०७ युद्धकाण्ड

श्रीसीतारामौ विजयेते श्रीमद्‌गोस्वामितुलसीदासकृत

श्रीरामचरितमानस

षष्ठ सोपान

मंगलाचरण श्री:

भावार्थबोधिनी टीका

__**धुन्वन्‌ धन्वं विधन्वं **

श्रितशरमुदधिं ह्रेपयन्‌नुग्रमर्चन्‌।
**__प्रार्च्छन्‌लंकां **

सपंकां प्रसभमपहरन्‌ रावणावग्रहार्तिम्‌।
__चिन्व्यंश्चम्वा कपीनां कुणपकुलरजो रंजयन्नार्षहारान्‌। सीतातापं विमुष्णन्‌ कमभिदिशतुयन्‌ कोसलान्‌ राममेघ:॥१॥

**__धुनोतु **
धूर्जटिर्धूलिं जटापादाम्बुनामुना।

**__यद्‌दृश: सत्तृषो भान्ति **
रामचन्द्रचकोरिका:॥२॥

__नत्वा श्रीतुलसीदासं षष्ठे काण्डे मयोच्यते।
**__श्री रामभद्राचार्येण **

हिन्द्दां भावार्थबोधिनी॥३॥

भाष्य

गोस्वामी तुलसीदास जी सर्वप्रथम श्रीसीताराम जी का नाम स्मरण करते हैं और फिर श्री गणेशाय नम: अर्थात्‌ श्रीगणपति को नमस्कार अथवा श्री जी के गणों के ईश्वर हनुमान जी को नमस्कार (श्रीय*: गणा श्री गणा: तेषां ईश: श्री गणेश: तस्मै श्री हनुमते नम:)*। भगवान्‌ श्रीसीताराम जी सभी देवताओं से उत्कृष्ट हैं और निरन्तर विजयश्री के साथ विराजमान हैं। गोस्वामी तुलसीदास जी द्वारा विरचित्‌ श्रीरामचरितमानस में छठे सोपान युद्धकाण्ड का प्रारम्भ होता है। इसमें भी तीन श्लोक में मंगलाचरण प्रस्तुत किया गया है। प्रथम श्लोक में स्रग्धरा वृत्त में भगवान्‌ श्रीराम की स्तुति की गई है। द्वितीय श्लोक शार्दूल–विक्रीडित्‌ वृत्त में भगवान्‌ शिव जी की स्तुति के लिए लिखा गया है। तृतीय श्लोक अनुष्टुप्‌ छन्द में है इसमें गोस्वामी जी ने शिव जी से कल्याण की कामना की है।

**रामं कामारिसेव्यं भवभयहरणं कालमत्तेभसिंहं योगीन्द्रज्ञानगम्यं गुणनिधिमजितं निर्गुणं निर्विकारम्‌। मायातीतं सुरेशं खलवधनिरतं ब्रह्मवृन्दैकदेवं** **वन्दे कन्दावदातं सरसिजनयनं देवमुर्वीशरूपम्‌॥१॥**
भाष्य

काम के शत्रु शिव जी के सेव्य अर्थात्‌ आराध्य, संसार के भय का हरण करने वाले, कालरूप मतवाले हाथी के लिए सिंहस्वरूप श्रेष्ठयोगियों के लिए ज्ञान में गम्य अर्थात्‌ शुक, सनकादि श्रेष्ठयोगी जिन्हें ज्ञान से प्राप्त कर पाते हैं, सभी कल्याण गुणगणों के महासागर, कभी भी किसी के द्वारा न पराजित होने वाले, हेय गुणों से रहित

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और जन्मादि विकारों से रहित तथा अपने भक्तों के विकारों को निरस्त करने वाले, माया से परे, देवताओं के ईश्वर, खल प्रकृतिवाले राक्षसों के वध में नित्य तत्पर, वेदज्ञ तथा तपस्या, शास्त्र और जन्म इन तीनों से सम्पन्न, स्वकर्मनिष्ठ ब्राह्मणसमूह को एकमात्र देवता माननेवाले, वर्षा के लिए उद्दत मेघ के समान श्याम शरीर, कमल नेत्र, सम्पूर्ण पृथ्वी के राजा के रूप में वर्तमान, देवाधिदेव भगवान्‌ श्रीराम को मैं वन्दन करता हूँ।

शंखेन्द्वाभमतीवसुन्दरतनुं शार्दूलचर्माम्बरं कालव्यालकपालभूषणधरं गंगाशशांकप्रियम्‌।
काशीशं कलिकल्मषौघशमनं कल्याणकल्पद्रुमं

नौमिड्‌यं गिरिजापतिं गुणनिधिं श्रीशङ्करं कामहम्‌॥२॥

भाष्य

शंख और चन्द्रमा के समान श्वेत और मधुर प्रकाशवाले तथा शंख और चन्द्रमा को भी जिनसे आभा प्राप्त हुई है, ऐसे अत्यन्त सुन्दर शरीरवाले, व्याघ्र–चर्म को वस्त्ररूप में धारण करने वाले, गले में कालकूट विष, हृदय पर सर्प और कण्ठ में कपाल की माला को आभूषण के रूप में धारण करने वाले, जिन्हें गंगा जी और द्वितीया के चन्द्रमा प्रिय हैं अर्थात्‌ प्रियता के कारण भगवती गंगा जी और द्वितीया के चन्द्रमा को मस्तक पर धारण करने वाले काशीपुरी के ईश्वर, कलियुग के दोष समूहों को नष्ट करने वाले, कल्याण के कल्पवृक्ष, स्तुति करने योग्य, श्रीपार्वती के पति, गुणों के सागर, काम को नष्ट करने वाले, भगवती श्रीसीता द्वारा अनुगृहीत शिव जी को मैं तुलसीदास नमन करता हूँ।

**विशेष– **भगवान्‌ के श्रीचरणकमल के प्रक्षालन जल से प्रकट होने के कारण गंगा जी, शिव जी को प्रिय हैं और भगवान्‌ के नाम से जुड़ने के कारण और भगवान्‌ श्रीराघव सरकार के श्रीचरण नख के समान आकारवाले होने के कारण शिव जी को द्वितीया के चन्द्रमा प्रिय हैं।

यो ददाति सतां शम्भु: कैवल्यमपि दुर्लभम्‌। खलानां दण्डकृद्दोऽसौ शङ्कर: शं तनोतु मे॥३॥

भाष्य

जो कल्याणमय शिव जी, श्रीरामनाम परायण सन्तों को अत्यन्त दुर्लभ मोक्ष भी दे देते हैं और जो खलों के लिए दण्ड का विधान करते हैं, वही भगवान्‌ शङ्कर जी मेरे लिए कल्याण का विस्तार करें।

**दो०– लव निमेष परमाणु जुग, बरष कलप शर चंड।** **भजसि न मन तेहि राम कहँ, काल जासु कोदंड॥**
भाष्य

लव निमेष, परमाणु, कृतयुग, त्रेता, द्वापर, कलियुग ये चारों युग, वर्ष और कल्प ही जिन भगवान्‌ श्रीराम के प्रचण्ड बाण हैं और अखण्डकाल जिनका धनुष है, अरे मन! ऐसे श्रीराम का तू क्यों नहीं भजन करता?

**विशेष– **काल, सखण्डकाल और अखण्डकाल की दृष्टि से अथवा विभाज्य और अभाज्य दृष्टि से दो प्रकार का है। प्रभु श्रीराम के बाण, परमाणु, लव–निमेष, वर्ष और कल्प के समान हैं और धनुष अविभाज्य और अखण्डकाल के समान है अर्थात्‌ भगवान्‌ श्रीराम सम्पूर्ण समय के प्रेरक हैं।

सो०– सिंधु बचन सुनि राम, सचिव बोलि प्रभु अस कहेउ।
अब बिलंब केहि काम, करहु सेतु उतरै कटक॥ सुनहु भानुकुल केतु, जामवंत कर जोरि कह। नाथ नाम तव सेतु, नर चढि़ भवसागर तरहिं॥

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भाष्य

समुद्र का वचन सुनकर सर्वसमर्थ श्रीराम ने मंत्रियों को बुलाकर इस प्रकार कहा, अब किस कार्य से विलम्ब किया जा रहा है? समुद्र पर सेतु बनाओ और उसी से सेना सागर पार उतर चले। जाम्बवान जी ने हाथ जोड़कर कहा, हे सूर्यकुल की पताकास्वरूप सारे संसार के स्वामी भगवान्‌ श्रीराम! सुनिये, आपके नामरूप सेतु पर च़ढकर, संसार के विषयों में न रमण करने वाले साधक–जीव भवसागर को पार कर जाते हैं।

**यह लघु जलधि तरत कति बारा। अस सुनि पुनि कह पवनकुमारा॥ प्रभु प्रताप बड़वानल भारी। शोषेउ प्रथम पयोनिधि बारी॥ तव रिपु नारि रुदन जल धारा। भरेउ बहोरि भयउ तेहिं खारा॥ सुनि असि उकुति पवनसुत केरी। हरषे कपि रघुपति तन हेरी॥**
भाष्य

तो फिर यह छोटा–सा सागर पार करने में कितनी देर लगेगी? जाम्बवान जी का ऐसा वाक्य सुनकर, फिर पवनपुत्र हनुमान जी ने कहा, हे प्रभो! आपके प्रतापरूप विशाल बड़वानल प्रथम ही सागर का जल सोख लिया है, यह सागर आपके द्वारा मारे हुए शत्रुओं की विधवा पत्नियों के रुदन अश्रुधारा से फिर भर गया, इसी कारण यह खारा हो गया अर्थात्‌ हे प्रभु! यह सागर तो आपके पराक्रम का ही सूचक है। इस बार भी आप राक्षसराज रावण का संहार करेंगे तो उसकी विधवाओं के अश्रु से दूसरा सागर बन सकता है। पवनपुत्र हनुमान जी की इस प्रकार की अतीत कालिक उक्ति सुनकर, भगवान्‌ श्रीराम के शरीर की ओर देखकर सम्पूर्ण वानर प्रसन्न हुए।

**जामवंत बोले दोउ भाई। नल नीलहिं सब कथा सुनाई॥** **राम प्रताप सुमिरि मन माहीं। करहु सेतु प्रयास कछु नाहीं॥ बोलि लिए कपि निकर बहोरी। सकल सुनहु बिनती इक मोरी॥ राम चरन पंकज उर धरहू। कौतुक एक भालु कपि करहू॥ धावहु मर्कट बिकट बरूथा। आनहु बिटप गिरिन के जूथा॥**
भाष्य

जाम्बवान जी ने दोनों भाई नल, नील को बुला लिया और उन्हें समुद्र द्वारा कही हुई सारी कथा सुना दी तथा बोले, हे नल–नील दोनों भाई! मन में प्रभु श्रीराम के प्रताप का स्मरण करके सागर में सेतु का निर्माण करो। तुम्हें कोई प्रयास नहीं करना है और न ही तुम्हें कोई प्रयास अर्थात्‌ श्रम होगा। सब कुछ प्रभु श्रीराम करेंगे।, वे तो तुम्हें निमित्त मात्र बना रहे हैं। फिर जाम्बवान जी ने वानरसमूहों को बुला लिया और कहा, सभी लोग मेरी एक प्रार्थना सुनिये, हे वानर–भालुओं! हृदय में भगवान्‌ श्रीराम के श्रीचरणकमल को धारण करो और एक कौतुक करो। हे भयंकर वानरों के समूह! दौड़ो और वृक्षों और पर्वतों के समूह को ले आओ।

**सुनि कपि भालु चले करि हूहा। जय रघुबीर प्रताप समूहा॥** **दो०– अति उतंग तरु शैलगन, लीलहिं लेहिं उठाइ।**

आनि देहिं नल नील कहँ, रचहिं ते सेतु बनाई॥१॥

भाष्य

जाम्बवान जी के वचन सुनकर, वानर–भालु “हू–हा” वानरों के शब्दों में गर्जन करके तथा रघुवीर श्रीराम के प्रताप समूहों की जय हो! ऐसा कहकर चल पड़े अथवा, जाम्बवान जी के वचन सुनकर, भगवान्‌ श्रीराम के प्रताप समूह के मूर्तिमान विग्रह वानर लोग “हू–हा” करते हुए और भगवान्‌ श्रीराम की जय कहते हुए चल पड़े वानर और भालु खेल–खेल में अत्यन्त विशाल वृक्षों तथा पर्वत समूहों को उखाड़ लेते हैं और लाकर नल–नील को दे देते हैं। उन्हीं अर्थात्‌ वृक्षों और पर्वतों से बनाकर (नल–नील) सेतु की रचना कर रहे हैं।

**शैल बिशाल आनि कपि देहीं। कंदुक इव नल नील ते लेहीं॥** [[७१८]]
भाष्य

वानर लोग ले आकर बड़े-बड़े पर्वत देते हैं, उन्हें नल और नील गेंद की भाँति ले लेते हैं और वे सेतुबन्धन में लगे हैं।

**विशेष– **वाल्मीकीय रामायण के अनुसार नल ने पाँच दिनों में बीस योजन चौड़ा और सौ योजन लम्बा सेतु बनाकर तैयार कर दिया। मानस जी के अनुसार नल–नील दोनों ने मिलकर सेतु बनाया। यह अन्तर कल्प–भेद से समाहित कर लेना चाहिये।

देखि सेतु अति सुंदर रचना। बिहँसि कृपानिधि बोले बचना॥ परम रम्य उत्तम यह धरनी। महिमा अमित जाइ नहिं बरनी॥ करिहउँ इहाँ शंभु थापना। मोरे हृदय परम कलपना॥ सुनि कपीश बहु दूत पठाए। मुनिवर सकल बोलि लै आए॥ लिंग थापि बिधिवत करि पूजा। शिव समान प्रिय मोहि न दूजा॥

भाष्य

सेतु की अत्यन्त सुन्दर रचना देखकर कृपासिन्धु भगवान्‌ श्रीराम हँसकर कोमल वचन बोले, यह द्रविड़ देश की पृथ्वी बहुत रमणीय और उत्तम है, इसकी महिमा असीम है, इसका वर्णन नहीं किया जा सकता। मैं यहाँ बारहवें रामेश्वर ज्योतिर्लिंग रूप में शिव जी की स्थापना करूँगा। मेरे हृदय में यह श्रेष्ठसंकल्प उत्पन्न हुआ है अथवा यह मेरे हृदय का पूज्यसंकल्प है। श्रुतियाँ मुझे सत्यसंकल्प कहती हैं। प्रभु का यह संकल्प सुनकर वानरराज सुग्रीव जी ने बहुत से दूत भेजे और दक्षिणापथ में रहनेवाले सभी श्रेष्ठमुनियों को बुला ले आये। भगवान्‌ श्रीराम ने बारहवें ज्योतिर्लिंग की स्थापना करके उनकी विधिपूर्वक पूजा की और बोले, शिव जी के समान मुझे और कोई दूसरा प्रिय नहीं है।

**शिव द्रोही मम दास कहावा। सो नर सपनेहुँ मोहि न पावा॥ शङ्कर बिमुख भगति चह मोरी। सो नर मू़ढ मंद मति थोरी॥**
भाष्य

जो शिव जी का द्रोही होकर मेरा दास कहलाता है, वह मनुष्य मुझे स्वप्न में भी नहीं भाता। जो शङ्कर जी से विमुख होकर मेरी भक्ति चाहता है, वह प्राणी मूर्ख, निकृष्ट और अल्पबुद्धिवाला है।

**दो०– शङ्कर प्रिय मम द्रोही, शिव द्रोही मम दास।** **ते नर करहिं कलप भरि, घोर नरक महँ बास॥२॥**
भाष्य

जो शिव जी के प्रिय और मेरे द्रोही हैं तथा जो शिव जी का द्रोह करके मेरा दास बनना चाहते हैं, वे दोनों प्रकार के प्राणी एक कल्पपर्यन्त घोर नरक में निवास करते हैं।

**जे रामेश्वर दरशन करिहैं। ते तनु तजि मम लोक सिधरिहैं॥ जो गंगाजल आनि च़ढाइहि। सो सायुज्य मुक्ति नर पाइहि॥**
भाष्य

जो मेरे द्वारा स्थापित रामेश्वर ज्योतिर्लिंग का दर्शन करेंगे, वे शरीर छोड़कर मेरे लोक चले जायेंगे। जो गंगोत्री से गंगाजल ले आकर रामेश्वरम्‌ में च़ढायेगा, वह साधक सायुज्य मुक्ति पा जायेगा।

**होइ अकाम जो छल तजि सेइहिं। भगति मोरि तेहि शङ्कर देइहिं॥ मम कृत सेतु जे दरसन करिहैं। ते बिनु श्रम भवसागर तरिहैं॥ राम बचन सब के मन भाए। मुनिवर निज निज आश्रम आए॥**
भाष्य

जो निष्काम होकर, छल छोड़कर श्रीरामेश्वरम्‌ की सेवा–पूजा करेंगे उन्हें श्रीरामेश्वर शङ्कर जी मेरी भक्ति दे देंगे। मेरे द्वारा किये हुए अर्थात्‌ बनाये हुए सेतु का जो दर्शन करेंगे वे बिना श्रम के भवसागर से पार हो जायेंगे।

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भगवान्‌ श्रीराम के वचन सभी के मन में भा गये और रामेश्वर–स्थापना के पश्चात्‌ सभी श्रेष्ठ मुनि अपने–अपने आश्रम को आ गये।

विशेष

शिवलिंग की स्थापना के पश्चात्‌ जब मुनियों ने इसका नाम पूछा तब भगवान्‌ श्रीराम जी ने कहा, ये रामेश्वर नाम से प्रसिद्ध होंगे। जब मुनियों ने अर्थ पूछा तब भगवान्‌ श्रीराम ने तत्पुरुष समास करते हुए कहा, “*रामस्य ईश्वर: रामेश्वर: *”अर्थात मुझ राम के ईश्वर को ही रामेश्वर कहते हैं। तब तक शिवलिंग से स्वर निकला नहीं रामेश्वर नाम में बहुव्रीहि समास होगा–“*राम: ईश्वर: यस्य स रामेश्वर:” *अर्थात्‌ श्रीराम जिसके ईश्वर हैं, वही मैं हूँ रामेश्वर शिव। मुनियों ने कहा, हम तो इस नाम में कर्मधारय समास करेंगे, “*राम एव ईश्वर: रामेश्वर:” *अर्थात्‌ श्रीराम ही ईश्वर यानी शिव जी हैं। श्रीराम और शिव जी में कोई अन्तर नहीं है। “रामस्तत्पुरुषं प्राह: बहुव्रीहिं महेश्वर: रामेश्वर समासे तु मुनय: कर्मधारयम्‌।”

गिरिजा रघुपति कै यह रीती। संतत करहिं प्रनत पर प्रीती॥ बाँधेउ सेतु नील नल नागर। राम कृपा जस भयउ उजागर॥ बूड़हिं आनहिं बोरहिं जेई। भए उपल बोहित सम तेई॥ महिमा यह न जलधि कइ बरनी। पाहन गुन न कपिन कइ करनी॥
दो०– श्री रघुबीर प्रताप ते, सिंधु तरे पाषान।

ते मतिमंद जे राम तजि, भजहिं जाइ प्रभु आन॥३॥

भाष्य

शिव जी पार्वती जी को सावधान करते हुए कहते हैं कि, हे पर्वतपुत्री पार्वती! रघुकुल के स्वामी भगवान्‌ श्रीराम की यह रीति अर्थात्‌ परम्परा है कि वे अपने चरणों में प्रणत्‌ अर्थात्‌ प्रणाम करने वालों पर यानी शरणागतों पर सदैव प्रीति करते हैं। श्रीराम की कृपा से चतुर नल–नील ने सेतु बाँधा, परन्तु उनका यश उजागर अर्थात्‌ प्रसिद्ध हो गया। जो पर्वत स्वयं डूब जाते हैं और दूसरों को भी डुबो देते हैं, वे ही जहाज की भाँति बन गये। यह समुद्र की कोई वरणीय महिमा नहीं है न ही पत्थरों का गुण है, और न ही नल–नील नामक वानरों का कौशल है। भगवान्‌ श्रीरघुवीर के प्रताप से बड़े-बड़े पाषाण भी तैरे, जो स्तम्भ आदि के नहीं होने पर भी सागर में नहीं डूबे। वे लोग मन्दबुद्धि हैं जो ऐसे अलौकिक, प्रभावशाली भगवान्‌ श्रीराम को छोड़कर किसी दूसरे स्वामी को जाकर भजते हैं।

विशेष

तात्पर्य यह है कि, भले ही ऋषि के आशीर्वाद से नल–नील के स्पर्श किये हुए पत्थर और वृक्ष जल में नहीं डूबे, परन्तु वे एक–दूसरे से जुड़े कैसे? क्या वहाँ कोई जोड़ने वाला पदार्थ सीमेन्ट आदि था? इसका समाधान नल–नील अथवा और किसी वानर के पास था क्या? इसका उपाय तो हनुमान जी महाराज ने सुझाया कि राम– राम कहते–कहते एक–दूसरे पत्थरों को परस्पर स्पर्श कराते जाओ यह ऐसे जुड़ेंगे की कभी अलग होंगे ही नहीं। यही यहाँ श्रीराम की कृपा थी।

बाँधि सेतु अति सुदृ़ढ बनावा। देखि कृपानिधि के मन भावा॥ चली सेन कछु बरनि न जाई। गर्जहि मर्कट भट समुदाई॥

भाष्य

सेतु बाँधकर उसे बहुत सुदृ़ढ बनाया देखकर, वह सेतु कृपासिन्धु भगवान्‌ श्रीराम के मन में बहुत अच्छा लगा और वानरी सेना चल पड़ी, उसका कुछ भी वर्णन नहीं किया जा सकता, वीर वानरों के समूह गरजने लगे।

**सेतुबंध ढिग चढि़ रघुराई। चितव कृपालु सिंधु बहुताई॥ देखन कहँ प्रभु करुना कंदा। प्रगट भए सब जलचर बृंदा॥ मकर नक्र नाना झष ब्याला। शत जोजन तन परम बिशाला॥ अइसेउ एक तिनहिं जे खाहीं। एकन के डर तेपि डेराहीं॥** [[७२०]]

प्रभुहिं बिलोकहिं टरहिं न टारे। मन हरषित सब भए सुखारे॥ तिन की ओट न देखिय बारी। मगन भए हरि रूप निहारी॥

भाष्य

कृपालु भगवान्‌ श्रीराम सेतुबन्ध पर च़ढकर निकट से समुद्र की विशालता देखने लगे। कव्र्णा के मेघ भगवान्‌ श्रीराम को देखने के लिए सभी जलचरों के समूह प्रकट हो गये अर्थात्‌ समुद्र के ऊपर आ गये। उनमें से सौ योजन शरीर वाले अत्यन्त विशाल घयिड़ाल, नक्र, मछली और सर्प थे। उनमें से ऐसे भी कुछ जन्तु थे जो, सौ योजन शरीरवाले मकर आदि को खा सकते थे। वे भी किन्हीं एक जन्तुओं के डर से डरते थे, वे प्रभु को देख रहे थे, वानरों द्वारा धक्का लगाकर हटाये जाने पर भी नहीं हट रहे थे। सभी मन में प्रसन्न और सुखी हो गये। उन जन्तुओं के ओट अर्थात्‌ व्यवधान में जल नहीं दिखाई पड़ रहा था। वे सभी श्रीहरि के रूप को देखकर मग्न हो गये।

**चला कटक प्रभु आयसु पाई। को कहि सक कपि दल बिपुलाई॥** **दो०– सेतुबंध भइ भीर अति, कपि नभ पंथ उड़ाहि।**

अपर जलचरन ऊपर, चढि़ चढि़ पारहिं जाहिं॥४॥

भाष्य

प्रभु की आज्ञा पाकर वानरी सेना चल पड़ी। वानरदल की अधिकता (बहुलता) का वर्णन कौन कर सकता है? सेतुबन्ध पर बहुत भीड़ हो गई, वानरों के लिए बीस योजन चौड़ा और सौ योजन लम्बा सेतु पर्याप्त न हुआ। तब कुछ वानर आकाश के मार्ग से उड़कर जाने लगे। जब उनके लिए आकाश मार्ग भी पूरा न पड़ा तब और वानर प्रभु के दर्शनों के लिए समुद्र के ऊपर आये हुए जलचरों के ऊपर च़ढ-च़ढकर पार जाने लगे।

**अस कौतुक बिलोकि द्वौ भाई। बिहँसि चले कृपालु रघुराई॥ सेन सहित उतरे रघुबीरा। कहि न जाइ कपि जूथप भीरा॥**
भाष्य

इस प्रकार कौतुक देखकर, दोनों भाई श्रीराम एवं लक्ष्मण जी हँसे, फिर कृपालु श्रीराम जी चल पड़े और सेना के सहित रघुवीर श्रीराम जी सागर पार उतरे। वानर यूथपतियों की भीड़ कही नहीं जाती है।

**सिंधु पार प्रभु डेरा कीन्हा। सकल कपिन कहँ आयसु दीन्हा॥ खाहु जाइ फल मूल सुहाए। सुनत भालु कपि जहँ तहँ धाए॥ सब तरु फरे राम हित लागी। ऋतु अनऋतुहिं काल गति त्यागी॥**
भाष्य

प्रभु ने सागर पार होकर निवास स्थान निश्चित किया और सभी वानर–भालुओं को आज्ञा दी, जाकर सुहावने कन्द, मूल और फल खाओ। प्रभु का आदेश सुनते ही जहाँ–तहाँ फल खाने के लिए भालु–वानर दौड़ने लगे। सभी वृक्ष, ऋतु और ऋतु के विरुद्ध समय में काल की गति को त्याग कर, भगवान्‌ श्रीराम के हित के लिए फल गये अर्थात्‌ फल से युक्त हो गये, इसी में उन्होंने प्रभु की सेवा मानी।

**खाहिं मधुर फल बिटप हलावहिं। लंका सन्मुख शिखर चलावहिं॥ जहँ कहुँ फिरत निशाचर पावहिं। घेरि सकल बहु नाच नचावहिं॥ दशननि काटि नासिका काना। कहि प्रभु सुजस देहिं तब जाना॥**
भाष्य

वानर–भालु मीठे–मीठे फल खाते और वृक्षों को हिला देते हैं। लंका के सामने पर्वतों के शिखरों को फेंकते हैं। जहाँ–तहाँ घूमते हुए यदि राक्षसों को पा जाते हैं, तो सभी घेर कर उन्हें बहुत प्रकार से नाच–नचाते हैं। दाँतों से उनके नाक, कान काटकर तथा भगवान्‌ श्रीराम का सुयश कहकर, फिर उन राक्षसों को जाने देते हैं।

**जिन कर नासा कान निपाता। तिन रावनहिं कही सब बाता॥ सुनत स्रवन बारिधि बंधाना। दश मुख बोलि उठा अकुलाना॥** [[७२१]]

दो०– बाँध्यो बननिधि नीरनिधि, जलधि सिंधु बारीश।
सत्य तोयनिधि अम्बुनिधि, उदधि पयोधि नदीश॥५॥

भा०– जिन राक्षसों के नाक–कान काटे गये थे उन्होंने रावण से सब बातें कहीं। अपने कान से समुद्र का बाँधा जाना सुनकर, रावण अकुला कर दसों मुख से समुद्र के दस नाम बोल पड़ा, अरे! बननिधि, नीरनिधि, जलधि, सिन्धु, वारीश, तोयनिधि, अम्बुनिधि, उदधि, पयोधि, नदीश अर्थात्‌ इन दस नामों से प्रसिद्ध सागर को श्रीराम ने सत्य ही एक ही साथ बाँध दिया?

व्याकुलता निज समुझि बहोरी। बिहँसि चला गृह करि भय भोरी॥
मंदोदरी सुन्यो प्रभु आयो। कौतुकहीं पाथोधि बँधायो॥

भाष्य

फिर रावण अपनी व्याकुलता समझकर, बाहर से हँसकर अपने भय को भुलाकर अपने भवन में चला गया। मंदोदरी ने यह समाचार सुन लिया कि प्रभु श्रीराम लंका पधार आये हैं और उन्होंने वानर–भालुओं के खेल–खेल में समुद्र को बाँध दिया अर्थात्‌ समुद्र पर सेतु बँधा दिया है।

**कर गहि पतिहिं भवन निज आनी। बोली परम मनोहर बानी॥ चरन नाइ सिर अंचल रोपा। सुनहु बचन पिय परिहरि कोपा॥**
भाष्य

अपने पति रावण का हाथ पक़डकर मन्दोदरी अपने भवन में लेआई फिर परमसुन्दर वाणी बोली। चरणों में मस्तक नवाकर, मन्दोदरी ने अपना आँचल फैला दिया और बोली, हे प्रेमास्पद रावण! क्रोध छोड़कर मेरे वचन सुनिये।

**नाथ बैर कीजिय ताही सों। बुधि बल सकिय जीति जाही सों॥ तुमहिं रघुपतिहिं अंतर कैसा। खलु खद्दोत दिनकरहिं जैसा॥**
भाष्य

हे नाथ! वैर उसी से करना चाहिये, जिससे बुद्धि और बल द्वारा स्वयं जीत सके अर्थात्‌ विजयी बन सकें। यह बात निश्चित है कि तुममें और रघुकुल के स्वामी श्रीराम में किस प्रकार का अन्तर है, जैसे जुगनू और खद्दोत्‌ के बीच होता है।

**अतिबल मधु कैटभ जेहिं मारे। महाबीर दितिसुत संघारे॥ जेहिं बलि बाँधि सहसभुज मारा। सोइ अवतरेउ हरन महि भारा॥**
भाष्य

जिन प्रभु श्रीराम की कृपा से वीर महान्‌ हो जाते हैं, अथवा सामान्य लोग भी महान्‌ वीर बन जाते हैं और जिन्होंने अपने अंश, भूमा विष्णु जी के माध्यम से अत्यन्त बलशाली मधु और कैटभ का संहार किया और अपने अंशावतार नृसिंह भगवान्‌ तथा वराह भगवान्‌ द्वारा दिति के पुत्र हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्ष का वध किया। जिन्होंने अपने ही अंशांश वामन जी के द्वारा दैत्यराज बलि को बाँधकर पुन: अपने निग्रहांश परशुराम जी के द्वारा सहस्र बाहुओंवाले हैहय नरेश कार्त्यवीर्य सहस्रार्जुन का वध किया, वे ही सर्वावतारी प्रभु श्रीराम भू–भार हरण करने के लिए साकेतलोक से श्रीअवध में अवतीर्ण हुए हैं।

विशेष

यहाँ सातवीं पंक्ति में प्रयुक्त महावीर शब्द भगवान्‌ श्रीराम का विशेषण है, वह भी बहुव्रीहि समास से समस्त है, “*महान्तों वीरा: येन्‌ स महावीर: ***”और हनुमान जी के लिए प्रयुक्त महावीर शब्द कर्मधारय में है, माहान्श्चाशौ वीर: इति महावीर:।

तासु बिरोध न कीजिय नाथा। काल करम जिव जाके हाथा॥
[[७२२]]

दो०– रामहिं सौंपहु जानकी, नाइ कमल पद माथ।
सुत कहँ राज समर्पि बन, जाइ भजिय रघुनाथ॥६॥

भाष्य

हे नाथ! जिनके हाथ में जीव के काल और कर्म हैं, अथवा काल, कर्म और यह जीवात्मा भी जिनके हाथ में है, ऐसे परमात्मा श्रीराम का विरोध मत कीजिये। आप प्रभु के श्रीचरणकमलों में मस्तक नवाकर श्रीराम को श्रीसीता को सौंप दीजिये। बड़े पुत्र मेघनाद को राज्य सौंपकर वन में जाकर भगवान्‌ श्रीरघुनाथ का भजन कीजिये।

**नाथ दीनदयालु रघुराई। बाघउ सनमुख गए न खाई॥** **चाहिय करन सो सब करि बीते। तुम सुर असुर चराचर जीते॥**
भाष्य

हे नाथ! रघुकुल के राजा भगवान्‌ श्रीराम तो दीनों पर दया करने वाले हैं, वह शरण में जाने पर आप को तो क्षमा करेंगे ही। सामान्य बाघ भी सन्मुख जाने पर अर्थात्‌ आँख से आँख मिलाने पर नहीं खाता तो भगवान्‌ श्रीराम सन्मुख होने पर क्यों दण्ड देंगे? जो करना चाहिये था आपने वह सब कुछ करके समाप्त कर लिया है और अपने शासनकाल में आपने देवता, दैत्य, चर, अचर सभी प्राणियों को जीता है।

**बेद कहहिं असि नीति दशानन। चौथेपन जाइहि नृप कानन॥ तासु भजन कीजिय तहँ भर्ता। जो कर्ता पालक संहर्ता॥**
भाष्य

हे दस मुखों वाले रावण! वेद ऐसी नीति कहते हैं कि राजा को चौथेपन अर्थात्‌ वृद्धावस्था में वन चले जाना चाहिये। हे स्वामी! वन में उनका भजन करना चाहिये जो जगत के रचयिता, पालक और संहारकर्त्ता हैं अर्थात्‌ जगत जन्मादि हेतु परब्रह्म परमात्मा का भजन करना चाहिये।

**सोइ रघुबीर प्रनत अनुरागी। भजहु नाथ ममता मद त्यागी॥ मुनिवर जतन करहिं जेहि लागी। भूप राज तजि होहिं बिरागी॥ सोइ कोसलाधीश रघुराया। आयउ करन तोहि पर दाया॥ जौ पिय मानहु मोर सिखावन। सुजस होइ तिहुँ पुर अति पावन॥**
भाष्य

हे नाथ! उन्हीं प्रणतों के अनुरागी रघुकुल के वीर श्रीराम को ममता और मद छोड़कर भजिये, जिनके लिए मुनिजन यत्न करते हैं और राजा राज्य छोड़कर वैराग्यवान बन जाते हैं। वे ही सम्पूर्ण जीवों के सर्वस्व रघुराज कोसल जनपद के स्वामी श्रीराम आप पर दया करने के लिए लंका पधार आये हैं। हे प्रिय! यदि आप मेरी शिक्षा मान लें तो आपका तीनों लोकों में अत्यन्त पवित्र यश हो जायेगा।

**दो०– अस कहि लोचन बारि भरि, गहि पद कंपित गात।** **नाथ भजहु रघुनाथ पद, मम न जाइ अहिवात॥७॥**
भाष्य

इतना कहकर नेत्रों में जल भरकर काँपते हुए शरीरवाली मन्दोदरी ने रावण के चरण पक़ड लिए और बोली, हे नाथ! श्रीरघुनाथ के श्रीचरणों का भजन कीजिये, जिससे मेरा अहिवात अर्थात्‌ अविधवात्व यानी सुहाग

नहीं जाये।

तब रावन मयसुता उठाई। कहै लाग खल निज प्रभुताई॥ सुनु तैं प्रिया बृथा भय माना। जग जोधा को मोहि समाना॥ बरुन कुबेर पवन जम काला। भुज बल जितेउँ सकल दिगपाला॥ देव दनुज नर सब बश मोरे। कवन हेतु उपजा भय तोरे॥
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नाना बिधि तेहि कहेसि बुझाई। सभा बहोरि बैठ सो जाई॥
मंदोदरी हृदय अस जाना। काल बिबश उपजा अभिमाना॥

भाष्य

तब दुष्ट रावण मय दानव की पुत्री मन्दोदरी को उठाकर अपनी प्रभुता कहने लगा, हे प्रिया! सुनो, तूने व्यर्थ ही भय मान लिया, संसार में मेरे समान योद्धा कौन है? मैंने अपनी भुजाओं के बल से वरुण अर्थात्‌ जल के देवता, कुबेर अर्थात्‌ देवताओं के धनाध्यक्ष, पवन अर्थात्‌ वायु देवता, यम, काल तथा अन्य सभी दिग्पालों को भी जीता। सभी देवता, दैत्य और मनुष्य मेरे वश में हैं। तुम्हारे मन में किस कारण से भय उत्पन्न हो गया? इस प्रकार से रावण ने मन्दोदरी को अनेक प्रकार से समझाकर कहा, फिर वह सभा में जाकर बैठ गया। मन्दोदरी ने अपने हृदय में ऐसा जान लिया कि रावण काल के वश में है, इसी कारण इसके मन में अभिमान उत्पन्न हो गया है।

**सभा जाइ मंत्रिन तेहिं बूझा। करब कवन बिधि रिपु सन जूझा॥ कहहिं सचिव सुनु निशिचर नाहा। बार बार प्रभु पूँछहु काहा॥ कहहु कवन भय करिय बिचारा। नर कपि भालु अहार हमारा॥**
भाष्य

सभा में जाकर रावण ने अपने मंत्रियों से पूछा, अब हम लोग शत्रु से किस प्रकार युद्ध करेंगे, क्योंकि अब तो वानरी सेना सागर के इस पार आ गई है? मंत्री कहने लगे, हे राक्षसराज! सुनिये, हे प्रभु! आप बार–बार क्यों पूछ रहे हैं? बतायें अभी कौन–सा भय आ पड़ा है, जिस पर विचार किया जाये? मनुष्य वानर और भालु तो हमारे आहार ही हैं।

**दो०– सब के बचन स्रवन सुनि, कह प्रहस्त कर जोरि।** **नीति बिरोध न करिय प्रभु, मंत्रिन मति अति थोरि॥८॥**
भाष्य

सभी मंत्रियों के वचनों को अपने कानों से सुनकर प्रहस्त ने अपने हाथ जोड़कर कहा, हे स्वामी! नीति का विरोध मत कीजिये, आपके मंत्रियों की बुद्धि बहुत थोड़ी अर्थात्‌ अल्प है।

**कहहिं सचिव सब ठकुरसोहाती। नाथ न पूर आव एहि भाँती॥ बारिधि नाघि एक कपि आवा। तासु चरित मन महँ सब गावा॥**
भाष्य

ये दुष्ट मंत्री ठकुरसोहाति अर्थात्‌ स्वामी को प्रिय लगने वाली किन्तु सत्य से बहुत दूर चाटुकारिता की बात कहते हैं, हे नाथ! इस प्रकार से तो पूरा नहीं पड़ेगा। समुद्र लाँघकर एक वानर आया था, जिसका चरित्र सभी ने मन में गाया अर्थात्‌ हनुमान जी के चरित्र को आपके सहित सबने तो मन में प्रशंसा की ही।

**छुधा न रही तुमहिं तब काहू। जारत नगर कस न धरि खाहू॥ सुनत नीक आगे दुख पावा। सचिवन अस मत प्रभुहिं सुनावा॥**
भाष्य

उस समय तुम में से किसी को क्या भूख नहीं थी? लंका जलाते समय उस वानर को पक़डकर क्यों नहीं खा गये? जो सुनने में अच्छा लगता है, पर परिणाम में उससे दु:ख ही पाया जाता है आपके मंत्रियों ने राक्षसों के स्वामी आप रावण को उसी प्रकार का मत सुनाया है।

__जेहि बारीश बँधायउ हेला। उतरेउ सेन समेत सुबेला॥सो भनु मनुज खाब हम भाई। बचन कहहिं सब गाल फुलाई॥

भाष्य

जिन प्रभु ने खेल–खेल में सागर को बँधा दिया और सेना के सहित सुबेल पर्वत पर उतर आये, उन्हीं परमपराक्रमी प्रभु श्रीराम को आप मनुष्य कहते हैं और उन्हीं को सभी लोग गाल फुलाकर कहते हैं कि हम खा

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जायेंगें अथवा, हे भाइयों! बताओ क्या वे मनुष्य हैं, जिनको तुम कहते हो कि हम खा जायेंगे? वस्तुत: सब लोग गाल फुलाकर निरर्थक बात कहते हैं।

तात बचन मम सुनु अति आदर। जनि मन गुनहु मोहि करि कादर॥ प्रिय बानी जे सुनहिं जे कहहीं। ऐसे नर निकाय जग अहहीं॥ बचन परम हित सुनत कठोरे। सुनहिं जे कहहिं ते नर प्रभु थोरे॥ प्रथम बसीठि पठउ सुनु नीती। सीता देइ करहु पुनि प्रीती॥

भाष्य

हे तात! अत्यन्त आदर के साथ मेरे वचन सुनिये, मुझे अपने मन में कायर करके मत समझियेगा। जो प्रियवाणी सुनते हैं और कहते हैं, ऐसे मनुष्यों के समूह संसार में बहुत हैं, किन्तु हे प्रभु! सुनने में कठोर परन्तु परिणाम में अत्यन्त हितकारी वचन जो लोग कहते और सुनते हैं, ऐसे लोग संसार में बहुत थोड़े हैं। आप नीति सुनिये, प्रथम श्रीराम के पास सन्धि का प्रस्ताव लेकर दूत भेज दीजिये और उन्हें श्रीसीता को सौंप कर प्रीति अर्थात्‌ मैत्री कर लीजिये।

**दो०– नारि पाइ फिरि जाहिं जौ, तौ न ब़ढाइय रारि।** **नाहिं त सन्मुख समर महि, तात करिय हठि मारि॥९॥**
भाष्य

यदि पत्नी को पाकर वे लौट जायें तो कलह आगे से न ब़ढाया जाये, नहीं तो हे तात! रणभूमि में सामने से हठपूर्वक उन पर शस्त्र का प्रहार किया जाये।

**यह मत जौ मानहु प्रभु मोरा। उभय प्रकार सुजस जग तोरा॥ सुत सन कह दशकंठ रिसाई। असि मति शठ केहिं तोहि सिखाई॥** **अबहीं ते उर संशय होई। बेनुमूल सुत भयहु घमोई॥**
भाष्य

हे स्वामी! यदि आप मेरा यह मत मान लें तो जगत में आपका दोनों प्रकार से सुयश होगा। रावण ने पुत्र से क्रुद्ध होकर कहा, अरे शठ! ऐसी बुद्धि तुझे किसने सिखायी? अभी से हृदय में संशय हो रहा है अर्थात्‌ युद्धारम्भ से पहले ही सन्धि की बात कर रहा है। हे बेटे! तू तो बाँस की ज़ड में घमोई नामक रोग उत्पन्न हो गया अथवा, घमोई नामक वह घास, अथवा घमोई नामक बाँस का एक कल्ला बनकर उत्पन्न हुआ जो बाँस को ब़ढने से रोक देता है, उसी प्रकार तू मेरे वंश की उन्नति रोक रहा है।

**सुनि पितु गिरा परुष अति घोरा। चला भवन कहि बचन कठोरा॥ हित मत तोहि न लागत कैसे। काल बिबश कहँ भेषज जैसे॥**
भाष्य

पिता रावण की क्रोध से भयंकर वाणी सुनकर कठोर वचन कहता हुआ प्रहस्त अपने भवन के लिए चल पड़ा। वह बोला, हे रावण! तुझे हितैषी मंत्रणा किस प्रकार प्रिय नहीं लग रही है, जैसे काल के विवश मरणासन्न व्यक्ति को औषधि नहीं अच्छी लगती।

**संध्या समय जानि दशशीशा। भवन चलेउ निरखत भुज बीसा॥ लंका शिखर उपर आगारा। अति बिचित्र तहँ होइ अखारा॥ बैठ जाइ तेहिं मंदिर रावन। लागे किन्नर गुन गन गावन॥ बाजहिं ताल पखाउज बीना। नृत्य करहिं अप्सरा प्रबीना॥**
भाष्य

सायंकाल का समय जानकर अपनी बीस भुजाओं को देखते हुए दस सिरोंवाला रावण राजभवन को चल पड़ा। लंका के कनक शिखर के ऊपर एक अत्यन्त विचित्र भवन था। वहाँ नाच–गान का अखाड़ा अर्थात्‌ जमघट

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हुआ करता था, रावण जाकर उसी भवन में बैठा। किन्नर उसके गुणसमूह गाने लगे, करताल, मृदंग और वीणा बजने लगी। नृत्य में कुशल स्वर्ग की अप्सरायें अर्थात्‌ नृत्यांगनायें नृत्य करने लगीं।

दो०– सुनासीर शत सरिस सो, संतत करइ बिलास।
परम प्रबल रिपु शीष पर, तदपि न मन कछु त्रास॥१०॥

भाष्य

असंख्य इन्द्रों के समान रावण निरन्तर विलास करता था, यद्दपि रावण के सिर पर श्रीरामरूप, रावण से अनेक गुना प्रबल शत्रु उपस्थित है, फिर भी उसके मन में कुछ भी डर नहीं है।

विशेष

(क) **संस्कृत में नासीर शब्द का आगे चलने वाला सेवक अर्थ होता है। इन्द्र के पास अग्रगामी देवता बड़े सुन्दर हैं, इसलिए उन्हें सुनासीर कहा जाता है– “शोभना नासीरा: अग्रगामिन: सेवका: यस्य स सुनासीर:।”

**(ख) **संस्कृत में वायु को सुन तथा सूर्यनारायण को सीर कहते हैं तथा वायु और सूर्य इन्द्र के सहायक हैं, इसलिए सुन शब्द के आकार को “शरदीनाञ्च” (पा०अ०, ६.३.१२०) सूत्र से दीर्घ हुआ है, “सुन: वायु: सीर: सूर्य: तौस्त: अस्य इति सुनासीर:।”

इहाँ सुबेल शैल रघुबीरा। उतरे सेन सहित अति भीरा॥ शैल शृंग एक सुंदर देखी। अति उतंग सम शुभ्र बिशेषी॥ तहँ तरु किसलय सुमन सुहाए। लछिमन रचि निज हाथ डसाए॥ तेहि पर रुचिर मृदुल मृगछाला। तेहिं आसन आसीन कृपाला॥

भाष्य

यहाँ सुबेल पर्वत पर रघुवीर श्रीराम सेना के सहित उतरे, उस समय बहुत भीड़ हो रही थी। एक सुन्दर अत्यन्त विशाल समतल पर्वत का शिखर देखकर वहीं पर वृक्षों के पल्लव और सुहावने पुष्पों को रचकर लक्ष्मण जी ने अपने हाथों से विस्तर लगाया। उस पर कोमल और सुन्दर मारीच मृग की छाल बिछा दी। उसी आसन पर कृपालु श्रीराम शयन की मुद्रा में आसीन हुए।

विशेष

यहाँ ध्यातव्य है कि श्रीलक्ष्मण जी ने सुबेल पर्वत पर प्रभु की शय्या के क्रम में जिस मृगचर्म का प्रयोग किया था, वह मारीच की ही मृगछाला थी। जैसे नल कूबर और मणिग्रीव के देव शरीर को प्राप्त करने पर भी यमलार्जुन वृक्ष यथावत थे, ठीक उसी प्रकार मरीच के असुर शरीर प्रकट कर लेने पर भी कनक मृगचर्म यथावत था। उसे श्री लक्ष्मणजी ने भगवान्‌ श्रीराम से लेकर सेतुबन्ध लीला तक श्रीरामजी की दृष्टि से ओझल किये रखा और युद्ध की पूर्व संध्या पर प्रभु श्रीराम में कनक मृग के स्मरण के व्यास से वीररस को उद्दीपित करने के लिए प्रभु की शय्या पर विछा दिया। गीतावली अरण्यकाण्ड में यह संकेत भी है- “हेम को हिरन हनि फिरे रघुकुलमनि, लखन ललित कर लिए मृग छाल॥” (तु०गी० ३.९.१) और श्रीमानस में श्रीगोस्वामी जी ने दोनों स्थानों पर एक ही शब्द को प्रयोग करके यही संकेत किया है यथा- “सीता परम रुचिर मृग देखा॥” मानस, ३.२६.४ पुनः “तेहिपर रुचिर मृदुल मृग छाला॥” मानस, ६.१२.४॥ अभिप्राय यही है कि दोनों स्थानों पर मृगचर्म की सुन्दरता वही है, परन्तु मरने के पश्चात्‌ निष्प्राण होने से मृदुलता अधिक आ गयी है।

प्रभु कृत शीष कपीश उछंगा। बाम दहिन दिशि चाप निषंगा॥ दुहुँ कर कमल सुधारत बाना। कह लंकेश मंत्र लगि काना॥ बड़भागी अंगद हनुमाना। चरन कमल चाँपत बिधि नाना॥ प्रभु पाछे लछिमन बीरासन। कटि निषंग कर बान शरासन॥

भाष्य

प्रभु श्रीराम ने वानरराज सुग्रीव जी की गोद में अपना सिर कर रखा है, भगवान्‌ के बायीं ओर धनुष और दाहिनी ओर तरकस विराजमान है। प्रभु दोनों करकमलों से तरकस के बाण सुधार रहे हैं और भगवान्‌ के कान के

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पास जाकर लंकापति विभीषण जी गोपनीय मंत्रणा की बात कह रहे हैं। परमसौभाग्यशाली अंगद जी और हनुमान जी महाराज नाना प्रकार से भगवान्‌ श्रीराम के श्रीचरणकमलों को प्रेम से दबा रहे हैं अर्थात्‌ सेवा कर रहे हैं। प्रभु श्रीराम के पीछे लक्ष्मण जी कटि प्रदेश में तरकस और हाथ में धनुष–बाण लेकर वीरासन पर बैठे हैं।

दो०– एहि बिधि करुना रूप गुन, धाम राम आसीन।
धन्य ते नर एहिं ध्यान जे, रहत सदा लयलीन॥११(क)॥

भाष्य

इस प्रकार करुणारूप और गुणों के निवास स्थान श्रीरामशयन की मुद्रा में आसीन हैं। वे साधक धन्य हैं, जो इस ध्यान में अपनी चित्तवृत्तियों को लगाकर लीन रहते हैं।

**पूरब दिशा बिलोकि प्रभु, देखा उदित मयंक।** **कहत सबहिं देखहु शशिहिं, मृगपति सरिस अशंक॥११\(ख\)॥**
भाष्य

पूर्व दिशा की ओर देखकर भगवान्‌ श्रीराम ने उदित चन्द्रमा को देखा और सबसे कहने लगे, सिंह के समान नि:शंक चन्द्रमा को देखो।

**पूरब दिशि गिरिगुहा निवासी। परम प्रताप तेज बल रासी॥ मत्त नाग तम कुंभ बिदारी। शशि केसरी गगन बन चारी॥**
भाष्य

पूर्व दिशारूपी पर्वत की गुफा में निवास करने वाले श्रेष्ठ प्रताप, तेज और बल की राशिरूप, अंधकाररूप मतवाले हाथी के गण्डस्थल को विदीर्ण करने वाला यह चन्द्रमा रूप सिंह आकाशरूप वन में भ्रमण कर रहा है।

**बिथुरे नभ मुकुताहल तारा। निशि सुंदरी केर श्रृंगारा॥** **कह प्रभु शशि महँ मेचकताई। कहहु काह निज निज मति भाई॥**
भाष्य

आकाश में मोतियों के समान तारे बिखरे हैं, मानो यह निशारूपी सुन्दरी के मस्तक पर विराजमान मोती के श्रृंगार हैं। प्रभु श्रीराम ने कहा, चन्द्रमा में मेचकता अर्थात्‌ श्यामता क्या है? हे भाई! सभी लोग अपनी–अपनी बुद्धि के अनुसार कहिये।

**कह सुग्रीव सुनहु रघुराई। शशि महँ प्रगट भूमि कै झाँई॥** **मारेउ राहु शशिहिं कह कोई। उर महँ परी श्यामता सोई॥**

कोउ कह जब बिधि रति मुख कीन्हा। सार भाग शशि कर हरि लीन्हा॥ छिद्र सो प्रगट इंदु उर माहीं। तेहि मग देखिय नभ परिछाहीं॥

भाष्य

सुग्रीव जी ने कहा, हे रघुनाथ जी! सुनिये, चन्द्रमा में काली पृथ्वी की छाया प्रकट दिख रही है। किसी ने अर्थात्‌ विभीषण जी ने कहा, चन्द्रमा को राहु ने मारा है, वही श्यामता चन्द्रमा में दिखायी पड़ रही है। इसके पश्चात्‌ किसी ने अर्थात्‌ अंगद जी ने कहा, जब विधाता ने रति का मुख बनाया तब चन्द्रमा का सार भाग उससे ले लिया, वही छिद्र चन्द्रमा की छाती में प्रकट दिख रहा है और उसी के मार्ग से इसमें आकाश की काली परछायीं दिखती है।

**प्रभु कह गरल बंधु शशि केरा। अति प्रिय निज उर दीन्ह बसेरा॥** **बिष संजुत कर निकर पसारी। जारत बिरहवंत नर नारी॥**
भाष्य

प्रभु श्रीराम जी ने कहा कि विष चन्द्रमा का अत्यन्त प्रिय भाई है, इसने उसको अपने हृदय में निवास दिया है। चन्द्रमा अपनी विष से भरी हुई किरणों को फैलाकर विरही नर–नारियों को जलाता रहता है।

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**दो०– कह मारुतसुत सुनहु प्रभु, शशि तुम्हार प्रिय दास।**

**तव मूरति बिधु उर बसति, सोइ श्यामता भास॥१२(क)॥ भा०– **अन्त में पवनपुत्र हनुमान जी ने कहा, हे प्रभु! सुनिये, चन्द्रमा आपका प्रिय दास है, आपकी श्यामल मूर्ति ही चन्द्रमा के हृदय में निवास करती है, वही यहाँ श्यामता प्रतीत हो रही है।

विशेष

वस्तुत: चन्द्रमा की कालिमा भगवान्‌ श्रीराम और वानर–भालुओं के बीच एक प्रहेलिका बन गयी। इसलिए क्रमश: सुग्रीव जी, विभीषण जी तथा अंगद जी ने अपने–अपने प्रति घटाया। भगवान्‌ श्रीराम ने भाई भरत के प्रति और हनुमान जी महाराज ने श्रीरामभक्त, भरत जी के प्रति। प्रभु ने कहा, जैसे विष को चन्द्रमा ने अपने हृदय में निवास दिया है, उसी प्रकार भरत ने मुझको अपने हृदय में निवास कराया। मैं विष के समान तीखा हूँ और भरत चन्द्रमा के समान मधुर हैं, परन्तु हनुमान जी ने चन्द्रमा और श्रीभरत के सम्बन्ध को दूसरे प्रकार से व्याख्यायित किया। हनुमान जी ने कहा, प्रभु चन्द्रमा आपका प्रिय दास है, चन्द्रमा में आपकी मूर्ति की श्यामता भासित हो रही है। अर्थात्‌ श्रीभरत चन्द्र तो हैं, परन्तु उन्होंने आपको विष―प में नहीं प्रत्युत परम आराध्य परमेश्वर के ―प में अपने हृदय में विराजमान कराया है।

पवन तनय के बचन सुनि, बिहँसे राम सुजान।
दच्छिन दिशि अवलोकि प्रभु, बोले कृपानिधान॥१२(ख)॥

भाष्य

पवनपुत्र हनुमान जी महाराज के वचन सुनकर, चतुर श्रीराम जी हँसे। फिर दक्षिण दिशा की ओर देखकर कृपानिधान श्रीराम विभीषण जी से बोले–

**देखु बिभीषन दच्छिन आसा। घन घमंड दामिनी बिलासा॥ मधुर मधुर गरजइ घन घोरा। होइ वृष्टि जनु उपल कठोरा॥**
भाष्य

हे विभीषण! देखो, दक्षिण दिशा में मेघों की घटा और बिजली का विलास अर्थात्‌ बार–बार चमकती हुई बिजली की शोभा अपूर्व है अर्थात्‌ दक्षिण दिशा में मेघों की घटा और बिजली की चमक हो रही है। मधुर–मधुर घोर बादल गरज रहे हैं, मानो कठोर ओले की वृष्टि होना चाहती है।

**कहत बिभीषन सुनहु कृपाला। होइ न ततिड़ न बारिद माला॥ लंका शिखर उपर आगारा। तहँ दशकंधर देख अखारा॥ छत्र मेघडंबर सिर धारी। सोइ जनु जलद घटा अति कारी॥ मंदोदरी स्रवन ताटंका। सोइ प्रभु जनु दामिनी दमंका॥ बाजहिं ताल मृदंग अनूपा। सोइ रव सरिस सुनहु सुरभूपा॥ प्रभु मुसुकान समुझि अभिमाना। चाप च़ढाइ बान संधाना॥**
भाष्य

विभीषण जी कहने लगे, हे कृपालु! सुनिये, यह बिजली और मेघ की घटा नहीं हो सकती। लंका के शिखर के ऊपर एक भवन है, वहाँ रावण अखाड़ा देखता है। रावण ने जो सिर पर मेघडंबर छत्र धारण किया है, वही बादल की काली घटा जैसी दिख रही है। मन्दोदरी के दोनों श्रवणों के कुण्डल चमक रहे हैं, वही मानो बिजली चमक रही है। हे सुरभूप! अर्थात्‌ देवताओं में श्रेष्ठ महाविष्णु जी! जो अनुपम करताल और मृदंग आदि बाजे बज रहे हैं, आप वही मधुर मेघ–गर्जना सुन रहे हैं। रावण का अभिमान समझकर प्रभु मुस्कराये और धनुष पर प्रत्यंचा च़ढा कर एक बाण का सन्धान किया।

[[७२८]]

**दो०– छत्र मुकुट ताटंक तब, हते एकही बान।**

सब के देखत महि परे, मरम न कोऊ जान॥१३(क)॥

भाष्य

तब भगवान्‌ श्रीराम ने रावण के छत्र, उसके दस मुकुट और दो मन्दोदरी के कुण्डल, इन सभी तेरहों को एक ही बाण से काट दिया। वे सबके देखते–देखते पृथ्वी पर पड़ गये किसी ने कोई मर्म नहीं जाना।

**अस कौतुक करि राम शर, प्रबिशेउ आइ निषंग।** **रावन सभा सशंक सब, देखि महा रसभंग॥१३\(ख\)॥**
भाष्य

इस प्रकार का कौतुक करके भगवान्‌ श्रीराम का बाण तरकस में आकर प्रविष्ट हो गया। यह महारसभंग अर्थात अनर्थ देखकर, सम्पूर्ण रावण की सभा सशंक अर्थात्‌ आशंकाओं से भर गई।

विशेष

भगवान्‌ श्रीराम ने अपने एक ही बाण से रावण का छत्र, उसके दस मुकुट, एवं मन्दोदरी के दो कर्णफूलों को काटकर मंदोदरी को यह संकेत दिया कि अब रावण की तेरहवीं (त्रयोदशा) अत्यन्त निकट है।

कंप न भूमि न मरुत बिशेषा। अस्त्र शस्त्र कछु नयन न देखा॥ सोचहिं सब निज हृदय मझारी। असगुन भयउ भयंकर भारी॥

भाष्य

न तो पृथ्वी ही काँप रही थी, न ही विशेष वायु चल रहा था और न ही किसी ने कोई अस्त्र–शस्त्र अपने नेत्रों से देखा था। सब लोग हृदय में सोचने लगे यह तो बहुत भयंकर अपशकुन हो गया।

**दशमुख देखि सभा भय पाई। बिहँसि बचन कह जुगुति बनाई॥ सिरउ गिरे संतत शुभ जाही। मुकुट परे कस असगुन ताही॥ शयन करहु निज निज गृह जाई। गवने भवन सकल सिर नाई॥**
भाष्य

रावण ने देखा की सभा भयभीत हो गई है। उसने हँसकर एक युक्ति बनाकर यह वचन कहा, अरे जिसके लिए सिरों के गिरने पर निरन्तर शुभ होता रहा, उसके लिए मुकुटों के पड़ने पर कैसे अपशकुन हो सकता है? अर्थात्‌ जिस रावण ने अपने सिरों को काट–काट कर शिव जी को आपूर्ति करके उन से सम्पूर्ण शुभ प्राप्त किया। उसी मुझ रावण के यदि मुकुट पृथ्वी पर पड़ ही गये तो कोई अपशकुन नहीं हुआ। सब लोग अपने–अपने घर जाकर शयन करो यह सुनकर रावण को प्रणाम करके सभी सभासद चले गये।

**मंदोदरी सोच उर बसेऊ। जब ते स्रवनपूर महि खसेऊ॥ सजल नयन कह जुग कर जोरी। सुनहु प्रानपति बिनती मोरी॥ कंत राम बिरोध परिहरहू। जानि मनुज जनि हठ उर धरहू॥**
भाष्य

जब से कान के कुण्डल अकस्मात्‌ कटकर पृथ्वी पर पड़े हैं, तब से मन्दोदरी के हृदय में चिन्ता बस गई है। वह अपने नेत्रों में आँसू भरकर दोनों हाथ जोड़कर कहने लगी, हे प्राणपति रावण! मेरी विनती सुनिये, हे मेरे सुखों की अवधि प्रिय रावण! श्रीराम का विरोध छोड़ दीजिये, उन्हें मनुष्य जानकर अपने हृदय में हठ मत धारण कीजिये।

**दो०– बिश्वरूप रघुबंश मनि, करहु बचन बिश्वासु।** **लोक कल्पना बेद कह, अंग अंग प्रति जासु॥१४॥**
भाष्य

रघुकुल के मणि भगवान्‌ श्रीराम विश्वरूप हैं अर्थात्‌ सम्पूर्ण विश्व भगवान्‌ का रूप है, जिनके अंग–अंग में लोकों की रचना हुई है, ऐसा अपौरुषेय वेद कहते हैं।

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**विशेष– **यहाँ कल्पना शब्द रचना के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है, मनमानी आरोप को भारतीय वाङ्‌मय में कल्पना नहीं कहा जाता।

पद पाताल शीष अज धामा। अपर लोक अँग अँग बिश्रामा॥ भृकुटि बिलास भयंकर काला। नयन दिवाकर कच घन माला॥ जासु घ्राण अश्विनीकुमारा। निशि अरु दिवस निमेष अपारा॥ स्रवन दिशा दश बेद बखानी। मारुत श्वास निगम निज बानी॥ अधर लोभ जम दशन कराला। माया हास बाहु दिगपाला॥ आनन अनल अंबुपति जीहा। उतपति पालन प्रलय समीहा॥ रोम राजि अष्टादश भारा। अस्थि शैल सरिता नस जारा॥ उदर उदधि अधगो जातना। जगमय प्रभु का बहु कलपना॥

भाष्य

पाताल भगवान्‌ का श्रीचरण है, ब्रह्मलोक भगवान्‌ का सिर है और भगवान्‌ के अंग–अंग में अन्य लोकों का विश्राम है। भयंकर काल भगवान्‌ का भृकुटि विलास है। सूर्य भगवान्‌ के नेत्र हैं, बादल भगवान्‌ के केश समूह हैं। जिनकी नासिका ही अश्विनीकुमार हैं, जिनके अपार निमेष अर्थात्‌ पलकों का गिरना-उठना ही रात्रि–दिवस हैं, दसों दिशायें ही जिनके श्रवण हैं, ऐसा वेद कहते हैं। वायु प्रभु का श्वास है, वेद श्रीराम की निजी वाणी हैं, लोभ भगवान्‌ श्रीराम का ओष्ठ है, यमराज भगवान्‌ के कराल दाँत हैं, माया प्रभु राघव का हास और दिग्पाल भगवान्‌ की भुजायें हैं, अग्नि प्रभु के मुख हैं और वरुण प्रभु की जीभ हैं। उत्पत्ति, पालन और प्रलय भगवान्‌ श्रीराम की चेष्टायें हैं, अठारह भार वनस्पतियाँ भगवान्‌ की रोमावली हैं, पर्वत भगवान्‌ की हड्डियाँ और नदियाँ ही भगवान्‌ के नसों के समूह हैं। समुद्र पेट और यातना अर्थात्‌ नरक ही भगवान्‌ की निचली इन्द्रियाँ हैं, इस प्रकार प्रभु जगत्‌स्वरूप हैं, बहुत ऊहापोह से क्या लाभ?

