहण करते हुए विज्ञान की स्थिति रहती है। किन्तु उक्त अतीतकाल का ग्रहण उस द्वितीय क्षण में अतीतत्व रूप से न होकर वर्त्तमानत्व रूप से ही होता है । ( अर्थात् द्वितीय क्षण में विद्यमान विज्ञान के द्वारा प्रथम क्षण रूप अतीतकाल हो अत्यन्त सादृश्यवश वर्तमान के समान प्रतीत होता है ) । सि० प० भ्रान्तत्वप्रसङ्गात् द्वितीय क्षण में अत्रमा हो जायगी । द्वितीय क्षणवर्ती ज्ञान में वर्तमान- एवं वर्त्तमानत्व प्रकार है । अतः उक्त समाधान इससे तो एक ही ज्ञान प्रथम क्षण में प्रमा, एवं क्योंकि तदभाववति तत्प्रकारक ज्ञान ही ‘भ्रान्ति’ है । स्वाभाव से युक्त अतीतकाल विशेष्य हैं संगत नहीं है । 104 न द्वितीयः … .. व्यपारायोगात् । श्रर्थात् " प्रथम क्षणवत्ति विज्ञान जिस प्रकार के विषयों कों ग्रहण करता है, द्वितीयक्षणवत्तिविज्ञान उससे भिन्न प्रकार के वस्तुओं के ग्रहण स्वरूप में ही विद्यमान रहता है" यह द्वितीयपक्ष मी ठीक नहीं है, क्योंकि ज्ञान का यह स्वभाव है कि वह जिस विषयक ग्रहण स्वरूप होकर उत्पन्न होगा, उस विषय को कभी नहीं छोड़ेगा, एवं किसी दूसरे विषय . का भासक भी नहीं होगा । अतः प्रथमक्षण रूप वर्तमानकाल में वह जिस विषय को ग्रहण करेगा, द्वितीय क्षण में न उस विषय को छोड़ सकता है, न किसी अन्य प्रकार की वस्तुनों का ग्रहण ही कर सकता है। एक विषय को छोड़ कर दूसरे विषय का ग्रहण ही ‘विरम्य- व्यापार’ है । यह ‘विरम्य व्यापार ज्ञान में सम्भव नहीं है । प्रथमतोऽपि … … • इस द्वितीय पक्ष का खण्डन करते हुए कोई कहते हैं कि ) उक्त ‘विरम्य’ ‘व्यापारायोग’ का निष्कर्ष यह है कि प्रथमक्षणवत्तिज्ञान एवं द्वितीयक्षणवतिज्ञान दोनों को एक ही विषय का ग्राहक होना चाहिये । किन्तु यह ऐक्य दो प्रकारों से सम्भव है (१-) द्वितीय क्षणवतिज्ञान से जिस प्रकार के जितने विषय प्रकाशित हों, उस प्रकार के उतने
५४२ गद्यपद्यात्मक-न्यांयकुसुमाञ्जलौ न तृतीया, ज्ञानस्वहानेरिति महाव्रतीयाः । तदसत् । ज्ञानं गृह्णातीत्यस्यैवार्थ- स्याऽनभ्युपगमात् । अपि तु तदेव ग्रहरणमित्यभ्युपगमः । ही विषय प्रथमज्ञान के द्वारा भी प्रकाशित हों । एवं ( २ ) प्रथमक्षणवत ज्ञान में जिस प्रकार से जितने विषय प्रकाशित हों, द्वितीयक्षणर्वात ज्ञान से भी उसी प्रकार के उतने ही विषय प्रकाशित हों । इनमें द्वितीय पक्ष में उक्त ‘विरम्य व्यापारायोग’ रूप दोष दिया गया है । किन्तु तुल्य युक्ति से प्रथम पक्ष का भी तो अवलम्बन कर सकते हैं । प्रर्थात् यह भी कहा जा सकता है कि द्वितीयक्षणर्वात ज्ञान से जिस प्रकार अतीतत्व विशिष्ट वस्तु का ग्रहण होता है, उसी प्रकार प्रथमक्षणवातिज्ञान से भी अतीतत्व विशिष्ट वस्तु का ही ग्रहण होता है। अतः दोनों ज्ञानों में विषय भेद प्रयुक्त जो ‘विरम्य व्यापारयोग’ की आपत्ति दो गयी है, वह मिट जाती है । सि० प० अनागतावेक्षरण प्रसङ्गात् प्रत्यक्ष का यह स्वभाव है कि वह वर्तमान क्षणावच्छिन्न वस्तु का ही ग्रहण करे । अतः अतीतकालिक वस्तु का ग्रहण करना प्रत्यक्ष के स्वभाव के विपरीत है। प्रथम क्षण में उक्त ‘अतीतत्व’ विद्यमान नहीं है, किन्तु ‘अनागत’ है । यदि प्रत्यक्षात्मकज्ञान के प्रथमक्षण में उक्त अतीतत्व का ग्रहण माने तो वह ‘प्रत्यक्ष से भविष्यत् ( अनागत ) कालिक वस्तु का ग्रहण’ मानना ही होगा । पहिले कह आये हैं कि अतीत एवं अनागत कालिक वस्तु का ग्रहण प्रत्यक्ष के स्वभाव के प्रतिकूल है । अतः प्रत्यक्ष से ‘अनागतावेक्षणप्रसङ्ग’ अर्थात् अनागत वस्तु का ग्रहण स्वरूप प्रथम रूप दोष के कारण उक्त समाधान उचित नहीं है । न तृतीयः … " “द्वितीयक्षण में ज्ञान विद्यमान तो रहता है, किन्तु वह उस क्षण में किसी भी वस्तु को ग्रहण नहीं करता’ यह तृतीय विकल्प इस लिये उचित नहीं है कि वस्तुओं का ग्रहण करना ही ज्ञान का स्वभाव है । अतः जिस समय वह किसी वस्तु को ग्रहण नहीं करता उस समय वह ‘ज्ञान’ ही नहीं रह जाता । अतः ये दोनों बातें द्वितीयक्षण में ज्ञान की सत्ता तो रहती है, किन्तु वह (२) किसी वस्तु का ग्रहण नहीं करता । तस्मात् ज्ञान चुकि एक क्षण मात्र ही रहता है, अतः इन्द्रिय के द्वारा उसका ग्रहण नहीं हो सकता । परस्पर विरुद्ध है कि ( १ त गा रि का अथ वि जो तय वग पू वित हो व की व सि अनु ज्ञय यह सि० प० तदसत् ज्ञानं गृह्णाति
- … - बौद्धों का उक्त पक्ष असङ्गत है, क्योंकि यह कहना ही प्रसङ्गत है कि ‘ज्ञान से अर्थ का ग्रहण होता है’ ज्ञान तो स्वयं ‘ग्रहण’ स्वरूप है । तदनुसार बौद्धों के उक्त विकल्पों
हो का ज्ञान कोई चतुर्थः स्तबक ५४३ तथा च ज्ञानं प्रथमे क्षरणे यमर्थमालम्ब्य जातं द्वितियेऽपि क्षरणे तदालम्बनमेव तन्न वेति प्रश्नार्थः । । तत्र तदालम्बनमेव तदिति परमार्थः । न चैवं भ्रान्तत्वम्; विपरीतानव- गाहनात् । तथापि ज्ञेयनिवृत्तौ कथं ज्ञानाऽनुवृत्तिः ? । तदनुवृत्ती वा कथं ज्ञेयनिवृत्ति- रिति चेत्; किमस्मिन्ननुपपन्नम् ? । न हि ज्ञानमर्थश्चेत्येकं तत्त्वमेकायुष्कं वेति । का स्वरूप इस प्रकार निष्पन्न होता है कि ‘प्रथम क्षण में ज्ञान यद्विषयक उत्पन्न होता है, अपने स्थिति क्षण में अर्थात् द्वितीय क्षण में भी क्या उसी विषय का रहता है ? अथवा नहीं ? इस विकल्प में मेरा पक्ष है कि ‘प्रथम क्षण में ज्ञान यद्विषयक उत्पन्न होता है, द्वितीयक्षण में भी तद्विषयक ही रहता है, इस पक्ष के अवलम्बन से द्वितीयक्षणर्वात ज्ञान में जो भ्रमत्व की आपत्ति प्राई थी, वह मिट जाती है। क्योंकि ‘विपरीतावगाही’ प्रर्थात् तदभावति तत्प्रकारक ज्ञान ही ‘भ्रान्ति’ है । द्वितीयक्षणवश ज्ञान इस प्रकार का विपरीता- वगाही नहीं है । भवः उसे भ्रान्ति नहीं कहा जा सकता । 1 पू० प० तथापि … प्रत्यक्ष अपनी उत्पत्ति के क्षण में ( प्रथम क्षण में ) वर्तमानत्व विषयक है । द्वितीयक्षण से उस वर्तमानत्व का ( प्रथमक्षण में ज्ञान विषयीभूत वर्तमानत्व का) नाश हो जाता है। ऐसी स्थिति में यह कैसे सम्भव है कि प्रथमक्षणवतिज्ञान में विषयीभूत वर्तमानत्व का जिस द्वितीयक्षण में नाश हो जाता है, उस द्वितीयक्षण तक तद्विषयक ज्ञान की मनुवृत्ति बनी रहे, यदि द्वितीय क्षणतक ज्ञान की अनुवृत्ति रही तो उसका विषय (ज्ञेय ) जो वर्तमानत्व उसकी निवृत्ति द्वितीयक्षण में कैसे हुई ? अतः ज्ञान एक ही क्षण तक रहता है । सि० प० किमस्मिन् 633 द्वितीयक्षण पर्यन्त ज्ञान की अनुवृति रहती है— अतः उसका ज्ञेय वर्तमानत्व की अनुवृत्ति भी द्वितीय क्षण तब अवश्य रहे ? अथवा द्वितीय क्षण में चुकि वर्तमानत्व रूप ज्ञय की निवृत्ति हो जाती है— श्रतः ज्ञान की भी निवृत्ति द्वितीय क्षण में अवश्य हो- यह आवश्यक नहीं है । ये दोनों ही नियम निम्मलिखित दो हेतुधों में से किसी एक के रहने से ही निष्पन्न हो सकते हैं । ( १ ) ज्ञान एवं ज्ञेय दोनों एक ही पदार्थ है । ( २ ) ज्ञान एवं शेय दोनों का ‘आयुष्काल’ सत्ता का समय समान है । किन्तु दोनों में से एक भी सत्य नहीं है। न ज्ञान और ज्ञेय दोनों एक हैं, एवं न दोनों का आयुष्काल ही एक है । अतः उक्त आपधि का कोई मूल्य नहीं है ।
४४४ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली सत्यपि वा क्षणिकत्वे कथमप्रत्यक्षम् ? । इत्थं यथोच्यते - न स्वप्रकाशं वस्तुत्वादितरवस्तुवत् न च ज्ञानान्तरग्राह्यम्ः ज्ञानयोगपद्यनिषेधेन समानकालस्य तस्याभावात् । ग्राहककाले ग्राह्यास्यातीतत्वेन वर्तमानामत्वानुपपत्तेः । ग्राह्यकाले च ग्राहकस्यानागतत्वादिति चेत् । सत्यपि वा – ज्ञान में (द्वितीयक्षणवृशि ध्वं प्रतियोगित्व रूप ) क्षणिकत्व मान भी लें, तथापि वह क्षणिकत्व ज्ञान में मतीन्द्रियश्व का साधक कैसे होगा ? १ पू० प० इत्थम् 900 … . न स्वप्रकाशस् ज्ञान ‘स्वप्रकाश’ क्योंकि घटादि कोई भी अर्थात् ‘स्व’ रूप ज्ञान के द्वारा प्रकाशित नहीं हो सकता । वस्तु स्व के द्वारा प्रकाशित नहीं होता । ज्ञान भी चूकि ‘वस्तु’ है अतः वह भी ‘स्व’ रूप ज्ञान के द्वारा प्रकाशित नहीं हो सकता ( ज्ञानं न स्वप्रकाश्यं वस्तुस्वात् घटादिवत् ) । अतः ज्ञान स्वकाश नहीं है । न ज्ञानान्तरग्राह्यस् ? ज्ञान किसी दूसरे प्रत्यक्ष रूप ज्ञान से भी प्रकाशित नहीं हो सकता । क्योंकि (१) प्रत्यक्ष के प्रति विषय कार्यकालवरितया कारण है ( अर्थात् विषय के केवल प्रत्यक्ष के मव्यवहित पूर्व क्षण में ही रहना आवश्यक नहीं है, । किन्तु कार्य की उत्पशिक्षण तक उसका रहना कार्य की उत्पत्ति के लिये आवश्यक है ) किन्तु सो प्रकृत में सम्भव नहीं है । क्योंकि एक आत्मा में एक ही समय दो ज्ञानों का रहना ( ज्ञानयोगपद्य ) खण्डित है । अतः एक मात्मा में एक ही समय ‘प्राह्मज्ञान’ एवं ग्राहक रूप दूसराज्ञान इन दोनों का साथ रहना ही असम्भव है। क्योंकि जिस समय ग्राहकज्ञान रहेगा, उस समय ग्राह्यज्ञान अतीत हो गया रहेगा । एवं जिस समय ग्राह्यज्ञान रहेगा उस समय ग्राहकज्ञान रूप दूसरा ज्ञान ‘अनागत’ रहेगा। चूकि प्रत्यक्ष प्रमा ‘वर्तमान’ विषय का ही होता है अर्थात् वर्तमान वस्तु विषयक ही होता है । इस लिये अतीतज्ञान विषयक दूसरा ज्ञान ‘वर्तमानाम’ नहीं हो सकता । १. इस प्रन्थ को समझने के लिये बौद्धों के अभिप्रेत इन विकल्पों के ऊपर ध्यान देना चाहिये। ज्ञान, यदि प्रत्यक्षप्रमा का विषय है, तो वह कौन-सी प्रमा है ? ‘एव’ रूप को प्रत्यक्षप्रमा है, उसका ? अथवा ‘स्व’ से भिन्न किसी अन्य प्रत्यक्ष प्रमा का ? इन दोनों पक्षों में से प्रथम पक्ष का लयडन ‘न स्वप्रकाशम्’ इत्यादि सम्बर्भ • से किया गया है । एवं न ‘ज्ञानान्तरप्राइझम्’ इस सन्दर्भ के द्वारा कथित द्वितीय विकल्पवित हुआ है। स्व सि पू० सि नहीं यह विष न ज ज्ञात उत्प प्रत्य काल आव रहने विर क्यों वह की सकल स्वज
1 T न T न Et भ चतुर्थः स्तबकः ५४५ नन्वेवं ज्ञाततापि न प्रत्यक्षा स्यात्, क्षणिकत्वात् । कथम् ? इत्यम् – न स्वप्रकाशा, वस्तुत्वात् । न जनकग्राह्या; अनागतत्वात्, विरम्य व्यापारायोगाच्च । सि० प० नन्वेवम् इस रीति से तो क्षणिकत्व के द्वारा ज्ञातता में भी अतीन्द्रियत्व की सिद्धि हो सक्ती है । पू० प० कथम् ज्ञातता में प्रतीन्द्रियत्व की सिद्धि किस प्रकार होगी ? सि० प० इत्थम् ज्ञातथा चूकि वस्तु होने के कारण घटादि के समान ही ‘स्वप्रकाश’ अर्थात् स्वप्राह्य नहीं है, अतः ज्ञातता को भी प्रत्यक्षप्रमा के द्वारा ग्राह्य ही मानना होगा । इस स्थिति में यह पूछना है कि यदि ज्ञातता प्रत्यक्षप्रमा का विषय है, तो वह प्रत्यक्षप्रमा कौन-सी है ? १) जिस ‘ज्ञान’ रूप प्रत्यक्षप्रमा से ज्ञातता उत्पन्न होगी, वह उसी प्रत्यक्ष का विषय होगी ? ( २ ) अथवा दूसरी प्रत्यक्ष प्रमा का विषय होगी ? न जनकग्राह्या इन में प्रथमपक्ष ( अर्थात् ज्ञातता का जनकीभूत जो प्रत्यक्ष है, उसी का विषय ज्ञातता है, यह पक्ष ) इसलिये युक्त नहीं है कि ( १ ) जिस समय ज्ञातता के प्रत्यक्ष को उत्पन्न करनेवाली उक्त प्रत्यक्ष की सत्ता है, उस समय ज्ञातता ‘अनागत’ है । क्योंकि इस प्रत्यक्ष के बाद इसी प्रत्यक्ष से ज्ञातता उत्पन्न होगी । प्रत्यक्षप्रमा में उसका विषय ‘कार्य- कालविषया कारण हैं’ अर्थात् विषय रूप कारण को आवश्यक है । अतः ज्ञातता को उत्पन्न करनेवाली अथ च ज्ञातता के बनाघारभूत क्षण में रहनेवाली प्रत्यक्षप्रमा से ज्ञातता गृहीत नहीं हो सकती । विरम्य ……. प्रत्यक्ष की उत्पत्ति क्षण पर्यन्त रहना (२) दूसरी बात यह भी है कि इससे ‘विरम्य व्यापारयोग’ की भी आपत्ति होगी । क्योंकि ज्ञान का यह स्वभाव है कि जिस विषय को अवलम्ब कर वह उत्पन्न हो, उसको वह न छोड़े । एवं अन्य वस्तु का ग्रहण न करे । इस स्वभाव-नियम के अनुसार घटादि विषय की प्रमा अपनी उत्पत्ति के वाद घटादि विषयों को छोड़कर भौर किसी विषय को ग्रहण नहीं कर सकती । अतः अपने से उत्पन्न ज्ञातता का भी ग्रहण नहीं कर सकती । अतः ज्ञातता स्वजनकीत प्रत्यक्ष के द्वारा गृहीत नहीं हो सकती । ६६
५४६ गद्य पद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली न समसमयज्ञानग्राह्या; ज्ञानजनकेन्द्रियसम्बन्धाननुभवात् । न च तदुत्तरज्ञान- ग्राह्या; तदानीमतीतत्वादिति । क्षणिकत्वमेव तस्याः कुत इति चेत् त्वदुक्तयुक्तेरेव । तथा हि-यं क्षणमाश्रित्य जाता, ततः परमपि तमेवाऽऽश्रयतेऽन्यं वा ? न वा कमपीति ? वगा पुरो न समसमय …. … … त्वा (१ उससे पहिले नहीं । किन्तु ज्ञातता के अतः ज्ञातता के साथ एवं जो ज्ञातता से नहीं हो सकती । एक ही समय में नहीं पूर्व काल में रहने न ज्ञातता विषयक प्रत्यक्ष के लिये ज्ञातता के साथ इन्द्रिय का संनिष्कर्ष आवश्यक है । यह संनिकर्ष ज्ञातता की उत्पत्ति के बाद ही हो सकता है, प्रत्यक्ष से पहिले ही इस संनिष्कर्ष की अपेक्षा होगी । रहने वाली (ज्ञाततासमकालिक ) जो प्रत्यक्ष प्रमा है, वाले संनिष्कर्ष से उत्पन्न होती है उससे ज्ञातता गृहीत ( ज्ञावता की उत्पत्ति के वाद उत्पन्न होने वाली प्रत्यक्षप्रमा से ज्ञातता गृहीत नहीं हो सकती- यह द्वितीय विकल्प इसलिये अयुक्त है कि ) प्रत्यक्ष वर्तमान विषय का ही होता है । ज्ञातता के उत्तर काल में ज्ञातता प्रतीत हो जाती है, वर्त्तमान नहीं रह जाती । अतः ज्ञातता के उत्तर काल में ज्ञातता का प्रत्यक्ष हो ही नहीं सकता । इस लिये यह कहना संभव नहीं है कि ज्ञातता चूंकि ज्ञावता के उत्तर कालिक प्रत्यक्ष का विषय है, अतः वह प्रतीन्द्रिय नहीं है” 1 पू० प० क्षणिकत्वमेव … ज्ञातता में प्रतीन्द्रियत्व की मूल है ज्ञातता की क्षणिकता, किन्तु ज्ञातता में क्षणिकत्व के साधव का ही मूल क्या है ? सि० प० स्वदुक्त रेव 10 e … तथाहि ● ज्ञान में क्षणिकत्व के साधन के लिए आपने जिस प्रकार तीन विकल्पों को उपस्थित किया है, उसी प्रकार ज्ञापता में क्षणिकत्व के साधन के लिये भी ये तीन विकल्प उपस्थित किये जा सकते हैं । (१) जिस क्षण विषयक ज्ञान से जो ज्ञातता उत्पन्न होती है, वह ज्ञातता उसी क्षण में रहती है ? ( २ ) अथवा अन्य क्षणों में भी रहती है ? (३) किं वा कहीं रहती ही नहीं है ? १. ( इस प्रसज्ञ का जो ‘ज्ञातता स्वजनकीभूत प्रत्यक्ष प्रमा से भिन्न किसी दूसरी प्रत्यक्ष प्रमा से ही गृहीत होती है’ यह दूसरा विकल्प है, इसके दो विकल्प हो सकते हैं (१) ज्ञातता की स्थिति में ही रहने वाली (समकालिक ) जो प्रत्यक्ष प्रमा है, उसी से ज्ञातता का प्रत्यक्ष होता है ? अथवा (२) ज्ञातता की स्थिति के बाद उत्पन्न होने वाली जो प्रत्यक्षप्रमा है, उससे ज्ञातता गृहीत होती है। इनमें से स्थम पक्ष ‘न समसमय’ इत्यादि से खडित हुआ है एक एक जिस सक प्रथ जिस रह विष यह श्रव विव प्रभु विष न जन घम तृत
चतुर्थः स्तबक ! ५४७ तत्र न प्रथमः, तस्य तदानीमसत्वात् । न द्वितीयः, अप्रतिसंक्रमात् । एकक्षणा- वगाहिनि च ज्ञाने तदन्यक्षरणाऽऽयज्ञातताफलश्वेन प्रान्तत्वप्रसङ्गात् । रजतावगाहिनि पुरोर्वात्तवृत्तिज्ञातताफल इव । न चान्यमपि क्षणं ज्ञानमवगाहते; तदानीं तस्यास- स्वात् । न तृतीयः, नि:स्वभावताप्रसङ्गात् । न ह्यसो तदांनीं तदीया अन्यदीया वेति । ( १ ) तत्र न जिस क्षण विषयक ज्ञान से जो ज्ञातता उत्पन्न होती है, उस क्षण को सत्ता चूकि नहीं रहती है, अतः उस क्षण में उस ज्ञातता का रहना संभव नहीं हैं । न द्वितीयः ‘ज्ञातता चूँकि अमूर्त पदार्थ है, मतः वह चलनशील नहीं है । चलनशील पदार्थ ही एक स्थान से दूसरे स्थान में जा सकता है । चलनशीलता हो ‘प्रतिसंक्रम शीलता’ है । भवः एक स्थान को छोड़कर ज्ञातता का दूसरे स्थान में जाना सम्भव नहीं है । इसलिये ज्ञातता जिस क्षणविषयक ज्ञान के द्वारा उत्पन्न होती है, उस क्षण को छोड़कर दूसरे क्षणों में नहीं रह सकती । चलन शील पदार्थ ही ‘प्रतिसंक्रमशील’ हो सकता है । अतः ज्ञातता का ‘प्रतिसंक्रम’ अर्थात् एक प्राश्रय को छोड़ कर दूसरे आश्रय की अवलम्बन करना सम्भव नहीं है । अतः जिस क्षण विषयक ज्ञान से ज्ञावता उत्पन्न होगी, उससे भिन्न क्षणों में वह ज्ञातता नहीं रह सकती । एक विषयक ज्ञान से जहाँ दूसरे विषय में शातता उत्पन्न होती है, वहाँ वह ‘एक’ विषयक ज्ञान भ्रमात्मक ही होता है । जैसे कि आगे रखे हुए शुक्ति खण्ड विषयक जो ‘इदं रजतम्’ यह ज्ञान उत्पन्न होता है, उस ज्ञान से रजत में चूंकि ज्ञातता उत्पन्न होती है, अतः वह ज्ञान भ्रमात्मक होता है । इसी प्रकार यदि एक क्षणावच्छिन्नज्ञान से उत्पन्न ज्ञातता अपर क्षण का अवलम्बन करे तो ज्ञावता के जनकी भूत ज्ञान नियमतः भ्रमात्मक हो जांयेगे । अतः यह विकल्प भी प्रसङ्गत है । ( उस समय उस ज्ञान में कोई भी प्रत्यक्षण विषय नहीं है। ‘ज्ञान’ प्रकृत में प्रत्यक्ष प्रमा रूप है। चूंकि ‘तत्क्षण’ में अन्यक्षण की सत्ता नहीं है, अतः तत्क्षण विषयक प्रत्यक्ष कभी अन्यक्षण विषयक नहीं हो सकता ) । न तृतीय: … .. ज्ञाता का यह स्वभाव है कि वह उसी विषय में रहे जो उसके जनकीभूत ज्ञान का विषय हो । यदि अपनी उत्पत्ति क्षण के बाद ज्ञातता किसी आश्रय में रहती ही नहीं, तो फिर अपने जनकी भूत ज्ञान के विषय घटादि पदार्थों में मी उसको सत्ता नहीं रह सकती । धर्मी में जो धर्म कभी रहे, कभी नहीं, वह धर्म उस धर्मी का ‘स्वभाव’ नहीं कहला सकता । अतः उक्त तृतीय पक्ष को स्वीकार करने का यह अर्थ होता है कि या तो ज्ञातता अपनी उत्पत्तिक्षण के
५४८ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली प्रतीवेनापि तेनैव क्षणेनोपलक्षिताऽनुवत्तंत इति चेत्; एवं तहि वर्तमानाथंता प्रकाशस्य न स्यात् । अन्यथा ज्ञानस्यापि तथाऽनुवृत्तेः को दोषः ? | न हि वर्त्तमानार्थं प्रकाशसम्बन्धमन्तरेण ज्ञानस्यान्या वर्त्तमानावभासता नाम । अर्थनिरपेक्ष प्रकाशनानुवृत्तिमात्रेण तथास्वे भूतभाविविषयस्यापि ज्ञानस्य तथाभाव- प्रसङ्गात् । के बाद निःस्वभावक हो जाती है ? अथवा रहती ही नहीं । किन्तु ये दोनों ही बातें असङ्गत हैं । ज्ञातता भी अपने आश्रितत्व रूप स्वभाव को नहीं छोड़ सकती । किन्तु उस समय अपने आश्रय भूत विषय के न रहने से उसमें भी नहीं रह सकती, एवं अन्य ज्ञान के विषय में उसका रहना सम्भव ही नहीं है । ‘एवं ज्ञातो घटः’ इत्यादि प्रतीतियां जब घटज्ञान के बाद के क्षणों में भी होती है, तो उन क्षणों में ज्ञातता की सत्ता का अपलाप भी नहीं किया जा सकता । पू० प० प्रतीतेनापि विशेषण के लिए ही यह आवश्यक है कि विशेष्य की सत्ता के समय तक वह अवश्य रहे । उपलक्षण के लिये इसकी आवश्यकता नहीं है । तदनुसार द्वितीयज्ञण में स्थिति से युक्त ज्ञान मी अतीतकाल रूप प्रथमक्षणावच्छिन्न घटादि विषयक हो सकता है। इस प्रकार द्वितीय क्षण में विद्यमान ज्ञान का भी विषय प्रथमक्षण हो सकता है । अतः ज्ञातता अपनी उत्पत्ति के द्वितीयादि क्षणों में भी रह सकती है । अतः उक्त प्रतिबन्धि उचित नहीं हैं । सि० प० एवं तर्हि “प्रत्यक्ष में वर्त्तमान क्षणावच्छिन विषय हो भासित होता है” इस नियम के बल पर ही यह कहना संभव होता है कि ‘प्रकाश’ अर्थात् प्रत्यक्षत्रमा ‘वर्तमानार्थ’ है । यदि अतीत- क्षणावच्छिन्न विषय भी उक्त ‘प्रकाश’ में भासित हो तो ‘प्रकाश वर्त्तमानार्थक है’ यह नियम भङ्ग हो जायगा । यदि ‘प्रकाश’ रूप प्रत्यक्ष में प्रतीतकाल का भी भान मान लें, तो ज्ञान के क्षणिकत्व साधन के प्रसङ्ग में जो विकल्प उपस्थित किये गये थे, उन में प्रथम पक्ष को अर्थात् ‘स्थायी विज्ञान जिस अर्थक्षण को विषय कर उत्पन्न होता है, वह तदुत्तर क्षण में भी तद्विषयक ही रहता है" इस पक्ष को उपस्थित करना संभव नहीं होगा। क्योंकि वह पक्ष तो केवल इसी लिये अनुपपन्न होता है कि द्वितीय क्षण में प्रथमक्षण प्रतीत हो जाता है, एवं ‘प्रकाश’ प्रर्थात् प्रत्यक्ष प्रतीतक्षण विषयक नहीं होता है । किन्तु यदि ‘प्रकाश’ का अतीतक्षण विषयक होना संभव हो तो ज्ञान के प्रसङ्ग का उक्त प्रथमपक्ष भी अनुपपन्न नहीं रह जायगा । पू० प० प्रथंनिरपेक्ष… जबतक अर्थ के प्रकाश की अनुवृत्ति रहती है, तावत् पर्यन्त का जो खण्डकाल उसको वर्तमान काल समझ कर ‘प्रकाश’ को ‘वर्तमानार्थ’ कहा गया है । उसमें ‘प्रकाश्य’ रूप अर्थ (विषय) की सत्ता की अपेक्षा नहीं है। अतः वर्तमान क्षणावच्छिन्न घटादि जब तक प्रकाशित होते रहेंगे, तबतक वह ‘प्रकाश’ अर्थात् प्रत्यक्षात्मक ज्ञान ‘वर्तमानार्थ’ हो सकता त चे है वर सि व श म भ bc पू उ इ व भ सु F के ज्ञ ज्ञ प क ज्ञ स
चतुर्थ-स्तबंक: ५४६ अथ माभूदयं दोष इति स्थूल एवं वर्तमानः प्रकाशेऽऽश्रीयत इत्यभ्युपगमः, तदा तज्ज्ञानस्यापि स एव विषय इति तस्यापि न क्षणिकत्वमिति । ननु ज्ञानमेन्द्रियकं चेत्; विषयसञ्चारो न स्यात् सञ्जातसम्बन्धत्वात् । है । अतः द्वितीयक्षण में वर्तमान क्षण का विनाश हो जाने पर भी तद्विषयक ‘प्रकाश’ को वर्तमानार्थक होने में कोई अनुपपत्ति नहीं है । सि० प०० भूतभावि" यदि ऐसा हो अर्थात् केवल भासित होने मात्र से उस विषय के अधिकरणीभूत वर्तमानक्षण का भी अवभास हो, तो फिर भूत एवं भावि विषयक जितनी मी अनुमिति, शाब्दादि परोक्ष प्रतीतियाँ हैं, उन सबों में भी विषय के अधिकरणीभूत वर्तमान क्षण का मान मानना होगा । जिससे ज्ञानों का जो परोक्ष एवं अपरोक्ष ये दो भेद हैं, उनका लोप हो जायगा । अतः उक्त समाधान ठीक नहीं है। पू० प० अथ मा भूत जितने समय तक ज्ञातता की सत्ता अपेक्षित है, ज्ञातता की उत्पत्ति क्षण से लेकर उतने समय तक के क्षणों के समूह रूप स्थूल खण्ड काल को ही प्रकृत में ‘वर्तमानकाल’ कहते हैं । इस स्थूल काल के अन्तर्गत द्वितीय क्षण में यदि वह ज्ञान है, तथापि वह स्वाधिकरणीभूत वर्तमान काल में हो रहता है । अतः अग्रिम क्षण में ज्ञातता के प्रत्यक्ष में वर्तमान विषयकत्व अनुपपन्न नहीं है । इसलिए ज्ञातता के प्रसङ्ग में उक्त प्रतिबन्धी से कोई दोष नहीं होता है | सुतराम् ज्ञातता को क्षणिक मानने को मात्रश्यकता नहीं है । सि० प० तदा इस रीति से तो ज्ञान का क्षणिकत्व भी निराकृत हो सकता है। क्योंकि ज्ञान के प्रसङ्ग में भी यह कहा जा सकता कि ज्ञान जिस वर्तमानकाल को ग्रहण करता है वह ज्ञानाधिकरणी भूत् काल क्षणद्वयात्मक स्थूल काल ही है । अतः उत्पत्ति के दूसरे क्षण में स्थित ज्ञ न के वर्तमान विषयकत्व में कोई बाधा नहीं है । इसके लिये ज्ञान को ‘क्षणिक’ अर्थात् एक मात्र क्षणावस्थायी मानने की आवश्यकता नहीं है । अतः क्षणिकत्व हेतु से ज्ञान में प्रतीन्द्रियस्व की सिद्धि नहीं हो सकती । इस लिये ज्ञान के अतीन्द्रियत्व के द्वारा ज्ञातता की सिद्धि की आशा छोड़ देनी चाहिये । पू० प० ननु ज्ञानम् वस्तु ( १ ) इन्द्रिय वेध एवं ( २ ) अतीन्द्रिय दो ही प्रकार की होती हैं । अतः ज्ञान यदि इन्द्रिय वेद्य न हो सके तो भवश्य ही अतीन्द्रिय होगा । ज्ञान इन्द्रियवेद्य नहीं हो सकता । श्रतः अवश्य ही ज्ञान अतीन्द्रिय है। ज्ञान इन्द्रिय वेद्य इस लिये नहीं हो सकता CCO. Vasishtha Tripathi Collection. Digitized by eGangotri५५० गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली न च जिज्ञासानियमान्नियमः; तस्याः संशयपूर्वकत्वात् । कि उसके इन्द्रिय वेद्य होने पर घटादि अन्य किसी भी वस्तु का इन्द्रिय के द्वारा ग्रहण ही संभव नहीं होगा । क्योंकि ज्ञान के प्रत्यक्ष का प्रयोजक संनिकर्ष होगा ‘मन: संयुक्तसमवाय’’ मन के संयोग में भी कभी कोई बाषा इन्द्रियों का घदादि ( मन: संयुक्त है आत्मा, उसमें समवाय सम्बन्ध से रहने वाला पदार्थ है ज्ञान । अतः मन रूप इन्द्रिय का उक्त संनिकर्ष ज्ञान में है ) । यह संनिकर्ष स्वयं नित्य है, एवं आत्मा मोर मन ये दोनों भी नित्य है । अतः आत्मा के साथ नहीं है । घटादि विषयों के प्रयोजक संनिकर्ष हैं मन से संयुक्त चक्षुरादि विषयों के साथ संयोगादि रूप सम्बन्ध । इस सम्बन्ध की सत्ता कभी रहती है कभी नहीं । एवं सुषुप्ति काल को छोड़कर ( जिस समय घटादि विषयों का अवमास नहीं होता है ) । ज्ञान रूप विषय की सत्ता सदा बनी रहती है। इस स्थिति में ज्ञान रूप विषय का ही प्रत्यक्षात्मक ज्ञान सर्वदा होता रहेगा । घटादि विषयों का ‘सञ्चार’ अर्थात् प्रत्यक्षप्रमा रूप भवमास कभी भी नहीं होगा । ’ वा पू 15 ज 我 के अ दो के क ह सि० प० न च जिज्ञासा …. प्र जिज्ञासा को इसका नियामक मानेगें । १. अभिप्राय यह है कि ज्ञान रूप विषय को ज्ञापन कराने वाला इन्द्रिय संनिक सर्वदा रहेगा । घटादि विषयों को ज्ञापन करने वाला इन्द्रिय संनिकथं कभी रहेगा, कभी नहीं भी रहेगा । सर्वदा रहने वाले ज्ञान के भासक इन्द्रिय संप्रयोग के रहते घटादि के अवभासक इन्द्रिय संप्रयोगों से घटादि का भान तभी हो सकता है, जब कि परवर्ती घटादिभासक इन्द्रिय संप्रयोगों को पूर्ववर्ती ज्ञान ग्राहक इन्द्रिय संप्रयोग का बाधक मान हो। किन्तु ऐसा स्वीकार करने की कोई विशेष युक्ति नहीं है । एवं इन्द्रियों से घटादि विषयों की प्रत्यक्षप्रमा सर्वसिद्ध है। ज्ञान का प्रत्यक्ष विवादास्पद है । अतः यही माना उचित है कि जिस प्रकार आकाश के साथ इन्द्रियों का संनिकर्ष रहने पर भी धाकाश का प्रत्यक्ष नहीं होता है, इस लिये आकाश को प्रतीन्द्रय मान लेते हैं, उसी प्रकार ज्ञान के साथ मन का संयुक्त समवाय रूप सम्बन्ध रहने पर भी ज्ञान का प्रत्यक्ष नहीं होता है, अता ज्ञान अतीन्द्रिय है । २. अर्थात् जिस समय घटादि विषयों की जिज्ञासा रहेगी उस समय यदि उन घटादि विषयों के साथ इन्द्रियों का उपयुक्त संनिकर्ष रहेगा, तो ज्ञानभासक संनिकर्ष के रहने पर भी घटादि विषयों का ही प्रत्यक्ष होगा । जिस समय ज्ञान विषयक जिज्ञासा रहेगी, उस समय ज्ञानं मासक इन्द्रिय संप्रयोग से ज्ञान का प्रत्यक्ष ही होगा । अतः ज्ञान का प्रत्यक्ष स्वीकार करने पर जो घटादि विषयों के ‘सञ्चार’ अर्थात् प्रत्यक्ष की अनुपपत्ति दी गयी है, वह नहीं है । f
चतुर्थः स्तवक ५५१ तस्य च धर्मिज्ञानपूर्वं कत्वात् । धर्मिणश्च सन्निधिमात्रेण ज्ञाने, जिज्ञसाऽपेक्षणे वा उभयथाऽप्यनवस्थानादिति । तम्न, ज्ञ’ततापक्षेऽपि तुल्यत्वात् । पू० प० तस्य संशय जिज्ञासा का कारण है । संशय का कारण है धर्मिज्ञान । अतः ज्ञान विषयिणी जो जिज्ञासा होगी, उस में धर्मिज्ञान विषया ज्ञान का भी ज्ञान अपेक्षित होगा । इस स्थिति में यह पूछना है कि संशय के कारण रूप में यह ज्ञान विषयक ज्ञान केवल प्रात्मा एवं मन के संनिधि से ही होगा ? ( अर्थात् मनः संयुक्त समवाय रूप संनिकर्ष मात्र से होगा ? ) अथवा इस ज्ञान विषयक ज्ञान के लिये भी ज्ञान विषयिणी जिज्ञासा की अपेक्षा होगी ? इन दोनों विकल्पों में से किसी को भी ग्रहण करने से अनवस्था अवश्य होगी। क्योंकि यदि केवल इन्द्रिय संनिकर्ष से ही ज्ञान विषयक ज्ञान की उत्पत्ति मानें, तो उस ज्ञान परम्परा का कभी विच्छेद ही नहीं होगा। क्योंकि ज्ञान का उत्पादक उक्त संनिकर्ष नित्य है । यदि इस ज्ञान सामान्य विषयक ज्ञान में भी जिज्ञासा की अपेक्षा मानेगें, तो उस जिज्ञासा के प्रयोजकीभूत ज्ञानविषयक सामान्यज्ञान के लिये भी जिज्ञासा की अपेक्षा माननी होगी । अतः इस पक्ष में भी अनन्त ज्ञानों की परम्परा माननी होगी । इसलिये ‘जिज्ञासा’ को नियामक मानने से उमयथा अनवस्था दोष अनिवार्य है । अतः इन्द्रिय से विषयावभास को स्वीकार करने से कथित ‘विषयसंचारानुपपत्ति’ रूप दोष जागरूक है । तस्मात् ज्ञान को प्रतीद्रिय मानना ही उचित है । सि० प० तन्न, · ज्ञातताक्षेऽपि … मीमांसकों का उक्त कथन भी ठीक नहीं है, क्योंकि उनके मत से किसी भी विषय के ज्ञेयस्व की नियामिका ज्ञातता ही है । घटज्ञान के बाद घटज्ञान से चूंकि घट में ज्ञातता की उत्पत्ति होती है, एवं इसी ज्ञातता के द्वारा ‘ज्ञातो घट:’ इस आकार की प्रतीति होती है, इसी लिये घट को घटज्ञान का ज्ञेय मानें, तो ज्ञातता के प्रसङ्ग में भी यही बात उठेगी कि घट में रहनेवाली ज्ञातता के ज्ञेयत्व की नियामिका घटनिष्ठ ज्ञातता के ज्ञान से उत्पन्न होनेवाली कोई विलक्षण ‘ज्ञातता’ होगी । एवं इस विलक्षण ज्ञातता के प्रसंग में मी उक्त प्रसंग उपस्थित होकर अनन्त ज्ञातताओं के अनन्तज्ञान की धारा में पर्यवसित होगी, जो फलतः अनवस्था रूप होगी । यदि ज्ञातता के ज्ञान का प्रयोजक जिज्ञासा को माने, अर्थात् यह कहें कि जब तक ज्ञातता की जिज्ञासा रहेगी, तभी तक ज्ञातता की ज्ञानपरम्परा चलेगी। उसके बाद वह
५५२ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली तस्या श्रपि हि ज्ञेयत्वे तत्परम्पराज्ञानापाता जिज्ञासा नियमस्य च तद्वदनुपपत्तेः । न च इन्द्रिय सम्बन्ध विच्छेदाद्विराम इति युक्तम् श्रात्मप्राकटयाच्यापनात् । धारा ( परम्परा ) विच्छिन्न हो जायगी । अतः अनवस्था दोष नहीं है । किन्तु जिज्ञासा को नियामक मानने पर भी धनवस्था का उद्धार नहीं होगा, क्योंकि दूसरी रीति से अनवस्था प्रापन्न हो जायगी । अर्थात् जिज्ञासा के पहिले संशय की आवश्यकता होती है— संशय धर्मिज्ञान से उत्पन्न होता है । प्रकृत में ज्ञातता विषयकज्ञान जनकसामग्री की दशा में उक्त घमिज्ञान के संपादन के लिये धर्मिज्ञानजनकसामग्री की कोटि में ‘धर्मिजिज्ञासा’ का भी अन्तर्भाव करना होगा । इस प्रकार फिर ‘जिज्ञासा’ के आने पर कथित रीति से जिज्ञासा, संशय, धर्मिज्ञान इस रीति से अनवस्था मा पड़ेगी । पू० प० न चेन्द्रयसम्बन्ध हम ( मीमांसक ) ज्ञान को अतीन्द्रिय एवं ज्ञातता को इन्द्रियवेद्य मानते हैं । प्रत्यक्ष इन्द्रियसंनिकर्ष की मपेक्षा रखता है । प्रतः इन्द्रियवेद्य होने पर भी उसी ज्ञातता का प्रत्यक्ष होगा जिसके साथ इन्द्रिय का संनिकर्ष रहेगा, जिसके साथ इन्द्रिय का उपयुक्त संनिकर्ष नहीं रहेगा, उस ज्ञातता का प्रत्यक्ष नहीं होगा। ज्ञातता घटादि विषयों में रहती है । अतः इन्द्रिय घटादि विषयों के साथ सम्बन्ध युक्त होकर ही ज्ञातता के साथ सम्बद्ध होगी। जैसे कि घटत्वादि धर्मो के साथ सम्बद्ध होती है। भ्रतः घट में रहनेवाली ज्ञातता का प्रत्यक्ष घट को ग्रहण करने वाली चक्षुरिन्द्रिय अथवा त्वगिन्द्रिय से ही होगा । ज्ञातता के साथ इन इन्द्रियों का संनिकर्ष ‘इन्द्रियसंयुक्तसमवाय’ अथवा ‘इन्द्रियसंयुक्तविशेषणता’ रूप ही होगा । ऐसी स्थिति में घट रूप विषय के साथ यदि इन्द्रिय का संनिकर्ष विनष्ट हो जाय, तो उक्त समवाय अथवा उक्त विशेषणता रूप संनिकर्ष का भी विनाश हो जायगा । केवल समवाय प्रथवा केवल विशेषणता के नित्य होने पर भी उक्त विशिष्ट समवाय अथवा उक्त विशिष्ट विशेषणता का विनाश हो सकता है । अतः जिस समय ज्ञातता के प्राश्रयीभूत विषय के साथ इन्द्रिय के संनिकर्ष का विनाश हो जायगा, उसके बाद ज्ञातता विषयक ज्ञानों की धारा भी विच्छिन्न हो जायगी । अतः ज्ञातता की ज्ञानपरम्परा के मानन्स्य से जो अनवस्था दिलायी गयी है, वह उचित नहीं है । सि० प० ग्रात्मप्राकट्य " घटादि विषयों में रहनेवाली ज्ञाततामों के प्रसङ्ग में उक्त कथन ठीक हो सकता है, क्योंकि घटादि विषयों के साथ इन्द्रियों का सम्बन्ध अनित्य है । अतः उसके नाश से घटादि विषयों में रहनेवाली ज्ञातताओं में जो इन्द्रियों का संनिकर्ष है, उसका विनाश हो सकता है । किन्तु आत्मगत जो प्राकट्य (ज्ञातता ) है, उसके प्रत्यक्ष का प्रयोजक संनिकर्ष होगा, मनः संयुक्त घा ज सम वि तव पू० भी जि वह सि यह हौं, है । पक्ष पू० हो, व्य प्रत्य जिस है । सिं प्रक सि कह एल
चतुर्थः स्तबकः ५५३ स्वभावत एव काचिदसावजिज्ञासिताऽपि ज्ञायते, न तु सर्वेति चेत्तुल्यम् । प्रागुत्पन्नज्ञाततास्मरणजनितजिज्ञासः समुन्मीलितंनयनः सञ्जातज्ञान समुत्पादितप्राकट्य जिज्ञासुरेव प्रतिपद्यत इत्यतो नानवस्थेति चेत् तुल्यमेतत् । समवाय, उसका विनाश संभव नहीं है । अतः अन्य ज्ञावताओं के ज्ञानों की परम्परा में विच्छेद भले ही संभव हो, किन्तु आत्मनिष्ठ ज्ञातता विषयक ज्ञान के प्रसङ्ग में उक्त अनवस्था तदवस्थ रहेगी । अतः उक्त समाधान भी ठीक नहीं है । पृ० प० स्वभावतः .. ज्ञातता का यह स्वभाव है कि यह कभी जिज्ञासित होकर ज्ञात हो, एवं उसका यह भी स्वभाव है कि कभी अजिज्ञासित होकर भी ज्ञात हो । अतः ज्ञातता विषयक ज्ञान के साथ जिज्ञासा का सम्बन्ध नियत नहीं है । इससिये जिज्ञासा के नैयत्य से जो अनवस्था दी गयी है, वह ठीक नहीं है । सि० प० तुल्यम्" ज्ञानों के प्रसङ्ग में भी यही बात समान रूप से कही जा सकती है कि ज्ञानों का यह स्वभाव है कि वे कभी जिज्ञासित होकर ज्ञात हों, एवं कभी बिना जिज्ञासा के भी ज्ञात हो, अथवा कभी ज्ञात ही न हों। इसलिये ज्ञान के सभी ज्ञानों में जिज्ञासा की अपेक्षा नहीं जो ज्ञानों के प्रसङ्ग में | अतः जिज्ञासा के नैयत्य से पक्ष में भी नहीं है । पू० प० प्रागुत्पन्न" अनवस्था दी गयी है, वह इस धर्मों का जिस किसी प्रकार का ज्ञान ही जिज्ञासा का कारण है, वह ज्ञान स्मृति रूप हो, अथवा अनुभव रूप हो–इस में कोई धाग्रह नहीं है । ( कहने का अभिप्राय यह है कि) जिस व्यक्ति को पूर्वोत्पन्न ज्ञातता का सामान्य रूप से ज्ञान है, उस व्यक्ति के द्वारा ‘सामान्यलक्षणा- प्रत्यासति’ से एतत्कालिक ज्ञातता भी गृहीत है ही । अतः अभी की ज्ञातता के ज्ञान में जिस जिज्ञासा की अपेक्षा है। उसकी उपपत्ति उक्त सामान्यज्ञानमूलक स्मृति से भी हो सकती है। इसके बाद वर्तमान ज्ञासता का ज्ञान इन्द्रिय संनिकर्ष से हो जायगा । इस इन्द्रिय संनिकर्ष के विनष्ट हो जाने पर ज्ञातता के ज्ञान की परम्परा विच्छिन्न हो जायगी । इस प्रकार उक्त अप्रमाणिक अनवस्था दोष का परिहार हो सकता है । सि० पं० तुल्यमेतत्.. ज्ञान के प्रसङ्ग में जो अनवस्था दी गयी है, उसके प्रसङ्ग में भी समान न्याय से यह कहा जा सकता है कि सामान्यलक्षण संनिकर्ष के द्वारा ज्ञान पहिले से ही ज्ञात है । फलतः एतत्कालिक ज्ञान भी सामान्यतः ज्ञात ही है । ज्ञान के इस सामान्यज्ञान से स्मृति उत्पन्न होगी, ७०
५५४ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली ननु ज्ञानं न सविकल्पक ग्राह्यं तस्य निर्विकल्पकः पूर्वकत्वात्, निर्विकल्पक- गृहीतस्य तावत्कालानवस्थानात्, तस्य तेनेव विनाशात् । उसी से ज्ञान विषयक जिज्ञासा की उत्पत्ति हो सकती है। इस प्रकार जिज्ञासा के उत्पन्न होने पर इन्द्रियसंप्रयोगादि से ज्ञान विषयक ज्ञान की उत्पत्ति होगी। एवं उक्त जिज्ञासा के न रहने पर ज्ञान के ग्राहक इन्द्रिय संप्रयोग के रहने पर भी घटादि विषयों के साथ इन्द्रियसंप्रयोग के रहने पर घटादि विषयों का ‘संचार’ हो सकता है। अतः ज्ञान को इन्द्रियवेद्य मानने पर जो ‘विषयसंचारानुपपत्ति’ रूप दोष दिया गया है, वह वास्तव में नहीं है । प० प० ननु ज्ञानम्" प्रत्यक्षप्रमा के निर्विकल्पक और सविकल्पक ये दो भेद हैं । यदि ज्ञान का प्रत्यक्षप्रमा रूप ज्ञान हो, तो वह ज्ञान या तो निर्विकल्पक रूप होगा ? अथवा सविकल्पक रूप ? यदि यह सिद्ध हो जाय कि ज्ञान का न निर्विकल्पक प्रत्यक्ष हो सकता न सविकल्पक प्रत्यक्ष हो सकता है, तो यह सिद्ध हो जायगा कि ज्ञान इन्द्रियवेद्य नहीं है, अर्थात् अतीद्रिय है । विशिष्टबुद्धि के प्रति विशेषण का ज्ञान कारण है–इस न्याय से ज्ञान विषयक सविकल्पकप्रत्यक्ष रूप विशिष्ट बुद्धि का, ज्ञान विषयक निर्विकल्पकप्रत्यक्ष रूप ज्ञान, विशेषणज्ञान विषया कारण है । किन्तु ज्ञानविषयक निर्विकल्पक प्रत्यक्ष को स्वीकार करने पर ज्ञान का सविकल्पक प्रत्यक्ष ही न हो सकेगा। क्योंकि प्रत्यक्ष में विषय भी कारण है । एवं कार्यकाल विषया कारण है । अर्थात् प्रत्यक्षज्ञान की उत्पत्तिक्षण पर्यन्त विषय का रहना आवश्यक है । किन्तु प्रकृत में सो संभव नहीं है। क्योंकि जिस क्षण में ज्ञान की उत्पत्ति होगी, उसके अनन्तर क्षण में ही अन्ततः उसके साथ इन्द्रिय का संप्रयोग होगा । उसके अनन्तर क्षण में ही ज्ञान विषयक निर्विकल्पक ज्ञान ( यथा कथश्चित ) हो सकता है । किन्तु ज्ञान तो केवल दो क्षणों तक ही रहता है, अत: उसी क्षण में ज्ञान का नाश हो जायगा । फिर उसके बाद विषय से उत्पन्न होनेवाला सविकल्पक प्रत्यक्ष कैसे हो सकता है ? ( अर्थात् विषय को यदि कार्यकालविषया कारण न मानकर अव्यवहितपूर्वक्षणर्वात विषया ही कारण मानें, तथापि निर्विकल्पक ज्ञान से उत्पन्न होनेवाला सविकल्पक प्रत्यक्ष नहीं हो सकता ) यदि प्रत्यक्ष के प्रति विषय को कार्यकालविषया कारण मानें तो निर्विकल्पक ज्ञान को सविकल्पक ज्ञान का कारण न मानने पर भी ज्ञान का सविकल्पक प्रत्यक्ष न हो सकेगा। क्योंकि ज्ञान के साथ इन्द्रिय का संप्रयोग होने पर उसके बाद ही ज्ञान का प्रत्यक्ष होगा । किन्तु उसी क्षण में तो ज्ञान रूप विषय का नाश हो जायगा । पत: ज्ञान का सविकल्पक प्रत्यक्ष किसी भी प्रकार उपपन्न नहीं होता है । भ सा न स स प्र स प्र हो क्ष स ही स वह बु ज्ञ की के ( अ हो प्र से के जि To do df 2
T 5 3 5 T 5 प न T र चतुर्थः स्तवक नाऽपि केवलनिर्विकल्प कवेद्यम्; तस्य सविकल्पकोन्नेयत्वेन तदभावे प्रमारणा भावात् । न च समवायाभाववन्निर्विकल्पकनिरपेक्ष सविकल्पक गोचरत्वं ज्ञानस्येति साम्प्रतम् । नापि … … ज्ञान का केवल निर्विकल्पक प्रत्यक्ष सविकल्पक प्रत्यक्ष से अनुमान हो होता है । सत्ता का ज्ञापक कोई अन्य प्रमाण नहीं है । प्रत्यक्ष नहीं हो सकता’ । ज्ञान के सविकल्पक प्रत्यक्ष के न रहने पर वद्धेतुक अनुमान मात्र से सत्ता लाभ करनेवाला ज्ञान का निर्विकल्पक प्रत्यक्ष स्वतः विपन्न हो जाता है । इसलिये ज्ञान प्रत्यक्षवेद्य नहीं है, अतः ज्ञानप्रतीन्द्रिय है । भी नहीं हो सकता । निर्विकल्पक प्रत्यक्ष का तो इस अनुमान को छोड़कर निर्विकल्पक प्रत्यक्ष की किन्तु भभी कह आये हैं कि ‘ज्ञान का सर्विकल्पक ( किन्तु इस प्रसङ्ग में नैयायिक कह सकते हैं कि ज्ञान का सविकल्पक प्रत्यक्ष ही होता है । उसका निर्विकल्पक प्रत्यक्ष नहीं होता है । अत । मध्य में निर्विकल्पक ज्ञान के लिये एक क्षण अधिक मान लेने के कारण धागे के क्षण में ज्ञान के नाश हो जाने के कारण ज्ञान के सविकल्पक प्रत्यक्ष में कोई बाधा नहीं आती है । निर्विकल्पक ज्ञान को स्वीकार करने की एक ही युक्ति है कि विशिष्टबुद्धि रूप सविकलक ज्ञान के लिये अपेक्षित विशेषण विषयक ज्ञान का सम्पादन । जिस विशिष्टबुद्धि के लिये विशेषण ज्ञान का सम्पादन ‘अन्यथा संभव’ न हो, वहीं अगत्या विशेषण का निर्विकल्पक ज्ञान स्वीकार करना पड़ता है। किन्तु जिस विशिष्ट बुद्धि के लिये प्रपेक्षित विशेषण का ज्ञान दूसरे प्रकार से संभव हो, उस विषय के निर्विकल्पक ज्ञान को मानने की आवश्यकता नहीं है । जैसे कि प्रभाव एवं समवाय के सविकल्पक प्रत्यक्ष के लिये उनके निर्विकपक प्रत्यक्ष की आवश्यकता नहीं होती है । क्योंकि प्रभाव एवं ( सम्बन्ध रूप होने के कारण ) समवाय के प्रत्यक्ष में उनके दोनों सम्बन्धियों का अर्थात् प्रभाव के प्रतियोगी मोर धनुयोगी एवं समवाय ( सम्बन्ध ) के प्रतियोगी और अनुयोगी दोनों का साक्षात्कार क्रमशः दोनों के साक्षात्कार में अपेक्षित है। एवं इन दोनों विशेषणों से युक्त होकर अभाव और समवाय इन दोनों की विशिष्टबुद्धि होती है । समवाय और प्रभाव इन दोनों की विशिष्ट बुद्धि में अपेक्षित इनके अनुयोगी और प्रतियोगी के प्रत्यक्ष का चूंकि सविकल्प ही संभव है, अतः इन विशेषणों के सविवकल्पक प्रत्यक्ष से ही उक्त दोनों विशिष्टबुद्धिय हो जायगी । इसलिये उसके समवायस्व एवं प्रभावत्व इन दोनों के निर्विकल्पक प्रत्यक्ष की कल्पना अनावश्यक है । पत: यह नियम नहीं किया जा सकता कि जिसका सविकल्पक प्रत्यक्ष हो, उसका निर्विकल्पक प्रत्यक्ष भी अवश्य हो। इसलिये प्रकृत में यह
५५६ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली तयोर्विशेषणशिस्य प्राग्ग्रहणादनुमानादिवत्तदुपपत्तेः । प्रकृते तु ज्ञानश्वा- देरनुपलब्धेरगृहीतविशेषणायावच बुद्धेविशेष्यानुपसंक्रमाएकथमेवं स्यात् ? न, उत्पन्नमात्रस्यैव बाह्यविषयज्ञानस्यालोचनात् । कहना संभव है कि ज्ञान विषयक सविकल्पक प्रत्यक्ष तो होता है, किन्तु ज्ञान का निर्विकल्पक प्रत्यक्ष नहीं होता । ( अत) ‘निर्विकल्पक गृहीतस्य’ इत्यादि सन्दर्भ के द्वारा जो ज्ञान विषयक सविकल्पक प्रत्यक्ष का खण्डन किया गया है, वह ठीक नहीं है ) । पू० प० तयोः समवाय एवं प्रभाव इन दोनों का सविकल्पक प्रत्यक्ष विना निर्विकल्पक प्रत्यक्ष के इस लिये होता है कि उन दोनों के विशेषण स्वरूप अनुयोगी और प्रतियोगी इन दोनों का प्रत्यक्षात्मक ज्ञान पहिले ही किसी दूसरे प्रत्यक्ष प्रमाण से हो गया रहता है । किन्तु ज्ञान विषयक प्रकृत ज्ञान का विशेषणीभूत ज्ञानत्व प्रकारक ज्ञान प्रकृत प्रत्यक्ष से पूर्व किसी अन्य प्रत्यक्ष प्रमाण से संभव नहीं है। अतः जिनको ज्ञान का सविकम्पक प्रत्यक्ष मानना है, उन्हें ज्ञान का निर्विकल्पक प्रत्यक्ष भी मानना ही होगा । ज्ञान के सविकल्पक प्रत्यक्ष की अनुपपत्ति ‘ननु ज्ञानम्’ ’ इत्यादि सन्दर्भ से उपपादन कर चुके हैं । तस्मात् समवाय एवं प्रभाव इन दोनों के सविकल्पक प्रत्यक्ष के दृष्टान्त से ज्ञान के सविकल्पक प्रत्यक्ष में निर्विकल्पकज्ञानजन्यत्व का ‘खण्डन नहीं किया जा सकता । अतः ज्ञान अतीन्द्रिय है । सि० प० न, उत्पन्नमात्रस्यैव यदि सभी सfore प्रत्यक्षों में निर्विकल्पक प्रत्यक्ष की अपेक्षा मान भी लें, तथापि ज्ञान के सविकल्पक प्रत्यक्ष में कोई बाधा नहीं है, क्योंकि ज्ञान के सविकल्पक प्रत्यक्ष का एक नाम ‘अनुष्यवसाय’ भी है । अतः इस अनुव्यवसाय रूप ज्ञान विषयक प्रत्यक्ष विषयीभूत ज्ञान को ‘व्यवसाय’ नाम से अभिहित करना होगा । के जिस क्षण में यह ‘व्यवसाय’ रूप ज्ञान उत्पन्न होता है, उसी क्षण में ज्ञानत्व का ‘‘आलोचन’ प्रर्थात् निर्विकल्पक ज्ञान भी उत्पन्न होता है । उक्त व्यवसाय के पूर्व तृतीय क्षणवर्त्ती जो व्यवसायात्मक ज्ञान है ( अर्थात् जिस व्यवसाय का प्रकृत अनुव्यवसाय क्षण में नाथ होगा ) उसी व्यवसाय रूप ज्ञान के साथ प्रकृत व्यवसाय की उत्पत्ति के क्षण में ‘ज्ञानस्व’ का ग्रहण होता है । क्योंकि वर्तमानकालवर्त्ती ज्ञानस्व रूप विशेषण के ज्ञान से उक्त पूर्ववर्त्ती व्यवसायात्मक ज्ञान का ‘विकल्प’ अर्थात् सविकल्पक प्रत्यक्ष आगे के क्षण में
T- 7, क क स क त क्ष का त नों का क के का य में में से मैं चतुर्थ: स्तबक: ५५७ ततस्तत्पुरुसरं प्रथमत एव तज्जातीयस्य ज्ञानान्तरस्य विकल्पनात् । इन्द्रियसन्निकर्षस्य तदैव विशेषणग्रहरणलक्षणसहकारिसम्पत्तेः । व्यक्त्यन्त र समवेतमपि हि सामान्यं तदेवेत्युपयुज्यते । होता है। ज्ञानश्व रूप विशेषण के इसी ज्ञान से प्रकृत व्यवसाय रूप ज्ञान का भी सविकल्पक प्रत्यक्ष अगले क्षण में हो सकता है । " ( किन्तु इस प्रसंग में यह प्रापत्ति होती है कि निर्विकल्पक प्रत्यक्ष में विशेषण को विशेष्य के साथ ही भासित होना चाहिये । एक घट के साथ गृहीत गुणक्रियादि को विशिष्ट- बुद्धि दूसरे घट के साथ नहीं होती है । प्रकृत में भी प्रकृत व्यवसाय रूप ज्ञान के साथ ज्ञानस्व का निर्विवकल्पक ज्ञान नहीं होता है । किन्तु दूसरे व्यवसाय के साथ ज्ञानत्त्व निर्विकल्पक ज्ञान के द्वारा गृहीत होता है । ज्ञानश्व रूप विशेषण के इस निर्विकल्पक ज्ञान से प्रकृत व्यवसाय विशेष्यक सविकल्पक ज्ञान नहीं हो सकता । अतः उक्त प्रक्रिया बुद्धिमत्तापूर्ण होने पर भी उपयोगी नहीं है । इस प्राक्षेप का समाधान आचार्य यह देते हैं कि ) व्यक्त्यन्तरसमवेतम् । जो विशेषण अनेक विशेष्यों में रहता है, वह भी वास्तव में ( अनेक आश्रयों में रहते हुए भी ) ‘एक’ ही रहता है । अतः अपने आश्रयीभूत किसी एक विशेष्य व्यक्ति के साथ गृहीत होने पर भी अपने आश्रयीभूत अन्य विशेष्य के साथ वह विशिष्टबुद्धि में भासित हो सकता है । १. इस प्रसङ्ग को समझने के लिये निम्नलिखित क्षण प्रक्रिया के ऊपर ध्यान देना चाहिये। मान लिजिये प्रकृत व्यवसाय ‘घटव्यवसाय’ है, इसी का प्रत्यक्ष अगले चौथे चरण में होना है । तत्पूर्ववर्ती तृतीयक्षणवर्त्ति व्यवसाय पद से घट विषयक व्यवसाय को लें। (१) प्रथम क्षण में घट का व्यवसाय, (२) द्वितीय क्षण में घट व्यवसाय एवं तद्गत् ज्ञानश्व इन दोनों के साथ इन्द्रिय का सम्प्रयोग, (३) वदुत्तर तृतीय क्षण में घटव्यवसाय और तद्गत ज्ञानत्व का निर्विnars प्रत्यक्ष । ( ४ ) तदुशर चौथे क्षण में पूर्वज्ञान के साथ निर्विक्षपक ज्ञान में गृहीत ज्ञानत्व एवं इन्द्रिय के सम्प्रयोग इन दोनों से ज्ञान का सविकल्पक प्रत्यक्ष होगा । अतः ज्ञानों का प्रत्यक्ष असम्भव नहीं है ।
५५८ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली अन्यथा अनुमानादिविकल्पानामनुत्पादप्रसङ्गः । तद्गतस्य विशेषरणस्याग्रहणात्, प्रन्यगतस्य चानुपयोगात् कि लिङ्गग्रहणसहकारि स्यादिति । एतेन शब्दादिप्रत्यक्षं. व्याख्यातमिति । प्रकृत में ज्ञानत्व रूप विशेषण सभी ज्ञानों में एक है । अत: एक घटज्ञान रूप विशेष्य के साथ ज्ञात होने पर भी दूसरे ज्ञान विषयक ज्ञान में विशेषण विधया भासित हो सकता है । ‘अन्यथा’ यदि यह मानें कि जिस विशेषण का ज्ञान जिस विशिष्ट बुद्धि का कारण है, उस विशेषण को उसी विशेष्य के साथ पूर्व में ज्ञात रहना चाहिए तो अनुमानादि सभी ‘विकल्पों’ का प्रर्थात् विशिष्ट बुद्धियों का विलोप हो जायगा । अनुमिति रूप विशिष्टबुद्धि में विशेषण रूप से साध्यतावच्छेदक का भान होता है । ‘पर्वतो वह्निमान्’ इस आकार की अनुमिति रूप विशिष्टबुद्धि में वह्नित्व रूप साध्यतावच्छेदक का विशेषणविषया ज्ञान कारण है । किन्तु उक्त अनुमिति से पहिले वह्नित्व का भान व्याप्तिज्ञान अथवा परामर्श में ही हुआ है । किन्तु दोनों ही ज्ञानों में महानस रूप दृष्टान्त गत वह्नि वृत्तित्व रूप से ही वह्नित्व का भान हुआ है, पर्वतीयवह्नि रूप साध्यवृत्तित्व रूप से नहीं । अतः यदि उक्त नियम मानते हैं, तो महानसीयवह्निवृत्तित्व रूप से वह्नित्व रूप विशेषण के ज्ञान के द्वारा पर्वतीयवह्निविषयक विशिष्टबुद्धि नहीं हो सकेगी । इसी प्रकार शाब्दबोध रूप विशिष्टबुद्धि में भी जिस ‘शक्य’ व्यक्ति का भान होता है, तदभिम्न व्यक्तिवृत्तिस्त्र रूप से ही शक्यतावच्छेदक रूप विशेषण का ज्ञान पहिले रहता है । अतः उक्त नियम सङ्गत नहीं है। सुतराम् ज्ञानत्व विशिष्टज्ञान का (विशिष्ट) प्रत्यक्ष मनुपपन्न नहीं है । एतेन ( मीमांसकों ने ज्ञानों के क्षणिक होने के नाते ज्ञानत्व रूप विशेषणज्ञान की अनुपपत्ति वश जिस प्रकार की धापत्ति ज्ञान के विशिष्ट प्रत्यक्ष के प्रसङ्ग में दी है, वे लोग उसी प्रकार की मापत्ति शब्द को क्षणिक मानने पर ‘ग’ कारादि शब्दों की विशिष्टबुद्धि के प्रसङ्ग में भी देते हैं । । मीमांसकों का कहना है कि शब्द क्षणिक नहीं हैं, किन्तु व्यापक हैं । यदि ऐसा न मान तो गकारादि का जो सार्वजनीन विशिष्ट प्रत्यक्ष होता है, वह अनुपपन्न हो जायगा । क्योंकि ‘गत्व’ से युक्त गकार की विशिष्टबुद्धि रूप प्रत्यक्ष में ‘गस्व’ रूप विशेषण का ज्ञान कारण है । एवं गकार रूप विषय के साथ इन्द्रिय का संप्रयोग भी आवश्यक है । किन्तु गकार को यदि क्षणिक मान लेते हैं, तो जबतक उक्त इन्द्रिय संप्रयोग का संबलन होगा, तब तक गकार रूप विषय ही नष्ट हों जायगा । अतः शब्द क्षणिक नहीं है, किन्तु व्यापक है। मीमांसकों के इसी सिद्धान्त का खण्डन प्राचार्य ने ‘एतेन’ इत्यादि से किया है ) । T ना
चतुर्थः स्तबक। १५६ स्यादेतत् । विषयनिरूप्यं हि ज्ञान मिष्यते । न चातीन्द्रियस्य परमाण्वादेमंनसा वेदनमस्ति । न चाऽगृहीतस्य विशेषणत्वम् । न च नित्यपरोक्षस्यापरोक्षविशिष्ट- इस का यह अभिप्राय है कि–जिस प्रकार क्षणिकज्ञान के विशिष्ट प्रत्यक्ष की उपपत्ति की गयी है, उसी रीति से क्षणिक शब्द की विशिष्ट बुद्धि की भी उपपत्ति जाननी चाहिए ।’ पू० प० स्यादेतत् विषयनिरूप्यम् नैयायिक गण भी विषयावच्छिन्न ज्ञान का ही मानसप्रत्यक्ष मानते हैं, विषयानुपहित केवल ज्ञान का प्रत्यक्ष नहीं मानते हैं। एवं अतीन्द्रिय पदार्थ का मानस प्रत्यक्ष भी नहीं होता है । इस वस्तुस्थिति के अनुसार प्रतीन्द्रिय विषयकज्ञान का मानस प्रत्यक्ष नैयायिक भी स्वीकार नहीं करेंगे। इस प्रकार अतीन्द्रिय परमाणु प्रभूति के ज्ञानों में प्रतीन्द्रियत्व के स्थिर हो जाने पर उन्हीं को दृष्टान्त बनाकर सभी ज्ञानों में अतीन्द्रियस्य का साधन करेंगे ( ज्ञानानि प्रतीन्द्रियाणि ज्ञानत्वात् परमाण्वादि विषयकज्ञानवत् ) अतः ज्ञान अतीन्द्रिय है । न चागृहीतस्य यदि सभी ज्ञानों का मानस प्रत्यक्ष स्वीकार करेंगे, तो परमाणु प्रभृति अतीन्द्रियों के जो अनुमित्यादि ज्ञान होते हैं, उन ज्ञानों का भी मानस प्रत्यक्ष मानना होगा । ऐसा स्वीकार करने पर परमाणु प्रभृति का जो व्यतीन्द्रियत्व है, वही विपन्न हो जायगा । क्योंकि परमाणु आदि १. अर्थात् विषयीभूत गकार की उत्पत्ति से अव्यवहित पूर्व क्षण में अन्य गकार विशेष्यक गरव रूप विशेष प्रकारक उक्त ज्ञान उत्पन्न होता है ? उसके अव्यवहित उत्तर तय में कविवरवर्षि आकाश रूप श्रोत्रेन्द्रिय के साथ सम्बद्ध ही बकार की उत्पत्ति होती है । अर्थात् गत्व रूप विशेषण विषयकज्ञान के अव्यवहित उशर क्षण में गकार की उत्पति एवं, गकार रूप विषय के साथ इन्द्रिय संनिकर्ष दोनों एक ही क्षण में उत्पन्न होते हैं । उसके प्रव्यवहित उत्तर क्षण में गकार के विशिष्ट प्रत्यक्ष में कोई बाधा नहीं है। क्योंकि गकार विषयक विशिष्ट प्रत्यक्ष रूप कार्य के क्षण में गकार रूप विषय की सशा है : ( यही क्षण गकार का स्थितिक्षण है) एवं उसके अव्यवहित पूर्व क्षण में विशेषय का ज्ञान इन्द्रिय संप्रयोग प्रभृति कारण भी हैं—ऐसी स्थिति में शब्द को यदि क्षणिक मान लेते हैं तथापि शब्द विषयक उक्त विशिष्ट प्रत्यक्ष में कोई बाधा नहीं है । अव शब्द व्यापक नहीं है। CCO. Vasishtha Tripathi Collection. Digitized by eGangotriगद्यपद्यात्मक-श्यायकुसुमाञ्जली बुद्धिविषयत्वम्; व्याघातादिति । न । बाह्य न्द्रियग्राह्यस्य वा पूर्वज्ञानोपनीतस्यैव मनसा वेदनात् । अन्यथाऽतीन्द्रियस्मरणस्याप्यनुत्पत्तिप्रसङ्गात् । विषयक अनुमिति रूप ज्ञान जब मानस प्रत्यक्ष का विषय है, तो उसमें विषयीभूत परमाणु प्रभृति को भी उस प्रत्यक्ष का विषय मानना होगा । यह तो संभव ही नहीं है कि प्रत्यक्ष की विषयता - परमाणु धादि में न रहे, किन्तु वे प्रत्यक्षात्मक विशिष्ट बुद्धि के विशेषण हों । क्योंकि किसी भी विशिष्टबुद्धि का विषयोभूत विशेषण विशिष्टबुद्धि के द्वारा गृहीत हुये विना विशिष्ट बुद्धि का विशेषण नहीं हो सकता । एवं यह संभव नहीं है कि सर्वथा परोक्षवस्तु में अपरोक्ष (प्रत्यक्ष ) ज्ञान की विषयता रहे। क्योंकि परोक्षत्व अथवा अतीन्द्रियत्व अपरोक्ष ज्ञान की विषयता का अत्यन्ताभाव रूप ही है । किसी अतीन्द्रिय वस्तु में अपरोक्षज्ञान की विषयता को स्वीकार करना एवं अपरोक्षज्ञानीयविषयता का अभाव रूप प्रतीन्द्रियत्व को स्वीकार करना, परस्पर विरोधी बातें एक साथ नहीं स्वीकार की जा सकती । अतः अतीन्द्रिय परमाणु प्रभृति वस्तुओं के ज्ञान का प्रत्यक्ष नहीं हो सकता । यदि ऐसी बात है तो फिर उसी के दृष्टान्त से सभी ज्ञानों में प्रतीन्द्रियत्व का अनुमान हो सकता है । सि० प० न, बाह्य ेन्द्रियग्राह्यस्य ये दोनों । मन रूप इन्द्रिय के द्वारा जिस ज्ञान ( मानसप्रत्यक्ष ) की उत्पत्ति होगी, उसके लिये यह भाबश्यक नहीं है कि उस ज्ञान का विषय अवश्य ही बाह्य न्द्रिय ग्राह्म भी हो । परमाणु आदि यदि बाह्य इन्द्रियों से गृहीत नहीं भी होते हैं, तथापि मन के तद्विषयक ज्ञान के ग्रहण ( प्रत्यक्ष ) में कोई बाधा नहीं है । अर्थात् मन के द्वारा ज्ञान के प्रत्यक्ष में इसकी कोई अपेक्षा नहीं है कि विषयीभूतज्ञान का विषय भी इन्द्रिय ग्राह्य हो । अतः परमाणु आदि प्रतीन्द्रिय विषयक अनुमान प्रभृति ज्ञानों का मन के द्वारा प्रत्यक्ष में कोई बाधा नहीं है । ‘मन्यथा’ अर्थात् यदि मन रूप इन्द्रिय से उत्पन्न होने वाले ज्ञान विषयक ज्ञान में विषयीभूत ज्ञान के विषयों का इन्द्रिय से प्राझ होना आवश्यक हो, तो अतीन्द्रिय परमाणु प्रभूति वस्तुओं का स्मरण मो न हो सकेगा, क्योंकि स्मरण रूप ज्ञान भी मन से ही उत्पन्न होता है। किन्तु उसमें इन्द्रियग्राह्यत्व नहीं है । प्रतामन रूप इन्द्रिय से जो ज्ञान विषयक ज्ञान उत्पन्न होगा, उसके लिये यह आवश्यक नहीं है कि प्रत्यक्ष विषयोभूत ज्ञान का विषय इन्द्रिय प्राह्म ही हो । मत। परमाणु प्रभूति अतीन्द्रिय वस्तुओं के अनुमित्यादि परोक्षज्ञान का भी मन से ज्ञान हो सकता है । मन रूप इन्द्रियजन्य वह ज्ञान प्रत्यक्ष रूप ही होगा । न इ ’ ज्ञ अ न त से क 甲 उ स
व बा क 1) र त से ये । न 6 " उ चतुर्थः स्तबक | १६१ इयांस्तु विशेषः - तस्मिन् सति तद्वलादेव, प्रसति तु तननितवासनाबाद | न चैवं सति स्मरणमेतत्, इयांस्तु विशेष: ( इस प्रसङ्ग में पूर्वपक्षियों का प्राक्षेप है कि घटादि ज्ञानों के उत्पन्न होने पर उनके ‘घटमहं जानामि’ इत्यादि आकारों के प्रत्यक्ष को ‘अनुव्यवसाय’ कहा जाता है। एवं इस अनुष्यवसायात्मक ज्ञान से भागे स्मृति भी उत्पन्न होती है । किन्तु ज्ञान से उत्पन्न होनेवाला ज्ञान जब स्मरण रूप भी हो सकता है तो फिर घटादिज्ञानों से उत्पन्न होनेवाले अनुष्यवसाय रूप ज्ञानों को भी स्मृति रूप माना जा सकता है । इस का कोई भी नियामक नहीं है कि उक्त अनुव्यवसाय रूप ज्ञान स्मृति रूप न होकर साक्षात्कारात्मक अनुभव रूप ही हो। इस आक्षेप का यह समाधान है कि ) स्वजन्य जिस ज्ञान के क्षण में प्रयवा कि) तदव्यवहितपूर्वक्षण में कारणीभूत ( वा विषयीभूत) ज्ञान स्वयं विद्यमान रहता है, उस ज्ञान से उत्पन्न ज्ञान साक्षात्कारात्मक ( प्रत्यक्ष ) होता है, क्योंकि वही ज्ञान साक्षात्कार रूप कहलाता है, जिसके विषय के साथ इन्द्रिय का उपयुक्त संनिकर्ष रहे । अनुष्यवसाय रूप कथित ज्ञान का विषय जो व्यवसाय रूप ज्ञान है, उसके साथ मन का स्वसंयुक्त समवाय रूप संनिकर्षं संभव है । अत: अनुव्यवसाय रूप उक्त ज्ञान साक्षात्कार स्वरूप है । जिस ज्ञान से उत्पन्न ज्ञान के अव्यवहितपूर्वक्षण में कारणीभूतज्ञान का रहना संभव नहीं है, वह ज्ञान केवल स्वजनित संस्कार के द्वारा ही उक्त ज्ञान को उत्पन्न करता है। प्रत: इस प्रकार के ज्ञान स्मृति रूप हैं । ( अर्थात् छ प्रकार के जो प्रत्यक्ष के कारणीभूत संनिकर्ष हैं, उनमें से किसी संनिकर्ष के रहने से ज्ञान विषयक अनुव्यवसाय रूप ज्ञान साक्षात्कारात्मक होता है एवं उक्त संनिकर्ष के न रहने पर केवल ‘वासना’ (संस्कार) रूप संनिकर्ष के साहाय्य से जो ज्ञान विषयक ज्ञान उत्पन्न होता है, वह स्मरण रूप होता है । अतः अनुव्यवसाय के प्रत्यक्ष होने में कोई बाघा नहीं है ) । पू० प० न चैवम् ( ज्ञान विषयक प्रत्यक्ष रूप ) अनुव्यवसाय का आकार है ‘घटमहं जानामि’ इसमें ‘अयं घट:’ इस प्रकार का ज्ञान प्रावश्यक होता है । फलतः अनुव्यवसाय में जो घट भासित होता है, वह ‘मयं घट:’ इस व्यवसाय से गृहीत रहता है। छातः यह कहा जा सकता है कि सभी मनुष्यवसाय ‘गृहीत प्राही’ अर्थात् पूर्वज्ञातविषयक ही होते हैं। अनुभव ७१
१६२ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली श्रगृहीतज्ञानगोचरत्वात् । न च विषयांशे तत्तथा स्यादिति युक्तम्; श्रवच्छेदकतया प्रागवस्थावदव भासनात् । रूप साक्षात्कारात्मक ज्ञान को अज्ञातविषयक ( अगृहीतग्राही ) होना चाहिये | अनुव्यवसाय रूप ज्ञान चूंकि अगृहीतग्राही नहीं है, अतः उसे अनुभव रूप नहीं माना जा सकता । अनुभव रूप न होने से उसकी प्रत्यक्षता ( साक्षात्कारात्मकता ) स्वतः खण्डित हो जाती है । तस्मात् ज्ञानप्रतीन्द्रिय है । सि० प० प्रगृहीत अनुव्यवसाय में विषयीभूत ज्ञान पहिले से गृहीत नहीं है । अतः अनुव्यवसाय एक ऐसा ग्रहण रूप ज्ञान है, जिसका विषय पूर्वगृहीत नहीं है । इसलिये अनुव्यवसाय प्रगृहीतविषयक ग्रहण रूप है । इमी लये अनुव्यवसाय अनुभव रूप हो सकता है । सुतराम् अनुव्यवसाय के अनुभव रूप न होने से जो अपरोक्षत्व की अनुपपत्ति दी गयी है, वह ठोक नहीं है । ’ पू० प० न च विषयांशे 1 उक्त विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि अगृहीतग्राही ( पहिले से अज्ञात विषयक ) ज्ञान ही ‘अनुभव’ है, एवं पूर्वज्ञात विषयक ( गृहीतग्राही ) ज्ञान ही ‘स्मृति’ है । इस निष्कर्ष के अनुसार कथित धनुष्यवसाय रूप ज्ञान जैसे कि अनुभव है । क्योंकि ‘घटभहं जानामि’ इस अनुष्यवसाय में विषयीभूत ‘ज्ञान’ पहिले से गृहीत नहीं है । एवं उसी का घट रूप विषय पूर्वगृहीत है, प्रत: भी यह नहीं कहा जा सकता कि अनुव्यवसाय स्मृति रूप परोक्षज्ञान नहीं है । सि० प० अवच्छेदकतया ’ स एवायं देवदत्त’ इस प्रकार के ‘प्रत्यभिज्ञान’ रूप प्रत्यक्षात्मक ज्ञान में पहिले से ज्ञात पूर्वावस्था रूप ‘तत्तांश’ के भासित होने पर भी उसके प्रत्यक्ष होने में कोई बाधा नहीं १. कहने का अभिप्राय है कि वही ज्ञान अनुभव रूप है जिसका प्रधान विषय पूर्वगृहीत न हो। यह आवश्यक नहीं है कि उसके सभी विषय पहिले से अज्ञात ही हों। स्मृति के लिये ही यह आवश्यक है कि उसके सभी विषय पूर्वगृहीत ही हों। अतः अनुव्यवसाय का घट रूप एक विषय यदि पूर्व से ज्ञात भी है, रूप दूसरा विषय पूर्व से ज्ञात नहीं है । अतः अनुब्यवसाय के पूर्वगृहीत नहीं है, अतः उसे स्मृति रूप नहीं माना जा सकता । विषय के अगृहीत होने के कारण वह अनुभव रूप हो सकता है । तथापि उसका ज्ञान सभी विषय चू कि एवं ज्ञान रूप एक पह भ नह भी तथ घट इस bo पू नहं स्म एव रूप वि एत प्रथ हो पत सि ओ अनि ( = प्रक
चतुर्थः स्तबक ५६३. म; य नव क क ) स The हं ट प से ET 1 न 5 5 न च प्रत्यभिज्ञानमपि ग्रहणस्मरणाकारम् विरोधात् । । पहुंचती है । इससे यह सिद्ध होता है कि ‘विशिष्टबुद्धि’ रूप प्रत्यक्षात्मक ज्ञान में इतना ही श्रावश्यक है कि विशेष्य रूप में ( विशेष्य विषया) जिसका भान हो, उसे पहिले से ज्ञात नहीं रहना चाहिये । अर्थात् विशेषण रूप से भासित होनेवाला विषय यदि पहिले से ज्ञाव भी हो, तथापि कोई क्षति नहीं । 1 इस स्थिति में उक्त अनुव्यवसाय का घट रूप विषय यदि पूर्व से ज्ञात भी है, तथापि उस अनुव्यवसाय के प्रत्यक्ष होने में कोई बाधा नहीं है । क्योंकि उक्त अनुव्यवसाय में घट विशेषण रूप से ही विषयोभूत ज्ञान में इस रीति से भी कथित प्रनुव्यवसाय का प्रत्यक्षत्व खण्डित नहीं होता । पू० प० न च प्रत्यभिज्ञानमपि 1 मासित होता है, विशेष्य रूप से नहीं । अतः ‘प्रत्यभिज्ञान’ रूप दृष्टान्त के बल से ‘अनुव्यवसाय’ में प्रत्यक्षस्व की सिद्धि ही उचित नहीं है । क्योंकि हम लोग ( भीमांसक गण ) तुल्य युक्ति से प्रत्यभिज्ञान को भी प्रहण एवं स्मरण एयुभयात्मक ही मानते हैं । । अतः ‘अनुव्यवसाय’ भी ग्रहण एवं अनुभव एतदुभयाकारक है । स्मृति है ‘परोक्षज्ञान’ एवं अनुमिति प्रभृति अनुभव रूप ज्ञान मी ‘परोक्ष’ रूप ही हैं । छतः ग्रहणत्व ( अनुभवस्व ) एवं परोक्षत्व इन दोनों में परस्पर कोई विरोध नहीं है । इसलिये प्रत्यभिज्ञान अथवा अनुव्यवसाय प्रभृति ज्ञान ग्रहण एवं स्मरण एतदुभयाकारक हो सकते हैं । किन्तु प्रत्यक्षत्व एवं परोक्षत्व ये दोनों धर्म तो परस्पर विरुद्ध हैं । प्रतः प्रत्यभिज्ञा प्रथवा अनुव्यवसाय इन दोनों में से कोई भी ज्ञान अनुभव एव स्मरण एतदुभयाकारक नहीं हो सकत! । प्रकृत अनुव्यवसाय को दोनों ही पक्ष गृहोतग्राही (पूर्वज्ञातविषयक ) मानते हैं, मतः वह प्रत्यक्ष नहीं हो सकता । सि० प० विरोधात् —- ग्रहणस्व ( अनुभवस्व ) एवं स्मृतित्व ये दोनों धर्म परस्पर विरोधी हैं । जब ग्रहणस्व और स्मृतित्व का विरोध है तो फिर ग्रहणत्व का व्याप्य प्रत्यक्षत्व के साथ भी स्मृतित्व का विरोष अनिवार्य है । अतः प्रत्यक्षत्व और स्मृतित्व ये दोनों धर्म किसी एक धर्मों में नहीं रह सकते । ( अर्थात् जिस प्रकार कोई भी ज्ञान स्मृति एवं अनुभव एतदुभयात्मक नहीं हो सकता उसी प्रकार ) कोई भी ज्ञान प्रत्यक्ष एवं स्मृति एतदुभयाकारक नहीं हो सकता । " १. आचार्य का आशय यह है कि प्रत्यभिज्ञान में अथवा अनुष्यवसाय में जो पहिले से ज्ञात पूर्वावस्था (तत्ता ) अथवा घटादि का जो मान होता है, उन विषयों के
१६४ मद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जलो अथ ग्रहणस्मरणयोः कियती सामग्री ? अधिकोऽर्थसन्निकर्षो ग्रहणस्य, संस्कारमात्रं सन्निकर्षः स्मरणस्य । अथ ग्रहरणत्वेऽपि कुत एतदपरोक्षाकारम् ? पू० प० प्रथ … अनुव्यवसाय अथवा प्रत्यभिज्ञा से पहिले उनमें भासित होनेवाले घटादि अथवा सत्ता प्रभूति विषयों का पूर्वानुभव जनित संस्कारों की सत्ता माननी होगी। ऐसा स्वीकार करनेपर यह प्रश्न होता है कि संस्कार से अव्यवहित उत्तर क्षण में उत्पन्न कोई ज्ञान जब ग्रहण ( अनुभव ) रूप भी हो सकता है, तो फिर संस्कार से उत्पन्न फलतः संस्कार के अव्यवहित उत्तरक्षणवत्ति कौन सा ज्ञान ग्रहण रूप है ? एवं कौन सा ज्ञान स्मृति रूप है ? इसका नियामक कौन होगा ? सि० प० अधिक …. जिस ज्ञान के लिये विषय के साथ इन्द्रिय के संनिकर्ष की अपेक्षा हो वह ज्ञान है ( प्रत्यक्षात्मक ) ग्रहण रूप । इस ज्ञान से पहिले संस्कार के रहने या नहीं रहने से कोई भी क्षतिवृद्धि नहीं होती है । तदनुसार मनुव्यवसाय एवं प्रत्यभिज्ञा ये दोनों ही ज्ञान ग्रहण ( प्रत्यक्ष ) रूप हैं । एवं केवल संस्कार ( अर्थात् इन्द्रिय संनिकर्षादि से असहकृत संस्कार ) से उत्पन्न ज्ञान ही स्मृति रूप है । अतः अनुष्यवसाय वा प्रत्यभिज्ञा स्मृति रूप नहीं हैं । पू० प० प्रथ ग्रहरणत्वेऽपि ••• प्रत्यभिज्ञा प्रथवा धनुष्यवसाय यदि ग्रहण ( अनुभव ) रूप ही है (स्मृति रूप नहीं ) ‘तब भी ये अपरोक्षज्ञान ( प्रत्यक्षात्मक ) ही हैं’ ऐसा निर्णय नहीं किया जा सकता । क्योंकि प्रहण रूप ज्ञान भी तो प्रत्यक्ष एवं परोक्ष भेद से दो प्रकार के हैं । अपरोक्षानुभव है प्रत्यक्षात्मक ज्ञान एवं परोक्षात्मक अनुभव है अनुमित्यादि । अतः अनुव्यवसायादि अनुमित्यादि परोक्षात्मक अनुभव रूप भी हो सकते हैं। क्योंकि अतीन्द्रिय वस्तुओं का भी अनुमित्यादि रूप परोक्षानुभव होते ही हैं । पतः यह कहना ठीक नहीं है कि ‘अनुव्यवसाय अथवा प्रत्यभिज्ञा चूकि ग्रहण ( अनुभव ) रूप हैं, अतः वे प्रत न्द्रिय नहीं हो सकते । पूर्वज्ञान से उत्पन्न संस्कार उसका प्रयोजक नहीं है । किन्तु उनके भान का प्रयोजक इन्द्रियसंनिकर्ष ही है । ‘सोऽयं देवदच:’ इस प्रत्यभिज्ञान के स्थल में देवदत्त के साथ चक्षु का संयोग संनिकर्ष है, एवं देवदस में रहनेवाली ‘उत्ता’ के साथ चढ़ का ही ‘स्वसंयुक्तविशेषणत।’ रूप संनिकर्ष है । एवं ‘घटमहं जानामि’ इस अनुष्यवसाय स्थल में ज्ञान के साथ मन का ‘स्वसंयुक्तसमवाय’ रूप सम्बन्ध है, एवं उसी ज्ञान में विशेषणीभूत घट के साथ उसी मन का ‘स्वसंयुक्तसमवेतविशेषणता’ रूप संनिकर्ष है । अतः प्रत्यक्षत्व के प्रयोजक इन्द्रियसंनिकर्ष से ही जब प्रस्यभिज्ञा एवं अनुष्यवसाय दोनों ही उत्पन्न होते हैं, तो वे दोनों ही सर्वांश में प्रत्यक्ष ही हैं।
त्रं ता पर इ इत का है chocho 5 ई ण :) क है दि रूप का त्त स वं चतुर्थ स्तबक कारणान्तरनिरपेक्षेण संस्काराधिकसन्निकर्षवतेन्द्रियेण जनितत्वात् । सि० प० कारणान्तर" ५६५ प्रथमत: ज्ञानों के तीन विभाग हो सकते हैं (१) केवल संस्कार रूप व्यापार से उत्पन्न - जो ‘स्मृति’ कहलाती है शाब्दबोधादि परोक्षानुभव रूप हैं । (२) लिङ्गज्ञान प्रथवा शक्तिज्ञान से उत्पन्न ये अनुमिति । (३) लिङ्गज्ञान एवं शक्तिज्ञान इन दोनों की अपेक्षा न रखते हुये जो केवल इन्द्रियसंनिकर्ष से हो उत्पन्न हो - यह ज्ञान अपरोक्षानुभव रूप है । यह अपरोक्षानुभव भी दो प्रकार का है ( १ ) केवल इन्द्रिय संप्रयोगजन्य - जिसमें संस्कार के साहाय्य की अपेक्षा न हो। इसी के अन्तर्गत ‘अयं घट:’ इत्यादि ‘व्यवसाय’ रूप ज्ञान आते हैं । (२) संसकार सहकृत इन्द्रिय संप्रयोगजन्य - अनुव्यवसाय अथवा प्रत्यभिज्ञान इसी अपरोक्षानुभव के अन्तर्गत आते हैं । ज्ञानों के इस वर्गीकरण से स्पष्ट हो जाता है कि धनुव्यवसाय एवं प्रत्यभिज्ञा ये दोनों न स्मृति रूप है, न परोक्षानुभव रूप ही हैं । अतः परिशेषात् ये दोनों अपरोक्षानुभव रूप ही हैं । " १. वर्द्धमान ने अपनी प्रकाश टीका में थाचार्य के एक समाधान की आलोचना करते हुए लिखा है कि वास्तव में प्रत्यभिज्ञा संस्कार से उत्पन्न न होकर स्मृति से उत्पन्न होती है । अर्थात् पूर्वदृष्ट देवदस की स्मृति एवं इन्द्रियसंप्रयोग इन्हीं दोनों से ‘सोऽयं दवदत्तः’ यह प्रत्यभिज्ञा उत्पन्न होती है । यदि ऐसा न मानकर ठक्क प्रत्यभिज्ञा की उत्पत्ति संस्कार एवं इन्द्रियसंप्रयोग इन दोनों से मानें, तो उसका ‘परोक्ष’ होना अनिवार्य हो जायगा। क्योंकि संस्कार तो पूर्वानुभव रूप करण का केवल व्यापार मात्र हैं । यदि प्रत्यभिज्ञा को संस्कार रूप व्यापार जन्य मानेंगे, तो उसे संस्कार जनक पूर्वानुभव रूप ‘करण’ जम्य भी मानना ही होगा । जिससे प्रत्यभिज्ञा का अपरोक्षध्व ही खतरे में पड़ जायगा। क्योंकि ज्ञान रूप करण से भिन्न करण से ( ज्ञानाकरणक) उत्पन्न ज्ञान ही ‘अपरोक्षाकारक’ ज्ञान है । यदि प्रत्यभिज्ञा को साक्षात् स्मृति जन्य मानते हैं, तो स्मृति रूप ज्ञान में प्रत्यभिज्ञा को कारणता हो जाती है, करणता नहीं । अतः प्रत्यभिज्ञा ज्ञान रूप कारण से उत्पन्न होने पर भी ‘ज्ञानाकरणक’ रह जाती है, इस प्रकार प्रत्थमिशा का अपरोक्षाकारस्व निर्विघ्न हो जाता है । इसी प्रकार अनुष्यवसाय को भी संस्कार जन्म न मानकर स्मृतिजन्य मान लेने से उसका भी अपरोक्षाकारकस्व निर्विवाद हो जाता है।
५६६ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली अथ कः सन्निकर्षं ? ज्ञानेन संयुक्तसमवायः, तदर्थेन संयुक्तसमवेतविशेषणत्व- मिति । मनसो निरपेक्षस्य बहिर्व्यापारेऽन्धबधिराद्यभावप्रसङ्ग इति चेत् । पू० प० प्रथ कः प्रत्यक्ष के लिये विषय एवं इन्द्रिय का संनिकर्ष आवश्यक है । अतः अनुष्यवसाय अथवा प्रत्यभिज्ञा को भी यदि मानस प्रत्यक्ष रूप मानेंगे तो इनके विषयों के साथ मन रूप इन्द्रिय का संप्रयोग ( संनिकर्ष ) मानना ही होगा : वह ‘संसर्ग’ कौन सा होगा ? ( अर्थात् अनुव्यवसाय अथवा प्रत्यभिज्ञा में ऐसे भी विषय भासित होते हैं, जिनकी सत्ता उस समय नहीं रहती है । उस समय उन प्रविद्यमान विषयों के साथ इन्द्रिय का संप्रयोग संभव नहीं है । अत। यही कहना पड़ेगा उन स्थलों में विषय और इन्द्रिय का संप्रयोग नहीं है । फलतः वे स्मरण ही हैं । प्रतः सभी अनुध्यवसायों को अथवा सभी प्रत्यभिज्ञानों को नियमतः प्रत्यक्ष नहीं कहा जा सकता ) 1 सि० प० ज्ञानेन । अनुव्यवसाय में भासित होनेवाले ‘ज्ञान’ रूप विषय के साथ मन का स्व-संयुक्तसमवाय रूप संनिकर्ष है ( स्व-मन, तरसंयुक्त-आत्मा, उसमें समवाय सम्बन्ध से ज्ञान की सत्ता है ) । एवं विषयीभूत इस ज्ञान में घटादि विशेषण हैं । वे विद्यमान रहें अथवा अविद्यमान रहें- दोनों ही स्थितियों में वे ज्ञान के विशेषण हैं। क्योंकि अतीतादि विषयों का भी ज्ञान होता है । अतः अनुव्यवसाय के विषयीभूत ज्ञान के विशेषण (विषय) घटादि में मन का स्वसंयुक्त समवेत विशेषणता रूप सम्बन्ध निर्विवाद है । स्व-मन तत्संयुक्त प्रात्मा, तत्समवेत- ज्ञान, इस ज्ञान में विषयता सम्बन्ध से घटादि विशेषण हैं। अतः अविद्यमान घट में भी मन का उक्त सम्बन्ध है । इसलिये प्रनुव्यवसाय के किसी भी अंश में प्रत्यक्षत्व की अनुपपत्ति फलतः परोक्षत्व की प्रापति नहीं है । पू० प० मनसः .. 4.6.9 इस प्रकार यदि मन रूप इन्द्रिय के द्वारा अविद्यमान वस्तु का भी प्रत्यक्ष हो, तो फिर संसार से अन्धों मोर बहरों की सत्ता हो उठा देनी होगी । क्योंकि मन नित्य है, वह अन्धों और बहरों के पास भी है ही । अतः यदि केवल मन, चक्षु, श्रोत्रादि बहिरिन्द्रियों के साहाय्य के बिना ही, षट शब्दादि विषयों के प्रत्यक्षों का उत्पादन कर सकता है, तो फिर कौन अन्धा मीर बहरा रह जायगा ? अतः यह कहना होगा कि ‘निरपेक्ष’ ( अर्थात् चक्षुरादि के साथ सम्बन्ध के बिना ) ‘बहिर्व्यापार’ में ( घटादि बालवस्तुओं के प्रत्यक्ष प्रयोजक संनिकर्ष रूप व्यापार में ) समर्थ नहीं है । फलतः मन स्वतन्त्र रूप से घटादि बाह्यवस्तुपों के प्रत्यक्ष का उत्पादन f क फ्र अ स्व स प्र इ अ 15 16 को ए BG पू नह तो
चतुर्थः स्तबक! ५६७ ज्ञानावच्छेदकं प्रति नाऽयं दोषः । न च ज्ञानापेक्षया बहिरित्यस्ति । नाऽपि तद्विषयापेक्षया निरपेक्षत्वम्, तस्यैव ज्ञानस्यापेक्षरणात् । तथाऽपि ज्ञानं प्रत्यक्षमित्यत्र किं प्रमाणम् ? नहीं कर सकता, ‘धान्तरिक’ इच्छा प्रभृति वस्तुओं के प्रत्यक्ष का ही उत्पादन कर सकता है । अतः जिन अनुव्यवसायों में अतीत घटादि भासित होते हैं, उन घटादि विषयों का प्रत्यक्ष नहीं हो सकता । इसलिये सभी धनुव्यवसायों को सभा अंशों में प्रत्यक्ष नहीं कहा जा सकता । पू० प० ज्ञानावच्छेदकम् O ज्ञान में ‘अवच्छेदकीभूत’ अर्थात् विशेषणीभूत विषयों का अनुव्यवसाय में प्रत्यक्षतः भान मानने पर भी अन्ध बधिरादिका लोप रूप दोष नहीं हो सकता । क्योंकि ‘ज्ञान’ स्वरूप आन्तरवस्तु के साथ सम्बद्ध होने के नाते घटादि विषय सामान्यतः बाह्य होते हुये भी वस्तुतः ‘आन्तर’ हो जाते हैं । सि० प० नापि … उक्त प्रश्न का दूसरा समाधान यह है कि ‘व्यवसाय’ रूप ज्ञान भी ‘अनुष्यवसाय’ का कारण है ।. ‘रूपं साक्षात्करोमि’ एवं ‘शब्दं शृणोमि’ इन दोनों अनुव्यवसायों के प्रति क्रमशः रूप का व्यवसाय स्वरूप ज्ञान, एवं शब्द का व्यवसाय स्वरूप ज्ञान भी कारण अर्थात् रूपं साक्षात्करोमि इस अनुव्यवसाय का कारण रूप का साक्षात्कारात्मक व्यवसाय स्वरूप ज्ञान है, एवं ‘शब्द साक्षात्करोमि’ इस अनुष्यवसाय का ‘शब्द विषयक साक्षात्कारात्मक’ व्यवसाय रूप ज्ञान कारण है। सुतराम् मन से जो उक्त अनुव्यवसाय रूप प्रत्यक्ष उत्पन्न होंगे, उनमें उक्त व्यवसाय स्वरूप साक्षात्कारात्मक ज्ञानों की भी अपेक्षा होगी । इससे यह निष्पन्न होता है कि मन अनुव्यवसाय रूप प्रत्यक्ष का भी उत्पादन ‘निरपेक्ष’ होकर स्वतन्त्र रूप से नहीं कर सकता, मन को भी अनुव्यवसाय के उत्पादन में व्यवसाय की अपेक्षा है । अन्ध को रूप का साक्षात्कारात्मक व्यवसाय रूप ज्ञान नहीं रहता । एवं वषिर को शब्द का साक्षात्कार स्वरूप व्यवसाय नहीं होता । अतः अन्ध को रूप का धनुव्यवसाय एवं वधिर को शब्द का अनुव्यवसाय नहीं होता । पू० प० तथापि … … इतने पर्यन्त के सन्दर्भ यही दिखलाया गया है कि ज्ञान के प्रत्यक्ष का कोई बाधक नहीं है । किन्तु बाधक के न रहने से ही तो किसी वस्तु की सिद्धि नहीं हो सकती, उसके लिये तो साधक प्रमाण की सत्ता भी चाहिये । साधक प्रमाण एवं बाधक प्रमाण इन दोनों के न
५६८ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली प्रत्यक्षमेव । यदसूत्रयत्- ‘ज्ञानविकल्पानां भावाभावसंवेदनादध्यात्मम्’ ( न्याय०. ५-१-३१ ) इति ॥ ४ ॥ ननु नेश्वरज्ञानं प्रमा, नित्यत्वेना फलत्वात् । नाऽपि प्रमारणम्, अकारकत्वात् । अत एव च न तदाश्रयः प्रमावेति । रहने से तो ‘ज्ञान का प्रत्यक्ष हो अथवा नहीं ?" इस प्रकार का संशय ही हो सकता है । यह निर्णय नहीं हो सकता कि ‘ज्ञान का प्रत्यक्ष हो’ । सि० प० प्रत्यक्षमेव ••• ‘जानामि’ इस प्राकार का मानस प्रत्यक्ष ही ज्ञान विषयक प्रत्यक्ष की सत्ता का साधक प्रमाण है । इस प्रसङ्ग में महर्षि गौतम ने भी ‘ज्ञानविकल्पानाम्’ इस सूत्र के द्वारा कहा है कि ‘ज्ञानों के जो नानाविध ‘विकल्प’ अर्थात् प्रकार हैं, उनकी सत्ता एवं उनके ‘अभाव’ अर्थात् असत्ता के नाना प्रकार के ( घट को देखता हूँ पट को नहीं ) बोध चुकि ‘अध्यात्म’ अर्थात् प्रात्म विशेष्यक होते हैं, अतः ज्ञान प्रत्यक्षवेद्य है ॥ ४ ॥ पू० प० ननु नेश्वरज्ञानस् .. । ईश्वर का ज्ञान यदि ‘प्रभा’ है तो ‘निस्य’ नहीं हो सकता, । ‘प्रमा’ चूकि ‘प्र’ पूर्वक ‘मा’ धातु का अर्थ है, अतः एक विशेष प्रकार की ‘क्रिया’ ही है । क्रिया अवश्य ही किसी से उत्पन्न होती है । ( अर्थात् ‘क्रिया’ नित्य नहीं हो सकती ) । अतः ‘प्रमा’ रूपा ‘क्रिया मी अवश्य ही किसी से उत्पन्न होगी । सुतराम् ईश्वरज्ञान यदि नित्य है, तो वह धात्वर्थं क्रिया नहीं है, तो फिर ‘प्र’ स्वरूप नहीं हो सकती । ईश्वर ज्ञान जब सामान्यतः ‘क्रिया’ स्वरूप पूर्वक ‘मा’ धात्वर्थ ‘क्रियाविशेष’ स्वरूप भी नहीं हो सकती । एवं ईश्वरीय प्रमा यदि नित्य है, तो वह ‘प्रमाण’ भी नहीं हो सकती। क्योंकि कोई भी नित्य पदार्थ ‘कारक’ नहीं हो सकता । क्योंकि प्रकृत में ‘कारक’ शब्द से ‘करण’ कारक अभिप्रेत है । व्यापार से युक्त असाधारण कारण ही ‘करण’ है । नित्यवस्तु का कोई व्यापार नहीं हो सकता । तस्मात् ईश्वरीय ज्ञान यदि नित्य है तो वह ‘प्रमाण’ भी नहीं हो सकता । अत एव ईश्वर ‘प्रभाता’ भी नहीं हो सकते। क्योंकि प्रमा का समवायिकारण होना ही ‘प्रमातृत्व’ है । किन्तु ईश्वरीयज्ञान नित्य होने से जब कार्य हो नहीं है, तो फिर किसके समवायिकरण होने के नाते ईश्वर प्रमाता होंगे ?’ १. अर्थात् यदि ईश्वर प्रमाता नहीं हैं तो फिर अखिलज्ञान राशि वेदों की रचना प्रमातृत्व शून्य पुरुष से स्वीकार नहीं की जा सकती । अतः वेदकर्त्ता के रूप में ईश्वर की सिद्धि की आशा छोड़ देनी चाहिये। इसी प्रक्षेप के समाधान के लिये ‘मिति। सम्यकपरिवित्तिः’ यह मलोक लिखा गया है।
व’ 1 ह क है वि वि चंक से भी कया ‘प्र’ भी प्रेत हो उच्यते चतुर्थः स्तबक मितिः सम्यक्परिच्छित्तिस्तद्वत्ता च प्रमातृता । तदयोगव्यवच्छेदः प्रामाण्यं गौतमे मते ॥ ५ ॥ ५६९ समीचीनो ह्यनुभवः प्रमेति व्यवस्थितम् । तथा चानित्यत्वेन विशेषरणमनर्थकम् । नित्यानुभवसिद्धो तद्वयवच्छेदस्या निष्टत्वात्, असिद्धौ च व्यवच्छेद्याभावात् । सि० मितिः सम्यक् परिच्छित्तिः " 1 ‘सम्यक्परिच्छित्ति’ प्रर्थात् यथार्थानुभवस्व ही प्रमाज्ञान का सामान्य लक्षण है । यह लक्षण नित्यप्रमा में भी है, अनित्य प्रमा में भी है । जिस ‘क्रिया’ शब्द से ‘प्रमा’ अभिहित होती है, वह ‘क्रिया’ केवलं ‘घात्वर्थ’ रूप है। घावर्थं रूपा यह क्रिया नित्य मी हो सकती है जैसे कि ‘सत्ता’ एवं अनित्य भी हो सकती है जैसे कि गमनादि क्रिया । अतः कार्यत्व ( उत्पत्तिमत्व ) के साथ घास्वर्थत्व इस ‘क्रियात्व’ कोई नियत सम्बन्ध नहीं है । इसलिये ज्ञान की नित्यता उसके प्रमात्व का बाधक नहीं हो सकती । तद्वत्ता च प्रमातृता"" प्रमाज्ञान का रहना ही ‘प्रमातृता’ है, यह प्रमातृता ईश्वर में हैं। प्रमातृत्व प्रमाज्ञान का कर्तृस्वरूप नहीं है । क्योंकि क्रिया के प्रति ‘स्वतन्त्र’ ‘अर्थात् कर्तुं मकतु मन्यथाक समर्थ’ ही कर्ता है। ज्ञान रूप क्रिया का ऐसा कोई कर्ता हो ही नहीं सकता । श्रग्नि के स्पर्थ से जिस उग्न उष्णस्पर्श का मान होता है-उसे कोई नहीं चाहता । भान होने पर उसका निवारण भी नहीं किया जा सकता । उसको शीतस्पर्थ के भान में बदलना भी संभव नहीं है । अतः प्रमाज्ञान का रहना ही ‘प्रमातृत्व’ है । इस प्रकार का प्रमातृत्वं प्रमाज्ञान को नित्य मानने पर भी पूर्ण सम्भव है । तदयोगव्यवच्छेदः " 14 गौतमे मते रण फिर तृत्व की नति। महर्षि गौतम के मत से ‘प्रामाण्य’ शब्द का अर्थ प्रमा का करणस्व रूप नही है । किन्तु ‘प्रमा’ के साथ ‘अयोग व्यवच्छिन्न सम्बन्ध ही’ ( सतत सम्बन्ध ही ) प्रामाण्य है । इस प्रकार का प्रामाण्य ईश्वर के व्यापारशून्य होने पर भी उनमें पूर्ण संभव है । अतः ईश्वर के प्रामाण्य में कोई धनुपपत्ति नहीं है । सि० प० समीचीनो हि . . ‘साम्यमिति’ अर्थात् समीचीन अनुभव (यथार्थानुभव) ही ‘प्रमा’ है । प्रमा का यह लक्षण निर्णीत हो जाने पर जो कोई ‘प्रमा’ को नियमत: ‘कार्य’ प्रर्थात् नियमतः किसी से उत्पन्न मानते हैं, उनसे पूछना चाहिये कि ‘प्रमा के लक्षण में आप ‘प्रनित्यत्व’ विशेषण क्यों देते हैं ? १. अवतरण प्रन्थ में यही आक्षेप किया गया है कि ईश्वर का ज्ञान चूकि निष्य है, अतः वह प्रमा नहीं हो सकता । इसका यह फलितार्थ हुआ कि प्रमा के सभी लक्षणों में अन्ततः ‘अनित्यत्वे सति’ यह विशेषण देना धावश्यक है । ७२ 1 CCO. Vasishtha Tripathi Collection. Digitized by eGangotriपू७० गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली न चेदमनुमानम्; प्राश्रयासिद्धिबाधयोरन्यतराक्रान्तत्वात् । विशेष्य को अपने से इतर पदार्थों से भिन्न समझानेवाला हो विशेषण’ है । प्रकृत मैं उक्त ‘प्रनित्यत्व’ विशेषण से किस ज्ञान में प्रमात्व की व्यावृत्ति अभिप्रेत है ? इस प्रश्न के उत्तर में पूर्वपक्षवादी को यही कहना पड़ेगा कि निस्यज्ञान में प्रमालक्षण की अतिव्याप्ति न हो, इसी के लिये प्रमा के लक्षण में प्रनित्यत्व विशेषण देते हैं । किन्तु ‘व्यावृत्ति’ उसी वस्तु की हो सकती है जो कहीं प्रसिद्ध हो । अर्थात् व्यावृत्ति के लिये व्यावर्त्य का प्रसिद्ध होना नावश्यक है । इस स्थिति में प्राक्षेप करनेवाले पर यह अवान्तर प्रश्न किया जा सकता है कि प्रकृत में जिस नित्यज्ञान की प्राप व्यावृत्ति करना चाहते हैं, वह कहीं प्रसिद्ध है ? अथवा नहीं ? यदि वह प्रसिद्ध है ? अर्थात् नित्यज्ञान की कहीं सत्ता है, तो उस में प्रमा ज्ञान का लक्षण जाना ही चाहिये । यदि प्रमा के लक्षण में ‘अनित्यत्व’ विशेषण दें तो वह प्रमा का लक्षण कथित नित्यज्ञान में अव्याप्त हो जायगा । अतः मनित्यत्व विशेषण के द्वारा व्यावर्त्य नित्यज्ञान की यदि सत्ता मानते हैं तो अनित्यश्वविशेषण व्यर्थ नहीं हो जाता, किन्तु उस विशेषण के देने से नित्यज्ञान रूप प्रमा में अव्याप्ति का वह प्रयोजक हो जाता है । यदि उक्त प्रनित्यत्व विशेषण का कोई व्यावर्त्य नहीं है— अर्थात् नित्य प्रमा की सत्ता ही नहीं है (कोई भी प्रमा नित्य नहीं है ) तो अनित्यत्व विशेषण किसको व्यावृत्ति के द्वारा अपने को सार्थक करेगा ? अतः इस पक्ष में अनित्यत्व विशेषण का वैयर्थ्य अनिवार्य है | न चेदम्… (किसी का कहना है कि ) ईश्वरप्रमा को छोड़कर और सभी प्रमायें फलात्मक हैं । मतः वे सभी प्रमायें प्रनित्य हैं । यतः इन प्रमाओं के दृष्ठान्त से यह कहा जा सकता है ईश्वर की प्रमा भी अनित्य ही हैं । यदि ईश्वरीय ज्ञान प्रनित्य नहीं है, तो वह प्रमा भी नहीं है। ईश्वरीय ज्ञान को प्राप निश्य मानते हैं, अतः वह प्रभा नहीं हो सकता। इससे यह अनुमान वाक्य निष्पन्न होता है कि “ईश्वरज्ञानं न प्रमा फलानात्मकत्वात् यन्नैवम् तन्नैवम् यथा घटप्रमादि” किन्तु यह अनुमान भी संभव नहीं है, क्योंकि इस अनुमान में (१) माश्रयासिद्धि एवं (२) बाब ये दो दोष विद्यमान हैं । (१) इस अनुमान को उपस्थित करनेवाले मीमांसकगण चूंकि ईश्वर की सत्ता को स्वीकार नहीं करते, अतः ईश्वरीय ज्ञान की सत्ता को भी स्वीकार नहीं करते । अतः a a Я ६ ल f उ य f
चतुर्थं स्तबक ५७१ त न न त्रु T 日 ? T T न तत्प्रमाकररणमिति स्विष्यत एव प्रमया सम्बन्धाभावात् । तदाश्रयस्य तु प्रमातृत्वमेतदेव यत् तत्समवायः । कारकत्वे सतीति तु विशेषणं पूर्वव न्नरथं- कमनुसन्धेयम् । यद्येवम्, ‘श्राप्तप्रामाण्यात् ’ ( न्याय सु. २-२-६७ ) इति सूत्रविरोधः । तेन हीश्वरस्य प्रामाण्यं प्रतिपाद्यते, न तु प्रमातृत्वमिति चेन्न । ईश्वरीयज्ञान को पक्ष बनाकर जितने भी अनुमान प्रस्तुत किये जायेंगे, वे सभी प्राश्रयासिद्धि दोष से ग्रसित होंगे । अतः कथित अनुमान में भी आश्रयासिद्धि दोष है, इसलिये इस अनुमान के द्वारा ईश्वरीयज्ञान में अप्रमात्व की सिद्धि नहीं की जा सकती । (२) इसी प्रकार उक्त अनुमान में ‘बाघ’ दोष भी है ( अर्थात् ईश्वरीयज्ञान की सत्ता को स्वीकार कर यदि उक्त अनुमान में आश्रयासिद्धि दोष का उद्धार कर भी लेंगे, तथापि इस अनुमान में बाघ दोष अपरिहार्य ही रहेगा। क्योंकि ईश्वरीयज्ञान रूप पक्ष में अप्रमात्व रूप साध्य के अभाव स्वरूप प्रमात्व का निश्चय ‘यः सर्वज्ञः स सर्ववित्’ इत्यादि श्रुति प्रमाणों के द्वारा सिद्ध है, अतः इस दोष के कारण भी उक्त अनुमान से ईश्वरीय ज्ञान में अप्रमात्व की सिद्धि नहीं की जा सकती ) । ( कारिका के द्वितीय चरण की व्याख्या) न तत्’’ 104 ईश्वरीय प्रमा ‘स्व’ स्वरूप प्रपना करण तो अवश्य ही नहीं है, अतः ईश्वर में इस प्रकार के अप्रामाण्य की आपत्ति इष्ट ही है । तदाश्रयस्य … … ( कारिका के उत्तराद्धं की व्याख्या ) ईश्वर में प्रमातृत्व का इतना ही अर्थ है कि नित्यप्रमा का समवाय उन में है । कारकत्वे सति… ( किसी का कहना है कि अस्मदादि में भी प्रमातृत्व है । इन सभी स्थानों में प्रमाता को ‘प्रमा’ का ‘कर्तृ’ कारक रूप में ही देखा जाता है । इस से यह निष्पन्न होता है कि ‘प्रमा का समवायी होने के साथ-साथ जो कर्ता कारक होगा, वहो प्रमाता होगा। ईश्वर ‘कारक’ नहीं है । अतः वे ‘प्रमाता’ नहीं हो सकते । इस आक्षेप का यह समाधान है कि ) यदि कोई ‘कारक ’ न होते हुए भी ‘प्रमाता’ है, तो फिर प्रमातृत्व के लक्षण में ‘कारकत्व’ विशेषण देने से प्रमातृत्व लक्षण की भव्याप्ति उस ‘अकारक प्रमाता’ पुरुष में होगी। यदि कोई ऐसा प्रमाता ही नहीं है जो कारक न हो ( अर्थात् प्रमाता कारक हो हो ) तो फिर उक्त लक्षण में ‘कारकत्व’. विशेषण देना ही व्यर्थ है । क्योंकि उसका कोई व्यवच्छेद्य नहीं है । अतः उक्त आक्षेप उचित नहीं है । यद्येवम् … ‘प्राप्तप्रामाण्यात्’ (२-१-६६ ) इस न्यायसूत्र के द्वारा ईश्वर में प्रमातृत्व का मभिधान किया गया है। यदि ईश्वर को प्रमाता स्वीकार नहीं करेंगे, तो उक्त सूत्र का विशेष होगा । अतः उक्त प्रार्षवाक्य रूप शब्द प्रमाण के अनुरोध से भी ईश्वर को ‘प्रमाता’ मानना चाहिए ।
१७२ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली निमित्तसमावेशेन व्यवहारसमावेशा विरोधात् । प्रमासमवायो हि प्रमातृ- व्यवहारनिमित्तम्, प्रमया स्वयोगव्यवच्छेदेन सम्बन्धः प्रमाणव्यवहारनिमित्तं तदुभयश्च श्वरे । अत्रापि कार्ययेति विशेषणं पूर्ववदनर्थं कमूहनीयम् । सि० प० न, निमित्त समावेशेन ….. उक्त कथन उचित नहीं है, क्योंकि ‘निमित्त’ का अर्थात् ‘प्रवृत्तिनिमित्त’ का जो ‘समावेश’ अर्थात् समानाधिकरण्म है, उसके बल से ‘प्रामाण्य’ एवं ‘प्रमातृत्व’ इन दोनों का विरोध मिट जाता है । ’ प्रमासमवायो हि ‘प्रमा का समवाय’ प्रमातृ पद के व्यवहार का ‘निमित्त’ ‘प्रवृत्तिनिमित्त’ है । अर्थात् जहां प्रमा का समवाय रहता है, उसी वस्तु को समझाने के लिये अभिधा वृत्ति के द्वारा ‘प्रमातृ ’ पद की ‘प्रवृत्ति’ अर्थात् प्रयोग होता है । एवं जिस वस्तु में प्रमा का प्रयोगव्यवछिन्न सम्बन्ध है, उसको समझाने के लिये ही ‘प्रमाण’ पद की प्रवृत्ति अथवा प्रयोग होता है । फलतः एक ही पुरुष को समझाने के लिये ‘प्रमातृ’ पद एवं ‘प्रमाण’ पद दोनों की प्रवृत्ति होती है । ईश्वर में प्रभातृ पद का प्रवृतिनिमित्त जो प्रमा का समवाय एवं ‘प्रमाण्य’ पद का प्रवृत्तिनिमित्त जो प्रमा का अयोग व्यवछिन्न सम्बन्ध ये दोनों ही ही हैं, अतः ईश्वर ‘प्रभाता’ और प्रमाण दोनों ही हैं । प्रत्रापि 8000040 ( इस प्रसङ्ग में यह प्राक्षेप हो सकता है कि जन साधारण कार्य रूप ( अनित्य ) प्रमा के समवाय से युक्त पुरुष में ‘प्रमातृ’ पद का एवं कार्य रूप प्रमाके अयोगव्यवछिन्न सम्बन्ध से युक्त पुरुष में ‘प्रमाण’ पद का व्यवहार करते हैं । अतः दोनों पदों के प्रवृत्तिनिमित्त धर्म के अन्तर्गत जो ‘प्रमा’ है, उसमें कार्यव विशेषण का देना आवश्यक है । ईश्वरीय प्रमा ‘कार्य’ नहीं है, किन्तु नित्य है । अतः ईश्वर में कार्य प्रमा का समवाय अथवा कार्य प्रमा का १. जिस विषय में जो पुरुष प्रमाण कहलाता है, उस पुरुष को उस विषय का प्रमाज्ञान भी अवश्म रहता है । श्रतः पुरुष में रहने वाला ‘प्रमाण’ एवं ‘प्रमातृत्व’ ये दोनों अविरोधी ही नहीं, परस्पर व्याप्त धर्म भी है। अतः इन दोनों में से कोई भी एक दूसरे को छोड़कर नहीं रह सकते । अतः जिस पुरुष में प्रमाण्य रहेगा, उस पुरुष में प्रमातृत्व भी भी अवश्य ही रहेगा । फलतः जिस पुरुष में प्रमायय नहीं है, उस पुरुष प्रमातृत्व भी नमीं है । अतः उक्क सूत्र विरोध के द्वारा प्रमातृत्व के अपनर्धन से ईश्वर में समायय का विरोध अवश्य भावी है ।
तं क i चतुर्थः स्तबक: ५ स्यादेतत् । प्रमीयतेऽनेनेति प्रमाणम्, प्रमिणोतीति प्रमातेति कारकशब्दत्व- मनयोः। तथा च कथमकारकमर्थं इति चेन्न । एतस्य व्युत्पत्तिमात्रनिमित्तत्वात् । अयोग व्यवछिन्न सम्बन्ध नहीं है । इस लिये ईश्वर प्रमाण एवं प्रभाता दोनों में से कोई भी नहीं हो सकते । इस प्रकार के आक्षेप कर नेवालों से पूछना चाहिये कि ) उक्त दोनों प्रवृत्तिनिमित्तों में प्रविष्ट प्रमा में ‘कार्यस्व’ विशेषण देने से किसका व्यवच्छेद अभिप्रेत है ? अगर ‘नित्यप्रमा’ को उसका व्यवच्छेद्य कहें ? तो इसके बाद पूछना पड़ेगा कि किसी भी प्रमा को नित्य मानते हैं ? अथवा नहीं ? यदि मानते हैं तो नित्यप्रमा के उस श्राश्रयीभूत पद दोनों का व्यवहार होना ही चाहिये । उक्त प्रविष्ट जो ‘प्रमा’ है, उसमें ‘कार्यस्व’ विशेषण पुरुष में भी ‘प्रभातृ’ पद एवं ‘प्रमाण’ दोनों पदों के प्रवृत्ति निमित्तिभूत धर्म में देने से नित्यप्रमा से युक्त पुरुष में उक्त दोनों पदों का व्यवहार नहीं हो सकेगा । इस पक्ष में कार्यस्व विशेषण व्यर्थ है । यदि कोई भी प्रमा नित्य न हो तब तो उक्त कार्यस्व अवश्य हो व्यर्थ है । क्योंकि नित्यप्रमा की व्यावृत्ति के लिये ही प्रमा में कार्यत्व विशेषण की आवश्यकता है-किन्तु नित्य प्रमा नाम की जब कोई वस्तु ही नहीं है, तो किसकी व्यावृत्ति के लिये उक्त प्रभा में ‘कार्यश्व’ विशेषण दिया जायमा । अतः कार्यत्व विशेषण मूलक यह आक्षेप भी वृथा है । पू० प० प्रमीयते … … ‘प्रमाण’ पद एवं ‘प्रमातृ’ पद इनके प्रवृत्तिनिमित्तों का ईश्वर में रहना संभव ही नहीं है, अतः ईश्वर न ‘प्रमाण’ हो सकते हैं न ‘प्रमाता’ । क्योंकि ‘प्रमीयते अनेन’ इस व्युत्पत्ति मूलक करण में ल्युट् प्रत्यय से निष्पन्न ‘प्रमाण’ पद का अर्थ है ‘प्रमा का करण’ किन्तु ईश्वरीय प्रमा जब नित्य है तो उसका ‘करण’ कोई भी नहीं हो सकता । प्रत। ईश्वर भो उसके करण नहीं हो सकते । अतः ईश्वर को ‘प्रमाण’ नहीं माना जा सकता । एवं ‘प्रमिणोतीति प्रमाता’ इस व्युत्पत्तिमूलक कर्ता में निष्पन्न तृच् प्रत्यय से ‘प्रमातृ ’ पद निष्पन्न होता है । ‘कर्ता’ एक कारक है । ‘कारक’ विशेष प्रकार का कारण ही है । अतः प्रमा का ( स्वातन्त्रत्र रूप ) विशेष से युक्त कारण ही उसका ‘कर्ता’ हो सकता है । किन्तु ईश्वरीय प्रमा चुकि नित्य है, अतः उसका कोई सामान्य कारण भी नहीं हो सकता । ‘विशेष कारण’ की तो कोई चर्चा ही व्यर्थ है । अतः ईश्वर में ‘प्रमातृ’ पद का प्रवृत्तिमित ‘प्रमाकर्तृत्व’ रूप धर्म नहीं रह सकता । इस लिये ईश्वर को प्रमाता भो नहीं कहा जा सकता । सि० प० न, एतस्य उक्त आक्षेप उचित नहीं है । क्योंकि व्युपत्तिमूलक उक्त योग के अनुसार प्रवृत्तिनिमित्त की कल्पना नहीं की जा सकती । वे केवल व्युत्पत्ति प्रदर्शन मात्र हैं। प्रमाण पद एवं प्रमातृ
५७४ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली प्रवृत्तिनिमित्तं तु यथोपर्दाशितमेव, व्यवस्थापनात् । अन्यथा अस्मदादिषु न प्रमातृ- व्यवहारः स्यात्, सर्वत्र स्वातन्त्र्याभावात् । कारणव्यवहारस्त्वन्यत्र । यद्यप्यन्य- निमित्तकोऽपि तथापोहोतनिमित्तविवक्षयैवेति । पद के प्रवृत्तिनिमित्त तो वे ही धर्म हैं, जिनका निर्वचन युक्ति पूर्वक किया जा चुका है। यदि ऐसा न हो, व्युपत्ति के अनुसार ही प्रवृत्तिनिमित्त की कल्पना की जाय तो अस्मादि में प्रमातृत्व का व्यवहार अनुपपन्न हो जायगा । क्योंकि व्युत्पत्ति के अनुसार ‘प्रमातृ’ पद का प्रवृत्तिनिमित्त प्रमातृत्व रूप है । स्वातन्त्र्य रूप विशेष से युक्त कारक हो ‘क’ कारक है । अस्मदादि को जो प्रमाज्ञान होता है, उसके लिये हम सब स्वतन्त्र नहीं है । अगर ऐसा होता तो क्रुद्ध व्याघ्र को आगे कभी हम खड़ा नहीं देख सकते थे । अतः सभी व्युत्पत्तियां उन पदों के योगार्थ का अभिधान मात्र है । केवल उसी के बल पर पदों की प्रवृत्तिनिमित्तों की कल्पना नहीं की जा सकती । अत । कथित निर्दुष्ट प्रवृत्तिनिमित्तों की सत्ता ईश्वर में बाधित नहीं है । इस लिये ईश्वर में प्रमातृत्व प्रथवा प्रमाणत्व की अनुपपत्ति नहीं है । पू० प० यद्यपि चचुषा पश्यति’ इस प्रकार के प्रयोग सार्वजनीन हैं। इससे यह निष्पन्न होता है कि बिस अयोगव्यवछिन्न सम्बन्ध’ के द्वारा करणत्व के निर्वाचन की चेष्टा की गयी है, वह सम्बन्ध ‘जनकता’ रूप ही है । अर्थात् जिसका अयोगव्यवच्छिन्न ‘जनकता’ रूप सम्बन्ध जिसमें रहे वही उसका ‘करण’ है । तदनुसार ही ‘चक्षु’ दर्शन प्रमा का, अथवा कुठार छेदन क्रिया का करण होता है । तदनुसार जिसकी करणता जिस वस्तु में रहेगी, उसको उस वस्तु है से उत्पन्न होना चाहिये। इस दृष्टि से ईश्वर में ईश्वरीय प्रभा की करणता नहीं आ सकती। क्योंकि ईश्वरीय प्रमा नित्य है, अतः किसी से भी उसकी उत्पत्ति नहीं हो सकती । अतः ईश्वर से भी उसकी उत्पत्ति नहीं हो सकती । सुतराम् ईश्वर में चूँ कि ईश्वरीय प्रमा की जनकता नहीं है, अतः ईश्वर ‘प्रमाण’ नहीं हो सकते । सि० ० प० तथापीहोत 900 ‘अन्यत्र’ अर्थात् देवदत्तादि अथवा कुठारादि में कथित ‘जनकत्व’ रूप सम्बन्ध से ही प्रवृत्तिनिमिश की कल्पना के द्वारा ‘प्रमाण’ पद का व्यवहार होता है । किन्तु ईश्वर में कारक विशेष के वाचक ‘प्रमाण’ पद का प्रयोग नहीं होता । किन्तु साक्षात्कार रूप प्रमा के साथ प्रयोगव्यवच्छिन्न समवाय रूप सम्बन्ध के वाचक ‘प्रमाण’ पद का प्रयोग होता है । अर्थात् देवदत्तादि में जिस प्रकार प्रमा का जनकत्व रूप सम्बन्ध है, उसी प्रकार प्रयोगव्यवछिन्न समवाय नाम का सम्बन्ध भी है । इनमें से दूसरे सम्बन्ध के बल से हो ईश्वर में प्रमाण पद का व्यवहार होता है |
चतुर्थः स्तबका १७५ एवं तह् िपञ्चमप्रमारणाभ्युपगमेऽपसिद्धान्तः । न हि तत्प्रत्यक्षमनुमानमागमो वा, अनिन्द्रियलिङ्गशब्दकरणत्वात् । न । साक्षात्कारिप्रभावत्तया प्रत्यक्षान्तर्भावात् इन्द्रियार्थसन्निकर्षोत्पन्नत्वस्य च लौकिकमात्रविषयत्वात् । स्यादेतत् । तथापीश्वरज्ञानं न प्रमा, विपर्यस्तत्वात् । पू० प० एवम् तहि किन्तु उक्त रीति से ईश्वर में प्रमाण पद का व्यवहार करने से ‘प्रमाण चार ही हैं’ इस प्रकार का अवधारण भङ्ग हो जयागा । क्योंकि प्रत्यक्ष प्रमाण के लिये यह आवश्यक है कि प्रत्यक्ष प्रमिति की उत्पत्ति इन्द्रिय एवं अर्थ के संनिकर्ष से हो । एवं अनुमान प्रमाण के लिये यह आवश्यक है कि मनुमिति रूप प्रमिति लिङ्गज्ञान से उत्पन्न हो । इसी प्रकार शब्द प्रमाण के लिये शाब्दी प्रमा में शब्दजन्यस्व, उपमान प्रमाण के लिये उपमिति प्रमा में सादृश्य ज्ञानजन्यत्व की आवश्यकता जाननी चाहिये । किन्तु ईश्वरीय प्रमा तो ‘प्रजन्य’ है, व्ात! उसके करण का प्रत्यक्षादि किसी भी प्रमाण में अन्तर्भूत होना संभव नहीं है । अतः ईश्वर यदि प्रमाण होंगे तो उन्हें कथित चारों प्रमाणों से भिन्न कोई पाचवा प्रमाण ही मानना होगा। जिससे प्रमाणों की संख्या का उक्त अवधारण भङ्ग हो जायगा । सि० प० न, साक्षात्कारि चतुष्ट्र संख्या का अवधारण अनुपपन्न नहीं है, प्रमाण में हो जायगा । ‘जो प्रमिति इन्द्रिय ईश्वर को प्रमाण मानने से प्रमाणों की क्योंकि ईश्वर रूप प्रमाण का अन्तर्भाव ‘प्रत्यक्ष’ और अर्थ के संनिकर्ष से उत्पन्न हो उसका करण ही प्रमाण है’ यह नियम केवल लौकिक प्रत्यक्ष में ही लागू हो सकता है । अगर ऐसा न मानें तो योगिजन योगिप्रत्यक्ष प्रमिति के प्रमाण न हो सकेंगे । क्योंकि योगज प्रत्यक्ष उक्त संनिष्कर्ष जन्य नहीं है । अतः यही कहना पड़ेगा कि ‘साक्षात्कारात्मक ज्ञान ही प्रत्यक्ष प्रमिति’ है, उससे युक्त योगी पुरुष भी प्रत्यक्ष प्रमाण है’ इसके अनुसार ईश्वर भी प्रत्यक्ष प्रमाण के अन्तर्गत आ जाते है । रही बात ‘इन्द्रियार्थं संनिर्षोत्पन्नम्’ इत्यादि प्रत्ययक्ष सूत्र के विरोध की — उस विरोध को सूत्र के प्रत्यक्ष पद को लौकिक प्रत्यक्ष परक मानकर मिटा देना चाहिये । पू० प० स्यादेतत्, तथापीश्वर ज्ञानम् ‘तथापि’ इस प्रकार सर्वज्ञ ईश्वर के प्रसंग में आये हुये सभी दोषों का उद्धार हो जाने पर भी यह प्रापति रह जाती है कि ईश्वर यदि सर्वज्ञ हैं तो सर्वपदार्थ के अन्तर्गत ‘भ्रान्ति’ रूप गुण पदार्थ का भी ज्ञान उनमें अवश्य है। ज्ञान विषयक ज्ञान से ‘पूर्वज्ञान’ का भी विषय होना उपपादित हो चुका है । अतः ईश्वर को यदि भ्रान्ति विषयक ज्ञान है, शान्ति
५७६ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली यदा खल्वेतदस्मदादिविभ्रमानालम्बते, तदेतस्य विषयमस्पृशतो न ज्ञानावगा- हनसम्भव इति तदर्थोऽप्यालम्बनमभ्युपेयम् । तथा च तदपि विपर्ययः, विपरीतार्था लम्बनत्वात् । तदनवगाह्ने वा अस्मदादेविभ्रमान विदुषस्तदुपशमायोपदेशाना सर्वज्ञ- पूर्वकत्वमिति । न । विभ्रमस्याप्रामाण्येऽपि तद्विषयस्य तस्वमुल्लिखतोऽभ्रान्तत्वात् । अन्यथा भ्रान्तिसमुच्छेदरसङ्गः, प्रमारणाभावात् । का विषय भी ईश्वरीय ज्ञान का विषय होगा । फलतः ईश्वर का ज्ञान भी ‘तदभाववति तत्प्रकारक होने से भ्रान्ति रूप हो जायगा । जिससे ईश्वर के भ्रान्त होने की आपत्ति होगी । यदि ईश्वर में भ्रान्ति विषयक ज्ञान नहीं मानेंगे, तो यह मानना होगा कि वेदों में हम लोगों को भ्रान्ति को मिटाने के लिये जो उपाय निर्दिष्ट हैं, वे सर्वज्ञ पुरुष के द्वारा उपदिष्ट नहीं हैं । अतः नैयायिकों के मत से वेदों का प्रामाण्य ही अनुपपन्न हो जायगा । प्रत: वेदों के प्रामाण्य के लिये मीमांसको के पथ का ही अवलम्बन नैयायिकों को भी करना पड़ेगा । वेद कर्ता के रूप में ईश्वर की सिद्धि की आशा उन्हें छोड़ देनी होगी । सि० प० न, विभ्रमस्यापि ••• शुक्ति विशेष्यक रजतस्व प्रकारक ‘शुक्ताविदं रजतम्’ यह ज्ञान भ्रम इस लिये है तदभावावति तत्प्रकारक है, अर्थात् रजतत्वाभाव के आश्रय शुक्ति में रजतत्व प्रकारक है । किन्तु ‘तादृशज्ञानवानहम्’ यह धनुष्यवसाय रूप ज्ञान भ्रमात्मक नहीं है। क्योंकि इस अनुव्यवसाय रूप ज्ञान का विशेष्य है ‘अहम्’ पदार्थ आत्मा, एवं प्रकार है उक्त भ्रमात्मक ज्ञान । श्रात्मा रूप विशेष्य में उक्त भ्रमात्मक ज्ञान स्वरूप प्रकार की सत्ता वास्तव में है ही । अतः उक्त अनुव्यवसाय चूकि तद्वति तत्प्रकारक हैं-तदभाववति तत्प्रकारक नहीं है, अतः उक्त धनुव्यवसाय प्रमा है, भ्रम नहीं । यदि ऐसा न हो तो संसार से भ्रान्ति की सत्ता ही मिट जायगी। क्योंकि कौन ज्ञान प्रमा है ? एवं कौन ज्ञान भ्रम है, इसका निर्णय उक्त अनुव्यवसाय से ही होता है। क्योंकि प्रमात्मक ज्ञान से ही वस्तु की सिद्धि होती है, भ्रमात्मक ज्ञान से नहीं । शुक्ति में ‘इदं रजतम्’ इस ज्ञान के बाद ‘इदम्’ पद के अर्थ में शुक्तित्व ज्ञात हो जाता है । इसके बाद ‘रजतत्वा- भाववति रजतं जानामि’ ( अर्थात् जो चांदी नहीं है, उसको मैंने चांदी समझा है) इस आकार का मनुव्यवसाय होता है । इस प्रनुव्यवसाय के बाद यह अनुमान होता है कि ‘शुक्ति में होनेवाला यह रजतत्व विषयक ज्ञान भ्रम है, क्योंकि तदभाववति तत्प्रकारक है ( शुक्तिविदं रजतम् इत्याकारकं ज्ञानं भ्रमः तदभाववति तत्प्रकारकत्वात् ) । यह धनुव्यवसाय
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- 5 - - ना है इस क । त न कि म्’ वा- इस कि है नाय चतुर्थः स्तबक! ५०७ तथाऽप्यारोपितार्थावच्छिन्नज्ञानाऽऽलम्बनत्वेन कथं न भ्रान्तत्वमिति चेन्न । यत् यत्र नास्ति तत्र तस्यावगतिरिति भ्रान्त्यर्थत्वात् । एतदालम्बनस्य चैवमुल्लिखत। सर्वत्र यथार्थत्वात् । न हि न तद्रजतम्, नाऽपि तत्रासत्, नाऽपि तन्नावगतमिति । भी जब भ्रान्ति रूप ही होगा, तो इसके द्वारा ‘शुक्ताविदं रजतम्’ इस ज्ञान में तदभाववति तत्प्रकारकत्व रूप भ्रमत्व ही सिद्ध नहीं होगा । जैसे कि ‘शुक्ताविदं रजसम्’ इस ज्ञान से व्यक्ति में रजतत्व की सिद्धि नहीं होती है । पू० प० तथाप्यारोपितार्थावछिन्न .. भ्रान्ति विषयक ज्ञान ( अनुव्यवसाय ) में भी विषयीभूत भ्रान्ति के विषय मी अवश्य भासित होते हैं । अतः जिस विषय के आलम्बन से प्युक्ति में ‘इर्द रजतम्’ इस प्राकार का ज्ञान भ्रान्ति कहलाता है, तद्विषयक भ्रान्ति का ( अनुव्यवसाय रूप ) ज्ञान भी अवश्य ‘भ्रान्ति’ स्वरूप है । अतः ईश्वर चूँकि सभी विषयों के ज्ञाता हैं, अत उक्त ‘सभी’ के अन्तर्गत भान्ति विषयक ज्ञान से युक्त परमेश्वर अवश्य ही भ्रान्त हैं । सि० प० न, यत् यत्र नास्ति उक्त आक्षेप उचित नहीं है । कोई भी ज्ञान भ्रम विषयक होने से भ्रम नहीं हो जाता है। जहाँ जो वस्तु नहीं रहे, वहीं उसका ज्ञान हो भ्रान्ति है । अत तदभाववति तत्प्रकारकत्व भ्रान्तित्व का नियामक है । इसी लिये युक्ति में ‘इदं रजसम्’ यह ज्ञान धान्ति । क्योंकि रजतस्व से रहित शुक्ति में वह रजतस्व का व्यवगाहन करता है । किन्तु उसी प्रान्ति विषयक ‘रजतस्वेन शुक्ति जानामि’ ( शुक्ति को मैं रजत समझता हूँ ) यह ज्ञान भ्रान्ति रूप नहीं है, क्योंकि इस ज्ञान का मुख्य विशेष्य है अहम पदार्थ मास्मा, उस में भ्रान्ति रूप ज्ञान प्रकार विषया भासित होता है । यह म्रान्ति रूप ज्ञान वस्तुतः उस आत्मा में है हो । ज्ञान रूप अवान्तर विशेष्य में रजतत्व में रहनेवाली प्रकारता निरूपितत्व सम्बन्ध से भासित होती है, एवं उक्त इदम् पदार्थ भी स्व निष्ठ विशेष्यता निरूपितत्व सम्बन्ध से ही भासित होती है । रजतत्व भी स्वनिष्ठ प्रकारता निरूपितत्व सम्बन्ध से उक्त धनुष्यवसाय रूप ज्ञान में है ही । अतः भ्रान्ति विषयक उक्त उक्त अनुव्यवसाय रूप ज्ञान का कोई भी विशेष्य ऐसा नहीं है, जिसमें कोई भी विशेषण अपने ( विशेषणतावच्छेदक ) सम्बन्ध से अपने विशेष्य में नहीं है। तो भ्रान्तिविषयक अनुव्यवसाय रूप ज्ञान भ्रान्ति रूप क्यों होगा ? बत यह प्रापत्ति भी निराधार है । ७३
५७८ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जलो साक्षात्कारिणि नित्ययोगिनि परद्वारानपेक्षस्थितौ भूतार्थानुभवे निविष्टनिखिल प्रस्ताविवस्तुक्रमः । लेशादृष्टि-निमित्त-दुष्टि-विगम-प्रनष्ट- शङ्का - तुषः शङ्कोन्मेषकलङ्कभिः किमपरस्तन्मे प्रमाणं शिवः ॥ ६ ॥ इति गद्यपद्यात्मके न्यायकुसुमाञ्जलों चतुर्थस्तवकः ॥ ४ ॥ साक्षात्कारिणि……… • शिव (परमेश्वर ) की ‘परद्वारानपेक्ष’ अर्थात् इन्द्रिय अनुमानादि प्रमाणों से पनपेक्ष अत एव नित्य साक्षात्कारात्मक प्रमा में संसार की प्रत्येक कार्यवस्तु की रचना का क्रम संनिविष्ट है। ‘शिव’ में चूं कि भ्रम का लेश भी नहीं है, अत: भ्रममूलक रागद्वेष रूप ‘दुष्टि’ (दोष) की कोई संभावना ही नहीं है । सुतराम् एतादृश शिव ( परमेश्वर) के द्वारा रचित होने के कारण वेदो में अप्रामाण्य की शङ्खा का लेश भी नहीं है । वेदों में अप्रामाण्यशङ्का को हटानेवाले उक्त स्वतन्त्र प्रमात्मक ज्ञान से युक्त परमेश्वर ही जब मुझे प्रमाण रूप में प्राप्त हैं, तो फिर प्रप्रामाण्य शंका से कवलित बौद्धादि शास्त्रों के अनुयायी लोगों के इस प्रसङ्ग में (विरुद्ध) रहने से ही क्या ? १. ( साक्षात्कारिणि’ इत्यादि पथ के द्वारा आचार्य ने शिवस्तुति के ब्याज से इस स्तवक में में कथित विषयों का संक्षिप्त विवरण दिया है । इस श्लोक का अन्य वर्द्धमान एवं शङ्कर मिश्र के अनुसार इस प्रकार है:- ‘तत्’ तस्माद्धेतोः ‘मैं’ मम शिवः प्रमाणम् कीदृशः शिवः १ यथार्थानुभवे
- निविष्टनिखिल प्रस्ताविवस्तुक्रमः (निविष्टः विषयीभूनः निखित प्रस्तावि प्रपञ्चरूपो वस्तूनां क्रमो यस्य ) कीदृशि अनुभवे ? साक्षात्कारिणि, अर्थात् साचारकारित्वविशिष्टे । ‘मिस्ययोगिनि ’ अर्थात् नित्यश्व विशिष्टे । पुनः कीदृशि अनुभवे ? ‘परद्वारानपेतस्थितौ’ अर्थात् परम् - इन्द्रिय शब्दलिङ्गादि, तदेव द्वारम्, तदनपेक्षा स्थितिर्यस्य । शिवः पुनः कीदृश: ? ‘लेशा दृष्टिनिमित्तदुष्टिविगमप्र म्रष्टशङ्कातुषः’ अर्थात् लेशा-अल्पा या अदृष्टि: विशेषादर्शनम्, तन्निमित्ता या ‘दुहि ।’ रागद्वेषात्मिका = तद्विगमेन प्रश्नः शङ्कातुषो वेदाप्रामाण्यशङ्का जेशा यस्मात् सः । शंकोन्मेष एव - अप्रमाण्यर्शका प्रादुर्भाव एव कलेको येषां बौद्धादीनाम्, वै। किम् ? तेषां विमतिरतन्त्रमित्यर्थः ।
॥ श्रीगणेशाय नमः ॥ गद्यपद्यात्मकें न्यायकुसुमाञ्जलौ पञ्चमः स्तबकः नन्वीश्वरे प्रमाणोपपत्तौ सत्यां सर्वमेतदेवं स्यात्, तदेव तु न पश्याम इति चेत् ? न ह्य ेष स्थाणोरपराघो यदेनमन्धो न पश्यति । तथा हि- कार्यायोजनघृत्यादेः पदात्प्रत्ययतः श्रुतेः । वाक्यात्संख्याविशेषाच्च साध्यो विश्वविदव्त्रयः ॥ ९ ॥ क्षित्यादि कर्तृपूर्वक कार्यत्वादिति । पू० प० नन्वीश्वरे… प्रमाणों के रहने पर ही कथित ये बाघकाभावादि साधक ईश्वर की सिद्धि में सहायक हो सकते हैं, किन्तु ईश्वर के साधक प्रमाण की ही सत्ता दिखाई नहीं पड़ती है । सि० प० न ह्येष … यह तो ‘स्थाणु’ ( शुष्क वृक्ष ) का अपराध नहीं है कि अन्धा उसे नहीं देख पाता है ( यह परमेश्वर शिव स्वरूप स्थार का अपराध नहीं है कि ‘अन्ध’ अर्थात् उनके ज्ञापक प्रमाण से अनभिज्ञ पुरुष उन्हें नहीं समझ पाता है । उनको सत्ता का ज्ञापक प्रमाण अवश्य है ) । तथा हि कार्यायोजनघृत्यादेः… विश्ववित् (सर्वज्ञ) अव्यय ( नित्य परमेश्वर ) की सिद्धि (१) कार्य (२) आयोजन (३) धृति (४) ( आदि पद ग्राह्य) विनाश (५) पद ( व्यत्रहार ) (६) प्रस्थय (७) वेद (८) वाक्य एवं (8) विशेषप्रकार की संख्या इन नौ हेतु के अनुमानों से करनी चाहिये । कार्यस्व हेतुक प्रथम अनुमान का प्राकार है ’ क्षित्यादिकं सकतु’ के कार्यत्वात् घटवत्’ अर्थात् घटादि जितने भी ‘कार्य’ दृष्ट है, वे सभी किसी ‘कर्ता’ के द्वारा ही उत्पन्न होते है, क्षित्यंकुरादि भो कार्य ही हैं, अतः उनकी उत्पत्ति भी किसी कर्ता से ही होती है । क्षिस्यंकुरादि का यह कर्तृत्व अस्मदादि में संभव नहीं है, अतः अस्मदादि से विलक्षण क्षित्यंकुरादि का कर्ता ही परमेश्वर हैं । इस स्तबक के द्वारा ‘तत्साधक प्रमाणाभावाच्च’ यह पांचवीं विप्रतिपत्ति निराकृत हुई है । (२) आयोजन हेतुक अनुमान भा, ‘युज्यते’ संयुज्यतेऽन्योन्यं द्रव्यमनेनेत्यायोजनं कर्म’ इस व्युत्पत्ति के अनुसार प्रकृत ‘आयोजन’ शब्द का अर्थ है सृष्टि की आदि में धरतुक के उत्पादक दो परमाणुओंों की क्रिया । जिस क्रिया से कार्य की उत्पत्ति होती है, वह क्रिया अवश्य ही किसी स्वसमानकालिक ( अपने CCO. Vasishtha Tripathi Collection. Digitized by eGangotri४८० गद्यपद्यात्मंक-न्यायकुसुमाञ्जलौ माधयोभूत काल में वर्तमान ) प्रयत्न से उत्पन्न होती है । जैसे कि ‘चेष्टा’ रूप क्रिया । सृष्टि की मादि की दोनों परमाणुओं की उक्त ‘क्रिया’ भी चूकि द्वचरतुक रूप कार्य को उत्पन्न करती है, भतः उसको भी स्वसमानकालिक किसी प्रयत्न से अवश्य उत्पन्न होना चाहिये । उस प्रयत्न के आश्रय ही परमेश्वर हैं, क्योंकि उक्त प्रयत्न का आश्रय हमलोग नहीं हो सकते । प्रव। यह अनुमान निष्पन्न होता है कि “परमाण्वादयो हि चेतनायोजिताः प्रवर्तन्ते, अचेतनत्वात् वास्यादिवत् । (३) घृति हेतु क अनुमान इस अनुमान काँ स्वारस्य है कि गुरु द्रव्य पतनशील होता है, किन्तु जब स्पर्थ से युक्त दूसरे द्रम्य का विशेष प्रकार का संयोग एवं विधारक प्रयत्न इन दोनों में से कोई रहता है तो गुरुत्व से युक्त द्रव्य का भी पतन नहीं होता है, जैसे कि छीके पर रखा हुआ दही का मटका नहीं गिरता है, प्रथवा आकाश में उड़ती हुई पक्षी नहीं गिरती है । ब्रह्माण्ड भी गुरुतर द्रव्य है, अत: उसका भी पतनशील होना अनिवार्य है । किन्तु ब्रह्माण्ड का पतन नहीं होता है । ब्रह्माण्ड में स्पर्श से युक्त किसी दूसरे द्रव्य के संयोग का भी कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं है । श्रतः यह मानना होगा कि किसी विधारक प्रयत्न ही अपनी सत्ता के द्वारा उसे गिरने नहीं देता । वह प्रयत्न प्रस्मदादि का नहीं हो सकता । फलतः ब्रह्माण्ड के पतन का प्रतिबन्धकीभूत प्रयत्न का आश्रय ही परमेश्वर हैं। इससे अनुमान का निष्पन्न प्रयोग इस प्रकार समझना चाहिए। ब्रह्माण्डपर्यन्तं हि जगत् साक्षात्परम्परया वा विधारकप्रयत्नाधिष्ठितं गुरुस्वे सस्यपतनधर्मकत्वात् नियति विहङ्गमवारीरवत् । (४) विनाश हेतुक अनुमान 000 विनाश हेनुक अनुमान का स्वारस्य यह है कि जिस प्रकार ‘निर्माण’ कार्य प्रयत्न से युक्त कोई पुरुष ही कर सकता है, उसी प्रकार संहार भी प्रयत्न से युक्त ही कोई पुरुष कर सकता है। जिस प्रकार पट का निर्माण प्रयत्न से युक्त कुविन्द ( जुलाहे ) के बिना नहीं हो सकता, उसी प्रकार खण्डपट की उत्पत्ति के जनक महापट का विनाश भी प्रयत्न से युक्त पुरुष से ही हो सकता है। इसी प्रकार जगत का संहार भी उपयुक्त प्रयत्न से युक्त पुरुष के बिना संभव नहीं है । जगत के विनाश स्वरूप प्रलय का उपपादन द्वितीय स्तवक में किया जा चुका है । तस्मात् जगत का संहार जिस प्रयत्न से होता है, उस प्रयत्न का प्राश्रयत्व बस्मवादि में चुकि संभव नहीं है, मतः तादृश प्रयत्न का आश्रय पुरुष ही परमेश्वर हैं । इस मनुमान का प्रयोग इस प्रकार है। ब्रह्माण्डादि द्वधरकपर्यन्तं जगत् प्रयत्नवद्विनाश्यम् विनाश्यत्वात् पाट्यमानपटवत्” । (2 प्र ह ( क मैं के ( वि प Я f
पचमः स्तबकः ५८१ न 5 1 1 वे I T न न (५) पद हेतुक अनुमान.. ‘पद्यते गम्यते व्यवहाराङ्गमर्थोऽनेन’ इस व्युत्पत्ति के अनुसार प्रकृत में ‘पद’ शब्द का पर्थं है ‘वृद्ध व्यवहार’ ( अर्थात् व्यवहार के अङ्गीभूत अर्थ जिस से ज्ञात हो वही है ‘पद’ ) । इस वृद्ध व्यवहार रूप ‘पद’ से भी ईश्वर की सिद्धि हो सकती है। जैसे कि प्राधुनिक कुविन्द का ( जुलाहे का ) कपड़ा बुनने का नैपुण्य किसी की शिक्षा से ही प्राप्त होता है । नैपुण्यंशिक्षा की यह परम्परा कहीं पर अवश्य विराम को प्राप्त होती है । अर्थात् कोई ऐसा भी पटनिर्माण में कुशल पुरुष है जिस का पटनिर्माण का नैपुण्य किसी अन्य किसी निपुणतम पुरुष की शिक्षा के अधीन नहीं हैं । प्रन्यानपेक्ष नैपुण्य से युक्त वह पुरुष ही परमेश्वर हैं । (६) ’ प्रत्यय’ हेतुक ईश्वरानुमान… ( प्रत्यय’ शब्द का मुख्य अर्थ है ‘समाश्वास’ अर्थात् विश्वास | प्रामाण्य विश्वास का विषय है । इस सम्बन्ध से ही प्रकृत में विश्वास के विषय ‘प्रामाण्य’ में विश्वासार्थक ‘प्रत्यय’ पद की लक्षणा है । यह ‘प्रामाण्य’ शब्द ‘प्र’ पूर्वक ‘मा’ धातु से भाव में ( स्वार्थ ) में ल्युट् प्रत्यय से निष्पन्न ‘प्रमाण’ शब्द के उत्तर ‘यत्’ प्रत्यय से निष्पन्न है, जिसका अर्थ है प्रमात्व’ । अभिप्राय यह है कि ‘प्रमा’ कारणगुणपूर्वक है। शब्द जनित प्रमाज्ञान का कारणीभूत गुण है वक्ता पुरुष में वाक्यार्थ विषयक यथार्थज्ञान का रहना। क्योंकि यह यथार्थज्ञान जिस पुरुष में रहता है, उस पुरुष के द्वारा उच्चरित तद्विषयक वाक्य ही प्रमाण कहलाता है । इसी राति से लोक में शब्द का प्रामाण्य देखा जाता है । वेद रूप शब्दों में भी प्रामाण्य का यही रोति माननी होगी। क्योकि जबतक यह विश्वास न हो जाय कि ‘वेद के वक्ता को वेदार्थ का यथार्थज्ञान है’ तब तक वेदों में प्रामाण्य की संभावना नहीं है । सर्वज्ञ पुरुष को छोड़कर किसी साधारण मनुष्य में वेदार्थं विषयक ज्ञान का विश्वास नहीं किया जा सकता। इससे प्रत्यक्षादि प्रभ्य प्रभाओं की तरह यह अनुमान निष्पन्न होता है कि शब्दजनित प्रमा भी चूकि प्रमा है, अतः वह भी कारणगुणपूर्वक है । वेद रूप शब्द जनित ज्ञान के प्रामाण्य के उपयुक्त यथार्थ ज्ञान स्वरूप गुण जिस पुरुष में हो, वही पुरुष परमेश्वर हैं । (७) ‘श्रुति’ से परमेश्वर का अनुमान " ‘श्रुति’ से अर्थात वेदों से भी परमेश्वर का अनुमान करेंगे । वेदों का निर्माण सर्वज्ञपुरुष के द्वारा ही हुआ है, क्योंकि जो वेद नहीं है, उसकी रचना सर्वज्ञपुरुष के द्वारा नहीं होती है, जैसे कि अस्मदादि की रचनायें । अर्थात् ‘वेदाः सर्वज्ञपुरुष प्रणीताः वेदर गत् यन्नवम् तन्नैवम् यथा अस्मदादि वाक्यम्" ।
५८२ गद्यपद्यात्मक-न्य। यकुसुमाञ्जली (८) वाक्य लिङ्गक ईश्वरानुमान" सभी वाक्य किसी पुरुष के द्वारा ही निर्मित होते हैं, वेद भो वाक्य रूप ही है । अतः वेदों की रचना किसी पुरुष के द्वारा ही की गयी है । अस्मदादि का वेदों का रचयिता होना संभव नहीं है, भवः वेदों के रचयिता पुरुष ही परमेश्वर हैं । वेदवाक्यानि पौरुषेयाणि वाक्पत्वात् अस्मदादिवाक्पवत् । ( ९ ) संख्या विशेष लिङ्गक ईश्वरानुमान इस अनुमान का स्वारस्य यह है ‘कारणगुणाः कार्यगुणानारमन्ते’ इस न्याय के अनुसार अवयवि द्रव्य रूप कार्य में महत्परिमाण का कारण कारणीभूत अवयवों में रहने वाला महत्परिमाण ही हैं। क्योंकि दोनों कपालों के महत्परिमाणों से घट में रहने वाले महत्परिमाण की उत्पत्ति होती हैं । किन्तु कुछ विशेष प्रकार के महत्परिमाणों के कारण अवयवगत संख्या भी हैं। क्योंकि आधे-आधे सेर के दो कपालों के द्वारा निर्मित घट के महत्परिमाण से आधे आधे सेर के ही तीन कपालों से निर्मित घट का परिमाण भिन्न प्रकार का होता है । देखना यह है कि प्रथम घट की अपेक्षा द्वितीय घट का परिमाण भिन्न प्रकार का क्यों होता है ? क्योंकि दोनों ही घटों के अवयवों का परिमाण तो एक ही सा है । अतः दोनों परिमाणों के वैलक्षण्य का नियामक प्रकृत में अवयवगत परिमाण को नहीं माना जा सकता । अतः यही कहना होगा दूसरे घट के उत्पादक अववयों की भिन्न संग ही उक्त विशेष प्रकार के परिमाण का कारण है । इस लिये संख्या को भी परिमाण का कारण मानना होगा । चूकि अणुपरिमाण किसी भी कार्य के कारण नहीं है, अतः द्वचरतुक के परिमाण एवं त्रसरेणु के परिमाण इन दोनों परिमाणों की उत्पत्ति क्रमशः घरक के अवयव स्वरूप दोनों परमाणुओं की द्वित्व संख्या, एवं द्वयकों की त्रित्व से ही माननी होगी । द्वित्वादि संख्यायें चू कि पुरुष बुद्धि के प्रधीन है, एवं वह पुरुष अस्मदादि नहीं हो सकते । अतः उक्त बुद्धि का आश्रय जो पुरुष होगा, वही परमेश्वर है । तदनुसार अनुमान का प्रयोग इस प्रकार हैं—सर्गाद्यकालीन- परमाणुगत द्वित्वसंख्या अपेक्षाबुद्धिजन्या द्वित्वत्वात्’ । ( ‘कार्याजन घृत्यादे’ इस श्लोक के ‘कार्य, ‘आयोजन’ प्रभृति पदों का कथित अर्थ से विलक्षण अर्थ करके तदनुसार ईश्वर साधक विभिन्न अनुमानों का उपपादन आचार्य इस स्तबक के छठे श्लोक से लेकर अन्त तक किया है। उन अनुमानों का संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित है।) क ‘त प्र ‘ता जि उह शन वेद पुरु के ताल (= ‘श्र है, कि क्यों व्या ज्ञा बोध स्वा रूप शिष्ट “वेद
T: T क T ד T T T 1 T 5 i 5 कार्यत्व हेतुक पहिला अनुमान पञ्चमः स्तबक! । १८३ ( १ ) ‘क्रियते’ जन्यते शब्दोऽनेन’ इस व्युत्पत्ति के अनुसार प्रथमश्लोक का ‘कार्य’ पद ‘तात्पर्य का वाचक है । ( ‘कृत्यल्युटो बहुलम्’ इस सूत्र के अनुसार ‘करण’ अर्थ में भी ‘अण’ प्रश्यय हो सकता है । ) यह ‘तात्पर्य’ उद्देश्य - फलतः विशेष प्रकार की ‘इच्छा’ रूप ही है। क्योंकि ‘तात्पर्य ’ पद की व्युत्पत्ति ’ तदेव परमुद्दश्यम् यस्य’ इस प्रकार की है । जिस उद्देश्य से अर्थात् जिस अर्थ विषयक बोध की इच्छा से जो शब्द वक्ता के द्वारा प्रयुक्त होता है, वही उद्द ेश्य ‘तत्पर’ शब्द का अर्थ है । तत्पर’ का ‘भाव’ ही ‘तात्पर्य’ है, सुतराम् यह तात्पर्य शब्द वक्ता की इच्छा का ही बोधक है । एतननुसार सभी वाक्यों का कोई तात्पर्यार्थ है, अतः वेद रूप वाक्यों का भी कोई तात्पर्यार्थ होगा । तद्धटक तात्पर्य जिस पुरुष का होगा, वही पुरुष परमेश्वर है । वेदः सतात्पर्यकः प्रमाणशब्दत्वात्’ इस अनुमान के अनुसार वेद रूप वाक्य । के तात्पर्य का आश्रयत्व चूंकि अनित्य एवं असर्वज्ञ अस्मदादि में संभव नहीं है । अतः उक्त तात्पर्य का आश्रय ही परमेश्वर हैं । ( २ ) आयोजन हेतुक दूसरा अनुमान इस पक्ष में ‘आ सम्यग् भावेन योजनम् · व्याख्यानम्’ इस व्युत्पत्ति के अनुसार ‘प्रायोजन’ शब्द का अर्थ है ‘व्याख्या; । जो जिस शब्द के अर्थ को अच्छी तरह जानता रहता है, वही उस शब्द की अच्छी व्याख्या कर सकता हैं। इससे यह अनुमान निष्पन्न होता है कि वेद की व्याख्या उसके सभी अर्थों को अच्छी तरह जानने वाले पुरुष के द्वारा ही की गयी है, क्योंकि वेद रूप वाक्य महाजनों के द्वारा परिगृहीत वाक्य हैं । अर्थात् शिष्ट जन उन्हीं व्याख्यानों के अनुसार वाजपेयादि का अनुष्ठान करते हैं । अखिल वेदों के अर्थों का वह सम्यग् ज्ञाता ही परमेश्वर हैं । ‘वेदाः सकलवेशर्थदर्शिविज्ञ। पितार्थकाः महाजनानुष्ठीयमानविषय- बोधकवाक्यत्वात् । ( ३ ) धृति हेतुक अनुमानान्तर 1 इस पक्ष में ‘धृति’ शब्द का अर्थ है ‘धारण अर्थात् ‘वेदधारण’ वेदों का अध्ययन । स्वाध्यायोऽध्येतव्य इम विधिवाक्य के ही मनुसार प्रध्यापकादि के निर्देश के बिना स्वतन्त्र रूप से किसी ने वेदों का अध्यधन अवश्य किया था । उस अध्ययन के अनुसार ही आगे शिष्ट पुरुषों के द्वारा उस अध्ययन की परम्परा चली। वह स्वतन्त्रपुरुष ही परमेश्वर हैं । ‘वेदाध्ययनं स्वतन्त्रप्रमाण पुरुषमूलकं शिष्टैरनुष्ठीयमानत्वात् ।
५८४ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली (४) अनुष्ठान लिङ्गक ईश्वरानुमान ‘कार्यायोजन धृत्यादे:’ इस वाक्य के ‘प्रादि’ पद से द्वितीयपक्ष में ‘अनुष्ठान’ समझना चाहिये । ‘अनुष्ठान’ शब्द प्रकृत में ‘उपासना’ का बोधक है । अर्थात् जिस की उपासना की जाती है, उसकी ‘सत्ता’ अवश्य है । क्योंकि शिष्टजन ही उपासना करते हैं । तदनुसार अनुमान का प्रयोग इस प्रकार समझना चाहिये “उपासनं सद्विषयकं शिष्टैरनुष्ठीयमानत्वात्” अर्थात् शिष्टों की उपासना का विषयीभूत पुरुष ही ‘परमेश्वर हैं । (५) पद पक्षक ईश्वर का अनुमान । अर्थात् ‘यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते’ इत्यादि श्रुतियों के द्वारा ईश्वर पद से जगत् कर्ता का बोध प्रसिद्ध है | इससे यह अनुमान निष्पन्न होता है कि ‘ईश्वर पदं जगदुत्पादक’ - परम् तत्वेन वेदबोधित्वात् । अथवा मलौकिक अर्थात् वेद में प्रयुक्त ‘अहम्’ पद से ईश्वर की सिद्धि जानी चाहिये अर्थात् जिस प्रकार लोक में प्रयुक्त ‘अहम्’ पद उसके स्वतन्त्र रूप से उच्चारण करने वाले पुरुष का बोधक है, उसी प्रकार वेद में प्रयुक्त ( प्रलोकिक ) ‘अहम्’ पद भो स्वतन्त्र रूप से उसके उच्चारण करने वाले का ही बोधक है । इससे यह अनुमान निष्पन्न होता है कि ‘प्रलोकिकाहं पदं स्वतन्त्रोच्चारयितृपरम् अहम्पदस्वात् लौकिकाहम्पदवत्’ वेदों के अहम पद का स्वतन्त्र उच्चारण करने वाला पुरुष ही परमेश्वर है । इसी प्रकार वेदों में प्रयुक्त ‘यः कः’ सः इत्यादि पदों के द्वारा मो ईश्वर का अनुमान करना चाहिये । (६) ‘प्रत्यय’ के द्वारा ईश्वर का अनुमानान्तर प्रकृत में ‘प्रत्यय’ शब्द से विधि प्रत्यय प्रभिप्रेत है। विधि प्रत्यय का अर्थ है’ आप्ता- भिप्राय’ । स्वर्गकामो यजेन इत्यादि वेद वाक्यों में प्रयुक्त ‘विधि’ प्रत्यय के द्वारा जिस प्राप्त के ‘अभिप्राय’ का बोध होता है, वह ‘आप्त’ पुरुष ही परमेश्वर हैं । तदनुसार ‘स्वर्ग कामो- ऽश्वमेघेन यजेत’ इत्यादि श्रुतिघटकलिङ प्रत्यय: आप्ताभिप्रायवाचकः लिङ प्रत्ययत्वात् लौकिक- लिङ, प्रत्ययवत्; इस प्रकार का अनुमान जानना चाहिये । (७) ‘श्रुति’ रूप शब्द प्रमाण मूलक अनुमानान्तर से ईश्वर की सिद्धि । ‘ईश्वरमुपासीत’ ‘यज्ञो वै विष्णुः’ इत्यादि श्रुति वाक्यों के द्वारा भी ईश्वर का प्रस्तित्व सिद्ध है । ‘सर्वे वेदभागा। ईश्वर प्रतिपादकाः वेदत्वात् यन्नैवम् सन्नैवम् यथा घटादि । (८) ‘वाक्य’ लिङ्गक ईश्वर का अनुमानान्तर । सभी वाक्य स्वार्थविषयकज्ञान ( वाले पुरुष ) से उत्पन्न होते हैं, तदनुसार सृष्टि की मावि का वेदवाक्य भी उक्त वेद वाक्य के अर्थ विषयक ज्ञान (वाले पुरुष ) से ही
झना की नुसार बत्" जगत् कर्तृ- हिये पुरुष उसके काहं वतन्त्र त्यादि नाता- प्राप्त कामो- किक- का नटादि। सृष्टि ही पश्ञ्चमः स्तबक न बाधोऽस्योपजीव्यत्वात् प्रतिबन्धो न दुर्बलैः । सिद्धयसिद्धयोविरोधो नो नासिद्धिरनिबन्धना ॥ २ ॥ ५८५ उत्पन्न होता है, क्योंकि वह भी हम लोगों के वाक्य की तरह वाक्य ही है । सर्गादिकालीन वेदवाक्यं तदर्थज्ञानजन्यं वाक्यत्वात् अस्मदादिवाक्यवत्’ यह अनुमान का प्रयोग जानना चाहिये । (2) विशेष प्रकार की ‘संख्या’ से ईश्वर का अनुमानान्तर । । (कं) वाक्य के अन्तर्गत ‘उत्तमपुरुष’ के द्वारा कथित ( अभिहिता ) संख्या नियमतः वक्ता पुरुष के साथ ही प्रम्वित होती है । वेदों में भी ‘एकोऽहं बहुस्याम्’ इत्यादि अनेक उत्तमपुरुष के आख्यात के प्रयोग हैं । वेदवाक्यों के इस उत्तमपुरुष के आख्यात से अभिहिता संख्या का अन्वय भी उसके वक्ता पुरुष में ही अन्वित होगी । वही पुरुष परमेश्वर हैं । ‘वेदवाक्यघटकोत्तमपुरुषाख्यातवाच्या संख्या वेदवक्तृनिष्ठा उत्तमपुरुषाख्यातवा व्यत्वात् लौकिक- वाक्यगतोत्तमपुरुषाख्यातवाच्यसंख्यावत्’ । ( ख ) ‘संख्यायते कथ्यते धनया’ इस व्युत्पत्ति के अनुसार ‘संख्या’ शब्द का ‘समास्या’ रूप ‘संज्ञा’ भी अर्थ है । ‘समाख्या’ यौगिक संज्ञा को कहते हैं। वेदों में भी “काठक, कलापक” व्यादि समाख्यायें हैं । ‘समाख्या’ का कोई आदि प्रवक्ता होता है। वेदों में प्रयुक्त उक्त समाख्याओं का श्रादि प्रवक्ता परमेश्वर को छोड़ कर और कोई नहीं हो सकता । तस्मात् यह अनुमान निष्पन्न होता है कि ‘वेदशाखायाः कठकलापादि संज्ञा पुरुषोंक्तघधोना संज्ञात्वात् व्याधुनिक संज्ञावत् । सि० प० न बाधोऽस्योपजीव्यत्वात् ( “क्षिस्मयङ कुरादिकं कर्त्तकं कार्यस्वाद्धटवत्’ इस अनुमान का कार्यस्व हेतु ) बाघ दोष से ग्रसित नहीं है ( क्योंकि तृतीयस्तवक में ईश्वर रूप प्रतियोगी की सिद्धि के बिना बाघ की संभावना का निराश किया जा चुका है, अतः बाघ देने के लिये अपेक्षित ईश्वर रूप प्रतियोगी की सिद्धि आवश्यक है, जो कार्यत्व हेतु के बिना संभव नहीं है, अतः ईश्वर के साधक कार्यस्व हेतु में बाघ दोष का उद्भावन नहीं किया जा सकता, क्योंकि वह बाघ दोष उक्त हेतु का ‘उपजीव्य’ है प्रर्थात् उक्त बाघ दोष कार्यस्व हेतुक उक्त अनुमान की अपेक्षा रखता है ) । ७४
५८६ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली तथा हि-प्रत्रये शरीरप्रसङ्गमुद्घाटयन्ति, कस्तेषामाशयः ? । ( १ ) प्रतिबन्धो न दुर्बले: 400 इसी प्रकार कार्यस्व हेतुक अनुमान में सत्प्रतिपक्ष दोष का भी उद्भावन नहीं किया जा सकता। क्योंकि जिस किसी हेतु से सत्प्रतिपक्ष का उद्भावन करेंगे, वह प्रतिहेतु प्रकृत कार्यस्व हेतु से दुर्बल ही होगा । समान बलशाली प्रतिहेतु के द्वारा सत्प्रतिपक्ष दोष होता है, प्रकृत हेतु से दुर्बल प्रति हेतु के द्वारा नहीं । (३) सिद्धयसिद्धयोविरोधो नो यदि क्षित्यकुरादि प्रकृत पक्षों में केवल ‘सकर्तृकत्व’ रूप प्रकृत साध्य के साथ-साथ ‘शरीरिकर्तृकत्व’ रूप साध्य की भी सिद्धि होगी, तो फिर दोनों में ‘विशेष’ संभव नहीं है ( क्योंकि साथ साथ जिनकी सिद्धि संभव हो, उनमें विरोध कैसा १ ( सहानवस्थायित्व ही ‘विरोध’ है ) । यदि क्षित्यङ कुरादि में शरीरिकर्तृत्व सिद्ध ही नहीं है, तो भी ‘विरोध’ संभव नहीं है ( क्योंकि जिसकी अपनी ही सत्ता नहीं है, वह विरोध कैसे करेगा ? ) (४) नासिद्धिरनिबन्धना क्षिति एवं अकुर रूप पक्ष क्षितित्व रूप एवं अङ्कुरत्व रूप से प्रसिद्ध है, अतः प्रकृत में ‘आश्रयासिद्धि’ रूप दोष नहीं दिया जा सकता । एवं उक्त पक्षों में सावयवत्व ( रूप हेतु ) से ‘कार्यत्व’ रूप हेतु भी सिद्ध है, अतः ‘स्वरूपासिद्धि दोष भी संभव नहीं है। चूंकि इस हेतु में कोई ‘उपाधि’ नहीं है, अतः ‘तन्निबन्धन’ व्याप्यत्वासिद्धि दोष भी इस हेतुमें नहीं है, क्योंकि व्यभिचार उन्हीं स्थलों में होता है, जहां बाघ प्रथवा असिद्धि इन दोनों में से कोई अवश्य रहे। इन्हीं दोनों में से किसी से व्यभिचार निरूपण करने वाले अधिकरण की सत्ता ज्ञात होती है । प्रकृत में चूं कि इन दोनों दोषों में से कोई भी दोष नहीं है । अतः प्रकृत में व्यभिचार दोष भी नहीं है । ( फलतः यह कार्यत्व हेतु पांचों प्रकार के हेत्वाभासों से मुक्त है ) । तथा हि अत्र ये जो समुदाय इस कार्यस्व लिङ्गक ईश्वरानुमान के प्रसङ्ग में ‘शरीर’ के प्रसङ्ग को उठा कर दोष का उद्भावन करना चाहते हैं, उनका क्या अभिप्राय है ?
