०५ सुन्दरकाण्ड

पंचम सोपान

सुन्दरकाण्ड

मंगलाचरण श्री:

भावार्थबोधिनी टीका


विहितविपुलकुलतिलकं जितजलतिलकं धृतेषुचलतिलकम्‌। रामं रघुकुलतिलकं हतखलतिलकानुजं वन्दे॥ कनककुधर कुलदेहं बलगुणगेहं समुद्रसन्देहम्‌। पवनजमथवन्देऽहं दमितखलेहं विमानेहम्‌॥ नत्वा श्रीतुलसीदासं सुन्दरे सुन्दरीमहम्‌। मानसे राष्ट्रभाषायां भाषे भावार्थबोधिनीम्‌॥

भाष्य

गोस्वामी जी श्रीसीताराम नाम से भगवान्‌ को स्मरण करते हैं और श्रीगणपति को नमन करते हैं। भगवान्‌ श्रीसीताराम जी सर्वोत्त्कृष्ट देवता के रूप में विजयी हो रहे हैं। गोस्वामी श्रीतुलसीदास श्रीरामचरितमानस के पंचम सोपान सुन्दरकाण्ड के तीन श्लोकों में मंगलाचरण प्रस्तुत कर रहे हैं।

विशेष

छह काण्डों के नाम किसी न किसी घटना से जुड़े हुए हैं। बालकाण्ड भगवान्‌ श्रीराम की बाल्यावस्था की घटना से, अयोध्याकाण्ड अयोध्या की घटना से, अरण्यकाण्ड वन की घटना से, किष्किन्धाकाण्ड बालि की पुरी और उसकी गुफा की घटना से, युद्धकाण्ड श्रीराम–रावण युद्ध की घटना से, उत्तरकाण्ड उत्तर दिशा में वर्तमान

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उत्तर कोसल की घटना से, अथवा प्रश्नों के उत्तरों से तथा श्रीराम के उत्तर चरित्रों से जुड़ा है, परन्तु सुन्दरकाण्ड किसी घटना से जुड़ा हुआ नहीं प्रतीत होता, फिर इसका आदिकवि से लेकर सभी रामायण रचयिताओं ने सुन्दरकाण्ड ही नाम क्यों रखा? इस प्रश्न के यहाँ कुछ उत्तर दिये जा रहे हैं। इस विषय पर विस्तार से शीघ्र ही प्रस्तुत होने वाली मेरी अगली रचना “श्रीराघवकृपाभाष्य” में विचार किया जायेगा।

पूर्वाचार्यों की दृष्टि से इसमें सब कुछ सुन्दर है, श्रीसीता की कुशलता का सुन्दर समाचार है और इसके तीन मुख्य पात्र श्रीराम, हनुमान एवं सीता जी बहुत सुन्दर हैं, इसलिए इसका नाम सुन्दर है। इस भाव का श्लोक इस प्रकार है–

सुन्दरे सुन्दरो राम: सुन्दरे सुन्दर: कपि:। सुन्दरे सुन्दरी सीता सुन्दरे किन्न सुन्दरम्‌॥

भाष्य

जिस पर्वत से हनुमान जी कूदे थे, उसका भी सुन्दराचल नाम है। यथा– *सिन्धु तीर एक भूधर सुन्दर–*मानस, **५.१.५. मानस जी की दृष्टि से इसमें हनुमान जी का चरित्र है और गोस्वामी जी ने इसमें आठ बार सुन्दर शब्द का प्रयोग किया है। इसमें भगवत्‌कृपा से विषयी, साधक, सिद्ध इन तीनों प्रकार के जीव (सिद्ध हनुमान जी, साधक विभीषण जी और विषयी शुक) ने सागर का लंघन किया और अन्त में भगवान्‌ ने सागर का निग्रह किया, यह सब सौन्दर्य इसमें समाहित है। इसमें एक ही साथ हनुमान जी की भक्ति, सीता जी का सतीत्व और भगवान्‌ श्रीराम की उदारता तथा आत्मविश्वास वर्णित है, इसलिए इसे सुन्दरकाण्ड कहा जाता है। इसका विस्तार “**श्रीराघव कृपाभाष्य” **में किया जायेगा।

शान्तं शाश्वतमप्रमेयमनघं गीर्वाणशान्तिप्रदं
ब्रह्माशम्भुफणीन्द्रसेव्यमनिशं वेदान्तवेद्दं विभुम्‌।

रामाख्यं जगदीश्वरं सुरगुरुं मायामनुष्यं हरिं
वन्देऽहं करुणाकरं रघुवरं भूपालचूडामणिम्‌॥१॥

भाष्य

नित्यशान्ति से सम्पन्न तथा निरन्तर वर्तमान अर्थात्‌ विनाशरहित, प्रमाणों से परे निष्पाप, देवताओं को शान्ति देने वाले, ब्रह्मा, विष्णु, शिव एवं शेष के भी सेव्य और इनके द्वारा सेवित, अज्ञानरूप रात्रि से रहित, वेदान्त के द्वारा (विशिष्टाद्वैतवाद परम्परा से) जानने योग्य और प्राप्य, सर्वव्यापी, जगत्‌ के ईश्वर, ब्रह्मादि सम्पूर्ण देवताओं के पिता एवं आचार्य, भव, भय और भक्तों के त्रिताप को हरनेवाले, करुणा की खानि तथा भक्तों पर अहैतुकी कव्र्णा करनेवाले, रघुकुल में श्रेष्ठ एवं रघु नामक जीव के वरणीय, भक्तों पर कृपा करने के लिए लीला में मनुष्य जैसा आचरण करनेवाले, सम्पूर्ण राजाओं के मुकुटमणि, श्रीराम नाम से विख्यात, श्रीहरि परब्रह्म परमात्मा, साकेताधिपति भगवान्‌ श्रीराम को मैं तुलसीदास वन्दन करता हूँ।

**नान्या स्पृहा रघुपते हृदयेऽस्मदीये सत्यं वदामि च भवानखिलान्तरात्मा।** [[६६१]]

भक्तिं प्रयच्छ रघुपुङ्गव निर्भरां मे
कामादिदोषरहितं कुरु मानसं च॥२॥

भाष्य

हे रघुपते अर्थात्‌ सम्पूर्ण जीवों के स्वामी श्रीराम! हमारे हृदय में और कोई स्पृहा अर्थात्‌ वस्तु को प्राप्त करने की इच्छा नहीं है, मैं सत्य कहता हूँ, क्योंकि आप सभी जीवों के अन्तरात्मा के साथ अन्तर्यामी रूप से विराजते हैं। हे रघुवंशियों में श्रेष्ठ प्रभु श्रीराम! मुझे भव–भार को नष्ट करनेवाली भक्ति दीजिये तथा मेरे मन और मेरे द्वारा रचे जा रहे श्रीरामचरितमानस को कामादि दोषों से रहित कर दीजिये अर्थात्‌ मेरे मन में कामादि दोष न आने दीजिये और मेरे श्रीरामचरितमानस में भी कामादि दोषों के वर्णन करने से मुझे रोक दीजिये।

**अतुलितबलधामं स्वर्णशैलाभदेहं** **दनुजवनकृशानुं ज्ञानिनामग्रगण्यम्‌। सकलगुणनिधानं वानराणामधीशं रघुपतिवरदूतं वातजातं नमामि॥३॥**
भाष्य

तुलनारहित बल के भवन तथा अतुलनीय बलवाले, भगवान्‌ श्रीराम के भी धाम अर्थात्‌ मन्दिरस्वरूप, स्वर्ण के पर्वत सुमेरु के समान आभावाले दिव्यशरीर से युक्त अथवा, स्वर्ण के पर्वत सुमेरु को भी जिससे आभा प्राप्त हुई ऐसे मंगलमय शरीरवाले, राक्षसरूप वन एवं राक्षसों के वन अशोक वन के लिए अग्निस्वरूप, ज्ञानियों में अग्रगण्य अर्थात्‌ प्रथम गिने जानेवाले, सभी वैष्णवोचित श्रेष्ठगुणों के कोश, वानरों के आधिकारिक ईश्वर, रघुकुल के स्वामी भगवान्‌ श्रीराम के श्रेष्ठ विश्वासपात्र दूत, वायु देवता के सांकल्पिक पुत्र हनुमान जी महाराज को मैं तुलसीदास नमन करता हूँ।

विशेष

यहाँ प्रथम श्लोक शार्दूल विक्रीडित में द्वितीय श्लोक वसंततिलका में और तृतीय श्लोक मालिनी वृत्त में कहा गया है।

जामवंत के बचन सुहाए। सुनि हनुमंत हृदय अति भाए॥
तब लगि मोहि परिखहु तुम भाई। सहि दुख कंद मूल फल खाई॥ जब लगि आवौं सीतहिं देखी। होइ काज मन हरष विशेषी॥

भाष्य

जाम्बवान्‌ जी के सुहावने वचन सुनकर हनुमान जी के हृदय में वे वचन बहुत अच्छे लगे। हनुमान जी ने सभी वानर वीरों से कहा, हे भाई! दु:ख सहकर, कन्द, मूल और फल खाकर तब तक तुम लोग इसी उत्तरी सागर–तट पर मेरी प्रतीक्षा करना जब तक मैं श्रीसीता के दर्शन करके आ रहा हूँ अर्थात्‌ मेरे आने तक कहीं

भागना नहीं कार्य होगा, मेरे मन में विशेष हर्ष है।

विशेष

यहाँ हनुमान जी कार्यसिद्धि में कहे हुए अपने सम्बन्ध में ज्योतिष का तीसरा सिद्धान्त प्रस्तुत कर रहे हैं। गर्गाचार्य के मत में प्रात:काल यात्रा करके कार्यारम्भ करने से कार्यसिद्ध हो जाता है। वृहस्पति जी के मत में यात्रा के प्रारम्भ में सुन्दर शकुन होने से कार्यसिद्ध होता है। अंगिरा जी के मत में यात्रा के प्रारम्भ में यदि मन में उत्साह

[[६६२]]

हो तब कार्यसिद्धि निश्चित जाननी चाहिये और भगवान्‌ विष्णु के मत में यदि यात्रा के प्रारम्भ में ब्राह्मण का आशीर्वाद मिल जाये तब कार्य की सिद्धि नि:संदिग्ध समझ लेनी चाहिये।

उष*: प्रशस्यते गर्ग: शकुनं तु बृहस्पति :। अंगिरा मन उत्साहं विप्र वाक्यं जनार्दन :।*

अस कहि नाइ सबनि कहँ माथा। चलेउ हरषि हिय धरि रघुनाथा॥ सिंधु तीर एक भूधर सुंदर। कौतुक कूदि च़ढेउ तेहि ऊपर॥ बार बार रघुबीर सँभारी। तरकेउ पवनतनय बल भारी॥

भाष्य

ऐसा कहकर सभी को मस्तक नवाकर, प्रसन्न होकर, रघुनाथ जी को हृदय में धारण करके हनुमान जी चल पड़े। समुद्र के तट पर एक सुन्दर पर्वत था, अथवा सुन्दराचल नाम का एक प्रधान पर्वत था, हनुमान जी खेल–खेल में उछलकर उसके ऊपर च़ढ गये। विशाल बलवाले, अथवा विपुल बल को धारण करनेवाले वायु देवता के पुत्र हनुमान जी त्यागवीरता, दयावीरता, विद्दावीरता, पराक्रमवीरता एवं धर्मवीरता के मूर्तस्वरूप रघुकुल के वीर भगवान्‌ श्रीराम को बारम्बार सँभारी अर्थात्‌ स्मरण करके समुद्रतट पर स्थित उस सुन्दराचल पर्वत से उछले।

**जेहिं गिरि चरन देइ हनुमंता। चलेउ सो गा पाताल तुरंता॥ जिमि अमोघ रघुपति कर बाना। एही भाँति चलेउ हनुमाना॥**
भाष्य

हनुमान जी महाराज जिस सुन्दराचल पर्वत पर अपने चरणों को टिकाकर आकाश मार्ग से लंका के लिए चले, हनुमान जी के चरणों से दबने के कारण वह पर्वत तुरन्त धँसकर पाताल चला गया। जिस प्रकार रघुपति भगवान्‌ श्रीराम जी के धनुष से छूटा हुआ अमोघ बाण लक्ष्य की ओर तीव्रता से चलता है, इसी प्रकार से भगवान्‌ श्रीराम जी के सुग्रीवरूप धनुष से छूटकर श्रीराम–बाणरूप हनुमान जी महाराज अपने लक्ष्य की ओर चल पड़े।

**जलनिधि रघुपति दूत बिचारी। कह मैनाक होहु श्रमहारी॥** **दो०– हनूमान तेहि परसि कर, पुनि पुनि कीन्ह प्रनाम।**

राम काज कीन्हे बिनु, मोहि कहाँ बिश्रााम॥१॥

भाष्य

जल के कोश समुद्र ने हनुमान जी को श्रीराम का दूत विचारकर अपने अन्दर छिपे हुए हिमाचल के पुत्र मैनाक से कहा, हे मैनाक! तुम ऊपर आकर हनुमान जी का श्रम हरण करो अर्थात्‌ निरालम्ब आकाश मार्ग में जाते हुए हनुमान जी यदि तुम पर विश्राम कर लेंगे तो उनकी थकान दूर हो जायेगी। (मैनाक ने वैसा ही किया) उन्होंने अर्थात्‌ मैनाक ने जल से ऊपर आकर अपने ऊपर विश्राम करने के लिए हनुमान जी से प्रार्थना की, फिर हनुमान जी महाराज ने अपने हाथ से मैनाक को स्पर्श करके पुन: प्रणाम किया और बोले, भगवान्‌ श्रीराम का कार्य किये बिना मेरे लिए विश्राम कहाँ है? अर्थात्‌ विश्राम तो तब करूँगा जब सागर पार करके जनकनन्दिनी जी के दर्शन कर लूँगा।

[[६६३]]

**जात पवनसुत देवन देखा। जानै कहँ बल बुद्धि बिशेषा॥ सुरसा नाम अहिन कै माता। पठएनि आइ कही तेहिं बाता॥**
भाष्य

देवताओं ने पवनपुत्र हनुमान जी को आकाश–मार्ग से लंका जाते हुए देखा, तब उनके विशेष बल और बुद्धि जानने के लिए अथवा हनुमान जी के बल और बुद्धि का वैशिष्ट्‌य जानने के लिए सुरसा नामक सर्पों की माता को हनुमान जी के पास भेजा। सुरसा ने आकर यह बात कही–

**आजु सुरन मोहि दीन्ह अहारा। सुनत बचन कह पवनकुमारा॥ राम काज करि फिरि मैं आवौं। सीता कइ सुधि प्रभुहिं सुनावौं॥ तब तुव बदन पैठिहउँ आई। सत्य कहउँ मोहि जान दे माई॥ कवनेहु जतन देइ नहिं जाना। ग्रससि न मोहि कहेउ हनुमाना॥**
भाष्य

आज देवताओं ने मुझे आहार दिया है, यह सुनकर पवनपुत्र हनुमान जी ने यह वचन कहा, मैं भगवान्‌ श्रीराम का कार्य करके लौट आऊँ और श्रीसीता का समाचार प्रभु श्रीराम को सुना दूँ, तब अपने आप आकर मैं तुम्हारे मुख में प्रवेश कर जाऊँगा, मैं सत्य कहता हूँ, हे माँ! मुझे जाने दो। सुरसा किसी भी उपाय से हनुमान जी को जाने नहीं देती है, तब हनुमान जी ने कहा, तो फिर मुझे क्यों नहीं खा लेतीं?

**जोजन भरि तेहिं बदन पसारा। कपि तनु कीन्ह दुगुन बिस्तारा॥ सोरह जोजन मुख तेहिं ठयऊ। तुरत पवनसुत बत्तिस भयऊ॥ जस जस सुरसा बदन ब़ढावा। तासु दुगुन कपि रूप देखावा॥ शत जोजन तेहिं आनन कीन्हा। अति लघु रूप पवनसुत लीन्हा॥ बदन पइठि पुनि बाहेर आवा। माँगी बिदा ताहि सिर नावा॥ मोहि सुरन्ह जेहि लागि पठावा। बुधि बल मरम तोर मैं पावा॥**
भाष्य

सुरसा ने हनुमान जी को खाने के लिए एक योजन यानी चार कोस और वर्तमान की दृष्टि से बारह किलोमीटर तक मुख फैलाया। हनुमान जी ने अपने शरीर का उससे दुगुणा विस्तार कर लिया। सुरसा ने अपना मुख सोलह योजन तक फैलाया, पवनपुत्र हनुमान जी तुरन्त बत्तीस योजन के हो गये। जैसे–जैसे सुरसा ने अपना मुख ब़ढाया वैसे–वैसे हनुमान जी ने उससे दुगुना अपना रूप दिखा दिया। सुरसा ने अपना मुख सौ योजन का कर लिया, तब पवनपुत्र हुनमान जी ने अपना बहुत छोटा रूप कर लिया और सुरसा के मुख में प्रवेश करके हनुमान जी फिर बाहर आये। चलने की अनुमति माँगी और उसे अर्थात्‌ सुरसा को मस्तक नवाया। सुरसा ने कहा कि देवताओं ने मुझे जिस कारण से भेजा था मैंने तुम्हारी बुद्धि और बल का वह मर्म पा लिया।

__दो०– रामकाज सब करिहउ, तुम बल बुद्धि निधान।आशिष दै सुरसा चली, हरषि चले हनुमान॥२॥

भाष्य

हे हनुमान जी! तुम सम्पूर्ण श्रीराम का कार्य करोगे, क्योंकि तुम बल और बुद्धि के कोश हो। इस प्रकार हनुमान जी को आशीर्वाद देकर सुरसा देवताओं के पास चली गई और हनुमान जी भी प्रसन्न होकर आगे चले।

[[६६४]]

**निशिचरि एक सिंधु महँ रहई। करि माया नभ के खग गहई॥ जीव जंतु जे गगन उड़ाहीं। जल बिलोकि तिन कै परिछाहीं॥ गहइ छाहँ सक सो न उड़ाई। एहि बिधि सदा गगनचर खाई॥ सोइ छल हनूमान ते कीन्हा। तासु कपट कपि तुरतहिं चीन्हा॥ ताहि मारि मारुतसुत बीरा। बारिधि पार गयउ मतिधीरा॥**
भाष्य

समुद्र में एक सिंहिका नामक राक्षसी रहती थी, वह माया अर्थात्‌ छल करके आकाश के पक्षियों को पक़ड लेती थी। आकाश में जो भी छोटे–बड़े जीव–जन्तु उड़ा करते थे, उनकी जल में परछाईं देखकर वह उस जीव की छाया पक़ड लेती थी, जिससे वह जीव उड़ नहीं सकता था और वह नीचे गिर जाता था। इस प्रकार, वह निरन्तर आकाशचारी पक्षियों को खाती रहती थी। उसने वही छल हनुमान जी से भी किया, हनुमान जी ने तुरन्त ही उसका कपट पहचान लिया और आकार छोटा बनाकर उसके पेट में प्रवेश कर गये तथा अपने तीखे नखों से सिंहिका का पेट फाड़ दिया। धीर बुद्धिवाले वायु के पुत्र हनुमान जी सिंहिका को मारकर समुद्र के पार चले गये।

**तहाँ जाइ देखी बन शोभा। गुंजत चंचरीक मधु लोभा॥ नाना तरु फल फूल सुहाए। खग मृग बृंद देखि मन भाए॥**
भाष्य

समुद्र के उस दक्षिणी तट पर जाकर हनुमान जी ने वन की शोभा देखी। वहाँ मधु के लोभ से भौंरे गुँजार कर रहे थे। फल और पुष्पों से सुन्दर अनेक वृक्ष, पक्षी और हरिण के समूह को देखा जो हनुमान जी के मन को भा गये।

**शैल बिशाल देखि एक आगे। ता पर कूदि च़ढेउ भय त्यागे॥ उमा न कछु कपि कै अधिकाई। प्रभु प्रताप जो कालहिं खाई॥ गिरि पर चढि़ लंका तेहिं देखी। कहि न जाइ अति दुर्ग बिशेषी॥ अति उतंग जलनिधि चहुँ पासा। कनक कोट कर परम प्रकासा॥**
भाष्य

हनुमान जी अपने सामने एक विशाल पर्वत अर्थात्‌ त्रिकूटाचल को देखकर भय छोड़ उछलकर उस पर च़ढ गये। शिव जी, पार्वती जी को सम्बोधित करते हुए कहते हैं कि, हे उमा! यह हनुमान जी की कोई अधिकता नहीं है, यह तो केवल प्रभु श्रीराम का प्रताप है, जो काल को भी खा जाता है। पर्वत पर च़ढकर हनुमान जी ने लंका देखी उसका अत्यन्त विशिष्ट किला कहा नहीं जा सकता था, वह अत्यन्त विशाल था और उस किले के चारों ओर समुद्र था, जो खाई की भूमिका निभा रहा था, उस पर स्वर्ण से बने हुए परकोटे का अत्यन्ंत श्रेष्ठ प्रकाश हो रहा था।

**छं०– कनक कोट बिचित्र मनि कृत सुंदरायतना घना।** **चउहट्ट हट्ट सुबट्ट बीथी चारु पुर बहु बिधि बना॥ गज बाजि खच्चर निकर पदचर रथ बरूथनि को गनै। बहुरूप निशिचर जूथ अतिबल सैन बरनत नहिं बनै॥१॥**
भाष्य

स्वर्ण का दुर्ग और आश्चर्यमय मणियों से बनाये हुए अत्यन्त घने सुन्दर भवन, चउहट्ट अर्थात्‌ चार प्रकार के मार्गवाले स्थान, बाजार, सुन्दर राजमार्ग, गलियाँ इन सबसे सुन्दर लंकानगर बहुत प्रकार से रमणीय बना हुआ

[[६६५]]

था। हाथी, घोड़े, खच्चरों के समूह, पदाति सैनिक और रथों के समूह जिन्हें कौन गिन सकता है के सहित बहुत रूपवाले अत्यन्त बलशाली राक्षस यूथों से युक्त राक्षसी सेना का वर्णन करते नहीं बनता।

बन बाग उपवन बाटिका सर कूप बापी सोहहीं।
नर नाग सुर गंधर्ब कन्या रूप मुनि मन मोहहीं॥ कहुँ मल्ल देह बिशाल शैल समान अतिबल गर्जहीं। नाना अखारनि भिरहिं बहु बिधि एक एकन तर्जहीं॥२॥

भाष्य

वन, बगीचे, उपवन अर्थात्‌ उद्दान, वाटिकायें, तालाब, कुएँ बावलियाँ सुशोभित हो रही थी। मनुष्य, नाग, देवता और गन्धर्व कन्याओं के रूप को देखकर मुनियों के मन भी मोहित हो जाते थे। कहीं पर्वत के समान विशाल शरीरवाले अत्यन्त बलशाली मल्लगण गरजते और तरजते हुए अनेक अखाड़ों में बहुत प्रकार से एक– दूसरों से भिड़ते अर्थात्‌ मल्लयुद्ध करते और एक–दूसरे को डाँट रहे थे।

**करि जतन भट कोटिन बिकट तन नगर चहुँ दिशि रक्षहीं। कहुँ महिष मानुष धेनु खर अज खल निशाचर भक्षहीं॥ एहि लागि तुलसीदास इन की कथा संछेपहिं कही। रघुबीर शर तीरथ शरीरनि त्यागि गति पैहैं सही॥३॥**
भाष्य

इस प्रकार से भयंकर शरीरवाले करोड़ों राक्षस वीर चारों ओर नगर की रक्षा कर रहे थे और कहीं खलप्रकृति वाले राक्षस, भैंसों, मनुष्यों, गौओं, गधों और बकरों को खा जाते थे। तुलसीदास जी ने इनकी कथा इसलिए संक्षेप में कही, क्योंकि ये रघुवीर श्रीराम के बाणरूप तीर्थों में अपने शरीरों का त्याग करके सुन्दर गति पा जायेंगे।

**दो०– पुर रखवारे देखि बहु, कपि मन कीन्ह बिचार।** **अति लघु रूप धरौं निशि, नगर करौं पैसार॥३॥**
भाष्य

बहुत से नगर के रक्षकों को देखकर वानरश्रेष्ठ हनुमान जी ने मन में विचार किया कि, बहुत छोटा–सा रूप धारण कर लूँ और रात्रि में ही नगर में प्रवेश करूँ।

**मशक समान रूप कपि धरी। लंकहि चलेउ सुमिरि नरहरी॥ नाम लंकिनी एक निशिचरी। सो कह चलेसि मोहि निंदरी॥ जानेसि नाहि मरम शठ मोरा। मोर अहार लंक कर चोरा॥**
भाष्य

हनुमान जी ने मशक के समान अपना छोटा–सा रूप बना लिया अर्थात्‌ मच्छर का रूप नहीं बनाया, किन्तु मच्छर के समान छोटा वानररूप ही बनाया और पुव्र्षों में सिंह श्रीराम का स्मरण करके लंका को चल पड़े। लंकाद्वार पर लंकिनी नाम की एक राक्षसी थी। उसने कहा, अरे दुष्ट वानर! मेरा निरादर करके लंका में चले जा रहे हो। अरे शठ! तू मेरा मर्म नहीं जानता। लंका के चोर मेरे आहार होते हैं, अर्थात्‌ जो चोरी से लंका में प्रवेश करता है, उसे मैं खा लेती हूँ।

**मुठिका एक ताहि कपि हनी। रुधिर बमत धरनी ढनमनी॥ पुनि संभारि उठी सो लंका। जोरि पानि कर बिनय सशंका॥ जब रावनहिं ब्रह्म बर दीन्हा। चलत बिरंचि कहा मोहि चीन्हा॥ बिकल होसि जब कपि के मारे। तब जानेसु निशिचर संघारे॥ तात मोर अति पुन्य बहूता। देखेउँ नयन राम कर दूता॥** [[६६६]]
भाष्य

हनुमान जी ने उसे एक हल्की मुष्ठिका मारी और लंकिनी रक्त का वमन करती हुई, लु़ढकती हुई पृथ्वी पर गिर पड़ी। फिर वह लंकिनी सम्भालकर उठी और हाथ जोड़कर भयभीत हुई हनुमान जी से प्रार्थना करने लगी। जब रावण को ब्रह्मा जी ने वरदान दिया था, तब चलते–चलते ब्रह्मा जी ने मुझे एक पहचान बताई थी कि हे लंकिनी! जब वानर की मुष्ठिकाप्रहार से विकल हो जाना उसी समय जान लेना कि अब राक्षसों का संहार निकट है। आज मैं तुम्हारे प्रहार से विकल हुई अर्थात्‌ अब तो निकट भविष्य में श्रीराम के विरोधी राक्षसों का संहार हो जायेगा। हे तात! मेरा तो आज बहुत अधिक पुण्य उदय हुआ है। मैंने अपने नेत्रों से श्रीराम के दूत आप श्रीहनुमान जी को देख लिया।

**दो०– तात स्वर्ग अपवर्ग सुख, धरिय तुला एक अंग।** **तूल न ताहि सकल मिलि, जो सुख लव सतसंग॥४॥**
भाष्य

हे तात! स्वर्ग और मोक्ष के सुख को तराजू के एक पलड़े पर रखा जाये और दूसरे पलड़े पर एक क्षण के सत्संग का सुख रखा जाये तो जो एक क्षण के सत्संग का सुख है उसे सभी स्वर्ग और अपवर्ग के सुख मिलकर भी नहीं तुलित कर पाते अर्थात्‌ एक क्षण के सत्संग की तुलना में स्वर्ग और मोक्ष के सुख भी नहीं आ पाते। आज मैं स्वर्ग और मोक्ष दोनों ही सुखों की अपेक्षा अधिक सुख का अनुभव कर रही हूँ। आप जैसे सन्त का एक क्षण का भी सत्संग मेरे लिए पर्याप्त है।

**प्रबिशि नगर कीजै सब काजा। हृदय राखि कोसलपुर राजा॥**
भाष्य

कोसलपुर अर्थात्‌ श्रीअयोध्या के महाराज भगवान्‌ श्रीराम को हृदय में धारण करके लंकानगर में प्रवेश कर जाइये। आप भगवान्‌ श्रीराम का सम्पूर्ण कार्य कीजिये। (यह कहकर लंकिनी चुप हो गई और भुशुण्डि जी गरुड़ जी को सावधान करते हुए बोले–)

**गरल सुधा रिपु करहिं मिताई। गोपद सिंधु अनल शितलाई॥ गरुड़ सुमेरु रेनु सम ताही। राम कृपा करि चितवहिं जाही॥**
भाष्य

हे गरुड़ देव! प्रभु श्री राम जी जिसको कृपा करके निहार लेते हैं उसके लिए विष, अमृत हो जाता है, शत्रु मित्रता करने लगते हैं, समुद्र गौ के खुर के समान छोटा और छिछला हो जाता है, अग्नि शीतल हो जाता है और सुमेरु पर्वत धूल के समान हो जाता है, जैसा कि हनुमान जी के लिए हुआ। उनके लिए सुरसा का विष अमृत बन गया, प्रबलशत्रु लंकिनी ने उनसे मित्रता की, समुद्र गाय के खुर से छोटा हो गया, लंका में लगी आग हनुमान जी के लिए शीतल हो गई और सुमेरु पर्वत के समान विशाल रावण का प्रभाव धूलि के समान हो गया।

**अति लघु रूप धरेउ हनुमाना। पैठा नगर सुमिरि भगवाना॥ मन्दिर मन्दिर प्रति करि शोधा। देखे जहँ तहँ अगनित जोधा॥ गयउ दशानन मंदिर माहीं। अति बिचित्र कहि जात सो नाहीं॥ शयन किए देखा कपि तेही। मंदिर महँ न दीख बैदेही॥** **भवन एक पुनि दीख सुहावा। हरि मंदिर तहँ भिन्न बनावा॥**
भाष्य

हनुमान जी ने फिर बहुत छोटा (वानर का) रूप धारण किया और भगवान्‌ श्रीराम का स्मरण करके रावण के नगर में प्रवेश किया। प्रत्येक मन्दिर में श्रीसीता की खोज करके हनुमान जी ने जहाँ–तहाँ अनेक योद्धाओं को देखा। हनुमान जी रावण के भवन में गये वह अत्यन्त विचित्र था अर्थात्‌ विकृतविलासी चित्रों से युक्त था। वह कहा नहीं जा सकता अर्थात्‌ उस अश्लील दृश्य का वर्णन मेरे वश का नहीं है। हनुमान जी ने रावण को शयन

