०२ मीमांसा-दर्शन

वेद के निःसंदिग्ध अर्थ का निश्चायक शास्त्र मीमांसा है। वेद में आपाततः कितने ही वाक्य अर्थशून्य से उपलब्ध होते हैं, कितने ही वाक्य परस्पर विरुद्ध से प्रतीत होते हैं तथा कहीं-कहीं वाक्य व्याहतार्थ से दृष्टिगोचर होते हैं। इस समस्या के समाधानार्थ वेद वाक्यों के अर्थ-निर्धारण के लिए मीमांसाशास्त्र प्रवृत्त हुआ है। अतः मीमांसा की गणना वेद के उपांगों में की गई है। मीमांसा वेद को नित्य, अपौरुषेय एवं स्वतः प्रमाण मानती है। वेद के भी ब्राह्मणभाग को मन्त्र एवं उपनिषद्भाग से अधिक महत्त्व मीमांसा ने दिया है। मीमांसा का मुख्य उद्देश्य उन नियमों को बताना है जिनके आधार पर वैदिक वाक्यों एवं कर्मकाण्ड की व्याख्या हो सके। ब्राह्मणों एवं श्रौतसूत्रों ने भी वेदवाक्यों की उचित व्याख्या को अपना लक्ष्य बनाया था। मीमांसा उसी कार्य का आगे विस्तार करती है। इस अर्थ में वह ‘पुरोहितों की विद्या’ अथवा कर्मकाण्ड की व्याख्या मात्र है। किन्तु मीमांसा का लक्ष्य इतना ही नहीं है। मीमांसा ने वैदिक विचारों के लिये दार्शनिक आधार भी प्रस्तुत किया है। इसमें ज्ञान के स्वरूप, प्रमाण, प्रामाण्य एवं प्रमा की विभिन्न विधाओं का सांगोपांग विवेचन है। प्रमेयों का विवेचन भी मीमांसाशास्त्र का एक प्रधान अंग है। मीमांसा ने स्वर्ग के आदर्श को अपवर्ग के आदर्श में परिवर्तित किया है। आत्मा, शरीर, इन्द्रिय, अपूर्व, कर्म एवं मुक्ति जैसे दार्शनिक विषयों की सिद्धि के लिये इस शास्त्र में जिन सूक्ष्म तर्को का प्रयोग हुआ है वह न केवल इसकी दार्शनिकता को, अपि तु अन्य दर्शनों की अपेक्षा इसकी श्रेष्ठता को भी सिद्ध करता है मीमांसा मानव का स्वाभाविक धर्म है। उसमें भी धर्ममीमांसा ही वह गुण है, जो मानव को अन्य चेतन प्राणियों से भिन्न करता है। भारतीय परम्परा मानव को अनादि मानती है। अतः मीमांसा भी अनादि है। अनादि वैदिक साहित्य में मीमांसा शब्द का पुनः-पुनः प्रयोग इस बात की पुष्टि करता है। वेद में मीमांसा शब्द का प्रयोग वैदिक कर्मकाण्ड-विषयक विचार के लिए हुआ है। परम पुरुषार्थ की प्राप्ति के हेतुओं का व्याख्यान वेद करते हैं। उस वेदार्थ का यथायथ ज्ञान मीमांसा के अभाव में सम्भव नहीं है। अतः भगवती श्रुति स्वयं ही मीमांसा में प्रवृत्त होती है। पूर्वकाण्ड और उत्तरकाण्ड दोनों में ही श्रुति को मीमांसा में लीन हुआ देखा जा सकता है। १. डॉ. मुसलगांवकर, मीमांसा दर्शन का विवेचनात्मक इतिहास, पृ. ११४ २. अभिधार्या ३ नाभिधार्या इमिति मीमांसन्ते उत्सृज्यां ३ नोत्सृजयांइमिति मीमांसन्ते ब्रह्मवादिनः तै. सं., ७.५ ७.