१.१.१ वैशेषिक दर्शन का सामान्य परिचय
प्रायः चार्वाकेतर सभी भारतीय दर्शन मोक्ष-प्राप्ति को मानव-जीवन का लक्ष्य मानते हैं। दर्शन शब्द का सामान्य अर्थ है -देखने का माध्यम या साधन (दृश्यन्तेऽनेन इति दर्शनम्) अथवा देखना। स्थूल पदार्थों के संदर्भ में जिसको दृष्टि (दर्शनं दृष्टिः) कहा जाता है, वही सूक्ष्म पदार्थों के सम्बन्ध में अन्तर्दृष्टि है। भारतीय चिन्तकों ने दर्शन शब्द का प्रयोग स्थूल और सूक्ष्म अर्थात् भौतिक और आध्यात्मिक दोनों अर्थों में किया है, तथापि जहाँ (चार्वाकेतर) अन्य दर्शनों में आध्यात्मिक चिन्तन पर अधिक बल दिया गया है, वहाँ न्यायदर्शन में प्रमाण-मीमांसा और वैशेषिक दर्शन में प्रमुख रूप से प्रमेय-मीमांसा अर्थात् भौतिक पदार्थों का विश्लेषण किया गया है। इस दृष्टि से वैशेषिक दर्शन को अध्यात्मोन्मुख जिज्ञासाप्रधान दर्शन कहा जा सकता है। न्याय और वैशेषिक दर्शन प्रमुख रूप से इस विचारधारा पर आश्रित रहे हैं कि जगत् में जिन वस्तुओं का हमें अनुभव होता है वे सत् हैं। अतः उन्होंने दृश्यमान जगत् से परे जो समस्याएँ या गुत्थियाँ हैं, उन पर विचार केन्द्रित करने की अपेक्षा दृश्यमान जगत् को वास्तविक मानकर उसकी सत्ता का विश्लेषण करना ही अधिक उपयुक्त समझा।’ वस्तुवादी और जिज्ञासाप्रधान होने के कारण तथा प्रमेय-प्रधान विश्लेषण के कारण वैशेषिक दर्शन व्यावहारिक या लौकिक दृष्टि से भी बहुत महत्त्वपूर्ण है। न्याय-वैशेषिक के अनुसार ज्ञाता, ज्ञेय और ज्ञान की पृथक्-पृथक् वस्तु-सत्ता है, जबकि वेदान्त में यह माना जाता है कि ज्ञाता ज्ञानस्वरूप है और ज्ञेय भी ज्ञान से पृथक् नहीं है। न्याय और वैशेषिक यद्यपि समानतन्त्र हैं, फिर भी न्याय प्रमाण-प्रधान दर्शन है जबकि वैशेषिक प्रमेय-प्रधान। इसके अतिरिक्त अन्य कई संकल्पनाओं में भी इन दोनों दर्शनों का पार्थक्य है।
१.१.२ वैशेषिक नाम का कारण
वैशेषिक दर्शन अपने आप में महत्त्वपूर्ण होने के अतिरिक्त अन्य दर्शनों तथा विद्यास्थानों के प्रतिपाद्य सिद्धान्तों के ज्ञान और विश्लेषण में भी बहुत उपकारक है। कौटिल्य ने वैशेषिक का पृथक् रूप से तो उल्लेख नहीं किया, किन्तु संभवतः समानतन्त्र आन्वीक्षिकी १. संविदेव भगवती वस्तूपगमे नः प्रमाणम्, न्या. वा. ता. टीका, २.१.३६ वैशेषिक दर्शन का सामान्य परिचय १५६ में वैशेषिक का भी अन्तर्भाव मानते हुए कौटिल्य ने यह कहा कि आन्वीक्षिकी सब विद्याओं का प्रदीप है। भारतीय चिन्तन-परम्परा में न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग, मीमांसा, वेदान्त प्रभृति छः आस्तिक दर्शनों और चार्वाक, बौद्ध, जैन इन तीन नास्तिक दर्शनों का अपना-अपना स्थान व महत्त्व रहा है। सांख्य में त्रिविध दुःखों की निवृत्ति को, योग में चित्तवृत्ति के निरोध को, मीमांसा में धर्म की जिज्ञासा को और वेदान्त में ब्रह्म की जिज्ञासा को निःश्रेयस् का साधन बताया गया है; जबकि वैशेषिक में पदार्थों के तत्त्वज्ञानरूपी धर्म अर्थात् उनके सामान्य और विशिष्ट रूपों के विश्लेषण से पारलौकिक निःश्रेयस् के साथ-साथ इहलौकिक अभ्युदय को भी साध्य माना गया है। अन्य दर्शनों में प्रायः ज्ञान की सत्ता (सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म) को सिद्ध मान कर उसके अस्तित्वबोध और विज्ञान को मोक्ष या निःश्रेयस् का साधन बताया गया है, किन्तु वैशेषिक में दृश्यमान वस्तुओं के साधर्म्य-वैधर्म्यमूलक तत्त्वज्ञान को साध्य माना गया है। इस प्रकार वैशेषिक दर्शन में लोकधर्मिता तथा वैज्ञानिकता से समन्वित आध्यात्मिकता परिलक्षित होती है। यही कारण है कि न्याय-वैशेषिक को व्याकरण के समान अन्य शास्त्रों के ज्ञान का भी उपकारक या प्रदीप कहा गया है। अद्वैत वेदान्त में ब्रह्म को ही एकमात्र सत् कहा गया है। बौद्धों ने सर्व शून्यं जैसे कथन किये, सांख्यों ने प्रकृति-पुरुष के विवेक की बात की। इस प्रकार इन सबने भौतिक जगत् के सामूहिक या सर्वसामान्य किसी एक तत्त्व को भौतिक जगत् से बाहर ढूँढ़ने का प्रयत्न किया। किन्तु वैशेषिकों ने न केवल समग्र ब्रह्माण्ड का, अपि तु प्रत्येक पदार्थ का तत्त्व उसके ही अन्दर ढूँढ़ने का प्रयास किया और यह बताया कि प्रत्येक वस्तु का निजी वैशिष्ट्य ही उसका तत्त्व या स्वरूप है और प्रत्येक वस्तु अपने आप में एक सत्ता है। इस मूल भावना के साथ ही वैशेषिकों ने दृश्यमान जगत् की सभी वस्तुओं को छः या सात वर्गों में समाहित करके वस्तुवादी दृष्टि से अपने मन्तव्य प्रस्तुत किये। इन छ: या सात पदार्थों में सर्वप्रथम द्रव्य का उल्लेख किया गया है, क्योंकि उसको ही केन्द्रित करके अन्य पदार्थ अपनी सत्ता का भान कराते हैं। पहले तो वैशेषिकों ने छः ही पदार्थ माने थे, पर बाद में उनको यह आभास हुआ कि वस्तुओं के भाव की तरह उनका अभाव भी वस्तुतत्त्व के निरूपण में सहायक होता है। अतः गुण, कर्म सामान्य विशेष के साथ-साथ अभाव का भी वैशेषिक पदार्थों में समावेश किया गया। अभिप्राय यह है कि सभी ‘वस्तुओं का निजी वैशिष्ट्य ही उनका स्वभाव है’ - क्या इस आधार पर ही इस शास्त्र को वैशेषिक कहा गया? इस जिज्ञासा के समाधान के संदर्भ में अनेक विद्वानों ने जो विचार प्रस्तुत किये, उनका सार इस प्रकार है - १. प्रदीपः सर्वविद्यानामुपायः सर्वकर्मणाम्। EXAONamastet sitenadaying त आश्रयः सर्वधर्माणां तस्मादान्वीक्षिकी मता।। कौ. अर्थशास्त्र Body २. यतोऽभ्युदयनिःश्रेयससिद्धिः स धर्मः। वै. सू. १.१.२ Eatinnitchcrastiscb ३. काणादं पाणिनीयं च सर्वशास्त्रोपकारकम्। दवा-merHRUKorgE DISE १६० Pीन न्याय-खण्ड मीकि (१) विशेष पदार्थ से युक्त होने के कारण यह शास्त्र वैशेषिक कहलाता है। अन्य दर्शनों में विशेष का उपदेश वैसा नहीं है जैसा कि इसमें है। विशेष को स्वतन्त्र पदार्थ मानने 11 के कारण इस दर्शन की अन्य दर्शनों से भिन्नता है। विशेष पदार्थ व्यावर्तक है। अतः . है। 1 इस शास्त्र की संज्ञा वैशेषिक है। 10 लो उन दिEFIS THE (२) विशेष गुणों का उच्छेद ही मुक्ति है, न कि दुःख का आत्यन्तिक उच्छेद। मुक्ति का प्रतिपादन चार्वाकेतर सभी दर्शन करते हैं, किन्तु विशेष गुण को लेकर मुक्ति का प्रतिपादन इसी दर्शन में किया गया है। प्रशासन (३) विगतः शेषः यत्र स विशेषः - इस प्रकार का विग्रह करने पर विशेष का अर्थ ‘निरवशेष’ हो जाता है और इस प्रकार सभी पदार्थों का छ: या सात में अन्तर्भाव हो जाता है। (४) ‘विशेषणं विशेषः’ - ऐसा विग्रह करने पर यह अर्थ हो जाता है कि पदार्थों के लक्षण- परीक्षण द्वारा जो शास्त्र उनका बोध करवाये, वह वैशेषिक है। (५) इस दर्शन में आत्मा के भेद तथा उसमें रहने वाले विशेष गुणों का व्याख्यान किया गया है। कपिल ने आत्मा के भेदों को स्वीकार किया, किन्तु उनको विशेष गुण वाला नहीं माना। वेदान्त तो आत्मा के भेद और गुणों को स्वीकार नहीं करता। अतः आत्मा के विशेष गुण और भेद स्वीकार करने से इस दर्शन को वैशेषिक कहा जाता है। (६) अनेक पाश्चात्त्य और भारतीय विद्वानों ने वैशेषिक को डिफरेन्सियलिस्ट दर्शन कहा है, क्योंकि उनकी दृष्टि में यह भेदबुद्धि (वैशिष्ट्य-विचार) पर आधारित होने के कारण भेदवादी है। जाय नम
१.१.३ वैशेषिक शब्द की व्युत्पत्ति
वैशेषिक शब्द की व्युत्पत्ति विभिन्न भाष्यकारों, टीकाकारों और वृत्तिकारों ने अपने-अपने दृष्टिकोण से की। उनमें से कुछ का यहाँ उल्लेख करना अप्रासंगिक न होगा। (१) आचार्य चन्द्र : वैशेषिक विशिष्टोपदेष्टा। न (२) चन्द्रकान्त : यदिदं वैशेषिकं नाम शास्त्रमारब्धं तत्खलु तन्त्रान्तरात् विशेषस्यार्थ स्याभिधानात् (चन्द्रकान्तभाष्यम्)। (३) मणिभद्रसूरि : नैयायिकेभ्यो द्रव्यगुणादिसामग्र्या विशिष्टमिति वैशेषिकम् (षड्दर्शनसमुच्चय वृत्ति-पृ. ४)। का काम का 9. (a) Dictionaries of Asian Philosphies, IR, P 186 (b) Encyclopaedia Betannika, Vol. X, P.327 (c) The word Vishesha is derived from Vishesha which means difference and the doctrine is so designated because according to it diversity and not the unity is a root of Universe; Hiriyanna, OIP. P. 225 साली वैशेषिक दर्शन का सामान्य परिचय १६१ (४) गुणरत्न : नित्यद्रव्यवृत्तयोऽन्त्या विशेषाः एव वैशेषिकम् (विनयादिभ्यः स्वार्थे इक्) तद् कशी वैशेषिकं विदन्ति अधीयते वा (तद्वैत्यधीत इत्यणि) वैशेषिकाः तेषामिदं वैशेषिकम् (षड्दर्शनसमुच्चयवृत्ति)। जिला - (५) उदयनाचार्य : (क) विशेषो व्यवच्छेदः तत्त्वनिश्चयः तेन व्यवहरन्तीत्यर्थः (किरणावली P पृ. ६१३), (ख) तत्त्वमनारोपितं रूपम् । तच्च साधर्म्यवैधाभ्यामेव विविच्यते (किरणावली पृ. ५)। bapPAPाक का (६) श्रीधर : साधर्म्य-वैधर्म्यम् एव तत्त्वम् (अस्यार्थः - वैधर्म्यरूपात् तत्त्वात् उत्पन्नं यत् के शास्त्रं तदेव वैशेषिकम्) - न्यायकन्दली)। APP (७) दुर्वेकमिश्र : द्रव्यगुणकर्मसामान्यविशेषसमवायात्मके पदार्थविशेषे व्यवहरन्तीति वैशेषिकाः गान(धर्मोत्तरप्रदीपः)। (८) आधुनिक समीक्षक : उदयवीर शास्त्री प्रभृति अधिकतर आधुनिक विद्वानों का भी यही विचार है-कणाद ने जिन परम सूक्ष्म पृथिव्यादि भूततत्त्वों को जगत् का मूल उपादान माना है, उनका नाम विशेष है। अतः इसी आधार पर इस शास्त्र का नाम वैशेषिक पड़ा। (वै. द. विद्योदयभाष्य, पृ. १६) (६) वैशेषिकसूत्र में वैशेषिक शब्द केवल एक बार प्रयुक्त हुआ है-’ जिसका अर्थ है विशेषता। कार फ्रा (१०) उपर्युक्त कथनों पर विचार करने के अनन्तर यही मत समुचित प्रतीत होता है कि कि नित्य और अनित्य पदार्थों के अन्तिम परमाणुओं में रहने वाले और उनको एक दूसरे से व्यावृत्त करने वाले विशेष नामक पदार्थ की उद्भावना पर आधारित होने IT के कारण इस दर्शन का नाम वैशेषिक पड़ा। योगसूत्र पर अपने भाष्य में व्यास F ने भी इसी मत का समर्थन किया है। PPPENIमकाणामकार है गण्या
१.१.४ वैशेषिक दर्शन के ग्रन्थ और ग्रन्थकार
(१) महर्षि कणाद और उनका वैशेषिकसूत्र
