०६ उत्तरकाण्ड

श्री सीतारामौ विजयेते श्रीमद्‌गोस्वामितुलसीदासकृत

श्रीरामचरितमानस

सप्तम सोपान

मंगलाचरण श्री:

भावार्थबोधिनी टीका

रामं रामाभिरामं प्रणतभयहरं कन्दनीलं सुशीलम्‌
साकेते धाम्नि सीतासहितमहितहं स्वर्णसिंहासनस्थं।

चापं चण्डप्रतापं शरमिषुधियुगं सावधानं दधानम्‌
याचे राजाधिराजं पवनसुतनतं भव्यभक्तिं वदान्यम्‌॥१॥ श्रीरामपादाम्बुजचंचरीकं समुल्लसन्‌ मानसपुण्डरीकम्‌। दोर्दण्डसंकम्पितकालकालम्‌ वन्दामहे वानरवारणेन्द्रम्‌॥२॥ श्रीरामभद्राचार्योऽहं प्रणम्य तुलसीकविम्‌ सोपाने सप्तमे व्याख्यां भाषे भावार्थबोधिनीम्‌॥३॥

श्लोक
केकीकण्ठाभनीलं सुरवरविलसद्विप्रपादाब्जचिह्नं शोभाढ्‌यं पीतवस्त्रं सरसिजनयनं सर्वदा सुप्रसन्नम्‌। पाणौ नाराचचापं कपिनिकरयुतं बन्धुना सेव्यमानं नौमीड्‌यं जानकीशं रघुवरमनिशं पुष्पकारूढरामम्‌॥१॥

भाष्य

मयूर के कण्ठ को भी जिससे आभा अर्थात्‌ शोभा मिली, ऐसे नील वर्ण वाले तथा जिनके सुन्दर हृदय पर ब्राह्मण के श्रीचरणकमल का चिन्ह सुशोभित है, शोभा ―प धन के धनी, पीताम्बर धारण किये हुए, कमलनेत्र, निरन्तर पूर्णरूपेण प्रसन्न रहने वाले, श्रीहस्त में धनुष–बाण धारण किये हुए, वानरसमूहों से युक्त, छोटे भाई लक्ष्मण जी द्वारा निरन्तर सेवित हो रहे, स्तुति करने योग्य, जनकनन्दिनी भगवती श्रीसीता जी के प्राणपति अथवा, जनकनन्दिनी सीता जी जिनकी ‘ईशा’ अर्थात्‌ गृहस्वामिनी हैं, ऐसे रघुकुल में श्रेष्ठ, अज्ञान की निशा अर्थात्‌ रात्रि से रहित, श्रीअवध गमन के लिए पुष्पक विमान पर विराजमान भगवान्‌ श्रीराम को मैं, तुलसीदास दिन–रात नमन करता हूँ।

**विशेष– **“***सुरवर** सर्वे शान्ता: अजन्ता:”** *इस वैयाकरण नियम के अनुसार उर शब्द अजन्त भी है। अत: “***शोभनम्‌** उरं सुरं***,” इस विग्रह से ‘सु’ शब्द का उर शब्द के साथ समास करने पर शकन्ध्वादि गण की आकृतगण व्यवस्था होने से ‘सु’ के उत्तरवर्ती उकार और उर के पूर्ववर्ती उकार के स्थान में पररूप संधि हो गई।

[[८३८]]

केकीकण्ठाभनीलं* *वाक्यांश में प्रयुक्त केकी शब्द में अन्येषामपि दृश्यते, (पा०अ०, ७.३.१३७) सूत्र से दीर्घ हुआ है।

कोसलेन्द्रपदकञ्जमञ्जुलौ कोमलावजमहेशवन्दितौ।
जानकीकरसरोजलालितौ चिन्तकस्य मनभृङ्गसङ्गिनौ॥२॥

भाष्य

स्वभावत: कोमल तथा ब्रह्मा जी और शिव जी द्वारा वन्दित, जनकनन्दिनी भगवती सीता जी के कर कमलों द्वारा लालित, याने दुलराये हुए (वात्सल्यपूर्वक सेवा किये जाते हुए) चिन्तकजनों के मनरूप भ्रमर के संगी अथवा, चिन्तकों के मन रूप भ्रमरों का जिनमें संग अर्थात्‌ आसक्ति बनी रहती है, ऐसे अयोध्यापति भगवान्‌ श्रीराम के कमल के समान सुन्दर और मधुर श्रीचरणयुगल को मैं तुलसीदास नमन करता हूँ।

**कुन्दइन्दुदरगौरसुन्दरं अम्बिकापतिमभीष्टसिद्धिदम्‌। कारुणीककलकञ्जलोचनं नौमि शङ्करमनङ्गमोचनम्‌॥३॥**
भाष्य

चन्द्रमा और शंख के समान गौर एवं सुन्दर, अभीष्ट सिद्धियों को देने वाले, करुणापूर्ण, सुन्दर कमल के समान नेत्रवाले, काम के आवेग से मुक्त करने वाले, ऐसे पार्वती जी के पति भूतभावन भगवान्‌ श्रीशङ्कर को कुन्द बुद्धिवाला मैं तुलसीदास नमन करता हूँ।

**विशेष– **यहाँ प्रयुक्त कुन्द शब्द प्रथमा विभक्ति के एकवचन में है, जिसका अर्थ होता है, मन्दबुद्धिवाला। मंगलाचरण का प्रथम छन्द स्रग्धरावृत्त में तथा द्वितीय और तृतीय श्लोक में रथोद्धता छन्द है।

दो०– रहा एक दिन अवधि कर, अति आरत पुर लोग।
जहँ तहँ सोचहिं नारि नर, कृश तन राम बियोग॥

भाष्य

अब प्रभु श्रीराम के वनवास के चौदह वर्ष की अवधि का एक दिन ही शेष रह गया है। श्रीअवधपुर के लोग प्रभु श्रीराम के दर्शनों के लिए अत्यन्त आर्त्त अर्थात्‌ उतावले हो गये हैं। भगवान्‌ श्रीराम के वियोग में दुर्बल हुए शरीर वाले महिला और पुरुष जहाँ–तहाँ शोक कर रहे हैं और विचार कर रहे हैं कि प्रभु कब आयेंगे?

**सगुन होहिं सुंदर सकल, मन प्रसन्न सब केर। प्रभु आगमन जनाव जनु, नगर रम्य चहुँ फेर॥**
भाष्य

सभी सुन्दर शकुन हो रहे हैं, सभी के मन प्रसन्न हैं, मानो चारों ओर सुन्दर नगर अथवा नगर की चतुर्दिक्‌ रमणीयता ये दोनों ही प्रभु श्रीराम के आगमन को जना रहे हैं अर्थात्‌ सूचित कर रहे हैं।

**कौसल्यादिक मातु सब, मन आनँद अस होइ। आयउ प्रभु श्री अनुज जुत, कहन चहत अब कोइ॥**
भाष्य

कौसल्या आदि सभी माताओं के मन में इस प्रकार का आनन्द हो रहा है, मानो श्रीसीता जी एवं श्रीलखन लाल के साथ प्रभु श्रीराम आ गए ऐसा अभी–अभी कोई कहना चाहता है।

**भरत नयन भुज दच्छिन, फरकत बारहिं बार। जानि सगुन मन हरष अति, लागे करन बिचार॥**
भाष्य

भरत जी का दाहिना नेत्र और दाहिनी भुजा ये दोनों बारम्बार फ़डक रहे हैं। इसे शकुन जानकर भरत जी के मन में अत्यन्त हर्ष हो रहा है, वे विचार करने लगे–

**रहा एक दिन अवधि अधारा। समुझत मन दुख भयउ अपारा॥ कारन कवन नाथ नहिं आयउ। जानि कुटिल किधौं मोहि बिसरायउ॥** [[८३९]]
भाष्य

हमारी आधार रूप अवधि का एक ही दिन शेष रह गया है, यह समझते ही भरत जी के मन में अपार दु:ख हुआ। वे मन में ही सोचने लगे, अरे! क्या कारण है, मेरे नाथ श्रीरघुनाथ जी अभी तक नहीं आये, क्या मुझे कुटिल जानकर प्रभु ने भुला दिया?

**अहह धन्य लछिमन बड़भागी। राम पदारबिंद अनुरागी॥** **कपटी कुटिल मोहि प्रभु चीन्हा। ताते नाथ संग नहिं लीन्हा॥**
भाष्य

अहह! हर्ष है! लक्ष्मण धन्य और बड़े भाग्यशाली हैं, क्योंकि वे भगवान्‌ श्रीराम के श्रीचरणकमल में निरन्तर अनुराग रखते हैं। प्रभु ने मुझे कपटी और कुटिल करके पहचान लिया है, इसलिए मेरे स्वामी ने मुझे साथ नहीं लिया।

**जौ करनी समुझैं प्रभु मोरी। नहिं निस्तार कलप शत कोरी॥ जन अवगुन प्रभु मान न काऊ। दीन बंधु अति मृदुल सुभाऊ॥**
भाष्य

यदि प्रभु मेरी करनी अर्थात्‌ हनुमान जी को बाण से मारकर गिरा देने वाले कुकृत्य का स्मरण करें, तो मेरा अरबों कल्प तक निस्तार अर्थात्‌ प्रायश्चितपूर्ण उद्धार नहीं हो सकता, परन्तु दीनों के बन्धु, सर्वसमर्थ मेरे प्रभु, सेवक का अवगुण कभी नहीं मानते, क्योंकि प्रभु का स्वभाव बहुत ही कोमल है।

**मोरे जिय भरोस दृ़ढ सोई। मिलिहैं राम सगुन शुभ होई॥ बीते अवधि रहहिं जौ प्राना। अधम कवन जग मोहि समाना॥**
भाष्य

मेरे हृदय में वही दृ़ढ विश्वास है, भगवान्‌ श्रीराम मिलेंगे, सुन्दर शकुन हो रहा है। यदि चौदह वर्ष की अवधि बीत जाने पर प्रभु के दर्शन के बिना मेरे प्राण रहे तो संसार में मेरे समान कौन नीच हो सकता है?

**दो०– राम बिरह बारीस महँ, भरत मगन मन होत।** **बिप्र रूप धरि पवनसुत, आइ गयउ जनु पोत॥१\(क\)॥**
भाष्य

भगवान्‌ श्रीराम के विरहरूप विशाल सागर में भरत जी और उनका मन मग्न ही हो रहा था अर्थात्‌ डूब ही रहा था कि उसी बीच ब्राह्मण का रूप धारण करके, पवनदेव के सांकल्पिक पुत्र हनुमान जी महाराज पोत अर्थात्‌ समुद्री जहाज की भाँति श्रीअवध आ गये।

**बैठे देखि कुशासन, जटा मुकुट कृश गात।** **राम राम रघुपति जपत, स्रवत नयन जल जात॥१\(ख\)॥**
भाष्य

सिर पर जटा का मुकुट धारण किये हुए, दुर्बल शरीर वाले, “राम–राम” शब्द का उच्चारण करते–करते रघुकुल के स्वामी भगवान्‌ श्रीराम का अर्थभावना के साथ जप करते हुए, नेत्र कमलों से अश्रुपात करते हुए कुश के आसन पर बैठे हुए श्रीभरत जी को श्रीहनुमान जी महाराज ने देखा।

**देखत हनूमान अति हरषेउ। पुलक गात लोचन जल बरषेउ॥ मन महँ बहुत भाँति सुख मानी। बोलेउ श्रवन सुधा सम बानी॥**
भाष्य

भरत जी को श्रीराम के प्रेम में तन्मय देखते ही हनुमान जी बहुत प्रसन्न हुए। उनका शरीर रोमांचित हो गया और उनके नेत्र अश्रुजल की वर्षा करने लगे अर्थात्‌ हनुमान जी के नेत्रों से अश्रु की धारा चल पड़ी। अपने मन में बहुत प्रकार से सुख मानकर हनुमान जी, भरत जी के श्रवण के पास जाकर श्रवण को प्रिय लगने वाली अमृत जैसी वाणी बोले–

[[८४०]]

**जासु बिरह सोचहु दिन राती। रटहु निरंतर गुन गन पाँती॥ रघुकुल तिलक सुजन सुखदाता। आयउ कुशल देव मुनि त्राता॥ रिपु रन जीति सुजस सुर गावत। सीता अनुज सहित प्रभु आवत॥**
भाष्य

हनुमान जी बोले, हे भैया भरत! जिन प्रभु श्रीराम के वियोग में आप दिन–रात सोचते रहते हैं। जिन प्रभु के निरस्त समस्त हेय प्रत्यनीक कल्याणमय गुणगणों की पंक्तियों को आप निरन्तर रटते रहते हैं, वे ही सज्जनों को सुख देने वाले, देवताओं और मुनियों के रक्षक, रघुकुल के तिलक अर्थात्‌ रघुश्रेष्ठ भगवान्‌ श्रीराम (मेरे हृदय विमान द्वारा) सकुशल आ गये हैं। भगवान्‌ श्रीराम ने शत्रु रावण को युद्ध में जीत लिया है। देवता उनका यश गा रहे हैं और प्रभु श्रीराम भगवती श्रीसीता तथा छोटे भैया लक्ष्मण जी के साथ आ रहे हैं।

**विशेष– **पूर्व पंक्ति में *आयउ** *और पश्चात्‌ पंक्ति में *आवत** *क्रिया का प्रयोग करने के पीछे गोस्वामी तुलसीदास जी, हनुमान जी के एक चमत्कारपूर्ण मन्तव्य को सूचित कर रहे हैं। हनुमान जी महाराज का तात्पर्य यह है कि लंका से भगवान्‌ श्रीराम आपसे मिलने के लिए दो विमानों से चले। प्रथम पुष्पक विमान से और पुन: मेरे हृदयरूप विमान से, परन्तु मेरे हृदयरूप विमान पर च़ढकर चलनेवाले प्रभु पहले आ पहुँचे और पुष्पक विमान पर च़ढकर चलनेवाले प्रभु अभी आ रहे हैं।

सुनत बचन बिसरे सब दूखा। तृषावंत जिमि पाइ पियूषा॥ को तुम तात कहाँ ते आए। मोहि परम प्रिय बचन सुनाए॥

भाष्य

हनुमान जी महाराज के वचन सुनते ही भरत जी सम्पूर्ण दु:ख उसी प्रकार भूल गये, जैसे प्यासा अमृत पाकर पूर्व के सभी कष्ट भूल जाता है। भरत जी बोले, हे तात! जिसने मुझे परमप्रिय वचन अर्थात्‌ प्रभु के आगमन सूचक श्रेष्ठ और प्रिय वचन सुनाये वह तुम कौन हो, कहाँ से आये हो?

**मारुतसुत मैं कपि हनुमाना। नाम मोर सुनु कृपानिधाना॥ दीनबंधु रघुपति कर किंकर। सुनत भरत भेंटेउ उठि सादर॥**
भाष्य

श्रीहनुमान जी बोले, हे कृपानिधान भरत जी अथवा श्रीराम की सम्पूर्ण कृपा जहाँ निरन्तर विराजमान है ऐसे भरत जी! सुनिये, मैं वायुदेवता का पुत्र वानर हूँ, मेरा नाम हनुमान है। दीनबन्धु, रघुवंश के स्वामी, भगवान्‌ श्रीराम का एक छोटा–सा किंकर अर्थात्‌ आज्ञाकारी दास हूँ। यह सुनकर अपने आसन से उठकर भरत जी ने आदरपूर्वक हनुमान जी को हृदय से लगा लिया (तब हनुमान जी ने भी अपना वास्तविक रूप प्रकट कर दिया)।

**विशेष– ***रामस्य** कृपा न्यधीयत्‌ यस्मिन स कृपानिधान: *अर्थात्‌ भगवान्‌ श्रीराम की सम्पूर्ण कृपा श्री पादुका जी के माध्यम से भरत जी में ही निहित है इसलिए यहाँ प्रयुक्त कृपानिधान शब्द में उच्चरित निधान शब्द खण्ड नि पूर्वक ‘धा’ धातु से “***करणाधिकरण्योश्च”** *\(पा० अ०, ३.३.११७\) सूत्र से अधिकरण में ल्युट्‌ प्र्रत्यय और अन्‌ आदेश करके निष्पन्न हुआ है।

मिलत प्रेम नहिं हृदय समाता। नयन स्रवत जल पुलकित गाता॥ कपि तव दरस सकल दुख बीते। मिले आजु मोहि राम पिरीते॥ बार बार बूझी कुशलाता। तो कहँ देउँ काह सुनु भ्राता॥ एहि संदेश सरिस जग माहीं। करि बिचार देखेउँ कछु नाहीं॥ नाहिन तात उरिन मैं तोहीं। अब प्रभु चरित सुनावहु मोही॥
[[८४१]]

भाष्य

श्रीहनुमान जी से मिलते हुए श्रीभरत जी का प्रेम हृदय में नहीं समा रहा है। उनके नेत्र अश्रुपात कर रहे हैं और शरीर पुलकित है। भरत जी बोले, हे हनुमान जी! आपके दर्शन से मेरे सभी दु:ख समाप्त हो गये। आज मुझे मेरे प्रेमास्पद श्रीराम भी मिल गये अर्थात्‌ आपको हृदय में लगाने से आपके हृदयविहारी श्रीराम के मुझे साक्षात्‌ दर्शन हो गये। भरत जी बार–बार कुशल पूछने लगे और कहा, हे भाई! सुनो, मैं तुम्हें क्या दूँ मैंने मन में विचार करके देख लिया है कि इस सन्देश के समान संसार में कुछ भी नहीं है। हे तात! मैं तुमसे उऋण नही हूँ, अब मुझे श्रीराम जी के चरित्र सुनाओ।

**तब हनुमंत नाइ पद माथा। कहे सकल रघुपति गुन गाथा॥ कहु कपि कबहुँ कृपालु गोसाईं। सुमिरहिं मोहि दास की नाईं॥**
भाष्य

तब श्रीहनुमान जी ने श्रीभरत जी के चरणों में मस्तक नवाकर भगवान्‌ श्रीराम के गुणों को प्रकट करने वाली सभी गाथायें कह सुनायी। भरत जी ने कहा, हे वानरश्रेष्ठ हनुमान जी! बताइये, इन्द्रियों, वाणी, बुद्धि तथा पृथ्वी के स्वामी भगवान्‌ श्रीराम मुझे कभी अपने दास की भाँति स्मरण करते हैं?

**छं०– निज दास ज्यों रघुबंशभूषन कबहुँ मम सुमिरन कर्‌यो।** **सुनि भरत बचन बिनीत अति कपि पुलकि तन चरननि पर्‌यो॥ रघुबीर निज मुख जासु गुन गन कहत अग जग नाथ जो। काहे न होइ बिनीत परम पुनीत सदगुन सिंधु सो॥**
भाष्य

रघुकुल के आभूषण प्रभु श्रीराम ने मेरा अपने दास की भाँति क्या कभी स्मरण किया है? भरत जी के अत्यन्त विनम्र वचन सुनकर शरीर से रोमांचित होकर हनुमान जी भरत जी के चरणों में पड़ गये और मन में सोचने लगे, जो सभी ज़ड-चेतनों के ईश्वर हैं, ऐसे रघुकुल के वीर भगवान्‌ श्रीराम अपने मुख से जिनके गुणगण कहते रहते हैं, वे भरत जी विनम्र, परम पवित्र और सद्‌गुणों के सागर क्यों न हों?

**दो०– राम प्रान प्रिय नाथ तुम, सत्य बचन मम तात।**

**पुनि पुनि मिलत भरत सुनि, हरष न हृदय समात॥२(क)॥ भा०– **हनुमान जी स्पष्ट बोले, हे नाथ! आप भगवान्‌ श्रीराम को प्राण के समान प्रिय हैं और भगवान्‌ श्रीराम आपको प्राण के समान प्रिय हैं। हे भैया भरत! मेरा यह वचन सत्य है। हनुमान जी की यह वाणी सुनकर भरत जी

हनुमान जी महाराज को बार–बार मिल रहे हैं, उनके हृदय में हर्ष नहीं समा रहा है।

सो०– भरत चरन सिर नाइ, तुरत गयउ कपि राम पहँ।
कही कुशल सब जाइ, हरषि चलेउ प्रभु यान चढि़॥

भाष्य

भरत जी के चरणों में सिर नवाकर वानरश्रेष्ठ हनुमान जी महाराज तुरन्त राम जी के पास चले गये और जाकर भरत जी की सम्पूर्ण कथा भगवान्‌ श्रीराम को सुनायी। प्रभु भी विरहार्त सत्यप्रतिज्ञ अपने भैया से मिलने के लिए प्रसन्न होकर विमान पर च़ढकर चल पड़े।

**हरषि भरत कोसलपुर आए। समाचार सब गुरुहिं सुनाए॥ पुनि मंदिर महँ बात जनाई। आवत नगर कुशल रघुराई॥ सुनत सकल जननी उठि धाईं। कहि प्रभु कुशल भरत समुझाईं॥**
भाष्य

भरत जी प्रसन्न होकर नन्दीग्राम से श्रीअयोध्या आये और गुव्र्देव वसिष्ठ जी को सम्पूर्ण समाचार सुनाया। फिर यह वार्त्ता राजभवन में जनायी अर्थात्‌ विशेष सेवक से कहलायी कि रघुकुल के राजा भगवान्‌ श्रीराम

[[८४२]]

भगवती श्रीसीता एवं भाई लक्ष्मण के सहित श्रीअवधपुर में कुशलपूर्वक आ रहे हैं। यह सुनकर सभी मातायें उठकर दौड़ीं और भरत जी के पास आ गईं। भरत जी ने प्रभु श्रीराम का कुशल समाचार कहकर माताओं को समझाया।

समाचार पुरबासिन पाए। नर अरु नारि हरषि सब धाए॥ दधि दुर्बा रोचन फल फूला। नव तुलसी दल मंगल मूला॥ भरि भरि हेम थार लिय भामिनि। गावत चलिं सब सिंधुरगामिनि॥ जे जैसे तैसहिं उठि धावहिं। बाल बृद्ध कहँ संग न लावहिं॥ एक एकन कहँ बूझहिं भाई। तुम देखे दयालु रघुराई॥

भाष्य

श्रीअवधपुरवासियों ने यह समाचार पाया, सभी नर–नारी प्रसन्न होकर दौड़े। दही, दूध, गोरोचन, फल, पुष्प, सभी मंगलों के मूल नवीन तुलसीदल स्वर्ण के थालों में भर–भरकर हाथों में लिए हुए, हथिनी के समान चलने वाली सभी सौभाग्यवती महिलायें प्रभु की अगवानी के लिए गाती हुई चल पड़ीं। जो जैसे हैं वे वैसे ही उठकर दौड़ रहे हैं। बालकों और वृद्धों को साथ नहीं ले रहे हैं। अथवा, बालक इतनी उत्सुकता से दौड़े जा रहे हैं कि वे धीरे चलने वाले वृद्धों को साथ नहीं ले रहे हैं। एक–दूसरे से पूछते हैं, हे भाई! क्या तुमने अभी–अभी परमदयालु भगवान्‌ श्रीराम को आते हुए देखा है?

**अवधपुरी प्रभु आवत जानी। भई सकल शोभा कै खानी॥ भइ सरजू अति निर्मल नीरा। बहइ सुहावन त्रिबिध समीरा॥**
भाष्य

प्रभु को आते हुए जानकर श्रीअवधपुरी सम्पूर्ण शोभाओं की खानि हो गई। भगवती सरयू अत्यन्त निर्मल जल से पूर्ण हो गईं और तीनों प्रकार की शीतल, मन्द, सुगन्ध वायु बहने लगा।

**दो०– हरषित गुरु परिजन अनुज, भूसुर बृंद समेत।** **चले भरत मन प्रेम अति, सन्मुख कृपानिकेत॥३\(क\)॥**
भाष्य

गुव्र्देव, परिवार के लोग तथा निजी सेवक छोटे भैया शत्रुघ्न जी एवं ब्राह्मणसमूहों के साथ मन में अत्यन्त प्रेमपूर्वक प्रसन्न होकर भरत जी कृपा के भवन श्रीराम के सन्मुख चले।

**बहुतक च़ढीं अटारिन, निरखहिं गगन बिमान।** **देखि मधुर सुर हरषित, करहिं सुमंगल गान॥३\(ख\)॥**
भाष्य

बहुत–सी महिलायें तथा शीघ्र ही बहू बनकर आई हुईं महिलायें भी अट्टालिकाओं पर च़ढकर आकाश में विमान को देख रही हैं। विमान पर च़ढे प्रभु को देखकर प्रसन्न होकर मधुर स्वर में मंगलगान कर रही हैं।

**विशेष– **होनी होके रहती टाले नहीं टलती।

एक दिन हुआ था वनवास आज देखो राजतिलक है। जिन के माथे जटा मुकुट का दृश्य सभी ने देखा। उनके मस्तक पर विलसेगी राजतिलक की रेखा।

राका शशि रघुपति अवध, सिंधु देखि हरषान।
बढ्‌यो कोलाहल करत जनु, नारि तरंग समान॥३(ग)॥

[[८४३]]

भाष्य

रघुकुल के स्वामी भगवान्‌ श्रीरामरूप शरद्‌पूर्णिमा के चन्द्रमा को देखकर श्रीअवधरूप सागर प्रसन्न होकर बढा और उसमें कोलाहल करती हुई अर्थात्‌ मंगलगीत गाती हुईं महिलायें, समुद्र की अनगिनत ब़ढी हुई तरंगों के समान सुशोभित हुईं।

**इहाँ भानुकुल कमल दिवाकर। कपिन देखावत नगर मनोहर॥ सुनु कपीश अंगद लंकेशा। पावनि पुरी रुचिर यह देशा॥**
भाष्य

यहाँ अर्थात्‌ पुष्पक से आते हुए, सूर्यकुलरूप कमल के सूर्य भगवान्‌ श्रीराम वानरों को अपना सुन्दर अवध नगर दिखा रहे हैं। हे वानराज सुग्रीव! हे युवराज अंगद! हे लंकापति विभीषण! आदि सभी वानर बन्धुओं सुनो, यह भारत देश अत्यन्त सुन्दर तथा रुचिर यानी दीप्ति को ब़ढाने और प्रीति उत्पन्न करने वाला है। इस भारतवर्ष में विराजमान सातों पुरियों में प्रथम मेरी श्रीअवधपुरी अत्यन्त पवित्र और सब को पवित्र करने वाली है।

**जद्दपि सब बैकुंठ बखाना। बेद पुरान बिदित जग जाना॥ अवध सरिस मोहि प्रिय नहिं सोऊ। यह प्रसंग जानइ कोउ कोऊ॥**
भाष्य

यद्दपि वेदों, पुराणों में विदित अर्थात्‌ प्रसिद्ध वैकुण्ठ को संसार जानता भी है और बखानता भी है, परन्तु वह वैकुण्ठ भी (उसका पर्यायवाची साकेतलोक भी) मुझे अवध के समान प्रिय नहीं है, यह प्रसंग तो कोई–कोई जानते हैं।

**जन्मभूमि मम पुरी सुहावनि। उत्तर दिशि बह सरजू पावनि॥ जेहिं मज्जन ते बिनहिं प्रयासा। मम समीप नर पावहिं बासा॥**
भाष्य

इसी सुहावनी श्रीअयोध्यापुरी में मेरी जन्मभूमि है, जिसके उत्तर दिशा में (तीन सौ धनुष की दूरी पर) पवित्र श्रीसरयू नदी बहती हैं, जिनमें स्नान करने से प्राणी बिना प्रयास के ही मेरे समीप निवास पा जाता है।

**अति प्रिय मोहिं इहाँ के बासी। मम धामदा पुरी सुखरासी॥ हरषे सब कपि सुनि प्रभु बानी। धन्य अवध जो राम बखानी॥**
भाष्य

यहाँ के वासी मुझे बहुत प्रिय हैं, यह पुरी मेरे धाम अर्थात्‌ दिव्य साकेत अथवा, मेरे दिव्य तेज को दे देती है और यह सम्पूर्ण सुखों की राशि है। सभी वानर प्रभु की यह वाणी सुनकर प्रसन्न हुए और बोले, यह श्रीअयोध्या धन्य है, भगवान्‌ श्रीराम ने जिसकी प्रशंसा की है।

**दो०– आवत देखे लोग सब, कृपासिंधु भगवान।** **नगर निकट प्रभु प्रेरेउ, उतरेउ भूमि बिमान॥४\(क\)॥**
भाष्य

कृपा के सागर भगवान्‌ श्रीराम ने अवधवासियों को अगवानी लेने के लिए अपने पास आते देखा, तब नगर के निकट आ जाने पर प्रभु ने मानसिक प्रेरणा दी और पुष्पक विमान भगवद्‌भूमि श्रीअवध के आँचल में उतर गया।

**उतरि कहेउ प्रभु पुष्पकहिं, तुम कुबेर पहिं जाहु।** **राघव प्रेरित सो चलेउ, हरष बिरह अति ताहु॥४\(ख\)॥**
भाष्य

प्रभु श्रीराम ने उतर करके पुष्पक विमान से कहा, अब तुम कुबेर के पास चले जाओ। श्रीराघव के द्वारा आदिष्ट होकर वह विमान चल पड़ा। भगवान्‌ श्रीराम उस पर आरू़ढ हुए इससे पुष्पक विमान को बहुत प्रसन्नता थी और भगवान्‌ श्रीराम से वह अलग हुआ इससे प्रभु के वियोग का बहुत कष्ट भी हुआ।

[[८४४]]

**आए भरत संग सब लोगा। कृशतन श्रीरघुबीर बियोगा॥ बामदेव बसिष्ठ मुनिनायक। देखे प्रभु महि धरि धनु सायक॥ धाइ गहे गुरु चरन सरोरुह। अनुज सहित अति पुलक तनोरुह॥**
भाष्य

प्रभु श्रीराम ने भरत जी के संग आये हुए श्रीरघुवीर के वियोग में दुर्बल शरीर वाले सभी लोगों को एवं महर्षि वामदेव जी तथा मुनियों के ईश्वर वसिष्ठ जी को देखा, इसके अनन्तर छोटे भाई लक्ष्मण जी के सहित प्रभु श्रीराम ने पृथ्वी पर धनुष–बाण रखकर, अत्यन्त पुलकित रोमावलि के साथ दौड़कर गुरुदेव के चरण कमल पक़ड लिए।

**भेंटि कुशल बूझी मुनिराया। हमरे कुशल तुम्हारिहिं दाया॥ सकल द्विजन कहँ नायउ माथा। धरम धुरंधर रघुकुल नाथा॥**
भाष्य

प्रभु श्रीराम को गले से लगाकर मुनिराज वसिष्ठ जी ने कुशल पूछी। भगवान्‌ श्रीराम ने विनम्रतापूर्वक उत्तर दिया, हे भगवन्‌! आपकी दया से हमारा सब कुशल है। इसी प्रकार धर्म के धुरन्धर रघुकुल के स्वामी भगवान्‌ श्रीराम ने सम्पूर्ण ब्राह्मणों से मिलकर उन्हें प्रणाम किया।

**गहे भरत पुनि प्रभु पद पंकज। नमत जिनहिं सुर मुनि शङ्कर अज॥ परे भूमि नहिं उठत उठाए। बल करि कृपासिन्धु उर लाए॥ श्यामल गात रोम भए ठा़ढे। नव राजीव नयन जल बा़ढे॥**
भाष्य

भरत जी ने फिर प्रभु श्रीराम के उन श्रीचरणकमलों को पक़ड लिया, जिन्हें देवता, मुनि, उपलक्षण विधा से भगवान्‌ विष्णु जी, शिव जी और ब्रह्मा जी जैसे देवाधिदेव नमन करते हैं। पृथ्वी पर पड़े हुए भरत जी प्रभु के उठाने पर भी नहीं उठ रहे हैं। अन्ततोगत्वा, कृपा के सागर भगवान्‌ श्रीराम ने बल का प्रयोग करके भरत जी को हृदय से लगा लिया। प्रभु के श्यामल शरीर में रोम ख़डे हो गये और नवीन लाल कमल जैसे नेत्रों में अश्रुजल की बा़ढ आ गई।

**छं०– राजीव लोचन स्रवत जल तनु ललित पुलकावलि बनी।** **अति प्रेम हृदय लगाइ अनुजहिं मिले प्रभु त्रिभुवन धनी॥ प्रभु मिलत अनुजहिं सोह मो पहिं जाति नहिं उपमा कही। जनु प्रेम अरु शंृगार तनु धरि मिलत बर सुषमा लही॥१॥**
भाष्य

प्रभु श्रीराम के राजीवनेत्रों से अश्रुपात हो रहा है। शरीर में अत्यन्त ललित ख़डे हुए रोमों की पंक्ति शोभित हो रही है। तीनों लोकों के स्वामी भगवान्‌ श्रीराम छोटे भाई भरत जी को अत्यन्त प्रेम के साथ हृदय से लगाकर मिले। छोटे भाई भरत जी को मिलते हुए प्रभु जिस प्रकार शोभित हो रहे हैं, वह उपमा मुझसे कही नहीं जा रही है, मानो प्रेम और शृंगार ही शरीर धारण करके परस्पर मिलते हुए श्रेष्ठ परमशोभा को प्राप्त कर लिए हैं।

**बूझत कृपानिधि कुशल भरतहिं बचन बेगि न आवई।** **सुनु शिवा सो सुख बचन मन ते भिन्न जान जो पावई॥ अब कुशल कोसलनाथ आरत जानि जन दरशन दियो। बूड़त बिरह बारीश कृपानिधान मोहि कर गहि लियो॥२॥**
भाष्य

कृपा के सागर भगवान्‌ श्रीराम छोटे भाई भरत जी से कुशल पूछ रहे हैं। भरत जी के मुख से वचन कहते नहीं आ रहा है। हे पार्वती! सुनिये, श्रीराम–भरत मिलाप का सुख वचन और मन से परे है, उसे तो जो पाता है,

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वही जानता है। भरत जी ने कहा, हे अयोध्यापति श्रीराम! अब तो कुशल ही कुशल है, क्योंकि मुझे आपने आर्त्त सेवक जानकर दर्शन दे दिया और हे कृपा के कोश! विरह सागर में डूबते हुए मुझे आपने अपने हाथ से पक़ड लिया अर्थात्‌ डूबने नहीं दिया।

दो०– पुनि प्रभु हरषित शत्रुहन, भेंटे हृदय लगाइ।
लछिमन भेंटे भरत पुनि, प्रेम न हृदय समाइ॥५॥

भाष्य

फिर प्रसन्न होकर भगवान्‌ श्रीराम ने हृदय से लगाकर शत्रुघ्न जी को भेंटा और फिर लक्ष्मण जी से भरत जी मिले, उनके हृदय में प्रेम नहीं समा रहा था।

**भरतानुज लछिमन पुनि भेंटे। दुसह बिरह संभव दुख मेटे॥ सीता चरन भरत सिर नावा। अनुज समेत परम सुख पावा॥**
भाष्य

फिर भरत जी के छोटे भाई शत्रुघ्न जी को लक्ष्मण जी ने गले से लगा लिया और शत्रुघ्न जी ने लक्ष्मण जी को प्रणाम किया। दोनों ने असहनीय विरह से उत्पन्न दु:ख को मिटा दिया। शत्रुघ्न जी के साथ भरत जी ने भगवती श्रीसीता के श्रीचरणों में प्रणाम किया और परमश्रेष्ठ सुख पाया।

**प्रभु बिलोकि हरषे पुरबासी। जनित बियोग बिपति सब नासी॥ प्रेमातुर सब लोग निहारी। कौतुक कीन्ह कृपालु खरारी॥ अमित रूप प्रगटे तेहिं काला। जथा जोग मिले सबहिं कृपाला॥ कृपादृष्टि रघुबीर बिलोकी। किए सकल नर नारि बिशोकी॥ छन महँ सबहिं मिले भगवाना। उमा मरम यह काहु न जाना॥**
भाष्य

प्रभु श्रीराम को निहारकर सभी अवधपुरवासी प्रसन्न हुए। भगवान्‌ श्रीराम के चौदह वर्ष के वियोग से उत्पन्न सम्पूर्ण विपत्ति नष्ट हो गई। सभी लोगों को प्रेम से व्याकुल देखकर, खर राक्षस के शत्रु कृपालु श्रीराम ने कौतुक किया। उस समय कृपालु प्रभु श्रीराम अनेक रूपों में प्रकट हो गये और योग्यतानुसार एक साथ सब को मिले अर्थात्‌ बड़ों को मिलकर प्रणाम किया, समवयस्कों को हृदय से लगाया और छोटों को आशीर्वाद दिया। रघुकुल के वीर श्रीराम ने अपनी कृपा भरी चितवन से निहारकर सभी पुरुषों और महिलाओं को शोकरहित कर दिया। भगवान्‌ श्रीराम एक ही क्षण में सभी लोगों से मिले, परन्तु हे पार्वती! यह रहस्य किसी ने नहीं जाना अर्थात्‌ सबको यही लगा कि भगवान्‌ श्रीराम केवल मुझी को मिल रहे हैं।

**एहि बिधि सबहिं सुखी करि रामा। आगे चले शील गुन धामा॥ कौसल्यादि मातु सब धाईं। निरखि बच्छ जनु धेनु लवाईं॥**
भाष्य

इस प्रकार से स्वभाव चरित्र और गुणों के आश्रय भगवान्‌ श्रीराम सभी अवधवासियों को सुखी करके आगे चले। प्रभु को निहारकर कौसल्या जी आदि सभी सात सौ मातायें उसी प्रकार दौड़ीं, जैसे तत्काल की जनीं हुई गौयें अपने छोटे बछड़े को देखकर दौड़ती हैं।

**छं०– जनु धेनु बालक बच्छ तजि गृह चरन बन परबश गईं।** **दिन अंत पुर रुख स्रवत थन हुंकार करि धावत भईं॥ अति प्रेम प्रभु सब मातु भेटीं बचन मृदु बहुबिधि कहे। गइ बिषम बिपति बियोग भव तिन हरष सुख अगनित लहे॥**
भाष्य

मानो परवश अर्थात्‌ ग्वाले के वश में होने के कारण नवजात बछड़े को घर में छोड़कर शीघ्र जनीं हुई गौयें घास चरने वन में चली गईं हों और दिन के अन्त में पुर अर्थात्‌ गोपू (गो–शाला) की ओर मुख करके हुंकार

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करती हुई अर्थात्‌ हुंकरती हुई थनों से दूध बहाती हुई दौड़ पड़ी हों, उसी प्रकार सभी मातायें नवजात वत्स रूप भगवान्‌ श्रीराम को श्रीचित्रकूट रूप घर में छोड़कर कैकेयी के समक्ष की हुई प्रभु श्रीराम की प्रतिज्ञा के वश में होकर अवधरूप वन में चौदह वर्षपर्यन्त चरने अर्थात्‌ किसी प्रकार शरीर निर्वाह करने के लिए चली गईं थी और वियोग रूप दिन का अन्त होते ही, हा! राम, हा! राम कहती हुई, वात्सल्य का दूध चुआती हुई, प्रभु के पास आ गईं। प्रभु श्रीराम से प्रेमपूर्वक सभी मातायें मिलीं और प्रभु श्रीराम भी सभी माताओं को प्रणाम करके प्रेमपूर्वक मिले। उन्होंने बहुत प्रकार से कोमल वचन कहा और भयंकर वियोग से उत्पन्न विपत्ति चली गई। तिन अर्थात्‌ सभी सात सौ मातायें और भगवान्‌ श्रीराम, भगवती सीता जी एवं लक्ष्मण जी ने अनगिनत प्रसन्नता और सुख प्राप्त किया।

दो०– भेंटेउ तनय सुमित्रा, राम चरन रति जानि।
रामहिं मिलत कैकयी, हृदय बहुत सुकुचानि॥६(क)॥

भाष्य

अपने पुत्र को श्रीसीताराम जी के श्रीचरणों में भक्तिमान जानकर सुमित्रा जी ने गले से लगा लिया अर्थात्‌ श्रीराम से मिलने के पश्चात्‌ जब लक्ष्मण जी ने सुमित्रा जी को प्रणाम किया तब सुमित्रा जी ने उन्हें हृदय से लगा लिया, क्योंकि लक्ष्मण जी ने सुमित्रा जी के प्रत्येक निर्दश का पालन किया था। श्रीराम को मिलती हुई कैकेयी जी हृदय में बहुत संकुचित हुईं।

**लछिमन सब मातन मिलि, हरषे आशिष पाइ।**

**कैकयि कहँ पुनि पुनि मिले, मन कर छोभ न जाइ॥६(ख)॥ भा०– **लक्ष्मण जी सभी माताओं को मिले और आशीर्वाद पाकर प्रसन्न हुए। कैकेयी को बार–बार मिले उनके मन का क्षोभ नहीं जा रहा था।

सासुन सबनि मिली बैदेही। चरननि लागि हरष अति तेही॥ देहिं अशीष बूझि कुशलाता। होउ अचल तुम्हार अहिवाता॥

भाष्य

सभी सासुओं से चरणों में लिपटकर सीता जी मिलीं। उनके मन में बड़ी प्रसन्नता थी। कुशल समाचार पूछकर कौसल्या जी आदि सासुयें सीता जी को आशीर्वाद दे रही हैं कि हे बड़ी बहुरानी सीते! आपका अहिवात अर्थात्‌ सौभाग्य अचल रहे।

**सब रघुपति मुख कमल बिलोकहिं। मंगल जानि नयन जल रोकहिं॥ कनक थार आरती उतारहिं। बार बार प्रभु गात निहारहिं॥ नाना भाँति निछावरि करहीं। परमानंद हरष उर भरहीं॥**
भाष्य

सभी मातायें रघुपति श्रीराम जी के मुखकमल को देख रही हैं। मंगल जानकर अपने नेत्रों से उमड़ते हुए आँसूओं को रोक लेती हैं। स्वर्ण के थालों में प्रभु की आरती उतारती हैं। बारम्बार श्रीराम जी के कोमल शरीर को निहारती हैं कि कदाचित्‌ असंख्य आरतियों की ज्योति से राघव को ताप न लग जाये। परमानन्द के साथ नाना प्रकार के न्यौछावर करती हैं। आशीर्वाद देती हैं और प्रसन्नता से अपने हृदयों को भर लेती हैं।

**कौसल्या पुनि पुनि रघुबीरहिं। चितवति कृपासिन्धु रनधीरहिं॥ हृदय बिचारति बारहिं बारा। कवन भाँति लंका पति मारा॥ अति सुकुमार जुगल मेरे बारे। निशिचर सुभट महाबल भारे॥** [[८४७]]
भाष्य

माता कौसल्या जी कृपा के सागर, युद्ध में धैर्यवान्‌ अर्थात्‌ किसी भी प्रकार से न विचलित होने वाले, रघुकुल के वीर भगवान्‌ श्रीराम को पुन:–पुन: निहार रही हैं और हृदय में बारम्बार विचार कर रही हैं कि, मेरे राघव जी ने लंकापति रावण को किस प्रकार मारा होगा, क्योंकि मेरे दोनों बेटे बड़े ही सुकुमार हैं और वीर राक्षस बहुत बड़े महाबली थे।

**दो०– लछिमन अरु सीता सहित, प्रभुहिं बिलोकत मातु।** **परमानंद मगन मन, पुनि पुनि पुलकित गातु॥७॥**
भाष्य

माता कौसल्या जी लक्ष्मण जी और भगवती सीता जी के साथ भगवान्‌ श्रीरामको देख रही हैं। उनका मन परमानन्द में मग्न हो गया। उनके शरीर में पुन:–पुन: रोमांच हो रहा है।

**लंकापति कपीश नल नीला। जामवंत अंगद शुभशीला॥ हनुमदादि सब बानर बीरा। धरे मनोहर मनुज शरीरा॥**
भाष्य

लंका के राजा विभीषण, वानरराज सुग्रीव, नल–नील, जाम्बवान और कल्याणमय स्वभाव वाले अंगद तथा हनुमान जी आदि सभी वानर वीरों ने सुन्दर मनुष्य शरीर धारण किया है।

**भरत सनेह शील ब्रत नेमा। सादर सब बरनहिं अति प्रेमा॥ देखि नगरबासिन कै रीती। सकल सराहहिं प्रभु पद प्रीती॥**
भाष्य

सभी लोग भरत जी के स्नेह, शील, व्रत, नियम एवं उनके अच्छे प्रेम का आदरपूर्वक वर्णन करते हैं। नगरवासियों की रीति अर्थात्‌ परम्परा देखकर तथा प्रभु श्रीराम के श्रीचरणों में प्रेम देखकर, सभी उनकी सराहना करते हैं।

**पुनि रघुपति सब सखा बोलाए। मुनि पद लागहु सकल सिखाए॥ गुरु बसिष्ठ कुलपूज्य हमारे। इनकी कृपा दनुज रन मारे॥**
भाष्य

फिर भगवान्‌ श्रीराम ने सभी मित्रों को बुलाया और सबको यह शिक्षा दी कि महर्षि वसिष्ठ जी के चरणों में लिपट जाओ अर्थात्‌ प्र्रणाम कर लो यह हमारे कुल के पूज्य और हम चारों भाइयों के गुव्र्देव महर्षि वसिष्ठ जी हैं। इन्हीं की कृपा से हमनें युद्ध में दैत्य स्वभाववाले राक्षसों को मारा है।

**ए सब सखा सुनहु मुनि मेरे। भए समर सागर कहँ बेरे॥ मम हित लागि जन्म इन हारे। भरतहु ते मोहिं अधिक पियारे॥ सुनि प्रभु बचन मगन सब भए। निमिष निमिष उपजत सुख नए॥**
भाष्य

पुन: भगवान्‌ श्रीराम वानरों का परिचय देते हुए वसिष्ठ जी से बोले, हे महर्षि! सुनिये, ये सभी मेरे मित्रगण युद्धसागर के लिए बेड़े के समान बन गये अर्थात्‌ इन्हीं की सहायता से मैंने संग्राम–सागर को पार कर लिया। मेरे हित के लिए इन्होंने अपना जन्म भी हार दिया। अथवा, अपने जीवन को ही मुझे समर्पित कर दिया, ये मुझे भरत से भी अधिक प्रिय हैं। यह सुनकर सभी वानर–भालु मग्न हो गये, क्षण–क्षण उनके मन में नवीन सुख उत्पन्न होते थे।

**दो०– कौसल्या के चरननि, पुनि तिन नायउ माथ।** **आशिष दीन्हे हरषि तुम, प्रिय मम जिमि रघुनाथ॥८\(क\)॥**

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भाष्य

सभी वानर–भालुओं ने वसिष्ठ जी को प्रणाम करने के पश्चात्‌ कौसल्या माता जी के चरणों में मस्तक नवाया। कौसल्या जी ने प्रसन्न होकर वानर–भालुओं को आशीर्वाद दिया और कहा कि तुम लोग मुझे रघुनाथ श्रीराम की भाँति ही प्रिय हो।

**सुमन बृष्टि नभ संकुल, भवन चले सुखकंद।** **च़ढी अटारिन देखहिं, नगर नारि बर बृन्द॥८\(ख\)॥**
भाष्य

आकाश पुष्पवर्षा से भर गया और सुख के मेघ भगवान्‌ श्रीराम अपने भवन को चले। श्रीअवधनगर की श्रेष्ठ नारीगण अट्टालिकाओं पर च़ढीं हुई यह दृश्य देखने लगीं।

**कंचन कलश बिचित्र सँवारे। सबहिं धरे सजि निज निज द्वारे॥** **बंदनवार पताका केतू। सबनि बनाए मंगल हेतू॥**
भाष्य

सभी लोगों ने विविध चित्रों से सँवारे हुए सोने के कलश सजा–सजाकर अपने–अपने द्वार पर स्थापित किया और सभी लोगों ने मंगल के लिए और मंगल के जन्मदाता तोरण, पताका और ध्वज सजाये।

**बीथी सकल सुगंध सिंचाई। गजमनि रचि बहु चौक पुराई॥ नाना भाँति सुमंगल साजे। हरषि नगर निसान बहु बाजे॥ जहँ तहँ नारि निछावरि करहीं। देहिं अशीष हरष उर भरहीं॥**
भाष्य

सभी गलियाँ सुगन्धित द्रव्यों से सींची गई और गजमुक्ताओं से रच–रचकर चौकें पुराई गईं। नगरवासियों ने प्रसन्न होकर नाना प्रकार के सुन्दर मंगलों को सजाया तथा बहुत से नगारे बजने लगे। जहाँ–तहाँ महिलायें न्यौछावर करने लगीं, आशीर्वाद देने लगीं और अपने हृदय को प्रसन्नता से भरने लगीं।

**कंचन थार आरती नाना। जुबती सजे करहिं शुभ गाना॥** **करहिं आरती आरतिहर की। रघुकुल कमल बिपिन दिनकर की॥**
भाष्य

सभी अवध की युवतियाँ स्वर्ण के थालों में अनेक बत्तियाँ, अनेक आरतियाँ सजाती हैं और सुन्दर गान करती हैं तथा संसार की आर्ति हरनेवाले, रघुकुल रूप कमल को विकसित करने के लिए सूर्यस्वरूप भगवान्‌ श्रीराम की आरती करती हैं।

**पुर शोभा संपति कल्याना। निगम शेष शारदा बखाना॥ तेउ यह चरित देखि ठगि रहहीं। उमा तासु गुन नर किमि कहहीं॥**
भाष्य

शिव जी कहते हैं कि नगर की शोभा, सम्पत्ति और कल्याण की, वेद, शेष और सरस्वती जी प्रशंसा करती हैं, परन्तु वे भी इस चरित्र को देखकर ठगे से रह जाते हैं। हे पार्वती! उन परमात्मा के गुणों को मनुष्य कैसे कह सकते हैं? अथवा, उस परमात्मामयी पुरी के गुणों का वर्णन मनुष्य कैसे कर सकता है?

**दो०– नारि कुमुदिनी अवध सर, रघुपति बिरह दिनेश।**

**अस्त भए बिकसत भईं, निरखि राम राकेश॥९(क)॥ भा०– **रघुकुल के स्वामी श्रीराम के विरहरूप सूर्य के अस्त हो जाने पर अयोध्यारूप तालाब में महिलारूप कुमुदिनियाँ श्रीराम―प शरद्‌चन्द्र को देखकर विकसित हो गईं।

होहिं सगुन शुभ बिबिध बिधि, बाजहिं गगन निसान।
पुर नर नारि सनाथ करि, भवन चले भगवान॥९(ख)॥

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भाष्य

नाना प्रकार के सुन्दर शकुन होने लगे, आकाश में नगारे बजने लगे। इस प्रकार से अवधपुर के नर–नारियों को सनाथ करके भगवान्‌ श्रीराम अपने राजभवन को चल पड़े।

**प्रभु जानी कैकयी लजानी। प्रथम तासु गृह गए भवानी॥ ताहि प्रबोधि बहुत सुख दीन्हा। पुनि निज भवन गमन हरि कीन्हा॥ कृपा सिंधु जब मंदिर गयऊ। पुर नर नारि सुखी सब भयऊ॥**
भाष्य

पार्वती जी को सम्बोधित करते हुए शिव जी कहते हैं कि हे भवानी! प्रभु श्रीराम ने जान लिया की माता कैकेयी जी लज्जित हो गई हैं, इसलिए पहले उन्हीं के भवन में गये और उन्हें समझाकर बहुत सुख दिया। फिर भूमि का भार हरण करने वाले श्रीहरि जी ने अपने भवन में गमन किया। जब कृपा के सागर भगवान्‌ श्रीराम अपने भवन को पधार गये तब अवध के सभी नर–नारी सुखी हो गये, क्योंकि अब सबको यह आशा हो गई कि श्रीराम का शीघ्र ही राज्याभिषेक होगा।

**गुरु बसिष्ठ द्विज लिए बोलाई। आजु सुघरी सुदिन शुभदाई॥ सब द्विज देहु हरषि अनुशासन। रामचंद्र बैठहिं सिंघासन॥**
भाष्य

गुव्र्देव वसिष्ठ जी ने सभी ब्राह्मणों को बुला लिया और बोले, आज सुन्दर घड़ी है और आज ही शुभ देने वाला सुन्दर दिन है अर्थात्‌ आज योग, लग्न, ग्रह, वार और तिथि सभी अनुकूल हैं। सभी ब्राह्मण प्रसन्नतापूर्वक आदेश दें श्रीरामचन्द्र जी श्रीअवध के राजसिंहासन पर बैठें।

**मुनि बसिष्ठ के बचन सुहाए। सुनत सकल बिप्रन अति भाए॥ कहहिं बचन मृदु बिप्र अनेका। जग अभिराम राम अभिषेका॥ अब मुनिवर बिलंब नहिं कीजै। महाराज कहँ तिलक करीजै॥**
भाष्य

वसिष्ठ मुनि जी के सुहावने वचन सुनते ही सभी ब्राह्मणों को वे बहुत भाये और अनेक ब्राह्मण कोमल वचन कहने लगे कि भगवान्‌ श्रीराम का राज्याभिषेक सम्पूर्ण संसार के लिए अभिराम अर्थात्‌ सुखदायक है। हे मुनिश्रेष्ठ वसिष्ठ देव जी! अब विलम्ब मत कीजिये और महाराज श्रीराम को राजतिलक कर दीजिये।

**दो०– तब मुनि कहेउ सुमंत्र सन, सुनत चलेउ हरषाइ।** **रथ अनेक बहु बाजि गज, तुरत सँवारे जाइ॥१०\(क\)॥ जहँ तहँ धावन पठइ पुनि, मंगल द्रब्य मँगाइ।**

हरष समेत बसिष्ठ पद, पुनि सिर नायउ आइ॥१०(ख)॥

भाष्य

तब अर्थात्‌ सभी ब्राह्मणों का अनुमोदन प्राप्त करके वसिष्ठ मुनि जी ने सुमंत्र जी से कहा अर्थात्‌ सुमंत्र जी को राजतिलक की तैयारी करने का आदेश दिया। गुरुदेव की आज्ञा सुनते ही वे प्रसन्न होकर चल पड़े और जाकर अनेक रथ, बहुत से हाथी, घोड़ों को शीघ्र सजाया। फिर जहाँ–तहाँ त्वरित गति से चलने वाले दूतों को भेजकर मांगलिक द्रव्यों को मँगाकर, फिर आकर सुमंत्र जी ने प्रसन्नता के सहित वसिष्ठ जी के चरणों में मस्तक नवाया

अर्थात्‌ आज्ञापालन की सूचना दे दी।

अवधपुरी अति रुचिर बनाई। देवन सुमन बृष्टि झरि लाई॥ राम कहा सेवकन बुलाई। प्रथम सखन अन्हवावहु जाई॥ सुनत बचन जहँ तहँ जन धाए। सुग्रीवादि तुरत अन्हवाए॥
[[८५०]]

भाष्य

अवधपुरी बहुत सुन्दर रीति से सजायी गई उसे देखकर, देवताओं ने पुष्प वर्षा की झड़ी लगा दी। भगवान्‌ श्रीराम ने सेवकों को बुलाकर कहा कि जाकर मेरे स्नान से प्रथम सुग्रीव, विभीषण आदि मेरे मित्रों को स्नान कराओ। प्रभु श्रीराम के वचन सनुते ही सेवक जहाँ–तहाँ दौड़े और सुग्रीव जी आदि वानरों, जाम्बवान जी आदि भालुओं और विभीषण जी आदि भगवद्‌भक्त राक्षसों को तुरन्त स्नान कराया।

**पुनि करुनानिधि भरत हँकारे। निज कर राम जटा निरुआरे॥ भरत भाग्य प्रभु कोमलताई। शेष कोटि शत सकहिं न गाई॥ अन्हवाए प्रभु तीनिउ भाई। भगत बछल कृपालु रघुराई॥**
भाष्य

फिर करुणा के सागर भगवान्‌ श्रीराम ने भैया भरत को ऊँचे स्वर से बुलाया और प्रभु ने भरत जी की उलझी हुई जटायें धीर–धीरे अपने हाथों से खोली। श्रीभरत के सौभाग्य एवं प्रभु श्रीराम की कोमलता को अरबों शेष भी नहीं गा सकते। इस प्रकार भक्तवत्सल अर्थात्‌ भक्तों के दोषों की उपेक्षा करके उन्हें समाप्त कर देने वाले कृपालु रघुकुल के राजा भगवान्‌ श्रीराम ने भरत जी, लक्ष्मण जी एवं शत्रुघ्न जी तीनों भाइयों की जटा समाप्त करके अपने हाथों से स्नान कराया।

**पुनि निज जटा राम बिबराए। गुरु अनुशासन माँगि नहाए॥ करि मज्जन प्रभु भूषन साजे। अंग अनंग कोटि छबि लाजे॥**
भाष्य

फिर प्रभु श्रीराम जी ने अपनी जटा खोली अर्थात्‌ तीनों भाइयों को स्नान कराने के पश्चात्‌ प्रभु श्रीराम ने अपनी उलझी जटायें बिबरायी अर्थात्‌ विवृत की यानी खोल दी और वे चिन्मय होने से प्रभु की इच्छानुसार समाप्त होकर घुँघराले केशों के रूप में परिवर्तित हो गये। प्रभु ने गुरुदेव से आदेश माँगकर स्नान किया। सरयू जी में आशीर्ष स्नान करके प्रभु श्रीराम ने स्वयं को आभूषणों से सज्जित किया और अपनी स्वयं की शोभा से करोड़ों कामदेवों की सुन्दरता को लज्जित कर दिया।

**दो०– सासुन सादर जानकिहिं, मज्जन तुरत कराइ।**

**दिब्य बसन बर भूषन, अँग अँग सजे बनाइ॥११(क)॥ भा०– **कौसल्या आदि सासुओं ने सीता जी को शीघ्र स्नान करा उनके अंग–अंग में दिव्य वस्त्र और श्रेष्ठ आभूषणों को बना–बनाकर सजाया।

राम बाम दिशि शोभित, रमा रूप गुन खानि।

**देखि सासु सब हरषीं, जन्म सुफल निज जानि॥११(ख)॥ भा०– **भगवान्‌ श्रीराम के वामभाग में रूप और गुणों की खानि ‘र रु मा’ अर्थात्‌ रेफ के वाच्य भगवान्‌ श्रीराम की

‘मा’ यानी शक्ति तात्पर्यत: श्रीराम की परम आह्लादिनी शक्ति सीता जी को देखकर, श्रीसीताराम जी के युगल दर्शनों से अपना जन्म सफल जानकर सभी सासुयें प्रसन्न हुईं।

सुनु खगेश तेहि अवसर, ब्रह्मा शिव मुनिबृंद।
चढि़ बिमान आए सकल, सुर देखन सुखकंद॥११(ग)॥

भाष्य

गरुड़ देव जी को सावधान करते हुए भुशुण्डि जी कहते हैं कि हे पक्षियों के ईश्वर गरुड़ जी! सुनिये, श्रीरामराज्याभिषेक के उस मंगलमय अवसर पर ब्रह्मा जी, शिव जी, मुनियों के समूह तथा अन्य सभी देवता विमानों पर च़ढकर सुख के मेघ भगवान्‌ श्रीराम के दर्शन करने के लिए आकाशमण्डल में आ गये।

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**प्रभु बिलोकि मुनि मन अनुरागा। तुरत दिब्य सिंघासन माँगा॥ रबि सम तेज सो बरनि न जाई। बैठे राम द्विजन्ह सिर नाई॥**

जनकसुता समेत रघुराई। पेखि प्रहरषे मुनि समुदाई॥
बेद मंत्र तब द्विजन उचारे। नभ सुर मुनि जय जयति पुकारे॥

भाष्य

प्रभु श्रीराम को राज्याभिषेक के लिए सुसज्जित देखकर, मुनि वसिष्ठ जी मन में बहुत अनुरक्त हो गये अर्थात्‌ प्रभु के प्रेम से पूर्ण हो गये। उन्होंने तुरन्त साकेतलोक से दिव्यसिंहासन मँगवाया। सूर्य के समान तेजवाला वह दिव्यसिंहासन वर्णन नहीं किया जा सकता था। भगवान्‌ श्रीराम ब्राह्मणों को मस्तक नवाकर उस दिव्यसिंहासन पर श्रीसीता के समेत विराजमान हुए। श्रीसीताराम जी को राजसिंहासनासीन देखकर मुनियों के समूह बहुत प्रसन्न हुए। तब श्रेष्ठ मुनियों ने राज्याभिषेक में विहित वेदमंत्रों का उच्चारण किया। आकाश में वर्तमान देवता और मुनियों ने ‘जय–जयति’ अर्थात्‌ आप सबसे उत्कृय् रहें, आप सबसे उत्कृय् हों और आप सबसे उत्कृय् हो रहे हैं। इस प्रकार के मंगल वचनों का उच्चारण किया।

**प्रथम तिलक बसिष्ठ मुनि कीन्हा। पुनि सब बिप्रन आयसु दीन्हा॥**

**सुत बिलोकि हरषी महतारी। बार बार आरती उतारी॥ भा०– **सर्वप्रथम ब्रह्मर्षि वसिष्ठ जी ने भगवान्‌ श्रीराम को राजतिलक किया, फिर सभी ब्राह्मणों को आज्ञा दी। अपने पुत्र श्रीराम को राज्याभिषिक्त देखकर सभी मातायें बहुत प्रसन्न हुईं और प्रभु श्रीराम की बार–बार आरती उतारीं।

बिप्रन दान बिबिध बिधि दीन्हे। जाचक सकल अजाचक कीन्हे॥ सिंघासन पर त्रिभुवन साईं। देखि सुरन दुंदुभी बजाईं॥

भाष्य

भगवान्‌ राजा राम जी ने ब्राह्मणों को बहुत प्रकार से दान दिया। सभी याचकों को अयाचक कर दिया अर्थात्‌ किसी को भी किसी भी प्रकार से अभावग्रस्त नहीं रहने दिया। प्रभु राजा राम जी ने सभी को सब प्रकार से सम्पन्न कर दिया। श्रीअवध राजसिंहासन पर तीनों लोकों के स्वामी भगवान्‌ श्रीराम को विराजमान देखकर देवताओं ने नगारे बजाये।

**छं०– नभ दुंदुभी बाजहिं बिपुल गंधर्ब किन्नर गावहीं।** **नाचहिं अपसरा बंृद परमानंद सुर मुनि पावहीं॥ भरतादि अनुज बिभीषनांगद हनुमदादि समेत ते।**

गहे छत्र चामर ब्यजन धनु असि चर्म शक्ति बिराजते॥१॥

भाष्य

आकाश में बहुत से नगारे बज रहे हैं। गन्धर्व और किंन्नर गा रहे हैं, अप्सरायें नाच रही हैं, देवता और मुनि परमानन्द प्राप्त कर रहे हैं। भरत जी आदि छोटे भाई तथा विभीषण, अंगद और हनुमान जी आदि सभी वानर इकट्ठे होकर छत्र, चाँवर, ब्यजन (पंखा), धनुष, बाण, तलवार, ढाल और शक्ति को धारण करके राजा राम जी के चारों ओर विराजमान हो रहे हैं अर्थात्‌ भरत जी श्रीराम का छत्र लेकर, लक्ष्मण जी दोनों चँवर लेकर, शत्रुघ्न जी ब्यजन लेकर, विभीषण जी प्रभु का धनुष लिए हुए, अंगद जी प्रभु की तलवार लिए हुए, हनुमान जी प्रभु की ढाल सम्भाले हुए और सुग्रीव जी प्रभु की शक्ति हाथ में लिए हुए प्रभु की सेवा में विराजमान हो रहे हैं।

**श्री सहित दिनकर बंश भूषन काम बहु छबि सोहई। नव अम्बुधर बर गात अम्बर पीत सुर मन मोहई॥** [[८५२]]

मुकुटांगदादि बिचित्र भूषन अंग अंगनि प्रति सजे। अम्भोज नयन बिशाल उर भुज धन्य नर निरखंति जे॥२॥

भाष्य

श्री अर्थात्‌ प्रभु की आह्लादिनी शक्ति जनकनन्दिनी सीता जी के सहित सूर्यवंश के आभूषण भगवान्‌ श्रीराम अनेक कामदेवों की सुन्दरता के साथ सुशोभित हो रहे हैं। भगवान्‌ श्रीराम के नवीन वर्षा के लिए उद्दत सुन्दर मेघ जैसे शरीर पर विराजमान पीताम्बर देवताओं का मन मोह ले रहा है। प्रभु राजाराम के प्रत्येक अंग पर मुकुट, केयूर आदि आश्चर्यमय आभूषण सुसज्जित हुए विराजमान हैं। प्रभु के कमल जैसे नेत्र विशाल हृदय और विशाल भुजायें, इस प्रकार सम्पूर्ण वैभव के सहित अवध राजसिंहासन पर श्रीसीता के सहित विराजमान राजाधिराज भगवान्‌ को जो निरन्तर अपने नेत्रों का विषय बनाकर निहारते रहते हैं अर्थात्‌ निरखते रहते हैं, वे प्राणी धन्य हैं।

**दो०– वह शोभा समाज सुख, कहत न बनइ खगेश।** **बरनहिं शारद शेष श्रुति, सो रस जान महेश॥१२\(क\)॥**
भाष्य

गरुड़ देव जी को सम्बोधित करते हुए भुशुण्डि जी कहते हैं कि श्रीअवध राज्यसिंहासन पर राज्याभिषिक्त हुए राजाधिराज भगवान्‌ श्रीराम की वह शोभा, वह समाज और वह सुख कहते नही बनता। हे पक्षियों के ईश्वर गरुड़ देव जी! यद्दपि सरस्वती, शेष और चारों वेद उसका वर्णन करते ही रहते हैं, परन्तु उसका रस अर्थात्‌ आनन्द अथवा सारतत्त्व, महेश अर्थात्‌ महान ईश्वर भगवान्‌ श्रीशङ्कर ही जानते हैं।

**भिन्न भिन्न अस्तुति करि, गए सुर निज निज धाम।**

**बंदि बेष धरि बेद तब, आए जहँ श्रीराम॥१२(ख)॥ भा०– **भिन्न–भिन्न प्रकार की स्तुतियाँ करके सभी देवता अपने–अपने धाम, अर्थात्‌ लोक को चले गये। तब बन्दियों का वेश धारण करके सभी वेद जहाँ श्रीराम राजाधिराज के रूप में श्रीअवध राजसभा में विराज रहे थे वहाँ आये।

प्रभु सर्बग्य कीन्ह अति, आदर कृपानिधान।
लखेउ न काहू मरम कछु, लगे करन गुन गान॥१२(ग)॥

भाष्य

सर्वज्ञ भगवान्‌ श्रीराम ने बंदी वेश में आये हुए चारों वेदों का बहुत आदर किया। किसी ने कुछ भी मर्म नहीं देखा और वेद अपने षड़ंगों के साथ भगवान्‌ श्रीराम का गुणगान करने लगे। सर्वप्रथम ऋग्वेद ने स्तुति की–

**छं०– जय सगुन निर्गुन रूप रूप अनूप भूप शिरोमने।** **दशकंधरादि प्रचंड निशिचर प्रबल खल भुज बल हने॥ अवतार नर संसार भार बिभंजि दारुन दुख दहे। जय प्रनतपाल दयालु प्रभु संजुक्त शक्ति नमामहे॥१॥**
भाष्य

हे सगुण और निर्गुण रूप! हे अनुपम! हे राजाओं के शिरोमणि प्रभु श्रीराजाराम जी! आपकी जय हो। आपने अपनी भुजाओं के बल से दस कन्धराओंवाले रावण आदि प्रकृष्ट बल वाले खलप्रकृति के भयंकर राक्षसों का नाश किया। हे मनुष्यावतार धारण करने वाले! आप ने मनुष्य अवतार लेकर, संसार का भार नष्ट करके, दारुण दु:खरूप वनों को दहे अर्थात्‌ जला डाला। हे प्रणतपाल अर्थात्‌ प्रकृष्टरूप से प्रणाम करने वाले जनों के पालक! हे दयालु राजाधिराज श्रीराम! आदिशक्ति श्रीसीता के सहित आपश्री को हम अर्थात्‌ वेद नमन करते हैं।

**तव बिषम माया बश सुरासुर नाग नर अग जग हरे। भव पंथ भ्रमत अमित दिवस निशि काल कर्म गुननि भरे॥** [[८५३]]

जे नाथ करि करुना बिलोके त्रिबिध दुख ते निर्बहे। भव खेद छेदन दक्ष हम कहँ रक्ष राम नमामहे॥२॥

भाष्य

हे हरे अर्थात्‌ भक्तों का क्लेश हरण करने वाले प्रभु श्रीराम! आपकी विषम अर्थात्‌ टे़ढी चाल चलने वाली माया के वश में हुए देवता, असुर, नाग, मनुष्य आदि सभी ज़ड, चेतन, काल, कर्म और गुणों से भरे हुए असंख्य दिन–रात संसार के मार्ग में भटक रहे हैं। हे नाथ! जिनको आपने कव्र्णा करके निहार लिया वे तीनों प्रकार के दु:ख से छूट गये। ऐसे संसार के कय् को नय् करने में चतुर हे महाराज श्रीराम! आप हम वेदों को बचा लें, कोई विधर्मी हमें तहस–नहस करने की चेष्टा भी नहीं करे। हे श्रीराम! हम आपको नमन करते हैं, इस प्रकार कृष्णयजुर्वेद ने कहा।

**जे ग्यान मान बिमत्त तव भव हरनि भक्ति न आदरी।** **ते पाइ सुर दुर्लभ पदादपि परत हम देखत हरी॥ बिश्वास करि सब आस परिहरि दास तव जे होइ रहे। जपि नाम तव बिनु श्रम तरहिं भव नाथ सो समरामहे॥३॥**
भाष्य

अब शुक्लयजुर्वेद ने कहा, हे प्रभु! जिन्होंने ज्ञान के अहंकार में पागल होकर आपकी संसार का कष्ट हरनेवाली भक्ति का आदर नहीं किया, उनको देवदुर्लभ पद पाकर भी उससे पतित होते हुए हम देख रहे हैं। जो लोग विश्वास करके सम्पूर्ण आशायें छोड़कर आपके दास होकर रह रहे हैं, वे आपका श्रीरामनाम जप करके बिना श्रम के ही भवसागर के पार हो जाते हैं। हे राजाधिराज! उन आपश्री को हम वेद स्मरण करते हैं।

**जे चरन शिव अज पूज्य रज शुभ परसि मुनि पतिनी तरी। नख निर्गता मुनि बंदिता त्रैलोक पावनि सुरसरी॥ ध्वज कुलिश अंकुश कंज जुत बन फिरत कंटक किन लहे।** **पद कंज द्वंद मुकुंद राम रमेश नित्य भजामहे॥४॥**
भाष्य

अब सामवेद के उद्‌गीत भाग ने स्तुति की, हे श्रीसीतापते महाराज! आपके शिव जी और ब्रह्मा जी द्वारा पूजित तथा जिन श्रीचरणों की पवित्र धूलि का स्पर्श करके मुनि पत्नी अर्थात्‌ महर्षि गौतम जी की पत्नी अहल्या जी तर गईं। मुनियों के द्वारा वन्दित तीनों लोक को पवित्र करने वाली देवनदी गंगा जी जिन श्रीचरणों के नख से निकलीं, जो आपके श्रीचरण ध्वजा, वज्र, अंकुश (बर्छी) तथा कमल की रेखाओं से युक्त होकर दण्डक वन के काँटों और उनसे बने हुए चिन्हों को स्वीकारे, हे मुकुन्द अर्थात्‌ मुक्ति के भी आधारभूत भक्ति को देनेवाले तथा द्वन्द्वों से मुक्त कर देने वाले! आपके उन्हीं श्रीचरणकमल युगल को हम वेद नित्य भजते हैं।

**अब्यक्तमूलमनादि तरु त्वच चारि निगमागम भने।** **षट कंध शाखा पंच बीस अनेक पर्न सुमन घने॥ फल जुगल बिधि कटु मधुर बेलि अकेलि जेहि आश्रित रहे। पल्लवत फूलत नवल नित संसार बिटप नमामहे॥५॥**
भाष्य

अब वृहत्‌ सामवेद ने स्तुति की, हे प्रभु श्रीराम! वेद और आगम इस प्रकार कहते हैं कि अव्यक्त अर्थात्‌ आपकी माया जिसका मूल है, जो वृक्ष आदिरहित है और जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति और तुरीय अवस्थायें ही जिसकी चार छालें हैं। जन्म, स्थिति, परिवर्द्धन, परिवर्तन ह्रास और विनाश ये छ: जिसकी डालियाँ हैं। पँचमहाभूत, पँचतन्मात्रायें, पँचज्ञानेन्द्रिय, पाँचकर्मेन्द्रिय और पाँच प्राण ये पच्चीस जिसकी शाखायें हैं। जिसके अनेक कर्मरूप अनेक पत्ते हैं और जीवों के अनेक मन जिसके असंख्य पुष्प हैं। कटु और मधुर अर्थात्‌ शुभ और अशुभ यही जिसके फल हैं और जिस पर अविद्दारूप एकमात्र लता लटक रही है, ऐसा संसाररूप वृक्ष, जिन आपश्री परमात्मा

[[८५४]]

पर आश्रित रहकर निरन्तर पल्लवयुक्त, पुष्पित, फलयुक्त और नवीन बना रहता है, उन संसार ―प वृक्ष के आश्रयदाता आपश्री परब्रह्म परमात्मा को हम नित्य नमन करते हैं।

जे ब्रह्म अजमद्वैतमनुभवगम्य मनपर ध्यावहीं। ते कहहुँ जानहुँ नाथ हम तव सगुन जस नित गावहीं॥ करुनायतन प्रभु सदगुनाकर देव यह बर माँगहीं।
मन बचन कर्म बिकार तजि तव चरन हम अनुरागहीं॥६॥

भाष्य

अब अथर्ववेद ने स्तुति करते हुए कहा, जो लोग आपको ब्रह्म, अजन्मा, अद्वैत तथा सजातीय, विजातीय, स्वगत्‌, भेदशून्य, अनुभवगम्य और मन से परे ध्यान करते हैं अर्थात्‌ जो लोग आपको निर्विशेष ब्रह्मरूप में देखते हैं वे कहें और जाने, किन्तु हे नाथ! हम चारों वेद तो निरन्तर आपके सगुण ब्रह्म का सगुण यश ही गाते हैं, क्योंकि निर्विशेषवाद अर्थात्‌ निर्गुण ब्रह्मोपासना हम वेदों से सम्मत नहीं है। हे करुणा के आयतन अर्थात्‌ भवन! हे सन्तोचित्‌ श्रेष्ठ कल्याणगुणों के आकर अर्थात्‌ खानि प्रभु श्रीराम! हे देव! हम तो आपसे यही वरदान माँगते हैं कि हम मन, वाणी और कर्म से सभी विकारों को छोड़कर आपके श्रीचरणों में प्रेम करते रहें।