**दो०– अहंकार शिव बुद्धि अज, मन शशि चित्त महान।** **मनुज बास सचराचर, रूप राम भगवान॥१५\(क\)॥ अस बिचारि सुनु प्रानपति, प्रभु सन बैर बिहाइ।**

प्रीति करहु रघुबीर पद, मम अहिवात न जाइ॥१५(ख)॥

भाष्य

शिव जी भगवान्‌ श्रीराम के अहंकार, ब्रह्मा जी प्रभु की बुद्धि, चन्द्रमा भगवान्‌ का मन और विष्णु जी ही भगवान्‌ श्रीराम के चित्त हैं। मनुष्य ही भगवान्‌ श्रीराम का निवास स्थान है। इस प्रकार सम्पूर्ण चर और अचर (ज़ड-चेतन) सब कुछ जीव जगत्‌ भगवान्‌ श्रीराम का ―प ही है। हे प्राणपति रावण! ऐसा विचार करके अर्थात्‌ भगवान्‌ श्रीराम को जगत रूप जानकर, प्रभु से विरोध छोड़कर, रघुवीर श्रीराम की श्रीचरणों में प्रीति कर लीजिये, जिससे मेरा अहिवात (सौभाग्य) न जाये।

**बिहँसा नारि बचन सुनि काना। अहो मोह महिमा बलवाना॥ नारि स्वभाव सत्य कबि कहहीं। अवगुन आठ सदा उर रहहीं॥** **साहस अनृत चपलता माया। भय अबिबेक अशौच अदाया॥**
भाष्य

पत्नी मंदोदरी के वचन सुनकर रावण हँसा और बोला, अहो! मोह का महत्व कितना बलवान है? कवि लोग नारी के सम्बन्ध में सत्य ही कहते हैं कि, इनके हृदय में आठ दुर्गुण सदैव रहते हैं, वे हैं– साहस, असत्य भाषण, चपलता (चंचलता), माया (छल), भय, अविवेक, अपवित्रता और दयाहीनता।

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विशेष

वस्तुत: यह रावण की मानसिक दुर्बलता का परिणाम है, क्योंकि रावण स्वयं मोहान्ध है, इसलिए उसका वाक्य प्रमाण नहीं है। क्योंकि प्रत्येक प्राणी अपनी ही मान्यता के आधार पर दूसरे का आकलन करता है। काला चश्मा लगने पर सब कुछ काला ही दिखता है। वास्तव में तो माता, बहिन, पुत्री और पत्नी उक्त चार धारणाओं में अनुप्राणीत नारियों में रावण द्वारा आरोपित आठों अवगुण कभी नहीं रहते। जैसे- श्रीमानस में संकीर्तित श्रीसीता जी, श्री कौसल्या जी श्री सुमित्रा जी श्री अरुन्धती जी आदि में एक भी दुर्गुण नहीं प्रतीत होता। श्रीसीता आदि माननीय महिला रत्नों में कभी भी साहस असत्य भाषण, चंचलता, कपट भय, विवेक का आभाव, अपवित्रता एवं निदर्यता जैसे दुर्बल पक्ष किसी भी परिस्थिति में दृष्टिगोचर नहीं होता।

रिपु कर रूप सकल तै गावा। अति बिशाल भय मोहि सुनावा॥ सो सब प्रिया सहज बस मोरे। समुझि परा प्रसाद अब तोरे॥ जानेउँ प्रिया तोरि चतुराई। एहि मिष कहहु मोरि प्रभुताई॥

भाष्य

तुमने सम्पूर्ण संसार को मेरे शत्रु राम का रूप बताया है और मुझे अत्यन्त भय सुना दिया, वह सम्पूर्ण संसार बिना प्रयास के मेरे वश में है। अब तुम्हारे प्रसाद से यह भी समझ में आ गया कि, जब राम का रूप संसार मेरे वश में है तो राम भी मेरे वश में है। हे प्रिये! अब मैं तुम्हारी चतुराई समझ गया, इसी बहाने अर्थात्‌ राम के विश्वरूप वर्णन के बहाने तुमने मेरी ही प्रभुता का वर्णन किया है।

**तव बतकही गू़ढ मृगलोचनि। समुझत सुखद सुनत भय मोचनि॥ मंदोदरि मन महँ अस ठयऊ। पियहिं काल बश मतिभ्रम भयऊ॥**
भाष्य

हे मृगलोचनि मंदोदरी! तुम्हारी बतकही अर्थात्‌ वार्त्तालाप की पद्धति बड़ी ही गू़ढ है, वह समझने में सुखद और सुनने में भवबन्धन से छुड़ाने वाली है। मन्दोदरी ने मन में ऐसा निश्चय कर लिया कि, मेरे पति रावण को काल के वश में होने के कारण बुद्धि का भ्रम हो गया है।

**दो०– बहुबिधि जल्पेसि सकल निशि, प्रात भये दशकंध।** **सहज अशंक लंकपति, सभा गयउ मद अंध॥१६\(क\)॥**
भाष्य

सम्पूर्ण रात्रि रावण बहुत प्रकार से अपलाप करता रहा। प्रात:काल होते ही दस कन्धोंवाला स्वभाव से निर्भीक, बुद्धि से अन्धा, लंकापति रावण सभा में चला गया।

**सो०– फूलइ फलइ न बेत, जदपि सुधा बरषहिं जलद।** **मूरख हृदय न चेत, जो गुरु मिलहिं बिरंचि सम॥१६\(ख\)॥**
भाष्य

यदि बादल अमृत की वर्षा कर दे फिर भी बेंत अर्थात्‌ वियत यानी आकाश न तो फूलता है और न ही फलता है, उसी प्रकार यदि ब्रह्मा जी के समान भी गुरु मिल जायें तथापि मूर्ख के हृदय में चेतना नहीं आ सकती। अथवा, भले ही बादल अमृत की वर्षा करे, परन्तु जैसे बेंत का वृक्ष फूलता और फलता नहीं उसी प्रकार भले ही ब्रह्मा जी के समान गुरु मिल जायें फिर भी मूर्ख के हृदय में ज्ञान नहीं आ सकता।

**इहाँ प्रात जागे रघुराई। पूँछा मत सब सचिव बोलाई॥ कहहु बेगि का करिय उपाई। जामवंत कह पद सिर नाई॥**
भाष्य

यहाँ रघुकुल के राजा भगवान्‌ श्रीराम जी प्रात:काल जगे। स्नान, सन्ध्यावन्दन आदि करके सभी मंत्रियों को बुलाकर सभी का मत पूछा। आप लोग शीघ्र ही कहें, अब क्या उपाय करना चाहिये? सबकी ओर से प्रभु के श्रीचरणों में प्रणाम करके जाम्बवान जी ने कहा–

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**सुनु सर्बग्य सकल गुन रासी। सत्यसंध प्रभु सब उर बासी॥ मंत्र कहउँ निज मति अनुसारा। दूत पठाइय बालिकुमारा॥**
भाष्य

हे सर्वज्ञ! हे सम्पूर्ण श्रेष्ठ गुणों की राशि! हे सत्यप्रतिज्ञ प्रभु! हे सबके हृदय में निवास करने वाले श्रीराम! मैं अपनी बुद्धि के अनुसार मंत्र अर्थात्‌ अपना मंतव्य कहता हूँ। श्रीसीता को लौटा देने का प्रस्ताव लेकर बालिपुत्र अंगद को दूत बनाकर लंका भेजा जाये।

**नीक मंत्र सब के मन माना। अंगद सन कह कृपानिधाना॥ बालितनय बुधि बल गुन धामा। लंका जाहु तात मम कामा॥**
भाष्य

यह मंत्र बहुत अच्छा है, यह कह कर सभी मंत्रियों ने जाम्बवान्‌ के मंत्र का मन में सम्मान किया। तब कृपा के कोश भगवान्‌ श्रीराम जी ने अंगद जी से कहा, हे बालिपुत्र अंगद! आप बुद्धि, बल और श्रेष्ठगुणों के निवास स्थान हैं, इसलिए हे तात! मेरे कार्य के लिए आप लंका जाइये।

**बहुत बुझाइ तुमहिं का कहऊँ। परम चतुर मैं जानत अहऊँ॥ काज हमार तासु हित होई। रिपु सन करेहु बतकही सोई॥**
भाष्य

मैं आपको बहुत समझाकर क्या कहूँ, क्योंकि मैं आपको अत्यन्त चतुर जानता ही हूँ, जिससे मेरा कार्य हो और रावण का हित भी हो, आप शत्रु से उसी प्रकार का वार्त्तालाप करें। व्यंग्यार्थ यह है कि रावण से उसी प्रकार से कठोरता के साथ, सिद्धान्तों से समझौता न करते हुए नि:संकोच वार्त्ता करें, जिससे राक्षस–वध रूप मेरा कार्य हो जाये और मेरे हाथों मरने से रावण का परमपद प्राप्तिरूप हित भी हो जाये।

**सो०– प्रभु आग्या धरि शीष, चरन बंदि अंगद उठेउ।** **सोइ गुन सागर ईश, राम कृपा जा पर करहु॥१७\(क\)॥ स्वयंसिद्ध सब काज, नाथ मोहि आदर दियउ।**

अस बिचारि जुबराज, तन पुलकित हरषित हिये॥१७(ख)॥

भाष्य

प्रभु श्रीराम जी की आज्ञा को सिर पर धारण करके तथा श्रीचरणों की वन्दना करके अंगद जी उठे और बोले, हे परमेश्वर! हे भगवान्‌ श्रीराम! आप जिस पर कृपा करते हैं, वही सम्पूर्ण गुणों का समुद्र बन जाता है। आपके कार्य स्वयंसिद्ध हैं, आपने मुझे दूत बनाकर आदर मात्र दिया है, ऐसा विचार करके युवराज अंगद जी के शरीर में रोमांच हो गया और उनका हृदय प्रसन्न हो गया।

**बंदि चरन उर धरि प्रभुताई। अंगद चलेउ सबहिं सिर नाई॥**
भाष्य

श्रीचरणों की वन्दना करके और हृदय में प्रभु की प्रभुता को धारण करके, सभी वृद्ध वानरभटों को प्रणाम करके अंगद जी चले।

**प्रभु प्रताप उर सहज अशंका। रन बाँकुरा बालिसुत बंका॥ पुर पैठत रावन कर बेटा। खेलत रहा सो होइ गै भेटा॥ बातहिं बात करष बढि़ आई। जुगल अतुल बल पुनि तरुनाई॥**
भाष्य

श्रीअंगद के हृदय में प्रभु श्रीराम का प्रताप विराजमान था उसी के कारण रण में बाँकुरे अर्थात्‌ अत्यन्त कुशल और अत्यन्त चतुर बालिपुत्र अंगद जी स्वभावत: नि:शंक हो चुके थे। अर्थात्‌ उन्हें न तो रावण से किसी प्रकार का भय था और न ही उन्हें रावण से पराजय की कोई आशंका थी। नगर में प्रवेश करते ही रावण के बेटे से

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जो खेल रहा था, अंगद जी की भेंट हो गई। बात–बात में झग़डा ब़ढ गया, दोनों ही अंगद और रावण का पुत्र अतुलनीय बल वाले थे, फिर दोनों की युवावस्था भी थी।

तेहिं अंगद कहुँ लात उठाई। गहि पद पटकेउ भूमि भवाँई॥
निशिचर निकर देखि भट भारी। जहँ तहँ भजे न सकहिं पुकारी॥

भाष्य

उस रावण के पुत्र ने अंगद जी को मारने के लिए लात उठाया। अंगद जी ने उसका पैर पक़डकर घुमाकर पृथ्वी पर पटक दिया, इतने में ही रावण का पुत्र मर गया। अन्य राक्षससमूह बहुत–बड़ा वीर आया हुआ देखकर जहाँ–तहाँ भग चले। वे पुकार भी नहीं कर सकते थे अर्थात्‌ ऊँचे स्वर में किसी को बुला भी नहीं सकते थे।

**एक एक सन मरम न कहहीं। समुझि तासु बध चुप करि रहहीं॥**

**भयउ कोलाहल नगर मझारी। आवा कपि लंका जेहि जारी॥ भा०– **एक–दूसरे से मर्म नहीं कह रहे हैं। रावण के पुत्र का वध समझकर चुप करके रह जाते हैं। लंका में कोलाहल मच गया, अरे! वही वानर फिर आ गया जिसने लंका जलायी थी।

अब धौं कहा करिहि करतारा। अति सभीत सब करहिं बिचारा॥ बिन पूँछे मग देहिं दिखाई। जेहि बिलोक सोइ जाइ सुखाई॥

भाष्य

अब ईश्वर क्या करेंगे, राक्षस अत्यन्त भयभीत होकर विचार कर रहे हैं, बिना पूछे ही मार्ग दिखा देते हैं। जिसे अंगद जी देखते हैं, वह सूख जाता है।

विशेष

रावण के जिस पुत्र का अंगद जी ने वध किया उसका नाम प्रहस्त था, ऐसा पूर्व के रामायणी सन्त महानुभावों का मत है।

दो०– गयउ सभा दरबार तब, सुमिरि राम पद कंज।
सिंह ठवनि इत उत चितव, धीर बीर बल पुंज॥१८॥

भाष्य

तब श्रीराम के श्रीचरणकमलों का स्मरण करके अंगद जी रावण के सभा–द्वार पर गये। सिंह के समान ठवनि करके गम्भीर मुद्रा में चलने वाले, किसी प्रकार से नहीं विचलित होने वाले, बल के पुंज अंगद जी निर्भीक होकर इधर–उधर देखने लगे।

**तुरत निशाचर एक पठावा। समाचार रावनहिं जनावा॥ सुनत बिहँसि बोला दशशीशा। आनहु बोलि कहाँ कर कीशा॥ आयसु पाइ निशाचर धाए। कपिकुंजरहिं बोलि लै आए॥**
भाष्य

तुरन्त अंगद जी ने एक राक्षस को भेजा, उसने जाकर रावण को अंगद जी के आने का समाचार सुनाया, सुनते ही रावण हँसकर बोला, जल्दी से ले आओ, वह वानर कहाँ का है? रावण की आज्ञा पाकर राक्षस दौड़े और वानरश्रेष्ठ अंगद जी को बुलाकर ले आये।

**अंगद दीख दशानन बैसा। सहित प्रान कज्जलगिरि जैसा॥ भुजा बिटप सिर श्रृंग समाना। रोमावली लता जनु नाना॥ मुख नासिका नयन अरु काना। गिरि कंदरा खोह अनुमाना॥**
भाष्य

अंगद जी ने रावण को उसी प्रकार देखा, जैसे प्राणों के सहित साक्षात्‌ कज्जल का पहाड़ हो। उस की भुजायें वृक्ष के समान, सिर पर्वत के शिखरों के समान ऊँचा था और उसकी रोमावलियाँ अनेक लताओं जैसी थीं। उस के मुख, नाक, आँख और कान पर्वत की कन्दराओं और खोह के समान अनुमानित होते थे।

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**गयउ सभा मन नेकु न मुरा। बालितनय अतिबल बाँकुरा॥ उठे सभासद कपि कहँ देखी। रावन उर भा क्रोध बिशेषी॥**
भाष्य

अंगद जी रावण की सभा में चले गये। युद्ध में अत्यन्त कुशल बालिपुत्र अंगद जी का मन तनिक भी अपने लक्ष्य से नहीं मुड़ा अर्थात्‌ वे रावण से तनिक भी नहीं डरे। अंगद जी को देखकर सभी सभासद उठ कर ख़डे हो गये, रावण के हृदय में विशेष क्रोध हुआ।

**दो०– जथा मत्त गज जूथ महँ, पंचानन चलि जाइ।** **राम प्रताप सुमिरि मन, बैठ सभा सिर नाइ॥१९॥**
भाष्य

जिस प्रकार मतवाले हाथियों के समूह में चार पंजे और पाँचवाँ मुख, इन सबको मुख के समान ही समझने वाला सिंह बिना किसी व्यवधान के निर्भीक भाव से चला जाता है, उसी प्रकार श्रीराम के प्रताप को मन में स्मरण करके और भगवान्‌ श्रीराम को ही प्रणाम करके, अंगद जी रावण की सभा में जाकर बैठ गये।

**कह दशकंध कवन तैं बंदर। मैं रघुबीर दूत दशकंधर॥** **मम जनकहिं तोहि रही मिताई। तव हित कारन आयउँ भाई॥ उत्तम कुल पुलस्त्य कर नाती। शिव बिरंचि पूजेहु बहु भाँती॥ बर पायहु कीन्हेहु सब काजा। जीतेहु लोकपाल सब राजा॥**

नृप अभिमान मोह बश किंबा। हरि आनेहु सीता जगदंबा॥
अब शुभ कहा सुनहु तुम मोरा। सब अपराध छमिहिं प्रभु तोरा॥ दशन गहहु तृन कंठ कुठारी। परिजन सहित संग निज नारी॥ सादर जनकसुता करि आगे। एहि बिधि चलहु सकल भय त्यागे॥

दो०– प्रनतपाल रघुबंशमनि, त्राहि त्राहि अब मोहि।
आरत गिरा सुनत प्रभु, अभय करहिंगे तोहि॥२०॥

भाष्य

दस गलेवाले अर्थात्‌ पूर्व संध्या में प्रभु के द्वारा दसों मुकुट काट दिये जाने के कारण मात्र दस कण्ठों से अवशिष्ट रावण ने कहा अर्थात्‌ पूछा, ऐ बन्दर! तू कौन है? अंगद जी ने कहा, हे दस कन्धवाले रावण! मैं भगवान्‌ श्रीराम का दूत हूँ। हे भाई! मेरे पिता जी की तुमसे मित्रता थी, इसलिए मैं तुम्हारे हित के कारण से यहाँ आया हूँ। तुम उत्तमकुल में जन्मे और महर्षि पुलस्त्य जी के पौत्र हो अर्थात पुलस्त्य जी के पुत्र विश्रवा के तुम पुत्र हो। तुमने शिव जी एवं ब्रह्मा जी की बहुत प्रकार से पूजा की है तथा उनसे अनेक वरदान प्राप्त किये और सभी कार्य किये हैं। सभी लोकपालों और पृथ्वी के सभी राजाओं को तुमने जीता है। राजा के अभिमान से किंवा मोहवश होकर तुम जगत्‌ की माता श्रीसीता को हर लाये। अब तुम मेरा शुभ कथन सुनो, प्रभु तुम्हारे सभी अपराध क्षमा कर देंगे, दाँत में तिनका दबाओ और गले पर कुल्हाड़ी रखो, सम्पूर्ण परिवार और सभी अपनी पत्नियों के साथ आदरपूर्वक श्रीसीता को आगे करके, इस प्रकार सभी लोग भय छोड़कर भगवान्‌ श्रीराम जी के पास चलो और आर्तस्वर में बोलो कि, हे प्रणतपाल (शरणागतों के पालक)! हे रघुवंश के रत्न भगवान्‌ श्रीराम! अब मेरी रक्षा कीजिये….रक्षा कीजिये। इस प्रकार आर्तवाणी सुनकर प्रभु तुमको अभय कर देंगे।

**रे कपिपोत न बोल सँभारी। मू़ढ न जानेहि मोहिं सुरारी॥ कहु निज नाम जनक कर भाई। केहि नाते मानिये मिताई॥** [[७३४]]
भाष्य

रावण बोला, अरे वानर का बच्चा! तू सम्भालकर नहीं बोलता, हे मूर्ख! तू मुझे देवताओं का शत्रु नहीं जानता। हे भाई! अपने पिता का नाम बता, किस नाते से अपने पिता से मेरी मित्रता मान रहा है?

**अंगद नाम बालि कर बेटा। तासों कबहुँ भई तोहि भेटा॥ अंगद बचन सुनत सकुचाना। रहा बालि बानर मैं जाना॥**
भाष्य

अंगद जी बोले, मैं अंगद नाम का बालि का बेटा हूँ, उनसे तुम्हारी कभी भेंट हो चुकी थी, अंगद जी की वाणी सुनकर रावण सकुचा गया और बोला, हाँ ठीक है, बालि नाम का एक वानर था, मैं जान गया।

**अंगद तहीं बालि कर बालक। उपजेहु बंश अनल कुल घालक॥ गर्भ न खसेहु ब्यर्थ तुम जायहु। निज मुख तापस दूत कहायहु॥**
भाष्य

अंगद तू ही बालि का बेटा है? अरे तू तो अपने कुल को नय् करने के लिए बाँस के वन में अग्नि के समान उत्पन्न हुआ। तू गर्भ में आते ही क्यों नहीं गिर गया ? तूने व्यर्थ ही जन्म लिया। अपने ही मुख से तपस्वी का दूत कहला रहा है।

**अब कहु कुशल बालि कहँ अहई। बिहँसि बचन तब अंगद कहई॥ दिन दस गए बालि पहिं जाई। बूझेहु कुशल सखा उर लाई॥ राम बिरोध कुशल जसि होई। सो सब तोहि सुनाइहि सोई॥ सुनु शठ भेद होइ मन ताके। श्री रघुबीर हृदय नहिं जाके॥**
भाष्य

अब कुशल समाचार कह, बालि कहाँ है? तब अंगद जी हँसकर वचन कहने लगे। दस दिनों के पश्चात्‌ बालि के पास जाकर अपने मित्र को हृदय से लगाकर कुशल समाचार पूछ लेना। श्रीराम के विरोध से जिस प्रकार का कुशल होता है, वह सब तुझे बालि सुनायेंगे। हे दुष्ट! सुन, तेरी इस भेदनीति से कोई लाभ नहीं, क्योंकि भेदनीति उसके हृदय में प्रभावी होती है जिसके हृदय में अभेदस्वरूप श्रीसीता के सहित रघुवीर अर्थात्‌ जीवमात्र के प्रेरक भगवान्‌ श्रीराम नहीं रहते अर्थात्‌ मेरे हृदय में तो भगवान्‌ श्रीराम हैं।

**दो०– हम कुल घालक सत्य तुम, कुल पालक दशशीश।** **अंधउ बधिर न अस कहहिं, नयन कान तव बीस॥२१॥**
भाष्य

सत्य ही हम तो कुल के घालक अर्थात्‌ कुल के विनाशक हैं, परन्तु अपने कुल के विनाशक नहीं हैं, प्रत्युत्‌ राक्षसकुल के विनाशक हैं और तुम दुष्ट राक्षसकुल के पालक हो। यह बात इस अंश में सत्य है, परन्तु मैं वानरकुल का नाशक हूँ, इस प्रकार की बातें तो अन्धे और बहरे भी नहीं कहते। तेरे पास तो दस सिर, बीस नेत्र और बीस कान हैं।

**शिव बिरंचि सुर मुनि समुदाई। चाहत जासु चरन सेवकाई॥ तासु दूत होइ हम कुल बोरा। अइसिहुँ मति उर बिहरन तोरा॥**
भाष्य

शिव जी, ब्रह्मा जी, उपलक्षणतया विष्णु जी आदि सभी देवता और मुनिजन जिन भगवान्‌ श्रीराम के श्रीचरणों की सेवा चाहा करते हैं, उनका दूत होकर मैंने अपना कुल डुबो दिया? इस प्रकार की बुद्धि पर भी तेरा हृदय फट नहीं रहा है, यह एक विडम्बना है।

**सुनि कठोर बानी कपि केरी। कहत दशानन नयन तरेरी॥ खल तव कठिन बचन सब सहऊँं। नीति धर्म मैं जानत अहऊँ॥** [[७३५]]
भाष्य

अंगद जी की कठोर वाणी सुनकर क़डी दृष्टि करके दस मुखोंवाला रावण कहने लगा, अरे खल! तेरे सभी कठिन वचनों को मैं सह रहा हूँ, तेरा वध नहीं कर रहा हूँ, क्योंकि मैं कुछ नीति–धर्म को जानता हूँ अर्थात्‌ दूत वध्य नहीं होता इसी धर्म का पालन करते हुए कठोर वचन कहने पर भी मैं तेरा वध नहीं कर रहा हूँ।

**कह कपि धर्मशीलता तोरी। हमहुँ सुनी कृत पर त्रिय चोरी॥ देखी नयन दूत रखवारी। बूनिड़ मरहु धर्म ब्रतधारी॥ कान नाक बिनु भगिनि निहारी। छमा कीन्हि तुम धर्म बिचारी॥ धर्मशीलता तव जग जागी। पावा दरस हमहुँ बड़भागी॥**
भाष्य

वानरश्रेष्ठ अंगद जी कहने लगे, हाँ हमने भी तेरी धर्मशीलता सुनी है उसी का पालन करके तो तूने परायी नारी की चोरी कर ली और दूत की रक्षा करते हुए तो तुझे मैंने अपने नेत्रों से भी देखा है। श्रीराम के दूत हनुमान जी के साथ तूने कैसा व्यवहार किया है यह तो जगत प्रसिद्ध है और जली हुई लंका के आधार पर हमनें भी देख लिया तथा अभी–अभी मेरे ही समक्ष तुमने कुबेर के दूत का वध करके उसे राक्षसों से खवा दिया, इस घटना से मैंने भी प्रत्यक्षत: दूत की रक्षा देख ली है। हे धर्मव्रत को धारण करने वाला! तू डूबकर क्यों नहीं मर जाता? कान और नाक के बिना अपनी बहन को देखकर धर्म का विचार करके ही तुमने लक्ष्मण जी को क्षमा कर दिया अर्थात्‌ क्या तुमने शूर्पणखा की विरुपीकरण से उत्तेजित होकर सीता जी का हरण नहीं किया? यदि तुझे थोड़ा भी धर्म का ज्ञान होता तब तू शूर्पणखा को भी दण्ड देता। उसका विरुपीकरण श्रीराम धर्मसम्मत कार्य मानते हैं, क्योंकि धर्मशास्त्र कहते हैं कि यदि अपनी ही जाति में अवैध यौनसम्बन्ध का प्रस्ताव हो तब आर्थिक दण्ड देना चाहिये और इस प्रस्ताव में यदि अनुलोम्य हो अर्थात्‌ स्त्री निम्नवर्ण की और पुरुष उत्तमवर्ण का हो तब मध्यम दण्ड देना चाहिये अर्थात्‌ समाज से बहिष्कृत कर देना चाहिये। यदि प्रतिलोम्य अर्थात्‌ उत्तमवर्ण की स्त्री और उससे हीनवर्ण के पुरुष के बीच अवैध यौनसम्बन्ध का प्रस्ताव हो तो उसमें दोषी पुरुष का वध कर देना चाहिये और दोषी स्त्री के कान–नाक काट लेना चाहिये। यथा–

**सजातावोत्तमो दण्ड: आनुलोम्ये तु मध्यम:। प्रातिलोम्ये वध: पुन्सो नारिया: कर्णादि कर्तनम्‌॥**

यह प्रतिलोम्य था। भगवान्‌ श्रीराम क्षत्रिय कुलभूषण थे और शूर्पणखा विश्रवा ब्राह्मण की पुत्री। दोष था शूर्पणखा का, अत: पूर्वोक्त सिद्धान्त से लक्ष्मण जी ने उसके नाक–कान काटे, पर तुमने कहाँ धर्मशास्त्र का विचार किया? तेरी धर्मशीलता जगत्‌ में जागृत है, मैं भी बड़भागी हूँ कि तेरा दर्शन पा लिया।

दो०– जनि जल्पसि ज़ड जंतु कपि, शठ बिलोकु मम बाहु।

**लोकपाल बल बिपुल शशि, ग्रसन हेतु सब राहु॥२२(क)॥ भा०– **रावण ने कहा, हे ज़ड! वानर जैसा छोटा जीव व्यर्थ की जल्पना मत कर। अरे दुय्! मेरे बीस भुजदण्डों को देख, ये सभी बीसों के बीस लोकपालों के बल―प बहुत–बड़े चन्द्रमा को ग्रसने के लिए राहु हैं।

पुनि नभ सर मम कर निकर, कमलनि पर करि बास।
शोभित भयउ मराल इव, शंभु सहित कैलास॥२२(ख)॥

भाष्य

पुन: आकाशरूप सरोवर में विराजमान मेरे हाथ समूहरूप कमलों पर निवास करते हुए कैलाश के सहित शिव जी हंस के समान सुशोभित हुए थे, अर्थात्‌ जैसे सरोवर में कमल पर हंस सुशोभित होता है, उसी प्रकार मेरी बीसों हथेलियों पर कैलाश सहित शिव जी सुशोभित हुए।

[[७३६]]

**तुम्हरे कटक माझ सुनु अंगद। मो सन भिरिहि कवन जोधा बद॥ तव प्रभु नारि बिरह बलहीना। अनुज तासु दुख दुखी मलीना॥ तुम सुग्रीव कूलद्रुम दोऊ। अनुज हमार भीरु अति सोऊ॥ जामवंत मंत्री अति बू़ढा। सो कि होइ अब समरारू़ढा॥ शिल्पि कर्म जानहिं नल नीला। है कपि एक महा बलशीला॥ आवा प्रथम नगर जेहिं जारा। सुनि हँसि बोलेउ बालिकुमारा॥**
भाष्य

हे अंगद! बोलो, तुम्हारी वानरी सेना में मुझसे कौन योद्धा भिड़ेगा? तेरे प्रभु राम तो पत्नी के विरह से बलहीन हो गये हैं अर्थात्‌ राम की शक्ति तो मैंने ले ली है, वे अशक्त हैं। उनके छोटे भाई लक्ष्मण उन्हीं के दु:ख से दु:खी और मलिन अर्थात्‌ म्लान हो गये हैं, यानी उनके हर्ष का क्षय हो गया है। तुम और सुग्रीव दोनों नदी तट के वृक्ष के सामन हो अर्थात्‌ तुम्हारी ज़डें हिल चुकी हैं, कभी भी ढह सकते हो। मेरा छोटा भाई विभीषण बहुत ही भीरु अर्थात्‌ डरपोक स्वभाव का है। मंत्री जाम्बवान अत्यन्त वृद्ध हो चुके हैं। वे युद्ध में कैसे आरू़ढ हो सकते हैं अर्थात्‌ वृद्धता के कारण जब वे अपना शरीर ही नहीं सम्भाल पाते तब युद्ध कैसे करेंगे? नल–नील केवल शिल्पकार्य जानते हैं अर्थात्‌ भवन और सेतुओं का निर्माण कर सकते हैं। तुम्हारी सेना में एक वानर ऐसा है, जो महाबलशाली है, जिसका बल और चरित्र दोनों ही महान्‌ है। जो प्रथम आया था और जिसने मेरा नगर जलाया था, वही बलवान है। रावण का वचन सुनकर बालिपुत्र अंगद जी हँस कर बोले–

**सत्य बचन कहु निशिचर नाहा। साँचेहुँ कीस कीन्ह पुर दाहा॥ रावन नगर अल्प कपि दहई। सुनि अस बचन सत्य को कहई॥ जो अति सुभट सराहेहु रावन। सो सुग्रीव केर लघु धावन॥ चलइ बहुत सो बीर न होई। पठवा खबरि लेन हम सोई॥**
भाष्य

हे राक्षसराज! तू सत्य कह, क्या सत्य ही वानर ने लंका जलायी? त्रैलोक विजयी रावण का नगर छोटा–सा वानर जला दे, इस प्रकार का वचन सुनकर इसे कौन सत्य कहेगा ? अर्थात्‌ कोई नहीं। तात्पर्य यह है कि तुझे यहाँ पूर्णतया भ्रम है, जो हनुमान जी को छोटा–सा वानर मान रहा है। आठ अंगुल के शरीरवाला वानर क्या देवताओं द्वारा भी दुर्भेद्द तुम्हारी पुरी को जला सकता है? अरे मूर्ख! तुम्हारा नगर जलाने के लिए तो वानर का रूप धारण करके तुम्हारे गुरुदेव शिव जी स्वयं पधारे थे। उन्होंने पहले त्रिपुर को जलाया आज तेरी लंका को भी जला दिया। हे रावण! जिसको तुमने अत्यन्त सुभट अर्थात्‌ महावीर कह कर सराहा है, वह तो सुग्रीव जी का छोटा–सा शीघ्रगामी दूत है। जो बहुत चला करता है, वह वीर नहीं हुआ करता। हमने उसे सीता जी का समाचार लेने के लिए भेजा था अर्थात्‌ हमलोग भी हनुमान जी के अतुलनीय पराक्रम से परिचित नहीं थे, उन्हें छोटा–सा वानर ही माना, जबकि ऐसा न था, न है। वानर के रूप में ते हनुमान जी, सुग्रीव जी के छोटे से दूत और हमारे द्वारा प्रेषित श्रीराम–सेना के एक छोटे–से सेवक हैं। सौ योजन समुद्र का लंघन, सुरसा, सिंहिका तथा लंकिनी का मानमर्दन, तुम्हारे द्वारा छिपाकर रखी हुई श्रीसीता का पता लगाना, वन विध्वंस, राक्षसवध और लंका–दहन, यह सब तो वानर के रूप में विराजमान तथा भगवान्‌ श्रीराम के अनन्य सेवक तुम्हारे गुरु बाबा शिव जी महाराज के कार्य हैं।

**दो०– सत्य नगर कपि जारेउ, बिनु प्रभु आयसु पाइ।** **फिरि न गयउ सुग्रीव पहँ, तेहिं भय रहा लुकाइ॥२३\(क\)॥**

[[७३७]]

भाष्य

हे रावण! क्या प्रभु की आज्ञा के बिना ही वानर ने सत्य ही नगर जला दिया? क्या वह सुग्रीव जी के पास नहीं गये, क्या हनुमान जी उसी भय से छिपे रहे? अर्थात्‌ यह सब कुछ असत्य है।

**विशेष– **अंगद जी वक्रोक्ति अलंकार के माध्यम से कह रहे हैं कि वानर ने लंका जलाया तेरा यह कथन सत्य से कोसों दूर है। जबकि तेरे राक्षस ऐसा कह चुके हैं–“वानर रूप धरे सुर कोइ हनुमान” जी ने जो कुछ किया है वह सब प्रभु की आज्ञा से किया है। भले ही उन्हें हमने विलम्ब से पहचाना, परन्तु तुम अब भी नहीं पहचान रहे हो। श्रीराम के प्रत्येक योद्धा में एक प्रतिशत देवताओं का अंश है और निन्यानवे प्रतिशत भगवान्‌ श्रीराम का प्रताप और उनकी कृपा। परन्तु हनुमान जी में तो शत-प्रतिशत शिवांश है स्वयं सदाशिव ही हनुमान बनकर तेरा सर्वनाश करने के लिए उद्दत हैं।

सत्य कहेसि दशकंठ सब, सुनि न मोहि कछु कोह।
कोउ न हमरे कटक अस, तो सन लरत जो सोह॥२३(ख)॥

भाष्य

हे दसकण्ठ रावण! तुमने सब कुछ सत्य कहा है। वह सुनकर मुझे कुछ भी क्रोध नहीं आ रहा है, क्योंकि हमारी सेना में ऐसा कोई नहीं है, जो तेरे साथ युद्ध करते हुए शोभा पाये, क्योंकि तू माँसाहारी है और हम सब फलाहारी। तू दुराचारी है और हम सब सदाचारी, इसलिए तुम्हारे साथ लड़नें में किसी भी हमारे सैनिक की शोभा नहीं है।

**प्रीति बिरोध समान सन, करिय नीति असि आहि।** **जौ मृगपति बध मेडुकनि, भल कि कहइ कोउ ताहि॥२३\(ग\)॥**
भाष्य

ऐसी नीति है कि प्रेमपूर्ण मित्रता और विरोध समान कक्षावाले व्यक्ति के साथ करना चाहिये। यदि सिंह मेंढकों का वध करे तो क्या उसे कोई भला कहेगा, जो मेंढक छूने मात्र से लघुशंका कर देते हैं, उनके वध में सिंह की क्या वीरता? हमारा प्रत्येक सैनिक सिंह है और तुम सब मेंढक हो, तुम्हें तो श्रीराम के बाणरूप सर्प ही खायेंगे, जो तुम्हारी पत्नी मन्दोदरी कह चुकी हैं।

**जद्दपि लघुता राम कहँ, तोहि बधे बड़ दोष।** **तदपि कठिन दशकंठ सुनु, छत्रि जाति कर रोष॥२३\(घ\)॥**
भाष्य

यद्दपि तुझे मारने में श्रीराम के लिए भी लघुता है इससे उनका छोटापन ही सिद्ध होगा और बहुत दोष भी होगा, क्योंकि प्रभु के साथ तुम्हारी कोई समकक्षता नहीं है। फिर भी हे रावण! सुन, क्षत्रिय जाति का क्रोध बहुत कठिन होता है। तुझ पर श्रीराम का क्रोध हो चुका है और प्रभु का क्रोध तुझे दण्ड देगा।

**बक्र उक्ति धनु बचन सर, हृदय दहेउ रिपु कीश।** **प्रतिउत्तर सड़सिन मनहु, का़ढत भट दशशीश॥२३\(ङ\)॥**
भाष्य

वक्रोक्ति रूप धनुष से छूटते हुए व्यंग्य वचनरूप बाणों द्वारा रावण के शत्रु श्रीराम के दूत वानरश्रेष्ठ अंगद जी ने वेध–वेधकर रावण के हृदय को जला डाला, मानो वीर दस सिरोंवाला रावण प्रत्युत्तर रूप सँड़सियों से उन व्यंग्य वचनरूप बाणों को अपने हृदय से निकालने लगा।

**हँसि बोलेउ दशमौलि तब, कपि कर बड़ गुन एक।** **जो प्रतिपालइ तासु हित, करइ उपाय अनेक॥२३\(च\)॥**
भाष्य

तब दस सिरोंवाला रावण हँसकर बोला, वानर का एक यही सबसे बड़ा गुण है कि जो इसका पालन– पोषण करता है, उसके हित अर्थात्‌ कल्याण के लिए वानर अनेक उपाय करता हैं। अंगद! तुम उसी परिस्थिति में हो।

[[७३८]]

**धन्य कीस जो निज प्रभु काजा। जहँ तहँ नाचइ परिहरि लाजा॥ नाचि कूदि करि लोग रिझाई। पति हित धरै धर्म निपुनाई॥ अंगद स्वामिभक्त तव जाती। प्रभु गुन कस न कहसि एहि भाँती॥ मैं गुन गाहक परम सुजाना। तव कटु रटनि करउँ नहिं काना॥**
भाष्य

अहो! धन्य है वानर जो अपने स्वामी के कार्य के लिए लज्जा छोड़कर जहाँ–तहाँ नाचता है। नाच–कूदकर लोगों को रिझाकर अपने स्वामी के लिए अपने धर्म की कुशलता धारण करता है, अर्थात्‌ तू भी इस समय वानरधर्म का पालन कर रहा है और तेरे स्वामी ने जैसा कहा, उसी प्रकार नाच रहा है। हे अंगद! तेरी जाति ही स्वामीभक्त है, इसलिए अपने स्वामी के गुण तू इस प्रकार से क्यों नहीं कहेगा? मैं परमचतुर गुणों का ग्राहक हूँ, मैं तेरी कठोर रटन अपने कानों में नहीं ला रहा हूँ अर्थात्‌ तेरी कटु उक्ति के अर्थ पर नहीं विचार कर रहा हूँ, क्योंकि उसका कुछ भी तात्पर्य नहीं है।

**कह कपि तव गुन गाहकताई। सत्य पवनसुत मोहिं सुनाई॥ बन बिधंसि सुत बधि पुर जारा। तदपि न तेहिं कछु कृत अपकारा॥** **सोइ बिचारि तव प्रकृति सुहाई। दशकंधर मैं कीन्हि ढिठाई॥**

देखेउँ आइ जो कछु कपि भाखा। तुम्हरे लाज न रोष न माखा॥

भाष्य

वानरश्रेष्ठ अंगद जी ने कहा कि, पवनपुत्र हनुमान जी ने मुझे तेरी वास्तविक गुणग्राहकता सुना दी है। तुम कितने बड़े गुणग्राही हो यह सब उन्होंने बता दिया है। हनुमान जी ने लंका आकर अशोकवन को तहस–नहस करके तेरे पुत्र अक्षकुमार को मारकर तेरा नगर जला दिया, फिर भी उन्होंने तेरा कुछ भी अपकार अर्थात्‌ अहित नहीं किया है तुम यही तो सोच रहे हो। हे रावण! तुम्हारी उसी सुहावनी प्रकृति का विचार करके मैंने भी ढिठाई कर दी। जो कुछ हनुमान जी ने कहा था वह सब आकर मैंने देख लिया। तुम्हारे पास न तो लज्जा है, न ही क्रोध और न ही असहनशीलता।

विशेष

यहाँ अंगद जी सब कुछ व्यंग्य में कह रहे हैं। अंगद जी रावण को लज्जित करते हुए कहना चाहते हैं कि इसी प्रकार तुमने हनुमान जी के साथ भी गुणग्राहकता का परिचय दिया था। हनुमान्‌ जी का अशोक वाटिका विध्वंस, अक्षकुमार का वध और लंका दहन तुम्हारी दृष्टि में कोई अपकार नहीं। क्या इसीलिए तुमने उन्हें कोई दण्ड नहीं दिया ? क्या यह पक्ष सत्य से कोसों दूर नहीं है। हनुमान जी ने अशोक वाटिका उजाड़ी उसकी प्रतिक्रिया में तुमने अनेक सुभटों के साथ अक्षकुमार को भेजा। तुमने तो कोई संकोच नहीं किया। हनुमान जी ने अक्षकुमार को मार डाला यह तो श्रीसीताराम जी की कृपा है। तुमने तो अपनी दृष्टि से उन्हें मार डालने की व्यवस्था कर ही ली थी। युद्ध में धर्मात्मा की जीत और अधार्मिक की हार होती ही है, इसी तथ्य के कारण हनुमान्‌ जी द्वारा अक्षकुमार का वध हुआ, पर तुमने क्या क्षमा किया ? हनुमान जी को बाँधने के लिए मेघनाद को भेज दिया। तुमने जो अपना दायित्व निभाया ही। हनुमान जी पर ब्रह्मास्त्र विफल हुआ यह प्रभु श्रीराम की कृपा है। तुमने एक अन्ताराय्रᐂय राजदूत को प्राणदण्ड देने का भी निर्णय लिया “**बेगि न हरहू मू़ढ कर प्राना”। **मानस ५- २४-५ विभीषण के कहने पर उन्हें भ्रम में डालते हुए तुमने प्रकारान्तर से पूँछ जलाकर हनुमान जी को मार डालना चाहा। पूँछ नहीं जली उल्टे पूरी लंका ही जल गई। यही तुम्हारी गुण ग्राहकता हनुमान जी ने मुझे सुनाई, इसीलिए मैंने भी धृष्टता करते हुए दो कार्य किये तेरे पुत्र प्रहस्त का वध और तेरे प्रति कठोर वाणी का प्रयोग। आज वह सब कुछ देख रहा हूँ जो हनुमान जी ने कहा था। तुम लज्जा, क्रोध और आमर्ष से रहित हो। वस्तुत:

[[७३९]]

तुम तो हमें मारने के लिए सामान्य षड़यंत्र नहीं कर रहे हो, परन्तु प्रभु हमें बचाते जा रहे हैं। अब तो तुम्हारी ़गुणग्राहकता स्पष्ट हो ही गई है।

जो असि मति पितु खाए कीसा। कहि अस बचन हँसा दशशीसा॥ पितहिं खाइ खातेउँ पुनि तोही। अबहीं समुझि परा कछु मोही॥ बालि बिमल जस भाजन जानी। हतउँ न तोहि अधम अभिमानी॥

भाष्य

रावण बोला, हे वानर! तुम्हारी ऐसी बुद्धि है तभी तो तुमने अपने पिता को खा डाला। इस प्रकार का वचन कहकर दस सिरोंवाला रावण दसों मुखों से हँसा। अंगद जी ने कहा, पिता को खाने के पश्चात्‌ मैं पिताश्री के मित्र तुमको भी खा लेता, पर मुझे अभी कुछ और समझ पड़ गया है। हे नीच अभिमानी! तुमको मैं पिताश्री बालि के निर्मल यश का पात्र जानकर नहीं मार डाल रहा हूँ।

**कहु रावन रावन जग केते। मैं निज स्रवन सुने सुनु तेते॥ बलिहिं जितन एक गयउ पताला। राखेउ बाँधि शिशुन हयशाला॥ खेलहिं बालक मारहिं जाई। दया लागि बलि दीन्ह छोड़ाई॥ एक बहोरि सहसभुज देखा। धाइ धरा जिमि जंतु बिशेषा॥ कौतुक लागि भवन लै आवा। सो पुलस्त्य मुनि जाइ छोड़ावा॥** **दो०– एक कहत मोहि सकुच अति, रहा बालि की काँख।**

इन महँ रावन तैं कवन, सत्य बदहि तजि माख॥२४॥

भाष्य

हे रावण! बता, संसार में कितने रावण हैं? मैंने अपने कानों से जितने सुने हैं, उतनों को तू भी सुन ले। एक रावण तो बलि को जीतने के लिए पाताल गया था उसे बालकों ने बाँध कर घुड़शाल में रख दिया, उससे बालक खेलते थे और जाकर लातों और मुक्कों से मारते थे। बलि को दया लग गई तब उसे अर्थात्‌ उस रावण को उन्होंने बालकों से छुड़ा दिया। फिर एक रावण को सहस्रबाहु कार्त्यवीर्य ने देखा और उसने विशेष जन्तु जानकर उसे दौड़कर पक़ड लिया। वह खेल के लिए रावण को अपने घर ले आया, उसे जाकर पुलस्त्य जी ने छुड़ा लिया। एक रावण को कहने में तो मुझे बहुत संकोच हो रहा है, क्योंकि वह बालि की काँख में छह मासपर्यन्त दबा रहा। इन रावणों में तू कौन–सा रावण है, क्रोध छोड़कर सत्य बोल?

**सुनु शठ सोइ रावन बलशीला। हरगिरि जान जासु भुज लीला॥ जान उमापति जासु सुराई। पूजेउँ जेहि सिर सुमन च़ढाई॥ सिर सरोज निज करनि उतारी। पूजेउँ अमित बार त्रिपुरारी॥ भुज बिक्रम जानहिं दिगपाला। शठ अजहूँ जिन के उर साला॥ जानहिं दिग्गज उर कठिनाई। जब जब भिरउँ जाइ बरियाई॥ जिन के दशन कराल न फूटे। उर लागत मूलक इव टूटे॥ जासु चलत डोलति इमि धरनी। च़ढत मत्त गज जिमि लघु तरनी॥ सोइ रावन जग बिदित प्रतापी। सुनेसि न स्रवन अलीक प्रलापी॥**
भाष्य

रावण ने उत्तर दिया, हे शठ! सुन, मैं वही स्वाभाविक बलवाला रावण हूँ, कैलाश पर्वत जिसकी भुजा की क्रीड़ा जानता है। पार्वती जी के पति शिव जी जिसकी वीरता को जानते हैं, जिसने सिररूप पुष्प च़ढाकर जिनकी पूजा की, जिसने अपने ही हाथों से सिररूप कमलों को उतारकर त्रिपुरासुर के शत्रु शिव जी की अनेक बार पूजा की। जिसकी भुजा के पराक्रम को दसों दिग्पाल जानते हैं। हे दुय्! आज भी जिनके हृदय में शाल हो रहा है अर्थात्‌

[[७४०]]

स्मरण करने पर अपमान से उत्पन्न पीड़ा होती रहती है। मेरे हृदय की कठोरता, पूर्व आदि दिशाओं के हाथी जानते हैं, मैं जब–जब हठपूर्वक उनसे जाकर भिड़ता हूँ। जिन दिग्गजों के दाँत इन्द्र के वज्र से भी नहीं विदीर्ण होते वे ही मेरे हृदय की टक्कर लगते ही मूली की भाँति टूट जाते हैं अथवा, जिनके कठोर दाँत मेरे हृदय से लगते हुए स्वयं तो मेरी छाती को नहीं स्फुटित कर पाये अर्थात्‌ नहीं फाड़ पाये प्रत्युत्‌ स्वयं ही मूली की भाँति टूट गये। जिस रावण के चलते हुए पृथ्वी इस प्रकार हिलती है, जैसे मतवाले हाथी के च़ढने पर छोटी सी नाव इधर–उधर डगमगा जाती है, मैं वही जगत्‌ में प्रसिद्ध रावण हूँ। हे असत्य प्रलाप करने वाले अंगद! तूने अपने कान से क्या मुझे नहीं सुना है?

दो०– तेहि रावन कहँ लघु कहसि, नर कर करसि बखान।
रे कपि बर्बर खर्ब खल, अब जाना तव ग्यान॥२५॥

भाष्य

तू मुझ रावण को छोटा कहता है और मनुष्य राम का बखान करता है। अरे असभ्य जंगली छोटा अथवा अपूर्ण दुष्ट वानर! अब मैंने तेरा ज्ञान जान लिया।

**सुनि अंगद सकोप कह बानी। बोलु सँभारि अधम अभिमानी॥ सहसबाहु भुज गहन अपारा। दहन अनल सम जासु कुठारा॥ जासु परशु सागर खर धारा। बूड़े नृप अगनित बहु बारा॥ तासु गर्ब जेहि देखत भागा। सो नर क्यों दशशीष अभागा॥**
भाष्य

रावण का यह वचन सुनकर, अंगद जी क्रोधपूर्वक वचन बोले, हे नीच अहंकारी रावण! सम्भालकर बोल सहस्रबाहु के अपार भुजाओं के वन को भस्म करने के लिए, जिनका फरसा अग्नि के समान है और जिनके फरसे की तीव्रधारा में बहुत बार अगणित राजा डूब गये, उन परशुराम जी का गर्व भी जिन श्रीराम के दर्शन करते ही भग गया, हे भाग्यहीन रावण! वे श्रीराम किस प्रकार मनुष्य हैं?

**राम मनुज कस रे शठ बंगा। धन्वी काम नदी पुनि गंगा॥ पशु सुरधेनु कल्पतरु रूखा। अन्न दान किमि रस पीयूषा॥ बैनतेय खग अहि सहसानन। चिंतामनि पुनि उपल दशानन॥ सुनु मतिमंद लोक बैकुंठा। लाभ कि रघुपति भगति अकुंठा॥** **दो०– सैन सहित तव मान मथि, बन उजारि पुर जारि।**

कस रे शठ हनुमान कपि, गयउ जो तव सुत मारि॥२६॥

भाष्य

अरे मूर्ख रावण! श्रीराम कैसे मनुष्य हैं? क्या कामदेव सामान्य धनुर्धर हैं? क्या गंगा जी साधारण नदी हैं? क्या कामधेनु साधारण पशु है? क्या कल्पवृक्ष पेड़ है? क्या अन्न दान है? क्या अमृत साधारण पेय है? क्या गरुड़देव जी साधारण पक्षी हैं? क्या शेषनाग साधारण सर्प हैं? हे दसमुखों वाला रावण! क्या चिन्तामणि पत्थर है? हे मन्दबुद्धि रावण! क्या वैकुण्ठ अर्थात्‌ संसार की कुण्ठाओं से रहित साकेतलोक सामान्य लोक है? क्या अकुण्ठित भगवान्‌ की भक्ति साधारण लाभ है? अरे दुष्ट रावण! जो तेरी सेना के सहित तेरा अहंकार नष्ट करके, वन को उजाड़कर और तेरे पुत्र अक्षकुमार का वध करके गये, क्या वे हनुमान जी महाराज साधारण वानर हैं? अर्थात्‌ यदि कामदेव, गंगा जी, कामधेनु, कल्पवृक्ष, अन्न, अमृत, गरुड़, शेष, चिन्तामणि, श्रीरामभक्ति एवं श्रीरामभक्त हनुमान जी साधारण नहीं हैं, इन्हें सीमाओं में बाँध देना अपराध है, तो फिर इन सबके नियामक श्रीराम को मनुष्य क्यों मानना चाहिए ?

[[७४१]]

**सुनु रावन परिहरि चतुराई। भजसि न कृपासिंधु रघुराई॥ जौ खल भएसि राम कर द्रोही। ब्रह्म रुद्र सक राखि न तोही॥ मू़ढ बृथा जनि मारसि गाला। राम बैर अस होइहि हाला॥ तव सिर निकर कपिन के आगे। परिहैं धरनि राम शर लागे॥ ते तव सिर कंदुक सम नाना। खेलिहैं भालु कीस चौगाना॥ जबहिं समर कोपिहिं रघुनायक। छुटिहैं अति कराल बहु सायक॥ तब कि चलिहि अस गाल तुम्हारा। अस बिचारि भजु राम उदारा॥**
भाष्य

हे रावण! सम्पूर्ण चतुरता छोड़कर, कृपा के सागर रघुकुल के राजा श्रीराम का भजन क्यों नही करता? हे दुष्ट रावण! यदि तू श्रीराम का द्रोही हो रहा है, तब ब्रह्मा जी, शिव जी और उपलक्षणतया विष्णु जी भी तुझे नहीं रख सकेंगे। हे मूर्ख! तू झूठ ही अपना गाल मत पीट, श्रीराम से वैर करने पर ऐसा ही परिणाम होगा जब श्रीराम के बाणों के लगने से तेरे सिरों के समूह पृथ्वी पर गिरेंगे तब उन्हीं तेरे सिरों को वानर और भालु चौगाना अर्थात्‌ गेंद खेलने के मैदान में अनेक गेंदों की भाँति खेलेंगे। जब युद्ध में भगवान्‌ श्रीराम क्रुद्ध होंगे और उनके अत्यन्त भयंकर बहुत से बाण छूटेंगे, तब क्या तुम्हारा इसी प्रकार से गाल चलेगा? अर्थात्‌ तब क्या तुम इसी प्रकार तथ्यहीन बात बोल सकोगे? ऐसा विचार करके उदार श्रीराम का भजन करो।

**सुनत बचन रावन परिजरा। जरत महानल जनु घृत परा॥** **दो०– कुंभकरन सम बंधु मम, सुत प्रसिद्ध शक्रारि।**

मोर पराक्रम सुनेसि नहिं, जितेउँ चराचर झारि॥२७॥

भाष्य

ऐसा सुनकर रावण इस प्रकार जल पड़ा मानो जलती हुई अग्नि में घी पड़ गया हो और बोला, हे दुष्ट! कुम्भकरण जैसा मेरा भ्राता है और इन्द्र का प्रसिद्ध शत्रु इन्द्रजीत मेरा पुत्र है। उस मुझ रावण का पराक्रम क्या तूने नहीं सुना है, जिसने सम्पूर्ण चर–अचर को जीत लिया है?

**शठ शाखामृग जोरि सहाई। बाँधा सिंधु इहइ प्रभुताई॥ नाघहिं खग अनेक बारीशा। सूर न होहिं ते सुनु शठ कीशा॥**
भाष्य

अरे दुष्ट! वानरों की सहायता जोड़कर अर्थात्‌ अपने सहायकों के रूप में शाखाओं पर च़ढनेवाले वानरों को इकट्ठा करके राम ने सागर को बाँध लिया क्या यही वीरता है? अनेक पक्षी भी सागर को लाँघ जाते हैं, अरे दुष्ट बन्दर! सुन, वे वीर नहीं होते।

**मम भुज सागर बल जल पूरा। जहँ बूड़े बहु सुर नर शूरा॥ बीस पयोधि अगाध अपारा। को अस बीर जो पाइहि पारा॥**
भाष्य

बलरूप जल से पूर्ण मेरी बीस भुजायें ही बीस सागर हैं, जहाँ बहुत से शूरवीर, देवता और मनुष्य डूब चुके हैं। संसार में ऐसा कौन योद्धा है, जो मेरे अगाध और अपारणीय बीस समुद्रों का पार पा सके?

**दिगपालन मैं नीर भरावा। भूप सुजस खल मोहि सुनावा॥ जौ पै समर सुभट तव नाथा। पुनि पुनि कहसि जासु गुन गाथा॥ तौ बसीठि पठवत केहि काजा। रिपु सन प्रीति करत नहिं लाजा॥ हरगिरि मथन निरखु मम बाहू। पुनि शठ कपि निज प्रभुहिं सराहू॥**
भाष्य

मैंने दिग्पालों से भी अपने घर का पानी भरवाया। अरे दुष्ट! तू सामान्य राजा का यश मेरे सामने सुना रहा है। जिनकी गुणगाथायें तू बार–बार सुना रहा है वे ही तेरे स्वामी राम यदि युद्ध में श्रेष्ठ वीर हैं तो वे सन्धि का

[[७४२]]

प्रस्ताव लेकर बारम्बार अपने दूत लंका में क्यों भेजते हैं? क्या उनको अपने स्वाभाविक शत्रु रावण से प्रीति का प्रस्ताव करते हुए लज्जा नहीं आती? रे दुष्ट वानर! प्रथम तो शिव जी के पर्वत कैलाश को भी उखाड़कर उठा लेने वाली मेरी बाहुओं को देख, फिर अपने प्रभु राम की सराहना कर।

दो०– शूर कवन रावन सरिस, स्वकर काटि जेहिं शीश।
हुने अनल महँ बार बहु, हरषित साखि गिरीश॥२८॥

भाष्य

मुझ रावण के समान कौन शूरवीर है, जिसने प्रसन्न होकर अपने मस्तकों को काटकर अनेक बार अग्नि में हवन किया? इसके साक्षी भगवान्‌ शङ्कर हैं।

**जरत बिलोकेउ जबहिं कपाला। बिधि के लिखे अंक निज भाला॥ नर के कर आपन बध बाँची। हसेउँ जानि बिधि गिरा असाँची॥ सोउ मन समुझि त्रास नहिं मोरे। लिखा बिरंचि जरठ मति भोरे॥ आन बीर बल शठ मम आगे। पुनि पुनि कहसि लाज पति त्यागे॥**
भाष्य

जब मैंने अग्नि में जलते हुए अपने सिरों को देखा तब अपने मस्तकों पर ब्रह्मा जी के लिखे हुए अंकों (अक्षरों) में मनुष्य के हाथ से अपनी मृत्यु प़ढकर ब्रह्मा जी की वाणी को असत्य जानकर हँस पड़ा। वह समझकर भी मेरे मन में डर नहीं है, क्योंकि यह तो बू़ढे ब्रह्मा ने अपनी बू़ढी बुद्धि के धोखे से लिख दिया। रे शठ! मेरे समक्ष लज्जा और मर्यादा छोड़कर तू अन्य वीरों का बल कह रहा है।

**कह अंगद सलज्ज जग माहीं। रावन तोहि समान कोउ नाहीं॥** **लाजवंत तव सहज सुभाऊ। निज मुख निज गुन कहसि न काऊ॥**

सिर अरु शैल कथा चित रही। ताते बार बीस तैं कही॥
सो भुजबल राखेहु उर घाली। जीतेहु सहसबाहु बलि बाली॥ सुनु मतिमंद देहि अब पुरा। काटे शीष कि होइअ शूरा॥ ऐंद्रजालि कहिं कहिय न बीरा। काटइ निज कर सकल शरीरा॥

भाष्य

अंगद जी ने कहा, हे रावण! तुम्हारे समान संसार में कोई भी सलज्ज नहीं है। तेरा तो जन्म से ही लज्जावान स्वभाव है। तूने तो कभी भी अपने मुख से अपने गुण नहीं कहे। तेरे मन में शिव जी और पर्वत की कथा ही स्मरण रही है, इसलिए तुमने उसे बीसों बार दुहरायी। तूने भुजाओं के उस बल को तो अपने हृदय में छिपा रखा है जिससे तूने सहस्रबाहु, बलि और बालि को जीता था। हे मन्दबुद्धि रावण! अब पूरा पड़ने दे अर्थात्‌ चुप रह। कोई सिर काट कर वीर नहीं बनता, ऐन्द्रजालिक (जादूगर) को कोई वीर नहीं कहता, जो अपने ही हाथ से सम्पूर्ण शरीर को काट डालता है।

**दो०– जरहिं पतंग बिमोह बश, भार बहहिं खर बृंद।** **ते नहिं शूर कहावहिं, समुझि देखु मतिमंद॥२९॥**
भाष्य

पतिंगा मोहवश होकर दीपक पर कूदकर जल जाता है और गधों के समूह बोझ ढोते हैं, वे वीर नहीं कहलाते। हे मन्दबुद्धि रावण! समझकर देख अर्थात्‌ तू अपने सिरों को हवन करके डींग हाँकता है, जबकि ऐसा तो पतंगे भी करते हैं। अत: तू पतिंगा हो सकता है, वीर नहीं। तू कहता है कि अपनी भुजा पर तूने कैलाश उठा लिया इस प्रकार तो गधे भी बोझ ढोया करते हैं, अत: तू गधा है।

**अब जनि बतब़ढाव खल करही। सुनु मम बचन मान परिहरही॥ दशमुख मैं न बसीठी आयउँ। अस बिचारि रघुबीर पठायउँ॥** [[७४३]]

बार बार अस कहेउ कृपाला। नहिं गजारि जस बधे शृगाला॥ मन महँ समुझि बचन प्रभु केरे। सहेउँ कठोर बचन शठ तेरे॥ नाहिं त करि मुख भंजन तोरा। लै जातेउँ सीतहिं बरजोरा॥ जानेउँ तव बल अधम सुरारी। सूने हरि आनिहि परनारी॥ तैं निशिचरपति गर्ब बहूता। मैं रघुपति सेवक कर दूता॥ जौ न राम अपमानहिं डरऊँ। तोहि देखत अस कौतुक करऊँ॥

भाष्य

हे दुष्ट! अब बतब़ढाव मत कर अर्थात्‌ बात मत ब़ढा। मेरे वचन सुनकर अपने अहंकार छोड़ दे। हे रावण! मैं दूत बनकर नहीं आया हूँ, ऐसा विचार करके रघुकुल के वीर भगवान्‌ श्रीराम द्वारा मैं भेजा गया हूँ, कृपालु श्रीराम ने मुझ से इस प्रकार बार–बार कहा है कि गीदड़ का वध करने पर सिंह का यश नहीं होता अर्थात्‌ रावण गीदड़ और वानर सैनिक सिंह हैं। हे रावण! प्रभु श्रीराम के वचनों को मन में समझकर मैंने तेरे कठोर वचन सह लिए, नहीं तो तेरे मुखों को तोड़कर मैं बलपूर्वक भगवती श्रीसीता को ले जाता। हे नीच देवशत्रु रावण! मैं तेरा बल जान चुका हूँ। तू सूने में ही परायी नारी का हरण कर ले आया। तू राक्षसों का स्वामी है, इसलिए तुझे बहुत गर्व है। मैं सम्पूर्ण जीवों के स्वामी भगवान्‌ श्रीराम जी के सेवक का दूत हूँ। यदि मैं भगवान्‌ श्रीराम के अपमान से नहीं डरता होता, तो तुझे देखते–देखते यह कौतुक कर देता।

**दो०– तोहि पटकि महि सेन हति, चौपट करि तव गाउँ।** **मन्दोदरी समेत शठ, जनकसुतहिं लै जाउँ॥३०॥**
भाष्य

अरे शठ! तुझे पृथ्वी पर पछाड़कर, तेरी सेना को मारकर, तेरे गाँव अर्थात्‌ लंका को तहस–नहस करके, मन्दोदरी (सेविका के रूप में) के साथ मैं जनकनन्दिनी भगवती श्रीसीता को ले जा सकता हूँ।

**जौ अस करौं तदपि न बड़ाई। मुएहिं बधे नहिं कछु मनुसाई॥ कौल कामबश कृपन बिमू़ढा। अति दरिद्र अजसी अति बू़ढा॥ सदा रोगबश संतत क्रोधी। राम बिमुख श्रुति संत बिरोधी॥ तनु पोषक निंदक अघ खानी। जीवत शव सम चौदह प्रानी॥ अस बिचारि खल बधउँ न तोही। अब जनि रिस उपजावसि मोही॥**
भाष्य

यदि मैं ऐसा करूँ तो भी मेरी कोई बड़ाई नहीं है, क्योंकि मरे हुए को मारने में कोई मनस्विता नहीं होती। कौल (वाममार्गी, पंचमकार सेवी, कामी, कृपण, मोहग्रस्त), दरिद्र, अपयशयुक्त, अत्यन्त वृद्ध, निरन्तर रोगी, सदैव क्रोध करने वाले, श्रीराम से विमुख, वेदों और सन्तों का विरोध करने वाले, अपने शरीर का पोषक, निन्दक अर्थात्‌ सबकी निन्दा करने वाले और पाप की खानि अर्थात्‌ बहुत पाप करने वाले ये चौदह प्राणी जीवित होते हुए भी मृतक के समान होते हैं। अरे दुष्ट! तुझमें ये चौदहों दुर्गुण हैं, मैं ऐसा विचार करके तेरा वध नहीं कर रहा हूँ। अब मेरे मन में क्रोध उत्पन्न मत करा।

**सुनि सकोप कह निशिचर नाथा। अधर दशन दसि मीजत हाथा॥ रे कपि अधम मरन अब चहसी। छोटे बदन बात बकिड़ हसी॥ कटु जल्पसि ज़ड कपि बल जाके। बल प्रताप बुधि तेज न ताके॥**
भाष्य

अंगद जी के वचन सुनकर, दाँतों से ओष्ठ चबाकर, हाथ मलते हुए रावण क्रोधपूर्वक बोला, अरे अधम वानर! अब तू अपना मरण चाहता है, छोटे मुख से बड़ी-बड़ी बातें करता है। हे ज़ड वानर! तू जिस अपने स्वामी के बल पर इस प्रकार कटु और अनर्गल बोल रहा है उसके पास बल, प्रताप, बुद्धि और तेज कुछ भी नहीं है।

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**विशेष– **सरस्वती जी ने कहा, रावण तू ठीक कह रहा है, क्योंकि बल, प्रताप, बुद्धि और तेज यह भगवान्‌ से अलग नहीं हैं, जिससे उनमें रहेगा अर्थात्‌ गुणों के साथ भगवान्‌ का आधाराधेयभाव सम्बन्ध नहीं है, प्रत्युत्‌ गुण भगवत्‌स्वरूप हैं अर्थात्‌ गुणों का भगवान्‌ जी के साथ स्वरूप सम्बन्ध है।

दो०– अगुन अमान बिचारि तेहि, दीन्ह पिता बनबास।

**सो दुख अरु जुबती बिरह, पुनि निशि दिन मम त्रास॥३१(क)॥ भा०– **रावण ने कहा, तुम्हारे स्वामी राम को गुणरहित और मानरहित समझकर पिता ने वनवास दिया। एक तो उन्हें वह वनवास का दु:ख है, फिर पत्नी का विरह है और फिर रात–दिन मेरा डर है।

**विशेष– **सरस्वती जी ने कहा कि भगवान्‌ श्रीराम जी के पास सत्व, रजस, तमस ये तीनों मायिकगुण नहीं हैं और उनमें मान अर्थात्‌ अहंकार भी नहीं है, इसलिए पिता जी ने इन्हें वनवास दिया, जिससे ये वनवासी मुनियों की सेवा कर सकें। इनके गुण भी अव्यक्त हैं, जिसे समान्य जीव नहीं देख सकता।

जिन्ह के बल कर गर्ब तोहि, ऐसे मनुज अनेक।
खाहिं निशाचर दिवस निशि, मू़ढ समुझु तजि टेक॥३१(ख)॥

भाष्य

रावण कहता है, हे मूर्ख! हठ छोड़कर समझ, जिन राम के बल का तुझे गर्व है, ऐसे अनेक मनुष्यों को राक्षस रात–दिन खाते रहते हैं।

**जब तेहि कीन्ह राम कै निंदा। क्रोधवंत अति भयउ कपिंदा॥ हरि गुरु निंदा सुनइ जो काना। होइ पाप गोघात समाना॥**
भाष्य

जब रावण ने भगवान्‌ श्रीराम की निन्दा की तब वानरश्रेष्ठ अंगद जी बहुत क्रुद्ध हो गये। श्रीहरि और गुरु की निन्दा जो सुन लेता है, उस पर कोई प्रतिक्रिया नहीं करता, उसे गोवध के समान पाप लगता है।