- महर्षि कणाद वैशेषिकसूत्र के निर्माता, परम्परा से प्रचलित वैशेषिक सिद्धान्तों के क्रमबद्ध संग्रहकर्ता एवं वैशेषिक दर्शन के समुद्भावक माने जाते हैं। वह उलूक, काश्यप, पैलुक आदि नामों से भी प्रख्यात हैं। महर्षि के ये सभी नाम साभिप्राय और सकारण हैं। TIPBFDEPER PROPER (२) कणाद नाम का आधार का निगा कलछमार नायक 655 _कणाद शब्द की व्युत्पत्ति और व्याख्या विभिन्न आचार्यों ने विभिन्न प्रकार से की है। उनमें से कुछ के मन्तव्य इस प्रकार हैं - A e riadaolitiestaerdainv=2 १. वै. सू. १०.२.७ २. योगसूत्र व्यासभाष्य, १.४.६ जान का हैं १६२ FR-न्याय-खण्ड की व्योमशिव ने ‘कणान् अत्तीति कणादः’-आदि व्युत्पत्तियों की समीक्षा करने के अनन्तर यह कहा कि ये असद् व्याख्यान हैं। उन्होंने ‘केचन अन्ये’ कहकर निम्नलिखित परिभाषा का भी उल्लेख किया-‘असच्चोद्यनिरासार्थ कणान ददाति दयते इति वा कणादः। उजाला कज गिरी श्रीधर -कणादमिति तस्य कापोती वृत्तिमनुतिष्ठतः रथ्यानिपतित-तण्डुलानादाय प्रत्यहं कृताहारनिमित्ता संज्ञा। निरवकाशः कणान् वा भक्षयतु इति यत्र तत्र उपालम्भस्तत्रभवताम् (न्या. कं. पृ. ४)। श्रीधर का यह विचार चिन्तनीय है कि कणाद की कपोती वृत्ति के आधार पर ही वैशेषिकों के प्रति यह उपालम्भ किया जाता है कि- ‘अब कोई उपाय न रहने के कारण कणों को खाइये। _ उदयन आदि आचार्यों का यह मत है कि महेश्वर की कृपा को प्राप्त करके कणाद ने इस शास्त्र का प्रणयन किया-कणान् परमाणून अत्ति सिद्धान्तत्वेनात्मसात् करोति इति कणादः’ अतः उनको कणाद कहा गया। _ उपर्युक्त सभी व्याख्याओं की समीक्षा के बाद यह कहा जा सकता है कि कणाद संज्ञा एक शास्त्रीय पद्धति के वैशिष्ट्य के कारण है, न कि कपोती वृत्ति के कारण। (२) उलूक या औलूक्य नाम का आधार वैशेषिक सूत्रकार को उलूक या औलूक्य भी कहा जाता है। इनके उलूक नाम के सम्बन्ध में यह किंवदन्ती प्रचलित है कि यह दिन में ग्रन्थों की रचना करते थे और रात में उलूक पक्षी के समान जीविकोपार्जन करते थे। व्योमशिव भी इस संदर्भ में यह कहते हैं-‘अन्यैस्तु धर्मैः सह धर्मिण उपदेशः कृतः। केनेति विना पक्षिणा उलूकेन’। न्यायलीलावती की भूमिका में भी यह उल्लेख है-‘मुनये कणादाय स्वयमीश्वर उलूकरूपधारी प्रत्यक्षीभूय द्रव्यगुणकर्मसामान्यविशेषसमवायलक्षणं पदार्थषट्कमुपदिदेश।’ जैनाचार्य अभयदेव सूरि ने भी सम्मतितर्क की व्याख्या में यह कहा कि ‘एतदेवोक्तं भगवता परमर्षिणा औलूक्येन’। इनको औलूक्य भी कहा जाता है, और इस संदर्भ में कुछ विद्वानों द्वारा यह माना जाता है कि उलूक इनके पिता का नाम था अतः उलूक के पुत्र होने के कारण यह औलूक्य कहलाते हैं। लिंगपुराण में यह संदर्भ मिलता है कि अक्षपाद मुनि और उलूक मुनि शिव के अवतार थे। महाभारत में उपलब्ध तथ्यों के अनुसार शरशय्या में पड़े हुए भीष्म पितामह की मृत्यु के समय अन्य ऋषियों के साथ उलूक भी थे। वही उलूक या औलूक्य मुनि वैशेषिक दर्शन के प्रवर्तक थे। नैषधीयचरित महाकाव्य की प्रकाश टीका के रचयिता नारायण भट्ट ने कणाद और उलूक शब्दों को एक दूसरे का पर्यायवाची माना है। (२)
- Vaisheshik Philosopher, UI, p. 6 २. महाभारत, शा. प. १४.११ ३. ध्वान्तस्य वामोरु विचारणायां वैशेषिकं चारुमतं मतं मे। औलूकमाहुः खलु दर्शनं तत् क्षमः तमस्तत्त्वनिरूपणाय।। नै. च. १२.३५ वैशेषिक दर्शन का सामान्य परिचय १६३ या साधि (३) पैलुक नाम का आधार _ पैलुक नाम से भी कणाद का उल्लेख किया जाता है। परमाणु का एक पर्यायवाची शब्द पीलु भी है। अतः परमाणु-सिद्धान्त के प्रवर्तक को पैलुक और वैशेषिक को पैलुकसम्प्रदाय भी कहा जाता है। जमीन किसान (४) काश्यप नाम का आधार व hिi ग कश्यप गोत्र में उत्पन्न होने के कारण कणाद को काश्यप भी कहा जाता है। इस नाम का उल्लेख प्रशस्तपाद ने पदार्थधर्म-संग्रह में इस प्रकार किया है ‘विरुद्धासिद्धसंदिग्धमलिंगं काश्यपोऽब्रवीत्।।" काश्यप कणाद का गोत्रनाम था। उदयनाचार्य ने भी इस तथ्य का उल्लेख किया है। वायुपुराण में यह बताया गया है कि कणाद प्रभास तीर्थ में रहते थे और शिव के अवतार थे।
१.१.५ वैशेषिक सूत्र का रचना-काल
वैशेषिक दर्शन का आधार कणादप्रणीत वैशेषिक सूत्र है। जैसे अन्य भारतीय दर्शनों और समग्र भारतीय ज्ञान-विज्ञान के मूल तत्त्व अनादि काल से चले आ रहे हैं और संकेत रूप में वेदों में उपलब्ध होते हैं, वैसी ही स्थिति वैशेषिक के मूल सिद्धान्तों के सम्बन्ध में भी है। जैसे गौतम, कपिल, जैमिनि और व्यास आदि ऋषि न्याय, सांख्य, मीमांसा, वेदान्त आदि दर्शनों के द्रष्टा, सूत्रनिर्माता या संग्राहक आचार्य हैं, वैसे ही कणाद भी वैशेषिक दर्शन के संग्राहक या सिद्धान्त रूप में पूर्वप्रचलित कथनों को सूत्ररूप में क्रमबद्ध करने वाले आचार्य हैं। हाँ, इस समय जो वाङ्मय वैशेषिक दर्शन के रूप में उपलब्ध होता है, उसका आधार प्रमुखतया कणादप्रणीत वैशेषिक सूत्र ही है। कहा जाता है कि न्याय और वैशेषिक दोनों माहेश्वर दर्शन हैं। पहले आन्वीक्षिकी नाम में सम्भवतः दोनों का समावेश होता था। वैशेषिक सूत्र के रचना-काल के संबन्ध में यह ज्ञातव्य है कि आचार्य कौटिल्य द्वारा तीसरी शताब्दी ईस्वीपूर्व में रचित अर्थशास्त्र में वैशेषिक शब्द का उल्लेख नहीं है (यद्यपि यह सम्भव है कि उन्होंने आन्वीक्षिकी में ही वैशेषिक को भी समाहित मान लिया हो।) जबकि चरक द्वारा कनिष्क के समय ईसवीय प्रथम शताब्दी में रचित चरकसंहिता में वैशेषिक के षट् पदार्थों का उल्लेख है। इस आधार पर डा. उई जैसे कतिपय विद्वानों ने अपना यह मत बनाया कि वैशेषिक सूत्र का रचनाकाल १५० ई. माना जा सकता है। किन्तु महामहोपाध्याय कुप्पूस्वामी जैसे अन्य विद्वानों की यह धारणा है कि वैशेषिक सूत्र की रचना १. प्रशस्तपादभाष्य (श्रीनिवास शास्त्री सम्पादित संस्करण, पृ. १५१) २. Vaisheshik System, p-II 3. Primer of Indian Logic Introduction, p.XII १६४ न्याय-खण्ड वैसे वैशेषिक दर्शन का विधिवत् उल्लेख सर्वप्रथम मिलिन्द पहून में मिलता है। वैशेषिक और बौद्ध दर्शन का उल्लेख चीन की प्राचीन परम्परा में भी उपलब्ध होता है। बौद्ध आचार्य हरिवर्मा (२६० ई.) के लेख से पता चलता है कि वैशेषिक का संस्थापक उलूक था, जिसका समय बुद्ध से २०० वर्ष पूर्व था। यह तो प्रायः सर्वस्वीकृत तथ्य है कि न्याय दर्शन की अपेक्षा वैशेषिक दर्शन प्राचीन है। डा. जैकोवी ने वैशेषिक सूत्रों का समय ईसवीय द्वितीय शताब्दी से लेकर ईसवीय पंचम शताब्दी तक के अन्तराल में माना है। मट उदयवीर शास्त्री ने कणाद का काल महाभारत से पूर्व माना है। बोदत्स के अनुसार कणाद का समय ४०० ई. से पूर्व तथा ५०० ई. के बाद नहीं रखा जा सकता। प्रो. गार्बे और राधाकृष्णन् प्रभृति विद्वानों का यह मत है कि वैशेषिक सूत्र का निर्माण न्यायसूत्र से पहले हुआ, क्योंकि वैशेषिक सूत्र का प्रभाव न्यायसूत्र पर परिलक्षित होता है; जबकि वैशेषिक सूत्र पर न्यायसूत्र का प्रभाव नहीं दिखाई देता। अधिकतर विद्वानों का यह मत है कि न्यायसूत्र की रचना दूसरी शती में हुई। अतः वैशेषिक सूत्र की रचना द्वितीय शती से पहले हुई। सर्वदर्शनसंग्रह प्रभृति ग्रन्थों में दर्शनों का उद्भव प्रायः उपनिषदों से माना गया है, किन्तु प्रो. एच. उई जैसे विद्वानों का यह मत है कि वैशेषिक का उद्भव उपनिषद् से नहीं, अपि तु लोक के सामान्य विचारों से हुआ। कौटिल्य के अर्थशास्त्र तथा जैन ग्रन्थों से भी इसकी पुष्टि होती है।’ उपर्युक्त विभिन्न मतों पर ध्यान देते हुए यही कहा जा सकता है कि वैशेषिक सूत्रों के रचनाकाल के संबन्ध में विद्वान् एकमत नहीं हैं। अतः इस संदर्भ में इतना ही कहा जा सकता है कि अधिकतर विद्वानों के अनुरूप वैशेषिक सूत्र की रचना दूसरी शती से पहले हुई। किन्तु मन्तव्यों की दृष्टि से वैशेषिक मत अतिप्राचीन है, वैशेषिकसूत्र में बौद्धमत की चर्चा नहीं है, अतः मेरे विचार में कणाद बुद्ध से पूर्ववर्ती माने जा सकते हैं।
१.१.६ वैशेषिक सूत्रपाठ
वैशेषिक सूत्र की जो व्याख्याएँ उपलब्ध हैं, उनके आधार पर ही सूत्रसंख्या, सूत्रक्रम और सूत्रपाठ का निर्धारण किया जाता रहा है। मिथिलावृत्ति, चन्द्रानन्दवृत्ति और उपस्कारवृत्ति में उपलब्ध सूत्रपाठ ही प्राचीनतम माने जाते हैं। उपस्कारवृत्ति के आधार पर यह विदित होता है कि इसमें १० अध्याय हैं। प्रत्येक अध्याय में दो आह्निक हैं और सूत्रों की संख्या कुल मिलाकर ३७० है। सूत्रों के क्रम, पूर्वापर संगति, पाठ तथा उनके व्याख्यान में व्याख्याकारों का पर्याप्त मतभेद दिखाई देता है। उदाहरणतया बड़ौदा (बड़ोदरा) से प्रकाशित चन्द्रानन्दवृत्ति सहित वैशेषिक सूत्र में ३८४ सूत्र हैं। इस संस्करण में वैशेषिक सूत्र के आठवें, नवें और दसवें अध्यायों का दो-दो आह्निकों में विभाजन भी उपलब्ध नहीं की 9. Journal of American Oriental Society, Vol.3 २. वैशेषिक दर्शन, विद्योदय भाष्य, भाष्यकार का निवेदन.प.११ PAPER Pाका ३. श्रीनिवास शास्त्री, प्रशस्तपादभाष्यव्याख्या, पृ. ७ q metayeitiesdaav39 K aisubahini aiga ] naturt to zomhq वैशेषिक दर्शन का सामान्य परिचय १६५ होता। मिथिला विद्यापीठ से प्रकाशित वैशेषिक सूत्र नवम अध्याय के प्रथम आह्निक पर्यन्त ही उपलब्ध हैं। उनमें ३२१ सूत्र हैं। 1 वैशेषिक दर्शन की व्याख्या-सरणि दो प्रकार की देखी जाती है- (१) सूत्रव्याख्यानरूपा, जैसे उपस्कारवृत्ति और (२) पदार्थव्याख्यानरूपा, जैसे पदार्थधर्मसंग्रह। समय के साथ-साथ वैशेषिक में भी प्रस्थानों का प्रवर्तन हुआ, जैसे मिथिलाप्रस्थान,गौडप्रस्थान और दाक्षिणात्य प्रस्थान। मिथिलाप्रस्थान में न्याय के सिद्धान्तों का प्रवेश और कणाद को ईश्वर भी मान्य रहा, - इस बात के संकेत उपलब्ध होते हैं। अन्य दो प्रस्थानों में ऐसा प्रयास नहीं मिलता, किन्तु वैशेषिक वाङ्मय में इन प्रस्थानभेदों को कोई मान्यता नहीं मिली।
१.१.७ वैशेषिक सूत्र का प्रतिपाद्य
जैसा कि पहले भी कहा जा चुका है, वैशेषिक सूत्र में १० अध्याय और २० आह्निक हैं। दस अध्यायों में विषय का प्रतिपादन निम्नलिखित रूप से किया गया है १. अभ्युदय और निःश्रेयस के साधनभूत धर्म और पदार्थों के उद्देश, विभाग तथा _पदार्थों के साधर्म्य-वैधर्म्य के संदर्भ में कार्य-कारण के स्वरूप का निरूपण। २. पृथिवी आदि द्रव्यों का निरूपण। स माचार समाज ३. आत्मा, मन और मनोगति का निरूपण। 15 जान कर ४. पदार्थमात्र के मूलकारण प्रकृति तथा शरीरादि का निरूपण। निजामती ५. उत्क्षेपणादि कर्मों और नोदनादि संयोगज कर्म का निरूपण। का ६. शास्त्रारम्भ में प्रतिज्ञात वेदों का, धर्म और वैदिक अनुष्ठानों का तथा उनके दृष्ट और अदृष्ट फलों का निरूपण । ७. गुणों के स्वरूप और भेदों का निरूपण। कालाकाण्ड ८. बुद्धि के स्वरूप और भेदों तथा ज्ञान का निरूपण। फिरू कर ६. असत्कार्यवाद तथा अनुमान की प्रक्रिया का विश्लेषण। १०. सुख-दुःख के पारस्परिक भेद तथा कारण के भेदों का निरूपण। १
१.२.१ प्रशस्तपादभाष्य का परिचय
