नव्यन्याय के क्षेत्र में मिथिला में जैसे सोदरपुरवंश का सर्वाधिक वर्चस्व देखा गया है तथा इनके पुष्कल अवदानों से शास्त्र समृद्ध हुआ है, इसी तरह बंगाल में वासुदेव सार्वभौम के वंशधरों का वर्चस्व मानना होगा। इनके पिता, चाचा, भाई, पुत्र, भतीजा तथा पौत्र आदि ने अपनी कृतियों से इस शास्त्र को पर्याप्त अभिवृद्ध किया है। इन्होंने ‘नास्ति त्रैपुरुषी विद्या’ महाभारत के इस वचन को झूठा सिद्ध कर दिया। हा (१) पञ्चदश शतक के पूर्वार्द्धवर्ती इनके पिता एवं गुरु नरहरि विशारद अपने समय के प्रतिष्ठित नैयायिक हुए हैं। तत्त्वचिन्तामणि की इन्होंने अवश्य व्याख्या की होगी जो उपलब्ध तो नहीं है, किन्तु उसके सन्दर्भ इनके पुत्र एवं पौत्र आदि की कृतियों में उद्धृत हैं। का (२) नव्यन्याय के क्षेत्र में वासुदेव सार्वभौम ही प्रथम बंगाली नैयायिक हैं जिनकी कृति आज उपलब्ध है। तत्त्वचिन्तामणि की परीक्षा नाम की इनकी व्याख्या सरस्वती भवन वाराणसी में तथा अन्यत्र मातृकारूप में उपलब्ध है। पक्षधर प्रसिद्ध जयदेव मिश्र तथा प्रगल्भाचार्य के समसामयिक सार्वभौम ने अपनी कृति में पूर्ववर्ती मैथिल नैयायिक प्रभाकर उपाध्याय, रत्नकोषकार तरणि मिश्र, तत्त्वबोधकार वर्धमान उपाध्याय तथा मिश्र पद से अभिप्रेत वाचस्पति मिश्र आदि के साथ अस्मद्गुरुचरण पद से उक्त नरहरि विशारद का सम्मानपूर्वक उल्लेख किया है। यद्यपि उपर्युक्त तीनों नैयायिकों ने प्रगल्भ मिश्र, पक्षधर मिश्र तथा वासुदेव सार्वभौम ने अपने पूर्वज तथा प्रतिष्ठित नैयायिक प्रभाव्याख्याकार यज्ञपति उपाध याय की मान्यताओं का खण्डन किया है, तथापि इनमें अधिक तीव्र सार्वभौम ही प्रतीत होते हैं। इनके आक्षेप की भाषा अधिक कठोर हो गयी है। यथा ‘तत्को यज्ञपतेरन्यः प्राज्ञम्मन्यो भाषते’ तथा ‘अत्र यज्ञपतिस्तत्प्रतारितश्च’ आदि वाक्य इनके देखे जाते हैं। फलतः यज्ञपति के उत्तरसाधक उनके सुयोग्य पुत्र तथा पक्षधर मिश्र के शिष्य नरहरि उपाध्याय ने अपने दूषणोद्धार में इन तीनों ही प्रतिष्ठित नैयायिकों को आड़े हाथ लिया है। इससे प्रमाणित होता है कि सार्वभौम मैथिल नैयायिकों की कृतियों से पूर्णतः परिचित थे तथा अपने पिता एवं गुरु के प्रति पूरा सम्मान रखते थे। _प्रो. दिनेश भट्टाचार्य ने स्पष्ट प्रतिपादित किया है कि यह प्रवाद सर्वथा निर्मूल है कि वासुदेव सार्वभौम तथा रघुनाथ शिरोमणि ने मिथिला जाकर पक्षधर मिश्र से नव्यन्याय का अध्ययन किया था। किन्तु म.म. (डा.) उमेश मिश्र ने अपने हिस्ट्री ऑफ इण्डियन १. द्रष्टव्य, बने नव्यन्यायचर्चा पृ. ३६ INISHAplie बङ्गाल की नव्यन्याय-परम्परा १३३ फिलासौफी में कहा है कि सार्वभौम ने यदि मिथिला में मैथिल गुरुओं से अध्ययन नहीं किया तो उसके पहले ही किसी गौड विद्वान् ने मिथिला में शिक्षा पायी होगी। अन्यथा चिन्तामणि का प्रचार बंगाल में किस प्रकार से संभव हुआ होगा ? इनके मत से सार्वभौम तथा शिरोमणि, पक्षधर मिश्र के शिष्य अवश्य रहे हैं। ह कि मा अन्तः साक्ष्य एवं बहिःसाक्ष्य के आधार पर यह कहना सर्वथा उपयुक्त होगा कि सार्वभौम ने अपने पिता नरहरि विशारद से ही विद्या की अधिगति की थी तथा रघुनाथ शिरोमणि इनके साक्षात् शिष्य रहे हैं। दोनों ने नवद्वीप में ही अध्ययन किया था, मिथिला कभी नहीं आये थे। मैथिल नैयायिकों में जयदेव मिश्र ने जैसे आलोक में अपने गुरु यज्ञपति उपाध्याय के मतों का खण्डन किया है इसी तरह वासुदेव सार्वभौम की मान्यताओं का खण्डन भी इनके सुयोग्य शिष्य रघुनाथ शिरोमणि ने अपनी दीधिति में किया है। आजकल पाठ्य में निर्धारित पक्षता जागदीशी का विद्यार्थी इस सार्वभौम के साथ यज्ञपति उपाध्याय के मतों से अवश्य सुपरिचित होता है। इससे यज्ञपति तथा वासुदेव का उत्कर्ष ही सिद्ध होता है। कहा गया है कि- ‘पुत्रात् शिष्यात् पराजयम्। तिनी पञ्चदश शतक के पूर्वार्धवर्ती इस सार्वभौम के चाचा श्रीनाथ भट्टाचार्य चक्रवर्ती ने चिन्तामणि पर अवश्य व्याख्या लिखी होगी, जो कालकवलित हो गयी। व्यधिकरण दीधिति में रघुनाथ शिरोमणि ने जिन चार दिग्गज नैयायिकों को उद्धृत किया है, उनमें विद्यावयोवृद्ध इस चक्रवर्ती का नाम अग्रगण्य है। पश्चात् यथा-क्रम प्रगल्भ मिश्र, जयदेव मिश्र तथा वासुदेव सार्वभौम का नाम एवं मान्यता यहाँ उल्लिखित हुई है। इस
- पञ्चदश शतक के उत्तरार्ध में वर्तमान सार्वभौम के दो अनुज भी प्रतिष्ठित नैयायिक हुए हैं - कृष्णानन्द विद्याविरिञ्चि तथा विष्णुदास विद्यावाचस्पति । वङ्गे नव्यन्यायचर्चा में इस विद्याविरिञ्चि की दो कृतियों का संधान मिलता है न्यायपरिशुद्धि की व्याख्या और प्रत्यक्ष खण्ड चिन्तामणि की व्याख्या। दोनों ही कृतियाँ आज मातृका में भी अनुपलब्ध हैं। शब्दखण्ड चिन्तामणि पर विष्णुदास विद्यावाचस्पति की व्याख्या मातृका रूप में सरस्वती भवन वाराणसी में सुरक्षित है। यद्यपि म.म. गोपीनाथ कविराज ने उसे रत्नाकर विद्यावाचस्पति की कृति कहा है तथा रत्नाकर को नरहरि विशारद का पुत्र कहा है। किन्तु वस्तुस्थिति यह है कि रत्नाकर उक्त विशारद के पिता का नाम है तथा विष्णुदास उनके पुत्र हैं - री १. हिस्ट्री ऑफ इण्डियन फिलोसोफी, सेकेण्ड वाल्यूम पृ. ४०६-१० कायाल २. द्रष्टव्य, वंगे नव्यन्यायचर्चा पृ.४० ३. द्रष्टव्य, वही पृ. ६२ ४. द्रष्टव्य, हिस्ट्री एण्ड बिब्लियोग्राफी ऑफ न्यायवैशे. लिट. पृ. ७३ मा १३४ Dr न्याय-खण्ड इस प्रसङ्ग में प्रो. दिनेश भट्टाचार्य ने सबल साक्ष्य प्रस्तुत किया है’। षोडश शतक के पूर्वार्धवर्ती इस विद्यावाचस्पति के पुत्र काशीनाथ विद्यानिवास ने तत्त्वचिन्तामणि की विवेचन नामक व्याख्या का प्रणयन किया है, जो मातृका रूप में सरस्वती भवन वाराणसी में उपलब्ध है। अपने समय में इन्होंने पूर्ण प्रतिष्ठा अर्जित की तथा काशी आकर अपनी विद्या का प्रचार किया। इनकी कृति के माध्यम से ही वर्धमान उपाध्याय के समसामयिक मैथिल नैयायिक गङ्गादित्य और घटेश उपाध्याय के नाम एवं मत से हम परिचित हो सके हैं। अन्यथा इन दोनों विशिष्ट नैयायिकों को हम भूल ही जाते। यहीं इन्होंने अपने समसामयिक बंगाल के विशिष्ट नैयायिक कविमणि भट्टाचार्य के नाम एवं मत उद्धृत किये हैं। इस भट्टाचार्य की कृति मातृका में भी उपलब्ध नहीं है। इस काशीनाथ विद्यानिवास के उत्तराधिकारी दो औरस पुत्रों रुद्र न्यायवाचस्पति तथा विश्वनाथ सिद्धान्तपञ्चानन ने इस क्षेत्र में पूर्ण कीर्ति एवं प्रसिद्धि अर्जित की है तथा अपनी कृतियों से इस शास्त्र को समृद्धतर किया है।