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किये हुए देखा, पर रावण के भवन में विदेहनन्दिनी श्रीसीता नहीं दिखीं, फिर हनुमान जी ने एक सुन्दर भवन देखा वहाँ पर अलग से हरि अर्थात्‌ रामाभिधान श्रीहरि भगवान्‌ श्रीराम का मन्दिर बनाया गया था। मंदिरं* तिलकं प्रोक्तं– *कोश के अनुसार उस भवन में दीवार में खोद कर ऊर्ध्वपुण्ड्र का चिन्ह बनाया गया था। अथवा हनुमान जी ने प्रत्येक राक्षस भवन के पास बने हुए प्रत्येक मंदिर में सीता जी को ढूँढा, क्योंकि हनुमान जी के मन में यह निश्चय तो था ही कि सीता जी किसी भी परिस्थिति में रावण के अन्त:पुर में नहीं जा सकतीं और न ही रावण सीता जी को बलपूर्वक अपने भवन में ले जा सकता है, क्योंकि उसे नल कूबर का ‘ााप है। इसीलिए हनुमान जी ने राक्षसों के भवनों के पास बने हुए मंदिरों अर्थात्‌ पूजा गृह में ही सीता जी को ढूँढा अन्त में रावण के भी भवन के पास बने हुए मन्दिर अर्थात पूजा गृह में भी जाकर हनुमान जी ने सीता जी को नही देखा। इसके विपरीत वहाँ पूजा के लिए आकर सोये हुए रावण को ही हनुमान जी ने देखा। अनन्तर विभीषण के भवन के पास श्री वैष्णव परम्परा का मंदिर देखकर हनुमान जी प्रसन्न हुए।

दो०– रामायुध अंकित गृह, शोभा बरनि न जाइ।
नव तुलसिका बृंद तहँ, देखि हरष कपिराइ॥५॥

भाष्य

श्रीराम के आयुध धनुष–बाण से उत्कीर्ण उस भवन की शोभा का वर्णन नहीं किया जा सकता। वहाँ नये तुलसी वृक्षों के समूहों को देखकर वानरराज हनुमान जी, अथवा कपि अर्थात्‌ वानरों के राय अर्थात्‌ सम्पूर्ण धनस्वरूप श्रीहनुमान जी प्रसन्न हुए।

**विशेष– **संस्कृत में धन को “रै” और राय भी कहते हैं। पाणिनि ने “**रायौ हलि**” \(पा०अ०७.२.५\) से हलादि विभक्तियों में “रै” शब्द को आकारान्ता आदेश किया है और “***कं** राम प्रेमामृतं पिवन्ति ये ते कपय: तेषां राय: *अर्थात्‌ श्रीरामप्रेमामृत का पान करनेवाले वैष्णवजन के भी हनुमान जी सर्वस्व हैं।”** **लंका निशिचर निकर निवासा। इहाँ कहाँ सज्जन कर बासा॥ मन महँ तरक करै कपि लागा। तेही समय बिभीषन जागा॥ राम राम तेहि सुमिरन कीन्हा। हृदय हरष कपि सज्जन चीन्हा॥**
भाष्य

श्रीहनुमान जी मन में विचार करने लगे कि, लंका तो भगवत्‌ विरोधी राक्षस समूहों का निवासस्थान है, यहाँ सज्जन अर्थात्‌ श्रीवैष्ण्वजन का निवास कहाँ हो सकता है? उसी समय विभीषण जी जग गये, उन्होंने राम– राम का उच्चारण करके भगवान्‌ श्रीराम का स्मरण किया। हनुमान जी सज्जन अर्थात्‌ श्रीवैष्ण्व को पहचानकर हृदय में प्रसन्न हुए।

विशेष

यहाँ दो बार प्रयुक्त हुए सज्जन शब्द वैष्णव का पर्यायवाची है उपनिषदों में भगवान्‌ को सत्‌ कहा गया है, उन्हीं सत्‌ अर्थात्‌ परमात्मा के जन यानी सेवक को सज्जन कहते हैं।

एहि सन हठि करिहउँ पहिचानी। साधु ते होइ न कारज हानी॥ बिप्र रूप धरि बचन सुनाए। सुनत बिभीषन उठि तहँ आए॥

भाष्य

हनुमान जी ने निश्चय किया कि मैं इस व्यक्ति से हठात्‌ परिचय करूँगा, क्योंकि साधु से कभी कार्य की हानि नहीं होती। ये साधुपुरुष हैं इसलिए इनके मुख से जगने के पश्चात्‌ सर्वप्रथम श्रीरामनाम का उच्चारण हुआ। हनुमान जी ने ब्राह्मण का रूप धारण करके वचन सुनाया अर्थात्‌ “श्रीसीताराम” की धुनि सुनाई, यह सुनते ही विभीषण जी उठकर वहाँ चले आये।

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**करि प्रनाम पूँछी कुशलाई। बिप्र कहहु निज कथा बुझाई॥ की तुम हरि दासन महँ कोई। मोरे हृदय प्रीति अति होई॥ की तुम राम दीन अनुरागी। आयहु मोहि करन बड़भागी॥**
भाष्य

ब्राह्मण वेशधारी हनुमान जी को प्रणाम करके विभीषण जी ने कुशल पूछी, हे ब्राह्मणदेव! अपनी कथा समझाकर कहिये, क्या आप भगवान्‌ श्रीराम के दासों में से कोई एक हैं, क्योंकि मेरे हृदय में अत्यन्त प्रीति अर्थात्‌ भगवान्‌ के प्रति प्रेमभावना हो रही है। क्या आप दीनों पर अनुराग करनेवाले स्वयं भगवान्‌ श्रीराम है,ं जो मुझे बड़भागी बनाने के लिए सागर–पार करके लंका में आये हैं?

**दो०– तब हनुमंत कही सब, राम कथा निज नाम।** **सुनत जुगल तन पुलक मन, मगन सुमिरि गुन ग्राम॥६॥**
भाष्य

तब हनुमान जी ने विभीषण जी के सामने सम्पूर्ण श्रीरामकथा और अपना नाम भी कहा। इस प्रकार हनुमान जी से युगल अर्थात्‌ श्रीरामकथा और श्रीरामकथावाचक हनुमान का नाम सुनते ही विभीषण जी के शरीर में रोमांच हो आया और प्रभु के गुणग्रामों का स्मरण करके विभीषण का मन श्रीरामगुण–महासागर में डूब गया।

**सुनहु पवनसुत रहनि हमारी। जिमि दशनन महँ जीभ बिचारी॥ तात कबहुँ मोहि जानि अनाथा। करिहैं कृपा भानुकुल नाथा॥ तामस तनु कछु साधन नाहीं। प्रीति न पद सरोज मन माहीं॥ अब मोहि भा भरोस हनुमंता। बिनु हरि कृपा मिलहिं नहिं संता॥**

**जौ रघुबीर अनुग्रह कीन्हा। तौ तुम मोहि दरस हठि दीन्हा॥ भा०– **विभीषण जी बोले, हे पवनपुत्र हनुमान जी! सुनिये, लंका में मेरा रहना उसी प्रकार है, जैसे दाँतों के बीच बिचारी जीभ अपनी रक्षा करती हुई रह लेती है। हे तात! क्या मुझे अनाथ जानकर सूर्यकुल के नाथ भगवान्‌ श्रीराम मुझ पर कभी कृपा करेंगे, क्योंकि मेरा शरीर तमोगुणी है, मेरे पास कुछ भी साधन नहीं है और प्रभु श्रीराम के श्रीचरणकमलों में प्रेम भी नहीं है। हे हनुमान जी! अब मुझे भरोसा हो गया है कि, प्रभु मुझ पर कृपा कर रहे हैं, क्योंकि श्रीहरि की कृपा के बिना सन्त नहीं मिलते, यदि रघुकुल के वीर श्रीराम ने मुझ पर अनुग्रह किया तभी तो आपने हठपूर्वक मुझे दर्शन दिया।

सुनहु बिभीषन प्रभु कै रीती। करहिं सदा सेवक पर प्रीती॥ कहहु कवन मैं परम कुलीना। कपि चंचल सबहीं बिधि हीना॥ प्रात लेइ जो नाम हमारा। तेहि दिन ताहि न मिलै अहारा॥
दो०– अस मैं अधम सखा सुनु, मोहू पर रघुबीर।

कीन्ही कृपा सुमिरि गुन, भरे बिलोचन नीर॥७॥

भाष्य

हनुमान जी बोले, हे विभीषण जी! प्रभु श्रीराम जी की पद्धति सुनिये, वे अपने सेवक पर निरन्तर प्रेम करते हैं। भला बताओ, मैं कौन से उच्चकुल में उत्पन्न हुआ व्यक्ति हूँ, मैं चंचल वानरयोनि में उत्पन्न हुआ और सभी विधियों से हीन हूँ। यहाँ तक की जो भी प्रात:काल हम वानरों का नाम ले ले उस दिन उसको भोजन नहीं मिलता। हे मित्र! सुनिये, मैं ऐसे अधम वानर जाति में उत्पन्न हुआ मुझ पर भी रघुवीर श्रीराम ने कृपा कर दी। प्रभु के गुणों का स्मरण करके हनुमान जी के नेत्रों में जल भर आया, अथवा, हनुमान जी के नेत्र जल से भर गये।

विशेष

यहाँ हनुमान जी ने अपने दैन्य का परिचय देते हुए विभीषण जी से यह कहा कि जो प्रात:काल हमारा नाम ले लें उस दिन उसे भोजन नहीं मिलता। प्रभु की कृपा के पहले वानर जाति के पक्ष में भले ही यह वाक्य कुछ अंशों में यथार्थ रहा हो परन्तु प्रभु की कृपा के पश्चात्‌ इसका अर्थ दैन्य के साथ–साथ कुछ और भी समझना

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चाहिए। सरस्वती जी ने हनुमान जी से यह कहलवाया कि श्रीरामकृपा के अनन्तर प्रात:काल जो हमारा नाम ले लेता है उस दिन उसे अहार अर्थात्‌ मन को संसार की ओर ले जानेवाले इन्द्रिय के विषय नहीं मिलते अर्थात्‌ उसका वह सम्पूर्ण दिन श्रीराममय रहता है। अथवा संस्कृत में भगवान्‌ शिव जी को हर कहते हैं, हर अर्थात्‌ शिव जी के प्रिय श्रीरामनाम को हार कहते हैं और उस हार याने श्रीरामनाम से विरूद्ध काम को अहार कहते हैं। अत: जो प्रात:काल हमारा नाम ले लेता है “**तेहि दिन ताहि न मिलै अहारा” अर्थात्‌ उस दिन उसको अहार याने हार श्रीराम से विरूद्ध काम नहीं मिलता। प्रात:काल हनुमान जी के स्मरणमात्र से साधक का वह सम्पूर्ण दिन श्रीराममय ही रहता है “हर: शिव: तस्येदं हारम्‌ रामनाम हार विरुद्ध: अहार: काम:।”

जानतहूँ अस स्वामि बिसारी। फिरहिं ते काहे न होहि दुखारी॥ एहि बिधि कहत राम गुन ग्रामा। पावा अनिर्बाच्य बिश्रामा॥

भाष्य

जानते हुए भी ऐसे स्वामी प्रभु श्रीराम को भूलकर जो लोग इधर–उधर भटकते हैं, वे क्यों नहीं दु:खी होंगे? इस प्रकार श्रीराम के गुणग्राम कहते हुए हनुमान जी ने अनिर्वचनीय विश्राम प्राप्त कर लिया अर्थात्‌ हनुमान जी की प्रतिज्ञा के अनुसार विभीषण जी के मिलने से श्रीराम–कार्य का निश्चय हो गया और उन्हें विश्राम मिल गया।

**पुनि सब कथा बिभीषन कही। जेहि बिधि जनकसुता तहँ रही॥ तब हनुमंत कहा सुनु भ्राता। देखी चहउँ जानकी माता॥ जुगुति बिभीषन सकल सुनाई। चलेउ पवनसुत बिदा कराई॥**
भाष्य

फिर विभीषण जी ने हनुमान जी को वह सब कथा सुनाई, जिस प्रकार जनकनन्दिनी श्रीसीता लंका की अशोक वाटिका में रह रही थीं। तब हनुमान जी ने कहा, हे भैया! सुनिये, मैं माता जानकी जी के दर्शन करना चाहता हूँ। विभीषण जी ने हनुमान जी को सम्पूर्ण युक्ति सुनायी और हनुमान जी विभीषण जी से विदा ले कर, अर्थात्‌ अनुमति लेकर अशोक वाटिका के लिए चल पड़े।

**धरि सोइ रूप गयउ पुनि तहवाँ। बन अशोक सीता रह जहवाँ॥ देखि मनहि मन कीन्ह प्रनामा। बैठेहिं बीति गई निशि जामा॥ कृश तनु शीष जटा एक बेनी। जपति हृदय रघुपति गुन श्रेनी॥** **दो०– निज पद नयन दिए मन, राम चरन महँ लीन।**

परम दुखी भा पवनसुत, देखि जानकी दीन॥८॥ तरु पल्लव महँ रहा लुकाई। करइ बिचार करौं का भाई॥

भाष्य

फिर श्रीहनुमान जी वही अर्थात्‌ विभीषण जी का रूप धारण करके वहाँ गये जहाँ अशोक वाटिका में भगवती सीता जी रह रही थीं। उन्हें देखकर हनुमान जी ने मन में ही प्रणाम कर लिया, और हनुमान जी के बैठेबैेठे एक प्रहर रात बीत गई। सीता जी का शरीर दुर्बल हो गया था। सिर पर जटा का एक जूड़ा था, हृदय में रघुकुल के नाथ भगवान्‌ श्रीराम के गुणों की श्रेणियों, अर्थात्‌ गुण विभागों का जप कर रही थीं। (भगवान्‌ श्रीराम जी के गुणों के ऐश्वर्य, सौन्दर्य और माधुर्य नामक तीन विभाग हैं, उन्हीं का श्रीसीता विभागश: स्मरण कर रही थीं)। श्रीसीता जी ने नेत्रों को अपने चरणों में लगा रखा था और उनका मन भगवान्‌ श्रीराम के श्रीचरणों में लीन था। इस प्रकार जानकी जी को दीन अवस्था में देखकर पवनपुत्र हनुमान जी अत्यन्त दु:खी हुए। हनुमान जी अशोक–वृक्ष के पल्लव में छिपे रहे और विचार करने लगे कि, हे भाई! अब मैं क्या करूँ?

[[६७०]]

**तेहि अवसर रावन तहँ आवा। संग नारि बहु किए बनावा॥ बहु बिधि खल सीतहिं समुझावा। साम दान भय भेद देखावा॥ कह रावन सुनु सुमुखि सयानी। मंदोदरी आदि सब रानी॥ तव अनुचरी करउँ पन मोरा। एक बार बिलोकु मम ओरा॥**
भाष्य

उसी अवसर पर बहुत–सी शृंगार की हुई नारियों को साथ लेकर रावण वहाँ आया। उस खल ने श्रीसीता को बहुत प्रकार से समझाया। उसने साम, दान, भय और भेद का भी प्रदर्शन किया। रावण ने कहा, हे सुमुखी! हे चतुर सीते! सुनिये, मेरा प्रण है, तुम एक बार मेरी ओर देख लो तो मैं मंदोदरी आदि सभी रानियों को तुम्हारी सेविका बना दूँगा।

**तृन धरि ओट कहति बैदेही। सुमिरि अवधपति परम सनेही॥ सुनु दशमुख खद्दोत प्रकासा। कबहुँ कि नलिनी करइ बिकासा॥ अस मन समुझिय कहति जानकी। खल सुधि नहिं रघुबीर बान की॥ शठ सूने हरि आनेसि मोही। अधम निलज्ज लाज नहिं तोही॥**
भाष्य

परमप्रेमास्पद अयोध्यापति श्रीराम का तथा अयोध्या के पूर्व राजा श्रीदशरथ के परमप्रेमास्पद भगवान्‌ श्रीराम का स्मरण करके श्रीसीता जी तिनके का ओट करके अर्थात्‌ अपने और रावण के बीच व्यवधान रूप में तिनके को रखकर कहने लगीं, हे रावण! सुन, कहीं जुगनू के प्रकाश से कमलिनि विकास कर सकती है, जनकनन्दिनी श्रीसीता कहती हैं, तुम्हें भी इसी प्रकार मन में समझना चाहिये। हे खल! क्या तुझे रघुकुल के वीर भगवान्‌ श्रीराम के बाण का समाचार नहीं मिला। अथवा, रघुपति के बाणस्वरूप हनुमान जी के आगमन का समाचार नहीं मिला। अरे शठ! तू मुझे सूने में अर्थात्‌ श्रीराम, लक्ष्मण से रहित कुटिया में से चुरा लाया, अरे अधम, निर्लज्ज तुझे तो लज्जा ही नहीं है।

**विशेष– **व्यवधान के रूप में तृण को रखा, क्योंकि तृण भूमि से उत्पन्न होने के कारण श्रीसीता का भाई है। अथवा, रावण जो लंका श्रीसीता को उपहार के रूप में देना चाहता है वह तृण के समान है और वह शीघ्र ही तृण के समान जलकर राख हो जायेगा। अथवा, जिन श्रीराम के लिए श्रीदशरथ ने तृण के समान अपना शरीर छोड़ दिया, श्रीभरत ने तृण के समान भूषण, वस्त्र और भोग छोड़े, लक्ष्मण जी ने तृण के समान देह, गेह का सम्बन्ध छोड़ा, सन्तजन तृण के समान स्वर्ग–अपवर्ग छोड़ देते हैं और भक्तजन तृण के समान विषय विलास छोड़ देते हैं, उन प्रभु के प्रेम के समक्ष रावण की लंका तृण से भी तुच्छ है। अथवा, श्रीसीता अपनी क्रोधाग्नि में रावण को भस्म कर सकती हैं, परन्तु उन्होंने तृण को व्यवधान के रूप में रखा, क्योंकि श्रीराम दूर्वादल के समान श्यामल हैं, यथा– “***रामं** दूर्वादल श्यामं”।** *इसके और भी भाव श्रीराघवकृपाभाष्य में उपलब्ध कराये जायेंगे।

दो०– आपुहिं सुनि खद्दोत सम, रामहिं भानु समान।
परुष बचन सुनि काढि़ असि, बोला अति खिसियान॥९॥

भाष्य

अपने को जुगनू के समान और भगवान्‌ श्रीराम जी को सूर्यनारायण के समान सुनकर तथा श्रीसीता के मुख से अत्यन्त कठोर वचन सुनकर अत्यन्त खीझा हुआ रावण तलवार निकालकर बोला–

**सीता तैं मम कृत अपमाना। कटिहउँ तव सिर कठिन कृपाना॥ नाहिं त सपदि मानु मम बानी। सुमुखि होति न त जीवन हानी॥** [[६७१]]
भाष्य

हे सीते! तूने मेरा अपमान किया है। मैं अपने कठिन तलवार से तेरा सिर काट दूँगा। हे सुन्दर मुखवाली सीता! नहीं तो शीघ्र ही मेरी वाणी मान ले अन्यथा तेरे जीवन की हानि हो रही है।

**श्याम सरोज दाम सम सुंदर। प्रभु भुज करि कर सम दशकंधर॥ सो भुज कंठ कि तव असि घोरा। सुनु शठ अस प्रमान पन मोरा॥**
भाष्य

श्रीसीता जी बोलीं, हे दसकंधोवाले दुय् रावण! सुन, तेरी तलवार से मेरा सिर कट ही नहीं सकता। जो भगवान्‌ श्रीराम की भुजा नीले कमल की माला के समान सुन्दर है और हाथी के सूँ़ढ के समान सुदृ़ढ और विशाल है, वही भुजा मेरे कण्ठ में पड़ेगी, तेरी घोर तलवार मेरे कण्ठ को कैसे स्पर्श कर सकती है, मेरी ऐसी प्रमाणिक प्रतिज्ञा है।

विशेष

यहाँ अब तक के टीकाकारों ने जो अर्थ लिखा है कि “या तो प्रभु की भुजा मेरे गले में पड़ेगी या तो तेरी तलवार” यह अर्थ, अनर्थ है और टीकाकारों का भ्रम भी, क्योंकि यदि श्रीसीता को रावण की तलवार से अपने गले को कटवाना इय् होता तो फिर ग्यारहवें दोहे में रावण के हाथ सम्भावित मृत्यु पर वे चिन्ता क्यों करती, यथा– “*मास दिवस बीते मोही, मारिहि निशिचर पोच” ***और क्यों आगे चलकर श्रीसीता जी श्रीहनुमान जी को यह कहतीं कि, यदि प्रभु एक महीने में नहीं आयेंगे तो फिर मुझे जीवित नहीं पायेंगे। अत: यहाँ “कि” शब्द का अर्थ विकल्प नहीं प्रत्युत्‌ प्रश्नार्थक हैं। श्रीसीता कहती हैं कि मेरे कण्ठ में प्रभु की सुन्दर भुजा ही पड़ेगी तेरे तलवार की क्या शक्ति?

चंद्रहास हरु मम परितापा। रघुपति बिरह अनल संतापा॥
शीतल निशि तव असि वर धारा। कह सीता हरु मम दुख भारा॥

भाष्य

श्रीसीता ने रावण के तलवार से कहा, हे रावण के चन्द्रहास नामक कृपाण! तू मेरे परिताप अर्थात्‌ पछतावे को और रघुकुल के स्वामी श्रीराघव के विरह अग्नि से उत्पन्न संताप को हर ले और मेरा गला काटने के बदले रावण का ही गला काट दे। हे चन्द्रहास तलवार! तेरी श्रेष्ठधार शीतल चन्द्रमा के समान है, तू मेरे दु:ख के बोझ को समाप्त कर दे और रावण के ही कण्ठ पर लगकर उसे टुक़डे-टुक़डे कर डाल।

**सुनत बचन पुनि मारन धावा। मयतनया कहि नीति बुझावा॥ कहेसि सकल निशिचरिन बोलाई। सीतहिं बहु बिधि त्रासहु जाई॥ मास दिवस महँ कहा न माना। तौ मैं मारब काढि़ कृपाना॥**
भाष्य

श्रीसीता के यह वचन सुनते ही, फिर रावण उन्हें मारने दौड़ा। मयपुत्री मंदोदरी ने नीति कहकर उसे समझाया। रावण ने समझाकर सभी राक्षसियों से कहा कि, तुम लोग जाकर सीता को बहुत प्रकार से धमकाओ और डराओ, कह दो यदि एक महीने के अन्दर मेरा कहा नहीं मानेगी तब मैं तलवार निकालकर उसको मार डालूँगा।

**दो०– भवन गयउ दशकंधर, इहाँ निशाचरि बृंद।** **सीतहिं त्रास देखावहिं, धरहिं रूप बहु मंद॥१०॥**
भाष्य

यह कहकर रावण अपने भवन को चला गया। यहाँ झुण्ड–झुण्ड में विभक्त राक्षसियाँ, श्रीसीता को डर दिखाती हैं और बहुत प्रकार से निकृष्ट रूप धारण करती हैं।

**त्रिजटा नाम राक्षसी एका। राम चरन रति निपुन बिबेका॥ सबहिं बोलाइ सुनाएसि सपना। सीतहिं सेइ करहु हित अपना॥** [[६७२]]
भाष्य

त्रिजटा नाम की एक राक्षसी जो तत्काल सोकर उठी थी, वह भगवान्‌ श्रीराम के श्रीचरणों में भक्तिमति और विवेक अर्थात्‌ ज्ञान में बहुत कुशल थी। उसने सबको बुलाकर अपना स्वप्न सुनाया और कहा, श्रीसीता की सेवा करके सब लोग अपना हित कर लो।

**सपने बानर लंका जारी। जातुधान सेना सब मारी॥ खर आरू़ढ नगन दसशीशा। मुंडित सिर खंडित भुज बीसा॥ एहि बिधि सो दच्छिन दिशि जाई। लंका मनहुँ बिभीषन पाई॥ नगर फिरी रघुबीर दोहाई। तब प्रभु सीता बोलि पठाई॥ यह सपना मैं कहौं बिचारी। होइहि सत्य गए दिन चारी॥**
भाष्य

त्रिजटा ने कहा कि अभी देखे गये मेरे सपने में वानर ने लंका जला दिया उसने राक्षसों की सारी सेना मार डाली। दस सिरोंवाला रावण वस्त्रहीन होकर तथा मुंडन करा, अपनी बीस भुजाओं से खण्डित होकर, इस प्रकार गधे पर च़ढा हुआ दक्षिण दिशा की ओर जा रहा है, मानो विभीषण ने लंका को प्राप्त कर लिया, नगर में श्रीराम की दुहाई फिर गई तब प्रभु ने अशोक वाटिका में बन्दी श्रीसीता को अपने पास बुलवा लिया। मैं इस सपने को विचार कर कह रही हूँ कि यह चार दिन बीतते–बीतते अथवा, आज ही दिन चारि अर्थात्‌ दिन में चरण करने वाले भगवान्‌ सूर्य के अस्त होते–होते सत्य हो जायेगा।

विशेष

वस्तुत: यहाँ भगवान्‌ श्रीराम ने हनुमान जी के एक–एक धर्मसंकट का समाधान करने के लिए त्रिजटा के स्वप्नदर्शन का कौतुक रचाया। जाम्बवान्‌ जी ने हनुमान जी को श्रीसीता के दर्शन करके चले आने की ही बात कही थी। इतने से प्रभु का कार्य बननेवाला नहीं था, इसलिए त्रिजटा के स्वप्नदर्शन के माध्यम से श्रीराघवेन्द्र सरकार ने हनुमान जी को उनके कर्त्तव्यों का संकेत करा दिया कि वे लंका जलाकर, राक्षस सेना का वध करके आज सूर्यास्त होते–होते प्रभु के पास पहुँच सकें।

तासु बचन सुनि ते सब डरीं। जनकसुता के चरननि परीं॥
दो०– जहँ तहँ गईं सकल तब, सीता कर मन सोच।

मास दिवस बीते मोहि, मारिहि निशिचर पोच॥११॥

भाष्य

त्रिजटा का वचन सुनकर वे सब राक्षसियाँ डर गईं और जनकनन्दिनी श्रीसीता के श्रीचरणों में पड़नें लगीं। तब सब जहाँ–तहाँ चली गई, एकान्त में श्रीसीता मन में चिन्ता करने लगीं “एक महीने के दिन बीतने पर नीच रावण मुझे मार डालेगा।”

**विशेष– **यह भगवती श्रीसीता जी के प्रतिबिम्ब में आविष्ट हुई वेदवती के वाक्य हैं, रावण ने पहले उन्हीं के केश पक़डे थे।

त्रिजटा सन बोली कर जोरी। मातु बिपति संगिनि तैं मोरी॥ तजौं देह करु बेगि उपाई। दुसह बिरह अब नहिं सहि जाई॥ आनि काठ रचु चिता बनाई। मातु अनल पुनि देहु लगाई॥ सत्य करहु मम प्रीति सयानी। सुने को स्रवन शूल सम बानी॥

भाष्य

श्रीसीता जी हाथ जोड़कर त्रिजटा से बोलीं, हे माँ! इस विपत्ति में तुम ही मेरी संगिनी हो। मैं यह शरीर छोडूँ, शीघ्र वही उपाय करो। प्रभु का असहनीय विरह अब नहीं सहा जा रहा है। काष्ठ ले आइये उसी की चिता बना दीजिये, हे माँ! फिर उसमें अग्नि लगा दीजिये उसमें प्रविष्ट होकर मैं जल जाऊँ। हे चतुर त्रिजटे! मेरी प्रीति

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को सत्य कर दीजिये अर्थात्‌ प्रभु के वियोग में जी रही मेरी प्रीति झूठी हो रही है, आप उसे सत्य कर दीजिये, रावण की त्रिशूल के समान कठोर वाणी कानों से कौन सुने?

