खुष्टीय त्रयोदश शतक से नव्यन्याय का युग आरम्भ होता है। इसके प्रवर्तक मैथिल नैयायिक गङ्गेश उपाध्याय माने जाते हैं। मिथिला का मगरौनी (मङ्गलवनी) ग्राम इनके जन्मस्थान के रूप में प्रसिद्ध है जो बिहार के मधुवनी जनपद से तीन मील उत्तर में अवस्थित है। इनके पूर्वज यद्यपि मैथिल पञ्जी में छादन गाँव के निवासी बताये गये हैं तथापि मिथिला में उस गाँव का नाम नहीं मिलता तथा परम्परागत जनश्रुति एवं चिरकाल से ही अविच्छिन्न रूप से नैयायिकों की विद्यमानता मंगरौनी में ही गङ्गेश उपाध्याय का निवास प्रमाणित करती है। इनके समय के प्रसङ्ग में बहुत दिनों तक ऐतिहासिकों में मतभेद रहा किन्तु प्रो. दिनेश चन्द्र भट्टाचार्य ने इस दिशा में सार्थक प्रयास कर सबल प्रमाणों के आधार पर यह स्थिर कर दिया कि इनका काल सृष्टीय त्रयोदश शतक’ ही है। _भारतीय वादशास्त्र के मजबूत प्रासाद की ठोस आधारशिला के रूप में विद्यमान इनकी एक मात्र कृति ‘तत्त्वचिन्तामणि’ इतनी अधिक प्रसिद्ध हुई कि परवर्ती सभी शास्त्रों पर इसका अमित प्रभाव देखा गया। प्रत्येक शास्त्र में आलोचन, विवेचन तथा परिष्कार के अवसर पर इस नव्यन्याय की पद्धति अपनायी गयी। वेदान्त में मधुसूदन सरस्वती की प्रसिद्ध कृति ‘अद्वैतसिद्धि’ तथा काव्यशास्त्र में पण्डितराज जगन्नाथ का ‘रसगङ्गाधर’ आदि इसके स्पष्ट निदर्शन हैं। __न्यायदर्शन के केवल प्रमाणसूत्रों के आधार पर प्रणीत तत्त्वचिन्तामणि यद्यपि प्रकरण-ग्रन्थ की कोटि में आता है तथापि इसे लक्षणग्रन्थ भी कहा जा सकता है। या प्रमाण, उसके प्रभेद एवं उसके अङ्ग, उपाङ्ग आदि के निष्कृष्ट लक्षण यहाँ किये गये हैं। चूँकि न्यायदर्शन में स्वीकृत प्रत्यक्ष आदि चार प्रमाणों पर यह अवलम्बित है अतः यह ग्रन्थ भी चार खण्डों में विभक्त है। प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान तथा शब्द-इसके ये चार खण्ड प्रसिद्ध हैं। प्रत्येक खण्ड में अनेक प्रकरण हैं, जहाँ संबद्ध विषय यथाप्रसङ्ग वैशद्य
कास गमार कमी लाट १. द्रष्टव्य, हिस्ट्री आफ नव्यन्याय इन मिथिला पृ. ६६-१०४ सही मोजानिए २. शास्त्रैकदेशसंबद्धं शास्त्रकार्यान्तरे स्थितम्। - आहुः प्रकरणं नाम ग्रन्थभेदं विपश्चितः ।। पराशरोपपुराणम् १०४ न्याय-खण्ड HIPPEपणा के साथ विवेचित हुए हैं। प्रत्येक प्रकरण ‘वाद’ नाम से यहाँ कहा गया है। प्रत्यक्ष खण्ड में बारह वादों का विवेचन हुआ है। यथा मङ्गलवाद, प्रामाण्यवाद, अन्यथाख्यातिवाद, सन्निकर्षवाद, (लौकिक प्रत्यक्षवाद एवं अलौकिक प्रत्यक्षवाद), समवायवाद, अनुपलब्धिवाद, अभाववाद, प्रत्यक्षकारणवाद, मनोऽणुत्ववाद, अनुव्यवसायवाद, निर्विकल्पकवाद, तथा सविकल्पकवाद यहाँ विवेचित हुए हैं। न यो अनुमान खण्ड आपेक्षिक बड़ा है। यहाँ अनुमिति के लक्षण के साथ अनुमान के प्रामाण्य की स्थापना की गयी है। अनुमान के उपयोगी व्याप्ति का स्वरूप निरूपित हुआ है। जहाँ पूर्वपक्षव्याप्ति, व्याप्ति की पञ्चलक्षणी, सिंहव्याघ्रलक्षण, व्यधिकरणधर्मावच्छिन्नाभाव का साधन, सामान्याभाववाद, विशेषव्याप्ति तथा उसके सिद्धान्तलक्षण कहे गये हैं, वहाँ व्याप्तिज्ञान के उपायों को कहते हुए मीमांसकों की मान्यता का निराकरण किया गया है। व्याप्तिज्ञान की उपपत्ति के लिए सामान्यलक्षणा प्रत्यासत्ति का निरूपण हुआ है। इसी प्रसङ्ग में क्रमशः उपाधि का स्वरूप, पक्षता, परामर्श, केवलव्यतिरेकी आदि अनुमान का निरूपण करते हुए अर्थापत्ति प्रमाण की अनावश्यकता सिद्ध की गयी है। स्वार्थानुमान तथा परार्थानुमान का विवेचन, प्रतिज्ञा आदि अवयव, हेत्वाभास के तथा उसके प्रकारों का सामान्य तथा विशेष लक्षण, ईश्वर की सिद्धि तथा अपवर्ग की परम पुरुषार्थता का विवेचन किया गया है। उपमान खण्ड अपेक्षाकृत छोटा है। मीमांसक तथा वृद्ध नैयायिकों के मतों का निराकरण करके अपनी मान्यता का प्रदर्शन किया गया है। शब्दखण्ड में सोलह प्रकरण हैं- शाब्दबोधवाद, शाब्दबोधप्रामाण्यवाद, जहाँ मीमांसक सम्मत वैदिक शब्द के ही प्रामाण्य के खण्डन के साथ बौद्ध तथा वैशेषिकों के सिद्धान्त का भी निराकरण हुआ है। शब्दप्रामाण्य के प्रसङ्ग में अपना मन्तव्य विशद रूप से प्रतिपादित किया गया है। प्रसङ्गतः वेद का पौरुषेयत्व, शब्द का अनित्यत्व और वेद की प्रवाहनित्यता का प्रतिपादन हुआ है। कार्यान्वयवाद के निराकरण के साथ इष्टसाधनता ज्ञान की प्रवर्तकता मानी गयी है। लिङर्थ-अर्थात् विधिवाद, अपूर्ववाद का विवेचन किया गया है। मीमांसक के अभिमत जाति शक्तिवाद के निराकरण के साथ जाति तथा आकृति से विशिष्ट व्यक्ति में शक्ति का अभिधान हुआ है। प्रसङ्गतः लक्षण का निरूपण भी हुआ है। समासवाद, आख्यातवाद, धातुवाद, उपसर्गवाद तथा प्रमाणचतुष्टय के प्रामाण्य का निरूपण यहाँ द्रष्टव्य है। AFPAPP तत्त्वचिन्तामणि में तात्पर्याचार्य वाचस्पति मिश्र, जयन्तभट्ट रत्नकोशकार, शिवादित्य मिश्र, श्रीकर आचार्य तथा सोन्दल उपाध्याय का स्पष्ट उल्लेख मिलता है। शास्त्र के विकास में प्रतिस्पर्धा अपेक्षित होती है। बौद्ध आचार्यों की प्रतिस्पर्धिता से जैसे प्राचीन न्याय का विकास हुआ वैसे ही प्राभाकर मीमांसकों की प्रतिस्पर्धिता इसके विकास में सहायिका हुई। गङ्गेश ने मंगलाचरण में ही कहा है कि गुरु से गुरु का अर्थात् १०५ न्यायशास्त्र का इतिहास प्रभाकर का मत अच्छी तरह समझ कर चिन्तनरूप दिव्यदृष्टि से न्याय एवं मीमांसा के सार तत्त्वों का अवलोकन करके इस ग्रन्थ के प्रणयन में वे प्रवृत्त हुए थे। परिमित शब्दों में ही इन्होंने विवेचना की है तथापि अपने सिद्धान्त के प्रतिपादन में न तो कञ्जूसी की है और न ही पर पक्ष के प्रतिपादन में अधिक विचार का कौशल दिखाया है अर्थात् जितना कहने से बात बन जाए उतना ही कहा गया है। ले किन __प्राचीन नैयायिकों की मान्यता का भी यथावसर सयुक्तिक खण्डन किया गया है। अतएव इसका नव्यन्याय नाम अन्वथ है। ए-सारि ण ERE बिना जोश गजल गाएकी मात्रामा आमा सिरह शिकफिी कि मी लार कहकशागांठगाश बाली नि लिवन्धका बार एसीएल लिलामीणमालीका FE कामकाजमा जान हि मालिकलाशार काजीक नक पातालका का शिफ मिला शिण किया जफार तर क ीमारीका। किसी अनायीकगाजलवकरायी जालसाला मानवजाकिनीमा ४ मजाविमा असकी निशाणा साकार तम्घापो का ए, 1 कीलय को शिणा शकएकाली राधा शालारामास्कक क यातायात काधीतरी कलाकािमाजि मला पिकास शिका -शेककाग पिंक जामतावान गाऊ म कि गए कि शाकाह कि १. अन्वीक्षानयमाकलय्य गुरुभित्विा गुरूणां मतं चिन्तादिव्यविलोचनेन च तयोः सारं विलोक्याखिलम्। लामा वाम कियाकारी की तन्त्रे दोषगणेन दुर्गमतरे सिद्धान्तदीक्षागुरु-शामा हिक रूप से सामना गङ्गेशस्तनुते मितेन वचसा श्रीतत्त्वचिन्तामणिम् ।। विकसिमकाल यतो मणेः पण्डितमण्डनक्रिया राजा र निकाशी जोमाता की प्रचण्डपाषण्डतमस्तिरस्क्रिया। विपक्षपक्षे न विचारचातरी मी वनणार ASE- ललि कि मि स न च स्वसिद्धान्तवचोदरिद्रता ।। ण म पकाए कामा गण्य म ण्डितमको मारमा
- के गांगी 57 Pोशी कालाकी पत सामाजिक किन गिरणा न कि कि