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A 1 T क 3 7 पञ्चमः स्तवकं । • किमीश्वरं पक्षयित्वा कर्तृत्वाच्छरीरित्वम्ः ततः शरीरव्यावृत्तेरकर्तृत्वम् । अथ क्षित्यादिकमेव पक्षयित्वा कार्यत्वाच्छरीरिकतृ कत्वम् । ( १ ) किस् 9 … सभी कार्यों के कर्ता GOD बाघ दोष का उपपादन ….. शरीर से युक्त ही होते हैं । ईश्वर भी यदि कर्ता हैं, तो उन्हें भो शरीर से युक्त अवश्य होना चाहिये । इससे यह अनुमान निष्पन्न होता है कि “ईश्वरः शरोरी कर्तृत्वात् कुलालादिवत्” अर्थात् जिस प्रकार घटादि फार्यों के कुलादि कर्ता शरीर से युक्त हैं, उसी प्रकार ईश्वर भी चूंकि क्षित्यंकुरादि के कर्ता हैं, अतः अवश्य ही शरीर से युक्त हैं । । (२) किन्तु ईश्वर को तो शरीर नहीं है । इस लिये उनमें कत्तु व मी स्वीकार नहीं किया जा सकता। इससे यह अनुमान निष्पन्न होता है कि ‘ईश्वरो न कत्तो शरोरशून्यत्वात् आकाशादिवत्’ अर्थात् जिस प्रकार आकाशादि शरीर न रहने के कारण किसी भी कार्य के कर्ता नहीं हैं, उसी प्रकार ईश्वर भी चुकि शरीर से रहित हैं, अत: ‘कत्ती’ नहीं हैं । इस प्रकार ईश्वर रूप प्रकृत पक्ष में प्रकृत अनुमान का ‘कर्तृत्व’ रूप साध्य का अभाव चु कि निर्णीत है, अतः प्रकृत ईश्वरानुमान का कार्यत्व हेतु बाधित है । अतः इससे ईश्वर का अनुमान नहीं किया जा सकता । (३) क्षित्यादिकमेव. ……. विशेषरण के बाध से विशिष्टबाध का उद्भावन शरीर के प्रसङ्ग को उठाकर दोष देनेवाले का यह भी अभिप्राय हो सकता है कि जितने भी कार्य हैं, वे सभी शरीर से युक्त कर्ता के द्वारा ही निर्मित होते हैं । क्षित्यंकुरादि भी कार्य ही हैं, अतः वे भी शरीर से युक्त कर्ता के द्वारा ही निर्मित होगे, क्षित्यादिकं शरीरिक कम् कार्यत्वात् घटादिवत्” अर्थात् जिस प्रकार क्षित्यादि कार्य शरीर से युक्त कुलालादि कर्ताओं से ही बनते हैं, उसी प्रकार क्षित्यंकुरादि भो चूकि कार्य हैं, अतः शरीरिकर्त्ता के द्वारा ही निर्मित होते हैं। ऐसा निर्णय हो जाने पर इस निर्णय में कोई बाधा १. ईश्वर को न माननेवाले सभी विचारक उक्त कार्यस्व लिङ्गक अनुमान पर जिन दोष ‘इन्टको’ का प्रहार करते हैं, उन दोषों का उपपादन पूर्वक ‘उद्धार’ (कण्टकांचार) इस श्लोक द्वारा सूचित होकर संक्षिप्त रूप से खण्डित हुआ है, एवं ‘मन ये शरीर प्रसङ्गम्’ इत्यादि गद्य सन्दर्भ के द्वारा विशद रूप से उपपादित हुआ है । उन लोगों का प्रधान थाक्षेप है कि किसी भी कार्य के कर्ता को शरीरधारी होना आवश्यक है । क्योंकि शरीर के द्वारा ही सभी ‘कर्ता’ कार्यों’ का संपादन करते है । इसमें दृष्टान्त की कमी नहीं है । अतः जो ‘कतृ’जम्य होगा, वह शरीरजन्म भी अवश्य होगा । सुतराम् जो शरीरजग्य नहीं होगा, वह कत्तु अन्य भी नहीं होगा । क्षिस्यङ कुरादि शरीरजन्य नहीं हैं । अतः कत्तु जन्य भी नहीं है, अतः क्षित्यङ कुरादि के कर्त्ता के रूप में ईश्वर की सिद्धि नहीं हो सकती ।
गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जलौ यद्वा शरीराजन्यत्वादकार्यत्वं तत एव वाऽकर्तृ कत्वम् ? नहीं रहती कि क्षित्यंकुरादि ईश्वर कर्ता के नहीं हैं, क्योंकि ईश्वर शरीरी नहीं हैं । क्षित्यंकुरादि के यदि कोई कर्ता होंगे भी तो हमलोगों के समान शरीर से युक्त ही होंगे । अशरीरी परमेश्वर कर्त्ता नहीं हो सकते । इस रीति से ‘विशेषण’ के बाघ से ‘विशिष्टबाघ, रूप दोष का उद्भावन पूर्वपक्षवादी को इष्ट हो सकता है । ’ (४) यद्वा शरीराजन्यत्वातु .. जितने भी कार्य हैं, उनकी उत्पत्ति में शरीर का उपयोग अवश्य होता है । शरीर के व्यापार के बिना कोई भी कार्य उत्पन्न नहीं होता है । जैसे कि आकाशादि की उत्पत्ति में शरीर का कोई उपयोग नहीं होता, अत: श्राकाशादि शरीरणय नहीं है । उसी प्रकार क्षित्यं कुरादि भो ‘कार्य’ नहीं हैं। इस से यह अनुमान निष्पन्न होता है कि “क्षित्यंकुरादिक- मकार्यम् पारीराजन्यत्वात् प्राकाशादिवत्” “अर्थात् आकाशादि के समान क्षित्यंकुरादि भी ‘कार्य’ नहीं हैं, क्योंकि माकाशादि के संमान ही क्षित्यंकुरादि भी शरीरजन्य नहीं हैं । इस प्रकार कार्यत्व हेतुक उक्त ईश्वरानुमान के क्षत्यंकुरादि रूप पक्ष में कार्यत्व हेतु के अभाव के निर्णय से उक्त ‘कार्यस्व’ हेतु में ‘स्वरूपासिद्धि’ दोष की आपत्ति होती है । क्योंकि पक्ष में हेतु के न रहने से ही ‘स्वरूपासिद्धि’ दोष होता है । अतः उक्त कार्यत्व रूप दुष्ट हेतुक अनुमान से ईश्वर की सिद्धि नहीं हो सकती । (५) तत एव वा जितने भी कार्य शरीर से उत्पन्न होते हैं, वे सभी कार्य कर्ता के द्वारा भी उत्पन्न होते हैं । क्षित्यंकुरादि कार्य शरीर से उत्पन्न नहीं होते, अतः वे कर्ता से भी उत्पन्न नहीं हो सकते । इस प्रकार यह अनुमान निष्पन्न होता है कि ‘क्षित्यंकुरादिकमकर्तृकम शरीरा जन्यत्वात् आकाशादिवत्’ ( अर्थात् जिस प्रकार शरीर से अनुत्पन्न श्राकाशादि किसी भी १. कहने का तात्पर्य है कि ‘कर्ता शरीरी एव’ इस व्याप्ति के पक्ष से क्षिष्यक कुरादि में भी शरीर विशिष्ट कर्तृ जम्यस्व की ही सिद्धि होगी, किन्तु ईश्वर में शरीर रूप विशेषण नहीं है। अतः क्षिस्यादि में केवल कत्तु जन्यत्व के रहने पर भी ईश्वर में शरीर रूप विशेषण के अभाव से दित्यादि में शरीर विशिष्ट कत्तजन्यस्व रूप ‘विशिष्ट’ का बाध समझना चाहिये । प उ f ह f a f f
I पञ्चमः स्तबक: ५८६ परव्याप्तिस्तम्मनाथं विपरीतव्याप्त्युपदर्शनमात्रं वेति । तत्र प्रथमद्वितीययोरा- श्रयासिद्धिबाधापसिद्धान्तप्रतिज्ञाविरोधाः । फर्ता से उत्पन्न नहीं हैं, उसी प्रकार क्षित्यंकुरादि पदार्थ चूँकि शरीर से उत्पन्न नहीं होते, वातः किसी कर्ता से भी उनकी उत्पत्ति नहीं हो सकते।) इस अनुमान के द्वारा भी दूसरे प्रकार से क्षित्यंकुरादि पक्षों में कर्तृ जन्यत्व रूप साध्य के अभाव स्वरूप बाघ का उद्भावन होता है । तस्मात् कार्यत्य रूप बाषित हेतु से क्षित्यंकुरादि में कर्तृ जन्यत्व की सिद्धि के द्वारा ईश्वर की सिद्धि नहीं हो सकती । (६) परव्याप्तिस्तम्भनार्थम् .. ( अनीश्ववरवादियों का कहना है कि ) कार्यत्व हेतुक उक्त ईश्वरानुमान की उत्पत्ति ‘यत् यत् कार्यम् तत् तत् कत्तु जन्यम् ( जितने भी कार्य हैं, वे सभी अवश्य ही कर्ता से उत्पन्न होते हैं ) इस व्याप्ति से होती है। इस व्याप्ति की विरोधिनी व्याप्ति है " यत् यत् कार्यं तत् शरीरजन्यमपि भवत्येव’ ( अर्थात् जितने की कार्य हैं, वे सभी कर्तृ जन्य होने के साथ साथ शरीरजन्य भी अवश्य होते हैं । इस व्याप्ति का पर्यवसान " यत् शरीरजन्यं न भवति, तत् कार्यमपि न भवति ( अर्थात् जिसकी उत्पत्ति में शरीर की अपेक्षा नहीं होती है, वह वस्तुतः ‘कार्य’ ही नहीं है ) इस व्याप्ति में होती है । इस पर्यवसित व्याप्ति के द्वारा प्रकृत ईश्वर साधक अनुमान में प्रहारान्तर से ( १ ) बाघ एवं (२) सत्प्रतिपक्ष इन दोनों दोषों उभावन अभिप्रेत है । इन में बाघ दोष का प्रतिपादन ‘तत एव वा’ इस सन्दर्भ में किया जा चुका है । सत्प्रतिपक्ष दोष के उद्भावन की रीति यह है कि जिस अनुमान के पक्ष में प्रकृत साध्य के प्रभाव का साधक दूसरा हेतु विद्यमान रहे, उस अनुमान का प्रकृत हेतु सत्प्रतिपक्षित होता है । प्रकृत अनुमान के पक्ष हैं क्षित्यंकुरादि, साध्य है कर्तुं जन्यत्व, एवं हेतु है कार्यस्व । इस अनुमान के पक्ष क्षिस्यंकुरादि में यदि ( शरीरधटित ) शरोराजन्यत्व हेतु से कर्तृ जन्यत्व रूप प्रकृत साध्य के अभाव की सिद्धि हो जाय, तो प्रकृत सध्य का साधक कार्यत्व हेतु में सत्प्रतिपक्ष दोष उपस्थित हो जायगा । क्योकि प्रकृत ईश्वरानुमान के पक्ष क्षित्यंकुरादि में कार्यत्व रूप प्रकृत हेतु से भिन्न शरीराजन्यत्व रूप प्रति ( विरोधी ) हेतु के द्वारा प्रकृत अनुमान का साध्य जो कर्तृ जन्यत्व उसके अभाव स्वरूप अकर्तृकश्व की सिद्धि होगी । अतः प्रकृत कार्यत्व हेतु क्षित्यं कुरादिरूप पक्ष में सकतु कत्व के साधन में समर्थ नहीं है । सि० प० तत्र प्रथम द्वितीययोः " 60 000 ( शरीर के प्रसङ्ग को उठाकर प्रकृत ईश्वनानुमान के कार्यत्व हेतु को हेत्वाभास साबित करने के लिए जिन छ अनुमानों का प्रयोग अनीश्वरवादी करते हैं, उन में ) प्रथम एवं द्वितीय
49064५६० गद्यपद्यात्मक+यायकुसुमाञ्जलौ इन दो अनुमानों में (1) आश्रयासिद्धि (२) बाघ (३) प्रपसिद्धान्त और (४) प्रतिज्ञाविरोष ये चार दोष हैं ( अतः इन चार दोषों से ग्रसित श्रत एव कार्याक्षम इन अनीश्वरवादियों के उक्त दोनों अनुमानों से प्रकृत ईश्वरानुमान दूषित नहीं हो सकता । ’ १. अनीश्वरवादियों ने ‘ईश्वर : शरीरी कत्तू’त्वात् कुशालादिजत्’ इस प्रथम अनुमान के द्वारा प्रकृत ( क्षिस्यङ कुरादिकं सकत्त के कार्यत्वात् घटपत् ) अनुमान में बाघ दोष का उद्भावन किया है। प्रथमतः इस विरोधी अनुमान में बाघ दोष है । क्योंकि स्वविशेषण (पक्षतावच्छेद) विशिष्ट पक्ष का ज्ञान अनुमिति के लिये आवश्यक है । अतः बाध के उद्भावक उक्त ईश्वर पक्षक अनुमान के लिये ‘ईश्वरत्व विशिष्ट ईश्वर का पहिले ज्ञान चाहिये ही । यह ईश्वरत्व विशिष्ट ईश्वर का ज्ञान ’ क्षित्थङ कुरादिकं सकत के कार्यस्वाद घटवत्’ इस अनुमान प्रमाण के द्वारा ही उत्पन्न होगा। इस अनुमान के द्वारा जत्यङ कुरादि रूप पक्ष में कत्तृकत्व की सिद्धि से क्षस्यङ कुरादि में कतृत्व साधक अनुमान बाधित हो जायगा । बाधित अनुमान के द्वारा प्रकृतानुमान में बाध का उद्भावन नहीं किया जा सकता । (२) अनघरवादियों के उक्त अनुमान से पहिले यदि ईश्वरत्व विशिष्ट ईश्वर सिद्ध नहीं हैं, तो इस अनुमान में थानवासिद्धि रूप दोष होगा। क्योंकि पक्ष में विशेषण (पक्षता छेदक ) का न रहना ही ‘श्राश्रयासिद्धि’ दोष है । ईश्वर में ईश्वरत्व की सिद्धि से ही ईश्वरस्व की लता सिद्धि होगी सो यदि नहीं है, तो पक्ष में पचतावच्छेदक नहीं है । शतः इस विरोधी अनुमान का हेतु ‘आश्रयासिद्धि’ ‘हेवाभास है । इससे प्रकृत अनुमान में बांध का उद्दुभावन नहीं किया जा सकता । (३) अनीश्वरवादियों के उक्त दोनों ही अनुमानों को स्वीकार कर लेने से उन्हें ‘प्रसिद्धान्त’ नामक ‘निग्रह स्थान’ रूप दोष प्राप्त होगा अर्थात् ईश्वर को स्वीकार न करते हुये भी ईश्वर साधक अनुमान में दोष देने के लिये ‘जो ‘ईश्वरः शरीरी कर्तृ’बाद’ इस धनुमान को स्वीकार करेंगे, वे निगृहीत ( पराजित ) होंगे। शरीरित्व की स्वीकार करने से उन्हें ईश्वर के नास्तित्व रूप अपने क्योंकि ‘ईश्वर में सिद्धान्त से हटकर क्योंकि सक्क अपने उसके विरुद्ध ईश्वर के अस्तित्व रूप सिद्धान्त पर थाना होगा। अनुमान से उनको शरीरित्व विशिष्ट परमेश्वर को स्वीकार करना होगा । जो उनके सिद्धांत के विरुद्ध !’ शपसिखान्त’ है । निगृहीत पुरुष कथा के उपयुक्त नहीं है । (४) ईश्वर में शरीरित्व के उक्त दोनों ही साधकों को ‘प्रतिज्ञाविरोध’ नाम के निग्रह स्थान का भी सामना करना होगा । साध्यविशिष्ट पक्ष के बोध का कारणीभूत वाक्य है ‘प्रतिज्ञा’ । इनसे पक्ष के बोध एवं साध्य के बोधक पदों में यदि परस्पर विरोध हों तो ‘प्रतिज्ञाविरोध’ नाम का निग्रह स्थान प्राप्त होता है । जिसका प्रसिद्ध f
पञ्चमः स्तबका ५६१ प्रतीये तु व्याप्तो सत्यां नेदमनिष्टम् । असत्यां तु न प्रसङ्गः । चतुर्थे बाघा- नैकान्तिको । सि० प० तृतीये तु व्याप्तौ सत्याम् ( ३ ) कार्यत्व में यदि शरीरिकर्तृ अन्यत्व की व्याप्ति है, तथापि यह कोई अनिष्ट नहीं है ’ । असत्याम् यदि कार्यत्व हेतु में शरीरिकर्तृ जन्यत्व की व्याप्ति ही नहीं है तो फिर क्षत्यङ कुरादि में शरीरिकर्तृ जन्यत्व की ही सिद्धि नहीं होगी, छातः कार्यत्व हेतुक प्रकृत ईश्वरानुमान में किसी दोष की संभावना नहीं है । अर्थात् ईश्वर में शरीर के बाध से जो क्षित्यङ कुरादि में शरीरिकर्तृकत्व के न रहने से ईश्वर जन्यत्व का बाघ दिखलाया गया है, वह प्रकृत में नहीं है । सि० प० चतुथे ( ४ ) शरीर के प्रसङ्ग को उठाकर पूर्वपक्षवादी क्षित्यङ्करादि में शरीराजन्यत्व हेतु के द्वारा अकार्यत्व का साधन करना चाहते हैं ( जिससे प्रकृत ईश्वरानुमान का कार्यत्व हेतु क्षिस्यङ कुरादि रूप पक्ष में असिद्ध रहने से स्वरूपासिद्ध हो जाय ) उनके इस ‘मित्यादिकमकार्य उदाहरण ‘मम माता बन्ध्या’ यह वाक्य है प्रकृत में पूर्व पक्षियों का प्रतिज्ञावाक्य है ईश्वर: शरीरी एवं ‘ईश्वर’ अकर्त्ता’ । दोनों ही वाक्यों में उक्त विरोध स्फुट है । क्योंकि क्षित्यादि में जिस लिये कि अस्मदादि शारीरिक स्य संभव नहीं हैं, इसीलिये अशरीरी परमेश्वर की कल्पना संभव होती है । अतः ईश्वर है, किन्तु मे शरीरी नहीं है अथवा ‘ईश्वर हैं, किन्तु वे कर्त्ता नहीं हैं’ ये दोनों प्रतिज्ञावाक्य परस्पर विरोधी है । तस्मात् उक्त दोनों अनुमानों के बल पर प्रकृत ईश्ववानुमान में बाघ दोष का उद्भावन नही किया जा सकता । द्वारा क्षित्यङ कुरादि में द्वारा क्षित्यङ कुरादि में १. क्योंकि शरीरिकत्त जन्यत्व की व्याप्ति से युक्त कार्यश्व हेतु के शरीरिक जन्यश्व की सिद्धि के बाद जब योग्यानुपलब्धि के शरीरिकर्तृ जन्यत्व के बाघ की प्रतीति होगी तो शरीरिक जन्यत्व साध्य से शरीरत्व रूप अंश को हटा कर ( प्रभोष ) कर केवल कत्तु जन्यत्व रूप साध्य की अनुमिति होगी । यह नियम नहीं है कि जिस रूप से साध्य की व्याप्ति हेतु में गृहीत रहे, उसी रूप से साध्य की धनमिति हो, क्योंकि पर्वत में महनसीयवह्नि के प्रभाव के निश्चय के बाद वह्नित्व रूप से केवल घूम में व्याप्ति के प्रहण से केवल वह्नि की ‘पर्वतों वह्निमान्’ इस आकार की अनुमित नहीं होती हैं, किन्तु ‘महासीयवह्नीतर- वह्निमान् पर्वत’ इसी आकार की अनुमिति होती है ।
५३२ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली पञ्चमे स्वसमर्थविशेषणत्वम् । षष्ठोऽपि नागृह्यमाणविशेषया व्याप्त्या बाधः । शरीराजन्यत्वात्’ इस अनुमान में (१) बाघ एवं (२) अनैकान्तिक दोष हैं । ( क्योंकि पक्ष के बोधक ’ क्षित्यादि’ पद से यदि क्षिति एवं अङकुर दोनों विवक्षित हैं, तो फिर बाघ होगा, क्योंकि क्षिति एवं मङ कुर एतदुभयगत द्वित्व ही पक्षतावच्छेदक होगा । इस द्वित्वावच्छेदेन ‘धकार्यत्व’ का प्रभाव निर्णीत है, क्योंकि अकार्यत्व यदि दोनों में रहेगा भी तो अलग अलग क्षितित्वावच्छेदेन एवं अङ कुरत्वावच्छेदेन ही रहेगा । सुतराम् पक्षतावच्छेदकीभूत उक्त उभयत्वा वच्छेदेन लकार्यस्व रूप साध्य का अभाव निर्णीत रहने के कारण प्रकृत में बाघ दोष समझना चाहिये । यदि शरीराजम्यत्व हेतुक अकार्यत्व साध्यक अनुमान में केवल क्षिति ही पक्ष है, तो प्रनैकान्तिक ( व्यभिचार ) दोष होगा, क्योंकि अङकुर में शरीराजन्यत्व रूप हेतु है, किन्तु अकार्यस्व रूप साध्य निर्णीत नहीं है । श्रतः शरीराजन्यत्वहेतुक उक्त अनुमान से प्रकृत ईश्वरानुमान में स्वरूपासिद्धि दोष का उद्भावन नहीं किया जा सकता । ( ५ ) पञ्चमे तु
क्षत्यङ कुरादि रूप पक्ष में शरीराजन्यत्व हेतु के द्वारा जो अकर्तृकत्व का साधन कर ( क्षित्यङ कुरादिकमकर्तृकं शरीराजन्यत्वात् प्राकाशादिवत् ) ईश्वर के साधक प्रकृत अनुमान में बाघ दोष का उद्भावन करना चाहते हैं, यह भी उचित नहीं है । क्योंकि उक्त अनुमान के घरीराजन्यत्व में ‘शरीरांश’ व्यर्थ है । अतः व्यर्थ विशेषण घटित ‘शरीराजन्यत्व’ हेतु ‘व्याप्यत्वासिद्ध’ हेत्वाभास है । इसलिये उसके द्वारा क्षित्यढकुरादि में अकर्तृकत्व की सिद्धि संभव नहीं है, अतः प्रकृत ईश्वरानुमान में कथित रीति से भी बाघ दोष का उद्भावन नहीं किया जा सकता । (६) षष्ठे तु ( ‘परव्याप्तिस्तम्भनार्थम्’ इत्यादि सन्दर्भ के द्वारा जो प्रकृत ईश्वरानुमान में ) छठे प्रकार से बाघ एवं सत्प्रतिपक्ष दोष का उद्भावन दिखलाया गया है’ वह भी उचित नहीं है । क्योंकि उक्त दोनों दोषों के उद्भावन का मूल है घरीरघटित ‘यत् यत् शरीराजन्यं तत्तदकंतु कम्’ इस विपरीत व्याप्ति के द्वारा ‘यत् यत् कार्य तत्तत् सकर्तृकम्’ इस प्रकृत व्याप्ति का ‘स्तम्भन’ अर्थात् कार्य करने की अक्षमता । नागृह्यमाण - …००० प्रकृत व्याप्ति के द्वारा बाघ इस लिये नहीं हो सकता कि दोनों ही व्याप्तियाँ बराबर बल की हैं। जिस प्रकार प्रकतु कत्व की व्याप्ति शरीराजन्यत्व में है, उसी प्रकार कत्तु जन्यत्व
स त 5 प्र प क है प रू हे में 29 उसे बु प ि की :1 ोंकि बाघ इस तो भूत बाघ तो किन्तु कृत धन कृत उक्त यत्व’ की वन में ) चित जन्यं प्रकृत राबर न्यत्व पञ्चमः स्तवक! ५६३ न चागृह्यमाणविशेषव्याप्त्या गृह्यमाणविशेषायाः सत्प्रतिपक्षत्वम् । अस्ति च कार्यत्वव्याप्तेः पक्षधर्मतापरिग्रहो विशेषः । कर्ता शरीरी, विपरीतो न कर्तेति चाऽनयोस्तद्विरहः । ननु यत् बुद्धिमद्धेतुकं तच्छरीरहेतुकमिति नियमे की व्याप्ति कार्यत्व में भी है । इस प्रकार सकतु कस्व और अकर्ता कस्व दोनों साध्यों की व्याप्तियाँ उनके अपने अपने दोनों हेतुओं में समान रूप से है । फिर एक साध्य की अनुमिति से दूसरी अनुमिति बाधित क्यों कर होगी ? जब तक शरीराजन्यत्व हेतु में अकत्तु कत्व रूप साध्य की व्याप्ति में सकतु कत्व एवं कार्यस्व की व्याप्ति से कोई ‘विशेष’ गृहीत नहीं होगा, तब तक ‘विपरीत व्याप्ति’ के प्रदर्शनमात्र से प्रकृत अनुमान बाधित नहीं हो सकता । न चागृह्यमाण 0:00 कर्ता शरीरी एवं कथित ‘शरीराजन्यत्व’ हेतु से क्षित्यङ कुरादि में अकत करव के साघन के द्वारा प्रकृत ईश्वरानुमान में सत्प्रतिपक्ष का भी उद्भावन नहीं किया जा सकता। क्योंकि शरीरा- जन्यत्व हेतु में अकतु कत्व साध्य की जो व्याति है, उसमें प्रकृत ईश्वरानुमान की उपयोगिनी ‘यत् यत् कार्यं तत् तत् सकत कम्’ इस व्याप्ति की अपेक्षा कोई ‘विशेष’ गृहीत नहीं है । प्रर्थात् दोनों हेतुनों में व्याप्ति रूप बल यद्यपि समान हैं । किन्तु शरीराजन्यत्व हेतु का क्षित्यादि पक्षों में रहना सन्दिग्ध है । फलतः इस हेतु में ‘पक्षधर्मता’ रूप बल सन्दिग्ध है । किन्तु कार्यश्व हेतु का क्षित्यादि पक्षों में रहना निश्चित है । अत इस हेतु में ‘पक्षधर्मता’ निश्चित है । इस प्रकार दोनों हेतु समान बल के नहीं हैं, क्योंकि शरीराजन्यत्व हेतु में व्याप्ति मौर पक्षधर्मता - हेतु के इन दोनों बलों में से व्याप्ति रूप एक ही बल निश्चित है, दूसरा पक्षधर्मता रूप बल निश्चित नहीं है। किन्तु प्रकृत ईश्वरानुमान के कार्यत्व हेतु में व्याप्ति एवं पक्षधर्मता– हेतु के ये दोनों बल निश्चित हैं। हेतु के समान बल से युक्त प्रतिहेतु के ही द्वारा सत्प्रतिपक्ष होता है, सो प्रकृत में नहीं है, अतः शरीरषटित विपरीतव्याप्ति के प्रदर्शन मात्र से प्रकृतानुमान में सत्प्रतिपक्ष का उद्भावन नहीं किया जा सकता । पू० प० ननु यत् बुद्धिमद्धेतुकम् कर्तृकत्व के साधक शरीराजन्यत्व हेतु में पक्षधर्मता का अनिवचय दिखा कर उसे कार्यस्व से हीन बल का कहना ठीक नहीं है, क्योंकि ‘यत्कार्यं शरीरजन्यं भवति तद् बुद्धिमज्जम्यमपि भवत्येव’ ( प्रर्थात् जो कार्य शरीर से उत्पन्न होता है, उसे बुद्धि से युक्त पदार्थ की अपेक्षा अवश्य होतो है ) इस व्याप्ति के द्वारा यह नियम निष्पन्न होता है कि ‘जिस कार्य की उत्पत्ति में शरीर की अपेक्षा न हो, उसकी उत्पत्ति में बुद्धि से युक्त पदार्थ की मी अपेक्षा कदापि नहीं होगी।’ इससे अनुमान किया जा सकता है कि ‘क्षित्यङ कुरादिकं ७५
५३४ गद्यपद्यात्मक-न्याय कुसुमाञ्जली यच्छरीरहेतुकं न भवति तद्बुद्धिमद्धतुकमपि न भवतीति विपर्ययनियमोऽपि स्थात् । तथा च पक्षधमंताऽपि लभ्यत इति चेन्न । अन्वये तु गगनादे! सपक्षभागस्यापि सम्भवात्, केवलव्यतिरेकित्वानुपपत्तेः । विशेषरणासामर्थ्यात् । हेतुव्यावृत्तिमात्रमेव हि तत्र कर्तव्यावृत्तिव्याप्तम्, न तु शरीर- रूपहेतुव्यावृत्तिरित्युक्तम् । व्याप्तश्च पक्षधर्मं उपयुज्यते, न त्वन्योऽतिप्रसङ्गात् । शरीराजन्यं बुद्धिमदजन्यत्वात् ’ ( अर्थात् क्षित्यङ कुरादि चूकि बुद्धि से युक्त पदार्थ के द्वारा उत्पन्न नहीं होते है, अतः अवश्य ही शरीर से उत्पन्न नहीं होते ) । इस अनुमान के द्वारा क्षिरयङ कुरादि में शरीराजन्यत्व के निश्चित हो जाने पर सकत. ‘कत्व के साधक कार्यस्व हेतु कर्त्त जन्यत्व के साधक शरीराजन्यत्व हेतु से अधिक बलशाली नहीं रह जाता | शरीराजभ्यस्व हेतु में पक्षधर्मता रूप बल भी सिद्ध हो जाता है । यतः शरीराजन्यत्व हेतु क्षित्यङ्करादि में कर्त्रजन्यत्व साधन के द्वारा जो सत्प्रतिपक्ष दोष का उद्भावन किया गया है, सो अयुक्त नहीं है । सि० प० न, गगनादेा दोनों हेतु समानबलशाली नहीं है, क्योंकि कर्मजन्यत्व के साधक शरीराजन्यत्व हेतु में पक्षधर्मता के रहते हुये भी वस्तुतः कर्श्वजन्यत्व रूप अपने साध्य की व्याप्ति ही नहीं है। इसमें यह हेतु है कि शरीराजन्यत्व हेतु केबलभ्यतिरेकि नहीं हो सकता, क्योंकि शरीराजम्यत्व रूप हेतु कर्त्रजभ्यत्व रूप अपने साध्य के साथ गगन रूप एक अधिकरण ( सपक्ष ) में निश्चित है । वही हेतु केवलव्यतिरेकि कहलाता है, जिसके साध्य का कोई निश्चित अधिकरण ( सपक्ष ) न हो । अतः शरीराजन्यत्व हेतु में केवलव्यतिरेकि व्याप्ति नहीं रह सकती । एवं शरीराजन्यत्व हेतु में कर्त्रजन्यत्व रूप साध्य की अन्वय व्याप्ति भी नहीं है । क्योंकि ‘जो जो शरीरजन्य नहीं है, वे सभी कर्तृजन्य भी नहीं है’ यही तो प्रकृत मैं अन्वयव्याप्ति होगी । इस व्याप्ति में शरीर रूप विशेषण व्यर्थ है। क्योंकि प्रकृत व्याप्ति का यही स्वरूप पर्याप्त है कि ‘जो किसी से भी जन्य नहीं है, वे सभी कर्तृजन्य भी नहीं हैं । सुतराम अक कत्व की व्यामि केवल प्रजन्यत्व में ही है, पारीराजन्यत्व में नहीं । इस प्रकार शरीराजन्यत्व में जब अकत्तकत्व की अन्वयव्याप्ति अथवा व्यतिरेकव्याप्ति इन दोनों मैं से कोई भी नहीं है, तो यदि उसमें पक्षधर्मता है मी, तथापि शरीराजन्यत्व में अकत. ‘कत्व के साधन के उपयुक्त बल नहीं स्वीकार किया जा सकता। क्योंकि व्याप्ति से युक्त जो ‘पक्षधर्म’ अर्थात् पक्षवृत्ति हेतु वही प्रनुमिति के लिये ‘उपयोगी’ है । केवल ‘पक्षधर्म’
पि तु र- रा रा हेतु एव में सो त्य हृीं कि रण ई सि भी कृत प्ति इस नों त्व जो मं’ पश्ञ्चमः स्तबक! ५६५ एतेन तद्वयापक रहितत्वादिति सामान्योपसंहारस्यासिद्धत्वं वेदितव्यम् । न हि यद्वद्यावृत्तिदभावे ऽन्वयव्यतिरेकाभ्यामुपसंहतुमशक्या, तत् तस्य व्यापकं नामेति । । ( अर्थात् व्याप्ति से रहित पक्ष में विद्यमान हेतु ) अनुमिति के लिये ‘उपयोगी’ नहीं है । अगर ऐसा माने तो ‘हृदो वह्निमान् जलात्’ इत्यादि स्थलों के हेतु से भी प्रमा अनुमिति की उत्पत्ति रूप ‘अविप्रसङ्ग’ का सामना करना पड़ेगा। क्योंकि उक्त हेतु में भी तो. पक्षधर्मता है ही । तस्मात् सकर्श कत्व रूप साध्य की व्याप्ति से शून्य क्षित्यादि पक्षों में रहनेवाले ‘अर्थात् पक्षषमता से युक्त शरीराजन्यस्व’ हेतु से प्रकृत ईश्वरानुमान का कार्यत्व हेतु सत्प्रतिपक्षित नहीं हो सकता । एतेन तद्वधापकरहितत्वातु .. ( किसी का कहना है कि शरीराजन्यत्व हेतु से प्रकृत ईश्वरानुमान का कार्यश्व हेतु भले ही सत्प्रतिपक्षित न हो, किन्तु ‘तद्वधापकरहितस्व’ हेतु से क्षित्यादि में कत्तु करव साधन के द्वारा वह सत्प्रतिपक्षित हो सकता है । इस विरोधी अनुमान का स्वारस्य यह है कि जितने भो पदार्थ किसी कर्ता से उत्पन्न होते हैं, वे सभी पदार्थ अवश्य ही शरीर से भी उत्पन्न होते हैं । इस प्रकार शरीरजन्यत्व सकतु कस्व ( कत्तु सन्यत्व ) का व्यापक है, एवं सकत्तु कस्व शरीरजन्यत्व का व्याप्य है । यह अव्यचरित नियम है कि ( जहाँ व्याप्य रहेगा, वहीं व्यापक अवश्य रहेगा, इसके विपरीत ) जहाँ व्यापकीभूत वस्तु का प्रभाव रहेगा, वहीं व्याप्य का अभाव भी अवश्य रहेगा। इसी लिये जहाँ वह्नि नहीं रहता है, वहाँ घूम भो नहीं रहता। इस से यह स्पष्ट है कि जिन सभी स्थानों में शरीरजन्यत्व नहीं रहेगा ( अर्थात् जो सभी पदार्थ शरीरजम्य नहीं होंगे ) उन सभों स्थानों में कत्तु जन्यस्व का अभाव ( प्रकर्तृकश्व ) भी अवश्य रहेगा । क्षित्यंकुरादि में शरीरजन्यत्व नहीं है, प्रता कर्तृ जन्यत्व भी नहीं रहेगा । सुतराम् यह अनुमान हो सकता है कि ’ क्षित्यादिकमकर्तृक तद्वयापकरहितत्वात् आकाशादिवत्’ इस अनुमान के हेतुवाक्य में जो ‘तत्’ पद हैं, वह ‘कर्तृ’जन्यस्व’ का वाचक है । इस प्रकार सामान्यमुखी व्याप्ति के द्वारा वस्तुतः शरीराजम्यत्व रूप प्रति हेतु से ही प्रकृत ईश्वरानुमान में सत्प्रतिपक्ष दोष का उद्भावन किया जा सकता है ) उन लोगों का भी समाधान ‘न गगनादेः’ इत्यादि सन्दर्भ के द्वारा दिये गये समाधानों से हो जाता है । चूंकि शरीरजम्यस्व में कत्तु जन्यत्व की व्यापकता ही नहीं है, अतः उक्त व्यापकत्व के बल पर जितनी भी बात कही जायगी, सभी गलत हो जायगी। क्योंकि जो जिसका
५६६ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली विशेषविरोधस्तु विशेषसिद्धी सहोपलम्भेन, तदसिद्धी मिथो धर्मपरिहारा- नुपलम्भेन निरस्तो नाशङ्कामप्यधिरोहतीति । व्यापक होगा, वह ( व्याप्य पदार्थ ) उस व्यापकवस्तु से शून्य आश्रय में कभी नहीं रहेगा । जैसे कि घूम वह्नि से शून्य किसी अधिकरण में नहीं रहता है । 1 प्रकृत में यह कहना है कि ‘शरीरजन्यत्व’ में ‘कस्तु जन्यत्व’ की व्यापकता नहीं है, ‘किन्तु केवल ‘अजम्यस्व’ में ही ‘कर्स जम्यस्व’ की व्यापकता है । आकाशादि पदार्थों में जो शरीराजम्यस्व एवं अक करब इन दोनों की नियमतः एकत्र स्थिति देखी जाती हैं, उसका प्रयोजक केवल ‘प्रजन्यत्व’ को ही स्वीकार करने में लाघव है । उसकी प्रयोजकता शरीरा- जम्यत्व में स्वीकार करना आनावश्यक है । अर्थात् आकाशादि चूंकि सर्वथा ‘अजन्य’ है, इसीलिये ‘अकर्श क’ है । शरीर से अनुत्पन्न होने के नाते अकर्शक नहीं हैं। इस प्रकार चु कि शरीराजन्यस्व प्रकर्श कत्व का प्रयोजक नहीं है, अतः शरीराजन्यत्व की व्यापकता मी नहीं है । अता ‘तद्वघापकरहितत्व’ हेतु के द्वारा भी प्रकृतानुमान का कार्यत्व हेतु सत्प्रतिपक्षित नहीं हो सकता । ( इतने पर्यन्त के गद्य सन्दर्भ से श्लोक के आदि के दो चरणों की व्याख्या की गयी है) । सि० प० विशेष विरोधस्तु … . " तृतीय चरण की व्याख्या ( प्रर्थात् जिस प्रकार यत् यत् कार्यं तत् तत् सकर्त्त कम्’ यह व्याप्ति है, उसी प्रकार यत् यत् सकर्त्तकं तत् तत् शरीरजन्यम्’ यह व्याप्ति भी है । अतः क्षित्यंकुरादि में सकर्श कत्व की सिद्धि भी होगी तो ‘शरीरिक जन्यत्व’ की ही सिद्धि होगी । किन्तु इस रीति से क्षित्यंकुरादि में प्राप्त ‘शरीरिक जन्यत्व’ प्रत्यक्ष से बाधित है, अतः इस प्रत्यक्षबाध के कारण क्षित्यंकुरादि में ‘अशरीरिकर्त जन्यत्व की सिद्धि ही प्राप्त है । इस प्रकार एक ही अनुमान से एक ही समय क्षित्यंकुरादि में ‘शरीरिक जन्यत्व’ एवं ‘अथरीरिक जन्यत्व’ ये दोनों परस्पर विरुद्ध धर्म प्राप्त होंगे । इस ‘विशेष विरोध’ के कारण उक्त ईश्वरानुमान दुष्ट है । इस आक्षेप का समाधान यह है कि ) – उक्त ‘विशेषविरोध’ वस्तुतः मित्यादि के कर्ता से शरीरित्व एवं प्रशरीरिस्व इन दोनों परस्पर विरुद्ध धर्मों की आपत्ति रूप ही है । इस प्रसङ्ग में प्रथमतः यह कहना है कि यदि एक ही कर्ता में एक ही समय ‘शरीरित्व’ एवं ‘अशीरित्व’ इन दोनों धर्मों की सिद्धि हो सकती है, तो फिर ये दोनों धर्म परस्पर विरुद्ध ही नहीं हैं । यदि एक कर्त्ता में एक समय शरीरित्व एवं अशरीरित्व इन दोनों धर्म उपलब्ध ही नहीं हैं, तथापि दोनों में परस्पर विरोध नहीं माना म क के ୩ में ह श वि के श क क अ न १.
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, र 7 पञ्चमः स्तबक .५६७ स्यादेतत् । अस्ति तावत् कार्यंस्यावान्तरविशेषो यतः शरीरिकत्तु कत्व- मनुमीयते । तथा च तत्प्रयुक्तामेव व्याप्तिमुपजीवेत् कार्यत्वसामान्यमिति स्यात् । जा सकता। क्योंकि जिन सभी स्थानों में ‘शरीरिश्व’ है, उन सभी स्थानों में अशरीरिव नहीं हैं, यही है उन दोनों का ‘विरोध’ । प्रर्थात् जो कर्ता शरीरित्व का आश्रय है, वही कर्त्ता अशरीरित्व का आश्रय नहीं हो सकता, एवं जो कर्त्ता अशरीरित्व का प्राश्रय होगा, वह शरीरित्व का आश्रय नहीं हो सकता, इस प्रकार का नियत असमानाधिकरण्य रूप ‘धर्मप्रतिक्षेप’ का अथवा श्राश्रयव्यावृत्ति का ज्ञान ‘विशेष’ के लिये मावश्यक है । प्रकृत में इस प्रकार के धर्मिप्रतिक्षेप ( प्राश्रयव्यावृत्ति ) की जब उपलब्धि नहीं है, तो फिर ‘विरोध’ की शंका ही हो व्यर्थ है । पू० प० स्यादेतत् अस्ति तावत् … … कारिका के चतुर्थंचरण की व्याख्या प्रकृत ईश्वरानुमान का ‘कार्यत्व’ हेतु चूकि शरीरजन्यत्व ‘उपाधि’ से युक्त है, अतः व्याप्यत्वासिद्ध हेत्वाभास होने के कारण उससे ईश्वर की सिद्धि नहीं हो सकती । शरीर के ( प्रवच्छ देकत्व ) सम्बन्ध से युक्त आत्मा में हो ( शरीरावच्छिन्न आत्मा में ही ) कृति की उत्पत्ति होती है । कृति से युक्त आत्मा ही ‘कर्ता’ है । अत! जो कृतिजन्य होगा, वह शरोरजन्य भी अवश्य ही होगा । किन्तु क्षित्यङ्करादि ऐसे शरीरजन्य नहीं हैं। इस प्रकार ‘कार्य’ दो प्रकार के निष्पन्न होते हैं, भी ‘कार्य’ हैं जो एक शरीरजन्य जैसे कि घटादि, दूसरा शरीराजन्य जैसे कि अङ्कुरादि । श्रतः कर्ल जन्यत्व की व्याप्ति दोनों प्रकार के कार्यों में रहनेवाले कार्यत्व रूप सामान्य धर्म में नहीं है। कार्यत्व का ‘अवान्तर’ न्यून वृत्तिधर्म जो घटत्वादि उसमें ‘कर्त्त व रूप सामान्य धर्म का भवान्तर धर्म जो शरीरिजन्यत्व’ उसी की व्याप्ति है। अतः प्रकृत ‘कार्यत्व’ हेतु में शरीरजन्यत्व उपाधि है, क्योंकि साध्य है कर्रा जन्यत्व उसकी व्यापकता शरीरजन्यत्व में है, ( क्योंकि जहां-जहाँ कर्रा जम्यत्व है, उन सभी स्थानों में शरीरजन्यत्व भी अवश्य है ) । एवं कार्यत्व हेतु की अव्यापकता मी शरीरजन्यत्व में है ( क्योंकि कार्यत्व है क्षित्यङ्करादि में, उनमें शरीरजन्यत्व नहीं है ) ।’ सकर्श कश्व की सिद्धि चूँकि अस्मदादि रूप १. ‘कार्यस्व सामान्य’ धर्मरूप हेतु के द्वारा यदि चित्यादि में होती, तभी यह कहा जा सकता था कि चिस्यङ कुरादि में शरीरिकर्त जम्यत्व ईश्वर में बाधित है अतः इस बाध के कारण क्षित्यङ कुरादि में अशरीरिकरी जम्यत्व की सिद्धि होगी। वहीं अशरीरीकशी परमेश्वर नाम से प्रसिद्ध
५६८ गद्यपद्यात्मक-श्यायकुसुमाञ्जली न स्यात्, न हि विशेषोऽस्तीति सामान्यमप्रयोजकम् । तथा सति सौरभ कटुत्वनी लि- माऽऽदिविशेषे तिन घूमसामान्यमग्नि गमयेत् । किं नाम साधकसामान्ये साध्य- सामान्यमाश्रित्य प्रवर्तमाने तद्विशेषः साध्यविशेषव्याप्तिमाश्रयेत् । न तु विशेषे सति सामान्यमकिश्चित्करम् तस्यापि विशेषान्तरापेक्षयाs- किञ्चित्करश्वप्रसङ्गात् । सि० प० न स्यात् कार्यत्व के व्याप्य घटत्वादि धर्मों में सकर्रा कत्व सामान्य का प्रवन्धर धर्म शरीरिक कत्व की व्याप्ति अवश्य है । किन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि कार्यत्व रूप सामान्यधर्म में सकर्रा कत्व रूप सामान्यधर्म की व्याप्ति नहीं है। जिन विशेष घर्मो में जिन विशेषधर्मो की व्याप्ति रहती है, उन दोनों प्रकार के विशेषों के दोनों सामान्यधर्मो में भी व्याप्यव्यापकभाव न रहे ऐसी कोई राजाज्ञा नहीं हैं । प्रत्युत यही नियम है कि जिन दो प्रकार विशेषों में परस्पर व्याप्यव्यापकभाव अथवा कार्यकारणभाव रहे, उन दोनों प्रकार के विशेषों के दोनों सामान्यधर्मो में भी व्याप्यव्यापकभाव अथवा कार्यकारणभाव अवश्य रहना चाहिये । यदि ऐसा न मानें तो घूम से वह्नि साध्यक सर्वसिद्ध अनुमान का ही लोप हो जायगा । वह्नि से जितने भी घूम उत्पन्न देखे जाते हैं, उन में से प्रत्येक में अलग-अलग प्रकार के सुगन्ध-कटुत्व- नीलिमादि रूपों की उपलब्धि होती है। सुतराम् तत्तद्वह्नि से भिल- भिन्न प्रकार के ही घूमों की उत्पत्ति माननी होगी। इससे इतना ही निष्पन्न होगा कि ततधूम विशेष में तत्तद्वह्नि विशेष की व्याप्ति है । किन्तु घून सामान्य में वह्नि सामान्य की व्याप्ति इससे निष्पन्न नहीं होगी। जिससे घूम सामान्य के द्वारा वह्निसामान्य का अनुमान अनुपपन्न हो जायगा । अतः यही कहना होगा कि वह्निसामान्य धूमसामान्य का तो कारण है ही, किन्तु घूमसामान्य के वह्निसामान्य घटित सामग्री ( कारणसमूह ) के सम्बलन क्षण में जहाँ म्यूनवृति है ) हैं। करी जन्यत्व जब वास्तव में शरीरिकर्स जन्यत्व रूप ही है तो फिर कार्यत्व सामान्य में उसकी व्याप्ति ही नहीं रह सकती । उसकी व्याप्ति रहेगी शरीरीकर्ता से उत्पन्न कार्यों में रहनेवाले कार्यश्व में ( जो कार्यत्व सामान्य का उस कार्यत्व हेतु से तो शरीरिक अभ्यश्व की ही सिद्धि होगी। अस्मदादि में अथवा इन्द्रादि में मान लेने से इश्वर को न मानने से भी सकती है । अतः प्रकृत अनुमान से ईश्वर की सिद्धि नहीं हो सकती ।
जो कर्त. त्व उपपन्न हो 3 E स ४ ६ ल- न्य- Ts- वर्म ६प जन भी दो के य हो ग स- कि को न न्तु हाँ स्व र्या
व दो पञ्चमः स्तबका सौरभादिविशेषं विहायापि धूमे वह्निदृष्टो, न तु विशेषं विहाय कार्य कर्तेति चेन्न । कार्यं विशेष । कारणविशेषे व्यवतिष्ठते, न तु कार्यकारणसामान्ययोः प्रतिबन्धमन्यथा कुर्यादिति । किं न दृष्टं कार्यं कारणमात्रे, अंकुरो बीजे, तद्विशेषो धान्ये, तद्विशेषः शाली, तद्विशेषः कलमे इत्यादि बहुलं लोके । । गुग्गुल प्रभूति विशेष कारणों का सामीप्य प्राप्त होता है-वहाँ विशेषकारणों से युक्त नक्त सामान्य कारण से ही सुगन्धियुत-वर्णविशेषयुक्त एवं कटुत्वादि के तारतम्य से युक्त विभिन्न प्रकार के विशेष धूमों की उत्पत्ति होती है। इससे यह निष्पन्न नहीं होता कि वह्नि सामान्य घूमसामान्य का कारण नहीं है अथवा घूमसामान्य में वह्नि सामान्य की व्याप्ति नहीं है । यदि विशेष विशेष में व्याप्यव्यापकभाव, अथवा कार्यकारणभाव न रहे तो जिन विशेष धर्मों में परस्पर कार्यकारणभाव अथवा व्याप्यव्यापकभाव मान कर सामान्यकार्यकारणभाव अथवा सामान्यव्याप्यव्यापकभाव का खण्डन करना चाहते हैं, उन विशेष घर्मो में भी परस्पर व्याप्यव्यापकभाव अथवा कार्यकारणभाव स्थिर न रह सकेंगे, क्योंकि उन विशेष धर्मों के भी तो अवान्तर विशेषधर्म है, जिनको अपेक्षा वे ‘विशेषधर्म’ सामान्यधर्म ही है । इस प्रकार ‘विशेषावान्तरविशेष’ फलत अन्तिम विशेष रूप दो व्यक्तियों में ही व्याप्यव्यापकभाव अथवा कार्यकारणभाव मात्र की स्थिति का खण्डन प्रथम स्तवक में कर चुके हैं । तस्मात् कार्यत्व के व्याप्य घटत्वादि विशिष्ट में शरीरिकर्स जन्यत्व है, केवल इसीलिये कार्यसामान्य में सामान्यतः कर्रा जन्यत्व का व्याघात नहीं हो सकता । पू० व० सौरभादिविशेषम् 100 ( सौरभादि विशेषों से हीन धूम विशेष की उत्पत्ति भी वह्नि से देखी जाती है । अतः घूम विशेष और वह्निविशेष में जो कार्यकारणभाव अथवा व्याप्यव्यापकभाव है- उससे भिन्न धूम सामान्य और वह्निसामान्य में भी कार्यकारणभाव अथवा व्याप्यव्यापकभाव मानना पड़ता है । किन्तु कार्यस्व रूप सामान्य के विशेष घटत्वादि धर्मों से रहित न कोई कार्य ही देखते हैं, एवं शरीरिस्व स्वरूप विशेष से रहित न किसी कर्ता को ही देखते हैं—ऐसी स्थिति में कार्यस्व के विशेष जो घटत्वादि धर्म एवं शरीरित्यादि विशेष से युक्त जो कर्रा त्वादि धर्म इन दोनों रूपों से कार्यकारणभाव अथवा व्याप्यव्यापकभाव से अतिरिक्त कर्रा त्व सामान्य एवं कार्यत्व सामान्य इन दोनों रूपों से भी प्रतिरिक्त कार्यकारणभाव अथवा व्याप्यव्यापकभाव की कल्पना व्यर्थ है, इस आक्षेप का समाधान यह है कि ) सि० प० न, कार्यविशेष विशेष कारण के सम्बलन से ( एकत्र होने से ) विशेष कार्य की उत्पत्ति अवश्य होती है, किन्तु इससे कार्यसामान्य एवं कारणसामान्य में जो ‘प्रतिबन्धि’ अर्थात् व्याप्ति है, CCO. Vasishtha Tripathi Collection. Digitized by eGangotri६०० गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली कवा दृष्टमरणुद्रव्यारन्यं द्रव्यं नित्यरूपाद्यारब्धं रूपादि, तथापि सामान्य- व्याप्तेरविरोधात्सिद्धघत्येव । श्रवश्यञ्चैतदेवमङ्गीकर्तव्यम् । अन्यथा कार्यत्वस्या- कस्मिकत्वप्रसङ्गात् । उसमें कोई ‘अन्यथा’ नहीं हो सकती । लोक में ऐसे अनेक दृष्टान्त हैं कि सामान्य कारण से सामान्य कार्य होता है, एवं उसी सामान्य के विशेष स्वरूप कारण के रहने पर विशेष प्रकार के कार्य की उत्पत्ति होती है । जैसे केवल बीज के रहते केवल अङ्कुर की उत्पत्ति होती है । एवं बीजत्व रूप सामान्य के अवान्तर घान्यत्व जाति के बीज के रहने पर ‘घन्याङ कुर ’ स्वरूप विशेष कार्य की उत्पत्ति होती है । एवं धान्य सामान्य के विशेष शालि के बीज के रहने से शाल्यङ कुर रूप विशेष कार्य की उत्पत्ति होती है । एवं शालि विशेष कलम के बीज के रहने से कलमाङ कुर की उत्पत्ति होती है । प्रतः विशेष कार्यकारणभाव के रहते सामान्यकार्यकारणभाव में कोई बाषा नहीं है । क्व वा ( इस कथित बीजाङ कुर स्थल में किसी बाघक के न रहने से सामान्यकार्यकारण- भाव एवं विशेषकार्यकारणभाव दोनों ही स्वीकार कर सकते हैं । किन्तु प्रकृत में कार्य सामान्य के प्रति क सामान्य को कारण मानने में ‘ज्ञानमनित्यमेव’ कर्ता शरीरी एव इत्यादि अनेक प्रकार के प्राथमिक बाघ बाधक रूप में उपस्थित होंगे । ‘ज्ञानमनित्यमेव ’ इस बाघ से नित्यज्ञान बाधित होगा, जिससे अनित्यज्ञान से युक्त अस्मादि रूप कर्ता से विलक्षण नित्यज्ञान से युक्त परमेश्वर रूप कर्ता बाधित होंगे। परिणाम में प्रकृत कार्यत्व लिङ्गक अनुमान से भी उक्त बाघ के कारण अनित्यज्ञान विशिष्ट कर्ता की ही सिद्धि होगी । इसी प्रकार ‘कर्ता शरीरी एव’ इस बाध से अशरीरी कर्ता का बाघ होगा । जिससे क्षत्यङ कुरादि में भो शरीरिकर्स जन्यत्व की ही सिद्धि होगी । अतः प्रकृत ईश्वरानुमान से अस्मदादि से विलक्षण अशरीरी नित्यज्ञान से युक्त कर्ता रूप परमेश्वर की सिद्धि न होकर शरीरी एवं अनित्यज्ञान से युक्त प्रस्मदादि के सहय कर्ता की ही सिद्धि होगी, नित्यज्ञान से युक्त अशरीरी परमेश्वर की नहीं। इस प्रक्षेप का समाधान यह है कि; आंखों से दश-बीस सो या हजार स्थानों के विपरीत दर्शन से युक्ति के द्वारा उपपन्न कार्यकारणभाव का खण्डन नहीं किया जा सकता । यदि ऐसा हो तो फिर परमाणु एवं चक्षुरादि इन्द्रियों की सत्ता ही लुप्त हो जायगी। क्योंकि महात् अवयवियों का प्रत्यक्ष होता है, उन सभी अववियों द्वारा ही उत्पन्न होते देखा जाता को सभी स्थानों में महत्परिमाण से युक्त अवयवों के है। इससे यह व्याप्ति निर्णीत हो सकती है कि “अवयवो महानेव” अर्थात् महत्परिमाण
य- T- | de से ष ਰ व I र्य व न र I पञ्चमः स्तबका ६०१ से युक्त द्रव्य हो किसी अवययवी के अवयव हो सकते हैं । इस व्याप्ति के द्वारा अणुपरिमाण युक्त परमाणु रूप द्रव्य बाधित हो जायगा । से । एवं महत्परिमाण से युक्त द्रव्यों के रूप ही तो देखे जाते हैं। दीख पड़ने वाले घटादिगत सभी रूपों की उत्पत्ति कपालादि अवयवों में रहनेवाले अनित्य रूपों से ही देखी जाती है । इससे यह नियम किया जा सकता है कि ‘रूपमनित्यरूपारब्धमेव’ ( अर्थात् रूप की उत्पत्ति अनित्य रूपों से ही होती है ) । ऐसा होने पर जलादि परमाणुओं में रहनेवाले नित्यरूपों से रूप की उत्पत्ति बाधित हो जायगी । फलतः नित्य रूप की सत्ता ही बाधित हो जायगी । तस्मात् जिस प्रकार सैकड़ों स्थानों में घटादि द्रव्यों को महत्परिमाण से युक्त कपालादि द्रव्यों के द्वारा ही उत्पन्न देखे जाने पर भी अणुपरिमाण से युक्त परमाणु रूप द्रव्यों के द्वारा द्वयक रूप द्रव्य की उत्पत्ति बाषित नहीं होती है, एवं घटादि द्रव्यों में रहनेवाले रूपों की उत्पत्ति शतशः सहस्रशः अनित्य रूप से ही होने पर भी जलादि के परमाणुओं में रहनेवाले नित्य रूपों से ही जलादि के द्वयणुओं में रहनेवाले रूपों की उत्पत्ति बाधित नहीं होती है, उसी प्रकार ‘कर्ता शरीरी एव’ एवं ‘ज्ञानमनित्यमेव’ इत्यादि केवल प्रत्यक्षमूलक नियमाभासों से अशरीरी एवं नित्यज्ञान से युक्त ‘कर्ता’ बाषित नहीं हो सकते । अतः विशेष कार्यकारणभावों के रहने पर भी ‘यत् यत् कार्यं तत् तत् सक कम’ यह सामान्य- व्याप्ति श्रवश्य रहेगी । एवं ऐसा स्वीकार करना आवश्यक भी है ‘अन्यथा’ कार्य सामान्य ‘प्राकस्मिक’ हो जायगा । " समान ही कार्य का व्यतिरेक भी है, व्यतिरेक भी है । अर्थात् जिस प्रकार नहीं होती है, उसी प्रकार कर्ता रूप होती है । प्रत्युत कर्ता के न रहने पर नहीं होती है । क्योंकि अन्य कारणों १. जिस प्रकार अन्य कारणों में कार्य के अन्वय के उसी प्रकार कर्णा रूप कारण में भी कार्य का अन्य कारणों के न रहने पर कार्य की उत्पति कारण के न रहने पर भी कार्य की सत्पति नहीं अन्य कारणों के रहने पर भी कार्य की उत्पत्ति का उपयुक्त रूप से संचालन कर्ता के ही अधीन है, अत: ‘कार्य सामान्य विना कर्ता के ही उत्पन्न होता है’ इसका पर्यवसान ‘कार्य सामान्य विना कारण के ही उत्पन्न होता है’ इसी में होता है । इस प्रकार बिना कारण के ही कार्य समान्य की उत्पत्ति ही कार्य सामान्य का ‘आकस्मिकत्व’ है । किन्तु यह इष्ट नहीं है । अतः कार्यसामान्य का कर्श सामान्य की व्याप्ति उपाधि से रहित है । अता प्रकृत ईश्वरानुमान का कार्यस्व हेतु व्याप्यत्वासिद्ध नहीं है । | ७६
६०२ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली स्यादेतत् । अन्वयव्यतिरेकि तावदिदं कार्यत्वमिति परमार्थः । तत्राऽऽकाशा- देविपक्षात् किं कर्तृव्यावृत्तेः कार्यत्वव्यावृत्तिराहोस्वित् कारणमात्रव्यावृत्तेरिति सन्दिह्यते । तदसत् । कर्तुरपि कारणत्वात् । कारणेषु चान्यतमव्यतिरेकस्यापि कार्यानुत्पत्ति प्रति प्रयोजकत्वात् । पू० प० अन्वयव्यतिरेकि 600 प्रकृत ईश्वरानुमान का ‘कार्यत्व’ हेतु चू’ कि ‘प्रन्वयव्यतिरेकी’ है; अतः सपक्ष में हेतु के जरिये ( हेतु प्रयुक्त) उसके साध्य की सत्ता, एवं विपक्ष में साध्याभाव के जरिये ( साध्याभाव प्रयुक्त ) हेत्वभाव की सत्ता का निर्णय आवश्यक है । प्रकृत कार्यत्व हेतु प्रयुक्त साध्य की सत्ता निर्णीत है सपक्ष घटादि में। घटादि चु कि कार्य हैं, इसीलिये सकतुक हैं। इस प्रकार विपक्ष गगनादि में जो कार्यत्व हेतु रूप हेतु का प्रभाव है, उसकी प्रयोजकता सक- कत्वाभाव रूप साध्याभाव में निर्णीत नहीं है। गगन में कार्यत्व का प्रभाव अवश्य है; किन्तु सन्देह बना हुआ है कि गगन में जो कार्यस्व का अभाव है, उसका प्रयोजक सकरी - कत्वाभाव है ? ( अर्थात् गगन का किसी कर्ता से उत्पन्न न होना है ) अथवा गगन का कारण मात्र की व्यावृत्ति’ है ? ( अर्थात् गगन का किसी भी कारण से उत्पन्न न होना है ? ) इस प्रकार के सन्देह के रहते गगन रूप विपक्ष में जो कार्यस्व रूप हेतु का अभाव है, उसकी प्रयोजकता सकरी कत्वाभाव रूप साध्याभाव में निर्णीत नहीं हो सकती । प्रकृत कार्यत्व हेतु चूकि अन्वयव्यतिरेकी है, अतः इसमें जबतक साध्य की अन्वय व्याप्ति एवं व्यतिरेक व्याप्ति दोनों नहीं रहेगी, तबतक वह धनुमिति के लिये उपयोगी नहीं हो सकेगी । श्रन्वयव्याप्ति के रहते हुये भी व्यतिरेक व्याप्ति की असत्ता का प्रतिपादन किया जा चुका हैं । सुतराम् कार्यस्व हेतु से नहीं हो सकती । सि प० तदसत् कर्त्तुरपि क्षित्यङ कुरादि कार्यों में सकत कत्व की सिद्धि यदि गगनादि में रहने रहने वाले कार्यत्वाभाव का प्रयोजक गगनादि का किसी भी कारण से उत्पन्न न होना ही हो ( अर्थात् गगनादि निष्ठ कार्यत्वाभाव का प्रयोजक कारण मात्राजन्यत्व ही हो ) तथापि उक्त प्रयोजकता कारण विशेष के प्रभाव में भी अवश्य ही रहती है। क्योंकि कार्य की उत्पत्ति कारणों के समूह ( सामग्री ) से होती है । सामग्री के अन्तर्गत किसी एक कारण के न रहने पर भी कार्य की उत्पत्ति नहीं हो पाती है । सामग्री के सन्तर्गत दो भथवा उससे अधिक कारणों के न रहने पर तो कार्य की अनुत्पत्ति की बात ही ।
त T 5 पञ्चमः स्तबकः ६०३ अन्यथा कारणत्वव्याघातात्, कारणादिविशेषव्यतिरेकसन्देहप्रसङ्गाच्च । कथं हि निश्चीयते किमाकाशात् कारणव्यावृत्या कार्यत्वव्यावृत्तिः, उत करण- व्यावृत्त्या ? एवं किमुपादानव्यावृत्त्या, किमसमवायिव्यावृत्त्या, किं निमित्तव्या- वृत्येति । कार्यत्वात्करणमुपादानमसमवायि निमित्तं वा बुद्धयादिषु न सिद्धय ेत् । क्या है ? जिसके न रहने पर भी जिस कार्य की उत्पत्ति हो, वह उस कार्य का कारण ही नहीं है । कर्ता भी उसी सामग्री के अन्तर्गत एक कारण है । अन्य सभी कारणों के रहने पर भी यदि कर्ता रूप कारण न रहे, तथापि कार्य की उत्पत्ति नहीं होगी । अतः गगन में जो कार्यस्व का अभाव है, उसका प्रयोजक यदि गगन का किसी कर्ता से उत्पन्न न होने को अर्थात् सकरी कत्वाभाव को ही मान लें, तो इसमें कोई अनुपपति नहीं होगी । अन्यथा … यदि ऐसा माने अर्थात् गगनादि में रहने वाले कार्यत्व के अभाव को यदि गगनादि का किसी भी कारण से उत्पन्न न होने ( कारण सामान्याभाव ) को ही स्वीकार करें, तो गगन के ही सम्बन्ध में ये सन्देह उपस्थित होंगे कि ‘करणत्व’ ‘चूकि कारणत्व सामान्य का अवान्तर ( व्याप्य ) धर्म है, अतः ‘करण’ के अभाव से ( करणाभाव प्रयुक्त ) भी कार्यामाव होता है, अतः गगन किसी ‘कारण से उत्पन्न नहीं है, इसीलिये ‘अकार्य’ है ? ( गगननिष्ठ कार्यत्वाभाव कारणसामान्याभाव प्रयोज्य है ? अथवा करणसामान्याभाव प्रयोज्य है ? ) इसी प्रकार ये सन्देह भी हो सकते हैं कि- ( १ ) गगन निष्ठ कार्यत्वाभाव का प्रयोजक उपादानकारण का अभाव है ? अथवा कारण सामान्य का प्रभाव है ? (२) गगन निष्ठ कार्यत्वाभाव का प्रयोजक असमवायि कारण का अभाव है ? अथवा कारण सामान्य का अभाव है ? ( ३ ) अथवा गगन में रहने वाले कार्यस्वभाव का प्रयोजक निमित्त कारण का अभाव है ? अथवा कारण सामान्य का अभाव है ? कार्यत्व में जब प्रत्येक कारण को व्याप्ति है, तो फिर कार्यस्वाभाव की प्रयोजकता प्रत्येक कारण के अभाव में माननी ही होगी । यदि कार्यस्व में कारण सामान्य की ही व्याप्ति स्वीकार करें तो ( वह घटादि की कारणता का प्रयोजक प्रत्यक्षात्मक अन्वयव्यतिरेक से भी जाना जा सकता है ) । किन्तु ‘बुद्धि प्रभूति कार्यों का कोई कारण अवश्य है’ केवल इतने से ही ‘बुद्धि प्रभूति का कोई उपादान कारण अवश्य है, अथवा असमवायिकारण अवश्य है, अथवा निमित्त कारण अवश्य है’ इस प्रकार का अवधारण नहीं किया जा सकता । तस्मात् कार्यत्व में कार्यत्व सामान्य के अवान्तर उपादानत्व, असमवायिकारणत्व, एवं निमिराकारणत्वादि’ से युक्त उपादानादि
६०४ गश्चपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली
कर्तुः कारणत्वे सिद्धे सर्वमेतदुचितम्, तदेव त्वसिद्धमिति चेत् किं पटादो कुविन्दा- दिरकारणमेव कर्ता, प्रस्तुते वोदासीन एव साधयितुमुपक्रान्तः ? । तस्माद्यत्कि - चिदेतदपीति । ननु कर्ता कारणानामधिष्ठाता साक्षाद्वा शरीरवतु, साध्यपरम्परया वा दण्डादिवत् ? । तत्र न पूर्वः, परमाण्वादीनां शरीरत्वप्रसङ्गात् । प्रत्येक कारण की व्याप्ति है । इस प्रकार उपादानादि प्रत्येक कारण कार्यत्व का व्यापक है । व्याप्याभाव में व्यापकाभाव की प्रयोजकता प्रसिद्ध है । अतः प्रत्येक कारण का प्रभाव कार्य के उत्पन्न न होने का प्रयोजक है । कारणों में निमित्तकारण रूप कर्ता भी हैं । अत: कार्यत्व सामान्याभाव का प्रयोजक अकत्तु कस्व भी हो सकता है । इस लिये गगननिष्ठ कार्यत्वाभाव को सकतु कस्वाभाव प्रयोज्य मानने में कोई बाधा नहीं है । कार्यस्व हेतु में सकतु करव रूप साध्य की व्यतिरेकव्याप्ति भी है । सुतराम् उक्त आक्षेप सङ्गत नहीं है। पू० प० कर्त्तुं कारणत्वे 300 ये सभी बातें तभी ठीक हो सकती है, जब कि कर्ता भी कार्यों का एक कारण हो । प्रर्थात् तभी यह कहना ठीक हो सकता है कि सकत कित्व चूकि कार्यत्व हेतु का व्यापक है, अतः गगनादि विपक्षों में रहने वाले कार्यत्वाभाव ( हेत्वभाव ) सकत ‘कत्व रूप व्यापक ( साध्य ) के अभाव प्रयोज्य है, किन्तु ‘कर्ता कारण है’ यही तो सिद्ध नहीं है । सि० प० किं पटादो कुविन्दादि पटादि कार्यों के कर्ता तो हैं, किन्तु वे ‘कारण’ नहीं हैं’ क्या यही कहना चाहते हो ? अर्थात् पटादि के तन्तु प्रभृति अम्यकारणों के समान ही जब कुविन्दादि कर्ताओं में भी कार्यों का अन्वय और व्यतिरेक दोनों है, तो फिर कर्ता भी कार्यों का एक कारण अवश्य है । यह मान कर ही मैंने कार्यत्व हेतुक उक्त ईश्वरानुमान का प्रयोग किया है। पू० प० ननु कर्त्ता कारणों का अधिष्ठाता ही ‘कर्ता’ कहलाता है । कर्ता की ही बुद्धि एवं प्रयत्न से अन्य सभी कारण संचालित होकर कार्य को उत्पन्न करते हैं । कर्ता में कार्यों का यह अधिष्ठातृत्व ( १ ) साक्षात् एवं ( २ ) परम्परा भेद से दो प्रकार के हैं । (१) प्रयत्न से युक्त आत्मा के संयोग रूप असमवायिकारण के द्वारा उत्पन्न क्रिपा का उत्पादक कर्ता उस कार्य के कारणों का साक्षात् अधिष्ठाता है । जैसे अपने शरीर क प स से ६
पञ्चमः स्तबक! ६०५ न द्वितीयः, द्वाराभावात् । न हि कस्यचित् साक्षादधिष्ठेयस्याभावे परम्परया अधिष्ठानं सम्भवति । का अधिष्ठाता अपनी आत्मा है । शरीर में जो चेष्टा रूप क्रिया उत्पन्न होती है, उसका कारण है ‘प्रयत्नवदात्मसंयोग’ । क्या क्षित्यादि कार्यों का ईश्वर साक्षात् अधिष्ठाता है, जैसे कि शरीर का आत्मा का अधिष्ठाता है ? ’ ( २ ) कर्ता में परम्परया अधिष्टातृत्व वहीं होता है, जहाँ शरीर की क्रिया के साहाय्य से कर्त्ता क्रिया का कारण होता है । जैसे कि दण्डादि कारणों के अधिष्ठाता कुलालादि हैं । क्या ईश्वर में सित्यादि के उत्पादक कारणों का यह द्वितीय प्रकार का अधिष्ठातृत्व स्वीकार करते हैं ? नैयायिकों की सृष्टि प्रक्रिया यह है कि सृष्टि से पहिले पृथिवी, जल, तेज और वायु इन चारो द्रव्यों के परमाणु हो थे । एवं आकशादि अन्य नित्य पदार्थ भी थे । इस स्थिति में प्राणियों के कर्मों की भोगजनकता के उद्बोधन, एवं प्रयत्न से युक्त ईश्वर का परमाणु के साथ संयोग, इन दोनों से दो परमाणुओं में क्रिया उत्पन्न हुई । उन दोनों परमाणुधों से द्वयशुक की उत्पत्ति हुई । इस प्रकार अनन्त द्वयरकों की उत्पत्ति के बाद त्रसरेणु आदि क्रम से महती पृथिवो एवं महात् जलादि की उत्पत्ति हुई । इस रीति से ज्ञात होता है कि परमाणुओं में क्रिया के उत्पादन में ईश्वर किसी अन्य शरीर का साहाय्य ग्रहण नहीं करते हैं है । अतः ईश्वर में क्षित्यादि के उत्पादक कारणों का साक्षात् अधिष्ठातृत्व ही सम्भव है । किन्तु ऐसा स्वीकार करने पर परमाणुओं को ही ईश्वर का शरीर मान लेना होगा । क्योंकि किसी शरीर की अपेक्षा के बिना ही वे ( परमाणु ) क्रिया के आश्रय हैं । द्वितीय प्रकार का ( परम्परया) अधिष्ठातृत्व तो परमेश्वर में सम्भव हो नहीं है । क्योंकि उसके लिये मध्य में किसी द्वार का रहना आवश्यक है, सो प्रकृत में कोई नहीं है । 1 १. कहने का तात्पर्य है कि क्रिया का असमवायिकारण संयोग अथवा विभाग इन्हीं दोनों में से कोई हो सकता है । चेष्ठा रूप क्रिया का उन दोनों में से भी संयोग ही असमवायिकारण हो सकता है, विभाग नहीं । चेष्टा की उत्पति की रीति यह है कि पहिले चेष्टानुकूज्ञ प्रयत्न आत्मा में उत्पन्न होता है । फिर उस प्रयत्न से युक्त चात्मा का संयोग शरीर के साथ होता है । ( शरीर के साथ केवल आत्मा का संयोग तो बराबर है ही, किन्तु धारमा में प्रयत्न तो सर्वदा नहीं रहता । अतः प्रयत्न की उत्पति के बाद ही शरीर में प्रयत्नवदात्मसंयोग रह सकता है ) । उसके बाद शरीर में चेष्टा रूप क्रिया की उत्पत्ति होती है। यहाँ आत्मा साक्षात् ही चेष्टा के कारणों का अधिष्ठाता है ।
गद्यपद्यात्मक न्यायकुसुमाली तदयं प्रमाणार्थः- परमाण्वादयो न साक्षाच्चेतना घिष्ठेयाः, शरीरेतरत्वात् । यत्पुनः साक्षादघिष्ठेयं न तदेवं यथाऽस्मच्छरीरमिति । साक्षात् अधिष्ठेय जब कोई दूसरे शरीरादि हों, तभी परम्परया कर्तृत्व ईश्वर में (किसी भी प्रकार का अधिष्ठातृत्व कत. ‘त्व ) संभव हो सकता है, अतः यह संभव नहीं है । पृ० प० तदयम् ……… परमाण्वादयः सत्प्रतिपक्षोद्भावन ) ( उक्त वस्तु स्थिति के अनुसार प्रकृत ईश्वरानुमान के विरोधी ये सभी अनुमान प्रस्तुत होते हैं ।) (१) परमाणु प्रभृति किसी चेतन अधिष्ठाता के प्रधिष्ठेय नहीं हैं, क्योंकि परमाणु मादि शरीर स्वरूप नहीं हैं। शरीर से भिन्न वस्तु चेतन श्रधिष्ठाता का साक्षात् अधिष्ठेय महीं होते। जैसे कि हम लोगों का शरीर किसी अधिष्ठाता साक्षात् अधिष्ठेय नहीं है । इस अनुमानों से परमाणुओं से जब किसी साक्षात् अधिष्ठाता का अधिष्ठेयत्व निवृत्त हो जायगा, तो फिर परमाणुओं की सृष्टि की आदिकालिक क्रियाओं में ईश्वर कस्व की सिद्धि रूक जायगी। जिससे क्षित्यादि पक्षक कार्यत्व हेतुक प्रकृत ईश्वरानुमान भी प्रतिरुद्ध हो जायगा।’ इस प्रकार प्रकृत अनुमान ‘प्रतिपीड़ा’ से ही सही सत्प्रतिपक्षित हो जाता है । १. ‘क्षित्परू कुरादिकं सकरी के कार्यत्वाद घटवत्’ इस अनुमान से ईश्वर की सिद्धि इस प्रकार होती है कि सभी कार्य जब ‘सकरी क’ हैं अर्थात् चेउन के द्वारा साक्षात् अधिष्ठित कारणों से उत्पन्न होते हैं, तो फिर दो परमाणुओं के संयोग से द्वषणुकादि क्रम से जो क्षिष्यादि की उत्पत्ति होगी, उसमें कारणीभूत दोनों परमाणुओं में रहने वाली क्रियादि की उत्पत्ति भी किसी चेतन में रहने वाले प्रयत्न से ही माननी होगी । जिस चेतनगत प्रयत्न से उन क्रियादि की उत्पत्ति होगी, वही चेतन उन कारणों के अधिष्ठाता होंगे। एवं उसी अधिष्ठाता पुरुष के अधिष्ठेय परमाणु होंगे। यदि परमाणुओं में चेतनाधिष्ठितत्व खडित हो जाता है, तो वे चेतन अधिष्ठाता सुतराम् डित हो जाते हैं । इस प्रकार यह अनुमान प्रकृत ईश्वरानुमान का विरोधी होने के कारण ‘प्रतिपचानुमान’ है, एवं प्रकृत ‘कार्यत्व’ सत्प्रतिपक्षित होता है। किन्तु उक प्रतिपक्षानुमान में सम्प्रतिपक्ष का प्रकृन लक्षण घटित नहीं होता है, क्योंकि उसके लिये आवश्यक है कि ‘स्थापना’ अनुमान के पक्ष में ही स्थापनानुमान के साध्य के प्रभाव का किसी दूसरे हेतु के द्वारा प्रतिपक्षानुमान हो । जैसे ‘क्षिस्यादिकं अकतकं शरीराजम्यत्वात् इस प्रतिपक्षानुमान का प्रयोग दिखला जाये हैं । प्रकृत
उ f สี A ह प वि स क
पश्चम) स्तबका ६०७ नापि परम्परया अघिष्ठेयाः, स्वव्यापारे शरीरानपेक्षत्वात्, स्वचेष्टायाम स्मच्छरीरवत् । व्यतिरेकेण वा दण्डाद्युदाहरणम् । एवं क्षित्यादि न चेतनाधिष्ठित हेतुकं - शरीरेत रहेतुकत्वादित्यतिपीडया सत्प्रतिपक्षत्वम् । पू० न० नापि परम्परया (सत्प्रतिक्षोद्भावनम् ) (२) ( इस अनुमान वाक्य का स्वारस्य यह है कि परमाणु परम्परा से भी चेतन अधिष्ठाता के अधिष्ठेय नहीं हैं, क्योंकि वे अपने व्यापार के उत्पादन में अर्थात् स्वगत क्रिया के उत्पादन में किसी शरीर की अपेक्षा नहीं रखते। जैसे कि मेरा शरीर स्वगत चेष्टा रूप क्रिया के उत्पादन में किसी दूसरे शरीर की अपेक्षा नहीं रखता ( अन्वय उदाहरण ) । श्रथवा जितने परम्परा चेतन के अधिष्ठेय होते हैं, वे सभी स्वगत कार्यानुकूल क्रिया के उत्पादन में किसी शरीर की अपेक्षा अवश्य रखते है । जिस प्रकार दण्डादि में तब तक कोई भी कार्यानुकूल क्रिया उत्पन्न नहीं होती है, जबतक कि कुलाल के शरीर का साहाय्य उसे प्राप्त नहीं होता । परमाणुषों की क्रिया में किसी शरीर की अपेक्षा नहीं होती, अतः वे परम्परा से भी चेतनाधिष्ठित नहीं हैं । ( ये दोनों क्षित्यादि के मूलकारणीभूत परमापक्षक अनुमान हैं। आगे क्षित्यादि कार्यपक्षक ही विरोधी तीसरा अनुमान दिखलाया गया है ) । पू० प० एवं क्षित्यादि ( ३ ) ( इस अनुमानवाक्य का स्वारस्य यह है कि ) क्षिस्यादि के उत्पादक कारण समूह ( सामग्री ) में चु कि शरीर नहीं है, समूह का कोई चेतन अधिष्ठाता नहीं है । अतः समझते हैं कि क्षित्यादि कार्यों के उत्पादक ( प्रतः क्षित्यादि चेतनाधिष्ठित हेतुक नहीं हैं ) । इसलिये क्षित्यादि शरीरतेर कारणों से उत्पन्न होते हैं । जितने भी कार्य चेतन से अधिष्ठित कारणों उत्पन्न होते है, वे सभी शरीर से युक्त कारण समुदाय से भी अवश्य ही उत्पन्न होते हैं । ( प्रर्थात् उनके उत्पादन में शरीर का उपयोग अवश्य होता है । जैसे कि घटादि कार्यं । तस्मात क्षित्यादि कार्यं चूँकि शरीरघटित सामग्री से नहीं उत्पन्न होते हैं, भ्रता वे प्रतिपक्षानुमान का साथ्य सकत करव रूप प्रकृत साध्य के प्रभाव स्वरूप नहीं है । अतः लक्षण के अनुसार प्रकृत प्रतिपक्षानुमान से सत्प्रतिपक्ष का उद्भावन नहीं हो सकता । फिर भी स्थापनानुमान का प्रतिपक्षस्य रूप सत्प्रतिपचत्व का प्रयोजन स्वरूप प्रधानधर्मं प्रकृत प्रतिपक्षानुमान में भी है, ता वह भी सम्प्रतिपक्ष कहला सकता है । अतः सन्दर्भ के उपसंहार में आचार्य ने ‘अतिपीया सम्प्रतिपक्षत्वम्’ यह वाक्य लिखा है । A
६०८ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली अपि च- पटादो कुविन्दादेः किं कारकाधिष्ठानार्थमपेक्षा तेषामचेतनानां स्वतोऽप्रवृत्तेः, श्राहो कारकत्वेन ? । न पूर्वः, तेषां परमेश्वरेणेवाधिष्ठानात् । न ह्यस्य ज्ञानमिच्छा प्रयत्नो वा वेमादीन् न व्याप्नोतीति सम्भवति । न चाधिष्ठितानाम- विष्ठात्रन्तरापेक्षा, तदर्थमेव । तथा सत्यनवस्थानादेवाऽविशेषात् । उन कारणों से उत्पन्न नहीं होते हैं. जिनका अधिष्ठाता कोई चेतन हैं ( चेतनाधिष्ठित हेतुक नहीं हैं ) । इस प्रकार क्षित्यादि कार्यों की उत्पादिका सामग्री के चेतन श्रविष्ठाता की प्रसिद्धि हो जाने पर प्रकृत अनुमान से ईश्वर सिद्धि की प्राशा नहीं की जा सकती । ( ये तीनों ही धनुमान सत्प्रतिपक्ष लक्षण के अनुसार सरप्रतिक्षोद्भावक नहीं हैं, किन्तु ‘प्रर्थत’ सत्प्रतिपक्षों दद्भावक हैं, अतः ‘प्रतिपीड़या सत्प्रतिपक्षस्वम्’ यह वाक्य लिखा गया है। इसकी युक्ति प्रथम अनुमान की पू० प० अपि च ••• ( सभी कार्यों व्याख्या में लिख आये हैं) । … ( सिद्ध साघन दोषोद्भावन की भूमिका ) का कर्ता ईश्वर को मान लेने पर ) पटादि कार्यों में कुविन्दादि कत्तों की अपेक्षा क्यों होती है ? इसके दो ही उत्तर हो सकते हैं ( पटादि के जो तन्तु प्रभूति अम्य कारण हैं वे सभी अचेतन हैं, उन सबों को पटादि कार्यों के उपयुक्त रूप से संचालित होने की सामर्थ्य उनमें नहीं है । अतः उन प्रचेतन कारणों को उपयुक्त रूप से व्यापृत करने के लिये किसी चेतन की आवश्यकता है, वे हो चेतन हैं कुविन्दादि कर्ता । अथवा (२) जैसे कि पटादि के तन्तु प्रभृति अचेतन पदार्थ कारक हैं, वैसे ही कुविदादि कर्ता रूप चेतन पदार्थ भी कारक हैं । अतः तन्तु प्रभूति कारकों के समान ही केवल कारक होने के नाते ही पटादि की उत्पत्ति में चेतन कुविन्दादि कर्ताओं की अपेक्षा है | न पूर्वः … इनमें से प्रथम पक्ष को स्वीकार करने में यह आपत्ति है कि परमेश्वर जब सभी कार्यों के उत्पादक अचेतन कारणो के अधिष्ठाता है, तो पटादि कार्यों के उत्पादक तन्तु प्रभूति अचेतन कारणों के भी अधिष्ठाता हैं, फिर पटादि कार्यों के कुबिन्दादि नगण्य चेतनों को अधिष्ठाता मानना व्यर्थ है । यह तो संभव ही नहीं है कि परमेश्वर में क्षित्यकुरादि के कर्तृत्व के उपयुक्त ज्ञान, इच्छा अथवा प्रयत्न से दोनों परमाणुओं के संयोगों के कारणों का नियमन हो सकता है, किन्तु पट के तुरी बेमादि कारणों का नहीं। परमेश्वर से अधिष्ठित रहने पर भी पट के कारणों समूह के नियमन के लिये कुविन्यादि द्वितीय अधिष्ठाता को भी भपेक्षा मानें, तो इस प्रकार अ से प्र க म क ह सर सि हों ही पू सक होग होग ही
तां न्य T- क की. ये ’ की तु से वा प क नी तु नौ , तु पञ्चमः स्तबका ६०१ न द्वितीयः, अधिष्ठातृत्वस्यानङ्गत्वप्रसंगे दृष्टान्तस्य साध्यविकलत्वापत्तेः । म च हेतुत्वेनैव तस्यापेक्षाऽस्त्विति वाच्यम् । एवं तहिं यत्कार्यं तत्सहेतुकमिति व्याप्तिः, न तु सकतु कमिति । तथा च तथैव प्रयोगे सिद्धसाधनात् । तृतीयादि अधिष्ठाता मी कल्पित होकर धनवस्था को ले आयेंगे। क्योंकि जिस युक्ति से परमेश्वर रूप एक अधिष्ठाता के रहते दूसरे मधिष्ठाता की कल्पना करेंगे, उसी युक्ति से दूसरे अधिष्ठाता के रहते हुये तृतीयादि अधिष्ठाताओं की मी कल्पना अनवस्था का कारण होगी । न द्वितीयः पटादि कार्यों में जो कुविन्दादि की अपेक्षा है, उसके प्रयोजक कुविन्दादि में रहनेवाला अधिष्ठातृत्व अथवा कर्तृत्व नहीं है, अर्थात् कुविन्यादि चूंकि उन ज्ञान, से युक्त हैं, जिन से पटादि के कुविन्दादि की अपेक्षा नहीं है। प्रकार कुविन्दादि भी पटादि के अपेक्षा होती है । कारणों का नियमन होता है। इस हेतु से किन्तु जिस प्रकार तन्तु प्रभूति पटादि कारक हैं, इसी लिये पटादि कायों में के इच्छा एवं प्रयत्न पटादि कार्यों में कारक हैं, उसी कुविन्दादि की मी यह निष्पन्न हो जाने पर ‘क्षिस्यङ कुरादिकं सकतु कम कार्यत्वात् पटादिवत्’ इस अनुमान का सकतु करव रूप साध्य पटादि दृष्टान्तों में न रह सकेगा, क्योंकि ‘सक’ करव’ का का अर्थ है किसी अधिष्ठाता का अधिषष्ठेय होना । इस प्रकार का सकर्तृत्व तो पटादि दृष्टान्तों में नहीं है । क्योंकि कुविन्दादि तो पटादि के अधिष्ठाता नहीं है, तन्तु प्रभूति के समान ही एक साधारण कारक मात्र हैं । मतः यह दूसरा पक्ष भी प्रसङ्गत है । सि० न च यदि कुविन्दादि पटादि कार्यों का तन्तु प्रभूति के समान ही केवल ‘कारक’ मात्र होंगे ‘कर्ता’ नहीं, तथापि पटादि कार्यों के उत्पादन में कुविन्दादि की अपेक्षा अनिवार्य ही रहेगी ही। तो इसमें क्षति ही कौन सी हैं ? पू० प० एवं तहि ऐसा मान लेने पर प्रकृत में कार्यस्व में सकारणकत्व ( सहेतुकत्व ) की ही ग्याप्ति निष्पन्न होगी, जिसका स्वरूप होगा ‘यत् यत् कार्यं तत्तत् सहतुकम्’ इससे ‘यद्यत् कार्यं तत्तत् सकर्तृकम्’ यह व्याप्ति निष्पन्न नहीं होगी । एवं तदनुसार निष्पम्न अनुमान का प्रयोग होगा ‘क्षिस्यकुरादिकं सहेतुकम् कार्यत्वाद’ किन्तु यह अनुमान ’ सिद्धसाधन’ दोष से दुष्ट होगा । क्योंकि मित्यङ कुरादि में केवल ‘सहेतुकत्व’ तो सभी मानते हैं, अतः वह ‘सिद्ध’ ही है । सुतराम इस अनुमान से ईश्वर सिद्धि की प्राशा नहीं की जा सकती । | र ७७ CCO. Vasishtha Tripathi Collection. Digitized by eGangotri६१० गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली किञ्चाऽनित्यप्रयत्नपूर्वकत्वप्रयुक्तां व्यप्तिमुपजीवत् कार्यत्वं न बुद्धिमत्पूर्वकत्वेन स्वभावप्रतिबद्धम् । न ह्यनित्यप्रयत्नोऽपि बुद्धधा शरीरवत् कारणत्वेनापेक्ष्यते, येन तनिवृत्तावप्यकार्यबुद्धिनं निवर्तत इति । । पू० प० किञ्च… … कस्व है उपादानगोचापरोक्षज्ञान चिकीर्षाकृति मज्जन्यत्व रूप । जिस कार्य का जो ‘कर्ता’ होता है, उस व्यक्ति को उस कार्य के ‘उपादान’ का ( समवायिकारण का ) अपरोक्ष- ज्ञान अवश्य रहता है । विना इस अपरोक्षज्ञान के वह ‘कर्ता’ ही नहीं हो सकता । एवं उक्त उपादान कार्य के संपादन की इच्छा ( चिकीर्षा ) एवं तदनुकुल प्रयत्न भी उस पुरुष में अवश्य रहते हैं । उक्त ज्ञान- इच्छा ( चिकीर्षा ) एवं श्रुति इन तीनों के बिना कर्रा स्व असंभव है । यह निर्णीत है कि उक्त (१) अपरोक्षज्ञानत्व (२) कृतिमत्व एवं (३) प्रयत्नवस्व ये तीनों में से प्रत्येक परस्पर निरपेक्ष होकर भी कर्ता के तीन लक्षण हैं । इस प्रकार ‘कर्रा स्व’ के ये तीन स्वरूप निष्पन्न होते हैं (१) उपादानगोचरापरोक्षज्ञानवत्व (२) उक्त चिकीर्षावस्व एवं (३) उक्त प्रयत्नवस्व, तदनुसार ‘सकरी करव’ प्रकृत में उपादानगोचरापरोक्षज्ञानवज्जन्यत्व रूप निर्णीत होता है । • नैयायिकों ने (१) निस्य एवं (२) अनित्य भेद से ज्ञान के दो प्रकारों को स्वीकार किया है । प्रकृत में उपादान विषयक प्रनित्य ज्ञान है कुलालादि में, जो घटादि के कर्ता व का संपादक कपालादि उपादानों का अपरोक्षज्ञान है । एवं नित्यज्ञान है परमेश्वर का परमाणु द्वय रूप उपादान का प्रपरोक्षज्ञान, जिससे दोनों परमाणुओं से संयोगदि क्रम से क्षित्यदि की सृष्टि होती है। किन्तु बुद्धि के रहने पर भी तब तक कोई भी कर्ता कार्य को उत्पन्न नहीं कर सकता, जब तक उसमें तदनुकुल प्रयत्न न रहे। इसका प्रन्वय एवं व्यतिरेक घटादि कार्यों में सहस्रशः दृष्ट हैं। सुतरा घटादि में अनित्य प्रयत्नवत् जो कुलादि, तज्जन्यश्व ही है । इससे यह सिद्ध होता है कि ‘अनित्यप्रयत्नवज्जन्यत्व रूप जो सकर्श कत्व, उसी की व्याप्ति कार्यत्व हेतु में है । बुद्धि मज्जन्यस्व रूप जो कर्श एव है, उसके साथ कार्यत्व हेतु स्वभावप्रतिबद्ध’ ( अर्थात् व्याप्ति रूप स्वाभाविक सम्बन्ध से युक्त ) नहीं है । न हि 100099 ( इस प्रसङ्ग में सिद्धान्ती कह सकते हैं कि बुद्धि प्रयत्न का कारण है, मतः जो प्रयत्न से युक्त पुरुष के द्वारा उत्पन्न होगा, वह बुद्धि से युक्त पुरुष के द्वारा भी उत्पन्न होगा । अतः जिसमें प्रयत्नज्जन्यत्व है, उसमें बुद्धिमज्जन्यत्व भी जवश्य है। सुतराम् कार्यश्व हेतु में यदि प्रयत्नवज्जयस्व की व्याति है, तो बुद्धि भज्जस्थस्व की भी व्याप्ति मवश्य
fi पचमस्तंबक ६११ न , क प F- में न प र T गु 7 द स न CFEE म् य है । इससे सृष्टि की आदि में द्वघणुकादि के उत्पादन में समर्थ एवं नित्यबुद्धि से युक्त परमेश्वर की कल्पना सुलभ है ) । किन्तु यह समाधान भी ठीक नहीं है, क्योंकि अन्वयव्यतिरेकी अथवा केवलभ्यतिरेकी हेतु में रहनेवाली व्याप्ति के लिये यह प्रावश्यक है कि हेतु का प्रभाव साध्य वह्यभाव प्रयोज्य होता है । प्रथवा शरीर के अभाव का प्रयोज्य हो । जैसे कि घूमाभाव की निवृत्ति से प्ररप्रयुक्त कार्य रूप मनित्यबुद्धि की निवृत्ति होती है, क्योंकि शरीरावच्छेदेनेव प्रारमा में अनित्यबुद्धि रहती है, धरोर को निवृति होने से तद्गत बुद्धि की निवृति भी प्रवश्य हो जायगी । सुतराम् अनित्यप्रयत्नपूर्वकत्व की व्याप्ति बुद्धिमज्जन्यत्व ( सकतु कश्व ) में तभी रह सकती थी, जब कि अनित्यप्रयत्न बुद्धि का कारण होता । किन्तु बात ठोक उलटी है कि बुद्धि ही अनित्यप्रयत्न का कारण है । अनित्यप्रयत्न बुद्धि का कारण नहीं हैं। यदि अनित्य- प्रयत्न बुद्धि का कारण भी होता प्रनित्यंबुद्धि का हो कारण होता, नित्यानित्य साधारण सभी बुद्धियों का नहीं। इस स्थिति में भी केवल यही कहां जा सकता था कि चूंकि जहाँ अनित्य प्रयत्न नहीं है, वहीं प्रनित्यबुद्धि भी नहीं है। इस प्रकार भी अनित्य प्रयत्न की निवृत्ति में अनित्यबुद्धि की हो निवृत्ति हो सकती थी, नित्यबुद्धि की तो कंदापि नहीं । अनित्यबुद्धि के विनष्ट होने पर भो जो नित्यबुद्धि का नाश नहीं होता है, उसका कारण निरयबुद्धि में अनित्यप्रयत्न जन्यत्व का प्रभाव नहीं है, क्योंकि अनिष्यरयत्न जंब अनित्यबुद्धि का भी कारण नहीं है, तो नित्यबुद्धि का अवश्य ही कारण नहीं है । अतः यहो मानना होगा कि नित्यबुद्धि की निश्यता ही उसके विनाश का बाधक है । तस्मात् पटादि दृष्टान्तों में मनित्यप्रयत्नव हत्यस्व रूप से कतुःस्व ही दृष्ट है, अतः अनित्यप्रयत्न पूर्वकस्व को हो व्याप्ति कार्यत्र हेतु में है, बुद्धिमजचत्यस्व रूप सकतु करव की व्याप्ति कार्यस्व हेतु में नहीं है। अतः प्रकृत ईश्वरानुमान के द्वारा सित्यादि में परमाण्वादि विषयक अपरोक्षबुद्धि से युक्त कर्ता से उत्पन्न होने की सिद्धि के द्वारा परमेश्वर की सिद्धि नहीं हो सकती । " १. ‘किञ्च’ इत्यादि पूर्वपाप्रन्थ का सरल धमिराय यह है कि- दिपक कुरादिक सकतु के कार्यस्वाद पटादिवत् । ईश्वर के साधक इस अनुपान में ‘अनित्य प्रयत्नपूर्व- करव’ रूप उपाधि दोष भी है, क्योंकि चित्वादि जिन सभी स्थानों में ‘कार्यत्व’ रूप हेतु है, उन सभी स्थानों में ‘अनित्यप्रयत्नपूर्वकस्व’ नहीं है। क्योंकि प्रमदादि- शरीरियों का प्रयत्न ही तो अनित्य हैं, तत्पूर्वकत्व वित्यादि में नहीं है। तः ‘अनित्य- प्रयत्नपूर्वकत्व’ कार्यदेव हेतु का अध्यापक है । एवं ‘सक’ करव कास का वह व्यापक भी है। क्योंकि पटादि कार्यो में सतु करवं निर्णत है, निर्जीव-
६१२ गद्यपद्यात्मक-न्यांयकुसुमाञ्जलौ तदेतत् प्रागेव निरस्तप्रायं नोत्तरान्तरमपेक्षते । सि० प० तदतेत्प्रागेच …… कथित सत्प्रतिपक्ष सिद्धसाधन एवं उपाधि दोषों का उद्धार ‘विशेषस्तु विशेषवान्’ इत्यादि श्लोक के द्वारा पूर्व कथित सिद्धान्त से ही बहुत अंशो में हो जाता है, प्रतः दूसरे दूसरे उत्तरों की अपेक्षा नहीं रखता, क्योंकि— ( १ ) सत्प्रतिपक्ष दोष का उद्धार परमेश्वर कार्यस्व रूप सामान्य के घटादि कार्य रूप ‘विशेषों’ का अधिष्टाता यदि कुलालादि शरीर के द्वारा ही होते हैं, तथापि कार्यस्व रूप सामान्य के क्षित्यक कुरादि कार्य रूप ‘विशेषों’ के ‘कर्ता’ शरीर से भिन्न परमाणु सापेक्ष होकर ही उन कार्यों का अधिष्ठाता होगा, तो इन में कौन सी बाधा है ? शरीर घटित विशेष प्रकार की सामग्री घटादि रूप विशेष कार्यों की उत्पादिका है - “एवं शरीर से भिन्न परमाण्वादि घटित विशेष प्रकार की सामग्री क्षित्यंकुरादि रूप विशेष उत्पादिका है” यह स्वीकार करने में तो कोई भी असामञ्जस्य नहीं है । प्रत उक्त सत्प्रतिपक्ष दोष नहीं हो सकता । (२) सिद्धसाधन दोष का परिहार ‘सिद्धसाधन’ दोष के प्रसङ्ग में भी कहा जा सकता है कि कुछ विशेष प्रकार के कार्य चार अथवा आठ कर्तृ घटित सामग्री से उत्पन्न होते हैं—जैसे कि शिविकावाहनादि, कुछ विशेष प्रकार के कार्य दो कर्त्ताओं से युक्त विशेष प्रकार की सामग्री से उत्पन्न होते हैं, जैसे कि पटादि । कुछ विशेष प्रकार के कार्य ईश्वर रूप एक ही कर्तृ घटित सामग्री से उत्पन्न होंगे, जैसे कि क्षित्यङ कुरादि । इस व्यवस्था को स्वीकार करने में भी कोई बाधा नहीं है । अर्थात् यह कहना संभव नहीं है कि—पटादि कार्यों का यदि ईश्वर एवं कुविन्दादि कोई दो कर्ता हैं, तो क्षित्यङ कुरादि कार्यों का भी दा कर्ता प्रवश्य हों । अथवा शिविकावाहनादिकार्यो के यदि मठकर्ता हैं, तो पटादि कार्यों के भी उतने ही कर्ता हों । तस्मात् सिद्धसाधन की बात भी व्यर्थ है । बाले सभी स्थानों में ‘अनित्य प्रयत्नपूर्वक एव’ भी है। इस प्रकार अनित्यप्रयत्नपूर्वक स्व साध्य का व्यापक भी है, एवं हेतु का अध्यापक भी । अतः प्रकृत ईश्वरानुमान का कारव हेतु उपाधि से युक्त होने के कारण ‘व्याप्यत्वासिद्ध’ हेत्वाभास है, इसलिये इस अनुमान से ईश्वर की सिद्धि नहीं हो सकती ।
पञ्चमः स्तबंक ६१३ न्’ रे दि र्य ता दि र नी न
की व का ये तथा हि- प्राक्षादधिष्ठातरि साध्ये परमाण्वादीनां शरीरत्वप्रसङ्ग इति किमिदं शरीरत्वं यत् प्रसज्यते ? यदि साक्षात्प्रयत्न वदघिष्ठेयत्वं तदिष्यत एव । न च ततोऽन्यत्प्रसञ्जकमपि । प्रथेन्द्रियाश्रयत्वम् ? (३) उपाधिदोष का निरास इसी प्रकार उपाधि दोष के प्रसङ्ग में भी यह मुक्तकण्ठ से कहा जा सकता है कि कुलालादि की अनिष्य शरीरावच्छिन्न आत्मा में रहनेवाला प्रयत्न चूकि मनित्य ही हो सकता है, अतः विशेष प्रकार के घटादि कार्य अवश्य ही अनित्य प्रयत्न जन्य है । किन्तु एतादृश अनित्यप्रयत्न से जब मित्यङ कुरादि की उत्पत्ति संभव ही नहीं है, एवं इन में भी कार्यत्व प्रत्यक्ष से सिद्ध है, तो फिर यह कहना साहस मात्र है कि कार्यत्व में अनित्यप्रयत्न यह कहना ही गलत है कि “चूकि घटादि कार्य विशेष अनित्य- प्रयत्नघटितसामग्री से उत्पन्न होते है, अतः सभी कार्य अनित्यप्रयत्न से ही उत्पन्न हों” इसी लिये उक्त प्रकार से उपाधि दोष का उद्भावन भी उचित नहीं है । जन्यत्व की ही व्याप्ति है । सि० प० तथा हि …… फिर भी इन तीनों दोषों का स्वतन्त्र रूप से भी उद्धार प्रदर्शित किया जाता है । सत्प्रतिपक्ष दोष का स्वतन्त्रनिरास - ( पूर्वपक्षवादी ने प्रथमतः सत्प्रतिपक्ष दोष का उद्घाटन करते हुए कहा है कि ‘कर्ता’ त्व’ है ‘प्रविष्ठातृत्व’ रूप एवं ‘कतु करव’ है ‘प्रधिष्ठयत्व’ रूप । प्रकृत ईश्वरानुमान घटक ‘कर्तृ’स्व’ यदि साक्षात् प्रधिष्ठातृस्व रूप मानें, तो परमाणुओं को क्षित्यादि कर्ता परमेश्वर का शरीर मान लेना होगा । फलतः एतादृश सकतु स्व को साध्य करने से परमाणुओं में शरीरत्व की आपत्ति होगी। इस प्रसङ्ग में कहना है कि- साक्षादधिष्ठातरि परमाणुओं में जिस शरीरत्व की प्रापत्ति दी गई है, वह शरीरस्व प्रकृत में कौन सी वस्तु है ? यदि उस ‘शरीरत्व’ का स्वरूप (लक्षण) कर्ता का साक्षात् अधिष्ठेयत्व मात्र हो, तो इस प्रकार के शरीरत्व को परमाणुओं में स्वीकार करना ‘इष्ट’ है, इस में कोई ‘मापत्ति’ नहीं है | शरीरत्व के साथ रहनेवाले जो इन्द्रियाश्रयत्व ( इन्द्रिय) अथवा भोगायतनत्व (भोग) आदि धर्म हैं, उनकी सत्ता परमाणु रूप शरीर में स्वीकार नहीं की जा सकती । क्योंकि प्रकृत शरीर में भोगायतनत्यादि की प्रापत्ति के लिये कोई प्रबल युक्ति नहीं है । यदि शरीरस्व को इन्द्रियाश्रयत्व रूप मानें पर्षात् जिस में इन्द्रिय रहे, उसी को शरीर कहें, तो इस प्रकार का शरीरत्व परमाणुओं में नहीं मानते, क्योंकि साक्षादविष्ठेप
६१४ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली तन्न । तदवच्छिन्नप्रयत्नोत्पत्तों तदवच्छिन्नाज्ञानजननद्वारेणेन्द्रियाणा- सुपयोगात् । अनवच्छिन्ने प्रयत्ने नाऽयं विधिः नित्यत्वात् । अत एव नाऽर्थाश्रयश्वस् । न हि नित्यज्ञानं भोगरूपमभोगरूपं वा यत्नमपेक्षते, तस्य कारणविशेषत्वात् । रूप शरीर को इन्द्रिय का आश्रय इस लिये मानते हैं कि शरीरावच्छेदनैव आत्मा में अनित्य प्रयत्न की उत्पत्ति होती है। इस प्रयत्न से युक्त पाएमा में ही इन्द्रिय से ( सुखदुःखान्यतर- साक्षात्कार रूप ) भोगात्मक प्रनित्य ज्ञान की उत्पत्ति होती है । इसी लिये अनित्य प्रयत्न एवं मनित्य बुद्धि इन दोनों के आश्रयीभूत आत्मा के साक्षादविष्ठेय को इन्द्रिय का प्राश्रय मानना पड़ता है । • किन्तु जिस प्रधिष्ठाता के ज्ञान एवं प्रयत्न दोनों ही नित्य हैं, जिनमें भोग रूप ज्ञान का उत्पन्न होना सम्भव ही नहीं है, उन अधिष्ठाता के साक्षात् अधिष्ठेय परमाणुओं को इन्द्रियों का आश्रय मानने की आवश्यकता नहीं है। शरीरत्व की परिभाषा यदि साक्षादविष्ठेयत्व रूप मानते हैं, तो उसके आश्रम को इन्द्रियों का श्राश्रय होना आवश्यक नहीं है । अतः साक्षादधिष्ठेय कुलालादि शरोरों में इन्द्रियाश्रयत्व है भो, तथापि परमाणु रूप सांक्षादविष्ठेय में इंन्द्रियाश्रयत्व के न रहने में कोई बाबा नहीं है । तस्मात् परमाणुओं के साक्षादविष्ठेप होने पर भी उनमें इन्द्रियारत्व रूप शरीरस्व नहीं है । कहने का तात्पर्य हैं कि ‘परमाव इन्द्रियवन्तः साक्षादधिष्ठे प्रस्वात् कुलालाविवत्’ इस अनुमान के द्वारा परमाणुओं में इन्द्रियाश्रयत्र रूप शरीरत्व को आपत्ति नहीं दी जा सकती। क्योंकि इस अनुमान में भवच्छेदकता सम्बन्ध से ‘अनित्यज्ञानवस्व’ उपाधि है । जिन सभी स्थानों में इन्द्रियाश्रयत्व (इन्द्रिय) रूप साध्य है, उन सभी स्थानों में अनित्य- ज्ञान ( वत्स्व ) रूप उपाधि भी है। परमाणुत्रों में साक्षादधिष्ठेयस्व रूप हेतु है, किन्तु अनित्यज्ञानवत्स्त्व रूप उपाधि नहीं है । अतः परमाणुमों में इन्द्रियांवयत्वरूप आपत्ति के जनकं (आपादक) साक्षादविष्ठेयत्व हेतु सोपाषिक होने के कारण व्याप्यत्वासिद्ध हेत्वाभास है, अतः इससे परमाणुओं में इन्द्रियवस्त्र रूप शरीरत्व की सिद्धि रूपं आपत्ति नहीं दो जा सकती । प्रत एव अर्थात् इसी मूलशयिल्य के कारण कथित ‘साक्षादविष्ठेयत्व’ रूप आपादक हेतु से परमाणुओं में ‘मर्थाश्रयत्व’ रूप शरीरतंत्र की सिद्धि रूप आपत्ति भी नहीं दी जा सकती । यदवच्छिन्न खात्मा में रूप रसादि ‘म’ भोगों का उत्पादन करते हैं, वही ‘अवच्छेदक’
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न च नित्यसर्वंज्ञस्य भोगसम्भावनाऽपि विशेषादर्शनाभावे मिथ्याज्ञानानवकाशे दोषानुत्पत्ती धर्मावमंयोरस स्वात् । तस्मात्, साक्षात्प्रयत्नानधिष्ठेयत्वात् स्वव्यापारे तदनपेक्षत्वाच्चेति द्वयं साध्या विशिष्टम् । अर्थों का आश्रय है | शरीरावच्छेदनंव आत्मा में सभी भोग उत्पन्न होते है, अतः शरीर अर्थों का आश्रय होता है। ईश्वर को चूकि कोई भी अनित्य ज्ञान नहीं होता, प्रत: प्रर्थजन्य भोग रूप अनित्यज्ञान भी उनको नहीं होता है, फिर तदवच्छेदकीभूत अर्थात्रयस्व की परमाणुओं में चर्चा कैसी ? क्योंकि भोगों के कारण हैं धर्म और प्रधर्म । धर्माधर्मं राग से उत्पन्न होते हैं। राग का कारण है मिथ्याज्ञान । मिथ्याज्ञान विशेषादर्शन से उत्पन्न होता है । इस क्रम के अनुसार सर्वज्ञ परमेश्वर में भी सभी विषयों के विशेषों का दर्शन रूप ज्ञान भी उनमें अवश्य है । सुतराम उनमें किसी भी वस्तु के किसी भी विशेष का प्रदर्शन नहीं रह सकता। चूंकि उनको किसी विषय के किसी भी अंश ‘विशेष’ का प्रज्ञान ( अदर्शन ) नहीं है, प्रत: उनको किसी भी विषय का मिथ्याज्ञान भी नहीं है । सुतराम् उनमें मिथ्याज्ञान- मूलक राग एवं द्व ेष की भी सम्भावना नहीं है। फिर रागजनित धर्मं एवं द्व ेषजनित धर्म उनमें कहां से भावेंगे ? तस्मात् धर्म एवं व्यधर्मरूप कारण के न रहने से सुख एवं दुश्ख इन दोनों में से किसी एक सकता । इस लिये भोग के 1 विषयक साक्षात्कार स्वरूप भोग भी परमेश्वर को नहीं हो अवच्छेदक मात्र में रहनेवाले ‘अर्थाश्रयत्व’ की सत्ता परमेश्वर का साक्षादधिष्ठेय होने पर भी परमाणुओं में नहीं है, अतः परमाणुओं में ‘अर्थाश्रयत्व’ रूप शरीरत्व को आपत्ति भी नहीं है । सि० प० तस्मात् ( सम्प्रतिपक्ष देने के दोनों प्रतिपक्षानुमानों के इतिद्वयम् … साध्या विशिष्टम् । लिये जिन वितर्कों की अवतारणा की गयी है, उनसे ईप्सित निष्पन्न दो हेतु वाक्य (१) साक्षात्प्रयत्नानधिष्ठेयत्वात् (२) स्वव्यापारे तदनपेक्षत्वाच्च, ये दोनों हैं। इनमें पहिले हेतुवाक्य का स्वारस्य यह है कि:- ( १ ) साक्षात्प्रयत्नानधिष्ठेयत्वात् प्रकृत में ‘शरीरत्व’ यदि ‘साक्षादधिष्ठेयत्व’ रूप मानें, तो कथित ‘परमाण्वादयो न साक्षाच्चेतना विष्ठेयाः शरीरेतरत्वात्’ इस प्रथम प्रतिपक्षानुमान के ‘शरीरेतरत्वात्’ इस हेतु वाक्य की व्याख्या होगी ‘साक्षात्प्रयत्नानधिष्ठेयत्वात्’ । क्योंकि जब ‘साक्षात्प्रयत्नाषिष्ठेयत्व’ १. इस प्रकार सत्प्रतिपक्ष के प्रयोजन अनुमानों के दोषों की युक्तियों के उपपादि के बाद अब उन दोषों के आकारों की प्रदर्शन करते हुये उनको और स्पष्ट रूप से दिखाने के लिये ‘तस्मात्’ इत्यादि सन्दर्भ लिखा गया है !
