०४ किष्किन्धाकाण्ड

श्री सीतारामौ विजयेते श्रीमद्‌गोस्वामितुलसीदासकृत

श्रीरामचरितमानस

चतुर्थ सोपान

मंगलाचरण श्री:

भावार्थबोधिनी टीका —

कृतकुन्दाम्बुदतापौ धृतशरचापौ हृता निलजतापौ। वन्दे लक्ष्मण रामौ निजजनचित्ताभिरामौ तौ॥१॥ नत्वा श्रीतुलसीदासं किष्किन्धाकाण्ड इर्यते।
श्री रामभद्राचार्येण टीका भावार्थबोधिनी॥२॥

ग्रन्थ के प्रारम्भ में श्रीसीताराम जी का स्मरण। श्रीगणपति को नमस्कार भगवान्‌ श्रीसीताराम जी सर्वश्रेष्ठता के साथ विराजमान हो रहे हैं। गोस्वामी श्रीतुलसीदास कृत श्रीरामचरितमानस का किष्किन्धाकाण्ड नामक चतुर्थ सोपान प्रारम्भ हो रहा है। गोस्वामी तुलसीदास जी दो शार्दूलविक्रिडित छन्दों में मंगलाचरण प्रस्तुत करते हैं। प्रथम श्लोक में गोस्वामी तुलसीदास जी श्रीराम एवं लक्ष्मण जी से भक्ति प्राप्ति की अपेक्षा करते हुए कहते हैं कि–

कुन्देन्दीवरसुन्दरावतिबलौ विज्ञानधामावुभौ शोभाढ्याौ वरधन्विनौ श्रुतिनुतौ गोविप्रवृन्दप्रियौ।
मायामानुषरूपिणौ रघुवरौ सद्धर्मवर्मौ हितौ

सीतान्वेषणतत्परौ पथि गतौ भक्तिप्रदौ तौ हि न:॥१॥

भाष्य

कुन्द–पुष्प और नीले कमल के समान सुन्दर, अथवा कुन्द और इन्दीवर (नीला कमल) जिनके कारण सुन्दर हैं, अर्थात्‌ इन्हें जिनसे सुन्दरता प्राप्त हुई है, ऐसे अतिशय बल वाले, विमल ज्ञान के आश्रय, शोभा के धनी, श्रेष्ठ धनुष धारण करने वाले, वेदों द्वारा नमन का विषय बनाये गये अर्थात्‌ वेद जिन्हें नमन करते हैं, जो गौ और ब्राह्मणवृन्द को प्रिय हैं तथा जिन्हें गौ और वेदपाठी ब्राह्मणवृन्द प्रिय हैं, ऐसे सभी जीवों पर कृपा करके मनुष्य रूप धारण किये हुए श्रेष्ठ धर्म जिनका कवच है और जो सन्तों तथा धर्म के कवच के समान रक्षक हैं, ऐसे श्रीसीता के अन्वेषण में तत्पर ऋष्यमूक पर्वत के मार्ग में चलते हुए रघुकुल में श्रेष्ठ वे दोनों भ्राता श्री राम लक्ष्मण हमारे लिए भक्ति प्रदान करने वाले हों अर्थात्‌ श्रीलक्ष्मण हमें साधना–भक्ति प्रदान करें और श्रीराम हमें प्रेमलक्षणा भक्ति प्रदान करें।

**ब्रह्माम्भोधिसमुद्भवं कलिमलप्रध्वंसनं चाव्ययं श्रीमच्छम्भुमुखेन्दुसुन्दरवरे संशोभितं सर्वदा। संसारामयभेषजं सुमधुरं श्रीजानकीजीवनं धन्यास्ते कृतिन: पिबन्ति सततं श्रीरामनामामृतम्‌॥२॥**
भाष्य

द्वितीय श्लोक में श्रीरामनाम को अमृत से रूपित करते हुए गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं कि ब्रह्म अर्थात्‌ वेदरूप क्षीरसागर से पूर्णरूपेण उत्पन्न कलियुग के मलों को नष्ट करने वाले तथा अव्यय अर्थात्‌ तीनों कालों में नाश से रहित सदैव सीता जी की कृपा से अनुगृहीत कल्याणकारी शिव जी के सुन्दर और श्रेष्ठ मुखचन्द्र में सम्यक्‌रूप से शोभित संसाररूप रोग की औषधि

[[६३०]]

और संसार के रोगों के लिए औषधिस्वरूप अत्यन्त मधुर पराशक्ति श्रीसीता तथा जनकनन्दिनी श्रीसीता की प्रतिबिम्बमयी माया की सीता जी के भी जीवन के आधारस्वरूप भगवान्‌ श्रीराम के श्रीरामनामरूप अमृत का जो वैखरी वाणी द्वारा जप के माध्यम से सतत्‌ पान करते रहते हैं, वे कृति अर्थात सत्कर्म करने वाले, पुण्यात्मा, भाग्यशाली महानुभाव धन्य हैं।

सो०- मुक्ति जनम महि जानि, ग्यान खानि अघ हानि कर।
जहँ बस शंभु भवानि, सो काशी सेइय कस न॥ जरत सकल सुर बृंद, बिषम गरल जेहिं पान किय। तेहि न भजसि मति मंद, को कृपालु शङ्कर सरिस॥

भाष्य

जहाँ शिव जी तथा पार्वती जी निवास करते हैं ऐसे ज्ञान की खानि और पापों का नाश करने वाली उस काशी को मुक्ति की जन्मभूमि मानकर क्यों नहीं सेवा करनी चाहिये? अर्थात्‌ काशीवास करके श्रीरामनाम का जप अवश्य करना चाहिये। हे मन्दमति जीव! जिन शिव जी ने क्षीरसागर से उत्पन्न कालकूट विष की गर्मी से सभी देवसमूहों को भस्म होते देखकर, उस भयंकर विष को श्रीरामनाम का उच्चारण करके पान कर लिया था, उनका भजन क्यों नहीं करता? अर्थात्‌ शिव जी के ही भक्ति से श्रीरामभक्ति सम्भव है, क्योंकि शिव जी श्रीरामनाम जप के प्रथम आचार्य हैं और श्रीरामनाममंत्र के चतुर्थ अक्षर के ऋषि हैं, ऐसे उन (भगवान्‌ शिव) के समान कृपालु कौन है?

**आगे चले बहुरि रघुराया। ऋष्यमूक पर्बत नियराया॥**
भाष्य

फिर रघुकुल के राजा भगवान्‌ श्रीराम नारद जी के ब्रह्मलोक पधार जाने के पश्चात्‌ लक्ष्मण जी के साथ पम्पा सरोवर से आगे चले और ऋष्यमूक पर्वत के निकट आ गये, अथवा प्रभु से मिलने के लिए ऋष्यमूक पर्वत ही उनके निकट आ गया।

**तहँ रह सचिव सहित सुग्रीवा। आवत देखि अतुल बल सींवा॥ अति सभीत कह सुनु हनुमाना। पुरुष जुगल बल रूप निधाना॥ धरि बटु रूप देखु तैं जाई। कहेसु जानि जिय सयन बुझाई॥**

**पठए बालि होहिं मन मैला। भागौं तुरत तजौं यह शैला॥ भा०– **उस ऋष्यमूक पर्वत पर श्रीहनुमान, नल, नील और जाम्बवान इन चार मंत्रियों के साथ सुग्रीव जी रहते थे। जब उन्होेंने अतुलनीय बल की सीमा स्वरूप श्रीराम एवं लक्ष्मण जी कोअपने निकट आते देखा तब सुग्रीव जी ने अत्यन्त भयभीत होकर कहा, हे हनुमान! सुनो, तुम ब्रह्मचारी ब्राह्मण का वेश धारण करके ऋष्यमूक पर्वत से नीचे जाकर, बल और रूप के निधान इन दोनों पौरुष सम्पन्न मनुष्य राजकुमारों को देखो। हृदय में समझकर मुझे संकेत से समझाकर कहना। यदि मन के मैले अर्थात्‌ मलिन मनवाले बालि के द्वारा ये भेजे गये हों तब मैं तुरन्त भाग जाऊँ और यह पर्वत भी छोड़ दूँ।

बिप्र रूप धरि कपि तहँ गयऊ। माथ नाइ अस पूँछत भयऊ॥ को तुम श्यामल गौर शरीरा। छत्री रूप फिरहु बन बीरा॥ कठिन भूमि कोमल पद गामी। कवन हेतु बिचरहु बन स्वामी॥ मृदुल मनोहर सुंदर गाता। सहत दुसह बन आतप बाता॥ की तुम तीनि देव महँ कोऊ। नर नारायण की तुम दोऊ॥
दो०- जग कारन तारन भव, भंजन धरनी भार।

की तुम अखिल भुवन पति, लीन्ह मनुज अवतार॥१॥

भाष्य

कपि अर्थात्‌ वृषाकपि स्वयं शिव जी जो हनुमान जी के रूप में अवतीर्ण हुए थे, ब्राह्मण का रूप धारण करके वहाँ अर्थात्‌ ऋष्यमूक पर्वत पर से उतरकर श्रीराम, लक्ष्मण जी के पास गये। सिर नवाकर इस प्रकार पूछने लगे, हे वीर! आप दोनों श्यामल, गौर शरीर वाले कौन हैं जो क्षत्रिय रूप में इस वन में भ्रमण कर रहे हैं? हे स्वामी! इस कठिन भूमि में कोमल चरणों से चलने वाले आप दोनों किस हेतु से अर्थात्‌ किस कारण से वन में विचरण कर रहे हैं? कोमल मन को हरनेवाले सुन्दर श्रीअंगों से युक्त

[[६३१]]

आप दोनों वन में असहनीय धूप और कठोर वायु सहन कर रहे हैं। क्या आप दोनों ब्रह्मा, विष्णु और शिव नामक तीनों देवों में से कोई हैं? अथवा, क्या आप दोनों नर–नारायण हैं? जबकि वे उत्तरापथ में तपस्या कर रहे हैं और आप दोनों दक्षिणापथ के वन में विराज रहे हैं। क्या आप जगत्‌ के परमकारण सम्पूर्ण लोकों के पति साकेताधिपति भगवान्‌ श्रीराम हैं, जो जीवों को भवसागर से तारने के लिए और पृथ्वी का भार हरण करने के लिए श्रीअवध में मनुष्य रूप में अवतार लिए हैं?

**विशेष– **यहाँ हनुमान जी ने प्रभु श्रीराम जी से पाँच प्रश्न करके अपने पाँच मुख भी प्रमाणित किया। हनुमान जी के पाँच मुख आगमों में इस प्रकार प्रसिद्ध है– गरुड़मुख, वराहमुख, नृसिंहमुख, अश्वमुख और वानरमुख। इनसे उन्होंने प्रभु को भरोसा दिलाया कि मैं गरुड़मुख के ही समान और उनसे भी अधिक वेग से सौ योजन वाले सागर को लाँघकर लंका जाकर श्रीसीता का पता लगाऊँगा। जिस प्रकार वराह भगवान्‌ ने हिरण्याक्ष द्वारा चुरायी हुई पृथ्वी का उद्धार किया था, उसी प्रकार रावण द्वारा चुरायी हुई पृथ्वीपुत्री श्रीसीता की प्रतिबिम्ब सीता जी के भी उद्धरण में मैं सहायक बनूँगा। जिस प्रकार नृसिंह ने हिरण्यकशिपु का वक्षस्थल फाड़ा था, उसी प्रकार आप के विरोधी राक्षसों को फाड़ डालूँगा। जैसे हयग्रीव जी ने लुप्त हुए श्रुतियों का पता लगाया था, उसी प्रकार मैं कहीं भी छिपायी हुई श्रीसीता का पता लगा लूँगा और वानर के रूप में सदैव आपकी सेवा करूँगा।

हँसि बोले रघुबंश कुमारा। बिधि कर लिखा को मेटन हारा॥ कोसलेश दशरथ के जाए। हम पितु बचन मानि बन आए॥ नाम राम लछिमन दोउ भाई। संग नारि सुकुमारि सुहाई॥ इहाँ हरी निशिचर बैदेही। बिप्र फिरहिं हम खोजत तेही॥ आपन चरित कहा हम गाई। कहहु बिप्र निज कथा बुझाई॥

भाष्य

रघुवंश के कुमार भगवान्‌ श्रीराम हँसकर बोले, विधाता द्वारा लिखे लेख को कौन मिटा सकता है अर्थात्‌ यदि विधाता ने रावण का वध मनुष्य के हाथों से लिखा तो उसे कौन मिटायेगा? उसे ही सत्य करने के लिए हमें मनुष्य बनना पड़ा। अयोध्याधिपति श्रीदशरथ के हम दोनों पुत्र हैं और पिताश्री के आदेशात्मक वचन मानकर ही हम चौदह वर्षों के लिए वन में आये हैं। हम राम, लक्ष्मण नाम के दो भाई हैं। हमारे साथ एक सुन्दरी सुकुमारी नारी भी थीं (जिसे श्रीसीता कहते हैं), हे ब्राह्मणदेव! यहाँ अर्थात्‌ वन में किसी राक्षस ने विदेहनन्दिनी श्रीसीता का हरण कर लिया है, हम उन्हीं को ढूँ़ढते हुए वन में फिर रहे हैं अर्थात्‌ वन–वन भटकते फिर रहे हैं और हे ब्राह्मणदेव! हम यहाँ अर्थात्‌ ऋष्यमूक पर्वत के समीप हरी अर्थात्‌ द्वितीया विभक्ति के द्विवचन के वाच्यार्थ दोनों वानरों अर्थात्‌ हनुमान जी एवं सुग्रीव जी को, एक राक्षस अर्थात्‌ विभीषण जी को, वैदेही प्रतिबिम्ब श्रीसीता को, निश्चित रूप से ढूँ़ढ रहे हैं। हे विप्रदेव! हमनें अपना चरित्र गाकर कहा, अब अपनी कथा आप समझाकर कहिये।

**प्रभु पहिचानि परेउ गहि चरना। सो सुख उमा जाइ नहिं बरना॥ पुलकित तन मुख आव न बचना। देखत रुचिर बेष कै रचना॥**
भाष्य

हे पार्वती! अपने प्रभु श्रीराम को पहचानकर हनुमान जी उनके चरण पक़डकर पृथ्वी पर पड़ गये। हनुमान जी का वह सुख वर्णित नहीं किया जा सकता। श्रीराम, लक्ष्मण जी के सुन्दर वेश की रचना देखते ही हनुमान जी का शरीर पुलकित हो उठा उनके मुख से वचन नहीं निकल रहे थे।

**पुनि धीरज धरि अस्तुति कीन्ही। हरष हृदय निज नाथहिं चीन्ही॥** **मोर न्याउ मैं पूछा साईं। तुम पूछहु कस नर की नाईं॥**

तव माया बश फिरउँ भुलाना। ता ते मैंनहिं प्रभु पहिचाना॥

भाष्य

फिर धैर्य धारण करके हनुमान जी ने स्तुति की और अपने स्वामी श्रीराम को पहचानकर हनुमान जी के हृदय में बहुत हर्ष हुआ। अन्जनानन्दवर्द्धन प्रभु कहने लगे, हे मेरे स्वामी श्रीराघवेन्द्र सरकार! मेरा पूछना तो उचित था, क्योंकि मैं

[[६३२]]

अल्पज्ञ जीव हूँ, इसलिए मैंने पूछा किन्तु आप परमेश्वर होकर भी अल्पज्ञ मनुष्य की भाँति क्यों पूछ रहे हैं? हे स्वामी! मैं आपके माया के वश में पड़कर इधर–उधर भूला रहा इसी कारण मैं प्रभु श्रीराम आप को नहीं पहचान पाया।

दो०– एक मंद मैं मोहबश, कुटिल हृदय अग्यान।
पुनि प्रभु मोहि बिसारेउ, दीनबंधु भगवान॥२॥

भाष्य

एक तो मैं मन्दबुद्धिवाला जीव, फिर मोह के वश में हो गया पुन: कुटिल, अर्थात्‌ स्वार्थी और पुन: हृदय में अज्ञान से युक्त फिर समर्थ होकर भी, दीनों के बन्धु, छहों ऐश्वर्य से युक्त भगवान्‌ आप श्रीराम ने मुझे भुला दिया अर्थात्‌ अवतार लिए हुए लगभग उन्तालीस वर्ष बीत गये आप ने मेरी कोई खोज खबर नहीं ली।

**जदपि नाथ बहु अवगुन मोरे। सेवक प्रभुहिं परै जनि भोरे॥ नाथ जीव तव माया मोहा। सो निस्तरइ तुम्हारेहिं छोहा॥ ता पर मैं रघुबीर दोहाई। जानउँ नहिं कछु भजन उपाई॥ सेवक सुत पति मातु भरोसे। रहइ असोच बनइ प्रभु पोसे॥**
भाष्य