पदार्थधर्मसंग्रह पर भाष्य का सम्प्रदायगत लक्षण घटित न होने के कारण कुछ विद्वानों की दृष्टि में यह भाष्य नहीं है। यह व्याख्यान वैशेषिक सूत्रों के क्रम से नहीं है, ४० सूत्रों का तो इसमें उल्लेख ही नहीं है। और वैशेषिक सूत्रों में अचर्चित कई नये सिद्धान्तों का भी इसमें समावेश है। वैशेषिक सूत्र पर लिखित अपने भाष्य की भूमिका में चन्द्रकान्त भट्टाचार्य ने तो यह स्पष्ट कहा कि पदार्थधर्मसंग्रह में भाष्यत्व नहीं है, अतः वह अपना अलग भाष्य लिख रहे हैं। किन्तु व्योमवती, स्याद्वादरत्नाकर आदि ग्रन्थों में पदार्थधर्मसंग्रह का उल्लेख भाष्य के रूप में ही किया गया है। प्राचीन आचार्यों के मत में भाष्य शब्द का दो अर्थों में प्रयोग होता है, तद्यथा१६६ न्याय-खण्ड (क) सूत्रार्थों वर्ण्यते यत्र शब्दैः सूत्रानुसारिभिः। स्वपदानि च वर्ण्यन्ते भाष्यं भाष्यविदो विदुः॥ । (ख) न्यायनिबन्धप्रकाश (परिशुद्धिप्रकाश) में वर्धमानोपाध्याय ने भाष्य का लक्षण इस प्रकार बताया है मालामालकी त्रास सूत्रं बुद्धिस्थीकृत्य तत्पाठनियम विनापि तद्व्याख्यानं भाष्यम्। यद्वा सूत्रव्याख्यानान्तरमनुपजीव्य तद्व्याख्यानं भाष्यम्, कि र _ व्याख्यानान्तरमुपजीव्य सूत्रव्याख्यानं वृत्तिः। इस प्रकार अधिकतर विद्वानों का यह मत है कि पारिभाषिक दृष्टि से भाष्य के प्रथम लक्षण के अनुसार भाष्य न होने पर भी द्वितीय लक्षण के अनुसार पदार्थधर्मसंग्रह का भाष्यत्व सिद्ध होता है। पदार्थधर्मसंग्रह नाम पड़ने के कारण इसका भाष्यत्व निरस्त नहीं होता। नामान्तर से निर्देश भाष्यत्व का व्याघात नहीं करता। व्याकरण महाभाष्य के आरम्भ में उसका ‘शब्दानुशासन’ नाम से उल्लेख होने पर भी जैसे वह भाष्य से बहिर्भूत नहीं होता, वैसे ही पदार्थधर्मसंग्रह कहने से भी इस ग्रन्थ का भाष्यत्व निरस्त नहीं होता। व्योमवती में भी प्रशस्तपाद की इस कृति के लिए भाष्य तथा पदार्थधर्मसंग्रह शब्दों का प्रयोग किया गया है। न्यायकन्दली तथा किरणावली में भी ऐसा ही कहा गया है। किरणावलीकार ने ‘संग्रह’ का लक्षण करते हुए यह भी कहा है - विस्तरेणोपदिष्टानामर्थानां सूत्रभाष्ययोः। निबन्धो यस्समासेन, संग्रहं तं विदुर्बुधाः।। उपस्कारकर्ता शंकरमिश्र ने पदार्थधर्मसंग्रह का निर्देश प्रकरण शब्द से भी किया है। प्रकरण का लक्षण इस प्रकार है शास्त्रैकदेशसम्बद्धं शास्त्रधर्मान्तरे स्थितम्।। आहुः प्रकरणं नाम ग्रन्थभेदं विपश्चितः।। किन्तु किरणावलीकार के अनुसार प्रकरण एकदेशीय होते हैं, अतः उदयनाचार्य पदार्थसंग्रह को प्रकरण नहीं मानते। न्यायकन्दली, उपस्कार, सम्मतितर्कप्रकरण, प्रमेयकमलमार्तण्ड, न्यायकुमुदचन्द्र, तत्त्वसंग्रहपंजिका आदि में प्रशस्तपाद के ग्रन्थ का उल्लेख पदार्थप्रवेशक, पदार्थप्रवेश आदि न १. पदार्थधर्माणां संग्रह इति निबन्धकारैर्विस्तारोक्तानां संक्षेपेणाभिधानम्, व्योमवती पृ. २०, ३३ २. अन्यत्र ग्रन्थे विस्तरेण इतस्ततः अभिहितानाम् इह एकत्र तावतामेव पदार्थानां ग्रन्थे संक्षेपेणाभिधानम्, न्या. क. पृ.६ ३. शास्त्रे नानास्थानेषु वितताः एकत्र संकलय्य कथ्यन्ते स संग्रहः, किरणावली, पृ.५ निजात है १६७ वैशेषिक दर्शन का सामान्य परिचय नामों से भी उपलब्ध होता है। नयचक्र, उसकी व्याख्या, प्रमाणसमुच्चयव्याख्या, विशालामलवती तथा बौद्धभारती ग्रन्थमाला में मुद्रित तत्त्वसंग्रहपंजिका के वैशेषिक मत-परीक्षा, विशेष परीक्षा तथा समवायपरीक्षा सम्बन्धी विश्लेषणों में जितने अंश भाष्य से उद्धृत बताये गये हैं उतने अंश प्रशस्तपादभाष्य में उपलब्ध नहीं हैं। कुछ अंश हैं, कुछ नहीं हैं। अतः ऐसा प्रतीत होता है कि प्रशस्तपाद ने दो ग्रन्थ लिखे थे- एक विस्तृत व्याख्या और दूसरा पदार्थधर्मसंग्रह। इससे यह भी सिद्ध होता है कि प्रशस्तमति भी इनका ही नाम था। और यह भी माना जा सकता है कि प्रशस्तपाद ने एक तो वैशेषिक सूत्रों का भाष्य लिखा और दूसरा वैशेषिक मतसंग्राहक ग्रन्थ लिखा, जो पदार्थ-धर्म-संग्रह नाम से प्रख्यात हुआ। अब जो ग्रन्थ उपलब्ध है, वह प्रशस्तपादभाष्य तथा पदार्थधर्मसंग्रह दोनों नामों से प्रसिद्ध है। इस भाष्य में निरूपित प्रमुख विषयों का विवरण इस प्रकार है- भार थाम मा [ द्रव्यों की गणना, द्रव्यों का साधर्म्य-वैधर्म्य, पृथ्वी आदि का स्वरूप, सृष्टिसंहारविधि, गुण, गुण-साधर्म्य-वैधर्म्य, पाकजोत्पत्ति, संख्या, विपर्यय, अनध्यवसाय, स्वप्न आदि का निरूपण। प्रमाणों का विश्लेषण बुद्धि के अन्तर्गत किया गया है। इन प्रतिपाद्य विषयों की सूची के आधार पर भी यह कहा जा सकता है कि यह ग्रन्थ सूत्रों का क्रमिक भाष्य नहीं अपि त यह वैशेषिक के मन्तव्यों का एक व्यवस्थित और क्रमबद्ध संक्षिप्त विश्लेषण है। * भाष्यकर्ता प्रशस्तपादाचार्य प्रशस्त, प्रशस्तदेव, प्रशस्तवरण, प्रशस्तमति नामों से भी अभिहित किये जाते हैं। बोधायनसूत्र के प्रवराध्याय के आंगिरसगण में समाहित शारद्वतगण में प्रशस्त का समावेश किया गया है। अन्य लोगों का यह मत है कि प्रवररत्नग्रन्थ में आंगिरसगण के गौतमवर्ण में प्रशस्त का निर्देश है। उदयनाचार्य, श्रीधर, शंकरमिश्र आदि का यह विचार है कि कणाद-प्रशस्तवाद में गौतम-वात्स्यायन के समान परमर्षित्व तथा कपिल, पञ्चशिख आदि के समान आचार्यत्व है। वसुबन्धु ने प्रशस्तपाद-भाष्य का खण्डन किया है। न्यायभाष्य में प्रशस्तपाद द्वारा उल्लिखित सिद्धान्तों का वर्णन है।
१.२.२ प्रशस्तपाद का समय
प्रशस्तपाद के समय के विषय में विद्वानों में ऐकमत्य नहीं है। एच. उई के अनुसार इनका समय धर्मपाल तथा परमार्थ के समय के आधार पर निश्चित किया जा सकता है, क्योंकि दोनों ने प्रशस्तपादभाष्य के आधार पर वैशेषिक के मन्तव्यों का उल्लेख करके उनका खण्डन किया है। बोदास प्रभृति विद्वानों के अनुसार प्रशस्तपाद वात्स्यायन से पूर्ववर्ती हैं। वात्स्यायन का समय रान्डले तीसरी शती, विद्याभूषण, राधाकृष्णन् और कीथ चौथी शती, एवं पाटर, फ्राउवाल्नर और बोदास पाँचवीं शती मानते हैं। न्यायभाष्य में कौटिल्य (३२७ ई.) के अर्थशास्त्र और पतञ्जलि १५० ई. पू. के महाभाष्य के उद्धरण तथा नागार्जुन (३०० ई.) के मत का खण्डन है तथा दिङ्नाग (५०० ई.) ने वात्स्यायन की आलोचना की है, अतः वात्स्यायन का समय लगभग ४०० ई. के आसपास है। जबकि फैडेशन आदि का यह विचार है कि वात्स्यायन प्रशस्तपाद के पूर्ववर्ती हैं। किन्तु कीथ ने गीकन न्याय-खण्ड , काली प्रशस्तपाद को दिङ्नाग का परवर्ती माना जबकि प्रो. शेरवात्स्की और प्रो. ध्रुव ने प्रशस्तपाद को दिङ्नाग से पूर्ववर्ती सिद्ध किया है। प्रमाणसमुच्चय के टीकाकार जिनेन्द्र बुद्धि ने प्रमाण समुच्चय में संकेतित कतिपय कथनों को प्रशस्तमति द्वारा उक्त बताया है। इस प्रकार यदि प्रशस्तपाद तथा प्रशस्तमति एक ही व्यक्ति हैं तो निश्चित रूप से यह कहा जा सकता है कि प्रशस्तपाद दिङ्नाग के पूर्ववर्ती हैं। कतिपय विद्वानों का कथन है कि प्रशस्तपाद दिङ्नाग के पूर्ववर्ती हैं। कतिपय विद्वानों का कथन है कि यद्यपि दिइनाग ने कहीं स्पष्टतः प्रशस्तपाद का उल्लेख नहीं किया, फिर भी उनके द्वारा संकेतित पूर्वपक्षों में प्रशस्तपाद की छाया सी प्रतीत होती है। दिङ्नाग का समय लगभग ४८० ई. माना जाता है। ना काम मला अब भी प्रशस्तपाद के समय के सम्बन्ध में आधुनिक विद्वानों में बड़ा मतभेद बना हुआ है। उनका समय राधाकृष्णन् चतुर्थ शती, कीथ पञ्चम शती, फाउबाल्नर छठी शती मानते हैं। हमारे विचार में प्रशस्तपाद का समय चतुर्थ शती का उत्तर भाग या पंचम शती का पूर्व भाग मानना अधिक तर्कसम्मत है। कमिटिका gf निशुर तणाव १.२.३ प्रशस्तपाद या प्रशस्तमति की वाक्यनाम्नी टीकाIELITER HAL प्रशस्तपाद तथा प्रशस्तमति नामों के समान वाक्यनाम्नी टीका और प्रशस्तमतिटीका के बारे में अभी तक भी बड़ा भ्रम व्याप्त है। कहा जाता है कि कणादप्रणीत वैशेषिक सूत्र पर वाक्य या प्रशस्तमति नामक संक्षिप्त व्याख्यान अथवा संक्षिप्त भाष्यग्रन्थ लिखा गया था, जिसकी रचना प्रशस्तमति ने की थी या जिस पर प्रशस्तमति ने टीका लिखी थी। टीका का नाम वाक्य या प्रशस्तमति था। इसका आधार इस प्रकार बनाया जाता है कि शान्तरक्षित ने तत्त्वसंग्रह में ईश्वर के विभुत्व और सर्वज्ञान के संदर्भ में विशेष पदार्थ का निरूपण किया है तथा कमलशील ने ‘तत्त्वसंग्रहव्याख्यापञ्जिका’ में प्रशस्तमति के मत का खण्डन किया है। नयचक्र तथा नयचक्रव्याख्या में जो भाष्यवचन उद्धृत किए गए हैं, वे प्रशस्तपादभाष्य में उपलब्ध नहीं हैं। जिनेन्द्रबुद्धि द्वारा दिङ्नाग के प्रमाणसमुच्चयों पर रचित ‘विशालामलवती’ नामक व्याख्या में भी जो भाष्यवचन उद्धृत किये गये हैं, वे प्रशस्तपादभाष्य में नहीं मिलते। इससे यह सिद्ध होता है कि प्रशस्तपादरचित भाष्य पदार्थधर्मसंग्रह के अतिरिक्त कोई अन्य भाष्य भी था, जो कि प्रशस्तपाद अथवा प्रशस्तमति नामक किसी अन्य आचार्य ने लिखा था। प्रशस्तमति को कुछ विद्वान् प्रशस्तपाद से भिन्न व्यक्ति मानते हैं, किन्तु अधिकतर विद्वानों का यह मत है कि ये दोनों नाम एक ही व्यक्ति के थे। ले किन यति जैनाचार्य मल्लवादी के नयचक्र से यह भी ज्ञात होता है कि वैशेषिक सूत्रों पर रचित ‘वाक्य’ नाम की इस संक्षिप्त व्याख्या में सूत्र तथा वाक्य साथ-साथ लिये गये थे।
१.२.३ प्रशस्तपादभाष्य का प्रतिपाद्य
प्रशस्तपादभाष्य का अध्याय आदि के रूप में विभाजन नहीं है। प्रशस्तपाद ने कहीं-कहीं कणाद के सूत्रों का उल्लेख करते हुए और कहीं-कहीं सूत्रों के स्थान पर उनके भाव का ग्रहण करते हुए अपने ढंग से ही वैशेषिक भाष्य के कलेवर को प्रतिष्ठापित किया mm30 वैशेषिक दर्शन का सामान्य परिचय १६६ है। वैशेषिक दर्शन में आचार्य प्रशस्तपाद के मन्तव्यों, महत्त्व और योगदान का उल्लेख संक्षेप में इस प्रकार है- माजशाम हुन्नी १. वैशेषिक दर्शन के मुख्य मन्तव्यों का व्यवस्थित प्रस्तुतीकरण। DE | लि २. वैशेषिक के छः पदार्थों की स्पष्ट व्याख्या। ३. कणाद द्वारा उल्लिखित सत्रह गुणों के स्थान पर चौबीस गुणों का उल्लेख। ४. बुद्धि के अन्तर्गत वैशेषिकसम्मत प्रमाणों का सन्निधान और निरूपण। । ५. अपेक्षाबुद्धि से संख्या की उत्पत्ति तथा संख्या के विनाश का विश्लेषण। त्य ६. परिमाण के भेद तथा उत्पत्ति का निरूपण। – ७. पाकज रूप का निरूपण तथा पीलपाकवाद का विश्लेषण। TOSF ८. सृष्टि एवं प्रलय का विश्लेषण।’ की जमकर शिकांड ६. परमाणु से व्यणुक आदि की उत्पत्ति का विश्लेषण। कि शारजाहर..? १०. धर्म-अधर्म तथा बन्ध और मोक्ष का विश्लेषण। DEOPPIPाग १६.९ 5318.5 किलोगहर मजिजाऊ ११. शब्द का विशद विश्लेषण। NTARNAD मोकण आता मानक
१.२.४ प्रशस्तपादभाष्य की टीकाएँ और उपटीकाएँ