१. संस्थाप्यां ३ त्र संस्थाप्यामिति मीमांसन्तेऽग्निहोत्रम् वासिष्ठो रौहिणौ मीमांसां चक्रे सैषा आनन्दस्य मीमांसा भवति, तैत्तिरीयोपनिषद् मीमांसा दर्शन का इतिहास ३६१ कल्पसूत्र, गृह्यसूत्र और धर्मसूत्रों में भी मीमांसा सर्वत्र की गई है और उसका अर्थ पूजित विचार लिया गया है। वेद वाक्यों, उपासनाओं एवं कर्मों के विषय में ऋषियों के मत भिन्न-भिन्न थे और तद्विषयक विचार मौखिक रूप से अनादिकाल से प्रचलित थे। कुछ लोगों का मत है कि जैमिनि ने इन विचारों को संकलित और व्यवस्थित कर अपने सूत्रों की रचना की। कुछ अन्य लोगों का कथन है कि जैमिनि के पूर्व अनेक मीमांसासूत्रों का अस्तित्व था। किन्तु जैमिनि के सूत्रों की चमक के सामने वे टिक न पाये और तिरोहित हो गये। इतना तो निश्चित ही है कि जैमिनि मीमांसा के प्रथम आचार्य नहीं हैं। _पार्थसारथि मिश्र ने मीमांसा की परम्परा को ब्रह्मा से आरम्भ किया है। यह परम्परा ब्रह्मा से प्रजापति को, प्रजापति से इन्द्र को, इन्द्र से बृहस्पति को, बृहस्पति से व्यास को तथा व्यास से जैमिनि को प्राप्त हुई थी। स्वयं जैमिनि ने अपने सूत्रों में अपनी पूर्वज-परम्परा के रूप में आठ आचार्यों का उल्लेख किया है। वे हैं - बादरायण, बादरि, ऐतिशायन, कार्णाजिनि लवुकायन, कानुकायन, आत्रेय, आलेखन। किन्तु इन आचार्यों के स्वतंत्र ग्रंथ उपलब्ध नहीं हैं। इनके विषय में जानकारी का हमारा स्रोत जैमिनि द्वारा उनके मतों का यदाकदा कथन ही है। पूर्वमीमांसा का व्यवस्थित क्रम में उपलब्ध प्राचीनतम ग्रन्थ जैमिनिसूत्र हैं अतः जैमिनि को सामान्यतः मीमांसा दर्शन का प्रणेता माना जाता है। जैमिनिप्रणीत मीमांसासूत्र में बारह अध्याय हैं तथा प्रत्येक अध्याय में एक विशेष विषय का विवेचन किया गया है। अतः इसे द्वादशलक्षणी भी कहते हैं। मीमांसा-सूत्रों का प्रधान विषय धर्म या इससे संबंधित विषय हैं। बारह अध्यायों में वर्णित विषय इस प्रकार हैं : (१) धर्म का प्रमाण, (२) कर्मों के भेद, (३) शेषत्व (४) प्रयोज्य-प्रयोजकभाव, (५) क्रम, (६) अधिकार, (७) सामान्यातिदेश, (८) विशेषातिदेश (E) अह, (१०) बाघ तथा अभ्युच्चय, (११) तन्त्र तथा (१२) आवाप। __ उपर्युक्त बारह अध्यायों के अतिरिक्त जैमिनि ने संकर्ष अथवा संकर्षण काण्ड की भी रचना की थी, जिसमें चार अध्याय हैं। इसे देवताकाण्ड भी कहते हैं। इन ४ अध्यायों को सम्मिलित करने पर मीमांसा-सूत्र में कुल १६ अध्याय, ७६ पाठ, १२४६ अधिकरण तथा ३१८० सूत्र हो जाते हैं, मीमांसा-सूत्र दार्शनिक सूत्रों में सबसे बड़ा है। प्राचीन काल में १६ अध्यायों का अध्ययन प्रचलन में था, किन्तु कालान्तर में यह परम्परा टूट गई और आजकल १२ अध्यायों का ही पठन-पाठन होता है।’ १. आसीत् षोडशलक्षणी श्रुतिपदा या धर्ममीमांसिका। सङ्कर्षाख्यचतुर्थभागविधुरा कालेन साऽजायत।। संकर्षकाण्ड चन्द्रिका, ३६२ न्याय-खण्ड