हे नाथ! यद्दपि मेरे पास बहुत से अवगुण हैं, फिर भी प्रभु को सेवक भोरे नहीं पड़ना चाहिये अर्थात्‌ प्रभु के द्वारा सेवक की विस्मृति नहीं की जानी चाहिये। यदि स्वामी सेवक को भूल ही जायंेंगे तो, उसका (सेवक का) सर्वनाश हो जायेगा। हे नाथ! यह जीव–जगत्‌ आपकी माया से मोहित है, अथवा इस जीव–जगत को आपकी माया ने मोहित कर रखा है। वह जीव आपकी ही वात्सल्यमयी कृपा से इस माया से निस्तार पा सकता है। उस पर भी हे रघुकुल के वीर श्रीराम! मैं अपनी शपथ करके कहता हूँ कि मैं कोई भी भजन के उपाय नहीं जानता अर्थात्‌ आप ही मेरे उपाय हैं और आप ही उपेय। सेवक और पुत्र स्वामी तथा माता के भरोसे पर निश्चिन्त रहता है। उसे प्रभु को पालते–पोषते ही बनता है, अथवा सेवक तो आप जैसे स्वामी के पालन–पोषण करने पर बन जाता है, अन्यथा बिग़ड भी जाता है। अतएव अब तो प्रभु को ही मेरा पालन–पोषण करना पड़ेगा, अन्यथा बिग़डने में देर नहीं लगेगी।

**अस कहि परेउ चरन अकुलाई। निज तनु प्रगटि प्रीति उर छाई॥ तब रघुपति उठाइ उर लावा। निज लोचन जल सींचि जुड़ावा॥ सुनु कपि जिय मानसि जनि ऊना तै मम प्रिय लछिमन ते दूना॥ समदरशी मोहि कह सब कोऊ। सेवक प्रिय अनन्यगति सोऊ॥**
भाष्य

इतना कहकर हुनमान जी अपना वानर शरीर प्रकट करके व्याकुल होकर भगवान्‌ श्रीराम के चरणों पर पड़ गये। उनके हृदय में भगवान्‌ की प्रीति अर्थात्‌ प्रियता छा गई। आशय यह है कि भगवान्‌ श्रीराम के अतिरिक्त अब हनुमान जी के हृदय में कोई भी प्रेम का आश्रय नहीं रह गया। तब रघुकुल के स्वामी भगवान्‌ श्रीराम ने अपने चरणों में पड़े हुए हनुमान जी को आजानु बाहुओं से उठाकर हृदय से लगा लिया और अपने कमल नेत्रों के शीतल जल से सींचकर हनुमान जी को शीतल कर दिया। (प्रभु बोले–) हे कपि अर्थात्‌ मेरे श्रीरामनामामृत को पीनेवाले वानर शरीरधारी वृषाकपि साक्षात्‌ शिव! सुनो, तुम अपने मन में स्वयं को न्यून मत समझना। तुम मुझे लक्ष्मण से दूने प्रिय हो अथवा, तुम मुझे इतने प्रिय हो कि लक्ष्मण से दो नहीं हो, तुम दोनों एक समान हो। जैसे मैंने और श्रीसीता ने लक्ष्मण को पुत्र माना है, उसी प्रकार हम दोनों के तुम भी पुत्र हो। मुझे सभी लोग समदर्शी कहते हैं, परन्तु औरों की अपेक्षा मुझे सेवक प्रिय हैं और वह भी यदि अनन्यगति का हो अर्थात्‌ यदि उसे एकमात्र मेरा ही आश्रय हो तो फिर बात ही क्या।

**दो०– सो अनन्य जाके असि, मति न टरइ हनुमंत।** **मैं सेवक सचराचर, रूप स्वामि भगवंत॥३॥**

[[६३३]]

भाष्य

हे हनुमान जी! वह सेवक अनन्य है, जिसके पास इस प्रकार की बुद्धि हो और जो कभी न टले कि मैं सेवक हूँ और चेतन तथा ज़ड सहित सारा संसार स्वामी भगवान्‌ श्रीराम का स्वरूप है।

**देखि पवनसुत पति अनुकूला। हृदय हरष बीते सब शूला॥ नाथ शैल पर कपिपति रहई। सो सुग्रीव दास तव अहई॥ तेहि सन नाथ मयत्री कीजै। दीन जानि तेहि अभय करीजै॥ सो सीता कर खोज कराइहि। जहँ तहँ मरकट कोटि पठाइहि॥**
भाष्य

पवनपुत्र हुनमान जी ने जब स्वामी भगवान्‌ श्रीराम को सब प्रकार से अनुकूल देखा, तब उनके हृदय में हर्ष हुआ और सब कष्ट दूर हो गये। हनुमान जी बोले, हे श्रीरघुनाथ! इसी ऋष्यमूक पर्वत पर वानरों के राजा सुग्रीव जी रहते हैं, वे आप के दास भी हैं। हे स्वामी, परमेश्वर! आप उनसे मित्रता कर लें और उन्हें दीन जानकर बालि से निर्भय कर दें। वे सुग्रीव जी श्रीसीता की खोज करायेंगे और जहाँ–तहाँ करोड़ों वानरों को भेजेंगे।

**एहि बिधि सकल कथा समुझाई। लिए दुऔ जन पीठि च़ढाई॥ जब सुग्रीब राम कहँ देखा। अतिशय जन्म धन्य करि लेखा॥ सादर मिलेउ नाइ पद माथा। भेंटेउ अनुज सहित रघुनाथा॥ कपि कर मन बिचार एहि रीती। करिहँइ बिधि मो सन ए प्रीती॥** **दो०– तब हनुमंत उभय दिशि, कै सब कथा सुनाइ।**

पावक साखी देइ करि, जोरी प्रीति दृ़ढाई॥४॥

भाष्य

इस प्रकार से सम्पूर्ण कथा समझाकर, दो जन अर्थात्‌ श्रीराम–लक्ष्मण जी को हनुमान जी ने अपने पीठ पर च़ढा लिया। जब सुग्रीव जी ने श्रीराम को देखा तब उन्होंने अपने जन्म को अत्यन्त धन्य माना और भगवान्‌ श्रीराम के श्रीचरणों में प्रणाम करके सुग्रीव जी आदरपूर्वक मिले। श्रीरघुनाथ ने छोटे भाई लक्ष्मण जी के सहित सुग्रीव जी को गले से लगा लिया। वानरराज सुग्रीव जी विचार करने लगे कि हे ब्रह्मा जी! क्या भगवान्‌ श्रीराम इस प्रकार से मुझ से मित्रता करेंगे। तब हनुमान जी ने दोनों ओर की कथा सुनाकर अर्थात्‌ श्रीराम को सुग्रीव जी की तथा सुग्रीव जी को श्रीराम की कथा सुनाकर अग्नि को साक्षी देकर सुग्रीव जी और श्रीराम की मित्रता सम्बन्धी प्रीति दृ़ढतापूर्वक जोड़ दी।

विशेष

१. हनुमान्‌ जी ने अग्नि को साक्षी देकर श्रीराम की सुग्रीव जी से मित्रता कराई जिससे यह कभी टूटे न।

२. हनुमान जी स्वयं राक्षस वन के लिए पावक है “खल बन पावक ग्यानघन” मानस १.१६ अत: स्वयं को साक्षी बनाया

और चरितार्थ भी किया।

३. जब सुग्रीव प्रमाद वशात्‌ भगवान्‌ का कार्य भूले, तत्क्षण हनुमान्‌ जी सक्रिय हो गए। “यहाँ पवनसुत हृदय विचारा। राम

काज सुग्रीव ाᐃबसारा।” मानस ४.१९.१.

४. श्रीराम नाम भी अग्नि है “जासु नाम पावक अघ तूला।” मानस २.२४८.२ अत: उसी को साक्षी बनाया।

५. चुँकि सीता जी सम्प्रति अग्नि में निवास कर रही हैं। “तुम पावक महँ करहु निवासा” मानस ३.२४.२ अत: अग्नि के

ब्याज से जनकनन्दिनी जी को साक्षी बनाया। “चकार सख्यं रामेण प्रीतश्चैवाग्नि साक्षीकम” वा०रा० १.१.६१.

**विशेष– **पीठ पर च़ढाने के बहुत से मेरे भाव हैं, जिनमें से कुछ यहाँ उपस्थित कर रहा हूँ और विस्तार से शीघ्र ही प्रस्तुत

किये जानेवाले मानस जी के राघवकृपाभाष्य* *में करूँगा।

(क) हनुमान जी ने सोचा कि प्रभु श्रीराम, श्रीअवध के राजा हैं और वे वानरों के राजा सुग्रीव जी से मिलने जा रहे हैं। राजा और आचार्य पीठ के बिना कहीं नहीं जा सकते इसलिए हुनमान जी ने अपनी पीठ को ही प्रभु की पादुका पीठ बना ली। (ख) भगवान्‌ श्रीराम सूर्यकुल के सूर्य हैं, उन्हें अब सूर्यपुत्र से मिलना है यह समय उनके अभ्युदय का है और सूर्योदय के लिए उदयाचल चाहिये, जो स्वर्ण पर्वत सुमेरु का शिखर है और संयोग से हनुमान जी का शरीर भी

[[६३४]]

स्वर्ण का है इसलिए उन्होंने श्रीरामरूप सूर्य के लिए अपनी स्वर्णमयी पीठ को ही उदयाचल पर्वत बनाकर श्रीराम को विराजमान करा लिया।

(ग) वामनावतार में प्रभु ने बलि की पीठ चाही थी, अत: इस बार भी बजरंगबली ने अपनी पीठ दे दी। (घ) पीछे पीठ पर अधर्म रहा करता है। हनुमान जी ने पीठ पर प्रभु को बिठाकर अपना सम्पूर्ण शरीर धर्ममय बना लिया।

(ङ) गरुड़ जी ने श्रीनारायण को पीठ पर बिठाया था, तो उन्हीं की भूमिका में श्रीनारायण के भी कारण महानारायण श्रीराम को हनुमान जी ने अपनी पीठ पर बिठा लिया। (च) प्रभु को अब राक्षस वध करना है, उसके लिए श्रीगणपति का स्मरण चाहिये जो गजमुख हैं, अत: हनुमान जी ने श्रीगणेश की भूमिका निभाते हुए स्वयं को हाथी बनाकर प्रभु को पीठ पर बिठा लिया। (छ) पराजित व्याक्ति पीठ दिखाता है, अत: हनुमान जी ने श्रीराम को पीठ पर बिठाकर स्वयं को अजेय बना लिया। (ज) पीठ पर लगा हुआ घाव भरता नहीं, अत: अनामय प्रभु को पीठ पर बिठाकर हनुमान जी ने स्वयं को घाव लगने से बचा लिया। (झ) यदि प्रभु को कन्धे पर बिठाते तो लक्ष्मण जी को बायें कन्धे पर बिठाना होता जो भगवान्‌ को भक्त से पृथक्‌ करने पर हनुमान जी को भगवतापराध हो जाता, अत: दोनों को एक ही पीठ पर बिठा कर हनुमान जी ने स्वयं को इस अपराध से बचा लिया। (ञ) बन्दर प्रायश: बच्चों को पीठ पर बिठाया करता है, इसलिए शिशुरूप श्रीराघव को हनुमान जी ने अपनी पीठ पर बिठाया। (ट) सूर्यनारायण को पीठ से सेवा करनी चाहिये। यथा– भानु पीठि सेइअ उर आगाᐂ*।*–मानस, ४.२३.४. और श्रीराम सूर्यकुल के सूर्य हैं इसलिए हनुमान जी ने उन्हें पीठ पर बिठा लिया।

कीन्हि प्रीति कछु बीच न राखा। लछिमन राम चरित सब भाखा॥

**कह सुग्रीव नयन भरि बारी। मिलिहिं नाथ मिथिलेशकुमारी॥ भा०– **श्रीराम और सुग्रीव जी ने परस्पर मित्रता सम्बन्धी प्रीति कर ली, कुछ भी अन्तर नहीं रखा। लक्ष्मण जी ने सम्पूर्ण श्रीरामचरित्र कह सुनाया। आँखों में जल भरकर सुग्रीव जी कहने लगे, हे नाथ! मिथिलापति श्रीजनक की पुत्री श्रीसीता आपको अवश्य मिलेंगी।

मंत्रिन सहित इहाँ एक बारा। बैठ रहेउँ मैं करत बिचारा॥ गगन पंथ देखी मैं जाता। परबश परी बहुत बिलपाता॥ राम राम हा राम पुकारी। हमहिं देखि दीन्हेउ पट डारी॥ माँगा राम तुरत तेहिं दीन्हा। पट उर लाइ सोच अति कीन्हा॥

भाष्य

हे प्रभु! एक बार मैं इसी ऋष्यमूक पर्वत पर बैठकर मंत्रियों के सहित कुछ विचार कर रहा था, उसी समय मैंने शत्रु के वश में पड़ी हुई, बहुत विलाप करती हुई, श्रीसीता को आकाश मार्ग से जाती देखा। हम वानरों को देखकर श्रीसीता ने ऊँचे स्वर में राम–राम, हा! राम पुकार कर अपना उत्तरीय वस्त्र (जिसमें केयूर कुण्डल और नूपुर बँधे थे) गिरा दिया। प्रभु श्रीराम ने वह वस्त्र जब माँगा, तब तुरन्त उन्होंने अर्थात्‌ सुग्रीव जी ने श्रीसीता का उत्तरीय वस्त्र प्रभु को दे दिया। वस्त्र को हृदय से लगाकर प्रभु ने बहुत शोक किया।

**कह सुग्रीव सुनहु रघुबीरा। तजहु सोच मन आनहु धीरा॥ सब प्रकार करिहउँ सेवकाई। जेहि बिधि मिलिहिं जानकी आई॥**
भाष्य

सुग्रीव जी ने कहा, हे रघुकुल के वीर श्रीराम! शोक छोड़ दीजिये अपने हृदय में धैर्य ले आइये। मैं सब प्रकार से आपकी सेवा करूँगा जिस विधि जनकनन्दिनी श्रीसीता आपको आ मिलेंगी।

**दो०– सखा बचन सुनि हरषे, कृपासिंधु बलसींव।** **कारन कवन बसहु बन, मोहि कहहु सुग्रीव॥५॥**

[[६३५]]

भाष्य

सखा सुग्रीव जी के वचन सुनकर कृपा के सागर और बल की सीमा प्रभु श्रीराम हर्षित हो गये और पूछा, हे सुग्रीव! आप मुझे बताइये की किस कारण से आप वन में रह रहे हैं, अपने भवन में नहीं रहते ? क्या किसी ने आपको मुझ जैसे वनवास दे दिया है?

**नाथ बालि अरु मैं द्वौ भाई। प्रीति रही कछु बरनि न जाई॥ मय सुत मायावी तेहि नाऊँ। आवा सो प्रभु हमरे गाऊँ॥ अर्ध राति पुर द्वार पुकारा। बाली रिपु बल सहइ न पारा॥ धावा बालि देखि सो भागा। मैं पुनि गयउँ बंधु सँग लागा॥**
भाष्य

हे नाथ! बालि और मैं (सुग्रीव) दोनों सगे भाई हैं। हममें इतनी प्रीति थी कि जिसका कुछ भी वर्णन नहीं किया जा सकता। हे प्रभु! मय दानव का एक पुत्र था, उसका मायावी नाम था। वह एक बार हमारे गाँव में आया। आधी रात को किष्किन्धापुर के द्वार पर आकर युद्ध के लिए ललकारा, बालि शत्रु के बल को नहीं सह पाया, इसलिए बालि मायावी से युद्ध करने के लिए दौड़ा। उसे देखकर मायावी भागा। बालि ने उसका पीछा किया, फिर मैं भी अपने भाई के साथ लगा–लगा चला ही गया।

**गिरिवर गुहा पैठ सो जाई। तब बाली मोहि कहा बुझाई॥ परिखेसु मोहि एक पखवारा। नहिं आवौं तब जानेसु मारा॥ मास दिवस तहँ रहेउँ खरारी। निसरी रुधिर धार तहँ भारी॥ तब मैं निज मन कीन्ह बिचारा। जाना असुर बालि कहँ मारा॥**
भाष्य

मायावी जाकर पर्वत की श्रेष्ठ गुफा में प्रवेश कर गया। तब बालि ने मुझे समझाकर कहा, पन्द्रह दिन तक मेरी प्रतीक्षा करना, यदि उतने दिनों में नहीं आऊँ तब जान लेना कि मैं मायावी दैत्य के द्वारा मारा गया। हे खर राक्षस के शत्रु भगवान्‌ श्रीराम! मैं एक महीने के दिनों तक अर्थात्‌ तीस दिनों तक वहाँ रहा। बालि की प्रतीक्षा करता रहा। वहाँ अर्थात्‌ पर्वत की गुफा में से रक्त की बहुत–बड़ी धारा निकली तब मैंने अपने मन में विचारा और जान गया कि देवविरोधी मायावी दैत्य ने बालि को मार डाला है।

**बालि हतेसि मोहि मारिहि आई। शिला द्वार दै चलेउँ पराई॥ मंत्रिन पुर देखा बिनु साईं। दीन्हेउँ मोहि राज बरिआईं॥ बाली ताहि मारि गृह आवा। देखि मोहि जिय भेद ब़ढावा॥ रिपु समान मोहि मारेसि भारी। हरि लीन्हेसि सर्बस अरु नारी॥**
भाष्य

मायावी ने बालि को मार डाला अब मुझे भी मार डालेगा, ऐसा सोचकर गुफा के द्वार पर पर्वत शिला रखकर मैं भाग चला और अपने नगर में आ गया। मंत्रियों ने किष्किन्धानगर को बिना स्वामी के देखा तब हठ करके मुझे राज्य दे दिया। संयोग से उस मायवी दैत्य को मारकर बालि किष्किन्धापुर में आ गया, मुझे राजा बना हुआ देखकर उसने अपने मन में भेद ब़ढा लिया। मुझे शत्रु के समान बहुत पीटा, मेरा सब कुछ छीन लिया और मेरी पत्नी रूमा को भी हथिया लिया।

**ताके भय रघुबीर कृपाला। सकल भुवन मैं फिरेउँ बिहाला॥ इहाँ स्राप बस आवत नाहीं। तदपि सभीत रहउँ मन माहीं॥ सुनि सेवक दुख दीनदयाला। फरकि उठी द्वै भुजा बिशाला॥**
भाष्य

हे कृपालु रघुवीर श्रीराम! उसी बालि के भय से मैं सम्पूर्ण लोकों में भटकता फिरा। मैं जहॉं–जहांँ जाता था बालि वहाँ–वहाँ मुझे मारने चला आता था। इस ऋष्यमूक पर्वत पर मतंग जी के शाप के कारण बालि नहीं आता, फिर भी मैं मन में बहुत भयभीत रहता हूँ। सेवक सुग्रीव का दु:ख सुनकर दीनों पर दया करने वाले भगवान्‌ श्रीराम की दोनों विशाल भुजायें फ़डक उठीं और भगवान्‌ श्रीराम बोले–

[[६३६]]

**दो०– सुनु सुग्रीव मैं मारिहउँ, बालिहिं एकहिं बान।**

ब्रह्म रुद्र शरनागत, गए न उबरहिं प्रान॥६॥

भाष्य

हे सुग्रीव! सुनिये, मैं बालि को एक ही बाण से मार डालूँगा। ब्रह्मा जी, शिव जी और उपलक्षणतया विष्णु जी के भी शरण में जाने पर बालि के प्राण नहीं बचेंगे। अथवा ब्रह्मा और ―द्र भी जिनके शरणागत होते हैं, ऐसे वैकुण्ठ बिहारी विष्णु की भी शरण में जाने पर बाली के प्राण नहीं बचेंगे, क्योंकि मैं विष्णु का भी नियन्ता साकेताधिपति परब्रह्म राम हूँ।

**जे न मित्र दुख होहि दुखारी। तिनहिं बिलोकत पातक भारी॥ निज दुख गिरि सम रज करि जाना। मित्रक दुख रज मेरु समाना॥ जिन के असि मति सहज न आई। ते शठ कत हठि करत मिताई॥**
भाष्य

जो मित्र के दु:ख से दु:खी नहीं होते उन्हें देखने में भी भयंकर पाप लगता है। अपने पर्वत के समान दु:ख को धूल के समान जाने और मित्र के धूल के समान दु:ख को पर्वत के समान समझे, जिनको स्वभाव से ऐसी बुद्धि नहीं आती, वे दुष्ट हठपूर्वक मित्रता क्यों करते हैं?