वैशेषिक दर्शनसम्बन्धी वाङ्मय में वैशेषिक सूत्र से भी अधिक प्रसिद्धि प्रशस्तपाद भाष्य की हुई। इसका प्रमाण यह है कि इस भाष्य पर एक विपुल टीका-साहित्य की रचना हुई और एक प्रकार से इसी की टीका-प्रटीकाओं के माध्यम से वैशेषिक के मन्तव्यों का क्रमिक विकास व परिष्कार हुआ। नि ना श्रीधर द्वारा रचित न्यायकन्दली की पंजिका नामक टीका में जैनाचार्य राजेश्वर ने प्रशस्तपादीय पदार्थधर्मसंग्रह की चार प्रमुख व्याख्याओं का निर्देश इस प्रकार किया है १. व्योमवती - व्योमशिवाचार्य रचित का जिमालाई गाही २. न्यायकन्दली - श्रीधराचार्यरचित B ३. किरणावली - उदयनाचार्यरचित THISpe गुळ किया ४. लीलावती रमा श्रीवत्साचार्यरचित विचार BORE ba: कीड शासन (FIPRPALES लगा 9. (*) Historical Survey of Indian Logic, R.AS. BP.40 st borps Pisto (ख) प्रशस्तपादभाष्य हिन्दी अनुवाद (श्रीनिवास शास्त्री) पृ. १२ जा लामा गाँध (ग) Introduction to Nyaya Prakash: P XXI लाकोली कसक मित्रारती (घ) Vaisheshik System, P-605 (5) Indian Logic And Atomism. P. 27 E S TRELSTIESE २. द्रष्टव्य- प्रशस्तपादभाष्य हिन्दी अनुवाद, श्रीनिवास शास्त्री पृ. १८जिरा हि का १७० जी न्याय-खण्ड की एकि इनमें से लीलावती के स्थान पर कतिपय विद्वान् श्रीवल्लभाचार्य द्वारा रचित न्यायलीलावती की परिगणना करते हैं। किन्तु न्यायलीलावती एक स्वतंत्र ग्रन्थ है, टीका नहीं। अतः स्थानापन्नता उचित नहीं है। इन चार प्रमुख टीकाओं के अतिरिक्त निम्नलिखित अन्य अवान्तर चार टीकाओं की भी गणना करके कुछ विद्वान् प्रमुख टीकाओं की संख्या आठ मानते हैं १. सेतु - पद्मनाभरचित २. भाष्यसक्तिः -जगदीशरचित KETREER ३. भाष्यनिकषः -कोलाचल मल्लिनाथरचित लीला ४. कणादरहस्यम् -शंकर मिश्ररचित पनि इन टीकाओं में से सर्वाधिक प्राचीन टीका व्योमवती है। इनकी तथा कतिपय अन्य टीकाओं. प्रटीकाओं, वृत्तियों आदि का विवरण आगे यथास्थान दिया जा रहा है।
१.३.० प्रशस्तपादभाष्य की चार प्रमुख टीकाएँ
१.३.१. व्योमशिवाचार्यविरचित व्योमवती
व्योमवती प्रशस्तपादभाष्य की टीका है। इस व्याख्या में यद्यपि वेदान्त और सांख्यमत का भी निराकरण किया गया है, तथापि इसका झुकाव अधिकतर बौद्धमत के खण्डन की ओर है। प्रतीत होता है कि प्रशस्तपादभाष्य की व्याख्या के बहाने व्योमशिवाचार्य द्वारा यह मुख्य रूप से बौद्ध और जैनमत के खण्डन के लिए ही लिखी गई है। Iny इस व्याख्या में कुमारिल भट्ट, प्रभाकर, धर्मकीर्ति, कादम्बरी, श्रीहर्षदेव, श्लोकवार्तिक, प्रमाणवार्तिक आदि का उल्लेख तथा मण्डन मिश्र और अकलंक के मत का खण्डन उपलब्ध होता है। यद्यपि प्रशस्तपादभाष्यार्थसाधक प्रमाणों का और प्रासंगिक अर्थों का प्रतिपादन अन्य व्याख्याओं में भी उपलब्ध होता है, तथापि ईश्वरानुमान जैसे संदर्भो में व्योमवती का विश्लेषण भाष्याक्षरों के अनुरूप, किन्तु किरणावली और न्यायकन्दली के विश्लेषण से कुछ भिन्न है। कुछ लोग सप्तपदार्थीकार शिवादित्य और व्योमवतीकार व्योमशिवाचार्य को एक ही व्यक्ति समझते हैं, किन्तु ऐसा मानना उचित नहीं है, क्योंकि सप्तपदार्थी में दिक् के ग्यारह, सामान्य के तीन, प्रमाण के दो (प्रत्यक्ष अनुमान) और हेत्वाभास के छः भेद बताये गये हैं, जबकि व्योमवती में दिक् के दश, सामान्य के दो, प्रमाण के तीन (प्रत्यक्ष-अनुमान-शब्द) और हेत्वाभास के पाँच भेद बताये गये हैं। ) सानु __ यद्यपि बम्बई विश्वविद्यालय में उपलब्ध सप्तपदार्थी की मातृका में यह उल्लेख है कि यह व्योमशिवाचार्य की कृति है। किन्तु अन्यत्र सर्वत्र यह शिवादित्य की ही कृति मानी गई है। अतः दोनों का पार्थक्य मानना ही अधिक संगत है। तमाम वैशेषिक दर्शन का सामान्य परिचय १७१ व्योमशिवाचार्य शैव थे। श्रीगुरुसिद्ध चैतन्य शिवाचार्य से दीक्षा ग्रहण करने के अनन्तर यह व्योमशिवाचार्य नाम से विख्यात हुए। इन्होंने भर्तृहरि, कुमारिल, धर्मकीर्ति, प्रभाकर और हर्षवर्धन का उल्लेख किया है। अतः इनका समय सप्तम-अष्टम शताब्दी माना जा सकता है। 5 कर
१.३.१.१ व्योमशिवाचार्य का समय
REFE R ENTINE उपर्युक्त रूप से कुछ लोगों का यह कथन है कि कादम्बरी, श्रीहर्ष और देवकुल का निर्देश करने के कारण व्योमाशिवाचार्य हर्षवर्धन (६०६-६४५ ई.) के समकालीन हैं, किन्तु अन्य लोगों का यह विचार है कि मण्डन मिश्र और अकलंक के मोक्ष विषय के विचारों का खण्डन करने के कारण यह ७००-६०० ई. के बीच विद्यमान रहे होंगें। वी. वरदाचारी इनका समय ६००-६६० ई. मानते हैं। अन्य कई विद्वान् इनका समय ६८० ई. मानते हैं। _संक्षेप में मेरी दृष्टि से यही मानना अधिक उपयुक्त है कि व्योमशिव किरणावलीकार से पूर्ववर्ती तथा मण्डन मिश्र और अकलंक से उत्तरवर्ती काल (७००-६००ई.) में हुए।
१.३.१.२ व्योमशिवाचार्य का मत
कणाद और प्रशस्तपाद प्रत्यक्ष और अनुमान इन दो प्रमाणों को मानते हैं, किन्तु व्योमाशिवाचार्य ने शब्द को भी प्रमाण माना है। इनके प्रमाणत्रय सिद्धान्त का उल्लेख शंकराचार्य ने सर्वदर्शनसिद्धान्तसंग्रह में किया है। अतः इस दृष्टि से तो यह शंकर के पूर्ववर्ती हैं, किन्तु सर्वदर्शनसिद्धान्तसंग्रह प्रामाणिक रूप से शंकराचार्यरचित नहीं माना जा सकता। व्योमशिवाचार्य द्वारा काल को अतिरिक्त द्रव्य मानने के सम्बन्ध में जैसी युक्तियाँ दी गई हैं, वैसी ही किरणावली में भी उपलब्ध होती हैं। न्यायकन्दली और लीलावती में भी इनके मत की समीक्षा की गई है। व्योमवती के सृष्टिसंहारनिरूपण सम्बन्धी भाष्य से उद्धृत ‘वृतिलब्ध’ पद की व्याख्या के अवसर पर ‘व्युत्पतिर्लब्धायैरिति’ इस व्युत्पत्ति की जो असंगति दिखाई गई है, उसका खण्डन कन्दली में उपलब्ध होता है। इसके अतिरिक्त उदयनाचार्य किरणावली में, वर्धमान किरणावलीप्रकाश में, तथा श्रीधर कन्दली में ‘कश्चित्’ ‘एके’, ‘अन्ये’ आदि शब्दों से भी व्योमवतीकार का उल्लेख करते है। अतः यह स्पष्ट रूप से प्रमाणित होता है कि प्रशस्तपादभाष्य की उपलब्ध व्याख्याओं में व्योमवती सर्वाधिक प्राचीन है। महिलाविरकाशाली जातिको
१.३.२.० श्रीधराचार्यरचित न्यायकन्दली
१.३.२.१ परिचय
_ प्रशस्तपाद के पदार्थधर्मसंग्रह पर श्रीधराचार्य द्वारा रचित व्याख्या न्यायकन्दली के नाम से प्रख्यात है। न्यायकन्दली पर कई उपटीकाएँ लिखी गईं, जिनमें जैनाचार्य राजशेखर द्वारा रचित न्यायकन्दलीपंजिका और पद्मनाभ मिश्र द्वारा रचित न्यायकन्दलीसार प्रमुख हैं। १७२ हान्याय-खण्ड क न्यायकन्दली के पुष्पिकाभाग में श्रीधर ने अपने देश-काल के सम्बन्ध में कुछ विवरण दिया है। तदनुसार उनके जन्मस्थान के सम्बन्ध में यह माना जाता है कि वह बंगाल प्रान्त में आधुनिक हुगली जिले के राढ़ क्षेत्र के भूरिश्रेष्ठ नामक गाँव में उत्पन्न हुए थे। उनका समय ६८१ ई. माना जाता है। श्रीधर के पिता का नाम बलदेव तथा माता का नाम अब्बोका था। उनके संरक्षक तत्कालीन शासक का नाम नरचन्द्र पाण्डुदास था। श्रीधर ने उनके अनुरोध पर ही ६६१ ई. में न्यायकन्दली की रचना की थी। कार्ल एच. पाटर ने भी इस तथ्य का उल्लेख किया है। श्रीकृष्ण मिश्र ने अपने प्रबोधचन्द्रोदय नाटक में राठापुरी और भूरिश्रेष्ठिक का उल्लेख किया, जो कि महामहोपाध्याय फणिभूषण तर्कवागीश प्रभृति विद्वानों के अनुसार श्रीधर के निवासस्थान से ही सम्बद्ध है।
१.३.२.२ श्रीधरविरचित ग्रन्थ
मा का शिका _गोपीनाथ कविराज के मतानुसार श्रीधर ने चार ग्रन्थ लिखे थे। उन्होंने स्वयं इन कृतियों के संकेत न्यायकन्दली में दिये हैं। फिी विकरात गृह (क) अद्वयसिद्धि; (वेदान्तदर्शन पर) का गाँध Sणा कि (ख) तत्त्वप्रबोध; (मीमांसा पर) शीर.६.१ (ग) तत्त्वसंवाहिनी; (न्याय पर) जाना जाता एक (घ) न्यायकन्दली; (पदार्थधर्मसंग्रह पर) शामर कि किस न्यायकन्दली टीका का दूसरा नाम संग्रहटीका भी है, किन्तु वी. वरदाचारी के अनुसार संग्रहटीका व्योमवती का अपर नाम है, न कि न्यायकन्दली का। कविराज का यह भी कथन है कि न्यायकन्दली कश्मीर में प्रख्यात थी, मिथिला में विद्वज्जन उसका उपयोग करते थे। किन्तु बंगाल में उसका उपयोग नहीं के बराबर हुआ। जिस क न्यायकन्दली का प्रचार दक्षिण में पर्याप्त रूप से हुआ। अतः कतिपय लोगों ने श्रीधर के नाम के साथ भट्ट जोड़ कर इनको दक्षिण देशवासी बताने का प्रयास किया, किन्तु आचार्य श्रीधर द्वारा स्वयं ही अपने जन्म-स्थान का उल्लेख कर देने के कारण यह कल्पना स्वयं ही असंगत सिद्ध हो जाती है। जिला PER लापता Pळ - श्रीधर नाम के अन्य भी कई आचार्य हो चुके हैं, यथा भागवत तथा विष्णुपुराण के टीकाकार श्रीधर स्वामी, किन्तु वह कन्दलीकार श्रीधर से भिन्न थे। पाटीगणितम् के रचयिता भी कोई श्रीधर हैं, किन्तु न्यायकन्दली में पाटीगणितम् का उल्लेख न होने के कारण वह १. न्यायपरिचय, पृ. ७२. २. (क) विस्तरस्त्वद्वयसिद्धौ द्रष्टव्यः, न्या. क. पृ. ११, १६७ Pop Biri (ख) मीमांसासिद्धान्तरहस्यं तत्त्वप्रबोधे कथितमस्माभिः, न्या. क. पृ. ३४७ (ग) प्रपञ्चितश्चायमर्थोऽस्माभिस्तत्त्वप्रबोथे तत्त्वसंवादिकायाञ्चेति, न्या. क. पृ. १८७ (घ) तस्य विषयापहारनान्तरीयकं स्यादिति कृतं ग्रन्थविस्तरेण संग्रहटीकायाम्, न्या. क., पृ. २७७ ३. Encyclopaedia of Indian Philosophies: Polter, P.485MPOEFITS FRIEN वैशेषिक दर्शन का सामान्य परिचय १७३ भी कन्दलीकार श्रीधर नहीं थे। इस सन्दर्भ में पाटीगणितम् की भूमिका में श्री सुधाकर द्विवेदी ने दोनों के एक ही व्यक्ति होने के संबन्ध में जो मत व्यक्त किया है, उसकी पुष्टि नहीं होती, अतः वह हमारे विचार में ग्राह्य नहीं है। श्रीधर ने इस ग्रन्थ में धर्मोत्तर, उद्योतकर, मण्डन मिश्र आदि आचार्यों तथा अद्वयसिद्धि, स्फोटसिद्धि, ब्रह्मसिद्धि आदि ग्रन्थों का उल्लेख किया है तथा महोदय शब्द के विश्लेषण के प्रसंग में बौद्धों और जैनों का, संख्यानिरूपण के प्रसंग में विज्ञानवादी बौद्धों का, संयोग के निरूपण के अवसर पर सत्कार्यवाद का और वाक्यार्थप्रकाशकत्व के प्रसंग में स्फोटवाद का खण्डन किया है।
१.३.२.३ न्यायकन्दली की टीकाएँ-प्रटीकाएँ
श्री विन्ध्येश्वरी प्रसाद द्विवेदी ने (सटीक प्रशस्तपादभाष्यविज्ञापन पृ. १६) में श्रीधर और उदयन के पौर्वापर्य पर विचार करते हुए यह लिखा कि उदयनाचार्य बुद्धिनिरूपण पर्यन्त किरणावली टीका का निर्माण कर स्वर्गवासी हो गये। तब श्रीधर ने न्यायकन्दली के रूप में सम्पूर्ण भाष्य पर टीका की। इस प्रकार उदयन, श्रीधर के पूर्ववर्ती सिद्ध होते हैं, किन्तु इस संदर्भ में अन्य विद्वान् एकमत नहीं हैं। - FIRS _श्रीनिवास शास्त्री का यह कथन है कि इन दोनों के अनुशीलन से यह सिद्ध होता है कि किरणावली से पूर्व कन्दली की रचना हुई। न्यायकन्दली की अनेक टीकाएँ और उपटीकाएँ रची गईं, जिनमें जैन आचार्य राजशेखर की न्यायकन्दलीपंजिका और पद्मनाभ मिश्र का न्यायकन्दलीसार प्रमुख है। (क) पद्मनाभ मिश्रविरचित न्यायकन्दलीसार
- कन्दलीसार की रचना पद्मनाभ मिश्र ने की। उनके पिता का नाम श्रीबलभद्र मिश्र तथा माता का नाम विजयश्री था। ऐसा प्रतीत होता है कि पद्मनाभ ने अपने गुरु श्रीधराचार्य से साक्षात् रूप में न्यायकन्दली का अध्ययन करने के अनन्तर कन्दली के सारतत्त्व का वर्णन करने के लिए कन्दलीसार नामक टीका लिखी।’ (ख) राजशेखरसूरिविरचित न्यायकन्दलीपञ्जिका की का कि न्यायकन्दली पर पञ्जिका नाम की एक टीका जैनाचार्य राजशेखर सूरि ने १३४८ ई. में लिखी थी। गायकवाड़ सीरीज से प्रकाशित ‘वैशेषिकसूत्रम्’ के अष्टम परिशिष्ट में पञ्जिका के प्रारम्भिक तथा अन्तिम अंश उद्धृत किये गये हैं। राजशेखर सूरि ही सम्भवतः मलधारि सूरि के नाम से भी विख्यात थे। इन्होंने रत्नवार्तिकपञ्जिका, स्याद्वादकारिका जैसे अन्य ग्रन्थों की भी रचना की। EिD कारक शिक्षा की विधि कालमा १. उपदिष्टा गुरुवरैरस्पृष्टा वर्धमानाद्यैः। ताकि ली शाकीर निशान के कन्दल्याः साराास्तन्यन्ते पद्मनाभेन ।। न्यायकन्दलीसारः, पृ. ४ जिजामती (-कीर १७४ और न्याय-खण्ड की (ग) नरचन्द्रसूरिविरचित न्यायकन्दलीटिप्पणिका 2200 इस टिप्पणिका के रचयिता नरचन्द्रसूरि हैं। (इसकी पाण्डुलिपि सरस्वतीभवन पुस्तकालय में ग्रन्थांक ३४१४८ पर उपलब्ध है।) न्यायकन्दलीटिप्पणिका के अन्त में इन्होंने यह कहा कि कन्दली की व्याख्या उन्होंने आत्मस्मृति के लिए की है। वह आत्मस्मृति को ही मोक्ष मानते थे। तथा जा पृथ्वीधरः सकलतर्कवितर्कसीमाधीमान् जगौ यदिह कन्दलिकारहस्यम्। शला व्यक्तीकृतं तदखिलं स्मृतिबीजबोधप्रारोहणाय नरचन्द्रमुनीश्वरेण। तर इनका समय ११५० के आसपास माना जाता है। कार Dists
