वैदिक काल
सृष्टि के प्रारम्भ में ही दैवी एवं आसुरी प्रवृत्तियों के संघर्ष की कथा शास्त्रों में वर्णित है। वेद इसके अपवाद नहीं। वहाँ भी देह और भौतिक संसार की समृद्धि वाञ्छित है। इस सृष्टि का प्रारम्भ ही काम से हुआ ऐसा ऋग्वेद आदि में कहा गया हैं ‘कामस्तदने समवर्त्तताधि’ (ऋग्वेद १०.१२६.४), ‘कामो यज्ञे प्रथमो’ (अथर्ववेद ६.२.१६), ‘कामस्तदग्रे समवर्तत’ (अथर्ववेद १६.५२.१) इत्यादि। पाश्चात्त्य दृष्टि से भी वेद प्राचीनतम ग्रन्थ हैं।
औपनिषदकाल
__संहिता के अनन्तर उपनिषदों का क्रम आता है। डॉ सुरेन्द्रनाथ दास गुप्त ने उपनिषदों का रचनाकाल ७०० ई.पू. से ६०० ई.पू. माना है। ईश आदि ग्यारह प्रमुख उपनिषदों में भी चार्वाक दर्शन के तत्त्व इतस्ततः विकीर्ण हैं। सन्देहवाद चार्वाक दर्शन का एक प्रमुख आयाम है। कठोपनिषद् के येयं प्रेते विचिकित्सा मनुष्येऽस्तीत्येके नायमस्तीति चैके। एतद्विद्यामनुशिष्टस्त्वयाऽहं. कनावा (क.उ. १।१।२०) तथा दैवेरत्रापि विचिकित्सितं पुरा न हि सुज्ञेयमणुरेष धर्मः। (क.उ. १।१।२१) वचनों में शरीर से भिन्न आत्मा के अस्तित्व के विषय में सन्देह व्यक्त किया गया है। यही नहीं अर्थ और काम का महत्त्व भी वहाँ स्पष्ट रूप से सङ्केतित हैं शतायुषः पुत्रपौत्रान् वृणीष्व बहून् पशून् हस्तिहिरण्यमश्वान्। भूमेर्महदायतनं वृणीष्व स्वयं च जीव शरदो यावदिच्छसि।। एतत्तुल्यं यदि मन्यते वरं वृणीष्व वित्तं चिरजीविकां च। महाभूमौ नचिकेतस्त्वमेधि कामानां त्वा कामभाजं करोमि।। ये ये कामा दुर्लभा मर्त्यलोके ताँस्तान् कामान् छन्दतः प्रार्थयस्व। इमा रमा सरथा सतूर्या न लम्भनीया मर्त्यलोके मनुष्यैः। आभिर्मत्प्रत्ताभिः परिचारयस्व………………….।। विमा (क.उ. १११।२३-२५) चार्वाक दर्शन बृहदारण्यक उपनिषद् शरीर को चैतन्य अर्थात् आत्मतत्त्व मानती है-‘विज्ञानघन एवैतेभ्यो भूतेभ्यः समुत्थाय तान्येवानु विनश्यति। न प्रेत्य संज्ञाऽस्ति।’ (बृ.उ. २।४।१२) माण्डूक्योपनिषद् में ‘आप्नोति ह वै सर्वान् कामान्।’ वाक्य के द्वारा समस्त कामों के लाभ की चर्चा है। तैत्तिरीयोपनिषद्-‘आचार्याय प्रियं धनमाहृत्य’ (११।१) कह कर धन की प्रियता को महत्त्वपूर्ण बतलाती है। इस प्रकार हम देखते हैं कि प्राचीन उपनिषत्काल में अर्थ और काम का प्राधान्य रहा है। परवर्ती उपनिषदों में भी देहात्मवाद की चर्चा मिलती है यथैव मृन्मयः कुम्भस्तद्वद् देहोऽपि चिन्मयः। सर्पत्वेन यथा रज्जू रजतत्वेन शुक्तिका। विनिर्णीता विमूढेन देहत्वेन तथात्मता।। गृहत्वेन हि काष्ठानि खड्गत्वेनैव लोहता। तद्वदात्मनि देहत्वं पश्यत्यज्ञानयोगतः।। (यो.शि.उ. २१, २२, २४) यद्यपि इस देहात्मवाद को योगशिखोपनिषत् में निषेधात्मक रूप में प्रस्तुत किया गया है तथापि इससे इतना तो सिद्ध होता ही है कि उस काल में जन सामान्य एवं अध्यात्मज्ञानरहित प्रबुद्धवर्ग में भी चार्वाकदर्शन के देहात्मवाद के प्रति दृढ़ आग्रह था।
रामायण महाभारत काल
उपनिषदों के अनन्तर आदिकाव्य रामायण तथा इतिहासकाव्य महाभारत का क्रम आता है। इन ग्रन्थों में अर्थ और काम का वर्णन स्थान-स्थान पर मिलता है। राजा दशरथ के पुत्रेष्टि याग से लेकर राम रावण युद्ध तक के काण्डों में सर्वत्र अर्थ और काम की महिमा का वर्णन किसी से छिपा नहीं है। रामायण की रचना पार्जिटर के अनुसार १६०० ई.पू. के पहले हुई थी। याकोबी उसे ८००-६०० ई.पू. का मानते हैं। इसी प्रकार महाभारत का रचना काल ४०० ई.पू. माना गया है। उस समय भी चार्वाक दर्शन के दो मुख्य आयाम थे-अर्थ और काम प्रबल रूप में व्याप्त थे। रामायण में कामात्मता का वर्णन विश्वामित्रमेनका-संवाद में मिलता है दृष्ट्वा कन्दर्पवशगो मुनिस्तामिदमब्रवीत्। अप्सरः स्वागतं तेऽस्तु वस चेह ममाश्रमे।। अनुगृणीष्व भद्रं ते मदनेन विमोहतम्। इत्युक्ता सा वरारोहा तत्र पासमथाकरोत् ।। चार्वाक दर्शन ५६५ तस्यां वसन्त्यां वर्षाणि पञ्च पञ्च च राघव। वाहमा विश्वामित्राश्रमे तस्मिन् सुखेन व्यतिचक्रमुः।। मेनका को देखकर काम के वशीभूत मुनि ने उससे कहा- हे अप्सरा ! तुम्हारा स्वागत है। काम से मोहित मेरे ऊपर अनुग्रह करो। तुम्हारा कल्याण हो। ऐसा कही गयी उस सुन्दरी ने उस विश्वामित्र आश्रम में निवास किया। हे राघव ! उसको वहाँ रहते हुए सुखपूर्वक दश वर्ष बीत गये। (वा.रा. १६३६-६) इसके अतिरिक्त रामायण में नास्तिक सम्प्रदाय के विचारों की भी चर्चा आयी है-राजा दशरथ की मृत्यु के बाद भरत एवं राम के समक्ष जाबालि नामक एक ब्राह्मण पण्डित का वचन धर्मविरोधी परिलक्षित होता है आश्वासयन्तं भरतं जाबालिाह्मणोत्तमः। उवाच रामं धर्मज्ञं धर्मापतमिदं वचः।। जाबालि नामक उत्तम ब्राह्मण ने धर्मज्ञ राम को आश्वासित करते हुए धर्म-रहित इस वचन को कहा (वा.रा. २।१०८।१) कः कस्य पुरुषो बन्धुः किं कार्य कस्य केनचित्। यदेको जायते जन्तुरेक एव विलीयते।। तस्मान् माता पिता चेति राम सज्जेत यो नरः। उन्मत्त इव स ज्ञेयो नास्ति कश्चित् हि कस्यचित्।। कौन पुरुष किसका बन्धु है, किसको क्या करना चाहिये। क्योंकि आदमी अकेला उत्पन्न होता है और अकेला ही मरता है। इसलिये हे राम ! जो आदमी ये माता पिता है-ऐसा मानता है उसे पागल समझना चाहिये। कोई किसी का नहीं है। __(वा.रा. ३।१०८ ३-४) न ते कश्चिद् दशरथस्त्वं च तस्य न कश्वन। अन्यो राजा त्वमन्यः स तस्मात् कुरु यदुच्यते।। बीजमात्रं पिता जन्तोः शुक्रं शोणितमेव च। संयुक्त ऋतुमन्मात्रा पुरुषस्येह जन्म तत्।। अर्थधर्मपरा ये ये तांस्ताञ्शोचामि नेतरान्। ते हि दुःखमिह प्राप्य विनाशं प्रेत्य भेजिरे।। ५६६ चार्वाक दर्शन __दशरथ तुम्हारे कोई नहीं थे और तुम दशरथ के कुछ नहीं हो। वे राजा अन्य हैं। और तुम अन्य हो। पिता जीव का केवल बीज होता है। शुक्र और शोणित जब ऋतुमती माता से संयुक्त होता है तो वही इस संसार में पुरुष का जन्म कहलाता है। जो लोग अर्थ धर्म परायण हैं मैं उन्हीं के बारे में सोचता हूँ औरों को नहीं। वे इस संसार में दुःख भोगकर मरने के बाद नष्ट हो गये। (वा.रा. २।१०८ ॥१०-१३) अष्टका पितृदेवत्यमित्ययं प्रसृतो जनः। अन्नस्योपद्रवं पश्य मृतो हि किमशिष्यति।। लोग जो पितरों के उद्देश्य से प्रतिवर्ष अष्टका आदि श्राद्धकर्म किया करते हैं। देखो, वे लोग अन्न का कैसा नाश करते हैं ? भला कहीं मृत प्राणी भोजन करता है ? यदि भुक्तमिहान्येन देहमन्यस्य गच्छति। दद्यात् प्रवसतां श्राद्धं न तत्पथ्यशनं भवेत्।। म यदि एक का खाया हुआ अन्न दूसरे के शरीर में पहुँच जाता है तो पथिक को मार्ग में भोजन करने के लिए भोज्य पदार्थ को अपने साथ ले जाने का प्रयोजन ही क्या है क्योंकि उसके सम्बन्धी उसके नाम से घर पर ही श्राद्ध कर दिया करते और वही उस पथिक के लिये मार्ग के भोजन का कार्य करता। दानसंवनना ह्येते ग्रन्था मेधाविभिः कताः। विनायक यजस्व देहि दीक्षस्व तपस्तप्यस्व सन्त्यज।। अन्य उपायों से धनोपार्जन में क्लेश देखकर मेधावी लोग दान के द्वारा लोगों को वश में करने के लिये धर्मशास्त्रों की रचना की। यज्ञ करो, दान दो, दीक्षा लो, तप करो, संन्यास ग्रहण करो-इत्यादि उपदेशों के द्वारा लोगों को धोखा देकर उनका धन हरण करना ही उन धर्म ग्रन्थों की रचना का मुख्य उद्देश्य है। स नास्ति परमित्येतत्कुरु बुद्धिं महामते। प्रत्यक्षं यत्तदातिष्ठ परोक्षं पृष्ठतः कुरु।। हे महामति ! वास्तव में इस लोक के अतिरिक्त परलोक आदि कुछ भी नहीं है-इसे आप भलीभाँति समझ लीजिए। अतः जो प्रत्यक्ष है उसे ग्रहण कीजिए और जो परोक्ष है उसकी उपेक्षा कीजिए। (वा.रा. २१०८।१४-१७) चार्वाक दर्शन ५६७ जहाँ तक महाभारत का प्रश्न है यहाँ भी अर्थ और काम का प्राबल्य एवं प्रभुत्व स्पष्ट दिखाई पड़ता है। दर्प के साथ-साथ राज्यलिप्सा का ही परिणाम था कि दुर्योधन ने कृष्ण से कहा-‘सूच्यग्रं नैव दास्यामि विना युद्धेन केशव।’ काम के सन्दर्भ में अम्बा की कामातुरता को जब देवव्रत (भीष्म) के द्वारा तिरस्कार पूर्ण उपेक्षा मिली तब उसने भीष्मवध की प्रतिज्ञा तक कर डाली। महाराज पाण्डु ऋषि-शाप के कारण यह जानते हुए भी कि स्त्रीसमागम करने पर उनका देहान्त हो जायेगा, काम की प्रबलता से अभिभूत होकर पत्नी-समागम कर बैठे और मृत्यु को प्राप्त हो गये। महाभारत के ही अन्य कथानक इस तथ्य के प्रमाण हैं कि चार्वाक दर्शन का मुख्य प्रतिपाद्य काम कैसे उस काल में उद्दाम अवस्था को प्राप्त था। गृहस्थों और राजाओं की बात छोड़िये ऋषि तथा महर्षि भी अपने अन्तिम वय एवं जीर्ण अवस्था में कामासक्त होकर विवाह करते थे। परम वृद्ध तथा तपस्या के कारण जीर्णकाय ऋषि च्यवन ने राजा शर्याति की राजकुमारी सुकन्या से विवाह करने का कातर प्रस्ताव रखा और राजा शर्याति शाप के भय से जब अपनी कन्या को उनकी पत्नी के रूप में उन्हें समर्पित कर दिये तब ऋषि च्यवन परम प्रसन्न हो उठे अपमानादहं विद्धो बनया दर्पपूर्णया। रूपौदार्यसमायुक्तां लोभमोहबलात्कृताम् ।। तामेव प्रतिगृह्याहं राजन् दुहितरं तव। क्षस्यामीति महीपाल सत्यमेतद् ब्रवीमि ते।। ऋषेर्वचनमाज्ञाय शतिरविचारयन्। ददौ दुहितरं तस्मै च्यवनाय महात्मने।। प्रतिगृह्य च तां कन्यां भगवान् प्रससाद ह। (महाभा० वन० १२२१२४-२७) महर्षि पराशर की भी कथा इस तथ्य की ओर सकेत करती है कि महाभारत काल में काम का कितना वर्चस्व था। तीर्थयात्रा के उद्देश्य से विचरण कर रहे महर्षि पराशर ने वसुकन्या सत्यवती को देखते ही उसके समक्ष अपनी कामुकता प्रकट कर दी। उस कन्या के साथ महर्षिसमागम के फलस्वरूप तत्काल महर्षि व्यास का जन्म हुआ दृष्ट्वैव स च तां धीमांश्चकमे चारुहासिनीम्। दिव्यां तां वासवीं कन्यां रम्भोरुं मुनिपुङ्गवः ।। जगाम सह संसर्गमृषिणाद्भुतकर्मणा। पराशरेण संयुक्ता सद्यो गर्भ सुषाव सा।। (महाभा० आदि० ६३७१, ८१, ८४) ५६८ चार्वाक दर्शन __इसी प्रकार वनवास के समय भीम ने हिडिम्बा नामक राक्षसी के साथ समागम किया और घटोत्कच की उत्पत्ति हुई। सुभद्रा और द्रौपदी नामक दो स्त्रियों के होते हुए भी अर्जुन ने नागलोक जाकर उलूपी नामक नागकन्या से विवाह किया और बभ्रुवाहन पैदा हुए। इसके अतिरिक्त आधुनिक मणिपुर में भी अर्जुन ने विवाह किया। इस प्रकार वे चार पत्नियों के पति हुए महाभारत के ये सब कथानक चार्वाक दर्शन के कामपक्ष के निदर्शन हैं।
पौराणिक काल
____पुराणों में अग्निपुराण सर्वप्राचीन माना जाता है। इसमें यद्यपि स्पष्टरूप से चार्वाक का नाम नहीं आया है तथापि बौद्ध एवं जैन मतानुयायियों की स्पष्ट चर्चा मिलती है। अग्निपुराण की यह चर्चा पद्म एवं विष्णु पुराणों की कथा से मिलती जुलती है। देवासुर संग्राम में देवता लोग दैत्यों के द्वारा पराजित होने पर भगवान् विष्णु के पास गये और उन्होंने राजा शुद्धोदन के मायामोहस्वरूप पुत्र के रूप में अवतीर्ण होकर दैत्यों को मुग्ध कर दिया। फलस्वरूप वे वेदबाह्य बौद्ध एवं जैन धर्मों के अनुयायी हो गये पुरा देवासुरायुद्धे दैत्यैर्देवाः पराजिताः। रक्ष रक्षेति शरणं वदन्तो जग्मुरीश्वरम्।। मायामोहस्वरूपोऽसौ शुद्धोदनसुतोऽभवत्। मोहयामास दैत्यांस्तांस्त्याजितावेदधर्मकान् ।। ते च बौद्धा बभूवुर्हि तेभ्योऽन्ये वेदवर्जिताः। आर्हतः सोऽभवत् पश्चादार्हतानकरोत् परान्।। एवं पाखण्डिनो जाता वेदधर्मादिवर्जिताः।। (अ.पु. १६।१-४) इसके अतिरिक्त चार्वाक दर्शन के विचार पद्म एवं विष्णु पुराणों में मिलते हैं। इन पुराणों में श्राद्ध आदि क्रियाओं का खण्डन किया गया है। प्राचीनतर होने से यहाँ पहले पद्म पुराण का वेदविरोधी वर्णन प्रस्तुत है ज्ञानं वक्ष्यामि वो दैत्या अहं च मोक्षदायि तु। एषा श्रुतिर्वैदिकी या ऋग्यजुःसामसंज्ञिता। वृहस्पति ने कहा-हे दैत्यो ! मैं तुम्हें मोक्षसाधक ज्ञान बतलाऊँगा। वह है ऋग्, यजु और साम संज्ञक वैदिकी अनुभूति। है ५६६ चार्वाक दर्शन वैश्वानरप्रसादात्तु दुःखदा इह प्राणिनाम्। नाम। यज्ञः श्राद्धं कृतं क्षुद्रैरैहिकस्वार्थतत्परैः।। वह ईश्वरसिद्ध वैदिकी साधना प्राणीमात्र के लिये क्लेशसाध्य है और उन वैदिक श्राद्धादि यज्ञों की उपासना लौकिक स्वार्थ के वशीभूत क्षुद्र लोग ही करते हैं। यथाऽऽसन्वैष्णवा धर्मा ये च रुद्रकृतास्तथा। कुधर्मा भार्यासहितैहिँसाप्रायाः कृता हि ते।। वैष्णव तथा रुद्रकृत अर्थात् शैव धर्मों का पालन भी पत्नी सहित करने का नियम है और उनमें भी हिंसा का विधान है, अतः इन्हें कुत्सित ही समझना चाहिये। अर्धनारीश्वरो रुद्रः कथं मोक्षं गमिष्यति। । वृतो भूतगणैर्भूयो भूषितश्चास्थिभिस्तथा।। अर्द्धनारीश्वर अर्थात् अर्ध शरीर से निरन्तर स्त्रीरूपधारी, भूत प्रेतों से परिवृत तथा हड्डियों की माला धारण करने वाले रुद्र किस प्रकार मोक्ष प्राप्त करा सकते हैं ? न स्वर्गो नैव मोक्षोत्र लोकाः क्लिश्यन्ति वै वृथा। हिंसायामास्थितो विष्णुः कथं मोक्षं गमिष्यति।। न कहीं स्वर्ग है और न कोई मोक्ष । व्यर्थ ही लोग इनके लिये शारीरिक क्लेश उठाते हैं। भिन्न-भिन्न अवतार धारण कर स्वयं दैत्यवधकारी विष्णु किस प्रकार मोक्ष प्राप्त करा सकते हैं ? रजोगुणात्मको ब्रह्मा स्वां सृष्टिमुपजीवति। देवर्षयोऽथ ये चान्ये वैदिकं पक्षमाश्रिताः।। ब्रह्म स्वयं रजोगुणी हैं और स्वयं सृष्टिकार्य में लगे रहते हैं। देव तथा ऋषिगण वैदिक (हिंसात्मक) यज्ञ में भाग लेने वाले हैं-ये भी किस प्रकार मोक्ष प्राप्त करा सकते हैं ? हिंसाप्रायाः सदा क्रूरा मांसादाः पापकारिणः। सुरास्तु मद्यपानेन मांसादा ब्राह्मणास्त्वमी।। हिंसावृत्ति, क्रूरस्वभाव तथा मांसभक्षक देवतागण पापकारी प्रमाणित हैं और ये ब्राह्मण भी मदिरा पीते तथा मांस का भक्षण करते हैं। धर्मेणानेन कः स्वर्ग कथं मोक्षं गमिष्यति। यच्च यज्ञादिकं कर्म स्मार्तं श्राद्धादिकं तथा।। हैं मा ५७० चार्वाक दर्शन इस प्रकार के धर्माचरण से कौन व्यक्ति स्वर्ग प्राप्त कर सकता और कैसे मोक्षगामी हो सकता है ? इसके अतिरिक्त अन्य जो यज्ञ श्राद्ध आदि स्मार्तकर्म हैं तथा तत्र नैवापवर्गोऽस्ति यत्रैषा श्रूयते श्रुतिः। यूपं छित्वा पशून् हत्वा कृत्वा रुधिरकर्दमम् ।। जहाँ ऐसी श्रुति है कि यज्ञीय स्तम्भ को काटकर पशुओं की हत्या कर पृथ्वी पर रुधिर की धारा प्रवाहित करो उसमें भी मोक्ष का प्रश्न नहीं उठता। यद्येवं गम्यते स्वर्गो नरकः केन गम्यते। यदि भुक्तमिहान्येन तृप्तिरन्यस्य जायते।। यदि इस प्रकार के विभत्स आचरण से कोई स्वर्गगामी हो सकता है तो फिर नरकगामी कौन होगा ? यदि यहाँ (श्राद्धादि में ब्राह्मण आदि) को खिला देने से परलोकगत मृत प्राणियों की तृप्ति होती है। दद्यात् प्रवसतः श्राद्धं न स भोजनमाहरेत् । आकाशगामिनो विप्राः पतिता मांसभक्षणात्।। तो परदेशगत व्यक्ति का श्राद्ध कर देना चाहिये, उसे पाथेय ले जाने की कोई आवश्यकता नहीं है क्योंकि यहाँ का दिया भोजन वहाँ उसे प्राप्त हो ही जायगा। विप्र आकाश में स्वेच्छागमन करते थे, परन्तु वे मांस-भक्षण के कारण (आज) पतित हो गये। न तेषां विद्यते स्वर्गो मोक्षो नैवेह दानवाः। जातस्य जीवितं जन्तोरिष्टं सर्वस्य जायते।। हे दानवों ! उनके लिये इस लोक में, न स्वर्ग है और न मोक्ष ही है। जन्म-ग्रहण करने वाले सारे प्राणियों को अपना जीवन प्रिय होता है। आत्ममांसोपमं मांसं कथं खादेत पण्डितः। योनिजास्तु कथं योनि श्रयन्ते जन्तवस्त्वमी।। ज्ञानी पुरुष अपने शरीर के मांस के समान दूसरे के शरीर का मांस कैसे खा सकेंगे। जननी की योनि से उत्पन्न होने वाले ये जन्तु क्यों जननी की योनि के समान अन्य स्त्रियों की योनि में विहार करते हैं ? मैथुनेन कथं स्वर्ग यास्यन्ति दानवेश्वर। मृद्भस्मना यत्र शुद्धिस्तत्र शुद्धिस्तु का भवेत्।। चार्वाक दर्शन ५७१ ___ हे दानवराज ! (तान्त्रिक साधना में जिस मैथुन का विधान है उस) मैथुन के द्वारा भला स्वर्ग की प्राप्ति कैसे हो सकती है ? जहाँ मिट्टी और राख से शुद्धि का विधान है-यह कौन सी शुद्धि है ? मिट्टी तो स्वयं गन्दी वस्तु है। विपरीतमिदं लोकं पश्य दानव यादृशम्। विण्मूत्रस्य कृतोत्सर्गे शिश्नापानस्य शोधनम्।। __हे दानवेश्वर ! थोड़ा विपरीताचारी लोक के ऊपर दृष्टिपात करो जिसमें उदरस्थ मल-मूल के त्याग तथा शिश्नपान के पश्चात् गुदा और मूत्रेन्द्रिय का प्रक्षालन किया जाता है। न सम्भवोऽस्ति वदने मृदा तोयेन वा पुनः। भुक्ते वा भोजने राजन् कथं नापानशिश्नयोः।। मिट्टी अथवा जल से मुख का प्रक्षालन सम्भव नहीं ? हे राजन ! यदि ऐसा सम्भव है तो भोजन करने पर गुदा और मूत्रेन्द्रिय के प्रक्षालन का विधान क्यों नहीं किया गया ? तारां बृहस्पतेर्भार्यां हृत्वा सोमः पुरा गतः। तस्यां जातो बुधः पुत्रो गुरुर्जग्राह तां पुनः।। गुरु बृहस्पति की पत्नी तारा का उनके शिष्य चन्द्रमा हरण कर ले गये और इनसे बुध नामक पुत्र उत्पन्न हुआ, इस पर भी बृहस्पति ने उस (पत्नी) को निस्सङ्कोच ग्रहण कर लिया। गौतमस्य मुनेः पत्नी अहल्या नाम नामतः। अगृहणत्तां स्वयं शक्रः पश्य धर्म यथा स्थितः।। गौतम मुनि की पत्नी जिसका नाम अहल्या था, को स्वयं इन्द्र ने सम्मुक्त किया-देखो, यही तुम्हारी धर्म की स्थिति है। एतदन्यच्च जगति दृश्यते पारदारिकम्। एवंविधो यत्र धर्मः परधर्मो मतस्तु कः।। संसार में इतनी ही नहीं, इस तरह की अनेकों परदारसम्भोग की क्रियाएँ देखी गई हैं। भला, जिस समाज में धर्म की ऐसी अवस्था हो, वहाँ और परमार्थ हो ही क्या सकता मिली का व (प.पु.स.खं. १३।३१४-३३३)AU ५७२ चार्वाक दर्शन उसी पुराण से एक और उद्धरण प्रस्तुत है स्वर्गार्थं यदि वो वाञ्छा निर्वाणार्थाय वा पुनः।। तदलं पशुघातादिदुष्टधमैर्निबोधत। विज्ञानमयमेतद्वै त्वशेषमधिगच्छत।। बुध्यध्वं मे वचःसम्यग्बुधैरेवमिहोदितम्। जगदेतदनाधारं भ्रान्तिज्ञानानुतत्परम्।। रागादिदुष्टमत्यर्थं भ्राम्यते भवसङ्कटे। हे दैत्यों ! यदि आपकी स्वर्ग अथवा मोक्ष के लिये इच्छा है तो पशु-हत्या आदि दुष्ट कर्मों को जानो। इस सम्पूर्ण स्वर्गादि को विज्ञानमय समझो मेरी बात को भलीभाँति समझो। ऐसा विद्वानों ने कहा है। यह संसार निराधार और भ्रमात्मक ज्ञान से युक्त है। राग आदि से दूषित जीव इस संसार के सङ्कट में भ्रामित किया जाता है। (प.