**कुपथ निवारि सुपंथ चलावा। गुन प्रगटै अवगुननि दुरावा॥ देत लेत मन शंक न धरई। बल अनुमान सदा हित करई॥ बिपति काल कर शतगुन नेहा। श्रुति कह संत मित्र गुन एहा॥**
भाष्य

बुरे मार्ग से रोक कर अच्छे मार्ग पर चलाये, उसके अर्थात्‌ मित्र के गुणों को समाज में प्रकट करे और उसके अवगुणों को छिपा ले, देने–लेने में मन में किसी प्रकार की शंका न करे और अपने बल के अनुसार निरन्तर हित करता रहे, विपत्तिकाल में पहले से सौ गुणा अधिक प्रेम करे, वेद कहते हैं कि सन्त प्रकृतिवाले श्रेष्ठ मित्र के ये ही गुण हैं।

**विशेष– **इन पंक्तियों का समानार्थक श्लोक इस प्रकार का है–

पापान्‌* निवारयति योजयते हिताय गुह्यं च गुहति गुणान्‌ प्रकटी करोति । आपद्‌गतं च न जहाति ददाति काले सन्मित्र लक्षणमिदं प्रवदन्ति सन्त:।*

आगे कह मृदु बचन बनाई। पाछे अनहित मन कुटिलाई॥ जाकर चित अहि गति सम भाई। अस कुमित्र परिहरेहिं भलाई॥

भाष्य

हे भाई सुग्रीव! जो आगे अर्थात्‌ सम्मुख तो बनाकर कोमल वचन कहता है और पीछे अर्थात्‌ परोक्ष में अत्यन्त बुरा करता है और जिसका मन कुटिलता से भरा रहता है, जिसका चित्त अहिगति अर्थात्‌ सर्प के चाल के समान टे़ढा होता है, ऐसे कुत्सित मित्र को छोड़ देने में ही भलाई है।

**सेवक शठ नृप कृपन कुनारी। कपटी मित्र शूल सम चारी॥ सखा सोच त्यागहु बल मोरे। सब बिधि घटब काज मैं तोरे॥**
भाष्य

दुष्ट सेवक, कृपण राजा, कुलटा अर्थात्‌ चरित्रहीन स्त्री और कपटी मित्र, ये चारों त्रिशूल के समान दु:खद

होते हैं। हे मित्र सुग्रीव! तुम मेरे बल पर निर्भर रहकर शोक छोड़ दो, मैं सब प्रकार से तुम्हारे कार्य के प्रति

चेष्टावान रहूँगा अर्थात करूँगा।

विशेष : घट चेययां (पा०धा०पा० ७६३)

कह सुग्रीव सुनहु रघुबीरा। बालि महाबल अति रनधीरा॥ दुंदुभि अस्थि ताल देखराए। बिनु प्रयास रघुनाथ ढहाए॥ देखि अमित बल बा़ढी प्रीती। बालि बधब इन भइ परतीती॥
[[६३७]]

भाष्य

सुग्रीव जी ने कहा, हे रघुकुल के वीर श्रीराम! सुनिये, बालि महाबलवाला, युद्ध में अत्यन्त धीर अर्थात्‌ स्थिर प्रकृतिवाला और युद्ध से कभी भागना नहीं जानता। सुग्रीव जी ने भगवान्‌ श्रीराम को दुन्दुभी राक्षस की अस्थि (हड्डी) और सात ताल के वृक्ष दिखाये एवं कहा कि, हे प्रभु! दुन्दुभी दैत्य को मारकर बालि ने उसके कंकाल को एक योजन दूर फेंक दिया था और यह देखिये सात ताल के वृक्ष, बालि को एक सर्प ने शाप दिया था कि जो व्यक्ति एक ही बाण से सात ताल वृक्षों को काट देगा वही बालि का वध कर सकेगा। यह सुनकर श्रीरघुनाथ ने बिना किसी प्रयास के दुन्दुभी के अस्थि और सात ताल वृक्ष को ढहा दिया अर्थात्‌ अपने वामचरण के अंगूठे से दुन्दुभी राक्षस के कंकाल को दस योजन दूर फेंक दिया और एक ही बाण से विरुद्ध दिशाओं में फैले हुए सातों ताल वृक्षों को काटकर गिरा दिया। प्रभु का असीम बल देखकर सुग्रीव जी का प्रभु के प्रति प्रेम ब़ढा और प्रभु श्रीराम बालि का वध करेंगे, इस प्रकार सुग्रीव जी को विश्वास हो गया।

**बार बार नावइ पद शीशा। प्रभुहिं जानि मन हरष कपीशा॥ उपजा ग्यान बचन तब बोला। नाथ कृपा मन भयउ अलोला॥ सुख सम्पति परिवार बड़ाई। सब परिहरि करिहउँ सेवकाई॥ ए सब रामभगति के बाधक। कहहिं संत तव पद अवराधक॥ शत्रु मित्र सुखदुख जग माहीं। माया कृत परमारथ नाहीं॥**
भाष्य

सुग्रीव जी बार–बार प्रभु के श्रीचरणों में मस्तक नवाने लगे। प्रभु श्रीराम को पहचान कर वानरराज मन में बहुत प्रसन्न हुए। उनके मन में ज्ञान उत्पन्न हो गया तब सुग्रीव जी यह वचन बोले, हे नाथ! आपकी कृपा से मेरा मन स्थिर हो गया है। मैं सुख, सम्पत्ति, परिवार, बड़प्पन सब कुछ छोड़कर आपकी सेवा करूँगा। आपके श्रीचरणों की आराधना करने वाले सन्त कहते हैं कि ये सब श्रीराम की भक्ति में बाधक हैं। संसार में जो भी शत्रु, मित्र, सुख और दु:ख हैं, वे माया से किये गये हैं, परमार्थ में कुछ नहीं है।

**बालि परम हित जासु प्रसादा। मिलेहु राम तुम शमन बिषादा॥ सपने जेहि सन होइ लराई। जागे समुझत मन सकुचाई॥ अब प्रभु कृपा करहु एहि भाँती। सब तजि भजन करौं दिन राती॥ सुनि बिराग संजुत कपि बानी। बोले बिहँसि राम धनुपानी॥**
भाष्य

हे प्रभु! बालि मेरा शत्रु नहीं परमहितैषी है, जिसके प्रसाद से दु:ख को दूर करने वाले आप मुझे मिले हैं। स्वप्न में भी जिससे लड़ाई होती है, जगने पर समझते ही मन संकुचित हो जाता है अर्थात्‌ अब मैं समझ गया हूँ बालि से मेरी लड़ाई नहीं हो सकती। हे प्रभु! अब तो इस प्रकार से कृपा कीजिये कि सब कुछ छोड़कर दिन–रात आपका भजन करूँ। अत: अब तो आप ऐसी कृपा करें कि राज्य का आग्रह और बालि की शत्रुता तथा पत्नी की प्रत्याशा छोड़कर मैं दिन–रात भजन करूँ। इस प्रकार वैराग्य से युक्त कपि अर्थात्‌ सुग्रीव की वाणी सुनकर धनुषपाणि श्रीराम विचित्र प्रकार से हँसते हुए बोले–

**जो कछु कहेहु सत्य सब सोई। सखा बचन मम मृषा न होई॥**
भाष्य

जो तुमने कहा वह सब सत्य है, परन्तु हे मित्र! मेरा वचन भी झूठा नहीं होगा अर्थात्‌ तुमसे बालि की लड़ाई होगी और तुम ही बालि वध के लिए मुझसे प्रार्थना करोगे।

**नट मरकट इव सबहिं नचावत। राम खगेश बेद अस गावत॥** **लै सुग्रीव संग रघुनाथा। चले चाप सायक गहि हाथा॥**

[[६३८]]

भाष्य

श्रीभुशुण्डि, गरुड़ जी को सावधान करते हुए कहते हैं कि हे पक्षियों के ईश्वर गरुड़ जी! वेद ऐसा गाते हैं कि भगवान्‌ श्रीराम जगत को उसी प्रकार नचा रहे हैं, जैसे नट अर्थात्‌ मदारी वानर को नचाता है। इसके पश्चात्‌ सुग्रीव को साथ लेकर हाथ में धनुष–बाण धारण करके श्रीरघुनाथ ऋष्यमूक से किष्किन्धा की ओर चले।

**तब रघुपति सुग्रीव पठावा। गर्जेसि जाइ निकट बल पावा॥ सुनत बालि क्रोधातुर धावा। गहि कर चरन नारि समुझावा॥ सुनु पति जिनहिं मिलेउ सुग्रीवा। ते द्वौ बंधु तेज बल सींवा॥ कोसलेश सुत लछिमन रामा। कालहु जीति सकहिं संग्रामा॥**
भाष्य

तब भगवान्‌ श्रीराम ने सुग्रीव जी को लड़ने के लिए भेजा। श्रीराम का बल पाये हुए सुग्रीव जी बालि के निकट जाकर गरजे। सुग्रीव जी की गर्जना सुनकर, क्रोध में आतुर होकर बालि दौड़ा। नारी अर्थात्‌ बालि की पत्नी तारा ने उसके चरण को हाथ में लेकर समझाया, हे पति बालि! जिन दो महापुरुषों से सुग्रीव मिले हैं, वे दोनों भाई तेज और बल की सीमा हैं, अयोध्यापति श्रीदशरथ के पुत्र श्रीलक्ष्मण और भगवान्‌ श्रीराम युद्ध में काल को भी जीत सकते हैं।

**दो०– कह बाली सुनु भीरु प्रिय, समदरशी रघुनाथ।** **जौं कदाचि मोहि मारहिं, तौ पुनि होउँ सनाथ॥७॥**
भाष्य

बालि ने कहा-हे डरावने स्वभाववाली प्रिय तारा! सुनो, रघुकुल के नाथ भगवान्‌ श्रीराम समदर्शी हैं। उनकी दृष्टि में सुग्रीव और मैं दोनों ही समान हैं फिर यदि कदाचित्‌ श्रीराम मुझे मारते भी हैं तो भी मैं सनाथ हो जाऊँगा।

**अस कहि चला महा अभिमानी। तृन समान सुग्रीवहिं जानी॥ भिरे उभौ बाली अति तर्जा। मुठिका मारि महाधुनि गर्जा॥**
भाष्य

ऐसा कहकर बहुत–बड़ा अभिमानी बालि, सुग्रीव जी को तृण के समान जानकर उनसे लड़ने के लिए चल पड़ा। दोनों भिड़ गये, बालि अत्यन्त तर्जना करने लगा अर्थात्‌ सुग्रीव जी को डाँटकर दबोचा और सुग्रीव जी को एक मुक्का मारकर भयंकर ध्वनि में गर्जना किया।

**तब सुग्रीव बिकल होइ भागा। मुष्टि प्रहार बज्र सम लागा॥ मैं जो कहा रघुबीर कृपाला। बंधु न होइ मोर यह काला॥**
भाष्य

तब सुग्रीव जी व्याकुल होकर भागे, क्योंकि उनकी पीठ पर मुष्ठिका का प्रहार वज्र के समान लगा था। सुग्रीव जी ने कहा, हे कृपालु श्रीरघुवीर! मैंने जो बालि को परमहितैषी बन्धु कहा था, ऐसा नहीं है। बालि मेरा बन्धु नहीं हो सकता यह तो मेरा काल है।

**एकरूप तुम भ्राता दोऊ। तेहि भ्रम ते नहिं मारेउँ सोऊ॥ कर परसा सुग्रीव शरीरा। तनु भा कुलिश गई सब पीरा॥**
भाष्य

भगवान्‌ श्रीराम ने कहा कि तुम दोनों भाई एक अर्थात्‌ समान रूप हो, उसी भ्रम से मैंने उसको भी नहीं मारा। प्रभु ने सुग्रीव जी के शरीर पर अपने श्रीहस्त का स्पर्श किया। सुग्रीव का शरीर वज्रवत हो गया और सारी पीड़ा चली गई।

**मेली कंठ सुमन कै माला। पठवा पुनि बल देइ बिशाला॥ पुनि नाना बिधि भई लराई। बिटप ओट देखहिं रघुराई॥**
भाष्य

भगवान्‌ श्रीराम ने सुग्रीव जी के कण्ठ में सुमन अर्थात्‌ जिनके स्पर्श से मन सुन्दर हो जाता है, ऐसी तुलसी माता की माला डाल दी और फिर उनको विशाल बल देकर युद्ध के लिए भेजा। बालि और सुग्रीव जी में नाना

[[६३९]]

प्रकार से युद्ध हुआ। उस युद्ध को वृक्ष की ओट से अर्थात्‌ वृक्ष का टेका लेकर ख़डे हुए रघुराज भगवान्‌ श्रीराम देख रहे थे।

दो०– बहु छल बल सुग्रीव करि, हिय हारा भय मानि।
मारा बाली राम तब, हृदय माझ शर तानि॥८॥

भाष्य

जब बहुत प्रकार से छल और बल करके हृदय में भय मानकर सुग्रीव जी हार गये तब भगवान्‌ श्रीराम ने धनुष की प्रत्यंचा खींचकर बालि के मध्य हृदय में बाण मार दिया।

**परा बिकल महि शर के लागे। पुनि उठि बैठ देखि प्रभु आगे॥ श्याम गात सिर जटा बनाए। अरुन नयन शर चाप च़ढाए॥**
भाष्य

बाण के लगने से विकल अर्थात्‌ व्याकुल होकर तथा सभी प्राण की कलाओं से विगत्‌ होकर बालि पृथ्वी पर गिर पड़ा, फिर प्रभु को अपने सामने देखकर बालि उठकर बैठ गया। बालि ने देखा प्रभु के अंग श्यामल हैं, उन्होंने सिर पर जटा बना रखा है, प्रभु के नेत्र लाल हैं और वे धनुष पर बाण च़ढाये हुए हैं।

**पुनि पुनि चितइ चरन चित दीन्हा। सुफल जन्म माना प्रभु चीन्हा॥ हृदय प्रीति मुख बचन कठोरा। बोला चितइ राम की ओरा॥** **धर्म हेतु अवतरेउ गोसाईं। मारेहु मोहि ब्याध की नाईं॥**

मैं बैरी सुग्रीव पियारा। कारन कवन नाथ मोहि मारा॥

भाष्य

बारम्बार प्रभु को निहारकर बालि ने उनके चरणों में मन लगाया अथवा, प्रभु को बारम्बार निहारकर उनके हृदय पर विराजमान ब्राह्मण चरण के चिह्न में चित्त को समर्पित कर दिया और उसी चिन्ह से प्रभु को पहचानकर बालि ने अपने जन्म को धन्य मान लिया। बालि के हृदय में प्रीति थी। वह श्रीराम की ओर देखकर मुख से कठोर वचन बोला, हे गोसाईं अर्थात्‌ पृथ्वी के स्वामी भगवान्‌ श्रीराम! आप ने धर्म के लिए अर्थात्‌ धर्म की रक्षा के लिए अवतार लिया है, परन्तु मुझे व्याध की भाँति निर्दयतापूर्वक मारा है, तो क्या यहाँ धर्म का उल्लंघन नहीं हुआ? हे प्रभु! क्या मैं आपका वैरी हूँ और सुग्रीव प्रिय है? यदि ऐसा नहीं तो हे नाथ! आपने किस कारण से मुझे मारा है? भगवान्‌ श्रीराम बोले–