सुनत बचन पद गहि समुझाएसि। प्रभु प्रताप बल सुजस सुनाएसि॥

**निशि न अनल मिल सुनु सुकुमारी। अस कहि सो निज भवन सिधारी॥ भा०– **श्रीसीता का वचन सुनकर चिता की व्यवस्था करने के लिए उठकर ख़डी हुई त्रिजटा ने जानकी जी के श्रीचरणों को पक़डकर समझाया कि, हे राजकुमारी! आप को न तो चिता में प्रविष्ट होने का अधिकार है और न ही मुझे चिता में अग्नि लगाने का, क्योंकि प्राणपति की उपस्थिति में कोई महिला जीवित अवस्था में चिता में कैसे प्रवेश कर सकती है और माँ जीवित बेटी को कैसे अग्निदान दे सकती है? त्रिजटा ने प्रभु श्रीराम के प्रताप, बल और सुयश सुनाये और कहा, हे सुकुमारी! सुनिये, रात्रि में कहीं आग नहीं मिलेगी अथवा आप रात्रि में अग्नि में प्रवेश मत कीजिये। सुनिये, आप सुकुमारी हैं, कठोर बनिये, कुछ घण्टों का विलम्ब है, यह लंका अग्निसात्‌ हो जायेगी। ऐसा कहकर वह त्रिजटा अपने भवन को चली गई।

कह सीता बिधि भा प्रतिकूला। मिलइ न पावक मिटइ न शूला॥ देखियत प्रगट गगन अंगारा। अवनि न आवत एकउ तारा॥ पावकमय शशि स्रवत न आगी। मानहुँ मोहि जानि हत भागी॥ सुनहु बिनय मम बिटप अशोका। सत्य नाम करु हरु मम शोका॥ नूतन किसलय अनल समाना। देहु अगिनि तनु करउँ निदाना॥

भाष्य

श्रीसीता ने कहा, ब्रह्मा जी मेरे प्रतिकूल हो गये हैं, अग्नि नहीं मिल रही है और मेरा कय् नहीं मिट रहा है। आकाश में प्रत्यक्ष रूप से बहुत से अंगारे दिख रहे हैं, परन्तु एक भी तारा पृथ्वी पर नहीं आ रहा है, मानो मुझे हत्‌भागिनी जानकर अग्निमय चन्द्रमा भी अग्नि की वर्षा नहीं कर रहा है। हे अशोक! तू मेरी प्रार्थना सुन ले, अपना नाम सत्य कर और मेरा शोक हर ले। तेरे नवीन पल्लव अग्नि के समान हैं, तू मुझे अग्नि दे दे, मैं शरीर को उसके कारण में मिला दूँ।

**विशेष– **यहाँ श्रीसीता ने क्रम से त्रिजटा, ब्रह्मा जी, तारागण, चन्द्रमा और अशोक से अग्नि माँगा, मानो वे इन पाँच अग्नियों से अपने पाँच भूतों को उनके कारण में मिलाना चाहती थीं अथवा, अग्नि में जलकर मानो अग्नि में रहनेवाली श्रीसीता को वियोगलीला का दायित्व सौंपना चाहती थीं। अशोक ने कहा, मैं आपका भाई हूँ, मुझे अग्नि देने का अधिकार नहीं है, मैं तो आपको अनुराग देने का अधिकारी हूँ। सौभाग्यवती महिला को पति अथवा पुत्र ही अग्नि दे सकते हैं। आगे पुत्र की भूमिका में हनुमान जी मुद्रिका के माध्यम से श्रीसीता को श्रीरामनामरूप अग्नि सौंपेंगे जो श्रीसीता के नहीं प्रत्युत्‌ उनके दु:ख–वन को भस्म कर देगा।

देखि परम बिरहाकुल सीता। सो छन कपिहिं कलप सम बीता॥
सो०– कपि करि हृदय बिचार, दीन्ह मुद्रिका डारि तब।

जनु अशोक अंगार, दीन्ह हरषि उठि कर गहेउ॥१२॥

भाष्य

श्रीसीता को प्रभु के विरह में व्याकुल देखकर वह क्षण श्रीराम–प्रेमरसपानकर्त्ता हनुमान जी महाराज के लिए एक कल्प के समान व्यतीत हुआ। तब हनुमान जी ने हृदय में विचारकर अपने मुख में ली हुई मुद्रिका उगल दी। मानो अशोक वृक्ष ने अग्नि दे दिया, ऐसा समझकर श्रीसीता ने प्रसन्नतापूर्वक उठकर गिरी हुई मुद्रिका को हाथ में ले लिया।

[[६७४]]

**विशेष– द*ीन्ह मुद्रिका डारि तब” *वाक्यखण्ड में प्रयुक्त “डारि” शब्द का अर्थ होता है, उगलना यह विशेषकर, चित्रकूट जनपद में बोला जाता है और यहाँ अर्थसंगत भी है।

तब देखी मुद्रिका मनोहर। राम नाम अंकित अति सुंदर॥
चकित चितव मुद्रिक पहिचानी। हरष बिषाद हृदय अकुलानी॥ जीति को सकइ अजय रघुराई। माया ते असि रची न जाई॥ सीता मन बिचार कर नाना। मधुर बचन बोलेउ हनुमाना॥

भाष्य

तब श्रीसीता ने मन को हरनेवाले अत्यन्त सुन्दर श्रीरामनाम अंकित अतिशय सुन्दर मुद्रिका देखी। चकित होकर देखते हुए श्रीसीता प्रभु की मुद्रिका पहचान गईं। हृदय में उत्पन्न हुए हर्ष और शोक से श्रीसीता व्याकुल हो उठीं, प्रभु के पास से यह आई इस बात से हर्ष हुआ, परन्तु यह आई कैसे? इसने प्रभु के श्रीकरकमल को छोड़ा क्यों? इसका विषाद भी हुआ, क्योंकि प्रभु से दूर होकर कोई सुखी नहीं रह सकता। अत: मुद्रिका की सम्भावित दु:ख की कल्पना करके सीता जी को दु:ख हुआ। अजेय रघुकुल के राजा श्रीराम को युद्ध में कौन जीत सकता है? यदि कहें कि किसी राक्षस ने माया से मुद्रिका बना दी तो यह भी सम्भव नहीं है, क्योंकि इस प्रकार की श्रीरामनाम अंकित चिन्मयी अतिशय सुन्दर मुद्रिका राक्षसी माया से बनाई ही नहीं जा सकती। इस प्रकार श्रीसीता नाना विचार कर रही थीं, उसी बीच हनुमान जी मधुर वचन बोल पड़े।

**रामचंद्र गुन बरनैं लागा। सुनतहिं सीता कर दुख भागा॥ लागीं सुनैं स्रवन मन लाई। आदिहु ते सब कथा सुनाई॥ श्रवनामृत जेहिं कथा सुहाई। कही सो प्रगट होत किन भाई॥**
भाष्य

हनुमान जी श्रीराम के गुणों का वर्णन करने लगे। सुनते ही श्रीसीता का दु:ख भाग गया। श्रीसीता श्रवण में मन लगाकर अथवा श्रवणेन्द्री और मन लगाकर प्रभु की कथा सुनने लगीं। हनुमान जी ने प्रारम्भ से अब तक की सम्पूर्ण कथा सुना दी। सीता जी ने कहा, हे भाई! जिसने श्रवणों को अमृत के समान लगने वाली सुहावनी प्रभुकथा सुनायी वह प्रकट क्यों नहीं हो रहा है?

**तब हनुमंत निकट चलि गयऊ। फिरि बैठी मन बिसमय भयऊ॥ राम दूत मैं मातु जानकी। सत्य शपथ करुनानिधान की॥ यह मुद्रिका मातु मैं आनी। दीन्ह राम तुम कहँ सहिदानी॥ नर बानरहिं संग कहु कैसे। कही कथा भइ संगति जैसे॥**
भाष्य

तब हनुमान जी वृक्ष से उतरकर विनीत वानर वेश में श्रीसीता के निकट चले गये। उन्हें देखकर श्रीसीता के मन में विस्मय हुआ, वे पीछे मुड़कर बैठ गईं। हनुमान जी ने कहा, हे जनकनन्दिनी सीता माता जी! मैं करुणानिधान श्रीराम जी की शपथ करके सत्य कह रहा हूँ कि मैं भगवान्‌ श्रीराम का दूत हूँ। हे माताश्री! यह मुद्रिका आपके पास मैं लाया हूँ, भगवान्‌ श्रीराम ने इसे आपको अभिज्ञान अर्थात्‌ पहचान के रूप में दिया है, क्योंकि वे दानी हैं। श्रीसीता ने पूछा, बताओ नर और वानर में कैसे मित्रता हुई? जिस प्रकार मित्रता हुई थी, हनुमान जी ने श्रीसीता को वह कथा सुना दी।

**दो०– कपि के बचन सप्रेम सुनि, उपजा मन बिश्वास।** **जाना मन क्रम बचन यह, कृपासिंधु कर दास॥१३॥**
भाष्य

हनुमान जी के प्रेमपूर्ण वचन सुनकर माया की श्रीसीता के मन में विश्वास हो गया और वे जान गईं कि यह मन, कर्म और वचन से कृपा के सागर भगवान्‌ श्रीराम का दास है।

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विशेष

श्रीसीता का मुद्रिका को देखकर विकल हो जाना पुन: हनुमान जी को उपस्थित देखकर उनसे पीछे मुड़कर बैठना तथा हनुमान जी को शपथ के लिए विवश करना, नर-वानर की संगति के लिए कथा पूछना पश्चात्‌ उन पर विश्वास करना यह सब कुछ सीता जी के प्रतिबिम्ब में आविष्ट वेदवती का ही कृत्य समझना चाहिए।

हरिजन जानि प्रीति अति बा़ढी। सजल नयन पुलकावलि ठा़ढी॥ बूड़त बिरह जलधि हुनुमाना। भयहु तात मो कहँ जलयाना॥

भाष्य

हनुमान जी को भगवान्‌ का भक्त जानकर श्रीसीता के मन में उनके प्रति बहुत प्रेम ब़ढ गया। श्रीसीता जी के नेत्र सजल हो गये और पुलकित रोमावलि ख़डी हो गई, अथवा, पुलकित होकर श्रीसीता भी ख़डी हो गईं। उन्होने कहा, हे तात! हे हनुमान! प्रभु श्रीराम के विरहसागर में डूबती हुई मुझ सीता के लिए तुम जल के जहाज बन गये।

**अब कहु कुशल जाउँ बलिहारी। अनुज सहित सुख भवन खरारी॥ कोमलचित कृपालु रघुराई। कपि केहि हेतु धरी निठुराई॥**
भाष्य

मैं बलिहारी जाती हूँ, अब तुम छोटे भैया लक्ष्मण के सहित सुख के निवासस्थान, खर के शत्रु श्रीरघुनाथ का कुशल कहो। हे प्रभु प्रेमामृत पीनेवाले हनुमान! कोमल चित्तवाले परमकृपालु श्रीरघुनाथ ने मेरे सम्बन्ध में किस कारण निष्ठुरता धारण कर ली है?

**सहज बानि सेवक सुख दायक। कबहुँक सुरति करत रघुनायक॥ कबहुँ नयन मम शीतल ताता। होइहिं निरखि श्याम मृदु गाता॥**
भाष्य

सेवक को सुख देना जिनका सहज स्वभाव है अथवा, सरल स्वभाववाले, सेवकों को सुख देने वाले रघुकुल के नायक प्रभु कभी मेरा स्मरण करते हैं? हे तात! क्या कभी प्रभु के श्यामल और कोमल अंगों को निहारकर मेरे नेत्र शीतल होंगें?

**बचन न आव नयन भरे बारी। अहह नाथ मोहिं निपट बिसारी॥ देखि परम बिरहाकुल सीता। बोला कपि मृदु बचन बिनीता॥**
भाष्य

श्रीसीता के मुख से वचन नहीं आ रहे हैं, उनके नेत्र में आँसू भरे हैं, वे बोलीं, अहह! खेद और आश्चर्य है कि मेरे नाथ श्रीरघुनाथ ने मुझे पूर्णरूप से भुला दिया। श्रीसीता को विरह में परमव्याकुल देखकर हनुमान जी कोमल और विनम्र वचन बोले–

**मातु कुशल प्रभु अनुज समेता। तव दुख दुखी सुकृपा निकेता॥ जनि जननी मानहु जिय ऊना। तुम ते प्रेम राम के दूना॥**
भाष्य

हे माता जी! छोटे भैया लक्ष्मण जी के साथ प्रभु श्रीराम कुशल से हैं। कल्याणकारिणी कृपा के भवन श्रीराघव आपके दु:ख से दुखित रहते हैं। हे माँ! आप अपने मन को छोटा मत मानिये अर्थात्‌ मन छोटा मत करिये आपसे आपके प्रति श्रीराम का प्रेम दूना है, अर्थात्‌ आपका प्रभु के प्रति जितना प्रेम है, उससे दूना प्रेम है प्रभु का आपके प्रति।

**दो०– रघुपति कर संदेश अब, सुनु जननी धरि धीर।** **अस कहि कपि गदगद भयउ, भरे बिलोचन नीर॥१४॥**

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भाष्य

हे माताश्री! अब धैर्य धारण करके श्रीरघुपति का सन्देश सुनिये, ऐसा कहकर हनुमान जी गदगद हो गये अर्थात्‌ उनका स्वरभंग हो गया और उनके विमलनेत्र अश्रुजल से पूर्ण हो गये।

**राम कहेउ बियोग तव सीता। मो कहँ सकल भए बिपरीता॥ नव तरु किसलय मनहुँ कृशानू। काल निशा सम निशि शशि भानू॥ कुबलय बिपिन कुंत बन सरिसा। बारिद तपत तेल जनु बरिसा॥ जे हित रहे करत तेइ पीरा। उरग श्वास सम त्रिबिध समीरा॥**
भाष्य

अब हनुमान जी के मुख से स्वयं भगवान्‌ श्रीराम बोल पड़े, हे सीते! आपके वियोग में मेरे लिए सारे पदार्थ विपरीत हो गये हैं। नये–नये वृक्षों के पल्लव मानो अग्नि हैं, रात्रि कालरात्रि के समान हो गई है, चन्द्रमा सूर्य हो गये हैं। कमल का वन बर्छी के वन के समान हो गये हैं, बादल मानो खौलती हुई तेल की वर्षा कर रहे हैं। अब तक प्रकृति के जो पदार्थ मेरे लिए हितैषी थे, अनुकूल थे, वे ही अब पीड़ा कर रहे हैं अर्थात्‌ मुझे दु:ख दे रहे हैं। शीतल, मन्द, सुगन्ध तीन प्रकार का वायु मेरे लिए सर्प का श्वास हो गया है।

**कहेहूँ ते कछु दुख घटि होई। काहि कहौं यह जान न कोई॥ तत्व प्रेम कर मम अरु तोरा। जानत प्रिया एक मन मोरा॥ सो मन सदा रहत तोहि पाहीं। जानु प्रीति रस एतनेहि माहीं॥ प्रभु संदेश सुनत बैदेही। मगन प्रेम तन सुधि नहिं तेही॥**
भाष्य

कहने से भी दु:ख कुछ हल्का होता है, पर किससे कहूँ यह कोई भी नहीं जानता? हे प्रिये! मेरे और तुम्हारे प्रेमतत्त्व को एकमात्र मेरा मन ही जानता है और वह मन सदैव तुम्हारे पास रहता है। इतने में ही प्रेम का सार जान लो। प्रभु का संदेश सुनते ही वैदेही श्रीजानकी प्रेम में मग्न हो गईं, उन्हें शरीर की सुधि नहीं रही।

**कह कपि हृदय धीर धरु माता। सुमिरि राम सेवक सुखदाता॥ उर आनहु रघुपति प्रभुताई। सुनि मम बचन तजहु बिकलाई॥**
भाष्य

श्रीहनुमान ने कहा, माता जी! धैर्य धारण कीजिये और सेवकों को सुख देनेवाले प्रभु श्रीराम का स्मरण कीजिये। हृदय में श्रीराम की प्रभुता को धारण कीजिये और मेरे वचन सुनकर व्याकुलता छोड़ दीजिये।

**दो०– निशिचर निकर पतंग सम, रघुपति बान कृशानु।**

**जननी हृदय धीर धरु, जरे निशाचर जानु॥१५॥ भा०– **राक्षससमूह पतंगे के समान हैं और भगवान्‌ श्रीराम के बाण अग्नि हैं। हे माता जी! धैर्य धारण कीजिये और राक्षसों को जला हुआ जानिये।

जौ रघुबीर होति सुधि पाई। करते नहिं बिलंब रघुराई॥
राम बान रबि उए जानकी। तम बरूथ कहँ जातुधान की॥

भाष्य

यदि श्रीरघुवीर आपका समाचार पा गये होते तब रघुवंश के राजा श्रीराम आने में विलम्ब नहीं करते। हे श्रीजनकनन्दिनी जी! राक्षसों के सेनारूप अन्धकार के लिए अब श्रीराम के बाणरूप सूर्य उदित हो गये हैं।

**अबहिं मातु मैं जाउँ लिवाई। प्रभु आयसु नहिं राम दोहाई॥ कछुक दिवस जननी धरु धीरा। कपिन सहित अइहैं रघुबीरा॥ निशिचर मारि तुमहिं लै जैहैं। तिहुँ पुर नारदादि जस गैहैं॥**
भाष्य

हे माताश्री! मैं श्रीराम की दुहाई करके कहता हूँ कि मुझे प्रभु की आज्ञा नहीं है, नहीं तो मैं आपको अभी लिवा जाऊँ। हे माताश्री! कुछ दिनों तक और धैर्य धारण कीजिये, वानरों के सहित रघुवीर श्रीराम आक्रमण करने

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लंका आयेंगे, राक्षसों को मारकर आपको ले जायेंगे और तीनों लोकों में नारद आदि भगवान्‌ के पार्षद श्रीराम– रावण संग्राम का यश गायेंगे।

हैं सुत कपि सब तुमहि समाना। जातुधान अति भट बलवाना॥ मोरे हृदय परम संदेहा। सुनि कपि प्रगट कीन्ह निज देहा॥ कनक भूधराकार शरीरा। समर भयंकर अतिबल बीरा॥ सीता मन भरोस तब भयऊ। पुनि लघु रूप पवनसुत लयऊ॥

भाष्य

श्रीसीता सन्देह के स्वर में बोलीं, हे पुत्र! सभी वानर तो आपके ही समान हैं अर्थात्‌ जैसे आपका शरीर आठ अंगुल का है इतने ही बड़े सभी बन्दर हैं और राक्षस तो अत्यन्त बड़े और बलवान हैं। मेरे हृदय में परमसन्देह है कि, ऐसे निर्बल वानरों की सहायता से प्रभु श्रीराघव सरकार राक्षसी सेना को कैसे जीत सकेंगे? श्रीसीता के संदिग्ध वाक्य सुनकर हनुमान जी ने अपना शरीर प्रकट कर दिया। हनुमान जी का शरीर स्वर्ण के पर्वत के आकार वाला हो गया। हनुमान जी युद्ध में भयंकर अतिशय बल से सम्पन्न वीर योद्धा के रूप में प्रकट हुए, तब श्रीसीता के मन में भरोसा हो गया, फिर पवनपुत्र हनुमान जी ने अपना छोटा रूप ले लिया अर्थात्‌ स्वीकार कर लिया। हनुमान जी स्पष्ट करते हुए बोले–

**दो०– सुनु माता शाखामृगहिं, नहिं बल बुद्धि बिशाल।** **प्रभु प्रताप ते गरुडहिं, खाइ परम लघु ब्याल॥१६॥**
भाष्य

हे माता जी! शाखामृग अर्थात्‌ एक डाल से दूसरे डाल पर कूदनेवाले वानरों में बल और विशाल बुद्धि नहीं होती। आप मुझमें जो बल और बुद्धि की विशालता देख रही हैं, वह मेरा व्यक्तिगत नहीं है। मुझे सब कुछ प्रभु के प्रताप से प्राप्त हुआ है, क्योंकि प्रभु श्रीराम जी के प्रताप से बहुत छोटा सर्प भी गव्र्ड़ को खा सकता है।

**मन संतोष सुनत कपि बानी। भगति प्रताप तेज बल सानी॥ आशिष दीन्ह रामप्रिय जाना। होहु तात बल शील निधाना॥ अजर अमर गुननिधि सुत होहू। करहु बहुत रघुनायक छोहू॥ करिहिं कृपा प्रभु अस सुनि काना। निर्भर प्रेम मगन हनुमाना॥**
भाष्य

प्रभु के प्रताप तथा तेज और बल से सनी हुई हनुमान जी की वाणी सुनकर श्रीसीता के मन में बहुत संतोष हुआ और श्रीजानकी ने हनुमान जी को श्रीराम का प्रिय जाना अर्थात्‌ श्रीसीता जान गईं कि हनुमान जी भगवान्‌ श्रीराम के प्रिय हैं और उनको भगवान्‌ श्रीराम प्रिय हैं। उन्होंने अग्नि में रहनेवाली कृपाशक्ति श्रीजनकनन्दिनी के आवेश से हनुमान जी को सात आशीर्वाद दिए। हे तात! तुम बल और शील के निधान हो जाओ, हे बेटे! तुम अजर हो जाओ अर्थात्‌ तुम्हे बु़ढापा कभी नहीं सताये, तुम अमर हो जाओ, जब तक चाहो तब तक जीवित रहो, तुम सभी गुणसमूहों के सागर बन जाओ, रघुकुल के नायक भगवान्‌ श्रीराम तुम पर छोह अर्थात्‌ बहुत ममत्वपूर्ण प्रेम करें और प्रभु तुम पर सदैव कृपा करें। इस प्रकार श्रीसीता के सात आशीर्वाद अपने कानों से सुनकर हनुमान जी निर्भर प्रेम में मग्न हो गये।

**बार बार नाएसि पद शीशा। बोला बचन जोरि कर कीशा॥ अब कृतकृत्य भयउँ मैं माता। आशिष तव अमोघ बिख्याता॥ सुनहु मातु मोहि अतिशय भूखा। लागि देखि सुंदर फल रूखा॥**
भाष्य

हनुमान जी ने श्रीसीता के श्रीचरणों में बार–बार सिर नवाया और फिर वानरश्रेष्ठ हनुमान जी हाथ जोड़कर बोले, हे माता! अब मैं कृतकृत्य हो गया अर्थात्‌ मेरे लिए जो करणीय था वह कर लिया गया। आपका आशीर्वाद

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अमोघ रूप में प्रसिद्ध है अर्थात्‌ ये मोघ (झूठा) नहीं होगा। मैं अब बलवान, शीलवान, अजर, अमर, गुणनिधि, प्रभु का वात्सल्यभाजन और उन्हीं श्रीरघुनाथ का कृपाभाजन हो गया, परन्तु हे माताश्री! सुनिये, इस अशोक वन के वृक्षों में सुन्दर फल देखकर मुझे अतिशय भूख लग गई है। अत: आप मुझे फल खाने की आज्ञा दीजिये।

सुनु सुत करहिं बिपिन रखवारी। परम सुभट रजनीचर भारी॥ तिन कर भय माता मोहि नाहीं। जौ तुम सुख मानहु मन माहीं॥

भाष्य

श्रीसीता बोलीं, हे पुत्र! सुनो, इस वन की श्रेष्ठ योद्धा और बहुत बड़े-बड़े राक्षस रक्षा करते हैं, इनके रहते फल कैसे खा सकोगे? तब हनुमान जी ने कहा, हे माताश्री! यदि आप अपने मन में सुख मान लें अर्थात्‌ प्रसन्न हो जायें तो मुझे इनका डर नहीं है।

**दो०– देखि बुद्धि बल निपुन कपि, कहेउ जानकी जाहु।**

रघुपति चरन हृदय धरि, तात मधुर फल खाहु॥१७॥

भाष्य

वानरश्रेष्ठ हनुमान जी को बुद्धि और बल में निपुण देखकर जनकनन्दिनी श्रीसीता ने कहा, जाओ और हे तात! रघुपति अर्थात्‌ रघुकुल के स्वामी श्रीराम के श्रीचरणों को अपने हृदय में धारण करके इस अशोक वन के मीठे–मीठे फल खाओ।

**चलेउ नाइ सिर पैठेउ बागा। फल खाएसि तरु तोरै लागा॥ रहे तहाँ बहु भट रखवारे। कछु मारेसि कछु जाइ पुकारे॥**
भाष्य

श्रीसीता को मस्तक नवाकर हनुमान जी चले और अशोक वन के फलों के बगीचे में प्रवेश किया, फल खाये और वृक्षों को तोड़ने लगे। वहाँ रक्षा करनेवाले बहुत से वीर थे, उनमें से कुछ को मार डाला और कुछ ने रावण के यहाँ जाकर पुकार लगाई।

**नाथ एक आवा कपि भारी। तेहि अशोक बाटिका उजारी॥ खाएसि फल अरु बिटप उपारे। रक्षक मर्दि मर्दि महि डारे॥**
भाष्य

हे नाथ! हे राक्षसपति रावण! अशोक वन में एक विशाल वानर आया हुआ है, उसने अशोक वाटिका को उजाड़ डाली। उसने सारे फल खा लिए और फलवाले वृक्षों को उखाड़ कर फेंक दिया तथा रक्षकों को मसल– मसलकर चूर्ण करके पृथ्वी पर फेंक दिया।

**सुनि रावन पठए भट नाना। तिनहिं देखि गर्जेउ हनुमाना॥ सब रजनीचर कपि संघारे। गए पुकारत कछु अधमारे॥**
भाष्य

रक्षकों के मुख से अशोकवाटिका का विनाश सुनकर रावण ने अनेक योद्धा भेजे, उन्हें देखकर हनुमान जी गरज उठे। हनुमान जी ने सभी राक्षसों का संहार कर दिया। कुछ अधमरे राक्षस पुकार लगाते हुए रावण के पास गये जब तक पाँच सेनापतियों और सात मंत्रीपुत्रों का हनुमान जी महाराज ने वध कर दिया।

**पुनि पठयउ तेहि अक्षकुमारा। चला संग लै सुभट अपारा॥ आवत देखि बिटप गहि तर्जा। ताहि निपाति महाधुनि गर्जा॥**
भाष्य

फिर रावण ने अपने सबसे छोटे पुत्र अक्षकुमार को युद्ध में भेजा। वह अपार अर्थात्‌ युद्ध में जिसका कोई पार नहीं पा सके, ऐसे सुभटों को साथ लेकर चला। अक्षकुमार को आते देखकर हनुमान जी ने वृक्ष को लेकर उसे तर्जा अर्थात्‌ डाँटा, वृक्ष से ही मारा और अक्षकुमार का वध करके हनुमान जी ने महाध्वनि में गर्जना की। हनुमान जी की महाध्वनि वाल्मीकि रामायण में इस प्रकार है–

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ज्यत्यतिबलो रामो लक्ष्मणश्च महाबल:।

राजा जयति सुग्रीवो राघवेणाभिपालित:॥

दासोऽहं कोसलेन्द्रस्य रामस्याक्लिष्टकर्मण:।

हनूमाञ्शत्रुसैन्यानां निहन्ता मारुतात्मज:॥

न रावणसहसं्र मे युद्धे प्रतिबलं भवेत्‌।

शिलाभिश्च प्रहरत: पादपैश्च सहस्रश:॥

अर्दयित्वा पुरीं लंङ्कामभिवाद्द च मैथिलीम्‌।

**समृद्धार्थोगमिष्यामि मिषतां सर्वरक्षसाम॥ **(वा०रा० ५़ ४३-३३, ३४, ३५, ३६)

अर्थात्‌ अतिशय बलवाले श्रीराम की जय हो! महाबली लक्ष्मण जी की जय हो! श्रीराघव द्वारा पालित राजा सुग्रीव जी की जय हो। मैं पवित्र कर्म करनेवाले अयोध्यापति श्रीराम जी का सेवक शत्रु सेनाओं को नष्ट करने वाला वायुपुत्र हनुमान हूँ। शिलाओं और सहस्रों वृक्षों से प्रहार करते हुए, मेरे सामने अनेक रावण युद्ध में प्रतिबल अर्थात्‌ समान बलवाले प्रतिद्वन्द्वी नहीं हो सकते। मैं सभी राक्षसों के देखते–देखते लंका को तहस–नहस करके जनकनन्दिनी श्रीसीता जी को प्रणाम करके, अपने प्रयोजनों को सिद्ध करके यहाँ से सकुशल लौट जाऊँगा, यही उनकी महाध्वनि है।

दो०– कछु मारेसि कछु मर्देसि, कछु मिलएसि धरि धूरि।

कछु पुनि जाइ पुकारे, प्रभु मर्कट बल भूरि॥१८॥

भाष्य

हनुमान जी ने कुछ को मारा, कुछ को मसल दिया, कुछ को पक़ड धूल में मिला दिया। युद्ध में बचे हुए राक्षस जाकर रावण के पास चिल्लाये, प्रभु! वह वानर तो अनन्त बलशाली है अर्थात्‌ वह मर्कट मारता भी है और काटता भी है।

**सुनि सुत बध लंकेश रिसाना। पठएसि मेघनाद बलवाना॥**

मारसि जनि सुत बाँधेसु ताही। देखिय कपिहिं कहाँ कर आही॥ चला इंद्रजित अतुलित जोधा। बंधु बधन सुनि उपजा क्रोधा॥ कपि देखा दारुन भट आवा। कटकटाइ गर्जा अरु धावा॥ अति बिशाल तरु एक उपारा। बिरथ कीन्ह लंकेश कुमारा॥ रहे महाभट ताके संगा। गहि गहि कपि मर्देसि निज अंगा॥

भाष्य

पुत्र अक्षकुमार का वध सुनकर लंकापति रावण क्रुद्ध हो गया और उसने बलवान मेघनाद को भेजा और कहा, हे पुत्र! वानर को मारना नहीं, उसे बाँधकर ले आना, देखा जाये वह वानर कहाँ का है अर्थात्‌ उसे देवताओं ने भेजा है या दानवों ने। इन्द्र को जीतने वाला अतुलनीय योद्धा मेघनाद चला। हनुमान जी द्वारा अपने छोटे भाई का वध सुनकर मेघनाद के मन में बहुत क्रोध उत्पन्न हुआ। हनुमान जी ने देखा भयंकर वीर मेघनाद आ गया है। हनुमान जी दाँतों को कटकटाते हुए गरजे और दौड़े, एक अत्यन्त विशाल वृक्ष उखाड़ लिया और उसके प्रहार से लंकापति रावण के बड़े पुत्र मेघनाद को विरथ कर दिया अर्थात्‌ उसका रथ तोड़ दिया, उसके साथ जो महाभट अर्थात्‌ श्रेष्ठवीर राक्षस थे उनको पक़ड-पक़ड अपने अंगों मे ही मसल डाला।

**तिनहिं निपाति ताहि सन बाजा। भिरे जुगल मानहुँ गजराजा॥ मुठिका मारि च़ढा तरु जाई। ताहि एक छन मुरछा आई॥ उठि बहोरि कीन्हेसि बहु माया। जीति न जाइ प्रभंजन जाया॥**

[[६८०]]

दो०– ब्रह्म अस्त्र तेहिं साँधेउ, कपि मन कीन्ह बिचार।

जौ न ब्रह्मशर मानउँ, महिमा मिटइ अपार॥१९॥

भाष्य

मेघनाद के उन वीर सैनिकों को मारकर हनुमान जी मेघनाद से ही लड़ने लगे। दोनो ऐसे भिड़े मानो दो ऐरावत हाथी भिड़ गये हों। हनुमान जी मेघनाद को एक मुक्का मारकर वृक्ष पर जा च़ढे। मेघनाद को एक क्षण के लिए मूर्च्छा आ गई। फिर उठकर मेघनाद ने बहुत–सी कुत्सित मायायें प्रकट की, किन्तु प्रभन्जन अर्थात्‌ वायु के पुत्र हनुमान जी मेघनाद से नहीं जीते जा रहे थे अर्थात्‌ जब माया के बल का प्रयोग करके मेघनाद हनुमान जी को नहीं जीत पाया तब मेघनाद ने ब्रह्मास्त्र का संधान किया। हनुमान जी ने मन में विचार किया यदि ब्रह्मास्त्र बाण को नहीं मानता हूँ तो ब्रह्मा जी की अपार महिमा मिट जायेगी, इसलिए इसे स्वीकार करके मुझे थोड़ी देर के लिए मूर्च्छित हो जाना चाहिये।

**ब्रह्मबान कपि कहँ तेहि मारा। परतिहुँ बार कटक संघारा॥ तेहिं देखा कपि मुरछित भयऊ। नागपाश बाँधेसि लै गयऊ॥ जासु नाम जपि सुनहु भवानी। भव बंधन काटहिं नर ग्यानी॥ तासु दूत कि बंध तर आवा। प्रभु कारज लगि कपिहिं बँधावा॥**
भाष्य