**कटकटान कपिकुंजर भारी। दुहुँ भुजदंड तमकि महि मारी॥ डोलत धरनि सभासद खसे। चले भाजि भय मारुत ग्रसे॥**
भाष्य

अत्यन्त विशाल वानरश्रेष्ठ अंगद जी कटकटाये अर्थात्‌ दाँतो को रग़डा और क्रोध करके अपनी दोनों भुजाओं से पृथ्वी को मारा अर्थात्‌ दोनों भुजाओं को पृथ्वी पर पटक दिया। पृथ्वी हिली सारे सभासद गिर पड़े और भयरूप वायु से ग्रस्त होकर भग चले।

**गिरत दशानन उठेउ सँभारी। भूतल परेउ मुकुट षट चारी॥ कछु तेहिं लै निज सिरनि सँवारे। कछु अंगद प्रभु पास पबारे॥**
भाष्य

रावण गिरते हुए सम्भालकर उठा और उसके षट्‌चारी अर्थात्‌ छ: और चार यानी दसों मुकुट पृथ्वी पर गिर पड़े। कुछ मुकुटों को लेकर रावण ने अपने सिरों पर पहन लिया और कुछ मुकुटों को (चार को) लेकर अंगद जी ने प्रभु श्रीराम के पास भेज दिया।

**आवत मुकुट देखि कपि भागे। दिनहीं लूक परन बिधि लागे॥ की रावन करि कोप चलाए। कुलिश चारि आवत अति धाए॥ कह प्रभु हँसि जनि हृदय डेराहू। लूक न अशनि केतु नहिं राहू॥ ए किरीट दशकंधर केरे। आवत बालितनय के प्रेरे॥** [[७४५]]
भाष्य

मुकुटों को आते हुए देखकर वानर भगे और बोले, हे ब्रह्मा! दिन में ही उल्कापात होने लगा अथवा रावण ने ही क्रोध करके चार वज्र भेज दिये हैं, जो बहुत दौड़ते हुए आ रहे हैं। भगवान्‌ श्रीराम ने हँसकर कहा, ये न तो उल्का हैं न तो वज्र, तुम लोग हृदय में मत डरो, यह न तो केतु है और न ही राहु, यह तो रावण के चार मुकुट हैं, जो बालिपुत्र अंगद जी की प्रेरणा से चले आ रहे हैं। इन्हें अंगद जी ने हमारे पास फेंका है।

**विशेष– **विभीषण जी को राजतिलक देने के पश्चात्‌ भगवान्‌ श्रीराम को उनके मुकुट का संकट था। अत: प्रभु की लीलाशक्ति ने रावण के चार मुकुट अंगद से प्रभु के पास फिंकवा दिये।

दो०– तरकि पवनसुत कर गहे, आनि धरे प्रभु पास।

**कौतुक देखहिं भालु कपि, दिनकर सरिस प्रकास॥३२॥ भा०– **पवनपुत्र हनुमान जी ने उछलकर उन मुकुटों को हाथ में पक़ड लिया और ले आकर प्रभु के पास रख दिया। सूर्य के समान प्रकाशवाले चारों मुकुटों को वानर लोग कौतुहल से देखने लगे।

उहाँ कहत दशकन्ध रिसाई। धरि मारउ कपि भाजि न जाई॥ एहि बधि बेगि सुभट सब धावहु। खाहु भालु कपि जहँ जहँ पावहु॥

**महि अकीश करि फेरि दोहाई। जियत धरहु तापस द्वौ भाई॥ भा०– **उधर रावण ने क्रुद्ध होकर कहा, इस वानर को पक़डकर मार डालो, जिससे यह भाग न जाये। इसे मारकर सभी योद्धाओं चारों ओर दौड़ो और जहाँ–जहाँ पाओ वानर–भालुओं को खा जाओ। पृथ्वी को वानरों से हीन करके मेरी दुहाई फेर दो और जीते जी तपस्वी दोनों भाइयों को पक़ड लो।

पुनि सकोप बोलेउ जुबराजा। गाल बजावत तोहि न लाजा॥ मरु गर काटि निलज कुलघाती। बल बिलोकि बिहरति नहिं छाती॥ रे त्रिय चोर कुमारग गामी। खल मल राशि मंद मति कामी॥
सन्निपात जल्पसि दुर्बादा। भएसि कालबश खल मनुजादा॥

याको फल पावहिगो आगे। बानर भालु चपेटनि लागे॥

भाष्य

फिर यह सुनकर युवराज अंगद जी क्रोध करके बोले कि गाल बजाने में तुझे लज्जा नहीं लगती। हे निर्लज्ज राक्षसकुल को नय् करने वाले रावण! तू गला काटकर मर जा। प्रभु के द्वारा दिये हुए मेरे बल को देखकर तेरी छाती नहीं फटती। हे स्त्री-चोर, बुरे मार्ग पर चलनेवाला, मलों की राशि, खल, मन्दमति और कामी! तू सन्निपात के कारण इस प्रकार के दुर्बाद बोल रहा है। हे नरभक्षी खल! अब तू काल के वश में हो गया है। इसका फल तू आगे पायेगा, जब वानरों और भालुओं के थप्पड़ लगेंगे।

**राम मनुज बोलत असि बानी। गिरिहिं न तव रसना अभिमानी॥ गिरिहैं रसना संशय नाहीं। सिरन समेत समर महि माहीं॥**
भाष्य

हे अभिमानी! श्रीराम मनुष्य हैं, ऐसी वाणी बोलते हुए तुम्हारी जीभ नहीं गिर पड़ती? तुम्हारी जीभ गिरेगी इसमें कोई सन्देह नहीं है, पर वह रणभूमि में सिरों के साथ गिरेगी।

**सो०– सो नर क्यों दशकंध, बालि बध्यो जेहिं एक शर।** **बीसहुँ लोचन अंध, धिग तव जन्म कुजाति ज़ड॥३३\(क\)**
भाष्य

हे रावण! वे प्रभु श्रीराम कैसे मनुष्य हो सकते हैं, जिन्होंने एक ही बाण में बालि को मार दिया, तू तो बीसों नेत्रों से अन्धा है। हे कुजाति ज़ड! तेरे जन्म को धिक्कार है।

[[७४६]]

**तव शोनित की प्यास, तृषित रामसायक निकर।**

तजउँ तोहि तेहि त्रास, कटु जल्पक निशिचर अधम॥३३(ख)

भाष्य

हे कटु बोलने वाले अधम राक्षस! भगवान्‌ श्रीराम के बाणों के समूह तेरे रक्त की प्यास से प्यासे हैं, उन्हीं के डर से मैं तुम्हें छोड़ रहा हूँ।

**मैं तव दशन तोरिबे लायक। आयसु मोहि न दीन्ह रघुनायक॥ असि रिसि होति दसउ मुख तोरौं। लंका गहि समुद्र महँ बोरौं॥**
भाष्य

मैं तेरे दाँतों को तोड़ने में समर्थ हूँ, परन्तु रघुकुल के नायक भगवान्‌ श्रीराम ने आज्ञा नहीं दी है। मुझे ऐसा क्रोध हो रहा है कि तेरे दसों मुखों को तोड़ दूँ और लंका को पक़डकर सागर में डुबो दूँ।

**गूलरि फल समान तव लंका। बसहु मध्य तुम जंतु अशंका॥ मैं बानर फल खात न बारा। आयसु दीन्ह न राम उदारा॥**
भाष्य

तुम्हारी लंका गूलर के फल के समान है, उसके मध्य तुम मच्छरों की भाँति निर्विघ्न रूप से रह रहे हो। मैं वानर हूँ मुझे फल खाने में देर नहीं लगेगी, परन्तु उदार श्रीराम ने मुझे आज्ञा नहीं दी है।

**जुगुति सुनत रावन मुसुकाई। मू़ढ सिखेसि कहँ बहुत झुठाई॥ बालि न कबहुँ गाल अस मारा। मिलि तपसिन तैं भएसि लबारा॥**
भाष्य

अंगद जी के मुख से ऐसी उक्ति सुनकर, रावण मुस्कुराने लगा और बोला, रे मूर्ख! तू बहुत झूठ बोलना कहाँ से सीख लिया? बालि ने कभी भी इस प्रकार का गाल नहीं पीटा, तपस्वियों से मिलकर तू बहुत लबार हो गया अर्थात्‌ अत्यन्त असत्यवादी हो गया।

**साँचेहुँ मैं लबार भुज बीहा। जौं न उपारेउँ तव दश जीहा॥ राम प्रताप सुमिरि कपि कोपा। सभा माझ पन करि पद रोपा॥**
भाष्य

(अंगद जी बोले–) हे बीस भुजा वाले रावण! सत्य ही मैं लबार हो गया हूँ, जो भगवान्‌ की निन्दा करने पर भी तुम्हारी बीसों जीभ नहीं उखाड़ी भगवान्‌ श्रीराम के प्रताप का स्मरण करके वानरश्रेष्ठ अंगद जी क्रुद्ध हो गये और रावण की सभा के बीच में प्रतिज्ञा करके अपने चरण को जमा दिया।

**जौ मम चरन सकसि शठ टारी। फिरिहिं रामसीता मैं हारी॥ सुनहु सुभट सब कह दशशीशा। पद गहि धरनि पछारहु कीशा॥**
भाष्य

अंगद जी बोले, अरे दुय् रावण! यदि तू मेरे जमाये हुए चरण को टला सकेगा अर्थात्‌ हटा देगा तब श्रीराम एवं भगवती श्रीसीता लौट जायेंगे और मैं हार जाऊँगा अर्थात्‌ वानरी सेना का आक्रमण बन्द करा दूँगा अथवा, मुझे हारकर श्रीसीताराम जी स्वयं लौट जायेंगे। रावण ने कहा, हे वीरों! सुनो, चरण पक़डकर वानर को पृथ्वी पर पटक दो।

**विशेष– **यहाँ प्रारम्भ से अब तक के टीकाकार भ्रम में रहे हैं। सबने यही लिखा कि अंगद जी कहते हैं कि यदि रावण मेरे चरण हटा देगा तो श्रीराम लौट जायेंगे और श्रीसीता को मैं हार जाऊँगा, परन्तु क्या अंगद जी श्रीसीता को हार सकते हैं और क्या अंगद जी को इस प्रकार कहने का अधिकार है, कभी नहीं। अत: यहाँ दो वाक्य बनाकर ही अर्थ करना चाहिये। “***फिरिहिं** रामसीता मैं हारी”, *अर्थात्‌ सीताराम जी लौट जायेंगे और मैं अपनी हार स्वीकार कर लूँगा।

[[७४७]]
इंद्रजीत आदिक बलवाना। हरषि उठे जहँ तहँ भट नाना॥ झपटहिं करि बल बिपुल उपाई। पद न टरइ बैठहिं सिर नाई॥ पुनि उठि झपटहिं सुर आराती। टरइ न कीस चरन एहि भाँती॥ पुरुष कुजोगी जिमि उरगारी। मोह बिटप नहिं सकहि उपारी॥

भाष्य

रावण की बात सुनकर, इन्द्रजीत आदि जहाँ–तहाँ अनेक वीर प्रसन्न होकर उठे। अनेक उपाय करके वीर राक्षस झपटते हैं, अंगद जी का चरण टलता नहीं और सिर झुकाकर बैठ जाते हैं। हे गरुड़ जी! सुनिये, फिर देवताओं के शत्रु राक्षस पैर उठाने के लिए झपटते हैं और वह अंगद जी का चरण इस प्रकार टस से मस नहीं होता, जैसे कुयोगी अर्थात्‌ योग को भौतिक सिद्धियों का साधन बनाने वाला व्यक्ति मोह के वृक्ष को नहीं उखाड़ पाता।

**दो०– कोटिन मेघनाद सम, सुभट उठे हरषाइ।**

**झपटहिं टरै न कपि चरन, पुनि बैठहिं सिर नाइ॥३४(क)॥ भा०–**मेघनाद के समान करोड़ों राक्षस वीर प्रसन्न होकर उठे, वे वेग से दौड़ते हैं। अंगद जी का चरण नहीं टलता, फिर मस्तक नवाकर बैठ जाते हैं।

भूमि न छाड़त कपि चरन, देखत रिपु मद भाग।
कोटि बिघ्न ते संत कर, मन जिमि नीति न त्याग॥३४(ख)॥

भाष्य

अंगद जी का चरण पृथ्वी को नहीं छोड़ रहा है और पृथ्वी अंगद जी के चरण को नहीं छोड़ रही है। यह देखकर शत्रु रावण का मद भग गया। अंगद जी के चरण की स्थिति यह है, जैसे करोड़ों विधियों से आहत हुआ सन्तों का मन नीति को नहीं छोड़ता उसी प्रकार अंगद जी का चरण पृथ्वी को नहीं छोड़ रहा है।

**कपि बल देखि सकल हिय हारे। उठा आपु जुबराज प्रचारे॥ गहत चरन कह बालिकुमारा। मम पद गहे न तोर उबारा॥ गहसि न राम चरन शठ जाई। सुनत फिरा मन अति सकुचाई॥ भयउ तेजहत श्री सब गई। मध्य दिवस जिमि शशि सोहई॥**
भाष्य

अंगद जी का बल देखकर सभी लोग हृदय में हार गये। युवराज अंगद जी के ललकारने पर स्वयं रावण उठा। रावण द्वारा अपना चरण पक़डे जाते हुए देखकर बालिपुत्र अंगद जी ने कहा, अरे रावण! मेरा पग पक़डने से तेरा बचाव नहीं होगा। अरे दुष्ट! तू जाकर श्रीराम के श्रीचरण क्यों नहीं पक़ड लेता? यह सुनते ही मन में अत्यन्त संकुचित होते हुए रावण लौटा, उसका तेज समाप्त हो गया और सारी शोभा चली गयी, जैसे मध्याह्न में चन्द्रमा शोभित होता है।

__**सिंघासन बैठा **

सिर नाई। मानहुँ संपति सकल गँवाई॥
**__जगदातमा प्रानपति **

रामा। तासु बिमुख किमि लह बिश्रामा॥
उमा राम की भृकुटि बिलासा। होइ बिश्व पुनि पावइ नासा॥ तृन ते कुलिश कुलिश तृन करई। तासु दूत पन कहु किमि टरई॥

भाष्य

शिव जी पार्वती जी को सम्बोधित करते हुए कहते हैं कि हे उमा! श्रीराम जगदात्मा हैं अर्थात्‌ यह जगत्‌ श्रीराम की आत्मा यानी शरीर है। वे प्राणों के भी पति हैं, उनसे विमुख होकर रावण कैसे विश्राम पा सकता है? हे पार्वती! भगवान्‌ श्रीराम जी के भृकुटि के विलासमात्र से संसार होता है, फिर नाश को प्राप्त कर लेता है अर्थात्‌

[[७४८]]

नष्ट हो जाता है। भगवान्‌ श्रीराम तृण से वज्र और वज्र से तृण कर देते हैं अर्थात्‌ तिनके को वज्र और वज्र को तिनका बना डालते हैं। भला बताओ, उन प्रभु के दूत का प्रण कैसे टलेगा?

**विशेष– *जगदात्मा शब्द बहुव्रीहि समास से समस्त हुआ है। आत्मा पद का शरीर अर्थ है, यथा– आत्मा शरीरे जगत्‌ आत्मा यस्य स जगदात्मा अर्थात्‌ सम्पूर्ण संसार भगवान्‌ श्रीरामजी का शरीर है “जगत्‌ सर्वं शरीरं ते।” *(वा०रा० ६/११७/२७.)

पुनि कपि कही नीति बिधि नाना। मान न ताहि काल नियराना॥ रिपु मद मथि प्रभु सुजस सुनायो। यह कहि चल्यो बालि नृप जायो॥ हतौं न खेत खेलाइ खेलाई। तोहि अबहिं का करौं बड़ाई॥

भाष्य

फिर अंगद जी ने अनेक प्रकार की नीति कही, परन्तु रावण ने नहीं मानी, क्योंकि काल उसके निकट आ गया था। फिर शत्रु रावण के मद का मथन अर्थात्‌ विनाश करके वानरराज बालिपुत्र अंगद जी ने रावण को प्रभु श्रीराम का सुयश सुनाया और यह कहकर चल पड़े कि तुमको रणभूमि में खेला–खेलाकर मैं अभी नहीं मार सक रहा हूँ, क्योंकि प्रभु की आज्ञा नहीं है तो फिर क्या बड़ाई करूँ? अथवा, जब तक मैं तुझे रणभूमि में खेल–खेल में न मारूँ तब तक क्या बड़ाई करूँ?

**प्रथमहिं तासु तनय कपि मारा। सो सुनि रावन भयउ दुखारा॥ जातुधान अंगद बल देखी। भय ब्याकुल सब भए बिशेषी॥**
भाष्य

सभा में प्रवेश करने के प्रथम ही अंगद जी ने रावण के पुत्र का वध किया था, वह सुनकर रावण बहुत दु:खी हुआ। अंगद जी की प्रतिज्ञा देखकर राक्षस लोग भय से विशेष व्याकुल हो उठे।

**दो०– रिपु बल धरषि हरषि हिय, बालितनय बल पुंज।** **सजल सुलोचन पुलक तन, गहे राम पद कंज॥३५\(क\)॥**
भाष्य

शत्रु के बल का प्रदर्शन करके अर्थात्‌ उसे रौंदकर, मन में प्रसन्न होकर बल के पुंज बालिपुत्र अंगद जी नेत्रों में आँसू और शरीर में रोमांचित होकर भगवान्‌ श्रीराम जी के श्रीचरणों को पक़ड लिए।

**साँझ जानि दशकंधर, भवन गयउ बिलखाइ।** **मंदोदरि तब रावनहिं, बहुरि कहा समुझाइ॥३५\(ख\)॥**
भाष्य

सन्ध्या जानकर दस कन्धरों वाला रावण दु:खी होकर अपने भवन गया। तब मन्दोदरी ने फिर रावण को समझाकर कहा–

**कंत समुझि मन तजहु कुमतिहीं। सोह न समर तुमहिं रघुपतिहीं॥ रामानुज लघु रेख खँचाई। सोउ नहिं नाघेहु असि मनुसाई॥ पिय तुम ताहि जितब संग्रामा। जाके दूत केर यह कामा॥ कौतुक सिंधु नाघि तव लंका। आयउ कपि केहरी अशंका॥ रखवारे हति बिपिन उजारा। देखत तोहि अक्ष तेहिं मारा॥ जारि सकल पुर कीन्हेसि छारा। कहाँ रहा बल गर्ब तुम्हारा॥**
भाष्य

हे पति! मन में समझकर कुबुद्धि छोड़ दो रघुकल के स्वामी भगवान्‌ श्रीराम जी के साथ युद्ध तुम्हें शोभा नहीं देता। श्रीराम के छोटे भाई लक्ष्मण जी ने जो छोटी–सी अपने धनुष से रेखा खींची थी उसको भी तुम नहीं लांँघ पाये और छल करके सीता जी को रेखा लांघने के लिए विवश कर दिया, यही तुम्हारा पुरुषार्थ है। हे

[[७४९]]

प्रेमास्पद! तुम उन श्रीराम को युद्ध में जीतोगे जिनके दूत का आज यह कर्म राजसभा में दिखा कि तुम सभी लोग अंगद के छोटे पैर को भी नहीं डिगा सके? खेल–खेल में सौ योजन का समुद्र लाँघकर कपि केशरी अर्थात्‌ वानर सिंह हनुमान जी तुम्हारी लंका में निर्भीक होकर आये और तुम्हारे रक्षकों को मारकर वन उजाड़ डाला। तुम्हारे देखते–देखते अक्षकुमार का वध कर दिया। हनुमान जी ने सम्पूर्ण नगर जलाकर खाक कर दिया। उस समय आपका बल और गर्व कहाँ था?

अब पति मृषा गाल जनि मारहु। मोर कहा कछु हृदय बिचारहु॥ पति रघुपतिहिं नृपति जनि मानहु। अग जग नाथ अतुल बल जानहु॥

भाष्य

हे पति रावण! अब झूठ का गाल मत पीटो अर्थात्‌ निरर्थक मत बोलो। मेरे कथन पर कुछ हृदय में विचार कर लो। हे पतिदेव! श्रीराम को मनुष्य राजा मत समझो उन्हें ज़ड-चेतन सब का ईश्वर और अतुल बलवाला जानो।

**बान प्रताप जान मारीचा। तासु कहा नहिं मानेहु नीचा॥ जनक सभा अगनित भूपाला। रहे तुमहु बल बिपुल बिशाला॥ भंजि धनुष जानकी बियाही। तब संग्राम जितेहु किन ताही॥ सुरपति सुत जानइ बल थोरा। राखा जियत आँखि गहि फोरा॥ सूपनखा कै गति तुम देखी। तदपि हृदय नहिं लाज बिशेषी॥**
भाष्य

भगवान्‌ श्रीराम के बाण का प्रभाव मारीच जानता था। अरे नीच! तुमने उसका भी कहा नहीं माना। जनक जी की सभा में सीता जी के स्वयंवर के निमित्त अनगिनत राजा आये थे उनमें अत्यन्त विशाल बल वाले तुम भी तो थे। श्रीराम ने शिवधनुष तोड़कर भगवती जानकी जी को ब्याहा तब उन्हें तुमने युद्ध में क्यों नहीं जीता? इन्द्र का पुत्र जयन्त भगवान्‌ श्रीराम का थोड़ा-सा बल जानता है, उसे भगवान्‌ ने जीवित रखा और उसे पक़डकर उसकी एक आँख फोड़ दी। तुमने शूर्पणखा की भी गति देखी फिर भी तुम्हारे हृदय में विशेष लज्जा नहीं आयी।

**विशेष– **इस चरित्र को मन्दोदरी सम्भाल कर नहीं गा पायी, क्योंकि भगवान्‌ श्रीराम ने जयन्त की आँख नहीं फोड़ी, केवल उसकी दृय्ि संसार से हटाकर अपने श्रीचरणों में कर दिया, इस लिए मन्दोदरी को वैधव्य आदि देखना पड़ा।

दो०– बधि बिराध खर दूषनहिं, लीलहिं हत्यो कबंध।
बालि एक शर मारेउ, तेहि जानहु दशकंध॥३६॥

भाष्य

हे दस स्कन्धोंवाले रावण! जिन्होंने विराध, खर–दूषण–त्रिशिरा का वध करके खेल–खेल में कबन्ध का वध कर दिया और बालि को भी एक बाण से मार डाला, उन परमपराक्रमी परमात्मा श्रीराम को जान लो।

**जेहिं जलनाथ बँधायउ हेला। उतरे प्रभु दल सहित सुबेला॥ कारुनीक दिनकर कुल केतू। दूत पठायउ तव हित हेतू॥**
भाष्य

जिन्होंने खेल–खेल में समुद्र को बँधाया और सेना सहित सुबेल पर्वत पर उतर आये उन्हीं सर्वसमर्थ, नित्य

करुणाधाम, सूर्यकुल के पताकास्वरूप भगवान्‌ श्रीराम ने तुम्हारे हित के लिए दूत भेजा।

सभा माझ जेहिं तव बल मथा। करि बरूथ महँ मृगपति जथा॥ अंगद हनुमत अनुचर जाके। रन बाँकुरे बीर अति बाँके॥ तेहि कहँ पिय पुनि पुनि नर कहहू। मुधा मान ममता मद बहहू॥
[[७५०]]

अहह कंत कृत राम बिरोधा। काल बिबश मन उपज न बोधा॥ काल दंड गहि काहु न मारा। हरइ धर्म बल बुद्धि बिचारा॥ निकट काल जेहि आवत साईं। तेहि भ्रम होइ तुम्हारिहिं नाईं॥

भाष्य

जिस दूत ने तुम्हारी सभा के बीच तुम्हारे मद को उसी प्रकार समाप्त किया, जैसे हाथियों के बीच में सिंह जाकर उनके मद को चूर्ण कर देता है। हे प्रियतम! जिन श्रीराम के पास युद्ध में अत्यन्त कुशल और अत्यन्त अतुलित वीर अंगद और हनुमान जी सेवक हैं, उन्हीं को तुम बार–बार मनुष्य कह रहे हो और व्यर्थ ही ममता और मद की धारा में बह रहे हो। अरे खेद है! मेरे पति आप (रावण) ने श्रीराम से विरोध किया। काल के वश में होने के कारण आपके मन में ज्ञान ही नहीं उत्पन्न हो रहा है। काल किसी को डण्डे से नहीं मारता, वह तो धर्म, बल, बुद्धि और विचार को हरण कर लेता है। हे इन्द्रियों के स्वामी रावण! काल जिसके भी निकट आ जाता है, उसी को आप जैसा बुद्धिभ्रम हो जाता है।

**दो०– दुइ सुत मारेउ दहेउ पुर, अजहूँ पर तिय देहु।** **कृपासिंधु रघुनाथ भजि, नाथ बिमल जस लेहु॥३७॥**
भाष्य

हे प्रियतम! दो पुत्र मार डाले गये, नगर जला दिया गया, अब भी परायी तिय अर्थात्‌ सीता जी को अथवा, पर यानी परमेश्वर श्रीराम की तिय अर्थात्‌ पत्नी सीता जी को दे दीजिये। हे नाथ! कृपा के सागर श्रीरघुनाथ का भजन करके आप निर्मल यश ले लीजिये।

**नारि बचन सुनि बिशिख समाना। सभा गयउ उठि होत बिहाना॥ बैठ जाइ सिंघासन फूली। अति अभिमान त्रास सब भूली॥**
भाष्य

नारी मन्दोदरी के बाण जैसे वचनों को सुनकर रावण प्रात:काल होते ही सभा में चला गया और जाकर अहंकार में फूला हुआ सिंंहासन पर बैठ गया। अत्यन्त अभिमान के कारण प्रभु से होने वाला सम्पूर्ण भय भूल गया।

**इहाँ राम अंगदहिं बोलावा। आइ चरन पंकज सिर नावा॥ अति आदर समीप बैठारी। बोले बिहँसि कृपालु खरारी॥**
भाष्य

यहाँ सुबेल पर्वत पर भगवान्‌ श्रीराम ने अंगद जी को बुलाया और अंगद जी ने आकर भगवान्‌ के श्रीचरण कमलों को प्रणाम किया। कृपालु, खर राक्षस के शत्रु भगवान्‌ श्रीराम ने उन्हें अत्यन्त आदर से अपने निकट बैठाया और हँसकर बोले–

**बालितनय कौतुक अति मोहीं। तात सत्य कहु पूछउँ तोहीं॥ रावन जातुधान कुल टीका। भुज बल अतुल जासु जग लीका॥ तासु मुकुट तुम चारि चलाए। कहहु तात कवनी बिधि पाए॥**
भाष्य

हे बालिपुत्र अंगद! मुझे यह जानने का अत्यन्त कौतूहल है, इसलिए आपसे मैं पूछता हूँ, हे तात! आप मुझे सत्य–सत्य बताइये। रावण सम्पूर्ण राक्षसों का तिलक स्वरूप है, जिसकी भुजा की मर्यादा सम्पूर्ण संसार में प्रसिद्ध है, उसके चार मुकुट मेरे यहाँ फेंके, हे तात! आपने उसे किस प्रकार से प्राप्त किया?

**सुनु सर्बग्य प्रनत सुखकारी। मुकुट न होहिं भूप गुन चारी॥ साम दान अरु दंड बिभेदा। नृप उर बसहिं नाथ कह बेदा॥ नीति धर्म के चरन सुहाए। अस जिय जानि नाथ पहॅं आए॥** [[७५१]]
भाष्य

अंगद जी बोले, हे सर्वज्ञ! हे प्रणाम करने वालों को सुख देने वाले प्रभु श्रीराघव! सुनिये ये मुकुट नहीं राजा के चार गुण हैं। हे नाथ! वेद कहते हैं कि साम, दान, दण्ड, भेद ये चारों राजनीति धर्म के सुहावनें चरण, राजा के हृदय में निवास करते हैं। ये चारों हृदय में ऐसा जानकर, अपने आप ही आपश्री के श्रीचरणों में चले आये।

**दो०– धर्महीन प्रभु पद बिमुख, काल बिबश दशशीश।** **आए गुन तजि रावनहिं, सुनहु कोसलाधीश॥३८\(क\)॥**
भाष्य

हे अयोध्यापति श्रीराम ! सुनिये, दस सिरोंवाले रावण को साम, दान, दण्ड और भेद ये चारों गुण, धर्म से हीन, आपके श्रीचरणों से विमुख और काल के वशीभूत जानकर उसे छोड़कर आपश्री के यहाँ आ गये।

**परम चतुरता स्रवन सुनि, बिहँसे राम उदार।** **समाचार पुनि सब कहे, ग़ढ के बालिकुमार॥३८\(ख\)॥**
भाष्य

अंगद जी की परम चतुरता कानों से सुनकर उदार श्रीरामचन्द्र जी हँसे, फिर अंगद जी ने लंका–किले के सब समाचार कह सुनाये।

**\* मासपारायण, पच्चीसवाँ विश्राम \*** **रिपु के समाचार जब पाए। राम सचिव सब निकट बोलाए॥ लंका बाँके चारि दुआरा। केहि बिधि लागिय करहु बिचारा॥**
भाष्य

जब श्रीराम ने अंगद जी से शत्रु रावण के सभी समाचार पा लिए, तब उन्होंने अपने सभी मंत्रियों को अपने पास बुला लिया और बोले, लंका के दुर्गम चारों द्वारों पर किस प्रकार लगा जाये अर्थात्‌ किस विधि से आक्रमण किया जाये? इस पक्ष पर सब लोग विचार कीजिये।

**तब कपीश ऋक्षेश बिभीषन। सुमिरि हृदय दिनकर कुल भूषन॥ करि बिचारि तिन मंत्र दृ़ढावा। चारि अनी कपि कटक बनावा॥**
भाष्य

तब वानरों के राजा सुग्रीव जी, ऋक्षों के राजा जाम्बवान जी और प्रभु द्वारा शीघ्र ही मनोनीत किये हुए राक्षसों के राजा विभीषण इन तीनों मंत्रियों ने हृदय में भगवान्‌ श्रीराम का स्मरण करके विचार करके मंत्रणा दृ़ढ कर दी अर्थात्‌ निश्चित कर दी और वानरी सेना की चार अनियाँ अर्थात्‌ उपसेनायें यानी टुकयिड़ाँ बना दी।

**जथाजोग सेनापति कीन्हे। जूथप सकल बोलि तब लीन्हे॥** **प्रभु प्रताप कहि सब समुझाए। सुनि कपि सिंघनाद करि धाए॥**
भाष्य

यथायोग्य अर्थात्‌ वानरों और रावण की द्वारों की योग्यता के अनुसार सेनापति नियुक्त किये अर्थात्‌ पूर्व द्वार पर नील को, दक्षिण द्वार पर अंगद जी को, उत्तर द्वार पर जाम्बवान जी को और पश्चिमी द्वार पर हनुमान जी को सेनापति नियुक्त किया। तब सम्पूर्ण यूथपतियों को बुला लिया और तीनों मंत्रियों ने सभी यूथपतियों को सर्वसमर्थ भगवान्‌ श्रीराम का प्रताप कहकर समझाया। मंत्रियों का निर्देश सुनकर सभी वानर यूथपति सिंहनाद करके दौड़ पड़े।

**हरषित राम चरन सिर नावहिं। गहि गिरि शिखर बीर सब धावहिं॥ जानत परम दुर्ग अति लंका। प्रभु प्रताप कपि चले अशंका॥** [[७५२]]
भाष्य

सभी वीर वानर प्रसन्नता के साथ भगवान्‌ श्रीराम के श्रीचरणों में सिर नवाते हैं और पर्वतों के शिखर लेकर दौड़ते हैं। लंका किले को अत्यन्त श्रेष्ठ और दुर्गम जानते हुए भी प्रभु श्रीराम के प्रताप से वानर निर्भीक होकर चल पड़े।

**घटाटोप करि चहुँ दिशि घेरी। मुखनि निसान बजावहिं भेरी॥ गर्जहिं तर्जहिं भालु कपीशा। जय रघुबीर कोसलाधीशा॥**
भाष्य

वीर वानर घटाटोप अर्थात्‌ बादलों के समूह की भाँति आटोप करके अर्थात्‌ सेना का आकार बनाकर चारों दिशाओं से लंका के चारों द्वारों को घेरकर अपने मुखों से ही नगारे और भेरियाँ बजाने लगे। भालु और श्रेष्ठ वानर गरजने और राक्षसों को डराने और धमकाने लगे। कोसलाधीश अर्थात्‌ अयोध्या के अधिपति महाराज श्रीराम की जय बोलकर भगवान्‌ श्रीराम का जयकारा लगाने लगे।

**दो०– जयति राम भ्राता सहित, जय कपीश सुग्रीव।** **गर्जहिं केहरि नाद कपि, भालु महा बल सींव॥३९॥**
भाष्य

भाई लक्ष्मण जी के साथ भगवान्‌ श्रीराम की जय हो! वानरश्रेष्ठ सुग्रीव जी की जय हो! इस प्रकार जयकारा लगाते हुए श्रेष्ठ बल की सीमा, वानर और भालु सिंहनाद करके गरजने लगे।

**लंका भयउ कोलाहल भारी। सुना दशानन अति अहँकारी॥ देखहु बनरन केरि ढिठाई। बिहँसि निशाचर सेन बोलाई॥**
भाष्य

लंका में बहुत–बड़ा कोलाहल मच गया। इसे अत्यन्त अहंकारी दस मुख वाले रावण ने सुना, उसने परिहास में कहा, वानरों की ढिठाई अर्थात्‌ धृष्टता तो देखो। इस प्रकार श्रीराम के सैनिकों का परिहास करके रावण ने राक्षसों की सेना बुला ली।

**आए कीस काल के प्रेरे। छुधावंत सब निशिचर मेरे॥ अस कहि अट्टहास शठ कीन्हा। गृह बैठे अहार बिधि दीन्हा॥**
भाष्य

वानर, काल से प्रेरित होकर लंका पर च़ढ आये हैं और मेरे राक्षस भूखे हैं। विधाता ने घर बैठे ही अहार दे दिया, मेरे राक्षसों को कोई श्रम नहीं करना पड़ा। ऐसा कहकर दुष्ट रावण ने अट्टहास किया अर्थात्‌ ठहाके लगाकर ऊँचे स्वर में हँसा।

**सुभट सकल चारिहुँ दिशि जाहू। धरि धरि भालु कीस सब खाहू॥ उमा रावनहिं अस अभिमाना। जिमि टिट्टिभि खग सूत उताना॥**
भाष्य

हे वीरों! सभी लोग चारों दिशाओं में अर्थात्‌ लंका के चारों द्वारों पर जाओ और पक़ड-पक़डकर सभी वानर और भालुओं को खा जाओ। हे पार्वती! रावण को इस प्रकार का अहंकार है, जैसे जल के किनारे रहने वाला टिटिहरी नाम का पक्षी अपने चरणों पर आकाश को रोक लेने के लिए उत्तान अर्थात्‌ ऊपर चरण करके सोता है।

**विशेष– **यहाँ गोस्वामी जी एक लोकोक्ति का प्रयोग कर रहे हैं। ऐसा लोक में प्रचलित है कि टिटिहरी पैर ऊपर

करके इसलिए सोता है क्योंकि उसे लगता है, कि यदि आकाश गिरने लगेगा तो मैं उसे अपने पैरों पर रोक लूँगा। इस लोकोक्ति का श्लोक इस प्रकार है–

अहंकारस्तु* सर्वेषां क्षुद्राणां तू विशेषत:। उत्तानं टिट्टिभि: शेते नभ: पतनशंकया॥*

[[७५३]]
चले निशाचर आयसु माँगी। गहि कर भिंडिपाल बर साँगी॥ तोमर मुद्‌गर परशु प्रचंडा। शूल कृपान परिघ गिरिखंडा॥

भाष्य

रावण से आदेश माँगकर हाथ में भिण्डिपाल (ढेलवास) अर्थात्‌ गुलेल, श्रेष्ठ शक्ति (बर्छी), तोमर, मुद्‌गर, तीखा फरसा, त्रिशूल, तलवार, परिघ और पर्वतों का खण्ड लेकर राक्षस चल पड़े।

**जिमि अरुनोपल निकर निहारी। धावहिं शठ खग मांस अहारी॥ चोंच भंग दुख तिनहिं न सूझा। तिमि धाए मनुजाद अबूझा॥**
भाष्य

जिस प्रकार लाल पत्थरों के समूह को देखकर माँसाहारी दुष्ट पक्षी दौड़ते हैं और उन पर चोंच का प्रहार करते हैं। उन्हें चोंच के टूटने का दु:ख नही समझ पड़ता, उसी प्रकार मूर्ख नरभक्षी राक्षस वानरों पर प्रत्याक्रमण करते हुए दौड़े अर्थात्‌ उन्होंने वानरों को अपना भक्ष्य समझा, जबकि वे लाल पत्थर के समान उनके लिए अजेय थे।

**दो०– नानायुध शर चाप धर, जातुधान बल बीर।** **कोट कँगूरन चढि़ गए, कोटि कोटि रनधीर॥४०॥**
भाष्य

बलवीर अर्थात्‌ अपने बल से विशिष्ट लोगों को भी कँपा देने वाले, युद्ध में स्थिर रहने वाले, करोड़ोंकरोड़ों राक्षस अनेक अस्त्र–शस्त्र और धनुष–बाण लिए हुए किले के कँगूरों पर च़ढ गये।

**विशेष– ***बलेन** विशिष्टां इरयन्ति इति बलवीरा।*

कोट कँगूरन सोहहिं कैसे। मेरु के श्रृंगनि जनु घन बैसे॥ बाजहिं ढोल निसान जुझाऊ। सुनि धुनि होइ भटनि मन चाऊ॥ बाजहिं भेरि नफीरि अपारा। सुनि कादर उर जाहिं दरारा॥

भाष्य

किले के कँगूरों पर च़ढे हुए राक्षस किस प्रकार शोभित हो रहे हैं, मानो सुमेरु पर्वत के शिखरों पर बादल बैठे हों। युद्ध के ढोल नगारे बजने लगे। सुनकर वीर सैनिकों के मन में उत्साह हो रहा था। असंख्य भेरियाँ और नफीरि नामक युद्ध के पारम्परिक बाजे बज रहे थे, जिन्हें सुनकर कायरों के हृदय में दरार पड़ जाता था अर्थात्‌ कायर भयभीत हो जाते थे।

**देखेन जाइ कपिन के ठट्टा। अति बिशाल तनु भालु सुभट्टा॥ धावहिं गनहिं न अवघट घाटा। पर्बत फोरि करहिं गहि बाटा॥ कटकटाहिं कोटिन भट गर्जहिं। दशन ओठ काटहिं अति तर्जहिं॥**
भाष्य

राक्षस सैनिकों ने चारों द्वारों पर जाकर वानर समूहों को और अत्यन्त विशाल शरीरवाले श्रेष्ठवीर भालुओं को देखा। वानर–भालु दौड़ रहे हैं। ऊँची–नीची दुर्गम घाटियों को भी कुछ नहीं समझ रहे हैं और पर्वतों को पक़ड-पक़डकर फोड़-फोड़कर मार्ग बना लेते हैं। करोड़ों वीर दाँतों को पीस कर कटकटा शब्द करते हैं। अपने दाँतों से ओष्ठ को काटते हैं और बहुत ही तर्जना करते हैं अर्थात्‌ मारते, डराते–धमकाते और गरजते हैं।

**उत रावन इत राम दोहाई। जयति जयति जय परी लराई॥**
भाष्य

उधर से रावण और इधर से श्रीराम की दुहाई करके जय–जयकार करके लड़ाई प्रारम्भ हुई, अथवा रावण और श्रीराम का युद्ध प्रारम्भ हुआ। यह देखकर त्रिदेवों ने श्रीराम की जय हो! जय हो! जय हो! कहकर जय– जयकार किया। तीन बार जय शब्द से गोस्वामी जी ने सूचित किया कि देवता उस विजय मंत्र का संकीर्तन करने लगे जिसमें तीन बार जय शब्द का संकेत है, देवगण उत्साह से बोले, श्रीराम जय राम जय–जय राम।

[[७५४]]

**निशिचर शिखर समूह ढहावहिं। कूदि धरहिं कपि फेरि चलावहिं॥**
भाष्य

राक्षस पहाड़ों के समूह ढहाते हैं अर्थात्‌ उखाड़-उखाड़कर किले के ऊपर से फेंकते हैं, उन्हीं को वानर उछलकर पक़ड लेते हैं और उल्टे राक्षसों को लक्ष्य करके फेंकते हैं।

**छं०– धरि कुधर खंड प्रचंड मर्कट भालु ग़ढ पर डारहीं।** **झपटहिं चरन गहि पटकि महि भजि चलत बहुरि पचारहीं॥ अति तरल तरुन प्रताप तरजहिं तमकि ग़ढ चढि़ चढि़ गए। कपि भालु चढि़ मंदिरन जहँ तहँ राम जस गावत भए॥**
भाष्य

भयंकर वानर और भालु प्रचण्ड पर्वतखण्डों को पक़डकर रावण के किले पर फेंक देते हैं, वे राक्षसों पर शीघ्रता से झपट पड़ते हैं। उनके पैर पक़ड पृथ्वी पर पटक देते हैं और जब राक्षस भाग चलते हैं, फिर वानर उन्हें युद्ध के लिए ललकारते हैं। अत्यन्त हल्के युवक और भगवत्‌ प्रताप से युक्त वानर, राक्षसों को डराते और मारते हैं। वे कुपित होकर रावण के किले पर च़ढ-च़ढकर नगर के भीतर चले गये और जहाँ–तहाँ राक्षसों के भवनों के ऊपर च़ढ-च़ढकर भालु और बन्दर भगवान्‌ श्रीराम की “श्रीराम जय राम जय–जय राम” कीर्तन करते हुए दिव्य यश गाने लगे।

**दो०– एक एक गहि रजनिचर, पुनि कपि चले पराइ।** **ऊपर आपुन हेठ भट, गिरहिं धरनि पर आइ॥४१॥**
भाष्य

फिर वानर लंका के एक–एक राक्षस को पक़डकर भीतर से ऊपर दौड़कर आते हैं और किले से नीचे कूदते समय राक्षसों के ऊपर और राक्षसों को अपने नीचे करके पृथ्वी पर आकर गिरते हैं अर्थात्‌ इस प्रयोग से वानरों का तो कुछ नहीं बिग़डता उल्टे राक्षस हताहत्‌ होते हैं।

**राम प्रताप प्रबल कपि जूथा। मर्दहिं निशिचर सुभट बरूथा॥ च़ढे दुर्ग पुनि जहँ तहँ बानर। जय रघुबीर प्रताप दिवाकर॥**
भाष्य

भगवान्‌ श्रीराम के प्रताप से प्रकृय् बल से सम्पन्न वानरों के यूथ, राक्षसों के श्रेष्ठवीर समूहों को मसल रहे हैं। फिर जहाँ–तहाँ लंका के दुर्ग पर च़ढे हुए वानर भगवान्‌ श्रीराम के प्रताप सूर्य की जय हो! इस प्रकार जय– जयकार कर रहे हैं अथवा, भगवान्‌ श्रीराम जी की विजय और प्रताप सूर्य के स्वरूप वानर जहाँ–तहाँ रावण के दुर्ग पर च़ढे हुए हैं।

**चले निशाचर निकर पराई। प्रबल पवन जिमि घन समुदाई॥ हाहाकार भयउ पुर भारी। रोवहिं आरत बालक नारी॥ सब मिलि देहिं रावनहिं गारी। राज करत एहिं मृत्यु हँकारी॥**
भाष्य

जिस प्रकार प्रबल पवन के वेग से बादलों के समूह तितर–बितर हो जाते हैं, उसी प्रकार राक्षसों के समूह भग चले। लंका नगर में बहुत हाहाकार हो गया, बच्चे और महिलायें व्याकुल होकर रोने लगे। सभी लोग मिलकर रावण को गालियाँ देने लगे, इसने राज्य करते हुए मृत्यु को बुला लिया।

**निज दल बिचल सुना तेहि काना। फेरि सुभट लंकेश रिसाना॥ जो रन बिमुख सुना मैं काना। सो मैं हतब कराल कृपाना॥ सर्बस खाइ भोग करि नाना। समर भूमि भए बल्लभ प्राना॥** [[७५५]]

उग्र बचन सुनि सकल डेराने। चले क्रोध करि सुभट लजाने॥ सन्मुख मरन बीर कै शोभा। तब तिन तजा प्रान कर लोभा॥
दो०– बहु आयुध धर सुभट सब, भिरहिं पचारि पचारि।

ब्याकुल कीन्हें भालु कपि, परिघ त्रिशूलनि मारि॥४२॥

भाष्य

रावण ने अपने दल को विचलित होते हुए स्वयं अपने कानों से सुना। वीरों को लौटाते हुए लंकापति रावण क्रुद्ध हो गया और बोला, जिस सैनिक को युद्ध से विमुख होते हुए मैंने अपने कानों से सुना तो उसे मैं अपने भयंकर कृपाण चन्द्रहास से मार डालूँगा। अरे कायरों! हमारा सर्वस्व खाकर, अनेक विषयों का भोग करके भी तुम लोगों के लिए युद्धभूमि में प्राण प्रिय हो गये। रावण के कठोर वचन सुनकर उसके सैनिक डर गये और लज्जित हुए राक्षसवीर क्रोध करके युद्ध के लिए चल पड़े। युद्ध में सन्मुख मरने में ही वीर की शोभा है, तब रावण के सैनिकों ने प्राण का लोभ छोड़ दिया। बहुत से अस्त्र धारण किये हुए सभी श्रेष्ठभट ललकार–ललकार कर वानरों से भिड़ने लगे। परिघ और त्रिशूलों से मार कर भालु और वानरों को व्याकुल कर दिया।

**भय आतुर कपि भागन लागे। जद्दपि उमा जीतिहैं आगे॥** **कोउ कह कहँ अंगद हनुमंता। कहँ नल नील द्विबिद बलवंता॥**
भाष्य

वानर और भालु व्याकुल हो गये तथा राक्षसों के अस्त्र–शस्त्र के मारे हताहत होकर वे रुग्ण हो गये और युद्धभूमि से भगने लगे। हे पार्वती! यद्दपि यही वानर–भालु आगे चलकर जीतेंगे अर्थात्‌ विजयी होंगे। कोई बोला अंगद जी, हनुमान जी कहाँ हैं और बलवान नल–नील एवं द्विबिद कहाँ हैं?

**निज दल बिकल सुना हनुमाना। पच्छिम द्वार रहा बलवाना॥ मेघनाद तहँ करइ लराई। टूट न द्वार परम कठिनाई॥ पवनतनय मन भा अति क्रोधा। गर्जेउ प्रलय काल सम जोधा॥ कूदि लंक ग़ढ ऊपर आवा। गहि गिरि मेघनाद कहँ धावा॥ भंजेउ रथ सारथी निपाता। ताहि हृदय महँ मारेसि लाता॥ दूसर सूत बिकल तेहि जाना। स्यंदन घालि तुरत गृह आना॥**
भाष्य

सेना की व्याकुलता हनुमान जी ने सुन ली अर्थात्‌ वानरों का चिल्लाना उन्हें सुनायी पड़ गया। उस समय बलवान हनुमान जी लंका के पश्चिमी द्वार पर थे, जहाँ उन्हें सेनापति नियुक्त किया गया था। वहाँ हनुमान जी से मेघनाद युद्ध कर रहा था। द्वार टूट नहीं रहा था, हनुमान जी को भी द्वार तोड़ने में बहुत–बड़ी कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा था। तब हनुमान जी के मन में अतिशय क्रोध हुआ और युद्ध करने में कुशल हनुमान जी महाप्रलय–समय के काल के समान गरजे। वे छलांग लगाकर लंका दुर्ग के ऊपर आये वहाँ से एक पर्वत लेकर मेघनाद को दण्डित करने के लिए दौड़े। पर्वत के प्रहार से हनुमान जी ने मेघनाद के रथ को तोड़कर उसके सारथी को मार डाला। उसके (मेघनाद को) हृदय में हनुमान जी ने लात मारी। दूसरे सारथी ने उस मेघनाद को जब व्याकुल जाना तब उसे रथ पर लेटाकर सारथी तुरन्त घर ले आया।

**दो०– अंगद सुनेउ कि पवनसुत, ग़ढ पर गयउ अकेल।** **समर बाँकुरा बालिसुत, तरकि च़ढेउ कपि खेल॥४३॥**
भाष्य

अंगद जी ने सुना कि पवनपुत्र हनुमान जी लंका दुर्ग पर अकेले गये हैं, तब युद्ध में कुशल बालिपुत्र अंगद जी वानर के खेल–खेल में रावण के ग़ढ पर च़ढ गये।

[[७५६]]

**जुद्ध बिरुद्ध क्रुद्ध द्वौ बंदर। राम प्रताप सुमिरि उर अंतर॥ रावन भवन च़ढे तब धाई। करहिं कोसलाधीश दोहाई॥**
भाष्य

तब युद्ध में श्रीराम से विव्र्द्ध राक्षसों पर क्रुद्ध हुए दोनों बन्दर अंगद और हनुमान जी अपने हृदय के भीतर श्रीराम के प्रताप का स्मरण करके दौड़कर रावण के भवन पर च़ढ गये तथा दोनों ही अयोध्याधिपति भगवान्‌ श्रीराम की दुहाई कहने लगे।

**कलश सहित गहि भवन ढहावा। देखि निशाचरपति भय पावा॥ नारि बृंद कर पीटहिं छाती। अब दुइ कपि आए उतपाती॥**
भाष्य

उन दोनों वानरश्रेष्ठ श्री अंगद-हनुमान जी ने कलश के सहित रावण के घर को पक़डकर ढहा दिया अर्थात्‌ रावण का भवन गिराकर नष्ट कर दिया। उसे देखकर राक्षसराज रावण ने बहुत भय पाया अर्थात्‌ भयभीत हो गया। रावण की पत्नियों के समूह हाथ से छाती पीटने लगीं और बोलीं, अब यह दोनों उत्पाती वानर आ गये हैं अर्थात्‌ दोनों में से एक ने लंका जलायी थी और दूसरे ने राजसभा में रावण की छाती जलायी थी।

**कपिलीला करि तिनहिं डेरावहिं। रामचंद्र कर सुजस सुनावहिं॥ पुनि कर गहि कंचन के खंभा। कहेनि करिय उतपात अरंभा॥**
भाष्य

दोनों वानर वानरोचित क्रीड़ा करके राक्षसपत्नियों को डराते हैं और उन्हें भगवान्‌ श्रीराम का सुयश सुनाते हैं। फिर स्वर्ण के खम्भे को हाथ में पक़डकर उन दोनों अंगद–हनुमान जी ने परस्पर बात की अर्थात्‌ एक–दूसरे से कहा कि अब उत्पात का आरम्भ करना चाहिये अथवा, अब हम दोनों उत्पात करें।

**कूदि परे रिपु कटक मझारी। लागे मर्दन भुज बल भारी॥ काहुहि लात चपेटनि केहू। भजेहु न रामहिं सो फल लेहू॥**
भाष्य

इसके बाद अंगद–हनुमान जी सेना के बीच में कूद पड़े और अपनी भुजाओं से बड़े बलवान राक्षसों को मसलने लगे। किसी को लातों से और किसी को थप्पड़ से मारने लगे तथा बोले, राक्षसों! भगवान्‌ श्रीराम जी का भजन नहीं किये हो तो यह फल लो।

**दो०– एक एक सन मर्दहिं, तोरि चलावहिं मुंड।** **रावन आगे परहिं ते, जनु फूटहिं दधि कुंड॥४४॥**
भाष्य

एक को एक के साथ मसलते हैं और उनके सिरों को तोड़कर किले में फेंक देते हैं। रावण के आगे टूटे हुए सिर पड़ते हैं, मानो दही के घड़े फूट रहे हों।

**महा महा मुखिया जे पावहिं। ते पद गहि प्रभु पास चलावहिं॥ कहइ बिभीषन तिन के नामा। देहिं राम तिन कहँ निज धामा॥**
भाष्य

जो बहुत बड़े-बड़े मुख्य राक्षस को पा जाते हैं तो अंगद–हनुमान जी उनके चरण पक़डकर प्रभु श्रीराम के पास फेंक देते हैं। विभीषण जी प्रभु को उनके नाम बताते हैं और प्रभु श्रीराम, अंगद–हनुमान जी द्वारा मारे हुए उन दुष्ट राक्षसों को भी अपना धाम दे देते हैं।

**खल मनुजाद द्विजामिष भोगी। पावहिं गति जो जाचत जोगी॥ उमा राम मृदुचित करुनाकर। बैर भाव सुमिरत मोहि निशिचर॥ देहिं परम गति सो जिय जानी। अस कृपालु को कहहु भवानी॥ अस प्रभु सुनि न भजहिं भ्रम त्यागी। नर मतिमंद ते परम अभागी॥** [[७५७]]
भाष्य

जो राक्षस दुष्ट प्रकृति के हैं और ब्राह्मणों का माँस खाते हैं, वे भी प्रभु के पास से वह गति पाते हैं, जिसकी योगी लोग याचना करते हैं। शिव जी कहते हैं, हे पार्वती! भगवान्‌ श्रीराम कोमलचित्त एवं करुणा की खानि हैं। राक्षस बैर भाव से भी मेरा स्मरण कर रहे हैं, हृदय में ऐसा जानकर पापी राक्षसों को भी भगवान्‌ श्रीराम परमगति दे देते हैं। हे भवानी! बताइये, ऐसा कृपालु संसार में कौन है? ऐसे प्रभु को सुनकर भी जो भ्रम छोड़कर भगवान्‌ श्रीराम को नहीं भजते, वे जीव मन्दबुद्धि तथा परम अभागी हैं।

**अंगद अरु हनुमंत प्रबेशा। कीन्ह दुर्ग अस कह अवधेशा॥ लंका द्वौ कपि सोहहिं कैसे। मथहिं सिंधु दुइ मंदर जैसे॥**
भाष्य

अयोध्यापति भगवान्‌ श्रीराम ने विभीषण जी से इस प्रकार कहा कि अंगद और हनुमान जी रावण के किले में प्रवेश कर लिए हैं तथा वहीं से बड़े-बड़े राक्षसों का वध करके मेरे पास भेज रहे हैं। लंका में दोनों वीर वानर किस प्रकार शोभित होते हैं, जैसे दो मंदराचल पर्वत सागर का मंथन कर रहे हों।

**दो०– भुज बल रिपु दल दलिमलि, देखि दिवस कर अंत।** **कूदे जुगल प्रयास बिनु, आए जहँ भगवंत॥४५॥**
भाष्य

इस प्रकार अपने भुजाओं के बल से शत्रु रावण की सेना को मार–मसलकर दिन का अन्त अर्थात्‌ सन्ध्याकाल देखकर दोनों वानर अंगद जी और हनुमान जी बिना प्रयास के कूदे और जहाँ भगवान्‌ श्रीराम जी विराज रहे थे, वहाँ आ गये।

**प्रभु पद कमल शीष तिन्ह नाए। देखि सुभट रघुपति मन भाए॥ राम कृपा करि जुगल निहारे। भए बिगतश्रम परम सुखारे॥**
भाष्य

उन दोनों अंगद एवं हनुमान जी ने प्रभु के श्रीचरणकमलों में मस्तक नवाया, सुन्दर योद्धा के ―प में देखकर वे दोनों श्री अंगद-हनुमान जी, रघुकुल के स्वामी श्रीराम के मन को भी भाये। कृपा करके भगवान्‌ श्रीराम ने दोनों वीर वानरों को निहारा। अंगद–हनुमान जी तुरन्त ही श्रम से रहित और बहुत सुखी हो गये।

**गए जानि अंगद हनुमाना। फिरे भालु मर्कट भट नाना॥ जातुधान प्रदोष बल पाई। धाए करि दशशीश दोहाई॥**
भाष्य

श्रीअंगद–हनुमान जी को लौटे हुए जानकर, नाना प्रकार के भालु और बन्दर युद्ध से लौटे। उधर राक्षसगण सन्ध्या का बल पाकर दस सिरोंवाले रावण की दुहाई करके वानरों पर दौड़ पड़े।

**निशिचर अनी देखि कपि फिरे। जहँ तहँ कटकटाइ भट भिरे॥ द्वौ दल प्रबल पचारि पचारी। लरत सुभट नहिं मानहिं हारी॥ बीर तमीचर सब अति कारे। नाना बरन बलीमुख भारे॥ सबल जुगल दल समबल जोधा। कौतुक करत लरत करि क्रोधा॥ प्राबिट शरद पयोद घनेरे। लरत मनहुँ मारुत के प्रेरे॥**
भाष्य

आती हुई राक्षसी सेना देखकर वानर लौटे और दाँतों को कटकटाते हुए जहाँ–तहाँ एक–दूसरे से भिड़ गये।

दोनों दल अर्थात्‌ श्रीरामदल और रावणदल बहुत प्रकृय् बलवाले हैं। सुन्दर भट ललकार–ललकार कर लड़ रहे हैं, हार नहीं मान रहे हैं। सभी राक्षस अत्यन्त काले और वीर हैं, नाना वर्णोंवाले वानर भी बहुत विशाल हैं। दोनों सेनायें सबल अर्थात्‌ बल से युक्त हैं और उनके समान बल वाले योद्धा कौतुक कर रहे हैं और क्रोध करके लड़

[[७५८]]

रहे हैं, मानो वर्षाकाल और शरद्‌काल के बादल वायु से प्रेरित होकर अर्थात्‌ वायु के झकोरों से टकरा कर लड़ रहे हैं।

अनिप अकंपन अरु अतिकाया। बिचलत सेन कीन्ह तिन माया॥ भयउ निमिषि महँ अति अँधियारा। बृष्टि होइ रुधिरोपल छारा॥
दो०– देखि निबिड़ तम दसहुँ दिशि, कपिदल भयउ खभार।

एकहिं एक न देखहीं, जहँ तहँ करहिं पुकार॥४६॥

भाष्य

अपनी सेना को विचलित होती हुई अर्थात्‌ भागती हुई देखकर जो, अकम्पन और अतिकाय नाम के रावण के सेनापति थे, उन्होंने माया कर दी। दिन में ही अन्धेरा हो गया और रक्त, पत्थर और राख की वर्षा होने लगी। दसों दिशाओं में घना अन्धकार देखकर, वानरदल में खलबली मच गई। एक–दूसरे को नहीं देखते हैं और जहाँ– तहाँ पुकार करते हैं अर्थात्‌ सैनिकों का नाम लेकर चिल्लाते हैं।

**सकल मरम रघुनायक जाना। लिए बोलि अंगद हनुमाना॥ समाचार सब कहि समुझाए। सुनत कोपि कपिकुंजर धाए॥**
भाष्य

रघुनाथ जी ने सम्पूर्ण मर्म जान लिया और फिर अंगद जी और हनुमान जी को बुला लिया। प्रभु ने अकम्पन और अतिकाय की माया का सम्पूर्ण समाचार कहकर समझाया, यह सुनते ही दोनों वानरश्रेष्ठ दौड़ पड़े।

**पुनि कृपालु हँसि चाप च़ढावा। पावक सायक सपदि चलावा॥ भयउ प्रकाश कतहुँ तम नाहीं। ग्यान उदय जिमि संशय जाहीं॥**
भाष्य

फिर कृपालु श्रीराम ने हँसकर धनुष च़ढाया और शीघ्र ही आग्नेय बाण चलाया अर्थात्‌ आग्नेयास्त्र का प्रयोग कर दिया। पूरी सेना में प्रकाश फैल गया। कहीं भी अन्धकार नहीं रहा, जैसे ज्ञान के उदय होते ही सभी संशय चले जाते हैं।

**भालु बलीमुख पाइ प्रकासा। धाए हरष बिगत श्रम त्रासा॥ हनूमान अंगद रन गाजे। हाँक सुनत रजनीचर भाजे॥ भागत भट पटकहिं धरि धरनी। करहिं भालु कपि अद्भुत करनी॥ गहि पद डारहिं सागर माहीं। मकर उरग झष धरि धरि खाहीं॥**
भाष्य

भालु और वानर प्रभु के अग्नि–बाण से प्रकाश प्राप्त करके श्रम और भय से रहित होकर प्रसन्नतापूर्वक दौड़े। हनुमान जी और अंगद जी युद्धभूमि में गरजे। उनकी हाँक सुनकर राक्षस भागे। वीर वानर भागते हुए राक्षसों को पक़डकर पृथ्वी पर पटक देते हैं और भालु–वानर बहुत ही आश्चर्यजनक करतब करते हैं। राक्षसों के पैर पक़ड उन्हें सागर में फेंक देते हैं, जिन्हें पक़ड-पक़डकर सागर के घयिड़ाल, मगरमच्छ, सर्प और मछलियाँ खा जाती हैं।

**विशेष– **गोस्वामी जी ने श्रीरामचरितमानस में वानरों के लिए बहुश: बलीमुख शब्द का प्रयोग किया है इसका

अर्थ होता है–*बलीनि मुखानि येषां ते बलीमुखा: ***अर्थात्‌ जिनके मुख बली होते हैं, उन वानरों को बलीमुख कहते हैं। बहुव्रीहि समास होने पर बलिन्‌ शब्द में नकार का लोप होने से बलीमुख शब्द बनता है, फिर “शरादीनाञ्च”, (पा० अ०, ६.३.१२०) सूत्र से लकारोत्तर इकार को दीर्घ हो जाने से बलीमुख निष्पन्न हो जाता है।

[[७५९]]
दो०– कछु मारे कछु घायल, कछु ग़ढ च़ढे पराइ।

गर्जहिं भालु बलीमुख, रिपु दल बल बिचलाइ॥४७॥

भाष्य

कुछ राक्षसों को मारा और कुछ को घायल कर दिया तथा कुछ राक्षस भागकर किले में घुस गये। शत्रु के दल और बल को विचलित करके भालु और वानर गरजने लगे।

**निशा जानि कपि चारिउ अनी। आई जहाँ कोसला धनी॥ राम कृपा करि चितवा सबही। भए बिगतश्रम बानर तबही॥**
भाष्य

रात्रि जानकर वानरों की चार सेनायें जहाँ अयोध्यापति श्रीराम थे वहाँ आई। भगवान्‌ श्रीराम ने सबको कृपा करके देखा और उसी समय सभी वानर श्रम से रहित हो गये।

**उहाँ दशानन सचिव हँकारे। सब सन कहेसि सुभट जे मारे॥ आधा कटक कपिन संघारा। कहहु बेगि का करिय बिचारा॥**
भाष्य

वहाँ रावण ने मंत्रियों को बुलाया और जो वीर राक्षस प्रथम दिन युद्ध में मारे गये, उनका समाचार सबसे कहा, हे मंत्रियों! वानरों ने आधी सेना का संहार कर दिया, तुम लोग शीघ्र बताओ अब क्या विचार किया जाये।

**माल्यवंत अति जरठ निशाचर। रावन मातु पिता मंत्री बर॥ बोला बचन नीति अति पावन। सुनहु तात कछु मोर सिखावन॥**
भाष्य

माल्यवान नाम का एक अत्यन्त बू़ढा राक्षस था, जो रावण की माता का पिता और श्रेष्ठ मंत्री भी था अथवा, अत्यन्त वृद्ध राक्षसश्रेष्ठ रावण की माँ का पिता अर्थात्‌ रावण का नाना माल्यवान अत्यन्त पवित्र नीतिमय वचन बोला, हे वत्स रावण! कुछ मेरी भी सीख सुनो।

**जब ते तुम सीता हरि आनी। असगुन होहि न जाहिं बखानी॥ बेद पुरान जासु जस गायो। राम बिमुख सुख काहु न पायो॥**
भाष्य

जब से तुम भगवती श्रीसीता को हर कर ले आये हो, तब से इतने अपशकुन हो रहे हैं, जो कहे नहीं जा सकते। वेदों और पुराणों ने जिन प्रभु श्रीराम का यश गाया है, उन प्रभु श्रीराम से विमुख होकर किसी ने सुख नहीं पाया।

**दो०– हिरण्याक्ष भ्राता सहित, मधु कैटभ बलवान।** **जेहिं मारे सोइ अवतरेउ, कृपासिंधु भगवान॥४८\(क\)॥ कालरूप खल बन दहन, गुनागार घनबोध।**

जेहिं सेवहिं शिव कमल भव, तासो कवन बिरोध॥४८(ख)॥

भाष्य

जिन प्रभु साकेताधीश भगवान्‌ श्रीराम ने वराह और नृसिंह अवतार लेकर भ्राता हिरण्यकशिपु के सहित हिरण्याक्ष को तथा विष्णु अवतार लेकर बलवान मधु–कैटभ को मारा, वे ही कृपा के सागर भगवान्‌ श्रीराम श्रीअवध में अवतीर्ण हुए हैं। वे राक्षस वन को भस्म करने के लिए कालाग्नि स्वरूप है। सभी श्रेष्ठगुणों के भवन तथा विज्ञान और ज्ञान के घनीभूत विग्रह हैं अथवा, उनका ज्ञान बहुत ही सघन है अथवा, वे ज्ञान के बादल हैं। जिन भगवान्‌ श्रीराम को शिव जी और कमल से उत्पन्न हुए ब्रह्मा जी अपनी सेवा का विषय बनाते हैं अर्थात्‌ जिनकी सेवा करते हैं, उनसे कौन–सा विरोध? अर्थात्‌ तुम्हारे वरदानदाता शिव जी और ब्रह्मा जी भी जिनकी सेवा करते हैं, उनसे तुम कौन–सा विरोध कर रहे हो?