जैमिनीय सूत्र के व्याख्याकार

जैमिनि के सूत्रों पर कम से कम तीन वृत्तियों के रचे जाने का उल्लेख मिलता है। १) बोधायनवृत्ति, २) उपवर्षवृत्ति तथा ३) भवदासवृत्ति। रामानुज ने अपने श्रीभाष्य का आध गार बोधायन वृत्ति को बनाया था। शबर ने अपने भाष्य में उपवर्ष की वृत्ति का उल्लेख किया है। कुमारिल ने श्लोकवार्त्तिक में भवदास की वृत्ति की चर्चा की है। ये सभी ग्रंथ संप्रति उपलब्ध नहीं हैं। शबर स्वामी तक के काल को मीमांसा का आदियुग कहा जा सकता है। इस युग में जैमिनि ने अनेक युग एवं परम्पराओं में अस्त-व्यस्त हो रहे मीमांसा के सिद्धान्तों को व्यवस्थित कर एकरूपता प्रदान किया। जैमिनि के पश्चात् मीमांसा में हम किसी स्वतंत्र रचनाकार को नहीं पाते हैं। यद्यपि मीमांसा दर्शन में मूर्धन्य विद्वानों का अभाव नहीं है, किन्तु उन सभी विद्वानों ने अपने भाष्य अथवा टीका का आधार जैमिनिरचित सूत्रों को ही बनाया। जैमिनि-सूत्र विशालकाय होने पर भी भाष्य-ग्रंथों के बिना दुरूह है। इस दुरूहता को शबर स्वामी ने अपने भाष्य द्वारा दूर किया है।

शबर

शबर के साथ मीमांसा का स्वर्णयुग प्रारंभ होता है। मीमांसा को शास्त्रीयता प्रदान करने वालों में शबर मूर्धस्थानीय हैं। मीमांसा-सूत्रों पर शबर ने भाष्य की रचना की। यह शबरभाष्य ही सूत्रों पर उपलब्ध प्राचीनतम टीका है। इसी भाष्य पर पूर्वमीमांसा का लगभग संपूर्ण साहित्य आधारित है। शबर ने ही सर्वप्रथम सूत्रों को अधिकरणों में विभक्त कर व्यवस्थित किया था। शबर का वैशिष्ट्य स्वीकार करते हुए शंकराचार्य ने उन्हें ‘शास्त्रतात्पर्यविद्’ पद से संबोधित किया है। शबर के विचार अत्यन्त स्पष्ट, उनकी भाषा अत्यंत सरल एवं व्यावहारिक तथा शैली सुगम है। शबर को विद्वानों ने प्रायः विक्रम सम्वत् के संस्थापक विक्रमादित्य का गुरु अथवा वरिष्ठ समकालीन माना हैं अतः शबर का समय ५७ ईस्वी पूर्व स्वीकार किया गया है। जैकोबी के मतानुसार शाबरभाष्य की रचना २०० ई. से ५०० ई. के मध्य हुई होगी, किन्तु डॉ. राधाकृष्णन इसे ईस्वी पूर्व प्रथम शताब्दी की रचना मानते हैं। विद्वानों ने ‘धर्माय जिज्ञासा’ समास की व्याख्या के आधार पर शबर को पतञ्जलि से पूर्व का सिद्ध किया है। अतः डॉ. राधाकष्णन का मत समीचीन है। शबर के काल के समान उनका निवास स्थान भी अनिश्चित है। यदि शबर को राजा विक्रमादित्य का गुरु स्वीकार किया जाये तो उनका निवास स्थान उज्जैन को मानना पड़ेगा। १. श्लोकवार्त्तिक, i, ६३ २. ब्रह्मसूत्र शांकरभाष्य, . ३. इण्डियन फिलासफी वाल्यूम २, पृ. ३७६ ४. पूर्वमीमांसा इन इट्स सोर्सेज पृ. १२ मीमांसा दर्शन का इतिहास ३३ श्री गंगानाथ झा के अनुसार भाष्य के अनेक अंश उन्हें उत्तरी काश्मीर या तक्षशिला का निवासी मानने के लिए बाध्य करते हैं। एक किंवदन्ती के अनुसार इनका वास्तविक नाम आदित्यसेन था। बौद्धों के आतंक से भयभीत हो वे शबर का वेश धारणकर जंगल में रहने लगे अतः उनका नाम शबरस्वामी पड़ा। यह किवदन्ती शबर को दाक्षिणात्य सिद्ध करती है, क्योंकि बौद्धों का प्रचार उत्तर भारत की अपेक्षा दक्षिण भारत में अधिक था। शबर के भाष्य में वर्णित विज्ञानवादी बौद्ध सिद्धान्त के खण्डन भी उन्हें बौद्ध प्रचुर प्रान्त का निवासी सिद्ध करते हैं। शबरस्वामी में प्रयुक्त स्वामी विशेषण भी दक्षिण भारत में अधिक प्रचलित हैं। संभव है कि उनका जन्म दक्षिण भारत में हुआ हो और उत्तर भारत उनका कार्यक्षेत्र रहा हो। शिबरभाष्य के तीन प्रमुख व्याख्याकार हुये, जिनके विचारों में परस्पर अन्तर होने के कारण तीन नवीन सम्प्रदायों की प्रतिष्ठा हुई। वे हैं- कुमारिल भट्ट, प्रभाकर मिश्र एवं मुरारि मिश्र। इन तीन विचारकों के अतिरिक्त ज्ञात होता है कि भर्तृमित्र ने भी शबरभाष्य की स्वतंत्र व्याख्या लिखी थी। मामी लगता है कि भर्तृमित्र के विचार अत्यंत स्वतंत्र एवं दृढ थे और समाज में प्रतिष्ठित थे। कुमारिल भट्ट ने भर्तृमित्र के मत को अनेक स्थलों पर उद्धृत कर खण्डन किया है। पार्थसारथि का मत है कि भर्तृमित्र ने मीमांसा में अनेक अपसिद्धान्तों का समावेश कर इसे नास्तिक दर्शन बना दिया था। यह हमारा दुर्भाग्य है कि भर्तृमित्र की व्याख्या हमें उपलब्ध नहीं है।

कुमारिल

शबर के अनन्तर होने वाले मीमांसा के आचार्यों में कुमारिल भट्ट का महत्त्वपूर्ण स्थान है। कुमारिल ने शबरभाष्य पर टीकाओं के दो समूहों की रचना की थी। (१) बृहट्टीका और मध्यम टीका एवं (२) श्लोकवार्त्तिक, तन्त्रवार्त्तिक और तुष्टीका। बृहट्टीका और मध्यम टीका उपलब्ध नहीं है। किन्तु उनके अस्तित्व का ज्ञान हमें अन्य स्रोतों से होता है। कुमारिलरचित टीकाओं की दूसरी श्रृंखला ‘वार्त्तिक’ नाम से विख्यात है। इसका प्रथम खण्ड श्लोकवार्त्तिक ३०११ अनुष्टुप् छन्दों का एक विशालकाय ग्रन्थ है जो प्रथम अध्याय के प्रथम पाद (तर्कपाद) की व्याख्या है। इस ग्रंथ में कुमारिल ने अनेक दार्शनिक विषयों की विवेचना की है। द्वितीय खण्ड, तन्त्रवार्त्तिक, में प्रथम अध्याय के द्वितीय पाद से तृतीय अध्याय के अन्त तक गद्य-पद्यात्मक व्याख्या है। तृतीय खण्ड तुष्टीका में चतुर्थ अध्याय से लेकर द्वादश अध्याय की समाप्ति तक के शाबरभाष्य पर संक्षिप्त गद्यात्मक टिप्पणी है। कुमारिल शंकराचार्य के समकालीन थे अतः उनका समय विद्वानों ने सातवीं शताब्दी ईशवीय सन् निर्धारित किया है। श्री कुप्पुस्वामी शास्त्री’ ने ६०० से ६५० ई. के मध्य तथा MUS १. ब्रह्मसिद्धिः, इण्ट्रोडक्शन, पृ. ५८ २. पूर्वमीमांसा इन इट्स सोर्सेज पृ. १६ ३६४ न्याय-खण्ड श्री गंगानाथ झा ने ६०० से ६५० ई. के मध्य कुमारिल का समय निश्चित किया है। बौद्ध दार्शनिक धर्मकीर्ति (६३५ ई.) से कुमारिल का विश्वविख्यात शास्त्रार्थ भी इस बात की पुष्टि करता है कि कुमारिल सातवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में वैदिक धर्म की विजयपताका फहरा रहे थे।