पु.स.सं. १३।३६०-३६३) हवींष्यनलदग्धानि फलान्यर्हन्ति कोविदाः। निहतस्य पशोर्यज्ञे स्वर्गप्राप्तिर्यदीष्यते।। स्वपिता यजनमानेन किं वा तत्र न हन्यते। तृप्तये जायते पुंसो भुक्तमन्येन वैद्यदि। दद्याच्छ्राद्धं प्रवसतो न वहेयुः प्रवासिनः। यज्ञैरनेकैर्दैवत्वमवाप्येंद्रेण भुज्यते।। शम्यादि यदिचेत्काष्ठं तद्वरं पत्रभुक्पशुः। जनाश्रद्धेयमित्येतदवगम्य तु तद्वचः।। उपेक्ष्य श्रेयसे वाक्यं रोचतां यन्मयेरितम्।। नह्याप्तवादा नभसो निपतन्ति महासुराः। अग्नि में हवि को जलाने पर विद्वान उसके फल को प्राप्त करते हैं, यज्ञ में मारे गये पशु के कारण यदि स्वर्ग की प्राप्ति मानी जाती है तो यजमान यज्ञ में अपने पिता को क्यों नहीं मारता (और स्वर्ग प्राप्त करता), यदि अन्य व्यक्ति के द्वारा भोजन करने से पितरों की तृप्ति होती है तो विदेश में जाने वाले लोगों को श्राद्ध दे देना चाहिये वे मार्ग का भोजन क्यों ले जायें। अनेक यज्ञों के द्वारा देवत्व को प्राप्त कर इन्द्र स्वर्ग का भोग करते हैं। यदि यज्ञ में शमी आदि काष्ठ के द्वारा इन्द्र भोग प्राप्त करते हैं तो उससे अच्छा तो पत्ता खाने वाला पशु (बकरी आदि) है उसे स्वर्ग क्यों नहीं मिलता। इसलिये इन सब बातों को अविश्वसनीय समझ कर उनकी उपेक्षा कीजिये और जो मैंने कहा उस पर ध्यान दीजिये। चार्वाक दर्शन ५७३ हे राक्षसों ! आप्त वाणी बोलने वाले आसमान से नहीं टपकते (वो हमारे आप के ही बीच के होते हैं)। (प.पु. १३।३६६-३७०) इसी प्रकार के दृष्टान्त विष्णु पुराण में भी उपलब्ध होते हैं। कण्डु नामक महातपस्वी प्रम्लोचा नामक अप्सरा के रूपसौन्दर्य से क्षोभित होकर उसके साथ नौ सौ सात वर्ष छ मास तीन दिन तक कामलीला में संलिप्त रहे कण्डुर्नाम मुनिः पूर्वमासीद्वेदविदां वरः। सुरम्ये गोमतीतीरे स तेपे परमं तपः।। तत्क्षोभाय सुरेन्द्रेण प्रम्लोचाख्या वराप्सराः। प्रयुक्ता क्षोभयामास तमृषि सा शुचिस्मिता।। क्षोभितः स तया सार्द्ध वर्षाणामधिकं शतम्। अतिष्ठन्मन्दरद्रोण्यांविषयासक्तमानसः।। तं सा प्राह महाभाग गन्तुमिच्छाम्यहं दिवम्। प्रसादसुमुखो ब्रह्मत्रनुज्ञां दातुमर्हसि।। गायक तयैवमुक्तः स मुनिस्तस्यामासक्तमानसः। कण्ड दिनानि कतिचिद् भद्रे स्थीयतामित्यभाषत।। एवमुक्ता ततस्तेन साग्रं वर्षशतं पुनः। बुभुजे विषयांस्तन्वी तेन साकं महात्मना।। अनुज्ञां देहि भगवन् व्रजामि त्रिदशालयम्। उक्तस्तथेति स पुनः स्थीयतामित्यभाषत।। पुनर्गते वर्षशते साधिके सा शुभानना। यामीत्याह दिवं ब्रह्मन्प्रणयस्मितशोभनम् ।। उक्तस्यैवं स मुनिरुपगुह्यायतेक्षणाम्। भावना का अफ कमाए इहास्यतां क्षणं सुभ्रु चिरकालं गमिष्यसि। म सा क्रीडमाना सुश्रोणी सह तेनर्षिणा पुनः। शतद्वयं किञ्चिदूनं वर्षाणामन्वतिष्ठत।। गमनाय महाभाग देवराजनिवेशनम्। प्रोक्तः प्रोक्तस्तया तन्व्या स्थीयतामित्यभाषत।। तस्य शापभयाद् भीता दाक्षिण्येन च दक्षिणा। प्रोक्ता प्रणयभङ्गार्त्तिवेदिनी न जहौ मुनिम्।। ५७४ चार्वाक दर्शन तया । च रमतस्तस्य परमर्षेरहर्निशम्। नवं नवमभूत्प्रेम मन्मथाविष्टचेतसः।। एकदा तु त्वरायुक्तो निश्चक्रामोटजान्मुनिः। निष्कामन्तं च कुत्रेति गम्यते प्राह सा शुभा।। इत्युक्तः स तया प्राह परिवृत्तमहः शुभे। सन्थ्योपास्तिं करिष्यामि क्रियालोपोन्यथा भवेत्।। ततः प्रहस्य सुदती तं सा प्राह महामुनिम्। किमद्य सर्वधर्मज्ञ परिवृत्तमहस्तव।। बहूनां विप्र वर्षाणां परिवृत्तमहस्तव। गतमेतन कुरुते विस्मयं कस्य कथ्यताम्।। गाया कि माया मुनिरुवाच प्रातस्त्वमागता भद्रे नदीतीरमिदं शुभम्। मया दृष्टासि तन्वनि प्रविष्टासि ममाश्रमम् ।। ततस्ससाध्वसो विप्रस्तां पप्रच्छायतेक्षणाम्। कथ्यतां भीरु कः कालस्त्वया मे रमतः सह।। शाम प्रम्लोचोवाच सप्तोत्तराण्यतीतानि नववर्षशतानि ते। मासाश्च षट् तथैवान्यत्समतीतं दिनत्रयम्।। कण्डु नाम के ऋषि गोमती नदी के किनारे परम तपस्या कर रहे थे। तपस्या में विघ्न डालने के लिये प्रम्लोचा नाम की अप्सरा इन्द्र के द्वारा भेजी गयी। उसने ऋषि को कामाकुल कर दिया। फलस्वरूप डेढ सौ वर्ष तक मन्दराचल में उसके साथ कण्डु ने विहार किया। उसके बाद जब उसने जाने की आज्ञा चाही तो मुनि ने कहा-हे भद्रे ! कुछ दिन और रुको। पुनः एक वर्ष तक ऋषि ने प्रम्लोचा के साथ विषयभोग किया। जब पुनः अप्सरा ने जाने की इच्छा प्रकट की तो कण्डु ने पुनः कहा हे शुभ्र ! कुछ दिन तक और यहाँ रुको और फिर दो सौ वर्ष तक उसके साथ वे ऋषि कामक्रीड़ा में लिप्त रहे। शाप के भय से प्रम्लोचा मुनि से अलग न हो सकी। एक दिन मुनि ने फिर पुछा-हे भद्रे ! तुम प्रातःकाल आयी थी और यह सन्ध्या का समय हो रहा है बोलो कितने समय तक मैंने तुम्हारे साथ विहार किया? प्रम्लोचा ने कहा-हे मुने ! आपको मेरे साथ विहार करते हुए नौ सौ सात वर्ष छह माह तीन दिन बीत गये। (वि.पु.।१।१५११-३२) चार्वाक दर्शन ५७५ विष्णु पुराण में ही एक कथा ययाति की आती है। ययाति का शरीर जीर्ण हो गया किन्तु कामवासना जीर्ण नहीं हुई। इस कारण उन्होंने अपनी कामतृप्ति के लिये यदु आदि अपने पुत्रों से यौवनदान की याचना की। उनके द्वारा याचना की स्वीकृति न मिलने पर अन्त में उन्होंने पुरु से यौवन माँगा और मिलने पर विषयों का भोग किया काव्यशापाच्च कालेनैव ययातिर्जरामवाप। प्रसन्नशुक्रवचनाच्च स्वजरां संक्रामयितुं ज्येष्ठं पुत्रं यदुमुवाच। एक वर्षसहस्रमतृप्तोऽस्मि विषयेषु, त्वद्वयसा विषयानाहं भोक्तुमिच्छामि. ….स यदु३च्छत्तां जरामादातुम् । अथ शर्मिष्ठातनयमशेषकनीयांसं पुरुं तथैवाह…स स्वकीयं च यौवनं स्वपित्रे ददौ। सोऽपि……यथोत्साहं विषयांश्चचार। महान शुक्र के शाप वश ययाति बूढ़े हो गये किन्तु शुक्र ने यह भी कहा था कि आप अपना वृद्धत्व किसी दूसरे को देकर उसका यौवन ले सकते हैं। उन्होंने यदु आदि अपने पुत्रों से याचना की। सबने अस्वीकार कर दिया। अन्त में कनिष्ठ पुत्र पुरु ने अपना यौवन राजा को दिया और वे बहुत दिन तक यौवनाचार में उपलिप्त थे। (वि.पु. ४।१०।७, १०, १५, १८) । कलि के स्वरूपवर्णन के माध्यम से चार्वाक दर्शन की आचारमीमांसा विष्णु पुराण में मिलती है स्वपोषणपराः क्षुद्रा देहसंस्कारवर्जिताः। परुषानृतभाषिण्यो भविष्यन्ति कलौ स्त्रियः।। यदा यदा सतां हानिर्वेदमार्गानुसारिणाम्। तदा तदा कलेवृद्धिरनुमेया विचक्षणैः।। कस्य माता पिता कस्य यथाकर्मानुगः पुमान्। ल गा इति चोदाहरिष्यन्ति श्वशुरानुगता नराः।। कलियुग में स्त्रियाँ अपना पोषण करेंगी, नाटे कद की और देहसंस्कार से रहित होंगी। वे कर्कष और असत्य भाषण करेंगी। जब-जब वेद मार्ग का अनुसरण करने वाले महात्माओं का विनाश होने लगे तो विद्वानों को यह अनुमान करना चाहिये कि कलियुग बढ़ रहा है। उस युग में श्वसुर के अनुकूल आचरण करने वाले पुरुष माता पिता के बारे में कहेंगे किसकी माता और किसका पिता ये तो पुरुष कर्म के अनुसार बनता है। इत्यादि (वि.पु. ६।१।३०, ४६, ५६) ५७६ चार्वाक दर्शन
दार्शनिक काल
दार्शनिक ग्रन्थों में चार्वाक दर्शन की चर्चा एवं उसका खण्डन विस्तृत रूप से उपलब्ध होता है। इस उपक्रम में आचार्य हरिभ सूरि (वि.सं. ७५७-८२७) द्वारा रचित ‘षड्दर्शनसमुच्चय’ का नाम सर्वप्रथम ग्राह्य है। उसके अनुसार पृथ्वी जल तेज और वायु ये चार महाभूत ही चेतना के आकार में परिणत होते हैं। इनके अतिरिक्त आत्मा नामक कोई तत्त्व नहीं है क्योंकि उसके विषय में प्रमाण नहीं मिलता- ज चार्वाकश्वार्चयन्ति यथा-इह कायाकारपरिणतानि चेतनाकारणभूतानि भूतान्येवोपलभ्यन्ते, न पुनस्तेभ्यो व्यतिरिक्तो भवान्तरयायी यथोक्तलक्षणः कश्चनाप्यात्मा, तत्सद्भावे प्रमाणाभावात्। तथाहि-भूतव्यतिरिक्तात्मसद्भावे किं प्रत्यक्षं प्रमाणं प्रवर्तत उतानुमानम् । न तावत प्रत्यक्षं, तस्य प्रतिनियतेन्द्रियसम्बद्धरूपादिगोचरतया तद्विलक्षणे जीवे प्रवृत्त्यनुपपत्तेः ।…..ततः सिद्धं शरीरकार्यमेव चैतन्यम्। ततश्च चैतन्यसहिते शरीर एवाहंप्रत्ययोत्पत्तिः सिद्धा इति न प्रत्यक्षप्रमेय आत्मा। ततश्चाविद्यमान एव। प्रयोगश्चात्र-नास्त्यात्मा, अत्यन्ताप्रत्यक्षत्वात्, यदत्यन्ताप्रत्यक्षं तनास्ति, यथा खपुष्पम्। यच्चास्ति तत्प्रत्यक्षेण गृह्यत एव, यथा घटः। अणवोऽपि ह्यप्रत्यक्षाः किन्तु घटादिकार्यतया परिणतास्ते प्रत्यक्षत्वमुपयान्ति। न पुनरयमात्मा कदाचिदपि प्रत्यक्षभावमुपगच्छति। नाप्यनुमानं भूतव्यतिरिक्तान्य-सद्भावे प्रवर्त्तते । तस्याप्रमाणत्वात् ।………किञ्च लिङ्गलिङ्गिसम्बन्धस्मरण-पूर्वकमनुमानम् ।……….नचैवमात्मना लिङ्गिना सार्ध कस्यापि लिङ्गस्य प्रत्यक्षेण सम्बन्धः सिद्धोऽस्ति। नाप्यागमगम्य आत्मा। अविसंवादिवचनाप्तप्रणीतत्वेन ह्यागमस्य प्रामाण्यम्। न चैवं भूतमविसंवादिवचनं कश्चनाप्याप्तमुपालभामहे यस्यात्मा प्रत्यक्षः। किञ्च आगमाः सर्वे परस्परविरुद्धप्ररूपिणः। तथानोपमानप्रमाणोपमेयोऽप्यात्मा………………….। तथाऽर्थापत्तिसाध्योऽपि नात्मा………………..। की चार्वाकों का विचार है कि इस संसार में शरीर के आकार में परिणत भूत ही चेतना के कारण हैं। उनसे अतिरिक्त जन्मान्तर देने वाला कोई आत्मा नामक पदार्थ नहीं है। क्योंकि उसके बारे में कोई प्रमाण नहीं मिलता। प्रत्यक्ष प्रमाण सम्भव नहीं क्योंकि वह इन्द्रियों से सम्बद्ध होता है और आत्मा के बारे में उसकी प्रवृत्ति नहीं होती इसलिये चैतन्य शरीर का कार्य है यह सिद्ध होता है। इस विषय में अनुमान है-आत्मा नहीं है क्योंकि उसका प्रत्यक्ष नहीं होता; जिसका प्रत्यक्ष नहीं होता उसकी सत्ता नहीं होती जैसे आकाशकुसुम। अनुमान प्रमाण हेतु और साध्य के सम्बन्ध का स्मरण करने के बाद होता है। आत्मा को यदि साध्य माने तो यह भी सम्भव नहीं क्योंकि उसका किसी प्रत्यक्षहेतु के चार्वाक दर्शन ५७७ साथ कोई सम्बन्ध नहीं है। आत्मा के विषय में आगम प्रमाण भी सम्भव नहीं क्योंकि कोई भी अविसम्वादि आप्त पुरुष नहीं मिलता जिसने आत्मा को देखा हो। इसी प्रकार उपमान और अर्थापत्ति आदि प्रमाण भी आत्मा की सिद्धि नहीं कर सकते। इस विषय में निम्नलिखित श्लोक संग्रहीत हैं। लोकायता वदन्त्येवं नास्ति जीवो न निवृतिः ।। प्रायः पिता धर्माधर्मों न विद्यते न फलं पापपुण्ययोः।। ६० ।। एतावानेव लोकोऽयं यावदिन्द्रियगोचरः । परोपी तर भद्रे वृकपदं पश्य यद् वदन्त्यबहुश्रुताः ॥ ८१ ॥ मीरा पिथी मन कुतः।। ६३ ।। तपांसि यातनाश्चित्राः संयमो भोगवञ्चना। अग्निहोत्रादिकं कर्म बालक्रीडेव लक्ष्यते।। ८२॥ यावज्जीवेत्सुखं जीवेत्तावद्वैषयिकं सुखम्। भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः।। ८३।। लोकायत कहते हैं कि न जीव है न उसका मोक्ष। धर्म-अधर्म और उनका फल पाप-पुण्य भी नहीं है। जितना इन्द्रियों के द्वारा दिखायी देता है उतना ही संसार है। तपस्या, अनेक प्रकार की यातनाएँ, संयम भोगरहित होना, अग्निहोत्र आदि ये सब बच्चों का खेल है। जब तक जीना है तब तक विषय का सुखभोग करना चाहिये। शरीर के जल जाने पर पुनः इस संसार में कहाँ आगमन होता है। भूतेभ्यो मदशक्तिवत् चैतन्यमुत्पद्यते। जलबुबुदवज्जीवाः। चैतन्य-विशिष्टः कायः पुरुषः। ‘गल चर्व अदने’ चन्ति भक्षयन्ति अर्थात् तत्त्वतो न मन्यन्ते पुण्यपापादिकं परोक्षं वस्तुजातमिति चार्वाकाः। लोकाः निर्विचाराः सामान्यलोकाः। तद्वदाचरन्ति स्मेति लोकायता। शरीर के अन्दर चैतन्य चार महाभूतों से मदशक्ति के समान उत्पन्न होता है। जीव जल के बुदबुद के समान है। चैतन्यविशिष्ट शरीर ही आत्मा है पृथ्वी जलं तथा तेजो वायु तचतुष्टयम् । ए माल आधारो भूमिरेतेषांमानं त्वक्षजमेव हि ॥ ३॥ पृथ्व्यादिभूतसंहत्या तथा देहपरीणतेः। मदशक्तिः सुराङ्गेभ्यो यद्वत्तद्वच्चिदात्मनि ।।४।। तस्माद् दृष्टपरित्यागाद् यददृष्टे प्रवर्त्तनम्। लोकस्य तद्विमूढत्वं चार्वाकाः प्रतिपेदिरे ।। ८५।। ५७८ चार्वाक दर्शन सैषा वृत्तिनिवृत्तिभ्यां या प्रीतिर्जायते जने। माता निरर्था सा मते तेषां धर्मः कामात् परो नहि ।। पृथ्वी जल तेज वायु ये चार ही भूत हैं। इस सभी का आधार केवल प्रत्यक्ष प्रमाण होता है। जिस प्रकार (गुड जौ महुआ आदि) शराब के उपादानों से मद शक्ति उत्पन्न होती है उसी प्रकार पृथ्वी आदि संयुक्त होकर चैतन्य उत्पन्न करते हैं। इसलिये चार्वाकों का कहना है कि दृष्ट का परित्याग कर अदृष्ट की परिकल्पना मूर्खता है। संसार के विषयों के प्रति प्रेम निरर्थक है। काम से अतिरिक्त कोई धर्म नहीं है। __ऐतिहासिक क्रम में इसके पश्चात् शान्तरक्षित (८ वीं शती) विरचित ‘तत्त्व संग्रह’ में चार्वाक दर्शन के तत्त्व मिलते हैं। यहाँ प्रमाण परीक्षा के सन्दर्भ में प्रत्यक्ष प्रमाण की सिद्धि एवं लोकायत परीक्षा के वर्णन में लोकायत मत को श्रेष्ठ मानते हुए चैतन्य अर्थात् आत्मा को चार महाभूतों का धर्म माना गया है। विस्तार के भय से यहाँ कुछ ही श्लोक उद्धृत किये जा रहे हैं यदि नानुगतो भावः कश्चिदप्यत्र विद्यते। परलोकस्तदा न स्यादभावात्परलोकिनः।। १८५७॥ यदि आत्मा अनुगामी नहीं है अर्थात् इस वर्तमान शरीर से पूर्व आत्मा की परम्परा नहीं थी तो परलोक का अस्तित्व खण्डित हो जाता है और फिर परलोकवासी की तो बात ही नहीं उठती। देहबुद्धीन्द्रियादीनां प्रतिक्षणविनाशने। न युक्तं परलोकित्वं नान्यश्चाभ्युपगम्यते।।१८५८ ।। तस्माद् भूतविशेषेभ्यो यथाशुक्रसुरादिकम्। तेभ्य एव तथा ज्ञानं जायते व्यज्यतेऽथवा।। १८५६।। देह, बुद्धि और इन्द्रिय आदि का क्षण-क्षण में विनाश हो रहा है-ऐसा देखकर परलोकिता तथा आत्मा आदि का विचार करना ही अयुक्त है। अतएव जैसे सड़ाये गये द्रव्यों से मादकता आदि तत्त्व स्वयं उत्पन्न हो जाते हैं, वैसे ही चार भूत तत्त्वों से ज्ञान-चैतन्य की उत्पत्ति हो जाती है और पुरुषविशेष का व्यक्तित्व उत्पन्न या अनुभूत होने लगता है। सन्निवेशविशेषे च क्षित्यादीनां निवेश्यते। देहेन्द्रियादिसंज्ञेयं तत्त्वं नान्यद्धि विद्यते।। १८६०।। चार्वाक दर्शन ५७६ पृथिवी आदि चार भूतों के विशिष्ट मात्रा में सन्निविष्ट होने पर देह तथा चक्षु आदि इन्द्रियों की संज्ञा होती है। इसके अतिरिक्त ओर कोई ज्ञेय तत्त्व नहीं है। प्रत्यक्ष को छोड़कर अन्य कोई प्रमाण भी नहीं, जिससे परलोक आदि की सिद्धि हो। कार्यकारणता नास्ति विवादपदचेतसोः। विभिन्नदेहवृत्तित्वात् गवाश्वज्ञानयोरिव।। १८६१।। यदि अतीत देहस्थित चित्त का कारण तत्पूर्वजन्मगत चित्त को मान लिया जाए तो चित्त के अविच्छिन्नरूप बन्धन की निवृत्ति के कारण परलोक की कल्पना हो सकती थी, किन्तु विभिन्न देहधारी गोजाति और अश्वजातिगत दो विभिन्न ज्ञानों के समान तद्गत प्रथम दो (अतीत देह और तत्पूर्वजन्मीय देहगत) विवादग्रस्त चित्त कार्यों के लिये कारण का आरोप कहीं नहीं हो सकता। सरागमरणं चित्तं न चित्तान्तरसन्धिकृत। मरणज्ञानभावेन वीतक्लेशस्य तद्यथा।। १८६३ ।। जिस प्रकार मरणज्ञान रहने पर भी वीतक्लेश ज्ञानी का मन पुनर्जन्म धारण नहीं करता, उसी प्रकार मरणोन्मुख प्राणी का चित्त संसार में आसक्त रहने पर भी अन्य शरीर में प्रवेश नहीं करता। कायादेव ततो ज्ञानं प्राणापानाद्यधिष्ठितात्। युक्तं जायत इत्येतत् कम्बलाश्वतरोदितम् ।।१८६४।। प्राण और अपान आदि वायुओं के आधारित शरीर से ही चैतन्य या ज्ञान की उत्पत्ति होती है-यह किसी कम्बलाश्वतर ऋषि का वचन है। कललादिषु विज्ञानमस्तीत्येतच्च साहसम् । असञ्जतेन्द्रियत्वाद्धि न तत्रार्थोऽवगम्यते ॥ १८६५।। न चार्थावगतेरन्यद् रूपं ज्ञानस्य युज्यते। मूर्छादावपि तेनास्य सद्भावो नोपपद्यते।। १८६६ ।। न चापि शक्तिरूपेण तदा धीरवतिष्ठते। निराश्रयत्वाच्छक्तीनां स्थितिर्नह्यवकल्पते ।। १८६७ ।। ज्ञानधारात्मनोऽसत्त्वे देह एव तदाश्रयः। अन्ते देहनिवृत्तौ च ज्ञानशक्तिः किमाश्रया।। १८६८ ।। - कलल (गर्भ) आदि में विज्ञान है-यह कहना दुःसाहस मात्र है। कलल आदि के रूप ___ में विज्ञान अपनी सुप्तावस्था में रहता है, किन्तु चक्षु आदि ज्ञानेन्द्रियों की स्पष्ट आकृति के . ५८० चार्वाक दर्शन निर्मित होने के कारण रूप आदि इन्द्रियार्थों अर्थात् विषयों का अस्तित्व अनुभूत नहीं होता है रूप आदि पञ्च इन्द्रियविषयों की अनुभूति के अतिरिक्त ज्ञान का अन्य कोई रूप अपेक्षित नहीं, अतएव मुर्छा आदि की अवस्था में कभी विज्ञान का सदभाव परिलक्षित नहीं होता। तत्कालीन विज्ञान के अस्तित्व की कल्पना शक्तिरूप में की जाए?-यह भी उचित नहीं, क्योंकि निराश्रय होने पर शक्तियों का अस्तित्व रह ही नहीं सकता। ज्ञानाश्रित आत्मा की अविद्यमानता में चतुर्भूतमय देह में ही वह (विज्ञान) आश्रय ग्रहण करता है और अन्त (मरणावस्था) में देह का नाश हो जाने पर ज्ञान कहाँ ठहर सकता है? अर्थात् ज्ञान की अनवस्था में अनागत जन्म की असिद्धि सिद्ध हुई। तदत्र परलोकोऽयं नान्यः कश्चन विद्यते । उपादानतदादेयभूतज्ञानादिसन्ततेः।। १८७२ ।। एकं नित्यस्वभावं च विज्ञानमिति साहसम् । रूपशब्दादिचित्तानां व्यक्तं भेदोपलक्षणात् ।।१८८३।। नावयव्यात्मता तेषां नापि युक्ताऽणुरूपता । अयोगात् परमाणूनामित्येतदभिधीयते ।। १८८६ ।। संसारानुचिता धर्माः प्रज्ञाशीलकृपादयः । स्वरसेनैव वर्त्तन्ते तथैव न मदादिवत् ।। १६५६ ।। तो यहाँ कोई दूसरा परलोक नहीं है। उपादान और उसके उपादेय भूत ज्ञानादि-सन्तान का कोई परलोक नहीं है। जो लोग यह कहते हैं कि एक नित्य स्वभाव वाले विज्ञान की सत्ता है उनका यह कहना साहस मात्र है क्योंकि रूप शब्द आदि वाले चित्तों का भेद स्पष्ट होता है। वे महाभत आदि न तो अवयवी हैं और न उनकी अनुरूपता ही युक्त है क्या-कि परमाणुआ-का संयोग नहीं होता। संसार के अन्दर रहने वाले प्रज्ञा शील कृपा आदि धर्म स्वभाव से ही उत्पन्न होते हैं। मद्य आदि की भाँति किसी के सम्मिश्रण से नहीं। पण माय (त.सं. १८५७……….१६५६) न्यायशास्त्र के विशिष्ट विद्वान् जयन्त भट्ट (नवीं शती ई.) ने न्यायमञ्जरी की रचना की। उनकी दृष्टि में चार्वाक मत धूतों का दर्शन है। कि चार्वाकधूर्तस्तु अथातस्तत्त्वं व्याख्यास्यामः इति प्रतिज्ञाय प्रमाणप्रमेय संख्यालक्षणनियमाशक्यकरणीयत्वमेव तत्त्वं व्याख्यातवान् । प्रमाणसं ख्यानियमाशक्यकरणीयत्वसिद्धये च प्रमितिभेदान् प्रत्यक्षादि प्रमाणानुपजन्यानीदृशानुपादर्शयत्।