**दो०– सब के देखत बेदन, बिनती कीन्ह उदार।** **अंतर्धान भए पुनि, गए ब्रह्म आगार॥१३\(क\)॥**
भाष्य

सबके देखते–देखते बन्दी वेशधारी उदार वेदों ने भगवान्‌ श्रीराम जी की उदार विनती की, फिर वे अन्तर्ध्यान हो गये और ब्रह्मलोक को चले गये।

**बैनतेय सुनु शंभु तब, आए जहँ रघुबीर।**

**बिनय करत गदगद गिरा, पूरित पुलक शरीर॥१३(ख)॥ भा०– **भुशुण्डि जी कहते हैं कि, हे विनता के पुत्र गरुड़ देव जी! सुनिये, वेदों के पधार जाने के पश्चात्‌ जहाँ रघुवीर अर्थात्‌ जीवों के विशेष प्रेरक राजाधिराज भगवान्‌ श्रीराम थे, वहाँ शिव जी आये और शरीर में रोमांच से पूर्ण होकर गदगद वाणी से भगवान्‌ श्रीराम की स्तुति करने लगे।

छं०– जय राम रमा रमणं शमनम्‌। भव ताप भयाकुल पाहि जनम्‌।

**अवधेश सुरेश रमेश बिभो। शरणागत माँगत पाहि प्रभो॥१॥ भा०– **हे श्रीराम! आपकी जय हो। मैं रमा अर्थात्‌ श्रीसीता के रमण और संसार के कष्ट को नष्ट करने वाले आप श्रीराम को नमन करता हूँ। आप भय से आकुल मुझ सेवक की रक्षा कीजिये। हे अयोध्यापति! हे देवताओं के ईश्वर! हे रमेश अर्थात्‌ हे अपनी रमा नामक आह्लादिनी शक्ति के ईश्वर! हे सर्वव्यापक! हे सर्वशक्तिमान प्रभु! मुझ शरणागत्‌ को बचा लीजिये।

दशशीष बिनाशन बीस भुजा। कृत दूरि महा महि भूरि रुजा। रजनीचर बृंद पतंग रहे। शर पावक तेज प्रचंड दहे॥२॥

भाष्य

हे बीस भुजाओं और दस सिरवाले रावण के नाशक! आप ने पृथ्वी के बहुत–बड़े भयंकर रोग को दूर कर दिया अर्थात्‌ रावण सभ्य समाज के लिए भयंकर रोग था। जो राक्षस समूहरूप पतिंगे थे वे आप के प्रचण्ड तेजवाले बाण रूप अग्नि में जल गये।

**महि मंडल मंडन चारुतरम्‌। धृत सायक चाप निषंग बरम्‌। मद मोह महा ममता रजनी। तम पुंज दिवाकर तेज अनी॥३॥** [[८५५]]
भाष्य

पृथ्वीमण्डल के आभूषण और सुन्दरों से भी बहुत सुन्दर, श्रेष्ठ बाण और धनुष को धारण करने वाले प्रभु! मैं आपको नमन करता हूँ। मद, मोह तथा बहुत बड़ी ममतारूपी रात्रि के अन्धकार समूहों को नष्ट करने के लिए तेज की सेना से युक्त आप सूर्य रूप हैं।

**मनजात किरात निपात किए। मृग लोग कुभोग शरेण हिए। हति नाथ अनाथनि पाहि हरे। बिषया बन पामर भूलि परे॥४॥**
भाष्य

हे प्रभो! कामरूप भील ने हरिण ―प संसारी लोगो को कुभोग के बाण से मार डाला है। हे नाथ! इस कामरूप किरात को मारकर आप उन अनाथों की रक्षा कीजिये, जो नीच लोग आपको भुलकर विषयों के घोर वन में भटक रहे हैं।

**बहु रोग बियोगनि लोग हए। भवदंघ्रि निरादर के फल ए। भव सिंधु अगाध परे नर ते। पद पंकज प्रेम न जे करते॥५॥**
भाष्य

हे प्रभो! बहुत से रोगों और वियोंगों अर्थात्‌ विषयों के संयोगों ने लोगों को मार डाला है। आपश्री के श्रीचरणकमल के निरादर के ये ही फल मिलते हैं अर्थात्‌ जो आपश्री के श्रीचरणकमल का सम्मान करते हुए भजन करते हैं, उन्हें संसार के रोग और वियोग कष्ट नहीं देते। वे मनुष्य अगाध भवसागर में पड़े रहते हैं, जो आपके श्रीचरणकमलों में प्रेम नहीं करते।

विशेष : “विषयाणां योग: वियोग: “विषयों” के संयोग ही यहाँ वियोग शब्द से विवक्षित है।

अति दीन मलीन दुखी नितहीं। जिन के पद पंकज प्रीति नहीं। अवलंब भवंत कथा जिन के। प्रिय संत अनंत सदा तिन के॥६॥

भाष्य

वे लोग निरन्तर अत्यन्त दीन और उदास तथा दु:खी रहते हैं, जिनको आपश्री के श्रीचरणकमलों में प्रीति अर्थात्‌ भक्ति नहीं होती। जिनको आपकी कथा का अवलम्ब होता है, उनको सदैव सन्त और आप श्रीराम―प भगवन्त दोनों ही प्रिय होते हैं।

**नहि राग न लोभ न मान मदा। तिनके सम बैभव वा बिपदा। एहि ते तव सेवक होत मुदा। मुनि त्यागत जोग भरोस सदा॥७॥ करि प्रेम निरंतर नेम लिए। पद पंकज सेवत शुद्ध हिए। सम मानि निरादर आदरही। सब संत सुखी बिचरंति मही॥८॥**
भाष्य

जिनके पास राग, लोभ, मान, मोह, मद नहीं होता उनके लिए सम्पत्ति और विपत्ति दोनों एक समान हो जाते हैं। इसी से अर्थात्‌ इन्हीं गुणों के समुदाय से साधक आपके प्रसन्नतापूर्वक सदैव सेवक बन जाते हैं अर्थात्‌ आपके नित्य परिकर हो जाते हैं। मुनि लोग योग का भरोसा छोड़ देते हैं। वे आपको प्रेम करके निरन्तर नियम स्वीकार करते हुए शुद्ध हृदय से आपके श्रीचरणकमल की सेवा करते हैं। आदर और निरादर अर्थात्‌ मान और अपमान को समान मानकर सभी सन्त सुखपूर्वक पृथ्वी पर विचरण करते हैं।

**मुनि मानस पंकज भृंग भजे। रघुबीर महा रनधीर अजे। तव नाम जपामि नमामि हरी। भव रोग महागद मान अरी॥९॥**
भाष्य

हे मुनियों के मनरूप कमल के भ्रमर! हे महारणधीर अर्थात्‌ भयंकर युद्धों में भी अडिग रहनेवाले! अजेय अर्थात्‌ किसी से भी न जीते जानेवाले रघुकुल के वीर भगवान्‌ श्रीराम! मैं आपका भजन करता हूँ। हे हरे! हे मान

[[८५६]]

के शत्रु प्रभु श्रीराम! मैं आपको नमन करता हूँ और मैं अर्थात्‌ शिव, संसाररोग की महौषधिरूप आपश्री के श्रीरामनाम का जप करता हूँ।

गुन शील कृपा परमायतनम्‌। प्रनमामि निरंतर श्रीरमनम्‌। रघुनंद निकन्‌दय द्वंद्वघनम्‌। महिपाल बिलोकय दीनजनम्‌॥१०॥

भाष्य

पतित पावनत्त्व आदि समस्त कल्याणगुण, लोकोत्तर स्वभाव और कृपा के परम आयतन अर्थात्‌ श्रेष्ठ मन्दिर, श्रीसीता के रमण आप श्रीराम को मैं निरन्तर प्रणाम करता हूँ। हे रघुवंश को आनन्दित करने वाले तथा जीवमात्र को आनन्द देनेवाले श्रीराघव! आप द्वन्द्वों के समूह को नष्ट कर दीजिये। हे पृथ्वी के पालक महाराज श्रीराम! मुझ दीनजन अर्थात्‌ शिव को कृपादृष्टि से निहार लीजिये।

**दो०– बार बार बर माँगउँ, हरषि देहु श्रीरंग।** **पद सरोज अनपायनी, भगति सदा सतसंग॥१४\(क\)॥**
भाष्य

मैं बार–बार वरदान माँग रहा हूँ कि हे श्रीसीता का रंजन करने वाले प्रभु! मुझे प्रसन्नता से अपने श्रीचरणकमलों की अनपायनी भक्ति तथा सदैव सत्संग दीजिये अर्थात्‌ सत्संग में कभी व्यवधान न पड़े।

**बरनि उमापति राम गुन, हरषि गए कैलास।**

**तब प्रभु कपिन दिवाए, सब बिधि सुखप्रद बास॥१४(ख)॥ भा०– **उमा जी के पति शिव जी, श्रीराम के गुणों का वर्णन करके प्रसन्न होकर कैलाश चले गये। तब प्रभु श्रीराम ने साथ आये हुए वानरों को सब प्रकार से सुखप्रद निवास स्थान दिलाये।

सुनु खगपति यह कथा पावनी। त्रिबिध ताप भव दाप दावनी॥ महाराज कर शुभ अभिषेका। सुनत लहहिं नर बिरति बिबेका॥

भाष्य

भुशुण्डि जी गरुड़ देव जी से कहते हैं कि हे पक्षीराज! सुनिये, भगवान्‌ श्रीराम के राज्याभिषेक की यह कथा तीनों ताप को और संसार के दर्प अर्थात्‌ तीव्रता को समाप्त कर देती है। महाराज श्रीराम का मंगलमय अभिषेक सुनकर प्राणी वैराग्य और ज्ञान प्राप्त कर सकता है।

**जे सकाम नर सुनहिं जे गावहिं। सुख संपति नाना बिधि पावहिं॥ सुर दुर्लभ सुख करि जग माहीं। अंतकाल रघुपति पुर जाहीं॥ सुनहिं बिमुक्त बिरत अरु बिषई। लहहिं भगति गति संपति नितई॥**
भाष्य

जो जीव किसी कामना के सहित सकाम भावना से इस कथा को सुनते और गाते हैं तथा सुनेंगे तथा गायेंगे वे नाना प्रकार की सुख और सम्पत्ति पा रहे हैं और पाते रहेंगे। वे संसार में देवदुर्लभ भोग करके अन्तकाल में भगवान्‌ श्रीराम के पुर साकेतलोक को चले जाते हैं और भविष्य में भी इस कथा के माध्यम से साकेतलोक जाते रहेंगे। जो भी मुक्त, विरक्त और विषयी इस कथा का नित्य श्रवण करेंगे अथवा करते हैं, उनमें से विमुक्तों को भक्ति, विरक्तों को गति और विषयी को सम्पत्ति प्राप्त होती रहेगी और वे इस कथा को सुनकर क्रमश: भक्ति, गति और सम्पत्ति प्राप्त करते रहेंगे।

**खगपति राम कथा मैं बरनी। स्वमति बिलास त्रास दुख हरनी॥ बिरति बिबेक भगति दृ़ढ करनी। मोह नदी कहँ सुन्‌दर तरनी॥** [[८५७]]
भाष्य

भुशुण्डि जी कहते हैं, हे गरुड़ देव! मैंने अपनी बुद्धि को विलसित करने वाली, भय और दु:ख को हरने वाली, वैराग्य, विवेक तथा भक्ति को दृ़ढ करने वाली, मोहरूप नदी के लिए सुन्दर जहाजरूप श्रीराम की कथा का वर्णन किया।

**नित नव मंगल कोसलपुरी। हरषित रहहिं लोग सब कुरी॥** **नित नइ प्रीति राम पद पंकज। सब के जिनहिं नमत शिव मुनि अज॥**

मंगन बहु प्रकार पहिराए। द्विजन दान नाना बिधि पाए॥

भाष्य

कोसलपुरी अर्थात्‌ श्रीअयोध्या में निरन्तर मंगल हो रहा है। सभी वर्णों के लोग प्रसन्न हो रहे हैं और जिन्हें ब्रह्मा जी, शिव जी और मुनिगण प्रणाम करते हैं, ऐसे भगवान्‌ श्रीराम के श्रीचरणकमल में सभी को निरन्तर प्रीति हो रही है। मंगन अर्थात्‌ भिक्षुकों को बहुत प्रकार से पहिराए अर्थात्‌ वस्त्र दिया गया और ब्राह्मणों ने अनेक प्रकार से दान पाये।

**दो०– ब्रह्मानंद मगन कपि, सब के प्रभु पद प्रीति।** **जात न जाने दिवस तिन्ह, गए मास षट बीति॥१५॥**
भाष्य

आगन्तुक वानर–भालु ब्रह्मानन्द में मग्न हो गये। सभी के मन में प्रभु श्रीराम जी के श्रीचरणों में प्रीति अर्थात्‌ प्रेम था। उन्होंने दिनों को जाते नहीं जाना, परन्तु छ: महीने बीत गये और कोई जाने का नाम ही नहीं ले रहा था।

**बिसरे गृह सपनेहुँ सुधि नाहीं। जिमि परद्रोह संत मन माहीं॥ तब रघुपति सब सखा बोलाए। आइ सबनि सादर सिर नाए॥ परम प्रीति समीप बैठारे। भगत सुखद मृदु बचन उचारे॥**
भाष्य

वानर–भालु अपने घरों को भूल गये, उन्हें स्वप्न में भी उनका स्मरण नहीं होता था, जिस प्रकार सन्तों के मन में परद्रोह का स्मरण नहीं होता। तब भगवान्‌ श्रीराम ने सभी वानर–भालु मित्रों को बुलाया और सब ने आकर आदरपूर्वक प्रणाम किया। पवित्र प्रेम के साथ प्रभु ने उन्हें निकट बिठाया और भक्तों के सुखदाता प्रभु श्रीराम कोमल वचन बोले–

**तुम अति कीन्ह मोरि सेवकाई। मुख पर केहि बिधि करौं बड़ाई॥ ताते मोहि तुम अति प्रिय लागे। मम हित लागि भवन सुख त्यागे॥**
भाष्य

हे मित्रों! तुमने हमारी बहुत सेवा की है। तुम्हारे ही मुख पर तुम्हारी ही बड़ाई किस प्रकार करूँ, इसलिए तुम मुझे बहुत प्रिय लगे हो, क्योंकि तुमने मेरे हित के लिए घर का सुख छोड़ दिया।

**अनुज राज संपति बैदेही। देह गेह परिवार सनेही॥** **सब मम प्रिय नहिं तुमहिं समाना। मृषा न कहउँ मोर यह बाना॥**

सब के प्रिय सेवक यह नीती। मोरे अधिक दास पर प्रीती॥

भाष्य

तीनों छोटे भाई, अयोध्या का सार्वभौम राज्य, सम्पूर्ण राजपरिवार, संपत्ति, विदेहनन्दिनी श्रीसीता, शरीर, अवध राजभवन, सम्पूर्ण कुटुम्बीजन तथा अन्य भी स्नेह के पात्र, इय्–मित्र, मेरे सभी प्रेमास्पद, तुम्हारे समान प्रिय नहीं हैं। मैं झूठ नहीं कह रहा हूँ, मेरा यह स्वभाव है। ऐसी नीति है कि सेवक सभी के प्रिय होते हैं, पर मुझे दास पर अधिक प्रेम रहता है।

[[८५८]]

**दो०– अब गृह जाहु सखा सब, भजेहु मोहि दृ़ढ नेम।**

सदा सर्बगत सर्बहित, जानि करेहु अति प्रेम॥१६॥

भाष्य

हे वानर–भालु सभी मित्रों! अब अपने–अपने घर चले जाओ। मुझे दृ़ढनियम के साथ भजना, मुझे सदैव सर्वव्यापी और सबका हितैषी जानकर प्रेम करना।

**सुनि प्रभु बचन मगन सब भए। को हम कहाँ बिसरि तन गए॥ एकटक रहे जोरि कर आगे। सकहिं न कछु कहि अति अनुरागे॥**
भाष्य

प्रभु का वचन सुनकर सभी वानर–भालु मग्न हो गये अर्थात्‌ प्रेम में डूब गये। हम कौन हैं और कहाँ हैं, इस प्रकार अपने शरीर को भी भूल गये। हाथ जोड़कर प्रभु के समक्ष टकटकी लगाये हुए देखते रहे। वे अनुराग में इतने विह्वल हुए कि प्रभु के समक्ष कुछ भी नहीं कह सक रहे थे।

**परम प्रेम तिन कर प्रभु देखा। कहा बिबिध बिधि ग्यान बिशेषा॥ प्रभु सन्मुख कछु कहन न पारहिं। पुनि पुनि चरन सरोज निहारहिं॥**
भाष्य

प्रभु ने वानर भालुओं का पवित्र प्रेम देखा तो उन्हें समझाने के लिए अनेक प्रकार से ज्ञान का उपदेश दिया। वानर–भालु प्रभु के समक्ष कुछ भी नहीं कह पा रहे हैं और बारम्बार प्रभु के श्रीचरणकमलों को ही निहार अर्थात्‌ देख रहे हैं।

**तब प्रभु भूषन बसन मँगाए। नाना रंग अनूप सुहाए॥** **सुग्रीवहिं प्रथमहिं पहिराए। बसन भरत निज हाथ बनाए॥**
भाष्य

तब भगवान्‌ श्रीराम ने नाना रंगों के उपमारहित सुन्दर वस्त्र और आभूषण मँगाये। सर्वप्रथम अपने हाथ से बनाये हुए वस्त्रों को भरत जी ने सुग्रीव जी को धारण कराया।

**प्रभु प्रेरित लछिमन पहिराए। लंकापति रघुपति मन भाए॥ अंगद बैठि रहा नहिं डोला। प्रीति देखि प्रभु ताहि न बोला॥**
भाष्य

प्रभु से प्रेरित होकर अर्थात्‌ आदिष्ट होकर लक्ष्मण जी ने श्रीराम के मन को अच्छे लगने वाले लंकापति विभीषण जी को वस्त्र धारण कराये। अंगद जी बैठे रहे, नहीं डिगे और उनकी प्रीति देखकर प्रभु ने उन्हें नहीं बुलाया।

**दो०– जामवंत नीलादि सब, पहिराए रघुनाथ।**

**हिय धरि राम रूप सब, चले नाइ पद माथ॥१७(क)॥ भा०– **जाम्बवान जी, नील–नल जी आदि को श्रीरघुनाथ ने वस्त्र धारण कराया और वे सब हृदय में श्रीराम के रूप को धारण करके प्रभु के श्रीचरणों में मस्तक नवाकर चल पड़े।

तब अंगद उठि नाइ सिर, सजल नयन कर जोरि।
अति बिनीत बोलेउ बचन, मनहुँ प्रेम रस बोरि॥१७(ख)॥

भाष्य

तब अंगद जी उठकर प्रभु के श्रीचरणकमलों में मस्तक नवाकर, आँखों में आँसू भर कर, हाथ जोड़कर मानो प्रेमरस में भिंगोकर अत्यन्त विनीत अर्थात्‌ विनम्र वाणी बोले–

**सुनु सर्बग्य कृपा सुख सिंधो। दीन दयाकर आरत बंधो॥ मरती बेर नाथ मोहि बाली। गयउ तुम्हारेहिं कोंछे घाली॥** [[८५९]]
भाष्य

हे सर्वज्ञ! हे कृपा और सुख के सागर! हे दीनों पर दया करने वाले! हे आर्त्तों के बन्धु प्रभु श्रीराम! सुनिये, मरते समय बालि मुझे आपके ही कोंछे अर्थात्‌ गोद में डाल गए थे।

**अशरन शरन बिरद संभारी। मोहि जनि तजहु भगत हितकारी॥ मोरे तुम प्रभु गुरु पितु माता। जाउँ कहाँ तजि पद जलजाता॥ तुमहिं बिचारि कहहु नरनाहा। प्रभु तजि भवन काज मम काहा॥**
भाष्य

हे भक्तों के भयहारी! आप अशरण अर्थात्‌ जिनका कोई रक्षक नहीं है, उनके रक्षक हैं, इस यश का स्मरण करके मुझे मत छोयिड़े। हे प्रभु! आप मेरे गुरु, पिता–माता, स्वामी सब कुछ हैं। इन श्रीचरणकमलों को छोड़कर मैं कहाँ जाऊँ? हे मनुष्यों के राजा! आप ही विचारकर कहिये कि श्रीराम को छोड़कर भवन में मेरा क्या कार्य है?

**बालक ग्यान बुद्धि बल हीना। राखहु शरन नाथ जन दीना॥ नीचि टहल गृह कै सब करिहउँ। पद पंकज बिलोकि भव तरिहउँ॥ अस कहि चरन परेउ प्रभु पाही। अब जनि नाथ कहहु गृह जाही॥**
भाष्य

हे प्रभु! ज्ञान, बुद्धि और बल से रहित अपने इस बालक को दीनजन जानकर अपनी शरण में रख लीजिये। हे प्रभु! मैं घर की छोटी से छोटी सेवा करूँगा और आपके श्रीचरणकमलों को देखकर भवसागर से पार हो जाऊँगा, इतना कहकर अंगद जी ने प्रभु के श्रीचरण पक़ड लिए और कहा, हे नाथ! मेरी रक्षा कीजिये और अब मुझे घर जाओ इस प्रकार मत कहिये।

**दो०– अंगद बचन बिनीत सुनि, रघुपति करुना सीव।**

**प्रभु उठाइ उर लायउ, सजल नयन राजीव॥१८(क)॥ भा०– **अंगद जी के विनम्र वचन सुनकर, करुणा की सीमा स्वरूप प्रभु ने उन्हें उठाकर हृदय से लगा लिया, उनके लाल कमल जैसे नेत्र सजल हो गये।

निज उर माला बसन मनि, बालितनय पहिराइ।
बिदा कीन्ह भगवान तब, बहु प्रकार समुझाइ॥१८(ख)॥

भाष्य

अपने हृदय की माला, वस्त्र और मणि पहनाकर बहुत प्रकार से समझा–बुझाकर भगवान्‌ श्रीराम ने बालि पुत्र अंगद जी को विदा किया।

**भरत अनुज सौमित्रि समेता। पठवन चले भगत कृत चेता॥** **अंगद हृदय पे्रम नहिं थोरा। फिरि फिरि चितव राम की ओरा॥**
भाष्य

भक्तों के किये हुए भजन पर अपना चित्त समर्पित करने वाले, भरत जी, छोटे भाई शत्रुघ्न जी और सुमित्रा जी के ज्येष्ठपुत्र लक्ष्मण जी के साथ वानर–भालुओं को पहुँचाने चले। श्रीअंगद जी के हृदय में थोड़ा प्रेम नहीं था। वह श्रीराम जी की ओर बारम्बार देख रहे थे।

**बार बार कर दंड प्रनामा। मन अस रहन कहहिं मोहि रामा॥ राम बिलोकनि बोलनि चलनी। सुमिरि सुमिरि सोचत हँसि मिलनी॥ प्रभु रुख देखि बिनय बहु भाखी। चलेउ हृदय पद पंकज राखी॥**
भाष्य

अंगद जी बारम्बार दण्ड प्रणाम करते हैं। मन में ऐसा भाव आता है कि कदाचित्‌ प्रभु श्रीराम मुझे यहाँ रहने के लिए कह दें। श्रीराम की चितवन, बोलना, चलना, हँसकर मिलना, यह सब कुछ अंगद जी हृदय में

[[८६०]]

विचार करके सोच रहे हैं। अन्ततोगत्वा प्रभु श्रीराम का रुख पाकर बहुत प्रकार से प्रार्थना करके हृदय में उनके श्रीचरणकमल को रखकर अंगद जी चल दिये।

अति आदर सब कपि पहुँचाए। भाइन सहित भरत पुनि आए॥ तब सुग्रीव चरन गहि नाना। भाँति बिनय कीन्हे हनुमाना॥ दिन दस करि रघुपति पद सेवा। पुनि तव चरन देखिहउँ देवा॥ पुन्य पुंज तुम पवनकुमारा। सेवहु जाइ कृपा आगारा॥ अस कहि कपि सब चले तुरंता। अंगद कहइ सुनहु हनुमंता॥

भाष्य

अत्यन्त आदरपूर्वक सभी वानरों को पहुँचाया अर्थात्‌ विदा किया, फिर दोनों भाई लक्ष्मण जी एवं शत्रुघ्न जी के साथ भरत जी श्रीअवधपुर आ गये। तब सुग्रीव जी के चरण पक़डकर हनुमान जी ने नाना प्रकार से विनय किया और बोले, हे देव! दस दिन तक प्रभु श्रीराम के श्रीचरणों की सेवा करके फिर आपके श्रीचरणों के दर्शन करुँगा। सुग्रीव जी आदि वानर बोले, हे पवनपुत्र हनुमान जी! आप पुण्य के समूह स्वरूप हैं, जाकर कृपा के भवन श्रीराम की निरन्तर सेवा करिए। इतना कहकर सभी वानर तुरन्त चल पड़े। अंगद जी ने कहा, हे हनुमान जी! सुनिये–

**दो०– कहेहु दंडवत प्रभुहिं सन, तुमहिं कहउँ कर जोरि।**

**बार बार रघुनायकहिं, सुरति कराएहु मोरि॥१९(क)॥ भा०– **आप प्रभु को मेरा दण्डवत कहियेगा। मैं आपसे हाथ जोड़कर कहता हूँ कि रघुकुल के नायक श्रीराम को मेरा बार–बार स्मरण कराते रहियेगा।

अस कहि चलेउ बालिसुत, फिरि आयउ हनुमंत।
तासु प्रीति प्रभु सन कही, मगन भए भगवंत॥१९(ख)॥

भाष्य

इतना कहकर बालिपुत्र अंगद जी चल पड़े। हनुमान जी प्रभु की सेवा करने के लिए श्रीअवध लौट आये और अंगद जी की प्रीति प्रभु से कही, सुनकर भगवान्‌ श्रीराम मग्न हो गये।

**कुलिशहुँ चाहि कठोर अति, कोमल कुसुमहुँ चाहि।** **चित खगेश अस राम कर, समुझि परइ कहु काहि॥१९\(ग\)॥**
भाष्य

भुशुण्डि जी गरुड़ देव को सावधान करते हुए कहते हैं कि हे पक्षीराज! श्रीरघुनाथ का चित्त वज्र से भी अत्यन्त कठोर है और पुष्प से भी अत्यन्त कोमल है। वह किसी को कैसे समझ पड़ सकता है?

**पुनि कृपालु लियो बोलि निषादा। दीन्हे भूषन बसन प्रसादा॥ जाहु भवन मम सुमिरन करेहू। मन क्रम बचन धर्म अनुसरेहू॥**
भाष्य

फिर कृपालु श्रीराम ने निषादराज गुह को बुला लिया और प्रसाद के रूप में आभूषण और वस्त्र दिये तथा बोले, हे मित्र! अपने भवन शृंगवेरपुर जाओ मेरा स्मरण करते रहना तथा मन, वाणी शरीर से धर्म का अनुसरण करते रहना।

**तुम मम सखा भरत सम भ्राता। सदा रहेहु पुर आवत जाता॥ बचन सुनत उपजा सुख भारी। परेउ चरन भरि लोचन बारी॥** [[८६१]]
भाष्य

तुम मेरे मित्र हो और भरत के समान छोटे भ्राता भी हो। सदैव श्रीअवधनगर में आते–जाते रहना। यह वचन सुनते ही निषाद जी के मन में बहुत सुख हुआ और आँखों में जल भरकर निषादराज भगवान्‌ के श्रीचरणों में पड़ गये।

**चरन नलिन उर धरि गृह आवा। प्रभु स्वभाव परिजननि सुनावा॥ रघुपति चरित देखि पुरबासी। पुनि पुनि कहहिं धन्य सुखरासी॥**
भाष्य

प्रभु के श्रीचरणकमलों को हृदय में धारण करके निषादराज घर आये और प्रभु श्रीराम का स्वभाव अपने परिजनों को सुनाया। प्रभु श्रीराम के चरित्र को देखकर अवधपुरवासी बार–बार कहते हैं कि हे सुखों की राशि श्रीराम! आप धन्य हैं।

**राम राज बैठे त्रैलोका। हरषित भए गए सब शोका॥ बैर न कर काहू सन कोई। राम प्रताप बिषमता खोई॥**
भाष्य

भगवान्‌ श्रीराम राजसिंहासन पर बैठे हैं। भूर्भुव: स्व: ये तीनों लोक प्रसन्न हो गये। सबके समस्त शोक समाप्त हो गये। कोई किसी से वैर नहीं करता है। श्रीराम के प्रताप ने सबके मन की विषमबुद्धि समाप्त कर दी।

**दो०– बरनाश्रम निज निज धरम, निरत बेद पथ लोग।**

**चलहिं सदा पावहिं सुखहिं, नहिं भय शोक न रोग॥२०॥ भा०– **निरन्तर सब लोग वर्ण और आश्रम के अनुसार अपने धर्म में लगे रहते हैं तथा सदैव वैदिक मार्ग पर चलते हैं, इसलिए सुख प्राप्त करते हैं। किसी को भी भय, शोक या रोग नहीं है।

दैहिक दैविक भौतिक तापा। राम राज नहिं काहुहिं ब्यापा॥ सब नर करहिंपरसपर प्रीती। चलहिं स्वधर्म निरत श्रुति नीती॥

भाष्य

श्रीराम के राज्य में किसी को भी दैहिक अर्थात्‌ देह सम्बन्धी, दैविक अर्थात्‌ देवता सम्बन्धी, भौतिक अर्थात्‌ प्राणियों से सम्बद्ध ताप कुछ भी नहीं व्यापते। सभी लोग परस्पर प्रेम करते हैंऔर अपने धर्म में निरत होकर वैदिकनीति के अनुसार चलते हैं।

**चारिउ चरन धर्म जग माहीं। पूरि रहा सपनेहुँ अघ नाहीं॥ राम भगति रत नर अरु नारी। सकल परम गति के अधिकारी॥**
भाष्य

संसार में धर्म चारों चरण से अर्थात्‌ तप, शौच, सत्य, दान से पूर्ण था, स्वप्न में भी पाप नहीं था। सभी नर–नारी श्रीराम की भक्ति में लगे थे और सभी परमगति सामीप्य के अधिकारी थे।

**अल्पमृत्यु नहिं कवनिउ पीरा। सब सुंदर सब बिरुज शरीरा॥ नहि दरिद्र कोउ दुखी न दीना। नहिं कोउ अबुध न लच्छन हीना॥**
भाष्य

उस समय किसी की भी अल्पमृत्यु नहीं होती थी और न ही किसी को किसी प्रकार की पीड़ा थी। सभी सुन्दर थे और सभी का शरीर रोगमुक्त था। न कोई दरिद्र था, न दु:खी था और न ही कोई दीन था। न कोई अबुध अर्थात्‌ मूर्ख था और न ही कोई शुभलक्षणों से हीन ही था।

**सब निर्दंभ धर्मरत पुनी। नर अरु नारि चतुर सब गुनी॥ सब गुनग्य पंडित सब ग्यानी। सब कृतग्य नहिं कपट सयानी॥** [[८६२]]
भाष्य

सभी अयोध्या के नर–नारी दम्भ से रहित, धर्म में लगे हुए तथा पवित्र थे, सभी चतुर तथा गुणज्ञ थे, सभी पण्डित थे, सभी ज्ञानी थे, सभी कृतज्ञ थे और किसी के मन में कपट की चतुरता नहीं थी।

**दो०– रामराज नभगेश सुनु, सचराचर जग माहिं।** **काल कर्म स्वभाव गुन, कृत दुख काहुहिं नाहिं॥२१॥**
भाष्य

हे पक्षियों के स्वामी! सुनिये, श्रीरामराज्य में सम्पूर्ण चर–अचर (चेतन–ज़ड) सहित तथा संसार में काल, कर्म, स्वभाव और गुणों के द्वारा किया हुआ किसी भी प्रकार का दु:ख नहीं था।

**भूमि सप्त सागर मेखला। एक भूप रघुपति कोसला॥ भुवन अनेक रोम प्रति जासू। यह प्रभुता कछु बहुत न तासू॥**
भाष्य

सातों समुद्र जिसकी मेखला अर्थात्‌ करधनी हैं, ऐसी पृथ्वी पर कोसलपुरी अयोध्या में एकमात्र श्रीरघुनाथ ही राज्य करते थे अर्थात्‌ समस्त संसार की एकमात्र राजधानी अयोध्या थी और एकमात्र राजा श्रीराम थे। जिनके प्रत्येक रोम में अनेक भुवन विराजते हों उन्हीं अनन्त कोटि ब्रह्माण्ड के नायक भगवान्‌ श्रीराम के लिए यह प्रभुता अर्थात्‌ समुद्रपर्यन्त पृथ्वी का एकमात्र शासन कुछ भी बहुत नहीं है।

**सो महिमा समुझत प्रभु केरी। यह बरनत हीनता घनेरी॥** **सो महिमा खगेश जिन जानी। फिरि एहिं चरित तिनहुँ रति मानी॥**
भाष्य

प्रभु श्रीराम की वह महिमा समझते हुए इस प्रकार का वर्णन करना कि श्रीरघुनाथ सम्पूर्ण पृथ्वी के एकमात्र राजा थे और हैं, यह बहुत ही हीनता है अर्थात्‌ छोटापन है। हे गव्र्ड़ देव जी! उस महिमा को जिन महानुभाव ने जान लिया उन लोगों ने भी फिर से इसी सगुणलीला के चरित्र में प्रेम माना है।

**सोउ जाने कर फल यह लीला। कहहिं महा मुनिवर दमशीला॥ राम राज कर सुख संपदा। बरनि न सकहिं फनीश शारदा॥**
भाष्य

उस महिमा को जानने का यही फल है कि इन्द्रियों का दमन करने वाले मुनिगण भी इस लीला को आदरपूर्वक सुनते हैं। श्रीरामराज्य के सुख और सम्पत्ति का वर्णन सर्पराज शेष जी और सरस्वती जी भी नहीं कर सकते।

**सब उदार सब पर उपकारी। बिप्र चरन सेवक नर नारी॥**

**एकनारि ब्रत रत सब झारी। तिय मन बच क्रम पति हितकारी॥ भा०– **श्रीअयोध्या में सभी उदार थे, सभी परोपकारी थे और सभी नर–नारी ब्राह्मणों के चरणों के सेवक थे। सभी पुरुष एक नारी व्रत थे अर्थात्‌ श्रीरामराज्य में बहुपत्नी प्रथा पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया था और स्त्रियाँ भी मन, वाणी, शरीर से पतियों का हित करने वाली थीं।

दो०– दंड जतिन कर भेद जहँ, नर्तक नृत्य समाज।
जीतहु मनहिं सुनिय अस, रामचंद्र के राज॥२२॥

भाष्य

श्रीराम जी के राज्य में दण्ड केवल त्रिदण्डि स्वामियों के हाथ में ही सुना जाता था अर्थात्‌ प्रजा में किसी को भी दण्ड नहीं दिया जाता था। श्रीरामराज्य में भेद वहाँ था जहाँ नर्तकों और नृत्य का समाज था। प्रजा में कहीं भेद नहीं था, सब एक जैसे थे, अथवा, नर्तकों के यहाँ गायक, वादक, नर्तक इस प्रकार का भेद सुना जाता था। श्रीरामराज्य में केवल मन को जीतो यही बात सुनी जाती थी अर्थात्‌ वहाँ कोई शत्रु नहीं था।

[[८६३]]

**फूलहिं फलहिं सदा तरु कानन। रहहिं एक सँग गज पंचानन॥ खग मृग सहज बैर बिसराई। सबनि परस्पर प्रीति ब़ढाई॥**
भाष्य

वन में वृक्ष निरन्तर फूलते और फलते थे, हाथी और सिंह एक साथ रहा करते थे। पशु–पक्षियों ने स्वाभाविक वैर भुला दिया था और सभी ने एक–दूसरे से प्रेम ब़ढा लिया था।

**कूजहिं खग मृग नाना बृंदा। अभय चरहिं बन करहिं अनंदा॥ शीतल सुरभि पवन बह मंदा। गुंजत अलि लै चलि मकरंदा॥**
भाष्य

नाना प्रकार के पक्षी और पशु बोल रहे हैं। वन में निर्भीक होकर चरते हैं और आनन्द करते हैं। शीतल, मन्द और सुगन्ध पवन बहता रहता है। पुष्पों का मकरन्द लेकर चलते हुए भ्रमर गुंजार करते हैं।

**लता बिटप माँगे मधु चवहीं। मनभावतो धेनु पय स्रवहीं॥ ससि संपन्न सदा रह धरनी। त्रेता भइ कृतजुग कै करनी॥**
भाष्य

लता और वृक्ष माँगने पर मधु चुआते हैं। गौयें मन की भावना के अनुसार दूध देती हैं। पृथ्वी सदैव ससि से अर्थात्‌ खेती से सम्पन्न रहती है। त्रेता में भी कृतयुग की करनी हो गई अर्थात्‌ कृतयुग जैसा वातावरण श्रीराम राजा की कृपा से त्रेता में भी हो गया।

**प्रगटीं गिरिन बिबिध मनि खानी। जगदातमा भूप जग जानी॥ सरिता सकल बहहिं बर बारी। शीतल अमल स्वाद सुखकारी॥**
भाष्य

जगत ही जिसका शरीर है ऐसे भगवान्‌ श्रीराम को इस संसार में राजा बनकर राज्य करते हुए जानकर पर्वतों में अनेक प्रकार की मणियों की खानियाँ प्रकट हो गईं। सभी नदियाँ शीतल, निर्मल, स्वादयुक्त और सुख देने वाला जल बहती थी।

**सागर निज मरजादा रहहीं। डारहिं रतन तटनि नर लहहीं॥ सरसिज संकुल सकल तड़ागा। अति प्रसन्न दस दिशा बिभागा॥**
भाष्य

सागर अपनी मर्यादा में रहते थे, तटों में रत्न डाल देते थे, उन्हें लोग प्राप्त कर लेते थे। सम्पूर्ण सरोवर कमलों से युक्त रहते थे। दसों दिशाओं के विभाग अत्यन्त प्रसन्न थे।

**दो०– बिधु महि पूर मयूखनि, रबि तप जेतनेहिं काज।** **माँगे बारिद देहिं जल, रामचंद्र के राज॥२३॥**
भाष्य

चन्द्रमा अपनी किरणों से पृथ्वी को पूर्ण किये रहते थे। सूर्य उतना ही तपते थे जितना कार्य होता था। श्रीराम जी के राज्य में बादल माँगने पर जल दिया करते थे।

**कोटिन बाजिमेध प्रभु कीन्हे। दान अनेक द्विजन कहँ दीन्हे॥ श्रुति पथ पालक धर्म धुरंधर। गुनातीत अरु भोग पुरंदर॥**
भाष्य

भगवान्‌ श्रीराम ने करोड़ों अश्वमेध यज्ञ किये और ब्राह्मणों को अनेक दान दिये। भगवान्‌ श्रीराम वेदपथ के पालक, धर्म की धुरी को धारण करने वाले, तीनों मायिक गुणों से परे और भोग में साक्षात्‌ इन्द्र ही हैं।

**पति अनुकूल सदा रह सीता। शोभा खानि सुशील बिनीता॥ जानति कृपासिंधु प्रभुताई। सेवति चरन कमलमन लाई॥**
भाष्य

शोभा की खानि, सुन्दर शीलवाली, विनम्र सीता जी सदैव पति श्रीराम के अनुकूल रहती हैं। भगवती श्रीसीता जी कृपासिन्धु श्रीराम जी की प्रभुता जानती हैं, इसलिए मन लगाकर श्रीराम जी के श्रीचरण कमल की सेवा करती हैं।

[[८६४]]

**जद्दपि गृह सेवक सेवकिनी। बिपुल सदा सेवा बिधि गुनी॥ निज कर गृह परिचरजा करई। रामचंद्र आयसु अनुसरई॥**
भाष्य

यद्दपि श्रीअवध राजभवन में अनेक सेवक और अनेक सेविकायें हैं वे सभी सेवाविधि में चतुर हैं, फिर भी भगवती श्रीसीता अपने हाथ से गृह की सेवा करती हैं और भगवान्‌ श्रीराम की आज्ञा का अनुसरण करती हैं।

**जेहि बिधि कृपासिंधु सुख मानइ। सोइ कर श्रीसेवा बिधि जानइ॥ कौसल्यादि सासु गृह माहीं। सेवत सबहिं मान मद नाहीं॥**
भाष्य

कृपा के सागर श्रीराम जिस विधि से सुख मानते हैं अर्थात्‌ प्रसन्न होते हैं श्री जी वही करती हैं, क्योंकि वे सेवा की विधि जानती हैं। कौसल्या आदि सासुयें गृह में विराजती हैं, उन सभी की सेवा श्रीसीता करती हैं, क्यांेंकि श्रीसीता के मन में मान और मद नहीं है।

**उमा रमा ब्रह्मानि बंदिता। जगदम्बा संततमनिंदिता॥** **दो०– जासु कृपा कटाक्ष सुर, चाहत चितव न सोइ।**

राम पदारबिंद रति, करति स्वभावहिं खोइ॥२४॥

भाष्य

भगवती श्रीसीता, उमा अर्थात्‌ पार्वती जी, रमा अर्थात्‌ लक्ष्मी जी और ब्रह्माणी जी द्वारा वन्दित हैं अर्थात्‌ तीनों देवियाँ श्रीसीता के श्रीचरणों की वन्दना करती हैं। वे जगत की माता और निरन्तर अनिन्दित हैं अर्थात्‌ श्रीसीता जी की कभी निन्दा नहीं होती। देवता लोग निरन्तर जिनकी कृपा–कटाक्ष की इच्छा करते हैं, परन्तु श्रीसीता उन्हें कभी भी नहीं देखती, वही साकेत की अधीश्वरी, आह्लादिनी आदिशक्ति श्रीसीता जी अपने ऐश्वर्य स्वभाव को छोड़कर सदैव भगवान्‌ श्रीराम के श्रीचरणकमल में प्रेम करती हैं।

विशेष

धोबी के द्वारा आरोप और श्रीसीता का श्रीराम द्वारा निर्वासन यह सब कपोल कल्पित और मनग़ढन्त कथा है। इस सम्बन्ध में विशेष जानने के लिए मेरे द्वारा रचित “सीता निर्वासन नहाᐂ* *” नामक ग्रन्थ पढि़ये।

सेवहिं सानुकूल सब भाई। रामचरन रति अति अधिकाई॥ प्रभु मुख कमल बिलोकत रहहीं। कबहुँ कृपालु हमहिं कछु कहहीं॥

भाष्य

सभी तीनों भाई आनुकूल्य भाव के साथ भगवान्‌ श्रीराम की सेवा करते हैं, उनके मन में श्रीराम के श्रीचरण के प्रति अत्याधिक रति अर्थात्‌ भक्ति है। वे सब प्रभु का मुख कमल निहारते रहते हैं कि कृपालु श्रीराम हमें कभी तो कुछ कहें।

**राम करहिं भ्रातन पर प्रीती। नाना भाँति सिखावहिं नीती॥ हरषित रहहिं नगर के लोगा। करहिं सकल सुर दुर्लभ भोगा॥ अहनिशि बिधिहिं मनावत रहहीं। श्रीरघुबीर चरन रति चहहीं॥**
भाष्य

भगवान्‌ श्रीराम भ्राताओं पर प्रेम करते हैं, उन्हें नाना प्रकार से नीति सिखाते हैं। श्रीअवधनगर के लोग प्रसन्न रहते हैं और सभी देवदुर्लभ सुख–भोग करते हैं। रात–दिन ब्रह्मा जी से प्रार्थना करते हैं और सभी अवधवासी श्री अर्थात्‌ श्रीसीता जी एवं रघुकुल के वीर भगवान्‌ श्रीराम के श्रीचरणकमल में रति अर्थात्‌ प्रेमलक्षणाभक्ति चाहते हैं अर्थात्‌ प्रत्येक अवधवासी श्रीसीताराम जी का युगलोपासक है, इसलिए कोई भी श्रीसीता के प्रति अविश्वास कर ही नहीं सकता।

[[८६५]]

**दुइ सुत सुंदर सीता जाए। लव कुश बेद पुरानन गाए॥ दोउ बिजई बिनई गुन मंदिर। हरि प्रतिबिंब मनहुँ अति सुंदर॥ दुइ दुइ सुत सब भ्रातन केरे। भए रूप गुन शील घनेरे॥**
भाष्य

श्रीसीता ने श्रीअवध राजभवन में ही दो सुन्दर पुत्रों को प्रकट किया, जिन्हें लव और कुश नाम से वेद सम्मत पुराणों ने गाया। दोनों भ्राता विजयी, विनयशील और श्रेष्ठ गुणों के मन्दिर थे, मानो वे श्रीराम के प्रतिबिम्ब रूप में अत्यन्त सुन्दर थे अर्थात्‌ दोनों ही राजकुमार श्यामवर्ण के थे। इसी प्रकार सभी भ्राताओं के यहाँ दो–दो पुत्र जन्मे। भरत जी के यहाँ तक्ष और पुष्कल, लक्ष्मण जी के यहाँ चन्द्रकेतु और अंगद, शत्रुघ्न जी के यहाँ सुबाहु और शत्रुघाती। इनमें रूप, शील तथा बहुत–से गुण विद्दमान थे।

**दो०– ग्यान गिरा गोतीत अज, माया मन गुन पार।** **सोइ सच्चिदानंद घन, कर नर चरित उदार॥२५॥**
भाष्य

जो ज्ञान, वाणी तथा इन्द्रियांें से परे हैं, जो माया, मन और मायिक गुणों से भी बहुत दूर हैं, वे ही सच्चिदानन्दघन भगवान्‌ श्रीराम जी उदार मनुष्य चरित्र कर रहे हैं।

**प्रात काल सरजू करि मज्जन। बैठहिं सभा संग द्विज सज्जन॥ बेद पुरान बसिष्ठ बखानहिं। सुनहिं राम जद्दपि सब जानहिं॥ अनुजन संजुत भोजन करहीं। देखि सकल जननी सुख भरहीं॥**
भाष्य

प्रात:काल श्रीसरयू नदी में मज्जन करके सन्ध्यावन्दन, स्वल्पाहार से निवृत होकर साथ में ब्राह्मणों और श्रीवैष्णवों को लेकर प्रभु श्रीराम श्रीअवध की राजसभा में विराज जाते हैं। वसिष्ठ जी वेदों तथा वेदसम्मत पुराणों का व्याख्यान करते हैं। उसे भगवान्‌ श्रीराम सुनते हैं, यद्दपि वे सब कुछ जानते हैं। छोटे भाई श्रीभरत, लक्ष्मण और शत्रुघ्न जी के साथ भगवान्‌ श्रीराम प्रतिदिन मध्याह्न का राजभोग भोजन करते हैं, उसे देखकर सभी मातायें आनन्द में भर जाती हैं।

विशेष

इस प्रसंग से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि लव, कुश, तक्ष, पुष्कल चन्द्रकेतु, अंगद, सुबाहु, शत्रुघाती नामक आठ पौत्रों को भी कौसल्या आदि राज माताओं ने दुलारा और भगवान्‌ श्रीराम अपने तीनों भाइयों सहित नित्य राज्यसभा में विराजते तथा साथ में भोजनादि करते थे। अर्थात्‌ न तो सीता जी का निर्वासन हुआ था और न ही अयोध्या में किसी प्रकार का कष्ट था।

भरत शत्रुहन दोनउ भाई। सहित पवनसुत उपवन जाई॥
बूझहिं बैठि राम गुन गाहा। कह हनुमान सुमति अवगाहा॥

सुनत बिमल गुन अति सुख पावहिं। बहुरि बहुरि करि बिनय कहावहि॥

भाष्य

दोनों भाई श्रीभरत एवं शत्रुघ्न जी, हनुमान जी के साथ उपवन में जाकर बैठकर हनुमान जी से वन में सम्पन्न हुई श्रीराम की गुणगाथायें पूछते हैं और अगाध सुन्दरबुद्धि वाले हनुमान जी महाराज श्रीरामकथा कहते हैं। प्रभु के निर्मल गुण सुनकर श्रीभरत–शत्रुघ्न जी बहुत सुख पाते हैं और बारम्बार विनय करके हनुमान जी से श्रीरामकथा कहलवाते हैं।

**सब के गृह गृह होहिं पुराना। रामचरित पावन बिधि नाना॥** **नर अरु नारि राम गुन गानहिं। करहिं दिवस निशि जात न जानहिं॥**

[[८६६]]

भाष्य

सभी के घर–घर में पुराण प्रसिद्ध परमपवित्र नाना प्रकारों के श्रीरामचरित्र होते हैं अर्थात्‌ पुराणों के माध्यम से कहे जाते हैं। अथवा सभी अवधवासियों के घर–घर में श्रीरामचरित्र के कारण पवित्र श्रीरामकथाप्रधान नाना प्रकार के पौराणिक आख्यान कहे, सुने जाते हैं। श्रीअयोध्या के पुरुष और स्त्रियाँ श्रीराम का गुणगान करते रहते हैं, वे दिन–रात को बीतते हुए नहीं जान पाते हैं।

**दो०– अवधपुरी बासिन कर, सुख संपदा समाज।**

**सहस शेष नहिं कहि सकहिं, जहँ नृप राम बिराज॥२६॥ भा०– **श्रीअवधपुरवासियों का सुख–सम्पत्ति और उनके समाज को सहस्रों शेष नहीं कह सकते, जहाँ पर स्वयं परब्रह्म परमात्मा श्रीराम राजा बनकर विराज रहे हैं।

नारदादि सनकादि मुनीशा। दरसन लागि कोसलाधीशा॥

**दिन प्रति सकल अजोध्या आवहिं। देखि नगर बिराग बिसरावहिं॥ भा०– **नारदादि भक्तिप्रधान मुनिगण और सनकादि ज्ञानप्रधान श्रेष्ठमुनि ये सभी अयोध्याधिपति भगवान्‌ श्रीराम के दर्शन के लिए प्रतिदिन श्रीअयोध्या आते हैं और श्रीअयोध्या नगर को देखकर अपना वैराग्य भुला देते हैं।

जातरूप मनि रचित अटारी। नाना रंग रुचिर गच ढारी॥ पुर चहुँ पास कोट अति सुंदर। रचे कँगूरा रंग रंग बर॥ नव ग्रह निकर अनीक बनाई। जनु घेरी अमरावति आई॥

भाष्य

जातरूप अर्थात्‌ स्वर्ण और मणियों से अट्टालिकायें बनाई गई हैं और फर्शें भी अनेक रंगवाली मणियों से सुन्दर प्रकार से ढाली हुई हैं। श्रीअवध के चारों ओर कोट अर्थात्‌ परकोटे बहुत ही सुन्दर हैं, उनमें रंग–रंग के सुन्दर कँगूरे बनाये गये हैं, मानो रवि, चन्द्र, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र, शनिश्चर, राहु और केतु इन नवग्रहों के समूहों ने अपनी सेना बनाकर अमरावती को आकर घेर लिया हो।

**विशेष– **तात्पर्य यह है कि नगर के चारों ओर विशाल कोट हैं और उन पर बहुरंगे कँगूरे बनाये गये हैं, जिनमें नवों प्रकार के ग्रहवाले रत्नों का प्रयोग हुआ है। यथा– सूर्य का गुलाबी, चन्द्र का श्वेत, मंगल का लाल, बुध का हरा, गुरु का पीला, शुक्र का अत्यन्त श्वेत, शनि का श्याम, राहु का श्याम और केतु का श्याम इन्हीं वर्णों के अनुसार, क्रमश: सूर्य का रक्त मूँगा, चन्द्रमा का मोती, मंगल का मूँगा, बुध का पन्ना, गुरु का पुष्पराज \(पोखराज\), शुक्र का जरिकन \(हीरा\), शनि का नीलम राहु का गोमेद और केतु का वैदूर्य। कँगूरों पर ये नवों प्रकार के रत्न लगे हुए हैं। इसी दृष्टि से गोस्वामी जी ने इनकी नवग्रहों के साथ उत्त्प्रेक्षा की है। श्रीअवध के कोट की पूर्वोक्त नवों रत्न के ब्याज से रवि, सोम, मंगल, बुध, गुव्र्, शुक्र, शनि, राहु और केतु नाम वाले नवों ग्रह प्रभु के द्वारा नियुक्त किये हुए सुरक्षाधिकारी के रूप में श्रीअवध की रक्षा का दायित्व सम्भालते हैं। इसी प्रकार श्रीवैष्णव पूजापद्धति में भी सात दिनों के गुलाबी श्वेत, लाल, हरा, पीला, अत्यन्त श्वेत, और नील वस्त्रों के माध्यम से नवों ग्रह प्रभु श्रीराम के श्रीविग्रह पर सेवा की भावना से विराजमान होकर उनका अनुग्रह प्राप्त करते रहते हैं।

महि बहु रंग रचित गच काँचा। जो बिलोकि मुनिबर मन राँचा॥ धवल धाम ऊपर नभ चुंबत। कलश मनहुँ रबि शशि दुति निंदत॥ बहु मनि रचित झरोखा भ्राजहिं। गृह गृह प्रति मनि दीप बिराजहिं॥

भाष्य

पृथ्वी पर अर्थात्‌ श्रीअयोध्या के राजमार्गों की भूमि पर बहुत रंगवाले काँचमणि की गच अर्थात्‌ फर्श बनाई गई है, जिसे देखकर श्रेष्ठमुनियों का भी मन उस पर आकर्षित हो जाता है। अयोध्या के श्वेत रंग के प्रासाद–भवन

[[८६७]]

ऊपर आकाश को चूमते हैं और कलश मानो सूर्य–चन्द्र की निन्दा करते हैं। बहुत सी मणियों से रचे हुए झरोखे अर्थात्‌ डिख़कियाँ सुशोभित होती हैं और प्रत्येक भवन में मणियों के दीपक प्रकाशमान रहते हैं।

छं०– मनि दीप राजहिं भवन भ्राजहिं देहरी बिद्रुम रची।
मनि खंभ भीति बिरंचि बिरची कनक मनि मरकत खची॥ सुंदर मनोहर मंदिरायत अजिर रुचिर फटिक रचे। प्रति द्वार द्वार कपाट पुरट बनाइ बहु बज्रनि खचे॥

भाष्य

मणियों के दीप देदीप्यमान हो रहे हैं, उनसे श्रीअयोध्या के भवन शोभित होते हैं। देहलियाँ मूँगों से बनाई गई हैं, मणियों के खम्भे और दीवारें, मानो ब्रह्मा जी द्वारा बनाई गई हैं, जो स्वर्णमणि और मरकतमणि से जटित हैं। अथवा, भित्तियाँ साकेत के ब्रह्मा जी द्वारा बनाये हुए स्वर्ण मणि और मरकत मणि से जटित हैं। अयोध्या के भवन सुन्दर, मन को हरने वाले तथा विशाल हैं। वहाँ के आँगन सुन्दर स्फटिक मणियों से बनाये गये हैं। प्रत्येक द्वार पर स्वर्ण के बनाये हुए किवाड़ बहुत से हीरों से जटित हैं।

**दो०– चारु चित्रशाला गृह, गृह प्रति लिखे बनाइ।** **रामचरित जे निरखत, मुनि मन लेहिं चोराइ॥२७॥**
भाष्य

श्रीअयोध्या के प्रत्येक भवन में बनी हुई सुन्दर चित्रशालाओं में श्रीरामचरित्र की अनेकानेक घटनायें सवाँर कर अंकित की गई है, जो श्रीरामचरित्र देखते ही नारदादि भक्तिप्रधान और सनकादि ज्ञानप्रधान मुनियों के मन को भी चुरा लेते हैं।

**सुमन बाटिका सबहिं लगाई। बिबिध भाँति करि जतन बनाई॥ लता ललित बहु जाति सुहाई। फूलहिं सदा बसंत कि नाई॥ गुंजत मधुकर मुखर मनोहर। मारुत त्रिबिध सदा बह सुंदर॥**
भाष्य

सभी ने अपने–अपने भवनों के बाहर अनेक प्रकार से यत्न करके सुन्दर बनाकर पुष्पों की वाटिकायें बनाई हैं, जिनसे दैनिक देवपूजन में तुलसीदल और पुष्प का उपयोग हो सके। वहाँ बहुत–सी जातियों की सुन्दर लतायें हैं, जो सदैव वसन्तऋतु की ही भाँति पुष्पों से लदी हुई रहती हैं अर्थात्‌ प्रत्येक ऋतु में वसन्त की ही भाँति विकसित होती रहती हैं। मन को हरने वाले स्वर से युक्त भौंरे गुंजार करते रहते हैं और सदैव सुन्दर अर्थात्‌ धूल से रहित तीनों प्रकार का शीतल, मन्द, सुगन्ध वायु धीरे–धीरे बहता रहता है।

**नाना खग बालकन जिआए। बोलत मधुर उड़ात सुहाए॥ मोर हंस सारस पारावत। भवननि पर शोभा अति पावत॥ जहँ तहँ देखहिं निज परिछाहीं। बहु बिधि कूजहिं नृत्य कराहीं॥ शुक सारिका प़ढावहि बालक। कहहु राम रघुपति जनपालक॥**
भाष्य

नगर के बालकों ने नाना प्रकार के पक्षी पाल रखे हैं, जो बहुत मधुर बोलते हैं और बहुत ही सुहावने प्रकार से उड़ते हैं। अयोध्या के भवनों पर मोर, हंस, सारस और कबूतर बहुत शोभा पाते हैं। जहाँ–तहाँ मणियों में अपनी परछाईं देखते हैं और बहुत प्रकार से बोलते हैं तथा नृत्य करते हैं। बालक लोग तोते और मैनों को प़ढाते हैं। उनसे कहते हैं, कहो राम रघुपति जनपालक।

**विशेष– **आज भी तोते और मैंनों को सिखाते हुए श्रीअवध अंचल में कुछ शब्द बोले जाते हैं, जैसे *प़ढ** पर्वते सीताराम, कहत राम सीता, जनम जात बीता।*

[[८६८]]
राज दुआर सकल बिधि चारू। बीथी चौहट रुचिर बजारू॥

भाष्य

श्रीअवध का राजद्वार सब प्रकार से सुन्दर है। श्रीअयोध्या की गलियाँ, चौहट अर्थात्‌ चतुष्पथ है और वहाँ के बाजार बहुत सुन्दर हैं।

**छं०– बाजार रुचिर न बनइ बरनत बस्तु बिनु गथ पाइए।** **जहँ भूप रमानिवास तहँ की संपदा किमि गाइए॥ बैठे बजाज सराफ बनिक अनेक मनहुँ कुबेर ते। सब सुखी सब सच्चरित सुंदर नारि नर शिशु जरठ जे॥**
भाष्य

श्रीअयोध्या के सुन्दर बाजार का वर्णन करते नहीं बनता, वहाँ सभी वस्तुयें बिना मोल–भाव के उपलब्ध रहती हैं अर्थात्‌ मूल्य पूछे बिना ही लोग राय्र् के प्रति निष्ठा रखकर उचित मूल्य दे देते हैं। अथवा, वहाँ कोई वस्तु बेचता ही नहीं। सभी के उपयोग की वस्तुयें उपभोक्ताओं के लिए बाजार में रखी रहती है। जिस अयोध्या के स्वयं पराशक्ति श्रीसीता के पति ही राजा हैं वहाँ की सम्पत्ति किस प्रकार गायी जाये। बाजारों में अनेक बजाज (वस्त्र विक्रेता) सर्राफ अर्थात्‌ सोने–चाँदी के व्यापारी, बनिक अर्थात्‌ अन्न, अनाज, बर्तन आदि के व्यापारी बैठे रहते हैं, मानो वे साक्षात्‌ कुबेर ही हों। जो भी स्त्री पुरुष, बाल, वृद्ध हैं, वे सभी सुखी, सच्चरित्र अैर सुन्दर हैं अर्थात्‌ श्रीरामराज्य में न कोई दु:खी है और न चरित्रहीन है और न ही कोई कुरूप है।

**दो०– उत्तर दिशि सरजू बह, निर्मल जल गंभीर।** **बाँधे घाट मनोहर, स्वल्प पंक नहिं तीर॥२८॥**
भाष्य

नगर के उत्तर दिशा में भगवती श्रीसरयू बहती हैं, उनका जल निर्मल है तथा वे गम्भीर हैं, अर्थात्‌ गहरी हैं। उनके सुन्दर घाट बँधे हुए है, तटों पर थोड़ा भी कीचड़ नहीं रहता।

**दूरि फराक रुचिर सो घाटा। जहँ जल पियहिं बाजि गज ठाटा॥ पनिघट परम मनोहर नाना। तहाँ न पुरुष करहिं अस्नाना॥ राजघाट सब बिधि सुंदर बर। मज्जहिं तहाँ बरन चारिउ नर॥**
भाष्य

सरयू जी का वह घाट दूर और सबसे अलग हैं, जहाँ हाथी–घोड़ों के समूह, गौ आदि अन्यान्य पशु जल पीते हैं, उसे गो घाट कहते हैं। सरयू जी में अनेक सुन्दर पनघट बने हैं, वहाँ पुव्र्ष स्नान नहीं करते। पनघटों पर केवल महिलायें स्नान करती हैं और जल भरती हैं। राजघाट सब प्रकार से सुन्दर और अत्यन्त श्रेष्ठ है। वहाँ चारों वर्ण अर्थात्‌ ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र वर्ग के पुरुष स्नान करते हैं अर्थात्‌ श्रीरामराज्य में वर्णाश्रम के अनुसार जातियाँ हैं पर जातिवाद नहीं है।

**तीर तीर देवन के मंदिर। चहुँ दिशि तिन के उपबन सुंदर॥ कहुँ कहुँ सरिता तीर उदासी। बसहिं ग्यान रत मुनि सन्यासी॥ तीर तीर तुलसिका सुहाई। बृंद बृंद बहु मुनिन लगाई॥**
भाष्य

श्रीसरयू नदी के प्रत्येक तट पर देवताओं के मन्दिर हैं और उनके चारों ओर उपवन अर्थात्‌ ठाकुर जी की बगीचियाँ लगी हैं। कहीं–कहीं सरयू जी के तट पर ज्ञान में लगे हुए, विषयों से उदासीन सन्यासीजन और मुनिजन छोटे–छोटे झोपड़े बनाकर निवास करते हैं। सरयू जी के सभी तटों पर मुनियों ने अर्थात्‌ श्रीवैष्णवों ने अनेक समूहों में तुलसी जी के वृक्ष लगाये हैं।

[[८६९]]

**पुर शोभा कछु बरनि न जाई। बाहेर नगर परम रुचिराई॥ देखत पुरी अखिल अघ भागा। बन उपवन बापिका तड़ागा॥**
भाष्य

नगर की शोभा का तो कुछ भी वर्णन नहीं किया जा सकता। नगर के बाहर अत्यन्त सुन्दरता दिखती है। श्रीअयोध्यापुरी को देखते ही और उसके वन–उपवन, बावलियाँ और सरोवरों के दर्शन करते ही, सभी पाप भग जाते हैं।

**छं०– बापी तड़ाग अनूप कूप मनोहरायत सोहहीं।** **सोपान सुंदर नीर निर्मल देखि सुर मुनि मोहहीं॥ बहु रंग कंज अनेक खग कूजहिं मधुप गुंजारहीं। आराम रम्य पिकादि खग रव जनु पथिक हंकारहीं॥**
भाष्य

बावलियाँ, तालाब, उपमा से रहित कुएँ बड़े ही सुन्दर तथा बड़े ही विशाल है और ये सुचारु रूप से निर्मित होने के कारण अद्‌भुत शोभा पाते हैं। जलाशयों की सीढि़याँ बड़ी ही सुन्दर हैं और जल बहुत ही निर्मल है, जिसे देखकर मुनियों के मन भी मोहित हो जाते हैं। उनमें बहुरंगे कमल खिले हैं, वहाँ अनेक पक्षी बोलते हैं और भ्रमर गुंजार करते रहते हैं। श्रीअवध के बगीचे बड़े ही रमणीय हैं, उनमें कोयल आदि पक्षियों के कलरव इतने आकर्षक हैं, मानो वे राह चलते पथिकों को भी बुला लेते हैं।

**दो०– रमानाथ जहँ राजा, सो पुर बरनि कि जाइ।** **अनिमादिक सुख संपदा, रहीं अवध सब छाइ॥२९॥**
भाष्य

जहाँ साक्षात्‌ लक्ष्मी की भी लक्ष्मी भगवान्‌ श्रीराम की पराशक्ति श्रीसीता के पति श्रीराम राजा हैं क्या उस पुर का वर्णन किया जा सकता है? अणिमादिक सिद्धियाँ और सभी सुख देनेवाली सम्पत्तियाँ श्रीअवध में छा रही हैं।

**जहँ तहँ नर रघुपति गुन गावहिं। बैठि परसपर इहइ सिखावहिं॥ भजहु प्रनत प्रतिपालक रामहिं। शोभा शील रूप गुन धामहिं॥**
भाष्य

श्रीअयोध्या में जहाँ–तहाँ लोग रघुकुल के स्वामी भगवान्‌ श्रीराम के गुण गाते हैं और बैठकर परस्पर एक–दूसरे को यही शिक्षा देते हैं अर्थात्‌ सभी बू़ढे अपने बालकों को उपदेश करते हुए कहते हैं कि सभी लोग शरणागतों का पालन करने वाले, शोभा, स्वभाव, रूप एवं गुणों के मन्दिरस्वरूप भगवान्‌ श्रीराम का भजन करो।

**जलज बिलोचन श्यामल गातहिं। पलक नयन इव सेवक त्रातहिं॥ धृत शर रुचिर चाप तूनीरहिं। संत कंज बन रबि रनधीरहिं॥**
भाष्य

कमल के समान नेत्रों वाले, श्यामल शरीर वाले और पुतली के पलक की भाँति अपने भक्तों की रक्षा करने वाले, श्रेष्ठ बाण और सुन्दर धनुष–तरकस धारण करने वाले, सन्तरूप कमल वन को विकसित करने के लिए सूर्य के समान, संग्राम में स्थिर रहने वाले भगवान्‌ श्रीराम का भजन करो।

**काल कराल ब्याल खगराजहिं। नमत राम अकाम ममता जहिं॥ लोभ मोह मृगजूथ किरातहिं। मनसिज करि हरि जन सुखदातहिं॥ संशय शोक निबिड़ तम भानुहिं। दनुज गहन घन दहन कृशानुहिं॥ जनकसुता समेत रघुबीरहिं। कस न भजहु भंजन भव भीरहिं॥** [[८७०]]
भाष्य

कालरूप सर्प का भक्षण करने के लिए साक्षात्‌ गरुड़ स्वरूप, कामादि दोषों से रहित, मेरे अर्थात्‌ श्रीअवध के वृद्धजनों के ताजस्वरूप प्रभु श्रीराम को तुम सब नमन करो। लोभ, मोहरूप मृगसमूह के लिए किरात अर्थात्‌ आखेटक स्वरूप, कामरूप हाथी को नय् करने के लिए सिंह के समान, भक्तों को सुख देने वाले, संशय और शोकरूप अन्धकार के लिए सूर्य और दैत्यरूप घने वन को जलाने के लिए अग्नि के समान, भव–भय को नष्ट करने वाले ऐसे श्रीसीता के सहित विराजमान रघुकुल के वीर भगवान्‌ श्रीराम को तुम लोग क्यों नहीं भजते?