  • कुमारिल के देश के बारे में विद्वानों में ऐकमत्य नहीं है। कुछ उन्हें दाक्षिणात्य बताते हैं तो कुछ मिथिला निवासी। इस बात की अधिक सम्भावना है कि उनका जन्मस्थान दक्षिण रहा हो और कार्यस्थल उत्तर भारत का विदेह देश। B कुमारिल ने बौद्ध धर्म के गूढ़ रहस्यों को स्वयं बौद्ध भिक्षु बनकर बौद्धाचार्यों से प्राप्त किया था और पश्चात् बौद्ध धर्म की धज्जियाँ उड़ायीं थीं। अपने बौद्ध गुरु के तिरस्कार के प्रायश्चित्तार्थ कुमारिल ने त्रिवेणी के तट पर तुषानल में अपने शरीर की आहुति दे दी।

प्रभाकर मिश्र

शाबरभाष्य पर दूसरी प्रसिद्ध टीका के रचयिता प्रभाकर मिश्र हैं। प्रभाकर ने शाबरभाष्य पर बृहती और लघ्वी नामक दो टीकाएँ की थीं। बृहती का ही अपर नाम निबन्धन टीका है तथा लघ्वी का अपर नाम विवरण टीका है। शालिकनाथ ने इन दोनों ही टीकाओं की टीका की थी। प्रभाकर की बृहती टीका ही आज उपलब्ध है। किन्तु शालिकनाथ की टीका से तथा भवनाथ द्वारा जयविवेक में लघ्वी के उल्लेख से लघ्वी का अस्तित्व सिद्ध होता है। परम्परा प्रभाकर को कुमारिल का शिष्य मानती है। कुमारिल ने अपने शिष्य की तीक्ष्ण बुद्धि का अनुभव कर उसे गुरु उपाधि से विभूषित किया था। अतः प्रभाकर का मत गुरुमत भी कहलाता है। किन्तु गंगानाथ झा एवं कीथ प्रभृति विद्वानों ने बृहती के शैली के आधार पर प्रभाकर को कुमारिल का पूर्ववर्ती सिद्ध किया है। कुछ विद्वानों का यह भी मत है कि प्रभाकर ने लघ्वी टीका की रचना कुमारिल के बृहट्टीका के खण्डन के लिए की थी और कुमारिल ने लघ्वी के खण्डनार्थ श्लोकवार्त्तिक की रचना की थी। पुनः प्रभाकर ने अपने मत की पुष्टि बृहती टीका से की। किन्तु इस मत का परीक्षण भी लघ्वी एवं बृहट्टीका के अभाव में सम्भव नहीं है। प्रभाकर ने बृहती में कुमारिल के मत को ‘एकदेशिन’ अथवा ‘कश्चित्’ शब्द से उद्धृत कर खण्डन किया है, अतः कुमारिल के पश्चात्वर्ती प्रभाकर सिद्ध होते हैं। प्रायः विद्वानों ने प्रभाकर का काल ६१०-६६० ई. सन् निर्धारित किया है।

  • प्रभाकर का निवास स्थान मिथिला ज्ञात होता है। एशियाटिक सोसाइटी, बंगाल में विद्यमान बृहती के पाण्डुलिपि में लिखित अधोलिखित वाक्य इसमें प्रमाण है- ‘श्रीदक्षिण कोसलेन्द्र प्रधानामात्यस्य विभाकरात्मजस्य प्रभाकरमिश्रस्य कृतौ बृहत्यां नवमाध्यायः समाप्तः’। कुमारिल के विचारों के आधार पर मीमांसा में जिस परम्परा का उदय हुआ उसे १. झा; प्रभाकर स्कूल; कीथ; कर्ममीमांसा मीमांसा दर्शन का इतिहास ३६५ भाट्टमत कहते हैं। भाट्टमत की व्याख्या एवं परिष्कार में अनेक आचार्यों ने योगदान दिया है। मण्डन मिश्र, उम्बेक, वाचस्पति मिश्र, देवस्वामी, सुचरित मिश्र, पार्थसारथि मिश्र, सोमेश्वर भट्ट, माधवाचार्य, अप्यय दीक्षित, लौगाक्षिभास्कर, गागाभट्ट, आपदेव आदि अनेक आचार्यों ने भाट्ट संप्रदाय को पल्लवित किया।