मेघनाद ने हनुमान जी को ब्रह्मबाण मारा, हनुमान जी ने भूमि पर गिरते समय भी मेघनाद की सेना का संहार कर डाला। उसने अर्थात्‌ मेघनाद ने देखा की अब तो वानरश्रेष्ठ हनुमान जी मूर्च्छित हो गये हैं, फिर हनुमान जी को मेघनाद ने नागपाश में बाँधा और रावण की राजसभा में ले गया। शिव जी, पार्वती जी को सावधान करते हुए कहते हैं कि, हे पार्वती! सुनिये, जिन प्रभु श्रीराम का श्रीरामनाम जपकर ज्ञानी–जीव भवबन्धन को काट देते हैं, उन प्रभु श्रीराम का दूत क्या बन्धन के नीचे आ सकता है? हनुमान जी ने तो प्रभु के कार्य के लिए मेघनाद से स्वयं अपने को बँधवा लिया।

**कपि बंधन सुनि निशिचर धाए। कौतुक लागि सभा सब आए॥ दशमुख सभा दीखि कपि जाई। कहि न जाइ कछु अति प्रभुताई॥ कर जोरे सुर दिशिप बिनीता। भ्रुकुटि बिलोकत सकल सभीता॥ देखि प्रताप न कपि मन शंका। जिमि अहिगन महँ गरुड अशंका॥**
भाष्य

हनुमान जी को बँधा जाना सुनकर राक्षस दौड़े और कौतुक देखने अर्थात्‌ खेल देखने के लिए सभी रावण की सभा में आ गये। हनुमान जी ने भी जाकर रावण की सभा देखी। रावण की अत्यन्त प्रभुता कही नहीं जाती है। वहाँ देवता हाथ जोड़े हुए ख़डे थे, दसों दिग्पाल विनम्रभाव से उपस्थित थे। सभी भयभीत हुए रावण की भृकुटि देख रहे थे। रावण का यह प्रताप देखकर भी हनुमान जी के मन में शंका नहीं थी, जैसे साँपों के समूह के बीच गरुड़ जी निर्भीक रहते हैं।

**दो०– कपिहिं बिलोकि दशानन, बिहँसा कहि दुर्बाद।**

सुत बध सुरति कीन्हि पुनि, उपजा हृदय बिषाद॥२०॥

भाष्य

हनुमान जी को देखकर उन्हें अभद्र बात कहकर रावण ने उनका बहुत परिहास किया फिर पुत्रवध का स्मरण किया तो उसके हृदय में बहुत कष्ट हुआ।

**कह लंकेश कवन तैं कीसा। केहि के बल घालेसि बन खीसा॥ की धौं स्रवन सुनेसि नहिं मोही। देखउँ अति अशंक शठ तोही॥ मारे निशिचर केहि अपराधा। कहु शठ तोहि न प्रान कइ बाधा॥**

[[६८१]]

भाष्य

लंकापति रावण ने कहा, अरे वानर! तू कौन है, किस के बल से तूने खीझकर वन को नष्ट कर डाला? क्या तुमने अपने कानों से मुझे नहीं सुना है? अरे दुष्ट! तुझको मैं निर्भीक देख रहा हूँ। तूने किस अपराध से राक्षसों को मारा? अरे दुष्ट! बोल, तुझे अपने प्राणों की वाधा अर्थात्‌ डर नहीं है।

**सुनु रावन ब्रह्मांड निकाया। पाइ जासु बल बिरचति माया॥ जाके बल बिरंचि हरि ईशा। सिरजत पालत हर दशशीशा॥ जा बल शीष धरत सहसानन। अंडकोष समेत गिरि कानन॥ धरइ जो बिबिध देह सुरत्राता। तुम से शठन सिखावन दाता॥ हर कोदंड कठिन जेहिं भंजा। तोहि समेत नृप दल मद गंजा॥ खर दूषन त्रिशिरा अरु बाली। बधे सकल अतुलित बलशाली॥**

दो०– जाके बल लवलेश ते, जितेहु चराचर झारि।

तासु दूत मैं जाहि करि, हरि आनेहु प्रिय नारि॥२१॥

भाष्य

हनुमान जी ने उत्तर दिया, हे रावण! सुन, जिसका बल पाकर विद्दामाया अनेक ब्रह्माण्डों की रचना कर देती है, हे दस सिरोंवाले रावण! जिनके बल से ब्रह्मा जी जगत्‌ की सर्जना करते हैं, विष्णु जी जगत्‌ का पालन करते हैं और शिव जी जगत्‌ का संहार कर देते हैं। जिनके बल से सहस्रमुख वाले शेषनारायण पर्वतों और वनों के सहित इस ब्रह्माण्डकोश को अपने एक सिर पर धारण कर लेते हैं। तुम जैसे दुष्ट को शिक्षा देने के लिए और देवताओं की रक्षा करने के लिए जो भगवान्‌ अनेक शरीर को धारण करते हैं। सीतास्वयंवर में जिन्होंने शिव जी के कठिन पिनाक धनुष को तोड़ दिया था और तुम्हारे साथ सम्पूर्ण राजसमूह का बल, मद नष्ट कर दिया था, जिन्होंने खर, दूषण, त्रिशिरा और बालि जैसे अतुलनीय बलशालियों का वध किया। तुमने भी जिन प्रभु साकेताधिपति, ब्रह्मा जी, विष्णु जी तथा शङ्कर के भी पूज्य भगवान्‌ श्रीराम के बल के परमाणु के लेशमात्र से सम्पूर्ण चराचरों को जीत लिया था, जिनकी प्रियपत्नी श्रीसीता को तू हर लाया, मैं उन्हीं देवाधिदेव भगवान्‌ श्रीराम का दूत हूँ।

**विशेष– **इस प्रकरण में त्राता और दाता शब्द हेतु अर्थ को तृन \(३.२.१३५\) पाणिनिसूत्र से तृन प्रत्यान्त होकर निष्पन्न हुआ है, इसलिए यहाँ त्राता शब्द का अर्थ है रक्षा करने के लिए और दाता शब्द का अर्थ है देने के लिए।

जानउँ मैं तुम्हारि प्रभुताई। सहसबाहु सन परी लराई॥

समर बालि सन करि जस पावा। सुनि कपि बचन बिहँसि बहरावा॥ खायउँ फल मोहि लागी भूखा। कपि स्वभाव ते तोरेउँ रूखा॥ सब के देह परम प्रिय स्वामी। मारहिं मोहि कुमारग गामी॥ जिन मोहि मारे तिन मैं मारा। तेहि पर बाँधेउ तनय तुम्हारा॥ मोहि न कछु बाँधे कइ लाजा। कीन्ह चहउँ निज प्रभु कर काजा॥

भाष्य

मैं तुम्हारी प्रभुता जानता हूँ सहस्रबाहु के साथ तुम्हारी लड़ाई आ पड़ी थी (जहाँ तुम पराजित हुए थे) और बालि के साथ युद्ध करके भी तुमने यश पाया (छ: महीने बालि के काँख में दबा रहा।) हनुमान जी का वचन सुनकर हँसकर रावण ने बहला दिया अर्थात्‌ उस विषय को टाल दिया। हनुमान जी ने कहा मैंने अशोक वाटिका के फल खाये, क्योंकि मुझे भूख लगी थी और अपने वानर स्वभाव से वृक्षों को तोड़ा। हे कुमार्गगामियों के स्वामी! सब को शरीर परमप्रिय होता है, जब कुमार्ग पर चलनेवाले आपके सैनिक मुझे मारने लगे, तब जिन्होंने

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मुझे मारा उनको मैंने भी मारा। उस पर भी आपके पुत्र मेघनाद ने मुझे बाँध लिया। मुझे बाँधे जाने की कोई लज्जा नहीं है मैं तो अपने प्रभु श्रीराम का कार्य करना चाहता हूँ।

बिनती करउँ जोरि कर रावन। सुनहु मान तजि मोर सिखावन॥ देखहु तुम निज हृदय बिचारी। भ्रम तजि भजहु भगत भय हारी॥ जाके डर अति काल डेराई। जो सुर असुर चराचर खाई॥

तासों बैर कबहुँ नहिं कीजै। मोरे कहे जानकी दीजै॥

भाष्य

हे रावण! मैं हाथ जोड़कर प्रार्थना करता हूँ अपना अहंकार छोड़कर मेरी सिखावन अर्थात्‌ शिक्षा सुन, तुम अपने हृदय में विचार करके तो देखो। अपना भ्रम छोड़कर भक्तों के भयहारी प्रभु श्रीराम का भजन करो। जो देवता, दैत्य और सचराचर को खा लेता है, ऐसा काल भी जिनके डर से बहुत डरता है, उन प्रभु श्रीराम से कभी वैर मत कीजिये, मेरे कहने से श्रीराम को भगवती श्रीजानकी जी का समर्पण कर दीजिये।

**दो०– प्रनतपाल रघुबंश मनि, करुना सिंधु खरारि।**

गए शरन प्रभु राखिहैं, तव अपराध बिसारि॥२२॥

भाष्य

भगवान्‌ श्रीराम चरणों में प्रणाम करनेवालों के पालक, रघुकुल के मणि, करुणा के सागर और तुम्हारे छोटे भ्राता खर नामक राक्षस के शत्रु हैं। शरण में चले जाने पर तुम्हारे सब अपराधों को भूलकर प्रभु रक्षा कर लेंगे।

**राम चरन पंकज उर धरहू। लंका अचल राज तुम करहू॥ रिषि पुलस्त्य जस बिमल मयंका। तेहिं कुल महँ जनि होहु कलंका॥**
भाष्य

हे रावण! हृदय में श्रीराम के श्रीचरणकमल को धारण कर लो, तुम लंका का अचल राज्य करो। ऋषि पुलत्स्य का यश निर्मल–निष्कलंक चन्द्रमा है, उस कुल में तुम कलंक मत बनो।

**राम नाम बिनु गिरा न सोहा। देखु बिचारि त्यागि मद मोहा॥ बसन हीन नहिं सोह सुरारी। सब भूषन भूषित बर नारी॥**
भाष्य

श्रीरामनाम के बिना वाणी नहीं शोभित होती, मद, मोह का त्याग करके विचार करके तो देखो। हे देवशत्रु रावण! जिस प्रकार से सभी आभूषणों से सजी हुई श्रेष्ठनारी वस्त्र के बिना नहीं शोभित होती, श्रीरामनाम के बिना वाणी की भी वही दशा समझनी चाहिये।

**राम बिमुख संपति प्रभुताई। जाइ रही पाई बिनु पाई॥ सजल मूल जिन सरितन नाहीं। बरषि गए पुनि तबहिं सुखाहीं॥**
भाष्य

भगवान्‌ श्रीराम से विमुख व्यक्ति की सम्पत्ति और प्रभुता पूर्व से रहते हुए भी भगवत्‌ विमुखता के पश्चात्‌ चली जाती है, पायी हुई बिना पायी हुई के समान हो जाती है अर्थात्‌ प्राप्त करने वाले के किसी भी प्रयोजन को सिद्ध नहीं करती।

**सुनु दशकंठ कहउँ पन रोपी। बिमुख राम त्राता नहिं कोपी॥ शङ्कर सहस बिष्णु अज तोही। सकहिं न राखि राम कर द्रोही॥**
भाष्य

हे रावण! सुन, मैं प्रतिज्ञा करके कहता हूँ कि श्रीराम से विमुख प्राणी का कोई भी रक्षक नहीं बनता। तुझ श्रीरामद्रोही को करोड़ों शङ्कर, करोड़ों विष्णु और करोड़ों ब्रह्मा भी नहीं बचा सकते अर्थात्‌ अपनी शरण में नहीं रख सकते।

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दो०– मोहमूल बहु शूल प्रद, त्यागहु तुम अभिमान।

भजहु राम रघुनायकहिं, कृपा सिंधु भगवान॥२३॥

भाष्य

अब तू बहुत कष्टों को देनेवाले मोह के कारणस्वरूप अपने अहंकार को छोड़ दे और कृपा के सागर रघुकुल के नायक भगवान्‌ श्रीराम का भजन कर।

**जदपि कहीं कपि अति हित बानी। भगति बिबेक बिरति नय सानी॥ बोला बिहँसि महा अभिमानी। मिला हमहिं कपि गुरु बड़ ग्यानी॥ मृत्यु निकट आई खल तोहीं। लागेसि अधम सिखावन मोहीं॥ उलटा होइहि कह हनुमाना। मतिभ्रम तोर प्रगट मैं जाना॥ सुनि कपि बचन बहुत खिसियाना। बेगि न हरहु मू़ढकर प्राना॥ सुनत निशाचर मारन धाए। सचिवन सहित बिभीषन आए॥ नाइ शीष करि बिनय बहूता। नीति बिरोध न मारिय दूता॥ आन दंड कछु करिय गोसाँई। सबहीं कहा मंत्र भल भाई॥**
भाष्य

यद्दपि हनुमान जी ने भक्ति, ज्ञान, वैराग्य और नीति से सनी हुई अत्यन्त हितैषिणीं वाणी कही फिर भी महाअभिमानी रावण हँसकर बोला, मुझे बहुत–बड़ा ज्ञानी वानर ही गुव्र् मिला। अरे दुय्! मृत्यु तुम्हारे निकट आ गई है, तू मुझे सिखाने लगा है। हनुमान जी ने कहा, यह सब उल्टा होगा अर्थात्‌ मेरे निकट नहीं मृत्यु तो तेरे निकट है। मैंने तुम्हारा प्रत्यक्ष बुद्धिभ्रम जान लिया है। हनुमान जी के वचन सुनकर रावण बहुत चि़ढ गया और उसने कहा, इस मूर्ख का प्राण शीघ्र ही क्यों नहीं ले लेते? यह सुनकर राक्षस लोग हनुमान जी को मारने दौड़े। उसी समय अपने मंत्रियों के सहित विभीषण जी रावण की सभा में आये। विभीषण जी ने रावण को मस्तक नवाकर बहुत विनय किया और कहा कि, नीति के विरुद्ध परदूत को नहीं मारना चाहिये। अन्यथा, इस कर्म से राजनीति का विरोध होगा, विदेशी दूत को मत मारिये। हे राक्षसों की भूमि के स्वामी भाई रावण! दूसरा कुछ–दण्ड विधान कर दीजिये। सबने कहा, यह मंत्रणा भली है।

**सुनत बिहँसि बोला दशकंधर। अंग भंग करि पठइय बंदर॥**

दो०– कपि के ममता पूँछ पर, सबहिं कह्यो समुझाइ।

तेल बोरि पट बाँधि पुनि, पावक देहु लगाइ॥२४॥

भाष्य

विभीषण जी के वचन सुनकर रावण हँसकर बोला, इस बन्दर को अंग–भंग करके भेजना चाहिये अर्थात्‌ इसे विकलांग बनाकर भेजा जाये। रावण ने सबको समझाकर कहा कि वानर की पूँछ पर ममता होती है, इसलिए वस्त्र को तेल में डुबोकर उन्हीं वस्त्रों से इसकी पूँछ बाँधकर उसमें आग लगा दो अर्थात्‌ इसकी पूँछ जलाकर इसे बाँड़ा कर दो।

**पूँछ हीन बानर तहँ जाइहि। तब शठ निज नाथहिं लइ आइहि॥ जिन कै कीन्हेसि बहुत बड़ाई। देखउँ मैं तिन कै प्रभुताई॥**
भाष्य

जब यह वानर पूँछ से हीन होकर जायेगा, तब यह दुष्ट अपने स्वामी को भी ले आयेगा, जिनकी इसने बहुत बड़ाई की है, मैं उनकी प्रभुता तो देखूँ।

**बचन सुनत कपि मन मुसुकाना। भइ सहाय शारद मैं जाना॥ जातुधान सुनि रावन बचना। लागे रचन मू़ढ सोइ रचना॥**

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भाष्य

रावण का वचन सुनकर हनुमान जी मन में मुस्कुराये और कहने लगे कि, मैं जान गया अब सरस्वती जी सहायक हो गई हैं अर्थात्‌ रावण की बुद्धि उसी प्रकार फेर दी जिससे इसका विनाश हो जाये। मूर्ख राक्षस रावण का वचन सुनकर वही रचना रचने लगे अर्थात्‌ तेल और घी में डुबो–डुबोकर कपड़े हनुमान जी की पूँछ में बाँधने लगे।

**रहा न नगर बसन घृत तेला। बा़ढी पूँछ कीन्ह कपि खेला॥ कौतुक कहँ आए पुरबासी। मारहिं चरन करहिं बहु हाँसी॥ बाजहिं ढोल देहि सब तारी। नगर फेरि पुनि पूँछ प्रजारी॥**
भाष्य

नगर में वस्त्र, तेल और घी नहीं बचा, हनुमान जी की पूँछ ब़ढती गई और राक्षस तेल, घी में डुबो– डुबोकर कपड़े बाँधते गये। हनुमान जी ने भी वानर का खेल किया सारे कपड़े तेल, घी के समाप्त होने पर भी हनुमान जी की पूँछ का ब़ढना समाप्त नहीं हुआ। कौतुक देखने के लिए आये हुए लंकापुरवासी चरणों से हनुमान जी को मारने लगे और उनकी बहुत हँसी करने लगे। ढोल आदि बाजे बजने लगे, सभी बच्चे ताली बजाने लगे। हनुमान जी को नगर में भ्रमण कराकर फिर उनकी पूँछ में प्रहस्त आदि राक्षसों ने आग जलायी।

**पावक जरत देखि हनुमंता। भयउ परम लघु रूप तुरंता॥ निबुकि च़ढेउ कपि कनक अटारी। भईं सभीत निशाचर नारी॥**
भाष्य

अग्नि को जलते हुए देखकर हनुमान जी तुरन्त बहुत छोटे रूप में हो गये अर्थात्‌ अग्नि ने हनुमान जी को नहीं जलाया, क्योंकि अग्नि में निवास करती हुई श्रीसीता ने अग्निज्वाला को नियंत्रित कर दिया। हनुमान जी स्वयं को बँधन से छुड़ाकर स्वर्ण की अट्टालिका पर च़ढ गये, सभी राक्षस नारियाँ डर गईं।

**दो०– हरि प्रेरित तेहि अवसर, चले मरुत उनचास।**

अट्टहास करि गर्जा, कपि बढि़ लाग अकास॥२५॥

भाष्य

उसी अवसर पर हरि, वायु देवता और हरि भगवान्‌ श्रीराम से प्रेरित हुए उनचासों वायु चल पड़े, हनुमान जी अट्टहास करके गरजे और ब़ढकर आकाशमण्डल में लग गये।

**देह बिशाल परम हरुआई। मंदिर ते मंदिर च़ढ धाई॥ जरत नगर भये लोग बिहाला। झपट लपट बहु कोटि कराला॥ तात मातु हा सुनिय पुकारा। एहिं अवसर को हमहिं उबारा॥ हम जो कहा यह कपि नहिं होई। बानर रूप धरे सुर कोई॥**
भाष्य

हनुमान जी का शरीर बहुत विशाल है पर उसमें बहुत हल्कापन है। वे एक मन्दिर से दूसरे मन्दिर पर दौड़कर च़ढ रहे हैं। नगर के जलते समय सभी लोग व्याकुल हो उठे। असंख्य करोड़ अग्नि की भयंकर लपटें झपट रही हैं अर्थात्‌ लपक–लपककर सब को जला रही हैं। इस समय हा, तात! हा, माता! शब्द की पुकार सुनायी पड़ रही है। इस अवसर पर हमें कौन बचायेगा? हम ने जो कहा था यह वानर नहीं हो सकता, यहाँ तो किसी देवता ने वानर का स्वरूप धारण कर लिया है।

**साधु अवग्या कर फल ऐसा। जरइ नगर अनाथ कर जैसा॥ जारा नगर निमिष एक माहीं। एक बिभीषन कर गृह नाहीं॥**
भाष्य

साधु के अपमान का इसी प्रकार का फल मिलता है, जिसके कारण अनाथ के जैसा यह नगर जल रहा है। हनुमान जी ने एक क्षण में पूरा नगर जला दिया, विभीषण का भवन और एकमात्र अशोकवाटिका नहीं जलायी।

[[६८५]]

ता कर दूत अनल जेहिं सिरिजा। जरा न सो तेहि कारन गिरिजा॥ उलटि पलटि लंका सब जारी। कूदि परा पुनि सिंधु मझारी॥

भाष्य

हे पार्वती! हनुमान जी उन प्रभु श्रीराम के दूत हैं, जिन्होंने अग्नि की रचना की है, इसलिए अग्नि के भीतर रहकर भी हनुमान जी नहीं जले। उलट–पलटकर अर्थात्‌ इस ओर से उस ओर पुन: उस ओर से इस ओर भ्रमण करके हनुमान जी ने सम्पूर्ण लंका जला दी फिर वे समुद्र के मध्य में कूद पड़े।

**दो०– पूँछ बुझाइ खोइ श्रम, धरि लघु रूप बहोरि।**

जनकसुता के आगे, ठा़ढ भयउ कर जोरि॥२६॥

भाष्य

अपने पूँछ को बुझाकर समुद्र के शीतल जल में श्रम दूर करके फिर छोटा सा रूप धारण करके, हनुमान जी जनकनन्दिनी श्रीसीता के समक्ष हाथ जोड़कर ख़डे हो गये।

**मातु मोहि दीजै कछु चीन्हा। जैसे रघुनायक मोहि दीन्हा॥ चूड़ामनि उतारि तब दयऊ। हरष समेत पवनसुत लयऊ॥**
भाष्य

हनुमान जी बोले, हे माता जी! जिस प्रकार श्रीरघुनाथ ने मुझे मुद्रिका का चिन्ह दिया था, उसी प्रकार आप भी मुझे कुछ पहचानी दीजिये। तब श्रीसीता ने चूड़ामणि को ही शीश पर से उतार कर दे दिया और पवनपुत्र हनुमान जी ने भी चूड़ामणि ले लिया।

**कहेहु तात अस मोर प्रनामा। सब प्रकार प्रभु पूरनकामा॥ दीन दयाल बिरद संभारी। हरहु नाथ मम संकट भारी॥**
भाष्य

श्रीसीता ने कहा, हे तात! मेरा प्रणाम कहकर प्रभु से इस प्रकार सन्देशा कहना कि हे श्रीराघवेन्द्र! आप सब प्रकार से पूर्णकाम हैं, हे नाथ! अपना दीनदयालरूप–यश का स्मरण करके मेरा बहुत–बड़ा संकट हर लीजिये।

**तात शक्रसुत कथा सुनाएहु। बान प्रताप प्रभुहिं समुझाएहु॥ मास दिवस महँ नाथ न आवैं। तौ पुनि मोहि जियत नहिं पावैं॥**
भाष्य

हे तात! इन्द्र पुत्र जयन्त की कथा सुना देना और प्रभु को उनके बाण का प्रताप समझा देना। यदि एक महीने के भीतर श्रीरघुनाथ नहीं आयेंगे तो फिर मुझे जीवित नहीं पायेंगे।

**कहु कपि केहि बिधि राखौं प्राना। तुमहूँ तात कहत अब जाना॥ तुमहिं देखि शीतल भइ छाती। पुनि मो कहँ सोइ दिन सो राती॥**
भाष्य

हे हनुमान जी! आप ही बताइये कि मैं प्राणों को किस प्रकार रखूँ, क्योंकि अब तो आप भी जाने के लिए कह रहे हैं। आपको देखकर मेरी छाती शीतल हो गई थी, पुन: मेरे लिए वही दिन और वही रात।

**दो०– जनकसुतहिं समुझाइ करि, बहु बिधि धीरज दीन्ह।**

**चरन कमल सिर नाइ कपि, गमन राम पहँ कीन्ह॥२७॥ भा०– **जनकनन्दिनी श्रीसीता को समझाकर हनुमान जी ने उन्हें बहुत प्रकार से धैर्य बँधाया। पुन: भगवती श्रीसीता जी के श्रीचरणकमलों में मस्तक नवाकर हनुमान जी ने भगवान्‌ श्रीराम के पास प्रस्थान किया।

चलत महाधुनि गर्जेसि भारी। गर्भ स्रवेउ सुनि निशिचर नारी॥ नाघि सिंधु एहि पारहिं आवा। शबद किलिकिला कपिन सुनावा॥

[[६८६]]

भाष्य

चलते हुए हनुमान जी ने महाध्वनि में भारी गर्जना की, सुनकर राक्षसपत्नियों ने गर्भस्राव कर दिया। हनुमान जी समुद्र को लाँघकर इस पार अर्थात्‌ उत्तरी तट पर आये और वानरों को अपना स्वाभाविक किलकिला शब्द सुनाया।

**हरषे सब बिलोकि हनुमाना। नूतन जन्म कपिन तब जाना॥ मुख प्रसन्न तन तेज बिराजा। कीन्हेसि रामचंद्र कर काजा॥**
भाष्य

सभी लोग हनुमान जी को देखकर प्रसन्न हुए, तब वानरों ने अपना नया जन्म जाना। हनुमान जी का मुख प्रसन्न था और शरीर पर तेज चमक रहा था, क्योंकि उन्होंने भगवान्‌ श्रीरामचन्द्र जी का कार्य कर लिया था।

**मिले सकल अति भए सुखारी। तलफत मीन पाव जिमि बारी॥ चले हरषि रघुनायक पासा। पूँछत कहत नवल इतिहासा॥**
भाष्य

सब लोग हनुमान जी से मिले और अत्यन्त सुखी हो गये, मानों तलफलाती हुई मछलियों ने जल पा लिया हो। नवीन इतिहास पूछते और कहते हुए सभी लोग प्रसन्न होकर रघुनाथ श्रीराम के पास चल पड़े।

**तब मधुबन भीतर सब आए। अंगद सहित मधुर फल खाए॥ रखवारे जब बरजन लागे। मुष्टि प्रहार करत सब भागे॥**
भाष्य

तब सभी वानर मधुवन के भीतर आये और अंगद जी के सहित सब लोगों ने मधुर फल खाया अर्थात्‌ हनुमान जी के आगमन तक वानरों ने कुछ भी नहीं खाया–पिया था। जब मधुवन के रखवाले रोकने लगे तब वानरों के मुक्कों से प्रहार करते ही सब भाग गये।

**दो०– जाइ पुकारे ते सकल, बन उजार जुबराज।**

सुनि सुग्रीव हरष कपि, करि आए प्रभु काज॥२८॥

भाष्य

वे रक्षक सुग्रीव जी के पास जाकर चिल्लाकर समाचार दिये कि युवराज अंगद जी ने वन को उजाड़ दिया। यह सुनते ही सुग्रीव जी बहुत प्रसन्न हुए वे जान गये कि वानरगण भगवान्‌ श्रीराम का कार्य करके आये हैं।

**जौ न होति सीता सुधि पाई। मधुबन के फल सकहिं कि खाई॥ एहि बिधि मन बिचार कर राजा। आइ गए कपि सहित समाजा॥**
भाष्य

यदि उन्होंने श्रीसीता का समाचार नहीं पाया होता तो क्या मधुवन के फल खा सकते थे? इस प्रकार वानरों के राजा सुग्रीव जी मन में विचार ही कर रहे थे कि समाज के सहित वानरगण आ गये।

**आइ सबनि नावा पद शीशा। मिलेउ सबहिं अति प्रेम कपीशा॥ पूँछी कुशल कुशल पद देखी। राम कृपा भा काज बिशेषी॥**
भाष्य

सभी ने आकर सुग्रीव जी के चरणों में मस्तक नवाया और सुग्रीव जी सभी से अत्यन्त प्रेमपूर्वक मिले और सबसे कुशल पूछी, सबने कहा आपके श्रीचरणों के दर्शन से कुशल है। भगवान्‌ श्रीराम की कृपा से विशिष्ट कार्य

हो गया।

नाथ काज कीन्हेउ हनुमाना। राखे सकल कपिन के प्राना॥

सुनि सुग्रीव बहुरि तेहि मिलेऊ। कपिन सहित रघुपति पहिं चलेऊ॥

भाष्य

हे नाथ! हनुमान जी ने प्रभु का कार्य किया है, इन्होंने सभी वानरों के प्राण रख लिए। यह सुनकर सुग्रीव जी फिर हनुमान जी से मिले और वानरों के सहित रघुकुल के स्वामी भगवान्‌ श्रीराम के पास चल दिये।

[[६८७]]

राम कपिन जब आवत देखा। किए काज मन हरष बिशेषा॥ फटिक शिला बैठे द्वौ भाई। परे सकल कपि चरननि जाई॥

भाष्य

जब भगवान्‌ श्रीराम ने वानरों को आते देखा तो उन्हें अनुमान हो गया कि इन लोगों ने कार्य कर लिया है, इनके मन में विशेष हर्ष है। दोनों भाई श्रीराम, लक्ष्मण स्फटिक शिला पर बैठे थे। सभी वानर उनके श्रीचरणों पर जाकर पड़ गये।

**दो०– प्रीति सहित सब भेंटे, रघुपति करुना पुंज।**

पूँछी कुशल नाथ अब, कुशल देखि पद कंज॥२९॥

भाष्य

करुणा के पुंज श्रीराम जी ने प्रसन्नतापूर्वक सभी वानरों को गले से लगाया और कुशल पूछी। वानरों ने कहा, हे नाथ! आपके श्रीचरणों के दर्शन करके कुशल ही हैं।

**\* मासपारायण, तेईसवाँ विश्राम \***

जामवंत कह सुनु रघुराया। जा पर नाथ करहु तुम दाया॥ ताहि सदा शुभ कुशल निरंतर। सुर नर मुनि प्रसन्न ता ऊपर॥ सोइ बिजई बिनई गुन सागर। तासु सुजस त्रैलोक उजागर॥

भाष्य

जाम्बवान्‌ जी ने कहा, हे रघुराज अर्थात्‌ रघुकुल के राजा भगवान्‌ श्रीराम! हे नाथ! आप जिस पर दया कर देते हैं उसका सदैव शुभ रहता है, उसका निरन्तर कुशल होता है, देवता, मनुष्य, मुनि सभी उस पर प्रसन्न रहते हैं। वही जगत्‌ में विजयी होता है, उसी में विनम्रता आती है, वह सभी गुणों का समुद्र बन जाता है और उसका सुन्दर यश तीनों लोकों में व्याप्त हो जाता है अर्थात्‌ आप ने हनुमान जी पर दया की तो उनका कल्याण हुआ, वे सकुशल लौटे। वन उजाड़ने से उन पर देवता प्रसन्न हुए, राक्षसों का वध करने से वे मनुष्यों के प्रसन्नता के पात्र बने, क्योंकि हनुमान जी ने नरभक्षी राक्षसों को मारा और लंका दहन से उन पर मुनि प्रसन्न हुए। वे विजयी बने और श्रीसीता के समक्ष विनय प्रस्तुत किया। उनका यश तीनों लोकों में फैला अर्थात्‌ आपकी दया से सीता जी का समाचार लेकर हनुमान जी सकुशल लौट आये हैं।

**प्रभु की कृपा भयउ सब काजू। जनम हमार सुफल भा आजू॥ नाथ पवनसुत कीन्ह जो करनी। सहसहुँ मुख न जाइ सो बरनी॥ पवनतनय के चरित सुहाए। जामवंत रघुपतिहिं सुनाए॥**
भाष्य

आप प्रभु श्रीराम की कृपा से सब कार्य हो गया। आज हम लोगों का जन्म सफल हो गया, क्योंकि देवताओं ने आपकी सेवा करने के लिए वानर, भालु का शरीर धारण किया था। हे नाथ! पवनपुत्र हनुमान जी ने जो कार्य किया वह सहस्रमुखों से भी वर्णन नहीं किया जा सकता। हनुमान जी महाराज के सुहावने चरित्र को जाम्बवान्‌ जी ने रघुकुल के स्वामी भगवान्‌ श्रीराम को सुना दिया।

**सुनत कृपानिधि मन अति भाए। पुनि हनुमान हरषि हिय लाए॥ कहहु तात केहि भाँति जानकी। रहति करति रक्षा स्वप्रान की॥**
भाष्य

जाम्बवान्‌ जी के वचन सुनते ही कृपासागर भगवान्‌ श्रीराम के मन में हनुमान जी के चरित्र भी बहुत भाये और हनुमान जी भी बहुत भाये। फिर प्रसन्न होकर प्रभु ने हनुमान जी को हृदय से लगा लिया और पूछने लगे, हे तात! बताओ, सीता लंका में बन्दी बनकर अपने प्राणों की किस प्रकार रक्षा करती रहती हैं?