**विशेष– **इस सोपान के पच्चीसवें दोहे में लव–कुश का जन्म कहकर तीसवें दोहे की आठवीं पंक्ति में जनकसुता समेत शब्द का प्रयोग करके गोस्वामी जी ने स्पष्ट सिद्ध कर दिया कि श्रीसीता का द्वितीय वनवास कल्पित है। उनकी किसी ने कभी निन्दा नहीं की। लव–कुश का जन्म श्रीअवध के राजभवन में ही हुआ। उनकी कथा वाल्मीकि रामायण में नहीं है, परन्तु वेद से अनुमोदित पुराणों में है। “**लव कुश वेद पुरानन गाये**”। \(मानस, ७.२५.६.\) गोस्वामी जी ने यह नहीं कहा कि लव कुश वाल्मीकि मुनि गाये और इसलिए लव–कुश के जन्म के पश्चात्‌ भी गोस्वामी जी श्रीअवधवासियों के मुख से कहलवाते हैं कि “**जनकसुता समेत रघुवीरहिं**” अर्थात्‌ श्रीसीता के सहित श्रीरघुनाथ का भजन करो।

बहु बासना मशक हिम राशिहिं। सदा एक रस अज अबिनाशिहिं॥ मुनि रंजन भंजन महि भारहिं। तुलसिदास के प्रभुहिं उदारहिं॥

भाष्य

अनेक वासनारूप मच्छरों को नष्ट करने के लिए हिम की राशि (बर्फ के समूह) के समान, निरन्तर एकरस में रहने वाले, अजन्मा, अविनाशी, मुनियों को आनन्दित करने वाले, पृथ्वी का भार नष्ट करने वाले, कवि तुलसीदास के प्रभु, परम उदार भगवान्‌ श्रीसीताराम का भजन करो।

**दो०– एहि बिधि नगर नारि नर, करहिं राम गुन गान।** **सानुकूल सब पर रहहिं, संतत कृपानिधान॥३०॥**
भाष्य

इस प्रकार से श्रीअवधनगर के स्त्री–पुरुष भगवान्‌ श्रीराम के गुणगान करते रहते हैं और कृपा के कोशस्वरूप भगवान्‌ श्रीराम सभी पर निरन्तर सानुकूलता के साथ रहते हैं किसी के प्रति भी प्रतिकूल नहीं रहते।

**जब ते राम प्रताप खगेसा। उदित भयउ अति प्रबल दिनेशा॥ पूरि प्रताप रहेउ तिहुँ लोका। बहुतन सुख बहुतन मन शोका॥**
भाष्य

गरुड़ जी को सावधान करते हुए भुशुण्डि जी कहते हैं कि हे पक्षीराज! जब से श्रीराम प्रतापरूप अत्यन्त प्रबल सूर्यनारायण उदित हुए हैं, तभी से तीनों लोक प्रभु के प्रतापरूप सूर्य के प्रकाश से भर रहे हैं। इससे बहुत लोगों के मन में सुख होता है और बहुत लोगों के मन में शोक होता है।

**जिनहिं शोक ते कहउँ बखानी। प्रथम अबिद्दा निशा नसानी॥ अघ उलूक जहँ तहँा लुकाने। काम क्रोध कैरव सकुचाने॥ बिबिध कर्म गुन काल सुभाऊ। ए चकोर सुख लहहिं न काऊ॥ मत्सर मान मोह मद चोरा। इन कर हुनर न कवनिहुँ ओरा॥**
भाष्य

प्रभु के प्रतापरूप सूर्य से जिन्हें शोक है, उनका व्याख्यान करके कहता हूँ। सर्वप्रथम अविद्दारूप रात्रि नष्ट हो गई, पापरूप उल्लू जहाँ–तहाँ छिप गये। काम, क्रोध और कुमुद संकुचित हो गये। प्रभु के प्रतापरूप

[[८७१]]

सूर्यनारायण के उदित होने पर अनेक कर्म, तीनों गुण, काल, स्वभाव ये सब चकोर कहीं भी सुख नहीं प्राप्त कर रहे हैं। मत्सर, मान, मोह, मद आदि जो चोर हैं इनका किसी भी ओर हुनर अर्थात्‌ कौशल नहीं दिख रहा है।

धरम तड़ाग ग्यान बिग्याना। ए पंकज बिकसे बिधि नाना॥ सुख संतोष बिराग बिबेका। बिगत शोक ए कोक अनेका॥

भाष्य

धर्मरूप सरोवर में ज्ञान और विज्ञानरूप ये नाना विधि के कमल विकसित हो रहे हैं। सुख, सन्तोष, वैराग्य और विवेकरूप ये अनेक चकवे शोक से रहित हो गये।

**दो०– यह प्रताप रबि जाके, उर जब करइ प्रकाश।** **पछिले बा़ढहि प्रथम जे, कहे ते पावहिं नाश॥३१॥**
भाष्य

यह श्रीराम प्रतापरूप सूर्य जब भी जिसके हृदय में प्रकाश करता है, तब पीछे अर्थात्‌ सातवीं पंक्ति से कहे हुये सद्‌गुण ब़ढ जाते हैं और इसके पूर्व जो तीसरी पंक्ति से छठी तक अविद्दा, पाप, काम, क्रोध, मत्सर, कर्म, गुण, काल, स्वभाव, मान, मोह, मद कहे गए हैं, उनका नाश हो जाता है।

**भ्रातन सहित राम एक बारा। संग परम प्रिय पवनकुमारा॥ सुंदर उपवन देखन गए। सब तरु कुसुमित पल्लव नए॥**
भाष्य

एक बार भगवान्‌ श्रीराम भ्राताओं (श्रीभरत, लक्ष्मण एवं शत्रुघ्न जी) के साथ तथा परमप्रिय पवनपुत्र हनुमान जी को भी साथ लेकर सुन्दर उपवन देखने के लिए गये, जिसमें सभी वृक्ष पुष्प से युक्त थे और उनमें नवीन–नवीन पल्लव आये हुए थे।

**जानि समय सनकादिक आए। तेज पुंज गुन शील सुहाए॥** **ब्रह्मानंद सदा लयलीना। देखत बालक बहुकालीना॥**

रूप धरे जनु चारिउ बेदा। समदरशी मुनि बिगत बिभेदा॥ आशा बसन ब्यसन यह तिनहीं। रघुपति चरित होइ तहँ सुनहीं॥

भाष्य

उचित अवसर जानकर वहाँ सनकादि अर्थात्‌ सनक, सनन्दन, सनातन, सनत्‌कुमार जी आ गये जो तेज के पुंज थे तथा गुणों और शील से सुहावने प्रतीत हो रहे थे, वे ब्रह्मानन्द में तन्मय रहते हैं, देखने में बालक लगते हैं, वस्तुत: बहुत काल के हैं, अर्थात्‌ कल्प के प्रारम्भ में शिव जी से भी प्रथम ब्रह्मा जी के मन:संकल्प से उनका जन्म हुआ है, मानो चारों वेद ने ही चार रूप धारण कर लिए हैं। वे मननशील, समदर्शी और भेद से रहित हैं अर्थात्‌ सब में ब्रह्मदर्शन करते हैं और सबको आत्मतत्त्व ज्ञान से सम्पन्न देखते हैं। समस्त संसार को भगवान्‌ का शरीर मानते हैं। चारों दिशायें ही उनके वस्त्र हैं और उन्हें एकमात्र यही व्यसन है कि जहाँ भगवान्‌ श्रीराम का चरित्र होता है, वहाँ जा के सुनते हैं।

**तहाँ रहे सनकादि भवानी। जहँ घट संभव मुनिवर ग्यानी॥ राम कथा मुनिवर बहु बरनी। ग्यान जोनि पावक जिमि अरनी॥**
भाष्य

शिव जी पार्वती जी को सम्बोधित करते हुए कहते हैं कि हे भवानी! सनकादि श्रीराम के उपवन प्रवेश के समय वहाँ थे जहाँ घड़े से उत्पन्न होनेवाले मुनिश्रेष्ठ ज्ञानी अगस्त्य जी विराजमान थे। अगस्त्य जी ने उस श्रीरामकथा का सनकादि के समक्ष विस्तार से वर्णन किया, जो उसी प्रकार ज्ञान को जन्म देती है, जैसे अरणी लक़डी अग्नि को उत्पन्न कर देती है।

[[८७२]]

**दो०– देखि राम मुनि आवत, हरषि दंडवत कीन्ह।**

स्वागत पूँछि पीत पट, प्रभु बैठन कहँ दीन्ह॥३२॥

भाष्य

भगवान्‌ श्रीराम ने सनकादि मुनियों को आते देखकर प्रसन्न होकर दण्डवत्‌ प्रणाम किया और उनसे स्वागत पूछकर अर्थात्‌ आप ठीक से तो पधारे, मार्ग में कोई कष्ट तो नहीं हुआ? इस प्रकार प्रश्न करके प्रभु श्रीराम ने उन्हें बैठने के लिए आसन रूप में अपना पीताम्बर उत्तरीय ही दे दिया।

**कीन्ह दंडवत तीनिउँ भाई। सहित पवनसुत सुख अधिकाई॥ मुनि रघुपति छबि अतुल बिलोकी। भए मगन मन सके न रोकी॥ श्यामल गात सरोरुह लोचन। सुंदरता मंदिर भव मोचन॥ एकटक रहे निमेष न लावहिं। प्रभु कर जोरे शीष नवावहिं॥**
भाष्य

पवनपुत्र हनुमान जी के साथ अत्यन्त सुखपूर्वक तीनों भ्राता, श्रीभरत, लक्ष्मण एवं शत्रुघ्न जी ने सनकादि को दण्डवत्‌ किया। भगवान्‌ श्रीराम की अतुलनीय छवि देखकर मुनि मग्न हो गये, वे अपने मन को नहीं रोक सके। श्यामल शरीर, कमल जैसे नेत्र, स्वयं सुन्दरता के श्रेष्ठ भवन, भव–भय को नष्ट करने वाले प्रभु को देखते हुए मुनि एकटक रह गये अर्थात्‌ टकटकी लगाकर प्रभु के देखते रह गये। वे अपनी पलकें नहीं बन्द कर रहे हैं और प्रभु श्रीराम हाथ जोड़े हुए महर्षियों को सिर नवा रहे हैं।

**तिन की दशा देखि रघुबीरा। स्रवत नयन जल पुलक शरीरा॥ कर गहि प्रभु मुनिवर बैठारे। परम मनोहर बचन उचारे॥**
भाष्य

रघुकुल के वीर सर्वसमर्थ भगवान्‌ श्रीराम ने नेत्रों से अश्रुपात करते हुए, रोमांचित शरीर वाले उन चारों मुनिवरों की दशा देखकर हाथ पक़डकर मुनिश्रेष्ठों को अपने पीताम्बर के आसन पर बिठाया तथा मन को हरने वाले वचन बोले–

**आजु धन्य मैं सुनहु मुनीशा। तुम्हरे दरस जाहिं अघ खीशा॥ बड़े भाग पाइय सतसंगा। बिनहिं प्रयास होहिं भव भंगा॥** **दो०– संतसंग अपवर्ग कर, कामी भव कर पंथ।**

कहहिं संत कबि कोबिद, श्रुति पुरान सदग्रंथ॥३३॥

भाष्य

हे मुनीश्वरों! सुनिये, आज मैं (राम) अत्यन्त धन्य हो गया हूँ। आप लोगों के दर्शनों से प्राणिमात्र के पाप नष्ट हो जाते हैं, व्यक्ति को बड़े भाग्य से सत्संग प्राप्त होता है और बिना प्रयास के संसारभाव नष्ट हो जाते हैं। अथवा, प्रयास के बिना ही जन्मों का क्रम नय् हो जाता है। सन्तों का संग अपवर्ग अर्थात्‌ मोक्ष का कारण है और कामी संसार के मार्ग का निर्माण करता है अर्थात्‌ जन्म–मरण के चक्कर में डालता है। यह सिद्धान्त सन्त, मनीषी, वेदज्ञ, वेद, पुराण और अन्य वेद से सम्मत श्रेष्ठ ग्रन्थ कहते हैं।

विशेष

“नास्ति पवर्ग: यस्मिन्‌ स अपवर्ग:**” जहाँ पवर्ग अर्थात्‌ प, फ, ब, भ, म इन पाँच अक्षरों से प्रारम्भ होने वाले प (पाप-पुण्य), फ (कर्म के फल), ब (कर्म के बन्धन) भ (भवमय) म (मरणं) नहीं होते उसी मोक्ष को संस्कृत में अपवर्ग कहते हैं।

सुनि प्रभु बचन हरषि मुनि चारी। पुलकित तनु अस्तुति अनुसारी॥ जय भगवंत अनंत अनामय। अनघ अनेक एक करुनामय॥
[[८७३]]

जय निर्गुन जय जय गुन सागर। सुख मंदिर सुंदर अति नागर॥ जय इंदिरा रमन जय भूधर। अनुपम अज अनादि शोभाकर॥

भाष्य

प्रभु के वचन सुनकर चारों मुनि सनक, सनन्दन, सनातन सनत्कुमार प्रसन्न हो गये और उनका शरीर पुलकित हो गया, वे भगवान्‌ श्रीराम की स्तुति करने लगे, “हे भगवान्‌ अर्थात्‌ ऐश्वर्यादि छहों माहात्म्यों से सम्पन्न! हे अनन्त अर्थात्‌ अन्तरहित! हे अनामय अर्थात्‌ आमय यानी संसार के रोगों से रहित! हे निष्पाप! हे अनेक जीवात्माओं के साथ अन्तर्यामी बनकर अनेक रूप में विद्दमान! हे एक अर्थात्‌ अद्वितीय! हे करुणामय अर्थात्‌ करुणा की प्रचुरता से युक्त प्रभु श्रीराम! आपकी जय हो। हे प्राकृतगुणों से रहित और मायिकगुणों का निषेध करने वाले, सम्पूर्ण गुणों को अपने में लीन किये हुए परमेश्वर! आपकी जय हो। हे सभी कल्याण गुणगणों के समुद्र! आपकी जय हो। हे सुख के मन्दिर, स्वभावत: सुन्दर, अत्यन्त चतुर परमात्मा! आपकी जय हो। हे ‘इंदि’ अर्थात्‌ लक्ष्मी जी को ‘रा’ अर्थात्‌ प्रकट करने वाली इंदिरा श्रीसीता के रमण! आपकी जय हो। हे वराह रूप में पृथ्वी को धारण करने वाले! आपकी जय हो। हे उपमारहित! हे अजन्मा तथा ‘अ’ अर्थात्‌ विष्णु जी को भी ‘ज’ अर्थात्‌ जन्म देने वाले! आपकी जय हो। हे आदिरहित, शोभा की खानि! आपकी जय हो।

**विशेष– ***इन्दिं** लक्ष्मीं राति आविर्भावयति इति इन्दिरा सीता।*

ग्यान निधान अमान मानप्रद। पावन सुजस पुरान बेद बद॥ तग्य कृतग्य अग्यता भंजन। नाम अनेक अनाम निरंजन॥ सर्ब सर्बगत सर्ब उरालय। बससि सदा हम कहँ परिपालय॥ द्वंद्व बिपति भव फंद बिभंजय। हृदि बसि राम काम मद गंजय॥

भाष्य

हे ज्ञान के कोश! हे मानरहित, सबको मान अर्थात्‌ पूजा देने वाले प्रभु श्रीराम! आपका पावन सुयश पुराण और वेद कहते हैं। हे तत्त्वों को जानने वाले! हे सबके कृतों अर्थात्‌ कर्मों को जानने वाले कृतज्ञ! अज्ञान को नष्ट करने वाले! हे अनेक नामों वाले और हे संसार के नाम रूपों से रहित! हे कर्मफल के लेपरूप अन्जन से रहित! हे सर्वस्वरूप! हे सर्वव्यापी! भगवान्‌ श्रीराम! आप सभी के हृदय रूप भवनों में निवास करते हैं, इसलिए आप हम सबका चारों ओर से पालन कीजिये। हे श्रीराम! हमारे द्वन्द्वों की विपत्तियों और भव के बन्धन का नष्ट कीजिये और हमारे हृदय में निवास करके काम और मद को समाप्त कर दीजिये।

**दो०– परमानंद कृपायतन, मन परिपूरन काम।** **प्रेम भगति अनपायनी, देहु हमहिं श्रीराम॥३४॥**
भाष्य

हे परमानन्द और कृपा के श्रेष्ठ भवन! हे मन की कामनाओं को पूर्ण करने वाले! हे भगवान्‌ श्रीराम! हमको आप अनपायनी प्रेमाभक्ति दें।

**देहु भगति रघुपति अति पावनि। त्रिबिध ताप भव दाप नसावनि॥ प्रनत काम सुरधेनु कलपतरु। होइ प्रसन्न दीजै प्रभु यह बरु॥**
भाष्य

हे रघुवंश के नाथ! मुझे अत्यन्त पवित्र तीनों दु:खों और संसार के गर्वों को नष्ट करने वाली अपनी भक्ति दीजिये। प्रणतों की कामनाओं के लिए कामधेनु और कल्पवृक्ष, सर्वसमर्थ प्रभु! हमें प्रसन्न होकर यह वरदान दीजिये।

**भव बारिधि कुंभज रघुनायक। सेवत सुलभ सकल सुख दायक॥** **मन संभव दारुन दुख दारय। दीनबंधु समता बिस्तारय॥**

[[८७४]]

भाष्य

हे भवसागर को सोखने के लिए अगस्त्य जी! हे रघुकुल के नायक, सेवा करने वालों के लिए सुलभ और सम्पूर्ण सुख देने वाले! हे दीनों के बन्धु! आप मन से उत्पन्न होने वाले भयंकर दु:खों को नष्ट कर दीजिये और समता का विस्तार कीजिये।

**आस त्रास इरिषादि निवारक। बिनय बिबेक बिरति बिस्तारक॥ भूप मौलि मनि मंडन धरनी। देहि भगति संसृति सरि तरनी॥**
भाष्य

हे आशा, भय और ईर्ष्या आदि विकारों को नष्ट करने वाले! विराग, विवेक और विनय का विस्तार करने वाले! हे पृथ्वी के आभूषण और हे राजाओं के मुकुटमणि राजाधिराज भगवान्‌ श्रीराम! हमें संसार सागर की नौकारूप भक्ति दे दीजिये।

**मुनि मन मानस हंस निरंतर। चरन कमल बंदित अज शङ्कर॥ रघुकुल केतु सेतु श्रुति रक्षक। काल करम सुभाव गुन भक्षक॥ तारन तरन हरन सब दूषन। तुलसिदास प्रभु त्रिभुवन भूषन॥**
भाष्य

हे मुनियों के मनरूप मानस सरोवर के निरन्तर राजहंस और हे ब्रह्मा जी और शिव जी द्वारा पूजित श्रीचरणकमल! हे रघुकुल के केतु! हे वैदिक सेतु के रक्षक! हे काल, कर्म, स्वभाव और गुण को भक्षण करने वाले! हे संसार सागर को तारने के लिए नौका के समान! हे सम्पूर्ण दोषों को हरनेवाले! हे तीनों लोकों के आभूषण तुलसीदास के प्रभु! आप हमें अपनी भक्ति दीजिये।

**दो०– बार बार अस्तुति करि, प्रेम सहित सिर नाइ।** **ब्रह्म भवन सनकादि गे, अति अभीष्ट बर पाइ॥३५॥**
भाष्य

बार–बार स्तुति करके प्रेमपूर्वक प्रभु को प्रणाम करके, अत्यन्त अभीष्ट वरदान पाकर सनकादि ब्रह्मलोक को चले गये।

**सनकादिक बिधि लोक सिधाए। भ्रातन राम चरन सिर नाए॥ पूँछत प्रभुहिं सकल सकुचाहीं। चितवहिं सब मारुतसुत पाहीं॥ सुनी चहहिं प्रभु मुख कै बानी। जो सुनि होइ सकल भ्रम हानी॥ अंतरजामी प्रभु सब जाना। बूझत कहहु काह हनुमाना॥**
भाष्य

सनकादि ब्रह्मा जी के लोक चले गये और भरत जी आदि भ्राताओं ने भगवान्‌ श्रीराम के श्रीचरणों में मस्तक नवाये। प्रभु से पूछने में सभी संकोच कर रहे हैं और सब हनुमान जी की ओर देख रहे हैं। सभी प्रभु के मुख की वाणी सुनना चाहते हैं, जो सुनकर समस्त भ्रमों की हानि हो जाती है अर्थात्‌ सभी भ्रम नष्ट हो जाते हैं। सर्वान्तर्यामी प्रभु श्रीराम ने सब कुछ जान लिया और बोले, हे हनुमान! बोलो, क्या पूछना चाहते हो? अथवा, तुममें से कौन क्या पूछना चाहता है?

**जोरि पानि कह तब हनुमंता। सुनहु दीनदयालु भगवंता॥** **नाथ भरत कछु पूँछन चहहीं। प्रश्न करत मन सकुचत अहहीं॥**
भाष्य

तब हाथ जोड़कर हनुमान जी महाराज ने कहा, हे दीनों पर दया करने वाले भगवान्‌ श्रीराघव! सुनिये, हे नाथ! भरत जी आपसे कुछ पूछना चाहते हैं, परन्तु प्रश्न करने में मन में संकुचित हो रहे हैं।

**तुम जानहु कपि मोर सुभाऊ। भरतहिं मोहि कछु अंतर काऊ॥ सुनि प्रभु बचन भरत गहे चरना। सुनहु नाथ प्रनतारति हरना॥** [[८७५]]
भाष्य

तब श्रीरघुनाथ ने कहा, हे वानरश्रेष्ठ हनुमान जी! तुम तो मेरा स्वभाव जानते हो। क्या कभी भरत और मेरे बीच कुछ अन्तर रहा है? अर्थात्‌ उन्हें मुझसे कोई संकोच नहीं करना चाहिये। प्रभु का वचन सुनकर भरत जी ने श्रीरघुनाथ के श्रीचरण पक़ड लिए और बोले, हे नाथ! हे प्रणतजनों की आर्ति अर्थात्‌ दु:खजनित विकलता को नष्ट करने वाले प्रभु! सुनिये–

**दो०– नाथ न मोहि संदेह कछु, सपनेहुँ शोक न मोह।** **केवल कृपा तुम्हारिहिं, चिदानंद संदोह॥३६॥**
भाष्य

हे नाथ! हे चित्‌ और आनन्द के सन्दोह अर्थात्‌ घन! केवल आपकी कृपा से ही मुझे स्वप्न में भी न सन्देह है और न ही शोक तथा मोह है।

**करउँ कृपानिधि एक ढिठाई। मैं सेवक तुम जन सुखदाई॥ संतन कै महिमा रघुराई। बहु बिधि बेद पुराननि गाई॥ श्रीमुख तुम पुनि कीन्हि बड़ाई। तिन पर प्रभुहि प्रीति अधिकाई॥ सुना चहउँ प्रभु तिन कर लच्छन। कृपासिंधु गुन ग्यान बिचच्छन॥ संत असंत भेद बिलगाई। प्रनतपाल मोहि कहहु बुझाई॥**
भाष्य

हे कृपानिधि! फिर भी एक धृष्टता कर रहा हूँ, मैं सेवक हूँ और आप सेवकों के सुखदाता हैं। हे रघुकुल के राजा प्रभु! सन्तों की महिमा वेद–पुराणों ने बहुत प्रकार से गायी है। हे श्रीमुख! आपने भी उनकी बहुत बड़ाई की है, क्योंकि, उन पर आपको बहुत प्रेम है। हे कृपा के सागर! हे सभी गुणों की ज्ञान में कुशल श्री रघुनाथ जी! मैं उन सन्तों के लक्षण सुनना चाहता हूँ। हे प्रणतपाल! मुझे सन्त और असन्त का भेद अलग–अलग करके समझाकर कहिये।

**संतन के लच्छन सुनु भ्राता। अगनित श्रुति पुरान बिख्याता॥ संत असंतन कै असि करनी। जिमि कुठार चंदन आचरनी॥ काटइ परशु मलय सुनु भाई। निज गुन देइ सुगंध बसाई॥** **दो०– ताते सुर शीषनि च़ढत, जग बल्लभ श्रीखंड।**

अनल दाहि पीटत घनहिं, परशु बदन यह दंड॥३७॥

भाष्य

भगवान्‌ श्रीराम बोले, हे भ्राता! सुनो, सन्तों के अगणित लक्षण सभी वेदों एवं पुराणों में विख्यात हैं। सन्तों और असन्तों की उसी प्रकार की कृति होती है, जैसे चन्दन और कुल्हाड़ी का आचरण होता है अर्थात्‌ सन्त चन्दन के समान होते हैं और असन्त कुल्हाड़ी के समान होते हैं। हे भैया भरत! सुनिये, परशु अर्थात्‌ कुल्हाड़ी चन्दन को काट देती है, परन्तु उसकी प्रतिक्रिया में चन्दन अपने सुगन्ध गुण से अपने को काटने वाली कुल्हाड़ी को भी सुगन्धित कर देता है। इसलिए सारे संसार को प्रिय श्री जी के खण्ड के समान यह चन्दन देवताओं के सिर पर च़ढता है और कुल्हाड़ी के मुख को अग्नि में जलाकर घन से पीटा जाता है यही उसका दण्ड है अर्थात्‌ जैसे चन्दन का प्रारम्भिक जीवन कष्टमय, परन्तु परिणाम मंगलमय होता है, उसी प्रकार सन्तों का प्रारम्भिक जीवन संघर्षमय और परिणाम हर्षमय होता है। इधर दुष्ट प्रारम्भ में सुखी होता है और अन्त में दु:ख पाता है।

**बिषय अलंपट शील गुनाकर। पर दुख दुख सुख सुख देखे पर॥ सम अभूतरिपु बिमद बिरागी। लोभामरष हरष भय त्यागी॥ कोमलचित दीनन पर दाया। मन बच क्रम मम भगति अमाया॥ सबहिं मानप्रद आपु अमानी। भरत प्रान सम मम ते प्रानी॥** [[८७६]]
भाष्य

जो विषयों के लम्पट नहीं होते अर्थात्‌ विषयभोगों में जो निस्पृह रहते हैं, जो शील और गुणों की खानि होते हैं। जिन्हें दूसरों के दु:ख में दु:ख और दूसरों का सुख देखकर सुख होता है, वे सर्वत्र समभाव रखते हैं। जो किसी भी प्राणी के शत्रु नहीं हैं अथवा कोई प्राणी जिनका शत्रु नहीं है, जो मदहीन और राग से रहित होते हैं, जो लोभ, क्रोध, हर्ष और भय का त्याग कर चुके हैं, जिनका चित्त कोमल होता है और जो दीनों पर दया करते हैं, जिनमें मन, वाणी, शरीर से कपटरहित मेरी भक्ति होती है, जो सभी को सम्मान देते हैं और स्वयं सम्मान की अपेक्षा नहीं रखते, हे भरत! वे चौदह प्रकार के प्राणी मुझे प्राण के समान प्रिय होते हैं।

**बिगत काम मम नाम परायन। शांति बिरति बिनती मुदितायन॥** **शीतलता सरलता मयित्री। द्विज पद प्रीति धर्म जनयित्री॥**

ए सब लच्छन बसहिं जासु उर। जानेहु तात संत संतत फुर॥
शम दम नियम नीति नहिं डोलहिं। परुष बचन कबहूँ नहिं बोलहिं॥

दो०– निंदा अस्तुति उभय सम, ममता मम पद कंज।
ते सज्जन मम प्रानप्रिय, गुन मंदिर सुख पुंज॥३८॥

भाष्य

जो संसार की कामनाओं से रहित और मेरे श्रीरामनाम के उपासक होते हैं, जो शान्ति, वैराग्य, विनम्रता तथा मेरे भजन से उत्पन्न प्रसन्नता के निवास स्थान बन जाते हैं, शीतलता, सरलता, मित्रता, धर्म को उत्पन्न करने वाली ब्राह्मण चरणों में प्रीति ये सब लक्षण जिसके हृदय में निवास करते हैं, हे तात! उसी को निरन्तर सत्य सन्त जानो। जो शम अर्थात्‌ मन का शमन, दम अर्थात्‌ इन्द्रियों का दमन तथा तप, शौच, सन्तोष, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान रूप नियमों से कभी नहीं डिगते और कभी भी कठोर वचन नहीं बोलते हैं। जिनके लिए निन्दा और स्तुति दोनों ही समान होते हैं और जिन्हें मेरे श्रीचरणकमलों में ही ममता होती है, ऐसे श्रेष्ठ गुणों के मन्दिर और मेरे भजन सुख के पुञ्जस्वरूप वे सज्जन मुझे प्राण के समान प्रिय होते हैं।

**सुनहु असंतन केर सुभाऊ। भूलेहुँ संगति करिय न काऊ॥ तिन कर संग सदा दुखदाई। जिमि कपिलहिं घालइ हरहाई॥ खलन हृदय अति ताप बिशेषी। जरहिं सदा पर संपति देखी॥ जहँ कहुँ निंदा सुनहिं पराई। हरषहिं मनहुँ परी निधि पाई॥**
भाष्य

हे भरत! अब असन्तों अर्थात्‌ दुष्टों का स्वभाव सुनो। भूल में भी कभी इनकी संगति नहीं करनी चाहिये। इन दुष्टों का संग उसी प्रकार दु:ख देता है जैसे कपिला अर्थात्‌ सीधी गाय को हरहाई अर्थात्‌ दुष्ट गाय नष्ट कर देती है। दुष्टों के हृदय में अत्यन्त विशिष्ट ताप होता है अर्थात्‌ उनके हृदय में ईर्ष्या की आग दहकती रहती है। वे सदैव दूसरों की सम्पत्ति देखकर जलते हैं। अत: जहाँ कहीं दुष्ट लोग दूसरों की निन्दा सुनते हैं, तब वे इतने प्रसन्न होते हैं, मानो उन्होंने पड़ी हुई निधि पा ली हो।

**काम क्रोध मद लोभ परायन। निर्दय कपटी कुटिल मलायन॥ बैर अकारन सब काहू सों। जो कर हित अनहित ताहू सों॥**
भाष्य

वे काम, क्रोध, मद, लोभ के ही उपासक होते हैं। वे दयारहित, कपटी, कुटिल और मलों के भवन होते हैं। दुष्ट बिना कारण सभी से वैर करते हैं, जो हित करता है उससे भी और जो अहित करते हैं उससे भी। अथवा, दुष्ट लोग जो हित करता है उसके साथ भी अहित करते हैं अर्थात्‌ कृतज्ञ होते ही नहीं।

[[८७७]]

**झूठइ लेना झूठइ देना। झूठइ भोजन झूठ चबेना॥**

बोलहिं मधुर बचन जिमि मोरा। खाइ महा अहि हृदय कठोरा॥

भाष्य

दुष्ट लोगों का लेना भी झूठा, देना भी झूठा, भोजन भी झूठा और चबेना भी झूठा अर्थात्‌ दुष्ट प्रत्येक व्यवहार में झूठ ही बोलते हैं। तात्पर्य यह है कि झूठ बोलकर लेन–देन करते हैं। भोजन और चबेने में भी झूठ बोलते हैं अर्थात्‌ झूठ बोलकर संगृहीत धन से अपनी जीविका चलाते हैं। वे मोर के समान मधुर वचन बोलते हैं, जो बोलता तो बहुत मीठा है, पर इतने कठोर हृदय का होता है कि विषैले सर्प को भी खा जाता है, उसी प्रकार दुष्टगण मीठा–मीठा बोलकर भयंकर हानि पहुँचा देते हैं।

**दो०– पर द्रोही पर दार रत, पर धन पर अपबाद।** **ते नर पामर पापमय, देह धरे मनुजाद॥३९॥**
भाष्य

जो दूसरों का द्रोह करते हैं, दूसरों की पत्नी पर प्रेम करते हैं, दूसरों के धन को अपना धन मानते हैं और दूसरों की निन्दा करते रहते हैं। वे मनुष्य का शरीर धारण करके नीच, पापी और नरभक्षी राक्षस ही होते हैं अर्थात्‌ जो कर्म से परद्रोही हैं, मन से परपत्नी और पराये धन में आसक्त रहते हैं और वचन से परनिन्दा करते हैं, वे मनुष्य शरीर धारण करने पर भी परद्रोह के कारण पामर, परपत्नी और पराये धन में प्रेम करने के कारण पापी और परापवाद के कारण नरभक्षी राक्षस के समान होते हैं।

**लोभइ ओ़ढन लोभइ डासन। शिश्नोदर पर जमपुर त्रास न॥ काहू की जौ सुनहिं बड़ाई। साँस लेहिं जनु जूड़ी आई॥**
भाष्य

उनका लोभ ही ओ़ढना और लोभ ही बिस्तर होता है। वे शिश्न और पेट की तृप्ति में ही लगे रहते हैं। उन्हें यमपुर का भय भी नहीं लगता। यदि किसी की प्रशंसा सुन लेते हैं, तो ऐसे श्वास लेते हैं, मानो ठंड लगकर ज्वर आ गया हो।

**जब काहू कै देखहिं बिपती। सुखी भए मानहुँ जग नृपती॥ स्वारथ रत परिवार बिरोधी। लंपट काम लोभ अति क्रोधी॥**
भाष्य

जब किसी की विपत्ति देखते हैं तो इतने सुखी होते हैं, मानो संसार के राजा हो गये। वे अपने स्वार्थ में तत्पर, परिवार के विरोधी, अनेक स्त्रियों के प्रति आसक्त, काम और लोभ में अनुरक्त तथा अत्यन्त क्रोधी होते हैं।

**मातु पिता गुरु बिप्र न मानहिं। आपु गए अरु घालहिं आनहिं॥ करहिं मोह बश द्रोह परावा। संत संग हरि कथा न भावा॥**
भाष्य

दुष्ट लोग माता–पिता, गुरु, ब्राह्मण को नहीं मानते हैं, स्वयं तो नष्ट ही हो गये अपने साथ दूसरों को भी नष्ट कर देते हैं। मोह के कारण दूसरों का द्रोह करते हैं, उन्हें सन्तों का संग और भगवत्‌कथा कभी नहीं अच्छी लगती।

**अवगुन सिंधु मंदमति कामी। बेद बिदूषक परधन स्वामी॥ बिप्र द्रोह पर द्रोह बिशेषा। दंभ कपट जिय धरे सुबेषा॥**
भाष्य

जो अवगुणों के सागर, मन्दबुद्धि वाले और निरन्तर निन्दित काम से युक्त रहते हैं, जो वेदों की हँसी उड़ाने वाले और दूसरों के धन के स्वामी होते हैं, उनमें विशेषकर ब्राह्मणद्रोह और परद्रोह होता है, हृदय में तो होता है दम्भ तथा कपट, और धारण किये रहते हैं, सुन्दर वेश।

[[८७८]]

**दो०– ऐसे अधम मनुज खल, कृतजुग त्रेता नाहिं।**

द्वापर कछुक बृंद बहु, होइहैं कलिजुग माहिं॥४०॥

भाष्य

हे भैया भरत! ऐसे खलप्रकृति वाले नीच मनुष्य कृतयुग और त्रेता में तो जन्म लेते ही नहीं। द्वापर में कुछ होंगे, परन्तु कलयुग में इनके बहुत से समूह उत्पन्न होंगे।

**विशेष– **यहाँ खलप्रकृति वाले अधम मनुष्यों की चर्चा है, अत: रावण आदि सम्बन्ध में यह नियम प्रभावी नहीं हुआ।

पर हित सरिस धर्म नहिं भाई। पर पीड़ा सम नहिं अधमाई॥ निर्नय सकल पुरान बेद कर। कहेउँ तात जानहिं कोबिद नर॥

भाष्य

हे भाई! दूसरों का हित करने के समान कोई धर्म नहीं है और दूसरों को पीड़ा पहुँचाने के समान कोई अधर्म नहीं है। हे तात! यह मैंने सम्पूर्ण वेदों और पुराणों का निर्णय कहा, इसे वेदों को जानने वाले मनुष्य ही जानते हैं।

**विशेष– “*अष्टादश** पुराणेषु व्यासस्य वचनद्वयम्‌। *परोपकार पुण्याय पापाय परपीडनम्‌॥**”

नर शरीर धरि जे पर पीरा। करहिं ते सहहिं महा भव भीरा॥ करहिं मोह बश नर अघ नाना। स्वारथ रत परलोक नसाना॥

भाष्य

जो लोग मनुष्य का शरीर धारण करके दूसरों को पीड़ा पहुँचाते हैं, वे संसार में बहुत भयंकर विपत्ति सहते हैं। मनुष्य मोह के कारण स्वार्थरत होकर अनेक पाप करता है और इससे उसका परलोक भी नष्ट हो जाता है।

**कालरूप तिन कहँ मैं भ्राता। शुभ अरु अशुभ कर्म फल दाता॥ अस बिचारि जे परम सयाने। भजहिं मोहि संसृति दुख जाने॥**
भाष्य

हे भैया भरत! शुभ और अशुभ सम्पूर्ण फलों को देने वाला मैं परमेश्वर श्रीराम दूसरों को पीड़ा पहुँचाने वालों के लिए कालरूप हो जाता हूँ। ऐसा विचार करके जो परमचतुर लोग हैं, वे संसार का दु:ख समझकर मुझे ही भजते हैं।

**त्यागहिं कर्म शुभाशुभ दायक। भजहिं मोहि सुर नर मुनि नायक॥ संत असंतन के गुन भाषे। ते न परहिं भव जिन लखि राखे॥**
भाष्य

वे शुभ–अशुभ फल देने वाले कर्मों को छोड़ देते हैं अर्थात्‌ मुझे समर्पित कर देते हैं और देवता, मनुष्य और मुनियों के स्वामी मुझ परमात्मा राम का ही भजन करते हैं। मैंने सन्तों और असन्तों के गुण अर्थात्‌ लक्षण कहे, जो सूक्ष्मता से देखकर इसको हृदय में रख लेते हैं, वे भवसागर में नहीं पड़ते।

**दो०– सुनहु तात माया कृत, गुन अरु दोष अनेक।** **गुन यह उभय न देखियहिं, देखिय सो अबिबेक॥४१॥**
भाष्य

हे तात! सुनो, जीवों के अनेक गुण और दोष माया द्वारा ही किये हुए होते हैं। गुण अर्थात्‌ विवेक यही है कि दोनों संसार के गुण और दोष न देखे जायें, इनका देखना ही सबसे बड़ा अविवेक है अर्थात्‌ संसार के गुण और दोष यथार्थ नहीं हैं, अत: इन्हें न देखकर, अपने दोष देखने चाहिये और मुझ प्रभु राम के गुण देखने चाहिये।

**श्रीमुख बचन सुनत सब भाई। हरषे प्रेम न हृदय समाई॥ करहिं बिनय अति बारहिं बारा। हनूमान हिय हरष अपारा॥** [[८७९]]
भाष्य

श्रीमुख के वचन सुनकर सभी अर्थात्‌ श्रीभरत, लक्ष्मण एवं शत्रुघ्न जी ये तीनों भाई बड़े प्रसन्न हुए। उनके हृदय में प्रीति नहीं समा रही थी। सब लोग बारम्बार अत्यन्त विनय कर रहे थे। हनुमान जी महाराज के मन में अपार हर्ष था।

**पुनि रघुपति निज मंदिर गए। एहि बिधि चरित करत नित नए॥ बार बार नारद मुनि आवहिं। चरित पुनीत राम के गावहिं॥ नित नव चरित देखि मुनि जाहीं। ब्रह्मलोक सब कथा कहाहीं॥ सुनि बिरंचि अतिशय सुख मानहिं। पुनि पुनि तात करहु गुन गानहिं॥** **सनकादिक नारदहिं सराहहिं। जद्दपि ब्रह्म निरत मुनि आहहिं॥**

सुनि गुन गान समाधि बिसारी। सादर सुनहिं परम अधिकारी॥

दो०– जीवनमुकुतहुँ ब्रह्मपर, चरित सुनहि तजि ध्यान।

जे न करहिं रति हरिकथा, तिन के हिय पाषान॥४२॥

भाष्य

फिर भगवान्‌ श्रीराम अपने भवन को पधार गये। इस प्रकार प्रभु नित्य–नवीन चरित्र करते रहते हैं। नारद मुनि बार–बार श्रीअयोध्या आते हैं और भगवान्‌ श्रीराम के पवित्र चरित्र गाते हैं। देवर्षि नारद जी श्रीअयोध्या में प्रभु श्रीराम द्वारा किये जा रहे नवीन–नवीन चरित्रों को देखकर निरन्तर ब्रह्मलोक जाते हैं और ब्रह्मा जी की सभा में उन्हीं नवीन चरित्रों की कथा कहते हैं। उन्हें सुनकर ब्रह्मा जी अत्यन्त सुख का अनुभव करते हैं एवं बार–बार कहते हैं, हे नारद! भगवान्‌ के गुणगान करो अर्थात्‌ प्रभु के नये–नये चरित्र सुनाओ। सनक, सनन्दन, सनातन, सनत्कुमार, नारद जी की सराहना करते हैं, यद्दपि वे स्वयं ब्रह्म में निरत रहते हैं। भगवान्‌ के गुणगान सुनकर समाधि को भुलाकर परमअधिकारीजन आदरपूर्वक कथा सुनते हैं। जीवन मुक्त, ब्रह्म के परायण महापुरुष भी परमात्मा का ध्यान छोड़कर प्रभु के दिव्य चरित्र सुनते हैं। जो लोग भगवान्‌ की कथा में प्रेम नहीं करते, उनका हृदय पत्थर ही है अर्थात्‌ वे पत्थर हृदय के हैं, वहाँ संवेदना नहीं है।

**\* मासपारायण, अठ्ठाईसवाँ विश्राम \***

चौ०– एक बार रघुनाथ बोलाए। गुरु द्विज पुरबासी सब आए॥

**बैठे सदसि अनुज मुनि सज्जन। बोले बचन भगत भव भंजन॥ भा०– **एक बार श्रीरघुनाथ ने सम्पूर्ण राजसभा बुलाई। प्रभु का आवाहन सुनकर गुव्र्देव वसिष्ठ जी, ब्राह्मणगण और सभी पुरवासी आये। राजसभा में छोटे भाई श्रीभरत, लक्ष्मण, शत्रुघ्न जी, वसिष्ठ जी आदि मुनिजन और सभी सज्जन बैठे। तब भक्तों के भय को दूर करने वाले प्रभु श्रीराम बोले–

सुनहु सकल पुरजन मम बानी। कहउँ न कछु ममता उर आनी॥ नहिं अनीति नहिं कछु प्रभुताई। सुनहु करहु जो तुमहिं सोहाई॥ सोइ सेवक प्रियतम मम सोई। मम अनुशासन मानै जोई॥ जौ अनीति कछु भाषौं भाई। तौ मोहि बरजहु भय बिसराई॥

भाष्य

हे सभी श्रीअवधपुरवासियों! मेरी वाणी सुनिये, मैं हृदय में किसी भी प्रकार की ममता लाकर नहीं कह रहा हूँ। न तो यह मेरी कुछ अनीति है और न ही किसी प्रकार की प्रभुता का प्रयोग है। पहले आप लोग सुनिये, फिर वही कीजिये जो आप सबको अच्छा लगे। वही मेरा सेवक है और वही मुझे अत्यन्त प्रिय है, जो मेरी आज्ञा मानता है। हे भाइयों! यदि मैं कुछ भी अनीति बोलूँ तो मुझे राजकीय भय भुलाकर तुरन्त रोक दीजियेगा।

[[८८०]]

बड़े भाग मानुष तनु पावा। सुर दुर्लभ सब ग्रंथनि गावा॥ साधन धाम मोक्ष कर द्वारा। पाइ न जेहि परलोक सँवारा॥

दो०– सो परत्र दुख पावइ, सिर धुनि धुनि पछिताइ।

कालहिं कर्महिं ईश्वरहिं, मिथ्या दोष लगाइ॥४३॥

भाष्य

श्रेष्ठ ग्रन्थों ने यह गाया है कि देवदुर्लभ यह मनुष्य शरीर बड़े भाग्य से प्राप्त होता है, यह सभी साधनों का गृह और मोक्ष का द्वार है। ऐसे मनुष्य शरीर को पाकर जिस साधिका या साधक ने अपना परलोक नहीं बना लिया वह काल, कर्म और ईश्वर को झूठा दोष लगाकर परलोक में भी दु:ख ही पाता है अर्थात्‌ शरीर त्याग करने पर उसे स्वर्ग न मिलकर नर्क ही मिलता है और वह सिर पीट–पीटकर पछताता है।

**एहि तन कर फल बिषय न भाई। स्वर्गउ स्वल्प अंत दुखदाई॥ नर तनु पाइ बिषय मन देहीं। पलटि सुधा ते शठ बिष लेहीं॥ ताहि कबहुँ भल कहइ न कोई। गुंजा ग्रहइ परस मनि खोई॥**
भाष्य

हे भाइयों! इस मनुष्य शरीर का फल विषय–भोग नहीं है, क्योंकि स्वर्ग भी थोड़े समय के लिए सुखद होता है, अन्ततोगत्वा वह भी दु:खद हो जाता है। पुण्य के क्षीण होने पर स्वर्ग से भी पतन होता ही है। अत: मनुष्य शरीर प्राप्त करके भी जो लोग विषय में मन लगाते हैं, वे दुय् पाये हुए अमृत को लौटाकर उसके विनिमय में विष ले लेते हैं। उस व्यक्ति को कभी कोई भी भला नहीं कहता, क्योंकि वह पारसमणि को नष्ट करके वन की साधारण गुन्जा को ग्रहण कर लेता है।

**आकर चारि लक्ष चौरासी। जोनि भ्रमत यह जिव अबिनासी॥ फिरत सदा माया कर प्रेरा। काल कर्म स्वभाव गुन घेरा॥ कबहुँक करि करुना नर देही। देत ईश बिनु हेतु सनेही॥**
भाष्य

यह अविनाशी जीव चार खानों, अण्डज, उद्‌भिज, श्वेदज और जरायुज वर्ग में विभक्त होकर चौरासी लाख योनियों में भ्रमण करता रहता है। यह काल, कर्म, स्वभाव और गुणों से घिरा हुआ सदैव माया से प्रेरित होकर भटकता रहता है। बिना कारण स्नेह करने वाले प्रभु कभी–कभार अपनी अहैतुकी करुणा करके जीव को मनुष्य शरीर देते हैं।

**नर तनु भव बारिधि कहँ बेरो। सन्मुख मरुत अनुग्रह मेरो॥ करनधार सदगुरु दृ़ढ नावा। दुर्लभ साज सुलभ करि पावा॥**
भाष्य

यह मानव शरीर भवसागर के लिए बेड़ा है, मेरा अनुग्रह ही सन्मुख अर्थात्‌ अनुकूलता की वायु है, सद्‌गुरु देव ही उस नौका के दृ़ढ कर्णधार हैं। इस प्रकार इस दुर्लभ साज को भी जीव ने सुलभ करके पा लिया। **विशेष– **सन्मुख शब्द अनुकूलता के अर्थ में प्रयोग हुआ है अर्थात्‌ जिस दिशा में नाव जा रही हो उसी दिशा में वायु का बहना उसकी सन्मुखता है। वह तब सम्भव है, जब वायु पीछे से सहारा दे रही हो। प्रतिकूल वायु तब होगी जब नौका की उल्टी दिशा से वायु बह रही हो।

**दो०– जो न तरै भव सागर, नर समाज अस पाइ।**

सो कृत निंदक मंदमति, आत्माहन गति जाइ॥४४॥

भाष्य

जो मनुष्य इस प्रकार का सुन्दर समाज पाकर भी सागर को नहीं पार कर पाता वह ईश्वर के द्वारा किये हुए उपकार का निन्दक, मन्दबुद्धि मनुष्य, आत्महत्यारे की गति को प्राप्त करता है।

[[८८१]]

**विशेष– **“*कृतानां ईश्वरकृतोपकाराणां निन्दक: कृत निन्दक: ***”अर्थात्‌ ईश्वर के किये हुए उपकारों की निन्दा करने वाला। यहाँ पीयूषकार आदि ने कृतनिन्दक शब्द का जो कृतघ्न अर्थ किया है, वह संस्कृत की अनभिज्ञता के कारण हो गई होगी।

जो परलोक इहाँ सुख चहहू। सुनि मम बचन हृदय दृ़ढ गहहू॥ सुलभ सुखद मारग यह भाई। भगति मोरि पुरान श्रुति गाई॥

भाष्य

यदि आप लोग परलोक और यहाँ, दोनों लोक में सुख चाहते हैं तो मेरा वचन सुनकर दृ़ढतापूर्वक धारण कर लीजिये। हे भाई! पुराणों और श्रुतियों में गाई हुई मेरी भक्ति का ही यह मार्ग सुलभ और सुखदायक है।

**ग्यान अगम प्रत्यूह अनेका। साधन कठिन न मन कहँ टेका॥ करत कष्ट बहु पावइ कोऊ। भक्ति हीन मोहि प्र्रिय नहिं सोऊ॥**
भाष्य

ज्ञान मार्ग बहुत ही अगम्य है, उसमें अनेक प्रत्यूह अर्थात्‌ विघ्न है, साधन में वह बहुत कठिन है। उसमें मन को भी कोई टेका अर्थात्‌ अवलम्बन नहीं है। अनेक प्रकार से कय् करके कोई जीव उसे पा जाता है, परन्तु भक्ति से रहित होने के कारण मुझे वह भी प्रिय नहीं है।

**भक्ति स्वतंत्र सकल सुख खानी। बिनु सतसंग न पावहिं प्रानी॥ पुन्य पुंज बिनु मिलहिं न संता। सतसंगति संसृति कर अंता॥ पुन्य एक जग महँ नहिं दूजा। मन क्रम बचन बिप्र पद पूजा॥ सानुकूल तेहि पर मुनि देवा। जो तजि कपट करइ द्विज सेवा॥**
भाष्य

भक्ति स्वतंत्र और समस्त सुखों की खानि है, पर उसे सत्संग के बिना कोई प्राणी नहीं पा सकता। पुण्यसमूहों के बिना सन्त नहीं मिला करते और सन्तों की संगति से संसृति अर्थात्‌ संसारभाव का अन्त हो जाता है। अथवा, सत्‌ संगति संसारभाव का अन्त कर देती है अर्थात्‌ सत्संग के प्रभाव से जगत्‌ में रहते हुए भी व्यक्ति सर्वत्र जगदीश के ही दर्शन करता रहता है। संसार में एक ही पुण्य है, कोई दूसरा नहीं। मन, कर्म और वाणी से तपस्या, जन्म और शास्त्र सम्पन्न, उपनयनादि संस्कारों से यथासमय संस्कृत, अपनी शाखा में प्राप्त सम्पूर्ण वैदिक मंत्रों के पाठ में दक्ष ब्राह्मण के श्रीचरणों की पूजा ही सबसे बड़ा पुण्य है। उस पर सम्पूर्ण मुनि और देवता सानुकूल रहते हैं, जो सभी संस्कारों से सम्पन्न जन्मना ब्राह्मण की सेवा कपट छोड़कर करता है।

**दो०– औरउ एक गुपुत मत, सबहिं कहउँ कर जोरि।**

शङ्कर भजन बिना नर, भगति न पावइ मोरि॥४५॥

भाष्य

और भी एक गोपनीय मत है, जिसे मैं हाथ जोड़कर सबसे कहता हूँ, शङ्कर जी के समान भजन के बिना साधक मेरी भक्ति नहीं पाता।

**विशेष– **शिव जी का भजन है, भगवान्‌ श्रीराम के श्रीरामनाम का अर्थचिन्तन सहित जप। ***शङ्कर** समान भजनं शङ्कर भजनम्‌। मध्यम** पद लोप समास:।*

कहहु भगति पथ कवन प्रयासा। जोग न मख जप तप उपवासा॥

सरल स्वभाव न मन कुटिलाई। जथा लाभ संतोष सदाई॥

मोर दास कहाइ नर आसा। करइ त कहहु कहा बिश्वासा॥ बहुत कहउँ का कथा ब़ढाई। एहि आचरन बश्य मैं भाई॥

[[८८२]]

भाष्य

भला आप लोग बतायें भक्ति के मार्ग में कौन–सा प्रयास करणीय है? वहाँ योग, यज्ञ, जप, तप और उपवास इन में से किसी भी साधन की आवश्यकता नहीं है। भक्ति के मार्ग में इतना ही अपेक्षित है कि साधक का स्वभाव सरल हो, मन में किसी भी प्रकार की कुटिलता न हो, जितना लाभ हो उसमें सदैव संतुय् रहना। यदि मेरा दास कहलाकर साधारण मनुष्य की आशा करता हो तो बताओ, उसका कौन–सा विश्वास? अर्थात्‌ मेरा सेवक कहलाकर एकमात्र मुझ पर ही आशा और विश्वास करना भक्ति का मुख्य लक्षण है। हे भाइयों! मैं बहुत कथा ब़ढा कर क्या कहूँ? मैं इसी आचरण से वश में हो जाता हूँ अर्थात्‌ मुझमें साधक की अनन्यता ही मुझे उसके वश में कर लेती है।

**बैर न बिग्रह आस न त्रासा। सुखमय ताहि सदा सब आसा॥ अनारंभ अनिकेत अमानी। अनघ अरोष दक्ष बिग्यानी॥ प्रीति सदा सज्जन संसर्गा। तृन सम बिषय स्वर्ग अपवर्गा॥ भगति पक्ष हठ नहिं शठताई। दुष्ट तर्क सब दूरि बहाई॥**

दो०– मम गुन ग्राम नाम रत, गत ममता मद मोह।

ता कर सुख सोइ जानइ, परानंद संदोह॥४६॥

भाष्य

जिसके मन में न तो किसी के साथ वैर है और न ही कलह, जो आशाओं और भय से रहित हैं, उसके लिए सदैव सभी दिशायंें सुखमय हैं। जो कर्मों के फल से रहित है, जिसे गृह में आसक्ति नहीं है, जो स्वयं अमानी अर्थात्‌ अहंकार से रहित है, जो पापरहित और क्रोधरहित है, जो भक्तिमार्ग में कुशल और विशियद्वैतज्ञान सम्पन्न है, जिसे सज्जन अर्थात्‌ श्रीवैष्णव महानुभावों के संसर्ग में प्रीति है और जिसके लिए स्वर्ग और मोक्ष दोनों ही तिनके के समान महत्वहीन हैं, जो भक्ति के पक्ष में हठ तो करता है, परन्तु गुरुजनों के सिद्धान्त खण्डन की धृष्टता नहीं करता, जिसने सभी दुष्ट तर्कों को दूर फेंक दिया है, जो मेरे गुणसमूहों के श्रवण और मेरे नाम जप में अनुरक्त रहता है, जो ममता, मद और मोह से रहित है, उस साधक का सुख वही जानता है, जिसे परमेश्वर के आनन्द का सन्दोह अर्थात्‌ प्रवाह प्राप्त है।

**सुनत सुधासम बचन राम के। गहे सबनि पद कृपाधाम के॥ जननि जनक गुरु बंधु हमारे। कृपा निधान प्रान ते प्यारे॥ तनु धन धाम राम हितकारी। सब बिधि तुम प्रनतारति हारी॥ असि सिख तुम बिनु देइ न कोऊ। मातु पिता स्वारथ रत ओऊ॥**
भाष्य

भगवान्‌ श्रीराम के अमृत के समान वचन सुनते ही, सभी ने कृपा के आश्रय और कृपा के निवासस्थान स्वरूप भगवान्‌ श्रीराम के श्रीचरण पक़ड लिए और बोले, हे प्रणतों के संकट हरने वाले! हे कृपानिधान! हे हमारे प्राणों से भी प्रिय श्रीराम! आप हमारे माता–पिता, गुरु और बान्धव हैं। आप ही सब प्रकार से हमारे शरीर, धन, भवन और हितैषी हैं। तात्पर्यत: हम ने शरीर आदि की सम्पूर्ण ममता आप पर ही समर्पित कर दी है। आपके बिना इस प्रकार की शिक्षा कोई नहीं दे सकता। जो माता–पिता हैं, वे भी स्वार्थ में लगे रहते हैं।

**हेतु रहित जग जुग उपकारी। तुम तुम्हार सेवक असुरारी॥ स्वारथ मीत सकल जग माहीं। सपनेहुँ प्रभु परमारथ नाहीं॥**
भाष्य

हे देवविरोधी राक्षस आदि के शत्रु प्रभु श्रीराम! संसार में आप और आपके सेवक ये दोनों ही स्वार्थरहित उपकारी होते हैं। हे प्रभु! इस संसार में सभी लोग स्वार्थ के मित्र होते हैं, यहाँ स्वप्न में भी परमार्थ नहीं है।

[[८८३]]

सब के बचन प्रेम रस साने। सुनि रघुनाथ हृदय हरषाने॥ निज निज गृह गए आयसु पाई। बरनत प्रभु बतकही सुहाई॥

भाष्य

सभी के प्रेमरस में सने हुए वचन सुनकर श्रीरघुनाथ हृदय में प्रसन्न हुए। प्रभु की सुहावनी बतकही अर्थात्‌ परिचर्चा का वर्णन करते हुए, आज्ञा पाकर सभी सभासद अपने–अपने घर चले गये।

**दो०– उमा अवधबासी नर, नारि कृतारथ रूप।**

ब्रह्म सच्चिदानंद घन, रघुनायक जहँ भूप॥४७॥

भाष्य

शिव जी पार्वती जी को सम्बोधित करते हुए कहते हैं कि हे पार्वती! श्रीअयोध्या में निवास करने वाले सभी पुरुष और स्त्री कृतार्थरूप हैं, जहाँ सच्चिदानन्दघन परब्रह्म रघुकुल के नायक भगवान्‌ श्रीराम ही राजा हैं।

**एक बार बसिष्ठ मुनि आए। जहाँ राम सुखधाम सुहाए॥ अति आदर रघुनायक कीन्हा। पद पखारि चरनोदक लीन्हा॥**
भाष्य

एक बार जहाँ सुहावने सुख के धाम भगवान्‌ श्रीराम विराजमान थे, वहाँ ब्रह्मर्षि वसिष्ठ जी आये। रघुकुल के नायक भगवान्‌ श्रीराम ने वसिष्ठ देव जी का बहुत आदर किया। उनके श्रीचरणों का प्रक्षालन करके उनका श्रीचरणामृत लिया।

**राम सुनहु मुनि कह कर जोरी। कृपासिंधु बिनती कछु मोरी॥ देखि देखि आचरन तुम्हारा। होत मोह मम हृदय अपारा॥ महिमा अमित बेद नहिं जाना। मैं केहि भाँति कहउँ भगवाना॥**
भाष्य

मुनि वसिष्ठ जी ने हाथ जोड़कर कहा, हे कृपा के सागर परब्रह्म परमात्मा भगवान्‌ श्रीराम! मेरी कुछ प्रार्थना सुनिये, आपका आचरण देख–देखकर मेरे हृदय में अपार मोह हो जाता है अर्थात्‌ जब आप मुझे प्रणाम करते हैं, मेरे चरण का जल पीते हैं, मुझसे धर्मशास्त्र सुनते हैं और शास्त्रों के सम्बन्ध में जिज्ञासा करते हैं। तब मेरे हृदय में आपके ईश्वरत्व के सम्बन्ध में सन्देह हो जाता है। हे भगवन्‌! आपकी असीम महिमा को वेद भी नहीं जानते, तो फिर मैं किस प्रकार से कहूँ?

**उपरोहिती कर्म अति मंदा। बेद पुरान समृति कर निंदा॥ जब न लेउँ मैं तब बिधि मोही। कहा लाभ आगे सुत तोही॥ परमातमा ब्रह्म नर रूपा। होइहिं रघुकुल भूषन भूपा॥**

दो०– तब मैं हृदय बिचारेउँ, जोग जग्य ब्रत दान।

जा कहँ करिय सो पाइहउँ, धर्म न एहि सम आन॥४८॥

भाष्य

पौरोहित कर्म बहुत निकृष्ट होता है, इसकी वेद और उनसे अनुमोदित पुराण और स्मृतियाँ भी निन्दा करती हैं। सृय्ि के प्रारम्भ में जब यह कर्म मैं नहीं ले रहा था तब मुझे ब्रह्मा जी ने कहा कि, बेटे! तुम्हें आगे इसका लाभ मिलेगा, क्योंकि परमात्मा परब्रह्म साकेताधिपति भगवान्‌ श्रीराम मनुष्यरूप धारण करके रघुकुल के आभूषण श्रीराम के रूप में प्रकट होकर राजा बनेंगे और उस ऐतिहासिक और अलौकिक श्रीरामराज्याभिषेक में तुम्हें प्रथम तिलक का सौभाग्य मिलेगा, तब मैंने हृदय में विचार किया कि जिन प्रभु को प्राप्त करने के लिए योग, यज्ञ, व्रत, दान किया जाता है, उनको मैं अपने पौरोहित्य कर्म से ही प्राप्त कर लूँगा, इसलिए अब इससे बड़ा मेरे लिए कोई दूसरा धर्म नहीं होगा।

[[८८४]]

जप तप नियम जोग निज धर्मा। श्रुति संभव नाना शुभ कर्मा॥ ग्यान दया दम तीरथ मज्जन। जहँ लगि धर्म कहत श्रुति सज्जन॥ आगम निगम पुरान अनेका। प़ढे सुने कर फल प्रभु एका॥ तव पद पंकज प्रीति निरंतर। सब साधन कर यह फल सुंदर॥

भाष्य

जप, तप, नियम, योग, निजधर्म अर्थात्‌ वर्णाश्रम में विहित अपने धर्म और वेद से बोधित अनेक प्रकार के शुभकर्म ज्ञान, दया, दम, तीर्थ–स्नान और भी वेद एवं श्रीवैष्णव सन्तजन जहाँ तक धर्म की व्याख्या करते हैं। तंत्र, निगम अथवा आगम अर्थात्‌ वेदों के षडंग चारों वेद एवं अनेक पुराणों के प़ढने और सुनने का एकमात्र यही फल है और यही सम्पूर्ण साधनों का सुन्दर फल है कि, आपश्री के श्रीचरणकमलों में निरन्तर प्रीति बनी रहे।

**छूटइ मल कि मलहिं के धोए। घृत कि पाव कोइ बारि बिलोए॥ प्रेम भगति जल बिनु रघुराई। आभ्यन्तर मल कबहुँ न जाई॥**
भाष्य

क्या मल से धोने पर मल छूट जाता है, क्या जल का मंथन करके कोई घी पा लेता है? इसी प्रकार हे रघुकुल के राजा भगवान्‌ श्रीराम! सुनिये, प्रेमाभक्ति के बिना प्राणी के भीतर का मल कभी नहीं जाता।

**सोइ सर्बग्य तग्य सोइ पंडित। सोइ गुन गृह बिग्यान अखंडित॥ दक्ष सकल लच्छन जुत सोई। जाके पद सरोज रति होई॥**
भाष्य

वही सर्वग्य है, वही तत्त्ववेत्ता है, वही पण्डित है, वही श्रेष्ठ गुणों का भवन और अखण्डविज्ञान सम्पन्न है, वही चतुर और सम्पूर्ण लक्षणों से युक्त है, जिसके हृदय में आप श्रीराघवेन्द्र सरकार के श्रीचरणकमलों के प्रति प्रेमलक्षणाभक्ति है।

**दो०– नाथ एक बर मागउँ, राम कृपा करि देहु।**

जन्म जन्म प्रभु पद कमल, कबहुँ घटै जनि नेहु॥४९॥

भाष्य

हे नाथ! मैं एक वरदान माँगता हूँ, हे भगवान्‌ श्रीराम! उसे कृपा करके दे दीजिये, अनन्त जन्मों में भी आप के श्रीचरणकमलों का प्रेम कभी नहीं घटे।

**अस कहि मुनि बसिष्ठ गृह आए। कृपासिंधु के मन अति भाए॥**

हनूमान भरतादिक भ्राता। संग लिए सेवक सुखदाता॥

पुनि कृपालु पुर बाहेर गयऊ। गज रथ तुरग मँगावत भयऊ॥ देखि कृपा करि सकल सराहे। दिए उचित जिन जिन तेइ चाहे॥

हरन सकल श्रम प्रभु श्रम पाई। गए जहाँ शीतल अवँराई॥

भरत दीन्ह निज बसन डसाई। बैठे प्रभु सेवहिं सब भाई॥

भाष्य

इतना कहकर महर्षि वसिष्ठ जी अपने घर आ गये और कृपासिन्धु भगवान्‌ श्रीराम के मन में वे बहुत भाये। इसके पश्चात्‌ हनुमान जी, भरत जी आदि भ्रातागण और सेवकों को सुख देने वाले जगद्‌जननी श्रीसीता को साथ लेकर फिर कृपालु श्रीराम नगर के बाहर गये तथा हाथी, रथ और घोड़े मँगाये। कृपादृष्टि से देखकर प्रभु ने उन सबकी सराहना की। जिन्होंने जो चाहा उन सबको यथोचित दान दिया। सम्पूर्ण श्रम को हरने वाले प्रभु श्रीराम श्रम प्राप्त करके विश्राम करने के लिए, जहाँ शीतल अँवराई अर्थात्‌ आमों का बगीचा था उसी आम्रपाली में चले गये। भरत जी ने अपना वस्त्र बिछा दिया, उसी पर प्रभु बैठ गये अर्थात्‌ विराजमान हो गये, सभी भ्राता उनकी सेवा कर रहे थे।

[[८८५]]

मारुतसुत तब मारुत करई। पुलक बपुष लोचन जल भरई॥ हनूमान सम नहिं बड़भागी। नहिं कोउ राम चरन अनुरागी॥ गिरिजा जासु प्रीति सेवकाई। बार बार प्रभु निज मुख गाई॥

भाष्य

तब वायु के पुत्र हनुमान जी महाराज वायु कर रहे हैं अर्थात्‌ पंखा झलते हुए वायु की सेवा कर रहे हैं। उनके शरीर में रोमांच है और उनके नेत्र जल से भर गये हैं। शिव जी पार्वती जी को सम्बोधित करते हुए कहते हैं कि हे पर्वतराज पुत्री गिरिजे! हनुमान जी के समान कोई बड़ा भाग्यशाली नहीं है और न ही कोई उतना बड़ा श्रीराम चरणों का अनुरागी है, जिनकी प्रीति एवं सेवा की प्रभु श्रीराम ने अपने मुख से बार–बार प्रशंसा की है।

**दो०– तेहिं अवसर मुनि नारद, आए करतल बीन।**

गावन लागे राम कल, कीरति सदा नवीन॥५०॥

भाष्य

उसी अवसर पर हाथ में वीणा लेकर नारद मुनि प्रभु श्रीराम के पास प्रमोद वन की विश्राम वाटिका में आये और भगवान्‌ श्रीराम की सदैव नवीन मधुर कीर्ति का गान करने लगे।

**मामवलोकय पंकज लोचन। कृपा बिलोकनि सोच बिमोचन॥ नील तामरस श्याम काम अरि। हृदय कंज मकरंद मधुप हरि॥ जातुधान बरूथ बल भंजन। मुनि सज्जन रंजन अघ गंजन॥ भूसुर ससि नव बृंद बलाहक। अशरन शरन दीन जन गाहक॥ भुज बल बिपुल भार महि खंडित। खर दूषन बिराध बध पंडित॥ रावनारि सुख रूप भूपबर। जय दशरथ कुल कुमुद सुधाकर॥**
भाष्य

हे कमललोचन! हे शोकों को नष्ट करने वाले प्रभु श्रीराम! अपनी कृपादृष्टि से मुझे निहार लीजिये। हे नीले कमल के समान श्यामल! हे काम के शत्रु भगवान्‌ शङ्कर जी के हृदय कमल के प्रेम मकरन्द का पान करने वाले भ्रमर! हे भू–भारहारी श्रीहरे! मेरा अवलोकन कीजिये। हे राक्षसों की सेना के बल को नष्ट करने वाले! हे मुनियों और श्रीवैष्णवों को आनन्द देने वाले! हे पाप को नष्ट करने वाले! हे ब्राह्मणरूप नवीन खेती के लिए वर्षाकालीन बादल! हे अशरणों को शरण देनेवाले! हे दीनजनों को ग्रहण करने वाले प्रभु! अपनी भुजाओं के बल से पृथ्वी के विशाल भार का खण्डन करने वाले! हे खर–दूषण और विराध के वध में पाण्डित्य दिखाने वाले! हे रावण के शत्रु! हे सुखद्‌ स्वरूप राजाओं में श्रेष्ठ, हे श्रीदशरथ कुलरूप कुमुद को विकसित करने के लिए चन्द्रमा, श्रीरामचन्द्र जी! आपकी जय हो।

**सुजस पुरान बिदित निगमागम। गावत सुर मुनि संत समागम॥ कारुनीक ब्यलीक मद खंडन। सब बिधि कुशल कोसला मंडन॥ कलिमल मथन नाम ममताहन। तुलसिदास प्रभु पाहि प्रनत जन॥**
भाष्य

आपका सुयश पुराणों, वेदों और आगमों में विदित है तथा उसे देवता और मुनि सन्तों की सभा में गाते हैं। हे कव्र्णा सम्पन्न! हे ब्यलीक अर्थात्‌ कपट और मद के नाशक! हे सब प्रकार से कुशल! हे कोसलपुरी श्रीअयोध्या के अलंकार! हे कलियुग के मलों को नष्ट करने वाले! हे ममता को नष्ट करने में समर्थ श्रीराम नाम से विख्यात अथवा हे ममता के नाशक श्रीराम नामवाले प्रभु श्रीराघव! हे तुलसीदास के ईश्वर राजाधिराज श्रीराम! मुझ शरण में आये हुए, प्रणाम कर रहे भक्त की रक्षा कीजिये।

**दो०– प्रेम सहित मुनि नारद, बरनि राम गुन ग्राम।**

शोभासिंधु हृदय धरि, गए जहाँ बिधि धाम॥५१॥

[[८८६]]

भाष्य

इस प्रकार से देवर्षि नारद जी प्रेम के सहित भगवान्‌ श्रीराम के गुणसमूहों का वर्णन करके शोभा के सागर श्रीसीताराम जी को हृदय में धारण करके जहाँ ब्रह्मलोक है वहाँ पधार गये।

**गिरिजा सुनहु बिशद यह कथा। मैं सब कही मोरि मति जथा॥ रामचरित शत कोटि अपारा। श्रुति शारदा न बरनै पारा॥**
भाष्य

हे पर्वतराजपुत्री! सुनिये, जिस प्रकार मेरी बुद्धि थी, उसी के अनुसार मैंने यह सम्पूर्ण निर्मल कथा सुना दी। श्रीरामचरित्र सौ करोड़ रामायणों में गाये जाने पर भी अपार है। वेद और सरस्वती जी भी उनका वर्णन नहीं कर सकते।

**राम अनंत अनंत गुनानी। जन्म कर्म अनंत नामानी॥**

**जल सीकर महि रज गनि जाहीं। रघुपति चरित न बरनि सिराहीं॥ भा०– **भगवान्‌ श्रीराम अनन्त हैं, उनके गुणों का भी अन्त नहीं है। उनके जन्म, कर्म और नाम अनन्त हैं। कदाचित्‌ जल के आश्रय सागर की बूॅंद एवं पृथ्वी के धूलि के कण गिने जा सकते हैं, परन्तु रघुपति अर्थात्‌ सम्पूर्ण जीवों के पालक भगवान्‌ श्रीराम के चरित्र वर्णन करते–करते भी समाप्त नहीं हो सकते।

बिमल कथा हरि पद दायनी। भगति होइ सुनि अनपायनी॥ उमा कहेउँ सब कथा सुहाई। जो भुशुंडि खगपतिहिं सुनाई॥ कछुक राम गुन कहेउँ बखानी। अब का कहौं सो कहहु भवानी॥

भाष्य

यह निर्मल कथा भगवान्‌ श्रीराम के श्रीचरणाों को प्रदान कर देती है। इसे सुनकर प्रभु के श्रीचरणों में अनपायनी भक्ति हो जाती है। हे पार्वती! मैंने वह सुहावनी कथा कही जो काकभुशुण्डि जी ने गरुड़ देव जी को सुनायी थी। मैंने श्रीराम के कुछ ही गुणों को बखान कर कहा है अर्थात्‌ न तो श्रीराम की कथा समाप्त हुई है और न ही श्रीअयोध्या छोड़कर भगवान्‌ श्रीराम कहीं गये हैं। वे सदैव श्रीअयोध्या के प्रमोदवन की अँवराई में विश्राम कर रहे हैं। उनके अर्थात्‌ भगवान्‌ श्रीराम के और भी अनगिनत चरित्र हैं उन सबको कहने का न हम जीवों में सामर्थ्य है और न ही समय, इसलिए मैंने भगवान्‌ श्रीराम के कुछ ही गुणों का बखान किया है। हे भवानी! अब आगे क्या कहूँ वह तुम बताओ?

**सुनि शुभ कथा उमा हरषानी। बोली अति बिनीत मृदु बानी॥ धन्य धन्य मैं धन्य पुरारी। सुनेउँ राम गुन भव भय हारी॥**
भाष्य

शिवजी से यह शुभ कथा सुनकर पार्वती जी बहुत प्रसन्न हुईं और वे अत्यन्त विनीत कोमल वाणी में बोलीं, हे त्रिपुरासुर के शत्रु शिव जी! मैं धन्य हूँ…धन्य हूँ…..धन्य हूँ, क्योंकि मैंने भवभय को हरने वाले भगवान्‌ श्रीराम के ऐश्वर्य, सौन्दर्य, माधुर्य परक तीनों प्रकार के गुण आपश्री से सुने।

**दो०– तुम्हरी कृपा कृपायतन, अब कृतकृत्य न मोह।**

जानेउँ राम प्रताप प्रभु, चिदानंद संदोह॥५२(क)॥

भाष्य

हे कृपा के आयतन अर्थात्‌ विशाल भवन भूतभावन शिव जी! आपकी कृपा से अब मैं कृतकृत्य हो गई, मुझे किसी प्रकार का मोह नहीं है। हे प्रभु श्रीराम के श्रेष्ठज्ञान और आनन्दप्रवाह से युक्त शिव जी! अब मैं भगवान्‌ श्रीराम के प्रभाव को जान गई हूँ।

**नाथ तवानन शशि स्रवत, कथा सुधा रघुबीर।**

स्रवन पुटनि मन पान करि, नहिं अघात मतिधीर॥५२(ख)॥

भाष्य

हे नाथ, हे मतिधीर! आपके मुखरूप चन्द्र से निर्झरित होती हुई रघुवीर श्रीराम की कथासुधा को करोड़ों कानरूप दोनों से पान करके मेरा मन तृप्त नहीं हो रहा है।

[[८८७]]

रामचरित जे सुनत अघाहीं। रस बिशेष जाना तिन नाहीं॥

भाष्य

हे भूतभावन! जो लोग श्रीरामचरित्र सुनने से तृप्त हो जाते हैं, उन्होंने इसके विशेष रसों को नहीं जाना है, अथवा उन्होंने विशेष आनन्द की अनुभूति नहीं की है, अथवा, उन्होंने इसके सारतत्त्व को नहीं जाना है, अथवा, उन्होंने श्रीरामचरितमानस में आदि, मध्य और अन्त में प्रतिपाद्द रसरूप आनन्दकन्द, सच्चिदानन्दघन, परमानन्दसन्दोह परमेश्वर श्रीराम को नहीं जाना है।

**विशेष– **श्रीरामचरितमानस में गोस्वामी जी ने सामान्य और विशेष भेद से रस के दो विभाग किये हैं। जिनमें सामान्य रसांें के क्रम में उन्होंने \(क\) शृंगार, \(ख\) कव्र्ण, \(ग\) वीर, \(घ\) शान्त, \(ङ\) रौद्र, \(च\) भयानक, \(छ\) वीभत्स, \(ज\) हास्य तथा \(ञ\) अद्‌भुत, रसों की चर्चा की है। इनमें से शृंगार, वीर, करुण, और शान्त ये चार रस अंगीरस के रूप में माने गये हैं। जिनमें कोई न कोई प्रत्येक महाकाव्य का अंगीरस होता है। इन नौ रसों की चर्चा मानस १.३७.१०. में उपलब्ध है। यथा– नव रस जप तप जोग विरागा‘यहाँ नव शब्द का श्लेष करने से संख्या ९ और नव अर्थात्‌ नवीन अर्थ का भी बोध होता है। इन्हीं नवीन रसों को गोस्वामी जी ने यहाँ पार्वती जी के मुख से विशेष अर्थ कहलवाया। ये तीन हैं– \(क\) वत्सल रस, \(ख\) प्रेयो रस तथा \(ग\) भक्ति रस, कुल मिलाकर बारह रसों की संयोजना श्रीरामचरितमानस में की गई है। गोस्वामी जी ने मानस १.२४१.४. से मानस १.२४२.५. तक का उल्लेख अलंकार के माध्यम से करके अपने द्वारा स्वीकृत बारह रसों का संकेत कर दिया है। विशेष रसों में से भी भक्तिरस को गोस्वामी जी ने महाकाव्य का अंगीरस माना है और उसी को अपने महामहाकाव्य “श्रीरामचरितमानस” में अंगीरस रूप में प्र्रस्तुत किया है। इन बारह रसों का संस्कृत साहित्य के क्रान्तिकारी लक्षण का उल्लेख श्रीशीलरूप गोस्वामी पाद ने अपने सुप्रसिद्ध लक्षणग्रन्थ भक्तिरसामृत सिंधु तथा उज्ज्वलनीलमणि में किया है। हिन्दी साहित्य में इनका विशेष उल्लेख नहीं है, क्योंकि हिन्दी साहित्य में कोई स्वस्थ शास्त्रीय लक्षणग्रन्थ उपलब्ध ही नहीं है। किसी प्रकार से आचार्य कवि केशव दास जी ने कविप्रिया और रसिकप्रिया नामक दो लक्षणग्रन्थ उपस्थित किये हैं, वह भी संस्कृत लक्षणग्रन्थ के जूठन मात्र हैं। यद्दपि इस प्रयास को अपर्याप्त ही कहा जा सकता है। रस सिद्धान्त पर विशेष जानने के लिए मेरे द्वारा निर्देशित मेरी अग्रजा डॉ० \(कुमारी\) गीता देवी मिश्रा द्वारा तुलसी साहित्य में वत्सल रस की समीक्षा विषय पर जगद्‌गुरु रामभद्राचार्य विकलांग विश्वविद्दालय, चित्रकूट–\(उ.प्र.\) में सर्वप्रथम शोध प्रबन्ध \(पीएच.डी.\) प्रस्तुत किया गया जिसके आधार पर डॉ० \(कुमारी\) गीता देवी मिश्रा को ४ अगस्त २००३ को प्रथम दीक्षान्त समारोह में जगद्‌गुरु रामभद्राचार्य विकलांग विश्वविद्दालय से पीएच.डी. की उपाधि प्राप्त हुई, द्रष्टव्य है।

जीवनमुक्त महामुनि जेऊ। हरि गुन सुनहिं निरंतर तेऊ॥

भव सागर चह पार जो पावा। राम कथा ता कहँ दृ़ढ नावा॥ बिषइन कहँ पुनि हरि गुन ग्रामा। स्रवन सुखद अरु मन अभिरामा॥ स्रवनवंत अस को जग माहीं। जाहि न रघुपति चरित सोहाहीं॥ ते ज़ड जीव निजातम घाती। जिनहिं न रघुपति कथा सोहाती॥

भाष्य

जो जीवनमुक्त शुक, सनकादि, नारदादि जैसे महामुनि हैं, वे भी निरन्तर प्रभु श्रीराम के गुणगणों को सुनते हैं। जो भवसागर का पार पाना चाहते हैं उनके लिए भी श्रीरामकथा सुदृ़ढ नौका है, जो न तो कभी संसार सागर में डूब सकती है और न ही उसके भयंकर तरंगों के झकोंरों से उलट सकती है तथा न ही यात्री को अपने गन्तव्य से भटका सकती है। किसी भी समय माया के चक्रवाती, बवंडर श्रीरामकथारूप नौका का कुछ भी नहीं बिगाड़ सकते। फिर विषयीजनों के लिए भी भगवान्‌ श्रीराम के गुणग्राम श्रवणों को आनन्द देने वाले और मन को अभीष्ट परमेश्वर श्रीराम के श्रीचरणों में रमाने वाले हैं अर्थात्‌ संसारियों के अशान्त मनों को परमशान्ति देने वाले हैं।

[[८८८]]

संसार में ऐसा कौन श्रवणेन्द्रिय से सम्पन्न होगा, जिसे भगवान्‌ श्रीराम के चरित्र नहीं भाते अर्थात्‌ जिसे श्रीराम के चरित्र नहीं अच्छे लगते। श्रीरामकथा सुनते–सुनते जिसे नींद आ जाती है उसके श्रवणेन्द्रिय में कोई न कोई दोष समझ लेना चाहिये। जिन्हें रघुपति श्रीराम की कथा नहीं भाती वे ज़ड अर्थात्‌ अज्ञानी जीव अपने ही आत्मा का हनन कर रहे हैं अर्थात्‌ आत्महत्यारे हैं।

**विशेष– यहाँ तीन पंक्तियों में क्रमश: विमुक्त, विरक्त और विषयीजनों के लिए श्रीरामकथा की उपादेयता का वर्णन है। भुशुण्डि जी भी मानस, ७.१५.५. में इसकी चर्चा कर चुके हैं। यथा– सुनहिं बिमुक्त बिरत अरु बिषई। लहहिं भगति गति संपति नितई।

राम चरित मानस तुम गावा। सुनि मैं नाथ अमित सुख पावा॥ तुम जो कही यह कथा सुहाई। कागभुशुंडि गरुड प्रति गाई॥

दो०– बिरति ग्यान बिग्यान दृ़ढ, राम चरन अति नेह।

बायस तन रघुपति भगति, मोहि परम संदेह॥५३॥

भाष्य

पार्वती जी कहती हैं, हे नाथ शशांकशेखर शिव जी! आपने श्रीरामचरितमानस का गान किया, उसे सुनकर मैंने असीम सुख प्राप्त किया, परन्तु आपश्री ने जो यह कहा कि यह सुहावनी कथा आपश्री से भी प्रथम गरुड़ जी के प्रति भुशुण्डि जी ने गायी थी और भुशुण्डि जी के मन में वैराग्य ज्ञान अर्थात्‌ भगवद्‌तत्त्व ज्ञान–विज्ञान अर्थात्‌ संसार की विनश्वरता का ज्ञान दृ़ढ है। कौवे का शरीर प्राप्त करने पर भी श्रीभुशुण्डि जी को भगवान्‌ श्रीसीताराम जी के श्रीचरणों में अत्यन्त स्नेह है और भुशुण्डि जी के हृदय में रघुकुल के स्वामी भगवान्‌ श्रीराम की अविरल भक्ति भी है। आपके इन पाँचों परस्पर विरोधाभासी वक्तव्यों पर मुझे बहुत–बड़ा सन्देह है, क्योंकि स्वभाव से मांसाहारी कौवा विषयों से विरक्त कैसे हो सकता है? चंचल प्रकृतिवाले कौवे में ज्ञान–विज्ञान की दृ़ढता कैसे आ सकती है? जन्म से कुटिल कौवे में श्रीराम के श्रीचरणों में प्रेम कैसे सम्भव है और अत्यन्त कामी कौवा श्रीराम का भक्त कैसे हो सकता है ?

