‘वेदोऽखिलो धर्ममूलम्’ मनुस्मृति (२६) के इस वाक्य में आये हुए ‘अखिल’ शब्द को काकाक्षि-गोलक न्याय से ‘वेद’ तथा ‘धर्म’ दोनों शब्दों के साथ जोड़ना चाहिये। इस प्रकार वाक्य का स्वरूप होगा ‘वेदोऽखिलोऽखिलधर्ममूलम्’। इसका स्पष्ट अर्थ है कि समस्त वेद अर्थात् ऋग् यजुः साम और अथर्व नामक चारों वेद अखिल धर्म अर्थात् आस्तिक नास्तिक सभी धर्मों के विषय में मूल अर्थात् प्रमाण हैं। इस प्रकार चार्वाक से लेकर संसार में प्रचलित सारे धर्मों एवं दर्शनों का मूल उत्स वेद हैं-ऐसा सुनिश्चित होता है। वेदों के अभिधेयार्थ से उनका निहितार्थ भिन्न होता है। ‘परोक्षप्रिया इव हि देवाः प्रत्यक्षद्विषः’ (बृ.उ. ४।२।२) सिद्धान्त के अनुसार वेद अपने अभिप्राय को साङ्केतिक या व्यङ्ग्य रूप में कहते हैं। वेदों में चार्वाक दर्शन के संसूचक वाक्य इसी प्रकार के हैं फिर भी वेदों को चार्वाक दर्शन का मूल स्रोत मानने में कोई हर्ज नहीं है। ऋग् यजुः साम संहिताओं में चार्वाक मत का उल्लेख स्पष्ट रूप से नहीं मिलता किन्तु अथर्व संहिता इसका अपवाद है। इसमें सांसारिक मूल्यों के उन्नयन संरक्षण एवं परिवर्द्धन पर विशेष बल दिया गया है। बुद्धिवर्द्धन, रोगोपशमन, मूत्रमोचन, सुखप्रसव, रोगनाश, कामलारोगनाश, श्वेतकुष्ठनाश, ज्वरनाश, दीर्घायुष्ट्त्वप्राप्ति, क्षेत्रियरोगनाश, पशुसम्वर्धन, कामिनीवशीकरण, कृमिजम्भन, कृमिनाश, दुःखनाश, पशुगोशाला, पतिवेदन, वाणिज्य, कृषि, कामबाण, स्वापन, विषनाश, अपामार्ग, गर्भाधान, भैषज्य, सर्प से रक्षा, जलचिकित्सा, आनृण्य, सपत्नीनाश, राष्ट्ररक्षा, काम, विजयप्राप्ति, विवाह, दुःस्वप्ननाश इत्यादि विषयों का वर्णन करने वाला अथर्ववेद स्पष्टरूप से शरीर और संसार से अपना सम्बन्ध घोषित करता है। वेदों के विषय में प्राच्य एवं पाश्चात्त्य दो विचारधारायें चलती हैं। प्राच्य मत के अनुसार वेद अनादि एवं अपौरुषेय हैं। अथर्ववेद के उपर्युक्त विषयों को देखने से यह सिद्ध होता है कि देह एवं भौतिक संसार को ही प्रधानता देने वाला एक ऋषिवर्ग इस धराधाम पर सदा विद्यमान रहा है। अर्थात् जिस प्रकार वेद अनादि हैं उसी प्रकार चार्वाक मत भी अनादि है। पाश्चात्त्य मत के अनुसार वेद विश्व के सर्वप्राचीन ग्रन्थ हैं। इस प्रकार उसमें वर्णित चार्वाक मत भी अत्यन्त प्राचीन काल से प्रचलित सिद्ध होता है। प्राच्य एवं पाश्चात्त्य दोनों मतों से चार्वाक मत अथवा चार्वाक दर्शन की प्रचीनता किं वा अनादिता उभयप्रकारेण सिद्ध होती है।५६२ चार्वाक दर्शन चार्वाक दर्शन के अनेक नाम-विद्वानों ने ‘चार्वाक’ शब्द की अनेक प्रकार से व्युत्पत्ति की हैं १. ‘चार्वाक’ शब्द चारु वाक् का अपभ्रष्ट रूप है। ‘चारु’ का अर्थ होता हैं-सुन्दर मनोरम और ‘वाक्’ का अर्थ होता हैं-वचन। जो वचन सुनने में कानों को मधुर अर्थात् प्रिय लगे, जिसको सुनने की बार-बार इच्छा हो ऐसे वाक्य को बोलने वाला चारुवाक् या चार्वाक कहलाता है। ‘खाओं पियो मौज उड़ाओ’ इत्यादि वचन शरीर इन्द्रिय को सुख देने वाले मनोहारी वचन हैं। चार्वाक दर्शन के सिद्धान्तों का वर्णन ऐसे ही मनोहारी वाक्यों के द्वारा किया गया है, अतः इस दर्शन को चार्वाक दर्शन कहा जाता है। ‘चार्वाक’ शब्द ‘चर्व’ भक्षणे धातु से बना है। जिसका अर्थ हैं-चबाना-भोजन करना। भोजन करने का अर्थ है इन्द्रिय, शरीर एवं मन को तृप्त करना। चूंकि यह दर्शन शरीर इन्द्रिय एवं मन को सब प्रकार से सुख पहुँचाने की बात करता है अतः इसे चार्वाक दर्शन कहा जाता है। इसके अतिरिक्त प्रत्यक्षवादी होने के कारण यह पुण्य-पाप, धर्म-अधर्म, स्वर्ग-नरक, सदृश परोक्ष विषयों का चर्वण कर जाता है उन्हें चाट जाता है इसलिये भी इसे चार्वाक कहा जाता है। आचार्य बहस्पति के एक शिष्य थे जिनका नाम चार्वाक था। उन्होंने इस मत का प्रचार-प्रसार किया। अतः इस मत का नाम चार्वाक मत पड़ा। इस दर्शन का एक नाम लोकायत भी है। ‘लोकायत’ शब्द का अर्थ हैं-लोक अर्थात् समाज में आयत अर्थात् आया हुआ, फैला हुआ, विस्तृत। शास्त्रीय सिद्धान्तों से अनभिज्ञ सामान्य जन शरीर को ही अपना आराध्य मानते हैं। उनके लिये शुद्ध बुद्धि या शुष्क तर्क के द्वारा वेद, इतिहास, पुराण आदि का खण्डन कर उपभोक्तृवाद की स्थापना चरम प्रतिपाद्य होता है। अतः वेदविरोधी होने के साथ यह दर्शन जैन और बौद्ध शास्त्रों की भी निन्दा करता है। इसीलिये वेदानुयायी रामचन्द्र ने भरत से लोकायत मत का अनुसरण न करने को कहा। भगवान् बुद्ध ने विनय पिटक में भिक्षुओं को लोकायत शास्त्र का अध्ययन और उसके अनुसार आचरण करने को मना किया है। जैनाचार्यगण इस प्रकार के आचरण को मिथ्या दृष्टि कहते हैं। तात्पर्य यह है कि तीनों धर्म इस लोकयत मत की निन्दा करते हैं, अतः इसे लोकायत दर्शन या गँवारों का दर्शन कहा जाता है। इस दर्शन के संस्थापक बृहस्पति नामक आचार्य थे। अतः इसे बार्हस्पत्य दर्शन भी कहा जाता है। चार्वाक दर्शन