६१६ गद्यपद्यात्मक न्याय कुसुमाञ्जली अनिन्द्रियाश्रयत्वादभोगायतनस्वात्, ही ‘शरीरत्व’ है तो स्वभावतः ‘शरीरेतरस्व’ ‘साक्षात्प्रयत्नानधिष्ठेयत्व’ रूप ह्रीं होगा । एवं प्रकृत मनुमान का साध्य भी ‘साक्षात्प्रयत्नानधिष्ठेयत्व’ ही है। पक्ष में साध्य सिद्ध नहीं रहता है । सुतराम् प्रकृत में साध्य से अभिन्न हेतु भी पक्ष में सिद्ध नहीं है। इससे हेतु ‘साध्यसम’ होने के नाते पक्षधर्मता रूप बल से रहित हो जायगा । जिससे उसकी अनु- मित्युत्पादन की क्षमता ही जाती रहेगी । अतः इस अनुमान से प्रकृत ईश्वरानुमान प्रतिरूद्ध नहीं हो सकता । (२) ‘परमाण्वादयः न परम्परयापि चेतनाधिष्ठेया । स्वव्यापारे शरीरानपेक्षत्वात् ’ द्वितीय वितर्कानुयायी इस द्वितीय प्रतिपक्षानुमान में ‘स्वव्यापारे शरीरानपेक्षत्व’ हेतु है, एवं परमाणुओं में ‘परम्परया विष्ठेयत्वाभाव’ साध्य है। इस पक्ष में सभी अचेतन कारण नियमत: शरीर के द्वारा ही चेतन से अधिष्ठित होते हैं । इस लिये ‘परम्परया चेतनाधिष्ठितत्व’ शब्द का अर्थ ‘शरीर के द्वारा चेतनाधिष्ठितत्व हो जाना है, एवं तदनुसार न परम्परया चेतना विष्ठिता।’ इस साध्य बोधक वाक्य का पर्यवसित प्रर्थं ‘शरीरद्वारेण न चेतनाधिष्ठिताः’ इस प्रकार का हो जाता है ।, ‘स्वब्यापारे शरीरानपेक्षत्वात्’ इस हेतुवाक्य से जिस हेतु का बोध होता है, वह साध्यबोधक वाक्य के कथित पर्यवसितार्थ से भिन्न नहीं है, क्योंकि ‘शरीरद्वारेण चेतनानपिष्ठितत्व’ एवं ‘स्वव्यापारे शरीरानपेक्षत्व’ ये दोनों फलतः एक ही हैं । इस द्वितीय प्रतिपक्षानुमान का हेतु भी ‘साध्यसन’ है, अतः पक्ष में निश्चित नहीं है । फलतः इस हेतु में भी ‘पक्षवृत्तित्व’ रूप बल के न रहने के कारण प्रकृत ईश्वरानुमान को प्रतिरूद्ध करने की क्षमता नहीं है। (१) अनिन्द्रियाश्रयत्वात् ’ उक्त विरोधी अनुमान के ‘शरीरेतरस्व’ हेतु का घटक शरीत्व यदि इन्द्रियाश्रयत्व (इन्द्रिय) स्वरूप हो, तो तदनुसार प्रतिपक्षानुमान का स्वरूप ‘परमाण्वादयो न साक्षाच्चेतना- बिष्ठेयाः अनिन्द्रियाश्रयत्वात्’ इस प्रकार का होगा । किन्तु पनिन्द्रियत्व हेतुक इस निष्पन्न धनुमान का हेतु ‘मन्यथासिद्ध’ होगा। क्योंकि जिस अधिष्ठाता ( प्रात्मा ) को भोग होता है, उनको शरीर का होना आवश्यक है, क्योंकि शरीरावच्छेदनैव मात्मा में भोग की उत्पत्ति होती है। एवं इन्द्रिय मी भोग का कारण हैं । इसी लिये भोग का आयतन शरीर इन्द्रिय का सी भाषय होता है। ईश्वर रूप बात्मा में भोग की उत्पत्ति नहीं होती है ( ईश्वर B
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द ’ चं ग न [ पञ्चमः स्तबक ६१७ स्वव्यापारे तदनपेक्षत्वाच्चेति त्रयमप्यन्यथासिद्धम् । प्रभोगायतनत्वादनिन्द्रिया- श्रयोऽपि, भोक्तृकर्मानुपग्रहादभोगायतनमपि, स्पशंद्वेगवद्द्रव्यानुत्पाद्यत्वात्तदनपेक्षमप स्यात् । को भोग नहीं होता ) । प्रतः कुलालादि का शरीर साक्षादविष्ठेय होने पर भी इन्द्रिय का श्राश्रय होता है । किन्तु इसी कारण ईश्वर रूप अधिष्ठाता का साक्षात् अधिष्ठेय होने पर भी परमाणु इन्द्रिय का भी आश्रय हो— यह आवश्यक नहीं है। क्योंकि परमाणु अपने भविष्ठाता ईश्वर स्वरूप चेतन के भोग का आयतन नहीं है। इस प्रकार साक्षात् चेतन के द्वारा अधिष्ठित होने पर भी परमाणुओं में अनिन्द्रियाश्रयत्व की ‘अन्यथासिद्धि’ अर्थात् परमाणुमों को साक्षात् चेतन अनविष्ठेय माने बिना भी अनिन्द्रियाश्रयत्व की उपपत्ति हो सकती है, तो फिर यह कहना सङ्गत नहीं है कि परमाणु चू कि इन्द्रियों के श्राश्रय नहीं है, प्रत: चेतन के साक्षात् प्रधिष्ठेय भी नहीं है । सुतराम् अनिन्द्रियाश्रयत्व लिङ्गक उक्त असदनुमान से प्रकृत ईश्वरानुमान प्रतिहत नहीं हो सकता । (२) प्रभोगायतनत्वात् भोक्ता के पुण्यपाप से जिस प्रकार के भोग की संभवानायें रहतीं है, उन्हीं के अनुरूप शरीरों की रचना होती है । प्रतः भोक्ता पुरुष के पापपुण्य के साहाय्य से तदनुकूल भागों के संपादन के लिये जिस शरीर को उत्पत्ति होगी, साक्षात् चेतन का प्रविष्ठेप वह शरीर अवश्य ही भोग का आयतन होगा । फलतः कोई भी शरीर चेतन का साक्षात् प्रविष्ठेय होने से ही भागायतन नहीं होता । अर्थात् भोगायतनत्व में साक्षात् चेतनाषिष्ठेयत्व की व्याप्ति नहीं है । किन्तु भोगायतनत्व में मोक्ता के कर्मों के उपग्रह की व्याप्ति है । प्रकृत में पहिली बात यह है कि किसी भी कारण से परमाणुओं की उत्पत्ति नहीं होती है । दूसरी बात यह है कि उनके प्रधिष्ठाता ‘भोक्ता’ नहीं है । परमाणुत्रों के प्रधिष्ठाता ( परमेश्वर) पुण्य एवं पाप दोनों से सर्वथा रहित है, अतः परमाणु भोक्ता के कर्मो ( पाप- पुण्य ) के द्वारा ‘उपगृहीत’ नहीं है । इस लिये परमाणु चेतन का साक्षात् प्रषिष्ठेय होने पर भी ‘अभोगायतन’ हो सकते है । जब अभोगायतनस्व की सिद्धि’ ‘अन्यथा’ भी हो सकती है, अर्थात् साक्षात् चेतनानविष्ठितत्व के विना भी ( साक्षाच्चेतनाधिष्ठितत्व के रहते हुये भी ) प्रभोगा- यतनत्व भी सिद्धि हो सकती है, तो फिर प्रभोगायतनत्व हेतुक साक्षाच्चेतनाधिष्ठितत्व का अनुमान सदनुमान नहीं हो सकता । अतः इससे ईश्वरानुमान प्रतिहत नहीं हो सकता । (३) स्वव्यापारे तदनपेक्षत्वात् कार्य के उत्पादन के अनुकूल स्वरूप में उद्यत होने के लिये शरीर की अपेक्षा उन्हीं कारण द्रव्यों को होती है, जिनमें क्रिया का उत्पादन स्पर्श एवं वेग इन दोनों से युक्त किमी दूसरे द्रव्य की प्रेरणा से होती है । दण्डादि में घटादि कार्यों की किसी अनुपयोगी क्रिया की भी तब तक उत्पत्ति नहीं होती है, जब तक वायु प्रभृति स्पर्थ एवं वेग से युक्त किसी दूसरे द्रव्य को प्रेरणा उन्हें प्राप्त न हो। इससे यह नियम निष्पन्न होता है कि दण्डदि द्रव्यों ७८
६१५ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली अचेतनत्वाच्चेतनाधिष्ठितमपि स्यादिति को विरोध: ? । की सभी क्रियायें स्पर्शं और वेग इन दोनों से युक्त किसी रखती है । अतः दण्डादि में घटादि कार्यों के उत्पादन के • स्पर्श एवं वेग से युक्त किसी दूसरे द्रव्य की प्रेरणा से कुलालादि चेतन से अनपेक्ष वायु प्रभुति नहीं हो सकते। ही दूसरे द्रव्य की प्रेरणा की अपेक्षा अनुकूल जो क्रियायें होंगी, वे भी होगी। वे दूसरे ( द्रव्यान्तर ) क्योंकि उक्त दण्डादि में केवल जिस किसी प्रकार की क्रिया ( घटादि के लिये ) अपेक्षित नहीं है, किन्तु घटादि अभिप्र ेत अर्थों की उत्पादिका विशेष प्रकार की क्रियायें ही अपेक्षित हैं, उनकी उत्पत्ति तो अभिप्राय विशेष से युक्त चेतन के द्वारा प्ररित स्पर्श और वेग से युक्त किसी दूसरे द्रव्य से ही हो सकती है, वही दूसरा द्रव्य है ‘शरीर’ । त्रयमप्यन्यथासिद्धस् सृष्टि की आदि में जो परमाणुओं में द्वयरतुकोत्पत्ति के अनुकूल क्रिया उत्पन्न होती है, उसके लिये स्पर्श और वेग से युक्त किसी दूसरे द्रव्य की प्ररेणा संभव नहीं है, क्योंकि उस समय परमाणुनों से अतिरिक्त स्पर्श एवं वेग से युक्त कोई द्रव्य नहीं रहता । फिर भी परमाणुओं की उन क्रियात्रों को चेतनाभिप्राय सापेक्ष मानना ही होगा, क्योंकि वायु से प्रान्दोलित दण्ड के द्वारा तो चक्रादि में घटादि के उत्पादन के अनुकूल भ्रमण की उत्पत्ति नही होती है । प्रत। किसी चेतन के अभिप्राय के विना अचेतन परमाणुओंों में द्वयणुक रूप कार्य के अनुकूल क्रिया की उत्पत्ति नहीं हो सकती । अतः परमाणु साक्षात् ही चेतनाधिष्ठित है, किसी दूसरे ( शरीरादि ) द्रव्यों के द्वारा नहीं। चूँकि शरीर की अपेक्षा किये बिना ही परमाणु चेतनाघिष्ठेय हो सकते हैं, अतः ‘स्वव्यापारे तदनपेक्षत्व’ रूप तृतीय प्रति हेतु भी ‘अन्यथा सिद्ध’ हो जाता है क्योंकि ‘अन्यथा’ अर्थात् साक्षाच्चतना विष्ठेयत्वाभाव रूप साध्य के विना भी ( अर्थात साक्षात् चेतनाधिष्ठेयत्व के रहने पर मी ) परमाणुओं में ( पक्ष में ) ‘शरीरानपेक्ष व्यापारवत्त्व’ रूप हेतु रह सकता है । अतः इस हेत्वाभास से प्रकृत ईश्वरानुमान प्रतिहत नहीं हो सकता । , प्रचेतनत्वात् ….. ( ‘परमाणु चेतन का अधिष्ठेय है’ इसी का कौन सा प्रमाण है ? इस प्रश्न का उत्तर यह है कि ) परमाणुओं से द्वचरतुकादि क्रम से सृष्टि होती है’ यह मान लेने पर १. प्रकृत सन्दर्भ के “प्रभोगायतनत्वादनिन्द्राश्रयोऽपि” के आगे ‘साक्षाच्चेतना घिष्ठित ! स्वात्’ एवं ‘भोक्तृकर्मानुपग्रहाद भोगायतनमपि’ के धागे एवं ‘स्पर्शवत्र गवद्रव्यानुत्पाच त्वादनपेतमपि इन दोनों महावाक्यों के आगे भी ‘साक्षाच्चैव नाधिष्ठित।’ इस वाक्य का अभ्याहार कर इस सन्दर्भ को समझना चाहिये । प ह a f
आ भी :) स की त ही वी कि र से र्य है, ही Π IT व ST र 1 न पञ्चमः स्तबक ६१६ तथा च साक्षात्प्रयत्ना घिष्ठितेत रजन्यत्वादिति साध्यसमः । इन्द्रियाश्रयेतर- जन्यत्वादिति द्वयमप्यन्यथासिद्धस् । कार्यज्ञानाद्यनपेक्षत्वाच्छरीरेत रजन्यमपि स्यात् । अचेतन हेतुकत्वाच्चेतनाधिष्ठितमपीति को विरोध: ? परमाणुओं में चेतनाधिष्ठितत्व सिद्ध हो जाता है। क्योंकि परमाणु अचेतन ( जड़ ) हैं । चेतन के साहाय्य के विना प्रचेतन पदार्थों से कार्य की उत्पत्ति नहीं हो सकती । अतः द्वरक के उत्पादक परमाणु भी चेतनाधिष्ठित ही हैं । सुतराम् परमाणुत्रों में शरीर की अपेक्षा किये बिना क्रिया रूप व्यापार की सत्ता एवं चेतन का साक्षात् बधिष्ठेयत्व इन दोनों को साथ-साथ रहने में कोई विरोध नहीं है । सि० प० तथा च साक्षात्प्रयत्नाधिष्ठितेतरजन्यत्वादिति … … ( इस प्रकार ‘परमाण्वादयो न साक्षाच्चेतनाघिष्ठेयाः शरोरेतरत्वात्’ इत्यादि सन्दर्भ के द्वारा कथित ईश्वरानुमान के विरोषो धनुमान के ‘शरीरेतरत्व’ हेतु के अन्तर्गत ‘शरीस्व’ के ये तीन स्वरूप संभावित प्रतीत होते हैं (१) साक्षात्प्रयत्नाधिष्ठितत्व (२) इन्द्रियाश्रयत्व एवं (३) भोगायतनत्व । तदनुसार विरोधी अनुमानों के स्वरूप (१) क्षित्यादिकं न साक्षात् प्रयत्ना विष्ठेयम् साक्षात्प्रयत्नानधिष्ठेयस्वात् (२) क्षित्यादिकं न साक्षात्प्रयत्ना घिष्ठेयम् इन्द्रिया- श्रयेत रजन्यत्वात् (३) क्षित्यादिकं न साक्षात्प्रयत्नांषिष्ठेयम् अभोगायतनत्वात्, ये तीन प्रकार के होंगे । ( १ ) इनमें से पहिले अनुमान का स्वारस्य यह है कि घटादि जितने भी कुलालादि चेतनों के द्वारा अधिष्ठित कपालादि कारणों से उत्पन्न कार्य हैं, वे सभी साक्षात्प्रयत्नाधिष्ठित कुलालादि के शरीरों से उत्पन्न होते हैं । क्षित्यनुरादि भी यदि चेतनाचिष्ठित कारणों से उत्पन्न होते, तो वे भी शरोरजन्य अवश्य होते, किन्तु वे शरीरजन्य नहीं हैं, अतः चेतनाधिष्ठित हेतुयों से उत्पन्न नहीं हैं । किन्तु यह हेतु भो साध्य के समान ही पक्ष में सिद्ध न होने के कारण ‘साध्यसम’ हैं । क्योंकि प्रकृत में नैयायिक कहते हैं कि ईश्वरोय प्रयत्न के साक्षात् अधिष्ठेय परमाणुमों के द्वारा मित्यादि की उत्पत्ति होती है। मीमांसकादि कहते हैं कि प्रयत्न का अधिष्ठेप केवल शरीर ही है । किस्यादि चूकि प्रयत्न जन्य नहीं हैं, अतः साक्षात् प्रयत्न के अधिष्ठेप से उत्पन्न भी नहीं है । इस प्रकार क्षिस्यादि में साक्षात्प्रयत्न से श्रधिष्ठित वस्तुओं से उत्पन्न होना सन्दिग्ध है । इस लिये इस हेतु के द्वारा क्षित्यादि में चेतन कारण से उत्पन्न न होने को सिद्धि नहीं हो सकती । सुतराम, क्षित्यादि में उक्त हेतुक अनुमान से सकर्तृकत्व का बाघ नहीं हो सकता । CCO. Vasishtha Tripathi Collection. Digitized by eGangotri६२० गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जलौ (२) यदि विरोधी अनुमान के हेतु का घटक ‘शरीरस्त्व’ इन्द्रियाश्रयत्व रूप हो तो विरोधी अनुमान का स्वरूप ’ क्षित्यादिकं न साक्षात्प्रयत्ना विष्ठेयम् इन्द्रियाश्रयेत रजन्यत्वात् ’ इस आकार का होगा । किन्तु इस अनुमान का इन्द्रियाश्रयेतरजन्यत्व हेतु ‘अन्यथासिद्ध’ होगा । अर्थात् उक्त साध्य के न रहने पर भी रह सकता है। क्योंकि जिसने भी ज्ञान उत्पन्न होते हैं, वे सभी किसी न किसी प्रकार अपनी उत्पत्ति में इन्द्रिय की अपेक्षा अवश्य रखते हैं । इन्द्रिय शरीरों में श्रावित होकर ही ज्ञानों का उत्पादन करतों हैं । प्रत जितने भी ज्ञानों में इन्द्रियों की अपेक्षा होगी, उन सभी ज्ञानों को अपनी उत्पत्ति के लिये शरीरों की अपेक्षा अवश्य होगी । एवं अचेतन कारणों से जिन कार्यों की उत्पत्ति होगी, उन सभी कार्यों की उत्पत्ति में चेतन के ज्ञानों की भी अपेक्षा अवश्य होगी । एवं जो चेतन शरीर के साथ ( प्रवच्छेदकता सम्बन्ध से ) सम्बद्ध होगा, उस चेतन का ज्ञान नियमतः अनित्य ही होगा । इस प्रकार यह सिद्ध होता है कि जितने कार्य अनित्यज्ञान से उत्पन्न होंगे, उनकी उत्पत्ति में इन्द्रियाश्रय (शरीर ) की भी अपेक्षा अवश्य होगी । किन्तु इससे यह नियम निष्पन्न नहीं होता है कि ‘जिन कार्यों की उत्पत्ति में ‘ज्ञान की अपेक्षा हो, उन सभी कार्यों की उत्पत्ति में ‘इन्द्रियाश्रय’ शरीर की भी अपेक्षा अवश्य हो ।” क्योंकि जिस कार्य की उत्पत्ति ‘नित्यज्ञान’ से होगी, उसकी उत्पत्ति में ( इन्द्रियाश्रय ) शरीर की अपेक्षा नहीं होगी। चूकि शरीर अनित्यज्ञान का मवच्छेदक है, इसी लिये जिन कार्यों की उत्पत्ति पनित्य ज्ञान से होती है, उनके लिये शरीर की भी अपेक्षा होती है । किन्तु जिस ( नित्य ) ज्ञान का अवच्छेदक शरीर नहीं है, उस से उत्पन्न होनेवाले कार्यों में शरीर की अपेक्षा क्यों कर होगी ? अतः जिस कार्य की उत्पत्ति में इन्द्रियाश्रयेतर परमाणुओं की अपेक्षा होगी, वह कार्य भी चेतन से अधिष्ठित हेतुजन्य हो सकता है । • (३) शरीर रूप अवच्छेदक के सहारे ही आत्मा भोग करता है । अतः शरीर ही मात्मा के भोग का स्थान अर्थात् ‘व्यायतन’ है । अतः ‘आत्मनो भोगायतनं शरीरम्’ शरीर का यह लक्षण प्रसिद्ध है । तदनुसार उक्त अनुमान घटक शरीरत्व यदि भोगायतनत्व रूप मानें तो ‘सित्यादिकं न चेतना षिष्ठित हेतुकं मोगायतनेतरजन्यत्वात्’ ऐसा अनुमान का स्वरूप होगा । किन्तु इस अनुमान का ‘भोगायतनेतरजन्यत्व’ हेतु भी ‘अन्यथासिद्ध’ ( प्रप्रयोजक- व्याप्यत्वासिद्ध ) है । क्योंकि घटादि कार्य चूं कि भोग के प्रायतन स्वरूप कुललादि के शरीर से उत्पन्न होते हैं, केवल इस लिये चेतनाविष्ठित हेतुक नहीं हैं । भोगायतन ( कुलालादि-शरीर ) का उपयोग (
तो ात्’ TI होते চি== नों क्षा ता यह य कि य’ ी, का र से ति न्य ही हा चो न्तु ) ति ग पञ्चमः स्तबक! ६२१ अप्रसिद्धविशेषरणश्च पक्षः । न हि चेतनान घिष्ठित हेतु कत्वं कचित्प्रमाणसिद्धम् । तो घटादि कार्यों में इस लिये होता है कि मोगायतन रूप शरीरावच्छेनेव तदुपयुक्त ज्ञान की उत्पत्ति होती है । पहले कह आये हैं कि कपालादि उपादानों का इन्द्रियजनित प्रपरोक्षज्ञान घटादि कार्यों के कारण हैं । उपादान विषयक ये अपरोक्षज्ञान कुलालादि में शरीरावच्छेदनैव उत्पन्न होंगे । सुतराम् जिस ज्ञान की ‘उत्पत्ति’ होगी, उस उत्पत्ति में भोगायतन (शरीर ) का उपयोग अवश्य होगा । सुतराम् कोई भी ज्ञान भोगायतन (शरीर ) जन्य इसलिये होता है कि वह उत्पत्तिशील है । चेतनाधिष्ठित हेतुक होने के नाते वह भोगायतनजन्य नहीं है । नहीं है । किन्तु उत्पत्ति हो नहीं प्रकृत में क्षित्यादि के उपादान परमाणुओं का अपरोक्षज्ञान इन्द्रियादि से उत्पन्न हो नहीं सकता । परमाणुओ के इन अपरोक्षज्ञान को नित्य ही मानना होगा । परमाणु स्वरूप उपादानों के अपरोक्ष ज्ञान के लिए भोगायतन शरीर की कोई अपेक्षा परमाणु हैं तो अचेतन, चेतन अधिष्ठाता के बिना उनसे किसी कार्य की सकती । अतः अचेतन परमाणु भी किसी चेतन के द्वारा अधिष्ठित होकर ही क्षित्यादि कार्यों का उत्पादन कर सकते हैं। सुतराम् क्षित्यादि कार्य चेतनाधिष्ठितहेतुक तो हैं, किन्तु भोगायतन स्वरूप शरीर जन्य नहीं हैं । इस प्रकार भोगायतन से भिन्न परमाणुषों से उत्पन्न होने पर भी क्षित्यादि कार्य चेतनाधिष्ठितहेतु से उत्पन्न हो सकते हैं, तो फिर चेतनानविष्ठितत्व के साधन के लिये प्रयुक्त भोगायतनेतरजन्यत्व हेतु – ‘अन्यथासिद्ध’ हो जाता है । अर्थात् जो कार्य भोगायतनेतरजन्य होगा, वह चेतनाधिष्ठित हेतुक भी हो सकता है। अतः यह कहना संभव नहीं है कि जितने भी कार्य भोगायतनेत रजन्य हैं, वे सभी चेतनाधिष्ठित हेतुक नहीं हो सकते । अतः भोगायतनेतर- जन्यत्व रूप व्याप्यत्वासिद्ध ) हेत्वाभास से उत्पन्न अनुमिति के द्वारा प्रकृत ईश्वरानुमान का प्रतिरोध नहीं किया जा सकता । श्रप्रसिद्धविशेषणश्च पक्षः … ……. सपक्षाद्वद्यावृत्तेः ’ क्षित्यादिकं न चेतनाधिष्ठितहेतुकम् शरीरेतरजन्यत्वात्’ इस अनुमान के हेतु में ‘साध्याप्रसिद्धि’ दोष भी हैं। क्योंकि पक्ष से भिन्न कहीं भी एक स्थान में सिद्ध वस्तु का हो दूसरे स्थान (पक्ष) में साधन किया जा सकता है । सर्वथा वप्रसिद्ध वस्तु का कहीं मी साधन नहीं किया जा सकता । महानस में प्रसिद्ध ( सिद्ध ) वह्नि का ही पर्वत में साघन किया जाता है ।
६२२ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जलौ न च चेतनाऽधिष्ठितहेतुकत्वनिषेधः साध्या, हेतोरसाधारण्यप्रसङ्गात् । गगनादेरपि सपक्षाद्वधावृत्तेः । इस वस्तुस्थिति अनुसार मित्यादि से भिन्न ( क्योंकि वे पक्ष हैं ) जितने भी कार्य हैं, वे सभी चेतनाधिष्ठित हेतुओं से हो उत्पन्न होते दीख पड़ते हैं । तो फिर किस कार्यव्यक्ति में प्रसिद्ध ‘चेतनानधिष्ठितहेतुकत्व’ की सिद्धि क्षित्यादि कार्यों में करना चाहते हैं ? इसका साधन तो गगनकुसुमादि के साधन के तुल्य हो जायगा ।’ अतः ‘साध्याप्रसिद्धि’ रूप दोष हेतुक अनुमान से प्रकृत ईश्वरानुमान प्रतिहत नहीं हो सकता । न च चेतनाधिष्ठित ( इस साध्याप्रसिद्धि दोष के निवारण के लिये पूर्वपक्षी कह सकते हैं कि ) प्रकृत में ‘चेतनानविष्ठित हेतुकस्व’ साध्य नहीं है, किन्तु ‘चेतनाधिष्ठित हेतुकत्वाभाव’ साध्य है । इस प्रकार नव् के हेर फेर से विरोधी धनुमान ‘प्रसिद्धसाध्यक’ हो सकता है । क्योंकि ‘अभाव’ रूप साध्य की प्रसिद्धि के लिये केवल उसके प्रतियोगी की ही प्रसिद्धि आवश्यक है । प्रभाव रूप प्रकृत साध्य का प्रतियोगी ‘चेतनाधिष्ठितहेतुकत्व’ घटादि कार्यों में प्रसिद्ध है । घटादि कार्यों में ‘चेतनानविष्ठितहेतुकत्व’ की सिद्धि हो, अथवा ‘चेतनाधिष्ठित- हेतुकत्वाभाव’ की सिद्धि हो, दोनों ही स्थितियां क्षित्यादि के कारणों के अधिष्ठाता चेतन सर्वंश परमेश्वर की सिद्धि को प्रतिरुद्ध करेंगी ही । अतः उक्त रीति से कथित ‘साध्याप्रसिद्धि’ दोष का परिहार हो सकता है । १. पक्ष है विशेष्य, साम्य है ‘विशेषण’ । जिस ‘विशेष्य’ का (पक्ष का) ‘विशेषण’ अर्थात् साध्य पक्ष से भिन्न किसी विशेष्य में प्रसिद्ध नहीं है, वहीं पच है ‘अप्रसिद्ध विशेषणक पक्ष’ । प्राचीनों के मत से पक्ष से भिन्न सपक्ष में साध्य की अप्रसिद्धि ही ‘साध्याप्रसिद्धि’ का लक्षण है 1 नवीननैयायिकगण साध्य के विशेषणीभून ( साध्यतावच्छेदक ) धर्म से शून्य साध्य को ही ‘साध्याप्रसिद्धि’ कहते हैं। इस धारणा के मूज में भी पक्ष से भिन्न में साध्यतावच्छेदक रूप विशेषण से युक्त साध्य की ‘अप्रसिद्धि’ ही है । प्रकृत में ‘चेतनानधिष्ठितहेतुकत्व’ साध्य है । इसमें निविष्ट ‘हेतु’ भी एक अवान्तर विशेष्य है, क्योंकि ‘चेतनानधिष्ठितत्व’ रूप विशेषण का वह विशेष्य है । किन्तु ‘हेतु में वस्तुत: ‘चेतनानधिष्ठितत्व रूप विशेषण नहीं है, क्योंकि सभी हेतु चेतनाधिष्ठित ही हैं। प्रत: ‘चेतनाधिष्ठितहेतुत्व’ घटित उक्त विशिष्ट साध्य भी अप्रसिद्ध है । इस प्रकार नवीन मतानुसार भी प्रकृत हेतु ‘साध्याप्रसिद्ध’ है ।
पञ्चमः स्तवका ६२३ यत्पुनरुक्तं, कुविन्दादेः पटादो कथमपेक्षेति । तत्र कारकतयेति कः सन्देहः ? । किन्तु कारकत्वमेव तस्य ज्ञानचिकीर्षाप्रयत्नवतो न स्वरूपतः, तदेव चाधिष्ठातृत्वम् । सि० प० हेतोरसाधारण्यप्रसङ्गात् ( प्रतिहेतुक अनुमान के साध्य में इस प्रकार के परिवर्तन से यद्यपि कथित साध्या- प्रसिद्धि दोष का परिहार अवश्य होगा, किन्तु इस परिवर्तित साध्यक प्रत्यनुमान का हेतु ) ‘असाधारण, हो जायगा । सपक्ष में ( दृष्टान्त में ) जिस हेतु का अभाव अवश्य ही रहे, वही हेतु ‘असाधारण’ कहलाता है। तदनुसार ‘साध्यव्यापकीभूताभावप्रतियोगित्व’ ही प्रसाधारण’ हेत्वाभास का लक्षण है । तदनुसार ‘मित्यादिकं चेतना षिधिष्ठत हेतुकस्वाभाववत् शरीरेतरजम्यत्वात्’ इस अनुमान का ‘शरीरेतरजन्यत्व’ हेतु ‘मसाधारण’ दोष के लक्षण से प्राक्रान्त हो जाता है । क्योंकि प्रकृत अनुमान के ‘सपक्ष’ हैं प्राकाशादि । चूंकि आकाशादि निश्य हैं, अतः उनमें जम्यत्व घटित कोई भी हेतु नहीं है, अतः उनमें चेतनाधिष्ठित हेतु जन्यत्व भी नहीं है । वस्तुतः जितने अचेतन हेतु हैं, वे सभी ‘चेतनाधिष्ठित’ ही हैं, अतः कोई भी ‘कार्य’ पदार्थ प्रकृत अनुमान का सपक्ष नहीं हो सकता । गगनादि नित्य पदार्थ ही सपक्ष हो सकते हैं । किन्तु गगनादि नित्यपदार्थों में ‘शरीरेतरजन्यत्व’ रूप हेतु भी नहीं है, क्योंकि गगनादि जब किसी से भी उत्पन्न नहीं होते । अतः गगनादि सपक्षों में सर्वदा ही न रहने के कारण उक्त अनुमान का ‘शरीरेतरजन्यत्व’ हेतु असाधारण हेत्वाभास होगा । अत । इस अनुमान से भी प्रकृत ईश्वरानुमान प्रतिहत नहीं हो सकता । सि० प० यत्पुनरुक्तम् अधिष्ठातृत्वम् । ‘अपि च पटादी कुबिन्दादे, इत्यादि सन्दर्भ के द्वारा जो यह विकल्प किया गया है कि पटादि कार्यों में कुविन्दादि कि अपेक्षा इस लिये है कि कुविन्दादि पटादि कार्यों के तन्तु प्रभृति अचेतन कारकों के अधिष्ठाता है ? अथवा कुविन्यादि स्वयं ही पटादि के ‘कारक’ हैं, इसी लिये पटादि कार्यों में उनकी अपेक्षा होती है ? इस प्रश्न का यह उत्तर है कि कुविन्दादि स्वयं ही पटादि कार्यों के कारक’ है, इसीलिये पटादि कार्यों में उनकी अपेक्षा होती है । किन्तु कुविन्दादि पटादि के इसलिये कारक हैं कि उनमें पटादि कार्यों के उपादानों का प्रपरोक्षज्ञान, एवं पटादि विषयक चिकीर्षा एवं पटादि विषयक प्रयत्न ये तीनों ही उनमें हैं,
६२४ गद्यपद्यात्मकम्यायकुसुमाञ्जली यस्वधिष्टिते किमधिष्ठानेनेति । तत्कि कुविन्द उद्वायंते, ईश्वरो वा, वाऽऽपाद्यते ? । न प्रथमः, अन्वयव्यतिरेकसिद्धत्वात् । अनवस्था स्वयं केबल कुविन्द होने कारण ही वे पटादि के कारक नहीं हैं अर्थात् उक्त उपादान ज्ञान, चिकीर्षा एवं प्रयत्न विशिष्ट कुविन्दादि ही पटादि के कारक हैं, केवल कुविन्दादि पटादि के कारक नहीं है। कार्यों’ का ‘अधिष्ठातृत्व’ भी उपादान विषयक उक्त ज्ञान, चिकीर्षा एवं प्रयत्न स्वरूप ही है । अतः कुविन्दादि पटादि कार्यों के अधिष्ठाता रूप कारक ही हैं । तस्मात् कुविन्दादि में पटादि कार्यों के कर्तृत्व में कोई अनुपपत्ति नहीं है । सि० प० यस्वधिष्ठिते … ‘अपि च पदादी कुविन्दादे:’ इसी सन्दर्भ के दोष का उद्भावन इस प्रभिप्राय से किया गया है कुविन्दादि में से कोई चेतन अधिष्ठाता विद्यमान हैं, अधिष्ठाता की कल्पना ‘किमर्थ’ की जाती है ? द्वारा प्रकृत अनुमान में ‘सिद्धसाधन’ कि बेमादि अचेतन साधनों का जब तो फिर ईश्वर रूप उनके दूसरे इस प्राक्षेप के समाधान के लिये आक्षेप करनेवाले से पूछना मावश्यक है कि उक्त प्रश्न वाक्य के निम्न लिखित तीन ही अर्थ हो सकते हैं, उन में से आप को कौन सा ‘अर्थ’ अभिप्रेत है । (१) ईश्वर रूप एक अधिष्टाता जब विद्यमान हैं तो कुलाल कुविन्दादि अन्य अधिष्टाताओं को मानने का क्या ‘प्रयोजन’ है ? ( अतः ईश्वर को अधिष्ठाता स्वीकार करने से कुविन्दादि में जो पटादि कार्यों की सर्वसिद्ध कारणता है, उस का लोप हो जायगा ) । (२) कुविन्दादि चेतन पदार्थ जब बेमादि प्रचेतन कारणों को यथावत् परिचालित करने के लिये विद्यमान हैं, तो फिर ईश्वर को पटादि कार्यों का कर्त्ता मानना प्रमाण से बहिर्भूत है। अतः ईश्वर पटादि कार्यों के कर्त्ता नहीं हैं । (३) कुविन्दादि से अधिष्ठित बेभादि प्रचेतन कारणों का यदि ईश्वर नाम का एक पीर अधिष्ठाता मानें, तो समान युक्ति से कुविन्द एवं ईश्वर इन दोनों से भिन्न बेमादि के तीसरे अधिष्ठाता की भी कल्पना की जा सकती है । जिससे अधिष्ठातृ परम्परा का अपर्यवसान रूप अनवस्था दोष की आपत्ति होगी । इनमें प्रथम आक्षेप का यह समाधान है कि कुविन्दादि में पटादि कार्यों की कारणता अन्वय एवं व्यतिरेक से सिद्ध है, अतः ईश्वर को मान लेने से उसका लोप नहीं हो सकता ! वै न 41 प्र The to क
5 रे पञ्चमः स्तबकः ६२५ न द्वितीय, परमाण्वदृष्टाद्यधिष्ठातृत्वसिद्धौ ज्ञानादीनां सर्वविषयत्वे बेमाद्य- धिष्ठानस्यापि न्यायप्राप्तत्वात् । न तु तदधिष्ठानार्थमेवेश्वर सिद्धिः । न तृतीया, तस्मिन् प्रमाणाभावात् । तथाप्येकाधिष्ठितमपरः किमर्थमधितिष्ठतीति प्रश्ने किमुत्तर मिति चेत् ? न द्वितीयः द्वितीय प्रक्षेप के उत्तर में कहना है कि अधिष्ठातृत्व है उपादान विषयक अपरोक्षज्ञान रूप । अथवा अचेतन कारणों को कार्य के अनुकूलभाव से प्रयोक्तृत्व रूप । जिस सूक्ष्मदर्शी अधिष्टाता को परमातु रूप उपादान का अपरोक्षज्ञान रहेगा, अथवा अदृष्टादि अतीन्द्रिय अचेतन साधनों को फार्यों के अनुकूल प्रयोग करने की क्षमता रहेगी, उस अधिष्ठाता को तन्तु कपालादि स्थूल उपादानों का अपरोक्षज्ञान नहीं रहेगा, किं वा बेमादि स्थूल एवं इन्द्रियवेध साधनों को उपयुक्त रूप से व्यापृत करने की क्षमता नहीं रहेगी - यह संभव नहीं है । अत: परमाणु अथवा ग्रदृष्ट के अधिष्ठाता रूप में कल्पित परमेश्वर को सर्वज्ञ मानना ही उचित है । बेमादि कारणों को पटादि स्वरूप कार्यों के उपयुक्त संचालन के ज्ञान से ही कुविन्दादि में बेमादि कारणों का ‘अधिष्ठातृत्व माना जाता है, उक्त ज्ञान जब परमेश्वर में भी हैं, तब उनमें भी बेमादि कारणों के अधिष्ठातृत्व का निवारण कौन कर सकता है ? यदि बेमादि के अधिष्ठाता रूप में ही परमेश्वर की सिद्धि करते, तो यह कहने का अवसर होता कि ‘कुविन्दादि अधिष्ठाताओं के रहते परमेश्वर रूप अधिष्ठाता की कल्पना व्यर्थ हैं’ किन्तु अन्य युक्तियों से जब परमेश्वर की सिद्धि हो जाती है, एवं पटादि के कर्तृत्व उपयुक्त ज्ञान की सत्ता भी उनमें मानना अनिवार्य हो जाता है, तो फिर पटादि कार्यों के कर्तृत्व का भी निवारण उनमें कैसे किया जा सकता है ? के न तृतीयः तस्मिन् (३) कुबिन्दादि अधिष्ठाताओं के रहते हुए भी ईश्वर रूप एक और भ्रधिष्ठाता की कल्पना में अनेक युक्तियाँ हैं, अतः पटादि कार्यों का एक और अधिष्ठाता मानते हैं । किन्तु उसके बाद पुनः तीसरा या चौथा — इस प्रकार अनन्त अधिष्टाताओं की कल्पना में कोई प्रमाण नहीं है, अतः प्रकृत में अनवस्था दोष का कोई अवसर नही है । पू० प० तथाप्येकाधिष्ठितम् " फिर भी यह प्रश्न रह जाता है कि कुंविन्दादि किसी एक अधिष्ठाता से अधिष्ठित होने के बाद वे ही बेमादि कारण समूह पुनः ईश्वर रूप दूसरे अधिष्ठाता से क्यों (किमर्थ ) अधिष्ठित होते हैं ? अथवा ईश्वराधिष्ठित होने पर भी पुनः कुविन्दादि से प्रधिष्ठित क्यों होते हैं ? ७६
६२६ गद्यपद्यात्मक-म्यायकुसुमाञ्जली हेतु प्रश्नोऽयम्, प्रयोजन प्रश्नो वा ? नाद्या ईश्वराधिष्ठानस्य नित्यत्वात् । कुविन्दाद्यधिष्ठानस्य स्वहेत्वधीनत्वात् । न द्वितीयः कार्यनिष्पादनेन भोगसिद्धे । स्पष्टत्वात् । एकाधिष्ठानेनैव कार्यं स्यादिति चेत् । सि० प० हेतु प्रश्न– …. उक्त पूर्वपक्ष ग्रन्थ में प्रयुक्त ‘किमर्थ’ पद का ‘अर्थ’ पद ‘हेतु’ के बोध के अभिप्राय से प्रयुक्त है ? अथवा ‘प्रयोजन’ के अभिप्राय से प्रयुक्त है ? अर्थात् उक्त प्रश्न वाक्य से ये दो अभिप्राय प्रकट होते हैं । (१) एक अधिष्ठाता के द्वारा अधिष्ठित बेमादि कारणों के समूह में दूसरे अधिष्ठाता का अधिष्ठातृत्व किस ‘हेतु’ से उत्पन्न होता है ? अथवा (२) ईश्वर रूप मधिष्ठाता से अधिष्ठित होने से ही जब बेमादि कारणों से पटादि कार्यों की निष्पत्ति रूप ‘प्रयोजन’ संपादित हो जायगा, तो फिर कुविन्दादि दूसरे अधिष्ठाताओं का क्या प्रयोजन ? इनमें प्रथम विकल्प का यह समाधान है कि ईश्वर में जो वेमादि कारणों का अधिष्ठातृत्व है, वह पटादि कार्यों के उपादान विषयक ईश्वरीय प्रपरोक्षज्ञान रूप है, अतः नित्य होने के कारण किसी से भी उत्पन्न नहीं होता है । क्योंकि ईश्वर को सभी विषयों का नित्य अपरोक्षज्ञान है, अतः पटादि कार्यों के उपादानों का भी नित्य अपरोक्षज्ञान अवश्य है । इसलिये प्रकृत प्रश्न का यही उत्तर है कि पटादि कार्यों के बेमादि कारणों में जो ईश्वराधिष्ठितत्व है, वह किसी भी हेतु से उत्पन्न नहीं होता । पटादि कार्यों के कुविन्दादि कर्ता के प्रसङ्ग में यह उत्तर है कि कुविन्दादि गत कर्तृत्व चु कि पटादि के कारणों के उपादन कारणों के अपरोक्षज्ञान का रहना ही है, अतः उक्त अपरोक्षज्ञान कुविन्दादि के इन्द्रियसंनिकर्षादि कारणों से उत्पन्न होते हैं । न द्वितीयः कार्यनिष्पादनेन कथित द्वितीय प्रश्न का यह उत्तर है कि पटादि कार्यों के निर्माण से कुविन्दादि कर्त्ताओं को शरीर के श्रम से जो दुःख प्राप्त होता है, पारिश्रमिक की प्राप्ति से जो सुख प्राप्त होता है, इन दोनों प्रयोजनों के सम्पादन के लिये ही पटादि के बेमादि अचेतन कारण ईश्वर से अधिष्ठित होने पर भी कुलालादि से भी अधिष्ठित होते हैं । पू० प० एकाधिष्ठानेनैव … पट के तन्तु प्रभृति कारणों के समूह ( सामग्री ) का प्रयोजन है पटादि कार्यों का सम्पादन, कुविन्दादि कर्ताओं में भोगों का संपादन उसका कार्य नहीं है, अतः तन्तु प्रभूति कारणों के समूह के ईश्वराधिष्ठित होने पर भी पटादि कार्यों की उत्पत्ति तो हो ही जायगी । यदि उस सामग्री से कुविन्दादि भोगों का संपादन नहीं हुआ तो इसमें क्षति ही क्या है ? क्योंकि
। से दो में प प का 7: न बो त त ख ण ST पञ्चमः स्तबकं । ६२७ स्यादेव, तथापि न सम्भेदेऽन्यतरवैयथ्यंम् । परिमार्णं प्रति सङ्ख्यापरिमाण- प्रचयवत् प्रत्येकं सामर्थ्योपलब्धी सम्भूयकारित्वोपपत्तेः I उक्त भोगों का संपादन तो उस सामग्री का कार्य नहीं है । प्रत्युत एक कार्यं की सामग्रो से दूसरे कार्य की उत्पत्ति का न होना हो तो स्वाभाविक है। अतः द्वितीय प्रवन का उक्त समाधान ठीक नहीं है । सि० प० स्यादेव तथापि … ….. एक मात्र कर्ता के द्वारा अधिष्ठित कारणों से जिस कार्य की उत्पत्ति संभव है, उस कार्य की उत्पति एकाधिष्ठित कारणों से हो होती है, जैसे कि क्षित्यंकुरादि कार्यों की । किन्तु इस दृष्टान्त से जिस कार्य को कारणता दो कर्ताओंों में गृहीत है, उसका निराकरण यह कह कर नहीं किया जा सकता कि ‘एक कर्ता है ही तो दूसरा व्यर्थ है’ । परिमाणं प्रति जैसे कि परिमाण, संख्या एवं प्रचय इन तीनों में से प्रत्येक में परिमाण की कारणता के सिद्ध हो जाने पर भी किसी विशेष प्रकार के परिमाण के वे तीनों कारण होते हैं, किसी परिणाम विशेष के प्रति वे कारण होता है । ’ १. विशदार्थ यह है दो ही कारण होते हैं। किसी परिमाण का उन में से कोई एक ही कि ‘कारणगुणा | कार्यगुणानारमत्ते’ इस न्याय के अनुसार कपालों । के परिमाणों में घटपरिमाण की कारणता प्रसिद्ध है। किन्तु ह्रस्वादि एवं महदादि भेद से परिमाण भी दो प्रकार के हैं। आधे-आधे सेर के एक वितस्ति (वित्ते ) के कपालों से उत्पन्न घट एक सेर का, एवं दो विवस्तियों का होगा । किन्तु आधे- आधे सेर के ही तीन विश्वस्तियों के दो हो कपालों से जिस घट की उत्पत्ति होगी, उस घट का तौल तो पहिले घंट के समान एक सेर ही होगा, किन्तु उसकी लम्बाई उक्त घट के दोनों प्रकार के परिमाणों के सक्त दोनों प्रकार के कारण हैं । इसी प्रकार प्राधे घाघे सेर के एवं एक एक वित्ते उत्पन्न घट के परिमाण की अपेक्षा उक्त स्वरूप के ही तीन बढ़ भी होता है, एवं भारी भी । किन्तु उक दोनों प्रकार तो कोई अन्तर नहीं है । केवल अवयव रूप कारणों की छ वित्ते की होगी । परिमाण अलग-अलग के ही दो कपालों से कपालो से उत्पन्न घट के घटों के परिमाणों में संख्या में अन्तर है, अतः मानना होगा कि उक्त दूसरे प्रकार के घट के विलक्षण परिमाण का कारण त्रित्व संख्या ही है । सुतराम् अवयवों में रहनेवाली संख्या को अवयवी में रहनेवाले परिमाण का कारण मानना होगा । एवं कुछ संख्या के एवं कुछ परिमाण के लोहे के टुकड़ों से बने हुये लोहे के अवयवी, एवं उतनी ही संस्था के एवं उतने ही परिमाण के रुई के खण्डों से बने हुए रुई के अवयवी की लम्बाई चौड़ाई ( दैष्यं विस्तृति ) भिन्न प्रकार की
६२८ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जला अस्ति तत्र वैजात्यमिति चेत्; इहापि किञ्चिद्भविष्यतीति । न चाकुवंतः कुलालादेः कायसंक्षोभादिसाध्यो भोगः सिद्धच दिति तदर्थमस्य कर्तृत्वमीश्वरोऽ- नुमन्यते; तदर्थं मात्रत्वादेश्वयंस्येति । पू० प० अस्ति तत्र … कथित परिमाणों में परस्पर कुछ विलक्षणतायें अवश्य हैं, अतः विभिन्न प्रकार के परिमाण रूप कार्यों के लिये कारणो के विभिन्न समूहों की कल्पना करते हैं । पटादि कार्यों में एवं क्षित्यङ कुरादि कार्यों में ऐसा कोई वैलक्षण्य जान नहीं पड़ता है, जिससे एक को द्विकर्ताक, एवं दूसरे को एकक मानें। अतः कथित परिमाण रूप दृष्टान्त का अतिदेश प्रकृत में नहीं हो सकता । सि० प० इहापि … … .. 2 . पटादि रूप कार्यों में एवं क्षित्यङ कुरादि कार्यों में भी इस प्रकार का कोई अन्तर होगा । ‘अन्यथा’ यदि उन दोनों प्रकार के कार्यों में कोई अन्तर न स्वीकार करें तो कुविन्दादि कर्ताओंों में जो पटादि कार्यों के निर्माण से शारीरिक दुःख का अनुभव रूप भोग उत्पन्न होता है, एवं मूल्य प्राप्ति से सुख का अनुभव रूप भोग उत्पन्न होता है, उन भोगों की उपपत्ति नहीं होगी । इसी लिये कुविन्दादि में रहनेवाले पटादि कार्यों के कर्तृत्व का ईश्वर अनुमोदन करते हैं । परमेश्वर में जो ‘ऐश्वर्य’ रूप संपत्ति है, उसका यही प्रयोजन है कि केवल अनुमोदन से ही जीवों के उपयुक्त भोगों का सम्पादन करें । अतः प्रकृत में परिमाण रूप दृष्टान्त अनुपयुक्त नहीं है, एवं पटादि का दो कर्तानों से उत्पन्न होना एवं क्षित्यङ्करादि कार्यों का परमेश्वर रूप एक ही कर्ता से उत्पन्न होना भी अनुपपन्न नहीं हैं । . होती हैं। यह क्यों होता है ? इस प्रश्न के उत्तर में कहना होगा कि लौहखण्ड रूप अवयवों का निर्माण जिन अवयवों से होता है, उन अवयवों के परस्पर संयोग से रुईं खण्डों के उत्पादक अवयवों का संयोग ‘प्रशिथिल’ है । इस प्रशिथिल नाम के संयोग का ही नाम ‘प्रचय’ है । यह ‘प्रचय’ भी परिमाण का कारण है । तस्मात् कुछ परिमाणों के परिमाण संख्या एवं प्रचय ये तीनों ही कारण है । जैसे घटादि के परिमाण, कुछ परिमाणों की उत्पत्ति परिमाण: एंव प्रचय इन दोनों से ही होती है जैसे कि रुई के परिमाण की । इसी प्रकार कुछ परिमाणों के केवल संख्या ही कारण है, जैसे कि द्वयक के परिमाण का । इसी प्रकार यह निःसङ्कोच कहा जा सकता है कि कुछ कार्यों की उत्पत्ति में अनेक कर्ताओं की अपेक्षा होती है, जैसे शिविकावाहनादि (पालकी ढोने में) । किसी कार्य के लिये एक ही कर्ता की अपेक्षा होती है, जैसे कि गमनादि कार्यों के लिये । कुछ कार्यों के लिये दो कर्त्ताओं को अपेक्षा होती है, जैसे कि पदादिकार्यों के लिये । इसी प्रकार चिस्यरू कुरादि रूप कार्यों में केवल ईश्वर स्वरूप एक ही कर्त्ता की अपेक्षा होती है। इसमें कोई भी असामञ्जस्य नहीं है ।
के. में ; में र T न न न वं 7 छ पञ्चमः स्तबक) ६२६ 1 यस्व नित्य प्रयत्नेत्यादि, भवेदप्येवं यद्यनित्य प्रयत्न निवृत्तावेव बुद्धिरपि निवर्तेत न स्वेतदस्ति, उदासीनस्य प्रयत्नाभावेऽपि बुद्धिसद्भावात् । हेतुभूता बुद्धिनिवर्तत इति चेन्न । सि० प० यत्त्वनित्यप्रयत्न SCP ( मित्यङ कुर। दिकं सकर्रा के कार्यत्वात् घटवत् इस ईश्वरानुमान में जो ) ‘अनित्य- प्रयत्नपूर्वकत्व’ स्वरूप उपाधि का उद्भावन किया गया है, वह तभी ठीक हो सकता है जब कि यह निर्णीत हो जाय कि अनित्यप्रयत्न की निवृति से ही बुद्धि की निवृति होती है । श्रात्मा के बुद्धि प्रभृति विशेषगुणों का यह स्वभाव है कि वे अपने उत्तरवर्ती किसी दूसरे विशेषगुण से विनष्ट हो । बुद्धि के बाद जहाँ प्रयत्न की उत्पत्ति होती है, वहां बुद्धि के बाद में रहनेवाले अनित्यप्रयत्न से अवश्य ही आत्मा के विशेषगुण स्वरूप बुद्धि का विनाश होता है । किन्तु जहाँ कोई ‘उदासीन’ अर्थात् कार्यों के लिये कारणों को व्यापृत न करनेवाले पुरुष को उक्त कारण विषयक अपरोक्षज्ञान होता है, वहीं उस पुरुष में प्रयत्न रूप गुण की उत्पत्ति नहीं होती है । अतः प्रयत्न से उक्त ‘उदासीन’ पुरुष की उक्त बुद्धि का विनाश सम्भव नहीं है। किन्तु उत्तरवर्ती दूसरी बुद्धि प्रभूति आत्मा के अन्य विशेषगुणों से ही होती है । अव 2: यह कहना सम्भव नहीं है कि प्रयत्न के नाश से ही बुद्धि का नाश होता है । यह स्थिर हो जाने पर ‘अनित्यप्रयत्नपूर्वकत्व’ में ‘बुद्धिमत्पूर्वकत्व’ रूप सक करव’ की व्यपकता खण्डित हो जाती है । क्योंकि उक्त उदासीन पुरुष की बुद्धि से उत्पन्न संस्कार । में ‘बुद्धिमज्जन्यत्व’ तो है, किन्तु उसमें ‘मनित्यप्रयत्नपूर्वकस्व’ नहीं है । अतः साध्यव्यापकत्व के नः रहसे से प्रकृत ईश्वरानुमान में ‘अनि यप्रयत्नपूर्वकत्व’ उपाधि नहीं है । पू० प० हेतुभूता ‘सक’ कत्व’ का विवरण रूप जो ‘बुद्धिमज्यन्यत्व’ हैं, तद्घटक ‘बुद्धि’ पद से ‘उपादान’ स्वरूप ‘कारक’ विषयक अपरोक्ष : बुद्धि ही अभिप्रेत है । इस कारक विषयक बुद्धि के बाद अवश्य ही प्रयत्न की उत्पत्ति होती है । अतः प्रयत्न के नाश से - ( सभी बुद्धियों का नाथ भले ही सम्भव न हो ) किन्तु कथित कारक विषयक बुद्धि का विनाश भवश्य होता है, बुद्धि में जो संस्कार की कारणता है, उसका प्रयोजक ( अवच्छेदक ) ‘कारकविषयत्व’ नहीं है ( प्रर्थात् कपालादि कारक विषयक बुद्धियां चूकि कारक विषयक है, इसलिये वह कारक- विषयक संस्कारका कारण नहीं है, किन्तु इस संस्कारों से उत्पन्न होने वाली स्मृतियों में होनेवाले ( कारक स्वरूप ) विषय ही उक्त बुद्धि के भी विषय हैं, इस लिये वह तविषयक CCO. Vasishtha Tripathi Collection. Digitized by eGangotri६३० गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली उदासीनबुद्धेरपि संस्कारं प्रति हेतुत्वात् । कारकविषया बुद्धिनिवर्तत इति चेन्न । उदासीनस्यापि कारकबोद्धत्वात् । न हि घटादिकमकुर्वन्तश्चक्रादिकं नेक्षामहे । हेतुभता कारकबुद्धिनिवर्तत इति चेन्न । श्रयतमानस्यापि दुःखहेतुभूताया अपि तद्धेतु- कण्टकस्पर्शबुद्धेरभावात् । संस्कार का कारण है ) । भ्रत: उपादानगोचरापरोक्षज्ञानवज्जन्यस्व रूप सकर्तृकस्व की व्यापकता अनित्यप्रयत्नपूर्वकत्व में प्रवश्य है । इस लिये उसके उपाधि होने में कोई भी बाघा नहीं हैं। सि० प० उदासीनबुद्धेरपि जो पुरुष घटादि के कारक दण्डादि को घटादि के उत्पादन के लिये व्यापृत नहीं करता है, ऐसे ‘उदासीन’ पुरुष को भी घटादि के दण्डादि ‘कारकों’ का प्रत्यक्ष होता है। ऐसा कोई नियम नहीं है, ‘उदासीनों’ को कारकों का प्रत्यक्ष ही न हो । अतः उदासीन पुरुष में उत्पन्न उक्त कारक विषयक प्रपरोक्ष बुद्धि से संस्कार की उत्पत्ति अवश्य होगी । इस संस्कार में उक्त बुद्धि मज्जन्यस्व रूप सकतृ कत्व ( साध्य ) तो है, किन्तु अनित्य प्रयत्नपूर्वकस्व रूप उपाधि नहीं है । अतः साध्यव्यापकत्व के न रहने से अनित्यप्रयत्नपूर्वकत्व प्रकृत अनुमान में उपाधि नहीं हो सकता । पू० प० हेतुभूता कारकबुद्धि। 10 घटादि कार्यों के उत्पादन में उदासीन पुरुष की कारक विषयक बुद्धि का विनाश प्रयत्न से भले ही संभव न हो, किन्तु जिस कारक विषयक बुद्धि से घटादि कार्यों की उत्पत्ति होती है, फलतः जो कारक विषयक बुद्धि घटादि कार्यों की ‘हेतु’ है, उस ‘हेतुभूता’ बुद्धि बाद कर्ता में प्रत्यक्ष का विनाश प्रनित्य प्रयत्न से ही होगा। क्योंकि उक्त ‘हेतुभूता’ बुद्धि के की उत्पत्ति अवश्य होती है । सकतु कस्व के विवरण भूत बुद्धिमज्जन्यत्व में जो बुद्धि शब्द प्रयुक्त है, उसके अर्थ रूप बुद्धि उक्त ‘हेतुभूता’ कारकविषयक अपरोक्ष बुद्धि हो है । इस प्रकार जहाँ भी बुद्धिमज्जन्यत्व (रूप सकतु कस्व ) है, उन सभी स्थानों में अनित्य प्रयत्नपूर्वकत्व’ अवश्य है । अतः प्रकृत उपाधि में साध्यव्यापकत्व की अनुपपत्ति नहीं है । सि० प० न, प्रयतमानस्यापि … … राह चलते हुए पुरुषों को कभी कभी अचानक ही काटों के उपर पैर पड़ जाता है, कांटों के उस स्पर्श से उन्हें दुःख पहुचता है । इस दुःख का कारण है कांटों के साथ पैर का स्पर्श । मतः उक्त स्पर्थं दुःख का ‘कारक’ है । एवं उक्त स्पर्श विषयक बुद्धि ‘कारकबुद्धि’ है। किन्तु इस कारक विषयक बुद्धि से प्रयत्न को उत्पत्ति नहीं होती है । अतः यह नहीं
पञ्चमः स्तबका ६३१ चिकीर्षा हेतु सुतोऽनुभवो निवर्तत इति चेन्न । केन चिन्निमित्तेनाकुर्वतोऽपि चिकीर्षातद्धेतुबुद्धिसम्भवात् । धनपेक्षकृति हेतु चिकीर्षाकारणं बुद्धिनिवर्तते इति चेत् । कहा जा सकता कि प्रयत्न की निवृत्ति से उक्त स्पर्श विषयक बुद्धि स्वरूप कारक विषयक बुद्धि की निवृत्ति अवश्य होती है । तस्मात् उक्त दुःख में कारक विषयक बुद्धिमज्जन्यत्व तो है, किन्तु अनित्य प्रयत्नपूर्वकत्व नहीं है । पतः साध्यव्यापकत्व के न रहने से प्रकृत मनुमान में अनित्यप्रयत्नपूर्वकत्व उपाधि नहीं हो सकता । पू० प० चिकीर्षा … कार्य के उत्पादन में कर्त्ता का उपयोग चिकीर्षा के द्वारा ही होता है । अतः सकतु कत्व के विबरण स्वरूप बुद्धि मज्जन्यत्व में विशेषणीभुत जो ‘बुद्धि’ है, उसको ‘चिकीर्षा’ का कारण स्वरूप होना आवश्यक है । कारक विषयक इस बुद्धि के वाद प्रयत्न की उत्पत्ति अवश्य होती है, अतः प्रयत्न के नाश से इस कारक विषयक बुद्धि का विनाश प्रवश्य होगा । इसलिये जो बुद्धि चिकीर्षा का ‘हेतु’ है, चिकीर्षा हेतुभूत इस बुद्धिमजम्यत्व रूप सकर्तृत्व जहाँ भी है, उन सभी स्थानों में अनित्यप्रयत्नपूर्वकत्व भी अवश्य है । अतः उपाधिदान असङ्गत महीं है । सि० प० केन चित् 10 1 कोई भी ऐसा नियम नहीं है कि बुद्धि एवं चिकीर्षा की उत्पत्ति के बाद कृति ( प्रयत्न ) की उत्पत्ति अवश्य हो । किसी प्रतिबन्धक के भा जाने से बुद्धि से चिकीर्षा की उत्पत्ति होने पर भी उसके वाद कृति एवं तज्जनित कारक के व्यापार की उत्पत्ति नहीं भी हो सकती है। अतः जिस पुरुष में कृति नहीं भी है, उस पुरुष में भी चिकीर्षा रह सकती है । इस पुरुष की बुद्धि चिकीर्षा का कारण अवश्य है, किन्तु इस ज्ञान से चूकि प्रयत्न (कृति) की उत्पत्ति नहीं होती है । अतः (चिकीर्षा के हेतुभूत ) इस ज्ञान की निवृति (विनाश ) को प्रयत्न विनाश प्रयोज्य नहीं कहा जा सकता । इस चिकीर्षा में ( जिससे प्रतिबन्धक वश प्रयत्न की उत्पत्ति नहीं हो सकी ) बुद्धिमज्जन्यत्व तो है, किन्तु अनित्य प्रयत्न पूर्वकत्व नहीं है । अतः प्रनित्य प्रयत्न पूर्वकत्व में साध्यव्यापकत्व के न रहने से उपाधित्व की अनुपपत्ति बनी हुई है । पू० प० अनपेक्षकृति हेतु कृति दो प्रकार की है ( १ ) कृतिसापेक्ष एवं (२) कृति निरपेक्ष, जिस समय औषध के निर्माण का जनक वैद्य का प्रयत्न (कृति) किसी दूसरे प्रयत्न (कृति) की पपेक्षा नहीं रखता है, उस प्रयत्न की उत्पत्ति श्रोषध के उपादान विषयक उस अपरोक्ष ज्ञान से उत्पन्न होता, जिसमें औषध निर्माण के उपयुक्त गुरु के उपदेश की भी अपेक्षा
६३२ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली न तहि बुद्धिमानम् । तथा चानित्यप्रयत्न हेतुकत्व प्रयुक्तं विशिष्टप्रयत्न- चिकीर्षा हेतु बुद्धिमत्पूर्वकत्वमिति तन्निवृत्तौ तदेव निवर्ततां न तु बुद्धिमत्पूर्वकत्वमात्रम्, तत्र तस्याप्रयोजकत्वादितिबुद्धिमत्पूर्वकत्वसाध्यपक्षे परीहारः । सकतृ कमिति प्रयत्न - प्रधानपक्षे शंकेव नास्ति, तस्यैव तत्रानुपाधित्वात् । होती है । किन्तु किसी दूसरे कृति की अपेक्षा नहीं होती है, किन्तु उसी श्रौषध का निर्माण जब बेद्य का कोई साधारण भृत्य करता है, तो उसके प्रयत्न (कृति) में औषधनिर्माण करने वाले वैद्य के कृति की भी अपेक्षा होती है । सकतुकत्व के विवरण रूप बुद्धिज्जन्यत्व घटक अपरोक्षज्ञान मात्र सापेक्ष एवं सभी कृति से ‘मनपेक्ष’ कृति की उत्पत्ति उपादान विषयक केवल अपरोक्ष ज्ञान से ही होगीं । ( यह अपरोक्षज्ञान कर्तृत्व का प्रयोजक है ।) किन्तु चीकीर्षा यदि केवल अपरोक्षज्ञान से युक्त उक्त पुरुष के आदेश मात्र से उत्पन्न होगी, तो आज्ञा देनेवाले पुरुष की कृति से सापेक्ष यह कृति केवल उक्त पुरुष में रहने वाले पुरुष के ज्ञान से उत्पन्न होगी । इस प्रकार अपरोक्ष ज्ञान से जहाँ चिकीर्षा के द्वारा कृति की उत्पत्ति होगी, वहाँ चिकीर्षा एवं कृति इन दोनों के कारणीभूत उक्त मपरोक्षज्ञान की निवृत्ति अवश्य हो जायगी । अतः जो उक्त अपरोक्ष ज्ञान से उत्पन्न होगा, उसकी उत्पत्ति में कृति की भी अपेक्षा अवश्य होगी । अतः जो मपरोक्षबुद्धिमञ्जन्य होगा, वह अनित्यप्रयत्नजन्य भी अवश्य होगा। इस प्रकार कर्तृत्व की प्रयोजिका चिकीर्षा के द्वारा उक्त अपरोक्ष बुद्धिमअन्यत्व रूप सकतु कत्व की व्यापकता मनित्यप्रयत्नपूर्वकत्व में अवश्य है, क्योंकि उक्त अपरोक्षबुद्धि प्रयत्न का कारण है । अतः कार्यत्व हेतुक प्रकृत ईश्वरानुमान में प्रवश्य ही अनित्यप्रयत्नपूर्वकत्व’ रूप उपाधि दोष है । सि० न० तहि परीहारः तो फिर यह कहिये कि अनित्यप्रयत्न की निवृत्ति से सभी बुद्धियों की निवृत्ति नहीं होती है, किन्तु “विशिष्टबुद्धि की अर्थात् उक्त अनपेक्षकृति एवं चिकिर्षा के कारणीभूत ‘विशेष प्रकार का बुद्धियों की ही निवृत्ति अनित्यप्रयत्न से होती है । अतः उक्त अनपेक्षकृति एवं चिकीर्षा के कारणीभूतबुद्धिमज्जन्यत्व ही उक्त अनित्य प्रयत्नपूर्वकत्व का प्रयोज्य है, केवलबुद्धिमज्जन्यत्व नहीं । अतः उक्त ‘विशिष्ट’ की ही व्यापकता भी अनित्य प्रयत्नपूर्वकत्व रूप उपाधि में है, अतः उक्त विशिष्टसाध्यक अनुमिति में अनित्यप्रयत्प्रपूर्वकत्व उपाधि हो सकती है। अभी तो मेरे अनुमान में केवल उपादान विषयक (गोचर ) प्रपरोक्षबुद्धिमजन्यत्व ही साध्य है, उसमें यह अनित्यप्रयत्नपूर्वकत्व उपाधि नहीं हो सकता ।
पञ्चमः स्तवकः ६३३ ग ग से i ज्ञ च IT T ㄡˇ त व न्य एवेन सकर्श कत्व यदि उक्त बुद्धिमजन्यत्व रूप रहे, तदनुसारी सकरी कत्व साध्यक अनुमान में यदि ‘अनित्यप्रयत्नपूर्वकत्व’ को कोई उपाधि रूप से उपस्थित करे, उसका ‘परीहार’ ही ऊपर कहा गया है । सकत्त’ कमिति… 6 किन्तु कृति से युक्त पुरुष ही ‘कर्तृ’ शब्द का मुख्यार्थ है । तदनुसार ‘कृतिमज्जन्यत्व’ ही मुख्य ‘सकर्तृत्व’ है । जो कृतिमज्जन्य होगा, वह अवश्य हो कृतिजन्य भी होगा । प्रतः जिस वस्तु में कृतिमज्जन्यत्व की सिद्धि होगी, उस वस्तु में कृतिजन्यस्व की सिद्धि भी समझ लेनी चाहिये । अतः प्रकृत में ‘कर्तृ’ शब्द को उक्त मुख्य अर्थ परक मानने से प्रकृत अनुमान का साध्य ‘प्रयत्नवज्जन्यत्व’ स्वरूप निष्पन्न हो जाता है । इसलिये प्रयत्नसाध्यक अनुमान में कथित ‘अनित्यप्रयत्नपूर्वकत्व’ उपाधि हो ही नहीं सकता। क्योंकि साध्य एवं उपाधि दोनों फलतः प्रभिन्न ही ठहरते हैं । ‘स्व’ साध्यक अनुमान में ‘स्व’ उपाधि नहीं हो सकता ।’ R पूँ० प० एतेन … कृति ही कार्यों का साक्षात् कारण है। उपादान विषयक ( गोचर ) अपरोक्ष बुद्धि उक्त कृति के उत्पादन द्वारा कार्यों का ( परम्परा से ) कारण है । प्रतः कृति से युक्त पुरुष ही ‘कर्तृ” शब्द का मुख्य अर्थ है, तदनुसार ‘कृतिविशिष्ट पुरुषजन्यत्व’ ही ‘सकस’ करव’ शब्द का प्रधान अर्थ है । एवं ‘उपादानगोचरा परोक्षबुद्धिंमज्जन्यत्व’ सकर्तृकत्व शब्द का गौण १. २. ‘उप समीपवर्त्तिनिं आदधाति स्वीयम् धर्ममित्युपाधि:’ इस व्युत्पत्ति के अनुसार ‘जो अपने समीप की वस्तु में ‘स्व’ में रहनेवाले धर्म का ‘प्रधान’ करे, वही ‘उपाधि’ शब्द की मुख्य अर्थ है । जवाकुसुम अपने समीप के स्फटिक में स्वगत रक्तिमा कां घाधान करता है, अतः वह उपाधि है । ‘स्व’ का समीपवर्त्ती ‘स्व’ नहीं हो सकता, क्योंकि अनेक वस्तुओं में से ही कोई एक दूसरे का समीप हो सकता है । अतः ‘स्व’ साध्यक अनुमान में ‘स्व’ उपाधि नहीं हो सकता । इस ‘एसेन’ पंद का अन्वय धागे के ‘निरस्तम्’ पद के साथ है । ‘योहि’ इत्यादि सन्दर्भ के द्वारा कथित समाधान ही ‘एतेन’ पद से अभीष्ट है । अर्थात् ‘बोऽहि’ इत्यादि सन्दर्भ के द्वारा कथित समाधान से ‘शरीर सम्बन्ध’ इत्यादि सन्दर्भ से कथित पूर्वपक्ष को समाहित समजना चाहिये । ८०
६३४ गद्य पद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली शरीरसम्बन्धे बुद्धिगतका यंश्ववत् बुद्धिसम्बन्धे प्रयत्नगत कार्यं त्वमुपाधिरिति निरस्तम् । प्रर्थ है । ( अर्थात् प्रधान कर्तृस्व है कृति स्वरूप, एवं अप्रधान कर्तृत्व है उक्त अपरोक्षबुद्धि रूप ) । प्रत: कार्यों में सकर्तृकत्व की सिद्धि से मुख्य रूप से ‘कृतिभज्जन्यत्व की ही सिद्धि होगी । किन्तु कृति चूकि बुद्धि से उत्पन्न होती है, अतः कृतिमज्जन्यत्व को सिद्धि के बाद उस कृतिमज्जन्यत्व से कार्यों में प्रपरोक्षबुद्धिमज्जन्यत्व की भी सिद्धि हो जायगी। अतः जो प्रयत्न स्वयं ‘कार्य’ स्वरूप होगा, उस प्रयत्न से उत्पन्न कार्य ही अपरोक्षबुद्धिजन्य भी होगा । ईश्वर का प्रयत्न तो ‘नित्य’ है किसी का ‘कार्य’ नहीं है, ईश्वर की किसी भी अपरोक्षबुद्धि से प्रयत्न की उत्पत्ति नहीं होती है, अतः क्षित्य रादि कार्यों में ईश्वर प्रयत्न जन्यत्व की सिद्धि हो जाने पर भी उन कार्यों में अपरोक्षबुद्धिजन्यत्व की सिद्धि नहीं हो सकती । इस प्रकार क्षित्यङ्करादि कार्यों में सकर्तृकत्व की सिद्धि से ‘कृतिविशिष्ट पुरुष’ की ही सिद्धि हो सकती है, उक्त अपरोक्षबुद्धि से युक्त सर्वज्ञ पुरुष की नहीं । अर्थात् “क्षित्यङ्करादेः कर्ता पुरुषः जित्याद्युत्पादनसमर्थक्षित्याद्युपादगोचर । परोक्ष बुद्धिमान् क्षित्यादिजनक प्रयत्नवत्त्वात् " इस अनुमान में ‘प्रयत्नगतकार्यत्व’ उपाधि है । (फलता कार्यप्रयत्न उपाधि है) क्योंकि जिन कुलाल- कुविन्दादि पुरुषों में उक्त बुद्धि रूप साध्य है, उनमें ‘कार्यत्वविशिष्ट प्रयत्न रूप उपाधि भी है । प्रत| यह ‘कार्यप्रयत्न’ साध्य का व्यापक है । एवं क्षित्यादिजनक प्रयत्न रूप हेतु है ईश्वर में, वहां अनित्य प्रयत्न रूप उपाधि नहीं है । अतः हेतु का अव्यापक भी है । इसलिये प्रकृत ईश्वरानुमान उपाधि से दूषित है । पू० प० शरीर सम्बन्धे क्षित्यादि कार्यों में ईश्वर सिद्धि के प्रसङ्ग में जब 114 बुद्धिजन्यत्व की सिद्धि के द्वारा उस बुद्धि के प्राश्रय रूप में नैयायिकों के उपर ‘ईश्वरः शरीरी बुद्धिमत्वादस्मदादिवत्’ इस अनुमान के द्वारा ईश्वर में शरीर सम्बन्ध की प्रापत्ति की गयी थी, तो उक्त विरोधी अनुमान में ‘कार्यस्वविशिष्टबुद्धि’ को उपाधि के रूप में उपस्थित किया गया था। क्योंकि जीवों में ‘कार्यबुद्धि’ का सम्बन्ध भी है। एवं केवल बुद्धि रूप हेतु ईश्वर में है, किन्तु वहाँ ‘कार्यबुद्धि’ नहीं है । अत: ‘कार्यबुद्धि साध्य का व्यापक, एवं साघन का प्रव्यापक दोनों ही है । अत । जिस प्रकार नैयायिकों के मत से ईश्वर में बुद्धिमत्व हेतु के द्वारा शरीरसम्बन्ध की सिद्धि इसलिये नहीं होती है कि उसमें ‘कार्यत्वविशिष्टबुद्धि’ रूप उपाधि दोष है, उसी प्रकार ईश्वर के ‘कर्त्तृ’स्वरूप’ कृति की सिद्धि होने पर भी उस प्रयत्न ( कृति ) से ईश्वर में बुद्धि की सिद्धि नहीं हो सकती । ( ईश्वर में मुख्यकर्तृकत्व स्वरूप कृति की सिद्धि से उनमें बुद्धि नहीं सिद्ध हो सकती ) केवल कृति से युक्त ( कतुस्वविशिष्ट ) ईश्वर की ही सिद्धि होगी ‘सर्वश परमेश्वर’ की नहीं ।
द T 1 न व है में. ’ नी में ’ वि र की ज्ञ पचमः स्तबका ६३५ यो हि बुद्धधा शरीरवच्छरीरनिवृत्त्या बुद्धिनिवृत्तिवद्वा प्रयत्नेन बुद्धिस्, बुद्धिनिवृत्या प्रयत्ननिवृति साधयेत् स एवं कदाचिदुपालभ्यः । वयं त्ववगतहेतुभावं कलितसकलशक्तिकारकप्रयोक्तारं कार्यादेवानुमिमाना नैवमास्कन्दनीयाः, तत्र तस्यानुपाधित्वात् । न च प्रयत्न आत्मलाभार्थमेव मतिमपेक्षते, विषयलाभार्थं - मध्यपेक्षणात् । सि० प० यो हि जो कोई बुद्धि रूप हेतु से शरीर की सिद्धि की तरह प्रयत्न रूप मुख्यकत्तु स्व हेतु से ईश्वर मैं बुद्धि की सिद्धि लिये उद्यत हो, अथवा घटादि जड़ पदार्थों में शरीर के अभाव से प्रयत्न के प्रभाव की सिद्धि के लिये तत्पर हो। वही इस अभियोग का किसी प्रकार पात्र हो सकता है । हम ( नैयायिक ) तो कार्यत्व हेतु के द्वारा सभी जड़ कारणों के ‘कारणत्व’ रूप ‘शक्ति’ से अभिज्ञ एवं उन सभी जड़ कारणों को कार्यों की उत्पत्ति के अनुकूल रूप से व्यापृत करने वाले’ ‘कर्ता’ पुरुष का अनुमान करते हैं । कारणों को उपयुक्त रूप से प्रयोग करने की क्षमता रूप ‘प्रयोक्तृत्व’ के ( १ ) उपादानगोचरापरोक्षज्ञान (२) उपादनगोचर ( विषयक ) चिकीर्षा एवं (३) आदानविषयक कृति इन तीनों में से प्रत्येक स्वतन्त्र रूप से परस्पर निरेपेक्ष होकर लक्षण हैं । अर्थात् उक्त प्रयोक्तृत्व के ये तीनों स्वतन्त्र लक्षण है । प्रतः क्षित्य रादि में कार्यस्व हेतु से बुद्धिजन्यत्व की सिद्धि के वाद उस बुद्धि के आश्रय रूप पुरुष की कल्पना करते हैं, जो फलतः सभी विषयों के ज्ञान से युक्त ( सर्वज्ञ ). सिद्ध होते हैं । अतः ईश्वर में प्रयत्न के द्वारा बुद्धि की सिद्धि हम लोगों को अभिप्रेत ही नहीं है । कार्यश्व हेतु से बुद्धि के अनुमान के वाद उस बुद्धि के आश्रय रूप जिसे सर्वज्ञ परमेश्वर का अनुमान होगा, उस अनुमान में कथित ‘कार्यस्वविशिष्ट प्रयत्न’ उपाधि नहीं हो सकता । यह तो हुआ एक समाधान । सि० प० न च प्रयत्नः …… इसी प्रश्न का दूसरा समाधान यह है कि प्रयत्न को बुद्धि की अपेक्षा दो प्रकारों से संभव है ( १ ) उत्पत्ति के लिये (२) एवं विषय लाभ के लिये । अस्मदादि में जिस विषय का प्रयत्न उत्पन्न होगा, उससे पहिले उस विषय की बुद्धि अवश्य रहेगी । इस प्रकार प्रयत्न की उत्पति में बुद्धि की अपेक्षा है । प्रयत्न में बुद्धि की अपेक्षा इसलिये भी है प्रयत्न स्वयं सविषयक पदार्थ नहीं है’, ज्ञान के विषय से ही वह भी सविषयक कहलाता है ।’ अतः श्रस्मदादि ज्ञान की विषयता से प्रयत्न में विषयता का उपवहार ‘याचितमंडन’ न्याय से होता है। जैसे कि कोई गरीव स्त्री स्वयं ‘मंडन’ अर्थात् भूषण के न रहने पर कहीं
६३६ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली ततः प्रयत्नाद्बुद्धिः, तन्निवृत्तेश्च प्रयत्न निवृत्तिः सिद्धयत्येवेति विस्तृतमन्यत्र । कार्यबुद्धिनिवृत्या तु कार्यं एव प्रयत्नो निवर्तते, न नित्यः । नित्ये च प्रयत्ने नित्यैव बुद्धिः प्रवर्तते, नानिष्या । न हि तथा तस्य विषयलाभसम्भवः, शरीरादेः प्राक् तदसम्भवे देहानुपपत्तौ सर्वानुपपत्तेः । शरीराजन्यत्ववच्चाऽनित्यप्रयत्न जन्यत्वमिति संक्षेपः ॥ २ ॥ तर्काभासतयाऽन्येषां तर्काशुद्धिरदूषरपस् । अनुकूलस्तु तर्कोऽत्र कार्यलोपो विभूषरणम् ॥ ३ ॥ के प्रनित्य प्रयत्नों में बुद्धि की अपेक्षा उक्त दोनों ही प्रकारों से है । किन्तु ईश्वर का प्रयत्न चूं कि नित्य है, अतः उसे उत्पादक रूप में बुद्धि की अपेक्षा नहीं है, किन्तु विषय संपादन के लिये ईश्वर के प्रयत्न को भी बुद्धि की अपेक्षा प्रवश्य है । इतना अन्तर अवश्य है कि ईश्वर के नित्य प्रयत्न के विषय संपादन के लिये ईश्वर की अस्मदादि के नित्य प्रयत्न को विषय संपादन के लिये भी स्वगत अपेक्षा है । इसी अभिप्राय से प्रयत्न से बुद्धि की निवृत्ति किरणवली, आत्मतत्वविवेकादि ग्रन्थों में उपपादित है । नित्यबुद्धि की ही अपेक्षा होती है । एवं अनित्य बुद्धि की ही सिद्धि, एवं बुद्धि की निवृत्ति से प्रयत्न की ( अर्थात् अनित्य बुद्धि की निवृत्ति से अनित्य प्रयत्न ही निवृत्त हो सकता है । एवं नित्यप्रयत्न में सविषयत्व का संपादन नित्यबुद्धि से ही होगा, अनित्यबुद्धि से नहीं । के क्योंकि नित्यप्रयत्न के विना जगत का निर्माण की उत्पत्ति नहीं हो सकती । फलतः विना देह अर्थात् सृष्टि में शरीर की ही उत्पत्ति सब से पूर्व की उत्पति अनुपपन्न हो नहीं हो सकता । विना शरीर के अनित्यबुद्धि जायगी । तस्मात् जिस संसार का निर्माण ही संभव नहीं होगा । स्वीकार न करने पर अन्य सभी वस्तुओं प्रकार ईश्वर साधक प्रस्तुत अनुमान में • शरीराचम्यत्व उपाधि नहीं हो सकता, उसी प्रकार अनित्यप्रयत्नजन्यत्व मी उपाधि नहीं होगा ) ॥ २ ॥ तर्कामा सतयान्येषास् ( ’ क्षित्यंकुरादिकं सकर्तृकं कार्यस्याद् घटवत्’ ईश्वर साधक इस प्रनुमान में पूर्व पक्षवादी यह प्राक्षेप करते हैं कि जो किसी कार्य का ‘कर्ता’ होता है, वह शरीरी अवश्य होता है । न्यौता में जाने के लिये किसी से जाती है। उसी प्रकार प्रयत्न भी विषय होता है । भूषण की याचना कर उस भूषण से बुद्धि की विषयता से ही सविषयकत्व मंडित होकर व्यवहार की
पञ्चमः स्तबक! कारकव्यापारविगमे हि कार्यानुत्पत्तिप्रसंग: । ६३७ क्षित्यंकुरादि का यदि कोई कर्त्ता सिद्ध भी होंगे, तो उन्हें भी शरीर से युक्त ही होना चाहिये । अशरीरी कर्ता की सिद्धि संभव नहीं है । अत: ‘ईश्वरो यदि कर्त्ता स्यात् शरीरी स्यात्’ इस प्रकार के प्रतिकूल तर्क के द्वारा क्षित्यंकुरादि के कर्त्ता में प्रशरीरित्व के व्याघात से ईश्वर की सिद्धि भी व्याहत हो जायगी। इस आक्षेप के प्रसंग में सिद्धान्तियों का उत्तर है कि ) तर्क में भी विशेष्य का अपने विशेषण ( विशेष्यतावच्छेदक ) से युक्त होकर पहिले से ज्ञात होना आवश्यक है। किसी भी पुरुष को घूमत्व रूप विशेषण से युक्त घूम का जबतक ज्ञान नहीं रहता है, तब तक वह पुरुष ‘धूमो यदि वह्निव्यभिचारी स्याद् वह्निजन्यो न स्यात्’ इस प्रकार का ‘तर्क’ नहीं कर सकता । प्रकृत ईश्वरानुमान के विरोध में जिस तर्क को उपस्थित किया गया है, उस वर्क के विशेष्य हैं ‘ईश्वर’ । वे पूर्वपक्षवादी के मत से सिद्ध नहीं है । अतः ईश्वरत्व रूप विशेषण से युक्त ईश्वर रूप विशेष्य का ज्ञान पूर्वपक्षवादी को नहीं है । अतः कथित तर्क शुद्ध न होकर ‘तर्काभास’ है, क्योंकि उसके पहिले ईश्वर रूप विशेष्य का ईश्वरत्व रूप विशेष्यतावच्छेदक रूप से ज्ञान नहीं है । भवः उक्त तर्क, तर्क ही नहीं है, किन्तु तर्कामास’ है । अथवा ‘अशुद्ध’ तर्क है । इस प्रकार के तर्कों में किसी अनुमान के प्रतिरोध की क्षमता नहीं है । सुतराम इस तर्क से ईश्वर की सिद्धि भी व्याहत नहीं हो सकती । प्रकृत ईश्वरानुमान में केवल प्रतिकूल तर्क की असत्ता हो नहीं है, किन्तु अनुकूल तर्क की सता भी है, जिससे ‘पृथिव्यादिदं कार्यमस्तु सकर्तृकं मास्तु’ अर्थात् पृथिव्यादि कार्य होते हुये भी अकर्तृक हों । इस व्यभिचार शङ्का का निवारण हो जाता है । क्योंकि यह सभी जानते हैं कि कारणों के न रहने से कार्य की उत्पत्ति नहीं होती है । ‘कर्ता’ भी कार्यो का एक ‘कारण’ है । अत: ‘कार्य बिना कर्त्ता के ही उत्पन्न हों’ यह कहना ‘कार्य बिना ‘कार्य’ होने पर भी यदि कारण के ही उत्पन्न हों’ इसके समान ही है । अतः पृथिव्यादि के उनका कोई कर्त्ता न हो, तो इस का यही अर्थ होगा कि ‘पृथिव्यादि उत्पन्न हो न हों’ । तस्मात् ‘पृथिव्यादिकं यदि अकर्तृकं स्यादनुत्पन्नं स्यात्’ इस अनुकूल तर्क के रहने से उक्त व्यभिचार शता का भी कोई अवसर नहीं है । सि० प० कारक व्यापार विगमे’ हि- ‘कारकव्यापार’ अर्थात् कारणों के व्यापार के न होती है । ‘कर्ता’ भी कार्यों का एक कारण है, अतः उसके 9. रहने पर कार्य की उत्पत्ति नहीं व्यापार के न रहने पर भी कार्य इस कारिका के पूर्वार्द्ध का अर्थ अत्यन्त स्फुर रहने के कारण आचार्य ने उसकी व्याक्या को छोड़ उक्त सन्दर्भ के द्वारा मलोक के उत्तरार्द्ध की ही व्याख्या आरम्भ की है।
६३८ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली चेतना चेतन व्यापारयोर्हेतुफलभावावधारणात् कारणान्तराभाव इव कमावे कार्यानुत्पत्तिप्रसंगः, कतुरपि कारणत्वात् । यस्त्वाह, प्रत्यक्षानुपलम्भाभ्यां तदुत्पत्तिनिश्चयो दृश्ययोरेव न स्वदृश्ययोः । प्रत्क्षस्यानुपलभ्भस्य च तावन्मात्रविधिनिषेधसमर्थत्वात्, घुमाग्निवत् । की उत्पत्ति नहीं होती है। पृथ्यायादि कार्यों का यदि कोई कर्ता ही न रहे, तो कर्ता का व्यापार अवश्य ही नहीं रहेगा। इस प्रकार कर्ता के न रहने पर कार्यों की उत्पत्ति हो म स्वरूप निष्पन्न होता है कि हो सकेगी। तदनुसार प्रकृत ईश्वरानुमान के अनुकूलतर्क का यह ‘पृथिव्यादिकं यदि प्रकर्तृ’ कं स्यादनुत्पन्नं स्यात्’ । ( इस प्रसङ्ग में पूर्वपक्षवादी कह सकते हैं कि ‘कर्ता’ रूप ‘कारक’ के व्यापार के न रहने पर भी उपादानकारण प्रभृति अन्य कारकों के व्यापारों से ही पृथिव्यादि कार्यों की उत्पत्ति हो । अतः केवल कर्ता के प्रभाव से कार्यों की अनुत्पत्ति की आपत्ति नहीं दी जा सकती। इस आक्षेप का यह समाधान है कि :- ) चेतनाचेतन … दण्डादि अचेतन कारकों के व्यापारों के कुलालकुविन्दादि चेतन कारकों के व्यापार कारण हैं । अतः जबतक कर्ता रूप चेतन कारक में व्यापार नहीं होगा, तबतक पृथिव्यादि कार्यों के अचेतन कारणों में कार्यों के उपयुक्त कोई व्यापार हो ही नहीं सकता । एक बात । दूसरी बात यह भी है कि किसी एक भी कारण की असत्ता कार्य के अनुत्पत्ति के लिये पर्याप्त है । अता कर्त्ता रूप एक ही कारण के न रहने पर भी अन्य सभी कारणों के रहते हुए भी कार्यों की उत्पत्ति रुक जायगी । जैसे कि कुलालादि कारणों के रहते हुए भी दण्ड रूप एक भी कारण के न रहने पर घट की उत्पत्ति रुक जाती है । पृ० प० यस्तु” 1 ( इस प्रसङ्ग बौद्धों का आक्षेप है कि ) ‘प्रत्यक्ष’ अर्थात् ‘अम्वय’ एवं ‘अनुपलम्भ’ अर्थात् व्यतिरेक इन दोनों से दृश्य कार्य के दृश्य कारण की ही सिद्धि हो सकती है । अदृश्य कार्य के अदृश्य कारण की तो कदापि नहीं, प्रत्युत कार्यं और कारण इन दोनों में से किसी एक के अदृश्य होने पर भी उन दोनों के कार्यकारणभाव का निर्णय नहीं हो सकता। क्योंकि ‘प्रत्यक्ष’ अर्थात् प्रन्वय केवल दृश्य पदार्थ का ही नियामक है, एवं ‘अनुपलम्म’ ( व्यतिरेक) भी केवल दृश्य पदार्थ का ही निषेधक है। जैसे कि दृश्य घूम केवल दृश्य वह्नि का ही नियमन J क
पञ्चमः स्तबक ६१९ कम्पमारुतवच्च । न हि घूमा कार्योऽनलस्येति उदयंस्यापि न हि शाखा- कम्पो मातरिश्वन इति स्तिमितस्यापि स्यात्, किन्तु भौमस्पृश्ययोरेव । तथेहा पि शरीरवत एव कारकत्वमवगन्तुमुचितं नान्यस्येति । तदसत् । प्रत्यक्षाऽनुपलम्भौ हि दृश्य विषयावुपायस्तदुत्पत्तिनिश्चये, न तु दृश्यतेव तत्रोपेया । किं नाम हृदयाश्रितं सामान्यद्वयम् । तदालीढस्य हि तदुत्पत्तिनिश्चये दृश्यमदृश्यं वा सर्वमेव तज्जातीयं तदुत्पत्तिमत्तया निश्चितं भवति । करता है ( दृश्य धूम से दृश्य वह्नि का ही अनुमान होता है ) । यदि ऐसा न हो ( अर्थात् दृश्य धूम से दृश्यादृश्य साधारण सभी वह्निओं की सिद्धि हो ) तो पर्वत में घूम से अदृश्य जठराग्नि की भी सिद्धि माननी होगी । ( दृश्य कार्य से दृश्य कारण के ही अनुमान का नियम यदि न मानें तो ) शाखा के कम्प से जिस प्रकार ‘मातरिश्वा’ रूप ( चलनशील ) वायु का अनुमान होता है, उसी प्रकार शाखा के कम्प से ‘स्तिमित’ वायु का अर्थात् चलनशून्य वायु का भी अनुमान मानना होगा । यदि दृश्य कार्य से उसके दृश्य कारण के सजातीय अहश्य कारण का भी अनुमान हो तो शाखा के कम्प से ‘स्तिमित’ अर्थात् प्रत्यक्ष के अयोग्य वायु के अनुमान में कौन सी बाघा है ? तस्मात् प्रत्यक्ष ( अन्वय) एवं ‘अनुपलम्भ’ ( व्यतिरेक ) ये दोनों दृश्य कार्य एवं दृश्य कारण इन दोनों की परम्परा के ही ज्ञापक हैं । सुतराम् जिस प्रकार हृश्य धूम से दृश्य भीमवह्नि का ही अनुमान होता है, एवं शाखा के कम्प से ‘मातरिश्वा’ रूप दृश्य वायु का ही अनुमान होता है, उसी प्रकार दृश्य पृथिष्यादि में रहनेवाले कार्यत्व हेतु से प्रत्यक्ष के विषय एवं शरीर से युक्त कर्ता का ही अनुमान हो सकता है, अप्रत्यक्ष अशरीरी कर्ता का नहीं । सि० प० तदसत् प्रत्यक्ष ( अन्वय) एवं अनुपलम्भम ( व्यतिरेक ) इन दोनों से ‘कारण से दृश्य कार्य की उत्पत्ति होती है’ केवल यह ‘निश्चय’ ही उत्पन्न होता है । किन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि उक्त मन्वय और व्यतिरेक से जिस दृश्य कार्य की उत्पत्ति का निश्चय होगा, उसके कारण को मी दृश्य मानें। किं वा कोई ऐसा साधारण धर्म है कारण दोनों में ही रहे । जिस ‘रूप’ से जिस वस्तु में जिस ‘धर्म’ से भी नहीं जो कार्य और युक्त कार्य की कारणता गृहीत रहती है, कार्य में रहने वाले उस धर्म से युक्त जितने भी कार्य व्यक्तियाँ है— चाहे वे दृश्य हों, अथवा अदृश्य हों, वे सभी कार्य कारण में रहने वाले उस रूप से युक्त किसी भी कारण व्यक्ति से उत्पन्न होते हैं । CCO. Vasishtha Tripathi Collection. Digitized by eGangotri६४० गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली यथा स्पर्शरूपरसगन्धानामुत्तरोत्तर निमित्ततायां तव, अस्माकचातीन्द्रियसम- वायादिसिद्धौ । न चेदेवमुदाहृतयोरेव दहन पवनयोरालोकरूपवतोस्तदुत्प त्तिनिश्चये कथमनालोकनिरस्तरूपयोः सिद्धिः, यदुदर्यास्तिमितसाधारणी सिद्धिः स्यादिति । तद्भवेदप्येवं यदि शरीरादिकं विना कार्यमिव भौमं स्पर्शवद्वेगवन्तञ्च विनाऽग्नि- मात्रात्, पवनमात्राद्वा घूमकम्पो स्याताम् । न त्वेवम् । यथा स्पर्श रूप जैसे कि आप ( बौद्धों के ) मत से साधारणजनों के इन्द्रिय से गृहीत होने वाले गन्ध का कारण उससे सूक्ष्म रूप है । एवं रस की अपेक्षा सुक्ष्म रूप रस का कारण है । एवं रूप की अपेक्षा सूक्ष्म स्पर्थ रूप का कारण है । अथवा जिस प्रकार हम लोगों के इन्द्रिय से ग्राह्म मत से गुण क्रियादि की बुद्धि के द्वारा अतीन्द्रिय समवाय की सिद्धि होती है, उसी प्रकार हृश्य पृथिव्यादि कार्यों के प्रदृश्य एवं प्रशरीरी परमेश्वर कारण हो सकते हैं । पू० प० न चेदेवम् यदि दृश्य कार्य से अदृश्य कारण का भी अनुमान हो, शाखा के कम्प से वायु सामान्य की सिद्धि के द्वारा जिस प्रकार इन्द्रियग्राह्य ‘मातरिश्वा’ रूप वायु का अनुमान होता है, उसी प्रकार इन्द्रियाग्राच ‘स्तिमितवायु’ का भी अनुमान मानना होगा । एवं घूम से वह्निसामान्य की सिद्धि के द्वारा जिस प्रकार आलोक से युक्त भौम वह्नि का अनुमान होता है, उसी प्रकार ‘ओदर्य वह्नि’ का भी अनुमान स्वीकार करना होगा । इसका कौन बाधक होगा ? सि० प० तद्भवेदपि …. घूम वह्नि का वायु का कार्य है, अतः कार्य है, शाखा के से घूम की उत्पत्ति नहीं होती है । अतः घूम से वह्नि का अनुमान होता है । एवं शाखाकम्प कम्प से वायु का अनुमान होता है। किन्तु वह्निसामान्य एवं वायुसामान्य से शाखा में कम्प की उत्पत्ति नहीं होती है । अतः जिस प्रकार शरीर के बिना घटादि कार्यों की उत्पत्ति नहीं होती है, उसी रहित श्रीदर्यवह्नि के बिना यदि धूम की उत्पत्ति नहीं हो बिना शाखा में कम्प की कम्प से स्तिमितवायु का प्रकार स्फुटतर स्पर्श एवं वेग से पाती, किं वा ‘स्विमित’ वायु के मौदर्यवह्नि का, अथवा शाखा के प्रकृत में स्थिति सर्वथा भिन्न है। घूम भौमवह्नि का कार्य है, उत्पत्ति रुक जाती, तो धूम से अनुमान हो सकता था । किन्तु औदर्यवह्नि का नहीं । अंतः घूम
सम- चचये ति । अग्नि- वाले कारण गों के होती हो वायु नुमान गा। का इसका कम्प मान्य नहीं उसी हीं हो म से किन्तु घूम पञ्चमः स्तबक ६४१ न चैवं चेतनव्याभिचारोऽपि शक्याभिधान इत्यलं बालप्रलापानां समाधानेः । तदुत्पत्तेरसिद्धावपि तत्तदुपाधिविधूननेन स्वाभाविकत्व स्थितौ यदि कर्तार- मतिपत्य कार्यं स्यात्, स्वभावमेवातिपतेदिति कार्यंविलोपप्रसङ्ग इति । एतच्च सर्वमात्मतत्वविवेके निपुणतरमुपपादितमिति नेह प्रतन्यते । एव सिद्धे प्रतिबन्धे न प्रतिबन्ध्यादेः क्षुद्रोवद्रवस्यावकाशः । प्रतिबन्धसिद्धा- विष्टापादनात् । तदसिद्धो तत एव तत्सिद्धेरप्रसङ्गादिति । से भीमर्वाह्न का ही अनुमान होता है, प्रौदर्यवह्नि का नहीं । इसी प्रकार शाखाकम्प मातरिश्वा रूप वायु का ही कार्य है, स्तिमित बायु का नहीं । अतः शाखा के कम्प से मातरिश्वा रूप वायु का ही अनुमान होता है, स्तिमितवायु का नहीं । किन्तु जिस प्रकार “बिना ओदर्यवह्नि के ही घूम की उत्पत्ति होती है। किं वा बिना स्तिमितवायु के ही शाखा में कम्प की उत्पत्ति होती है” ये व्यभिचार प्रदर्शित हो सकते हैं, उसी प्रकार “कार्य विना उत्पन्न होते हैं” इस प्रकार का व्यभिचार प्रदर्शित नहीं किया जा चेतन कारण के ही सकता । अत: चेतन सभी कार्यों का कारण है । सुतराम् पृथिव्यादि कार्यों से तदुपयुक्त चेतन पुरुष के अनुमान में कोई बाधा नहीं है । इस प्रकार के बालकों के प्रलाप सहरा आक्षेपों का इतना ही समाधान बहुत है । सि० प० न तदुत्पत्तेरसिद्धावपि –… - यदि अदृश्य कर्त्ता के द्वारा दृश्य पृथिव्यादि कार्यों की उत्पत्ति सिद्ध न भी हो सके, तथापि सककत्व के साथ कार्यत्व की स्वाभाविकता में कोई व्याघात नहीं होता । भर्थात् ( १ ) स्वाभाविक और ( २ ) प्रोपाधिक भेद से ‘सम्बन्ध’ के जो दो प्रकार है, उनमें से कार्यत्व रूप हेतु में सकर्रा कत्व रूप साध्य का पहिला सम्बन्ध ही है, दूसरा नहीं । यह बात इस ग्रन्थ में संक्षेप से अनेक बार एवं विस्तृत रूव से ‘आत्मतस्वविवेक’ में प्रतिपादित हो चुकी है । अतः अभी यह मान लेता ही उचित है कि कार्यत्व हेतु में सकरी कस्व की ‘व्याप्ति’ रूप स्वाभाविक सम्बन्ध मवश्य है । इसके बाद भी यदि यह कहें कि ‘कर्ता के बिना भो कार्यों की उत्पत्ति होती हैं तो इसका यह अर्थ होगा कि ‘कार्य अपने कर्रा जन्यत्व रूप ‘स्वभाव’ को छोड़ कर भी रहता है किन्तु यह स्वीकार करना उचित नहीं है, क्योंकि इससे कार्य की सत्ता ही उठ जायगी, क्योंकि कोई भी वस्तु स्वभाव के बिना नहीं रह सकती ! म। कार्यस्व हेतुक सकतृ कत्व का कथित अनुमान निरापद है । एवच इस प्रकार कार्यत्व में सकर्तृ कस्व की व्याप्ति ( प्रतिबन्ध ) के सिद्ध हो जाने पर ‘प्रतिबन्धि’ प्रभूति ‘क्षुद्र’ (साधारण) उपद्रवों ( दोषों ) का कोई अवकाश नहीं रह जाता । ८१
६४२ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जलौ ननु तस्य सर्वदा सर्वत्राविशेषे कार्यस्य सर्वदोत्पत्तिप्रसङ्ग इति निरपेक्षेश्वरपक्षे दोषी, सापेक्षे उपेक्षणीय ऐवास्त्विति बालस्य प्रदीपकलिकाक्रीडयैव नगरदाहा । क्योंकि कथित प्रतिबन्धि के हेतु में यदि साध्य की व्याप्ति है, तो वह प्रतिबन्धि रूप आपत्ति को इष्ट करना होगा । यदि उक्त हेतु में उक्त साध्य की व्याप्ति नहीं है, तो फिर व्याप्ति के न रहने से ही उक्त प्रापति रूप मनुमानं रुक जायगा । पृ० प० ननु तस्य (१) ईश्वर को जंगत के निर्माण करने में किसी अन्य वस्तु की भी अपेक्षा होती है ? अथवा ( २ ) वे जंगले के निर्माण में स्वतन्त्र हैं, उन्हें किसी अन्य सहायक की अपेक्षा नहीं होती है ? यदि जगत के निर्माण में ईश्वर को किसी अन्य वस्तु की अपेक्षा नहीं होती है- यह प्रथम पक्ष स्वीकार करें तो सदा सभी कार्यों की उत्पत्ति होती रहेगी, क्योंकि ईश्वर की । १. यौन गये यह प्रतिबन्धि उपस्थित करते हैं कि- घटादि कार्यों के कर्ता उपलब्ध हैं, केवल इसीलिये सिध्यछ कुरादि कार्यों के अदृश्य कर्ता का भी अनुमान हो तो तुख्य म्याय से शश में भी अदृश्यशृङ्ग का अनुमान हो । गो महिषादि सभी पशुओं में शृङ्ग देखे जाते हैं। शश भी पशु है । यद्यपि शश में शृङ्ग प्रत्यक्ष से बाधित है तो इससे इतना ही होगा कि शथ में इंश्य शृत की सिद्धि नहीं होंगी। किन्तु इस प्रत्यक्षबाध से तो शश में प्रश्य शृङ्ग बाधित नहीं हो सकता । जैसे कि क्षित्यरू कुरादि मैं प्रत्यक्ष के द्वारा अश्यकतु स्व बाधित नहीं होता है । तस्मात् यदि उक्त अनुमान से पृथिव्यादि में प्रश्यकत कर की सिद्धि हो, तो फिर शंश में भी पशुत्व हेतु से अथ शुद्ध की सिद्धिं माननी होगी। यही आपत्ति रूप प्रतिबन्धि प्रकृत में ‘क्षुद्रोपद्रव ’ शब्द से अभिप्रेत है, इसी के समाधान में ‘एवञ्च’ (देखिये १० ६४१ पंक्ति ५) इत्यादि संदर्भ है। आचार्य ने कहा है कि जिस प्रकार कार्यत्व हेतु में सकतृकत्व रूप साध्य ‘का ‘प्रतिबन्ध’ अर्थात् व्याति है, इसी लिये पृथिव्यादि के प्रत्यक्षकर्ता के बाधित होने पैर अप्रत्यक्ष कर्ता की सिद्धि होती है । उसी प्रकार यदि पशुत्व हेतु में शुक्र की व्याप्ति रहे, तो शश रूप पशु में प्रत्यक्ष के द्वारा शुक के बांध से अवश्य ही अदृश्य युद्ध की सिद्धि होनी चाहिये । यदि पशुत्व में शृङ्ग की व्याप्ति ही नहीं है, तो फिर पशुत्व हेतु से उम गोमहिषादि में भी शृङ्ग की अनुमिति नहीं होगी, जिनमें कि प्रत्यक्ष से सिद्ध है, फिर रोश में तो प्रत्यक्ष से भी बाधित हैं, उसमें पशुत्व हेतु से शृङ्ग की सिद्धि की बात ही व्यर्थ है ।
पञ्चम स्तबका ET क्षे सिं न ती की हैं, त्य में तो स दि न से व’ वि य ने की श्य कर नमें नमें तन्न । स्थेमभाजो जगत एवाकारणत्वप्रसङ्गात् । ॐमिति ब्रुवतः सौगतस्य । दत्तमुत्तरं प्राक् । सत्ता सर्वदा रहती है । यदि ईश्वर को जगत के निर्माण में किसी दूसरे कारण की अपेक्षा को स्वीकार करें, तो फिर उसी कारण से कार्य की उत्पत्ति मान कर ईश्वर को उस कार्य के प्रति उदासीन मानना ही उचित है । फलतः ईश्वर की कल्पना ही व्यर्थ है । इस प्रकार जिस आक्षेप को बालक का कथन समझकर आपने उपेक्षा दिखलायी है, उसी बालक के उक्त आक्षेप रूप क्रीड़ा की क्षुद्र दीप की शिखा से ही ईश्वर की कल्पना रूप महानगर के दाह की आपत्ति खड़ी हो गयी है । सि० प० तन्न … यदि अन्य वस्तु के साहाय्य से ईश्वर के द्वारा सृष्टि को स्वीकार करने से ईश्वर की उपेक्षा कर उस ‘सहायक’ से ही कार्य की उत्पत्ति स्वीकार करें तो उस कारण के भी प्रसङ्ग में भी यह प्रश्न उपस्थित होगा कि वह कारण ‘स्थेमभाक’ प्रर्थात् स्थायी है ? अथवा क्षणिक है ? इन में क्षणिकत्ववाले द्वितीय पक्ष का खण्डन बारबार कर चुके हैं । सब रहा उस ‘कारण’ को ‘स्थेमभाकु’ मानने का पहिला पक्ष — इस के प्रसङ्ग में मी कथित रीति के अनुसार ईश्वर के ही समान यह प्रश्न उपस्थित होगा कि ईश्वर से भिन्न: कपालादि हृदय एवं स्थायी कारण क्या किसी अन्य कारणों के साहाय्य से घटादि कार्यों का निर्माण करते है ? अथवा किसी अन्य कारणों के साहाय्य के बिना ही स्वतन्त्र रूप से कार्यों का निर्माण करते हैं ? इन में यदि प्रथम पक्ष को सकता है कि जिनके साहाय्य से कपालादि घटादि कार्यों का से ही घटादि कार्यों की उत्पत्ति क्यों न स्वीकार की जाय ! कपालादि मुख्य कारणों को ही वे घटावि स्वीकार करें तो यह कहा जा निर्माण करेंगे, उन सहायक स्वीकार करने की क्या आवश्यकता है ? यदि द्वितीय पक्ष को स्वीकार करें तो उन कपालादि मुख्य कारणों की सत्ता जब तक रहेगी, तब तक बराबर कार्य की उत्पत्ति होती रहेगी । किन्तु यह वस्तुस्थिति के विरुद्ध है। इस प्रकार जहाँ भी कारणता को स्वीकार करेंगे, उन सभी कारणों में उक्त विकल्प उपस्थित होकर जगत की सभी वस्तुओंों की कारणता का ही उच्छेद कर डालेगा । फलतः बिना कारण के ही सभी कार्यों की उत्पत्ति माननी होगी । इस पक्ष को स्वीकार करने पर हम ( सिद्धान्ती ) कहते हैं कि इसका उत्तर ‘अवर्षोनियतत्वत:’ इत्यादि सन्दर्भ के द्वारा प्रथम स्तबक में दिया जा चुका है ।
tod प्राषम् गद्यपद्यात्मकं-न्यायकुसुमाञ्जलौ प्राषं धर्मोपदेशश्च वेदशास्त्राविरोधिना । यस्तर्केणानुसन्धत्ते स धर्मं वेद नेतरः ॥ ( मनु - अ० १२ श्लो० १०६ तमिममर्थमागमः संवदति, विसंवदति तु परेषां विचारम्- विश्वतश्चक्षुरुत विश्वतोमुखों विश्वतो बाहुरुत विश्वतस्तपात् । सम्बाहुभ्यां घमति सम्पतत्रैर्द्यावाभूमी जनयन् देव एकः ॥ शुक्लयजुर्वेद संहिता प्र० १७-१ε जो पुरुष वेदादिशास्त्रों की मविरोधी तर्कों के द्वारा ‘धर्म’ को समझते है, अर्थात् धर्म, ईश्वर प्रभूति अलौकिल अर्थों के ज्ञापक एवं ऋषि प्रणीत धर्मोपदेश रूप वेदादिशास्त्रों का अनुसन्धान करते हैं, वे ही धर्म के प्रकृत जानकार हैं । इसके विपरीत जो केवल तर्क के हो द्वारा कथित ‘धर्म’ को समझने का प्रयास करते हैं, वे धर्मज्ञ नहीं हैं । तमिमम् कथित ईश्वर के साधक अनुमान की पुष्टि ( संवाद ) एवं ईश्वर के विरोधी अनुमानों में अरुचि का उपपादन ‘विश्वतः’ इत्यादि वेद वाक्यों के द्वारा भी किया गया है । नैयायिकगण ईश्वर को ( १ ) सर्वज्ञ ( २ ) वेदों के द्वारा सभी विषयों का उपदेश करने वाला ( ३ ) सभी कार्यों के सहकारि कारण ( ४ ) व्यापक एवं ( ५ ) धर्म और अधर्म के साहाय्य से परमाणुओं के द्वारा संपूर्ण विश्व के सृष्टि कर्ता के रूप में स्वीकार करते हैं । ‘विश्वतः’ इत्यादि वेद वाक्य के द्वारा ईश्वर का यही स्वरूप उपपादित हुआ है । इस वेद वाक्य का सरलार्थ यह है कि- " एक हो परमेवश्र स्वरूप ‘देव’ द्यावा भूमो की रचना करते हुये जीवों के धर्म एवं प्रधर्म रूप दोनों ‘बाहुओं’ के साहाय्य से ‘पतत्रों’ को अर्थात् परमाणुओं को परस्पर संयुक्त करते हैं।” ( सृष्टि स्वरूप प्रयोजन के वशीभूत होकर जो परमेश्वर परमातुओं में संयोग का उत्पादन करते हैं, उनका स्वरूप क्या है ? इसी प्रश्न के उत्तर में प्रकृत मन्त्र का पूर्वार्द्ध ‘विश्वतश्चक्षुः’ इत्यादि सन्दर्भ लिखा गया है ) । १. ( इस प्रसङ्ग में शास्त्र और इश्वर में पूर्ण विश्वास रखने किसी शास्तिक का ही यह प्रश्न हो सकता है कि ‘मागम’ प्रमाण से जब ईश्वर सिद्ध ही हैं, तो फिर उनकी सिद्धि के लिये ‘भ्याय का प्रदर्शन’ ‘अनावश्यक है। इस प्रश्न का ही समाधान “प्रार्षम्” इत्यादि स्मृति वाक्य के उल्लेख पूर्वक आचार्य ने दिया है ) । अर्थात् जब तक न्याय का अनुसन्धान नहीं किया जाता, तब तक शब्द रूप धागम का तात्पर्यार्थ ही अनियत रह जायगा । अतः ईश्वर के ज्ञापक प्रभूत आगम प्रमाण के रहते हुए भी म्याय का अर्थात् अनुमान का प्रदर्शन आवश्यक है ।
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A 4. का 19 न्य नी पञ्चमः स्वयंक ६४५ अत्र प्रथमेन सर्वज्ञत्वस्, चक्षुषा दृष्टेरुपलक्षणात् । द्वितीयेन सर्ववक्त त्वम्, सुखेन वागुपलक्षणात् । तृतीयेन सर्वंसहकारित्वम्, बाहुना सहकारित्वोपलक्षणात् । चतुर्थेन व्यापकत्वस्, पदा व्याप्तेरुपलक्षणात् । पचमेन धर्माधर्मलक्षणप्रधान कारणत्वम्, तौ हि लोकयात्रोवहनाद्वाहू । षष्ठेन परमाणुरूपप्रधानाघिष्ठेयत्वम्, वे हि गतिशीलत्वात्पतत्रव्यपदेशाः पतन्तीति । सन्धमति, सञ्जनयन्निति च व्यहहितोपसर्गसम्बन्ध० । विश्वतश्चक्षुः = सर्वज्ञ । विश्वतोमुख = सभी विषयों के ज्ञानों की राशि वेदों के उपदेष्टा । विश्वतोबाहु = सभी कार्यों के सहकारी । विश्वतस्तपाद = व्यापक । अर्थात् सर्वज्ञ, वेदों के उपदेष्टा, सभी कार्यों के सहकारी, व्यापक परमेश्वर जीवों के धर्म और अधर्म रूप बाहु के सदृश सहायक के बल से ’ द्यावा’ अर्थात् स्वर्गादि सात ऊर्ध्वलोकों का ‘भूमि’ अर्थात् भूतलादि अघस्तन सातो लोकों का निर्माण करते हुये ‘पतत्र’ अर्थात् परमातुओं को परस्पर संयुक्त करते हैं । ( १ ) उक्तार्थ बोषक प्रकृत वेदवाक्य के ‘विश्वतश्वशु" इस प्रथम पद के ‘चक्षु’ पद से चक्षु जनित अपरोक्षज्ञान अभिप्रेत है । तदनुसार ‘विश्वतश्चक्षु’ पद का ‘विश्व विषयक अपरोक्षज्ञान से युक्त पुरुष’ स्वरूप अर्थ निष्पन्न होता है ( विश्वतः = षष्ठ्यर्थे तसिल, चक्षुः दृष्टि । यस्य ) । (२) ‘विश्वतोमुख’ शब्द में प्रयुक्त ‘मुख’ शब्द से लक्षणावृति के द्वारा मुख से उत्पन्न ‘वाक्’ रूप अर्थ अभिप्र ेत है । तदनुसार ‘विश्वतोमुख’ शब्द का विश्व के प्रतिपादक वेद रूप ‘वाक्’ से युक्त पुरुष स्वरूप अर्थ निष्पन्न होता है । (३) ‘विश्वतोबाहु’ शब्द में जो ‘बाहु’ शब्द है, वह बाहु गत जो सहकारित्व धर्म है, तद् विशिष्ट में लाक्षणिक है । जिससे ईश्वर में सभी कार्यों के सहकारित्व का बोध होता है । अर्थात् जिस प्रकार मनुष्य के दोनों बाहु उसके सभी कार्यों के सम्पादन में सहायक होते है, उसी प्रकार ईश्वर ‘विश्व’ रूप कार्य का सहकारिकारण हैं । (४) ‘विश्वतस्तपात्’ संपूर्ण विश्व जिन परमेश्वर से व्याप्त है, अर्थात् जो व्यापक हैं । (५) सम्बाहुभ्याम्’ इस पद में जो ‘सम्’ उपसर्ग है, उसका अन्वय ‘घमति’ क्रिया के साथ है । (६) एवं ‘सम्पतत्र’ पद में जो ‘सम’ उपसर्ग है, उसका अभ्वय ‘जनयत्’ पद के साथ है। ( छन्दों में उपसर्ग का व्यवहितान्वय भी होता है । )
૬૪. गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली तेन संयोजयति समुत्पादयन्नित्यर्थः । द्यावा इत्यूर्ध्वसप्तलोकोपलक्षणम्, · भूमीत्यधस्तात्, एक इत्यनादितेति । स्मृतिरपि - ‘अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्वं प्रवर्तते’ ( गीता ) इत्यादि । एतेन ब्रह्मादिप्रदिपादका श्रागमा बोद्धव्याः ॥ ३ ॥ प्रायोजनाश्खल्वपि - स्वातन्त्र्ये जडताहानिर्नादृष्टं दृष्टघातकस् । हेत्वभावे फलाभावो विशेषस्तु विशेषवान् ॥ ४ ॥ तदनुसार (१) संबाहुम्यां संपतत्रैः द्यावाभूमी जनयम् घमति’ इस अन्वय के अनुसार इस वाक्य का निष्पन्न स्वरूप इस प्रकार जानना चाहिए । बाहुभ्याम् द्यावाभूमी संजनयन् संघमति’ प्रर्थात् जीव के धर्म और अधर्म इन दोनों के द्वारा परमेश्वर चूकि लोकयात्रा का निर्वाह करते हैं, अतः धर्म और अधर्म ये दोनों ही उनके बाहु हैं । ‘पतन्तीति पतत्राः गतिशीला’ इस व्युत्पत्ति के अनुसार ‘परमाणु’ ही गतिशील होने के कारण यहां ‘पतत्र’ शब्द के अर्थ हैं। ‘एक’ पद से परमेश्वर का ‘अनादित्व’ अभिप्रेत है । स्मृतिरपि परमेश्वर की सत्ता का समर्थन ‘प्रहं सर्वस्य’ इत्यादि गीता प्रभुति कथित स्वरूप के स्मृति प्रमाण भी करते हैं। क्योंकि गीता में भगवान् ने स्पष्ट कहा है कि ‘मैं ही सभी कार्यों का कारण हूँ, मुझ से ये सभी कार्य उत्पन्न होते हैं । एतेन कथित रीति से प्रशरीरी परमेश्वर में सृष्टि के कर्तृश्व के उपपादन में पुराणादि के उन वचनों का जो विशेष उपस्थित होता है, जिनमें ब्रह्मा प्रभृति शरीरी को सृष्टि का कर्त्ता कहा गया है । उस विरोध का परिहार भी उन पुराणादि वचनों के इस प्रकार के अर्थ करने से मिट जाता है कि परमेश्वर ही ब्रह्मा आदि का शरीर धारण कर सृष्टि की रचना करते हैं ॥ ३ ॥ प्रायोजनातु खल्वपि - .. 1: ‘प्रायोजन’ हेतु से भी सर्वज्ञ परमेश्वर का अनुमान करना चाचिये । ’ इस स्तवक के प्रथम श्लोक में ईश्वर के साधन के लिये ‘कार्यत्व’ प्रभृति जिन नौ हेतुओं का उल्लेख किया है, उनमें से ‘कार्यस्व’ हेतुक अनुमान के निरूपण
f म स्, वार रा बाहु के ति य दि ष्टि के की 很超市町 ति पश्चमः स्तवक। ६४७ ‘आ युज्यते संयुज्यतेऽन्योन्यं द्रव्यमित्यायोजनं कर्म’ इस व्युत्पत्ति के अनुसार सृष्टि की आादि में परमाणुओं में उत्पन्न होनेवाली वे क्रियायें ही प्रकृत में ‘आयोजन’ शब्द से अभिप्रेत हैं, जिनसे द्वयरकों की उत्पत्ति होती है। तदनुसार आयोजन हेतुक ईश्वरानुमान के बोधक वाक्य का अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार ‘चेष्टा’ रूप क्रिया विशेष प्रकार की क्रिया होने से ही स्व समान कालिक किसी प्रयत्न से उत्पन्न होती है, उसी प्रकार सृष्टि की आदि की परमाणुओं की उक्त क्रिया भी स्व समानकालिक किसी प्रयत्न से उत्पन्न होती है, क्योंकि वह भी विशेष प्रकार की क्रिया हैं । इस प्रयत्न का आश्रय कोई शरीरी आत्मा नहीं हो सकता । मत। उक्त प्रयत्न का आश्रय किसी प्रशरीरी मात्मा को मानना होगा । वही अशरीरी आत्मा हैं ‘परमेश्वर’ | स्वांतथ्ये जड़वाहानिः… …इस प्रथम चरण की व्याख्या ( इस प्रसङ्ग में अनीश्वरवादी कह सकते हैं कि परमाणु अपने में रहनेवाले प्रयत्न ही उपयुक्त क्रियाओं का उत्पादन एवं उन द्वयतुकों का उत्पादन कर सकते हैं । इसके लिये परमेश्वर की कल्पना अनावश्यक है । इस प्राक्षेप का ही उत्तर स्वरूप ‘स्वातन्त्र्ये जड़ता हानिः’ यह वाक्य है । अर्थात् परमाणुओं को यदि ‘स्वतन्त्र’ अर्थात् प्रयत्नादि चेतनगत गुणों का आश्रय मानेंगे तो उन में जो ‘जड़ता’ अर्थात् अचैतन्य है, उस की हानि होगी । अर्थात् उन में चैतन्य के विरुद्ध जो जड़ता की सार्वजनीन प्रतीति है, वह अनुपपन्न हो जायगी ।. . । प्रयत्न क्रिया का कारण है, क्योंकि प्रयत्न से ही क्रिया उत्पन्न होती । प्रयत्न है चेतन का धर्म । चैतन्य एवं जड़ता ये दोनों परस्पर विरुद्ध धर्म हैं । परमाणु जब हैं । यदि दधतुक की उत्पत्ति के प्रयोजक संयोग के अनुकुल क्रिया के जनक प्रयत्न का प्राय परमाणुओं को ही मान लेंगे तो परमाणुओं को भी चेतन मानना होगा । इस प्रकार परमाणु यदि ‘स्वतन्त्र’ हों अर्थात् किसी चेतन पुरुष की प्रपेक्षा के बिना ही वे प्रपने प्रयत्न से ही परस्पर संयुक्त हों, तो उन की ‘जड़ता’ की हानि होगी । प्रतः यह आक्षेप उचित नहीं है । के बाद क्रम प्राप्त आयोजन हेतुक ईश्वर के अनुमान में पूर्वपक्षी के द्वारा दिये गये दोषों के निराकरण के लिये यह श्लोक लिखा गया है । प्रकृत में ‘आयोजनात् ‘प’ इस वाक्य के आगे प्रथम कारिकोक्त ‘न्याय्यो विश्वविदग्पया इस वाक्य का अनुसन्धान कर लेना चाहिये। इसी प्रकार आगे धृत्यादि हेतुक अनुमानों के सूचक वाक्यों के आगे भी उक्त वाक्य का अनुसन्धान कर लेना चाहिये । य
६४८ गद्यपणात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली ( २ ) ( इसी अनुमान के प्रसङ्ग में दूसरा यह आक्षेप है कि परमाणुओं का कथित प्रथम संयोग को उत्पन्न करनेवाली क्रिया केवल भोक्ता के अदृष्ट से ही उत्पन्न होती है । उस को प्रयत्न की अपेक्षा नहीं है । अतः परमाणुओं के आदिम संयोग को उत्पन्न करनेवाली क्रिया के जनक प्रयत्न के भाश्रय रूप में परमेश्वर की सिद्धि संभव नहीं है । इसी माक्षेप के समाधान के लिये श्लोक का यह द्वितीय चरण लिखा गया है । ‘नादृष्टं दृष्टघातकम्’ प्रर्थात् कथित रीति से यदि उक्त क्रिया की उत्पत्ति केवल अदृष्ट रूप कारण से ही स्वीकार कर अन्य सभी दृष्ठ कारणों का प्रतिक्षेप करें, तो परमाणुधों के उक्त संयोग के उपादान कारण परमाणुओं में भी कारणता खण्डित हो जायगी । फलतः सभी कार्यों की उत्पत्ति ‘प्रदृष्ट’ कारणों से ही स्वीकृत होकर सभी कार्यों में अपेक्षित अन्य सभी दृष्ट वस्तुओं में कारणता खण्डित हो जायगी । अतः कथित संयोग के अदृष्ट भी अवश्य ही कारण हैं, किन्तु प्रयत्नादि अन्य दृष्ट कारणों की भी अपेक्षा प्रवश्य होती है। ‘घदृष्ट’ रूप कारण की स्वीकृति से ‘प्रयत्नादि’ दृष्ट वस्तुओं में कारणता का उच्छेद नहीं किया जा सकता । (३) कथित प्रायोजन हेतुक ईश्वर के अनुमान में यह बाघक सर्क उपस्थित होता है कि– परमाणुओं में रहनेवाली सृष्टि की प्रादि की क्रियाओं में ‘क्रियात्व’ रूप हेतु की सत्ता के मानने पर भी यह कहा जा सकता है, वह क्रिया बिना स्व समानकालिक प्रयत्न के ही उत्पन्न हो। इसका कोई नियामक हेतु नहीं है कि उक्त क्रिया में क्रियात्व रूप साध्य के रहने पर उस में स्वसमानकालिक प्रयत्नजन्यत्व रूप हेतु भी अवश्य ही रहे। इस ‘विपक्ष’ का प्रर्थात् ‘व्यभिचारशङ्का’ का ‘बाधक’ अर्थात् निवर्त्तक तर्क ही इस श्लोक के " हेत्वभावे फलाभाव!" इस तृतीय चरण के द्वारा उपपादित हुआ है । चेष्टादि दृष्टान्तों के द्वारा चेतन के व्यापार में क्रिया की कारणता अन्वय एवं व्यतिरेक से सिद्ध है । इस स्थिति में जिसकी उत्पत्ति बिना चेतनव्यापार के ही होगी, उसे ‘क्रिया’ नहीं कहा जा सकता । सृष्टि की प्रादि की उक्त क्रियायें भी चूंकि ‘क्रिया’ हैं, अतः उन्हें भी स्ब समानकालिक प्रयत्न से अवश्य ही उत्पन्न होना चाहिये। ऐसा न मानने पर वे ‘क्रिया’ हो नहीं रह जायगी । इस लिये यह आक्षेप प्रसङ्गत है । ( ४ ) इसी प्रसङ्ग में कोई कहते हैं कि ‘चेष्टा’ रूप विशेष प्रकार की क्रिया ही पुरुष गत प्रयत्न की अपेक्षा रखती है । इसलिये वृक्षादि अचेतन की क्रियाओं में भी पुरुषप्रयत्न की अपेक्षा मानें- इस में कोई युक्ति नहीं है । प्रत। चेष्टा रूप विशेष प्रकार प्रकार की
( ส वि है क शे भी है etic f क सि उस प्र तब अच उस पर BEE | सम कथित । उस वाली आक्षेप से ही ग के E की यों में किन्तु कृति होता की न के य के पक्ष’ मावे एवं गी, नने ‘ही यत्न पञ्चमः स्तबक ६४९ परमाण्वादयो हि चेतनायोजिताः प्रवर्तन्ते, अचेतनत्वात्, वास्यादिवत् । अन्यथा कारणं विना कार्यानुत्पत्तिप्रसङ्गः । ( पुरुष प्रयत्नजनित ) क्रिया के दृष्टान्त से सृष्टि की श्रादि कालिक परमाणुगत क्रिया रूप दूसरे विशेष से युक्त क्रियाओं की उत्पत्ति में पुरुषप्रयत्न की अपेक्षा को स्वीकार करने की कोन सी आवश्यकता है ? अतः परमाणुओं में रहनेवाली उक्त क्रियाओं में पुरुष प्रयत्न की अपेक्षा ही नहीं है । इसलिये तन्मूलक उक्त अनुमान ठोक नहीं है । । विशेषस्तु विशेषवान् इस आक्षेप के समाधान के लिये ‘विशेषस्तु विशेषवान्’ यह चतुर्थ चरण लिखा गया है । अर्थात् विशेष प्रकार के कार्य अपनी उत्पत्ति के लिये विशेष प्रकार के कारणों की धपेक्षा रखते हैं । एवं यह भी निर्विवाद है जिन विशेष प्रकार के कार्यों की उत्पति जिन बिशेष प्रकार के कारणों से होती है, उन विशेष कार्यों में रहनेवाले सामान्य धर्म एवं उन विशेष कारणों में रहने वाले सामान्य धर्म इन दोनों के अनुसार ( यद्विशेषयों। कार्यकारणभावस्तद्वि- शेषयोरपि कार्य कारणभाव:’ इस म्याय के अनुसार ) कार्य सामान्य एवं कारण सामान्य में भी कार्यकारणभाव गृहीत होता है । चेष्टा रूप कार्य विशेष चूँ कि भोक्तृगत प्रयत्न स्वरूप विशेष कारण से उत्पन्न होता है । अतः इस विशेष कार्यकारणभाव की सिद्धि से ‘क्रिपा सामान्य के प्रति प्रयत्न सामान्य कारण हैं’, इस प्रकार के सामान्य कार्यकारणभाव का समर्थन ही होता है, खण्डन नहीं । सि० प० परमाण्वादयः ( विपक्ष ) व्यभिचार शङ्का के निवर्तक जिस तर्क का उल्लेख किया गया है, उस तर्क के द्वारा अनुगृहीत होनेवाले अनुमान का आकार यह है कि ) जिस प्रकार बसुला प्रभृति बजारों में बढ़ई रूप चेतन के प्रयत्न से जब तक क्रिया की उत्पत्ति नहीं होती है, तब तक उनसे अभीष्ट छेदन क्रिया की उत्पत्ति नहीं होती है । क्योंकि बसूला प्रभृति मोजार प्रचेतन हैं। उसी प्रकार परमाणुओं में भी इधरतुक को उत्पन्न करने के उपयुक्त क्रिया की उत्पत्ति चेतन प्रयत्न के बिना नहीं हो सकती, क्योंकि परमाणु मी अचेतन है । इससे यह अनुमान निष्पन्न होता है कि चेतन के द्वारा उसके प्रयत्न से उत्पन्न क्रिया से युक्त हो परमाणु द्वचरतुक स्वरूप कार्य को उत्पन्न करने में प्रवृत्त होते हैं, क्योंकि बसूला प्रभूति के समान ही परमाणु भी प्रचेतन हैं । १. यह सन्दर्भ श्लोक के तीसरे चरण की व्याख्या स्वरूप है । मलोक के आदि के दोनों चरणों में कोई भी विषय विशेष व्याख्या के योग्य नहीं है, मत: प्राचार्य ने उन्हे छोड़ दिया है । की ८२ CCO. Vasishtha Tripathi Collection. Digitized by eGangotri६५० गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली अचेतनक्रियायाश्चेतनाधिष्ठान कार्यत्वावधारणात् । क्रियाविशेषविश्रान्तोऽय- मर्थो, न तु तन्मात्रगोचरा । चेष्टा हि चेतनाधिष्ठानमपेक्षत इति चेत् । इस प्रकार चेतन के प्रयत्न में उक्त क्रिया की कारणता के सिद्ध हो जाने पर भी यदि परमाणुओं में द्वचरतुक के उत्पादक कर्म की उत्पत्ति ‘स्वत:’ ( अर्थात् चेतनप्रयत्न से निरपेक्ष) मानें तो इसकी परिणति बिना कारण के ही कार्य की उत्पत्ति को स्वीकार करने में ही होगा । अतः ‘आयोजन हेतुक ईश्वरानुमान में व्यभिचारशङ्का रूप ‘विपक्ष’ के उद्भावन किये जाने पर उसके प्रतिरोधक ( बाधक ) इस तर्क को उपस्थित करना चाहिये कि “द्वचरतुक को उत्पन्न करने वाली सृष्टि की प्रथम क्रिया में क्रियात्व रूप हेतु तो रहे, किन्तु स्वसमानकालिक प्रयत्नजम्यस्व स्वरूप साध्य न रहे, तो कार्यों की उत्पत्ति बिना कारण के ही होने लगेगी ।” क्योंकि स्वसमानकालिक पुरुष प्रयत्न द्वधकारम्भक उक्त क्रिया का कारण है । ऐसी स्थिति में भी यदि सृष्टि के पूर्व पुरुष प्रयत्न की सत्ता नहीं मानेंगे, तो सृष्टि की आदि में परमाणुओं में प्रथम क्रिया की उत्पति ही नहीं होगी, जिससे द्वधस्तुक की उत्पत्ति प्रतिरुद्ध होकर सृष्टि को ही प्रतिरुद्ध कर देगी । प्रचेतन क्रियाया … .- ( चतुर्थंचरण का विवरण ) (‘विशेषस्तु विशेषवान्’ इस चतुर्थचरण के द्वारा प्रायोजन हेतुक ईश्वरानुमान में आये हुये उपाधि दोष का उद्धार किया गया है, उपाधि के उदभावक पूर्वपक्षी का यह आशय है कि यद्यपि यह सत्य है कि चेतन के अधिष्ठान के बिना अचेतन में क्रिया की उत्पत्ति नहीं होती है, किन्तु चेतनाषिष्ठान की यह अपेक्षा सभी क्रियाओं के लिये नहीं है । ‘चेष्टा’ रूप विशेष प्रकार की क्रिया में ही चेतनाषिष्ठान को अपेक्षा नियमतः होती है। शरीरों में होने वाली क्रियायें ही चेष्टा है, परमाणुओं में होने वाली क्रिया चेष्टा नहीं हैं । मतः परमाणुभों की क्रियानों में चेतन के अधिष्ठान की अपेक्षा ही नहीं है । इसलिये तर्क के उपकारक अनुमान में ‘चेष्टात्व’ उपाधि है । क्रियाविशेष f 이 E भ हो है स में चेत एव सा है, व्या पू वहीं अथ एक गया मादि के द्वधरतुकों को सि आयोजन हेतुक ईश्वर के धनुमान का पक्ष है सर्ग की उत्पन्न करने वाली परमाणुओं की क्रिया, साध्य है ‘चेतनायोजितत्व’ प्रर्थात् ’ स्वसमानकालिक प्रयत्नजन्यत्व, एवं हेतु है ‘क्रियात्व’ । इसमें ‘चेष्टात्व’ उपाधि है, क्योंकि ‘‘चेष्टा’ स्वरूप क्रिया ही ‘चेतनायोजित’ हैं, अतः ‘चेतनायोजितत्व’ जिन सभी क्रियाओं में है, उन सभी क्रियामों में ‘चेष्टात्व’ मी अवश्य ही है । अतः ‘चेष्टात्व’ ‘चेतनायोजितस्व रूप साध्य का
क्रिय क्रिय तोऽय- नर भी न से कार क्ष’ के हिये किन्तु के ही है । दि में तिरुद्ध न में थिय नहीं रूप ली शुभों मान को लक रूप भी का पञ्चमः स्तबेक ६५१ . अथ केयं चेष्टा नाम ? यदि प्रयत्नवदात्मसंयोगासमवायिकारणिका क्रिया, प्रयत्नमात्रकारणिकेति वा विवक्षितम् ? तन्न । तस्येव तत्रानुपाघित्वात् । अथ हिता हितप्राप्तिपरिहार फलत्वं तत्त्वम् । तन्न । विष भक्षणोद्बन्धनाद्यव्यापनात् । व्यापक है । ‘क्रियात्व’ रूप हेतु ( प्रचेतनायोजित ) शाखादि के कम्पों में भी है, किन्तु चेतनायोजितत्व वहां नहीं है, इस प्रकार ‘चेष्टात्व’ क्रियात्व स्वरूप हेतु का भव्यापक भी है । सि. प० प्रथ केयम् ‘चेष्टा’ के ये दो लक्षण हो सकते हैं । ( १ ) प्रयत्न से युक्त ( प्रयत्न विशिष्ट ) आत्मा एवं क्रिया के आश्रयीभूत द्रव्य इन दोनों का संयोग जिस ‘क्रिया’ का असमवायिकारण हो, वहीं क्रिपा चेष्टा कहलाती है । अथवा ( २ ) प्रयत्न से होने वाली क्रिया ही ‘चेष्टा’ है । किन्तु प्रकृत अनुमान के साध्य ‘चेतनायोजितस्व’ के भी ये ही दो स्वरूप निर्णीत हो सकते हैं । अर्थात् प्रयत्नविशिष्टात्मसंयोगासमवायिकरणकत्व एवं प्रयत्नजन्यत्व इन्हीं दोनों में से कोई एक ‘चेतनायोजितत्व’ का भी लक्षण हो सकता है । मत। चेष्टात्व रूप उपाधि एवं चेतनायोजितत्व’ स्वरूप साध्य फलतः दोनों एक ही हैं। एक ही अनुमान में एक ही पदार्थ साध्य एवं उपाधि दोनों नहीं हो सकता। क्योंकि साध्य सदा हेतु का व्यापक ही होता है । प्रकृत में साध्य एवं उपाधि एक ही है। यदि चेतनायोबितत्व उन क्रियास्व स्वरूप साध्य के हेतु का व्यापक है, तो तदभिन्न उपाधि भी हेतु का व्यापक है ही । अतः ‘चेष्टात्व’ में क्रियास्व हेतु की व्यापकता के न रहने से वह प्रकृत अनुमान में उपाधि नहीं हो सकता । पू० प० प्रथ हिताहित जो क्रिया ‘हित’ वस्तु की प्राप्ति एवं ‘अहित’ वस्तु के परिहार का संपादन कर सके वही ‘क्रिया’ है ‘चेष्टा’ । ‘चेतनायोजितत्व’ है प्रयत्नवदात्मसंयोगासमवायिकारणजन्यस्व रूप अथवा प्रयत्नजन्यत्व रूप । अतः उक्त लक्षणलक्षित चेष्टा एवं उक्त स्वरूप का साध्य, ये दोनों एक नहीं हो सकते । इस लिये चेष्टात्व में साध्य के प्रभेद से जो उपाधित्व का खण्डन किया गया है, वह युक्त नहीं है । सि० प० विषभक्षण 10 000 विष खाकर अथवा फांसी लगा कर आत्महत्या की क्रिया भी ‘चेष्टा’ है। किन्तु वह क्रिया न हितप्राप्ति का साधन है, न अहित के परिहार का ही जनक है, अत: आत्महत्या की क्रिया में ‘चेष्टा’ का उक्त लक्षण धव्याप्त हैं, अतः चेष्टा का उक्त लक्षण नहीं किया जा सकता ।
६५२ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली इष्टानिष्टप्राप्तिपरिहार फलत्वमिति चेत्, कर्तारं प्रत्यन्यं वा ? । उभयथाऽपि परमाण्वादिक्रियासाधारण्यादविशेषः । पू० प० इष्टानिष्ट… इच्छा का विषय ही ‘इष्ट’ है । इच्छा के बिना प्रवृत्ति नहीं हो सकती । द्वेष का विषय ही ‘प्रनिष्ट’ है । द्वेष के बिना कोई किसी वस्तु से निवृत्त नहीं हो सकता । किसी वस्तु को ‘इष्ट’ होने के लिये यह आवश्यक नहीं है कि वह ‘हित’ भी अवश्य हो । एवं यह भी नियम नहीं है कि जिस में द्वेष हो वह ‘अनिष्ट’ ही हो। क्योंकि विश्व में सुरापानादि अहित विषयों को ‘हित’ समझनेवाले एवं देवतार्चनादि इष्ट विषयों को ‘अहित’ समझनेवालों की कमी नहीं है । अतः ‘इष्टानिष्ट’ पर हिताहित’ इन दोनों में बहुत अन्तर है । ९ इच्छा यदि सभी प्रवृत्तियों का कारण है, तो विषभक्षणादि में जो प्रवृत्ति होती है, उस प्रवृत्ति का कारण भी इच्छा अवश्य है । जब तक प्राण त्यागने की इच्छा नहीं होगी, तब तक कोई विषपान नहीं कर सकता । विषभक्षणादि रूप जिन क्रियाओं से मृत्यु रूप इष्ट की प्राप्ति होती है, वे क्रियायें भी इष्ट जनिका क्रिया ही हैं। प्रत। चेष्टा के प्रकृत लक्षण में अव्याप्ति दोष नहीं है । कर्त्तारं प्रति फलतः मृत्यु विषभक्षण करनेवाले का ‘इष्ट’ है । एवं चेष्टा के उक्त लक्षण वाक्य में जो ‘इष्ट’ और ‘अनिष्ट’ शब्द है, उन दोनों से किसका ‘इष्ट’ एवं किसका ‘अनिष्ट’ अभिप्रेत है । (१) जिस पुरुष की इच्छा से चेष्टा रूप क्रिया की उत्पत्ति होती है, उस ( चेष्टा के कर्ता उस ) पुरुष की ? (२) अथवा उससे अन्य पुरुष की ? यदि इनमें प्रथम पक्ष स्वीकार करें तो तदनुसारि चेष्टा का लक्षण परमाणुओं की उक्त क्रियाओं मैं भी है, क्योंकि द्वघणुक जनिका उक्त परमाणु क्रिया का कारण है ईश्वर की सर्जनेच्छा । उस इच्छा के विषय हैं, घटपटादि ‘प्रपश्ञ्च, उनकी प्राप्ति परमाणुओं की उक्त क्रिपा से अवश्य होती है । उक्त लक्षण के अनुसार परमाणु की उक्त क्रिया में भी चेष्टा का लक्षण है । यदि दूसरा पक्ष स्वीकार करते है ( अर्थात् चेष्टा के लक्षण में जो ‘द्दष्ट’ शब्द है, उसके द्वारा इच्छा के कर्ता से कोई अन्य पुरुष का ही दृष्ट ही अभिप्रेत हो ) तो तदनुसार ‘अन्य’ हुये अस्मदादि जीव । हम लोगों को भी परमाणु की क्रिया से उत्पन्न घटादि ‘इष्ट’ वस्तुओंों की प्राप्ति प्रवश्य होती है । अतः ‘अचेतन पदार्थों की क्रिया चेतनाधिष्ठानमूलक ही हैं,’ इस व्यप्तिबोधक वाक्य में पठित ‘क्रिया’ पद को यदि ‘चेष्टा’ रूप विशेष प्रकार की क्रिया का बोधक मानें, तथापि सृष्टि की प्रादि में विश्व को उत्पन्न करने के लिये जो परमाणुओं में क्रिया उत्पन्न होंगी, उसके लिये ‘चेतनाधिष्टान’ को प्रावश्यकता अवश्य पड़ेगी। वही ‘चेतन’ परमेश्वर हैं। किसी दूसरे चेतन से वह कार्य नहीं हो सकता । अतः चेष्टास्व, प्रकृत अनुमान के क्रियात्व रूप हेतु का व्यापक है, अतः उपाधि नहीं हो सकता ।
पश्चिमः स्तबकः ६१३ पि का कसी यह आदि की है, गी, है | इष्ट नका की 7? न TI से
सके हुये की इस क व्या F’ न भ्रान्तसमीहाया प्रतथाभूताया अपि चेतनव्यापारापेक्षरणाच्च । शरीर- समवायि क्रियात्वं तदिति चेन्न । मृतशरीरक्रियाया श्रपि चेतन पूर्वकश्वप्रसक्तेः । सि० प० भ्रान्तसमीहाया *" 1 ( कथित अनुमान में उपाधि देने के लिए जिस चेष्टात्व रूप धर्म का उल्लेख किया किया गया है, वह केवल साधन का व्यापक होने से ही उपाधि होने के अयोग्य नहीं है, किन्तु साथ-साथ साध्य का अव्यापक होने के कारण भी उपाधि होने के प्रयोग्य है, क्योंकि ) जो पुरुष युक्ति में रजतत्व की भ्रान्ति के वशीभूत होकर रास्ते पर गिरे हुए चांदी के समान ‘चमकते शुक्ति खण्ड को उठाने की चेष्ठा करता है, उस पुरुष की उस चेष्टा रूप क्रिया से इष्ट (चांदी) की प्राप्ति अथवा अनिष्ट ( शुक्ति का ) का परिहार नहीं होता । अतः भ्रान्तपुरुष की इस क्रिया में ‘प्रयत्नजन्यस्व’ अथवा ‘प्रयत्न वदात्मसंयोगासमवायिकारणकत्व’ रूप साध्य तो है, किन्तु कथित ‘चेष्टात्व’ रूप उपाधि नहीं है । अतः साध्य का व्यापक न होने से भी चेष्टास्व उपाधि नहीं हो सकता । पू० प० शरीरसमवायि समवाय सम्बन्ध से शरीर में रहनेवाली क्रिपा ही ‘चेष्टा’ है । भ्रान्तपुरुष को उस क्रिया से अनभीष्ट शुक्ति खण्ड की प्राप्ति होती है, अत: इस लक्षण के अनुसार वह क्रिया भी ‘चेष्टा’ है । सि० प० मृतशरीरक्रियाया… इस प्रकार मृत शरीर में जो क्रिया उत्पन्न होती है, वह भी ‘चेष्टा’ कहलायगी । चेष्टा रूप क्रिया में चेतनाधिष्ठान को आवश्यक कहा है. अतः मृत शरीर की क्रिया भी चूकि चेष्टा है, अतः उसके लिये भी चेतनाधिष्ठान आवश्यक होगा । शरीर के अधिष्ठाता जीव वह चेतन रूप अधिष्ठाता नहीं हो सकते। क्योंकि जीव जब शरीर का अधिष्टातृत्व छोड़ देता है, तभी शरीर ‘मून’ जहलाता है । अतः मृत शरीर की क्रिया को चेतनाधिष्ठान की अपेक्षा नहीं है । इस लिये ‘चेतनायोजितस्व’ रूप उपाधि मृत शरीर की क्रिया में नहीं है, अथ च चेष्टास्वरूप उपाधि है । चेष्टात्व साध्य का व्यापक न होने के कारण उपाधि नहीं हो सकता । ’ 1. इस प्रसङ्ग में पूर्वपक्षवादी कह सकते हैं कि मृत शरीर में यदि उपाधि है, पूर्व साध्य नहीं है, तथापि उपाधि में साध्य व्यापकता में कोई हानि नहीं है, साध्य को उपाधि से अधिक देश में रहने से तो साध्य की व्यापकता की कोई हानि नहीं होगी,
૬૭ गद्यपद्यात्मक न्यायकुसुमाञ्जली जीवत इति चेन्न । नेत्रस्पन्दादेश्चेतना विष्ठानाभ्युपगमप्रसङ्गात् । स्पर्शवद्द्रव्या- न्तराप्रयोगे सतीति चेत् ? पू० प० जीवता… … … मृत शरीर की क्रिया में जो चेष्टालक्षण की प्रव्याप्ति होती है, उसका परिहार शरीर में ‘जीवितत्व’ विशेषण देकर किया जा सकता है। तदनुसार ‘जीवितशरीरवृत्तिक्रियात्व’ ही ‘चेष्टात्व’ है । इस प्रकार का ‘चेष्टात्व’ मृत शरीर की क्रिया में नहीं है । सि० प० न, नेत्रस्पन्दादे!" " चेष्टा के इस लक्षण में भी निमेष उन्मेषादि क्रियाओं में अव्याप्ति रहेगी । अर्थात् जीवित शरीर की भी जितनी क्रियायें जलाहरणादि कार्यों में समर्थ है, वे ही चेतनाषिष्ठान- मूलक’ हैं । किन्तु जीवित शरीर के भी निमेष उन्मेषादि रूप क्रियायें चेतनाविष्टान मूलक नहीं हैं । अतः इन क्रियाओं में चेष्टात्व रूप ‘चेतनायोजितत्व’ रूप साध्य नहीं है । पू० प० स्पशंवद्रव्य… क्रियायें दो प्रकार से उत्पन्न होती हैं:- (१) केवल प्रयत्न से एवं (२) स्पर्श से युक्त किसी दूसरे द्रव्य के संयोग से । शरीर की अथवा शरीर के अवयवों की क्रिया प्रथम प्रकार • इससे प्रकृत साध्य की व्यापकता और सुदृढ़ ही होगी । अतः मृत शरीर में यदि चेष्टा का लक्ष्य है ही, तो इससे हम लोगों की कौन सी हानि होगी ? इस प्रश्न को उठाकर वर्द्धमान लिखते हैं कि उपाधि लक्षण के साध्यव्यापकत्व के स्थान पर ‘साध्य- समनियतत्व’ को रख कर जो उपाधि का लक्षण बनेगा, तदनुसार ही मृतशरीर की चर्चा की गयी है । ‘सममियतत्व’ है व्याप्यस्वे सति व्यापकरच रूप, फलता ! ‘अन्यूनान धिकस्थानवृतित्व’ रूप । उपाधि यदि साध्य से अधिक स्थानों में रहेगा, तो उक समनियतत्व भङ्ग हो जायगा। किस्तु दोष देने के लिये तो लक्षण की कल्पना नहीं की जा सकती, अतः पूर्वपक्षी कह सकते हैं कि उपाधि के लक्षण में साध्वव्यापकत्व ही देंगे, साध्यसमनियतत्व नहीं । अतः मृत शरीर की चर्चा व्यर्थ है । आचार्य की इस न्यूनता के परिहार के लिये शरीर में रहनेवाली क्रिया को यदि चेष्टा कहें, तो शरीर के अवयवों की क्रिया में अव्याप्ति होगी, क्योंकि अवयव एवं अवयवी दोनों भिन्न हैं । अतः शरीर के अवयवों की क्रिया शरीर में उसी प्रकार नहीं रह सकती, जिस प्रकार घट की क्रिया पट में नहीं रहती । अतः शरीर के अवयवों की जो क्रिया है, उसमें ‘शरीरवृत्तिक्रियात्व’ रूप चेष्टाव उपाधि नहीं है, किन्तु ‘चेतनायोजितस्व’ रूप साध्य है । घता मृतशरीर की क्रिया में यदि व्यापकत्व का भङ्ग नहीं होगा, तथापि शरीर के अवयवों की क्रियाओं में व्यापकत्व का भङ्ग अनिवार्य है ।
पञ्चम स्तबका न, ज्वलनपबनादो तथाभावाभ्युपगमापत्तेः । ६१५ से उत्पन्न होती हैं । वृक्ष की कम्पनादि क्रियायें दूसरी रीति से उत्पन्न होतीं है । क्योंकि वे स्पर्श से युक्त वायु स्वरूप दूसरे द्रव्य के संयोग से उत्पन्न होती है। नेत्र की निमेषादि क्रियायें भो वायु के संयोग से ही उत्पन्न होती है । अतः नेत्र की निमेषादि क्रियायें भी दूसरी ही प्रकार की क्रियायें हैं । तदनुसार शरीर में रहनेवाली वही क्रिया ‘चेष्टा’ है, जिसकी उत्पत्ति स्पर्श से युक्त किसी दूसरे द्रव्य के संयोग से न हो। इस लक्षण के अनुसार नेत्र की निमेषादि क्रियाध चेष्टा नहीं होंगी । अतः चेष्टात्व रूप प्रकृत उपाधि में साध्यव्यापकत्व के भङ्ग की कोई संभावना नहीं है । क्योंकि ‘नेत्रस्पन्द’ में ( नेत्र के निमेषादि क्रियामों में ) साध्य एवं उपाधि दोनों में से एक भी नहीं है । सि० प० ज्वलनपवनादी .. इस रीति से तो वह्नि की क्रियाओं में एवं वायु की क्रियाओं में भी ‘चेतनायोजितस्व’ मानना होगा । १ १.