[[६८८]]

दो०– नाम पाहरू दिवस निशि, ध्यान तुम्हार कपाट।

लोचन निज पद जंत्रित, जाहिं प्रान केहि बाट॥३०॥

भाष्य

हनुमान जी ने उत्तर दिया, हे प्रभु! श्रीसीता अपने प्राणों की रक्षा में असमर्थ हैं उनके प्राण जाना भी चाहते हैं, परन्तु वे स्वयं भगवती जी के शरीर में बन्दी बन गये हैं। आपका श्रीरामनाम “रकार” और “मकार” के रूप में दिन–रात का प्रहरी है, आपका ध्यान बहुत बड़ा किवाड़ है और सीता के नेत्र उन्हीं के चरणों में यंत्रित हैं अर्थात्‌ लग गये हैं तो उनके प्राण किस मार्ग से जायें?

**चलत मोहि चूड़ामनि दीन्ही। रघुपति हृदय लाइ सोइ लीन्ही॥ नाथ जुगल लोचन भरि बारी। बचन कहे कछु जनककुमारी॥**
भाष्य

श्रीसीता ने लंका से चलते समय मुझे चूड़ामणि दी, वह आपके श्रीचरणों में समर्पित है। श्रीरघुनाथ ने हाथ से लेकर वह चूड़मणि हृदय से लगा लिया, फिर हनुमान जी कहने लगे, हे नाथयुगल अर्थात्‌ मेरे आराध्य श्रीराम– लक्ष्मण जी! जनकराज की पुत्री श्रीसीता ने अपने दोनों नेत्रों में जल भरकर कुछ वचन अर्थात्‌ संदेश कहे हैं।

**अनुज समेत गहेहु प्रभु चरना। दीन बंधु प्रनतारति हरना॥**

मन क्रम बचन चरन अनुरागी। केहिं अपराध नाथ मोहि त्यागी॥

भाष्य

श्रीसीता ने पहले तो मुझसे कहा कि, हे हनुमान! तुम और अनुज अर्थात्‌ छोटे भैया लक्ष्मण दोनों ही, समेत अर्थात्‌ साथ मिलकर दीनों के बन्धु और प्रणाम करने वालों के कष्ट को दूर करने वाले प्रभु श्रीरघुनाथ के श्रीचरण पक़ड लेना अर्थात्‌ तुम मेरी ओर से प्रभु के वामचरण पक़डना और सेवा करना और छोटे भैया लक्ष्मण प्रभु के दक्षिणचरण की सेवा करेंगे, क्योंकि मेरी अनुपस्थिति में श्रीराघव के वामचरण की सेवा नहीं होती होगी, क्योंकि वह मेरे लिए अधिकृत थी। मन, कर्म और वचन से प्रभु के श्रीचरणों में अनुराग करनेवाली मुझ सीता को मेरे नाथ ने किस अपराध से त्याग दिया है?

**अवगुन एक मोर मैं माना। बिछुरत प्रान न कीन्ह पयाना॥ नाथ सो नयननि को अपराधा। निसरत प्रान करहिं हठि बाधा॥ बिरह अगिनि तनु तूल समीरा। श्वास जरइ छन माहिं शरीरा॥ नयन स्रवहिं जल निज हित लागी। जरैं न पाव देह बिरहागी॥**
भाष्य

हाँ! एक मेरा अवगुण अर्थात्‌ दोष अवश्य है, उसे मैंने मान लिया वह यह कि, आपसे बिछुड़ते समय अर्थात्‌ वियोग होते समय ही मेरे प्राणों ने शरीर छोड़कर प्रयाण नहीं किया, परन्तु हे मेरे स्वामी, श्रीराघव! वह अपराध मेरा नहीं प्रत्युत्‌ मेरे नेत्रों का है, क्योंकि प्राणों के निकलते समय मेरे नेत्र ही बाधा डाल देते हैं। वे कहते हैं कि, हे प्राणों! अभी मत निकलो प्रभु के दर्शन होंगे। विरह ही अग्नि है, शरीर रुई के समान हो चुका है और शोक श्वास ही वायु है, इसलिए शोकरूप वायु से प्रेरित होकर विरह की अग्नि में रुई के समान यह शरीर एक क्षण में जल जाता, परन्तु अपने हित के लिए नेत्र जल बरसाते रहते हैं, जिससे विरह की अग्नि में शरीर जलने नहीं पाता। नेत्रों का हित यह है कि यदि शरीर रहेगा तो किसी न किसी दिन हमें प्रभु के दर्शन हो ही जायेंगे।

**सीता कै अति बिपति बिशाला। बिनहिं कहे भलि दीनदयाला॥**

दो०– निमिष निमिष करुनायतन, जाहिं कलप सम बीति।

बेगि चलिय प्रभु आनिय, भुज बल खल दल जीति॥३१॥

[[६८९]]

भाष्य

हे दीनों पर दया करनेवाले प्रभु श्रीराघव! श्रीसीता की वह विशाल विपत्ति बिना कहे ही भली है अथवा श्रीसीता की विपत्ति अत्यन्त विशाल है अर्थात्‌ माताजी सब प्रकार से दीन हो गई हैं, फिर भी आप उन पर दया न करके उनके सम्बन्ध में कठोरता से प्रश्न कर रहे हैं। अत: आपको दीनदयाल नहीं कहने में ही भलाई है, अब तो यह दीनदयाल नाम अर्थहीन हो रहा है। हे करुणा के आयतन अर्थात्‌ भवन (आश्रय) प्रभु श्रीराघव! श्रीसीता के लिए एक–एक क्षण कल्प के समान बीत रहे हैं, इसलिए शीघ्र चलिए और अपनी भुजाओं के बल से खल प्रकृतिवाले रावणदल को जीतकर उन श्रीसीता माता जी को ले आइये।

**सुनि सीता दुख प्रभु सुख अयना। भरि आए जल राजिव नयना॥ बचन काय मन मम गति जाही। सपनेहुँ बूझिय बिपति कि ताही॥ कह हनुमंत बिपति प्रभु सोइ। जब तव सुमिरन भजन न होई॥ केतिक बात प्रभु जातधान की । रिपुहिं जीति आनिवी जानकी॥**
भाष्य

श्रीसीता को दु:खी सुनकर सुखों के भवन प्रभु श्रीराम के लालकमल जैसे नेत्रों में जल भर आये। प्रभु ने कहा, हे हनुमान! जिसे मन, शरीर और कर्म से मेरा ही आश्रय हो क्या उसे स्वप्न में भी विपत्ति होनी चाहिये? तात्पर्य यह है कि यदि सीता जी मन, वाणी और शरीर से मुझ पर ही आश्रित हैं, तो उन्हें विपत्ति होनी नहीं चाहिये। या, तो उनका मुझ पर समर्पण नहीं है या तुम या तुम्हारी माता जी झूठ बोल रही हैं। हनुमान जी ने कहा, प्रभु आपको विपत्ति का अनुभव नहीं है, क्योंकि आप सुखस्वरूप परमात्मा हैं, इसलिए आपको विपत्ति की परिभाषा भी कदाचित्‌ विदित नहीं है। हे भगवन्‌! भक्त की विपत्ति तो वह है कि, जब आपका स्मरण और भजन न हो अर्थात वही विपत्ति है, जब आपके सुमिरण अर्थात्‌ स्मरण का भजन अर्थात्‌ आस्वादन याने आनन्द न हो। भाव यह है कि जब माताश्री आपके स्मरण से जनित सुख का एकान्त में अस्वादन करने लगती हैं, उस समय रावण और उसकी वशवर्तनी राक्षसियाँ अनेक प्रकार से विपरीत वातावरण प्रस्तुत करके भजन में विक्षेप और विघ्न डालते हैं। हे प्रभु! आपके सामने राक्षस रावण की कितनी बात अत: शत्रु रावण को जीतकर आप जनकनन्दिनी श्रीसीता को ले आइये।

**सुनु कपि तोहि समान उपकारी। नहिं कोउ सुन नर मुनि तनुधारी॥ प्रति उपकार करौं का तोरा। सनमुख होइ न सकत मन मोरा॥ सुनु सुत तोहि उरिन मैं नाहीं। देखेउँ करि बिचारि मन माहीं॥ पुनि पुनि कपिहिं चितव सुरत्राता। लोचन नीर पुलक अति गाता॥**
भाष्य

हे वानरश्रेष्ठ हनुमान! शरीरधारी देवता, मनुष्य और मुनियों में कोई भी तुम्हारे समान मेरा उपकारी नहीं है। मैं तुम्हारा क्या प्रतिउपकार करूँ, मेरा मन तुम्हारे सामने ही नहीं हो सक रहा है अर्थात्‌ तुमने अपने उपकारों से मुझे बोझिल कर दिया है। तुम्हारा प्रतिउपकार तो तब सम्भव हो जब मेरे समान तुम विपत्ति में पड़ो और तुम्हारी अपहृत भार्या का मैं पता लगाऊँ और वह न तो सम्भ्व है और न ही मुझे अभीष्ट है, क्योंकि तुम बालब्रह्मचारी हो और मैं तुम्हारी विपत्ति देख नहीं सकता। हे पुत्र! मैंने अपने मन में विचार करके देख लिया है, मैं तुमसे उऋण नहीं हूँ, मैं तुम्हारा ऋणी हूँ और भविष्य में भी रहूँगा। इतना कहकर देवताओं के रक्षक भगवान्‌ श्रीराम, हनुमान जी को पुन:–पुन: अपने राजीवनेत्रों से निहार रहे हैं। उनके नेत्र सजल हैं और प्रभु के अंगों में अत्यन्त रोमांच है।

**दो०– सुनि प्रभु बचन बिलोकि मुख, हृदय हरषि हनुमंत।**

चरन परेउ प्रेमाकुल, त्राहि त्राहि भगवंत॥३२॥

[[६९०]]

भाष्य

प्रभु के वचन सुनकर और उनका श्रीमुख देखकर, हृदय में प्रसन्न होकर प्रेम में अकुलाते हुए हनुमान जी महाराज श्रीराघव के श्रीचरणों में पड़ गये और वे कहने लगे, हे भगवन्‌! बचा लीजिये…बचा लीजिये अर्थात्‌ आपकी इतनी प्रशंसा से कहीं मेरे मन में पापी अभिमान न आ जाये।

**बार बार प्रभु चहत उठावा। प्रेम मगन तेहि उठब न भावा॥ प्रभु पद पंकज कपि के शीशा। सुमिरि सो दशा मगन गौरीशा॥ सावधान मन करि पुनि शङ्कर। लागे कहन कथा अति सुंदर॥**
भाष्य

प्रभु श्रीराम समर्थ होते हुए भी अपने चरणों में पड़े हुए हनुमान जी को बार–बार बलपूर्वक उठाना चाहते हैं, परन्तु प्रेम में मग्न हुए उन हनुमान जी को प्रभु के चरणों से उठना भाता ही नहीं। आज प्रभु भगवान्‌ श्रीराम के श्रीचरण कमलों पर वानरश्रेष्ठ हनुमान जी का सिर विराजमान है। वह दशा स्मरण करके गौरीपति शिव जी भाव में मग्न हो गये। सोचने लगे, अहा! इतने देर तक प्रभु के श्रीचरणों में पड़े रहने का मुझे भी सौभाग्य नहीं प्राप्त होता। इस भावना में शिव जी की कथा का प्रवाह टूटने–सा लगा। फिर अपने मन को सावधान करके कल्याणकारी शिव जी अत्यन्त सुन्दर कथा कहने लगे।

**विशेष– **अतिसुन्दर विशेषण मन का, कथा का और शिवजी का भी हो सकता है।

कपि उठाइ प्रभु हृदय लगावा। कर गहि परम निकट बैठावा॥ कहु कपि रावन पालित लंका। केहि बिधि दहेउ दुर्ग अति बंका॥

भाष्य

शिव जी कहने लगे, हे पार्वती! अन्ततोगत्वा प्रभु श्रीराम ने हनुमान जी को उठाकर अपने हृदय से लगा लिया और उनका हाथ पक़ड अपने अति निकट बिठा लिया तथा बोले, हे हनुमान! बताओ, रावण के द्वारा पालित लंका के सुदृ़ढ दुर्ग को तुमने किस विधि से जलाया ?

**प्रभु प्रसन्न जाना हनुमाना। बोला बचन बिगत अभिमाना॥ शाखामृग कै बमिड़ नुसाई। शाखा ते शाखा पर जाई॥ नाघि सिंधु हाटकपुर जारा। निशिचर गन बधि बिपिन उजारा॥ सो सब तव प्रताप रघुराई। नाथ न कछु मोरि प्रभुताई॥**
भाष्य

हनुमान जी ने प्रभु श्रीराम को अपने ऊपर प्रसन्न जाना फिर स्वभावत: अभिमान से रहित आन्जनेय जी बोले, हे रघुराईअर्थात्‌ जीवों के सर्वस्व रघुकुल के राजा प्रभु! यदि शाखामृग अर्थात्‌ वानर की मनस्विता अर्थात्‌ बहुत–बड़ा पुरुषार्थ होगा तो वह एक शाखा से दूसरी शाखा पर च़ढ जायेगा उसकी इतनी ही सीमा है, परन्तु यहाँ तो समुद्र को लाँघा, सोने के नगर को जलाया, राक्षसगणों का वध करके वन को उजाड़ा वह सब आपके प्रताप ने ही किया। हे प्रभु! हे रघुराज! इसमें मेरी कुछ भी प्रभुता नहीं है।

**दो०– ता कहँ प्रभु कछु अगम नहिं, जा पर तुम अनुकूल।**

तव प्रभाव बड़वानलहिं, जारि सकइ खलु तूल॥३३॥

भाष्य

हे प्रभु! जिस पर आप अनुकूल हों उस के लिए कुछ भी अगम्य अर्थात्‌ कठिन नहीं है। आपके प्रभाव से बड़वानल अर्थात्‌ समुद्र के जल को जलाने वाले अग्नि को भी रुई निश्चयपूर्वक जला सकती है अर्थात्‌ जो रुई छोटी–सी अग्नि की चिन्गारी से जल जाती है, वह आपके प्रभाव से सागर के जल को भस्म करने वाली अग्नि को भी भस्म कर सकती है। यह असम्भव नहीं है खलु अर्थात्‌ यही वेद सम्मत निश्चय है।

[[६९१]]

सुनत बचन प्रभु बहु सुख माना। मन क्रम बचन दास निज जाना॥ माँगु पवनसुत बर अनुकूला। देउँ आज तुम कहँ सुख मूला॥

भाष्य

हनुमान जी के वचन सुनकर प्रभु श्रीराम ने बहुत सुख माना अर्थात्‌ बहुत–बड़े सुख की अनुभूति की। श्रीरघुनाथ ने हनुमान जी को मन, कर्म और वचन से अपना निजी दास जान लिया और बोले, हे पवनपुत्र अर्थात्‌ वायु के समान ही अभिमान का स्पर्श न करनेवाले अहंकार शून्य हनुमान! आज अपने अनुकूल और सम्पूर्ण सुखों का आश्रयरूप वरदान माँग लो। आज मैं तुमको वह दे दूँगा।

**नाथ भगति तव अति सुखदायिनि। देहु कृपा करि सो अनपायनि॥ सुनि प्रभु परम सरल कपि बानी। एवमस्तु तब कहेउ भवानी॥**
भाष्य

हनुमान जी ने कहा, हे नाथ! जो अतिसुख देने वाली आपकी अनपायनी भक्ति अर्थात्‌ जिसका कभी अपाय यानी नाश नहीं होता और जिसके आ जाने पर अपाय यानी भक्त का आपसे वियोग नहीं होता। वही अनपायनी भक्ति मुझे कृपा करके दे दीजिये। शिव जी कहते हैं कि, हे पार्वती! इसके पश्चात्‌ हनुमान जी की परमसरल वाणी सुनकर प्रभु श्रीराम ने कहा “एवमस्तु” (ऐसा ही हो)।

**उमा राम स्वभाव जेहि जाना। ताहि भजन तजि भाव न आना॥ यह संबाद जासु उर आवा। रघुपति चरन भगति सोइ पावा॥**
भाष्य

हे पार्वती! जिसने भी भगवान्‌ श्रीराम का स्वभाव जान लिया उसे भजन छोड़कर और कुछ भी नहीं भाता। चूँकि हनुमान जी महाराज भगवान्‌ श्रीराम जी का स्वभाव जान चुके हैं, इसलिए उन्होंने भगवद्‌भक्ति के अतिरिक्त कुछ भी प्रभु से नहीं माँगा। श्रीराम एवं हनुमान जी का यह संवाद जिसके हृदय में आ जाता है अर्थात्‌ समझ में आ जाता है विचारों में उतरकर व्यवहार स्वरूप हो जाता है, वही साधक श्रीराम के श्रीचरणों की भक्ति पा जाता है।

**सुनि प्रभु बचन कहहिं कपिबृंदा। जय जय जय कृपालु सुखकंदा॥ तब रघुपति कपिपतिहिं बोलावा। कहा चलै कर करहु बनावा॥ अब बिलंब केहि कारन कीजै। तुरत कपिन कहँ आयसु दीजै॥ कौतुक देखि सुमन बहु बरषी। नभ ते भवन चले सुर हरषी॥**
भाष्य

प्रभु के वचन सुनकर वानरसमूह कहने लगे, हे सुख के मेघ कृपालु श्रीराम! आपकी जय हो…जय हो…जय हो अर्थात्‌ तीनों कालों और तीनों लोकों में आपकी जय हो। तब रघुकुल के स्वामी भगवान्‌ श्रीराम ने वानरराज सुग्रीव जी को बुलाया और कहा कि, हे मित्र! अब लंका पर आक्रमण करने के लिए चलने के साज सजाइये, अब किस कारण से विलम्ब किया जाये? वानरों को लंका पर च़ढाई करने के लिए तुरन्त आज्ञा दीजिये। यह कौतुक देखकर बहुत से पुष्पों की वृष्टि करके प्रसन्न हुए देवता आकाशमण्डल से अपने–अपने लोक को चले गये।

**दो०– कपिपति बेगि बोलाए, आए जूथप जूथ।**

नाना बरन अतुल बल, बानर भालु बरूथ॥३४॥

भाष्य

वानरराज सुग्रीव जी ने (सभी वानरों को)शीघ्र बुलाया, उनके आदेश से अनेक वर्ण वाले अतुलनीय बल से सम्पन्न वानरों और भालुओं के समूह तथा यूथपतियों के भी यूथ अर्थात्‌ न्यूनातिन्यून अठाराह पद्‌म यूथपति वानर आ गये और प्रभु की सेवा में उपस्थित हुए।

[[६९२]]

प्रभुपद पंकज नावहिं शीशा। गर्जहिं भालु महाबल कीशा॥ देखी राम सकल कपि सैना। चितइ कृपा करि राजिव नैना॥

भाष्य

भगवान्‌ श्रीराम के श्रीचरणकमलों में मस्तक नवाते हैं और महाबली भालु, बन्दर “जय श्रीराम” कहकर गर्जना करते हैं। भगवान्‌ श्रीराम ने कृपा करके अपने राजीवनेत्रों से सम्पूर्ण वानरी सेना को निहारकर देखा अर्थात्‌ सूक्ष्मता से निरीक्षण किया और सब में कृपाबल का संचरण कर दिया।

**राम कृपा बल पाइ कपिंदा। भए पक्षजुत मनहुँ गिरिंदा॥ हरषि राम तब कीन्ह पयाना। सगुन भए सुंदर शुभ नाना॥**
भाष्य

भगवान्‌ श्रीराम की कृपा का बल पाकर श्रेष्ठ वानर, मानो पंखों से युक्त हिमाचल, विन्ध्याचल आदि श्रेष्ठपर्वत हो गये अर्थात्‌ जैसे पूर्वकाल में पंख होने के कारण पर्वत आकाश में उड़ते थे, उसी प्रकार प्रभु ने पंखों के बिना प्रत्येक वानर को आकाश में उड़ने की क्षमता और पर्वत जैसी विशालता तथा दृ़ढता दे दी। तब विजय मुहूर्त में भगवान्‌ श्रीराम ने प्रसन्न होकर विजययात्रा के लिए लंका की ओर प्रस्थान किया। उस समय अनेक प्रकार से कल्याणकारी मंगल शकुन हुए।

**जासु सकल मंगलमय कीती। तासु पयान सगुन यह नीती॥ प्रभु पयान जाना बैदेहीं। फरकि बाम अँग जनु कहि देहीं॥ जोइ जोइ सगुन जानकिहिं होई। असगुन भयउ रावनहिं सोई॥**
भाष्य

जिनकी कीर्ति सम्पूर्ण मंगलमय हो उनके प्रस्थान से शकुन हुए यह नीति अर्थात्‌ लीला की एक परम्परा है। प्रभु के प्रस्थान को विदेहनन्दिनी श्रीसीता ने भी जान लिया। उनके वामअंग फ़डककर मानो उनसे यह कह दे रहे थे कि अब प्रभु की विजययात्रा प्रारम्भ हो चुकी है। श्रीसीता को जो–जो शकुन हो रहे थे, रावण को वही–वही अपशकुन हुए।

**चला कटक को बरनैं पारा। गर्जहिं बानर भालु अपारा॥ नख आयुध गिरि पादपधारी। चले गगन महि इच्छाचारी॥ केहरिनाद भालु कपि करहीं। डगमगाहिं दिग्गज चिक्करहीं॥**
भाष्य

श्रीराम की सेना विजययात्रा के लिए चल पड़ी, उसका वर्णन कौन कर सकता है? अपार वानर, भालु गरज रहे थे। अपनी इच्छा से चलने में समर्थ कुछ वानर नख को शस्त्र बनाकर और कुछ वानर वृक्ष लेकर, कुछ पर्वत धारण करके आकाश और पृथ्वी के मार्ग से चल पड़े। भालु, वानर सिंहगर्जना करते हैं। दिशाओं के हाथी डगमगाते हैं और चिग्घाड़ करते हैं।

**छं०– चिक्करहिं दिग्गज डोल महि गिरि लोल सागर खरभरे।**

मन हरष दिनकर सोम सुर मुनि नाग किन्नर दुख टरे॥ कटकटहिं मर्कट बिकट भट बहु कोटि कोटिन धावहीं। जय राम प्रबल प्रताप कोसलनाथ गुन गन गावहीं॥१॥

भाष्य

दिग्गज चिग्घाड़ कर रहे हैं, पृथ्वी हिल रही है (बार-बार भूकम्प आ रहा है) समुद्र में खलबली मच गई, सूर्य, चन्द्रमा, देवता, मुनि, नाग और किंन्नर मन में प्रसन्न हो रहे हैं, क्योंकि अब शीघ्र ही सबका दु:ख समाप्त होगा। बहुत से भयंकर वीर वानर दाँतों को कटकटाते हैं और करोड़ों की संख्या में दौड़ते हैं। हे प्रबल–प्रतापी श्रीराम! आपकी जय हो, इस प्रकार कहकर अयोध्यापति प्रभु श्रीराघव के गुण के समूहों को गाते हैं।

[[६९३]]

सहि सक न भार अपार अहिपति बार बार बिमोहई। गह दशन पुनि पुनि कमठ पृष्ठ कठोर सो किमि सोहई॥ रघुबीर रुचिर प्रयान प्रस्थिति जानि परम सुहावनी। जनु कमठ खर्पर सर्पराज सो लिखत अबिचल पावनी॥२॥

भाष्य

वानरों का अपार भार शेषनाग भी नहीं सह सक रहे हैं, वे बारम्बार मूर्च्छित हो जाते हैं और पुन:–पुन: कच्छप भगवान्‌ की कठोर पीठ को अपने दाँतों से पक़डकर किस प्रकार सुशोभित हो रहे हैं, मानो रघुकुल के वीर भगवान्‌ श्रीराम के सुन्दर प्रयान अर्थात्‌ विजययात्रा की परिस्थिति अर्थात्‌ प्रस्थान गाथा को परमसुन्दर जानकर वह अविचल और पवित्रकीर्ति शेषनारायण कच्छप भगवान्‌ की पीठ पर अपने दाँतों से शिलालेख के रूप में लिख रहे हैं।

**दो०– एहि बिधि जाइ कृपानिधि, उतरे सागर तीर।**

जहँ तहँ लागे खान फल, भालु बिपुल कपि बीर॥३५॥

भाष्य

इस प्रकार कृपानिधि भगवान्‌ श्रीराम जाकर समुद्र के उत्तरी तट पर उतरे। जहाँ–तहाँ अनेक वीर भालु और बन्दर फल खाने लगे।

**उहाँ निशाचर रहहिं सशंका। जब ते जारि गयउ कपि लंका॥ निज निज गृह सब करहिं बिचारा। नहिं निशिचर कुल केर उबारा॥ जासु दूत बल बरनि न जाई। तेहि आए पुर कवन भलाई॥**
भाष्य

उधर अर्थात्‌ लंका में राक्षस तभी से भयभीत रह रहे हैं जब से हनुमान जी लंका जलाकर गये हैं। सभी राक्षस अपने–अपने घरों में बैठकर विचार कर रहे हैं कि राक्षसकुल का उबरना अब सम्भव नहीं है। जिन श्रीराम के दूत का बल वर्णित नहीं किया जा सकता, उन्हीं के नगर में आने पर क्या भलाई हो सकती है आशय यह है कि यदि दूत इतना बलवान था, तो उसके स्वामी कितने बलवान होंगे?

**दूतिन सन सुनि पुरजन बानी। मंदोदरी अधिक अकुलानी॥ रहसि जोरि कर पति पग लागी। बोली बचन नीति रस पागी॥**
भाष्य

दूतियों के मुख से इस प्रकार पुरजनों की वाणी सुनकर रावण की ज्येष्ठपत्नी मंदोदरी अधिक अकुला गई और वह एकान्त में हाथ जोड़कर अपने पति रावण के पग में लिपट गई तथा नीतिरस में डुबोकर वचन बोली–

**कंत करष हरि सन परिहरहू। मोर कहा अति हित हिय धरहू॥ समुझत जासु दूत कइ करनी। स्रवहिं गर्भ रजनीचर घरनी॥ तासु नारि निज सचिव बोलाई। पठवहु कंत जो चहहु भलाई॥**
भाष्य

मन्दोदरी ने रावण को सम्बोधित करते हुए कहा, हे पति रावण! श्रीहरि से निरर्थक वैर छोड़ दीजिये, अत्यन्त कल्याणकारक मेरे कथन हृदय में धारण कीजिये। जिन श्रीराम के दूत की करनी को ध्यान में आते ही आज भी राक्षसपत्नियाँ गर्भस्राव कर देती हैं, हे पति! यदि भलाई चाहते हैं, तो उनकी पत्नी श्रीसीता को अपने मंत्री को बुलाकर श्रीराम के पास भेज दीजिये।

**तव कुल कमल बिपिन दुखदाई। सीता शीत निशा सम आई॥ सुनहु नाथ सीता बिनु दीन्हे। हित न तुम्हार शंभु अज कीन्हे॥**

[[६९४]]

भाष्य

आपके कुल रूप कमलवन को दु:ख देने के लिए श्रीसीता हेमन्तऋतु की शीतरात्रि के समान लंका में आई हैं। हे नाथ! सुनिये, श्रीराम को श्रीसीता के सौंपे बिना शिव जी और ब्रह्मा जी के करने पर भी आपका हित नहीं होगा, क्योंकि शिव जी, ब्रह्मा जी और विष्णु जी आदि सभी देवता श्रीराम के अधीन हैं।

**दो०– राम बान अहि गन सरिस, निकर निशाचर भेक।**

जब लगि ग्रसत न तब लगि, जतन करहु तजि टेक॥३६॥

भाष्य

राक्षस समूह रूप मेंढकों को सर्प के समान श्रीराम के बाण जब तक खा नहीं लेते तब तक टेक अर्थात्‌ हठ छोड़कर यत्न कर लीजिये।

**स्रवन सुनी शठ ता करि बानी। बिहँसा जगत बिदित अभिमानी॥ सभय स्वभाव नारि कर साँचा। मंगल महँ भय मन अति काँचा॥ जौ आवइ मर्कट कटकाई। जियहिं बिचारे निशिचर खाई॥ कंपहिं लोकप जाकी त्रासा। तासु नारि सभीत बहिड़ ासा॥ अस कहि बिहँसि ताहि उर लाई। चलेउ सभा ममता अधिकाई॥ मंदोदरी हृदय कर चिंता। भयउ कंत पर बिधि बिपरीता॥**
भाष्य

दुष्ट रावण ने जब उस मंदोदरी की वाणी कान से सुनी तब जगत्‌प्रसिद्ध अभिमानी रावण ठहाके लगाकर हँस पड़ा और कहा, सत्य ही नारी का स्वभाव भीरु होता है। मंगल के समय में इस प्रकार का भय, हे मंदोदरी! तेरा मन बहुत कच्चा है। यदि वानरों की सेना लंका में आती भी है तो बेचारे राक्षस उसे खा कर जी जायेंगे, क्योंकि मेरा खाद्द मंत्रालय राक्षसों के लिए खाद्दसामग्री की आपूर्ति नहीं कर पा रहा है। जिसके डर से लोकपाल भी काँपते हैं, उस रावण की पत्नी इतनी डरपोक है यह मेरे लिए बहुत हँसी की बात है। ऐसा कहकर और सामान्यरूप से हँसकर मंदोदरी को हृदय से लगाकर रावण अपनी सभा में चला गया। उसके मन में सीता जी के प्रति अधिक ममता थी। मंदोदरी अपने हृदय में चिन्ता करने लगी कि मेरे पति रावण पर विधाता विपरीत हो गये हैं अर्थात्‌ रुठ गये हैं।

**बैठेउ सभा खबरि असि पाई। सिंधु पार सेना सब आई॥ बूझेसि सचिव उचित मत कहहू। ते सब हँसे मष्ट करि रहहू॥ जितेहु सुरासुर तव श्रम नाहीं। नर बानर केहि लेखे माहीं॥**
भाष्य

रावण सभा में जाकर बैठ गया उसी समय उसने ऐसा समाचार पाया कि श्रीराम की सम्पूर्ण वानरी सेना समुद्र–पार अर्थात्‌ समुद्र के उस पार उत्तरी तट पर आ गई है। रावण ने मंत्रियों से पूछा, बोलो, उचित मत कहो अब क्या करना चाहिये? वे सब हँसे और बोले, हे राक्षसराज! चुप लगाकर बैठिये, देवताओं और असुरों को जीतने पर भी जब आपको श्रम नहीं हुआ अर्थात्‌ आपने बिना श्रम के देवताओं और दैत्यों को जीत लिया तो फिर मनुष्य और वानर किस गिनती में हैं?