- इसी समय के महानैयायिक सार्वभौम के पुत्र जलेश्वरवाहिनीपति ने जयदेव मिश्र के आलोक पर उद्योत व्याख्या का प्रणयन किया। इसकी मातृका सरस्वती भवन वाराणसी में तथा अन्यत्र उपलब्ध है। यह आलोक पर सबसे प्राचीन व्याख्या है। आश्चर्य की बात है कि इन्होंने पिता की कृति पर व्याख्या नहीं लिखकर उन्हीं के समसामयिक मैथिल नैयायिक की कृति पर लेखनी उठायी और वहीं ‘इत्यस्माकं पैतृकः पन्थाः’ आदि कहकर पिता के प्रति पूर्ण सम्मान प्रदर्शित किया है। यही 1999 शाण्डिल्यसूत्र के भाष्यकार के रूप में प्रसिद्ध षोडश शतक के उत्तरार्धवर्ती, इस वाहिनीपति के सुयोग्य पुत्र स्वप्नेश्वर ने न्यायसूत्र पर तत्त्वनिकष नामक वृत्ति का प्रणयन किया जो मातृका में उपलब्ध है। वाम ने इस तरह हम देखते हैं कि चार पुस्त तक यह वंश निरन्तर न्यायशास्त्र को अभिवृद्ध-समृद्ध करने में तत्पर रहा है। ज रघुनाथ शिरोमणि के पूर्ववर्ती नैयायिकों में पुण्डरीकाक्ष विद्यासागर, पुरुषोत्तम भट्टाचार्य, ईशान न्यायाचार्य तथा शूलपाणि न्यायाचार्य का नाम उल्लेखनीय है। विद्यासागर की व्याकरणकृति ‘कारक प्रकरण’ में इन्होंने स्वयं अपनी न्यायकृति तत्त्वचिन्तामणिप्रकाश का उल्लेख किया है तथा केशव मिश्र तर्काचार्य ने गौतमीयसूत्रप्रकाश में इनके सन्दर्भ का नाम-निर्देशपूर्वक उल्लेख किया है, जिससे सिद्ध होता है कि न्यायसूत्र की वृत्ति इन्होंने प्रणीत की है। रघुनाथ विद्यालङ्कार के दीधितिप्रतिबिम्ब में पुरुषोत्तम भट्टाचार्य का उल्लेख चिन्तामणि के व्याख्याकार के रूप में देखा जाता है। स्मृतिकार रघुनन्दन ने अपने श्राद्धतत्त्व में प्रसङ्गवश ईशानन्यायाचार्य का सादर उल्लेख किया है। जानकीनाथ भट्टाचार्य चूडामणि १. द्रष्टव्य, वने नव्यन्यायचर्चा पृ.५२ २. द्रष्टव्य, वही, सम्पूर्ण प्रथम अध्याय बङ्गाल की नव्यन्याय-परम्परा १३५ ने अपनी न्यायसूत्रवृत्ति में कई बार शूलपाणि का नाम लिया है। लगता है कि शूलपाणि न्यायाचार्य ने उदयनाचार्य की तरह केवल पञ्चम अध्याय के सूत्रों पर वृत्ति की रचना की है। किन्तु इनमें से एक भी नैयायिक की कृति अंशतः भी मातृकाओं में आज उपलब्ध नहीं है, केवल इतस्ततः उद्धरण की उपलब्धि से उनका अस्तित्व प्रमाणित है।
प्रगल्भाचार्य
शङ्कर मिश्र के कनिष्ठ समसामयिक तथा वासुदेव सार्वभौम के पूर्ववर्ती बंगाली नैयायिक नरपति भट्ट मिश्र के शिष्य एवं पुत्र काशीवासी प्रगल्भ मिश्र अपने समय के अद्वितीय नैयायिक के रूप में प्रसिद्ध हुए। मिश्र उपाधि के कारण बहुत दिनों तक इन्हें विद्वज्ज्न मैथिल समझते रहे। किन्तु प्रो. दिनेश चन्द्र भट्टाचार्य ने अपनी वंगे नव्यन्यायचर्चा में इन्हें प्रबल प्रमाणों के आधार पर वीरेन्द्र कुल का बंगाली सिद्ध किया है। सम्पूर्ण तत्त्वचिन्तामणि पर इनकी टीका उपलब्ध है जो प्रगल्भी नाम से प्रसिद्ध है। कुछ अंश इसका सरस्वती भवन वाराणसी से मैथिल सम्प्रदायानुरोधिनी में कभी प्रकाशित हुआ था। इसकी मातृका एशियाटिक सोसाइटी कलकत्ता, सरस्वती भवन वाराणसी तथा अन्यत्र उपलब्ध है। नरहरि उपाध्याय, वासुदेव मिश्र तथा मधुसूदन ठक्कुर आदि मैथिल नैयायिक तथा वासुदेव सार्वभौम एवं रघुनाथ शिरोमणि आदि गौड नैयायिकों ने यथास्थान इनके मतों का खण्डन किया है। इससे इनके वैदुष्य का उत्कर्ष ज्ञात होता है।
रघुनाथ शिरोमणि
खृष्टीय षोडश शतक के प्रथम चरण में नवद्वीप (नदिया) में वासुदेव सार्वभौम के शिष्य महानैयायिक रघुनाथ शिरोमणि ने नव्यन्याय की एक ऐसी परम्परा को जन्म दिया जो आज तक निरन्तर वर्तमान एवं वर्धमान है। दो ही ऐसे नैयायिक हुए जिनकी शिष्य-परम्परा अधिक समृद्ध हुई तथा कृतियाँ चिरकाल तक पठन-पाठन की धारा में रहकर सर्वत्र समादृत हुई। मिथिला में आलोक व्याख्याकार पक्षधर प्रसिद्ध जयदेव मिश्र का सम्प्रदाय अपने समय से लगभग दो सौ वर्षों तक निरन्तर चलता रहा। खण्डन-मण्डन के क्रम में शास्त्र की पूर्ण अभिवृद्धि हुई किन्तु पश्चात् उसका क्रमशः हास होने लगा। किन्तु नवद्वीप (नदिया) में प्रवर्तित रघुनाथ शिरोमणि की परम्परा का प्रचार क्रमशः सम्पूर्ण भारत में हुआ और यह इतनी रूढमूल रही कि आज तक सम्पूर्ण विश्व में ही अध्ययन तथा व्याख्या से जुड़ी हुई है। पर न्यायदर्शन में इनकी नौ कृतियाँ उपलब्ध हैं—१. प्रत्यक्षमणिदीधिति, २. अनुमानमणि दीधिति, ३. शब्दमणिदीधिति, ४. आख्यातवाद, ५. नञ्वाद, ६. पदार्थखण्डन, ७. लीलावतीप्रकाशदीधिति, ८. किरणावलीप्रकाशदीधिति तथा ६. आत्मतत्त्वविवेकदीधिति। प्रायः ये सभी कृतियाँ प्रकाशित हैं। यह संक्षेप में बहुत बातों को कहना इनका स्वभाव है। अतः किसी भी व्याख्येय ग्रन्थ की यथाक्रम पंक्तिबद्ध व्याख्या इनकी नहीं मिलती है, अपि तु दुरूह स्थलों की व्याख्या अपनी १. द्रष्टव्य, वंगे. नव्यन्यायचर्चा पृ. ५३-६३ २. द्रष्टव्य, वही पृ. १४६-१५८१३६ न्याय-खण्ड प्रतिभा के बल पर ये प्रस्तुत करते हैं, जो युक्तियुक्त, प्रामाणिक तथा सारगर्भ होती है। गदाधर भट्टाचार्य ने इनके लिए एक अन्वर्थक विशेषण ‘संक्षिप्तोक्त्यतिदक्ष’ का प्रयोग किया है, जिसकी पुष्टि रुद्रन्याय वाचस्पति की एक पंक्ति से भी होती है- ‘लेखनसंक्षेपनिर्बन्धिनो दीधितिकारस्य’ । यद्यपि बंगाल में इनके पूर्ववर्ती नैयायिकों ने निश्चित रूप से नव्यन्याय का आलोचन किया है, इनके गुरु वासुदेव सार्वभौम की चिन्तामणि व्याख्या ही इसका प्रमाण है, तथापि नवद्वीप में नव्यन्याय के प्रतिष्ठापन का श्रेय रघुनाथ शिरोमणि को ही मिला। इनके समय से ही नवद्वीप नव्यन्याय का केन्द्र माना जाने लगा। विद्वानों की धारणा बन गई कि इनकी कृतियों को पढ़े बिना कोई नैयायिक नहीं हो सकता है। न्याय का उद्गम स्थल भले ही मिथिला रहा हो, किन्तु उसके विकास का केन्द्र नवद्वीप (नदिया) को भी अवश्य मानना होगा। जो कि ला परवर्ती नैयायिकों ने अपनी प्रतिष्ठा तथा गौरव के लिए इनकी कृतियों की व्याख्या की है, जो इनकी लोकप्रियता एवं गम्भीर वैदुष्य का परिचायक है। इनके प्रमुख शिष्य रामकृष्णभट्टाचार्य चक्रवर्ती ने सबसे पहले दीधिति की संक्षिप्त व्याख्या का प्रणयन किया। पश्चात् रघुनाथ विद्यालङ्कार, कृष्णदास सार्वभौम, श्रीराम तर्कालङ्कार, मथुरानाथ तर्कवागीश, भवानन्द सिद्धान्तवागीश, जगदीश तर्कालङ्कार तथा गदाधर भट्टाचार्य आदि ने दीधिति की व्याख्या की है। मैथिल नैयायिक गोकुलनाथ उपाध्याय ने अष्टादश शतक के आरम्भ में विद्योत नाम से इस दीधिति की व्याख्या की है। काम यहाँ अवधेय है कि बंगाली नैयायिक के इस सम्प्रदाय ने तीन प्रकारों से नव्यन्याय के विकास में योगदान किया है— मूल चिन्तामणि, उसकी आलोक व्याख्या तथा दीधिति की व्याख्या लिखकर। इससे मैथिल तथा गौड-परम्परा का विशद चित्र आज हमारे समक्ष विद्यमान है। जानकर पिया के इस शिकामा कमी
जानकीनाथ भट्टाचार्य चूडामणि
खृष्टीय षोडशशतक के प्रथम चरण में विद्यमान महानैयायिक जानकीनाथ भट्टाचार्य चूडामणि’ की दो कृतियाँ उपलब्ध हैं-न्यायसिद्धान्तमञ्जरी तथा आन्वीक्षिकीतत्त्वविवरण। एक पदार्थचिन्तनात्मक है तो अपर पञ्चमअध्यायगत न्यायसूत्रों की वृत्ति। न्यायसिद्धान्तमञ्जरी की अनेक टीकाएँ हुई तथा ग्रन्थ भी व्युत्पादक है। व्याख्या के साथ इसका प्रकाशन भी हुआ किन्तु इसका अपेक्षित आदर नहीं हो पाया। बङ्गाल के बाहर ही इसका प्रचार-प्रसार अधिक हुआ। इसके अतिरिक्त मरीचि नाम से चिन्तामणि की व्याख्या तथा उदयन की तात्पर्यपरिशुद्धि पर तात्पर्यदीपिका व्याख्या इनकी सुनी जाती है, किन्तु यह उपलब्ध नहीं है। तितिनिधीलरकी बिहार 15 इनकी शिष्य-परम्परा में कणाद तर्कवागीश, रामभद्र सार्वभौम का नाम उल्लेखनीय है। कणाद तर्कवागीश का ‘भाषारत्न’ नामक ग्रन्थ प्रकाशित है। अनुमान खण्ड की चिन्तामणि पर भी कणाद तर्कवागीश ने व्याख्या लिखी है। सुना जाता है कि एक समय में १. द्रष्टव्य, वने नव्यन्यायचर्चा पृ. १०६-१०८ H ePE EST: HP-382 बङ्गाल की नव्यन्याय-परम्परा १३७ इनकी अवयवचिन्तामणि की व्याख्या नदिया में बहुत समादृत हुई थी। किन्तु वह सम्पूर्णतः मातृकागारों में भी उपलब्ध नहीं है।
कृष्णदास सार्वभौम
षोडश शतक के द्वितीय चरण में विद्यमान महानैयायिक कृष्णदास सार्वभौम ने प्रसारिणी नाम से दीधिति एवं आलोक की व्याख्या की है जो प्रकाशित नहीं है किन्तु मातृकागारों में उपलब्ध है। प्रत्यक्षदीधितिप्रसारिणी, अनुमानदीधितिप्रसारिणी (अंशतः प्रकाशित), आख्यातदीधितिप्रसारिणी, नश्वाद टिप्पण, गुणदीधिति टीका, अनुमानालोकप्रसारिणी, कारिकावली तथा इसकी स्वोपज्ञव्याख्या मुक्तावली इनकी कृतियाँ प्रसिद्ध हैं। यद्यपि विश्वनाथ नैयायिक की कृति के रूप में कारिकावली एवं मुक्तावली अधिक प्रसिद्ध हैं किन्तु ‘वंगे नव्यन्यायचर्चा’ में प्रो. दिनेश चन्द्र भट्टाचार्य ने अनेक प्रमाणों के आधार पर प्रतिपादित किया है कि उक्त ग्रन्थ विश्वनाथ की नहीं कृष्णदास की रचना है’ का प्रमोद काल का विकट कुल हरिदास न्यायालङ्कार - षोडश शतक के प्रथम चरणवर्ती नवद्वीपवासी प्रतिष्ठित नैयायिक हरिदास न्यायालङ्कार ने न्यायकुसुमाञ्जलि की कारिकाओं पर स्वतन्त्र, संक्षिप्त किन्तु सारगर्भ व्याख्या का प्रणयन किया है जो प्रायः सम्पूर्ण भारत में समादृत है। न्याय कुसुमाञ्जलि की अध्ययन-परम्परा तथा व्याख्या-लेखन दो धाराओं में विभक्त है और दोनों ही धाराएँ आज तक वर्तमान एवं वर्धमान हैं। आचार्य उदयन की स्वोपज्ञ व्याख्या की धारा आज जितना समादृत है उतना ही आदर इसकी हरिदासी व्याख्या का भी है। आज भी दोनों ही कुसुमाञ्जलि पठन-पाठन से संबद्ध हैं। इन दोनों ही कुसुमाञ्जलि की अविच्छिन्न व्याख्या-परम्परा देखी जाती है। इसका विवरण उदयन की कृति के साथ यहाँ पहले ही प्रस्तुत हो चुका है। शाचा बाशा की टी-IVE कि इनकी अपर कृति दीधिति एवं आलोक की व्याख्याएँ भी मातृकागारों में उपलब्ध हैं। इससे सिद्ध होता है कि नैयायिकवरेण्य रघुनाथ शिरोमणि के काल में भी उनकी कृति दीधिति की व्याख्या आरम्भ हो गयी थी जो उस व्याख्या के गौरव की सूचना देती है। पण्डित दिनेशचन्द्र भट्टाचार्य का कहना है कि हरिदास की दीधिति व्याख्या का वैशिष्ट्य रहा है कि ये पाठभेद के प्रसङ्ग में पूर्ण जागरूक रहे हैं। इन्होंने दीधिति के उस समय में उपलब्ध पाठान्तरों का प्रचुर संग्रह अपनी व्याख्या में किया है।
रामभद्र सार्वभौम
षोडश शतक के अन्तिम चरण में विद्यमान महानैयायिक जानकीनाथ भट्टाचार्य चूडामणि के पुत्र नवद्वीप के लब्धप्रतिष्ठ नैयायिक रामभद्र सार्वभौम की दश कृतियाँ न्यायदर्शन में उपलब्ध हैं। इनमें न्यायरहस्य नामक न्यायसूत्र की वृत्ति अधिक उपादेय एवं प्रशंसनीय है। सूत्र के अभिप्राय-प्रकाशन के साथ सूत्रपाठ के प्रसंग में १. द्रष्टव्य वंगे नव्यन्यायचर्चा पृ. ११७-१२० २. द्र. वही पृ. ११२ का मूल एवं टिप्पणी भाग ३. द्र. वही पृ. १२३-१२६ १३८ PHP न्याय-खण्ड गार लेखक की जागरूकता सर्वथा आकलनीय है। अन्वीक्षानयतत्त्वबोध, न्यायभास्कर तथा न्यायतत्त्वालोक आदि के साथ एकवाक्यता के कारण लेखक ने प्रामाणिक मन्तव्य प्रस्तुत करने में पूर्ण सफलता पायी है। आदि से चार अध्यायों के सूत्रों पर यह वृत्ति उपलब्ध है। चूँकि इनके पिता की व्याख्या पञ्चम अध्याय के सूत्रों पर उपलब्ध थी अतः इन्होंने इस अध्याय पर वत्ति लिखना पिष्टपेषण मानकर छोड दिया होगा। गणरहस्य नामक इनका एक उत्कृष्ट प्रकरण-ग्रन्थ तथा सिद्धान्तसार नामक वादों का संकलनात्मक संग्रह-ग्रन्थ अपूर्व कृति के रूप में प्रसिद्ध है। समासवाद, शब्दानित्यत्ववाद तथा सुवर्णतैजसत्ववाद आदि इनके लघु निबन्ध विचार की दृष्टि से दीर्घ एवं गम्भीर हैं। या रघुनाथ शिरोमणि के पदार्थखण्डन पर इनकी व्याख्या पदार्थतत्त्वविवेचन नाम से प्रसिद्ध एवं प्रकाशित है। शिरोमणि के नवाद पर भी इनकी व्याख्या उपलब्ध है। हरिदासी कुसुमाञ्जलि पर इनकी व्याख्या कलकत्ता विश्वविद्यालय से प्रकाशित है। सिद्धान्तरहस्य नामक इनकी विशिष्ट कृति इन्हीं की कृतियों में उल्लिखित होने से सुनी जाती है किन्तु इसकी मातृका कहीं उपलब्ध नहीं है। -शा न्यायदर्शन के चार स्तम्भ के रूप में प्रख्यात चार दिग्गज नैयायिक मथुरानाथ तर्कवागीश, जगदीश तर्कालङ्कार, गौरीकान्त सार्वभौम तथा जयराम न्यायपञ्चानन इनके प्रधान शिष्य के रूप में प्रतिष्ठित हैं। अतएव रामभद्र सार्वभौम को सौभाग्यशाली नैयायिक कहना अधिक उपयुक्त होगा।
श्रीरामतर्कालङ्कार
रामभद्र सार्वभौम के समसामयिक, मथुरानाथ तर्कवागीश के पिता महानैयायिक श्रीराम तर्कालङ्कार’ अपने समय में इतना प्रख्यात हुए कि उनको जगद्गुरु की उपाधि से विभूषित किया गया। मथुरानाथ तर्कवागीश के दीधितिरहस्य के मङ्गलपद्य से यह ज्ञात होता है। मनीमान जगद्गुरोः श्रीरामस्य चरणौ मूनि धारयन्। भाणवि कितनी तिया की तत्सुतो मथुरानाथः दीधितिं स्फुटयत्यमुम्।। efere इनकी दो रचनाएँ उपलब्ध हैं - १. अनुमानदीधिति टीका तथा २. आत्मतत्त्वविवेक दीधिति टिप्पणी। दूसरी कृति चौखम्बा वाराणसी से दीधिति व्याख्या के साथ प्रकाशित है। इन्होंने अपनी दीधिति टीका के आरम्भ में किसी सार्वभौम को अपने गुरु के रूप में स्मरण किया है। म.म. गोपीनाथ कविराज के विचार से वासुदेव सार्वभौम इनके गुरु रहे होंगे, किन्तु प्रो. दिनेशचन्द्र भट्टाचार्य का कहना है कि कृष्णदास सार्वभौम या रामभद्र सार्वभौम इनके गुरु रहे होंगे। हैं १. द्रष्टव्य, वंगे नव्यन्यायचर्चा पृ. १२६-३० बङ्गाल की नव्यन्याय-परम्परा १३६
भवानन्द सिद्धान्तवागीश
रघुनाथ शिरोमणि की दीधिति की यद्यपि अनेक व्याख्याएँ हुईं किन्तु बंगाली नैयायिकों की व्याख्याएँ अधिक प्रसिद्ध हुईं - भवानन्दी, माथुरी, जगदीशी तथा गादाधरी। गदाधर के आविर्भाव से पहले बंगाल में एक किंवदन्ती प्रचलित हुई - गुणोपरि गुणानन्दी भवानन्दी च दीधितौ। सर्वत्र मथुरानाथी जागदीशी क्वचित् क्वचित् ।। फलतः’ भवानन्द सिद्धान्तवागीश दीधिति के व्याख्याकारों में अग्रगण्य रहे हैं। इनकी दशाधिक कृतियाँ उपलब्ध हैं- १. प्रत्यक्षमणिदीधितिटीका, २. अनुमानदीधितिटीका (एशियाटिक सोसाइटी से कभी यह प्रकाशित हुई थी), ३. आख्यानवादटीका, ४. नवादटीका. (माथुरीशब्दखण्ड के साथ नञ्वाद एवं यह टीका प्रकाशित है), ५. गुणदीधितिटीका, ६. लीलावतीदीधितिटीका, ७. प्रत्यक्षालोकसारमञ्जरी, ८. अनुमानालोकसारमञ्जरी, ६. शब्दालोकसारमञ्जरी, १०. शब्दमणिसारमञ्जरी तथा ११. शब्दार्थसारमञ्जरी। इनकी लेखनी जैसे दीधिति की व्याख्या के लिए चली वैसे ही जयदेव मिश्रकृत आलोक की व्याख्या के लिए भी। आलोकसारमञ्जरी अन्वर्थक नाम है। इनकी अन्तिम कति व्याकरणशास्त्र की व्युत्पादिका है। अतएव कारक, समास. लकारार्थ, आख्यातार्थ आदि का विवेचन यहाँ मिलता है। _ फलतः षोडश शतक के गौड नैयायिकों में भवानन्द सिद्धान्तवागीश का नाम पहली पंक्ति में उल्लेख्य है।
गुणानन्द विद्यावागीश
षोडश शतक के तृतीय चरण में विद्यमान नवद्वीपवासी महानैयायिक गुणानन्द विद्यावागीश की कृतियाँ आज प्रकाशित एवं अप्रकाशित रूप में हम लोगों के मध्य विद्यमान हैं। इन्होंने अपनी कृति का नाम विवेक रक्खा है। यथा १. बौद्धाधिकार-दीधितिविवेक, २. न्यायकुसुमाञ्जलितात्पर्यविवेक (यह कलकत्ता विश्वविद्यालय से प्रकाशित है), ३. अनुमानदीधितिविवेक, ४. लीलावतीदीधितिविवेक, ५. गुणकिरणावली प्रकाशदीधितिविवेक, ६. प्रत्यक्षमणिटीका तथा ७. शब्दालोकविवेक। आचार्य उदयन, आलोककार जयदेव मिश्र तथा रघुनाथ शिरोमणि की कृतियों पर लेखनी चलाकर इन्होंने पाण्डित्य-प्रदर्शन के द्वारा गौरव एवं कीर्ति अर्जित की है। कार किया
मथुरानाथ तर्कवागीश
षोडश शतक के अन्तिम चरण में विद्यमान नवद्वीप के मूर्धन्य तथा यशस्वी नैयायिक मथुरानाथ तर्कवागीश ने अपनी पाण्डित्यपूर्ण कृतियों से नव्यन्याय की असाधारण श्रीवृद्धि की है। अपने पिता श्रीराम तर्कालङ्कार तथा रामभद्र सार्वभौम के श्रीचरणों में बैठकर इन्होंने न्यायविद्या का अध्ययन किया तथा मूलतत्त्वचिन्तामणि, कि ना कानी BF हिडि १. द्रष्टव्य, वंगे नव्यन्यायचर्चा पृ. १३३-१४०Pणागंगा महार २. द्रष्टव्य, वही पृ. १४८-१५३ रीना कि पाकमकामयाकामीण ति ३. द्रष्टव्य, वही पृ. १५३-१६० १४० न्याय-खण्ड चिन्तामणि की आलोक, दीधिति तथा उदयनाचार्य, श्री वल्लभाचार्य एवं वर्धमान उपाध्याय की कृतियों की व्याख्या के साथ स्वतन्त्र ग्रन्थ का प्रणयन भी किया है। इनकी व्याख्या का नाम ‘रहस्य’ अन्वर्थक है। अभिप्राय के प्रकाशन में इनकी व्याख्या इतनी समर्थ हुई कि सबसे अधिक समादृत हुई। कहा गया है - गुणोपरि गुणानन्दी भवानन्दी च दीघितौ। __ सर्वत्र मथुरानाथी जागदीशी क्वचित् क्वचित्।। नाटतडीमाशाजा कागरिधान FISH जा तत्त्वचिन्तामणिरहस्य - इनकी प्रमुख कृति है, जो उपमानखण्ड को छोड़कर प्रायः सम्पूर्ण उपलब्ध एवं प्रकाशित है। अनुमानचिन्तामणिरहस्य के आरम्भ में इन्होंने अपनी कृति के विषय में कहा है कि इसके अध्ययन से साधारण व्यक्ति भी न्यायशास्त्र के अध्यापन में यशस्वी हो सकता है - जिच्यामजाना जिलशामकाजाशनाए । आन्वीक्षिकीपण्डितमण्डलीषु सत्ताण्डवैरध्ययनं विनापि। गोमाग पिल मदुक्तमेतत् परिचिन्त्य धीरा निःशकमध्यापनमातनुथ्वम्॥ क पक्षधर प्रसिद्ध जयदेव मिश्र के आलोक पर इनकी व्याख्या सम्पूर्णतः उपलब्ध नहीं है। केवल शब्दालोकमाथुरी की मातृकाएँ अधिक मिलती हैं। बङ्गाल के गौरवस्तम्भ रघुनाथ शिरोमणि की अधिक कृतियों पर इनकी व्याख्या सुनी जाती है किन्तु प्रत्यक्षदीधिति, पदार्थखण्डन तथा नञ्वाद पर माथुरी व्याख्या उपलब्ध नहीं है। गुणदीधिति, आत्मतत्त्वविवेकदीधिति, लीलावतीदीधिति, अनुमानदीधिति तथा शब्ददीघिति पर इनकी टीका उपलब्ध है। मानाने उच्छा इसके अतिरिक्त उदयनाचार्य के आत्मतत्वविवेक एवं किरणावली, वर्धमान उपाध्याय के द्रव्यप्रकाश, गुणप्रकाश तथा न्यायलीलावतीप्रकाश और वल्लभाचार्य की न्यायलीलावती पर इन्होंने व्याख्या का प्रणयन किया है। णगडाफार कीजियकार निकि यद्यपि आख्यातवादरहस्य में मथुरानाथ ने स्वयं अपनी कृति सुप्शक्तिवाद का उल्लेख किया है, किन्तु वह कहीं मातृकाओं में भी उपलब्ध नहीं है। इसी तरह न्यायसूत्र पर इनकी वृत्ति सुनी जाती है किन्तु कहीं देखी नहीं गयी है। इनकी मौलिक कृति है न्यायसिद्धान्त रहस्य। इसमें इन्होंने न्यायशास्त्रीय विचारों का संकलन कर सप्रमाण अपना मत भी यथास्थान प्रस्तुत किया है। कोशा काम कि नया कण बङ्गवासियों की एक उल्लेख योग्य प्रवृत्ति यह है कि ये केवल व्याख्या के माध्यम से ही अपना चिन्तन नहीं प्रस्तुत करते हैं, अपि तु स्वतन्त्र मौलिक ग्रन्थ की रचना भी करते हैं। इस प्रसङ्ग में रघुनाथ शिरोमणि का पदार्थखण्डन, जानकीनाथ भट्टाचार्य चूडामणि की न्यायसिद्धान्तमञ्जरी, जगदीशतर्कालङ्कार की शब्दशक्तिप्रकाशिका तथा मथुरानाथ तर्क वागीश का सिद्धान्तरहस्य अवश्य उल्लेखनीय हैं। 3- कि ज m व्यन्याय १४१ PPPPED बङ्गाल की नव्यन्याय-परम्परा '
जगदीशतर्कालङ्कार
मथुरानाथ तर्कवागीश के सतीर्थ्य तथा रामभद्र सार्वभौम के शिष्य षोडश शतक के उत्तरार्ध में विद्यमान जगदीश तर्कालङ्कार’ नवद्वीप के प्रमुख नैयायिक के रूप में प्रतिष्ठित हुए। इन्होंने न केवल अपने अध्यापन से शिष्यों को कृतविद्य बनाया अपि तु ग्रन्थों के व्याख्यान के माध्यम से कीर्ति भी अर्जित की तथा सरस्वती के भण्डार को भी परिपूर्ण किया। जामा पहननी माई माफ कि तत्त्वचिन्तामणि की मयूख नामक इनकी व्याख्या सद्यः बगीय संस्कृत साहित्य परिषद् कलकत्ता से प्रकाशित हुई है। सम्पूर्ण दीधिति पर इनकी व्याख्या तो पहले से ही प्रकाशित है। मैथिल नैयायिक धर्मदत्त (बच्चा) झा का मत है कि व्याप्ति के सिद्धान्तलक्षण दीधिति की व्याख्या जागदीशी जितनी व्युत्पादक है उतना अन्य ग्रन्थ नहीं। आज भी सम्पूर्ण उत्तर भारत में पठन-पाठन में वह स्वीकृत एवं समादृत है। इनका प्रकरण-ग्रन्थ शब्दशक्तिप्रकाशिका व्युत्पादक होने के कारण पाठ्य में तो है ही, इनके सर्वस्व के रूप में भी प्रसिद्ध है। कहा गया है—‘जगदीशस्य सर्वस्वं शब्दशक्तिप्रकाशिका’। इनकी सारी कृतियाँ प्रकाशित हैं। एक लघुग्रन्थ तर्कामृत भी इनकी कृति मानी जाती है जो जीवकृष्ण तर्कतीर्थ की विवृति के साथ प्रकाशित है।
रुद्र न्यायवाचस्पति
वासुदेव सार्वभौम के वंशधर काशीनाथ विद्यानिवास के ज्येष्ठ पुत्र रुद्र न्यायवाचस्पति ने चिन्तामणि की दीधिति एवं आलोक की परीक्षा नामक व्याख्या का प्रणयन कर तथा नवद्वीप में अध्यापन के द्वारा पर्याप्त कीर्ति एवं ख्याति अर्जित की। शिरोमणिकृत नञ्वाद तथा पदार्थतत्त्वनिरूपण की व्याख्या के साथ कुसुमाञ्जलिकारिका की व्याख्या भी इनकी प्रसिद्ध है। इनका काल ऐतिहासिकों ने खुष्टीय सप्तदश शतक का आदिभाग माना है।
विश्वनाथ सिद्धान्तपञ्चानन
काशीनाथ विद्यानिवास के कनिष्ठ पुत्र इस रुद्र न्याय वाचस्पति के अनुज विश्वनाथ सिद्धान्तपञ्चानन ने न्यायसूत्र की वृत्ति का प्रणयन किया जो प्रकाशित एवं आज भी पठन-पाठन की परम्परा से संबद्ध है। आख्यातवादटीका, पदार्थतत्त्वनिरूपणटीका, नवादटीका, पदार्थतत्त्वालोक, सुबर्थतत्त्वालोक, न्यायतन्त्रबोधिनी तथा भेदसिद्धि आदि कृतियाँ इनकी न्यायदर्शन के क्षेत्र में प्रसिद्ध हैं। म. म. उमेश मिश्र ने इन कृतियों का उल्लेख अपने भारतीय दर्शन के इतिहास में किया है। कारिकावली तथा इसकी स्वोपज्ञव्याख्या न्यायसिद्धान्तमुक्तावली यद्यपि इनकी कृति के ग १. द्रष्टव्य, वंगे नव्यन्यायचर्चा पृ. १६५.१७१ २. द्रष्टव्य वही पृ. २७३-२७५ ३. द्रष्टव्य, वही पृ. २७६-७७ १४२ न्याय-खण्ड रूप में प्रसिद्ध है तथापि वह कृष्णदास सार्वभौम की कृति है इनकी नहीं। इस प्रसंग में प्रो. दिनेश चन्द्र भट्टाचार्य ने अपने वने नव्यन्यायचर्चा में अनेक साक्ष्य प्रस्तुत किये हैं ।
जयराम न्यायपञ्चानन
सप्तदश शतक के विख्यात नैयायिक जगद्गुरु विरुद से विभूषित जयराम न्यायपञ्चानन की कृति दीधिति व्याख्या गूढार्थविद्योतन नाम से प्रसिद्ध है। न्यायसिद्धान्तमाला इनकी मौलिक कृति मानी जाती है जहाँ न्यायदर्शन के सोलह पदार्थों का साङ्गोपाङ्ग आलोचन-विवेचन किया गया है। इन्होंने शिरोमणि की कृति आख्यातवाद तथा नञ्वाद की व्याख्या के साथ पक्षधर मिश्र के शब्दालोक की रहस्य व्याख्या तथा कुसुमाञ्जलिकारिका की व्याख्या का प्रणयन किया है। __काशी के प्रसिद्ध पण्डित तथा अनेक ग्रन्थों के रचयिता लौगाक्षि भास्कर इनके शिष्यों में उल्लेखनीय हैं।
गौरीकान्त सार्वभौम
सप्तदश शतक के नैयायिक भाषा के सर्वोत्कृष्ट व्याख्याकार गौरीकान्त सार्वभौम रामभद्र सार्वभौम के शिष्य हैं। मणिदीधितिविवेचन तथा सयुक्ति मुक्तावली इनकी कृति प्रसिद्ध है। इस मुक्तावली में इन्होंने ईश्वरसाधक युक्तियाँ कारिकाओं में संगृहीत की हैं।
हरिराम-तर्कवागीश
गदाधर तथा रघुदेव जैसे कृती शिष्य के गुरु हरिराम तर्क वागीश सप्तदश शतक के नैयायिकों में प्रमुख स्थान पर विराजमान हैं। इनकी कृतियों का विवरण म.म. गोपीनाथ कविराज ने अपने हिस्ट्री एण्ड बिब्लिओग्राफी ऑफ न्यायवैशेषिक लिटरेचर में प्रस्तुत किया है। तदनुसार आचार्यमतरहस्य, न्यायनव्यमतविचार, मङ्गलवाद, प्रमाणप्रमोद, अनुमितिपरामर्शबाधबुद्धि, प्रतिबन्धकत्वविचार, विशिष्टवैशिष्ट्यबोधविचार, नव्यधर्मितावच्छेदकता आदि इनकी अप्रकाशित कृतियों के नाम निर्दिष्ट हैं। इनके अतिरिक्त ज्ञानलक्षणाविचाररहस्य, मनस्त्वविचार, मुक्तिवादविचार तथा प्रामाण्यवाद संस्कृत कालेज कलकत्ता से प्रकाशित हैं।
रघुदेव न्यायालङ्कार
इस प्रसिद्ध नैयायिक हरिराम तर्कवागीश के कृती शिष्य तथा गदाधर भट्टाचार्य के सतीर्थ्य रघुदेव न्यायालङ्कार की कृति रघुदेवी’ नाम से विख्यात है। इनकी मौलिक कृति निरुक्तिप्रकाश श्रेष्ठ ग्रन्थों में गिनी जाती है। मूलतत्त्वचिन्तामणि की इन्होंने तत्त्वदीपिका नामक व्याख्या का प्रणयन किया, जिसे रघुदेवी कहा जाता है। अपनी इस व्याख्या के वैशिष्ट्य के प्रसङ्ग में इन्होंने स्वयं कहा है कि चिन्तामणि, इसकी आलोक व्याख्या तथा तत्काल प्रसिद्ध किसी टिप्पणी का अनुसरण करके इन्होंने व्याख्या का प्रणयन किया है - HTTP हैं १. द्रष्टव्य, वही पृ. ११७ २. द्रष्टव्य, वही पृ. २८० ३. द्रष्टव्य, वही पृ. २७८ ४. द्रष्टव्य, वही पृ. २७६ ५. द्रष्टव्य, वही पृ.२७८ ११४३ बङ्गाल की नव्यन्याय-परम्परा प्रत्यक्षतस्तदालोकात्तदीयटिप्पणादपि। समालीकाकाशातपणा अर्थाः सङ्ग्रह्य लिख्यन्ते रघुदेवेन युक्तिभिः।।स्थामामकर हसतमा अयत्नतः पण्डितमण्डलीनां गूढार्थतत्त्वप्रतिपत्तिहेतोः। शाम का कि प्रशासक कि संक्षेपतः श्रीरघुदेवशर्मा नवीननिर्माणमिदं तनोति।। - नवद्वीप के नैयायिक रघुदेव ने दीधिति की व्याख्या नहीं की, न तो प्रमुख रूप से इसका उल्लेख भी अपनी कृति में किया – यह एक आश्चर्य की बात लगती है। तथापि शिरोमणि की कृति नवाद, आख्यातवाद तथा पदार्थखण्डन की इन्होंने व्याख्या की है जो मातृकाओं में उपलब्ध है। सिद्धान्ततत्त्व इनकी मौलिक कृति है, जहाँ न्यायदर्शन के सभी पदार्थों के सरल प्रक्रिया से अवबोध हेतु विवेचन किया गया है। ग्रन्थकार ने मंगल पद्य में ही अपना उद्देश्य स्पष्टतः इस प्रकार कहा है - नन्दात्मजत्वेन विभाव्यमानं गोपालबालाङ्गनरिङ्गमाणम्। प्रणम्य बालप्रतिबोधनाय तनोति तत्त्वं रघुदेवधीरः।।
गदाधर भट्टाचार्य
विशद, सुबोध तथा विस्तृत व्याख्या के निर्माण में कुशल गदाधर भट्टाचार्य ने नवद्वीप में ही अपने अध्ययन-अध्यापन तथा ग्रन्थनिर्माण का कार्य सम्पन्न किया। इनका समय सप्तदश शतक का उत्तरार्ध है। इनका वैशिष्ट्य है स्वतन्त्र चिन्तन एवं विशद लेखन। काका कमा इन्होंने मूलतत्त्वचिन्तामणि, जयदेव मिश्रकृत इसकी व्याख्या आलोक तथा शिरोमणि की दीधिति की व्याख्या के प्रणयन के साथ अनेक वादग्रन्थों की रचना की है जो संख्या में प्रायः चौंसठ हैं। अपने समय के प्रसिद्ध नैयायिक शिष्य एवं कृतिधन से मण्डित हरिराम तर्कवागीश इनके गुरु थे। गुरु के प्रति इनकी श्रद्धा निम्न पद्य में अभिव्यक्त होती है - निजगुरुहरिरामनामभूमिसमुदितभास्करवाङ्मयूखयोगात्। स्फुरदमलचिदककान्तरत्नश्चरममणि विवरीतुमुद्यतोऽस्मि।। मूलचिन्तामणि एवं आलोक की इनकी व्याख्या प्रकाशित नहीं है किन्तु दीधिति की व्याख्या सम्पूर्णतः चौखम्बा वाराणसी से प्रकाशित है। नञ्वाद तथा बौद्धाधिकारदीधिति की व्याख्या भी इनकी क्रमशः एशियाटिक सोसाइटी कलकत्ता से तथा चौखम्बा वाराणसी से प्रकाशित है। कुसुमाञ्जलि की इनकी टीका सुनी जाती है किन्तु उपलब्ध नहीं है। Hoਨਾ ਦੇ ਰੂਸ ਵਲੂ ਦੀ ਸਬਸ ਹੁਣੁਜਾਨ १. द्रष्टव्य, वही पृ. १७८-१५२ -15 Bिानी लिया है १४४
- न्याय-खण्ड का मौलिक चिन्तक महानैयायिक गदाधर भट्टाचार्य के अनेक वादग्रन्थ आज भी पठन-पाठन की धारा से संबद्ध हैं। यथा व्युत्पत्तिवाद’, शक्तिवाद, विषयतावाद, मुक्तिवाद तथा विधिवाद । वादवारिधि में इनके नौ वादग्रन्थों का प्रकाशन हुआ है। _नवद्वीप में इनके नाम से स्थापित महाविद्यालय में आज भी नव्यन्याय का अध्ययन-अध्यापन हो रहा है। दक्षिण प्रान्त में प्रायः नव्यन्याय के क्षेत्र में गदाधर की व्याख्या ही पाठ्य में निर्धारित है। उत्तर प्रान्त में हेत्वाभास के विचार में गदाधर की तथा व्याप्तिवाद में जगदीश तर्कालङ्कार की व्याख्या पढ़ायी जाती है। णिगिरी गदाधर भट्टाचार्य के पश्चात् नवद्वीप में इनके उत्तर साधक नैयायिकों ने एक दूसरा क्रम अपनाया, व्याख्या का क्रम टूट गया तथा क्रोडपत्र, पत्रिका या विवेचना के लेखन की ओर विद्वानों का ध्यान गया। इन सबकी साक्षात् या परम्परया शिष्यकोटि में समागत नैयायिकों ने मथुरानाथ, जगदीश तथा गदाधर की रचनाओं को अधिक महत्त्व देकर उनके चिन्तन की पराकाष्ठा का प्रदर्शन कर उनका सम्मान किया तथा साथ ही अपनी प्रतिभा के चमत्कार-प्रदर्शन हेतु पद-पद पर उनकी उक्तियों में अनुपपत्तियों के समाधान की ओर अग्रेसर होकर पत्रिका लिखना आरम्भ किया। इस समय में प्रायः उपर्युक्त उन तीन महारथियों की रचनाएँ ही पठन-पाठन की धारा में विद्यमान थीं, वह भी केवल अनुमानखण्ड । अतएव इनकी व्याख्याओं पर ही अनेक कोटियाँ उठायी गयी हैं तथा समाहित हुई हैं। यद्यपि यह विवेचना या पत्रिका सम्पूर्ण अनुमानखण्ड पर अनुमिति से लेकर बाधपर्यन्त पचीस प्रकरणों पर माथुरी, जागदीशी एवं गादाधरी सामान्य निरूक्ति की विवेचना अधिक प्रसिद्ध हुई तथा पठन-पाठन की धारा में आयी। काली । यद्यपि पत्रिकाकारों में जयदेव तर्कालङ्कार, जगन्नाथ तर्कपञ्चानन, शङ्कर भट्टाचार्य, चन्द्रनारायण न्यायपञ्चानन आदि का नाम उल्लेखनीय है, तथापि कालीशंकर भट्टाचार्य, गोलोकनाथ भट्टाचार्य तथा मैथिल नैयायिक बलदेव की विवेचना अधिक प्रसिद्ध हुई तथा पठन-पाठन में स्वीकृत रही। तीनों ही पत्रिकाएँ प्रकाशित हैं। इस क्रम में धर्मदत्त (बच्चा) झा का गूढार्थतत्त्वालोंक तथा काशी के महानैयायिक शिवदत्त मिश्र की गङ्गानिर्झरिणी व्याख्या का उल्लेख भी आवश्यक है। दोनों ही कृतियाँ प्रकाशित हैं।
रामरुद्र भट्टाचार्य
प्रो.आर. तुङ्गा स्वामी ने दर्शनमञ्जरी में लिखा है कि अष्टादश शतक के नैयायिक रामरुद्र भट्टाचार्य रामेश्वर के पुत्र एवं मधुसूदन के शिष्य हैं। इन्होंने कि मिशालाका कारण मा काणमा आफ
पिशामिकामाशिष शारूक किए १. बीसवीं शताब्दी में इसकी पाँच टीकाएँ लिखी गयीं तथा पठन-पाठन की धारा से यह संबद्ध है। बच्चा झा (धर्मदत्त झा) की गूढार्थतत्त्वालोक, सुदर्शनाचार्य की आदर्श, वेणीमाधव शुक्ल की शास्त्रार्थकला, म.म. जयदेव मिश्र की जया तथा शिवदत्त मिश्र की दीपिका व्याख्या इसकी प्रकाशित हैं। कृष्णभट्टकृत मञ्जूषा, दामोदरशास्त्रीकृत विनोदिनी सुदर्शनाचार्यकृत आदर्श तथा हरिनाथसिद्धान्त वागीशकृत विवृति व्याख्या इसकी प्रकाशित हैं। माधव………………भी प्रसिद्ध है। TAILO बङ्गाल की नव्यन्याय-परम्परा पर मुक्तावली दिनकरी की तरंगिणी व्याख्या का प्रणयन किया जो उपयोगी एवं व्युत्पादक है। इसका प्रकाशन अनेक बार चौखम्बा वाराणसी से हुआ है। इनकी व्युत्पत्तिवाद व्याख्या भी मद्रास के राजकीय हस्तलेखागार में उपलब्ध है जो तृतीयाकारक के आरम्भ तक है। आश्चर्य की बात है कि प्रो. दिनेश चन्द्र भट्टाचार्य इनके विषय में सर्वथा मौन हैं’ ।
कृष्णकान्त विद्यावागीश
उन्नीसवीं शताब्दी के बंगाली नैयायिकों में कृष्णकान्त विद्यावागीश का नाम अग्रगण्य है। जगदीश तर्कालङ्कार की शब्दशक्तिप्रकाशिका पर इनकी व्याख्या शक्तिसन्दीपनी प्रकाशित एवं आज भी पठन-पाठन की धारा में विद्यमान है। उपमानखण्ड चिन्तामणि पर इनकी व्याख्या तृतीयमणिदीपनी के नाम से प्रसिद्ध है। बहुत कम नैयायिकों ने इस उपमान चिन्तामणि पर लेखनी उठायी है। अतएव इनको अधिक यश इससे प्राप्त हुआ है। न्यायसूत्र की वृत्ति सौत्रसन्दीपनी इनकी सुनी जाती है। अपने प्रपितामह की कृति तर्कामृत पर इन्होंने तरंगिणीव्याख्या का प्रणयन किया है। रघुनाथ शिरोमणि के पदार्थ खण्डन पर भी इन्होंने व्याख्या लिखी है जो पदार्थखण्डनटीका नाम से प्रसिद्ध है। न्यायरत्नावली प्रायः इनकी स्वतन्त्र कृति है, इसे संग्रह या प्रकरणग्रन्थ की कोटि में रक्खा जा सकता है। इसका विशेष परिचय विदित नहीं है।
- कृष्णकान्त विद्यावागीश के ज्येष्ठ समसामयिक षड्दर्शनवित् शिवराम वाचस्पति ने गदाधर के मुक्तिवाद की व्याख्या की है, जो संस्कृत साहित्य परिषद् कलकत्ता से प्रकाशित है। यहाँ इनका एक पद्य उल्लेख योग्य है, जिससे इनके समय का परिज्ञान सुलभ हो जाता है। ा शाके चतुष्पष्टिशरेन्दुमाने स्थाने प्रणम्येशपदे विमुक्तेः। कामर गदाधरोक्ते नवमुक्तिवादे चकार टीका शिवरामनामा।। माल इनकी न्यायसूत्र की वृत्ति रूप कृति भी सुनी जाती है किन्तु वह उपलब्ध नहीं है। इनके ही समसामयिक कुशल अध्यापक नवद्वीपवासी माधवचन्द्र तर्कसिद्धान्त ने शक्तिवाद की सुबोध व्याख्या लिखी है जो माधवी नाम से प्रसिद्ध एवं मातृकागारों में उपलब्ध है। इनकी कारकचक्रविवृति प्रकाशित है तथा विवेचनाएँ भी इनकी मिलती है। पाण्डित्य, प्रतिभा तथा शास्त्रव्यवसाय रूप त्रिवेणी का सङ्गम इन नैयायिकों में देखा जा सकता है। इसी समय में प्रसिद्ध विवेचनाकार गोलोकनाथ भट्टाचार्य के कृती पुत्र हरिनाथ भट्टाचार्य ने शक्तिवाद की व्याख्या विवृति का प्रणयन किया जिसका इतना अधिक समादर हुआ कि वह अनेक स्थानों से अनेक बार प्रकाशित हुई तथा उसी के आधार पर शक्तिवाद का पठन-पाठन चलने लगा। इन्होंने अपने गुरु तथा पिता के प्रति निम्न पद्य में श्रद्धा का समुचित प्रदर्शन हल MERE गाजर का द्रष्टव्य, दर्शनमञ्जरी पृ. २६६ २. द्रष्टव्य, वंगे नव्यन्यायचर्चा पृ. २१-२१८न्याय-खण्ड का नाममा तर्को भृङ्गमिवाम्भोजं गोलोकनाथमाप यम्।कारी जिला तत्सूनुहरिनाथेन मुक्तिवादो विशद्यते॥ इनकी गादाधारी मुक्तिवाद की टीका तथा स्वतन्त्र ग्रन्थ न्यायतत्त्वप्रबोधिनी भी प्रसिद्ध है। इन्होंने गौतम सूत्र की स्वतन्त्र वृत्ति तथा बंगानुवाद आरम्भ किया था, किन्तु वह प्रथम अध्याय मात्र इसका पूरा कर सके। यद्यपि इनके कृती पुत्र सर्वेश्वर सार्वभौम ने उस अधूरे कार्य को पूरा किया किन्तु केवल चौंतीस वर्ष की आयु में दिवङ्गत होने के कारण उसका प्रचार नहीं हो सका। _पहले कहा जा चुका है कि इस उन्नीसवीं शताब्दी में नवद्वीप में शकर तर्कवागीश तथा त्रिवेणी में जगन्नाथ तर्कालङ्कार आदि ने भी क्रोडपत्र की रचना की तथा अध्यापन द्वारा न्यायशास्त्र की अभिवृद्धि एवं प्रचार-प्रसार किया।
कैलासचन्द्र शिरोमणि
इस बीसवीं शताब्दी के बंगाली नैयायिकों में महामहोपाध्याय कैलासचन्द्र शिरोमणि का नाम अग्रगण्य है। विद्या की नगरी काशी में रहकर इन्होंने अगणित शिष्यों को कृतविद्य कर यशोराशि अर्जित की तथा न्यायसूत्र पर भाष्यच्छाया नाम की वृत्ति का प्रणयन किया।
म.म. राखालदास न्यायरत्न
हलधर चूड़ामणि तथा यदुराम सार्वभौम के शिष्य भाटपाड़ा (भट्टपल्ली) निवासी म. म. राखालदास न्यायरत्न अपने असाधारण पाण्डित्य के लिए प्रसिद्ध हैं। इनकी अनेक कृतियाँ (१) तत्त्वसार, (२) अद्वैतवादखण्डन, (३) दीधितिकृतन्यूनतावाद, (४) गदाधरन्यूनतावाद तथा (५) शक्तिवादरहस्यप्रकाश प्रकाशित हैं। अनेक विवेचनाएँ अप्रकाशित भी इनकी सुनी जाती हैं। इनके ही अनुज म.म. प्रमथनाथ तर्कभूषण ने काशी के राजपण्डित के रूप में प्रसिद्धि पायी। व्याप्तिपञ्चकरहस्यविवृति इनकी कृति सुनी जाती है। अन्तिम जीवन में इन्होंने कलकत्ता संस्कृत कालेज में अध्यापन के द्वारा पर्याप्त कीर्ति अर्जित की। काशी के ‘पण्डित और विद्वान्’ नामक पुस्तक में पं. रामचन्द्र मालवीय ने इनकी विस्तृत जीवनी दी है। प्रति
म.म. पञ्चानन तर्करत्न
काशी तथा कलकत्ता में न्यायशास्त्र के सफल अध्यापक के रूप में प्रसिद्ध हैं। इनके कृती पुत्र श्रीजीव न्यायतीर्थ तथा पौत्र शिवजीवन भट्टाचार्य न्यायदर्शन के असाधारण वैदुष्य के लिए प्रसिद्ध हैं। इनकी जीवनी ‘संस्कृत के पंडित और विद्वान्’ नामक पुस्तक में पं. रामचन्द्र मालवीय ने विस्तार से लिखी है।
म.म. कामाख्यानाथ भट्टाचार्य
संस्कृत कालेज कलकत्ता में न्याय के अध्यापक रूप में तथा पण्डितसभाओं में शास्त्रार्थी के रूप में विख्यात थे। हरिदासी कुसुमाञ्जलि पर इनकी विस्तृत, विशद एवं क्रमबद्ध व्याख्या इतनी व्युत्पादक प्रमाणित हुई कि आज भी अध्ययन एवं अध्यापन की मुख्य धारा में विद्यमान है।
सतीशचन्द्र विद्याभूषण
कलकत्ता संस्कृत कालेज के प्राचार्य म.म. सतीश चन्द्र विद्याभूषण न्यायशास्त्र के असाधारण विद्वान् हुए। इन्होंने न्यायशास्त्र का प्रामाणिक इतिहास का प्रणयन कर न बङ्गाल की नव्यन्याय-परम्परा -१४७ केवल परवर्ती गवेषक तथा जिज्ञासुओं का उपकार किया, अपितु अक्षुण्ण कीर्ति का अर्जन भी किया। सम्पूर्ण तत्त्वचिन्तामणि का सार यहाँ इन्होंने अंग्रेजी में संकलित कर समाविष्ट किया है। गाय काय पिल्लागार रा इसी कालेज के अपर प्राचार्य महेशचन्द्र न्यायरत्न अपने समय के प्रसिद्धतम नैयायिक हुए हैं। न्यायकुसुमाञ्जलि की व्याख्या एवं स्वतन्त्र ग्रन्थ नव्यन्यायभाषाप्रदीप इनकी प्रकाशित है। TER-जीकारी रिति
म.म. वामाचरणभट्टाचार्य
काशी के क्वीन्स कालेज में न्याय दर्शन के प्रधानाध्यापक के रूप में प्रसिद्ध हैं। इनके अनेक कृती शिष्यों ने अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति अर्जित की, जिनमें पण्डितराज राजेश्वर शास्त्री, गङ्गानिर्झरणीविवेचना के रचयिता पण्डित शिवदत्त मिश्र, सिद्धान्तलक्षण आदि अनेक ग्रन्थों के सरल व्याख्याकार (कनिष्ठ) वामाचरण भट्टाचार्य आदि का नाम उल्लेखनीय है।
म.म. फणिभूषण तर्कवागीश
काशी के टीकमणि संस्कृत महाविद्यालय तथा कलकत्ता के संस्कृत कालेज में न्याय के अध्यापक के रूप में पूर्ण यशोभागी हुए। इनके अनेक कृतविद्य छात्रों की परम्परा आज विश्व के कोने-कोने में विद्यमान है। प्राचीन न्याय में इनके अगाध वैदुष्य का सुफल आज इनका बँगलान्यायदर्शन हम लोगों के समक्ष विराजमान है। इसमें इन्होंने न्यायभाष्य का अनुवाद, व्याख्यान तथा टिप्पण प्रस्तुत किया है, जो विशद विस्तृत एवं अत्यधिक उपादेय है। जिज्ञासु छात्र, विशेषाध्ययनरत गवेषक तथा अध्यापन-कुशल विद्वान् इससे अवश्य लाभान्वित हुए हैं। न्यायशास्त्र का यदि इसे विश्वकोष कहा जाए तो कोई अत्युक्ति नहीं है। इनकी स्वतन्त्र कृति न्यायपरिचय भी बहुत व्युत्पादक है।
म.म. गोपीनाथ
काशी की सारस्वत विभूति उच्च कोटि के साधक म.म. गोपीनाथ कविराज ने न्याय दर्शन में उल्लेखनीय योगदान किया है। मध्यकालिक तथा आधुनिककालिक न्याय दर्शन के इतिहास एवं ग्रन्थ-परिचय के साथ अनेक शोधप्रबन्धों का प्रकाशन तथा दुर्लभ एवं उपादेय नव्यन्याय एवं प्राचीन न्याय के लघु ग्रन्थों का सम्पादन एवं प्रकाशन कर इन्होंने सारस्वत समाज का बड़ा ही उपकार किया है।
म.म. कालीपद तर्काचार्य
मधुसूदन सरस्वती के वंशधर म.म. कालीपद तर्काचार्य संस्कृत कालेज कलकत्ता में न्याय के अध्यापक के रूप में तथा बङ्गीय संस्कृत साहित्य परिषद् के संस्थापक के रूप में पूर्ण यशस्वी हुए हैं। न्यायवैशेषिक दर्शन में इनकी ग्यारह कृतियाँ प्रकाशित हैं (१) गदाधर भट्टाचार्यकृत नवमुक्तिवाद की व्याख्या एवं बंगानुवाद, (२) जातिबाधक प्रकरण, (३) प्रशस्तभाष्य की सूक्ति व्याख्या की संस्कृत व्याख्या एवं बंगानुवाद, (४) कणादतर्कवागीशकृत भाषारत्नम् की व्याख्या, (५.) हरिराम भट्टाचार्यकृत मुक्तिवाद की व्याख्या, (६) बंगला में न्यायपरिभाषा, (७) ईश्वरसिद्धि, (८) भवानन्दी व्याख्या की व्याख्या (६) न्याय-वैशेषिकदर्शनविमर्श, (१०) नव्यन्यायप्रदीप की सुप्रभा व्याख्या का बंगानुवाद एवं टिप्पणी, (११) तथा प्रवचनत्रयी। इन्होंने भारतीय एवं वैदेशिक शिष्यों को न्यायशास्त्र में प्रवीण बनाया तथा आदर्श गुरु के रूप में आजीवन प्रतिष्ठित रहे। १४८ कन्या -न्याय-खण्ड hao
अमरेन्द्र मोहन तर्कतीर्थ
संस्कृत कालेज़ कलकत्ता के लब्धप्रतिष्ठ न्याय के प्राध्यापक अमरेन्द्र मोहन तर्कतीर्थ, प्रो. योगेन्द्रनाथ वागची, प्रो. तारानाथ तर्कवाचस्पति, प्रो. सतीन्द्रनाथ तर्कतीर्थ, भाषापरिच्छेद के व्याख्याकार प्रो. पञ्चानन भट्टाचार्य, प्रो. गौरीनाथ शास्त्री, पं. मधुसूदन भट्टाचार्य, श्री मोहन तर्कतीर्थ तथा अन्यत्र कार्यरत प्रो. अनन्तलाल ठाकुर, प्रो. (स्व.) गोपिकामोहन भट्टाचार्य, प्रो. (स्व.) विमलकृष्ण मतिलाल, प्रो. वसिष्ठ नारायण झा, प्रो. अरिन्दम चक्रवर्ती, प्रो. शिवजीवन भट्टाचार्य, प्रो. कमलेश्वर भट्टाचार्य, प्रो. प्रद्योतकुमार मुखोपाध्याय आदि ने उल्लेखनीय योगदान कर न्यायशास्त्र के सिद्धान्तपक्ष एवं इतिहासपक्ष को पर्याप्त आगे बढ़ाया है।