इस प्रसव में ध्यान रखना चाहिये प्रकृत में पूर्वपक्षवादी हैं मीमांसक, जो ईश्वर की सत्ता को स्वीकार नहीं करते, किन्तु जीवों की सत्ता को स्वीकार करते हैं। इस सिद्धान्त के अनुसार (१) कुछ क्रियाओं की उत्पति भोग के अनुकूल अह से युक्त आरंमा के संयोग से होगी — जैसे कि ज्वलनपवनादि की क्रियायें । ( २ ) कुछ क्रियाओं की उत्पत्ति जीवों (पुरुषों) के प्रयत्नों से होंगी, जैसे कि शरीर एवं उनके अवयवों की कियायें । ( ३ ) कुछ क्रियाये, स्पर्श से युक्त किसी दूसरे द्रभ्य के संयोग से उत्पन्न होंगी- जैसे की वृक्ष की शाखाओं की कम्पादि क्रियायें । इन में से ज्वलनादि क्रियाओं में स्पशंवद्रव्यान्तरसंयोगाजन्यत्व तो है, किन्तु चेतनाथोजितत्व नहीं है । यदि उपाधि को साध्य का समनियत मान लिया जाय, तो यह समनियतत्व कथित पवनादिक्रियाओं में भङ्ग हो जायगी । चेष्टा के लक्षण में स्पर्शवद्रव्यान्तरसंयोगाजन्यत्व देने से प्रकृत अनुमान में चेष्टात्थ उपाधि नहीं हो सकती । किन्तु सिद्धान्तपक्ष के इस कथन में प्रसङ्ग है ‘शरीरवृत्तिक्रियात्वं चेष्ठात्वम्’ इस प्रकार के चेष्टा लक्षण के द्वारा प्रकृत अनुमान में ‘चेष्टात्व’ रूप उपाधि दोष के उषुभावन का। इसी सन्दर्भ में ‘स्पर्शववृद्रव्यान्तराप्रयोगे सति’ यह वाक्य लिखा है । अर्थात् कथित शरीरवृत्ति किया कुछ न्यूनता सी है, क्योंकि प्रकृत
६५६ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली शरीरस्य स्पर्शवद्रव्यान्तरा प्रयुक्तस्येति चेन्न । लक्ष्यमारणत्वात् । पू० व० शरीरस्य … चेष्टयैव शरीरस्य शरीर की वह क्रिया ही चेष्टा है, जिसकी उत्पत्ति में स्पर्श से युक्त एवं क्रिया के श्राश्रयीभूत द्रव्य से भिन्न किसी दूसरे द्रव्य के संयोग की अपेक्षा न हो । चेष्टा के इस लक्षण के अनुसार पवनादि में होने वाली क्रियायें चेष्टा नहीं हैं । अतः पवनादि क्रियाओं में साध्य एवं उपाधि इन दोनों में से किसी के भी न रहने से ‘चेष्टात्व’ रूप उपाधि में साध्य- समनियतस्व में कोई बाधा नहीं है । इस लिये प्रकृत अनुमान में ‘चेष्टात्त्र’ उपाषि अवश्य है । सि० प० चेष्टयेव चेष्टा के इस लक्षण में ‘अन्योन्याश्रय’ दोष है । चेष्टा का आश्रय हो शरीर है ( अर्थात् चेष्टात्रयस्व ही चेष्टा का लक्षण है) । यदि चेष्टा के लक्षण में ‘शरीर’ किसी प्रकार से विशेषण हो, तो चेष्टा ( के लक्षण ) को समझने के लिये ‘शरीर’ का ज्ञान आवश्यक होगा । एवं ‘शरीर’ को समझने के लिये ‘चेष्टा’ को समझना अनिवार्य होगा । अतः उक्त लक्षण ठीक नहीं है । में स्पर्शवण्यान्तर संयोगाजभ्यत्व विशेषण देकर नेत्र के उन्मेषादि क्रियाओं में चेात्व की प्रापत्ति की गयी है, फक्तवः चेष्टा का “स्पश्ववृद्रव्यान्तरसंयोगाजभ्यत्वे सति शरीरवृत्तित्वे सति क्रियाश्वम्, इस आकार का लक्षण निष्पन्न होता है । किन्तु पवनादि द्रव्यों की क्रियाओं में इस लक्षण के ‘शरीरवृत्तित्व’ रूप विशेषण के म रहने से ही चेष्टा लक्षण की प्रतिव्याप्ति वारित हो जायगी, अतः प्रकृत ‘सत्य’त’ ग्रन्थ लिखने वाद पचनादि क्रियाओं में दोष देना उचित नहीं है। इन सभी विषयों का उल्लेख करते हुए ‘प्रकाश’ की ‘मकरन्द’ टीका में रुचिदत्तोपाध्याय लिखते हैं कि— पवनादि क्रियाओं का उपज्ञेख ‘स्पर्शव द्रव्यान्तरसंयोग। जन्यक्रियात्वम् चेष्टाश्वम्’ चेष्टा के इस स्वतन्त्रलक्षण के अभिप्राय से किया गया है। ‘शरीर’ घटित चेष्टा के इस लक्षण में आगे ‘अन्योन्याश्रय’ दोष दिखलाया गया है । एवं स्पशंघटित स्पशंवद्र- व्यान्तरसंयोगाजन्यत्व घटित चेष्टा का लक्षण अनुपद ही ‘शरीरस्य’ इत्यादि से उलिखित ही है । वा प्रकृत में उक ‘सत्यन्त’ पाठ की ‘लिपिकर’ का प्रमाद ही समझना चाहिये । 1
रस्य या के इस ओं में अध्य- I 시 है कार सामान्य विशेषश्चेष्टात्वं पचमः स्तबकः ६२७ यत उन्नीयते प्रयत्नपूर्विय क्रियेति चेन्न | क्रियामात्रेणैव तदुन्नयनात् । भोक्तृवुद्धिमत्पर्वकत्वं यत इति चेत् । पू० प० सामान्यविशेषः 640 ( ‘क्रियात्व’ है ‘सामान्य धर्म, एवं चेष्टाव उसका प्रवान्तर ( व्याप्य ) ‘विशेष धर्म’ है । क्रियाओं में ‘प्रयत्नजन्यत्व’ ही वह ‘विशेष’ है, जिससे चेष्टा रूप क्रिया ( प्रयत्नाजन्य ) अन्य क्रियाओं से ‘विशेष’ रूप में भिन्न रूप में) उपस्थित होती है। इस वस्तुस्थिति के अनुसार ‘प्रयत्न से उत्पन्न होनेवाली क्रिया ही ‘चेष्टा’ है, अर्थात् प्रयत्नजन्यक्रियास्व हो ‘चेष्टा’ का लक्षण है । इस प्रकार जिन क्रियाओं में चेष्टात्व रहेगी, उनमें प्रयत्नपूर्वकस्व भी अवश्य रहेगा। इस व्याप्ति के कारण ‘चेष्टात्व’ हेतु से ‘प्रयत्नपूर्वकरव’ का धनुमान हो सकता है । अर्थात् जिससे क्रिया में प्रयत्नजन्यत्व का अनुमान होता है, वह हेतुभूत जाति हो है चेष्टात्व । चेष्टा के इस लक्षण को समझने के लिये ‘शरीर’ का किसी भी प्रकार का ज्ञान घावश्यक नहीं है । अतः इस लक्षण में न ‘भन्योन्याश्रय’ दोष है, न कोई दूसरा दोष ही सम्भव है । यक उक्त सि० प० क्रियामात्रेण
- में त्यत्वे है । केवल ‘चेष्टा’ रूप विशेष प्रकार की क्रियाधों की उत्पत्ति में प्रयत्न को अपेक्षा है। प्रयत्नजन्यत्व का अनुमान होता है, उसके लिये की आवश्यकता नहीं है । इस लिये क्रिया ही प्रयत्नजन्य नहीं है, किन्तु सभी अतः ‘क्रियात्व’ स्वरूप सामान्यधर्म से ही ‘चेष्टात्व’ रूप विशेष धर्म को हेतु बनाने के नन्त’ वयों चम्’ इस से ही ‘चेष्टात्व’ स्वरूप विशेषधर्म प्रयत्नजन्यत्व का साधक हेतु ही नहीं है । अतः ‘चेष्टा’ का उक्त लक्षण भी ठीक नहीं है। पू० प० भोक्त बुद्धिमत् 00:0 ‘भोक्ता’ स्वरूप बुद्धिमान पुरुष से जो क्रिया उत्पन्न होती है, वही ‘चेष्टा’ है । जीव की सभी क्रियायें सुखानुभव अथवा दुःखानुभव रूप भोग के लिये ही होती है । प्रयत्न क्रिया का कारण है, इच्छा प्रयत्न का कारण है। एवं बुद्धि से इच्छा उत्पन्न होती है । फलतः सुख अथवा दुःख के कारणभूत क्रिया का कारण बुद्धि है। बुद्धि के भ्रम एवं प्रमा ये दो भेद हैं । उक्त क्रम से प्रमाज्ञान के द्वारा जो क्रिया उत्पन्न होती है, वह क्रिया सुख को उत्पन्न करती हुई सोग का संपादन करती है । एवं भ्रम से जो क्रिया उत्पन्न होती है, वह ३
६५८ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली तहि तद्विश्रान्तत्वमेव तस्य । न चेतावतेव क्रियामात्रं प्रत्यचेतन मात्रस्य चेतनाधिष्ठानेन व्याप्तिरपसार्यते; विशेषस्य विशेषं प्रति प्रयोजकतया सामान्यव्याप्ति प्रत्यविशेधकत्वात् । अन्यथा सर्वसामान्यव्याप्ते रुच्छेदादित्युक्तम् । एतेनाऽशरीरत्वादिना सम्प्रतिपक्षत्वमपास्तम् । । भी अन्ततः वैकल्यजनित दुःख को उत्पन्न करती हुई दुःखानुभव रूप भोग का उत्पादन करती है । बुद्धिमान भोक्ता पुरुष की यही विशेष प्रकार की क्रिया ‘चेष्टा’ कहलाती है । चेष्टा के इस लक्षण में कथित ‘अन्योन्याश्रय’ प्रभृति दोष नहीं हैं । सि० प० तह । ‘चेष्टा’ रूप विशेष प्रकार की क्रिया बुद्धिमान् भोक्ता रूप विशेष कारण से उत्पन्न होती है— इसमें कोई सन्देह नहीं है, किन्तु इस विशेष कार्यकारणभाव से ‘सभी क्रियायें प्रयत्न से उत्पन्न होती है’, इस प्रकार के ‘सामान्यकार्यकारणभाव’ का अपलाप नहीं किया जा सकता । एवं इसीलिये ‘किसी भी अचेतन द्रव्य में किसी चेतन के सहाय्य के विना क्रिया की उत्पत्ति नहीं होती है’ अथवा ‘अचेतन (जड़) द्रव्य कीं सभी क्रियायें चेतन से ही उत्पन्न होती है’ इस प्रकार की व्याप्तियों का अपलाप भो नहीं किया जा सकता । ‘विशेष प्रकार के कारण विशेष प्रकार के कार्यों को उत्पन्न करते हैं’ इसका यह अर्थ नहीं है कार्यसामान्य में कारण सामान्य की जो व्याप्ति है - उसका वह ( विशेष कारणभाव ) बिरोधी है । ‘प्रन्यथा’ यदि विशेष कार्यकारण भाव से कार्य - सामान्य में रहने वाली कारणसामान्य की व्याप्ति का विरोध स्वीकार करें तो जगतसे ‘सामान्यमुखी व्याप्ति’ की चर्चा ही उठ बायगी। क्योंकि विशेषकार्यकारण भाव से ही सामान्यकार्यकारण की सिद्धि होती है । एवं कार्य सामान्य में कारणसामान्य की जो व्याप्ति है, उसका मूल विशेष- कार्यकारणभाव ही हैं । इस मूल का ही जब लोप हो जायगा तो फिर कार्यसामान्य में कारण सामान्य की व्याप्ति तो अवश्य ही उठ जायगी । यह बात पहिले भी अनेकवार कही बा चुकी है। एतेन ‘परमाणवो हि चेतनायोजिताः प्रवत्तन्ते अचेतनत्वात्’ इस अनुमान में सत्प्रतिपक्ष का उद्भावन कोई इस रीति से करते हैं कि चेतन के द्वारा केवल शरीर ही प्रवृत्ति होता है । परमाणु चूंकि शरीर स्वरूप नहीं हैं, अतः यह प्रत्यनुमान ( विरोधी अनुमान ) निष्पन्न होता है कि ‘परमाणवो न चेतनायोजिताः प्रवर्तन्ते शरीरेतरत्वाद’ अर्थात् परमाणु चूकि शरीर स्वरूप नहीं है, मतः चेतन के द्वारा किसी भी कार्य में प्रवृत्त नहीं हो सकते ।
त्रस्य कतया कम् । त्पादन चेष्टा उत्पन्न कयायें किया क्रिया स्पन्न कार मान्य नान्य उठ होती शेष- में कही पक्ष ar ब) पु । अत्राप्यागमसंवादः - पञ्चमः स्तबकं । यदा स देवो जार्गात तदेदं चेष्टते जगत् । यदा स्वपिति शान्तात्मा तदा सर्व निमीलति ॥ ६५ ( मनु० अ० १ इलो० ५२ ) इस प्रकार प्रकृत अनुमान के परमाणु स्वरूप पक्ष में ‘चेतनायोजितस्वाभाव’ रूप प्रकृत साध्य के अभाव के साधक ‘शरीरेतरत्व’ रूप दूसरे हेतु की सत्ता से प्रकृत अनुमान का ‘प्रचेतनत्व’ हेतु सत्प्रतिपक्षित’ हो जाता है । इस प्रकार धाये हुये सत्प्रतिपक्ष दोष का उद्धार इस प्रकार किया जाता है कि शरीर में रहने वाली विशेष प्रकार की क्रिया को ‘चेष्टा’ कहते हैं, इस ‘चेष्टा’ रूप विशेष प्रकार की क्रिया का कारण है विशेष भोक्ता में रहने वाला प्रयत्न स्वरूप है । ( अर्थात् भोक्त निष्ठस्व ही । इस प्रकार सिद्ध विशेष कार्यकारणभाव से भोक्तनिष्ठ प्रयत्न स्वरूप प्रकार का प्रयत्न, जो प्रयत्न का विशेष है ) विशेष कारण में शरीर से भिन्न द्रव्यों रहने वाली विशेष क्रिया की कारणता ही निवृत्त होती है । इससे प्रयत्न सामान्य में जो क्रिया सामान्य की कारणता है, उसकी निवृत्ति नहीं होती है । इस प्रकार प्रयत्न में जब शरीर से भिन्न द्रव्य में उत्पन्न होने वाली कारणता सिद्ध ही है, तो यदि परमाणु शरीर से भिन्न है, तथापि प्रयत्न में परमाणु में रहने वाली क्रियाओं को कारणता की निवृत्ति नहीं हो सकती । ‘प्रयत्नजन्यत्व’ ही ‘चेतनायोजित्व’ है । मतः क्रिया सामान्य एवं क्रिया विशेष दोनों के कार्य कारणभाव के व्यवस्थित रहने के कारण प्रकृत अनुमान में कथित सत्प्रतिपक्ष दोष नहीं है । ( १ ) यदा सः आयोजन हेतु के इस अनुमान के द्वारा निष्पन्न अर्थ की परिपुष्टि ‘यदा स इस मनुस्मृति के वचन से भी होता है । ( इस मनु के इस श्लोक का यह अभिप्राय है कि ) वह प्रसिद्ध ‘देव’ परमेश्वर जब ‘जागते हैं’ अर्थात् जीवों के भोगोन्मुख अदृष्टों का साहाय्य सृष्टि के उत्पादन के लिये जब उन्हें प्राप्त होता है, तब इस ‘जगत्’ में अर्थात् जगत के उत्पादक पर- मारणुत्रों में ‘चेष्टा’ अर्थात् चरक की उत्पादिका क्रिया उत्पन्न होती है । एवं वही परमेश्वर जब ‘शयन’ को प्राप्त होते है, अर्थात् उक्त विशेष प्रकार के अदृष्ट रूप सहायक से वञ्चित हो जाते हैं, तब सभी ‘निमीलित’ हो जाते हैं । अर्थात् सभी पदार्थों का विनाश रूप प्रलय होता है । CCO. Vasishtha Tripathi Collection. Digitized by eGangotriK ६६० श्रज्ञो गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली जन्तुरनीशोऽयमात्मनः सुखदुःखयोः । ईश्वरप्रेरितो गच्छेत् स्वर्गं वा श्वभ्रमेव वा ॥ ( महाभारत वन पर्व अ० ३ श्लो० २८ ) मयाsध्यक्षेण प्रकृतिः प्रकृतिः सूयते सूयते सचराचरम् । तपाम्यहमहं वर्षं निगृह्णाम्युत्सृजामि च । इत्यादि । ( गीता ) अत्र जागरस्वापी सहकारिलाभालाभो । ईश्वरप्रेरणायामज्ञत्वमप्रयतमान- त्वञ्च हेतू दर्शितो परमाण्वादिसाधारणो । स्वर्गश्वभ्रं चेष्टाऽनिष्टोपलक्षणे । एतदेव सर्वाधिष्ठानमुत्तरत्र विभाव्यते मयेत्यादिना । न केवलं प्रेरणायामहमधिष्ठाता, अपि तु प्रतिरोधेऽपि । यो हि यत्र प्रभवति, सं तस्य प्रेरणावद्धारणेऽपि समर्थः । यथाऽर्वाचीनः शरीरप्राणप्रेरणधारणयोरिति दर्शितं तपामीत्यादिना । (२) प्रज्ञो जन्तु प्राप्त करता है । अभीष्ट कार्य के अपेक्षा रखता है । चेतन जीव ही रहित होने के एवं प्रयत्न से स्वयं अज्ञ यह जीव अपने सुख एवं दुःख के उत्पादन में ‘अनीश’ अर्थात् असमर्थ है । ईश्वर की प्रेरणा से ही वह स्वर्ग ( सुख ) एव ‘श्वा’ ( नरक, दुःख ) को अर्थात् जिसमें उपयुक्तज्ञान अथवा उपयुक्त प्रयत्न नहीं रहता है, वही अपने सम्पादन के लिये अभिज्ञ एवं प्रयत्नवान् दूसरे पुरुष की जब स्वर्ग एवं नरक की प्राप्ति के अनुकूल प्रमाज्ञान कारण स्वर्ग एवं नरक के उपयुक्त ज्ञान एवं प्रयत्न से युक्त ‘परमेश्वर’ की अपेक्षा रखता है, तब सर्वथा प्रचेतन जड़ परमाणुषों को धरकों के उत्पादन के अनुकूल क्रिया के लिये अभिज्ञ एवं प्रयत्न से युक्त परमेश्वर की अपेक्षा हो तो उसमें कौन सा अनौचित्य है ? ईश्वर के द्वारा वे ही प्रेरित होते हैं, जो स्वयं श्रज्ञ एवं प्रयत्न से रहित होते हैं । अत. ईश्वर प्रेरितस्व का प्रयोजक है, प्रज्ञत्व एवं अप्रयत्नशीलत्व । ये दो ही जिस प्रकार जीवों में हैं, उसी प्रकार परमाणुओं में भी हैं । तस्मात् सृष्टि के प्रारम्भ की परमाणुत्रों की वे क्रियायें अवश्य ही ईश्वर के प्रयत्न से होती हैं, जिनसे द्वयकों की उत्पत्ति होती है । मयाध्यक्षेण (३) यही ‘सर्वाधिष्ठान’ अर्थात् सभी कार्यों के उपयुक्त ज्ञान एवं सभी कार्यों के के उत्पादन के उपयुक्त प्रयत्न ‘मया’ इत्यादि श्लोक से भी कहा गया है । इस श्लोक के द्वारा गीता में भगवान् कहते हैं कि ‘प्रकृति’ अर्थात् परमाणुगंण मेरी अध्यक्षता में स्थावर जङ्गम सभी प्रकार की वस्तुओं से युक्त जगत की सृष्टि करते हैं । एवं ‘अहमेव तपामि’ उत्पादन में ‘प्रभु’ अर्थात् समर्थ’ होता है, वह उस कार्य के विनाश अर्थात् जो जिस कार्य मैं भी समर्थ होता है। के अतः मैं केवल कार्य की उत्पत्ति के उपयुक्त प्रेरणा का ही अधिष्ठाता
ज्ञ रां AAA र -र के के वर श वां पञ्चम स्तबका ६६१ घृतेः खल्वपि । क्षिस्यादि ब्रह्माण्डपर्यन्तं हि जगत्, साक्षात् परम्परया वा । विधारक प्रयत्नाधिष्ठितम्, गुरुत्वे सत्यपतनधर्मकत्वात् वियति विहङ्गमशरीरवत्, तरसंयुकद्रव्यवच्च । एतेनेन्द्राग्नियमादिलोकपालप्रतिपादका प्रप्यागमा व्याख्याताः । नहीं हैं, किन्तु कार्यों के विनाश का भी प्ररक हूँ । फलतः परमाणुओं में उन क्रियाओं की उत्पत्ति भी ईश्वर की प्रेरणा से ही होती है, जिन क्रियाओं से द्वयरतुकों का विनाश होता है । एवं जो जिस कार्य की उपसि एवं विनाश का अधिष्ठाता होता है, वह उन कार्यों को धारण करने में ( अर्थात् उनको स्थिति के संपादन में ) भी समर्थ होता है । अतः जिस प्रकार ‘अर्वाचीन अर्थात् जीवरमा भ्रपने प्रदृष्ट के सहाय्य से पारीरादि एवं प्राण के प्ररक एवं घारक दोनों ही होता है उसी प्रकार परमेश्वर भी जगत् के प्रेरक एवं धारक दोनों ही हैं। यही बात ‘तपामि’ इत्यादि से व्यक्त की गयी है । सि० प० धृतेः खल्वपि घृति हेतु से भी निस्य सर्वश परमेश्वर का अनुमान करना चाहिए । क्षिष्यादि ब्रह्माण्डपर्यन्तम् " G ‘गुरु’ द्रव्य स्वभावतः पतनशील होता है, किन्तु स्पर्थ से युक्त किसी दूसरे द्रव्य का विशेष प्रकार का संयोग, एवं ‘विघारकप्रयत्न’ इन दोनों में से किसी के भी रहने पर ‘गुरुद्रव्य ’ का भी पतन नहीं होता है । जैसे कि छोंके पर रखा हुआ दही का मटका नहीं गिरता है, एवं प्रकाश में उड़ती हुई चिड़िया नहीं गिरती है। यह ब्रह्माण्ड तो ‘गुरु’ ही नहीं ‘गुरुतम’ द्रव्य है, अतः उसका भो पतनशील होना स्वाभाविक है । किन्तु ब्रह्माण्ड का पतन नहीं होता है, एवं स्पर्थ से युक्त किसी दूसरे द्रव्य के संयोग का भी उसमें रहने का कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं है । अतः ब्रह्माण्ड के प्रतिबन्धक किसी ‘विधारक प्रयत्न’ की ही कल्पना करनी होगी । वह हम लोगों में रहनेवाले प्रयत्न से नहीं हो सकता । अतः जिस विशेष प्रकार के विधारक प्रयत्न से ब्रह्माण्ड का पतन प्रतिरुद्ध होता है, उस प्रयत्न का आश्रय ही ‘परमेश्वर’ है। ( इससे निष्पन अनुमानवाक्य ही “क्षित्यादि ब्रह्माण्डपर्यन्तं हि तत्संयुक्तद्रव्यवच्च” इत्यादि सन्दर्भ से उपपादित हुआ है ) । एतेनेन्द्राग्नि’-… ( पुराणादि ग्रन्थों में इन्द्र, अग्नि, यम प्रभूति देवताओं के स्वतंन्त्र पस्तित्व का ) एवं उन लोगों के रहने के इस लोक से ऊर्ध्व स्वतन्त्र वासस्थान इन्द्रलोक, यमलोकादि का वर्णन प्राप्त होता है। इस प्रसङ्ग में ‘अश्रद्धालुमों’ की दो शङ्कायें हैं (१) यदि इन्द्रादि देवताओं
६६२ गद्यपद्यात्मक- स्यायकुसुमाञ्जली सर्वावेशनिबन्धनश्च सर्वतादात्म्यव्यवहारः, ‘आत्मैवेदं सर्वमिति । यथेक एव मायावी अश्वो वराहो व्याघ्रो वानराः किन्नरो भिक्षुस्तापसो विन इत्यादि । अदृष्टादेव तदुपपत्तेरन्यथासिद्धमिदमिति चेत् । का स्वतन्त्र अस्तित्व है तो ‘प्रारमेवेदं सर्वम्’ इस श्रुति का विरोध होता है, क्योंकि इस महावाक्य से केवल ‘बात्मा’ का ही स्वतन्त्र अस्तित्व प्रतिपादित है । (२) यदि इस लोक से ऊर्ध्वं इन्द्रलोक, यमलोकादि स्थान हों तो उनका पतन अनिवार्य होगा । क्योंकि उनके पतन का प्रतिरोधक स्पर्श से युक्त किसी दूसरे द्रव्य का संयोग उनमें उपलब्ध नहीं है । अत न इन्द्रादि नाम की कोई स्वतन्त्र व्यक्ति ही हैं, न उन लोगों का कोई स्वर्गादि वासस्थान ही हैं । क्षित्यादि के पतन के प्रतिबन्धक इस विचारक प्रयत्न के उपपादन से कथित दोनों ही आक्षेपों का भी समाधान हो जाता है । स्वर्गादि ऊर्ध्वलोकों के पतन का स्पर्श से युक्त किसी दूसरे द्रव्य का संयोग रूप प्रतिबन्धक यद्यपि नहीं है, तथापि ईश्वर के विधारक प्रयत्न स्वरूप प्रतिबन्धक से ही स्वर्गादि का पतन प्रतिरुद्ध हो सकता है । दूसरे आक्षेप का समाधान भी ईश्वरीय विधारक प्रयत्न के उपपादन से हो जाता है । इन्द्रादि दश दिक्पाल प्रभूति जीवों में ईश्वर अपने प्रयत्न के द्वारा आविष्ट होकर ऐसे विशेष प्रकार के कार्यों में उनका साहाय्य करते हैं, जो काम हमलोगों से संभव नहीं है । इस संसार की प्रत्येक वस्तु में ईश्वर का ‘प्रवेश’ जानना चाहिये । इस प्रकार का ईश्वर का ‘समावेश’ ही सभी वस्तुओं में ईश्वर के तादाम्य के प्रतिपादन का मूल है, जो ‘प्रत्मैवदं सर्वम्’ इत्यादि श्रुतियों के द्वारा प्रतिपादित होता है । जिस प्रकार एक ही ‘मायावी’ पुरुष अपने ‘आवेश’ के द्वारा घोड़ा, शुकर, बाघ, बानर, किन्नर, भिक्षु प्रथवा वापस हो जाता है, उसी प्रकार एक ही परमेश्वर अपने प्रवेश के द्वारा इन्द्रादि के विशेष प्रकार के कार्यों में सहायक होते हैं । पू० १० प्रदृष्टादेव… अदृष्ट यदि कार्यों का कारण है । तो फिर ‘लोकस्थिति’ स्वरूप कार्य का भी वह कारण है ही । ‘लोकस्थिति’ से जो प्राणियों को सुख अथवा दुःख प्राप्त होता है, उनके कारणीभूत प्रदृष्टों से ही मित्यादि कार्यों का पतन प्रतिरुद्ध हो जायगा । तदर्थ ‘प्रयत्न’ को कारण मानना अनावश्यक है । फलतः प्रयत्न लोकधारण कारण नहीं है, किन्तु ‘प्रन्यथासिद्ध’ है। छातः क्षित्यादि कार्यों के पतन के प्रतिबन्धक विधारक प्रयत्न के आश्रय रूप में ईश्वर की सिद्धि संभव नहीं है ।
न न T न प दि ब ’ AA - क वह के को ’ वर पञ्चमः स्तबक! ६६३ तद्भावेऽपि प्रयत्नान्वयव्यतिरेकानुविधानेन तस्यापि स्थिति प्रति कारणत्वात् । कारणेकदेशस्य च कारणान्तरं प्रत्यनुपाधित्वात् । उपाधित्वे वा सर्वेषामकारणत्व- प्रसङ्गात् । शरीरस्थितिरेवं न स्वम्यस्थितिरिति चेन्न, प्राणेन्द्रिययोः स्थितेरव्यापनात् । प्राङ्न्यायेनापास्तत्वाच्च । सि० प० तद्भावेऽपि S 200 अदृष्ट के ही समान प्रयत्न में भी ‘स्थिति’ की कारणता अन्वय और व्यतिरेक से सिद्ध है । एक वस्तु में सिद्ध करणता तत्सजातीय दूसरी वस्तुओं की कारणता का प्रतिरोध नहीं कर सकती । यदि प्रदुष्ट को कारण मान कर अन्य सभी कारणों का निराकरण कर दिया जाय तो फिर अदृष्ट को छोड़कर और कोई किसी का कारण ही नहीं रहेगा । अदृष्ट में सिद्ध कारणता से प्रयत्न को अन्यथासिद्ध नहीं माना जा सकता । पू० प० शरीर… प्रयत्न ‘शरीर’ की ‘स्थिति’ का ही कारण है, अन्य वस्तुनों की स्थिति का नहीं । यदि प्रयत्न को केवल शरीर की स्थिति का भी कारण मान लें, तथापि प्रदृष्ट से भिन्न सभी पदार्थों में कारणता का खण्डन नहीं होता । सि० प० प्राणेन्द्रिययो…. (१) ( प्रथम समाधान यह है कि ) यदि प्रयत्न में शरीर की स्थिति की कारणता को मानना प्रावश्यक होता है, तो फिर प्रयत्न में प्राण एवं इन्द्रिय की स्थिति की कारणता भी स्वीकार करनी होगी । ( क्योंकि प्राण एवं इन्द्रिय का प्राय ही शरीर है । ) (२) दूसरा समाधान यह है कि ‘प्राङम्याय’ से अर्थात् ‘विशेषस्तु विशेषवाम्’ इत्यादि के द्वारा पूर्व कथित युक्ति से ‘यद्विशेषयोः कार्यकारणभावः तत्सामान्ययोरपि कार्यकारणभावः’ इस प्रकार का कार्यकारणभाव सिद्ध है। भ्रतः शरीर स्थिति स्वरूप ‘विशेष’ कार्य के लिये यदि शरीरी जीव के प्रयत्न स्वरूप ‘विशेष’ कारण को कल्पना आवश्यक है, तो इसी कल्पना के द्वारा प्रयत्नसमान्य में स्थितिसामान्य की कारणता सिद्ध हो जाती है । अतः मित्यादि की स्थिति के उत्पादक प्रयत्न के आश्रय के रूप में ईश्वर की सत्ता को स्वीकार करना प्रसङ्गत नहीं है ।
६६७ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली अत्राप्यागमः । ‘एतस्य वा अक्षरस्य प्रशासने गागि ? द्यावापृथिव्यो विधृते तिष्ठतः । ( बृहदारण्यकोपनिषद् )’, इति । प्रशासनं दण्डभूतः प्रयत्नः । ‘उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः परमात्मेत्युदाहृतः । यो लोकत्रयमाविश्य विभत्यंव्यय ईश्वरः ॥ ( गीता ) इति स्मृतिः । अत्रोत्तमत्वमसंसारित्वं सर्वज्ञत्वादि च । परमत्वं सर्वोपास्यता । लोकत्रयमिति सर्वोपलक्षणम् । आवेशो ज्ञानचिकिर्षाप्रयत्नवतः संयोगः । भरणं धारणम् । अव्ययत्वं प्रागन्तुकविशेषगुणशून्यत्वम् । ऐश्वयं सङ्कल्पाप्रतिघात इति । एतेन कर्मादिविषया प्रप्यागमा व्याख्याता। । मत्रापि … धृति हेतु के द्वारा उल्लिखित ईश्वर की सिद्धि का समर्थन निम्नलिखित श्रुति एवं स्मृति के वाक्य भी करते है । (१) एतस्य… इस श्रुति के ‘अक्षर’ शब्द से परमेश्वर अभिप्रेत हैं । ( तदनुसार उक्त श्रुतिवाक्य का अर्थ है कि ) हे गागि ! इस ‘अक्षर’ स्वरूप ‘परमेश्वर’ के ‘प्रशासन’ से ही प्रर्थात् दण्डभूत विधारक प्रयत्न ( पतन के प्रतिबन्धक प्रयत्न ) से ही ‘बाबा’ अर्थात् स्वर्गादि ऊर्ध्वलोक एवं ‘पृथिवी’ अर्थात् ‘मर्त्यलोक’ प्रभूति समस्त ब्रह्माण्ड ‘विद्युत’ हैं अर्थात् स्थित’ हैं । (२) उत्तम- इस स्मृतिवाक्य के द्वारा भगवान् ने गीता में कहा है कि “हे अर्जुन ! ‘अन्य’ अर्थात् इन संसारी जीवों से मिन ‘उत्तम’ मर्थात् प्रसंसारी एवं सर्वज्ञ स्वरूप विशेष पुरुष ही सर्वज्ञ ‘परमात्मा’ कहे जाते हैं। जो ‘पप्रतिहत संकल्प’ स्वरूप ‘ऐश्वर्य’ से युक्त है । एवं वह परमेश्वर ‘अव्यय है’ प्रर्थात् उत्पत्तिशील सभी ज्ञानादि विशेषणों से रहित हैं । इस प्रकार के ऐश्वर्य से युक्त ( अर्थात् ईश्वर ) ‘अव्यय’ परमेश्वर ही ‘लोकत्रय’ में अर्थात् समस्त विश्व में आविष्ट होकर उसका धारण और भरण करते हैं । इस प्रकार के उपपावन से ‘भगवान ने कूर्म अवतार लेकर जगत का उपकार किया’ इस पौराणिकी कथा की सङ्गति भी ठीक बैठती है । अर्थात् कथित विधारक प्रयत्न से युक्त पुरुष ही पुराणों में ‘कर्म’ शब्द से प्रभिहित हैं ।
धृते TT I रणं Fal एवं
- का डभूत एवं र्यात् वही इस मस्त कया’ युक्त पञ्चमः स्तबकः ६६१ संहरणात्खल्वपि । ब्रह्माण्डादि द्वयरणुकपर्यन्तं जगत्, प्रयत्नवद्विनाश्यं विनाश्यत्वात् पाट्यमान पटवत् । प्रत्राप्यागमः- ‘एष सर्वाणि भूतानि समभिव्याप्य मूर्तिभिः । जन्मवृद्धिक्षयैनित्यं सम्भ्रामयति चक्रवत् ॥ ।
- ( मनु० प्र० १२ श्लो० १२४ ) सर्वभूतानि कौन्तेय ? प्रकृतिं यान्ति मामिकम् । कल्पक्षये पुनस्तानि कल्पादी विसृजाम्यहम् ॥ ( गीता ) इत्यादि । एतेन रौद्रमंशं प्रतिपादयन्तोऽप्यागमा व्याख्याताः ॥ ४ ॥ सि० प० ( ४ ) संहरणात् खलु पठित ‘आदि’ शब्द से परमेश्वर का अनुमान ‘कार्यायोजनघृत्यादेः’ इत्यादि इस स्तवक के प्रथम श्लोक में अभिप्रेत ‘संहार’ स्वरूप हेतु के द्वारा भी ‘विश्ववित्’ एवं ‘अव्यय’ करना चाहिये । अर्थात् जिस प्रकार ‘निर्माण कार्य प्रयत्न से युक्त पुरुष के द्वारा ही निष्पन्न कार्य मी प्रयत्न से युक्त पुरुष के द्वारा ही निष्पन्न हो स्वरूप कार्य का निष्पादन ‘कुविन्द’ ( जुलाहे ) के बिना नहीं पट’ की उत्पत्ति के प्रयोजक महापट का नाश भी पुरुषप्रयत्न होता है, उसी प्रकार ‘संहार’ स्वरूप सकता है । जिस प्रकार पट हो सकता, उसी प्रकार ‘खण्ड के बिना नहीं होता । जगत् स्वरूप कार्य की के प्रयत्न के बिना नहीं हो सकता । जगत के स्तवक में कर चुके हैं। अतः जगत के संहार के रूप में भी परमेश्वर की सिद्धि हो सकती है । ब्रह्माण्डादि उत्पत्ति की तरह उसका विनाश भी पुरुष विनाश स्वरूप ‘प्रलय’ का उपपादन द्वितीय उपयुक्त विशेष प्रकार के प्रयत्न के आश्रय वाक्य का यह अर्थ है कि ) जिस प्रकार द्वारा ही विनष्ट होता है, उसी प्रकार ब्रह्माण्ड ( संहार हेतुक ईश्वरानुमान के इस विनश्यमान पट प्रयत्न से युक्त किसी पुरुष के स्वरूप यह जगत रूप कार्य भी केवल विनाशशील होने के नाते ही प्रयत्न से युक्त किसी पुरुष के द्वारा ही विनष्ट भी होता है । प्रत्रापि ‘जगत का विनाश भी पुरुषप्रयत्न से ही होता है’ कथित इस अनुमान के द्वारा निष्पन्न अर्थ की परिपुष्टि इन दोनों भागम वाक्यों से भी होती है । (१) एष सर्वाणि भूतानि बही ‘परमेश्वर’ ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र प्रभुति मूत्तियों को धारण कर इन भूतपदार्थों को जन्म, वृद्धि एवं विनाश के भावर्त में चक्रवत् घुमाते रहते हैं । ८४
६६६ पदात् खल्वपि— सर्वभूतानि गद्य पद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली कार्यत्वान्निरुपाधित्वमेवं धृतिविनाशयोः । विच्छेदेन पदस्यापि प्रत्ययादेश्व पूर्ववत् ॥ ५ ॥ ( २ ) हे कौन्तेय । प्रलय काल में रचना में मेरे सहायक परमाणु के की आदि में मैं उसी प्रकति रचना करता है । । सभी ‘भूत’ मेरी ‘प्रकृति’ अर्थात् संसार की स्वरूप हो जाते हैं । ‘कल्प’ की आदि में अर्थात् सृष्टि ( स्वरूप परमाणुओं) के द्वारा पुनः संसार की इस प्रकार पुराणों में कथित ‘रुद्रावतार’ की कथा भी सङ्गत हो जाती है । अर्थात् रुद्रावतार की कथा से भगवान् में प्रलय के अनुकूल उपयुक्त प्रयत्न को सत्ता ही उपपादित हुई है ॥ ४ ॥ सि० पं० (५) पदात् खल्वपि जिस प्रकार कार्यत्व, प्रायोजन, घृति एवं बिनाश हेतुक अनुमानों से ‘विश्ववित्’ एवं ‘अव्यय’ परमेश्वर की सिद्धि का उपपादन कर आये हैं, उसी प्रकार ‘पद’ हेतु के धनुमान से भी सर्वज्ञ एवं नित्य परमेश्वर का साघन करना चाहिये । कार्यत्वान्निरुपाधित्वम् .. घृतिविनाशयोः ( जिस प्रकार ‘घुति’ स्वरूप हेतु के भी यह शङ्का प्रयत्न की अपेक्षा प्रसङ्ग में उपाधि की शङ्का होती है, उसी हो सकती है कि पटादि कुछ विशेष प्रकार होती है। इन विशेष प्रकार के विनाशों से प्रकार ‘विनाश’ के प्रसङ्ग में के कार्यों के ही विनाश में भिन्न जिसने भी विनाश हैं, वे बिना प्रयत्न के ही उत्पन्न हो सकते हैं । अतः यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता कि ब्रह्माण्ड के विनाश में प्रयत्न की अवश्य मपेक्षा होती है । इस प्राक्षेप को निरस्त करने के लिये पहिले कहे गये उस समाधान की पुनरावृत्ति करनी चाहिये कि जब किसी विशेष प्रकार के विनाश के लिये किसी विशेष प्रकार प्रयत्न की अपेक्षा को स्वीकृति प्राप्त है, तो फिर ‘यद्विशेषयोः कार्यकारणभाव। तत्सामान्ययो- रपि कार्यकारणभाव:’ इस न्याय के अनुसार नाशसामान्य के प्रति प्रयत्नसामान्य में भी कारणता की स्वीकृति देनी ही होगी । अतः प्रयत्न में ब्रह्माण्ड ‘विनाश की कारणता भी माननी ही होगी । इस लिये वृति एवं विनाश चूकि कार्य हैं, अतः घुतित्व एवं विनाश्यस्व रूप हेतुषों में प्रयत्नजन्यत्व स्वरूप साध्य के अनोपाधिक सम्बन्ध ( व्याप्ति ) को स्वीकार करने में कोई बाधा नहीं है ।
की ਇ की वि ही ’ A उसी कार से चत यो- भी भी 7 मैं कोई पञ्चमः स्वयंक ६६० पदशब्देनात्र पद्यते गम्यते व्यवहाराङ्गमर्थोऽनेनेति वृद्धव्यवहार एवोच्यते । प्रतोऽपीश्वरसिद्धिः । तथा हि-यदेतत् पटादिनिर्माणनैपुण्यं कुविन्दादीनाम्, वाग्व्यवहारश्च व्यक्त- वाचाम्, लिपितत्क्रमव्यवहारश्च बालानाम्, स सर्वः स्वतन्त्रपुरुष विश्रान्तो व्यवहार- स्वात्, निपुरगत र शिल्पिनिर्मितापूर्वघटघटनानेपुण्यवत्, चैत्रमैत्रादिपदवत्, पत्राक्षरवत्, पाणिनीयवर्ण निर्देशक्रमवच्चेति । आदिमान् व्यवहार एवम्, अयं त्वनादिरन्यथाऽपि भविष्यतीति चेन्न । ( धृति एवं विनाश हेतुक अनुमानों के प्रसङ्ग में कथित समाधान की चर्चा श्लोक के पूर्वार्द्ध से की गयी है । श्लोक के पूर्वार्द्ध में ही पठित ‘एवंम् ’ शब्द से पदहेतुक अनुमान में भी उसी समाधान के व्यतिदेश की किया गया है । एवं श्लोक के उत्तरार्द्ध मोर इङ्गिवं से उसी अतिदेश का उपपादन किया गया है । पलोक के उत्तरार्द्ध की व्याख्या आगे ‘आदिमान्’ इत्यादि गद्यग्रन्थ की व्याख्या के क्रम में पूर्ण रूप से की जायगी ) । पदशब्देन ‘पद्यते गम्यते व्यवहाराङ्गमर्थोऽनेनेति पदम्’ अर्थात् वृद्धव्यवहार के अङ्गीभूत वर्ष जिससे ज्ञात हो, वही प्रकृत में ‘पद’ शब्द का अर्थ है । वृद्धों के व्यवहार से प्राधुनिक व्यवहार ज्ञात होते हैं । कुविन्द ( जुलाहा ) में जो कपड़ा बुनने का नैपुण्य है, वह किसी शिक्षा से हो उसे प्राप्त है । शिक्षा की यह परम्परा कहीं पर अवश्य विषान्त होगी । फलतः पट के निर्माण की ऐसी कुशलता किसी को अवश्य प्राप्त थी, जो किसी अन्य पुरुष के कोयल की अपेक्षा नहीं रखती थी। निरपेक्ष निपुणता से युक्त वह पुरुष ही परमेश्वर हैं । इसी प्रकार ‘व्यक्तवाक’ प्रर्थात् मनुष्यों का वाग् व्यवहार, बालकों का लिपिक्रम प्रभूति का भी मूल शिक्षकं कोई अवश्य है । इस लिये जितने भी व्यवहार हैं, सभी व्यवहारों की परम्परा की विश्रान्ति किसी स्वतन्त्र पुरुष में प्रवश्य होती है। जैसे कि निपुणतर कुम्हार के द्वारा निर्मित अपूर्व घट रचना का नैपुण्य, अथवा चैत्र मैत्रादि के व्यवहार अथवा पत्रों के अक्षर, कि वा पाणिनीय के द्वारा निर्दिष्ट धक् अच् प्रमृति वर्णों के क्रम । ( इसी धनुमान वाक्य का प्रयोग ‘यदेतत्’ इत्यादि सन्दर्भ के द्वारा प्रदर्शित हुआ है । पू० प० श्रादिमान् ••• FOR में ‘प्राविमान’ अर्थात् सादि जो व्यवहार उसी की विश्रान्ति किसी स्वतन्त्र पुरुष होती है, अनादि व्यवहारों की नहीं । अतः उक्त अनुमान में ‘आदिमत्त्व’ अथवा ‘कार्यत्व’ उपाधि है । ( क्योंकि जिन व्यवहारों को विश्रान्ति स्वतन्त्र पुरुष में होती है, वे ही व्यवहार ‘सादि’ हैं । अर्थात् उन व्यवहारों की कभी न कभी प्रथमतः उत्पत्ति अवश्य हुई होगी ।
६६८ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली तदसिद्धेः । श्रादिमत्तामेव साधयितुमयमारम्भः । न चैवं संसारस्यानादि- स्वभङ्गप्रसङ्गः, तथापि तस्याविरोधात् । न हि चैत्रादिव्यवहारोऽयमादिमानिति भवस्याप्यनादिता नास्ति । तदनादित्वे वा न चेत्रादिपदव्यवहारोऽप्यादिमानिति । अस्त्वग्दर्शी कश्विदेवात्र मूलमिति चेन्न । | प्रत: कथित ‘प्रादिमत्व’ में साध्य की व्यापकता है । एवं ‘व्यवहारत्व’ स्वरूप हेतु अनादि व्यवहारों में भी है, किन्तु उनमें प्रादिमत्व नहीं है । इस लिये आदिमत्व हेतु का अव्यापक भी है। अतः इस अनुमान का ‘व्यवहारत्व’ हेतु ‘सादित्व’ रूप उपाधि से युक्त होने के कारण हेत्वाभास है, प्रता व्यवहारत्व हेतुक इस अनुमान से स्वतन्त्र व्यवहर्त्ता रूप परमेश्वर की सिद्धि नहीं हो सकती । सि० प० न, तसिद्धी … 100 उक्त अनुमान का हेतु उपाधि से युक्त नहीं है, क्योंकि कोई की व्यवहार अनादि है ही नहीं । वस्तुतः इस अनुमान के द्वारा सभी व्यवहारों को सादि सिद्ध करना ही अभिप्रेत है । इस के बाद ‘सादि व्यवहारों’ की परम्परा के विश्रान्ति स्थल परमेश्वर की सिद्धि ‘अर्थत’ हो जायगी । पू० प० न चैवम् — … इस प्रकार सभी व्यवहारों में श्रादिमत्व की सिद्धि से तो संसार में भी ‘सादित्व’ की सिद्धि हो जायगी । फलतः आस्तिकगण जो संसार को अनादि मानते हैं, वह असङ्गत हो जायगा । अतः सभो व्यवहार ‘प्रादिमान्’ नहीं हो सकते । सि० प० तथापि - फिर भी चैत्रादि के व्यवहारों का प्रादिमत्व एवं संसार का अनादित्व इन दोनों में परस्पर कोई विरोध नहीं है । अतः चैत्रादि के व्यवहारों के आदिमत्व से न संसार का अनादित्व ही खण्डित हो सकता है, न लिप्यादि व्यवहारों का आदिमत्व हो खण्डित हो सकता है, अतः उक्त आपत्ति व्यर्थ है । पू० प० अस्तु.. - .. यदि यह मान भी लिया जाय कि व्यवहार परम्पराओं को विभान्ति किसी पुरुष में अवश्य होती है, तथापि इस से यह सिद्ध नहीं होता कि वह पुरुष नित्य एवं सर्वज्ञ हो हौं । साधारण ज्ञानवान् भी कोई पुरुष कथित व्यवहार परम्परा का विश्रान्तिस्थल हो सकता है । फलतः इस साधारण पुरुष की सिद्धि से ईश्वर ‘अन्यथासिद्ध’ हो जाते हैं ।
5 T ३ न T । पञ्चमी स्तबका ६६० तेन शक्यत्वात् । कल्पादावादर्शाभासस्याप्यसिद्धेः । साधिती च सर्गप्रलयो । ननु व्यवहारयितृवृद्धः शरोरी समधिगतः, न च ईश्वरस्तथा तत्कथमेवं स्यात् ? न, शरीरान्वयव्यतिरेकानुविधायिनि कार्ये तस्यापि तद्वत्वात् । गृह्ह्णाति हि ईश्वरोऽपि कार्यंवशाच्छरीरमन्तरान्तरा, दर्शयति च विभूतिमिति । अत्राप्यागमः- ‘पिताऽहमस्य जगतो माता घाता पितामहः । तथा - यदि ह्यहं न वर्तेयं जातु कर्मण्यतन्द्रितः । सि० प० तेन मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थं सर्वशः ॥ उत्सीदेयुरिमे लोका न कुर्यां कर्म चेदहम्’ । इति ( गीता )
पहली बात तो यह है कि साधारण ज्ञान से युक्त पुरुष के द्वारा इतने सारे व्यवहारों का प्रचलन संभव ही नहीं है । दूसरी बात यह है कि सृष्टि की प्रावि में लिप्यादि के मूलभूत पूर्ण ‘प्रादर्श’ पुरुष की तो बात ही क्या — प्रादर्शाभास’ अर्थात् घटिया दर्जे के प्रवर्तक पुरुष की भी संभावना नहीं है, जिनके प्रवलम्बन से आज तक लिप्यादि परम्पराओं का चलना संभव हो । ननु व्यवहारयितु … शरीरी पुरुष के द्वारा ही व्यवहार का प्रचलन देखा जाता है । यह व्याप्ति सैकड़ों स्थानों में देखी जाती है। ईश्वर को शरीर नहीं है, फिर वे व्यवहारों के प्रवर्तक कैसे हो सकते हैं ? न, शरीरान्वयव्यतिरेक… शरीर में जिस कार्य की कारणता अन्वय एवं व्यतिरेक के द्वारा उपलब्ध है, उस कार्य के उपयुक्त शरीर परमेश्वर को भी है हो । ईश्वर भी प्रयोजन वश शरीरों को धारण कर अपनी विभूति का प्रदर्शन करते ही रहते हैं । ईश्वर की इन्हीं शारीरिक विभूतियों का वर्णन ‘नमः कुलालेम्या, नमः कमरिम्यः’ इत्यादि श्रुतियों के द्वारा किया गया है । अत्रापि … इस प्रकार पद हेतुक अनुमान के द्वारा भाषि व्यवहर्त्ता के रूप में सिद्ध परमेश्वर की सत्ता का अनुमोदन ये शास्त्रवचन भी करते हैं:- (१) गीता में भगवान् कहते हैं कि - मैं ही जगत का मातापिता एवं धारण करने वाला है । (२) मैं ही यदि भ्रान्तिशून्य होकर ‘व्यवहार’ न करूं तो यह ‘लोक’ अर्थात् प्रामाणिक व्यवहार लुप्त हो जायगा। क्योंकि मेरे दिखाये गये मार्ग पर ही लोग चलते हैं । CCO. Vasishtha Tripathi Collection. Digitized by eGangotriगद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जकाँ एतेन ‘नमः कुलालेभ्यः कमरेभ्य’ ( माध्यविजसंहिता ) इत्यादि यजूंषि बोदव्यानि । प्रत्ययोऽपि । प्रत्ययशब्देनात्र समाश्वासविषय प्रामाण्यमुच्यते । तथा च प्रयोगः– प्रागमसंप्रदायोऽयं कारणगुणपूर्वकः, प्रमाणत्वात्, प्रत्यक्षादिवत् । न हि प्रामाण्यप्रत्ययं विना कचित् समाश्वासः । न चाऽसिद्धस्य प्रामाण्यस्य प्रतीतिः । न च स्वतः प्रामाण्यमित्यावेदितसु । न च नेदं प्रमाणम्, महाजनपरिग्रहादित्युक्तम् । न चासवंज्ञो घर्माऽवर्मयोः स्वातन्त्र्येण प्रभवति । न चासर्वज्ञस्य गुणवत्तेत निःशङ्कमेतत् । एतेन इसी प्रकार घटादि व्यवहारों में समर्थ कुलालादि शरीरों के उपपादक ‘नमः कुलालेभ्यः’ इत्यादि वचनों को समझना चाहिये । सि० प० (६.) प्रत्ययोsपि ••• ( इस स्तबक के प्रथम श्लोक के ‘प्रस्ायतः’ पद से सूचित ‘प्रस्थय’ हेतुक ईश्वरानुमान के उपपादक इस ) ’ प्रत्ययोऽपि’ पद के आगे ‘ईश्वरसाधकों हेतु:’ इस वाक्य का अष्पाहार कर लेना चाहिये । प्रकृत में ‘प्रत्यय’ पद का अर्थ है ‘समाश्वास’ अर्थात् ‘विश्वास’ । विश्वास के: विषयीभूत प्रामाण्य में यह प्रत्यय पद लाक्षणिक है । ‘प्रामाण्य’ है प्रमात्व रूप । प्र पूर्वक मा धातु से स्वार्थबोधक ल्युट् प्रत्यय के द्वारा निष्पन्न ( प्रमार्थक ) प्रमाण शब्द से भावार्थक यत् प्रत्यय के द्वारा निष्पन्न इस ‘प्रामाण्य’ पद का अर्थ है प्रमा ज्ञान का प्रमात्व रूप धर्म । प्रमा रूप विशेष ज्ञान से ‘पूर्व’ ( ज्ञान के सामान्य कारणों के अतिरिक्त उन कारणों में रहने वाले ) ‘गुण’ की भी अपेक्षा होती है, अतः प्रमा ‘कारणगुणपूर्वक’ है । शब्द प्रमाण से उत्पन्न प्रमा का उत्पादक ‘गुण’ है, वक्ता में वाक्यार्थ विषयक यथार्थज्ञान। जिस वक्ता को जिस वाक्य के अर्थ का यथार्थज्ञान रहता है, उस वक्ता के द्वारा प्रयुक्त वाक्य ही उस विषय में प्रमाण होता है । शब्द में प्रमाण्य की यही रीति लोक में दृष्ट है । वेदों के प्रामाण्य में भी इस रीति का व्यतिक्रम संभव नहीं है। बाता कि ‘वेदों के जादि वक्ता को वेदार्थ विषयक प्रामाण्य का ‘प्रत्यय’ अर्थात् विश्वास नहीं ऊपर अखिल ज्ञानों की राशि स्वरूप किया जा सकता । जब तक यह विश्वास नहीं हो · यथार्थ ज्ञान था’ तब तक वेदों में किया जा सकता। जो पुरुष सर्वज्ञ न हो, उसके वेदों के प्रयं विषयक ज्ञान का ‘विश्वास’ नहीं
- अतः ‘आगमसम्प्रदाय’ अर्थात् शब्द प्रमाण से उत्पन्न प्रमाज्ञान मी चु कि, प्रत्यक्षादि अम्प प्रमाज्ञानों के समान ही ‘प्रमाण’ अर्थात् प्रमाज्ञान हैं, अतः यह भी ‘कारणगुणपूर्वक’ है ।
व त ’ न र स प्र से व द स ही 75 d हो के पञ्चमः स्तबका ६०१ श्रुतेः खल्वपि । तथा हि- सर्वज्ञप्ररणीता वेदाः, वैदत्वात् यत्पुननं सर्वज्ञप्रणीतं नाऽसौ वेदो यथेतरवाक्यम् । नतु किमिदं वेदत्वं नाम ? वाक्यत्वस्यादृष्टविषय- वाक्यत्वस्य च विरुद्धत्वात्। श्रदृष्टविषयं प्रमाणवाक्यत्वस्य चासिद्धेः । वेदादि स्वरूप आगमों के प्रामाण्य के उपयुक्त यथार्थज्ञान स्वरूप ‘गुण’ जिन में हो, वही परमेश्वर हैं। जबतक वेदादि शास्त्रों में प्रामाण्य गृहीत नहीं होगा, तब तक उनसे निर्दिष्ट अग्निहोत्रादि कर्मों में बुद्धिमान व्यक्ति प्रवृत्त नहीं हो सकते । ( द्वितीयस्तबक में ) उपपादन कर चुके हैं कि प्रामाण्य ( प्रमात्व ) की उत्पत्ति प्रथवा ज्ञप्ति ( ज्ञान ) स्वतः नहीं हो सकती । वेद चूकि ‘महाजन परिगृहीत’ हैं, अतः वेदों के प्रामाण्य को अस्वीकार भी नहीं किया जा सकता । एवं सर्वज्ञ पुरुष को छोड़कर साधारण जन के द्वारा प्रतीन्द्रिय धर्माधर्म के प्रतिपादक वाक्य की रचना हो ही नहीं सकती। क्योंकि असर्वज्ञ पुरुष में ऐसे यथार्थज्ञान स्वरूप ‘गुण’ का रहना संभव ही नहीं है, जिससे अतीन्द्रियार्थ के ज्ञापक वेदों से उत्पन्न ज्ञान में प्रमात्व की उत्पत्ति एवं ज्ञप्ति ( ज्ञान ) हो सके । अतः इस में कोई भी शङ्का नहीं है कि ‘प्रवश्य ‘ही सर्वज्ञ परमेश्वर हैं’ | (७) श्रुतेः… अर्थात् ‘वेद’ स्वरूप हेतु से भी ईश्वर का अनुमान किया जा सकता है । ( मनुमान वाक्य का अभिप्राय यह है कि ) वेद चूकि ‘वेद’ हैं, इसी लिये उनकी रचना सर्वज्ञपुरुष द्वारा हुई है । जो अस्मादि के वाक्य वेद नहीं हैं, उनकी रचना सर्वंश पुरुष के द्वारा हुई है। पू० प० ननु किमिदम् " कोई कहते हैं कि जिस वाक्य से ‘अदृष्ट’ स्वरूप विषय का बोध हो, वही वाक्य ‘वेद’ है । किन्तु यह लक्षण उचित नहीं है। क्योंकि चैत्यवन्दनादि की कर्तव्यता के बोधक प्रतारकों के वाक्य भी अदृष्ट के बोधक हैं, अतः प्रतारक वाक्यों में वेद का उक्त लक्षण प्रतिव्यात हो जायगा । पू० प० अदृष्टविषयप्रमाण वेद के उक्त लक्षण में जो ‘वाक्य’ शब्द है उसमें एक ‘प्रमाण’ शब्द मोर जोड़ देंगे । प्रर्थात् प्रमाणभूत एवं प्रदृष्ट के बोधक वाक्य ही वेद हैं। इससे कथित प्रतारक वाक्यों में अतिव्याति हट जायगी, क्योंकि वे वाक्य अदृष्ट के बोधक होते हुये भी ‘प्रमाण’ नहीं है। हृीं 1. दि ।
- ब प्रकृत सन्दर्भ के ‘विरुद्ध’ पद का अर्थ है ‘व्यभिचार’ । अर्थात् वेद का एक लक्षण वैवस्व का व्यभिचारी है, जिन प्रसारक वाक्यों में वेदस्य नहीं है, उनमें भी बक है । वाक्पत्व रूप वेद का लक्षण है। फलतः वेद का पद लक्षण प्रतिष्यांस
६०२ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली मन्वादिवाक्ये गतत्वेन विरोधाच्चेति चेन्न । अनुपलभ्यमानमूलान्तरत्वे सति महाजने परिगृहीतवाक्यत्वस्य तत्त्वात् । न ह्यस्मदादीनां प्रत्यक्षादि मूलम् । नाऽपि श्रमविप्रलिप्से, महाजनपरिग्रहादित्युक्तम् । नाऽपि परम्परैव मूलस्, महाप्रलये विच्छेदादित्युक्तम् । सि० प० प्रसिद्धेः ( पहिला समाधान तो यह कि ) अग्निहोत्रादि के विधायक एवं अदृष्ट के वेदों के वाक्य हैं, उनके प्रमाण्य को वादी एवं प्रतिवादी दोनों स्वीकार नहीं वेदों में प्रमाण्य उभयवादिसिद्ध नहीं है । फलतः ‘प्रमाणपद’ घटित वेदों का वेद वाक्यों में न रहने के कारण भव्याप्त हैं । मन्वा दिवाक्ये बोधक जो करते, श्रतः उक्त लक्षण दूसरा समाधान यह कि ‘मनु’ प्रभूति की रचित जो स्मृतियाँ हैं, उनमें भी अदृष्ट के बोधक बहुत से वाक्य हैं, एवं वे वेदों के ही समान प्रमाण भी हैं । अतः उनमें ‘अदृष्टबोषकत्व’ स्वरूप वेद का यह लक्षण अतिव्याप्त भी है । इसलिये वेदों का उक्तलक्षण उचित नहीं है । पू० प० न, अनुपलभ्यमान …… जिस वाक्य का मूल कोई दूसरा प्रमाण न हो, फिर भी वह वाक्य ‘महाजन परिगृहीत हो’, प्रमाणान्तरामूलक एवं महाजन परिगृहीत इस प्रकार के वाक्य ही ‘वेद’ हैं । फलतः एतादृशवाक्यस्व ही वेदत्व है । हम लोगों के वे ही वाक्य प्रमाणिक होते हैं, जिनको हमलोगों के प्रत्यक्षादि प्रमाणों का समर्थन प्राप्त होता है । अतः अस्मदादि के वाक्य प्रत्यक्षावि प्रमाणमूलक हैं । मन्वादि के स्मृतिवाक्यों के प्रमाण्य में मन्वादि पुरुषों के प्रत्यक्षादि के प्रतिरिक्त वेद भी मूल हैं । अतः इस लक्षण में अतिव्याप्ति प्रभृति दोषों की सम्भावना नहीं है । अस्मदादि के प्रत्यक्ष वेदों की रचना के मूल नहीं है, एवं वेदों की रचना भ्रम अथवा विप्रलिप्सादि मूलक भी नहीं है, द्वितीय स्तबक में यह प्रदिपादन कर चुके हैं कि ‘वेद महाजनों के द्वारा परिगृहीत’ हैं। मतः वेदों में यह समन्वित भी है । पू० प० नापि
- …. वेद अनादि हैं। इसकी पपम्परा अनादि है । अतः एक फालिक वेद वाक्यों के मूल हैं, तत्पूर्वकालिक उसी अर्थ के वोषक उसी आनुपूर्वी के दूसरे वेदवाक्य । इस प्रकार सभी वेद वाक्यों के प्रमाण्य का दूसरा मूल उपलब्ध है । प्रतः वेदों का यह लक्षण वेदों में अव्याप्त ही नहीं, असंभव दोष प्रस्व भी हैं । सि० प० महाप्रलये 100 …… महाप्रलयकाल में वेदों की परम्परा भी विनिष्ट हो जायगी । अतः वेदों को यदि इस लिये प्रमाण मानें कि उनके मूल दूसरे वाक्य है, तो प्रलय के वाद जो सृष्टि होगी, उस सृष्टि
त्वे । नये जो त ण वक स्व’ जन को वि के हृीं वा नों झूल वेद पञ्चमः स्तबक ६.७३ अन्वयतो वा । वेदवाक्यानि पौरुषेयाणि, वाक्यत्वात्, अस्मदादिवाक्यवत् । अस्मयंमारणकतृ कत्वान्नैवमिति चेन्न, प्रसिद्धेः । के वेदों में उक्त लक्षण समन्वित नहीं होगा । अतः वेदों के प्रामाण्य का मूल कोई दूसरा वेदवाक्य नहीं है, किन्तु सर्वज्ञ पुरुष के द्वारा रचा जाना ही वेदों के प्रामाण्य का मूल है | ये सभी बातें भी द्वितीय स्तवक में कही जा चुकी है। ( ८ ) अन्वयतः वेदवाक्यानि … - ● जिस प्रकार प्रस्मदादि के वाक्य हम लोगों के द्वारा रचे जाते हैं, उसी प्रकार ‘वेद’ भी चूकि ‘वाक्य’ हैं, अतः उनकी रचना भी किसी पुरुष के द्वारा ही होनी चाहिये । इस प्रकार के अनुमान के द्वारा निश्चित वेदो के रचयिता सर्वज्ञ पुरुष ही परमेश्वर’ हैं, क्योंकि प्रसर्वज्ञपुरुष के द्वारा अखिलज्ञानराशि वेदों की रचना संभव नहीं है । पू० प० अस्मर्यमाण । ….. पौरुषेयवाक्यों में यह देखा जाता है कि उनके प्रतीत रचयिताओं का भी लोग स्मरण करते हैं। मनु के द्वारा रचित पुस्तक श्राज भी ‘मनुस्मृति’ के नाम के प्रसिद्ध है । वेदों के यदि कोई रचयिता पुरुष होते, तो उनका भी प्राज लोग स्मरण करते, एवं वेद उनके नाम से ही प्रसिद्ध होता । वेद किसी पुरुष की रचना के नाम से प्रसिद्ध नही है । अतः वेदों का रचयिता कोई पुरुष नहीं है । इससे यह विरोधी अनुमान ( प्रत्यनुमान ) निष्पन्न होता है कि ‘वेदवाक्यानि अपौरुषेयाणि अस्मर्यमाणकर्त्ती कत्वात् गगनादिवत् । फलतः ‘वेद वाक्यानि’ इत्यादि सन्दर्भ के द्वारा उपन्यस्त ईश्वर साधक अनुमान का हेतु सत्प्रतिपक्षित है । सि० प० प्रसिद्धेः । प्रत्यनुमान के वेद रूप पक्ष में अस्मर्यमाणकर्तृकस्व रूप हेतु ‘सिद्ध’ नहीं है। क्योंकि श्रुतियों में एवं स्मृतियों के प्रनेक स्थलों में वेद कर्ता के रूप में परमेश्वर उल्लिखित हैं । ही 1. इस दृष्टि किया गया है । अर्थात् प्रथम एलोक परस्पर ‘अन्वय’ से युक्त एवं विशिष्ट अर्थ के बोधक पदों के समूह को ही ‘वाक्य’ कहते हैं, वाक्य के साथ अन्वय के इस सम्बन्ध को समझाने के लिये ही यहाँ ‘वाक्य’ के लिये ‘अन्य’ शब्द का प्रयोग में ‘वाक्यात्’ यह हेतु बोधक जो वाक्य है, के द्वारा किया गया है । उसी का अनुवाद ‘अन्वयत: इस पद
६७४. गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली अनन्तरञ्च वक्त्रेभ्यो वेदास्तस्य विनिःसृताः । प्रतिमन्वन्तरञ्चेषा श्रुतिरन्या विधीयते ॥ ( मत्स्यपु, ३ प्र०) वेदान्तकृद्वेदविदेवं चाहम्’ ( गीता ) इति स्मृतेः । ’ तस्माद्यज्ञात्सर्वहुत ऋचा सामानि जज्ञिरे, इत्यादिश्रुतिपाठकस्मृतेश्च । कर्तृ स्मररणस्य सर्वत्राऽविध्यर्थत्वात् । (जिनमें से कुछ ये हैं — ) ( १ ) अनन्तरच अर्थवादमात्रमिदमिति चेन्न । प्रर्थात् इसके बाद ईश्वर के मुख से सभी वेद निकले । ( क्योंकि ) प्रत्येक मन्वन्तर में भिन्न भिन्न श्रुतियों का विधान है । । (२) ‘वेदान्तकृत् वेदविदेव वेदों के ‘संहिता’ एवं वेदान्त ( उपनिषदों ) का रचयिता भी मैं ही हूँ । ( ३ ) सभी हवियों के ग्रहण करनेवाले उस ‘यज्ञ’ पुरुष से ॠग्वेद प्रोर सामवेद निःसृत हुए । पू० प० अर्थवादमात्रम् वेद कर्ता पुरुष का स्मरण दिलानेवाले ये सभी वाक्य केवल अर्थवाद रूप हैं । सि० प० कर्तृ स्मरणस्य … किसी रचना के कर्ता का बोधक कोई भी वाक्य विधिवाक्य अथवा निषेधवाक्य स्वरूप नहीं होता । अतः रचना के कर्त्ता के बोधक वाक्य अर्थवाद रूप ही होते है । वे यदि कर्तृ विषयक प्रमा के उत्पादन में असमर्थ हों, तो कुमारसम्भवादि काव्यों में जो कालिदासादि 1. मीमांसकों का प्रकृत में कहना है कि (2) विधि (६) निषेध एवं (२) अर्थवाद भेद से वाक्य के तीन भेद हैं। ‘धग्मि होनं जुहुयात्’ इत्यादि वाक्य ‘विधि’ स्वरूप हैं। ‘न कलजं भक्षयेत्’ इत्यादि प्रकार के वाक्य ‘निषेध’ स्वरूप हैं । ‘चायुर्वैक्षेपिष्ठा- ‘देवता’ इत्यादि वाक्य ‘अर्थवाद’ स्वरूप हैं । प्रवृत्ति अथवा निवृत्ति के प्रयोजक वाक्य ही प्रमाण हैं । इस प्रकार प्रवृत्ति के प्रयोजक विधिवाक्य एवं निवृत्ति के प्रयोजक निषेधवाक्य ये दो ही वाक्य प्रमाण हैं । किन्तु उक्त निरूपय के अनुसार तो अर्थवाद वाक्य श्रप्रमाण हो जायेंगे, क्योंकि उनमें स्वतः प्रवृत्ति की जनकता अथवा निवृत्ति की जमकता नहीं है। किन्तु ‘वेद’ का एक भी अचर अप्रमाण नहीं हैं । फिर ‘वायुर्वे ‘क्षेपिष्ठा देवता’ इसने अक्षरों का समूह रूप वाक्य कैसे अप्रमाण होगा ? इस प्राक्षेप के समाधान में महर्षि जैमिनि ने ‘विधिना स्वेकवाक्यत्वात् ’ इत्यादि सूत्र की रचना की है। उनका अभिप्राय है कि अर्थवादवाक्यं यद्यपि स्वतन्त्र रूप से प्रवृत्ति अथवा निवृत्ति के जनक नहीं हैं । तथापि विधिवाक्य अथवा निषेधवाक्य के साथ- प्रंशसार्थवाद विधिवाक्य के साथ, एवं निन्दार्थवाद निषेधवाक्य के साथ एकवाक्यत्तापक्ष होकर परम्परया प्रवृत्ति अथवा निवृत्ति के जनक हैं । अतः
) 可 द प कर्तृ दि द प त्य क सो ? बा ’ पि वा क्य त पश्चमः स्तंबकः ६७५ तथा चास्मरणे कालिदासादेरस्मरणात् । एवञ्च कुमारसम्भवादेरकर्तृ करवप्रसङ्गः । अनेकान्तिकत्वं वा हेतोः । प्रमाणान्तरागोचरार्थत्वात् सत्प्रतिपक्ष- स्वमिति चेन्न । 1 रचितत्व के व्यवहार होते हैं, वे भी लुप्त हो जायगे । अर्थात् कुमारसंभवादि काव्य अपरुषेय हो जायगे । किन्तु यह युक्त नहीं हैं ।’ पू० प० प्रमारणांन्तरसंवाद पौरुषेय वाक्य से उसी ‘अर्थ’ के प्रमाज्ञान को उत्पति होती है, जिस अर्थ ( विषय ) का प्रमाज्ञान प्रत्यक्षादि किसी अन्य प्रमाण से भी हो सके । वेदों में प्रतिपादित ज्योतिष्टोमादि यज्ञों का प्रमाज्ञान किसी अन्य प्रमाण से संभव नहीं है । इससे यह प्रत्यनुमान निष्पन्न होता है कि ‘वेदाः अपौरुषेयाः प्रमाणान्तरागोचरार्थत्वात् यन्नेवं तन्नैवं यथास्मदादि रचितवाक्यम्’ अर्थात् जिस प्रकार हम लोगों के वाक्य उसी विषय के प्रमाज्ञान को उत्पन्न करते हैं, जिस विषय का प्रमाबोध किसी दूसरे प्रमाण से भी हो सके। उसी प्रकार वेदों से जिन ज्योतिष्टोमादि विषयों का प्रमाज्ञान उत्पन्न होता है, उन विषयों के प्रमाज्ञान की उत्पत्ति किसी दूसरे प्रमाणों से संभव नहीं है, अत: वेद अपौरुषेय हैं। इस प्रकार चूकि वेद स्वरूप प्रकृत पक्ष में हो पौरुषेयत्व रूप प्रकृत साध्य का प्रभाव जो पौरुषेयत्व — उसका साधक ’ प्रमाणान्तरागोच- रार्थत्व’ रूप समानबलशाली प्रति हेतु विद्यमान है । प्रतः ‘वेदाः पोरुषेयाः वाक्यत्वात्’ इस अनुमान का वाक्यत्व हेतु सत्प्रतिपक्षिन है, इस से वेदों में पौरुषेयत्व की सिद्धि नहीं हो सकती । । वे भी प्रमाण हैं । अर्थवादवाक्यों का कोई स्वतन्त्र अर्थ नहीं है । विधिवाक्य एवं निषेधवाक्य इन दोनों से भिन्न ( परकृति पुराकल्पादि स्वरूप ) सभी वाक्य अर्थवाद स्वरूप ही हैं। प्रकृत में वेद कर्ता के बोधक ‘अनन्तरथ’ इत्यादि जितने भी वाक्य उल्लिखित है- वे सभी चूँकि विधि के अथवा निषेध के बोधक नहीं है, श्यतः वे सभी अर्थवाद रूप ही हैं, अतः इन से वेद कर्ता की सिद्धि नहीं हो सकती । अर्थवाद का प्रसङ्ग उठाने का मीमांसकों का यह अभिप्राय है कि वेदाः अपौरुषेयाः अस्मर्यमाणकर्तृकस्वात् यन्नैवम् तन्नैवम् यथा अस्मादादि वाक्यम्’ यह प्रस्यनुमान उपस्थित है। जिस से वेद में पौरुषेयस्व का अनुमान सम्प्रतिपक्षित हो जाता है । किन्तु इस प्रत्यनुमान का हेतु कुमारसम्भवादि काव्यों में नहीं है, क्योंकि प्रकृत में अस्मर्यमाणकर्तृक का अर्थ है विधिवाक्य अथवा निषेधवाक्ग से उत्पन्न होने- चाले बोध का विषय न होना—यह अर्थ तो कुमारसम्भवादि में भी है ही। किंतु उन काव्यों में अपौरुषेपस्थ रूप साध्य नहीं है । अतः प्रकृत प्रत्यनुमान का हेतु व्यभिचारी है। इससे पौरुषेयत्व का अनुमान प्रतिहत नहीं हो सकता ।
६७६ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली प्रणेतारं प्रत्यसिद्धेः प्रन्यं प्रत्यनैकान्तिकत्वात् । प्राकस्मिकस्मित- बीज सुखानुस्मृतेः कारण विशेषस्यान्यं प्रति प्रमाणान्तरागोचरस्यापि तेनैव वक्त्रा प्रतिपाद्यमानत्वात् । वक्तेव प्रकृते न सम्भवति हेत्वभावे फलाभावात्, सि० प० प्रणेतारम् ( मीमांसकों ने सस्प्रतिपक्ष देने के लिये जो प्रत्यनुमान उपस्थित किया है, उसके प्रमाणान्तरागोचरार्थत्व रूप प्रतिहेतु के प्रसङ्ग में यह विकल्प उपस्थित होता है कि ) (१) पौरुषेयवाक्य से जिस अर्थ का यथार्थ ज्ञान जिस पुरुष में उत्पन्न होता है, क्या उसी पुरुष में दूसरे प्रमाण के द्वारा उस विषय का प्रमाज्ञान का होना आवश्यक है ? (२) भिन्न किसी भी पुरुष में दूसरे प्रमाणों से उस विषय अथवा उक्त वाक्य के रचयिता पुरुष से के प्रमाज्ञान से काम चलं सकता है ? इन में यदि प्रथम पक्ष का अवलम्बन करें तो प्रकृत प्रतिहेतु ‘असिद्ध’ नाम का हेत्वाभास हो जायगा । ‘क्योंकि वेदों का कोई रचयिता पुरुष है’ यह बात अभी सिद्ध नहीं है । किन्तु ‘वेद वाक्यात्मक हैं, यह सिद्ध है । अभी यह कहना संभव नहीं है कि ‘वाक्य के अर्थ का किसी दूसरे प्रमाण के द्वारा उत्पन्न ज्ञान वाक्य के रचयिता में अवश्य रहता हैं, क्योंकि वेद के ही प्रसङ्ग में यह बात अभी निर्णीत नहीं है । अतः ’ प्रमाणान्तरागोचरार्थत्व’ हेतु ही अभी ‘सिद्ध’ नहीं है । यदि कथित विकल्प का दूसरा पक्ष ग्रहण करें तो प्रकृत प्रतिहेतु व्यभिचरित हो जायगा ।.. किसी पुरुष को किसी समय सुख के दृष्ट कारणों के उपस्थित न रहने पर भी हठात् सुख की स्मृति से हंसते हुये देखा जाता है, उस ‘हास्य’ के कारणों का ज्ञान किसी अन्य पुरुष को संभव नहीं है। किन्तु वह पुरुष उस हास्य के विशेष कारणों के बोधक वाक्य का प्रयोग करता है । इस वाक्य में प्रत्यनुमान का अपौरुषेयत्व स्वरूप साध्य तो नहीं है, किन्तु ‘प्रमाणान्तरागोचरार्थस्व’ स्वरूप हेतु है, क्योंकि वाक्य के प्रयोक्ता पुरुष से भिन्न किसी पुरुष में किसी अन्य प्रमाणजनित उक्त ‘अर्थ’ विषयक ज्ञान नहीं है । इस प्रकार उन दोनों ही विकल्पों के अनुसार प्रमाणान्तरागोचरार्थत्व रूप प्रतिहेतु में व्याप्ति एवं पक्षधर्मता रूप बल का प्रभाव सूचित होता है। ‘वाक्परव’ रूप प्रकृत हेतु में उक्त दोनों बलों के रहने में कोई विघटन नहीं है । अतः दुर्बल प्रतिहेतुक प्रत्यनुमान से सबल प्रकृत हेतुक अनुमान सत्प्रतिपक्षित नहीं हो सकता । पू० प० वक्तव 630 वेदार्थ विषयक अपरोक्ष प्रमाज्ञान से युक्त वेदों के रचयिता ( वक्ता ) का अस्तित्व हो संभावित नहीं है, क्योंकि वेद स्वरूप वाक्य के अर्थ विषयक प्रत्पक्षादि प्रमाज्ञानों के
६०७ न- वा के ) या ) नय का हौं नय हैं, ‘व’ हो भी सी क्य है, से कार एवं नों कुत लव के 1 चक्षुरादीनां तत्रासामर्थ्यात् अस्मदादीन्द्रियवत् । मनसो बहिरस्वातन्त्र्यात् । न, चेतनस्य ज्ञानस्येन्द्रियस्य मनसो वा पक्षीकरणे प्राश्रयासिद्धेः प्रागेव प्रपञ्चनात् । उपयुक्त कारणों के समूह ( सामग्री ) का संबलन ही संभव नहीं है । क्योंकि वे अतीन्द्रिय अर्थ के प्रतिपादक हैं । जिस प्रकार प्रस्मदादि के उसी प्रकार वेदों के इन्द्रियों में प्रतीन्द्रिय अर्थ के प्रत्यक्ष के उत्पादन को सामर्थ्य नहीं है, रचयिता पुरुष के इन्द्रियों में भी वह सामर्थ्यं संभव नहीं है । चूकि केवल ‘मन’ से चक्षुरादि इन्द्रियों के साहाय्य के विना ज्ञान प्रभृति प्रान्तरिक विषयों का ही ज्ञान हो सकता है, घटादि वाह्य विषयों का नहीं । प्रतः वेदार्थ विषयों का मानस प्रथवा चाक्षुषादि ज्ञान सम्भव ही नहीं है । इस लिये सर्वविषयक अपरोक्षज्ञान से युक्त वेदरचयिता ( वक्ता) की कल्पना सम्भव नहीं है । अतः वेद अपौरुषेय ही है सि० प० न, चेतनस्य .. उक्त आक्षेप के द्वारा मीमांसकों के ये चार ईश्वरविरोधी अनुमान ही संभव है । (१) इश्वरो नातीन्द्रियार्थदर्शी पुरुषत्वात्, अस्मादिवत् ( भर्थात् ईश्वर चूँकि हमलोगों के समान ही ‘पुरुष’ ( आत्मा ) है, प्रत: वे प्रतीन्द्रिय वस्तुओं को नहीं देख सकते ) (२) ईश्वरीयप्रत्यक्षात्मकं प्रमाज्ञानं नातीन्द्रियार्थविषयकं प्रत्यक्षप्रमाज्ञानात्मकत्वात् श्रस्मादादि प्रत्यक्षप्रमावत् । ( ईश्वरीय प्रत्यक्ष प्रमारूप ज्ञान चूकिं हमलोगों के प्रत्यक्ष की तरह प्रत्यक्षात्मक है, अतः जिस प्रकार हमलोगों का प्रत्यक्षात्मक ज्ञान मतीन्द्रिय विषयक नहीं होता, उसी प्रकार ईश्वरीयप्रत्यक्ष प्रमा रूप ज्ञान भी अतीन्द्रिय विषयक नहीं हो सकता ) । (३) ईश्वरेंन्द्रियं नातीन्द्रियार्थ ग्राहकमिन्द्रियत्वात् अस्मदादीन्द्रियवत् ( अर्थात् ईश्वर की इन्द्रियाँ चूकि हमलोगों की इन्द्रियों की तरह केवल इन्द्रिय हैं, अतः जिस प्रकार हमलोगों की इन्द्रियां अतीन्द्रिय अर्थं को ग्रहण करने की सामर्थ्य से रहित है, उसी प्रकार ईश्वर की इन्द्रियां भी अतीन्द्रिय अर्थ को ग्रहण करने की सामर्थ्य नहीं रखतीं । ( ४ ) ईश्वर का मन भी चूँ कि हमलोगों के मन के समान मन ही है, अतः किसी प्रतीन्द्रिय पदार्थ को ग्रहण करने में प्रवृत्त नहीं हो सकता ( ईश्वरीयं मनो नातीन्द्रियार्थे प्रवर्त्तते मनस्त्वात् यथास्मदादिकं मनः ) । न, चेतनस्य ईश्वर पक्षक ये सभी अनुमान यदि ईश्वर को न मानने वालों के द्वारा उपस्थित किये जाते हैं, तो वे सभी अन्ततः आश्रयासिद्ध होंगे ही। इस प्रकार की आश्रयासिद्धि की चर्चा इसी स्तबक के द्वितीय कारिका में की जा चुकी है ।
६०६ गद्यपद्यात्मक न्यायकुसुमाञ्जको नित्यनिराकरणे चासामर्थ्यात् । परमाण्वादयो न कस्यचित्प्रत्यक्षाः, तत्सामग्री- रहितत्वादिति चेन्न । द्रष्टारं प्रत्य सिद्धो, अन्यं प्रति सिद्धसाधनातु । तथापि वाक्यत्वं न प्रमारणम्, अप्रयोजकत्वात् । अतः मीमांसको के द्वारा उपम्यस्त इन अनुमानो से सर्वज्ञ पुरुष रूप परमेश्वर की सत्ता निराकृत नहीं हो सकती । यह है पहिला समाधान । नित्यनिराकरणे …
- इसी आक्षेप का दूसरा समाधान यह है कि प्रतिपक्षी की कथित युक्ति को यदि स्वीकार भी करलें, तथापि उक्त युक्ति से सर्वज्ञ पुरुष का जो इन्द्रियजनित प्रतीन्द्रिय विषयक ‘कार्य’ रूप ज्ञान है, उसी का निराकरण हो सकता है, अतीन्द्रियविषयक ‘नित्य’ अपरोक्षज्ञान का खण्डन उक्त युक्ति से नहीं हो सकता। हम लोग ( नैयायिकगण ) तो परमेश्वर में सभी विषयों का नित्य अपरोक्षज्ञान मानते है, उसके खण्डन में कथित युक्ति क्षम नहीं है । पू० प० परमाण्वादयः … परमाणु प्रभृति अतीन्द्रिय वस्तुओंों का प्रत्यक्ष किसी को हो ही नहीं सकता, क्योंकि अतीन्द्रिय विषयक प्रत्यक्ष के कारणों के समूह ( सामग्री ) का संबलन ही संभव नहीं है । अतः कोई भी पुरुष ‘अतीन्द्रियार्थदर्शो’ नहीं हो सकता । सि० प० न, द्रष्टारं प्रति …… (आप के उक्त प्रतिपक्ष वाक्य के किसी मी पुरुष’ शब्द से क्या हम लोगों (तैयायिकों) के अभिप्रेत प्रतीन्द्रिर्यार्थ द्रष्टा परमेश्वर अभीष्ट हैं, प्रथवा तदन्य प्रस्मदादि जीव अभिप्रेत है ? इन दोनों में से (१) पहिले विकल्प के सम्बन्ध में अभी कुछ निश्चित रूप से कहना संभव नहीं है । क्यों कि अभी ‘अतीन्द्रियार्थं द्रष्टा पुरुष’ की सिद्धि का प्रयत्न ही चल रहा है। उनके प्रसङ्ग में अभी सिद्धवत् किसी विषय का उल्लेख करना उचित नहीं है । (२) द्वितीय विकल्प तो पिष्टपेषणमात्र है, क्योंकि नैयायिक लोग भी जीव को अतीन्द्रियार्थ द्रष्टा नहीं मानते हैं । प्रतः यह आक्षेप भी संगत नहीं हैं । पू० प० तथापि 000 00 ‘वाक्यत्व’ स्वरूप हेतु प्रकृत में वेदों में अपौरुषेयत्व का साधक ‘प्रमाण’ नहीं हो सकता ( प्रर्थात् वेद पक्षक अपौरुषेयत्व साध्यक अनुमिति स्वरूप ‘प्रमा’ का ‘करण’ नहीं हो सकता ) क्योंकि यह ‘वाक्यत्व’ हेतु ‘मप्रयोजक’ है ।
I i Ohre W र T
क ) ल हो पञ्चमः स्वर्वका Ενε प्रमाणान्तरगोचरार्थत्वप्रयुक्तं तत्र पौरुषेयत्वम्, न तु वाक्यस्वप्रयुक्तम् । न, सुगताऽऽद्यागमानामपौरुषेयत्वप्रसङ्गात् । प्रमारणवाक्यस्य सत इति चेन्न । कोई भी ‘वाक्य’ केवल ‘वाक्य’ होने के नाते ही ‘पौरुषेय’ नहीं होता । यह नहीं कहा जा सकता कि ‘अमुक वाक्य में चूकि वाक्यत्व है, इसलिये वह अवश्य ही पौरुषेय है’ । वही वाक्य ‘पीरुषेय’ कहलाता है, जिसके अर्थ का प्रमाज्ञान शब्द से अतिरिक्त प्रत्यक्षादि प्रमाणों से भी हो सके । छातः परुषेयत्व का प्रयोजक है, ‘प्रमाणान्तरगोचरार्थत्व’ वाक्यस्व पौरुषेयत्व का प्रयोजक नहीं है। अतः यह कहना युक्त नहीं है कि ‘वेव चूंकि वाक्य स्वरूप हैं, अतः पौरुषेय भी अवश्य हैं। क्योंकि वाक्यत्व के साथ पौरुषेयत्व का स्वाभाविक सम्बन्ध ( व्याप्ति) नहीं है, किन्तु औपाधिक सम्बन्ध है । जैसे कि वह्नि में घूम का औपाधिक सम्बन्ध है । ’ प्रमाणान्तरगोचरार्थस्व’ ही प्रकृत में वह उपाधि है। पौरुषेयत्व रूप साध्य हमलोगों के सभी वाक्यों में है, इन सभी वाक्यों में ‘प्रमाणान्तरगोचरार्थत्व’ भी है, क्योंकि हमलोगों के सभी प्रमाणिक वाक्यं इन्द्रियादि प्रमाणों से ज्ञात होने वाले प्रथों के ही प्रतिपादक हैं । अतः प्रमाणान्तरगोचरार्थत्व वाक्यत्व रूप साध्य का व्यापक भी है । वाक्यत्व रूप हेतु वेद क्योंकि वेदों से जिन ज्योतिष्टोमादि । वाक्यों में भी है, वहाँ प्रमाणान्तर गोचरार्थत्व नहीं है, अर्थों का प्रपतिपादन होता है, किसी अन्य प्रमाणों से उन अर्थों का प्रमाज्ञान संभव नहीं है । मतः ’ प्रमाणान्तरगोचरार्थत्व’ स्वरूप उपाधि हेतु का अव्यापक भी है। अतः उपाधि से युक्त ‘वाक्यत्व’ हेतु से वेदों में पोरुषेयत्व की सिद्धि नहीं हो सकती । सि० प० न, सुगतादि बौद्धादि के वाक्य यद्यपि पौरुषेय हैं, किन्तु उनके चत्यवन्दनादि बोषक सभी वाक्यों के अर्थ प्रत्यक्षादि अन्य प्रमाणों से गृहीत नहीं हो सकते। अंतः बौद्धादि वाक्यों में पौरुषेयत्व रूप साध्य तो है, किन्तु प्रमाणान्तरगोचरार्थस्व नहीं है । अतः साध्य का व्यापक न होने से प्रमाणान्तरगोचरार्थत्व उपाधि नहीं हो सकता । प० प० प्रमाणवाक्यस्य यद्यपि प्रमाणान्तरगोचरार्थत्व में केवल पौरुषेयस्व की व्यापकता सुगवादि वाक्यों में विघटित होती है, किन्तु प्रमाणभूत वाक्यों में रहने वाले पौरुषेयत्व की व्यापकता ’ प्रमाणान्तरोचरार्थत्व’ में पूर्ण संभावित है । क्योंकि सुगतादि के वाक्य प्रमाण नहीं है । इसलिये पौरुषेयस्व स्वरूप केवल साध्य की व्यापकता प्रमाणान्तरगोचरत्व में न रहने पर भी वेद रूप पक्ष में रहने वाले पौरुषेयत्व की व्यापकता प्रमाणान्तरगोचरार्थत्व में अवश्य है, इसी से वह उपाधि हो जायगा ! क्योंकि केवल साध्य की व्यापकता के न रहने पर भी ‘पक्षधर्म’ CCO. Vasishtha Tripathi Collection. Digitized by eGangotri६५० गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाजली प्रणेतृप्रमाणान्तरगोचरार्थत्वस्य साध्यानुप्रवेशात् । स्वतन्त्रपुरुष प्ररणीतत्वं हि पौरुषेयत्वम् । प्रथंप्रतीक्ष्येक विषयो हि विवक्षाप्रयत्नो स्वातन्त्र्यम् । ( अर्थात् पक्ष में रहने वाले पक्षनिरूपित वृत्तिस्व विशिष्ट ) रूप साध्य के व्यापक होने से भी उपाधि होता है । जैसे कि ‘वायु० प्रत्यक्षः प्रत्यक्षस्पर्शाश्रयत्वात्’ इस अनुमान में ‘उद्भूतरूपवश्व’ धर्म ‘वहिंद्र व्यावच्छिन्न प्रत्यक्षत्व रूप साध्य विशेष का व्यापक होने से उपाधि होता है ( देखिये न्यायसिद्धान्तमुक्तावली का गुणनिरूपण, कारिका १३८ ) सि० प० प्रणेतु ……. ( वाक्यत्व’ हेतु में कथित ईश्वरानुमान में उद्भावित ’ प्रमाणान्तरगोचरार्थत्व’ स्वरूप उपाधि दोष का उद्धार दो रीतियों से हो सकता है, उनमें प्रथम प्रकार यह कि - ) ( १ ) साध्य कभी स्व साध्यक अनुमान में उपाधि नहीं होता है । अतः उपाधि के लक्षण में जो साध्य व्यापकत्व है, वह साध्य भेद घटित है । ( अर्थात् साध्यभिन्नवे सति साध्यसमानाधिकरणाभावाप्रतियोगित्व स्वरूप है ) । प्रकृत में जिस ‘पौरुषेयत्व’ को साध्य किया गया है, वह ‘स्वतन्त्रपुरुष प्रणीतत्व’ रूप है ( अर्थात् स्वतन्त्र पुरुष के द्वारा विरचित वाक्य ही पौरुषेय वाक्य है। ) वही वाक्य ‘स्वतन्त्र पुरुष’ प्रणीत कहलाते हैं, जिसके रचयिता पुरुष में वाक्य रचना के उपयुक्त वाक्यार्थं विषयक प्रत्यक्षादि प्रमाणान्सर जनित ज्ञान, एवं उस ज्ञान के समानविषयक दूसरे ज्ञान की शब्द के द्वारा उत्पन्न करने की इच्छा (विषक्षा ), एवं तबनुकूल वाक्य रचना का प्रयत्न इन तीनों की ( अर्थात् कथित प्रमाणान्तर- जनितज्ञान, विवक्षा, एवं प्रयत्न इन तीनों की ) सत्ता रहे। अर्थात् इन तीनों का सामानाषि- करण्य ही वाक्य रचना में पुरुष का स्वातन्त्र्य है । अध्यापक का वेवोश्चारण, प्रथवा एक पुरुष के द्वारा कथित अर्थ का दूसरे पुरुष द्वारा उपपादन, इन दोनों ही स्थलों में कथित ‘विवक्षा’ एवं ‘प्रयत्न’ ये दोनों तो शब्दों के रचयिता पुरुष में रहते हैं, किन्तु कथित प्रत्यक्षादि प्रमाणान्तरजनित वाक्यार्थं विषयक मूलभूत ज्ञान किसी दूसरे पुरुष में रहता है। अतः उक्त दोनों ही प्रकार के वाक्य ‘स्वतन्त्र पुरुष प्रणीत’ नहीं हैं । वेद रूप वाक्य के द्वारा जिन अर्थों का उपपादन किया जाता है, वेद रचना से पूर्व किसी पुरुष के द्वारा वे अर्थ उपपादित नहीं हुये थे । मतः वेदों के रचियता वेदों की रचना में ‘स्वतन्त्र’ हैं। इस लिये यह मानना पड़ेगा कि सभी वाक्यों का कोई स्वतन्त्र रचयिता भवष्य होते. ६ । प्रयुज्य ज्ञात ‘उपाधि लक्षण साध्य मन्वादि कि ‘प्रम ( १ ) भिन्न क प्रमाण मैं पहिल मन्यादि हो जात को ही य क्योंकि नहीं है। कथित उपाधि पू० प० किसी भी हो, अथव नहीं हैं,
पञ्चम स्तबक | ६८१ मन्वादिवाक्यस्यापौरुषेयत्वप्रसङ्गाच्च तदर्थस्य शब्देत रप्रमाणा गोचरत्वात् । प्रयुज्यमान वाक्येतरगोचरार्थत्वमात्रमिति चेत् । फलतः प्रकृत में स्वयं प्रणेता ‘पुरुष’ के द्वारा इन्द्रियादि अन्य प्रमाणों से ज्ञात अर्थ का प्रतिपादन ही ‘पौरुषेयत्व’ शब्द का अर्थ है । जो प्रकृत में साध्य है । कथित । ‘उपाधि’ भी वही है । अतः साध्य से अभिन्न होने के कारण उसमें उपाधि का लक्षण नहीं है । यह अनेक बार कहा जा चुका है कि अनुमान विलोप रूप प्रनिष्टापत्ति के कारण साध्य स्वयं कमी उपाधि नहीं हो सकता । मन्वादिवाक्यस्थ … ( द्वितीय प्रकार से उपाधि के उद्धार के प्रसङ्ग में प्रथमतः यह विकल्प करना होगा कि ’ प्रमाणान्तरगोचरार्थत्व’ रूप उपाधि बोधक वाक्य में जो ‘प्रमाणान्तर’ शब्द है, उससे (१) शब्दप्रमाण से भिन्न प्रमाण अभिप्रेत हैं ? (२) अथवा वेद रूप शब्द प्रमाण से भिन्न कोई भी प्रमाण अभिप्रेत है ( यह प्रमाण वेद से भिन्न शब्द रूप, एवं प्रत्यक्षावि बन्य प्रमाण स्वरूप भी हो सकता है) । ( ३ ) कि वा मूलभूत कोई भी प्रमाण अभीष्ट है ? इन मैं पहिला पक्ष इस लिये प्रयुक्त है कि ऐसा स्वीकार करने पर मन्यादिवाक्यस्य … … (१) प्रमाणान्तरगोचरार्थत्व’ शब्द का अर्थ ‘शब्द भिन्न प्रमाणगोचरार्थस्व’ द्वारा ज्ञेय अर्थ के प्रतिपादके वाक्य हो जाता है । तदनुसार शब्द प्रमाण से भिन्न प्रमाण के को ही यदि ‘पौरुषेय’ कहा जाय तो ‘मनु’ प्रभूति स्मृतियों के वाक्य मी पौरुषेय नहीं होंगे, क्योंकि उनमें कहे गये प्रथों की भी प्रमा प्रतीति शब्द से भिन्न किसी दूसरे प्रमाण से सम्भव नहीं है । छत। उक्त प्रथम विकल्प के अनुसार पौरुषेयत्व मन्वादि के वाक्यों में है, किन्तु. कथित प्रमाणान्तर गोचरार्थत्व रूप उपाधि नहीं है, अत साध्य का व्यापक न होने से यह उपाधि नहीं हो सकता । पू० प० प्रयुज्यमान 0.600 द्वित्तीय विकल्प (२) वही शब्द पौरुषेय है, जिसके अर्थ की प्रमा प्रतीति उस शब्द से अतिरिक्त किसी भी प्रमाण से सम्भव हो ( वह अतिरिक्त प्रमाण उस शब्द से अतिरिक्त शब्द रूप हो, अथवा प्रत्यक्षादि स्वरूप हो, इसमें कोई माग्रह नहीं ) । वेदों में इस प्रकार का पौषेयत्व नहीं हैं, क्योंकि वेदों के द्वारा प्रतिपादित होनेवाले ज्योतिष्टोमादि यागों की प्रमा प्रतीति ८६
६५२ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली न तस्य वेदेऽपि सत्वात् । एकस्याप्यर्थस्य शाखाभेदेन बहुभिर्वाक्ये! प्रतिपादनात् । प्रस्स्वेवं, न तु तेषां मिथो मूलमूलीभाव इति चेन्न । उक्तोत्तरत्वात् । न वेदों से अन्य किसी शब्द प्रमाण से ही होती है, न प्रत्यक्षादि प्रमाणों से ही । अतः वेदों में पौरुषेयत्व रूप साध्य एवं प्रमाणान्तरगोचरार्थत्व रूप उपाधि दोनों ही नहीं हैं। इस लिये प्रमाणान्तरगोचरार्थत्व में पौरुषेयत्व रूप साध्य की व्यापकता में कोई त्रुटि नहीं है । सि० प० न, तस्य " किन्तु यह विकल्प भी संगत नहीं है। अनेक शाखाओं में देखा जाता है, अतः उक्त गोचरार्थस्व को उपपत्ति हो सकती है। अतः गोचरार्थत्व रूप साध्य दोनों ही है, इस लिये हुये भी साधन की अव्यापकता नहीं है, अतः वह प्रकृत अनुमान में उपाधि नहीं हो सकता । क्योंकि एक ही विषय का उपपादन वेदों फी विकल्प के अनुसार भी वेदों में प्रमाणान्तर- वेदों में वाक्यत्व रूप हेतु एवं प्रमाणान्तर- उक्त धर्म में साध्य की व्यापकता के रहते -… पू० प० प्रस्त्वेवम् - तृतीय विकल्प का उपपादन प्रकृत मनुमान में जिस ‘प्रमाणान्तरगोचरार्थस्व’ को उपाधि कहा गया है, उसमें निविष्ट ‘प्रमाण’ शब्द से ‘मूलभूत’ प्रमाण लेना चाहिये । अर्थात् ‘मूलभूतप्रमाणन्तरगोचरार्थत्व’ हो उपाधि है। वेदों की कुछ विभिन्न शाखाओं में यद्यपि एक ही अर्थ प्रतिपादित हैं, किन्तु उनमें से किसी एक वाक्य का मूल दूसरा वाक्य नहीं हैं। समान अर्थ के बोधक दो शाखाओं के वाक्यों में परस्पर मूल- मूलिभाव अथवा उपजीव्य - उपजीवकभाव नहीं हो सकता । प्रतः उन शाखाओं के वाक्यों में से कोई किसी का मूल अथवा मूली नहीं हो सकता । भ्रतः किसी भी वेववाक्य में कथित ‘मूलभूत प्रमाणान्तरगोचरार्थस्व’ नहीं है। भवः ‘मूलभूत प्रमाणान्तर गोचरार्थस्व’ रूप उपाधि प्रकृत अनुमान में अवश्य है । सि० न० उक्तोत्तरस्वात् 1. इस प्राक्षेप का समाधान किया जा चुका है ।’ अर्थात् ‘प्रयोतारम्प्रत्यसिद्धेः’ इत्यादि सन्दर्भ में सत्प्रतिपक्ष के उद्धार के लिये कथित युक्ति के द्वारा ‘मूलभूतप्रमाणान्तरगोचरार्थत्व’ रूप उपाधि का भी खण्डन करना चाहिये। इसके लिये प्रकृत ‘मूलभूतप्रमाणान्तर’ के प्रसङ्ग में यह विकल्प करना चाहिये कि यह ‘मूलभूत प्रमाणान्तर’ किसका ? वाक्य के प्रयोता का ? अथवा प्रयोता से भिन्न किसी भी पुरुष का ? इन में से प्रथम विकसप के प्रसङ्ग मैं यह कहना है कि वेद स्वरूप वाक्य का कोई प्रणेता पुरुष अभी निर्यात नहीं है । अतः यह कहना सम्भव नहीं है कि ‘वेद के प्रणेता को बेद से भिन्न किसी प्रमाण के द्वारा वेदार्थ विषयक प्रमाज्ञान नहीं था’ । अतः वेद में ही प्रकृत उपाधि में सि० काय में रह दोनों होती आधे उत्पन्न हैं, पि क्यों है उपपि संख्या इन दो स
संख्याविशेषात् खल्वपि । सि० प० ६ ) संख्या विशेषात् पंचम स्तबकं! M IS ( संख्या विशेष हेतुक अन्तिम ईश्वरानुमान के उपपादक ‘संख्याविशेषात्’ इस सन्दर्भ का यह अभिप्राय है कि ) ’ कारणगुणाः कार्यगुणानारभन्ते’ इस न्याय से निष्पादक अवयवों में रहनेवाला महत्परिमाण अत्रयविद्रव्य रूप कार्य में रहनेवाले महत्परिमाण का कारण है । दोनों कपालों में रहने वाले महत्परिमाणों से घट में रहने वाले महत्परिमाण की उत्पत्ति होती है। किन्तु अवयवों की संख्या भी किसी महत्परिमाण का कारण है । क्योंकि आधे- आधे सेर के दो कपालों से उत्पन्न घट के परिमाण एवं आधे-आधे सेर के तीन कपालों से उत्पन्न घट के परिमाण, इन दोनों परिमाणों में अन्तर स्पष्ठ है | हैं, फिर समान परिमाणों के परिमाण तो समान ही परिमाण में तारतम्य यह विचार करना चाहिये कि दोनों हो घटों के अवयवों के कपालों से निष्पन्न उन दोनों घटों के क्यों हैं ? चूकि दोनों ही प्रकार के घटों के अवयवों के परिमाण से उपपत्ति नहीं हो सकती । इस लिये यही मानना होगा कि संख्या ही उक्त तारतम्य की नियामिका है । अत: संख्या भी परिमाण का कारण है । उक्त तारतम्य की अवयवों में रहने वाली त्रित्व धरणुपरिमाण किसी भी कार्य का कारण नहीं है । इसी लिये त्रसरेणु एवं द्वचरतुक इन दोनों द्रव्यों के परिमाणों के परिमाण क्रमशः तीन द्वचरतुकों एवं दो परमाणुओं में रहने हेतु की व्यापकता के भङ्ग होने से साधनाव्यापकत्व रह सकता था–सो जब सम्भव नहीं है, तब यह कहा जा सकता है कि ‘नहाँ कहीं भी वाक्यस्व रूप हेतु है, उन सभी आश्रय में ‘मूलभूख प्रमाणान्तरगोचरार्थत्व’ भी है। इस प्रकार हेतु की प्रध्यापकता प्रकृत मूलभूत प्रमाणान्तरगोचरार्थत्व में नहीं है, इस लिये वह उपाधि नहीं हो सकता । यदि प्रकृत में प्रमाणान्तरजनित ‘मूलभूत प्रमाणान्तर’ शब्द से प्रणेता पुरुष से भिन्न पुरुष वाक्यार्थविषयक ज्ञान को आवश्यक मानें, तो यह नियम किसी पुरुष विशेष के श्राकस्मिक स्मित ( मुस्कुराने ) से किसी अन्य पुरुष के द्वारा अनुमित उसी सुख विषयक वर्णन वाक्य में व्यभिचरित हो जायगा । क्योंकि इस वाक्य में पौषेयत्व तो है, कथित दूसरे प्रकार का ‘मूलभूतप्रमाणान्तरगोचरार्थत्व’ नहीं है । अतः इस पक्ष में साध्यव्यापकता की उपपत्ति न होने से प्रकृत उपाधि सम्भव नहीं है । 1
६५४ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली वाली त्रित्व संख्या एवं द्वित्व संख्या ही कारण हैं । अणुपरिमाण में कार्यमात्र के अकारणत्व- की चर्चा प्रत्थों में बार-बार की जा चुकी है ( देखिये ‘पारिमाण्डल्यभिम्नानाम् कारणत्व मुदाहृतम्’ कारिकावली का यह सन्दर्भ ) । नित्यद्रव्यों में रहली वाले एकत्व संख्या भी निश्य ही होती है, एवं श्रवयविद्रव्यों में रहने वाली एकस्व संख्या उन द्रव्यों के अवयवों से ही उत्पन्न होतीं है, एवं अपने प्राश्रय स्वरूप प्रवयवि द्रव्यों के विनाश से ही विनष्ट होती है । किन्तु नित्यानित्यं सभी द्रव्यों में रहने वाली सभी द्वित्वादि संख्यायें अनित्य ही हैं। क्योंकि वे पुरुषबुद्धि सापेक्ष हैं, स्वाभाविक नहीं हैं। एक ही घट कभी ‘घटपटौ स्तः’ इत्यादि व्यवहारों का विषय होकर द्वित्व संख्या का प्राषय होता है, एवं वही घट कभी ‘घटपटमठा:’ इस प्रतीति का विषय होकर त्रित्व संख्या का घाश्रय होता है । अतः एकस्व से भिन्न द्वित्वादि जितनी संख्यायें है—वे सभी अपनी उत्पत्ति के लिये व्यवहार करने वाले पुरुष की बुद्धि की अपेक्षा रखती हैं । द्वित्वादि संख्याओं की उत्पादिका इस ‘बुद्धि’ का ही नाम ‘यां बुद्धिमपेक्ष्य द्वित्वादि संख्या: उत्पद्यन्ते सा ‘अपेक्षा बुद्धि:’ इस व्युत्पत्ति के अनुसार ‘अपेक्षाबुद्धि’ है । द्वित्वादि का व्यवहार करने वाले पुरुष को पहिले उनके श्राश्रयीभूत द्रव्यों में से प्रत्येक में ‘अयमेकः, अयमेकः’ इत्यादि आकार की बुद्धियां उत्पन्न होतीं हैं । इन बुद्धियों को ही ‘अपेक्षाबुद्धि’ कहते हैं। इसके बाद इन अपेक्षाबुद्धियों से ही द्वित्वादि संख्याओं की उत्पत्ति होती है । इससे यह सिद्ध होता है कि द्वित्वादि संख्यायें कुछ विशेष प्रकार के परिमाणों के कारण हैं, एवं अपेक्षाबुद्धि इन द्वित्वादिसंख्याओं के कारण हैं । इन प्रपेक्षा बुद्धियों का कोई धात्रयीभूतः पुरुष भी अवश्य होता है, क्योंकि बुद्धि गुण है, भतः अनाश्रित नहीं रह सकती । सृष्टि की आदि में सबसे पहिले जिन दधतुकों एवं त्रसरेणुओं की उत्पत्ति होती है, उनमें रहनेवाले परिमाणों के क्रमशः दो परमाणुओं में रहनेवाली द्वित्व संख्या, एवं तीन धरकों में रहनेवाली त्रिस्व. संख्या ही कारण हैं। क्योंकि दो परमाणुओं से वचक एवं तीन वचरतुकों से त्रसरेणु की उत्पत्ति होती है । कथित उपपत्ति के अनुसार इन द्वित्व संख्या एवं त्रित्व संख्या के लिये अपेक्षाबुद्धि की आवश्यकता अवश्य होगी। उन दोनों संख्याओंों की अपेक्षा बुद्धि की कारणता अस्मदादि में संभव नहीं है। क्योंकि शरीर के विना जीवों को ज्ञान नहीं होता । यद्यपि सृष्टि की आदि में जीव की सत्ता उनके नित्यत्व के कारण है, तथापि शरीर के न रहने से उस समय जीवों में अपेक्षाबुद्धि की करणता नहीं मानी जा कार्यगु नित्यप सकती कारणी ( श्राश्रय वधगु चुकि घटादिव अतः वे घटादिग अवयवभ नित्य हैं भसुपरि कारण (२) भय का का प्रभूति की उत्प क्योंकि उत्पादक द्रव्यों में कालादि उत्पादन संभव ही परिमाण अनुभव
{ पश्मः स्तकः ६८ द्वधरणुकश्यणुके तावत् परिमाणवती, द्रव्यवात् । तच्च परिमाणं कार्यं कार्यगुणत्वात् । न च तस्य परमाणुपरिमाणं द्वधरणुकपरिमाणं वा कारणम् नित्यपरिमाणत्वात्, अणुपरिमाणत्वाच्च । अन्यथा अनाश्रयकार्योत्पत्तिप्रसङ्गात् । सकती । श्रतः सृष्टि की आदि में उत्पन्न होने वाले द्वयरपुकों एवं त्रसरेणुओं के परिमाणों के कारणीभूत कथित द्वित्व संख्या एवं त्रित्व संख्या की संपादिका अपेक्षाबुद्धि के समवायिकारण ( श्राश्रय) रूप में परमेश्वर का अनुमान होता है । धणुकपणुके ( इस से ये अनुमान निष्पन्न होते हैं कि ) (१) द्वचरतुक एवं त्रसरेणु ये दोनों भी ‘चुकि ‘द्रव्य’ हैं, अतः उन में भी परिमाण अवश्य हैं ( द्वचरतुकथ्यस्तु के परिमाणयुक्ते द्रव्यत्वात् घटादिवत् ) (२) द्वयक एवं त्रसरेणु में रहनेवाले परिमाण चूंकि कार्य द्रव्य के गुण हैं, अतः वे परिमाण भी ‘कार्य’ है ( द्वयस्तुकत्रसरेणुवृत्तिपरिमाणे कार्ये कार्यद्रव्यपरिमाणत्वात् घटादिगतपरिमाणवत् ) । (३) इनमें द्वचरक में रहनेवाले असुपरिमाण स्वरूप कार्य का अवयवभूत परमाणुओं में रहनेवाले परिमाण कारण नहीं हो सकते, क्योंकि वे परिमाण नित्य हैं ( नित्यपरिमाण किसी का कारण नहीं हो सकता ) एवं द्वयस्तुकों में रहनेवाला प्रणुपरिमाण भी चूकि परिमाण है, अतः त्रसरेणु में उत्पन्न होनेवाले महत्परिमाण का कारण नहीं हो सकता । ‘अन्यथा’ यदि (१) नित्यपरिमाण को भी परिमाण का कारण मानें, अथवा (२) प्रसुपरिमाण को भी महत्परिमाण का मानें तो (१) (नित्यपरिमाण को महत्परिमाण का कारण मानने पर ) ‘अनाश्रयकार्योत्पत्ति’ की आपत्ति होगी। क्योंकि काल एवं मन प्रभूति नित्यद्रव्यों में रहनेवाले नित्यपरिमाणों से भी किसी महत्परिमाण स्वरूप कार्य की उत्पत्ति माननी होगा । इस ‘महत्परिमाण’ स्वरूप कार्य का कोई माश्रय संभव नहीं है । क्योंकि परिमाण अपने पात्रयीभूत द्रव्य से धारब्ध द्रव्य में रहनेवाले दूसरे परिमाण का ही उत्पादक होता है, अन्य द्रव्यों में रहनेवाले परिमाणों का नहीं। तबनुसार कालादि नित्य द्रव्यों में रहनेवाले नित्य परिमाण भी यदि परिमाण का उत्पादन करेंगे तो अपने आश्रयीभूत कालादि द्रव्य रूप उपादान कारण से उत्पन्न होनेवाले द्रव्यों में रहनेवाले परिमाणों का ही उत्पादन करेंगे, किन्तु कालादि द्रव्य रूप उपादान कारण से किसी दूसरे द्रव्यों की उत्पादन संभव ही नहीं है । इस स्थिति में कालादि नित्यद्रव्यों में रहनेवाले नित्यपरिमाणों से किसी परिमाण की उत्पत्ति मानेंगे तो विना प्राश्रम के ही कार्य की उत्पत्ति माननी होगी, किन्तु सो अनुभव के विरुद्ध है । अतः नित्यपरिमाण किसी परिमाण का कारण नहीं हो सकता । 6.