**अनुज बधू भगिनी सुत नारी। सुनु शठ कन्या सम ए चारी॥ इनहिं कुदृष्टि बिलोकइ जोई। ताहि बधे कछु पाप न होई॥**
भाष्य

हे दुय्! सुन, छोटे भाई की वधू, बहन, पुत्रवधू तथा भगिनी सुत नारी, अर्थात्‌ भान्जे की बहू ये चारों कन्या के समान होती हैं, इन्हें जो कुदृष्टि से देख लेता है, उसे मारने पर कुछ भी पाप नहीं होता।

**विशेष– **यहाँ भगिनी सुत नारी में श्लेष है अर्थात्‌ अनुज वधू, भगिनी, सुत नारी और भगिनी सुत नारी ये चारों कन्या सम अर्थात्‌ छोटे भाई की वधू, बहन, सुत नारी अर्थात्‌ पुत्र की वधू और भगिनी सुत नारी अर्थात्‌ बहन के पुत्र की वधू ये चारों अपनी बेटी के समान होती हैं।

मू़ढ तोहि अतिशय अभिमाना। नारि सिखावन करसि न काना॥ मम भुज बल आश्रित तेहि जानी। मारा चहसि अधम अभिमानी॥

भाष्य

हे मू़ढ तुझे अत्यन्त अहंकार है, तू अपनी पत्नी की शिक्षा भी अपनी कान में नहीं करता अर्थात्‌ नहीं सुनता है। तुलसी की माला के संकेत से उस सुग्रीव को मेरी भुजाओं के बल के आश्रित जानकर भी अधम, अभिमानी बालि तू उसे मारना चाहता था।

**दो०– सुनहु राम स्वामी सन, चल न चातुरी मोरि।** **प्रभु अजहूँ मैं पातकी, अंतकाल गति तोरि॥९॥**

[[६४०]]

भाष्य

हे भगवान्‌ श्रीराम! सुनिये, स्वामी के सामने मेरी कोई चतुराई नहीं चली। हे प्रभु! क्या अब भी मैं पापी हूँ? क्योंकि अन्तकाल में तो मुझे आपका ही आश्रय है।

**सुनत राम अति कोमल बानी। बालि शीष परसेउ निज पानी॥ अचल करौं तनु राखहु प्राना। बालि कहा सुनु कृपानिधाना॥**
भाष्य

बालि की अत्यन्त कोमल वाणी सुनते ही भगवान्‌ श्रीराम ने बालि के सिर पर अपने श्रीहस्त का स्पर्श किया और बोले, बालि! अपने प्राणों को रख लो मैं तुम्हारे शरीर को अचल कर देता हूँ। बालि ने कहा, हे कृपानिधान! सुनिये–

**जन्म जन्म मुनि जतन कराहीं। अंत राम कहि आवत नाहीं॥ जासु नाम बल शङ्कर काशी। देत सबहिं सम गति अबिनाशी॥**

**मम लोचन गोचर सोइ आवा। बहुरि कि प्रभु अस बनिहि बनावा॥ भा०– **मुनिजन अनेक जन्मपर्यन्त यत्न करते हैं, फिर भी अंतिम समय में मुख से जल्दी श्रीराम का उच्चारण नहीं कह आता अर्थात्‌ नहीं निकल पाता। जिनके श्रीरामनाम के बल से अविनाशी शिव जी काशी में सभी पुण्यात्माओं और पापात्माओं को समान रूप से गति देते हैं, वही आप भगवान्‌ श्रीराम मेरे नेत्रों के विषय बनकर सगुण–साकार रूप में मेरे सम्मुख आये हैं। हे प्रभु! क्या इस प्रकार का बनाव फिर बन सकेगा?

छं०– सो नयन गोचर जासु गुन नित नेति कहि श्रुति गावहीं।
जिति पवन मन गो निरस करि मुनि ध्यान कबहुँक पावहीं॥ मोहि जानि अति अभिमान बश प्रभु कहेउ राखु शरीरहीं।

**अस कवन शठ हठि काटि सुरतरु बारि करिहि बबूरहीं॥१॥ भा०– **हे प्रभु! जिनके गुण “नेति–नेति” कहकर वेद गाते हैं। प्राणायाम द्वारा वायु को और ईश्वर के ध्यान द्वारा मन को जीतकर, संयम द्वारा इन्द्रिय को निरस बनाकर, जिन्हें मुनिजन कभी–कभार ध्यान में पा लेते हैं, वही प्रभु आप श्रीराम! मेरे नेत्रों के विषय बने हैं। हे प्रभु! मुझे अभिमान के वश जानकर भी आप ने इस अभिमानी शरीर को रखने के लिए कहा, ऐसा कौन सा दुष्ट होगा जो हठपूर्वक कल्पवृक्ष को काट कर बबूल का बगीचा लगायेगा?

अब नाथ करि करुना बिलोकहु देहु जो बर माँगऊँ। जेहिं जोनि जन्मौं कर्म बश तहँ राम पद अनुरागऊँ॥ यह तनय मम सम बिनय बल कल्यानप्रद प्रभु लीजिये। गहि बाँह सुर नर नाह आपन दास अंगद कीजिये॥२॥

भाष्य

हे नाथ! अब तो करुणा करके मेरी ओर देखिये और मुझे वही वरदान दीजिये जो मैं माँग रहा हूँ। मैं अपने कर्मों के फल के अनुसार जिस भी योनि में जन्म लूँ वहाँ आप श्रीराम के श्रीचरणों में प्रेम करूँ। हे सम! विनय, बल और कल्याण को प्रदान करने वाले प्रभु! आप मेरा यह पुत्र ले लीजिये, हे देवताओं और मनुष्यों के ईश्वर प्रभु श्रीराम। अंगद की बाँह पक़डकर इसे अपना दास बना लीजिये।

**दो०– राम चरन दृ़ढ प्रीति करि, बालि कीन्ह तनु त्याग।** **सुमन माल जिमि कंठ ते, गिरत न जानइ नाग॥१०॥**
भाष्य

श्रीराम के चरणों में प्रीति को दृ़ढ करके बालि ने उसी प्रकार शरीर का त्याग कर दिया जैसे हाथी अपने कण्ठ से गिरती हुई पुष्पमाला को नहीं जान पाता अर्थात्‌ बालि को मरते समय कोई कष्ट नहीं हुआ।

**विशेष– **इस प्रसंग का पर्यालोचन करने से तीन बातें स्पष्ट हो जाती हैं– \(क\) भगवान्‌ श्रीराम ने बालि को छिपकर नहीं मारा था।

[[६४१]]

(ख) बालि को ऐसा कोई भी वरदान प्राप्त नहीं था कि जिसके आधार पर शत्रु का आधा बल उसे मिल जाता हो और

(ग) बालि को मारकर भगवान्‌ श्रीराम ने कोई अन्याय भी नहीं किया। भगवान्‌ श्रीराम ने बालि को सामने से मारा, इसलिए बालि ने श्रीराम को अपने सामने ख़डा देखा। यथा–*पुनि उठि बैठ देखि प्रभु आगे–मानस, ४.९.१. मानस ४.८.८ में प्रयुक्त ओट शब्द का अर्थ, आड़ न होकर टेका है अर्थात्‌ भगवान्‌ श्रीराम वृक्ष को टेका देकर विश्राम की मुद्रा में ख़डे होकर बालि–सुग्रीव का युद्ध देख रहे थे। मानस ४.९.५. में प्रयुक्त ब्याध की नाई *शब्द का अर्थ निर्दयता है और यह उत्तरी भारत में प्रयुक्त एक वाक्यालंकार की सूक्ति है, जिसका अर्थ होता है कसाई की भाँति मारना (निर्दयता से मारना)। वाल्मीकि रामायण के किष्किन्धाकाण्ड के उन्नीसवें सर्ग के बारहवें श्लोक में श्रीराम के साथ, बालि के युद्ध का भी वर्णन किया गया है। यथा– *क्षिप्तान्‌ वृक्षान्‌ समाविध्य विपुलाश्च तथा शिला:। वालीवज्रसमैर्बाणैर्वज्रेणेव निपातित: **अर्थात्‌ बालि के चलाये हुए वृक्षों और बड़ीबड़ी शिलाओं को अपने वज्र तुल्य बाणों से विदीर्ण करके श्रीराम ने बालि को मार गिराया है, मानो वज्रधारी इन्द्र ने अपने वज्र के द्वारा किसी महान पर्वत को धराशायी कर दिया हो। जो यह कहा जाता है कि बालि को इसलिए छिपकर मारा क्योंकि उसे ब्रह्मा जी का वरदान प्राप्त था कि सामने आये हुए शत्रु का आधा बल उसे मिल जायेगा यह पक्ष भी इसलिए निराधार है, क्योंकि यह उद्धरण किसी भी पुराण में नहीं प्राप्त होता और श्रीराम के बल की कोई सीमा भी तो नहीं है, जिसका आधा हो सके। श्रीराम ने बालि को मारकर कोई अपराध नहीं किया है, क्योंकि बालि ने सुग्रीव जी की पत्नी व्र्मा पर अत्याचार किया जो उसके छोटे भाई की बहू थी। यदि यह कहा जाये कि पशु होने के कारण बालि पर यह नियम प्रभावी नहीं होगा, क्योंकि उसे धर्म, अधर्म का ज्ञान नहीं है तो फिर बालि ने श्रीराम के सामने धर्म का प्रश्न उठाया ही कैसे? इससे सिद्ध होता है कि उसे पूर्ण ज्ञान है और क्षत्रिय को आखेट में पशु–वध से कोई पाप नहीं होता। अतएव यह शंका भी निर्मूल हो जाती है कि बालि ने ब्याध बनकर कृष्णावतार में भगवान्‌ से बदला लिया, क्योंकि श्रीराम के धाम जाकर कोई पीछे नहीं लौटता “यदगत्वा न निवर्तन्ते तद्‌ धाम परम मम” *फिर बालि ही क्यों लौटा? वस्तुत: यदि यही एक आग्रह हो तो मैं यह कहूँगा कि बालि के इन्द्रतत्व अर्जुन के रूप में अवतरण हुआ और प्रभु की सेवा करके उसने पूर्वजन्म में किये हुए पाप का प्रायश्चित्‌ किया। इस प्रसंग पर विशेष जानने के लिए पाठकवृन्द मेरे “श्रीराघवकृपाभाष्य” की प्रतीक्षा करें।

बालि राम निज धाम पठावा। नगर लोग सब ब्याकुल धावा॥ नाना बिधि बिलाप कर तारा। छूटे केश न देह सँभारा॥

भाष्य

श्रीराम ने बालि को अपने धाम साकेत भेज दिया, यह सुनकर सभी नगर के लोग व्याकुल होकर दौड़े। तारा नाना प्रकार से विलाप करने लगी, उनके केश बिखर गये, उन्हें देह का सम्भाल नहीं रहा।

**पुनि पुनि तासु शीष उर धरई। बदन बिलोकि हृदय हति परई॥ मैं पति तुमहिं बहुत समझावा। काल बिबश कछु मनहिं न आवा॥**
भाष्य

तारा बार–बार बालि के सिर को हृदय पर रखती हैं, उसका मुख देखकर छाती पीटकर पड़ जाती हैं (पृथ्वी पर गिर जाती है)। तारा कहती हैं कि, हे पतिदेव! मैंने आपको बहुत समझाया पर काल के विवश होने से कुछ भी आपके मन में नहीं आया।

**तारा बिकल देखि रघुराया। दीन्ह ग्यान हरि लीन्ही माया॥ छिति जल पावक गगन समीरा। पंच रचित अति अधम शरीरा॥ प्रगट सो तनु तव आगे सोवा। जीव नित्य केहि लगि तुम रोवा॥** [[६४२]]
भाष्य

तारा को व्याकुल देखकर, रघुराया अर्थात्‌ जीवमात्र को सुशोभित करने वाले श्रीराम ने ज्ञान दिया और तारा की माया हर ली। भगवान्‌ बोले, हे तारा! बालि का अत्यन्त अधम शरीर पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश इन पाँच महाभूतों के पंचीकरण से विधाता द्वारा बनाया गया है। वह शरीर प्रकट रूप से तुम्हारे सामने सो रहा है। अत: इससे तुम्हारा वियोग नहीं है, यदि कहो कि बालि के जीव सेमैं अलग हो गई तो उससे भी तुम अलग नहीं हो, क्योंकि वह नित्य है, नित्य का किसी से वियोग नहीं होता, फिर तुम किसके लिए रो रही हो?

**उपजा ग्यान चरन तब लागी। लीन्हेसि परम भगति बर माँगी॥ उमा दारु जोषित की नाईं। सबहिं नचावत राम गोसाईं॥**
भाष्य

तारा के हृदय में ज्ञान उत्पन्न हो गया, वह भगवान्‌ श्रीराम के चरणों में लिपट गई और प्रभु से परम भक्ति वरदान माँग लिया। शिव जी कहने लगे, हे पार्वती! इन्द्रियों के स्वामी परमात्मा श्रीराम लक़डी से बनी हुई स्त्री कठपुतली की भाँति सभी को नचाते रहते हैं।

**विशेष– **चिद्‌वर्ग को नट–मरकट की भाँति नचाते हैं और अचिद्‌ वर्ग को दारु जोषित अर्थात्‌ कठपुतली की भाँति नचाते हैं।

तब सुग्रीवहिं आयसु दीन्हा। मृतक कर्म बिधिवत सब कीन्हा॥
राम कहा अनुजहिं समुझाई। राज देहु सुग्रीवहिं जाई॥

रघुपति चरन नाइ करि माथा। चले सकल प्रेरित रघुनाथा॥

भाष्य

तब भगवान्‌ श्रीराम ने सुग्रीव जी को आज्ञा दी और उन्होंने विधिपूर्वक बालि का मृतककर्म किया। श्रीराम ने छोटे भाई लक्ष्मण जी को समझाकर कहा कि किष्किन्धानगर में जाकर सुग्रीव को राज्य दे दो। श्रीरघुनाथ से प्रेरित होकर लक्ष्मण जी के संग सभी हनुमान आदि वानर चल पड़े।

**दो०– लछिमन तुरत बोलाएउ, पुरजन बिप्र समाज।** **राज दीन्ह सुग्रीव कहँ, अंगद कहँ जुबराज॥११॥**
भाष्य

लक्ष्मण जी ने नगरवासियों और ब्राह्मण समाज को तुरन्त बुलाया उन्होंने सुग्रीव जी को राज्य और अंगद जी को युवराज पद दे दिया।

**उमा राम सम हित जग माहीं। सुत पितु मातु बंधु प्रभु नाहीं॥ सुर नर मुनि सब कै यह रीती। स्वारथ लागि करहिं सब प्रीती॥ बालि त्रास ब्याकुल दिन राती। तन बहु ब्रन चिंता जर छाती॥ सोइ सुग्रीव कीन्ह कपिराऊ। अति कृपालु रघुबीर सुभाऊ॥**
भाष्य

शिव जी कहते हैं कि, हे पार्वती! इस संसार में पुत्र, पिता, माता और स्वामी कोई भी भगवान्‌ श्रीराम के समान हितैषी नहीं है। देवता, मनुष्य, और मुनि समाज की यह रीति है, सभी अपने स्वार्थ के लिए ही प्रेम करते हैं। जो सुग्रीव जी बालि के त्रास से दिन–रात व्याकुल थे, शरीर में बहुत से घाव थे और हृदय चिन्ता से जलता रहता था, उन्हीं सुग्रीव जी को भगवान्‌ श्रीराम ने वानरों का राजा बना दिया, श्रीरघुवीर जी का स्वभाव अत्यन्त कृपालु है।

**जानतहूँ अस प्रभु परिहरहीं। काहे न बिपति जाल नर परहीं॥ पुनि सुग्रीवहिं लीन्ह बोलाई। बहु प्रकार नृपनीति सिखाई॥** [[६४३]]
भाष्य

जानते हुए भी जो ऐसे प्रभु को छोड़ देते हैं, वे प्राणी विपत्ति जाल में क्यों न पड़ें? पुन: प्रभु श्रीराम ने सुग्रीव जी को बुला लिया और उन्हें बहुत प्रकार से राजनीति सिखाई।

**कह सुग्रीव सुनहु रघुराया। दीन जानि पुर कीजिय दाया॥ कह प्रभु सुनु सुग्रीव हरीशा। पुर न जाउँ दस चारि बरीषा॥ गत ग्रीषम बरषा रितु आई। रहिहउँ निकट शैल पर छाई॥ अंगद सहित करहु तुम राजू। संतत हृदय धरेहु मम काजू॥ जब सुग्रीव भवन फिरि आए। राम प्रवरषन गिरि पर छाए॥**
भाष्य

सुग्रीव जी ने कहा, हे रघुकुल के राजा श्रीराम! सुनिये, मुझे दीन जानकर पुर में चलने की दया कीजिये। भगवान्‌ श्रीराम ने कहा, हे वानरों के राजा सुग्रीव जी! सुनिये, मैं चौदह वर्षपर्यन्त पुर में नहीं जा सकता। ग्रीष्मऋतु जा चुकी है और वर्षाऋतु आ चुकी है। मैं यहीं निकटस्थ पर्वत पर रहूँगा तुम अंगद के सहित राज्य करो। मेरे कार्य को निरन्तर हृदय में धारण किये रखना। जब सुग्रीव जी अपने भवन को लौट आये तब श्रीराम जी प्रवर्षण पर्वत पर विराजे।

**दो०– प्रथमहिं देवन गिरि गुहा, राखी रुचिर बनाइ।** **राम कृपानिधि कछुक दिन, बास करहिंगे आइ॥१२॥**
भाष्य

देवताओं ने प्रथम ही पर्वत की एक सुन्दर गुफा बना रखी थी, उनके मन में यह था कि कृपा के सागर श्रीराम यहाँ आकर कुछ दिन निवास करेंगे।

**सुंदर बन कुसुमित अति शोभा। गुंजत मधुप निकर मधु लोभा॥ कंद मूल फल पत्र सुहाए। भए बहुत जब ते प्रभु आए॥**
भाष्य

जब से प्रभु श्रीराम प्रवर्षण पर्वत पर पधारे तभी से, वन कुसुमित अर्थात्‌ पुष्पों से लद गया और वह सुन्दर हो गया। उसकी शोभा अतिशय हो गई, मधु के लोभ से भ्रमरों का समूह गुंजार करने लगा और बहुत मात्रा में सुन्दर कन्दमूल, फल और पत्ते उत्पन्न हो गये।

**देखि मनोहर शैल अनूपा। रहे तहँ अनुज सहित सुरभूपा॥ मधुकर खग मृग तनु धरि देवा। करहिं सिद्ध मुनि प्रभु कै सेवा॥ मंगलरूप भयउ बन तब ते। कीन्ह निवास रमापति जब ते॥**
भाष्य

मनोहर और उपमारहित प्रवर्षण पर्वत को देखकर देवताओं के भी राजा भगवान्‌ श्रीराम, लक्ष्मण जी के सहित उसी पर्वत पर चातुर्मास के लिए निवास किये और भ्रमरों–पक्षियों और हरिणों का शरीर धारण करके देवता, सिद्ध और मुनि प्रभु श्रीराम की सेवा करने लगे। रमा अर्थात्‌ रकार के वाच्य भगवान्‌ श्रीराम की ‘मा’ यानी शक्ति ऐसी श्रीसीता के पति श्रीराम ने जब से निवास किया तभी से वह वन मंगलमय हो गया।

**फटिक शिला अति शुभ्र सुहाई। सुख आसीन तहाँ द्वौ भाई॥ कहत अनुज सन कथा अनेका। भगति बिरति नृपनीति बिबेका॥ बरषा काल मेघ नभ छाए। गरजत लागत परम सुहाए॥**
भाष्य

प्रवर्षण पर्वत पर अत्यन्त सुहावनी श्वेतस्फटिक शिला थी उसी पर दोनों भाई श्रीराम, लक्ष्मण सुखपूर्वक आसीन हो गए। भगवान्‌ श्रीराम छोटे भाई लक्ष्मण जी से अनेक कथायें, भक्ति, वैराग्य, राजनीति और विवेक का वर्णन करने लगे। श्रीराम ने कहा, हे लक्ष्मण! देखो, वर्षाकाल में आकाश में छाये हुए मेघ गरजते हुए बहुत सुहावने लग रहे हैं।

[[६४४]]

**दो०– लछिमन देखहु मोर गन, नाचत बारिद पेखि।**

गृही बिरति रत हरष जस, बिष्णु भगत कहँ देखि॥१३॥

भाष्य

लक्ष्मण! देखो, बादलों को देखकर मयूरगण प्रसन्नता से नाच रहे हैं, जैसे वैराग्यभाव में लगे हुए गृहस्थ मुझ महाविष्णु के भक्तों को देखकर प्रसन्न होते हैं।

**घन घमंड नभ गरजत घोरा। प्रिया हीन डरपत मन मोरा॥ दामिनि दमक न रह घन माहीं। खल की प्रीति जथा थिर नाहीं॥**
भाष्य

आकाश में मेघों के समूह घोर गर्जना कर रहे हैं, प्रिया से हीन मेरा मन डर रहा है। बिजली चमक कर बादल में स्थिर नहीं रहती, जैसे खलप्रवृति के व्यक्ति की प्रीति स्थिर नहीं होती।

**विशेष– **इस पंक्ति का विशेष जानने के लिए मेरे द्वारा रचित्‌ ‘**भृंगदूतम्‌**’ नामक खण्डकाव्य अवश्य पढि़ये।

बरषहिं जलद भूमि नियराए। जथा नवहिं बुध बिद्दा पाए॥ बूँद अघात सहहिं गिरि कैसे। खल के बचन संत सह जैसे॥

भाष्य

बादल पृथ्वी के निकट आकर वर्षा कर रहे हैं, जैसे विद्दा पाकर विद्वान विनम्र हो जाते हैं। वर्षा की बूँदों का आघात पर्वत कैसे सह रहे हैं, जैसे सन्तजन दुष्टों के वचनों को सहा करते हैं।

**छुद्र नदी भरि चलीं तोराई। जस थोरेहुँ धन खल बौराई॥ भूमि परत भा ढाबर पानी। जनु जीवहिं माया लपटानी॥**
भाष्य

छोटी–छोटी नदियाँ जल से भर कर तीव्रता से बह चली हैं, जैसे दुष्टप्रकृति का व्यक्ति थोड़े ही धन में बावला हो जाता है। पृथ्वी पर पड़ते ही जल ढाबर अर्थात्‌ मटमैला हो गया है, मानो जीव को माया लिपट गई हो।

**सिमिटि सिमिटि जल भरहिं तलावा। जिमि सदगुन सज्जन पहँ आवा॥ सरिता जल जलनिधि महँ जाई। होइ अचल जिमि जिव हरि पाई॥**
भाष्य

भिन्न–भिन्न स्थानों से इकट्‌ठे होकर जल तालाबों में भर रहे हैं, जैसे सज्जन अर्थात्‌ भगवद्‌भक्तों के पास श्रेष्ठगुण आ जाते हैं। नदियों के जल सागर में जाकर स्थिर हो जाते हैं, जैसे मुक्तजीव मुझ श्रीहरि को पाकर स्थिर होकर अचल हो जाता है।

**दो०– हरित भूमि तृन संकुल, समुझि परहिं नहिं पंथ।** **जिमि पाखंड बिबाद ते, लुप्त होहिं सदग्रंथ॥१४॥**
भाष्य

घासों से युक्त पृथ्वी हरी–भरी हो गई है, मार्ग घास से ढके होने के कारण समझ नहीं पड़ रहे हैं, जैसे पाखण्ड और विवाद के कारण श्रेष्ठग्रन्थ लुप्त हो जाते हैं।

**दादुर धुनि चहुँ दिशा सुहाई। बेद प़ढहिं जनु बटु समुदाई॥ नव पल्लव भए बिटप अनेका। साधक मन जस मिले बिबेका॥ अर्क जवास पात बिनु भयऊ। जस सुराज खल उद्दम गयऊ॥ खोजत कतहुँ मिलइ नहिं धूरी। करइ क्रोध जिमि धरमहिं दूरी॥**
भाष्य

चारों ओर सुहावनी मेढकों की ध्वनि हो रही है, मानो ब्राह्मणों के ब्रह्मचारी समूह वेदपाठ कर रहे हों। अनेक वृक्ष नवीन पल्लवों से युक्त हो गये हैं, जैसे विवेक प्राप्त करने से साधकों के मन उत्साहित हो जाते हैं।

[[६४५]]

अर्क (मन्दार) और जवासे पत्तों से रहित हो गये हैं, जैसे सुन्दर राज्य में दुष्ट का उद्दम चला गया हो। खोजने पर भी कहीं धूल नहीं मिलती है, जैसे धर्म, क्रोध को दूर कर देता है।

ससि संपन्न सोह महि कैसी। उपकारी कै संपति जैसी॥
निशि तम घन खद्दोत बिराजा। जनु दंभिन कर जुरा समाजा॥

भाष्य

ससि अर्थात्‌ हरी–भरी खेती से युक्त पृथ्वी किस प्रकार शोभित हो रही है, जैसे उपकार करने वाले की सम्पत्ति सुन्दर लगती है। रात्रि के घने अन्धकार में टिम–टिम चमकते हुए जुगनू ऐसे शोभित हो रहे हैं, मानो दम्भी अर्थात्‌ झूठा प्रदर्शन करने वालों का समाज जुड़ गया हो।

**महाबृष्टि चलि फूटि कियारी। जिमि सुतंत्र भए बिगरहिं नारी॥ कृषी निरावहिं चतुर किसाना। जिमि बुध तजहिं मोह मद माना॥**
भाष्य

अत्यन्त वृय्ि के कारण खेतों की क्यारियाँ फूट चली हैं, जैसे स्वतंत्र हो जाने पर प्राकृत नारियाँ बिग़ड जाती हैं। चतुर कृषक खेती निरा रहे हैं अर्थात्‌ अपने खेतों से घास निकाल रहे हैं, जैसे पण्डित लोग मोह, मद और मान छोड़ देते हैं।

**देखियत चक्रवाक खग नाहीं। कलिहिं पाइ जिमि धर्म पराहीं॥**

**ऊसर बरषइ तृन नहिं जामा। जिमि हरिजन हिय उपज न कामा॥ भा०– **चक्रवाक पक्षी नहीं दिख रहे हैं, जिस प्रकार कलियुग को प्राप्त करके धर्माचरण भाग जाते हैं। ऊसरों में मेघ बरस रहे हैं, परन्तु वहाँ एक भी घास नहीं जम रही है, जैसे मुझ भगवान्‌ राम के भक्तों के हृदय में कामना नहीं उत्पन्न होती।

बिबिध जंतु संकुल महिं भ्राजा। प्रजा बा़ढ जिमि पाइ सुराजा॥ जहँ तहँ रहे पथिक थकि नाना। जिमि इंद्रिय गन उपजे ग्याना॥

भाष्य

अनेक जन्तुओं से युक्त पृथ्वी बहुत सुन्दर लग रही है, जैसे सुन्दर राज्य, अथवा सुन्दर राजा को प्राप्त कर प्रजा में वृद्धि हो जाती है। वर्षा होने के कारण अपनी यात्रायें स्थगित करके जहाँ–तहाँ पथिक रुक गये हैं, जैसे ज्ञान के उत्पन्न होने पर इन्द्रियाँ अपने विषयों के व्यापार से विरत हो जाती हैं।

**दो०– कबहुँ प्रबल बह मारुत, जहँ तहँ मेघ बिलाहिं।** **जिमि कपूत कुल ऊपजे, सम्पति धर्म नसाहिं॥१५\(क\)॥**
भाष्य

कभी जब वायु तीव्र बहता है और उसके झकोरे से बादल जहाँ–तहाँ तितर–बितर हो जाते हैं, जिस प्रकार कुल के कपूतों अर्थात्‌ संस्कारहीन बालकों के जन्म लेने से सम्पत्ति के सहित धर्म परम्परायें नष्ट हो जाते हैं।

**कबहुँ दिवस महँ निबिड़ तम, कबहुँक प्रगट पतंग।** **बिनसइ उपजइ ग्यान जिमि, पाइ कुसंग सुसंग॥१५\(क\)॥**
भाष्य

कभी दिन में घना अंधकार हो जाता है और कभी सूर्य प्रकट हो जाते हैं, जैसे कुसंग अर्थात्‌ बुरा संग और सुन्दर संग पाकर ज्ञान नष्ट और उत्पन्न हो जाता है।

**बरषा बिगत शरद रितु आई। लछिमन देखहु परम सुहाई॥ फूले कास सकल महि छाई। जनु बरषा कृत प्रगट बु़ढाई॥** [[६४६]]
भाष्य

हे लक्ष्मण! देखो, वर्षा के चले जाने पर अत्यन्त सुहावनी शरदऋतु आ गई है। खिले हुए कास नामक तृणों से सारी पृथ्वी ढँक गई है, मानो वर्षा ने अपनी वृद्धावस्था को प्रकट कर दी हो अर्थात्‌ मानो वर्षा ने कास पुष्परूप श्वेतकेशों से अपने बु़ढापा की सूचना दे दी है।

**उदित अगस्त्य पंथ जल शोषा। जिमि लोभहिं सोषइ संतोषा॥ सरिता सर निर्मल जल सोहा। संत हृदय जस गत मद मोहा॥**
भाष्य

उदित हुए अगस्त्य तारा ने मार्गों के जल को सोख लिया है, जैसे संतोष लोभ को सोख लेता है। नदियों और तालाबों में निर्मल जल सुशोभित हो रहा है, जैसे मद और मोह से रहित सन्तों का हृदय सुन्दर लगता है।

**रस रस सूख सरित सर पानी। ममता त्याग करहिं जिमि ग्यानी॥**

**जानि शरद ऋतु खंजन आए। पाइ समय जिमि सुकृत सुहाए॥ भा०– **धीरे–धीरे नदियों और तालाबों का जल सूख रहा है, जिस प्रकार ज्ञानी लोग ममता का त्याग कर देते हैं। शरद्‌ऋतु जानकर खन्जन पक्षी आ गये हैं, जैसे सुन्दर समय पाकर सुकृत अर्थात्‌ सत्कर्म जनित्‌ पुण्य उपस्थित हो जाता है।

पंक न रेनु सोह असि धरनी। नीति निपुन नृप कै जसि करनी॥ जल संकोच बिकल भये मीना। अबुध कुटुंबी जिमि धनहीना॥

भाष्य

शरदऋतु में न तो कीचड़ है और न धूल, अर्थात्‌ कीचड़ और धूल से रहित पृथ्वी अत्यन्त शोभित हो रही है, जैसे नीति निपुण राजा की कृति सुन्दर लगती है, जहाँ न तो कलंक रूप कीचड़ होता है और न ही निन्दा रूप धूल। जल की न्यूनता से मछलीगण व्याकुल हो उठे हैं, जैसे धन से हीन होने पर विद्दारहित बड़े परिवार वाला गृहस्थ व्याकुल हो जाता है।

**बिनु घन निर्मल सोह अकाशा। हरिजन इव परिहरि सब आशा॥ कहुँ कहुँ बृष्टि शरदऋतु थोरी। कोउ एक पाव भगति जिमि मोरी॥**
भाष्य

बादलों के बिना आकाश, सम्पूर्ण आशाओं को छोड़े हुए मुझ भगवान्‌ के भक्त के समान मल से रहित होकर सुशोभित हो रहा है। कहीं–कहीं शरदऋतु में थोड़ी-थोड़ी वृष्टि हो रही है, जैसे कोई एक मेरी भक्ति पा जाता है।

**दो०– चले हरषि तजि नगर नृप, तापस बनिक भिखारि।** **जिमि हरि भगति पाइ श्रम, तजहिं आश्रमी चारि॥१६॥**
भाष्य

शरदऋतु को देखकर राजा प्रसन्न होकर नगर छोड़कर दिग्विजय करने के लिए, तपस्वी तपस्या करने के लिए, वनिक व्यापार करने के लिए और भिखारी भिक्षाटन के लिए चल पड़े हैं, जैसे मुझ श्रीहरि राम की भक्ति पाकर ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ और सन्यासी ये चारों आश्रमी लोग अपने–अपने आश्रमों के कर्त्तव्यपालन जैसे श्रम को छोड़ देते हैं।

**विशेष– **यहाँ राजा गृहस्थ का, तपस्वी ब्रह्मचारी का, वनिक वानप्रस्थ का, भिखारी सन्यासी का, नगर श्रम का

और शरदऋतु श्रीहरि भक्ति का उपमान है।

सुखी मीन जहँ नीर अगाधा। जिमि हरि शरन न एकउ बाधा॥ फूले कमल सोह सर कैसे। निर्गुन ब्रह्म सगुन भए जैसे॥
[[६४७]]

भाष्य

जहाँ अगाध जल है वहाँ मछली सुखी हैं, जिस प्रकार मुझ श्रीहरि की शरण में एक भी बाधा नहीं होती। खिले हुए कमलों से तालाब अथवा तालाबों के जल किस प्रकार सुशोभित हो रहे हैं, जैसे निर्गुणब्रह्म, सगुण होकर सुशोभित होते हैं।

**विशेष– **जल में कमल खिल जाने पर उस पर भ्रमर आते हैं, वे गुंजार करते हैं उससे अन्य लोगों का मनोरंजन होता है, ठीक उसी प्रकार जब ब्रह्म अपने दिव्यगुणों को प्रकट करते हैं तो, उन गुणों के आकर्षण से ब्रह्म का भजन करने के लिए सन्त पधारते हैं और उनके गुंजनरूप भगवद्‌गुणगान से सामान्य लोगों का मन भी भगवन्नमय हो जाता है।

गुंजत मधुकर मुखर अनूपा। सुंदर खग रव नाना रूपा॥ चक्रवाक मन दुख निशि पेखी। जिमि दुर्जन पर संपति देखी॥

भाष्य

उपमारहित मुखर भ्रमर उन कमलों पर गुंजार कर रहे हैं और अनेक रूपवाले सुन्दर पक्षी कलरव कर रहे हैं। शरद की उजेली रात देखकर चक्रवाक के मन में दु:ख है, जैसे दूसरों की सम्पत्ति देखकर दुय्जन दु:खी हो जाते हैं।

**चातक रटत तृषा अति ओही। जिमि सुख लहइ न शङ्कर द्रोही॥ शरदातप निशि शशि अपहरई। संत दरस जिमि पातक टरई॥**
भाष्य

चातक रट रहा है उसे बहुत प्यास लगी है। जैसे शिव जी का द्रोह करने वाला सुख नहीं प्राप्त कर पाता। रात्रि में चन्द्रमा शरद की धूप (गर्मी) को समाप्त कर देते हैं, जैसे सन्तों के दर्शन से पाप समाप्त हो जाता है।