मण्डन मिश्र

मण्डन मिश्र कुमारिल के शिष्य थे। उनका आचार्य शंकर के साथ शास्त्रार्थ जगत्प्रसिद्ध है। वे मिथिला के एक प्रदेश माहिष्मती के निवासी थे। उनका काल विद्वानों ने ६१५-६६५ ई. स्वीकार किया है। मण्डन मिश्र के प्रधान ग्रन्थ विधिविवेक, भावनाविवेक, विभ्रमविवेक, मीमांसानुक्रमणी तथा स्फोटसिद्धि हैं। विधिविवेक में विधिलिङ् पर विचार है। भावनाविवेक में आर्थी भावना की विवेचना की गई है। विभ्रमविवेक में पञ्चख्यातियों का विवेचन है। मीमांसानुक्रमणी मीमांसा सूत्रों का कारिकाबद्ध संक्षिप्त प्रकरण ग्रन्थ है। स्फोटसिद्धि में वर्णवादियों का खण्डन कर मीमांसा दर्शन के प्राण स्फोट सिद्धान्त की प्रतिष्ठा की गई है।

उम्बेक

उम्बेक भट्ट-परम्परा के एक अन्य महत्वपूर्ण आचार्य हैं तथा कुमारिल के शिष्य के रूप में विख्यात हैं। कुछ विद्वानों ने विद्यारण्य के शंकरदिग्विजय के आधारपर मण्डन और उम्बेक में अभिन्नता सिद्ध की है। कुछ अन्य विद्वानों ने चित्सुखी पर प्रत्यग्रूप की टीका के आधार पर भवभूति और उम्बेक में अभेद माना है। किन्तु दोनों ही मत आदरणीय नहीं हैं। स्वयं चित्सुखाचार्य ने भवभूति और उम्बेक का एक स्थान पर भिन्न व्यक्तियों के रूप में उल्लेख किया है, तथा उम्बेककृत भावनाविवेक की व्याख्या उसे मण्डनमिश्र से भिन्न सिद्ध करते हैं। उम्बेक ने श्लोकवार्त्तिक पर ‘तात्पर्यटीका’ व्याख्या की है। उन्होंने मण्डन मिश्र के भावनाविवेक पर गम्भीर विवेचनात्मक व्याख्या लिखकर उसे ग्रंथ का आकार प्रदान किया। किन

वाचस्पति मिश्र

सर्वतन्त्रस्वतन्त्र अथवा द्वादशदर्शन टीकाकार की उपाधि से विख्यात वाचस्पति मिश्र मीमांसा के भी एक उल्लेखनीय विद्वान् हैं। वे मिथिला-निवासी थे और उनका काल ५०० से ६०० ई. के अन्तराल में है। वाचस्पति मिश्र ने मण्डन मिश्र के विधि विवेक पर ‘न्यायकणिका’ नामक टीका और शाब्दबोध के विषय में स्पष्ट करने के लिए ‘तत्त्वबिन्दु’ नामक मौलिक ग्रन्थ की रचना की। मिथिला-निवासी सुचरित मिश्र (१०००-११०० ई.) ने श्लोकवार्त्तिक पर ‘काशिका’ नाम की टीका लिखी। यह टीका श्लोकवार्त्तिक पर उपलब्ध सभी टीकाओं में सर्वाधिक परिपक्व, गम्भीर और विस्तृत शैली में है।