चार्वाक दर्शन ५८१ वक्राङ्गुलिः प्रविरलागुलिरेष पाणि रित्यस्ति थीस्तमसि मीलितचक्षुषो वा। नेयं त्वगिन्द्रियकृता न हि तत्करस्थं । तत्रैव हि प्रमितिमिन्द्रियमादधाति । दूरात् करोति निशि दीपशिखा च दृष्टा पर्यन्तदेशविसृतासु मतिं प्रभासु। या या कामान नि धत्ते धियं पवनकम्पितपुण्डरीक- परिचालक षण्डोनुवात भुवि दूरगतेऽपि गन्थे।। स एवंप्रायसंवित्तिसमुत्प्रेक्षणपण्डितः। रूपं तपस्वी जानाति न प्रत्यक्षानुमानयोः।। प्रत्यक्षाद् विरलागुलिप्रतीति र्व्यापित्वादकुशलमिन्द्रियं न तस्याम्। आनाभेस्तुहिनजलं जनैः पिबद्भि स्तत्स्पर्शः शिशितरोऽनुभूयते।। संयोगबुद्धिश्च यथा तदुत्था तथैव तज्जा तदभावबुद्धिः। क्रियाविशेषग्रहणाच्च तस्मा- SERIFIELTS दाकञ्चितत्वावगमोऽङगलीनामा पदमामोदविदरदीपकविभाबद्धिः पुनलैंगिकी व्याप्तिज्ञानकतेति का खल मतिर्मानान्तरापेक्षिणी। संख्याया नियमः प्रमाणविषये नास्तीत्यतो नास्तिकै स्तत्सामर्थ्यविवेकशून्यमतिभिर्मिथ्यैव विस्फूर्जितम् ।। इयत्त्वमविलक्षणं नियतमस्ति मानेषु नः प्रमेयमपि लक्षणादिनियमान्वितं वक्ष्यते। अशक्तकरणीयतां कथयतां तु तत्त्वं सतां समक्षममुनात्मनो जडमतित्वमुक्तं भवेत्।। (न्याय मञ्जरी २-३) अथ सुशिक्षिताश्चार्वाका आहुः। यावच्छरीरभवस्थितमेकं प्रमातृतत्त्व मनुसन्धानादिव्यवहारसमर्थमस्तु नाम कस्तत्र कलहायते। शरीरादूर्ध्वं तु तदस्ति इति किमत्र प्रमाणम्। न च पूर्वशरीरमपहाय शरीरान्तरं संक्रामति प्रमाता। यदि ह्येवं भवेत् , तदिह शरीरे शैशवदशानुभूतपदार्थस्मरणवत् अतीतजन्मानुभूतपदार्थस्मरणमपि तस्य भवेत्। न हि तस्य नित्यत्वाविशेषे च स्मरणविशेषे कारणमुत्पश्यामो यदिह जन्मनि५८२ चार्वाक दर्शन एवानुभूतं स्मरति नान्यजन्मानुभूतमिति। तस्मादूर्ध्वं देहान्नास्त्येव प्रमातेति नित्यात्मवादमूलपरलोककथामपास्य यथासुखमास्यताम् । यथाह यावज्जीवं सुखं जीवेन्नास्ति मृत्योरगोचरः। भस्मीभूतस्य शान्तस्य पुरागमनं कुतः।। धूर्त चार्वाक, इसके बाद तत्त्व की व्याख्या करेंगे-ऐसी प्रतिज्ञा कर प्रमाण प्रमेय आदि तत्त्वों की चर्चा की। प्रमाण और संख्या के नियम को करना सम्भव नहीं इसलिये उसकी सिद्धि के लिए प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों से उत्पन्न प्रमिति के भेदों को बतलाया यह हाथ टेढ़ी उङ्गलियों वाला अथवा विरल अगुलियों वाला है ऐसा ज्ञान अन्धकार में अथवा आँख बन्द करने वाले को नहीं होता। यह ज्ञान तो त्वग्इन्द्रिय से उत्पन्न नहीं होता। इसलिए इन्द्रियाँ वहीं पर प्रमा उत्पन्न करती हैं। रात में दूर से देखी गयी दीपशिखा आस पास के स्थानों में ज्ञान कराती है। उसी प्रकार दूरगम्य गन्ध का भी वायु के द्वारा कम्पित कमल से ज्ञान होता है। इस प्रकार के ज्ञान को जानने में पण्डित तपस्वी रूप को जान सकता है या जानता है। न कि प्रत्यक्ष और अनुमान के द्वारा। विरल अगुलि का ज्ञान प्रत्यक्ष व्यापक होने से इन्द्रियाँ उसको नहीं जान सकती जैसे कि नाभिपर्यन्त ठण्ढे जल का पान करने वाले लोगों के द्वारा उसका स्पर्श ठण्ढा जाना जाता है। जिस प्रकार संयोग की बुद्धि प्रत्यक्ष के कारण उत्पन्न होती है। उसी प्रकार संयोग के अभाव की बुद्धि भी प्रत्यक्ष से उत्पन्न होती है। क्रियाविशेष का ग्रहण होने से अङ्गुलियों का सङ्कोच भी मालूम होता है। कमल के गन्ध और दूरस्थ दीपक की प्रभा का ज्ञान किसी लिङ्ग से होता है। उसको व्याप्तिज्ञान से भी उत्पन्न मानते हैं। ऐसी बुद्धि किसी दूसरे प्रमाण की अपेक्षिणी कैसे हो सकती है। प्रमाण के विषय में संख्या का नियम नहीं है। इसलिए नास्तिक लोग उसको मिथ्या मानते हैं। प्रमाणों के विषय में हमारा इतना निश्चित सामान्य विचार है और प्रमेय भी लक्षण आदि नियमों से अन्वित कहा जाता है। जो लोग तत्त्वों की अशक्यकरणीयता को कहते हैं। उनके सामने इसके द्वारा अपनी मूखर्ता ही प्रकट की जाती है। (न्यायमञ्जरी २-३) इसके बाद सुशिक्षित चार्वाक कहते हैं कि पूरे शरीर में एक प्रमाता है जो अनुसन्धाानादि व्यवहार करने में समर्थ है। उसमें कौन झगड़ा करे। यह प्रमातृ तत्त्व शरीर से अतिरिक्त है इसमें क्या प्रमाण है। ऐसा नहीं है कि एक प्रमाता अपने पूर्व शरीर को छोड़कर दूसरे शरीर में जाता है। यदि ऐसा हो तो इस शरीर में शैशव दशा में अनुभूत पदार्थ का स्मरण जैसे होता है उसी प्रकार अतीत जन्म में अनुभूत पदार्थ का स्मरण उसको वर्तमान जन्म में भी होना चाहिये। उसके नित्य और स्मरण विशेष में कोई कारण नहीं देखते। यदि कोई व्यक्ति इस जन्म में किये गये अनुभव का स्मरण करता है और अन्य चार्वाक दर्शन ५८३ जन्म में अनुभूत का अनुभव नहीं करता तो इससे यह सिद्ध होता है कि देह के मरने के बाद कोई प्रमाता नहीं रहता। इसलिये नित्यआत्मवाद के आधार पर परलोक की कथा छोड़कर सुख पूर्वक रहिये। जैसा कि कहा गया जीवनपर्यन्त सुख से जीना चाहिये क्योंकि कोई भी मृत्यु का अविषय नहीं होता अर्थात् सबकी मृत्यु होती है। जले हुये शान्त देह का पुनः आगमन कैसे सम्भव है। (आ. ७/६) आचार्य हेमचन्द्र (११ वीं शती ई.) ने ‘त्रिषष्ठिशलाकापुरुषचरित’ नामक ग्रन्थ में सत्रह श्लोकों के द्वारा नास्तिक मत का प्रतिपादन किया हैं त्यक्त्वा यदैहिकान् भोगान् परलोकाय यत्यते। या हित्वा हस्तगतं लेां कूर्परालेहनं हि तत्।। ऐहलौकिक सुखोपभोगा-को त्याग कर परलोक के लिये यत्न करना वैसा ही है जैसे हाथ में आये हुए सुस्वादु अवलेह को त्याग कर कोहनी को चाटना। परलोकफलो धर्मः कीर्त्यते तदसङ्गतम्। परलोकोऽपि नाऽस्त्येवाऽभावतः परलोकिनः।। धर्माचरण का फल परलोक में मिलता हैं यह कथन युक्तिसङ्गत नहीं, क्योंकि परलोकी प्राणी के प्रत्यक्ष अभाव के कारण परलोक का अभाव स्वतः सिद्ध हो जाता है। पृथ्व्यप्तेजः समीरेभ्यः समुद्भवति चेतना। मा लिएर गुडपिष्टोदकादिभ्यो मदशक्तिरिव स्वयम्।। पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु-इनके मिलन से चेतना उत्पन्न हो जाती है, जिस प्रकार गुड और पिष्टोदकादि से मादक शक्ति स्वयं प्रादुर्भूत हो उठती है। शरीरान पृथक् कोऽपि शरीरी हन्त विद्यते। परित्यज्य शरीरं यः परलोकं गमिष्यति।। इस प्रत्यक्ष शरीर से भिन्न कोई आत्मादि तत्त्व नहीं जो शरीर का त्यागकर परलोक को जायेगा। निःशङ्कमुपभोक्तव्यं ततो वैषयिकं सुखम् । निमशान लिमा स्वात्मा न वञ्चनीयोऽयं स्वार्थभ्रंशो हि मूर्खता।। ५८४ चार्वाक दर्शन इस कारण निर्भीक होकर वैषयिक सुखोपभोग करना चाहिये। अपने को सुखोपभोग से वञ्चित रखना तो मूर्खता ही है। धर्माधमौं च नाशङ्कयौ विघ्नहेतू सूखेषु तत्। तावेव नैव विद्यते यतःखरविषाणवत्।। धर्म और अधर्म की शङ्का में नहीं पड़ना चाहिये, क्योंकि वे सुखों में विघ्नरूप हैं। धर्म और अधर्म नामक कोई तत्त्व अस्तित्व में नहीं है, जिस प्रकार की गर्दभ के शृङ्ग का अस्तित्व नहीं है। स्नपनेनाङ्गरागेण माल्यवस्त्रविभूषणैः । यदेकः पूज्यते ग्रावा पुण्यं तेन व्यथायि किम्॥ एक प्रस्तरखण्ड जब प्रतिमा के रूप में निर्मित हो जाता है तब स्नान, अङ्गराग, माला, वस्त्र और अलङ्कारों से उसकी पूजा की जाती है। विचारणीय यह है कि उस प्रतिमारूप प्रस्तरखण्ड ने कौन सा पुण्य किया था? अन्यस्य चोपरि ग्राव्णः आसित्वा मूत्यते जनैः। क्रियते च पुरीषादि पापं तेन व्यधायि किम्।। और एक अन्य प्रस्तरखण्ड है जिस पर उपविष्ट होकर लोग मल-मूत्र का त्याग करते हैं। उस प्रस्तरखण्ड ने कौन सा पापकर्म किया था? उत्पद्यन्ते विपद्यन्ते कर्मणा यदि जन्तवः। . उत्पद्यन्ते विपद्यन्ते बुबुदाः केन कर्मणा। यदि प्राणी कर्म के कारण जन्म ग्रहण करते और मरते हैं तो फिर ये जल के बुबुद किस पुण्यापुण्य कर्म से उत्पन्न और विलीन होते हैं? जो काम का कि तदस्ति चेतनो यावत् चेष्ट्यते तावदिच्छया। चेतनस्य विनष्टस्य विद्यते न पुनर्भवः ।।। अस्तु, जब तक चेतन है तब तक ही इच्छानुसार चेष्टाएँ होती हैं। जब चेतन का विनाश हो गया तक उसका पुनर्जन्म नहीं होता। जी हा य एव म्रियते जन्तुः स एवोत्पद्यते पुनः। इत्येतदपि वाङ्मात्रं सर्वथाऽनुपपत्तिभिः।। जो प्राणी मरता है, वही पुनः उत्पन्न होता हैं यह वचन मात्र है, क्योंकि आत्मा की सिद्धि किसी प्रकार से नहीं होती। AL चार्वाक दर्शन ५८५ शिरीषकल्पे तत्तल्पे रूपलावण्यचारुभिः। रमणीभिः समं स्वामी रमतामविशङ्कितम्।। शिरीषपुष्पा-के समान मृदुल शय्या पर रूपलावण्य से सम्पन्न रमणियों के साथ निःसङ्कोचभाव से रमण करना ही श्रेयस्कर है। भोज्यान्यमृतरूपाणि पेयानि च यथारुचि। खाद्यन्तां स्वामिना स्वैरं स वैरी यो निषेधति।। अमृत के तुल्य भोज्य और पेय पदार्थों का रुचि के अनुसार स्वच्छन्दता से आस्वादन करना ही कल्याणकारक है। जो इसका निषेध करता है वह शत्रु है। कर्पूरागुरुकस्तूरीचन्दनादिभिराचितः। एकसौरभ्यनिष्पन्न इव तिष्ठ दिवानिशम्।। कर्पूर, अगुरु, कस्तूरी और चन्दन आदि विलास सामग्रियों से चर्चित अर्थात् उपलिप्त हो मनुष्य के लिए सौरभनिष्पन्न होकर अहर्निश विलासमय जीवन यापन करना उचित है । उद्यानयानजगतीचित्रशालादिशालि यत्। तत्तत् क्षितीश प्रेक्षस्व चक्षुःप्रीत्यै प्रतिक्षणम्॥ संसार में उद्यान, यान और चित्रशाला आदि जो कुछ भी दृश्य है, नेत्रों की तृप्ति के लिये उन्हें निरन्तर देखना ही उचित है। वेणुवीणामृदङ्गानुनादिभिर्गीतनिस्वनैः। दिवानिशं तव स्वामिनस्तु कर्णरसायनम्।। वेणु, वीणा और मृदङ्ग आदि (वाद्या-) की मधुर गीतध्वनियों से अहर्निश कर्णामृत का रसास्वादन करना श्रेयस्कर है। यावज्जीवेत्सुखं जीवेत् तावद्वैषयिकैः सुखैः। ना ताम्येद्धर्मकार्याय धर्माधर्मफलं क्व तत्।। मनुष्य के लिये आजीवन वैषयिक सुखोपभोग के द्वारा आनन्दमय जीवन व्यतीत करना श्रेयस्कर है। धर्माचरण के लिये चेष्टा करना निरर्थक है, क्योंकि धर्माधर्म का फल कहीं कुछ भी नहीं है। (त्रिषष्ठि श. पु. च.) ५८६ चार्वाक दर्शन आचार्य कृष्णयति मिश्र ने ११वीं शती में प्रबोध चन्द्रोदय नामक नाट्य ग्रन्थ की रचना की। इसमें उन्होंने भूतातिरिक्त आत्मवाद एवं स्वर्ग का खण्डन करते हुए चार्वाकसम्मत भोगवाद की (पूर्वपक्ष के रूप में) प्रशंसा की है। इसकी पुष्टि के लिए उक्त ग्रन्थ में पौराणिक उद्धरण भी प्रस्तुत किये गये हैं अहल्यायै जारः सुरपतिरभूदात्मतनयां प्रजानाथोऽयासीदभजत गुरोरिन्दुरबलाम्। इति प्रायः को वा न पदमपथेऽकार्यत मया श्रमो मद्बाणानां क इव भुवनोन्माथविधिषु।। १।१४ ।। इन्द्र ने अहल्या के साथ जार का कर्म किया। ब्रह्मा अपनी पुत्री के ही साथ शारीरिक सम्बन्ध बनाये। चन्द्रमा ने वृहस्पति की पत्नी के साथ समागम किया। इससे कौन ऐसा है जिसने कुमार्ग में कदम नहीं रखा। मेरे बाणों का श्रम सब जगह मन्थन कर देता है।।१।१४ वेश्यावेश्मसु सीधुगन्धिललनावक्त्रासवामोदितै र्नीत्वा निर्भरमन्मथोत्सवरसैरुनिचन्द्राः क्षपाः। वयन सर्वज्ञा इति दीक्षिता इति चिरात् प्राप्ताग्निहोत्रा इति ब्रह्मज्ञा इति तापसा इति दिवा धूर्तेर्जगद् वञ्च्यते ।।२।। वेश्याओं के घर में मदिरा से सुगन्धित स्त्री के मुखों के आनन्द के साथ पूर्ण कामोत्सव रस में उपलिप्त होकर रात्रि जागरण करना चाहिये । ये सर्वज्ञ हैं, ये दीक्षित हैं, ये अग्निहोत्री हैं, ये ब्रह्मज्ञानि हैं, ये तपस्वी हैं, ऐसा दिन में कहने वाले धूतों के द्वारा संसार ठगा जाता है ।।२।१।। का प्रतीक यन्नास्त्येव तदस्ति वस्त्विति मृषा जल्पद्भिरेवास्तिकै चालैर्बहुभिस्तु सत्यवचसो निन्द्याः कृतो नास्तिकाः। हंहो पश्यत तत्त्वतो यदि पुनश्छिन्नादितो वह्मणां गांना दृष्टः किं परिणामिरूपितचितेर्जीवः पृथक्कैरपि ।।२।१७॥ मिथ्यावादी तथा वेदानुयायी आस्तिक सम्प्रदायों ने यथार्थतः अविद्यमान आत्म वस्तु की विद्यमानता घोषित कर सत्यवादी और वेदविरोधाचारी नास्तिक सम्प्रदायों की निन्दा की है। प्रेक्षावान् व्यक्तियों को विचार करना चाहिये कि शरीर के कट जाने पर उस शरीर से पृथक् जीवात्मा की सत्ता का क्या कभी अनुभव हुआ है। यदि कोई कहे कि आत्मा अदृश्य रूप से शरीर में व्याप्त है तो यह कथन भी निरर्थक है क्योंकि कालान्तर में अङगों के नष्ट हो जाने पर आत्मा का निराधार गुप्त रहना सम्भव नहीं।। २।१७।। चार्वाक दर्शन ५८७ स्वर्गः कर्तक्रियाद्रव्यविनाशे यदि यज्वनाम। मिगत ततो दावाग्निदग्धानां फलं स्याद् भूरि भूरुहाम् ।। २।१६ ।। यदि यज्ञ करने वालों को कर्त्ता क्रिया और द्रव्य के नष्ट होने पर भी स्वर्ग मिलता है तो दावाग्नि में दग्ध वृक्षों को भी स्वर्ग आदि फल मिलना चाहिये ।।२।१६।। निहतस्य पशोर्यज्ञे स्वर्गप्राप्तिर्यदीष्यते । स्वपिता यजमानेन किं नु कस्मान्न हन्यते ।। २।२० ।। यज्ञ में मारे गये पशु के कारण यदि स्वर्ग प्राप्ति मानी जाती है तो यजमान अपने पिता को यज्ञ में क्यों नहीं मार देता ।। २।२० ।। INEERINEERPIRAHARPATTERNALRADHRIPATHARA RWEAR MAHARHA मृतानामपि जन्तूनां श्राद्धं चेत् तृप्तिकारणम्। निर्वाणस्य प्रदीपस्य स्नेहः संवर्धयेच्छिखाम् ।। २।२१ ।। __यदि श्राद्ध मरे हुए जीवों की तृप्ति का कारण बनता है तो बुझे हुए दीपक में पड़ा हुआ तेल भी उसके शिखा को बढ़ायेगा ।। २।२१ ।। क्वालिङ्गनं भुजनिपीडितबाहुमूलं भुग्नोन्नतस्तनमनोहरमायताक्ष्याः । भिक्षोपवासनियमार्कमरीचिदाहै देहोपशोषणविधिः कुधियां क्व चैषः ।। २।२२ ।। जागी रसानुभूति के साथ सहृदय प्रेमी के दोनों हाथों से मर्दन किये जाने पर शिथिल दोनों स्तनों से अत्यन्त मनोहर विशालाक्षी का कहाँ सुन्दर आलिङ्गन और कहाँ मूर्ख आस्तिक सम्प्रदायों के द्वारा अनुमोदित भिक्षावृत्ति, उपवास, नियम, पञचाग्नि तापना आदि क्लेशकारी तपः के द्वारा देह को शोषित तथा पीड़ित करने वाला यह विधान; इन दोनों में कोई तुलना नहीं ।। २।२२ ।। त्याज्यं सुखं विषयसङ्गमजन्म पुंसां दुःखोपसृष्टमिति मूर्खविचारणैषा। व्रीहीन् जिहासति सितोत्तमतण्डुलाढ्यान् को नाम भोस्तुषकणोपहितान् हितार्थी ।। २।२३ ।। विषयसङ्गम से उत्पन्न होने वाला अनुपम सुख आदमियो के लिये त्याज्य है क्योंकि यह दुःखोपसृष्ट है- ऐसा विचार मूर्खतापूर्ण है। कौन ऐसा व्यक्ति है जो भूसी में छिपे हुए उत्तम स्वच्छ चावल को छोड़ना चाहेगा ।। २।२३ ।। ५८८ चार्वाक दर्शन अग्निहोत्रं त्रयो वेदास्त्रिदण्डं भस्मगुण्ठनम्। प्रज्ञापौरुषहीनानां जीविकेति वृहस्पतिः ।। २।२६ ।। - प्रातः और सायङ्काल में हवन ऋग् यजु और साम का आचारपालन तृदण्ड युक्त सन्यास और ललाट तथा शरीर में भस्म धारण यह सब बुद्धि और पराक्रम से रहित लोगों की जीविका है-ऐसा बृहस्पति कहते हैं ।। प्र.च. २।