**दो०– सचिव बैद गुरु तीनि जौ, प्रिय बोलहिं भय आश।**

राज धर्म तनु तीनि कर, होइ बेगिहीं नाश॥३७॥

भाष्य

यदि मंत्री, वैद्द और गुव्र्जन क्रमश: स्वामी, रोगी और शिष्य की अप्रसन्नता के भय से अथवा इनसे लाभ की आशा से प्रिय बोलते हैं अर्थात्‌ चाटुकारिता करते हैं और मंत्री उचित मंत्रणा नहीं देते, वैद्द उचित पथ्य नहीं देते तथा गुरुजन शास्त्रानुरूप शिक्षा नहीं देते तब क्रमश: राज्य, शरीर और धर्म का शीघ्र ही नाश हो जाता है।

[[६९५]]

सोइ रावन कहँ बनी सहाई। अस्तुति करहिं सुनाइ सुनाई॥

भाष्य

वही रावण की सहायक बन गई अर्थात्‌ तीनों ने ठकुरसोहाति की। मंत्रियों के कारण रावण का राज्य गया। “*वैद्दो नारायणो हरि:” ***अर्थात्‌ भगवान्‌ नारायण ही वैद्द हैं, उन्होंने भी उचित पथ्य नहीं दिया इससे रावण का शरीर गया। शिव जी के प्रियभाषण से रावण का धर्म गया। अत: तीनों की प्रियवादिता रावण की सहायक बनी। मंत्री गण सुना–सुनाकर रावण की स्तुति करने लगे।

**अवसर जानि बिभीषन आवा। भ्राता चरन शीष तेहिं नावा॥ पुनि सिर नाइ बैठ निज आसन। बोला बचन पाइ अनुशासन॥**
भाष्य

समय जानकर रावण की सभा में विभीषण जी आये उन्होंने बड़े भाई रावण के चरणों में मस्तक नवाया, फिर राजसत्ता को सिर झुकाकर अपने आसन पर जाकर बैठ गये और रावण की आज्ञा पाकर मंत्रणापूर्ण वचन बोले।

**जौ कृपालु पूँछेहु मोहि बाता। मति अनुरूप कहउँ हित ताता॥**
भाष्य

यदि कृपालु अर्थात्‌ कृपा को काटकर फेंकनेवाले अर्थात्‌ किसी पर भी कृपा नहीं करनेवाले परम–रणधीर आप रावण ने भी मुझ से बात पूछी है, तो हे तात! मैं अपनी बुद्धि के अनुसार आपके हित में बात कहता हूँ अथवा, यदि कृपालु श्रीराम ने ही आपके द्वारा मुझसे बात पुछवाई है तो, हे तात! मैं अपनी बुद्धि के अनुरूप कल्याणकारी मंत्र कहता हूँ।

**विशेष– **कृपालु शब्द भगवान्‌ श्रीराम के अर्थ में आया है। वह गोस्वामी जी द्वारा रावण के लिए कैसे प्रयुक्त हो सकता है, इसलिए यहाँ कृपालु शब्द में तद्धित प्रत्यय्‌ नहीं प्रत्युत्‌ धातु प्रत्ययान्त शब्द है। यह व्युत्पत्ति कृपालु तथा कृपाल इन दोनों शब्दों के लिए सामान्यरूप से जाननी चाहिये “***कृपां** लोनाति इति कृपालु***”: श्रीविभीषण जी का मानना है कि आप तो कृपालु हैं अर्थात्‌ आपने अपनी कृपाण से कृपा को भी काट डाला है, फिर भी यदि आप जैसे त्रिलोक विजेता को कृपालु श्रीराम ने मुझसे पूछने की प्रेरणा दी है तो, मैं अपनी बुद्धि के अनुरूप हित कह रहा हूँ। यहाँ “पूँछेहू” शब्द भी अन्तंभावितव्यर्थ के सिद्धान्त से पुछवाई के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है।

जो आपन चाहै कल्याना। सुजस सुमति शुभ गति सुख नाना॥ सो परनारि लिलार गोसाईं। तजउ चउथि के चंद कि नाईं॥

भाष्य

जो भी साधक अपना कल्याण, सुन्दर यश, सुन्दर बुद्धि, सुन्दर गति तथा नाना प्रकार के सुख चाहता हो तो, हे गोसाईं अर्थात्‌ इन्द्रियों को तृप्त करने वाले रावण! वह साधक परनारी अर्थात्‌ दूसरे की पत्नी का ललाट चतुर्थी के चन्द्रमा की भाँति छोड़ दे अर्थात्‌ जैसे चतुर्थी की चन्द्रमा को देखना पाप है, उसी प्रकार परायी नारी का ललाट (मस्तक) यानी मुखमंडल देखना पाप है।

**चौदह भुवन एक पति होई। भूतद्रोह तिष्ठइ नहिं सोई॥**

गुन सागर नागर नर जोऊ। अलप लोभ भल कहइ न कोऊ॥

भाष्य

जो चौदहों भुवन का एकमात्र स्वामी है, वह भी जीवद्रोह करके स्थिर नहीं रह पाता अर्थात्‌ भूतद्र्रोह सेनष्ट हो जाता है। जो मनुष्य गुणों का समुद्र और अत्यन्त चतुर होता है, उसे भी थोड़े से लोभ के कारण कोई भी भला अर्थात्‌ श्रेष्ठ नहीं कहता। तात्पर्य यह है कि, काम चतुर्थी की चाँद की भाँति व्यक्ति को कलंकित बनाता है, क्रोध बड़े से बड़े को अस्थिर कर देता है और लोभ भद्र को भी अभद्र बना देता है।

[[६९६]]

दो०– काम क्रोध मद लोभ सब, नाथ नरक के पंथ।

सब परिहरि रघुबीरहिं, भजहु कहहिं सदग्रंथ॥३८॥

भाष्य

हे भैया! काम, क्रोध और मदिरा के समान लोभ ये सभी तीनों नरक के मार्ग हैं। इन सबको छोड़कर श्रीरघुवीर अर्थात्‌ जीवों को विशिष्ट प्रेरणा देनेवाले भगवान्‌ श्रीराम का भजन करिये, यह सिद्धान्त सभी श्रेष्ठग्रन्थ कहते हैं।

**विशेष– **पूर्वप्रकरण में तीन पंक्तियों द्वारा काम, क्रोध और लोभ के निषेध की चर्चा की गई है और दोहे में काम, क्रोध, लोभ के अतिरिक्त मद शब्द अधिक आया है, इसलिए हमने इसे लोभ का विशेषण माना और यह क्रोध का भी विशेषण बन सकता है तथा काम का भी।

तात राम नहिं नर भूपाला। भुवनेश्वर कालहु कर काला॥ ब्रह्म अनामय अज भगवंता। ब्यापक अजित अनादि अनंता॥ गो द्विज धेनु देव हितकारी। कृपासिंधु मानुष तन धारी॥ जन रंजन भंजन खल ब्राता। बेद धर्म रक्षक सुर त्राता॥

भाष्य

हे तात (बड़े भाई)! श्रीराम मनुष्यों के ही राजा नहीं हैं, वे तो चौदहों भुवन के ईश्वर, काल के भी काल, जगत्‌ के जन्म, स्थिति, प्रलय के कारणरूप, ब्रह्म, अनामय अर्थात्‌ जन्म, स्थिति, ब़ढना, घटना, परिवर्तित होना और नष्ट हो जाना इन छह आमय यानी विकारों से रहित अजन्मा अथवा अकार नामक विष्णु को भी जन्म देने वाले, ऐश्वर्यादि छहों माहात्म्य से नित्य सम्पन्न, सर्वव्यापक, किसी के भी द्वारा न जीते जाने वाले, आदिरहित और अन्तरहित, गो अर्थात्‌ पृथ्वी, ब्राह्मण, देवता और गौओं का हित करने वाले कृपा के सागर, लीला में मनुष्य शरीर धारण करने वाले, अपने भक्तों को आनन्द देने वाले, दु:खसमूहों को नष्ट करने वाले, वैदिक–सनातन धर्म के रक्षक और देवताओं को परित्राण देने वाले परब्रह्म परमात्मा हैं।

**विशेष– **“***अं** विष्णुं जनयति इति अज:***” अर्थात्‌ जो अकार के वाच्य विष्णु जी को भी जन्म देते हैं, उन श्रीराम को अज कहते हैं। जहाँ ब्रह्मा जी के लिए अज का प्रयोग होता है वहाँ अज शब्द की व्युत्पत्ति अधोलिखित है: ***अकार**: विष्णु तस्मात्‌ अकारात्‌ जायते नाभिकमलत: प्रादुर्भवति इति अज: ***जो अकार यानी विष्णु जी की नाभि कमल से जन्म लेते हैं, उन ब्रह्मा जी को भी अज कहते हैं।

ताहि बैर तजि नाइय माथा। प्रनतारति भंजन रघुनाथा॥

देहु नाथ प्रभु कहँ बैदेही। भजहु राम बिनु हेतु सनेही॥ शरन गए प्रभु ताहु न त्यागा। बिश्व द्रोह कृत अघ जेहिं लागा॥ जासु नाम त्रय ताप नसावन। सोइ प्रभु प्रगट समुझु जिय रावन॥

भाष्य

हे नाथ! वैर छोड़कर उन भगवान्‌ श्रीराम को मस्तक नवाइये, क्योंकि रघुनाथ जी प्रणाम करने वालों की आर्ति अर्थात्‌ भय के नाशक हैं। हे नाथ! सर्वसमर्थ प्रभु को उनकी धर्मपत्नी श्रीसीता को दे दीजिये। बिना कारण प्रेम करने वाले भगवान्‌ श्रीराम का भजन कीजिये। अपने शरण में जाने पर प्रभु श्रीराम उसका भी त्याग नहीं करते जिसको विश्वद्रोह का पाप लगा हुआ होता है। हे रावण! अपने मन में विचार कीजिये, जिन प्रभु श्रीराम का रामनाम तीनों प्रकार के तापों को नष्ट कर देता है, वे ही साकेताधिपति परब्रह्म परमात्मा भगवान्‌ श्रीराम श्रीअवध में प्रकट हुए हैं।

[[६९७]]

दो०– बार बार पद लागउँ, बिनय करउँ दशशीश।

परिहरि मान मोह मद, भजहु कोसलाधीश॥३९(क)॥

भाष्य

मैं बार–बार आपके चरणों में लिपटता हूँ और प्रार्थना करता हूँ, हे दस सिरोंवाले रावण! मान, मोह, मद छोड़कर अयोध्यापति भगवान्‌ श्रीराम का भजन करिये।

**मुनि पुलस्त्य निज शिष्य सन, कहि पठई यह बात।**

तुरत सो मैं प्रभु सन कही, पाइ सुअवसर तात॥३९(ख)॥

भाष्य

पुलस्त्य मुनि ने अपने शिष्य के द्वारा यह बात कहला भेजी है। सुन्दर अवसर पाकर मैंने भी आपके सामने वह बात कह दी।

**माल्यवंत अति सचिव सयाना। तासु बचन सुनि अति सुख माना॥ तात अनुज तव नीति बिभूषन। सो उर धरहु जो कहत बिभीषन॥**
भाष्य

माल्यवान नामक रावण के एक अत्यन्त चतुर मंत्री ने उन विभीषण जी का वचन सुनकर बहुत सुख पाया अर्थात्‌ माल्यवान बहुत प्रसन्न हुआ, उसने रावण से कहा, हे पुत्र! तुम्हारे छोटे भाई नीति के विभूषण अर्थात्‌ अलंकार हैं। जो विभीषण कह रहे हैं, उसे हृदय में धारण करो।

**रिपु उतकरष कहत शठ दोऊ। दूरि न करहु इहाँ ते कोऊ॥ माल्यवंत गृह गयउ बहोरी। कहइ बिभीषन पुनि कर जोरी॥**
भाष्य

रावण ने झुँझलाकर कहा, ये दोनों दुष्ट विभीषण और माल्यवान शत्रु के उत्कर्ष की बात कह रहे हैं। इन्हें कोई यहाँ से क्यों नहीं दूर कर देता? अर्थात्‌ राक्षसों में से कोई इन दोनों को राजसभा में से दूर कर दो, फिर माल्यवान अपने घर चला गया, पुन: श्रीविभीषण हाथ जोड़कर कहने लगे–

**सुमति कुमति सब के उर रहहीं। नाथ पुरान निगम अस कहहीं॥ जहाँ सुमति तहँ संपति नाना। जहाँ कुमति तहँ बिपति निदाना॥ तव उर कुमति बसी बिपरीता। हित अनहित मानहु रिपु प्रीता॥ कालराति निशिचर कुल केरी। तेहिं सीता पर प्रीति घनेरी॥**
भाष्य

हे नाथ! पुराण और वेद ऐसे कहते हैं कि सुमति और कुमति अर्थात्‌ सुबुद्धि और कुबुद्धि सबके हृदय में रहती है, एवं समय–समय पर निवास करती है। जब व्यक्ति भगवद्‌भजन करता है, तब उसके हृदय में सुमति आकर रहती है और जब भजन नहीं करता तब कुमति आकर रहती है। जो निरन्तर भजन करता है उसके हृदय में निरन्तर सुमति रहती है और जो भजन नहीं करता उसके हृदय में निरन्तर कुमति रहती है। जहाँ सुमति रहती है वहाँ अनेक प्रकार की सम्पत्ति रहती है और जहाँ कुमति अर्थात्‌ कुबुद्धि आकर रहती है वहाँ विपत्ति और नाश होता है। तुम्हारे हृदय में विपरीत कुमति आकर बस गई है, तुम हित को अहित और शत्रु को मित्र मानने लगे हो। विपरीत कुमति का यह परिणाम है कि, अब तुम्हे सब कुछ उल्टा दिख रहा है, जैसे जो राक्षसकुल की कालरात्रि हैं उन्हीं श्रीसीता पर तुम्हारी बहुत–बड़ी प्रीति है। तुम यह नहीं समझ पा रहे हो कि ये श्रीसीता राक्षसों का सर्वनाश करके रहेंगी।

विशेष

इस प्रसंग में विभीषण जी ने रावण को तीन बार “नाथ” शब्द से सम्बोधित किया है यथा-नाथ नरक के पंथ**, मानस ५.३८, *देहुनाथ प्रभु कहँ बैदेही *मानस ५.३९.६ नाथ पुरान निगम अस कहहीं-मानस- ५.४०.५. इन सम्बोधनों के पीछे विभीषण जी के तीन अभिप्राय छिपे हैं, प्रथम विभीषण ये कहना चाहते है कि

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तुम सबको कय् ही दे रहे हो। ‘नाथ’ शब्द नाथृ धातु से निष्पन्न हुआ है जिसके याचना, ऐश्वर्य, उपताप और आर्शीवाद ये चार अर्थ है। “नाथाति इति नाथ: यहाँ उपताप अर्थ के अभिप्राय से विभीषण ने कहा “नाथ नरक के पंथ” हे सबको कय् देने वाले रावण ! काम आदि नरक के मार्ग है, अथवा ‘नाथ’ शब्द नरक पंथ का भी विशेषण बन सकता है। विभीषण कहते हैं कि काम, क्रोध, लोभ, नाथ अर्थात उपताप देने वाले नरक के पंथ है। दूसरे सम्बोधन में विभीषण ‘नाथ’ शब्द को याचना के अर्थ में ले रहे हैं “नाथति याचते इति नाथ :” अर्थात्‌ हे रावण ! तुम तो भिक्षुक हो अब संसार से मांगना छोड़कर प्रभु श्रीराम की चरणों में सीता जी को समर्पित करके उन्हीं से अभय की भीख माँग लो “देहु नाथ प्रभु कहँ बैदेही**”। यहाँ नाथ लोट लकार मध्यम पुव्र्ष एक वचन का क्रिया पद है। ‘नाथृ ञ्चोपतापैश्र्वर्याशी:षु**’ (पा.धा.पा. ६)। तृतीय सम्बोधन नाथृ धातु के आर्शीवाद अर्थ में अच्‌ प्रत्यान्त होकर निष्पक्ष हुआ और वह पुराण तथा निगम का विशेषण भी बन गया “नाथ्यषे इति नाथ: तत्‌ सम्बुद्धौ हे नाथ” विभीषण कहते हैं हे रावण! यद्दपि तुम्हें ब्रह्मा जी एवं शिवजी द्वारा बहुत आर्शीवाद मिले हैं, परन्तु उनका तुम दुरुपयोग कर रहे हो जैसा सबको आर्शीवाद देने वाले पुराण और वेद भी कह रहे हैं। “नाथन्ते (आशाशते) इति नाथा: पुराण निगमा:।

दो०– तात चरन गहि माँगउँ, राखहु मोर दुलार।

सीता देहु राम कहँ, अति हित होइ तुम्हार॥४०॥

भाष्य

हे बड़े भाई रावण! मैं तुम्हारे चरण पक़डकर यह उपहार माँग रहा हूँ, मेरा दुलार रख लो अर्थात्‌ मेरे लाड़-प्यार की रक्षा कर लो। भगवती श्रीसीता को भगवान्‌ श्रीराम को सौंप दो, तुम्हारा बहुत–बड़ा हित होगा।

**बुध पुरान श्रुति सम्मत बानी। कही बिभीषन नीति बखानी॥ सुनत दशानन उठा रिसाई। खल तोहि निकट मृत्यु अब आई॥ जियसि सदा शठ मोर जियावा। रिपु कर पक्ष मू़ढ तोहि भावा॥ कहसि न खल अस को जग माहीं। भुज बल जाहि जिता मैं नाहीं॥**
भाष्य

विभीषण जी ने विद्वानों, पुराणों और वेदों से सम्मत अपनी वाणी से व्याख्यान करके नीति कही, किन्तु उसे सुनते ही रावण क्रुद्ध होकर उठा और बोला, अरे खल! अब मृत्युतेरे निकट आ गयी है। अरे शठ! तू मेरा जिलाया हुआ सदैव जी रहा है और मूर्ख! अब तुझे शत्रु का पक्ष भा रहा है। अरे खल! क्यों नहीं कहता संसार में ऐसा कौन है, जिसे मैंने अपने भुजबल से नहीं जीता हो?

**मम पुर बसि तपसिन पर प्रीती। शठ मिलु जाइ तिनहिं कहु नीती॥ अस कहि कीन्हेसि चरन प्रहारा। अनुज गहे पद बारहिं बारा॥ उमा संत कइ इहइ बड़ाई। मंद करत जो करइ भलाई॥ तुम पितु सरिस भलेहिं मोहि मारा। राम भजे हित होइ तुम्हारा॥**
भाष्य

मेरे पुर में निवास करके तपस्वियों से प्रेम करता है, अरे दुष्ट! यहाँ से जाकर उन्हीं से मिल और उन्हीं को नीति सुना। इतना कहकर रावण ने विभीषण की छाती पर अपने वामचरण का प्रहार किया। विभीषण जी ने उसका बारम्बार चरण पक़डा अथवा ऐसा कहकर रावण ने जब विभीषण जी की छाती पर चरण का प्रहार किया तब रावण को दण्ड देने के लिए उद्दत भगवान्‌ श्रीराम जी के पदकमल को अनुज अर्थात्‌ छोटे भाई लक्ष्मण जी ने बार–बार पक़डा और प्रभु को यह कहकर रोक लिया कि चौदह वर्षपर्यन्त पिता जी ने आपको नगर, पुर और ग्राम में जाने से निषेध किया है और फिर विभीषण जी ने आपको अभी स्मरण भी नहीं किया है। शिव जी, पार्वती जी से कहते हैं कि, हे उमा! सन्त की यही बड़ाई है, जो बुरा करने वालों की भी भलाई करते हैं। इधर विभीषण जी ने

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रावण से कहा, हे राक्षसराज! आप बड़े भाई होने से मेरे पिता के समान हैं, आप ने भले ही मुझे मारा, परन्तु भगवान्‌ श्रीराम जी को भजने से आपका हित ही होगा।

सचिव संग लै नभ पथ गयऊ। सबहिं सुनाइ कहत अस भयऊ॥

दो०– राम सत्य संकल्प प्रभु, सभा कालबश तोरि।

मैं रघुबीर शरन अब, जाउँ देहु जनि खोरि॥४१॥

भाष्य

इसके अनन्तर, अनल, पनस, सम्पाती और प्रमति इन चार मंत्रियों को साथ लेकर विभीषण जी आकाश मार्ग में गये और वहीं से सबको सुनाकर इस प्रकार कहने लगे, भगवान्‌ श्रीराम सत्यसंकल्प, सर्वसमर्थ ईश्वर हैं। उनके संकल्प से ही तुम्हारा विनाश होगा, तुम्हारी यह सभा अब कालवश हो चुकी है। मैं अब रघुकुल के वीर श्रीराम जी के शरण में जा रहा हूँ अब मुझे दोष मत देना।

**अस कहि चला बिभीषन जबहीं। आयुहीन भए निशिचर तबहीं॥ साधु अवग्या तुरत भवानी। कर कल्यान अखिल कै हानी॥ रावन जबहिं बिभीषन त्यागा। भयउ बिभव बिनु तबहिं अभागा॥**
भाष्य

जिस समय विभीषण ऐसा कहकर श्रीराम की ओर चले, उसी समय रावण के सहित रावण पक्ष के राक्षस आयु से हीन हो गये। शिव जी ने कहा, हे पार्वती! साधुजनों का अपमान तुरन्त ही सम्पूर्ण कल्याणों की हानि कर देता है। जिस समय रावण ने विभीषण जी का त्याग किया उसी समय वह अभागा रावण सम्पूर्ण विभवों से हीन हो गया।

**विशेष– **यहाँ तीसरी पंक्ति में प्रयुक्त विभीषण शब्द का कर्त्ता के रूप में भी अन्वय होगा।

चलेउ हरषि रघुनायक पाहीं। करत मनोरथ बहु मन माहीं॥ देखिहउँ जाइ चरन जलजाता। अरुन मृदुल सेवक सुखदाता॥ जे पद परसि तरी रिषिनारी। दंडक कानन पावनकारी॥ जे पद जनकसुता उर लाए। कपट कुरंग संग धर धाए॥ हर उर सर सरोज पद जेई। अहोभाग्य मैं देखिहउँ तेई॥

दो०– जिन पायन की पादुका, भरत रहे मन लाइ।

ते पद आजु बिलोकिहउँ, इन नयननि अब जाइ॥४२॥

भाष्य

मन में बहुत से मनोरथ करते हुए विभीषण जी हर्षित होकर रघुनायक श्रीराम के पास चल पड़े वे मनोरथ कर रहे थे, अहो! मैं अत्यन्त शीघ्र प्रभु के पास जाकर श्रीराम जी के लाल कोमल, सेवकों को सुख देने वाले श्रीचरणकमलों के दर्शन करूँगा। जिन श्रीचरणों का स्पर्श करके ऋषिपत्नी अहल्या जी भवसागर से तर गईं, जो श्रीचरण दण्डक वन को पवित्र करने वाले हैं, जिन श्रीचरणों को जनकनन्दिनी श्रीसीता ने अपने हृदय में धारण करके अग्नि में निवास किया है और मायामयी श्रीसीता ने भी जिन श्रीचरणों को हृदय में धारण करके अशोक वाटिका में निवास किया है, जो श्रीचरण कपटमृग के साथ दण्डक वन की पृथ्वी पर दौड़े, जो श्रीचरण शिव जी के हृदयरूप तालाब के कमल हैं, आज मेरे अहोभाग्य हैं कि मैं उन्हीं श्रीचरणों को देखूँगा। जिन श्रीचरणों की पादुका में मन लगाकर श्रीभरत चौदह वर्षों से नन्दीग्राम में रह रहे हैं अब मैं जाकर उन्हीं श्रीचरणों को इन्हीं नेत्रों से देखूँगा।

[[७००]]

एहि बिधि करत सप्रेम बिचारा। आयउ सपदि सिंधु एहिं पारा॥

भाष्य

इस प्रकार पूर्वोक्त छ: मनोरथों के साथ छ: प्रकार की शरणागतियों का निश्चय करके, प्रेमपूर्वक विचार करते हुए, विभीषण जी शीघ्र ही समुद्र के इस पार अर्थात्‌ उत्तरी तट पर आ गये।

**कपिन बिभीषन आवत देखा। जाना कोउ रिपु दूत बिशेषा॥ ताहि राखि कपि पति पहँ आए। समाचार सब ताहि सुनाए॥ कह सुग्रीव सुनहु रघुराई। आवा मिलन दशानन भाई॥ कह प्रभु सखा बूझिये काहा। कहइ कपीश सुनहु नरनाहा॥**
भाष्य

वानरों ने विभीषण जी को आते देखा, तब उन्होंने जाना कि यह रावण का कोई एक विशिष्ट दूत है। विभीषण जी को शिविर–द्वार पर रखकर ही अथवा, आकाश मण्डल में ही रखकर उतरने के लिए मना करके वानर सुग्रीव जी के पास आये और उन्हें सब समाचार सुनाया। तब सुग्रीव जी ने भगवान्‌ श्रीराम से कहा, हे रघुकुल के राजा प्रभु श्रीराम! दसमुख रावण का भाई आपसे मिलने आया है। प्रभु श्रीराम ने सुग्रीव जी से कहा, मित्र! क्या करना चाहिये? अथवा, पूछिये वह कौन है? अथवा किस से पूछ रहे हैं, उसे ले आइये। सुग्रीव जी कहने लगे, हे मनुष्यों के नाथ श्रीरघुनाथ सुनिये।

**जानि न जाइ निशाचर माया। कामरूप केहि कारन आया॥ भेद हमार लेन शठ आवा। राखिय बाँधि मोहि अस भावा॥**
भाष्य

राक्षसों की माया जानी नहीं जाती, वे कामरूप होते हैं अर्थात्‌ स्वेच्छाचारी होते हैं। यह किस कारण आया है? मुझे तो ऐसा लगता है कि यह दुष्ट हमारा भेद लेने आया है, इसे बाँधकर रखना चाहिये।

**सखा नीति तुम नीकि बिचारी। मम पन शरनागत भयहारी॥ सुनि प्रभु बचन हरष हनुमाना। शरनागत बच्छल भगवाना॥**
भाष्य

भगवान्‌ श्रीराम ने कहा, हे मित्र! तुमने अच्छी नीति विचारी है, परन्तु शरणागत के भय का हरण करना मेरी प्रतिज्ञा है। प्रभु श्रीराम के वचन सुनकर, हनुमान जी प्रसन्न हुए और स्वगत कहने लगे कि भगवान्‌ श्रीराम शरणागतों के वत्सल हैं अर्थात्‌ शरणागतों के दोषों को भी समाप्त कर देते हैं।

**दो०– शरनागत कहँ जे तजहिं, निज अनहित अनुमानि।**

ते नर पामर पापमय, तिनहिं बिलोकत हानि॥४३॥

भाष्य

जो लोग अपने अहित का अनुमान करके शरण में आये हुए का त्याग कर देते हैं, वे मनुष्य नीच और पापी होते हैं, उन्हें देखने में भी हानि होती है।

**कोटि बिप्र बध लागहिं जाहू। आए शरन तजउँ नहिं ताहू॥**

सनमुख होइ जीव मोहि जबहीं। जन्म कोटि अघ नासहिं तबहीं॥

भाष्य

जिसको करोड़ों ब्राह्मण के वध का पाप लगा हो, उसको भी शरण में आने पर मैं नहीं छोड़ता। जिस समय जीव मेरे सन्मुख हो जाता है, उसी समय उसके करोड़ों जन्म के पाप नष्ट हो जाते हैं।

**पापवंत कर सहज सुभाऊ। भजन मोर तेहि भाव न काऊ॥ जौ पै दुष्टहृदय सोइ होई। मोरे सनमुख आव कि सोई॥**
भाष्य

पापी व्यक्ति का यह जन्मजात स्वभाव होता है कि उसे कभी भी मेरा भजन नहीं भाता अर्थात्‌ पापी मेरे नाम, रूप, लीला, धाम में रस की अनुभूति कर ही नहीं सकता। यदि वह (विभीषण) दुष्ट हृदय का होता तो वह क्यों मेरे सन्मुख आता?