६-६ दूधरणुकस्य गच्चेपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली महत्वप्रसङ्गाच्च, त्र्यणुकवदण्वारभ्यस्व । विशेषात् । तत्र काररणबहुत्वेन महत्वे अणुपरिमाणस्यानारम्भकत्व स्थिते रणुत्वमेव महदारम्भे विशेष इत्यपि न युक्तम् । द्वयणुकस्य महत्त्वप्रसङ्गाच्च … (२) यदि द्वधरतुक में रहनेवाले अनिष्य प्रस्तु परिमाण से त्रसरेणु में महत्परिमाण की उत्पत्ति मानें तो वधणुक को भी ‘महान’ मानना होगा अर्थात् द्वयरलुक में भी महत्परिमाण मानना होगा । पू० प० काररणबहुस्वेन … घरतुकों में रहनेवाले श्रस्तु परिमाणों में एक विलक्षण जाति है ( जो परमाणुम रहनेवाले अस्तु परिमाणों में नहीं है ) । उस विलक्षणजाति से युक्त अस्तुपरिमाण ही 9. 1 । अभिप्राय यह है कि त्रसरेणु ‘महत्’ है । इस महत्परिमाण की कारणता यदि द्वघणुक गत अणुपरिमाण में मान लेते हैं, तो अणुपरिमाण में महत्परिमाण के उत्पादन की सामर्थ्य स्वीकृत हो जाती है । एवं तुक्षय म्याय से द्वषणुगत परिमाण के उत्पादन की सामर्थ्य भी परमाणुओं में रहनेवाले परिमाण में प्राप्त हो जाती है । एवं अणुपरिमाण में त्रसरेणु के महत्परिमाण की कारयता की स्वीकृति हो ही जाती है। इस स्थिति में परमाणुओं में रहनेवाले असुपरिमाणों से द्वथरपुक में भी महत्परिमाण की उत्पत्ति माननी होगी, प्रवा द्वय में महत्व की आपत्ति के भय से यही स्वीकार करना निरापद है कि “अणुपरिमाण से महत्परिमाण की उत्पत्ति नहीं. हो सकती” । यदि द्वधक के अतुश्व के अनुरोध से धणुपरिमाया को अणुपरिमाण का ही कारण मानेंगे, तो द्वधक में रहनेवाले धपरिमाण से त्रसरे में जिस परिमाण की उत्पत्ति होगी, उसको भी ‘असुपरिमाण’ स्वरूप ही मानना होगा । जिससे त्रसरेणु भी इधरगुरु के समान ही ‘अ’ हो जायगा । इस लिये यदि श्रसरेणु के महत्व की रक्षा के लिये नसरेतु गत महत्परिमाण की कारणता उसके अवयव स्वरुप तीनों द्वयस्तुकों में रहनेवाले त्रित्व संख्या में मानेंगे तो द्वचक गव अस्सुपरिमाण में किसी दूसरे परिमाण की कारणता ‘अर्थतः’ खण्डित हो जायगी । तो फिर तुकयन्याय से परमाणुओं की द्विश्व संख्या में ही द्वधसुक गत परिमाया की कारणता भी मान ली जाय। इस प्रकार सामान्य रूप से सभी अस्तुपरिमाणों को ‘अनारम्भक’ अर्थात सभी कार्यों का अजनक मानना ही उचित है। इसी अभिप्राय से ‘अकारणत्व’ को ‘पारिमायस्थ’ का अर्थात् अणुपरिमाण का ‘साधर्म्य’ आकर प्रन्थों में उपपादित है । नारम्भ महत्परि की आ की का आपत्ति सि० प महत्परि का ही इनमें य महत्परि की उत्प से एवं करना ये दोनों कार्यों क मानी क भ ज़
पञ्चमः स्तबका ६८७ महतो महदनारम्भप्रसङ्गात् । प्ररणुत्व महत्त्वयोविरुद्धतया एकजातीयकार्या- नारम्भकत्वप्रसङ्गात् । महत्परिमाण का कारण है । अतः परमाणुओं रहनेवाले अणुपरिमाण से द्वचरतुक में महत्व की आपत्ति नहीं दी जा सकती । अतः द्वयरतुक के अणुपरिमाण में त्रसरेणु के महत्परिमाण की कारणता के मानने पर भी द्वचरतुक में महत्त्व की आपत्ति अथवा त्रसरेणु में अस्तुस्व की आपत्ति नहीं दी जा सकती । सि० प० महतः” … किसी भी अणुपरिमाण में महत्परिमाण की कारणता के स्वीकार करने पर महत्परिमाण में जो महत्वरिमाण की कारणता का नैयत्य स्वीकृत है, वह स्खण्डित हो जायगा । ’ अथवा प्रकृत में यह प्रष्टव्य है कि ( १ ) क्या अणुपरिमाण केवल महत्परिमाण का ही कारण है ? अथवा ( २ ) कहीं वह प्रस्तुपरिमाण को भी उत्पन्न करता है ? इनमें यदि प्रथम पक्ष स्वीकार करें तो इसके प्रसङ्ग में यह कहना होगा कि यदि कहीं महत्परिमाण की उत्पत्ति अस्तु परिमाण से भी हो सकती है, तो फिर सभी महत्परिमाणों की उत्पत्ति प्रसुपरिमाण से ही मान लीजिये। कुछ महत्परिमाण की उत्पत्ति प्रस्तु परिमाण से एवं कुछ महत्परिमाणों की उत्पत्ति महत्परिमाण से इस प्रकार का ‘अर्द्धजरती’ स्वीकार करना युक्त नहीं है । प्रणुत्व महत्वयोः ( यदि द्वितीयपक्ष मानें तो उसके उत्तर में यह कहना है कि ) अस्व एवं महत्व ये दोनों परस्पर विरुद्ध हैं । परस्पर विरुद्ध दो वस्तुओं में से प्रत्येक से किसी एक जाति के कार्यों की उत्पत्ति नहीं हो सकती । छातः भरतुपरिमाण से महत्परिमाण की उत्पत्ति नहीं मानी जा सकती । 1. क्योंकि अन्वय और व्यतिरेक ये दोनों ही कारणता के नियामक है । किन्तु अणुपरिमाण से भी जब महत्परिमाण की उत्पत्ति को स्वीकार करेंगे, तो इसका यह अर्थ होगा बिना महत्परिमाण के मी महत्परिमाण की उत्पत्ति होती है। ऐसा स्वीकार करने पर ‘बिना महत्परिमाण की उत्पत्ति नहीं होती है’ यह व्यतिरेक (ब्याति) भङ्ग हो जाता है। इससे महत्परिमाण में महत्परिमाण की कारणता भी भङ्ग हो जाती है । फलतः महत्परिमाण में परिमाणमात्र की कारणता का लोप हो जाता है।
६८५ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली बहुभिरपि परमाणुभिर्द्वाभ्यामपि द्वयरणुकाभ्यामारम्भप्रसङ्गाच्च । एवं सति को दोष इति चेत्; परमाणुकायंस्य महत्वप्रसङ्गः, कारण हुत्वस्य तद्धेतुत्वात् । अन्यथा द्वाभ्यां त्रिभिश्चतुर्भिरित्यनियमेनाप्यण्वारम्भे तद्वैयर्थ्यप्रसङ्गात् । बहुभिरपि …. एव पू०प० आश्रय के भेद से महत्परिमाण भी विलक्षण है, उनके मानना कि त्रसरेणु में रहनेवाले गत महत्व की उत्पत्ति ( इस प्रसङ्ग में पूर्वपक्षवादी कह सकते हैं कि भिन्न-भिन्न प्रकार के हैं। अतः विषयविभाग किया जा सकता है महत्व का ( वयस्क गत ) भरतुत्व ही कारण है, किन्तु घटादि उनके कपालादि अवयवों में रहनेवाले महत्व से ही होती है। दोनों के विषय भिन्न हैं, अत दोनों में कोई विरोध संभव नहीं है । सुतराम विरोधमूलक उक्त समाधान सङ्गत नहीं है । इसलिये इस प्रसङ्ग में दूसरा समाधान कहते हैं कि ) यदि त्रसरेणु में रहनेवाले महत्परिमाण की कारणता द्वय तुक गत त्रित्व संख्या में न मान कर तुरतुकगत प्रतुपरिमाण में ही रहे, तो बहुत से परमाणुओं से ही अथवा दो द्वचरतुकों से ही द्रव्य की उत्पत्ति माननी होगी । किन्तु लो इष्ट नहीं हैं। 1. अभिप्राय यह है कि यदि द्वषणुक में उत्पन्न होनेवाले भणुपरिमाण की कारणता सूचक के अवयबीभूत दोनों परमाणुओं में रहनेवाली द्विस्व संख्या में न मान कर दोनों परमाणुओं में रहनेवाले अणुपरिमाणों में ही मानेंगे तो दो परमाणुओं से जितने परिमाण के प्रययुक की उत्पत्ति होगी, तीन परमाणुओं से भी उतने ही बड़े खतने ही परिमाण के द्वणुक की भी उत्पत्ति होगी। क्योंकि द्वचणुक के कारणीभूत प्रत्येक परमाणु के परिमाणों में उनकी द्विस्वादि संख्याओं से कोई मम्तर नहीं आ सकता । इसी प्रकार जैसे कि तीन प्रययुकों से प्रसरेणु की उत्पत्ति होती है, वैसे ही चार अथवा पांच द्वचयुकों के द्वारा यदि त्रसरेणु की उत्पत्ति स्वीकार करें, तथापि यह त्रसरेणु भी उतना ही बड़ा एवं उतना ही भारी होगा जितना कि तीन- द्वधणुकों से उत्पन्न होनेवाला त्रसरेणु होता है । किन्तु समान परिमाण के विभिन्न संक्यक अवयवों से निष्पन्न द्रव्यों के परिमाणों में अन्तर देखा जाता है । परिमाण के इस तारतम्य की उपपत्ति संख्या में परिमाण की कारणता को स्वीकार किये बिना नहीं हो सकती । ( इसी लिये ‘हास्यास्परमाणुभ्यां द्वचकम् त्रिभिले धणुके रेग्ययुकम्’ ये साक्ष्य: विद्वानों में प्रचलित हैं ) । ( परम एवं व होती है संकोच सि० प है । अ जाती हैं ईश्वरा उत्पादि इन दो पू०प० वलक्षण fa
पश्चमः स्तबका ६५६ अरणुन एव तारतम्याभ्युपगमस्तु संख्यामवधीर्य न स्यात् । अस्तु महदारम्भ एव त्रिभिरिति चेन्न । पृ० प० अणुन एव परमाणु में रहने वाला अरतुत्व एवं द्वघणुक में रहने वाला अणुस्व दोनों परस्पर विलक्षण हैं, अतः वे भिन्न प्रकार के हैं। इन दोनों अतुत्वों में परस्पर वैलक्षण्य का प्रयोजक है, उनके आश्रयों की संख्या । किन्तु परिमाण का कारण परिमाण ही है । अतः यही मानना उचित है कि दोनों परमाणुओं के विलक्षण अणुपरिमाणों से व्रघणुक में ( परमाणुओं में रहनेवाले अणुपरिमाणों से बिलक्षण ) अणुपरिमाण की उत्पत्ति होती है । एवं घणुक में रहनेवाले इस विलक्षण अणुपरिमाण से त्रसरेण में महत्परिमाण को उत्पत्ति होती है। इसके लिये गुणों में जो समानजातीय गुणों की उत्पादकता का नियम है, उसमें संकोच कर संख्या को परिमाण का कारण मानना उचित नहीं है। सि० प० संख्यामवधीर्यं उक्त रीति से भी तो संख्या में परिमाण की कारणता का मूलतः समर्थन ही होता है । अन्तर इतना ही होता है प्रथम पक्ष में संख्या में परिमाण की साक्षात्कारणता मानी जाती है, दूसरे पक्ष में उक्त कारणता परम्परया मानी जाती है। इससे संख्या लिङ्गक ईश्वरानुमान में कोई अन्तर नहीं पाता है । तस्मात् त्रसरेण गत महत्परिमाण की उत्पादिका त्रित्व संख्या, एवं वचणुक गत विलक्षण अणुत्व की निर्वाहिका द्विश्व संख्या इन दोनों संख्याओं की निर्वाहक अपेक्षाबुद्धि के प्राश्रय रूप में परमेश्वर की सिद्धि निरवाघ है । पू० प० अस्तु अवयवों में रहने वाली संख्याओं के तारतम्य से ही जब वधणुक एवं नसरेणु में वलक्षण्य होता है, तो फिर दो परमाणुओं से द्वयणुक एवं तीन परमाणुओं से ही प्रणुक यदि तीन परमाणुओं से किसी द्रव्य की उत्पत्ति स्वीकार करेंगे, तो परमाणु से उत्पन्न उस द्वणुक रूप कार्य में महस्व की आपत्ति होगी। क्योंकि कारणों रहनेवाली बहुस्व संख्या महत्परिमाण का कारण है । पदि तीन प्रयवा चार संख्या के अवयवों से भी प्रणुपरिमाण वाले द्रव्य की ही उत्पत्ति मानेंगे तो उन अवयवों में रहनेवाली संख्यायें व्यर्थ हो जायगी । अतः यही मानना युक्त है कि दूधमुक मैं उत्पन्न होनेवाले अणुपरिमाण का उसके अवयवभूत दोनों परमाणुओं में रहनेवाली द्वित्व संख्या ही कारण है । एवं प्रसरेणु में उत्पन्न होनेवाले महत्परिमाण का उसके अवयवीभूत तीनों इयणुकों में रहनेवाली त्रिस्य संख्या ही कारण है । ८७ CCO. Vasishtha Tripathi Collection. Digitized by eGangotri६१० गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जलो महतः कार्यस्य कार्यद्रव्यारभ्यत्वनियमात् । तथापि वा तारतम्ये संख्येव प्रयोजिकेति । न च प्रचयोऽपेक्षणीयः, अवयवसंयोगस्याभावात् । की उत्पत्ति क्यों नहीं मान लेते ? परमाणु गत द्वित्व संख्या एवं परमाणुओं में ही रहने वाली त्रित्व संख्या ही द्वयणक एवं व्यणुक में अन्तर के नियामक होंगे। इसके लिये दो परमाणुओं से चणुक एवं तीन द्वयणुकों से ध्यणुक की उत्पत्ति का क्रम क्यों स्वीकार करें ? प्रर्थात् श्रयणुक की समवायिकारणता द्वघणुक में मानने की आवश्यकता नहीं है । सि० प० महतः कार्यस्य … … उक्त कथन युक्त नहीं है, क्योंकि अन्वय एवं व्यतिरेक इन दोंनों से यह सिद्ध है कि महत्परिमाण से युक्त (महत्) द्रव्य की उत्पत्ति ‘कार्य द्रव्यों’ से ही होती है। इसके समर्थन के लिये घटपटादि सहस्रों दृष्टान्त विद्यमान हैं । न्यणुक द्रव्य महत्परिमाण से युक्त है । प्रत० उक्त कार्यकारणभाव के अनुसार भ्यणुक स्वरूप महत् द्रव्य का कारण भी किसी उत्पत्तिशील ( कार्य ) द्रव्य को ही होना चाहिये । परमाणु स्वरूप द्रव्य नित्य हैं, कार्य नहीं । अत: परमार से व्यरतुक स्वरूप महत् द्रव्य की उत्पत्ति नहीं हो सकती । इसलिये परमाणुओं से एक ऐसे द्रव्य की उत्पत्ति मावश्यक है, जो अणु परिमाणवाला हो । वही द्रव्य है ‘धरतुक’ । किन्तु प्रकृत में उक्त युक्ति का प्रतिपादन अनावश्यक है, क्योंकि यदि व्यस्तुक की समवायिकारणता तीन द्व धरतुकों में न भी मानें, तीन परमाणुओं में ही मानें, तथापि उक्त दोनों द्रव्यों के परिमाणों में म्यूनाधिक्य की उपपत्ति के लिये परमाणुगत ही त्रित्व संख्या का प्रयोजक मानना अनिवार्य है । तथापि इन संख्याओंों की उत्पत्ति के कारणीभूत अपेक्षा - बुद्धियों के आश्रय रूप में परमेश्वर की सिद्धि हो ही जायगी । पू० प० न च प्रचय i ‘प्रचय’ भी कुछ महत्परिणामों का कारण है’ । व्यतः श्यरसुक में उत्पन्न होने वाले महत्परिमाण की कारणता ‘प्रचय’ में ही मानकर संख्या में महत्परिमाण की जनकता की उपेक्षा की जा सकती हैं। ऐसा होने पर विशेष प्रकार की संख्या से जो ईश्वर का अनुमान प्रस्तुत किया गया है, वह प्रसङ्गत हो जाता है । …… सि० प० श्रवयवसंयोगस्य उक्त कथन युक्त नहीं है, सकता । क्योंकि जिन द्रव्यों का १. क्योंकि ‘प्रचय’ व्यस्तुक गत महत्व का कारण नहीं हो महत्व प्रचय से उत्पन्न होता है, उनके उत्पादक अवययों ‘प्रचय उस प्रशिथिल संयोग का नाम है, जिसके द्वारा एक ही तौल के रुई पूर्व लोह के दृश्यों की लम्बाई एवं चौड़ाई में अन्तर प्रतीत होता है । परिशिष् परमार मितस्य मेवाऽऽ के संयो भिन्न प्र की जा सि० प अपरि नहीं हो यह मान परमाशु भी चू आवश्यक से विल उत्पत्ति अपेक्षाबु जिससे ह द्रव्य की तो परि ही प्रव पू०प० ‘आनुमा ही द्व
कल्पना ६é१ तस्मात् परिमाणचयो महत एवारम्भकाविति स्थितिः । प्रतोऽनेकसंख्या परिशिष्यते । सा अपेक्षाबुद्धिजन्या, अनेकसंख्यात्वात् । न चास्मदादीनामपेक्षा बुद्धि। परमाणुषु सम्भवति । तद् यस्यासी सर्वज्ञः । अन्यथा अपेक्षाबुद्धेरभावात् संखपाऽनुत्पत्ती तद्गत परिमाणानुत्पादेऽपरि- मितस्य द्रव्यस्यानारम्भकत्वात् त्र्यणुकानुत्पत्ती विश्वानुत्पत्तिप्रसङ्गः । अस्मदादीना- मेवाऽऽनुमानिक्यपेक्षाबुद्धिरस्त्विति चेन्न । के संयोग जिस प्रकार के देखे जाते है, भ्यस्तुकों के कारणीभुत अवयवों के संयोग उन संयोगों से भिन्न प्रकार के होते हैं । अतः प्रचय से व्यसुक गत महत्परिमाण की उत्पत्ति नहीं स्वीकार की जा सकती । 1 सि० प० तस्मात् ’ चूंकि प्रचय एवं परिमाण इन दोनों से केवल महत्परिमाण की ही उत्पत्ति होती है, अतुपरिणाम की नहीं, अतः द्वचरतुक में अणुपरिमाण की उत्पत्ति प्रचय अथवा परिमाण से नहीं हो सकती । संख्या में परिमाण की कारणता का उपपादन किया जा चुका है । सुतराम् यह मानना होगा कि द्वयस्तुक में प्रस्तुपरिमाण की उत्पत्ति द्वयक के कारणीभूत दोनों परमाणुओंों में रहनेवाली ‘अनेक’ संख्या अर्थात् द्वित्वसंख्या से ही होती है । यह द्वित्व संख्या भी चूंकि एकत्व संख्या से भिन्न है, अतः इसकी उत्पत्ति के लिए भी ‘अपेक्षाबुद्धि’ की आवश्यकता होगी । परमाणु विशेष्यक यह अपेक्षाबुद्धि हमलोगों की नहीं हो सकती । अस्मदादि से विलक्षण जिस पुरुष की अपेक्षाबुद्धि से सृष्टि की मादि में द्व्यणुक में अणुपरिमाण की उत्पत्ति होती है, वही ‘विशिष्ट पुरुष’ परमेश्वर हैं । यदि ‘परमेश्वर’ को स्वीकार नहीं करेंगे तो कथित अपेक्षा बुद्धि उपपन्न नहीं होगी । अपेक्षा बुद्धि के न रहने से परमाणुओं में अनेक’ ( द्वित्व ) संख्या की उपपत्ति नहीं हो सकेगी । जिससे द्वणुक में परिमाण की उत्पत्ति रुद्ध हो जायगी। विना परिमाणवाले द्रव्यों से दूसरे द्रव्य की उत्पत्ति नहीं होतो है । इसलिये यदि द्वयणुक में परिमाण की उत्पत्ति नहीं होगी तो परिमाण से रहित द्वचरतुकों से व्यणुक की उत्पत्ति नहीं होगी। जिससे विश्व की रचना हो अवरुद्ध हो जायगी । पू० प० अस्मदादीनाम् अस्मदादि साधारणजनों को प्रत्यक्षात्मक प्रपेक्षाबुद्धि भले हो संभव न हो, किन्तु ‘आनुमानिकी’ अपेक्षाबुद्धि तो हमलोगों को भी हो सकती है । अनुमिति रूप प्रपेशाबुद्धि से ही घणु के प्रारम्भक परमाणुओं में द्वित्व की उत्पत्ति होगी। इसके लिये परमेश्वर की कल्पना आवश्यक नहीं है ।
६१२ गद्यपद्यात्मकम्यायकुसुमाञ्जली इतरेतराश्रयप्रसङ्गात् । जावे हि स्थूलकायें तेन परमाण्वाद्यनुमानम्, तस्मिन् सति द्वचरणुकादिक्रमेण स्थूलोत्पत्तिः । अस्त्वदृटादेव परिमारणम्, कृतमपेक्षा बुद्ध्येति चेन्न । प्रस्तु तत एव सर्वम्, किं दृष्टकारणेनेत्यादेरसमाधेयत्वप्रसङ्गादिति ॥ ५ ॥ अथवा कार्येत्यादिकमन्यथा व्याख्यायते । उद्देश एव तात्पर्यं व्याख्या विश्वदृशः सती । ईश्वरादिपदं सि० प० इतरेतराश्रय प्रसंगात् सार्थं लोकवृत्तानुसारतः ॥ ६ ॥ यद्य हि- निमि पहि जुहुय का प्रसित है । क्योंकि प्रवृि के स इस प्रकार से विश्वरचना का उपपादन ‘अन्योन्याश्रय’ दोष से स्थूक द्रव्यों से ही परमाण प्रभूति अतीन्द्रिय द्रव्यों का अनुमान होता है । स्थूल द्रव्य घणु- कावि स्वरूप सूक्ष्म द्रव्य सापेक्ष हैं। क्योंकि जबतक वचरतुक की उत्पत्ति नहीं हो जायगी, तब तक उससे व्यणुक की उत्पत्ति नहीं हो सकती। इन दोंनों में से पहिले कौन होगा ? जब द्रव्य की उत्पत्ति हो जायगी, तब उससे कारण विषया द्वयणुकादि अणुद्रव्यों का अनुमान नहीं हो सकेगा । परमाणु द्रव्यों का जब अनुमानिक ज्ञान होगा, उसके बाद ही वद्विविषयक अपेक्षा बुद्धि से परमाणु प्रभूति में द्वित्वादि संख्याओं की उत्पत्ति के बाद ही ‘परिमितद्वयणुकादि’ अर्थात् परिमाण से युक्त द्वयणुकादि द्रव्यों की उत्पत्ति होगी । अतः उक्त बातें व्यर्थ है । पू० प० प्रस्तु अदृष्ट में ही तणुक एवं व्यणुक में परिमाणों की उत्पत्ति क्यों न मान ली जाय । इसके लिये संख्या में परिमाण की कारणता को स्वीकार कर फिर उसके लिये अपेक्षाबुद्धि की कल्पना कर ईश्वर की कल्पना करना व्यर्थ है । सि० प० न, प्रस्तु
उक्त कथन युक्त नहीं है, क्योंकि इस रीति से तो सभी कार्यों की उत्पत्ति प्रदृष्ट से हो मानकर कार्यों के सभी दृष्ट कारणों को छोड़ देना होगा । किन्तु सो इष्ट नहीं है ॥ ५ ॥ प्रथवा कार्येत्यादिकम् ’ अथवा ‘कार्यायोजन घृत्यादे।’ इस प्रथम श्लोक के द्वारा कथित हेतु बोधक पदों की अन्य व्याख्यायें भी की जा सकती हैं। ( १ ) उद्देश्य एव तात्पर्यम् … … ( ‘कार्यायोजन घृश्यादेः’ इत्यादि प्रथमश्लोक में प्रथमत: ‘कार्यत्व’ हेतु ही उल्लिखित है । अता पहिले ‘कार्य’ पद की ही दूसरी व्याख्या के अनुसार अनुमान वाक्य की व्याख्या की गयी है)। वेदों का मुख्य तात्पर्य ‘कार्यत्व’ में ही है। क्योंकि पुरुषों की इष्ट कार्यों में प्रवृत्ति के द्वारा, एवं बनिष्ट कार्यों से निवृत्ति के द्वारा ही वेद सार्थक हो सकता है। इस ‘भावी’ अर्थात् एवं एवं परि बोष द्वारा यद्य को वाक्य निवृ का वाक्य
पंचम स्तबकः ६९३ आम्नायस्य हि भाग्यार्थस्य कार्ये पुरुषप्रवृत्तिनिवृत्ती । भूतार्थस्य तु यद्यपि नाहत्य प्रवर्तकत्वं निवर्तकत्वं वा, तथापि तात्पर्यंतस्तत्रैव प्रामाण्यम् । तथा । हि - विधिशक्तिरेवावसीदन्ती स्तुत्यादिभिरुत्तभ्यते । प्रशस्ते हि सर्वः प्रवर्तते, निन्दिताच्च निवर्तत इति स्थिति। । पहिले से ‘प्रसिद्ध’ अग्निहोत्रादि अर्थों के कर्तव्यत्व का बोधक एवं विधि प्रत्ययघटित ‘अग्निहोत्रं जुहुयात्’ इत्यादि प्रवर्तक वाक्य साक्षात् ही लोगों को अग्निहोत्र होम रूप इष्ट कार्य में प्रवृत्ति का कारण हैं । एवं वायुर्वेक्षेपिष्ठा देवता, सोऽरोदीत् इत्यादि अर्थवादवाक्य यद्यपि साक्षात् प्रवृत्ति अथवा निवृत्ति के जनक नहीं हैं, तथापि ‘वाव्यव्यं श्वेत छागलमालभेत’ इत्यादि वाक्यों के साथ एवं ‘बर्हिषि रजतं न देयम्’ इत्यादि निषेधवाक्यों को उत्तेजित कर परम्परया प्रवृत्ति एवं निवृत्ति के जनक हैं ही । जैसे कि ‘पथ्यं भुंक्व’ यह वाक्य साक्षात् ही पथ्य भोजन में प्रवृत्ति का कारण है, एवं ‘अपथ्यं मां भुधव’ यह वाक्य भी साक्षात् ही अपथ्य के भक्षण से निवृत्ति का कारण है । ‘परिणतिसुरसमाम्रफलम्’ इत्यादि अर्थवाद ( प्रशंसा ) वाक्य में यद्यपि प्रवृत्ति का साक्षात् बोषक कोई पद नहीं है, तथापि प्रशंसा के द्वारा ‘भोक्तव्यम्’ इत्यादि पदों की कल्पना के द्वारा वह भी प्रवृत्ति जनक है ही । एवं परणति विरस पनसफलम् इस निन्दावोषक वाक्य में यद्यपि कटहल खाने से निवृत्ति का साक्षात् बोध जनक कोई पद नहीं है, फिर भी कटहल की निन्दा के द्वारा वह वाक्य भी कटहल खाने से निवृत्ति का बोधक है हो । कहने का अभिप्राय यह है कि प्रवृत्ति एवं निवृति के साक्षात् अवोषक जितने भी वाक्य है, वे भी विषयों की प्रशंसा प्रथवा निन्दा के द्वारा परम्परा से ही सही प्रवृत्ति प्रथवा निवृत्ति के बोधक अवश्य है । विधिवाक्य विना प्रशंसावाक्य के एवं निषेधवाक्य निन्दार्थवाद का सहायक होता है । इसी प्रकार ‘ब्राह्मणों न हतव्या, गौ। पदा न स्प्रष्टव्या’ इत्यादि निषेधक वाक्य भी ब्राह्मण हननादि रूप अनिष्ट कार्यों से पुरुषों को निवृत्त करते हैं । १ 1. इस स्तवक के द्वितीय श्लोक से लेकर पाँचवें श्लोक पर्यन्त के हेतु बोधक सन्दर्भ से प्रथम श्लोक में कथित कार्यश्ववादि हेतु बोधक पदों के एक प्रकार के अर्थ के अनुकूल अनुमानों का उपपादन किया गया है। छठवें श्लोक से लेकर सतरहवें श्लोक पर्यन्त के सन्दर्भ से उन्हीं हेतु बोधक पदों की अन्य प्रकार की व्याख्या के अनुसार अनुमानों का निरूपण कर ग्रन्थ की समाप्ति की गई है। इन सभी १८ अनुमानों का संक्षित परिचय इस स्तबक के आदि में दे दिया गया है । इस छठे श्लोक के द्वारा (१) कार्य (२) आयेजना (३) धृति एवं प्रत्यय इन चार । हेतु बोधक पदों के व्याख्यान्तर के अनुसार अनुमानों का उपपादन किया गया है।
Ro गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमांजली तत्र पदशक्तिस्तावदभिधा, तद्वलायातः पदार्थः । आकाक्षुगादिमत्वे सति चान्वयशक्तिः पदानां पदार्थानां वा वाक्यम्, तद्बलायातो वाक्यार्थः । तात्पर्यार्थस्तु चिन्त्यते । वाक्य के विना प्रवृत्ति अथवा निवृत्ति के उत्पादन में पूर्ण समर्थ नहीं होते । अतः अर्थवादादि सिद्धार्थबोधक वाक्य सहित सभी वाक्य साक्षात् अथवा परम्परया प्रवृत्ति अथवा निवृत्ति के जनक प्रवश्य हैं । इस लिये सभी वाक्यों का ‘तात्पर्य’ कार्यत्व में ही है । वेद भी वाक्य स्वरूप ही हैं, अत: वेदवाक्यों का ‘तात्पर्य’ भी ‘कार्यस्व’ में ही है । उस तात्पर्य का आश्रय प्रस्मदादि साधारणजन नहीं हो सकते । एवं तात्पर्यं विना आधार के रह नहीं सकता । छात॥ वेदवाक्यों के तात्पयों का प्राय कोई विशिष्टपुरुष अवश्य हैं। जिनका नाम ‘परमेश्वर’ है । पू० प० तत्र पदशक्ति ( शब्दों के ‘अर्थ’ तीन प्रकार के हैं (१) पदार्थ ( २ ) वाक्यार्थं एवं ( ३ ) तात्पर्यार्थ ) । (१) ईश्वरसङ्घत रूप पद की शक्ति को ‘अभिधा’ कहते हैं । पद की इस ‘अभिषा’ शक्ति के द्वारा ज्ञात होनेवाले अर्थ को ही ‘पदार्थ’ कहा जाता है । (२) एवं परस्पर की प्राकांक्षा से युक्त पदों के प्रथवा पदार्थों के ‘अन्वय’ स्वरूपा ‘शक्ति’ से ज्ञात होने वाले अर्थ को ही ‘वाक्यार्थ’ कहते हैं । ( क्योंकि ‘घटमानय’ इस वाक्य के केवल घट पद से घट, घटत्व एवं समवाय का ही बोध होता है । घट एवं आनयन रूपा क्रिया, एवं इन दोनों में जो परस्पर सम्बन्ध, उस सम्बन्ध के बोष की सामर्थ्य न केवल ‘घटम्’ पद में है, न केवल ‘आनय’ पद में ही है किन्तु उक्त वाक्य से विशृङ्खलित केवल । घट अथवा केवल मानयन का बोध नहीं होता । किन्तु श्रानयन अथवा घटकर्मकानयन का ही बोध होता है । इस विशिष्ट अर्थ के क्रिया के कर्म स्वरूप घट बोध को सामर्थ्य परस्पर साकांक्ष उक्त दोनों पदों में, अथवा पदार्थों’ के ‘प्रभ्वय’ में ही है । इस ‘अन्वय’ स्वरूप ‘शक्ति’ से ( कारण से ) बोध्य अर्थ को ही वाक्यार्थ कहा जाता है ) । तात्पर्यार्थस्तु ‘तदेव परं तत्परम्, तस्य भावस्तात्पर्यम्’ इस व्युत्पत्ति के अनुसार वक्ता जिस ‘अभिप्राय’ से अथवा जिस प्रयोजन से जिस वाक्य का प्रयोग करता है, वह वाक्य ‘तत्परक’ ( अर्थात् तदभिप्रेतार्थपरक अथवा तत्प्रयोजनीय प्रर्थ परक ) है । वही अभिप्रेत अर्थ उस वाक्य का ‘तात्पर्यार्थ’ है । भा क हो, निय पद का तत्र स्व होने सि उत स्व है । नहीं वह स्थ १.
पञ्चमः स्तबका ६६५ तदेव परं साध्यम्, प्रतिपाद्यम्, प्रयोजनमुद्देश्यं वा यस्य तदिदं तत्परम् । तस्य भावस्तत्त्वम् । तत् यद्विषयं स तात्पर्यार्थं इति स्यात् । तत्र न प्रथमः प्रमाणेनार्थस्य कर्मणोऽसाध्यत्वात् । फलस्य च तत्प्रतिपत्तितोऽन्यस्याभावात् । ‘तात्पर्यार्थ’ शब्द के ये चार अर्थ हो सकते हैं । (१) जिस पद से प्रथवा वाक्य से जिस अर्थ की सिद्धि ( निश्चयात्मक ज्ञान ) हो, वही अर्ण उस वाक्य का अथवा उस पद का ‘तात्पयर्थि’ है । (२) जिस पद से अथवा जिस वाक्य से जिस अर्थ का प्रतिपादन हो ( शब्दबोध रूप निश्चय हो ) वह प्रतिपाद्य अर्थ ही उस पद का, अथवा उस वाक्य का ‘तात्पर्यार्थ’ है । (३) जिस प्रयोजन से जो पद अथवा जो पद का अथवा उस वाक्य का ‘तात्पर्यार्थ’ है । वाक्य उच्चरित हो, वह ‘प्रयोजन’ ही उस (४) जिस ‘उद्द ेश्य’ से जो पद प्रथवा जो वाक्य प्रयुक्त हो, वह ‘उद्द ेश्य’ ही उस पद का अथवा उस वाक्य का ‘तात्पर्यार्थ’ है । तत्र न प्रथमः १… ‘अग्निहोत्रं जुहोति’ इस वाक्य का तात्पर्यार्थ है ‘अग्निहोत्र होम रूप क्रिया’ । यह ‘क्रिया’ स्वरूप ‘अर्थ’ उक्त वाक्य रूप प्रमाण का ‘साध्य’ नहीं है । अतः पद प्रथवा वाक्य के द्वारा सिद्ध होने वाला अर्थ ( साध्य ) उस पद का अथवा उस वाक्य का तात्पर्यार्थ नहीं हो सकता । सि० प० फलस्य … ( इस प्रसङ्ग में पूर्वपक्षवादी कह सकते हैं कि अग्निहोत्र होम स्वरूप वाक्यार्थ यद्यपि उक्त वाक्प का ‘साध्य’ नहीं है, किन्तु अग्निहोत्र जनित स्वर्ग रूप फल तो उक्त वाक्यार्थ स्वरूप होम का साध्य है। इस प्रकार होम रूप वाक्यार्थं में भी बाक्य की साध्यता अवश्य है । इस प्रकार प्रथम पक्ष की उपपत्ति की जा सकती है । नहीं है, क्योंकि ) वाक्यार्थ का ज्ञान ही ‘फल’ का कारण है, किन्तु उक्त कथन भी उचित वाक्य फल का कारण नहीं है । वह तो ( कुलाल पिता ) की तरह ‘अन्यथासिद्ध’ है । इस लिये यह कहना संभव नहीं है कि स्वर्गादि चूकि वाक्यार्थं का ‘साध्य’ है, अतः वाक्य का साध्य भी है । १. इन में अन्तिम पक्ष ही आचार्य को अभिप्रेत है, अतः ‘तन न प्रथमः’ इत्यादि से प्रारम्भ कर ‘वेदे तदभावात्’ इतने पर्यन्त के सन्दर्भ के द्वारा प्रथमोक तीनों ही पक्षों का खयन एवं ‘चतुर्थस्तु स्यात्’ इत्यादि सन्दर्भ के द्वारा कथित चतुर्थ पक्ष का मदन किया गया है !
૬ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली प्रशस्त निन्दित स्वार्थप्रतिपादनद्वारेण प्रवृत्तिनिवृत्तिरूपं साध्यं परमुच्येते इति चेन्न । ‘गङ्गायां घोष’ इत्यत्र तीरस्याप्रवृत्तिनिवृत्तिरूपस्यासाध्यस्यापि परत्वात् । तीरविषये प्रवृत्तिनिवृत्ती साध्ये इवि तीरस्यापि परत्वमिति चेन्न । स्वरूपा - ख्यानमात्रेणापि पर्यवसानात् । न द्वितीयः, पदवाक्ययोः पदार्थतत्संसर्गी विहाय प्रतिपाद्यान्तराभावात् । पू० प० प्रशस्ते जिस वाक्य से प्रशस्त कर्म का बोध होता है, उस वाक्य से प्रवृत्ति की उत्पत्ति होती है ( अर्थात वह वाक्य प्रवृत्तिजनक है ) । एवं जिस वाक्य से कर्म की निन्दा व्यक्त होती है, वह वाक्य उस कर्म से निवृत्ति का कारण है । अतः प्रवृत्ति अथवा निवृत्ति ही वाक्यों में प्रयुक्त होने वाले पदों के ‘साध्य’ हैं । इस लिये प्रवृत्ति अथवा निवृत्ति ही वाक्यों का ‘तात्पर्यार्थ’ है । सि० प० न, गङ्गायां घोषः उक्त कथन भी उचित नहीं है, क्योंकि ‘गङ्गायां घोष:’ इस वाक्य में प्रयुक्त ‘गङ्गा’ पद से केवल तीर का बोध ही होता है, उस से किसी प्रवृत्ति या निवृत्ति की उत्पत्ति नहीं होती है। तीर तो उस वाक्य के प्रयोग के पहिले से ही ‘सिद्ध’ है, अतः तीर इस वाक्य के पदों का ‘साध्य’ नहीं हो सकता । पू० प० तीर विषये … केवल वीर भले ही ‘साध्य’ न हो, किन्तु तीर विषयक प्रवृत्ति अथवा निवृत्ति तो ‘साध्य’ हो सकती है। अतः प्रवृत्ति अथवा निवृत्ति का विषय होने से तीर भी ‘साध्य’ हो सकता है । इस प्रकार ‘गङ्गायां घोष:’ इत्यादि वाक्यों के गङ्गादि पदों का भी तीर रूप तात्पर्यार्थ साध्य हो सकता है । सि० प० स्वरूप ०००००० ‘गङ्गायां घोषः’ इत्यदि वाक्यों के गङ्गा प्रभूति पदों में प्रवृत्तिपरस्व अथवा निवृतिपरत्व अनुभव से सिद्ध नहीं है । वे केवल गङ्गातीर में विद्यमान सोरादि के बोधों का उत्पादन करने पर भी चरितार्थ हो सकते है । ऐसी स्थिति में हठात् सभी वाक्यों के पदों को प्रवृत्ति अथवा निवृत्ति का जनक मानना अनुचित है । अतः ‘साध्य’ पदों के तात्पर्यार्थ नहीं हो सकते । (२) न द्वितीया .. पद से पदार्थ का विशेषण ( पदार्थतावच्छेदक), पद के छ (पदार्थ), एवं पदार्थता- वच्छेवक एवं पदार्थ इन दोनों के ( शक्तिमास्य ) सम्बम्ध के अतिरिक्त वाक्य में प्रयुक्त विभिन्न साम तदा मुख्ये प्रथ कोई कहें, हो ज वस्तु पू० भी प से ब का माना पद से वाक्य सुख्या सि० अथवा ‘तत्पर पद को क्योंकि तीर में में है ह पू० : प अप
पञ्चमः स्वयकः १९७ पदशक्तिसंसर्गशक्ती विना स्वार्थाविनाभावेन प्रतिपाद्यं परमुच्यत इत्यपि न साम्प्रतम् । न हि यत् यच्छन्दार्थाविनाभूतं तत्र तत्र तात्पर्यं शब्दस्य, प्रतिप्रसङ्गात् । इत्याद्यपि तीरपरं स्यात्, अविनाभावस्य तादवस्थ्यात् । स्यादिति चेन्न । तदा हि ‘गङ्गायां जलम्’ मुख्ये बाधके सति तत्तथा प्रथों में परस्पर ( आकांक्षाभास्य ) सम्बन्ध को छोड़कर पदों के अथवा वाक्यों के प्रतिपाद्य कोई अन्य पर्ण नहीं हैं। अतः वाक्य अथवा पद के ‘प्रतिपाद्य’ को यदि उनका ‘तात्पर्यार्ज’ कहें, तो पदार्थ एवं वाक्पार्थ इन दोनों के सम्मिलित स्वरूप में ही ‘तात्पर्यार्थ’ परिणत हो जायगा । किन्तु पदार्थ एवं वाक्यार्थ इन दोनों से भिन्न भी ‘तात्पर्यार्ज’ नाम की एक वस्तु अवश्य है । अतः पद वा वाक्य का ‘प्रतिपाथ’ उनका ‘तात्पर्यार्थ’ नहीं हो सकता । पू० प० पदशक्तिसंसर्गशक्ती पदों के शक्तिलभ्य अर्थादि एवं वाक्यलक्ष्य ( भाकांक्षा मास्य ) संसर्ग इनके प्रतिरिक्त भी पदार्थ अथवा वाक्यार्थ के ‘अविनाभूत’ अर्थात् व्याप्य वर्ग का बोष पदों अथवा वाक्यों से अनुभव सिद्ध है । कथित ‘व्याप्ति’ के द्वारा ज्ञाप्य अर्थ को ही प्रकृत में पद अथवा वाक्य का ‘प्रतिपाद्य’ कहा गया है। इसी ‘प्रतिपाद्य स्वरूप प्रर्थं परत्व’ प्रकृत में ‘तात्पर्यार्थ माना गया है । गङ्गा पद का अर्थ है ‘प्रवाह’ । प्रवाह को ‘तीर’ अवश्य होता है । अतः गङ्गा पद से उसके व्याप्य ( अविनाभूत ) तीर का बोध होता है । इसी लिये ‘गङ्गायां घोष:’ इस वाक्य का गङ्गा पद ‘तीरपरक’ है। तीर ही गङ्गा पद का तात्पर्यार्थ है ( एवं प्रवाह मुख्यार्थ प्रथवा पदार्थ है ) । सि० प० इत्यपि न … उक्त कथन भी ठीक नहीं है, क्योंकि इस प्रकार का अथवा वाक्य के अर्थों के जितने भी अविनाभूत ( व्याप्य ) अर्थ हों, ‘तत्परक’ हो । यदि ऐसा स्वीकार करेंगे तो ‘गङ्गायां जलम्’ कोई निर्णय नहीं है कि पद वह पद प्रथवा वह वाक्य इस वाक्य में प्रयुक्त ‘गङ्गा’ कारण अनुचित है ) । पद को भी ‘तीरपरक’ मानना होगा ( जो कि ‘अतिप्रसङ्ग’ होने के क्योंकि जिस प्रकार ‘गङ्गायां घोष’ इस वाक्य में प्रयुक्त गङ्गा पद के मुख्यार्थ की व्याप्ति सीर में है, उसी प्रकार ‘गङ्गायां जलम्’ इस वाक्य के गङ्गा पद के अर्थ की व्याप्ति भी वीर में है ही । अतः तात्पर्यार्जव का उक्त विवरण भी असङ्गत है । पू० प० सुखये… •
- ཡ जिस पद के मुख्य अर्थ का बाघ उपस्थित हो, उस पद को अपने मुख्यार्थ के प्रविनाभूत अर्ग परक मानना चाहिये । ‘गङ्गायां घोष:’ इस वाक्य के गङ्गा पद के मुख्यार्थ प्रवाह में द ।
६६५ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली तस्मिन्न सत्यपि भावात् । तद्यथा- गच्छ गच्छसि चेत् कान्त ! पन्थानः सन्तु वे शिवा । । ममापि जन्म तत्रैव भूयाद्यत्र गतो भवान् ॥ इति । मुख्यार्थाबाधनेऽपि वारणे तात्पर्यम् । न च परं व्यापकमेव । घोष का प्रग्वय बाषित है, अतः इस गङ्गा पद को प्रवाह स्वरूप मुख्यार्थ के व्याप्त तीर परक मानते हैं । ‘गङ्गायां जलम्’ इस वाक्य के गङ्गा पद के मुख्यार्थ प्रवाह में जल का अभ्वय बाधित नहीं है; मतः. इस गङ्गा पद को मुख्यार्ण परक ही मानते हैं, सद्वचाप्य अर्थ परक नहीं मानते । तस्मात् उक्त प्रतिप्रसङ्ग का कोई अवसर नहीं हैं । सि० प० न, तस्मिन्… ऐसा कोई नियम नहीं है कि जो पद मुख्यार्थ से भिन्नार्ण परक हो, उस पद का मुख्यार्थ बाधित अवश्य रहे । ( अथवा वही पद अपने मुख्य धर्ण से मिल पर्ण परक हो, जिसका मुख्यार्ण प्रवश्य ही बाधित हो) । क्योंकि ‘गच्छ गच्छसि’ इत्यादि पद्य रूप वाक्य का तात्पर्य कान्त के अन्यत्र गमन के निवारण में ही सर्वसम्मत है । किन्तु ‘कान्स’ के गम्य स्थल में अपने जन्म की ‘असा’ स्वरूप मुख्य अर्थ भी तो बाधित नहीं है । इस लिये उक्त समाधान भी सङ्गत नहीं है। पू० प० न च परंस्- मृत्यु के बिना पुनर्जन्म संभव नहीं है। अतः नायक के गम्य प्रदेश में नायिका फा भी पुनर्जन्म उसकी मृत्यु के बिना संभव नहीं है । जब साधारण हानि जनक कार्य से भी मनुष्य उस हानि को समझने के बाद निवृत हो जाता है, तो फिर मन्यत्र गमन के वाद कान्ता की मृत्यु के हेतुभूत पुनर्जन्म की आशंसा का बोध अवश्य ही कान्त के अम्यत्र गमन का निवारक है । मतः जिस प्रकार घूम की सत्ता का ज्ञापन बह्निसत्ता का ज्ञापक होता । उसी प्रकार नायिका की कथित उक्ति भी नायक की अन्यत्र गमन से निवृत्ति की प्रार्थना का सूचक है। अर्थात् जिस प्रकार व्याप्य व्यापक का ज्ञापक होता है, उसी प्रकार वाक्य के साक्षात् अभिषेयार्ग के द्वारा जिस अर्थ का प्रतिपावन होगा, उस प्रतिपाद्य के व्यापकीभूत अर्थ का प्रतिपादन भी उस वाक्य से प्रवश्य होगा । इस प्रकार पद प्रथवा वाक्य अपने अभिषेपा के व्यापकीभूत ‘अर्गपरक’ ही है ! न प्रति स्व सि वस्त में ‘क्रो कोई सभी (३) “प्रय ‘प्रय प्रति पुरुष प्रयो प्रयु ‘म
पैमः स्तंबंकः ६६६ प्रध्यापकेऽपि तात्पर्यदर्शनात् । तद्यथा - ‘मना क्रोशन्ति’ इति पुरुषे तालम् । न च मचपुरुषयोरविनाभावः, नापि पुरुषक्रोशनयोः । नापि तृतीया, तद्धि प्रतिपाद्यापेक्षितं, प्रतिपादकापेक्षितं वा स्यात् ? नाद्या, शब्दप्रामाण्यस्यातदधीन- स्वात् । तथास्वे वाऽतिप्रसङ्गात् । यस्य यदपेक्षितं तं प्रति तस्य परश्वप्रसङ्गात् । सि० प० श्रव्यापकेऽपि … ऐसा कोई भी नियम नहीं है कि वाक्य अथवा पंद अपने श्रभिषेया के व्यापकीभूत वस्तु ‘परक’ ही हों। क्योंकि सर्व सिद्ध है कि ‘मया’ क्रोशन्ति’ इस वाक्य का मश्च पद मच में स्थित पुरुष ‘परक’ है । प्रकृत में प्रयुक्त दोनों ही पदों के प्रभिषेय मर्ग क्रमश: ‘मञ्च’ एवं ‘क्रोश’ ही हैं । किन्तु पुरुष न मञ्च का ही व्यापक है, न कोई भी निर्णय नहीं है कि मश्च के ऊपर पुरुष व्यवश्य रहता है । न यही निश्चित है कि सभी पुरुष क्रोशथील ही होते हैं । अतः उक्ल पक्ष भी मसङ्गत हो है । (३) नापि तृतीयः – … क्रोश का ही। क्योंकि ऐसा “जिस प्रयोजन से पद अथवा वाक्य प्रयुक्त हों, वह पद अथवा वह वाक्य उसी ‘प्रयोजन’ स्वरूप अर्थ ‘परक’ है” इस तीसरे पक्ष में जो ‘प्रयोजन’ शब्द निविष्ट है, वह ‘प्रयोजन’ किस का ? (१) जिस व्यक्ति के लिये वाक्य का प्रयोग किया जाता है ? उस व्यक्ति का अर्थात् प्रतिपाद्य का ‘प्रयोजन’ प्रभिप्रेत है ? (२) अथवा जिस पुरुष के द्वारा वाक्य का प्रयोग किया जाता है, उस प्रतिपादक पुरुष का प्रयोजन अभिप्रेत है ? इन दोनों में से प्रथम पक्ष इस लिये युक्त नहीं है कि वाक्य का प्रामाण्य श्रोता के प्रयोजन की अपेक्षा नहीं रखता । मगर ऐसी हो तो जो वाक्य अथवा पदं जिस पुरुष के लिये प्रयुक्त होता है, वह वाक्य अथवा पद श्रोता के प्रयोजनीय ‘अपरक’ हो जायगा । जिस से ‘अतिप्रसङ्ग’ उपस्थित हो जायगा ’ । 1. अर्थात् जिस समय श्रोता ‘वह्नि’ पद को सुनता है उस समय उसे जल का भी प्रयोजन हो सकता है, अतः उक ‘वह्निपद’ को ‘जलपरक’ मानना होगा । किन्तु सो अनुचित है । क्योंकि जल वह्नि पद का अर्थ नहीं है, अतः श्रोता का प्रयोजनीय होने पर भी उक्त वह्नि पद में ‘जलपरस्व’ के अतिप्रसङ्ग का अवसर नहीं है । CCO. Vasishtha Tripathi Collection. Digitized by eGangotriगंद्यपद्यात्मक-म्यायकुसुमाञ्जली 1 तदर्थसाध्यत्वेनापेक्षा नियम इति चेन्न । कार्यंज्ञाप्यभेदेन साध्यस्य बहुविधत्वे भिन्न तात्पर्यंतया वाक्यभेदप्रसङ्गात् । घूमस्य हि प्रदेशश्यामलतामशकनिवृत्या- धनेकं कार्यम् । आर्द्रेन्धनदहनाद्यनेकं ज्ञाप्यम् । तथा चेह प्रदेशे घूमोद्गम इत्यभिहिते तात्पर्यंतः को वाक्यार्थो भवेत् ? चेतनापेक्षाया नियन्तुमशक्यत्वात् । नाऽपि प्रतिपादकापेक्षितम् वेदे तदभावात् । पू० प० तदर्थसाध्यत्वेन पद के अथवा वाक्य के जितने भी अपने मर्थ हैं, उनमें से जो अर्थ श्रोता को प्रयोजनीय हैं, उस श्रोता के लिये प्रयुक्त पद प्रथवा वाक्य उस ‘प्रयोजनीय प्रर्थ परक’ है । अतः उक्त अतिप्रसंग नहीं है । तथा हान वान नथ प्रशं वाक सि० प० न, कार्यं ज्ञाप्यभेदेन " । त्या ( ४ (२) उत्पाद्य भेद से साध्य है । एवं घूम के होते है, उनकी इच्छा के अधीन उक्त समाधान भी युक्त नहीं है । क्योंकि (१) ज्ञाप्य एवं ‘साध्य’ के दो भेद हैं । भान्द्रेन्धन प्रभव वह्नि घूम का ज्ञाप्य रूप मशकादि निवृत्ति उत्पाद्य रूप साध्य हैं। सभी चेतनों के प्रयोजन है । प्रता व अनेक हैं, और विभिन्न प्रकारों के हैं । यह नहीं कहा जा सकता एक समय एक सार्थक शब्द को जितने भी मनुष्य सुनते हैं, उस समय उस शब्द के अर्थ से सिद्ध होनेवाला ( साध्य ) एक ही प्रयोजन सभी श्रोताओं को रहे । अतः श्रोताओं के प्रयोजनों की विभिन्नता के अनुसार एक ही पद एक ही उच्चारण में विभिन्नार्थ परक हो जायगे । इस प्रकार बोताओं के विभिन्न प्रयोजनों के अनुसार वाक्य विभिन्न हो जायगे । अत पद अथवा वाक्य को श्रोता ( प्रतिपाद्य) के प्रयोजनीय अर्थ परक नहीं माना जा सकता । नापि 200 (३) एवं पद प्रथवा वाक्य को वाक्य के प्रयोक्ता ( प्रतिपादक ) के प्रयोजनीय अर्थपरक भी नहीं माना जा सकता। क्योंकि इस को स्वीकार करने से मीमांसकों को वेदों के प्रादि वक्ता को स्वीकार करना होगा । किन्तु प्रकृत पूर्वपक्षी मीमांसकों के लिये यह संभव नहीं होगा। क्योंकि मीमांसकगण शब्द का प्रामाण्य वक्ता ( प्रतिपादक ) के अधीन नहीं मानते। ऐसा स्वीकार करने पर वेदवाक्य भो वक्ता के प्रयोजनीय अर्थ परक हो जायगे । इस प्रकार वेद वक्ता रूप ईश्वर की सत्ता उन्हें माननी होगी, जो उन्हें द्दष्ट नहीं है । इसलिये अन्ततः मीमांसक तो पद अथवा वाक्य को वक्ता के प्रयोजनीय अर्थ परक नहीं मान सकते । अतः यह तीसरा पक्ष भी संगत नहीं है । आम ‘कार्य निर्धा स्वरू चाहि अर्थव व्यर्थ प्राथ हैं । इत्या सभी रूप लौकि निवृ ‘परमे
पञ्चमः स्तबकः ७०१ चतुर्थस्तु स्यात् । यदुद्देशेन यः शब्दः प्रवृत्तः स तत्परः, तथैव लोकव्युत्पत्तेः । तथा हि प्रशंसावाक्यमुपादानमुद्दिश्य लोके प्रयुज्यते, तदुपादानपरम् । निन्दावाक्यं हानमुद्दिश्य प्रयुज्यते, तद्धानपरम् । एवमन्यत्रापि स्वयमूहनीयम् । तस्माल्लोकानुसारेण वेदेऽप्येवं स्वीकरणीयम् । अन्यथा अर्थवादानां सर्वथे- वानर्थक्यप्रसङ्गात् । स चोद्देशो व्यवसायोऽधिकारोऽभिप्रायो, भाव, प्राशय, इत्य- नर्थान्तरमिति तदाधारप्रणेतृपुरुषधौरेय सिद्धिः ।
तथा च प्रयोग० – वैदिकानि प्रशंसावाक्यानि उपादानाभिप्राय पूर्वकाणि, प्रशंसावाक्यत्वात्, ‘परिणतिसुरसमाम्रफलम्’ इत्यादिलोकवाक्यवदिति । एवं निन्दा- वाक्यानि हानाभिप्राय पूर्वकारिण, निन्दावाक्यस्वात्, ‘परिणतिविरसं पनसफलमि- त्यादिवाक्यवत् । अन्यथा निरर्थकत्वप्रसङ्गश्च विपक्षे बाघकसुक्तम् । ( ४ ) चतुर्थस्तु उक्त चतुर्थ पक्ष स्वीकार के योग्य है, क्योंकि सभी पद अथवा वाक्य ‘उद्देशपरक’ ही होते हैं । लोक में यह देखा जाता है कि जो शब्द जिस उद्देश के लिये प्रयुक्त होता है, वह शब्द तदुद्देश परक कहलाता है । ‘परिणति सुरसमाम्रफलम्’ इत्यादि प्रशंसा वाक्य आम के उपादान ( ग्रहण ) के लिये प्रयुक्त होते हैं, अतः प्रशंसावाक्य ‘उपादान’ स्वरूप ‘कार्यपरक’ हैं । एवं ‘परिणतिविरसं पनसफलम्’ इत्यादि निन्दा वाक्य पके हुये कटहल से निवृत्ति स्वरूप ‘कार्य’ के लिये प्रयुक्त होते हैं, अत: सभी निन्दावाक्य ‘हान’ अर्थात् निवृत्ति स्वरूप ‘कार्यपरक’ होते हैं । इसी प्रकार अन्य सभी पदों अबवा वाक्यों में कई करना चाहिये। इस प्रकार सभी लौकिक वाक्यों में ‘कार्यपरत्व’ के निर्णीत हो जाने पर वेदों के अर्थवाद वाक्यों को भी कार्यपरक ही मानना होगा । अन्यथा वेदों के सभी प्रर्थवादवाक्य व्यर्थ हो जायेंगे । इस ‘उद्देश’ को समझाने के लिये व्यवसाय, अधिकार, अभिप्राय भाव, प्राशय प्रभुति भनेक शब्द प्रसिद्ध हैं । वेदों के उक्त ‘अभिप्राय’ के आश्रय ही ‘परमेश्वर’ हैं । ( १ ) इससे यह अनुमान निष्पन्न होता है कि जिस प्रकार ‘परिणति सुरसमाम्रफलम्’ इत्यादि लौकिक प्रशंसावाक्य ‘उपादान’ स्वरूप कार्य का बोधक है । उसी प्रकार वेदों के सभी प्रशंशा वाक्य भी चूंकि प्रर्शसावाक्य ही हैं, अतः वक्ता के द्वारा उपादान ( ग्रहण ) रूप अर्थ के समझाने के लिये प्रयुक्त हुये है । । (२) एवं वेदों के सभी निन्दार्थवाद भी चूंकि ‘परिणतिविरसं पनसफलम्’ इस लौकिक निन्दार्थवादवाक्य की तरह निन्दार्थवाक्य ही हैं, अतः उसी के समान ‘हान’ अर्थात् निवृत्ति स्वरूप अभिप्राय परक ही हैं । इन दोनों प्रकार के अभिप्रायों का आश्रय हो ‘परमेश्वर’ हैं ।
७०२ गद्यपद्यात्मक पायकुसुमाञ्जली प्रपि च नो चेदेवम्, श्रुतार्थापत्तिरपि हीयेत । सिद्धो यः प्रमाणविषयो न तु तेनैव कर्तव्यः । न च ‘पोहो देवदत्तो दिवा न भुङ्क्ते’ इत्यत्र रात्रो भुङ क इति वाक्यशेषोऽस्ति, अनुपलम्भबाधितत्वात् । उत्पस्य भिपक्तिसामग्रीतात्वादिव्यापारविरहात् । श्रयोग्यस्याशङ्कितुमप्य- शक्यत्वात् । तस्मादभिप्रायस्थ एव परिशिष्यते, गरयन्तराभावात् । स चेद्वेदे नास्ति, नास्ति श्रुतार्थापत्तिरिति तद्वद्यु [त्पादनानर्थक्यप्रसङ्गः । तस्मात् कार्यातात्पर्याद- प्युन्नीयते, प्रस्ति प्ररणेतेति । प्रायोजनात् खल्वपि । न हि वेदादव्याख्यातात् कश्चिदर्थं मधिगच्छति । न चैकदेशदशिनो व्याख्यानमादरणीयम् ‘पौर्वापर्यापरामृष्टः शब्दोऽन्यां कुरुते मतिम्’ इति न्यायेनाऽनाश्वासात् । श्रपि च … … … … इसी प्रसङ्ग में दूसरी युक्ति यह है कि वेद यदि किसी स्वतन्त्र पुरुष के अभिप्राय से निर्मित न हों, तो वेद वाक्यों के श्रवण के बाद ‘श्रुतार्थापत्ति’ के द्वारा जो ‘फलापूर्वादि’ की उपपत्ति मीमांसकों ने की है, वह अनुपपन्न हो जायगी । ( द्रष्टव्य श्लोकवार्तिक प्रर्थापत्ति- प्रकरण - श्लो० ५३ पृ० ४६४ पेज १ चौखम्बा संस्करण ) । क्योंकि ‘श्रुतार्थापत्ति’ स्थल में प्रथम वाक्य के उच्चारण करनेवाले पुरुष के ही अभिप्रेत दूसरे वाक्य की कल्पना के द्वारा दूसरे अर्थ की ‘प्रापत्ति’ अर्थात् कल्पना को जाती है । यदि वेदों का किसी अभिप्राय विशेष से युक्त कोई कर्ता ही नहीं है, तो फिर किस पुरुष के अभिप्राय के अनुकुल दूसरे वाक्य की कल्पना के द्वारा दूसरे ‘अर्थ’ की ‘मापत्ति’ होगी ? ‘श्रुतार्थापतिस्थल’ में तो कल्प्य शब्द उपलब्ध नहीं रहता । इस शब्दान्तर की उत्पत्ति अथवा अभिव्यक्ति के मनुकुल ताल्वादि के व्यापार रूप सामग्री का सम्बलन भी उस समय सम्भव नहीं । मतः यही मानना होगा कि ‘पीनो देवदशो दिवा न भुंकते’ उच्चारित इस वाक्य के शेषभूत ‘रात्री मुक्ते’ यह दूसरा वाक्य ही वक्ता को अभिप्रेत रहता है । वेदों का यदि रचयिता पुरुष न हो तो फिर वेदार्थों के उपपत्ति के लिये जो मीमांसकों ने ‘श्रुतार्थापत्ति’ की चर्चा की है, वह असङ्गत हो जायगी । (२) आयोजनातु खल्वपि ( व्याख्या विश्वरथ। सती’ इस दूसरे चरण की व्याख्या) ‘आयोजन’ हेतु के द्वारा भी सर्वज्ञ परमेश्वर की सिद्धि करनी चाहिये । ‘आ’ समन्ताद् भावेन योजनम् व्याख्यानम्’ इस व्युत्पत्ति के अनुसार इस दूसरे पक्ष में ‘प्रायोजन’ शब्द ‘अभिमत व्याख्या’ रूप अर्थ का बोधक है । शब्द से प्रण का बोष, एवं इस बोष से वाजपेपादि के अनुष्ठानावि, ये सभी दन्त अन् द्विप वाय वा माय याप उत्ति अव किय बात अवश भव अवि माव सभी है. कि वेदों प्रकार श्रघा वाजपे से चल सबसे तिर्मात मनुष्ठा
पञ्चमः स्तबका ७०३ त्रिचतुरपदकादपि वाक्यादेकदेशधाविरणोऽन्यथाचं प्रत्ययः स्यात्, किमुतातीन्द्रिया- दन्तरान्तरवाक्यसम्भेददुरधिगमात् । ततः सकलवेदवेदार्थदर्शी कश्विदेवाभ्युपेय, अन्यथाऽन्धपरम्पराप्रसङ्गात् । स च श्रुताधीतावधृत स्मृत साङ्गोपाङ्गगवेदवेदार्थस्त- द्विपरीतो वा न सर्वज्ञादन्यः सम्भवति । को ह्यप्रत्यक्षीकृत विश्वतदनुष्ठानः ‘एतावाने- वायमाम्नाय :’ इति निश्विनुयात् ? कश्वाsर्वाटिक् निःशेषाः श्रुतीग्रन्थतोऽयंतो वाऽघीयीत, अध्यापयेद्वा ? शब्दों की सम्यग् व्याख्या की अपेक्षा रखते हैं। वही व्याख्या अच्छी एवं निर्भर योग्य होती है, जिस सन्दर्भ के पूर्वापर सभी वाक्य भालोचित हों । सन्दर्भ के आदि अथवा अन्त के वाक्यों से अनभिज्ञ लोगों के द्वारा मध्यवर्ती किसी वाक्य के अनुसार सन्दर्भ की व्याक्या से विपरीत धर्ण के बोध की सम्भावना रहती है । एतन्मूलक ही ‘पौर्वापर्यापरामृष्ट।’ यह उक्ति प्रसिद्ध है । मत । वेदों के सभी ( अखिल ) अर्थों के ज्ञाता कोई विशिष्ट पुरुष अवश्य है । वेद एवं उनके अर्थों के पुरुष को सर्वश होना वेद के अध्यापकों के द्वारा वेदों की की गयी व्याख्या के उपर भी पूर्ण विश्वास नहीं किया जा सकता, क्योंकि वे लोग भी वेदों के किसी एक ही ग्रंथ के ( या कुछ ही अंशों के ) ज्ञाता होते हैं । तस्मात् सकल वेद एवं उनके सभी अर्थों के पूर्णज्ञाता एक ‘विशिष्टपुरुष’ अवश्य हैं। सर्वज्ञता हो इस पुरुष का ‘वैशिष्ट्य’ है, क्योंकि उसके बिना समस्तवेदों का अवणरूप अध्ययन, एवं अज्ञान रूप अवधारण की, एवं साङ्गोपाङ्ग अविकल स्मरण की कल्पना नहीं की जा सकती। इस प्रकार के मावश्यक है। जिस व्यक्ति को अखिल विश्वब्रह्माण्ड का प्रत्यक्ष नहीं है, अथवा वेदों में विहित सभी अनुष्ठानों के प्रयोगों का प्रत्यक्षात्मक अनुभव नहीं है, वह पुरुष यह कैसे कह सकता है कि ‘वेद इतने ही हैं’ प्रथवा ‘ये ही उनके धर्ण हैं । हम लोगों जैसा साधारण पुरुष तो समग्र वेदों के शब्दों का अध्ययन भी नहीं कर सकते, अध्यापन तो दूर की बात हैं । अतः इस प्रकार का कोई सर्वज्ञ पुरुष प्रवश्य हैं, जिनका नाम ‘परमेश्वर’ है । अत्रापि इस प्रसङ्ग में अनुमान का प्रयोग इस प्रकार है:- चूकि वेदों के द्वारा विहित वाजपेदि के अनुष्ठाताओं में बुद्धि भेद के रहते हुए भी उनका अनुष्ठान बराबर एक ही प्रकार से चला मा रहा है । प्रतः समझते है कि सभी वेदों की व्याख्या कभी कोई सर्वज्ञ पुरुष ने सबसे पहिले अवश्य ही होगी। जैसे मनुस्मृत्यादि ग्रन्थों की व्याख्या उन ग्रन्थों के निर्माताओं के द्वारा पूर्व में की गयी थी । यदि शास्त्रों के निर्माताओं में उनमें विहित अनुष्ठानों का प्रत्यक्षात्मक ज्ञान स्वीकार नहीं करेंगे, तो उन शास्त्रों से विश्वास ही उठ
७०४ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुम । झली मत्रापि प्रयोग :- वेदाः कदाचित् सर्ववेदार्थविद्वद्याख्याताः, अनुष्ठातृमति- चलनेऽपि निश्वलार्थानुष्ठानत्वात् यदेवं तत्सर्वं तदर्थविद्वद्याख्यातम्, यथा मन्वादि - संहितेति । श्रन्यथा त्वनाश्वासेना व्यवस्थानादननुष्ठानमव्यवस्था वा भवेदना देशि- कस्वात् । । अनुष्ठातार एवाऽऽदेष्टार इति चेन्न । तेषामनियतबोषत्वात् । वेदवद्वेदानुष्ठान- मप्यनादीति चेन्न । तद्धि स्वतन्त्रं वा, वेदार्थबोधतन्त्रं वा ? | आद्ये निर्मूलस्वप्रसंगः। द्वितीये त्वनियमापत्तिः । न ह्यसर्वंज्ञाविशेषे पूर्वेष तदवबोधः प्रमाणम्, न त्विदानीन्तनानामिति नियामकमस्ति । जायगा । प्रथवा उन अनुष्ठानों के आचरण ही लुप्त हो जायगे । क्योंकि उक्त स्थिति में उन शास्त्रों की ‘प्रादेश’ रूपता भङ्ग हो जायगी । पू० प० अनुष्ठातार! वेदों में विहित वाजपेयादि के अनुष्ठाता पुरुष गण ही वस्तुतः उनके उपदेष्टा हैं । इसके लिये ‘ईश्वर’ की कल्पना व्यर्थ है । सि० प० न तेषाम् उक्त समाधान भो सङ्गत नहीं हैं, एक ही अनुष्ठान के विभिन्न अनुष्ठाता हैं, एवं उनकी बुद्धियाँ भी अलग-अलग हैं। अतः एक अनुष्टाता एक प्रकार की बात कहेंगे, तो दूसरे अनुष्ठाता कुछ दूसरी ही तरह की बात ही कह सकते हैं। इस स्थिति में वाजपेयादि के स्वरूप ही अनियत हो जायेंगे । पू० प० वेदवत् ००० जिस प्रकार वेद अनादि काल से अपने पविकृत रूप में विद्यमान है, उसी प्रकार उनमें विहित वाजयेयादि के अनुष्ठान भी अविकृत उसी रूप से चले आ रहे हैं । मत। वाजपेयादि में उक्त मनयत्य की संभावना नहीं हैं । सि० प० न, तद्धि ( इस प्रसङ्ग में यह पूछना है कि ) वाजपेयादि के अनुष्ठाता गण जो प्रनादिकाल से वाजपेयादि का अनुष्ठान कर रहे है―सो क्या ‘स्वतन्त्र, होकर प्रपने मन से ? (२) प्रथवा वेदों से उनकी इतिकत्तव्यता को समझ कर ? यदि इनमें पहिला पक्ष मानेंगे तो वाजपेयादि ‘निमूल’ हो जाते हैं । मतः वे अनुष्ठेय ही नहीं रह जाते, यदि दूसरा पक्ष स्वीकार करते हैं, तो अनियम स्वरूप कथित मापति पूर्ववत् रह जाती है। क्योंकि वाजपेयादि के पूर्वानुष्ठाता गण सर्वश तो ये नहीं, मता उनमें से कुछ एक प्रकार से समझा होगा, दूसरों ने दूसरे प्रकार से ? फलत: इस पक्ष में वाजपेयादि के अनुष्ठानों में ‘पनियमापत्ति’ रह जाती है । ।
अ सि यव वेदों प्रम का युक्ति दूस निष् भो जिज्ञ ‘उरा ‘विवि इस एवं ‘स्वर्ग की इत्या मलाय पञ्चमः स्तबक: ७०५ पदात् खल्वपि । श्रूयते हि प्रणवेश्वरेशानादिपदम् । तच्च सार्थंकम्, अविगानेन श्रुतिस्मृतीतिहासेषु प्रयुज्यमानत्वात्, घटादिपदवदिति सामान्यतः सिद्धे, कोस्यार्थः १ इति व्युत्पित्सोविमर्शे सति निर्णयः, स्वर्गादिपदवत् ‘उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः परमात्मेत्युदाहृतः । यो लोकत्रयमाविश्य बिभत्यंव्यय ईश्वर’ | (गीता) इत्यर्थवादातु ॥ यववराहादिवद्वाक्यशेषाद्वा । पहिले के वाजपेयादि के अनुष्ठाता गण भी जब सर्वज्ञ नहीं थे, तो उन लोगों ने वेदों को जिस प्रकार से समझकर जिस रीति से वाजपेयादि यागों का अनुठान किया, उसको प्रमाणिक मानें ? एवं इस समय हमलोग वेदों को कुछ दूसरे प्रकार से ही समझ कर वाजपेयादि का अनुष्ठान कुछ दूसरे रूप में ही करने को कहें तो वह अप्रमाणिक हो ? इसमें कोई विशेष युक्ति नहीं हैं । अत! वेदों का कोई ‘सर्वज्ञ’ व्याख्याता अवश्य हैं । ( ४ ) पदात्खल्वपि अर्थात् ‘पद’ हेतु से भी दूसरी व्याख्या के अनुसार वेदों में ईश्वरादि पदं सार्थस् इत्यादि उत्तरार्द्ध की व्याख्या सर्वज्ञ ईश्वर का अनुमान करना चाहिये । ‘पद’ शब्द से इस प्रयुक्त ‘ओं’ ‘ईश्वर’ ‘ईशान’ प्रभृति शब्द अभिप्रेत हैं । ऐसी प्रसिद्धि नहीं है कि वेदों में प्रयुक्त ओं पद, ईश्वर पद, ‘ईशान’ प्रभूति पद निरर्थक हैं । अथ च श्रुति स्मृति पुराणादि ग्रन्थों में ईश्वरादि पद के प्रयोग प्रचुर हैं, इससे यह अनुमान निष्पन्न होता है कि ‘ईश्वरादि पद सार्थक हैं, क्यों कि निरर्थकत्व की प्रसिद्धि न रहने पर भी श्रुतिस्मृत्यादि में उनके प्रयोग हैं।” सिद्धि हो जाने पर कौन से अर्थ हैं ? इस संशय के बाद बल से सर्वज्ञत्वादि विशेषणों से युक्त इस प्रकार ईश्वरादि पदों से साधारण रूपसे सार्थकत्व की जिज्ञासुओं को संशय होता है कि ‘ईश्वरादि पदों के ‘उरामः पुरुषस्त्वन्यः’ इत्यादि प्रर्थवाद वाक्यों के ‘विशिष्ट पुरुष’ में ईश्वरादि पदों की शक्ति निर्यात हो जाती है । जैसे कि इहलोक में स्वर्गादि पदों के अर्थ न रहने पर भी ‘स्वर्गकामो यजेत’ इस वाक्य को सुनने के बाद ‘स्वर्ग’ पद के प्रसङ्ग में जिज्ञासा होती हैं कि इसका क्या अर्थ हैं ? एवं ‘यम्न दुःखेन संभिन्नम्, इत्यादि अर्थवाद वाक्यों से अलौकिक विशेष प्रकार के सुख में ‘स्वर्ग’ पद की शक्ति गृहीत होती है । इसी प्रकार ‘यववराहादि’ वाक्यों के शेष भूत वाक्यों के दृष्टान्त से भी ईश्वरादि पदों की शक्ति का निश्चय होता है। अर्थात् जिस प्रकार ‘यवमयश्चरुर्भवति’ ‘वाराही चोपानत्’ इत्यादि वाक्यों में प्रयुक्त ‘यव, पद एवं ‘वराह’ पद के प्रसंग में क्रमशः ‘यत्रान्या भीषषयो- म्लायन्ते’ इस वाक्यशेष के बल से ‘यव’ पद की शक्ति दीर्घशुक विशिष्ट में गुहीत होती EL
७०६ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली तद्यथा ईश्वरप्रणिधानमुपक्रम्य श्रूयते - ‘सर्वज्ञता तृप्तिरनादिबोधः स्वतन्त्रता नित्यम लुप्तशक्तिः । अनन्तशक्तिश्च विभोविधिज्ञा । षडाहुरंगानि महेश्वरस्य ’ ॥ इति । एवम्भूतोऽर्थः प्रमाणबाषित इति चेन्न, प्रागेव प्रतिषेधात् । तथापि न तत्र प्रमाणमस्तीति चेत् स्वगे अस्तीति का श्रद्धा ? न ह्य तविशेषणे सुखे किञ्चित्प्रमा ण मस्त्य स्म दादीनाम् । याज्ञिकप्रवृत्त्यन्यथानुपपत्त्या तथेव तदित्यवधार्यं ते इति चेन्न । है । एवं ‘वराहं गावोऽनुधावति इत्यादि वाक्यशेष के अनुसार ‘वराह’ पद की शक्ति शूकर में गृहीत होती है ( देखिये मोमांसा सूत्र अ० १ पा० ३ अधिकरण ५ ) उसी प्रकार ईश्वर पद से युक्त ईश्वर प्रणिधानादि के विधायक वाक्यों के वाद पठित ‘सर्वज्ञता तृप्तिरनाविबोधः” इत्यादि वाक्यशेष के बल से सर्वज्ञत्वादि विशेषणों से युक्त ‘सर्वज्ञपुरुष’ में ‘ईश्वर’ पद की शक्ति गृहीत होती है । अतः वेदस्य ईश्वरादि पदों से ईश्वर की सिद्धि हो सकती है । पू० प० एवम्भूतः ‘सर्वज्ञता तृतिरनादिबोधः’ इत्यादि वाक्यों के द्वारा कथित अर्थ चूकि अप्रमाणिक हैं अर्थात् तद् बोधक प्रमाणों के द्वारा सर्वज्ञत्वादि चूकि बाषित है, अतः सर्वज्ञत्वादि से युक्त पुरुष किसी पद के अर्थ नहीं हो सकते । सि० प० न, प्रागेव सर्वज्ञत्वादि के बाधक प्रमाणों का खण्डन पहिले ही ( तृतीय स्तबक में ) किया जा चुका है। पृ० प० तथापि वस्तु की सिद्धि केवल बाधक प्रमाणों के निरास से ही नहीं हो जाती । उसके लिये साधक प्रमाणों को उपस्थित करना भी आवश्यक है । किन्तु किसी भी पुरुष में सर्वज्ञत्वादि का साधक कोई प्रमाण नहीं है, अतः सर्वज्ञत्वादि से युक्त पुरुष में ‘ईश्वर’ पद की शक्ति गृहीत नहीं हो सकती । सि० प० स्वर्गे स्वर्ग शब्द के उक्त सुख विशेष रूप अर्थ का साधक ही ( यन्न दुःखेन संभिन्नम् इत्यादि अर्थवाद वाक्यों को छोड़कर) कौन सा प्रमाण है कि उसमें स्वर्ग’ पद की शक्ति मानते हैं ? क्योंकि स्वर्ग के साधक प्रत्यक्षादि कोई भी प्रमाण तो लोक में प्रसिद्ध नहीं है । पू० प० याज्ञिकप्रवृत्या जिस ‘सुख विशेष’ को ‘स्वर्ग’ पद का अभिधेय कहा गया है, उसकी सत्ता में ‘अर्थापत्ति’ प्रमाण है । विचक्षण शिष्ट गण बहुत प्रकार के भ्रमों को वहन कर प्रचुर धन के व्यय से वाजपेयादि का अनुष्ठान करते हैं । यदि अस्मदादि के प्रत्यक्षादि प्रमाणों से अगम्य किसी विशेष प्रकार का सुख नहीं रहता, तो वे इतना अम और इतना व्यय स्वीकार च अ न है यज्ञ ही रूप सि क्यों में तब हो उत् पू० उस के की पूर्व बाद अन्य सि अन् एवं गम को
पञ्चमः स्तबक इतरेतराश्रयप्रसंगात् । भवघृते हि स्वर्गरूपे तत्र प्रवृत्तिः, प्रवृत्यन्यथाऽनुपपस्या च तदवधारणमिति । पूर्ववृद्धप्रवृत्या तदवधा रणेऽयमदोष इति चेन्न । अन्धपरम्पराप्रसंगात् । न करते । क्योंकि साधारण सुख तो सामान्य व्यय एवं सामान्य श्रम से 1 है । अतः इतने बड़े असाधारण श्रम एवं व्यय से निष्पन्न होने वाले वेदों से ही प्राप्त हो सकता विहित वाजयेयादि यज्ञ क्रियाओं से कोई निरतिशय सुख न प्राप्त हो तो प्रेक्षावान् उन याज्ञिकों की प्रवृत्ति ही अनुपपन्न हो जायगी। इस अनुपपत्ति ( अर्थापत्ति ) से सिद्ध होने के कारण ही ‘स्वर्ग’ रूप सुख प्रमाण के विरुद्ध नहीं है । सि० प० इतरेतर … उक्त रीति से स्वर्ग स्वरूप अलोकिक सुख की सिद्धि अन्योन्याश्रय दोष से ग्रस्त है । क्योंकि जबतक स्वर्ग का स्वरूप निर्णीत नहीं होगा, तबतक स्वर्ग के साघनीभूत वाजपेयादि में प्रेक्षावार शिष्टों की प्रवृत्ति नहीं होगी । किन्तु जबतक वे वाजपेयादि में प्रवृत्त नहीं होंगे, तबतक स्वर्ग के स्वरूप का निर्णय नहीं होगा । इस प्रकार यह प्रसमाधेय प्रश्न उपस्थित होगा कि उक्त प्रवृति, एवं स्वर्ग के स्वरूप का उत्पत्ति होगी ? निर्णय, इन दोनों में से पहिले किसकी पू० प० पूर्ववृद्ध oot GED संसार अनादि है । जिस समय जो भी पुरुष उससे पहिले भी वाजपेवादि का अनुष्ठान अवश्य ही हो चुका बाजपेयादि के अनुष्ठानों में प्रवृत्त होंगे, रहता है । अतः वाजपेयादि वह अपने से पूर्व के शिष्टों के तत्कालिक प्रनुष्ठाता की वाजपेयादि में जो प्रवृति होती है, की वाजपेयादि की प्रवृत्ति से स्वर्ग की उपसि निर्णीत होने पर ही होती है । इस प्रकार पूर्ववृद्ध की प्रवृत्ति से वाजपेयादि में स्वर्गजनकत्व का अनुमान होता है । इस अनुमान के बाद ही वे वाजपेयादि के मनुष्ठानों में प्रवृत होते हैं । इस प्रकार स्वर्ग को कल्पना में श्रन्योन्याश्रय दोष नहीं है । सि० प० न, अन्धपरम्परा . इस प्रकार की परम्परा को ही ‘अन्धपरम्परा’ कहते हैं । प्रर्थात् जिस प्रकार किसी अन्धपुरुष को उठकर जाते देख कर विना समझे बूंझे कोई दूसरा पुरुष उसके पीछे चले, एवं उस दूसरे पुरुष को देखकर कोई तीसरा पुरुष भी उसी तरफ चले। इस प्रकार की गमन परम्परा जैसे कि अप्रामाणिक है, उसी प्रकार केवल वाजपेयादि के पूर्व मनुष्ठाताओं को देखकर ही आधुनिक अनुष्ठाताओं की प्रवृशि भी अप्रमाणिक ही होगी ।
गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जलो विशिष्टादृष्टवशात् कदाचित् कस्यचिदेवंविधमपि सुखं स्यादिति नास्ति विरोधः, तन्निषेधे प्रमाणाभावादिति चेत्; तुल्यमितरत्रापि । अत्रापि प्रयोगः यः शब्दो यत्र वृद्धेरसति वृत्यन्तरे प्रयुज्यते स तस्य वाचकः, यथा स्वर्गशब्दः सुख विशेषे प्रयुज्यमानस्तस्य वाचकः । विशिष्टादृष्टवशात् दूसरी बात यह है कि एक जातीय कार्यों की उत्पत्ति विभिन्न कारणों से हो सकती है । जैसे कि वह्निव जातीय एक वह्नि व्यक्ति की उत्पत्ति कभी तृग से एवं दूसरी वह्नि की उत्पत्ति काष्ठ से होती है । इसी प्रकार घनादि लौकिक साधनों के साध्य लौकिक सुख के समानजातीय लोकिक सुख भी कदाचित् वाजपेयादि जन्य ‘विशिष्ट पुण्य’ से भी उत्पन्न हो सकता है । इस प्रकार वाजपेयादि के अनुष्ठान वैकल्प कि हो जायेंगे । यदि सजातीय किसी सुख व्यक्ति की उत्पत्ति किसी दूसरे कारण से भी हो सकती है, तो फिर यह आवश्यक नहीं है कि वाजपेयादि का अनुष्ठान अवश्य किया जाय । पू० प० तम्निषेधे ‘विशेष प्रकार का प्रलोकिक सुख स्वर्ग शब्द का अर्थ नहीं है’ इसका निषेधक मी तो कोई प्रमाण नहीं है । अतः प्रतिषेवक के अभाव से ही उसकी सिद्धि हो जायगी । सि० प० तुल्यम् यही बात तो ‘ईश्वर’ शब्द के प्रसङ्ग में भी कहा जा सकता है कि ‘सर्वज्ञ पुरुष ईश्वर शब्द का वाच्य है’ इसका निषेषक कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं है, अतः सर्वज्ञत्व विशिष्ट पुरुष हो ‘ईश्वर’ पद के अर्थ हैं। इस प्रकार से गृहीत शक्तिक ‘ईश्वर ईशानादि’ पदों के द्वारा भी ‘परमेश्वर’ की सिद्धि हो सकती है । सि० प० अत्रापि इस प्रकार कथित युक्तियों से निष्पन्न प्रनुमान का प्रयोग निम्नलिखित क्रम से जानना चाहिये । प्रर्थात् जिस शब्द की जिस अर्थ में लक्षणा प्रभूति किसी वृत्ति के न रहने पर भी वृद्धगण यदि उन शब्द का प्रयोग उस अर्थ में करते हैं तो यह समझना चाहिये कि अवश्य ही वह शब्द उस अर्थ का वाचक है । अगर ऐसा हो प्रर्थात् ‘ईश्वर’ पद का कोई मर्थ ही नहीं रहे, तो सार्थक शब्दों के उपयुक्त समूह स्वरूप ‘ईश्वर’ पद का जो व्यवहार भूरिशः देखा जाता है, वह मनुपपन्न हो जायगा । अत: ‘ईश्वर’ पद अवश्य ही सार्थक है । वृद्धों ने A समि तमद अपि ततो ऽप्रयो जगत यह व प्रयुज्य शब्दों श्रपि शब्द वाक्य में यह अर्थ है किसी है । दुसरे ऐसा स्वतन्त्र है । जहां अस्मत शब्द
पञ्चमः स्ववेकः ७०६ प्रयुज्यते चायं जगत्कर्तरीति । अन्यथा निरर्थकश्वप्रसंगे सार्थक पदकदम्ब - समभिव्याहारानुपपत्तिरिति । एवेन रुपेद्रन्द्रो महेन्द्रादिदेवता विशेषवाचका व्याख्याताः । अपि च - अस्मत्पदं लोकवद्वेदेऽपि प्रयुज्यते । तस्य च लोके नाचेतनेष्वन्य- तमदर्थः, तत्र सर्वथैवाप्रयोगात् । नाप्यात्ममात्रमर्थः, परात्मन्यपि प्रयोगप्रसंगात् । अपि तु यस्तं स्वातन्त्र्येणोच्चारयति तमेवाह । तथैवान्वयव्यतिरेकाभ्यामवसायात् । ततो लोकव्युत्पत्तिमनतिक्रम्य वेदेऽप्यनेन स्वप्रयोक्तेव वक्तव्यः । श्रन्यथा- ऽप्रयोगप्रसंगात् । जगत कर्ता को समझाने के लिए ईश्वर शब्द का प्रयोग किया है । इस अनुमान का बोधक यह वाक्य निष्पन्न होता है– ईश्वरादि पदं जगत्कर्तृवाचकम्, प्रसति वृत्यन्तरे वृद्धस्तत्र प्रयुज्यमानत्वात् स्वर्गादिपदवत् । इस प्रकार ‘रुद्रस्त्रयम्बकः’ इत्यादि वाक्यशेषों के अनुसार रुद्र, उपेन्द्र, महेन्द्र, प्रभृति शब्दों को भी विशेष प्रकार के देवताओं का वाचक समझना चाहिये । अपि च … … ‘पद’ हेतु के द्वारा ईश्वर के अनुमान का दूसरा प्रकार यह है कि वेदों में प्रयुक्त ‘अस्मत्’ शब्द स्वरूप विशेष ‘पद’ के द्वारा मी ‘ईश्वर’ की सिद्धि की जा सकती है । क्योंकि लौकिक वाक्यों की तरह वैदिक वाक्यों में भो ‘प्रस्मत्’ शब्द का प्रयोग देखा जाता है । इस प्रसङ्ग में यह प्रश्न उपस्थित होता है कि वेद वाक्यों में प्रयुक्त ‘अस्मत्’ शब्द का कौन सा प्रभिषेय अर्थ है ? अचेतन (जड़) घटादि में से कोई मो ‘प्रस्मत्’ शब्द का अर्थ हो नहीं सकता, क्योंकि किसी भी अचेतन वस्तु को समझाने के लिये ‘अस्मत्’ शब्द का प्रयोग कहीं नहीं देखा जाता है । ‘अस्मत्’ शब्द ‘केवल आत्मा’ रूप चेतन का मी वाचक नहीं है, यदि ऐसा हो तो फिर दुसरे की आत्मा को समझाने के लिये मी ‘अस्मत्’ शब्द का प्रयोग होने लगेगा । किन्तु ऐसा कभी नहीं होता । अतः केवल आत्मा मी ‘प्रस्मत्’ का वाच्य नहीं हो सकता । अतः स्वतन्त्र रूप से अस्मत् शब्द का उच्चारण करनेवाले पुरुष ही ‘अस्मत्’ शब्द के वाच्य अर्थ निष्पन्न होती है । अर्थात् है । क्योंकि अन्वय एवं व्यतिरेक से इसी प्रकार की ‘प्रगति’ जहां स्वतन्त्ररूप से उच्चारण करने वाले को स्वयं अपने को ही समझाना इष्ट रहता है, वहीं अस्मत्’ शब्द का प्रयोग देखा जाता है, अन्यत्र नहीं । इस लौकिक व्युत्पत्ति के अनुसार यह निष्पन्न होता है कि वेदवाक्यों में प्रयुक्त ‘मस्मत्’ शब्द का अर्थ भी स्वतन्त्र रूप से उसके उच्चारण करने वाले पुरुष ही हैं । CCO. Vasishtha Tripathi Collection. Digitized by eGangotri.०१० गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली न च यो यदोच्चारयति वैदिकमहंशब्दं स एव तदा तस्याथं इति युक्तम्; तथा सति ‘मासुपासीत’ इत्यादी स एवोपास्यः स्यात् । ‘अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्व प्रवर्तते’ इत्युपाध्यायशिष्यपरम्परैवात्मन्यैश्वर्यं समधिगच्छेत् । तथा च उपासनां प्रत्युन्मत्त केलिः स्यात् । लोकव्यवहारथोच्छिद्येत् । यस्मान्नानुवताऽस्य वाच्यः । अपि तु वक्तैवेति स्थिते प्रयुज्यते - वेदे प्रस्मच्छन्दः स्वप्रयोक्तृवचनः, अस्मच्छन्द- स्वाल्लोकवदिति । एवमन्येऽपि यः कः स इत्यादिशब्दा द्रष्टव्याः । तेषां बुद्धयपक्रमप्रश्नपराम- र्शाद्युपहितमर्यादत्वात् । तस्य च वक्तृधर्मत्वात् । पू० प० न, च जिस समय जिस पुरुष के द्वारा ‘अस्मत्’ घटित वेद वाक्यों का उच्चारण होता है, वही पुरुष उस समय उस ‘प्रस्मत्’ शब्द के अर्थ हैं । श्रत। वेदस्य अस्मत् शब्द के स्वतन्त्र उच्चारयिता रूप परमेश्वर की सिद्धि नहीं हो सकती । सि० प० तथा सति 400 000 अगर उक्त सिद्धान्त स्वीकार करें तो ‘अस्मत्’ शब्द से युक्त ‘मामुपासीत्’ इस वाक्य के द्वारा उपासक स्वयं अपनी ही उपासना करने लगेगा । एवं ‘महं सर्वस्य’ इत्यादि वाक्य से जिस अलौकिक ऐश्वर्य का प्रतिपादन होता है, वह वेदों के अध्यापक एवं उनकी शिष्य परम्परा की ही समझी जायगी। फलतः ‘अस्मत्’ शब्द का यह अर्थ उपासना को उन्मत्त की क्रोड़ा में ही परिणत कर देगा । इस लिए ‘अनुवक्ता’ अर्थात् अध्यापक से पढ़कर वाद में वेदों का उच्चारण करने वाले पुरुष वेदस्थ ‘अस्मत्’ शब्द के अर्थ नहीं हो सकते । किन्तु जिस प्रकार लोक में स्वतन्त्र उच्चारयिता ही अस्मत् शब्द का अर्थ होता है, उसी प्रकार वेदस्थ ‘अस्मत्’ शब्द के प्रसङ्ग में भी जानना चाहिए । इससे यह अनुमान निष्पन्न होता है कि ‘वेदस्थास्मच्छन्दः स्वप्रयोक्त वाचकः अस्मच्छ- उदत्वात् लौकिकास्मच्छव्ववत् । इसी प्रकार वेदस्थ ‘यः, कः सः, इत्यादि शब्दों से भी ईश्वर की सिद्धि जाननी चाहिये । 1. अर्थात् चका की बुद्धि की उपक्रमस्थ वस्तु ‘यंत्र’ शब्द का अर्थ है, उसी उपक्रमस्थ वस्तु का ‘तत्’ शब्द से उपसंहार होता है। बदों में भी ‘बद’ शब्द के अनेक प्रयोग हैं, उन वैदिक ‘यत्’ शब्द का अर्थ भी चक्का की बुद्धि की उपक्रमस्थ वस्तु ही है। क्योंकि वह मी ‘पत्’ शब्द ही है । ‘वेदवाक्यघटको यच्छन्द। उच्चारबितृ बुद्धयुपक्रमविषयवाचकः ‘यत्’ शब्दत्वात् लौकिक्रयच्छन्दवत् " । परा सर्व अर्थ उच्च करने उसके शब्द पुरुष स्मर ‘तत् विषय शब्द जही ही पुरुष दूसरे जा न च की ज्ञात की
पञ्चमः स्तवका ७११ बुद्धधपक्रमो हि प्रकृतत्वम्, जिज्ञासाऽऽविष्करणञ्च प्रश्नः, प्रतिसन्धानश्च परामर्श इति । एवञ्च संशयादिवाचका श्रप्युन्नेयाः । न च जिज्ञासासंशयादयः सर्वज्ञे प्रतिषिद्धा इति युक्तम् । एवं वेद वाक्यों में ‘किम्’ शब्द का भी प्रचुर प्रयोग प्राप्त होता है । ‘किम्’ शब्द का अर्थ है ‘प्रश्न’ । जिज्ञासा का प्रकाशन ही ‘प्रश्न’ है । प्रकृत में यह जिज्ञासा ‘किम’ शब्द के उच्चारयिता पुरुष में रहनेवाली जिज्ञासा ही हो सकती है। लोग अपनी जिज्ञासा को व्यक्त करने के लिये हो ‘किम’ शब्द का प्रयोग भी करते है । अत । वेदों में ‘किम’ शब्द का प्रयोग भी उसके मादि उच्चारयिता की जिज्ञासा के बोध के लिए ही किया गया है । अतः वेदस्थ ‘किम’ शब्द के अर्थ में निविष्ट जो ‘जिज्ञासा’ है, उस जिज्ञासा का श्राश्रय कोई पुरुष अवश्य हैं। वही पुरुष ‘परमेश्वर’ शब्द से प्रसिद्ध हैं । रहनेवाला स्मरण ही होना चाहिये । इसी प्रकार ‘तत्’ शब्द का अर्थ है प्रतिसन्धान अर्थात् स्मरण का विषय । इस स्मरण को भी ‘तत् शब्द के प्रयोक्ता की प्रात्मा में ‘तत्’ शब्द का प्रयोग करनेवाला पुरुष ‘यत् शब्द के विषय को ही ‘तत्’ शब्द से व्यक्त करता है । द्वारा पूर्वानुभूत विषयक ‘स्मरण के वेदों में भी ‘तत् शब्द का प्रचुर प्रयोग है । वेद वक्ता का स्मरण ही उस ‘तत्’ शब्द का भी अर्थ है | अतः इस स्मृति का आश्रय परमेश्वर ही हो सकते हैं, अस्मदादि नहीं। इसी प्रकार लोक में यह देखा जाता है कि संशय के वाचक विर्मंशादि शब्दों का जहाँ प्रयोग होता है, वहीं उस शब्द से उच्चारणकर्ता पुरुष में होने वाले संशय के बोध को ही उत्पन्न करता है । अतः वेदस्थ संशय वाचक पद भी उसके आदि उच्चारण करने वाले पुरुष में होने वाले संशय का ही बोधक है । इस संशय का प्राषय परमेश्वर को छोड़कर दूसरे नहीं हो सकते । अतः वेदस्थ संशयादि वाचक पदों से भी ईश्वर का अनुमान किया जा सकता है । न च जिज्ञासा संशयादयः जो विषय यथार्थ रूप से ज्ञात नहीं रहता है, उसी विषय का संशय एवं उसी विषय की जिज्ञासा होती है । परमेश्वर चूकि सर्वज्ञ हैं, अतः उन्हें सभी विषय यथार्थ रूप से ही ज्ञात हैं। इसलिये ईश्वर में जिज्ञासा अथवा संशय का होना संभव ही नहीं है । भ्रतः वेदों के उच्चारयिता परमेश्वर यदि सर्वज्ञ हैं, तो उनमें संशयादि नहीं रह सकते। यदि उनमें संशयादि की सत्ता मानेंगे तो उन्हें सर्वज्ञ नहीं माना जा सकता ।
७१२ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाजली शिष्यप्रतिबोधनायाहांयत्वेनाविशेषात् । ’ को धर्मः कथं लक्षणकः’ इत्यादिभाष्यवदिति । । एतेन घिगहो बत हन्तेत्यादयो निपाता व्याख्याताः ॥ ६ ॥ प्रत्ययादपि । लिगादिप्रत्यया हि पुरुषधौरेय नियोगार्था भवन्तस्तं प्रति- पादयन्ति । तथाहि 1 प्रवृत्तिः कृतिरेवात्र सा चेच्छातो यतश्च सा । तज्ज्ञानं विषयस्तस्य विधिस्तज्ज्ञापकोऽथवा ॥ ७ ॥ सि० प० शिष्यप्रतिबोधनाय … शिष्यो को समझाने की सुविधा के लिये सर्वज्ञ को भी ‘माहार्य’ संशय हो सकता है । जैसे कि स्वयं भाष्यादि के रचयिताओं को एक कोटि का निश्चय रहने पर भी वे ‘को धर्म ? कि लक्षणक ? ( शाबर भाष्य का जादि ) इत्यादि संशयबोधक वाक्यों का प्रयोग करते. हैं। अतः परमेश्वर को सभी विषयों का यथार्थ ज्ञान रहने के कारण किसी भी विषय का अनाहार्य संशय यद्यपि नहीं हो सकता, फिर भी आहार्य संशय उन्हें भी हो सकता है । तस्मात् तद्गत प्राहार्य संशय के वाचक ही वेदस्थ संशयादि पद के बोधक हैं । एवेन घिगहो इसी प्रकार वेदों प्रयुक्त धिक् महो, बस हन्त प्रभूति निपातों के द्वारा भी परमेश्वर की सिद्धि की जा सकती है । सि० प० प्रत्ययादपि विषि ‘प्रत्यय’ से भी ( सर्वज्ञ ईश्वर परमेश्वर का अनुमान करना चाहिये ) क्योंकि वैदिक लिङ्ग प्रत्यय एवं उसके समान लोट, तथ्य सभी प्रत्यय पुरुष के नियोग के वाचक हैं, प्रतः विधि ‘प्रत्यय’ भी ईश्वरानुमान का एक हेतु है । 1. २. अर्थात् ‘धिक्’ शब्द का अर्थ है ‘गर्हणा’ । ‘अहो’ शब्द विस्मय का वाचक है । ‘वत्’ शब्द से ‘खेद व्यक्त होता है ‘इन्स’ शब्द से ‘अनुशय’ का बोध होता है । इन शब्दों का लोक में प्रचुर प्रयोग है । लोक में इन शब्दों से वक्त गठ गहदि का ही बोध होता है, अतः वेदों में जो पे ‘धिक्’ प्रभृति शब्द प्रयुक्त है, उनसे वेदों के स्वतन्त्र उच्चचार्थित पुरुषगत गदि का बोध ही उचित है । तस्मात् उक्त शब्दों के गर्दादि अथ के प्राश्रय ही परमेश्वर हैं । ‘‘प्रत्ययादपि’ इस हेतु वाक्य के धागे ‘साध्यो विश्वविदव्यय:’ इस स्तबक के प्रथम श्लोकस्थ प्रतिज्ञा वाक्य का अध्याहार समझना चाहिये । प्रकृत ‘प्रत्यय व इस वाक्य के द्वारा ‘प्रत्यय’ पद के कथित विश्वास’ रूप अर्थ से मिश्र ‘लिप्रत्यय’ रूप प्रत्थय की सूचना के द्वारा उससे ईमर विषयक अनुमानान्तर की सूचना दी गयी है । प्रवृत्ति सा चे कृतिस मस्कृति ज्ञान एवं इष्टसा १.
पञ्चमः स्तबका प्रवृत्तिः कृतिरेवात्र… … … ( श्लोक ) ‘पत्र’ अर्थात् विधि के निरूपण में ‘प्रवृत्ति’ शब्द का ‘कृति ही अर्थ है । ’ सा चेच्छातः " 680 ज्ञापकोsथवा ७१३ प्रवृत्ति स्वरूप यह ‘कृति’ ‘इच्छा’ से अर्थात् कृति विषयिणी ‘इदं कृत्या साधयामि’ इस कृतिसाध्यत्वप्रकारिका इच्छा स्वरूप चिकीर्षा से उत्पन्न होती है । यह चिकीर्षा ‘इदं मस्कृतिसाध्यम्’ इस आकार के कृतिसाध्यत्व रूप कार्यस्व प्रकारक ज्ञान एवं इष्टसाघनत्व प्रकारक ज्ञान इन दोनों से उत्पन्न होती है । क्रमशः इन दोनों ज्ञानों में विषय होने वाले कृतिसाध्यत्व एवं इष्टसाधनत्व ही ‘विधि’ हैं, अर्थात् ‘विधि ‘प्रत्ययार्थ’ है । अथवा ‘तज्ज्ञापक’ अर्थात् इष्टसाधनत्व का ज्ञापक ( प्राप्ताभिप्राय ) ही ‘विध्यर्थ’ है । ही बोध होता है । अतः वेदस्थ अर्थ भी आतेच्छा ही है। उस लोक में लिख प्रत्यय से ‘प्राप्तेच्छा’ का ‘जुहुयात्’ प्रभृति पदों में प्रयुक्त लिङ प्रत्यय का ‘प्राप्तेच्छा का आश्रय अस्मदादि नहीं हो सकते । अतः वैदिक लिए प्रत्यय के अर्थ प्राप्तेच्छा के आश्रय रूप में भी ईश्वर की सिद्धि समझनी चाहिये । (1) वैदिकाः लिकादि प्रत्ययाः प्राप्तेच्छावाचकाः लिखादि प्रत्ययस्वात् लौकिक सिखादि प्रत्ययवत् (२) वैदिक लिङ प्रत्ययार्थाष्तेच्छा कचिदाभिता इच्छात्वात् अस्मदादीच्छावत्’ इन अनुमानों के बाद अस्मदादि में उक्त इच्छा के बाघ के कारण अर्थतः ईश्वर की सिद्धि हो जाती है । I अर्थात् ‘आषा प्रवृत्तिरिच्छेव’ इस प्रसिद्धि के बल से यद्यपि ‘प्रवृत्ति’ शब्द इच्छा काही वाचक है । किन्तु विधि के अर्थ प्रवृत्ति को यदि इच्छा रूप मानेंगे, तो केवल “अग्निहोत्रादि की इच्छा से ‘अग्निहोत्रं जुहुयात्’ यह विधिवाक्य चरितार्थ हो जायगा । जिस से बहुवित्त एवं बहु आपास से सिद्ध होनेवाले यागानुष्ठान की आवश्यकता ही नहीं रह जायगी । फलतः उक्त विधायक वाक्यों में ‘अननुडामापत्ति’ रूप अप्रमेय की आपत्ति होगी। यदि प्रकृत में प्रवृत्ति को कृति रूप मानते हैं, तो फलत: विधि प्रत्यय का अर्थ होता है ‘कृति’ | जिससे उक्त दोष का उद्धार हो जाता है। क्योंकि ‘कृति’ ‘फलपर्यवसायिनी है । अर्थात् फलोत्पादिका है। कृति में यह फलपर्यवसायित्व तब तक नहीं आा सकता, जबतक कि यागादि का अनुष्ठान न हो । अत: विधि प्रकरण में ‘प्रवृत्ति’ शब्द का अर्थ ‘कृति’ ही है ६०
७१४ । गद्यपद्यात्मक न्यायकुसुमाञ्जली प्रवृत्तिः खलु विधिकार्या सती न तावत्कायपरिस्पन्दमात्रम्, ‘आत्मा ज्ञातव्य’ इत्याद्यव्यापनात् । नापीच्छामात्रम्, तत एव फलसिद्धो कर्मानारम्भ- प्रसंगात् । ततः प्रयत्नः परिशिष्यते । श्रात्मज्ञानभूतदयादावपि तस्याभावात् । तदुक्तम् ‘प्रवृत्तिरारम्भः’ इति । सेयं प्रवृत्तिर्यतः सत्तामात्रावस्थितात् नासो विधिः । तत्र शास्त्रवैयर्थ्यात् । ग्रप्रतीतादेव कुतश्चित् प्रवृत्तिसिद्धी तस्प्रत्यायनार्थं तदभ्यर्थनाभावात् । सि० प० प्रवृत्तिः खलु….. यह सभी मानते हैं ‘विधि’ प्रत्यय के ज्ञान के बाद प्रवृत्ति होती है, अतः विधिप्रत्यय का ज्ञान प्रवृत्ति का कारण है । इस लिये प्रवृत्ति विधि ज्ञान का कार्य है । प्रष्टव्य यह है कि जो ‘प्रवृत्ति’ विषिप्रत्यय’ के ज्ञान से उत्पन्न होती है, वह कौन सी वस्तु है ? केवल शरीर की क्रिया को प्रकृत में ‘प्रवृत्ति’ नहीं कहा जा सकता, क्योंकि विधि प्रत्यय के समानार्थक ‘तव्य’ प्रत्यय से निष्पन्न ‘ज्ञातव्य’ प्रभूति पदों से निष्पन्न ‘आत्मा- ज्ञातव्य:’ इस पद में प्रयुक्त विधि प्रत्यय के अर्थ में शरीरक्रियात्व रूप प्रवृत्ति का लक्षण श्रव्याप्त हो जायगा। क्योंकि प्रात्मज्ञान के लिये किसी शारीरिक क्रिया का अनुशासन उक्त वाक्य से नहीं किया जाता । केवल ‘इच्छा’ को ही प्रकृत में ‘प्रवृत्ति’ नहीं कह सकते, ऐसा स्वीकार करने पर अग्निहोत्रादि के अनुष्टान ही लुप्त हो जांयगे, क्योंकि ‘अग्निहोत्रं जुहुयात्’ इत्यादि विधिवाक्य अग्निहोत्रादि की इच्छा मात्र से चरितार्थ हो जांयगे । अत: विधिज्ञान रूप कारण के कार्य एवं प्रयत्न स्वरूप ‘प्रवृत्ति’ ही केवल ऐसी वस्तु है जिसको विधि प्रत्यय का अर्थ मानने से ‘आत्मा ज्ञातव्यः, भूते दया विधेया’ इत्यादि वाक्यों के ग्रंथों में शरीरक्रियात्व’ स्वरूप चेष्टात्व के न रहने पर भी ‘विध्यर्थ’ के लक्षण की अव्याप्ति नहीं होती है । शरीर में क्रिया के न रहने पर भी श्रात्मज्ञान अथवा भूतदया के अनुकूल प्रयत्न की उत्पत्ति में कोई बाधक नहीं है । इसी लिये महर्षि गोतम ने ‘प्रवृत्तिर्वाग्बुद्धिशरीरारम्भ:’ ( १।१।१७) इस सूत्र के के द्वारा ‘आरम्भ’ को ही ‘प्रवृत्ति’ की संज्ञा दी है। इस ‘आरम्भ’ शब्द का अर्थ है ‘यत्न’ । विध्यर्थं रूप इस प्रवृत्ति अथवा यत्न को उत्पत्ति किसी ज्ञायमान वस्तु से ही होती है, स्वरूपसत् किसी वस्तु से नहीं । यदि स्वरूपतः किसी वस्तु सें ही उक्त प्रयत्न की उत्पति मानी जाय, उसके लिये उक्त वस्तु के ज्ञान की अपेक्षा न हो तो फिर उस वस्तु के ज्ञान के लिये शास्त्र की प्राराधना व्यर्दा हो जायगी। फलतः किसी वस्तु की सत्ता मात्र से अग्नि- ज्ञा नि ज्ञा मि हो द्वा पू० उत श्रा सि म ‘ज्ञ ज्ञा वि उत् क का
मस्तकः ७१५ न च प्रवृत्तिहेतुजननार्थं तदुपयोगः, प्रवृत्तिहेतोरिच्छाया ज्ञानयोनित्वात् ज्ञानमनुत्पाद्य तदुत्पादनस्याशक्यत्वात् । तस्य च निरालम्बनस्यानुसते रमवत्तंकवाञ्च नियमकाभावात् । तस्मादुद्यथाज्ञानं प्रयत्नजननीमिच्छां प्रसूते, सोऽयंविशेषस्तज्- शाप कोऽर्थविशेषो विधिः, प्रेरणा, प्रवत्तंना, नियुक्तिः, नियोगः, उपदेश इम्यनर्थान्तर- मिति स्थिते विचार्यते । होत्रादि की प्रवृत्ति को स्वीकार करने पर ‘अग्निहोत्रं जुहुयाद’ इत्यादि शास्त्र ही व्यर्थ हो जायगे । अतः कोई ऐसा ज्ञान प्रवृत्ति का कारण है, जिसकी उत्पत्ति विधिवाक्य के द्वारा होती है । पू० प० न च प्रवृत्तिहेतु”" कोई अज्ञायवस्तु हो ज्योतिष्टोमादि की प्रवृत्ति का कारण है । इस ‘मज्ञाय मानवस्तु’ की उत्पत्ति ( ज्ञायमान) शास्त्र से होती है । अतः प्रवृत्तिसंपादन में शास्त्र भले ही साक्षात् आवश्यक न हों, किन्तु परम्परया शास्त्र की अभ्यर्थना आवश्यक है । सि० प० प्रवृत्ति हेतो:… - ‘कृति’ स्वरूपा इस प्रवृति का कारण है इच्छा । इच्छा की उसत्ति ज्ञान से होती है । अतः शास्त्र यदि ‘कारण’ के संपादन के द्वारा उक्त ‘प्रवृत्ति’ का सहायक होगा, तो वह कारण ‘ज्ञान’ रूप ही हो सकता है । चूंकि ज्ञान कमो निर्विषयक नहीं होता, अतः निर्विषयक ज्ञान प्रवृत्ति का कारण नहीं हो सकता । ज्ञान अनेक है, अतः परस्पर भिन्न है । इस लिये विषय ही ज्ञानों में भेद के नियामक हैं । यदि ऐसा न माने तो ‘घटमानय’ इस वाक्य से उत्पन्न ज्ञान के द्वारा ‘पटानयन’ को प्रवृत्ति होने लगेगी । इष्टसाधनत्व एवं कृतिसाध्यत्व इन्हीं दोनों विषयों का ज्ञान उस इच्छा को उत्पन्न करते हैं, जिस इच्छा से कथित कृति स्वरूपा प्रवृत्ति की उत्पति होती है । इस प्रकार प्रवृत्ति कारणीभूत ज्ञान के इष्टसाधनत्व एवं कृतिसाध्यत्व ये ही दोनों विषय विधि प्रत्यय के अर्थ हैं । 1. कहने का अभिप्राय यह है कि ज्योतिष्टोमादि यागों की प्रमात्मक प्रतीति केवल शास्त्र रूप प्रमाण से ही होती है। इसी लिये इन्हें ‘शास्त्रैकसमधिगम्य’ कहते हैं। उक्त शब्द प्रमाण से जब ज्योतिष्टोमादि का ज्ञान हो जाता है, इसके बाद ही लिख के प्रतिसन्धान से उन ज्योतिष्टोमादि के प्रनुकूत प्रवृत्ति की उत्पत्ति होती है। यदि ज्ञायमान किसी वस्तु से उक्त प्रवृत्ति न होकर स्वरूप सत् किसी वस्तु से ही प्रवृत्ति की उत्पत्ति हो, तो अग्निहोत्रादि को समझने के लिये लोग शास्त्रों के अध्ययन का क्लेश नहीं उठाते ।
७१६ गद्यपद्यात्मकम्यायंकुसुमाञ्जली स हि कत्तं घर्मो वा स्यात्, कर्मघर्मो वा, करणधर्मो वा, नियोक्तृधर्मो वेति ? • तत्र न प्रथमा - इष्टहानेर् श्रनिष्टाशेर् श्रप्रवृत्तेविरोधतः । असत्त्वात्प्रत्ययत्यागात्कर्तुं धर्मो न सङ्करात् ॥ ८ ॥ अथवा कथित इष्टसाधनत्व एवं कृतिसाध्यत्व स्वरूप विषयों की अनुमिति जिस ‘अर्थ’ से होती है, वह ‘अ’ ही विधि प्रत्यय का ‘अर्थ’ है । यह अर्थविशेष’ ही प्रेरणा, प्रवर्त्तना, नियुक्ति, नियोग, उपदेश प्रभृति शब्दों से व्यवहृत होता है । कथित उपदेशादि पर्थो के ‘करा " ही परमेश्वर हैं ।। ७ ॥ सा हि …. इस श्लोक में ‘कर्तृषर्मोन’ यह प्रतिज्ञा सूचक वाक्य है, जिसके आगे ‘न विधिप्रत्ययार्थ:’ इतना अध्याहार कर देने से ‘कर्तृधर्मो न विधिप्रत्ययार्थ:’ इस प्रकार का पूर्ण प्रतिज्ञा वाक्य निष्पन्न होता है । अवशिष्ट सभी पञ्चम्यन्त पद हेतु के बोधक हैं । इष्टहानेः (१) स्पन्द रूपः कर्तृधर्मो न विध्यर्थं । इष्टहानेः । ( २ ) अनिष्टाते! | इस प्रकार प्रथम चरण का अन्वय समझना चाहिये । विध्यर्थ कहेंगे तो ‘आत्मानं अर्थात् नियोज्य पुरुष में रहनेवाले स्पन्द को यदि विजानीयात्’ इत्यादि विधिवाक्यों से आत्मज्ञान में प्रवृत्ति की उपपत्ति नहीं होगी। क्योंकि यहाँ नियोज्य पुरुष में किसो स्पन्द की उत्पत्ति नहीं होती है । किन्तु वहीं प्रवृत्ति ‘इष्ट’ है । यदि नियोज्य पुरुष गत स्पन्द को विधि प्रत्यय का अर्थ मानेंगे तो उक्त प्रवृत्ति स्वरूप ‘इष्ट’ की ‘हानि’ होगी । अर्थात् प्रात्मज्ञान की प्रवृत्ति के कारणीभूत अज्ञायमान वस्तु में रूपन्द स्वरूप विषय के लक्षण के न रहने से श्रध्याप्ति रूप ‘इष्टहानि’ होगी । अतः नियोज्य में रहनेवाले स्पन्द रूप धर्मं को विध्यर्थ नहीं माना जा सकता । 1. ( विधि प्रत्यय के प्रेरयादि रूप अर्थ ‘विशेष’ के आश्रय के रूप में ईश्वर की सिद्धि तभी हो सकती है जब कि लिङ प्रत्यय के वे अर्थ केवल ‘नियोद्धा’ में रहने बाले धर्म ही हों। इस अवधारण के लिये यह सिद्ध करना आवश्यक है कि विधि- प्रत्यय के वे प्रेरणादि धर्मं नियोका से भिन्न और किसी के भी न हों। अतः प्रतिवादिगण विधिप्रत्यय के उन धर्मों को जिन पदार्थों का धर्म मान कर खण्डन करना चाहते हैं, उन सभी धर्मों के विध्यर्थश्व का उल्लेख पूर्वक खण्डन किया गया है । क्या स्प अप्र वि वा दूस कुछ कह नि वि वि मी का श वि इस
पंचम स्वयंका एवं कथित स्पन्द को विध्यर्थ मानने में ‘अनिष्टाप्ति’ स्वरूप प्रतिव्याप्ति क्योंकि ‘ग्रामं गच्छति’ इत्यादि वाक्यों से ‘प्रवृत्ति’ की उत्पत्ति नहीं होती है, स्पन्द स्वरूप प्रवृत्ति के कथित कारण की सत्ता है । अप्रवृत्तेः प्रत : नियोज्य में रहनेवाले स्पन्द को विध्यर्थ नहीं माना जा सकता | ७१७ दोष भी हैं, किन्तु वहाँ ( इस वाक्य के द्वारा यह दिखाया गया है कि नियोज्य में रहने वाला ‘कृति’ रूप धर्म विधि प्रत्यय का अर्थ इस लिये नहीं हो सकता कि नियोज्य पुरुष में कृति के रहते हुये भी विधि- वाक्य को सुनने की प्रवृत्ति प्रवश्यम्भाविनी नहीं है । क्योंकि लिङ् से प्रतिरिक्त लट् प्रभृति- दूसरे आख्यात् घटित वाक्यों के श्रवण से प्रवृत्ति नहीं होती है । अत: यस्नार्थक पद घटित कुछ वाक्यों के श्रवण के बाद जब प्रवृत्ति की उत्पत्ति नहीं मो होती है, तो फिर यह कहना संभव नहीं है कि ‘लिङ् च कि यत्न का बोधक है, अतः प्रवृत्ति का कारण है’ अतः नियोज्य पुरुष में रहनेवाले ‘प्रयत्न’ ( कृति ) रूप धर्म को यदि विधि प्रत्यय का अर्थ मानेंगे तो विधिवाक्य को सुनने के बाद प्रवृत्ति अनुपपन्न हो जायगी ।’ विशेषतः ‘विरोध’ के कारण कर्ता में रहनेवाले इच्छा स्वरूप ‘कर्तृ’धर्म’ प्रर्थात् चिकीर्षा को भी विधिप्रत्यय का अर्थ नहीं कहा जा सकता । ( किन्तु इस प्रसङ्ग में मीमांसक कह सकते हैं कि यह सत्य है कि विषय भी प्रत्यक्ष का एक कारण है । किन्तु प्रकृत में जो इच्छा का ज्ञान होगा, वह लिङ प्रत्यय स्वरूप शब्द से उत्पन्न होने कारण ‘शाब्दबोध’ रूप होगा । अतः इच्छा के प्रकृत ज्ञान में कारण विषया इच्छा स्वरूपविषय अपेक्षित ही नहीं होगा । इस लिये कथित विशेष दोष नहीं है । इसी समाघानामास का खण्डन ‘प्रसत्वात्’ इस हेतुवाक्य से सूचित किया गया है । ) 3. यदि यह स्वीकार करें कि विधिप्रत्यय के अर्थ के ज्ञान से चिकीर्षा की उत्पत्ति होती है, तो यह स्वीकार करना होगा कि प्रवृत्तिजनकी भूत इच्छा अर्थात् चिकीर्षा के लिये विधिप्रत्यय के अर्थ का ज्ञान अपेक्षित होगा । ‘इच्छा’ को विधि प्रत्यय का अर्थ कहा गया हैं । इच्छा का ज्ञान इच्छा का मानसप्रत्यक्ष रूप ही होगा । विषय भी प्रत्यक्ष का कारण है । अतः इच्छा को भी इच्छा के मानस प्रत्यक्ष रूप ज्ञान का कारण मानना होगा । इस प्रकार इच्छा, अर्थात् चिकीर्षा स्वरूप इच्छा, विष्ययज्ञानजन्य होगी, एवं इच्छा का मानसप्रत्यक्ष स्वरूप ज्ञान इच्छा जन्म होगा । यदि इच्छा को विधिप्रत्यय का धर्म मानें तो उत्तरीति से ‘अन्योन्याश्रय’ दोष आा पड़ेगा। यह ‘अन्योन्याश्रय’ दोष ही प्रकृत में ‘विरोध’ शब्द से अभिप्रेत है ।
७१६ असत्त्वात् विषय की सत्ता का नियम का कारण है, प्रवृत्ति के गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली ‘विषय’ परोक्षज्ञान का कारण नहीं हैं, प्रतः परोक्षज्ञान के अव्यवहितपूर्वक्षण में अपेक्षित नहीं है । एवं इच्छा स्वरूपसत् ( स्वयं हो ) प्रवृत्ति उत्पादन में उसे अपने ज्ञान का साहाय्य आवश्यक नहीं है । इस स्थिति में यदि प्रवृत्ति के कारणीभूत इच्छा विषयक ज्ञान को शाब्दबोध रूप मानते हैं, तो इससे निष्पन्न होता है कि इच्छा के उक्त शाब्दबोध रूप ज्ञान से अव्यवहितपूर्वक्षण में इच्छा की सत्ता नियत नहीं है । किन्तु इच्छा के न रहने से प्रवृति ही अनुपपन्न हो जायगी । प्रर्यात् प्रकृत इच्छा विषयक ज्ञान को प्रवृत्ति रूप मानने के फल स्वरूप विध्यर्थज्ञान जनित प्रवृत्ति से पूर्व इच्छा का नियमित रूप से रहना आवश्यक नहीं रह जाता। किन्तु इच्छा में प्रवृत्ति की कारणता निर्णीत है । अतः यदि इच्छा के प्रकृतज्ञान को शाब्दबोध स्वरूप मानेंगे तो विधि स्वरूप शब्द को सुनने के बाद प्रवृत्ति की उत्पत्ति अनियमित हो जायगी ( कभी होगी कभी नहीं ) । प्रत्ययत्यागात् ( यदि इस पर मीमांसक यह कहें कि लिङ प्रत्यय स्वतन्त्र रूप से ही इच्छा का उत्पादक है । अतः लिङ, प्रत्यय को सुनने के बाद होनेवाली प्रवृत्ति से पहिले जो कारणीभूत इच्छा की अनुपपत्ति दिखलायी गयी है, वह ठीक नहीं है; इस का यह समाधान है कि -) इष्टसाधनत्व ज्ञान एवं कृतिसाध्यत्व ज्ञान इन दोनों में इच्छा की कारणता पहिले से ही गृहीत है । यदि केवल लिङ प्रत्यय से ही इच्छा की उत्पत्ति हो, तो इससे यह निष्पन्न होगा कि इष्टसाधनत्वादि के ज्ञानों के बिना भी इच्छा की उत्पति होती हैं, जो व्यतिरेक व्यभिचार स्वरूप है । अतः लिङ प्रत्यय से इच्छा ( चिकीर्षा ) की उत्पत्ति मानेंगे तो इष्टसाधनत्वादि विषयक ज्ञानों में जो इच्छा की कारणता सर्व सिद्ध है, वह विघटित हो जायगी । ’ सङ्करात् ( इस प्रसङ्ग में मीमांसक कह सकते हैं कि सुख एवं दुःख का प्रभाव ये दो ही ‘फल’ शब्द के मुख्यार्थ हैं । द्रव्य, स्त्री, पशु प्रभृति चूंकि उक्त मुख्य फलों के सम्पादक है, पतः उन में भी ‘फल’ शब्द का गौण प्रयोग होता है । ‘फल’ के कारण हैं ‘उपाय’ । कार्य की इच्छा से कारण की इच्छा उत्पन्न होती है । इच्छा का कारण है ‘ज्ञान’ । अतः ‘सुख’ स्वरूप ‘फल’ के ज्ञान से सुख की इच्छा उत्पन्न होती है । एवं सुख स्वरूप फल की इच्छा से यागादि उपायों की इच्छा उत्पन्न होती है । 1. ‘प्रत्यय’ में अर्थात् ज्ञान में जो इच्छा को कारणता है, उसको छोड़ देना होगा । इत्य लिङ लिङ होती व्याप ( क गया उपा सम निय ची अन्य सि नम अब्य अि हो जा ना प्रत् प्रय वा च
पञ्चमः स्तबक! ७१६ स हि न स्पन्द एव, प्रात्मानमनुपश्येदित्याद्यव्याप्तेः । ‘ग्रामं गच्छति’ इत्यादावतिव्याप्तेश्व | नाऽपि तत्कारणं प्रयत्नः, तस्य सर्वाख्यात साधारणत्वात् । I लिङ प्रत्यय का श्रवण जिस समय होता है, उस समय सुख विषयक ज्ञान का लिङ प्रत्यय से अतिरिक्त कोई अन्य उत्पादक कारण वहां उपस्थित नहीं रहता । मता लिङ से ही सर्वप्रथम सुखविषयकज्ञान उत्पन्न होता है, उससे सुख की इच्छा उत्पन्न होती हैं, उसके बाद जाकर यागादि जो सुख के उपाय है, तद्विषयिणी चिकीर्षा रूपा इच्छा उत्पन्न होती है । इस के बाद प्रवृत्ति उत्पन्न होती है। इस क्रम से विधिवाक्य में ज्ञान स्वरूप व्यापार के द्वारा प्रवृत्ति की प्रयोजकता सिद्ध की जा सकती है । अतः चीकीर्षा रूप इच्छा ( कर्तृ ’ धर्म ) को विधि प्रत्यय गया है, वह सङ्गत नहीं है उपायों में जो प्रवृत्ति होती है, । का अर्थ मानने से जो ’ प्रत्ययत्यागात्’ इत्यादि से दोष दिया इस का यह समाधान है कि ) सुखादि फलों के लिये यागादि उसका कारण है, यागादि उपायों को सुखादि इष्टों का साधन समझना ( उपाय निष्ठ इष्टसाधनत्व का ज्ञान ) । अतः इष्टसाधनत्व के ज्ञान में प्रवृत्ति का नियतपूर्ववत्तित्व ( कारणत्व ) अवश्य वलुप्त है । अतः इष्टसाधनत्नज्ञान से उत्पन्न होनेवाली चीकीर्षा में प्रवृत्ति की कारणता को स्वीकार करना अनावश्यक है । फलतः ‘चिकीर्षा’ अन्यथासिद्ध हैं, प्रवृत्ति का कारण नहीं । सि० प०, सहि cor ( इष्टहाने1 ) यदि कर्त्ता में रहनेवाले स्पन्द रूप धर्म को लिङ्प्रत्यय का अर्थ मानेंगे तो ‘आत्मा- नमनुपश्येत्’ इत्यादि वाक्यों में प्रयुक्त लिङ्प्रत्यय के अर्थ में उक्त स्पन्द रूप लक्षण की अव्याप्ति हो जायगी । क्योंकि उक्त विधिवाक्यों से किसी स्पन्द की प्रतीति नहीं होती है । अनिष्टाप्तेः एवं ‘ग्रामं गच्छति, इस वाक्यांश के द्वारा बोध्य कर्तृगत स्पन्द में प्रतिव्याप्ति भी हो जायगी । अतः कर्त्ता में रहने वाले स्पन्द रूप धर्म को लिङ्प्रत्यय का अर्थ नहीं माना जाता है । नापि कर्त्ता में रहनेवाले स्पन्द के कारणीभूत यत्न ( कृति ) प्रत्यय का अर्थ नहीं माना जा सकता। क्योंकि लट् प्रभृति प्रयत्न का बोध होता है । किन्तु लिङ से भिन्न अन्य प्राण्यात से वाक्यों से प्रवृत्ति की उत्पत्ति नहीं होती है । प्रतः लिङ्प्रत्यय में स्वरूप धर्मं को भी विधि- अन्य आख्यात प्रत्ययों से भी युक्त ‘तण्डुलं पचति’ इत्यादि प्रवृत्ति की कारणता व्यभि चरित हो जायगी। जिससे ‘जुहुयात्’ इत्यादि विधिवाक्यों से प्रवृत्ति हो नहीं हो सकेगी । CCO. Vasishtha Tripathi Collection. Digitized by eGangotri७२० गद्य पद्यात्मकम्यायकुसुमाञ्जलौ ननु न सर्वत्र प्रयत्न एव प्रत्ययार्थः । करोतीत्यादी प्रकृत्यर्थातिरेकिरणस्त- स्याभावात् । संख्यामात्राभिधानेन प्रत्ययस्य चरितार्थत्वात् । ततो लिङ्गादिवाच्य एव प्रयत्न इति । न । कुर्यादित्यत्रापि तुल्यत्वात् । ननु '
कृन् धातु का अर्थ है कृति ( प्रयत्न ) । यदि सभी प्राख्यातों को प्रयत्नार्थक मान लें तो ‘करोति’ पद में जो लट् स्वरूप आख्यात है, उसको भी यत्नार्थक मानना होगा । जिससे ‘करोति’ पद का उच्चारण पुनरुक्ति से दूषित हो जायगा । क्योंकि ‘कुन्’ धातु से ‘यत्न’ स्वरूप मर्थ पूर्वकथित ही है । ‘करोति’ पद के ‘कुन्’ धातु स्वरूप प्रकृति के अर्थ ‘यत्न’ को छोड़कर कोई दूसरा यत्न उपस्थित नहीं है । सि० प० न कुर्यात् ( अर्थात् सभी उक्त कथन उचित नहीं है, क्योंकि यत्न को यदि केवल लिङ्प्रत्यय का ही असाधारण अर्थ मान भी लें अख्यातों का साधारण अर्थ न भो मानें ) तथापि ‘कुर्यात् ’ पद के प्रयोग में कथित युक्ति से पुनरुक्ति अनिवार्य होगी । क्योंकि इस स्थल में कृव् धातु के द्वारा पूर्व से ही यत्न कथित है । अतः यत्न के वाचक लिङ्ग प्रत्यय के प्रयोग का कोई भी प्रयोजन नहीं रह जाता है । इस लिये ‘पुनरुक्ति’ दोष के कारण से भी प्रयत्नों की यस्नार्थकता खण्डित नहीं हो सकती । 1. अंश की व्याख्या की लिय के प्रसङ्ग के दीर्घ विचार के इत्यादि सन्दर्भ के द्वारा ‘असत्वात्’ यह ‘स हि’ इत्यादि गम सम्बंर्भ से ‘इष्टहानेर निष्टाप्ते।’ इस प्रथम चरण की व्याख्या की गयी है । ‘नापि’ इत्यादि सन्दर्भ के द्वारा ‘अप्रवृत्तेः’ इस गयी है। इसके वाद के सन्दर्भ यत्न को ज्ञापक हैं। पुनः आगे ‘न चङि श्रुतिकाले’ अंश विषत हुआ है। इस के आगे का ‘न व लिव’ का यह सन्दर्भ ‘प्रत्ययस्यागात्’ इस अंश की व्याख्या स्वरूप है । ‘फलेच्छा तु’ यहाँ से आरम्भ कर अन्त पर्यन्त के ‘संङ्करात्’ इस अ’श की व्याख्या की गयी है । इस प्रसंग में प्रश्न हो सकता है कि इस स्थिति में ‘करोति’ पद में खो ‘सिप’ प्रत्यय है, उसका क्या अर्थ है ? इस प्रश्न का यह उत्तर सुलभ है कि उक्त ‘तिप्’ प्रत्यय केवल कर्ता में रहनेवाली संख्या के बोध से ही चरितार्थ हो सकता है । अतः सभी मापात यरन के वाचक नहीं हैं, किन्तु लिङ प्रत्यय स्परूप आख्यात ही यत्न का वाचक है । इस लिये यह कहना ठीक नहीं है कि" बस्न चूँकि सभी आयातों का साधारण धर्म है, अतः लिङ प्रत्यय रूप आण्यात विशेष का असाधारण अर्थ नहीं हो सकता, क्योंकि यत्न सभी अख्यातों का साधारण धर्म नहीं है । चेन एक पू० किन् ( क के “अश में दोष सि साम की है न ह द्वित " एक अि अ पू० ‘एि विष प्रत्य
पञ्चमः स्तबकः ०२१ प्रयत्नमात्रस्य प्रकृत्यर्थत्वेऽपि तस्य पराङ्गतापन्नस्य प्रत्ययार्थत्वान्न तुल्यत्वमिति चेन्न । तथापि तुल्यत्वात् । न चैकस्य तद्वाचकत्वेऽन्यस्य तद्विपर्यय आपद्येत, एको द्वौ बहव एषिषतीत्यादी व्यभिचारात् । तत्र द्वितीयसंख्येच्छादिकल्पने, पृ० प० प्रयत्नमात्रस्य 838 ‘कुर्यात् ’ पद में जो ‘कृञ’ धातु रूप प्रकृति है, उसका अर्थ ‘केवल प्रयत्न’ है । किन्तु ‘पराङ्गतापन्न प्रयत्न विशेष’ अर्थात् कर्त्ता के सम्बन्ध से युक्त विशेष प्रकार का प्रयत्न, ( कत्तु सम्बन्धित्वविशिष्टप्रयत्नविशेष) अथवा घटादि कर्मकारकों के अनुकूल विशेष प्रकार के प्रयत्न ( घटादिकर्मानुकूलत्वविशिष्टयस्नविशेष) ‘कुर्यात् ’ पद में प्रयुक्त लिङ्ग प्रत्यय का ‘अर्थ’ हैं । इस प्रकार कुभ धातु स्वरूप प्रकृति के अर्थं एवं लिङ, प्रत्यय के अर्थ, इन दोनों में यथाकथञ्चित् विभिन्नार्थकता मान लेने पर दोनों में ‘तुल्यार्थकता’ से जो पुनरुक्ति दोष की आपत्ति दी गयी थी। उसका उद्धार हो सकता है । सि० प० न, तथापि उक्त युक्ति से ‘कृ’ धातु’ रूप प्रकृति एवं ‘लिङ’ स्वरूप प्रत्यय इन दोनों में से प्रथम का सामान्य यत्नार्थक एवं दूसरे को प्रयत्न विशेषार्थक मान लेने पर भी दोनों में ‘तुल्यार्थकत्व’ की जो आपत्ति दी गयी थी, उसका उद्धार नहीं होता। क्योंकि यह नियम व्यभिचरित है कि ‘प्रकृति’ के द्वारा जिसका अभिधान हो ‘प्रत्यय’ के द्वारा उसका प्रभिधान ‘कदापि ’ न हो । एकः द्वौ बहवः, इत्यादि स्थलों में एक, द्वि, बहु स्वरूप प्रकृति के द्वित्वं एवं बहुत्व का अभिधान होता है, एवं सु, औौ, जस् प्रभृति प्रत्ययों के © एकत्व, द्वित्व एवं बहुत्व स्वरूप अर्थ का ही प्रतिपादन होता है । द्वारा भी एकत्व, द्वारा भी क्रमश | कि वा ‘एषिषति’ इस पद में प्रयुक्त ‘इष्’ धातु स्वरूप प्रकृति के द्वारा ‘इच्छा’ का अभिधान होता है, एवं ‘सन्’ प्रत्यय के द्वारा भी इच्छा ही अभिहित होती है ! इस लिये यह नहीं कहा जा सकता कि ‘यस्न’ चूकि कुन धातु रूप प्रकृति का अर्थ है, अतः ‘प्रत्यय’ स्वरूप लिङ का अर्थ नहीं है । पू० प० तत्र द्वितीयसंख्येच्छा दि ‘एका द्वौ बहवः’ इत्यादि स्थलों में विभिन्न दो एकत्वादि संख्याओं का एवं ‘एषिषति’ इत्यादि स्थलों में दो विभिन्न इच्छाओं ( पुत्रादि विषयिणी एक इच्छा, तदिच्छा विषयिणी द्वितीय इच्छा) की उपस्थिति होती है, अतः उन स्थलों में भी प्रकृति एवं प्रत्यय दोनों एक ही अर्थ के बोषक ( तुल्यार्थक ) नहीं हैं । " ६१
गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली करोति, प्रयतते इत्यादावपि तथा स्यात् । प्रत्येकमन्यत्र सामर्थ्यावधृतौ सम्भेदे तथा कल्पनायास्तुल्यत्वात् । ‘रथो गच्छतीत्यादी’ तदसम्भवे का गतिरिति चेत् । सि० प० करोति, प्रयतते …. ( कथित युक्ति से तुल्यार्थकता का परिहार युक्त नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर सभी माख्यातों को यत्नार्थक मान लेने पर जो ) करोति, प्रयतते इत्यादि स्थालों में ‘पुनरुक्ति’ की आपत्ति दी जाती है, उसका भी उद्धार किया जा सकता है । अर्थात् ‘करोति’ पद में जो कृञ. धातु रूप प्रकृति है, उसका अर्थ है घटविषयक कृति एवं ’ तिप्’ प्रत्यय का अर्थ है, उस कृति की कृति । इस प्रकार प्रकृत्यर्थ कृति एवं प्रत्ययार्थ कृति दोनों में अभ्वर कर के तुल्यार्थकत्व का वारण किया जा सकता है । सि० प० प्रत्येकम् ~~ … इसी प्रसङ्ग में दूसरा समाधान यह है कि ‘करोति’ पद में जो कल धातु स्वरूप ‘प्रकृति है, एवं तिप् स्वरूप प्रत्यय है, उन में से प्रत्येक की शक्ति मंदि गृहीत हो, एवं एका दि शब्द स्वरूप प्रकृति एवं सु भो प्रभुति प्रत्यय इन दोनों में से प्रत्येक की शक्ति एकत्व द्विस्वादि संख्याओं में गृहीत हो, तो फिर यह सम्भव नहीं है कि कथित प्रकृतियों एवं प्रत्ययों का यदि साथ-साथ प्रयोग हो तो संख्यानों की उपस्थिति न हो । भ्रतः कथित दोनों कृतियों एवं दोनों संख्याओं की उपस्थिति अवश्य होगी। किन्तु इतना ही होगा कि दूसरी कृति एवं दूसरी संख्याओं का अन्वय नहीं होगा । श्रथवा अन्वयबोध में मान नहीं होगा । फिर भी ‘संभदे नाम्यतरेवेययम्’ (एक ही कार्य के लिये दो कारणों का यदि ‘सम्भेद’ अर्थात् समवाय उपस्थित हो, तो उन दोनों उपस्थितियों से एक कारण को व्यर्थ नहीं कहा जा सकता ) इस न्याय से कथित प्रकृतियों एवं प्रत्ययों में से किसी एक के प्रयोग में वैयर्थ्य की धापत्ति नहीं दी जा सकती। इस प्रकार दोनों में तुल्यार्थकत्व की आपत्ति होने पर उससे होने वाले ‘वैयर्थ्य दोष का वारण हो सकता है। सुतराम सभी अस्थात ‘कृति’ के वाचक हैं। पू० प० रथो गच्छति …. यदि सभी प्राख्यातों को कृत्यर्थक मान लें तो ‘रथो गच्छति’ इस वाक्य में प्रयुक्त जो ‘गच्छति’ में तिप् प्रत्यय है, उसके कृति स्वरूप अर्थ का प्रन्वय ‘रथ’ रूप कर्ता में नहीं हो सकेगा । क्योंकि कृति चेतन का धर्म है, एवं रथ प्रचेतन पदार्थ है । अतः रथ स्वरूप अचेतन पदार्थ में कृति का अन्वय वाषित है । एवं प्राख्यातार्थ का प्रस्वय कर्त्ता में ही होता है। इस किये सभी माझ्यातों को यदि कृत्यर्थक मानें तो ‘रथो गच्छति’ में क्या ‘गति’ होगी ? लिड चेन् कर सि मात्र ‘गति पू० में प्र इसि लिङ के न ‘तस्म प्रयुज प्रमा यत्ना सि० ग्राह जात इस १.
पंचम स्वबेका ७२३ तन्तवः पटं कुर्वन्तीत्यत्र या । लोकोपचारोऽयमपर्यनुयोज्य इति चेत्; तुल्यम् । लिङा कार्यत्वे वृद्धव्यवहाराद्युत्पत्ती सर्व समञ्जसम् । आख्यातमात्रस्य तु न तथेति चेन्न । विवररणादेरपि व्युत्पत्तेः । अस्ति च तदिह । किं करोति ? पचति, पार्क करोतीत्यर्थः इत्यादिदर्शनात् । सि० प० तन्तवः ‘तन्तवः पटं कुर्वन्ति’ इत्यादि स्थलों में जो ‘गति’ पूर्वपक्षी की होगी, आख्यात मात्र को कृत्यर्थक मानने वाले हमलोगों को भी ‘रथो गच्छति’ इत्यादि स्थलों में वही ‘गति’ होगी । ’ पू० प० लिङः • में पूर्व वृद्ध के द्वारा ‘घटमानय’ इत्यादि वाक्यों से प्रयोक्ता स्वयं घटादि के प्रानयन प्रवृत हुआ रहता है । अत: कार्यस्व में ( कृति में ) लिङ, प्रत्यय की शक्ति पूर्वगृहीत है । इसलिये लिड प्रत्यय में यत्नवाचकत्व इस अनुमान से सिद्ध होता है कि जिस प्रकार मुझ से श्रुत लिङ पद इस लिये कार्यस्व का वाचक है कि कृति में लिड प्रत्यय की लक्षणादि किसी वृत्ति के न रहने पर भी कृति को समझाने के लिये वृद्धों ने लिङ प्रत्यय का प्रयोग किया है, ‘तस्मात् ’ लिङ् प्रत्यय यत्न का ही वाचक है ( लिङ पदं यत्नवाचकंमसति वृत्यन्तरे वृद्धस्तत्र प्रयुज्यमानत्वात् भवदीयश्रुत लिङपदवत् । किन्तु सभी लट्प्रभृति प्राख्यातों को यत्न का वाचक मानने में इस प्रकार का कोई प्रमाण नहीं है । अतः लिङ प्रत्यय की यत्नार्थकता प्रामाणिक है, आख्यातमात्र की यत्नार्थकता प्रामाणिक नहीं है । सि० प० न, विवरणादेः …
जिस प्रकार ‘वृद्धव्यवहार’ शक्ति का ग्राहक है, उसी प्रकार ‘विवरण’ भी शक्ति का ग्राहक है। सभी आख्यातों की व्याख्या ( विवरण ) यत्नार्थक कृन् धातु के द्वारा हो किया जाता है। किं करोति ? इस प्रश्न के उत्तर में प्रयुक्त ‘पचति’ पद का विवरण ‘पाकं करोति’ इस वाक्य के द्वारा ही किया जाता है। ऐसे अनेक उदाहरण है । इस लिये सभी प्राख्यात १. अर्थात् जिस प्रकार ‘कृन्’ धातु को सभी यत्नार्थक मानते है, एवं ‘तम्तवा परं कुवन्ति’ यह प्रयोग भी होता है, किन्तु कृ धात्वर्ण कृति तो प्रचेतन तन्तुओं में वाषित है । अतः यही कहना होगा कि उक्त प्रकार के अचेतन कस बोधक पद स्थलों में यत्नार्थक कृन् धातु को कृत्यनुकूलव्यापार में लक्षणा करनी होगी । उसी प्रकार आख्यात मात्र को कृत्यक मानने पर जो रथो गच्छति इत्यादि स्थलों में अनुपपति उपस्थित होगी, उसके वारण के लिये उन स्थलों के प्राक्यात को कृत्यनुकूलव्यापार में लाक्षणिक मानेंगे । अता ‘रथो गच्छति’ इत्यादि स्थलों में भव्याप्ति नहीं है ।
७२४ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जलौ तथापि फलानुकूलताऽऽपन्नधात्वर्थमात्राभिधाने तदतिरिक्तप्रयत्नाभिधान- कल्पनायां कल्पनागौरवं स्यात् । अतो विवरणमपि तावन्मात्रपरमिति चेत्, भवेदप्येवम्, यदि पाकेनेति विवृणुयात् । न त्वेतदस्ति । धात्वर्थस्यैव पाकमिति: साध्यत्वेन निर्देशात् । ततस्तं प्रत्येव किश्चिदनुकूलताssपन्नं प्रत्ययेनाभिधानीयमिति युक्तम् । पर्दों को यत्नार्थक मानने के लिये भी इस अनुमान को उपस्थित किया जा सकता है । ( प्रारूपात पदं यत्नवाचकं कृतिवाचककुधातुना विवरणात् ‘कि करोतीति प्रश्नोत्तरभूतस्य पचतीति पदस्य पार्क करोतीति विवरणवत्) । पू० प० तथापि साधारण रूप से सभी घातुओं का अर्थ ‘क्रिया’ है। धात्वर्थ रूपा इस क्रिया की सिद्धि जितनी क्रियाओं से होगी, उन क्रियाओं का समूह ही सभी आख्यात पदों का अर्थ है । क्योंकि ‘ओदनं पचति’ इस वाक्य में प्रयुक्त पच् धातु से जिस क्रिया का बोध होता है, उस की सिद्धि किसी एक ही क्रिया से नहीं हो सकती । इस लिये धात्वर्थं स्वरूप फल के संपादक क्रियाओं का समूह ही सभी आख्यात पदों के अर्थ हैं। इसी लिये आख्यातार्थ ‘भावना’ से व्यवहृत होता है, क्योंकि वह ‘माव्यमान’ फल का साधक है । इस प्रकार जो सभी प्राख्यातों को यत्नार्थक मानते हैं, उनको भी ‘फलानुकूल यत्न’ को ही प्रारूपात पद का अर्थं मानना होगा । ऐसी स्थिति में केवल ‘फलानुकूलत्व’ में ही सभी आख्यात पदों की शक्ति को स्वीकार करना उचित है । फलानुकूलत्व विशिष्ट यत्न में आख्यात पद की शक्ति को स्वीकार करना अनावश्यक है । इस लिये ‘पचति’ पद के विवरण स्वरूप ‘पाकं करोति’ इस वाक्य का ‘पार्क. सम्पादयति’ इतना ही अर्थ है । विवरण में यत्नार्थकता मानने की भी आवश्यकता नहीं है । सि० प० भवेत् इस स्थिति को यदि सत्य माने, तो तदनुसार ‘ओदनं पचति’ इस वाक्य में प्रयुक्त पच् धातु का अर्थ है ‘पाक’ एवं ‘तिप् प्रत्यय का अर्थ है मोदन स्वरूप फल की अनुकूलता । इस लिये ‘ओदनं पचति’ इस वाक्य का विवरण ‘पाक’ खोदनानुकूल:’ इस प्रकार निष्पन्न होता हैं। ऐसी निष्पत्ति को स्वीकार करने पर जिस प्रकार ‘काष्ठेनोदनं पचति यह प्रयोग स्वरसतः होता है, उसी प्रकार ‘प्रोदनं पाकेन करोति’ इस प्रकार के प्रयोगों को भी स्वारसिक मानना होगा। क्योंकि ‘पच’ धातु से जो पर्थ कथित होता है, ‘पाकेन’ पद के साथ प्रयुक्त ‘कृञ’ f घ सि ५ क प्र प पू मा केव क व्या ‘घ भ का प्रय सि वि ( प्रब वि श मा उस
पंचमः स्ववकः ७२८ " तथापि तेन प्रयत्नेनैव भवितव्यम्, न स्वन्येनेति कुत इति चेत्; नियमेन तथा विवरणात् । बाधकं विना तस्यान्यथाकर्तुमशक्यत्वात् । अन्यथाऽतिप्रसङ्गात् ॥ ८ ॥ धातु के अब्यवहित्तोवर्ती तिप् प्रत्यय से उसी अर्थ का अभिधान होगा। इस ‘आपत्ति’ स्वरूप स्थिति को ‘इष्ट’ नहीं माना जा सकता क्योंकि ‘किं करोति’ इस प्रश्न के उत्तर स्वरूप ‘पचति’ पद का ‘पाकं करोति’ इसो विवरण को सभी स्वीकार करते हैं। ‘पाकेन करोति’ इस विवरण को कोई भी स्वीकार नहीं करता । अर्थात् उक्त विवरण वाक्य में पाक ‘साध्य’ रूप से ही प्रयुक्त होता है ‘साधन’ रूप से नहीं । अतः पच् धातु के अर्थ पाक स्वरूप साध्य के अनुकूल पदार्थ का अभिमान आख्यात् से हो सकता है । ‘कृति’ ही वह अनुकूल पदार्थ है । पू० प० तथापि … यत्न इसका कोई नियामक नहीं है कि उक्त ‘पदार्थ’ स्वरूप हाँ हो ? प्रत्युत ऐसा मानने पर ‘रथो गच्छति’ इत्यादि अचेतन कत्तु कस्थल में संकोच भी करना पड़ता है। अतः केवल ‘घास्वर्थ के अनुकूल व्यापार’ को ही आख्यात का मर्थ मानना उचित है । ऐसा स्वीकार करने पर चेतनकर्ता’ क स्थल में वह व्यापार ‘यत्न’ स्त्ररूप होगा, अचेत कर्तृक स्थल में वह व्यापार अन्य स्वरूप होगा । किन्तु सभी आख्यातार्थ व्यापारों में आख्यात पद का यह ‘घात्वर्थानुकूलव्यापारत्व’ स्वरूप शक्यतावच्छेदक अथवा प्रवृत्तिनिमित्त समान रूप से रहेगा । अतः प्रयत्न अख्यात पद का केवल प्रयत्न होने के कारण ( प्रथवा अपने प्रयत्तत्व धर्म के कारण ) शक्य नहीं है, किन्तु प्रयत्न चूंकि घास्वर्थ के अनुकूल व्यापार स्वरूप है ( अथवा प्रयत्न में घात्वर्थानुकुल व्यापारत्व है ) इसी लिये वह आख्यात पद का शक्य है । सि० प० नियमेन ••• ‘पचति’ पद नियमतः ‘पार्क करोति’ इस वाक्य रूप में ही विवृत होता है। इस विवरण वाक्य में जो कृन् धातु प्रयुक्त है, वह यत्नत्व रूप से ही प्रयत्न का वाचक है- ( अर्थात् कृन् धातु का शक्यतावच्छेदक प्रयत्नत्व ही है ) । जब तक युक्तिसङ्गत कोई प्रबल बाधक उपस्थित न हो, तब तक विवरणस्य कृन् धातु के द्वारा अभिहित केवल प्रयत्नस्व विशिष्ट प्रयत्न में अख्यात पद की शक्ति में कोई ‘अन्यथा’ नहीं की जा सकती । ‘अन्यथा’ यदि विपरीत रूप में पद की शक्ति घटादि अर्थों में शक्ति निर्णीत है, शक्ति के ग्राहक व्याकरणादि के द्वारा निर्णीत शक्ति से मानी जाय, तो घटत्वादि पद की जो घटत्वादि धर्मों से युक्त उस में भी आस्था न रह जायगी ॥८॥
७२६ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुंसुमाज्जलो स्यादेततुः । यस्य कस्यचित् फलं प्रत्यनुकूलतापत्तिमात्रमेव करोत्यर्थो न तु प्रयत्न एव । सोऽपि ह्यनेनैवोपाधिना प्रत्ययेन वक्तव्यो न तु यत्नत्वमात्रेण, प्रयत्न देना विशेषप्रसङ्गात् । तद्वरं तावन्मात्रमेवास्तु । लाघवाय । अन्यथा स्वनुकूलस्वप्रयत्नत्वे द्वावुपाधी कल्पनीयो । अचेतनेषु सर्वत्र गौणार्थास्तिङोऽसति बाघके कल्पनीया इति चेत्; प्रत्रोच्यते- कृताकृतविभागेन कर्तृ रूपव्यवस्थया । यत्न एव कृतिः पूर्वा परस्मिन् सैव भावना ॥ ९ ॥ पृ० प० स्यादतेत् … … फलानुकूल व्यापार हो ‘कुन धातु का भी अर्थ है, यत्न भो चूकि फलानुकूल व्यापार है, अतः कुन् धातु से यत्न का बोष होता है । यरन स्वरूपतः केवल यत्न होने के नाते ( यत्नत्व रूप से ) कृन, धातु का अर्थ नहीं है । यदि ‘फलानुकूलयन’ में कुन् धातु को अथवा माख्यात की शक्ति मानेंगे, तो ‘फलानुकूलत्व’ एवं ‘यत्नत्व’ इन दो धर्मों में शक्यतावच्छेदकता माननी होगी । अतः लाघव के अनुरोध से केवल ‘फलानुकूलत्व’ को ही शक्यतावच्छेदक मानना उचित है। चूंकि यत्न में भो यह फलानुकूलत्व रूप शक्यतावच्छेदक है, अतः यत्न का बोध भी उपपन्न हो जायगा । इससे ‘रथो गच्छति’ इत्यादि प्रचेतन- कर्त्त कवाक्य स्थल में ‘उत्तरदेश संयोगानुकूलक्रियादि’ को आख्यात का गौण अर्थ मानने में सुविधा ही होगी । इस लिये प्राख्यात से भी यत्न का बोध कथित रीति से ही होता है। मगर ऐसा न मानेंगे तो ‘यत्न’ पद एवं ‘प्राख्यात’ पद दोनों पर्याय हो जायेंगे । सिं० प० २ कृताकृत यत्न एवं कृति कुम्हार जब घट बनाता है तो ‘कलालेन घट । कृतः’ यह व्यवहार होता है, किन्तु किसान के द्वारा सींचे जाने पर मो जब बोल से अङ्कुर उत्पन्न होता है, तो ‘कृषण अङ्कुर कृतः यह व्यवहार नहीं होता, अतः कृति के साक्षात् सम्बन्ध का रहना और न रहना ही उक्त ‘कृता- कृत विभाग’ का नियामक है । इस लिये कृन् धातु अवश्य ही यत्न का वाचक है । अभिप्रेतार्थ यह है कि आख्पात का विवरण चूँकि कृन् धातु से निष्पन्न ‘करोति’ पद घटित वाक्य से ही होता है, इसलिये यदि आख्यात मात्र को यश्नार्थक मानते हैं । किन्तु जब ‘कृन्’ धातु ही धातु होने के नाते फजानुकूलव्यापारार्थक हैं, तो फिर भाक्यात भी तावन्मात्रार्थक ही होगा । स्वरूपतः यत्नार्थक नहीं होगा । तस्मात् सभी प्राक्यात बस्नस्वेन यश्न के वाचक नहीं है । केवल लिङ, प्रत्यय स्वरूप आत ही स्वरूपता यरन का वाचक है। इस श्लोक से आपात में यत्नार्थकता सिद्ध की गयी है । युक्ति यह दी गयी है कि आक्यात इस लिये यत्न के वाचक हैं कि कुन धातु घटिस वाक्य से उसका
स य स सि के सि ( ज का सम की यह को प्रा कि आ पञ्चमः स्वबका ७२७ प्रयत्नपूर्वकत्वं हि प्रतिसन्धाय घटादी कृत इति व्यवहारात् । हेतुसत्त्वप्रति- सन्धानेऽपि यत्नपूर्वकत्वप्रतिसन्धानविधुराणामङ कुरादौ तदव्यवहारात् करोत्यर्थों यत्न एव तावदवसीयते । अन्यथा हि यत्किञ्चिदनुकूल पूर्वकत्वाविशेषात् घटादयः कृताः, न कृतास्त्व- डू रादय इति कुतो व्यवहारनियमः ? तेन च सर्वमाख्यातपदं विव्रियते इति सर्वत्र स एवार्थं इति निर्णयः । सि० प० पूर्वा परस्मिन् ( इसके चलते वो तिवादि आख्यातों में यत्न पद के पर्यायत्व की भ्रापत्ति दी गयी है, उसका यह समाधान है कि ) जिस यत्न का फल पूर्व अर्थात् आगे विद्यमान हो, उस फल के अनुकूल प्रयत्न ही आस्यात प्रत्ययों का अर्थ है । ‘यत्न’ ‘कृति’ प्रभूति शब्द यत्न सामान्य के वाचक हैं । एवं अख्यात पद विशेष प्रकार के यत्नों के वाचक हैं, अतः ‘यत्न’ पद एवं ‘अख्यात’ स्वरूप पद इन दोनों में पर्यायत्व की संभावना भो मिट जाती है । सि० प० यत्नपूर्वकत्वं हि 630 साधारण रूप से कारण घटादि का कृति से उत्पन्न होना ( कृतिजन्यत्व ) उन में ‘कृतस्व’ व्यवहार का ( घटः कृतः इस व्यवहार का ) नियामक है। भङ्कुरादि कार्यों में जन्यत्व का प्रनुसन्धान रहने पर भी कृति रूप कारण अङ्कुरादि कार्यों में समझते हैं कि ‘यत्न’ ही कारण जन्यत्व का अनुसन्धान न रहने के कृतत्व का ( अङ्कुरः कृतः यह ) व्यवहार नहीं होता । इससे यह ‘कृन्’ धातु का अर्थ है । अगर ऐसा न हो तो जिस किसी कारण की जन्यता तो घटादि कार्य एवं अङ्कुरादि कार्य दोनों में समान है । तथापि जो ‘घटः कृतः ’ यह व्यवहार होता है, एवं ‘अङ्कुरः कृतः’ यह व्यवहार नहीं होता, इसका नियामक कौन होगा ? C कृञ धातु से ही सभी आस्यात पद विवृत होते हैं, इसलिए यह समझना चाहिये कि प्राण्यात पद ‘पूर्वापरीभूतफलानुकूलत्व’ का ही वाचक हैं। इस प्रसङ्ग में पूर्वपक्षी कह सकते है कि पूर्वापरीभूतस्व, यत्नत्व’ एवं अनुकूलत्व इन तीनों धर्मों के आश्रयीभूत ‘वस्तु’ में आल्यात पद की शक्ति है, ऐसा न मानकर यदि ‘विशिष्ट’ में अर्थात् उक्त तीनों ही धर्मो विवरण होता है । इसलिये पहिले धातु का अर्थ है । अत: श्लोक के यस्नामकता की सिद्धि की गयी है। यह सिद्ध करना आवश्यक है कि ‘यस्म हो’ कृ ‘बत्न पुष कृति:’ इसने घश से ‘कुन् धातु’ में
७९८ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली तथा च समुदिते प्रवृत्तं पदं तदेकदेशेऽपि प्रयुज्यते, विशुद्धिमात्र पुरस्कृत्य ब्राह्मणे श्रोत्रियपदवत् । प्रन्यथाऽपि मध्यमोत्तमपुरुषगामिनः प्रत्ययाः, प्रथमे पुरुषे जानाति, इच्छति, प्रयतते, अध्यवस्यति, शेते, संशेते इत्यादयश्च गौणार्था एवाचेतनेषु । न च वृत्यन्तरेणापि प्रयोगसम्भवे शक्तिकल्पना युक्ता । से युक्त ‘विशिष्ट’ में प्राक्यात पद की शक्ति मानें तो ‘रथो गच्छति’ इत्यादि स्थलों में आस्यार्थ बाषित हो जायगा । इसका यह समाधान है कि ) तथा च समुदिते उक्त ‘विशिष्ट’ में शक्ति न मानने से कोई भी हानि नहीं है, क्योंकि विशिष्टवाचक’ पद अपने शक्यतावच्छेदकीभूत किसी भी धर्म से युक्त अर्थ में स्वरसतः प्रयुक्त होते हैं । जैसे कि छन्द के अध्ययन कर्ता ब्राह्मण रूप विशिष्ट प्रर्थ में ‘श्रोशिय’ की अभिधा वृत्ति के रहने पर भी केवल विशुद्धि धर्म से युक्त होने के कारण अवैदिक विशुद्ध ब्राह्मण के लिये भी ‘घोत्रिय’ पद का प्रयोग होता है । भले ही इसके लिए लक्षणावृत्ति की भी आवश्यकता क्यों न पड़े । अन्यथापि इत्यादि पद के आख्यातों को ‘अन्यथापि’ अर्थात् सभी आख्यात पदों को यत्नार्थक न मानने पर भी अचेतन कर्तृ- बोधक पद से युक्त ‘जानति’ इच्छति यतते, शेते, संशेते’ गौणार्थक मानना ही होगा। क्योंकि धातु के मुख्यार्थ ज्ञान इच्छा प्रभृति पदार्थं अचेतन कर्ताओं में बाधित है । ‘प्रचेतन कर्तृक स्थल में आख्यात गौणार्थक हो जायेंगे’ केवल इस भय से सभी प्राख्यातं पदों को यत्नार्थक मानने का कोई तुक नहीं है । पू०प० न च वृत्यन्तरेणापि जिस प्रकार ‘देवदत्तः ग्रामं गरछति’ यह चेतन कर्तृक प्रयोग होता हैं, उसी प्रकार ‘रयो गच्छति’ यह प्रचेतन कर्तृक प्रयोग भी होता हैं । इन दोनों ही प्रकार के प्रयोंगों के अनुरोध से कृति एवं तदनुकूलव्यापार इन दोनों में आख्यात पद की मलग अलग ( पृथक् ) शक्ति ही माननी चाहिये । जिस प्रकार इन्द्र एवं विष्णु प्रभृति में ‘हरि’ पद की मलग अलग शक्ति स्वीकार की जाती है । १. . ‘रथो गच्छति’ इत्यादि श्रचेतन कतृक प्रयोगो में प्रख्यात पद गौणार्थक न हों, केवल इसी हेतु से मीमांसक लोग सभी प्रख्यात पदों को प्रयत्नार्थक नहीं मानते हैं किन्तु सभी प्राख्यात पदों को यत्नार्थक न मानने पर भी ‘आसारेण त्वमपि क्षमयेः’ इत्यादि स्पक्षों में आख्यात को गौणार्थक मानना ही पड़ता है । इसी का उपपाद न ‘पम्ययापि’ इत्यादि सन्दर्भ से किया गया है । प न प त सि स अ प न प्र ८ छ G उ a
पञ्चमः स्तबक! ७२६ अन्याय्यश्चानेकार्थत्वमिति स्थितेः । अत एवानुभवोऽपि, यावदुक्तं भवति, पाकानुकूलवर्तमान प्रयत्नवांस्तावदुक्तं भवति पचतीति । एवं तथाभूता तिवृत्तप्रयत्नोऽपाक्षीदिति । एवं तथाभूतभाविप्रयत्नः पक्ष्यतीति, न तु पचतीति पाकानुकूलयरिक विद्वानिति । अन्यथाऽतिथावपि परिश्रमशयाने पचतीति प्रत्ययप्रसङ्गात् । अपि च- कर्तृव्यापार एव कृञर्थ’, चेतनश्च कर्ता, अन्यथा तद्वयवस्थाऽनुपपत्तेः । सि० प० अन्याय्यश्च लक्षणा प्रभूति किसी ‘अभ्य वृत्तियों के द्वारा लिये उस पद का प्रयोग होता हो, उस पद की इन्द्र का बोध जिस पद से जिस अर्थ का बोध संभव न हो, अथ च उस अर्थ के बोध के अभिघावृत्ति उस अर्थ में माननी चाहिये पद की शक्ति गृहीत है, उस पुरुष को नहीं होता है । अतः अगत्या इन्द्रादि हैं । ऐसी स्थिति न रहने पर साधारणतः अनेक अर्थों में एक ही पद की पृथक् पृथक् शक्ति को स्वीकार करना ‘अन्याय्य’ ही है । । विष्णु स्वरूप अर्थ में ही जिस पुरुष को ‘हरि’ लक्षणा वृत्ति के द्वारा भो ‘हरि’ पद से अनेक अर्थों में हरि पद की अलग अलग अत एव शक्ति मानते जिस लिये कि सभी प्राण्यात पद कृति के वाचक हैं ‘मत एव’ ‘पचति’ पद एवं ‘पाकानुकूलवर्तमानप्रयत्नवान्’ इन दोनों पदों से समान प्राकार के बोध उत्पन्न होते हैं । इसी प्रकार ‘पाकानुकूलातीत प्रयत्नाश्रयः’ एवं ‘अपाक्षीत्’ इन दोनों पदों से, एवं ‘पक्ष्यते’ एवं ‘पाकानुकूलभाविप्रयत्नवान्’ इन दोनों पदों से समान प्रकार के बोध उत्पन्न होते हैं । एवं ‘पचति’ पद से ‘पाकानुकूलयत्किञ्चिद्वयापारवान्’ इस आकार का बोध नहीं होता है, क्योंकि ऐसा मानने पर श्रान्त अतिथि की सुषुप्तावस्था के समय भी ‘अयं श्रान्त! सुषुप्त अतिथिः पचति’ इस प्रकार के प्रयोगों को भी प्रामाणिक मानना होगा, जिस लिये कि श्रमशान्ति के द्वारा शयन स्वरूप व्यापार भी तो जिस किसी प्रकार पाक के अनुकूल है ही । प्रत आख्यात कृति का ही वाचक है | अपि च …. ( ‘कत्त’ रूप व्यवस्थया’ इस द्वितीयचरण की व्याख्या ) । कञ, धातु का अर्थ कर्ता के व्यापार स्वरूप ही है । यदि कार्य के अनुकूल जिस किसी व्यापार से युक्त पदार्थ को ही ‘कर्ता’ माना जाय, तो फिर जलादि अचेतन पदार्थों में भी अरादि कार्यों के अनुकूल किसी व्यापार के अवश्य रहने से ‘घट: कुत: यह व्यवहार होता है, उसी प्रकार ‘अङ्करः कृतः’ व्यवहारों को भी स्वारसिक मानना होगा । उक्त प्रकार के दोनों व्यवहारों में से एक को जैसे कि चेतनकर्तृक स्थल में इस प्रकार के प्रचेतनक ६२ CCO. Vasishtha Tripathi Collection. Digitized by eGangotri७३० गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली न ह्यभिधीयमानव्यापारवत्वं कर्तृत्वम्, अनभिधानदशायां कुर्वतोऽप्य- कर्तृत्वप्रसङ्गात्। नाऽप्यः ख्यातप्रत्ययाभिधानयोग्य व्यापारशालित्वं कर्तृत्वम् । मुख्य, एवं दूसरे को गौण मानने का कोई नियामक नहीं रह जायगा । कृति विशिष्ट को ही कर्त्ता मानना उचित है (प्रर्थात् कृति ही कर्तृत्व का प्रयोजक धर्म है ) जिससे ‘घट: कृत:’ इस व्यवहार की उपपत्ति एवं ‘प्रङ्करः कृतः ’ इस व्यवहार की असिद्धि रूप ‘व्यवस्था’ हो सके । इस लिये कृति से युक्त चेतन हो ‘कर्ता’ है । पू० प० न ह्यभिधीयमान … .. ( मीमांसकों का कहना है कि ) कारक स्वरूप कर्त्ता में रहने वाला कर्तृत्व स्वरूप धर्म चेतन में भी रहता है, एवं अचेतन में भी । यह कर्तृत्व चेतनाचेतन साधारण है । तदनुसार ही ‘कर्क्स कारक’ का लक्षण करना उचित होगा । तदनुसार ‘जिस चेतन का अथवा अचेतन का व्यापार धातु अथवा आख्यात के द्वारा प्रधान रूप से ‘अभिहित’ हो, वह ‘स्वतन्त्र’ कारक ‘कर्स कारक’ है । यह चेतन स्वरूप भी हो सकता है, एवं प्रचेतन स्वरूप भी । ’ सि० प० अनभिधानदशायाम् किन्तु कतत्व का उक्त लक्षण भी ठीक नहीं है, क्योंकि उक्त लक्षण में यदि ‘प्रभिहितत्व’ को विशेषण मानें तो जिस समय पाक करने वाले पुरुष का धातु अथवा प्रत्यय से प्रभिधान नहीं होता है, उस समय पाक करने वाले पुरुष में पाककत ‘त्व लक्षण में अव्याप्ति हो जायगी । पृ० प० नाप्याख्यात … यद्यपि उक्त पाककर्ता पुरुष का अभिधान उस समय प्राख्यातादि प्रत्ययों से नहीं होता है, तथापि उस समय भो उस कर्त्ता में प्राख्यातादि पर्दों से अभिहित होने की योग्यता तो है ही ( यही है अभिहितत्व का उपलक्षण विषया निवेश ) । अतः कर्त्तृस्व के उक्त लक्षण में अव्याप्ति दोष नहीं है। 1. इस प्रसङ्ग में पूर्वपक्षचादी मीमांसकों से यह प्रष्टव्य है कि ‘कत्तु’स्व’ के उक्त लक्षण में ‘अभिहितत्व’ विशेषण विधया निविष्ट है ? अथवा उपलक्षण विधया ? इन में प्रथम पक्ष का खण्डन ‘मनभिधानदशायाम्’ इत्यादि से किया गया है । एवं दूसरे पक्ष का स्वयडन ‘माध्याख्यात’ इत्यादि सन्दर्भ से किया गया है ।
स्व ने सि के सि ज स्व भी कम की मत भा पू ही ह सि कभ उस की पू भी पेश्मः स्तबका ७३१ योग्यताया एवानिरूपणात् । फलानुगुणमात्रस्य सर्वकारकव्यापारसाधारण- स्वात् । नापि विवक्षातो नियम, अविवक्षादशायाम नियमप्रसङ्गात् । स्वव्यापारे । नेदमनिष्टमिति चेत्; एवं तहि ‘स्वव्यापारे च कर्तृत्वं सर्वत्रैवास्ति कारके’ इति न्यायेन सि० प० योग्यताया एव उक्त समाधान भी युक्त नहीं है, क्योंकि कस स्व प्रयोजक कौन सा व्यापार अभिधान के योग्य है, एवं कौन सा व्यापार अभिवान के प्रयोग्य है, इसका निरूपण ही सम्भव नहीं है । सि० प० फलानुगुरणमात्रस्य” ( इस पर पूर्वपक्षवादियों का कहना है कि कर्तृत्व के प्रयोजक व्यापार में रहनेवालो जिस योग्यता की चर्चा की गयी है, वह योग्यता उक्त व्यापार में ‘फलानुगुणत्व’ की सत्ता स्वरूप है । प्रर्थात् फलानुगुण व्यापार से युक्त पदार्थ हो ‘कर्ता’ है । वह चेतन स्वरूप भी हो सकता है ? एवं प्रचेतन स्वरूप भो । किन्तु यह समाधान भी ठोक नहीं है, क्योंकि ) कर्म, करण प्रभृति जितने भी कारक हैं, उन में भी फल के अनुगुण किसी न किसी व्यापार की सत्ता है ही । फल के अनुकूल किसी व्यापार के न रहने पर वे ‘कारक’ नहीं रह जांगे । अतः फलानुगुणत्व को यदि कर्तृत्व का प्रयोजक मानें तो करणादि कारकों में मी कर्तृत्व की आपत्ति होगो । अतः फलानुगुणत्व को कर्तृश्व का प्रयोजक नहीं माना जा सकता । पू० प० नापि विवक्षातः - कर्तृत्व के लिये उस के आश्रयीभूत कारक का फलानुगुण व्यापार का मात्रप होना ही पर्याप्त नहीं है, उसके लिये यह आवश्यक है कि वह (कर्ता) कारक फलानुगुण व्यापारवत्ख रूप से विवक्षित भी हो । फलतः फलानुगुणव्यापारवत्त्वेन विवक्षित कारक विशेष ही ‘कर्ता’ है । करण प्रभृति कारक उक्त रूप से विक्षित नहीं है, मतः वे ‘कर्ता’ नहीं हूँ । सि० प० प्रविवक्षादशायाम् उक्त लक्षण भी ठोक नहीं है, क्योंकि इच्छा रूपा विवक्षा पुरुष के अधीन है, अतः कभी रह भी सकती हैं, कभी नहीं । जिस समय कर्ता की उस स्वरूप में विवक्षा नहीं रहेगो, उस समय कर्तृत्व का नियामक कौन होगा ? अर्थात् उस समय करणादि कारकों में कर्तृव की प्रापति को कौन रोक सकेगा ? पू० प० स्वभ्यापारे … .. कुठारारादि करण कारक मी अपने उद्यम निपातनादि व्यापारों के ‘कर्ता’ हैं हो, उन में भी कर्तृव है हो । यह आपत्ति मी इष्ट होने के कारण दोषावह नहीं है ।
1… ७३२ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली करणादिविलोपप्रसङ्गः । न स्वव्यापारापेक्षया कररणादिव्यवहारः, किन्तु प्रधान क्रियापेक्षया । अस्ति हि काञ्चित क्रियासुदिश्य प्रवर्तमानानां कारकाणाम- वान्तरव्यापारयोगो न त्ववान्तरव्यापारार्थमेव तेषां प्रवृत्तिरिति चेत्; तहि तदपेक्षयैव कर्तृ कर्मादिव्यवहार विशेष नियमे कि कारणमिति चिन्त्यताम् ? स्वातन्त्र्यादीति चेत्। ननु तदेव किमन्यत् प्रयत्नादिसमवायादिति विविच्या- भिधीयतामिति । तस्मात्सर्वत्र समानव्यापार एवाख्यातार्थः ॥ ६ ॥ सि० प० एवं तहि .. ऐसा स्वीकार करने पर तो क्रिया के सभी कारण ( कारक ) ‘कर्ता’ ही कहलायगे, फिर करणादि कारकों का व्यवहार हो लुप्त हो जायगा । पू० प० न, स्वव्यापारापेक्षया … करणादि व्यवहारों का लोप नहीं होगा, क्योंकि प्रधान क्रिया के अनुसार ही कर्तृस्व करणत्वादि के विभिन्न व्यवहार होते हैं । किन्तु करणादि कारकों के भी अपने व्यापार हैं, उनका कर्तृत्व हो करणादि कारकों में व्यवहृत हैं । जिन छेदनादि क्रियाओं की करणता फुठरादि में विवक्षित है, उनमें छेदनादि क्रियाओं के कर्तृत्व का व्यवहार नहीं होता है, किन्तु छेदनादि क्रियाओं के करणत्वादि का व्यवहार हो होता है । ऐसी व्यवस्था स्वीकार कर लेने पर करणत्वादि व्यापारों के लोप की कोई प्रसक्ति नहीं रह जाती है । सि० प० तर्हि तदपेक्षयैव " प्रधान क्रिया के अनुसार ही यदि कर्तृत्व करणत्वादि के नियम रहें, तो इस विषय का ही विचार करिये कि प्रधान क्रिया के संपादकों में से कौन कत्तु कारक है ? एवं कौन कौन करणादि कारक हैं ? पू० प० स्वातन्त्र्यादि… महर्षि पाणिनि ने ही ‘स्वतन्त्रः कर्त्ता’ इस सूत्र के द्वारा इसका निर्देश कर दिया है कि प्रधान क्रिया का जो प्रयोजक ‘स्वतत्त्र’ हो, वही कर्तृकारक है । करणादि में यह ‘स्वातन्त्र्य’ नहीं है, इसी लिये उन में कर्तृत्वादि का व्यवहार नहीं होता है । सि० प०
तो फिर यही विचार कहिये कि प्रधान क्रिया के संपादन में यह ‘स्वातन्त्र्य’ तदनुकूल ज्ञान, तदनुकुल चिकीर्षा एवं तदनुकूल कृति इनके समूह का प्राश्रयत्व को छोड़कर अन्य कौन सी वस्तु है ? तस्मात् कृति स्वरूप एक ही व्यापार सर्वत्र आल्यात का अर्थ है । ‘रथो गच्छति’ इत्यादि जिन स्थलों यह अर्थ बाषित है, उन सभी प्रयोगों में आख्यात पद को लाक्षणिक समझना चाहिये ॥ ६ ॥
1-.. पञ्चमं । स्तबकं । ७३३ तथापि फलानुगुणतेवास्तु प्रत्ययस्य प्रवृत्तिनिमित्तम्, प्रयत्नस्त्वाक्षेपतो लप्स्यत इति चेन्न । भावनैव हि यत्नात्मा सर्वत्राख्यातगोचरः । तया विवरण धौव्यादाक्षेपानुपपत्तितः ॥१०॥ केन हि तदाक्षिप्येत ? न तावदनुकूलत्वमात्रेण, तस्य प्रयत्नत्वेनाव्यापनात् । न हि यत्नत्वैकार्थसमवाय्येवानुकूलत्वम् । पू० प० तथापि फलानुगुणतेव अनन्यलभ्य अर्थ में ही शब्द को अभिधा वृत्ति मानी जाती है । ‘कृति’ का बोध तो ‘अक्षेप’ से अर्थात् अनुमान प्रमाण से भी हो सकता हैं। क्योंकि जिसमें पाक के अनुकूल व्यापार की सत्ता रहती है, उस में पाकानुगुण कृति की सत्ता अवश्य रहती है। इस से यह अनुमान हो सकता है कि ‘चैत्रः पाकानुकूलकृतिमान् पाकानुकूलव्यापारवत्वात्’ इस प्रकार कृति का बोघ चूकि अनुमान प्रमाण से हो सकता है, उसमें आख्यात की शक्ति मानने की आवश्यकता नहीं है । तस्मात् कृति आस्पात का अर्थ नहीं है, किन्तु ‘फलानुगुणत्व’ ही श्राख्यात का अर्थ है । सि० प० न भावनेव हि यत्नात्मा… … उक्त कथन ठीक नहीं है, क्योंकि कृति हो श्राख्यात का अर्थ है, फलानुगुणत्व प्राख्यात का अर्थ नहीं है । ‘कृति’ से हो अर्थात् कृतिबोधक कृन् धातु से ही सर्वत्र आख्यात का विवरण होता है । एवं कथित रीति से कृति का आक्षेप स्वरूप अनुमान संभव भी नहीं है । केन’ हि - प्रश्न यह है कि प्रयत्न का अनुमान ( आक्षेप) किस हेतु से होगा ? केवल ‘अनुकूलत्व’ से तो प्रयत्न का आक्षेप हो नहीं सकता। क्योंकि अनुकूलत्व केवल प्रयत्नत्व के पाश्रय में ही नहीं रहता है ( अर्थात् ‘अनुकूलत्व’ यत्नत्वाश्रयीभूत केवल एक ही अर्थ में समवेत नहीं है ) । पाकानुकूलत्व तो इन्धनादि में भी है, वहां यत्नत्व नहीं है । पाकानुकूलत्व इन्धन के साथ भी रहनेवाला धर्म है । इस प्रकार पाकानुकूल व्यापार स्वरूप हेतु में कृति की व्याप्ति के न रहने से उक्त अनुकूलत्व से कृति का आक्षेप (धनुमान ) संभव नहीं है । 1. प्रकृत प्रलोक के आदि के तीन चरण के द्वारा कथित युक्ति का उपपादन पहिले ही किया चुका है । अतः पहिले तीन चरणों की व्याख्या अनावश्यक है । इस लिये ‘आक्षेपानुपपत्तित:’ इस चौथे चरण की व्यास्था ही केवल अवशिष्ट है । अतः ‘केन हि’ इत्यादि सन्दर्भ के द्वारा एक चतुर्थ चरण की ही व्याख्या की गयी है।
७३४ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जलौ अत एव न संख्यया, तस्याः संख्येयमात्रपर्यंवसायित्वात् । कर्त्रेति चेन्न । द्रव्यमात्रस्याकर्तृत्वात् । व्यापारवतश्चाभिधाने व्यापाराभिधानस्यावश्याभ्युप- गमनीयत्वात् । श्रत एव" ( इस प्रसंग में कहा जा सकता है कि कर्त्ता में रहनेवालो जिस संख्या का बोध अरूपात से होता है, उस संख्या से ही यत्न का आक्षेप होगा। क्योंकि आख्यात से कर्तृगत संख्या हो अभिहित होती है, एवं कर्ता में कृति अवश्य रहती है । इस से यह निष्कर्ष होता है कि जहाँ आस्पातलभ्य संख्या रहती है, वहाँ कृति भी अवश्य ही रहती है । इस से यह अनुमान निष्पन्न होता है कि " चैत्रः पाकानुकूलकृतिमान् पचतिपदघटकतिपुपदप्रतिपाद्य संख्यावस्वात्’ । किन्तु इस रीति से भो कृति का आक्षेप संभव नहीं है, क्योंकि संख्या से संस्था के आश्रयीभूत द्रव्य का हो आक्षेप होता है, कृति का नहीं । ’ रथो गच्छति’ इत्यादि स्थलों में रथ में तिवर्थं संख्या तो है, किन्तु गमनानुकूल कृति नहीं है ) । ‘अत एब’ आस्यातार्थं संख्या से भो कृति का प्राक्षेप ( अनुमान ) नहीं हो सकता । पृ० प० कर्त्रा … ( मीमांसकों का कहना है कि ) प्राख्यात की शक्ति कर्ता में है, फलतः कर्त्ता आख्यात- वाच्य है । कृति से युक्त को ही कर्त्ता कहते हैं । फलतः जहाँ कर्तृत्व है, वहाँ कृति भी मवश्य हो है । इस से इस प्रकार का अनुमान हो सकता है कि “चैत्रः पाकानुकूलकृतिमान् माख्यात्वाच्यकर्तृ ’ स्वात् ।” इस प्रकार बाख्यातवाच्य कर्त्ता से कृति का प्राक्षेप हो सकता है । सि० प० न, द्रव्यमात्रस्य … … - उक्त रीति से भी कृति का अनुमान नहीं हो सकता। क्योंकि ‘केवल’ अर्थात् व्यापार से रहित देवदत्तादि ‘द्रव्य’ कर्ता नहीं हो सकते । अतः कृति स्वरूप व्यापार से रहित ‘केवल’ देवदत्तादि में कृति की व्याप्ति नहीं है । इस लिये कृत्यादि व्यापारों से युक्त कर्ता को ही आस्मात वाच्यं मानना होगा । ऐसा स्वीकार करने पर यद्यपि कर्तृव से कृति का आक्षेप हो सकता है, किन्तु इस से कृति में भी आख्यात की वाच्यता स्वीकृत ही हो जाती है । क्योंकि कृति स्वरूप व्यापार विशिष्ट कर्त्ता जब भाख्यात का अर्थ होगा, तो उसमें विशेषणीभूत कृति स्वरूप व्यापार में भी आख्यात की वाच्यता आवेगो हो । जैसे कि घटत्व विशिष्ट में घट पद की वाच्यता मानने पर घटत्व भी घट पद का वाच्य हो जाता है । अन्तर इतना ही होगा, कि कृति आख्यात का शक्य न हो कर शक्यतावच्छेदक ( शक्य का विशेषण हो जायगा ।
पञ्चमः स्तबक: ७३५ नापि धात्वर्थेन तदाक्षेत्रः, विद्यते इत्यादी तदसम्भवात् । न ह्यत्र घास्वर्थो भावनाऽपेक्षी, सत्ताया नित्यत्वात् । तत्र न भविष्यतीति चेन्न । पूर्वापरीभूतभावना- नुभवस्याविशेषात् । पू० प० नापि धात्वर्थेन धातु के पाक प्रभृति अर्थों ( धात्वर्थी) के द्वारा ही कृति का श्राक्षेप होगा। घास्वर्थं का संपादन कृति के बिना नहीं होता। इस लिये घात्वर्थ का बोध नियमतः कृति के साथ ही होता है। इस प्रकार बोध में जो घास्वर्थ एवं कृति इन दोनों का नियमतः एक साथ भासित होना ( नियतसामानाधिकरणय ) है, तन्मूलक यह अनुमान हो सकता है कि “चैत्र । पाकानुकूलकृतिमान् ( स्वानुकूलव्यापारवत्वसम्बन्धेन ) पाकवस्वात्” । इस प्रकार धात्वर्थं से कृति का आक्षेप हो सकता है । सि० प० विद्यते यह नियम नहीं है कि घात्वर्थ के साथ कृति अवश्य मासित होती है । जिस घात्वर्थ की उत्पत्ति में कृति की प्रावश्यकता होती है, उसी घारवर्थ के साथ कृति का भान होता है । ‘प्रस्ति, विद्यते’ इत्यादि स्थलों में ‘सत्ता’ रूप घास्वर्थ के नित्य होने के कारण घास्वर्थं की उत्पत्ति ही संभव नहीं है, छातः उन धातुयों के अर्थ की प्रतीति में कृति का मान नहीं होता है । इस लिये धात्वर्थ के साथ कृति का अनोपाधिक ( व्याप्ति ) सम्बन्ध नहीं है । तस्मात् घात्वर्थ से कृति का प्रक्षेप नहीं हो सकता । पू० प० तत्र न ….. ‘शाब्दबोध में जहां कृति का मान हो, वहीं धात्वर्थ के साथ ही हो, ऐसा ही नियम मानते हैं । ‘धात्वर्थ के साथ कृति का भान अवश्य हो’ ऐसा नियम नहीं मानते । जहाँ घात्वर्थ की उत्पत्ति कृति से नहीं होती है, वहीं यदि कृति का मान नहीं होता है, तो उक्त नियम में कोई क्षति नहीं होती है । सि० प० न, पूर्वापरीभूत उक्त समाधान भी ठीक नहीं है, क्योंकि प्रश्न ‘कृति’ के स्वतन्त्र रूप से विचार का उपस्थित नहीं है, विचार उपस्थित है ‘भावना’ का । अर्थात् प्राख्यात की शक्ति भावना में है ? अथवा कर्त्ता में ? यह विचार उपस्थित है । आख्यात की शक्ति ‘कृति’ में है ? अथवा कर्त्ता में ? यह विचार हो उपस्थित नहीं है । ‘पचति’ प्रभुति स्थलों में यह भावना चुकि कृति स्वरूप ही होती है । इसी लिये प्रकृत में ‘कृति’ की चर्चा आयी है । ‘विद्यते’ इत्यादि स्थलों में भी पूर्वापरीभावापन्न भावना की प्रतीति अवश्य होती है । 1
७३६ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली 1 भावनोपरागेण ह्यतथाभूतोऽप्यर्थस्तथा भासत इति । न च पदान्तरलब्धया भावनयाऽनुकूलतायाः प्रत्ययार्थस्यान्वयः, तदसम्भवात् । न खलु प्रकृत्यैव साऽभि- घीयते; धातूनां क्रियाफलमात्राभिधायित्वात् । अन्यथा पाक इत्यादावपि भावना- नुभवप्रसङ्गात् । नापि चैत्र इत्यादिना पदान्तरेण प्रकृतिप्रत्यययोरुभयोरप्यकार- कार्यत्वात् । ( इस प्रसङ्ग में आक्षेप हो सकता है कि कादाचित्क वस्तुओं में ही पूर्वापरीभाव की प्रतीति होती है, नित्यवस्तुओं में नहीं। प्रकृत में ‘विद्’ घास्वर्थ सत्ता तो नित्य है, उसमें ‘पूर्वापर’ का सम्बन्ध कैसे हो ? इस आक्षेप का यह समाधान है कि ) - भावनोपरागेण यद्यपि शुद्ध सत्ता में पूर्वापरीभाव की सम्भावना नहीं है । किन्तु भावनोपरक्त ससा मैं ‘पूर्वापर’ सम्बन्ध माना जा सकता है । जैसे प्रखण्डकाल के नित्य होने पर भी पूर्वापरीभाव से युक्त सूर्यादि गति से उपरक्त होकर उस काल में भी पूर्वापरीभाव की प्रतीति होती है । पू० प० पदान्तरलब्धया कृति श्रथवा भावना धातु का ही अभिषेय अर्थ है । तिवादि प्राख्यात पदों की शक्ति केवल ‘अनुकूलत्व’ में है । अत । धातु स्वरूप एक पद के अर्थ ‘भावना’ में प्रत्ययस्वरूप दूसरे पद के पर्थ अनुकूलत्व का अन्वय होता है । इस प्रकार ‘पचति’ पद से पाकानुकूल भावना की प्रतीति हो सकती है। इसके लिये भावना में तिवादि पद की शक्ति मानने की आवश्यकता नहीं है । सि० प० तदसम्भवात् यह भी सम्भव नहीं है, सकती। धातु से तो केवल क्रिया स्वरूप अर्थ का ही अभिधान होता है। भावना को यदि धातु स्वरूप प्रकृति का अर्थ मानेंगे, तो जहाँ भी पच् धातु का प्रयोग होगा - सर्वत्र ‘भावना’ का बोध मानना होगा । किन्तु वस्तुस्थिति इसके विपरीत है, क्योंकि ‘पाक:’ इत्यादि कृदन्त पदों से भावना की प्रतीति नहीं होती है । क्योंकि ‘भावना’ धातु स्वरूप प्रकृति का अर्थ नहीं हो पू० प० नापि चैत्र इत्यादिना GOD ‘चैत्रः पचति’ इत्यादि स्थलों में ‘चैत्रः’ पद की ही व्यक्ति कृति में भी स्वीकार करेंगे । प्रतः कृति में आल्यात पद की शक्ति मानने की प्रावश्यकता नहीं है । सि० प० प्रकृतिप्रत्यययोः यह भी सम्भव नहीं है, क्योंकि ‘चैत्र:’ इस पद में चैत्र पद है प्रकृति, एवं सु पद है प्रस्थय । इन दोनों में से कोई भी ‘कारक’ स्वरूप किसी धर्म के प्रतिपादक नहीं हैं। चैत्र पद
माध चेन्न धा है विशि भो पू० लिये कृति प्रकृ “भुंव सि वि मा नही ही नहीं १. पञ्चमः स्तबकः ७३७ ओदनमित्यादेः कारकपदत्वात् तस्य च क्रियोपहितत्वात् तेनाभिधान- माक्षेपो वा ? कथमन्यथोदनमित्युक्ते, किं भुङ क े, पचति वेति विशेषाकाङ क्षेति चेन्न । पचतीत्युक्ते किमोदनम्, तेमनं वेति विशेषाकाङ्क्षादर्शनात् । सा चाक्षेपाभि- घानयोरन्यतरमन्तरेण न स्यात्, यस्यां दशायां न चेदाक्षंपो नूनमभिधानमेवेति ॥१०॥ है शुद्ध प्रातिपदिक का वाचक, एवं सु पद है संख्या का वाचक । यदि चैत्र पद व्यापार- विशिष्ट स्वरूप कारकार्थं का वाचक हो, तो कदाचित् चैत्र पद में कृति वाचकता की संभावना भी की जाय । पू० प० श्रोदनम् .. ‘चैत्रः श्रोदनं पचति’ इस वाक्य का चैत्र पद यदि कारक वाची नहीं है, केवल इसी लिये इसकी शक्ति कृति में नहीं मानी जा सकती तो उक्त वाक्य के ‘मोदन’ पद की ही शक्ति कृति में मानिये । क्योंकि प्रकृत में प्रोदन पद को कारकवाची मानना आवश्यक है । यदि प्रकृत भोदन पद को कारकवाची नहीं मानेंगे, तो केवल ‘प्रोदनम्’ इतना हो बोलने पर बो ‘भुंक्ते पचति वा’ इस प्रकार की जिज्ञासा उत्पन्न होती है, वह न हो सकेगी ।” सि० प० न, पचतीत्युक्ते केवल ‘पचति’ पद के सुनने के बाद भी ‘किमोदनं तेमनं वा’ इत्यादि प्राकारों की विशेष जिज्ञासा उदित होती है । यदि तिपू पद से कृति का अभिधान प्रथवा प्राक्षेप नहीं मानेंगे, तो उक्त स्थल में उक्त विशेष जिज्ञासा के कारणीभूत क्रिया सामान्य का ज्ञान संभव नहीं होगा । इस लिये विपु पद को क्रिया सामान्य का अभिघायक अथवा आक्षेपक मानना ही होगा । पहिले उपपादन कर चुके हैं कि आख्यातपद से क्रिंग सामान्य का आक्षेप संभव नहीं है । तस्मात् कृति आख्यात वाच्य ही है ॥१०॥ १. कहने का तात्पर्य है कि ‘भुंक्ते पचति पा’ यह जिज्ञासा क्रियाविशेष की जिज्ञासा है । विशेषजिज्ञासा के लिये सामान्य का ज्ञान आवश्यक है । इस लिये भोजनादि विशेष क्रिया की जिज्ञासा से पहिले ‘क्रियासामान्य’ का ज्ञान आवश्यक है । प्रकृत में इस सामान्य ज्ञान का उत्पादक ‘चोदनम्’ पद को छोड़कर और कोई नहीं दीख पड़ता है । अत: ‘प्रोदनम्’ इस कर्मवाचक पद को अगस्या क्रियासामान्य का वाचक भी मानना ही होगा । ६३
७३८ : गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जलौ स्यादेतत् । प्रभिधीयतां तहिं कर्ताऽपि । तदनभिधाने हि सङ्घघ यमात्र- माक्षिप्य सङ्ख्याः कथम् कर्तारमन्वियात्, न तु कर्मादिकमपि, ‘शाकसूपो पचति, शाकसू पोदनान् पचतीत्यादौ विरोधनिरस्ता सङ्ख्याः चैत्र इति कर्तारमविरुद्धम- नुगच्छतीति चेत्। पू० १० स्यादेतत् प्रभिधीयताम्’ कर्त्ता में ही प्राख्यात की शक्ति स्वीकार की जाय ( कृति में नहीं ) । यदि कर्ता का अभिधान प्राख्यात से नहीं मानेंगे, तो ‘चैत्र’ ओदनम्पचति’ इत्यादि स्थलों में जो तिवर्थं संख्या का अग्वय नियमतः कर्त्ता में ही होने का नियम है, वह अनुपपन्न हो जायगा, उक्त स्थल में चुक्ति कर्त्ता आख्यात के द्वारा ‘उक्त’ है ( अर्थात् प्रख्यात पद से अभिघावृत्ति के द्वारा उपस्थित है ) इसी लिये आश्यातार्थ संख्या का प्रन्वय कर्त्ता में होता है । कर्म प्रारुपात से ‘उक्त’ नहीं है, अतः उसमें तिवर्थ संख्या का अन्वय नहीं होता है । ‘चैत्रेण श्रोवनः ? पच्यते’ इस स्थल में चूकि कर्म ही ख्यात से उक्त है, अतः उसी में भाख्यातार्थ संख्या का अन्वय होता है। इस से यह नियम निष्पन्न होता है कि उसी वस्तु में मारयातार्थ. संख्या का अन्वय हो, जिस में प्राश्यात पद की शक्ति रहे । 1. यदि कर्त्ता में आख्यात की शक्ति न मान कर कृति में शक्ति मानेंगे, एवं कृति के द्वारा आक्षेप से कर्त्ता की उपस्थिति मानकर उस प्राक्षिप्त कर्त्ता में आख्यातार्थं संख्या का व्यन्वय मानेंगे तो ‘पचति’ एवं ‘पच्यते’ इन दोनों प्रकार के ‘आख्यात पदों से युक्त वाक्यों में चूंकि कर्ता एवं कर्म दोनों का ही प्राक्षेप संभव है, अतः दोनों प्रकार के स्थलों में से कहाँ संख्या का अन्वय कर्त्ता में हो, एवं कहां संख्या का अन्वय कर्म में हो, इसका नियमन नहीं हो सकेगा । प्रत: ‘कर्त्ता ही तिप् प्रत्यय का वाच्य अर्थ है’ यह ( वैयाकरणों का ) सिद्धान्त ही ठीक है । पू० प० शाकसूपो शाकसूपो पचति, शाकसूपोदनान् पचति, इत्यादि स्थलों “तिवर्ग एकत्व संख्या का शाकसुप एतदुभयत्वा वच्छेदेन, कि वा शाक, सूप, ओदन एतत्त्रितयत्वावच्छेदेन अन्वय बाषित है । प्रत। कर्त्ता से इतर कर्म में संख्या का अन्वय बाधित होने ( इतरबाध ) से ही प्रगत्या कर्त्ता में संख्या का धन्वय मानना पड़ता है । इसके लिये वर्त्ता में सिप् प्रत्यय की शक्ति मानने की आवश्यकता नहीं है । 1. इस सन्दर्भ के ‘कलपि’ इस वाक्य में जो ‘अप्रि शब्द है, वह ‘एच’ कारार्थंक है। अर्थात् ‘आख्यातेन कतैव अभिधीयताम्’ यह अभिप्रेत वाक्य है । त -चे इ में प्र पू श दो क f
f र्यं 5 육 म स्वयंकः . ७.३६ ‘चैत्र श्रोदनं पचति’ इत्यत्र का गतिः ? एकत्र निर्णीतः शास्त्रार्थोऽपरत्रापि तथा, यववराहादिवदिति चेन्न । पच्यते इत्यादावपि तथाभावप्रसङ्गात् । चैत्राभ्याम्, - त्रैरिति विरोधनिरस्ता सूप इत्यविरुद्धं कर्म समनुक्रामतीति चेत्; सि० प० चैत्र 344 यदि इतरबाध को ही संख्यान्वय का प्रयोजक मानेंगे तो ‘चैत्रः ओदनं पचति’ इत्यादि स्थलों में कर्त्ता में संख्या का अन्वय न हो सकेगा। क्योंकि कर्ता से ‘इतर’ कर्म 9 में विवर्ण एकत्व संख्या का अन्वय बाषित नहीं है । अतः ‘अविरोध’ को ‘संख्यान्वय का प्रयोजक नहीं माना जा सकता । पू० प० एकत्र युक्ति के द्वारा एकत्र निर्णीत अर्थ में हो उस शब्द का प्रयोग दूसरे वाक्यों में मी होता है। जैसे कि ‘वसन्ते सर्व शस्यानांम्’ इत्यादि वाक्य शक्तिवाले यव पद का प्रयोग जब ‘यवर्यजेत’ इस वाक्य में दीर्घणूक विशिष्ट हो होता है ( देखिये मीमांसा सू० के द्वारा दीर्घशुक विशिष्ट में निर्णीत . होता है, तो वहाँ भी उसका अर्थ अ- १ - पा० ३ अधिकरण ५ ) | इतरबाध या भविरोध रूप युक्ति के द्वारा इसी प्रकार ‘शाकसूपी पचति’ इत्यादि स्थलों में कर्त्ता में ही प्राथातार्ग संख्या का प्रन्वय निर्णीत हो चुका है, तो फिर ‘चैत्र: प्रोदनं पचति’ इत्यादि स्थलों में भी कर्त्ता में ही आस्पावार्थ संख्या का अन्वय उचित है । सि० प० न, पच्यते अविरोध अथवा इतरबाध को संख्यान्वय का प्रयोजक नहीं माना जा सकता, क्योंकि ऐसा मानने पर ‘चैत्रेण भोदनः पच्यते’ इत्यादि स्थलों में भी मास्यातार्थ- संख्श का अन्वय कर्त्ता में स्वीकार करना होगा, क्योंकि चैत्र में एकत्व के प्रन्वय का कोई बाधक नहीं है । किन्तु सो इष्ट नहीं है । अतः उक्त नियम ठीक नहीं है । पू० प० चैत्राभ्याम्, चैत्रेर्वा ……….. ‘चैत्राभ्याम् चैत्रैर्वा प्रोदनः पच्यते’ इत्यादि स्थलों में प्राख्यात् के अर्थ एकत्व संख्या का अन्वय द्वित्व अथवा बहुत्व- विशिष्ट चैत्र में बाषित हैं, पतः आस्पतार्थ संख्या का अन्वय मोदन स्वरूप कर्म कारक में ही होता है । उक्त युक्ति के अनुसार जब कर्मागतार्थ का अक्षय कर्म क कारक में निर्णीत है, तो उसी निर्णय के अनुसार कथित यववराह न्याय से हो ‘चैत्रेण ओदनः " पचपते’ इत्यादि स्थलों में चैत्रादि कर्तृ कारकों में : आख्यातार्थ संख्या का मस्वय अबाधित रहने पर भी कर्म कारक में ही उक्त संख्या का अन्वय होना उचित है । CCO. Vasishtha Tripathi Collection. Digitized by eGangotriगद्यपद्यात्मक-न्यांय कुसुमाञ्जली ‘चैत्रमेत्राभ्यां शाकसूपौ पच्येते’ इत्यत्र का गतिः ? अन्यत्र निर्णीतेनार्थेन : व्यवहार इति चेन्न । पचतीत्यादावपि तथाभावप्रसङ्गात् । तत्र पूर्वक एव निर्णय 1, 1 सि० प० चैत्रमंत्राभ्याम् ‘चैत्रमंत्राभ्याम् थाकसूपो पच्येते’ इस प्रकार के प्रयोग शिष्ट सम्मत हैं । इस स्थल में जिस प्रकार शाक एवं सूप इन दोनों में माख्यातार्थ द्विस्व का अन्वय अबाधित है, उसी प्रकार चैत्र एवं मंत्र स्वरूप कर्त्ता में भी द्वित्व का अन्य अबाधित ही है । यदि ‘प्रविरोध’ को संख्यान्वय का प्रयोजक मानें, तो उक्त स्थल में भी द्वित्व संख्या का अन्वय कर्त्ता में ही स्वीकार करने में कोई बाधक नहीं हैं । अतः ‘अविरोध’ को संख्यान्वय का प्रयोजक नहीं : माना जा सकता । पू० प० अन्यत्र निर्णीतेन ‘चैत्राभ्याम् चैत्रः सूपः पच्यते’ इत्यादि प्रकार के प्रयोग सर्वसम्मत हैं । इस स्थल के कर्त्ताओं में श्राख्यातार्थ एकत्व संख्या का अन्वय बाषित है, अतः उन स्थलों में कर्म कारक में ही प्रारूपातार्थ एकत्व संख्या का प्रन्वय अबाधित होने के कारण होती है । इस प्रकार कर्माख्यातार्थ संख्या का अन्वय कर्म कारक में स्थिर हो जाने पर कथित ‘यववराहन्याय’ से ‘चैत्रमैत्राभ्यां शाकसूपौ पच्येते’ इत्यादि कर्माख्यात स्थलों में भौ ( जहाँ कर्तृ कारक में प्राख्यातार्थ संख्या का अन्वय बाधित नहीं है ) कर्मकारक में ही संख्या का अन्वय उचित है । जिस से यह सामान्य नियम उपपन्न होता है कि कर्माख्यातार्थ संख्या का अन्वय कर्मकारक में ही हो । सि० प० न, पचति यदि ‘भविरोध’ न्याय से कर्म में संख्या का अन्वय मानेंगे, वो ‘देवदत्तः ओदनं पचति’ इत्यादि स्थलों में प्रोदनादि रूप कर्मकारकों में एकत्व का अन्वय मानना पड़ेगा । अतः भविरोध को संख्यान्वय का प्रयोजक नहीं माना जा सकता । प० प० तत्र … … ‘पचति’ पद घटित प्रयोगस्थल में उक्त अविशेष न्याय से ही कर्त्ता में नियमतः आख्यातार्थ संख्या का नियम निष्पन्न होता है । तुल्य युक्त्या उक्त ‘अविरोधन्याय’ रूप युक्ति से ही ‘पच्यते’ पद घटित प्रयोग स्थल में स्वारसिक प्रयोग वश कर्म में संख्या न्वय का दूसरा नियम भी स्वीकार करेंगे । अतः ‘पचति’ पद घटित प्रयोगस्थल में प्रोदनादि कर्मों में संख्यान्वय की कोई आपत्ति नहीं है ।
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पञ्चमः स्तबका ७४१ पच्यते इत्यत्र स्वपर इति चेन्न । विशेषाभावात् । प्रात्मनेपदपरस्मैपदाभ्यां विशेष इति चेन्न । पच्छते, पचते, पक्ष्यते इत्यादी विप्लवप्रसङ्गादिति । दृश्यते च समान प्रत्ययाभिहितेनान्वयः सङ्ख्यायाः, यद्यथा - भूयते, सुप्यते, इत्यादी । न हि तत्र कर्ना, कम्मरणा वा, अन्येनैव वा केनचिदन्वयः; किन्तु भावेनेव । अनन्वये तदभिधायिनोऽनर्थकत्वप्रसङ्गात् । प्रक्षिप्तेन चान्वये तत्रापि कर्त्रेवान्वयापत्तेः । को हि सुप्यते, स्वपितीत्यनयोः कर्त्राक्षेपं प्रति विशेष ? सि० प० न ‘पचति’ पद घटित वाक्य एवं ‘पच्यते’ पद घटित वाक्य इन दोनों में कौन सा अन्तर है, जिससे विभिन्न दो नियमों को स्वीकार करना आवश्यक हो ? अतः उक्त कथन सङ्गत नहीं है । पू० प० आत्मनेपद … ‘पचति’ है परस्मैपद निष्पन्न प्रयोग एवं पच्यते है आत्मनेपद निष्पन्न प्रयोग, यही ‘अन्तर’ दोनों में स्पष्ट है । सि० प० न, पच्यते .. उक्त समाधान भो युक्त नहीं है, क्योंकि यदि यह नियम करें कि श्रात्मनेपद घटित वाक्य में प्रख्यातार्थं संख्या का अन्वय कर्म में हो, तो पच् धातु के उभयपदी होने कारण प्रयुक्त ‘चैत्रः ओदनं पचते’ इस प्रकार का भी प्रयोग होता है । किन्तु इस स्थल में भी आख्यातार्थ संख्या का अन्य कर्त्ता में ही इष्ट है, कर्म में नहीं । उक्त नियम के अनुसार प्रकृत में संख्या का प्रन्वय कर्म में प्राप्त हो जायगा । किन्तु सो दृष्ट नहीं है । अतः उक्त समाधान असंपूर्ण है । इस लिये कर्त्ता में हीं प्राख्यात की शक्ति है, कृति में नहीं । ( इस प्रसङ्ग में वैयाकरणों के ऊपर यह प्राक्षेप हो सकता है कि कर्ता को यदि व्याख्यात वाच्य मानें, तो श्राख्यात वाच्य संख्या का अन्वय कर्ता में नहीं हो सकेगा, क्योंकि एक ही पद से उपस्थित अर्थों में परस्पर अन्वय नहीं होता है। विभिन्न पदों के द्वारा उपस्थित विभिन्न अर्थ हो परस्पर अन्वित होते हैं । इस आक्षेप का यह समाधान है कि:-) दृश्यते च… … भावाख्यातान्त ‘भूयते, सुप्यते’ इत्यादि स्थलों में आख्यात वाच्य संख्या का प्रस्वय प्राख्यात बाच्य भाव ( घात्वर्थ) में ही होता हैं। क्योंकि उक्त स्थलों में प्रयुक्त मास्यात के अर्थ संख्या का अन्वय कर्णा श्रयवा कर्म कारक में होना संभव ही नहीं है । ऐसी स्थिति में यदि बाख्यातार्थ संख्या का अभ्वय आख्या तार्थ भाव में नहीं मानेंगे, तो एकत्व के वाचक उक्त आख्यातार्थ आख्यात का प्रयोग व्यर्थ हो जायगा ।
८७४२ गद्य पञ्चात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली स्यादेतत् । ‘भावकम्मंरणो’ : इत्याद्यनुशासनबलात्तावत् भावकर्मणी प्रत्यय- वाच्ये । ततस्तदभिहिता सङ्ख्याः ताभ्यामन्वीयते । यस्तु प्रत्ययो न तत्रोत्पन्नः, तदभिहिता सङ्ख्या, मुख्यं वा पूर्वचोदनाल्लोकवत्’ ( मी० १२-२-२३ ) इति न्यायेन कर्तारमेवाश्रयते इति नियमः । यदि किसी प्राक्षित पदार्थ में उक्त संख्या का प्रन्वय स्वीकार भी करेंगे, तो वह आक्षिप्त पदार्थ भी कर्ता ही होगा, कोई अन्य नहीं । क्योंकि’ ‘स्वपिति’ इत्यादि स्थलों में माक्षिप्तकर्ता में संख्या का अन्वय सभी मानते हैं । जहाँ तक आक्षेप की संभावना का प्रश्न है ‘स्वपिति’ मोर ‘सुप्यते’ इन दोनों में कोई अन्तर नहीं है । ( अतः कर्त्ता में आख्यात की अभिषा वृत्ति मानने से उक्त परस्परानन्वय की आपत्ति की संभावना नहीं है ) । पू० प० भावकम्मंरणो… ‘भावकमणों।’ इस पाणिनीय अनुशासन के अनुसार अकर्मक धातु से निष्पन्न भावारूपात स्वरूप ( प्रत्यय ) की शक्ति ‘भाव’ ( धात्वर्थ ) में, एवं कर्म में विहित आख्यात स्वरूप ‘प्रत्यय’ की शक्ति ‘कर्म’ में स्वीकार करना आवश्यक है । इस लिये प्रथममोक्त आख्यात प्रत्यय वाच्य संख्या का अन्वय ‘भाव’ में, एवं शेषोक्त आख्यात प्रत्ययवाच्य संख्या का मन्त्रय ‘कर्म’ में स्वीकार करते हैं । 2 भी उत्पन्न नहीं होता, किन्तु इसके विपरीत जो प्राख्यात प्रत्यय भाव अथवा कर्म में जैसे ‘पचति’ इस पद का तिप् प्रत्ययार्थं संख्या का अन्वय ‘मुख्यं वा ? इत्यादि मीमांसा सूत्र के अनुसार प्रथमतः उपस्थित होने के कारण ही कर्त्ता में ( आख्यातार्थ संख्या का ) अन्वय संभव होता है । इस के लिये कर्त्ता में आख्यात की शक्ति को स्वीकार करना आवश्यक नहीं है । १. वेद में दो वाक्य मिलते हैं । (१) अग्नावैष्णवमेकादश पालं निर्वपेत्, (२) संग्रामे सरस्वती मध्याज्यस्य यजेत्’ इन दोनों ही वाक्यों से एक ही बाग में दो क्रियाधों का विधान किया गया है। इन में प्रथम है ‘आग्नावैष्णव’ और द्वितीय है ‘सारस्वताप’ | इन दोनों में इच्छा के अनुसार यह अनियम प्राप्त होता है कि जिस क्रिया का अनुष्ठान पहिले जिस को अभीष्ट हो वह पहिले उस क्रिया का अनुष्ठान करे । प्रकृत सूत्र के द्वारा कथित अनियम को हटाकर यह व्यवस्था की गयी है कि पहिले प्रथमोक्त ‘आनावे व धर्म का अनुष्ठान ही होना चाहिये, ज्वाद में ‘सारस्वताज्य’ का अनुष्ठान होना चाहिये । इस में सूत्र दृष्टान्त दिया गया है लोकवत्’ अर्थात् जिस प्रकार लोक में ‘चैत्रं तावद् भोजय, मैत्रमपि भोजयिष्यामि’ इस वाक्य के द्वारा प्रथमतः उक्त चैत्र को ही भोजन कराया जाता है, मैत्र को पश्चाबू भोजन कराया जाता है । व य नि उ न सि भा सं इन अ उ उ है, प्र स अ त प क ही
पचनाव न, विपर्ययप्रसङ्गात् । ‘दोषात्कर्त्तरिपरस्मैपदम् कसरि अनुसन वलाद्भावकर्तारौ प्रत्ययवाच्यी, ततस्तदभिहिता सङ्ख्यानि वाया ॥ यस्तु प्रत्ययो न तत्रोत्पन्नस्तदभिहिता संख्या देनेव त्यात कलायसेविति नियमोपपत्तेः । तस्मात् मतिकदंममपहाय यथाऽनुशासनमेव गृह्यत इति प्रात । उसी प्रकार उक्त अधिकरण के अनुसार कारकों में सबसे पहिले उपात्त कर्तृकारक में ही उस प्राख्यातार्थ संख्या का अन्वय होना उचित है, जिस आख्यात का प्रयोग मात्र अयत्रा कर्म में न हुआ हो। इस के लिये कर्त्ता में आख्यात की शक्ति को स्वीकार करना आवश्यक नहीं है | सि० प० न, विपर्यय .000 उक्त विषय ठीक नहीं है, क्योंकि उसके विपरीत यह नियम भी किया जा सकता है कि भाव एवं कर्त्ता इन दोनों में से किसी में जो आख्यात प्रत्यय नहीं किये गये हैं, उनके अर्थं संख्या का अन्वय ‘कर्मकारक’ में ही हो । क्योंकि ‘शेषात् कर्त्तरि परस्मैपदम्’ एवं ‘कर्त्तरि शप’: इन दोनों ही अनुशासन के बल पर भाव ( घात्वर्थ ) एवं कर्त्ता ये दोनों आख्यात प्रत्यय के अर्थ हैं, अतः ‘सिप’ प्रभृति आख्यातों से प्रभिहित संख्या का अन्वय ‘कर्ता’ में ही होना उचित है, किन्तु जो प्राख्यात स्वरूप ‘प्रत्यय’ भाव एवं कर्ता इन दोनों में से किसी में भी उत्पन्न नहीं है, उस आख्यात प्रत्यय के अर्थ संख्या का अन्वय ‘कर्म’ कारक ही में होना उचित है, क्योंकि जिस प्रकार सभी कारकों में प्रथमोक्त होने के कारण कर्ता मुख्य कारक है, उसी प्रकार मुख्य उद्देश्य होने के कारण होने के कारण कर्मकारक को भी…मुख्य’ कहा जा सकता है, प्रत। उस में भी आख्यातार्ग संख्या का अन्वय ‘मुख्यं वा इस मीमांसा सूत्र के- अनुसार ही होना संभव है । तस्मात्: . तस्मात् सभी को चाहिये कि दुराग्रह को छोड़कर भगवाद पाणिनि के अनुशासन के मनुसार, यह स्वीकार करें कि कर्त्ता में विहित आख्यात प्रत्यय से अभिहित संख्या का अन्वय कर्त्ता’ में ही हो, एवं कर्म में विहित संख्या का अन्वय कर्मकारक में ही हो । मतः कर्त्ता ही विवाद आख्यात काव्याच्य अर्थ है ।
७४४ एवं प्राप्तेऽभिधीयते— गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली श्राक्षेपलभ्ये सङ्ख्यये नाभिधानस्य कल्पना । सङ्खच यमात्रलाभेऽपि साकाङ्क्षरण व्यवस्थितिः ॥११॥ एवं प्राप्ते… वैयाकरणों के द्वारा ‘कर्तृकारक ही प्राख्यात प्रत्यय का वाच्य है’ इस पक्ष के उपस्थित करने पर हम ( नैयायिक) कहते हैं कि उक्त पक्ष ठीक नहीं है, क्योंकि - श्राक्षेपलभ्ये… आख्यातार्थ संख्या के अन्वय के लिए कर्ता की आवश्यक उपस्थिति जब ‘आक्षेप’ से ही हो सकती है, तो कर्त्ता में आख्यात के अभिधान की कल्पना अनावश्यक है, क्योंकि ‘अनम्यलभ्यो हि शब्दार्थ:’ इस न्याय से आक्षेपादि किसी अन्य प्रकार से उपस्थिति संभव न. होने पर ही शक्ति की कल्पना आवश्यक होती है । ( इस प्रसङ्ग में वैयाकरणों के पक्ष से यह कहा जा सकता है कि जिस प्रकार कर्ता का आक्षेप संभव है, उसी प्रकार कर्मकारक का भी ‘आक्षेप’ संभव है, ऐसी स्थिति में इसका कौन नियामक होगा कि आख्यातार्थ संख्या का अन्वय कर्त्ता में ही हो, कर्म में नहीं, तुल्यन्याय से कर्म में भी आख्यातार्थ संख्या का अन्वय हो सकता है, इस प्रश्न का यह उत्तर है कि- संख्येयमात्रलाभेऽपि ••• ‘भावना’ नियमतः कर्तृ ’ साकांक्ष है, इसी लिये कर्त्ता में विहित आख्यात प्रत्यय के अर्थ ‘भावना’ का अन्वय नियमतः कर्त्ता में ही होता है । दूसरा यह नियम है कि ‘यं यं ’ १. तिप् प्रभृति प्रख्यात पदों से जब संख्या की उपस्थिति होती है, तो केवल इतनी सी आकांक्षा उदित होती है कि “इस संख्या का कोई आश्रय अवश्य है, जिस आश्रय ( विशेष्य ) में यह संख्या विशेषण रूप से भासित होगी’। जिस प्रारूपात पद से संख्या की उपस्थिति होती है, उसी प्रख्यात पद से ‘भावना’ की उपस्थिति भी होती है। अतः संख्या और भावना ये दोनों ही ‘समान प्रत्यय’ से अर्थात् एक ही प्रत्यय से बोध्य होने के कारण परस्पर ‘अन्तरङ्ग’ हैं । ‘अग्निना चैत्रः श्रोदनं पचति’ इत्यादि स्थलों में ‘केवल चैत्र’ की उपस्थिति अर्थात् व्यापार से रहित केवल चैत्र की उपस्थिति होती हैं। इस लिये चैत्र: इस पद से उपस्थित चैत्र व्यापाराकांक्षी ( भावनाकांक्षी ) है । आयात से उपस्थित ‘केवल भावना’ अर्थात् आश्रय विनिर्मुक भावना को आश्रय की आकांक्षा होगी ! + व स स
पश्चम स्तबका सङ्खाऽपि तावदियं भावनाऽनुगामिनी; यं यं भावनान्वेऽति तं तं सङ्ख्याऽपीति स्थिते, एकप्रत्यय वाच्यत्वनियमात् । भावना च शुद्धं प्रातिपदिकार्थं - मात्रमाकाङक्षति न हि व्यापारवन्तं व्यापार प्राश्रयते । भावनान्वेति तं तं संख्यापि’ इस द्वितीय नियम के अनुसार जहाँ भावना का अन्वय होंगा, वहीं संख्या भी अन्वित होगी । भावना के अन्वय के लिए चैत्रादि पदों से कर्ता की उपस्थिति आवश्यक है ही, उसी चैत्रादि में प्राख्यातार्थ संख्या का भी अन्वय हो जायगा । अतः आख्यात की शक्ति कर्त्ता में स्वीकार न करने पर भी यह ‘व्यवस्थिति’ अर्थात् व्यवस्था संभव है कि कर्त्ता में विहित आख्यात के अर्थ संख्या का अन्वय कर्ता में ही हो, एवं कर्म में विहित आख्यात के अर्थ संख्या का अन्वय कर्म में ही हो । संख्यापि तावत्” ‘इयम्’ अर्थात् आख्यातवाच्य संख्या ‘भावनानुगामिनी’ है, अर्थात् जहाँ भावना अन्वित होगी, वहीं उक्त संख्या भी अन्वित होगी। क्योंकि भावना एवं उक्त संख्या ये दोनों हो चुकि प्राख्यात प्रत्यय स्वरूप एक ही शब्द के अभिधेय हैं । यह अविसंवादित सिद्धान्त है कि ‘यं यं भावनान्वेति तं तं संख्यापि’ । व्यापार से रहित होकर उपस्थित शुद्ध प्रातिपदिकार्थ के साथ ही ‘भावना’ की प्राकांक्षा है । क्योंकि ‘भावना’ स्वयं व्यापार स्वरूप है, अतः व्यापारविशिष्ट पदार्थ का आश्रयण वह नहीं कर सकती ( अगर ऐसा मानें तो फिर ये दो प्रश्न उपस्थित होंगे कि (१) क्या स्वयं व्यापार स्वरूपा भावना ‘स्व’ स्वरूप व्यापार विशिष्ट पदार्थ में अन्वित होगी ? (२) अथवा प्रकृत ‘भावना’ स्वरूप व्यापार से भिन्न किसी अन्य व्यापार विशिष्ट के साथ मम्वित होगी ? इन में प्रथम पक्ष स्वीकार करने पर – इस लिये ‘भावना’ का अन्वय उभयकांक्षाविषयीभूत कतृ कारक में ही होगा कर्म अथवा करणादि कारकों में नहीं । कारक विभक्ति से युक्त स्ववाचक पद के द्वारा व्यापार विशिष्ट ‘स्व’ की ही उपस्थिति होती है। उसे दूसरे किसी व्यापार की आकांक्षा नहीं है । इस लिये भावना की साकांक्षता कर्मादि कारकों में प्रातपातार्थ के अन्य की सहायिका नहीं हो सकती । उभयाकांक्षा ही परस्परान्वय की प्रयोजिका है, अन्यतराकांक्षा नहीं । अतः ‘अग्निना चैत्रः श्रोदनं पचति’ इत्यादि कर्त्ता में अभिहित श्राख्यात प्रत्यय से युक्त पद घटित वाक्यों में प्रयुक्त तिवादि प्रत्यय की वाक्य ‘भावना’ का कर्मादि कारकों में अथय न होकर कर्तृ कारक में ही अन्वय होता है । ऐसा हो जाने पर ‘यं यं भावनाम्वेति तं तं संख्यादि’ इस न्याय से उक्त धाक्यात से अभिहित संख्या भी कर्तृ कारक में ही अन्वित होती है । ६४
७४६ आत्माश्रयत्वात् । नात्माश्रयत्वात् गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली ‘आत्माश्रय’ रूप दोष होगा, क्योकि धन्यय से पहिले अन्वयितावच्छेदक धर्म रूप से अन्वयी की उपस्थिति आवश्यक है । प्रकृत ‘भावना’ का अन्वयी उसी भावना स्वरूप व्यापार से युक्त पदार्थ को माना है, अतः ‘स्व’ स्वरूप ‘भावना’ ही मन्वयितावच्छेदक होगी, अन्वयी की उपस्थिति चुकि ‘विशिष्टज्ञान’ रूप है। अतः उसे विशेषणज्ञान की ‘अपेक्षा’ होगी। ‘भावना’ स्वरूप उक्त विशेषण का ज्ञान प्राख्यात स्वरूप पद के बिना संभव ही नहीं है। इसका फलितार्थ यह होगा कि आख्यातपद से ‘स्व’ स्वरूप भावनाष्य व्यापार विशिष्ट विशेष्यक ‘भावना’ प्रकारफ अम्बयबोष रूप ज्ञान में आख्यात पदजनित ‘चैत्रेण ओदना पच्यते’ इस वाक्य के ‘चैत्रेय’ पद से व्यापार विशिष्ट चैत्रादि कर्ता की ही उपस्थिति होती है । अतः इस कर्ता को व्यापार की आकांक्षा नहीं है। ओदन’ इस उपपद विभक्त्यन्त पद से व्यापारशून्य केवल ‘ओन’ रूप कर्म कारक की ही उपस्थिति होती है । अतः कथित स्थल में कर्म कारक ही व्यापार साकांक्ष है । अता ओदन स्वरूप कर्म में ही भाख्यातार्थ ‘भावना’ का अन्वय होता है, एवं तत्समानपद वाक्य संख्या का भी अन्वय ‘यं यं भाषनाग्वेति’ इस न्याय से कर्म कारक में ही होता है । ‘चैत्रेण सुध्यते’ इस स्थल में कर्ता निराकांक्ष है, एवं कर्म है ही नहीं, अतः धात्वर्थ व्यापार में प्रथवा श्राश्यातार्थ भावना में ही श्रास्यातार्थं संख्या का अवय होता है । इन सभी उक्तियों का फलितार्थ यह है कि ‘चैत्रः श्रोदनं पचति’ इस स्थल मैं जो प्राक्यातार्थं संख्या का अन्वय चैत्र रूप कर्तुं कारक में होता है, अथवा चैत्रेय चोदनः पच्यते’ इस स्थल में जो प्राक्यातार्थ संख्या का अन्वय कर्म कारक में होता है, इन दोनों ही स्थलों में आक्यातार्थ संख्या के अम्बयी कर्ता अथवा कर्म इन दोनों का लाभ चूँकि ‘प्रक्षेप’ से ही हो सकता है, अतः कथित ‘पचति’ पद घटक ‘तिपू’ प्रस्थय की शक्ति कर्ता में, एवं ‘पष्यते’ पद घटक ‘त’ प्रत्यय की शक्ति कर्म में मानने की आवश्यकता नहीं है। यही बात आचार्य ने ‘संख्या तावत्’ इत्यादि सन्दर्भ से कही है । स प्र त नि न The हो अ मा द्वित भी भा के से य उत्प भाव अन्ि पद भाव
मःस्तबक ७४७ समवायं प्रति तदनुपयोगात् । विजातीयव्यापारवतोऽकर्तुं स्वाच्च । न च द्वितीयाद्याः प्रातिपदिकविभक्तयः । ततः प्रथमानिदिष्टेनैव भावनाऽन्वीयत इति तस्यान्वययोग्यतानियमात् सङ्ख्याऽपि तदनुगामिनी तेनैवान्वीयेत इति नातिप्रसङ्गः, नत्रर्थवत् । भावना का ज्ञान अपेक्षित है। अतः इस पथ में ‘आत्माश्रय’ दोष अनिवार्य है । ‘स्व’ में ‘स्व’ को सापेक्षता हो आत्माश्रय दोष है । समवायम् दूसरा दोष यह है कि ‘भावना’ है क्रिया रूप, द्रव्य में उसके अन्वय का पर्यवसान ‘समवाय’ में हो होगा, अर्थात् वह अन्वय समवाय स्वरूप ही होगा । समवाय नित्य है । प्रत। उसे किसी भी व्यापार की अपेक्षा नहीं है । अत उक्त समवाय को भी ‘भावना’ की ही तरह केवल प्रातिपदिकार्थं की ही माकांक्षा रहती है । तस्मात् भावना से युक्त कर्ता चूँकि निराकांश है, अतः भावना से भिन्न किसी अन्य व्यापार विशिष्ट में भी भावना अन्वित नहीं हो सकती है । ( इस प्रसङ्ग में कहा जा सकता है कि किसी एक व्यापार का अन्वय स्वविशिष्ट में नही हो सकता, क्योंकि स्वविशिष्ट में ‘स्व’ का अन्वय स्व सापेक्ष होने के कारण आत्माश्रय एवं अनावस्था दोष का प्रयोजक है। किन्तु विजातीयव्यापार विशिष्ट में यदि व्यापार का अन्वय मानें, तो उक्त आत्माश्रय अथवा अनवस्था नहीं होगी । स्व विजातीयव्यापार परस्पर विभिन्न हैं, यतः आत्माश्रय का अवसर नहीं आवेगा। चूंकि उक्त विजातीय व्यापार का ज्ञान द्वितीयादि विभक्ति स्वरूप प्रत्यय से ह्रां हो जायगा, इस लिये इस पक्ष में ‘अनवस्था’ का भी कोई अवकाश नहीं है। इस आक्षेप का यह उत्तर है कि ) भावना के अन्वय की योग्यता भावना से उत्पन्न होनेवाले पाकादि के कर्त्तानों में ही है। अतः भावना स्त्रोत्पाद्य पाकादि के कर्ताओं में ही अन्वित होगो । इस लिये प्रकृत भावना से अनुत्पाद्य किसी दूसरी भावना से युक्त कर्त्ता भावना के अन्वय के प्रयोग्य है । क्योंकि घटानुकूल व्यापार से पाक की उत्पत्ति नहीं होती है । इस लिये कर्मस्व करणात्वादि स्वरूप विजातीय व्यापारविशिष्ट में भावना का अन्वय नहीं हो सकता, क्योंकि भावना में कर्तृव रूप व्यापार विशिष्ट में ही भन्वित होने की योग्यता है । तस्मात् यह स्वीकार करना होगा कि जिसकी उपस्थिति प्रथमान्त पद से होगो, उसी में भावना का प्रन्वय होगा । अर्थात् प्रथमान्त पदोपस्थाप्यत्व ही भावना के अन्वय का प्रयोजक धर्म है । . एवं इस पक्ष में ‘अनवस्था’ दोष भी होगा, क्योंकि व्यापार का अन्वय यदि किसी दूसरे व्यापार विशिष्ट के साथ होगा, तो उसके लिए उक्त ‘व्यापारावर’ का ज्ञान आवश्यक होगा। फिर इस ‘व्यापारान्तर’ के अन्वय बोध के लिये किसी अन्य ‘पापारान्तर’ का ज्ञान मी अपेक्षित होगा । अतः इस पक्ष में अनवस्था हो जायगी ।
{ – ७८ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली यथा हि चैत्रो न गौर, न स्पन्दते, न कुण्डलीत्यादौ विशेषणविशेष्यसम- भिव्याहाराविशेषेऽपि नत्रा तदनभिधानाविशेषेऽपि नत्रर्थस्य विशेषणांशैरेवान्वयो न विशेष्यांशेन । · ननु बाधात्तत्र तथा । न हि विशेष्येण तदन्वये विशेषणोपादानमर्थं वाद्भवेत्ः तन्निषेघेनैव विशेषरण निषेधोपलब्धेः । उभयनिषेधे चावृत्तो वाक्यभेदात्, अनावृत्ती निराकाङ्क्षत्वादिति चेन्न । तुल्यत्वात् । समानप्रत्ययोपात्तभावनाऽऽक्षिप्तान्वयोपपत्तो बाधकं विना सन्निहितत्यागे व्यवहितपरिग्रहस्य गुरुत्वात् । यथा हि … यदि यह नियम निष्पन्न हो जाता है कि ‘प्रथमान्त पदोपस्थाप्य पदार्थ में ही भावना का अन्वय हो’ तो फिर भावनानुगामिनी संख्या का अन्वय भी प्रथमान्त पदोपस्थाप्य पदार्थ में हो होगी। फलतः कर्तृत्वादि विशेषण विशिष्ट में ही भावना का अन्वय इष्ट है । जैसे कि ‘चैत्रो न गौर।’ इत्यादि स्थलों में चैत्रत्व स्वरूप विशेषण के विशेष्य चैत्र में ही गौरत्व ब्राह्मणत्वादि धर्मों का निषेध होता है, उस से चैत्रस्व स्वरूप विशेषण के निषेध का बोध नहीं होता है । उसी प्रकार प्रकृत में भी समझना चाहिये । पू० प० ननु बाधात् ‘चैत्रो न गौरा’ इत्यादि स्थलों में चैत्रस्व स्वरूप विशेषण के ‘विशेष्य’ चैत्र का प्रभाव चूंकि बाधित है ( क्योंकि चैत्र की सत्ता है) इसी लिए ‘नन’ का अन्वय गौरत्वादि विशेषणांशों में होता है । तथापि यदि साग्रहवश ‘नन’ का अन्वय चैत्र स्वरूप विशेष्य में हो वदूत गौरत्वादि स्वयं निषिद्ध हो जांयगे, उसके लिये गौरः, ही करेंगे, तो इस निषेध से ब्राह्मणः, इत्यादि विशेषण बोधक पदों के प्रयोग ही व्यर्थ हो जांयगे । यदि उक्त वाक्यों से चैत्र स्वरूप विशेष्य एवं उसके गौरत्वादि विशेषण दोनों के निषेध का बोध वह ‘वाक्यभेद’ स्वीकार किये बिना संभव नहीं होगा । एवं विभिन्न कल्पना ‘नव’ आवृत्ति के बिना संभव ही नहीं है । क्योंकि नत्र की अभिप्रेत हो, तो निषेध वाक्यों की श्रावृत्ति के बिना वे वाक्य निराकांक्ष ही रहेंगे । अतः नन घटित वाक्यों का दृष्टान्त प्रकृत में अनुकूल नहीं है । सि० प० न, तुल्यत्वात् उक्त कथन ठीक नही है, क्योंकि भावना एवं संख्या ये दोनों एक ही तिप् प्रत्यय के अर्थ हैं । इन में से भावना के द्वारा आक्षिप्त कर्त्ता में ही जब भावना के वाचक आख्यात के अर्थ संख्या का अन्वय संभव है, तो ‘उक्त रीति’ से समीपवर्ती कर्तृ कारक को छोड़कर व्यवहित (दूरवर्ती ) कर्म करणादि कारकों में उक्त संख्या के अन्वय की कल्पना गौरव दोष का भाषायक होगी ।
1- पश्चम स्तबका GET भावनायाश्च सामान्याक्षेपेऽपि साकाङक्षपरित्यागेन निराकाङ्क्षान्वयानु- पपत्तेः । न ह्यन्यतराकाङ्क्षा प्रन्वयहेतुः, अपि तूभयाकाङक्षा । प्रातिपदिकार्थों हि फलेनान्वयमलभमानः क्रियासम्बन्धमपेक्षते । भावनाऽपि व्यापारभूता सती व्यापारिणमित्युभयाकाङक्षा अन्वयहेतुः । कटं कटेनेत्यादि तु कारकतयेव फलसमन्वितं न व्यापारान्तरमपेक्षते इति निराकाङक्षमिति । श्रत एवास्यते सुप्यते इत्यादी नाक्षिप्तेनान्वयः । न हि चैत्रेणेति तृतीयान्त- शब्दस्य भावनायामाकाङ क्षाऽस्ति । भावनायाश्च …… ( इस प्रसङ्ग में प्रवन हो सकता है कि ‘भावना से कर्तृ कारक का ही आक्षेप क्यों ? कर्म करणादि कारकों का आक्षेप क्यों नहीं ? इस का यह समाधान है कि ) जिस प्रकार भावना नियमतः कर्तृ साकांक्ष है, उसी प्रकार कर्मकरणादि साकांक्ष नहीं है । इस वस्तुस्थिति के अनुसार भावना से जब उसके अन्वयी का आक्षेप सामान्य रीति से होगा, तब निराकांक्ष कर्मकरणादि कारकों के साथ अम्वय की अनुपपत्ति से परिशेषात् कर्त्ता में ही भावना का अन्वय होगा । अतः भावना से कर्त्ता का ही आक्षेप होना उचित है। क्योंकि उभयाकांक्षा ही अन्वय का नियामक है, अन्यतराकांक्षा अन्वय का नियामक नहीं है । प्रातिपदिकार्थ स्वरूप चैत्रादि क्रिया के साथ सम्बद्ध होने की प्राकांक्षा रखते है । भावना व्यापार स्वरूप होने के कारण आश्रय की अपेक्षा ( आकांक्षा ) रखती है । ( प्रातिपदिकार्थ की क्रियाकांक्षा श्रीर भावना की आश्रयाकांक्षा ) इन दोनों ही प्राकांक्षाओंों के बल से भावना कर्त्ता में ही भवित होती है । कटम्, कटेन इत्यादि पदों को द्वितीया अथवा तृतीया स्वरूप कारक विभक्ति से फल के साथ हो व्यापार की उपस्थिति होती है । अतः वे विभक्तियां किसी दूसरे व्यापार की आकांक्षा नहीं रखतीं । श्रतः कर्म करणादि कारकों में भावना का अन्वय नहीं होता है । इसीलिये केवल कटम् प्रथवा कटेन इत्यादि प्रयोग निराकांक्ष होने के कारण प्रामाणिक हैं । चूंकि उभयाकांक्षा ही प्रन्वय का नियामक है ‘अत एव ’ ‘आस्यते’ ‘सुप्यते’ इत्यादि स्थलों में प्राक्षिप्त पदार्थ के साथ उस रीति से स्वापादि स्वरूप भावनाओं का अन्वय नहीं होता है, जिस रीति से ‘स्वपिति’ इत्यादि स्थलों में होता है । क्योंकि ‘चैत्रेण’ यह तृतीयान्त कर्तृ बोधक पद भावना साकांक्ष नहीं है । अतः इन स्थलों में ‘उभयाकांक्षा’ नहीं है । CCO. Vasishtha Tripathi Collection. Digitized by eGangotri०५० गद्यपद्यात्मक- “मायकुसुमा झले। भाव्याकाङक्षाऽस्तीति चेन्न । फलेन शयनादिधात्वर्थेनान्वयात् । फलसंबन्धिन- मात्र कनतिरेकात् । न हि शयनादयो धात्वर्थाः कर्त्रतिरेकिसंबद्धाः । न च फलतरसम्बन्धिव्यतिरेकेणान्यो भाव्यो नाम, यमपेक्षेत । पू० प० भाव्याकांक्षा … कथित ‘क्षेत्रेण’ पद को भावना की आकांक्षा भले ही न रहे, किन्तु ‘भाव्य’ की प्राकांक्षा अर्थात् भावना से उत्पन्न होनेवाले फल की प्राकांक्षा तो प्रवश्य है । सि० प० न, फलेन हि तु क प्रय पू० सि उक्त कथन भी ठीक नहीं है क्योंकि पहिले यह जानना चाहिये कि भावना से उत्पन्न होनेवाला वह ‘भाग्य’ कौन सा पदार्थ होगा ? यदि ‘फल’ को ‘भाग्य’ मानें, तो ‘सुप्यते’ इस स्थल में तो वह फल ‘स्वाप’ हृीं है, तो फिर कर्त्ता ही उसका प्राश्रय है, वह कर्ता तो चैत्र पद से ही अभिहित है। फल एवं तत्सम्बन्धी पदार्थ इन दोनों से भिन्न प्रकृत में कोई ‘भाव्य’ नहीं हैं, जिसकी प्राकांक्षा ‘चैत्रेण’ इस तृतीयान्त पद को रहे । ( ‘चैत्रेण’ इस तृतीयान्त पद से कर्त्ता के उक्त होने के कारण कर्त्ता की आकांक्षा भले ही न रहे, फिर भी ‘भाव्य’ को भावना से उत्पन्न होनेवाले फल की प्राकांक्षा तो हो ही सकती है । उस प्राक्षिप्त फल में ही आख्यातार्थ संख्या का अन्वय होगा ) | सि० प० न च फलतरसम्बन्धिनः उक्त कथन भी ठीक नहीं है, क्योंकि अकर्मक धातुओंों का धात्वर्थ को छोड़ कर कोई दूसरा फल नहीं होता । कथित चाश्वर्थं स्वरूप फल का सम्बन्ध तो कर्त्ता में ही है, कर्ता ही शयनादि रूप धात्वर्थ का सम्बन्धी है । फलतः अकर्मक धातुक स्थल में घात्वर्थ स्वरूप फल, एवं कर्त्ता स्वरूप उसके सम्बन्धी, इन दोनों को छोड़ कर कोई तीसरा ‘भाव्य’ नहीं हो सकता, सुप् धातु के साथ प्रयुक्त माख्पात के अर्थ भावना को जिसकी प्राकांक्षा हो । अतः ‘सुप्यते’ पद में प्रयुक्त आख्यात के अर्थ संख्या का अन्वय घारवर्ग में ही होना उचित है, क्योंकि कर्त्ता में संख्या का अन्वय होना संभव नहीं है, कर्म कारक वहीं है ही नहीं । तस्मात् प्रकर्मक धातु से भाव में निष्पन्न केवल ‘सुप्यते’ प्रभृति स्थलों में घात्वर्ण में ही आरूपातार्थ संख्या का अन्वय होना उचित है । फर बो को की लि क प्रय अ १.
पञ्चमः स्तबका ७५१ स्यादेतत् । किमिति न प्रयुज्यते कटः करोति चैत्रमित्यादि, श्रभिहितानभि- हितव्यवस्थाsभावादिति चेत, न । चैत्रमिति प्रथमान्तस्यासाघुत्वात्, द्वितीयान्तस्य तु कर्मवचनत्वेन तरसंबन्धाद्वाध्यानपेक्षरणी भावना भावकमात्रमपेक्षेत । न च कटस्य चैत्रं प्रति भावकत्वम् विपर्ययात् । अनाप्तेन तु विवक्षायां प्रयुज्यत एव । प्रयुज्यतां तहि ‘कटं करोति चैत्र’ इत्यादि । पू० प० स्यादेतत् किमिति तो फिर ‘कट: चैत्रम् करोति’ इत्यादि श्राकार के प्रयोग क्यों न हों ? सि० प० न, चैत्रम् प्रथमा विभक्ति में ‘चैत्रम् ’ ऐसा प्रयोग निष्पन्न नहीं होता, द्वितिया विभक्ति में ही ‘चैत्रम्’ यह प्रयोग साधु है । द्वितीयान्त ‘चैत्रम्’ पद कर्मस्व विशिष्ट चैत्र का वाचिक है । फलतः द्वितिया विभक्ति कर्मत्व वाचिका है । इस लिये द्वितिया विभक्ति से ही कर्मस्व का बोध हो जायगा । अत: कर्मस्व भावना साकांक्ष नहीं है । सुतराम प्रकृत स्थल में भावना को भी ‘भाग्य’ फल की आकांक्षा नहीं है, किन्तु भावना को अपने जनकी भूत ‘भावक’ की आकांक्षा है । ‘कट’ चैत्र का ‘भावक’ नहीं है, बल्कि चैत्र ही कट का ‘भावक’ है । इस लिये ‘चैत्रम् कटः करोति’ ऐसा प्रयोग न होकर ‘चैत्र] कटं करोति’ यही प्रयोग आप्तगण करते हैं। अनाप्तों का समुदाय तो ‘चैत्रम् चैत्रेण कट कटेन करोति इत्यादि सभी प्रकार के प्रयोग करता ही है । पू० प० प्रयुज्यताम् तर्हि - यदि इतना ही आवश्यक है कि कर्ता में विहित आख्यात स्थल में कर्तृपद प्रथमान्त अवश्य हो तो फिर ‘चैत्रः कटः करोति’ इस प्रकार का प्रयोग भी हो ? अर्थात् ‘चैत्रम्’ इस पद से कर्तृव के उक्त न होने पर भी यदि उस में धाख्यातार्थ संख्या का अन्वय हो सकता है, तो फिर इसका नियामक कौन है कि उक स्थक्ष में चैत्र पद से प्रथमा विभक्ति ही हो । जहाँ कर्त्ता उक्त हो वहाँ कर्त्ता में ही प्रारुपातार्थ संख्या का अन्वय हो, जहाँ कर्म उक्त रहे, वहाँ कर्म में ही संख्या का अन्वय हो । वैयायकरणों के इस मत का खण्डन अभी तक इस अभिप्राय से हुआ है कि यह ठीक है की संख्या का अन्वय क्रमसे ही हो, किन्तु उसका प्रयोजक कर्म या कर्ता का अभिहितत्व अथवा अनभिहितत्व नहीं है, किन्तु परस्पराकांचा उसका प्रयोजक है। इसी पर ‘किमिति’ इत्यादि से मीमांसकों ने प्रश्न किया है ।
७५२ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाजली न, नित्य सन्दिग्धत्वेन वाक्यार्थासमपंकत्वात् । ततस्तदुपपत्तये विशेषस्य व्यञ्जनीयत्वात् । व्यज्यतां तर्हि तृतीयया चैत्रेणेति, एवं देवदत्तः क्रियते कटमिति व्यज्यतां द्वितीययेति चेन्न । छप्रयोगात् । न ह्यनाप्तेनाऽप्येवंप्रायाणि प्रयुज्यन्ते । लक्षणाविरोधेन कुत एतदेवेति चेत्; लोकस्यापर्यनुयोज्यत्वात् । न हि गार्गिकयेति पदं साध्विति श्लाघाऽभिघायिपदसन्निधिमनपेक्ष्य प्रयुज्यते । सि० प० न, नित्य सन्दिग्धत्वेन " से निश्चयात्मक बोध को उत्पन्न करने वाला वाक्य ही प्रमाण होता है । प्रकृत वाक्य यह निर्णय नहीं होता कि ‘उक्त वाक्य से चैत्र कर्तृक कट कर्मक बोध अभिप्रेत है ? अथवा कट कर्तृक चैत्र कर्मफ बोध दृष्ट है ? अतः उक्त वाक्य संशयोत्पादक होने के कारण अप्रामाणिक है । पू० प० व्यज्यताम् … कर्त्ता में तृतीया विभक्ति भी तो होती है । उक्त वाक्यों में यदि चैत्र पद का तृतीयान्त ‘चैत्रेण’ यह पद रखें, एवं कर्म बोधक कट पद को प्रथमान्त ही रहने दें, तथापि तृतीया विभक्ति से चैत्र गत कर्तृत्व का निःसन्दिग्ध बोध तो होगा ही । ऐसी स्थिति में ‘चैत्रेण कट: करोति’ इस प्रयोग में कौन सी बाघा है ? यदि द्वितीया विभक्ति को ही कर्मस्व का बोधक मानें, तो यद्यपि ‘चैत्रः कटः करोति’ इस आपन्न प्रयोग के कट पद से प्रथमा विभक्ति निरस्त की जा सकती है, तथापि ‘चैत्रः कटं’ क्रियते’ इस प्रयोग की प्रापत्ति रहेगी । न, अप्रयोगात्… उक्त कथन भी ठीक नहीं है, क्योंकि ‘चैत्रः कटं क्रियते’ यह प्रयोग शिष्टानुमोदित नहीं हैं, मतः उक्त प्रकार का प्रयोग नहीं होता है । अनाप्त पुरुष भी इस प्रकार का प्रयोग नहीं करते । तब रही बात ‘लक्षण’ की अर्थात कथित युक्ति से जब उक्त प्रकार के प्रयोग हो अनुमोदन क्यों प्राप्त नहीं है ? इस प्रश्न सकते हैं, तो उक्त प्रकार के प्रयोगों को शिष्टों का का यही उत्तर है लोकानुमोदित व्यवहार के ऊपर किसी प्रकार का अभियोग नहीं किया जा सकता । जैसे कि ‘गार्गिकया’ पद व्याकरण से निष्पन्न होने पर भी ‘श्लाघा’ के बोधक ‘प्रकाषते’ प्रभुति पद के बिना उसका प्रयोग शिष्ट लोग नहीं करते ।
प्र ( f f f f पञ्चमा स्तबका । ७५३ तस्य तदुपाधिनेव विहितत्वादिति चेत्, एतदेव कुत: ? । लोके तथैव प्रयोगदर्शनादिति चेत्; तुल्यम् । करोतीत्यादिकर्मविभक्तिसमभिव्याहारेणैव प्रयुज्यते, क्रियते इति कर्तृ विभक्तिसमभिव्याहारेणैवेति किमत्र क्रियताम् ? इममेव विशेषमुररीकृत्यानभिहिताधिकारानुशासनेन ह्य ेतावान् परामशं सर्वेष हृदि पदमादघातीत्यभिधानानभिधान विभाग एव व्युत्पादनदशायां पेशल इति । पू० प० तस्य तदुपाधिनेव… श्लाघा पद का समभिव्याहार रहने पर ही ‘गोत्रचरणाच्छ्लाघा विक्षेपतदवेतेषु ( ५ - १ - १३४ ) इस पाणिनि सूत्र के अनुसार ‘गार्गिका’ पद निष्पन्न होता है । तदनुसार ही ‘गागिकया प्रलाघते ’ इत्यादि प्रयोग होते हैं । किसी अन्य पद के समभिव्याहार में ‘गार्गिका’ शब्द का प्रयोग नहीं किया जाता । इस लिए उक्त दृष्टान्त उचित नहीं है । सि० प० एतदेव इस प्रसङ्ग में यही पूछना है कि ‘ऐसा विधान ही क्यों है कि ‘श्लाघते ’ प्रभुति पदों का संनिधान रहने पर ही से ‘वुण्’ प्रत्यय हो ? अन्य पदों के संनिधान रहने पर नहीं । पू० प० लोके तथेव - शिष्ट जनों के द्वारा ‘लोक’ में ‘गार्गिका’ शब्द चूकि ‘श्लाघते’ प्रभूति पदों के साथ ही प्रयुक्त होता आया है, अन्य पदों के साथ नहीं । इसी लिये उक्त प्रकार का विधान किया गया है । सि० प० तुल्यम्, करोतीत्यादि… तो फिर प्रकृत में भी समान न्याय से यही कहा जा सकता है कि ‘करोति’ प्रभूति पद चूँकि कर्म में विहित द्वितीया प्रत्यय से युक्त ‘कटम् प्रभूति पदों के साथ ही ‘लोक’ में शिष्ट जनों के द्वारा प्रयुक्त होते हैं, एवं ‘क्रियते’ प्रभृति पद कर्ता में विहित तृतीया विभक्ति से युक्त चैत्रेण प्रभृति पदों के साथ ही लोक में शिष्ट जनों के द्वारा प्रयुक्त होते हैं। इसके लिये क्या किया जाय ? इममेव… ‘करोति’ पद से युक्त इस सन्दर्भ के द्वारा जो विषय विभाग पूर्वक उक्त नियम किया गया है, वही ‘अभिहिताधिकारी’ अनुशासन का तात्पर्य है । इत्यभिधानानभिधान - वस्तुतः जैसे ‘रामः’ इत्यादि पद प्रखण्ड ही हैं। केवल बालक की व्युत्पत्ति के लिए ही प्रकृति प्रत्यय का विभाग उनमें किया जाता है । उसी प्रकार ‘चैत्रः कटं करोति’ चैत्रेण ६५
गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली स्यादेतत् । भवतु सर्वाख्यात्तसाधारणी भावना | कालविशेषसंबन्धिनी सा लडाद्यर्थः, कालत्रयापरामृष्टा लिङथं इति चेन्न । यत्नपदेन समानार्थश्वप्रसङ्गात् । विषयोपरागानुपरागाभ्यां विशेष इति चेत्, न । 1 कट: क्रियते इत्यादि वाक्य (प्रयोग) भी वस्तुतः प्रखण्ड एवं सिद्ध ही हैं । केवल बालक की व्युत्पत्ति के लिये ‘अभिहिताधिकारि’ अनुशासन प्रभूति भी हैं । तस्मात् जिस पद के साथ जिस पद का प्रयोग शिष्टों के द्वारा अनुमोदित हो, उस पद का प्रयोग उस पद के समभिव्याहार के बिना नहीं किया जा सकता । पू० प० स्यादेतत्’ भवतु.” लट् प्रभृति लकारों के स्थान में प्रादिष्ट तिवादि प्राण्यात प्रत्ययों का भावना ( प्रयत्न ) से भिन्न वर्त्तमानत्वादि भी अर्थ हैं । विधि प्रत्यय से किसी कालविशेष की प्रतीति नहीं होती है । अतः यत्न के सर्वाख्यात साधारण्य रहने पर भी यह विभाग किया जा सकता है कि वर्तमानत्वादि से सम्बद्ध प्रयत्न ( भावना ) लट् प्रभूति के लिये प्रादिष्ट तिवादि आख्यात प्रत्ययों का अर्थ है । कालत्रय से अपरामुष्ट ‘भावना’ लिङ लकार के स्थान में प्रदिष्ट तिवादि प्राण्यात प्रत्ययों का अर्थ है । अतः यह नहीं कहा जा सकता कि यत्न च कि सभी आख्यातों का सामान्य अर्थ है, अतः वह विधिप्रत्यय रूप विशेष आख्यात का पर्थ नहीं हो सकता । सि० प० यत्नपदेन
- 6.61 यदि विधि प्रत्यय को कालत्रय से प्रसंसृष्ट भावना का वाचक मानेंगे, तो विधि प्रत्यय में ‘यत्न’ पद की पर्यायता की आपत्ति होगी। क्योंकि ‘यत्न’ पद भी कालत्रय से प्रसंसृष्ट केवल ‘प्रयत्न’ का ही वाचक है । पू० प० विषयोपराग – विधि लिङ का प्रयोग चूकि वाजपेयादि ‘विशेष’ विषयों के साथ ही होता है, केवल लिङ प्रत्यय का कहीं प्रयोग नहीं होता है, अतः वाजपेयादि विशेष विषयोपरक्त ‘यत्न’ ही विधि प्रत्यय का वाच्य अर्थ है । ‘यत्न’ पद तो विषयानुपरक्त केवल यत्न का ही वाचक है, पता दोनों में पर्यायस्व की आपत्ति नहीं है । १. प्रकृत में मुख्य रूप से यह विचार किया गया है कि कर्ता के प्रयत्न रूप धर्म को इस लिये विधि प्रत्यय का अर्थ नहीं माना जा सकता कि प्रयत्न चूँकि जद् प्रभृति सभी आस्पात प्रत्ययों का अर्थ है। इसी प्रसङ्ग को ‘भवतु’ इत्यादि से पुना उठाया गया है । f f ह ब f हं क f CCO: Vasishtha Tripathi Collection. Digitized by eGangotri नी
पश्चमः स्तबका ७५५ कौं के ना की या के कि का वि य न’ है, म दु ना यागयत्न इत्यनेन पर्यायताssपत्तेः । पर्यायताऽऽपत्तेः । कर्तृ सङ्ख्याऽभिधानानभिघानाभ्यां विशेष इति चेन्न । यागयत्नवानित्यनेन साम्यापत्तेः । इष्ट एवायमर्थं इति चेत् ? न, इतो वत्सरशतेनाप्यत्रवृत्तेः । फलसमभिव्याहाराभावान्न प्रवर्तत इति चेत् । सि० प० न, यागयत्न … यद्यपि उक्त रीति से केवल ‘यस्न पद’ के साथ विधिप्रत्यय की पर्यायता को प्रापत्ति हट जाती है, फिर भी ‘यागयत्न:’ इस विषयोपरक्त यत्नवाचक पद के साथ ‘विधिप्रत्यय’ की पम्पयता की आपत्ति होगी ही । क्योंकि ये दोनों ही विषयोपरक्त यत्न के वाचक हैं | अतः उक्त समाधान भी ठीक नहीं है । पू० प० कत्तु संख्या- विधि प्रत्यय ‘यत्न’ के समान ही ‘कर्तृ’गत संख्या’ का भी वाचक है । ‘यागयत्न’ पद केवल ‘यत्न’ का ही वाचक हैं, कर्तृगत संख्या का नहीं । अतः एकबार प्रयुक्त विधि प्रत्यय से अभिधा वृत्ति के द्वारा जितने अर्थो का बोध होता है, ‘यागयत्न’ पद से उन से न्यून अर्थ का बोध होता हैं, अतः इन दोनों में भी पर्यायत्व को आपत्ति उचित नहीं है । सि० प० न… उक्त रीति से ‘या गयला’ शब्द के साथ ‘विधित्रत्यय’ को पर्यायता की मापत्ति भले ही छूट जाय, फिर ‘यागयत्नवाद’ इस पद के साथ विधि प्रत्यय के पर्यायस्व की आपत्ति होगो, जो उक्त युक्ति से नहीं हटेगी। क्योंकि ‘यागयत्नवान्’ इस पद में जो प्रथमा विभक्ति है, उस से कर्तृगत संस्था का, एवं ‘यागयत्न’ पद से ‘यागविषयक प्रयत्न’ का एवं अखण्ड ‘मागयत्नवान्’ इस पद से दोनों का ही बोध होता है । पू० प० इष्ट… पर्यायत्व की इस आपसि को (इष्ट) स्वीकार कर लेंगे । सि० प० न, इतः ….. यह भी संभव नहीं है, क्योंकि ऐसा स्वीकार करने पर जिस प्रकार विवि श्रवण के बाद प्रवृत्ति की उत्पत्ति होती है, उसी प्रकार विविप्रत्यय के समानार्थक ‘यागयलवान्’ इस पद को सुनने के बाद भी प्रवृत्ति माननी होगी । किन्तु यह तो सौ वर्षों में भी संभव नहीं है | अतः उक्त पर्यायत्वापत्ति को इष्ट नहीं किया जा सकता । पू० प०, फल ‘यजेत’ प्रभूति विधिप्रत्ययान्त पदों को चूंकि ‘स्वर्गकाम’ प्रभृति पदों का समभि- व्याहार रहता है, घनः उनसे प्रवृत्ति होती है। किन्तु ‘यागयत्नवान्’ इस पद को फोक
७१६ गद्यपद्यात्मक-म्यायकुसुमाञ्जली स्वर्गकामो यागयत्नवानित्यतोऽप्यप्रवृत्तेः । तत् कस्य हेतो! ? । न हि यत्नो यत्नस्य हेतु, यत्नप्रतीतिर्वा यत्नस्य कारणम् अपि त्विच्छा । न च साऽपि प्रतीता यत्नजननी येन सेव विध्यर्थं इत्यनुगम्यताम्, अपि तु सत्तया । न च लिङः श्रुतिकाले सा सती । किसी पद का समभिव्याहार प्राप्त नहीं है, अतः इससे प्रवृत्ति नहीं उत्पन्न होती । मत। उक्त पर्यायत्वापत्ति को इष्ट करने में कोई बाधा नहीं है । सि० प० न, स्वर्गकामा ‘स्वर्गकामो यागयत्नवान्’ इस वाक्य से प्रवृत्ति की आपत्ति क्यों नहीं होगी ? अर्थात् उक्त युक्ति से केवल ‘यागयत्नवान्’ इस पद से प्रवृत्ति की आपत्ति का वारण किया जा सकता है। फिर भी ‘यागयत्नवान्’ स्वर्गकाम:’ इस वाक्य से ‘यजेत् स्वर्गकाम:’ इस वाक्य की तरह प्रवृत्ति की धापत्ति रहेगी ही । न हि यत्नो यत्नस्य’ न यत्न स्वयं ही प्रयत्न का कारण है, न प्रयत्न का ज्ञान ही प्रयत्ल का कारण है, किन्तु ‘इच्छा’ ही प्रयत्न का कारण है। वह इच्छा भी ज्ञात होकर प्रयत्न का कारण नहीं है कि इच्छा को हो विधिप्रत्यय का वाच्य अर्थ मान लें । इस लिये इच्छा को भी विध्यर्थं नहीं माना जा सकता । यहाँ यह धनुसंधान करना आवश्यक हैं कि ‘इष्टहाने: (श्लोक ८) इत्यादि श्लोक के द्वारा स्पन्द, यत्म, इच्छा प्रभृति कर्त्ता में रहने वाले धर्मों में विधि प्रत्यय की वाच्यता खडित हुई है। उन में से ‘यान’ के विध्यर्थत्व के गठन के प्रसङ्ग का ही यह दीर्घ प्रसन था । आगे ‘न च लिङ०’ इत्यादि सम्बभं से उक्त श्लोक के ‘असत्वात्’ इस वाक्य की व्याख्या आरम्भ होती है । अर्थात् कर्त्ता में रहनेवाला इच्छा स्वरूप धर्मं भी विधिप्रत्यय का अर्थ नहीं हो सकता, क्योंकि जिस समय लिङ प्रत्यय स्वरूप शब्द का श्रवण रहता है, उस समय उक्त इच्छा रूप कर्ता के धर्म की सत्ता नहीं रहती है । इच्छा स्वयं ही प्रवृत्ति का कारण है, अपने ज्ञान के द्वारा वह प्रवृत्ति का कारण नहीं है ( अर्थात् इच्छा- विषयक ज्ञान प्रवृत्ति का कारण नहीं है ) । इस लिये यदि लिड स्वरूप शब्द से इच्छा विषयक ज्ञान की उत्पत्ति हो भी क्योंकि परोक्ष ज्ञान के लिये विषय की सच्चा अपेक्षित नहीं है ) तथापि उस ज्ञान से प्रवृत्ति की संभावना नहीं है । क्योंकि इच्छा का ज्ञान प्रवृत्ति का कारण नहीं है, इच्छा ही प्रवृत्ति का कारण है । 5 व्या न वह हो प्र श जि स लि उत्त का वि न घ स्व ए नह इ भी १.
लो T ले T य 5 र्य न प 5 f 1 पञ्चमः स्तबका ७१७ न च लिङ्ग ेव तां जनयति । अर्थविशेषप्रत्याययन्त्यास्तस्यास्तजनकत्वे व्युत्पत्तिग्रहणवैयर्थ्यात् । अनुपलब्ध लिङाच्छानुत्पत्तिप्रसङ्गादिति । एतेन वृद्ध- व्यवहाराद्व्युत्पत्तिर्भवन्ती बालस्यात्मनि प्रवृत्तिहेतुर्योऽवगतस्तमेवाश्रयेत् । न च लिङव GOO यह कहना भी संभव नहीं है कि “जिस इच्छा से प्रवृत्ति की उत्पति होती है, वह इच्छा लिप्रत्यय से ही उत्पन्न होती है’ क्योंकि इस का इस स्वीकृति में पर्यवसान होगा कि “विधि स्वरूप शब्द किसी प्रर्थ विशेष विषयक ज्ञान स्वरूप व्यापार के द्वारा प्रवृत्ति का कारण नहीं है” किन्तु इस से यह जिज्ञासा ही व्यर्थ हो जायगी कि ‘विधिरूप शब्द की अभिधा शक्ति कहाँ है ? क्योंकि शब्द की अभिधावृत्ति उसी अर्थ में मानी जाती है, जिस का बोध किसी लक्षणा प्रभृति अन्य वृत्तियों के साहाय्य के बिना ही उस शब्द से हो सके । लिङ प्रत्यय यदि इच्छा का अभिघायक ( वाच्य ) हो, तभी उक्त रूप से इच्छा लिङ प्रत्यय का वाच्य अर्थ हो सकती है । लिङ को यदि इच्छा का उत्पादक मानें, तो उक्त कार्य नहीं हो सकता । अर्थात् विधिप्रत्यय इच्छा का बोधक ही हो सकता है, इच्छा का उत्पादक नहीं । तस्मात् इच्छा को यदि विधि प्रत्यय का अर्थ मानेंगे, तो ज्ञान के द्वारा विधिप्रस्यय में जो प्रवृत्ति की स्वारसिक कारणता है, वह भङ्ग हो जायगी । अनुपलब्धलिङ्गान … दूसरी बात यह है कि लिङ, से यदि इच्छा की उत्पत्ति होगी मी, तो लिङ विषयक श्रवण स्वरूप ज्ञान से युक्त पुरुष में ही होगी। ऐसा स्वीकार करने पर जिस पुरुष को लिङश्रवण स्वरूप ‘उपलब्धि’ नहीं हुई है, उस पुरुष में इच्छा की उत्पत्ति अनुपपन्न हो जायगी । एतेन कर्ता में रहने वाले इच्छा अथवा प्रयत्न रूप धर्म को केवल इसी लिये विध्यर्थ नहीं मानते हैं कि वे प्रवृत्ति के स्वयं कारण हैं, ज्ञात होकर वे प्रवृत्ति के कारण नहीं हैं । इसी युक्ति के अनुसार ‘संकल्प’ को ही विधि प्रत्यय का अर्थ स्वीकार करनेवाले पक्ष को भी निरस्त समझना चाहिये । 9. इस प्रसङ्ग में यह कहा जा सकता है कि लिख, रूप शब्द से ही इच्छा की उत्पत्ति मानेंगे । अतः जहाँ लिङ का श्रवण होगा, वहाँ इच्छा भी अवश्य उत्पन्न होगी । इस लिये इच्छा को विध्यर्थ मानने में जो ‘असव’ हेतु के द्वारा प्रतिषेध किया गया है, वह युक्त नहीं है । इसी युक्ति के खण्डन के लिये श्लोक में ‘प्रत्यय- त्यागात्’ यह वाक्य लिखा गया है । ‘न च लिव’ इत्यादि सन्दर्भ ‘प्रत्ययत्यागात् इस वाक्य की व्याख्या की भूमिका स्वरूप है
गञ्चपञ्चात्मक-न्यायकुसुमाञ्जको स्वयश्च कुर्यामिति सङ्कल्पादेवायं प्रवृत्तः, ततः स एव लिङथं इति निरस्तम् । कुर्यामिति प्रयत्नो वा स्यादिच्छा वा । नाद्यः स्वात्मनि वृत्तिधिरोधात् । न । द्वितीयः, सा हि सत्तयैव प्रयत्नोत्पादिनी, न च लिङः श्रुतिकाले सा सतीत्युक्तम् । फलेच्छा तु निसर्गवाहितया सत्यपि न प्रयत्नं प्रति हेतु:, अन्यविषयत्वात् । पू० प० वृद्धव्यवहाराद ‘संकल्प’ को ‘विषिप्रत्यय’ का अर्थ मानने वालों का कहना है कि वृद्धव्यवहार ही शक्ति का मुख्य नियामक है । अतः विधिप्रत्यय की शक्ति का निर्णय भी वृद्धव्यवहार से ही होगा । किन्तु जिस पुरुष को विधिप्रत्यय की शक्ति का ज्ञान नहीं है, वह भी पिपासाकुल होने पर जलानयादि कार्यों में प्रवृत्त होता है । क्योंकि उसे ज्ञात रहता है कि ‘कुर्याम्’ विधिश्रवण के बाद प्रयोजकवृद्ध की अग्नि इस आकार का संकल्प प्रवृत्ति का कारण है । होत्रादि विषयक प्रवृत्ति को देखकर उसे धारणा बन जाती है कि ‘कुर्याम्’ इस आकार का ‘संकल्प’ ही विधि प्रत्यय का अर्थ है । अतः संकल्प ही ‘विधि’ प्रत्यय का अभिषेय अर्थ है । सि० प० कुर्याम् ‘कुर्याम्’ इस शब्द से जिस ‘संकल्प’ की ओर संकेत किया गया है, वह प्रत्यय स्वरूप है ? (२) अथवा इच्छा स्वरूप है ? यदि उक्त ‘संकल्प’ को ‘प्रत्यय’ स्वरूप मानेंगे तो ‘स्वात्मनि वृत्तिविरोध’ की आपत्ति होगी । वर्षात् प्रयत्न कभी प्रयत्न का विषयक नहीं हो सकता । ( यही बात श्लोक के ‘विशेषतः’ पद से व्यक्त की गयी है ) । यदि उक्त ‘संकल्प’ को ‘इच्छा स्वरूप मानेंने तो लिङ श्रवणकाल में चुकि इच्छा की सत्ता नहीं है, एवं इच्छा स्वरूपतः स्वयं प्रवृत्ति का कारण है ज्ञात होकर नहीं, अतः प्रयत्न के द्वारा इच्छा से प्रवृत्ति की उत्पत्ति नहीं हो सकती । यह बात पहिले भी कहीं जा चुकी है । अत: ‘संकल्प’ भी विधिप्रत्यय का अर्थ नहीं हो सकता । फलेच्छा तु ( श्लोक के ‘संकरात्’ इस हेतु वाक्य के विवरण स्वरूप इस सन्दर्भ का अभिप्राय है कि पहिले फल की इच्छा उत्पन्न होती है, उसके अनन्तर तदनुकुल प्रयत्न उत्पन्न होता है । उसके बाद प्रवृत्ति की उत्पत्ति होती है, इस स्वाभाविक क्रम के अनुसार लिङ अवण के समय भी सुखादि स्वरूप मुख्य फलों की इच्छा अवश्य रहती है। इस फलेच्छा से यागादि उपाय विषयक प्रयत्नों की उत्पत्ति होगी । अतः ‘फलेच्छा’ ही विषिप्रत्यय का अर्थ है । किन्तु यह भी उचित नहीं है, क्योंकि ) यद्यपि यह स्वाभाविक है कि यागादि उपायों की इच्छा O ETT च स्व निय से फले सम उस प्रय त के की इस त स प्र के मा ए ज्ञ से य पञ्चमः स्तबका ONE
ही से ल ’ न 可 य का 0 T य r के तु तदर्थञ्च शास्त्रवेयर्थ्यात् । तस्याः कारणान्तरत एव सिद्धेः । तत्प्रतीत्यर्थमपि शास्त्रानपेक्षणात् । तस्या मनोवेद्यत्वात् । प्राप्ते च शाखानवकाशात् । तदभिधाने च स्वर्गकाम इति कर्तृविशेषण पौनरुक्तयात् । तदा हि यजेतेत्यस्यैव यागकर्त्ता स्वर्गकाम इत्यर्थः त्यात् । यदि च फलविषयैव साधनविषयं प्रयत्नं जनयेत्; अन्यत्रापि प्रसुवीत, नियामकाभावात् । से अव्यवहित पूर्वकाल में सुखादि फलों की इच्छायें प्रवश्य रहें। किन्तु केवल इसलिये फलेच्छा उपाय विषयक इच्छा का कारण नहीं हो सकती। क्योंकि समानविषयक इच्छा समानविषयक प्रयत्न का ही कारण है । घटविषयक इच्छा से घटविषयक प्रयत्न की ही उत्पत्ति हो सकती है, पटविषयक प्रयत्न की नहीं । दूसरी बात यह भी है कि फल विषयिणी इच्छा विधिप्रत्यय से उत्पन्न होगी ? अथवा ज्ञात होगी ? तदर्थन … विधिप्रत्यय से फलविषयिणी इच्छा उत्पन्न नहीं हो के प्रति तद्विषयक ज्ञान में जो कारणता क्लृप्त है, उसी से सकती, क्योंकि तद्विषयक इच्छा सुखादि फल विषयक इच्छात्रों की उत्पत्ति हो जायगी । इसके लिये विधि स्वरूप शास्त्र की कौन सी श्रावश्यकता है इस पक्ष में शास्त्र का वैयर्थ्य दोष अनिवार्य है । तत्प्रतीत्यथं 100 विधिप्रत्यय से फलविषयक इच्छा विषयक ज्ञान की उत्पति भी नहीं मानी जा सकती । क्योंकि इच्छा तो स्वभावतः मन स्वरूप प्रत्यक्ष प्रमाण बोध्य है। इसके लिये विधि- प्रत्यय रूप शब्द ( शास्त्र ) प्रमाण की कौन सी प्रावश्यकता है ? अन्य प्रमाणों से अज्ञेय पर्थो के ज्ञान के लिये ही शास्त्र स्वरूप शब्द प्रमाण की प्रावश्यकता होती है ? तथापि यदि माहवश सुखेच्छा को प्रर्थात् ‘फलेच्छा’ को विधि प्रत्यय का अर्थ मानेंगे, तो फल के बोषक एवं कर्त्ता में विशेषणीभूत ‘स्वर्गकाम:’ प्रभृति पदों का वैयर्थ्य दोष भा पड़ेगा। क्योंकि उनसे ज्ञाप्य अर्थों का ही बोध ‘विधि प्रत्यय’ से भी कहा गया है। फलत: इस पक्ष में ‘यजेत’ पद से बोध्य फलकामना के लिये प्रयुक्त ‘स्वर्गकाम:’ पद का वैयर्थ्य अनिवार्य है । यदि च … . ( इस प्रसङ्ग में कहा जा सकता है कि अन्वय पोर व्यतिरेक ये दोनों ही कारणत्व के नियामक है । फलेच्छा में उपाय विषयक प्रयत्न का अन्वय एवं व्यतिरेक ये दोनों ही T CCO. Vasishtha Tripathi Collection. Digitized by eGangotri७६० गद्यपद्यात्मक-श्यायकुसुमाञ्जली हेतुफलभाव एव नियामक इति चेत्, न । यदि हैं, तो फिर फलेच्छा को उपायविषयक इच्छा का कारण मानने में बाधा ही क्या है ? इस आक्षेप का यह समाधान है कि ) फल एवं उपाय ये दोनों ही परस्पर भिन्न दो वस्तुए हैं । अतः फलविषयक इच्छा में उपाय विषयक इच्छा की कारणता को स्वीकार करने का अर्थ है भिन्न विषयक इच्छा में भिन्न विषयक प्रयत्न की कारणता को स्वीकार करना, किन्तु ऐसा स्वीकार करने पर ‘अन्यत्र’ भी अर्थात् घटविषयक इच्छा में प्रयत्न की कारणता को स्वीकार करना होगा । किन्तु सो युक्त नहीं है । व्यर्थ है । ’ पू० प० हेतुफलभाव एव … भां पट विषयक ज्ञा स प्र प्र सि अतः उक्त आक्षेप फल स्वरूप भिन्न विषयक इच्छा को ही उपाय रूप भिन्न विषयक प्रयत्न का कारण मानते हैं । सुख फल है, एवं योग उसका उपाय, इसी लिये सुखेच्छा में यागविषयक प्रयत्न की कारणता को स्वीकार करते हैं । घटपटादि परस्पर निरपेक्ष वस्तुओं में ‘फलोपाय भाव’ नहीं है अर्थात् उनमें कोई एक दूसरे का फल अथवा उपाय नहीं है, अतः एक विषयक इच्छा से दूसरे निरपेक्ष विषयक प्रयत्न उत्पन्न नहीं हो सकता । प्रत ‘अन्यत्र’ भी जो कारणत्व की आपत्ति दी है, वह ठीक नहीं है । १. इच्छा भी अवश्य ही होगी । यह याग बाद नहीं होगी। सुतराम् स्वर्गादि समानविषयक प्रयत्न के प्रति समानविषयक इच्छा को कारण मानना आवश्यक है । एवं यह भी नियम है कि जिसको जिस विषय की इच्छा होती है, उसे उस विषय के साधन विषयक इच्छा भी अवश्य होती है । तदनुसार जिसे स्वर्ग की इच्छा होगी, उसे याग करने की विषयक इच्छा याग विषयक प्रयत्न के फलविषयक इच्छा को यदि याग स्वरूप उपायविषयक प्रयत्न का कारण स्वीकार भी करेंगे, तो फलविषयक इच्छा में यह कारणता यागविषयक इच्छा के उत्पादन के द्वारा ही आ सकेंगी । अर्थात् फलविषयक इच्छा से उपायविषयक इच्छा, एवं उपायविषयक इच्छा से उपायविषयक प्रयत्न — यही क्रम मानना होगा । ऐसी स्थिति में समानविषयकत्व मूलक न्याय के अनुसार उपायविषयक इच्छा को ही उपायविषयक प्रयत्न का कारण मानकर, फलविषयक इच्छा को उपायविषयक प्रयत्न का अभ्यथासिद्ध मानना ही उचित है। किन्तु पहिले कहा जा चुका है कि हिमवण के समय यागादिविषयक इच्छायें नहीं रहती हैं । इसलिये फलेच्छा स्वरूप- कर्तृधर्म अथवा उपायेच्छा स्वरूप कत्तु धर्मं इन दोनों में से कोई भी विधि प्रत्यय का अर्थ नहीं हो सकता ।
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5 पञ्चमः स्तबकः न, अज्ञातस्य तस्य नियामकत्वे लिङ विनाऽपि स्वर्गेच्छातो यागे प्रवृत्तिप्रसङ्गात् । ज्ञातस्य तु तस्साघनत्वस्य नियामकरवे तदिच्छेव तत्र प्रवत्र्त्तयतु । यो यत्कामयते स तत्साधनमपि कामयत एवेति नियमात् । न च सा तदानीं सती । न च तज्ज्ञानमेव प्रयत्नजनकम्, तच्च लिङा क्रियत इति युक्तम् । स्वर्गकामों यागचिकीर्षावानित्यतोऽपि प्रवृत्तिप्रसङ्गात् । सि० प० न, अज्ञातस्य तस्य … उक्त समाधान भी ठीक नहीं है, ‘इच्छा’ को ‘उपाय विषयक इच्छा’ का रूप से ज्ञायमान ‘वस्तु’ प्रभिप्रेत है ? आवश्यक नहीं है, किन्तु उसका ‘फलस्वरूप’ होना ही पर्याप्त है ? इनमें से द्वितीय पक्ष इस लिये प्रयुक्त है कि ) यदि प्रयत्न में विषय होनेवाले, उपाय के फल स्वरूप, स्वर्गादि फलों का फलत्व रूप से ज्ञात होना आवश्यक नहीं है, अर्थात यदि स्वर्गादि फलों को यागादि उपायों का फल होना ही पर्याप्त है, तो फिर विधि के बिना ही केवल स्वर्ग की इच्छा मात्र से याग में प्रवृत्ति माननी होगी । अतः इस पक्ष में विधिवाक्य के वैयर्थ्य की मापत्ति होगी । क्योंकि प्रथमतः यह प्रष्टव्य है कि जिस ‘फलविषयक उत्पादक कहा है, उसमें ‘फल’ शब्द से क्या फलत्व अथवा उस वस्तु का फलत्व रूप से ज्ञात होना ज्ञातस्य यदि यागादि उपायों के साध्य रूप से स्वर्गादि का ज्ञात होना आवश्यक हो, तो फिर मागविषयक प्रयत्न के लिये मागविषयक इच्छा को कारण मानना आवश्यक होगा । पू० प० न च तज्ज्ञानमेव फल की इच्छा उपाय के प्रयत्न का कारण भले ही न हो, किन्तु फलेच्छा विषयक ज्ञान तो उपाय विषयक प्रयत्न का कारण हो सकता है, एवं इसके द्वारा प्रवृत्ति का भी कारण हो सकता है । इस लिये फलेच्छा के ज्ञान को विधि प्रत्यय का वाथ्य ( अर्थ ) मानने मैं कौन सी बाधा है ? सि० प० स्वर्गकामा यह भी सम्भव नहीं है, क्योंकि ऐसा स्वीकार करने पर ‘स्वर्गकामो यजेत’ इस विधिवाक्य का बर्थ होगा ‘स्वर्गकामो यागचिकीर्षावात्’ । यदि ‘स्वर्गकामो यजेत’ इस वाक्य से प्रवृत्ति मानें, तो तत्समानार्थंक ‘स्वर्गकागो यागचिकीर्षावान’ इस वाक्य से भी प्रवृत्ति की उत्पत्ति माननी होगी। किन्तु ऐसी बात नहीं होती है । ९६ T ד दे र न चं 7
७६४ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जलौ अस्तु वहि कर्मधर्मः । नेत्युच्यते, प्रतिप्रसङ्गात्र फलं नापूर्व तत्त्वहानित: । तदलाभान्न कार्यश्च न क्रियाऽप्यप्रवृत्तितः ॥ १२ ॥ भी प्रवृत्ति माननी होगी। ऐसी स्थिति में जब किसी विशेष विषय के सम्बन्ध प्रयुक्त हो
- उक्त ज्ञान में प्रवृत्ति की उत्पादकता है, एवं वही ‘विशेषविषय’ विधि प्रत्यय का है, क्योंकि उसके सम्बन्ध से ही ‘ज्ञान’ ( इष्टसाधनत्व विषयक ज्ञान ) में प्रवृत्ति की जनकता है, इस लिये ‘इष्ट साधनत्व’ ही विधि प्रत्यय का अर्थ है, तस्मात् कर्त्ता में रहनेवाले किसी भी धर्म को विध्यर्थं नहीं माना जा सकता । तो फिर वह ‘विशेष विषय’ हो प्रवृत्ति का कारण है, ’ अर्थ है । वह ‘विशेष विषय’ इष्ट– ‘साधनत्व’ रूप ही- पू० प० प्रस्तु तहि ( यदि कर्ता में रहनेवाले ज्ञान, इच्छा प्रभुति धर्म विधि प्रत्यय के अर्थ नहीं हो- सकते तो फिर ) ‘कर्म’ में रहनेवाले धर्म को ही विधि प्रत्यय का अर्थ क्यों न मान लिया जाय । सि० प० न, प्रतिप्रसङ्गात् फलम् १. किन्तु यह भी संभव नहीं है, 100 इस स्तवक के थाठवें श्लोक के अवतरण में यह विक्ष्प किया गया है कि (१) कर्ता का धर्म विध्यर्थ हैं; अथवा (२) कर्म में रहने वाला धर्म ही विधि प्रस्थय का अभिधेय है १ (३) किं वा क्रिया गत धर्म ही विधिप्रत्यय का वाच्य है ? अथवा (४) नियोक्का में रहनेवाला धर्म ही विधिप्रत्ययार्थ है ? इनमें से अन्तिम पक्ष ही प्राचार्य को अभिप्रेत है। इसके लिये शेष तीनों ही पक्षों का स्वयडन आवश्यक है। अतः वें श्लोक से लेकर ११रहवें श्लोक पर्यन्त के प्रन्थ से कर्त्ता में रहनेवाले इच्छा, ज्ञान प्रभृति धर्मो का विध्यर्थस्व खण्डित हुआ है । इस श्लोक के द्वारा क्रमशः ‘कर्म धर्म’ का विध्यर्थत्व खडित हुआ है । प्रकृत में ‘कर्म’ पद के तीन अर्थ संभावित हैं । (१) ‘क्रियते इति कर्म’ इस व्युत्पत्ति के. अनुसार ही ‘स्वर्ग स्वरूप फल, ‘अपूर्व’ स्वरूप व्यापार, एवं ‘याग’ स्वरूप करण, ये तीनों ही ‘कर्म’ शब्द के अर्थ हो सकते हैं। प्रविशेषात् ‘कर्म’ पद बोध्य इन तीनों में ही विध्यर्थत्व आपन्न हैं । फलतः खण्डनीय विकरूपों के ये तीन स्वरूप निष्पन्न होते हैं. ।
f पंचम स्तबक E प्रतिप्रसङ्गान्न फलम् DOO क्योंकि यह निर्णीत हो चुका है कि विधि प्रत्यय के अर्थ को ज्ञात होकर प्रवृत्ति का उत्पादक होना प्रावश्यक है, अतः ‘स्वर्गगत कार्यत्व’ तभी विधि प्रत्यय का अर्थ हो सकता है, यदि उक्त ‘कार्यत्व’ का ज्ञान प्रवृत्ति का कारण हो । स्वर्ग स्वरूप फल के लिये लोग यागादि का अनुष्ठान करते है । अतः तद्विविषयक प्रवृत्ति का कारण याग विषयक ज्ञान ही हो सकता है । यदि स्वर्ग निष्ठ कार्यत्व विषयक ज्ञान को याग विषयक प्रवृत्ति का कारण मानें, तो इसका अर्थ है विभिन्न विषयक ज्ञान को विभिन्न विषयक प्रवृत्ति का कारण मानना । किन्तु ऐसा स्वीकार करने पर घट विषयक ज्ञान से पटविषयक प्रवृति की आपति स्वरूप ‘अतिप्रसङ्ग’ होगा । इसी ‘अतिप्रसङ्ग, के भय से स्वर्गं स्वरूप ‘फल’ निष्ठ कार्यस्व को विधि प्रत्यय का अर्थं नहीं माना जा सकता । 1. (१) स्वर्ग वृत्ति कार्यस्व विधि प्रत्यय का अर्थ है (२) अपूर्व निष्ठ कार्यत्व विधिप्रस्थय का अर्थ है । ( ३ ) यागादि गत कार्यत्व ही विध्यर्थ है । इनमें प्रस्तोक के प्रथम चरण से प्रथम पक्ष का खण्डन किया गया है। द्वितीय पक्ष का द्वितीय चरण से, एवं द्वितीय पक्ष पर छाये हुये अन्य अवान्तर विरोधों का तृतीय चरण से खण्डन हुआ है। चौथे चरण से तृतीय पक्ष खडित हुआ है । किन्तु इस प्रसङ्ग में कहा जा सकता है कि जिस ‘फल’ को जिस कारण का कार्य समझेंगे, उस कारण में प्रवृत्ति अवश्य होगी । घट पट का कार्य नहीं है, अतः घटज्ञान से पट में प्रवृत्ति नहीं होती है । किन्तु पिपाशोपशमन स्वरूप फल को जब बल प्रयोज्य समझते हैं, तो इस ज्ञान से जल में प्रवृत्ति अवश्य होती है । अता स्वर्ग स्वरूप फल को याग का कार्य समझने से बाग में जो प्रवृत्ति उत्पन्न होती है, उससे घट ज्ञान से पट विषयक प्रवृत्ति की आपत्ति स्वरूप ‘अतिप्रसङ्ग’ नहीं दिया जा सकता । किन्तु विध्यर्थं को ज्ञात होकर प्रवृत्ति को उत्पन्न करने की बात बनी हुई है। तदनुसार प्रकृत में ‘स्वर्गस्वरूपं कार्य यागजन्यम्’ इस आकार के स्वर्गनिष्ठ कार्यत्व विषयक ज्ञान का विषयभूत स्वर्गनिष्ठकार्यता में यागविषयक प्रवृति की कारणता माननी होगी। किन्तु मनुष्य असंख्य है, किसी को यह ज्ञान भी हो सकता है कि ‘स्वर्ग स्वरूपं कार्यम् चैत्यवन्दनादिजन्यम्’ अता केवल स्वर्गनिह कार्यत्व ज्ञान मात्र से प्रवृति मानने पर वस्तुता स्वर्ग के अकारण चैत्यवन्दनादि कार्यो में भी शिष्ट जनों की प्रवृति की आपरि रूप ‘अतिप्रसङ्ग’ होगा । इस लिये स्वर्गादि फल निष्ठ कार्यत्व को विधिप्रत्यय का अर्थ नहीं माना जा सकता 1
गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली std श्रस्तु तर्हि कर्मधर्मः । नेत्युच्यते, i प्रतिप्रसङ्गात फलं नापूर्वं तत्त्वहानित: । तदलाभान्न कार्यश्च न क्रियाऽप्यप्रवृत्तितः ॥१२॥ मी प्रवृत्ति माननी होगी। ऐसी स्थिति में जब किसी विशेष विषय के सम्बन्ध प्रयुक्त ही - उक्त ज्ञान में प्रवृति की उत्पादकता है, तो फिर वह ‘विशेष विषय’ ही प्रवृत्ति का कारण है,’ एवं वही ‘विशेषविषय’ विधि प्रत्यय का अर्थ है । वह ‘विशेष विषय’ इष्ट ‘साधनत्व’ रूप ही है, क्योंकि उसके सम्बन्ध से ही ‘ज्ञान’ ( इष्टसाधनत्वविषयक ज्ञान ) में प्रवृत्ति की जनकता है, इस लिये ‘इष्ट साधनत्व’ ही विधि प्रत्यय का अर्थ है, तस्मात् कर्त्ता में रहनेवाले किसी भी धर्म को विध्यर्थं नहीं माना जा सकता । पू० प० प्रस्तु तहि CED ( यदि कर्ता में रहनेवाले ज्ञान, इच्छा प्रभूति धर्म विधि प्रत्यय के अर्थ नहीं हो- सकते तो फिर ) ‘कर्म’ में रहनेवाले धर्म को ही विधि प्रत्यय का अर्थ क्यों न मान लिया जाय 1. सि० प० न, प्रतिप्रसङ्गात् फलम् किन्तु यह भी संभव नहीं है, इस स्तचक के
थाठवें श्लोक के अवतरण में यह विकल्प किया गया है कि (१) कर्ता का धर्म विध्यर्थ हैं; अथवा (२) कर्म में रहने वाला धर्म ही विधि प्रस्थय का अभिधेय है ? (३) किंदा क्रिया गत धर्म ही विधिप्रत्यय का वाच्य है ? अथवा (४) नियोक्का में रहनेवाला धर्म ही विधिप्रत्ययार्थ है ? इनमें से अन्तिम पक्ष ही आचार्य को अभिप्रेत है। इसके लिये शेष तीनों ही पक्षों का स्वयटन आवश्यक है। अतः वें श्लोक से लेकर ११रहवें श्लोक पर्यन्त के प्रन्थ से कर्त्ता में रहनेवाले इच्छा, ज्ञान प्रभृति धर्मो का विषयर्थश्व खण्डित हुआ है । इस श्लोक के द्वारा क्रमश: ‘कर्म धर्म’ का विध्यर्थत्व खडित हुआ है । प्रकृत में ‘कर्म’ पद के तीन अर्थ संभावित हैं । (१) ‘क्रियते इति कर्म’ इस व्युत्पत्ति के अनुसार ही ‘स्वर्ग स्वरूप फल, ‘अपूर्व’ स्वरूप व्यापार, एवं ‘याग’ स्वरूप करा, ये. तीनों ही ‘कर्म’ शब्द के अर्थ हो सकते हैं। प्रविशेषात् ‘कर्म’ पद बोध्य इन तीनों में ही विध्यर्थत्व आपन्न हैं । फलतः खण्डनीय विकल्पों के ये तीन स्वरूप निष्पन्न होते हैं. ।
f प्रतिप्रसङ्गान्न फलम् 200 क्योंकि यह निर्णीत हो चुका है कि विधि प्रत्यय के अर्थ को ज्ञात होकर प्रवृत्ति का उत्पादक होना आवश्यक है, मत: ‘स्वर्गगत कार्यत्व’ तभी विधि प्रत्यय का अर्थ हो सकता है, यदि उक्त ‘कार्यत्व’ का ज्ञान प्रवृत्ति का कारण हो । स्वर्ग स्वरूप फल के लिये लोग यागादि का अनुष्ठान करते है । अतः तद्विविषयक प्रवृत्ति का कारण याग विषयक ज्ञान ही हो सकता है । यदि स्वर्ग निष्ठ कार्यस्व विषयक ज्ञान को याग विषयक प्रवृत्ति का कारण मानें, तो इसका व्यर्थ है विभिन्न विषयक ज्ञान को विभिन्न विषयक प्रवृत्ति का कारण मानना । किन्तु ऐसा स्वीकार करने पर घट विषयक ज्ञान से पटविषयक प्रवृत्ति की प्रापति स्वरूप ‘व्यतिप्रसङ्ग’ होगा । इसी ‘अतिप्रसङ्ग, के भय से स्वर्गं स्वरूप ‘फल’ निष्ठ कार्यस्व को विधि प्रत्यय का अर्थं नहीं माना जा सकता । ’ १. (१) स्वर्ग वृत्ति कार्यस्व विधि प्रत्यय का अर्थ है (२) अपूर्वं निष्ठ कार्यत्व विधिप्रत्यय का अर्थ है । ( ३ ) यागादि गत कार्यत्व ही विध्यर्थ है । इनमें श्लोक के प्रथम चरण से प्रथम पक्ष का खण्डन किया गया है। द्वितीय पक्ष का द्वितीय चरण से, एवं द्वितीय पक्ष पर छाये हुये अन्य श्रावान्तर विरोधों का तृतीय चरण से खण्डन हुआ है। चौथे चरण से तृतीय पक्ष स्खण्डित हुआ है । किन्तु इस प्रसङ्ग में कहा जा सकता है कि जिस ‘फल’ को जिस कारण का कार्य समकेंगे, उस कारण में प्रवृत्ति अवश्य होगी । घटपट का कार्य नहीं है, अतः घटज्ञान से पट में प्रवृत्ति नहीं होती है । किन्तु विपाशोपशमन स्वरूप फल को जब जल प्रयोज्य समझते हैं, तो इस ज्ञान से जल में प्रवृत्ति अवश्य होती है । अता स्वर्ग स्वरूप फल को याग का कार्य समझने से बाग में जो प्रवृत्ति उत्पन्न होती है, उससे घट ज्ञान से पट विषयक प्रवृति की आपसि स्वरूप ‘अतिप्रसङ्ग’ नहीं दिया जा सकता । किन्तु विध्यर्थं को ज्ञात होकर प्रवृत्ति को उत्पन्न करने की बात बनी हुई है। तदनुसार प्रकृत में ‘स्वर्गस्वरूपं कार्य यागजन्यम्’ इस आकार के स्वर्गनिष्ठ कार्यत्व विषयक ज्ञान का विषयभूत स्वर्गनिष्ठकार्यता में यागविषयक प्रवृत्ति की कारणता माननी होगी। किन्तु मनुष्य असंख्य है, किसी को यह ज्ञान भी हो सकता है कि ‘स्वर्गं स्वरूपं कार्यम् चैत्यवन्दनादिजन्यम्’ अता केवल स्वर्गनिंष्ट कार्यत्व ज्ञान मात्र से प्रवृधि मानने पर वस्तुता स्वर्ग के अकारण चैत्यवन्दनादि कार्यों में भी शिष्ट जनों की प्रवति की मापरि रूप ‘अतिप्रसङ्ग’ होगा । इस लिये स्वर्गादि फल निष्ठ कार्यत्व को विधिप्रत्यय का अर्थ नहीं माना जा सकता ।
(२) नापूर्वं तस्वहानित। गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जको 1 ( श्लोक के उक्त द्वितीय चरण का अभिप्राय है कि ) यागजनित जिस ‘अपूर्व’ से स्वर्ग उत्पन्न होता है, उस अपूर्वनिष्ठ कार्यस्व को भी विधिप्रत्यय का अर्थ नहीं माना जा सकता । क्योंकि इससे ‘अपूर्व’ का ‘तस्व’ प्रर्थात् ‘अपूर्वस्व’ नहीं रह सकेगा । उसे ‘पपूर्व इस किये कहा जाता है कि शाब्दबोध से ‘पूर्व’ वह सर्वथा ‘अ’ज्ञात रहता है । यदि खपूर्ण निष्ठ कार्यस्व में विधिप्रत्यय का शक्ति मानेंगे, तो उस शक्तिज्ञान के लिये ‘अपूर्व’ का किसी भी प्रकार का ज्ञान पहले आवश्यक होगा । क्योंकि सर्वथा अज्ञात वस्तु में शक्ति का ग्रहण सम्भव नहीं है । तस्मात् प्रपूर्व के ‘तस्वहानि’ अर्थात् अपूर्वस्व की हानि रूप दोष के कारण अपूर्वश्व निष्ठकार्यत्व को विधि प्रत्यय का अर्थ नहीं माना जा सकता । (३) तदलाभान कार्यव 000 0.00 0 ( इस प्रसङ्ग में पूर्वपक्षी कह सकते हैं कि ‘अपूर्व’ का ‘अपूर्वस्व’ रूप से ज्ञात होने पर ही उसकी ‘अपूर्वता’ व्याहत होगी । अतः अपूर्वंत्व रूप से अपूर्व (निष्ठ कार्यता ) में विधिप्रत्यय की शक्ति नहीं मानते । किन्तु कार्यत्व रूप से ‘कार्य’ में ही लिङ पद की शक्ति मानते हैं। कार्यत्व रूप से कार्य तो पूर्वज्ञात ही है । अतः उसमें शक्ति का ज्ञान दुर्घट नहीं है । किन्तु शाब्दबोध में अकांक्षा से वशीभूत होकर ‘अपूर्व स्वरूप’ कार्य का ही भान होगा । सामान्य रूप से शक्ति गृहीत रहने पर भी विशेष रूप से शाब्दबोध में भान प्राकांक्षा के प्रभाव से माना जाता है । घट पद की शक्ति घटत्व स्वरूप सामान्य धर्म विशिष्ट में ही गृहीत रहने पर भी ‘घटेन जलमाहर’ इत्यादि वाक्य जन्य शाब्दबोध में छिद्रतरस्वादि विशिष्ट षटविशेष का हो मान होता है । अतः अपूर्व निष्ठ कार्यस्व में विविप्रत्यय की शक्ति मानने पर भी अपूर्व की अपूर्वता व्याहत नहीं होगी । अथवा कार्यस्वोपलक्षित अपूर्व में हो लिङ प्रस्थय को शक्ति मानते हैं । किन्तु शाब्दबोध पूर्वत्व विशिष्ट अपूर्व का हो होगा। किन्तु शक्तिज्ञान का आकार ‘कार्य विधिद्यक्यम्’ इसी आकार का होगा । जेसे कि ‘गन्धवती पृथिवो’ इस स्थल में गन्धवत्वोपलक्षित (गन्धोप- लक्षित) पृथिवो में ही पृथिवो पद की शक्ति गृहोत होती है । किन्तु शाब्दबोध में पृथिवित्व विशिष्ट पृथिवी ही मासित होती है । उसी प्रकार पहिले प्रपूर्वत्वविशिष्ट अपूर्व का ज्ञान न . रहने पर भी विधिप्रत्यय से प्रपूर्वस्व विशिष्ट अपूर्व का शाब्दबोध हो सकता है । इससे अपूर्व की अपूर्वता व्याहत नहीं होगी । इसी पक्ष का खण्डन श्लोक के तृतीय चरण से इस इस अभिप्राय से किया गया है कि ) (१) जिन यागादि कार्यों से उपाहत सिङ पद की शक्ति यदि कार्य में प्रपूर्व को उत्पति होती है तद्बोषक धातु समभि- स्वीकार करेंगे तो ‘अनूर्व’ का उक रीति से मान
पथम स्तबका ७६७ कर्म हि फलं वा स्यात्, तत्कारणमपूर्व वा, तत्कारणं क्रिया वा ? | न प्रथमः, फलेच्छायाः प्रवृत्ति प्रत्यहेतुत्वात्, प्रतिप्रसङ्गादित्युक्तत्वात् । न द्वितीयोऽ- म्युत्पत्तेः । प्रसम्भव होगा । तदकरण प्रयुक्त किसी प्रकार शाब्दबोध में हो भी सकता है । किन्तु नित्यकर्म के विधायक जो ‘अहरह। संध्यामुपासीत’ इत्यादि वाक्य हैं, उनमें प्रयुक्त लिङ पद से अपूर्व का बोध सन्ध्यावन्दनादि नित्यकर्मो से अपूर्व की उत्पति नहीं होती है, उनसे प्रत्यवायों की अनुत्पत्ति मात्र होती है । एवं ‘अष्टम्यां मांसं नाश्नीयात्’ वाक्यों में प्रयुक्त लिङ प्रत्यय से भी ‘अपूर्वं’ का बोष सम्भव नहीं है, क्योंकि अष्टमी तिथि में मांस के न खाने से किसी अपूर्व की उत्पत्ति नहीं होती है । इत्यादि निषेध अतः ‘तबलाभात्’ अर्थात् नित्यकर्म के विधायक वाक्यों के लिङ प्रत्यय से, एवं निषेध वाक्यों में प्रयुक्त लिङ् प्रत्यय से चूकि ‘प्रपूर्व’ का ‘लाभ’ सम्भव नहीं है, अतः कार्य सामान्य में लिख पद की शक्ति स्वीकार करके भो अपूर्वं निष्ठ कार्यत्व स्वरूप ‘कर्म के धर्म’ को विधिप्रत्यय का अर्थ नहीं माना जा सकता । (४) न, क्रियापि … ‘क्रिया निष्ठ कार्यस्व’ भी विधि प्रत्यय का अभिषेय नहीं हो सकता । क्योंकि विध्यर्थं के लिए यह आवश्यक है कि वह ज्ञात होकर प्रवृत्ति को उत्पन्न कर सके । जो बात होकर प्रवृत्ति का उत्पादक होगा, उसको इष्ट का साधक होना अनिवार्य है । अन्ततः इष्टसाधकत्व रूप से बात होना आवश्यक है ही, भले ही वास्तव में इष्ट का साधक न हो । याग स्वरूप ‘क्रिया’ में रहनेवाला ‘कार्यत्व’ न ज्ञात होकर प्रवृत्ति का कारण है, न प्रवृति से पहिले सर्वत्र इष्ट साधनत्व रूप से ज्ञात ही रहता है । अतः यागादि क्रियाओं में रहनेवाला कार्यस्व स्वरूप धर्म भी विधि प्रत्यय का अर्थ नहीं हो सकता । कर्म हि प्रकृत में ‘कर्म’ शब्द से (१) ‘स्वर्गादि’ स्वरूप चरम फल (२) उनके उत्पादक व्यापार स्वरूप कारण ‘प्रपूर्व’ अथवा (३) करण स्वरूप यागादि ये तीन ही लिये जा सकते हैं । तत्र न प्रथमः इन में से प्रथम पक्ष इस लिये असङ्गत हैं कि फलेच्छा को यदि प्रवृति का कारण मानेंगे तो ‘प्रतिप्रसङ्ग’ होगा, जिसका उपपादन किया जा चुका है । न द्वितीयः… लिङ शब्द की शक्ति यदि ‘अपूर्व’ में मानेंगे तो उसका प्रवृत्ति निमित्त (१) अपूवंत्व अथवा (२) मपूर्व में रहनेवाला कार्यत्व होगा ( ३ ) अथवा वे दोनों ही प्रवृत्तिनिमित्त होंगे । इन में यदि प्रथम पक्ष स्वीकार करेंगे तो ‘अपूर्व’ की अपूर्वता ही भंग हो जायगी । ‘मपूर्व’
७६८ ! गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाऊली लिङो हि वृतिनिमित्तमपूर्वश्वं वा स्यात् ? कार्यत्वं वा स्यात् ? उभयं वा ? | न प्रथमः । शब्दप्रवृत्तिनिमित्तस्या पूर्वत्वस्य प्रमाणान्तरादवगतावपूर्वत्वव्याघातात् । अन व गावच्युत्पत्तेः संबन्धिनोऽनवगमे संबन्धस्य प्रत्येतुमशक्यत्वात् । तत एवाव- गतावितरेतराश्रयदोषात् । न च गन्धवत्त्वेनोपनीतायां पृथिव्यां पृथिवीशब्दवत् प्रपूर्वे प्रवर्तते लिङिति युक्तम् । तत्रोभयोरपि प्रतीयमानत्वेन सन्देहे कल्पनागौरव- पुरस्कारेण पृथिवीत्व एव सङ्घतिविश्रान्तेरुपपत्तेः । न स्वत्रापूर्वत्वप्रतीतिः । शब्द का अर्थ है शाब्दबोध से पहिले किसी भी प्रमाण से प्रमित न होना । किन्तु यदि अपूर्व में विधि प्रत्यय की शक्ति मानेंगे, तो शक्तिज्ञान से पहिले ‘अपूर्व’ का किसी प्रमाण से ज्ञान मानना होगा । इस लिये अपूर्व विधि प्रत्यय का प्रर्थं नहीं हो सकता । यदि शक्तिमान से पहिले ‘मपूर्व’ किसी प्रमाण से गृहीत नहीं होगा, तो उसमें ‘व्युत्पत्ति’ अर्थात् विधि प्रत्यय रूप शब्द की शक्ति गृहीत ही नहीं हो सकेगी। क्योंकि शक्ति है, शब्द और अर्थ का विशेष प्रकार का सम्बन्ध रूप । ‘सम्बन्ध’ की प्रतीति के लिये उसके प्रतियोगी और अनुयोगी स्वरूप दोनों सम्बन्धियों का ज्ञान होना मावश्यक है । अता प्रकृत शक्ति स्वरूप सम्बन्ध के लिये विधिप्रत्यय स्वरूप एक सम्बन्धी एवं अपूर्व स्वरूप दूसरे सम्बन्धी, इन दोनों ही प्रतियोगी एवं मनुयोगी का ज्ञान प्रावश्यक है। इन के छोत हुए बिना शक्ति का ज्ञान संभव ही नहीं है। • यदि प्रकृत में विधिप्रत्यय स्वरूप शब्द से ही शक्ति के अपूर्व स्वरूप सम्बन्धी का ज्ञान मानेंगे, तो ‘प्रन्योम्याश्रय’ दोष होगा, क्योंकि शक्तिज्ञान से ‘अपूर्व’ का शाब्दबोधात्मक ज्ञान की उत्पत्ति, एवं शाब्दबोध से शक्ति ज्ञान की उत्पत्ति माननी पड़ती है । अत इस अम्योन्याश्रय दोष के कारण ‘अपूर्वस्व’ विधिप्रत्यय का प्रवृत्तिनिमित नहीं हो सकता । न च गन्धवत्वेन … … एवं ‘गन्धवती पृथिवी’ इत्यादि स्थलों में पृथिवीत्व विशिष्ट में एव गन्धविशिष्ट में दोनों में ही पृथिवी पद की शक्ति समान रूप से प्राप्त है । किन्तु प्रथम का शक्यतावच्छेक है पृथिवित्व जाति स्वरूप अखण्ड धर्म, एवं द्वितीय शक्यतावच्छेदक है ‘गन्ध स्वरूप सखण्ड धर्म, जत। पृथिविश्व विशिष्ट में शक्ति मानने में लाघव है, अतः पहिले से अज्ञात रहने पर भी पृथिवित्व विशिष्ट में पृथिवीपद की शक्ति मानी जाती हैं। प्रकृत में ऐसा कोई विनिगमक नहीं है । सत। पूर्व में मशात ‘अपूर्वत्वविशिष्ट प्रपूर्व व्यक्ति का ‘अलाम’ स्वरूप दोष ज्यों का त्यों रहेगा ।
वि f पञ्चमः स्तबक। ०६६ । । स्यादेतत् । कार्यस्वमुपलक्षणीकृत्य तावदेषा लिङ् प्रवृत्ता । तदुपलक्षितच यागो वा यत्नो वाऽन्यो वा शब्देतरप्रमाणगोचरो नाधिकारिविशेषणस्वर्गसाधन- समर्थः । न चाकाम्यफले कामी नियोक्तु शक्यते 15 ततोऽन्यदेवालौकिकं किञ्चिदनेनोपलक्ष्यते, यो लिङादिप्रवृत्तिगोचर इति किमनुपपन्नमिति चेत् | पू० प० स्यादेतत् कार्यत्वमुपलक्षणीकृत्य अपूर्वं निष्ठ कार्यत्व ही विधि प्रत्यय का अर्थ है । किन्तु भपूर्वः वृत्तित्व विशिष्ट कार्यत्व में शक्ति न मानकर साधारणतः कार्य वृत्तित्व विशिष्ट कार्यत्व व्यक्ति में ही विधिप्रत्यय की शक्ति मानेंगे । किन्तु कार्यस्व के आश्रयीभूत घटादि व्यक्तियों में स्वर्ग की साधनता बाधित है, अतः शाब्दबोध में स्वर्ग के साघनीभूत ‘प्रपूर्वं स्वरूप कार्य’ का ही भान होगा । केबल कार्यत्व में लिड प्रत्यय की शक्ति मानने से लिङ प्रत्यय से सभी कार्यों की प्रतीति की व्यापत्ति आती है, किन्तु शब्द प्रमाण से भिन्न प्रत्यक्षादि प्रमाणों के द्वारा ज्ञात; याग स्वरूप कार्य हो, प्रथवा तदनुकूल यत्न स्वरूप ही कार्य हो, अथवा घटादि स्वरूप कार्यं ही हों, इन में से कोई भी स्वर्ग का चरम कारण नहीं है । फलतः उक्त कार्यों से कोई भी स्वर्ग, के उत्पादन में पूर्ण समर्थ नहीं है । अतः कथित घटादि स्वरूप कार्य, प्रथवा केवल याग स्वरूप कार्य, किम्बा ‘तदनुकूल यत्न’ स्वरूप कार्यं, इनमें से किसी से भी ‘स्वर्ग कामना विशिष्ट’ कर्त्ता में विशेषणीभूत स्वर्ग का सम्पादन नहीं हो सकता । तथापि यदि उन्हीं कार्यों का शाब्दबोध में मान मानें, तो इन सब से जिस कार्य का संपादन होगा, उस कार्य की कामना से युक्त पुरुष ही तदनुकूल, कार्य में प्रवृत्त होगा, स्वर्गादि कामना से विशिष्ट पुरुष उन कामों में प्रवृत्त नहीं होगा । किन्तु प्रकृत में घटादि कार्यों से अथवा याग स्वरूप कार्य से उत्पन्न होनेवाले ( साध्य ) कार्य कर्ता पुरुष को काम्य ( प्रभीष्ट ) ही नहीं है । जिस को जिस कार्य की कामना नहीं है, उस पुरुष को उस कार्य में प्रवृत्त नहीं किया जा पुरुष सकता । अतः केवल कार्यत्व विशिष्ट कार्य सामान्य में विधि प्रत्यय की शक्ति के रहने पर भी शाब्दबोध में घटयागादि कार्यों से भिन्न ‘अपूर्व स्वरूप’ कार्य विशेष का ही भान होगा । इस प्रकार कार्यत्व सामान्य को लिड पद का प्रवृत्तिनिमित्त मानने पर कोई अनुपपत्ति नहीं है । ६७ CCO. Vasishtha Tripathi Collection. Digitized by eGangotriगद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली उपलक्षणं हि स्मरणमनुमानं वा । उभयमप्यनवगत संबन्धेन शक्यम् । न हि संस्कारवम्मनोबददृष्टवद्वा कार्यत्वमपूर्वस्व सुपलक्षयति, ज्ञानापेक्षणात् । ततो हस्तीव हस्तिपकस्, घूम इव घूमध्वजम्, तत्संबन्धज्ञानादुपलक्षयेत्, न त्वन्यथा । तथा च न्यायसम्पादनाऽप्यरण्ये रुदितम् । न हि युक्तिसहस्ररप्यविदिते सङ्गति- ग्रहोऽविदितसंगतिर्वा शब्दः प्रवर्तत इति । सि० प० उपलक्षणं हि.. … जो जिसका ज्ञापक होता है, उन में परस्पर सम्बन्ध अथवा व्याप्यव्यापकभाव का पहिले से ज्ञात होना आवश्यक है । गङ्गा पद के मुख्यार्थ के साथ जब घोष का यन्वय अनुपपन्न हो जाता है, तभी पूर्वज्ञात गङ्गा के सम्बन्धी तीर की उपस्थिति गङ्गा पब से होती है। इसी प्रकार घूम से महानस में घूम के साथ नियत रूप से ज्ञात वह्नि का स्मरण होता है । प्रकृत में कार्यस्व विशिष्ट कार्य सामान्य में विधि प्रत्यय की शक्ति को स्वीकार करने पर मी, उस शक्ति से जो अपूर्व स्वरूप कार्य विशेष की उपस्थिति होगी, उसके लिये भी ‘अपूर्व’ स्वरूप कार्यविशेष एवं विधिप्रत्यय स्वरूप पद, इन दोनों का परस्पर सम्बद्ध रूप से पहिले से ज्ञात रहना आवश्यक है । उस ‘उपस्थिति’ को स्मरण रूप मानें, चाहे अनुमिति रूप मानें। न हि संस्कारवतु.. ( इस प्रसङ्ग में कहा जा सकता है कि जिस प्रकार संस्कार पहिले से अज्ञात रह कर भी स्मृति का उत्पादन करता है, उसी प्रकार ‘कार्यत्व’ भी पहिले से सर्वथा अज्ञात ही ‘अपूर्व’ स्वरूप कार्य का ज्ञापन कर सकता है। किन्तु ) यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि उत्पादक हेतु पहिले से ज्ञात हुये विना भी कार्य का उत्पादन कर सकता है ( अतः अज्ञात संस्कार से स्मृति की उत्पत्ति हो सकती है) किन्तु ज्ञापक हेतु सर्वथा प्रशात अर्थ का ज्ञापन नहीं कर सकता । अतः जिस प्रकार संस्कार, मन अथवा प्रहष्ट प्रभूति साधन अपने ज्ञान की अपेक्षा न कर अपनी सत्ता से ही वे अपने अपने कार्यों का उत्पादन कर सकते हैं, उसी प्रकार ‘कार्यस्व’ अज्ञात होकर ‘अपूर्व’ स्वरूप अपने प्राश्रयीभूत कार्य का ज्ञापन नहीं कर सकता। इस लिये यही कहना पड़ेगा कि ‘एकसम्बन्धिज्ञानमपरसम्बन्धिस्मारकम्’ इस न्याय से जिस प्रकार महावत हाथी का शापक (स्मारक) होता है, वा घूम घूमध्वज ( वह्नि) का शापक (स्मारक) होता है, उसी प्रकार कार्यस्व भी अपने घाश्रयीभूत प्रपूर्वादि स्वरूप अपर सम्बन्धी का ज्ञापक (स्मारक) होगा। किसी अन्य रीति से कार्यस्व अपूर्व का ज्ञापक नहीं हो सकता । अतः कार्यस्व के ज्ञान से यदि ‘प्रपूर्व’ का बोध मानेंगे, तो प्रपूर्व का पहिले से ज्ञात होना आवश्यक है, जिस से अपूर्व की अपूर्वता ही भङ्ग हो जायगी ।
पञ्चमः स्तबंक। ७७१ एतेन भेदाग्रहातु क्रियाकार्ये व्युत्पत्तिरिति निरस्तम् । न ह्यज्ञाते भेदाग्रहो व्यवहाररोगम्, प्रतिप्रसंगात् । किविपूर्वखे प्रवृत्तिनिमित्तत्वे. कल्प्यमाने लौकिकी लिङनथिका प्रसज्येत । तत्रोपलक्षणीयाभावात् । तत्र कार्यत्वमेव प्रवृत्तिनिमित्त- मिति यदि, प्रकृतेऽपि तथैवास्तु क्लृप्तत्वात् सम्भवाच्चेति । । अतः ‘तदुपलक्षितश्च यागो वा यत्नो वा’ इत्यादि प्रकृत सन्दर्भ के द्वारा जो अनुमान का प्रयास किया गया है, वह भी अरण्यरोदन के समान व्यर्थ ही है । क्योंकि हजारों युक्तियां देने पर भी सर्वथा अज्ञात अर्थ में शक्ति गृहीत नहीं हो सकती, एवं शक्ति ज्ञान के बिना शाब्दोष हो नहीं सकता, तो फिर इस पक्ष में ‘अपूर्व’ की अपूर्वता (शाबोध से पूर्व सर्वथा अज्ञात रहने ) की अनुपपत्ति बनी ही रहेगी । एतेन … कोई कहते हैं कि अपूर्व स्वरूप कार्य विशेष में रहने वाला कार्यस्व स्वरूप विशेष धर्म हो लिङ पद का प्रवृत निमित है। किन्तु इस विशेष धर्म में सभी कार्यों में रहनेवाले कार्यदेव स्वरूप सामान्य धर्म के अभेद की भ्रान्ति होती है । इसी भ्रान्ति से प्रेरित हो कर सभी कार्यों में रहनेवाले कार्यस्व स्वरूप सामान्य धर्म को समझाने के लिए लिङ पद प्रवृत होता है। किन्तु इस पक्ष में भी ‘अपूर्व’ की ‘अपूर्वता भङ्ग’ स्वरूप कथित दोष विद्यमान है । क्योंकि ज्ञात वस्तु के भेद का अज्ञान ( भेदाग्रह ) हो प्रवृति का कारण है । इदन्त्व रूप से ज्ञात शुक्ति द्रभ्य विशेष्यक रजत भेदाग्रह ही युक्ति में रजत प्रवृति का कारण होता है । अतः प्रकृत में भी जिस किसी भी प्रकार से ‘अपूर्व’ के पूर्वमान की अपेक्षा अवश्य होगी । किन … यदि प्रपूर्वनिष्ठ कार्यत्व अथवा प्रपूर्वस्व को विधिप्रत्यय का प्रवृत्ति निमित्त मानें तो दूसरा दोष यह हैं कि यागादि जिन कार्यों से अपूर्व की उत्पत्ति होती है, ऐसे यागादि अर्थ के बोधक घातुओं से निष्पन्न विधिप्रत्यय का उक्त प्रर्थं कथंचित् हो भी सकता है, किन्तु ‘पचेद’ इत्यादि जिन लौकिक विधिप्रत्ययों से पूर्व की उत्पत्ति नहीं होती है, वे सभी ( लौकिक aj के विधायक धातुओं से निष्पन्न ) विधिप्रत्यय व्यर्थ हो जायगे । क्योंकि विषिप्रत्यय के प्रवृत्तिनिमित्त अपूर्वस्व अथवा प्रपूर्वनिष्ठ कार्यत्व स्वरूप उपलक्षण के उपलक्षणोय अपूर्व की वहीं सत्ता हीं नहीं है । पाकादि लौकिक स्थलों में यदि ‘पाकादि कार्यों’ को ही विधि प्रत्यय का अर्थ मानेंगे तो समान न्याय से ‘यजेत्’ इत्यादि स्थलों में भो ‘प्रपूर्व’ स्वरूप कार्य को ही विषिप्रत्यय का प्रयं मानना होगा, जिससे कथित ‘अपूर्व व्यक्ति का अलाभ’ स्वरूप दोष ज्यों का त्यों बना रहेगा ।
७७२ गंद्यपंद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली अस्तु तर्हि तदेव प्रवृत्तिनिमित्तं, तर्कसम्पादनया स्वपूर्वव्यक्तिलाभ इति चेन्न । मित्य निषेधापूर्वयोरलाभप्रसङ्गात् । पू० प० प्रस्तु यदि सभी कार्यों में रहनेवाले कार्यस्व स्वरूप सामान्य धर्म को ही विधि प्रत्यय का प्रवृतिनिमित्त मान लें, तथापि ‘अपूर्व’ के लाभ की उपपथि हो सकती है । कार्यस्व सामान्य स्वरूप प्रवृत्तिनिमित्त यद्यपि घटादि धर्मियों में ही ज्ञात हैं, फिर भी कार्यत्व सामान्य में विधिप्रत्यय की शक्ति के ग्रह के बाद कार्यसामान्य की स्मृति होगी, उस स्मृति ( पदार्थों- पस्थिति ) से ही ‘यागविषयकं कार्यम्’ इस धाकार का शाब्दबोध होगा । शक्तिज्ञान से उत्पन्न पदार्थोपस्थिति एवं शाब्दबोध इन दोनों में जो समानप्रकारकत्व मूलक कार्यकारणभाव का नियम है, उसका इतना ही अभिप्राय है कि ‘उपस्थिति में पदार्थ जिस ‘रूप’ से भासित हो, शाब्दबोध में भी उस रूप का भान अवश्य हो ।’ प्रकृत शाब्दबोध में याग का यागस्व श्रीर कार्यस्व इन दोनों रूपों से भान होता है, अतः शाब्दबोध में याग को उस कार्यत्व रूप से भासित होने में कोई बाधा नहीं है, जो कथित उपस्थिति में भी भासित है । तस्मात् इस ‘पक्ष में भो ‘अपूर्व’ व्यक्ति का ‘लाभ’ रूप दोष नहीं है । सि० प० न, नित्य ….. यदि लिङ्ग प्रत्यय से अपूर्व निष्ठ कार्यस्व का ही बोध मानें, तो नित्यकर्मानुष्ठान के ज्ञापक ‘अहरहः संध्यामुपासीत’ एवं निषेधबोधक ‘न कलजभक्षयेत्’ इत्यादि जिन स्थलों में ‘अपूर्व’ का बोध ही सम्भव नहीं है, उन स्थलों में विध्यर्थं का बोध ही अनुपपन्न हो जायगा। कहने का तात्पर्य है कि लिङ प्रत्यय से प्रथमतः कार्यत्व लामान्य की ही उपस्थिति होती है । किन्तु कार्यस्व के प्राधयीभूत घटादि वस्तुओं के अयोग्य होने के ‘कारण ‘यजेत’ इस वाक्य से होने वाजे बोध में वे भासित न होकर योग्य याग स्वरूप कार्य ही भांति होता है । किन्तु केवल याग से स्वर्ग की प्राप्ति सम्भव नहीं है, इस किये ‘अपूर्व’ स्वरूप मध्यवर्ती व्यापार स्वरूप कार्य की उत्पत्ति मानते हैं । जिस का भान शाब्दबोध में होता है । प्रकृत में सन्ध्यावन्दन स्वरूप नित्यकर्म से दूर भविष्य में भी स्वर्गरूप फल की उत्पत्ति नहीं होती है—तब रही बात पाप की अनुत्पत्ति की—वह तो संनिहित ही है-उसके लिये प्रपूर्व की कल्पना निरीक हैं। यही बात निषेधवाक्य के प्रसङ्ग में भी कही जा सकती है। क्योंकि उससे भी संनिहित पापानुत्पथि ही होती है, विप्रकृष्ट स्वर्ग की उत्पत्ति नहीं होती है, अतः वहीं भी अपूर्व की कक्षपना उवयं है। शक्ति नहीं है । झतः - अपूर्वनिष्ठकार्थश्व में लिपट की अतः - -
म स्वयंकः न चास्मिन पक्षे एकत्र निर्णीतेन शास्त्रार्थेनान्यत्र तथैव व्यवहार इति सम्भवति । कार्यस्वस्यैव प्रवृत्तिनिमित्तत्वेन निर्णीतत्वात्, न स्वपूर्वस्वस्य । न्यायसम्पाद- नायाश्व तत्रासम्भवात् । फलानुगुण्येन हि व्यक्तिविशेषो लभ्यते । न च तत् तत्र श्रूयते । न चाश्रुतमपि कल्पयितुः शक्यते । बीजाभावात् । न चास्मिन् । तत्-तत्र ( इस प्रसङ्ग में कहा जा सकता है कि ‘यववर हा दिन्याय’ से ( जैमिनि सूत्र म १ पा ३ अधि ५ ) एक स्थान में एक शब्द का निर्णीत अर्थ के अनुसार उस शब्द का प्रयोग अन्य स्थानों में भी होना उचित है ‘यजेत’ पद में प्रयुक्त लिङ्ग प्रत्यक्ष का जब ‘अपूर्व’ स्त्ररूप कार्य में शक्ति निर्णीत हो गया है, तब नित्यकर्म के विधायक वाक्यों में एवं निषेधवाक्यों में प्रयुक्त लिङ पद का भो अपूर्व स्वरूप कार्यत्व स्वरूप अर्थ ही करना पड़ेगा । किन्तु ) यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि सभी कार्यों में रहने वाले कार्यस्व स्वरूप सामान्य धर्म हो विधिप्रत्यय का प्रवृत्तिनिमिरा निर्णीत है। तदनुसार कार्य सामान्य में ही लिङ, प्रत्यय का शक्ति निश्चित है। अपूर्वत्व में न . लिङ पद का प्रवृतिनिमित्तत्व निर्णीत है, न अपूर्व स्वरूप कार्यं विशेष व्यक्ति में लिख पद का शक्ति ही निश्चित है। तब रही बात उक्त ‘यववराहन्याय’ से अपूर्व स्वरूप कार्य विशेष का शाब्दबोध में भान होने की बात, सो प्रकृत सम्भव नहीं है, क्योंकि जहाँ ‘अपूर्व’ के बिना मुख्य फल का सम्पादन सम्भव ही नहीं रहता, वहीं ‘न्याय’ से अर्थात् ‘अनुमान से अपूर्व की कल्पना की जा सकती है। किन्तु जहाँ ) न्याय ( प्रनुमान) अपूर्व की जहाँ स्वर्गादि फलश्रुत रहते हैं, वहीं उन फलों के ( नित्यकर्मानुष्ठान स्थल में सम्भावना है, उन स्थलों में अपूर्व की कल्पना के बिना भी ‘पापानुरपसि’ प्रभुति फलों की से कल्पना नहीं की जा सकती । अनुकूल अपूर्वादि विशेष प्रकार के कार्यों विशेष फलों की बुति की कल्पना सम्भव होती है । नित्यविधिस्थल में प्रथवा निषेवस्थल में नहीं रहती है, वहीं न्याय से अपूर्व की कल्पना नहीं की जा सकती । पू० प० न चाश्रुत जहाँ स्वर्ग स्वरूप फल की श्रुति नहीं रहती है, वहाँ भी ‘विश्वजिन्याय’ से स्वर्ग स्वरूप फल की कल्पना की जाती है । अतः नित्यविविश्यल में प्रथवा निषेवस्थल भी २ मत स्वर्ग रूप फल को कल्पना की जा सकती है । सि० प० बीजाभावात् …. जहाँ फल घृत नहीं रहते, एवं संनिहित किसो फर को सम्भावना नहीं रहती है, वहीं ‘विश्वजिन्याय’ से मसन्निहित स्वर्ग स्वरूप फल की कल्पना की जाती है । किन्तु नित्यविधि
गञ्चपञ्चात्मक-न्यामेकुसुमाञ्जली तद्धि विध्यन्यथाऽनुपपस्या कल्प्येत, काय्र्यत्वप्रत्ययान्यथाऽनुपपस्या बा लोकवत् । न प्रथमः । भवतां दर्शने तस्योपेयरूपत्वात् । यतः श्रुतस्वर्ग फलस्वेऽपि साध्यविवृद्धिरुच्यते । स्थल में एवं निषेषस्थल में तो ‘पापानुत्पत्ति’ स्वरूप सम्निहित फल ही सम्भव है वह तो सन्ध्यावन्दनादि नित्यकर्म एवं कलस के प्रभक्षणादि से ही सम्भव है, तदर्थं ‘अपूर्व’ की कल्पना अनावश्यक है। अतः उभव कथा सङ्गत नहीं है । पू० प०… … तद्धि… नित्यविधि स्थल में प्रथवा निषेधवाक्य स्थल में ‘तत्’ अर्थात् ‘अपूर्व’ की कल्पना किस से होगी ? (१) उन दोनों वाक्यों में ‘विधित्व’ की अनुपपत्ति से ? ( अर्थात् जबतक नित्यकर्म से एवं निषिद्ध कर्म से अपूर्व की उत्पत्ति नहीं मानेंगे, तबतक नित्यकर्म के विधायक वाक्य एवं निषेषवाक्य में प्रयुक्त आख्यात प्रत्यय में विधित्व ही उत्पन्न नहीं होगा, उनसे अपूर्व की उत्पति मानेंगे १) (२) ‘कार्यस्वप्रत्यय’ प्रर्थात् उन दोनों वाक्यों से बोध्य कार्य में करणीयत्व बुद्धि की अनुपपत्ति से ? (नित्यकर्म एवं निषिद्ध कर्म इन दोनों से अपूर्व की उत्पत्ति मानेंगे ? क्योंकि ‘नेक्षेतोद्यन्तमादित्यम्’ इस निषेव वाक्प से निषिद्ध कार्य न करने के संकल्प स्वरूप ‘भाव’ विषयक ही बोध होता है । लोकवत् जिस प्रकार ‘पचेत’ प्रभृति लौकिक वाक्यों में प्रयुक्त लिप्रत्यय स्थल में ‘पाक’ कर्त्तव्य:’ इस प्रकार का ज्ञान ‘पाकं मदिष्टसाधनम्’ इस आकार के इष्टसाधनत्व प्रकारक ज्ञान से उत्पन्न होता है, उसी प्रकार सन्ध्यावन्दनादि नित्यकर्मों में भी जबतक इष्टसाघनत्व की बुद्धि नहीं होगी (अर्थात् उन्हें जबतक इष्ट का साधन नहीं समझा जायगा ) तबतक ‘सन्ध्यावन्दनं कर्तव्यम्’ इस आकार को कर्त्तव्यत्व की बुद्धि ( कार्यस्व बुद्धि ) उत्पन्न नहीं होगी । एवं इस कर्त्तव्यस्व बुद्धि के न होने से ‘महरहः संन्ध्यामुपासीत्’ इत्यादि वाक्यों में प्रयुक्त प्राख्यात में विधिप्रत्ययत्व ही अनुपपन्न हो जायगा । न प्रथमः” इनमें से (१) प्रथम पक्ष इसलिये प्रयुक्त है कि मीमांसक गण ‘अपूर्व’ को ‘उपाय’ न मानकर ‘उपेय’ स्वरूप ‘चरम फल’ हो मानते हैं । तदनुसार ‘प्रपूर्व’ स्वयं ‘इष्ट’ है, इष्ट का साधन नहीं है । अतः पाक के दृष्टान्त से संन्ध्यावन्दनादि बोधक वाक्यों का विधि ( वाक्प) से अपूर्व स्वरूप फल का विधायक नहीं हो सकता । 1. मुख्य और गौया भेद से फल दो प्रकार के हैं। किसी अन्य वस्तु के उत्पादन के उद्देश्य से जिसके उत्पादक कृति न हो, बही वस्तु ‘मुरुष’ फल हैं। भोजन जनित तृष्टि से होनेवाला ‘सुख’ मुख्य फल है, क्योंकि सुख के उत्पादन के लिये जो कृति पीन प्रमा यत्व न हो सिद्ध एवं यदि बाद का की भा संध्य इष्ट सं निष्
पञ्चमः स्तबका न द्वितीयः शब्दबलेन तत्प्रत्यये तदनपेक्षात् । लोके हि तत्प्रत्यय इष्टाभ्युपायताऽ- घीनो न तु वेदे इत्यभ्युपगमात् । अन्यथेष्टाभ्युपायतैव प्रथमं वेदादवगन्तव्या । प्रमाणान्तराभावात् । ततः कार्यवेत्यानुमा निको विधि। स्यात्, न शाब्दः । श्रानुमानिकं फलमस्तु यत्कत्तव्यं तदिष्टाभ्युपायइति व्याप्तेरित्यपि न युक्तम् । न द्वितीयः कार्यत्व ( कर्त्तव्यस्व ) की बुद्धि यदि विधिवाक्य स्वरूप शब्द प्रमाण से उत्पन्न होगी, तो इसके लिये उसमे विधित्व का ज्ञान अपेक्षित नहीं है। क्योंकि मीमांसकों का यह सिद्धान्त है कि लोक में कार्यस्व ( कर्तव्यत्व ) की बुद्धि इष्टसाधनत्व के ज्ञान से होती है । एवं वेदविहित कार्य में कत्तव्यस्थ की बुद्धि के लिये इष्टसाधनत्वज्ञान की अपेक्षा नहीं है । से इष्टसाधनत्वज्ञान की हो उत्पत्ति माननी होगी। इसके कार्यत्व का अनुमानिक बोध होगा । फलत विधिवाक्य का प्रयोजन अनुमान प्रमाण से सिद्ध होगा, शब्द प्रमाण से नहीं । किन्तु यह तो मीमांसकों की रीति के विरुद्ध है । यदि ऐसा मानेंगे तो पहिले वेद बाद इष्टसाधनत्व के उक्त ज्ञान से भानुमानिकं फलमस्तु जितने ‘कर्तव्य’ हैं वे सभी प्रवश्य ही ‘इष्टाम्युपाय’ अर्थात् इष्टसाधन है । संध्या वन्दनादि नित्य कर्म भी कर्तव्य रूप से निर्दिष्ट हैं, अतः संध्यावन्दनादि नित्यकर्म भी इष्टसाधन अवश्य हैं। ‘अपूर्व’ ही वह ‘इष्ट’ है, जिसके संध्यावन्दनादि साधन हैं । मतः संध्यावन्दनादि नित्यकर्मों से भी ‘प्रपूर्व’ की उत्पत्ति अवश्य होती है । जिससे यह अनुमान निष्पन्न होता है कि ‘संध्यावन्दनाविकमिष्टसाधनम् कत्तव्यत्वेन निर्दिष्टत्वात् ज्योतिष्टोमादिवत्’ । उत्पन्न होती है, सुख को छोड़कर उसका कोई अन्य उद्देश्य नहीं होता । किन्तु भोजन पाकादि जिसने भी कार्य है, उनके उत्पादक प्रयत्न का भोजनादि कार्यों को छोड़कर भोजनादि जनित सुख ही उनका उद्देश्य होता है । इस लिये मुख्य फल ही ‘इष्ट’ है, और गौण फल ‘इट’ के ‘साधन’ हैं। मीमांसकों के मत से ‘अपूर्व’ जब मुख्य फल ही है, तब तो वह स्वयं ही इष्ट’ है, इष्ट का साधन नहीं है । फलता अपूर्व में इटसाधनत्व ही नहीं है । इसलिये जिस प्रकार स्व रूप फल में फलजनकश्व के न रहने से कार्यत्व (कर्तव्यत्व) की बुद्धि होती है, उसी प्रकार अपूर्ण में भी कार्यश्व की वृद्धि होगी। क्योंकि उसमें भी फल जनकत्वं नहीं है। तस्मात् ‘अहरहः संध्यामुपासीत, इस विधि से ‘अपूर्व’ की कल्पना नहीं की बा सकती ।
७७६३ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली सुखेन व्यभिचारात् । ग्रन्यत्वे सतीति चेन्न । दुःखाभावेन व्यभिचारात् । फलं विहायेति चेत्, तदेव किमुतः स्यात् । इष्टं स्वभावत इति चेत्, तहि ततोऽन्यदनिष्टं स्यात्, तच्च कर्तव्यमिति व्याघातः । तत्साधन मिति चेत् तत्साधनत्वे : सतीति साध्या विशिष्टं विशेषणीम् । चे त सि० प० सुखेन सुख ‘इष्ट’ ही है, इष्ट का साधन नहीं। फिर भी लोक एवं वेद दोनों के द्वारा हो कर्तव्य रूप में निर्दिष्ट है । अत: सुख में इष्टसाधनत्व स्वरूप प्रकृत अनुमान का साध्य नहीं है, किन्तु ‘कर्तव्यत्वेन निर्दिष्टत्व’ स्वरूप हेतु है । अतः उक्त अनुमान का हेतु व्यभिचारी है । पू० प० अन्यत्वे संति . सुखभिन्नत्व को हेतु में विशेषण देकर अर्थात् सुखभिन्नत्वे सति कर्त्तव्यत्वेन निर्दिष्टस्व को ही हेतु बनायेंगे । सुख में यदि इष्टसाधनत्व रूप साध्य नहीं है, तो ‘सुख भिन्नत्वे सति कर्त्तव्यत्वेन निर्दिष्टत्व’ स्वरूप हेतु भी नहीं है । अतः कथित व्यभिचार दोष नहीं है । सि० प० न, दुःखाभावेन हेतु में सुख भिन्नत्व विशेषण के देने से सुख में उक्त व्यभिचार का. वारण भले . ही . हो. जाय, फिर भी दुःखाभाव में व्यभिचार दोष बना रहेगा, क्योंकि सुख की ही तरह दुःखाभाव मी लोक एवं वेद दोनों से ही करत व्यत्वेन निर्दिष्ट है, एवं दुःख में सुखभिन्नत्व भी है, किन्तु इष्टसाधनत्व स्वरूप साध्य नहीं है । पू० प० फलस् फलस्व रूप से सुख एवं दुःखाभाव दोनों का संग्रह कर यदि हेतु में फल भिन्नत्व विशेषण दें ( अर्थात् फलभिन्नत्वे सति कर्तव्यत्वेन निर्दिश्यमानत्व को हेतु बनावें ) । तो सुख एवं दुःखाभाव में जो व्यभिचार दोष दिये गये हैं, उसका वारण हो जायगा। क्योंकि सुख एवं दुःखाभाव दोनों ही ‘फल’ हैं, अतः फलमिन्नत्व घटित हेतु की सत्ता उनमें नहीं रह सकती । सि० पं० तदेव ( कि तो वि स्व के वा नि न क है व नि ( इस प्रसङ्ग में प्रष्टव्य हैं कि ) ‘तत्’ प्रर्थात् ‘फल’ का ही क्या लक्षण है ? इष्टम यदि इस प्रश्न का यह उत्तर दें कि जो ‘स्वभावतः इष्ट’ हो वही ‘फल’ है । वह तो फिर हेतु में विशेषणीभूतः फलभिन्नत्व शब्द का ‘स्वभावतः अनिष्ट’ ही फलितार्थ होगा । किन्तु जो स्वभावत। अनिष्ट होगा, वह कर्तव्यत्वेन निर्दिष्ट कैसे होगा ? फक्त
I. . 1. व I व 計 र्य न पञ्चमा स्तबका स्वभावतो नेदमिष्टं कर्तव्यच ततो नूनमिष्टसाधनमिति साधनार्थं इति चेन्न । स्वभावतो नेदमिष्टमित्यसिद्धेः । अनन्योद्देशप्रवृत्त कृतिभ्याप्तत्वात् । अन्यथा तदसिद्धेः । ततो व्याघातादन्यतरापाय इति । ‘फर्राव्यस्वेन निर्दिष्टस्व’ हेतु में ‘फलभिन्नत्व’ रूप विशेषण नहीं रह सकता । अतः यह हेतु ( काञ्चनमय घूम की तरह ) विशेषणासिद्ध हो जायगा । किन्तु जो स्वभावतः इष्ट नहीं भी है, वह भी कर्तव्यत्वेन निर्दिष्ट हो सकता है, जैसे कि फल का साधन । तयनुसार उक्त हेतु में यदि ‘फलसाधनत्वे सति’ इतना विशेषण और दें तो उक्त विशेषणासिद्धि का परिहार हो सकता है । किन्तु हेतु का यह विशेषण ‘साध्या- विशिष्ट’ हो जायगा । क्योंकि साध्य भी तो ‘इष्टसाधनत्व’ ही है । स्वभावतः संध्यावन्दनादि यद्यपि स्वभावतः इष्ट नहीं है, तथापि कर्तव्यत्वेन निर्दिष्ट हैं, तो वे इष्ट के साधन अवश्य हैं। इष्ट के ही समान इष्ट के साधन भी कर्तव्यत्वेन निर्दिष्ट होते हैं। यह बात पाकादि दृष्टान्तों के बल से निःसंकोच कही जा सकती है। प्रत। यह पनुमान किया पा सकता है कि ‘संध्यावन्दनादिकमिष्टसाधनम् स्वभावतः इष्टत्वाभावे सत्यपि कर्तव्यत्वेन निविष्टत्वात् पाकादिवद’ यही परिष्कृत अनुमान प्रकृत में अभिप्रेत है । न, स्वभावतः … -. अन्यतरापाय 646 यह भी सिद्ध नहीं है कि संध्यावन्दनादि नित्यकर्म अथवा कलजभक्षणादि निषिद्ध कर्म ‘स्वभावतः इष्ट नहीं है’ क्योंकि ‘मनन्योद्द श्यकृतिव्याप्यस्व’ ही ‘स्वतः इष्ट’ का लक्षण है, सो तो संध्यावन्दनादि नित्य कर्मों में भी है हो, क्योंकि संध्यावन्दनावि जिस कृति के द्वारा अनुष्ठित होते हैं, उस कृति का कोई अन्य उद्देश्य ( उत्पाद्य ) नहीं हैं। यदि संध्या- वन्दनादि के द्वारा भी कोई स्वर्गादि अन्य फल अभिप्रेत हों, तो फिर उनमें नित्यत्व वा निषेधत्व ही असिद्ध हो जायगा । इस ‘प्रसिद्धि’ से ‘व्याघात’ प्रयुक्त ‘मन्यतरापाय’ अनिवार्य हो जायगा । १. क्योंकि ‘स्वतःहृष्टस्व’ निध्यस्व एवं निषेधत्व इन दोनों का विरोधी धर्म है । अतः सन्ध्यावन्दन या तो ‘एक्साइष्ट’ ही होगा, अथवा नित्य ही होगा। यह नहीं हो सकता कि वे नित्य भी हो, एवं स्वता इष्ट भो हो । इसी प्रकार कलमभचयादि या तो निषिद्ध ही हो सकते हैं कि वा ‘स्वतः इष्ट’ ही हो सकते हैं, दोनों नहीं हो सकते। यही है प्रकृत में ‘अम्पतरापाय’ । ६५
७७८ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली प्रस्तु नित्य निषेधापूर्वयोरलाभः किं नरिछन्नमिति चेत् कि नछिन्नं, यदा कामाधिकारेऽपि तदलाभ: । न हि लिङा कार्य स्वर्गसाधनमुक्तम् । नापि स्वर्गका मपदसमभिव्याहारान्यथाऽनुपपत्या तल्लब्धम्, तल्लब्धम्, ब्राह्मणत्वादिवदधिकार्य- वच्छेदमात्रेणैवोपपत्तेः । पू० प० प्रस्तु ‘अपूर्वं निष्ठकार्यस्व’ में लिङ पद की शक्ति मानने से अपूर्व के निष्पादक नित्यकर्म के विधायक वाक्यों का, अथवा अपूर्व के अनुत्पादक कलजभक्षणादि के निषेधक वाक्यों का यदि असंग्रह होगा, तो इसमें मेरी कौन सी हानि होगी ? अर्थात् इस अलाभप्रसङ्ग को इष्ट कर लेंगे । सि० प० किं न ‘कामाधिकार’ स्थलों में, यदि अपूर्व का क्षति होगी ? क्योंकि इस प्रसङ्ग में यह विकल्प उपस्थित होता है कि– में प्रर्थात् काम्यकर्म के विधायक स्वर्गकामो यजेत इत्यादि अलाभ होगा तो इसमें हम ( नैयायिकों ) लोगों की ही कौन सी ( १ ) लिप्रत्यय क्या किसी अन्य के साहाय्य के बिना ही उक्त वाक्य से स्वर्गसाघनत्व विषयकं बोष का उत्पादन करता है, जिससे कि स्वर्ग पर्यन्त स्थायि ‘अपूर्व ’ स्वरूप साधन का लाभ हो ? (२) प्रथवा ‘स्वर्गकाम’ पद के समभिव्याहार के बल से लिङ प्रत्यय ही स्वर्ग के प्रव्यवहितपूर्वक्षण पर्यन्त स्थायी एवं स्वर्ग के साघनीभूत अपूर्व का उत्पादक है ? न हि लिङा ( इन में से पहिला पक्ष इस लिये ठीक नहीं है कि ) केबल लिड प्रत्यय से ‘कार्यम् ( कत्तव्यम् ) स्वर्गसाधनम्’ इस अर्थ का बोष नहीं होता है । यदि ऐसा हो तो ‘पचेत्’ इत्यादि लौकिक विधि वाक्यों के लिङ प्रत्यय का कुछ अर्थ ही नहीं होगा । दूसरी बात यह है कि ‘अनन्योद्दश्य कृतिव्याप्यस्व’ ही प्रकृत में ‘कार्यस्व’ है । किन्तु स्वर्गसाघनत्व उसका विरोधी है। अतः वेदस्थ लिङप्रत्ययस्थल में भी उक्त अन्यतरापाय स्वरूप विशेष उपस्थित होगा । नापि स्वर्गकामपद यह भी कहना ठीक नहीं है कि ‘स्वर्गकाम’ पद का समभिव्याहार ही व्यर्थ हो जायगा, यदि ‘पंजेत’ इस वाक्य से ‘कार्य स्वर्गसाधनम् ( कर्त्तव्यम् ) यह बोध उत्पन्न न हो, क्योंकि ‘स्वर्गकाम:’ इस पद की ‘अन्यथा’ भी ‘उपपत्ति’ हो सकती है । अतः ‘स्वर्गकामः’ पद की ‘अन्यथानुपपत्ति’ से भी ‘स्वर्गसाधनम्’ इस बोध की उपपत्ति नहीं हो सकती । स्वा होत का ‘अ che स्व पू० है, स्व । सि अ हं क
F 员 ET व T, ET, It’ पचमतका न चेदमनुमानम्; यस्य यदिच्छातो यत्कर्तव्यं तत्तस्येष्टसाधनमिति । श्रन्येच्छ स्वाभाविक कर्तव्यत्वासिद्धेः । तदिच्छ्येव तत्कर्तव्यतायाः सुखेनाने कान्निकत्वात् । जैसे कि ‘ब्राह्मणो यजेत’ होता है । एवं इस व्यवच्छेद से का अनुष्ठान करे, उसी प्रकार ‘अनुष्ठान करे’ इस आकार के बोध का उत्पादन कर ‘स्वर्गकामः’ पद सार्थक हो सकता है । अतः ‘स्वर्गकामः’ पद की अन्यथानुपपत्ति से भी लिङ प्रत्यय के द्वारा ‘कार्यम स्वर्गसाधनम्’ यह बोष उपपन्न नहीं हो सकता । इस वाक्य के ‘ब्राह्मण’ पद से ‘प्रब्राह्मण’ का व्यवच्छेद यह उपपन्न होता है कि ‘जो ब्राह्मण हो’ वही इस याग. ‘जिस पुरुष को स्वर्ग की कामना रहे’ वही इस याग का पू० प० न चेदमनुमानस् ( इस प्रसङ्ग में कहा जा सकता है कि ) जो व्यक्ति जिस इच्छा से जो कार्य करता है, वह कार्य उस ‘इच्छित’ अर्थात् ‘इष्ट’ का साधन होता है। सभी लोग तृप्ति जनित सुख स्वरूप ‘इष्ट’ के सम्पादन के लिये ही पाक करते हैं । अतः पाक ‘इष्ट साधन’ है । सि० प० अन्येच्छया ……… किन्तु यह भी संभव नहीं है, क्योंकि इस प्रसङ्ग में विवारणीय कथित व्याप्ति में जिस ‘कर्त्तव्यस्व’ अथवा ‘कार्यत्व’ की चर्चा की गयी है, वह कर्तव्यत्व स्वाभाविक है ? प्रथवा औपाधिक हैं ? उसको स्वाभाविक कहना तो संभव नहीं है; क्योंकि ‘अन्येच्छाधीनेच्छा- विषयत्व’ कर्तव्यस्त्र में ‘स्वाभाविकत्व का विरोधी है अर्थात् ‘अनम्यो देश कृति व्यापात्व’ ही प्रकृत में स्वाभाविकत्व है, उसे यदि प्रकृत कर्त्तव्य में । का स्वाभाविकत्व ही भङ्ग हो जायगा । यदि कर्तव्य में अन्येच्छामूलक मानेंगे तो कर्तव्यत्व विषयीभूत वस्तु की इच्छा से ही कर्तव्यत्व की बुद्धि स्वीकार करेंगे, तो सुख में व्यभिचार होगा, जिसका उपपपादन पहिले किया जा चुका है । १. ‘काम्य’ अर्थात् ‘इष्ट’ के प्रसाधन स्वरूप कार्य में उस कामना से युक्त पुरुष की कर्तव्य बुद्धि नहीं होती है। किन्तु सन्ध्यावन्दनादि कार्यों मे शिष्टजनों की. कर्तव की बुद्धि होती है। अतः वे भी किसी ‘इष्ट’ के ‘साधन’ अवश्य है । ‘अपूर्व’ ही वह ‘इट’ है । अतः संध्यावन्दनादि नित्य कर्मों से भी अपूर्वं की उत्पत्ति अवश्य होती है । CCO. Vasishtha Tripathi Collection. Digitized by eGangotriGEO गद्यपद्यात्मक न्याय कुसुमाञ्जली भोपाधिक कर्तव्यतायाश्चेष्टसाधनत्वमप्रतीत्य प्रत्येतुमशक्यत्वात् । किमनया विशेष- चिन्तया ? प्रतीयते तावच्छग्दादन्यदिच्छतोऽन्यत्कार्यमित्येतावतैवानुमानमिति चेत् । नन्वम्वितमभिधानीयस्, योग्यचान्धीयते । अन्यदिच्छतवान्यत् कर्तव्य- मन्वयायोग्यस्, तत्कथमभिधीयताम् ? श्रीपाधिककर्तव्यतायाः दूसरी बात यह है कि किसी भी वस्तु में तब तक कर्तव्यत्व की बुद्धि उत्पन्न हो नहीं हो सकती, जब तक कि उसमें इष्ट साधनत्व की बुद्धि उत्पन्न न हो जाय । फलतः - स्वेच्छा के द्वारा अथवा अन्येच्छा के द्वारा कर्त्तव्यत्व की बुद्धि से इष्टसाधनत्व का ज्ञापन ही होता है, प्रतः वह उसका साध्य ही है, साधन नहीं । पू० प० किमनया उक्त व्याप्ति में केवल ‘कर्तव्यश्व’ विवक्षित है । उसमें स्वाभाविकत्व अथवा प्रोपाधिकत्व की विवक्षा नहीं है । फलतः प्रकृत में व्याप्ति का यह स्वरूप अभिप्रेत है कि स्वर्गादि इच्छित विषयों से भिन्न स्वर्गादि के साघनीभूत याग अथवा अपूर्वादि विषयक संध्यावन्दनादि स्थलों में भी ( कार्यस्व) का बोध ही लिङ प्रत्यय से होता है । इस लिये उनके विधायक वाक्यों से प्रपूर्व के बोष में कोई बाधा नहीं है। व पू bo सि वि ( क्य पू As के का है हो सि० प० नन्वनुमितम् ‘संध्यावन्दनादिकमिष्टसाधनमिच्छाविषयत्वाभावे सवि कम्यस्व बुद्धिविषयत्वात् पाकादिवत्” यह अनुमान ही ठीक नहीं है, क्योंकि एक शब्द के अर्थ में धन्वित ही दूसरा अर्थ दूसरे शब्द के द्वारा प्रमिहित होता है । एवं ‘योग्य’ अर्थात् अबाधित अर्थ ही धन्वित होने की क्षमता रखता है । इन नियमों के अनुसार उक्त धनुमान उचित प्रतीत नहीं होता । क्योंकि जिसे शयन की इच्छा होगी, उसको पाक विशेष्यक कर्तव्यस्व की बुद्धि नहीं होगी । इस युक्ति के अनुसार चू कि अपूर्व की इच्छा से अपूर्व से भिन्न संध्यावन्दनादि मैं कर्तव्यत्व की बुद्धि नहीं हो सकती । अत । प्रकृत में प्रपूर्व अन्वय के प्रयोग्य है । अतः उसके साथ किसी का भी अन्वय नहीं हो सकता । तस्मात् कथित रीति से संम्ध्यवन्दनादि में इष्टसाधनत्व की सिद्धि नहीं हो सकती। इसलिये नित्य कर्म के विधायक एवं निषेष वाक्य के ‘प्रथम’ का जो दोष दिया गया है, वह ठीक है । O वि ( हृ पञ्चमः हबका osé तत एव तरसाधनत्व सिद्धिरिति चेत् । एवं तहष्टसाधनतैकार्थं समवायि कर्तव्य- त्वाभिधानादनुमानानवकाशः । न चान्विताभिधानेऽपि तत्साधनत्व सिद्धि। । प्रषिकार्य- वच्छेदमात्रेणाप्यन्वययोग्यतोपपत्तेः । न च कार्यत्वमपूर्वे सम्भवति । पू० प० तत एव" शब्द प्रमाण से ही यदि इष्टसाधनत्व की बुद्धि होगी तो इस में कौन सो क्षति होगी ? सि० प० एवं तहि " तब तो यह कहिये कि ‘इष्टसाधनत्व’ के साथ रहने वाले कर्तव्यत्व का ही प्रभिधान विधिप्रत्यय से होता है । अर्थात् विधिप्रत्यय से इष्टसाघनीभूत अर्थ में ही ‘कत्त’ व्यत्व’ की ( कार्यस्व ) बुद्धि होती है । किन्तु ऐसा मान लेने पर अनुमान का अवकाश नहीं रह जाता । क्योंकि शब्द प्रमाण से ही वह कार्य हो जाता है । पृ० प० न च… 800 जो अर्थ इच्छा का विषय नहीं है, उसमें रहने वाले कार्यस्व ( कव्यत्व ) को अन्वय के योग्य मान लेने पर भी यह दूसरा दोष उपस्थित होता है कि तथापि प्रकृत में इटसाधनत्व का सिद्धि नहीं हो सकती, क्योंकि अन्वय की योग्यता इष्टसाधनत्व के बिना अनुपपन्न नहीं है । अन्वय की योग्यता तो अधिकारी के निर्णय को उत्पन्न करके भी चरितार्थ हो सकती है ।’ पू० प० न च कार्यत्वम् अपूर्व में कार्यत्व ( कतव्यस्थ ) की संभावना ही नहीं है । इस के पहिले यह विचारणीय है कि कथित ‘कार्यस्व’ कौन सी वस्तु है ? (१) कृतिव्याप्यस्व स्वरूप है ? अथवा (२) कृतिफलंस्व स्वरूप है ? (३) कि वा कृत्युद्द ेश्यस्व स्वरूप है ? (१) इन में से पहिला पक्ष इस लिये ठोक नहीं है कृति को व्याप्ति ब्रोहि प्रभुति हवियों के साथ ही है, अपूर्व के साथ नहीं। क्योंकि सिद्धि (निष्पन्न ) वस्तु ही व्यापार का 1. कहने का तात्पर्य है कि जिस प्रकार ‘ब्राह्मणो यजे’ इस स्थल में ब्राह्मणश्व चूँकि ब्राह्मण से अतिरिक्त में याग के अधिकार की निवृत्ति के द्वारा ब्राह्मराव जातीय मात्र में याग विशेष के अधिकार को सीमित करता है । उसी प्रकार ‘स्वर्गकामः’ पद भी स्वर्गकामना शून्य पुरुष में यागाधिकार को निवृत्त कर केवल स्वर्गकामना से युक पुरुष में ही यागाधिकार को सीमित कर चरितार्थ हो सकता है । वस्तुतः मीमांसक लोग जो अपूर्व को स्वतः कास्य मानने का हठ करते हैं, वही प्रयुक्त है ।
७८१ गश्यपथात्मक-स्यायकुसुमा जलो तद्धि कृतिव्याप्यता चेत् ? ब्रीह्यादिष्वेव, सिद्धत्वात् । कृतिफलत्वं चेत् ? यागस्यैव ततस्तस्यैवाहृत्योत्पत्तेः । कृत्युद्देश्यता चेत् ? स्वर्गस्यैव, निसर्गसुन्दरत्वात् । न स्वपूर्वस्य । तद्विपरीतत्वात् । स्तनपानादिवदोपाधीकीति चेत् ? साऽपि यागस्यैव । स्वर्गस्य साध्यत्वस्थिती यागस्यैव साधनत्वेनान्वयात् । 1 आश्रय हो सकता है । व्यापार के द्वारा ही कृति की व्याप्ति रह सकती है । अपूर्व चू कि सिद्ध नहीं है, अतः साध्य स्वरूप अपूर्व कृति का व्याप्यश्व ( व्याप्ति ) स्वरूप कार्यव ( कर्त्तव्यत्व ) अपूर्व में नहीं रह सकता । किन्तु ब्रीहि प्रभृति हवियों चूं कि सिद्ध हैं, अतः उन्हीं में कृतिव्याप्यस्व स्वरूप फार्यत्व रह सकता है । तस्मात् ‘कृतिव्यायस्व’ स्वरूप ‘कार्यत्व’ अपूर्व में संभावित नहीं है । (२) ‘कृतिफलत्व’ स्वरूप ‘कार्यस्व’ भी अपूर्व में नहीं रह सकता, क्योंकि याग ही कृति का फल है । कृति के अवलम्बन से ही याग की उत्पत्ति होती है, विना कृति के याग की उत्पत्ति नहीं होती है । इस लिये याग ही कृति का फल है, अत: ‘कृतिफलत्व’ स्वरूप ‘कार्यत्व’ भी याग में ही हैं, याग जनित अपूर्व में नहीं । (३) ‘कृत्युद्दश्यत्व’ स्वरूप ‘कार्यस्व भी अपूर्व का धर्म नहीं हो सकता । क्योंकि ‘निसर्गसुन्दर’ अर्थात् ’ स्वभावतः काम्य’ ही कृति का उद्देश्य हो सकता है, वह तो प्रकृत में ‘स्वर्ग’ ही हो सकता है, अपूर्व नहीं । क्योंकि अपूर्व ‘निसर्गसुन्दर’ अर्थात् स्वभावतः काम्य नहीं है। वह तो स्वाभावतः काम्य के विपरीत ‘औपाधिक काम्य’ है । पू० प० स्तनपान . जिस प्रकार स्तनपान स्वतः काम्य ( स्वतः इष्ट ) न होने पर भी कृति का उद्देश्य केवल इस लिये होता है कि वह स्वतः इष्ट का साधन है, उसी प्रकार अपूर्वं भी चूंकि स्वर्ग स्वरूप स्वत। इष्ट का साधन है, अतः कृति का उद्देश्य हो सकता है । अर्थात् कृत्युद्देश्यता भी स्वभाविक एवं गोपाधिक भेद से दो प्रकार की है, कृति की स्वाभाविक उद्देश्यता सुख एवं दुःखाभाव इन दोनों में ही है, प्रोपाधिक कृत्युद्दश्यता कथित दोनों इष्टों के साधनों में भी है । अतः अपूर्व में मो यह औपाधिक कृत्युद्दश्यता रह सकती है । सि० प० सापि … ‘सापि’ अर्थात यह ‘औपाधिक कृत्युद्दश्यता’ भी स्वर्ग के यागादि साधनों में ही रह सकती है । क्योंकि स्वर्ग हैं साध्य और याग है साधन । याग की यह स्वर्ग साधनता ‘अपूर्व’ के बिना अनुपपश रहती है । इसी लिये ‘अपूर्व’ की कल्पना की जाती है । अतः याग ही स्वर्ग का साधन है, अपूर्व नहीं । इस लिये साघनत्व रूप से याग का प्रन्वय भावना में मीमांसकगण मानते हैं, एवं तदनुसार ‘योगेनेष्ट’ भावयेत’ यही ‘यजेत’ पद का विवरण उन्हें अभिप्रेत है । क भ पू थ पू a f S
पञ्चमः स्तबकः कालव्यवधानान्नैतन्निवहतीति चेत्; यथा निर्वहति श्रुतानुरोधेन तथा कल्प्यताम् । व्यापारद्वारा कथञ्चित् स्यात् । न तु भिन्नकालियोर्व्यापारव्यापारि भावः, कारणत्वञ्च व्यापारेण युज्यते । अव्यवधानेन पूर्वकालनियमश्च तत्त्वम् । अन्यथाऽतिप्रसङ्गादिति चेन्न । पूर्व भावनियममात्रस्य कारणत्वात् । कार्यानुगुणावान्तरकार्यस्यैव व्यापारत्वात् । कृषिचिकित्सादो बहुलं तथा व्यवहारात् । लाक्षणिकोऽसाविति चेत् । न । मुख्या- थं वे विरोधाभावात् । पू० प० कालव्यवधानात् याग स्वर्ग का साधन नहीं हो सकता, क्योंकि क्रिया होने के कारण वह स्वर्ग के अव्यवहित पूर्वक्षण में नहीं रह सकता । सि० प० यथा" याग में स्वर्ग की साघनता वेद वाक्य द्वारा प्रमाणित है । अतः वेद को माननेवाले प्रत्येक आस्तिक के लिये उक्त ‘साधनता’ को उपपन्न करना आवश्यक है । यह कर्तव्य केवल हम नैयायिकों का ही नहीं है । पृ० प० व्यापार द्वारा" ….. याग में स्वर्ग की साबनता ( कारणता ) की उपपत्ति तो ‘अपूर्व’ को मध्यवर्त्ती व्यापार मान लेने पर ही कांचित हो सकती है, किन्तु भिन्न कालों में रहनेवाले ( विभिन्न कालिक ) दो वस्तुओंों में व्यापार व्यापारिभाव अर्थात् एक का व्यापार होना और दूसरे का व्यापारी होना भी संभव नहीं है । क्योंकि ‘कारण’ स्वरूप वस्तु का ही व्यापार होता है । अव्यवहित पूर्ववर्ती न होने से जब याग ‘कारण’ ही नहीं है तो ‘प्रपूर्व’ उसका व्यापार भी कैसे होगा ? यदि ‘कारण’ को कार्य को अव्यवहित पूर्व में रहना आवश्यक न मानें तो प्रतीत दण्ड से घटकार्य की उत्पत्ति स्वरूप ‘अतिप्रसङ्ग’ आ पड़ेगा । श्रतः प्रपूर्व स्वरूप व्यापार के द्वारा भी याग में स्वर्ग साधनता की उपपत्ति नहीं हो सकती । न, पूर्वभाव - स्वर्ग के अव्यवहित पूर्व क्षण में विद्यमान रहने से ही याग में स्वर्गसाधनता की अनुपपत्ति दी गयी है, किन्तु ‘कारण’ होने के लिये कार्य की उत्पत्ति अव्यवहित पूर्वक्षण में वस्तु की सत्ता की अपेक्षा नहीं है । कारण होने के कार्य से पूर्व नियमतः रहना ही पर्याप्त है, ( अव्यवहितपूर्व काल में नहीं ) तदनुसार याग भी स्वर्ग का साधन है ही । कार्य की उत्पत्ति के अनुकूल ‘अवान्तर’ अर्थात् मुख्य कारण जन्य मध्यवर्ती कारण ही ‘व्यापार’ कहते हैं । यदि याग स्वरूप मुख्य में ही कारणता नहीं रहेगी, तो किससे उत्पन्न मध्यवर्ती
७८४ गद्यपद्यात्मक-म्यायकुसुमाञ्जली अस्तु तर्हि पुत्रेण हते ब्राह्मण चिरध्वस्तस्य पितुस्तमवान्तरव्यापारी कृत्य कर्तृत्वम् । तथा च लोकयात्रा विप्लव इति चेत् । न । सत्यपि सुते कदाचित्त- दकरणात् । तस्मिन्नसत्यपि कदाचित् कररणादनिर्वाहकतया तस्य व्यापारत्वा- योगात् । । यं जनयिश्वेव हि यं प्रति यस्य पूर्वभावनिर्वाह ।, स एव तं प्रति तस्य व्यापारो नापरः । यथानुभवस्य स्मरणं प्रति संस्कारः । तस्य ह्यन्वयव्यतिरेकानु- विषाने सिद्धे तदन्यथानुपपत्या संस्कारः कल्प्यते, न त्वन्यथा । । अनेक उदाहरण हैं । जैसे कि फिर भी ये अन्न के कारण हैं । मपूर्व व्यापार कहलारगा ? कृषि चिकित्सा प्रभूति इसके हलकर्षणादि ‘कृषिकार्य’ प्रम्न की उत्पत्ति के समय नहीं रहते, बारोग्य के अव्यवहित पूर्वक्षण में रहने पर भी धातुसाम्य के द्वारा चिकित्सा आरोग्य का कारण होता है । उसी प्रकार स्वर्गोत्पत्ति के अव्यवहित पूर्वक्षण में विद्यमान न रहने पर भी याग प्रपूर्व के द्वारा स्वर्ग का साधन हो सकता है । कृषि प्रथवा चिकित्सा में अन्न अथवा प्रारोग्य के मुख्य कारणत्व के व्यवहार का जब कोई बाधक नहीं है, तो उन में उन कार्यों के करणत्व के व्यवहार को ‘लाक्षणिक’ अर्थात् गौण कहना साहस मात्र है । पृ० प० प्रस्तु तर्हि … कार्य की उत्पत्ति से प्रम्यवहित पूर्वक्षण में न रहने पर भी व्यापार के द्वारा यदि कारणता संभव हो तो ब्रह्मवध का कर्तृत्व स्वरूप कारणता ब्रह्मबध करने वाले पुरुष के पिता में उस पुत्र स्वरूप व्यापार के द्वारा माननी होगी । किन्तु ऐसा मानना सर्वानुभव विषद्ध है । जिससे लोक व्यवहार का चलना ही असम्भव हो जायगा । सि० प० न, सत्यपि पुत्र पिता में उक्त वध कर्तृत्व स्वरूप कारणत्व का व्यापार नहीं हो सकता । क्योंकि पुत्र के रहने पर पिता कदाचित् ब्रह्मवध नहीं भी करता है। कि वा पुत्र के न रहने पर भी पिता ब्रह्मवध कर सकता है । इस लिये पुत्र चूकि पिता में ब्रह्मवच कर्तृत्व का निर्वाहक नहीं है, अतः पुत्र प्रकृत में व्यापार नहीं हो सकता । जिस को उत्पन्न करके ही जो जिसका पूर्ववर्ती हो, वही उस मुख्य कारण का व्यापार है, अन्य कोई नहीं। जैसे कि पुर्वानुभव संस्कार के उत्पादन द्वारा हो स्मरण का कारण होता है। पूर्वानुभव के बिना स्मृति नहीं होती है । पूर्वानुभव के रहने पर स्मृति होती है। इस प्रकार प्रन्वय और व्यतिरेक दोनों के निर्णीत हो जाने पर पूर्वानुभव में स्मृति की कारणता सिद्ध हो जाती है । किन्तु पूर्वानुभव में स्मृति की यह कारणता संस्कार की कल्पना के बिना अनुपपन्न है, प्रतः ‘संस्कार’ की कल्पना की जाती है। ‘संस्कार’ स्वरूप व्यापार की कल्पना का कोई अन्य प्रयोजक नहीं है।
पञ्चमः स्तबकः 9=2 तथेहापि । न चेदेवं, तवापि ब्रह्मभिदुरशरविमोकस मसमयहतस्य हन्तृस्वं न स्यात् । स्याच्च स्वनिवेशनशयानस्य तत्पितुरिति । एतेनोभयं वेति निरस्तम् । प्रस्तु तर्हि क्रियाधम्मं एव कार्यश्वं विधिः । सर्वो हि कर्तव्यमेतदिति प्रत्येति । ततः कुर्यामिति सङ्कल्प्य प्रवर्तते इति चेत् ? तथेहापि ….. इसी प्रकार याग में स्वर्ग की कारणता सिद्ध है। किन्तु प्रपूर्व के बिना वह कारणता असम्भव है । इसलिये ‘अपूर्व’ स्वरूप व्यापार की कल्पना करते हैं । किन्तु इससे याग में स्वर्ग की सर्वसिद्ध जो कारणता है, उसका अपलाप नहीं किया जा सकता ( न हि व्यापारेण व्यापारिणोऽन्यथासिद्धि:) यदि ऐसा न हो, कारण को कार्य का समानकालिक अथवा अव्य- वहित पूर्वक्षण कालिक होना अनिवार्य हो, तो आप के मत से जिस स्थल विशेष में किसी ने किसी ब्राह्मण को मारने के लिये घर छोड़ा, किन्तु शर छोड़ने के बाद घर छोड़ने वाले की ही मृत्यु हो जाती है । ब्राह्मण की मृत्यु तो उसके आगे के क्षण में होगी। यह निर्विवाद है कि उक्त ब्रह्मवध का कर्ता उक्त शर को छोड़नेवाला मृत पुरुष ही है किन्तु हनन कर्तृव स्वरूप कारणत्व उस पुरुष में उपपन्न नहीं होगा। क्योंकि ब्रह्मवध रूप कार्य के समय अथवा उससे अव्यबहित पूर्वक्षण में वह घर छोड़नेवाला पुरुष नहीं है । 1 केवल शर छोड़नेवाले उक्त पुरुष में ब्रह्मबध कर्तृत्व की अनुपपत्ति ही नहीं होगी, किन्तु उस समय बिछावन पर भाराम से सोने वाले उक्त पुरुष के पिता में ब्रह्मवधकतृ स्व की प्रापति भी होगी । क्योंकि ब्रह्मवध करनेवाले का पिता उस समय विद्यमान है । तस्मात् कारणत्व के लिये कार्य समकालवृतित्व प्रथवा कार्याव्यवहितपूर्वक्षणवृतित्व की कोई अपेक्षा नहीं है, किन्तु कार्य का नियत पूर्ववत्तिस्व मात्र हो केवल अपेक्षित है। स्वर्ग स्वरूप कार्य का यह नियतपूर्ववत्तित्व तो याग में है ही, अत याग में स्वर्ग की कारणता की कोई अनुपपत्ति नहीं है । इस प्रकार अपूर्वस्व एवं तद् गत कार्यत्व में विधि प्रत्यय के प्रवृत्तिनिमित्तत्व के खण्डन के कथित युक्तियों से ही जो कोई प्रपूर्वत्व एवं तद्गतकार्यत्व इन दोनों को सम्मिलित रूप से ( अर्थात् सामानाधिकरण्य सम्बन्धेन अपूर्वस्व विशिष्ट तद्गत कार्यत्व को ) विषि प्रत्यय का प्रवृत्ति निमित्त मानते हैं-उन का मत भी खण्डित हो जाता है । अस्तु’ तर्हि क्रियाधर्मः A. ‘यजेत’ पद के द्वारा “इदम् ( यागादिकम् ) कर्त्तव्यम् ( कार्यम्) मया” इस प्रकार का ज्ञान इस सन्दर्भ से घलोक के ‘न क्रियाप्यप्रवृत्सितः’ हस चौथे चरण की म्याक्या की गयी है। जिसके द्वारा यह कहा गया हैं कि ‘क्रिया’ स्वरूप’ कर्म में रहनेवाजे ‘कार्यस्व’ अर्थात् कर्तव्यस्थ धर्म भी विधि प्रत्यय का प्रवृत्तिनिमित नहीं है । 2ε
७८६ गच्चपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली न, कर्तव्यं मयेति कृत्यध्यवसायार्थो वा स्यात्, कर्तव्यं मयेत्युचितार्थो वा स्यात् । तत्र प्रथमः सङ्कल्पान्न भिद्यते । व्यवहितकार्ये सङ्कल्पो हि कर्तव्यो मयेति, सन्निहित कार्यसङ्कल्पस्तु कुर्यामिति । स च न लिङर्थः । सत्तामात्रेण प्रवर्तनादित्यु- कम् । तदेतत् कर्तव्यतायां जातायां प्रवर्तत इति वस्तुस्थिती भ्रान्तैर्ज्ञातायामिति गृहीतम् । प्रोचित्यन्तु क्रियाधम्मः प्रागभाववत्त्वम्, तस्मिन् सति शक्यत्वं वा, तस्मिन् सति कर्तारं प्रत्युपकारकत्वं वा ? । प्रथमे कुतश्विदपि न निवर्त्तेत 1 होता है । इसके बाद ‘कुर्याम्’ इस प्राकार का संकल्प उदित होता है । उसके बाद याग में प्रवृत्ति उत्पन्न होती है । अत याग: स्वरूप ‘क्रिया’ निष्ठ ‘कार्यत्व’ श्रर्थात् कर्त्तव्यत्व ही विधिप्रत्यय का अर्थ है । सि० प० न, कर्त्तव्यं मया विधिवाक्य से ‘मयेदं कर्त्तव्यम्’ इस आकार के बिस ज्ञान की चर्चा की गयी है ( १ ) क्या वह ज्ञान ‘कृत्यध्यवसाय’ स्वरूप है ? ( अर्थात् कृत्यनुकूल इच्छा विषयक है ?) अथवा ( २ ) करने के योग्य वस्तु विषयक है ? इन में से पहिला ज्ञान चूंकि इच्छा विषयक ज्ञान स्वरूप हैं, भतः स्वयं ‘संकल्प’ रूप है । इतना ही अन्तर है कि व्यवहित कार्यं विषयक – ‘संकल्प’ का अभिलाप ‘मया कर्तव्यम्’ इस वाक्य से होता है । एवं संनिहित कार्य विषयक संकल्प का अभिलापक वाक्य ‘कुर्याम्’ इस प्राकार का होता है । अत: ‘मया कर्त्तव्यम्’ इस ज्ञान से ‘कुर्याम्’ यह संकल्प उदित होता है । किन्तु दोनों संकल्प स्वरूप ही हैं । पहिले यह दोनों ही बातें कही जा चुकी है कि संकल्प स्वयं प्रवृत्ति का कारण है, उसका ज्ञान प्रवृत्ति का कारण नहीं है । एवं ( २ ) एवं विध्यर्थं को ज्ञात हो कर प्रवृत्ति का कारण होना आवश्यक है । तस्मात् ‘कुर्याम्’ इस आकार का संकल्प विधि प्रत्यय का अर्थ नहीं हो सकता, क्योंकि वह स्वयं प्रवृत्ति का उत्पादक है । वस्तुस्थिति यह है कि ‘कर्तव्यता’ स्वरूप संकल्प के उत्पन्न होने के बाद ही पुरुष प्रवृत्त हो जाता है, किन्तु भ्रान्तिषश प्राप ( मीमांसक ) कहते ‘कर्तव्यता’ के ज्ञान के बाद प्रवृत्ति होती है । प्रौचित्यम् ( कथित दूसरे विकल्प में जिस कर्तव्यता अर्थात् ‘औचित्य’ की चर्चा की गयी है, वह ) औचित्य क्या वस्तु है ? (१) क्या वह ‘क्रिया’ का प्रागभाव स्वरूप हैं ? ( २ ) प्रथवा प्रागभाव विशिष्ट कृति साध्यत्व स्वरूप है ? (३) किं वा प्रागभाव और कृतिसाध्यत्व एतदुभय विशिष्ट इष्टसाधनत्व स्वरूप है ?
पश्चमः स्तबका द्वितीये दुःखेऽपि तथाविधे प्रवर्त्तेत । तृतीये तु वक्ष्यते ॥१२॥ ७६७ अस्तु तर्हि करणधम्मं । न । करणं हि शब्दः, तद्धर्मोऽभिघा वा स्यात्, तदर्थों भावनादिर्वा, तद्धम्मं इष्टसाधनता वा ? । न प्रथमः । प्रथमे कुतश्चित् श्रसस्वादप्रवृत्तेश्च नाभिधाऽपि गरीयसी । बाधकस्य समानत्वात् परिशेषोऽपि दुर्लभः ॥ १३ ॥ इन में ( १ ) प्रथम पक्ष तो इस लिये प्रयुक्त है कि विषपानादि अनिष्टकार्यों से भी मनुष्य सर्वया निवृत्त नहीं होता है ’ । द्वितीये दुःखेऽपि 66 है’ यदि कथित द्वितीय पक्ष मानें तो दुःखजनक कार्यों में भी लोगों की स्वाभाविक प्रवृत्ति माननी होगा। क्योंकि दुःखजनक कार्यों का भी तो प्रागभाव है ही । एवं वह लोगों की कृति के साथ भी हैं। अतः द्वितीय प्रकार का भो ‘औचित्य’ ( कार्यस्व ) स्वीकार नहीं किया जा सकता । तृतीयेऽपि कथित तोसरे प्रकार के ‘ओचित्य’ लक्षग को स्वकार करने के पक्ष में आगे ( इष्टसाधनतापक्षेऽपि इत्यादि से ) दोष दिखलावेंगे ।। १२ ।। पू० प० अस्तु तर्हि … शाब्दबोध रूपा ‘क्रिया’ के कर्तृ कारक अथवा कर्मकारक में रहने वाले धर्म भले ही कथित श्रापत्तियों के कारण विधि प्रत्यय के अर्थ न हो सकें, तथापि उक्त क्रिया के ‘शब्द’ स्वरूप ‘करण’ के ‘अभिषा’ प्रभृति धर्मों को हो विधिप्रत्यय का अर्थ मान लिया जाय । सि० प० न करणं हि किन्तु यह पक्ष भी ठोक नहीं है, क्योंकि प्रकृत में करणीभूत शब्द के ( १ ) अभिषा (२) भावना (३) एवं इष्ट साधनता ये तीन ‘धर्म’ हो विधि प्रत्यय के अर्थ हो सकते है, किन्तु इनमें से प्रथम पक्ष इसलिए ठीक नहीं है कि- १. २. कहने का तात्पर्य है कि लोक स्वभाववा इष्ट कार्य में प्रवृत्त होता है एवं अनिष्ट कार्यों से निवृत होता है । विधि है प्रवृत्ति का जनक, अतः विधि का ‘कार्य- प्रागभाव’ अर्थ होता है । यह प्रागभाव तो अनुष्ठेय याग एवं अननुष्ठेय कक्ष मक्षया दोनों का समान है । याग की प्रवृत्ति में एवं कलञ्जमक्षण की प्रवृत्ति में युक्तियां समान हैं । किन्तु ‘औचित्य’ की दृष्टि से तो याग में प्रवृत्ति और कलञ्जभक्षण में निवृत्ति होनी चाहिये, किन्तु कथित ‘पक्ष’ के अनुसार सो उपपन्न नहीं होता है । कर्ता और कर्म इन दोनों कारकों के धर्मों में विध्यर्थत्व के खण्डन के बाद शाब्दबोध के ‘करण’ कार कीभून ‘शब्द’ गत धर्मों में विध्यर्थत्व का खय न इस श्लोक से किया गया है । उसी का उपक्रम ‘प्रस्तु तर्हि इत्यादि से बांधा गया है ।
७६८ सि० प० असत्वात् गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली (१) शब्द स्वरूप करण में रहने वाली ‘अभिषा’ नाम की किसी वस्तु की ‘सरव’ अर्थात् विद्यमानता नहीं है । अप्रवृत्तेश्च (२) दूसरी बात यह है कि ‘प्रभिषा’ इस शब्द के द्वारा कथित ‘अभिवा’ स्वरूप शब्दनिष्ठ ‘धर्म’ का ज्ञान रहने पर भी प्रवृत्ति नहीं होती है । वही विधि प्रत्यय का ब हो सकता है, जिसके ज्ञान से प्रवृत्ति हो सके । बाधकस्य जिस प्रकार कथित कर्तृधर्म एवं कर्म कारक के धर्मों को विधि प्रत्यय का अर्थ स्वीकार करने में बाधक है, उसी प्रकार प्रकृत में ‘करण’ के ‘श्रभिधा’ स्वरूप धर्म को विधि प्रत्यय का अर्थ स्वीकार करने में भी बाधक है । मत। परिशेषानुमान के द्वारा भी करणीभूत शब्द के ‘अभिषा’ स्वरूप धर्म को विधि प्रत्यय का अर्थ नहीं माना जा सकता । १. भट्टानुयायी मीमांसकों का कहना है कि शाब्दबोध स्वरूप ‘क्रिया’ के करण स्वरूप ‘शब्द’ में रहने वाले अभिधा, भावना और इष्टसाधनता नाम के धर्म भी विधि प्रत्यय के अर्थ हैं। शब्द के इन अभिघादि धर्मों के प्रसन में महर्षिकचपश्री कुमारिल भट्ट की उक्ति है कि- श्रभिघां भावना माहुरन्यामेव लिङादय: । अर्थात्मभावना चान्या सर्वाख्पातेषु गभ्यते ॥ ‘जिsोऽभिघा सैच च शब्दभावना भाव्या च तस्याः पुरुषप्रवृति:’ । अर्थात् वैदिक लिकादि प्रत्यय ‘अम्मा’ अर्थात् ‘आर्थी भावना’ से भिन्न ‘अभिधा’ नाम के एक विशेष प्रकार के व्यापार का वाचक है। जिसको ‘शब्दभावना’ कहते हैं । ‘अम्मा’ अर्थात् इस शाब्दी भावना से भिन्न दूसरी भावना– जिसे ‘श्रार्थी माचना कहते है— सभी प्रारूपात प्रत्ययों का साधारण अर्थ है । 1 भट्टानुयायियों का तात्पर्य है कि पुरुष की प्रवृशि दो प्रकार की हैं। एक स्वेच्छा से, दूसरी दूसरे की प्रेरणा से । इनमें प्रथम प्रकार की प्रवृशि का कारण उस प्रवृत्त पुरुष का इष्टसाधनता विषयक ज्ञान है, दूसरी प्रकार की प्रवृत्ति ‘प्रवत्त’ना’ के ज्ञान से होती है । यह ‘प्रवर्शना’ प्रवृत्ति करानेवाले पुरुष में रहने वाले एक विशेष प्रकार का ‘व्यापार’ स्वरूप है। प्रवृत करानेवाला जहाँ चेतन पुरुष ( पिता गुरु प्रभृति ) होता है, वहाँ ‘ब्रहमेनं प्रवर्शयामि’ इस आकार की इच्छा स्वरूप है, जो उक्त प्रवृत्त कराने वाले ( पिता या गुरु प्रभृति ) पुरुषों में रहती है ।
पञ्चमः स्तबका ७८६ किन्तु जहाँ वेदादि अचेतन पदार्थ प्रवर्तक हैं, वहाँ लिए, प्रत्यय प्रभृति शब्दों में रहने वाली प्रेरिका ‘अभिधा’ को स्वतन्त्र अतिरिक्त पदार्थ ही मानना होगा । अतिरिक्त पदार्थ स्वरूपा यह भावना चूँकि लिखावि प्रत्यय स्वरूप शब्दों में ही रहती है, अतः इसको ‘शाब्दी भावना’ कहते हैं । इस प्रकार कथित ‘भावना’ दो प्रकार की है ( १ ) शाब्दी भावना एवं (२) आर्थी भावना | दोनों ही मावनायें किम्, केन एवं कथम्’ अर्थात् साध्याकांचा साधनाकांक्षा एवं इतिकर्तव्यताकांक्षा ( कथं भावाकांक्षा ) इन तीन शाकांक्षाओं से युक्त हैं । इनमें शाब्दी भावना का साध्याकांक्षा ( भाव्याकांक्षा ) स्वरूप प्रथमाकांक्षा की पूर्ति पुरुष की प्रवृशि से होती है । अर्थात् पुरुष की प्रवृशि ही शाब्दी भावना की प्रथमाकांक्षा का फल है । इसके बाद स्वभावतः यह साधनाकांक्षा जागृत होती है ‘केन भावयेत्’ अर्थात् वैदिक लिङ, प्रत्यय स्वरूप शब्द निष्ठ भावना (शाब्दी भावना) के द्वारा किसके सहाय्य से पुरुष प्रवृत होता है ? इसका यह उधर है ‘सम्बन्धबोध’ के साहाय्य से पुरुष प्रवृत्त होता है । अर्थात् नक ‘प्रदर्शना’ में जो लिङ प्रत्यय का वाष्य- वाचकभाव स्वरूप सम्वन्ध है, उप ‘सम्बन्ध ज्ञान’ के सहाया से लिए शब्द के द्वारा प्रवृति की उत्पत्ति होती है । उसके बाद पुन: यह नैसर्गिक आकांक्षा जगती है कि ‘कया रीश्या’ अथवा केन प्रकारेण ? शर्थात् कथित ‘सम्बन्धबोध’ स्वरूप साधन से किस प्रकार प्रवृत्ति उत्पन्न होती है ? इस प्रश्न का यह उत्तर है कि ‘प्ररोचना’ से । अर्थात् याग के प्राशस्त्य के बोधक जो श्रर्थवादवाक्य हैं, तद्बोध्य ‘स्तुति’ के द्वारा ‘सम्बन्धबोध’ स्वरूप साधन से प्रवृत्ति की उत्पत्ति होती है । अर्थात् जिस समय पुरुष को याग में होने वाले अर्थव्यय एवं शारीरिक फ्लेशादि के अनुसन्धान से बाग की प्रवृत्ति बारुद्व होने लगती है, उस समय प्रार्थवादिक प्राशस्त्यज्ञान से उक्त दुःख की अपेक्षा अधिक J सुख के अनुसन्धान से यागादि विषयक द्वेष से प्रवृति में जो अवरोध उपस्थित था, वह हट जाता है । इसके बाद पुरुष याग में प्रवृत्त हो जाता है । श्रार्थी भावना के भी (१) साध्य ( २ ) साधन एवं (३) इनितृव्यता ये तीन अंश है । इनमें ‘याग’ है करण, ‘स्वर्ग’ है साध्य ( कार्य ) एवं दर्शपौर्णमा- सादि यागों के प्रयाज अनुयाजादि हैं इतिकत्तव्यता’ | तदनुसार ‘प्रयाजाचतुष्ठान द्वारेण ‘यागेन स्वर्गं भावयेत’ यह बोध उत्पन्न होता है । इस बोध में विषयीभूत भावना’ में याग करयाश्वेन, स्वर्गं साध्यत्वेन और प्रयाजादि इतिकर्तव्यताध्वेन अन्वित होते हैं । 1 कथित ‘शाब्दीभावना’ नाम की ‘अभिषा’ को ही भट्टसरादायानुयायी मीमांसक विधि प्रत्यय का अर्थ मानते हैं । CCO. Vasishtha Tripathi Collection. Digitized by eGangotri०६० गच्चपद्यात्मक-म्यायकुसुमाञ्जली सङ्गतिप्रतिसन्धानाधिकायां तस्यां प्रमाणाभावात् । अन्यसमवेतस्या पूर्व- वदन्यव्यापारत्वेनाप्युपपत्तेः । विषयतयाऽपि च स्वव्यापारं प्रति लिङ्गवद्धेतुभावा- विरोधात् । सि० प० सङ्गतिप्रतिसन्धान शब्द से जो अन्वयबोध उत्पन्न होता है, उसके मध्य में ‘सङ्गतिप्रतिसन्धान’ अर्थात् शक्ति स्मरण एवं तज्जन्य पदार्थोपस्थिति से अतिरिक्त किसी अन्य व्यापार की सत्ता प्रमाण से सिद्ध नहीं है । श्रन्यसमवेतस्य ( इस प्रसङ्ग में भट्टमतानुयायियों का कहना है कि व्यापार एवं व्यापारी का एक आश्रय में रहना आवश्यक है । ‘सङ्गति प्रतिसन्धान’ स्वरूप व्यापार आत्मा का धर्म है । शब्द स्वरूप व्यापारी प्रकाश का धर्म है। अतः कथित ‘सङ्गति प्रसन्धान’ शब्द स्वरूप व्यापारी का व्यापार नहीं हो सकता । अतः शब्द का सम्बन्ध ही उसका व्यापार है । वह सम्बन्ध कथित ‘अभिघा’ स्वरूप है, किन्तु उन लोगों का उक्त कथन भी सर्वथा सत्य नहीं है) क्योंकि यह सत्य है कि अधिकांश स्थलों में व्यापार एवं व्यापारी एक प्राधय में रहते हैं, किन्तु ऐसा नियम नहीं किया जा सकता कि सभी व्यापार एवं व्यापारी एकत्र ही रहें । क्योंकि भट्टों के अनुयायी भी याग से स्वर्ग के उत्पादन में अपूर्व को व्यापार मानते हैं । यह अपूर्व स्वरूप व्यापार आत्मा का धर्म है। किन्तु याग स्वरूप व्यापारी का वह व्यापार होता ही है । इस लिये यह कहना ठीक नहीं है कि शब्द एवं सङ्गतिप्रतिसन्धान ये दोनों चूँकि विभिन्न अधिकरणों में रहते हैं, अतः उनमें व्यापारव्यापारिभाव नहीं हो सकता । विषयतयापि ( इस प्रसङ्ग में एक और आपत्ति उठाई जाती है कि व्यापार को करण स्वरूप व्यापारी से उत्पन्न होना चाहिये। किन्तु शब्द स्वरूप करण ( व्यापारी ) से सङ्गति- प्रतिसन्धान स्वरूप व्यापार उत्पन्न नहीं होता है | अतः ‘सङ्गतिप्रतिसन्धान’ शब्द स्वरूप करण का व्यापार नहीं हो सकता, किन्तु ) मनः संयोगादि के समान ही विषय भी ज्ञान का एक कारण है । इसी युक्ति के अनुसार परामर्श हेतु का व्यापार कहलाता है। क्योंकि ‘हेतु’ परामर्श का उत्पादक कारण है । इसी प्रकार सङ्गति स्मृति में भो शब्द विषय विषया भासित होता है, अतः शब्द सङ्गति स्मृति का भी कारण है । इसलिये सङ्गतिस्मृति को शब्द का व्यापार होने में कोई बाधा नहीं है ।’ 1. वर्द्धमान ने श्राचार्य के उक्त समाधान की मालोचना करते हुये लिखा है कि विषय प्रत्यक्षात्मक ज्ञान का ही कारण है । परोक्षज्ञान तो विषय के न रहने पर तच्छ्रा अर्थवि अधिक तथापि न होने का वा प्रवृत्ति के शब्द शब्द स्व उस प्र नहीं मा पू०प० लिङादि से प्रवृ शब्दों से सि० प ज्ञान के 1. भ ‘f नो
पश्चमः स्वबफ। ७६१ अधिकत्वेऽपि ततोऽप्रवृत्तेः । बालानां तदभावेऽपि तद्भावात् । शब्दान्तरेण तच्छ्राविलामप्यप्रवृत्तेः । न च विलक्षणैव सा लिङो विषयः । तद्वैलक्षण्यं प्रतिपत्ति प्रति चेतुः अर्थविशेषोऽपि स्यात् । अधिकत्वेऽपि ’ । यदि शब्द का ‘शाब्दोभावना’ स्वरूप ‘अभिधा’ नाम का कोई व्यापार मान भी लें, तथापि वह लिङ प्रत्यय का अर्थ नहीं हो सकता क्योंकि वह ‘अभिघा’ प्रवृत्ति का उत्पादक न होने से ‘पुरुषार्थ’ नहीं है । क्योंकि ‘बालक’ को अर्थात जिस पुरुष को ‘ग्रभिवा लिङ्प्रत्यय का वाच्य है’ इस प्रकार का शक्तिज्ञान नहीं है, उस पुरुष को भी लिंङ, पद के श्रवण से प्रवृत्ति होती है । एवं ‘यजेत’ प्रभृति लिङ् प्रत्ययान्त पदों से भिन्न ‘अभिघा’ इस आनुपूर्वी के शब्द से अभिधा स्वरूप अर्थ का ज्ञान होने पर भी प्रवृत्ति उत्पन्न नहीं होती है । तस्मात् शब्द स्वरूप करण का यदि ‘प्रभिधा’ नाम का एक व्यापार स्वीकृत भी हो जाय, तथापि उस ‘प्रभा’ में चूकि प्रवृत्ति को उत्पादकता नहीं है, अतः उसको विधि प्रत्यय का वाच्य अर्थ नहीं माना जा सकता । पू० प० न च विलक्षणैव ‘अभिधा’ शब्दों से उत्पन्न ‘अभिघा’ के साधारण ज्ञान से प्रवृत्ति के न होने पर मी लिङादि शब्द जनित जो प्रभिधा का विशेषज्ञान होता है, अभिधा विषयक उस ‘विशिष्टज्ञान’ से प्रवृत्ति हो सकती है । अभिधा का यह ‘विशेष प्रकार’ का ज्ञान अभिषा, भावना प्रभृति शब्दों से नहीं हो सकती । सि० प० तद्वैलक्षण्यम् ज्ञानों में वैशिष्ट्य दो प्रकार से संभव है । ( १ ) विषय के द्वारा एवं ( २ ) स्वतः ज्ञान के ही द्वारा । यदि प्रथम रीति के अनुसार प्रवृत्ति के जनकीभूत प्रभिधा के ज्ञान का 1. मी होता है। स्मृति चूँकि परोक्षज्ञान है, अतः वह विषय जम्य नहीं है । इसलिये ‘विषयतयापि’ इत्यादि सन्दर्भ आचार्य ने अपने मत के अनुसार नहीं लिखा है, किन्तु जो कोई परोक्षज्ञान में भी विषय को कारण मानते हैं, उनके अनुसार लिखा है । उक्त सन्दर्भ श्लोक के ‘अप्रवृत्तेश्च’ इस अंश का विवरण स्वरूप है । ‘म च विलक्षणैव’ यह सन्दर्भ श्लोक के उत्तराय की व्याख्या रूप है ।
७६२ चेन्न । गद्यपद्यात्मक - न्यायकुसुमाञ्जली प्रवृत्तिमात्रं प्रति चेत् प्रभिधासमवेतं तदिति कुतः १ तत्सन्निधानादिति कोई ऐसा विशिष्ट वस्तु विषय होना चाहिये, जिससे अभिघा का प्रकृत विशिष्टज्ञान अभिघा के ही धन्य सामान्यज्ञानों से अलग समझा जा सके । किन्तु लिङ प्रत्यय से उत्पन्न अभिषा के ज्ञान में, एवं अभिधा शब्द जन्य अभिधा के ज्ञान में, ऐसा कोई विषयमूलक प्रन्सर नहीं प्रतीत होता है । प्रत विषय के वैशिष्ट्य से ज्ञान में वैशिष्ट्य संपादन के द्वारा प्रवृत्ति की उपपत्ति नहीं की जा सकती । ‘यदि द्वितीय रीति से प्रवृत्ति जनकीभूत प्रभिधा के ज्ञान को ‘वशिष्ट’ कहेंगे, तो इसका यह अर्थ होगा कि अभिधा के जिस ज्ञान को लोग प्रवृत्ति का जनक कहें, वही अभिवा लिङ, प्रत्यय का वाच्य अर्थ हैं" किन्तु लोग सो अभिधा को प्रवृत्ति का जनक ही नहीं मानते । तस्मात् अभिषा को लिड, प्रत्ययार्थ मानने के पक्ष में प्रवृत्ति की उपपत्ति नहीं की जा सकती । पू० प्र० प्रवृत्तिमात्रम् अभिषादि शब्द जन्य अभिधा के साधारण ज्ञान से चूँकि प्रवृत्ति की उत्पत्ति नहीं होती है, छतः प्रवृत्ति स्वरूप कार्य के कारणीभूत अभिधा के विशिष्ट ज्ञान का अनुमान करेंगे । सि० प० ततु ….. इस अनुमान से यह सिद्ध नहीं होगा कि लिंङादि प्रत्यय के वाध्य ‘अभिधा’ विशेष प्रकार की हो। इस से तो इतना ही सिद्ध होगा कि प्रभिषा के जिस ज्ञान से प्रवृत्ति होती है, अभिधा विषयक वह ज्ञान अन्य सामान्य ज्ञानों से विलक्षण हैं । अभिघा विषयक इन दोनों ज्ञानों में वैलक्षण्य का निर्वाह तो विषयीभूत श्रभिषाओं में वैलक्षण्य न मान कर भी की जा सकती है । अर्थात् इस में कोई प्रमाण नहीं है कि प्रवृत्ति का प्रयोजकीभूत वैलक्षण्य अभिषा में ही हैं। पू० प० तत्संनिधानात् लिङ, प्रत्यय से जो बोध उत्पन्न होता है, उस में यह अभिघा भी विषय होती है । बुद्धि ‘गत इस ‘संनिधान’ अर्थात् सामीप्य के कारण प्रवृत्ति के अम्यकारणों में वैलक्षण्य न मानकर प्रभिधा में ही उक्त वैलक्षण्य मानना उचित है । 1. अर्थात् लिङ्गादि पद जन्य अभिधा विषयक ज्ञान को ही प्रवृत्ति का कारण मान लेने से कथित ‘व्यभिचार’ का वारण हो जाता है। इसी लिये अन्य आख्यात प्रस्थयों से यद्यपि अभिधा का बोध होता है, तथापि अभिधा के उस सामान्यज्ञान से प्रवृधि नहीं होती है । तुल्य सि प्रयो तो समा उक्त पू० निरस् हो ब सि० प्रभिघ वैलक्ष तत्सं में ही भी ठी थाग शब्देक हो सक अतः य ज्ञान ही यह कह संकेत गृ अतः उ
पश्चमः स्तबक! ७६३ अनियमात् । अन्यस्य सर्वस्य निषेधादिति चेन । प्रवृत्तिहेतुत्वनिषेघस्य तुल्यत्वात् । तत्सन्निधिनिषेधस्य चाशक्यत्वात् । शब्देकवेद्यत्वे चाव्युत्पत्तेः । सि० प० न … उक्त कथन ठीक नहीं है, क्योंकि यह तभी कहा जा सकता है, जब कि प्रवृत्ति का प्रयोजक उक्त वैलक्षण, केवल अभिधा में ही रहे । किन्तु बात ऐसी नहीं है, क्योंकि वह वैलक्षण्य तो अभिधा के ही समान प्रवृत्ति के इष्ट साधनत्वादि कारणों में, अथवा धात्वर्थ यागादि में भी समान रूप से है । प्रत: कथित संनिधान से यह नहीं सिद्ध होता है कि प्रवृत्ति प्रयोजकीभूत उक्त वैशिष्ट्य अभिषा में ही है। पू० प० अन्यस्य अभिषा से भिन्न इष्ट साधनत्वादि धर्मो में प्रवृत्ति की कारणता स्वरूप वैलक्षण्य के निरस्त हो जाने पर परिशेषात् प्रभिधा में ही प्रवृत्ति की कारणता स्वरूप वैलक्षण्य की सिद्धि हो जायगी । सि० प० प्रवृत्तिहेतुत्व जिस प्रकार याग अथवा इष्टसाधनत्व में प्रवृत्ति की कारणता नहीं है, उसी प्रकार प्रभिषा में भी प्रवृत्ति की कारणता नहीं हैं । अतः अभिधा में प्रवृत्ति की कारणता स्वरूप वैलक्षण्य की सिद्धि कैसे होगी ? तत्संनिधिनिषेधस्य " … ( इस प्रसङ्ग में यह कहा जा सकता है कि ‘यजेत्’ पद का संनिधान चूं कि ‘अभिघा’ में ही है, इस लिये प्रवृत्ति की कारणता स्वरूप वैलक्षण्य भी उसी में है । किन्तु यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि) ‘यजेत्’ का संनिधान तो जिस प्रकार अभिषा में है, उसी प्रकार थाग अथवा इष्टसाधनत्व में भी है ही । शब्देक- ( इसी प्रसङ्ग में यह कहना भी संभव है कि यद्यपि अन्यप्रमाणों में भी अभिषा का ज्ञान हो सकता है, फिर भी अन्य प्रमाणों से उत्पन्न अभिधा के ज्ञान से प्रवृत्ति नहीं होती है । अतः यह कल्पना सुलभ है कि केवल लिङ प्रत्यय स्वरूप शब्द प्रमाण से उत्पन्न अभिक्षा का ज्ञान ही प्रवृत्ति का कारण है, अन्य प्रमाणों से उत्पन्न अभिषा विषयक ज्ञान नहीं । किन्तु यह कहना मी सङ्गत नहीं है, क्योंकि ) अन्य प्रमाणों के द्वारा सिद्ध वस्तु में ही शब्द का संकेत गृहीत होता है । इस लिये उस ‘श्रभिषा’ में चूकि प्रवृत्ति की उत्पादकता नहीं है, अतः उसको विधि प्रत्यय का वाच्य नहीं माना जा सकता । १००
७६४ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली प्रवृत्यन्यथाऽनुपपत्तिसिद्धे व्युत्पत्तिरित्यपि वात्तंम् । न हि प्रवृत्तिहेतुः कश्चिदस्तीति प्रवर्तते । इष्टसाधनता तु स्यात् । सर्वो हि मया क्रियमाण नेतन्मतं समीहितं साघयिष्यतीति प्रतिसन्धत्ते, तत इच्छति कुर्यामिति, ततः करोतीति सर्वानुभवसिद्धम् । तदयं व्युत्पित्सुर्यज्ज्ञानात् प्रयत्नजननीमिच्छामवाप्तवान्, तज्ज्ञानमेव लिङ- श्राविरण प्रवृत्तिकारणमनुमिनोति । ततश्च कर्तव्य तैकार्थसमवायिनी इष्टसाधनता लिङथं इत्यवधारयति । पू० प० प्रवृत्यन्यथा · केवल याग की सत्ता मात्र से उसमें प्रवृत्ति नही होती है, अतः प्रवृत्ति का कोई अन्य कारण अवश्य है । वही ‘कारणीभूत वस्तु’ लिङ् प्रत्यय का अर्थ है । उसी वस्तु का नाम है ‘प्रभिषा’ अथवा ‘शाब्दीभावना’ । सि० प० न हि " 1 प्रवृत्ति की उक्त अनुपपत्ति से केवल इतना ही सिद्ध होगा कि याग से भिन्न प्रवृत्ति का कोई कारण है, किन्तु केवल इतने से ही तो अभिधा की उपपत्ति नहीं हो जायगी । अतः उक्त कथन भी ठीक नहीं है । पू० प० इष्टसाधनता ’ तु करण में रहनेवाला इष्टसाधनत्व ही विधि प्रत्यय का अर्थ है । सभी मनुष्यों को ‘मया क्रियमाणमेतन्मम समीहितं साधयिष्यति’ ( मुझ से क्रियमाण यह कार्य मेरे इष्ट का साधन करेगा ) पहिले इस आकार का प्रतिसम्धान होता है ( जिस से असाध्य मेरुशृङ्गादि के ग्रहण मैं कोई प्रवृत्ति नहीं होता है ) । इसके बाद ‘कुर्याम्’ अर्थात् ‘मैं करू" इसके बाद मनुष्य कार्य करता है । इस सार्वजनीन की इच्छा उत्पन्न होती है तिरस्कार नहीं किया जा इस प्राकार । अनुभव का सकता । फलत: कथित प्रतिसन्धान स्वरूप ज्ञान से इच्छा की उत्पत्ति होती है । इच्छा से प्रयत्न की उत्पत्ति होती है, और प्रयत्न से प्रवृत्ति उत्पन्न होती हैं । । इस वस्तुस्थिति के अनुसार जान पड़ता है कि ‘व्युत्पत्सु’ अर्थात् लिङ पद की शक्ति के ज्ञान स्वरूप ‘भ्युत्पत्ति’ की इच्छा जिस पुरुष को है, वह पुरुष अनुमान के द्वारा लिङ, 1. करण निष्ठ इष्ट साधनत्व ही विधि प्रत्यय का अर्थ है । यह मत प्राचीन नैयायिकों का है । यह मत उक सन्दर्भ से उपपादित होकर ‘हेतुत्वादनुमानाच्च’ इस लोक से सवित हुआ है । स त प का उत् वस का पू इष्ट को मान हो साध तथ है, व काय होग अनु ज्ञान कथि १.
पश्चिम स्वबेका ७५ न च वाच्यमेत्रञ्चेत् वरं कर्तव्यतैवास्तु, प्रवश्याभ्युपगमनीयत्वादः कृतमिष्ट- साधनतयेति । यथा हि नेष्टसाधनतामात्रं प्रतीत्य प्रवर्तते, असाध्येषु व्यभिचारात् । तथा हि प्रयत्नविषयमवायिनीमिष्टसाधनतामधिगम्याधिकारी प्रवर्तत इत्यनुभवः । पद को सुननेवाले पुरुष को जिस ज्ञान से उक्त इच्छा होती है, उस ज्ञान को ही प्रवृत्ति का कारण समझता है । क्योंकि वही विधिप्रत्यय का अर्थ हो सकता है, जिसका ज्ञान प्रवृत्ति का उत्पादक हो । अतः उक्त ‘व्युत्पत्सु’ पुरुष को यही अनुमान होता है कि ‘कर्तव्यविषयीभूत- वस्तुनिष्ठ दृष्टसाधनत्व ही अर्थात् कर्तव्यत्व समानाधिकरण इष्टसाधनत्व ही विधि प्रस्थय का अर्थ है । इस अनुमान से हों इष्टसाधनत्व में विधि प्रत्यय की शक्ति गृहीत होती है । पू० प० न च वाच्यमेवञ्च ेत् ….. ( कर्तव्यता के साथ एक अर्थ में रहने वाला इष्टसाधनत्व — कर्तव्यत्व समानाधिकरण इष्ट साधनत्व ) को ही यदि विधि प्रत्यय का अर्थ मानना है, तो फिर केवल ‘कर्तव्यत्व’ को ही विधि प्रत्यय का अर्थ क्यों नहीं मान लेते ? क्योंकि कथित इष्टसाधनत्व में शक्ति मानने के पक्ष में मो तो ‘कर्तव्यता’ में ( शक्यतावच्छे कविधा ) शक्ति को स्वीकार करना हो पड़ता है। यही : कर्तव्यता’ पहिले ‘कार्यता’ शब्द से कही जा चुकी है । फलतः इष्ट- साघनता को विधिप्रत्यय का अर्थ मानना व्यर्थ है ’ । तथा हि प्रयत्न ‘कर्तव्यता’ है ’ कृतिसाध्यता’ स्वरूप । उसका ज्ञान भो प्रवृत्ति में प्रवश्य ही अपेक्षित है, क्योंकि इष्टसाधनत्व ज्ञान के रहने पर भी सुमेरुशृङ्गादि के आहरण स्वरूप ‘कृत्यसाध्य’ कार्य में प्रवृत्ति नहीं होती है । किन्तु साथ साथ यह भी नियम है कि प्रयत्न जिस विषयक होगा, उसी में इष्टसाधनत्व की बुद्धि होने पर पुरुष प्रवृत्त होता है । इस सार्वजनीन अनुभव का अपलाप नहीं किया जा सकता । अर्थात् इष्टसाधनत्व एवं कर्तव्यत्त्र दोनों का ज्ञान प्रवृत्ति के लिये समान रूप से अपेक्षित है, कोई कम और कोई अधिक नहीं । अतः कथित युक्ति से इष्टसाधनत्व को विधिप्रत्यय का वाच्य होने से रोका नहीं जा सकता । १. यदि ‘कर्त्तव्यस्थ समानाधिकरण इष्टसाधनत्व’ को विधि प्रत्यय का शक्य ( वाडव ) अथं मानते हैं, तो शक्यतावच्छेदक विषया ‘कर्तव्यता’ में भी विधिप्रत्यय की शक्ति स्वतः स्वीकृत हो जाती है । अतः कर्तव्यता में विधिप्रत्यय की शक्ति को स्वीकार करना आवश्यक है । तो फिर उसी में विङ प्रस्षय की मुख्य शक्ति भी मान ली जाय । इष्टसाधनश्व में विधि प्रत्यय की शक्ति को स्वीकार करने की क्या आवश्यकता है ?
गद्यपद्यात्मक+यायकुसुमाञ्जली तत्र विषयो घातुना भावनाssख्यातमात्रेण, शेषन्तु तद्विशेषेण लिङा इत्येवमिष्टाभ्युपायतायामधिगतायामन्वयबलात् ताद्विषयस्येष्टसाधनत्वावगतिरिति कर्तव्य ते कार्थसमवायिनीष्टाभ्युपायता लिङः प्रवृत्तिनिमित्तमित्युक्तम् । करणस्येष्टसाधनताऽभिधाने ज्योतिष्टोमेनेति तृतीयया न भवियव्यमिति तु देश्यमवैयाकरणस्यावधीरणीयमेव । तत्र ‘पचति’ प्रभूति पदों से भी भावना का बोध होता है । ‘पच’ धातु से भावना के विषयीभूत पाक का बोध होता है । ‘यजेत’ पद में जो लिङ प्रत्यय स्वरूप आख्यात है, उसमें आख्यातत्व एवं लिङ्श्व ये दोनों धर्म हैं। अतः यजेत पद में जो ‘यज्’ धातु है, ‘उसका अर्थ है ‘याग’ । एवं उसमें जो लिङ प्रत्यय है, वह अपने आख्यातत्त्र’ धर्म के बल से भावना का वाचक है, एवं उसी में जो लिङस्व धर्म है, उसके प्रभाव से उस लिङ प्रत्यय की शक्ति इष्टसाधनत्व में है । प्रन्वयबलात् ( प्रश्न होता है कि जब एक ही लिङ प्रत्यय से भावना और इष्टसाधनत्व दोनों की उपस्थिति होती है, तो फिर शाब्दबोध में इष्टसाधनत्न का मान किस के विशेषण रूप में होगा ? इस प्रश्न का यह उत्तर है कि ) ‘अन्वय’ के बल से अर्थात् ‘यज्’ धातु भोर लिङ प्रत्यय इन दोनों के समभिव्याहार के बल से भावना के विषय याग में ही कथित इष्टसाधनत्व का विशेषण विधया भान होगा। क्योंकि भावना यदि इष्टसाधन है, तो भावना के कर्तृभूत पुरुष कतुक याग भी अवश्य ही इष्ट का साधन है । इस प्रकार याग में इष्टसाधनत्व का बोध चूंकि स्वरससिद्ध है, अतः प्राचीन नैयायिकगण कत्तव्यता के श्राश्रयीभूत याग में रहने वाले इष्टसाधनत्व ( कर्तव्यता समानविकरण इष्ट साधनत्व ) को ही विधि प्रत्यय का अर्थ मानते हैं । पू० प कररणस्येष्टसाधनताभिधाने 864 व्याकरणों के अनुशासन से अनभिज्ञ कुछ लोगों का कहना है कि यदि इष्टसाधनता को लिङ प्रत्यय का अर्थ मानेंगे तो ‘ज्योतिष्टोमेन यजेत’ इत्यादि स्थलों में तृतीया विभक्ति की उपपत्ति नहीं होगी। क्योंकि जहाँ प्राख्यात से ‘करण’ का अभिधान नहीं होता है, वहीं करण के वाचक पद से तृतीया विभक्ति होती है । प्रकृत में भावना का ‘करण’ हैं ‘याग, । याग निष्ठ इष्ट साघनत्व का ही प्रभिधान लिङ् प्रत्यय से हुआ है। अतः शक्यतावच्छेदक विषया याग भी लिइ प्रत्यय स्वरूप माक्यात से अभिहित हो जाता है । अतः प्रकृत में करण स्वरूप याग का अभिधान (शक्यतावच्छेदक विषया) चूँकि प्राख्यात से हो गया है, अतः ‘ज्योतिष्टोमेन’ में तृतीया विभक्ति नहीं हो सकेगी । O
पञ्चमः स्तयका ७६७ तत्सङ्ख्याऽभिधानं हि तदभिधानमाख्यातेन । न च तत् प्रकृते । न च यागेष्टसाधनाताऽभिघानं लिङा, किन्त्वन्वयबलात्तल्लभ इत्युक्तम् । यत्तु सिद्धोपदेशादपि प्रतीयते इष्टसाधनता, न चातः सङ्कल्पात्मा प्रवृत्तिरस्तीति देश्यम् । तत्र समुत्कटफलाभिलाषस्य समर्थस्य तत्साधनताऽवगमेऽपि न प्रवृत्तिरिति कः प्रतीयात् । सर्वपक्षसमान तम् समानपरीहा रंचेति ॥ १३ ॥ सि० प० तत् संख्या ( प्राचीन नैयायिकों ने उक्त आक्षेप का यह उत्तर दिया हैं कि ) अनभिहिताधिकार घटक जो ‘अभिधान’ है, उससे संख्या का अभिधान समझना चाहिये, तदनुसार उक्त नियम का यह स्वरूप निष्पन्न होता है कि जहां प्रारूपात से करणगत संख्या का अभिधान न हो, वहाँ करण बोधक पद से तृतीया विभक्ति होनी चाहिए। किन्तु ‘यजेत’ पद कर्त्ता में निष्पन्न आख्यात प्रत्यय से बना है । अतः वहाँ आख्यात से कर्तृगत संख्या का ही प्रभिधान होगा, करणगत संख्या का नहीं । अतः कथित ‘ज्योतिष्टोमेन’ पद में तृतीया की अनुपपत्ति नहीं है । न च यागेष्ट दूसरी बात यह कि लिङ, प्रत्यय से केवल इष्टसाधनत्व का ही प्रभिधान होता है, उसके यागनिष्ठत्व धर्म का नहीं । यागनिष्ठत्व का भान तो ‘अन्वयबल’ से होता है । अतः याग स्वरूप करण भी लिङ प्रत्यय रूप प्रख्यात से अनुक्त ही है । अतः प्रकृत में अनभिघा- विकारीय ‘अनमिघान’ शब्द का अर्थ यदि आख्यात से करण का अनभिधान ही मानें, अनभिधान का अर्थ संख्यानभिधान न मानें, तथापि प्रकृत ‘ज्योतिष्टोमेन’ पद में तृतीया की अनुपपत्ति नहीं है । ‘इष्ट साधनत्व गत या यागनिष्ठत्व का मान अन्वय के बल से ही होता है’ यह पहिले ‘अम्वयबलात्’ पद से कहा जा चुका है । पू० प० यत्तु सिद्धोपदेशात् वही विधिप्रत्यय का अर्थ हो सकता है, जो ‘साध्य’ हो । ‘सिद्ध’ वस्तु विधिप्रत्यय का अर्थ नहीं हो सकती । इष्टसाधनत्व तो ‘सिद्ध’ है, साध्य नहीं । यदि सिद्ध अर्थं को भी विधिप्रत्यय का अर्थ मानें, तो ‘यागः स्वर्गसाधनम्’ सिद्ध अर्थ के बोधक इस वाक्य को सुनने से भी प्रवृत्ति की आपत्ति होगी । अतः इष्ट साघनत्व विधिप्रत्यय का अर्थ नहीं हो सकता । सि० प० तत्र समुत्कट जिस पुरुष को जिस कार्य को संपादन करने की क्षमता है, एवं उस कार्य से होने वाले फल की बलवती इच्छा है, उस पुरुष को जिस कार्य में उस फल स्वरूप ‘इष्ट’ की साघनता जिस किसी भी प्रकार ज्ञात रहे—उस कार्य में वह पुरुष अवश्य ही प्रवृत्त होगा । तदनुसार ‘यागः स्वर्गसाधनम्’ इस सिद्धार्थं बोधक वाक्प से भी स्वर्ग की इच्छा रखने वाले पुरुष की प्रवृत्ति की आपत्ति ‘इष्ट’ हे |
७६ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली कि तेन । प्रत्राभिधीयते । अस्तु प्रयत्नविषयसमवायिनीष्टसाधवता प्रवृत्ति- हेतु । तथापि नासी लिङथं, सन्देहात् । सा हि किं साक्षादेव लिङाऽवगम्यते । स्तनपानादावनुमानादिव बालेन; किं वा तत्त्रतिवादितात् कुतविदर्थाद- नुमीयते चेष्टाविशेषानुमिता दिवाभिप्राय विशेषात् समयाभिज्ञेनेति सन्दह्यते । एव सति सा नाभिधीयते इत्येव निरयः ॥ १३ ॥ मत्राभिधीयते हेतुत्वावनुमानाश्च मध्यमादौ वियोगगयः । क्लृप्तसामर्थ्यान्निषेधानुपपत्तितः ॥१४॥ श्रन्यत्र . अथवा लिङ प्रत्यय का जो कोई भी अर्थ मानें, तत्समानार्थक सिद्ध अर्थ के वाक्य से होने वाली प्रवृति की आपत्ति तो दोनों पक्षों को समान है, अतः उसका समाधान भी दोनों ही पक्षों की समान रूप से अपेक्षित हैं । इसलिये कथित आपत्ति से एक पक्ष को तिरस्कृत नहीं किया जा सकता ॥ १३ ॥ सि० प० अत्राभिधीयते छ स में प्र न ग्र प्रसङ्ग में हम ( सिद्धान्ती ) कहते । क्योंकि विधिप्रत्यय से हृष्टसाधनत्व F प्रकृत में यह सन्देह उपस्थित स्तनपान में बालक के इष्टसाधनत्व का साक्षात् इष्ट साधनत्व को विधिप्रत्यय का अर्थ मानने के हैं कि इष्टसाधनत्व विधि प्रत्यय का अर्थ नहीं हो सकता विषयक अन्वयबोध की साक्षात् उत्पत्ति सन्दिग्ध है । होता है कि जैसे कि बालक के स्तनपान से अनुमिति होती है उसी प्रकार लिङ प्रत्यय होता है ? प्रथवा लिङ प्रत्यय के इष्टसाधनत्व का अनुमान होता है । से सीधे ही ( साक्षात् ) इष्टसाधनत्व का अन्वयबोध द्वारा प्रतिपादित किसी दूसरे अर्थ ( आताभिप्राय ) से जैसे कि ‘समयाभिज्ञ’ अर्थात् शब्द के सङ्केत से अभिश पुरुष को विशेष प्रकार की चेष्टा से विशेष प्रकार के अभिप्राय का अनुमान होता है ? इस सन्देह के कारण यही निर्णय करना पड़ता है कि इष्टसाधनश्व विधिप्रत्यय का अभिषेयार्थ नहीं है, किन्तु इष्टसाधनत्व चुकि आप्तपुरुष के अभिप्राय का विषय है, अतः प्राप्ताभिप्राय विषयत्व हेतु से इष्टसाधनत्व का अनुमान होता है । हेतुत्वात् इष्टसाधनत्व विधि प्रत्यय का वाध्य पर्थ नहीं हो सकता, क्योंकि इष्टसाधनत्व हो लोक में क्रिया के हेतु रूप में प्रयुक्त होता है । व या ही हे स व प्र
पञ्चमः स्तवक! तथा हि । अग्निकामो दारुणी मथ्नीयादिति श्रुत्वा कुत इत्युक्ते वक्तारो वर्दान्त, यतस्तन्मन्थनादग्निरस्य सिध्यतीति । अनुमानाञ्च्च 198 यदि इष्टसाधनत्व ही विधि प्रत्यय का अर्थ हो, तो इष्ट साधनत्व से विधिवाक्य का ‘अनुमान’ व्यर्थ हो जायगा । प्रतः दृष्टसाधनत्व से विधिवाक्य के अनुमान के कारण इष्ट साधनत्व विधि प्रत्यय का अर्थ नहीं हो सकता | मध्यमादी वियोगतः विधि प्रत्यय के मध्यमपुरुष एवं उत्तम पुरुष के ‘कुर्याः’ एवं ‘कुर्याम्’ इत्यादि स्थलों में चूकि ‘संकल्प’ को ही विधि प्रत्यय का अर्थ मानना पड़ेगा, अतः उन स्थलों में विधि प्रत्यय से इष्टसाधनत्व का बोध संभव ही नहीं है । अत । इष्टसाधनत्व विधि प्रत्यय का अर्थ नहीं हो सकता । अन्यत्र क्लृप्तसार्थ्यात् ‘अन्यत्र’ सभी प्रयोगों में आज्ञा अध्येषणा प्रभूति अर्थों में ही विधि प्रत्यय की शक्ति गृहीत है, अत: ‘यजेत’ प्रभृति वैदिकवाक्य के स्थलों में ही इष्ट साघनत्व को विधि प्रत्यय का अर्थं नहीं माना जा सकता । निषेधानुपपत्तितः 65 ‘न कलजं भक्षयेत्’ इत्यादि निषेध स्थलों में इष्टसाधनत्व स्वरूप अर्थ चूकि बाधित है, अतः इष्ट साधनत्व विधि प्रत्यय का अभिधेय नहीं हो सकता । तथा हि … … सिद्धयतीति ‘अग्निकामो दारुणी मथ्नीयात्’ किसी आप्तपुरुष के इस वाक्य को सुननेवाला पुरुष वक्ता से स्वभावतः यह पूछता है ‘कुत:’ । इस प्रश्न का उत्तर पूछने वाले को ‘यतस्तन्मथना- दाग्निरस्य सिद्धयति’ अर्थात् चूँकि सूखी दो लकड़ियों को रगड़ से यही उत्तर मिलता है । ऐसी स्थिति में यदि उक्त ‘मथ्नीयात्’ पद में आग जलने लगती है, प्रयुक्त विधि प्रत्यय से ही इष्टसाधनत्व स्वरूप अर्थ उक्त हो जाय, तो कथित उत्तर स्वरूप धाक्य का ‘मथनात्’ यह हेतु पञ्चमी का प्रयोग ही व्यर्थ हो जाय । इस लिये यह कहना होगा कि चूंकि विधिय से इष्टसाधनत्व का अभिधान नहीं होता है, वाले पुरुष में उपयुक्त इष्टसाधनता ज्ञान के प्रयोग किया जाता है । अतः इष्टसाधनत्व विधि प्रत्यय का अर्थ नहीं हो सकता । अतः अग्नि की कामना से दारुमन्थन में प्रवृत होने लिये ही ‘यतस्तन्मयनात्’ इत्यादि हेतुवाक्य का CCO. Vasishtha Tripathi Collection. Digitized by eGangotri८०० गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली ‘तरति ब्रह्महत्यां योऽश्वमेधेन यजते’ इत्यादाविष्टाभ्युपायतायामेवावगताया- मनुमिमते तान्त्रिकाः, यदश्वमेधेन यजेत मृत्यु ब्रह्महत्यातरणकाम इत्यादि विधिम् । निन्दया च निषेधम् । तद्यथा- ‘अन्धं तमः प्रविशन्ति ये के चात्महनो जना’ ( ईशावास्योपनिषद्) इत्यतो नात्मानं हन्यादिति । कुर्याः कुर्यामित्यत्र विधिविहितैव लिङ नेष्टाभ्युपायतामाह, किन्तु वक्तृसङ्कल्पम् । न हीष्टाभ्युपायो ममायमिति कुर्यामिति पदार्थः । किन्तु तत्प्रतिपत्तेरनन्तरं योऽस्य सङ्कल्पः - कुर्यामिति, स एव । सर्वत्र चान्यत्र वक्तुरेवेच्छाऽभिधीयते लिडेत्यवधृतस् । तरति ब्रह्महत्याम् ‘तरति ब्रह्महत्यां योऽश्वमेघेन यजते’ इत्यादि वाक्य वेदों में श्रुत हैं । इस वाक्य के द्वारा ब्रह्महत्या के पाप से उद्धार स्वरूप इष्टसाधनत्व ( हष्टाभ्युपायता ) के ज्ञान से ‘ब्रह्महत्यात रणकामोऽश्वमेघेन यजेत’ इस विधिवाक्य का अनुमान होता है । यदि लिड प्रत्यय से अभिषावृत्ति के द्वारा ही इष्टसाधनत्व का ज्ञान हो जाय, तो इष्टसाधनत्व से विधिवाक्य का उक्त अनुमान व्यर्थ हो जायगा । निन्दया च निषेधम् एवं यदि इष्टसाधनत्व को विधिप्रत्यय का अर्थ मानें तो ‘अन्धं तमः प्रविशन्ति’ इस निषेधवाक्य से जो ‘नात्मानं हन्यात्’ इस निषेघ वाक्य का अनुमान होता है, वह भी धनु- पपन्न हो जायगा । क्योंकि इस निषेधवाक्य स्थल में भी ‘आत्महनन चूकि अन्धकार प्रवेश स्वरूप दुःख का कारण है, अतः आत्महनन नहीं करना चाहिये" इस रीति से ही उक्त निषेधवाक्य का अनुमान होता है । यदि इष्टसाधनत्व को ही विधि प्रत्यय का अर्थ मान लें, तो कथित रीति से निषेधवाक्य का अनुमान ही व्यर्थ हो जायगा । कुर्या: कुर्याम् ‘तवेद्रमिष्टसाधनमतः कुर्याः, इस प्रभिप्राय में ‘कुर्या:’ इस प्रकार मध्यम पुरुष में विधि प्रत्यय का प्रयोग होता है । एवं ‘ममेदमिष्टसाधनमतः कुर्याम्’ इस अभिप्राय से उत्तम पुरुष में विधि प्रत्यय का प्रयोग होता है। इन स्थलों में ‘संकल्प’ को ही विधि प्रत्यय का अर्थ मानना होगा, यदि इष्टसाधनत्व को विध्यर्थं मान लें, तो सो संभव नहीं होगा। क्योंकि उक्त स्थलों में कर्त्ता में रहने वाले कृ धातु के अर्थ में ही विधि प्रश्यय की वाध्यता की प्रतीति होती है । ‘इष्ट साधनत्व’ तो सरघनगत धर्म है, वह कतुगत धर्म नहीं है । सर्वत्र COD विधि प्रत्यय से युक्त पद के प्रयोगों से यह अच्छी तरह समझ गये कि अन्य सभी स्थलों में विधि प्रत्यय से वक्ता की इच्छा ही ज्ञात होती है । भ्रतः विधि प्रत्यय से वक्ता की ( १ ) य प अ इन भू क ‘सं न का होत होव यद केव विधि ‘हन यह अत० 1.
पञ्चमः स्तबकः ८०१ तथा ह्याज्ञा - अध्येषरणा अनुज्ञा-संप्रश्न- प्रार्थना- प्राशंशा लिङि नान्यच्चकास्ति । यां वक्तुरिच्छा मन नुविदधानस्तत्क्षोभ । द्विमेति सा प्रध्येषणा । वारणाभावव्यञ्जिका अनुज्ञा । श्रभिधानप्रयोजना संप्रश्नः । लाभेच्छा प्रार्थना । शुभाशंसनमाशीरिति । न च विधिविकल्पेषु निषेध उपपद्यते । तथा हि यदाऽभिघा विधि), तदा न हन्यात् हननभावना नाभिधीयत इति वाक्यर्थो व्याघातान्निरस्तः । यदा कालत्रया- परामृष्टा भावना, तदा नेति संबन्धात्यन्ताभावो मिथ्या । अध्येषणा (२) अनुज्ञा ( ३ ) संप्रश्न ( ४ ) प्रार्थना और ( 2 ) आशंशा (भाशिष ) इन विविध प्रकार की इच्छाओं से भिन्न कोई अर्थप्रतिभासित नहीं होता । ( १ ) वक्ता के जिस ‘इच्छा’ का पालन न करने से वक्ता के ‘क्षोभ’ से प्रेष्य ( शिष्य भूत्यादि ) पुरुष डरता है, वक्ता के उस ‘इच्छा’ को ‘अध्येषणा’ कहते हैं । ( २ ) वक्ता की जिस ‘इच्छा’ से यह अभिव्यक्त हो कि वह प्रष्य (भृत्यादि) को काम करने से रोकता मर नहीं है। उसे ‘अनुज्ञा’ कहते हैं । (३) वक्ता की जो इच्छा किसी से उत्तर पाने ( प्रभिधान) के लिये उत्पन्न हो, उसे ‘संप्रश्न’ कहते हैं । (४) किसी वस्तु के लाभ की ‘इच्छा’ को ‘प्रार्थना’ कहते हैं । (१) शुभ विषयिणी इच्छा को ‘प्रशंशा’ ( अथवा आशीष ) कहते हैं न च विधिविकल्पेषु… (१) यदि ‘प्रभिषा’ को विधिप्रत्यय का अर्थ मानते हैं तो ‘न हन्याद’ इस निषेधवाक्य का ‘हननभावना नाभिघीयते’ ऐसा विवरण होगा। जिस का ‘हननभावना अभिहित नहीं होती है’ ऐसा अर्थ होगा, किन्तु यह पर्थं बाधित है, क्योंकि ‘हनन भावना’ भी अभिहित होती है । यदा काल:.. ….. (२) ‘कालत्रय’ अर्थात् भूत, भविष्य और वर्त्तमान इन तीनों कालों से प्रसम्बद्ध केवल ‘भावना’ को ही यदि विधिप्रत्यय का अर्थ मानें तो न हन्यात्’ इस निषेध स्थल में विषिप्रत्यय स्वरूप ‘केवल भावना’ का अन्वय नव् के साथ होगा । तदनुसार उक्त निषेध ‘हननभावना का त्रैकालिक संसर्गाभाव’ अर्थ होगा ( फलतः अत्यन्ताभाव अर्थ होगा ) किन्तु यह अर्थ भी ‘मिथ्या’ प्रर्थात् अप्रामाणिक है। क्योंकि हनन भावना की सत्ता तो है ही, प्रत। उसका सार्वदिक अभाव नहीं माना जा सकता । 1. अर्थात् षट् प्रभृति लकारों से भी यद्यपि ‘भावना’ अभिहित होती है, किन्तु सन लकारों से जो ‘भावना’ का बोध होता है, उस में वर्तमानस्यादि भी अवश्य ही विशेषण विधया भासित होते हैं, किन्तु लिन लकार से भावना विषयक शाब्दबोध में वत्र्तमानत्वादि मासित नहीं होते । १०१
८०२ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली यदा कार्यम्, तदा न हन्यात् न हननं कार्यमित्यमुभवविरुद्धम् । क्रियत एव यतः । न हननेन कार्यं हननकारणकं कार्यं नास्तीत्यर्थं इत्यपि नास्ति । दुःख- निवृत्तिसुखाप्स्योरन्यतरस्य तत्र सद्भावात् । हननकारणकमदृष्ट ं नास्तीत्यथं इति तु निरातङ्कं दृष्टार्थिनं प्रवर्तयेदेवेति साधु शास्त्रार्थः । ग्रहननेनापूर्वं भावयेदिति त्वशक्यम् । यदा कार्यस्… (३) यदि निषेध वाक्य में प्रयुक्त विधिप्रत्यय का अर्थ ’ कार्यत्व ( कर्त्तव्यता ) मानें तो ‘न हन्यात्’ इस निषेषवाक्य का यह पर्थ होगा कि ’ हनन कार्य ( उत्पाद्य ) नहीं है, किन्तु यह अर्थ भी ठीक नहीं है, क्योंकि हनन तो ‘कार्य’ है ही । पू० प० न हननेन ••• ‘म हननं कार्यम्’ इस वाक्य का यह अर्थ है कि ‘हननकारणकं कार्यं नास्ति’ अर्थात् ‘ऐसा कोई ‘कार्य’ नहीं है, हमन. जिसका कारण हो’ अर्थात् हनन व्यर्थ है । सि० प० दु:खनिवृत्ति" उक्त कथन भी ठीक नहीं हैं, क्योंकि जो कोई हनन स्वरूप ‘कार्य’ में प्रवृत्त होता है, उसको भी उस से दुःख की निवृत्ति, अथवा किंचित सुख, इन दोनों में से एक अवश्य ही प्राप्त होता है । अतः यह नहीं कहा जा सकता कि ‘हनन कोई कार्य नहीं है’ । पू० प० हननकारणम् हनन से किसी अदृष्ट की उत्पत्ति नहीं होती है । अतः ‘हननकारणकं कार्यं नास्ति’ इस वाक्य का ’ हननकरणकमदृष्टं नास्ति’ अर्थात् ‘हननक्रिया से किसी अदृष्ट की उत्पत्ति नहीं होती है’ ऐसा ही अर्थ समझना चाहिये । सि० प० निरातङ्कम" किन्तु ऐसा मानने पर तो ‘न हन्यात्’ इन निषेध वाक्य स्वरूप शास्त्र की प्रवृत्ति उचित रीति से चरितार्थ नहीं होगी, क्योंकि जिस व्यक्ति को अदृष्ट की अपेक्षा नहीं है, वह हत्या के द्वारा घनादि दृष्ट वस्तुओं को बिना किसी बाधा के शास्त्र की आज्ञा से ही प्राप्त कर लेगा । पू० प० प्रनेन ‘अहिंसा परमो धर्मः’ इस वाक्य के अनुसार अहिंसा से पुण्य स्वरूप अपूर्व की उत्पत्ति होती है। तदनुसार ‘न हन्यात्’ इस निषेधवाक्य का ‘अहनेनापूर्वं भावयेत’ ऐसा विवरण करना चाहिये । नि रि ’ क न भ भ प्र Т उ भा न वि “H अ मि ’ स्व उस प्र एक स
पंचमः स्वक ८०३ कारणस्थानादित्वेन कार्यंस्यापि तथाभावप्रसङ्गात् । भावनायाश्च तदविषय- स्वात् । प्रहननसङ्कल्पेनेति यावज्जीवमविच्छिन्न तत्संकल्पः स्यात् । सकृत् कुत्स्वैव वा निवृत्तिः । पश्चाद्धन्यादेवाविरोधात् । सम्पादितो ह्यनेन नियोगार्थः । सि० प० कारणस्यानादित्वेन "” किन्तु ‘न हन्यात्’ इस वाक्य का उक्त विवरण करना भी शक्य नहीं है । क्योंकि ‘अहनन’ है ‘हनन का प्रागभाव’ स्वरूप । प्रगभाव है, अनादि । अतः केवल प्रागभाव से जो कार्य उत्पन्न होगा, उसको भी पनादि मानना होगा । किन्तु कार्य कभी भी अनादि नहीं हो सकता । भावनायाश्च … ( इस प्रसङ्ग में कहा जा सकता है कि प्रागभाव स्वयं अनादि भले ही हो, किन्तु प्रागभाव विषयक भावना अनादि नहीं है । प्रतः सादि प्रागभावविषयक भावना से सादि अपूर्व स्वरूप कार्य की उत्पत्ति हो सकती है । किन्तु उक्त कथन भी उचित नहीं है, क्योंकि ) प्रागभाव कभी भी भावना का विषय नहीं हो सकता। क्योंकि भावना से प्रागभाव की उत्पत्ति नहीं होती है । प्रागभाव तभी भावना का विषय हो सकता है, जब कि प्रागभाव भावना का साध्य हो । अहनन संकल्पेन ••• (१) यदि संकलप को विधि प्रत्यय का अर्थ मानें, तो ‘न हन्यात्’ इस निषेध वाक्य का विवरण होगा “अहननसंकल्पेनापूर्वं भावयेत्’ ( इस प्रसङ्ग में यह प्रष्टव्य हो जाता है कि ‘उक्त प्रपूर्व की प्राप्ति के लिये क्या यावज्जीव के लिये अहनन का संकल्प अपेक्षित है ? अथवा एकबार के संकल्प से ही ‘निवृत्ति’ अर्थात् उक्त अपूर्व की प्राप्ति हो जाने से छुट्टी मिल जाती है ? इन में यदि प्रथम पक्ष को स्वीकार करें तो यावज्जीवन बिना किसी व्यवधान के ‘अहनन का संकल्प स्वीकार करना होगा । किन्तु सो संभव नहीं है । यदि द्वितीयपक्ष स्वीकार करें तो एक वार अहनन का संकल्प कर लेने पर ही ‘शास्त्र’ चरितार्थ हो जायगा । उसके बाद हनन में कोई बाधा नहीं रह जायगी । वह व्यक्ति पापभय से छूट जाने के कारण प्रवावगति से हिंसा में प्रवृत्त हो सकेगा। क्योंकि निषेध वाक्य अपने नियोग का संपादन एक बार ग्रहनन संकल्प के उत्पादन के द्वारा कर हो चुका है। अतः उक्त द्वितीयपक्ष मो सङ्गत नहीं है ।
५०४ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली यावद् यावद्धननसङ्कल्पवान् तावत्तावद्विपरीतसङ्कल्पेनापूर्वं भावयेदिति वाक्यार्थः, तथाभूतस्याधिकारित्वादित्यपि वात्तंम् । तदश्रुतेः । प्रसक्तं हि प्रतिषिध्यते नाप्रसक्तमिति चेत् । न वै किञ्चिदिह प्रतिषिध्यते । तदभावः प्रतिपाद्यते इति निषेधार्थः । अहननकरणकमपूर्वं वाक्यार्थः । किञ्च न हन्यादिति ग्रहननेनापूर्वस्य कर्तव्यताप्रत्ययो जातो वेदात् । जातश्च हननक्रियायां रागात् । निष्फलाच्च कार्यादपेक्षितफलं गरीय इति न्यायेन हन्यादेवेत्य हो वेदव्याख्ययानकोशलमास्तिक्या भिमानिनो मीमांसक दुर्दुरूढस्य । पू० प० यावत् यावत् 0.00 ‘न हन्यात्’ इस निषेधवाक्य का यह अर्थ है कि “जो पुरुष जिस समय हनन के संकल्प से युक्त हो, उस से आगे के क्षण में वह पुरुष ‘अहनन संकल्प’ के द्वारा ‘अपूर्व’ का उत्पादन करे ( अर्थात् हनन के संकल्प से युक्त पुरुष ही ‘बहनन की संकल्प’ का अधिकारी है ) । सि० प० किन्तु यह भी बयुक्त है, क्योंकि ‘न हन्यात्’ इस निषेधवाक्य में इतने अर्थ के बोधक पद नहीं हैं । पू० प० प्रसक्तम्”” ‘प्रसक्त’ अर्थात् प्राप्त रहने पर ही निषेध किया जाता है। अतः जिस पुरुष में हनन का संकल्प रहेगा, उसके लिये ही हनन का निषेध सार्थक हो सकता है। अतः ‘म हन्यात्’ इस निषेववाक्य में कथित अर्थ के बोधक पदों के न रहने पर भी उक्त निषेधवाक्य का कथित अर्थ मनुपपन्न नहीं है । सि० प० न वे ‘न हन्यात्’ इस वाक्य से किसी का निषेव नहीं किया जाता, किन्तु ‘अपूर्व’ का ‘भाव’ मर्यात् सत्ता ही अभिहित होती है । इस लिये ‘अहनन करणक प्रपूर्व’ स्वरूप भाव पदार्थ ही उक्त वाक्य का अर्थ है । किन दूसरी बात यह भी है कि ‘न क भक्षयेत’ इस वाक्य से यदि कलल भक्षणाभाव विषयक अपूर्व का बोष मान भी लें, तथापि उस से कलख भक्षणाभाव में प्रवृत्ति नहीं होगी । क्योंकि कल भक्षण करने वाले पुरुष को उस भक्षण में कार्यंता ( कर्त्तव्यत्व ) की बुद्धि राग
पश्चमः स्तबक! ८०५ इष्टसाधनतापक्षेऽपि न हन्यात् न हननभावना इष्टाभ्युपाय इति वाक्यार्थः । तथा चानिष्टसाधनत्वं कुतो लभ्यते ? न होष्टसाधनं यन्न भवति, तदवश्यमनिष्टसाधनं दृष्टम्, उपेक्षणीयस्यापि भावात् । यत् रागादिप्रसक्तं प्रतिषिध्यते तदवश्यमनिष्टसाधनं दृष्टम् । यथा सविषमन्नं न भुञ्जीथा इति । से उत्पन्न होती है । एवं भक्षणाभाव में कर्तव्यता की बुद्धि ‘न कलअं भक्षयेत्’ इस शब्द के द्वारा उत्पन्न होती है । किन्तु ‘निष्फलाच्च कार्यात् सफलं गरीया’ (निष्फल कार्य से सफल कार्य श्रेष्ठ है) इस न्याय से दोनों की प्राप्ति रहने पर फलब्ज भक्षण में हो प्रवृत्ति होगी, क्योंकि वह सुख का कारण है । कलञ्जभक्षणभाव में प्रवृत्ति नहीं होगी, क्योंकि उस से अपूर्व ही उत्पन्न होता है । अपूर्वं न स्वयं सुख स्वरूप है, न दुःखाभाव स्वरूप । एवं न वह सुख अथवा दुःखाभाव का कारण ही है । अतः अपूर्वं न मुख्य फल है, न गौण फल । अतः ‘न हन्यात्’ इस निषेध वाक्य से उत्पन्न बोध के रहने पर राग से जो हनन में प्रवृति प्राप्त है, वह ज्यों का त्यों बनी रहेगी। आस्तिकता के अहङ्कार से युक्त मीमांसकों की यह व्याख्या बड़ी विलक्षण है कि जिससे वेदों के ‘न हन्यात्’ इस निषेधवाक्यज बोध के रहते हुए भो हनन की प्रवृति का प्रतिरोध नहीं होगा । सि० प० इष्टसाधनता … …. ( प्राचीन नैयायिकों के मतानुसार ) यदि ‘इष्टसाधनत्व’ को विधि प्रत्यय का अर्थ मानें, तो ‘न हन्यात्’ इस निषेधवाक्य का ‘हनन भावना इष्ट का साधन नहीं है’ इस प्रकार का अर्थ होगा । किन्तु इस से ’ हनन क्रिया’ में अनिष्ट साधनत्व का लाभ नहीं होगा। क्योंकि यह नियम नहीं है कि जो ‘इष्ट का साधन न हो, वह अवश्य हो घनिष्ट का साधक हो’ । क्योंकि इष्ट और अनिष्ट इन दोनों से भिन्न ‘उपेक्षणीय’ नाम का एक तीसरा भी प्रकार वस्तुओं का हैं । अतः कोई भी वस्तु इष्ट न होने से ही अनिष्ट नहीं हो सकता । जो (प्राचीन नैयायिक) सम्प्रदाय ‘इष्ट साधनत्व’ को विधिप्रत्यय का अर्थ मानते हैं, उनके मत से निषेधवाक्य से ‘अनिष्टसाधनत्व’ का बोध हो अभिप्रेत है । किन्तु सो प्रकृत में अनुपपन्न है । पू० प० यत् रागादि .. निषेधवाक्य स्थल में प्रनिष्टसाधनत्व का बोष अनुमान प्रमाण से होगा । जिस वस्तु मैं ‘राग’ की संभावना रहती है, वह यदि निषिद्ध होता है, तो प्रवश्य ही वह अनिष्ट का साधन होता है । जैसे कि ‘सविषमन्नं न भुञ्जीथा।’ इस वाक्य के द्वारा विष मिश्रित भोजन का निषेध किया जाता है, क्योंकि भोजन में राग की प्रसक्ति है । हनन में भी राग की प्रसक्ति है, अथ च वह वेद के द्वारा निषिद्ध होता है, छातः हनन अवश्य ही अनिष्ट का
८०६ गद्यपद्यात्मक न्यायकुसुमाजली तेन वेदेऽप्यनुमास्यते इत्यपि न साधीयः । प्रतिषेधार्थस्यैव चिन्त्यमानत्वात् । न हि कर्तव्यत्वस्येष्टसाधनत्वस्य भावनाया वाभाव प्रतिपादयितुं शक्यते । लौकि- काना लौकिकप्रमाणसिद्धत्वात् । तयापि प्रतिपाद्यते तावदिति चेन्न । पखण्डागम- निषेधेनानेकान्तात् । साधन है । इस प्रकार शाब्दबोध के बाद अनिष्टसाधनत्व का अनुमानिक बोध होगा । ( हननमनिष्टसाधनं रागविषयत्वे सति निषिद्धयमानत्वात् सविषान्न भोजनवत् ) । सि० प० इत्यपि न साधीयः निषेधवाक्य के अर्थ का निर्णय प्रतिषेधघटित व्याप्तिजनित अनुमिति से नहीं हो सकती । प्रर्थात् उक्त व्याप्ति बोधक वाक्य में भी प्रतिषेधार्थक नत्र प्रभृति शब्द अवश्य रहेंगे। जिनके प्रथों का निर्णय करना होगा । यदि प्रतिषेधार्थक पदघटित व्याप्ति से ही प्रतिषेध पदार्थ का निर्वचन करें, तो अन्योन्याश्रय दोष होगा । 100 सि० प० न हि कत्तंव्यश्वस्य … वस्तुतः कलंज भक्षण अथवा हननादि जिन क्रियाओं का निषेध किया जाता है, उन भी इष्ट साधनत्व है ही । अत एव उन में कर्त्तव्यता ( कार्यता ) भी अवश्य है । अतः उन में अनिष्टसाधनत्व प्रथवा अकर्तव्यत्व नहीं है । ऐसी स्थिति में उक्त निषेधवाक्यों को यदि शत्रुहननादि में अविद्यमान प्रनिष्टसाधनत्व अथवा प्रकर्तव्यत्व का बोधक मानें, तो वे प्रयोग्य होने के कारण अप्रमाण हो जायगे । पू० प० तथापि प्रतिपाद्यते … शब्द से सर्वथा अविद्यमान वस्तु का भी बोध होता है ( प्रत्यन्तासत्यपि ज्ञानमर्णे शब्द। करोति हि ) अतः शत्रुहननादि में श्रविद्यमान अनिष्ट साधनत्व का भी निषेधवाक्य से बोष हो सकता है । सि० प० न, पाखण्डागम’ उक्त समाधान भी ठीक नहीं है, क्योंकि पाखण्डियों ( वेदवाह्यों) के पागमों में जो निषेधवाक्य हैं, उन्हें भी प्रमाण मानना होगा। क्योंकि वे भी किसी बसवर्ण के तो भासक है ही। इन प्रसवर्ग के बोधक वाक्यों को प्रमाण नहीं माना जा सकता । मतः कवित रीति से भी निषेधवाक्य के प्रमाण्य का समन नहीं किया जा सकता ।
पञ्चमः स्तबक। ६०७ नासो प्रमाणमिति चेन्न । अर्थविपर्ययप्रतिपादनाविशेषेऽस्यापि तथाभावात् । तात्पर्यंतः प्रामाण्यमिति चेन्न । पू० प० नासो भ पाखण्डियों के आगम चूंकि प्रमाण नहीं हैं, अतः तदन्तर्गत निषेध वाक्यों को प्रमाण नहीं माना जा सकता । सि० प० न, अर्थविपर्यय जो शब्द प्रमाण से बाधित अर्थ का प्रतिपादक होता है, वह शब्द प्रप्रमाण कहलाता है ( अर्थात् प्रप्रामाणिक अर्थ का प्रतिपादकत्व ही शब्द का अप्रमाण्य है )। शब्द निष्ठ अप्रामाण्य का यह (अप्रामाणिकार्थप्रतिपादकस्व स्वरूप ) प्रयोजक जिस प्रकार पाखण्डों के आगम के निषेध वाक्यों में है, उसी प्रकार वेदों के निषेववाक्यों में भी है, क्योंकि शत्रुहननादि में अविद्यमान होने के कारण उनमें भी अनिष्ट साधनत्वादि स्वरूप पप्रामाणिक अर्थों का ज्ञापकत्व है ही । अतः कथित रीति से पाखण्डियों के भागमों के निषेध- वाक्यों का अप्रामाण्य एवं वेदस्थ निषेधवाक्यों के प्रामाण्य का समर्थन नहीं किया जा सकता । प० प० तात्पर्यंतः . 004 जिस प्रकार ‘गङ्गायां घोष:’ इत्यादि स्थलों में प्रवाह स्वरूप मुख्य धर्थ के बाधित रहने के कारण तात्पर्यं विषयीभूत ‘गङ्गातीरस्थघोष’ स्वरूप अर्थ का प्रतिपादक होने के नाते ही उक्त वाक्य में प्रामाण्य माना जाता है, उसी प्रकार ‘न हन्यात्’ इत्यादि निषेध वाक्यों मैं भी निषिद्ध होनेवाले हनन स्वरूप कार्यं में रहनेवाले तात्पर्यविषयीभूत ‘प्रनिष्टसाधनत्व’ स्वरूप प्रर्थान्तर का प्रतिपादक होने के नाते ही प्रामाण्य का समर्थन किया जा सकता है। १. २. अर्थात् पाखण्डियों के आगम चूँकि पौरुषेय है, एवं पौरुषेप वेद भी उनके मूल नहीं हैं; अतः वे अप्रमाण हैं । अर्थात् शत्रुहनादि निष्ठ अनिष्टसाधनत्व निषेधवाक्य के किसी पद अथवा पद के किसी प्रस्थय का वाच्य अर्थ भले ही न हो, तथापि संपूर्ण निषेधवाक्य का तात्पर्यार्थ हो सकता है । वाच्यार्थ के अबोधक वाक्य यदि श्रभिमत तात्पर्यार्थ का बोधक होने से प्रमाण होता है । जैसा कि ‘गङ्गायां घोष:’ इत्यादि वाक्यों में देखा जाता है। ध्यान रखना चाहिये कि मीमांसक गय वाक्य में भी लक्षणा स्वीकार करते हैं ।
८०८ गद्यपद्यात्मक- न्यायकुसुमाञ्जलो विधिनिषेधयोरनन्यपरत्वात्, ‘न विधी परः शब्दार्थ’ ( मीमांसासूत्र ), इति वचनात् । तथापि निषेधे तथा भविष्यतीति चेन्न । अविनाभावतदुद्देशप्रवृत्योर- भावात् । नाप्यसुराविद्यादिवदस्य नञो विरोधिवचनत्वम्, क्रियासङ्गतत्वात्, असम- स्तत्वाच्च ॥ १५ ॥ सि० प० विधिनिषेधयोः विधिवाक्य एवं निषेधवाक्य में कोई भी पद वाच्यार्थं से भिन्न लाक्षणिकादि अर्थ के बोधक नहीं रहते। जैसा कि महर्षि जैमिनि ने कहा हैं कि ‘न विधौ परः शब्दार्थ:’ मर्यात् विधिवाक्य में ( एवं निषेधवाक्य में, प्रयुक्त कोई भी पद अपने वाच्य अर्थ से ‘पर’ अर्थात् लाक्षणिकादि अर्थ के बोधक नहीं है । प्रत सिद्ध अर्थ के बोधक जो ‘गङ्गायां घोष: ’ अथवा ‘यमानः प्रस्तर । इत्यादि अर्थवाद वाक्य हैं, उन्हीं में तात्पर्यार्थबोधक होने के नाते प्रामाण्यं का समर्थन किया जा सकता है, किसी विधिवाक्य अथवा निषेधवाक्य में नहीं । प० प० तथापि उक्त जैमिनिसूत्र के द्वारा तो केवल विधिवाक्यों में ही लाक्षणिक अर्थ के बोध की सामर्थ्य का प्रतिषेध किया गया हैं । अतः निषेधवाक्य को वाच्यार्थ से अतिरिक्त तात्पर्यार्थ का बोधक मानने में कोई बाधा नहीं है । सि० प० न, अविनाभाव जहाँ वाक्य अर्थ के साथ लक्षणीय अर्थ का ‘अविनाभाव’ अर्थात् व्याप्ति रूप सम्बन्ध रहता है, एवं उसी लक्षणीय अर्थ विषयक बोष के उद्देश्य से शब्द का प्रयोग होता है, वहीं लक्षणा मानी जाती है । गङ्गा पद के मुख्यार्थ प्रवाह की व्याप्ति भी ‘गङ्गातीर’ स्वरूप अर्थ में है, । एवं उसी को समझाने के लिये गङ्गा पद का इसीलिये. उक्त स्थल में गङ्गा पद को लाक्षणिक माना जाता है । ि दो स व न त ‘न त प इ हो प्रयोग भी किया गया है । स ‘नं हन्यात्’ यह निषेधवाक्य अनिष्टसाधनत्व रूप अवाच्य अर्थ विषयक बोध के लिये प्रयुक्त नहीं है, एवं अनिष्टसाघनत्व में उसके वाच्यार्थ हननक्रिया की व्याप्ति भी नहीं है । अतः निषेधवाक्य को वाध्यार्थ से ‘अन्य’ परक ( लाक्षणिक अर्थ परक ) मान कर भी प्रमाण नहीं माना जा सकता । सि० प० नाप्यसुरादिवत् GOS ( इस प्रसङ्ग में कहा जा सकता है कि जिस प्रकार ‘अधर्म’ ‘असुर’ एवं ‘प्रविद्या’ प्रभूति पदों में प्रयुक्त नत्र पर्दों का अभाव स्वरूप अर्धा नहीं माना जाता, किन्तु वे ‘विरोधी’ स्वरूप म के वाचक माने जाते हैं । एवं तदनुसार ‘अधर्म शब्द का धर्म के विरोधी पाप स्वरूप भाव पदार्थ ही वाच्य मर्थ होता है । एवं ‘असुर’ शब्द का सुर विरोधी ‘राक्षस’ स्वरूप भाव पदार्थ, एवं ‘अविद्या’ शब्द का विद्या ( तत्त्वज्ञान ) विशेषी मिथ्याज्ञान स्वरूप भाव पवार्थ ही बाच्य होता है, उसी प्रकार ‘न हन्यात्’ इस निषेषवाक्य का ‘इष्टसाधन से 9.
तस्माद् । पञ्चमः स्वयकः ८०६ विधिर्वक्तुरभिप्रायः प्रवृत्त्यादौ लिङादिभिः । श्रभिधेयोऽनुमेया तु कर्तुं रिष्टाभ्युपायता ॥१५॥ समस्त नव् का अर्थ जो भिन्न’ यह अर्थ नहीं है, किन्तु इष्टसाधनत्व का विरोधी ‘प्रनिष्टसाधनत्व’ ही उसका धर्म है । किन्तु ऐसा कहना भी संभव ) नहीं है । क्योंकि ( २ ) प्रसज्य एवं ( २ ) पर्युदास भेद से दो प्रकार के निषेध हैं । क्रिया में अन्वित नत्र के अर्थ को ‘प्रसज्य’ प्रतिषेध कहते हैं, और निषेध है, उसको ‘पर्युदास’ निषेध कहते हैं । ‘न हन्यात्’ इस वाक्य में जो ‘नम्’ पद है, वह असमस्त होने के कारण पर्युदास स्वरूप निषेध का बोधक नहीं हो सकता । अत: ‘न हन्यात्’ इस वाक्य से अनिष्टसाधनत्व का बोष संभव नहीं है ।’ तस्मात् ‘असुर’ प्रभृति पदों में प्रयुक्त नव् पदों के समान ‘न हन्यात्’ इस वाक्य में प्रयुक्त ‘नन’ को पर्युदासार्थक नहीं माना जा सकता ॥ १४ ॥ तस्मातु चूकि कथित ‘अभिघा’ प्रभृति में से कोई भी विधि प्रत्यय का अर्थ नहीं हो सकता, प्रत वक्ता का प्रवृत्ति एवं निवृत्ति विषयक अभिप्राय’ ही विधि प्रत्यय का अर्थ है । वक्ता के इस अभिप्राय को समझ लेने के बाद ही ‘इष्टाभ्युपायता’ का अर्थात् ‘इष्टसाधनत्व’ का अनुमान होता है । फलतः इष्टसाधनता का ज्ञान ही प्रवृत्ति का साक्षात् कारण है । किन्तु लाघव की दृष्टि से ‘आप्ताभिप्राय’ को हो विधि प्रत्यय का अर्थ मानते हैं। ‘प्रवृत्यादी’ इस पद में सप्तमी विभक्ती ’ का अर्थ विषयत्व है । एवं ‘आदि’ पद से ‘निवृत्ति’ का संग्रह अभिप्रेत है । 9. श्री शङ्कर मिश्र ने प्रकृत ग्रन्थ की टीका में उक्त उत्तर की आलोचना की दृष्टि से ‘यजतिषु ये यजामहं करोति नानुयाजेषु’ इस वाक्य का उल्लेख करते हुये लिखा है कि पर्युदासार्थक नत्र को समस्त होना आवश्यक नहीं है, क्योंकि कथित ‘नानुयाजेषु’ इस वाक्य में जो ‘नन्’ पद है, वह पयु दास का ही बोधक है। यदि ऐसा न मानें तो (१) ‘यजतिषु ये यजामहं करोति एवं (२) अनुयाजेषु ये यजामहं न करोति’ इन दो वाक्यों की कल्पना करनी होगी । पर्युदासार्थक मान लेने पर अनुपाजभिम्नेषु यजितिषु बागेषु ये यजामहं करोति’ इस आकार के एक ही विशिष्ट- वाक्य से प्रयोजन की सिद्धि हो जायगी । मीमांसा सूत्रभाष्य में उक्त नघ् को पर्युदासार्थक न मानने पर ‘अतिरात्रे षोडशिनं गृह्णाति, नातिरात्रे षोदशिनं गृह्णति’ इस वाक्य के समान ही ‘विकल्प’ की आपत्ति की गयी है। 1 १०२ CCO. Vasishtha Tripathi Collection. Digitized by eGangotri८१० गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली तत्र स्वयङ्कतु कक्रियेच्छाऽभिधानं कुर्यामिति, सम्बोध्यकर्तृक क्रियेच्छाऽभिधानं कुर्वीतेति । तत्र ( १ ) शब्दप्रयोग करनेवाला पुरुष स्वयं जिस क्रिया का कर्ता होता है, उस क्रिया विषयक इच्छां का अभिधान ‘कुर्याम्’ इस प्रकार के उत्तम पुरुष में निष्पन्न शब्दों से होता है । (२) जिस क्रिया के कर्ता का बोध युष्मद् शब्द से होता है, उस क्रिया की इच्छा का अभिधान ‘कु’ इत्यादि श्राकारों के मध्यमपुरुष में निष्पन्न शब्दों से होता है । (३) ‘एतद्भिन्न’ अर्थात् युष्मद् एवं प्रस्मद् इन दोनों से भिन्न अन्य किसी भी शब्द से जिस क्रिया के कर्ता का अभिधान होता है, उस क्रिया की इच्छा ‘कुर्बीत’ इस प्रकार प्रथमपुरुष में निष्पन्न शब्दों से अभिव्यक्त होती है। ‘स्वर्गकामो यजेत’ इस विधिवाक्य का यह छर्थ है कि “याग अथवा याग का निष्पादक प्रयत्न चूंकि स्वर्ग की कामना से युक्त पुरुष के द्वारा ही साधित होता है, अतः याग अथवा याग का प्रयत्न आप्तपुरुष का ‘इष्ट’ है” ‘इष्ट’ दो प्रकार का है ( १ ) बलवदनिष्ठानुबन्धी, एवं (२) बलवदनिष्टाननुबन्धी । प्रथम प्रकार के इष्ट में ‘इष्ट’ की मात्रा कम धौर अनिष्ट की मात्रा अधिक रहती है । जैसे कि शत्रुबध जनक श्येन याग में। क्योंकि श्येनयाग शत्रुबघ स्वरूप ‘इष्ट’ का साधक तो है, किन्तु मनुष्यवध जनित पाप से होने वाले नरक स्वरूप प्रति घनिष्ट का साधक भी है। दूसरे प्रकार के ‘इष्ट’ में अनिष्ट की मात्रा इष्ट की मात्रा से कम होती है । क्योंकि सभी इष्टों के साधन में थोड़ा बहुत अनिष्ट कार्य करना ही पड़ता है । ‘आप्तता’ भी व्यक्ति सापेक्ष है । जो एक अथवा एक समुदाय के लिये आत है, वही दूसरे व्यक्ति के लिये अथवा दूसरे समुदाय के लिये ‘अनाप्त’ है । यह विभिन्न धमों के प्राचायों की आप्तता के प्रसङ्ग में अत्यन्त स्पष्ट है । 1 समझता है, उस आप्त व्यक्ति के लिये ‘बलवदनिष्टाननुबन्धी’ इष्ट का इसके अनुसार जो पुरुष जिस पुरुष को ‘आप्त’ व्यापार अथवा प्रयत्न उन बात समझने वाले व्यक्ति के साधन है। इस प्रकार की व्याप्ति से याग में अथवा याग के प्रयत्न में बलवदनिष्टाननु- बन्धित्व विशिष्ट इष्टसाधत्व का अनुमान सुलभ है कि ‘यागस्तद्विषयकप्रयत्नो वा बलवदनिष्टा- ननुबन्धिमदिष्टसाधनम् मदीया सकतु कस्वात् मदीयातेष्टमदीयभोजनवत्" अर्थात् याग अथवा तद्विषयक प्रयत्न मेरे इष्ट का साधक होने के साथ-साथ उससे अधिक प्रनिष्ट का उत्पादक नहीं है। जैसे कि मेरा भोजन अथवा तद्विषयक प्रयत्न मेरे पिता का इष्ट होने से मेरे इष्ट का साधक होता है । है है इ ही क ( पु मु के वि अ
। पंचम स्तबका ५११ तथाचाऽग्निकामो दारुणो मथ्नीयात्’ इत्यस्य लोकिकवाक्यस्यायमर्थः सम्पद्यते—‘अग्निकामस्य दारुमथने प्रवृत्तिममेष्टा’ इति । ततः श्रोताऽनुमिनोति, नूनं दारुमथनयत्नोऽग्नेरुपाय इति । यद्विषयो हि प्रयत्नो यस्याप्तेनेष्यते स तस्या- पेक्षितहेतुः । तथा तेनावगतश्च यथा ममेव पुत्रादेर्भोजनविषय इति व्याप्तेः । ‘विषं न भक्षयेदि’ त्यस्य तु — ‘विषभक्षणगोचरा प्रवृत्तिर्मम नेष्टा इत्यर्थः । ततोऽपि श्रोताऽनु- मिनोति, नूनं विषभक्षणभावना अनिष्टसाधनम् । यद्विषयो हि प्रयत्नः कतु रभिमतसाधकोऽऽप्याप्तेन नेष्यते, स ततोऽधिक- तरानर्थहेतुः, तथा तेनावगतश्च यथा मयैव पुत्रादे। क्रीडाकर्दमविषमक्षणादिविषय इति व्याप्तेः । (२) ‘नकल’ मायेत्’ इस वाक्य से कलल भक्षण में अनिष्टसाधनत्व के अनुमान को यह रोति है कि कलञ्जभग मेरे लिये इष्ट से अधिक अनिष्ट का ही सावक है । क्योंकि मैं जिनको आप्त समझता हूँ, उनकी इच्छा नहीं है कि मैं कलजभक्षण करू I अथवा उसके लिये प्रयत्नशील होऊं । जैसे कि मेरे पिता की यह इच्छा कभी नहीं होती है कि मैं मधुमंपृक्त अन्न का भक्षण करने के लिये अथवा तदर्थ प्रयत्नशील होऊँ । अग्निकामो दारुणी मथ्नीयात् एतदनुसार ‘अग्निकामो दारुगी मनोयात्’ इस वाक्य का यह अर्थ निष्पन्न होता है कि ‘मुझे यह इष्ट है कि जिस पुरुष को अग्नि को इच्छा हो वह ‘दारु’ का मन्थन करें’ इस वाक्शर्थबोध के बाद श्रोता को यह अनुमान होता है कि ‘दारुमन्यन का प्रयत्न अवश्य ही अग्नि का उपाय है, अतः जिस पुरुष को अग्नि को कामना रहे, उसे अवश्य हो ‘दारुमन्थन’ करना चाहिये, क्योंकि जिस पुरुष के आप्त को जो विषय इष्ट रहता है, वह विषय उस ( घात समझने वाले पुरुष ) के लिये ‘इष्ट’ का ‘हेतु’ अर्थात् साधक होता है । जैसे कि मेरे पुत्र कतुक भोजन विषयक मेरी इच्छा । ‘विषं न भक्षयेत्’ इस लोकिक निषेधवाक्य का अर्थ है ‘विषमक्ष गविषयक प्रवृत्ति मुझ को इष्ट नहीं है । इससे श्रोता को यह अनुमान होता है कि जिस प्रकार मुझे मेरे पुत्र के द्वारा मिट्टी से खेलना अथवा विषभक्षण करना इष्ट नहीं है, उसी प्रकार विषभक्षग की ‘भावना’ मेरे लिये भी अनिष्ट का साधक है । जिस अन्य पुर के लिये कुछ इष्टपावके विषयक प्रयत्न को भी प्राप्त पुरुष इष्ट नहीं समझते हैं, उस विषय से अवश्य हो इष्ट से अधिक अनिष्ट होता है ।
५१२ गद्यपद्यात्मक यायकुसुमाञ्जछौ लौकिके एव वाक्येऽयं प्रकारः कदाचिद्बुद्धिमधिरोहति न तु वैदिकेषु, तेषु पुरुषस्य निरस्तत्वादिति चेन्न । निरासहेतोरभावात् । तदस्तित्वेऽपि प्रमाणं नास्तीति चेत् मा भूदन्यत्, विधिरेव तावद् गर्भ इव पुंयोगे प्रमाणं श्रुतिकुमार्याः, किमत्र क्रियताम् ? । लिङो वा लौकिकार्थातिक्रमे य एव लौकिकास्त एव वैदिकास्त एव चेषामर्था इति विप्लवेत । तथा च जबगडदशादिवदनर्थं कत्वप्रसङ्ग इति भव सुस्थः । पू० प० लौकिके एवं … … कथित रीति से आप्ताभिप्राय से इष्टसाधनत्व का अनुमान लौकिक विधिवाक्यों से ही सम्भव है । क्योंकि वे पुरुषोंच्चरित है । पहिले खण्डन कर चुके हैं कि ‘वेदवाक्य पुरुषोच्चरित नहीं हैं । अतः पुरुष रचना मूलक उक्त प्रकार के अनुमान से वैदिक विधिवाक्य । स्थल में निर्वाह नहीं हो सकता । सि० प० न
100 ‘वेदवाक्य पुरुषोच्चरित नहीं है’ इसका कोई भी प्रमाण नहीं है । पू० प० निरासहेतोः …… वेदों में पुरुषोच्चरितत्व का निषेध करने वाला प्रमाण भले ही न हो, किन्तु ‘वेद पुरुषोच्चरित है’ इसका साधक प्रमाण भी तो नहीं है । अर्थात् वस्तु के निषेध के लिये । साधकप्रमाण का अभाव भी पर्याप्त है । सि० प० मा भूत् 100 वेदों में पुरुषोच्चरितत्व के साधक अन्य प्रमाणों को छोड़ भी दें, तथापि वेदों में विधिवाक्य की सत्ता ही वेदों में पुरुष सम्बन्ध को सत्ता के लिये पर्याप्त प्रमाण है । जिस प्रकार कुमारिका गर्भ से उसके पुरुष सम्बन्ध का अनुमान होता है । दूसरी बात यह भी है कि ‘य एव लौकिकास्त्र एव वैदिका।’ इस न्याय के अनुसार लोक में जो पद जिस अर्थ में प्रयुक्त है, किसी विशेष बाधा के न रहने पर वेदों में भी प्रयुक्त उस पद का वही अर्थ होता है। इस नियम को मीमांसक लोग भी स्वीकार करते हैं । यदि लौकिक वाक्य में प्रयुक्त विधिप्रत्यय का एक अर्थ हो, एवं वैदिक वाक्य में प्रयुक्त विधिप्रत्यय का दूसरा ही भर्थ हो तो उक्त नियम अनुपपन्न हो जायगा । इसलिये लौकिक वाक्य में प्रयुक्त विधिप्रत्यय के अर्थ के अनुसार वैदिक विधित्रत्यय का अर्थ नहीं मानेंगे तो वैदिक- विषिवाक्य ‘जबगड़दशा।’ इत्यादि क्यों के समान अनर्थक हो जायगे । अतः उन सभी कुकल्पनामों को छोड़कर मेरे मार्ग पर आकर ‘सुस्य’ हो जाइये । E स २ छ व क क व न श्र कृ भ
( E पेश्चम स्वबंका ५१३ स्यादेतत् । तथापि वक्त णामुपाध्यायानामेवाभिप्रायो वेदे विधिरस्तु कृतं स्वतन्त्रेण वक्त्रा परमेश्वरेणेति चेन्न । तेषामनुवक्तृतयाऽभ्यासाभिप्रायमात्रेण प्रवृत्तेः शुकादिवत्तथाविधाभिप्रायाभावात् । भावे वा न राजशासनानुवादिनोऽभिप्राय आज्ञा, किं नाम राज्ञ एवेति लौकिकोऽनुभवः ॥ १५ ॥ श्रुतेऽ खल्वपि - कृत्स्न एव हि वेदोऽयं परमेश्वरगोचरः । स्वार्थद्वारैव तात्पर्यं तस्य स्वर्गादिवद्विधौ ॥१६॥ पू० प० स्यादेतत् तथापि … .. इस प्रकार वैदिक विधिप्रत्यय के अर्थ में विशेषणीभूत ‘आस’ का निश्वय हो जाने पर भी इससे यह निश्चित नहीं होता है कि ‘वह बाप्त जीवों से भिन्न परमेश्वर ही हैं’ क्योंकि वेद के वक्ता अध्यापक के अभिप्राय से भी वैदिक लिङप्रत्यय के अर्थ का निर्वाह हो सकता हैं । इसके लिये परमेश्वर स्वरूप स्वतन्त्र वेदवक्ता की कल्पना अनावश्यक है । सि० प० न, तेषाम् अध्यापक वेद के वक्ता नहीं हैं, किन्तु अनुत्रका हैं । वे स्वतन्त्र बक्ता स्वरूप प्राप्तों के अभिप्राय से ही प्रवृत्त होते हैं। उनका कोई स्वतन्त्र अभिप्राय नहीं होता । जिस प्रकार शुक सारिकादि जिन शब्द का उच्चारण करतीं हैं, उन शब्दों का उन लोगों का कोई स्वतन्त्र अर्थ नहीं होता । यदि अनुवक्ता के भी स्वतन्त्र अभिप्राय की कल्पना की जाय तो राजसचि- वादि के द्वारा जिन राजाज्ञाओं का उद्घोष किया जाता है । उन उद्धष्ट शब्दों के अभिप्राय को भी राजसचिवादि का स्वतन्त्र अभिप्राय मान लेना होगा, किन्तु सो उचित नहीं है, क्योंकि उन आज्ञाओं को लोग राजा को ही प्राज्ञा मानते हैं, राजसचिवादि का नहीं । तस्मात् वैदिक विधिप्रत्यय के अर्थ में विशेषणीभूत ‘आस’ पुरुष परमेश्वर ही हैं, कोई अन्य नहीं ॥ १५ ॥ श्रुतेः खलु 100 श्रुति के द्वारा निम्नलिखित रोति से भी ईश्वर को सिद्धि हो सकती है । कृत्स्न एव हि उपगीयमान यह सम्पूर्ण वेद ‘परमेश्वर गोबर’ अर्थात् परमेश्वर के प्रतिपादक हैं । अर्थात् जिस प्रकार - यन्न दुःखेन संभिन्नं न च ग्रस्तमनन्तरम् । अभिलाषोपनीतं च तत् सुखं स्वः पदास्पदम् ॥
८१४ गद्यपद्यात्मक - न्यायकुसुमाञ्जली न सन्त्येव हि वेदभागा यत्र परमेश्वरो न गीयते । तथा हि त्रष्टृत्वेन पुरुषेरूकोष, विभूत्यां रुद्रेषु शब्दब्रह्मत्वेन मण्डल ब्राह्मणेषु प्रपञ्चं पुरकृत्य निष्प्रपञ्चतयोपनिषत्सु यज्ञपुरुषत्वेन मन्त्रविधिषु देहाविर्भावरुपाख्यानेषु, उपास्य- त्वेन च सर्वत्रेति । सिद्धार्थतया न ते प्रमाणमिमिति चेन्न । तद्धेतोः कारणदोषशङ्कानिरासस्य भाव्यभूतार्थसाधारणत्वात् । इत्यादि स्वर्ग के प्रतिपादक प्रर्थवादवाक्य स्वकीय स्वर्ग स्वरूप अर्थ के प्रतिपादन के द्वारा ही ‘स्वर्गकामोयजेत’ इत्यादि वाक्यों के साथ एकवाक्यतापन्न होकर प्रामाण्य लाभ करते हैं, उसी प्रकार ‘यज्ञो वै विष्णु’ इत्यादि वेद भी ‘स्वार्थद्वारंव’ अर्थात् अपने ईश्वर स्वरूप अर्थ के प्रतिपादन के द्वारा ही ‘ईश्वरमुपासीत’ इत्यादि विधिवाक्यों के साथ एक वाक्यतापन्न होकर प्रमाण हैं । अर्थात् ‘यज्ञो वै विष्णु।’ ईश्वरमुपासीत’ इत्यादि वाक्यों में प्रयुक्त ईश्वरादि के मुख्यार्थ सर्वज्ञत्वादि विशिष्ट पुरुष जब बाधित नहीं हैं, तो फिर उक्त श्रुतियों से भी ईश्वर की सिद्धि निरबाधं है । न सन्ति … … वेदों का कोई भी ऐसा ग्रंथ नहीं है, जिसमें ईश्वर की चर्चा किसी न किसी रूप में न हो । जैसे कि ‘सहस्त्रशीर्षा पुरुषः’ इत्यादि ‘पुरुषसूक्त’ में ईश्वर की चर्चा जगत के स्रष्टा रूप में की गयी है । ‘नमस्ते रुद्रपन्यव’ इत्यादि ‘रूद्रसूक्त’ में ईश्वर का उल्लेख ‘विभूति’ अर्थात् ‘ऐश्वर्य’ से युक्त पुरुष रूप में प्राप्त है । ‘यदेतन्मण्डलं तपति’ इत्यादि ‘मण्डल ब्राह्मण’ में ईश्वर का उल्लेख ‘शब्द ब्रह्म’ स्वरूप में मिलता है । उपनिषदों में प्रपञ्च के वर्णन के साथ ईश्वर का अभिधान ‘परब्रह्म’ स्वरूप में पाया जाता है । वेदों के उपाख्यान भाग में ‘शरीरपरिग्रही’ अवतार के रूप परमेश्वर का वर्णन किया गया है । ‘उपास्य’ रूप में परमेश्वर की चर्चा तो वेदों के सभी अंशों प्राप्त होती है । तस्मात् वेदों को प्रमाण मानने वाले आस्तिकों के लिये तो ‘अति’ हो अर्थात् वेद ही ईश्वर साधन के लिये यथेष्ट है । पू० प० सिद्धार्थतया 998 वेदों के जिन पुरुषसूक्तादि अंशों का उल्लेख किया गया है, वे सभी ‘सिद्धार्थबोधक’ हैं, अतः वे प्रमाण ही नहीं है, अतः उनसे ईश्वर की सिद्धि नहीं की जा सकती । सि० प० न, तद्धेतो! वक्ता में रहने वाले तद्विषयक यथार्थज्ञान स्वरूप ‘गुण’ ही तदबोधक शब्द के प्रामाण्य का प्रयोजक है। एवं वक्ता के भ्रम अथवा विप्रलिप्सादि दोष ही शब्द के अप्रामाण्य के प्रयोजक हैं । अतः जिस शब्द का उच्चारण आप्त पुरुष के द्वारा होगा- वह शब्द B ย ह घ वि
पश्चमः स्तबक! ८१५ अन्यत्रामीषां तात्पर्यमिति चेत्; स्वार्थप्रतिपादनद्वारा ? शब्दमात्रतया वा ? प्रथमे स्वार्थेऽपि प्रामाण्यमेषितव्यम् । तस्यार्थस्यानन्यप्रमाणकत्वात् । अत एव तस्य स्मारकत्वमित्यपि मिथ्या । ‘सिद्धार्थ’ का बोधक हो, प्रथवा ‘साध्यार्थ का ज्ञापक हो - वह शब्द अवश्य ही प्रमाण होगा । जो शब्द अनाप्तोश्चरित होगा, वह चाहे ‘सिद्धार्थ’ का बोधक हो, चाहे साध्यार्थ का, अप्रमाण ही होगा । चू. कि शब्द में अप्रामाण्य के प्रयोजक हैं, वक्ता में रहने वाले भ्रम विप्रलिप्सा प्रभूति दोष । वेदों को पौरुषेय मानें अथवा अपौरुषेय. - दोनों ही पक्षों में शब्दों के अप्रामाण्य के प्रयोजक ये वक्तृगत भ्रम विप्रलिप्सादि दोघों की सम्भावना ‘यज्ञो वै विष्णुः’ इत्यादि वेदवाक्यों में सम्भावित नहीं है । अतः उक्त आक्षेप भी व्यर्थ है । पू० प० अन्यत्र … कि शब्दों की शक्ति कार्यस्व में अथवा कार्यान्वित स्वार्थ में होगा कि सिद्धार्थबोधक उक्त ‘ईश्वर’ प्रभृति शब्दों की किन्तु कार्यान्वित किसी अन्य अर्थ के बोध की इच्छा विष्णुः’ इत्यादि श्रुतियों से ईश्वर की सिद्धि नहीं जब कि यह निर्णीत है ही है, तो यह स्वीकार करना ही शक्ति भी केवल इश्वर में नहीं है, से ही वे प्रयुक्त हुये हैं । अतः ‘यज्ञो वै हो सकती । सि० प० स्वाथं 400 400 प्रथमे 8.88 मीमांसकों से पूछना है कि घटादि पदों का जो तात्पर्य श्रानयनादि कार्यों में है-क्या वह घटादि पदों के द्वारा घटादि स्वार्थी के प्रतिपादन की अपेक्षा रखता है ? अथवा नहीं ? इन में. पहिले पक्ष के प्रसङ्ग में यह कहना है कि ) ईश्वर। दि पद का तात्पर्य यदि कार्यत्व में मान भी लें, तथापि ईश्वरादि स्वरूप स्वार्थ में भी उन शब्दों का प्रामाण्य मानना ही होगा । क्योंकि कार्यत्व में तात्पर्य के साथ साथ स्वार्थ में भी पद की शक्ति स्वीकृत ही हो गयी है । ईश्वरादि पदों से केवल कार्यत्व का बोध तो कोई भी स्वीकार नहीं करता । अतः ईश्वरादि सिद्ध अर्थ के बोधक ईश्वरादि पदार्थो का कार्यस्व विषयक बोध में अवश्य भासित होने वाले ईश्वरादि सिद्ध अर्थो के भासक ईश्वरादि पदों को छोड़कर कोई दूसरा नहीं है । अतः ईश्वरादि पद की शक्ति कार्यत्व में स्वीकार भी कर लें, तथापि उनमें ईश्वरादि स्वरूप अपने अर्थो ( स्वार्थी ) की वाचकता को स्वीकार करने में कोई बाधा नहीं है । प्रत एव … … कोई कहते हैं कि घटादि सिद्ध अर्थों के बोधक घटादि पदों से जो कार्यत्वान्वित घटादि स्वार्थी का बोध होगा, उसमें घटादि सिद्धार्थबोधक पदों का इतना ही उपयोग है कि घटादि की उपस्थिति स्वरूप स्मृति को उत्पन्न कर दे। क्योंकि कार्यत्वान्वित घटादि
-१६ गद्यपद्यात्मक न्यायकुसुमाञ्जली तत्प्रतिपादकत्वेऽपि न तत्र तात्पर्यमिति चेत्; स्वार्थापरित्यागे ज्योतिः शास्त्र- वदन्यत्रापि तात्पर्ये को दोषः ? अन्यथा स्वर्ग-नरक - ब्रात्य श्रोत्रियादिस्वरूपप्रतिपाद- कानामप्रामाण्ये बहु विप्लवेत 1 विषयक बोध में इस स्मृति की अपेक्षा है। इसके लिये घट स्वरूप अर्थ में घट पद की शक्ति को स्वीकार करना प्रावश्यक नहीं है । किन्तु उक्त कथन भी ठीक नहीं है, क्योंकि ) जिस प्रकार महावत के ज्ञान से हाथी का स्मरण होता है, उसी प्रकार घट पद से घट रूप अर्थ की उपस्थिति भो ‘एकसम्बन्धिज्ञानमपरसम्बन्धिस्मारकम् ’ इस न्याय से ही होती है। यह ‘न्याय’ कथित दोनों वस्तुओं में परस्पर किसी प्रकार के सम्बन्ध के रहने से ही सम्भव है । पद एवं अर्थ इन दोनों में उक्त सम्बन्ध केवल ‘सङ्केत’ स्वरूप ही हो सकता है । अतः उक्त मत से भी ईश्वर पद की शक्ति सर्वज्ञत्वादि विशिष्ट आत्मा में मानना आवश्यक है । पू० प० तत्प्रतिपादकत्वेऽपि ईश्वर पद को यदि परमात्मा स्वरूप सिद्ध अर्थ का वाचक मान भी लें, तथापि उसका तात्पर्य उपासनादि स्वरूप किसी ‘साध्य’ रूपा ‘क्रिया’ में ही है। तात्पर्य विषयीभूत अर्थों के प्रमाज्ञान का उत्पादक होने के नाते ही ‘शब्द प्रमाण’ कहलाता है । इस लिये वेदस्य ईश्वर पद ईश्वर स्वरूप सिद्ध अर्थ का ज्ञापक प्रमाण नहीं हो सकता । सि० प० सिद्धार्थापरित्यागे … 449 शब्द का तात्पर्य कहीं अन्यत्र रहने पर भी उसके स्वार्थ विषयक प्रामाण्य में कोई व्याघात नहीं होता है । जैसे कि ज्योतिषशास्त्र वेदशास्त्र का अङ्ग है । क्योंकि ज्ञापक है । यद्यपि ज्योतिषशास्त्र सिद्धार्थ बोधक वह दर्शादिकाल स्वरूप सिद्ध अर्थ का होने के नाते स्वतः प्रमाण न होकर ‘दर्शपौर्णमासाभ्यां यजेत’ इस वाक्य के साथ एक वाक्यतापन्न होकर ही दर्शादि याग स्वरूप कार्यों में ही तात्पर्यान्वित है । फिर दर्शादिकाल स्वरूप स्वार्थ में भी उसका प्रामाण्य अव्याहत है । अन्यथा ( उक्त द्वितीय पक्ष के प्रसङ्ग में कहना है कि ) ‘अन्यत्र’ अर्थात् प्रपने अभिवेय पर्ण से भिन्न कार्यत्वादि भथ में तात्पर्य रहने पर भी शब्दों का स्वार्थ में प्रामाण्य मानना आवश्यक है । ‘अभ्यथा’ अर्थात् यदि ऐसा स्वीकार न करें तो स्वर्ग, नरक, ब्रास्य, श्रोत्रिय, प्रभृति सिद्ध अर्थ के बोधक सभी आगमं अपना-अपना प्रामाण्य खो बैठेंगे । ऐसा होने पर ‘लोकयात्रा’ सर्वथा विश्वङ्खल हो जायगी । इस लिये ईश्वर पद का उपासना स्वरूप कार्यस्व मैं तात्पर्य रहने पर भी ‘ईश्वर’ स्वरूप अपने सिद्ध पर्थ में तात्पर्य यथावत् बना हुआ है । दय त क पू स्व सि ईश् स्व पू जा प सि उस बा 29 2 पू प्रा मा इस सि फि के जां
पञ्चमः स्तबका ८१० तत्राबाधनात्तथेति चेत्; तुल्यम् । न तादृगर्थः कचित् दृष्ट इति चेत्; स्वर्गा- दयोऽपि तथा । तन्मिथ्यात्वे तदर्थिनामप्रवृत्ती विधानानर्थक्यप्रसङ्ग इति चेत् इहापि तदुपासनाविधानानर्थक्यप्रसङ्गः । तन्मिथ्यात्वे हि सालोक्यसायुज्यादिफल मिथ्यात्वे कः प्रेक्षावांस्तमुपासीतेति तुल्यमिति । पू० प० तत्र स्वर्गादि स्वरूप अर्थ चूकि बाधित नहीं हैं, अतः सिद्ध होने पर भी उनमें भी स्वर्गादिपदों का तात्पर्य बना रहता है । सि० प० तुल्यम् ईश्वर पद का भी तो ईश्वर स्वरूप अर्थ बाधित नहीं है, अतः ‘तुल्य’ न्याय से ईश्वरादि पदों का भी उपासनादि स्वरूप अन्य अर्थों में तात्पर्य रहने पर भी ईश्वर स्वरूप स्वार्थ विषयक प्रमाण्य में कोई बाधा नहीं है । पू० प० न ताहक् सर्वज्ञत्व विशिष्ट कोई अर्थ दृष्ट ही नहीं है, जाय । इस लिये सर्वज्ञत्व विशिष्ट वस्तु ही प्रत्यक्ष से पद का प्रामाण्य स्वीकार नहीं किया जा सकता । सि० प० स्वर्गादया जिसको ईश्वर पद का वाच्य कहा बाधित है । अत: उस अर्थ में ईश्वर दुःखासम्भिन्न सुख स्वरूप अर्थ भी तो प्रत्यक्ष प्रमाण के द्वारा अनुभूत नहीं है, अतः उसमें भी ‘स्वर्ग’ पद की शक्ति नहीं मानी जा सकती। क्योंकि वह भी प्रत्यक्ष से बाधित ही है । पू० प० तन्मिथ्यात्वे … स्वर्ग पद के अर्थ को यदि मिथ्या कहेंगे तो प्रामाण्य अनुपपन्न हो जायगा । इस लिये स्वर्ग पद के आवश्यक है । इस प्रकार प्रर्थापत्ति प्रमाण के द्वारा स्वर्ग इस लिये स्वर्गपद उसका प्रमापक हो सकता है । सि० प० इहापि ‘स्वर्गकामो यजेत’ इस वाक्य का वाच्यार्थ को प्रामाणिक मानना स्वरूप अर्थ की सत्ता सिद्ध है। यदि सर्वशत्वादि विशिष्ट आत्मा में ईश्वर पद की अभिषेयता प्रामाणिक न हो, तो फिर ‘ईश्वरमुपासीत’ यह उपासना का विधायक वाक्य व्यर्थ हो जायगा । ईश्वरोपासना के व्यर्थ होने से ईश्वरोपासना के सालोक्य सायुज्यादि गौण मोक्ष स्वरूप फल भी मिथ्या हो जाँयेंगे । ऐसी स्थिति में लोग ईश्वर की उपासना में प्रवृत्त ही क्यों कर होंगे ? १०३
मरूपात्मक व्यायकुसुमाञ्जली वाम्यादपि । संसर्गभेदप्रतिपादकवं ान वाक्यत्वमभिप्रेतम् । तथा च महात्म्य गत्सर्गभेदादिकम् तत् तदन पेदारांसगंज्ञानपूर्वकम्, यथा लौकिकस् तथाच वैदिकमिति प्रयोगः । विपक्षे च बाधकमुक्तम् ॥ १६ ॥ साविशेषादार- स्याम भविष्यामीत्यादिसङ्ख्या च वक्त गा । सन शाखानामाद्यत्र वचनादृते ॥१७॥ इसलिये इस पक्ष में भी समान रूप से यह कहा जा सकता है कि ‘ईश्वरमुपासीत ’ रूस किये काव्य के प्राम्य की अनुपपत्ति से सर्वज्ञत्वादि विशिष्ट पुरुष स्वरूप में ईश्वर का उसमें ईश्वर पद की शक्ति मानने में कोई बाधा नहीं है । है। "" हेतु से हो ईश्वर का यह दूसरा अनुमान इस अभिप्राय से उपस्थित किया जा सकता है कि जिस वाक्य के द्वारा जिस प्रकार के विशेष प्रकार के संसर्ग का बोध होगा, शाल्वदोष से पूर्व बक्ता को किसी दूसरे प्रमाण से उक्त संसर्ग का प्रमाज्ञान रहना आवश्यक है। इससे यह व्याप्ति निष्पन्न होती है कि जो पद समूह स्वरूप वाक्य जिस विशेष प्रकार के संसर्गका प्रतिपादक है, उस वाक्य की उत्पत्ति अवश्य ही स्वानपेक्ष उक्त संसर्ग विषयक प्रमाशान से होती है । वेद मो वाक्य स्वरूप ही है । वेद स्वरूप वाक्य से जिस विशेष प्रकार के संसर्ग का बोब होगा, किसी दूसरे प्रमाण से उस संसर्ग विषयक ज्ञान भी अवश्य ही पहिले उत्पन्न रहा होगा । 1 यह क्रम वेदवाक्य से सर्वप्रथम जो शाब्दबोध उत्पन्न हुआ होगा, वहाँ के लिये भी श्रावश्यक है । इस लिये देव वाक्य से जिस संसर्ग का ज्ञान होगा, उस संसर्ग का किसी दूसरे प्रमाण से भी ज्ञान मानना आवश्यक होगा । इस ज्ञान के प्राश्रय ही ‘परमेश्वर’ हैं । विपक्षे च ….. इस प्रसंग में मीमांसक कह सकते हैं कि उक्त व्याप्ति के विपक्ष में यह कहा जा सकता है कि वाक्यार्थ जम्य ज्ञान के लिये किसी दूसरे प्रमाण से वाक्यार्थं का ज्ञान आवश्यक नहीं है । इस आक्षेप के समाधान के प्रसंग में तृतीय स्तबक में बहुत कुछ कहा जा चुका है ॥ १६ ॥ संख्याविशेषात् ~~ … प्रर्थात् कथित ‘संख्या विशेष’ हेतु से भी अन्य न्याय प्रयोग के द्वारा ईश्वर की सिद्धि की जा सकती है। यह इस प्रकार जानना चाहिये कि वेदों में भी ‘स्याम्’ ‘अभूवम्’ इत्यादि उत्तम पुरुष में निष्पन्न क्रिया पदों के प्रचुर प्रयोग मिलते हैं । कर्त्ता में विहित स पि ह में अ क व्य त पुरु संद
पंचमः स्वयकः ८१६३ कार्यतया हि प्राक् सङख्योक्ता, सम्प्रति तु प्रतिपाद्यतयोच्यते । तथा ह्युत्तम- पुरुषाभिहिता सङ्ख्या वक्तारमन्वेतीति सुप्रसिद्धम् । अस्ति च तत्प्रयोगः प्रायशो वेदे : । ततस्तदभिहितया तयाऽपि स एवानुगन्तव्यः । अन्यथाऽनन्वयप्रसङ्गात् । प्रत्यय के अर्थ ‘संख्या’ का अन्वय स्वतन्त्रोच्चारयिता स्वरूप ‘कर्ता’ में हो होता है । अतः वेदस्थ उक्त प्रत्ययों के अर्थ संख्या का आश्रय ‘परमेश्वर’ को छोड़कर कोई अन्य पुरुष नहीं हो सकता । समाख्यापि 76 । अथवा ‘संख्यायते अनया’ इस व्युत्पत्ति के अनुसार ‘संख्या’ शब्द का ‘संज्ञा’ स्वरूप योगिक ‘समाख्या’ अर्थ भो हो सकता है । अर्थात् वेदों में ‘कठ’ कलाप’ प्रभृति संज्ञायें उपलब्धि होती हैं । सृष्टि को आदि में जब तक मतोन्द्रियार्थ से युक्त किसी पुरुष की कल्पना नहीं की जाती, तब तक उन नामों के उल्लेख की उपपत्ति नहीं की जा सकती । अतः कठादि ‘समाख्या’ शब्दों के प्रथम उच्चारण कर्ता परमेश्वर ही हैं । कुछ वेद शाखाओं के जो ‘काठक’ कलापक प्रभृति नाम हैं, उसका मूल कारण यही है । कार्यंतया … ( इस प्रसंग में शिष्य की यह जिज्ञासा हो सकती है कि पहिले गणना व्यवहार साघनी भूत ‘संख्या’ स्वरूप हेतु का उल्लेख ईश्वर साधन के लिये किया जा चुका है । पुनः के गणना व्यवहार के हेतु उसी संख्या को ईश्वर साधक हेतु रूप में ही पुनः उल्लेख किया जा रहा है । फिर इस स्तबक के प्रथम श्लोक में पठित ‘संख्या विशेष’ शब्द की यह दूसरी व्याख्या कैसे हुई ? इस प्रश्न का यह उत्तर है कि ) पहिले सृष्टि की आदि कालिक द्वयस्तुक के उत्पादक परमाणुत्रों में रहने वाली द्वित्व संख्या स्वरूप ‘कार्य’ को ईश्वर साधक हेतु रूप से निर्देश किया गया है । अभी ‘स्याम्, अभूवम्’ इत्यादि पदों में प्रयुक्त आख्यातों से प्रतिपाद्य अर्थात् ‘ज्ञाप्य’ संख्या का परमेश्वर के साबक हेतु रूप में उल्लेख किया जा रहा है । अतः इसको ‘संख्या’ शब्द का व्याख्यान्तर’ कहने में कोई बाधा नहीं है । तथा हि ….. ….. ( श्लोक के पूर्वार्द्ध की व्याख्या यह निर्विवाद है कि उत्तम पुरुष में विहित प्रत्यय के अर्थ संख्या का अन्वय शब्द के उच्चारण ‘कर्ता’ स्वरूप ‘अस्मद्’ शब्द के अर्थ में ही होता है। वेदों में उत्तम पुरुष में विहित प्रत्यय से युक्त बहुत से प्रयोग हैं। उत्तम पुरुष में विहित उन प्रत्ययों के अर्थ संख्या का भी प्रन्वय वेद वाक्यों के प्रथम उच्चवारयिता पुरुष में मानना ही होगा । CCO. Vasishtha Tripathi Collection. Digitized by eGangotri.५२० गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्ज फौ अथवा समाख्या विशेष! सङ्ख्या विशेष उच्यते । काठकं कालापकमित्यादयो हि समाख्याविशेषाः शाखाविशेषाणामनुस्मर्यन्ते । ते च न प्रवचनमात्रनिबन्धनाः, प्रवक्तृरणामनन्तत्वात् । नापि प्रकृष्टवचननिमित्ताः । ऐसा न मानने पर उन संख्याओं का प्रन्वय कहाँ पर होगा ? तस्मात् वेदों में प्रयुक्त उक्त उत्तम पुरुष में निष्पम्न प्रत्यय की अभिधेय संख्या के अम्बयो रूप में भी ईश्वर की सिद्धि हो सकती है । अथवा …… ( श्लोक के उत्तराद्धं की व्याख्या ) ‘संख्या’ शब्द का अर्थ ‘संख्यायते अनेन’ इस व्युत्पत्ति के अनुसार ‘समाख्या’ स्वरूप योगिक अर्थ भी हो सकता है । इस ( संख्या स्वरूप ) समाख्या से भी ईश्वर की सिद्धि हो सकती है । भ न ए भे हुई हो सि बल क्य ( श्र प्रसिद्ध हैं । रचना करने का अतः यह कहना सुलभ है कि प्रती- जीवों के अदृष्टों के सहाय्य से ‘कठ’’ वेदों की कुछ शाखायें ‘काठक’ ‘कलापक’ आदि शब्दों से वाले पुरुष के नाम से ग्रन्थ की प्रसिद्धि देखी जाती है। न्द्रियार्थ दर्शी परम कारुणिक भगवान् सृष्टि की आदि में एवं ‘कलाप प्रभूति नाम के शरीर को धारण कर जिन शाखाओं का उच्चारण किया, वे शाखायें ही वत्तन्नाम से प्रसिद्ध हुई । इस प्रकार वेदों में उपलब्ध ‘काठक’ प्रभूति यौगिक संज्ञा स्वरूप ‘समाख्या’ से भी ईश्वर की सिद्धि हो सकती है । तेंच .. ( इस प्रसङ्ग में मीमांसकों का कहना है कि कठ, कलाप: प्रभूति नाम के उन शाखाओं के ज्ञाताओं के नाम से ही वे शाखायें काठक कलापक प्रभृतिः नामों से प्रसिद्ध हैं । वे लोग उन शाखाओं का ‘प्रवचन’ अर्थात् व्याख्यान प्रध्यापनादि विशेष रूप से किया । अतः उन शाखाओं की प्रसिद्धि भाजतक उन्हीं लोगों के नाम से चली आ रही है । अतः उन समाख्याओं से ईश्वर की सिद्धि नहीं की जा सकती है। किन्तु यह कथन भी ठीक नहीं है, क्योंकि ) उन शाखाओं की विशेष प्रकार की संज्ञायें ‘प्रवचन’ मूलक नहीं हो सकती। क्योंकि एक-एक शाखा के प्रवचन करनेवाले अनेक पुरुष हो गये हैं । इसलिये यह निर्णय करना कठिन है कि उक्त शाखायें किस प्रवाचक पुरुष के नाम से प्रसिद्ध हो ?- नापि ( इस प्रसङ्ग में मीमांसक कह सकते है कि उक्त प्रवचन शब्द का अर्थ है ‘प्रकृष्ट वचन’ । अर्थात् जिस शाखा का अध्ययन वा अध्यापन जो कोई ‘प्रकृष्ट’ रूप से किया, अथवा तदनुकुल यवन - याजनादि का अनुष्ठान किया, वह ‘शाखा’ उसी पुरुष के नाम से प्रसिद्ध
} था. उस दोष प्रक में. उ तो स्वी उनमे नाप किंप यह ही ‘वही विव } चम ८२१ उपाध्यायेभ्योऽपि प्रकर्षे प्रत्युनान्ययाकरणदोषात् । तत्पाठानुकरणे च प्रकर्षा भावात् । कति चानादी संसारे प्रकृष्टाः प्रवक्तार इति को नियामक इति । नाप्याद्यस्य वक्तुः समाख्येति युक्तम् । भवद्भिस्तदनभ्युपगमात् । अभ्युपगमे वा स एवास्माकं वेदकार इति वृथा विप्रतिपत्तिः । स्यादेतत् । ब्रह्मरणत्वे सत्यवान्तरजाति- भेदा एव कठत्वादयः । हुई । जिस प्रकार सभी दार्शनिक सिद्धान्तों के बीज उपनिषदादि ग्रन्थों में सूक्ष्म रूप से वर्णित होने पर भी जिस सिद्धान्त का प्रचार प्रसार जिस पुरुष के द्वारा विशेष रूप किया गया, उस सिद्धान्त का प्रतिपादक उसी पुरुष के नाम से अता काठकादिः समः ख्याओं के बल से कठादि नामधारी आदि वक्ता स्वरूप क्योंकि उक्त समाधान के प्रख्यात है । परमेश्वर की कल्पना नहीं की जा सकतीः । प्रसङ्ग में प्रष्टव्य है कि ) वेद के व्याख्याताओं में जिस ‘प्रकृष्टत्व’ ( प्रकर्ष) की चर्चा की गयी है, किसकी अपेक्षा वह ‘प्रकर्ष’ अपेक्षित है ? यदि वे अपने श्रध्यापकों की अपेक्षा अधिक ‘प्रकृष्ट’ थे, तो कहना पड़ेगा कि उनको अध्यापक ने उस शाखा का अध्ययन जिस अर्थ को समझने के लिये प्रथवा जिस प्रकार के अनुष्ठानों के लिये किया था, उस अर्थ से भिन्न अर्थों में अथवा भिन्न प्रकार के अनुष्टानों में यह ‘प्रकृष्ट’ शिष्य ने एवं उनके अनुयायी ‘अन्यथाकरण’ उस शाखा का उपयोग किया । इससे ‘उक्त प्रकृष्ट वक्ता’ दोष के भागी होंगे । क्योंकि जिस वेदशाखा का जिस अर्थ में एवं जिस मनुष्ठान में जिस प्रकार से उपयोग हो आया है, उससे भिन्न प्रकार के अर्थ में, एवं भिन्न प्रकार के अनुष्ठान में उन्होंने लगाया । यदि कथित ‘प्रकृष्ट वक्ता’ अपने ‘गुरु’ के बताये हुये मार्ग का ही अनुसरण किया, तो फिर इनकी व्याख्या में ‘प्रकर्ष ही क्या रह गया ! इनको मोरों से प्रकृष्ट वक्ता ही कैसे स्वीकार करें ? तीसरी बात यह है कि अनादि संसार में किस शाखा के कितने प्रकृष्ट वक्ता हुये ? उनमें से किस व्यक्ति के नाम से कौन सी शाखा प्रसिद्ध होगी ? इसका नियमन कौन करेगा ? नाप्याद्यस्य ( यदि मीमांसक यह कहें कि जिस शाखा का किया, जिस शाखा के जो मादि वक्ता थे, उनके नाम से यह समाधान है कि ) माप ( मीमांसक गण ) लोग वेदों के ‘प्रवचन’ जिस पुरुष ने सबसे पहिले ही वह शाखा प्रसिद्ध हुई । उसका किसी आदि वक्ता को स्वीकार कहना सुलभ हो जायेगा कि हो कहाँ करते हैं ? यदि यह मान लें तो हम लोगों को यह ‘वही आदि वक्ता परमेश्वर पारीर पारी वेदों के रचयिता मादि पुरुष हैं’ तब तो फिर कोई विवाद ही नहीं रह जायगा ।
८२२ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जको तदध्येया तदनुष्ठेयार्था च शाखा तत्समाख्यया व्यपदिश्यत इति किमनुपपन्नम् ? न । क्षत्रियादेरपि तत्रेवाधिकारात् । न च यो ब्राह्मणस्य विशेषः स क्षत्रियादी सम्भवति । न च क्षत्रियादेरन्यो वेद इत्यस्ति । न च कठाः काठकमेवाधीयते, तदर्थमेवानुतिष्ठन्तीति नियमः । शाखा सञ्चारस्यापि प्रायशो दर्शनात् । प्रागेवायं नियम आसीदिदानीमयं विप्लवत इति चेत् । 1 पू० प० स्यादेतत् ब्राह्मणत्वे सति ब्राह्मणस्व के व्याप्य हैं कठत्व कलापत्वादि धर्म, अध्ययन के लिये अथवा अनुष्ठान के लिये तत्तजाति के ब्राह्मणों के लिये निर्दिष्ट शाखायें ही उन लोगों के नामों से प्रसिद्ध है । अर्थात् कठ कलपादि शब्द किसी व्यक्ति के नहीं, किसी विशेष प्रकार के समुदाय के बोधक हैं । सि० प० न, क्षत्रियादे। ( १ ) उक्त कथन भी ठीक नहीं है, क्योंकि उन शाखाओं के अध्ययन का अधिकार क्षत्रिय एवं वैश्य को भो है’। यह बात भी नहीं है कि क्षत्रियादि के पढ़ने के लिये दूसरे वेद हैं । अतः काठक कलापक प्रभृति शाखाओं के अध्ययन का क्षत्रियादि का अधिकार लुप्त हो जायगा । अतः उक्त समाधान संगत नहीं है । 1 (२) दूसरी बात यह है कि इस से कठ समुदाय के काठक ब्राह्मणों को ‘कठ शाखा’ के अध्ययनादि का अधिकार प्राप्त होता है ‘कलापशाखा’ के अध्ययन का नहीं। इसी प्रकार कलाप समुदाय के ब्राह्मणों को कलाप शाखा का अध्ययन प्राप्त होता है, काठकादि शाखाओंों के अध्ययन का नहीं । किन्तु कठसमुदाय के ब्राह्मण अन्य शाखाओंों के अध्ययन में भी निरत दीखते हैं । अतः मन्यसमूह के ब्राह्मणों के द्वारा अन्यथाखाओं के अध्ययन रूप ‘शाखा सञ्चार’ अनुपपन्न हो जायगा । किन्तु उक्त ‘शाखसञ्चार’ बराबर देखा जाता है । पू० प० प्रागेव - … पहिले यही नियम था कि कठादि किसी एक समूह के ब्राह्मण कठादि किसी एक ही शाखा का अध्ययन अथवा तदनुकूल अनुष्ठान करते थे । संप्रति यह नियम विलुप्त हो गया है । अर्थात् यदि जिस जाति के पुरुषों के लिये जिस शाखा का अध्ययन निर्दिष्ट है. तो फिर यह भी मानना होगा कि उसी जाति के व्यक्तियों को उक्त शाखाओं के पढ़ने का अधिकार है, किसी अन्य को नहीं। जिस सामान्य धर्म का जो ‘विशेष’ जाति से युक्त व्यक्तियों में ही अर्थात् व्याध्य होता है, वह ‘विशेष’ उक्त सामान्य रहता है। अतः कठत्व यदि ब्राह्मणत्व स्वरूप सामान्य का धर्म विशेष धर्म है, तो फिर वह ब्राह्मण में ही रहेगा, पश्नियदि में नहीं । तस्मात् उक्त पक्ष को स्वीकार करने से काठकादि शाखाओं के पढ़ने का अधिकार क्षत्रिय आदि को नहीं रहेगा ।
पञ्चम स्तबक! ८२३ विप्लव एव तर्हि सवंदा, कठाद्यवान्तरजातिविप्लवादित्यगतिरेवेयम् । तस्मादाद्यप्रवक्तृवचन निमित्तएवायं समाख्याविशेषसम्बन्ध इत्येव साध्विति । स एवं - भगवान् श्रुतोऽनुमितच, केचित् साक्षादपि दृश्यते, प्रमेयत्वादेघंटवत् । ननु तत्सामग्री. रहितः कथं द्रष्टव्यः ? सा हि बहिरिन्द्रियगर्भा, मनोगर्भा वा ? तत्र न सम्भवति । अतः एक समूह के ब्राह्मण अपने लिये निर्दिष्ट शाखा से अतिरिक्त शाखा के अध्यनादि में भी निरत दीख पड़ते हैं । सि० प० विप्लव एव तो फिर यही कहिये कि ‘कठत्वादि’ जातियां ही विलुप्त हैं । अर्थात् यह निय नहीं है कि कठ शाखा के अध्येताओंों में कठत्व जाति रहे । कौन समूह का ब्राह्मण की शाखा का अध्ययन करे, इसका कोई नियम नहीं है । इस लिये ‘कठ’ नाम के किसी आ वक्ता की कल्पना का परित्याग कर उक्त ‘समाख्या’ के बल पर ईश्वर की कल्पना उचित है । सि० प० स एव भगवान् www ( ग्रन्थ के आदि में आचार्य की प्रतिज्ञा है कि ‘मनन रूपा उपासनैव क्रियते इतने पर्यन्त के सन्दर्भ से उक्त मनन रूपा उपासना का ही विवेश्चन हुआ है । किन्तु चूकि अनुमिति स्वरूप है, अतः परोक्ष है । प्रत्यक्ष परोक्ष से प्रबल है । अज्ञान ( मिथ्या * की निवृत्ति के द्वारा ही ‘ज्ञान’ मोक्ष का साधक है । किन्तु इतने पर्यन्त के सन्दर्भ से नि ‘मनन’ स्वरूप ज्ञान ‘चूकि परोक्ष है, अतः प्रत्यक्षात्मक अज्ञान ( अर्थात् विपर्या’ मिथ्याज्ञान ) का निवारक नहीं हो सकता । अतः इस ‘मनन’ से मोक्ष का सम्पादन हो सकता है ? इस प्रश्न का यह उत्तर है कि ) परमेश्वर विषयक जिस मनन को मो साधक कहा गया है, उससे परमेश्वर का प्रत्यक्ष भी कुछ विशिष्ट पुरुषों को हो सकत एवं कुछ व्यक्तियों को हो भी चुका है । जैसे कि घट में रहने वाले प्रमेयत्वादि धर्मो प्रत्यक्ष कुछ विशेष प्रकार के पुरुषों को ही होता है, उसी प्रकार योगादि के अनुष्ठा जिनका अन्तःकरण स्वच्छ हो चुका है—उन महापुरुषों को अवश्य ही परमेश्वर का प्र होता है । अतः ‘परमेश्वर का प्रत्यक्ष नहीं होता है’ यह कहना साहस मात्र है । पू० प० ननु तत्सामग्री रहित - .. 1 } सभी कारणों के एकत्र होने पर ही कार्य की उत्पत्ति होती है, प्रतः प्रत्यक्ष की उसकी अपना सामग्री (कारण समूह) के सम्बलन के विना सम्भव नहीं है। प्रत्यक्ष क दो प्रकार की सामग्रियाँ है (१) चक्षुरादि बहिरिन्द्रियों से…युक्त एवं CCO. Vasishtha Tripathi Collection. Digitized by eGangot ८१ यस्पे तथा इस ८२४ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली चक्षुरादनियत विषयत्वात्, मनसो बहिरस्वातन्त्र्यात् । यदुक्त, “हेत्वभावे फलाभावात्’ इत्यादि । न । कार्यैकव्यमथायाः सामग्र्या निषेद्धुमशक्यत्वात् । अपि व। दृश्यते तावहहिरिन्द्रिरोपरमेऽपि असन्निहित देशकालार्थसाक्षात्कारः स्वप्ने । स्वरूप अन्तरिन्द्रिय से युक्त । सामग्री के इस द्व विध्य के कारण ही प्रत्यक्ष भी ( १ ) बाह्य एवं (२) आम्तर भेद से दो प्रकार के हैं । ईश्वर के प्रत्यक्ष के लिये भी इन दोनों सामग्रियों में से किसी एक का सम्बलन आवश्यक है । किन्तु कथित दोनों ही सामग्रियों में से किसी एक का भी सम्बलन ईश्वर प्रत्यक्ष के लिये सम्भव नहीं है । क्योंकि चक्षुरादि से नियमित रूपादि गुणों से सम्बद्ध वस्तुओं का ही प्रत्यक्ष होता है । अतः इस सामग्री से रूपादि गुणों रहित परमेश्वर का प्रत्यक्ष नहीं हो सकता । मन स्वरूप इन्द्रिय को स्वरूपतः जीव, एवं नके ज्ञान इच्छादि धर्मों के ग्रहण करने की हो सामर्थ्य है, उनसे भिन्न किसी ‘बाह्य’ वाक्य स्य को ग्रहण करने की सामर्थ्य मन में नहीं है । अतः मन से भी परामात्मा का प्रत्यक्ष ! हो सकता । दोनों से भिन्न प्रत्यक्ष की कोई तीसरी सामग्री नहीं है, जिससे ईश्वर प्रत्यक्ष हो सके । कारणों के बिना कार्य की उत्पत्ति नहीं हो सकती - यह ‘हेत्वभावात् प्रामा जा शाब्द है । लाभावः’ इत्यादि श्लोक के द्वारा उपपादन कर चुके हैं । अतः परमेश्वर का प्रत्यक्ष नहीं संसर्ग । प्रमाला प० न, कार्येक आवश्य प्रकार कार्यं से ही उसकी सामग्री का अनुमान किया जाता है । रूप अथवा रूप विशिष्ट ही परि के प्रत्यक्ष स्वरूप कार्य के प्रन्वय एवं व्यतिरेक से ही उसकी सामग्री को चक्षु घटित जाता है । अतः परमेश्वर का प्रत्यक्ष स्वरूप कार्यं जब प्रमाणों से सिद्ध है, तो किसी रूप सामग्री की कल्पना करनी होगी। भले ही वह सामग्री चक्षुरिन्द्रिय घटित, अथवा स्वरूप इन्द्रिय घटित न हो सके । किन्तु प्रकृत में तो मन घटित सामग्री से ही परमेश्वर पक प्रत्यक्ष का उत्पादन सम्भावित है । दूसरे विप न च ….. सकत नहीं संख्य ( मन से ईश्वर विषयक प्रत्यक्ष में जो यह बाधा दिखलायी गयी थी कि मन को सीधे विषयक प्रत्यक्ष के उत्पादन की क्षमता नहीं है, अतः मन से परमेश्वर विषयक प्रत्यक्ष न नहीं हो सकता । उसका यह उत्तर है कि ) स्वप्न में जो घटादि विषयक प्रत्यक्ष समय मन ही केवल व्यापृत रहता है, चक्षुरादि इन्द्रियों में से कोई भी उस समय रहती । उस समय चक्षुरादि इन्द्रियों के व्यापार शान्त हो जाते हैं । यदि
f स पू स अ ST अ ज्ञ का अ पश्चमः स्तबका ८२५: न च स्मृतिरेवासी पटीयसी, स्मरामि स्मृतं वेति स्वप्नानुसन्धानाभावात् पश्यामि दृष्टमित्यनुव्यवसायात् । न चारोपितं तत्रानुभवत्वम् । के वत्यपि । “स घट” टमिति । स्वप्नावस्था में चक्षुरादि इन्द्रियों का व्यापार स्वीकार करें भी तो उस समय जिस प्रकार दूरस्थ एवं विप्रकृष्ट एवं प्रतीतकालिक वस्तुनों का भान होता है, वह चक्षुरादि इन्द्रियों के व्यापार से संभव ही नहीं है । अतः स्वप्न कालिक प्रत्यक्ष के लिये मान्तर एवं बाह्य सभी विषयों में मन स्वरूप अतिरिन्द्रिय का व्यापार मानना ही होगा । अतः यह मानना होगा कि कुछ विशेष स्थलों में विशेष क्षमता सम्पन्न सहायक के सहयोग से केवल मन से भी वाह्य होगा । विषयक प्रत्यक्ष हो सकता है । पृ० प० न च " 1 स्वप्नावस्था के जिस ज्ञान को आप ( नैयायिक ) साक्षात्कारात्मक अनुभव रूप कहते वस्तुतः है वह ज्ञान वास्तव में असन्दिग्ध विषयक स्मृति स्वरूप ही है । इस लिये उक्त स्वाप्न ज्ञावपर्यय’ चूंकि स्मृति स्वरूप है, अनुभवात्मक नहीं है, फिर “वह साक्षात्कारात्मक है ? बबूल है। नहीं ?” यह चर्चा ही व्यर्थ है । सि० प० स्मरामि 0.00 हे ? स्वप्न सम्बन्धी उक्त ज्ञान का अनुसन्धान ‘स्मरामि’ अथवा ‘स्मृतम्’ इस आकार’ वाले नहीं होता, किन्तु ‘पश्यामि’ प्रथवा ‘दृष्टम्’ इत्यादि आकारों का ही होता है । अतः य ) स्पष्ट है कि स्वप्नकालिक उक्त ज्ञान प्रत्यक्षात्मक अनुभव स्वरूप ही है, स्मृति स्वरूप नहीं । क्ष पू० प० न च… … 订 स्वप्नकालिक उक्त ज्ञान स्मृति स्वरूप ही है, अनुभव रूप नहीं । केवल इतना है स्मृतित्व रूप से उसका अनुसन्धान न हो कर ( अनुभवत्व व्याप्य ) साक्षात्कारत्व रूप अनुसन्धान होता है । फलतः उक्त स्मृति में अनुभवत्व का भारोप करके ही कथित ‘पश्या अथवा ‘दृष्टम्’ इत्यादि प्रकार के धनुसन्धान स्वाप्नज्ञानों का होता है । अतः यह मनुसन्ध भ्रमात्मक है, क्योंकि अनुभवत्वाभाव के अधिकरणीभूत उक्त स्वाप्न ज्ञान में अनुभवस्व प्रका । ज्ञान स्वरूप है । भ्रमात्मक ज्ञान से किसी वस्तु की सिद्धि नहीं हो सकती । इस लिये र कालिक स्मृति विशेष्यक एवं अनुभवस्य प्रकारक उक्त अनुव्यवसाय से स्वप्नकालिक अनुभवत्व की सिद्धि नहीं हो सकती । १०४
I. go ८.२६ गद्यपद्यात्मक-न्याय कुसुमाञ्जली प्रवाधनात् श्रननुभूतस्यापि स्वशिरश्छेदना देख भासनाच्च । .सि० प० अबाधनात् जिस ज्ञान के विशेष्य में किसी बलवत्तर प्रमाण के द्वारा विशेषण की सत्ता बाषित रहती है, उस विशेष्य में उस विशेषण के ज्ञान को ‘आरोप’ स्वरूप मानना पड़ता है । प्रकृत में ‘पश्यामि’ स्वरूप उक्त अनुव्यवसाय के विशेष्य स्वरूप उक्त स्वप्नज्ञान में अनुभवत्व स्वरूप विशेषण का बाघ यदि किसी प्रबल प्रमाण के द्वारा निश्चित हो, तभी कथित अनुसन्धान कठ " स्वरूप ज्ञान में अनुभवत्व के आरोप की कल्पना की जा सकती है । अतः कथित ‘पश्यामि’ सि० इस अनुव्यवसाय को स्मृति विशेष्यक एवं अनुभवत्वारोप मूलक नहीं कहा जा सकता । तस्मात् उक्त स्वाप्नज्ञान साक्षात्कारात्मक अनुभव रूप ही है, स्मृति स्वरूप नहीं । ’ तत्तः सि० प० अनुसृतस्य क्षत्रिय हैं । जायगा। इस प्रश्न का दूसरा उत्तर यह है कि स्वशिरश्छेदनादि जिन वस्तुनों का जीवन में ी भी अनुभव नहीं होता है, स्वप्न में उन वस्तुओं का भी दर्शन होता है । स्वप्न सम्बन्धी अध्ययनका कलाप रु. यद्यपि ‘पश्यामि’ इस अनुसन्धान ( अनुष्यवसाय ) स्वरूप ज्ञान का आत्मा अध्ययन कही मुख्य विशेष्य है । एवं ‘दर्शन’ स्वरूप प्रत्यक्षज्ञान ही मुख्य प्रकार है । किन्तु दीखते हैं ‘दर्शन’ दर्शनश्व रूप विशेषण का विशेष्य भी है। किन्तु ‘दर्शन’ स्वरूप प्रकारात्मक अनुपपन्न ज्ञान में रहने वाली उक्त विशेष्यता ‘गौण’ है । इस प्रकार उक्त अनुग्यवसाय स्वरूप पू० प० ज्ञान की विशेष्यता ‘दर्शन’ रूप ज्ञान में भी है। प्रकारता ( विशेषणता ) एवं प विशेष्यता दोनों ही ( १ ) मुख्ष एवं ( २ ) गौण भेद से दो दो प्रकार की होती हैं । शाखा का ज्ञान में भासित होने वाला कोई विषय तो ‘केवल विशेषण’ ही होता है । एवं कोई विषय ‘केवल विशेष्य’ ही होता है। ज्ञान में भासित होनेवाले कुछ विषय ऐसे भी होते हैं, जो विशेष्य एवं विशेषण दोनों ही होते है। इन में जो विषय ‘केवल पदने’ विशेष्य’ होता है, उसको ‘मुख्य विशेष्य कहते हैं। जो केवल विशेषण ही होता है, अर्थात उसे मुख्य विशेषण अथवा सुरूप प्रकार कहते हैं । जो विशेष्य एवं विशेषण दोनों ही रहता होता है, उसे गौण विशेष्य एवं गौण विशेषण कहते हैं । प्रकृत में ‘घटं पश्यामि’ फिर बरस अनुष्यवसायात्मक ज्ञान में घट-घटस्थ एवं दर्शन-दर्शनाव एवं भारमा पुर्ष ‘स्व ये इतने पदार्थ विशेष्य अथवा विशेषण रूप में भासित होते हैं। इन में घटस्थ एवं चाध्मस्व ये तीन पदार्थ केवल विशेषण रूप में ही भासित 1. तो से काठका
अ न इ नः सभी किन्तु पू० स्मृति अथवा सि० ( १ ) पक्ष का यदि उत्त का खण्ड विपर्यय विशेषण इस प्राक विषयीभूत होता है । होते भाषि क्रमश हैं । विशेष पञ्चमः स्तबक ८२७ स्मृतिविपर्यासोऽसाविति चेत् यदि स्मृतिविषये विपर्यास इत्यर्थः, तदाऽनुमन्यामहे । अथ स्मृतावेवानुभवत्वविपर्यासः इति, तदा प्रागेव निरस्तः । न च सम्भवत्यपि । न ह्यन्येनाकारेणाध्यवसितोऽन्येन ज्ञानावच्छेदकतयाऽध्यवसीयते । तथा च “स घट” इत्युत्पन्नायां स्मृतौ भ्राम्यतः ‘तं घटमनुभवामि’ इति स्यात्, न त्विमं घटमिति । नः ह्ययं घट इति स्मृतेराकारः । तस्मादनुभव एवासौ स्वीकर्तव्यः । । । सभी ज्ञान यदि स्मृति स्वरूप ही हों, तो फिर उन विषयों का पूर्वानुभव भी मानना होगा । किन्तु स्वरशिरश्छेदनादि का पूर्वानुभव असम्भव है । पू० प० स्मृतिविपर्यास स्वाप्नज्ञान असल में ‘स्मृतिविपर्यास’ स्वरूप है । अर्थात् स्वप्न कालिक ज्ञान वस्तुतः स्मृति रूप है, किन्तु उसमें अनुभवत्व का विपर्यय ( निश्चयात्मक भ्रम ) होता है । यह ‘विपर्यय’ अथवा ‘विपर्यास’ ही स्वप्न कालिक ‘पश्यामि’ प्रभृति अनुभव विषयक अनुव्यवसाय का मूल है । सि० प० यदि 1 उक्त सन्दर्भ में जिस ‘विपर्यास’ शब्द का प्रयोग किया गया है, उसका क्या अर्थ है ? (१) यदि ‘यदि स्मृति के विषय में ‘विपर्यास’ उसका अर्थ रहे, तो मैं उक्त ‘विपर्यास’ वाले पक्ष का अनुमोदन करता हूँ । क्योंकि पूर्वस्मृत शिर में हो छेदन का विपर्यय होता है । ( २ ) यदि उक्त ‘विपर्यास’ शब्द से ‘स्मृति’ में ही अनुभवत्व’ का ‘विपर्यास’ अभिप्रेत रहे, तो इस पक्ष का खण्डन में पहिले हो कर चुका हूँ । पहिली बात तो यह है कि स्मृति में अनुभवस्व का विपर्यय संभव ही नहीं है, क्योंकि एक प्राकार से निश्चित वस्तु दूसरे आकार के ज्ञान में घटस्वेन घट विषयक निश्चय के बाद ‘घटत्वेन घटमहं जानामि’ विशेषण नहीं हो सकता । । इस प्रकार का अनुव्यवसाय ( या अनुसन्धान ) होता हैं । इस अनुसन्धानात्मक ज्ञान में विषयीभूत अहम्’ पद के अर्थ आत्मा में घटत्व प्रकारक घट विषयकज्ञान विशेषण विषया भासित होता है । इस प्रसङ्ग में यह नियम है कि ‘घट:’ इस प्रकार के ‘व्यवसाय’ स्वरूप ज्ञान में होते हैं । अतः ये ‘केवल विशेषण’ ही हैं, किसी के विशेष्य नहीं । क्योंकि ये स्वरूपतः भाषित होते हैं । दर्शन एवं घट ये दोनों विशेष्य एवं विशेषण दोनों ही है । क्रमश । ज्ञानत्व एवं घटत्व के ये विशेष्य हैं। एवं आत्मा एवं ज्ञान के ये विशेषण हैं । म्रात्मा ‘केवल’ विशेष्य ही है, क्योंकि प्रकृत ज्ञान के किसी भी विषय में वह विशेषण विधया भासित नहीं होता ।
६२६ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जलौ अस्ति च स्वप्नानुभवस्यापि कस्य चित् सत्यत्वम्, संवादात् । तच्च काकतालीय- मपि न निर्निमित्तस् । सर्वस्वप्नज्ञानानामपि तथात्वप्रसङ्गात् । कर्मय घट का जिस रूप में मान होगा, उसके बाद होनेवाले ‘अनुव्यवसाय’ स्वरूप ज्ञान में भी ‘घट’ उसी रूप में भासित होगा, किसी अन्य स्वरूप से नहीं । घट की स्मृति स्वरूप ज्ञान ‘स घट:’ इस आकार का होता है । प्रत्यक्षात्मक अनुभव स्वरूप घटज्ञान का आकार है ‘अयं घट:’ । इस वस्तुस्थिति के अनुसार यदि स्वप्न कालिक घट विषयक ज्ञान स्मृति स्वरूप होगा, तो उसका प्राकार होगा ‘स घटः’ । एवं उसके धनुव्यवसाय ज्ञान में ‘घट:’ का मान ‘तत्ता’ रूप से होगा । एवं अनुव्यसाय का आकार होगा, ‘घटं स्मरामि’ । किन्तु स्वप्न में भी ‘अय घट इस आकार का ‘व्यवसाय’ एवं ‘इमं घटं पश्यामि’ इस प्राकार का अनुव्यवसाय ही होता है । चूकि ‘अयं घट:’ इस प्राकार का ज्ञान कभी भी स्मृत्यात्मक नहीं होता; प्रत) ‘घटं पश्यामि’ इस आकार के धनुष्यवसाय को कभी भी ‘स्मृति’ विषयक ज्ञान रूप नहीं कहा जा सकता । तस्मात् स्वप्न काल में जो ‘अयं घट?’ इस आकार का ज्ञान उत्पन्न होता है, उसको स्मृति स्वरूप नहीं माना जा सकता । सि० प० अस्ति च … ( इस प्रसंग में पूर्वपक्षवादी कह सकते हैं, कि यदि केवल मन से विषय का प्रत्यक्ष होता भी है, तो वह अत्रमात्मक ही होता है, क्योंकि यह स्थिति केवल स्वप्नज्ञान में हो होती है, किन्तु उसको सभी भ्रम रूप हो मानते हैं । श्रतः मन घटित बहिविषयक प्रत्यक्ष की सामग्री से परमेश्वर क प्रमात्मक प्रत्यक्ष नहीं हो सकता। इस आक्षेप का यह समाधान है कि ) यह नियम नहीं है कि स्वप्नज्ञान भ्रम रूप ही हो, कुछ स्वप्न ज्ञान यथार्थ भी होते हैं। क्योंकि जाग्रत अवस्था में उनका ‘संवाद’ प्रर्थात् अन्यप्रमाणों से परिपुष्टि भो होती है । एवं उस स्वप्न ज्ञान से होने वाली प्रवृत्ति सफल भी होती है (मंवाद एवं सफल प्रवृत्ति जनकत्व ये दोनों ही प्रमात्व के साधक हेतु हैं ) । यह दूसरी बात है कि अधिकांश स्वप्न ज्ञान ग्रम रूप ही होते हैं, प्रकस्मात् काकतालीय न्याय से हो कदाचित कोई स्वप्न ज्ञान प्रमा होता है । किन्तु एक मी स्वप्न ज्ञान यदि प्रमा हो जाता है, तो फिर यह सिद्धान्त गलत हो जाता है कि ‘स्वतन्त्र रूप से मन के द्वारा होने वाले सभी बहिविषयक प्रत्यक्ष मिथ्या ही होते हैं’ स्वप्न ज्ञान को विना कारण का मानेंगे तो सभी स्वप्नज्ञानों में निर्निमित साक्ष इति महा न चा होंगी हो सक सि० ऐसा कि प्रत्यक्ष है, जिस प्रत्यक्ष द्वारा स होते है अवश्य तस्मात् होते हैं, क्योंकि योगियों का सहय चूंकि स पू० प० यदि एक भी को प्रारचि यह प्रश्न
पञ्चमः स्तबका ६२६ हेतुश्चात्र धर्म एव । स च कर्मजवत् योगजोऽपि योगविधेरवसेयः । कर्मयोगविध्योस्तुल्ययोगक्षेमत्वात् । तस्मात् योगिनामनुभवो घर्मंजत्वात् प्रमा, साक्षात्कारित्वात् प्रत्यक्षफलस्, घर्माननुगृहीत भावनामात्रप्रभवस्तु न प्रमेति विभाग इति । अतस्तत्सामग्रीविरहोऽसिद्धः । तथापि विपक्षे किं बाधकमिति चेत्, ‘द्वे ब्रह्मणी वेदितव्ये’ ( विष्णु पु० महा भा०शान्तिपर्व) इत्यादियोग विधिवैयथ्यप्रसङ्गः, अशक्गानुष्ठानोपायोपदेशकत्वात् । न चासाक्षात्कारिज्ञानविधानमेतत् । होंगी । तस्मात केवल मन रूप इन्द्रिय घटित सामग्री से परमेश्वर स्वरूप बहिविषयक प्रत्यक्ष हो सकता है । सि० प० हेतु 100 000 ( फिर भी यह जानना बाकी है कि भ्रमप्रचुर स्वाप्नज्ञान की सामग्री में कौन सा ऐसा विशेष कारण है, जिसके सम्मिलित हो जाने पर उसी सामग्री से परमेश्वर विषयक प्रमा प्रत्यक्ष की उत्पत्ति होती है ? इस प्रश्न का यह उत्तर है कि ) ‘धर्म’ ही वह ‘विशेष कारण’ है, जिसके सम्मिलित हो जाने से मन स्वरूप अन्तरिन्द्रिय घटित उक्त सामग्री से परमेश्वर का प्रत्यक्ष होता है । धर्म दो प्रकार के हैं (१) कर्मज एवं (२) योगज । इन में ज्योतिष्टोमादि कर्मों के द्वारा स्वर्गादि फलों की उत्पत्ति होती है । एवं योगज धर्म से परमेश्वर के साक्षात्कारादि होते है । चूंकि उक्त दोनों ही प्रकार के धर्मों के लिये विभिन्न क्रियाओं का विधान है, अतः अवश्य ही धर्म दो प्रकार के हैं । तस्मात्” अतः यह अनुमान निष्पन्न होता है कि (१) ‘योगिधों के अनुभव चूकि धर्म से उत्पन्न होते हैं, अतः वे अवश्य ही ‘प्रमा’ हैं । (२) योगिधों के अनुभव प्रत्यक्षप्रमाण के फल हैं, क्योंकि उन ज्ञानों का अनुसन्धान ‘अहं पश्यामि’ ( मैं देखता हूँ ) इसी आकार का होता है । योगियों के भी वे ज्ञान प्रमा नहीं हैं, जिन की उत्पत्ति में ‘भावनाप्रकर्ष’ का प्रथवा ‘योगजधर्म’ का सहयोग प्राप्त नहीं होता है । अतः यह कहना ठीक नहीं है कि परमेश्वर के प्रत्यक्ष का चूंकि सामग्री संबलन ही संभव नहीं है, अतः उनका प्रत्यक्ष नहीं हो सकता’ । पू० प० तथापि फिर भी यह पूछा जा सकता है कि प्रकृत में ‘विपक्ष’ का बाधक कौन है ? अर्थात् यह प्रश्न हो सकता है कि योगियों के अनुभव चूंकि योगजधर्म से उत्पन्न होते हैं, इस लिये CCO. Vasishtha Tripathi Collection. Digitized by eGangotriद 15 ८३० गद्यपद्यात्मक-न्याय कुसुमाञ्जली अर्थज्ञानाव निवऽध्ययन विधिनैव तस्य गतार्थत्वादिति । एतेन परमाण्वादयो व्याख्याता इति । तदेन मेवम्भूतमधिकृत्य श्रूयते – ‘न द्रष्टुः ष्टेविपरिलोपो विद्यते’ (वृहदारण्यक)- इति, ‘एकमेवाद्वितीयमिति (म० वि० पु० महाभा शा०’ छा० ) ‘पश्यत्यचक्षुः स. शृणोत्य करणंः’ (श्व े० ) इति द्वे ब्रह्मणी वेदितव्ये परचापरमेव चे’ ति । ‘प्रमा’ ही क्यों है ? भ्रम रूप ही क्यों नहीं हैं ? अथवा यदि प्रमा स्वरूप हीं है, तो प्रत्यक्षात्मक ही क्यों है ? परोक्षात्मक ही क्यों नहीं ? सि० प० ते ब्रह्मणी वे. दितव्ये…………. • यदि योगियों का उक्त योगज धर्मजनित ज्ञान ‘अश्रमा’ रूप हो, अथवा प्रमात्मक होने पर भी परोक्षाकारक हो तो ‘द्वे ब्रह्मणी वेदितव्ये’ यह विधिवाक्य व्यर्थ हो जायगा । फलतः योगियों के उक्त ज्ञान में प्रमात्व का ज्ञापक उक्त श्रुति ही प्रमाण है । यदि योगज धर्म से उत्पन्न ज्ञान प्रप्रमा स्त्ररूप ही होता, तो उक्त विधिवाक्य के द्वारा जीव और ब्रह्म इन दोनों का योगविधि के द्वारा प्रमाज्ञान के संपादन का विधान न किया जाता। क्योंकि भ्रमात्मक ज्ञान के लिये तो यों हीं अनेक साधन भरे पड़े हैं । अतः यदि योगियों के उक्त ज्ञान को भ्रम स्वरूप मानें, तो उक्त विधिवाक्य ही व्यर्थ हो जायगा । अतः योगियों के उक्त ज्ञान को भ्रम स्वरूप नहीं माना जा सकता । एवं ‘द्वे ब्रह्मणी’ इत्यादि वाक्य के द्वारा योगियों के लिये ब्रह्म के परोक्षज्ञान कें विधान का कोई प्रयोजन नहीं है, क्योंकि जीव एवं ब्रह्म का परोक्षज्ञान तो ‘स्वाध्यायोऽध्येतव्यः’ इस सामान्य विधि से ही प्राप्त है । फिर ‘द्वे ब्रह्मणी’ इत्यादि से विशेष विधान का कोई प्रयोजन ही नहीं रह जाता । अतः यह मानना होगा कि ‘द्वे ब्रह्मणी’ इत्यादि वाक्य उनके प्रत्यक्षात्मक ज्ञान का ही विधायक है । अतः हम लोगों की इन्द्रियों के अगोचर परमेश्वर का एवं परमाणु प्रभृति का प्रत्यक्षात्मक ज्ञान योगियों को हो सकता है, एवं होता है । इस प्रकार योगियों को जिन परमेश्वर का प्रत्यक्ष होता है, उन्हीं परमेश्वर के प्रसङ्ग में श्रुतियों में, एवं गीता प्रभृति स्मृतियों में ये वाक्य कहे गये हैं । ( अर्थात् परमेश्वर की यदि सत्ता न रहे तो श्रुति एवं स्मृति के ये वाक्य व्यर्थ हो जायंगे ) । (१) न द्रष्टुः ‘द्रष्टा’ परमेश्वर की ‘दृष्टि’ अर्थात् जान का ‘लोप’ नहीं होता । इससे परमेश्वर के ज्ञान की नित्यता प्रतिपादित हुई है । (२) ‘एकमेव ’ ईश्वर नाम का ‘ब्रह्म’ एक ही हैं। इससे ईश्वर में सजातीयद्वितीय- रहितत्त्व व्यक्त होती है । (३) ‘पश्यत्यचक्षुः’ वह बिना आंखों के भी देखते हैं, एवं बिना कानों के भी सुनते हैं। इस से ईश्वर को सर्वज्ञता व्यक्त होती है । (४) ‘ढे ब्रह्मणी’ = ‘परब्रह्म’ अर्थात् परमेश्वर एवं ‘अपरब्रह्म’ अर्थात् जीव दोनों ही ‘वेदितव्य’ हैं अर्थात् दोनों का तत्वज्ञान मोक्ष के लिये आवश्यक है । स्मयते परमेश्वर साक्षात्का ही एक स ( ( १ ) स शरण में ही आराध कि कहते हैं कि " छोड़कर है नित्य नैमिि ( ३ ) यज्ञ पर के प्रयोजक नहीं है। क्य (8 उनसे बन्ध के
पञ्चमः स्तबकः ८३१ ‘यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवा’ ‘यज्ञा वै देवा इति, “यज्ञो वै विष्णु’ रित्यादि । स्मयं च - सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज, - इति । मदर्थं कर्म कौन्तेय ! मुक्तसङ्गः समाचर, - इति । यज्ञार्थात् कर्मणोऽभ्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धनः - इति । यज्ञायाचरतः कर्म समग्रं प्रविलीयते, इत्यादि । गीता O
( ५ ) यज्ञेन यज्ञमजयन्त देवाः देवगण ज्योतिष्टोमादि यज्ञों के द्वारा ‘यज्ञ’ अर्थात् परमेश्वर का ‘यजन’ रूप आराधना करते हैं । ( इस से ज्योतिष्टोमादि अनुष्ठानों से भी ईश्वर- साक्षात्कार के द्वारा मुक्ति की प्राप्ति सूचित होती है ) । ( ६ ) सभी यज्ञ ‘देव’ परमेश्वर स्वरूप ही हैं । फलतः यज्ञानुष्टान ईश्वराराधन का ही एक स्वरूप है । ( ७ ) यज्ञ’ = ‘यज्ञ’ विष्णु स्वरूप ही हैं । ( १ ) सर्वधर्मान् भूमि पशु, हिरण्यादि की प्राप्ति के जनक सभी धर्मों को छोड़कर मेरे ( परमेश्वर के शरण में आओ । अर्थात् सभी काम्य कमों को छोड़कर निष्काम होकर केवल परमेश्वर को ही आराधना करनी चाहिये । किन्तु इससे सभी नित्य नैमित्तिक कर्मों का लोप हो जायगा, अतः भगवान कहते हैं कि :- ( २ ) मदर्थं कर्म कौन्तेय ? अर्थात् ‘सङ्ग’ से मुक्त होकर, कर्मफल की ‘ईहा’ को छोड़कर है कौन्तेय ? केवल मुझ में अर्पण की बुद्धि से मेरे ज्ञान की प्राप्ति की इच्छा से ही नित्य नैमित्तिक कर्मों का अनुष्ठान करो। क्योंकि । ( ३ ) यज्ञार्थात् … परमेश्वर स्वरूप ‘यज्ञ’ से भिन्न किसी भी वस्तु के उद्देश्य से किये गये कर्म ही बन्ध के प्रयोजक होते हैं । अतः ईश्वरार्पण बुद्धि से किये गये कर्मों से बन्ध की सम्भावना नहीं है। क्योंकि - (४) ‘यज्ञाय’ अर्थात् परमेश्वर के लिये मनुष्ठित कर्म ‘प्रविलीन’ हो जाते हैं, अर्थात् उनसे बन्ध के उत्पादक ‘धर्म’ रूप आशय की उत्पत्ति नहीं होती है !
८३२ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जली अनुशिष्यते च साङ्ख्यप्रवचने ईश्वरप्रणिधानम् । तमिमं ज्योतिष्टोमादि- भिरिष्टे, प्रासादादिना पूर्तेन, शीतातपसहनादिना तपसा श्रहिंसादिभिर्यमः, शौचसन्तोषादिभिर्नियमैः, श्रासन प्राणायामादिना योगेन, महर्षयोऽपि विविदिषन्ति । तस्मिन ज्ञाते सर्वमिदं ज्ञातं भवतीत्येवं विज्ञाय श्रुत्वेकतानस्तत्परो भवेत् । यत्रेव गीयते, - मन्मनाभव मद्भुक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु । । इत्येवं किन्तु अस्माव मामेवैष्यसि भोक्तारं युक्त्वेचमात्मानं यज्ञतपसां `मत्परायणः । सर्वलोकमहेश्वरम् । सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति - इति । तन्नाथ गीता अनुशिष्यते च ~~ … भक्ति करो ‘मत्परायण’ महर्षि पतञ्जलि ने भी ‘ईश्वर प्रणिधानाद्वा’ अपनी इस उक्ति के द्वारा मोक्षजनक उस प्रात्मज्ञान का समर्थन किया है, जिसकी उत्पत्ति ईश्वर की आराधना से होती है । (3 तमिमस् के प्रकृत्रिम प्राप्ति होती इत्येवं श्रुति प्राणायाम प्रभूति इन आधिभौतिक, आधिदैविक परमेश्वर को ही समझने का प्रयत्न करते हैं । इस प्रमाण इन हृदय के मा इष्ट, पूर्त, तप, यम, नियम, आसन, प्राध्यात्मिक आचरणों के द्वारा भी महर्षिगण फलतः ज्योतिष्टोमादि याग स्वरूप ‘इष्टों’ से ‘प्रासाद’ अर्थात् मन्दिरादि निर्माण स्वरूप ‘पूत” के द्वारा, शीतोष्ण सहन स्वरूप ‘तपस्या’ के द्वारा, ‘अहिंसा अस्तेय’ प्रभूति ‘यम’ के द्वारा, शौच, सन्तोष प्रभृति ‘नियमों’ के द्वारा, एवं आसन, प्राणायाम, घरणा, ध्यान, समाधि प्रभृति योगाङ्गों के अनुष्ठान के द्वारा भी महर्षिगण परमेश्वर को ही समझने का प्रयत्न करते हैं । मतः इस ग्रन्थ के द्वारा प्रतिपादित परमेश्वर अवश्य ही सभी के लिये ज्ञातव्य है । क्योंकि इष्टापूर्णादि के द्वारा महर्षियों ने भी उन्हीं को समझने के लिये प्रयत्नशील हैं । तस्मिन् श्रुति में ईश्वर के ही प्रसङ्ग में यह लिखा है कि ‘तस्मिन् ज्ञाते सर्वमिदं ज्ञातं भवति’ अर्थात्, परमेश्वर को जान लेने के बाद भौर कुछ भी जानने को नहीं बच जाता । यह समझकर श्रुति के द्वारा उनका शाब्दबोधात्मक परोक्षज्ञान प्राप्त करने के बाद एकाग्र होकर उनके साक्षात्कार के लिये ‘तत्पर’ हो जाना चाहिये। इसो ‘तत्परावस्था’ के लिये ‘मन्मना भव’ इत्यादि वाक्य गीता में कहे गये हैं ! से आप के आप अपना मानों उनका प्रार्थना है चिन्ताशीलत स्वच्छ कर दे अस्माकन्तु हे है ( अर्थात् स्वभाव से ही १०
इत्येवं पञ्चमः स्तबकः श्रुतिनीति संप्लवजलै भूयोभिराक्षालिते ८३३ येषां नास्पदमादधासि हृदये ते शैलसाराशयाः । किन्तु प्रस्तुतविप्रतीप विधयोऽप्युच्चैर्भवच्चिन्तकाः काले कारुणिक ! त्वयैव कृपया ते तारणीया नराः ॥ १८ ॥ अस्माकन्तु निसर्गसुन्दर । चिराच्चेतो निमग्नं त्वयी- ! त्यद्धाऽऽनन्दनिधे ! तथापि तरलं नाद्यापि सन्तृप्यते । तन्नाथ ! त्वरितं विधेहि करुणां येन त्वदेकाग्रतां याते चेतसि नाप्नुवाम शतशो याम्याः पुनर्यातनाः ॥ १९ ॥ १) ‘मन्मनाभव’ अर्थात् मुझ में ही मन को संयुक्त करो । ‘मद्भक्तो भव’ मेरी ही भक्ति करो । ‘मद्याजी’ अर्थात् मेरा ही ‘यज्ञ’ करो । ‘मां नमस्कुरु’ मुझ को ही प्रणाम करो । ‘मत्परायण’ होकर इन आचरणों से परमात्म स्वरूप मुझ को तुम प्राप्त करोगे । (२) यज्ञ एवं तपस्या के विषय एवं संसार के सर्वश्रेष्ठ अधिपति एवं सभी प्राणियों के अकृत्रिम सुहृद मुझको समझ कर अर्थात् साक्षात्कार प्राप्त कर ‘शान्ति’ अर्थात् मोक्ष की प्राप्ति होती है । इत्येवं श्रुतिनीति संप्लवजलेः इस प्रकार ईश्वरसिद्धि के विरोधी शब्दप्रमाण एवं ईश्वर सिद्धिं के विरोधी मनुमान प्रमाण इन दोनों को निरस्त करनेवाली युक्ति रूपी जल के द्वारा जिन ( नास्तिकों ) के हृदय के मालिन्य ( अज्ञान ) को मैंने बार बार घोया है ( अर्थात् बार बार पनेक युक्तियों से श्राप के अस्तित्व को समझाने का प्रयत्न किया है ) । फिर भी यदि उनके हृदय को आप अपना निवास भूमि नहीं बनाते अर्थात् आप उनके हृदय में प्रतिभासित नहीं होते, तो मानों उनका हृदय वज्र का अथवा लोहें का बना हुआ है । फिर भी उनके प्रसङ्ग में मेरी प्रार्थना है कि समय आने पर हे करुणानिधान ! आप ही उन्हें अपने विषय की उच्च चिन्ताशीलता प्रदान करें। अर्थात् अपनी स्वाभाविक करुणा से आप ही उनके चित्त को ऐसा स्वच्छ कर दें, जिसमें आप का यथार्थ स्वरूप का उन्हें प्रतिभास हो सके ।। १८ ।। अस्माकन्तु हे स्वभावसुन्दर ! हम ( आस्तिक लोगों का ) मन तो बराबर आप में लगा पा रहा है ( अर्थात् ईश्वर में विश्वास के लिये हम लोगों को कोई प्रयत्न नहीं करना हैं, क्योंकि वह स्वभाव से ही प्राप्त है ) । किन्तु चित्त बड़ा ही चञ्चल है, क्योंकि आप जैसे आनन्द समुद्र
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८३४ गद्यपद्यात्मक-न्यायकुसुमाञ्जलो इत्येष नीतिकुसुमाञ्जलिरुज्ज्वल श्रीयंद्वासयेदपि च दक्षिणवामकौ द्वौ । नो वा ततः किममरेशगुरोग रुस्तु प्रीतोऽस्त्वनेन पदपीठसमर्पितेन ॥२०॥ ॥ इति श्रीन्यायकुसुमाञ्जलौ पञ्चमस्तबकः ॥ ५ ॥ इति न्यायाचार्यपदाङ्कित महामहोपाध्यायश्रीमदुदयनविरचितं न्यायकुसुमाञ्जलिप्रकरणं समाप्तम् 11 0 11 ॐ तत्सत् । ब्रह्मार्पणं भवतु । शुभमस्तु । श्रीरस्तु ॥ में निमग्न होने के बाद भी सांसारिक विषयों में सम्बद्ध होने के लिये बार-बार लौट पाता है । जिस के चलते आज तक पूर्णतृप्ति ( स्वरूपं मोक्ष ) न प्राप्त कर सका । प्रत! हे नाथ! देर न करो, शीघ्र अपनी वह करुणा प्रदान करो, जिस से चित्त इधर उधर के विषयों को छोड़ कर केवल तुम्हीं में ‘एकाग्र’ हो सके और जन्म मृत्यु इस यमयातना से छुटकारा पा सके ॥ १९ ॥ स्वरूप आवागमन की इत्येष नीति सुगन्धि दाहिने और किसी एक के प्रति परिहार ) के द्वारा ( जिस प्रकार पर्युषितत्वादि दोषों से मुक्त प्रञ्जलि के पुष्पों की बायें दोनों ही नासा छिद्रों के द्वारा समान भाव से गृहीत होती है, कोई पक्षपात नहीं होता, उसी प्रकार ) कम्टकोद्धार ( आक्षिप्त दोषों के अतिविशुद्धि को प्राप्त यह ‘न्यायकुसामाञ्जलि’ स्वरूप ग्रन्थ आप के प्रति श्रद्धाशील, सत्तक- म्यासी, ‘दक्षिण’ पर्थात् अस्तिकजनों को, एवं ‘बाम’ अर्थात् कुतर्क के अभ्यासी नास्तिक जनों को समान रूप से आनन्द प्रदान करे। यदि ऐसा संभव न हो ( अर्थात् कुर्तकाभ्यासी नास्तिकों के सन्तोष का संपादन असंभव ही हो ) तो फिर वह परम ‘शिव’ हो अपने चरणों में समर्पित इस ‘न्याय कुसुममाञ्जलि’ से प्रसन्न हों, जो ( परमशिव ) देवताओं के अधीश्वर इन्द्र के गुरु ब्रह्मा वृहस्पति प्रभृति के भी उपदेष्टा गुरु हैं ।
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