**नर सहस्त्र महँ सुनहु पुरारी। कोउ एक होइ धर्म ब्रतधारी॥ धर्मशील कोटिक महँ कोई। बिषय बिमुख बिराग रत होई॥ कोटि बिरक्त मध्य श्रुति कहई। सम्यक ग्यान सकृत कोउ लहई॥ ग्यानवंत कोटिक महँ कोऊ। जीवनमुक्त सकृत जग सोऊ॥ तिन सहस्त्र महँ सब सुख खानी। दुर्लभ ब्रह्म लीन बिग्यानी॥ धर्मशील बिरक्त अरु ग्यानी। जीवनमुक्त ब्रह्मपर प्रानी॥ सब ते सो दुर्लभ सुरराया। राम भगति रत गत मद माया॥**
भाष्य

भगवती पार्वती जी सात पंक्तियों में श्रीरामभक्ति की दुर्लभता और उसकी उत्कृष्टता का वर्णन करते हुए कहती हैं कि, हे त्रिपुरासुर के शत्रु शिव जी! सुनिये, सहस्रों मनुष्यों में कोई एक मनुष्य धर्मव्रत को धारण करने वाला होता है। ऐसे करोड़ों स्वभाव से धर्मात्मा मनुष्य में कोई एक साधक संसार के विषयों से विमुख और वैराग्य में तत्पर होता है। भगवती श्रुति कहती हैं कि ऐसे करोड़ों विरक्तों के बीच कोई एक साधक सम्यक्‌ ज्ञान अर्थात्‌ संसार की क्षणभंगुरता के साथ भगवद्‌तत्त्व का बोध प्राप्त करता है। ऐसे करोड़ों सम्यक्‌ ज्ञानवान साधकों में से संसार में वह कोई एक ही भाग्यशाली होता है, जो जीवन मुक्त अर्थात्‌ इस शरीर के रहते–रहते ही मुक्त हो जाता है, यानी मुक्ति में उसके शरीर का प्रारब्ध बाधक नहीं होता। ऐसे उन सहस्रों जीवनमुक्तों में परब्रह्म प्रभु श्रीराम के ध्यान में लीन विज्ञानी अर्थात्‌ विशिष्टाद्वैत परम्परा से चिद्‌वर्ग, अचिद्‌वर्ग तथा इन दोनों से विशिष्ट परमात्मा के

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विशेष ज्ञान से सम्पन्न साधक तो बहुत दुर्लभ हैं अर्थात्‌ कोई एक मिल जाता है। जहाँ इस प्रकार हे देवताओं के ईश्वर भूतभावन शिव जी! धर्मशील, विरक्त, ज्ञानी, जीवनमुक्त तथा परब्रह्मपरायण प्राणी इन सभी (पाँच) से वह साधक बहुत दुर्लभ है, जो कि श्रीरामभक्ति में रत हो अर्थात्‌ जो मद, माया (कपट) छोड़कर श्रीराम की भक्ति में तत्पर हो। पाँच तो खोजने पर किसी प्रकार मिल जायेंगे, पर श्रीरामभक्त तो खोजने से भी नहीं मिलता।

सो हरिभगति काग किमि पाई। बिश्वनाथ मोहि कहहु बझाई॥

दो०– राम परायन ग्यान रत, गुनागार मति धीर।

नाथ कहहु केहि कारन, पायउ काग शरीर॥५४॥

भाष्य

हे विश्वनाथ जी! वह सर्वदुर्लभ श्रीरामभक्ति कौवे ने कैसे प्राप्त कर ली ? यह मुझे समझाकर कहिये। हे नाथ! श्रीराम के परमउपासक, ज्ञान के घनीभूत विग्रह, सम्पूर्ण श्रीवैष्णवगुणों के भवनस्वरूप, धीरबुद्धि वाले भुशुण्डि जी ने किस कारण से कौवे का शरीर प्राप्त किया? प्रभु मेरी इस जिज्ञासा को शान्त कीजिये और कहिये।

**यह प्रभु चरित पवित्र सुहावा। कहहु कृपालु काग कहँ पावा॥ तुम केहि भाँति सुना मदनारी। कहहु मोहि अति कौतुक भारी॥**
भाष्य

हे कृपालु! कृपा करके कहिये कि यह परमपवित्र सुहावना श्रीरामचरितमानस कौवे ने कैसे प्राप्त कर ली? क्योंकि कौवा मानससरोवर के पास नहीं जा सकता, यहाँ तो गया भी पाया भी और उसके एक घाट का रक्षक वक्ता भी बन बैठा? यह सब कैसे सम्भव हुआ, और हे मदन अर्थात्‌ काम के शत्रु शिव जी आपने किस प्रकार से काकभुशुण्डि जी से मानस सुना? मुझे इस प्रश्न का उत्तर दीजिये। इसका उत्तर जानने के लिए मेरे मन में बहुत– बड़ा कौतूहल अर्थात्‌ उत्सुकता है।

**गरुड महाग्यानी गुन रासी। हरि सेवक अति निकट निवासी॥ तेहि केहि हेतु काग सन जाई। सुनी कथा मुनि निकर बिहाई॥ कहहु कवन बिधि भा संबादा। दोउ हरिभगत काग उरगादा॥**
भाष्य

हे भूतभावन शिव जी! गरुड़ जी स्वयं बहुत–बड़े ज्ञानी हैं, श्रेष्ठ गुणों की राशिरूप भगवान्‌ श्रीहरि विष्णु जी के सेवक और उनके बहुत निकट निवास करने वाले हैं अर्थात्‌ श्रीमन्‌नारायण के विख्यात सोलह सेवकों में अन्यतम हैं। उन्होंने किस कारण से मननशील ऋषियों के समूह को छोड़कर श्रीरामकथा कौवे से जाकर सुनी। भगवन्‌! आप कृपा करके बतायें कि काक–गरुड़ संवाद किस विधि से सम्पन्न हुआ, क्योंकि काकभुशुण्डि जी और सर्पों के शत्रु गरुड़ दोनों ही श्रीहरि के भक्त हैं अर्थात्‌ समान कक्षा वाले दो महानुभावांें के बीच उपदेश और उपदेशक का निर्णय कैसे हुआ होगा?

**गौरि गिरा सुनि सरल सुहाई। बोले शिव सादर सुख पाई॥ धन्य सती पावनि मति तोरी। रघुपति चरन प्रीति नहिं थोरी॥ सुनहु परम पुनीत इतिहासा। जो सुनि सकल शोक भ्रम नासा॥ उपजइ राम चरन बिश्वासा। भव निधि तर नर बिनहिं प्रयासा॥**

दो०– ऐसेइ प्रश्न बिहंगपति, कीन्ह काग सन जाइ।

सो सब सादर कहउँ मैं, सुनहु उमा मन लाइ॥५५॥

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भाष्य

भगवती पार्वती जी की पाँच प्रश्नों से युक्त सरल और सुहावनी वाणी सुनकर सुख प्राप्त करके शिव जी आदरपूर्वक बोले, हे सती! पतिव्रता शिरोमणि! आप धन्य हैं। आपकी बुद्धि स्वयं पवित्र है और अन्यों को भी पवित्र करने वाली है। आपको रघुकुल के स्वामी भगवान्‌ श्रीराम के श्रीचरणों के प्रति थोड़ा प्रेम नहीं है अर्थात्‌ बहुत प्रेम है। हे पार्वती! अब आप वह परमपवित्र इतिहास सुनिये, जिसे सुनकर सम्पूर्ण शोक और भ्रम का नाश हो जाता है। साधक के मन में श्रीसीताराम जी के श्रीचरणों के प्रति विश्वास उत्पन्न हो जाता है और साधक बिना प्रयास के ही भवसागर से पार हो जाता है। इसी प्रकार का प्रश्न गरुड़ देव ने जाकर भुशुण्डि जी से किया था। मैं वह सब आदरपूर्वक कह रहा हूँ। हे पार्वती! मन लगाकर सुनिये।

**मैं जिमि कथा सुनी भव मोचनि। सो प्रसंग सुनु सुमुखि सुलोचनि॥ प्रथम दक्ष गृह तव अवतारा। सती नाम तब रहा तुम्हारा॥ दक्ष जग्य तव भा अपमाना। तुम अति क्रोध तजे तब प्राना॥ मम अनुचरन कीन्ह मख भंगा। जानहु तुम सो सकल प्रसंगा॥**
भाष्य

हे सुन्दर मुख वाली और हे सुन्दर नेत्रों वाली पार्वती! आप श्रीरामनाम का जप करती हैं, इसलिए आपका मुख सुमुख है, आप इन नेत्रों से राजीवलोचन श्रीराम को निहारती हैं, इसलिए आप सुलोचनि हैं। मैंने यह भवबन्धन से छुड़ाने वाली कथा काकभुशुण्डि जी से जाकर जिस प्रकार सुनी, वह प्रसंग आप सुनिये। प्रथम मन्वन्तर में दक्ष के गृह में आपका अवतार हुआ था, तब आपका सती नाम था। दक्ष के यज्ञ में आपका अपमान हुआ था। तब आपने अत्यन्त क्रोध के कारण अपने प्राणों का त्याग कर दिया था। मेरे अनुचर वीरभद्र आदि ने दक्ष–यज्ञ का भंग किया था, वह सब प्रसंग आप जानती हैं।

**विशेष– **यहाँ शिव जी ने पार्वती जी को सती–परित्याग और दक्ष–वध की घटना नहीं सुनायी कि जिससे पार्वती जी दु:खी न हो जायें।

तब अति सोच भयउ मन मोरे। दुखी भयउँ बियोग प्रिय तोरे॥ सुंदर बन गिरि सरित तड़ागा। कौतुक देखत फिरउँ बिरागा॥

भाष्य

तब मेरे मन में बहुत शोक हो गया और हे प्रिया पार्वती! आपके वियोग में मैं दु:खी हो गया। मैं राग से रहित होकर सुन्दर पर्वतों, वनों, नदियों और तालाबों को कौतूहलवशात्‌ देखता भ्रमण करता था, क्योंकि घर में आप नहीं थीं और भूतगण अपने तरंग में रह रहे थे। अत: मेरा कोई उत्तरदायित्व नहीं था।

**गिरि सुमेरु उत्तर दिशि दूरी। नील शैल एक सुंदर भूरी॥ तासु कनकमय शिखर सुहाए। चारि चारु मोरे मन भाए॥**
भाष्य

इस कैलाश पर्वत से उत्तर दिशा में सुदूर एक सुमेरु नामक स्वर्ण का पर्वत है, जिसका उपयोग प्रायश: देवता लोग ही करते हैं। वहीं पर बहुत सुन्दर नीलाचल नाम का पर्वत है, जो सुमेरु पर्वत का ही अंश जैसा कहा जा सकता है। उस नील पर्वत के स्वर्णमय चार सुन्दर शिखर हैं जो देखते ही मेरे मन में बहुत भा गये।

**तिन पर एक एक बिटप बिशाला। बट पीपर पाकरी रसाला॥ शैलोपरि सर सुंदर सोहा। मनि सोपान देखि मन मोहा॥**

दो०– शीतल अमल मधुर जल, जलज बिपुल बहुरंग।

कूजत कल रव हंस गन, गुंजत मंजुल भृंग॥५६॥

भाष्य

उन चारों शिखरों पर क्रमश: बर (वरगद), पीपल, पाक़डी और आम्र नाम के एक–एक विशाल वृक्ष हैं अर्थात्‌ एक पर वटवृक्ष, दूसरे पर पीपल, तीसरे पर पाक़डी और चौथे स्वर्ण शिखर पर आम्र का वृक्ष है। नील

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पर्वत के ऊपर ही सुन्दर सरोवर सुशोभित है। उसकी सीढि़याँ मणियों से बनी हुई हैं उसे देखते ही मेरा मन मोहित हो गया अर्थात्‌ उसकी शोभा पर आसक्त हो गया। उस सरोवर का जल शीतल, निर्मल और मधुर है। वहाँ बहुरंगे बहुत से कमल हैं और सुन्दर स्वरवाले हंसगण बोलते हैं तथा मधुर स्वर में भ्रमर गुंजार करते रहते हैं।

तेहिं गिरि रुचिर बसइ खग सोई। तासु नाश कल्पांत न होई॥ माया कृत गुन दोष अनेका। मोह मनोज आदि अबिबेका॥ रहे ब्यापि समस्त जग माहीं। तेहि गिरि निकट कबहुँ नहिं जाहीं॥

भाष्य

उस सुन्दर नील पर्वत पर वह पक्षी अर्थात्‌ काकभुशुण्डि जी निवास करते हैं। कल्प के अन्त में भी उनका नाश नहीं होता। जो माया के द्वारा उत्पन्न किये हुए अनेक गुण, अनेक दोष, मोह और काम आदि, अर्थात्‌ काम, क्रोध, लोभ, मद, मत्सर, विकार तथा अविवेक, अर्थात्‌ विवेक का विरोधीभाव अज्ञान है, यह सब यद्दपि समस्त संसार में व्याप्त हैं, फिर भी ये सब उस नील पर्वत के निकट कभी जाते ही नहीं।

**तहँ बसि हरिहिं भजइ जिमि कागा। सो सुनु उमा सहित अनुरागा॥ पीपर तरु तर ध्यान सो धरई। जाप जग्य पाकरि तर करई॥ आम छाँह कर मानस पूजा। तजि हरि भजन काज नहिं दूजा॥ बर तर कह हरि कथा प्रसंगा। आवहिं सुनहिं अनेक बिहंगा॥**
भाष्य

हे पार्वती! उस नील पर्वत पर निवास करके काकभुशुण्डि जी जिस प्रकार प्रेमपूर्वक श्रीहरि भगवान्‌ श्रीराम का भजन करते हैं, वह आप सावधान होकर सुनिये। पीपल वृक्ष के नीचे वे अर्थात्‌ भुशुण्डि जी भगवान्‌ श्रीराम का ध्यान धारण करते हैं, क्योंकि पीपल भगवान्‌ की विभूति है। श्रीरामनाम का जपरूप यज्ञ पाक़डी वृक्ष के नीचे करते हैं, क्योंकि उसका फल शीघ्र पकता है। अत: काकभुशुण्डि जी की धारणा के अनुसार पाक़डी के नीचे बैठकर जप करने से जप का फल भी शीघ्र परिपक्व होगा। काकभुशुण्डि जी आम्र की छाया में बैठकर भगवान्‌ श्रीराम की मानस पूजा करते हैं, क्योंकि काक शरीर के कारण हाथ-चरण के अभाव में वे शरीर द्वारा भगवान्‌ की पूजा नहीं कर सकते। भगवद्‌भजन के बिना काकभुशुण्डि जी का कोई दूसरा कार्य ही नहीं है। चूँकि आम्र का फल मधुर होता है, और पूजा में माधुर्य की अनुभूति होनी चाहिये, इसी अभिप्राय से मानसी पूजा के लिए काकभुशुण्डि जी ने आम्र वृक्ष की छाया का ही चुनाव किया। वटवृक्ष के नीचे काकभुशुण्डि जी महाराज श्रीहरि की कथाओं के प्रसंग कहते हैं। भगवत्‌कथा सुनने के लिए अनेक पक्षी आते हैं और सुनते हैं।

**विशेष– **मन के भवन में श्रीराम के आवाहन से लेकर पुष्पाञ्‌जलिपर्यन्त उपचारों का चिन्तन करना मानसी पूजा है। विवशता में यदि शरीर से प्रभु श्रीराम की पूजा न हो सके तो मन से ही भगवान्‌ की पूजा कर लेनी चाहिये। यूँ ही प्रत्येक श्रीरामभक्त को प्रात:काल एकान्त में बैठकर स्थिर मन से भावना करते हुए, मानसी पूजा करनी चाहिये।

रामचरित बिचित्र बिधि नाना। प्रेम सहित कर सादर गाना॥ सुनहिं सकल मति बिमल मराला। बसहिं निरंतर जे तेहि ताला॥ जब मैं जाइ सो कौतुक देखा। उर उपजा आनंद बिशेषा॥

दो०– तब कछु काल मराल तनु, धरि तहँ कीन्ह निवास।

सादर सुनि रघुपति चरित, पुनि आयउँ कैलास॥५७॥

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भाष्य

काकभुशुण्डि जी प्रेमपूर्वक आदर के साथ अपनी विचित्र और नाना प्रकार की शैली में नाना प्रकार के विविध आश्चर्यों से युक्त श्रीरामचरित का गान करते हैं। जो उस सरोवर में निवास करते हैं, वे सभी निर्मल बुद्धि वाले हंस, भुशुण्डि जी की कथा निरन्तर सुनते हैं। जब मैंने जाकर के वह कौतुक देखा तो मेरे हृदय में विशेष आनन्द उत्पन्न हुआ। तब मैंने हंस का शरीर धारण करके कुछ समय उस नील पर्वत पर निवास किया और आदरपूर्वक चौरासी प्रसंगों में कहे हुए इस श्रीरामचरित्र को सुनकर, जो तुम्हें भी सुनाया फिर मैं कैलाश आ गया।

**गिरिजा कहेउँ सो सब इतिहासा। मैं जेहि समय गयउँ खग पासा॥ अब सो कथा सुनहु जेहि हेतू। गयउ काग पहँ खग कुल केतू॥**
भाष्य

हे पार्वती! मैंने वह सब इतिहास आप से कह दिया कि जिस समय मैं स्वयं भुशुण्डि जी के पास गया था। अब वह कथा सुनिये, जिसके कारण पक्षीकुल के पताकास्वरूप गरुड़ जी काकभुशुण्डि जी के पास गये।

**जब रघुनाथ कीन्ह रन क्रीडा। समुझत चरित होति मोहि ब्रीडा॥ इंद्रजीत कर आपु बँधायो। तब नारद मुनि गरुड पठायो॥ बंधन काटि गयो उरगादा। उपजा हृदय प्रचंड बिषादा॥ प्रभु बंधन समुझत बहु भाँती। करत बिचार उरग आराती॥**
भाष्य

जब रघुकुल के स्वामी श्रीराम ने रणक्रीड़ा अर्थात्‌ युद्ध का खेल किया था, उस चरित्र को समझते हुए मुझे बहुत लज्जा हो रही है। उस युद्ध के कौतुक में स्वयं परमात्मा श्रीराम इन्द्र के विजेता मेघनाद के हाथों स्वयं को बँधा लिए थे अर्थात्‌ प्रभु की इच्छा से मेघनाद ने उन्हें नागपाश में बाँधा था। तब नारद मुनि ने प्रभु को छुड़ाने के लिए गव्र्डदेव को भेजा था। सर्पों के भक्षक गव्र्ड़ जी भगवान्‌ श्रीराम का नागपाश काटकर वैकुण्ठ लौट गये, परन्तु उनके हृदय में अत्यन्त दु:ख उत्पन्न हो गया। प्रभु श्रीराम का नागपाश बन्धन समझते ही सर्पों के शत्रु गरुड़ जी बहुत प्रकार से विचार करने लगे। गरुड़ जी सोचने लगे–

**ब्यापक ब्रह्म बिरज बागीशा। मायामोह पार परमीशा॥**

सो अवतरेउ सुनेउँ जग माहीं। देखोउँ सो प्रभाव कछु नाहीं॥

भाष्य

जो सर्वव्यापक, सबसे बड़े अर्थात्‌ अतिशय बृहत, रजोगुण से रहित, वाणी के ईश्वर, माया और मोह से परे, परमेश्वर श्रीराम हैं, वे ही विष्णु के भी विष्णु, ब्रह्मा के भी ब्रह्मा, शिव के भी शिव, पुराण पुरुषोत्तम भगवान्‌ श्रीराम इस संसार में अवतीर्ण हुए हैं। ऐसा मैंने भी वेदों और पुराणों में सुना है, परन्तु वह कुछ भी प्रभाव मैं नहीं देख रहा हूँ अर्थात्‌ व्यापक व्याप्य कैसे बन गये? सबसे बड़े ब्रह्म क्यों इतने छोटे हुए जिसे मेघनाद ने नागपाश में बाँधा? रजोगुण से रहित परमात्मा राजस भाव में आकर युद्ध करने लगे। वाणी के भी ईश्वर परमात्मा नारद जी के श्राप वाणी का अनुगमन करते हुए वानरों की सहायता की अपेक्षा किये। माया और मोह से परे भगवान्‌ आज मेघनाद के माया सर्पों के पाश में बँध गये और मू़ढ जीव की भाँति बन्धन नहीं काट सके। परम ईश्वर अर्थात्‌ सर्वसमर्थ होकर भी श्रीराम इतने असमर्थ हुए कि उन्हीं प्रभु के अन्तरंग अंश भगवान्‌ विष्णु जी के वाहन और छोटे से मुझ सेवक को अपने स्वामी विष्णु जी के भी अंशी महाविष्णु भगवान्‌ श्रीराम का नागपाश काटने आना पड़ा। अत: सर्वावतारी परमात्मा श्रीराम का इस समय कुछ भी प्रभाव नहीं दिख रहा है।

**दो०– भव बंधन ते छूटहिं, नर जपि जाकर नाम।**

खर्ब निशाचर बाँधेउ, नागपाश सोइ राम॥५८॥

भाष्य

जिनका नाम जपकर साधक जीव संसार के बन्धनों से छूट जाता है, उन्हीं भगवान्‌ श्रीराम को छोटे–से राक्षस ने नागपाश में बाँध दिया।

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नाना भाँति मनहिं समुझावा। प्रगट न ग्यान हृदय भ्रम छावा॥ खेद खिन्न मन तर्क ब़ढाइ। भयउ मोह बश तुम्हरिहिं नाई॥

भाष्य

गरुड़ जी ने अपने मन को नाना प्रकार से समझाया, फिर भी जीव होने के कारण अज्ञान से ढँका हुआ गव्र्ड़ जी का ज्ञान प्रकट नहीं हुआ। उनके हृदय में भ्रम छा गया। प्रभु की लीला का समाधान न पाने से उत्पन्न खेद के कारण दु:खी और क्षीण मन में अनेक तर्क ब़ढाकर सती शरीर में आप अर्थात्‌ पार्वती जी की ही भाँति गरुड़ जी मोह के वश हो गये।

**ब्याकुल गयउ देवरिषि पाहीं। कहेसि जो संशय निज मन माहीं॥ सुनि नारदहिं लागि अति दाया। सुनु खग प्रबल राम कै माया॥ जो ग्यानिन कर चित अपहरई। बरियाईं बिमोह मन करई॥ जेहिं बहु बार नचावा मोही। सोइ ब्यापी बिहंगपति तोही॥**
भाष्य

गरुड़ जी व्याकुल होकर देवर्षि नारद जी के पास गये और उनके मन में जो संशय था वह नारद जी से कहा। गरुड़ जी का संशय सुनकर नारद जी को बड़ी दया लगी और देवर्षि बोले, अरे खग! अर्थात्‌ निराधार आकाश में उड़नेवाले पक्षी ज्ञान शिरोमणि गरुड़! सुनो, श्रीराम की माया प्रकृष्ट बलवाली है, जो ज्ञानियों के भी चित्त का अपहरण कर लेती है और हठपूर्वक उन्हें विकृत मोह के वश में कर देती है। जिसने मुझे अर्थात्‌ नारद को भी बहुत बार नचाया। हे पक्षियों के स्वामी गरुड़ जी! वही भगवान्‌ श्रीराम की माया तुम्हें व्याप्त हो गई है।

**महा मोह उपजा उर तोरे। मिटिहि न बेगि कहे खग मोरे॥ चतुरानन पहिं जाहु खगेशा। सोइ करेहु जोइ देहिं निदेशा॥**
भाष्य

हे पक्षी! तेरे मन में महामोह उत्पन्न हो गया है। वह मेरे कहने से शीघ्र नहीं मिटेगा, क्योंकि मेरे पास अधिक समय नहीं है और तुम्हें शीघ्रता से किया हुआ उपदेश समझ में आयेगा नहीं, इसलिए हे पक्षियों के ईश्वर गरुड़। तुम चतुर्मुख ब्रह्मा जी के पास जाओ और वही करो जो ब्रह्मा जी आदेश दें।

**दो०– अस कहि चले देवरिषि, करत राम गुन गान।**

हरि माया बल बरनत, पुनि पुनि परम सुजान॥५९॥

भाष्य

इस प्रकार कहकर श्रीराम का गुणगान करते हुए बारम्बार भगवान्‌ श्रीराम की माया के बल का वर्णन करते हुए, परम चतुर देवर्षि नारद जी चल पड़े।

**तब खगपति बिरंचि पहँ गयऊ। निज संदेह सुनावत भयऊ॥ सुनि बिरंचि रामहिं सिर नावा। समुझि प्रताप प्रेम अति छावा॥**
भाष्य

तब पक्षियों के स्वामी गरुड़ जी ब्रह्मा जी के पास गये और उन्हें अपना सन्देह सुनाया। यह सुनकर ब्रह्मा जी ने भगवान्‌ श्रीराम को सिर नवाया। प्रभु का प्रताप समझकर ब्रह्मा जी के हृदय में अत्यन्त प्रेम छा गया।

**मन महँ करइ बिचार बिधाता। माया बश कबि कोबिद ग्याता॥ हरि माया कर अमित प्रभावा। बिपुल बार जेहिं मोहि नचावा॥**
भाष्य

ब्रह्मा जी मन में विचार करने लगे कि सभी मनीषी वेदज्ञतत्त्वों के ज्ञाता भगवान्‌ श्रीराम की माया के वश में हैं। प्रभु की माया का प्रभाव असीम है, जिसने अनेक बार मुझे भी नचा डाला।

**अग जगमय जग मम उपराजा। नहिं आचरज मोह खगराजा॥ तब बोले बिधि गिरा सुहाई। जान महेश राम प्रभुताई॥**

[[८९४]]

बैनतेय शङ्कर पहँ जाहू। तात अनत पूछहु जनि काहू॥ तहँ होइहिं तव संशय हानी। चले बिहंग सुनत बिधि बानी॥

भाष्य

जबकि ज़ड-चेतन ―प यह संसार मेरा ही उत्पन्न किया हुआ है, और मैं स्वयं अनेक बार इस माया से मोहित हुआ तब फिर हे गरुड़ जी! आपके लिए यह मोह–माया का चक्कर कोई आश्चर्य नहीं है। तब ब्रह्मा जी सुन्दर वाणी बोले, महान ईश्वर शिव जी, श्रीराम की प्रभुता जानते हैं। हे विनता के पुत्र गरुड़। तुम शिव जी के पास जाओ और हे वत्स! अन्यत्र किसी से कुछ भी नहीं पूछना। वहाँ अर्थात्‌ शिव जी के यहाँ तुम्हारे संशय की हानि हो जायेगी अर्थात्‌ तुम्हारा संशय नष्ट हो जायेगा। ब्रह्मा जी की वाणी सुनते ही पक्षीराज गरुड़ जी आकाश मार्ग से चल पड़े।

**दो०– परमातुर बिहंगपति, आयउ तब मो पास।**

जात रहेउँ कुबेर गृह, रहिहु उमा कैलास॥६०॥

भाष्य

ब्रह्मा जी के निर्देश के पश्चात्‌ परम आतुर अर्थात्‌ संशय के समाधान के लिए परम व्याकुल और मोहरूप रोग से अत्यन्त आतुर अर्थात्‌ विकल पक्षियों के स्वामी गरुड़ जी तब मेरे पास आये। मैं कुबेर के घर जा रहा था। हे पार्वती! उस समय तक आपका अवतार हो चुका था तथा आपका मेरे साथ विवाह भी हो चुका था, परन्तु गरुड़ जी के आने के समय आप कार्तिकेय और गणपति की व्यवस्था में कैलाश पर ही रह गई थीं। मैं अकेले कुबेर के घर जा रहा था।

**तेहिं मम पद सादर सिर नावा। पुनि आपन संदेह सुनावा॥ सुनि ता करि बिनीत मृदु बानी। प्रेम सहित मैं कहेउँ भवानी॥**
भाष्य

उन गरुड़ जी ने आदरपूर्वक मेरे चरणों पर मस्तक नवाया, फिर अपना सन्देह सुनाया। हे भवानी! उन गरुड़ जी की विनम्र कोमल वाणी सुनकर मैं अर्थात्‌ मुझसे अभिन्न शिव ने, किंबा मुझ रूप शिव ने प्रेमपूर्वक कहा।

**मिलेहु गरुड मारग महँ मोही। कवनि भाँति समुझावौं तोही॥**

तबहिं होइ सब संशय भंगा। जब बहु काल करिय सतसंगा॥

भाष्य

हे गरुड़! तुम मुझे मार्ग में जाते समय मिले हो, मैं तुम्हें किस प्रकार से समझाऊँ ? क्योंकि अभी मैं कुछ आवश्यक कार्य से कुबेर के पास जा रहा हूँ। यात्रा तोड़ नहीं सकता तथा रूकने का समय नहीं है। तुम्हारे सभी संशय का नाश तो तब हो सकता है जब तुम बहुत कालपर्यन्त सत्संग करोगे।

**सुनिय तहाँ हरि कथा सुहाई। नाना भाँति मुनिन जो गाई॥ जेहि महँ आदि मध्य अवसाना। प्रभु प्रतिपाद्द राम भगवाना॥**
भाष्य

वहाँ अर्थात्‌ सत्संग में भगवान्‌ की वह सुहावनी कथा सुनो, जिसे मुनियों ने नाना प्रकार से गाया है। जिस श्रीरामकथा के आदि, मध्य और अन्त में भगवान्‌ के रूप में ही प्रभु श्रीराम प्रतिपाद्द हैं अर्थात्‌ प्रतिपादन विषय हैं। तात्पर्य यह है कि हमें वह कथा सुननी चाहिये, जो आदि से लेकर अन्त तक श्रीराम को भगवान्‌ के रूप में ही प्रतिपाद्द करती हो।

**नित हरि कथा होत जहँ भाई। पठवउँ तहाँ सुनहु तुम जाई॥ जाइहिं सुनत सकल संदेहा। राम चरन होइहिं अति नेहा॥**

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भाष्य

हे भैया गरुड़! जिस स्थान पर श्रीहरि भगवान्‌ श्रीराम की कथा निरन्तर होती है, मैं तुम्हें वहीं भेजता हूँ। तुम वहीं जाकर श्रीरामकथा सुनो। उस कथा को सुनते ही तुम्हारे सम्पूर्ण सन्देह चले जायेंगे और भगवान्‌ श्रीराम के श्रीचरणों में अत्यन्त प्रेम उत्पन्न होगा।

**दो०– बिनु सतसंग न हरि कथा, तेहि बिनु मोह न भाग।**

मोह गए बिनु राम पद, होइ न दृ़ढ अनुराग॥६१॥ मिलहिं न रघुपति बिनु अनुरागा। किए जोग जप ग्यान बिरागा॥

भाष्य

बिना सत्संग के श्रीहरिकथा सम्भव नहीं है और भगवान्‌ की कथा के बिना मोह भागता ही नहीं। मोह के बिना गये श्रीराम के श्रीचरणों में दृ़ढ अनुराग नहीं होता। योग, जप, ज्ञान और वैराग्य आदि साधन करने पर भी अनुराग के बिना रघुपति भगवान्‌ श्रीराम नहीं मिलते। जप, योग, ज्ञान, वैराग्य, अनुराग के बिना व्यर्थ है और वह अनुराग मोह के रहते सम्भव नहीं है। मोह का विनाश श्रीरामकथा श्रवण के बिना हो ही नहीं सकता तथा श्रीरामकथा सत्संग के बिना सम्भव ही नहीं है।

**उत्तर दिशि सुंदर गिरि नीला। तहँ रह कागभुशुंडि सुशीला॥ राम भगति पथ परम प्रबीना। ग्यानी गुन गृह बहु कालीना॥**
भाष्य

उत्तर दिशा में एक सुन्दर नीलगिरि नाम का पर्वत है, वहाँ सुन्दर स्वभाववाले, श्रीरामभक्ति के मार्ग में परम प्रवीण, भगवद्‌ तत्त्वज्ञान से सम्पन्न, सम्पूर्ण श्रेष्ठ गुणों के भवन और बहुत काल से चिरन्जीवी काकभुशुण्डि जी रहते हैं।

**राम कथा सो कहइ निरंतर। सादर सुनहिं बिबिध बिहंगबर॥ जाइ सुनहु तहँ हरि गुन भूरी। होइहि मोह जनित दुख दूरी॥**
भाष्य

वे भुशुण्डि जी निरन्तर श्रीरामकथा कहते हैं, और उसे अनेक श्रेष्ठ पक्षी आदरपूर्वक सुनते हैं। हे गव्र्ड़ वहाँ जाकर श्रीहरि भगवान्‌ श्रीराम के बहुत से गुणों को सुनो, इससे मोह से उत्पन्न तुम्हारे दु:ख दूर हो जायेंगे।

**मैं जब तेहि सब कहा बुझाई। चलेउ हरषि मम पद सिर नाई॥ ताते उमा न मैं समुझावा। रघुपति कृपा मरम मैं पावा॥ होइहि कीन्ह कबहुँ अभिमाना। सो खोवै चह कृपानिधाना॥ कछु तेहि ते पुनि मैं नहिं राखा। समुझइ खग खगही कै भाषा॥**
भाष्य

जब मैंने गरुड़ जी को सब कुछ समझाकर कहा, तब वे प्रसन्न होकर मेरे चरणों में सिर नवाकर चल पड़े। हे पार्वती! इसलिए मैंने गरुड़ जी को नहीं समझाया, क्योंकि भगवान्‌ श्रीराम की कृपा से मैंने प्रभु की लीला का रहस्य प्राप्त कर लिया था अर्थात्‌ जान गया था। मैं समझ गया था कि कभी–कभार गरुड़ जी ने अभिमान किया होगा तथा कृपा के कोशस्वरूप भगवान्‌ श्रीराम, गरुड़ जी का वह अभिमान नष्ट करना चाहते हैं, इसलिए फिर मैंने कुछ भी क्षण गरुड़ जी को अपने पास नहीं रखा और तुरन्त भुशुण्डि जी के पास भेजा, क्योंकि पक्षी, पक्षी की ही

भाषा समझता है।

प्रभु माया बलवंत भवानी। जाहि न मोह कवन अस ग्यानी॥

भाष्य

हे भवानी! भगवान्‌ की माया बहुत बलवती है, ऐसा कौन ज्ञानी है जिसको यह नहीं मोहित कर लेती ?

**दो०– ग्यानी भगत शिरोमनि, त्रिभुवनपति कर यान।**

ताहि मोह माया प्रबल, पामर करहिं गुमान॥६२(क)॥

[[८९६]]

शिव बिरंचि कहँ मोहइ, को है बपुरा आन।

**अस जिय जानि भजहिं मुनि, माया पति भगवान॥६२(ख)॥ भा०– **जो गरुड़ जी ज्ञानी भक्तों के शिरोमणि और तीनों लोकों के पति भगवान्‌ विष्णु के वाहन हैं, जब उनको भी उस महाबलशालिनी माया ने मोहित कर लिया, फिर साधारण पामर लोग अभिमान करते हैं यह उचित नहीं है।

भगवान्‌ श्रीराम की यह माया तो शिव, ब्रह्मा को भी मोहित कर लेती है, फिर और साधारण जीव कौन है अर्थात्‌ वह तो क्षण भर में ही मोहित हो जायेगा। ऐसा हृदय में जानकर मननशील मुनिगण माया के पति भगवान्‌ श्रीराम का भजन करते हैं।

गयउ गरुड़ जहँ बसइ भुशुंडी। मति अकुंठ हरि भगति अखंडी॥ देखि शैल प्रसन्न मन भयऊ। माया मोह सोच सब गयऊ॥ करि तड़ाग मज्जन जलपाना। बट तर गयउ हृदय हरषाना॥ बृंद बृंद बिहंग तहँ आए। सुनै राम के चरित सुहाए॥

भाष्य

तब गरुड़ जी वहाँ गये जहाँ भशुण्डि जी निवास करते हैं, जिनकी बुद्धि संसार की कुण्ठाओं से रहित है तथा जिनमें श्रीराम की अखण्ड भक्ति है। नीलाचल पर्वत देखकर गरुड़ जी का मन प्रसन्न हो गया और उनका माया, मोह और सम्पूर्ण सोच चला गया। नील पर्वत पर वर्तमान सरोवर में स्नान, सन्ध्या और जलपान करके हृदय में हर्षित हुए गव्र्ड़ जी वटवृक्ष के नीचे गये जो भुशुण्डि जी का कथा वाचन स्थल है। श्रीराम की सुहावनी चरित्र सुनने के लिए वहाँ पर अनेक समूहों में झुण्ड–झुण्ड बनाकर पक्षीगण आये थे।

**कथा अरंभ करै सोइ चाहा। तेही समय गयउ खगनाहा॥ आवत देखि सकल खगराजा। हरषेउ बायस सहित समाजा॥ अति आदर खगपति कर कीन्हा। स्वागत पूँछि सुआसन दीन्हा॥ करि पूजा समेत अनुरागा। मधुर बचन तब बोलेउ कागा॥**
भाष्य

भुशुण्डि जी कथा का आरम्भ ही करना चाहते थे कि उसी समय वहाँ पक्षियों के राजा गरुड़ जी पहुँचे अर्थात्‌ न तो गरुड़ जी कथा के बीच में पहुँचे जिससे कथा में विक्षेप पड़े और न ही कथा क्रम के बीच में पहुँचे जिससे गव्र्ड़ जी को समझाने के लिए भुशुण्डि जी को बीच का क्रम तोड़कर बालकाण्ड से फिर कथा का प्रारम्भ करना पड़े। वस्तुत: वह संयोग ऐसा ही था कि गरुड़ जी के गमन के पूर्वदिन उत्तरकाण्ड की सम्पूर्णता हो गई थी। अब अगले दिन बालकाण्ड का प्रारम्भ होना था और भुशुण्डि जी मंगलाचरण करने ही जा रहे थे कि गरुड़ वहाँ पहुँच गये। सम्पूर्ण पक्षियों के राजा गरुड़ को आते हुए देखते ही पक्षी श्रोतासमाज के सहित काकभुशुण्डि जी बहुत प्रसन्न हो उठे। उन्होंने पक्षियों के स्वामी गरुड़ जी का अत्यन्त आदर किया। स्वागत पूछकर अर्थात्‌ आपको आने में कोई कष्ट तो नहीं हुआ, इस प्रकार पूछकर भुशुण्डि जी ने गरुड़ जी को सुन्दर आसन दिया। प्रेम के साथ गरुड़ जी की पूजा करके फिर काकभुशुण्डि जी मधुर स्वर में बोले–

**दो०– नाथ कृतारथ भयउँ मैं, तव दरशन खगराज।**

आयसु देहू सो करौं अब, प्रभु आयहु केहि काज॥६३(क)॥

भाष्य

हे पक्षियों के राजा गरुड़ जी आपके दर्शनों से मैं कृतार्थ हो गया हूँ, अब मुझे आप जो आज्ञा दें वह करूँ। हे प्रभु! आप किस कार्य से आये हैं?

**सदा कृतारथ रूप तुम, कह मृदु बचन खगेश।**

जेहि कै अस्तुति सादर, निज मुख कीन्ह महेश॥६३(ख)॥

[[८९७]]

भाष्य

पक्षियों के राजा गरुड़ जी ने कोमल वचन में कहा कि हे भुशुण्डि जी! आप सदैव कृतार्थस्वरूप हैं, जिन आपश्री की स्तुति स्वयं महादेव जी ने अपने मुख से की।

**सुनहु तात जेहि कारज आयउँ। सो सब भयउ दरस तव पायउँ॥ देखि परम पावन तव आश्रम। गयउ मोह संशय नाना भ्रम॥**
भाष्य

हे तात! मैं जिस कार्य के लिए आया हूँ, वह सब सम्पन्न हो गया। मैंने आपके दर्शन पा ली। आपका परम पवित्र आश्रम देखकर ही मेरे मोह, संशय और नाना प्रकार के भ्रम चले गये।

**अब श्रीराम कथा अति पावनि। सदा सुखद दुख पुंज नशावनि॥ सादर तात सुनावहु मोही। बार बार बिनवउँ प्रभु तोही॥**
भाष्य

अब अत्यन्त पवित्र सदैव सुख देनेवाली, दु:ख के समूहों को नष्ट करनेवाली श्रीरामकथा आप मुझे सुनायें। हे मेरे प्रेमास्पद! हे सर्वसमर्थ मेरे गुरुतुल्य स्वामी भुशुण्डि जी! मैं बार–बार आदरपूर्वक आपसे प्रार्थना करता हूँ।

**सुनत गरुड़ कै गिरा बिनीता। सरल सप्रेम सुखद सुपुनीता॥ भयउ तासु मन परम उछाहा। लाग कहै रघुपति गुन गाहा॥**
भाष्य

गरुड़ जी की विनम्र, सरल, प्रेमपूर्ण, सुखदायक और पवित्र वाणी सुनते ही उन भुशुण्डि जी के मन में परम उत्साह हुआ और वे अर्थात्‌ भुशुण्डि जी रघुकुल के स्वामी भगवान्‌ श्रीराम जी की गुणगाथायें चौरासी प्रसंगों में कहने लगे।

**प्रथमहिं अति अनुराग भवानी। रामचरित सर कहेसि बखानी॥ पुनि नारद कर मोह अपारा। बहुरि कहेसि रावन अवतारा॥ प्रभु अवतार कथा पुनि गाई। तब शिशु चरित कहेसि मन लाई॥**

दो०– बालचरित कहि बिबिध बिधि, मन महँ परम उछाह।

रिषि आगमन कहेसि पुनि, श्रीरघुबीर बिबाह॥६४॥

भाष्य

शिव जी पार्वती जी को सम्बोधित करते हुए कहते हैं कि हे पार्वती! भुशुण्डि जी ने सर्वप्रथम अत्यन्त अनुराग के साथ श्रीरामचरितमानस को व्याख्यान के साथ समझाकर कहा अर्थात्‌ बालकाण्ड के ३५ दोहों में भूमिका कहकर ३६वें दोहे से १२४वें दोहे तक पहला प्रसंग सुनाया। फिर अपार नारद का मोह १/१२५/१ से १/१३७/१ तक सुनाया। फिर भुशुण्डि जी ने १/१३८/१ से १/१४०/१ तक रावण के अवतार की कथा कही। फिर १/१४१/१ से १/१९२ तक प्रभु श्रीराम के अवतार की कथा भुशुण्डि जी ने गाकर सुनायी। इसके पश्चात्‌ भुशुण्डि जी ने मन लगा कर १/१९३/१ से १/२०२ तक भगवान्‌ श्रीराम का शिशुचरित्र कहा। फिर मन में परम उत्साह के साथ १/२०३/१ से १/२०५ तक अनेक प्रकार से प्रभु का बालचरित्र कहकर पुन: १/२०६/१ से १/२११/८ तक ऋषि आगमन अर्थात्‌ विश्वामित्र जी का आगमन कहा। फिर १/२११/९ से १/३६१ तक भगवान्‌ श्रीसीतारामजी के विवाह का वर्णन किया, इस प्रकार बालकाण्ड में आठ प्रसंग कहे गये।

**बहुरि राम अभिषेक प्रसंगा। पुनि नृप बचन राज रस भंगा॥ पुरबासिन कर बिरह बिषादा। कहेसि राम लछिमन संबादा॥**
भाष्य

फिर भुशुण्डि जी ने मानस दो में प्रारम्भ से २/११/५ तक श्रीरामराज्याभिषेक प्रसंग का वर्णन किया। पुन: २/११/६ से २/४६/५ तक महाराज दशरथ जी के द्वारा कैकेयी को दिये हुए वचन के कारण श्रीरामराज्याभिषेक में हुए रसभंग अर्थात्‌ विघ्न की चर्चा की। पुन: २/४६/६ से २/६९ तक भुशुण्डि जी ने श्रीसीता, कौसल्या जी के

[[८९८]]

सहित श्रीअवधपुरवासियों के विरह एवं विषाद की चर्चा की। फिर २/७० से २/७५ तक श्रीराम–लक्ष्मण संवाद का वर्णन किया।

बिपिन गमन केवट अनुरागा। सुर सरि उतरि निवास प्रयागा॥ बालमीकि प्रभु मिलन बखाना। चित्रकूट जिमि बसे भगवाना॥

भाष्य

फिर भुशुण्डि जी ने २/७६/१ से २/८७ तक भगवान्‌ श्रीराम के वनगमन की चर्चा की तथा २/८८/१ से २/१०२ तक केवट के अनुराग का वर्णन किया। फिर भुशुण्डि जी ने प्रभु के द्वारा गंगा पार करके प्रयाग में निवास किये जाने का वर्णन २/१०३ से २/१०८ तक किया। २/१०९/१ से २/१३२ तक भुशुण्डि जी ने वाल्मीकि जी से प्रभु श्रीराम के मिलन का वर्णन किया। जिस प्रकार श्रीचित्रकूट में भगवान्‌ श्रीराम ने निवास किया वह वर्णन २/१३३/१ से २/१४२/३ तक प्रस्तुत किया।

**सचिवागमन नगर नृप मरना। भरतागमन प्रेम बहु बरना॥ करि नृप क्रिया संग पुरबासी। भरत गए जहँ प्रभु सुखरासी॥**
भाष्य

श्रीभुशुण्डि जी ने २/१४२/४ से २/१४८ तक श्रीअवध में सुमंत्र जी के आगमन का वर्णन किया। फिर २/१४९/१ से २/१५६ तक भुशुण्डि जी ने महाराज चक्रवर्ती जी के मरण का वर्णन किया। फिर २/१५७/१ से २/१५९/३ तक भुशुण्डि जी ने ननिहाल से भरत जी के आगमन का वर्णन किया। फिर २/१५९/४ से दोहा २/१६९ तक भरत जी के विपुल प्रेम का वर्णन किया। पुन: २/१७०/१ से २/१७१/१ तक दशरथ जी के अन्त्येष्टि क्रिया का वर्णन हुआ। इस प्रकार महाराज की अन्त्येष्टि क्रिया करके पुरवासियों को अपने साथ लेकर भरत जी जहाँ सुख की राशि प्रभु श्रीराम विराज रहे हैं, उस श्रीचित्रकूटवन में गये इसका वर्णन २/१७१/२ से २/२५२/७ तक है।

**पुनि रघुपति बहुबिधि समुझाए। लै पादुका अवधपुर आए॥ भरत रहनि सुरपति सुत करनी। प्रभु अरु अत्रि भेंटि पुनि बरनी॥**
भाष्य

फिर रघुकुल के स्वामी भगवान्‌ श्रीराम ने भरत जी को बहुत प्रकार से समझाया यह प्रसंग २/२५२/८ से २/३१६/१ तक वर्णित है। अनन्तर श्रीभरत प्रभु की दोनों पादुकायें लेकर श्रीअवधपुर लौट आये इस प्रसंग को भुशुण्डि जी ने २/३१६/२ से २/३२२/५ तक कहा। फिर भुशुण्डि जी ने भरत जी की रहनि का २/३२२/६ से २/३२६ अर्थात्‌ अयोध्याकाण्ड के विश्रामपर्यन्त तक वर्णन किया। इस प्रकार अयोध्याकाण्ड में अठारह प्रसंग कहे गये। पुन: भुशुण्डि जी ने अरण्यकाण्ड के प्रारम्भ से दोहा क्रमांक २ तक इन्द्र पुत्र जयन्त की करतूति तथा प्रभु की कृपा का वर्णन किया। फिर भुशुण्डि जी ने ३/३/१ से ३/६ख दोहे तक प्रभु श्रीराम की महर्षि अत्रि से भेंट का वर्णन किया।

**दो०– कहि बिराध बध जेहि बिधि, देह तजी सरभंग।**

बरनि सुतिच्छन प्रीति पुनि, प्रभु अगस्त्यकर संग॥६५॥

भाष्य

फिर भुशुण्डि जी ने ३/७/१ से ३/७/७ तक प्रभु द्वारा विराध राक्षस के वध का वर्णन करके ३/७/८ से ३/९/४ तक उस प्रसंग की चर्चा कि जिस विधि से महर्षि शरभंग जी ने अपने शरीर का त्याग किया था। पुन: ३/९/५ से ३/११ तक सुतीक्ष्ण जी के प्रेमलक्षणा भक्ति का वर्णन करके ३/१२/१ से ३/१३/१४ तक प्रभु श्रीराम जी एवं अगस्त्य जी के संग का वर्णन किया।

**कहि दंडक बन पावनताई। गीध मयित्री पुनि तेहिं गाई॥ पुनि प्रभु पंचबटी कृत बासा। भंजी सकल मुनिन की त्रासा॥**

[[८९९]]

भाष्य

फिर भुशुण्डि जी ने ३/१३/१५ से ३/१३/२१ तक श्रीराम द्वारा सम्पन्न की गई दण्डकवन की पवित्रता का वर्णन करके पुन: उन्होंने ३/१३ तक अर्थात्‌ मात्र एक दोहे में गृध्रराज के साथ प्रभु के मैत्री अर्थात्‌ विश्वास का गान किया। फिर भगवान्‌ श्रीराम जी ने पंचवटी में निवास करते हुए सभी मुनियों के भय को समाप्त कर दिया, यह वर्णन ३/१४/१ से ३/१४/४ तक मात्र चार चौपाईयों में भुशुण्डि जी द्वारा किया गया।

**विशेष– **यहाँ मैत्री शब्द विश्वासवाचक है, जैसे कौटिल्य जी कहते हैं *“तन्‌** मित्रं यत्र विश्वास:”।** ***पुनि लछिमन उपदेश अनूपा। सूपनखा जिमि कीन्ह कुरूपा॥ खर दूषन बध बहुरि बखाना। जिमि सब मरम दशानन जाना॥**
भाष्य

फिर भगवान्‌ श्रीराम ने लक्ष्मण जी को अनुपम उपदेश दिया इस प्रसंग को भुशुण्डि जी ३/१४/५ से ३/१७/२ तक कहते हैं। जिस प्रकार भगवान्‌ श्रीराम ने लक्ष्मण जी को निमित्त बनाकर शूर्पणखा को विरूपित किया अर्थात्‌ उसके नाक–कान काटे यह प्रसंग ३/१७/३ से ३/१७ दोहे तक कहा गया। फिर भुशुण्डि जी ने ३/१८/१ से ३/२१/४ तक खर–दूषण–त्रिशिरा के वध का वर्णन किया। जिस प्रकार से रावण ने सम्पूर्ण मर्मों को जाना यह प्रसंग ३/२१/५ से ३/२४/५ तक कहा गया।

**दशकंधर मारीच बतकही। जेहि बिधि भई सो सब तेहिं कही॥ पुनि माया सीता कर हरना। श्रीरघुबीर बिरह कछु बरना॥**
भाष्य

जिस प्रकार से रावण और मारीच की बातचीत हुई, वह सब भुशुण्डि जी ने ३/२४/६ से दोहा क्रमांक ३/२६ तक कही। फिर भुशुण्डि जी ने ३/२७/१ से दोहा क्रमांक ३/३१ख तक माया की सीता जी के हरण का वर्णन किया और पुन: ३/३२/१ से ३/३२/१९ तक भुशण्डि जी ने श्रीरघुवीर के विरह का कुछ वर्णन किया।

**पुनि प्रभु गीध क्रिया जिमि कीन्ही। बधि कबंध शबरिहिं गति दीन्ही॥ बहुरि बिरह बरनत रघुबीरा। जेहि बिधि गए सरोबर तीरा॥**
भाष्य

फिर प्रभु श्रीराम ने जिस प्रकार गृध्रराज जटायु जी की अन्त्येष्टि क्रिया की, वह वर्णन भुशुण्डि जी ने ३/३२/२० से ३/३५/३ तक किया है। प्रभु ने कबन्ध को मार कर जिस प्रकार शबरी माता को गति दी, यह प्रसंग ३/३५/४ से ३/३८ तक सम्पन्न किया गया। पुन: विरह का वर्णन करते हुए रघुवीर श्रीराम जिस प्रकार से पम्पासरोवर को गये, यह प्रसंग भुशुण्डि जी ने ३/३९/१ से ३/४३/४ तक कहा।

**दो०– प्रभु नारद संबाद कहि, मारुति मिलन प्रसंग।**

पुनि सुग्रीव मिताई, बालि प्रान कर भंग॥६६(क)॥

भाष्य

भुशुण्डि जी ने अरण्यकाण्ड के अन्त में ३/४३/५ से ३/४८ अर्थात्‌ विश्राम तक प्रभु श्रीराम और नारद जी के संवाद करके २० प्रसंगों मे अरण्यकाण्ड को विश्राम देकर पुन: किष्किन्धाकाण्ड के प्रारम्भ से उसके चतुर्थ दोहे की प्रथम पंक्ति तक श्रीराम जी के साथ हनुमान जी के मिलन प्रसंग का वर्णन किया। फिर ४/४/२ से ४/५/८ तक प्रभु के साथ सुग्रीव जी की मित्रता का वर्णन करके दोहा क्रमांक ४/५ से ४/११/१० तक वालि के प्राणत्याग

का वर्णन किया।

कपिहिं तिलक करि प्रभु कृत, शैल प्रबरषन बास।

वरनन बर्षा शरद अरु, राम रोष कपि त्रास॥६६(ख)॥

भाष्य

फिर भगवान्‌ श्रीराम ने वानर सुग्रीव जी को लक्ष्मण जी को निमित्त बनाते हुए राजतिलक करके भ्राता लक्ष्मण जी के साथ प्रवर्षण पर्वत पर निवास किया भुशुण्डि जी ने इस प्रसंग को ४/११/११ से ४/१३/७ तक

[[९००]]

कहा। पुन: वर्षा और शरद का वर्णन ४/१३/८ से दोहा क्रमांक ४/१७ तक सुग्रीव जी पर भगवान्‌ श्रीराम का रोष ४/१८/१ से ४/१८ तक तथा वानरों का भय, अर्थात्‌ त्रास ४/१९/१ से ४/२१/८ तक वर्णित हुआ।

जेहि बिधि कपिपति कीस पठाए। सीता खोज सकल दिशि धाए॥ बिबर प्रबेश कीन्ह जेहि भाँती। कपिन बहोरि मिला संपाती॥

भाष्य

जिस प्रकार से वानरराज श्रीसुग्रीव जी ने चारों दिशाओं में वानर भालुओं को भेजा यह प्रसंग दोहा क्रमांक ४/२१ से ४/२३/७ तक कहा गया। पुन: जिस प्रकार से वानर और भालु, भगवती सीता जी की खोज के लिए सम्पूर्ण दिशाओं में दौड़कर गए, भुशुण्डि जी ने यह प्रसंग ४/२३/८ से ४/२४/२ तक कहा। जिस प्रकार वानर भालुओं ने पृथ्वी की गुफा में प्रवेश किया भुशुण्डि जी ने इस प्रसंग का ४/२४/३ से दोहा क्रमांक ४/२५ तक वर्णन किया। फिर वानरों से सम्पाती गृध्र मिले यह प्रसंग ४/२६/१ से ४/२८/११ तक कहा गया।

**सुनि सब कथा समीर कुमारा। नाघत भयउ पयोधि अपारा॥ लंका कपि प्रबेश जिमि कीन्हा। पुनि सीतहिं धीरज जिमि दीन्हा॥**
भाष्य

पुन: सम्पाती से सम्पूर्ण कथा सुनकर वायुपुत्र हनुमान जी ने अपार सागर को लाँघा। सम्पाती से कथा सुनने के प्रसंग को भुशुण्डि जी ने ४/२८/१२ से किष्किन्धाकाण्ड के विश्राम अर्थात्‌ ४/३०ख तक कहा। इस प्रकार बारह प्रसंगों में किष्किन्धाकाण्ड सम्पन्न हुआ। वायुपुत्र हनुमान जी ने अपार सागर को लाँघा भुशुण्डि जी ने सुन्दरकाण्ड के प्रारम्भ से ५/३/५ तक यह प्रसंग प्रस्तुत किया। जिस प्रकार हनुमान जी ने लंका नगर में प्रवेश किया भुशुण्डि जी ने गरुड़ जी को वह प्रसंग ५/३/६ से ५/८/२ तक कहा। फिर हनुमान जी ने जिस प्रकार श्रीसीता को धैर्य दिया अर्थात्‌ धैर्य धारण कराया भुशुण्डि जी द्वारा यह प्रसंग ५/८/३ से ५/१७/७ तक कहा गया।

**बन उजारि रावनहिं प्रबोधी। पुर दहि नाघेउ बहुरि पयोधी॥ आए कपि सब जहँ रघुराई। बैदेही की कुशल सुनाई॥**
भाष्य

हनुमान जी ने वन को उजाड़कर रावण को समझाया। लंका नगर को जलाकर फिर सागर लाँघ गये यहाँ एक साथ तीन प्रसंग कहे गये हैं। जिनमें वनविध्वंस प्रसंग ५/१७/८ से ५/२०/४ तक, रावण प्रबोध प्रसंग ५/२०/५ से ५/२४/४ तक नगरदहन तथा पुन: समुद्र लंघन प्रसंग ५/२४/५ से ५/२८/५ तक तक कहा गया है। सभी वानर जहाँ श्रीराम थे वहाँ आये यह प्रसंग ५/२८/६ से ५/२९ दोहा तक कहा गया है। हनुमान जी ने श्रीराम को श्रीसीता का कुशल समाचार सुनाया यह प्रसंग ५/३०/१ से ५/३४/८ तक कहा गया है।

**सेन समेत जथा रघुबीरा। उतरे जाइ बारिनिधि तीरा॥**

मिला बिभीषन जेहि बिधि आई। सागर निग्रह कथा सुनाई॥

भाष्य

जिस प्रकार सेना के सहित भगवान्‌ श्रीराम जी जाकर सागर के तट पर उतरे और जिस प्रकार से लंका से आकर विभीषण जी भगवान्‌ श्रीराम जी को मिले तथा जिस प्रकार भगवान्‌ श्रीराम ने समुद्र का निग्रह किया भुशुण्डि जी ने वह सब कथा गरुड़ जी को सुनायी। यहाँ भगवान्‌ श्रीराम का सागर तीर पर अवतरण प्रसंग ५/३४/९ से ५/३५ दोहे तक, पुन: विभीषण मिलन प्रसंग ५/३६/१ से ५/५०/२ तक और सागर निग्रह प्रसंग ५/५०/३ से ५/६० तक अर्थात्‌ सुन्दरकाण्ड के विश्राम तक कहा गया, इस प्रकार ग्यारह प्रसंगों में सुन्दरकाण्ड सम्पन्न हुआ।

**दो०– सेतु बाँधि कपि सेन जिमि, उतरी सागर पार।**

गयउ बसीठी बीरबर, जेहि बिधि बालिकुमार॥६७(क)॥

[[९०१]]

भाष्य

जिस प्रकार वानरी सेना प्रभु के द्वारा बाँधे हुए सेतुबन्ध से सागर पर उतरी और जिस प्रकार वीरों में श्रेष्ठ वालिपुत्र अंगद जी, भगवान्‌ श्रीराम के दूत बनकर लंका गये भुशुण्डि जी ने सेतुबन्ध प्रसंग को युद्धकाण्ड के प्रारम्भ से १६वें दोहे तक और अंगद–रावण संवाद प्रसंग को युद्धकाण्ड के १७वें दोहे से दोहा ३८,ख. तक कहा।

**निशिचर कीस लराई, बरनसि बिबिध प्रकार।**

कुंभकरन घननाद कर, बल पौरुष संघार॥६७(ख)॥

भाष्य

भुशुण्डि जी ने अनेक प्रकार से सम्पन्न हुए राक्षसों और वानरों की लड़ाई का वर्णन किया। कुम्भकर्ण और मेघनाद के बल, पराक्रम और क्रमश: श्रीराम तथा लक्ष्मण जी द्वारा इन दोनों के वध का भी वर्णन किया। यहाँ ६/३९/१ से ६/६२/४ तक राक्षस–वानर युद्ध का वर्णन किया गया। कुम्भकर्ण वध प्रसंग ६/६२/५ से ६/७२/५ तक कहा गया तथा ६/७२/६ से ६/७८/२ तक मेघनाद वध प्रसंग कहा गया।

**निशिचर निकर मरन बिधि नाना। रघुपति रावन समर बखाना॥ रावन बध मंदोदरि शोका। राज बिभीषन देव अशोका॥**
भाष्य

अनेक प्रकार के राक्षसों का मरण तथा श्रीराम–रावण के युद्ध का भुशुण्डि जी ने विस्तृत वर्णन किया। रावण वध, मन्दोदरी का शोक, विभीषण जी का राजतिलक और देवताओं के शोक का अभाव इन सबका भी भुशुण्डि जी ने वर्णन किया। राक्षससमूह का मरणप्रसंग ६/७८/१ से ६/८९/९ तक, श्रीराम–रावण युद्ध ६/८९ से ६/९८ तक तथा रावण वध, मन्दोदरी शोकप्रसंग ६/९९/१ से ६/१०५ तक, विभीषण जी का राजतिलक और देवताओं का शोकाभाव प्रसंग दोहा क्रमांक ६/१०६/१ से ६/१०७ तक किया गया।

**सीता रघुपति मिलन बहोरी। सुरन कीन्ह अस्तुति कर जोरी॥ पुनि पुष्पक चढि़ कपिन समेता। अवध चले प्रभु कृपा निकेता॥**
भाष्य

फिर भुशुण्डि ने श्रीसीता–राम मिलनप्रसंग को ६/१०७/१ से ६/१०९ख तक कहा। देवताओं ने हाथ जोड़कर स्तुति की यह प्रसंग ६/११०/१ से ६/११५ तक कहा गया। फिर कृपा के भवन भगवान्‌ श्रीराम वानरों के सहित पुष्पक विमान पर आरु़ढ होकर श्रीअवध के लिए प्रस्थान किये भुशुण्डि जी ने यह प्रसंग ६/११६/१ से ६/१२१ख अर्थात्‌ युद्धकाण्ड के विश्राम तक कहा। इस प्रकार बारह प्रसंगों में युद्धकाण्ड सम्पन्न हुआ।

**जेहि बिधि राम नगर निज आए। बायस बिशद चरित सब गाए॥ कहेसि बहोरि राम अभिषेका। पुर बरनत नृपनीति अनेका॥**
भाष्य

भगवान्‌ श्रीराम जी जिस प्रकार से अपने नगर आये भुशुण्डि जी ने सम्पूर्ण चरित्र उत्तरकाण्ड के प्रारम्भ से ७/१०/३ तक विस्तार से गाया। फिर भुशुण्डि जी ने ७/१०/४ से ७/३१ तक भगवान्‌ श्रीराम जी के राज्याभिषेक का वर्णन किया और पुन: अयोध्यापुर में विराजमान होकर प्रभु द्वारा अनेक प्रकार के राजनीति वर्णन का प्रसंग ७/३२/१ से ७/५१ तक सम्पन्न किया। इस प्रकार जीव को चौरासी लाख योनियों से मुक्त करने के लिए भुशुण्डि जी के माध्यम से गोस्वामी जी ने श्रीरामचरितमानस में श्रीरामकथा के चौरासी प्रसंग कहे।

**कथा समस्त भुशुंडि बखानी। जो मैं तुम सन कही भवानी॥ सुनि सब राम कथा खगनाहा। कहत बचन मन परम उछाहा॥**
भाष्य

हे पार्वती! भुशुण्डि जी ने वह समस्त कथा गरुड़ जी को व्याख्यान के साथ सुनायी जो मैंने अभी–अभी तुमसे कही है। इस प्रकार भुशुण्डि जी द्वारा चौरासी प्रसंगों मे निबद्ध समस्त श्रीरामकथा सुनकर, पक्षियों के स्वामी गरुड़ जी मन में परम उत्साह के साथ यह वचन कहने लगे–

[[९०२]]

सो०– गयउ मोर संदेह, सुनेउँ सकल रघुपति चरित।

भयउ राम पद नेह, तव प्रसाद बायस तिलक॥६८(क)॥

भाष्य

हे काक कुल के तिलक भुशुण्डि जी! आपके प्रसाद से मेरा सन्देह समाप्त हो गया। मैंने आपसे मेरे लिए उपयोगी सम्पूर्ण श्रीरामचरित सुन लिया और आपके ही प्रसाद से मेरे हृदय में श्रीराम के श्रीचरणों के प्रति स्नेह उत्पन्न हो गया।

**मोहि भयउ अति मोह, प्रभु बंधन रन महँ निरखि।**

चिदानन्द संदोह, राम बिकल कारन कवन॥६८(ख)॥

भाष्य

प्रभु श्रीराम का समरभूमि में नागपाशमय बन्धन देखकर मुझे मोह हो गया। मैं सोचने लगा कि सच्चिदानन्दघन भगवान्‌ श्रीराम किस कारण से मेघनाद के नागपाश में बँधकर व्याकुल और कलाहीन हो रहे हैं।

**देखि चरित अति नर अनुसारी। भयउ हृदय मम संशय भारी॥ सोइ भ्रम अब हित करि मैं माना। कीन्ह अनुग्रह कृपानिधाना॥**
भाष्य

मानव का अत्यन्त अनुशरण करने वाले अर्थात्‌ साधारण मनुष्य जैसे श्रीराम का चरित्र देखकर मेरे हृदय में बहुत–बड़ा संशय हो गया था। मैंने उस भ्रम को अब अत्यन्त हितकर मान लिया है। कृपा के कोशस्वरूप भगवान्‌ श्रीराम ने मुझ पर बहुत अनुग्रह किया है।

**जो अति आतप ब्याकुल होई। तरु छाया सुख जानइ सोई॥ जो नहिं होत मोह अति मोही। मिलतेउँ तात कवन बिधि तोही॥ सुनतेउँ किमि हरि कथा सुहाई। अति बिचित्र बहु बिधि तुम गाई॥**
भाष्य

जो तीक्ष्ण धूप से अत्यन्त व्याकुल होता है, वही वृक्ष की छाया का आनन्द समझ पाता है। हे प्रभु! यदि मुझे अत्यन्त मोह न हुआ होता तो, हे तात! मैं आपको किस प्रकार से मिलता और किस प्रकार से वह सुहावनी श्रीरामकथा सुनता जो अत्यन्त विचित्र है तथा जिसे आपने बहुत प्रकार से गाया।

**निगमागम पुरान मत एहा। कहहिं सिद्ध मुनि नहिं संदेहा॥ संत बिशुद्ध मिलहिं परि तेही। चितवहिं राम कृपा करि जेही॥ राम कृपा तव दरशन भयऊ। तव प्रसाद सब संशय गयऊ॥**
भाष्य

चारों वेद तथा संहितायें, आगम ग्रन्थ और पुराणों का यही मत है, सिद्ध मुनि भी यही कहते हैं, इसमें कोई सन्देह नहीं है कि जिसको भगवान्‌ श्रीराम कृपा करके देख लेते हैं, उसी को विशुद्ध सन्त स्वयं परिचय के साथ दर्शन देते हैं। श्रीराम की कृपा से ही आपके दर्शन हुए हैं और आपके प्रसाद से मेरा सम्पूर्ण संशय चला गया।

**दो०– सुनि बिहंगपति बानी, सहित बिनय अनुराग।**

**पुलक गात लोचन सजल, मन हरषेउ अति काग॥६९(क)॥ भा०– **इस प्रकार से विनम्रता और प्रेम के सहित पक्षियों के स्वामी गरुड़ जी की वाणी सुनकर भुशुण्डि जी का शरीर रोमांचित हो गया। उनके नेत्र सजल हो गये और मन में वे बहुत प्रसन्न हुए।

श्रोता सुमति सुशील शुचि, कथा रसिक हरि दास।

पाइ उमा अति गोप्यमत, सज्जन करहिं प्रकास॥६९(ख)॥

भाष्य

हे पार्वती! सुन्दर बुद्धिवाले, सुन्दर स्वभाववाले, बाहर और भीतर से पवित्र भगवद्‌भक्त श्रोता को पाकर श्रीराम के अनन्य सेवक श्रीवैष्णवजन अत्यन्त गोपनीय मंत्र का भी प्रकाशन कर देते हैं।

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बोलेउ कागभुशुंडि बहोरी। नभग नाथ पर प्रीति न थोरी॥ सब बिधि नाथ पूज्य तुम मेरे। कृपापात्र रघुनायक केरे॥

भा:– फिर काकभुशुण्डि जी बोले, उन्हें पक्षीराज गरुड़ पर अत्यन्त प्रेम था। हे नाथ! आप सब प्रकार से मेरे पूजनीय हैं, क्योंकि रघुकुल के नायक भगवान्‌ श्रीराम के आप कृपापात्र हैं।

तुमहिं न संशय मोह न माया। मो पर नाथ कीन्ह तुम दाया॥ पठइ मोह मिस खगपति तोही। रघुपति दीन्ह बड़ाई मोही॥ तुम निज मोह कहा खग साईं। सो नहिं कछु आचरज गोसाईं॥

भाष्य

हे नाथ! आपको न संशय है, न मोह है और न माया है, आपने मुझ पर दया की है। हे पक्षियों के स्वामी गरुड़ जी! मोह के बहाने से यहाँ आपको भेजकर रघुपति श्रीराम ने मुझे बड़प्पन दिया है। हे पक्षियों के स्वामी! आपने अपना मोह कहा, हे वेदवाणी के ईश्वर गरुड़ जी! वह कुछ भी आश्चर्य नहीं है अर्थात्‌ वह तो स्वाभाविक है।

**नारद भव बिरंचि सनकादी। जे मुनिनायक आतमबादी॥ मोह न अंध कीन्ह केहि केही। को जग काम नचाव न जेही॥ तृष्णा केहि न कीन्ह बौराहा। केहि कर हृदय क्रोध नहिं दाहा॥**
भाष्य

देवर्षि नारद जी, भूतभावन शिवजी, सनकादि बाल ब्रह्मचारीगण और भी जो आत्मवादी मुनीश्वर गण हैं, किसको–किसको मोह ने अन्धा नहीं बनाया। संसार में ऐसा कौन है जिसे काम ने नहीं नचाया? तृष्णा अर्थात्‌ लालच ने किसे बावला नहीं बनाया और क्रोध ने किसके हृदय को नहीं जला दिया।

**दो०– ग्यानी तापस शूर कबि, कोबिद गुन आगार।**

केहि के लोभ बिडंबना, कीन्ह न एहिं संसार॥७०(क)॥

भाष्य

इस संसार में ज्ञानी, तपस्वी, शूरवीर, मनीषी, वेदज्ञ और गुणों का भवन स्वरूप ऐसा कौन है, जिसको लोभ ने विडम्बनाओं से युक्त नहीं कर दिया हो अर्थात्‌ अपमानित नहीं कर दिया हो ?

**श्री मद बक्र न कीन्ह केहि, प्रभुता बधिर न काहि।**

**मृगलोचनि के नैन शर, को अस लाग न जाहि॥७०(ख)॥ भा०– **लक्ष्मी के मद ने किसे टे़ढा नहीं बनाया, प्रभुता ने किसे बहरा नहीं कर दिया? संसार में ऐसा कौन है, जिसे हरिण के समान नेत्रोंवाली युवती का नेत्र बाण नहीं लगा हो?

गुन कृत सन्यपात नहिं केही। कोउ न मान मद तजेउ निबेही॥ जौबन ज्वर केहि नहिं बलकावा। ममता केहि कर जस न नसावा॥

भाष्य

गुणों ने किसको सन्निपात नहीं कर दिया। मान और मद ने किसे नष्ट करके नहीं छोड़ा? युवावस्था के ज्वर ने किसको नहीं बलकाया अर्थात्‌ किसको नहीं विक्षिप्त किया और ममता ने किसका ज्ञान नहीं नष्ट कर दिया?

**मत्सर काहि कलंक न लावा। काहि न शोक समीर डोलावा॥ चिंता साँपिन को नहिं खाया। को जग जाहि न ब्यापी माया॥ कीट मनोरथ दारु शरीरा। जेहि न लाग घुन को अस धीरा॥ सुत बित लोक ईषना तीनी। केहि कै मति इन कृत न मलीनी॥**

[[९०४]]

भाष्य

मत्सर ने किसे कलंक नहीं लगाया और शोक के वायु ने किसे नहीं डिगा दिया? चिन्ता रूपिणि सर्पिणीं ने किसे नहीं खाया? संसार में ऐसा कौन है, जिसे माया नहीं ब्यापी? मनोरथ कीड़ा है और शरीर लक़डी है, जिसके शरीर रूप लक़डी में यह घुन नहीं लगे अर्थात्‌ मनोरथों ने जिसके शरीर को नहीं नष्ट कर दिया ऐसा कौन धैर्यवान है? पुत्र, धन और लोभ की ईषणाओं ने किसकी बुद्धि को मलीन नहीं बना दिया?

**यह सब माया कर परिवारा। प्रबल अमित को बरनै पारा॥ शिव चतुरानन जाहि डेराहीं। अपर जीव केहि लेखे माहीं॥**
भाष्य

यह सब अत्यन्त प्रबल और असीम माया का ही परिवार है। इसका वर्णन कौन कर सकता है? शिव जी तथा ब्रह्मा जी भी जिससे डरते हैं, तो फिर और जीव किस गिनती में आता है?

**दो०– ब्यापि रहेउ संसार महँ, माया कटक प्रचंड।**

सेनापति कामादि भट, दंभ कपट पाषंड॥७१(क)॥

भाष्य

इस संसार में अत्यन्त भयंकर माया की सेना व्याप्त हो रही है। कामादि अर्थात्‌ काम, क्रोध, लोभ, दम्भ, कपट और पाखण्ड इसके वीर सेनापति हैं।

**सो दासी रघुबीर कै, समुझे मिथ्या सोपि।**

छूट न राम कृपा बिनु, नाथ कहउँ पद रोपि॥७१(ख)॥

भाष्य

वह माया रघुकुल के वीर भगवान्‌ श्रीराम की दासी है। यद्दपि समझने में वह भी मिथ्या है, फिर भी माया के बन्धन में पड़ा हुआ कोई भी जीव भगवान्‌ श्रीराम की कृपा के बिना नहीं छूट सकता है। हे नाथ! यह बात मैं अपने चरण जमाकर, अथवा आपके चरणों को पक़डकर प्रतिज्ञापूर्वक कह रहा हूँ।

**जो माया सब जगहिं नचावा। जासु चरित लखि काहु न पावा॥ सोइ प्रभु भ्रू बिलास खगराजा। नाच नटी इव सहित समाजा॥**
भाष्य

जो माया सारे संसार को नचाती है, जिसका चरित्र कोई भी नहीं देख पाता है, हे पक्षिराज! वही माया भगवान्‌ के भृकुटि के विलासमात्र से अपनी सम्पूर्ण समाज के सहित नर्तकी की भाँति नाचती है अर्थात्‌ सारे संसार को नचानेवाली माया भगवान्‌ श्रीराम के संकेत मात्र से नाचती है। यही परमात्मा की विशेषता है।

**सोइ सच्चिदानंद घन रामा। अज बिग्यान रूप गुन धामा॥ ब्यापक ब्याप्य अखंड अनंता। अखिल अमोघशक्ति भगवंता॥ अगुन अदभ्र गिरा गोतीता। समदरसी अनवद्द अजीता॥ निर्मम निराकार निरमोहा। नित्य निरंजन सुख संदोहा॥ प्रकृति पार प्रभु सब उर बासी। ब्रह्म निरीह बिरज अबिनासी॥ इहाँ मोह कर कारन नाहीं। रबि सन्मुख तप कबहुँ कि जाहीं॥**
भाष्य

वे ही भगवान्‌ श्रीराम सच्चिदानन्द के घन हैं, अजन्मा हैं, विशिष्ट ज्ञान ही उनका स्वरूप है, वे समस्त सद्‌गुणों के धाम अर्थात्‌ भवन हैं, वे ज्ञानियों के लिए व्यापक और भक्त के लिए व्याप्य अर्थात्‌ अल्प देशवृत्ति होते हैं। अथवा वे चिद्‌–अचिद्‌ वर्गरूप व्याप्य जीवजगत्‌ के व्यापक हैं। वे खण्डरहित और अन्तरहित हैं, वे सर्वरूप हैं, उनकी शक्ति अमोघ है, वे प्रभु ऐश्वर्यादि छ: माहात्म्यों से युक्त भगवान्‌ हैं। प्रभु श्रीराम के गुण सामान्य इन्द्रियों से व्यक्त नहीं होते। उनमें दभ्र अर्थात्‌ किसी प्रकार का दोष नहीं है, इसलिए वे अदभ्र है। वे वाणी और इन्द्रियों से अतीत हैं। भगवान्‌ श्रीराम समदर्शी, अनवद्द अर्थात्‌ पापरहित और अजीत अर्थात्‌ किसी से

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पराजित नहीं हुए, वे ममतारहित और निराकार अर्थात्‌ निरूपम आकार वाले हैं। अथवा नि:शेष अर्थात्‌ सम्पूर्ण आकार उन्हीं परमात्मा के हैं तथा सभी आकार उन्हीं के संकल्प से निश्चित हैं। संसार के सभी आकार उन्हीं से निस्सृत हैं तथा विश्व के सभी आकार उन्हीं से निष्क्रान्त हैं। जीवों के सम्पूर्ण आकार जीवों के कर्मफल के भोग के रूप में उन्हीं परमात्मा से निर्मित है। सृष्टि के विश्राम में संसार के सभी आकार उन्हीं परमात्मा श्रीराम में निर्लीन हो जाते हैं। भगवान्‌ श्रीराम का आकार निर्मल है तथा भगवान्‌ श्रीराम के लोकोत्तर आकार श्याम शरीर निर्दोष है। भगवान्‌ श्रीराम का आकार कर्म बन्धनों से निर्लिप्त है, इसलिए उन्हें निराकार कहते हैं। प्रभु मोह से परे हैं, वे नित्य और निरन्जन अर्थात्‌ कर्म के लेपों से रहित एवं सुख के सन्दोह अर्थात्‌ घनीभूत तत्त्व हैं। प्रभु श्रीराम जी प्रकृति से परे सबके हृदय में निवास करने वाले, चेष्टारहित, निरीह, ब्रह्म, रजोगुण से रहित, नाशरहित परमात्मा हैं। यहाँ मोह का कोई कारण नहीं है। क्या सूर्य के सम्मुख कभी अन्धकार जा सकता है?

दो०– भगत हेतु भगवान प्रभु, राम धरेउ तनु भूप।

किए चरित पावन परम, प्राकृत नर अनुरूप॥७२(क)॥

भाष्य

भक्तों के लिए ही सर्वशक्तिमान भगवान्‌ श्रीराम ने राजा का रूप धारण किया और प्राकृत मनुष्यों के अनुरूप ही परम पावन चरित्र किये।

**जथा अनेक बेष धरि, नृत्य करइ नट कोइ।**

सोइ सोइ भाव देखावइ, आपुन होइ न सोइ॥७२(ख)॥

भाष्य

जिस प्रकार अनेक वेश धारण करके कोई नट नृत्य करता है और वह वही–वही अर्थात्‌ अपने वेश के अनुरूप भाव दिखाता है, परन्तु वह स्वयं वह व्यक्ति नहीं बन पाता अर्थात्‌ जैसे किसी नट ने राजा का वेश बनाया तो वह राजा की चेष्टाओं का दर्शन कराता है, परन्तु स्वयं वह न तो राजा है और न ही राजा वह है, उसी प्रकार श्रीराम मनुष्य का वेश धारण करके भी न तो मनुष्य हो सकते हैं और न मनुष्य भगवान्‌ श्रीराम हो सकता है।

**असि रघुपति लीला उरगारी। दनुज बिमोहनि जन सुखकारी॥**

जे मति मलिन बिषयबश कामी। प्रभु पर मोह धरहिं इमि स्वामी॥

भाष्य

हे सर्पों के शत्रु गरुड़ जी! भगवान्‌ श्रीराम की यह लीला इसी प्रकार की है, जो दैत्यप्रकृति के लोगों को मोहित करती है और भगवद्‌भक्तों के लिए सुखकर होती है। हे स्वामी! जो लोग मलीन बुद्धिवाले, विषयों के वश में रहनेवाले और कामी होते हैं, वे ही प्रभु श्रीराम पर इस प्रकार का मोह आरोपित करते हैं।

**नयन दोष जा कहँ जब होई। पीत बरन शशि कहँ कह सोई॥ जब जेहि दिशि भ्रम होइ खगेशा। सो कह पच्छिम उयउ दिनेसा॥ नौकारू़ढ चलत जग देखा। अचल मोहबश आपुहिं लेखा॥ बालक भ्रमहिं न भ्रमहिं गृहादी। कहहिं परस्पर मिथ्याबादी॥**

**हरि बिषयक अस मोह बिहंगा। सपनेहुँ नहिं अग्यान प्रसंगा॥ भा०– **जिसको जब नेत्र दोष अर्थात्‌ पीलिया होता है तब वह श्वेत चन्द्रमा को भी पीले वर्ण का कहता है, जबकि चन्द्रमा पीला नहीं होता, वह तो उसके नेत्र में आये हुए कँवल आदि दोष का परिणाम है। हे पक्षीराज गरुड़ जब जिसे दिशाभ्रम हो जाता है, तब वह कहता है कि सूर्यनारायण पश्चिम दिशा में उदित हुए हैं, जबकि सूर्यनारायण तो पूर्व में ही उदित होते हैं। इस प्रकार नौका पर च़ढा हुआ व्यक्ति इस संसार को चलते हुए देखता है, परन्तु मोह के वश में होने से स्वयं को अचल अर्थात्‌ स्थिर समझ बैठता है। जब बच्चे चक्राकार घुमते हैं, तब वे ही तो घुमते हैं और उन्हीं को चक्कर आते हैं, गृह आदि तो नहीं घुमते, पर झूठ बोलेनेवाले वे बच्चे परस्पर यही कहते हैं कि घर घुम रहा है, पेड़ घुम रहे हैं, आकाश घुम रहा है आदि। हे पक्षीराज गरुड़ भगवान्‌ श्रीराम के विषय में

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भी इसी प्रकार का मोह होता है। प्राणी अपने ही निर्बल पक्षों को आप पर आरोपित कर देता है। व्यक्ति स्वयं होता है कामी, क्रोधी तथा लोभी और कह देता है भगवान्‌ को, जैसे मुख की आकृति दर्पण में भाषित होती है, उसी प्रकार मोहान्ध लोगों को उन्हीं के निर्बल पक्ष भगवान्‌ में प्रतीत होता है, जबकि भगवान्‌ के विषय में स्वप्न में भी अज्ञान अर्थात्‌ ज्ञान विरोधी भाव का संग आ ही नहीं सकता।

मायाबश मतिमंद अभागी। हृदय जमनिका बहुबिधि लागी॥ ते शठ हठ बश संशय करहीं। निज अग्यान राम पर धरहीं॥

भाष्य

जो लोग अविद्दा माया के वश में होते हैं तथा मन्दबुद्धि और भाग्यहीन होते हैं, जिनके हृदय में बहुत प्रकार अज्ञान का पर्दा लगा हुआ होता है, वे ही दुष्ट हठ के वश होकर भगवान्‌ श्रीराम के विषय में संशय करते हैं और अपना अज्ञान योगियों के भी आनन्द के आश्रय भगवान्‌ श्रीराम पर आरोपित कर देते हैं।

**दो०– काम क्रोध मद लोभ रत, गृहासक्त दुखरूप।**

ते किमि जानहिं रघुपतिहिं, मू़ढ परे तम कूप॥७३(क)॥

भाष्य

जो काम, क्रोध, मद और लोभ में ही रमते रहते हैं, जो गृह में आसक्त और दु:खरूप हैं अथवा, दु:खस्वरूप गृह में आसक्त रहते हैं, जो मोहग्रस्त हैं तथा संसाररूप कूप में पड़े हैं, वे मोहान्ध लोग रघु अर्थात्‌ सम्पूर्ण जीवों के पालन करने वाले रघुपति श्रीराम को कैसे जान सकते हैं?

**निर्गुन रूप सुलभ अति, सगुन जान नहिं कोइ।**

**सुगम अगम नाना चरित, सुनि मुनि मन भ्रम होइ॥७३(ख)॥ भा०– **भगवान्‌ का निर्गुणरूप अत्यन्त सुलभ है, क्योंकि वहाँ गुणों को जानना नहीं है। एकमात्र नित्य, मुक्त, बुद्ध,

शुद्धस्वरूप परमेश्वर को अनुभव में ले आता है, इसलिए वहाँ भ्रम का भय नहीं है, परन्तु भगवान्‌ के सगुणस्वरूप को पूर्णरूपेण कोई भी नहीं जानता, क्योंकि भगवान्‌ श्रीराम के समान उनके गुण भी अनन्त हैं। अत: अन्तरहित गुणों को शान्त शरीरोंवाला यह जीव कैसे जान सकता है? भगवान्‌ के ऐश्वर्यपरक अनेक चरित्र जैसे सुगम हैं, उसी प्रकार विवाह, विलाप अदि चरित्र अगम्य हैं, क्योंकि इनमें माधुर्य की अधिकता है, जैसे श्रीमिथिला की महिलाओं द्वारा प्रभु से धान कुटवाना, पत्थर के खण्ड से परमेश्वर श्रीराम के गाल सेंकवाना, पुन: श्रीसीताहरण तथा लक्ष्मण–शक्ति प्रसंग में अज्ञ मनुष्य की भाँति विलाप करना। ऐसे परस्पर विरोधी और विरोधाभासी चरित्र सुनकर मुनियों के मन को भी भ्रम हो जाता हैं तो औरों की क्या बात?

सुनु खगेश रघुपति प्रभुताई। कहउँ जथामति कथा सुहाई॥ जेहि बिधि मोह भयउ प्रभु मोही। सोउ सब कथा सुनावउँ तोही॥ राम कृपा भाजन तुम ताता। हरि गुन प्रीति मोहि सुखदाता॥ ताते नहिं कछु तुमहिं दुरावउँ। परम रहस्य मनोहर गावउँ॥

भाष्य

हे गरुड़ जी ! अब रघुपति भगवान्‌ श्रीराम की प्रभुता सुनिये, मैं अपनी बुद्धि के अनुसार यह सुहावनी कथा कहता हूँ। हे प्रभु! जिस प्रकार मुझे मोह हुआ था वह सम्पूर्ण कथा मैं आपको सुनाता हूँ। हे तात! आप भगवान्‌ श्रीराम के कृपापात्र हैं और आपको भगवान्‌ के गुणों में प्रेम है, इसलिए आप मुझे भी सुख दे रहे हैं। इसी कारण से मैं आपसे कुछ छिपाव नहीं कर रहा हूँ और पूजनीय तथा मन को हरनेवाला रहस्य गा रहा हूँ।

**सुनहु राम कर सहज सुभाऊ। जन अभिमान न राखहिं काऊ॥ संसृत मूल शूलप्रद नाना। सकल शोक दायक अभिमाना॥**

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ताते करहिं कृपानिधि दूरी। सेवक पर ममता अति भूरी॥ जिमि शिशु तन ब्रन होइ गोसाईं। मातु चिराव कठिन की नाईं॥

भाष्य

हे गव्र्ड़ जी! श्रीराम का, उन्हीं के साथ प्रकट हुए स्वभाव को सुनिये, भगवान्‌ भक्तों का अभिमान कभी नहीं रखते, क्योंकि यह अभिमान संसार का मूल कारण, नाना प्रकार के कष्ट को देनेवाला और सम्पूर्ण शोकों को भी देनेवाला है। कृपा के सागर भगवान्‌ भक्त से अभिमान को दूर कर देते हैं, क्योंकि उन्हें अपने सेवक पर बहुत ममता होती है। हे हम सब पक्षियों के स्वामी गव्र्ड़ जी! जैसे छोटे बच्चे के शरीर में जब फोड़ा होता है तब उसे माता कठोर जैसी होकर शल्यचिकित्सा की विधि से चिरवा देती है।

**दो०– जदपि प्रथम दुख पावइ, रोवइ बाल अधीर।**

ब्याधि नाश हित जननी, गनति न सो शिशु पीर॥७४(क)॥

भाष्य

यद्दपि बालक प्रथम अर्थात्‌ फोड़ा को चिरवाते समय बहुत दु:ख पाता है और वह बालक अधीर अर्थात्‌ धैर्य छोड़कर रोता है, फिर भी जन्म देनेवाली माता बालक की ब्याधि को नय् करने के लिए उस छोटे बच्चे की कुछ क्षण की पीड़ा को नहीं गिनती अर्थात्‌ उस पर कोई ध्यान नहीं देती, पीड़ा होने ही देती है।

**तिमि रघुपति निज दास कर, हरहिं मान हित लागि।**

तुलसिदास ऐसे प्रभुहिं, कस न भजहु भ्रम त्यागि॥७४(ख)॥

भाष्य

उसी प्रकार रघुकुल के स्वामी भगवान्‌ श्रीराम कल्याण के लिए ही अपने दास का अभिमान हर लेते हैं। तुलसीदास जी कहते हैं कि अरे प्राणी! ऐसे कृपालु श्रीराम को भ्रम छोड़कर क्यों नहीं भजता है?

**राम कृपा आपनि ज़डताई। कहउँ खगेश सुनहु मन लाई॥ जब जब राम मनुज तनु धरहीं। भक्त हेतु लीला बहु करहीं॥ तब तब अवधपुरी मै जाऊँ। बालचरित बिलोकि हरषाऊँ॥ जन्म महोत्सव देखउँ जाई। बरष पाँच तहँ रहउँ लोभाई॥**
भाष्य

हे पक्षीराज गरुड़ जी! अब मैं भगवान्‌ श्रीराम की कृपा और उस कृपा की उपेक्षा करानेवाली अपनी ज़डता दोनों कह रहा हूँ, तुम मन लगाकर सुनो। जब–जब भक्तों के लिए भगवान्‌ श्रीराम श्रीअवध में मनुष्य शरीर धारण करते हैं और भक्तों के ही हेतु अर्थात्‌ प्रेमवश होकर अनेक बाललीलायें करते हैं, तब–तब मैं नीलपर्वत पर से श्रीअवधपुरी जाता हूँ और भगवान्‌ के बालचरित्र को देखकर बहुत प्रसन्न होता हूँ। जाकर भगवान्‌ श्रीराम का श्रीअवध में जन्ममहोत्सव देखता हूँ और वहाँ पाँच वर्षपर्यन्त लुभाकर रह जाता हूँ अर्थात्‌ प्र्रत्येक कल्प के सातवें मन्वन्तर के चौबीसवें त्रेता में पाँच वर्षों के लिए नील पर्वत की कथा को विश्राम दे देता हूँ।

**इष्टदेव मम बालक रामा। शोभा बपुष कोटि शत कामा॥ निज प्रभु बदन निहारि निहारी। लोचन सुफल करउँ उरगारी॥**
भाष्य

बालकरूप भगवान्‌ श्रीराम ही मेरे इष्टदेव हैं। उनके शरीर की शोभा अरबों कामदेवों के समान है। अथवा, मेरे इष्टदेव बालकरूप भगवान्‌ श्रीराम की शरीर के शोभा से ही अनन्त कामदेवों को शोभा मिली है अर्थात्‌ मेरे राघव कामदेवों के उपमेय नहीं हैं, प्रत्युत्‌ कथन्चित्‌ कामदेव उनका उपमान है। हे सर्पों के शत्रु गरुड़ जी! मैं अपने प्रभु बालरूप भगवान्‌ श्रीराम के मुख को बार–बार निहारकर अपने नेत्रों को सफल कर लेता हूँ।

**लघु बायस बपु धरि हरि संगा। देखउँ बालचरित बहुरंगा॥**

[[९०८]]

दो०– लरिकाईं जहँ जहँ फिरहिं, तहँ तहँ संग उड़ाउँ।

जूठन परइ जो अजिर महँ, सो उठाइ करि खाउँ॥७५(क)॥

भाष्य

उन दिनों मैं छोटे से कौवे का रूप धारण करके अर्थात्‌ कौवा का बच्चा बनकर प्रभु के साथ रहकर उनके बहुत रंगोंवाले बालचरित्र को देखा करता हूँ। वे अपनी लकिड़ाई अर्थात्‌ बाल्यकाल में जहाँ–जहाँ भ्रमण करते हैं वहाँ–वहाँ उनके संग उड़ता जाता हूँ। चक्रवर्ती महाराज जी के आँगन में बालरूप श्रीराघवसरकार के श्रीमुख से जो दही–भात तथा दूध–भात का जूठन कण गिर जाता है, वही चोंच से उठाकर खा लेता हूँ अर्थात्‌ प्रभु के हाथ से ग्रास कभी नहीं छिनता हूँ। पहली बात तो वे उदार हैं, मेरे खाने भर के लिए अपने मुख से जूठन गिरा देते हैं और दूसरी बात यह भी है कि मुझे डर लगता है, कदाचित्‌ छिनने जाऊँ तो मेरे चोंच प्रभु के श्रीकरकमल में चुभ न जायें।

**एक बार अतिशय सुखद, चरित किए रघुबीर।**

सुमिरत प्रभु लीला सोइ, पुलकित भयउ शरीर॥७५(ख)॥

भाष्य

एक बार रघु अर्थात्‌ जीवमात्र के विशेष प्रेरक रघुकुल के वीर भगवान्‌ श्रीराम ने अत्यन्त सुखद चरित्र किया। शिव जी कहते हैं कि प्रभु की इस लीला का स्मरण करते ही भुशुण्डि जी का शरीर पुलकित हो गया और कुछ क्षणों के लिए वाणी रूक गई।

**कहइ भुशुंडि सुनहु खगनायक। रामचरित सेवक सुखदायक॥ नृप मंदिर सुंदर सब भाँती। खचित कनक मनि नाना जाती॥ बरनि न जाइ रुचिर अँगनाई। जहँ खेलहिं नित चारिउ भाई॥ बालबिनोद करत रघुराई। बिचरत अजिर जननि सुखदाई॥**
भाष्य

फिर भुशुण्डि जी ने कथा कहना प्रारम्भ किया और गरुड़ जी को सम्बोधित करके बोले, हे पक्षियों के नायक गरुड़ जी! अब सेवकों को सुख देनेवाले प्रभु श्रीराम के बालचरित्र सुनिये। महाराज दशरथ जी का राजमन्दिर सब प्रकार से सुन्दर है। वहाँ नाना जातियों के मणि खचित अर्थात्‌ ज़डे हुए हैं। महाराज के सुन्दर अँगनाई अर्थात राजभवन के सुन्दर आँगन का तो वर्णन ही नहीं किया जा सकता। जहाँ नित्य ही चारों भाई श्रीराम, भरत, लक्ष्मण एवं शत्रुघ्न जी, खेला करते हैं। रघुवंशियों के राजा तथा रघुवंशियों में परम प्रकाशमान्‌ भगवान्‌ बालक राम जी बाल विनोद करते हुए कौसल्या जी, कैकयी जी एवं सुमित्रा जी आदि सभी माताओं को सुख देने के लिए आँगन में भ्रमण करते हैं।

**मरकत मृदुल कलेवर श्यामा। अंग अंग प्रति छबि बहु कामा॥ नव राजीव अरुन मृदु चरना। पदज रुचिर नख शशि दुति हरना॥ ललित अंक कुलिशादिक चारी। नूपूर चारु मधुर रवकारी॥ चारु पुरट मनि रचित बनाई। कटि किंकिनि कल मुखर सुहाई॥**
भाष्य

(अब गोस्वामी तुलसीदास जी भुशुण्डि जी के माध्यम से भगवान्‌ बालक श्रीराम का नख–शिख वर्णन कर रहे हैं।) भगवान्‌ श्रीराम का शरीर कोमल तथा मरकत अर्थात्‌ इन्द्र नीलमणि के समान श्यामल और सुन्दर है। उनके प्रत्येक अंग–अंग की करोड़ों कामदेवों के सामन शोभा है। श्रीराघवसरकार के श्रीचरण नवीन लाल कमल के समान लाल और कोमल हैं। प्रभु के श्रीचरणों की अंगुलियाँ बहुत सुन्दर और श्रीचरणों के दसो नखों की शोभा चन्द्रमा की भी शोभा को हरण कर लेती हैं। प्रभु के श्रीचरणों में बड़े ही सुन्दर वज्र, अंकुश, ध्वज और कमल के चिन्ह हैं। मधुर ध्वनि करनेवाले नूपुर भी श्रीचरणों में बहुत सुन्दर लग रहे हैं। प्रभु के कटि प्रदेश में

[[९०९]]

विराजमान किंकिंणी सुन्दर स्वर्ण और मणियों से बनाकर रची गई है अर्थात्‌ सँवार–सँवारकर बनाई गई है, उसके स्वर बहुत ही सुहावने और मधुर हैं।

दो०– रेखा त्रय सुंदर उदर, नाभी रुचिर गँभीर।

**उर आयत भ्राजत बिबिध, बाल बिभूषन चीर॥७६॥ भा०– **श्रीराघवसरकार के उदर पर सुन्दर तीन रेखायें हैं, उनकी नाभी बहुत ही सुन्दर और गम्भीर है। श्रीमुन्नासरकार के विशाल हृदय पर अनेक विधावाले बालोचित अलंकार और सुन्दर रंग–बिरंगे वस्त्र देदीप्यमान

हो रहे हैं।

अरुन पानि नख करज मनोहर। बाहु बिशाल बिभूषन सुंदर॥ कंध बाल केहरि दर ग्रीवा। चारु चिबुक आनन छबि सींवा॥

भाष्य

प्रभु श्रीराम के श्रीहस्त लाल हैं, उनकी अंगुलियों के नख मनोहर अर्थात्‌ मन को ही चुरा लेते हैं। प्रभु के विशाल भुजाओं में विशिष्ट अलंकार बहुत सुन्दर लग रहे हैं। बाल सिंह के कन्धे के समान प्रभु के दोनों कन्धे हैं। शंख के समान चिक्कन और सुन्दर प्रभु का गला है। चिबुक अर्थात्‌ ठो़ढी बहुत सुन्दर है और बालक श्रीराम का श्रीमुख तो छवि की सीमा ही है।

**कलबल बचन अधर अरुनारे। दुइ दुइ दशन बिशद बर बारे॥ ललित कपोल मनोहर नासा। सकल सुखद शशि कर सम हासा॥**
भाष्य

भगवान्‌ के तोतले वचन बड़े अव्यक्त और मधुर हैं, उनके ओष्ठ लाल तथा छोटी–छोटी दो दँतुलियाँ बाल्यकालीन होने से बड़ी ही श्रेष्ठ और श्वेत हैं। प्रभु का कपोल बड़ा ही सुन्दर और आकर्षक है। उनकी नासिका मनोहर अर्थात्‌ मन को ही हर लेती है। चन्द्रमा की किरणों के समान श्रीराघव का स्मित अर्थात्‌ मन्दहास सभी प्राणियों के लिए सुखद है।

**नील कंज लोचन भव मोचन। भ्राजत भाल तिलक गोरोचन॥ बिकट भृकुटि सम स्रवन सुहाए। कुंचित कच मेचक छबि छाए॥**
भाष्य

संसार के भय को नष्ट करने वाले प्रभु के नेत्र नीले कमल के समान हैं, अर्थात्‌ कज्जल लगाने के कारण राजीवनेत्र भी नीले कमल जैसे हो गये हैं। प्रभु के भाल पर गोरोचन का तिलक प्रकाशित हो रहा है। श्रीराघव की टे़ढी भौंहें, समान आकारवाले सुन्दर दोनों श्रवण तथा घुँघराले और काले बालों पर सम्पूर्ण छवि छाई हुई है, मानों सम्पूर्ण छवि भ्रमर का रूप धारण करके प्रभु के घुँघराले केशों पर मँडरा रही है।

**पीत झीनि झिगुली तन सोही। किलकनि चितवनि भावति मोही॥ रूप राशि नृप अजिर बिहारी। नाचहिं निज प्रतिबिंब निहारी॥**
भाष्य

प्रभु के श्यामल शरीर पर पीली और झीने वस्त्रों से बनी हुई झिंगुली बहुत सुन्दर लगती है। शिशु श्रीराघव की किलकनी तथा बाल सुलभ चितवन अर्थात्‌ देखना मुझे बहुत भाती है। इस प्रकार सम्पूर्ण रूपों के इकट्ठे हुए पुञ्जस्वरूप भगवान्‌ श्रीराम महाराज दशरथ जी के आँगन में विहार कर रहे हैं और मणियों के खम्भों में अपनी ही प्रतिबिम्ब देखकर नाच उठते हैं।

**मोहिं सन करहिं बिबिध बिधि क्रीडा। बरनत मोहि होति अति ब्रीडा॥ किलकत मोहि धरन जब धावहिं। चलउँ भागि तब पूप देखावहिं॥**

[[९१०]]

भाष्य

मुझसे अनेक प्रकार की क्रीड़ायें अर्थात्‌ खेल करते हैं, उसका वर्णन करते हुए मुझे स्वयं में बहुत संकोच होता है। प्रभु किलकारी करते हुए जब मुझे पक़डने दौड़ते हैं और मैं भग चलता हूँ तब अपने हाथ में लिए हुए मालपुआ को मुझे दिखाते हैं।

**दो०– आवत निकट हँसहिं प्रभु, भाजत रुदन कराहिं।**

जाउँ समीप गहन पद, फिरि फिरि चितइ पराहिं॥७७(क)॥

भाष्य

जब मैं निकट आता तब प्रभु हँसते कि, अब भुशुण्डि का कल्याण हो जायेगा तथा जब मैं भागता तब श्रीराघव रोने लगते, उन्हें लगता मुझसे दूर होकर भुशुण्डि को कष्ट होगा, क्योंकि सारा सुख मुझ परमात्मा के पास ही है और मुझसे दूर होने पर दु:ख ही दु:ख तो है। प्रभु बालक श्रीराम के श्रीचरणों को पक़डने के लिए समीप जाता तब मुझे मुड़-मुड़कर देखकर भाग जाते प्रभु को लगता है कि भले शरीर से भुशुण्डि कौवा हैं, पर जन्म से तो ये ब्राह्मण ही हैं। अत: जन्मना ब्राह्मण को भी मुझ क्षत्रिय का पैर नहीं छूना चाहिये, इसलिए भुशण्डि जी को अपने श्रीचरणों का स्पर्श नहीं करने देते।

**प्राकृत शिशु इव लीला, देखि भयउ मोहि मोह।**

कवन चरित्र करत प्रभु, चिदानंद संदोह॥७७(ख)॥

भाष्य

इस प्रकार साधारण बालक जैसी लीला देखकर मुझे मोह हो गया, मैंने सोचा की चित्त और आनन्द के घनस्वरूप प्रभु यह कौन–सा चरित्र कर रहे हैं जो कि मुझ जैसे सेवक को एक मालपुआ भी नहीं दे रहे हैं।

**इतना मन आनत खगराया। रघुपति प्रेरित ब्यापी माया॥ सो माया न दुखद मोहि काहीं। आन जीव इव संसृति नाहीं॥**
भाष्य

हे पक्षीराज गरुड़ जी! इतना विचार मन में लाते ही प्रभु श्रीराम से प्रेरित माया मुझे व्याप्त हो गई, परन्तु वह माया अन्य जीवों की भाँति न ही मेरे लिए दु:खद थी और न ही मेरे मन पर मायाकृत संसार का कोई प्रभाव था।

**नाथ इहाँ कछु कारन आना। सुनहु सो सावधान हरियाना॥ ग्यान अखंड एक सीताबर। माया बश्य जीव सचराचर॥**
भाष्य

हे नाथ! यहाँ कुछ दूसरा ही कारण है। हे प्रभु के वाहन! उसे आप सावधान होकर सुनिये। एकमात्र श्रीसीता जी के वर भगवान्‌ श्रीराम का ज्ञान अखण्ड है अर्थात्‌ परमेश्वर का ज्ञान कभी अज्ञान से आवृत नहीं होता। अन्य ज़ड-चेतन से युक्त जीववर्ग माया के वश में है अर्थात्‌ ज्ञान सखण्ड है और माया से ढँक जाता है।

**जौ सब के रह ग्यान एकरस। ईश्वर जीवहिं भेद कहहु कस॥ माया बश्य जीव अभिमानी। ईश बश्य माया गुन खानी॥ परबश जीव स्वबश भगवंता। जीव अनेक एक श्रीकंता॥ मुधा भेद जद्दपि कृत माया। बिनु हरि जाइ न कोटि उपाया॥**
भाष्य

यह जीव पराधीन है और ऐश्वर्य, धर्म, यश, श्री, ज्ञान तथा वैराग्य से नित्य सम्पन्न भगवान्‌ श्रीराम स्ववश

अर्थात्‌ स्वाधीन हैं तथा “स्व” अर्थात्‌ अपने भक्तों के भी वश में हो जाते हैं। जीव अनेक होते हैं और श्री जी के कन्त अर्थात्‌ श्रीसीतापति भगवान्‌ श्रीराम एक हैं। यद्दपि जीव और ब्रह्म के बीच सम्बन्धत: भेद झूठा है इसे माया ने किया है अर्थात्‌ जीव और ब्रह्म का स्वरूपत: भेद शास्त्रत: सिद्ध है, परन्तु सम्बन्ध की दृष्टि से जीव परमात्मा से अभिन्न है अर्थात्‌ जीव सेवक है और भगवान्‌ सेव्य हैं। दोनों सेवक–सेव्यभाव सम्बन्ध की दृष्टि से अभिन्न हैं,

[[९११]]

परन्तु जब जीव भगवान्‌ को अपना सम्बन्धी न मानकर जगत्‌ को माता, पिता, बहन, भाई, पत्नी, पति आदि सम्बन्धी दृष्टि से देखने लगता है, तब वह परमात्मा से अलग होकर दु:ख पाता है। यह सम्पूर्ण भेद माया के द्वारा किया हुआ और झूठा है, फिर भी करोड़ों उपाय करने पर भी यह सम्बन्ध निबन्धन भेद भगवान्‌ के भजन बिना नहीं जाता।

दो०– रामचंद्र के भजन बिनु, जो चह पद निर्बान।

ग्यानवंत अपि सो नर, पशुबिनु पूँछ बिषान॥७८(क)॥

भाष्य

जो प्राणी भगवान्‌ श्रीरामचन्द्र के भजन के बिना मोक्ष चाहता है, तो वह ज्ञानवान होने पर भी बिना सींग– पूँछ का पशु ही है, क्योंकि बिना भजन के मोक्ष हो ही नहीं सकता।

**राकापति षोडश उअहिं, तारागन समुदाइ।**

सकल गिरिन दव लाइय, बिनु रबि राति न जाइ॥७८(ख)॥

भाष्य

जैसे भले ही अपने सोलहों कलाओं से सम्पन्न सोलह रूप धारण करके शरद्‌पूर्णिमा के चन्द्रमा उदित हो जायें, भले ही तारागणों के समूह एक साथ प्रकाशित हो उठें और उनके साथ सुमेरु मंदराचल आदि सभी पर्वतों में दावाग्नि लगा दी जाये, फिर भी बिना सूर्य के रात्रि नहीं जाती अर्थात्‌ जैसे सोलहों चन्द्रमा, सभी तारागण और सम्पूर्ण पर्वतों में लगी अग्नि रात्रि के उस अन्धकार को नहीं मिटा पाते जिसे अकेले सूर्य क्षणभर में समाप्त कर देते हैं।

**ऐसेहिं बिनु हरि भजन खगेशा। मिटइ न जीवन केर कलेशा॥ हरि सेवकहिं न ब्याप अबिद्दा। प्रभु प्रेरित ब्यापइ तेहिं बिद्दा॥ ताते नाश न होइ दास कर। भेद भगति बा़ढइ बिहंगबर॥**
भाष्य

हे गव्र्ड़ जी! इसी प्रकार से भगवान्‌ श्रीराम के भजन के बिना जीव के क्लेश नहीं मिटते हैं। भूभारहारी श्रीहरि राघवेन्द्र श्रीराम के सेवक को अविद्दा व्याप्त नहीं होती। प्रभु से प्रेरित विद्दा ही उसे व्याप्ति है, इसलिए हे पक्षीश्रेष्ठ गव्र्ड़ जी! भक्त अर्थात्‌ भगवान्‌ के दास का कभी नाश नहीं होता। उसमें भेदभक्ति अर्थात्‌ सेवक– सेव्यभाव लक्षणाभक्ति ब़ढती रहती है।

**भ्रम ते चकित राम मोहि देखा। बिहँसे सो सुनु चरित बिशेषा॥ तेहि कौतुक कर मरम न काहू। जाना अनुज न मातु पिताहू॥ जानु पानि धाए मोहि धरना। श्यामल गात अरुन कर चरना॥ तब मैं भागि चलेउँ उरगारी। राम गहन कहँ भुजा पसारी॥ जिमि जिमि दूरि उड़ाउँ अकासा। तहँ भुज हरि देखउँ निज पासा॥**
भाष्य

भगवान्‌ श्रीराम ने मुझ भुशुण्डि को भ्रम से चकित देखा और हँस पड़े। हे गरुड़ जी! वह विशेष चरित्र सुनिये, प्रभु के उस कौतुक का मर्म भरत अदि तीनों छोटे भाई, कौसल्या जी आदि मातायें, पिताश्री चक्रवर्ती दशरथ जी, इनमें से किसी ने नहीं जाना अर्थात्‌ प्रभु श्रीराम का मुझ भुशुण्डि के साथ किया हुआ कौतुक सर्वथा गोपनीय रहा। श्यामल शरीर तथा लाल श्रीहस्त और चरणोंवाले प्रभु श्रीराम मुझे पक़डने के लिए दोनों घुटनों एवं दोनों हाथों से दौड़े। हे सर्पों के शत्रु गरुड़ जी! तब मैं भाग चला और प्रभु श्रीराम ने मुझे पक़डनें के लिए अपनी भुजायें फैला दीं। मैं आकाश में ज्यों–ज्यों दूर उड़ता जाता वहाँ प्रभु की भुजाओं और प्रभु को भी अपने पास देखता था।

[[९१२]]

दो०– ब्रह्मलोक लगि गयउँ मैं, चितवत पाछ उड़ात।

जुग अंगुल कर बीच सब, राम भुजहिं मोहि तात॥७९(क)॥

भाष्य

हे भैया गरुड़ जी! इस प्रकार पीछे मुड़कर देखता–देखता, उड़ता-उड़ता मैं ब्रह्मलोकपर्यन्त गया। श्रीराम की भुजाओं और मुझमें मात्र दो अंगुल का अन्तर था, क्योंकि मेरे मन में माया और मोह था। यथा– “जेहि बिधि मोह भयउ प्रभु मोही” मानस ७/७४/२. “रघुपति प्रेरित ब्यापी माया” मानस ७/७८/१. मुझमें अज्ञान और अभिमान था उन्होंने मेरे और प्रभु के बीच दो अंगुल का अन्तर रख लिया था। मैं द्वैतवाद की भावना से जीव और ईश्वर की पृथक्‌–पृथक्‌ सत्ता मानने लगा था, वही दो अंगुल का बीच था। “नरो वा परमेश्वारो वा” अर्थात्‌ श्रीराम मनुष्य हैं या ईश्वर इसी भेद ने दोनों के बीच दो अंगुल का भेद रख दिया था। मैं अवतारी और अवतार में अन्तर समझता था यही दो अंगुल का अन्तर था।

**सप्ताबरन भेद करि, जहँ लगि रहि गति मोरि।**

गयउँ तहाँ प्रभु भुज निरखि, ब्याकुल भयउँ बहोरि॥७९(ख)॥

भाष्य

मैं पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, प्रकृति और महत्‌ तत्त्व के सातों आवरणों का भेद करके जहाँ तक मेरी गति रही वहाँ तक प्रभु श्रीराम और उनकी भुजाओं को देखते–देखते गया फिर व्याकुल हो गया।

**मूदेउँ नयन त्रसित जब भयऊँ। पुनि चितवत कोसलपुर गयऊँ॥ मोहि बिलोकि राम मुसुकाहीं। बिहँसत तुरत गयउँ मुख माहीं॥**
भाष्य

हे गरुड़ जी! जब मैं अर्थात्‌ काकभुशुण्डि अत्यन्त भयभीत हो गया और अपनी आँखें मूँद ली तब देखते ही देखते फिर मैं श्रीअयोध्या में चला गया, मुझे देखते ही प्रभु श्रीराम मुस्कुराने लगे और उनके हँसते ही मैं तुरन्त उनके मुख में चला गया।

**उदर माझ सुनु अंडज राया। देखेउँ बहु ब्रह्मांड निकाया॥ अति बिचित्र तहँ लोक अनेका। रचना अधिक एक ते एका॥**
भाष्य

हे पक्षियों के राजा! सुनिये, मैं भगवान्‌ श्रीराम के पेट के बीच अनेक ब्रह्माण्डों के समूह देखता था। वहाँ अत्यन्त विचित्र अनेक लोक थे और उनमें एक से एक अत्यन्त सुन्दर रचना अर्थात्‌ सृष्टि थी।

**कोटिन चतुरानन गौरीशा। अगनित उडुगन रबि रजनीशा॥ अगनित लोकपाल जम काला। अगनित भूधर भूमि बिशाला॥**
भाष्य

वहाँ करोड़ों ब्रह्मा जी, करोड़ों शिव जी और उपलक्षणतया करोड़ों विष्णु जी, अनगिनत तारागण, अनगिनत सूर्य तथा अनगिनत चन्द्रमा दिखते थे। वहाँ अनगिनत लोकपाल, यम तथा काल थे। वहाँ अनेक पर्वत और अनेक प्रकार की विशाल पृथ्वीयाँ थीं।

**सागर सरि सर बिपिन अपारा। नाना भाँति सृष्टि बिस्तारा॥ सुर मुनि सिद्ध नाग नर किन्नर। चारि प्रकार जीव सचराचर॥**
भाष्य

भगवान्‌ श्रीराम के पेट में अनेक सागर, अनेक नदियाँ, अनेक तालाब तथा अनेक वन थे। वहाँ अनेक प्रकार की सृष्टियों का विस्तार था। वहाँ देवता, मुनि, सिद्ध, नाग, मनुष्य और किन्नर दिख रहे थे। चर–अचर सहित अण्डज, श्वेदज, उद्‌भिज्ज और जरायुज ये चारों प्रकार के जीव भी वहाँ दिख रहे थे।

**दो०– जो नहिं देखा नहिं सुना, जो मनहूँ न समाइ।**

सो सब अद्भुत देखेउँ, बरनि कवनि बिधि जाइ॥८०(क)॥

[[९१३]]

भाष्य

जो न कभी देखा था, न कभी सुना था, जो कल्पना करके मन में भी नहीं समाता वह सब कुछ मैं आश्चर्यमय देख रहा था। वह किस प्रकार से वर्णन किया जा सकता है?

**एक एक ब्रह्मांड महँ, रहउँ बरष शत एक।**

**एहि बिधि देखत फिरउँ मै, अंड कटाह अनेक॥८०(ख)॥ भा०– **एक–एक ब्रह्माण्ड में मैं सौ वर्ष तक रहता था, इस प्रकार मैं अनेक ब्रह्माण्डों को देखता फिर रहा था।

लोक लोक प्रति भिन्न बिधाता। भिन्न बिष्नु शिव मनु दिशित्राता॥ नर गंधर्ब भूत बेताला। किंनर निशिचर पशु खग ब्याला॥ देव दनुज गन नाना जाती। सकल जीव तहँ आनहिं भाँती॥ महि सरि सागर सर गिरि नाना। सब प्रपंच तहँ आनइ आना॥

भाष्य

वहाँ प्रत्येक लोक में ब्रह्मा जी, विष्णु जी, शिव जी, मनु जी और दिशाओं के रक्षक दिग्पाल ये सब अलग–अलग दिखते थे। वहाँ मनुष्य, गन्धर्व, भूत, वेताल, किन्नर, राक्षस, पशु, पक्षी, सर्प, देवता और दैत्यों के समूह ये सब दिखते थे। वहाँ सम्पूर्ण जीव दूसरे प्रकार के थे। वहाँ अनेक पृथ्वी, नदी, समुद्र, तालाब और अनेक पर्वत, सम्पूर्ण प्रपन्च दूसरा ही दूसरा था।

**अंडकोश प्रति प्रति निज रूपा। देखेउँ जिनस अनेक अनूपा॥ अवधपुरी प्रति भुवन निहारी। सरजू भिन्न भिन्न नर नारी॥ दशरथ कौसल्या सब माता। बिबिध रूप भरतादिक भ्राता॥ प्रति ब्रह्मांड राम अवतारा। देखेउँ बालबिनोद अपारा॥**
भाष्य

प्रत्येक ब्रह्माण्डों में मैं अपना रूप अर्थात्‌ काकभुशुण्डि को भी देखता था। इस प्रकार मैंने अनुपम अनेक वस्तुयें देखी। प्रत्येक ब्रह्माण्ड में श्रीअवधपुरी को अलग–अलग रूप में देखा। वहाँ अलग–अलग स्वरूप में श्रीसरयू तथा अलग–अलग स्वरूप में श्रीअवध के नर–नारी दिखे। मैंने अनेक रूपों में महाराज दशरथ जी को तथा भिन्न–भिन्न रूपों में कौसल्या आदि सभी माताओं को और श्रीभरत, लक्ष्मण एवं श्रीशत्रुघ्न जी इन तीनों भ्राताओं को भी अनेक रूपों में देखा। मैंने प्रत्येक ब्रह्माण्ड में श्रीराम का अवतार और उनके अपार बालविनोद अर्थात्‌ बाललीला के दृश्य भी देखे।

**दो०– भिन्न भिन्न मैं दीख सब, अति बिचित्र हरियान।**

अगनित भुवन फिरेउँ प्रभु, राम न देखेउँ आन॥८१(क)॥ सोइ शिशुपन सोइ शोभा, सोइ कृपालु रघुबीर।

भुवन भुवन देखत फिरउँ, प्रेरित मोह समीर॥८१(ख)॥

भाष्य

हे श्रीविष्णु के वाहन गरुड़ जी! भगवान्‌ श्रीराम के उदर में रहकर मैंने सब कुछ अलग–अलग और अत्यन्त आश्चर्यमय देखा। हे स्वामी! मैं अनगिनत ब्रह्माण्डों में फिरा, परन्तु भगवान्‌ श्रीराम का दूसरा रूप नहीं देखा अर्थात्‌ प्रत्येक ब्रह्माण्ड में भगवान्‌ श्रीराम एक से ही दिखे। प्रभु श्रीराम का वही शिशुपन अर्थात्‌ बालभाव, वही बाललीला, और वही कृपालु रघुवीर भगवान्‌ श्रीराम मुझे प्रत्येक ब्रह्माण्ड में दिखे। इस प्रकार मोहरूप वायु से प्रेरित हुआ मैं प्रत्येक ब्रह्माण्ड में देखता–देखता फिरता रहा।

**भ्रमत मोहि ब्रह्मांड अनेका। बीते मनहुँ कलप शत एका॥ फिरत फिरत निज आश्रम आयउँ। तहँ पुनि रहि कछु काल गवाँयउँ॥ निज प्रभु जनम अवध सुनि पायउँ। निर्भर प्रेम हरषि उठि धायउँ॥ देखेउँ जन्म महोत्सव जाई। जेहि बिधि प्रथम कहा मैं गाई॥**

[[९१४]]

भाष्य

हे गरुड़ जी! मुझे अनेक ब्रह्माण्डों में भ्रमण करते हुए, मानो एक सौ कल्प बीत गये। मैं भ्रमण करते–करते अपने आश्रम आ गया। वहाँ रहकर कुछ समय बिताया। अपने प्रभु श्रीराम का जन्म जब श्रीअवध में सुन पाया, तब निर्भर प्रेम से युक्त हुआ मैं प्रसन्न होकर उठकर दौड़ा और जाकर भगवान्‌ श्रीराम का जन्ममहोत्सव देखा तथा वहीं पाँच वर्षपर्यन्त आनन्द लिया, जिस विधि से मैंने प्रथम ही तुम्हें गाकर सुनाया है।

**राम उदर देखेउँ जग नाना। देखत बनइ न जाइ बखाना॥ तहँ पुनि देखेउँ राम सुजाना। माया पति कृपालु भगवाना॥ करउँ बिचार बहोरि बहोरि। मोह कलिल ब्यापित मति मोरी॥ उभय घरी महँ मैं सब देखा। भयउँ भ्रमित मन मोह बिशेषा॥**
भाष्य

हे गरुड़ जी! मैंने श्रीराम के उदर में अनेक संसार देखे, जो देखते तो बनता है, परन्तु कहा नहीं जा सकता। फिर वहाँ मैंने अर्थात्‌ भगवान्‌ श्रीराम के उदर में ही मायापति कृपालु भगवान, परम चतुर श्रीराम को देखा। मैं बारम्बार अपने मन में विचार करता था कि, अरे! मेरी बुद्धि मोहरूप कीचड़ से व्याप्त हो गई है। अथवा, मोहरूप कीचड़ में फँस गई है। मैंने मात्र दो घड़ी में सब कुछ देख लिया, मैं भ्रम में पड़ गया, मेरे मन में विशेष मोह हुआ।

**दो०– देखि कृपालु बिकल मोहि, बिहँसे तब रघुबीर।**

बिहँसतहीं मुख बाहेर, आयउँ सुनु मतिधीर॥८२(क)॥ सोइ लरिकाइ मोहिं सन, करन लगे पुनि राम।

कोटि भाँति समुझायउँ, मन न लहेउ बिश्राम॥८२(ख)॥

भाष्य

इस प्रकार से कृपामय रघुकुल के वीर भगवान्‌ श्रीराम मुझे व्याकुल देखकर फिर ठहाका लगाकर हँसे और हे धीर बुद्धिवाले गरुड़ जी! सुनिये, उनके उन्मुक्त रूप से हँसते ही मैं उनके मुख से बाहर आ गया। भगवान्‌ श्रीराम मुझसे फिर उसी प्रकार का लड़कपन करने लगे। मैंने करोड़ों प्रकार से समझाया, परन्तु मेरे मन ने विश्राम नहीं पाया।

**देखि चरित यह सो प्रभुताई। समुझत देह दशा बिसराई॥ धरनि परेउँ मुख आव न बाता। त्राहि त्राहि आरत जन त्राता॥**
भाष्य

प्रभु का यह ऐश्वर्य और माधुर्य से मिला हुआ चरित्र देखकर और अभी–अभी घटी हुई श्रीराम के मुख में प्रविष्ट होकर स्वयं ही देखी हुई प्रभु श्रीराम की प्रभुता को समझते ही मैंने अपनी शरीर की दशा को भुला दिया। मैं पृथ्वी पर गिर पड़ा। मेरे मुख से वचन नहीं निकल पा रहा था, मैंने केवल इतना ही कहा कि दु:ख से आतुर भक्तों की रक्षा करने वाले प्रभु श्रीराम! मेरी रक्षा कीजिये…रक्षा कीजिये।

**प्रेमाकुल प्रभु मोहि बिलोकी। निज माया प्रभुता तब रोकी॥ कर सरोज प्रभु मम सिर धरेऊ। दीनदयाल सकल दुख हरेऊ॥ कीन्ह राम मोहि बिगत बिमोहा। सेवक सुखद कृपा संदोहा॥**
भाष्य

प्रभु ने मुझे अपने प्रेम में व्याकुल देखकर, फिर अपनी माया की प्रभुता को रोक लिया। प्रभु श्रीराम ने मेरे सिर पर अपने श्रीकरकमल को रखा और दीनदयाल श्रीराम ने मेरे सारे दु:ख हर लिए। सेवकों को सुख देनेवाले कृपा के समूह स्वरूप भगवान्‌ श्रीराम ने मुझे मोह से रहित कर दिया।

**प्रभुता प्रथम बिचारि बिचारी। मन महँ होइ हरष अति भारी॥ भगत बछलता प्रभु कै देखी। उपजी मम उर प्रीति बिशेषी॥ सजल नयन पुलकित कर जोरी। कीन्हेउँ बहुबिधि बिनय बहोरी॥**

[[९१५]]

भाष्य

भगवान्‌ श्रीराम की प्रथम देखी हुई प्रभुता को बार–बार विचारकर मेरे हृदय में बहुत प्रसन्नता हो रही थी। भगवान्‌ श्रीराम की भक्तवत्सलता को देखकर मेरे हृदय में विशेष प्रीति हुई और मेरे नेत्र सजल हो गये, शरीर रोमांचित हो गया। मैंने हाथ जोड़कर भगवान्‌ की बहुत विनती की।

**विशेष– **भुशुण्डि जी को कामरूप धारण करने का वरदान प्राप्त था। यथा– “**कामरूप इच्छा मरन, ग्यान बिराग निधान**” मानस ७/११३ख. इसलिए शिव जी के साथ भुशुण्डि जी मनुष्य रूप धारण करके श्रीअवध में आये थे। “**मनुजरूप जानइ नहिं कोऊ**” मानस १/१९६/४. उसी कामरूपता का इस समय प्रयोग किया और मनुष्य बनकर दोनों हाथ जोड़ लिया और स्तुति की, अन्यथा कौवे के शरीर में यह सम्भव नहीं था।

दो०– सुनि सप्रेम मम बानी, देखि दीन निज दास।

बचन सुखद गंभीर मृदु, बोले रमानिवास॥८३(क)॥ कागभुशुंडी माँगु बर, अति प्रसन्न मोहि जानि। अनिमादिक सिधि अपर ऋधि, मोक्ष सकल सुख खानि॥८३(ख)॥

भाष्य

मेरी प्रेमपूर्ण वाणी सुनकर मुझे अपना दीन सेवक जानकर श्रीरमानिवास अर्थात्‌ श्रीराम की आह्लादिनी शक्ति श्रीसीता के हृदय में निवास करने वाले प्रभु श्रीराम सुखदायक, गम्भीर और कोमल वचन बोले, हे काकभुशुण्डि! अब मुझे अत्यन्त प्रसन्न जानकर अणीमा, गरिमा, महिमा, लघिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य ईशित्व, वशित्व नामक सिद्धियाँ और अन्य महापद्म, पद्म, शंख, मकर, कच्छप, मुकुन्द, कुन्द, नील और खर्व नामक नौ निधियाँ आदि सम्पूर्ण सुखों की खानि आनन्दस्वरूप मोक्ष इनमें से जो चाहो वह वरदान माँग लो।

**ग्यान बिबेक बिरति बिग्याना। मुनि दुर्लभ गुन जे जग नाना॥ आज देउँ सब संशय नाहीं। माँगु जो तोहि भाव मन माहीं॥**
भाष्य

हे भुशुण्डि! ज्ञान अर्थात्‌ संसार की नश्वरता का बोध, विवेक अर्थात्‌ सत्य–असत्य की पहचान का सामर्थ्य, विरति अर्थात्‌ वैराग्य, विज्ञान अर्थात्‌ विशिष्ट ज्ञान यानी चिद्‌–अचिद्‌ वर्ग से विशिष्ट परमात्मतत्त्व का ज्ञान और भी जो संसार में मुनि दुर्लभ अनेक गुण हैं उन सबको आज मैं तुम्हें दे दूँगा इसमें कोई सन्देह नहीं है, तुम्हें जो मन में अच्छा लगे वही माँग लो।

**सुनि प्रभु बचन अधिक अनुरागेउँ। मन अनुमान करन तब लागेउँ॥ प्रभु कह देन सकल सुख सही। भगति आपनी देन न कही॥ भगति हीन गुन सब सुख ऐसे। लवन बिना बहु ब्यंजन जैसे॥ भजन हीन सुख कवने काजा। अस बिचारि बोलेउँ खगराजा॥**
भाष्य

प्रभु श्रीराम का वचन सुनकर मैं अनुराग से अधिक भर गया। तब मैं अपने मन में अनुमान करने लगा प्रभु ने मुझे वास्तव में सभी सुखों को देने के लिए कह दिया है, परन्तु अपनी भक्ति देने के लिए नहीं कही। भक्ति से हीन गुण और सभी सुख इसी प्रकार स्वादहीन हैं, जैसे लवण अर्थात्‌ नमक के बिना बहुत से व्यन्जन स्वादहीन हो जाते हैं।

विशेष

ः भक्ति नमक है, वही रामरस है इसलिए नमक को भी श्रीवैष्णवजन रामरस कहते हैं। भजन के बिना सुख किस काम का। हे पक्षीराज, गरुड़ जी! ऐसा विचार करके मैं फिर बोला–

जौ प्रभु होइ प्रसन्न बर देहू। मो पर करहु कृपा अरु नेहू॥ मन भावत बर माँगउँ स्वामी। तुम उदार उर अंतरजामी॥

[[९१६]]

भाष्य

हे प्रभु श्रीरघुनाथ! यदि आप प्रसन्न होकर वरदान दे रहे हैं तथा यदि आप मुझ पर कृपा और स्नेह दोनों एक साथ कर रहे हैं तो, हे स्वामी! मैं आज अपने मन का भाता हुआ वरदान माँग रहा हूँ, क्योंकि आप उदार हैं और हृदय अर्थात्‌ मन के अर्न्तयामी हैं।

**दो०– अबिरल भगति बिशुद्ध तव, श्रुति पुरान जो गाव।**

जेहि खोजत जोगीश मुनि, प्रभु प्रसाद कोउ पाव॥८४(क)॥ भगत कल्पतरु प्रनत हित, कृपासिंधु सुख धाम।

सोइ निज भगति मोहि प्रभु, देहु दया करि राम॥८४(ख)॥

भाष्य

आपकी जिस पवित्र अविरला भक्ति को वेद और पुराण गाते हैं और जिसे योगीश्वर और मुनिजन ढूँ़ढते रहते हैं, आपके प्रसाद से कोई एक पा जाता है। हे भक्तों के कल्पवृक्ष! हे प्रणतों अर्थात्‌ विधिपूर्वक प्रणाम करनेवालों के हितैषी! हे कृपा के सागर! हे सुखों के भवन और सुखमय तेजवाले भगवान्‌ श्रीराम! अपनी वही भक्ति मुझे दया करके दे दीजिये।

**एवमस्तु कहि रघुकुलनायक। बोले बचन परम सुखदायक॥ सुनु बायस तैं परम सयाना। काहे न माँगसि अस बरदाना॥ सब सुख खानि भगति तैं माँगी। नहिं जग कोउ तोहि सम बड़ भागी॥ जो मुनि कोटि जतन नहिं लहहीं। जे जप जोग अनल तनु दहहीं॥ रीझेउँ देखि तोरि चतुराई। माँगेहु भगति मोहि अति भाई॥**
भाष्य

रघुकुल के स्वामी और परमसुख अर्थात्‌ आध्यात्मिक सुख देनेवाले भगवान्‌ श्रीराम, भुशुण्डि जी से परम सुखद वचन बोले, हे बायस काकभुशुण्डि! तू बहुत चतुर है, तू भला ऐसा वरदान क्यों नहीं माँगेगा? तुमने समस्त सुखों की खानि मेरी अविरल भक्ति ही वरदान में माँग ली। तेरे समान जगत्‌ में कोई बड़भागी नहीं है, जो जप और योग की अग्नि में अपने शरीर को जला डालते हैं, ऐसे मुनि भी जिस भक्ति को करोड़ों यत्नों से नहीं प्राप्त कर पाते, ऐसी भक्ति तुमने माँगी, जो मुझे बहुत भाती है। मैं तेरी चतुरता देखकर रीझ गया हूँ अर्थात्‌ प्रसन्न हो गया हूँ।

**सुनु बिहंग प्रसाद अब मोरे। सब शुभ गुन बसिहैं उर तोरे॥ भगति ग्यान बिग्यान बिरागा। जोग चरित्र रहस्य बिभागा॥ जानब तैं सबहीं कर भेदा। मम प्रसाद नहिं साधन खेदा॥**

दो०– माया संभव भ्रम सब, अब न ब्यापिहैं तोहि।

जानेसु ब्रह्म अनादि अज, अगुन गुनाकर मोहि॥८५(क)॥ मोहि भगत प्रिय संतत, अस बिचारि सुनु काग।

काय बचन मन मम पद, करेसु अचल अनुराग॥८५(ख)॥

भाष्य

हे पक्षी भुशुण्डि! सुनो, अब मेरे प्रसाद से सभी कल्याणकारी गुण तुम्हारे हृदय में निवास करेंगे। भक्ति, भगवद्‌विषयक ज्ञान, विकृति का ज्ञान अर्थात्‌ संसार की नश्वरता का बोध, वैराग्य, यौगिक साधना के चरित्र और भगवदीय साधना के रहस्यों के विभाग इन सभी के भेदों को तुम जान जाओगे। मेरे प्रसाद से तुम्हें साधनकाल में कष्ट भी नहीं होगा। अब सभी माया से उत्पन्न भ्रम तुम्हें नहीं व्याप्त होंगे अर्थात्‌ तुम्हें नहीं प्रभावित करेंगे। तुम मुझ दाशरथी राम को ही ब्रह्म अर्थात्‌ सबसे बड़ा, अनादि अर्थात्‌ आदि से रहित, अजन्मा, अव्यक्त गुणवाला तथा

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सभी कल्याणगुणगणों की खानि समझना। हे काकभुशुण्डि! सुनो, मुझ राम को भक्त निरन्तर प्रिय हैं, ऐसा विचार करके मेरी प्रियता प्राप्त करने के लिए तुम शरीर, वाणी, मन से मेरे चरणों में ही निश्चल प्रेम करो।

अब सुनु परम बिमल मम बानी। सत्य सुगम निगमादि बखानी॥ निज सिद्धांत सुनावउँ तोही। सुनु मन धरु सब तजि भजु मोही॥

भाष्य

हे भुशुण्डि! अब तुम अत्यन्त निर्मल सत्य अर्थात्‌ सन्तों के लिए हितैषिणी साधन में सुगम, निगम, आगम और संहिताओं द्वारा व्याख्यायित मुझ परमेश्वर श्रीराम की वाणी सुनो, तुम्हें अपने सिद्धांत सुना रहा हूँ। इसे सुनकर मन में धारण करो और सब कुछ छोड़कर मेरा भजन करो।

**मम माया संभव संसारा। जीव चराचर बिबिध प्रकारा॥ सब मम प्रिय सब मम उपजाए। सब ते अधिक मनुज मोहि भाए॥**
भाष्य

यद्दपि इस संसार में जो भी चर–अचर अनेक प्रकार के जीव हैं यह मेरी माया से ही सम्भव अर्थात्‌ शरीर धारण किये हैं, सभी मेरे प्रिय हैं और सभी मेरे द्वारा उत्पन्न किये हुए हैं, किन्तु मनुष्य मुझे सबसे अधिक भाते हैं, क्योंकि वे साधना कर सकते हैं।

**तिन महँ द्विज द्विज महँ श्रुतिधारी। तिन महँ निगम धरम अनुसारी॥ तिन महँ प्रिय बिरक्त पुनि ग्यानी। ग्यानिहु ते अति प्रिय बिग्यानी॥**
भाष्य

उन मनुष्यों में भी ब्राह्मण प्रिय हैं, ब्राह्मणों में भी सम्पूर्ण वेदों को न हो सके तो अपनी शाखा प्राप्त वेद को कण्ठस्थ करने वाले ब्राह्मण मुझे प्रिय हैं। उनमें भी वेदोक्त धर्म का अनुसरण करने वाले ब्राह्मण मुझे प्रिय हैं, उनमें भी विरक्त ब्राह्मण प्रिय हैं। उनमें भी भगवद्‌तत्त्ववेत्ता ब्राह्मण मुझे प्रिय हैं, उनमें भी विज्ञानी अर्थात्‌ चिद्‌– अचिद्‌ विशिष्ट परमात्मतत्त्व को जाननेवाले मुझे प्रिय हैं।

**तिन ते पुनि मोहि प्रिय निज दासा। जेहि गति मोरि न दूसरि आसा॥ पुनि पुनि सत्य कहउँ तोहि पाहीं। मोहि सेवक सम प्रिय कोउ नाही॥**
भाष्य

फिर उन सबसे मुझे अपने दास प्रिय हैं, जिसे मेरा ही आधार या मेरा ही आश्रय है, जिसे और किसी की आशा नहीं है। हे भुशुण्डि! मैं तुम्हारे पास बारम्बार सत्य बोल रहा हूँ कि मुझे अपने सेवक के समान कोई प्रिय नहीं है, चाहे वह किसी भी योनि में हो, किसी भी वर्ण में हो और किसी भी लिंग में हो।

**भगति हीन बिरंचि किन होई। सब जीवहु सम प्रिय मोहि सोई॥ भगतिवंत अति नीचउ प्रानी। मोहि प्रानप्रिय असि मम बानी॥**
भाष्य

भक्ति से हीन ब्रह्मा भी क्यों न हों वह भी सभी जीवों के समान प्रिय हैं अर्थात्‌ ब्रह्मा का पद मेरी प्रियता में कारण नहीं है, परन्तु भक्ति से युक्त अत्यन्त नीच प्राणी भी मुझे प्राण के समान प्रिय हैं, ऐसा मेरा स्वभाव है।

**दो०– शुचि सुशील सेवक सुमति, प्रिय कहु काहि न लाग।**

श्रुति पुरान कह नीति असि, सावधान सुनु काग॥८६॥

भाष्य

हे भुशुण्डि! बोलो, पवित्र, सुन्दर स्वभाववाला और सात्विक बुद्धिवाला सेवक किसे प्रिय नहीं लगता। हे काकभुशुण्डि! सावधान होकर सुनो, वेद और पुराण ऐसी नीति कहते हैं।

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एक पिता के बिपुल कुमारा। होहिं पृथक गुन शील अचारा॥ कोउ पंडित कोउ तापस ग्याता। कोउ धनवंत शूर कोउ दाता॥ कोउ सर्बग्य धर्मरत कोई। सब पर पितहिं प्रीति सम होई॥

भाष्य

एक ही पिता के भिन्न–भिन्न गुणों, भिन्न स्वभाव तथा भिन्न आचरणोंवाले बहुत से पुत्र होते हैं। कोई पण्डित होता है, कोई तपस्वी होता है, कोई ज्ञानी होता है, कोई धनवान, कोई शूरवीर, ओर कोई दानी होता है। कोई सब कुछ जाननेवाला हो जाता है, कोई धर्मपारायण होता है, इन विविध विशेषताओं वाले पुत्रों पर पिता को समान प्रीति होती है।

**कोउ पितु भगत बचन मन कर्मा। सपनेहुँ जान न दूसर धर्मा॥ सो सुत प्रिय पितु प्रान समाना। जद्दपि सो सब भाँति अयाना॥**
भाष्य

इन सबके अतिरिक्त कोई पुत्र वचन, मन और कर्म से पिता का भक्त होता है। जो स्वप्न में भी पिता की सेवा के अतिरिक्त दूसरा धर्म नहीं जानता, वही पुत्र पिता को प्राण के समान प्रिय होता है। यद्दपि वह सब प्रकार से ज्ञानशून्य होता है अर्थात्‌ पिता को किसी के ज्ञान से कोई लेना–देना नहीं होता, वह तो अपनी भक्ति से ही पुत्र पर अधिक प्रेम करता है।

**एहि बिधि जीव चराचर जेते। त्रिजग देवनर असुर समेते॥ अखिल बिश्व यह मोर उपाया। सब पर मोहि बराबरि दाया॥ तिन महँ जो परिहरि मद माया। भजै मोहि मन बच अरु काया॥**

दो०– पुरुष नपुंसक नारि वा, जीव चराचर कोइ।

सर्ब भाव भज कपट तजि, मोहि परम प्रिय सोइ॥८७(क)॥

सो०– सत्य कहउँ खग तोहि, शुचि सेवक मम प्रान प्रिय।

अस बिचारि भजु मोहि, परिहरि आस भरोस सब॥८७(ख)॥ कबहूँ काल नहि ब्यापिहि तोही। सुमिरेसु भजेसु निरंतर मोही॥

भाष्य

इस प्रकार से इस संसार में जो भी पशु, पक्षी, देवता, मनुष्य और राक्षसों के समेत चराचर अर्थात्‌ चेतन और ज़ड वर्ग के जीव हैं उनसे युक्त यह सारा संसार मेरा ही उत्पन्न किया हुआ है तथा सभी पर मुझे समान रूप से दया है। इसमें से जो मद और माया अर्थात्‌ कपट और दम्भ छोड़कर मन, वाणी, शरीर से मेरा भजन करता है, वह पुरुष हो या नपुंसक हो अथवा, स्त्री वर्ग का हो। चर–अचर जीवों में कोई भी यदि सर्वभाव से अर्थात्‌ अपनी सम्पूर्ण प्रियता के साथ कपट छोड़कर यदि मुझे भजता है तो वही मुझे परम प्रिय हो जाता है। हे भुशुण्डि पक्षी! मैं तुमसे सत्य कहता हूँ कि पवित्र सेवक मुझे प्राण के समान प्रिय होते हैं, ऐसा विचार करके संसार की सभी आशा और विश्वास छोड़कर तुम मुझे भजो। तुम्हें कभी काल नहीं ब्यापेगा अर्थात्‌ काल तुम पर कभी भी मृत्यु व्यवहार का प्रयोग नहीं करेगा। तुम निरन्तर मेरा स्मरण और भजन करते रहना।

**प्रभु बचनामृत सुनि न अघाऊँ। तनु पुलकित मन अति हरषाऊँ॥ सो सुख जानइ मन अरु काना। नहिं रसना पहिं जाइ बखाना॥ प्रभु शोभा सुख जानहिं नयना। कहि किमि सकहिं तिनहिं नहिं बयना॥**
भाष्य

मैं अमृत के समान मधुर भगवान्‌ के वचन सुनकर तृप्त नहीं हो रहा था, मेरा शरीर पुलकित था और मैं मन में बहुत प्रसन्न होता था। वह सुख तो मेरे मन और मेरे कान जानते हैं। वह जीभ के द्वारा कहा नहीं जा सकता। बालरूप भगवान्‌ श्रीराघव की शोभा का सुख तो मेरे नेत्र ही जानते हैं, पर वे कैसे कह सकते हैं, क्योंकि उनके पास कोई वाणी नहीं है।

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बहु बिधि मोहि प्रबोधि सुख देई। लगे करन शिशु कौतुक तेई॥ सजल नयन कछु मुख करि रूखा। चितइ मातु लागी अति भूखा॥ देखि मातु आतुर उठि धाई। कहि मृदु बचन लिए उर लाई॥ गोद राखि कराव पय पाना। रघुपति चरित ललित कर गाना॥

भाष्य

मुझे बहुत प्रकार से समझाकर और सुख देकर बालक श्रीराम, राघव जी फिर वही बाल कौतुक करने लगे। उन्होंने नेत्रों में आँसू भरकर मुख को कुछ रूक्ष करके माता कौसल्या जी की ओर देखा, अब प्रभु श्रीराघव को बहुत भूख लग गई थी। प्रभु के नेत्रों में आँसू और उनका मुख रूखा देखकर माता कौसल्या जी आतुरता के साथ उठकर दौड़ीं। माता जी ने कोमल वचन कहकर प्रभु श्रीराम को हृदय से लगा लिया। श्रीरामलला को गोद में रखकर दुग्धपान कराने लगीं और ललित स्वर में रघुपति श्रीराम जी के ललीत चरित्रों का गान करने लगीं।

**सो०– जेहि सुख लागि पुरारि, अशुभ बेष कृत शिव सुखद।**

अवधपुरी नर नारि, तेहि सुख महँ संतत मगन॥८८(क)॥ सोइ सुख कर लवलेश, जिन बारक सपनेहुँ लहेउ।

ते नहिं गनहिं खगेश, ब्रह्मसुखहिं सज्जन सुमति॥८८(ख)॥

भाष्य

जिस बालरूप श्रीराघव के दर्शन सुख के लिए, सबको सुख देनेवाले त्रिपुरासुर के शत्रु शिव जी ने अशुभ वेश धारण किया अर्थात्‌ मुण्डमाला, बाघाम्बर, विभूति, सर्पकोपिन आदि अशुभ वेश बनाया, उसी प्रभु श्रीराम की बाललीला के आनन्द में श्रीअवधपुरी के पुरुष–स्त्री निरन्तर मग्न रहते हैं अर्थात्‌ उन्हें अशुभ वेश बनाये बिना शिशु राघव के दर्शन, स्पर्श, दुलार, गोद में लेकर खेलाना आदि का सौभाग्य सुख प्राप्त हो रहा है। हे पक्षीराज गरुड़! उसी श्रीराघव के बालरूप दर्शन सुख का लवलेश मात्र भी जिन्होंने एक बार भी स्वप्न में भी प्राप्त कर लिया, वे सुन्दर बुद्धिवाले श्रीवैष्णव महानुभाव, ब्रह्मसुख को भी नहीं गिनते।

**मैं पुनि रहेउँ अवध कछु काला। देखउँ बालबिनोद रसाला॥ राम प्रसाद भगति बर पायउँ। प्रभु पद बंदि निजाश्रम आयउँ॥**
भाष्य

फिर मैं कुछ काल तक श्रीअवधपुरी में रहा और मैंने प्रभु श्रीराम के रसमय बालविनोद अर्थात्‌ रसमयी बाललीलाओं के दर्शन किये। भगवान्‌ श्रीराम के प्रसाद से मैंने भक्ति वरदान प्राप्त किया। फिर प्रभु के श्रीचरणों की वन्दना करके अपने आश्रम नीलपर्वत पर लौट आया।

**तब ते मोहि न ब्यापी माया। जब ते रघुनायक अपनाया॥**

यह सब गुप्त चरित मैं गावा। हरि माया जिमि मोहि नचावा॥

भाष्य

जब से रघुकुल के नायक भगवान्‌ श्रीराम ने मुझे अपना लिया और जब से मैंने रघुनायक श्रीराम को अपना बना लिया तब से मुझे भगवान्‌ की माया नहीं व्यापी। मैंने यह सब गुप्त चरित्र गाया, जिस प्रकार श्रीहरि की माया ने मुझे नचाया था।

**निज अनुभव अब कहउँ खगेशा। बिनु हरि भजन न जाहिं कलेशा॥ राम कृपा बिनु सुनु खगराई। जानि न जाइ राम प्रभुताई॥ जाने बिनु न होइ परतीती। बिनु परतीति होइ नहिं प्रीती॥ प्रीति बिना नहिं भगति दृ़ढाई। जिमि खगपति जल कै चिकनाई॥**
भाष्य

हे पक्षीराज गरुड़ देव! अब मैं अपना अनुभव कह रहा हूँ, बिना श्रीहरि भगवान्‌ श्रीराम का भजन किये जीव के क्लेश नहीं समाप्त होते। हे खग अर्थात्‌ आकाशचारी पक्षियों के राजा गरुड़ जी! सुनिये, भगवान्‌ श्रीराम

[[९२०]]

की कृपा के बिना प्रभु श्रीराम की प्रभुता जानी नहीं जा सकती और भगवान्‌ श्रीराम का प्रभुत्व जाने बिना श्रीराघवेन्द्रसरकार पर जीव का विश्वास नहीं होता तथा प्रभु की प्रतीती के बिना श्रीराघवसरकार पर साधक को प्रीति अर्थात्‌ प्रेम नहीं होता। हे पक्षीराज! जैसे जल का चिकनापन दृ़ढ नहीं होता, उसी प्रकार भगवत्‌ प्रेम बिना भगवान्‌ की भक्ति भी दृ़ढ नहीं होती।

विशेष

प्रीति और भक्ति इन दो शब्दों का प्रयोग करके गोस्वामी जी ने एक सूक्ष्म अंतर की ओर संकेत किया है। उनके मन में प्रीतिपूर्वक भगवत्‌ स्मरण को भक्ति कहते हैं, जबकि नारद परमप्रेम को ही भक्ति मानते हैं – “सा त्वस्मिन्‌ परमप्रेमरूपा” (ना०भ० सू० १.१.२), शाण्डिल्य भी ईश्वर में परअनुरक्ति को ही भक्ति मानते हैं – सा तु परानुरक्तिरीश्वरे (शा०सू० १.१.२) किन्तु गोस्वामी जी प्रीतिपूर्वक भगवत्‌ स्मरण को भक्ति मानते हैं और भक्ति की दृ़ढता में प्रीति को कारण मानते हैं।

सो०– बिनु गुरु होइ कि ग्यान, ग्यान कि होइ बिराग बिनु।

गावहिं बेद पुरान, सुख कि लहिय हरि भगति बिनु॥८९(क)। कोउ बिश्राम कि पाव, तात सहज संतोष बिनु।

**चलै कि जल बिनु नाव, कोटि जतन पचि पचि मरिय॥८९(ख)॥ भा०– **क्या बिना गुरु के ज्ञान हो सकता है, क्या वह ज्ञान विराग के बिना स्थिर रह सकता है? इसी प्रकार वेद, पुराण कहते हैं कि, क्या भगवान्‌ की भक्ति के बिना कोई सुख पा सकता है? हे तात! क्या स्वाभाविक सन्तोष के

बिना कोई शान्तिरूप विश्राम पा सकता है? भले ही कोई करोड़ों यत्न कर–करके मर जाये फिर भी क्या जल के बिना नाव चल सकती है ?

बिनु संतोष न काम नसाहीं। काम अछत सुख सपनेहुँ नाहीं॥

**राम भजन बिनु मिटहिं कि कामा। थल बिहीन तरु कबहुँ कि जामा॥ भा०– **बिना सन्तोष के कामनायें नष्ट नहीं होतीं और कामनाओं के रहते स्वप्न में भी सुख नहीं मिलता। श्रीराम के भजन के बिना क्या कामनायें मिट सकती हैं अर्थात्‌ समूल नय् हो सकती हैं? क्या थाले अर्थात्‌ पृथ्वी के बिना कभी भी वृक्ष जम सकता है?

बिनु बिग्यान कि समता आवइ। कोउ अवकाश कि नभ बिनु पावइ॥ श्रद्धा बिना धर्म नहिं होई। बिनु महि गंध कि पावइ कोई॥

भाष्य

चिद्‌-अचिद्‌ विशिष्ट ब्रह्मज्ञान बिना क्या समत्व बुद्धि आ सकती है अर्थात्‌ जब तक जगत्‌ से जगदीश का शरीर–शरीरीभाव सम्बन्ध हृदय में नहीं बैठ जाता तब तक जगत्‌ में समत्व बुद्धि कैसे हो सकती है? क्या कोई भी आकाश के बिना अवकाश अर्थात्‌ स्वयं समाहित होने का स्थान पा सकता है? श्रद्धा अर्थात्‌ आस्तिक बुद्धि के बिना धर्माचरण नहीं हो सकता। क्या कोई पृथ्वी के बिना गन्ध प्राप्त कर सकता है? अर्थात्‌ जैसे गन्ध पृथ्वी से उत्पन्न होता है, उसी प्रकार धर्म, श्रद्धा से उत्पन्न होता है।

__बिनु तप तेज कि कर बिस्तारा। जल बिनु रस कि होइ संसारा॥ शील कि मिल बिनु बुध सेवकाई। जिमि बिनु तेज न रूप गोसाँई॥

भाष्य

क्या कोई तपस्या के बिना तेज का विस्तार कर सकता है? क्या संसार में बिना जल के रस उत्पन्न हो सकता है? विद्वानों की सेवा के बिना क्या शील, अर्थात्‌ चरित्र मिल सकता है? हे गोसाईं गरुड़ जी! जैसे बिना तेज के रूप की प्राप्ति नहीं होती।

[[९२१]]

निज सुख बिनु मन होइ कि थीरा। परस कि होइ बिहीन समीरा॥

**कवनिउ सिद्धि कि बिनु बिश्वासा। बिनु हरि भजन न भव भय नासा॥ भा०– **निज सुख अर्थात्‌ अपने द्वारा अनुभव किये हुये परमात्मसुख के बिना क्या मन स्थिर हो सकता है? क्या वायु के बिना कभी स्पर्श हो सकता है? क्या विश्वास के बिना कोई भी सिद्धि प्राप्त हो सकती है? इसी प्रकार

भगवद्‌भजन के बिना भवभय का नाश नहीं हो सकता अर्थात्‌ संसार के भय का नाश करने के लिए भगवान्‌ का भजन अत्यन्त अनिवार्य है।

दो०– बिनु बिश्वास भगति नहिं, तेहि बिनु द्रवहिं न राम।

राम कृपा बिनु सपनेहुँ, जीव न लह बिश्राम॥९०(क)॥

सो०– अस बिचारि मतिधीर, तजि कुतर्क संशय सकल।

**भजहु राम रघुबीर, करुनाकर सुंदर सुखद॥९०(ख)॥ भा०– **बिना विश्वास के भगवान्‌ की भक्ति नहीं हो सकती है, भक्ति के बिना भगवान्‌ श्रीराम द्रवित नहीं होते अर्थात्‌ कृपा करने का मन नहीं बनाते और श्रीरामकृपा के बिना जीव स्वप्न में भी विश्राम नहीं प्राप्त कर सकता। हे धीर बुद्धिवाले गरुड़ जी! ऐसा विचार करके सभी कुतर्कों और संशयों को छोड़कर करुणा की खानि, सुन्दर,

सुख देनेवाले, रघुकुल के वीर, दशरथनन्दन भगवान्‌ श्रीराम का भजन कीजिये।

निज मति सरिस नाथ मैं गाई। प्रभु प्रताप महिमा खगराई॥ कहेउँ न कछु करि जुगुति बिशेषी। यह सब मैं निज नयननि देखी॥ महिमा नाम रूप गुन गाथा। सकल अमित अनंत रघुनाथा॥ निज निज मति मुनि हरि गुन गावहिं। निगम शेष शिव पार न पावहिं॥

भाष्य

हे स्वामी! हे पक्षियों के राजा गरुड़ जी! मैंने अपनी बुद्धि के ही समान भगवान्‌ श्रीराम के प्रताप और महिमा का गान किया। मैंने कुछ विशेष युक्ति बनाकर नहीं कहा है, यह सब मैंने अपनी आँखों से देखा है। श्रीरघुनाथ की महिमा, प्रभु का रूप, उनके नाम और भगवान्‌ श्रीराम के गुणों की गाथायें ये सभी असीम और अनन्त हैं अर्थात्‌ न तो इनकी सीमा है और न ही अन्त। मुनिगण अपनी–अपनी बुद्धि के अनुसार भगवान्‌ के गुणगण गाते हैं। वेद, शेष एवं शिव जी भी इनका पार नहीं पाते।

**तुमहिं आदि खग मशक प्रजंता। नभ उड़ाहिं नहिं पावहिं अंता॥ तिमि रघुपति महिमा अवगाहा। तात कबहुँ कोउ पाव कि थाहा॥**
भाष्य

हे तात गरुड़ जी! जैसे आप से लेकर मच्छर पर्यन्त पक्षी आकाश में उड़ते हैं, परन्तु उसका (आकाश का) अन्त नहीं पाते, उसी प्रकार रघुकुल के स्वामी भगवान्‌ श्रीराम की महिमा अगाध है। हे तात! क्या कोई उसका थाह पा सकता है?

**विशेष– **अवगाह शब्द अविगाध शब्द का तद्‌भव है।

राम काम शत कोटि सुभग तन। दुर्गा कोटि अमित अरि मर्दन॥

**शक्र कोटि शत सरिस बिलासा। नभ शत कोटि अमित अवकासा॥ भा०– **भगवान्‌ श्रीराम करोड़ों कामदेवों के समान सुन्दर शरीरवाले हैं और प्रभु श्रीराम अनन्त करोड़ श्रीदुर्गाओं के समान अकेले शत्रुओं के नाशक हैं अर्थात्‌ अनन्त करोड़ दुर्गायें मिलकर शत्रुनाश में जो उग्रता और सामर्थ्य प्रस्तुत

[[९२२]]

कर सकती हैं वह एकमात्र भगवान्‌ श्रीराम में सम्भव है। भगवान्‌ श्रीराम का अरबों इन्द्र के समान विलास वैभव है। भगवान्‌ श्रीराम में अरबों आकाशों के समान अवकाश है अर्थात्‌ स्थान आदि का सामर्थ्य है।

दो०– मरुत कोटि शत बिपुल बल, रबि शत कोटि प्रकास।

**शशि शत कोटि सुशीतल, शमन सकल भव त्रास॥९१(ख)॥ भा०– **भगवान्‌ श्रीराम में करोड़ों मरुतों अर्थात्‌ वायुओं के समान अथवा उनसे भी अधिक बल है और प्रभु श्रीराम में करोड़ों सूर्य से भी अधिक प्रकाश है। श्रीरघुनाथ अरबों चन्द्रमा के समान सुन्दर और शीतल हैं और वे

संसार के त्रास को समाप्त करते हैं।

काल कोटि शत सरिस अति, दुस्तर दुर्ग दुरंत।

धूमकेतु शत कोटि सम, दुराधर्ष भगवंत॥९१(ख)॥

भाष्य

भगवान्‌ अरबों काल के समान अत्यन्त दुस्तर, दुर्गम और दुरन्त अर्थात्‌ सर्वथा अविनाशीतत्त्व हैं, किसी के भी द्वारा उनका अन्त किया ही नहीं जा सकता। भगवान्‌ श्रीराम अरबों अग्नि के समान दुर्धर्ष हैं। उनका किसी भी काल में प्रधर्षण नही किया जा सकता अर्थात्‌ उन्हें दबाया नहीं जा सकता।

**प्रभु अगाध शत कोटि पताला। शमन कोटि शत सरिस कराला॥ तीरथ अमित कोटि सम पावन। नाम अखिल अघ पूग नसावन॥**
भाष्य

भगवान्‌ श्रीराम अरबों पातालों के समान अगाध अर्थात्‌ गम्भीर हैं। प्रभु श्रीराम अरबों यमराजों के समान दूसरों के लिए भयंकर हैं। श्रीरघुनाथ अनन्त कोटि तीर्थों के समान सबको पवित्र करने वाले हैं। प्रभु श्रीराम का श्रीरामनाम अनन्त पापसमूहों का नाशक है।

**हिमगिरि कोटि अचल रघुबीरा। सिंधु कोटि शत सम गंभीरा॥ कामधेनु शत कोटि समाना। सकल काम दायक भगवाना॥**
भाष्य

रघु अर्थात्‌ जीवमात्र के विशेष प्रेरक रघुवीर श्रीराम करोड़ों हिमाचल पर्वतों के समान अचल अर्थात्‌ स्थिर हैं। प्रभु श्रीराघव अरबों समुद्रों के समान गम्भीर हैं। भगवान्‌ श्रीराम अरबों कामधेनुओं के समान समस्त कामनाओं को देनेवाले हैं।

**शारद कोटि अमित चतुराई। बिधि शत कोटि सृष्टि निपुनाई॥ बिष्णु कोटि सम पालन कर्ता। रुद्र कोटि शत सम संहर्ता॥**
भाष्य

भगवान्‌ श्रीराम में अनेक करोड़ शारदाओं के समान चतुरता है और उनमें अर्थात्‌ प्रभु श्रीराम में अरबों ब्रह्माओं जैसी सृष्टि रचना कि निपुणता है। भगवान्‌ श्रीराम करोड़ों विष्णुओं के समान जगत्‌ का पालन करते हैं और अरबों रुद्रों के समान जगत्‌ का संहार करने में समर्थ हैं।

**धनद कोटि शत सम धनवाना। माया कोटि प्रपंच निधाना॥ भार धरन शत कोटि अहीशा। निरवधि निरुपम प्रभु जगदीशा॥**
भाष्य

भगवान्‌ श्रीराम अरबों कुबेरों के समान धनवान हैं और करोड़ों मायाओं के समान जगत्‌ प्रपंच के निधान अर्थात्‌ कोश हैं। अरबों शेषनागों के समान भगवान्‌ श्रीराम जगत्‌ का भार धारण कर सकते हैं। प्रभु अवधिरहित और उपमारहित हैं तथा एकममात्र भगवान्‌ श्रीराम ही सर्वशक्तिमान और जीव जगत्‌ के ईश्वर हैं।

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छं०– निरुपम न उपमा आन राम समान राम निगम कहै।

जिमि कोटि शत खद्दोत सम रबि कहत अति लघुता लहै॥ एहि भाँति निज निज मति बिलास मुनीश हरिहिं बखानहीं। प्रभु भाव गाहक अति कृपालु सप्रेम सुनि सुख मानहीं॥

भाष्य

वेद कहते हैं कि भगवान्‌ श्रीराम निरुपम हैं अर्थात्‌ सभी उपमायें उनमें निर्लीन हैं और उनके द्वारा निरस्त कर दी गई हैं। श्रीराम की कोई दूसरी उपमा ही नहीं है। श्रीराम के समान श्रीराम ही हैं, जैसे सूर्य करोड़ों जुगनूओं के समान हैं इस प्रकार कहने वाला और कहा जाने वाला दोनों ही बहुत लघुता को प्राप्त कर लेते हैं अर्थात्‌ छोटे हो जाते हैं, उसी प्रकार अपनी–अपनी बुद्धि के विलास के अनुसार श्रेष्ठमुनिगण भगवान्‌ श्रीराम का बखान करते हैं और भाव के ग्राहक प्रभु कृपालु श्रीराम भी उनकी प्रेमपूर्ण वाणी सुनकर सुख का अनुभव कर लेते हैं अर्थात्‌ अपनी लघुता का विचार नहीं करते।

**दो०– राम अमित गुन सागर, थाह कि पावइ कोइ।**

**संतन सन जस कछु सुनेउँ, तुमहिं सुनायउँ सोइ॥९२(क)॥ भा०– **श्रीराम असीम गुणों के सागर हैं, क्या उनकी कोई थाह पा सकता है? मैंने सन्तों से जैसा कुछ सुना था वही आपको सुना दिया।

सो०– भाव बश्य भगवान, सुख निधान करुना भवन।

**तजि ममता मद मान, भजिय सदा सीता रवन॥९२(ख)॥ भा०– **भगवान्‌ श्रीराम भाव के वश में हैं, वे सुख के कोश और करुणा के भवन हैं। अतएव, ममता, मद और अहंकार छोड़कर उन्हीं श्रीसीतारमण भगवान्‌ श्रीराम का सदैव भजन करना चाहिये।

* मासपारायण, उन्तीसवाँ विश्राम *

सुनि भुशुंडि के बचन सुहाए। हरषित खगपति पंख फुलाए॥ नयन नीर मन अति हरषाना। श्रीरघुपति प्रताप उर आना॥

भाष्य

इस प्रकार काकभुशुण्डि जी के सुहावने वचन सुनकर पक्षियों के राजा गरुड़ जी प्रसन्न होकर अपनी पंखों को फुला लिए। उनके नेत्रों में आँसू आ गये। गरुड़ जी मन में बहुत प्रसन्न हुए, उन्होंने अपने हृदय में भगवान्‌ श्रीराम के प्रताप को लाकर स्थापित कर लिया।

**पाछिल मोह समुझि पछिताना। ब्रह्म अनादि मनुज करि माना॥ पुनि पुनि काग चरन सिर नावा। जानि राम सम प्रेम ब़ढावा॥**
भाष्य

गरुड़ देव जी पिछला मोह समझकर पछताये, क्योंकि उन्होंने आदिरहित परब्रह्म परमात्मा भगवान्‌ श्रीराम को मनुष्य करके मान लिया था। गरुड़ जी ने बारम्बार काकभुशुण्डि जी के चरणों में सिर नवाया। उन्हें भगवान्‌

श्रीराम के समान जानकर उनके प्रति अपना प्रेम ब़ढाया।

गुरु बिनु भव निधि तरइ न कोई। जौ बिरंचि शङ्कर सम होई॥ संशय सर्प ग्रसेउ मोहि ताता। दुखद लहरि कुतर्क बहु ब्राता॥ तव सरूप गारुडि रघुनायक। मोहि जियायउ जन सुखदायक॥ तव प्रसाद मम मोह नसाना। राम रहस्य अनूपम जाना॥

[[९२४]]

भाष्य

कोई भी बिना गुरुदेव के संसार सागर को नहीं पार कर सकता। यदि वह ब्रह्मा जी और शङ्कर जी के समान ही क्यों न हो। हे मेरे श्रद्धास्पद भुशुण्डि जी! मुझे संशयरूप सर्प ने काट खाया था, उसके कारण अनेक कुत्सित तर्करूप लहरों के समूह मुझे कय् देते रहते थे अर्थात्‌ जैसे साँप के काटने पर लहर आती है और व्यक्ति अनाप– शनाप बकने लगता है, उसी प्रकार कुतर्कों के समूह के कारण मैं बहुत अनर्गल और मर्यादाहीन बोल रहा था। मैं मरणासन्न हो गया था, परन्तु भक्तों को सुख देनेवाले रघुवंश के नायक भगवान्‌ श्रीराम ने आप अर्थात्‌ काकभुशुण्डि स्वरूप गारुडि अर्थात्‌ सर्प का विष उतारनेवाले मांत्रिक द्वारा मुझे जिला दिया अर्थात्‌ रघुनाथ जी ने आपसे गारुडि की भूमिका निभवा दी। आपके प्रसाद से मेरा मोह नष्ट हो गया और मैंने अनुपम श्रीराम रहस्य को जान लिया।

**दो०– ताहि प्रशंसेउ बिबिध बिधि, शीष नाइ कर जोरि।**

**बचन बिनीत सप्रेम मृदु, बोलेउ गरुड बहोरि॥९३(क)॥ भा०– **गरुड़ जी ने उन भुशुण्डि जी की बहुत प्रकार से प्रशंसा की, फिर सिर नवाकर, हाथ जोड़कर गरुड़ जी प्रेम पूर्वक विनम्र और कोमल वाणी में बोले–

प्रभु अपने अबिबेक ते, बूझउँ स्वामी तोहि।

कृपासिंधु सादर कहहु, जानि दास निज मोहि॥९३(ख)॥

भाष्य

हे सर्वसमर्थ! हे स्वामी! मैं अपने ही अविवेक के कारण आपसे आदरपूर्वक पूछ रहा हूँ। हे कृपा के सागर भुशुण्डि देव जी! आप मुझे अपना दास जान करके मेरे प्रश्न के उत्तर कहें।

**तुम सर्बग्य तग्य तम पारा। सुमति सुशील सरल आचारा॥ ग्यान बिरति बिग्यान निवासा। रघुनायक के तुम प्रिय दासा॥ कारन कवन देह यह पाई। तात सकल मोहि कहहु बुझाई॥**
भाष्य

आप सर्वज्ञ, तत्त्व को जाननेवाले, मोह के अन्धकार से परे, सुन्दर बुद्धिवाले, सुन्दर शील अर्थात्‌ चरित्र से सम्पन्न, सरल आचरणवाले, ज्ञान, वैराग्य और विज्ञान के निवास स्थान हैं तथा आप रघुकुल के नायक भगवान्‌ श्रीराम के प्रिय भक्त भी हैं। आपने किस कारण से यह कौवे का शरीर पाया ? हे तात! मुझे सब समझाकर कहिये।

**राम चरित सर सुंदर स्वामी। पायहु कहाँ कहहु नभगामी॥ नाथ सुना मै अस शिव पाहीं। महा प्रलयहुँ नाश तव नाहीं॥ मृषा बचन नहिं ईश्वर कहई। सोउ मोरे मन संशय अहई॥ अग जग जीव नाग नर देवा। नाथ सकल जग काल कलेवा॥ अंड कटाह अमित लय कारी। काल सदा दुरतिक्रम भारी॥**

दो०– तुमहि न ब्यापत काल, अति कराल कारन कवन।

मोहि सो कहहु कृपाल, ग्यान प्रभाव कि जोग बल॥९४(क)॥ प्रभु तव आश्रम आए, मोर मोह भ्रम भाग।

कारन कवन सो नाथ सब, कहहु सहित अनुराग॥९४(ख)॥

भाष्य

हे नाथ! हे आकाशगामी पक्षीश्रेष्ठ भुशुण्डि जी कहिये! यह सुन्दर श्रीरामचरितमानस आपने कहाँ से पाया? हे नाथ! मैंने शिव जी के पास से ऐसा सुना है कि महाप्रलय में भी आपका नाश नहीं होता। ईश्वर असत्य वचन

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नहीं कह सकते। वह भी मेरे मन में संशय है, क्योंकि हे नाथ! ज़ड-चेतन वर्ग में बँटे हुए सभी जीव, नाग, मनुष्य और देवता, किं बहुना सम्पूर्ण संसार ही काल का कलेवा अर्थात्‌ प्रात:कालीन स्वल्पाहार है। यह काल अनेक ब्रह्माण्डरूप क़डाहों का प्रलय करनेवाला तथा सदैव दुरतिक्रम अर्थात्‌ अतिक्रमण करने में कठिन और बहुत–बड़ा अनिवार्य तत्त्व है। वह कराल काल आपको क्यों नहीं व्यापता? हे कृपालु! वह आप मुझे बतायें कि आप पर काल के नहीं व्याप्त होने में ज्ञान का प्रभाव है या योग का बल। हे प्रभु! आपके आश्रम में आने से ही मेरे मोह और भ्रम भाग गये इसमें कौन–सा कारण है? हे नाथ! यह सब आप मुझसे अनुराग के साथ कहिये।

गरुड गिरा सुनि हरषेउ कागा। बोलेउ उमा सहित अनुरागा॥ धन्य धन्य तव मति उरगारी। प्रश्न तुम्हारि मोहि अति प्यारी॥ सुनि तव प्रश्न सप्रेम सुहाई। बहुत जनम कै सुधि मोहि आई॥ सब निज कथा कहउँ मैं गाई। तात सुनहु सादर मन लाई॥

भाष्य

गरुड़ जी की वाणी सुनकर काकभुशुण्डि जी बहुत प्रसन्न हो गये और हे पार्वती! वे अर्थात्‌ कागभुशुण्डि जी अनुराग के सहित बोले, हे सर्पों के शत्रु गरुड़ जी! आपकी बुद्धि धन्य है…धन्य है। आपकी प्रश्नावली मुझे बहुत प्रिय लगी। आपकी प्रेमपूर्ण सुहावनी प्रश्नावली सुनकर मुझे बहुत जन्मों की सुधि अर्थात्‌ स्मृति आ गई। मैं अपनी सम्पूर्ण कथा गाकर कह रहा हूँ। हे तात! आप मन लगाकर आदरपूर्वक सुनिये।

**जप तप मख शम दम ब्रत दाना। बिरति बिबेक जोग बिग्याना॥ सब कर फल रघुपति पद प्रेमा। तेहि बिनु कोउ न पावइ छेमा॥**
भाष्य

जप, तप, यज्ञ, शम, दम, व्रत और दान, वैराग्य, विवेक, योग और विज्ञान इन सभी साधनों का फल है भगवान्‌ श्रीराम के श्रीचरणों में प्रेम, उसके बिना कोई छेम अर्थात्‌ कल्याण नहीं पा सकता।

**एहि तन राम भगति मैं पाई। ताते मोहि ममता अधिकाई॥ जेहि ते कछु निज स्वारथ होई। तेहि पर ममता कर सब कोई॥**

सो०– पन्नगारि असि नीति, श्रुति सम्मत सज्जन कहहिं।

अति नीचहु सन प्रीति, करिय जानि निज परम हित॥९५(क)॥ पाट कीट ते होइ, तेहि ते पाटंबर रुचिर।

कृमि पालइ सब कोइ, परम अपावन प्रान सम॥९५(ख)॥

भाष्य

इस शरीर में मैंने श्रीरामभक्ति पायी, इसलिए इस शरीर पर मुझे बहुत अधिक ममता है, जिससे कुछ भी अपना स्वार्थ सिद्ध होता है, उस पर सभी लोग ममता करते हैं। हे सर्पों के शत्रु गरुड़ जी! इसी प्रकार की नीति श्रुति के द्वारा सम्मत है और सज्जन भी कहते हैं कि, अपना परम हित जानकर अत्यन्त नीच से प्रेम किया जाता है अथवा, करना चाहिये। रेशम का तागा रेशम के कीड़े के मल से प्राप्त होता है और उसी तागे से सुन्दर रेशमी वस्त्र बनते हैं। ऐसे परम अपवित्र कीड़े को सभी रेशम के व्यापारी प्राण के समान पालते हैं।

**स्वारथ साँच जीव कहँ एहा। मन क्रम बचन राम पद नेहा॥ सोइ पावन सोइ सुभग शरीरा। जो तनु पाइ भजिय रघुबीरा॥**
भाष्य

मन, कर्म और वचन से श्रीराम के श्रीचरणों में प्रेम जीव के लिए यही एकमात्र स्वार्थ है। वही पवित्र है और वही शरीर सुन्दर है, जो शरीर पाकर प्राणी भगवान्‌ का भजन कर सके।

[[९२६]]

राम बिमुख लहि बिधि सम देही। कबि कोबिद न प्रशंसहिं तेही॥ राम भगति एहि तन उर जामी। ताते मोहि परम प्रिय स्वामी॥

भाष्य

जो ब्रह्मा जी के समान शरीर प्राप्त करके भी श्रीराम से विमुख हो जाता है, तो उस शरीर की मनीषी और वेदज्ञ प्रशंसा नहीं करते। हे पक्षियों के स्वामी गरुड़ जी! मेरे इसी शरीर के हृदय में श्रीरामभक्ति उत्पन्न हुई और जम गई, अर्थात्‌ प्रगा़ढ हो गई, इसलिए यह शरीर मुझे अत्यन्त प्रिय है।

**तजउँ न तन निज इच्छा मरना। तन बिनु बेद भजन नहिं बरना॥ प्रथम मोह मोहि बहुत बिगोवा। राम बिमुख सुख कबहुँ न सोवा॥**
भाष्य

यद्दपि मेरी मृत्यु मेरी इच्छा पर निर्भर है अर्थात्‌ मुझे इच्छामरण का वरदान प्राप्त है, फिर भी मैं यह शरीर नहीं छोड़ता हूँ, क्योंकि वेद ने बिना शरीर के भजन का वर्णन नहीं किया है अर्थात्‌ भगवान्‌ के नाम, रूप, लीला, धाम के आस्वादन के लिए कोई न कोई शरीर चाहिये। पहले मुझे मोह ने बहुत नष्ट किया, मेरी बहुत दुर्दशा की। मैं श्रीराम से विमुख होकर कभी भी सुख से नहीं सो सका।

**नाना जनम कर्म पुनि नाना। किए जोग जप तप मख दाना॥ कवन जोनि जनमेउँ जग नाहीं। मैं खगेश भ्रमि भ्रमि जग माहीं॥**
भाष्य

मैंने अनेक जन्मों में पुन:–पुन: अनेक कर्म, अनेक योग, जप, तप, यज्ञ तथा दान किया। हे गरुड़ जी! इस संसार में भटक–भटककर चौरासी लाख योनियों में ऐसी कौन योनि है, जहाँ मैं नहीं जन्मा।

**देखेउँ करि सब करम गोसाईं। सुखी न भयउँ अबहिं की नाईं॥ सुधि मोहि नाथ जन्म बहु केरी। शिव प्रसाद मति मोह न घेरी॥**
भाष्य

हे वेदवाणी के स्वामी गरुड़ जी! मैंने सब कर्म करके देख लिए, पर अभी की भाँति पहले सुखी नहीं हुआ। हे नाथ! मुझे बहुत जन्मों का स्मरण है। शिव जी के प्रसाद से मेरी बुद्धि मोह द्वारा नहीं ढँकी गई।

**दो०– प्रथम जन्म के चरित अब, कहउँ सुनहु बिहगेश।**

सुनि प्रभु पद रति उपजइ, जाते मिटहिं कलेश॥९६(क)॥

भाष्य

हे पक्षियों के स्वामी गरुड़ जी! अब मैं अपने प्रथम जन्म के चरित्र कह रहा हूँ उसे सुनिये, उसे सुनकर प्रभु श्रीराम के श्रीचरणों में प्रेम उत्पन्न होगा, जिस भक्ति से जीव के क्लेश मिट जाते हैं।

**पूरब कलप एक प्रभु, जुग कलिजुग मल मूल।**

नर अरु नारि अधर्मरत, सकल निगम प्रतिकूल॥९६(ख)॥

भाष्य

हे प्रभु! एक कल्प में मल के आश्रय कलियुग का समय था, जिसमें पुरुष और स्त्री सभी अधर्म में अनुरक्त थे और सब वेदों के प्रतिकूल चलते थे।

**तेहि कलिजुग कोसलपुर जाई। जन्मत भयउँ शूद्र तनु पाई॥ शिव सेवक मन क्रम अरु बानी। आन देव निंदक अभिमानी॥ धन मद मत्त परम बाचाला। उग्रबुद्धि उर दंभ बिशाला॥**
भाष्य

उस कलियुग में कोसलपुर अर्थात्‌ श्रीअयोध्या में जाकर मैं शूद्र का शरीर प्राप्त करके जन्मा। मैं मन, कर्म और वाणी से शिव जी का सेवक था तथा अन्य देवों की निन्दा करनेवाला और अहंकारी था। मैं धन के मद से मत्त, अत्यन्त वाचाल, कठोर बुद्धिवाला और हृदय में विशाल दम्भ से युक्त था।

[[९२७]]

जदपि रहेउँ रघुपति रजधानी। तदपि न कछु महिमा तब जानी॥ अब जाना मैं अवध प्रभावा। निगमागम पुरान अस गावा॥ कवनेहुँ जन्म अवध बस जोई। राम परायन सो परि होई॥ अवध प्रभाव जान तब प्रानी। जब उर बसहिं राम धनु पानी॥

भाष्य

यद्दपि मैं रघुवंश के नाथ भगवान्‌ श्रीराम की राजधानी में रह रहा था, फिर भी उस समय मैंने श्रीअवध की कुछ भी महिमा नहीं जानी थी। अब मैंने श्रीअवध का प्रभाव जान लिया है। वेदों और आगम ग्रन्थों में तथा पुराणों ने ऐसा गाया है कि यदि किसी भी जन्म में जो कोई श्रीअवध में निवास कर ले, तो वह श्रीराम का उपासक हो ही जाता है। श्रीअवध के प्रभाव को प्राणी तभी जान पाता है, जब उसके हृदय में धनुषपाणी भगवान्‌ श्रीराम निवास करते हैं।

**सो कलिकाल कठिन उरगारी। पाप परायन सब नर नारी॥**

दो०– कलिमल ग्रसे धर्मसब, लुप्त भए सदग्रंथ।

दंभिन निज मति कल्पि करि, प्रगट किए बहु पंथ॥९७(क)॥ भए लोग सब मोहबश, लोभ ग्रसे शुभ कर्म।

सुनु हरियान ग्यान निधि, कहउँ कछुक कलिधर्म॥९७(क)॥

भाष्य

हे सर्पों के शत्रु गरुड़ जी! वह कलिकाल बहुत कठिन था। उसमें सभी पुरुष–स्त्री पाप के परायण हो चुके थे अर्थात्‌ सदैव पाप ही करते रहते थे। कलियुग के मलों ने सम्पूर्ण धर्मों को खा लिया था, सद्‌ग्रन्थ लुप्त हो चुके थे और दम्भियों ने अपनी बुद्धि से कल्पित करके बहुत से पन्थों को प्रकट कर दिया था। सभी लोग मोह के वश हो चुके थे। लोभ ने कल्याणकारी कर्मों को ग्रस लिया था। हे ज्ञान के निधान भगवान्‌ नारायण के विमान गरुड़ जी! सुनिये, मैं कलियुग के कुछ धर्मों अर्थात्‌ वृत्तियों का वर्णन कर रहा हूँ।

**बरन धर्म नहिं आश्रम चारी। श्रुति बिरोध रत सब नर नारी॥**

**द्विज श्रुति बेचक भूप प्रजासन। कोउ नहिं मान निगम अनुशासन॥ भा०– **कलियुग में चारों वर्णों ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र और चारों आश्रमों ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ, सन्यास नहीं रहते हैं। सभी स्त्री, पुव्र्ष वेद के विरोध में लगे रहते हैं। ब्राह्मण वेद बेचते हैं और राजा प्रजा को ही अशन अर्थात्‌ भोजन बनाकर खा डालते हैं, कोई भी वेद का अनुशासन नहीं मानता।

मारग सोइ जा कहँ जोइ भावा। पंडित सोइ जो गाल बजावा॥ मिथ्यारंभ दंभ रत जोई। ता कहँ संत कहइ सब कोई॥

भाष्य

कलियुग में जिसको जो अच्छा लगे वही मार्ग है, जो गाल बजाये अर्थात्‌ अपलाप करे वही पण्डित है। जो असत्य के साथ कार्य का आरम्भ करे और पाखण्ड में लगा हुआ हो, उसी को सब लोग सन्त कहते हैं।

**सोइ सयान जो परधन हारी। जो कर दंभ सो बड़ आचारी॥ जो कह झूँठ मसखरी जाना। कलिजुग सोइ गुनवंत बखाना॥**
भाष्य

जो दूसरों के धन को हड़पे वही चतुर है, जो दम्भ करे वही बहुत बड़ा आचरणशील है, जो असत्य और मसखरी अर्थात्‌ अश्लील हास–परिहास करना जानता है, कलियुग में वही गुणवान के रूप में बखाना जाता है।

**निराचार जो श्रुति पथ त्यागी। कलिजुग सोइ ग्यानी सो बिरागी॥ जाके नख अरु जटा बिशाला। सोइ तापस प्रसिद्ध कलिकाला॥**

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भाष्य

जो आचरणहीन और वैदिक मार्ग का त्यागी होता है, कलियुग में वही ज्ञानी और वही वैराग्यशाली है। जिसके पास बड़े-बड़े नख और विशाल जटायें हों, वही कलिकाल में प्रसिद्ध तपस्वी है।

**दो०– अशुभ बेष भूषन धरे, भक्षाभक्ष जे खाहिं।**

तेइ जोगी तेइ सिद्ध नर, पूज्य ते कलिजुग माहिं॥९८(क)॥

सो०– जे अपकारी चार, तिन कर गौरव मान्य तेइ।

**मन क्रम बचन लबार, तेइ बकता कलिकाल महँ॥९८(ख)॥ भा०– **जो लोग अशुभ वेश और अशुभ आभूषण अर्थात्‌ खोपड़ी, त्रिशूल आदि और भक्ष्य–अभक्ष्य सब कुछ खाते हैं, कलियुग में वही लोग योगी और सिद्ध कहे जाते हैं। वे ही कलिकाल में पूज्य हो जाते हैं, जो छिपकर दूसरों का भेद लेते हैं और जो दूसरों का अपकार करते हैं। कलियुग में उन्हीं की बड़ाई होती है और वही सम्मानित हो जाते हैं, जो मन, वाणी, शरीर से लबार अर्थात्‌ झूठे होते हैं, वे ही कलिकाल में सबसे बड़े वक्ता माने जाते हैं।

नारि बिबश नर सकल गोसाईं। नाचहिं नट मर्कट की नाईं॥ शूद्र द्विजन उपदेशहिं ग्याना। मेलि जनेऊ लेहिं कुदाना॥

भाष्य

हे गव्र्ड़ देव जी! सभी पुव्र्ष, नारियों के वश में होकर नट के बन्दर की भाँति नाचते हैं। शूद्र अर्थात्‌ आचरणहीन लोग ब्राह्मणों को ज्ञान का उपदेश करते हैं तथा अपने कन्धे में यज्ञोपवीत डाल कर कुत्सित दान लेते हैं।

**सब नर काम लोभ रत क्रोधी। देव बिप्र श्रुति संत बिरोधी॥ गुन मंदिर सुंदरपति त्यागी। भजहिं नारि पर पुरुष अभागी॥ सौभागिनी बिभूषन हीना। बिधवन के शृंगार नबीना॥**
भाष्य

सभी लोग काम और लोभ में अनुरक्त होते हैं और अत्यन्त क्रोधी होते हैं। वे देवता, ब्राह्मण, वेद और सन्तों का विरोध करते हैं। प्राय: भाग्यहीन नारियाँ गुणों के भवन सुन्दर पति को छोड़कर पर पुरुष का सेवन करती हैं। कलियुग में सुहागिनियाँ अलंकारों से रहित होती हैं और विधवाओं के लिए नये–नये श्रृंगार उपलब्ध हो जाते हैं।

**गुरु शिष बधिर अंध का लेखा। एक न सुनइ एक नहिं देखा॥ हरइ शिष्य धन शोक न हरई। सो गुरु घोर नरक महँ परई॥**
भाष्य

गुरु और शिष्य का सम्बन्ध तो अन्धे और बहरे के जैसा रहता है। एक सुनता नहीं और एक देखता नहीं अर्थात्‌ शिष्य, गुरु का उपदेश सुनना नहीं चाहता और गुरु, शिष्य की परिस्थिति देखना नहीं चाहता। जो गुरु, शिष्य के धन को हरता है अर्थात्‌ लेता है और उसके शोक को नहीं दूर कर पाता, वह गुरु घोर नरक में पड़ता है।

**मातु पिता बालकनि बोलावहिं। उदर भरै सोइ धर्म सिखावहिं॥**

दो०– ब्रह्म ग्यान बिनु नारि नर, कहहिं न दूसरि बात।

कौड़ी लागि लोभ बश, करहिं बिप्र गुरु घात॥९९(क)॥ बादहिं शूद्र द्विजन सन, हम तुम ते कछु घाटि।

**जानइ ब्रह्म सो बिप्रवर, आँखि देखावहिं डाटि॥९९(ख)॥ भा०– **माता–पिता बालकों को बुलाते हैं, जिससे पेट भरे वही धर्म बालकों को सिखाते हैं। कलियुग में स्त्री–पुरुष ब्रह्मज्ञान के बिना कोई दूसरी बात नहीं कहते अर्थात्‌ सबके सब दिखावे के लिए वेदान्ती बने रहते हैं, परन्तु अन्दर

[[९२९]]

से इतना क्षूद्र होते हैं कि एक कौड़ी पाने के लिए अर्थात्‌ बहुत थोड़े से लाभ के लिए ब्राह्मणों और गुरुओं की हत्या कर डालते हैं। शूद्र अर्थात्‌ शोक से असन्तुलित, आचरण से हीन लोग जन्म और संस्कार इन दोनों क्रियाओं से विशुद्धता के साथ जन्म लिए हुए ब्राह्मण से विवाद करते हैं। वे कहते हैं कि क्या तुम से हम किसी भी पक्ष में कम हैं? जो ब्रह्म को जानता है वही श्रेष्ठ ब्राह्मण है अर्थात्‌ कोई जन्म से ब्राह्मण नहीं हो सकता, इस प्रकार कहकर आँख दिखाकर डाँटते हैं।

पर त्रिय लंपट कपट सयाने। मोह द्रोह ममता लपटाने॥ तेइ अभेदबादी ग्यानी नर। देखा मैं चरित्र कलिजुग कर॥ आपु गए अरु तिनहूँ घालहिं। जे कहुँ सत मारग प्रतिपालहिं॥ कलप कलप भरि एक एक नरका। परहिं जे दूषहिं श्रुति करि तरका॥

भाष्य

जो परनारी में आसक्त, कपट में चतुर, मोह, द्रोह और ममता में लिपटे हुए हैं, वे ही कलिकाल में अभेदवादी अर्थात्‌ अद्वैतवादी ज्ञानी पुरुष हैं। मैंने कलियुग का चरित्र देखा है। स्वयं तो नष्ट ही होते हैं और जो लोग कुछ श्रेष्ठमार्ग का प्रतिपालन करते हैं, उन्हें भी नय् कर डालते हैं। जो लोग तर्क करके श्रुतियों को दूषित करते हैं, वे एक–एक कल्प तक एक–एक नरक में पड़े रहते हैं।

**जे बरनाधम तेलि कुम्हारा। स्वपच किरात कोल कलवारा॥ नारि मुई गृह संपति नासी। मूड़ मुड़ाइ होहिं संन्यासी॥ ते बिप्रन सन पाँव पुजावहिं। उभय लोक निज हाथ नसावहिं॥ बिप्र निरच्छर लोलुप कामी। निराचार शठ बृषली स्वामी॥**
भाष्य

जो वर्णों में अधम, तेल बेचने वाले, कुम्हार, कुत्ता पकाकर खानेवाले चाण्डाल, किरात, कोल, कलवार आदि जैसे संस्कारहीन हैं, वे पत्नी की मृत्यु होने पर, घर की सम्पत्ति नष्ट हो जाने पर सिर मुड़ाकर सन्यासी हो जाते हैं अर्थात्‌ पेट भरने के लिए बाबा बनते हैं। वे वेदज्ञ ब्राह्मणों से अपने पैर पुजवाते हैं और अपने हाथों से लोक–परलोक दोनों को नष्ट कर देते हैं। कलियुग में ब्राह्मण भी निरक्षर अर्थात्‌ अशिक्षित, विषयों के लोलुप, कामांध, आचरणहीन और वृषली अर्थात्‌ दुराचारिणीं शूद्र, चरित्रहीन स्त्री के स्वामी बन जाते हैं।

**शूद्र करहिं जप तप ब्रत नाना। बैठि बरासन कहहिं पुराना॥ सब नर कल्पित करहिं अचारा। जाइ न बरनि अनीति अपारा॥**
भाष्य

आचरणहीन लोग अपना दुराचरण छिपाने के लिए जप, तप और नाना प्रकार के व्रत करते हैं तथा सबसे ऊँचे आसन पर बैठकर पुराण कहते हैं। सभी लोग मनमानी आचरण करते हैं, उस अपार अनीति का वर्णन ही नहीं किया जा सकता।

**दो०– भए बरन शङ्कर कलि, भिन्नसेतु सब लोग।**

करहिं पाप पावहिं दुख, भय रुज शोक बियोग॥१००(क)॥ श्रुति सम्मत हरि भक्ति पथ, संजुत बिरति बिबेक।

तेहिं न चलहिं नर मोह बश, कल्पहिं पंथ अनेक॥१००(ख)॥

भाष्य

कलियुग में सभी लोग वर्णसङ्कर और वैदिक सेतु को तोड़ने वाले हो चुके हैं। वे पाप करते हैं तथा दु:ख भय, रोग, शोक और वियोग को प्राप्त करते हैं। जो वेदों से सम्मत ज्ञान और वैराग्य से युक्त श्रीरामभक्ति का पथ है, लोग मोहवश में होने के कारण उस पर नहीं चलते और नये–नये अनेक पंथों की कल्पना कर लेते हैं।

[[९३०]]

छं०– बहु दाम सँवारहिं धाम जती। बिषया हरि लीन्ह गई बिरती॥

**तपसी धनवंत दरिद्र गृही। कलि कौतुक तात न जात कही॥१॥ भा०– **सन्यासी लोग अपने घरों को बहुत धनों से सजाते हैं। विषयों ने उनका वैराग्य हर लिया, अत: उनमें विरक्ति की भावना चली गई रहती है। हे गरुड़ देव जी! कलियुग में तपस्वी कहे जानेवाले लोग धनवान और

गृहस्थ लोग दरिद्र रहते हैं। कलिकाल का कौतुक कहा नहीं जा सकता।

कुलवंति निकारहिं नारि सती। गृह आनहिं चेरि निबेरि गती॥ सुत मानहिं मातु पिता तब लौं। अबलानन दीख नहीं जब लौं॥२॥

भाष्य

लोग कुलीन और सती पत्नी को घर से निकाल देते हैं और अपने घर में सब प्रकार की गतियों से निवृत्त प्रतिष्ठाहीन कुलटा दासी को ले आते हैं। पुत्र तब तक माता–पिता को मानते हैं, जब तक आध्यात्मिक बल से हीन भोगप्रधान नारी का मुख नहीं देख लेते हैं।

**ससुरारि पियारि लगी जब ते। रिपुरूप कुटुंब भए तब ते॥ नृप पाप परायन धर्म नहीं। करि दंड बिडंब प्रजा नितहीं॥३॥**
भाष्य

जब से ससुराल प्रिय लगने लगी, तब से परिवार भी शत्रु रूप हो गया। कलियुग के राजा पाप परायण हो गये, उनमें धर्म नहीं रहा। वे नित्य ही प्रजा को दण्डित करके उसे बिडम्बित अर्थात्‌ अपमानित करते रहते हैं।

**धनवंत कुलीन मलीन अपी। द्विज चिन्ह जनेउ उघार तपी॥ नहिं मान पुरान न बेदहिं जो। हरि सेवक संत सही कलि सो॥४॥**
भाष्य

मलीन अर्थात्‌ निम्न श्रेणी के होने पर भी कलियुग के धनवान लोग ही ऊँचे कुल के माने जाते हैं अर्थात्‌ कलियुग के व्यक्ति की सारी बुराईयों को धन ढँक लेता है। ब्राह्मण का जनेऊ मात्र चिन्ह रह गया है और नंगा रहना तपस्वियों का चिन्ह रह गया है। जो न पुराण मानता है और न वेद मानता है, कलियुग में वही भगवान्‌ का वास्तविक सेवक सन्त है।

**कबि बृंद उदार दुनी न सुनी। गुन दूषक ब्रात न कोपि गुनी॥ कलि बारहिं बार दुकाल परै। बिनु अन्न दुखी सब लोग मरै॥५॥**
भाष्य

कलियुग में कवियों के वृन्द बहुत हैं, पर कवियों के आश्रयदाता उदार दानी जगत्‌ में सुने ही नहीं जाते। गुणों को दूषित करनेवालों के ब्रात अर्थात्‌ समूह दिखाई पड़ते हैं, परन्तु कोई गुणी नहीं दिखता। कलियुग में बारम्बार दुष्काल पड़ता है और सभी लोग बिना अन्न के दु:खी होकर मर जाते हैं।

**विशेष– **“***गुणानां** दूषका: गुणदूषका: तेषां ब्रात: समूह।”*

दो०– सुनु खगेश कलि कपट हठ, दंभ द्वेष पाषंड।

मान मोह मारादि मद, ब्यापि रहे ब्रह्मंड॥१०१(क)॥

भाष्य

हे गव्र्ड़ देव जी! सुनिये, इस कलिकाल में कपट, हठ, दम्भ, द्वेष, पाखण्ड, मान, मोह, मारादि अर्थात्‌ काम, मत्सर और मद यह सब सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में व्याप्त रहते हैं।

**तामस धर्म करहिं नर, जप तप ब्रत मख दान।**

देव न बरषहिं धरनि पर, बए न जामहिं धान॥१०१।(ख)॥

[[९३१]]

भाष्य

लोग धर्म, जप, तप, यज्ञ, व्रत और दान सब कुछ तामसी श्रद्धा से करते हैं, अर्थात्‌ तामस धर्म, तामस जप, तामस तप, तामस यज्ञ, तामस व्रत और तामस दान करते हैं। पृथ्वी पर इन्द्र वर्षा नहीं करते और धान बोने पर भी नहीं जमता।

**छं०– अबला कच भूषन भूरि छुधा। धनहीन दुखी ममता बहुधा॥**

**सुख चाहहिं मू़ढ न धर्म रता। मति थोरि कठोरि न कोमलता॥१॥ भा०– **कलियुग में महिलायें निर्बल और केश मात्र को आभूषण के रूप में स्वीकारती हैं अर्थात्‌ और कोई आभूषण उनके पास नहीं होता। उनमें बहुत क्षुधा होती है अर्थात्‌ कलियुगी नारियाँ भोगों से तृप्त नहीं होती। वे धन से हीन होकर दु:खी रहती हैं और उनमें बहुत प्रकार से ममता होती है। वे मूर्ख सुख चाहती हैं, पर धर्मपरायण नहीं होती। उनमें बुद्धि थोड़ी होती है, उनका स्वभाव कठोर होता है और उनमें कोमलता नहीं होती।

नर पीतिड़ रोग न भोग कहीं। अभिमान बिरोध अकारनहीं॥ लघु जीवन संबत पंच दसा। कलपांत न नाश गुमान असा॥२॥

भाष्य

पुरुष रोग से पीतिड़ रहते हैं, कहीं भी सुख-भोग नहीं होता। बिना कारण के उनमें अभिमान और अन्योन्य के प्रति विरोध रहता है। उनका जीवन मात्र पन्द्रह वर्षों का होता है, परन्तु अहंकार इतना होता है कि जैसे कल्पान्त में भी उनका नाश नहीं होगा।

**कलिकाल बिहाल किए मनुजा। नहिं मानत क्वौ अनुजा तनुजा॥ नहिं तोष बिचार न शीतलता। सब जाति कुजाति भए मँगता॥३॥**
भाष्य

कलिकाल ने सभी मनुष्यों को विकल कर दिया है, इसमें कोई बहन या बेटी नहीं देखता है सभी में पुरुष की भोगबुद्धि हो जाती है। न तो किसी में सन्तोष है, न अध्यात्म विचार है और न ही शीतलता है। सभी जाति और कुजाति भिक्षुक हो गये हैं। अथवा, सभी जातियाँ कुत्सित हो गई और सभी भीख माँगनेवाले हो गये हैं। कोई कर्म नहीं करता और सभी अधिकार की भीख माँगते हैं।

**इरिषा परुषाच्छर लोलुपता। भरि पूरि रही समता बिगता॥ सब लोग बियोग बिशोक हए। बरनाश्रम धर्म अचार गए॥४॥**
भाष्य

ईर्ष्या, कठोर अक्षरोंवाले वाक्य तथा विषयों की लोलुपता सर्वत्र समता से रहित होकर व्याप्त हो रहती है। सभी लोग वियोग और विकृत शोक के द्वारा नष्ट कर दिये गये हैं तथा वर्णाश्रमों के धर्म और आचार नष्ट हो गये हैं।

**दम दान दया नहिं जानपनी। ज़डता परबंचनताति घनी॥ तनु पोषक नारि नरा सगरे। परनिंदक जे जग मो बगरे॥५॥**
भाष्य

कलियुग में न इन्द्रियों का दमन रह गया, न दया और न ही किसी को किसी भी विषय का ज्ञान रह गया। सर्वत्र ज़डता और परबन्चनता अर्थात्‌ दूसरों को ठगने की प्रवृति बहुत अधिक हो चुकी है। सभी नारी–नर अपने शरीर के पोषक हो गये जो कि दूसरों की निन्दा करते–करते इस संसार में सर्वत्र फैल रहे हैं। अथवा, जो दूसरों के निन्दक हैं, वे संसार में बगरे अर्थात्‌ फैल रहे हैं।

**दो०– सुनु ब्यालारि कराल कलि, मल अवगुन आगार।**

गुनउँ बहुत कलिजुग कर, बिनु प्रयास निस्तार॥१०२(क)॥

[[९३२]]

भाष्य

हे सर्पों के शत्रु गरुड़ जी! यह कराल कलिकाल मलों और गुणों का भाण्डागार है, परन्तु कलियुग का गुण भी बहुत है, यहाँ बिना प्रयास के निस्तार हो जाता है।

**कृतजुग त्रेता द्वापर, पूजा मख अरु जोग।**

**जो गति होइ सो कलि हरि, नाम ते पावहिं लोग॥१०२(ख)॥ भा०– **कृतयुग, त्रेता और द्वापर में योग, यज्ञ और पूजा से जो गति प्राप्त होती है, वही गति कलियुग में भगवान्‌ श्रीराम के श्रीराम नाम से लोग पा लेते हैं।

कृतजुग सब जोगी बिग्यानी। करि हरि ध्यान तरहिं भव प्रानी॥ त्रेता बिबिध जग्य नर करहीं। प्रभुहिं समर्पि कर्म भव तरहीं॥ द्वापर करि रघुपति पद पूजा। नर भव तरहिं उपाय न दूजा॥ कलिजुग केवल हरि गुन गाहा। गावत नर पावहिं भव थाहा॥

भाष्य

कृतयुग में सभी योगी और चिद्‌–अचिद्‌ विशिष्ट ब्रह्मज्ञानी होते हैं, वहाँ तो भगवान्‌ का ध्यान करके ही लोग भवसागर से पार हो जाते हैं। त्रेता में लोग अनेक यज्ञ करते हैं और सम्पूर्ण कर्मों को प्रभु श्रीराम के श्रीचरणों में समर्पित करके भवसागर को पार कर लेते हैं। द्वापर में भगवान्‌ श्रीराम के श्रीचरणों की पूजा करके जीव भवसागर को पार कर लेते हैं और कोई उपाय नहीं है, परन्तु कलियुग में तो केवल श्रीहरि भगवान्‌ श्रीराम की गुणगाथाओं को गाते हुए साधक लोग भवसागर की थाह पा जाते हैं।

**कलिजुग जोग न जग्य न ग्याना। एक अधार राम गुन गाना॥ सब भरोस तजि जो भज रामहिं। प्रेम समेत गाव गुन ग्रामहिं॥ सोइ भव तर कछु संशय नाहीं। नाम प्रताप प्रगट कलि माहीं॥ कलि कर एक पुनीत प्रतापा। मानस पुन्य होहिं नहिं पापा॥**
भाष्य

कलियुग में न तो योग सम्भव है और न ही यज्ञ और न ही ज्ञान सम्भव है। वहाँ तो एकमात्र भगवान्‌ श्रीराम का गुणगान ही आधार है। जो सम्पूर्ण विश्वासों को छोड़कर एकमात्र भगवान्‌ को भजता है और प्रेम के सहित प्रभु के गुणग्रामों को गाता है, वह भवसागर तर जाता है। इसमें कोई संशय नहीं है। कलियुग में श्रीरामनाम का प्रताप ही प्रकट है। कलियुग का एक बड़ा ही पवित्र प्रताप है कि, इसमें मन से संकल्पित पुण्य तो हो जाते हैं, परन्तु मन से संकल्प करने पर भी शरीर से किये बिना पाप नहीं होते।

**दो०– कलिजुग सम जुग आन नहिं, जौ नर कर बिश्वास।**

**गाइ राम गुन गन बिमल, भव तर बिनहिं प्रयास॥१०३ (क)॥ भा०– **यदि मनुष्य विश्वास कर ले तो कलियुग के समान कोई युग नहीं है, इसमें निर्मल मन से भगवान्‌ श्रीराम के गुणगण गाकर बिना प्रयास के भवसागर को तर जाता है।

प्रगट चारि पद धर्म के, कलि महँ एक प्रधान।

जेन केन बिधि दीन्हे, दान करइ कल्यान॥१०३(ख)॥

भाष्य

धर्म के चार चरण तप, सत्य, क्षमा, दान प्रसिद्ध हैं। उनमें से कलियुग में एक ही अर्थात्‌ दान प्रधान है, क्योंकि कलियुग में धर्म का दान नामक एक ही चरण रह गया है। जिस किसी विधि से किया हुआ दान भी कलियुग में कल्याण कर देता है।

[[९३३]]

नित जुग धर्म होहिं सब केरे। हृदय राम माया के प्रेरे॥ शुद्ध सत्व समता बिग्याना। कृत प्रभाव प्रसन्न मन जाना॥ सत्व बहुत रज कछु रति कर्मा। सब बिधि सुख त्रेता कर धर्मा॥ बहु रज स्वल्प सत्व कछु तामस। द्वापर धर्म हरष भय मानस॥ तामस बहुत रजोगुन थोरा। कलि प्रभाव बिरोध चहुँ ओरा॥

भाष्य

भगवान्‌ श्रीराम की माया से प्रेरित होकर सभी युगधर्म सबके हृदय में न्यूनाधिक मात्रा में निरन्तर रहते है। शुद्ध सत्वगुण, समत्वबुद्धि, विशिष्टज्ञान और मन की प्रसन्नता यही कृतयुग का प्रभाव जानना चाहिये। सत्व की मात्रा बहुत, रजोगुण की मात्रा थोड़ी, कर्मों में प्रेम इस प्रकार त्रेता का धर्म सब प्रकार से सुखमूलक होता है। रजोगुण की मात्रा बहुत, सत्वगुण थोड़ा और तमोगुण भी कुछ, इस प्रकार तीनों गुण से मिला हुआ द्वापर का धर्म, मन में हर्ष और भय दोनों को उत्पन्न करता है। तमोगुण की बहुलता और थोड़ा सा रजोगुण चारों ओर विरोध यही कलियुग का धर्म है। इस प्रकार, जहाँ शुद्ध सत्वगुण, समता, विशिष्ट ज्ञान और मन की प्रसन्नता प्रतीत हो उस समय कृतयुग का प्रभाव जानकर तदनुरूप कार्य करना चाहिये। जब सत्व की बहुलता, रजोगुण की अल्पता, कर्म में प्रेम तथा सब प्रकार से सुख हो उस समय मन में त्रेता समझकर भगवान्‌ का चिन्तन करना चाहिये। जब रजोगुण की बहुलता, सत्वगुण की स्वल्पता और तमोगुण के थोड़े से अंश के साथ मन में हर्ष और भय दोनों हों तब द्वापर का प्रभाव जानकर तदनुरूप कार्य करना चाहिये। जब तमोगुण की बहुलता, रजोगुण की अल्पता और चतुर्दिक्‌ विरोध का वातावरण हो, उस समय केवल श्रीराम नाम का जप करना चाहिये।

**बुध जुग धर्म जानि मन माहीं। तजि अधर्म रति धर्म कराहीं॥ काल धर्म नहिं ब्यापहिं ताही। रघुपति चरन प्रीति अति जाही॥ नट कृत बिकट कपट खगराया। नट सेवकहिं न ब्यापइ माया॥**
भाष्य

विद्वान्‌ लोग युग-धर्म को मन में समझकर अधर्म पर प्रेम छोड़कर धर्म करते हैं। जिसके मन में भगवान्‌ के श्रीचरणों के प्र्रति अत्यन्त प्रीति होती है, उसे काल-धर्म नहीं प्रभावित करता अर्थात्‌ वह किसी भी युग में रहकर युगातीत रहता है। हे गव्र्ड़ देव जी! नट के द्वारा किये हुए अत्यन्त टे़ढे कपट चरित्र दर्शकों के लिए अत्यन्त भयंकर होते हैं, परन्तु नट के सेवक को उसकी माया नहीं व्याप्ति। उसी प्रकार भगवान्‌ के द्वारा किये हुए, यह संसार भगवत्‌ विमुखों को कठिन लगता है, परन्तु भगवान्‌ के भक्तों पर उसका कोई प्रभाव नहीं पड़ता।

**दो०– हरि माया कृत दोष गुन, बिनु हरि भजन न जाहिं।**

**भजिय राम तजि काम सब, अस बिचारि मन माहिं॥१०४(क)॥ भा०– **भगवान्‌ श्रीराम की माया के द्वारा किये हुए दोष–गुण भगवान्‌ के भजन के बिना नहीं जाते। मन में ऐसा विचार करके सम्पूर्ण कामनाओं को छोड़कर भगवान्‌ श्रीराम का भजन करना चाहिये।

तेहि कलिकाल बरष बहु, बसेउँ अवध बिहगेश।

परेउ दुकाल बिपति बश, तब मैं गयउँ बिदेश॥१०४(ख)॥

भाष्य

हे पक्षियों के स्वामी गरुड़ जी! उसी कलिकाल में मैं बहुत वर्षों तक श्रीअवध में निवास करता रहा। जब दुष्काल पड़ा तब विपत्ति के वश होकर मैं श्रीअवध को छोड़कर विविध देशों में गया।

**विशेष– ***“विविधा** देशा विदेशा”** *यहाँ विदेश शब्द विविध देश के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है।

गयउँ उजेनी सुनु उरगारी। दीन मलीन दरिद्र दुखारी॥ गए काल कछु संपति पाई। तहँ पुनि करउँ शंभु सेवकाई॥

[[९३४]]

भाष्य

हे सर्पों के शत्रु गरुड़ जी! सुनिये, मैं दीन, उदास, दरिद्र और दु:खी होकर, अन्ततोगत्वा विविध देशों के भ्रमण के पश्चात्‌ उज्जैनी गया। वहाँ कुछ समय बीतने के पश्चात्‌ मैंने सम्पत्ति पा ली और फिर उज्जैनी नगर के देवता महाकाल शिव जी की सेवा करने लगा।

**बिप्र एक बैदिक शिव पूजा। करइ सदा तेहि काज न दूजा॥ परम साधु परमारथ बिंदक। शंभु उपासक नहिं हरि निंदक॥**
भाष्य

एक ब्राह्मणदेव वैदिक पद्धति से अर्थात्‌ रुद्राष्टाध्यायी के मंत्रों द्वारा नमक–चमक विधि से महाकाल शिव जी की पूजा करते थे। उनके लिए और कोई कार्य नहीं था। वे ब्राह्मणदेव श्रेष्ठ साधु थे और उन्होंने परमार्थतत्त्व को प्राप्त कर लिया था। वे शिव जी के उपासक थे, परन्तु श्रीहरि विष्णु जी के निन्दक भी नहीं थे। वस्तुत: वे ब्राह्मणदेव भगवान्‌ श्रीराम जी की भक्ति में शिवभक्ति को साधन मानते थे।

**तेहि सेवउँ मैं कपट समेता। द्विज दयालु अति नीति निकेता॥ बाहिज नम्र देखि मोहि साईं। बिप्र प़ढाव पुत्र की नाईं॥**
भाष्य

उन्हीं शिव जी के उपासक ब्राह्मणदेव की मैं कपट के साथ सेवा करता था। ब्राह्मण देवता बहुत दयालु थे और वे नीति के तो भवन ही थे। हे स्वामी! यद्दपि ब्राह्मण देवता यह जानते थे कि उनका सेवक मैं अन्दर से विनम्र नहीं हूँ, फिर भी मुझे बाहर से नम्र देखकर, पुत्र की ही भाँति ब्राह्मणदेव प़ढाते थे अर्थात्‌ शिवमहिम्न, शिवताण्डव, पंचाक्षरस्तोत्रम्‌ आदि पौराणिक स्तुतियाँ मुझे शुद्ध उच्चारण के साथ सिखाते और कण्ठस्थ कराते थे।

**शंभु मंत्र मोहि द्विजबर दीन्हा। शुभ उपदेश बिबिध बिधि कीन्हा॥ जपउँ मंत्र शिव मंदिर जाई। हृदय दंभ अहमिति अधिकाई॥**
भाष्य

श्रेष्ठ ब्राह्मणदेव ने मुझे “शिवाय नम:” यह पंचाक्षर शिव मंत्र दिया और अनेक प्रकार से मेरे लिए कल्याणप्रद उपदेश किये। मैं हृदय में दम्भ अर्थात्‌ प्रदर्शन की भावना और अहंकार की अधिकता के साथ महाकाल शिव जी के मन्दिर में जाकर “शिवाय नम:” मंत्र जपा करता था।

**दो०– मैं खल मल संकुल मति, नीच जाति बश मोह।**

हरि जन द्विज देखे जरउँ, करउँ बिष्णु कर द्रोह॥१०५(क)॥

भाष्य

मैं स्वभाव से खल प्रकृतिवाला और मलों से युक्त बुद्धि वाला, संस्कारों से निम्न जाति में जन्मा हुआ, मोह के वश में हुआ दम्भी शिवभक्त, श्रीवैष्णव ब्राह्मणों को देखकर जल–भुन जाता और भगवान्‌ श्रीराम के अंतरंग अंश सत्वगुणप्रधान चतुर्भुज भगवान्‌ विष्णु का द्रोह किया करता था तथा साथ ही विष्णुपद के मुख्य वाच्य सर्वव्यापक साकेताधिपति भगवान्‌ श्रीराम का भी द्रोह करता था, क्योंकि मुझे रामाभिधान श्रीहरि के जन अर्थात्‌ सेवक ब्राह्मण नहीं भाते थे।

**सो०– गुरु नित मोहि प्रबोध, दुखित देखि आचरन मम।**

**मोहि उपजइ अति क्रोध, दंभिहिं नीति कि भावई॥१०५(ख)॥ भा०– **गुरुदेव मुझे निरन्तर समझाते थे। वे मेरा आचरण देखकर दु:खी रहते थे। उनके वचन सुनकर मुझे अत्यन्त क्रोध होता था। क्या दंभी अर्थात्‌ ढोंगी को कभी नीति भाती है?

एक बार गुरु लीन्ह बोलाई। मोहि नीति बहु भाँति सिखाई॥ शिव सेवा कर फल सुत सोई। अबिरल भगति राम पद होई॥

[[९३५]]

रामहिं भजहिं तात शिव धाता। नर पामर कै केतिक बाता॥ जासु चरन अज शिव अनुरागी। तासु द्रोह सुख चहसि अभागी॥

भाष्य

एक बार गुरुदेव ने मुझे अपने पास बुला लिया और मुझे बहुत प्रकार से नीति अर्थात्‌ धर्मानुकूल मार्ग पर चलने की पद्धति सिखाई और बोले, हे बेटे! शिव जी की सेवा का वही फल है, जिससे भगवान्‌ श्रीराम के श्रीचरणों में अविरल भक्ति हो जाये अर्थात्‌ तुम्हारे मन में भगवान्‌ श्रीराम की अविरल भक्ति नहीं आ रही है। इसी से यह प्रतीत होता है कि तुम महाकाल भगवान्‌ की प्रेमपूर्वक सेवा नहीं कर रहे हो। हे वत्स! महाकाल शिव जी विष्णु जी एवं ब्रह्मा जी भी भगवान्‌ श्रीराम का भजन करते हैं, तो उनकी अपेक्षा निकृष्ट मनुष्य की कितनी बात? अरे अभागी! जिन प्रभु श्रीराम के श्रीचरणों में ब्रह्मा जी और महाकाल शिव जी भी अनुराग करते हैं, उन्हीं प्रभु श्रीराम का द्रोह करके तू सुख चाहता है, यह कैसे सम्भव है?

**हर कहँ हरि सेवक गुरु कहेऊ। सुनि खगनाथ हृदय मम दहेऊ॥ अधम जाति मैं बिद्दा पाए। भयउँ जथा अहि दूध पियाए॥ मानी कुटिल कुभाग्य कुजाती। गुरु कर द्रोह करउँ दिन राती॥ अति दयालु गुरु स्वल्प न क्रोधा। पुनि पुनि मोहि सिखाव सुबोधा॥**
भाष्य

हे गरुड़ देव जी! मेरे गुरुदेव ने महाकाल शिव जी को श्रीहरि भगवान्‌ श्रीराम का सेवक कहा, यह सुनकर मेरा हृदय क्रोध से अत्यन्त जल गया। संस्कारहीन निकृय् जाति में जन्मा हुआ, मैं गुव्र्देव से पंचाक्षरी मंत्र और पौराणिक स्तोत्रों की शुद्ध पाठ की विद्दा पाकर दूध पिलाये हुए सर्प की भाँति पूर्व की अपेक्षा और भी क्रुद्ध हो गया। अहंकार से युक्त, कुटिल हृदयवाला, भाग्यहीन तथा कुत्सित कर्म करने वाले परिवार में जन्मा हुआ मैं, अपने गुरुदेव का दिन–रात द्रोह करने लगा। मेरे गुव्र्देव बहुत ही दयालु थे, उन्हें थोड़ा भी क्रोध नहीं था। विद्रोह करने पर भी गुरुदेव मुझे बारम्बार सुन्दर ज्ञान के सिद्धान्त सिखाते थे।

**जेहि ते नीच बड़ाई पावा। सो प्रथमहिं हति ताहि नसावा॥ धूम अनल संभव सुनु भाई। तेहि बुझाव घन पदवी पाई॥ रज मग परी निरादर रहई। सब कर पद प्रहार नित सहई॥ मरुत उड़ाव प्रथम तेहि भरई। पुनि नृप नयन किरीटनि परई॥**
भाष्य

नीच प्रकृति का व्यक्ति जिससे बड़प्पन पाता है, वह बड़ा होकर सर्वप्रथम उसी बड़ाई देनेवाले को मार कर नष्ट कर देता है। हे भैया गरुड़ जी! सुनिये, धुँआ अग्नि से ही उत्पन्न होता है और वही स्वयं बादल की पदवी पाकर, अर्थात्‌ जल, अग्नि और वायु की सहायता से मेघ बनकर पहले अपने जन्मदाता अग्नि को ही बुझा देता है। इसी प्रकार धूल मार्ग में पड़ी हुई निरादर के साथ रहती है। निरन्तर सभी के चरणों का प्रहार सहती है। वायु उसे उड़ाकर ऊपर ले जाता है, अर्थात्‌ लोगों के प्रहार से बचाना चाहता है, तो प्रथम वह धूलि अपने ऊपर ले जानेवाले वायु को ही भर देती है, अर्थात्‌ दूषित और मलीन बना देती है, फिर राजाओं के भी नेत्रों और मुकुटों पर पड़ जाती है।

**सुनु खगपति अस समुझि प्रसंगा। बुध नहिं करहिं अधम कर संगा॥ कबि कोबिद गावहिं असि नीती। खल सन कलह न भल नहिं प्रीती॥ उदासीन नित रहिय गोसाईं। खल परिहरिय श्वान की नाईं॥**
भाष्य

हे पक्षीराज गरुड़ जी! इस प्रकार का दुष्टजनों का स्वाभाविक रहस्य समझकर पण्डित लोग खलों का संग नहीं करते। मनीषी और वेदज्ञजन इस प्रकार की नीति गाते हैं कि खल के साथ न तो कलह अर्थात्‌ झग़डा अच्छा

[[९३६]]

है और न ही उनके साथ बहुत प्रेम करना उचित है अर्थात्‌ दुष्टों के साथ वैर और प्रेम दोनों में ही हानि है। हे गोसाईं अर्थात्‌ हे पक्षियों के स्वामी गव्र्ड़ देव जी! दुयें से उदासीन अर्थात्‌ तटस्थ रहना श्रेष्ठ है। खल प्रकृति के व्यक्ति को कुत्ते की भाँति छोड़ देना चाहिये, जैसे कुत्ता वैर करने पर काट खाकर मरणान्तक कय् देता है और पे्रेम करने पर शरीर को चाट कर उसे दूषित कर देता है, उसी प्रकार खल भी वैर करने पर शरीर की क्षति करता है और प्रेम करने पर अपने दूषित सम्पर्क से भगवद्‌विमुख कर देता है।

मैं खल हृदय कपट कुटिलाई। गुरु हित कहइ न मोहि सोहाई॥

भाष्य

मैं प्रकृति से खल था, मेरे हृदय में कपट और कुटिलता थी, इसलिए गुव्र्देव तो हित की बात कहते थे, पर वह मुझे नहीं भाती थी।

**दो०– एक बार हर मंदिर, जपत रहेउँ शिव नाम।**

**गुरु आयउ अभिमान ते, उठि नहिं कीन्ह प्रनाम॥१०६(क)॥ भा०– **एक बार श्रीहर अर्थात्‌ जगत्‌ के संहारक महाकाल के मन्दिर में बैठकर मैं शिव जी का नाम मंत्र “शिवाय नम:” का जप कर रहा था, इसी बीच गुव्र्देव महाकाल मन्दिर में आये और मैंने अभिमान के कारण अपने आसन

से उठकर गुरुदेव को प्रणाम नहीं किया।

सो दयालु नहिं कहेउ कछु, उर न रोष लवलेश।

अति अघ गुरु अपमानता, सहि नहिं सके महेश॥१०६(ख)॥

भाष्य

वे मेरे गुव्र्देव अत्यन्त दयालु थे, उनके हृदय में क्रोध का लवलेश भी नहीं था, अर्थात्‌ थोड़ा अंश भी नहीं था, उन्होंने मुझे कुछ भी नहीं कहा, परन्तु गुरु के अपमान रूप बहुत–बड़े पाप को महेश्वर महाकाल शिव जी भी नहीं सह सके।

**मंदिर माझ भई नभ बानी। रे हतभाग्य अग्य अभिमानी॥ जद्दपि तव गुरु के नहिं क्रोधा। अति कृपालु चित सम्यक बोधा॥ तदपि श्राप शठ दैहउँ तोही। नीति बिरोध सोहाइ न मोही॥**

जौ नहिं दंड करौं खल तोरा। भ्रष्ट होइ श्रुतिमारग मोरा॥

भाष्य

महाकाल मन्दिर के बीच में ही अर्थात्‌ महाकाल ज्योतिर्लिंग के पिण्डि से ही आकाशवाणी हुई। अरे हत्‌भाग्य! अग्य, अभिमानी अर्थात्‌ बने हुए भाग्य को तुमने अपने हाथों से नष्ट कर दिया। तू भगवत्‌रहस्य नहीं जानता और तू अहंकार से युक्त है, इस कारण तुमने तीन पाप किये हैं। श्रीराम का द्रोह करके भाग्य को नष्ट किया, गुरुदेव की बात न सुनकर स्वयं को अज्ञानी बना लिया और उनकी आज्ञा की अवहेलना की तथा अहंकार के कारण समीप आये हुए गुव्र्देव को उठकर प्रणाम नहीं किया। यद्दपि तुम्हारे गुव्र्देव के मन में क्रोध नहीं है, क्योंकि वे अत्यन्त दयालु हैं और उनके चित्त में महाकाल भूतभावन शिव जी और भगवान्‌ श्रीराम के मध्य सम्बन्धों का पूर्ण ज्ञान है। अत: वे तुझे दण्ड नहीं देंगे, परन्तु अरे दुष्ट! मैं तुझे श्राप दूँगा, क्योंकि मुझे नीति का विरोध नहीं भाता। अरे खल! यदि मैं तेरे लिए दण्ड का विधान नहीं करूँगा तब तो मेरा वेदसम्मत मार्ग ही भ्रष्ट हो जायेगा। अथवा, मेरा वैदिक मार्ग तेरे प्रति की हुई क्षमा से उत्पन्न पापाग्नि में जल–भुन जायेगा।

विशेष

भ्रय् शब्द “भ्रंशु अवश्रंशने” (पा०धा०पा० ७५६) तथा “भ्रश्ज पाके” (पा०धा०पा० १२८४) धातुओं से क्त प्रत्यय से निष्पन्न होता है। “भ्रंशते इति भ्रय्:”, “अभृज्यत्‌ इति भ्रय्:” प्रधम धातु के आधार पर जो ऊपर से गिर जाता है उसे भ्रष्ट कहते हैं और द्वितीय धातु के अर्थानुरोध से जले-भुने को भ्रष्ट कहते हैं। शिवजी यहाँ भ्रष्ट शब्द का उच्चारण करके दोनों अर्थों के अनुसार अपना अभिप्राय प्रकट कर रहे हैं कि यदि गुव्र्देव का अपमान

[[९३७]]

करने वाले शूद्र साधक को दण्ड नहीं देता हूँ तो मेरा वैदिक मार्ग ही भ्रष्ट अर्थात्‌ गिर जायेगा, मर्यादा से च्युत होकर लक्ष्यहीन हो जायेगा तथा भ्रष्ट यानी इस भयंकर पापाग्नि में जल-भुन कर नष्ट हो जायेगा।

जे शठ गुरु सन इरिषा करहीं। रौरव नरक कोटि जुग परहीं॥ त्रिजग जोनि पुनि धरहिं शरीरा। अयुत जन्म भरि पावहिं पीरा॥

भाष्य

जो दुष्ट लोग अपने गुरुदेव से ईर्ष्या करते हैं, वे करोड़ों युगों तक रौरव नरक में पड़े रहते हैं और उसके पश्चात्‌ पशु–पक्षियों के योनि में वे शरीर धारण करते हैं और दस हजार जन्मपर्यन्त बहुत पीड़ा पाते हैं।

**बैठ रहेसि अजगर इव पापी। सर्प होहि खल मल मति ब्यापी॥ महा बिटप कोटर महँ जाई। रहु अधमाधम अधगति पाई॥**
भाष्य

अरे पापी, खल, मलों से व्याप्त बुद्धिवाला, दुष्ट साधक! तू अजगर की भाँति बैठा रहा, अतएव जा अधम से अधम सर्प बनकर अधोगति प्राप्त करके महान अर्थात्‌ बहुत पुराने जीर्ण–शीर्ण वृक्षों की कोटरों अर्थात्‌ जीर्णता के कारण बने हुए छिद्रों में जाकर रह।

**दो०– हाहाकार कीन्ह गुरु, दारुन सुनि शिव श्राप।**

**कंपित मोहि बिलोकि अति, उर उपजा परिताप॥१०७(क)॥ भा०– **शिव जी का भयंकर श्राप सुनकर गुरुदेव ने हाहाकार किया अर्थात्‌ हा!हा! इस प्रकार कहा। मुझे काँपता हुआ देखकर, उनके मन में अत्यन्त ताप अर्थात्‌ दु:ख उत्पन्न हुआ, जिससे उनके हृदय में जलन होने लगी।

करि दंडवत सप्रेम द्विज, शिव सन्मुख कर जोरि।

**बिनय करत गदगद गिरा, समुझि घोर गति मोरि॥१०७(ख)॥ भा०– **मेरी घोरगति समझकर प्रेमपूर्वक दण्डवत्‌ करके महाकाल शिव जी के सन्मुख हाथ जोड़कर ब्राह्मणश्रेष्ठ गुरुदेव गदगद वाणी में मुझे सर्पयोनि से छुड़ाने के लिए आठ भुजंग प्रयात्‌ छन्दों में स्तुति करने लगे।

छं०– नमामीशमीशान निर्वाणरूपम्‌। विभुं व्यापकं ब्रह्म वेदस्वरूपम्‌॥

निजं निर्गुणं निर्विकल्पं निरीहम्‌। चिदाकाशमाकाशवासं भजेऽहम्‌॥

भाष्य

हे ईश्वर! हे ईशान अर्थात्‌ सबके शासक महाकाल! मैं मोक्षरूप, परमसमर्थ, व्यापक, वेदस्वरूप अथवा वेद में जिनका स्वरूप वर्णित है, ऐसे वेदान्तवेद्दब्रह्म आपश्री को नमन करता हूँ। मैं, निज, अर्थात्‌ अपने आत्मीय, सत्व, रजस और तमस, इन तीनों गुणों से रहित, सभी विकल्पों से शून्य तथा निर्विकल्प समाधि में रहने वाले, निरीह, अर्थात्‌ सभी चेष्टाओं से रहित, निश्चेष्ट होकर भगवान्‌ श्रीराम का ध्यान करने वाले, चेतन और आकाशस्वरूप, अथवा चेतनशक्ति के कारण आकाशवत्‌ निर्लिप्त अथवा अपनी चेतना से सर्वत्र प्रकाशमान एवं आकाशरूप परब्रह्म श्रीराम को अपने हृदय में बसाने वाले, ऐसे आपश्री महाकाल को मैं भजता हूँ।

**विशेष– **“**आकाशस्तल्लिंगात्‌**”, \(ब्र० सू० १.१.२४\). **“आकाशं वासयति इति आकाशवास: तं आकाशवासं” **ः सूत्र के अनुसार परब्रह्म श्रीराम को ही आकाश कहा गया है और उन आकाशस्वरूप श्रीराम को शिव जी ने अपने हृदय में बसाया है। यथा– “**हर उर सर सरोज पद जेई।**” \(मानस, ५.४२.८\) “**ए दोउ बंधु शंभु उर बासी**” \(मानस, १.२४६.४\) इसलिए शिव जी को आकाशवास कहा गया है।

निराकारमोंकारमूलं तुरीयम्‌। गिरा ग्यान गोतीतमीशं गिरीशम्‌॥

करालं महाकाल कालं कृपालम्‌। गुणागार संसारपारं नतोऽहम्‌॥

[[९३८]]

भाष्य

सांसारिक आकारों से रहित और शिवलिंग के रूप में सभी विकारों के आकारों को निरस्त करने वाले ओंकार के आश्रय अथवा, ओंकार के वाच्य श्रीराम को आश्रय बनानेवाले अथवा ओंकार के भी कारण श्रीरामनाम को अपना जप मंत्र माननेवाले, ऐसे निरन्तर तुरीय अवस्था में रहने वाले अथवा तुरीय श्रीराम भगवान्‌ के चतुर्थ यानी ज्ञानीभक्त, वाणी, ज्ञान और इन्द्रियों से अतीत, ऐसे “इ” अर्थात्‌ काम की “ई” अर्थात्‌ सौन्दर्य लक्ष्मी को “श” अर्थात्‌ नष्ट करने वाले, तात्पर्यत: कामदेव की भी शोभा को भस्मसात्‌ करने वाले, कैलाशपर्वत पर शयन करने वाले और उसके ईश्वर, अत्यन्त कराल अर्थात्‌ भयंकर महाकाल के भी काल, परम कृपालु, गुणों के भवन, संसार सागर से पार हुए तथा भक्तों को संसार सागर से पार ले जानेवाले, ऐसे शिव जी को मैं नमन करता हूँ।

**विशेष– **“**अकार: वासुदेव: तस्यापत्यम्‌ पुमान्‌ इ: काम: तस्य ई: लक्ष्मी: ताम्‌ श्यति नाशयति इति ईश: तम्‌ ईशम्‌॥**”

तुषाराद्रि संकाश गौरं गभीरम्‌। मनोभूत कोटि प्रभा श्री शरीरम्‌॥ स्फुरन्मौलि कल्लोलिनी चारु गंगा। लसद्भालबालेन्दु कंठे भुजंगा॥ चलत्कुंडलं भ्रू त्रिनेत्रं विशालम्‌। प्रसन्नाननं नीलकंठं दयालम्‌॥ मृगाधीशचर्माम्बरं मुण्डमालम्‌। प्रियं शङ्करं सर्वनाथं भजामि॥

भाष्य

तुषाराद्रि अर्थात्‌ बर्फ के पर्वत हिमालय के समान गौरवर्णवाले, अत्यन्त गम्भीर, करोड़ों कामदेव की प्रभाव शोभा से युक्त शरीरवाले, भगवान्‌ शिव जी को मैं प्रणाम करता हूँ, जिनके मस्तक पर उत्तम तरंगों से खेलती हुई, लहराती हुई सुन्दर गंगा जी विराजमान हैं, जिनके भाल पर बालेन्दु अर्थात्‌ शुक्लपक्ष की द्वितीया के चन्द्रमा विराजमान हैं, जिनके कण्ठ में भुजंगराज शेष जी विराजते हैं, ऐसे हिलते हुए कुण्डलोंवाले, सुन्दर भृकुटि से सुशोभित, विशाल, सूर्य, चन्द्र, अग्नि रूप तीन नेत्रोंवाले, प्रसन्न मुखवाले, नीलकण्ठ, परमदयालु, मृगाधीश अर्थात्‌ व्याघ्र का चर्म ही जिनका वस्त्र है, ऐसे मुण्डों की माला धारण किये हुए परम प्रेमास्पद, सभी के नाथ भगवान्‌ श्रीशङ्कर को मैं भजता हूँ।

**प्रचंडं प्रकृष्टं प्रगल्भं परेशम्‌। अखंडं अजं भानुकोटिप्रकाशम्‌॥ त्रय:शूल निर्मूलनं शूलपाणिम्‌। भजेऽहं भवानीपतिं भावगम्यम्‌॥**
भाष्य

प्रकृय् क्रोधवाले, सबसे श्रेष्ठ शास्त्रों में प्रगल्भ अर्थात्‌ अद्‌भुत प्रतिभावाले, सभी से परे तथा सबके शासक अथवा परब्रह्म श्रीराम को ही ईश्वर माननेवाले, अखण्ड, अजन्मा, करोड़ों सूर्यों के समान प्रकाशवाले, आध्यात्मिक, आधिदैविक, आधिभौतिक दु:खों को नष्ट करने वाले, हाथ में त्रिशूल लिए हुए, भावना से प्राप्त होनेवाले, ऐसे भवानी जी के पति भगवान्‌ शिव जी को मैं अपने आनन्द के लिए भजता हूँ।

**कलातीत कल्याण कल्पान्तकारी। सदा सज्जनानन्ददाता पुरारी॥**

चिदानंद संदोह मोहापहारी। प्रसीद प्रसीद प्रभो मन्मथारी॥

भाष्य

सभी कलाओं से अतीत, भक्तों का कल्याण करने वाले तथा स्थूल प्रपंच के कल्प का अन्त करने वाले, सज्जन अर्थात्‌ सत्वरूप श्रीराम के जन याने सेवक श्रीरामभक्तों को आनन्द देनेवाले, चिदानन्द के सन्दोह अर्थात्‌ धारा प्रवाह स्वरूप, मोह का अपहरण करने वाले, ऐसे कामदेव के शत्रु समर्थ शिव जी आप सदैव प्रसन्न रहें… आप सदैव प्रसन्न रहें।

[[९३९]]

न यावद्‌ उमानाथ पादारविन्दम्‌। भजंतीह लोके परे वा नराणाम॥ न तावत्सुखं शान्ति सन्तापनाशम्‌। प्रसीद प्रभो सर्वभूताधिवासम्‌॥

भाष्य

जब तक प्राणी उमा अर्थात्‌ श्रीपार्वती के पति भूतभावन शिव जी के श्रीचरणकमलों की सेवा नहीं करते हैं, तब तक इस लोक और परलोक में भी जीवों को न तो सुख मिलता है, न शान्ति होती है और न ही उनके सन्तापों का नाश होता है। हे प्रभु! आप प्रसन्न हो जाइये। सम्पूर्ण प्राणियों के हृदय में आत्मतत्त्व के रूप से निवास करने वाले आपको मैं नमन करता हूँ।

**न जानामि योगं जपं नैव पूजाम्‌। नतोऽहं सदा सर्वदा शंभु तुभ्यम्‌॥ जरा जन्म दु:खौघ तातप्यमानम्‌। प्रभो पाहि आपन्नमामीश शंभो॥**
भाष्य

हे प्रभु, सर्वसमर्थ ईश्वर महाकाल! मैं योग, जप नहीं जानता हूँ और पूजा भी नहीं जानता हूँ, मैं आपको अनुकूल करने के लिए सब कुछ प्रदान कर देनेवाली, पार्वती जी और शिव जी इन दोनों समाहित तत्वों को सदैव नमन करता हूँ। हे कल्याणकारी शिव जी! जरा अर्थात्‌ बु़ढापा, जन्म और मृत्यु के दु:ख तथा अन्य दु:खों के समूह द्वारा बार–बार तप्त किये जा रहे आपकी शरण में आये हुए मुझ साधक को बचा लीजिये अर्थात्‌ मेरी रक्षा कीजिये।

**श्लोक– रुद्राष्टकमिदं प्रोक्तं विप्रेण हरतुष्टये।**

ये पठन्ति नरा भक्त्या तेषां शम्भु: प्रसीदति॥९॥

भाष्य

इस प्रकार महाकाल भूतभावन शिव जी की सन्तुष्टि के लिए मुझ ब्राह्मण द्वारा प्रकृष्टता के साथ कहा हुआ यह रुद्राष्टक जो प्राणी भक्ति के साथ प़ढते हैं, उन पर शिव जी प्रसन्न होंगे।

**दो०– सुनि बिनती सर्बग्य शिव, देखि बिप्र अनुराग।**

**पुनि मंदिर नभबानि भइ, अब द्विजबर बर माँगु॥१०८(क)॥ भा०– **ब्राह्मणदेव की विनती सुनकर और ब्राह्मण का अपने ऊपर अनुराग देखकर, फिर सर्वज्ञाता शिव जी द्वारा महाकाल मन्दिर के ही बीच आकाशवाणी हुई, हे ब्राह्मणश्रेष्ठ! अब वरदान माँगो।

जौ प्रसन्न प्रभु मो पर, नाथ दीन पर नेहु।

**निज पद भगति देइ प्रभु, पुनि दूसर बर देहु॥१०८(ख)॥ भा०– **(ब्राह्मणदेव बोले–) हे नाथ! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं और आपश्री का मुझ दीन पर स्नेह है तो प्रथम अपने श्रीचरणों की भक्ति दीजिये, फिर मुझे दूसरा वरदान दीजिये।

तव माया बश जीव ज़ड संतत फिरइ भुलान।

तेहि पर क्रोध न करिय प्रभु, कृपासिंधु भगवान॥१०८(ग)॥

भाष्य

हे प्रभु! आपके माया के वश में होकर यह ज़ड बुद्धिवाला जीव अपने स्वरूप को निरन्तर भूला हुआ भटकता है। हे कृपा के सागर भगवान्‌ सर्वसमर्थ प्रभु! उस पर क्रोध मत कीजिये अर्थात्‌ आपको उस पर क्रोध नहीं करना चाहिये।

**शङ्कर दीनदयाल अब, एहि पर होहु कृपाल।**

श्राप अनुग्रह होइ जेहिं, नाथ थोरेहीं काल॥१०८(घ)॥

[[९४०]]

भाष्य

हे दीनदयाल! हे कल्याण करने वाले शिव जी! अब मेरे इस शिष्य पर कृपालु हो जाइये, जिससे हे नाथ! थोड़े ही समय में इसके श्राप का अनुग्रह हो जाये।

**एहि कर होइ परम कल्याना। सोइ करहु अब कृपानिधाना॥ बिप्र गिरा सुनि परहित सानी। एवमस्तु इति भइ नभबानी॥**
भाष्य

हे कृपा के कोश शिव जी! जिससे इस आचरणहीन जीव का परम कल्याण हो जाये अब आप वही कीजिये। इस प्रकार परोपकार से सनी हुई ब्राह्मणदेव की वाणी सुनकर, “एवमस्तु” अर्थात्‌ ऐसा ही हो इस प्रकार से फिर आकाशवाणी हुई। शिव जी बोले–

**जदपि कीन्ह एहिं दारुन पापा। मैं पुनि दीन्ह कोप करि श्रापा॥ तदपि तुम्हारि साधुता देखी। करिहउँ एहि पर कृपा बिशेषी॥**
भाष्य

यद्दपि इसने बहुत–बड़ा भयंकर पाप किया है, फिर मैंने क्रोध करके इसे श्राप दिया, फिर भी तुम्हारी साधुता देखकर मैं इस अपराधी पर विशेष कृपा करूँगा।

**छमाशील जे पर उपकारी। ते द्विज मोहि प्रिय जथा खरारी॥ मोर श्राप द्विज ब्यर्थ न जाइहि। जन्म सहस अवश्य यह पाइहि॥**
भाष्य

जो ब्राह्मण क्षमाशील और दूसरों का उपकार करनेवाला होता है, वह ब्राह्मण मुझे खर राक्षस के शत्रु भगवान्‌ श्रीराम के समान ही प्रिय होता है। हे ब्राह्मणदेव! मेरा श्राप व्यर्थ नहीं जायेगा, यह अपराधी अवश्य ही एक सहस्र जन्म पायेगा।

**जनमत मरत दुसह दुख होई। एहि स्वल्पउ नहिं ब्यापिहि सोई॥ कवनेउँ जन्म मिटिहि नहिं ग्याना। सुनहि शूद्र मम बचन प्रमाना॥**
भाष्य

जन्म लेने और मरने में जो असहनीय दु:ख होता है, वह इसे थोड़ा भी नहीं व्याप्त होगा अर्थात्‌ भले ही इसे एक सहस्र जन्म मिलेंगे, परन्तु इसे जन्म–मरण का तनिक भी क्लेश नहीं होगा और किसी भी जन्म में इस का ज्ञान नहीं मिटेगा। हे शूद्र अर्थात्‌ शोक से असन्तुलित आचरणहीन साधक! अब मेरे प्रामाणिक वचन सुन अर्थात्‌ मेरा यह वाक्य प्रमाणरूप है।

**रघुपति पुरी जन्म तव भयऊ। पुनि तैं मम सेवा मन दयऊ॥ पुरी प्रभाव अनुग्रह मोरे। राम भगति उपजिहि उर तोरे॥**
भाष्य

रघुपति भगवान्‌ श्रीराम की श्रीअयोध्यापुरी में तेरा जन्म हुआ फिर तूने मेरी सेवा में अपना मन लगा दिया, इसलिए श्रीअवधपुरी में जन्म लेने के कारण उस भगवत्‌ पुरी के प्रभाव से और मेरी कृपा से तेरे हृदय में श्रीराम की भक्ति उत्पन्न हो जायेगी।

**सुनु मम बचन सत्य अब भाई। हरितोषन ब्रत द्विज सेवकाई॥ अब जनि करेहि बिप्र अपमाना। जानेसु संत अनंत समाना॥**
भाष्य

हे भाई! अब मेरे सत्य वचन सुन, ब्राह्मण सेवा ही हरितोषण व्रत है। ब्राह्मण की सेवा से ही श्रीहरि भगवान्‌ श्रीराम सन्तुष्ट होते हैं। जिसने प्रभु को सन्तुष्ट करने का व्रत लिया हो, उसे ब्राह्मण सेवा करनी ही होगी। अब कभी ब्राह्मणों का अपमान मत करना और सन्तों को भगवान्‌ के समान जानना।

[[९४१]]

इंद्र कुलिश मम शूल बिशाला। कालदंड हरि चक्र कराला॥ जो इन कर मारा नहिं मरई। बिप्र द्रोह पावक सो जरई॥

भाष्य

इन्द्र का वज्र, मेरा विशाल त्रिशूल, काल का दण्ड और भगवान्‌ श्रीनारायण का चक्र, यह चारों अत्यन्त भयंकर हैं। इन चारों के मारने से भी जो नहीं मरता वह भी ब्राह्मण के द्रोहरूप अग्नि में जल जाता है, जैसे रावण का वंश।

**अस बिबेक राखेहु मन माहीं। तुम कहँ जग दुर्लभ कछु नाहीं॥ औरउ एक आशिषा मोरी। अप्रतिहत गति होइहि तोरी॥**
भाष्य

इस प्रकार का विवेक मन में रखना, तुम्हारे लिए जगत्‌ में कुछ भी दुर्लभ नहीं होगा और भी मेरी एक आशीषा (आशीर्वाद) है, तुम्हारी गति अप्रतिहत होगी अर्थात्‌ कहीं भी नहीं रूकेगी, तुम ब्रह्मा जी की सृष्टि में कहीं भी जा सकोगे।

**दो०– सुनि शिव बचन हरषि गुरु, एवमस्तु इति भाषि।**

**मोहि प्रबोधि गयउ गृह, शंभु चरन उर राखि॥१०९(क)॥ भा०– **शिव जी का वचन सुनकर प्रसन्न होकर “एवमस्तु” ऐसा ही हो इस प्रकार कहकर, हृदय में शिव जी के श्रीचरणों को विराजमान कराकर और मुझे ज्ञान देकर गुरुदेव अपने घर पधार गये।

प्रेरित काल बिन्ध्य गिरि, जाइ भयउँ मैं ब्याल।

**पुनि प्रयास बिनु सो तनु, तजेउँ गए कछु काल॥१०९(ख)॥ भा०– **काल की प्रेरणा से प्रेरित होकर मैं विन्ध्याचल में जाकर सर्प हुआ, फिर कुछ काल बीतने के पश्चात्‌ मैंने प्रयास के बिना ही वह सर्प शरीर छोड़ दिया।

जोइ तनु धरउँ तजउँ पुनि, अनायास हरियान।

जिमि नूतन पट पहिरइ, नर परिहरइ पुरान॥१०९(ग)॥

भाष्य

हे भगवान्‌ श्रीनारायण के वाहन गरुड़ जी! मैं जो भी शरीर धारण करता फिर उसे अनायास ही उसी प्रकार छोड़ देता था, जैसे मनुष्य नये वस्त्र को धारण करता है और पुराना होने पर उसे छोड़ देता है।

**शिव राखी श्रुति नीति अरु, मैं नहिं पाव कलेश।**

एहि बिधि धरेउँ बिबिध तनु, ग्यान न गयउ खगेश॥१०९(घ)॥

भाष्य

शिव जी ने वैदिक मर्यादा की रक्षा की और मैंने भी क्लेश नहीं पाया, दोनों का काम बन गया। हे गरुड़ जी! इस प्रकार से मैंने अनेक शरीर धारण किया, पर मेरा ज्ञान नहीं गया और सर्प योनि के मेरे एक सहस्र जन्म पूरे हो गये। अब उन्होंने अर्थात्‌ शिव जी ने जो पशु–पक्षी योनि में दस सहस्र जन्म लेने की बात कही थी वहाँ भी मेरे लिए आनन्द ही रहा।

**त्रिजग देव नर जोइ तनु धरउँ। तहँ तहँ राम भजन अनुसरउँ॥ एक शूल मोहि बिसर न काऊ। गुरु कर कोमल शील सुभाऊ॥**
भाष्य

पशु–पक्षी, देवता और मनुष्य, इन तीनों प्रकार के योनियों में, मैं जो भी शरीर धारण करता था, वहाँ–वहाँ अर्थात्‌ उस–उस योनि में मैं, श्रीराम भजन अनुकूलतापूर्वक करता रहा अर्थात्‌ श्रीराम भजन मुझसे कभी नहीं छूटा, परन्तु एक ही शूल अर्थात्‌ दु:ख मेरे मन में सदैव बना रहा। मुझे गुव्र्देव का कोमल शील और स्वभाव कभी

[[९४२]]

नहीं भूलता अर्थात्‌ गुरुदेव के स्वभाव का स्मरण करके और अपने द्वारा किये हुए गुरुदेव के अपमान का स्मरण करके मैं दु:खी होता रहा।

चरम देह द्विज कै मैं पाई। सुर दुर्लभ पुरान श्रुति गाई॥ खेलउँ तहउँ बालकनि मीला। करउँ सकल रघुनायक लीला॥

भाष्य

मैंने पुराणों और श्रुतियों द्वारा गायी हुई देवदुर्लभ अन्तिम जन्म के रूप में ब्राह्मण शरीर पाया। वहाँ भी मैं बालकों से मिलकर जब खेलता था, तब खेल में भी सभी श्रीरामजी की लीलायें ही करता था।

**प्रौ़ढ भए मोहि पिता प़ढावा। समुझउँ सुनउँ गुनउँ नहिं भावा॥ मन ते सकल बासना भागी। केवल राम चरन लय लागी॥ कहु खगेश अस कवन अभागी। खरी सेव सुरधेनुहि त्यागी॥**
भाष्य

मेरे प्रौ़ढ होने पर मेरे पिता जी मुझे प़ढाते थे। मैं समझता भी था, सुनता भी था, विचार भी करता था, पर मुझे कुछ भी अच्छा नहीं लगता था। मेरे मन से सारी वासनायें भाग गई थीं, केवल मेरी लय अर्थात्‌ चित्तवृत्तियाँ श्रीराम के श्रीचरणों में लग गई थीं। हे पक्षीराज! बताइये, ऐसा कौन भाग्यहीन होगा जो कामधेनु को छोड़कर गधी की सेवा करेगा?

**प्रेम मगन मोहि कछु न सोहाई। हारेउ पिता प़ढाइ प़ढाई॥**

भए कालबश जब पितु माता। मैं बन गयउँ भजन जनत्राता॥

भाष्य

प्रेम में मग्न होने के कारण मुझ भुशुण्डि को कुछ भी अच्छा नहीं लगता था। पिताश्री मुझे प़ढा-प़ढाकर हार गये, फिर तो मूर्ख होने के कारण वैवाहिक कार्य भी सम्पन्न नहीं हुआ, क्योंकि उन दिनों मूर्ख ब्राह्मण को कन्या नहीं दी जाती थी। जब मेरे पिता–माता कालवश हो गये अर्थात्‌ मर गये, तब मैं अपना घर छोड़कर भक्तों के रक्षक भगवान्‌ श्रीराम का भजन करने के लिए वन में चला गया।

**विशेष– **लगभग उन्नीसवीं शती तक ब्राह्मण परिवारों में यह परम्परा थी कि मूर्ख ब्राह्मण बालक अविवाहित ही रहता था। जैसे कि यह श्लोक प्रचलित था–

अचीकमत्‌ यो न जानाति नैव जानात्यवर्वरी:। अजर्घा: यो न जानाति तस्मै कन्या न दीयताम्‌॥

अर्थात्‌ वृद्धजन अपने बेटों को कहते थे कि, जो ब्राह्मण कुमार “अचीकमत्‌**” **शब्द की सिद्धि नहीं जानता, पुन: जो अवर्वरी: शब्द को साधना नहीं जानता, पुन: जिसे “अजर्घा:” शब्द का साधना ज्ञान नहीं है, उस मूर्ख ब्राह्मण को कन्या मत दो।

जहँ जहँ बिपिन मुनीश्वर पावउँ। आश्रम जाइ जाइ सिर नावउँ॥ बूझउँ तिनहिं राम गुन गाहा। कहहिं सुनउँ हरषित खगनाहा॥ सुनत फिरउँ हरि गुन अनुबादा। अब्याहत गति शंभु प्रसादा॥

भाष्य

हे पक्षियों के स्वामी गरुड़ जी! वन में मैं जहाँ–जहाँ श्रेष्ठ मुनियों को जान पाता था, वहाँ–वहाँ आश्रमों में जा–जाकर उन्हें मस्तक नवाता था और उनसे भगवान्‌ श्रीराम की गुणगाथायें पूछता था। वे कहते थे और मैं हर्षित होकर सुना करता था, इस प्रकार शिव जी के प्रसाद से मैं अब्याहत गति होने के कारण अर्थात्‌ गति के न रुकने के कारण बिना रोक–टोक के सर्वत्र जा–जाकर भगवान्‌ श्रीराम के गुणानुवाद सुनता फिरता था।

[[९४३]]

छूटी त्रिबिध ईषना गा़ढी। एक लालसा उर अति बा़ढी॥

राम चरन बारिज जब देखौं। तब निज जन्म सफल करि लेखौं॥

भाष्य

मेरे मन से पुत्र, धन और सम्मान, तीनों प्रकार की दृ़ढ ईषनायें (इच्छायें) छूट गईं। हृदय में एक ही लालसा अत्यन्त ब़ढी, मैं सोचा करता था कि जब मैं श्रीराम के श्रीचरणकमलों के दर्शन करूँगा तभी अपना जन्म सफल समझूँगा।

**जेहि पूँछउँ सोइ मुनि अस कहई। ईश्वर सर्ब भूतमय अहई॥ निर्गुन मत नहिं मोहि सोहाई। सगुन ब्रह्म रति उर अधिकाई॥**
भाष्य

मैं जिससे पूछता वही मुनि इस प्रकार कहते थे कि, ईश्वर सर्वभूतमय हैं अर्थात्‌ सारा संसार ब्रह्मरूप है। मुझे निर्गुण मत नहीं अच्छा लगता था, मेरे हृदय में सगुणब्रह्म के प्रति अधिक प्रेम था।

**दो०– गुरु के बचन सुरति करि, राम चरन मन लाग।**

**रघुपति जस गावत फिरउँ, छन छन नव अनुराग॥११०(क)॥ भा०– **सर्वप्रथम उस उज्जैनीपुरी के गुरुदेव का वह वचन कि, शिव जी की सेवा का फल श्रीरामभक्ति है, भगवान्‌ श्रीराम, शिव जी और ब्रह्मा जी के भी भजनीय हैं, श्रीराम विमुख को सुख नहीं मिलता, बार–बार स्मरण करके मेरा मन श्रीराम के श्रीचरणों में लग गया। मैं रघुकुल के स्वामी भगवान्‌ श्रीराम के यशों को गाता फिरता

था। मेरे मन में श्रीराम विषयक अनुराग क्षण–क्षण नया हो रहा था।

मेरु शिखर बट छाया, मुनि लोमश आसीन।

देखि चरन सिर नायउँ, बचन कहेउँ अति दीन॥११०(ख)॥

भाष्य

सुमेरू पर्वत के शिखर पर वटवृक्ष की छाया में बैठे हुए लोमश मुनि को देखकर, मैंने उनके चरणों में मस्तक नवाया और बहुत दैन्यपूर्ण वचन कहे।

**सुनि मम बचन बिनीत मृदु, मुनि कृपालु खगराज।**

मोहि सादर पूँछत भए, द्विज आयहु केहि काज॥११०(ग)॥

भाष्य

हे पक्षीराज गरुड़ जी! मेरे कोमल और विनम्र वचन सुनकर, कृपालु मुनि लोमश जी मुझसे आदरपूर्वक पूछने लगे, कहो ब्राह्मण्‌ किस कार्य से यहाँ आये हो?

**तब मैं कहा कृपानिधि, तुम सर्बग्य सुजान।**

सगुन ब्रह्म अवराधन, मोहिं कहहु भगवान॥११०(घ)॥

भाष्य

तब मैंने कहा, हे भगवन्‌! आप कृपा के सागर, सब कुछ जाननेवाले और चतुर हैं, इसलिए मुझे सगुणब्रह्म की आराधना समझाकर कहिये।

**तब मुनीश रघुपति गुन गाथा। कहे कछुक सादर खगनाथा॥**
भाष्य

तब हे गव्र्ड़ देव जी! मुनिश्रेष्ठ लोमश जी ने आदरपूर्वक भगवान्‌ श्रीराम की कुछ गुणगाथायें कहीं।

**ब्रह्मग्यान रत मुनि बिग्यानी। मोहि परम अधिकारी जानी॥ लागे करन ब्रह्म उपदेशा। अज अद्वैत अगुन हृदयेशा॥ अकल अनीह अनाम अरूपा। अनुभव गम्य अखंड अनूपा॥**

[[९४४]]

मन गोतीत अमल अबिनाशी। निर्बिकार निरवधि सुख राशी॥ सो तैं ताहि तोहि नहिं भेदा। बारि बीचि इव गावहिं बेदा॥

भाष्य

ब्रह्मज्ञान में निरत, विकृति के ज्ञानवाले, मुनि लोमश मुझे ब्राह्मण शरीरावच्छिन्न, ब्रह्मज्ञान का परम अधिकारी जानकर, निर्गुणब्रह्म का उपदेश करने लगे और बोले, हे ब्राह्मण! ब्रह्म अजन्मा है, वह अद्वैत अर्थात्‌ माता–पिता के सम्पर्क से यहाँ नहीं आया है, वह अगुण अर्थात्‌ सभी धर्मों से रहित और हेय गुणों से भी रहित है तथा वह सबके हृदय का ईश्वर है। वह सभी कलाओं से रहित, सभी चेष्टाओं से रहित संसार के नामों से दूर और प्राकृतरूप से भी रहित है। वह अनुभवगम्य, खण्डरहित और उपमारहित है। वह ब्रह्म मन और इन्द्रियों से परे निर्मल, नाशरहित, विकाररहित और असीम सुखों की राशि है, वह ब्रह्म तुम्हीं हो, उसमें तथा तुममें जल और तरंग की भाँति कोई भेद नहीं है, इस प्रकार से वेद गाते हैं।

**विशेष– **“**द्वाभ्यां माता पितृभ्यां इतं संसारे प्राप्तं द्‌वीतं तदेव द्वैतं न द्वैतं अद्वैतं।**” तात्पर्यत: ब्रह्म द्वैतमूलक संसार से विलक्षण है और उपनिषद प्रसिद्ध अद्वैत शब्द स्वार्थ अण्‌ प्र्ययान्त होकर संज्ञा वाचक है अर्थात्‌ ब्रह्म का ही पर्यायवाची है। इसे भाववाचक कैसे समझा गया यह तो वेदान्त सम्प्रदायों के भाष्यकार पूर्वाचार्य लोग ही जानें। उपनिषद ने तो अद्वैत शब्द ब्रह्म का पर्यायवाची संज्ञा शब्द ही माना है न कि भाववाचक।

बिबिध भाँति मोहि मुनि समुझावा। निर्गुन मत मम हृदय न आवा॥ पुनि मैं कहेउँ नाइ पद शीशा। सगुन उपासन कहहु मुनीशा॥

भाष्य

लोमश मुनि जी ने मुझे बहुत प्रकार से समझाया, पर निर्गुण मत मेरे हृदय में नहीं आया, फिर मैंने मुनि के चरणों में मस्तक नवाकर कहा, हे मुनिश्रेष्ठ लोमश जी! अब सगुण उपासना कहिये।

**राम भगति जल मम मन मीना। किमि बिलगाइ मुनीश प्रबीना॥ सोइ उपदेश कहहु करि दाया। निज नयननि देखौं रघुराया॥**
भाष्य

हे श्रेष्ठ मुनियों में चतुर लोमश जी! मेरा मनरूप मछली श्रीरामभक्तिरूप जल से कैसे अलग किया जा सकता है? हे मुनीश्वर! आप दया करके वही उपदेश समझाकर कहिये, जिससे मैं रघुकुल के राजा और रघु के वाच्यार्थ जीवों के सर्वस्व, अर्थात्‌ सगुण साकार, अतीसी (अलसी), कुसुम, सुकुमार कौसल्याकुमार श्रीराम के दर्शन कर सकूँ।

**भरि लोचन बिलोकि अवधेशा। तब सुनिहउँ निर्गुन उपदेशा॥**

मुनि पुनि कहि हरिकथा अनूपा। खंडि सगुन मत अगुन निरूपा॥

भाष्य

मैं अयोध्यापति भगवान्‌ श्रीराम को आँख भर निहारकर, फिर आपके मुख से निर्गुणब्रह्म का उपदेश सुनूँगा। फिर लोमश मुनि ने भगवान्‌ श्रीराम की अनुपम कथा कहकर, सगुण पक्ष का खण्डन करके निर्गुण मत का निरूपण किया।

**तब मैं निर्गुन मत करि दूरी। सगुन निरूपउँ करि हठ भूरी॥ उत्तर प्रतिउत्तर मैं कीन्हा। मुनि तन भए क्रोध के चीन्हा॥**
भाष्य

तब मैं भी निर्गुण मत को दूर करके अर्थात्‌ उसका खण्डन करके, बहुत हठ करके सगुण पक्ष का निरूपण करने लगा। जब मैंने लोमश जी के उत्तरों का प्रतिकूल उत्तर प्रस्तुत किया, तब मुनि के शरीर में क्रोध के चिन्ह प्रकट हो गये।

[[९४५]]

सुनु प्रभु बहुत अवग्या कियहूँ। उपज क्रोध ग्यानिन के हियहू॥ अति संघरषन जौ कर कोई। अनल प्रगट चंदन ते होई॥

भाष्य

हे गरुड़ देव जी! सुनिये, बहुत अवज्ञा अर्थात्‌ वाक्यों की अवहेलना करने पर ज्ञानियों के भी हृदय में क्रोध उत्पन्न हो जाता है। यदि कोई बहुत संघर्षण करे अर्थात्‌ रग़डे तो चन्दन से भी अग्नि प्रकट हो जाता है।

**दो०– बारंबार सकोप मुनि, करइ निरूपन ग्यान।**

**मैं अपने मन बैठि तब, करउँ बिबिध अनुमान॥१११(क)॥ भा०– **बार–बार महर्षि क्रोध करके ज्ञान का निरूपण कर रहे थे। इधर मैं बैठा हुआ, अपने मन में अनेक अनुमान कर रहा था।

क्रोध कि द्वैत बुद्धि बिनु, द्वैत कि बिनु अग्यान।

मायाबश परिछिन्न ज़ड, जीव कि ईश समान॥१११(ख)॥

भाष्य

अरे! लोमश जी अद्वैतवाद का निरूपण कर रहे हैं, जबकि इनमें स्वयं द्वैत भरा हुआ है, क्योंकि द्वैत बुद्धि के बिना क्रोध हो ही नहीं सकता। क्या द्वैत बिना अज्ञान के हो सकता है? अर्थात्‌ यह माया के वश में हुआ तीनों शरीरों से परिछिन्न ज़डजीव ईश्वर के समान हो ही नहीं सकता। जब जीव ईश्वर के समान भी नहीं हो सकता तो फिर महर्षि जी ने किस आधार पर “**सो तैं ताहि तोहि नहिं भेदा।” (**मानस, ७.१११.६.) में अद्वैतवाद प्रतिपादित किया? किस वेद में किंबा, चारों वेद के किस मंत्र में अद्वैत का समर्थन किया गया है? यदि लोमश जी सब कुछ ब्रह्ममय मानते हैं तो फिर मेरे द्वारा किये हुए निर्गुण मत के खण्डन से डरे क्यों? उन्हें ज्ञान-निरूपण के समय क्यों क्रोध आया? अत: अद्वैतावाद न तो व्यावहारिक है और न ही पारमार्थिक है, यह पूर्णरूपेण वेद विरुद्ध है।

**कबहुँ कि दुख सब कर हित ताके। तेहि कि दरिद्र परस मनि जाके॥**

परद्रोही की होहि निशंका। कामी पुनि कि रहइ अकलंका॥

भाष्य

भला बताओ, सभी का हित देखने से उस सर्वहितदर्शी को क्या कभी दु:ख हो सकता है? जिसके पास स्पार्शमणि हो क्या वह दरिद्र बन सकता है ? क्या दूसरों का द्रोही शंकारहित हो सकता है? फिर क्या कामी कलंकरहित हो सकता है? अर्थात्‌ कभी न कभी कामियों को कलंक लगता ही है।

**बंश कि रह द्विज अनहित कीन्हे। कर्म कि होहिं स्वरूपहि चीन्हे॥ काहू सुमति कि खल सँग जामी। शुभ गति पाव कि परत्रिय गामी॥**
भाष्य

क्या ब्राह्मणों का अहित करने पर किसी का वंश रह सकता है? क्या अपना स्वरूप पहचान लेने पर बन्धनात्मक कर्म हो सकता है? क्या खलों के संग रहने पर किसी में भी सुन्दर बुद्धि उत्पन्न हो सकती है? क्या परस्त्री गामी शुभगति पाता है?

**भव कि परहिं परमात्मा बिंदक। सुखी कि होहि कबहुँ हरि निंदक॥ राज कि रहइ नीति बिनु जाने। अघ कि रहहिं हरि चरित बखाने॥**
भाष्य

क्या परमात्मा को प्राप्त कर लेनेवाले भवसागर में पड़ते हैं? क्या भगवान्‌ श्रीराम का निन्दक कभी भी सुखी होता है? क्या नीति के बिना राज्य स्थिर रहता है? क्या निष्काम भावना से श्रीहरि भगवान्‌ श्रीराम का चरित्र-व्याख्यान के साथ कहने पर पाप रह सकते हैं?

[[९४६]]

पावन जस कि पुन्य बिनु होई। बिनु अघ अजस कि पावइ कोई॥ लाभ कि कछु हरि भगति समाना। जेहि गावहिं श्रुति संत पुराना॥

भाष्य

क्या बिना पुण्य के पवित्र यश होता है? क्या बिना पाप के कोई अपयश पाता है? क्या उस भगवद्‌भक्ति के समान कोई लाभ है, जिसे वेद और वेदज्ञ सन्त जन गाते हैं?

**हानि कि जग एहि सम कछु भाई। भजिय न रामहिं नर तनु पाई॥ अघ कि पिशुनता सम कछु आना। धर्म कि दया सरिस हरियाना॥**
भाष्य

हे भाई! क्या संसार में इससे बड़ी कोई हानि है, जो कि मनुष्य शरीर पाकर भी भगवान्‌ श्रीराम का भजन न किया जाये ? क्या पिशुनता अर्थात्‌ एक की बात दूसरे तक पहुँचाने के समान कोई दूसरा पाप है? हे गरुड़ जी! क्या दया के समान कोई धर्म है? अर्थात्‌ यदि ये अठारह असंभव संभव नहीं हो सकते तो फिर ईश्वर और जीव में अभेदमूलक अद्वैतवाद न तो ‘शास्त्रत: सम्भव है और न ही युक्तित:।

**एहि बिधि अमित जुगुति मन गुनऊँ। मुनि उपदेश न सादर सुनऊँ॥ पुनि पुनि सगुन पच्छ मैं रोपा। तब मुनि बोलेउ बचन सकोपा॥**
भाष्य

इस प्रकार मैं मन में अनेक पूर्वपक्ष को काटने वाली युक्तियों पर विचार कर रहा था और लोमश मुनि जी का उपदेश आदरपूर्वक नहीं सुन रहा था। जब मैंने निर्गुण मत का खण्डन करके बार–बार सगुण पक्ष को ही प्रस्तुत किया, तब निरुत्तर होने के कारण महर्षि लोमश जी क्रोधपूर्वक बोले–

**मू़ढ परम सिख देउँ न मानसि। उत्तर प्रतिउत्तर बहु आनसि॥ सत्य बचन बिश्वास न करही। बायस इव सबहीं ते डरही॥ शठ स्वपच्छ तव हृदय बिशाला। सपदि होहि पच्छी चंडाला॥**
भाष्य

हे मोहग्रस्त ब्राह्मण! मैं श्रेष्ठ शिक्षा दे रहा हूँ, उसे तू नहीं मान रहा है। मेरे बहुत से उत्तरों के प्रतिपक्षी उत्तर प्रस्तुत कर रहा है। सत्य वचन पर विश्वास नहीं करता है, तू कौवे की भाँति सभी से डरता है। अरे दुष्ट! तेरे हृदय में अपना ही विशाल पक्ष है अर्थात्‌ तू अपने पक्ष का आग्रही है, इसलिए जा शीघ्र ही पक्षियों में चाण्डाल पक्षी कौवा हो जा।

**लीन्ह श्राप मैं शीष च़ढाई। नहिं कछु भय न दीनता आई॥**
भाष्य

मैंने लोमश मुनि के शाप को मस्तक पर च़ढा लिया। मेरे मन में किसी भी प्रकार का न तो भय आया और न ही दीनता हुई अर्थात्‌ इतना बड़ा शाप पाकर भी मैं तटस्थ रहा।

**दो०– तुरत भयउँ मैं काग तब, पुनि मुनि पद सिर नाइ।**

**सुमिरि राम रघुबंश मनि, हरषित चलेउँ उड़ाइ॥११२ (क)॥ भा०– **उसी समय मैं तुरन्त कौवा हो गया, फिर लोमश मुनि के चरणों में मस्तक नवाकर रघुवंश के मणि भगवान्‌ श्रीराम जी को मन में स्मरण करके प्रसन्न होते हुए मैं उड़कर चला।

उमा जे राम चरन रत, बिगत काम मद क्रोध।

**निज प्रभुमय देखहिं जगत, केहि सन करहिं बिरोध॥११२(ख)॥ भा०– **शिव जी पार्वती जी को सम्बोधित करते हुए कहते हैं कि हे उमा! जो महानुभाव काम, मद और क्रोध से रहित होकर एकमात्र भगवान्‌ श्रीराम के श्रीचरणों में ही रमते रहते हैं, वे सम्पूर्ण जगत्‌ को अपने स्वामी श्रीराम के

[[९४७]]

रूप में देखते हैं अर्थात्‌ उनका यह निश्चय हो जाता है कि सम्पूर्ण जीव-जगत्‌ हमारे प्रभु श्रीराम का शरीर है, इसलिए वे किससे विरोध करें अर्थात्‌ यदि उन्हें कोई श्रीराम जी से अतिरिक्त दिखे तब तो विरोध करें।

सुनु खगेश नहिं कछु ऋषि दूषन। उर प्रेरक रघुबंश बिभूषन॥ कृपासिंधु मुनि मति करि भोरी। लीन्ही प्रेम परिच्छा मोरी॥ मन बच क्रम मोहि निज जन जाना। मुनि मति पुनि फेरी भगवाना॥

भाष्य

हे पक्षीराज गव्र्ड़ जी! सुनिये, इस घटना में महर्षि लोमश जी का कोई दोष नहीं था, क्योंकि भक्तों के हृदय के प्रेरक तो रघुवंश के अलंकार भगवान्‌ श्रीराम ही हैं। कृपा के सागर भगवान्‌ श्रीराम ने मुनि लोमश जी की बुद्धि को बावली बनाकर मेरी प्रेमपरीक्षा ली। जब उन्होंने मुझे मन, वचन, कर्म से अपना सेवक जाना अर्थात्‌ लोगांें को जना दिया, फिर भगवान्‌ श्रीराम ने लोमश मुनि जी की बुद्धि को फेर दिया। तात्पर्य यह है कि भगवान्‌ श्रीराम स्वयं सर्वज्ञ हैं, उन्हें मेरे प्रेम के प्रति कोई सन्देह नहीं था। वे सम्पूर्ण जगत्‌ को इस घटना से मेरे प्रेम का परिचय कराना चाहते थे।

**ऋषि मम सहन शीलता देखी। राम चरन बिश्वास बिशेषी॥ अति बिसमय पुनि पुनि पछिताई। सादर मुनि मोहि लीन्ह बोलाई॥ मम परितोष बिबिध बिधि कीन्हा। हरषित राममंत्र तब दीन्हा॥**
भाष्य

लोमश ऋषि ने मेरी सहनशीलता और मेरा श्रीराम के श्रीचरणों में विशेष विश्वास इन दोनों विशेषताओं को देखा, तब अत्यन्त आश्चर्य के साथ बार–बार पश्चात्‌-ताप करते हुए महर्षि ने मुझे आदरपूर्वक बुला लिया। अनेक प्रकार से मेरा परितोष किया अर्थात्‌ मुझे समझा–बुझाकर सन्तुष्ट किया और तब मुझे प्रसन्न होकर श्रीराम का षड़क्षर मंत्र दिया।

**बालकरूप राम कर ध्याना। कहेउ मोहि मुनि कृपानिधाना॥ सुंदर सुखद मोहि अति भावा। सो प्रथमहिं मैं तुमहिं सुनावा॥**
भाष्य

कृपा के कोश मुनि लोमश जी ने मुझे बालकरूप श्रीराम का ध्यान कहकर सुनाया, जो बहुत सुन्दर और सुख देनेवाला था। वह मुझे बहुत भाया, उसे मैं पहले ही तुम्हें सुना चुका हूँ।

**मुनि मोहि कछुक काल तहँ राखा। रामचरितमानस तब भाखा॥ सादर मोहि यह कथा सुनाई। पुनि बोले मुनि गिरा सुहाई॥**
भाष्य

लोमश मुनि ने मुझे वहाँ अर्थात्‌ अपने आश्रम में कुछ दिन रखा। तब श्रीरामचरितमानस जिसे शिवजी से प्राप्त किया था सुनाया। आदरपूर्वक मुझे यह कथा सुनाकर फिर महर्षि लोमश जी सुहावनी वाणी बोले–

**रामचरित सर गुप्त सुहावा। शंभु प्रसाद तात मैं पावा॥ तोहि निज भगत राम कर जानी। ताते मैं सब कहेउँ बखानी॥**
भाष्य

हे वत्स! ये गोपनीय सुन्दर श्रीरामचरितमानस मैंने शिवजी के प्रसाद से पाया है। तुम्हें अपना सेवक और भगवान्‌ श्रीराम का भक्त जानकर, यह समस्त कथा मैंने व्याख्यान के साथ कही।

**राम भगति जिन के उर नाहीं। कबहुँ न तात कहिय तिन पाहीं॥**

**मुनि मोहि बिबिध भाँति समुझावा। मैं सप्रेम मुनि पद सिर नावा॥ भा०– **जिनके हृदय में श्रीराम की भक्ति न हो, हे तात! उनके पास इसे कभी मत कहना। लोमश मुनि ने मुझे बहुत प्रकार से समझाया और मैंने भी प्रेम के साथ मुनि लोमश जी के चरणों में मस्तक नवाया।

[[९४८]]

निज कर कमल परसि मम शीशा। हरषित आशिष दीन्ह मुनीशा॥ राम भगति अबिरल उर तोरे। बसिहि सदा प्रसाद अब मोरे॥

भाष्य

मेरे मस्तक पर अपने करकमलों से स्पर्श करते हुए, मुनियों में श्रेष्ठ लोमश जी ने प्रसन्न होते हुए अशीर्वाद दिया, हे वत्स! अब मेरे प्रसाद से अविरला श्रीरामभक्ति तुम्हारे हृदय में निरन्तर निवास करेगी।

**दो०– सदा राम प्रिय होहु तुम, शुभ गुन भवन अमान।**

कामरूप इच्छा मरन, ग्यान बिराग निधान॥११३(क)॥

भाष्य

तुम सदैव श्रीराम के प्रिय, श्रेष्ठ गुणों के निवास स्थान अर्थात्‌ भवन, अहंकार से रहित, स्वेच्छारूप धारण की शक्ति से सम्पन्न और अपने ही इच्छा से मृत्यु को स्वीकार करने वाले तथा ज्ञान और वैराग्य के कोशस्वरूप हो जाओ।

**जेहिं आश्रम तुम बसब पुनि, सुमिरत श्रीभगवंत।**

**ब्यापिहिं तहँ न अबिद्दा, जोजन एक प्रजंत॥११३(ख)॥ भा०– **फिर तुम भगवान्‌ श्रीसीतारामजी का स्मरण करते हुए जिस आश्रम में निवास करोगे वहाँ चारों ओर एक योजनपर्यन्त अविद्दा नहीं व्यापृत होगी अर्थात्‌ अपना व्यपार नहीं कर सकेगी।

काल कर्म गुन दोष सुभाऊ। कछु दुख तुमहिं न ब्यापिहि काऊ॥ राम रहस्य ललित बिधि नाना। गुप्त प्रगट इतिहास पुराना॥ बिनु श्रम तुम जानब सब सोऊ। नित नव नेह राम पद होऊ॥ जो इच्छा करिहउ मन माहीं। हरि प्रसाद कछु दुर्लभ नाहीं॥

भाष्य

काल, कर्म, गुण, दोष और प्रकृति, इनके कुछ भी दु:ख तुम्हें नहीं व्याप्त होंगे। अनेक प्रकार से लालित्यपूर्ण गोपनीय और प्रकट श्रीराम के रहस्य, जो इतिहासों और पुराणों में अधिकारियों के भेद से कहीं छिपे हुए हैं और कहीं प्रकट हैं, तुम उन सबको बिना श्रम के जान लोगे। तुम्हारे हृदय में श्रीराम के श्रीचरणों के प्रति नित्य नया प्रेम हो। तुम मन में जो भी इच्छा करोगे भगवान्‌ श्रीराम के प्रसाद से तुम्हें कुछ भी दुर्लभ नहीं होगा।

**सुनि मुनि आशिष सुनु मतिधीरा। ब्रह्मगिरा भइ गगन गँभीरा॥ एवमस्तु तव बच मुनि ग्यानी। यह मम भगत कर्म मन बानी॥ सुनि नभगिरा हरष मोहि भयऊ। प्रेम मगन सब संशय गयऊ॥**
भाष्य

हे धीर बुद्धिवाले गरुड़ जी! सुनिये, मुनि लोमश जी का आशीर्वाद सुनकर आकाशमय परब्रह्म श्रीराम की आकाशवाणी हुई। भगवान्‌ श्रीराम ने कहा, हे ज्ञानी मुनि! तुम्हारा वचन ऐसा ही हो, क्योंकि यह भुशुण्डि कर्म, मन और वाणी से मेरा भक्त है। प्रभु की आकशवाणी सुनकर मुझे हर्ष हुआ और मैं प्रेम में मग्न हो गया, मेरा सम्पूर्ण संशय चला गया।

**करि बिनती मुनि आयसु पाई। पद सरोज पुनि पुनि सिर नाई॥ हरष सहित एहिं आश्रम आयउँ। प्रभु प्रसाद दुर्लभ बर पायउँ॥**
भाष्य

प्रार्थना करके मुनि की आज्ञा पाकर, उनके चरणों में बार–बार सिर नवाकर, प्रसन्नता के सहित मैं इस आश्रम में आ गया। प्रभु के प्रसाद से मैंने दुर्लभ वरदान पा लिया।

**इहाँ बसत मोहि सुनु खग ईशा। बीते कलप सात अरु बीसा॥ करउँ सदा रघुपति गुन गाना। सादर सुनहिं बिहंग सुजाना॥**

[[९४९]]

भाष्य

हे पक्षियों के ईश्वर! सुनिये, मुझे यहाँ निवास करते हुए सत्ताईस कल्प बीत गये अर्थात्‌ मेरे सामने सत्ताईस बार ब्रह्माजी की भी मृत्यु हो चुकी है। मैं सदैव रघुकुल के स्वामी भगवान्‌ श्रीराम का गुणगान करता हूँ और चतुर पक्षी आदरपूर्वक सुनते हैं।

**जब जब अवधपुरी रघुबीरा। धरहिं भगत हित मनुज शरीरा॥ तब तब जाइ राम पुर रहऊँ। शिशुलीला बिलोकि सुख लहऊँ॥ पुनि उर राखि राम शिशुरूपा। निज आश्रम आवउँ खगभूपा॥**
भाष्य

हे पक्षियों के राजा गरुड़ जी! जब–जब भक्तों का हित करने के लिए भगवान्‌ श्रीराम श्रीअयोध्यापुरी में मनुष्य शरीर धारण करते हैं, तब–तब मैं पाँच–पाँच वर्षों के लिए कथा को विश्राम देकर, इस आश्रम से जाकर श्रीराम के पुर श्रीअयोध्या में रहता हूँ और प्रभु की शिशुलीला को देखकर बहुत सुख प्राप्त करता हूँ। पाँच वर्षों के पश्चात्‌ फिर भगवान्‌ श्रीराम के बालरूप को हृदय में धारण करके अपने आश्रम में आ जाता हूँ।

**कथा सकल मैं तुमहि सुनाई। काग देह जेहि कारन पाई॥ कहेउँ तात सब प्रश्न तुम्हारी। राम भगति महिमा अति भारी॥**
भाष्य

हे गरुड़ देव जी! जिस कारण से मैंने कौवे का शरीर प्राप्त किया, वह सम्पूर्ण कथा मैंने आपको सुना दी। हे तात! आपकी सम्पूर्ण प्रश्नावली का उत्तर मैंने दे दिया, वास्तव में भगवान्‌ श्रीराम की भक्ति की महिमा बहुत बड़ी है।

**दो०– ताते यह तन मोहि प्रिय, भयउ राम पद नेह।**

**निज प्रभु दरशन पायउँ, गए सकल संदेह॥११४(क)॥ भा०– **इसलिए यह शरीर मुझे प्रिय है, क्योंकि इसी शरीर में मुझे भगवान्‌ श्रीराम के श्रीचरणों में प्रेम हुआ। इसी कौवे के शरीर में मैंने अपने प्रभु श्रीराम के दर्शन प्राप्त किये और इसी काक शरीर में मेरे सम्पूर्ण सन्देह समाप्त हो गये।

भगति पक्ष हठ करि रहेउँ, दीन्ह महाऋषि श्राप।

मुनि दुर्लभ बर पायउँ, देखहु भजन प्रताप॥११४(ख)॥

भाष्य

हे गरुड़ देव जी! मैं भक्तिपथ पर हठ किये रहा लोमश जी से कोई समझौता नहीं किया, उस पर कुपित होकर महर्षि लोमश जी ने मुझे कौवा बनने का भयंकर शाप दिया, उसके विनिमय में मैंने मुनियों के लिए भी दुर्लभ वरदान प्राप्त कर लिये। भगवान्‌ श्रीराम के भजन का प्रताप तो देखो, अन्त में जीत मेरी ही हुई।

**जे असि भगति जानि परिहरहीं। केवल ग्यान हेतु श्रम करहीं॥**

**ते ज़ड कामधेनु गृह त्यागी। खोजत आक फिरहिं पय लागी॥ भा०– **काकभुशुण्डि जी कहते हैं कि, हे गरुड़ देव जी! जो लोग इस प्रकार की भक्ति जानकर छोड़ देते हैं और केवल ज्ञान के लिए श्रम करते हैं, वे ज़डबुद्धि के लोग अपने घर में आई हुई कामधेनु को छोड़कर दूध के लिए मदार के फल को ढूँ़ढते फिरते हैं।

सुनु खगेश हरि भगति बिहाई। जे सुख चाहहिं आन उपाई॥ ते शठ महासिंधु बिनु तरनी। पैरि पार चाहहिं ज़ड करनी॥

भाष्य

हे पक्षीराज गरुड़ जी! सुनिये, भगवान्‌ श्रीराम की भक्ति को छोड़कर जो लोग अन्य उपाय से सुख चाहते हैं, वे ज़ड करनीवाले लोग बिना नाव के महासागर को चरणों से तैर कर पार करना चाहते हैं।

[[९५०]]

सुनि भुशुंडि के बचन भवानी। बोलेउ गरुड़ हरषि मृदु बानी॥ तव प्रसाद प्रभु मम उर माहीं। संशय शोक मोह भ्रम नाहीं॥ सुनेउँ पुनीत राम गुन ग्रामा। तुम्हरी कृपा लहेउँ बिश्रामा॥ एक बात प्रभु पूँछउँ तोहीं। कहहु बुझाइ कृपानिधि मोहीं॥

भाष्य

पार्वती जी को सम्बोधित करते हुए शिवजी कहते हैं कि हे भवानी! काकभुशुण्डि के वचन सुनकर, प्रसन्न होकर गरुड़ जी कोमल वाणी में बोले, हे प्रभु काकभुशुण्डि जी! आपके प्रसाद से मेरे हृदय में संशय, शोक, मोह और भ्रम कुछ भी नहीं है। आपकी कृपा से मैंने परम पवित्र भगवान्‌ श्रीराम के गुणों के समूह सुने और आपकी कृपा से ही मैंने विश्राम प्राप्त कर लिया अर्थात्‌ मुझे परम शान्ति मिल गई। हे प्रभु! मैं एक बात आपसे पूछ रहा हूँ, हे कृपा के सागर काकभुशुण्डि जी! आप मुझे समझाकर कहिये।

**कहहिं संत मुनि बेद पुराना। नहिं कछु दुर्लभ ग्यान समाना॥ सोइ मुनि तुम सन कहेउ गोसाईं। नहिं आदरेहु भगति की नाईं॥ ग्यानहिं भगतिहिं अंतर केता। सकल कहहु प्रभु कृपा निकेता॥ सुनि उरगारि बचन सुख माना। सादर बोलेउ काग सुजाना॥**
भाष्य

सन्त, मुनि, वेद और पुराण सभी कहते हैं कि ज्ञान के समान कुछ भी दुर्लभ नहीं है अर्थात्‌ ज्ञान सबसे अधिक दुर्लभ वस्तु है। हे पक्षीलोक के स्वामी भुशुण्डि जी! वही ज्ञान तो महर्षि लोमश जी ने आपसे कहा था, जिसे आपने भक्ति की भाँति सम्मानित नहीं किया, तो फिर ज्ञान और भक्ति में क्या अन्तर है? हे कृपा के धाम भुशुण्डि जी! सब कुछ समझाकर कहिये। गरुड़ जी के वचन सुनकर भुशुण्डि जी ने बहुत सुख माना और चतुर काकभुशुण्डि जी आदरपूर्वक बोले–

**भगतिहिं ग्यानहिं नहिं कछु भेदा। उभय हरहिं भव संभव खेदा॥ नाथ मुनीश कहहिं कछु अंतर। सावधान सोउ सुनु बिहंगबर॥ ग्यान बिराग जोग बिग्याना। ए सब पुरुष सुनहु हरियाना॥ पुरुष प्रताप प्रबल सब भाँती। अबला अबल सहज ज़ड जाती॥**
भाष्य

हे नाथ! परमार्थ में भक्ति और ज्ञान के बीच कुछ भेद नहीं है, दोनों ही संसार से उत्पन्न दु:ख को नष्ट कर देते हैं, परन्तु साधनकाल में श्रेष्ठ मुनि लोग भक्ति और ज्ञान में कुछ अन्तर कहते हैं। हे पक्षीश्रेष्ठ! वह आप सावधान होकर सुनिये। हे श्रीहरि के विमान गरुड़ जी! सुनिये, ज्ञान, वैराग्य, योग और विज्ञान ये सब पुरुष हैं अर्थात्‌ साधन में भी इन में पुरुषार्थ है। पुरुष का प्रताप सब प्रकार से प्रबल होता है और अबला, निर्बल तथा स्वभावत: ज़डजाति की होती है अर्थात्‌ शरीर की दृष्टि से भी नारी में पुरुष की अपेक्षा कम शक्ति होती है, परन्तु यह सिद्धान्त श्रीसीता, श्रीदुर्गा आदि देवियों के लिए नहीं है।

**दो०– पुरुष त्यागि सक नारिहि, जो बिरक्त मति धीर।**

न तु कामी बिषयाबश, बिमुख जो पद रघुबीर॥११५(क)॥

भाष्य

जो विरक्त और धीर बुद्धि के पुरुष हैं, वे नारी को त्याग सकते हैं, किन्तु जो भगवान्‌ श्रीराम से विमुख, कामी और विषयों के परतंत्र हैं वे नारी का त्याग नहीं कर सकते।

**सो०– सोउ मुनि ग्याननिधान, मृगनयनी बिधु मुख निरखि।**

बिबश होइ हरियान, नारि बिष्णु माया प्रगट॥११५(ख)॥

[[९५१]]

भाष्य

वह ज्ञान का कोशस्वरूप मुनि भी हरिण के समान नेत्रोंवाली नारी का चन्द्र जैसा मुख देखकर उसके विवश हो जाता है। हे गव्र्ड़ जी नारियों में श्रीविष्णु की माया प्रकट रहती है। उपलक्षण की दृय्ि से नारी के लिए नर में भगवान्‌ की माया प्रकट रहती है। भगवद्‌भजन न करनेवाली नारी भी सुन्दर पुव्र्ष को देखकर उसके वश में हो जाती है।

**इहा न पक्षपात कछु राखउँ। बेद पुरान सन्त मत भाषउँ॥ मोह न नारि नारि के रूपा। पन्नगारि यह रीति अनूपा॥**
भाष्य

यहाँ मैं किसी प्रकार का पक्षपात नहीं रख रहा हूँ, मैं तो वेद, पुराण और सन्तों का मत स्पष्ट करके कह रहा हूँ। हे पन्नगारि अर्थात्‌ सर्पों के शत्रु गरुड़ जी! यह अनुपम परम्परा ही है कि नारी–नारी के रूप पर नहीं मोहित होती।

**माया भगति सुनहु तम दोऊ। नारि बर्ग जानइ सब कोऊ॥ पुनि रघुबीरहिं भगति पियारी। माया खलु नर्तकी बिचारी॥**
भाष्य

हे गरुड़ जी! आप गम्भीरता से सुनिये, यह तथ्य सभी लोग जानते हैं कि माया और भक्ति दोनों ही नारी वर्ग में आते हैं। अत: माया को देखकर पुरुष वर्ग में आनेवाले ज्ञान, वैराग्य, योग, विज्ञान मोहित हो सकते हैं, परन्तु भक्ति नारी वर्ग में आनेवाली माया पर नहीं मोहित हो सकती, क्योंकि भक्ति भी माया की भाँति नारी वर्ग की है और नारी–नारी पर मोहित नहीं होती। फिर रघुकुल के वीर भगवान्‌ श्रीराम को भक्ति प्रिय है अर्थात्‌ वही याने भक्ति ही श्रीसीता के रूप में परम पुरुष श्रीरघुवीर की धर्मपत्नी, गृहलक्ष्मी हैं। निश्चयत: माया असहाय और नर्तकी अर्थात्‌ नृत्यांगना है।

**भगतिहि सानुकूल रघुराया। ताते तेहि डरपति अति माया॥ राम भगति निरुपम निरुपाधी। बसइ जासु उर सदा अबाधी॥ तेहि बिलोकि माया सकुचाई। करि न सकइ कछु निज प्रभुताई॥ अस बिचारि जे मुनि बिग्यानी। जाचहिं भगति सकल सुख खानी॥**
भाष्य

भक्ति के प्रति रघुकुल के राजा भगवान्‌ श्रीराम जी सानुकूल रहते हैं, इसलिए भक्ति से यह माया बहुत डरती है, क्योंकि भक्ति रानी है और माया नौकरानी है। भक्ति वीरांगना है और माया नृत्यांगना है, इसलिए उपमारहित और कपटरहित श्रीरामभक्ति जिसके हृदय में अबाध रूप से सदैव निवास करती है, उसे देखकर माया सकुचा जाती है और अपनी कुछ भी प्रभुता का प्रयोग नहीं कर सकती। ऐसा विचार करके जो विशिष्ट ज्ञान सम्पन्न मुनिजन हैं, वे सम्पूर्ण सुखों की खानि भक्ति को ही माँग लेते हैं, ज्ञान को नहीं माँगते, क्योंकि पुरुष प्रकृति होने के कारण ज्ञान की नारी माया पर मोहित होने की सम्भावना रहती है, परन्तु भक्तिरूप नारी मायारूप नारी पर नहीं मोहित हो सकती, क्योंकि नारी–नारी के रूप पर नहीं मोहित हो सकती।

**दो०– यह रहस्य रघुनाथ कर, बेगि न जानइ कोइ।**

जो जानइ रघुपति कृपा, सपनेहुँ मोह न होइ॥११६(क)॥

भाष्य

रघुनाथ जी का यह रहस्य कोई शीघ्र नहीं जान पाता। रघुपति भगवान्‌ श्रीराम की कृपा से जो जान जाता है उसे स्वप्न में भी मोह नहीं होता।

**औरउ ग्यान भगति कर, भेद सुनहु सुप्रबीन।**

जो सुनि होइ राम पद, प्रीति सदा अबिछीन॥११६(ख)॥

[[९५२]]

भाष्य

हे परम कुशल गरुड़ जी! ज्ञान और भक्ति का और भी अन्तर सुनिये, जिसे सुनकर श्रीराम के श्रीचरणों में सदैव अविच्छिन्न रहनेवाली अर्थात्‌ न टूटने वाली प्रीति हो जाती है।

**सुनहु तात यह अकथ कहानी। समुझत बनइ न जाइ बखानी॥ ईश्वर अंश जीव अबिनाशी। चेतन अमल सहज सुखराशी॥ सो मायाबश भयउ गोसाईं। बँध्यो कीर मरकट की नाईं॥ ज़ड चेतनहिं ग्रंथि परि गई। जदपि मृषा छूटत कठिनई॥**
भाष्य

हे तात गरुड़ जी! सुनिये, यह कहानी बहुत ही अकथनीय है। यह समझते तो बनती है, परन्तु बखानी नहीं जा सकती। हे गोसाईं अर्थात्‌ पक्षियों के राजा गरुड़ जी! जो परमेश्वर का अंश अर्थात्‌ पुत्र है, जिसका कभी नाश नहीं होता, जो चेतन और निर्मल तथा स्वाभाविक सुख की राशि है, ऐसा जीवात्मा भी माया के वश में हो गया और तोते तथा बन्दर की भाँति बँध गया अर्थात्‌जैसे तोता बाँस की पोपली पर बैठते ही उलटता है और पोपली को पंजे से पक़ड लेता है, उसे लगता है कि पोपली ने ही उसे पक़डा हुआ है, उसी प्रकार जीव ने स्वयं मायिक प्रपंच को पक़ड रखा है, जबकि उसे लगता है कि प्रपंच ने जीव को पक़ड रखा है। पुन: बन्दर सँकरे मुखवाले घड़े में हाथ डालकर चने से मुट्ठी भर लेता है, फिर घड़े के मुख से अपने हाथ को नहीं निकाल पाता, फिर मदारी उसे पक़ड लेता है। उसी प्रकार यह जीव संसाररूप घड़े में हाथ डालकर भोगरूप चने से पाँचों ज्ञानेन्द्रिय वाली मुट्टी भर लेता है, न तो इन्द्रियों से भोगों को छोड़ता है और न ही मुक्त होता है। ज़ड माया और चेतन जीव के बीच बन्धन की गाँठ पड़ गई है, यद्दपि वह झूठी है फिर भी उसके छूटने में बहुत कठिनता है।

**तब ते जीव भयउ संसारी। छूट न ग्रन्थि न होइ सुखारी॥ श्रुति पुरान बहु कहेउ उपाई। छूट न अधिक अधिक अरुझाई॥ जीव हृदय तम मोह बिशेषी। ग्रंथि छूट किमि परइ न देखी॥ अस संजोग ईश जब करई। तबहुँ कदाचित सो निरुअरई॥**
भाष्य

तब से यह जीव सरकारी न होकर संसारी हो गया तब से इसकी ग्रन्थी न तो छूटती है और न ही यह सुखी हो पाता है। वेदों और पुराणों ने बहुत से उपाय कहे, परन्तु यह गाँठ छूटती ही नहीं, उल्टे अधिकाधिक उलझती जाती है। जीव के हृदय में विशेष मोहरूप अन्धकार अर्थात्‌ बहुत–बड़ा अन्धेरा है, उसको कुछ दिखाई ही नहीं पड़ता, तो वह गाँठ कैसे छूटे? यदि ईश्वर ऐसा संयोग बना दें तो कदाचित्‌ वह गाँठ किसी प्रकार छूट जाये। यद्दपि इस पक्ष में भी कोई निश्चय नहीं है, परन्तु गाँठ के छूटने की सम्भावना है।

**सात्त्विक श्रद्धा धेनु सुहाई। जौ हरि कृपा हृदय बस आई॥ जप तप ब्रत जम नियम अपारा। जे श्रुति कह शुभ धर्म अचारा॥ तेइ तृन हरित चरै जब गाई। भाव बच्छ शिशु पाइ पेन्हाई॥**
भाष्य

यदि ईश्वर की कृपा से सात्विक श्रद्धा रूप गौ जीव के हृदय में आकर बसे और वेद ने जिन अपार जप, तप, व्रत यम, नियम, शुभ धर्म और आचरणों का वर्णन किया है, उन्हीं हरे–हरे तृणों को यदि यह सात्विक श्रद्धा रूप गौ चरे अर्थात्‌ यदि जप, तप आदि का प्रयोग केवल सात्विक श्रद्धा के पोषण के लिए हो और वह सुन्दर भावरूप नवजात बछड़े को पाकर सात्विक श्रद्धारूप गौ अपने आप दुध देने के लिए पेन्हा जाये अर्थात्‌ उत्सुक हो जाये।

**नोइ निबृत्ति पात्र बिश्वासा। निर्मल मन अहीर निज दासा॥ परम धर्ममय पय दुहि भाई। अवटै अनल अकाम बनाई॥**

[[९५३]]

तोष मरुत तब छमा जुड़ावै। धृति सम जावन देइ जमावै॥ मुदिता मथै बिचार मथानी। दम अधार रजु सत्य सुबानी॥ तब मथि काढि़ लेइ नवनीता। बिमल बिराग सुभग सुपुनीता॥

भाष्य

फिर निवृत्ति रूप नोई अर्थात्‌ गौ के चरण के बन्धन से उस सात्विक श्रद्धारूप गौ को बाँधकर निज दास अर्थात्‌ भक्तों के लिए नियत रूप से जन्म लेने वाले परमात्मा का भक्त, निर्मल मनरूप ग्वाला, विश्वासरूप पात्र में परमधर्म रूप दूध दुहकर, हे भाई! उसे निष्कामभाव रूप अग्नि में बना–बनाकर औटे अर्थात्‌ उबाले, फिर क्षमा नामक महिला उसे सन्तोषरूप वायु से शीतल करे, फिर धृति अर्थात्‌ धैर्यवृत्ति और शम अर्थात्‌ मन का शमन, प्रवृत्तिरूप जामन देकर उसकी दही जमाये। पुन: मुदिता अर्थात्‌ साधन की प्रसन्नतारूप महिला इन्द्रिय दमनरूप आधार अर्थात्‌ पात्र में सत्यवाणीरूप रस्सी से बाँधकर, विचाररूप मथानी द्वारा उसका मंथन करे अथवा, यह सब कार्य निर्मल मनरूप ग्वाले को ही करना होगा। वह स्वयं सन्तोषरूप वायु और क्षमारूप शीतलता से निष्काम भावनारूप अग्नि में उबले हुए परमधर्म रूप दूध को ठंडा करे, फिर वही धैर्य और श्रमरूप जामन देकर जमाये और उसी को यह मनरूप ग्वाला साधन की प्रसन्नतारूप मुदिता कमौरी या उसके समान अन्य किसी पात्र में इन्द्रिय दमनरूप खम्भे आश्रय में सत्यवाणीरूप रस्सी से बाँधकर विचाररूप मथनी से स्वयं मथे और तब मथकर सुन्दर, अत्यन्त पवित्र निर्मल वैराग्यरूप नवनीत उससे निकाल ले, क्योंकि धर्म से ही वैराग्य होता है।

**दो०– जोग अगिनि करि प्रगट तब, कर्म शुभाशुभ लाइ।**

**बुद्धि सिरावै ग्यान घृत, ममता मल जरि जाइ॥११७(क)॥ भा०– **जब बुद्धिरूपिणी ग्वालिन शुभाशुभ कर्मों का ईंधन लगाकर, योगरूप अग्नि को प्रकट करके ज्ञानरूप घी सिराये अर्थात्‌ बनाये, उसमें से ममतारूप मक्खन का मल अर्थात्‌ मठेऊ जल जाये।

तब बिग्यानरूपिनी, बुद्धि बिशद घृत पाइ।

चित्त दिया भरि धरै दृ़ढ, समता दिअटि बनाइ॥११७(ख)॥

भाष्य

तब विज्ञानस्वरूपिणी बुद्धि स्वच्छ ज्ञानरूप घी को पाकर समता रूप दिवट, अर्थात्‌ दीपक के ठहरने वाला स्थान बनाकर उसी पर चित्तरूप दीपक में ज्ञानरूप घी भरकर, उस समतारूप दीपक के स्थल पर रख दे।

**तीनि अवस्था तीनि गुन, तेहि कपास ते काढि़॥**

**तूल तुरीय सँवारि पुनि, बाती करै सुगाढि़॥११७(ग)॥ भा०– **जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति नामक तीन अवस्थायें और सत्व, रजस, तमस नामक तीनों गुणरूप कपासों से निकाल कर तुरीयतत्त्व रूप व्र्ई से सुन्दर मोटी बत्ती बनाये।

सो०– एहि बिधि लेसै दीप, तेज राशि बिग्यानमय।

**जातहिं जासु समीप, जरहिं मदादिक शलभ सब॥११७(घ)॥ भा०– **इस प्रकार से तेजों की राशि और विज्ञानमय दीपक को लेसे अर्थात्‌ प्रकट करे, जलाये जिसके समीप जाते ही मद आदि सभी पतंगे जल जायें।

__सोहऽमस्मि इति बृत्ति अखंडा। दीप शिखा सोइ परम प्रचंडा॥ आतम अनुभव सुख सुप्रकासा। तब भव मूल भेद भ्रम नासा॥

**प्रबल अबिद्दा कर परिवारा। मोह आदि तम मिटइ अपारा॥ भा०– **‘सोऽहमस्मि’ अर्थात्‌ वह भगवद्‌भक्त जीवात्मा मैं हूँ, मैं संसार के कल्पित नाम रूपवाला नहीं हूँ इस प्रकार की अखण्डवृत्ति ही उस दीपक का परम प्रचण्ड लौ बन जाये। आत्मा के अनुभव का सुख ही उस ज्ञान

[[९५४]]

दीपक का सुन्दर प्रकाश हो, जिससे भव अर्थात्‌ संसार का कारणरूप भेद, भ्रम नष्ट हो जाये और प्रबल अविद्दा के परिवाररूप मोह आदि का अपार अन्धकार मिट जाये।

तब सोइ बुद्धि पाइ उजिआरा। उर गृह बैठि ग्रंथि निरुआरा॥ छोड़न ग्रंथि पाव जो सोई। तब यह जीव कृतारथ होई॥

भाष्य

तब वह बुद्धि, ज्ञान दीपक का उजाला पाकर हृदयरूप घर में बैठकर धीरे–धीरे चेतन–जीव में पड़ी ज़डग्रन्थि को छोड़े यदि वह बुद्धि जीव की ज़डग्रन्थि छोड़ने पाये तब यह जीव कृतार्थ हो जाये, परन्तु इतने पर भी विघ्नों का आना बन्द नहीं होता।

**छोरत ग्रंथि जानि खगराया। बिघ्न अनेक करइ तब माया॥ ऋद्धि सिद्धि प्रेरइ बहु भाई। बुद्धिहिं लोभ दिखावहिं आई॥ कल बल छल करि जाहिं समीपा। अंचल बात बुझावहिं दीपा॥**
भाष्य

हे पक्षीराज गरुड़ जी! जीव को ज़डग्रन्थि खोलते हुए जानकर, तब यह माया अनेक विघ्न करती है। हे भाई! यह माया बहुत से द्धिऋियों और सिद्धियों को प्रेरित करती है। ये सभी जाकर बुद्धि को लोभ दिखाती हैं और यह कल, बल, अर्थात्‌ कपटपूर्ण मधुर छल करके आठों सिद्धियाँ, नवों ऋद्धियाँ बुद्धि के समीप चली जाती हैं और अपने आँचल के पवन से इतने श्रम से जलाये हुए दीपक को बुझा देती हैं, अर्थात्‌ अपने आकर्षण से जीव को फँसाकर ज्ञान समाप्त कर देती हैं।

**होइ बुद्धि जौ परम सयानी। तिन तन चितव न अनहित जानी॥ जौ तेहि बिघ्न बुद्धि नहिं बाधी। तौ बहोरि सुर करहिं उपाधी॥ इंद्री द्वार झरोखा नाना। तहँ तहँ सुर बैठे करि थाना॥ आवत देखहिं बिषय बयारी। ते हठि देहिं कपाट उघारी॥**
भाष्य

यदि बुद्धि परम चतुर हो और अपना शत्रु जानकर उन ऋद्धि, सिद्धियों की ओर नहीं देखे अर्थात्‌ दीपक के प्रति सजग रहे, दीपक को बुझने न दे और यदि माया के इस विघ्न से बुद्धि बाधित नही होती तब फिर देवता बहुत विघ्न करते हैं। ये देवता दसों इन्द्रियों के द्वारों और शरीर के नाना झरोखों अर्थात्‌ डिख़की में अपना–अपना स्थान बनाकर बैठे हैं। जब विषयरूप वायु को आते देखते हैं, तब वह हठपूर्वक किवाड़ को खोल देते हैं अर्थात्‌ इन्द्रियों को विषय भोग के लिए बाध्य कर देते हैं।

**जब सो प्रभंजन उर गृह जाई। तबहिं दीप बिग्यान बुझाई॥ ग्रंथि न छूटि मिटा सो प्रकासा। बुद्धि बिकल भइ बिषय बतासा॥**
भाष्य

जब वह वायु हृदयरूप घर में जाता है, उसी समय वह ज्ञान दीपक को बुझा देता है। ग्रन्थी भी नहीं छूटी और सुन्दर प्रकाश भी मिट गया, इस विषयरूप झंझावात्‌ से बुद्धि व्याकुल हो गई।

**इंद्रिय सुरन न ग्यान सोहाई। बिषय भोग पर प्रीति सदाई॥**

बिषय समीर बुद्धि कृत भोरी। तेहि बिधि दीपक बार बहोरी॥

भाष्य

इन्द्रियों के देवताओं को ज्ञान नहीं भाता, उन्हें सदैव विषय–भोगों पर प्रीति रहती है। विषयरूप वायु बुद्धि को बावली बना देता है। फिर मन और बुद्धि मिलकर उसी प्रकार से दीपक को जलाते हैं, जिसमें वर्षों का समय समाप्त हो जाता है।

[[९५५]]

दो०– तब फिरि जीव बिबिध बिधि, पावइ संसृति क्लेश।

**हरि माया अति दुस्तर, तरि न जाइ बिहगेश॥११८(क)॥ भा०– **इसके पश्चात्‌ फिर यह जीव अनेक प्रकार से संसार का क्लेश पाता है। हे गरुड़ जी! श्रीहरि की माया अत्यन्त दुस्तर है, वह जल्दी पार नहीं की जा सकती।

कहत कठिन समुझत कठिन, साधत कठिन बिबेक।

**होइ घुनाच्छर न्याय जौ, पुनि प्रत्यूह अनेक॥११८(ख)॥ भा०– **हे गरुड़ जी! यह विवेक अर्थात्‌ ज्ञान कहने में भी कठिन है, सुनने में भी कठिन है और साधन करने में भी कठिन है। यदि घुनाक्षर न्याय से संयोगवशात्‌ सिद्ध हो भी जाये, फिर भी इस में बहुत प्रत्यूह अर्थात्‌ विघ्न पड़ता

है। तात्पर्य यह है कि घुन नामक कीड़े को श्रीरामनाम लिखने का तो ज्ञान नहीं है, परन्तु कभी–कभी लक़डी काटते–काटते उससे श्रीरामनाम अक्षर का आकार बन जाता है, तो उसमें उसकी बुद्धिमत्ता नहीं प्रत्युत्‌ ईश्वरीय संयोग समझना चाहिये। उसी प्रकार जीव तो ज्ञान सिद्ध कर नहीं सकता और यदि कभी सिद्ध हो भी जाये तो उसे एक ईश्वरीय विधान समझना चाहिये।

ग्यान पंथ कृपान कै धारा। परत खगेश होइ नहिं बारा॥ जो निर्बिघ्न पंथ निर्बहई। सो कैवल्य परम पद लहई॥

भाष्य

हे गरुड़ जी! ज्ञान का मार्ग कृपाण की धारा है, इस पर चलकर गिरने में विलम्ब नहीं लगता। जो निर्विघ्न रूप से इस मार्ग का निर्वाह कर लेता है, वह मोक्षरूप परम पद को प्राप्त कर लेता है।

**अति दुर्लभ कैवल्य परम पद। संत पुरान निगम आगम बद॥ राम भजत सोइ मुकुति गोसाईं। अनइच्छित आवइ बरियाईं॥**
भाष्य

वह मोक्षरूप परमपद अत्यन्त दुर्लभ है, यह बात सन्त, पुराण, वेद और आगम भी कहते हैं। हे स्वामी! श्रीराम का भजन करते ही वही मुक्ति इच्छा न करने पर भी हठपूर्वक साधक के पास चली आती है।

**जिमि थल बिनु जल रहि न सकाई। कोटि भाँति कोउ करै उपाई॥ तथा मोक्ष सुख सुनु खगराई। रहि न सकइ हरि भगति बिहाई॥**
भाष्य

जिस प्रकार कोई करोड़ों प्रकार से उपाय करे, फिर भी बिना स्थल के जल नहीं रह सकता। हे पक्षीराज गरुड़ जी! सुनिये, उसी प्रकार भगवान्‌ श्रीराम की भक्ति को छोड़कर मोक्ष का सुख रह ही नहीं सकता।

**अस बिचारि हरि भगत सयाने। मुक्ति निरादरि भगति लुभाने॥ भगति करत बिनु जतन प्रयासा। संसृति मूल अबिद्दा नासा॥**
भाष्य

ऐसा विचार करके चतुर श्रीरामभक्त, मुक्ति का निरादर करके भक्ति में ही लुब्ध होते रहते हैं। भगवद्‌भक्ति की साधना करते ही, बिना उपाय और बिना श्रम के संसार की मूल कारण अविद्दा का स्वयं नाश हो जाता है।

**भोजन करिय तृपिति हित लागी। जिमि सो अशन पचवै जठरागी॥ असि हरि भगति सुगम सुखदाई। को अस मू़ढ न जाहि सोहाई॥**
भाष्य

जैसे तृप्ति अर्थात्‌ क्षुधा की निवृत्ति और शरीर को शक्ति देने के लिए भोजन किया जाता है, पर उस भोजन को जाठराग्नि स्वयं पचा डालता है, उसी प्रकार भक्ति दोनों भूमिकायें निभाती है, साधना में स्वाद की अनुभूति

[[९५६]]

कराती है, सन्तोष देती है और संसार के भोगों को पचाकर व्यक्ति को सवस्थ कर देती है। ऐसी साधनाकाल में सुगम और परिणाम काल में सुख देनेवाली श्रीराम की भक्ति कौन ऐसा मूर्ख है जिसे नहीं भाती?