२६ ।। नैषध चरित के प्रणेता श्री हर्ष (१२ वीं शती ई.) कन्नौज के राजा जयचन्द के दरबारी महामनीषी एवं प्रतिष्ठित कवि थे। उन्होंने वृहस्पति की उक्ति के माध्यम से चार्वाक मत का विस्तृत विवेचन अपने महाकाव्य के सत्रहवें सर्ग में किया है ग्रावोन्मज्जनवद् यज्ञफलेऽपि श्रुतिसत्यता। का श्रद्धा तत्र धीवृद्धाः कामाध्वा यत्खिलीकृतः।। हे बुद्धिमानों ! श्रुतियों का प्रतिपादन है कि ज्योतिष्टोमादि यज्ञ कर्ता को स्वर्गादि फल देते हैं। इन यज्ञफलप्रतिपादक श्रुतियों की प्रामाणिकता में उतनी ही यथार्थता है, जितनी इस वाक्य में कि ग्रावा अर्थात पत्थर जल के ऊपर तैरते हैं। परन्तु इस पाषाणतरण में प्रत्यक्षप्रमाण का नितान्त अभाव है। इसी प्रकार यज्ञ का फल मिलता है-यह किसी ने प्रत्यक्ष नहीं किया, इस कारण जिसकी सत्यता में प्रत्यक्ष प्रमाण का अभाव हो और जो काम का मार्ग अवरुद्ध कर दे उस भ्रामक तथा अप्रामाणिक श्रुतिसत्यता में क्यों विश्वास किया जाय? केनापि बोधिसत्त्वेन जातं सत्त्वेन हेतुना। यद्वेदमर्मभेदाय जगदे जगदस्थिरम्।। यज्ञविधायक वेद के प्रकृत रहस्य को प्रकट करने के लिये कोई तत्त्वज्ञानी बोधिसत्त्व उत्पन्न हो चुका है, जिसने सत्त्व हेतु के द्वारा जगत को अनित्य या क्षणिक घोषित किया है। बौद्धसिद्धान्त के अनुसार जो ‘सत्’ (विद्यमान) है वह अनित्य है। अतएव यह दृश्यमान जगत् भी अनित्य है और जगत् के ही अन्तर्गत होने के कारण आत्मा भी अनित्य है। इस परिस्थिति में जिस आत्मा ने पाप या पुण्य किया वह भी क्षणमात्र के पश्चात् नष्ट हो गया। अतएव आत्मा पाप-पुण्य का फलभोक्ता कदापि नहीं हो सकता। इस प्रकार कालान्तर में आचरित पाप-पुण्य का फल आत्मा भोगता है-ऐसा प्रतिपादन करने वाली श्रुति भी अप्रमाणिक सिद्ध हो जाती है। इस कारण पाप से डर कर पारलौकिक सुख पाने की आशा से हस्तगत ऐहलौकिक सुख का त्याग कदापि नहीं करना चाहिये। अग्निहोत्रं त्रयीतन्त्रं त्रिदण्डं भस्मपुण्ड्रकम्। प्रज्ञापौरुषनिःस्वानां जीवो जल्पति जीविका।। ५८६ चार्वाक दर्शन वृहस्पति की उक्ति है-१. प्रातःसायं काल में हवन, २. तीनों वेदों का आचारपालन, ३. तान्त्रिक अनुष्ठान, ४. दण्डयुक्त संन्यासधारण और ५. ललाट में भस्म धारण-ये पाँच कर्म बुद्धिपुरुषार्थहीन व्यक्तियों के जीविकायापन के उपाय मात्र हैं। शुद्धिवेशद्वयीशुद्धौ पित्रोः पित्रोर्यदेकशः। तदानन्तकुलादोषाददोषा जातिरस्ति का।। क्योंकि अपने माता-पिता के माता-पिता (= मातामही-मातामह तथा पितामही-पितामह) और फिर उनके माता-पिता (= प्रमातामही-प्रमातामह तथा प्रपितामही-प्रपितामह) इस प्रकार ब्रह्मा (= आदि सृष्टिकर्ता) पर्यन्त प्रत्येक की शुद्धि से उभय कुल की शुद्धि होती है। इसलिये प्रत्येक जाति का कुल अनन्त है तो कौन-सी जाति निर्दोष कही जा सकती है ? अर्थात् जाति धर्म छोड़कर स्वेच्छाचार करना चाहिये। कोई भी जाति शुद्ध और पवित्र नहीं है। कामिनीवर्गसंसगैर्न कः सङ्क्रान्तपातकः। नाश्नाति स्नाति हा मोहात्कामक्षामव्रतं जगत्।। कामिनियों के संसर्ग से कौन व्यक्ति सङ्करता दोष से मुक्त कहा जा सकता है। यह खेद का विषय है कि अज्ञान के कारण लोग व्रतउपवास, तीर्थस्नान आदि कर्म करते हैं। यह सम्पूर्ण जगत् काम के जाल में बँधा है-कोई भी कामाचार से मुक्त नहीं। ईर्ष्णया रक्षतो नारीर्धिक्कुलस्थितिदाम्भिकान्। स्मरान्धत्वाविशेषेऽपि तथा नरमरक्षतः।। कामवासना स्त्री और पुरुष-दोनों में स्वभावतः समान से होती है, किन्तु पुरुष ईर्ष्याद्वेष के कारण स्त्रियों को परपुरुषदर्शन से बचाते हैं, लेकिन पुरुष जाति को स्वतन्त्रता देते हैं-ऐसे रूढ़िपालक अथवा कुलमर्यादाभिमानी ढोंगियों को धिक्कार है। परदारनिवृत्तिर्या सोऽयं स्वयमनादृतः। अहल्याकेलिलोलेन दम्भो दम्भोलिपाणिना।। - परस्त्री का संसर्ग नहीं करना चाहिये-इस शास्त्रीय आदेशरूप दम्भ का उल्लंघन तो स्वयं वज्रधारी देवराज इन्द्र ने किया। उन्होंने गौतम की पत्नी अहल्या के साथ परोक्ष में सम्भोग किया। गुरुतल्पगतौ पापकल्पनां त्यजत द्विजाः। येषां वः पत्युरत्युच्चैर्गुरुदारग्रहे ग्रहः।। ५६० . चार्वाक दर्शन हे द्विजातियों ! गुरुपत्नी के सम्भोग से पाप होता है-इस दाम्भिक पापभावना का त्याग कर दो, क्योंकि तुम्हारे कुलगुरु चन्द्रमा ने स्वयं अपनी गुरुपत्नी (बृहस्पति की पत्नी) तारा के साथ सम्भोग किया। पापात्तापा मुदः पुण्यात्परासोः स्युरिति श्रुतिः । वैपरीत्यं द्रुतं साक्षात् तदाख्यात बलाबले।। का श्रुति बतलाती है-मरने पर पापाचरण से मनुष्य को नरक आदि दुःख भोगना पड़ता है और पुण्याचरण से स्वर्गादि सुख की प्राप्ति होती है, किन्तु प्रत्यक्ष में तो फल नितान्त विपरीत पाये जाते हैं-प्रत्यक्ष में देखा जाता है कि माघ मास में प्रातःस्नानरूप पुण्यकर्ता को शीतजन्य असह्य दुःख सहन करना पड़ता है, किन्तु परदारसम्भोगरूप पाप के कर्ता को अलौकिक सुख की अनुभूति होती है। इसलिये प्रत्यक्ष प्रमाण को परोक्ष प्रमाण की अपेक्षा बलवान् मानना क्या अधिक युक्तिसङ्गत है ? सन्देहेऽप्यन्यदेहाप्तेर्विवयं वृजिनं यदि। त्यजत श्रोत्रिया सत्रं हिंसादूषणसंशयात्।। कुछ विद्वानों का मत है कि जन्मान्तर में देही को नरक आदि दुःख भोगना पड़ता है, इस कारण पाप नहीं करना चाहिये तथा कुछ अन्य विद्वानों का विचार है कि जिस देह से पाप किया गया वह तो मरने पर जला दिया गया तो फिर जन्मान्तर में कैसे और किस देह को दुःख भोगना पड़ेगा? यदि एक के किये पाप से दूसरा पातकी हो तो देवदत्त के भोजन कर लेने से यज्ञदत्त को तृप्त हो जाना चाहिये, परन्तु ऐसा लोक में नहीं देखा जाता। मरने के उपरान्त देहान्तरप्राप्ति की सम्भावना नहीं रहने पर भी पाप का त्याग ही उचित है। इसलिये हे वैदिक विद्वानों ! यदि हम यज्ञ में पशुओं को मारेंगे तो उससे भी हिंसा की सम्भावना हो ही जाती है, इसलिये यज्ञ का त्याग करो, क्योंकि तुम्हारे धर्मशास्त्रों का भी यही आदेश है कि अहिंसा ही श्रेष्ठ धर्म है। यस्त्रिवेदीविदां वन्द्यः स व्यासोऽपि जजल्प वः। रामाया जातकामायाः प्रशस्ता हस्तधारणा।। जो त्रिवेदज्ञाताओं के वन्दनीय तथा शिरोमणि साक्षात् व्यासदेव हैं उनका यह वचन है कि कामपीड़ित रमणियों का पाणिग्रहण अर्थात् सम्भोग परम श्रेयस्कर है । जो पुरुष काम से व्यथित स्त्री की कामजनित वासना को परितृप्त नहीं करता उसे ब्रह्महत्या का पाप लगता है-यह व्यास की उक्ति है। चार्वाक दर्शन ५६१ सुकृते वः कथं श्रद्धा सुरते च कथं न सा। तत्कर्म पुरुषः कुर्याद्येनान्ते सुखमेधते।। आप लोगों को सुकृत (= पुण्याचरण) में क्या श्रद्धा है और उतनी सुरत (= मैथुन) में क्यों नहीं ? पुरुष (चतुर व्यक्ति) को वही काम करना चाहिये जिसके करने के अन्त में सुख की अनुभूति हो। रति-केलि से प्रत्यक्ष और अद्भुत सुख की प्राप्ति होती है, इसका अनुभव प्रायः अशेष व्यक्तियों को है। बलात् कुरुत पापानि सन्तु तान्यकृतानि वः। माता का सर्वान् बलकृतान् दोषानकृतान् मनुरब्रवीत्॥ काम किया हे ब्राह्मणों ! तुम लोग बलात्कार से भी परस्त्रीगमन रूप पापकर्म करो और इन पापकर्मों का फल तुम्हें नहीं मिलेगा क्योंकि भगवान मनु का यह वचन है कि बल से किये गये दोषों का फल (कर्ता को) नहीं मिलता। स्वागमार्थेऽपि मा स्थास्मिस्तीर्थिका विचिकित्सवः। तं तमाचरतानन्दं स्वच्छन्दं यं यमिच्छथ।। हे गुरुपरम्परासमागत शास्त्रों में निष्णात विद्वानों ! तुम लोग अपने आश्रम अर्थात् मनुनिर्दिष्ट सिद्धान्त में भी संशयालु मत बनो और जिस-जिस आनन्द को चाहते हो, उस-उस का स्वच्छन्द भाव से उपभोग करो। श्रुतिस्मृत्यर्थबोथेषु क्वैकमत्यं महाधियाम्। व्याख्या बुद्धिबलापेक्षा सा नोपेक्ष्या सुखोन्मुखी।। श्रुति और स्मृति के अर्थज्ञान में महापण्डितों के भी मत भिन्न-भिन्न हैं। अपने-अपने बुद्धिबल के अनुसार पण्डितों ने श्रुतिस्मृतियों की व्याख्या की है। हमें उनके सुख बतलाने वाले अर्थ का ही ग्रहण करना चाहिये। यस्मिन्नस्मीति थीदेहे तद्दाहे वः किमेनसा। क्वापि तत्किं फलं न स्यादात्मेति परसाक्षिके ।। जिस देह में मैं (गोरा, काला, मोटा या दुबला आदि) हूँ-ऐसी बुद्धि होती है उस (देह) के जलाने में तुम को पाप की भावना क्यों ? परप्रमाण या शब्द प्रमाण से यदि आत्मा को पापकर्म का फलभोक्ता मान लिया जाय तो भी सर्वशरीरगत आत्मा की एकता के कारण देवदत्त के द्वारा किये गये पाप का फल यज्ञदत्त को भी मिलना चाहिये और यदि ऐसा नहीं होता तो देहकृत पापफल का भोक्ता आत्मा क्यों होता?५६२ चार्वाक दर्शन मृतः स्मरति जन्मानि मृते कर्मफलोर्मयः। अन्यभुक्तैर्मृते तृप्तिरित्यलं धूर्तवार्तया।। शरीरत्याग के पश्चात् (आत्मा को) पूर्व जन्म की घटना याद रहती है, पूर्वजन्मार्जित सुकर्म-कुकर्म का शुभ-अशुभ फल प्राप्त होता है तथा श्राद्धादि में ब्राह्मणादिकों को भोजन कराने से प्रेतात्मा की तृप्ति होती है, इत्यादि प्रतिपादन करने वाले शास्त्रों के वचन धूर्तवचन और हेय हैं। जनेन जानतास्मीति कायं नायं त्वमित्यसौ। त्याज्यते ग्राह्यते चान्यदहो श्रुत्यातिधूर्तया। जनसामान्य देह को ही प्रत्यक्ष आत्मा मानकर कहता है-मैं स्थूल हूँ, तुम दुबले हो, वह काला है, यह मेरी पत्नी है, वह मेरा पुत्र है इत्यादि। परन्तु तुम देह नहीं, यह अजन्मा, अजर और अमर आत्मा हो-इत्यादि प्रलापों के द्वारा श्रुति लोक से देह को अनित्य मानने को बाध्य करती हुई अन्य देह धारण कराती है-यह कैसे? ये परस्पर विरोधी दो सिद्धान्त कैसे सम्भव है? एकं सन्दिग्धयोस्तावद् भावि तत्रेष्टजन्मनि। हेतुमाहुः स्वमन्त्रादीनसङ्गानन्यथा विटाः।। सन्तान (पुत्र) लाभ होगा या नहीं होगा-इस प्रकार की सन्दिग्ध दो विपरीत अवस्थाओं में एक (अवस्था) का होना अवश्यंभावी होता है। यदि पुत्रजन्म हुआ तो धूर्त (पुरोहितादि) लोग (दक्षिणादि के लोभ से) उसके हेतु में अपने मन्त्रानुष्ठान की कारणता बतलाते हैं और यदि पुत्र जन्म नहीं हुआ तो उसका हेतु अनुष्ठान-सामग्रियों का अभाव बतलाते हैं। एकस्य विश्वपापेन तापेऽनन्ते निमज्जतः। कः श्रौतस्यात्मनो भीरो भारः स्यादुरितेन ते।। श्रुति के अनुसार पृथक्-पृथक् शरीर तो उपाधि मात्र है और आत्मा तो सबका एक ही है-हे कायर! सम्पूर्ण विश्व के आचरित (परदार गमनादि) पाप से यदि तुम अपने को असीम नरक का दुःखभोक्ता समझते हो तो तुम्हारे एक (साधारण) पाप का मूल्य ही क्या है? श्रुति-प्रमाणित एवं विश्वाचरित पुण्य के भी फलभोक्ता तुम्ही हो। अर्थात् एकात्मता के विचार से तुम स्वच्छन्दतापूर्वक सभी रमणियों के साथ विहार करने के अधिकारी हो। किं ते वृन्तहृतात्पुष्पात् तन्मात्रे हि फलत्यदः। न्यस्य तन्मूर्ध्यनन्यस्य न्यास्यमेवाश्मनो यदि।। चार्वाक दर्शन ५६३ पुष्प के डण्ठल को तोड़ने से तुम्हें क्या लाभ? क्योंकि उस डण्ठल में लगे रहने पर ही वह फलरूप में परिणत होता है । यदि पाषाणनिर्मित देवमूर्तियों के मस्तक पर ही चढ़ाना अभिप्रेत हो तो (देवता तथा अपने में अभेद बुद्धि रखकर) अपने ही मस्तक पर धारण करो (क्योंकि श्रौतमत से ईश्वर की सर्वत्र व्यापकता है।) तृणानीव घृणावादान् विधूनय वधूरनु। तवापि तादृशस्यैव का चिरं जनवञ्चना।।। हे पुरुष! स्त्री जाति के प्रति घृणात्मक निन्दावचनों का तृणों के समान त्याग करो, क्योंकि तुम्हारा शरीर भी उसी प्रकार मांस-मज्जा के समूह से निर्मित हुआ है। तो स्त्रियों को निन्दित बतला कर तुम घोर लोकप्रवञ्चना क्यों करते हो? जो स्वयं व्यभिचारी है उसे व्यभिचारिणी की निन्दा करने का स्वभावतः कोई अधिकार नहीं हैं। कुरुवं कामदेवाज्ञां ब्रह्माद्यैरप्यलपिताम्। वेदोऽपि देवकीयाज्ञा तत्राज्ञाः काधिकार्हणा।। हे मूखों! (ब्रह्मा ने अपनी तनया से और सुरपति ने गौतम की पत्नी अहल्या से सम्भोग किया) ब्रह्मा आदि देवताओं ने भी जिस कामदेव की आज्ञा का उल्लंघन नहीं किया उस ब्रह्मा आदि देवताओं से अनुलयित अर्थात् पालित कामदेव की आज्ञा का पालन करो (यदि कहो कि वेद का उल्लंघन कर कामवासना को क्यों पूर्ण करें तो इसका समधान यह है कि-) वेद भी देवता की आज्ञा है तथा परस्त्रीगमन भी देवता की आज्ञा ही है तो एक आज्ञा में अधिक आस्था क्यों? दोनों तो देवता की ही आज्ञायें हैं। यदि दोनों समानमूल्य की हैं तो फिर एक को पुरस्कार और अन्य को तिरस्कार क्यों? है प्रलापमपि वेदस्य भागं मन्यध्व एव चेत्। केनाभाग्येन दुःखान्न विधीनपि तथेच्छथ।। तुम मीमांसकों के मत में वेद एक अपौरुपेय और अनादि ग्रन्थ है, किन्तु उस वेद के किसी (अर्थवादमन्त्र नामक) भाग को प्रलाप मानते हो तो किस अभाग्य से कष्टकारक दूसरी विधि (आग्नष्टोमादि यज्ञविधानप्रतिपादक भाग) को प्रलाप नहीं मानते? जब तुम एक भाग को निरर्थक समझते हो तो ‘अर्धजरतीय’ न्याय के अनुसार दोनों भागों को प्रलाप समझते हुए क्यों नहीं छोड़ देते? श्रुतिं श्रद्धत्थ विक्षिप्ताः प्रक्षिप्तां ब्रूथ च स्वयम्। मीमांसामांसल प्रज्ञास्तां यूपद्विपदापिनीम्।। ५६४ चार्वाक दर्शन bp वेदार्थ के विचार में स्थूल बुद्धि होने के कारण तुम श्रुति का आदर तो करते हो और साथ ही साथ विक्षिप्तचित्त होकर श्रुति के उन भागों को जहाँ प्रत्येक यज्ञस्तम्भ में हाथी बाँधकर ऋत्विजों के लिए दान देने का विधान है, प्रक्षिप्त कहते हो। ये दो परस्पर विरोधी निर्णय कैसे हो सकते हैं? वा काम गरिन जि को हि वेदास्त्यमुष्मिन् वा लोक इत्याह या श्रुतिः। शाट कांगायक तत्प्रामाण्यादमुं लोकं लोकः प्रत्येतु वा कथम्।। कौन जानता है कि उस परलोक में जीवात्मा जाता है यह श्रुति की भी सन्देहात्मक उक्ति है। जिसके अस्तित्व-नास्तित्व में श्रुति परलोक की सत्ता में सन्देह प्रकट करती है, उस श्रुति के ही प्रमाण से कौन प्रेक्षावान् व्यक्ति उस परलोक की सत्ता पर विश्वास करे? धर्माधर्मी मनुर्जल्पन्नशक्यार्जनवर्जनौ। व्याजान्मण्डलदण्डार्थी श्रद्दधायि मुधा बुधैः।। आजक विकता मनु ने अत्यन्त क्लेशसाध्य चान्द्रायण आदि व्रतों के नियम पालन को धर्म तथा अपालन को अधर्म कहा है और उस अनायास अधर्मजनित पाप से मुक्ति पाने के लिये सर्वसाधारण में प्रायश्चित्त आदि की जो व्यवस्था की है उस व्यवस्था का उद्देश्य धनलाभ ही हो सकता है। चतुर मनुष्यों के लिये मनुस्मृति के विधि-निषेधों का तिरस्कार करना ही श्रेयस्कर है। अपने को बुद्धिमान् समझने वाले व्यर्थ ही उसमें श्रद्धा रखते हैं। व्यासस्यैव गिरा तस्मिन् श्रद्धेत्यद्धास्थ तान्त्रिकाः। मत्स्यस्याप्युपदेश्यान् वः को मत्स्यानपि भाषताम्।। पुराणों के रचयिता व्यास स्वयं मत्स्यगन्धा के जारज पुत्र थे और अपनी भ्रातृपत्नियों से सम्भोग किया था। उस व्यास के ही वचन से धर्म में, परलोक में या उस (व्यास) में ही श्रद्धालु तुम क्या यथार्थतः चतुर हो? व्यासरचित मत्स्यपुराण मस्त्यरूपधारी विष्णु का मनु के प्रति उपदेश मात्र है-यह विषय अत्यन्त उपहासास्पद है, क्योंकि मत्स्यजाति स्वयं निकृष्ट है और तुम्हारे आदिप्रवर्तक मनु को शिष्य मान कर उसी निकृष्ट मत्स्य ने शिक्षक बन कर उपदेश दिया था। शिक्षक की अपेक्षा शिष्य हीनतर होता ही है तो मनु से उत्पन्न तुम मनुष्यों को मत्स्यसम्बोधन से भी कौन अभिहित करे? व्यासरचित पुराण का अनुयायी होने के कारण तुम मत्स्य से भी नीचतर हो। पण्डितः पाण्डवानां स व्यासश्चाटुपटुः कविः। डीन की निनिन्द तेषु निन्दत्सु स्तुवत्सु स्तुतवान्न किम् ।। नामामांगा चार्वाक दर्शन ५६५ पाण्डवों के पक्ष में रहने वाले सभापण्डित, मधुरभाषी, कवित्वशक्तिसम्पन्न और आप लोगों के श्रद्धेय व्यास ने पाण्डवों के दुयोधनादि की निन्दा करने पर क्या निन्दा नहीं की? या चाटुकार गण्डवों के कृष्णादि की प्रशंसा करने पर प्रशंसा नहीं की? अर्थात् व्यास ने पाण्डवों का जैसा सङ्केत पाया वैसा ही किया। न भ्रातुः किल देव्यां स व्यासः कामात्समासजत्। का दासीरतस्तदासीद् यन्मात्रा तत्राप्यदेशि किम् ।। क्या उस व्यास ने अपने भाई (विचित्रवीर्य) की पत्नियों के साथ कामातुर होकर रतिक्रिया नहीं की थी? यदि आप कहें की पुत्रोत्पत्ति के लिये धर्मशास्त्रानुमोदित भ्रातृपत्नियों से सङ्गम के लिये माता का आदेश था तो उसी समय व्यास ने दासी के साथ सङ्गम किया था। उस कार्य के लिये तो माता का आदेश नहीं था। देवैर्द्विजैः कृता ग्रन्थाः पन्था येषां तदादृतौ। मा गां नतैः किं न तैर्व्यक्तं ततोप्यात्माऽधरीकृतः।। ___ तुम्हारे ब्रह्मा आदि देवताओं ने और याज्ञवल्क्य आदि द्विजों ने जिन ग्रन्थों की रचना की उन्हीं ग्रन्थों के कारण उनका लोक में आदर है। उनके आदेश से पशुरूप गौ के प्रति प्रणत रहने वाले तुम लोगों ने स्पष्ट ही पशु जाति से भी अपने को नीचतर प्रमाणित कर दिया, क्योंकि नमस्कार्य की अपेक्षा नमस्कर्ता हीनतर होता है। जीवनी अन्नाट । साधुकामुकतामुक्ता शान्तस्वान्तैर्मखोन्मुखैः। वाम पाट म सारङ्गलोचनासारां दिवं प्रेत्यापि लिप्सुभिः।। __ यजमान विषयवासनाओं से पराङ्मुखचित्त होकर यज्ञ करने के उपरान्त स्वर्गगामी होते हैं, परन्तु स्वर्ग में जाने पर भी कामना से मुक्ति नहीं पाते, क्योंकि वहाँ भी उन्हें (तिलोत्तमादि) अप्सराओं को प्राप्त करने की कामना बनी रहती है । वस्तुतः स्वर्ग में भी कामुकता से मुक्ति नहीं होती। शोक जित कः शमः क्रियतां प्राज्ञाः प्रियाप्रीतौ परिश्रमः। गीतमाही के कई काम आम के भस्मीभूतभूतस्य पुनरागमनं कुतः।। हे प्राज्ञो (प्र + अज्ञो = प्राज्ञो अर्थात्) महामूखौं! इन्द्रियों के निग्रह से कहीं भी शान्ति नहीं, इसलिए अपनी प्रेमिका रमणी के सुखकर सम्भोग में लगे रहो। यदि कहो कि ऐसा करने से नरकादि की प्राप्ति होती है तो यह भी ठीक नहीं, क्योंकि देह के अतिरिक्त अन्य - कोई आत्मा है ही नहीं। अतः देह के भस्म हो जाने पर फिर किसे नरकादि का भोग होगा। ५६६ चार्वाक दर्शन उभयी प्रकृतिः कामे सज्जेदिति मुनेर्मतम्। अपवर्गे तृतीयेति भणतः पाणिनेरपि।। शब्दशास्त्र के मत से ‘अपवर्गे तृतीया’ इस सूत्र का अर्थ होता है-फलप्राप्तिबोध होने से काल और मार्गवाचक शब्दों में तृतीया विभक्ति होती है, परन्तु दार्शनिक मत से ‘अपवर्गे तृतीया’ सूत्र के प्रणेता पाणिनि मुनि का भी मत है कि ब्रह्मचर्यादि पालन के द्वारा मोक्षादि पारलौकिक साधन में तो तृतीयाप्रकृति अर्थात् क्लीबों को यत्न करना चाहिये उभयीप्रकृति अर्थात् स्त्री पुरुषों को तो कामभोग में अधिकार है। बिभ्रत्युपरियानाय जना जनितमज्जनाः। जनाः । विग्रहायाग्रतः पश्चाद् गत्वरोरभ्रविभ्रमम् ।। स्वर्ग का अस्तित्व ऊपर मानकर स्वर्ग को जाने के उद्देश्य से लोग गङ्गादि नदियों में नीचे उतर कर स्नान करने के लिये उत्तरोत्तर और अधिक निम्नमुख होकर डुबकी लगाते हैं। यह उस गमनशील भेड़े की चेष्टा के समान है जो युद्ध करने के लिये आगे से कुछ पीछे की ओर हट जाता है। गङगा स्नानादि से स्वर्ग की प्राप्ति होती है, यह भ्रान्तिमात्र है। एनसानेन तिर्यस्यादित्यादिः का विभीषिका। राजिलोऽपि हि राजेव स्वैः सुखी सुखहेतुभिः ।। अमुक पापाचरण से तिर्यक् कीट, पतङ्ग तथा सर्प आदि घृणित योनियों में जन्म लेना पड़ता हैं-ऐसा निरर्थक भय प्रदर्शन क्यों? क्योंकि तिर्यग्योनियों में भी ऐसी ही समाजव्यवस्था है-वहाँ भी राजिल (जल-व्याल) जो तिर्यग्योनियों में हीन है, अपने सुख-साधनों से राजा के समान सुखी रहता है। इस कारण यथेच्छाचार ही श्रेयस्कर है। हताश्चेदिवि दीव्यन्ति दैत्या दैत्यारिणा रणे। तत्रापि तेन युध्यन्तां हता अपि तथैव ते।। तुम्हारे मत से संग्रामभूमि में मारे गये वीर पुरुष यदि स्वर्ग में अमर होकर क्रीड़ा करते हैं तो दैत्यारि विष्णु के द्वारा रण में मारे गये हिरण्यकशिपु प्रभृति दैत्य उनके साथ वहाँ (स्वर्ग में) भी युद्ध करें, क्योंकि (तुम्हारे मत से) स्वर्ग में मारे जाने पर भी वहाँ अमरत्व की ही अवस्था में रहेंगे। स्वं च ब्रह्म च संसारे मुक्तौ तु ब्रह्म केवलम्। इति स्वोच्छित्तिमुक्त्युक्तिवैदग्धी वेदवादिनाम् ।। चार्वाक दर्शन ५६७ संसार में जीवात्मा और ब्रह्म-इन दोनों का अस्तित्व रहता है, परन्तु वेदान्तियों के मत से मोक्ष हो जाने पर केवल ब्रह्म शेष रह जाता है। इस प्रकार स्व (आत्मा) की नाश उच्छित्ति अर्थात् मोक्ष-प्रतिपादक वेदान्तियों की अतिचातुरी ही हैं। मुक्तये यः शिलात्वाय शास्त्रमूचे सचेतसाम्। गोतमं तमवेक्ष्यैव यथा वित्थ तथैव सः।। __ जिसने चैतन्ययुक्त प्राणियों के पाषाणवत् जड़ हो जाने को ही अपने न्यायदर्शनशास्त्र में मुक्ति बतलाई, उस गोतम ऋषि (मुनि) को शब्दशास्त्रीय व्युत्पत्ति से जैसा जानते हो वह वैसा ही निकृष्ट पशु है भी। गोतमशब्द की व्युत्पत्ति (गो = पशु + तम = गोतम) पशुओं में भी पशु अर्थात् महापशु है। दारा हरिहरादीनां तन्मग्नमनसो भृशम्। किं न मुक्ताः कुतः सन्ति कारागारे मनोभुवः।। विष्णु और महादेव आदि की लक्ष्मी और पार्वती आदि पत्नियों का मन तो निरन्तर उन्हीं (विष्णु और महादेव) में संलग्न रहता है, तो फिर वे क्यों नहीं मुक्त हो गईं? वे कामदेव के बन्धन में क्यों पड़ी रहती हैं? देवश्चेदस्ति सर्वज्ञः करुणाभागवन्ध्यवाक्। न तत्किं वाग्व्ययमात्रानः कृतार्थयति नार्थिनः।। __यदि ईश्वर सर्वज्ञ और दयालु है और उसकी वाणी कभी व्यर्थ नहीं होती तो हमारे माँगने पर वह हमें क्यों नहीं कृतार्थ कर देता? इतने विशेषणों से युक्त होने पर भी यदि हमारे मनोरथों को वह पूर्ण नहीं करता तो वास्तव में उसकी सत्ता नहीं है। भाविनां भावयन् दुःखं स्वकर्मजमपीश्वरः। स्यादकारणवैरी नः कारणादपरे परे।। हमारे पूर्वकृत कर्म (पाप) के फल (दुःख) का विधायक ईश्वर अकारण ही वैरी ठहरता है। अन्य संसारी लोग तो धनादि के अपहरण करने के हेतु सकारण वैरी बनते हैं। कर्म की ही प्रधानता रहने से ईश्वर की अपेक्षा निष्प्रयोजन ही रह जाती है। तर्काप्रतिष्ठया साम्यादन्योऽन्यस्य व्यतिघ्नताम्। नाप्रामाण्यं मतानां स्यात् केषां सत्प्रतिपक्षवत्।। तर्फ की प्रतिष्ठा-सीमा नहीं रहने के कारण समानरूप से परस्पर विरोधी मतों में किसकी प्रमाणिकता स्वीकृत नहीं की जाए? ५६८ चार्वाक दर्शन कि अक्रोधं शिक्षयन्त्यन्यैः क्रोधना ये तपोधनाः। काया जाना । निर्धनास्ते धनायैव धातुवादोपदेशिनः।। _____ जो तपस्वी (दुर्वासा आदि) स्वयं तो क्रोध की मूर्ति हैं, परन्तु दूसरों को क्रोध न करने का उपदेश देते हैं। उनका यह व्यापार वैसा ही है जैसे कोई निर्धन न पाने के लिए धातुवाद विद्या का उपदेश करता है। कनिका कान किं वित्तं दत्त तुष्टेयमदातरि हरिप्रिया ।’ वाः = दत्त्वा सर्वं धनं मुग्धो बन्धनं लब्धवान् बलिः।। हे मनुष्यों! क्यों धन-दान करते हो? क्योंकि हरिप्रिया अर्थात् लक्ष्मी अदानी अर्थात् कृपण के ऊपर ही प्रसन्न रहती है। मूर्ख राजा बलि ने अपने सारी सम्पत्ति दान कर दी फिर भी उन्हें बन्धन में ही आना पड़ा। स्मिक शिकवणीत दोग्धा द्रोग्धा च सर्वोऽयं धनिनश्चेतसा जनः। विसृज्य लोभसक्षोभमेकदा ययुदासते।। संसार में सब लोग धनिकों के धन हड़पने में लगे रहते हैं और मन में उनके साथ द्रोह-भाव रखते हैं। इस प्रकार के व्यक्ति गिने-गिनाये एक-ही दो मिलेंगे, जिन्हें अन्य की सम्पत्ति ग्रहण से उपरति हो। दैन्यस्यायुष्यमस्तैन्यमभक्ष्यं कुक्षिवञ्चना। स्वाच्छन्द्यमृच्छतानन्दकन्दलीकन्दमेककम्।। चोरी न करना अपनी दीनता को बढ़ाना है, स्वादिष्ट भोजन को अभक्ष्य बतलाना अपने उदर को वञ्चित करना है (इसलिए शास्त्रीय निषेधों को त्याग कर) सकल सुखों के एकमात्र मूल स्वेच्छाचारिता को भजो। समाज शाण्डाल (नै.च. १७३७-८३) सायण माधव (१४ वीं शती ई.) रचित ‘सर्वदर्शनसंग्रह’ के प्रारम्भ में ही चार्वाक दर्शन वर्णित है। उन्होंने सम्पूर्ण चार्वाक दर्शन को क्रमबद्ध कर प्रस्तुत किया है अथ कथं परमेश्वरस्य निःश्रेयसप्रदत्वभिधीयते। बृहस्पतिमतानुसारिणा नास्तिकशिरोमणिना चार्वाकेण तस्य दूरोत्सारितत्वात् । दुरुच्छेदं हि चार्वाकस्य चेष्टितम्। प्रायेण सर्वप्राणिनस्तावत- गोड भाष्ट्रियताका यावज्जीवं सुखं जीवेन्नास्ति मृत्योरगोचरः। भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः।। चार्वाक दर्शन ५६६ आ. इति लोकगाथामनुरुन्धाना नीतिकामशास्त्रानुसारेणार्थकामावेव पुरुषार्थी मन्यमानाः पारलौकिकमर्थपनुवानाश्चार्वाकमतमनुवर्तमाना एवानुभूयन्ते । अत एवास्य चार्वाकमतस्य लोकायतमित्यन्वर्थमपरं नामधेयम् । यह कैसे कहा जा सकता है कि परमेश्वर मोक्षप्रदाता है? बृहस्पति-मतानुयायी नास्तिकशिरोमणि चार्वाक ने तो (परमेश्वर की सत्ता को) दूर ही फेंक दिया है। चार्वाक का सिद्धान्त तो सर्वथा अकाट्य है। प्रायः सभी प्राणी P, ‘जब तब जीना है, सुखमय जीवन व्यतीत करना चाहिये, क्योंकि मृत्यु किसी को छोड़ेगी नहीं। मृत्यु के उपरान्त शरीर के भस्मीभूत हो जाने पर पुनः संसार में कहाँ आना होता है। ____ इस लोकोक्ति पर विद्धाास करते तथा नीति और कामशास्त्र के अनुसार अर्थ और काम को ही पुरुषार्थ मानते हुए पारलौकिक सुख को तिरस्कृत कर चार्वाकमत के ही (व्यवहारतः) अनुयायी ज्ञात होते हैं । अतएव चार्वाकमत का दूसरा नाम लोकायत (= जगद् में- व्याप्त) है और वह यथार्थ ही है। _तत्र पृथिव्यादीनि भूतानि चत्वारि तत्त्वानि । तेभ्य एव देहाकारपरिणतेभ्यः किण्वादिभ्यो मदशक्तिवच्चैतन्यमुपजायते। तेषु विनष्टेषु सत्सु स्वयं विनश्यति । तदाहुः-विज्ञानघन एवैतेभ्यो भूतेभ्यः समुत्थाय तान्येवानुविनश्यति न प्रेत्य संज्ञाऽस्ति (बृ. उ. २।४।१२) इति। तच्चैतन्यविशिष्टो देह एवात्मा। देहातिरिक्त आत्मनि प्रमाणाभावात् । प्रत्यक्षकप्रमाणवादितयानुमानादेरनङ्गीकारेण प्रामाण्याभावात् । अङ्गनाद्यालिङ्गनादिजन्यं सुखमेव पुरुषार्थः। न चास्य दुःखसम्भिवतया पुरुषार्थत्वमेव नास्तीति मन्तव्यम्। अवर्जनीयतया प्राप्तस्य दुःखस्य परिहारेण सुखमात्रस्यैव भोक्तव्यत्वात्। तद्यथा मत्स्यार्थी सशल्कान्सकण्टकान्मत्स्यानुपादत्ते स यावदादेयं तावदादाय निवर्तते। यथा वा थान्यार्थी सपलालानि धान्यान्याहरति स यावदादेयं तावदादाय निवर्तते। तस्माद् दुःखभयानानुकूलवेदनीयं सुखं त्यक्तुमुचितम्। न हि मृगाः सन्तीति शालयो नोप्यन्ते। न हि भिक्षुकाः सन्तीति स्थाल्यो नाधिश्रीयन्ते। यदि कश्चिद् भीरुदृष्टं सुखं त्यजेत्तर्हि स पशुवन् मूर्यो भवेत्। तदुक्तम् ___ उनके मत से पृथिवी आदि चार महाभूत ही तत्त्व हैं। देहरूप में परिणत हो जाने पर इन्हीं (तत्त्वों) से चैतन्य उस प्रकार उत्पन्न हो जाता है, जिस प्रकार मादक द्रव्यों से मादक शक्ति। इनके विनष्ट हो जाने पर (चैतन्य) स्वयं विनष्ट हो जाता है। यही वचन बृहदारण्यक में हैं-विज्ञान के रूप में ही इन तत्त्वों से निकल कर (आत्मा) इन्हीं में विलीन हो जाता है, मरने पर कोई ज्ञान नहीं रहता।’ अतः चैतन्ययुक्त देह ही आत्मा है, क्योंकि देह के अतिरिक्त अन्य आत्मा के अस्तित्व में कोई प्रमाण नहीं। चार्वाक लोग केवल प्रत्यक्ष को ही प्रमाण मानते हैं, अनुमान आदि प्रमाणों की अमान्यता के कारण उनकी प्रमाणिकता ६०० चार्वाक दर्शन नहीं है। स्त्री आदि का आलिङ्गनादिजनित सुख ही पुरुषार्थ है। ऐसा नहीं समझना चाहिये कि दुःख से सम्मिश्रित होने के कारण (सुख) पुरुषार्थ नहीं है, क्योंकि सुख के साथ अनिवार्य रूप से सम्मिश्रित दुःख को हटाकर केवल सुख का ही उपभोग करना चाहिये। जैसे मछलियों का इच्छुक व्यक्ति छिलकों और काँटों के साथ ही मछलियों को पकड़ता है, उसे जितनी आवश्यकता होती है उतना (अंश) लेकर अलग हो जाता है, और जिस प्रकार धान्यार्थी पुआल के साथ धान्यों को (खेत) में से ले आता है, उसे जितनी आवश्यकता होती है उतना (अंश) लेकर अलग हो जाता है। अतएव दुःख के भय से (इच्छा के) अनुकूल लगने वाले सुख को त्यागना उचित नहीं है। ऐसा तो (व्यवहार में) नहीं देखा जाता कि मृग हैं, इस भय से धान नहीं रोपे जाते तथा भिक्षु हैं, इस भय से पात्र (चूल्हे पर) नहीं चढ़ाये जाते। यदि कोई भीरु दृष्ट सुख का त्याग कर देता है तो वह पशु के समान मूर्ख है । कामसूत्र में कहा भी है त्याज्यं सुखं विषयसङ्गमजन्म पुंसां दुःखोपसृष्टमिति मूर्खविचारणैषा। व्रीहीजिहासति सितोत्तमतण्डुलाढ्यान् को नाम भोस्तुषकणोपहितान् हितार्थी ।। (२।४८) यह मूखों की धारणा है कि मनुष्यों को सुख का त्याग कर देना चाहिए, क्योंकि, उसकी उत्पत्ति विषयसङ्गम से होती है और वह दुःखों से युक्त है। भला, आत्महितैषी कौन ऐसा व्यक्ति होगा जो श्वेट और सर्वोत्कृट चावलों को भूसी के कणों से मिले होने के कारण त्यागना चाहेगा? सम्म ननु पारलौकिकसुखाभावे बहुवित्तव्ययशरीरायाससाध्येऽग्निहोत्रादौ विद्यावृद्धाः कथं प्रवर्तिष्यन्त इति चेत्तदपि न प्रमाणकोटिं प्रवेष्टुमीष्टे। अनृतव्याघातपुनरुक्तदोषैर्दूषिततया वैदिकम्मन्यैरे व धूर्ववकैः परस्परं कर्मकाण्डप्रामाण्यवादिभिर्ज्ञानकाण्डस्य ज्ञानकाण्डप्रामाण्यवादिभिः कर्मकाण्डस्य च प्रतिक्षिप्तत्वेन त्रय्या भूतप्रलापमात्रत्वेनाग्निहोत्रादेर्जीविकामात्रप्रयोजनत्वात्। तथा चाभाणकः अग्निहोत्रं त्रयो वेदास्त्रिदण्डं भस्मगुण्ठनम्। बुद्धिपौरुषहीनानां जीविकेति बृहस्पतिः।। यदि (कोई पूछे कि)-पारलौकिक सुख (का अस्तित्व) नहीं हैं, तो विद्वान् लोग अग्निहोत्रादि (यज्ञों) में क्यों प्रवृत्त होते हैं, जब कि उनमें अपार धन का व्यय और शारीरिक श्रम भी लगता है?-यह (तर्क) भी प्रामाणिक नहीं हो सकता, क्योंकि अग्निहोत्रादि कर्मों का चार्वाक दर्शन ६०१ प्रयोजन जीविका के लिये है, तीनों (वेद) धूत्तों के प्रलापमात्र हैं, क्योंकि अपने को वेदज्ञ समझने वाले धूर्तवकों ने परस्पर में ही (वेद को) अनृत, व्याघात और पुनरुक्त आदि दोषों से दूषित किया है। उदाहरण के लिये यथा-कर्मकाण्ड के प्रामाण्य को मानने वालों ने ज्ञानकाण्ड को और ज्ञानकाण्ड के प्रामाण्य को मानने वालों ने कर्मकाण्ड को दोषयुक्त बतलाया है। लोकोक्ति भी है भबृहस्पति का कथन है कि-अग्निहोत्र, त्रिवेद, त्रिदण्ड धारण और भस्मलेप-ये सभी वस्तुयें बुद्धि और पुरुषार्थ से हीन लोगों की जीविका है। अत एव कण्टकादिजन्यं दुःखमेव नरकः। लोकसिद्धो राजा परमेश्वरः । देहोच्छेदो मोक्षः। देहात्मवादे च स्थूलोऽहं, कृशोऽहं, कृष्णोऽहमित्यादि सामानाधिकरण्योपपत्तिः। मम शरीरमिति व्यवहारो राहोः शिर इत्यादि- वदौपचारिकः। तदेतत्सर्वं समग्राहि ____अत एव काँटे इत्यादि से उत्पन्न दुःख ही नरक है, संसार में सम्मानित राजा ही परमेश्वर है। देह का नाश ही मोक्ष है। देह को ही आत्मा मानने पर ‘मैं मोटा हूँ, दुबला हूँ, काला हूँ,’ इत्यादि वाक्यों से दोनों का सामानाधिकरण्य होना भी सिद्ध हो जाता है। ‘मेरा शरीर’ यह प्रयोग ‘राहु का शिर’ के समान आलङ्कारिक है। इनका संग्रह इस प्रकार हुआ है अङ्गनालिङ्गनाज्जन्यसुखमेव पुमर्थता। कण्टकादिव्यथाजन्यं दुःखं निरय उच्यते ॥ लोकसिद्धो भवेद्राजा परेशो नापरः स्मृतः। देहस्य नाशो मुक्तिस्तु न ज्ञानान्मुक्तिरिष्यते ।।२।। अत्र चत्वारि भूतानि भूमिवार्यनलानिलाः । चतुर्थ्यः खलु भूतेभ्यश्चैतन्यमुपजायते ।। ३।। किण्वादिभ्यः समेतेभ्यो द्रव्येभ्यो मदशक्तिवतु। अहं स्थूलः कृशोऽस्मीति सामानाधिकरण्यतः।। ४।। देहः स्थौल्यादियोगाच्च स एवात्मा न चापरः। मम देहोऽयमित्युक्तिः सम्भवेदौपचारिकी।। ५।। स्त्रियों के आलिङ्गन से उत्पन्न सुख ही पुरुषार्थ है। कण्टक से उत्पन्न दुःख ही नरक है। संसार में सम्मानित राजा ही परमेश्वर है, कोई अन्य नहीं। देह का नाश ही मुक्ति है, ज्ञान से मुक्ति नहीं होती । यहाँ भूमि, जल, अग्नि और वायु-ये ही चार तत्त्व हैं और इन्हीं (तत्त्वों) से चैतन्य उत्पन्न हो जाता है, जिस प्रकार मादक द्रव्यों के मिलने से मादकता (स्वयं) आ जाती है। ‘मैं स्थूल हूँ, दुर्बल हूँ’-इस प्रकार समानाधिकार होने के कारण तथा ‘स्थूलता’, ‘दुर्बलता’ आदि से सम्भोग होने के कारण देह ही आत्मा है, कोई अन्य नहीं। ‘मेरा शरीर’ यह उक्ति तो केवल आलङ्कारिक है।६०२ चार्वाक दर्शन र स्यादेतत् । स्यादेष मनोरथो यद्यनुमानादेः प्रामाण्यं न स्यात्। अस्ति च प्रामाण्यम्। कथमन्यथा धूमोपलम्भानन्तरं धूमध्वजे प्रेक्षावतां प्रवृत्तिरुपपद्येत । नद्यास्तीरे फलानि सन्तीति वचनश्रवणसमनन्तरं फलार्थिनां नदीतीरे प्रवृत्तिरिति । तदेतन्मनोराज्यविजृम्भणम्। व्याप्तिपक्षधर्मताशालि हि लिङ्गं गमकमभ्युपतमनुमानप्रामाण्यवादिभिः। व्याप्तिश्चोभयविधोपाधिविधुरः सम्बन्धः। स च सत्तया चक्षुरादिवन्नाभावं भजते । किं तु ज्ञाततया। कः खलु ज्ञानोपायो भवेत्। न तावत्प्रत्यक्षम् । तच्च बाह्यमान्तरं वाऽभिमतम् । न प्रथमः। तस्य सम्प्रयुक्तविषयज्ञानजनकत्वेन भवति प्रसरसम्भवे ऽपि भूतभविष्यतोस्तदसम्भवेन सर्वोपसंहारवत्या व्याप्तेर्युर्ज्ञानत्वात्। न च व्याप्तिज्ञानं सामान्यगोचरमिति मन्तव्यम् । व्यक्त्योरविनाभावाभावप्रसङ्गात् । नापि चरमः अन्तःकरणस्य बहिरिन्द्र यतन्त्रत्वेन बाह्येऽथ स्वातन्त्र्येण प्रवृत्त्यनुपपत्तेः। तदुक्तम्- नारी अस्तु, यही सही । आपका यह मनोरथ तो तब पूर्ण होता, जब अनुमान आदि प्रमाण नहीं होते। यदि वे प्रमाण नहीं हैं तो धूम देखकर बुद्धिमान् लोगों की अग्नि के प्रति कैसे प्रवृत्ति होती है? नदी के किनारे फल के होने की बात सुनकर ही फलार्थी नदी की ओर कैसे चल पड़ते हैं? उत्तर है कि यह केवल मनोराज्य की कल्पना मात्र है । अनुमान को प्रमाणवादी सम्बन्ध बतलाने वाले लिङ्ग उसे मानते हैं, जो व्याप्ति और पक्षधर्मता से युक्त रहता है। व्याप्ति का अर्थ है दोनों प्रकार की उपाधि (सन्दिग्ध और निश्चित) से रहित सम्बन्ध । व्याप्ति अपनी सत्ता से ही चक्षु आदि के समान (अनुमान का) अङ्ग नहीं बन सकता, किन्तु (इसके) ज्ञान से ही (अनुमान सम्भव है)। व्याप्ति के ज्ञान का कौन-सा उपाय है? प्रत्यक्ष तो हो नहीं सकता। क्योंकि यह या तो बाह्य प्रत्यक्ष होगा या आन्तर प्रत्यक्ष। प्रथम (बाह्य प्रत्यक्ष) से (व्याप्तिज्ञान) सम्भव नहीं क्योंकि वह स्वसम्बद्ध (बाह्य) विषयों का ही ज्ञान उत्पन्न कर सकता है, अतएव वर्तमान काल के विषय में समर्थ होता हुआ भी वह भूत और भविष्यत् के विषय में असम्भव हो जायेगा जिससे सभी वस्तुओं का निष्कर्ष निकालने वाली व्याप्ति नहीं जानी जा सकती। यह कथन भी ठीक नहीं कि सामान्य प्रमाण को देखकर व्याप्ति का ज्ञान होता है, क्योंकि तब दो व्यक्तियों के बीच अविनाभाव (व्याप्ति) का सम्बन्ध स्थापित नहीं किया जा सकता। आन्तर प्रत्यक्ष से भी (व्याप्ति) का सम्बन्ध स्थापित नहीं किया जा सकता। आन्तर प्रत्यक्ष से भी (व्याप्ति ज्ञान) नहीं हो सकता। अन्तःकरण बाह्य इन्द्रियों के अधीन है, इसलिये बाह्य विषयों में स्वतन्त्रता से उसकी प्रवृत्ति नहीं हो सकती। कहा भी है- पीर 12 चक्षुराद्युक्तविषयं परतन्त्र बहिर्मनः। (त.वि. २०) इति । नाप्यनुमानं व्याप्तिज्ञानोपायः। तत्र तत्राप्येवमित्यनवस्थादौःस्थ्यप्रसङ्गात् । नापि शब्दस्तदुपायः । काणादमतानुसारेणानुमान एवान्तर्भावात् । अनन्तर्भावे वा वृद्धव्यवहाररूपलिङ्गावगतिसापेक्षतया प्रागुक्तदूषणलङ्घनाजङ्घालत्वात्। धूम धूमध्वजयोरविनाभावोऽस्तीति वचनमात्रे चार्वाक दर्शन ६०३ मन्वादिवद्विश्वासाभावाच्च। अनुपदिष्टाविनाभावस्य पुरुषस्यार्थान्तरदर्शनेनार्थान्तरानुमित्यभावे स्वार्थानुमानकथायाः कथाशेषत्वप्रसङ्गाच्च कैव कथा परार्थानुमानस्य । उपमानादिकं तु दूरापास्तम्। तेषां संज्ञासंज्ञिसम्बन्धादिबोधकत्वेनानौपाधिकसम्बन्धबोधकत्वासम्भवात्। अशा मन बाह्य इन्द्रियों के अधीन है, क्योंकि चक्षु आदि बाह्य इन्द्रियों से ही उसे विषयों का ज्ञान होता है। अनुमान भी व्याप्तिज्ञान का साधन नहीं बन सकता क्योंकि उसमें भी दूसरी व्याप्ति का ज्ञान अपेक्षित है। इस प्रकार अनवस्था अर्थात् कभी समाप्त न होने वाला दोष होगा। शब्द भी व्याप्तिज्ञान का उपाय नहीं, क्योंकि कणाद के मत से वह अनुमान के ही अन्तर्गत है। और यदि अन्तर्गत न हो तो भी उसमें वृद्ध पुरुष के व्यवहार रूप लिङ्ग का ज्ञान तो चाहिए ही, अतएव फिर वही पूर्वकथित दोष (अनवस्था) आ जायेगा, जिसका उल्लंघन कठिन कार्य है। यदि यह कहें कि धूम और अग्नि में अविनाभाव सम्बन्ध पूर्वकाल से है तो इस बात पर वैसे ही विश्वास नहीं होगा जैसे मनु आदि ऋषियों के वचन पर। अविनाभाव सम्बन्ध को न जानने वाला पुरुष एक विषय देखकर अन्य विषय का अनुमान नहीं कर सकता, अतएव स्वार्थानुमान का प्रसङ्ग केवल नाममात्र रह जाता है-परार्थानुमान की तो बात ही क्या? उपमानादि तो (व्याप्तिज्ञान के विषय में) दूर से ही खिसक गये, क्योंकि वे संज्ञा और संज्ञी का सम्बन्ध इत्यादि बतलाते हैं। अतएव उपाधि-रहित सम्बन्ध नहीं बतला सकते। है किञ्च उपाध्यभावोऽपि दुरवगमः। उपाधीनां प्रत्यक्षत्वनियमासम्भवेन प्रत्यक्षाणामभावस्य प्रत्यक्षत्वेऽप्यप्रत्यक्षाणामभावस्याप्रत्यक्षतयानुमानाद्यपेक्षायामुक्तदूषणानतिवृत्तेः। अपि च सा नाव्यापकत्वे सति साषयसमव्याप्तिरिति तल्लक्षणं कक्षीकर्तव्यम् । तदुक्तम्- तर उपाधि का अभाव (व्याप्ति है, उसे) भी जानना कठिन है। उपाधियों के प्रत्यक्ष होने का नियम रखना असम्भव है। अतः प्रत्यक्ष वस्तुओं का अभाव दिखलाई पड़ने पर भी अप्रत्यक्ष वस्तुओं का अभाव दिखलाई नहीं पड़ता और वह (अभाव) अनुमानादि पर निर्भर भी है इसलिए पूर्वकथित दोष (अनवस्था) का विनाश नहीं होता। उपाधि का यही लक्षण मानना चाहिये कि जो हेतु में व्याप्त न हो परन्तु साषय के साथ जिसकी समान व्याप्ति हो। कहा भी है अव्याप्तसाधनो यः साध्यसमव्याप्तिरुच्यते स उपाधिः। शब्देऽनित्ये साध्ये सकर्तृकत्वं घटत्वमश्रवतां च।। व्यावर्तयितुमुपात्तान्यत्र क्रमतो विशेषणानि त्रीणि। तस्मादिदमनवद्यं समासमेत्यादिनोक्तमाचार्यैश्च ।। जो साधन को व्याप्त न करे, किन्तु साषय के समान व्याप्तिमान् हो वही उपाधि है। जब शब्द को अनित्य सिद्ध किया जाता है, तब इसे हटाने के लिये क्रमशः ये तीन विशेषण ६०४ चार्वाक दर्शन लगाये जाते हैं-कर्ता का होना, घट का होना और श्रवण योग्य न होना। अतएव यह लक्षण निर्दोष है तथा आचार्यों ने समासमा इत्यादि के द्वारा इसे कहा भी है। _तत्र विधिविषयाध्यवसायपूर्वकत्वानिषेधाध्यवसायस्योपाधिज्ञाने जाते तद्भाव विशिष्टसम्बन्धरूपव्याप्तिज्ञानं व्याप्तिज्ञानाधीनं चोपाधिज्ञानमिति परस्पराश्रय वज्रप्रहारदोषो वज्रलेपायते । तस्मादविनाभावस्य दुर्बोधतया नानुमानाद्यवकाशः । धूमादिज्ञानानन्तरमग्न्यादिज्ञाने प्रवृत्तिः प्रत्यक्षमूलतया भ्रान्त्या वा युज्यते। क्वचित्फलप्रतिलम्भस्तु मणिमन्त्रौषधादिवद्यादृच्छिकः। अतस्तत्साध्यमदृष्टादिकमपि नास्ति। नन्वदृष्टानिष्टौ जगद्वैचित्र्यमाकस्मिकं स्यादिति चेत्-न तद् भद्रम् । स्वभावादेव तदुपपत्तेः। तदुक्तम् नाम जब विधि का निश्चय होने पर निषेध का निश्चय होता है और उसके पश्चात् उपाधि का ज्ञान होता है, तब व्याप्ति का ज्ञान भी (उपाधि ज्ञान के) अभाव से होने वाले सम्बन्ध के द्वारा ही होता है। व्याप्ति का ज्ञान भी व्याप्तिज्ञान के अधीन है। इस प्रकार अन्योन्याश्रय दोष, जो वज्रप्रहार की तरह है, वज्रलेप सा दृढ़ हो जाता है। इसलिए अविनाभाव का ज्ञान न होने के कारण अनुमानादि का यहाँ प्रवेश नहीं हो सकता। धूमादि के ज्ञान के पश्चात् जो अग्नि आदि का ज्ञान होता है, उसके मूल में या तो प्रत्यक्ष है या भ्रान्ति। कभी-कभी जो फल मिल जाता है, वह मणिस्पर्श, मन्त्र-प्रयोग, औषधि आदि के समान आकस्मिक है। इसलिए अनुमानादि से सिद्ध होने वाला अदृष्ट आदि भी नहीं है। यदि कोई शङ्का करे कि अदृष्ट नहीं मानने पर संसार की विचित्रता आकस्मिक हो जायगी तो यह बात नहीं, क्योंकि वह स्वभाव से ही वैसी है। कहा भी है अग्निरुष्णो जलं शीतं समस्पर्शस्तथानिलः। केनेदं चित्रितं तस्मात्स्वभावात्त_वस्थितिः।। अग्नि उष्ण जल शीतल तथा वायु समान स्पर्शवान् है-यह किसने रचा? सब कुछ स्वभाव से ही व्यवस्थित है। तदेतत्सर्वं बृहस्पतिनाप्युक्तम् न स्वर्गो नापवर्गो वा नैवात्मा पारलौकिकः। नैव वर्णाश्रमादीनां क्रियाश्च फलदायिकाः।। १।। अग्निहोत्रं त्रयो वेदास्त्रिदण्डं भस्मगुण्ठनम्। बुद्धिपौरुषहीनानां जीविका थातृनिर्मिता।।२।। पशुश्चेनिहतः स्वर्ग ज्योतिष्टोमे गमिष्यति। स्वपिता यजमानेन तत्र कस्मान्न हिंस्यते।।३।। चार्वाक दर्शन ६०५ यह सब बृहस्पति ने भी कहा है न कहीं स्वर्ग है और न कोई मोक्ष, न कोई विशिष्ट आत्मा है और न परलोक, न कोई वर्णाश्रम धर्म है और न कर्मकाण्ड या जप-योगादि फलप्राप्ति के लिये ही है। प्रातः और सायकाल में हवन, तीनों वेदों का आचार-पालन दण्डयुक्त संन्यास धारण और ललाट में भस्म धारण-ये कर्म बुद्धि और पुरुषार्थ से हीन व्यक्तियों के जीविका-यापन के लिए विधाता द्वारा बनाये गये हैं । यदि श्रौतनियम से ज्योतिष्टोम यज्ञ में हिंसित पशु भी स्वर्ग चला जा सकता है तो यज्ञकर्ता यजमान स्वयं अपने पिता की हिंसा क्यों नहीं कर देता, क्योंकि ऐसा करने से अनायास ही पिता को स्वर्ग प्राप्त हो जायेगा। किसान की मृतानामपि जन्तूनां श्राद्धं चेत् तृप्तिकारणम्। निर्वाणस्य प्रदीपस्य स्नेहः संवर्धयेच्छिखाम्।। ४।। गच्छतामिह जन्तूनां व्यर्थं पाथेयकल्पनम्। नम्ा गेहस्थकृतश्राद्धेन पथि तृप्तिरवारिता।।५।। स्वर्गस्थिता यदा तृप्तिं गच्छेयुस्तत्र दानतः। प्रासादस्योपरिस्थानामत्र कस्मान्न दीयते।। ६।। ऐहलौकिक श्राद्ध से यदि मृत प्राणियों की तृप्ति-पुष्टि होती (यद्यपि ऐसा नहीं होता) तो बुझे हुए प्रदीप की प्रकाशशिखा को तेल बढ़ाता रहता, किन्तु ऐसा नहीं देखा जाता । घर पर रहने वाले आत्मीय जनों के द्वारा किए गए श्राद्ध से स्वर्गपथिक को यदि स्वर्गपथ में तृप्ति-पुष्टि होती तो घर से यात्रा करने वाले व्यक्तियों को पथ के लिए भोजन देना व्यर्थ हो जाता। घर पर ही उनके नाम से किसी बुभुक्षु को भोजन करा दिया जाता और उसी से उन यात्रियों को मार्ग में तृप्ति हो जाती। यदि इस लोक में दान करने से स्वर्गस्थित प्राणियों को तृप्ति हो सकती तो अट्टालिका के उपरी भाग पर रहने वाले व्यक्तियों को निम्न भाग में दिये गये भोजनादि से तृप्ति-पुष्टि होती, किन्तु लोक में ऐसा देखा नहीं जाता। यावज्जीवेत्सुखं जीवेद् ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत्। भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः।। ७।। यदि गच्छेत्परं लोकं देहादेष विनिर्गतः। कस्माद् भूयो न चायाति बन्धुस्नेहसमाकुलः।। ८।। ततश्च जीवनोपायो ब्राह्मणैर्विहितस्त्विह। मृतानां प्रेतकार्याणिन त्वन्यद्विद्यते क्वचित् ।।६।। यथार्थ में देह के अतिरिक्त अन्य कोई आत्मा नहीं है तथा देह का नाश भी अवश्यम्भावी है तो तपश्चार्या आदि से देह को कष्ट देना भी निरर्थक ही है। पुण्य-पाप ६०६ चार्वाक दर्शन कर्मों के लिए सचमुच कोई फलविधान नहीं, अतएव स्वेच्छाचारिता- पूर्वक सुखमय जीवन-यापन ही श्रेयस्कर है। ऋण लेकर उत्तमोत्तम भोजन नहीं करना भी मूर्खता है। यदि ऋण नहीं भी चुकाया जाए तो भी किसी प्रकार की हानि नहीं, क्योंकि मृत्यु के उपरान्त दग्ध होने वाला देह पुनः आने वाला नहीं, तो फिर किये गए सुकर्म-कुकर्म का सुख-दुःखात्मक फलभोक्ता कोई नहीं रह जाता है। आत्मा यदि देह से निकल कर (आस्तिकों के मत से) परलोक में चला वेदविरोधी या नास्तिक जितने भी मत है वे सब के सब चार्वाक दर्शन की सीमा में परिगणित किये जाते हैं। किन्तु भारतीय परम्परा ने बौद्ध जैन सांख्य आदि को अलग नाम देकर चार्वाक से भिन्न माना है । इसका कारण यह है कि ये दर्शन परलोक का स्वीकार करते हैं तथा किसी न किसी रूप में आत्मा को पञ्चमहाभूतों से भिन्न मानते हैं। इस प्रकार विशुद्ध चार्वाक दर्शन के रूप में केवल देहात्मवाद इन्द्रियात्मवाद प्राणात्मवाद मनश्चैतन्यवाद विज्ञानवाद स्वभाववाद सन्देहवाद उच्छेदवाद और निरीश्वरवाद को देखा जाता है। उसमें भी विशेषता यह है कि उक्त सभी वाद अपने-अपने विचारों की पुष्टि एवं प्रमाणिकता के लिये वेदों और उपनिषदों के वाक्यों को उद्धृत करते हैं। देहात्मवादी चार्वाक शरीर को ही आत्मा मानते हैं । उनका विचार है कि भूतों से निर्मित यह शरीर ही आत्मा है । ‘स वा एष पुरुषोऽन्नरसमयः’ (तै.उ. २१) वाक्य से देह के पुरुषत्व अर्थात् आत्मत्व की सिद्धि होती है। मामला इन्द्रियात्मवादी इन्द्रियों को आत्मा मानते हैं । उनका तर्क है कि इन्द्रियों के क्षीण होने पर उनके द्वारा सम्पाद्य ज्ञान का अभाव हो जाता है । चक्षु आदि के उपहत होने पर चाक्षुष आदि ज्ञान का अभाव उनकी आत्मता में प्रमाण है । पार कुछ लोग प्राण को आत्मा मानते हैं । अन्योऽन्यतर आत्मा प्राणमयः (तै.उ. २।२) ‘प्राणो हि भूतानामायुः’ इत्यादि वाक्य इसमें प्रमाण हैं । मन को आत्मा मानने वाले चार्वाक ‘अन्योऽन्यतर आत्मा मनोमयः’ (तै.उ. २।३) को मनश्चैतन्यवाद में प्रमाण मानते हैं । ‘अन्योऽन्यतर आत्मा विज्ञानमयः’ वचन के आधार पर कुछ चार्वाक विज्ञान को आत्मा मानने की बात करते हैं । चैतन्य या आत्मा विशिष्ट एवं निश्चित मात्रा में मिले हुए भूतों का स्वभाव है अन्य कुछ नहीं । विशिष्ट मात्रा के उच्छिन्न होने पर आत्मा का उच्छेद हो जाता है यह उच्छेदवादी चार्वाकों का मन्तव्य है । इसी धराधाम पर सन्देहवादी चार्वाक भी हैं जो नासदीय सूक्त के मन्त्र को प्रमाण रूप में उद्धृत करते हैं ‘किमावरीवः कुह कस्य शर्मत्रम्भः किमासीद् गहनं गभीरम् । तथा चार्वाक दर्शन ६०७ कोऽद्धा वेद कुत आगता इयं विसृष्टिः। योऽस्याध्यक्षःपरमेव्योमन् सोऽङ्ग वेद यदि वा न वेद।। जाय जि (ऋ.वे. १०।१२६६-७) पद की इसके अतिरिक्त वे कठोपनिषत् के वाक्य- विचक जाम की की येयं प्रेते विचिकित्सा मनुष्येऽस्तीत्येके नायमस्तीति चैके। का कि एतद्विद्यामनुशिष्टस्त्वयाहम् ……………..। (क.उ. १११।२०) देवैरत्रापि विचिकित्सितं पुरा न हि सुज्ञेयमणुरेष धर्मः। का माग (क.उ. १।१।२१) के आधार पर आत्मा के विषय में सन्देह करते हैं कि यह मरने के बाद रहता है या नहीं। निरीश्वरवादी कहते हैं कि राजा को छोड़कर ईश्वर नाम की कोई अतिरिक्त वस्तु नहीं है। इस प्रकार चार्वाकमत के अनेक आयाम शास्त्रों में दृष्ट होते हैं।
चार्वाकदर्शन के मूल स्रोत
ऐतिहासिक ग्रन्थों में रामायण का नाम सबसे पहले आता है। उसमें ‘लोकायत’ शब्द का प्रयोग मिलता है ‘क्वचिन लोकायतिकान् ब्राह्मणास्तात सेवसे।’ यह राम के द्वारा भरत से पूछा गया प्रश्न है। रामायण के अनन्तर महाभारत इस मत का प्राचीन उत्स है। दुर्योधन का मित्र छद्मवेषधारी चार्वाक दुयोधन की मृत्यु के पश्चात् युधिष्ठिर की सभा में जाकर ब्राह्मणों के समक्ष नास्तिक मत का प्रतिपादन करता हुआ निम्नलिखित श्लोक पढ़ता है निःशब्दे च स्थिते तत्र ततो विप्रजने पुनः। राजानं ब्राह्मणच्छद्म चार्वाको राक्षसोऽब्रवीत्।। तत्र दुर्योधनसखा भिक्षुरूपेण संवृतः। साक्षः शिखी त्रिदण्डी च धृष्टो विगतसाध्वसः।। वृतः सर्वैस्तथा विप्रैराशीर्वादविवक्षुभिः। परःसहस्र राजेन्द्र तपोनियमसंवृतैः।। स दुष्टः पापमाशंसुः पाण्डवानां महात्मनाम् । ६०८ चार्वाक दर्शन अनामन्त्र्यैव तान् विप्रांस्तमुवाच महीपतिम् ।। इमे प्राहुर्द्विजाः सर्वे समारोप्य वचो मयि। धिग् भवन्तं कुनृपतिं ज्ञातिघातिनमस्तु वै।। किं तेन स्याद्धि कौन्तेय कृत्वेमं ज्ञातिसङ्क्षयम्। घातयित्वा गुरूंश्चैव मृतं श्रेयो न जीवितम्। ततस्ते ब्राह्मणाः सर्वे हुङ्कारैः क्रोधमूर्च्छिताः। निर्भर्त्सयन्तः शुचयो निजघ्नुः पापराक्षसम्। पुरा कृतयुगे राजश्चाार्वाको नाम राक्षसः। ततस्तेपे महाबाहो बदयाँ बहुवार्षिकम् ।। वरेणच्छन्द्यमानश्च ब्रह्मणा च पुनः पुनः। अभयं सर्वभूतेभ्यो वरयामास भारत।। द्विजावमानादन्यत्र प्रादाद्वरमनुत्तमम्। अभयं सर्वभूतेभ्यो ददौ तस्मै जगत्पतिः।। (म.भा.शा.प. ३८।२२-२७, ३५, ३६३-५) कामसूत्र के प्रणेता आचार्य वात्स्यायन के निम्नलिखित सूत्रों में चार्वाक दर्शन के बीज मिलते है १. न धर्मांश्चरेत्। २. एष्यत्फलत्वात्। ३. सांशयिकत्वाच्च। ४. को बबालिशो हस्तगतं परहस्तगतं कुर्यात्। ५. वरमद्य कपोतः श्वो मयूरात्। ६. वरं सांशयिकानिष्कादसांशयिकः कार्षापण इति लौकायतिकाः। १. अर्थात् धर्माचरण कदापि नहीं करना चाहिये। २. क्योंकि धर्माचरण का फल भविष्य में होता है। ३. इसमें संशय है कि भविष्य में भी फल मिले। ४. कौन बुद्धिमान् पुरुष अपना हस्तगत धन दूसरे को देगा? ५. कल मोर की प्राप्ति होगी इस आशा में न रहकर आज कबूतर ले लेने में ही बुद्धिमानी है। ६. आज सद्यः मिलने वाली चाँदी की मुद्रा त्यागकर कल स्वर्ण मुद्रा मिलेगी । इस आशा में रहना मूर्खता है। भविष्य पर भरोसा क्या? चार्वाक दर्शन ६०६ - लौकायतिकों का मत है कि जिसकी प्राप्ति में सन्देह है, ऐसी अशर्फी की अपेक्षा सन्दहराहत चादा का रूपया ल लना हा श्रयस्कर हा का चार्वाक दर्शन का स्पष्ट एवं प्रशस्त स्वरूप बृहस्पतिरचित सूत्रों में मिलता है। अथातस्तत्त्वं व्याख्यास्यामः ।। १॥ का इसके पश्चात् अब हम प्रकृत तत्त्व की सम्यग्व्याख्या की ओर प्रवृत्त होते हैं। पृथिव्यप्तेजोवायुरिति तत्त्वानि । तत्समदाये शरीरेन्द्रियविषयसंज्ञा।। २॥ PIRIT पृथिवी, जल तेजस् अर्थात् अग्नि और वायु-ये चार ही तत्त्व हैं । इन चार जड़तत्वों अर्थात् पृथिवी, जल, अग्नि और वायु का यथोचित मात्रा में संयोग होने पर इनकी शरीर, इन्द्रिय और विषय संज्ञा होती है । । तेभ्यश्चैतन्यम् ।।३।। उन पृथिव्यादि चार भूततत्त्वों के संघात से अपने आप चैतन्य की उत्पत्ति हो जाती है। चैतन्योत्पत्ति में किसी अतीन्द्रिय कर्ता की अपेक्षा नहीं होती। किण्वादिभ्यो मदशक्तिवत्।। ४॥ जिस प्रकार मादकता के उत्पादक अन्न या वनस्पत्यादि के रसादि के योग से निर्मित मदिरा में मादकता स्वयं आ जाती है उसी प्रकार भूतचतुष्टय के आनुपातिक मात्रा में संघात होते ही चैतन्य भी स्वयं उत्पन्न हो जाता है। काम एवैकः पुरुषार्थः ॥ ५॥ आस्तिकवादी सम्प्रदाय में धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष-ये चार पुरुषार्थ माने गये हैं, परन्तु नास्तिकवादी सम्प्रदाय में एकमात्र काम अर्थात् विषयासक्ति ही पुरुषार्थ है। अनुमानमप्रमाणम् ॥ ६॥ इस सम्प्रदाय में- अनुमान आदि प्रमाणों की मान्यता नहीं है। चैतन्यविशिष्टः कायः पुरुषः ॥ ७ ॥ . 303 ६१० चार्वाक दर्शन __ चेतनाशक्ति से सम्पन्न यह चातुर्नीतिक स्थूलदेह ही आत्मा है। इन्द्रियातीत किसी निमल पिक आत्मा आदि का अस्तित्व नहीं है। मरणमेवापवर्गः ।। ८ ।। मृत्यु अर्थात् इस जड़तत्त्वविनिर्मित देह का नाश ही मोक्ष है, क्योंकि निर्विकल्परूप समाधि अर्थात् उच्चतम मोक्ष की उपलब्धि होने पर सुख-दुःख की अनुभूति नहीं होती। अतः निर्बीज समाधि एवं मुक्ति में कोई अन्तर नहीं लगता। पृथिवी गन्धवती है, परन्तु उसे स्वयं गन्ध की, जल को रस की, अग्नि को उष्णता की, वायु को स्पर्श की और आकाश को शून्यता की अनुभूति कहाँ सम्भव है। इसी प्रकार जब आत्मा सम्पूर्ण रूप से परमात्मा में एकाकारता को प्राप्त कर लेता है तब उसको आत्मतत्त्वानुभूति कहाँ रह जाती है। इसी प्रकार मरण हो जाने पर जीवात्मा नामक कोई तत्त्व अवशिष्ट नहीं रहता, उच्छेद हो जाता है। तब किस बात की अनुभूति किसको होगी? शनशा शिर कि कांट (वीर गिर जाति न धर्मांश्चरेत्।। ६॥ जिमि मा जाट धर्मों का आचरण निष्फल है, क्योंकि प्रत्यक्ष में धर्माचरण के सद्यः फलों की प्राप्ति कभी भी दृष्टिगोचर नहीं होती। अतः धर्माचरण नहीं करना चाहिये। शा FPER काइल जिकिर गएकी एष्यत्फलत्वात् ।। १०॥ कि the मिकी मालिका इस सूत्र का सम्बन्ध पूर्व सूत्र से है। अतः धर्माचरण के निषेध के पुष्टीकरण में नास्तिक सम्प्रदाय का यह प्रतिपादन है कि विहित ज्योतिष्टोमादि यज्ञों के स्वर्गसुखादि फल इस लोक में उपलब्ध नहीं होते। अनुमितिगम्य अप्रत्यक्ष भविष्यत् के ऊपर फलप्राप्ति की निर्भरता है। इस कारण से धर्माचरण निष्प्रयोजन सिद्ध होता है। यार कीर कति छ पिड कि फकाई जित सांशयिकत्वाच्च ।। ११॥ और सम्पादित यज्ञादि कर्मों के अलौकिक होने के कारण स्वर्गादिसुख रूप फल संशय से रहित नहीं है। इस कारण से भी धर्माचरण निष्प्रयोजन सिद्ध होता है। गरिका मा जितकी कोह्यबालिशो हस्तगतं परगतं कुर्यात् ।। १२॥ कौन प्रेक्षावान् पुरुष अपने हस्तगत मूल्यवान् पदार्थों या द्रव्यों को अन्य पुरुष को देना चाहेगा? किसी नीतिकार ने ऐसा ही कहा है। अर्थात् जो व्यक्ति निश्चित वस्तुओं को त्यागकर अनिश्चित की प्रतीक्षा करता है उसे निश्चित वस्तुओं से तो वञ्चित हो ही जाना है और अनिश्चित वस्तुओं की प्राप्ति भी असम्भावित ही रहती है ६११ चार्वाक दर्शन यो ध्रुवाणि परित्यज्य अधुवाणि निषेवते। गंगर सच को ध्रुवाणि तस्य नश्यन्ति अध्रुवं नष्टमेव हि।। श्री है कि वरमद्य कपोतः श्वो मयूरात् ।। १३।। ति काती के कल अर्थात् सन्दिग्ध भविष्यत्काल में सुन्दर मयूर की प्राप्ति की प्रतीक्षा में रहने की अपेक्षा आज अर्थात् असन्दिग्ध वर्तमान काल में उपलब्ध अल्प सुन्दर कपोत का ग्रहण कर लेना अधिक श्रेयस्कर है । कि वरं सांशयिकान्निष्कादसांशयिकः कार्षापणः ।।१४।। संशययुक्त स्वर्णमुद्रा की अपेक्षा संशयरहित रजतमुद्रा अधिक श्रेष्ठ है, अर्थात् सुवर्ण मिलने में कुछ सन्देह है परन्तु रजत मुद्रा तुरन्त मिल रही है तो इस अवस्था में बहुमूल्य किन्तु सन्दिग्ध सोने की अपेक्षा अल्पमूल्य किन्तु असन्दिग्ध रजत को ले लेने में अधिक मकिपछि नाम के से कम समय म शरीरेन्द्रियसंघात एव चेतनः क्षेत्रज्ञः ॥ १५॥ चातुर्नीतिक देह तथा चक्षुरादि इन्द्रियों के समुदाय ही चेतन आत्मा है वही क्षेत्रश्र SISTE TE EFT FTP STIE FIETS TE चतुराई है। बीन C भी है। है काम एव प्राणिनां कारणम् ।। १६ ।। एकमात्र कामक्रीड़ा के अतिरिक्त अन्य कोई भी ब्रह्मा या परमेश्वर आदि प्राणियों की उत्पत्ति का कारण नहीं है। परलोकिनोऽभावातू परलोकाभावः ।।१७। किमती सती ऐसा कोई भी प्रत्यक्षवादी व्यक्ति दृष्टिगोचर नहीं, जो स्वयं अपनी पारलौकिक या स्वर्गीय अनुभूति का संवाद सुनावे। अतएव परलोकी व्यक्ति के अभाव के कारण परलोक का भी अभाव स्वयं सिद्ध हो जाता है अर्थात् परलोक नामक किसी पदार्थ का अस्तित्व नहीं है। इहलोकपरलोकशरीरयोर्भिन्नत्वात्।। तद्गतयोरपि चित्तयोर्न कः सन्तानः।। १८॥ का ऐहलौकिक और पारलौकिक-दोनों शरीरों में विभिन्नता होने तथा तद्गत दो चित्तों में भी सादृश्याभाव के कारण और पारस्परिक सम्बन्धाभाव से आत्मा का अस्तित्व अप्रामाणिक सिद्ध हो जाता है। SELLINGARLS६१२ . चार्वाक दर्शन एतावानेव पुरुषो यावदिन्द्रियगोचरः ।।६।। चक्षुरादि इन्द्रियों से जितना दृष्टिगोचर है उतना ही आत्मा है अर्थात् इस जड़ शरीर के अतिरिक्त अन्य किसी विशिष्ट या इन्द्रियातीत आत्मा का अस्तित्व नहीं है। प्रत्यक्षमेवैकं प्रमाणम् ॥ २०॥ नास्तिक मत में केवल एक प्रत्यक्ष प्रमाण की ही मान्यता है, प्रत्यक्षेतर अनुमानादि प्रमाण सर्वथा अमान्य हैं। प्रमाणस्यागौणत्वात् तदर्थनिश्चयो दुर्लभः ।।२१।। यदि अनुमान प्रमाण का अनिवार्य रूप से स्वीकार कर लिया जाय तो त्रिकालव्यापी विश्व के समस्त पदार्थों के अर्थ का निश्चय करना दुर्लभ हो जायेगा । अतः अनुमान प्रमाण की सिद्धि नहीं हो सकती और अनुमान के असिद्ध हो जाने से शब्दोपमानादि समस्त प्रमाण स्वयं असिद्ध हो जाते हैं । कायादेव ततो ज्ञानं प्राणापानाधधिष्ठिताद् युक्तं जायते ।।२२।। प्राण, अपान आदि पाँच वायुओं के द्वारा अधिष्ठित इस शरीर से ही ज्ञान की उत्पत्ति होती है। अतएव ज्ञान का आधार यह शरीर ही है। सर्वत्र पर्यनुयोगपराण्येव सूत्राणि बृहस्पतेः ।।२३।। बृहस्पति के सूत्र स्वयं सर्वथा अखण्ड किन्तु परमत खण्डक होते हैं। लोकायतमेव शास्त्रम् ।। २४॥ राष्टचिकनी एकमात्र लोकायतविद्या ही शास्त्र है अर्थात् नास्तिक वाङ्मय के अतिरिक्त अन्य किसी भी साहित्य का शास्त्रत्व प्रमाणित नहीं है। प्रत्यक्षमेव प्रमाणम् ।।२५।। केवल प्रत्यक्ष ही प्रमाण है, अन्य किसी प्रमाण की प्रामाणिकता नहीं है। पृथिव्यप्तेजोवायवस्तत्त्वानि ॥२६॥ कान मिलाया नास्तिक परम्परा में पृथिवी, जल, अग्नि और वायु-ये चार जड़ पदार्थ ही तत्त्व के रूप में स्वीकृत किये गये हैं । चार्वाक दर्शन ६१३ th अर्थकामौ पुरुषार्थौ ।। २७।। नामा नदि पनि ___ अर्थ अर्थात् धनोपार्जन और कामाचरण-ये दो ही पुरुषार्थ के रूप में स्वीकृत किये गये हैं । यहाँ धर्म और मोक्ष की मान्यता नहीं । भौतिकवादी परम्परा में धन की तो सर्वदा, सर्वथा तथा सर्वत्र उपयोगिता रहती है, क्योंकि सुखमय जीवनयापन के लिए अर्थ की ही प्रयोजनीयता है। अर्थ के अभाव में सुखमय जीवन बिताना नितान्त असम्भव है। इसी प्रकार कामाचरण में भी अर्थ की ही अपेक्षा रहती है-अर्थ के बिना सन्तोषजनक कामाचरण असम्भव ही रहता है। इसी प्रकार भोजन पान और शृङ्गार सज्जा आदि क्रिया व्यापारों में मुख्य साधन अर्थ ही है। भूतान्येव चेतयन्ति ॥२८॥ पृथिवी आदि चार जड़ जत्त्व ही चैतन्य को उत्पन्न करते हैं। नास्ति परलोकः ।।२६॥ इस चक्षुरिन्द्रिय के द्वारा अनुभूयमान लोक के अतिरिक्त अन्य किसी परलोक की सत्ता नहीं है। मृत्युरेवापवर्गः ॥३०॥ पटकको मर जाना ही मोक्ष है। मृत्यु से भिन्न मोक्ष की कल्पना कथञ्चित् विधेय नहीं हो सकती है । द्रष्टव्य-सूत्र ८ की व्याख्या । दण्डनीतिरेव विद्या ।। 381 ARF पातान्तभवति ।। ३२ ॥ बृहस्पति तथा कौटिल्य आदि प्रणीत अर्थशास्त्र से भित्र अन्य कोई भी अध्यात्म या वेदान्त आदि शास्त्र विद्यापदवाच्य नहीं हो सकता । अत्रैव वार्तान्तर्भवति ।। ३२ ।। वार्ता अर्थात् कृषि, वाणिज्य और गोरक्षा आदि व्यापार भी इसी अर्थशास्त्र के अन्तर्गत हो जाते हैं। धूर्तप्रलापस्त्रयी ।। ३३॥ ऋक्, सामन् और यजुष्-ये तीनों वेद धूतों के प्रलापमात्र हैं, क्योंकि वेदों में साधार के साथ-साथ निराधार वचनों का भी अभाव नहीं है। जर्फरी-तूर्फरी आदि अनेक निरर्थक वचन वेदों में मिलते हैं। ऐसे भी वचन प्रचुर मात्रा में देखे जाते हैं, जिनके द्वारा ६१४ IPIPEDISFETTE मि FSETFFषामा चार्वाक दर्शन पुरोहितवर्ग सीधे-सादे परन्तु धनिक यजमानों से अपना स्वार्थ सिद्ध करता है। इससे प्रतीत होता है कि वेद स्वार्थी तथा धूर्त ब्राह्मणों पुरोहितों की मनगढन्त रचना है। .. पाक स्वर्गोत्पादकत्वेन विशेषाभावात् ।। ३४॥ना कि हि गाँठ गा वि शिर धूर्तों के प्रलाप होने के कारण वेदत्रयी यज्ञानुष्ठान के हेतु से यज्ञकर्ता यजमान को स्वर्ग प्राप्त कराने में समर्थ नहीं है । अतएव वेद की सत्ता अपौरुषेयता और नित्यता सिद्ध नहीं हो सकती। हाला जाश माह का हा कावर पिता मध्यमार लोकप्रसिद्धमनुमानं चार्वाकैरपीष्यत एव, यत्तु कैश्चिल्लौकिकं वा । मार्गमतिक्रम्यानुमानमुच्यते तत् निषिध्यते ।।३५।। लोकसिद्ध अनुमान चार्वाकों को भी मान्य है, किन्तु जिस अनुमान के द्वारा लौकिक मार्ग का अतिक्रमण कर इन्द्रियातीत परलोक का अस्तित्व सिद्ध किया जाता है, चार्वाक उसी (अनुमान) का खण्डन करते हैं। पश्यामि शृणोमीत्यादि प्रतीत्या मरणपर्यन्तं यावन्तीन्द्रियाणि तिष्ठन्ति तान्येवात्मा।। ३६।। __ मैं देखता हूँ, सुनता हूँ इत्यादि प्रतीति के द्वारा मृत्युपर्यन्त सहायता देने वाली इन्द्रियाँ ही आत्मा है। मृत्युपर्यन्त सहायक इन्द्रियजात के अतिरिक्त अन्य कोई आत्मा नहीं है। मृत्यु के बाद किसी रूप में आत्मा का अस्तित्व नहीं रहता। इतरेन्द्रियाद्यभावेऽसत्त्वात् मन एवात्मा।।३७॥ Fors अन्य इन्द्रियादि के अभाव में भी मन का अस्तित्व रहता है। अतएव मन ही आत्मा के रूप में मान्य होता है। खास सि वि जगाशी दाल प्राण एव आत्मा ॥३८॥ सूक्ष्मतम दृष्टिसम्पन्न लोकायतिक सम्प्रदाय क्रमशः देह, इन्दिय और मन से ऊपर उठकर प्राण को आत्मा मानता है। अतः प्राण ही आत्मा के रूप में सिद्ध होता है। न स्वों नापवर्गों वा नैवात्मा पारलौकिकः। नैव वर्णाश्रमादीनां क्रियाश्च फलदायिकाः ॥३६॥" LDCREPIRIT ___ न कहीं स्वर्ग है, न कोई मोक्ष है और न कोई परलोकगामी आत्मा ही है। ब्राह्मणादि चार वर्णों और ब्रह्मचर्य आदि चार आश्रमों के धर्मपालन का भी कोई फल-विधान नहीं TED PIR PEPARSFE चार्वाक दर्शन ६१५ है। स्वर्ग, मोक्ष, आत्मा परलोक पुनर्जन्म आदि तत्त्व काल्पनिक मात्र है। इन तत्त्वों को प्रत्यक्षतः देखने वाला कोई व्यक्ति दृष्टिगोचर नहीं होता। ये सब अदृष्ट तत्त्व भावुक मस्तिष्क की उपज हैं। कोई भी प्रेक्षावान् व्यक्ति इनके अस्तित्व में विश्वास नहीं कर सकता; जो विश्वास करता है, वह भावुक हृदयता के ही कारण। अग्निहोत्रं त्रयोवेदास्त्रिदण्ड भस्मगुण्ठनम्। बुद्धिपौरुषहीनानां जीविका थातृनिर्मिता।। ४०॥ प्रातः और सायकाल में हवन, ऋक्, सामन् और यजुष् तीनों वेदों का आचार-पालन, दण्डयुक्त संन्यास और ललाट में भस्म धारण-ये बुद्धि और पुरुषार्थ से हीन पुरुषों की आजीविका के लिये विधाता ने बनाया है। या पशुश्चेनिहतः स्वर्ग ज्योतिष्टोमे गमिष्यति । एक शिर निको का हि स्वपिता यजमानेन तत्र कस्मान्न हन्यते ॥४१॥ शिव शिव निक श्रौतविधि से ज्योतिष्टोम यज्ञ में हिंसित पशु यदि स्वर्ग चला जा सकता है, तो यज्ञकर्ता यजमान स्वयं अपने पिता की हिंसा क्यों नहीं कर देता? ऐसा करने से यजमान का पिता अनायास हा स्वग चला जायगा। किसान मृतानामपि जन्तूनां श्राद्धञ्चेत् तृप्तिकारणम् । विश्वमा का किसी IF निर्वाणस्य प्रदीपस्य स्नेहः संवर्धयेच्छिखाम् ।।४२॥ का, कि मि ऐहलौकिक श्राद्ध क्रिया से यदि मृत प्राणियों की तृप्ति और पुष्टि होती तो तेल ही बुझे हुए प्रदीप की शिखा को बढ़ाता रहता, किन्तु व्यवहार में ऐसा नहीं देखा जाता कि श्राद्धान्न से प्राणी की तृप्ति होती है । Sri R जा कर कार विगतमा गच्छतामिह जन्तूनां व्यर्थ पाथेयकल्पनम् ।। गेहस्थकृतश्राद्धेन पथि तृप्तिरवारिता ॥४३॥ म PिE घर पर रहने वाले आत्मीय जनों के द्वारा किये गये श्राद्धकर्म से परलोकगामी या स्वर्ग-यात्री पथिक को यदि स्वर्गपथ में तृप्ति होती तो घर से यात्रा पर जाने वाले व्यक्तियों को पथ के लिये भोजन देना व्यर्थ है। घर पर ही उनके नाम से किसी बुभुक्षु को भोजन करा दिया जाता और उसी से उन यात्रियों को मार्ग में तृप्ति होती जाती तथा यात्री भोजन वहन के भार से मुक्त रहता। गिनात काय नियम अन्यायीक स्वर्गस्थिता यदा तृप्तिं गच्छेयुस्तत्र दानतः। सोही राजप्रासादस्योपरिस्थानामत्र कस्मान्न दीयते ॥४४॥ किया जाता ६१६ चार्वाक दर्शन __यदि इस लोक में दान करने से स्वर्गस्थित प्राणियों की तृप्ति हो सकती तो अट्टालिका के ऊपरी भाग पर रहने वाले व्यक्तियों को निम्न भाग से दिये गये भोजनादिकों से तृप्ति हो जाती, किन्तु लोकव्यवहार में ऐसा नहीं देखा जाता। यावज्जीवेत् सुखं जीवेद् ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत् । । भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः।। ४५।। यथार्थ में देह के अतिरिक्त अन्य कोई आत्मा नहीं है तथा देह का नाश भी अवश्यम्भावी है इस परिस्थिति में तपश्चर्या आदि से देह को कष्ट देना भी व्यर्थ है। पुण्य-पाप कमाण के यथार्थतः कोई फल विधान नहीं, अतएव स्वेच्छाचारितापूर्वक सुखमय जीवनयापन ही श्रेयस्कर है। ऋण लेकर उत्तमोत्तम भोजनादि से अपने को तृप्त करने में ही चतुरता है। लिये गये ऋण को चुकाना भी निष्प्रयोजन ही है, क्योंकि मृत्यु के उपरान्त दग्ध हो जाने वाला शरीर पुनः आने वाला नहीं। ल क गिल की कि । यदि गच्छेत् परं लोकं देहादेष विनिर्गतः । मोना कस्माद् भूयो न चायाति बन्धुस्नेहसमाकुलः ॥४६॥ आत्मा यदि देह से निकल कर परलोक में चला जाता है और यदि उसका वहाँ जाना सिद्ध है तो वह बन्धु-बान्धवों के स्नेह से आऔ होकर वहाँ (परलोक) से फिर लौट कर क्यों नहीं आता यदि ऐसा होता (परलोक होता) तो कभी-कभी वह अवश्य आ जाता । ततश्च जीवनोपायो ब्राह्मणैर्विहितस्त्विह। मृतानां प्रेतकार्याणि न त्वन्यद्विद्यते क्वचित् ॥४७॥ मृत प्राणियों के उद्देश्य से जो श्राद्ध आदि क्रियायें की जाती हैं, वे निरर्थक हैं-यह ब्राह्मणों ने अपने जीवन यापन का उपाय बना लिया है । त्रयो वेदस्य कर्तारो भण्डधूर्तनिशाचराः । झापा जर्फरीतुर्फरीत्यादि पण्डितानां वचः स्मृतम् ॥४८॥ जिलो भण्डधूर्त और निशाचर-ये ही तीन वेद के रचयिता थे। जर्फरी-तुर्फरी आदि निरर्थक तथा अस्पष्ट शब्दों के प्रयोग से उन धूतों ने लोकवञ्चना की है। अश्वस्यात्र हि शिश्नन्त पत्नीग्राह्यं प्रकीर्तितम । पारा मांसानां खादनं तद्वनिशाचरसमीरितम् ।।४६॥ श्रुति प्रतिपादन है कि अश्व मेध यज्ञ में यज्ञकर्ता यजमान की पत्नी अश्व का शिश्न स्थापित करे। यह भण्डों की उक्ति प्रतीत होता है। यज्ञ में मांसभक्षण का जो विधान है वह ६१७ चार्वाक दर्शन भी मांसभोजन प्रेमियों का ही प्रतिपादन अवगत होता है और वे मांसभक्षण प्रेमी निशाचर ही थे। व न कण्टकानां प्रकरोति तैक्ष्ण्यं विचित्रभावं मृगपक्षिणाञ्च। माधुर्यमिक्षोः कटुताञ्च निम्बे स्वभावतः सर्वमिदं प्रवृत्तम् ।।५०॥ कोई काँटों में तीक्ष्णता, मृग पक्षियों की विचित्रता, ईख में माधुर्य, नीम में तिक्तता नहीं पैदा करता ये गुण स्वभाव से ही निर्मित होते हैं। नग्न-श्रमणक दुर्बुद्धे कायक्लेशपरायण। जीविकाथ विचारस्ते केन त्वमसि शिक्षितः ॥५१॥ हे दुर्बुद्धि! नग्नरूप वाले श्रमणक! तुम अपनी मन्दबुद्धि के कारण ही अपने शरीर को क्लेशित करते हो। किसने तुम्हे जीवन यापन का यह उपाय सिखलाया है? प्रत्यक्षादिप्रमासिद्धविरुद्धार्थाभिधायिनः । वेदान्ता यदि शास्त्राणि बौद्धैः किमपराध्यते।। ५२॥ प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों के द्वारा सिद्ध लोकसत्ता को मिथ्या प्रतिपादित करने वाले वेदान्त को यदि शास्त्र कहा जाय तो फिर बौद्धों ने क्या अपरा किया कि उनके त्रिपिटक आदि का षट् शास्त्रों में परिगणित क्यों नहीं किया गया? लौकिको मार्गोऽनुसर्तव्यः ।।५३।। लोकायत व्यवहार का ही अनुसरण करना कल्याणकर है, अर्थात् पारलौकिक चिन्तन को निरर्थक समझने में ही दक्षता है। लोकव्यवहारं प्रति सदृशौ बालपण्डितौ ॥५४।। लोकव्यवहार में मूर्ख और पण्डित अथवा बालक और वृद्ध में कोई अन्तर नहीं अर्थात् दोनों समान ही है। इसके अतिरिक्त बार्हस्पत्य अर्थशास्त्र भी इसी कोटि का सूत्रसंग्रह है न भस्मधारणम् ।।१।। ललाट में या शरीर में भस्म लगाना मिथ्या तथा दम्भमात्र है। चार्वाक दर्शन पाणि नाग्निहोत्रवदपाठादानि च ।।कीय सिमा कि श्रौतग्रन्थों में जो प्रातःकाल एवं सायं काल अग्नि में हवन का विधान है उसके खण्डन में चार्वाकों का कथन है कि अग्निहोत्र और वेदपाठ आदि कार्य भी निष्प्रयोजन होने के कारण अविधेय है। कारण कशाला गिरी यकृत शिगोशाम किसी को न तीर्थयात्रा ।।३॥ किसी मा कातिल बलि पारलौकिक सुखोपलब्धि की आनुमानिक भावना से तीर्थयात्रा करना भी निष्फल और अविधेय है। । शरणाशिक तापमान सर्वोऽर्थार्थं करोत्यग्निहोत्रसन्ध्याजपादीन् ।।४। शिकायत गंग समस्त लोक धन की प्राप्ति के उद्देश्य से ही अग्नि में त्रिकाल हवन, सन्ध्या-पूजा तथा जप आदि दाम्भिक कृत्य करते हैं। किती कि हादीजि कि स्वदोषं गुहितुं कामातॊ वेदं पठति ।।५।। अपने दोष को छिपाने के लिये ही कामी पुरुष वेदादि का पाठ करता है। अग्निहोत्रादीन् करोति ।।६।। TESTE ER E TS 125 अपने दोष को छिपाने के लिये त्रिकाल हवन आदि कृत्य करता है । जिस पर सुरापानं महिलामेहनार्थं करोति ।।७।। लिकति कि सुरा अर्थात् मदिरा का पान और महिलाओं के संगम के उद्देश्य से कामी पुरुष वेद पाठ और अग्निहोत्र आदि कर्म करता है। सिलिश कांडी कि विष्ण्वादयः सुरापायिनः ।।८॥ए मशकांत कि विष्णु आदि प्रसिद्ध देव भी मद्यपान करते थे। हि जाति शिवादयः ।।६।। शिव आदि देवगण भी सुरापायी हैं। आरोप नासा की कार शृङ्गारवेशं कुर्यात् ।।१०॥ हानामा विविध शृङ्गार रचनाओं से चतुर व्यक्ति को अपने को आभूषित तथा आकर्षक बनाना चाहिये। ६१६ चार्वाक दर्शन चार्वाक दर्शन ६१६ अक्षैर्दीव्यात् ।।११।। गलामक गाँठ द्यूतक्रीडा अर्थात् पासों का खेलना पुरुषार्थ है। काय क ई पति का के -किनीनैव दिव्याच्च ॥१२ ककुमेर कि कुन्हा प्रशासन का कि एक _ व्यर्थ स्वर्ग की कामना कभी नहीं करनी चाहिये, क्योंकि स्वर्ग नामक पदार्थ का कहीं भी अस्तित्व नहीं है। शुका शिकोडा शाक आम्रवनानि सेवयेत् ।।१३॥ आम्र आदि सुन्दर उद्यानों में आनन्द विहार करना चाहिये। उसी में ही जीवनसाफल्य है। मांसानि च ।।१४।। कोकिला pire Pण गद ____ और मांसादि पुष्टिकर भोजन करने में संकोच नहीं करना चाहिये, क्योंकि इससे शारीरिक पुष्टि की भी वृद्धि होती है। मत्तकामिन्यः सेव्याः ।।१५।। भाडा गिगया ___ मदोन्मत्त तथा कामिनी सुन्दरियों संकोच नहीं करना चाहिये, क्योंकि इसमें सद्यः तथा प्रत्यक्ष आनन्दानुभूति होती है। का हक की शीट दिव्यप्रमदादर्शनञ्च ।।१६।। और सुन्दरी तथा मदान्ध कामिनियों का दर्शन करना चाहिये, क्योंकि इससे प्रत्यक्ष मानसिक प्रसन्नता प्राप्त होती है। ताजा PIPIPAPER नेत्रों में अञ्जनादि सुगन्धित तथा प्रसादक वस्तुओं को लगाना चाहिये, क्योंकि शरीरिक सौन्दर्य से सार्वत्रिक प्रसन्नता होती है। आदर्शदर्शनञ्च चाप लामा _दर्पण भी नियमित रूप से देखना चाहिये, क्योंकि रूपसौन्दर्य से मानसिक तृप्ति होती है। नाना का सामना ताम्बूल आदि सुगन्धित पदार्थ को चबाकर मुख को सुवासित रखना चाहिये, ऐसा करने से काम-वृद्धि होती है। ६२० चार्वाक दर्शन कपूरचन्दनागुरुधूपञ्च ॥२०॥ है और शरीर में कर्पूर, श्वेतचन्दन, अगुरु आदि सुगन्धित द्रव्यों का अनुलेपन और धूप की गन्ध लगाकर मन को परितृप्त करना चाहिये। इससे शारीरिक सौन्दर्य-वृद्धि के साथ मानसिक उत्साह का भी संचार होता है। वेद के खण्डन में वृहस्पति प्रणीत निम्नलिखित पाँच सूत्र भी उपलब्ध होते हैं वृथाधर्म वदत्यर्थसाधनं लोकायतिकः पिण्डादायश्चौर इति च ।।२१।। लोकायतिकों का प्रतिपादन है कि धर्म केवल धनोपार्जन का साधन मात्र और निरर्थक है और पिण्डादाय अर्थात् श्राद्धभोजी पुरोहित चोर होता है। सोऽप्यशनार्थं धर्म वदति ॥२२ ॥ सा काम कर पुरोहित ब्राह्मण भी भोजन प्राप्ति के उद्देश्य से धर्मोपदेश करता फिरता है । परापवादार्थ वेदधर्मशास्त्रादीन् पठति।। २३॥ पर अर्थात् अन्य यजमान आदि की निन्दा के लिये और अर्थ प्राप्ति के हेतु प्रायश्चित्त आदि विधान में वेद धर्मशास्त्र आदि पढ़ता है। ___ सर्वात्रिन्दति ॥२४॥ पुरोहित ब्राह्मण किसी न किसी रूप में सबकी निन्दा ही करता है। महेश्वरविष्ण्वादीनपि ।।२५।। (वह) शिव और विष्णु आदि सम्पूर्ण देवताओं की भी निन्दा करता है। ईश्वर के खण्डन में बृहस्पति प्रणीत एक सूत्र का विधान हैं आत्मवान् राजा ॥२६॥ लौकिक राजा के अतिरिक्त अन्य किसी भी इन्द्रियातीत ईश्वर या परमेश्वर का अस्तित्व नहीं है। लोकायतिक विद्या के ही एक मात्र शास्त्रत्व विधान में बृहस्पति के दो सूत्र मिलते हैं सर्वथा लोकायतिकमेव शास्त्रम् ॥२७॥ चार्वाक दर्शन लोकायतिक विद्या ही एकमात्र शास्त्र है। इसके अतिरिक्त अन्य कोई शास्त्र नहीं है। इत्याहाचार्यो बृहस्पतिः ॥२८।। इस प्रकार आचार्य बृहस्पति ने लोककल्याण की भावना से सिद्धान्त प्रतिपादन किया है। YAAR निरीश्वरवादी कपिल, वेद की प्रामाणिकता को गौण मानने वाले गौतम के सूत्रों में भी अवैदिक अर्थात् चार्वाक दर्शन के विचार उपलब्ध होते हैं। कपिल और अवैदिकवाद ईश्वरासिद्धेः (१६२) मानसिक प्रत्यक्ष के न मानने से ईश्वर की सिद्धि न होगी, क्योंकि रूप आदि इन्द्रियविषय न होने से ईश्वर की प्रत्यक्षानुभूति नहीं हो सकती। जब ईश्वर का प्रत्यक्ष दर्शन नहीं हुआ तो अनुमान भी न होगा, क्योंकि अनुमान प्रत्यक्ष व्याप्तिपूर्वक होता है। अतएव ईश्वर का अस्तित्व सिद्ध नहीं हो सकता। मुक्तबद्धयोरन्यतराभावान्न तत्सिद्धिः (१९३) संसार में कोई भी चेतन मुक्तावस्था और बद्धावस्था से भिन्न नहीं। यदि ईश्वर को बद्ध मान लिया जाय तो उसमें सृष्टि करने की शक्ति नहीं रह जाती और यदि मुक्त मान लिया जाय तो इच्छा के अभाव से वह सृष्टि नहीं कर सकता, क्योंकि कर्ता की इच्छा के बिना सृष्टि कार्य असम्भव है। नेश्वराधिष्ठिते फलनिष्पत्तिः कर्मणा तसिद्धेः (५।२) __ईश्वर के नामोच्चारण मात्र से फलप्राप्ति नहीं हो सकती, क्योंकि उसका हेतु कर्म है, जिसके सम्पादन से फल मिलता है। अतः ईश्वर की सत्ता सिद्ध नहीं होती। स्वोपकारादधिष्ठानं लोकवत् (५३) लौकिक प्राणियों के समान ही ईश्वर की भी आत्मकल्याण के साधन में ही प्रवृत्ति होती है और हमारे एवं ईश्वर में कोई अन्तर नहीं है। इस कारण भी ईश्वर की सिद्धि नहीं हो सकती। कि लौकिकेश्वरवदितरथा (५४) । यदि ईश्वर को समस्त कमों के फलदाता के रूप में मान लिया जाए तो लौकिक६२२ चार्वाक दर्शन ईश्वर अर्थात् राजाओं के समान भिन्न-भिन्न कर्म फलदाता भिन्न-भिन्न ईश्वर मानने पड़ेंगे। अतः ईश्वर की सिद्धि नहीं हो सकती। जिला कातर मी प्रमाणाभावान तत्सिद्धिः (५।१०) मा गाजा मार दिया ईश्वर के संसार के कारण होने में कोई प्रमाण नहीं, अतएव ईश्वर की सिद्धि नहीं हो सकती। न नित्यत्व वदाना कायत्वश्रुतः (१।४५) 4 वदानां कार्यत्वं श्रुतेः (५।४५)गक शाशकी वेद नित्य नहीं है, क्योंकि ‘तस्माद् यज्ञात् सर्वहुत ऋचः सामानि जज्ञिरे’ श्रुतियों से ज्ञात होता है कि उस यज्ञरूप परमात्मा से ऋग्वेद और सामवेद उत्पन्न हुए। जब वेदों की उत्पत्ति सिद्ध है, तब यह निश्चय है कि जिसकी उत्पत्ति होती है, उसका नाश भी अवश्यम्भावी है। अतएव कार्यरूप होने के कारण वेद नित्य नहीं हो सकते। डीडी FIERE ISन शब्दनित्यत्वं कार्यताप्रतीतेः (५४८) मग ति विश शब्द नित्य नहीं हो सकता, क्योंकि उच्चारण से उत्पन्न शब्द मुहूर्त भर में नष्ट हो जाता है और उत्पन्न होने वाला पदार्थ नश्वरता के कारण अनित्य है। अतः वेद भी अनित्य हा है। जो कि मी माजगह माना कि कि गौतम और अवैदिकवाद- बिस् तमोर कति जीठ विकट गानाको नाम रु. तक