**देखहिं बिधु चकोर समुदाई। चितवहिं जिमि हरिजन हरि पाई॥**

**मशक दंश बीते हिम त्रासा। जिमि द्विज द्रोह किए कुल नासा॥ भा०– **शरदपूर्णिमा की चन्द्रमा को चकोर समूह देख रहे हैं जैसे मुझ श्रीहरि परमात्मा श्रीराम को प्राप्त कर मेरे भक्त टकटकी लगाकर निहारा करते हैं। हेमन्तऋतु के त्रास से अब मच्छरों के डंक समाप्त हो गये हैं, जैसे ब्राह्मणों का द्रोह करने से कुल का नाश हो जाता है।

दो०– भूमि जीव संकुल रहे, गए शरद ऋतु पाइ।
सदगुरु मिले जाहिं जिमि, संशय भ्रम समुदाइ॥१७॥

भाष्य

वर्षाकाल में पृथ्वी पर जो जीव–जन्तु, कीड़े-मकोड़े व्याप्त थे, वे शरदऋतु को पाकर समाप्त हो गये हैं, जैसे सद्‌गुरु के मिलने पर संशय और भ्रमों के समूह चले जाते हैं।

**बरषा गत निर्मल रितु आई। सुधि न तात सीता कै पाई॥ एक बार कैसेहुँ सुधि पावौं। कालहुँ जीति निमिष महँ ल्यावौं॥**
भाष्य

हे भैया लक्ष्मण! वर्षा चली गई अब निर्मल शरदऋतु आ गई, फिर भी हमने सीताजी की सुधि नहीं पाई अर्थात्‌ सीता जी का समाचार नहीं पाया। एक बार किसी प्रकार भी समाचार पा जाऊँ, तो काल को भी जीतकर सीता जी को एक क्षण में ले आऊँगा।

**कतहुँ रहउ जौ जीवति होई। तात जतन करि आनउँ सोई॥ सुग्रीवहुँ सुधि मोरि बिसारी। पावा राज कोश पुर नारी॥ जेहिं सायक मारा मैं बाली। तेहिं शर हतौं मू़ढ कहँ काली॥** [[६४८]]
भाष्य

कहीं भी हों यदि सीता जी जीवित हों तो हे तात! मैं उपाय करके उन्हें (सीता जी को) ले आऊँगा। सुग्रीव भी मेरी सुधि भूल गये। उन्होंने राज, धन, पुर और पत्नी पा ली, जिस बाण से मैंने बालि को मारा था, कल उसी बाण से सुग्रीव के मोहभाव को भी समाप्त कर दूँगा।

**विशेष– **यहाँ भगवान्‌ श्रीराम ने जो सुग्रीव जी के प्रति प्रतिक्रिया व्यक्त की है उसका सामान्यत: यही अर्थ लगाया जाता रहा है कि जिस बाण से बालि को मारा था कल उसी बाण से मूर्ख सुग्रीव को मारूँगा। ***जेहि** सायक मारा मैं बाली। तेहि शर हतौं मू़ढ कहँ काली॥ ***परन्तु क्या मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम अपने ही द्वारा अभयदान से अलंकृत किये हुए मित्र सुग्रीव को मारने की बात कर सकते हैं? क्या प्रभु अग्नि की साक्षी में किये हुए नियमों को भूल गए? यदि नहीं तो *हतौं** मू़ढ कहँ *शब्दखण्ड का क्या अर्थ होगा? इसका क्या औचित्य है? वह भी गोस्वामी तुलसीदास जी जैसे शब्दसिद्ध सारस्वत महाकवि के लेख में। यहाँ मैं इतना ही विनम्र निवेदन कर सकता हूँ कि गोस्वामी जी ने मू़ढ शब्द में भाव में ‘क्त’ प्रत्यय माना है *नपुंसके** भावे क्त: *पा०अ०सू० ३.३.१४. अर्थात्‌ प्रभु कहते हैं कि जिस बाण से मैंने बालि को मारा उसी बाण से मैं कल सुग्रीव के मोहभाव को नष्ट कर दूूँगा।

जासु कृपा छूटहिं मद मोहा। ता कहँ उमा कि सपनेहुँ कोहा॥ जानहिं यह चरित्र मुनि ग्यानी। जिन रघुबीर चरन रति मानी॥

भाष्य

हे पार्वती! जिन प्रभु श्रीराम की कृपा से मद, मोह आदि विकार छूट जाते हैं, क्या उन श्रीराम को स्वप्न में भी कभी क्रोध आ सकता है? यह चरित्र तो वे ही ज्ञानीमुनि जानते हैं, जिन्होंने रघुवीर श्रीराम के श्रीचरणों में रति अर्थात्‌ प्रेमलक्षणा भक्ति को ही अपना सर्वस्व मान लिया है।

**लछिमन क्रोधवंत प्रभु जाना। धनुष च़ढाइ गहे कर बाना॥** **दो०– तब अनुजहिं समुझायेउ, रघुपति करुना सींव।**

भय देखाइ लै आवहु, तात सखा सुग्रीव॥१८॥

भाष्य

लक्ष्मण जी ने जान लिया कि प्रभु श्रीराम क्रोध से युक्त हो गये हैं, तब उन्होंने धनुष च़ढाकर हाथ में बाण ले लिया। तब करुणा की सीमा भगवान्‌ श्रीराम ने लक्ष्मण जी को समझाया कि सुग्रीव मेरे मित्र हैं, उन्हें केवल भय दिखाकर मेरे पास ले आइये, मारियेगा नहीं।

**इहाँ पवनसुत हृदय बिचारा। राम काज सुग्रीव बिसारा॥** **निकट जाइ चरननि शिर नावा। चारिहुँ बिधि तेहिं कहि समुझावा॥**
भाष्य

यहाँ पवनपुत्र हनुमान जी ने हृदय में विचार किया कि सुग्रीव जी भगवान्‌ श्रीराम के कार्य को भूल गये हैं। हनुमान जी ने सुग्रीव जी के निकट जाकर उनके चरणों में प्रणाम किया और साम, दान, भय, भेद इन चारों विधियों से कह कर सुग्रीव जी को समझाया।

**सुनि सुग्रीव परम भय माना। बिषय मोर हरि लीन्हेउ ग्याना॥ अब मारुतसुत दूत समूहा। पठवहु जहँ तहँ बानर जूहा॥**
भाष्य

सुनकर सुग्रीव जी ने बहुत–बड़ा भय माना अर्थात्‌ भयभीत हो गये उन्होंने सोचा कि, अरे! विषय भोगों ने

मेरे ज्ञान को ही चुरा लिया। हे पवनपुत्र हनुमान जी! अब जहाँ–तहाँ वानर यूथों को बुलाने के लिए दूतों के समूह भेज दीजिये और दूतों से यह सन्देश कहिये कि मेरा आदेश सुनकर पृथ्वी पर कहीं भी रहनेवाला जो बन्दर पन्द्रह दिनों के भीतर मेरे पास नहीं आ जाता तो मेरे हाथों से उसका वध हो जायेगा अथवा, जहाँ वानर जूहा तहाँ दूत समूहा पठवहू अर्थात्‌ पृथ्वी पर जहाँ भी वानरों के यूथ रहते हों, वहाँ दूतों के समूह भेज दीजिये और मेरा यह

[[६४९]]

संदेश कहिये कि जो एक पक्ष में नहीं आयेगा उसका मेरे हाथों से वध होगा, क्योंकि मैं राजा हूँ और राजाज्ञा पालन सबकी बाध्यता है।

तब हनुमंत बोलाए दूता। सब कर करि सनमान बहूता॥ भय अरु प्रीति नीति देखराई। चले सकल चरननि सिर नाई॥

भाष्य

तब हनुमान जी ने दूतों को बुलाया, सभी का बहुत सम्मान करके भय, प्रीति और नीति का प्रदर्शन किया। सभी दूत हनुमान जी के चरणों में सिर नवाकर पृथ्वी भर के समस्त वानर वीरों को बुलाने के लिए चल पड़े।

**एहि अवसर लछिमन पुर आए। क्रोध देखि जहँ तहँ कपि धाए॥** **दो०– धनुष च़ढाई कहा तब, जारि करउँ पुर छार।**

ब्याकुल नगर बिलोकि तब, आयउ बालिकुमार॥१९॥

भाष्य

उसी अवसर पर लक्ष्मण जी सुग्रीव जी के नगर में पधार आये उनका क्रोध देखकर जहाँ–तहाँ वानर दौड़ने लगे अर्थात्‌ अपने प्राणों की रक्षा के लिए दौड़-दौड़ कर भागने लगे। तब लक्ष्मण जी ने धनुष पर डोर च़ढाकर कहा कि मैं किष्किन्धापुर को जला कर भस्म कर दे रहा हूँ। तब नगर को व्याकुल देखकर बालिपुत्र अंगद जी, लक्ष्मण जी के पास आये।

**चरन नाइ सिर बिनती कीन्ही। लछिमन अभय बाहँ तेहिं दीन्ही॥ क्रोधवंत लछिमन सुनि काना। कह कपीश अति भय अकुलाना॥ सुनु हनुमंत संग लै तारा। करि बिनती समुझाउ कुमारा॥ तारा सहित जाइ हनुमाना। चरन बंदि प्रभु सुजस बखाना॥ करि बिनती मंदिर लै आए। चरन पखारि पलँग बैठाए॥**
भाष्य

अंगद जी ने चरणों में मस्तक नवाकर प्रार्थना की, लक्ष्मण जी ने उन्हें अपनी अभय बाँह दे दी अर्थात्‌ अंगद जी को दाहिना हाथ पक़डा दिया। लक्ष्मण जी को क्रोध से युक्त सुनकर अतिशय भय से अकुलाये हुए वानरों के राजा सुग्रीव जी ने कहा, हे हनुमान जी! भाभी माँ तारा जी को साथ लेकर आप प्रार्थना करके लक्ष्मण कुमार को समझाइये। तारा जी के सहित लक्ष्मण जी के पास जाकर हनुमान जी ने कुमार लक्ष्मण के चरणों की वन्दना करके, प्रभु श्रीराम और लक्ष्मण जी के सुयश की प्रशंसा की। हनुमान जी प्रार्थना करके लक्ष्मण जी को राजभवन ले आये। उनके चरण पखार कर (पूर्णरूप से धोकर) उन्हें सुग्रीव जी के ही पलंग पर बैठा दिया।

**तब कपीश चरननि सिर नावा। गहि भुज लछिमन कंठ लगावा॥ नाथ बिषय सम मद कछु नाहीं। मुनि मन मोह करइ छन माहीं॥ सुनत बिनीत बचन सुख पावा। लछिमन तेहि बहु बिधि समुझावा॥ पवन तनय सब कथा सुनाई। जेहि बिधि गए दूत समुदाई॥**
भाष्य

तब वानरराज सुग्रीव जी ने लक्ष्मण जी के चरणों में मस्तक नवाया और लक्ष्मण जी ने भी उनकी बाँह पक़डकर सुग्रीव जी को कण्ठ से लगा लिया। सुग्रीव जी बोले, हे नाथ! विषयभोग के समान कोई मदिरा नहीं हो सकती यह एक क्षण में मुनियों के भी मन में मोह उत्पन्न कर देती है। सुग्रीव जी के विनम्र वचन सुनकर लक्ष्मण जी ने सुख प्राप्त किया और लक्ष्मण जी ने सुग्रीव जी को बहुत प्रकार से समझाया। उसी समय पवनपुत्र हुनमान जी ने लक्ष्मण जी को सब कथा कहकर सुनायी, जिस प्रकार कुमार लक्ष्मण के आने के पहले ही, वानरों को बुलाने के लिए सुग्रीव जी की आज्ञा से दूतों के समूह यत्र–तत्र जा चुके हैं।

[[६५०]]

**दो०– हरषि चले सुग्रीव तब, अंगदादि कपि साथ।**

रामअनुज आगे किये, आए जहँ रघुनाथ॥२०॥

भाष्य

तब अंगद आदि वानरों को साथ लेकर प्रसन्न होकर सुग्रीव जी श्रीराम के पास चले। श्रीराम के छोटे भाई लक्ष्मण जी को आगे किये हुए वहाँ आये जहाँ प्रवर्षण पर्वत के स्फटिकशिला पर भगवान्‌ श्रीरघुनाथ विराज रहे थे।

**नाइ चरन सिर कह कर जोरी। नाथ मोहि कछु नाहिन खोरी॥ अतिशय प्रबल देव तव माया। छूटइ राम करहु जौ दाया॥ बिषय बश्य सुर नर मुनि स्वामी। मैं पामर पशु कपि अति कामी॥ नारि नयन शर जाहि न लागा। घोर क्रोध तम निशि जो जागा॥ लोभ पाश जेहिं गर न बँधाया। सो नर तुम समान रघुराया॥ यह गुन साधन ते नहिं होई। तुम्हरी कृपा पाव कोइ कोई॥**
भाष्य

सुग्रीव जी भगवान्‌ श्रीराम के श्रीचरणों में मस्तक नवाकर हाथ जोड़कर कहने लगे, हे नाथ! मेरा कुछ भी दोष नहीं है, हे देव! आपकी माया अत्यन्त प्रबल है, हे श्रीराम! वह तभी छूटती है जब आप दया करते हैं। हे स्वामी! देवता, मानव और मुनि ये सभी विषय के वश में हैं, मैं तो नीच पशु और अत्यन्त कामी प्राणी हूँ। जिसको भगवत्‌ विरुद्ध वासनापरायण नारी का नेत्रबाण नहीं लगा अर्थात्‌ जो कामुक नारी के नेत्रबाण से प्रभावित नहीं हुआ, जो घोर क्रोध की अन्धेरी रात में भी जागता रहा, जिसने लोभ के फन्दे से अपने गले को नहीं बँधा लिया, हे श्रीरघुराज जी! वह मनुष्य आपके समान है। यह गुण, साधन से नहीं उत्पन्न हो सकता, आपकी कृपा से इसे कोई–कोई प्राप्त करता है।

**तब रघुपति बोले मुसुकाई। तुम प्रिय मोहि भरत जिमि भाई॥ अब सोइ जतन करहु मन लाई। जेहि बिधि सीता कै सुधि पाई॥**
भाष्य

तब रघुकुल के स्वामी भगवान्‌ श्रीराम मुस्कराकर बोले, हे भाई सुग्रीव! तुम मुझे भरत के समान प्रिय हो, अब तुम मन लगाकर वही यत्न करो जिस प्रकार से मैं सीता जी का समाचार पा सकूँ।

**दो०– एहि बिधि होत बतकही, आए बानर जूथ।** **नाना बरन सकल दिशि, देखिय कीस बरूथ॥२१॥**
भाष्य

इस प्रकार भगवान्‌ श्रीराम और सुग्रीव जी के बीच वार्तालाप हो रहा था कि इसी बीच दूतों द्वारा सन्देश पाकर अनेक वर्णोंवाले वानरों के समूह आ गये। उस समय सभी दिशाओं में अनेक वर्णाेंवाले रंग–बिरंगे वानरों के समूह ही दिख रहे थे।

**बानर कटक उमा मैं देखा। सो मूरख जो करन चह लेखा॥ आइ राम पद नावहिं माथा। निरखि बदन सब होहि सनाथा॥ अस कपि एक न सेना माहीं। राम कुशल जेहि पूछी नाहीं॥ यह कछु नहिं प्रभु कै अधिकाई। बिश्वरूप ब्यापक रघुराई॥**
भाष्य

हे पार्वती! वानरों की सेना को मैंने देखा है, जो उसकी गिनती करना चाहे वस्तुत: वह मूर्ख ही है। वानर आ–आकर भगवान्‌ श्रीराम के चरणों में मस्तक नवाते हैं और प्रभु के श्रीमुख को निरखकर (देखकर) सभी सनाथ हो जाते हैं। सेना में ऐसा एक भी वानर नहीं था जिससे प्रभु श्रीराम ने कुशल न पूछी हो। प्रभु श्रीराम की

[[६५१]]

यह कोई अधिकता नहीं है, क्योंकि रघु शब्द के अर्थ सम्पूर्ण जीवों के राया अर्थात्‌ सर्वस्व भगवान्‌ श्रीराम विश्वरूप और सर्वव्यापक हैं। तात्पर्य यह है कि, प्रभु ने वानरों के ही प्रमाण में रूप प्रकट किया अर्थात्‌ जितने वानर आये उतने ही रूप धारण करके एक क्षण में सबसे कुशल समाचार पूछा।

ठा़ढे जहँ तहँ आयसु पाई। कह सुग्रीव सबहिं समुझाई॥ राम काज अरु मोर निहोरा। बानर जूथ जाहु चहुँ ओरा॥ जनकसुता कहँ खोजहु जाई। मास दिवस महँ आएहु भाई॥ अवधि मेटि जो बिनु सुधि पाये। अवसि मरिहिं सो मम कर आये॥

भाष्य

जहाँ–तहाँ आज्ञा पाकर सभी अट्ठारह पद्‌म यूथपतियों के नेतृत्व में सभी वानर ख़डे हो गये। सुग्रीव जी ने सबको समझाकर कहा, श्रीराम के कार्य और मेरी कृतज्ञता के आधार पर, हे वानर यूथों! चारों दिशाओं में जाओ अर्थात्‌ यह श्रीराम का कार्य और मेरा विशेष अनुरोध है कि जाकर श्रीसीता को ढूँढो। हे भाइयों! एक महीने के भीतर ही श्रीसीता का समाचार लेकर आ जाना। जो श्रीसीता का समाचर पाये बिना एक महीने की अवधि का उल्लंघन करके आयेगा वह मेरे हाथ से अवश्य ही मारा जायेगा।

**दो०– बचन सुनत सब बानर, जहँ तहँ चले तुरंत।** **तब सुग्रीव बोलाए, अंगदादि हनुमंत॥२२॥**
भाष्य

सुग्रीव जी का आदेश सुनते ही सभी वानर तुरन्त जहाँ–तहाँ चल पड़े। तब सुग्रीव जी ने अंगद, नल, नील, जाम्बवान्‌ और हनुमान जी को बुलाया।

**सुनहु नील अंगद हनुमाना। जामवंत मतिधीर सुजाना॥ सकल सुभट मिलि दच्छिन जाहू। सीता सुधि पूँछेहु सब काहू॥ मन क्रम बचन सो जतन बिचारेहु। रामचंद्र कर काज सँवारेहु॥**
भाष्य

हे नील, नल, अंगद, हनुमान तथा धीरबुद्धि वाले जाम्बवान्‌ जी! सुनिये, आप सभी वीर मिलकर दक्षिण दिशा को जाइये। श्रीसीता का समाचार सबसे पूछियेगा। मन, कर्म और वाणी से उसी यत्न का विचार करियेगा, जिससे आप लोग श्रीरामचन्द्र के कार्य को सँवार लें।

**भानु पीठि सेइय उर आगी। स्वामिहिं सर्ब भाव छल त्यागी॥ तजि माया सेइय परलोका। मिटहिं सकल भवसंभव शोका॥**
भाष्य

सूर्यनारायण की पीठ से एवं अग्नि की हृदय से सेवा करनी चाहिये और स्वामी की छल छोड़कर सर्वभाव से सेवा करनी चाहिये। कपट छोड़कर परलोक अर्थात्‌ मोक्ष की साधना करनी चाहिये इससे संसार से उत्पन्न सभी शोक मिट जाते हैं अर्थात्‌ भगवान्‌ श्रीराम में सूर्य, अग्नि, स्वामी और परलोक इन चारों के गुण एक साथ विद्दमान हैं, इसलिए उनकी सेवा से सब कुछ प्राप्त हो जायेगा।

**विशेष– **इन दोनों पंक्तियों का मूल श्लोक इस प्रकार है–

पृष्ठेन* सेवये दर्कम जठरेन हुतासनम्‌। स्वामिनं सर्वभावेन परलोक ममायया॥*

देह धरे कर यह फल भाई। भजिय राम सब काम बिहाई॥ सोइ गुनग्य सोई बड़भागी। जो रघुबीर चरन अनुरागी॥ आयसु माँगि चरन सिर नाई। चले हरषि सुमिरत रघुराई॥
[[६५२]]

भाष्य

हे भाई! शरीर धारण करने का यही फल है कि प्राणी सभी कामनाओं को छोड़कर श्रीराम का भजन करे। वही गुनज्ञ है, वही सबसे बड़ा भाग्यशाली है, जो रघुकुल के वीर श्रीराम के श्रीचरणों का अनुरागी है। इस प्रकार नल, नील, अंगद, जाम्बवान्‌ जी आदि सभी वानर सुग्रीव जी से आदेश माँगकर श्रीराम, लक्ष्मण एवं सुग्रीव जी के चरणों में प्रणाम करके, प्रसन्न होकर रघुराज श्रीराम का स्मरण करते हुए दक्षिण दिशा की ओर चल पड़े।

**पाछे पवन तनय सिर नावा। जानि काज प्रभु निकट बोलावा॥ परसा शीष सरोरुह पानी। करमुद्रिका दीन्ह जन जानी॥ बहु प्रकार सीतहिं समुझाएहु। कहि बल बीर बेगि तुम आएहु॥ हनुमत जन्म सुफल करि माना। चलेउ हृदय धरि कृपानिधाना॥** **जद्दपि प्रभु जानत सब बाता। राजनीति राखत सुरत्राता॥**
भाष्य

सबसे पीछे पवनपुत्र हनुमान जी ने श्रीराम, लक्ष्मण और सुग्रीव जी को प्रणाम किया और चलने की अनुमति माँगी। हनुमान जी से कार्य होने की सम्भावना जानकर प्रभु श्रीराम ने संकेत से (तनी* हेने आवऽऽऽ…*) कहकर उन्हें नजदीक बुला लिया। प्रभु ने अपने करकमलों से हनुमान जी के सिर पर स्पर्श किया और आन्जनेय जी को अपना अन्तरंग सेवक जानकर अपने हाथ की मुद्रिका दे दी। भगवान्‌ श्रीराम बोले, हे वीर (हे महावीर!) सीता जी को बहुत प्रकार से समझाना और मेरा बल पराक्रम कहकर तथा शत्रु को भी मेरे बल का अनुभव करा कर तुम लौट आना। हनुमान जी ने अपना जन्म सफल हुआ जाना और अपने हृदय में कृपानिधान श्रीराम को धारण करके चल पड़े। यद्दपि प्रभु श्रीराम सब बात जानते हैं, फिर भी देवताओं के रक्षक प्रभु राजनीति की मर्यादा की रक्षा करते हैं।

**दो०– चले सकल बन खोजत, सरिता सर गिरि खोह।** **राम काज लयलीन मन, बिसरा तन कर छोह॥२३॥**
भाष्य

सभी वानर नदी, तालाब, पर्वत और गुफाओं को खोजते हुए चल पड़े। उनका मन श्रीराम के कार्य में लयलीन अर्थात्‌ तन्मय था, इसलिए वे शरीर की ममता भी भूल गये।

**कतहुँ होइ निशिचर ते भेंटा। प्रान लेहिं एक एक चपेटा॥ बहु प्रकार गिरि कानन हेरहिं। कोउ मुनि मिलइ ताहि सब घेरहिं॥**
भाष्य

कहीं भी जब राक्षस से भेंट हो जाती है तब एक ही एक थप्पड़ में उसके प्राण ले लेते हैं। पर्वतों और वनों में बहुत प्रकार से ढूँ़ढते हैं, यदि कोई मुनि मिल जाते हैं तो उसे सब लोग घेर लेते हैं अर्थात्‌ श्रीसीता का समाचार पूछते हैं और श्रीसीता को प्राप्त करने के लिए आशीर्वाद प्राप्त करते हैं।

**लागि तृषा अतिशय अकुलाने। मिलइ न जल घन गहन भुलाने॥ मन हनुमान कीन्ह अनुमाना। मरन चहत सब बिनु जल पाना॥ चढि़ गिरि शिखर चहूँ दिशि देखा। भूमि बिबर एक कौतुक पेखा॥ चक्रवाक बक हंस उड़ाहीं। बहुतक खग प्रबिशहिं तेहि माहीं॥**
भाष्य

वानरों को अत्यन्त प्यास लगी सभी अकुला गये, जल नहीं मिल रहा है, घने जंगल में सब लोग मार्ग भूल गये। तब हनुमान जी ने मन में विचार किया कि सभी वानर बिना जलपान के मरना चाहते हैं। हनुमान जी ने पर्वत के शिखर पर च़ढकर चारों ओर देखा और खेल ही खेल में पृथ्वी पर एक छिद्र अर्थात्‌ गुफा देखी अथवा, पृथ्वी की एक गुफा में पक्षियों का कौतुक देखा। उसमें चक्रवाक, बगुले और हंस भी उड़ रहे हैं, जबकि बगुले और हंस एक साथ नहीं रहा करते और बहुत से पक्षी उस बिबर में प्रवेश भी कर रहे हैं।

[[६५३]]

**गिरि ते उतरि पवनसुत आवा। सब कहँ लै सोइ बिबर देखावा॥ आगे करि हुनुमंतहिं लीन्हा। पैठे बिबर बिलंब न कीन्हा॥**
भाष्य

पर्वत से उतरकर हनुमान जी आये और सभी को ले जाकर बिबर अर्थात्‌ पृथ्वी की वह विशाल गुफा दिखाई। सब ने हनुमान जी को आगे कर दिया और किसी प्रकार का बिलम्ब नहीं किया तुरन्त उस पृथ्वी की गुफा में प्रवेश कर गये।

**दो०– दीख जाइ उपवन बिबर, सर बिकसित बहु कंज।** **मंदिर एक रुचिर तहाँ, बैठि नारि तप पुंज॥२४॥**
भाष्य

वानरों ने उस बिल में एक सुन्दर उपवन देखा वहाँ तालाब में बहुत से कमल खिले हुए थे। बिल के अन्दर एक मन्दिर भी था, वहाँ तपस्या की पुंजस्वरूप एक महिला बैठी थीं, जो स्वयंप्रभा नामक एक गन्धर्व कन्या थीं।

**दूरि ते ताहि सबन सिर नावा। पूँछे निज बृतांत सुनावा॥** **तेहिं तब कहा करहु जल पाना। खाहु सुरस सुंदर फल नाना॥ मज्जन कीन्ह मधुर फल खाए। तासु निकट पुनि सब चलि आए॥ तेहिं सब आपनि कथा सुनाई। मैं अब जाब जहाँ रघुराई॥**
भाष्य

सभी वानरों ने दूर से उस तपस्विनी को प्रणाम किया। उसके पूछने पर अपना वृतान्त सुनाया, फिर उस तपस्विनी ने कहा, जलपान करो और नाना प्रकार से स्वादयुक्त फल खाओ। सभी ने तालाब में स्नान, जलपान किया और मधुर फल खाये फिर सभी लोग उन तपस्विनी के निकट चले आये। उन तपस्विनी ने अपनी सम्पूर्ण कथा सुना दी और कहने लगीं कि अब तो मैं वहीं जाऊँगी जहाँ श्रीराम हैं।

**मूंदहु नयन बिबर तजि जाहू। पैहहु सीतहिं जनि पछिताहू॥ नयन मूदि पुनि देखहिं बीरा। ठा़ढे सकल सिंधु के तीरा॥ सो पुनि गई जहाँ रघुनाथा। जाइ कमल पद नाएसि माथा॥ नाना भाँति बिनय तेहिं कीन्ही। अनपायनी भगति प्रभु दीन्ही॥**
भाष्य

उन तपस्विनी स्वयं प्रभा जी ने कहा—हे वानर भटों! अपनी आँखें मूँद लो, इस गुफा को छोड़कर चले जाओ, श्रीसीता को प्राप्त कर लोगे पश्चात्‌ ताप मत करो। एक क्षण के लिए नेत्रों को मूँदकर पुन: नेत्रों को खोलकर सब वीर देखने लगे तो सभी के सभी समुद्र तट पर ही ख़डे थे, फिर वे तपस्विनी प्रवर्षण पर्वत पर जहाँ श्रीराम थे वहाँ गईं, जाकर प्रभु के श्रीचरणकमलों में मस्तक नवाया। उन तपस्विनी ने नाना प्रकार से प्रार्थना की और प्रभु ने उन्हें अनपायनी भक्ति दे दी।

**दो०– बदरीबन कहँ सो गई, प्रभु आग्या धरि शीश।** **उर धरि राघव चरन जुग, जे बंदत अज ईश॥२५॥**
भाष्य

वे स्वयंप्रभा प्रभु की आज्ञा सिर पर धारण करके और जिन्हें ब्रह्मा जी और शिव जी वन्दन करते हैं ऐसे

श्रीराघव सरकार के युगल श्रीचरणों को हृदय में धारण करके बदरीवन को अर्थात्‌ बदरिकाश्रम को चली गईं।

इहाँ बिचारहिं कपि मन माहीं। बीती अवधि काज कछु नाहीं॥ सब मिलि कहहि परस्पर बाता। बिनु सुधि लिए करब का भ्राता॥

भाष्य

यहाँ समुद्र के तट पर सभी वानर विचार करने लगे कि अवधि तो बीत गई कुछ भी कार्य नहीं हुआ। सभी मिलकर परस्पर बात कहने लगे कि भैया! श्रीसीता की सुधि लिए बिना हम क्या करेंगे?

[[६५४]]

**कह अंगद लोचन भरि बारी। दुहुँ प्रकार भइ मृत्यु हमारी॥ इहाँ न सुधि सीता कै पाई। उहाँ गए मारिहि कपिराई॥ पिता बधे पर मारत मोही। राखा राम निहोर न ओही॥ पुनि पुनि अंगद कह सब पाहीं। मरन भयउ कछु संशय नाहीं॥**
भाष्य

अंगद जी ने नेत्रों में आँसू भरकर कहा कि हमारी तो दोनों प्रकार से मृत्यु हो गई, इधर श्रीसीता जी का समाचार नहीं पाया और वहाँ जाने पर वानरराज सुग्रीव मार डालेंगे। पिताश्री बालि का वध हो जाने पर सुग्रीव मुझे मार ही डालते, परन्तु श्रीराम ने मुझे रख लिया, इसमें सुग्रीव के प्रति मेरी कोई कृतज्ञता नहीं है। अंगद जी ने सभी से बार–बार यही कहा कि अब तो मृत्यु हो ही गई, इसमें कोई सन्देह नहीं है।

**अंगद बचन सुनत कपि बीरा। बोलि न सकहिं नयन बह नीरा॥ छन एक सोच मगन होइ गए। पुनि अस बचन कहत सब भए॥ हम सीता कै शोध बिहीना। नहिं जैहैं जुबराज प्रबीना॥ अस कहि लवन सिंधु तट जाई। बैठे कपि सब दर्भ डसाई॥**
भाष्य

अंगद जी के वचन सुनते ही सभी वीर वानर बोल नहीं सक रहे हैं, नेत्रों से आँसू बह रहे हैं। एक क्षण के लिए सब लोग शोक में मग्न हो गये फिर सभी लोगों ने यह वचन कहा, हे कुशल युवराज अंगद जी! हम श्रीसीता का समाचार पाये बिना लौटकर किष्किन्धा नहीं जायेंगे। समुद्रतट पर अनशन करके मरेंगे। इतना कहकर खारे समुद्र के तट पर जाकर कुशासन बिछाकर सभी अनशन के लिए बैठ गये।

**जामवंत अंगद दुख देखी। कही कथा उपदेश बिशेषी॥ तात राम कहँ नर जनि मानहु। निर्गुन ब्रह्म अजित अज जानहु॥ हम सब सेवक अति बड़भागी। संतत सगुन ब्रह्म अनुरागी॥** **दो०– निज इच्छा प्रभु अवतरइ, सुर महि गो द्विज लागि।**

सगुन उपासक संग तहँ, रहहिं मोक्ष सुख त्यागि॥२६॥

भाष्य

अंगद जी का दु:ख देखकर जाम्बवान्‌ जी ने उपदेश प्रधान बहुत–सी कथायें कहीं, हे भैया! श्रीराम को मनुष्य मत मानो उन्हें किसी से भी नहीं जीते जानेवाले, अजन्मा और निर्गुणब्रह्म समझो। हम सभी सेवक अत्यन्त भाग्यशाली हैं, जो सगुणब्रह्म भगवान्‌ श्रीराम में अनुराग रखते हैं। देवता, पृथ्वी, गौ और ब्राह्मणों के हित के लिए प्रभु अपनी इच्छा से अवतार लेते हैं और मोक्षसुख को छोड़कर, सगुण उपासक भक्त भी जहाँ प्रभु अवतार लेते हैं वहाँ, उनके साथ रहते हैं।

**विशेष– **सन्तजन इस प्रसंग में एक दोहा कहते हैं। यथा–

त्रेता में वानर भये। द्वापर में भये ग्वाल॥ कलियुग में साधू भये। तिलक छाप अरुमाल॥

एहि बिधि कथा कहहिं बहु भाँती। गिरि कंदरा सुनी संपाती॥ बाहेर होइ देखि बहु कीशा। मोहि अहार दीन्ह जगदीशा॥ आजु सबहिं कहँ भच्छन करऊँ। दिन बहु चले अहार बिनु मरऊँ॥ कबहुँ न मिल भरि उदर अहारा। आजु दीन्ह बिधि एकहिं बारा॥
[[६५५]]

भाष्य

इस प्रकार वानर बहुत प्रकार से कथा कह ही रहे थे कि पर्वत की कन्दरा से सम्पाती ने सुन ली। उसने गुफा से बाहर आकर समुद्र तट पर आमरण अनशन कर रहे बहुत से वानरों को देखकर मन में कहा, अहा! ईश्वर ने मुझे आहार दे दिया, आज क्रम से सभी को भक्षण कर जाऊँगा। बहुत दिन चले गये, बिना भोजन के भूखों मर रहा हूँ। कभी भी भरपेट आहार नहीं मिला, आज विधाता ने एक ही बार में दे दिया।

**डरपे गीध बचन सुनि काना। अब भा मरन सत्य हम जाना॥ कपि सब उठे गीध कहँ देखी। जामवंत मन सोच बिशेषी॥**
भाष्य

गृध्र का वचन सुनकर सभी डर गये और कहने लगे, हम समझ गये अब सत्य ही हमारा मरण होगा, क्योंकि गृध्र मरी हुई लाश को ही खाता है। इसे हमारी मृत्यु का पूर्वाभास हो गया है, अतएव इसने खाने की बात कही। सम्पाती को आते देखकर सभी वानर आसन पर से उठ गये। जाम्बवान्‌ के हृदय में विशेष चिन्ता हुई, हे राम! इनका तो व्रत भी टूट गया, ये प्रभु का कार्य नहीं कर सकेंगे।

विशेष

सम्पाती को देखकर सभी वानर-भालू अपने स्थान से उठकर ख़डे हो गए थे अर्थात्‌ सबका त्रत टूटा परन्तु हनुमान जी महाराज यथावत्‌ बैठे रहे और मौन होकर भगवान्‌ श्रीराम का स्मरण करते रहे। अतएव आगे चलकर जाम्वान्‌ कहेंगे “का चुप साधि रहेउ बलवाना” मानस ४.३०.३

कह अंगद बिचारि मन माहीं। धन्य जटायू सम कोउ नाहीं॥ राम काज कारन तनु त्यागी। हरि पुर गयउ परम बड़ भागी॥

भाष्य

अंगद जी ने मन में विचार करके कहा कि जटायु जी के समान धन्य कोई नहीं है। परमबड़भागी जटायु जी श्रीराम के कार्य के लिए अपने शरीर का त्याग कर श्रीहरि के पुर अर्थात्‌ साकेतलोक पधार गये।

**सुनि खग हरष शोक जुत बानी। आवा निकट कपिन भय मानी॥ ताहिं देखि कपि चले पराई। ठा़ढ कीन्ह पुनि शपथ दिवाई॥ तिनहिं अभय करि पूछेसि जाई। कथा सकल तिन ताहि सुनाई॥ सुनि संपाति बंधु कै करनी। रघुपति महिमा बहुबिधि बरनी॥**
भाष्य

जटायु जी के परधाम जाने से हर्ष और मृत्यु से शोकयुक्त वाणी सुनकर सम्पाती वानरों के निकट आया, वानरों ने भय माना अर्थात्‌ भयभीत हुए। उसे देखकर वानर भाग चले। सम्पाती ने अपनी शपथ देकर वानरों को ख़डा किया। उन वानरों को अभय करके जाकर पूछा तो वानरों ने जटायु जी की सम्पूर्ण कथा उन्हें सुनायी। अपने भाई का सुन्दर कृत्य सुनकर, सम्पाती ने बहुत प्रकार से भगवान्‌ श्रीराम की महिमा का वर्णन किया। सम्पाती ने वानरों से कहा–

**दो०– मोहि लै चलहु सिंधुतट, देउँ तिलांजलि ताहि।** **बचन सहाइ करब मैं, पैहहु खोजहु जाहि॥२७॥**
भाष्य

हे वानरों! मुझे समुद्र के तट पर ले चलो, मैं दिवंगत उस जटायु को तिलान्जली दे सकूँ। मैं वचन से तुम्हारी सहायता करूँगा तुम जिन्हें खोज रहे हो, उन सीता जी को पा जाओगे। जाओ।

विशेष : “जाहि” शब्द या धातु लोट लकार मध्यम पुव्र्ष एकवचन याहि का अपभ्रंश है, जिसका अर्थ होता है तुम जाओ। अभिप्राय यह है कि और वानर प्रभु का कार्य नहीं कर सकेगे, क्योंकि इन सबने अपना त्रत तोड़ दिया है। हे हनुमान जी! तुम्हीं श्रीराम कार्य को करोगे अत: तुम सागर पार लंका जाओ।

[[६५६]]

**अनुज क्रिया करि सागर तीरा। कहि निज कथा सुनहु कपि बीरा॥ हम द्वौ बंधु प्रथम तरुनाई। गगन गए रबि निकट उड़ाई॥ तेज न सहिं सक सो फिरि आवा। मैं अभिमानी रबि नियरावा॥ जरे पंख रबि तेज अपारा। परेउँ भूमि करि घोर चिकारा॥**
भाष्य

समुद्र के तट पर छोटे भाई जटायु जी की जलक्रिया करके सम्पाती ने अपनी कथा कही। हे वीर वानरों! सुनो, बहुत पहले युवावस्था में अथवा प्राथमिक युवावस्था में हम दोनों भाई (सम्पाती और जटायु) आकाश में उड़कर सूर्यनारायण के निकट गये। जटायु सूर्यनारायण का तेज नहीं सह सके वह लौट आये और अहंकारी मैं (सम्पाती) सूर्यनारायण के निकट पहुँच गया। सूर्यनारायण के अपार अर्थात्‌ असह्य तेज से मेरे दोनों पंख जल गये और मैं घोर चित्कार करके पृथ्वी पर गिर पड़ा।

**मुनि एक नाम चंद्रमा ओही। लागी दया देखि करि मोही॥ बहु प्रकार तेहि ग्यान सिखावा। देह जनित अभिमान छुड़ावा॥ त्रेता ब्रह्म मनुज तनु धरिहैं। तासु नारि निशिचर पति हरिहैं॥ तासु खोज पठइहिं प्रभु दूता। तिनहिं मिले तैं होब पुनीता॥ जमिहैं पंख करसि जनि चिंता। तिनहिं देखाइ देव तैं सीता॥**
भाष्य

एक चन्द्रमा नामक मुनि थे, मुझे विपन्न अवस्था में देखकर उन्हें अत्यन्त दया लग गई। उन्होंने बहुत प्रकार से मुझे ज्ञान की शिक्षा दी और मेरे देहजनित्‌ अभिमान अर्थात्‌ शरीर से उत्पन्न अहंकार को छुड़ा दिया। वे बोले, त्रेता में परब्रह्म श्रीराम मनुष्य शरीर धारण करेंगे, उनकी पत्नी श्रीसीता को राक्षसराज रावण चुरा लेगा। उन्हीं श्रीसीता की खोज में प्रभु श्रीराम वानरदूतों को भेजेंगे, उनसे मिलकर तू (सम्पाती) पवित्र हो जायेगा, तुम्हारे पंख जम जायंेंगे, तुम चिन्ता मत करो उन वानर दूतों को तुम श्रीसीता के दर्शन करा देना अर्थात्‌ उनके रहने का संकेत स्थान बता देना।

**अस कहि मुनि निज आश्रम गयऊ। तेहि छन हृदय ग्यान कछु भयऊ॥**

**मुनि कइ गिरा सत्य भइ आजू। सुनि मम बचन करहु प्रभु काजू॥ भा०– **ऐसा कहकर चन्द्रमा मुनि अपने आश्रम को चले गये उसी क्षण मेरे हृदय में कुछ ज्ञान हुआ। मुनि की वाणी आज सत्य हो गई, मेरा वचन सुनकर प्रभु श्रीराम का कार्य करो।

गिरि त्रिकूट ऊपर बस लंका। तहँ रह रावन सहज अशंका॥ तहाँ अशोक बाटिका अहई। सीता बैठी सोचत रहई॥

भाष्य

त्रिकूट पर्वत के ऊपर लंका नामक एक पुरी बसी हुई है। उसमें स्वभाव से अशंक अर्थात्‌ निर्भीक, शंकाओं से रहित रावण नाम का राक्षस रहता है, उस लंका में अशोक वाटिका है, उसी में बैठी हुई श्रीसीता जी सदैव शोक करती रहती हैं।

**दो०– मैं देखउँ तुम नाहीं, गीधहिं दृष्टि अपार।** **बू़ढ भयउँ न त करतेउँ, कछुक सहाय तुम्हार॥२८॥**
भाष्य

मैं देख रहा हूँ तुम लोग नहीं देख रहे हो, क्योंकि गृध्र की अपारदृष्टि होती है, मैं वृद्ध हो गया हूँ नहीं तो तुम्हारी कुछ सहायता भी करता।

**जो नाघइ शत जोजन सागर। करइ सो राम काज मति आगर॥** [[६५७]]

जो कोउ करइ राम कर काजू। तेहि सम धन्य आन नहिं आजू॥ मोहि बिलोकि धरहु मन धीरा। राम कृपा कस भयउ शरीरा॥ पापिउ जा कर नाम सुमिरहीं। अति अपार भवसागर तरहीं॥ तासु दूत तुम तजि कदराई। राम हृदय धरि करहु उपाई॥

भाष्य

जो सौ योजन समुद्र को लाँघ सके वही बुद्धि का भवन महापुरुष भगवान्‌ श्रीराम का कार्य कर सकेगा। जो कोई आज श्रीराम का कार्य करेगा उसके समान कोई दूसरा धन्य नहीं होगा। हे वानरों! मुझे देखकर हृदय में धैर्य धारण करो। देखो, श्रीराम की कृपा से मेरा शरीर कैसा हो गया अर्थात्‌ मेरे पंख भी जम गये और मैं स्वस्थ भी हो गया। जिन प्रभु का नाम यदि पापी भी स्मरण करते हैं, तो अत्यन्त अगाध भवसागर को पार कर लेते हैं, तुम उन्हीं पापहारी श्रीहरि भगवान्‌ श्रीराम के दूत हो। कायरता छोड़कर भगवान्‌ श्रीराम को हृदय में धारण करके उपाय करो।

**अस कहि गरुड़ गीध जब गयऊ । तिन के मन अति बिसमय भयऊ॥ निज निज बल सब काहू भाखा। पार जाइ कर संशय राखा॥ जरठ भयउँ अब कहइ रिछेशा। नहिं तन रहा प्रथम बल लेशा॥ जबहिं त्रिबिक्रम भए खरारी। तब मैं तरुन रहेउँ बल भारी॥** **दो०– बलि बाँधत प्रभु बा़ढेउ, सो तनु बरनि न जाइ।**

उभय घरी महँ दीन्हि मैं, सात प्रदच्छिन धाइ॥२९॥

भाष्य

भुशुण्डि जी, गरुड़ जी को सम्बोधित करते हुए कहते हैं कि हे गरुड़देव! ऐसा कहकर जब सम्पाती चला गया, तब उन वानरों के भी मन में बहुत विस्मय अर्थात्‌ आश्चर्य हुआ। सभी वानरों ने अपना–अपना बल कहकर सुनाया, परन्तु समुद्र पार जाने में संशय बनाये रखा अर्थात्‌ किसी ने भी समुद्र पार जाने में नि:संदेहता नहीं व्यक्त की। भालुओं के राजा श्रीजाम्बवान्‌ जी कहने लगे, अहो! अब मैं वृद्ध हो गया हूँं मेरे शरीर में पहले के बल का लेश भी नहीं रह गया है। जब खर के शत्रु भगवान्‌ श्रीराम, त्रिविक्रम अर्थात्‌ वामन बने थे अर्थात्‌ वामनस्वरूप धारण किये थे, तब मैं बहुत बड़े बलवाला युवक था। बलि को बाँधते समय प्रभु श्रीराम वामनस्वरूप से जिस प्रकार ब़ढे थे, उस शरीर का वर्णन नहीं किया जा सकता, तब मैंने दो घड़ी में दौड़कर सात परिक्रमायें दी थी।

**अंगद कहइ जाउँ मैं पारा। जिय संशय कछु फिरती बारा॥ जामवंत कह तुम सब लायक। पठइय किमि सब ही कर नायक॥**
भाष्य

अंगद जी ने कहा मैं पार जा सकता हूँ, परन्तु लौटते समय में मेरे मन में कुछ सन्देह हो रहा है अर्थात्‌ पार जाकर उसी वेग से मैं लौट नहीं सकूँगा। जाम्बवान्‌ जी ने कहा आप सब कुछ करने में समर्थ हैं, परन्तु सभी वानरों के नेता को कैसे भेजा जाये?

**कहइ रीछपति सुनु हनुमाना। का चुप साधि रहेउ बलवाना॥ पवन तनय बल पवन समाना। बुधि बिबेक बिग्यान निधाना॥ कवन सो काज कठिन जग माहीं। जो नहिं होइ तात तुम पाहीं॥ राम काज लगि तव अवतारा। सुनि कपि भयउ पर्बताकारा॥**
भाष्य

भालुओं के स्वामी जाम्बवान्‌ जी कहने लगे, हे हनुमान जी! सुनिये, हे प्रशस्त बलवाले और नित्य बलशाली! आप क्यों चुप लगाकर बैठे हैं? आप पवन के पुत्र हैं और आपके पास पवन के समान बल है। आप बुद्धि, विवेक और विज्ञान के कोश हैं, हे तात! संसार में ऐसा कौन–सा कठिन कार्य है जो आपके पास से नहीं हो सकता? श्रीराम के कार्य के लिए ही आपका अवतार हुआ है, यह सुनते ही कपि अर्थात्‌ श्रीहनुमान पर्वताकार हो गये, उनका आकार पर्वत के समान विशाल हो गया।

**विशेष– **जाम्बवान्‌ जी का तात्पर्य था कि भगवान्‌ श्रीराम का साधुरक्षण, दुष्टदमन और धर्मसंस्थापना कार्य करने के लिए ही आपश्री रुद्रदेव का यहाँ वानरावतार हुआ है।

जेहिं* शरीर रति राम सों, सोइ आदरहिँ सुजान।*

रुद्रदेह* तजि नेह-बश, वानर मे हनुमान॥ *(तुलसी दोहावली १४२)

कनक बरन तन तेज बिराजा। मानहुँ अपर गिरिन कर राजा॥ सिंहनाद करि बारहिं बारा। लीलहिं लाघउँ जलधि अपारा॥
[[६५८]]

भाष्य

हनुमान जी के स्वर्ण के समान सुन्दर शरीर में तेज विराजने लगा, मानो वे दूसरे पर्वतराज सुमेरु ही थे। श्रीहनुमान जी ने बार–बार सिंहनाद करके कहा, मैं इस अपार सागर को खेल–खेल में लाँघ सकता हूँ।

**सहित सहाय रावनहिं मारी। आनउँ इहाँ त्रिकूट उपारी॥ जामवंत मैं पूँछउँ तोही। उचित सिखावन दीजहु मोही॥**
भाष्य

मैं सहायकों के सहित रावण को मारकर लंका के आधार त्रिकूटाचल पर्वत को उखाड़कर यहाँ ला सकता हूँ, हे जाम्बवान्‌ जी! मैं आपसे पूछ रहा हूँ, मुझे उचित शिक्षा दीजिये।

**इतना करहु तात तुम जाई। सीतहिं देखि कहहु सुधि आई॥** **तब निज भुज बल राजिवनैना। कौतुक लागि संग कपि सेना॥**

छं०– कपि सैन संग सँघारि निशिचर राम सीतहिं आनिहैं।
त्रैलोक पावन सुजस सुर मुनि नारदादि बखानिहैं॥ जो सुनत गावत कहत समुझत परम पद नर पावहीं। रघुबीर पद पाथोज मधुकर दास तुलसी गावहीं॥

भाष्य

जाम्बवान्‌ जी ने कहा, हे तात! तुम समुद्र पार जाकर इतना करो, श्रीसीता को देखकर समुद्र के इस पार आकर हम लोगों से, सुग्रीव जी से एवं श्रीराम, लक्ष्मण जी से उनका समाचार कहो, तब राजीवनेत्र भगवान्‌ श्रीराम जी अपने ही भुजाओं के बल से वानर–सेना को केवल कौतुक के लिए संग लेकर रावण का वध करेंगे। संग में वानरी–सेना लेकर राक्षसों का संहार करके भगवान्‌ श्रीराम श्रीसीता को लंका से ले आयेंगे और उनके तीनों लोक को पवित्र करने वाले सुयश को देवता और नारद आदि मुनिगण बखानेंगे। जिस सुयश को सुनते, गाते और समझते हुए साधक–प्राणी परमपद पा जाते हैं, उसी सुयश को श्रीराम के श्रीचरणकमलों का दास तुलसीदास गाता है।

**दो०– भव भेषज रघुनाथ जस, सुनहिं जे नर अरु नारि।**

**तिन कर सकल मनोरथ, सिद्ध करहिं त्रिशिरारि॥३०(क)॥ भा०– **भवरोग की औषधि श्रीरघुनाथ के यश को जो नर–नारी सुनेंगे, उनके सभी मनोरथों को त्रिशिरा के शत्रु श्रीराम सिद्ध कर देंगे।

नीलोत्पल तनु श्याम, काम कोटि शोभा अधिक।
सुनिय तासु गुन ग्राम, जासु नाम अघ खग बधिक॥३०(ख)॥

भाष्य

जिनका शरीर नीले कमल के समान श्यामल है, जिनकी शोभा करोड़ों कामदेव की शोभा से भी अधिक है और जिनका नाम पापरूप पक्षियों का वध करने के लिए व्याध के समान है, ऐसे प्रभु श्रीराम के गुणगण को सुनिये अथवा निरन्तर सुनना चाहिये।

**\* मासपरायण, बाईसवाँ विश्राम \*** **इति श्रीमद्‌गोस्वामितुलसीदासविरचिते श्रीमद्रामचरितमानसे सकलकलिकलुषविध्वंसने**

संदेहगंजनं नाम चतुर्थसोपानं किष्किन्धाकाण्डं सम्पूर्णम्‌। ॥श्रीसीतारामार्पणमस्तु॥

इस प्रकार से सम्पूर्ण कलिकलुष को नष्ट करने वाले गोस्वामी तुलसीदासकृत श्रीरामचरितमानस में सन्देहगंजन नामक चतुर्थ

सोपान किष्किन्धाकाण्ड सम्पूर्ण हो गया। यह श्री सीताराम जी को समर्पित हो। श्रीरामभद्राचार्येणकृता भावार्थबोधिनीटीका चतुर्थसोपाने मानसे रामतुय्ये।

॥श्रीराघव:शन्तनोतु॥ किष्किन्धाकाण्ड समाप्त —

॥श्री सीताराम॥ श्री गणेशाय नम:

श्री सीतारामौ विजयेते श्रीमद्‌गोस्वामितुलसीदासकृत

श्रीरामचरितमानस