पार्थसारथि मिश्र

कुमारिल एवं प्रभाकर के अनन्तर आने वाले मीमांसकों में पार्थसारथि मिश्र (१०५०-११२० ई.) का नाम अग्रगण्य है। वे भाट्ट परम्परा के अनुयायी थे। इनके पिता एवं गुरु का नाम यज्ञात्मन् था। पार्थसारथि भी मिथिला के निवासी थे। उनकी प्रधान कृतियाँ हैं - १) न्यायरत्नाकर - यह श्लोकवार्तिक की व्याख्या है। २) तंत्ररत्न - यह कुमारिल की तुष्टीका की व्याख्या है। ३) शास्त्रदीपिका - यह कुमारिल के वार्त्तिक३६६ जी न्याय-खण्ड पर आधारित अधिकरण प्रस्थान में निबन्धन है। इस ग्रंथ पर सोमनाथ, अप्पय दीक्षित, रामकृष्ण भट्ट, शंकर भट्ट जैसे विद्वानों ने व्याख्या लिखी है। ४) न्यायरत्नमाला- यह मीमांसा के प्रधान विषयों पर स्वतंत्र रूप से रचित ग्रन्थ है। __भारद्वाज गोत्रीय, विजयनगर-निवासी माधवाचार्य (१२६७-१३८६ ई.) का नाम भी मीमांसाचार्यों में उल्लेखनीय है। उन्होंने द्वादशलक्षणी पर ‘न्यायमालाविस्तर’ नामक प्रौढ अधिकरण शैली में ग्रंथ रचना की। इस ग्रंथ में प्रभाकर एवं कुमारिल दोनों के मतों का सूक्ष्म परिचय दिया गया है। यह ग्रंथ विद्यार्थियों के लिये अत्यन्त उपयोगी है। काशीनिवासी खण्डदेव युगप्रवर्तक मीमांसक थे। उनका काल १७वीं शती स्वीकृत है। उन्होंने मीमांसा-सूत्रों की भाट्टकौस्तुभ नामक विस्तृत व्याख्या लिखी। शाब्दबोध विषय के प्रतिपादन में उन्होंने अधिकरण शैली में ‘भाट्टदीपिका’ तथा ‘भाट्टरहस्य’ नामक दो मौलिक ग्रन्थों की भी रचना की।

अप्पय दीक्षित

(१५२०-१५९३ ई) ने भाट्टमत के समर्थन में ‘विधिरसायन’ की रचना कर उस पर ‘विवेक सुखोपयोजनी’ व्याख्या भी की। इसके अतिरिक्त ‘उपक्रमपराक्रम’, ‘वादनक्षत्रावली’ और ‘चित्रकूट’ नामक तीन स्वतंत्र ग्रंथों की रचना भी की।

आपदेव

(१७वीं शती) ने भाट्टमत के समर्थन में ‘मीमांसान्यायप्रकाश’ ग्रंथ लिखा। इसे आपदेवी भी कहते हैं। इस ग्रंथ पर उनके पुत्र अनन्तदेव ने ‘भाट्टालंकार’ नामक विस्तृत टीका लिखी है। मीमांसा के सिद्धान्तों को सरल ढंग से समझाने के लिए १६वीं शती में लौगाक्षिभास्कर ने ‘अर्थसंग्रह’, केशवभट्ट ने ‘मीमांसार्थप्रकाश’ तथा शंकरभट्ट ने ‘मीमांसाबालप्रकाश’ नामक ग्रन्थों की रचना की। कुमारिल के दार्शनिक सिद्धान्तों का वर्णन करने वाला एक अन्य ग्रन्थ ‘मानमेयोदय’ है। इसकी रचना सोलहवीं शताब्दी के आसपास के दो लेखकों ने की थी। इसमें मानखण्ड का रचयिता नारायण भट्ट प्रथम तथा मेयखण्ड का रचयिता नारायण पण्डित है। इनके अतिरिक्त कृष्ण यज्वा द्वारा रचित ‘मीमांसापरिभाषा’ मीमांसा सिद्धान्तों का सुगम बोध कराने वाली एक लोकप्रिय पुस्तक है।

  • यह कुमारिल का पुण्य ही था कि उन्हें अनेक प्रतिभाशाली अनुयायी मिले। प्रभाकर इस क्षेत्र में इतने भाग्यशाली नहीं थे। गुरुमत नाम से विकसित हुये, उनकी परम्परा के उल्लेखनीय आचार्य शालिकनाथ, भवनाथ मिश्र, नन्दीश्वर, वरदराज, रामानुजाचार्य इत्यादि हैं।

शालिकनाथ

भाट्टपरम्परा के मुख्य स्तम्भ हैं। परम्परा के अनुसार वे प्रभाकर के शिष्य थे। वे गौडदेशीय थे और उनका काल वाचस्पति मिश्र के पूर्व माना गया है। शालिकनाथ ने प्रभाकर की लघ्वी पर दीपशिखा एवं बृहती पर ऋजुविमला नामक टीकायें लिखीं। उन्होंने शबरभाष्य के प्रथम पाद पर भाष्य परिशिष्ट व्याख्या लिखी। प्रकरणपंचिका इनका स्वतंत्र ग्रंथ है, जो प्रभाकर के सभी सिद्धान्तों का निरूपण करता है। इस ग्रन्थ के मीमांसा दर्शन का इतिहास ३६७ अभाव में प्रभाकरमत कभी भी सुगम न हो पाता। शालिकनाथ ने मण्डन मिश्र एवं उम्बेक के मतों का खण्डन कर प्रभाकर के पक्ष को ऊँचा ठहराया है। वाचस्पति मिश्र ने शालिकनाथ का उल्लेख ‘नवीन’ कहकर किया है। सम्भवतः इसी कारण गंगेश ने शालिकनाथ को नव्य प्रभाकर तथा प्रभाकर को जरत् प्रभाकर संबोधित किया है। शालिकनाथ के बाद भवनाथ मिश्र प्रभाकर संप्रदाय का विशिष्ट विद्वान् हुआ। उसने ‘नयविवेक’ ग्रंथ की रचना की जो जैमिनि के सूत्रों पर स्वतंत्र व्याख्या है। इस ग्रन्थ का महत्त्व इस बात से ही स्पष्ट हो जाता है कि इस पर चार टीकायें लिखी गई। १. वरदराजकृत दीपिका २. दामोदरकृत अलङ्कार, ३. रविदेवकृत विवेकतत्त्व तथा ४. शंकरमिश्रकृत पञ्जिका। भवनाथ मिश्र मिथिलावासी थे और उनका समय १०वीं शती माना गया है। गुरुमत के अन्य आचार्यों एवं ग्रंथों में नन्दीश्वरकृत प्रभाकरविजय, गुरुमताचार्य चन्द्रकृत न्यायरत्नाकर (जैमिनीय सूत्रों की व्याख्या) तथा अमृतबिन्दु (मीमांसा का एक स्वतंत्र ग्रंथ), भट्ट विष्णुकृत नयतत्त्वसंग्रह (तर्कपाद की व्याख्या) तथा रामानुजाचार्य (१८वीं शती ) कृत ‘तन्त्ररहस्य’ उल्लेखनीय है। तन्त्ररहस्य में प्रभाकरसम्मत मान एवं मेय दोनों का अत्यंत सरलता से विवेचन किया गया है। मीमांसा दर्शन में तृतीय संप्रदाय के संस्थापक होने का गौरव मुरारि मिश्र को प्राप्त है। मुरारि मिश्र अत्यंत अलौकिक प्रतिभासम्पन्न स्वतंत्र विचारक थे। इसी कारण कुमारिल एवं प्रभाकर जैसे शीर्षस्थानीय विद्वानों के मध्य वे अपना स्थान बना सके। कुछ वर्षों पूर्व तक इनकी रचनाओं के विषय में कुछ भी ज्ञान नहीं था। किन्तु कुछ समय पूर्व (१६२८ में) इनके ‘त्रिपादनीतिनयन’ तथा ‘एकादशाध्यायाधिकरणम्’ नामक दो ग्रन्थों को प्रकाश में लाने का श्रेय डॉ. उमेश मिश्र को है। ‘त्रिपादनीतिनयन’ में मीमांसासूत्र के प्रथम अध्याय के द्वितीय, तृतीय एवं चतुर्थ पाद के अधिकरणों की व्याख्या है। ‘एकादशाध्यायाधिकरणम्’ में एकादशवें अध्याय के प्रथम अधिकरण में वर्णित तन्त्र एवं अन्यान्य विषयों की चर्चा है। यह ज्ञात नहीं है कि मुरारि मिश्र ने संपूर्ण मीमांसासूत्र पर टीका लिखी है अथवा नहीं। यह भी संभव है कि जिन अधिकरणों पर उन्हें अपने विशिष्ट मत को व्यक्त करना रहा हो उसी पर उन्होंने टीका की हो। मुरारि मिश्र का मत न्याय दर्शन से प्रभावित लगता है। मुरारि मिश्र ने भवनाथ (१०वीं शती) के नयविवेक में समन्वित विचारों का खण्डन किया है। गंगेश उपाध्याय के पुत्र वर्धमान ने मुरारि मिश्र को तीसरी परंपरा के मीमांसक रूप में प्रस्तुत किया है। वर्धमान का काल १३वीं शती माना गया है। अतः मुरारिमिश्र का काल इनके पूर्व १२वीं शती स्वीकार किया गया है। मुरारिमिश्र के अनुयायियों की अथवा किसी अन्य ग्रंथ की अभी तक कोई जानकारी नहीं है। ३६८ न्याय-खण्ड