- छविलाल जोशी अत्यन्तप्रायैकदेशसाधादुपमानाऽसिद्धिः (२।१।४४) शिक रोहन अत्यन्त तथा एकदेशीय समानधर्मता के कारण उपमान का प्रमाण्य स्वीकार नहीं हो सकता, क्योंकि अत्यन्त सधर्मता के कारण ‘गौ के समान गौ’-इस वाक्य में उपमान की सिद्धि नहीं और एकदेशीय समानधर्मता के कारण ‘वृषभ के समान महिष’-इस वाक्य में भी उपमान में प्रमाण की सिद्धि नहीं होती । उपर्युक्त दोनों वाक्य निरर्थक प्रतीत होते हैं। शब्दोऽनुमानमर्थस्यानुपलब्थेरनुमेयत्वात् (२।१।४६) __ शब्द का अस्तित्व अनुमान से पृथक् नहीं है, क्योंकि शब्दगत अर्थ का ही अनुमान होता है। अर्थ का प्रत्यक्ष भाव नहीं होता। अतएव शब्द के अनुमान के ही अन्तर्गत सन्निकट हो जाने के कारण उस (शब्द) का स्वतन्त्र प्रामाण्य सिद्ध नहीं हो सकता। ऐसी परिस्थिति में शब्द की असिद्धि होने से शब्दमय वेद की भी स्वतः असिद्धि हो जाती है। उम्तमा पनि प्रशार तदप्रामाण्यमनृतव्याघातपुनरुक्तदोषेभ्यः (२।१।५७) २ जोर चार्वाक दर्शन ६२३
- अनृत अर्थात् असत्य, व्याघात परस्पर विरुद्धार्थप्रतिपादन और पुनरुक्त अर्थात् एक ही विषय की पुनरावृत्ति-इस दोषत्रय के कारण शब्दमय वेद की प्रामाणिकता सिद्ध नहीं हो सकती है। म नि मोत्याणीमार मार कान के सात कुछ अंश में जैमिनि भी चार्वाक मत की पुष्टि करते हुए प्रतीत होते हैं। यह तब जब वे ‘अस्थानात् करोति शब्दात्’ आदि के द्वारा वेद की अनित्यता का वर्णन करते हैं। अस्थानात (११७)मा जिमि मिति विजी ___ मुहूर्त्तमात्र भी उच्चारित शब्द स्थिर नहीं रहता-तत्क्षण में ही विनष्ट हो जाता है। अतएव शब्द अर्थात् शब्दमय वेद की अनित्यता सिद्ध हो जाती है। मां का करोतिशब्दात् (१।१।८) का जिकी मानक शब्द में क्रियमाणता होती है, जैसे देवदत्त ने यज्ञदत्त से कहा-‘शब्द करो’-‘यज्ञदत्त ने शब्द किया’-इस लोक व्यवहार से शब्द परतः प्रमाण की कोटि में आता है। अतएव शब्द की नित्यता प्रमाणित नहीं होती। कार निकाशिरामा माल त गाए कि काणापार कि 55 सत्त्वान्तरे योगपद्यात् (१।१।६) TRIP वित इस देश और अन्य देशों में एक ही समय में और एक ही साथ एक ही शब्द के उपलब्ध होने के कारण भी शब्द की अनित्यता सिद्ध होती है। कि काय फार तिमा पता ल ग प्रकृतिविकृत्योश्च (१।१।१०) झा प्रकृति और विकृति के कारण भी शब्द अनित्य प्रमाणित होता है। जैसे ‘दषयत्र’ इस पद में ‘इ’ कार प्रकृति है और ‘य’ कार विकृति। जिसमें विकार होता है वह अनित्य है और ‘य’ का इकार के साथ सादृश्य है। अतः शब्द अनित्य है। ती विकास वृद्धिश्च कर्तृभूम्नाऽस्य (१।।११) जब बहुत लोग मिलकर एक साथ शब्दोच्चारण करते हैं, तब वह शब्द महान् प्रतीत होता है और वही शब्द एक पुरुष के द्वारा उच्चारित होने पर लघु प्रतीत होता है, इससे भी शब्द अनित्य सिद्ध होता है । तर नित्यदर्शनाच्च (१।१।२८) वेद में ‘प्रावाहणि’ अर्थात् प्रवाहण के पुत्र ‘बबर’ और ‘औद्दालकि’ अर्थात् उद्दालक ६२४ चार्वाक दर्शन के पुत्र कुसुरविन्द आदि जनन-मरणशील मनुष्यों का उल्लेख पाया जाता है। इस प्रमाण से यह सिद्ध होता है कि वेद के उन भागों की रचना, जहाँ ‘प्रावाहणि’ और ‘औद्दालकि’ प्रभृति मनुष्यों का उल्लेख है, उन (प्रावाहणि और औद्दालकि) मनुष्यों के पीछे हुई। इस कारण वेद की अनादिता और प्रामाणिकता सिद्ध नहीं होती। ही शास्त्रदृष्टविरोधाच्च (१।२।२) शास्त्रों के पारस्परिक और सैद्धान्तिक विरोधी होने के कारण भी वेद की प्रामाणिकता सिद्ध नहीं होती, क्योंकि सम्पूर्ण शास्त्र परस्पर विरुद्धार्थप्रतिपादक हैं। तथाफलाभावात् (१।२३) सुकृत और दुष्कृत कर्मों के सुख और दुःख रूप फलों के प्रत्यक्ष अभाव के कारण वेद की नित्यता सिद्ध नहीं होती। अन्यानर्थक्यात् (१।२।५) ली, ‘यज्ञीय पूर्णाहुति होते ही कामनाएँ सिद्ध होती हैं, अश्वमेध यज्ञकर्ता यजमान मृत्यु को पार कर जाता है, ब्रह्महत्या के पाप से मुक्त हो जाता है’ इत्यादि निरर्थक वादों के कारण वेद की प्रामाणिकता सिद्ध नहीं होती, क्योंकि यज्ञीय पूर्णाहुति होते ही मनोरथों को पूर्ण होते नहीं देखा जाता। अभागिप्रतिषेधाच्च (१।२।४) ___ अयुक्त प्रतिषेध किये जाने के कारण भी वेद की प्रामाणिकता सिद्ध नहीं होती । वेद में कहीं-कहीं अभागिप्रतिषेधक वाक्य मिलते हैं। जैसे-‘न पृथ्वी में अग्नि-चयन करना चाहिए, न अन्तरिक्ष में और न स्वर्ग में, यहाँ अयुक्त प्रतिषेध किया गया है, क्योंकि यह तो सर्वविदित है कि अन्तरिक्ष-आकाशादि में अग्नि-चयन नहीं होता, फिर भी पृथ्वी के साथ आकाश में भी अग्नि-चयन का प्रतिषेध किया गया है, इत्यादि अयुक्तप्रतिषेधता के कारण वेद अप्रामाणिक सिद्ध होता है। अनित्यसंयोगात् (१।२६) अनित्य संयोग होने के कारण भी वेद की प्रामाणिकता सिद्ध नहीं होती। अनित्य संयोग का अर्थ होता है-सामान्यश्रुति, अर्थात् केवल शब्दश्रवण। जैसे किसी व्यक्ति का अभिधान-नाम है ‘बृहस्पति’ परन्तु वह ‘बृहस्पति’ नामक व्यक्ति ‘महामूर्ख’ है । अतएव वह बृहस्पति नामक व्यक्ति अर्थतः बृहस्पति नहीं होकर केवल श्रुतितः ‘बृहस्पति’ है। इसी प्रकार, किसी दुराचारी पुरुष का नाम ‘साधु’ है और किसी व्याध का नाम ‘दीनदयालु’। Pho चार्वाक दर्शन ६२५ परन्तु वह साधु नामक पुरुष व्यवहारतः चोर है और दीनदयालु नामक पुरुष व्यवहारतः व्याध-अर्थात् हिंसक है इत्यादि। _अपरा-कर्तुश्च पुत्रदर्शनम् (१।२।१३) यदाकदाचित् पुंश्चली पत्नी के अपरा , अर्थात् दुराचरण से भी यज्ञकर्ता पति को पुत्र का दर्शन होता है-यहाँ पुत्र के दर्शन में वैदिक यज्ञानुष्ठान की कारणता नहीं है, इस लौकिक प्रमाण के उदाहरण से भी वेद की प्रामाणिकता सिद्ध नहीं होती। विधिश्वानर्थकः क्वचित् तस्मात् स्तुतिः प्रतीयते, तत्सामान्यादितरेषु तथात्वम् (१।२।२३) कभी-कभी और कहीं-कहीं विधि-वाक्य अनर्थकारी सिद्ध होता है। उस (विधिवाक्य) से शाब्दिक स्तुति का बोध होता है और इसी प्रकार अन्यत्र भी स्तुति-बोधक मात्र ही रह जाता है, इस कारण भी वेद की प्रामाणिकता सिद्ध नहीं होती। तदर्थशास्त्रात् (१।२।३१) वेद के मन्त्र शब्दप्रधान न होकर अर्थप्रधान होते हैं। यदि शब्द की प्रधानता होती, तब तो मन्त्रोच्चारण मात्र से कल्याण होता, किन्तु कल्याण तो अर्थप्रकाश में ही अन्तर्निहित रहता है, इस कारण वेद अप्रामाणिक सिद्ध होता है। वाक्यनियमात् (१।२।३२) मन्त्रों में पद क्रम नियमित होता है। यदि पद-क्रम अनियमित कर दिया जाए, तो मन्त्र अर्थहीन हो जाते हैं । जैसे-‘अग्निमीले पुरोहितम्’ (ऋग्वेद १।१।१) का विपर्यय कर देने से रूप होगा-‘भूहिरोपु लेमीग्निअ’। अतएव मन्त्रों के पद-क्रम में बाधक होने के कारण भी वेद प्रामाणिक सिद्ध नहीं होता। बुद्धशास्त्रात् (१।२।३३) वेद ही एकमात्र ज्ञानप्रद शास्त्र है, अतएव वेद का स्वाध्याय अर्थावबोध के साथ होना चाहिए। ऐसा नहीं होने से वेद निरर्थक और अप्रामाणिक सिद्ध होता है। अविद्यमानवचनात् (१।२।३४) शब्दों के अनुसार अर्थ न रहने के कारण और अर्थ के अनुसार शब्द न रहने के कारण अर्थसहित स्वाध्याय भी असम्भव है, इस कारण भी वेद की उपयोगिता अथवा प्रामाणिकता सिद्ध नहीं होती। ૬૨૬ चार्वाक दर्शन कानडोज एक अचेतनेऽर्थबन्धात् (१।२।३५) का गान आ लय ‘हे औषधि! तुम इस रोगी का रोगहरण कर त्राण करो’-इस प्रकार जड़ पदार्थ में अपने अर्थों से बद्ध वेद पठन-पाठन के योग्य नहीं अपितु सर्वथा अयोग्य सिद्ध होता है। हए किती किव अर्थविप्रतिषेधत् (१।२।३६) लिए जिम जीका - SET परस्पर विरोधी अर्थों के प्रतिपादक अथवा तदर्थक वाक्यों की ही पुनरावृत्ति के कारण वेद का पठन-पाठन अयोग्य सिद्ध होता है । कि शाश स्वाध्यायवदवचनात (१।२।३७) जिन वाक्यों में वेद के पठन-पाठन का विधान है, उन वाक्यों में अर्थसहित पठन-पाठन का विधान नहीं मिलता। अतएव सार्थक पठन-पाठन उपयुक्त नहीं है । इस परिस्थिति में वेद की प्रामाणिकता सिद्ध नहीं होती है । गार दि हिमाल अविज्ञेयात् (१।२।३८) कुछ मन्त्रों की अज्ञेयार्थकता के कारण वेद का पठन-पाठन अनुपयुक्त है। वेद में कुछ ऐसे मन्त्र हैं, जिनका अर्थ अविज्ञेय है या वे मन्त्र अर्थहीन अतएव निरर्थक है । नगन हिमालकाच कामात अनित्यसंयोगान्मन्त्रानर्थक्यम् (१२३६) अनित्य पदार्थों यथा-जन्म, मरण, यौवन, जरा आदि का सम्बन्ध होने से मन्त्रों का पठन-पाठन निरर्थक है। वेद में ‘कीकट’ नामक जनपद, ‘नैचाशाख’ नामक नगर और ‘प्रमद’ नामक राजा के विषय में चर्चा है। ये सभी जनन-मरणशील तथा यौवन-जरा से युक्त थे और इसलिए अनित्य भी। इससे भी प्रतीत होता है कि इस अनित्य द्रव्यों के पीछे ही वेद की रचना हुई। मा निमीत्वाणामारास हेतुदर्शनाच्च (१।३।४) ऋषियों के द्वारा प्रोक्त होने के साथ-साथ व्याख्या रूप होने के कारण भी वेदों का परतः प्रामाण्य है। अतएव वेद का प्रामाण्य असिद्ध ही रह जाता है । । यहाँ तक कि भगवान् बादरायण के ‘तर्काप्रतिष्ठानात्’ (२।१।११) सूत्र से भी चार्वाकमत ध्वनित होता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि चार्वाक दर्शन के बीज संस्कृतवाङ्मय में इतस्ततः बिखरे पड़े हैं। जापाल भिFITS TE शामिछलिक का विशाल कामका शिवाज-कवीश पाल ਓ ਕਿ ਸੀ ਬੀ TO PERSISHT LYSIDH चार्वाक दर्शन ६२७
चार्वाक दर्शन की तत्त्व मीमांसा
–भाग- हि जिनि चार्वाक दर्शन के अनुसार पृथिवी जल तेज तथा वायु ये चार ही तत्त्व सृष्टि के मूल कारण हैं। जिस प्रकार बौद्ध उसी प्रकार चार्वाक का भी मत है कि आकाश नामक कोई तत्त्व नहीं है। यह शून्य मात्र है। अपनी आणविक अवस्था से स्थूल अवस्था में आने पर उपर्युक्त चार तत्त्व ही बाह्य जगत्, इन्द्रिय अथवा देह के रूप में दृष्ट होते हैं। आकाश की वस्त्वात्मक सत्ता न मानने के पीछे इनकी प्रमाणव्यवस्था कारण है। जिस प्रकार हम गन्ध रस रूप और स्पर्श का प्रत्यक्ष अनुभव करते हुए उनके समवायियों का भी तत्तत् इन्द्रियों के द्वारा प्रत्यक्ष करते हैं। आकाश तत्त्व का वैसा प्रत्यक्ष नहीं होता। अतः उनके मत में आकाश नामक तत्त्व है ही नहीं। चार महाभूतों का मूलकारण क्या है? इस प्रश्न का उत्तर चार्वाकों के पास नहीं है। यह विश्व अकस्मात् भिन्न-भिन्न रूपों एवं भिन्न-भिन्न मात्राओं में मिलने वाले चार महाभूतों का संग्रह या संघट्ट मात्र है। _आत्मा-चार्वाकों के अनुसार चार महाभूतों से अतिरिक्त आत्मा नामक कोई अन्य पदार्थ नहीं है। चैतन्य आत्मा का गुण है। चूंकि आत्मा नामक कोई वस्तु है ही नहीं अतः चैतन्य शरीर का ही गुण या धर्म सिद्ध होता है। अर्थात् यह शरीर ही आत्मा है। इसकी सिद्धि के तीन प्रकार है-तर्क, अनुभव और आयुर्वेद शास्त्र। मान लिया मा तर्क-से आत्मा की सिद्धि के लिये चार्वाक लोग कहते हैं कि शरीर के रहने पर चैतन्य रहता है और शरीर के न रहने पर चैतन्य नहीं रहता। इस अन्वय व्यतिरेक से शरीर ही चैतन्य का आधार अर्थात् आत्मा सिद्ध होता है। य कार सिंह अनुभव-‘मैं स्थूल हूँ’, ‘मैं दुर्बल हूँ’, ‘मैं गोरा हूँ’, ‘मैं निष्क्रिय हूँ’ इत्यादि अनुभव हमें पग-पग पर होता है। स्थूलता दुर्बलता इत्यादि शरीर के धर्म हैं और ‘मैं’ भी वही है। अतः शरीर ही आत्मा है। सिर कलक निम् । विहाना जा आयुर्वेद-जिस प्रकार गुड जौ महुआ आदि को मिला देने से कालक्रम के अनुसार उस मिश्रण में मदशक्ति उत्पन्न होती है, अथवा दही पीली मिट्टी और गोबर के परस्पर मिश्रण से उसमें बिच्छू पैदा हो जाता है अथवा पान कत्था सुपारी और चूना में लाल रंग न रहने पर भी उनके मिश्रण से मुँह में लालिमा उत्पन्न हो जाती है उसी प्रकार चतुर्भूतों के विशिष्ट सम्मिश्रण से चैतन्य उत्पन्न हो जाता है। किन्तु इन भूतों के विशिष्ट मात्रा में मिश्रण का कारण क्या है? इस प्रश्न का उत्तर चार्वाक के पास स्वभाववाद के अतिरिक्त कुछ नहीं है। PER Tणामा _ईश्वर-न्याय आदि शास्त्रों में ईश्वर की सिद्धि अनुमान या आप्त वचन से की जाती है। चूँकि चार्वाक प्रत्यक्ष और केवल प्रत्यक्ष प्रमाण को मानता है अतः उसके मत में प्रत्यक्ष - दृश्यमान राजा ही ईश्वर है। वह अपने राज्य का तथा उसमें रहने वाली प्रजा का नियन्ता होता है। अतः उसे ही ईश्वर मानना चाहिये। FETTE ६२८ चार्वाक दर्शन
ज्ञान मीमांसा
प्रमेय अर्थात् विषय का यथार्थ ज्ञान अर्थात् प्रमा के लिये प्रमाण की आवश्यकता होती है। चार्वाक लोक केवल प्रत्यक्ष प्रमाण मानते हैं। विषय तथा इन्द्रिय के सन्निकार्ष से उत्पन्न ज्ञान प्रत्यक्ष ज्ञान कहलाता है। हमारी इन्द्रियों के द्वारा प्रत्यक्ष दिखलायी पड़ने वाला संसार ही प्रमेय है। इसके अतिरिक्त अन्य पदार्थ असत् है। आँख कान नाक जिहा और त्वचा के द्वारा रूप शब्द गन्ध रस एवं स्पर्श का प्रत्यक्ष हम सबको होता है। जो वस्तु अनुभवगम्य नहीं होती उसके लिये किसी अन्य प्रमाण की आवश्यकता भी नहीं होती । बौद्ध जैन नामक अवैदिक दर्शन तथा न्यायवैशेषिक आदि अर्द्धवैदिक दर्शन अनुमान को भी प्रमाण मानते हैं। उनका कहना है कि समस्त प्रमेय पदार्थों की सत्ता केवल प्रत्यक्ष प्रमाण से सिद्ध नहीं की जा सकती। परन्तु चार्वाक का कथन है कि अनुमान से केवल सम्भावना पैदा की जा सकती है। निश्चयात्मक ज्ञान प्रत्यक्ष से ही होता है। दूरस्थ हरे भरे वृक्षों को देखकर वहाँ पक्षियों का कोलाहल सुनकर, उधर से आने वाली हवा के ठण्डे झोके से हम वहाँ पानी की सम्भावना मानते हैं। जल की उपलब्धि वहाँ जाकर प्रत्यक्ष देखने से ही निश्चित होती है। अतः सम्भावना उत्पन्न करने तथा लोकव्यवहार चलाने के लिये अनुमान आवश्यक होता है किन्तु वह प्रमाण नहीं हो सकता। जिस व्याप्ति के आधार पर अनुमान प्रमाण की सत्ता मानी जाती है वह व्याप्ति स्वभाव के अतिरिक्त कुछ नहीं है। धूम के साथ अग्नि का, पुष्प के साथ गन्ध का होना स्वभाव है। सुख और धर्म का दुःख और अधर्म का कार्यकारण भाव स्वाभाविक है। जैसे कोकिल के शब्द में मधुरता तथा कौवे के शब्द में कर्कशता स्वाभाविक है उसी प्रकार सर्वत्र समझना चाहिये। जहाँ तक शब्द प्रमाण की बात है तो वह तो एक प्रकार से प्रत्यक्ष प्रमाण ही है। आप्त पुरुष के वचन हमको प्रत्यक्ष सुनायी देते हैं। उनको सुनने से अर्थ ज्ञान होता है। यह प्रत्यक्ष ही है। जहाँ तक वेदों का प्रश्न है उनके वाक्य अदृष्ट और अश्रुतपूर्ण विषयों का वर्णन करते हैं अतः उनकी विश्वसनीयता सन्दिग्ध है। साथ ही अधर्म आदि में अश्वलिङ्गग्रहण सदृश लज्जास्पद एवं मांसभक्षण सदृश घृणास्पद कार्य करने से तथा सृण्येव जरी तुफरीतू नैतोशेव तुर्फरी पर्करीका । उदन्यजेव जेमना मदेरु ता मे जराटवजरं मरायु ।। मन्त्र में जरी तुर्फरी आदि अर्थहीन शब्दों का प्रयोग करने से वेद अपनी अप्रामाणिकता स्वयं सिद्ध करते हैं।
आचार मीमांसा
उपर्युक्त विवरण से यह स्पष्ट हो जाता है कि चार्वाक लोग इस प्रत्यक्ष दृश्यमान देह और जगत् के अतिरिक्त किसी अन्य पदार्थ को स्वीकार नहीं करते। धर्म अर्थ काम और चार्वाक दर्शन ६२६ मोक्ष नामक पुरुषार्थचतुष्टय को वे लोग पुरुष अर्थात् मनुष्य देह के लिये उपयोगी मानते हैं। उनकी दृष्टि में अर्थ और काम ही परम पुरुषार्थ है। धर्म नाम की वस्तु को मानना मूर्खता है क्योंकि जब इस संसार के अतिरिक्त कोई अन्य स्वर्ग आदि है ही नहीं तो धर्म के फल को स्वर्ग में भोगने की बात अनर्गल है। पाखण्डी धूत्तों के द्वारा कपोलकल्पित स्वर्ग का सुख भोगने के लिये यहाँ यज्ञ आदि करना धर्म नहीं है बल्कि उसमें की जाने वाली पशुहिंसा आदि के कारण वह अधर्म ही है तथा हवन आदि करना तत्तद् वस्तुओं का दुरुपयोग तथा व्यर्थ शरीर को कष्ट देना है। इसलिये जो कार्य शरीर को सुख पहुँचाये उसी को करना चाहिये। जिसमें इन्द्रियों की तृप्ति हो मन आन्दित हो वही कार्य करना चाहिये। जिनसे इन्द्रियों की तृप्ति हो मन आनन्दित हो उन्हीं विषयों का सेवन करना चाहिये। शरीर इन्द्रिय मन को आनन्दाप्लावित करने में जो तत्त्व बाधक होते हैं उनको दूर करना, न करना, मार देना धर्म है। शरीरिक मानसिक कष्ट सहना, विषयानन्द से मन और शरीर को बलात् विरत करना अधर्म है। तात्पर्य यह है कि आस्तिक वैदिक एवं यहाँ तक कि अर्धवैदिक दर्शनों में, पुराणों स्मृतियों में वर्णित आचार का पालन यदि शरीर सुख का साधक है तो उनका अनुसरण करना चाहिये और यदि वे उसके बाधक होते हैं तो उनका सर्वथा सर्वदा त्याग कर देना चाहिये।
मोक्ष
चार्वाकों की मोक्ष की कल्पना भी उनके तत्त्व मीमांसा एवं ज्ञान मीमांसा के प्रभाव से पूर्ण प्रभावित है। जब तक शरीर है तब तक मनुष्य नाना प्रकार के कष्ट सहता है। यही नरक है। इस कष्ट समूह से मुक्ति तब मिलती है जब देह चैतन्यरहित हो जाता है अर्थात् मर जाता है। यह मरना ही मोक्ष है क्योंकि मृत शरीर को किसी भी कष्ट का अनुभव नहीं होता। यद्यपि अन्य दर्शनों में आत्मा के अस्तित्व को स्वीकार करते हुए उसी के मुक्त होने की चर्चा की गयी है और मोक्ष का स्वरूप भिन्न-भिन्न दर्शनों में भिन्न-भिन्न है, तथापि चार्वाक उनकी मान्यता को प्रश्रय नहीं देते। वे न तो मोक्ष को नित्य मानते हुए सन्मात्र मानते हैं, न नित्य मानते हुए सत् और चित् स्वरूप मानते हैं न ही वे सच्चिदानन्द स्वरूप में उसकी स्थिति को ही मोक्ष स्वीकार करते हैं। लोक कला कामगाज कि कई को कि शामला तमगार काम काम किया कि मामाचावाकलाकायत छि गतिविहित प्रजातिकाजमार महक समीकि मक