१.३.३.० उदयनाचार्यविरचित किरणावली
१.३.३.१ उदयनाचार्य का समय
न्याय के समान वैशेषिक में भी उदयनाचार्य का अपना विशिष्ट महत्त्व है। उदयनाचार्य ने स्वयं लक्षणावली के निर्माणकाल का उल्लेख करते हुए यह कहा है तर्काम्बरांकप्रमितेष्वतीतेषु शकान्ततः। की वर्षेषूदयनश्चक्रे सुबोधां लक्षणावलीम्।। अतः उनका समय ६०६ शक अर्थात् ६८४ ई. माना जा सकता है। इस पाठ के आधार पर वह श्रीधर के कुछ पूर्ववर्ती या समकालीन सिद्ध होते हैं। यद्यपि इस उद्धरण को कुछ विद्वान् प्रक्षिप्त मानते हैं, फिर भी इसकी चर्चा म.म. गोपीनाथ कविराज जैसे अनेक आधुनिक विद्वानों ने भी सहमतिपूर्वक की है। उदयन का जन्म मिथिला में कनका नदी के तीर पर स्थित मगरौनी ग्राम में हुआ था। डी.सी. भट्टाचार्य का यह कथन है कि उपर्युक्त पाठ शुद्ध नहीं है। वह उदयनाचार्य का समय ६७६ शक अर्थात् १०५४ ई. मानने के पक्ष में हैं। उनका तर्क यह है कि उदयन के साथ श्रीहर्ष के पिता का शास्त्रार्थ हुआ था। श्रीहर्ष का समय ११२५ से ११५० के बीच है। उनके पिता का शास्त्रार्थ उदयन के साथ तभी सम्भव माना जा सकता है, जबकि उदयनाचार्य का समय ११ वीं शती का उत्तरार्ध माना जाए। यह तो प्रसिद्ध है कि श्रीहर्ष ने अपने पिता की हार का बदला चुकाने के लिए खण्डनखण्डखाद्य में उदयन के मत का खण्डन किया।
१.३.३.२ उदयनाचार्य के ग्रन्थ
उदयनाचार्य ने न्यायशास्त्र पर न्यायवार्तिकतात्पर्यटीकापरिशद्धि, न्यायकसमाञ्जलि, आत्मतत्त्वविवेक जैसे सुप्रसिद्ध ग्रन्थ लिखे और बौद्ध दार्शनिकों से शास्त्रार्थ करके न्यायदर्शन को प्रतिष्ठापित किया। वैशेषिक दर्शन के संदर्भ में उदयनाचार्य के दो ग्रन्थ प्रसिद्ध हैं—(१) किरणावली तथा (२) लक्षणावली। किरणावली प्रशस्तपादभाष्य की प्रौढ वैशेषिक दर्शन का सामान्य परिचय १७५ व्याख्या है और लक्षणावली एक स्वतंत्र वैशेषिक ग्रन्थ। किरणावली बुद्धिप्रकरण तक ही प्रकाशित हुई है। इस पर कई व्याख्याएँ लिखी गईं, जिनमें से वर्धमान का किरणावली प्रकाश और पद्मनाभ मिश्र का किरणावली-भाष्कर प्रसिद्ध है।
१.३.३.३ किरणावली का वैशिष्टय
किरणावली प्रशस्तपादभाष्य की एक महत्त्वपूर्ण व्याख्या है। इसमें क्षणभंगवाद, परिणामवाद, आरम्भवाद, सांख्यमत, चार्वाकमत, अयोद्वाद तथा मीमांसक मत का खण्डन किया गया है। इसमें विभाग निरूपण के अवसर पर भासर्वज्ञ के मत का तथा निरूपण के अवसर पर भूषणकार के मतों का निर्देश उपलब्ध होता है।
१.३.३.४ किरणावली की टीका-प्रटीकाएँ
राज किरणावली प्रशस्तपादभाष्य की बहुत प्रौढ व्याख्या है। इसमें वैशेषिक के सिद्धान्तों को बड़े पाण्डित्यपूर्ण ढंग से स्पष्ट किया गया है। यह बुद्धिप्रकरण पर्यन्त ही उपलब्ध होती है। इस पर अनेक व्याख्याएँ लिखी गईं, जिनमें वर्धमान का किरणावलीप्रकाश तथा पद्मनाभ मिश्र का किरणावलीभाष्कर प्रसिद्ध है।
(क) किरणावली-प्रकाश
आज इसके रचयिता वर्धमानोपाध्याय हैं। वर्धमानोपाध्याय ने इस व्याख्या में मीमांसकों, वेदान्तियों, बौद्धों आदि के मतों का खण्डन तथा अन्वीक्षातत्त्वबोध, न्यायनिबन्धप्रकाश, आत्मतत्त्वविवेक जैसे ग्रन्थों एवं अपने पितृचरण के रूप में गङ्गेशोपाध्याय का उल्लेख किया है। वर्धमानोपाध्याय का समय १४०० ई. माना जाता है।
(ख) विवेकाख्या किरणावलीप्रकाशव्याख्या
महादेव मिश्र के पुत्र एवं हरिमिश्र के शिष्य पक्षधर मिश्र द्वारा विवेकाख्या एक व्याख्या किरणावलीप्रकाश पर लिखी गई थी, जिस पर पक्षधर मिश्र के शिष्य हरिदत्त मिश्र ने ‘किरणावलीप्रकाशव्याख्याविवृति’ लिखी, जो कि द्रव्यगुणपर्यन्त ही मुद्रित है। इसी प्रकार पक्षधर के एक अन्य शिष्य भगीरथ ठक्कुर (१५११ई.) ने भी भावप्रकाशिका नाम की एक व्याख्या की रचना की। मथुरानाथ तर्कवागीश (१६०० ई.) ने भी रहस्यनाम्नी एक व्याख्या किरणावलीप्रकाश पर लिखी। रघुनाथ शिरोमणि (१४७५ ई.) द्वारा भी दीधिति नाम्नी एक व्याख्या किरणावलीप्रकाश पर रची गई। मथुरानाथ ने दीधिति की व्याख्या विवृत्ति के रूप में की। रधुनाथशिरोमणि के शिष्य देवीदास के पुत्र, रामकृष्ण भट्टाचार्य ने किरणावलीप्रकाशदीधिति पर प्रकाशाख्या व्याख्या की रचना की। रुद्रन्यायवाचस्पति (१७०० ई.) ने किरणावलीप्रकाशदीधिति की परीक्षाख्या व्याख्या लिखी। इसी प्रकार मधुसूदन ठक्कुर के शिष्य गुणानन्द ने भी किरणावलीप्रकाश पर तात्पर्यसंदर्भा व्याख्या लिखी। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि किरणावलीप्रकाशव्याख्या पर एक अच्छे उपटीका-साहित्य की रचना हुई।१७६ कति a l PIES एजोर न्याय-खण्ड काधिक
(ग) किरणावलीव्याख्या-रससार
यह किरणावली के गुणखण्ड का व्याख्या-ग्रन्थ है। इसके आत्मविचारप्रकरण में श्रीधराचार्य का तथा पृथ्वीनिरूपणप्रकरण में भूषणकार का उल्लेख मिलता है। इसकी रचना शंकरकिंकर अपर नाम से ख्यातवादीन्द्र गुरु (१२००-१३०० ई.) ने की। रससारनाम्नी यह किरणावलीव्याख्या रायल एशियाटिक सोसाइटी ग्रन्थमाला तथा सरस्वती भवन ग्रन्थमाला में प्रकाशित है। रामतर्कालंकार के पुत्र श्री रधुनाथ शिरोमणि के शिष्य और तत्त्वचिन्तामणि के व्याख्याकार, मथुरानाथ तर्कवागीश द्वारा (१६०० ई.) भी रहस्याख्या किरणावली व्याख्या की रचना की गई। _न्यायरहस्य के रचयिता जगदीश भट्टाचार्य के गुरु, भवनाथ के पुत्र, रामभद्रसार्वभौम ने भी किरणावलीगुणखण्डव्याख्या रहस्याख्या लिखी। इसकी भी सारमञ्जरीनाम्नी व्याख्या माधवदेव भट्टाचार्य (१७०० ई.) ने लिखी थी। सारमञ्जरी की भी व्याख्या लक्ष्मण के शिष्य, किसी अज्ञातनामा व्यक्ति द्वारा लिखी गई, जो कि तजौर पुस्तकालय में उपलब्ध है।
१.३.३.४ उदयनाचार्यरचित लक्षणावली
उदयनाचार्य द्वारा रचित इस ग्रन्थ में भाव और अभाव के भेद से पदार्थों का विभाग किया गया है। भाव के अन्तर्गत (9) द्रव्य (२) गुण (३) कर्म (४) सामान्य (५) विशेष और (६) समवाय नामक छः पदार्थों की गणना करके अभाव को अलग से पदार्थ माना गया है और उसके प्रागभाव, प्रध्वंसाभाव, अत्यन्ताभाव और अन्योन्याभाव नामक चार भेद माने गये हैं। लक्षणावली वैशेषिक दर्शन का एक प्रौढ़ और स्वतन्त्र ग्रन्थ है। लक्षणावली पर जो व्याख्याएँ लिखी गई हैं उनका विवरण इस प्रकार है- IS (क) लक्षणावली न्यायमुक्तावली- इस टीका के रचयिता शेष शागधर का समय मा १५०० ई. माना जाता है। सन् १६०० ई. में इसको सम्पादित कर वाराणसी से प्रकाशित किया गया। जमी Supp मान का (ख) लक्षणावलीप्रकाश - आचार्य विश्वनाथ झा द्वारा रचित इस टीका का प्रकाशन का दरभंगा से १८२२ शक (१८६७ ई.) में हुआ। जीन गरी मन का के रामा (ग) लक्षणावलीप्रकाश- सरस्वती भवन पुस्तकालय के पाण्डुलिपि विभाग में सुरक्षित का इस टीका के लेखक महादेव हैं। ) श शि TERRलिकाकी
१.३.४ वत्साचार्यकत लीलावती
लीलावती नाम से दो ग्रन्थों का प्रचलन हुआ, श्रीवत्साचार्यकृत लीलावती तथा श्री वल्लभाचार्यकृत न्यायलीलावती। न्यायकन्दली के व्याख्याता राजशेखर जैन ने श्री वत्साचार्य का उल्लेख किया। इसके अतिरिक्त उदयनाचार्य ने भी न्यायवार्तिक तात्पर्यटीकापरिशुद्धि (२-१-५८ ३-१-२७ और ५-२-११) में श्रीवत्साचार्य के मत का उल्लेख किया है। इससे यह स्पष्ट होता है कि इस नाम के कोई आचार्य हुए थे, किन्तु उन्होंने लीलावती नाम का वैशेषिक दर्शन का सामान्य परिचय ৭৩৩ जो ग्रन्थ लिखा था, वह अब उपलब्ध नहीं है। परिशुद्धि के द्वितीयाध्याय के आरम्भ में उपलब्ध निम्नलिखित श्लोक के आधार पर कतिपय विद्वान् श्रीवत्साचार्य को उदयनाचार्य का गुरु मानते हैं। मानाका मला शिका संशोध्य दर्शितरसा मरुकूपरूपाःनकामना .. जा ही सात टीकाकृतः प्रथम एव गिरो गभीराः। कि चमका तीन तात्पर्यता यदधुना पुनरुद्यमो नःमत्रो का सामान हातमा किमाना श्रीवत्सवत्सलतयैव तथा तथापि॥ महाकाल (इस आधार पर यह माना जा सकता है कि श्रीवत्साचार्य उदयनाचार्य से पहले हुए थे। किन्तु उपर्युक्त कथनों को कतिपय अन्य विद्वान् प्रामाणिक नहीं मानते और श्रीवत्स का समय १०२५ ई. बताते हैं। वस्तुतः श्रीवत्साचार्यरचित लीलावती वल्लभाचार्यरचित न्यायलीलावती से भिन्न है। हाँ ऐसे विद्वानों की भी कमी नहीं है जो पदार्थधर्मसंग्रह की प्रमुख चार टीकाओं में वल्लभाचार्यकृत न्यायलीलावती की ही परिगणना करते हैं, न कि श्री वत्साचार्यकृत लीलावती की। किन्तु ऐसा मानना तर्कसंगत नहीं है। वस्तुतः न्यायलीलावती । भाष्य का व्याख्यान नहीं, अपितु एक स्वतंत्र ग्रन्थ है, जबकि श्री वत्साचार्यकृत लीलावती प्रशस्तपादभाष्य का व्याख्यान है, जो कि अब उपलब्ध नहीं है। न्यायलीलावती का परिचय आगे यथास्थान दिया जा रहा है।
१.३.५ पदार्थधर्मसंग्रह पर रचित चार अन्य अवान्तर टीकाएँ
कालक्रम के अनुसार यद्यपि निम्नलिखित चार टीकाएँ वैशेषिक के प्रकीर्ण साहित्य में परिगणित की जा सकती हैं। किन्तु प्रशस्तपादभाष्य की प्रमुख आठ टीकाओं में इनकी गणना के कारण इनका परिचय यहीं पर दिया जा रहा है।
१.३.५.१ पद्मनाभरचित सेतु टीका
यह टीका पद्मनाभ मिश्र ने लिखी है। पद्नाभ मिश्र का समय १८०० ई. माना जाता है। पद्मनाभ मिश्र ने न्यायकन्दली पर भी टीका लिखी है, अतः इस टीका पर न्यायकन्दली का भी प्रभाव परिलक्षित होता है। उदाहरणतया तमस् के द्रव्यत्व के खण्डन के प्रसंग में पद्मनाभ ने सेतु टीका में उदयन के मत का खण्डन तथा श्रीधर के मत का समर्थन किया है। यह टीका द्रव्यपर्यन्त मिलती है। सेतु टीका में पद्मनाभ मिश्र ने ऐसे २३ तत्त्व गिनाये, हैं, जिन्हें पदार्थ मानने का कई पूर्वपक्षी आग्रह करते हैं। किन्तु पद्मनाभ ने उनका खण्डन करके सात ही पदार्थ हैं, यह मत परिपुष्ट किया है। गायक
१.३.५.२. जगदीश तर्कालंकाररचित भाष्यसूक्ति
पदार्थधर्मसंग्रह पर सूक्तिनाम्नी इस टीका की रचना जगदीश तर्कालंकार द्वारा की गई। जगदीश का समय १७०० ई. है। यह टीका भी द्रव्यपर्यन्त ही उपलब्ध होती है। इस है १७८ न्याय-खण्ड Meri पीडित पर न्यायकन्दली का प्रभाव भी परिलक्षित होता है। अभाव के पदार्थत्व के संदर्भ में जगदीश ने कन्दलीकार और किरणावलीकार के मतों की पारस्परिक तुलना की है। जगदीश ने न्यायवैशेषिक का एक प्रसिद्ध ग्रन्थ तर्कामृत भी लिखा, जिसमें न्याय के पदार्थों का वैशेषिक के पदार्थों में अन्तर्भाव दिखाया गया है।