[[७०१]]

निर्मल मन जन सो मोहि पावा। मोहि कपट छल छिद्र न भावा॥ भेद लेन पठवा दशशीशा। तबहुँ न कछु भय हानि कपीशा॥ जग महँ सखा निशाचर जेते। लछिमन हनइ निमिष महँ तेते॥ जौ सभीत आवा शरनाई। रखिहउँ ताहि प्रान की नाई॥

भाष्य

जिसका मन निर्मल होता है, वह मुझे प्राप्त कर लेता है, मुझे कपट, छल और छिद्र अर्थात्‌ दोषों को छिपाना अथवा अवसरवादिता, ये सब नहीं भाते। हे सुग्रीव! यदि दस सिरवाले रावण ने विभीषण को भेद लेने भी भेजा हो तो भी हमें कुछ भी भय और हानि नहीं है। हे मित्र! संसार में जितने राक्षस हैं, उन सबको मेरे लक्ष्मण एक क्षण में मार सकते हैं। यदि विभीषण भयभीत होकर मेरी शरण में आये हैं तो मैं उन्हें प्राण के समान रखूँगा।

**दो०– उभय भाँति तेहि आनहु, हँसि कह कृपानिधान।**

जय कृपालु कहि कपि चले, अंगदादि हनुमान॥४४॥

भाष्य

कृपा के कोशस्वरूप भगवान्‌ श्रीराम ने हँसकर कहा, विभीषण को दोनों प्रकार से ले आइये। अंगदादि, बन्दर, हनुमान जी को साथ लेकर “कृपालु श्रीराम की जय हो” इस प्रकार कहकर चल पड़े।

**सादर तेहि आगे करि बानर। चले जहाँ रघुपति करुनाकर॥ दूरिहि ते देखे द्वौ भ्राता। नयनानंद दान के दाता॥**
भाष्य

सभी वानर आदरपूर्वक विभीषण जी को आगे करके जहाँ करुणा के खानिस्वरूप भगवान्‌ श्रीराम थे वहाँ चल पड़े विभीषण जी ने नेत्रों को आनन्द–दान देने वाले दोनों भ्राता श्रीराम, लक्ष्मण जी को दूर से ही देखा।

**बहुरि राम छबिधाम बिलोकी। रहेउ ठटुकि एकटक पल रोकी॥**
भाष्य

फिर छवि के निवासस्थान भगवान्‌ श्रीराम को देखकर अपने पलकों का गिरना रोककर विभीषण जी टकटकी लगाकर स्तब्ध रह गये।

**भुज प्रलंब कंजारुन लोचन। श्यामल गात प्रनत भय मोचन॥ सिंघ कंध आयत उर सोहा। आनन अमित मदन मन मोहा॥**
भाष्य

भगवान्‌ श्रीराम की लम्बी भुजायें, लालकमल के समान नेत्र, प्रणाम करने वालों के भय को नष्ट करने वाला श्यामल शरीर, सिंह के समान स्कन्ध एवं प्रभु का विशाल हृदय सुशोभित हो रहा था और उनका मुख अनन्त कामदेवों के मन को मोहित कर रहा था।

**नयन नीर पुलकित अति गाता। मन धरि धीर कही मृदु बाता॥ नाथ दशानन कर मैं भ्राता। निशिचर बंश जनम सुरत्राता॥ सहज पापप्रिय तामस देहा। जथा उलूकहिं तम पर नेहा॥**
भाष्य

प्रभु के सौन्दर्य को देखकर विभीषण जी की आँखों में जल भर आया और शरीर रोमांचित हो गया। विभीषण जी ने मन में धैर्य धारण करके कोमल वचन कहे, हे नाथ! मैं रावण का छोटा भाई हूँ। हे देवताओं के रक्षक! मेरा जन्म राक्षस–वंश में हुआ है। हे श्रीराघवेन्द्र सरकार! जिसे स्वभाव से पाप प्रिय है, ऐसा मेरा तमोगुणी शरीर है, जैसे उल्लू को अंधकार पर स्नेह होता है, उसी प्रकार मुझे पाप पर स्नेह है।

**दो०– स्रवन सुजस सुनि आयउँ, प्रभु भंजन भव भीर।**

त्राहि त्राहि आरति हरन, शरन सुखद रघुबीर॥४५॥

[[७०२]]

भाष्य

मैं आपका सुयश कानों से सुनकर आपके शरण में आया हूँ। हे आर्ति, अर्थात्‌ संकट को दूर करने वाले! हे संसार के भय को मिटाने वाले! हे शरणागतों को सुख देने वाले! हे रघुवीर सर्वसमर्थ प्रभु! आप मेरी रक्षा कीजिये…रक्षा कीजिये।

**अस कहि करत दंडवत देखा। तुरत उठे प्रभु हरष बिशेषा॥ दीन बचन सुनि प्रभु मन भावा। भुज बिशाल गहि हृदय लगावा॥**
भाष्य

इस प्रकार कहकर विभीषण जी को दण्डवत्‌ करते हुए देखकर विशेष हर्ष के साथ प्रभु श्रीराम तुरन्त उठे। उनके दीन वचनों को सुनकर, विभीषण जी प्रभु के मन को भा गये और प्रभु श्रीराम ने आजानुबाहुओं से विभीषण जी को उठाकर हृदय से लगा लिया।

**अनुज सहित मिलि ढिग बैठारी। बोले बचन भगत भय हारी॥**
भाष्य

छोटे भाई लक्ष्मण जी के साथ विभीषण जी से मिलकर भक्तों का भय हरण करने वाले प्रभु श्रीराम उन्हें (विभीषण जी को) अपने निकट बैठाकर यह वचन बोले–

**कहु लंकेश सहित परिवारा। कुशल कुठाहर बास तुम्हारा॥ खल मंडली बसहु दिन राती। सखा धर्म निबहइ केहि भाँती॥ मैं जानउँ तुम्हारि सब रीती। अति नय निपुन न भाव अनीती॥ बरु भल बास नरक कर ताता। दुष्ट संग जनि देइ बिधाता॥ अब पद देखि कुशल रघुराया। जौ तुम कीन्ह जानि जन दाया॥**
भाष्य

हे लंकेश! कहो, परिवार सहित कुशल से तो हो न। यद्दपि तुम्हारा निवास बहुत बुरे स्थान पर है। हे मित्र! तुम दिन–रात खलों की मण्डली में रह रहे हो, तुम्हारा धर्म किस प्रकार निभ रहा है, मैं तुम्हारी सब पद्धति जानता हूँ। तुम नीति में निपुण हो और तुम्हे अनीति नहीं भाती है। हे तात! कदाचित्‌ नरक में वास कर लेना श्रेष्ठ है, परन्तु विधाता दुष्ट का साथ न दें। तब विभीषण जी बोले, हे रघुकुल के राजा श्रीराम! अब आपके श्रीचरणों को देखकर कुशल ही है, जो आप ने मुझे अपना सेवक जानकर मुझ पर दया कर दी।

**दो०– तब लगि कुशल न जीव कहँ, सपनेहुँ मन बिश्राम।**

जब लगि भजत न राम कहँ, शोक धाम तजि काम॥४६॥

भाष्य

जीव को तब तक न तो कुशल की प्राप्ति हो सकती है और न ही उसे स्वप्न में भी मानसिक विश्राम मिल सकता है, जब तक वह शोक के निवासस्थान, रूप, कामनायें छोड़कर आप श्रीराम का भजन नहीं करता।

**तब लगि हृदय बसत खल नाना। लोभ मोह मत्सर मद माना॥ जब लगि उर न बसत रघुनाथा। धरे चाप सायक कटि भाथा॥ ममता तरुन तमी अँधियारी। राग द्वेष उलूक सुखकारी॥ तब लगि बसति जीव मन माहीं। जब लगि प्रभु प्रताप रबि नाहीं॥**
भाष्य

तभी तक लोभ, मोह, मत्सर, मद, मान आदि नाना प्रकार के खल मनोविकार मन में बसते हैं, जब तक हाथ में धनुष–बाण धारण किये हुए और कटि प्रदेश में तरकस बाँधे हुए आपश्री रघुनाथ जी हृदय में नहीं बसते। राग–द्वेष रूप उल्लूओं को सुख देने वाली ममतामयी घनी अन्धेरी रात जीव के मन में तभी तक निवास करती है, जब तक आप प्रभु श्रीराम का प्रताप सूर्य वहाँ उदित नहीं हुआ रहता।

[[७०३]]

अब मैं कुशल मिटे भय भारे। देखि राम पद कमल तुम्हारे॥ तुम कृपालु जा पर अनुकूला। ताहि न ब्याप त्रिबिध भवशूला॥

भाष्य

हे श्रीराम! आपके श्रीचरणकमलों के दर्शन करके अब मैं कुशल हूँ। मेरे बहुत–बड़े भय समाप्त हो चुके हैं। तात्पर्य यह है कि, जो मैं रावण, कुम्भकर्ण और मेघनाद के अनेक भयों से त्रस्त था वे सब अब नष्ट हो गये हैं। हे कृपालु! आप जिस पर अनुकूल रहते हैं, उसे तीनों प्रकार के भय और तीनों प्रकार के ताप नहीं व्याप्त करते।

**विशेष– **देवता, मनुष्य और भूतों से होने वाला भय त्रिविध भय है, आधिदैविक, आधिदैहिक और आधिभौतिक ताप त्रिविध ताप है।

मैं निशिचर अति अधम सुभाऊ। शुभ आचरन कीन्ह नहिं काऊ॥ जासु रूप मुनि ध्यान न आवा। तेहि प्रभु हरषि हृदय मोहि लावा॥

भाष्य

मैं अत्यन्त निकृष्ट स्वभाव वाला राक्षस हूँ, मैंने कभी शुभ आचरण नहीं किया। जिन आप श्रीराम का रूप मुनियों के ध्यान में भी नहीं आता, उन्हीं सर्वसमर्थ आप भगवान्‌ श्रीराम ने प्रसन्न होकर मुझे हृदय से लगा लिया।

**दो०– अहोभाग्य मम अमित अति, राम कृपा सुख पुंज।**

देखेउँ नयन बिरंचि शिव, सेब्य जुगल पद कंज॥४७॥

भाष्य

आज मेरा अत्यन्त असीम अहोभाग्य है कि कृपा और सुख के पुञ्जरूप आप भगवान्‌ श्रीराम के ब्रह्मा जी

और शिव जी के द्वारा भी सेवनीय युगल श्रीचरणकमलों को मैंने अपने नेत्रों से देखा। सुनहु सखा न्िज कहउँ सुभाऊ। जान भुशुंडि शंभु गिरिजाऊ॥ जो नर होइ चराचर द्रोही। आवै सभय शरन तकि मोही॥ तजि मद मोह कपट छल नाना। करउ सद्द तेहि साधु समाना॥

भाष्य

भगवान्‌ श्रीराम बोले, हे मित्र विभीषण! मैं अपना स्वभाव कहता हूँ, उसे काकभुशुण्डि जी, शिव जी तथा पार्वती जी जानते हैं। जो व्यक्ति चराचर अर्थात्‌ ज़ड-चेतन का द्रोही हो, फिर भी मद, मोह, कपट, छल और मान को छोड़कर, भयभीत होकर, मुझको ही आश्रय मानकर, मेरी शरण में आये तो मैं उसे शीघ्र ही सन्तों के समान बना देता हूँ।

**जननी जनक बंधु सुत दारा। तन धन भवन सुहृद परिवारा॥ सब कै ममता ताग बटोरी। मम पद मनहिं बाँध बरि डोरी॥ समदरशी इच्छा कछु नाहीं। हरष शोक भय नहिं मन माहीं॥ अस सज्जन मम उर बस कैसे। लोभी हृदय बसइ धनु जैसे॥ तुम सारिखे संत प्रिय मोरे। धरउँ देह नहिं आन निहोरे॥**
भाष्य

जो माता–पिता, भाई–बहन, पुत्र–पुत्री, पत्नी–पति, शरीर, धन, घर, मित्र तथा परिवार इन सबकी ममतारूप तागों (धागों) को इकट्ठा करके उनकी डोरी अर्थात्‌ रस्सी बटकर (बनाकर) उसी से अपने मन को मेरे चरणों में बाँध देता है अर्थात्‌ संसार की सभी ममताओं का आलम्बन मुझे बना लेता है। जो सर्वत्र समदर्शी होता है, जिसके मन में कोई इच्छा नहीं होती और जिसके मन में प्रसन्नता, शोक और भय नहीं होता। इस प्रकार का श्रीवैष्णवजन मेरे हृदय में किस प्रकार बसता है, जैसे लोभी एक क्षण के लिए भी धन को नहीं भूल पाता, उसी

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प्रकार पूर्वोक्त श्रीवैष्णव को मैं मन से नहीं भूल पाता, आप जैसे सन्त मुझे प्रिय होते हैं। मैं किसी और के निहोरे अर्थात्‌ कृतज्ञता के वश में होकर शरीर धारण नहीं करता अर्थात्‌ मेरे अवतार में आप लोग ही निमित्त बनते हैं।

दो०– सगुन उपासक परहित, निरत नीति दृ़ढ नेम।

ते नर प्रान समान मम, जिन के द्विज पद प्रेम॥४८॥

भाष्य

जो मुझ सगुणब्रह्म के उपासक होते हैं और जो परोपकार में निष्ठापूर्वक लगे रहते हैं, जिनका नियम दृ़ढ होता है, जिन्हें ब्राह्मण के चरणों में प्रेम होता है, वे ही प्राणी मुझे मेरे प्राण के समान प्रिय होते हैं।

**सुनु लंकेश सकल गुन तोरे। ताते तुम अतिशय प्रिय मोरे॥ राम बचन सुनि बानर जूथा। सकल कहहिं जय कृपा बरूथा॥ सुनत बिभीषन प्रभु कै बानी। नहि अघात श्रवणामृत जानी॥ पद अंबुज गहि बारहिं बारा। हृदय समात न प्रेम अपारा॥**
भाष्य

हे लंकापति विभीषण! तुम्हारे पास ये सभी गुण हैं, इसलिए तुम मुझे अत्यन्त प्रिय हो। श्रीराम का यह वचन सुनकर सभी वानरों के समूह कहने लगे, कृपा समूह के आश्रय प्रभु श्रीराम की जय हो। प्रभु की वाणी सुनकर और उसे कानों के लिए अमृत जानकर विभीषण जी नहीं अघा रहे हैं और बारम्बार प्रभु के श्रीचरणकमलों को पक़ड लेते हैं। अपार प्रेम विभीषण जी के हृदय में नहीं समा रहा है, विभीषण जी बोले–

**सुनहु देव सचराचर स्वामी। प्रनतपाल उर अंतरजामी॥**

उर कछु प्रथम बासना रही। प्रभु पद प्रीति सरित सो बही॥ अब कृपालु निज भगति पावनी। देहु सदा शिव मन भावनी॥

भाष्य

हे चर–अचर सहित इस संसार के स्वामी! हे प्रकृष्टता से प्रणाम करने वाले भक्तों के पालक! हे हृदय के अन्तर्यामी, आप से मिलने के प्रथम मेरे हृदय में कुछ वासना अर्थात्‌ भोगों की इच्छा थी, वह भी आज आप प्रभु श्रीराम के श्रीचरण की प्रीति की सरिता अर्थात्‌ नदी में बह गई। हे कृपालु! अब शिव जी के मन को निरन्तर भानेवाली अपनी पावनी भक्ति दे दीजिये।

**एवमस्तु कहि प्रभु रनधीरा। माँगा तुरत सिंधु कर नीरा॥ जदपि सखा तव इच्छा नाहीं। मोर दरस अमोघ जग माहीं॥ अस कहि राम तिलक तेहिं सारा। सुमन बृष्टि नभ भई अपारा॥**
भाष्य

युद्ध में धीर अर्थात्‌ विभीषण जी को राजा बनाने के पश्चात्‌ रावण की सम्भावित प्रतिक्रिया से न डरते हुए सर्वसमर्थ प्रभु श्रीराम ने “एवमस्तु” अर्थात्‌ ऐसा ही हो, कहकर, लक्ष्मण जी से तुरन्त समुद्र का जल मँगवाया और बोले, हे मित्र! यद्दपि तुम्हारी कोई इच्छा नहीं है, परन्तु संसार में मेरा दर्शन भी अमोघ है अर्थात्‌ भक्त के न चाहने पर भी मैं उसके पूर्व की सांसारिक इच्छायें पूर्ण कर देता हूँ। इस प्रकार कहकर भगवान्‌ श्रीराम ने विभीषण जी को समुद्र के जल से तिलक कर दिया, उस समय आकाश से अपार पुष्पवृष्टि हुई।

**दो०– रावन क्रोध अनल निज, श्वास समीर प्रचंड।**

जरत बिभीषन राखेउ, दीन्हेउ राज अखंड॥४९(क)॥ जो संपति शिव रावनहिं, दीन्हि दिए दश माथ।

सोइ संपदा बिभीषण, सकुचि दीन्हि रघुनाथ॥४९(ख)॥

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भाष्य

अपने ही श्वास–रूपी वायु से उद्दत हुए, रावण की क्रोधाग्नि में जलते हुए विभीषण जी को प्रभु श्रीराम ने बचा लिया तथा उन्हें अखण्ड राज्य दे दिया। शिव जी ने जो सम्पत्ति दस मस्तकों के देने पर रावण को दी थी, रघुकुल के नाथ श्रीराम ने विभीषण जी को वही सम्पत्ति संकोचपूर्वक दे दी।

**विशेष– **शिव जी सबसे बड़े तपस्वी और भिखारी हैं, “***भीख** माँगि भव खाहिं”** *और श्रीराम राजा हैं। अत: भिखारी के ही समान सम्पत्ति देने में प्रभु को संकोच हो रहा है। शिव जी ने दस सिर देने पर लंका दी थी और वही लंका विभीषण जी को सर्वसमर्पण के पश्चात्‌ भी दी जा रही है। अत: विभीषण को रावण की अपेक्षा कम दिया जा रहा है, यही प्रभु का संकोच है। शिव जी ने सजी हुई लंका रावण को दी थी और श्रीरघुनाथ, हनुमान जी द्वारा जलायी हुई लंका विभीषण जी को दे रहे हैं, यद्दपि प्रभु के संकल्प से वह पहले से भी सुन्दर हो जायेगी, किन्तु दान देते समय तो हनुमान जी द्वारा नष्टप्राय हैं ही, यही प्रभु का संकोच है।

अस प्रभु छाभिड़ जहिं जे आना। ते नर पशु बिनु पूँछ बिषाना॥ निज जन जानि ताहि अपनावा। प्रभु स्वभाव कपि कुल मन भावा॥

भाष्य

ऐसे श्रीराम को छोड़कर जो दूसरे स्वामियों का भजन करते हैं वे मनुष्य बिना सींग और पूँछ के पशु हैं। अपना सेवक जानकर प्रभु ने उन विभीषण जी को अपना लिया प्रभु का यह स्वभाव वानरकुल के मन को बहुत भाया।

**पुनि सर्बग्य सर्ब उर बासी। सर्बरूप सब रहित उदासी॥ बोले बचन नीति प्रतिपालक। कारन मनुज दनुज कुल घालक॥**
भाष्य

फिर सब कुछ जानने वाले, अन्तर्यामी रूप से सबके हृदय में निवास करने वाले, सर्वस्व―प पूर्णरूप से सबसे रहित अर्थात्‌ सभी से परे और समरूप होने से सभी से तटस्थ, नीति की रक्षा करने वाले, कारण विशेष से मनुष्य बने हुए, राक्षसों के समूह के नाशक भगवान्‌ श्रीराम यह वचन बोले–

**सुनु कपीश लंकापति बीरा। केहि बिधि तरिय जलधि गंभीरा॥ संकुल मकर उरग झष जाती। अति अगाध दुस्तर सब भाँती॥**
भाष्य

हे सुग्रीव और हे लंकापति विभीषण! सुनिये, यह गम्भीर सागर किस विधि से पार किया जाये, क्योंकि यह घयिड़ालों जलसर्पों, और अनेक जाति की मछलियों से संकुल अर्थात्‌ युक्त है। यह अत्यन्त अगाध और सब प्रकार से दुस्तर अर्थात्‌ पार करने में बहुत कठिन है।

**कह लंकेश सुनहु रघुनायक। कोटि सिंधु सोषक तव सायक॥ जद्दपि तदपि नीति असि गाई। बिनय करिय सागर सन जाई॥**
भाष्य

लंकापति विभीषण जी ने कहा, हे रघुकुल के नायक भगवान्‌ श्रीराम! सुनिये, यद्दपि आपके बाण करोड़ों सागर को सोखने में समर्थ हैं, फिर भी वेदों में ऐसी नीति गायी गई है कि सभी उपायों के समाप्त हो जाने के पश्चात्‌ अंतिम उपाय के रूप में सागर को सोखने के लिए आग्नेयास्त्र का प्रयोग करना चाहिये, इसलिए प्रथम तो आप जाकर समुद्र से मार्ग देने के लिए प्रार्थना कीजिये।

**दो०– प्रभु तुम्हार कुलगुरु जलधि, कहिहि उपाय बिचारि।**

बिनु प्रयास सागर तरिहि, सकल भालु कपि धारि॥५०॥

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भाष्य

हे प्रभु! सागर आप के कुलश्रेष्ठ हैं, क्योंकि आप के पूर्वज सगर के पुत्रों ने इसे उत्पन्न किया, इसलिए ये विचार करके उपाय कहेगा और बिना किसी प्रयास के ही सम्पूर्ण ऋच्छों और वानरों की सेना सागर पार कर जायेगी।

**सखा कही तुम नीकि उपाई। करिय देव जौ होइ सहाई॥**

मंत्र न यह लछिमन मन भावा। राम बचन सुनि अति दुख पावा॥

भाष्य

हे मित्र! तुमने यह उपाय बहुत अच्छा कहा, यदि ईश्वर सहायक हों तो इसे करना चाहिये, परन्तु विभीषण जी की यह मंत्रणा लक्ष्मण जी के मन को नहीं भायी और श्रीराम का वचन सुनकर उन्होंने बहुत दु:ख पाया।

**नाथ दैव कर कवन भरोसा। सोषिय सिंधु करिय मन रोसा॥ कादर मन कहँ एक अधारा। दैव दैव आलसी पुकारा॥**
भाष्य

लक्ष्मण जी बोले, हे नाथ! दैव का क्या विश्वास, आप स्वयं देवों के भी देव हैं। मन में क्रोध कीजिये और सागर को सोख लीजिये। दैव तो अकर्मण्य कायरों के मन का एकमात्र आधार है। आलसी व्यक्ति ही दैव–दैव चिल्लाता है, कर्मठ व्यक्ति अपने कर्म की गुणवत्ता से भाग्य को भी बदल देता है, आप कायर नहीं हैं और न ही आलसी।

**सुनत बिहँसि बोले रघुबीरा। ऐसेहिं करब धरहु मन धीरा॥ अस कहि प्रभु अनुजहिं समुझाई। सिंधु समीप गए रघुराई॥ प्रथम प्रनाम कीन्ह सिर नाई। बैठे पुनि तट दर्भ डसाई॥**
भाष्य

लक्ष्मण जी के वचन सुनकर रघुवीर श्रीराम हँसकर बोले, ऐसा ही करूँगा मन में धैर्य धारण करो। ऐसा कहकर छोटे भैया लक्ष्मण जी को समझाकर, समर्थ होकर भी रघुकुल के राजा श्रीराम रघुकुल के पूर्वज समुद्र को मनाने चले। प्रभु उस सागर के समीप गये, सर्वप्रथम मस्तक नवाकर प्रभु ने सागर को प्रणाम किया, फिर उसके तट पर कुश की चटायी बिछाकर बैठ गये अर्थात्‌ अनशन व्रत प्रारम्भ किया।

विशेष

यहाँ ऐसेहिं शब्द कहकर भगवान्‌ श्रीराम लक्ष्मण और विभीषण दोनों को संतुष्ट कर रहे हैं। जबहिं बिभीषन प्रभु पहँ आए। पाछे रावन दूत पठाए॥

दो०– सकल चरित तिन देखे, धरे कपट कपि देह।

प्रभु गुन हृदय सराहहिं, शरनागत पर नेह॥५१॥ प्रगट बखानहिं राम सुभाऊ। अति सप्रेम गा बिसरि दुराऊ॥

भाष्य

जिस समय विभीषण जी प्रभु के पास आये थे, उसी समय रावण ने उनके पीछे–पीछे शुक और शारण नाम के दो दूत भेज दिये थे। उन लोगों ने कपटमय वानर का रूप धारण करके प्रभु के सम्पूर्ण चरित्र को देखा और विभीषण जी के राजतिलक के पश्चात्‌ शरणागत पर स्नेहरूप प्रभु के गुण की हृदय में सराहना करने लगे। प्रभु के प्रति अत्यन्त प्रेम होने के कारण शुक–शारण को अपने रूप का छिपाव भूल गया और वे अपने राक्षस शरीर में ही आ गये तथा भगवान्‌ की प्रशंसा और रावण की निन्दा करने लगे।

**रिपु के दूत कपिन तब जाने। सकल बाँधि कपीश पहँ आने॥ कह सुग्रीव सुनहु सब बनचर। अंग भंग करि पठवहु निशिचर॥**

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भाष्य

तब वानरों ने उन्हें शत्रु का दूत जान लिया और सभी वानर ने शुक और शारण को बाँधकर वानरराज सुग्रीव जी के पास ले आये। सुग्रीव जी ने कहा, सभी वनचारी वानर–भालुओं! सुनो, अंग–भंग करके इन राक्षसों को रावण के यहाँ भेज दो।

**विशेष– **जैसे रावण की ओर से हनुमान जी के प्रति वर्तन हुआ था, रावण ने हनुमान जी महाराज के अंग–भंग की आज्ञा दी थी, यथा– ***अंग** भंग करि पठिइय बंदर ***\(मानस, ५.२४.९\). सुग्रीव जी उसी इतिहास की पुनरावृत्ति करना चाहते हैं, यथा– ***अंग** भंग करि पठवहु निशिचर ***\(मानस, ५.५२.३\).

सुनि सुग्रीव बचन कपि धाए। बाँधि कटक चहुँ पास फिराए॥ बहु प्रकार मारन कपि लागे। दीन पुकारत तदपि न त्यागे॥ जो हमार हर नासा काना। तेहि कोसलाधीश कै आना॥

भाष्य

सुग्रीव जी के वचन सुनकर वानर–भालु दौड़े और शुक–शारण को बाँधकर सेना के चारों ओर घसीटा, वानर बहुत प्रकार से उन्हें मारने लगे। वे दीनभाव से छोड़ने के लिए चिल्ला रहे थे, फिर भी वानरों ने उन्हें नहीं छोड़ा और उनके नाक–कान काटने का यत्न करने लगे। अन्त में शुक–शारण ने ब्रह्मास्त्र जैसा एक प्रयोग कर दिया और बोले, जो वानर हमारी नाक–कान काटे उसे अयोध्यापति श्रीराम की शपथ।

**सुनि लछिमन सब निकट बोलाए। दया लागि हँसि तुरत छोड़ाए॥ रावन कर दीजहु यह पाती। लछिमन बचन बाँचु कुलघाती॥**

दो०– कहेहु मुखागर मू़ढ सन, मम संदेश उदार।

सीता देइ मिलहु न त, आवा काल तुम्हार॥५२॥

भाष्य

शुक–शारण के मुख से श्रीराम शपथ देने की बात सुनकर लक्ष्मण जी महाराज ने सभी वानरों को अपने निकट बुलाया उन्हें शुक–शारण पर दया लग आयी और लक्ष्मण जी ने हँसकर तुरन्त ही दोनों राक्षसों को बन्धन से और वानर–भालुओं के अधिकार से छुड़ा दिया और एक पत्र देते हुए कहा, शुक–शारण! यह पत्रिका रावण के हाथ में ही देना और कहना कि हे राक्षसकुल के नाशक रावण! पत्र में लिखे हुए लक्ष्मण जी के सन्देश का वाचन कर लो। उस मोहग्रस्त रावण से मेरा उदार सन्देश, मुखागर अर्थात्‌ मौखिकरूप में कह देना (यह पत्र में नहीं लिख रहा हूँ।) हे रावण! श्रीसीता को समर्पित करके श्रीराम से मिलकर उनकी शरण में आ जाओ, नहीं तो तुम्हारा काल (श्रीरामरूप में) आ पहुँचा हैं।

**तुरत नाइ लछिमन पद माथा। चले दूत बरनत गुन गाथा॥ कहत राम जस लंका आए। रावन चरन शीश तिन नाए॥**
भाष्य

लक्ष्मण जी के चरणों में प्रणाम करके प्रभु की गुणगाथाओं का वर्णन करते हुए रावण के दूत शुक–शारण तुरन्त रावण के पास चल दिये। श्रीराम के गुणगणों को कहते हुए, वे लंका आये और उन्होंने रावण के चरणों में सिर नवाया।

**बिहँसि दशानन पूँछी बाता। कहसि न शुक आपनि कुशलाता॥ पुनि कहु खबरि बिभीषन केरी। जाहि मृत्यु आई अति नेरी॥ करत राज लंका शठ त्यागी। होइहि जव कर कीट अभागी॥ पुनि कहु भालु कीस कटकाई। कठिन काल प्रेरित चलि आई॥ जिन के जीवन कर रखवारा। भयउ मृदुल चित सिंधु बिचारा॥ कहु तपसिन कै बात बहोरी। जिन के हृदय त्रास अति मोरी॥**

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दो०– की भइ भेंट कि फिरि गए, स्रवन सुजस सुनि मोर।

कहसि न रिपु दल तेज बल, बहुत चकित चित तोर॥५३॥

भाष्य

रावण ने हँसकर बाता (वार्त्ता) अर्थात्‌ कुशल समाचार पूछा, अरे शुक! तू अपनी कुशलता क्यों नहीं कह रहा है? फिर विभीषण का कुशल कह, मृत्यु जिसके बहुत निकट आ गयी है। वह दुय्, राज्य करते हुए लंका को छोड़कर चला गया। वह भाग्यहीन, जौ का कीड़ा अर्थात्‌ घुन बन जायेगा। तात्पर्यत: वानरी सेना के साथ वह भी मारा जायेगा। फिर भालु–वानरों की सेना के सम्बन्ध में बताओ, जो कठिन काल की प्रेरणा से लंका के पास तक चली आयी है। कोमलचित्त वाला बेचारा समुद्र ही जिनके जीवन का रक्षक बन गया है। फिर दोनों तपस्वियों का कुशल कहो, जिनके हृदय में मेरा बहुत–बड़ा डर है। क्या तुम्हारी उनसे भेंट हुई, क्या मेरा सुयश कानों से सुनकर वे दोनों भाई लौट गये? तू शत्रु दल के तेज और बल को नहीं कह रहा है, तेरा चित्त बहुत चकित (आश्चर्यचकित) हो रहा है।

**नाथ कृपा करि पूँछेहु जैसे। मानहु कहा क्रोध तजि तैसे॥ मिला जाइ जब अनुज तुम्हारा। जातहिं राम तिलक तेहि सारा॥ रावन दूत हमहिं सुनि काना। कपिन बाँधि दीन्हे दुख नाना॥ स्रवन नासिका काटन लागे। राम शपथ दीन्हे हम त्यागे॥**
भाष्य

(शारण चुप रहा और शुक ने कहा–) हे नाथ अर्थात्‌ राक्षसों के ईश्वर और संसार के कष्टदाता तथा शिव जी से माँगकर वरदान प्राप्त करने वाले! आप कृपा करके जैसा पूछ रहे हैं, उसी प्रकार क्रोध छोड़कर मेरी बात मान लीजिये। जब आपके छोटे भाई विभीषण सागर–पार करके भगवान्‌ श्रीराम से मिले, तो जाते ही श्रीराम ने उन्हें तिलक कर दिया अर्थात्‌ आपके जीते जी विभीषण को लंका का राजा बना दिया। हम लोगों को कान से रावण का दूत सुनकर वानरों ने बाँधकर नाना दु:ख दिये। हमारे नाक–कान काटने लगे, जब हम ने श्रीराम की शपथ दी, तब हम छोड़ दिए गए।

(*विशेष– नाथृ याञ्चोपतापैश्र्वर्यशी :षु *यहाँ नाथृ धातु के तीनों अर्थाें के अनुसार नाथ शब्द से रावण को सम्बोधित करके शुक ने कहा–)

पूँछेहु नाथ राम कटकाई। बदन कोटि शत बरनि न जाई॥

नाना बरन भालु कपि धारी। बिकटानन बिशाल भयकारी॥ जेहिं पुर दहेउ हतेउ सुत तोरा। सकल कपिन महँ तेहि बल थोरा॥ अमित नाम भट कठिन कराला। अमित नाग बल बिपुल बिशाला॥

दो०– द्विबिद मयंद नील नल, अंगदादि बिकटासि।

दधिमुख केहरि कुमुद गव, जामवंत बलरासि॥५४॥

भाष्य

हे नाथ! आपने श्रीराम की सेना के बारे में पूछा तो उसके सम्बन्ध में हम दो लोग, दो मुखों से क्या कहेंगे? वह तौ सौ करोड़ मुखों से भी वर्णित नहीं की जा सकती। वानर–भालुओं की सेना में अनेक प्रकार के विकट, भयंकर मुखवाले, भयंकर ऋच्छ और वानर हैं। जिसने लंकापुर जलाया और आपके पुत्र अक्षकुमार को मारा सभी वानरों में उसका बल बहुत थोड़ा है। वहाँ के वीर तो असीम नाम वाले, कठिन और भयंकर हैं। बहुत से विशाल बन्दर अनेक हाथियों का बल धारण करते हैं। जिनमें द्विबिद, मयन्द, नील, नल, विकटासि, दधिमुख, केसरी, कुमुद, गव, जाम्बवान्‌ तथा बल की राशि अंगद आदि वानर हैं।

[[७०९]]

ए कपि सब सुग्रीव समाना। इन सम कोटिन गनइ को नाना॥ राम कृपा अतुलित बल तिनहीं। तृन समान त्रैलोकहिं गिनहीं॥

भाष्य

ये सभी वानर सुग्रीव के समान हैं, इनके समान और भी नाना करोड़ वानर हैं, जिन्हें कौन गिने? अथवा “को” अर्थात्‌ ब्रह्मा जी ही इनकी गणना चाहें तो कर लें। श्रीराम की कृपा से उन वानरों के पास अतुलनीय बल है। वे तीनों लोकों को तिनके के समान गिनते हैं।

**अस मैं सुना स्रवन दशकंधर। पदुम अठारह जूथप बंदर॥ नाथ कटक महँ सो कपि नाहीं। जो न तुमहिं जीतै रन माहीं॥**
भाष्य

हे रावण! मैंने ऐसा अपने कान से सुना है कि श्रीराम की सेना में अठारह पद्‌म यूथपति वानर हैं और एक–एक यूथ में कितने–कितने होंगे यह तो भगवान्‌ ही जाने? हे नाथ! श्रीराम की सभा में वह वानर नहीं है, जो युद्ध में आपको नहीं जीत सके अर्थात्‌ प्रत्येक वानर युद्ध में आपको जीतने की क्षमता रखता है।

**परम क्रोध मीजहिं सब हाथा। आयसु पै न देहिं रघुनाथा॥ शोषहिं सिंधु सहित झष ब्याला। पूरहिं न त भरि कुधर बिशाला॥ मर्दि गर्द मिलवहिं दशशीशा। ऐसेइ बचन कहहिं सब कीशा॥ गर्जहि तर्जहि सहज अशंका। मानहुँ ग्रसन चहत हैं लंका॥**
भाष्य

वानर वीर उत्कृय् क्रोध के कारण अपने हाथ मलते हैं, फिर भी श्रीरघुनाथ उन्हें लंका पर आक्रमण करने का आदेश नहीं दे रहे हैं। “हम मछलियों और सर्पों के सहित सागर को पीकर सोख लेंगे, नहीं तो विशाल पर्वत भरकर समुद्र को पाट देंगे, रावण को मसलकर धूल में मिला देंगे” सभी वानर इसी प्रकार का वचन कहते हैं। वे स्वभाव से निर्भीक होकर गर्जना करते हैं और आपके पक्ष के राक्षस अर्थात्‌ हम सबको तर्जना देते हैं, डराते हैं, मानो लंका को वे ग्रस लेना चाहते हैं।

**दो०– सहज शूर कपि भालु सब, पुनि सिर पर प्रभु राम।**

रावन काल कोटि कहँ, जीति सकहिं संग्राम॥५५॥

भाष्य

वानर और भालु स्वभाव से शूरवीर हैं, पुन: उनके सिर पर प्रभु श्रीराम हैं अर्थात्‌ सर्वशक्तिमान परमेश्वर श्रीराम उनके रक्षक हैं। हे रावण! वे युद्ध में करोड़ों कालों को भी जीत सकते हैं।

**राम तेज बल बुधि बिपुलाई। शेष सहस शत सकहिं न गाई॥ सक सर एक शोषि शत सागर। तव भ्रातहिं पूँछेउ नय नागर॥ तासु बचन सुनि सागर पाहीं। माँगत पंथ कृपा मन माहीं॥**
भाष्य

श्रीराम के तेज, बल और बुद्धि की अधिकता को तो लाखों शेष नहीं गा सकते। उनका एक बाण करोड़ों समुद्रों को सोख सकता है, फिर भी नीति–निपुण श्रीराम ने आप के भ्राता विभीषण से उपाय पूछा। फिर उनका वचन अर्थात्‌ मंत्रणा सुनकर मन में कृपा को धारण करके समुद्र के पास प्रभु श्रीराम मार्ग की याचना कर रहे हैं। अपनी कृपा के कारण ही उसे सोखते नहीं।

**सुनत बचन बिहँसा दशशीशा। जौ असि मति सहाय कृत कीशा॥**

सहज भीरु कर बचन दृ़ढाई। सागर सन ठानी मचलाई॥

मू़ढ मृषा का करसि बड़ाई। रिपु बल बुद्धि थाह मैं पाई॥ सचिव सभीत बिभीषन जाके। बिजय बिभूति कहाँ जग ताके॥ सुनि खल बचन दूत रिस बा़ढी। समय बिचारि पत्रिका का़ढी॥

[[७१०]]

भाष्य

शुक का यह वचन सुनकर रावण ठहाके लगाकर हँसा, यदि राम के पास ऐसी बुद्धि है तभी तो वानरों को सहायक बनाया है। अरे मूर्ख! उनकी क्यों व्यर्थ की प्रशंसा कर रहा है? मैंने शत्रु के बल और बुद्धि की गम्भीरता की थाह पा ली है। जिसके पास विभीषण जैसा डरपोक मंत्री हो उसको संसार में विजय और विभूति अर्थात्‌ ऐश्वर्यपूर्ण सम्पत्ति कहाँ से मिल सकती है? खल प्रकृति वाले रावण के वचन सुनकर दूत शुक के मन में क्रोध ब़ढ आया, उसने समय का विचार करके लक्ष्मण जी द्वारा दी हुई पत्रिका निकाल ली।

**रामानुज दीन्ही यह पाती। नाथ बचाइ जुड़ावहु छाती॥ बिहँसि बाम कर लीन्ही रावन। सचिव बोलि शठ लाग बचावन॥**
भाष्य

शुक ने कहा, हे राक्षसराज! सभी को कष्ट देने वाले रावण! श्रीराम के छोटे भाई लक्ष्मण जी ने यह पत्रिका दी है। इसका वाचन कराकर अपने हृदय को शीतल कर लीजिये। रावण ने बिहँसि अर्थात्‌ विकृतभाव से तिरस्कारपूर्ण हँसी करके वह पत्रिका बायें हाथ से ले ली और वह दुष्ट मंत्री को बुलाकर उसी का वाचन कराने लगा।

**दो०– बातनि मनहिं रिझाइ शठ, जनि घालसि कुल खीश।**

**राम बिरोध न उबरसि, शरन बिष्णु अज ईश॥५६(क)॥ भा०– **हे दुष्ट! बातों में ही अपने मन को प्रसन्न करके अपने राक्षसकुल को तहस–नहस मत कर। श्रीराम का विरोध करके विष्णु जी, ब्रह्मा जी और शिव जी के शरण में जाकर भी तू नहीं बचेगा।

होहि मान तजि अनुज इव, प्रभु पद पंकज भृंग।

होसि राम शर अनल खल, जनि कुल सहित पतंग॥५६(ख)॥

भाष्य

अरे दुय्! छोटे भाई विभीषण की भाँति अहंकार छोड़कर तू भी भगवान्‌ श्रीराम के श्रीचरणकमल का भ्रमर बन जा और श्रीराम के बाणरूप अग्नि का परिवार के सहित पतंगा मत बन।

**सुनत सभय मन मुख मुसुकाई। कहत दशानन सबहिं सुनाई॥ भूमि परा कर गहत अकासा। लघु तापस कर बाग बिलासा॥**
भाष्य

पत्रिका सुनते ही मन में भयभीत होकर और ऊपर से मुस्कुराकर सबको सुनाकर दसमुखों वाला रावण कहने लगा, देखो तो भला छोटे तपस्वी का यह वाग्‌विलास अर्थात्‌ वाणी का चातुर्य। यह पृथ्वी पर पड़ा हुआ भी हाथ से आकाश को छू रहा है।

**कह शुक नाथ सत्य सब बानी। समुझहु छाप्रिड़ कृत अभिमानी॥ सुनहु बचन मम परिहरि क्रोधा। नाथ राम सन तजहु बिरोधा॥**
भाष्य

शुक ने कहा, हे नाथ! लक्ष्मण की सब वाणी सत्य है, आप अपने अहंकारी प्रकृति को छोड़कर समझिये। आप क्रोध छोड़कर मेरा वचन सुनिये, हे नाथ! भगवान्‌ श्रीराम से विरोध छोड़ दीजिये।

**अति कोमल रघुबीर सुभाऊ। जद्दपि अखिल लोक कर राऊ॥ मिलत कृपा तुम पर प्रभु करिहैं। उर अपराध न एकउ धरिहैं॥ जनकसुता रघुनाथहिं दीजै। इतना कहा मोर प्रभु कीजै॥ जब तेहिं कहा देन बैदेही। चरन प्रहार कीन्ह शठ तेही॥**
भाष्य

रघुकुल के नाथ भगवान्‌ श्रीराम का स्वभाव बहुत कोमल है, यद्दपि वे सम्पूर्ण संसार के राजा हैं। प्रभु श्रीराम मिलते ही तुम पर कृपा कर देंगे। तुम्हारे एक भी अपराध हृदय में धारण नहीं करेंगे। हे राक्षसी ईश्वर!

[[७११]]

जनकनन्दिनी श्रीजानकी को श्रीरघुनाथ को दे दीजिये। हे नाथ! मेरा इतना कहा कर लीजिये। जब उसने रावण से श्रीसीता को देने की बात कही, तब दुष्ट रावण ने तेहिं, अर्थात्‌ शुक के ऊपर भी चरण का प्रहार कर दिया अर्थात्‌ लात मारकर राजसभा से निष्कासित कर दिया।

नाइ चरन सिर चला सो तहवाँ। कृपासिंधु रघुनायक जहवाँ॥ करि प्रनाम निज कथा सुनाई। राम कृपा आपनि गति पाई॥

भाष्य

शुक, रावण के चरणों में प्रणाम करके और मन में ध्यान के माध्यम से पधारे हुए श्रीराघव के श्रीचरणों में प्रणाम करके वहाँ चला जहाँ कृपा के सागर रघुकुल के नायक भगवान्‌ श्रीराम सागर के उत्तरी तट पर विराज रहे थे। प्रभु को प्रणाम करके अपनी कथा सुनायी। पहले वह शुक नाम का मुनि था, राक्षसों ने उससे बदला लेने के लिए उसके यहाँ आमंत्रित होकर भोजनार्थ अगस्त्य जी के उपस्थित होने पर उसी शुक मुनि की पत्नी के रूप में आकर भोजन में माँस परोस दिया था, जिससे अगस्त्य जी ने उसे राक्षस होने का शाप दिया और सत्य परिस्थिति जान लेने के पश्चात्‌ उन्होंने श्रीराम के दर्शन करके ही उसे राक्षसभाव से मुक्त होने की आज्ञा दी। आज प्रभु को प्रणाम करके श्रीराम की कृपा से शुकजी ने अपनी गति पा ली।

**ऋषि अगस्त्य के स्राप भवानी। राक्षस भयउ रहा मुनि ग्यानी॥ बंदि राम पद बारहिं बारा। मुनि निज आश्रम कहँ पगु धारा॥**
भाष्य

हे पार्वती! महर्षि अगस्त्य जी के शाप के कारण यह राक्षस हो गया, पहले बहुत–बड़ा ज्ञानीमुनि था। श्रीराम जी के श्रीचरणों को बारम्बार वन्दन करके शुक मुनि अपने आश्रम को चले गये।

**दो०– बिनय न मानत जलधि ज़ड, गए तीनि दिन बीति।**

**बोले राम सकोप तब, भय बिनु होइ न प्रीति॥५७॥ भा०– **ज़डबुद्धि का समुद्र प्रभु श्रीराम की प्रार्थना नहीं मान रहा है। अनशन करते–करते श्रीराम के तीन दिन बीत गये। तब भगवान्‌ श्रीराम कुपित होकर बोले, भय के बिना प्रीति अर्थात्‌ प्रेम नहीं हुआ करता।

लछिमन बान शरासन आनू। सोषौं बारिधि बिशिख कृशानू॥

भाष्य

हे लक्ष्मण! मेरा आग्नेय बाण और शारंग धनुष ले आओ, मैं आग्नेय बाण से ही यह सागर सुखा दूँ।

**शठ सन बिनय कुटिल सन प्रीती। सहज कृपन सन सुंदर नीती॥ ममता रत सन ग्यान कहानी। अति लोभी सन बिरति बखानी॥ क्रोधिहि शम कामिहिं हरि कथा। ऊसर बीज बए फल जथा॥**
भाष्य

दुय् के सामने विनय, कुटिल के सामने प्रेम, स्वभाव से कृपण के सामने सुन्दर नीति, ममता से लगे हुए संसारी जीव के सामने ज्ञान का कथन, अत्यन्त लोभी के सामने वैराग्य का व्याख्यान, क्रोधी के सामने शान्ति और कामी के सामने मुझ श्रीहरि की कथा, ये सब उसी प्रकार उद्‌देश्यहीन होते हैं, जैसे ऊसर में बीज–बोने से फल की प्राप्ति।

विशेष

यहाँ भगवान्‌ श्रीराम ने समुद्र के सात दोषों की चर्चा की है अर्थात्‌ समुद्र शठ है, इसलिए विनय नहीं सुन रहा है। यह कुटिल होने के कारण मेरी प्रीतिभरीवाणी का मूल्यांकन नहीं कर रहा है। यह कृपण है इसलिए मेरी सुन्दर नीति की अनदेखी करके मार्ग नहीं दे रहा है। इसे अपनी रत्न राशि पर ममता है अतएव यह मुझ परमात्मा का ज्ञान कथन नहीं सुनना चाहता। इसे रत्न और जल पर लोभ है, इसलिए यह मेरी विरति अर्थात्‌ वैराग्य प्रकृति से नहीं परिचित हो रहा है, इसे आशंका है कि राम मेरे रत्नों को लूट ले जायेंगे। यह क्रोधी प्रकृति

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का है इसीलिए मेरे शम अर्थात्‌ शान्ति प्रस्ताव को ठुकरा रहा है। यह समुद्र कामी अर्थात्‌ अपनी अनेक नदी पत्नियों के प्रति काम केल में अनुरक्त रहता है, इसलिए मुझ श्रीहरि की कथा नही सुनना चाहता और मेरे कथन पर ध्यान नहीं देता। अगले दोहे में समुद्र इन सातों दोषों की प्रतिक्रिया स्व―प सात पंक्तियों में अपना मन्तव्य प्रस्तुत करेगा।

अस कहि रघुपति चाप च़ढावा। यह मन लछिमन के मन भावा॥ संधानेउ प्रभु बिशिष कराला। उठी उदधि उर अंतर ज्वाला॥ मकर उरग झष गन अकुलाने। जरत जंतु जलनिधि जब जाने॥ कनक थार भरि मनि गन नाना। बिप्र रूप आयउ तजि माना॥

भाष्य

ऐसा कहकर सम्पूर्ण जीवों के स्वामी प्रभु श्रीराम ने शारंग धनुष को च़ढाया। प्रभु का यह मत लक्ष्मण जी के मन में भा गया। प्रभु ने धनुष पर भयंकर आग्नेय बाण का सन्धान किया। तब समुद्र के हृदय के भीतर अर्थात्‌ मध्य में ज्वाला उठी, घयिड़ाल, सर्प और मछलियों के समूह अकुला गये। जब सागर ने अपने भीतर के जन्तुओं को जलते हुए जाना तब वह अहंकार छोड़कर स्वर्ण के थाल में अनेक मणियों को भरकर, उसी उपहार के साथ ब्राह्मण के रूप में प्रभु श्रीराम के समक्ष आया।

**दो०– काटेहि पइ कदरी फरइ, कोटि जतन कोउ सींच।**

बिनय न कान खगेश सुनु, डाटेहिं पै नव नीच॥५८॥

भाष्य

भुशुण्डि जी गरुड़देव को सम्बोधित करते हुए कहते हैं कि, हे पक्षियों के ईश्वर गरुड़ जी! कोई कितने भी यत्न से सींचे पर केला काटने पर ही फलता है, उसी प्रकार नीच प्रकृति का व्यक्ति प्रार्थना से नहीं मानता वह डाँटने पर ही झुकता है।

**सभय सिंधु गहि पद प्रभु केरे। छमहु नाथ सब अवगुन मेरे॥ गगन समीर अनल जल धरनी। इन कै नाथ सहज ज़ड करनी॥ तव प्रेरित माया उपजाए। सृष्टि हेतु सब ग्रंथनि गाए॥ प्रभु आयसु जेहि कहँ जस अहई। सो तेहि भाँति रहे सुख लहई॥**
भाष्य

समुद्र ने भयभीत होकर प्रभु के श्रीचरण पक़ड लिए और बोला, हे नाथ! आप मेरे सभी सात अवगुणों को क्षमा कीजिये। हे भगवन्‌! आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी इनकी करनी अर्थात्‌ इनके कार्य, स्वभाव से ज़ड होते हैं इसीलिए मैंने आपका विनय नहीं माना। आपकी प्रेरणा से इन्हें सृष्टि के लिए माया ने उत्पन्न किया है, इसीलिए मैं आपसे प्रीति नहीं कर पाया, क्योंकि माया मुझे कुटिलता नहीं छोड़ने देती। इस प्रकार सद्‌ग्रन्थ अर्थात्‌ वेद के शिरोभाग उपनिषदों ने गाया है। जिसके लिए जिस प्रकार प्रभु की आज्ञा है, वह उसी प्रकार रहने में सुख प्राप्त करता है। मैंने अपनी आज्ञा का उल्लंघन किया क्योंकि मुझमें कार्पण्य ―प दोष था।

**प्रभु भल कीन्ह मोहि सिख दीन्ही। मरजादा पुनि तुम्हरी कीन्ही॥ ढोल गवाँर शूद्र पशु नारी। ये सब ताड़न के अधिकारी॥**
भाष्य

आपने बहुत अच्छा किया जो मुझे शिक्षा दी, क्योंकि मैं ममता ग्रस्त था फिर मेरी मर्यादा भी तो आपकी दी हुई है। यदि आप मुझे सूखा देंगे तो आपके द्वारा बनायी हुई मेरी अलंघ्य मर्यादा नष्ट हो जायेगी। ढोल अर्थात्‌ ढोल से उपलक्षित घनवाद्द के जिज्ञासु, गवाँर अर्थात्‌ विषयभोग में लिप्त प्राणी, शूद्र अर्थात्‌ शोक से असंतुलित वर्णाश्रम के कर्म से हीन प्राणी, हाथी–घोड़े आदि पशु और नारी अर्थात्‌ अशिक्षित महिला, ये सब ताड़न अर्थात्‌

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शिक्षण के अधिकारी हैं। पूर्वपंक्ति में कही हुई सिख का समर्थन करते हैं कि मैं भी गवाँर हूँ, अत: शिक्षा अपेक्षित है। अब मेरी लोभ प्रवृत्ति समाप्त हो जाएगी।

**विशेष– *यहाँ की परिस्थिति न जानकर अनभिज्ञ लोग कुशंका करते हैं। कौटिल्य के अनुसार ताड़न का अर्थ शिक्षण है– “तस्मात्‌ पुत्रं च शिष्यं च ताड़येत न तु लालयेत्‌” *गोस्वामी जी का मानना है कि ढोल आदि को बजाने वाले, गवाँर अर्थात्‌ गवाँरू भोगों में लगे हुए, शूद्र अर्थात्‌ अपने कर्त्तव्यों को छोड़कर चिन्ता में व्याकुल लोग, पशु अर्थात्‌ उपयोग में आने वाले तोता, मैना, बन्दर, हाथी आदि और नारी अर्थात्‌ महिला ये सभी ताड़न अर्थात्‌ शिक्षण के अधिकारी हैं।

प्रभु प्रताप मैं जाब सुखाई। उतरिहि कटक न मोरि बड़ाई॥ प्रभु आग्या अपेल श्रुति गाई। करौं सो बेगि जो तुमहिं सोहाई॥

भाष्य

आपके प्रताप से मैं सूख जाऊँगा, सेना उतरेगी इसमें मेरी कोई बड़ाई नहीं है अर्थात्‌ इसमें मेरी कोई मर्यादा का प्रश्न नहीं है। अब मैं क्रोध छोड़ रहा हूँ। वेद ने आपकी आज्ञा को अपेल अर्थात्‌ अनुलंघ्य बताया है। वेदों के अनुसार कोई भी आपकी आज्ञा का अतिक्रमण नहीं कर सकता है। आपकी आज्ञा हो तो मैं सूख जाऊँ, परन्तु मेरी मर्यादा का भी आपको ध्यान रखना है। मैं शीघ्र वही करूँ, जो आपको अच्छा लगता हो अर्थात्‌ यदि सुखाना चाहें तब आग्नेय बाण छोड़ दीजिये, यदि बचाना चाहते हों तब इसे किसी दूसरे लक्ष्य पर छोबिड़ए। अ मैं निष्काम होकर आप श्रीराम का शरणागत हो चुका हूँ।

**दो०– सुनत बिनीत बचन अति, कह कृपालु मुसुकाइ।**

जेहि बिधि उतरै कपि कटक, तात सो कहहु उपाइ॥५९॥

भाष्य

समुद्र के अत्यन्त विनम्र वचन सुनकर कृपालु श्रीराम ने मुस्करा कर कहा, हे मान्यवर! जिस प्रकार से वानरी सेना सागर–पार उतर सके, आप वही उपाय बताइये। मुझे आपको सुखाने मंें कोई आग्रह नहीं है, परन्तु वानरी सेना के पार उतरने का उपाय चाहते हैं। अत: आप वही उपाय बतायें जिससे आप अपने स्वरूप में भी बने रहें और मेरी वानरी सेना भी पार चली जाये।

**नाथ नील नल कपि द्वौ भाई। लरिकाईं ऋषि आशिष पाई॥ तिन के परस किए गिरि भारे। तरिहैं जलधि प्रताप तुम्हारे॥**
भाष्य

हे नाथ! नील–नल नामक दोनों वानर सगे भ्राताओं ने बाल्याकाल में ही महर्षि का आशीर्वाद पाया है। अथवा, नील और नल नामक दोनों वानर सहोदर भाई हैं, इन्होंने बाल्यकाल में ऋषि का आशीर्वाद पाया है। इनके स्पर्श करने मात्र से बड़े-बड़े पर्वत आपके प्रभाव से समुद्र में तैरेंगे आशय यह है कि नील–नल के स्पर्श से पर्वत सागर में नहीं डूबेंगे और आपके प्रताप से परस्पर जुड़ जायेंगे।

**मैं पुनि उर धरि प्रभु प्रभुताई। करिहउँ बल अनुमान सहाई॥ एहि बिधि नाथ पयोधि बँधाइय। जेहिं यह सुजस लोक तिहुँ गाइय॥**
भाष्य

पुन: मैं भी आप प्रभु श्रीराम की प्रभुता को हृदय में धारण करके अपने बल का अनुमान करके, अथवा

वानरी सेना का अनुमान करके सहायता करूँगा। तब मेरी लहरें उद्धृत नहीं होंगी। इस प्रकार से आप मुझ सागर में सेतु बाँध दीजिये, जिससे आपका यह सागर सेतुबन्ध सुयश तीनों लोकों के लोग गाते रहें। इस दोहे के तीसरी पंक्ति में प्रयुक्त बल शब्द शक्ति और सेना इन दोनों अर्थों में प्रयुक्त हुआ है। समुद्र का मन्तव्य है कि वह सामुद्रिक शक्ति और वानरी सेना इन दोनों का सन्तुलन रखते हुए प्रभु की सहायता करेगा।

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एहिं सर मम उत्तर तट बासी। हतहु नाथ नर खल अघ रासी॥ सुनि कृपालु सागर मन पीरा। तुरतहिं हरी राम रनधीरा॥

भाष्य

हे नाथ! अपने इस आग्नेय बाण से मेरे उत्तरी तट पर निवास करने वाले, मल के राशि, मनुष्यों की आकृति में खलप्रकृति के प्राणियों को आप मार डालिए। कृपालु, युद्ध में अविचल अर्थात्‌ स्थिर रहने वाले भगवान्‌ श्रीराम ने सागर की पीड़ा सुनकर उसे तुरन्त हर लिया अर्थात्‌ आग्नेय बाण का उत्तरी तट पर प्रयोग करके सभी धर्म विरोधियों को मार डाला।

**देखि राम बल पौरुष भारी। हरषि पयोनिधि भयउ सुखारी॥**

**सकल चरित कहि प्रभुहिं सुनावा। चरन बंदि पाथोधि सिधावा॥ भा०– **भगवान्‌ श्रीराम के बहुत–बड़े बल और पौरुष को देखकर समुद्र रोमांचित होकर सुखी हो गया। समुद्र ने प्रभु को सम्पूर्ण चरित्र सुनाया और प्रभु के श्रीचरणों की वन्दना करके अपने भवन को चला गया।

छं०– निज भवन गवनेउ सिंधु श्रीरघुपतिहिं यह मत भायऊ।

यह चरित कलि मलहर जथामति दास तुलसी गायऊ॥ सुख भवन संशय शमन दमन बिषाद रघुपति गुन गना। तजि सकल आस भरोस गावहि सुनहि संतत शठ मना॥

भाष्य

समुद्र अपने भवन को गया, रघुपति भगवान्‌ श्रीराम को यह मत बहुत अच्छा लगा। कलियुग के पाप को हरने वाले इस चरित्र को मुझ से अभिन्न कवि तुलसीदास ने अपनी बुद्धि के अनुसार गाया। हे मेरे शठ मन! संसार की सम्पूर्ण आशायें और सभी के प्रति किये हुए विश्वास को छोड़कर सुख के आश्रय, संशयों को नष्ट करनेवाले, रघुपति, रघुकुल के स्वामी भगवान्‌ श्रीराम के गुणगणों को निरन्तर गा और निरन्तर सुन।

**दो०– सकल सुमंगल दायक, रघुनायक गुन गान।**

सादर सुनहिं ते तरहिं भव, सिंधु बिना जल यान॥६०॥

भाष्य

जो लोग आदरपूर्वक सम्पूर्ण शुभमंगलों को देने वाले रघुकुल के नायक परब्रह्म भगवान्‌ श्रीराम के गुणगान को सुनते हैं तथा सुनेंगे वे लोग बिना जल के जहाज के ही भवसागर को पार करते हैं और पार करेंगे।

**\* नवाहपारायण, सातवाँ विश्राम \* \* मासपारायण, चौबीसवाँ विश्राम \***

इति श्रीमद्‌गोस्वामितुलसीदासविरचिते श्रीमद्रामचरितमानसे सकलकलिकलुषविध्वंसने जनरंजनं नाम पंचमं सोपानं सुन्दरकाण्डं सम्पूर्णम्‌।

।श्रीसीतारामापर्णमस्तु।

इस प्रकार सम्पूर्ण कलियुग के पाप को नष्ट करनेवाले गोस्वामी श्रीतुलसीदास जी द्वारा विरचित्‌ श्रीरामचरितमानस में जनरञ्जन नामक पाँचवाँ सोपान सुन्दरकाण्ड सम्पन्न हुआ। यह श्रीसीताराम जी को समर्पित हो।

श्री रामभद्राचार्येण कृता भावार्थबोधिनी मानसे सुन्दरकाण्डे भक्त्यार्थं राष्ट्रभाषया। ॥श्रीराघव:शन्तनोतु॥

सुन्दरकाण्ड समाप्त

॥श्री सीताराम॥ श्री गणेशाय नम: