नरोत्तम भट्ट द्वारा रचित लक्षणसंग्रह ग्रंथ में लगभग ४०० लक्षणों का संग्रह है। इस अप्रकाशित ग्रंथ का
पहली बार प्रकाशन श्रुतभवन संशोधन केंद्र द्वारा हो रहा है। इसके लिए संस्कृत भाषा के विद्वान्, भारतीय दर्शनशास्त्र
के विद्वान् तथा संशोधक छात्रों द्वारा यह संस्था तथा विशेष रूप से इस महत्त्वपूर्ण संस्करण के संपादक अभिनंदन के
पात्र हैं। हम सभी इस प्रकाशन के लिए पूज्य मुनिश्री वैराग्यरतिविजयजी गणिवर के ऋणी है।
जिस क्षण हम नरोत्तम भट्ट द्वारा रचित लक्षणसंग्रह ग्रंथ का नाम पढते है उसी क्षण प्रख्यात आचार्य
उदयनाचार्य द्वारा रचित लक्षणावली ग्रंथ का स्मरण होता है। लेकिन इन दोनों ग्रंथो में मात्रा तथा गुणवत्ता की दृष्टि
से लाक्षणिक अंतर दृष्टिगोचर होता है। उदयनाचार्य कृत लक्षणावली ग्रंथ में ६१ भारतीय तार्कि क लक्षणों का
संग्रह है जब कि लक्षणसंग्रह में लगभग ४०० लक्षणों का संग्रह हैं, जो न्याय तथा नव्य न्याय के अध्ययन प्रणाली
में उपयुक्त है। यह इन दोनों ग्रंथों में मात्रा के दृष्टि से अंतर है। यदि हम गुणवत्ता की दृष्टि से देखें तो नरोत्तम भट्ट ने
के वल तकनीकी शब्दों की परिभाषाओं का संग्रह किया है जो कि उनके ग्रंथ के शीर्षक से प्रतीत होता है, दुसरी
ओर उदयनाचार्य अपने ग्रंथ में न्याय और वैशेषिक दर्शन द्वारा सम्मत सात पदार्थ के संदर्भ में पारिभाषिक शब्दों
के लक्षणों के अलावा अनुमान प्रमाण की भी विस्तृत चर्चा करते है।
इससे यह प्रतीत होता है कि उदयनाचार्य सिर्फ परिभाषाओं के परिधि में नहीं रहे हैं अपि तु उन्होंने परीक्षा
में भी प्रवेश किया है।
न्यायसूत्र के भाष्यकार वात्स्यायन कहते हैं कि – त्रिविधा चास्य शास्त्रस्य प्रवृत्तिरुद्देशो लक्षणं परीक्षा च।
मतलब यह शास्त्र (न्यायशास्त्र) तीन खंड अथवा तीन पहलुओं का द्योतक है। पहला उद्देश, दुसरा लक्षण और तीसरा परीक्षा। उद्देश अर्थात् चर्चा हेतु मुद्दों को प्रस्तुत करना। लक्षण मतलब परिभाषाएं, यह पहलु उद्देश खंड में बताए गए शास्त्र के मुद्दों को अथवा संकल्पनाओं को परिभाषित करता है। तीसरा पहलु परिभाषाओं की सटीकता की जांच करता है। यह कह सकते है कि लक्षण पहलु उद्देश्य शास्त्र के विभिन्न संकल्पनात्मक नियमों को परिभाषित करता है। आचार्य द्वारा किया गया परिभाषाओं का संकलन शास्त्र के अभ्यासकों के लिए महान कार्य है। जिससे विद्यार्थीओं को सभी विभिन्न संकल्पनात्मक परिभाषाओं का संकलन एक ही स्थान पर प्राप्त होता है। इसलिए ऐसी सहायता के लिए इन आचार्यों को उचित श्रेय दिया जाना चाहिए।
उदयनाचार्य की तुलना में नरोत्तम भट्ट के प्रयास ने अधिक परिभाषाएं एकत्रित की हैं। वे उदयन के काम से
प्रेरित हो सकते हैं अथवा यह हो सकता है कि कई व्याख्याएं उनके लक्षणावली में आचार्य द्वारा शामिल नहीं की
हैं। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए नरोत्तम भट्ट ने कई परिभाषाओं के एकत्रित करने का कार्य किया होगा।
उदयनाचार्य ने अपनी कृ ति में भारतीय दर्शनशास्त्र के न्याय-वैशेषिक प्रणाली द्वारा स्वीकृ त सप्त
पदार्थों को ले लिया था बल्कि नरोत्तम भट्ट ने न्यायसूत्रकार गौतम द्वारा रचित न्यायसूत्र में वर्णित सोलह
पदार्थों को लिया है। इसलिए यह कृति प्रकाश में आनी चाहिए। श्रुतभवन संशोधन कें द्र द्वारा इसे प्रकाशित
करने का बहुत अनुमोदनीय प्रयास विद्वानों तथा विद्यार्थीओं के द्वारा समान रूप से पहचाना जाना चाहिए।
एक और महत्त्वपूर्ण तथ्य यह है कि Encyclopedia of Indian Philosophies तथा New Catalogues
Catalogarum जैसे संदर्भ ग्रंथ नरोत्तम भट्ट और लक्षणसंग्रह इन दोनों से अनभिज्ञ है।
यह तथ्य हमारे समक्ष एक और तथ्य उपस्थित करता है कि प्राचीन भारत की मूल्यवान कृतियों के नाम
दर्ज करने के प्रयासों के बावजूद पांडुलिपियों के रूप में पडी कई अलग-अलग कृतियां सूचिपत्र (Catalogue) के
संग्राहक के द्वारा अज्ञात और अनदेखी रह जाती हैं।
यह भाग्य का विषय है कि एक विद्वान इस तरह की एक मूल्यवान कृति पर प्रकाश डालते है जिसे पहले कभी किसी के द्वारा नहीं देखा गया। मुनिश्री वैराग्यरतिविजयजी गणिवर ने संपादकीय में उल्लेख किया है कि इस कृति की पांडुलिपि जो भांडारकर प्राच्यविद्या संशोधन संस्था, पुणे से प्राप्त हुई है उसमें कौंडभट्ट द्वारा रचित पदार्थदीपिका नामक ग्रंथ भी है।
यह फिर से संयोग का विषय है कि मेरे छात्रों में से एक ने अपने अनुसंधान के लिए पदार्थदीपिका पर कार्य किया है। संपादकीय में मुनिश्री वैराग्यरतिविजयजी गणिवर ने अच्छी तरह से प्रासंगिक मुद्दों को प्रकाश में लाया है। जैसे-
१) कृति का परिचय
२) प्रकाशन का उद्देश्य
३) प्रकाशन हेतु उपयुक्त सामग्री
४) संपादन पद्धति
५) परिशिष्ट आदि।
इसमें से अंतिम पांचवां बिंदु कृति से संलग्न तीन परिशिष्ट, विभिन्न परिभाषाएं तथा व्याख्याओं के संदर्भ में अतीव उपयोगी है।
इस प्रकाशन के लिए मैं मन से श्रुतभवन संशोधन कें द्र और विशेष रूप से मुनिश्री वैराग्यरतिविजयजी गणिवर का अभिनंदन करती हूँ, जिन्होंने इस संस्था के योगदान को एक और मानपिच्छ से विभूषित किया है।
५/७/२०१७ - डॉ. उज्ज्वला झा
Ex-Director
Centre for Advanced Study in Sanskrit,
S.P. Pune University, Pune-7.