[[७६०]]

**परिहरि बैर देहु बैदेही। भजहु कृपानिधि परम सनेही॥ ताके बचन बान सम लागे। करिया मुह करि जाहि अभागे॥ बू़ढ भएसि न त मरतेउँ तोही। अब जनि बदन देखावसि मोही॥ तेहिं अपने मन अस अनुमाना। बध्यो चहत एहि कृपानिधाना॥**
भाष्य

वैर छोड़कर विदेहनन्दिनी श्रीसीता को प्रभु श्रीराम के हाथ में सौंप दो और परमस्नेही अर्थात्‌ पूज्य प्रेम के आश्रय, कृपासागर भगवान्‌ श्रीराम का भजन करो। माल्यवान के वचन रावण को बाण के समान लगे और उसने कहा, अरे भाग्यहीन! अपना मुख काला करके चला जा। अब तू बू़ढा हो गया नहीं तो तुझे मार डालता, अब मुझे मुख मत दिखलाना। उस माल्यवान ने अपने हृदय में विचार किया कि अब इस रावण को कृपा के निधान श्रीराम जी मार डालना चाहते हैं।

**सो उठि गयउ कहत दुर्बादा। तब सकोप बोलेउ घननादा॥ कौतुक प्रात देखियहु मोरा। करिहउँ बहुत कहौं का थोरा॥**
भाष्य

वह माल्यवान दुर्बाद अर्थात्‌ अपशब्द कहता हुआ रावण के पास से उठकर चला गया। तब मेघनाद क्रोधपूर्वक बोला, कल प्रात:काल मेरा कौतुक देख लीजियेगा। मैं करूँगा बहुत थोड़ा क्या कहूँ?

**सुनि सुत बचन भरोसा आवा। प्रीति समेत अंक बैठावा॥ करत बिचार भयउ भिनुसारा। लागे कपि पुनि चहूँ दुआरा॥**
भाष्य

पुत्र मेघनाद का वचन सुनकर रावण के मन में मेघनाद पर विश्वास हो आया। उसने प्रसन्नता के साथ मेघनाद को अपने गोद में बैठा लिया। विचार करते–करते प्रात:काल हो गया। फिर बन्दर चारों द्वारों पर आ लगे अर्थात्‌ युद्ध के लिए उपस्थित हो गये।

**कोपि कपिन दुर्घट ग़ढ घेरा। नगर कोलाहल भयउ घनेरा॥ बिबिधायुध धर निशिचर धाए। ग़ढ ते पर्बत शिखर ढहाए॥**
भाष्य

वानरों ने क्रुद्ध होकर न टूटने वाले अभेद्द किले को घेर लिया। लंका नगर में बहुत कोलाहल हुआ। अनेक अस्त्र–शस्त्र लेकर राक्षस दौड़े और उन्होंने किले से पर्वतशिखरों को गिराया अर्थात्‌ फेंका।

**छं०– ढाहे महीधर शिखर कोटिन बिबिध बिधि गोला चले।** **घहरात जिमि पबिपात गर्जत जनु प्रलय के बादले॥ मर्कट बिकट भट जुटत कटत न लटत तन जर्जर भए। गहि शैल तेहि ग़ढ पर चलावहिं जहँ सो तहँ निशिचर हए॥**
भाष्य

राक्षसों ने करोड़ों पर्वतों के शिखरों को ढहाया अर्थात्‌ गिराया और अनेक प्रकार से तोपों द्वारा बरसाये हुए गोले चलते हुए इस प्रकार घहरा रहे थे मानो वज्रपात हो और राक्षस प्रलय के बादलों के समान गरज रहे थे। भयंकर वानर वीर इकट्ठे होते राक्षसों के अस्त्र–शस्त्रों से कटते फिर भी निर्बल नहीं हो रहे थे, जबकि उनके शरीर राक्षसों के शरीर से जर्जर अर्थात्‌ क्षत–विक्षत हो चुके थे। वे पर्वत लेकर उसी किले पर फेंक देते थे, जिससे जहाँ के तहाँ राक्षस मारे गये।

**दो०– मेघनाद सुनि स्रवन अस, ग़ढ पुनि छेंका आइ।** **उतरि बीरवर दुर्ग ते, सन्मुख चल्यो बजाइ॥४९॥**

[[७६१]]

भाष्य

मेघनाद ने ऐसा अपने कानों से सुना कि, वानरों ने फिर किले को घेर लिया, तब श्रेष्ठवीर किले से उतरकर नगारे बजाकर सामने से युद्ध करने के लिए चल पड़े।

**कहँ कोसलाधीश द्वौ भ्राता। धन्वी सकल लोक बिख्याता॥ कहँ नल नील द्विबिद सुग्रीवा। अंगद हनूमंत बल सींवा॥ कहाँ बिभीषन भ्राताद्रोही। आजु सबहिं हठि मारउँ ओही॥**
भाष्य

मेघनाद ने ललकार कर कहा, सम्पूर्ण संसार में विख्यात धनुर्धर अयोध्याधिपति दोनों भ्राता राम–लक्ष्मण कहाँ हैं? नल–नील, द्विबिद, सुग्रीव, अंगद और बल की सीमा हनुमान कहाँ हैं? भ्रातृद्रोही विभीषण कहाँ है? आज सभी को रोक कर अर्थात्‌ सभी के देखते–देखते उस विभीषण को मैं मार डालूँगा।

**अस कहि कठिन बान संधाने। अतिशय क्रोध श्रवन लगि ताने॥ शर समूह सो छाड़ै लागा। जनु सपच्छ धावहिं बहु नागा॥**
भाष्य

ऐसा कह कर मेघनाद ने कठिन बाण का सन्धान किया और अत्यन्त क्रोध के कारण धनुष को कान तक खींचा। वह बाणों के समूहों को छोड़ने लगा, मानो पंखों से युक्त बहुत से सर्प दौड़ रहे हों।

**जहँ तहँ परत देखियहिं बानर। सन्मुख होइ न सके तेहि अवसर॥ भागे भय ब्याकुल कपि रिच्छा। बिसरी सबहिं जुद्ध की इच्छा॥ सो कपि भालु न रन महँ देखा। कीन्हेसि जेहि न प्रान अवशेषा॥**
भाष्य

जहाँ–तहाँ वानर पृथ्वी पर गिरते हुए दिखते थे। उस समय कोई भी मेघनाद के सामने नहीं हो सकता था। भय से व्याकुल सभी बन्दर और भालु भागे, सबको युद्ध की इच्छा भूल गई। मानस के चारों वक्ता कह रहे हैं कि, युद्ध में वह वानर या भालु नहीं देखा गया, जिसे मेघनाद ने प्राणमात्र में अवशेष न कर दिया हो अर्थात्‌ प्रत्येक वानर भालु के केवल प्राण बच गये थे।

**दो०– मारेसि दश दश बिशिख उर, परे भूमि कपि बीर।** **सिंहनाद गर्जत भयेउ, मेघनाद रन धीर॥५०॥**
भाष्य

सभी वानरों के हृदय में मेघनाद ने दस–दस बाण मारे, वीर वानर मूर्च्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़े और युद्ध में स्थिर रहनेवाला मेघनाद सिंहनाद करके गरजा।

**देखि पवनसुत कटक बिहाला। क्रोधवंत जनु धायउ काला॥ महा महीधर तमकि उपारा। अति रिसि मेघनाद पर डारा॥ आवत देखि गयउ नभ सोई। रथ सारथी तुरग सब खोई॥**
भाष्य

पवनपुत्र हनुमान जी अपनी सेना को विकल देखकर, क्रुद्ध हुए काल के समान दौड़े। उन्होंने क्रोध करके एक विशाल पर्वत को उखाड़ा और अत्यन्त रोष के साथ मेघनाद पर फेंक दिया। पर्वत को अपनी ओर आते देख मेघनाद आकाश में चला गया, पर्वत के प्रहार से उसका रथ, सारथी और सभी घोड़े नष्ट हो गये अथवा, पर्वत को देखकर स्वयं ही पर्वत के प्रहार से मेघनाद अपने रथ, सारथी और सभी घोड़ों को खोकर अर्थात्‌ नष्ट कराकर आकाश में चला गया।

**बार बार पचार हनुमाना। निकट न आव मरम सो जाना॥ राम समीप गयउ घननादा। नाना भाँति करेसि दुर्बादा॥** [[७६२]]
भाष्य

हनुमान जी ने उसे बार–बार युद्ध के लिए ललकारा। वह हनुमान जी के समीप नहीं आ रहा है, क्योंकि वह उनका मर्म जानता है। मेघनाद भगवान्‌ श्रीराम जी के समीप गया और नाना प्रकार के अपशब्द कहने लगा।

**अस्त्र शस्त्र आयुध सब डारे। कौतुकही प्रभु काटि निवारे॥ देखि प्रताप मू़ढ खिसियाना। करै लाग माया बिधि नाना॥ जिमि कोउ करै गरुड सन खेला। डरपावै गहि स्वल्प सपेला॥**
भाष्य

मेघनाद ने भगवान्‌ श्रीराम पर अस्त्र अर्थात्‌दूर से फेंके जाने वाले बाण आदि और शस्त्र अर्थात्‌ निकट से फेंके जाने वाले त्रिशूल आदि एवं आयुध अर्थात्‌ दिव्यास्त्र, ब्रह्मास्त्र, आग्नेयास्त्र, वारुणास्त्र आदि श्रीराम पर फेंके और प्रभु श्रीराम ने खेल–खेल में काटकर उन्हें समाप्त कर दिया। श्रीराम का प्रताप देखकर मोहग्रस्त मेघनाद बहुत चि़ढा और वह नाना प्रकार की माया करने लगा, जैसे कोई साधारण व्यक्ति गरुड़ के साथ खेल कर रहा हो और वह छोटे से साँप के बच्चे को लेकर उसे डराये।

**दो०– जासु प्रबल माया बिबश, शिव बिरंचि बड़ छोट।** **ताहि देखावइ रजनिचर, निज माया मति खोट॥५१॥**
भाष्य

जिनकी प्रबल माया के वश में होने से शिव जी, ब्रह्मा जी बहुत छोटे हैं, उन्हीं प्रभु श्रीराम को अत्यन्त खोटी बुद्धिवाला राक्षस मेघनाद अपनी माया दिखा रहा है।

**नभ चढि़ बरष बिपुल अंगारा। महि ते प्रगट होहिं जलधारा॥ नाना भाँति पिशाच पिशाची। मारु काटु धुनि बोलहिं नाची॥**
भाष्य

मेघनाद आकाश में बहुत ऊपर जाकर बहुत से अंगारों की वर्षा करने लगा। पृथ्वी से जल की धारायें प्रकट होने लगी अर्थात्‌ वानर दोनों ओर से मार झेलने लगे। ऊपर से जलते और नीचे से डूबते, नाना प्रकार के पिशाच और पिशाचिनियाँ नाच–नाचकर “मारो–काटो” इस प्रकार की धुनि बोल रही हैं।

**कीन्हेसि वृष्टि रुधिर कच हाड़ा। बरषइ कबहुँ उपल बहु छाड़ा॥ बरषि धूरि कीन्हेसि अँधियारा। सूझ न आपन हाथ पसारा॥**
भाष्य

मेघनाद ने कभी तो रक्त की वृष्टि की, कभी बालों और हड्डियों की वर्षा करता और कभी बहुत से पत्थर फेंके। उसने धूल की वर्षा करके अन्धेरा कर दिया। किसी को अपना फैलाया हुआ हाथ भी नहीं सूझ रहा था।

**कपि अकुलाने माया देखे। सब कर मरन बना एहि लेखे॥ कौतुक देखि राम मुसुकाने। भए सभीत सकल कपि जाने॥**
भाष्य

मेघनाद की माया देखकर वानर अकुला गये। वे सोचने लगे कि, इस प्रकार से तो सभी का मरण उपस्थित होगा। मेघनाद का यह कौतुक देखकर भगवान्‌ श्रीराम मुस्कराये और सभी वानरों को भयभीत हुआ जाना।

**एक बान काटी सब माया। जिमि दिनकर हर तिमिर निकाया॥ कृपादृष्टि कपि भालु बिलोके। भए प्रबल रन रहहिं न रोके॥**
भाष्य

भगवान्‌ श्रीराम ने अपने एक ही बाण से सभी माया काट दी, जैसे सूर्यनारायण अपने एक ही किरण से अन्धकारों के समूह का हरण कर लेते हैं। प्रभु श्रीराम ने अपनी कृपा–दृष्टि से वानर–भालुओं को निहारा। वे प्रबल हो गये और अब तो युद्ध में रोकने से भी नहीं रुकते थे।

**दो०– आयसु माँगि राम पहिं, अंगदादि कपि साथ।**

लछिमन चले क्रुद्ध होइ, बान शरासन हाथ॥५२॥

[[७६३]]

भाष्य

भगवान्‌ श्रीराम से आज्ञा माँगकर, हाथ में धनुष–बाण लेकर अंगदादि वानरों के साथ लक्ष्मण जी क्रुद्ध होकर मेघनाद से युद्ध करने के लिए चल पड़े।

**छतज नयन उर बाहु बिशाला। हिमगिरि निभ तन कछु एक लाला॥**

उहाँ दशानन सुभट पठाए। नाना अस्त्र शस्त्र गहि धाए॥

भाष्य

लक्ष्मण जी के नेत्र लाल कमल के समान अरुण थे। उनका हृदय और दोनों भुजायें विशाल थीं। उनका शरीर हिमाचल पर्वत के समान कुछेक लालिमा लिए हुए था। उधर रावण ने श्रेष्ठ योद्धा भेजे, वे सब नाना अस्त्र– शस्त्र लेकर दौड़े।

**भूधर नख बिटपायुध धारी। धाए कपि जय राम पुकारी॥ भिरे सकल जोरहिं सनजोरी। इत उत जय इच्छा नहिं थोरी॥**
भाष्य

पर्वत, नख और विटप अर्थात्‌ वृक्षरूप अस्त्र लेकर “श्रीराम की जय हो” इस प्रकार पुकार लगाते हुए वानर दौड़े। सभी लोग अपनी–अपनी जोड़ी-जोयिड़ों से भिड़ गये। इधर–उधर (रामदल और रावणदल) में विजय की इच्छा थोड़ी न थी अर्थात्‌ दोनों ही ओर के वीर पराजय नहीं चाह रहे थे।

**मुठिकन लातन दातन काटहिं। कपि जयशील मारि पुनि डाटहिं॥ मारु मारु धरु धरु धरु मारू। शीष तोरि गहि भुजा उपारू॥ अस रव पूरि रहेउ नव खंडा। धावहिं जहँ तहँ रुंड प्रचंडा॥ देखहिं कौतुक नभ सुर बृंदा। कबहुँक बिसमय कबहुँ अनंदा॥**
भाष्य

विजयशील वानर मुक्कों और लातों से मारते हैं, दाँतों से काटते हैं और फिर राक्षसों को मारकर डाँटते भी हैं। “मारो–मारो! पक़डो-पक़डो! पक़डो! मारो! सिर तोड़कर भुजा पक़डकर उखाड़ लो” यही शब्द नवों खण्डों में भर गया। जहाँ–तहाँ भयंकर धड़ दौड़ रहे थे। यह युद्ध का कौतुक आकाश में देवतागण देख रहे थे, उन्हें कभी आश्चर्य होता था और कभी आनन्द होता था।

**दो०– जम्यो गाड़ भरि भरि रुधिर, ऊपर धूरि उड़ाइ।**

जनु अँगार राशिन पर, मृतक धूम रह्यो छाइ॥५३॥

भाष्य

गड्ढ़ों में भर–भरकर रक्त जम गये हैं और ऊपर से धूल उड़ रही है, मानो अंगारों की राशियों पर मृतकों का धूम छा रहा हो।

**विशेष– **जो पूर्व के कुछ टीकाकारों ने ‘मृतक धूम’ शब्द का ‘राख’ अर्थ किया है वह सर्वथा अनुचित है।

घायल बीर बिराजहिं कैसे। कुसुमित किंशुक के तरु जैसे॥ लछिमन मेघनाद द्वौ जोधा। भिरहिं परसपर करि अति क्रोधा॥

भाष्य

घायल हुए वीर खून से लथ–पथ किस प्रकार शोभित हो रहे हैं, जैसे फूले हुए टेसू के वृक्ष हों। लक्ष्मण जी और मेघनाद ये दोनों योद्धा अत्यन्त क्रोध करके परस्पर भिड़ गये।

**एकहिं एक सकइ नहिं जीती। निशिचर छल बल करइ अनीती॥ क्रोधवंत तब भयउ अनंता। भंजेउ रथ सारथी तुरंता॥ नानायुध प्रहार कर शेषा। राक्षस भयउ प्रान अवशेषा॥**
भाष्य

एक–दूसरे को नहीं जीत सक रहे हैं, परन्तु राक्षस मेघनाद छल, बल और अनीति कर रहा है, तब अनन्त अर्थात्‌ अन्त से रहित शेषनारायण के अवतारी लक्ष्मण जी क्रोध से युक्त हो गये और उन्होंने तुरन्त मेघनाद के रथ

[[७६४]]

और सारथी को नष्ट कर दिया। शेष अर्थात्‌ अखण्ड भगवान्‌ के परिकर शेषनारायण के भी कारण लक्ष्मण जी ने नाना शस्त्रों का प्रहार किया, जिससे राक्षस मेघनाद प्राणावशेष हो गया अर्थात्‌ सब कुछ समाप्त हो गया केवल प्राण ही बचे रहे।

रावन सुत निज मन अनुमाना। संकट भयउ हरिहिं मम प्राना॥ बीरघातिनी छासिड़ि साँगी। तेज पुंज लछिमन उर लागी॥ मुरछा भई शक्ति के लागे। तब चलि गयउ निकट भय त्यागे॥

भाष्य

रावण पुत्र मेघनाद ने अपने मन में अनुमान किया, अरे अब तो संकट हो गया, लक्ष्मण अब तो मेरे प्राण ले लेंगे। तब मेघनाद ने वीरघातिनी शक्ति छोड़ी, वह सम्पूर्ण तेजों की पुञ्जस्वरूप शक्ति जाकर लक्ष्मण जी के हृदय में लग गई। शक्ति के लगने से लक्ष्मण जी को मूर्च्छा हो गई, फिर मेघनाद भय छोड़कर उनके निकट चला गया।

**दो०– मेघनाद सम कोटि शत, जोधा रहे उठाइ।**

जगदाधार अनंत किमि, उठैं चले खिसिआइ॥५४॥

भाष्य

मेघनाद के समान अरबों योद्धा लक्ष्मण जी को उठा रहे थे, परन्तु जगत्‌ के आधार अनन्त लक्ष्मण जी कैसे उठ सकते थे ? मेघनाद के सहित सभी योद्धा चि़ढकर अर्थात्‌ असफलता से क्रुद्ध होकर लंका को चले गए।

**सुनु गिरिजा क्रोधानल जासू। जारइ भुवन चारिदस आसू॥ सक संग्राम जीति को ताही। सेवहिं सुर नर अग जग जाही॥ यह कौतूहल जानइ सोई। जा पर कृपा राम कै होई॥**
भाष्य

हे पार्वती! सुनिये, जिन लक्ष्मण जी का क्रोधाग्नि प्रलयकाल में चौदहों भुवनों को शीघ्र ही जला डालता है और जिनकी देवता, मनुष्य, ज़ड-चेतन सभी सेवा करते हैं, उन लक्ष्मण जी को युद्ध में कौन जीत सकता है, परन्तु यह कौतूहल वही जानता है, जिस पर भगवान्‌ श्रीराम की कृपा होती है।

विशेष

तात्पर्य यह है कि भगवान्‌ श्रीराम के हृदयालिंगन का सुख प्राप्त करने के लिए श्री लक्ष्मण स्वेच्छा से मेघनाद की वीरघातिनी शक्ति स्वीकार कर लिए थे। रावण द्वारा घायल किए हुए जटायु को प्रभु श्रीराम ने गोद में उठा लिया था—“राघव गीध गोद कर लिन्हाे” (तु०गी० अरण्यकाण्ड ११) कदाचित्‌ यही दृश्य देखकर श्री लक्ष्मण के मन में यह अवधारणा बनी कि प्रभु घायल को ही अपना सायुज्य प्रदान करते हैं। इसीलिए यह कौतूहल कर दिया। स्वेच्छा से मेघनाद की वीरघातिनी शक्ति से घायल होकर प्रभु के हृदय से लगने का अवसर प्राप्त कर लिया-“राम उठाइ अनुज उर लायउ” मानस (६.६१.२)।

संध्या भइ फिरि द्वौ बाहिनी। लगे सँभारन निज निज अनी॥ ब्यापक ब्रह्म अजित भुवनेश्वर। लछिमन कहाँ बूझ करुनाकर॥ तब लगि लै आयउ हनुमाना। अनुज देखि प्रभु अति दुख माना॥

भाष्य

सन्ध्या हुई दोनों अर्थात्‌ वानरों और राक्षसों की वाहिनी यानी सेना फिरी। सब लोग अपनी–अपनी टुकयिड़ाँ

सम्भालने लगे। इधर सर्वव्यापक, परब्रह्म परमात्मा, अजेय, सारे संसार के ईश्वर, करुणा की खानि, श्रीराम ने पूछा, “लक्ष्मण कहाँ हैं?” तब तक उन्हें हनुमान जी ले आये। वीरघातिनी शक्ति से मूर्च्छित छोटे भैया लक्ष्मण जी को देखकर प्रभु श्रीराम ने अत्यन्त दु:ख माना।

[[७६५]]

जामवंत कह बैद सुषेना। लंका रह कोउ पठइय लेना॥ धरि लघु रूप गयउ हनुमंता। आनेउ भवन समेत तुरंता॥

भाष्य

जाम्बवान जी ने कहा, “सुषेण नामक वैद्द लंका में रहता है, उन्हें लिवा लाने के लिए किसी को भेजा जाये?” तब छोटा–सा रूप धारण करके हनुमान जी गये और सुषेण को तुरन्त ही उसके भवन के सहित उठा ले आये।

**दो०– रघुपति चरन सरोज सिर, नायउ आइ सुषेन।**

कहा नाम गिरि ओषधी, जाहु पवनसुत लेन॥५५॥

भाष्य

सुषेण ने आकर रघुकुल के स्वामी भगवान्‌ श्रीराम के श्रीचरणकमलों में सिर नवाया और पर्वत तथा औषधि का नाम बताया अर्थात्‌ सुषेण ने कहा कि, हिमाचल पर्वत के पास विराजमान द्रोणाचल पर्वत पर मृत संजीवनी नामक औषधि का वृक्ष है, हे पवनपुत्र हनुमान जी! उसे लेने जाइये।

**रामचरन सरसिज उर राखी। चलेउ प्रभंजन सुत बल भाषी॥ उहाँ दूत एक मरम जनावा। रावन कालनेमि गृह आवा॥**
भाष्य

भगवान्‌ श्रीराम के श्रीचरणकमल को अपने हृदय में रखकर, प्रभु के सामने प्रभु के ही बल की प्रशंसा करके, वायुपुत्र हनुमान जी महाराज चल पड़े। उधर एक दूत ने रावण को यह रहस्य बता दिया। यह सुनकर रावण कालनेमि के घर आया।

**दशमुख कहा मरम तेहिं सुनेऊ। पुनि पुनि कालनेमि सिर धुनेऊ॥ देखत तुमहिं नगर जेहिं जारा। तासु पंथ को रोकन पारा॥**
भाष्य

रावण के द्वारा कहे हुए मर्म कालनेमि ने सुना और उसने बार–बार अपना सिर पीटा। कालनेमि बोला, तुम्हारे अर्थात्‌ रावण के देखते–देखते जिसने लंका नगर जला दिया, उसके मार्ग को कौन रोक सकता है?

**भजि रघुपतिहिं करहि हित अपना। छाडु नाथ अब बृथा जलपना॥ नील कंज तनु सुंदर श्यामा। हृदय राखु लोचनाभिरामा॥**
भाष्य

हे नाथ! भगवान्‌ श्रीराम का भजन करके अब अपना कल्याण कर दो और व्यर्थ का अनर्गल बोलना छोड़ दो। नील कमल के समान सुन्दर श्याम शरीरवाले, नेत्रों को आनन्द देने वाले प्रभु श्रीराम को अपने हृदय में रख लो।

**अहंकार ममता मद त्यागू। महा मोह निशि सोवत जागू॥ काल ब्याल कर भक्षक जोई। सपनेहुँ समर कि जीतिय सोई॥**
भाष्य

हे रावण! अहंकार, ममता और मद छोड़ दो और महामोहमयी रात्रि में सोते हुए अब जग जाओ। जो कालरूप सर्प को खाने के लिए गरुड़ के समान हैं, उन श्रीराम को क्या कोईस्वप्न में भी युद्ध में जीत सकता है?

**दो०– सुनि दशकंठ रिसान अति, तेहिं मन कीन्ह बिचार।**

राम दूत कर मरौं बरु, यह खल रत मल भार॥५६॥

[[७६६]]

भाष्य

कालनेमि की वाणी सुनकर रावण अत्यन्त क्रुद्ध हो गया। कालनेमि ने मन में विचार किया कि श्रीराम दूत हनुमान जी के हाथों से मर जाऊँ तो ठीक है, यह तो मल के भार में लगा हुआ दुष्ट है। अर्थात्‌ इस रावण के हाथ से मरना ठीक नहीं है।

**अस कहि चला रचेसि मग माया। सर मंदिर बर बाग बनाया॥ मारुतसुत देखा शुभ आश्रम। मुनिहिं बूझि जल पियौं जाइ श्रम॥**
भाष्य

ऐसा कहकर कालनेमि चला और हनुमान जी के मार्ग में ही माया का निर्माण किया। उसने अपनी माया के बल से सुन्दर तालाब, मन्दिर और श्रेष्ठ बगीचा बना दिया। वायुपुत्र हनुमान जी महाराज ने सुन्दर आश्रम देखा। मन में विचार किया कि मुनि से पूछकर जल पी लूँ, जिससे मेरा श्रम चला जाये।

**राक्षस कपट बेष तहँ सोहा। मायापति दूतहिं चह मोहा॥ जाइ पवनसुत नायउ माथा। लाग सो कहै राम गुन गाथा॥**
भाष्य

वहाँ पर कपट मुनिवेश धारण किये हुए राक्षस कालनेमि शोभित हो रहा था। वह माया के पति भगवान्‌ श्रीराम के दूत को मोहित करना चाह रहा था। पवनपुत्र हनुमान जी ने जाकर कपटी मुनि को प्रणाम किया और वह अर्थात्‌ कपटी मुनि कालनेमि, श्रीराम के गुणों की गाथायें कहने लगा।

**होत महा रन रावन रामहिं। जितिहैं राम न शंसय या महिं॥ इहाँ भए मैं देखउँ भाई। ग्यान दृष्टि बल मोहि अधिकाई॥**
भाष्य

कालनेमि ने कहा, हे भाई! रावण और श्रीराम का महनीय युद्ध हो रहा है, परन्तु श्रीराम ही जीतेंगे इसमें कोई संशय नहीं है। हे भाई! यहीं बैठा हुआ मैं देख रहा हूँ, क्योंकि मेरे पास ज्ञानदृष्टि बल की बहुत अधिकता है।

**माँगा जल तेहिं दीन्ह कमंडल। कह कपि नहिं अघाउँ थोरे जल॥ सर मज्जन करि आतुर आवहु। दीक्षा देउँ ग्यान जेहिं पावहु॥**
भाष्य

हनुमान जी ने जल माँगा। मुनि ने कमण्डल दे दिया (जिसमें विष घुला हुआ था)। श्री बजरंगबली ने कहा, मैं थोड़े जल से तृप्त नहीं होऊँगा। मुनि ने कहा, जाओ तालाब में मज्जन करके शीघ्र आओ दीक्षा दे दूँ, जिससे ज्ञान पा जाओ।

**दो०– सर पैठत कपि पद गहा, मकरी तब अकुलान।**

मारी सो धरि दिब्य तनु, चली गगन चढि़ यान॥५७॥

भाष्य

तालाब में प्रवेश करते ही मकरी (घयिड़ालिन) ने हनुमान जी के चरण को पक़ड लिया, तब हनुमान जी ने अत्यन्त अकुलाकर उसे मार डाला अर्थात्‌ उसका मुख फाड़ दिया, जिससे वह मर गयी। फिर वह मकराक्षी अप्सरा दिव्य शरीर धारण करके विमान पर च़ढकर आकाश में चली गयी।

**कपि तव दरस भइउँ निष्पापा। मिटा तात मुनिबर कर श्रापा॥ मुनि न होई यह निशिचर घोरा। मानहु सत्य बचन कपि मोरा॥**
भाष्य

मकराक्षी अप्सरा बोली, हे वानरश्रेष्ठ हनुमान जी! आपके दर्शन से मैं निष्पाप हो गयी। हे तात! श्रेष्ठ मुनि का शाप समाप्त हो गया। यह मुनि नहीं है यह तो घोर राक्षस कालनेमि है, हे वानरश्रेष्ठ हनुमान जी! आप मेरे वचन सत्य मानिये।

[[७६७]]

अस कहि गई अप्सरा जबहीं। निशिचर निकट गयउ कपि तबहीं॥ कह कपि मुनि गुरुदछिना लेहू। पाछे हमहिं मंत्र तुम देहू॥ सिर लंगूर लपेटि पछारा। निज तनु प्रगटेसि मरती बारा॥ राम राम कहि छाड़ेसि प्राना। सुनि मन हरषि चलेउ हनुमाना॥

भाष्य

ऐसा कहकर जब मकराक्षी अप्सरा चली गयी उसी समय हनुमान जी महाराज कालनेमि राक्षस के पास गये। वानरश्रेष्ठ हनुमान जी ने कहा, हे मुनि! तुम पहले मुझसे गुव्र्दक्षिणा ले लो, फिर मुझे मंत्र देना। ऐसा कहकर कालनेमि के सिर को अपने लांगूल से लपेटकर हनुमान जी ने उठाकर पटक दिया। मरते समय कालनेमि ने अपने शरीर को प्रकट किया। ‘राम–राम’ कहकर उसने अपने प्राण छोड़े, सुनकर मन में प्रसन्न होकर हनुमान जी चल पड़े।

**देखा शैल न ओषधि चीन्हा। सहसा कपि उपारि गिरि लीन्हा॥**

**गहि गिरि निशि नभ धावत भयऊ। अवधपुरी ऊपर कपि गयऊ॥ भा०– **हनुमान जी ने द्रोणाचल पर्वत को देखा, पर ओषधि नहीं पहचान पाये। वस्तुत: हनुमान जी ने पर्वत पर ओषधि का चिह्न भी नहीं देखा, क्योंकि वह पर्वत में छिप गयी। तब साहस करके हनुमान जी ने पर्वत को उखाड़ लिया, तथा पर्वत को हाथ में लेकर रात्रि में आकाश मार्ग से हनुमान जी दौड़े और अवधपुरी के ऊपर गये।

दो०– देखा भरत बिशाल अति, निशिचर मन अनुमानि।

बिनु फर सायक मारेउ, चाप स्रवन लगि तानि॥५८॥

भाष्य

श्रीभरत ने अत्यन्त विशालकाय जीव को अवधपुरी के ऊपर आकाश में देखा। मन में राक्षस का अनुमान करके धनुष को कान तक तानकर श्री भरतलाल ने हनुमान जी को बिना फल के बाण से मार दिया।

**परेउ मुरछि महि लागत सायक। सुमिरत राम राम रघुनायक॥ सुनि प्रिय बचन भरत तब धाए। कपि समीप अति आतुर आए॥**
भाष्य

श्रीभरत का बाण लगते ही (मस्तक में) ‘राम–राम’ कहकर रघुकुल के नायक प्रभु श्रीराम का स्मरण करते हुए हनुमान जी महाराज मूर्च्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़े। तब प्रिय हनुमान जी के मुख से निकले हुए प्रिय श्रीराम के स्मरणात्मक वचन सुनकर श्रीभरत दौड़े और अत्यन्त आतुर होकर हनुमान जी महाराज के समीप आ गये।

**बिकल बिलोकि कीस उर लावा। जागत नहिं बहु भाँति जगावा॥**

**मुख मलीन मन भए दुखारी। कहत बचन भरि लोचन बारी॥ भा०– **वानरश्रेष्ठ हनुमान जी को विकल अर्थात्‌ व्याकुल देखकर अथवा, बाण के प्रभाव से विगत यानी गमन की कला से विगत निश्चेष्ट, शान्त और मूर्च्छित देखकर श्रीभरत ने हनुमान जी को हृदय से लगा लिया। उन्हें बहुत प्रकार से जगाया, किन्तु हनुमान जी महाराज नहीं जग रहे थे। श्रीभरत का मुख मलिन हो गया, वे मन में दु:खी हो

गये और आँखों में जल भरकर कहने लगे–

जेहिं बिधि राम बिमुख मोहि कीन्हा। तेहिं पुनि यह दारुन दुख दीन्हा॥ जौ मोरे मन बच अरु काया। प्रीति राम पद कमल अमाया॥ तौ कपि होउ बिगत श्रम शूला। जौ मो पर रघुपति अनुकूला॥

[[७६८]]

भाष्य

जिस विधाता ने मुझे श्रीराम से विमुख किया उसी ने यह असहनीय दु:ख भी दे दिया कि मेरे हाथों श्रीराम का एक सेवक हताहत्‌ हो गया। यदि मन, वाणी और शरीर से मेरे मन में श्रीरामचन्द्र जी के श्रीचरणकमलों में छल से रहित प्रीति है, यदि भगवान्‌ श्रीराम मुझ पर अनुकूल हों तो, हे हनुमान जी! आप मार्ग के श्रम और मेरे बाण के कष्ट से रहित हो जायें।

**सुनत बचन उठि बैठ कपीशा। कहि जय जयति कोसलाधीशा॥**

दो०– लीन्ह कपिहिं उर लाइ, पुलकित तनु लोचन सजल।

प्रीति न हृदय समाइ, सुमिरि राम रघुकुल तिलक॥५९॥

भाष्य

श्रीभरत के यह वचन सुनते ही कोसलाधीश की जय हो…जय हो! अर्थात्‌ अयोध्याधिपति भगवान्‌ श्रीराम की जय हो…जय हो! कहते हुए हनुमान जी महाराज उठकर बैठ गये। श्रीभरत ने शरीर से रोमांचित होकर नेत्रों में अश्रु भरकर रघुकुल के तिलक भगवान्‌ श्रीराम का स्मरण करके हनुमान जी महाराज को छाती से लगा लिया, उनके हृदय में प्रीति नहीं समा रही थी।

**विशेष– **इस प्रसंग को देखकर यह स्पष्ट हो जाता है कि श्रीअयोध्या की भूमि पर गिरते समय हनुमान जी के हाथ में द्रोणाचल पर्वत नहीं था, नहीं तो हनुमान जी को श्रीभरत कैसे हृदय से लगाते? वह पर्वत हनुमान जी ने श्रीभरत के बाण से मूर्च्छित होते समय अपने पिता पवनदेव को दे दिया था। यह बात गीतावली रामायण से भी प्रमाणित हो जाती है। यथा– **“पर्‌यो कहि राम पवन राख्यो गिरि”**, \(गी० रा० ६/१०\)।

तात कुशल कहु सुख निधान की। सहित अनुज अरु मातु जानकी॥ कपि सब चरित समास बखाने। भए दुखी मन महँ पछिताने॥

भाष्य

श्रीभरत बोले, हे मेरे प्रिय हनुमान जी! लक्ष्मण एवं माताश्री जानकी जी के सहित सुख के निधान श्रीराम का कुशल समाचार कहो। हनुमान जी ने संक्षेप में सम्पूर्ण चरित्र कह सुनाया। सुनकर श्रीभरत बहुत दु:खी हुए और मन में पछताने लगे।

**अहह दैव मैं कत जग जायउँ। प्रभु के एकहुँ काज न आयउँ॥ जानि कुअवसर मन धरि धीरा। पुनि कपि सन बोले बरबीरा॥**
भाष्य

श्रीभरत ने कहा, अहह! खेद है, हे देव! मैं संसार में क्यों जन्मा, क्योंकि प्रभु श्रीराम के एक भी कार्य में न आ पाया। प्रतिकूल समय जानकर मन में धैर्य धारण करके श्रेष्ठवीर श्रीभरत फिर वानरश्रेष्ठ हनुमान जी से बोले–

**तात गहरु होइहिं तोहि जाता। काज नसाइहि होत प्रभाता॥ च़ढु मम सायक शैल समेता। पठवौं तोहि जहँ कृपानिकेता॥**
भाष्य

हे तात! तुम्हें जाने में विलम्ब होगा और प्रात:काल होते ही संजीवनी के नहीं उपस्थित होने पर कार्य नष्ट हो जायेगा, क्योंकि सुषेण ने तुम्हें प्रात:काल से पहले आने के लिए निर्दश दिया था, जबकि मैंने बाण से मारकर तुम्हें विलम्बित किया है। पर्वत के सहित मेरे बाण पर च़ढ जाओ, मैं तुम्हें वहीं भेज देता हूँ ,जहाँ कृपा के भवन श्रीराम हैं।

**सुनि कपि मन उपजा अभिमाना। मोरे भार चलिहि किमि बाना॥ राम प्रताप बिचारि बहोरी। बंदि चरन कह कपि कर जोरी॥**

[[७६९]]

भाष्य

श्रीभरत का वचन सुनते ही हनुमान जी के मन में अभिमान अर्थात्‌ संशय उत्पन्न हो गया। उन्होंने सन्देह प्रकट करते हुए कहा, अरे मेरे भार से भरत जी का बाण चलेगा कैसे? परन्तु फिर श्रीराम के प्रताप का विचार करके श्रीभरत के चरणों की वन्दना करके हाथ जोड़कर हनुमान जी कहने लगे–

**तव प्रताप उर राखि गोसाईं। जैहों राम बान की नाईं॥ भरत हरषि तब आयसु दयऊ। पद सिर नाइ चलत कपि भयउ॥**
भाष्य

हे गोसाईं! अर्थात्‌ हे वैष्णवजगत्‌ के स्वामी! आपके प्रताप को हृदय में धारण करके मैं श्रीराम के बाण के समान चला जाऊँगा। तब श्रीभरत ने प्रसन्न होकर हनुमान जी को आज्ञा दी और श्रीभरत के चरणों में सिर नवाकर हनुमान जी महाराज फिर चले।

**दो०– भरत बाहुबल शील गुन, प्रभु पद प्रीति अपार।**

मन महँ जात सराहत, पुनि पुनि पवनकुमार॥६०॥

भाष्य

श्रीभरत की भुजाओं के बल, उनके शील, गुण तथा प्रभु के श्रीचरणों में अपार प्रीति की हनुमान जी महाराज मार्ग में जाते हुए मन में पुन:–पुन: सराहना कर रहे थे।

**इहाँ राम लछिमनहिं निहारी। बोले बचन मनुज अनुसारी॥**

अर्ध राति गइ कपि नहिं आयउ। राम उठाइ अनुज उर लायउ॥

भाष्य

यहाँ भगवान्‌ श्रीराम मूर्च्छित पड़े लक्ष्मण जी को निहारकर मनुष्य का अनुसरण करते हुए विलाप की भूमिका में बोले, अरे! आधी रात बीत गई संजीवनी बूटी लेकर कपिश्रेष्ठ हनुमान जी नहीं आये। श्रीराम ने लक्ष्मण जी को उठाकर हृदय से लगा लिया।

**सकहु न दुखित देखि मोहि काऊ। बंधु सदा तव मृदुल सुभाऊ॥ मम हित लागि तजेउ पितु माता। सहेहु बिपिन हिम आतप बाता॥ सो अनुराग कहाँ अब भाई। उठहु न सुनि मम बच बिकलाई॥ जौ जनतेउँ बन बंधु बिछोहू। पिता बचन मनतेउँ नहिं ओहू॥**
भाष्य

भगवान्‌ श्रीराम बोले, हे भैया! तुम मुझे कभी दु:खी नहीं देख सकते हो, तुम्हारा स्वभाव बहुत कोमल है, तुमने मेरे कल्याण के लिए पिता–माता को छोड़ा। वन में शीत, धूप और बर्फीली तथा गर्म पवन का वेग सहा। हे भाई! इस समय तुम्हारा वह प्रेम कहाँ है, जो मेरे वचन की विकलता को सुनकर तुम नहीं उठ रहे हो। यदि मैं जानता कि वन में मेरा भाई लक्ष्मण से वियोग हो जायेगा तो मैं पिता का वचन मान लेता और उनकी अर्थात्‌ सीता जी की बात नहीं मानता अर्थात्‌ सुमंत्र जी के साथ भेजे हुए पिताजी के सन्देश को आदेश मानकर सीता जी को श्रृंगवेरपुर से ही अयोध्या भेज देता और “नहिं ओहू” अर्थात्‌ उन सीता जी का वचन नहीं मानता, जिसमें उन्होंने कहा था कि शरीर को छोड़कर छाया किसकी होकर रहेगी, सूर्यनारायण को छोड़कर प्रभा कहाँ रहेगी और चन्द्रमा को छोड़कर चाँदनी को कहाँ स्थान है?

**सुत बित नारि भवन परिवारा। होहिं जाहिं जग बारहिं बारा॥ अस बिचारि जिय जागहु ताता। मिलइ न जगत सहोदर भ्राता॥**
भाष्य

संसार में पुत्र, धन, पत्नी, परिवार ये सब बारम्बार होते और जाते रहते हैं अर्थात्‌ मिलते और बिछुड़ते रहते हैं। हे भैया! हृदय में ऐसा विचार करके जग जाओ कि बिछुड़े हुए सहोदर भ्राता फिर नहीं मिलते।

[[७७०]]

**विशेष– **एक ही खीर से चारों भ्राताओं का आविर्भाव हुआ था इसलिए लक्ष्मण जी श्रीराम के सहोदर भ्राता हैं। अथवा, श्रीराम के समान कौसल्या जी के द्वारा दी हुई खीर से (जिसे चक्रवर्ती जी ने सुमित्रा जी को दिलाया) लक्ष्मण जी का भी जन्म हुआ, इसलिए भी लक्ष्मण जी भगवान्‌ श्रीराम के सहोदर भ्राता हैं।

जथा पंख बिनु खग अति दीना। मनि बिनु फनि करिवर कर हीना॥ अस मम जिवन बंधु बिनु तोही। जौ ज़ड दैव जियावै मोही॥

भाष्य

जैसे पंख के बिना पक्षी अत्यन्त दीन अर्थात्‌ अभावग्रस्त हो जाता है, जैसेमणि के बिना सर्प और सूँ़ढ के बिना हाथी असहाय हो जाता है, उसी प्रकार हे भैया! बिना तुम्हारे मेरा भी जीवन असहाय है। यदि ज़ड हृदयवाला ईश्वर तुम्हारे बिना मुझे जीवित रखता है तो अर्थात्‌ पहले तो मैं तुम्हारे बिना जीवित नहीं रह सकूँगा और यदि जीवित रहा भी तो पंख के बिना पक्षी, मणि के बिना सर्प और सूँ़ढ के बिना हाथी के समान असहाय और निरुपाय होकर जिऊँगा।

**जैहउँ अवध कवन मुह लाई। नारि हेतु प्रिय बन्धु गँवाई॥ बरु अपजस सहतेउँ जग माहीं। नारि हानि बिशेष छति नाहीं॥**
भाष्य

अरे पत्नी के लिए प्यारे भाई को खोकर मैं कौन–सा मुँह लेकर अयोध्या जाऊँगा। सीता को खोकर संसार में अपयश सह लेता यह ठीक था, क्योंकि पत्नी की हानि कोई विशेष क्षति नहीं है।

**अब अपलोक शोक सुत तोरा। सहिहि निठुर कठोर उर मोरा॥ निज जननी के एक कुमारा। तात तासु तुम प्रान अधारा॥ सौंपेउ मोहि तुमहिं गहि पानी। सब बिधि सुखद परम हित जानी॥ उतर काह दैहउँ तेहि जाई। उठि किन मोहि सिखावहु भाई॥**
भाष्य

हे पुत्र! अब यह मेरा निष्ठुर हृदय तुम्हारे शोक और तुम्हारे बिना जीने के अपयश को सहन करेगा। हे भैया! तुम अपनी माता सुमित्रा जी के प्रधान पुत्र हो और तुम उनके प्राण के आधार भी हो। सुमित्रा जी ने मुझे सब प्रकार से सुखदाता और परमहितैषी जानकर तुम्हें हाथ पक़डकर मुझे सौंपा है। मैं उन्हें जाकर क्या उत्तर दूँगा? अथवा, हे तात लक्ष्मण! तुम अपनी माता जनकनन्दिनी सीता जी के एकमात्र पुत्र हो। वनवास करते समय सीता जी को ही तुम्हारी माताश्री के रूप में नियुक्त किया था और तुम इकलौते पुत्र होने के कारण अपनी माता सीता जी के प्राण के आधार हो। सीता जी ने अग्नि में प्रवेश करते समय तुम्हें हाथ पक़डकर मुझे सौंपा, क्योंकि वे मुझे सब प्रकार से सुखद और परमहितैषी जानती हैं। अब मैं तुम्हारे बिना साकेत जाकर सीता जी को क्या उत्तर दूँगा? हे भाई! तुम उठकर मुझे क्यों नहीं सिखा रहे हो?

**बहु बिधि सोचत सोच बिमोचन। स्रवत सलिल राजिव दल लोचन॥**

उमा अखंड एक रघुराई। नर गति भगत कृपालु देखाई॥

भाष्य

इस प्रकार शोकों को नष्ट करने वाले प्रभु श्रीराम बहुत प्रकार से सोच रहे हैं और उनके लाल कमलदल जैसे नेत्रों से अश्रुजल चू रहा है। शिव जी, पार्वती जी को सम्बोधित करते हुए कहते हैं कि हे पार्वती! अखण्ड और एक होकर भी भक्तकृपालु श्रीरामचन्द्र जी ने मनुष्य की गति दिखाई है अर्थात्‌ अखण्ड परमात्मा के यहाँ खण्ड का अभाव होने से वियोग सम्भव ही नहीं है और एक होने के कारण वे श्रीसीता जी से भी पृथक्‌ नहीं हैं। यहाँ तो प्रभु केवल मानवीय दशा का दर्शन करा रहे हैं।

[[७७१]]

सो०– प्रभु विलाप सुनि कान, बिकल भए बानर निकर।

आइ गयउ हनुमान, जिमि करुना महँ बीर रस॥६१॥

भाष्य

प्रभु श्रीराम का विलाप सुनकर सभी वानर समूह व्याकुल हो गये। इसी बीच द्रोणाचल पर्वत और मृत संजीवनी बूटी लेकर हनुमान जी महाराज इस प्रकार आये, मानो करुणरस में वीररस आ गया हो।

**हरषि राम भेंटेउ हनुमाना। अति कृतग्य प्रभु परम सुजाना॥ तुरत बैद तब कीन्ह उपाई। उठि बैठे लछिमन हरषाई॥ हृदय लाइ प्रभु भेंटेउ भ्राता। हरषे सकल भालु कपि ब्राता॥ कपि पुनि बैद तहँा पहुँचावा। जेहि बिधि तबहिं ताहि लइ आवा॥**
भाष्य

अत्यन्त कृतज्ञ और परमचतुर श्रीराम ने हर्षित होकर हनुमान जी को भेंट लिया अर्थात्‌ गले लगाया। इसके पश्चात्‌ वैद्द सुषेण ने तुरन्त उपाय की अर्थात्‌ मृतसन्धानी ओषधि से टुक़डे में बँटी हुई लक्ष्मण जी के हड्डियों को जोड़ दिया। विशल्यकरणी ओषधि से लक्ष्मण जी के सारे घाव भर दिये अर्थात्‌ ठीक कर दिया। सुबल्यकरणी ओषधि से उनमें बल का संचार किया और मृतसंजीवनी जिसे हनुमान जी ले आये हैं से लक्ष्मण जी में जीवनशक्ति का सन्चार कर दिया और लक्ष्मण जी प्रसन्न होकर उठ कर बैठ गये। (**विशेष- **उठकर बैठते ही लक्ष्मण जी बोले, अहो! आज मैं बहुत सोया तुरन्त श्रीराम ने कहा, मैं भी आज बहुत रोया।) प्रभु श्रीराम मूर्च्छा से जगे हुए और मरणसंकट से उबरे हुए भ्राता लक्ष्मण जी को हृदय से लगाकर मिले और सम्पूर्ण वानर–भालुओं के समूह प्रसन्न हो गये। फिर हनुमान जी ने सुषेण वैद्द को वहाँ अर्थात्‌ उनके स्थान पर पहुँचा दिया, जिस प्रकार से उस समय उन्हें ले आये थे और इसी पंक्ति से उपलक्षणा की विधि से गोस्वामी जी यह भी सूचित कर रहे हैं कि हनुमान जी संजीवनी ओषधि के प्रयोग के पश्चात्‌ द्रोणाचल पर्वत को भी उसके स्थान पर छोड़कर शीघ्र श्रीराम के दल में लौट आये।

**यह बृत्तान्त दशानन सुनेऊ। अति बिषाद पुनि पुनि सिर धुनेऊ॥ ब्याकुल कुंभकरन पहँ गयऊ। करि बहु जतन जगावत भयऊ॥ जागा निशिचर देखिय कैसा। मानहुँ काल देह धरि बैसा॥ कुंभकरन बूझा कहु भाई। काहे तव मुख रहे सुखाई॥**
भाष्य

दसमुख रावण ने यह अर्थात्‌ लक्ष्मण जी के जीवित होने का वृत्तान्त सुना तो अत्यन्त दु:ख से व्याकुल होकर उसने बार–बार अपना सिर पीटा। वह व्याकुल होकर कुम्भकर्ण के पास गया और बहुत प्रयास करके उसे जगाया। जागा हुआ राक्षस किस प्रकार दिखता था, मानो काल ही शरीर धारण करके बैठा था। कुम्भकर्ण ने रावण से पूछा, कहो भैया! तुम्हारे दसों मुख सूख क्यों रहे हैं?

**कथा कही सब तेहिं अभिमानी। जेहि प्रकार सीता हरि आनी॥**

तात कपिन सब निशिचर मारे। महा महा जोधा संघारे॥

भाष्य

उस अभिमानी रावण ने वह सब कथा कह सुनायी, जिस प्रकार से वह श्रीसीता को चुराकर ले आया था। रावण बोला, हे भैया! वानरों ने सभी राक्षसों को मार डाला और महान्‌–महान्‌ योद्धाओं का संहार कर दिया।

**दुर्मुख सुररिपु मनुज अहारी। भट अतिकाय अकंपन भारी॥ अपर महोदर आदिक बीरा। परे समर महि सब रनधीरा॥**
भाष्य

दुर्मुख, देवान्तक, नरान्तक, परमवीर अतिकाय तथा भारी शरीरवाला अकम्पन इनके अतिरिक्त भी महोदर आदि सभी वीर और युद्ध में स्थिर रहने वाले राक्षस युद्धभूमि में पड़े हुए हैं अर्थात्‌ मर गये।

[[७७२]]

दो०– सुनि दशकंधर बचन तब, कुंभकरन बिलखान।

जगदंबा हरि आनि अब, शठ चाहसि कल्यान॥६२॥

भाष्य

तब दस कंधराओं वाले रावण के वचन सुनकर कुम्भकर्ण विलख उठा और बोला, अरे शठ! जगदम्बा श्रीसीता जी को हर ले आकर तू अपना कल्याण चाहता है।

**भल न कीन्ह तैं निशिचर नाहा। अब मोहि आइ जगाएसि काहा॥ अजहूँ तात त्यागि अभिमाना। भजहु राम होइहि कल्याना॥**
भाष्य

हे राक्षसराज! तूने अच्छा नहीं किया, अब मुझे आकर क्यों जगा दिया अर्थात्‌ जब सब कुछ नष्ट हो गया तो मुझे जगाने से क्या लाभ है? हे भैया! अब भी अभिमान छोड़कर भगवान्‌ श्रीराम का भजन करिये। आपका कल्याण होगा।

**हैं दशशीष मनुज रघुनायक। जाके हनूमान से पायक॥**

अहह बंधु तैं कीन्ह खोटाई। प्रथमहिं मोहि न जगायउ आई॥

भाष्य

हे दसशीश रावण! जिनके स्वयं शिव जी स्वरूप हनुमान जी जैसे सेवक हों, वे रघुकुल के नायक भगवान्‌ श्रीराम क्या मनुष्य हैं? अहह! मुझे खेद है, हे भाई! तूने बहुत खोटापन किया, जो युद्ध के प्रथम आकर मुझे नहीं जगाया।

**कीन्हेहु प्रभु बिरोध तेहि देवक। शिव बिरंचि सुर जाके सेवक॥ नारद मुनि मोहि ग्यान जो कहेऊ। कहतेउँ तोहि समय नहिं रहेऊ॥**
भाष्य

हे स्वामी! आपने उन देवता का विरोध किया है, जिन श्रीराम जी के शिवजी, ब्रह्मा जी एवं विष्णु जी आदि देवता सेवक हैं। नारद मुनि ने मुझसे जो ज्ञान कहा था वह मैं तुमसे कहता, पर अब समय नहीं रहा।

**अब भरि अंक भेंटु मोहि भाई। लोचन सुफल करौं मैं जाई॥ श्याम गात सरसीरुह लोचन। देखौं जाइ ताप त्रय मोचन॥**
भाष्य

हे भाई! अब भर अंक अर्थात्‌ भुजाओं में भरकर मुझे एक बार भेंट लो अर्थात्‌ मिल लो, मैं श्रीराम जी के पास जाकर नेत्रों को सफल करूँगा। श्यामल शरीर तथा कमल के समान नेत्रों वाले, तीनों प्रकार के तापों को नष्ट करने वाले प्रभु श्रीराम जी के मैं दर्शन करूँगा।

**दो०– रामरूप गुन सुमिरि मन, मगन भयउ छन एक।**

रावन माँगेउ कोटि घट, मद अरु महिष अनेक॥६३॥

भाष्य

भगवान्‌ श्रीराम जी के रूप और गुणों का स्मरण करके कुम्भकर्ण का मन एक क्षण के लिए मग्न हो गया अर्थात्‌ प्रभु के भक्तिमाधुर्य में डूब गया। इसके पश्चात्‌ उसने रावण से करोड़ घड़ा मदिरा और अनेक भैंसे माँगे।

**महिष खाइ करि मदिरा पाना। गर्जा बज्राघात समाना॥ कुंभकरन दुर्मद रन रंगा। चला दुर्ग तजि सेन न संगा॥**
भाष्य

भैंसों को खाकर, मदिरापान करके कुम्भकर्ण वज्रपात के समान गरजा। रणभूमि में दुर्मद अर्थात्‌ दुर्धर्ष मद से भरा हुआ। साथ में कोई सेना न लेकर अकेले ही कुम्भकर्ण किले को छोड़कर चल पड़ा।

**देखि बिभीषन आगे आयउ। परेउ चरन निज नाम सुनायउ॥**

अनुज उठाइ हृदय तेहि लायो। रघुपति भगत जानि मन भायो॥

[[७७३]]

भाष्य

उसे देखकर विभीषण जी आगे आये, कुम्भकर्ण के चरणों पर गिरे और अपना नाम सुनाया। उसने अर्थात्‌ कुम्भकर्ण ने छोटे भाई विभीषण जी को उठाकर हृदय से लगा लिया। रघुपति श्रीराम जी का भक्त जानकर विभीषण जी कुम्भकर्ण के मन को बहुत भाये।

**तात लात रावन मोहि मारा। कहत परम हित मंत्र बिचारा॥ तेहिं गलानि रघुपति पहिं आयउँ। देखि दीन प्रभु के मन भायउँ॥**
भाष्य

हे तात! रावण के ही पूछने पर श्रेष्ठ और कल्याणकारी मंत्रणा और विचार कहते हुए ही मुझे रावण ने लात से मार दिया। उसी ग्लानि से मैं रघुपति श्रीराम जी के पास आ गया। मेरी दीन दशा देखकर मैं प्रभु के मन को भा गया।

**सुनु सुत भयउ कालबश रावन। सो कि मान अब परम सिखावन॥ धन्य धन्य तैं धन्य बिभीषन। भयहु तात निशिचर कुल भूषन॥**

**बंधु बंश तैं कीन्ह उजागर। भजेहु राम शोभा सुख सागर॥ भा०– **कुम्भकर्ण ने कहा, हे बेटे! रावण काल के वश हो गया है। वह अब श्रेष्ठ शिक्षा क्यों माने? हे विभीषण तू धन्य है…धन्य है…धन्य है। हे तात! तू राक्षसकुल का अलंकार हो गया। हे भाई! तुमने पुलस्त्य–वंश को उजागर अर्थात्‌ प्रसिद्ध कर दिया और शोभा और सुख के समुद्र भगवान्‌ श्रीराम का भजन किया।

दो०– बचन कर्म मन कपट तजि, भजेहु राम रनधीर।

जाहु न निज पर सूझ मोहि, भयउँ कालबश बीर॥६४॥

भाष्य

हे विभीषण! वचन, कर्म और मन से कपट छोड़कर युद्ध में कुशल और स्थिर परमवीर भगवान्‌ श्रीराम का भजन करना। अब यहाँ से जल्दी चले जाओ, मुझे अपना–पराया कुछ भी नहीं सूझ रहा है, क्योंकि मैं काल के वश में हो चुका हूँ।

**बंधु बचन सुनि चला बिभीषन। आयउ जहँ त्रैलोक बिभूषन॥**

नाथ भूधराकार शरीरा। कुंभकरन आवत रनधीरा॥

भाष्य

कुम्भकर्ण के वचन सुनकर विभीषण जी चले और जहाँ तीनों लोक के आभूषण भगवान्‌ श्रीराम थे वहाँ आ गये और भगवान्‌ श्रीराम से बोले, हे नाथ! युद्ध में अचल और पर्वताकार शरीरवाला कुम्भकर्ण आ गया है।

**इतना कपिन सुना जब काना। किलकिलाइ धाए बलवाना॥ लिए उपारि बिटप अरु भूधर। कटकटाइ डारहि ता ऊपर॥ कोटि कोटि गिरि शिखर प्रहारा। करहिं भालु कपि एक एक बारा॥ मुरै न मन तनु टरै न टारे। जिमि गज अर्क फलनि के मारे॥**
भाष्य

जब इतना अपने कान से सुना तब किलकिला शब्द करके बलवान वानर–भालु दौड़े। उन्होंने वृक्ष और पर्वत उखाड़ लिए और कटकटा शब्द करके कुम्भकर्ण के ऊपर डालने लगे। वानर और भालु एक–एक बार में कुम्भकर्ण पर करोड़ों-करोडों पर्वत शिखरों का प्रहार करते हैं। उसका मन मुड़ता नहीं है और शरीर टालने पर भी टलता नहीं है, जैसे मदार के फलों से मारने पर हाथी को कोई अन्तर नहीं पड़ता।

**तब मारुतसुत मुठिका हनेऊ। पर्‌यो धरनि ब्याकुल सिर धुनेऊ॥**

पुनि उठि तेहि मारेउ हनुमंता। घुर्मित भूतल परेउ तुरंता॥

[[७७४]]

भाष्य

तब पवनपुत्र हनुमान जी ने कुम्भकर्ण को एक मुक्का मारा। वह व्याकुल होकर पृथ्वी पर गिर पड़ा और अपना सिर पीट लिया। फिर उठकर कुम्भकर्ण ने भी हनुमान जी को एक मुक्का मारा और हनुमान जी चक्कर खाकर तुरन्त पृथ्वी पर गिर पड़े।

विशेष

अपना ऐश्वर्य छिपाकर मूर्च्छित होने का अभिनय किया नहीं तो कुम्भकर्ण को हनुमान जी के ईश्वरीयस्वरूप का पता चल जाता। फिर तो श्रीराम के महाविष्णुस्वरूप का पता चल जाने से कुम्भकर्ण, रावण आदि सभी अवध्य हो जाते किसी का मरण नहीं होता।

पुनि नल नीलहिं अवनि पछारेसि। जहँ तहँ पटकि पटकि भट डारेसि॥

चली बलीमुख सेन पराई। अति भय त्रसित न कोउ समुहाई॥

भाष्य

फिर उसने नल और नील को पृथ्वी पर पछाड़ दिया और जहाँ–तहाँ वानर वीरों को पटक–पटककर फेंक दिया। वानरी सेना भाग चली, सब लोग अत्यन्त भय से त्रस्त थे, कोई उसके सम्मुख नहीं आ रहा था।

**दो०– अंगदादि कपि मुरछित, करि समेत सुग्रीव।**

काँख दाबि कपिराज कहँ, चला अमित बल सींव॥६५॥

भाष्य

सुग्रीव जी के सहित अंगद जी आदि वानरों को मूर्च्छित करके, मूर्च्छावस्था में ही सुग्रीव जी को काँख में दबाकर असीम बल की सीमा, अथवा अमित बलवाले श्रीराम ही जिसकी सीमा हैं, यानी श्रीराम के अतिरिक्त सभी पर विजय प्राप्त करने वाला कुम्भकर्ण चल पड़ा।

**उमा करत रघुपति रनलीला। खेल गरुड जिमि अहिगन मीला॥ भृकुटि भंग जो कालहिं खाई। ताहि कि ऐसी सोह लराई॥**
भाष्य

हे पार्वती! भगवान्‌ श्रीराम जी रणलीला कर रहे हैं अर्थात्‌ इस लीला में मूर्च्छित होना, कभी पराजित होना यही स्वाभाविकता है। जिस प्रकार सर्पों से मिलकर गरुड़ जी खेलते हों, प्रभु इस समय उसी प्रकार का व्यवहार कर रहे हैं। जो अपने भृकुटि के टे़ढे होने मात्र से काल को भी खा लेते हैं, क्या उन परमात्मा के लिए, इस प्रकार की लड़ाई शोभित होती है जिसमें कुम्भकर्ण सभी वानरी सेना को रौंदकर चला गया हो?