दो०– सेवक सेब्य भाव बिनु, भव न तरिय उरगारि।

भजहु राम पद पंकज, अस सिद्धांत बिचारि॥११९(क)॥ जो चेतन कहँ ज़ड करइ, ज़डहि करइ चैतन्य।

अस समर्थ रघुनायकहिं, भजहिं जीव ते धन्य॥११९(ख)॥

भाष्य

हे गरुड़ जी! हे सर्पशत्रु! सुनिये, सेवक–सेव्यभाव के बिना संसार सागर को पार नहीं किया जा सकता। इस सिद्धान्त का विचार कर भगवान्‌ श्रीराम के श्रीचरणकमलों का भजन कीजिये अर्थात्‌ पीठ पर बैठाइये श्रीनारायण जी को और हृदयकमल में विराजमान कराइये भगवान्‌ श्रीराम को। जो चेतन को ज़ड कर देते हैं और ज़ड को चेतन कर देते हैं, ऐसे समर्थ, राजीवलोचन, धनुर्बाणधारी, रघुकुल के नायक, भक्त भयहारी, अवधविहारी श्रीसीताभिराम श्रीरामजी को जो जीव भजते हैं वे जीव धन्य हैं।

**कहेउँ ग्यान सिद्धांत बुझाई। सुनहु भगति मनि कै प्रभुताई॥ राम भगति चिंतामनि सुंदर। बसइ गरुड जाके उर अंतर॥ परम प्रकाश रूप दिन राती। नहिं कछु चहिय दिया घृत बाती॥**
भाष्य

हे गरुड़ जी! मैंने ज्ञान सिद्धान्त को ज्ञान दीपक रूपक के माध्यम से समझाकर कहा, अब चिन्तामणि दीपक के रूपक के माध्यम से भक्तिमणि की प्रभुता सुनिये। हे गरुड़ जी! श्रीरामभक्तिरूप सुन्दर चिन्तामणि जिसके हृदय में निरन्तर निवास करती है, वहाँ दिन–रात परम प्रकाशरूप हो जाता है। ज्ञान दीपक में एक ओर जहाँ घी, दीपक बत्ती की बिडम्बना थी, ठीक उसके विपरीत यहाँ इन तीनों की कोई आवश्यकता नहीं है, क्योंकि चिन्तामणिरूप दीपक, घी दीपक और बत्ती के बिना अनादिकाल से जगमगा रहा है और अनन्त काल तक जलता रहेगा, कभी बुझेगा ही नहीं।

**मोह दरिद्र निकट नहिं आवा। लोभ बात नहिं ताहि बुझावा॥**

**प्रबल अबिद्दा तम मिटि जाई। हारहिं सकल शलभ समुदाई॥ भा०– **मोहरूप दारिद्र उसके निकट नहीं आता, लोभरूप वायु इस भक्तिमणि दीपक को बुझा नहीं पाता। प्रबल अविद्दारूप अंधकार स्वयं मिट जाता है, सभी मदादि पतिंगों के समुदाय हार जाते हैं यहाँ आते ही नहीं।

खल कामादि निकट नहिं जाहीं। बसइ भगति जाके उर माहीं॥

**गरल सुधासम अरि हित होई। तेहि मनि बिनु सुख पाव न कोई॥ भा०– **कामादि दुय् इसके निकट ही नहीं जाते जो इसको बुझा सकें। यह भक्तिरूप मणि दीपक जिसके हृदय में निवास करता है, उसके लिए विष भी अमृत के समान हो जाता है और शत्रु भी मित्र हो जाते हैं। इस मणि के बिना कोई सुख नहीं पाता।

__ब्यापहिं मानस रोग न भारी। जिन के बश सब जीव दुखारी॥ राम भगति मनि उर बश जाके। दुख लवलेश न सपनेहुँ ताके॥

भाष्य

जिनके वश में होकर सारे जीव दु:खी हो रहे हैं, ऐसे बड़े मानस रोग उस व्यक्ति को नहीं व्यापते, जिसके हृदय में श्रीरामभक्तिमणि का निवास होता है, स्वप्न में भी उसे दु:ख का लव का लेश भी नहीं होता अर्थात्‌ सम्बन्ध भी नहीं होता।

[[९५७]]

चतुर शिरोमनि तेइ जग माहीं। जे मनि लागि सुजतन कराहीं॥ सो मनि जदपि प्रगट जग अहई। राम कृपा बिनु नहिं कोउ लहई॥ सुगम उपाय पाइबे केरे। नर हतभाग्य देहिं भटभेरे॥

भाष्य

वे ही चतुरों के शिरोमणि हैं अर्थात्‌ श्रेष्ठ चतुर हैं, जो उस मणि के लिए सुन्दर प्रयास करते हैं। यद्दपि वह मणि संसार में प्रकट है अर्थात्‌ प्रत्यक्ष प्रमाण से भी सिद्ध है, फिर भी भगवान्‌ श्रीराम की कृपा के बिना उसे कोई नहीं पाता। उसके अर्थात्‌ मणि के पाने के उपाय बड़े सुगम हैं, परन्तु भाग्य के मारे हुए मनुष्य उसे ठुकरा कर दूर कर देते हैं।

**पावन पर्बत बेद पुराना। राम कथा रुचिराकर नाना॥ मर्मी सज्जन सुमति कुदारी। ग्यान बिराग नयन उरगारी॥ भाव सहित खोजइ जो प्रानी। पाव भगति मनि सब सुख खानी॥**
भाष्य

वेद, पुराण पवित्र पर्वत हैं उनमें छिपी हुई भगवान्‌ श्रीराम की कथायें भक्तिमणि की अनेक सुन्दर खानियाँ हैं। सत्व अर्थात्‌ परमात्मा श्रीराम के जन अर्थात्‌ भक्त श्रीरामपारायण श्रीवैष्णवजन ही मर्मी हैं, जिन्हें श्रीरामभक्तिमणि का पता चल जाता है। सुन्दर बुद्धि ही कुदाल है, जो उन कथारूप खानियों को खोद–खोदकर श्रीरामभक्तिरूप मणि निकालती है। हे गरुड़ जी! ज्ञान और वैराग्य ही नेत्र हैं, जिनसे उन श्रीरामकथा खानियों में यह मणि दिख जाती है। जो प्राणी भाव के सहित खोजता है, वह सम्पूर्ण सुखों की खानि भक्तिमणि को पा जाता है।

**मोरे मन प्रभु अस बिश्वासा। राम ते अधिक राम कर दासा॥ राम सिंधु घन सज्जन धीरा। चंदन तरु हरि संत समीरा॥ सब कर फल हरि भगति सुहाई। सो बिनु संत न काहू पाई॥ अस बिचारि जोइ कर सतसंगा। राम भगति तेहि सुलभ बिहंगा॥**
भाष्य

हे प्रभु! मेरे मन में ऐसा विश्वास है कि भगवान्‌ श्रीराम के दास भगवान्‌ श्रीराम से भी अधिक हैं अर्थात्‌ बड़े हैं, क्योंकि श्रीराम को सुलभ कराने के लिए वही माध्यम हैं। भगवान्‌ श्रीराम समुद्र हैं और धीर भगवद्‌भक्त बादल हैं अर्थात्‌ जैसे समुद्र का जल साक्षात्‌ नहीं किया जा सकता उसी जल को लाकर मधुर बनाकर बादल सबको पिला देता है, उसी प्रकार सन्त, श्रीरामतत्त्व सबको सुलभ करा देते हैं। श्रीहरि, चन्दन के वृक्ष हैं और उस चन्दन की महक को जन–जन तक पहुँचाने वाले समीर अर्थात्‌ वायु हैं, सन्तजन। भगवान्‌ श्रीराम की सुहावनी भक्ति सभी साधनों का फल है और वह सन्त के बिना कोई भी नहीं पा सका, न तो पा सकता है और न ही पा सकेगा। ऐसा विचार करके जो सन्तों का संग करता है, हे गरुड़ जी! उसे श्रीरामभक्ति सुलभ हो जाती है।

**दो०– ब्रह्म पयोनिधि मंदर, ग्यान संत सुर आहिं।**

कथा सुधा मथि का़ढहिं भगति मधुरता जाहिं॥१२०(क)॥

भाष्य

वेद क्षीरसागर है, ज्ञान मन्दराचल पर्वत है, सन्तजन देवता हैं। वे सन्तरूप देवता ज्ञानरूप मन्दराचल से वेदरूप क्षीरसागर को मथकर उसमें से कथारूप अमृत निकाल लेते हैं, जिसमें भक्तिरूप मधुरता है।

**बिरति चर्म असि ग्यान मद, लोभ मोह रिपु मारि।**

जय पाइय सो हरि भगति, देखु खगेश बिचारि॥१२०(ख)॥

[[९५८]]

भाष्य

वैराग्यरूप ढाल और ज्ञानरूप तलवार से मद, लोभ, मोह आदि शत्रुओं को मारकर जिस शक्ति से साधक विजय पा लेता है, वह है भगवान्‌ श्रीराम की भक्ति। हे पक्षीराज! विचार करके देखिये अर्थात्‌ जैसे शस्त्रों के रहने पर भी उन्हें चलाने की शक्ति और कला न हो तो शस्त्र रहकर ही क्या कर लेंगे, उसी प्रकार वैराग्य और ज्ञान के प्रयोग की शक्ति केवल भगवान्‌ की भक्ति में है।

**पुनि सप्रेम बोलेउ खगराऊ। जौ कृपालु मोहि ऊपर भाऊ॥ नाथ मोहि निज सेवक जानी। सप्त प्रश्न मम कहहु बखानी॥ प्रथमहिं कहहु नाथ मतिधीरा। सब ते दुर्लभ कवन शरीरा॥ बड़ दुख कवन कवन सुख भारी। सोउ संछेपहिं कहहु बिचारी॥ संत असंत मरम तुम जानहु। तिन कर सहज स्वभाव बखानहु॥ कवन पुन्य श्रुति बिदित बिशाला। कहहु कवन अघ परम कराला॥ मानस रोग कहहु समुझाई। तुम सर्बग्य कृपा अधिकाई॥**
भाष्य

फिर पक्षियों के राजा गरुड़ जी प्रेमपूर्वक बोले, हे कृपालु भुशुण्डि जी! यदि आपका मुझ पर वात्सल्य भाव है, तो हे नाथ! मुझे अपना सेवक जानकर मेरे सात प्रश्नों के उत्तर व्याख्यान के साथ कहिये। हे स्वामी! हे धीर बुद्धिवाले भुशुण्डि जी! सर्वप्रथम यह बताइये कि, सबसे दुर्लभ कौन–सा शरीर है? कौन सबसे बड़ा दु:ख है तथा कौन सबसे बड़ा सुख है, वह भी विचार करके संक्षेप में कहिये। आप सन्तों और असन्तों का मर्म जानते हैं, अत: उनके जन्मजात स्वभाव का ब्याख्यान कीजिये। वेद में विदित सबसे बड़ा पुण्य कौन है और सबसे भयंकर पाप कौन है यह भी बताइये? आप मुझे मानस रोग भी समझाकर कहिये। आप सब कुछ जानते हैं और आप में कृपा की अधिकता भी है।

**तात सुनहु सादर अति प्रीती। मैं संछेप कहउँ यह नीती॥ नर तन सम नहिं कवनिउ देही। जीव चराचर जाचत तेही॥ नरक स्वर्ग अपबर्ग निसेनी। ग्यान बिराग भगति शुभ देनी॥ सो तनु धरि हरि भजहिं न जे नर। होहिं बिषय रत मंद मंद तर॥ काँच किरिच बदले ते लेहीं। कर ते डारि परस मनि देहीं॥**
भाष्य

भुशुण्डि जी बोले, हे तात गरुड़ जी! आप आदरपूर्वक और अत्यन्त प्रेम से सुनिये, यह नीति मैं संक्षेप में कहता हूँ। मनुष्य शरीर के समान कोई भी शरीर नहीं है। चेतन–ज़ड जीव उसी मानव शरीर को ईश्वर से माँगते रहते हैं। यह मनुष्य शरीर नरक, स्वर्ग और मोक्ष की सी़ढी है। यह ज्ञान, वैराग्य और शुभ भक्ति को देनेवाला है। उस मनुष्य शरीर को धारण करके जो अत्यन्त नीच से भी नीच प्राणी भगवान्‌ का भजन नहीं करते और निकृष्टतम विषय भोग में अनुरक्त हो जाते हैं, वे बदले में काँच का टुक़डा ले लेते हैं और हाथ में आई हुई स्पार्शमणि को अपने हाथ से फेंक देते हैं।

**नहिं दरिद्र सम दुख जग माहीं। संत मिलन सम सुख जग नाहीं॥ पर उपकार बचन मन काया। संत सहज स्वभाव खगराया॥ संत सहहिं दुख पर हित लागी। पर दुख हेतु असंत अभागी॥ भूरज तरु सम संत कृपाला। परहित निति सह बिपति बिशाला॥**
भाष्य

दारिद्र के समान संसार में दु:ख नहीं है और सन्त के मिलन के समान जगत्‌ में कुछ सुख भी नहीं है अर्थात्‌ द्रव्य दारिद्र को समाप्त नहीं कर पाता, क्योंकि दारिद्र का अर्थ है दुर्गति और उसे सन्त ही समाप्त करते हैं।

[[९५९]]

हे पक्षीराज गरुड़ जी! वचन, मन, शरीर से दूसरों का उपकार करना ही सन्तों का सहज स्वभाव है। सन्त दूसरों के हित के लिए दु:ख सहते हैं और भाग्यहीन असन्त दूसरों के दु:ख के लिए दु:ख सहते हैं। कृपालु सन्त भुर्जपत्र अर्थात्‌ भोजपत्र के समान होते हैं जो दूसरों के हित के निमित्त विशाल विपत्ति सह लेते हैं।

सन इव खल पर बंधन करई। खाल क़ढाइ बिपति सहि मरई॥ खल बिनु स्वारथ पर अपकारी। अहि मूषक इव सुनु उरगारी॥ पर संपदा बिनासि नसाहीं। जिमि ससि हति हिम उपल बिलाहीं॥ दुष्ट उदय जग आरति हेतू। जथा प्रसिद्ध अधम ग्रह केतू॥ संत उदय संतत सुखकारी। बिश्व सुखद जिमि इंदु तमारी॥

भाष्य

दुष्ट, सन की रस्सी के समान दूसरों का बन्धन करता है भले अपना खाल निकलवाकर विपत्ति सहकर मर जाता है अर्थात्‌ जैसे सन अपनी खाल निकलवाकर रस्सी बनकर दूसरों को बाँधता है, उसी प्रकार दुष्ट स्वयंकष्ट सहकर भी दूसरों को कष्ट देते हैं। हे गरुड़ जी! सुनिये, दुष्ट अपने स्वार्थ के बिना भी सर्प और चूहे की भाँति दूसरों का अपकार अर्थात्‌ हानि करता है। दुष्ट लोग दूसरों की सम्पत्ति नष्ट करके स्वयं नष्ट हो जाते हैं, जिस प्रकार खेती को समाप्त करके बर्फ और ओले स्वयं समाप्त हो जाते हैं। दुष्टों का उदय संसार के कष्ट के लिए ही होता है, जैसे सबसे अधम ग्रह केतु का उदय प्रसिद्ध ही है। सन्तों का उदय निरन्तर सुखकर होता है, जैसे चन्द्रमा और सूर्य सारे संसार को सुख देते हैं अर्थात्‌ उनका उदय दूसरों के लिए सुखप्रद होता है।

**परम धर्म श्रुति बिदित अहिंसा। पर निंदा सम अघ न गरिंसा॥ हर गुरु निंदक दादुर होई। जन्म सहस्त्र पाव तन सोई॥ द्विज निंदक बहु नरक भोग करि। जग जनमइ बायस शरीर धरि॥ सुर श्रुति निंदक जे अभिमानी। रौरव नरक परहिं ते प्रानी॥ होहिं उलूक संत निंदा रत। मोह निशा प्रिय ग्यान भानु गत॥ सब कै निंदा जे ज़ड करहीं। ते चमगादुर होइ अवतरहीं॥**
भाष्य

अहिंसा ही वेद विदित परमधर्म है और दूसरों की निन्दा के समान कोई वरिष्ठ पाप नहीं है। शिवजी और गुरु की निन्दा करने वाले मे़ढक होता है और वह एक सहस्र जन्मों में वही शरीर पाता है। ब्राह्मणों की निन्दा करनेवाला बहुत से नरकों का भोग करके संसार में कौवा का शरीर धारण करके जन्म लेता है। जो अहंकारी, देवता और वेदों की निन्दा करते हैं वे प्राणी रौरव नरक में पड़ते हैं। जो सन्तों की निन्दा में निरत रहते हैं, वे उल्लू होते हैं, जिन्हें मोहरूप रात्रि प्रिय है और जो ज्ञानरूप सूर्य से बहुत दूर हैं। जो लोग सबकी निन्दा करते हैं, वे चमगादड़ होकर अवतार लेते हैं।

**सुनहु तात अब मानस रोगा। जिन ते दुख पावहिं सब लोगा॥ मोह सकल ब्याधिन कर मूला। तिन ते पुनि उपजहिं बहु शूला॥**
भाष्य

हे तात! अब मानस रोग सुनिये, जिनसे सभी लोग दु:ख पा रहे हैं। मोह सम्पूर्ण व्याधियों का मूल है, फिर उसी से बहुत से रोग उत्पन्न होते हैं।

**काम बात कफ लोभ अपारा। क्रोध पित्त नित छाती जारा॥ प्रीति करहिं जौ तीनिउ भाई। उपजइ सन्निपात दुखदाई॥**

[[९६०]]

भाष्य

काम ही वात है, अपार लोभ कफ है, निरन्तर छाती को जलानेवाला क्रोध ही पित्त है। ये तीनों भ्राता जब प्रेम कर लेते हैं, तब दु:ख देनेवाला सन्निपात उत्पन्न हो जाता है अर्थात्‌ जैसे वात, कफ और पित्त के मिल जाने पर शारीरिक सन्निपात होता है, उसी प्रकार काम, क्रोध, लोभ के इकट्ठे होने पर मानसिक सन्निपात हो जाता है।

**बिषय मनोरथ दुर्गम नाना। ते सब शूल नाम को जाना॥ ममता दादु कंडु इरषाई। हरष बिषाद गरह बहुताई॥**
भाष्य

अनेक प्रकार के दुर्गम जो विषय सम्बन्धी मनोरथ होते हैं, वे ही बहुत से शूल अर्थात्‌ दु:ख हैं उनके नाम कौन जाने? ममता ही दादु है, ईर्ष्या ही कण्डु अर्थात्‌ खुजलाहट है, हर्ष और विशाद ही नाना ग्रहों की बहुलता है।

**पर सुख देखि जरनि सोइ छई। कुष्ट दुष्टता मन कुटिलई॥ अहंकार अति दुखद डमरुआ। दंभ कपट मद मान नेहरुआ॥**
भाष्य

दूसरों का सुख देखकर जलन, वह मन का क्षय रोग है। दुय्ता और मन की कुटिलता ये ही मन के दोनों प्रकार के श्वेत और गलित को़ढ हैं। अहंकार ही अत्यन्त दु:खद डमरूआ नाम का रोग है, जो शरीर को टे़ढा बना देता है। दम्भ, कपट, मद और मान नेहव्र्आ नाम का रोग है, जो नसों को निर्बल कर देता है।

**तृष्ना उदरबृद्धि अति भारी। त्रिबिध ईषना तरुन तिजारी॥ जुग बिधि ज्वर मत्सर अबिबेका। कहँ लगि कहौं कुरोग अनेका॥**
भाष्य

तृष्णा ही अत्यन्त–बड़ा उदर वृद्धि नाम का रोग है। तीनों प्रकार की ईषना अर्थात्‌ पुत्र, धन और लोक सम्मान की इच्छायें ही अत्यन्त तीव्र तिजारी अर्थात्‌ त्रिज्वरी नाम का रोग है, जो तीसरे दिन आता है और तीन दिन तक रहता है। मत्सर और अविवेक ये दोनों प्रकार के जीर्ण और अजीर्ण ज्वर हैं, ऐसे अनेक कुरोग हैं जिन्हें कहाँ तक कहूँ?

**दो०– एक ब्याधि बश नर मरहिं, ए असाधि बहु ब्याधि।**

**पीड़हिं संतत जीव कहँ, सो किमि लहै समाधि॥१२१(क)॥ भा०– **हे गरुड़ देव जी! एक ही मानस व्याधि के वश में होकर प्राणी मर जाता है, यह तो बहुत से ऐसे मानस रोग हैं जो असाध्य हैं। ये सब मिलकर निरन्तर जीव को पीतिड़ करते रहते हैं। फिर वह कैसे समाधि अर्थात्‌ शान्ति प्राप्त कर सकता है।

नेम धर्म आचार तप, ग्यान जग्य जप दान।

भेषज पुनि कोटिन नहिं, रोग जाहिं हरियान॥१२१(ख)॥

भाष्य

हे भगवान्‌ श्रीविष्णु के वाहन गरुड़ देव जी! फिर नियम, धर्म, आचरण, व्रत, ज्ञान, यज्ञ, जप, दान आदि करोड़ों ओषधियों से भी यह रोग नहीं जाते।

**एहि बिधि सकल जीव जग रोगी। शोक हरष भय प्रीति बियोगी॥ मानस रोग कछुक मैं गाए। हैं सब के लखि बिरलेन पाए॥**
भाष्य

इस प्रकार हर्ष, शोक, भय, प्रेम तथा वियोग से युक्त संसार के सभी जीव मानस रोगों से पीतिड़ ही हैं। मैंने कुछ मानस रोग कहे हैं, ये सबके पास हैं, पर इन्हें बहुत कम लोगों ने देखा है। बहुत से ऐसे रोग होते हैं, जो व्यक्ति को नष्ट करते रहते हैं, पर वह उन्हें पहचान नहीं पाता।

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जाने ते छीजहिं कछु पापी। नाश न पावहिं जन परितापी॥ बिषय कुपथ्य पाइ अंकुरे। मुनिहु हृदय का नर बापुरे॥

भाष्य

ये पापी मानस रोग, जानने पर कुछ क्षीण होते हैं, परन्तु प्राणियों को कष्ट देनेवाले ये नष्ट नहीं होते। ये मुनियों के भी हृदय में विषयरूप कुपथ्य पाकर अंकुरित हो जाते हैं, साधारण बेचारे मनुष्यों की क्या बात?

**राम कृपा नासहिं सब रोगा। जौ एहि भाँति बनै संयोगा॥ सदगुरु बैद बचन बिश्वासा। संजम यह न बिषय कै आसा॥**
भाष्य

भगवान्‌ श्रीराम की कृपा से सभी रोग नष्ट हो जाते हैं, यदि इस प्रकार का संयोग बन जाये, जिसमें सद्‌गुरु रूप वैद्द के वचन पर विश्वास हो और विषय की आशा न करना यही संयम हो।

**रघुपति भगति सजीवन मूरी। अनूपान श्रद्धा मति पूरी॥**

**एहि बिधि भलेहिं सो कुरोग नसाहीं। नाहिं त जतन कोटि नहिं जाहीं॥ भा०– **रघुकुल के स्वामी भगवान्‌ श्रीराम की भक्ति संजीविनी मूली अर्थात्‌ रसायनिक ओषधि है। श्रद्धा से पूर्ण बुद्धि इसका अनुपान अर्थात्‌ मुख्य ओषधि के साथ लिया जानेवाला तुलसीरस, मधु आदि अनुपान का प्रयोग है, इस प्रकार ये रोग भले ही नष्ट हो सकते हैं, नहीं तो अन्य करोड़ों उपायों से भी नहीं जा सकते।

जानिय तब मन बिरुज गोसाँई। जब उर बल बिराग अधिकाइ॥ सुमति छुधा बा़ढइ नित नई। बिषय आस दुर्बलता गई॥ बिमल ग्यान जल जब सो नहाई। तब रह राम भगति उर छाई॥

भाष्य

हे स्वामी! मन को तभी रोग से रहित जानना चाहिये, जब वैराग्यरूप हृदय का बल अधिक हो जाये। जब सात्विकबुद्धि रूपी क्षुधा निरन्तर नये रूप में ब़ढने लगे। जब विषयों की आशारूप दुर्बलता चली गई हो। जब वह निर्मल सेवक–सेव्यभाव के ज्ञानरूप अथवा स्वस्वरूप, परस्वरूप, उपायस्वरूप, फलस्वरूप और विरोधीस्वरूप के अर्थपंचकरूप ज्ञान के निर्मल जल में स्नान कर ले, तब हृदय में श्रीरामभक्ति छाई रहती है अर्थात्‌ तब वह मानस रोगों से पूर्णतया छूट जाता है।

**शिव अज शुक सनकादिक नारद। जे मुनि ब्रह्म बिचार बिशारद॥ सब कर मत खगनायक एहा। करिय राम पद पंकज नेहा॥**
भाष्य

हे गरुड़ देव जी! शिव जी, ब्रह्मा जी, शुकाचार्य, सनकादि, नारद और जो भी ब्रह्मविचार में चतुर मुनिगण हैं, उन सबका एकमात्र यही निश्चित मत है कि, भगवान्‌ श्रीराम के श्रीचरणकमलों में स्नेह करना चाहिये, अन्यत्र का स्नेह दु:खद होगा।

**श्रुति पुरान सब ग्रंथ कहाहीं। रघुपति भगति बिना सुख नाहीं॥ कमठ पीठ जामहिं बरु बारा। बंध्या सुत बरु काहुहि मारा॥ फूलहिं नभ बरु बहुबिधि फूला। जीव न लह सुख हरि प्रतिकूला॥ तृषा जाइ बरु मृगजल पाना। बरु जामहिं शश शीष बिषाना॥ अंधकार बरु रबिहिं नसावै। राम बिमुख न जीव सुख पावै॥ हिम ते अनल प्रगट बरु होई। बिमुख राम सुख पाव न कोई॥**
भाष्य

वेद, पुराण और सभी ग्रन्थ यही कहते हैं कि, रघुपति अर्थात्‌ जीवमात्र के पालक भगवान्‌ श्रीराम की भक्ति के बिना सुख है ही नहीं। भले कछुवे के पीठ पर बाल जम जायें, चाहे बन्ध्या का पुत्र किसी को मार सके, भले ही आधारहीन आकाश में बहुत प्रकार से फूल विकसित हो जायें, फिर भी श्रीहरि के प्रतिकूल रहकर जीव

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सुख नहीं पा सकता। भले ही मृगजल के पान से प्यास बुझ जाये, चाहे खरगोश के सिर पर सींग जम जाये, चाहे अन्धकार सूर्यनारायण को छिपा दे, परन्तु श्रीराम से विमुख होकर जीव सुख नहीं पा सकता। चाहे बर्फ से अग्नि प्रकट हो जाये, परन्तु श्रीराम से विमुख होकर कोई सुख नहीं पाता।

दो०– बारि मथे घृत होइ बरु, सिकता ते बरु तेल।

**बिनु हरि भजन न भव तरिय, यह सिद्धांत अपेल॥१२२(क)॥ भा०– **भले जल के मथने से घी निकल आये, चाहे बालू से तेल निकल आये, परन्तु भगवान्‌ के भजन के बिना जीव भवसागर से नहीं पार हो सकता, यह सिद्धान्त अकाट्‌य है।

मशकहिं करइ बिरंचि प्रभु, अजहिं मशक ते हीन।

**अस बिचारि तजि संशय, रामहिं भजहिं प्रबीन॥१२२(ख)॥ भा०– **प्रभु श्रीराम जी मच्छर को ब्रह्मा बना देते हैं और ब्रह्मा को मच्छर से छोटा कर देते हैं। ऐसा विचार करके संशय छोड़कर चतुर लोग भगवान्‌ श्रीराम का भजन करते हैं।

विनिश्चितं वदामि ते न अन्यथा वचांसि मे।

**हरिं नरा भजन्ति येऽतिदुस्तरं तरन्ति ते॥१२२(ग)॥ भा०– **हे गरुड़ जी! अब मैं प्रमाणिका वृत्त में विवेचनपूर्वक निश्चय करके आप से कहता हूँ, मेरे वचन अन्यथा नहीं हो सकते। जो श्रीहरि भगवान्‌ श्रीराम को भजते हैं, वे ही अत्यन्त दुस्तर संसार सागर से पार होते हैं।

कहेउँ नाथ हरि चरित अनूपा। ब्यास समास स्वमति अनुरूपा॥ श्रुति सिद्धांत इहइ उरगारी। राम भजिय सब काम बिसारी॥ प्रभु रघुपति तजि सेइय काही। मोहि से शठ पर ममता जाही॥

भाष्य

हे नाथ! मैंने कहीं विस्तार और कहीं संक्षेप में अपनी बुद्धि के अनुसार अनुपम श्रीरामचरित कहा। हे सर्प शत्रु गरुड़ जी! वेदों का यही सिद्धान्त है कि सम्पूर्ण कामनाओं को भुलकर भगवान्‌ श्रीराम का भजन करना चाहिये। रघुकुल के स्वामी और रघु शब्द के वाच्य समस्त जीवों के पालक श्रीराम जैसे प्रभु को छोड़कर और किसकी सेवा की जाये जिन्हें मुझ जैसे शठ पर भी ममता है?

**तुम बिग्यानरूप नहिं मोहा। नाथ कीन्ह मो पर अति छोहा॥ पूछेहु राम कथा अति पावनि। शुक सनकादि शंभु मन भावनि॥**
भाष्य

हे गरुड़ देव जी! आप स्वयं विज्ञान अर्थात्‌ विशिष्टाद्वैत ज्ञानरूप हैं, आप को कोई मोह नहीं है। हे नाथ! आपने मुझ पर अत्यन्त वात्सल्यपूर्ण स्नेह किया है। आपने शुकाचार्य, सनकादि, शङ्करजी के मन को भी भानेवाली अत्यन्त पवित्र श्रीरामकथा मुझसे पूछी।

**सत संगति दुर्लभ संसारा। निमिष दंड भरि एकउ बारा॥**

देखु गरुड निज हृदय बिचारी। मैं रघुबीर भजन अधिकारी॥

**शकुनाधम सब भाँति अपावन। प्रभु मोहि कीन्ह बिदित जग पावन॥ भा०– **संसार में एक भी बार एक क्षण के लिए या एक दण्डपर्यन्त की हुई सत्संगति बहुत दुर्लभ है। हे गरुड़ देव जी! अपने हृदय में विचार करके देखिये, मैं भी भगवान्‌ श्रीराम के भजन का अधिकारी हो गया। पक्षियों में सबसे अधम, सब प्रकार से अपवित्र मुझ कौवे को भी प्रभु श्रीराम ने संसार में प्रसिद्ध और पवित्र करनेवाला बना दिया।

दो०– आजु धन्य मैं धन्य अति, जद्दपि सब बिधि हीन।

निज जन जानि राम मोहि, संत समागम दीन॥१२३(क)॥

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नाथ जथामति भाषेउँ, राखेउँ नहिं कछु गोइ।

**चरित सिंधु रघुनायक, थाह कि पावइ कोइ॥१२३(ख)॥ भा०– **आज मैं धन्य हूँ, अत्यन्त धन्य हूँ, यद्दपि मैं सभी विधियों से हीन हूँ, फिर भी भगवान्‌ श्रीराम ने अपना सेवक जानकर मुझे सन्त का समागम दे दिया। हे नाथ! मैंने अपनी बुद्धि के अनुसार सब कुछ कहा। आपसे कुछ

भी छिपाकर नहीं रखा, परन्तु मैंने भी पूर्ण कथा नहीं कही, क्योंकि रघुकुल के नायक भगवान्‌ श्रीराम के चरित्रसागर की क्या कोई थाह पा सकता है?

सुमिरि राम के गुन गन नाना। पुनि पुनि हरष भुशुंडि सुजाना॥ महिमा निगम नेति करि गाई। अतुलित बल प्रताप प्रभुताई॥ शिव अज पूज्य चरन रघुराई। मो पर कृपा परम मृदुलाई॥ अस स्वभाव कहुँ सुनउँ न देखउँ। केहि खगेश रघुपति सम लेखउँ॥

भाष्य

भगवान्‌ श्रीराम के अनेक गुणगणों का स्मरण करके चतुर भुशुण्डि जी बारम्बार प्रसन्न और रोमांचित हो रहे हैं। भगवान्‌ श्रीराम की महिमा, अतुलनीय बल, प्रताप और प्रभुता को वेदों ने ‘नेति–नेति’ कहकर गाया। रघुकुल के राजा भगवान्‌ श्रीराम के श्रीचरण शिव जी और ब्रह्मा जी के भी पूज्य हैं, फिर भी वे मुझ जैसे सामान्य पक्षी पर इतनी बड़ी कृपा कर रहे हैं। यही मेरे प्रभु की परम कोमलता है। हे पक्षीराज गरुड़ देव जी! जैसे मेरे प्रभु श्रीराम का स्वभाव है, ऐसा स्वभाव न तो मैं कहीं सुनता हूँ और न कहीं देखता हूँ। मैं श्रीराम के समान किसको समझूँ।

**साधक सिद्ध बिमुक्त उदासी। कबि कोबिद विरक्त सन्यासी॥ जोगी शूर सुतापस ग्यानी। धर्म निरत पंडित बिग्यानी॥ तरहिं न बिनु सेए मम स्वामी। राम नमामि नमामि नमामि॥ शरन गए मो से अघ राशी। होहिं शुद्ध नमामि अबिनाशी॥**
भाष्य

साधक, सिद्ध, विमुक्त, उदासीन अर्थात्‌ दु:ख–सुख में तटस्थ मनीषी, वेदज्ञ, विरक्त, सन्यासी, योगी, शूरवीर, सुन्दर तपस्वी, ज्ञानी, धर्म परायण, शास्त्रों में कुशल पण्डित और संसार की विकृति अर्थात्‌ विशेषताओं का ज्ञान रखनेवाले, ऐसे विज्ञानी भी मेरे स्वामी प्रभु श्रीराम की सेवा के बिना संसार-सागर से नहीं तर सकते। ऐसे ऐश्वर्य, सौन्दर्य, माधुर्य सम्पन्न भगवान्‌ श्रीराम को मैं तुलसीदास जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति इन तीनों अवस्थाओं में नमन करता हूँ… नमन करता हूँ… नमन करता हूँ, जिनकी शरण में जाने पर मुझ जैसे पापराशि जीव भी शुद्ध हो जाते हैं, ऐसे अविनाशी तत्त्व श्रीराम! मैं आपको नमन करता हूँ।

**दो०– जासु नाम भव भेषज, हरन घोर त्रय शूल।**

सो कृपालु मोहि तो पर, सदा रहउ अनुकूल॥१२४(क)॥

भाष्य

जिन प्रभु का श्रीरामनाम भवरोग के लिए ओषधि है और अत्यन्त घोर तीनों प्रकार के दु:ख को नष्ट करनेवाला है, वे कृपालु श्रीराम मुझ भुशुण्डि पर और तुम अर्थात्‌ गरुड़ जी पर सदैव अनुकूल रहें।

**सुनि भुशुंडि के बचन शुभ, देखि राम पद नेह।**

**बोलेउ प्रेम सहित गिरा, गरुड बिगत संदेह॥१२४(ख)॥ भा०– **काकभुशुण्डि जी के शुभवचन सुनकर तथा उनका श्रीराम के श्रीचरणों में प्रेम देखकर सभी सन्देहों से रहित होकर गरुड़ देव जी प्रेमपूर्वक बोले–

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मैं कृतकृत्य भयउँ तव बानी। सुनि रघुबीर भगति रस सानी॥ राम चरन नूतन रति भई। माया जनित बिपति सब गई॥ मोह जलधि बोहित तुम भए। मो कहँ नाथ बिबिध सुख दए॥ मो पहिं होइ न प्रति उपकारा। बंदउँ तव पद बारहिं बारा॥

भाष्य

श्रीरघुकुल के वीर तथा रघु के वाच्य जीवों को विशेष प्रेरणा देनेवाले भगवान्‌ श्रीराम की भक्तिरस से सनी हुई, आपकी वाणी सुनकर मैं अर्थात्‌ गरुड़ कृतकृत्य हो गया। श्रीसीताराम के श्रीचरणों में नित्य नूतन भक्ति हो गई तथा माया से उत्पन्न सम्पूर्ण विपत्ति चली गई। हे नाथ! मोह सागर में डूबते हुए मुझ गरुड़ के लिए आप जल के जहाज हो गये। हे नाथ! आपने मुझे अनेक प्रकार के भगवत्‌ सुख दिये अर्थात्‌ रसों के तारतम्य से मुझे बारह प्रकार के सुख प्रदान किये। मुझसे आपका प्रति उपकार नहीं हो सकता। मैं आपके श्रीचरणों की बारम्बार वन्दना करता हूँ।

**विशेष– **“**रघुवीर भगति रस” **का प्रयोग करके गोस्वामी जी ने यह संकेत किया कि, इस श्रीरामचरितमानस महाकाव्य में भᐃक्तरस ही अंगीरस है शेष ग्यारह गौणरस हैं।

पूरन काम राम अनुरागी। तुम सम तात न कोउ बड़भागी॥ संत बिटप सरिता गिरि धरनी। पर हित हेतु सबन कै करनी॥ संत हृदय नवनीत समाना। कहा कबिन परि कहै न जाना॥ निज परिताप द्रवइ नवनीता। पर दुख द्रवहिं संत सुपुनीता॥ जीवन जन्म सुफल मम भयऊ। तव प्रसाद संशय सब गयऊ॥ जानेहु सदा मोहि निज किंकर। पुनि पुनि उमा कहइ बिहंगबर॥

भाष्य

हे तात! आप पूर्णकाम हैं, आप श्रीराम के अनुरागी हैं, आपके समान कोई भी बड़ा भाग्यशाली नहीं है। सन्त, वृक्ष, नदी, पर्वत, पृथ्वी इन सभी के क्रियाकलाप दूसरों के हित के लिए होते हैं। सन्त का हृदय मक्खन के समान है, इस प्रकार कवियों ने तो कहा, पर कहना नहीं जाना अर्थात्‌ उनसे कहते नहीं बना, क्योंकि मक्खन अपने ताप से पिघलता है और परमपवित्र सन्त दूसरों के दु:ख से द्रवित होते हैं। (**विशेष– **यहाँ पर व्यतिरेक अलंकार की स्पय् छटा है।) मेरा जीवन और मेरा जन्म लेना दोनों सफल हो गया। आपके प्रसाद से मेरे सम्पूर्ण संशय चले गये। हे नाथ! आप मुझे सदैव अपना सेवक समझते रहियेगा। हे पार्वती! इस प्रकार पक्षीश्रेष्ठ गव्र्ड़ बार–बार कहते रहे।

**दो०– तासु चरन सिर नाइ करि, प्रेम सहित मतिधीर।**

गयउ गरुड बैकुंठ तब, हृदय राखि रघुबीर॥१२५(क)॥

भाष्य

इस प्रकार प्रेमपूर्वक काकभुशुण्डि जी के चरणों में मस्तक नवाकर, अपने हृदय में रघुवंश के वीर भगवान्‌ श्रीराम को स्थापित करके, अनन्तर धीर बुद्धिवाले गरुड़ जी वैकुण्ठ चले गये।

**विशेष– **गरुड़ जी ने अपनी पीठ पर श्रीमन्नारायण को विराजमान करा रखा था, परन्तु उनका हृदय अब तक रिक्त था, आज उस हृदय में श्रीमन्नारयण के भी मूल कारण महानारायण, महाविष्णु भगवान्‌ श्रीराम को विराजमान कराकर गरुड़ जी धन्य–धन्य होकर वैकुण्ठ पधारे।

गिरिजा संत समागम, सम न लाभ कछु आन।

बिनु हरि कृपा न होइ सो, गावहिं बेद पुरान॥१२५(ख)॥

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भाष्य

पार्वती जी को सम्बोधित करते हुए शिवजी कहते हैं कि हे पर्वतराजपुत्री! सन्त समागम जैसा संसार में कोई दूसरा लाभ नहीं है, परन्तु वह भगवान्‌ श्रीराम जी की कृपा के बिना नहीं प्राप्त होता, ऐसा वेद और पुराण गाते हैं।

**कहेउँ परम पुनीत इतिहासा। सुनत श्रवन छूटहिं भव पासा॥ प्रनत कल्पतरु करुना पुंजा। उपजइ प्रीति राम पद कंजा॥ मन क्रम बचन जनित अघ जाई। सुनहिं जे कथा श्रवन मन लाई॥**
भाष्य

हे पार्वती जी! मैंने वह परम पवित्र इतिहास कहा है, जिसे श्रवणेन्द्रियों को लगाकर सुनने से संसार के बन्धन छूट जाते हैं और प्रणाम करने वालों के लिए कल्पवृक्ष, कव्र्णा के पुञ्जस्वरूप भगवान्‌ श्रीराम के श्रीचरणकमलों में प्रीति उत्पन्न हो जाती है। जो लोग श्रवण और मन लगाकर इस कथा को सुनते हैं या, सुनेंगे उनके मन, कर्म और वचन से उत्पन्न पाप चले जाते हैं और चले जायेंगे।

**तीर्थाटन साधन समुदाई। जोग बिराग ग्यान निपुनाई॥**

नाना कर्म धर्म ब्रत दाना। संजम दम जप तप मख नाना॥ भूत दया द्विज गुरु सेवकाई। बिद्दा बिनय बिबेक बड़ाई॥ जहँ लगि साधन बेद बखानी। सब कर फल हरि भगति भवानी॥

सो रघुनाथ भगति श्रुति गाई। राम कृपा काहू एक पाई॥

भाष्य

तीर्थाटन, साधनों का समूह, योग, वैराग्य तथा ज्ञान की कुशलता, अनेक कर्म, धर्माचरण, व्रत, दान, संयम अर्थात्‌ धारणा, ध्यान और समाधि का एकीकरण इन्द्रियों का दमन, जप, तप और अनेक यज्ञ, जीवों पर दया, ब्राह्मणों और गुरुजनों की सेवा, विद्दा, विनम्रता और विवेक की गुरुता इस प्रकार वेदों ने जहाँ तक अध्यात्मसाधनों की चर्चा की है, हे पार्वती! उन सभी साधनों का फल केवल भगवान्‌ की भक्ति है। वेद कहते हैं कि श्रीराम की भक्ति भी भगवान्‌ श्रीराम जी की कृपा से कोई एक पा जाता है।

**दो०– मुनि दुर्लभ हरि भगति नर, पावहिं बिनहिं प्रयास।**

जे यह कथा निरंतर, सुनहिं मानि बिश्वास॥१२६॥

भाष्य

जो लोग इस कथा को विश्वास मानकर निरन्तर सुनते हैं, और सुनेंगे वे मनुष्य बिना परिश्रम के ही मुनियों के लिए भी दुर्लभ श्रीरामभक्ति को पा जाते हैं और भविष्य में भी पाते रहेंगे।

**सोइ सर्बग्य गुनी सोइ ग्याता। सोइ महि मंडित पंडित दाता॥ धर्म परायन सोइ कुल त्राता। राम चरन जा कर मन राता॥ नीति निपुन सोइ परम सयाना। श्रुति सिद्धांत नीक तेहिं जाना॥ सोइ कबि कोबिद सोइ रनधीरा। जो छल छाभिड़ जइ रघुबीरा॥**
भाष्य

वही सर्वज्ञ है, वही गुणवान है, वही ज्ञाता है, वही पृथ्वी का अलंकार है, वही पण्डित है, वही दानी है,

वही धर्मपरायण है और वही अपने कुल का रक्षक है, जिसका मन भगवान्‌ श्रीराम के श्रीचरणों में अनुरक्त हो गया। वही नीति में निपुण और वही परम चतुर है, उसी ने भली प्रकार से वेद का सिद्धान्त जाना है, वही मनीषी और वेदज्ञ है, वही संसार के संघर्षात्मक युद्ध में स्थिर है, जो छल छोड़कर रघुवीर श्रीराम जी का भजन करता है।

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धन्य देश सो जहँ सुरसरी। धन्य नारि पतिब्रत अनुसरी॥ धन्य सो भूप नीति जो करई। धन्य सो द्विज निज धर्म न टरई॥ सो धन धन्य प्रथम गति जाकी। धन्य पुन्य रत मति सोइ पाकी॥ धन्य घरी सोइ जब सतसंगा। धन्य जन्म द्विज भगति अभंगा॥

दो०– सो कुल धन्य उमा सुनु, जगत पूज्य सुपुनीत।

श्रीरघुबीर परायन, जेहिं नर उपज बिनीत॥१२७॥

भाष्य

वही देश धन्य है, जहाँ देवनदी गंगाजी विराजती हैं, वह स्त्री धन्य है जो पतिव्रत धर्म का पालन करती है, वह राजा धन्य है, जो नीति का अनुसरण करता है, वह ब्राह्मण धन्य है, जो अपने धर्म से विचलित नहीं होता, वह धन धन्य है, जिसकी प्रथम गति होती है अर्थात्‌ जो दान में प्रयुक्त होता है, वही बुद्धि धन्य है, जो परिपक्व है, जो पुण्य में निरत रहती है, वह घड़ी धन्य है, जब सत्संग होता है। वह जन्म धन्य है, जिसमें ब्राह्मणों के प्रति अविनाशिनी भक्ति होती है। हे पार्वती! सुनिये, वह जगत्‌ में पवित्र, पूज्य और वही पवित्रकुल धन्य है, जिसमें श्रीसीतारामोपासक विनम्र प्राणी उत्पन्न होते हैं।

**मति अनुरूप कथा मैं भाखी। जद्दपि प्रथम गुप्त करि राखी॥ तव मन प्रीति देखि अधिकाई। तब मैं रघुपति कथा सुनाई॥**
भाष्य

हे पार्वती! मैंने अपनी बुद्धि के अनुरूप भुशुण्डि गीता नामक यह कथा कही, यद्दपि प्रथम इसे मैंने छिपाकर ही रखी थी, परन्तु तुम्हारे मन में प्रीति की अधिकता देखकर ही मैंने इस श्रीरामकथा को सुनायी।

**यह न कहिय शठहीं हठशीलहिं। जो मन लाइ न सुन हरि लीलहिं॥ कहिय न लोभिहिं क्रोधिहिं कामिहिं। जो न भजइ सचराचर स्वामिहिं॥ द्विज द्रोहिहिं न सुनाइय कबहूँ। सुरपति सरिस होइ नृप जबहूँ॥**
भाष्य

हे पार्वती! दुष्ट के सामने, हठी स्वभाववाले के सामने और जो मन लगाकर भगवान्‌ की लीला नहीं सुनता उसके सामने, यह कथा कभी नहीं कहनी चाहिये। लोभी, क्रोधी, कामी के सामने और जो चाराचर के स्वामी भगवान्‌ श्रीराम को नहीं भजता उसके समक्ष यह कथा नहीं कहनी चाहिये। ब्राह्मण द्रोही को तो यह कथा कभी नहीं सुनानी चाहिये, भले ही वह इन्द्र के समान राजा हो।

**राम कथा के तेइ अधिकारी। जिन के सतसंगति अति प्यारी॥ गुरु पद प्रीति नीति रत जेई। द्विज सेवक अधिकारी तेई॥**

ता कहँ यह बिशेष सुखदाई। जाहि प्रानप्रिय श्रीरघुराई॥

भाष्य

श्री रामकथा के वे ही अधिकारी हैं जिन्हें सत्संगति अत्यंत प्रिय है, जिन्हें गुरु के चरणों में प्रेम है, जो नीति में निष्ठा रखते हैं, जो श्रीवैष्णव ब्राह्मणसेवी हैं, वे ही इस श्रीरामकथा के अधिकारी हैं। उस व्यक्ति को यह श्रीरामचरितमानस विशेष सुखदायक होगा, जिसे श्रीसीतारामजी प्राण के समान प्रिय हैं।

**दो०– राम चरन रति जो चह, अथवा पद निर्बान।**

भाव सहित सो यह कथा, करउ श्रवन पुट पान॥१२८॥

भाष्य

जो श्रीराम के श्रीचरणों की भक्ति चाहते हैं, अथवा जो मोक्ष पद चाहता हो, वह अपने–अपने भाव के अनुसार इस कथामृत को अपने श्रवणरूप दोने में पान करे।

[[९६७]]

राम कथा गिरिजा मैं बरनी। कलि मल शमनि मनोमल हरनी॥ संसृति रोग सजीवन मूरी। राम कथा गावहिं श्रुति सूरी॥

भाष्य

हे पार्वती! इस कलिकाल मल को शान्त करनेवाली, मन के मल को हर लेनेवाली श्रीरामकथा मैंने वर्णन करके कही, वेद और विद्वान गा–गाकर कहते हैं कि यह श्रीरामकथा संसाररूप रोगों को नष्ट करने के लिए संजीविनी बूटी है।

**एहि महँ रुचिर सप्त सोपाना। रघुपति भगति केर पंथाना॥ अति हरि कृपा जाहिं पर होई। पाउँ देइ एहिं मारग सोई॥**
भाष्य

इस श्री रामकथा में भगवान्‌ श्रीराम जी की भक्ति के मार्ग स्वरूप सात सोपान हैं, जिन्हें, बालकाण्ड, अयोध्याकाण्ड, अरण्यकाण्ड, किष्किन्धाकाण्ड, सुन्दरकाण्ड, युद्धकाण्ड और उत्तरकाण्ड के नाम से जाना जाता है, जिस पर भगवान्‌ श्रीराम की अत्यन्त कृपा होती है, वही इस मार्ग पर चरण देता है, अन्यथा धर्मनिरपेक्षता के नाम पर लोग दूर चले जाते हैं।

**मन कामना सिद्धि नर पावा। जे यह कथा कपट तजि गावा॥ कहहिं सुनहिं अनुमोदन करहीं। ते गोपद इव भवनिधि तरहीं॥**
भाष्य

जो मनुष्य इस कथा को कपट छोड़कर गाते हैं, वे अपने मन:कामनाओं की सिद्धि प्राप्त कर लेते हैं। जो इसे कहते–सुनते हैं और अनुमोदन करते हैं, वे इस भवसागर को गोष्पद अर्थात्‌ गौ के खुर के समान पार कर लेते हैं।

**सुनि सब कथा हृदय अति भाई। गिरिजा बोली गिरा सुहाई॥ नाथ कृपा मम गत संदेहा। राम चरन उपजेउ नव नेहा॥**
भाष्य

सम्पूर्ण कथा सुनकर पार्वती जी के हृदय में यह बहुत भायी और पर्वतराजपुत्री पार्वती जी सुहावनी वाणी में बोलीं, हे नाथ विश्वनाथ प्रभु! आपकी कृपा से मेरा सन्देह चला गया और भगवान्‌ श्रीराम के श्रीचरणों में नवीन प्रेम उत्पन्न हो गया।

**दो०– मैं कृतकृत्य भइउँ अब, तव प्रसाद बिश्वेश।**

उपजी राम भगति दृ़ढ, बीते सकल कलेश॥१२९॥

भाष्य

हे विश्वनाथ, शशांकशेखर शिवजी! अब मैं आपके प्रसाद से कृतकृत्य हो गई। मेरे हृदय में भगवान्‌ श्रीराम की भक्ति दृ़ढता के साथ उत्पन्न हो गई। मेरे सभी क्लेश समाप्त हो गये, यह कहकर पार्वती जी चुप हो गईं।

**यह शुभ शंभु उमा संबादा। सुख संपादन शमन बिषादा॥ भव भंजन गंजन संदेहा। जन रंजन सज्जन प्र्रिय एहा॥ राम उपासक जे जग माहीं। एहि सम प्रिय तिन के कछु नाहीं॥ रघुपति कृपा जथामति गावा। मैं यह पावन चरित सुहावा॥**
भाष्य

अब याज्ञवल्क्यजी भरद्वाज जी से बोले, यह कल्याणप्रद शिव–पार्वती संवाद सुख को उत्पन्न करनेवाला, कष्टों को शान्त करनेवाला, संसार भय को नष्ट करनेवाला, सन्देह को समाप्त करनेवाला, भक्तों को आनन्द देनेवाला तथा यह सज्जनों को प्रिय है। जो संसार में श्रीसीतारामजी के उपासक हैं, उनको इस श्रीरामचरितमानस के समान कुछ भी प्रिय नहीं है। हे महर्षि भरद्वाज जी! रघुकुल के स्वामी भगवान्‌ श्रीराम की कृपा से अपनी बुद्धि के अनुसार मैंने यह सुहावना पवित्र श्रीरामचरित गाया, इतना कहकर याज्ञवल्क्यजी ने विश्राम लिया।

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**विशेष– **गोस्वामी जी ने सात विशेषणों द्वारा मानस जी के सात सोपानों के नाम का संकेत किया है। बालकाण्ड सुखसम्पादन, अयोध्याकाण्ड-विषादशमन, अरण्यकाण्ड-भवभंजन, किष्किन्धाकाण्ड-सन्देहगंजन, सुन्दरकाण्ड- जनरंजन, युद्धकाण्ड-सज्जनप्रिय और उत्तरकाण्ड-श्रीरामोपासक प्रिय।

एहिं कलिकाल न साधन दूजा। जोग जग्य जप तप ब्रत पूजा॥ रामहिं सुमिरिय गाइय रामहिं। संतत सुनिय राम गुन ग्रामहिं॥

भाष्य

अब गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं, इस कलिकाल में योग, यज्ञ, जप, तप, व्रत, पूजा आदि कोई दूसरा साधन नहीं है, इस समय तो केवल भगवान्‌ श्रीराम का स्मरण करना चाहिये, उन्हीं भगवान्‌ श्रीराम को गाना चाहिये और उन्हीं श्रीसीताराम के गुणसमूहों को निरन्तर सुनते रहना चाहिये, कलिकाल का यही मुख्य साधन है।

**जासु पतित पावन बड़ बाना। गावहिं कबि श्रुति संत पुराना॥**

**ताहि भजिय मन तजि कुटिलाई। राम भजे गति केहि नहिं पाई॥ भा०– **गोस्वामी जी सन्तों के सम्बोधन के पश्चात्‌ अपने मन को सम्बोधित करते हुए कहते हैं कि अरे मेरे मन! जिन के पतित पावनरूप बहुत–बड़े विव्र्द को, मनीषी कविजन, वेद, सन्त और पुराण गाते हैं, अपनी कुटिलता छोड़कर उन्हीं प्रभु श्रीसीताराम जी का भजन कर। भगवान्‌ श्रीराम का भजन करके किसने गति नहीं पाई।

छं०– पाई न केहि गति पतित पावन राम भजि सुनु शठ मना।

गनिका अजामिल ब्याध गीध गजादि खल तारे घना॥ आभीर जमन किरात खस श्वपचादि अति अघरूप जे। कहि नाम बारक तेपि पावन होहिं राम नमामि ते॥१॥

भाष्य

अरे दुष्ट मन! सुन, पतित पावन भगवान्‌ श्रीराम का भजन करके किसने गति नहीं पाई। गणिका, अजामिल, ब्याध, गृध्र, गज आदि अनेक दुष्टों को प्रभु ने तार दिया। आभीर, यवन, किरात, खस, श्वपच, आदि जो अत्यन्त पापरूप प्राणी हैं, वे भी एक बार ही “श्रीराम” इस प्रकार उच्चारण करके पवित्र और पवित्र करने वाले हो जाते हैं, ऐसे भगवान्‌ श्रीराम! मैं आपको प्रसन्न करने के लिए आपको ही नमन करता हूँ।

**रघुबंश भूषन चरित यह नर कहहिं सुनहिं जे गावहीं। कलि मल मनोमल धोइ बिनु श्रम राम धाम सिधावहीं॥ सत पंच चौपाई मनोहर जानि जो नर उर धरै। दारुन अबिद्दा पंच जनित बिकार श्रीरघुबर हरै॥२॥**
भाष्य

जो प्राणी रघुवंश के अलंकार भगवान्‌ श्रीराम के चरित्र को कहेंगे, सुनेंगे और गायेंगे वे कलियुग के मल और मन के मलों को भी धोकर श्रम के बिना ही श्रीराम के धाम अर्थात्‌ साकेतलोक चले जायेंगे। जो प्रत्येक चौपाई को सतपंच, निर्विवादपंच याने निर्णायक और सुन्दर जानकर हृदय में किसी एक को भी धारण कर लेंगे, अथवा, जो सतपंच अर्थात्‌ पैंतीस चौपाईयों को जो उत्तरकाण्ड के चौसठवें दोहे की सातवीं पंक्ति से उसी काण्ड अर्थात्‌ उत्तरकाण्ड के ही अड़सठवें दोहे तक कही गई है जिन्हें भुशुण्डि रामायण या मूलमानस कहा जाता है, उन्हें ही सुन्दर जानकर जो हृदय में धारण कर लेंगे उनके पंचपर्वा, अविद्दा से उत्पन्न सभी विकारों को श्रीसीतारामजी हर लेंगे।

**सुंदर सुजान कृपा निधान अनाथ पर कर प्रीति जो। सो एक राम अकाम हित निर्बानप्रद सम आन को॥**

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जाकी कृपा लवलेश ते मतिमंद तुलसीदासहूँ। पायो परम बिश्राम राम समान प्रभु नाहीं कहूँ॥३॥

भाष्य

जो अत्यन्त सुन्दर, चतुर कृपा के कोश हैं और जो अनाथों पर प्रीति करते हैं, ऐसे एकमात्र निष्काम लोगों के हितैषी उन भगवान्‌ श्रीराम के समान मोक्षदाता और कौन है, जिनके कृपा के लव–मात्र के सम्बन्ध से मुझ मतिमन्द तुलसीदास ने भी परम विश्राम प्राप्त कर लिया? ऐसे श्रीराम के समान कोई दूसरा स्वामी नहीं है।

**दो०– मो सम दीन न दीन हित, तुम समान रघुबीर।**

अस बिचारि रघुबंश मनि, हरहु बिषम भव भीर॥१३०(क)॥

भाष्य

हे रघुकुल के वीर श्रीराघव सरकार श्रीराम जी! न तो मेरे समान कोई दीन है और न ही आपके समान कोई दीनों का हितैषी। हे रघुवंश के मणि प्रभु श्रीराम! ऐसा विचार करके मेरे भयंकर संसार की पीड़ा और भीति को हर लीजिये।

**कामिहिं नारि पियारि जिमि, लोभिहिं प्रिय जिमि दाम।**

**तिमि रघुनाथ निरंतर, प्रिय लागहु मोहि राम॥१३०(ख)॥ भा०– **हे श्रीसीताभिराम श्रीराम! जिस प्रकार कामी को युवती नारी प्रिय लगती है और जिस प्रकार लोभी को धन प्रिय लगता है, उसी प्रकार आप मुझे निरन्तर प्रिय लगते रहें अर्थात्‌ कामी की भाँति आपके रूप में आसक्त रहूँ और लोभी की भाँति मैं आपके नामरूप धन का जप के माध्यम से संचय करता रहूँ।

श्लोक– यत्पूर्वं प्रभुणा कृतं सुकविना श्रीशम्भुना दुर्गमं श्रीमद्रामपदाब्जभक्तिमनिशं प्राप्त्यै तु रामायणम्‌। मत्वा तद्रघुनाथनामनिरतं स्वान्तस्तम:शान्तये भाषाबद्धमिदं चकार तुलसीदासस्तथा मानसम्‌॥१॥

भाष्य

सर्वश्रेष्ठ कवि भूतभावन शङ्करजी के द्वारा श्रीमद्‌सीतारामजी के श्रीचरणकमलों की भक्ति की प्राप्ति के लिए अज्ञानरूप रात्रि को नष्ट करनेवाला दुर्बोध जो सर्वप्रथम मानस रामायण संस्कृत भाषा में रचा गया था, उसी इस मानस रामायण को दुर्गम समझकर और श्रीरघुनाथ के श्रीरामनाम में निष्ठापूर्वक रत समझकर अपने अन्त:करण के अन्धकार की शान्ति के लिए मैं अर्थात्‌ तुलसीदास ने अवधी भाषा में बद्ध कर दिया।

**पुण्यं पापहरं सदा शिवकरं विज्ञानभक्तिप्रदं मायामोहमलापहं सुविमलं प्रेमाम्बुपूरं शुभम्‌। श्रीमद्रामचरित्रमानसमिदं भक्त्यावगाहन्ति ये**

ते संसारपतंगघोरकिरणैर्दह्यन्ति नो मानवा:॥२॥

भाष्य

परम पवित्र और पुण्यों से युक्त पाप को हरने वाले, निरन्तर कल्याणकारी, विशिष्टाद्वैत ज्ञान और भक्ति को देने वाले, माया, मोह और तत्सम्बन्धी मलों को समाप्त करने वाले, सुन्दर और निर्मल श्रीराम प्रेम रूप जल से पूर्ण, कल्याणमय इस श्रीरामचरितमानस रूप सरोवर में जो भक्तिपूर्वक अवगाहन करेंगे, अर्थात्‌ डूबकर इसके सिद्धान्तों का चिन्तन करेंगे, वे मनुष्य संसार रूप सूर्य की भयंकर किरणों से नहीं जलेंगे…नहीं जलेंगे…नहीं जलेंगे।

**\* नवाहपारायण नवाँ विश्राम \***

* मासपारायण तीसवाँ विश्राम *

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इति श्रीमद्‌गोस्वामितुलसीदासविरचिते श्रीमद्रामचरितमानसे सकलकलिकलुषविध्वंसने

श्रीरामोपासक प्रियं नाम सप्तमं सोपानं उत्तरकाण्डं सम्पूर्णम्‌। ॥श्रीसीतारामार्पणमस्तु॥

इस प्रकार श्री गोस्वामी तुलसीदास जी द्वारा विरचित्‌ कलियुग के पाप को नष्ट करने वाले श्रीरामचरितमानस में श्रीरामोपासकप्रिय नामक सप्तम सोपान पर भावार्थबोधिनी नामक व्याख्या सम्पन्न हुई और उत्तरकाण्ड भी सम्पन्न हुआ। यह श्री सीताराम जी को समर्पित हो।

श्रीरामभद्राचार्येण सोपाने सप्तमे कृत्ता। मानसे राष्ट्रभाषायां व्याख्या भावार्थबोधिनी॥

॥श्रीराघव:शन्तनोतु॥

आरती

आरती

आरती श्री रामायण जी की। कीरति कलित ललित सिय पी की॥

गावत ब्रह्मादिक मुनि नारद। बालमीकि बिग्यान बिसारद॥

शुक सनकादि शेष अरु शारद। बरनि पवनसुत कीरति नीकी॥१॥ आरति श्री रामायण जी की…॥

गावत बेद पुरान अष्टदस। छओं शास्त्र सब ग्रंथन को रस॥ मुनि जन धन संतन को सरबस। सार अंश सम्मत सब ही की॥२॥ आरति श्री रामायण जी की…॥

गावत संतत शंभु भवानी। अरु घटसंभव मुनि बिग्यानी॥ ब्यास आदि कबिबर्ज बखानी। कागभुशुंडि गरुड के ही की॥३॥ आरति श्री रामायण जी की…॥

कलिमल हरनि बिषय रस फीकी। सुभग सिंगार भगति जुबती की॥ दलनि रोग भव मूरि अमी की। तात मातु सब बिधि तुलसी की॥४॥ आरति श्री रामायण जी की…॥

गोस्वामी जी ने श्रीरामचरितमानस की आरती लिखते हुए कहा कि, यह उन श्रीरामचरितमानसरूप रामायण जी की आरती है, जो श्रीसीतापति भगवान्‌ श्रीराम जी की सुन्दर और मधुर कीर्ति है। जिसे ब्रह्मा आदि देवता, देवर्षि नारद, विज्ञान में निपुण महर्षि वाल्मीकि, शुकाचार्य, सनकादि शेष और सरस्वती जी गाते हैं, जिसकी सुन्दर कीर्ति को पवनपुत्र हनुमान जी ने वर्णन किया। जिसे चारों वेद और अठारहों पुराण गाते हैं। जो छहों दर्शनों, अर्थात्‌ सांख्य योग, वैशेषिक न्याय, मीमांसा और वेदान्त तथा अन्य करोड़ों श्रेष्ठ ग्रन्थों के रस, अर्थात्‌ सार है। जो मुनिजनों का धन और सन्तों का सर्वस्व है। जो सबका सारांश और सबका सम्मत है। जिसे निरन्तर शिवजी और पार्वती जी गाते हैं और घड़े से उत्पन्न ज्ञानी मुनिश्रेष्ठ अगस्त्य जी तथा व्यास आदि श्रेष्ठ कवियों ने जिसका व्याख्यान किया। जो काकभुशुण्डि जी और गरुड़ जी के हृदय की वस्तु है। जो कलिमल को नष्ट करनेवाली और विषय रस को फीका करनेवाली है। जो भक्तिरूप युवती का सुन्दर श्रृंगार है। जो भवरोग को नष्ट करने के लिए अमृत की बूटी है। जो मुझ तुलसीदास के लिए सब प्रकार से पिता और माता के समान हितैषिणी है। ऐसे श्री मानस रामायण जी की मैं आरती गा रहा हूँ।

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पुष्पिका

सीताराम पदारविन्द हनुमत पद हिय धरि। अवधीभाषा रीति प्रीति रस सकल एक करि॥ रामचरितमानस टीका भावार्थबोधिनी। रामभद्रआचार्य रची निज चित्त सोधिनी॥ चित्रकूट बसि हुलसि सुत पदपंकज भावांजली। करहु पाठ सादर सुजन रामचन्द्र ममता भली॥

सीतारामयश: पय: सुविमलम्‌ श्रीरामनामामृतम्‌, सोपानैर्मुनिभिर्युतं सुमतिभिर्घट्टैश्चतुर्भियुतम्‌। श्रीमच्छंकरसंभवं भवभवं प्रेमोद्भवं भावत:, श्रीमद्रामचरित्रमानसमिदं जागाह्यितां हंसकै:॥

॥श्री राघव:शंतनोतु॥ उत्तरकाण्ड समाप्त

“नमोराघवाय”

[[९७२]]

धर्मचक्रवर्ती श्रीचित्रकूटतुलसीपीठाधीश्वर कविकुलरत्न जगद्‌गुरु रामानन्दाचार्य स्वामी श्रीरामभद्राचार्यजी महाराज द्वारा विरचित श्रीरामचरितमानस जी की आरती।

आरति श्रीमन्मानस की, रामसिय कीर्ति सुधा रस की।

जो शङ्कर हिय में प्रगटानी। भुशुण्डि मन में हुलसानी। लसी मुनि याज्ञवल्क्य बानी।

श्रीतुलसीदास, कहें सहुलास, सुकवित विलास। नदी रघुनाथ विमल जस की। आरती

बिरति बर भक्ति ज्ञान दाता। सुखद पर लोक लोक त्राता। प़ढत मन मधुकर हरषाता।

सप्त सोपान, भक्ति पन्थान, सुवेद पुरान। शास्त्र इतिहास समंजस की। आरती……………….

सोरठा दोहा चौपाई।

छन्द रचना अति मन भाई। विरचि वर तुलसिदास गाई।

गायें नर नारि, होत भवपार, मिटे दु:ख भार। हरे मन कटुता कर्कश की। आरती……………………

ललित यह राम कथा गंगा। सुनत भव भीति होत भंगा। बसहु हिय हनुमत श्रीरंगा

राम को रूप, ग्रन्थ को भूप, हरै तम कूप।

जिवन धन “गिरिधर” सर्बस की। आरती………………….