१.३.५.३. कोलाचल मल्लिनाथसूरिविरचित भाष्यनिकष
तार्किकरक्षा की मल्लिनाथ द्वारा रचित टीका निष्कण्टका से ज्ञात होता है कि पदार्थ धर्मसंग्रह पर भी कोलाचल मल्लिनाथ ने भाष्यनिकष नाम की टीका लिखी थी, किन्तु वह टीका अब उपलब्ध नहीं है। यत्र-तत्र उसका उल्लेख मिलता है। इस टीका का नाम निष्कण्टका भी है। मल्लिनाथ आन्ध्रप्रदेश में प्रो. देवराय(१४१६ई.) के समकालीन थे। उन्होंने अमरकोश, रघुवंश, किरातार्जुनीय, तन्त्रवार्तिक, नैषधीयचरित, तार्किकरक्षा, भट्टिकाव्य आदि पर टीकाए लिखी।
१.३.५.४. शंकर मिश्ररचित कणादरहस्य
किसानीलाम उपस्कारवृत्ति के रचयिता शंकर मिश्र (१४००-१५००ई.) ने कणादरहस्य नाम की एक टीका भी लिखी थी। इसमें प्रतिपादित विभागज विभाग के संदर्भ में शंकर मिश्र ने श्रीधर और उदयन दोनों के मत प्रस्तुत किये हैं। कि
१.४.० वैशेषिक के प्रकीर्ण ग्रन्थ
जैसा कि पहले भी कहा जा चुका है, वैशेषिक सिद्धान्तों की परम्परा अतिप्राचीन है। महाभारत आदि ग्रन्थों में भी इसके तत्त्व उपलब्ध होते हैं। महात्मा बुद्ध और उनके अनुयायियों के कथनों से भी यह प्रमाणित होता है कि सिद्धान्तों के रूप में वैशेषिक का प्रचलन ६०० ई. से पहले भी विद्यमान था। महर्षि कणाद ने वैशेषिक सूत्रों का ग्रंथन कब किया ? इसके संबन्ध में अनुसन्धाता विद्वान् किसी एक तिथि पर अभी तक सहमत नहीं । हो पाये, किन्तु अब अधिकतर विद्वानों की यह धारणा बनती जा रही है कि कणाद महात्मा बुद्ध के पूर्ववर्ती थे और सिद्धान्त के रूप में तो वैशेषिक परम्परा अति प्राचीन काल से हा चला आ रहा होता किती महिला बाप
- वैशेषिक दर्शन पर उपलब्ध भाष्यों में प्रशस्तपादभाष्य का स्थान अतिमहत्त्वपूर्ण है। किन्तु कणाद-प्रशस्तपाद के समय के लम्बे अन्तराल में और प्रशस्तपाद के बाद भी बहुत से ऐसे भाष्यकार या व्याख्याकार हुए, जिनके ग्रन्थ अब उपलब्ध नहीं हैं। यत्र-तत्र उनके जो संकेत या अंश उपलब्ध होते हैं, उनके आधार पर विभिन्न अनुसन्धाताओं ने जिन कतिपय कृतियों की जानकारी या खोज की है, उनका संक्षिप्त रूप से उल्लेख करना यहाँ अप्रासंगिक न होगा। असंदिग्ध प्रमाणों की अनुपलब्धता के कारण इनमें से कई ग्रन्थों के रचनाकाल आदि का विभिन्न विद्वानों ने संकेत मात्र किया है। हम भी यहाँ ऐसी कृतियों का केवल सामान्य ढंग से संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत कर रहे हैं। काम SPEEPSE P O UR वैशेषिक दर्शन का सामान्य परिचय १७६
१.४.१ आत्रेय भाष्य
आत्रेय भाष्य नाम से भी वैशेषिक सूत्रों का एक व्याख्यान था। मिथिला विद्यापीठ से प्रकाशित अज्ञातकर्तृक वैशेषिकसूत्रवृत्ति में, वादिराज के ‘न्यायविनिश्चयविवरण’ में श्रीदेव के ‘स्याद्वादरत्नाकर’ में, गुणरत्न के ‘षड्दर्शनसमुच्चय’ में, हरिभद्रसूरि की ‘षड्दर्शनसमुच्चयवृत्ति’ में तथा भट्टवादीन्द्र के ‘कणादसूत्रनिबन्ध’ में आत्रेय भाष्य का उल्लेख है। शंकर मिश्र ने वृत्तिकार के नाम से जिस मत का उल्लेख किया है, मिथिलावृत्ति में उसको आत्रेय का मत बताया गया है। आत्रेय का कोई विशिष्ट मत था, यह बात इससे सिद्ध होती है कि इनके व्याख्यान का उल्लेख ‘आत्रेयतन्त्र’ के नाम से किया गया है, किन्तु अब यह भाष्य उपलब्ध नहीं है।
१.४.२ कटन्दीव्याख्या : रावणभाष्य
वैशेषिक सूत्रों पर कटन्दी नाम की कोई टीका लिखी गई थी। अष्टम-नवम शताब्दी में मुरारि कवि द्वारा विरचित ‘अनर्घराघव’ नाटक के पंचम अंक में रावण के मुख से यह कहलाया गया है कि वह वैशेषिक कटन्दी पण्डित है। अनर्घराघव के व्याख्याकार रुचिपति उपाध्याय ने कटन्दी को रावण की रचना बताया है। किन्तु किस रावण ने यह व्याख्या लिखी ? यह भी एक ऐसा प्रश्न है, जिस पर विद्वानों का गहन मतभेद है। किसी के विचार में लंकापति रावण और किसी के मत में रावण नाम का कोई अन्य व्यक्ति इसका रचयिता है। किरणावलीभास्कर में पद्मनाभ मिश्र ने उदयनाचार्य के-‘सूत्रे वैशद्याभावात् भाष्यस्य विसारत्वात्’- इस कथन का विश्लेषण करते हुए यह कहा कि उदयनाचार्य द्वारा उल्लिखित भाष्य, रावण द्वारा रचित था, किन्तु नयचक्र में तथा नयचक्रवृत्ति में कटन्दी को एक टीका कहा गया है, जिससे यह भी आभासित होता है कि कटन्दी रावणकृत भाष्य का नाम भी हो सकता है और उस भाष्य की टीका का नाम भी। हाँ, इससे इतना संकेत मिलता है कि वैशेषिक सूत्र का कोई एक भाष्य था, व्याख्याग्रन्थ था, उसका नाम कटन्दी था। अब वह उपलब्ध नहीं है। वह बहुत विस्तृत था तथा प्रशस्तपादभाष्य से भिन्न था। उसमें उद्धृत वचन प्रशस्तपादभाष्य में नहीं मिलते। ‘अन्ये तु प्रधानत्वात् आत्ममनःसन्निकर्षप्रमाणमाद्दुः’ -दिङ्नाग के प्रमाणसमुच्चय में समागत इस कथा की विशालामलवती में व्याख्या करते समय अन्ये का आशय रावण आदि बताया गया। इसी प्रकार नयचक्र में तथा त ब्रह्मसूत्र शांकरभाष्य की गोविन्दानन्दरचित व्याख्या-रत्नप्रभा में भी रावणप्रणीत भाष्य का । उल्लेख है। यथा गिजाका कि
- “द्वाभ्यां द्वय्णुकाभ्याम् आरब्धकार्ये महत्त्वं दृश्यते। तस्य हेतुः प्रचयो नामक प्रशिथिलावयवसंयोग इति रावणप्रणीतभाष्ये दृश्यत इति चिरन्तनवैशेषिकदृष्ट्या इदमभिहितम्।” प्रकटार्थविवरण में भी यह कहा गया है कि १. विमलावती, पृ.१६४ यी कलाकार जमाए । १८० न्याय-खण्ड हि “रावणप्रणीते भाष्ये यद् द्वाभ्यां द्वय्णुकाभ्याम् आरब्धे कार्ये पा.४.. जा यत् महत्त्वम् उत्पद्यते तस्य प्रचयः समवायिकारणमित्युक्तम्।” किरणावली में उदयनाचार्य द्वारा उल्लिखित भाष्य पद्मनाभ मिश्र की दृष्टि से भी रावणभाष्य ही है। इस प्रकार अनर्घराघव में प्रमाणसमुच्चय की व्याख्या विशालामलवती में, रत्नप्रभा में, प्रकटार्थविवरण में, तथा किरणावलीभास्कर में उपर्युक्त रूप से जिस कटन्दी भाष्य का उल्लेख है, उसको अधिकतर विद्वान् लंकापति रावणकृत भाष्य मानते हैं, किन्तु कुछ अन्य बिद्वानों के अनुसार रावण कटन्दी का पण्डित था, न कि कटन्दी का रचयिता। फिर भी, किसी विद्वान् या लंकापति रावण ने वैशेषिक सूत्र पर भाष्य लिखा था, इस बात से अधिकतर विद्वान् सहमत हैं।
१.४.३. चन्द्रमति (मतिचन्द्र) कृत दशपदार्थशास्त्र (दशपदार्थी)
प्रशस्तपादभाष्य को आधार रखते हुए चन्द्रमति या मतिचन्द्र ने दशपदार्थशास्त्र की रचना की थी। फ्राउवाल्नर प्रभृति विद्वानों के अनुसार इनका नाम चन्द्रमति है किन्तु उई प्रभृति विद्वान् चन्द्रमति की अपेक्षा मतिचन्द्र नाम को अधिक ग्राह्य मानते हैं। इनका समय ७०० ई. से पूर्व माना जाता है। चन्द्रमति या मतिचन्द्र द्वारा रचित इस ग्रन्थ में द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, समवाय और विशेष इन छ: पदार्थों के अतिरिक्त शक्ति, अशक्ति, सामान्य-विशेष, और अभाव इन चार अन्य का भी पदार्थों में परिगणन किया गया है। इनका यह मन्तव्य है कि जैसे भाव पदार्थों के विरोध में अभाव का पदार्थत्व है, उसी प्रकार शक्ति के अभाव रूप में अशक्ति को पदार्थ माना जाना चाहिए। (यह ग्रन्थ मूलरूप में उपलब्ध नहीं है, किन्तु इसका एक चीनी अनुवाद मिलता है, जिसका संस्कृत अनुवाद गंगानाथ झा अनुसंधान पत्रिका के १६वें अंक में प्रकाशित हुआ है।) इस ग्रन्थ के अतिरिक्त किसी भी अन्य ग्रन्थ में दश पदार्थों की चर्चा नहीं है।
१.४.४ तरणिमिश्रविरचित रत्नकोश
पाया जा रत्नकोश नामक ग्रन्थ भी अभी तक उपलब्ध नहीं हुआ है। इसके लेखक का भी कोई विवरण उपलब्ध नहीं होता, किन्तु कतिपय संदर्भो और आलोचना-प्रसंगों में जैसे कि रुचिदत्त मिश्र ने तत्त्वचिन्तामणिप्रकाश में तथा गदाधर ने शक्तिवाद में रत्नकोशकार का नाम तरणि मिश्र बताया है। प्राचीन न्याय-वैशेषिक के अनेक आचार्यों ने इसके अनेक सिद्धान्तों का खण्डन-मण्डन किया है, जिससे यह सिद्ध होता है कि रत्नकोश एक सुप्रसिद्ध ग्रन्थ था। हो जाऊत १. रत्नप्रभा, ब्र. सू. भा. २. २. ११ २. श्रीनिवास शास्त्री प्रशस्तपादभाष्य हिन्दी अनुवाद, पृ. १८१ है שה वैशेषिक दर्शन का सामान्य परिचय तिक मणिकण्ठ मिश्र (१२०० ई.) ने न्यायरत्न में, गंगेशोपाध्याय (१३०० ई.) ने तत्त्वचिन्तामणि में तथा द्वितीयवाचस्पति मिश्र (१४५०) ने तत्त्वालोक में रत्नकोश का उल्लेख किया है। हरिराम तर्कवागीश ने तो रत्नकोशविचार नाम का एक स्वतन्त्र ग्रन्थ भी लिखा है। इस प्रकार मूलरूप में उपलब्ध न होने पर भी प्रायः इस ग्रन्थ की चर्चा की जाती है और इसके उद्धरणों का समादरपूर्वक उल्लेख किया जाता है।
१.४.५. उद्योतकर विरचित भारद्वाजवृत्ति
शंकर मिश्र ने उपस्कार में धर्म के लक्षण का निरूपण करते हुए किसी वृत्तिकार के आशय को उद्धृत किया है। शंकर मिश्र ने जिस वृत्ति का उल्लेख किया, वह भारद्वाजकृत वृत्ति है। यह विचार न्याय-कन्दली की भूमिका में श्रीविन्ध्येश्वरी प्रसाद शास्त्री ने भी व्यक्त किया है। न्यायवार्तिक के रचयिता उद्योतकर का वैशेषिक में भी समान अधिकार था। वैशेषिक के रूप में भी उद्योतकर की ख्याति है। तत्कालीन अपव्याख्यानों से उद्विग्न होकर ही सम्भवतः उद्योतकर ने यह वृत्ति लिखी थी। न्यायवार्तिक में वैशेषिक सूत्र का यत्र तत्र पर्याप्त उल्लेख है। अतः ऐसा प्रतीत होता है कि उद्योतकर भारद्वाज ने ही यह वृत्ति लिखी होगी। भारद्वाज उद्योतकर का गोत्रनाम था। उद्योतकर का समय ६०० शती ई. माना जाता है।
१.४.६ चन्द्रानन्दवृत्ति
चन्द्रानन्द द्वारा रचित वैशेषिकसूत्रव्याख्या चन्द्रानन्दवृत्ति के रूप में प्रचलित हुई। चन्द्रानन्द ने वैशेषिक सूत्र का जो पाठ अपनाया है, वह शंकरमिश्र स्वीकृत मिथिला विद्यापीठ के पाठ से तथा वाराणसी एवं कलकत्ता आदि से प्रकाशित सूत्रपाठों से बहुत भिन्न है। चन्द्रानन्द व्याख्या में वैशेषिक सूत्र के अन्तिम तीन अध्यायों में आहूनिकों का विधान नहीं है। चन्द्रानन्द का समय ७०० ई. बताया जाता है। इस वृत्ति में वार्त्तिककार उद्योतकर का नामतः उल्लेख किया गया है।’
१.४.७ वरदराजविरचित तार्किकरक्षा
तार्किकरक्षा के रचयिता वरदराज का समय १०५० ई. के आसपास माना जाता है। वरदराज ने तार्किकरक्षा पर सारसंग्रह नाम की एक स्वोपज्ञटीका भी लिखी। तार्किकरक्षा पर विष्णु स्वामी के शिष्य ज्ञानपूर्ण ने लघुदीपिका तथा मल्लिनाथ ने निष्कण्टका नामक टीका लिखी थी। माधवाचार्य १४वीं शती द्वारा विरचित सर्वदर्शनसंग्रह में भी वरदराज का उल्लेख है। वरदराज का वैशिष्ट्य यह है कि इन्होंने वैशेषिकसूत्रपरिगणित पदार्थो का प्रमेय में अन्तर्भाव करके उनका विश्लेषण किया है। इस ग्रन्थ में तीन परिच्छेद हैं। पहले में प्रमाण लक्षण, दूसरे में जाति के भेद, और तीसरे में निग्रहस्थान और उसके भेदों का निरूपण किया गया है। तार्किकरक्षा में वरदराज ने इस बात का विश्लेषण करने का प्रयास किया AID १. द्र. चन्द्रानन्दवृत्ति, ग. ओ.सी.नं.१३६,बड़ौदा मीर शन्याय-खण्ड गिट्रिक है कि द्रव्य-गुणो आदि पदार्थों का ज्ञान मोक्षप्राप्ति का साधन नहीं है, अतः गौतम ने उनका विस्तृत निरूपण नहीं किया। for४१) मी कोठामा लगानीका
१.४.८ शिवादित्यरचित सप्तपदार्थी
सप्तपदार्थी के रचयिता शिवादित्य का समय ६५०-१०५० ई. माना जाता है। वैशेषिकसम्मत छः पदार्थों के अतिरिक्त अभाव को सातवाँ पदार्थ निरूपित कर शिवादित्य ने वैशेषिकों के चिन्तन में एक क्रान्तिकारी परिवर्तन किया। पदार्थ-संख्या के संबन्ध में सूत्रकार कणाद और भाष्यकार प्रशस्तपाद के मत का अतिक्रमण करके शिवादित्य ने अपने मत की स्थापना की। वैशेषिक सूत्र में तीन और न्यायसूत्र में परिगणित पाँच हेत्वाभासों के स्थान पर शिवादित्य ने छः हेत्वाभास माने। प्रशस्तपाद ने दश दिशाओं का निर्देश किया, जबकि सप्तपदार्थी में दिशाओं की संख्या ग्यारह बताई गई है। इसी प्रकार कई अन्य सिद्धान्तों के प्रवर्तन में भी शिवादित्य ने अपने मौलिक विचारों का उद्भावन करके वैशेषिक के आचार्यों में अपना एक विशिष्ट स्थान बनाया है। तत्त्वचिन्तामणि के प्रत्यक्षखण्ड के निर्विकल्पक-प्रकरण में गंगेश ने शिवादित्य का उल्लेख किया और खण्डनखण्डखाद्य के प्रमाणलक्षण के विश्लेषण के अवसर पर शिवादित्य के लक्षणों की समीक्षा की। यह शिवादित्य के महत्त्व को प्रतिपादित करता है। आज भी वैशेषिक के जिन ग्रन्थों के पठन-पाठन का अत्यधिक प्रचलन है, उनमें सप्तपदार्थी प्रमुख हैं। सप्तपदार्थी पर अनेक टीकाएँ लिखी गईं, जिनमें से कुछ इस प्रकार हैं १. जिनवर्धनी- वाग्भटालंकार के व्याख्याता जिन राजसूरि के शिष्य अनादितीर्थापरनामा, जिनवर्धन सूरि (१४१८ ई.) ने इस टीका की रचना की। मितभाषिणी-सप्तपदार्थी पर माधवसरस्वती (१५०० ई.) द्वारा रचित इस मितभाषिणी व्याख्या में वैशेषिक के मन्तव्यों का संक्षिप्तीकरण किया गया है। ३. पदार्थचन्द्रिका-शेष शार्ङ्गधर के आत्मज शेषानन्ताचार्य (१६०० ई.) द्वारा सप्तपदार्थी पर पदार्थचन्द्रिकानाम्नी एक टीका लिखी गई। ४. शिशुबोधिनी-भैरवेन्द्र नाम के किसी आचार्य ने सप्तपदार्थी पर शिशुबोधिनी नामक टीका लिखी।
१.४.९ वल्लभाचार्यरचित न्यायलीलावती
शकि- न्यायलीलावती वल्लभाचार्य (११७५ ई.) कृत एक स्वतन्त्र ग्रन्थ है। इसमें वैशेषिक मला १. मोक्षे साक्षादनङ्गत्वादक्षपादैर्न लक्षितम्। ता. र. मी पनि हिरो २. जिनंवर्धनी; लालभाई ग्रन्थ दलपत भाई ग्रन्थमाला सं.१ में प्रकाशित भाची महाल मितमाषिणी; विजयनगर ग्रन्थमाला सं.६ में प्रकाशित पदार्थचन्द्रिका; कलकत्ता से.सी.नं.८ में प्रकाशित शिशुबोधिनी; क.सं.सी.सं.८ में प्रकाशित हि. हिना २. नमिता है वैशेषिक दर्शन का सामान्य परिचय -१८३ के सिद्धान्तों का बड़ी प्रौढि के साथ निरूपण किया गया है। इसमें विभाग, वैधर्म्य, साधर्म्य और प्रक्रिया नामक चार परिच्छेद हैं, जिनको सत्ताईस प्रकरणों में विभक्त किया गया है। उद्देश, लक्षण और परीक्षा नामक तीन शास्त्रप्रवृत्तियों में से इसमें परीक्षा नामक प्रवृत्ति के विश्लेषण पर अधिक बल दिया गया है। प्रत्येक विषय पर विचार के अन्त में सम्बन्धित प्रकरण का सार पद्यबद्ध रूप में प्रस्तुत किया गया है। EN विद्याभूषण प्रभृति विद्वानों का यह मत है कि न्यायलीलावतीकार वल्लभाचार्य और शुद्धादैत मत के प्रवर्तक वल्लभाचार्य दो विभिन्न व्यक्ति थे। गंगेश की तत्त्वचिन्तामणि में हेतुद्वय का खण्डन किया गया है। अतः न्यायलीलावती और तत्त्वचिन्तामणि में पूर्वापरता दिखाई देती है। गंगेशोपाध्याय के पुत्र बर्धमानोपाध्याय ने न्यायलीलावती पर प्रकाश नाम की व्याख्या लिखी, अतः यह स्पष्ट है कि न्यायलीलावती का न्याय और वैशेषिक दोनों दर्शनों के पूर्वाचार्यों ने भी बड़ा महत्त्व माना है। मापन जीका वल्लभाचार्य ने छः ही पदार्थ माने तथा अभाव, तमस्, ज्ञातता, सादृश्य आदि के पदार्थत्व का खण्डन किया। न्यायलीलावती में उदयनाचार्य, भासर्वज्ञ, श्रीधर तथा कुमारिल भट्ट आदि के मतों का खण्डन किया गया है। इस ग्रन्थ में आचार्य वाचस्पति मिश्र, धर्मकीर्ति, व्योमशिवाचार्य, चरकाचार्य आदि आचार्यों का तथा कर्नाटक, काश्मीर, वाराणसी आदि नगरों का भी उल्लेख है। श्रीवल्लभ ने ईश्वरसिद्धि नामक एक अन्य ग्रन्थ की भी रचना की थी, किन्तु वह अब उपलब्ध नहीं है। वल्लभाचार्य ने उदयनाचार्य (१० शती) का उल्लेख किया और चित्सुखाचार्य (१२०० ई.) तथा वादीन्द्र १२२५ ई. ने वल्लभाचार्य का उल्लेख किया। अतः श्रीवल्लभाचार्य का समय बारहवीं शती का पूर्वार्द्ध सिद्ध होता है। न्यायलीलावती पर आचायों ने अनेक टीकाएँ लिखीं, उनमें से कुछ के नाम निम्नलिखित हैं १. न्यायलीलावतीप्रकाश ARE - वर्धमान उपाध्याय सचिमचाकर २. न्यायलीलावतीविवेक पक्षधर मिश्र ३. न्यायलीलावतीकण्ठाभरण - शंकर मिश्र ४. न्यायलीलावतीवर्धमानेन्दु भारत वाचस्पति मिश्र द्वितीय ५. न्यायलीलावतीविभूति नाम रधुनाथ शिरोमणि भारता, ६. न्यायलीलावतीप्रकाश रामकृष्ण भट्टाचार्य की बार ७. न्यायलीलावतीरहस्यफक्किका - मथुरानाथ तर्कवागीश काम-का ८. न्यायलीलावतीदर्पण वटेश्वरोपाध्याय १. न्यायलीलावती की टीकाओं में से न्यायलीलावतीविवेक (पक्षधर मिश्र) और न्यायलीलावतीरहस्य (मथुरानाथ) अभी अमुद्रित हैं। इनकी पाण्डुलिपियाँ लन्दन पुस्तकालय में उपलब्ध हैं। १८४ न्याय-खण्ड Foगत कानि रविरचित मानमनोहर नामा
१.४.१० वादिवागीश्वरविरचित मानमनोहर
मानमनोहर के रचयिता वादिवागीश्वराचार्य का समय लगभग ११००-१२०० ई. माना जा सकता है। यह शाक्तवाममार्गी थे। इन्होंने न्यायलक्ष्मीविलास नामक एक अन्य ग्रन्थ कभी लिखा था, जो कि अब उपलब्ध नहीं है। मानमनोहर नामक ग्रन्थ में व्योमशिवाचार्य, न्यायलीलावतीकार श्रीवल्लभाचार्य, न्यायकन्दलीकार श्रीधराचार्य, भासर्वज्ञ, आनन्दबोध आदि आचार्यों का उल्लेख है। जबकि चित्सुखाचार्य ने इनके मत का खण्डन किया है, अतः मानमनोहर के निर्माता वादिवागीश्वराचार्य चित्सुख (१२००-१३०० ई.) के पूर्ववर्ती सिद्ध होते हैं। इस ग्रन्थ का प्रकाशन षड्दर्शन-ग्रन्थमाला वाराणसी से हुआ। तमा तिक या इस ग्रन्थ में निम्नलिखित दस प्रकरण हैं- सिद्धि, द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष, समवाय, अभाव, पदार्थान्तरनिरास तथा मोक्ष। इसमें बौद्धमत का खण्डन करते हुए अनुमानप्रधान युक्तियों से ईश्वर, अवयवी और परमाणु की सिद्धि की गई है। इसमें आत्मनिरूपण के संदर्भ में आत्मा के ज्ञानाश्रयत्व का प्रतिपादन और अद्वैतमतसिद्ध “ज्ञानात्मैकत्ववाद तथा अखण्डत्ववाद का खण्डन किया गया है। _मानमनोहर में दो ही प्रमाण स्वीकार किये गये हैं और वेद को पौरुषेय बताया गया है। वादिवागीश्वर ने माता-पिता के ब्राह्मणत्व को पुत्र के ब्राह्मणत्व का नियामक माना है। मानमनोहर में अप्रमा के दो भेद बताये गये हैं—(क) निश्चयात्मक और (ख) अनिश्चयात्मक, तथा संशय आदि का इन्हीं में अन्तर्भाव बताया गया है। वादिवागीश्वराचार्य ने सभी पदार्थों की सिद्धि अनुमान से की है। इनकी अनुमान-प्रवणता का इनके उत्तरवर्ती अद्वैती आचार्य आनन्दानुभव ने पदार्थतत्त्वनिर्णय तथा न्यायरत्नदीपावली में एवं चित्सुखाचार्य ने तत्त्वप्रदीपिका में उपहासपूर्वक खण्डन किया है। मानमनोहर में शक्ति, सादृश्य, प्रधान और तमस् के पदार्थत्व का खण्डन किया गया है। ‘नीलं तमः’ जैसे अनुभव को भ्रम की संज्ञा देते हुए वादिवागीश्वर कहते हैं कि यह उपचार मात्र है।
१.४.११ वादीन्द्रभट्ट (शंकरकिंकर) विरचित कणादसूत्रनिबन्धवृत्ति
न्यायसार के व्याख्याकार राघव भट्ट के गुरु, श्रीसिंहराज सभा के धर्माध्यक्ष, महाविद्याविडम्बन के रचयिता, योगेश्वर के शिष्य, तथा वादीन्द्रभट्ट उपनाम से विख्यात शंकरकिंकर नामक आचार्य ने वैशेषिक सूत्र पर व्याख्या लिखी थी, जिसका नाम कणादसूत्र-निबन्धवृत्ति था। इनका समय १३वीं शती के आसपास माना जाता है। है १. क. कणादसूत्रनिबन्धवृत्ति की अपूर्ण प्रतियाँ मद्रास तथा बड़ौदा पुस्तकालयों में उपलब्ध हैं। ख. J.O.I. Baroda, Volex, No-1, PP. 22-31 वैशेषिक दर्शन का सामान्य परिचय १८५
१.४.१२ अज्ञातकर्तृक मिथिलावृत्ति
वैशेषिक सूत्र पर अनेक वृत्तिग्रन्थ उपलब्ध होते हैं। मिथिला विद्यापीठ ग्रन्थमाला (सं. ५) में नवम अध्याय के पहले आह्निक तक किसी अज्ञात व्यक्ति द्वारा लिखित एक वृत्ति उपलब्ध होती है। इसमें केवल ३३३ सूत्र हैं, अतः यह अपूर्ण ही कही जा सकती है।
- यह मिथिलावत्तिकार उपस्कारकर्ता शंकर मिश्र से प्राचीन प्रतीत होते हैं, क्योंकि इस वृत्ति में प्रशस्तपाद, उदयनाचार्य, भासर्वज्ञ, मानमनोहरकार वादिवागीश्वर का नामग्रहण पूर्वक उल्लेख मिलता है। यह वृत्ति शंकरंकिंकराभिधान वादीन्द्रभट्टकृत कणादसूत्रनिबन्ध के साथ विषय और भाषा की दृष्टि से साम्य रखती है। अतः ऐसा प्रतीत होता है कि यह वृत्ति वादीन्द्ररचित व्याख्याग्रन्थ का सार है। वादिवागीश्वर का समय आठवीं से बारहवीं शती के बीच माना जाता है। किन्तु कतिपय विद्वानों का यह मत है कि यह वृत्ति चन्द्रानन्दवृत्ति तथा उपस्कार से पूर्व की है। किसी निश्चित लेखक के नाम के अभाव में ग्रन्थमाला के आधार पर इसको मिथिलावृत्ति कहा जाता है। यह ज्ञातव्य है कि एक अन्य वृत्ति वल्लाल सेन (११५८-११७८ ई.) के समय में लिखी गई थी। इसमें भी अन्तिम अध्याय का आनिकों में विभाजन नहीं है।
१.४.१३ शंकरमिश्ररचित उपस्कारवृत्ति
भवनाथ मिश्र और भवानी के पुत्र, श्रीनाथ के भ्रातृव्य, रघुदेवोपाध्याय के शिष्य, शंकरमिश्र (१४००-१५०० ई.) द्वारा रचित उपस्कार नामक वृत्ति काशी संस्कृत ग्रन्थमाला में प्रकाशित हुई, इसमें प्रशस्तदेव, धर्मकीर्ति, दिङ्नाग, उद्योतकर, उदयन, वल्लभाचार्य आदि का निर्देश उपलब्ध होता है। उपस्कार ही वैशेषिक सूत्रों के अध्ययन का प्रमुख आधार है। प्रो. एच. उई का मत है कि यह व्याख्या प्रशस्तपादभाष्य से प्रभावित प्रतीत होती है और कहीं-कहीं यह सूत्र के अभिप्राय से दूर हो गई है। इसमें सूत्रसंख्या ३७० है। उपस्कार में कहीं-कहीं नव्यन्याय की शैली में सूत्रों के अर्थ को स्पष्ट किया गया है। शंकर मिश्र ने वेदान्त पर भी ग्रन्थ लिखे हैं। उपस्कार पर विवृतिनाम्नी एक व्याख्या गौडदेशीय जयनारायण तर्कपञ्चानन ने १८६७ ई. में लिखी।
१.४.१४ पद्मनाभविरचित कणादरहस्यवृत्ति
बलभद्र और विजयश्री के पुत्र, न्यायबोधिनीकार गोवर्धन मिश्र के ज्येष्ठ भ्राता, पद्मनाभ मिश्र (१६०० ई.) द्वारा इस वृत्ति की रचना की गई। किन्तु यह अभी तक अमुद्रित है। शादी का किसान द्र रानी एक जीलो कि ही पाकात की. है १. आड्यार; ब्रह्मविद्यापत्रिका, खण्ड-६, पृ. ३५-४० २. उपस्कार पर विवृतिनाम्नी टीका; बिबलियोथिका इन्डिका ग्रन्थमाला, बी. १३४ में प्रकाशित है। ३. कणादरहस्याख्यावृत्ति की पाण्डुलिपि तञ्जाउर पुस्तकालय में उपलब्ध है।न्याय-खण्ड गोल १८६
१.४.१५ गंगाधरसूरिविरचित सिद्धान्तचन्द्रिकावृत्ति
वाधूलगोत्रोत्पन्न, देवसिंहमखि के पुत्र, विश्वरूपयति के शिष्य, भास्करराय के गुरु तथा तञ्जाउर-अधीश शाहजीनृपति के समकालीन, गंगाधर वाजपेयी नाम से प्रसिद्ध, गंगाधरसूरि (१६५० ई.) द्वारा सिद्धान्तचन्द्रिका नामक वृत्ति की रचना की गई। इसकी एक व्याख्या प्रसादाख्या भी मूलकार के द्वारा रचित है।
१.४.१६ नागोजीभट्टविरचित पदार्थदीपिकावृत्ति
शिवभट तथा सतीदेवी के पुत्र, महाराष्ट्र में उत्पन्न, शृंगिवेरपुराधीश रामवर्मा द्वारा - पोषित, भट्टोजिदीक्षित के पुत्र, हरिदीक्षित के शिष्य, गंगाराम वैद्यनाथ पायगुण्डे बाब शर्मा के गुरु, बालशर्मा के पिता, परिभाषेन्दुशेखर आदि के रचयिता, वैयाकरण नागोजी भट्ट (१६७०-१७५० ई.) द्वारा पदार्थदीपिकाख्या वैशेषिक सूत्रवृत्ति की रचना की गई थी, ऐसा उल्लेख सेन्ट्रल प्राविन्स बरार की पुस्तकसूची में उपलब्ध होता है। माशा ।
१.४.१७ कतिपय अन्य वृत्तियाँ
वैशेषिक दर्शन पर कुछ अन्य आधुनिक वृत्तियाँ भी हैं। तद्यथा- निशा (क) देवदत्त शर्मा (१८६८ ई.) द्वारा रचित भाष्याख्या वृत्ति (मुरादाबाद से मुद्रित). (ख) चन्द्रकान्त तर्कालंकार (१८८७ ई.) द्वारा रचित तत्त्वावलीवृत्ति (चौ. से. मी. ४८ में मुद्रित) झल निराला कार (ग) पञ्चानन तर्कभट्टाचार्य (१४०६ ई.) द्वारा रचित परीक्षावृत्ति (कलकत्ता से मुद्रित) (घ) उत्तमूर वीरराघवाचार्य स्वामी (१६५० ई.) द्वारा रचित रसायनाख्यावृत्ति (मद्रास से मुद्रित) म काका यादी (ङ) चयनी उपनामक (वीरभद्र वाजपेयी के पुत्र) द्वारा रचित नयभूषणाख्यावृत्ति (अपूर्ण का तथा अमुद्रित, मद्रास तथा अड्यार पुस्तकालय में उपलब्ध है) 37 (च) गंगाधर कविरत्न द्वारा संपादित भारद्वाजवृत्ति (त्रुटिपूर्ण, कलकत्ता से प्रकाशित) (छ) काशीनाथ शर्मा द्वारा वेदभास्करभाष्यामिधा वृत्ति (होशियारपुर से मुद्रित) मार
१.४.१८ सर्वदेवविरचित प्रमाणमञ्जरी
इस ग्रन्थ में द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष, समवाय और अभाव का सात प्रकरणों में विश्लेषण किया गया है। इस वैशेषिक ग्रन्थ में भाव और अभाव भेद से पदार्थों का विभाग किया गया है। इसमें छः हेत्वाभास और दो प्रमाण स्वीकार किए गए हैं। अभाव के प्रकारों के निरूपण में इसमें निम्नलिखित रूप से एक नई पद्धति अपनाई गई है HERODE मारकर सिद्धान्तचन्द्रिकावृत्ति तिरुवनन्तपुरम् पुस्तकमाला टी-एस-एस-२५ में मुद्रित है। २. प्रसादाख्या व्याख्या की पाण्डुलिपि आड्यार पुस्तकालय तथा मद्रास राजकीय पुस्तकालय में उपलब्ध है। वैशेषिक दर्शन का सामान्य परिचय र १८७ के फरकाशन PF अभावमा कांश जन्यः की कि महिला कि शिका कीरिक अजन्यः काक डाय(प्रध्वंसः) ESPाम शिल्छाकार शिवाजी पळ सागर SE -मिलान गई कि शाकीजाँट की US न कि गुण जाणा विनाशी सामना किया अविनाशी नारा (प्रागभावः) का FIR किलापलट सिफास्त्रा अधिका Pाणा कला छ- समानाधिकरणनिषेध: । शानिमि असमानाधिकरणनिषेधः । जन इतरेतराभाव:) -ति ।मार जी (अत्यन्ताभाव:) कि इसके रचयिता सर्वदेव का समय पन्द्रहवीं शती से पूर्व माना जाता है। प्रमाणमञ्जरी पर अद्वयारण्य, वामनभट्ट और बलभद्र द्वारा टीकाओं की रचना की गई है। ये टीकाएँ राजस्थान पुरातन ग्रन्थमाला में प्रकाशित हुई हैं।
१.४.१९ रधुनाथ शिरोमणिरचित पदार्थतत्त्वनिरूपणम् (पदार्थखण्डनम्)
रघुनाथ शिरोमणि का जन्म सिलहर (आसाम) में हुआ था। विद्याभूषण के अनुसार इनका समय १४७७-१५५७ ई. है। इनके पूर्वज मिथिला से आसाम में गये थे। इनके पिता का नाम गोविन्द चक्रवर्ती और माता का नाम सीता देवी था। गोविन्द चक्रवर्ती की अल्पायु में ही मृत्यु हो जाने के कारण इनकी माता ने बड़े कष्ट के साथ इनका पालन किया। यात्रियों के एक दल के साथ वह गंगास्नान करने के लिए नवद्वीप पहुँची। संयोगवश उसने वासुदेव सार्वभौम के घर पर आश्रय प्राप्त किया। बासुदेव से ही रघुनाथ को विद्या प्राप्त क हुई। बाद में रघुनाथ ने मिथिला पहुँच कर पक्षधर मिश्र से न्याय का अध्ययन किया। रधुनाथ ने अनेक ग्रन्थों की रचना की- शाकशि १. उदयन के आत्मतत्त्वविवेक और न्यायकुसुमाञ्जलि पर टीका pie २. श्रीहर्ष के खण्डनखण्डखाद्य पराज दीधिति FREMS ३. वल्लभ की न्यायलीलावती पर दीधिति न जाना ४. गंगेश की तत्त्वचिन्तामणि परगना EPIDIगा दीधिति ..१ ५. वर्धमान के किरणावलीप्रकाश पर रधुनाथ सभी विद्यास्थानों में दक्ष थे। उन्होंने अपनी शास्त्रार्थधौरेयता के संबन्ध में जो कथन किये, वे आज भी विद्वद्वर्ग में चर्चा के विषय बने रहते हैं। रधुनाथ द्वारा वैशेषिक दीधिति १८८ को तल्याय-खण्ड की दर्शन पर रचित पदार्थतत्त्वनिरूपण नामक ग्रन्थ पदार्थखण्डनम् तथा पदार्थविवेचनम् के अपर नामों से भी ख्यात है। रधुनाथ ने वैशेषिक के सात पदार्थों की समीक्षा की और विशेष के पदार्थत्व का खण्डन किया। इसी प्रकार उन्होंने नौ द्रव्यों के स्थान पर छः द्रव्य माने। आकाश, काल और दिशा रधुनाथ की दृष्टि में तीन अलग-अलग द्रव्य नहीं, अपितु एक ही द्रव्य के तीन रूप हैं। उन्होंने परमाणु और ट्यणुक की संकल्पना का खण्डन किया और पृथक्त्व, परत्व, अपरत्व और संख्या को गुण नहीं माना।
१.४.१९ वैशेषिकप्रधान प्रकरण-ग्रन्थ
प्रकरण एक विशेष प्रकार के ग्रन्थ होते हैं। इनमें सम्बद्धशास्त्र की समग्र विषयवस्तु का नहीं, अपितु उसके अंशों का ऐसा विश्लेषण किया जाता है जो परम्परा से कुछ भिन्न और नये मन्तव्यों से युक्त भी हो सकता है। न्याय और वैशेषिक के सिद्धान्तों में से कुछ अंशों (शास्त्रैकदेश) को चुनकर रचित प्रकरणग्रन्थों की संख्या पर्याप्त है। प्रायः जिन प्रकरणग्रन्थों में न्याय में परिगणित सोलह पदार्थों में वैशेषिकनिर्दिष्ट सात पदार्थों का रिअन्तर्भाव किया गया है, वे न्यायप्रधान प्रकरणग्रन्थ हैं- जैसे भासर्वज्ञ (१००० ई.) का न्यायसार, वरदराज (१२ वीं शती) की तार्किकरक्षा और केशव मिश्र १३वीं शती की तर्कभाषा, और जिन ग्रन्थों में वैशेषिक के सात पदार्थों में न्याय के सोलह पदार्थों का अन्तर्भाव किया गया है, वे वैशेषिकप्रधान प्रकरण-ग्रन्थ हैं- जैसे अन्नंभट्ट का तर्कसंग्रह, विश्वनाथ पञ्चानन का भाषापरिच्छेद और लौगाक्षिभास्कर की तर्ककौमुदी। यहाँ हम इन्हीं ग्रन्थकारों और ग्रन्थों का संक्षेप में उल्लेख कर रहे हैं यो तो उदयनाचार्य की लक्षणावली और शिवादित्य की सप्तपदार्थी भी प्रकरण-ग्रन्थ ही है। किन्तु उनका उल्लेख प्रकीर्ण ग्रन्थों में पहले कर दिया गया है।
१.४.१९.१ अन्नंभट्टविरचित तर्कसंग्रह
अन्नंभट्ट आन्ध्रप्रदेश के चित्तूर जिले के रहने वाले थे। उन्होंने न्याय और वैशेषिक के पदार्थों का एक साथ विश्लेषण किया और न्याय के सोलह पदार्थों का वैशेषिक के सात पदार्थों में अन्तर्भाव दिखाया। इन्होंने गुण के अन्तर्गत बुद्धि और बुद्धि के अन्तर्गत प्रमाणों का विवेचन किया है। अन्नंभट्ट ने अपने इस ग्रन्थ पर तर्कसंग्रहदीपिकानाम्नी एक स्वोपज्ञ टीका भी लिखी। इस ग्रन्थ पर लगभग पैंतीस टीकाएँ उपलब्ध हैं। अन्नंभट्ट का समय सत्रहवीं शती माना जाता है।
१.४.१६.२ विश्वनाथपञ्चानन-विरचित भाषापरिच्छेद
विश्वनाथ पञ्चानन का जन्म १७वीं शती में नवद्वीप बंगाल में हुआ था। इनके पिता का नाम विद्यानिवास था। यह रघुनाथ शिरोमणि की शिष्य-परम्परा में गिने जाते हैं। इनके द्वारा रचित भाषापरिच्छेद नामक ग्रन्थ कारिकावली अपर नाम से भी विख्यात है। इन्होंने भाषापरिच्छेद पर एक स्वोपज्ञ टीका लिखी, जिसका नाम न्यायसिद्धान्तमुक्तावली है। १८६ जाजा fte वैशेषिक दर्शन का सामान्य परिचय का विश्वनाथ ने सात पदार्थों का परिगणन करके उनमें से द्रव्य के एक भेद आत्मा को बुद्धि का आश्रय बताया। बुद्धि के दो भेद-(१) अनुभूति और (२) स्मृति माने एवं अनुभूति के अन्तर्गत प्रमाणों का निरूपण किया।
१.४.१६.३ लौगाक्षिभास्कर-रचित तर्ककौमुदी
इनका वास्तविक नाम भास्कर और उपनाम लोगाक्षि था। इन्होंने मणिकर्णिका घाट का उल्लेख किया, अतः ऐसा प्रतीत होता है कि यह बनारस में रहते थे। इनका समय १७०० ई. माना जाता है। तर्ककौमुदी ग्रन्थ में इन्होंने द्रव्य, गुण, आदि सात पदार्थों का उल्लेख करके बुद्धि को आत्मा का गुण बताया तथा बुद्धि के दो भेद माने-(१) अनुभव और (२) स्मृति। अनुभव के भी इन्होंने दो भेद माने-(१) प्रमा और (२) अप्रमा। प्रमा के भी दो भेद किये-(१) प्रत्यक्ष और (२) अनुमान। इस प्रकार इन्होंने न्याय के पदार्थों का वैशेषिक के पदार्थों में अन्तर्भाव बताया है।
१.४.२० वेणीदत्तरचित पदार्थमण्डनम्
रधुनाथ शिरोमणि के ग्रन्थ पदार्थखण्डनम् (पदार्थनिरूपणम्) में उल्लिखित सूत्रविरोधी मन्तव्यों में से अनेक मन्तव्यों का खण्डन करते हुए वैशेषिक पदार्थों की मान्यताओं में कतिपय नवीन मन्तव्यों को जोड़ते हुए वेणीदत्त (अठारहवीं शती) ने ‘पदार्थमण्डनम्’ नामक ग्रन्थ की रचना की। इस ग्रन्थ में उन्होंने पदार्थों का जो विश्लेषण किया, उसमें खण्डन-मण्डन ही नहीं, अपितु कई नये तथ्य और मन्तव्य भी प्रस्तुत किये हैं। वेणीदत्त सात नहीं, अपितु द्रव्य, गुण, कर्म, धर्म, और अभाव इन पाँच पदार्थों को मानते हैं। वह गुणों की संख्या भी चौबीस नहीं अपितु उन्नीस मानने के पक्ष में हैं। इनके ग्रन्थ के नाम से प्रतीत तो ऐसा होता है कि वेणीदत्त ने रघुनाथ शिरोमणि के मत का प्रत्याख्यान करने के लिए ग्रन्थ लिखा होगा, पर विशेष को पदार्थ न मानकर इन्होंने रघुनाथ के मत से अपनी सहमति भी प्रकट की है। उन्होंने यह कहा कि वह रघुनाथ के श्रुतिसूत्रविरुद्ध विचारों का खण्डन करते हैं। अतः सभी बातों में उनकी रघुनाथ से असहमति नहीं है। यह ग्रन्थ अठारहवीं शती में लिखा गया था। अतः यह आधुनिक चिन्तन की दृष्टि से भी ध्यान देने योग्य है।
१.५ प्रथमाध्याय का सार व समाहार
वैशेषिक दर्शन के प्रवर्तक महर्षि कणाद द्वारा वर्तमान वैशेषिक सूत्र के संग्रथन का समय भले ही ६०० ई. पू. के आसपास माना जाता हो, किन्तु वैशेषिक शास्त्र की परम्परा अति प्राचीन है। वैशेषिक साहित्य का ज्ञात इतिहास ६०० ई. पूर्व से अठारहवीं शती तक व्यापृत रहा है। इस लम्बी कालावधि में अनेक भाष्यकारों, टीकाकारों, वृत्तिकारों, और प्रकीर्ण ग्रन्थकारों ने वैशेषिक के चिन्तन को आगे बढ़ाया। न्यायवैशेषिक के अनेक आचार्यों कर ने दोनों दर्शनों को समन्वित रूप से प्रस्तुत करने का भी प्रयास किया। वस्तुतः न्याय के १६० शोर न्याय-खण्ड लोक की निति अधिकतर आचार्यों का कहीं न कहीं वैशेषिक का संस्पर्श किये बिना काम नहीं चला, अतः वैसे तो वैशेषिक वाङ्मय में अनेक नैयायिकों और न्याय के ग्रन्थों का भी उल्लेख किया, जाना अपेक्षित है, फिर भी यहाँ हमने केवल उन्हीं नैयायिकों और न्यायग्रन्थों का उल्लेख किया, जो वैशेषिक के चिन्तन से साक्षात् सम्बद्ध हैं। वैशेषिक के भी सभी आचार्यों और ग्रन्थों का समावेश करना इस लघु आलेख में सम्भव नहीं हो पाया। अतः वैशेषिक के ग्रन्थों और ग्रन्थकारों का यह एक संक्षिप्त और सरसरा विवरण है। आगे के अध्यायों में हम वैशेषिक की संकल्पनाओं पर विचार करेंगे।
द्वितीय प्रकरण