**जग पावनि कीरति बिस्तरिहैं। गाइ गाइ भवनिधि नर तरिहैं॥ मुरछा गइ मारुतसुत जागे। सुग्रीवहिं तब खोजन लागे॥ कपिराजहु कै मुरछा बीती। निबुकि गयउ तेहि मृतक प्रतीती॥**
भाष्य

इसी विधि से भगवान्‌ श्रीराम संसार को पवित्र करने वाली कीर्ति का विस्तार करेंगे।, उसे गा–गाकर लोग भवसागर से तर जायेंगे। मूर्च्छा समाप्त हुई हनुमान जी जगे और वे सुग्रीव जी को ढूँ़ढने लगे। सुग्रीव जी की भी मूर्च्छा समाप्त हुई। वे कुम्भकर्ण की काँख से छूट गये। कुम्भकर्ण ने समझा यह मर गया।

**काटेसि दशन नासिका काना। गरजि अकाश चलेउ तेहिं जाना॥ गहेसि चरन धरि धरनि पछारा। अति लाघव उठि पुनि तेहि मारा॥ पुनि आयउ प्रभु पहँ बलवाना। जयति जयति कह कृपानिधाना॥**
भाष्य

सुग्रीव जी ने दाँत से कुम्भकर्ण के नाक–कान काट लिया और गरज कर आकाश में चले गये। कुम्भकर्ण ने जान लिया। उसने सुग्रीव जी के चरण पक़डा और पक़डकर पृथ्वी पर दे पटका, परन्तु अत्यन्त हल्का होने के कारण उठकर सुग्रीव जी ने फिर कुम्भकर्ण को मारा और फिर बलवान सुग्रीव जी प्रभु के पास ‘कृपानिधान की जय हो…जय हो…जय हो!’ इस प्रकार कहते हुए आ गये।

[[७७५]]

नाक कान काटे जिय जानी। फिरा क्रोध करि भई गलानी॥ सहज भीम पुनि बिनु श्रुति नासा। देखत कपि दल उपजी त्रासा॥

दो०– जय जय जय रघुबंश मनि, धाए कपि दै हूह।

एकहिं बार तासु पर, डारेनि गिरि तरु जूह॥६६॥

भाष्य

अपना नाक–कान कटा हुआ हृदय में समझकर कुम्भकर्ण क्रोधवश फिर युद्ध करने के लिए लौटा। वह स्वभाव से भयंकर था, फिर बिना कान–नाक के हो चुका था। उसे देखकर वानरी सेना में डर उत्पन्न हो गया। “रघुवंश के मणि श्रीराम की जय हो…जय हो…जय हो!” इस प्रकार जयकारा लगाकर हू..हू करते हुए वानर दौड़े और एक ही बार में कुम्भकर्ण पर पर्वतों और वृक्षों के समूह फेंके।

**कुंभकरन रन रंग बिरुद्धा। सन्मुख चला काल जनु क्रुद्धा॥ कोटि कोटि कपि धरि धरि खाई। जनु टीडी गिरि गुहा समाई॥ कोटिन गहि शरीर सन मर्दा। कोटिन मीजि मिलाएसि गर्दा॥ मुख नासा स्रवननि की बाटा। निसरि पराहिं भालु कपि ठाटा॥ रन मद मत्त निशाचर दर्पा। बिश्व ग्रसिहि जनु एहि बिधि अर्पा॥ मुरे सुभट सब फिरिहिं न फेरे। सूझ न नयन सुनहिं नहिं टेरे॥**
भाष्य

समरभूमि में कुम्भकर्ण वानरों के प्रति विव्र्द्ध दृय्ि का हो चुका और काल के समान क्रुद्ध होकर उनके सामने चला। वह करोड़ों-करोड़ों वानरों को पक़डकर खा जाता, जैसे टिडी पक्षी पर्वत की गुफा में समा जाता है। करोड़ों को उसने शरीर से मसल दिया और करोड़ों को हाथ से मसलकर धूल में मिला दिया। उसके मुख, नाक और कान के मार्ग से निकल–निकल कर वानर–भालुओं के समूह भाग जाते थे। युद्ध के मद में पागल वह राक्षस इस प्रकार दर्पित हो रहा था, मानो वह संपूर्ण संसार को खा जाएगा जैसे विधाता ने इसे खाने के लिए सम्पूर्ण संसार को सौंप दिया हो। सभी वानर वीर मुड़ गये, वे लौटाने से भी नहीं लौटते थे, उन्हें आँख से दिखता नहीं था और बुलाने से वे सुनते नहीं थे।

**कुंभकरन कपि फौज बिडारी। सुनि धाई रजनीचर धारी॥**

देखी राम बिकल कटकाई। रिपु अनीक नाना बिधि आई॥

दो०– सुनु सौमित्रि कपीश तुम, सकल संभारहु सैन।

मैं देखउँ खल बल दलहिं, बोले राजिवनैन॥६७॥

भाष्य

कुम्भकर्ण ने वानरी सेना को तितर–बितर कर दिया, यह सुनकर राक्षसों की सेना दौड़ पड़ी। भगवान्‌ श्रीराम ने अपनी सेना को विकल देखा तथा नाना प्रकार की शत्रु सेना को आई हुई भी देखा। लाल कमल के समान नेत्रवाले, राजीवनयन भगवान्‌ श्रीराम बोले, हे लक्ष्मण! हे सुग्रीव! तुम दोनों सम्पूर्ण सेना को सम्भालना। अब मैं दुष्ट कुम्भकर्ण, उसका बल और उसकी सेना को अकेले देखूँगा।

**कर सारंग बिशिख कटि भाथा। मृगपति ठवनि चले रघुनाथा॥ प्रथम कीन्ह प्रभु धनुष टँकोरा। रिपु दल बधिर भयउ सुनि सोरा॥ सत्यसंध छाड़े शर लच्छा। कालसर्प जनु चले सपच्छा॥**
भाष्य

हाथ में शार्ङ्ग धनुष और बाण लेकर तथा कटि प्रदेश में तरकस बाँधकर सिंह के समान चाल से श्रीरघुनाथ जी चल पड़े। प्रभु ने प्रथम धनुष का टंकार किया, उसका शब्द सुनकर शत्रुदल बहरा हो गया।

[[७७६]]

सत्यप्रतिज्ञ एवं अमोघ सन्धान करने वाले प्रभु ने एक लाख बाण छोड़े, मानो पंखों से युक्त होकर कालसर्प ही चल पड़े हों।

अति जव चले बिपुल नाराचा। लगे कटन भट बिकट पिशाचा॥ कटहिं चरन उर सिर भुजदंडा। बहुतक बीर होहिं शत खंडा॥ घुर्मि घुर्मि घायल महि परहीं। उठि संभारि सुभट पुनि लरहीं॥ लागत बान जलद जिमि गाजहिं। बहुतक देखि कठिन शर भाजहिं॥ रुंड प्रचंड मुंड बिनु धावहिं। धरु धरु मारु मारु गुहरावहिं॥

भाष्य

अत्यन्त वेगशाली बहुत से बाण चल पड़े, उनसे भयंकर माँसाहारी राक्षस वीर कटने लगे। उनके चरण, हृदय, सिर और भुजदण्ड कट रहे हैं। बहुत से वीर सौ–सौ टुक़डे हो जाते हैं। वे चक्कर खाकर, घायल होकर, पृथ्वी पर पड़ जाते हैं। वे सम्भालकर उठकर फिर लड़ते हैं, बाण लगते ही बादलों की भाँति गरजते हैं और बहुत से वीर कठिन बाण देखकर भागते हैं। प्रचण्ड धड़ बिना सिरों के दौड़ते हैं तथा “मारो–मारो, पक़डो-पक़डो इस प्रकार गुहार लगाकर चिल्लाते हैं।”

**दो०– छन महँ प्रभु के सायकनि, काटे बिकट पिशाच।**

पुनि रघुबीर निषंग महँ, प्रबिसे सब नाराच॥६८॥

भाष्य

एक क्षण में प्रभु के बाणों ने माँसाहारी राक्षसों को काट डाला, फिर सभी एक लाख बाण प्रभु के तरकस में प्रवेश कर गये।

**कुंभकरन मन दीख बिचारी। हती निमिष महँ निशिचर धारी॥ भा अति क्रुद्ध महाबल बीरा। कियो मृगनायक नाद गँभीरा॥**
भाष्य

कुम्भकर्ण ने मन में विचारकर देखा कि राक्षसी सेना को श्रीराम ने एक क्षण में मार डाला। पूजनीय रण में कुशल कुम्भकर्ण बहुत कुपित हुआ और उसने गम्भीर सिंहनाद किया।

**कोपि महीधर लेइ उपारी। डारइ जहँ मर्कट भट भारी॥ आवत देखि शैल प्रभु भारे। शरनि काटि रज सम करि डारे॥**
भाष्य

वह कुपित होकर पर्वतों को उखाड़ लेता और जहाँ विशाल वानरभट थे वहाँ फेंकता। प्रभु विशाल पर्वतों को आते देख, बाणों से काटकर उन्हें धूल के समान कर डालते थे।

**पुनि धनु तानि कोपि रघुनायक। छाँड़े अति कराल बहु सायक॥ तनु महँ प्रबिश निसरि शर जाहीं। जिमि दामिनि घन माझ समाहीं॥**
भाष्य

फिर रघुकुल के नायक श्रीराम क्रुद्ध होकर अत्यन्त भयंकर बहुत से बाण छोड़े। भगवान्‌ श्रीराम के बाण कुम्भकर्ण के शरीर में प्रवेश करके उसी प्रकार निकल जाते हैं, जैसे बिजलियाँ बादलों में समा कर निकल जाती हैं।

**शोनित स्रवत सोह तन कारे। जनु कज्जल गिरि गेरु पनारे॥**

**बिकल बिलोकि भालु कपि धाए। बिहँसा जबहिं निकट चलि आए॥ भा०– **कुम्भकर्ण के काले शरीर से गिरते हुए रक्त ऐसे सुशोभित हो रहे हैं, मानो कज्जल पर्वत पर गेरु नामक धातु के पनारे अर्थात्‌ छोटे–छोटे प्रवाह हों। कुम्भकर्ण को व्याकुल देखकर वानर–भालु दौड़े। जब सब निकट चले आये तब कुम्भकर्ण हँसा।

[[७७७]]

दो०– गर्जत धायउ बेग अति, कोटि कोटि गहि कीश।

महि पटकइ गजराज इव, शपथ करइ दशशीश॥६९॥

भाष्य

कुम्भकर्ण गरजता हुआ अत्यन्त वेग से दौड़ा, वह करोड़ों-करोड़ों वानरों को पक़डकर श्रेष्ठ हाथी की भाँति पृथ्वी पर पटक देता और रावण की शपथ करता था।

**भागे भालु बलीमुख जूथा। बृक बिलोकि जिमि मेष बरूथा॥ चले भागि कपि भालु भवानी। बिकल पुकारत आरत बानी॥ यह निशिचर दुकाल सम अहई। कपिकुल देश परन अब चहई॥ कृपा बारिधर राम खरारी। पाहि पाहि प्रनतारति हारी॥**
भाष्य

जैसे भेयिड़े को देखकर भेड़ों के समूह भाग जाते हैं, उसी प्रकार भालु और वानरों के यूथ भागने लगे। हे पार्वती! व्याकुल होकर आर्त अर्थात्‌ भयपूर्ण वाणी में पुकारते हुए वानर–भालु भग चले। यह राक्षस दुष्काल के समान है, जो अब वानररूप देश में पड़ना ही चाहता है अर्थात्‌ जैसे दुष्काल से देश का नाश हो जाता है, उसी प्रकार वानरी सेना का नाश हो जायेगा। हे कृपा के बादल! खर के शत्रु! प्रणाम करने वालों की आर्त अर्थात्‌ भय का हरण करने वाले श्रीराम! आप हमारी रक्षा कीजिये…रक्षा कीजिये।

**सकरुन बचन सुनत भगवाना। चले सुधारि शरासन बाना॥ राम सेन निज पाछे घाली। चले सकोप महा बलशाली॥ खैंचि धनुष शर शत संधाने। छूटे तीर शरीर समाने॥ लागत शर धावा रिस भरा। कुधर डगमगत डोलति धरा॥**
भाष्य

अपनी सेना का करुणापूर्ण वचन सुनकर भगवान्‌ श्रीराम धनुष–बाण सुधारकर आगे चले। वानरी सेना को अपने पीछे करके स्वयं महाबलशाली, महापराक्रमी श्रीराघव सरकार क्रोध के साथ चल पड़े। धनुष को खींचकर प्रभु ने सौ बाणों का सन्धान किया। वे बाण छूटे और कुम्भकर्ण के शरीर में समा गये। बाणों के लगते ही कुम्भकर्ण क्रोध में भरकर दौड़ा। पर्वत डगमगाने लगे और पृथ्वी डोलने लगी अर्थात्‌ चलने लगी।

**लीन्ह एक तेहिं शैल उपाटी। रघुकुल तिलक भुजा सोइ काटी॥ धावा बाम बाहु गिरि धारी। प्रभु सोउ भुजा काटि महि पारी॥ काटे भुजा सोह खल कैसा। पक्षहीन मंदर गिरि जैसा॥ उग्र बिलोकनि प्रभुहिं बिलोका। ग्रसन चहत मानहुँ त्रैलोका॥**
भाष्य

कुम्भकर्ण ने कुपित होकर एक पर्वत उखाड़ लिया, रघुकुल में श्रेष्ठ भगवान्‌ श्रीराम ने वह भुजा काट दी। कुम्भकर्ण बायें हाथ में पर्वत रखकर दौड़ा, प्रभु ने वह भुजा भी काट कर पृथ्वी पर फेंक दी। भुजाओं के कट जाने पर दुष्ट कुम्भकर्ण किस प्रकार शोभित हो रहा था, जैसे पंखों से रहित मन्दराचल पर्वत हो। कुम्भकर्ण ने भयंकर दृष्टि से प्रभु को देखा, मानो वह तीनों लोकों को खाना चाहता था।

**दो०– करि चिकार अति घोरतर, धावाबदन पसारि।**

गगन सिद्ध सुर त्रसित सब, हा हा हेति पुकारि॥७०॥

भाष्य

तब कुम्भकर्ण घोर चित्कार करके मुख फैलाकर दौड़ा, आकाश के सभी सिद्ध और देवता हा!…हा!…हा! इस प्रकार पुकार कर अत्यन्त भयभीत हो गये।

[[७७८]]

सभय देव करुनानिधि जान्यो। स्रवन प्रजंत शरासन तान्यो॥

**बिशिख निकर निशिचर मुख भरेऊ। तदपि महाबल भूमि न परेऊ॥ भा०– **करुणानिधान भगवान्‌ श्रीराम ने देवताओं को भयभीत जाना, तब अपने धनुष को कान तक खींचा और बाणों के समूहों से राक्षस कुम्भकर्ण का मुँह भर दिया, फिर भी महाबलशाली कुम्भकर्ण पृथ्वी पर नहीं पड़ा।

शरनि भरा मुख सन्मुख धावा। काल तून सजीव जनु आवा॥ तब प्रभु कोपि तीब्र शर लीन्हा। धर ते भिन्न तासु सिर कीन्हा॥

भाष्य

बाणों से भरे हुए मुखवाला कुम्भकर्ण भगवान्‌ श्रीराम के सम्मुख दौड़ा, मानो जीव धारण करके काल का तरकस ही चला आया हो। तब प्रभु श्रीराम ने कुपित होकर तीव्र बाण लिया और उसी से कुम्भकर्ण का सिर, धड़ से अलग कर दिया।

**सो सिर परेउ दशानन आगे। बिकल भयउ जिमि फनि मनि त्यागे॥**

**धरनि धसइ धर धाव प्रचंडा। तब प्रभु काटि कीन्ह दुइ खंडा॥ भा०– **कुम्भकर्ण का वह सिर रावण के आगे पड़ा, वह अर्थात्‌ रावण किस प्रकार व्याकुल हो गया, जैसे मणि को छोड़कर सर्प व्याकुल हो जाता है। कुम्भकर्ण का भयंकर धड़ दौड़ने लगा और उससे पृथ्वी धँसने लगी, तब प्रभु ने उसे काटकर दो टुक़डों में कर दिया।

परे भूमि जिमि नभ ते भूधर। हेठ दाबि कपि भालु निशाचर॥ तासु तेज प्रभु बदन समाना। सुर मुनि सबहिं अचंभव माना॥

भाष्य

कुम्भकर्ण आकाश से पर्वत की भाँति अपने नीचे वानर–भालु और राक्षसों को दबाकर पृथ्वी पर गिर पड़ा। कुम्भकर्ण का तेज प्रभु श्रीराम के मुख में समा गया, देवता और मुनि सभी ने आश्चर्य माना।

**सुर दुंदुभी बजावहिं हरषहिं। अस्तुति करहिं सुमन बहु बरषहिं॥ करि बिनती सुर सकल सिधाए। तेही समय देवऋषि आए॥**
भाष्य

देवता नगारे बजाते हैं, प्रसन्न होते हैं, स्तुति करते हैं और बहुत से पुष्पों की वर्षा करते हैं। स्तुति करके सभी देवता चले गये, उसी समय वहाँ देवर्षि नारद जी आये।

**गगनोपरि हरि गुन गन गाए। रुचिर बीररस प्रभु मन भाए॥ बेगि हतहु खल कहि मुनि गयेऊ। राम समर महि शोभत भयेऊ॥**
भाष्य

देवर्षि नारद जी ने आकाश के ऊपर रहकर ही वीररस से सुन्दर प्रभु के मन को भानेवाले श्रीहरि राघवेन्द्र सरकार के गुणगणों का गान किया। अब शीघ्र रावण को मारिये यह कहकर नारद जी पधार गये। भगवान्‌ श्रीराम युद्धभूमि में शोभित हुए।

**छं०– संग्राम भूमि बिराज रघुपति अतुल बल कोसल धनी।**

श्रम बिंदु मुख राजीव लोचन रुचिर तन शोनित कनी॥ भुज जुगल फेरत शर शरासन भालु कपि चहुँ दिशि बने।

**कह दास तुलसी कहि न सक छबि शेष जेहि आनन घने॥ भा०– **अतुलनीय बलवाले अयोध्याधिपति भगवान्‌ श्रीराम संग्रामभूमि में विराजमान हैं। उनके मुख पर पसीने की बूँदें हैं, उनके नेत्र लाल कमल के समान हैं और उनके सुन्दर शरीर पर रुधिर (रक्त) की कणिकाएँ हैं। प्रभु

[[७७९]]

श्रीराम दोनों हाथों से धनुष–बाण घुमा रहे हैं। उनके चारों ओर वानर–भालु सुन्दर बने हैं। गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं कि प्रभु की वह युद्धस्थल की छवि शेष भी नहीं कह सकते, जिनके पास बहुत से मुख हैं।

दो०– निशिचर अधम मलायतन, ताहि दीन्ह निज धाम।

गिरिजा ते नर मंदमति, जे न भजहिं श्रीराम॥७१॥

भाष्य

हे पार्वती! अधम तथा मलों के निवासगृह, ऐसे उस नीच राक्षस कुम्भकर्ण को भगवान्‌ श्रीराम ने अपना धाम दे दिया। हे पार्वती! वे जीव अत्यन्त मन्दमति के हैं, जो श्रीसीता के रमण भगवान्‌ श्रीराम को नहीं भजते।

**दिन के अंत फिरी द्वौ अनी। समर भई सुभटन श्रम घनी॥ राम कृपा कपि दल बल बा़ढा। जिमि तृन पाइ लाग अति डा़ढा॥ छीजहिं निशिचर दिन अरु राती। निज मुख कहे सुकृत जेहि भाँती॥**
भाष्य

दिन का अन्त होने पर दोनों सेनायें लौटी। युद्ध में दोनों दलों के वीरों को बहुत श्रम हुआ। भगवान्‌ श्रीराम जी की कृपा से वानरों का बल उसी प्रकार से ब़ढा, जैसे सूखी घास पाकर अग्नि बहुत लगता है अर्थात्‌ बहुत प्रज्जवलित हो उठता है। दिन और रात राक्षस उसी प्रकार नष्ट हो रहे हैं, जैसे अपने मुख से कहने पर पुण्य नष्ट हो जाता है।

**बहु बिलाप दशकंधर करई। बंधु शीष पुनि पुनि उर धरई॥ रोवहिं नारि हृदय हति पानी। तासु तेज बल बिपुल बखानी॥**
भाष्य

रावण बहुत प्रकार से विलाप कर रहा था और बारम्बार अपने भाई कुम्भकर्ण का सिर छाती पर रख रहा था। सभी कुम्भकर्ण की नारियाँ हृदय को हाथ से पीटती हुई, कुम्भकर्ण के तेज और बहुत–बड़े बल का बखान करती हुई रो रही थीं।

**मेघनाद तेहि अवसर आवा। कहि बहु कथा पिता समुझावा॥ देखेहु कालि मोरि मनुसाई। अबहिं बहुत का करौं बड़ाई॥ इष्टदेव सन बर रथ पायउँ। सो बल तात न तोहि देखायउँ॥ एहि बिधि जल्पत भयउ बिहाना। चहुँ दुआर लागे कपि नाना॥**
भाष्य

उसी समय वहाँ मेघनाद आया, उसने बहुत–सी कथायें कह कर अपने पिता रावण को समझाया और बोला, कल मेरा पुरुषार्थ देख लीजियेगा अभी बहुत बड़ाई क्या करूँ? हे तात! अपने इष्टदेव से मैंने वरदान रूप में जो रथ पाया है, वह बल मैंने आपको नहीं दिखाया, इस प्रकार निरर्थक वार्त्तालाप करते हुए प्रात:काल हो गया और किले के चारों द्वारों पर अनेक वानर आकर लग गये अर्थात्‌ उपस्थित हो गये।

**इत कपि भालु काल सम बीरा। उत रजनीचर अति रनधीरा॥ लरहिं सुभट निज निज जय हेतू। बरनि न जाइ समर खगकेतू॥**
भाष्य

इधर वानर–भालु जो काल के समान वीर थे और उधर अत्यन्त रणधीर राक्षसगण थे। दोनों दलों के वीर अपने–अपने स्वामी के विजय के लिए युद्ध कर रहे थे। हे गरुड़ देव जी! युद्ध का वर्णन नहीं किया जा सकता।

**विशेष– **भुशुण्डि जी गरुड़ जी को इसलिए सावधान कर रहे हैं, क्योंकि इसी प्रसंग की लीला से गरुड़ जी को मोह हुआ था।

[[७८०]]

दो०– मेघनाद मायामय, रथ चढि़ गयउ अकास।

**गर्जेउ प्रलय पयोद जिमि, भइ कपि कटकहिं त्रास॥७१॥ भा०– **मायामय रथ पर च़ढकर मेघनाद आकाश में चला गया और वह प्रलयकालीन बादल के समान गरजा, जिससे सम्पूर्ण वानरी सेना को भय हो गया।

शक्ति शूल तरवारि कृपाना। अस्त्र शस्त्र कुलिशायुध नाना॥ डारइ परशु परिघ पाषाना। लागेउ बृष्टि करै बहु बाना॥

भाष्य

शक्ति, त्रिशूल, तलवार, कृपाण अर्थात्‌ तीव्र धारवाली कटार इस प्रकार के अनेक अस्त्र–शस्त्र और इन्द्र से छीने हुए नाना प्रकार के वज्र तथा फरसे, परिघ और पत्थर फेंका, फिर मेघनाद बाणों की वृष्टि करने लगा।

**रहे दसों दिशि सायक छाई। मानहुँ मघा मेघ झरि लाई॥ धरु धरु मारु सुनहिं कपि काना। जो मारइ तेहि कोउ न जाना॥ गहि गिरि तरु अकाश कपि धावहिं। देखहिं तेहिं न दुखित फिरि आवहिं॥ अवघट घाट बाट गिरि कंदर। माया बल कीन्हेसि शर पंजर॥**

जाहिं कहाँ ब्याकुल भये बंदर। सुरपति बंदि परे जनु मंदर॥

भाष्य

दसो दिशाओं में बाण ही बाण छा गये, मानो मघा नक्षत्र में वर्षाकालीन मेघ ने झड़ी लगा दी हो। वानर “पक़डो-पक़डो”, “मारो–मारो” अपने कानों से सुनते हैं पर जो उन्हें मार रहा है उसे उनमें से कोई नहीं जान पा रहा है। हाथ में पर्वत और वृक्ष लेकर वानरभट आकाश में दौड़ते हैं, वहाँ भी मेघनाद को नहीं देखते, इससे दु:खी होकर लौट आते हैं। दुर्गम घाटियाँ, मार्ग, पर्वत की गुफायें सब कुछ मेघनाद ने मायामय बाणों के पिंज़डे से घेर दिया। अब कहाँ जायें वानरभट व्याकुल हो गये, मानो मन्दराचल इन्द्र के बन्दीगृह में पड़ गया हो।

**मारुतसुत अंगद नल नीला। कीन्हेसि विकल सकल बलशीला॥ पुनि लछिमन सुग्रीव बिभीषन। शरनि मारि कीन्हेसि जर्जर तन॥**
भाष्य

पवनपुत्र हनुमान जी, अंगद जी, नल–नील आदि सभी स्वाभाविक बलवान बन्दरों को मेघनाद ने व्याकुल कर दिया। फिर लक्ष्मण जी, सुग्रीव जी एवं विभीषण जी के शरीरों को मेघनाद ने बाणों से मार–मारकर जर्जर कर दिया।

**पुनि रघुपति सन जूझै लागा। शर छाँड़इ होइ लागहिं नागा॥ ब्याल पाश बश भए खरारी। स्वबश अनंत एक अबिकारी॥**
भाष्य

फिर मेघनाद रघुकुल के स्वामी श्रीराम से युद्ध करने लगा। वह बाण छोड़ता वे नाग बनकर भगवान्‌ श्रीराम के अंगों में लिपट जाते थे। परमस्वतंत्र, अद्वितीय, सभी विकारों से रहित खर के शत्रु भगवान्‌ श्रीराम नागपाश के वश में हो गये।

**नट इव कपट चरित कर नाना। सदा स्वतंत्र राम भगवाना॥ रन शोभा लगि प्रभुहिं बँधायो। नागपाश देवन भय पायो॥**
भाष्य

निरन्तर स्वतंत्र होकर भी, ऐश्वर्यादि छह माहात्म्यों से युक्त होकर भी परमात्मा श्रीराम नट की भाँति अनेक कृत्रिम चरित्र करते रहते हैं। युद्ध की शोभा के लिए प्रभु सर्वसमर्थ, सर्वशक्तिमान भगवान्‌ श्रीराम ने ही स्वयं को नागपाश में बँधा लिया। देवताओं ने भय पाया अर्थात्‌ देवता डर गये, यद्दपि भगवान्‌ श्रीराम युद्ध में रौद्र

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के देवता रुद्र के रूप में अपने को प्रस्तुत कर रहे हैं, क्योंकि रुद्र नाग के बिना नहीं रहते अत: मेघनाद के नागपाश में बँधकर प्रभु ने स्वयं को अनेक नागों से युक्त करके अनेक व्र्द्रों के स्वरूप में प्रकट किया।

दो०– गिरिजा जाकर नाम जपि, मुनि काटहिं भव पास।

सो प्रभु आव कि बंध तर, ब्यापक बिश्व निवास॥७३॥

भाष्य

हे पार्वती! जिन प्रभु का नाम जपकर मुनिजन भवपाश को काट देते हैं, वे ही सर्वव्यापी, विश्व के निवास स्थान और विश्व जिनमें निवास करता है, ऐसे सर्वसमर्थ परमेश्वर श्रीराम क्या बन्धन के नीचे आ सकते हैं?

**चरित राम के सगुन भवानी। तर्कि न जाहिं बुद्धि मन बानी॥ अस बिचारि जे परम बिरागी। रामहिं भजहिं तर्क सब त्यागी॥**
भाष्य

शिव जी पार्वती जी को सम्बोधित करते हुए कहते हैं कि हे भवानी! श्रीराम की सगुण लीला के चरित्र बुद्धि, मन और वाणी से तर्क का विषय नहीं बनाये जा सकते, ऐसा विचार करके जो परम वैराग्यवान हैं, वे सभी तर्क छोड़कर श्रीराम को ही भजते हैं।

**व्याकुल कटक कीन्ह घननादा। पुनि भा प्रगट कहइ दुर्बादा॥ जामवंत कह खल रहु ठा़ढा। सुनि करि ताहि क्रोध अति बा़ढा॥ बू़ढ जानि शठ छाँड़ेउँ तोही। लागेसि अधम पचारै मोही॥ अस कहि तरल त्रिशूल चलायो। जामवंत कर गहि सोइ धायो॥ मारिसि मेघनाद कै छाती। परा भूमि घुर्मित सुरघाती॥ पुनि रिसाइ गहि चरन फिरायो। महि पछारि निज बल देखरायो॥ बर प्रसाद सो मरइ न मारा। तब गहि पद लंका पर डारा॥**
भाष्य

मेघनाद ने वानरी सेना को व्याकुल कर दिया, फिर प्रकट हो गया और दुर्वचन कहने लगा। जाम्बवान जी ने कहा, अरे दुय्! ख़डा रह, उनका वचन सुनकर उस मेघनाद के मन में बहुत क्रोध ब़ढ गया। वह बोला, अरे दुष्ट! तुमको बू़ढा समझकर छोड़ दिया था। अरे अधम! तू मुझको ललकारने लगा, इतना कहकर मेघनाद ने तीव्र त्रिशूल चला दिया अर्थात्‌ जाम्बवान जी पर फेंक दिया। जाम्बवान जी उसी को हाथ में लेकर दौड़े और मेघनाद की छाती पर वही त्रिशूल मारा। देवताओं का हनन करने वाला मेघनाद चक्कर खाकर पृथ्वी पर गिर पड़ा। फिर कुपित होकर मेघनाद का पैर पक़डकर जाम्बवान जी ने उसे बहुत बार घुमाया और पृथ्वी पर पछाड़कर उसे अपना बल दिखला दिया। ब्रह्मा जी के वर के प्रसाद से वह (मेघनाद) जाम्बवान जी के मारने से भी नहीं मर रहा था, फिर जाम्बवान जी ने मेघनाद का पैर पक़डकर लंका में फेंक दिया।

**इहाँ देवरिषि गरुड़ पठायो। राम समीप सपदि सो आयो॥**

दो०– पन्नगारि खाए सकल, छन महँ ब्याल बरूथ।

भई बिगत माया तुरत, हरषे बानर जूथ॥७४(क)॥ गहि गिरि पादप उपल नख, धाए कीस रिसाइ।

**चले तमीचर बिकलतर, ग़ढ पर च़ढे पराइ॥७४(ख)॥ भा०– **इधर नारद जी ने गरुड़ जी को भेजा और वे गरुड़ देव शीघ्र ही श्रीराम के समीप आ गये। सर्पों के शत्रु गरुड़ देव ने क्षण भर में ही सम्पूर्ण नागों के समूह को खा लिया। तुरन्त मेघनाद की माया समाप्त हो गई और

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वानरों के यूथ प्रसन्न हो गये। वानर क्रुद्ध होकर पर्वत, वृक्ष और पत्थर तथा नख आदि शस्त्रों को लेकर दौड़े अत्यन्त व्याकुल होकर राक्षस लोग चले गये और किले पर च़ढकर भाग गये।

मेघनाद कै मुरछा जागी। पितहिं बिलोकि लाज अति लागी॥ तुरत गयउ गिरिवर कंदरा। करौं अजय मख अस मन धरा॥

भाष्य

उधर मेघनाद की मूर्च्छा जगी और अपने सामने पिता अर्थात्‌ रावण को देखकर मेघनाद को बहुत लज्जा लगी। वह तुरन्त पर्वत की श्रेष्ठ कन्दरा में चला गया और अब अजेय यज्ञ करूँगा ऐसा निश्चय किया।

**सो सुधि पाइ विभीषन कहई। सुनु प्रभु समाचार अस अहई॥ मेघनाद मख करइ अपावन। खल मायावी देव सतावन॥ जौ प्रभु सिद्ध होइ सो पाइहि। नाथ बेगि पुनि जीति न जाइहि॥**
भाष्य

वह समाचार पाकर विभीषण जी कहने लगे, हे प्रभु! सुनिये, इस प्रकार का एक समाचार है कि दुष्ट प्रकृति का मायावी, देवताओं को सताने वाला मेघनाद एक अपवित्र यज्ञ कर रहा है। हे प्रभु! यदि वह सिद्ध हो जायेगा तो फिर मेघनाद शीघ्रता से नहीं जीता जा सकेगा।

**सुनि रघुपति अतिशय सुख माना। बोले अंगदादि कपि नाना॥ लछिमन संग जाहु सब भाई। करहु बिधंस जग्य कर जाई॥ तुम लछिमन मारेहु रन ओही। देखि सभय सुर दुख अति मोही॥ मारेहु तेहि बल बुद्धि उपाई। जेहिं छीजै निशिचर सुनु भाई॥ जामवंत सुग्रीव बिभीषन। सेन समेत रहेहु तीनीउ जन॥**
भाष्य

विभीषण जी के वचन सुनकर रघुकुल के स्वामी भगवान्‌ श्रीराम ने बहुत सुख माना तथा अंगद आदि नाना वानरों को बुला लिया और बोले, हे भाइयों! सभी लोग लक्ष्मण के साथ जाओ और जाकर यज्ञ का विध्वंस कर दो। हे लक्ष्मण! तुम उस मेघनाद को युद्ध में मार डालना। देवताओं को भयभीत देखकर मुझे बहुत दु:ख है। हे भाई! सुनो, उसी बल–बुद्धि के उपाय से उसे मारना, जिससे वह राक्षस समाप्त हो जाये। जाम्बवान जी, सुग्रीव जी और विभीषण जी आप तीनों लोग सेना के सहित भाई लक्ष्मण की सहायता में रहियेगा।

**जब रघुबीर दीन्ह अनुशासन। कटि निषंग कसि साजि शरासन॥ प्रभु प्रताप उर धरि रनधीरा। बोले घन इव गिरा गँभीरा॥ जौ तेहि आजु बधे बिनु आवौं। तौ रघुपति सेवक न कहावौं॥ जौ शत शङ्कर करहिं सहाई। तदपि हतउँ रघुबीर दोहाई॥**
भाष्य

जब रघुकुल के वीर भगवान्‌ श्रीराम ने अनुशासन अर्थात्‌ आज्ञा दी, तब कटि प्रदेश में तरकस कसकर धनुष को सजाकर हृदय में प्रभु श्रीराम के प्रताप को धारण करके युद्ध में धैर्यवान लक्ष्मण जी बादल के समान गम्भीर वाणी में बोले, यदि मैं आज मेघनाद का वध करके नहीं लौटता तब मैं स्वयं को श्रीरघुवीर का सेवक नहीं कहलाऊँगा। मैं रघुवीर श्रीराम की दुहाई करके कहता हूँ कि यदि सैक़डों शङ्कर मेघनाद की सहायता करेंगे तो भी मैं उसे मार डालूँगा।

**दो०– बंदि राम पद कमल जुग, चलेउ तुरंत अनंत।**

अंगद नील मयंद नल, संग सुभट हनुमंत॥७५॥

भाष्य

भगवान्‌ श्रीराम के युगल श्रीचरणकमलों की वन्दना करके अंगद, नील, नल, मयन्द और श्रेष्ठभट हनुमान जी को साथ में लेकर लक्ष्मण जी तुरन्त चल पड़े।

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जाइ कपिन देखा सो बैसा। आहुति देत रुधिर अरु भैंसा॥ कीन्ह कपिन सब जग्य बिधंसा। जब न उठइ तब करहिं प्रशंसा॥ तदपि न उठइ धरेनि कच जाई। लातनि हति हति चले पराई॥ ले त्रिशूल धावा कपि भागे। आए जहँ रामानुज आगे॥

भाष्य

जाकर वानरों ने देखा कि वह मेघनाद बैठा हुआ, रक्त और भैंसों की आहुति दे रहा है। वानरों ने सम्पूर्ण यज्ञ का विध्वंस कर दिया, फिर भी जब वह नहीं उठता, तो उसकी प्रशंसा करते हैं, अपनी प्रशंसा सुनकर भी मेघनाद नहीं उठ रहा है, तब जाकर वानरों ने उसके बाल पक़ड लिए और लातों से मार–मारकर भाग चले। फिर मेघनाद त्रिशूल लेकर दौड़ा, वानर भागे और जहाँ श्रीराम के छोटे भैया ख़डे थे, वहीं आ गये।

**आवा परम क्रोध कर मारा। गर्ज घोर रव बारहिं बारा॥ कोपि मरुतसुत अंगद धाए। हति त्रिशूल उर धरनि गिराए॥ प्रभु कहँ छाड़ेसि शूल प्रचंडा। शर हति कृत अनंत जुग खंडा॥ उठि बहोरि मारुति जुबराजा। हतहिं कोपि तेहि घाउ न बाजा॥**
भाष्य

मेघनाद आया और अत्यन्त क्रोध करके, घोर स्वर से बारम्बार गर्जना करके वानरों को मारा। कुपित होकर वायुपुत्र हनुमान जी और अंगद जी दौड़े, उन्हें भी हृदय में त्रिशूल मारकर मेघनाद ने पृथ्वी पर गिरा दिया। लक्ष्मण जी के लिए उसने प्रचण्ड त्रिशूल फेंका। अन्त से रहित लक्ष्मण जी ने बाण मारकर त्रिशूल के दो टुक़डे कर दिये। फिर पवनपुत्र हनुमान जी और अंगद जी उठकर क्रुद्ध होकर उसे मारने लगे, पर उसे घाव भी नहीं लगता था।

**फिरे बीर रिपु मरइ न मारा। तब धावा करि घोर चिकारा॥ आवत देखि क्रुद्ध जनु काला। लछिमन छाड़े बिशिख कराला॥ देखेसि आवत पबि सम बाना। तुरत भयउ खल अंतरधाना॥ बिबिध बेष धरि करइ लराई। कबहुँक प्रगट कबहुँ दुरि जाई॥**
भाष्य

वीर लौट आये, क्योंकि शत्रु मारने पर भी नहीं मर रहा था, तब मेघनाद घोर चित्कार करके दौड़ा। क्रुद्धकाल के समान मेघनाद को आते देख, लक्ष्मण जी ने भयंकर बाण अर्थात्‌ वज्रास्त्र को छोड़ा। वज्र के समान बाण को आते देखकर दुष्ट मेघनाद तुरन्त अन्तर्ध्यान हो गया। वह अनेक वेश धरकर युद्ध करता, कभी प्रकट होता तो कभी छिप जाता था।

**देखि अजय रिपु डरपे कीशा। परम क्रुद्ध तब भयउ अहीशा॥**

एहि पापिहिं मैं बहुत खेलावा। अब बध उचित कपिन भय पावा॥

भाष्य

शत्रु को अजेय देखकर वानर बहुत डर गये। तब सर्पों के भी शासक वैकुण्ठविहारी विष्णुस्वरूप लक्ष्मण जी कुपित हो गये। उन्होंने निश्चय कर लिया कि इस पापी को मैंने बहुत खेलाया अर्थात्‌ खेलने का बहुत अवसर दिया। अब इसका वध ही उचित है, क्योंकि वानर भय पा चुके हैं अर्थात्‌ बहुत भयभीत हो गये हैं।

**सुमिरि कोसलाधीश प्रतापा। शर संधान कीन्ह करि दापा॥ छोड़ेउ बान माझ उर लागा। मरती बार कपट सब त्यागा॥**
भाष्य

अयोध्यापति भगवान्‌ श्रीराम के प्रताप का स्मरण करके और उसी श्रीराम की प्रताप का गर्व अनुभव करके लक्ष्मण जी ने इन्द्रास्त्र का अनुसन्धान करके बाण छोड़ा, वह मेघनाद के मध्य हृदय में लगा, मेघनाद मरा और मरती बार अर्थात्‌ मरते समय उसने सम्पूर्ण कपट छोड़ दिया।

[[७८४]]

दो०– रामानुज कहँ राम कहँ, अस कहि छाड़ेसि प्रान।

धन्य शक्रजित मातु तव, कह अंगद हनुमान॥७६॥

भाष्य

श्रीराम के छोटे भाई लक्ष्मण जी कहाँ हैं? श्रीराम जी कहाँ हैं? ऐसा कहकर मेघनाद ने अपने प्राण छोड़े। अंगद जी और हनुमान जी ने कहा, हे इन्द्रजीत! तुम्हारी माँ धन्य है, क्योंकि मरती बार तुमने लक्ष्मण जी एवं श्रीराम का स्मरण करके अपनी सारी बिग़डी बात बना ली।

**बिनु प्रयास हनुमान उठायो। लंका द्वार राखि पुनि आयो॥ तासु मरन सुनि सुर गंधर्वा। चढि़ बिमान आए नभ सर्बा॥**
भाष्य

प्रयास के बिना ही हनुमान जी ने मेघनाद का शव उठा लिया और उसे लंका के मुख्य द्वार पर रखकर, फिर लक्ष्मण जी के पास आ गये। उसका अर्थात्‌ मेघनाद का मरण सुनकर सभी मुनि, गंधर्व और सभी वर्गों के देवता विमानों पर च़ढकर समरांगण के आकाश में आ गये।

**बरसि सुमन दुंदुभी बजावहिं। श्रीरघुबीर बिमल जस गावहिं॥ जय अनंत जय जगदाधारा। तुम प्रभु सब देवनि निस्तारा॥**
भाष्य

देवता पुष्पवर्षा कर नगारे बजाने लगे और श्रीसीता जी के सहित रघुकुल के वीर भगवान्‌ श्रीराम का निर्मल यश तथा जिनसे श्रीरघुवीर का यश निर्मल होता है ऐसे लक्ष्मण जी के यश को भी गाने लगे। अथवा, जिन्हें रघुवीर श्रीराम से विजयश्री प्राप्त हुई ऐसे लक्ष्मण जी के निर्मल यश को गाने लगे। हे अनन्त! आपकी जय हो! हे जगदाधार लक्ष्मण जी! आप की जय हो! हे प्रभु! मेघनाद को मारकर आपने सभी देवताओं का निस्तार कर दिया।

विशेष

श्रीरघुबीर बिमल जस गावहिं,” पद में एक तत्पुव्र्ष और दो प्रकार से बहुव्रीहि समास हो गया। (क) श्रीरघुवीरस्य विमलं यश: (ख) श्रीरघुवीरस्य विमलं यश: येन स। (ग) श्री: रघुवीरात्‌ यस्मिन्‌ स श्रीरघुवीर: तस्य विमलं यश:।

अस्तुति करि सुर सिद्ध सिधाए। लछिमन कृपासिंधु पहिं आए॥ प्रभुहिं बिलोकि शीष पद नाए। उठि प्रभु अनुज हरषि उर लाए॥ मुख प्रसन्नता देखि पूँछ जब। रिपुबध कहा विभीषणहूँ तब॥

भाष्य

स्तुति करके देवता और सिद्ध चले गये। लक्ष्मण जी कृपा के सागर भगवान्‌ श्रीराम जी के पास आये। प्रभु श्रीराम को देखकर लक्ष्मण जी ने उनके श्रीचरणों में शीश नवाया। प्रभु श्रीराम जी ने आसन से उठकर लक्ष्मण जी को हृदय से लगा लिया। जब श्रीराम जी ने सभी के मुख पर प्रसन्नता देखकर पूछा, तब विभीषण जी ने ही लक्ष्मण जी द्वारा किये हुए मेघनाद के वध का समाचार कह सुनाया।

**सुत बध सुना दशानन जबहीं। मुरछित भयउ परेउ महि तबहीं॥ मंदोदरी रुदन कर भारी। उर ताड़न बहु भाँति पुकारी॥ नगर लोग सब ब्याकुल सोचा। सकल कहहिं दशकंधर पोचा॥**
भाष्य

जिस समय रावण ने पुत्र मेघनाद का वध सुना उसी समय वह मूर्च्छित हो गया और पृथ्वी पर गिर पड़ा। मन्दोदरी बहुत व्र्दन करने लगी और अपनी छाती पीटकर बहुत प्रकार से चिल्लाने लगी। सभी नगर के लोग व्याकुल होकर शोक करने लगे, सभी कह रहे थे कि रावण बहुत नीच है।

[[७८५]]

दो०– तब दशकंठ बिबिध बिधि, समुझाई सब नारि।

नश्वर रूप जगत सब, देखहु हृदय बिचारि॥७७॥

भाष्य

तब रावण ने अनेक प्रकार से सभी स्त्रियों को समझाया और कहा, हृदय में विचार करके देखो यह सम्पूर्ण जगत्‌ नश्वररूप है अर्थात्‌ इसका नाश तो निश्चित ही है।

**तिनहिं ग्यान उपदेशा रावन। आपुन मंद कथा शुभ पावन॥ पर उपदेश कुशल बहुतेरे। जे आचरहिं ते नर न घनेरे॥**
भाष्य

रावण ने अपनी पत्नियों को ज्ञान का उपदेश दिया, वह स्वयं मन्द था और उसकी कथा शुभ और पवित्र थी अर्थात्‌ रावण की कथनी और करणी में अन्तर था। दूसरों को उपदेश देने में तो बहुत से लोग कुशल होते हैं, परन्तु स्वयं जो लोग दूसरों को उपदेश देने के पूर्व उपदेश को आचरण में उतारते हैं, ऐसे प्राणी संसार में बहुत नहीं हैं।

**निशा सिरानि भयउ भिनुसारा। लगे भालु कपि चारिहुँ द्वारा॥ सुभट बोलाइ दशानन बोला। रन सन्मुख जा कर मन डोला॥ सो अबहीं बरु जाउ पराई। संजुग बिमुख भए न भलाई॥ निज भुज बल मैं बैर ब़ढावा। दैहउँ उतर जो रिपु चढि़ आवा॥**
भाष्य

रात बीती प्रात:काल हुआ, भालु और बन्दर लंका के चारों द्वारों पर लग गये। वीरों को बुलाकर रावण बोला, युद्ध के सम्मुख आने पर जिसका मन डिगता हो वह भले ही अभी भग जाये, किन्तु युद्ध से विमुख होने में भलाई नहीं होगी। मैंने अपने बाहुबल के भरोसे वैर ब़ढाया है, यदि शत्रु च़ढकर आया है तो उसे मैं उत्तर दूँगा।

**अस कहि मरुत बेग रथ साजा। बाजे सकल जुझाऊ बाजा॥ चले बीर सब अतुलित बली। जनु कज्जल कै आँधी चली॥ असगुन अमित होहिं तेहि काला। गनइ न भुजबल गर्ब बिशाला॥**
भाष्य

ऐसा कहकर रावण ने वायु के समान वेगवाला रथ सजाया। युद्ध के सभी बाजे बजने लगे, सभी अतुलनीय बल से युक्त वीर सैनिक चल पड़े मानो काजल की आँधी चल पड़ी हो। उस समय अनेक अपशकुन हो रहे थे, परन्तु अपने बाहुबल का विशाल गर्व होने के कारण रावण के सैनिक उन अपशकुनों को नहीं गिन रहे थे अर्थात्‌ उन पर ध्यान नहीं दे रहे थे।

**छं०– अति गर्ब गनइ न सगुन असगुन स्रवहिं आयुध हाथ ते।**

भट गिरत रथ ते बाजि गज चिक्करत भाजहिं साथ ते॥ गोमायु गीध करार खर रव श्वान रोवहिं अति घने। जनु कालदूत उलूक बोलहिं बचन परम भयावने॥

भाष्य

अत्यन्त गर्व होने के कारण राक्षस शकुनों और अपशकुनों की चिन्ता नहीं कर रहे थे। राक्षसों के हाथों से आयुध गिर पड़ते थे। वीर रथ से गिर पड़ रहे थे। घोड़े और हाथी चित्कार करते हुए संग छोड़कर भाग रहे थे। गीदड़ गिद्ध, कौवे और गधे चिल्ला रहे थे। काल के दूत जैसे उल्लू अत्यन्त भयंकर वचन बोल रहे थे।

**दो०– ताहि कि संपति सगुन शुभ, सपनेहुँ मन बिश्राम।**

भूत द्रोह रत मोहबश, राम बिमुख रत काम॥७८॥

[[७८६]]

भाष्य

जो प्राणिमात्र का द्रोही, मोह के वश में श्रीराम से विमुख और काम में रत है अर्थात्‌ कामी है, क्या उसको स्वप्न में भी शकुन, सम्पत्ति, शुभ तथा मानसिक विश्राम मिल सकता है? अर्थात्‌ भूतद्रोही को सुन्दर शकुन नहीं हो सकता, मोह के वश में हुआ व्यक्ति सम्पत्तिमान नहीं हो सकता, श्रीराम से विमुख प्राणी शुभी या कल्याणवान नहीं हो सकता और कामी को स्वप्न में भी मानसिक विश्राम नहीं मिल सकता। संयोग से रावण भूतद्रोही, मोहवश, श्रीराम जी से विमुख और कामी है। अत: यह चारों से वंचित हो गया।

**चलेउ निशाचर कटक अपारा। चतुरंगिनी अनी बहु धारा॥**

बिबिध भाँति बाहन रथ याना। बिपुल बरन पताक ध्वज नाना॥

भाष्य

राक्षसों का अपार दल युद्ध के लिए चल पड़ा। रावण की चतुरंगिणी सेना में अनेक धार, अर्थात्‌ टुकयिड़ाँ थीं। उनके अनेक प्रकार के हाथी, घोड़े, रथ और विमान थे और अनेक प्रकार के अनेक पताकायें तथा ध्वज थे।

**चले मत्त गज जूथ घनेरे। प्राबृट जलद मरुत जनु प्रेरे॥**
भाष्य

मतवाले हाथियों के समूह चल पड़े, मानो वायु से प्रेरित हुए अर्थात्‌ पवन के झकोरों से उड़ाये गये वर्षाकाल के बादल जा रहे हों।

**बरन बरन बिरुदैत निकाया। समर शूर जानहिं बहु माया॥ अति बिचित्र बाहिनी बिराजी। बीर बसंत सेन जनु साजी॥**
भाष्य

अनेक प्रकार की विरुदावलियों के समूह से युक्त, समर में वीर राक्षस युद्ध के लिए चल रहे थे, जो बहुत–सी माया जानते थे। रावण की अत्यन्त विचित्र सेना शोभित हो रही थी, मानो वीरों के वसन्त की सेना सजी हो।

**चलत कटक दिगसिंधुर डगहीं। छुभित पयोधि कुधर डगमगहीं॥ उठी रेनु रबि गयउ छपाई। मरुत थकित बसुधा अकुलाई॥**
भाष्य

रावण की सेना के चलते समय दिशा के हाथी चलायमान हो रहे थे, समुद्र क्षुभित हो रहा था और पर्वत डगमगा रहे थे। वहाँ ऐसी धूल उड़ी, जिसमें सूर्यनारायण छिप गये, वायु का बहना रुक गया, पृथ्वी अकुला गईं।

**पनव निसान घोर रव बाजहिं। महाप्रलय के घन जनु गाजहिं॥ भेरि नफीरि बाज सहनाई। मारू राग सुभट सुखदाई॥ केहरि नाद बीर सब करहीं। निज निज बल पौरुष उच्चरहीं॥**
भाष्य

उस समय घोर स्वर में ढोल और नगारे, बजने लगे, मानो प्रलयकाल के बादल गरज रहे हों। भेरी, नफीरि तथा वीरों को सुख देने वाले मारु राग में शहनाई बजने लगी। सभी वीर सिंहनाद कर रहे थे और अपने–अपने बल पौरुष का उच्चारण कर रहे थे।

**कहइ दशानन सुनहु सुभट्टा। मर्दहु भालु कपिन के ठट्टा॥ हौं मारिहउँ भूप द्वौ भाई। अस कहि सन्मुख फौज चलाई॥ यह सुधि सकल कपिन जब पाई। धाए करि रघुबीर दोहाई॥**
भाष्य

रावण कहने लगा, हे वीरों! सुनो, तुम भालु और वानरों के जत्थों को मसल डालो, मैं दोनों भाई लक्ष्मण और राजाराम को मारूँगा। ऐसा कहकर रावण ने अपनी सेना सामने चला दी। यह समाचार जब सभी वानरों ने पाया तब श्रीराम के दुहाई करके दौड़े।

[[७८७]]

छं०– धाए बिशाल कराल मर्कट भालु काल समान ते।

मानहुँ सपच्छ उड़ाहिं भूधर बृंद नाना बान ते॥ नख दशन शैल महाद्रुमायुध सबल शंक न मानहीं। जय राम रावन मत्त गज मृगराज सुजस बखानहीं॥

भाष्य

काल के समान वे विशाल वानर–भालु दौड़, मानो नाना प्रकार के पंखों से युक्त पर्वतों के समूह उड़ रहे थे। नख, दाँत, पर्वत और विशाल वृक्षों को शस्त्र बनाकर बलवान वानर किसी प्रकार की शंका नहीं मान रहे थे और श्रीराम जी की जय हो! इस प्रकार कहकर रावणरूप मतवाले हाथी के लिए सिंहरूप भगवान्‌ श्रीराम जी का सुन्दर यश बखान रहे थे।

**दो०– दुहुँ दिशि जय जयकार करि, निज निज जोरी जानि।**

भिरे बीर इत रघुपतिहिं, उत रावनहिं बखानि॥७९॥

भाष्य

दोनों दिशाओं में जय–जयकार करके अपनी–अपनी जोड़ी जानकर इधर श्रीराम जी को और उधर रावण को बखानकर वानर–भालु और राक्षस परस्पर भिड़ गये।

**रावन रथी बिरथ रघुबीरा। देखि बिभीषन भयउ अधीरा॥ अधिक प्रीति उर भा संदेहा। बंदि चरन कह सहित सनेहा॥ नाथ न रथ नहिं तनु पद त्राना। केहि बिधि जीतब रिपु बलवाना॥**
भाष्य

रावण को रथ पर च़ढे हुए और रघुवीर श्रीराम को बिना रथ का देखकर विभीषण जी अधीर हो गये। अत्यन्त प्रेम के कारण विभीषण जी के मन में सन्देह हो गया और वे प्रभु के श्रीचरणों की वन्दना करके स्नेह के साथ कहने लगे, हे नाथ! आपके पास न तो रथ है, न तो कवच है और न ही पदत्राण अर्थात्‌ पनही तो फिर आप बलवान शत्रु को कैसे जीतेंगे?

**सुनहु सखा कह कृपानिधाना। जेहिं जय होइ सो स्यंदन आना॥ सौरज धीरज तेहि रथ चाका। सत्य शील दृ़ढ ध्वजा पताका॥**

**बल बिबेक दम परहित घोरे। छमा कृपा समता रजु जोरे॥ भा०– **कृपानिधान भगवान्‌ श्रीराम ने कहा, हे मित्र! सुनो, जिससे विजय होती है, वह दूसरा रथ होता है, उसे मैं लाया हूँ। सौरज और धैर्य अर्थात्‌ शूरता और दु:ख में भी नहीं विचलित होने का भाव यही दोनों शौर्य और धैर्य इस धर्म रथ के दो चक्के हैं। सत्य और शील इसके दृ़ढ ध्वज और पताका हैं।

ईश भजन सारथी सुजाना। बिरति चर्म संतोष कृपाना॥ दानपरशु बुधि शक्ति प्रचंडा। बर बिग्यान कठिन कोदंडा॥ अमल अचल मन तून समाना। शम जम नियम शिलीमुख नाना॥

भाष्य

बल, विवेक, इन्द्रियों का दमन और परहित की भावना ये ही चार इस धर्मरथ के घोड़े हैं, जो क्षमा, कृपा और समतारूप तीन रस्सियों से बँधे हैं। मुझ ईश्वर का भजन चतुर सारथी है, वैराग्य ढाल और संतोष कृपाण है। दान फरसा, बुद्धि प्रचण्ड शक्ति तथा श्रेष्ठविज्ञान सुन्दर धनुष है। निर्मल और अडिग मन, यह तरकस के समान हैं। संयम और नियम नाना प्रकार के बाण हैं।

**कवच अभेद बिप्र गुरु पूजा। एहि सम बिजय उपाय न दूजा॥ सखा धर्ममय अस रथ जाके। जीतन कहँ न कतहुँ रिपु ताके॥**

[[७८८]]

भाष्य

ब्राह्मण और गुरुजनों की पूजा अर्थात्‌ ब्राह्मणरूप गुरु की पूजा ही अभेद्द कवच है, इसके अतिरिक्त विजय का कोई दूसरा उपाय नहीं है। हे मित्र! इस प्रकार धर्ममय रथ जिस के पास होता है, उसको जीतने के लिए कहीं भी शत्रु नहीं रहता।

**दो०– महा अजय संसार रिपु, जीति सकइ सो बीर।**

जाके अस रथ होइ दृ़ढ, सुनहु सखा मतिधीर॥८०(क)॥

भाष्य

हे धीरबुद्धि वाले सखा विभीषण! सुनो, जिस के पास इस प्रकार का दृ़ढ रथ होता है, वह महाअजेय संसाररूप शत्रु को जीत लेता है।

**सुनि प्रभु बचन बिभीषन, हरषि गहे पद कंज।**

एहि मिस मोहि उपदेशेहु, राम कृपा सुख पुंज॥८०(ख)॥

भाष्य

प्रभु के वचन सुनकर विभीषण जी ने प्रसन्नतापूर्वक भगवान्‌ श्रीराम के श्रीचरणकमल पक़ड लिए। कृपा और सुख के पुंजिभूतस्वरूप भगवान्‌ श्रीराम ने इस प्रकार मुझे उपदेश दिया है।

**\* मासपारायण, छब्बीसवाँ विश्राम \***

उत पचार दशकंधर, इत अंगद हनुमान।

लरत निशाचर भालु कपि, करि निज निज प्रभु आन॥८०(ग)॥

भाष्य

उधर रावण ने ललकारा और इधर अंगद जी और हनुमान जी ने और अपने–अपने स्वामी की शपथ करके राक्षस और भालु–बन्दर लड़ने लगे।

**सुर ब्रह्मादि सिद्ध मुनि नाना। देखत रन नभ च़ढे बिमाना॥ हमहूँ उमा रहे तेहि संगा। देखत राम चरित रन रंगा॥**
भाष्य

ब्रह्मा जी आदि देवता, सिद्ध और अनेक मुनिगण विमान पर च़ढे हुए युद्ध देख रहे थे और हे पार्वती! मैं भी उन्हीं के साथ रहकर रणभूमि में श्रीरामचरित्र को देख रहा था।

**सुभट समर रस दुहुँ दिशि माते। कपि जयशील राम बल ताते॥ एक एक सन भिरहिं पचारहिं। एकन एक मर्दि महि पारहिं॥**
भाष्य

दोनों पक्षों के वीर युद्धरस में बावले हो रहे थे। वानर लोग इसलिए विजयशील हैं, क्योंकि उनके पास श्रीराम का बल है। एक–एक के साथ भिड़ते हैं और ललकारते हैं। एक को एक मसल कर पृथ्वी पर फेंक देते हैं।

**मारहिं काटहिं धरहिं पछारहिं। शीष तोरि शीषन सन मारहिं॥**

उदर बिदारहिं भुजा उपारहिं। गहि पद अवनि पटकि भट डारहिं॥

भाष्य

वे मारते हैं, काटते हैं, पक़डते हैं, पटक देते हैं, सिर को तोड़कर सिरों से टकराते हैं, पेट फाड़ देते हैं,

भुजा उखाड़ लेते हैं और चरण पक़डकर पृथ्वी पर पटक कर वीरों को फेंक देते हैं।

निशिचर भट महि गाड़हि भालू। ऊपर ढारि देहिं बहु बालू॥ बीर बलीमुख जुद्ध बिरुद्धे। देखियत बिपुल काल जनु क्रुद्धे॥

भाष्य

वीर ऋक्ष लोग राक्षस भटों को पृथ्वी में गाड़ देते हैं और ऊपर से बहुत बालू डाल देते हैं। वीर वानर युद्ध में शत्रुओं के प्रति विरुद्ध हो चुके हैं। वे ऐसे दिख रहे हैं, मानो अनेक काल ही क्रुद्ध हो गये हैं।

[[७८९]]

छं०– क्रुद्धे कृतांत समान कपि तनु स्रवत शोनित राजहीं।

मर्दहिं निशाचर कटक भट बलवंत घन जिमि गाजहीं॥ मारहिं चपेटनि डाटि दातन काटि लातन मीजहीं। चिक्करहिं मर्कट भालु छल बल करहिं जेहि खल छीजहीं॥

भाष्य

वानर काल के समान क्रुद्ध होकर शरीर से रक्त बहाते हुए सुशोभित हो रहे हैं। वे प्रशस्त बलवाले वानर बड़े-बड़े राक्षस सैनिकों को मार डालते हैं और बादल के समान गर्जन करते हैं। वे थप्पड़ों से मारते हैं, डाँटकर दाँतों से काटते हैं और लातों से मसलकर कुचल डालते हैं। वानर–भालु चित्कार करके उसी प्रकार का छल–बल करते हैं, जिस प्रकार राक्षस मर जायें।

**धरि गाल फारहिं उर बिदारहिं गल अँतावरि मेलहीं। प्रह्‌लादपति जनु बिबिध तनु धरि समर आँगन खेलहीं॥ धरु मारु काटु पछारु घोर गिरा गगन महि भरि रही। जय राम जो तृन ते कुलिश कर कुलिश ते कर तृन सही॥**

**भा०– वे पक़डकर गाल को फाड़ **देते हैं, पेट को विदीर्ण कर देते हैं, गले में अँतरावलियों (अंतयिड़ों) को पहन लेते हैं, मानो प्रह्लादपति अर्थात्‌ नृसिंहदेव ही अनेक शरीर धारण करके समरांगण में खेल रहे हैं। ‘पक़डो मारो, काटो, पछाड़ दो, इस प्रकार की घोर–वाणी आकाशमण्डल और पृथ्वी में भर गई। सब लोग कहने लगे, जो तृण को वज्र और वज्र को तृण कर देते हैं, उन सत्यसंकल्प प्रभु आपश्री राम की जय हो।

दो०– निज दल बिचलत देखेसि, बीस भुजा दस चाप।

रथ चढि़ चलेउ दशानन, फिरहु फिरहु करि दाप॥८१॥

भाष्य

इस प्रकार अपने दल को बीस भुजा और दस धनुषवाले रावण ने विचलित होते देखा, फिर गर्व प्रस्तुत करते हुए “लौटो–लौटो” कहकर रावण रथ पर च़ढ कर चला।

**धायउ परम क्रुद्ध दशकंधर। सन्मुख चले हूह दै बंदर॥ गहि कर पादप उपल प्रहारा। डारेनि ता पर एकहिं बारा॥**
भाष्य

अत्यन्त क्रुद्ध होकर रावण दौड़ा और ‘हू–हू’ करके वीर वानर भी उसके सामने चले। प्रहार करने के लिए हाथ में वृक्ष और पत्थर लेकर रावण पर एक ही बार में सबने मिलकर फेंका।

**लागहिं शैल बज्र तन तासू। खंड खंड होइ फूटहिं आसू॥ चला न अचल रहा रथ रोपी। रन दुर्मद रावन अति कोपी॥**
भाष्य

उसके वज्र जैसे शरीर में लगते ही पर्वत शीघ्र ही खण्ड–खण्ड होकर फूट जाते हैं। फिर भी रण में दुर्मद अर्थात्‌ युद्ध के मद में उन्मत्त अत्यन्त कुपित रावण विचलित नहीं होता और अपने रथ को रोककर अर्थात्‌ सभी शस्त्रों का प्रहार सम्भालते हुए रावण अचल रहा।

**इत उत झपटि दपटि कपि जोधा। मर्दै लाग भयउ अति क्रोधा॥ चले पराइ भालु कपि नाना। त्राहि त्राहि अंगद हनुमाना॥**
भाष्य

इधर–उधर झपटकर और डाँटकर रावण वानर योद्धाओं को मसलने लगा, उसे अत्यन्त क्रोध हुआ। इसके पश्चात्‌ अनेक भालु–बन्दर युद्ध से भाग चले और बोले, हे अंगद जी और हनुमान जी! अब हमारी रक्षा कीजिये…रक्षा कीजिये।

[[७९०]]

पाहि पाहि रघुबीर गोसाईं। यह खल खाइ काल की नाईं॥ तेहिं देखे कपि सकल पराने। दसहुँ चाप सायक संधाने॥

भाष्य

हे इन्द्रियों के स्वामी रघुकुल के वीर श्रीराम! हमारी रक्षा कीजिये..रक्षा कीजिये, दुष्ट रावण हमें काल की भाँति खा रहा है। रावण ने देखा सभी वानर भाग गये। फिर अपने दसों धनुष पर बाण का संधान किया।

**छं०– संधानि धनु शर निकर छाड़ेसि उरग जिमि उलिड़ ागहीं।**

रहे पूरि शर धरनी गगन दिशि बिदिशि कहँ कपि भागहीं॥ भयो अति कोलाहल बिकल कपि दल भालु बोलहिं आतुरे। रघुबीर करुना सिंधु आरत बंधु जन रक्षक हरे॥

भाष्य

धनुषों पर बाणों का सन्धान करके रावण ने असंख्य बाण छोड़े। वे सर्पों की भाँति उड़कर लगते थे। पृथ्वी तथा आकाश को रावण के बाणों ने भर दिया, वानर दिशाओं और विदिशाओं अर्थात्‌ दिशाओं के मध्य–भाग में भाग रहे थे। उस समय अत्यन्त कोलाहल हुआ, सेना के भालु और वानर व्याकुल होकर बोलने लगे, हे रघुवीर! हे करुणासिन्धो! हे आर्त्तबन्धो! हे जनरक्षक! हे हरे! इस प्रकार पाँच सम्बोधन करके अपने पाँच भौतिक शरीर की रक्षा करने के लिए वानर सैनिकों ने प्रभु का स्मरण किया।

**दो०– विचलित देखि अनीक निज, कटि निषंग धनु हाथ।**

लछिमन चले सरोष तब, नाइ राम पद माथ॥८२॥

भाष्य

तब अपनी सेना को विचलित होते–हुए देखकर कटि में तरकस और हाथ में धनुष लेकर भगवान्‌ श्रीराम के श्रीचरणों में मस्तक नवाकर कुपित होकर लक्ष्मण जी चले।

**रे खल का मारसि कपि भालू। मोहि बिलोकु तोर मैं कालू॥ खोजत रहेउँ तोहि सुतघाती। आजु निपाति जुड़ावउँ छाती॥**
भाष्य

लक्ष्मण जी ने रावण से कहा, अरे खल! वानर–भालुओं को क्या मार रहा है? मुझे देख मैं तेरा काल हूँ। रावण ने कहा, अरे मेरे पुत्र का वध करने वाला लक्ष्मण! मैं तुझे ढूँ़ढ रहा था, आज तुझे मारकर अपनी छाती शीतल करूँगा।

**अस कहि छाड़ेसि बान प्रचंडा। लछिमन किए सकल शत खंडा॥ कोटिन आयुध रावन डारे। तिल प्रमान करि काटि निवारे॥**
भाष्य

ऐसा कहकर रावण ने प्रचण्ड बाणों को छोड़ा, लक्ष्मण जी ने उन सभी के सौ–सौ टुक़डे कर दिये। रावण ने करोड़ों अस्त्र छा़ेडे, जिन्हें लक्ष्मण जी ने तिल का प्रमाण करके अर्थात्‌ तिल–तिल करके काटकर रोक दिया।

**पुनि निज बानन कीन्ह प्रहारा। स्यंदन भंजि सारथी मारा॥ शत शत शर मारे दश भाला। गिरि श्रृंगनि जनु प्रबिसहिं ब्याला॥ पुनि शत शर मारा उर माहीं। परेउ धरनि तल सुधि कछु नाहीं॥**
भाष्य

फिर लक्ष्मण जी ने अपने बाणों द्वारा प्रहार किया। रावण का रथ तोड़कर उसके सारथी को मार डाला। फिर लक्ष्मण जी ने रावण के दसों सिर में सौ–सौ बाण मारे, वे ऐसे चुभे जैसे पर्वत के शिखरों में सर्प घुस जाते हैं अर्थात्‌ लक्ष्मण जी के बाण रावण के सिरों को नहीं काट पाये। उन्हें काटने का सामर्थ्य तो केवल भगवान्‌ श्रीराम में है। फिर लक्ष्मण जी ने रावण के हृदय में सौ बाण मारा, रावण पृथ्वी पर गिर पड़ा, उसे कुछ भी सुधि नहीं रही।

[[७९१]]

उठा प्रबल पुनि मुरछा जागी। छाड़ेसि ब्रह्म दत्त जो साँगी॥

भाष्य

फिर प्रबल रावण उठा, उसकी मूर्च्छा समाप्त हुई, जो ब्रह्मा जी ने शक्ति दी थी, वही उसने लक्ष्मण जी के लिए छोड़ दी।

**छं०– सो ब्रह्म दत्त प्रचंड शक्ति अनंत उर लागी सही।**

पर्‌यो बीर बिकल उठाव दशमुख अतुल बल महिमा रही॥ ब्रह्मांड भवन बिराज जाके एक सिर जिमि रज कनी। तेहि चह उठावन मू़ढ रावन जान नहिं त्रिभुवन धनी॥

भाष्य

ब्रह्मा जी द्वारा दी हुई वह भयंकर वास्तविक शक्ति अन्त से रहित होने पर भी लक्ष्मण जी के हृदय में पूर्णता के साथ लगी। लक्ष्मण जी विकल अर्थात्‌ सम्पूर्ण युद्ध की चेष्टाओं से रहित होकर निस्तब्ध भाव से पृथ्वी पर पड़ गये। दस मुखों वाला रावण उन्हें उठाने लगा। मूर्च्छित होने पर भी लक्ष्मण जी की अतुल बल की महिमा तो उनमें वर्तमान थी ही इसीलिए वे रावण से नहीं उठे, क्योंकि जिनके एक सिर पर यह सम्पूर्ण ब्रह्माण्डरूप भवन धूल की कणी के समान विराज रहा है, उन्हीं लक्ष्मण जी को यह मूर्ख रावण उठाना चाहता है। लक्ष्मण जी को यह तीनों लोक के स्वामी वैकुण्ठबिहारी विष्णु नहीं समझ रहा है।

**दो०– देखि पवनसुत धायउ, बोलत बचन कठोर।**

आवत कपिहिं हन्यो तेहिं, मुष्टि प्रहार प्रघोर॥८३॥

भाष्य

देखकर अर्थात्‌ लक्ष्मण जी को मूर्च्छित अवस्था में रावण को उठाने का प्रयास करते हुए देखकर कठोर वचन बोलते हुए पवनपुत्र हनुमान जी महाराज दौड़े। रावण ने आते हुए हनुमान जी महाराज को अत्यन्त भयंकर मुष्टिका के प्रहार से मार दिया।

**जानु टेकि कपि भूमि न परेऊ। उठा सँभारि बहुत रिस भरेऊ॥ मुठिका एक ताहि कपि मारा। परेउ शैल जनु बज्र प्रहारा॥**
भाष्य

हनुमान जी घुटने टेककर सम्भले और पृथ्वी पर नहीं पड़े, अथवा रावण की मुय्किा को हल्का–सा उछलकर अपने घुटने से रोककर मुय्किा छाती पर नहीं लगने दी और हनुमान जी स्वयं पृथ्वी पर नहीं पड़े। फिर क्रोध से भरे हुए अंजनानन्दवर्द्धन प्रभु सम्भालकर उठे और वानरश्रेष्ठ हनुमान जी ने उसे अर्थात्‌ रावण को एक हल्की मुक्का मारी, रावण उसी प्रकार पृथ्वी पर गिर पड़ा, जैसे वज्र के प्रहार से पर्वत गिर पड़ता है।

**मुरछा गइ बहोरि सो जागा। कपि बल बिपुल सराहन लागा॥ धिग धिग मम पौरुष धिग मोही। जौ तैं जियत रहेसि सुरद्रोही॥**
भाष्य

रावण की मूर्च्छा समाप्त हुई, वह जगा और हनुमान जी के बहुत–बड़े बल की सराहना करने लगा। हनुमान जी ने कहा, मेरे पौरुष को धिक्कार है…धिक्कार है तथा मुझे धिक्कार है। हे देवद्रोही! यदि तू मेरी मुष्टिका के प्रहार के पश्चात्‌ भी जीवित रहा। भगवान्‌ श्रीराम ने तुझे मारने की प्रतिज्ञा की है, इसलिए मैंने भी हल्की मुष्टिका मारी।

**अस कहि लछिमन कहँ कपि ल्यायो। देखि दशानन बिसमय पायो॥ कह रघुबीर समुझु जिय भ्राता। तुम कृतांत भक्षक सुर त्राता॥ सुनत बचन उठि बैठ कृपाला। गई गगन सो शक्ति कराला॥**

[[७९२]]

भाष्य

इतना कहकर हनुमान जी मूर्च्छा में पड़े लक्ष्मण जी को श्रीराम के पास ले आये। देखकर रावण ने बहुत विस्मय पाया अर्थात चकित हुआ कि, मैं लक्ष्मण जी को नहीं उठा पाया और हनुमान जी उन्हें सहज में ही उठा ले गये। अत: मेरी अपेक्षा हनुमान जी का अधिक बल स्वत:सिद्ध हो गया। रघुवीर श्रीराम ने कहा, हे भैया लक्ष्मण! तुम स्वयं को अपने हृदय में समझो। तुम तो काल को भी खाने वाले हो, देवताओं के रक्षक मुझ महाविष्णु के अन्तरंग अंश वैकुण्ठविहारी विष्णु हो। तुम्हें ब्रह्मा जी की शक्ति से क्यों मूर्च्छित होना चाहिये? प्रभु का यह वचन सुनकर ब्रह्मा जी पर कृपा करने वाले अर्थात्‌ सर्वसमर्थ होते हुए भी ब्रह्मा जी पर कृपा करके उनकी शक्ति को स्वीकार कर मूर्च्छित होने वाले लक्ष्मण जी उठकर बैठ गये और वह भयंकर शक्ति आकाश को चली गई।

**पुनि कोदंड बान गहि धाए। रिपु सन्मुख अति आतुर आए॥ भा०– **फिर लक्ष्मण जी धनुष–बाण लेकर दौड़े और अत्यन्त शीघ्रता से शत्रु रावण के पास आये।

छं०– आतुर बहोरि बिभंजि स्यंदन सूत हति ब्याकुल कियो।

गिर्‌यो धरनि दशकंधर बिकलतर बान शत बेध्यो हियो॥ सारथी दूसर घालि रथ तेहि तुरत लंका लै गयो। रघुबीर बंधु प्रताप पुंज बहोरि प्रभु चरननि नयो॥

भाष्य

शीघ्रता से रावण का रथ तोड़कर उसके सारथी को मारकर लक्ष्मण जी ने रावण को व्याकुल कर दिया। दस कन्धराओंवाला रावण बहुत विकल होकर पृथ्वी पर उल्टे गिरा और लक्ष्मण जी ने रावण के हृदय को सौ बाणों से वेध दिया। दूसरा सारथी उसे दूसरे रथ पर बिठाकर तुरन्त लंका ले गया और प्रताप के समूह रघुकुल के वीर श्रीराम के छोटे भैया लक्ष्मण जी फिर प्रभु के श्रीचरणों में नत हो गये अर्थात्‌ प्रणाम की मुद्रा में पड़ गये।

**दो०– उहाँ दशानन जागि करि, करै लाग कछु जग्य।**

**विजय चहत रघुपति बिमुख, शठ हठ बश अति अग्य॥८४॥ भा०– **वहाँ लंका मे मूर्च्छा से जागकर रावण कुछ यज्ञ करने लगा। हठ के वश, दुष्ट, अज्ञानयुक्त, रावण श्रीराम से विमुख होकर विजय चाह रहा था।

इहाँ बिभीषन सब सुधि पाई। सपदि जाइ रघुपतिहिं सुनाई॥ नाथ करइ रावन एक जागा। सिद्ध भए नहिं मरिहि अभागा॥ पठवहु नाथ बेगि भट बंदर। करहिं बिधंस आव दशकंधर॥ प्रात होत प्रभु सुभट पठाए। अंगद हनुमदादि सब धाए॥

भाष्य

उधर विभीषण जी ने अपने मंत्रियों से सब समाचार पाया और शीघ्र जाकर रघुपति भगवान्‌ श्रीराम से निवेदन किया। हे नाथ! रावण एक यज्ञ कर रहा है। यज्ञ के सिद्ध हो जाने पर वह भाग्यहीन मरेगा नहीं। हे नाथ! शीघ्र ही वीर वानरों को भेज दीजिये, वे यज्ञ का विध्वंस करें जिससे आज ही रावण युद्ध के लिए आ जाये। प्रात:काल होते ही प्रभु श्रीराम ने अंगद जी, हनुमान जी आदि श्रेष्ठवीरों को भेजा, सभी दौड़े।

**कौतुक कूदि च़ढे कपि लंका। पैठे रावन भवन अशंका॥**

जग्य करत जबहीं सो देखा। सकल कपिन भा क्रोध बिशेषा॥

[[७९३]]

भाष्य

खेल–खेल में ही वानर लोग कूदकर लंका पर च़ढ गये और निर्भीक होकर रावण के भवन में प्रवेश किया। जिस समय वह अर्थात्‌ रावण यज्ञ करता हुआ वानरों द्वारा देखा गया त्यों ही सम्पूर्ण वानरों को विशिष्ट क्रोध हुआ।

**रन ते निलज भाजि गृह आवा। इहाँ आइ बक ध्यान लगावा॥ अस कहि अंगद मारेउ लाता। चितव न शठ स्वारथ मन राता॥**
भाष्य

अरे निर्लज्ज! युद्ध–स्थल से भागकर घर में आ गया और यहाँ आकर बगुले जैसा ध्यान लगा रहा है। ऐसा कहकर अंगद जी ने रावण को लात मारी फिर भी दुष्ट रावण अंगद जी पर दृष्टि नहीं डाल रहा था, क्योंकि उसका मन स्वार्थ में लगा था।

**छं०– नहिं चितव जब कपि कोपि तब गहि दशन लातन मारहीं।**

धरि केश नारि निकारि बाहेर तेऽतिदीन पुकारहीं॥ तब उठेउ क्रुद्ध कृतांत सम गहि चरन बानर डारई। एहि बीच कपिन बिधंस कृत मख देखि मन महँ हारई॥

भाष्य

जब उसने वानरों को नहीं देखा, तब वानर क्रुद्ध होकर उसे दाँतों से पक़डकर लातों से मारने लगे और केश पक़डकर रावण की मन्दोदरी आदि पत्नियों को भवन से बाहर निकालने लगे, वे अत्यन्त दीन होकर चिल्लाने लगीं। तब काल के समान क्रुद्ध होकर रावण उठा और चरण पक़ड-पक़डकर वानरों को फेंकने लगा। इसी बीच वानरों ने यज्ञ का विध्वंस अर्थात्‌ तहस–नहस कर दिया। यह देखकर रावण अपने मन में हारने लगा।

**दो०– जग्य बिधंसि कुशल कपि, आए रघुपति पास।**

चलेउ लंकपति क्रुद्ध होइ, त्यागि जिवन कै आस॥८५॥

भाष्य

यज्ञ को नष्ट करके प्रभु की आज्ञापालन में कुशल वीर वानर रघुपति अर्थात्‌ जीवमात्र के प्रतिपालक श्रीराम के पास आ गये। अपने जीवन की आशा छोड़कर कुपित होकर लंकापति रावण युद्ध के लिए चल पड़ा।

**चलत होहिं अति अशुभ भयंकर। बैठहिं गीध उड़ाहिं सिरन पर॥ भयउ कालबश काहु न माना। कहेसि बजावहु जुद्ध निसाना॥**
भाष्य

रावण के चलते समय भयंकर अपशकुन होने लगे, गृध्र पक्षी रावण के सिरों पर बैठकर उड़ जाते थे। वह काल के वश हो चुका था, उसने कुछ भी नहीं माना और कहा, युद्ध के नगारे बजाओ।

**चली तमीचर अनी अपारा। बहु गज रथ पदाति असवारा॥ प्रभु सन्मुख धाए खल कैसे। शलभ समूह अनल कहँ जैसे॥**
भाष्य

राक्षसों की अपार सेना चल पड़ी, उसमें बहुत से हाथी, घोड़े, पैदल और गजारोही, अश्वारोही तथा रथारोही भी थे। श्रीराम जी के सम्मुख राक्षस किस प्रकार दौड़े, जैसे शलभ अर्थात्‌ पक्षियों के समूह अग्नि पर टूट पड़ते हैं।

**इहाँ देवतन अस्तुति कीन्हीं। दारुन बिपति हमहिं एहि दीन्ही॥ अब जनि राम खेलावहु एही। अतिशय दुखित होति बैदेही॥**
भाष्य

इधर देवताओं ने प्रभु की स्तुति की, इसने हमें भयंकर कष्ट दिया है। हे नाथ! अब इसे मत खेलाइये, क्योंकि श्रीसीता बहुत दु:खी हो रही हैं।

[[७९४]]

देव बचन सुनि प्रभु मुसुकाना। उठि रघुबीर सुधारे बाना॥ जटा जूट दृ़ढ बाँधे माथे। सोहहिं सुमन बीच बिच गाथे॥

भाष्य

देवताओं का वचन सुनकर प्रभु श्रीराम जी मुस्कराये और रघुकुल के वीर श्रीराम जी ने उठ करके बाणों को सुधारा। मस्तक पर जटा के जूड़े को कसकर दृ़ढता से बाँधा। उसके बीच–बीच में गूँथे हुए पुष्प बहुत सुन्दर लग रहे थे।

**अरुन नयन बारिद तनु श्यामा। अखिल लोक लोचनाभिरामा॥ कटितट परिकर कस्यो निषंगा। कर कोदंड कठिन सारंगा॥**
भाष्य

भगवान्‌ श्रीराम के नेत्र अरुण अर्थात्‌ लाल हैं, उनका विग्रह वर्षाकालीन बादल के समान सुन्दर श्याम रंग का है। वे सम्पूर्ण लोकों के नेत्रों को आनन्द देने वाले हैं। प्रभु ने अपने कटि–तट पर फेटा और तरकस कस रखा था और उनके श्रीहस्त में शार्ङ्ग नाम का कठिन धनुष था।

**छं०– सारंग कर सुंदर निषंग शिलीमुखाकर कटि कस्यो।**

भुजदंड पीन मनोहरायत उर धरासुर पद लस्यो॥ कह दास तुलसी जबहिं प्रभु शर चाप कर फेरन लगे। ब्रह्मांड दिग्गज कमठ अहि महि सिंधु भूधर डगमगे॥

भाष्य

भगवान्‌ श्रीराम जी के हाथ में शार्ङ्ग नाम का कठिन धनुष और कटिप्रदेश में बाणों की खानि स्वरूप, सुन्दर तरकस कसा हुआ है। उनके भुजदण्ड पीन अर्थात्‌ मोटे हैं और सुन्दर विशाल हृदय पर ब्राह्मण–चरणचिन्ह शोभित हो रहा है। गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं कि जब प्रभु श्रीराम जी अपने हाथों में शार्ङ्ग धनुष फेरने लगे उस समय सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड, दिशाओं के चारों हाथी, कच्छप, शेषनाग, पृथ्वी, समुद्र और पर्वत डगमगा उठे।

**दो०– हरषे देव बिलोकि छबि, बरषहिं सुमन अपार।**

जय जय प्रभु गुन ज्ञान बल, धाम हरन महिभार॥८६॥

भाष्य

प्रभु की यह वीर छवि देखकर देवता प्रसन्न हुए और अपार पुष्पों की वर्षा करने लगेतथा बोले, हे सर्वशक्तिमान! हे श्रेष्ठगुण, ज्ञान और बल के आश्रय! हे पृथ्वी का भारहरण करने वाले प्रभु श्रीराम! आप की जय हो….जय हो।

**एही बीच निशाचर अनी। कसमसात आई अति घनी॥**

देखि चले सन्मुख कपि भट्टा। प्रलयकाल के जनु घन घट्टा॥

भाष्य

इसी बीच अत्यन्त घनी राक्षसों की सेना कसमसाती अर्थात्‌ असमंजस में पड़ी हुई आ गई। अथवा, एक ही साथ समूहों के इकट्ठा होने से एक–दूसरे को छूती हुई वैचारिक टकराव के साथ चली आई। उसे देखकर वीर वानर युद्ध करने के लिए सम्मुख चले, मानो प्रलयकाल के बादलों की घटा ही छा गई हो।

**बहु कृपान तरवारि चमंकहिं। जनु दश दिशि दामिनी दमंकहिं॥**
भाष्य

उस समय बहुत–सी कटारें और तलवारें चमक रही थीं, मानो दसों दिशाओं मे बिजलियाँ चमक रही हों।

**कपि लंगूर बिपुल नभ छाए। मनहुँ इंद्रधनु उए सुहाए॥ गज रथ तुरग चिकार कठोरा। गर्जहिं मनहुँ बलाहक घोरा॥ उठाइ धूरि मानहुँ जलधारा। बान बुंद भइ बृष्टि अपारा॥ दुहुँ दिशि पर्बत करहिं प्रहारा। बज्रपात जनु बारहिं बारा॥**

[[७९५]]

भाष्य

हाथी, रथ और घोड़ों के कठोर चिक्कार ऐसे लग रहे थे, मानो घोर बादल गरज रहे हों। वानरों के बहुत से लाँगूर (पूँछ) आकाश मे छाये हुए थे, मानो सुहावने इन्द्रधनुष उदित हो गये हों। उस समय धूल उड़ रही थी, मानो वही जल की धारा थी, बाणों की वर्षा ही बूँदों की वर्षा हो गई थी। दोनों ओर के सैनिक पर्वतों का प्रहार कर रहे थे, मानो बारम्बार वज्रपात हो रहा था।

**रघुपति कोपि बान झरि लाई। घायल भै निशिचर समुदाई॥ लागत बान बीर चिक्करहीं। घुर्मि घुर्मि जहँ तहँ महि परहीं॥ स्रवत शैल जनु निर्झर बारी। शोनित सरि कादर भयकारी॥**
भाष्य

भगवान्‌ श्रीराम ने क्रुद्ध होकर बाणों की झड़ी लगा दी, उससे राक्षसों के समुदाय घायल हो गये। बाणों के लगने पर वीर चित्कार करते थे, वे घायल हुए वीर घूम–घूमकर पृथ्वी पर गिर पड़ते थे। अपने शरीर से इस प्रकार खून बहा रहे थे, मानो पर्वतों के झरनों से जल की धारा प्रवाहित हो रही हो। उस समय कातरों को भयभीत करने वाली रक्त की नदी बह चली।

**छं०– कादर भयंकर रुधिर सरिता चली परम अपावनी।**

दोउ कूल दल रथ रेत चक्र अबर्त बहति भयावनी॥ जलजंतु गज पदचर तुरग खर बिबिध बाहन को गने। शर शक्ति तोमर सर्प चाप तरंग चर्म कमठ घने॥

भाष्य

कायरों को भयभीत करने वाली अत्यन्त अपवित्र अथवा अकार के वाच्य भगवान्‌ श्रीराम द्वारा पवित्र की गई रक्त की नदी बह चली। दोनों श्रीराम दल और रावण दल उसके उत्तर–दक्षिण के तट थे, रथ ही उसकी रेत थी, चक्र उसके भँवर थे, वह बहुत भयंकर लग रही थी। हाथी, पैदल सैनिक, घोड़े, गधे, जिन्हें कौन गिने ऐसे अनगिनत वाहन उस नदी के जीव–जन्तु थे। बाण, बर्छी और तोमर ही उस नदी के सर्प थे, धनुष उसकी लहर थी और अनेक कछुवे उसके ढाल थे।

**दो०– बीर परहिं जनु तीर तरु, मज्जा बह बहु फेन।**

कादर देखत डरहिं तेहिं, सुभटन के मन चैन॥८७॥

भाष्य

वीर लोग नदी तट के वृक्ष के समान मरकर गिर रहे थे। मज्जा (चर्बी) फेन के समान बह रही थी, उसे देखकर कायर हृदय में डर रहे थे और वीरों के मन में प्रसन्नता हो रही थी।

**मज्जहिं भूत पिशाच बेताला। प्रमथ महा झोटिंग कराला॥ काक कंक लै भुजा उड़ाहीं। एक ते छीनि एक लै खाहीं॥ एक कहहिं ऐसिउ सौंधाई। शठहु तुम्हार दरिद्र न जाई॥**
भाष्य

उस नदी मे भूत, पिशाच, बेताल, प्रमथ और भयंकर बड़ी-बड़ी जटाओं के झोटियोंवाले भूत स्नान कर रहे थे, कौवे और चील भुजा लेकर उड़ रहे थे। एक से छीनकर दूसरा लेकर खा रहा था। एक कह रहा था कि अरे दुष्टों! ऐसी वस्तुओं की अधिकता में भी तुम्हारा दारिद्र नहीं जा रहा है।

**कहँरत भट घायल तट गिरे। जहँ तहँ मनहुँ अर्द्धजल परे॥ खैंचहि गीध आँत तट भए। जनु बनसी खेलत चित दए॥ बहु भट बहहिं च़ढे खग जाहीं। जनु नावरि खेलहिं सरि माही॥**

[[७९६]]

भाष्य

जहाँ–तहाँ नदी–तट पर कराहते हुए वीर गिरे हुए थे, मानो वे घायल वीर अर्द्धजल में पड़े हुए थे। गृध्र तट पर अंतयिड़ों को खींच रहे थे, मानो मन लगाकर खिलाड़ी बंशी अर्थात कटिया का खेल–खेल रहे थे। बहुत से वीर रक्त की नदी में बह रहे थे और पक्षी उन पर च़ढकर चले जा रहे थे, मानो नदी में नाव–नवरियाँ खेल रहे हों।

**विशेष– **“अर्द्धजल परे” शब्द खण्ड से गोस्वामी जी एक लोकरीति का संकेत कर रहे हैं। मरणासन्न व्यक्ति को लोग आधे जल और आधे स्थल में लेटा देते हैं, वही उत्प्रेक्षा यहाँ की गई है कि कराहते हुए वीर रक्त सरिता के तट पर उसी प्रकार दिख रहे हैं मानो मरण के अंतिम क्षण में उनके शरीर को आधे जल में लेटा दिया गया हो।

जोगिनि भरि भरि खप्पर संचहिं। भूत पिशाच बधू नभ नंचहिं॥ भट कपाल करताल बजावहिं। चामुंडा नाना बिधि गावहिं॥ जंबुक निकर कटक्कट कट्टहिं। खाहिं हुआहिं अघाहिं दपट्टहिं॥ कोटिन रुंड मुंड बिनु डोल्लहिं। शीष परे महि जय जय बोल्लहिं॥

भाष्य

योगिनियाँ खोपयिड़ाँ भर–भरकर रक्त का संचय कर रही थीं, आकाश में भूत–पिशाच की बहुएँ नाच रही थीं, वे वीरों की खोपयिड़ाँ का करताल बजा रही थीं। चामुण्डायें नाना प्रकार से गा रही थीं। गीदड़ों के समूह कट–कट करते काट कर खाते, हुआँ–हुआँ करते और एक दूसरे को डाँटते थे। करोड़ों धड़ सिर के बिना ही डोल रहे थे और पृथ्वी पर पड़े सिर जय–जयकार करके बोल रहे थे।

**छं०– बोल्लहिं जो जय जय मुंड रुंड प्रचंड सिर बिनु धावहीं।**

खप्परनि खग्ग अलुज्झि जुज्झहिं सुभट भटन ढहावहीं॥ बानर निशाचर निकर मर्दहिं राम बल दर्पित भए। संग्राम आँगन सुभट सोवहिं राम सर निकरनि हए॥

भाष्य

जो सिर जय–जयकार बोल रहे थे, वे धड़ से हीन थे और अत्यन्त भयंकर धड़ बिना सिर के दौड़ रहे थे। खोपयिड़ों में उलझकर पक्षी जूझते थे और श्रेष्ठवीर सामान्य वीरों को मार रहे थे। श्रीराम के बल से दर्पित हुए वानरसमूह, राक्षससमूहों को मार रहे थे और श्रीराम के बाणों के समूह से मारे हुए वीर समरांगण में सो जा रहे थे।

**दो०– हृदय बिचारेउ दशबदन, भा निशिचर संघार।**

मैं अकेल कपि भालु बहु, माया करौं अपार॥८८॥

भाष्य

दस मुखवाले रावण ने अपने हृदय में विचार किया कि राक्षसों का संहार हो गया। मैं अकेला हूँ और वानर–भालु बहुत हैं, अब तो अपार माया करूँ।

**देवन प्रभुहिं पयादे देखा। उपजा उर अति छोभ बिशेषा॥ सुरपति निज रथ तुरत पठावा। हरष सहित मातलि लै आवा॥ चंचल तुरग मनोहर चारी। अजर अमर मन सम गतिधारी॥ तेज पुंज रथ दिब्य अनूपा। बिहँसि च़ढे कोसलपुर भूपा॥**
भाष्य

देवताओं ने जब श्रीराम को युद्ध में पैदल चलते हुए देखा, तब उनके हृदय में बहुत कष्ट हुआ और तुरन्त ही इन्द्र ने अपना रथ भेज दिया तथा प्रसन्नता से मातलि सारथी वह रथ श्रीराम के पास ले आये। उस रथ में चंचल और बहुत सुन्दर चार घोड़े थे, जो अजर अर्थात्‌ वृद्धावस्था से रहित, अमर अर्थात्‌ मरणधर्म से रहित और मन के

[[७९७]]

समान वेग धारण करते थे। ऐसे तेज के पुञ्ज, उपमारहित स्वर्गीय रथ पर कोसलपुर के राजा भगवान्‌ श्रीराम प्रसन्नतापूर्वक च़ढे।

रथारू़ढ रघुनाथहिं देखी। धाए कपि बल पाइ बिशेषी॥ सही न जाइ कपिन कै मारी। तब रावन माया बिस्तारी॥

भाष्य

रघुनाथ जी को रथ पर आरु़ढ देखकर विशेष बल पाकर वानर दौड़े। जब वानरों की मार रावण को नहीं सही जाने लगी, तब उसने अपनी माया का विस्तार किया।

**सो माया रघुबीरहि बाँची। सब काहू मानी करि साँची॥ देखी कपिन निशाचर अनी। बहु अंगद लछिमन कपि धनी॥**
भाष्य

वह माया भगवान्‌ श्रीराम को छोड़ गई अर्थात्‌ उन्होंनेउस माया का रहस्य समझा और प्रभावित नहीं हुए। प्रभु श्रीराम के अतिरिक्त और सभी लोगों ने उसे सत्य करके माना। वानरों ने राक्षसी सेना के बीच बहुत से अंगद जी, लक्ष्मण जी और सुग्रीव जी को देखा।

**छं०– बहु बालिसुत लछिमन कपीश बिलोकि मरकट अपडरे।**

जनु चित्र लिखित समेत लछिमन जहँ सो तहँ चितवहिं खरे॥ निज सैन चकित बिलोकि हँसि शर चाप सजि कोसलधनी। माया हरी हरि निमिष महँ हरषी सकल बानर अनी॥

भाष्य

राक्षसी सेना में बहुत से अंगद जी, लक्ष्मण जी और सुग्रीव जी को देखकर वानर बहुत डर गये और चित्र में लिखे हुए के समान लक्ष्मण जी के सहित सभी वानरभट जहाँ–तहाँ ख़डे होकर देखने लगे। अपनी सेना को चकित देखकर, धनुष–बाण सजाकर हँसकर, अयोध्यापति श्रीहरि भगवान्‌ श्रीराम ने एक क्षण में माया का हरण कर लिया। सम्पूर्ण वानरी सेना प्रसन्न हो गई।

**दो०– बहुरि राम सब तन चितइ, बोले बचन गँभीर।**

द्वंदजुद्ध देखहु सकल, श्रमित भए अति बीर॥८९॥

भाष्य

फिर भगवान्‌ श्रीराम दोनों पक्षों के वीरों के शरीरों को देखकर, अत्यन्त गम्भीर वचन बोले, हे वीरों! तुम लोग अधिक श्रान्त हो गये हो अर्थात्‌ थक गये हो, अब हम–दोनों अर्थात्‌ राम–रावण का द्वन्द्वयुद्ध देखो।

**अस कहि रथ रघुनाथ चलावा। बिप्र चरन पंकज सिर नावा॥ तब लंकेश क्रोध उर छावा। गर्जत तर्जत सन्मुख धावा॥**
भाष्य

ऐसा कहकर श्रीरघुनाथ ने अपना रथ आगे चलाया और मन से ही वसिष्ठ जी आदि ब्राह्मणों के चरणकमलों में सिर नवाया अथवा, युद्ध देखने आये हुए आकाशमण्डल में उपस्थित अगस्त्य जी आदि ब्राह्मणों के श्रीचरणकमलों में मस्तक नवाया तथा अपने वक्षस्थल पर चिन्ह रूप में विराजमान ब्राह्मण के श्रीचरणकमल में शीश नवाया। तब लंकापति रावण के हृदय मे क्रोध छा गया अथवा तब लंका के ‘ई’ अर्थात्‌ राज्यलक्ष्मी को ‘श’ अर्थात्‌ नष्ट करने वाले तात्पर्यत: लंका की राज्यलक्ष्मी के नाशक रावण के हृदय में क्रोध छा गया और वह गर्जते तथा तर्जते वानर वीरों को डराते–धमकाते हुए द्वन्द्वयुद्ध के लिए भगवान्‌ श्रीराम के सन्मुख आ गया।

**विशेष– ***लंकाया**: ईं लक्ष्मीं श्यति खण्डयति इति लंकेश:।*

जीतेहु जे भट संजुग माहीं। सुनु तापस मैं तिन सम नाहीं॥ रावन नाम जगत जस जाना। लोकप जाके बंदीखाना॥

[[७९८]]

खर दूषन बिराध तुम मारा। बधेहु ब्याध इव बालि बिचारा॥ निशिचर निकर सुभट संघारेहु। कुंभकरन घननादहिं मारेहु॥ आजु बैर सब लेउँ निबाही। जौ रन भूप भाजि नहिं जाहीं॥ आजु करउँ खलु काल हवाले। परेहु कठिन रावन के पाले॥

भाष्य

रावण बोला, हे तपस्वी! सुन, तुमने जिन वीरों को जीता है, मैं उनके समान नहीं हूँ अर्थात्‌ उन सबसे विलक्षण हूँ। मेरा नाम रावण है, मेरा यश जगत जानता है। लोकपाल भी जिसके बन्दीखाना अर्थात्‌ कारागार में बन्द हैं। तुमने खर–दूषण–उपलक्षणतया त्रिशिरा और विराध को मारा है। निरीह बालि को व्याध (बहेलिया) की भाँति निर्दयता से मारा है। तुमने श्रेष्ठयोद्धा राक्षससमूहों का संहार कर दिया, तुमने ही स्वयं अपने बाण से कुम्भकर्ण को तथा लक्ष्मण को निमित्त बनाकर अपने प्रताप से मेघनाद को मारा है। हे पृथ्वीपालक राघव! यदि तुम युद्ध से भाग नहीं गये तो आज मैं सम्पूर्ण वैर तुमसे निभा लूँगा। निश्चित ही आज तुम्हें काल के हवाले कर दूँगा अर्थात्‌ काल को सौंप दूँगा। वस्तुत: आज तुम्हारे हवाले काल को कर दूँगा, अथवा स्वयं को कालस्वरूप तुम्हारे हवाले कर दूँगा। तुम मुझे दण्डित करो या छोड़ो, क्योंकि आज तुम कठिन रावण के पाले पड़ गये हो। आज बाहर से तुम्हारा प्रतिद्वन्द्वी परन्तु भीतर से प्रतापी नाम का तुम्हारा सखा और सेवक हूँ। अब तक काल मेरे पाले पड़ा था उसे भी बन्धन से मुक्त करके तुम्हारे चरणों में सौंप रहा हूँ।

**विशेष– **रावण भगवान्‌ श्रीराम के सन्मुख उपस्थित है और सुन्दकरण्ड में सुग्रीव जी के प्रति कहे हुए श्रीमुख के वचन के अनुसार प्रभु के सन्मुख हुए जीव के करोड़ों जन्म के पाप नष्ट हो जाते हैं। यथा– ***सनमुख** होइ जीव मोहि जबहीं। जन्म कोटि अघ नासहिं तबहीं॥ ***\(-मानस, ५.४४.२\). इस दृष्टि से प्रभु के सन्मुख होते ही रावण के समस्त पाप नष्ट हो गये हैं और वह भगवान्‌ श्रीराम जी की कतिपय लीलाओं के कतिपय रहस्यों को भी जानने लगा है। अत: मेघनाद वध के रहस्य को भी रावण ने जान लिया, जिसमें लक्ष्मण जी ने श्रीराम के प्रताप के बल से मेघनाद का वध किया था। यथा–***सुमिरि** कोसलाधीश प्रतापा। शर संधान कीन्ह करि दापा॥ ***\(- मानस, ६.७६.१५\). इसलिए रावण ने श्रीराम से कहा कि लक्ष्मण तो निमित्त बने पर मेरे मेघनाद को मारा तुमने। इसीलिए उसने लक्ष्मण जी को भी सुतघाती कहा। यथा– ***खोजत** रहेउँ तोहि सुतघाती। ***\(-मानस, ६.८३.२\). संस्कृत मे घाति शब्द का मरवाने वाला भी अर्थ होता है *\(सुतं** घातयति तच्छील:\) *रावण कहता है, लक्ष्मण तुम मेघनाद को नहीं मार सकते थे, तुमने स्वयं निमित्त बनकर श्रीराम के प्रताप द्वारा मेरे पुत्र को मरवाया है। इसी प्रकार रावण ने कहा, जो अभी तक कठिन रावण के पाले पड़ा था अर्थात्‌ मेरे बन्दीगृह में सड़ रहा था उस काल को भी मैं तुम्हारे हवाले कर दूँगा अर्थात्‌ तुम्हें सौंप दूँगा।

सुनि दुर्बचन कालबश जाना। बिहँसि बचन कह कृपानिधाना॥ सत्य सत्य सब तव प्रभुताई। जल्पसि जनि देखाउ मनुसाई॥

भाष्य

रावण के दुस्सह और सामान्य लोगों के लिए दुर्बोध वचन सुनकर, उसे काल के वश जानकर, कृपा के कोशस्वरूप भगवान्‌ श्रीराम जी हँसकर बोले, हे रावण! तुम्हारी सब प्रभुता सत्य है….सत्य है, परन्तु बोल मत, मनस्विता अर्थात्‌ पुरुषार्थ दिखा।

**छं०– जनि जल्पना करि सुजस नासहि नीति सुनहि करहि छमा।**

संसार महँ पूरुष त्रिबिधि पाटल रसाल पनस समा॥ एक सुमनप्रद एक सुमन फल एक फलइ केवल लागहीं। एक कहहिं कहहिं करहिं अपर एक करहिं कहत न बागहीं॥

[[७९९]]

भाष्य

व्यर्थ का प्रलाप करके अपने सुयश को नष्ट मत कर। हे रावण! नीति सुन, क्षमा कर अर्थात्‌ मेघनाद के वध में मेरी परोक्ष भूमिका पर मुझे क्षमा कर। संसार में गुलाब, आम और कटहल के समान तीन प्रकार के पुरुष होते हैं। जैसे एक अर्थात्‌ गुलाब में केवल पुष्प लगता है, पुन: आम में पुष्प और फल दोनों लगते हैं, पुन: अर्थात्‌ आम से भी अन्य कटहल में केवल फल लगता है, उसी प्रकार एक अर्थात्‌ गुलाब के समान लोग केवल कहते हैं, जैसे तुम। पुन: दूसरे आम के समान होते हैं जो कहते भी हैं और करते भी हैं जैसे कुम्भकर्ण और पुन: तीसरे कटहल के समान होते हैं जो, केवल करते हैं, कहते हुए इधर–उधर नहीं फिरते जैसे मैं अर्थात्‌ राम।

**दो०– राम बचन सुनि बिहँसि कह, मोहि सिखावत ग्यान।**

बैर करत नहिं तब डरे, अब लागे प्रिय प्रान॥९०॥

भाष्य

श्रीराम के वचन सुनकर ठहाके से हँसकर रावण ने कहा, अरे राजन्‌! मुझे ज्ञान सिखा रहे हो। तब अर्थात्‌ वैर करते समय नहीं डरे और अब तुम्हें प्राण प्रिय लग रहे हैं।

**विशेष– **वस्तुत: उल्टा हुआ पहले रावण प्रभु का विरोध करने में नहीं डरा, अब युद्ध में मरे अथवा मरते हुए कुम्भकर्ण, मेघनाद आदि उसे प्राण के समान प्रिय लग रहे हैं।

कहि दुर्बचन क्रुद्ध दशकंधर। कुलिश समान लाग छाड़ै सर॥ नानाकार शिलीमुख धाए। दिशि अरु बिदिशि गगन महि छाए॥

भाष्य

क्रुद्ध हुआ रावण वज्र के समान द:ुस्सह वचन कहकर वज्र के ही समान बाण छोड़ने लगा। रावण द्वारा छोड़े हुए अनेक आकारों में विभक्त बाण दौड़े और वे दिशाओं, दिशाओं के कोणों, आकाश तथा पृथ्वी में छा गये।

**पावक शर छाड़ेउ रघुबीरा। छन महँ जरे निशाचर तीरा॥**

छाड़ेसि तीब्र शक्ति खिसियाई। बान संग प्रभु फेरि चलाई॥

भाष्य

रघुकुल के वीर भगवान्‌ श्रीराम जी ने आग्नेय बाण छोड़ा, जिससे एक क्षण में राक्षस रावण के बाण जल गये। रावण ने चि़ढकर शक्ति छोड़ी प्रभु श्रीराम ने अपने बाण के साथ उसे लौटाकर रावण के लिए ही चला दिया।

**कोटिन चक्र त्रिशूल पबारै। बिनु प्रयास प्रभु काटि निवारै॥ निफल होहिं रावन शर कैसे। खल के सकल मनोरथ जैसे॥**
भाष्य

रावण करोड़ों चक्र और त्रिशूल फेंकता रहा और प्रभु श्रीराम उन्हें बिना प्रयास के ही काटकर बीच में ही रोकते रहे। रावण के बाण और उनसे उपलक्षित शक्ति, त्रिशूल आदि किस प्रकार निष्फल हो रहे हैं, जैसे दुष्ट प्रकृतिवाले प्राणी के सभी मनोरथ निष्फल हो जाते हैं।

**विशेष– **रावण पर विष्णु जी ने करोड़ों बार चक्र का प्रहार किया, परन्तु वैष्णव चक्र भी रावण के सिर और भुजाओं को नहीं काट पाया और शिव जी का त्रिशूल उसके सिर, भुजाओं को काट ही नहीं सकता था, क्योंकि शिव जी ने उसे स्वयं अपने से अवध्य कर दिया था। अत: जब–जब चक्र और त्रिशूल निष्फल होते थे तब–तब उन्हें रावण अपने पास रख लेता था। इस प्रकार उसके संग्रहालय में करोड़ों संख्या में चक्र और त्रिशूल हो गये थे, जिन्हें रावण ने द्वन्द्वयुद्ध के समय विधि, हरि, हर से भी विलक्षण भगवान्‌ श्रीराम पर छोड़ा और उन्हें भगवान्‌ श्रीराम ने काट डाले।

[[८००]]

तब शत बान सारथी मारेसि। परेउ भूमि जय राम पुकारेसि॥ राम कृपा करि सूत उठावा। तब प्रभु परम क्रोध कहँ पावा॥

भाष्य

तब रावण ने पूर्व में इन्द्र के और द्वन्द्वयुद्ध में भगवान्‌ श्रीराम के सारथी मातलि को सौ बाण मारे। वह अर्थात्‌ मातलि रथ से पृथ्वी पर गिर पड़ा और ‘जय श्रीराम’ कहकर पुकार लगायी। भगवान्‌ श्रीराम ने कृपा करके पृथ्वी पर गिरे हुए सारथी को उठाया अर्थात्‌ मातलि को पूर्ववत्‌ स्वस्थ कर दिया। तब सर्वशक्तिमान प्रभु श्रीराम ने परमक्रोध को प्राप्त कर लिया अर्थात्‌ बहुत क्रुद्ध हुए, मानो, क्रोध ने कहा आज आप मेरा प्रयोग कीजिये।

**छं०– भए क्रुद्ध जुद्ध बिरुद्ध रघुपति तून सायक कसमसे।**

कोदंड धुनि अति चंड सुनि मनुजाद भय मारुत ग्रसे॥ मंदोदरी उर कंप कंपति कमठ भू भूधर त्रसे। चिक्करहिं दिग्गज दशन गहि महि देखि कौतुक सुर हँसे॥

भाष्य

युद्ध में रावण के प्रति विव्र्द्ध, जीवमात्र के स्वामी भगवान्‌ श्रीराम क्रुद्ध हो गये। उनके तरकस के बाण कसमसाने लगे अर्थात्‌ एक–दूसरे से ठेल–पेल करके बाहर निकलने की तैयारी में व्यस्त हो गये। शार्ङ्ग धनुष की अत्यन्त भयंकर ध्वनि सुनकर नरभक्षी राक्षस भयरूप वायु से ग्रस्त हो गये, मन्दोदरी का हृदय कंपित हो गया और कच्छप, पृथ्वी तथा पर्वत भयभीत होकर काँपने लगे। चारों दिग्गज दाँतों से पृथ्वी को पक़डकर चित्कार करने लगे और प्रभु का यह रण कौतुक देखकर देवता हँसने लगे।

**दो०– तानेउ चाप स्रवन लगि, छाड़े बिशिख कराल।**

राम मारगन गन चले, लहलहात जनु ब्याल॥९१॥

भाष्य

भगवान्‌ श्रीराम ने शार्ङ्ग धनुष को कानों तक खींचा और रावण के लिए भयंकर बाण छोड़े। श्रीराम के बाणों के समूह लहलहाते हुए सर्पों के समान चल पड़े।

**चले बान सपच्छ जनु उरगा। प्रथमहि हतेउ सारथी तुरगा॥ रथ बिभंजि हति केतु पताका। गर्जा अति अंतर बल थाका॥**
भाष्य

भगवान्‌ श्रीराम के बाण पंखों से युक्त सर्पों की भाँति चल पड़े। सर्वप्रथम उन्होंने रावण के सारथी और घोड़ों को मार डाला। उसके रथ को तोड़कर उसके ध्वज और पताका को भी काट दिया। रावण हृदय के भीतर अत्यन्त थका हुआ भी गर्जा।

**तुरत आन रथ चढि़ खिसियाना। छाड़ेसि अस्त्र शस्त्र बिधि नाना॥ बिफल होहिं सब उद्दम ताके। जिमि परद्रोह निरत मनसा के॥**
भाष्य

फिर दूसरे रथ पर च़ढकर बौखलाया हुआ रावण नाना प्रकार के अस्त्रों और शस्त्रों को छोड़ने लगा, परन्तु उसके अर्थात्‌ रावण के सभी प्रयास उसी प्रकार व्यर्थ होने लगे जैसे बिना कारण दूसरों के द्रोह में लगे हुए तथा पर अर्थात्‌ सभी कारणों से परे परमेश्वर प्रभु श्रीराम के द्रोह में लगे हुए जीव के मन के सभी मनोरथ व्यर्थ हो जाते हैं।

**तब रावन दश शूल चलावा। बाजि चारि महि मारि गिरावा॥ तुरग उठाइ कोपि रघुनायक। खैंचि शरासन छाड़े सायक॥**
भाष्य

तब रावण ने दस त्रिशूल चलाये अर्थात्‌ फेंके, जिनसे मारकर प्रभु श्रीराम के रथ में जुते हुए चारों घोड़ों को पृथ्वी पर गिरा दिया अर्थात्‌ अजर और अमर घोड़ों को भी रावण ने मारकर धराशायी कर दिया। रघुकुल के

[[८०१]]

नायक तथा रघु यानी जीवमात्र के नायक स्वामी भगवान्‌ श्रीराम ने घोड़ों को उठाकर अर्थात्‌ जीवित और स्वस्थ करके, कुपित होकर धनुष को खींचकर बाण छोड़े।

रावन सिर सरोज बनचारी। चलि रघुबीर शिलीमुख धारी॥ दश दश बान भाल दश मारे। निसरि गए चले रुधिर पनारे॥

भाष्य

रावण के सिररूपी कमलवन में विचरण करने के लिए भगवान्‌ श्रीराम के बाणों की सेना भ्रमरों की सेना की भाँति चल पड़ी। श्रीराम ने रावण के दसों मस्तक पर दस–दस बाण मारे। वे अर्थात्‌ बाण आर–पार होकर निकलकर चल पड़े और उनसे रक्त के पनारे अर्थात्‌ विशाल प्रवाह बह चले।

**विशेष– **यहाँ शिलीमुख शब्द श्लेष अलंकार के अनुसार बाण और भ्रमर इन दोनों अर्थों में प्रयुक्त हुआ है अर्थात्‌ जैसे कमलवन में भ्रमर विचरण करते हैं, उसी प्रकार भगवान्‌ श्रीराम के बाण रावण के सिर समूहों में विचरण करने के लिए चल पड़े।

स्रवत रुधिर धायउ बलवाना। प्रभु पुनि कृत धनु शर संधाना॥ तीस तीर रघुबीर पवारे। भुजनि समेत शीष महि पारे॥

भाष्य

रक्त बहते हुए भी बलवान रावण प्रभु श्रीराम की ओर दौड़ा। पुन: प्रभु ने धनुष पर बाणों का सन्धान किया, फिर रघुवीर श्रीराम ने तीस बाण फेंके अर्थात छोड़े और रावण की बीस भुजाओं समेत दसों सिरे काट कर पृथ्वी पर गिरा दिया।

**काटतहीं पुनि भए नबीने। राम बहोरि भुजा सिर छीने॥**

प्रभु बहु बार बाहु सिर हए। कटत झटिति पुनि नूतन भए॥

भाष्य

काटते ही रावण के सिर फिर नये हो गये, भगवान्‌ श्रीराम ने फिर रावण की भुजाओं और सिरों को काट डाला। प्रभु श्रीराम ने अनेक बार भुजा और सिरों को काटा, फिर वे कटते ही शीघ्र नये हो गये।

**पुनि पुनि प्रभु काटत भुज शीशा। अति कौतुकी कोसलाधीशा॥ रहे छाइ नभ सिर अरु बाहू। मानहुँ अमित केतु अरु राहू॥**
भाष्य

अत्यन्त कौतुकी अर्थात रणलीला में रस लेनेवाले कोसलाधीश अर्थात्‌ अयोध्या के अधीश्वर आधिकारिक स्वामी परमात्मा श्रीराम बारम्बार रावण की भुजायें और सिर काटते रहे। पृथ्वी पर रावण के सिर और बाहु छा गये अर्थात्‌ रावण के कटे हुए सिरों और भुजाओं से पूरी पृथ्वी ढँक गई, मानो असंख्य केतु और राहु आ गये हों।

**छं०– जनु राहु केतु अनेक नभ पथ स्रवत शोनित धावहीं।**

रघुबीर तीर प्रचंड लागहिं भूमि गिरन न पावहीं॥ एक एक शर सिर निकर छेदे नभ उड़त इमि सोहहीं। जनु कोपि दिनकर कर निकर जहँ तहँ बिधुंतुद पोहहीं॥

भाष्य

मानो अनेक राहु और केतु रक्त का स्राव करते हुए आकाशमण्डल में दौड़ रहे हैं। भगवान्‌ श्रीराम के प्रचण्ड बाणों के लगने से रावण की भुजा और सिर पृथ्वी पर नहीं गिरने पाते हैं। भगवान्‌ श्रीराम के एक–एक बाण के लगने से छेदे हुए अर्थात्‌ वेधे हुए रावण के सिर समूह आकाश में उड़ते हुए इस प्रकार शोभित हो रहे हैं, मानो सूर्यनारायण के किरण समूह कुपित होकर जहाँ–तहाँ चन्द्रशत्रु राहु को पिरो रहे हों अर्थात्‌ अपने तेज से खण्ड–खण्ड कर रहे हों।

[[८०२]]

**विशेष– **“विधुम्‌ तुदति इति विधुंतुद,” अर्थात्‌ जो चन्द्रमा को क्लेश पहुँचाता है, उस राहु को विधुंतुद कहते हैं। यहाँ “विध्वरुषोस्तुद:,” (पा०अ० ३.२.३२.) सूत्र से मुम्‌ का आगम हुआ है।

दो०– जिमि जिमि प्रभु हर तासु सिर, तिमि तिमि होहिं अपार।

**सेवत बिषय बिबर्ध जिमि, नित नित नूतन मार॥९२॥ भा०– **ज्यों–ज्यों प्रभु श्रीराम रावण के सिरों को काट रहे हैं, त्यों–त्यों वे अनगिनत संख्या में उसी प्रकार उत्पन्न हो जा रहे हैं, जैसे विषयों का सेवन करने से काम की आसक्ति नित्य–नये रूप में ब़ढती जाती है।

दशमुख देखि सिरन कै बा़ढी। बिसरा मरन भई रिसि गा़ढी॥ गर्जेउ मू़ढ महा अभिमानी। धायउ दसहु शरासन तानी॥ समर भूमि दशकंधर कोप्यो। बरषि बान रघुपति रथ तोप्यो॥

भाष्य

रावण ने जब अपने सिरों की ब़ढत देखी तब उसे मरण भूल गया और उसके मन में बहुत क्रोध हुआ। मोहग्रस्त महान्‌ अभिमानी राक्षस गरजा और दसों धनुषों को तानकर दौड़ा। समरभूमि में रावण क्रुद्ध हुआ और बाणों की वर्षा करके भगवान्‌ श्रीराम के रथ को ढँक दिया।

**दंड एक रथ देखि न परेऊ। जनु निहार महँ दिनकर दुरेऊ॥ हाहाकार सुरन जब कीन्हा। तब प्रभु कोपि कारमुक लीन्हा॥ शर निवारि रिपु के सिर काटे। ते दिशि बिदिशि गगन महि पाटे॥ काटे सिर नभ मारग धावहिं। जय जय धुनि करि भय उपजावहिं॥ कहँ लछिमन हनुमान कपीशा। कहँ रघुबीर कोसलाधीशा॥**
भाष्य

एक दण्ड तक रथ दिखाई ही नहीं पड़ा, मानो कोहरे में सूर्यनारायण छिप गये हों। जब देवताओं ने हाहाकार किया तब प्रभु ने क्रुद्ध होकर हाथ में धनुष लिया। रावण के बाणों को रोककर अर्थात्‌ उन्हें नष्ट करके शत्रु के सिरों को काटने लगे। उनसे दिशाओं, दिशाओं के मध्यान्तरों, आकाश और पृथ्वी को ढँक दिया। कटे हुए सिर आकाश मार्ग में दौड़ते थे और जय–जयकार करके भय उत्पन्न करते थे। “लक्ष्मण कहाँ हैं, हनुमान कहाँ हैं, सुग्रीव कहाँ हैं और अयोध्यापति श्रीराम कहाँ हैं?” इस प्रकार रावण के कटे हुए सिरों से शब्द होते थे।

**छं०– कहँ राम कहि सिर निकर धाए देखि मर्कट भजि चले।**

संधानि धनु रघुबंशमनि हँसि शरनि सिर बेधे भले॥ सिर मालिका कर कालिका गहि बृंद बृंदनि बहु मिलीं। करि रुधिर सरि मज्जन मनहुँ संग्राम बट पूजन चलीं॥

भाष्य

राम कहाँ हैं? ऐसा कहते हुए रावण के कटे हुए सिरसमूह दौड़े, देखकर वानर भाग चले। रघुवंश के मणि भगवान्‌ श्रीराम ने हँसकर धनुष पर बाणों का सन्धान करके उनसे रावण के कटे हुए सिरों को फिर अच्छी प्रकार से वेध दिया। सिरों की मालिका हाथ में लेकर बहुत–सी कालिकायें झुण्ड की झुण्डों में आकर इकट्ठी हुईं मानो रक्त की नदी में स्नान करके वे संग्रामरूप वटवृक्ष की पूजा करने चली हों।

**दो०– पुनि रावन अति कोप करि, छाड़ी शक्ति प्रचंड।**

सन्मुख चली बिभीषनहिं, मनहुँ काल कर दंड॥९३॥

भाष्य

फिर रावण ने अत्यन्त क्रोध करके भयंकर शक्ति छोड़ी, वह विभीषण के सामने चली, मानो काल का दण्ड हो।

[[८०३]]

आवत देखि शक्ति खरधारा। प्रनतारति हर बिरद सँभारा॥ तुरत बिभीषन पाछे मेला। सन्मुख राम सहेउ सोइ सेला॥ लागि शक्ति मुरछा कछु भई। प्रभु कृत खेल सुरन बिकलई॥

भाष्य

तीक्ष्ण धारवाली शक्ति को आते देखकर, प्रणाम करने वाले भक्तों की आर्ति अर्थात्‌ संकट को हरण करने वाले प्रभु ने अपने विरद का स्मरण किया। तुरन्त विभीषण को अपने पीछे ढकेल दिया और सन्मुख होकर भगवान्‌ श्रीराम ने उस शक्ति को सह लिया। शक्ति के लगने से भगवान्‌ श्रीराघव सरकार को कुछ मूर्च्छा हो गई। प्रभु ने तो खेल किया, परन्तु देवता व्याकुल हो गये अथवा, प्रभु के द्वारा की हुई इस मूर्च्छा की पीड़ा ने देवताओं को व्याकुल कर दिया।

**देखि बिभीषन प्रभु श्रम पायो। गहि कर गदा क्रुद्ध होइ धायो॥ रे कुभाग्य शठ मंद कुबुद्धे। तैं सुर नर मुनि नाग बिरुद्धे॥ सादर शिव कहँ शीष च़ढाए। एक एक के कोटिन पाए॥ तेहि कारन खल अब लगि बाँचा। अब तव काल शीष पर नाचा॥ राम बिमुख शठ चहसि संपदा। अस कहि हनेसि माझ उर गदा॥**
भाष्य

भगवान्‌ श्रीराम को शारीरिक श्रम प्राप्त किया हुआ अर्थात्‌ कुछ मूर्च्छित देखकर, हाथ में गदा लेकर क्रुद्ध होकर विभीषण जी दौड़े और बोले, अरे कुत्सित भाग्यवाले! दुष्ट, मन्द अर्थात्‌ निम्न प्रकृतिवाले! कुत्सित बुद्धिवाले रावण! तूने देवता, मनुष्य, मुनि और नागों से विरोध किया, आदरपूर्वक तुमने शिव जी को शीश च़ढाये अर्थात्‌ समर्पित किया एक–एक के विनिमय अर्थात्‌ बदले में करोड़ों सिर प्राप्त किये। रे खल! इसी कारण तू अब तक बचता रहा, परन्तु काल अब तेरे सिर पर नाच पड़ा है। अरे शठ! श्रीराम से विमुख होकर तू सम्पत्ति चाहता है, ऐसा कहकर विभीषण जी ने रावण के मध्य हृदय में गदा मार दी।

**छं०– उर माझ गदा प्रहार घोर कठोर लागत महिं पर्‌यो।**

दश बदन शोनित स्रवत पुनि संभारि धायो रिसि भर्‌यो॥ द्वौ भिरे अतिबल मल्लजुद्ध बिरुद्ध एक एकहिं हनै। रघुबीर बल दर्पित बिभीषन घालि नहिं ता कहँ गनै॥

भाष्य

हृदय के मध्य में भयंकर और कठोर गदा का प्रहार लगते ही रावण व्याकुल होकर रथ से पृथ्वी पर गिर पड़ा और दसों मुख से रक्त बहाता हुआ, फिर स्वयं को सम्भालकर क्रोध से पूर्ण रावण विभीषण जी की ओर दौड़ा। दोनों अति बलशाली विभीषण और रावण मल्लयुद्ध में भिड़ गये और एक–दूसरे को विरुद्ध होकर मारने लगे। रघुवीर भगवान्‌ श्रीराम के बल से गर्वित विभीषण जी उस रावण को घालि अर्थात्‌ घलुआ यानी पसंगे के बराबर भी नहीं गिन रहे थे।

**दो०– उमा बिभीषन रावनहिं, सन्मुख चितव कि काउ।**

भिरत सो काल समान अब, श्रीरघुबीर प्रभाउ॥९४॥

भाष्य

शिव जी पार्वती जी से कहते हैं कि हे पार्वती! रावण को विभीषण क्या सन्मुख होकर कभी देख सकते थे।

आज वही श्रीसीता के सहित रघुकुल के वीर भगवान्‌ श्रीराम के प्रभाव से काल के समान रावण से भिड़ गये।

देखा श्रमित बिभीषन भारी। धायउ हनूमान गिरि धारी॥ रथ तुरंग सारथी निपाता। हृदय माझ तेहि मारेउ लाता॥

[[८०४]]

भाष्य

जब विभीषण जी को बहुत श्रमित देखा तब हनुमान जी महाराज पर्वत लेकर दौड़े। उन्होंने पर्वत के प्रहार से रावण के रथ घोड़े और सारथी को नष्ट कर दिया और रावण के हृदय के मध्य में लात मारी।

**ठा़ढ रहा अति कंपित गाता। गयउ बिभीषन जहँ जनत्राता॥ पुनि रावन कपि हतेउ पचारी। चलेउ गगन कपि पूँछ पसारी॥ गहिसि पूँछ कपि सहित उड़ाना। पुनि फिरि भिरेउ प्रबल हनुमाना॥**
भाष्य

लात के प्रहार से रावण के शरीर में कम्पन हुआ और युद्ध छोड़कर वह ख़डा रह गया, फिर विभीषण जी जहाँ भक्तों के रक्षक भगवान्‌ श्रीराम थे वहाँ चले गये। फिर श्रीहनुमान जी ने रावण को ललकार करके मारा, अथवा रावण ने ललकार करके हनुमान जी को मारा और हनुमान जी अपनी पूँछ फैलाये हुए आकाश में चले गये। रावण ने हनुमान जी की पूँछ पक़ड ली और उन्हीं के सहित वह भी आकाश में उड़ा। पुन: लौटकर प्रकृष्ट बलवाले हनुमान जी रावण से भिड़ गये।

**लरत अकाश जुगल सम जोधा। एकहिं एक हनत करि क्रोधा॥**
भाष्य

दोनों समान युद्ध करने वाले हनुमान जी एवं रावण आकाश में ही लड़ने लगे और क्रोध करके एक–दूसरे को मारने लगे।

**सोहहिं नभ छल बल बहु करहीं। कज्जल गिरि सुमेरु जनु लरहीं॥ बुधि बल निशिचर परइ न पार्‌यो। तब मारुत सुत प्रभु संभार्‌यो॥**
भाष्य

दोनों योद्धा छल–बल करते हुए आकाश में ऐसे शोभित हो रहे थे, मानो कज्जल पर्वत और सुमेरु लड़ रहे हों अर्थात्‌ कज्जल पर्वत के समान काला रावण छल करता था और सुमेरु पर्वत के सामन स्वर्ण शरीर हनुमान जी बल से युद्ध कर रहे थे। जब राक्षस रावण बुद्धि तथा बल से गिराने से भी नहीं गिरा, तब वायुपुत्र हनुमान जी ने भगवान्‌ श्रीराम का स्मरण किया।

**छं०– संभारि श्रीरघुबीर धीर पचारि कपि रावन हन्यो।**

महि परत पुनि उठि लरत देवन जुगल कहँ जय जय भन्यो॥ हनुमंत संकट देखि मर्कट भालु क्रोधातुर चले। रन मत्त रावन सकल सुभट प्रचंड भुज बल दल मले॥

भाष्य

श्री जी के सहित भगवान्‌ श्रीराम का स्मरण करके धैर्यवान हनुमान जी ने ललकार कर रावण को मारा। फिर रावण पृथ्वी पर गिरता और फिर उठकर हनुमान जी से लड़ता था अर्थात्‌ श्रीराम के स्मरण से हनुमान जी में इतनी शक्ति आ गई कि हनुमान जी बारम्बार रावण को पृथ्वी पर पछाड़ देते थे। देवताओं ने युगल अर्थात्‌ दोनों ही स्वामी भगवान्‌ श्रीराम एवं सेवक हनुमान जी महाराज के लिए ‘जय–जय’ का उच्चारण किया अर्थात्‌ श्रीराम की इसलिए जयकार बोली कि आप ने आज अपने द्वारा वध्य रावण को अपने सेवक हनुमान जी द्वारा पराजित करा भक्त हनुमान जी की लाज रख ली और सेवक हनुमान जी की इसलिए जयकार लगाई कि आपने उचित समय पर प्रभु को स्मरण करके, रावण को बार–बार पृथ्वी पर पटक कर उसे धूल चटा दी। अत: देवताओं ने कीर्तन किया, ‘जय श्रीराम जय–जय हनुमान’ अब हनुमान जी पर रावण–वध का धर्मसंकट देखकर वानर और भालु क्रोधातुर होकर चले, जिससे हनुमान जी को छोड़कर रावण सामान्य वानर–भालुओं से युद्ध करने लग जाये और हनुमान जी भी प्रभु के वध्य रावण के प्राणहरणरूप धर्मसंकट से बच जायें। युद्ध के मद में मत्त रावण ने सभी वीर वानरों को अपनी प्रचण्ड भुजाओं के बल से कुचल कर मसल दिया।

[[८०५]]

दो०– तब रघुबीर पचारे, धाए कीस प्रचंड।

कपिदल प्रबल बिलोकि तेहिं, कीन्ह प्रगट पाषंड॥९५॥

भाष्य

तब रघुवीर श्रीराम ने ललकारा और अत्यन्त क्रोध करके वानर दौड़े। रावण ने वानरी सेना को प्रबल देखकर पाखण्ड प्रकट कर दिया अर्थात्‌ माया प्रकट कर दी।

**अंतरधान भयउ छन एका। पुनि प्रगटे खल रूप अनेका॥ रघुपति कटक भालु कपि जेते। जहँ तहँ प्रगट दशानन तेते॥ देखे कपिन अमित दशशीशा। जहँ तहँ भजे भालु अरु कीशा॥ भागे बानर धरहिं न धीरा। त्राहि त्राहि लछिमन रघुबीरा॥ दस दिशि धावहिं कोटिन रावन। गर्जहिं घोर कठोर भयावन॥**
भाष्य

एक क्षण के लिए रावण अन्तर्धान हो गया, फिर खल प्रकृतिवाले रावण ने अपने अनेक रूप प्रकट कर दिए। रघुपति श्रीराम के कटक में जितनी संख्या में वानर और भालु थे जहाँ–तहाँ उतनी ही संख्या में रावण प्रकट हो गए। जब वानरों ने असीम रावणों को देखा तब जहाँ–तहाँ भालु और वानर भाग चले। भागे हुए वानर धैर्य धारण नहीं कर रहे थे और कह रहे थे, हे लक्ष्मण जी! हे रघुवीर श्रीराम! हमारी रक्षा कीजिये…रक्षा कीजिये। दसों दिशाओं में करोड़ों रावण दौड़ रहे थे और घोर, कठोर तथा भयंकर गर्जन कर रहे थे।

**डरे सकल सुर चले पराई। जय कै आस तजहु अब भाई॥ सब सुर जिते एक दशकंधर। अब बहु भए तकहु गिरि कंदर॥**
भाष्य

सभी देवता डर गये और भाग चले तथा बोले, हे भाई! अब विजय की आशा छोड़ दो, क्योंकि पहले एक ही रावण ने सम्पूर्ण देवताओं को जीता था, अब बहुत हो चुके हैं। अब तो पर्वत की कन्दराओं को देखो अर्थात्‌ सुमेरु पर्वत की गुफाओं में शरण ले लो।

**रहे बिरंचि शंभु मुनि ग्यानी। जिन जिन प्रभु महिमा कछु जानी॥**
भाष्य

ब्रह्मा जी, शिव जी, उपलक्षणतया विष्णु जी और ज्ञानीमुनि जिन–जिन लोगों ने भगवान्‌ श्रीराम की कुछ महिमा जान ली थी वे स्थिर रहे, अर्थात्‌ नहीं डरे।

**छं०– जाना प्रताप ते रहे निर्भय कपिन रिपु माने फुरे।**

चले बिचलि मर्कट भालु सकल कृपालु पाहि भयातुरे॥ हनुमंत अंगद नील नल अतिबल लरत रन बाँकुरे। मर्दहिं दशानन कोटि कोटिन कपट भू भट अंकुरे॥

भाष्य

जिन लोगों ने भगवान्‌ श्रीराम का प्रताप जाना वे निर्भय रहे अर्थात्‌ निर्भीक होकर अपने–अपने कार्य में लगे रहे। साधारण वानरों ने शत्रु रावण के रूपों को सत्य मान लिया और सभी वानर–भालु भय से आतुर होकर, हे कृपालु श्रीराम जी! रक्षा कीजिये कहते हुए भग चले, परन्तु हनुमान जी, अंगद जी तथा नल–नील जी ये चार अत्यन्त रणकुशल योद्धा लड़ते रहे भगे नहीं और रावण की मायामय भूमि में वीररूप में अंकुरित हुए करोड़ोंकरोड़ों मायामय रावणों को मसलते रहे।

**दो०– सुर बानर देखे बिकल, हँस्यो कोसलाधीश।**

सजि बिशिखासन एक शर, हते सकल दशशीश॥९६॥

भाष्य

देवताओं और वानरों को व्याकुल देखकर अयोध्यापति भगवान्‌ श्रीराम हँसे और धनुष को सजाकर एक ही बाण से सभी मायामय रावणों को मार डाला।

[[८०६]]

प्रभु छन महँ माया सब काटी। जिमि रबि उए जाहिं तम फाटी॥ रावन एक देखि सुर हरषे। फिरे सुमन बहु प्रभु पर बरषे॥

भाष्य

प्रभु श्रीराम ने क्षण भर में रावण की सम्पूर्ण माया को काट दिया, जैसे सूर्यनारायण के प्रकट होने पर अनेक प्रकार के अन्धकार फट जाते हैं। रावण को एक देखकर देवता प्रसन्न हुए लौटे और प्रभु श्रीराम पर बहुत से पुष्प बरसे।

**भुज उठाइ रघुपति कपि फेरे। फिरे एक एकन तब टेरे॥ प्रभु बल पाइ भालु कपि धाए। तरल तमकि संजुग महि आए॥**
भाष्य

तब रघुवंश के स्वामी भगवान्‌ श्रीराम ने अपना हाथ उठाकर सभी वानरों को लौटाया, तब लौटते हुए वानरों ने एक–दूसरे को बुलाया। प्रभु श्रीराम का बल पाकर भालु और वानर दौड़े और वे क्रुद्ध होकर शीघ्रता से समरभूमि में आ गये।

**अस्तुति करत देवतन देखे। भयउँ एक मैं इन के लेखे॥ शठहु सदा तुम मोर मरायल। अस कहि कोपि गगन पथ धायल॥**
भाष्य

रावण ने देवताओं को श्रीराम की स्तुति करते देखा तो बोला कि मैं इनकी दृष्टि में अकेला हो गया। अरे दुष्टों! तुम तो निरन्तर मेरे द्वारा पिटे हो, ऐसा कहकर रावण कुपित होकर आकाश मार्ग में दौड़ा।

**हाहाकार करत सुर भागे। खलहु जाहु कहँ मोरे आगे॥ देखि बिकल सुर अंगद धायो। कूदि चरन गहि भूमि गिरायो॥**
भाष्य

हाहाकार करते हुए देवता भागे। रावण ने कहा कि, अरे दुष्टों! मेरे आगे से अब कहाँ जा रहे हो? देवताओं को व्याकुल देखकर अंगद जी दौड़े और कूदकर रावण का पैर पक़डकर उसे भूमि पर गिरा दिया।

**छं०– गहि भूमि पार्‌यो लात मार्‌यो बालिसुत प्रभु पहिं गयो।**

संभारि उठि दशकंठ घोर कठोर रव गर्जत भयो॥ करि दाप चाप च़ढाइ दश संधानि शर बहु बरषई। किए सकल भट घायल भयाकुल देखि निज बल हरषई॥

भाष्य

बालिपुत्र अंगद जी ने रावण को पक़डकर पृथ्वी पर गिरा दिया और लात से मारा, फिर प्रभु श्रीराम के पास चले गये। दसमुख रावण सम्भालकर पृथ्वी पर से उठकर भयंकर और कठोर स्वर में गरजा। वह गर्व करके दसों धनुष च़ढाकर उन पर सन्धान करके बहुत से बाणों की वर्षा करने लगा। उसने सम्पूर्ण वानर वीरों को हताहत और भय से व्याकुल कर दिया और अपना बल देखकर रावण मन में बहुत प्रसन्न हो रहा था।

**दो०– तब रघुपति रावन के, शीष भुजा शर चाप।**

काटे बहुत ब़ढे पुनि, जिमि तीरथ कर पाप॥९७॥

भाष्य

तब रघुकुल के स्वामी भगवान्‌ श्रीराम ने रावण के बहुत से सिर, भुजा, बाण और धनुष काटे फिर वे बहुत

ब़ढते गये, जैसे तीर्थों में किये हुए पाप ब़ढते जाते हैं।

सिर भुज बाढि़ देखि रिपु केरी। भालु कपिन रिसि भई घनेरी॥ मरत न मू़ढ कटेहुँ भुज शीशा। धाए कोपि भालु भट कीशा॥

भाष्य

शत्रु रावण के सिर–भुजाओं की ब़ढत देखकर भालु और वानरों को बहुत क्रोध हुआ। यह मूर्ख भुजाओं और सिरों के कटने पर भी नहीं मर रहा है। ऐसा सोचकर कुपित हुए वीर भालु और वानर दौड़े।

[[८०७]]

बालितनय मारुति नल नीला। बानरराज द्विबिद बलशीला॥

बिटप महीधर करहिं प्रहारा। सोइ गिरि तरु गहि कपिन सो मारा॥

भाष्य

बालि के पुत्र अंगद जी, मारुत अर्थात्‌ वायु के पुत्र हनुमान जी, नल–नील जी, वानरों के राजा सुग्रीव जी, स्वाभाविक बल से युक्त द्विबिद जी वृक्षों और पर्वतों से रावण पर प्रहार करने लगे और वही पर्वत और वृक्ष लेकर वह अर्थात्‌ रावण वानरों को मारने लगा।

**एक नखनि रिपु बपुष बिदारी। भागि चलहिं एक लातन मारी॥ तब नल नील सिरनि चढि़ गयऊ। नखनि लिलार बिदारत भयऊ॥**
भाष्य

एक अर्थात्‌ कुछ वानरों ने अपने नखों से शत्रु रावण के शरीर को विदीर्ण कर दिया और कुछ लोग उसे लातों से मार कर चल दिये। तब नल–नील, रावण के सिरों पर च़ढ गये और नखों से उसके मस्तक को फाड़ दिये, जिससे ब्रह्मा जी के लिखे हुए दीर्घायु के लेख को उन्होंने समाप्त कर दिया।

**रुधिर बिलोकि सकोप सुरारी। तिनहिं धरन कहँ भुजा पसारी॥**

**गहे न जाहिं करनि पर फिरहीं। जनु जुग मधुप कमल बन चरहीं॥ भा०– **मस्तकों पर रक्त देखकर देवताओं के शत्रु रावण ने क्रोध के साथ उन वानरों को पक़डने के लिए अपनी बीस भुजायें फैला दी। नल–नील पक़डे नहीं जा रहे हैं। रावण के हाथों पर ही भ्रमण कर रहे हैं, मानो कमल के वन में दो भ्रमर विचरण कर रहे हैं।

कोपि कूदि द्वौ धरेसि बहोरि। महि पटकत भजे भुजा मरोरी॥ पुनि सकोप दश धनु कर लीन्हें। शरनि मारि घायल कपि कीन्हें॥

भाष्य

क्रुद्ध होकर रावण ने फिर उछलकर दोनों वानरों को पक़ड लिया। पृथ्वी पर पटकते ही नल–नील उसकी भुजाओं को मरोड़कर भग चले। फिर रावण ने क्रोधपूर्वक दसों धनुषों को हाथों में ले लिया और बाणों से मार– मारकर वानरों को घायल कर दिया।

**हनुमदादि मुरछित करि बंदर। पाइ प्रदोष हरष दशकंधर॥ मुरछित देखि सकल कपि बीरा। जामवंत धायउ रनधीरा॥**
भाष्य

हनुमान जी आदि वानरों को मूर्च्छित करके सन्ध्या समय को प्राप्त कर रावण बहुत प्रसन्न हुआ। सभी वीर वानरों को मूर्च्छित देखकर युद्ध में धैर्यवान जाम्बवान जी दौड़े।

**संग भालु भूधर तरु धारी। मारन लगे पचारि पचारी॥ भयउ क्रुद्ध रावन बलवाना। गहि पद महि पटकइ भट नाना॥ देखि भालुपति निज दल घाता। कोपि माझ उर मारेसि लाता॥**
भाष्य

जाम्बवान जी के साथ पर्वतों और वृक्षों को लिए हुए भालु भी दौड़े और ललकार–ललकार कर रावण को मारने लगे। बलवान रावण क्रुद्ध हो गया तथा पैर पक़ड-पक़ड अनेक वीरों को पछाड़ने लगा। जाम्बवान जी ने अपने दल का विनाश देखकर, क्रुद्ध होकर रावण के मध्य हृदय में लात मारी।

**छं०– उर लात घात प्रचंड लागत बिकल रथ ते महि परा।**

गहि भालु बीसहुँ कर मनहुँ कमलनि बसे निशि मधुकरा॥ मुरछित बिलोकि बहोरि पद हति भालुपति प्रभु पहिं गयो। निशि जानि स्यंदन घालि तेहि तब सूत जतन करत भयो॥

[[८०८]]

भाष्य

हृदय में अत्यन्त प्रचण्ड लात का आघात लगते ही व्याकुल होकर रावण पृथ्वी पर गिर पड़ा। उसने बीसों हाथ से बीस भालुओं को मूर्च्छित अवस्था में पक़ड रखा, मानो रात्रि में कमलों में भौंरे निवास किये हों। रावण को मूर्च्छित देखकर फिर लात से मारकर जाम्बवान जी प्रभु श्रीराम के पास चले गये। तब रात्रि जानकर रावण को रथ पर लिटाकर सारथी ने यत्न किया अर्थात्‌ विश्राम और उपचार की व्यवस्था की।

**दो०– मुरछा बिगत भालु कपि, सब आए प्रभु पास।**

सकल निशाचर रावनहिं, घेरि रहे अति त्रास॥९८॥

भाष्य

मूर्च्छा समाप्त होने पर सभी भालु–वानर भगवान्‌ श्रीराम के पास आ गये। उधर सभी राक्षस अत्यन्त भय से युक्त होकर रावण को घेरकर सुरक्षा करते रहे।

**तेही निशि सीता पहिं जाई। त्रिजटा कहि सब कथा सुनाई॥ सिर भुज बाढि़ सुनत रिपु केरी। सीता उर भइ त्रास घनेरी॥**
भाष्य

उसी रात्रि में श्रीसीता के पास जाकर त्रिजटा ने सम्पूर्ण कथा कह सुनायी। शत्रु के सिरों और भुजाओं की ब़ढत सुनकर श्रीसीता के मन में बहुत डर हुआ।

**मुख मलीन उपजी मन चिंता। त्रिजटा सन बोली तब सीता॥ होइहि कहा कहसि किन माता। केहि बिधि मरिहि बिश्व दुखदाता॥ रघुपति शर सिर कटेहुँ न मरई। बिधि बिपरीत चरित सब करई॥ मोर अभाग जियावत ओही। जेहिं मोहिं हरि पद कमल बिछोही॥**
भाष्य

श्रीसीता का मुख उदास हो गया, मन में चिन्ता उत्पन्न हो गयी, तब श्रीसीता, त्रिजटा से बोलीं, हे माता! क्या होगा तुम क्यों नहीं कुछ बोल रही हो? विश्व को दु:ख देने वाला रावण किस प्रकार से मरेगा? रघुकुल के स्वामी भगवान्‌ श्री राघव के बाणों से सिरों के कटने पर भी रावण नहीं मर रहा है, परमात्मा सभी विपरीत चरित्र कर रहे हैं। मेरा दुर्भाग्य उसे जिला रहा है, जिसने मुझे प्रभु के श्रीचरणकमलों से अलग कर दिया।

**जेहिं कृत कपट कनक मृग झूठा। अजहुँ सो दैव मोहि पर रूठा॥**

**जेहिं बिधि मोहि दुख दुसह सहाए। लछिमन कहुँ कटु बचन कहाए॥ भा०– **जिसने असत्य कपटमय स्वर्णमृग बनाया, इस समय भी वही दैव मुझ पर रुठा है। जिस विधाता ने मुझे असहनीय दु:ख सहाया और जिसने मुझसे लक्ष्मण जी के लिए कटुवचन कहलाये।

रघुपति बिरह सबिष शर भारी। तकि तकि मार बार बहु मारी॥ ऐसेहुँ दुख जो राख मम प्राना। सोइ बिधि ताहि जियाव न आना॥ बहु बिधि करत बिलाप जानकी। करि करि सुरति कृपानिधान की॥

भाष्य

रघुकुल के पति श्रीराघव जी के विरह में प्रभु का स्मरणात्मक काम, बार–बार मुझे लक्ष्य बनाकर विरहरूप विष से युक्त भयंकर बाणों से मार रहा है। ऐसे दु:ख में भी जो विधाता मेरे प्राण रख रहा है, वही उस रावण को जिला रहा है और कोई दूसरा नहीं। कृपानिधान श्रीराम का स्मरण करके श्रीसीता बहुत प्रकार से विलाप करने लगीं।

**कह त्रिजटा सुनु राजकुमारी। उर शर लागत मरइ सुरारी॥ प्रभु ताते उर हतइ न तेही। एहि के हृदय बसति बैदेही॥**

[[८०९]]

भाष्य

त्रिजटा ने कहा, हे राजकुमारी! सुनिये, हृदय में बाण लगते ही देवशत्रु रावण मर सकता है। प्रभु श्रीराम इसलिए रावण को हृदय में नहीं मार रहे हैं, क्योंकि रावण के हृदय में जनकनन्दिनी जी विराजती हैं अर्थात्‌ रावण एक भी क्षण के लिए श्रीसीता को अपने चिन्तन से दूर नहीं करता।

**छं०– एहि के हृदय बस जानकी जानकी उर मम बास है।**

मम उदर भुवन अनेक लागत बान सब कर नास है॥ सुनि बचन हरष बिषाद मन अति देखि पुनि त्रिजटा कहा। अब मरिहिं रिपु एहि बिधि सुनहु सुंदरि तजहु संशय महा॥

भाष्य

प्रभु कहते हैं कि इस रावण के हृदय में जानकी जी रहती हैं और जानकी जी के हृदय में मेरा निवास है। मेरे उदर अर्थात्‌ पेट में अनेक भुवन रहते हैं, बाण लगते ही सबका नाश हुआ ही समझो। यह सुनते ही श्रीसीता को हर्ष इस बात का हुआ कि मेरी बिम्बरूप श्रीसीता रावण के हृदय में रहती हैं और विषाद इस बात का कि इस परिस्थिति में रावण की मृत्यु कैसे होगी? इस प्रकार श्रीसीता को व्याकुल देखकर त्रिजटा ने फिर कहा, हे सुन्दरी! सुनिये, अब शत्रु इस प्रकार से मर जायेगा, आप बहुत–बड़ा संशय छोड़ दीजिये।

**दो०– काटत सिर होइहिं बिकल, छुटि जाइहिं तव ध्यान।**

तब रावनहिं हृदय महँ, मरिहिं राम सुजान॥९९॥

भाष्य

प्रभु श्रीराम द्वारा सिर को काटते–काटते रावण व्याकुल हो जायेगा और उससे आपका ध्यान छूट जायेगा, तब चतुर श्रीराम रावण के हृदय में बाण मार देंगे।

**अस कहि बहुत भाँति समुझाई। पुनि त्रिजटा निज भवन सिधाई॥ राम स्वभाव सुमिरि बैदेही। उपजी बिरह ब्यथा अति तेही॥**
भाष्य

इस प्रकार कहकर श्रीसीता को त्रिजटा ने बहुत प्रकार से समझाया और फिर वह अपने भवन को चली गई। श्रीराम के स्वभाव का स्मरण करके उन भगवती श्रीसीता को विरह की व्यथा उत्पन्न हो गई।

**निशिहिं शशिहिं निंदति बहु भाँती। जुग सम भई सिराति न राती॥ करति बिलाप मनहिं मन भारी। राम बिरह जानकी दुखारी॥**
भाष्य

रात्रि को और चन्द्रमा को श्रीसीता बहुत प्रकार से कोसने लगीं। रात्रि युग के समान हो गई वह बीत ही नहीं रही थी। श्रीसीता मन ही मन बहुत विलाप कर रही थीं और प्रभु श्रीराम के वियोग में दु:खी हो रहीं थीं।

**जब अति भयउ बिरह उर दाहू। फरकेउ बाम नयन अरु बाहू॥ सगुन बिचारि धरी मन धीरा। अब मिलिहैं कृपालु रघुबीरा॥**
भाष्य

जब भगवती श्रीसीता के हृदय में विरह का अत्यन्त ताप हुआ तब उनके वामनेत्र और वामबाहु फ़डक उठे। शकुन विचारकर श्रीसीता ने मन में धैर्य धारण किया, अब कृपालु श्रीरघुवीर मुझे मिल जायेंगे।

__इहाँ अर्धनिशि रावन जागा। निज सारथि सन खीझन लागा॥ शठ रनभूमि छुड़ाइसि मोही। धिग धिग अधम मंदमति तोही॥

भाष्य

इधर अर्द्धरात्रि में रावण जगा और वह अपने सारथी से खीझने लगा अर्थात्‌ सारथी को डाँटने लगा। अरे दुष्ट! तुमने मुझेरणभूमि छुड़वा दिया। अरे अधम, मन्दबुद्धि सारथी! तुझे धिक्कार है… धिक्कार है।

[[८१०]]

तेहिं पद गहि बहु बिधि समुझावा। भोर भए रथ चढि पुनि धावा॥ सुनि आगमन दशानन केरा। कपिदल खरभर भयउ घनेरा॥ जहँ तहँ भूधर बिटप उपारी। धाए कटकटाइ भट भारी॥

भाष्य

उस सारथी ने चरण पक़डकर बहुत प्रकार से रावण को समझाया और प्रात:काल रथ पर च़ढकर रावण ने फिर धावा बोला। रावण का अगमन सुनकर वानरदल में बहुत खलबली मच गई। जहाँ–तहाँ पर्वत और वृक्षों को उखाड़कर भारी वीर कटकटा कर दौड़े।

**छं०– धाए जो मर्कट बिकट भालु कराल कर भूधर धरा।**

अति कोप करहिं प्रहार मारत भजि चले रजनीचरा॥ बिचलाइ दल बलवंत कीसन घेरि पुनि रावन लियो। चहुँ दिशि चपेटनि मारि नखनि बिदारि तनु ब्याकुल कियो॥

भाष्य

जो विशाल बन्दर और भयंकर भालु थे वे सब हाथ में पर्वत लेकर दौड़े और क्रोध करके रावण पर प्रहार करने लगे, मारते ही राक्षस भाग चले। बलवान वानरों ने राक्षसदल को विचलित करके फिर रावण को घेर लिया। चारों ओर से थप्पड़ों से मार–मारकर और नखों से शरीर को विदीर्ण करके रावण को व्याकुल कर दिया।

**दो०– देखि महा मर्कट प्रबल, रावन कीन्ह बिचार।**

अंतरहित होइ निमिष महँ, कृत माया बिस्तार॥१००॥

भाष्य

वानरों को बहुत प्रबल देखकर रावण ने मन में विचार किया और अन्तर्धान होकर क्षणभर में माया का विस्तार कर दिया।

**छं०– जब कीन्ह तेहिं पाषंड। भए प्रगट जंतु प्रचंड॥**

बेताल भूत पिशाच। कर धरें धनु नाराच॥१॥

भाष्य

जब रावण ने माया की रचना की तब भयंकर जन्तु प्रकट हो गये। वेताल, भूत, पिशाच हाथ में धनुष और बाण लिए हुए दृष्टिगोचर हुए।

**जोगिनि गहे करबाल। एक हाथ मनुज कपाल॥ करि सद्द शोनित पान। नाचहिं करहिं बहु गान॥२॥**
भाष्य

योगिनियाँ एक हाथ में तलवार और दूसरे हाथ में मनुष्य का सिर लिए हुए सद्द : निकले हुए रक्त का पान करके नाचने और बहुत सा गान करने लगीं।

**धरु मारु बोलहिं घोर। रहि पूरि धुनि चहुँ ओर॥ मुख बाइ धावहिं खान। तब लगे कीस परान॥३॥**
भाष्य

धरो, मारो, इस प्रकार घोर शब्द बोलने लगीं और उनकी ध्वनि चारों दिशाओं में पूर्ण हो गई। जब वे मुख फैलाकर खाने को दौड़ने लगीं तब वानर भागने लगे।

**जहँ जाहिं मर्कट भागि। तहँ बरत देखहिं आगि॥ भए बिकल बानर भालु। पुनि लाग बरषै बालु॥४॥**
भाष्य

जहाँ वानर भागकर जाते थे वहाँ अग्नि जलते देखते थे। वानर–भालु व्याकुल हो गये, तब रावण बालू की वर्षा करने लगा।

[[८११]]

जहँ तहँ थकित करि कीस। गर्जेउ बहुरि दशशीश॥ लछिमन कपीश समेत। भए सकल बीर अचेत॥५॥

भाष्य

इस प्रकार जहाँ–तहाँ वानर–भालुओं को स्थगित करके और श्रान्त करके फिर रावण गरजा। लक्ष्मण जी एवं सुग्रीव जी के सहित सम्पूर्ण वीर चेतनाशून्य हो गये।

**हा राम हा रघुनाथ। कहि सुभट मीजहिं हाथ॥**

एहि बिधि सकल बल तोरि। तेहि कीन्ह कपट बहोरि॥६॥

भाष्य

हा! श्रीराम, हा! श्रीरघुनाथ जी, कहकर सम्पूर्ण वीर हाथ मलने लगे। इस प्रकार सबका बल तोड़कर अर्थात्‌ सभी को निर्बल बनाकर रावण ने फिर दूसरी माया की।

**प्रगटेसि बिपुल हनुमान। धाए गहे पाषान॥ तिन राम घेरे जाइ। चहुँ दिशि बरूथ बनाइ॥७॥**
भाष्य

रावण ने अनेक हनुमान जी प्रकट कर दिये, वे पत्थर लेकर दौड़े और उन माया के हनुमानों ने भी चारों ओर से झुण्ड बनाकर सुरक्षा के लिए श्रीराम को घेर लिया।

**मारहु धरहु जनि जाइ। कटकटहिं पूँछ उठाइ॥ दश दिशि लँगूर बिराज। तेहिं मध्य कोसलराज॥८॥**
भाष्य

‘मारो–पक़डो’ रावण भाग न जाये इस प्रकार माया के हनुमान जी भी पूँछ उठाकर दाँत कटकटा कर कह रहे थे अर्थात्‌ मायारचित्‌ हनुमान जी भी श्रीराम जी के विरुद्ध कुछ नहीं कह रहे थे। दसों दिशा में मायारचित्‌ हनुमान जी के लँगूर शोभित हो रहे थे और उनके बीच में कोसल जनपद के राजा भगवान्‌ श्रीराम जी विराज रहे थे।

**छं०– तेहि मध्य कोसलराज सुंदर श्याम तन शोभा लही।**

जनु इंद्र धनुष अनेक की बर बारि तुंग तमालही॥ प्रभु देखि हरष बिषाद उर सुर बदत जय जय जय करी। रघुबीर एकहिं तीर कोपि निमेष महँ माया हरी॥१॥

भाष्य

उन मायामय हनुमान जी के लँगूरों के बीच अयोध्यापति भगवान्‌ श्रीराम के सुन्दर श्यामल शरीर ने इस प्रकार शोभा प्राप्त की जैसे अनेक इन्द्रधनुषों की वाटिका में सुन्दर और विशाल तमाल वृक्ष विराज रहा हो। प्रभु श्रीराम ने देखा की मायारचित हनुमान के श्रीरामानुकूल आचरण करने से हर्ष और रावण के जीवित रहने से उपस्थित हुए हार्दिक विषाद के साथ देवता “जय–जय–जय” ध्वनि करके बोल रहे थे। तब कुपित होकर रघुवीर श्रीराम ने एक क्षण में एक ही बाण से सारी माया हर ली।

**माया बिगत कपि भालु हरषे बिटप गिरि गहि सब फिरे। शर निकर छाड़े राम रावन बाहु सिर पुनि महि गिरे॥ श्रीराम रावन समर चरित अनेक कल्प जो गावहीं। शत शेष शारद निगम कबि तेउ तदपि पार न पावहीं॥२॥**
भाष्य

रावण की माया समाप्त होने पर वानर–भालु प्रसन्न हुए और सभी, वृक्ष तथा पर्वत हाथ में लेकर लौटे। भगवान्‌ श्रीराम फिर बाणों के समूह छोड़ने लगे और अनेक बार रावण के बाहु और सिर पृथ्वी पर गिरे। श्रीराम– रावण युद्धचरित्र को यदि अनेक शेष, अनेक शारदा, वेद तथा अनेक कविगण अनेक कल्पपर्यन्त गाते रहें, तब भी

[[८१२]]

वे पार नहीं पायेंगे अर्थात्‌ मात्र दो दिनों के द्वन्द्वयुद्ध में भगवान्‌ श्रीराम ने अनन्तकल्पी दिनों का समावेश कर दिया।

दो०– कहे तासु गुन गन कछुक, ज़डमति तुलसीदास।

**निज पौरुष अनुसार जिमि, मशक उड़ाहिं अकास॥१०१(क)॥ भा०– **उस श्रीराम–रावण समरचरित्र के कुछ गुणगण ज़डमति अर्थात्‌ ज़डबुद्धि वाले मुझ तुलसीदास ने उसी प्रकार कह दिया जैसे अपने पौरुष के अनुसार मच्छर भी आकाश में उड़ लेते हैं।

काटे सिर भुज बार बहु, मरत न भट लंकेश।

**प्रभु क्रीडत सुर सिद्ध मुनि, ब्याकुल देखि कलेश॥१०१(ख)॥ भा०– **बार–बार सिरों और भुजाओं के काटने पर भी वीर लंकापति रावण मर नहीं रहा है। प्रभु को रणक्रीड़ा करते हुए सामान्य दृष्टि से सम्भावित क्लेश को देखकर देवता, सिद्ध और मुनिजन व्याकुल होने लगे।

काटत ब़ढहि शीष समुदाई। जिमि प्रति लाभ लोभ अधिकाई॥ मरइ न रिपु श्रम भयउ बिशेषा। राम बिभीषन तनु तब देखा॥

भाष्य

प्रभु को काटते ही रावण के सिरसमूह उसी प्रकार ब़ढने लगे जैसे प्रत्येक लाभ के पश्चात्‌ लोभ ब़ढता जाता है। शत्रु मर नहीं रहा था भगवान्‌ श्रीराम को विशाल श्रम हो गया। तब भगवान्‌ श्रीराम ने विभीषण जी की ओर देखा।

**विशेष– **रावण का श्रीसीताविषयक ध्यान अनन्त बार स्वयं के सिरों के काटे जाने पर भी एक क्षण के लिए भी नहीं डिगा। अत: श्रीसीता जी रावण के हृदय से क्षण भर के लिए भी दूर नहीं हो सकीं, इसलिए भगवान्‌ श्रीराम, रावण के हृदय में बाण नहीं मार पाए। अतएव प्रभु ने उसे मारने का दूसरा विकल्प ढूँढा और विभीषण जी की ओर देखा।

उमा काल मर जाकी इच्छा। सो प्रभु कर जन प्रीति परिच्छा॥ सुनु सरबग्य चराचर नायक। प्रनतपाल सुर मुनि सुखदायक॥ नाभीकुण्ड सुधा बस याके। नाथ जियत रावन बल ताके॥

भाष्य

शिव जी पार्वती जी को सम्बोधित करते हुए कहते हैं कि हे उमा! काल भी जिनकी इच्छा से मर जाता है, वे ही सर्वशक्तिमान परमात्मा श्रीराम कभी–कभी अपने भक्त के प्रेम की परीक्षा करने लगते हैं। अथवा, वे प्रभु श्रीराम अपने भक्त विभीषण जी के प्रेम की परीक्षा कर रहे थे। विभीषण जी ने कहा, हे सर्वज्ञ! हे चर–अचर के स्वामी! हे शरणागतों के पालक! हे देवता और मुनियों के सुखदाता श्रीराम! सुनिये, इस रावण के नाभिकुण्ड में अमृत निवास करता है, हे नाथ! उसी के बल से रावण जी रहा है, अत: पहले अमृत–शोषण का उपाय किया जाये।

**सुनत बिभीषन बचन कृपाला। हरषि गहे कर बान कराला॥ अशुभ होन लागे तब नाना। रोवहिं खर शृगाल बहु श्वाना॥ बोलहिं खग जग आरति हेतू। प्रगट भए नभ जहँ तहँ केतू॥ दश दिशि दाह होन अति लागा। भयउ परब बिनु रबि उपरागा॥ मंदोदरि उर कंपति भारी। प्रतिमा स्रवहिं नयन मग बारी॥**

[[८१३]]

भाष्य

विभीषण जी के वचन सुनते ही कृपालु श्रीराम ने प्रसन्न होकर कराल अर्थात्‌ भयंकर आग्नेय बाण ले लिया। तब अनेक अशुभ होने लगे, गधे, गीदड़ और कुत्ते रोने लगे। संसार में आर्ति के कारण बने हुए भयंकर पक्षी बोलने लगे। आकाश में जहाँ–तहाँ केतु अर्थात्‌ पुच्छल तारे प्रकट हो गये। दसों दिशाओं में अत्यन्त ताप होने लगा। पर्व अर्थात्‌ अमावस्या और प्रतिपदा की संधि के बिना ही सूर्यग्रहण होने लगा। मन्दोदरी हृदय में अत्यन्त काँपने लगी और प्रतिमायें नेत्रों के मार्ग से जलस्राव करने लगीं अर्थात्‌ आँसू गिराने लगीं।

**छं०– प्रतिमा रुदहिं पबिपात नभ अति बात बह डोलति मही।**

बरषहिं बलाहक रुधिर कच रज अशुभ अति सक को कही॥ उतपात अमित बिलोकि नभ सुर बिकल बोलहिं जय जए। सुर सभय जानि कृपालु रघुपति चाप शर जोरत भए॥

भाष्य

प्रतिमायें रोने लगीं, आकाश में वज्रपात होने लगा, अत्यन्त वेग से वायु बहने लगा, पृथ्वी हिलने लगी, बादल रक्त, बाल और धूलि की वर्षा करने लगे। उस समय इतना अशुभ हुआ, जिसे कोई कह भी नहीं सकता। लंका में हो रहे इस असीम उत्पात को देखकर देवता व्याकुल होकर ‘जय–जयकार’ करने लगे। देवताओं को भयभीत जानकर, कृपालु श्रीराम ने धनुष की डोरी से बाण को जोड़ लिया।

**दो०– आकरषेउ धनु श्रवण लगि, छाँड़े शर एकतीस।**

रघुनायक सायक चले, मानहुँ काल फनीस॥१०२॥

भा०– प्रभु ने धनुष को कान तक खींचा और रावण के लिए एक साथ इकतीस बाण छोड़े। भगवान्‌ श्रीराम के बाण इस प्रकार चले, मानो वे साक्षात्‌ कालसर्प ही थे।

सायक एक नाभि सर शोषा। अपर लगे भुज सिर करि रोषा॥ ले सिर बाहु चले नाराचा। सिर भुज हीन रुंड महि नाचा॥

भाष्य

प्रभु के एक अर्थात्‌ आग्नेय बाण ने नाभिकुण्ड का अमृत सोख लिया और अपर अर्थात्‌ शेष तीस बाण क्रोध करके रावण के दसों सिर और बीसों भुजाओं में लगे। रावण के दसों सिर और बीसों भुजाओं को काटकर भगवान्‌ श्रीराम के बाण अपने साथ ले चले। दसों सिर और बीसों भुजा से हीन अर्थात्‌ रहित रावण का धड़ पृथ्वी पर नाच उठा।

**धरनि धसइ धर धाव प्रचंडा। तब शर हति प्रभु कृत दुइ खंडा॥ गर्जउ मरत घोर रव भारी। कहाँ राम रन हतौं पचारी॥**
भाष्य

जब रावण का प्रचण्ड धड़ दौड़ने लगा और पृथ्वी धँसने लगी, तब प्रभु ने बाण मारकर उसके दो टुक़डे कर दिये। मरते समय रावण भयंकर घोर शब्द में गरजा, राम कहाँ हैं, मैं ललकार कर उन्हें युद्ध में समाप्त करूँगा? वस्तुतस्तु मैं ललकार कर युद्धभूमि में उन्हीं को शरण रूप में प्राप्त कर लूँगा अर्थात्‌ उनकी शरण में जाऊँगा।

**विशेष– **हन्‌ धातु से पाणिनी ने हिंंसा और गति ये दो अर्थ कहे हैं, “***हन्‌** हिंसागत्यो: ***”\(पा०धा०पा० १०१२\)। ‘हतौं’ शब्द में हन्‌ धातु का गत्यर्थ स्वीकार करके कर्त्ता में भविष्यत्‌काल क्त प्रयोग किया गया है, जिसका अर्थ है शरण में जाना अर्थात्‌ युद्ध-स्थल में श्रीराम कहाँ हैं? आज मैं ललकार कर उन्हीं की शरण में जाऊँगा। इस दृष्टि से हतौं का अर्थ होगा जाऊँ अर्थात्‌ गच्छेयम्‌।

[[८१४]]

डोली भूमि गिरत दशकंधर। छुभित सिंधु सरि दिग्गज भूधर॥ धरनि परेउ द्वौ खंड ब़ढाई। चापि भालु मर्कट समुदाई॥

भाष्य

रावण के गिरते ही पृथ्वी डगमगा गई। समुद्र, तालाब, नदियाँ, दिशाओं के हाथी और पर्वत क्षुब्ध हो उठे। रावण का धड़ दो टुक़डों में श्रीराम के बाणों से दो टुक़डो में कटकर तथा फैलकर भालु और वानरों को अपने नीचे दबाकर पृथ्वी पर गिर पड़ा।

**मंदोदरि आगे भुज शीशा। धरि सर चले जहाँ जगदीशा॥ प्र्रबिशे सब निषंग महँ जाई। देखि सुरन दुंदुभी बजाई॥**
भाष्य

भगवान्‌ श्रीराम के बाण मन्दोदरी के आगे रावण की बीस भुजाओं और दसों सिर को रखकर, जहाँ जगत के ईश्वर भगवान्‌ श्रीराम थे वहाँ के लिए चल पड़े। सभी प्रभु के तरकस में जाकर प्रविष्ट हो गये। देखकर देवताओं ने नगारे बजाये।

**तासु तेज समान प्रभु आनन। हरषे देखि शंभु चतुरानन॥**
भाष्य

रावण का तेज प्रभु श्रीराम के मुख में समा गया, यह देख शिव जी और ब्रह्मा जी प्रसन्न हुए। जय जय धुनि पूरी ब्रह्मंडा। जय रघुबीर प्रबल भुजदंडा॥ बरषहिं सुमन देव मुनि बृंदा। जय कृपालु जय जयति मुकुंदा॥

भाष्य

हे प्रबल भुजदण्डवाले प्रभु श्रीराम! आपकी जय हो। इस प्रकार जय-जयकार की ध्वनि से ब्रह्माण्ड भर गया। देवता और मुनिवृन्द पुष्पों की वर्षा करने लगे तथा कहने लगे, हे कृपालु! आपकी जय हो। हे मोक्ष देनेवाले प्रभु श्रीराम! आप की जय हो…जय हो।

**छं०– जय कृपा कंद मुकुंद द्वंद्व हरन शरन सुखप्रद प्रभो।**

खल दल बिदारन परम कारन कारुनीक सदा बिभो॥ सुर सिद्ध मुनि गंधर्व हरषे बाजि दुंदुभि गहगही। संग्राम अंगन राम अंग अनंग बहु शोभा लही॥१॥

भाष्य

हे कृपा के मेघ! हे मुकुन्द! हे द्वन्द्वों को हरने वाले! हे शरणागतों के सुखदाता! हे प्रभु! हे खल-दल को नष्ट करने वाले! हे परम कारण! हे सदैव कारुणिक! हे सर्वव्यापक भगवान्‌ श्रीराम! आपकी जय हो। उस समय देवता, सिद्ध, मुनि, गन्धर्व प्रसन्न हुए। आकाश में गहगहे, नगारे बजने लगे और समरांगण में भगवान्‌ श्रीराम के श्रीअंगों ने अनेक कामदेवों की शोभा प्राप्त की।

**सिर जटा मुकुट प्रसून बिच बिच अति मनोहर राजहीं। जनु नीलगिरि पर ततिड़ पटल समेत उडुगन भ्राजहीं॥ भुजदंड शर कोदंड फेरत रुधिर कन तन अति बने। जनु रायमुनी तमाल पर बैठीं बिपुल सुख आपने॥२॥**
भाष्य

भगवान्‌ श्रीराम के सिर पर जटा का मुकुट और उसके बीच–बीच में अत्यन्त सुन्दर पुष्प ऐसे शोभित हो रहे थे, मानो मरकत मणि के पर्वत पर बिजलियों के समूह के सहित अनेक तारागण शोभित हो रहे हों। अपनी सुन्दर भुजाओं पर भगवान्‌ श्रीराम बाण और धनुष फेर रहे हैं, शरीर पर रक्त के कण (रावण के शरीर से निकले हुए) बहुत शोभित हो रहे हैं, मानो तमाल वृक्ष पर बहुत से रायमुनी नामक लाल पक्षी अपने आनन्द में बैठें हों।

**दो०– कृपादृष्टि करि बृष्टि प्रभु, अभय किए सुर बृंद।**

हरषे बानर भालु सब, जय सुख धाम मुकुंद॥१०३॥

[[८१५]]

भाष्य

अपनी कृपादृष्टि की वर्षा करके प्रभु श्रीराम ने सभी देवसमूहों को निर्भीक कर दिया। सभी वानर–भालु प्रसन्न हो गये और बोलने लगे, सुख के धाम और मुक्ति, भुक्ति दाता भगवान्‌ श्रीराम की जय।

**पति सिर देखत मंदोदरी। मुरछित बिकल धरनि खसि परी॥ जुबती बृंद रोवत उठि धाईं। तेहि उठाइ रावन पहँ आईं॥**
भाष्य

पति रावण का कटा सिर देखते ही मन्दोदरी मूर्च्छित होकर व्याकुलता के साथ पृथ्वी पर गिर पड़ी। रावण की युवति समूह रोती हुई उठकर दौड़ीं और मन्दोदरी को उठाकर रावण के पास आयीं।

**पति गति देखि ते करहिं पुकारा। छूटे चिकुर न बपुष सँभारा॥ उर ताड़ना करहिं बिधि नाना। रोवत करहिं प्रताप बखाना॥**
भाष्य

पति रावण की गति देखकर वे रावण की पत्नियाँ पुकार करने लगीं। उनके बाल छूट गये और उन्होंने अपने शरीर को नहीं सम्भाला, अनेक प्रकार से छाती पीटने लगीं तथा रोती–रोती रावण के प्रतापों का बखान करने लगीं।

**तव बल नाथ डोल नित धरनी। तेज हीन पावक शशि तरनी॥ शेष कमठ सहि सकहिं न भारा। सो तनु भूमि परेउ भरि छारा॥**
भाष्य

हे नाथ! आपके बल से पृथ्वी निरन्तर डोलती थी और अग्नि, चन्द्रमा तथा सूर्य तेजहीन हो चुके थे। शेष और कच्छप भगवान्‌ भी आपका भार नहीं सह पाते थे। वही आपका शरीर राख से भरा हुआ पृथ्वी पर पड़ा हुआ है।

**बरुन कुबेर सुरेश समीरा। रन सन्मुख धरि काहुँ न धीरा॥**

भुजबल जितेहु काल जम साईं। आजु परेहु अनाथ की नाईं॥

भाष्य

वरुण, कुबेर, इन्द्र, वायु कभी भी युद्ध में आपके सामने धैर्य धारण नहीं कर सकते थे। आपने अपने भुजबल से काल और यम को भी जीत लिया था। आज आप अनाथ की भाँति पृथ्वी पर पड़े हैं।

**जगत बिदित तुम्हारि प्रभुताई। सुत परिजन बल बरनि न जाई॥ राम बिमुख अस हाल तुम्हारा। रहा न कोउ कुल रोवनिहारा॥**
भाष्य

आपकी प्रभुता जगत्‌ में विदित थी, आपके पुत्रों और परिजनों का वर्णन नहीं किया जा सकता, परन्तु श्रीराम के विमुख होने से आज आपकी ऐसी परिस्थिति हुई कि कुल में कोई रोनेवाला भी नहीं रह गया।

**तव बश बिधि प्रपंच सब नाथा। सभय दिशिप नित नावहिं माथा॥ अब तव सिर भुज जंबुक खाहीं। राम बिमुख यह अनुचित नाहीं॥**
भाष्य

हे नाथ! यह सम्पूर्ण ब्रह्मा जी का प्रपंच आपके वश में था, दिग्पाल आपको भयभीत होकर निरन्तर मस्तक नवाते थे, अब आपके सिरों और भुजाओं को गीदड़ खा रहे हैं। श्रीराम के विमुख होने से यह कुछ भी अनुचित नहीं है।

**काल बिबश पति कहा न माना। अग जग नाथ मनुज करि जाना॥**
भाष्य

हे पति! आप काल के विवश होने के कारण कुछ भी कहा नहीं माने और आपने ज़ड अर्थात्‌ चित्‌–अचित्‌ वर्ग के स्वामी श्रीराम को मनुष्य करके समझा।

[[८१६]]

छं०– जान्यो मनुज करि दनुज कानन दहन पावक हरि स्वयम्‌।

जेहिं नमत शिव ब्रह्मादि सुर पिय भजेहु नहिं करुनामयम्‌॥ आजन्म ते परद्रोह रत पापौघमय तव तनु अयम्‌। तुमहूँ दियो निज धाम राम नमामि ब्रह्म निरामयम्‌॥

भाष्य

आपने राक्षस वन को जलाने के लिए अग्नि के समान स्वयं श्रीहरि को मनुष्य जाना। जिन्हें शिव जी, ब्रह्मा जी, विष्णु जी आदि देवता नमन करते हैं, ऐसे प्रचुर करुणा के स्थान प्रभु का आपने भजन नहीं किया। आपका यह शरीर जन्म के प्रारम्भ से ही परद्रोह में लगा हुआ और पाप के समूहों से युक्त था। आप जैसे सर्व साधनहीन राक्षस को भी भगवान्‌ ने अपना धाम दे दिया, ऐसे भवरोगों से रहित परब्रह्म परमात्मा श्रीराम को मैं नमन करती हूँ।

**दो०– अहह नाथ रघुनाथ सम, कृपासिंधु नहिं आन।**

जोगि बृंद दुर्लभ गति, तोहि दीन्ह भगवान॥१०४॥

भाष्य

अहह! आश्चर्य है, हे नाथ! श्रीरघुनाथ के समान कोई और कृपासिन्धु नहीं है, क्योंकि भगवान्‌ श्रीराम ने तुम्हें योगीवृन्दों के लिए भी दुर्लभ गति दे दी।

**मंदोदरी बचन सुनि काना। सुर मुनि सिद्ध सबनि सुख माना॥ अज महेश नारद सनकादी। जे मुनिबर परमारथबादी॥ भरि लोचन रघुपतिहिं निहारी। प्रेम मगन सब भए सुखारी॥**
भाष्य

मन्दोदरी के वचनों को अपने कानों से सुनकर देवता, मुनि और सिद्ध सभी ने सुख का अनुभव किया। ब्रह्मा जी, शिव जी, नारद जी, सनक, सनातन, सनन्दन, सनत्‌कुमार और भी जो परमार्थवादी अर्थात्‌ मोक्षतत्त्व के ज्ञाता श्रेष्ठमुनि थे, वे सभी रघुपति श्रीराम को भर नेत्र निहारकर प्रेम में मग्न और सुखी हो गये।

**रुदन करत बिलोकि सब नारी। गयउ बिभीषन मन दुख भारी॥ बंधु दशा देखत दुख कीन्हा। तब प्रभु अनुजहिं आयसु दीन्हा॥**
भाष्य

रोती हुई सभी रावणपत्नियों को देखकर मन में भारी दु:ख के साथ विभीषण जी वहाँ गये। बड़े भाई रावण की क्षत–विक्षत दशा देखते ही विभीषण जी ने बहुत शोक किया। तब प्रभु श्रीराम ने जीव-जगत मात्र के गुव्र् छोटे भैया लक्ष्मण जी को आज्ञा दी कि तुम विभीषण जी को परमात्मज्ञान देकर सांसारिक शोक से मुक्त करो।

**लछिमन जाइ ताहिं समुझायो। बहुरि बिभीषन प्रभु पहँ आयो॥ कृपादृष्टि प्रभु ताहि बिलोका। करहु क्रिया परिहरि सब शोका॥ कीन्ह क्रिया प्रभु आयसु मानी। बिधिवत देश काल जिय जानी॥**
भाष्य

श्रीलक्ष्मण जी ने जाकर उन विभीषण जी को समझाया और फिर विभीषण जी प्रभु के पास आ गये। प्रभु श्रीराम जी ने कृपादृष्टि से विभीषण जी को निहारा और कहा कि, हे विभीषण! सब शोक छोड़ रावण की अन्त्येष्टि क्रिया करो। प्रभु की आज्ञा मानकर हृदय में देश और काल समझकर विभीषण जी ने रावण का विधिवत्‌ द्विजाति संस्कार किया।

**विशेष– **भगवान्‌ श्रीराम जी की आज्ञा वाल्मीकि रामायण में इस प्रकार है– ***मरणान्तानि** वैराणि निवृत्तं न: प्रयोजनम्‌। क्रियतामस्य संस्कारो ममाप्येष यथा तव। ***\(वा० रा० ६/१११/१००\) अर्थात्‌ वैर मरणपर्यन्त ही

[[८१७]]

रहता है। मरने के पश्चात्‌ किसी से विरोध नहीं किया जाता, वह देवतुल्य हो जाता है। हमारा प्रयोजन सम्पन्न हो गया। अब रावण का द्विजोचित्‌ संस्कार करो, वह जैसा तुम्हारा है, वैसा मेरा भी है।

दो०– मयतनयादिक नारि सब, देइ तिलांजलि ताहि।

भवन गईं रघुपति गुन, गन बरनत मन माहि॥१०५॥

भाष्य

मयपुत्री मन्दोदरी आदि सभी रावण की विधवा पत्नियाँ उसे तिलांजलि देकर भगवान्‌ श्रीराम के गुणगणों को मन में वर्णन करते हुए लंका के राजभवन में चली गईं।

**आइ बिभीषन पुनि सिर नायो। कृपासिंधु तब अनुज बोलायो॥ तुम कपीश अंगद नल नीला। जामवंत मारुति नयशीला॥ सब मिलि जाहु बिभीषन साथा। सारेउ तिलक कहेउ रघुनाथा॥ पिता बचन मैं नगर न आवउँ। आपु सरिस कपि अनुज पठावउँ॥**
भाष्य

फिर आकर विभीषण जी ने प्रभु को मस्तक नवाया अर्थात्‌ यह सूचित किया कि मैंने आपकी आज्ञानुसार रावण का अन्तिम संस्कार सम्पन्न कर लिया, अब आगे क्या आज्ञा है? इसके पश्चात्‌ कृपा के सागर भगवान्‌ श्रीराम ने छोटे भैया लक्ष्मण जी को बुलाया और कहा, तुम अर्थात्‌ लक्ष्मण, सुग्रीव, अंगद, नल–नील, जाम्बवान और नीतिनिपुण हनुमान जी सभी मिलकर विभीषण के साथ जाओ और उन्हें राजतिलक कर दो। मैं पिताश्री के आदेश के कारण लंका नगर में नहीं आ रहा हूँ, परन्तु अपने ही समान अर्थात्‌ अपने प्रतिनिधि के रूप में सुग्रीव आदि वानरों और छोटे भैया लक्ष्मण को भेज रहा हूँ। इस प्रकार श्रीरघुनाथ जी ने आज्ञा दी।

**तुरत चले कपि सुनि प्रभु बचना। कीन्ही जाइ तिलक की रचना॥**

सादर सिंहासन बैठारी। तिलक सारि अस्तुति अनुसारी॥

जोरि पानि सबहीं सिर नाए। सहित बिभीषन प्रभु पहिं आए॥

भाष्य

प्रभु का आदेश सुनकर तुरन्त लक्ष्मण जी और सभी वानर विभीषण जी के साथ लंका चले गये और जाकर राजतिलक की व्यवस्था की। विभीषण जी को आदरपूर्वक लंका के राजसिंहासन पर बैठाकर उन्हें राजतिलक करके स्तुति भी की। सब ने लंकेश को हाथ जोड़कर मस्तक नवाया और लंकापति विभीषण जी के साथ फिर प्रभु श्रीराम के पास आ गये।

**तब रघुबीर बोलि कपि लीन्हे। कहि प्रिय बचन सुखी सब कीन्हे॥**

छं०– किए सुखी कहि बानी सुधा सम बल तुम्हारे रिपु हयो।

पायो बिभीषन राज तिहुँ पुर जस तुम्हारो नित नयो॥ मोहि सहित शुभ कीरति तुम्हारी परम प्रीति जो गाइहैं। संसार सिंधु अपार पार प्रयास बिनु नर पाइहैं॥

भाष्य

तब पाँचों वीरताओं से उपलक्षित रघुकुल के वीर भगवान्‌ श्रीराम ने सभी वानर–भालुओं को बुला लिया और प्रिय वचन कहकर सबको सुखी किया। अमृत के समान वाणी कहकर प्रभु श्रीराम ने सभी वानर–भालुओं को सुखी किया और बोले, हे मित्रों! तुम्हारे बल से और तुम्हारी ही सेना की सहायता से मैंने रावण जैसे दुर्धर्ष शत्रु को मार डाला। आप लोगों के ही पराक्रम से विभीषण ने लंका का राज्य पा लिया। आप लोगों का यश तीनों लोकों में नित्य–नवीन होकर छा रहा है। जो लोग पूज्यभाव के साथ भक्ति से मेरे सहित आप लोगों की कल्याणमयी कीर्ति गायेंगे, वे जीव बिना ही प्रयास के अपार संसार-सागर का पार पा जायेंगे।

[[८१८]]

दो०– सुनत राम के वचन मृदु, नहिं अघाहिं कपि पुंज।

**बारहिं बार बिलोकि मुख, गहहिं सकल पद कंज॥१०६॥ भा०– **भगवान्‌ श्रीराम के कोमल वचन सुनकर वानरसमूह तृप्त नहीं हो रहे हैं। वे सभी बारम्बार श्रीराघव सरकार का श्रीमुख निहारकर प्रभु के श्रीचरणकमलों को पक़ड लेते हैं।

पुनि प्रभु बोलि लियो हनुमाना। लंका जाहु कहेउ भगवाना॥ समाचार जानकिहिं सुनावहु। तासु कुशल लै तुम चलि आवहु॥

भाष्य

फिर सर्वसमर्थ प्रभु श्रीराम ने हनुमान जी को बुला लिया (उन्होंने कहा, तनि हेने आवऽऽ)। ऐश्वर्यादि छहों माहात्म्य से सम्पन्न भगवान्‌ श्रीराम ने कहा, हे आन्जनेय! लंका जाओ, जनकनन्दिनी श्रीसीता को सब समाचार सुनाओ और उनका कुशल समाचार लेकर तुम चले आओ।

**तब हनुमंत नगर महँ आए। सुनि निशिचरी निशाचर धाए॥ बहु प्रकार तिन पूजा कीन्ही। जनकसुता देखाइ पुनि दीन्ही॥**
भाष्य

तब हनुमान जी लंका नगर में आये, हनुमान जी का आगमन सुनकर राक्षसियाँ और राक्षस दौड़े उन्होंने बहुत प्रकार से हनुमान जी की पूजा की, फिर जनकनन्दिनी श्रीजानकी के दर्शन कराये।

**दूरिहिं ते प्रनाम कपि कीन्हा। रघुपति दूत जानकी चीन्हा॥ कहहु तात प्रभु कृपानिकेता। कुशल अनुज कपि सैन समेता॥**
भाष्य

दूर से ही हनुमान जी ने श्रीसीता को प्रणाम किया। श्रीजानकी ने श्रीरघुपतिदूत, हनुमान जी को पहचान लिया और पूछने लगीं, कहो भैया हनुमान! छोटे भैया लक्ष्मण और वानरी सेना के साथ कृपा के भवन सर्वसमर्थ प्रभु श्रीराघवेन्द्र सरकार कुशल से हैं अर्थात्‌ स्वस्थ हैं, युद्ध में प्रभु घायल तो नहीं हुए।

**सब बिधि कुशल कोसलाधीशा। मातु समर जीत्यो दशशीशा॥**

**अबिचल राज बिभीषन पायो। सुनि कपि बचन हरष उर छायो॥ भा०– **हनुामान जी ने उत्तर दिया, हे माताश्री! कोसलपुर के स्वामी श्रीरघुनाथ, सब प्रकार से कुशल हैं, उन्होंने युद्ध में दस सिरवाले रावण को जीत लिया है और विभीषण जी लंका का अचल राज्य पा गये हैं। हनुमान जी के वचन सुनकर भगवती श्रीसीता के हृदय में आनन्द छा गया।

छं०– अति हरष मन तन पुलक लोचन सजल कह पुनि पुनि रमा।

का देउँ तोहि त्रैलोक महँ कपि किमपि नहिं बानी समा॥ सुनु मातु मैं पायो अखिल जग राज आजु न संशयम्‌। रन जीति रिपुदल बंधु जुत पश्यामि राममनामयम्‌॥

भाष्य

भगवती जी के मन में अत्यन्त आनन्द हुआ, शरीर पुलकित हो गया, नेत्र आँसुओं से भर गये। रमा अर्थात्‌ रकार के वाच्य श्रीराम की ‘मा’ अर्थात्‌ शक्ति यानी भगवान्‌ श्रीराम की परमशक्ति श्रीसीता ने बार–बार कहा कि हे हनुमान! इस शुभ समाचार के उपलक्ष्य में मैं तुम्हें क्या दूँ? तीनों लोकों में इस वाणी के समान कुछ भी नहीं है। हनुमान जी बोले, हे माताश्री! सुनिये, आज मैंने सम्पूर्ण संसार का राज्य पा लिया, इसमें कोई सन्देह नहीं है, क्योंकि मैं युद्ध में शत्रुदल को जीते हुए, छोटे भाई लक्ष्मण जी के साथ विराजमान, जिन्हें इतने बड़े संग्राम में कोई भी घाव नहीं लगा, ऐसे स्वस्थ श्रीराम जी के दर्शन कर रहा हूँ अर्थात्‌ प्रभु की विजय प्राप्ति और उनकी स्वस्थता ही मेरी सबसे बड़ी उपलब्धि है।

[[८१९]]

दो०– सुनु सुत सदगुन सकल तव, हृदय बसहुँ हनुमंत।

सानुकूल कोसलपति, रहहुँ समेत अनंत॥१०७॥

भाष्य

फिर श्रीसीता जी बोलीं, हे पुत्र हनुमान! सुनो, सभी सद्‌गुण तुम्हारे हृदय में निवास करें और लक्ष्मण जी के सहित अयोध्यापति भगवान्‌ श्रीराघव जी तुम पर सानुकूल रहें अर्थात्‌ प्रभु तुमसे कभी प्रतिकूल न हों।

**अब सोइ जतन करहु तुम ताता। देखौं नयन श्याम मृदु गाता॥ तब हनुमान राम पहिं आये। जनकसुता कै कुशल सुनाये॥**
भाष्य

हे पुत्र! अब तुम वही यत्न करो, जिससे मैं श्यामल कोमल शरीरवाले प्रभु श्रीराघव सरकार के अपने नेत्रों से दर्शन कर लूँ। तब हनुमान जी भगवान्‌ श्रीराम जी के पास आये और जनकनन्दिनी श्रीसीता का कुशल समाचार तथा उनकी प्रभु के श्रीदर्शनों की प्र्रबल उत्कंठा सुनायी।

**सुनि बानी पतंग कुलभूषन। बोलि लिए जुबराज बिभीषन॥ मारुतसुत के संग सिधावहु। सादर जनकसुतहिं लै आवहु॥**
भाष्य

हनुमान जी की वाणी सुनकर, सूर्यकुल के अलंकार भगवान्‌ श्रीराम ने वानरों के युवराज अंगद जी और लंकापति विभीषण जी को बुला लिया और आज्ञा दी, तुम दोनों वायुपुत्र हनुमान जी के साथ जाओ और आदरपूर्वक जनकराजपुत्री सीता जी को ले आओ।

**तुरतहिं सकल गए जहँ सीता। सेवहिं सब निशिचरी बिनीता॥ बेगि बिभीषन तिनहिं सिखाये। सादर तिन सीतहिं अन्हवाये॥ बहु प्रकार भूषन पहिनाए। शिबिका रुचिर साजि पुनि ल्याए॥ ता पर हरषि च़ढी बैदेही। सुमिरि राम सुखधाम सनेही॥**
भाष्य

प्रभु की आज्ञा से सभी लोग जहाँ श्रीसीता विराज रही थीं, वहाँ तुरन्त गये। सभी राक्षसियाँ आदर भाव से श्रीसीता की सेवा कर रही थीं। विभीषण जी ने उन राक्षसियों को शिक्षा दी कि अब श्रीसीता बन्दी नहीं हैं। जब से लंका में पधारी हैं तभी से उन्होंने कोई नित्य–क्रिया नहीं की है अर्थात्‌ स्नान, जलपान आदि कुछ भी नहीं किया है, इन्हें स्नान कराओ। यह सुनकर राक्षसियों ने शीघ्रता से आदरपूर्वक श्रीसीता को स्नान कराया और बहुत प्रकार के आभूषण धारण कराये। फिर विभीषण जी सुन्दर पालकी सजाकर ले आये। वैदेही अर्थात्‌ श्रीसीता की परछायीं स्वरूपा माया की सीता जी हृदय में सुख के आश्रय, स्नेहास्पद श्रीराम का स्मरण करके उस पालकी पर प्रसन्न होकर चढीं अर्थात्‌ विराजमान हुईं।

**बेतपानि रक्षक चहुँ पासा। चले सकल मन परम हुलासा॥ देखन भालु कीस सब आए। रक्षक कोपि निवारन धाए॥**
भाष्य

श्रीसीता के चारों ओर हाथ में बेंत की छड़ी लिए हुए रक्षक चल पड़े। सभी के मन में परम उल्लास था। श्रीसीता के दर्शनों के लिए सभी भालु–वानर पास आ गये। रक्षक लोग क्रुद्ध होकर उन्हें रोकने के लिए दौड़े।

**कह रघुबीर कहा मम मानहु। सीतहिं सखा पयादे आनहु॥**

देखहुँ कपि जननी की नाईं। बिहँसि कहा रघुबीर गोसाईं॥ सुनि प्रभु बचन भालु कपि हरषे। नभ ते सुरन सुमन बहु बरषे॥

भाष्य

रघुकुल के वीर भगवान्‌ श्रीराम ने कहा, हे मित्र विभीषण! मेरी बात मान लीजिये, श्रीसीता को पालकी से उतारकर पैदल ले आइये। सभी वानर सीता जी को अपनी माँ के समान देखें अर्थात्‌ सभी रक्षकों को हटा दो।

[[८२०]]

कोई भी भालु–वानरों को श्रीसीता जी के दर्शनों से वंचित नहीं करे। सभी जीवों के प्रेरक और अखण्ड पृथ्वी के स्वामी भगवान्‌ श्रीराम ने इस प्रकार हँसकर कहा। प्रभु के वचन सुनकर भालु–बन्दर प्रसन्न हुए। देवताओं ने आकाश से बहुत से पुष्पों की वर्षा की।

सीता प्रथम अनल महँ राखी। प्रगट कीन्ह चह अंतर साखी॥

दो०– तेहि कारन करुनायतन, कहे कछुक दुर्बाद।

सुनत जातुधानी सब, लागीं करै बिषाद॥१०८॥

भाष्य

अन्तर्मन के साक्षी भगवान्‌ श्रीराम मायामयी सीता जी के हरण के पूर्व अग्नि में निवास करायी हुई वास्तविक श्रीसीता जनकनन्दिनी जी को अब प्रकट करना चाहते हैं। इसी कारण कव्र्णा के आयतन अर्थात्‌ मंदिर भगवान्‌ श्रीराम ने माया की सीता जी को कुछ दुर्बाद अर्थात्‌ दुर्बोध वचन कहे, जिन्हें सामान्य व्यक्ति नहीं समझ सकता। प्रभु के वचन सुनकर सभी राक्षसियाँ विषाद करने लगीं।

**प्रभु के बचन शीष धरि सीता। बोली मन क्रम बचन पुनीता॥ लछिमन होहु धरम के नेगी। पावक प्रगट करहु तुम बेगी॥**
भाष्य

मन, वाणी, शरीर से पवित्र माया की श्रीसीता प्रभु का आदेश सिर पर धारण करके बोलीं, हे लक्ष्मण! आज आप धर्म के नेगी हो जाइये अर्थात्‌ उपहार में धर्म ले लीजिये, आप शीघ्र अग्नि को प्रकट कीजिये।

**सुनि लछिमन सीता कै बानी। बिरह बिबेक धरम नय सानी॥ लोचन सजल जोरि कर दोऊ। प्रभु सन कछु कहि सकत न ओऊ॥**

**देखि राम रुख लछिमन धाए। पावक प्रगटि काठ बहु लाए॥ भा०– **विरह, विवेक, धर्म और नीति से सनी हुई श्रीसीता की वाणी सुनकर लक्ष्मण जी हाथ जोड़कर सजल नेत्र हो गये। वे भी उस समय भगवान्‌ श्रीराम के सन्मुख कुछ भी नहीं कह सक रहे थे। श्रीराम का इच्छासूचक संकेत देखकर लक्ष्मण जी दौड़े। वे अग्नि को प्रकट करके बहुत से काष्ठ अर्थात्‌ लकयिड़ों को ले आये।

प्रबल अनल बिलोकि बैदेही। हृदय हरष नहिं भय कछु तेही॥ जौ मन बच क्रम मम उर माहीं। तजि रघुबीर आन गति नाहीं॥ तौ कृशानु सब कै गति जाना। मो कहँ होउ श्रीखंड समाना॥

भाष्य

अग्नि को प्रबल देखकर माया की सीता जी हृदय में प्रसन्न हुईं, उन्हें किसी प्रकार का भय नहीं था। जनकनन्दिनी श्रीसीता जी के आवेश से माया की सीता जी बोलीं, हे अग्निदेव! यदि मन, वाणी और कर्म से मेरे हृदय में रघुकुल के वीर भगवान्‌ श्रीराम को छोड़कर कोई दूसरा पुरुष गति अर्थात्‌ गन्तव्य या आश्रय नहीं है तो सभी की मन:स्थिति जाननेवाले अग्निदेव आप मेरे लिए श्रीखण्ड के समान हो जाइये अर्थात्‌ मैं ‘श्री’ यानी जनकनन्दिनी जी का खण्ड यानी प्रतिबिम्ब हूँ, अत: उन्हीं के खण्ड के रूप में आप हो जाइये, अपना अग्निभाव छोड़कर चन्दन बन जाइये।

**छं०– श्रीखंड सम पावक प्रबेश कियो सुमिरि प्रभु मैथिली।**

जय कोसलेश महेश बंदित चरन रति अति निर्मली॥ प्रतिबिंब अरु लौकिक कलंक प्रचंड पावक महँ जरे।

**प्रभु चरित काहुँन लखे नभ सुर सिद्ध मुनि देखहिं खरे॥१॥ भा०– **जिनके श्रीचरणारविन्द की भक्ति अत्यन्त निर्मल है, ऐसे शिव जी द्वारा वन्दित अयोध्यापति भगवान्‌ श्रीराम की जय बोलकर, प्रभु श्रीराम और मिथिलेशनन्दिनी वास्तविक श्रीसीता को स्मरण करके, चन्दन के समान शीतल

[[८२१]]

अग्नि में माया की सीता जी ने प्रवेश किया। श्रीसीता जी का प्रतिबिम्ब और श्रीलक्ष्मण जी के प्रति कटुवचन कहने के कारण उन माया की श्रीसीता जी पर लगा हुआ लौकिक कलंक यह सब प्रचण्ड अग्नि में जरे अर्थात्‌ जल अथवा ज़ड हो गये। प्रभु श्रीराम जी के इस चरित्र को किसी ने नहीं लखा। यद्दपि आकाश में ख़डे हुए देवता, सिद्ध, मुनि सभी देख रहे थे।

छं०– तब अनल भूसुर रूप कर गहि सत्य श्री श्रुति बिदित जो।

जिमि छीर सागर इंदिरा रामहिं समर्पी आनि सो॥ सो राम बाम बिभाग राजति रुचिर अतिशोभा भली।

नव नील नीरज निकट मानहुँ कनक पंकज की कली॥२॥

भाष्य

इसके अनन्तर अग्निदेव ने ब्राह्मण का रूप धारण करके, जो वास्तविक जनकनन्दिनी श्रीसीता श्रुति में विदित हैं अर्थात्‌ ऋग्वेद के परिशिष्ट में वर्णित श्रीसूक्त में जिनका प्रसिद्ध गुणगान है, उन्हीं जनकनन्दिनी श्रीसीता का पुत्रीभाव से हाथ पक़डकर भगवान्‌ श्रीराम को उसी प्रकार समर्पित कर दिया, जैसे क्षीरसागर ने नारायण के हाथों में लक्ष्मी जी का समर्पण किया था। वह अग्नि से तत्काल प्रकट हुईं, अत्यन्त सुन्दर, अतिशय शोभावाली, भली अर्थात्‌ भद्रता की सीमा जनकनन्दिनी श्रीसीता भगवान्‌ श्रीराम के सुन्दर विशिष्ट वामभाग में इस प्रकार सुशोभित हो रही थीं, मानो नीले कमल के निकट स्वर्णकमल की कलिका शोभित हो रही हो।

**विशेष– **निकट का तात्पर्य यह है कि यहाँ भगवती श्रीसीता जी श्रीराम जी से मान कर बैठी हैं अर्थात्‌ ―ठ गई हैं, क्योंकि उनकी अनुपस्थिति में प्रभु ने अपनी बगल में माया की सीता जी को क्यों बैठाया?

दो०– हरषि सुमन बरषहिं बिबुध, बाजहिं गगन निसान।

**गावहिं किंनर सुरबधू, नाचहिं च़ढी बिमान॥१०९(क)॥ भा०– **देवता प्रसन्न होकर पुष्प बरसा रहे हैं, आकाश में नगारे बज रहे हैं, किन्नर गा रहे हैं और विमानों पर च़ढी हुई देववधुयें नाच रही हैं।

श्री जानकी समेत प्रभु, शोभा अमित अपार।

देखि भालु कपि हरषे, जय रघुपति सुख सार॥१०९(ख)॥

भाष्य

श्रीरुपिणी जानकी जी अर्थात्‌ साकेतलोक की श्रीसीता से अभिन्न जनकनन्दिनी के सहित प्रभु श्रीराम कि असीम और अपार शोभा को देखकर भालु–वानर प्रसन्न हुए और बोलने लगे, हे सुखों के परमतत्त्व रघुकुल के पति श्रीराम! आपकी जय हो।

**विशेष– **पूर्व दोहे की अंतिम पंक्ति से दोहा १०९, ख पर्यन्त कहे हुए विशेष सिद्धान्तों को जानने के लिए हमारे द्वारा निबद्ध “***तुम** पावक महँ करहु निवासा***” नामक मानस निबन्ध ग्रन्थ अवश्य पढि़ये।

तब रघुपति अनुशासन पाई। मातलि चलेउ चरन सिर नाई॥

भाष्य

तब रघुपति अर्थात्‌ प्राणिमात्र के पालक भगवान्‌ श्रीराम की आज्ञा पाकर इन्द्र का सारथी मातलि प्रभु की द्वन्द्वयुद्ध लीला में सारथी की भूमिका निभाकर प्रभु के श्रीचरणों में सिर नवाकर और इन्द्र का रथ लेकर इन्द्रलोक चला गया।

**आए देव सदा स्वारथी। बचन कहहिं जनु परमारथी॥**

[[८२२]]

भाष्य

इसके बाद ब्रह्मा जी, विष्णु जी, शिव जी, सूर्य, गणपति तथा कार्तिकेय इन छह भगवद्‌भक्त देवताओं को छोड़कर शेष, रुद्र, आदित्य, वसु, साध्य, सिद्ध, पितृदेवता, विद्दाधर, यक्ष, गन्धर्व, किन्नर, मरुत्‌, विश्वदेव, अश्विनी कुमार आदि सदैव अपने ही प्रयोजनों में लगे हुए तथा चन्द्र, नक्षत्र, ग्रह, अग्नि, वरुण, काल, यम, धर्म आदि सदैव स्वार्थसाधन में लगे हुए देवगण, स्वर्ग से उतरकर लंका के समरांगण में भगवान्‌ श्रीराम के पास आये। वे इस प्रकार वचन कहने लगे, मानो परमार्थवादी मोक्ष के चिन्तक, वीतराग ज्ञानी हों। देवताओं ने प्रभु श्रीराम द्वारा दस मुखवाले रावण का वध किये जाने पर श्रीराघव के श्रीचरणों में दस पंक्तियों की स्तुति प्रस्तुत की। अथवा, दस इन्द्रियों के देवताओं ने, किंवा दस दिग्पालों ने दस चौपाईयों में भगवान्‌ श्रीराम की स्तुति की, जो दिग्पाल पूर्वादि दिशाओं के क्रम से पूर्व के इन्द्र, पूर्व–दक्षिण कोण के अग्नि, दक्षिण के यम, दक्षिण–पश्चिम कोण के र्निॠति, पश्चिम के वरुण, पश्चिम–उत्तर के वायु, उत्तर के कुबेर और उत्तर–पूर्व के ईशान, पाताल के शेष और आकाश के विष्णु नाम से जाने जाते हैं।

**दीन बंधु दयालु रघुराया। देव कीन्ह देवन पर दाया॥**

बिश्व द्रोह रत यह खल कामी। निज अघ गयउ कुमारगगामी॥

भाष्य

देवता बोले, हे दीनबन्धु अर्थात्‌ दीनजनों के बान्धव, कुटुम्बिक पारिवारिक सदस्य यानी दीनों की प्रत्येक विपत्ति में साथ देनेवाले, हे दयालु! हे रघुकुल के राजा तथा रघु शब्द के वाच्यार्थ जीवों के राया अर्थात्‌ परमधन! हे देव श्रीरघुनाथ! आपने चारों वर्ण चारों वेद, चारों अश्व के द्रोही, जय, जलन्धर, रुद्रगण और प्रतापभानु की अवतारशक्ति से संयुक्त रावण को मारकर हम देवों पर बड़ी दया की है। हे भगवन्‌! विश्व का द्रोह करने वाला, खल-प्रकृतिवाला और निन्दित काम से युक्त कुमार्ग पर चलने वाला, यह दुष्ट रावण अपने ही पाप से चला गया। आप तो केवल निमित्त बने। रावण के पाप-परिणाम ने ही आपके बाण बनकर रावण का वध कर दिया।

**तुम समरूप ब्रह्म अबिनासी। सदा एकरस सहज उदासी॥**

अकल अगुन अज अनघ अनामय। अजित अमोघशक्ति करुनामय॥

भाष्य

हे प्रभु! आप समरूप हैं अर्थात्‌ आपका रूप सर्वत्र सामान्य रूप से विद्दमान है, अथवा, समता ही आपका स्वरूप है। आप ब्रह्म हैं अर्थात्‌ आपसे बड़ा कोई है ही नहीं। आप अविनाशी तत्त्व हैं, कोई आपका विनाश नहीं कर सकता। आप सदैव सामान्य रूप से आनन्दस्वरूप हैं और आपका रस अर्थात्‌ आनन्द एक यानी अद्वितीय है। आप स्वभाव से उदासीन अर्थात्‌ शत्रु–मित्र, सुख–दु:ख, प्रिय–अप्रिय, शीत–उष्ण आदि द्वन्द्वों से उदासीन अर्थात्‌ दूर रहते हैं। अथवा, आप उपरिआस्त अर्थात्‌ संसार की सभी मान्यताओं से ऊपर हैं। हे भगवन्‌! आप अकल अर्थात्‌ समस्त कलाओं को अव्यक्त रखकर ही विराजते हैं। आप प्राकृत सत्व, रजस, तमस नामक मायागुणों से परे हैं। आप अज अर्थात्‌ अजन्मा तथा ‘अ’ अर्थात्‌ विष्णु के ‘ज’ अर्थात्‌ जन्मदाता हैं। आप अनघ अर्थात्‌ पाप से रहित हैं। आप अनामय अर्थात्‌ संसार के आमयों यानी रोगों से रहित हैं तथा रावण के साथ संग्राम करने पर भी आप अनामय अर्थात्‌ आमयों (घावों) से दूर ही रहे। आप अजित हैं अर्थात्‌ किसी से भी नहीं जीते जा सकते हैं। आपकी शक्ति अमोघ है। आप करुणामय अर्थात्‌ प्रचुर करुणा से युक्त हैं।

__मीन कमठ सूकर नरहरी। बामन परशुराम बपु धरी॥जब जब नाथ सुरन दुख पायो। नाना तनु धरि तुमहिं नसायो॥

भाष्य

हे प्रभु! आपने ही मत्स्य, कच्छप, सूकर (वराह), नृसिंह, वामन तथा परशुराम जी का रूप धारण किया है। हे नाथ! जब–जब देवताओं ने असुरों से दु:ख पाया तब–तब आपने ही नाना शरीर धारण करके देवताओं के दु:ख दूर किये।

[[८२३]]

यह खल मलिन सदा सुरद्रोही। काम लोभ मद रत अति कोही॥ अधम शिरोमनि तव पद पावा। यह हमरे मन बिसमय आवा॥

भाष्य

हे रघुनाथ जी! यह रावण, प्रकृति से खल, मलों से युक्त, सदैव देवद्रोही, काम, लोभ और मद में लगा हुआ और उनमें अनुराग करने वाला, अत्यन्त क्रोधी तथा अधम प्राणियों का भी शिरोमणि था, फिर भी आपका पद अर्थात्‌ साकेतलोक पा गया। हमारे मन में यह बहुत–बड़ा आश्चर्य उत्पन्न हो आया है।

**हम देवता परम अधिकारी। स्वारथ रत प्रभु भगति बिसारी॥ भव प्रबाह संतत हम परे। अब प्रभु पाहि शरन अनुसरे॥**
भाष्य

इसके ठीक विपरीत हम देवताओं अर्थात्‌ देवयोनि में शरीर धारण करके भी, आपश्री की भक्ति के परम अधिकारी होकर भी, स्वार्थ में अनुराग करने के कारण, आप जैसे सर्वसमर्थ प्रभु की प्रेमलक्षणा भक्ति भूलकर सदैव भवसागर के प्रवाह में पड़े रहते हैं। हे प्रभु श्रीराघव! अब हमें भवशून्य में डूबने से बचा लीजिये। हमारी रक्षा कर लीजिये। अब हम आपके शरणागत हैं। आपकी शरणागति को अनुकूलता से स्वीकार कर रहे हैं। आपकी शरण में अनुसृत हैं अर्थात्‌ आये हैं।

**दो०– करि बिनती सुर सिद्ध सब, रहे जहँ तहँ कर जोरि।**

अति सप्रेम तन पुलकि बिधि, अस्तुति करत बहोरि॥११०॥

भाष्य

इस प्रकार से प्रभु श्रीराम की विनती अर्थात्‌ स्तुति एवं प्रार्थना करके सभी देवता और सिद्ध जहाँ–तहाँ हाथ जोड़कर चुपचाप ख़डे रहे। फिर अत्यन्त प्रेम से रोमांचित शरीर हुए ब्रह्मा जी भी भगवान्‌ श्रीराम की स्तुति करने लगे।

**छं०– जय राम सदा सुखधाम हरे। रघुनायक सायक चाप धरे॥**

भव बारन दारन सिंह प्रभो। गुन सागर नागर नाथ बिभो॥१॥

भाष्य

ब्रह्मा जी त्रोटक वृत्त में स्तुति करते हुए बोले, हे सुख के भवन! हे हरे! हे रघुकुल के स्वामी! हे बाण– धनुर्धारी! हे संसाररूप हाथी को विदीर्ण करने के लिए सिंहस्वरूप सर्वसमर्थ प्रभु! हे सद्‌गुणों के समुद्र! हे परम चतुर! हे नाथ! हे विभो अर्थात्‌ व्यापक और सम्पूर्ण द्रव्यों के साथ संयोग सम्बन्ध से विराजने वाले प्रभु श्रीराम! आप सदैव सर्वोत्कृष्ट रहें अर्थात्‌ आपकी सदैव जय हो।

**छं०– तन काम अनेक अनूप छबी। गुन गावत सिद्ध मुनींद्र कबी॥**

**जस पावन रावन नाग महा। खगनाथ जथा करि कोप गहा॥२॥ भा०– **हे भगवन्‌! आपके शरीर की अनेक कामदेवों के समान उपमारहित छवि है। सभी सिद्ध, श्रेष्ठमुनि तथा कवि अर्थात्‌ मनीषी और साहित्य रचनाधर्मी लोग आपके गुणों को गाते रहते हैं। आपका यश पावन है अर्थात्‌ सभी को पवित्र करता रहता है। आपने रावण रूप महासर्प को गव्र्ड़ जी की भाँति क्रोध करके पक़ड लिया और

मार डाला, ऐसे प्रभु श्रीराम! आपकी सदा ही जय हो।

छं०– जन रंजन भंजन शोक भयम्‌। गतक्रोध सदा प्रभु बोधमयम्‌॥

अवतार उदार अपार गुनम्‌। महि भार बिभंजन ग्यानघनम्‌॥३॥ अज ब्यापकमेकमनादि सदा। करुनाकर राम नमामि मुदा॥

**रघुबंश बिभूषन दूषन हा। कृत भूप बिभीषन दीन रहा॥४॥ भा०– **हे भक्तों को आनन्द देने वाले! शोक और भय को दूर करने वाले, क्रोध से रहित, ज्ञान की प्रचुरता से युक्त और ज्ञानस्वरूप उदार अवतारों वाले! अपार गुणों वाले, पृथ्वी का भार नष्ट करने वाले, ज्ञान के घनीभूत

[[८२४]]

विग्रह तथा ज्ञान के मेघस्वरूप, अजन्मा और ‘अ’ अर्थात्‌ विष्णु के भी जन्मदाता, सर्वव्यापक, एक अर्थात्‌ अद्वितीय तथा ‘ए’ यानी विष्णु को भी ‘क’ अर्थात्‌ सुख देनेवाले आदि से रहित, करुणा की खानि, ऐसे आप परब्रह्म परमात्मा भगवान्‌ श्रीराम को मैं ब्रह्मा प्रसन्नता के साथ सदा नमन करता हूँ। जो आप सूर्यकुल के विशिष्ट अलंकार हैं, जिन आपश्री ने दूषण अर्थात्‌ दोषों के आकार स्वरूप खर–दूषणों को युद्ध में मारा है। जो प्रथम अत्यन्त दीन अर्थात्‌ सभी अभावों से ग्रस्त थे उस विभीषण को जिन आपश्री ने लंका का राजा बना दिया, ऐसे आपश्री को मैं ब्रह्मा सदैव नमन करता हूँ।

छं०– गुन ग्यान निधान अमान अजम्‌। नित राम नमामि बिभुं बिरजम्‌॥

भुजदंड प्रचंड प्रताप बलम्‌। खल बृंद निकंद महा कुशलम्‌॥५॥ बिनु कारन दीन दयाल हितम्‌। छबि धाम नमामि रमा सहितम्‌॥ भव तारन कारन काज परम्‌। मन संभव दारुन दोष हरम्‌॥६॥

भाष्य

गुणों और ज्ञान के कोश, मानरहित, अज अर्थात्‌ सांसारिकों की भाँति न जन्म लेनेवाले, ऐसे ‘वि’ अर्थात्‌ विष्णु को ‘भू’ अर्थात्‌ जन्म देने वाले, विरज अर्थात्‌ रजोगुण से रहित तथा माया की धूलि से रहित। प्रचण्ड भुजाओं से सम्पन्न तथा प्रचण्ड भुजाओं के प्रताप और बल से सम्पन्न, दुष्ट समूहों के विनाश में अत्यन्त कुशल आप श्रीराम को मैं निरन्तर नमन करता हूँ। बिना किसी कारण के दीनों पर दया करने वाले और सबके हितैषी रमा अर्थात्‌ ‘रकार’ पद के वाच्य आपश्री की ‘मा’ अर्थात्‌ परम आह्लादिनी शक्ति भगवती श्रीसीता के साथ वर्तमान, छवि के आश्रय। संसार-सागर से तारने वाले, जगत के जन्म, स्थिति और प्रलय के कारण स्वरूप ब्रह्मा, विष्णु तथा शङ्कर से परे एवं उनके भी कारण रूप संसार से परे अथवा, निमित्तोपादान कारणों से तथा उनके द्वारा सृष्ट संसार के कार्य से परे, मन से उत्पन्न भयंकर दोषों को हरनेवाले, ऐसे आप श्रीराम को मैं ब्रह्मा प्रणाम करता हूँ।

**छं०– शर चाप मनोहर तून धरम्‌। जलजारुन लोचन भूपबरम्‌॥**

सुख मंदिर सुंदर श्रीरमनम्‌। मद मार मुधा ममता शमनम्‌॥७॥

भाष्य

धनुष–बाण और सुन्दर तरकस को धारण करने वाले, कमल के सामन सुन्दर और लाल नेत्रों वाले, श्रेष्ठ राजा, सुखों के मन्दिर, अत्यन्त सुन्दर, श्री अर्थात्‌ भगवती श्रीसीता को भी रमाने वाले तथा नित्य श्रीसीता में ही रमने वाले, मद, काम और झूठी सांसारिक ममता को नष्ट कर देने वाले, ऐसे आप भगवान्‌ श्रीराम को मैं ब्रह्मा निरन्तर नमन करता हूँ।

**छं०– अनवद्द अखंड न गोचर गो। सब रूप सदा सब होइ न सो॥**

इति बेद बदंति न दंतकथा। रबि आतप भिन्नमभिन्न जथा॥८॥

भाष्य

हे प्रभु! आप अनवद्द अर्थात्‌ निन्दारहित हैं, आप अखण्ड हैं अर्थात्‌ कोई आपका खण्डन नहीं कर सकता। आप न तो इन्द्रियों के विषय हैं और न इन्द्रिय हैं। आप सदैव सर्वरूप हैं, परन्तु वह सब आप नहीं हैं अर्थात्‌ उससे भी आप विलक्षण हैं। तात्पर्य यह है कि विभूति की दृष्टि से पृथ्वी आदि पंचभूत, शब्दादि पंचतन्मात्रायें यह सब आप हैं, परन्तु परमार्थत: यह सब आपका अंश है। आपका शुद्धस्वरूप अपरिणामी है। आप जगत से सूर्य और सूर्य की किरण की भाँति भिन्न भी हैं और अभिन्न भी अर्थात्‌ सूर्य और किरण को सम्बन्ध में बाँधना एकता है, पर किरण सूर्य नहीं हो सकता और सूर्य किरण नहीं हो सकता। यह वेद कहते हैं, कोई दन्तकथा अर्थात्‌ दाँतों से ग़ढी हुई कपोल कल्पित कथा नहीं है।

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छं०– कृतकृत्य बिभो सब बानर ए। निरखंति तवानन सादर जे॥

धिग जीवन देव शरीर हरे। तव भक्ति बिना भव भूलि परे॥९॥ अब दीनदयाल दया करिये। मति मोरि बिभेदकरी हरिये॥

जेहि ते बिपरीत क्रिया करिये। दुख सो सुख मानि सुखी चरिये॥१०॥

भाष्य

हे प्रभु! जो आदरपूर्वक आपका श्रीमुख निहार रहे हैं, ये वानर कृतकृत्य हैं अर्थात्‌ इन्होंने अपने सम्पूर्ण कर्त्तव्य पूरे कर लिए। हे हरे! हमारे देवशरीर को धिक्कार है, क्योंकि हम आपकी भक्ति के बिना ही संसार सागर में भूले पड़े हैं। हे दीनों पर दया करनेवाले प्रभु! मेरी विशिष्ट भेद उत्पन्न करने वाली और उसके कारण स्वरूप भ्रमबुद्धि को दूर कर दीजिये, जिस बुद्धि से विपरीत क्रिया की जा रही है और दु:ख को भी सुख मानकर अर्थात्‌ दु:खरूप संसार को सुखरूप समझकर, दु:खी होकर भी सुख की आशा में हम भटक रहे हैं। तात्पर्य यह है कि भक्ति में हमें भेद स्वीकार है, पर बुद्धि में अभेद अर्थात्‌ संसार को आप श्रीराम का रूप मानकर उसकी मैं भगवद्‌बुद्धि से सेवा कर सकूँ। भक्ति में सेवक-सेव्यभावमूलक स्वरूप से भेद हो और बुद्धि में सम्बन्ध निबन्धन अभेद हो।

**छं०– खल खंडन मंडल रम्य छमा। पद पंकज सेवित शंभु उमा॥**

**नृप नायक दे बरदानमिदम्‌। चरनांबुज प्रेम सदा शुभदम्‌॥११॥ भा०– **हे दुष्टों को नष्ट करने वाले! हे पृथ्वी के आभूषण! हे रमणीय! हे शिव जी तथा पार्वती जी द्वारा सेवित श्रीचरणकमल! हे राजाओं के भी राजा, राजाधिराज महाराज भगवान्‌ श्रीराम! सदैव सभी शुभमंगलों को देने वाला

आपके श्रीचरणकमलों का प्रेम मुझे निरन्तर प्राप्त होता रहे, मुझे यही वरदान दे दीजिये।

दो०– बिनय कीन्ह विधि भाँति बहु, प्रेम पुलक अति गात।

**शोभासिंधु बिलोकत, लोचन नहीं अघात॥१११॥ भा०– **प्रेम से अत्यन्त पुलकित शरीर वाले ब्रह्मा जी ने चारों मुख से भगवान्‌ श्रीराम की अनेक प्रकार से स्तुति की। शोभा के सागर भगवान्‌ श्रीराम को निहारते हुए ब्रह्मा जी के आठों नेत्र तृप्त नहीं हो रहे थे।

तेहि अवसर दसरथ तहँ आए। तनय बिलोकि नयन जल छाए॥ अनुज सहित प्रभु बंदन कीन्हा। आशिरबाद पिता तब दीन्हा॥

भाष्य

उसी समय समरांगण में इन्द्र के सहित महाराज दशरथ जी आ गये। अपने पुत्र श्रीराम, लक्ष्मण और पुत्रवधू श्रीसीता जी को देखकर महाराज के नेत्रों में अश्रु भर आये। छोटे भाई लक्ष्मण जी के सहित श्रीसीताराम जी ने पिता को वन्दन किया तब पिताश्री ने आशीर्वाद दिया।

**विशेष– **यहाँ प्रभु शब्द श्रीराम एवं श्रीसीता दोनों का वाचक है तथा *प्रभ्वि** च प्रभुश्च इति प्रभु *इस प्रकार से विग्रह करके *“पुमान्‌** स्त्रिया”*, \(पा०अ० १.२.६७.\) द्वारा प्रभ्वि शब्द का लोप होने से एकशेष की विधा से सीताराम दोनों का अर्थवाचक हो गया। अथवा, “***अग्नौअधीयत्‌** इति हिता सीता तया सह वर्तमान इति सहित:***” अर्थात्‌ जिन्हें प्रभु श्रीराम ने राक्षस-वध से पूर्व अग्नि में वास दिया और जो प्रभु की परमहितैषिणी हैं उन श्रीसीता जी को संस्कृत में हिता कहा जाता है, उन्हीं हिता यानी सीता जी के साथ वर्तमान भगवान्‌ श्रीराम को यहाँ सहित कहा गया है। अत: प्रभु ने अनुज यानी छोटे भाई लक्ष्मण जी के साथ तथा सहित अर्थात्‌ पूर्व में अग्नि में निवास करके अभी–अभी अग्नि से प्रकट हुईं नित्य हितैषिणी सीता जी के साथ पूज्य पिताजी को वन्दन किया।

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तात सकल तव पुन्य प्रभाऊ। जीत्यो अजय निशाचर राऊ॥

**सुनि सुत बचन प्रीति अति बा़ढी। नयन सलिल रोमावलि ठा़ढी॥ भा०– **भगवान्‌ श्रीराम ने कहा, हे पिताश्री! यह सब आपके पुण्य का प्रभाव है, जिससे मैंने अजेय राक्षसराज रावण को जीत लिया। पुत्र श्रीराम के वचन सुनकर चक्रवर्ती दशरथ जी के मन में अत्यन्त प्रीति ब़ढ गयी। नेत्र सजल हो उठे और रोमावलियाँ ख़डी हो गईं।

रघुपति प्रथम प्रेम बश जाना। चितइ पितहि दीन्हेउ दृ़ढ ग्याना॥ ताते उमा मोक्ष नहिं पायो। दशरथ भेद भगति मन लायो॥ सगुनोपासक मोक्ष न लेहीं। तिन कहँ राम भगति निज देहीं॥ बार बार करि प्रभुहिं प्रनामा। दशरथ हरषि गए सुरधामा॥

भाष्य

भगवान्‌ श्रीराम ने पिताश्री को प्रथम प्रेम अर्थात्‌ श्रेष्ठ वात्सल्यभाव से युक्त प्रेम के वश में जाना और अपनी कृपामय दृष्टि से निहारकर पिताश्री को दृ़ढ ज्ञान दे दिया। हे पार्वती! प्रभु के ज्ञान देने पर भी दशरथ जी इसलिए मोक्ष नहीं पाये, क्योंकि उन्होंने भेदभक्ति अर्थात्‌ सेव्य–सेवकभाव सम्बन्धमूलक भगवद्‌भक्ति में मन लगा रखा था। सगुणब्रह्म के उपासक मोक्ष नहीं लेते, उन्हें भगवान्‌ श्रीराम अपनी भक्ति दे देते हैं। भगवान्‌ श्रीराम को बारम्बार प्रणाम करके महाराज दशरथ जी प्रसन्न होकर सुरधाम अर्थात्‌ देवताओं को भी जिससे प्रकाश मिलता है, ऐसे साकेतधाम को चले गये।

**विशेष– “*सुरा**: देवा: तेभ्यो धाम प्रकाश: यस्मात्‌ तत्‌ सुरधाम ***”अर्थात्‌ देवताओं को भी जिससे प्रकाश मिलता है उस साकेत धाम को यहाँ सुरधाम कहा गया है।

दो०– अनुज जानकी सहित प्रभु, कुशल कोसलाधीश।

शोभा देखि हरषि मन, अस्तुति कर सुर ईश॥११२॥

भाष्य

छोटे भाई लक्ष्मण जी और भगवती श्रीसीता के सहित सकुशल अयोध्यापति भगवान्‌ श्रीराम की शोभा देखकर देवताओं के राजा इन्द्र मन में प्रसन्न होकर श्रीरघुनाथ जी की स्तुति करने लगे।

**विशेष– **अयोध्या को संस्कृत में कोसला भी कहते हैं।

छं०– जय राम शोभा धाम। दायक प्रनत बिश्राम॥

धृत तूण बर शर चाप। भुजदंड प्रबल प्रताप॥१॥

भाष्य

हे शोभा के धाम! हे शरणागतों को विश्राम देने वाले! हे तरकस, श्रेष्ठ बाण और धनुष धारण करने वाले, प्रबल प्रताप से युक्त भुजदण्ड वाले प्रभु श्रीराम! आपकी जय हो।

**जय दूषनारि खरारि। मर्दन निशाचर धारि॥**

यह दुष्ट मारेउ नाथ। भए देव सकल सनाथ॥२॥

भाष्य

हे दूषण के शत्रु! हे खर राक्षस के शत्रु! हे राक्षसी सेना को मारने वाले प्रभु श्रीराम! आपकी जय हो। हे नाथ! आपने इस दुष्ट रावण को मार डाला इससे सम्पूर्ण देव सनाथ हो गये।

**जय हरन धरनी भार। महिमा उदार अपार॥ जय रावनारि कृपाल। किए जातुधान बिहाल॥३॥ लंकेश अति बल गर्ब। किए बश्य सुर गंधर्ब॥ मुनि सिद्ध नर खग नाग। हठि पंथ सब के लाग॥४॥**

[[८२७]]

भाष्य

हे पृथ्वी का भार हरण करने वाले! हे उदार तथा अपार महिमा वाले! रावण के शत्रु कृपालु श्रीराम! आपकी जय हो। आपने राक्षसों को बिहाल अर्थात्‌ विह्वल कर दिया। लंकापति रावण अत्यन्त बल और गर्व से युक्त था, उसने देवता और गन्धर्वों को अपने वश में कर लिया था। मुनि, सिद्ध, देवता, पक्षी और नाग इन सबके मार्ग में हठपूर्वक लग जाता था अर्थात्‌ रावण सबका मार्ग रोक लेता था।

**विशेष– **बिहाल शब्द विह्वल शब्द का अपभ्रंश है।

परद्रोह रत अति दुष्ट। पायो सो फल पापीष्ट॥ अब सुनहु दीन दयाल। राजीव नयन बिशाल॥५॥ मोहि रहा अति अभिमान। नहिं कोउ मोहि समान॥ अब देखि प्रभु पद कंज। गत मान प्रद दुख पुंज॥६॥

भाष्य

परद्रोह में लगा हुआ और पापियों को ही इष्ट मानने वाला अत्यन्त पापी वह रावण भी परमपद को प्राप्त हो गया। हे विशाल लाल कमल के समान नेत्रवाले दीनों पर दयालु भगवान्‌ श्रीराम! अब सुनिये, प्रथम मुझ इन्द्र को बहुत अभिमान था कि मेरे समान संसार में कोई नहीं है, परन्तु अब आप प्रभु श्रीराम के श्रीचरणकमलों को देखकर दु:ख समूहों को देने वाला मेरा अभिमान चला गया।

**कोउ ब्रह्म निर्गुन ध्याव। अब्यक्त जेहिं श्रुति गाव॥ मोहि भाव कोसल भूप। श्रीराम सगुन सरूप॥७॥**
भाष्य

भले कोई उस हेय गुणों से रहित अव्यक्त प्रभु का ध्यान करता हो, जिसे वेद इन्द्रियों से परे कहकर गाते हैं, परन्तु मुझे तो सगुण-साकार अयोध्यापति आप श्री राजा राम ही भाते हैं।

**बैदेहि अनुज समेत। मम हृदय करहु निकेत॥ मोहि जानिये निज दास। दे भक्ति रमानिवास॥८॥**
भाष्य

विदेहनन्दिनी श्रीसीता और लक्ष्मण जी के सहित आप श्रीराम मेरे हृदय में निवास कीजिये। मुझे अपना दास जान लीजिये और हे श्रीसीता के भी निवास स्थान प्रभु श्रीराम! मुझे अपनी भक्ति दे दीजिये।

**छं०– दे भक्ति रमानिवास त्रास हरन शरन सुखदायकम्‌।**

सुख धाम राम नमामि काम अनेक छबि रघुनायकम्‌॥ सुर बृंद रंजन द्वंद भंजन मनुज तनु अतुलितबलम्‌। ब्रह्मादि शङ्कर सेब्य राम नमामि करुना कोमलम्‌॥

भाष्य

हे रमानिवास अर्थात्‌ परमआह्लादिनी शक्ति श्रीसीता के निवास स्थान श्रीराम! आप अपनी भक्ति दीजिये। मैं त्रासों को हरण करने वाले, शरणागतों को सुख देने वाले, सुखों के धाम, अनेक कामों की छवि को धारण करने वाले रघुकुल के नायक आपश्री राम जी को नमन करता हूँ। देवतासमूहों को आनन्द देने वाले, द्वन्द्वों को नष्ट करने वाले, अतुलित बल वाले, ब्रह्मा जी और शिव जी के सेव्य, करुणा के कारण कोमल, ऐसे मानव शरीरधारी

आप श्रीराम को मैं नमन करता हूँ।

दो०– अब करि कृपा बिलोकि मोहि, आयसु देहु कृपाल।

काह करौं सुनि प्रिय बचन, बोले दीनदयाल॥११३॥

[[८२८]]

भाष्य

इन्द्र ने कहा, हे प्रभु श्रीराम! अब कृपा करके, मुझे देखकर अर्थात्‌ अपनी कृपादृष्टि से निहारकर आप आज्ञा दीजिये। मैं आपकी कौन–सी सेवा करूँ? इस प्रकार इन्द्र के प्रिय वचन सुनकर दीनों पर दया करने वाले भगवान्‌ श्रीराम बोले–

**सुनु सुरपति कपि भालु हमारे। परे भूमि निशिचरनि जे मारे॥ मम हित लागि तजे इन प्राना। सकल जियाउ सुरेश सुजाना॥**
भाष्य

हे देवराज इन्द्र! सुनिये, जिन्हें राक्षसों ने मारा, ऐसे हमारे वानर और भालु पृथ्वी पर पड़ गये हैं। इन्होंने मेरे हित के लिए अपने प्राण छोड़ दिये हैं, हे चतुर इन्द्र! इन सबको जीवित कर दीजिये।

**सुनु खगपति प्रभु कै यह बानी। अति अगाध जानहिं मुनि ग्यानी॥ प्रभु सक त्रिभुवन मारि जियाई। केवल शक्रहिं दीन्ह बड़ाई॥**
भाष्य

हे गरुड़ देव! सुनिये, भगवान्‌ श्रीराम की यह वाणी अत्यन्त अगाध अर्थात्‌ गम्भीर है। इसे ज्ञानीमुनि ही जान सकते हैं। प्रभु श्रीराम तीनों लोकों को मारकर जीवित कर सकते हैं। उनके लिए वानरों को जीवित करना कोई कठिन नहीं था, वे तो केवल इन्द्र को बड़प्पन देना चाह रहे थे।

**सुधा बरषि कपि भालु जियाए। हरषि उठे सब प्रभु पहिं आए॥ सुधाबृष्टि भै दुहुँ दल ऊपर। जिए भालु कपि नहिं रजनीचर॥**
भाष्य

इन्द्र ने अमृत की वर्षा करके सभी रणभूमि में मरे हुए वानर–भालुओं को जीवित कर दिया। वे सब प्रसन्न होकर उठे और प्रभु श्रीराम के पास आ गये। दोनों अर्थात्‌ श्रीराम–रावणदल के ऊपर अमृत की वर्षा हुई, परन्तु भालु–वानर तो जीवित हो उठे, किन्तु राक्षस नहीं जीवित हुए।

**रामाकार भए तिन के मन। गए परमपद तजि शरीर रन॥ सुर अंशक सब कपि अरु ऋच्छा। जिए सकल रघुपति की इच्छा॥**
भाष्य

राक्षसों के मन श्रीरामाकार हो गये थे अर्थात्‌ श्रीराम का चिन्तन करते–करते राक्षसों के मन में श्रीराम का आकार यानी रूप आ गया था, इसलिए युद्ध में शरीर छोड़कर राक्षस परमपद को प्राप्त हो गये थे। इधर सभी वानर और भालु देवताओं के अंश से उत्पन्न हुए थे, इसलिए भगवान्‌ श्रीराम की इच्छा से ये सब जीवित हो उठे।

**राम सरिस को दीन हितकारी। कीन्हे मुकुत निशाचर झारी॥ खल मल धाम काम रत रावन। गति पाई जो मुनिवर पाव न॥**
भाष्य

श्रीराम के समान दीनों का हितकारी और कौन होगा, जिन्होंने सम्पूर्ण राक्षसों को मुक्त कर दिया? जो मलों के आश्रय, काम, भोग में लगा हुआ खल प्रकृति का था, वह रावण भी वह गति पा गया जिसे श्रेष्ठ मुनि भी नहीं पाते।

**दो०– सुमन बरषि सब सुर चले, चढि़ चढि़ रुचिर बिमान।**

देखि सुअवसर राम पहिं, आयउ शंभु सुजान॥११४(क)॥ परम प्रीति कर जोरि जुग, नलिन नयन भरि बारि।

**पुलकित तन गदगद गिरा, बिनय करत त्रिपुरारि॥११४(ख)॥ भा०– **सभी देवता पुष्पों की वर्षा करके सुन्दर विमानों पर च़ढकर अपने–अपने लोक चले गये। तब सुन्दर अवसर देखकर चतुर शिव जी भगवान्‌ श्रीराम के पास आये। परमप्रेम के साथ दोनों हाथ जोड़कर कमल नेत्रों में

[[८२९]]

आँसू भरकर रोमांचित शरीर होकर गद्‌गद वाणी से त्रिपुरासुर के शत्रु भगवान्‌ श्रीशङ्कर प्रभु श्रीराम से विनय करने लगे।

मामभिरक्षय रघुकुल नायक। धृत बर चाप रुचिर कर सायक॥ मोह महा घन पटल प्रभंजन। संशय बिपिन अनल सुर रंजन॥ अगुन सगुन गुन मंदिर सुंदर। भ्रम तम प्रबल प्रताप दिवाकर॥ काम क्रोध मद गज पंचानन। बसहु निरंतर जन मन कानन॥

भाष्य

श्री शिव जी बोले, हे रघुकुल के नायक! हे श्रेष्ठ धनुष और सुन्दर बाणों को हाथ में धारण करने वाले! हे श्रीराघवेन्द्र सरकार! मेरी अभीय् तथा अभित: अर्थात्‌ काम और क्रोध नामक दोनों शत्रुओं से रक्षा कीजिये। अथवा, हे रघुकुल के स्वामी भगवान्‌ श्रीराम! हाथ में धारण किये हुए श्रेष्ठ धनुष और सुन्दर बाणों द्वारा मेरी रक्षा कराइये। हे मोहरूप विशाल बादलसमूहों के वायु अर्थात्‌ जिस प्रकार वायु बादलों को तितर–बितर कर देता है, उसी प्रकार महामोह समूहों को नष्ट करने वाले! हे संशयरूप वन के लिए अग्निस्वरूप! हे देवताओं को आनन्द देने वाले प्रभु श्रीराम! आप मेरी रक्षा कीजिये। हे निर्गुण और सगुण सभी श्रेष्ठ गुणों के मन्दिर, स्वभाव से सुन्दर, भ्रमरूप अन्धकार को नय् करने के लिए प्रबल प्रताप वाले सूर्य! हे काम, क्रोध, मद रूप हाथियों को नष्ट करने के लिए सिंंह के समान श्रीराम! आप भक्तों के मनरूप वन में निरन्तर निवास कीजिये।

**बिषय मनोरथ पुंज कंज बन। प्रबल तुषार उदार पार मन॥ भव बारिधि मंदर परमन्दर। बारय तारय संसृति दुस्तर॥**
भाष्य

विषयों के मनोरथरूप कमल वन को नष्ट करने के लिए प्रबल हिमपात स्वरूप (पाला), मन से परे, भवसागर को मथने के लिए मन्दराचल के समान हे प्रभु श्रीराम! संसारभाव के कारण अतरनीय, इस बहुत–बड़े कष्ट से हमको तार दीजिये और बहुत–बड़े भय को समाप्त कर दीजिये।

**श्याम गात राजीव बिलोचन। दीन बंधु प्रनतारति मोचन॥ अनुज जानकी सहित निरंतर। बसहु राम नृप मम उर अंतर॥**
भाष्य

हे श्यामल शरीर वाले! हे लाल कमल के समान विमल नेत्रों वाले! हे दीनबन्धु! हे प्रणतों का कष्ट दूर करने वाले! हे राजाराम! आप लक्ष्मण जी और सीता जी के साथ मेरे हृदय में निरन्तर वास कीजिये।

**मुनि रंजन महि मंडल मंडन। तुलसीदास प्रभु त्रास बिखंडन॥**

दो०– नाथ जबहिं कोसलपुरी, होइहि तिलक तुम्हार।

कृपासिंधु मैं आउब, देखन चरित उदार॥११५॥

भाष्य

हे मुनियों को आनन्दित करने वाले तथा सम्पूर्ण पृथ्वीमण्डल को अलंकृत करने वाले! हे प्रभु! हे मुझ तुलसीदास के त्रास को नष्ट करने वाले! आप मेरी रक्षा कीजिए। इस प्रकार स्तुति करके शिवजी फिर बोले-हे कृपा के सागर श्रीरघुनाथ! जब आपका श्रीअयोध्या में राजतिलक होगा, तब मैं आपके उदार चरित्र को देखने आऊँगा।

**करि बिनती जब शंभु सिधाए। तब प्रभु निकट बिभीषन आए॥ नाइ चरन सिर कह मृदु बानी। बिनय सुनहु प्रभु सारंगपानी॥**
भाष्य

जब प्रभु श्रीराम की स्तुति करके शिवजी कैलाश पधार गये तब विभीषण जी प्रभु श्रीराम के निकट आ गये और प्रभु के श्रीचरणों में मस्तक नवाकर कोमल वाणी में बोले, हे शार्ङ्गपाणे प्रभु! एक मेरी प्रार्थना सुनिये।

**सकुल सदल प्रभु रावन मार्‌यो। पावन जस त्रिभुवन बिस्तार्‌यो॥ दीन मलीन हीन मति जाती। मो पर कृपा कीन्ह बहु भाँती॥**

[[८३०]]

भाष्य

हे प्रभु! आपने परिवार और दल के सहित रावण का वध किया और तीनों लोकों में अपने पवित्र यश का विस्तार किया। हे प्रभु! सभी साधनों से हीन, मल से युक्त और सब प्रकार से दीन और जाति से भी निकृष्ट मुझ विभीषण पर आपने सब प्रकार से कृपा की है।

**अब जन गृह पुनीत प्रभु कीजे। मज्जन करिय समर श्रम छीजे॥ देखि कोश मंदिर संपदा। देहु कृपालु कपिन कहँ मुदा॥**
भाष्य

हे प्रभु श्रीराम! अब मुझ दास का घर पवित्र कीजिये, स्नान कर लीजिये जिससे युद्ध का श्रम समाप्त हो जाये। हे कृपालु! लंका के कोष, मन्दिर और सम्पत्ति का निरीक्षण करके आप प्रसन्नतापूर्वक वानरों को उपहार दीजिये।

**सब बिधि नाथ मोहि अपनाइय। पुनि मोहि सहित अवधपुर जाइय॥ सुनत बचन मृदु दीनदयाला। सजल भए द्वौ नयन बिशाला॥**
भाष्य

हे नाथ! मुझे सब प्रकार से स्वीकार कीजिये, फिर मेरे सहित अयोध्या प्रस्थान कीजिये। विभीषण जी के कोमल वचन सुनकर दीनदयाल श्रीराम के विशाल दोनों नेत्र आँसुओं से भर गये। प्रभु बोले–

**दो०– तोर कोश गृह मोर सब, सत्य बचन सुनु भ्रात।**

**दशा भरत की सुमिरि मोहि, निमिष कलप सम जात॥११६(क)॥ भा०– **हे विभीषण भैया! यह सत्य वचन सुनिये, आपका कोष और गृह यह सब मेरा ही है, परन्तु भरत की दशा का स्मरण करते हुए मुझे एक–एक क्षण कल्प के समान बीत रहा है।

तापस बेष शरीर कृश, जपत निरंतर मोहि।

देखौं बेगि सो जतन करू, सखा निहोरउँ तोहि॥११६(ख)॥

भाष्य

भरत का वेश तपस्वियों जैसा है, उनका शरीर दुर्बल हो गया है, वे निरन्तर मेरा ही अर्थभावना के साथ स्मरण कर रहे हैं, मैं शीघ्र उन्हें देख सकूँ वही यत्न कीजिये। हे मित्र! मैं बार–बार आपसे निहोरा कर रहा हूँ।

**बीते अवधि जाउँ जौ, जियत न पावउँ बीर।**

प्रीति भरत की सुमिरि प्रभु, पुनि पुनि पुलक शरीर॥११६(ग)॥

भाष्य

यदि मैं चौदह वर्ष बीतने पर अयोध्या जाता हूँ तब अपने भैया भरत को जीवित नहीं पाऊँगा। भरत की प्रीति का स्मरण करके प्रभु श्रीराम के शरीर में बारम्बार रोमांच हो रहा है।

**करहु कलप भरि राज तुम, मोहि सुमिरेहु मन माहिं।**

पुनि मम धाम सिधायिहहु, जहाँ संत सब जाहिं॥११६(घ)॥

भाष्य

हे विभीषण! तुम एक कल्पपर्यन्त राज्य करो। मन में मेरा स्मरण करते रहना। फिर तुम मेरे उसी धाम को जाओगे जहाँ सभी सन्त जाते हैं।

**सुनत बिभीषन बचन राम के। हरषि गहे पद कृपाधाम के॥ बानर भालु सकल हरषाने। गहि प्रभु पद गुन बिमल बखाने॥**
भाष्य

श्रीराम के वचन सुनकर विभीषण जी ने प्रसन्न होकर कृपा के भवन भगवान्‌ श्रीराम के श्रीचरण पक़ड लिए और सभी वानर–भालु भी बहुत प्रसन्न हुए। पुन: प्रभु के श्रीचरण पक़डकर उनके निर्मल गुणों का बखान किया।

**बहुरि बिभीषन भवन सिधायो। मनि गन बसन बिमान भरायो॥ लै पुष्पक प्रभु आगे राखा। हँसि करि कृपासिंधु तब भाखा॥**

[[८३१]]

भाष्य

फिर विभीषण जी लंका के राजभवन में गये और पुष्पक विमान में मणियों के समूह और वस्त्रों को भरवाया। पुष्पक विमान ले आकर प्रभु के आगे रख दिया, तब कृपा के सागर भगवान्‌ श्रीराम ने हँसकर कहा–

**चढि़ बिमान सुनु सखा बिभीषन। गगन जाइ बरषहु पट भूषन॥ नभ पर जाइ बिभीषन तबहीं। बरषि दिए मनि अंबर सबहीं॥**
भाष्य

हे मित्र विभीषण! सुनिये, विमान पर च़ढ आकाश में जाकर वस्त्रों और आभूषणों की वर्षा कीजिये। उसी समय आकाश में जाकर विभीषण जी ने सबके लिए मणियों और वस्त्रों की वर्षा कर दी अर्थात्‌ ऊपर से फेंककर सभी वानर–भालुओं को वस्त्र दे दिये।

**जोइ जोइ मन भावइ सोइ लेहीं। मनि मुख मेलि डारि कपि देहीं॥**

**हँसे राम श्री अनुज समेता। परम कौतुकी कृपा निकेता॥ भा०– **जिसको–जिसको जो–जो मन भा रहा है, वानर–भालु वही वस्त्र और वही मणि ले रहे हैं। वानर मणियों को मुँह में भरकर फिर उगल देते हैं। परमकौतुकी अर्थात्‌ खेल के रसिक कृपा के मन्दिर भगवान्‌ श्रीराम, श्रीसीता एवं लक्ष्मण जी के साथ वानरों की यह लीला देखकर हँसने लगे।

दो०– मुनि जेहि ध्यान न पावहिं, नेति नेति कह बेद।

कृपासिंधु सोइ कपिन सन, करत अनेक बिनोद॥११७(क)॥

भाष्य

हे पार्वती! जिन्हें मुनि लोग ध्यान में भी नहीं प्राप्त कर पाते और वेद ‘नेति–नेति’ कहकर जिनका गुणगान करते हैं। वे ही कृपा के सागर भगवान्‌ श्रीराम आज वानरों से अनेक विनोद कर रहे हैं।

**उमा जोग जप दान तप, नाना मख ब्रत नेम।**

राम कृपा नहिं करहिं तसि, जसि निष्केवल प्रेम॥११७(ख)॥

भाष्य

हे पार्वती! योग, जप, दान, तप नाना प्रकार के यज्ञ, व्रत और नियमों से भी भगवान्‌ श्रीराम वैसी कृपा नहीं करते जैसी कि, शुद्धप्रेम से कृपा कर देते हैं।

**भालु कपिन पट भूषन पाए। पहिरि पहिरि रघुपति पहिं आए॥ नाना जिनिस देखि सब कीसा। पुनि पुनि हँसत कोसलाधीसा॥**
भाष्य

भालु और वानर विभीषण जी से प्राप्त किये हुए वस्त्र और आभूषण पहन–पहनकर रघुपति भगवान्‌ श्रीराम के पास आ गये। नाना प्रकार के रंग–बिरंगे वस्त्र और आभूषण धारण किये हुए सभी वानरों को देखकर अयोध्यापति भगवान्‌ श्रीराम बारम्बार हँस रहे हैं।

**चितइ सबनि पर कीन्ही दाया। बोले मृदुल बचन रघुराया॥ तुम्हरे बल मैं रावन मार्‌यो। तिलक बिभीषन कहँ पुनि सार्‌यो॥ निज निज गृह अब तुम सब जाहू। सुमिरेहु मोहि डरपहु जनि काहू॥ सुनत बचन प्रेमाकुल बानर। जोरि पानि बोले सब सादर॥**
भाष्य

सभी लोगों को कृपादृष्टि से देखकर प्रभु ने दया की। फिर रघुकुल के राजा भगवान्‌ श्रीराम कोमल वाणी में बोले, हे वानर भाइयों! हमने तुम्हारे ही बल से रावण को मारा। पुन: विभीषण जी को लंका का राज्यतिलक दे दिया। अब तुम लोग अपने–अपने घर जाओ। मेरा स्मरण करते रहना और किसी से भी मत डरना। प्रभु का यह वचन सुनकर प्रेम में अकुलाये हुए वानर–भालु हाथ जोड़कर आदरपूर्वक बोले–

[[८३२]]

प्रभु जोइ कहहु तुमहिं सब सोहा। हमरे होत बचन सुनि मोहा॥ दीन जानि कपि किए सनाथा। तुम त्रैलोक ईश रघुनाथा॥

भाष्य

हे प्रभु! आप जो कह रहे हैं, वह सब आपके लिए शोभित हो रहा है, पर आपका यह वचन सुनकर हमें तो मोह हो रहा है। हे प्रभु! हे तीनों लोकों के ईश्वर! हे रघुनाथ जी! हम वानरों को दीन जानकर आप ने सनाथ कर दिया अर्थात्‌ स्वयं हमारे स्वामी बनकर हमें नष्ट होने से बचा लिया।

**सुनि प्रभु बचन लाज हम मरहीं। मशक कबहुँ खगपति हित करहीं॥ देखि राम रुख बानर ऋच्छा। प्रेम मगन नहिं गृह कै इच्छा॥**
भाष्य

हम तो आपका वचन सुनकर लज्जा से मरे जा रहे हैं। कभी छोटे मच्छर पक्षियों के राजा गव्र्ड़ जी का हित कर सकते हैं? भगवान्‌ श्रीराम का रुख देखकर वानर और भालु प्रेम में मग्न हो गये। उन्हें घर जाने की इच्छा नहीं रही।

**दो०– प्रभु प्रेरित कपि भालु सब, राम रूप उर राखि।**

**हरष बिषाद सहित चले, बिनय बिबिध बिधि भाखि॥११८(क)॥ भा०– **प्रभु श्रीराम से प्रेरित होकर, हृदय में श्रीराम के ―प को स्थापित करके, अनेक प्रकार से प्रार्थना के शब्द बोलकर, प्रभु के कार्य से प्रसन्नता और प्रभु के वियोग से विषाद के साथ सभी वानर-भालु अपने–अपने घरों को चल पड़े।

कपिपति नील रीछपति, अंगद नल हनुमान।

सहित बिभीषन अपर जे, जूथप कपि बलवान॥११८(ख)॥ कहि न सकहिं कछु प्रेम बश, भरि भरि लोचन बारि।

**सन्मुख चितवहिं राम तन, नयन निमेष निवारि॥११८(ग)॥ भा०– **सुग्रीव, नील, जाम्बवान, अंगद, नल, हनुमान जी और भी विभीषण जी के सहित जो यूथपति बलवान बन्दर थे, वे नेत्रों में आँसू भर–भरकर प्रेम के वश में होने के कारण प्रभु से कुछ भी नहीं कह सक रहे थे और अपने नेत्रों के पलकों को रोककर सन्मुख होकर भगवान्‌ श्रीराम के श्रीविग्रह को निहार रहे थे।

अतिशय प्रीति देखि रघुराई। लीन्हे सकल बिमान च़ढाई॥ मन महँ बिप्र चरन सिर नायो। उत्तर दिशिहिं बिमान चलायो॥

भाष्य

भगवान्‌ श्रीराम ने वानरों की अतिशय प्रीति देखकर, सबको विमान पर च़ढा लिया। मन में ही ब्राह्मणों के चरणों को प्रणाम किया और प्रभु ने उत्तर दिशा की ओर विमान चलाने की आज्ञा दी।

**चलत बिमान कोलाहल होई। जय रघुबीर कहैं सब कोई॥**
भाष्य

विमान के चलते समय कोलाहल हो रहा है, सभी वानर–भालु ‘जय रघुवीर…जय रघुवीर’ कह रहे हैं। सिंहासन अति उच्च मनोहर। श्री समेत प्रभु बैठे ता पर॥

**राजत राम सहित बर भामिनि। मेरु शृंग पर जनु घन दामिनि॥**
भाष्य

उस पुष्पक विमान में एक सुन्दर ऊँचा सिंहासन है, उस पर श्रीसीता के सहित भगवान्‌ श्रीराम बैठ गये। श्रेष्ठपत्नी श्रीसीता जी के साथ भगवान्‌ श्रीराम सिंहासन पर उसी प्रकार शोभित हो रहे हैं, मानो सुमेरु पर्वत के शिखर पर बादल और बिजली विराजमान हो रहे हों।

[[८३३]]

रुचिर बिमान चलेउ अति आतुर। कीन्ही सुमन बृष्टि हरषे सुर॥ परम सुखद चलि त्रिबिध बयारी। सागर सर सरि निर्मल बारी॥

भाष्य

सुन्दर पुष्पक विमान अत्यन्त शीघ्रता से चला। देवता प्रसन्न हुए और उन्होंने पुष्पवृष्टि की, अथवा प्रसन्न हुए देवताओं ने पुष्पवृष्टि की। अत्यन्त सुख देने वाली तीनों प्रकार की शीतल मन्द सुगन्ध बयार (वायु) चलने लगी। समुद्र, नदी और तालाबों के जल निर्मल हो गये। चारों ओर से सुन्दर शकुन होने लगे, सबका मन प्रसन्न हो उठा और आकाश दिशा अत्यन्त निर्मल हो गई।

**कह रघुबीर देखु रन सीता। लछिमन इहाँ हत्यो इंद्रजीता॥ हनूमान अंगद के मारे। रन महि परे निशाचर भारे॥ कुंभकरन रावन द्वौ भाई। इहाँ हते सुर मुनि दुखदाई॥**
भाष्य

भगवान्‌ श्रीराम ने कहा, हे सीते! युद्धस्थल देखो, लक्ष्मण ने यहाँ मेघनाद को मारा है और यह देखो वीर हनुमान और अंगद के द्वारा मारे हुए बड़े-बड़े राक्षस युद्धभूमि में पड़े हैं और यहाँ देवता और मुनियों को दु:ख देने वाले कुम्भकर्ण और रावण मारे गये।

**विशेष– **इस प्रसंग में राजशेखरकृत *बालरामायणम्‌** *का यह श्लोक बहुत ही रोचक और मननीय है–

अत्रासीत्‌ फणिपाशबन्धनविधि: शक्त्या भवद्‌देवरे। गा़ढं वक्षसि ताडिते हनुमता द्रोणाद्रिरत्राहृत:॥ दिव्यैरिन्द्रजिदत्रलक्ष्मणशरैर्लोकान्तरं प्रापित:। केनाप्यत्र मृगाक्षि राक्षसपते: कृत्ता च कंठाटवी॥

भगवान्‌ श्रीराम कहते हैं कि हे सीते! यहीं पर मेघनाद ने मुझे नागपाश में बाँधा और यहीं पर तुम्हारे देवर लक्ष्मण को शक्ति लगी और यहाँ पर हनुमान द्रोणाचल पर्वत के साथ संजीवनी बूटी ले आए। यहाँ देखो, लक्ष्मण ने अपने दिव्य बाणों से मेघनाद को वीरगति प्राप्त करायी और यहाँ देखो, किसी के द्वारा राक्षसराज रावण के कण्ठों का समूह काटा गया।

दो०– इहाँ सेतु बाँध्यो अरु, थापेउँ शिव सुख धाम।

सीता सहित कृपानिधि, शंभुहिं कीन्ह प्रनाम॥११९(क)॥

भाष्य

यहाँ सेतुबन्ध हुआ और मैंने सुखों के भवन शिव जी की स्थापना की। कृपानिधि श्रीराम ने श्रीसीता के साथ भगवान्‌ रामेश्वर को प्रणाम किया।

**जहँ जहँ कृपासिंधु बन, कीन्ह बास बिश्राम।**

सकल देखाए जानकिहिं, कहे सबनि के नाम॥११९(ख)॥

भाष्य

कृपासिन्धु भगवान्‌ श्रीराम ने जहाँ–जहाँ वास और विश्राम किया था श्रीसीता को सब दिखाया और सब के नाम कहे।

**सपदि बिमान तहाँ चलि आवा। दंडक बन जहँ परम सुहावा॥ कुंभजादि मुनिनायक नाना। गए राम सब के अस्थाना॥**
भाष्य

पुष्पक विमान शीघ्र वहाँ चला आया जहाँ परम सुहावना दण्डक वन है। भगवान्‌ श्रीराम, कुम्भज आदि नाना मुनियों तथा उन से अतिरिक्त और भी सभी महर्षियों के स्थान पर गये।

[[८३४]]

सकल ऋषिन सन पाइ अशीशा। चित्रकूट आए जगदीशा॥ तहँ करि मुनिन केर संतोषा। चला बिमान तहँ ते चोखा॥

भाष्य

सम्पूर्ण मुनियों से आशीर्वाद पाकर जगत के ईश्वर श्रीराम श्रीचित्रकूट आये। वहाँ सम्पूर्ण मुनियों को सन्तुष्ट करके वहाँ से भी सुन्दर विमान आगे चल पड़ा।

**बहुरि राम जानकिहिं देखाई। जमुना कलि मल हरनि सुहाई॥ पुनि देखी सुरसरी पुनीता। राम कहा प्रनाम करु सीता॥**
भाष्य

फिर भगवान्‌ श्रीराम ने श्रीसीता को कलियुग को मल के नष्ट करने वाली सुहावनी यमुना जी के दर्शन कराये। फिर प्रभु श्रीसीताराम जी ने पवित्र गंगा जी के दर्शन किये। भगवान्‌ श्रीराम ने कहा, हे सीते! गंगा जी को प्रणाम करो।

**तीरथपति पुनि देखु प्रयागा। निरखत जन्म कोटि अघ भागा॥ देखु परम पावनि पुनि बेनी। हरनि शोक हरि लोक निसेनी॥ पुनि देखु अवधपुरी अति पावनि। त्रिबिध ताप भव रोग नसावनि॥**
भाष्य

हे सीते! फिर तीर्थराज प्रयाग को देखो, जिसके दर्शन करते ही करोड़ों जन्म के पाप भाग जाते हैं। फिर शोक को नष्ट करने वाली हरि अर्थात्‌ मुझ श्रीराम के लोक की सी़ढी के समान परमपवित्र त्रिवेणी जी के दर्शन करो। फिर अत्यन्त पवित्र तीनों प्रकार के तापों और रोगों को नष्ट करने वाली श्रीअवधपुरी को निहारो।

**दो०– तब रघुनायक श्री सहित, अवधहिं कीन्ह प्रनाम।**

**सजल बिलोचन पुलकि तनु, पुनि पुनि हरषित राम॥१२०(क)॥ भा०– **तब भगवान्‌ श्रीराम ने श्री जी के साथ श्रीअवध को प्रणाम किया। भगवान्‌ श्रीराम के नेत्र बार–बार सजल हो रहे थे। उनके शरीर में पुलक था और वे पुन:–पुन: प्रसन्न हो रहे थे।

पुनि प्रभु आइ त्रिबेनी, हरषित मज्जन कीन्ह।

कपिन सहित बिप्रन कहँ, दान बिबिध बिधि दीन्ह॥१२०(ख)॥

भाष्य

फिर प्रभु श्रीराम ने आकर प्रसन्न होकर त्रिवेणी में स्नान किया और वानरों के साथ तीर्थ पुरोहित ब्राह्मणों को अनेक प्रकार के दान दिये।

**विशेष– **वनवास से प्रत्यागमन के समय प्रभु श्रीराम के पास लीला की दृष्टि से कुछ भी नहीं बचा रहा होगा, फिर किस स्रोत से आये हुए धन का उन्होंने तीर्थ पुरोहितों को दान किया? इसका उत्तर यही है कि भगवान्‌ श्रीराम को मनाने के लिए ब्राह्मणवेशधारी समुद्र, स्वर्ण के थाल में बहुत से मणिगण ले आया था, उसी का यहाँ भगवान्‌ श्रीराम ने दान किया। यथा- “***कनक** थार भरि मनि गन नाना। विप्र रूप आयउ तजि माना॥ ***”\(मानस ५- ८-५८\)

प्रभु हनुमंतहिं कहा बुझाई। धरि बटु रूप अवधपुर जाई॥ भरतहिं कुशल हमारि सुनाएहु। समाचार लै तुम चलि आएहु॥

भाष्य

प्रभु श्रीराम ने हनुमान जी को समझाकर कहा, हे आञ्जनेय! आप ब्राह्मण ब्रह्मचारी का वेश बनाकर श्रीअवधुपर जाइए, भरत को मेरा कुशल समाचार सुनाइए और उनका समाचार लेकर शीघ्र चले आइए।

**तुरत पवनसुत गवनत भयऊ। तब प्रभु भरद्वाज पहँ गयऊ॥**

नाना बिधि मुनि पूजा कीन्ही। अस्तुति करि पुनि आशिष दीन्ही॥

[[८३५]]

भाष्य

हनुमान जी तुरन्त चल पड़े। तब श्रीराम भरद्वाज जी के पास गये। महर्षि ने नाना प्रकार से पूजा की और स्तुति करके फिर आशीर्वाद दिया।

**मुनि पद बंदि जुगल कर जोरी। चढि़ बिमान प्रभु चले बहोरी॥ इहाँ निषाद सुना प्रभु आए। नाव नाव कहि लोग बोलाए॥**
भाष्य

भरद्वाज जी के युगल चरणों की वन्दना करके, दोनों हाथ जोड़कर प्रभु ने अनुमति माँगी और विमान पर च़ढकर फिर चले। यहाँ निषादराज ने सुना कि प्रभु आ गये हैं, उन्होेंने ‘नाव–नाव’ अर्थात्‌ नौका लाओ–नौका लाओ कहकर लोगों को बुला लिया।

**सुरसरि नाँघि यान तब आयो। उतरेउ तट प्रभु आयसु पायो॥ तब सीता पूजी सुरसरी। बहु प्रकार पुनि चरननि परी॥ दीन्ह अशीष हरषि मन गंगा। सुंदरि तव अहिवात अभंगा॥**
भाष्य

तब विमान गंगा को लाँघकर इस पार आ गया और प्रभु की आज्ञा पाकर विमान तट पर उतरा। फिर श्रीसीता ने पूर्वप्रतिज्ञा के अनुसार गंगा जी की पूजा की और पुन: बहुत प्रकार से उनके चरणों में पड़ीं। गंगा जी ने मन में प्रसन्न होकर आशीर्वाद दिया, हे सुन्दरी! तुम्हारे सौभाग्य का कभी भंग न हो अर्थात्‌ नाश न हो।

विशेष

सीता जी के पूजा करते समय गंगा जी सगुण साकार दिव्य-नारी के वेश में सीता जी के समक्ष उपस्थित हुईं तभी सीता जी का गंगा जी के चरणों पर पड़ना और गंगा जी का भी अपनी व्यक्त वाणी में भगवती मैथिली को अखण्ड सौभाग्यवती रहने का आशीर्वाद संभव हो सका। अन्यथा जलमय गंगा के चरणों पर सीता जी कैसे प्रणाम कर सकतीं।

सुनत गुहउ धायउ प्रेमाकुल। आयउ निकट परम सुख संकुल॥ प्रभुहिं सहित बिलोकि बैदेही। परेउ अवनि तन सुधि नहिं तेही॥

भाष्य

शंृगबेरपुर के गंगा तट पर प्रभु का आगमन सुनकर निषादराज गुह भी प्रेम से आकुल होकर दौड़े और परमसुख से युक्त होकर भगवान्‌ श्रीराम के पास आ गये। प्रभु श्रीराम, लक्ष्मण को सीता जी के सहित देखकर निषादराज पृथ्वी पर पड़ गये। उन्हें अपने शरीर की सुधि नहीं रही।

**प्रीति परम बिलोकि रघुराई। हरषि उठाइ लियो उर लाई॥**
भाष्य

निषादराज की श्रेष्ठ प्रीति देखकर रघुकुल के राजा भगवान्‌ श्रीराम ने उन्हें प्रसन्नता से उठा लिया और हृदय से लगा लिया।

**छं०– लियो हृदय लाइ कृपा निधान सुजान राय रमापती।**

बैठारि परम समीप बूझी कुशल सो कर बीनती॥ अब कुशल पद पंकज बिलोकि बिरंचि शङ्कर सेब्य जे। सुख धाम पूरन काम राम नमामि राम नमामि ते॥१॥

भाष्य

कृपा के कोष और परमचतुरों के शिरोमणि भगवान्‌ श्रीराम ने निषादराज को हृदय से लगा लिया। अत्यन्त समीप बिठाकर कुशल समाचार पूछा तब निषादराज ने प्रार्थना की। हे प्रभु! जो ब्रह्मा जी और शिव जी के भी सेव्य हैं, ऐसे आपश्री के श्रीचरणकमलों को देखकर अब सब कुछ कुशल है। हे सुख के भवन! हे पूर्णकाम! मैं आपश्री को अनुकूल करने के लिए बारम्बार नमन करता हूँ।

[[८३६]]

सब भाँति अधम निषाद सो हरि भरत ज्यों उर लाइयो। मतिमंद तुलसीदास सो प्रभु मोह बश बिसराइयो॥ यह रावनारि चरित्र पावन राम पद रतिप्रद सदा। कामादिहर बिग्यानकर सुर सिद्ध मुनि गावहिं मुदा॥२॥

भाष्य

सब प्रकार से निषाद जैसे अधम को जिन प्रभु श्रीराम जी ने श्रीभरत जी के समान हृदय से लगाया, मन्दबुद्धि मुझ तुलसीदास ने उन्हीं प्रभु को मोहवश होकर भुला दिया। यह रावणशत्रु भगवान्‌ श्रीराम का परम पावन चरित्र सदैव श्रीराम के श्रीचरणकमल की भक्ति प्रदान करने वाला, कामादि विकारों का हरण करने वाला, विशिष्ट ज्ञान को उत्पन्न करने वाला है। रावण के शत्रु भगवान्‌ श्रीराम जी का यह चरित्र प्रसन्नतापूर्वक देवता, मुनि और सिद्ध गा रहे हैं तथा गायेंगे।

**दो०– समर बिजय रघुबीर के, चरित जे सुनहिं सुजान।**

**बिजय बिबेक बिभूति नित, तिनहिं देहिं भगवान॥१२१(क)॥ भा०– **इस प्रकार भगवान्‌ श्रीराम जी के समर विजय अर्थात्‌ श्रीराम–रावणयुद्ध विजय चरित्र को जो चतुर लोग सुनते हैं और सुनेंगे, उन्हें भगवान्‌ श्रीराम निरन्तर विजय, विवेक और विभूति प्रदान करते रहेंगे।

यह कलिकाल मलायतन, मन करि देखु बिचार।

श्रीरघुनाथ नाम तजि, नहिं कछु आन अधार॥१२१(ख)॥

भाष्य

अरे मन! विचार करके तो देख यह कलियुग का काल, दोषों का आयतन, अर्थात्‌ गृह है, इसमें श्रीरघुनाथ के श्रीरामनाम को छोड़कर और कुछ भी दूसरा आधार नहीं है।

**\* नवाहपारायण, आठवाँ विश्राम \* \* मासपारायण, सत्ताईसवाँ विश्राम \***

इति श्रीमद्‌गोस्वामितुलसीदासविरचिते श्रीमद्रामचरितमानसे सकलकलिकलुषविध्वंसने

सज्जनप्रियं नाम षष्ठं सोपानं युद्धकाण्डं सम्पूर्णम्‌। ॥श्रीसीतारामार्पणमस्तु॥

इस प्रकार श्री गोस्वामी तुलसीदास जी द्वारा विरचित्‌ कलियुग के पाप को नष्ट करने वाला श्रीरामचरितमानस में सज्जनप्रिय नामक षष्ठ सोपान सम्पन्न हुआ। यह श्री सीताराम जी को समर्पित हो।

श्रीरामभद्राचार्येण कृता भावार्थबोधिनी। व्याख्येयं राय्र्भाषायां षष्ठे काण्डे मुदा मया॥ ॥श्री राघव:शन्तनोतु॥

युद्धकाण्ड समाप्त

॥श्री सीताराम॥ श्री गणेशाय नम: