०३ अरण्यकाण्ड

श्री सीतारामौ विजयेते श्रीमद्‌गोस्वामितुलसीदासकृत

श्रीरामचरितमानस

तृतीय सोपान

मंगलाचरण श्री:

भावार्थबोधिनी टीका —

वसन्नरण्येऽप्यनरण्यवंश्यो:,
जगच्छरेण्योऽपि शरण्यशोभी। श्रीराघव: शं सहलक्ष्मणो मे सीताभिराम: प्रकरोतु राम:॥ नत्वा श्रीतुलसीदासमरण्ये काण्डउच्यते, श्रीरामभद्राचार्येण टीका भावार्थबोधिनी॥

श्रीगणपति को नमस्कार। श्रीसीताराम की जय हो। गोस्वामी श्री तुलसीदास कृत श्रीरामचरितमानस अरण्यकाण्ड का श्लोक मंगलाचरण।

मूलं धर्मतरोर्विवेकजलधे: पूर्णन्दुमानन्ददं वैराग्याम्बुजभास्करं ह्यघघनध्वान्तापहं तापहम्‌। मोहाम्भोधरपूगपाटनविधौ स्व:सम्भवं शङ्करं
वन्दे ब्रह्मकुलं कलंकशमनं श्रीरामभूपप्रियम्‌॥१॥

भाष्य

धर्मरूप वृक्ष के मूल अर्थात्‌ कारण एवं आश्रय, विवेकरूप सागर को आनन्द देनेवाले पूर्ण चन्द्रमा, वैराग्यरूप कमल को विकसित करने के लिए सूर्य, निश्चित रूप से घने अन्धकार को नष्ट कर देनेवाले, भक्तों के आधिदैहिक, आधिदैविक, आधिभौतिक तापों को समाप्त करनेवाले, मोहरूप बादलों के समूह के विनाशविधि में अर्थात्‌ विनाशविधि के निमित्त आकाश में उत्पन्न होनेवाले वायुरूप, ब्राह्मण ही जिनके कुटुम्ब हैं, ऐसे जगत कलंक को नष्ट करनेवाले श्रीराम राजा के प्रिय तथा जिन्हें श्रीराम राजा प्रिय हैं, ऐसे कल्याणकारी भगवान्‌ शङ्कर जी का मैं तुलसीदास वन्दन करता हूँ।

विशेष

संस्कृत न जानने के कारण जनसाधारण इस श्लोक में भूल कर बैठता है। यहाँ तक कि प्रायश: मानस के टीकाकार भी भूलकर बैठे हैं, कुछ लोग “ब्रह्मकुलंकलङ्कशमनं” को एक पद मानकर अर्थ करते हैं कि शिव जी ब्रह्मा जी के कुल के कलङ्कों के नाशक हैं, जबकि सामान्य व्यक्ति भी इस वाक्यखण्ड में दो पक्षों का निश्चय कर लेता है। यदि ब्रह्मकुल शब्द का कलङ्कशमन शब्द से षष्ठी तत्पुरुष समास होता और राजपुरुष की भाँति कुलशब्द में कोई विभक्ति नहीं लगी होती तब पूर्वोक्त अर्थ उचित होता। जब कि ब्रह्मकुलं शब्द में स्पष्ट द्वितीया विभक्ति दीख रही है, और यह शब्द कलङ्कशमनं शब्द से जुड़ा भी नहीं है। स्वर्गीय विजयानन्द त्रिपाठी जी ने

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ब्रह्मकुलं शब्द को स्वतंत्र पद तो माना, परन्तु उसमें षष्ठी तत्पुरुष मानकर उसको विशेष्य मान लिया और इस श्लोक को ब्राह्मण कुल की वन्दना मान ली। यहाँ तक कि ‘शङ्कर’ शब्द को भी ‘ब्रह्मकुलं’ पद का विशेषण माना, जब कि संज्ञा शब्द होने पर ही शं पूर्वक ‘कृञ्‌’ धातु से अच्‌ प्रत्यय होता है “शमि धातो: संज्ञायां” पा.सू. ३-२- १४ अतएव यहाँ शङ्कर शब्द ब्रह्मकुलं का विशेषण नहीं बन सकता। वह तो योग रुढि़ से विशेष्य ही रहेगा, जो कल्याण करने वाले भूत भावन सदाशिव का वाचक होगा। और ‘ब्रह्मकुलं’ बहुब्रीहि समास के आधार पर शङ्कर शब्द का विशेषण होगा, तथा अन्य पदार्थ ‘शङ्करं’ शब्द ही रहेगा। संस्कृत में ब्रह्म शब्द पुल्लिङ्ग में ब्राह्मण शब्द का पर्याय है, ब्रह्मा-ब्रह्माणौ ब्रह्माण:। कुल शब्द का अर्थ परिवार है ब्रह्माण: (ब्राह्मणा:) कुलानि (परिवारा:) यस्य तं ब्रह्मकुलं शङ्करं वन्दे, अर्थात्‌ ब्राह्मण ही जिनके परिवार हैं, तथा ब्राह्मण जिन्हें कुटुम्ब की भाँति प्रिय हैं ऐसे भगवान्‌ शङ्कर को मैं वन्दन करता हूँ, विनय पत्रिका में भी शिवजी को ब्राह्मण कुल का वल्लभ कहा गया है, “ब्रह्मकुल वल्लभं सुलभमति दुर्लभं” विनय पत्रिका १२।

सान्द्रानन्दपयोदसौभगतनुं पीताम्बरं सुन्दरं पाणौ बाणशरासनं कटिलसत्तूणीरभारं वरम्‌। राजीवायतलोचनं धृतजटाजूटेन संशोभितं सीतालक्ष्मणसंयुतं पथि गतं रामाभिरामं भजे॥२॥

भाष्य

घनीभूत आनन्द के बादल को जिनके श्रीविग्रह से शोभा और सौभाग्य प्राप्त हुआ है, जो पीत वर्णवाला वल्कल वस्त्र धारण किये हुए हैं तथा माधुर्य लीला में चम्पा के समान पीत वर्णवाली श्रीसीता के आँचल वस्त्र (धूप को रोकने के लिये) की, जिनके सिर पर छाया है, जो बहुत ही सुन्दर हैं, जिनके हाथ में धनुष और बाण है, जिनके कटितट पर कसा हुआ तरकस सुशोभित है। जो सर्वश्रेष्ठ तथा सबके वरणीय हैं। जिनके नेत्र लालकमल के समान विशाल हैं, जो धारण किये हुए जटाजूट से पूर्णतया सुशोभित हैं, ऐसे श्रीसीता एवं लक्ष्मण जी से युक्त वन के मार्ग में प्राप्त सारे संसार को अभीष्ट आनन्द देनेवाले, अथवा रामा अर्थात्‌ श्रीसीता के द्वारा सुन्दर लगते हैं, अथवा राम अर्थात्‌ परशुराम जी को भी अभीष्ट आनन्द देनेवाले, ऐसे दण्डकवन विहारी भगवान्‌श्रीराम को मैं भजता हूँँ।

**सो०– उमा राम गुन गू़ढ, पंडित मुनि पावहिं बिरति।** **पावहिं मोह बिमू़ढ, जे हरि बिमुख न धर्म रति॥**
भाष्य

शिव जी, पार्वती जी को सावधान करते हुए कहते हैं कि, हे पार्वती! श्रीराम के गुण बहुत गोपनीय हैं, उन्हें सुनकर शास्त्रों तथा श्रीरामभक्ति के सिद्धांतों के पण्डित एवं मुनि, संसार से वैराग्य प्राप्त कर लेते हैं। जो श्रीहरि से विमुख हैं और जिन्हें धर्म में प्रेम नहीं है, ऐसे विकार युक्त मूर्ख लोग इन गुणों को सुनकर, भगवान्‌ श्रीराम के विषय में मोह भी प्राप्त कर लेते हैं।

**पुर जन भरत प्रीति मैं गाई। मति अनुरूप अनूप सुहाई॥** **अब प्रभु चरित सुनहु अति पावन। करत जो बन सुर नर मुनि भावन॥**
भाष्य

हे पार्वती! मैंने अपनी बुद्धि के अनुसार अवध, मिथिला, पुरजनों की और भरत जी की अनुपम और सुन्दर प्रीति गायी। अब तुम प्रभु श्रीराम का देवता, मनुष्य और मुनियों को भानेवाला वह पावन चरित्र सुनो, जिसे प्रभु श्रीराम, वन अर्थात्‌ दण्डकवन में कर रहे हैं।

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**विशेष– **यहाँ क्रम से अरण्यकाण्ड के आदि में जयन्त को दण्ड देकर प्रभु ने सुरभावन चरित्र किया, अरण्यकाण्ड के मध्य में खर–दूषण आदि का वध करके नरभावन चरित्र किया और अरण्यकाण्ड के अन्त में मारीच, कबन्ध वध तथा गिद्धराज जटायु एवं शबरी माँ को सुगति देकर, अथवा नारद जी का मोहभंग करके प्रभु ने मुनिभावन चरित्र किया।

एक बार चुनि कुसुम सुहाए। निज कर भूषन राम बनाए॥ सीतहिं पहिराए प्रभु सादर। बैठे फटिक शिला परमाधर॥

भाष्य

एक बार सुहावने पुष्पों को चुनकर भगवान्‌ श्रीराम ने अपने ही श्रीकरकमलों से आभूषण बनाये और उन्हें सर्वसमर्थ प्रभु ने, आदरपूर्वक श्रीसीता को पहनाया तथा परमाधर, अर्थात्‌ श्रेष्ठ पराशक्ति को धारण करनेवाले प्रभु श्रीराम, सीता जी के सहित स्फटिक शिला पर बैठ गये।

**सुरपति सुत धरि बायस बेषा। शठ चाहत रघुपति बल देखा॥ जिमि पिपीलिका सागर थाहा। महा मंदमति पावन चाहा॥**
भाष्य

देवताओं के राजा इन्द्र का पुत्र दुष्ट जयन्त कौवे का वेश धारण करके रघुकुल के स्वामी श्रीराम का बल देखना चाहने लगा। जिस प्रकार अत्यन्त मन्दबुद्धि वाली चींटी सागर का थाह पाना चाहती हो, ठीक उसी प्रकार जयन्त ने भी प्रभु के बल रूप महासागर की थाह लगानी चाही।

**सीता चरन चोंच हति भागा। मू़ढ मंदमति कारन कागा॥ चला रुधिर रघुनायक जाना। सींक धनुष सायक संधाना॥**

भा०– मू़ढ, मन्दबुद्धिवाला और भगवान्‌ की परीक्षा लेने के लिए विशेष रूप से कौवा बना हुआ, अथवा मन्दबुद्धि जिसका कारण है, अथवा मूर्खतापूर्ण मन्दबुद्धि ही जिसका उत्पति स्थान है, ऐसा कौवा बना हुआ जयन्त, भगवती श्रीसीता के चरणों में चोंच मारकर भाग गया। चरण से रक्त चल पड़ा, तब रघुकुल के नायक भगवान्‌ श्रीराम ने यह जान लिया और जयन्त को दण्डित करने के लिए सींक के धनुष पर ब्रह्मास्त्र के मंत्र द्वारा बाण का संधान किया।

दो०– अति कृपालु रघुनायक, सदा दीन पर नेह।
ता सन आइ कीन्ह छल, मूरख अवगुन गेह॥१॥

भाष्य

भगवान्‌ श्रीराम अत्यन्त कृपालु हैं, उन्हें दीनों पर निरन्तर स्नेह है, ऐसे प्रभु से दुर्गुणों के घर इस मूर्ख ने आकर छल किया।

**प्रेरित मंत्र ब्रह्मसर धावा। चला भाजि बायस भय पावा॥ धरि निज रूप गयउ पितु पाहीं। राम बिमुख राखा तेहि नाहीं॥ भा निराश उपजी मन त्रासा। जथा चक्र भय ऋषि दुर्बासा॥**

भा०– मंत्र से प्रेरित होकर ब्रह्मबाण जयन्त की ओर दौड़ा। कौआ भाग चला, वह ब्रह्मास्त्र के भय से भयभीत हो गया। जयन्त अपना रूप धारण कर पिता इन्द्र के पास गया। इन्द्र ने भी श्रीराम से विमुख जयन्त को अपने पास नहीं रखा। जयन्त निराश हो गया, उसके मन में अत्यन्त भय उत्पन्न हुआ, जैसे चक्र से भयभीत होकर दुर्वासा ऋषि निराश और भयभीत हो गये थे।

ब्रह्मधाम शिवपुर सब लोका। फिरा श्रमित ब्याकुल भय शोका॥ काहू बैठन कहा न ओही। राखि को सकइ राम कर द्रोही॥
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भाष्य

जयन्त थका हुआ तथा शोक और भय से व्याकुल हुआ, ब्रह्मलोक, शिवलोक और अन्यान्य सभी लोकों में जाकर लौट आया। किसी ने भी उसे बैठने के लिए भी नहीं कहा, क्योंकि भगवान्‌ श्रीराम के द्रोही को कौन शरण में रख सकता है?

**मातु मृत्यु पितु शमन समाना। सुधा होइ बिष सुनु हरियाना॥ मित्र करइ शत रिपु कै करनी। ता कहँ बिबुधनदी बैतरनी॥ सब जग ताहि अनलहु ते ताता। जो रघुबीर बिमुख सुनु भ्राता॥**
भाष्य

गरुड़ जी को सावधान करते हुए भुशुण्डि जी कहते हैं, हे श्रीहरि के वाहन गरुड़ जी! सुनिये, जो श्रीराम विमुख होते हैं, उनके लिए माता मृत्यु बन जाती है, पिता यमराज के समान भयंकर हो जाते हैं और अमृत विष हो जाता है। उनके साथ मित्र भी सैक़डों शत्रुओं का–सा व्यवहार करते हैं और उस श्रीरामद्रोही के लिए देवनदी गंगाजी भी वैतरणी नदी के समान यातना देने वाली हो जाती हैं। हे भैया गरुड़ जी! सुनिये, जो रघुवीर श्रीराम से विमुख हो जाता है उसके लिए सारा संसार अग्नि से भी तप्त अर्थात्‌ गरम हो जाता है।

**नारद देखा बिकल जयंता। लागि दया कोमल चित संता॥ पठवा तुरत राम पहँ ताही। कहेसि पुकारि प्रनत हित पाही॥**
भाष्य

नारद जी ने व्याकुल जयन्त को देखा, उन्हें दया लग गई, क्योंकि सन्त का चित्त कोमल होता है। नारद जी ने तुरन्त ही उसे अर्थात्‌ जयन्त को भगवान्‌ श्रीराम के पास भेज दिया। जयन्त ने पुकार कर कहा, “हे शरणागतों के हितकारी प्रभु! आप मेरी रक्षा कीजिये।”

**आतुर सभय गहेसि पद जाई। त्राहि त्राहि दयालु रघुराई॥ अतुलित बल अतुलित प्रभुताई। मैं मतिमंद जानि नहिं पाई॥**
भाष्य

आतुर और भयभीत जयन्त ने जाकर, प्रभु श्रीराम का चरण पक़ड लिया और बोला, “हे दयालु! हे रघुवंश के राजा श्रीराम! आप मेरी रक्षा कीजिये, रक्षा कीजिये। आपका बल अतुलनीय है, आपकी प्रभुता अतुलनीय है, मन्दबुद्धिवाला मैं उसे नही जान पाया।”

**निज कृत कर्म जनित फल पायउँ। अब प्रभु पाहि शरन तकि आयउँ॥** **सुनि कृपालु अति आरत बानी। एकनयन करि तजा भवानी॥**
भाष्य

हे प्रभु! मैं अपने किये हुए कर्म से उत्पन्न फल पा चुका, अब मेरी रक्षा कीजिये, क्योंकि अब मैं देखकर अर्थात्‌ निश्चित करके आपकी शरण में आया हूँ। (शिव जी कहते हैं कि, हे पार्वती!) कृपालु श्रीराम ने जयन्त की अत्यन्त आर्तवाणी सुनकर, उसे एक नेत्र करके छोड़ दिया अर्थात्‌ अब वह अपने नेत्रों से परमात्मा को ही देख सकेगा।

**सो०– कीन्ह मोह बस द्रोह, जद्दपि तेहि कर बध उचित।** **प्रभु छाँड़ेउ करि छोह, को कृपाल रघुबीर सम॥२॥**
भाष्य

जयन्त ने मोह के वश होकर भगवान्‌ श्रीराम से द्रोह किया था। यद्दपि उसका वध ही उचित था, फिर भी

भगवान्‌ श्रीराम ने ममतापूर्ण प्रेम करके उसे छोड़ दिया। रघुवीर श्रीराम के समान कौन कृपालु होगा?

रघुपति चित्रकूट बसि नाना। चरित करत श्रुति सुधा समाना॥ बहुरि राम अस मन अनुमाना। होइहिं भीरि सबहिं मोहि जाना॥ सकल मुनिन सन बिदा कराई। सीता सहित चले द्वौ भाई॥
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भाष्य

रघुकुल के स्वामी भगवान्‌ श्रीराम चित्रकूट में निवास करते हुए श्रवणेन्द्रिय के लिए अमृत के समान अनेक चरित्र कर रहे हैं। फिर भगवान्‌ श्रीराम ने मन में ऐसा अनुमान किया कि, अब यहाँ दर्शनार्थियों की बहुत भीड़ हो जायेगी, क्योंकि जयन्त के निग्रह प्रसंग से सभी ने मुझे भगवान्‌ के रूप में जान लिया है। कहीं ऐश्वर्य खुल न जाये। अत: सभी मुनियों से विदा करा श्रीसीता के सहित दोनों भाई श्रीराम, लक्ष्मण जी आगे चले।

**अत्रि के आश्रम जब प्रभु गयऊ। सुनत महामुनि हरषित भयऊ॥ पुलकित गात अत्रि उठि धाए। देखि राम आतुर चलि आए॥**
भाष्य

जब प्रभु अत्रि मुनि के आश्रम में गये तो उनका आगमन सुनकर, महर्षि अत्रि जी प्रसन्न हो उठे। पुलकित शरीर होकर अत्रि जी उठकर दौड़े। श्रीराम को देखकर आतुरता में पैदल ही चले आये अर्थात्‌ शीघ्रता में पादुका भी नहीं धारण की।

**करत दंडवत मुनि उर लाए। प्रेम बारि द्वौ जन अन्हवाए॥ देखि राम छबि नयन जुड़ाने। सादर निज आश्रम तब आने॥ करि पूजा कहि बचन सुहाए। दिए मूल फल प्रभु मन भाए॥**
भाष्य

श्रीराम-लक्ष्मण जी को दण्डवत्‌ करते हुए ही मुनि ने हृदय से लगा लिया और दोनों भ्राताओं को अपने प्रेमाश्रु से नहला दिया। श्रीराम की छवि देखकर अत्रि जी के नेत्र शीतल हो गये। तब मुनि श्रीराम, लक्ष्मण एवं सीता जी को अपने आश्रम ले आये। प्रभु की पूजा करके सुहावने वचन कहकर प्रभु के मन को भानेवाले कन्दमूल, फल दिये और प्रभु ने प्रसाद पाया।

**सो०– प्रभु आसन आसीन, भरि लोचन शोभा निरखि।** **मुनिबर परम प्रबीन, जोरि पानि अस्तुति करत॥३॥**
भाष्य

आसन पर विराजमान प्रभु श्रीराम की शोभा, भर नेत्र निहारकर परमकुशल मुनिश्रेष्ठ अत्रि जी हाथ जोड़कर स्तुति करने लगे।

**विशेष– **पौराणिक कथाओं के आधार पर भगवान्‌ श्रीराम का श्रीचित्रकूट में बारह वर्षपर्यन्त निवास करना सिद्ध है। इसलिए आज अत्रि मुनि जी बारह प्रमाणिका छन्दों में भगवान्‌ की स्तुति कर रहे हैं। प्रमाणिका वृत्त के प्रत्येक चरण में एक जगण, एक रगण, एक लघु और एक गुरु होता है।

छं०– नमामि भक्तवत्सलम्‌। कृपालुशीलकोमलम्‌॥
भजामि ते पदांबुजम्‌ । अकामिनां स्वधामदम्‌॥१॥ निकामश्यामसुंदरम्‌ । भवाम्बुनाथमंदरम्‌॥ प्रफुल्लकंजलोचनम्‌ । मदादिदोषमोचनम्‌॥२॥

भाष्य

मैं परमकृपालु, स्वभाव से कोमल, भक्तवत्सल, प्रभु को नमन कर रहा हूँ। निष्कामभक्तों को अपना धाम देनेवाले आपके श्रीचरणों का मैं भजन कर रहा हूँ। अत्यन्त श्याम सुन्दर, भवसागर के लिए मंदराचल के समान विकसित कमल जैसे नेत्रवाले, कामादि दोषों को नष्ट करनेवाले प्रभु श्रीराम! मैं आपको नमन करता हूँ।

**प्रलंबबाहुविक्रमम्‌ । प्रभोऽप्रमेयवैभवम्‌॥ निषंगचापसायकम्‌ । धरं त्रिलोकनायकम्‌॥३॥ दिनेशवंशमंडनम्‌ । महेशचापखंडनम्‌॥ मुनींद्रसंतरंजनम्‌ । सुरारिबृंदभंजनम्‌॥४॥** [[५७२]]
भाष्य

प्रलम्ब अर्थात्‌ घुटनों से नीचे तक लम्बमान, भुजाओं के पराक्रम से युक्त, सर्वसमर्थ, प्रमाणों से परे वैभववाले, निषंग धनुष और बाण धारण करनेवाले, तीनों लोक के नायक, सूर्यवंश के आभूषण, शिव जी का धनुष तोड़नेवाले श्रेष्ठ मुनियों और सन्तों को आनन्द देनेवाले और देवशत्रु राक्षसवृन्दों को नष्ट करनेवाले,

**मनोजवैरिवंदितम्‌ । अजादिदेवसेवितम्‌॥ विशुद्धबोधविग्रहम्‌ । समस्तदूषणापहम्‌॥५॥ नमामि इंदिरापतिम्‌ । सुखाकरं सतां गतिम्‌॥ भजे सशक्ति सानुजम्‌ । शचीपतिप्रियानुजम्‌॥६॥**
भाष्य

कामदेव के शत्रु शिव जी द्वारा वन्दित्‌ और ब्रह्मा आदि देवताओं से सेवित, विशुद्धज्ञान ही जिनका विग्रह अर्थात्‌ शरीर है, ऐसे सम्पूर्ण दोषों का अपहरण अर्थात्‌ हनन करनेवाले, इन्दिरा अर्थात्‌ लक्ष्मी जी को भी प्रकट करनेवाली, श्रीसीता के पति, सुखों की खानि, सन्तों के एकमात्र गन्तव्य, परमेश्वर! मैं आपको नमस्कार करता हूँ। जिनके छोटे भाई लक्ष्मण जी भविष्य में मेघनाद का वध करने के कारण शची के पति इन्द्र को प्रिय हैं, ऐसे आपश्री को परमशक्ति श्रीसीता और अनुगमन करनेवाले श्रीलक्ष्मण के साथ मैं भजता हूँं।

**त्वदंघ्रिमूलये नरा । भजंति हीनमत्सरा:॥** **पतंति नो भवार्णवे। वितर्कवीचिसंकुले॥७॥ विविक्तवासिन: सदा । भजंति मुक्तये मुदा॥ निरस्य इंद्रियादिकम्‌ । प्रयांति ते गतिं स्वकाम्‌॥८॥**
भाष्य

जो आपके श्रीचरणकमल की धूलिरूप संजीवनी मूलिका के लिए मत्सरभावना को छोड़कर भजते हैं, वे विकृत तर्करूप लहरों से युक्त भवसागर में नहीं पड़ते। जो एकान्त में निवास करके मुक्ति के लिए, प्रसन्नता से अपने इन्द्रिय, मन आदि को निरस्त करके आपश्री का भजन करते हैं, वे अपनी आत्मीय सामीप्य गति को प्राप्त हो जाते हैं।

**त्वमेकमद्भुतं प्रभुम्‌ । निरीहमीश्वरं विभुम्‌॥ जगद्‌गुरुं च शाश्वतं। तुरीयमेव केवलम्‌॥९॥ भजामि भाववल्लभम्‌। कुयोगिनां सुदुर्लभम्‌॥ श्वभक्तकल्पपादपम्‌ । समस्तसेव्यमन्वहम्‌॥१०॥**
भाष्य

तीनों देवताओं से त्वम्‌ अर्थात्‌ अन्य, एक अद्‌भुत, सर्वसमर्थ, चेष्टारहित, ईश्वर, सर्वव्यापक, जगत्‌ के गुरु, शाश्वत तुरीयतत्त्व, एकमात्र अर्थात्‌ अद्वितीय जिन्हें भक्तों का भाव ही प्रिय है, जो कुयोगियों के लिए अत्यन्त दुर्लभ हैं, जो अपने भक्तों के लिए कल्पवृक्ष हैं, ऐसे सभी के द्वारा निरन्तर सेव्य, प्रभु का मैं भजन करता हूँ।

**अनूपरूपभूपतिम्‌ । नतोऽहमुर्विजापतिम्‌॥** **प्रसीद मे नमामि ते । पदाब्जभक्ति देहि मे॥११॥ पठन्ति ये स्तवं त्विदम्‌। नरादरेण ते पदम्‌॥**

व्रजन्ति नात्र संशयम्‌ । त्वदीयभक्तिसंयुता:॥१२॥

भाष्य

अनुपम रूपवाले, अयोध्या के राजा और पृथ्वीपुत्री श्रीसीता के पति प्रभु! मैं आपको नत हूँ। आप मुझ पर प्रसन्न हों, मैं आपको नमन करता हूँ। मुझे अपने श्रीचरणकमल की भक्ति दे दें। इस प्रकार जो नर अर्थात्‌ मनुष्य इस स्तोत्र को आदरपूर्वक प़ढते हैं या प़ढेंगे वे आपकी भक्ति से युक्त होकर आपके परमपद को प्राप्त हो जाते हैं और हो जायेंगे, इसमें कोई संशय नहीं है।

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**दो०– बिनती करि मुनि नाइ सिर, कह कर जोरि बहोरि।**

चरन सरोरुह नाथ जनि, कबहुँ तजै मति मोरि॥४॥

भाष्य

इस प्रकार बारह प्रमाणिका छन्दों में प्रभु की प्रार्थना करके मस्तक नवाकर अत्रि जी ने फिर हाथ जोड़कर कहा, हे नाथ! आपके श्रीचरणकमल को मेरी बुद्धि कभी न छोड़े।

**अनसूया के पद गहि सीता। मिली बहोरि सुशील बिनीता॥ ऋषिपतिनी मन सुख अधिकाई। आशिष दीन्हि निकट बैठाई॥ दिब्य बसन भूषन पहिराए। जे नित नूतन अमल सुहाए॥ कह ऋषिबधू सरस मृदु बानी। नारिधर्म कछु ब्याज बखानी॥**
भाष्य

फिर सुन्दर स्वभाववाली, विनम्र भगवती श्रीसीता, अत्रि जीकी धर्मपत्नी अनुसूइया जी के चरण पक़डकर उनसे मिलीं। ऋषि की पत्नी अनसूया जी के मन में अधिक सुख हुआ। उन्होंने, श्रीसीता को आशीर्वाद देकर अपने पास बिठा लिया। अनसूया जी ने श्रीसीता को अलौकिक वस्त्र और आभूषण पहनाये अर्थात्‌ धारण कराये, जो नित्य नवीन, निर्मल और सुन्दर बने रहते हैं। महर्षि अत्रि जी की वधू (पाणिगृहीतपत्नी) अनसूया जी ने श्रीसीता जी के ही बहाने आनन्दयुक्त, कोमल वाणी में भारतीय वैदिक नारियों के, अथवा महिला मात्र के लिए कुछ धर्म अर्थात्‌ कर्त्तव्य कहे।

**मातु पिता भ्राता हितकारी। मितप्रद सब सुनु राजकुमारी॥ अमित दानि भर्ता बैदेही। अधम सो नारि जो सेव न तेही॥**
भाष्य

अनसूया जी बोलीं, हे राजकुमारी जी (सीते)! सुनिये, माता–पिता, भाई और अन्य हितकर लोग अर्थात्‌ सास–श्वसुर, ज्येठ, देवर इत्यादि ये सब महिला को सीमित वस्तु ही दे सकते हैं, किन्तु हे विदेह नन्दिनी जी! पति अमित दानी अर्थात्‌ सीमाओं को पार करके पत्नी को उसकी मनचाही वस्तु देता है अर्थात्‌ यहाँ न कोई बन्धन होता है और न कोई सीमा। उस पति की जो सेवा नहीं करती वह नारी अधम अर्थात्‌ निम्नकोटि की है।

**धीरज धर्म मित्र अरु नारी। आपद काल परिखियहिं चारी॥ बृद्ध रोगबस ज़ड धनहीना। अंध बधिर क्रोधी अति दीना॥ ऐसेहु पति कर किए अपमाना। नारि पाव जमपुर दुख नाना॥ एकइ धर्म एक ब्रत नेमा। काय बचन मन पति पद पे्रमा॥**
भाष्य

आपत्ति के समय धैर्य, धर्म, मित्र और नारी अर्थात्‌ नर की सहचारिणी पत्नी इन्हीं चारों की परीक्षा होती है। वृद्ध रोगी, ज़ड अर्थात्‌ चेयरहित, धन से हीन, दृय्हिीन, बहरा, क्रोधी और अत्यन्त दीन अर्थात्‌ सभी अभावों से अत्यन्त ग्रस्त, ऐसे पति का भी जो अपमान किया तो वह नारी यमपुर में नाना प्रकार के दु:ख पाती है। नारी के लिए शरीर, वाणी और मन से पति के चरणों में और पति के पद अर्थात्‌ आश्रय ―प परमात्मा श्रीराम में प्रेम करना ही एकमात्र धर्म, एक व्रत और एक नियम है अर्थात्‌ मनसा, वाचा, कर्मणा पति और रघुपति के चरणों में प्रेम करने मात्र से नारी धर्म, व्रत और नियमों को किये बिना ही सम्पूर्ण फल प्राप्त कर लेती है।

**जग पतिब्रता चारि बिधि अहहीं। बेद पुरान संत सब कहहीं॥ उत्तम के अस बस मन माहीं। सपनेहुँ आन पुरुष जग नाहीं॥ मध्यम परपति देखइ कैसे। भ्राता पिता पुत्र निज जैसे॥ धर्म बिचारि समुझि कुल रहई। सो निकृष्ट तिय श्रुति अस कहई॥ बिनु अवसर भय ते रह जोई। जानेहु अधम नारि जग सोई॥** [[५७४]]
भाष्य

वेद, पुराण और सभी सन्त ऐसा कहते हैं कि, संसार में उत्तम, मध्यम, निकृष्ट और अधम ये चार प्रकार की पतिव्रतायें हैं। उत्तम पतिव्रता के मन में ऐसी भावना रहती है कि, स्वप्न में भी उसके पति के अतिरिक्त संसार में कोई और पुरुष है ही नहीं। मध्यम पतिव्रता परपुरुष को किस प्रकार देखती है जैसे उनका निजी भ्राता, पिता और निजी पुत्र अर्थात्‌ दूसरे पुरुष में उनको भ्राता, पिता और पुत्र की बुद्धि होती है। जो दूसरे पुरुष पर आकर्षित होकर भी अपने धर्म का विचार करके और कुल की मर्यादा को समझकर अपने सतीत्व में बनी रहती है, वेद उसको निकृष्ट पतिव्रता कहते हैं। जो परपुरुष पर आकर्षित होकर भी अवसर न पाकर लोकभय से बची रहती है, उस नारी को अधम पतिव्रता जानना चाहिये।

**पति बंचक परपति रति करई। रौरव नरक कल्प शत परई॥ छन सुख लागि जनम शत कोटी। दुख न समुझ तेहि सम को खोटी॥**
भाष्य

जो अपने पति को ठगनेवाली, और दूसरे के पति से प्रेम करती है, वह नारी सौ कल्पपर्यन्त रौरव नरक में पड़ी रहती है। एक क्षण के सुख के लिए जो सौ करोड़ जन्मों के दु:ख को नहीं समझती उस स्त्री के समान कौन खोटी हो सकती है?

**बिनु श्रम नारि परम गति लहई। पतिब्रत धर्म छाछिड़ ल गहई॥ पति प्रतिकूल जनम जहँ जाई। बिधवा होइ पाइ तरुनाई॥**
भाष्य

जो नारी छल छोड़कर पतिव्रत धर्म को स्वीकार करती है, वह बिना श्रम के ही परमगति को प्राप्त कर लेती है। पति से प्रतिकूल वर्तन करनेवाली नारी जहाँ भी जाकर जन्म लेती है, वह युवावस्था को पाकर ही विधवा हो जाती है।

**विशेष– **यहाँ उपलक्षण की विधा से पुरुष के लिए भी इसी प्रकार के नियम समझ लेना चाहिये अर्थात्‌ पतिव्रत की भाँति पत्नीव्रत धर्म भी पुरुष को परमगति प्रदान कर देता है। जैसे परपतिप्रेम निषिद्ध है, उसी प्रकार परपत्नी प्रेम भी निषिद्ध है। पुरुष के लिए भी पूर्वोक्त प्रकार के उत्तम, मध्यम, निकृष्ट और अधम पत्नीव्रत समझ लेना चाहिये।

सो०– सहज अपावनि नारि, पति सेवत शुभ गति लहइ।
जस गावत श्रुति चारि, अजहुँ तुलसिका हरिहिं प्रिय॥५॥(क)॥

भाष्य

जो नारी, स्वभाव से अपने कुसंस्कारों के कारण अपवित्र हो, वह भी पति की सेवा करके शुभगति प्राप्त कर लेती है। चारों वेद आज भी माता तुलसी का यश गा रहे हैं। जो तुलसी (वृन्दा) दैत्यकुल में जन्म लेकर, दैत्य के सम्पर्क से अपवित्र होकर भी अपने पति, अत्यन्त पतित जालन्धर की सेवा करने मात्र से शुभगति को प्राप्त कर लीं और तुलसी बनकर, परमेश्वर को भी प्रिय बन गईं।

**विशेष– **आज भी अवध प्रान्त में यह सूक्ति प्रचलित है–

चार पहर चौंसठ घड़ी, ठाकुर के ऊपर ठकुराइन च़ढी॥

यहाँ सहज अपावनि शब्द सामान्य नारियों के लिए नहीं प्रयुक्त है, यह शब्द कुसंस्कारिणी नारी का विशेषण है अर्थात्‌ पतिसेवा करके जब स्वभाव से अपवित्र स्त्री दैत्यपत्नी भी शुभगति को प्राप्त कर सकती है, तो फिर जो नित्यपवित्र, सीता, सावित्री आदि हैं उनकी बात ही क्या।

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सुनु सीता तव नाम, सुमिरि नारि पतिब्रत करहिं।

तुमहिं प्रानप्रिय राम, कहेउँ कथा संसार हित॥५(ख)॥

भाष्य

हे सीते! सुनिये, आपके नाम (श्रीसीताशरणं* मम*) का स्मरण करके नारियाँ पतिव्रत धर्म का आचरण करती हैं। आपको तो भगवान्‌ श्रीराम प्राण से भी अधिक प्रिय हैं, इसलिए मैंने यह उपदेश आपको नहीं दिया है। मैंने तो आपके बहाने से संसार की नारियों के हित के लिए यह कथा कही है।

**सुनि जानकी परम सुख पावा। सादर तासु चरन सिर नावा॥ तब मुनि सन कह कृपानिधाना। आयसु होइ जाउँ बन आना॥ संतत मो पर कृपा करेहू। सेवक जानि तजेहु जनि नेहू॥**
भाष्य

अनसूया जी के वचन सुनकर, जनकनन्दिनी श्रीसीता ने श्रेष्ठसुख प्राप्त किया और आदर के सहित अनसूया जी के चरणों में श्रीसीता ने सिर नवाया। (अर्थात्‌ सिर नवाकर मानो, दक्षिणा के रूप में स्वयं को ही समर्पित कर दिया।) इसके पश्चात्‌ कृपा के कोशस्वरूप भगवान्‌ श्रीराम ने अत्रि मुनि से कहा, अब आज्ञा हो तो दूसरे वन में जाऊँ। मुझ पर सदैव कृपा करते रहियेगा, सेवक जानकर अपना स्नेह मत छोयिड़ेगा।

**धर्म धुरंधर प्रभु कै बानी। सुनि सप्रेम बोले मुनि ग्यानी॥ जासु कृपा अज शिव सनकादी। चहत सकल परमारथ बादी॥ ते तुम राम अकाम पिआरे। दीन बंधु मृदु बचन उचारे॥**
भाष्य

धर्म की धुरी को धारण करनेवाले प्रभु श्रीराम की वाणी सुनकर, भगवद्‌ज्ञान से सम्पन्न अत्रि मुनि प्रेमपूर्वक बोले, ब्रह्मा जी, शिव जी, सनकादि, अर्थात्‌ सनक, सनन्दन, सनातन, सनत्‌कुमार और अन्य सभी परमार्थवादी अर्थात्‌ मोक्षसिद्धान्त के चिन्तक, जिन आपश्री भगवान्‌ श्रीराम की कृपा चाहते रहते हैं, वही कामनारहित, भक्तों के प्रिय अर्थात्‌ निष्काम, भक्तों के प्रेमास्पद, दीनों के बन्धु आप श्रीराम ने इस प्रकार कोमल वचन कहे अर्थात्‌ मुझ से अन्य वन में जाने की आज्ञा माँगी। तात्पर्य यह है कि, जो आप सब पर कृपा करते रहते हैं, वे मेरी कृपा की अपेक्षा कर रहे हैं, यह आपके स्वभाव का चमत्कार है।

**अब जानी मैं श्री चतुराई। भजी तुमहिं सब देव बिहाई॥ जेहि समान अतिशय नहिं कोई। ता कर शील कस न अस होई॥**
भाष्य

अब मैंने श्री अर्थात्‌ श्रीसीता की चतुरता समझ ली है, जिन्होंने आपके स्वभाव पर आकृष्ट होकर ही जनकराज द्वारा आयोजित स्वयंवर में राजाओं के वेश में पधारे हुए सभी देवताओं को छोड़कर आपकी ही सेवा की अर्थात्‌ उन्होंने स्वयं शिव जी का धनुष तोड़ने के लिए आपसे प्रार्थना की और आपके गले में जयमाला पहनाकर आपकी धर्मपत्नी बनकर आज भी आपको ही भज रही हैं, नहीं तो परमशक्तिस्वरूपा श्रीसीता किसी भी देवता को अपनी शक्ति देकर धनुष तुड़वा सकती थीं। अर्थात्‌ लक्ष्मी की भी लक्ष्मी, श्री की भी श्री, सीता जी को भी आपने अपने जिस स्वभाव से जीता उसी स्वभाव के कारण आप आज अन्य वन जाने के लिए मुझ से अनुमति माँग रहे हैं। संसार में जिन आपके समान न तो कोई है और न ही आपसे अधिक। ऐसे निरस्त साम्यातिशय आपश्री का स्वभाव ऐसा क्यों न हो?

**विशेष– **जो लोग इस प्रकरण को लक्ष्मी जी के सन्दर्भ में लगाते हैं, वे या तो मानस जी के सिद्धान्त से अनभिज्ञ हैं या घोर दुराग्रही तथा अपलापी, क्योंकि मानसकार ने भगवान्‌ श्रीराम को विष्णु जी के अंशी के रूप में और भगवती श्रीसीता को श्रीलक्ष्मी की अंशी के रूप में प्रकट किया है। यथा– ***शंभु** बिरंचि बिष्णु भगवाना।*** [[५७६]]

उपजहिं जासु अंश ते नाना॥ मानस*, १.१४४.६. जासु अंश उपजहिं गुण खानि। अगनित उमा रमा ब्रह्माणी॥ मानस, १.१४८.३.*

केहि बिधि कहौं जाहु अब स्वामी। कहहु नाथ तुम अंतरजामी॥ अस कहि प्रभु बिलोकि मुनि धीरा। लोचन जल बह पुलक शरीरा॥

भाष्य

हे नाथ! हे अन्तर्यामी परमात्मा श्रीराम! आप ही कहिये, आपको जाने के लिए मैं किस प्रकार कहूँ? मैं तो यही चाहूँगा कि, आप निरन्तर मेरे पास रहें। असुर–वध के लिए दूसरे रूप में अन्यत्र पधारें, परन्तु इस रूप में तो आप श्रीचित्रकूट में मेरे पास ही विराजें, इस प्रकार कहकर प्रभु श्रीराम को निहारकर धीर मुनि अत्रि जी के नेत्रों से अश्रुजल बहने लगा और उनका शरीर पुलकित हो उठा।

**छं०– तन पुलक निर्भर प्रेम पूरन नयन मुख पंकज दिए।** **मन ग्यान गुन गोतीत प्रभु मैं दीख जप तप का किए॥ जप जोग धर्म समूह ते नर भगति अनुपम पावई। रघुबीर चरित पुनीत निशि दिन दास तुलसी गावई॥**
भाष्य

महर्षि अत्रि जी का शरीर पुलकित हो गया। वे निर्भर अर्थात्‌ सीमा से रहित, प्रभु प्रेम से पूर्ण हो गये। उन्होंने अपने नेत्र प्रभु श्रीराम के मुखकमल को दे दिया अर्थात्‌ उन्हीं में लगा दिया, नेत्रों से प्रभु के मुखकमल को निहारने लगे। महर्षि अत्रि जी मन में विचार करने लगे कि मैंने कौन–सा जप और तप किया है, जिसके पुण्य से मन, ज्ञान अर्थात्‌ बुद्धि, तीनों गुण और दसों इन्द्रियों से भी अतीत अर्थात परे परमसमर्थ, वेदान्तवेद्द, प्रभु श्रीराम के दर्शन किये, क्योंकि मनुष्य जप, योग और धर्मानुष्ठान से उत्पन्न पुण्यों के समूह से ही श्रीराम की उपमारहित भक्ति पाता है और उसी भक्ति से भगवान्‌ के दर्शन होते हैं। वह तो मेरे पास नहीं है, अत: यह तो प्रभु की एकमात्र अहैतुकी कृपा का फल है। तुलसीदास जी कहते हैं कि, अत्रि मुनि ने कहा कि, इसी कृतज्ञता का ही बोध करके प्रभु का आभारी बना हुआ दास, रात–दिन उन्हीं रघुवीर की कृपालुता के चरित्र को गाता रहता है और मुझ से अभिन्न तुलसीदास भी प्रभु की कृपालुता का चरित्र रात–दिन गाता है।

**दो०– कलिमल शमन दमन मन, राम सुजस सुखमूल।**

**सादर सुनहिं जे तिन पर, राम रहहिं अनुकूल॥६(क)॥ भा०– **गोस्वामी तुलसीदास जी इस प्रकार की फलश्रुति कहते हैं कि कलियुग के मलों को शान्त करनेवाले, उपद्रवी मन का दमन करने वाले सभी सुखों के कारण और आश्रय भगवान्‌ श्रीराम का सुयश, जो लोग आदरपूर्वक सुनते हैं, भगवान्‌ श्रीराम उन पर अनुकूल रहते हैं।

सो०– कठिन काल मल कोस, धर्म न ग्यान न जोग जप।

**परिहरि सकल भरोस, रामहिं भजहिं ते चतुर नर॥६(ख)॥ भा०– **मलों के कोशरूप इस कठिन समयवाले कलियुग में न तो धर्म सम्भव है, न ही ज्ञान, न ही योग और जप, अत: जो लोग इन सभी साधनों का विश्वास छोड़कर एकमात्र भगवान्‌ श्रीराम को भजते हैं, प्रभु के नाम, रूप,

लीला, धाम का सेवन करते हैं, वे ही प्राणी चतुर हैं।

मुनि पद कमल नाइ करि शीशा। चले बनहिं सुर नर मुनि ईशा॥ आगे राम लखन पुनि पाछे। मुनि बर बेष बने अति आछे॥ उभय बीच श्री सोहइ कैसी। ब्रह्म जीव बिच माया जैसी॥
[[५७७]]

सरिता बन गिरि अवघट घाटा। पति पहिचानि देहिं सब बाटा॥ जहँ जहँ जाहिं देव रघुराया। करहिं मेघ तहँ तहँ नभ छाया॥

भाष्य

देवताओं, मनुष्यों और मुनियों के ईश्वर, भगवान्‌ श्रीराम, अत्रि मुनि के चरणों में मस्तक नवाकर दण्डक वन को चल पड़े। आगे–आगे श्रीराम, फिर लक्ष्मण जी पीछे चल रहे हैं, जो मुनिवर वेश में बहुत ही सुन्दर लग रहे हैं। दोनों भाई श्रीराम, लक्ष्मण जी के बीच में श्री अर्थात्‌ सभी ऐश्वर्यों की अधिष्ठात्री भगवान्‌ श्रीराम की शयणीय श्रीसीता, किस प्रकार शोभित हो रही हैं जैसे ब्रह्म और जीवाचार्य के बीच परमेश्वर की अहैतुकी कृपा सुशोभित होती है। नदियाँ, वन, पर्वत और नदियों के दुर्गम घाट तथा घाटियाँ, सम्पूर्ण चर, अचर के स्वामी श्रीराम जी को पहचान कर सभी मार्ग दे देते हैं। देवताओं के भी देवता रघुकुल के राजा श्रीराम जहाँ–जहाँ जाते हैं, वहाँ–वहाँ बादल आकाश में छाया कर देते हैं।

**मिला असुर बिराध मग जाता। आवतहीं रघुबीर निपाता॥** **तुरतहिं रुचिर रूप तेहिं पावा। देखि दुखी निज धाम पठावा॥**
भाष्य

मार्ग में जाते हुए प्रभु को असुर अर्थात्‌ देवताओं का विरोधी आसुरी सम्पत्तिवाला विराध नाम का राक्षस मिला। उसे अपने निकट आते ही रघुकुल के वीर श्रीराम ने निपाता अर्थात्‌ निचले गड्ढे में गाड़ दिया। उसी प्रक्रिया से उसका वध कर दिया। तुरन्त ही उस विराध ने सुन्दर रूप प्राप्त कर लिया अर्थात्‌ प्रभु श्रीराम ने उसे सारुप्य मुक्ति दी और उसे दु:खी देखकर अपने धाम साकेतलोक भेज दिया।

**पुनि आए जहँ मुनि शरभंगा। सुंदर अनुज जानकी संगा॥** **दो०– देखि राम मुख पंकजहिं, मुनिवर लोचन भृंग।**

सादर पान करत अति, धन्य जन्म शरभंग॥७॥

भाष्य

फिर सम्पूर्ण सौन्दर्यों के निधान, सुन्दर श्रीराम, सुन्दर छोटे भाई लक्ष्मण जी और जनकनन्दिनी सीता जी के साथ जहाँ शरभंग मुनि थे, वहाँ आये। भगवान्‌ श्रीराम के मुखकमल को देखकर अत्यन्त धन्य जन्मवाले मुनिश्रेष्ठ शरभंग जी के नेत्ररूप भ्रमर प्रभु के मुखकमल के छविरूप मकरन्द का आदरपूर्वक पान करने लगे अर्थात्‌ शरभंग जी अपने नेत्रों से प्रभु की रूप–सुधा पीने लगे। शरभंग जी का जन्म अत्यन्त धन्य हो गया।

**विशेष– **शरभंग जी की तपस्या से डरकर इन्द्र ने इनके पास कामदेव को भेजा था और कामदेव के शर अर्थात्‌ बाणों का यहाँ भंग हो गया अर्थात्‌ कामदेव के बाण भी महर्षि को विकृत नहीं कर सके। इसी से इनका नाम शरभंग पड़ गया। *शराणां** काम बाणानां भंग: विनाश: यस्मिन्‌ स: शरभंग:।*

कह मुनि सुनु रघुबीर कृपाला। शङ्कर मानस राजमराला॥
जात रहेउँ बिरंचि के धामा। सुनेउँ स्रवन बन ऐहैं रामा॥ चितवत पंथ रहेउँ दिन राती। अब प्रभु देखि जुड़ानी छाती॥ नाथ सकल साधन मैं हीना। कीन्ही कृपा जानि जन दीना॥ सो कछु देव न मोहिं निहोरा। निज पन राखेउ जन मन चोरा॥ तब लगि रहहु दीन हित लागी। जब लगि मिलउँ तुमहिं तनु त्यागी॥

भाष्य

शरभंग मुनि ने कहा, हे शिव जी के मनरूप मानससरोवर के राजहंस, कृपालु रघुवीर श्रीराम! सुनिये, मैं (अपनी तपस्या से अर्जित) ब्रह्मा जी के धाम अर्थात्‌ ब्रह्मलोक को जा रहा था। उस समय मार्ग में किसी रामायण वक्ता के मुख से अपने कानों द्वारा सुना कि भगवान्‌ श्रीराम इसी दण्डक वन में आयेंगे। अत: मैं ब्रह्मलोक की

[[५७८]]

अपनी यात्रा स्थगित करके ब्रह्मा जी के विमान से नीचे कूदकर अपने आश्रम में फिर आ गया। तब से मैं दिन– रात आपकी बाट जोहता रहा अर्थात्‌ वनमार्ग में आपको निहारता रहा। इस समय आपको देखकर मेरी छाती शीतल हो गई। हे नाथ! मैं सभी साधनों से हीन हूँ। मुझे अभावों से ग्र्रस्त सेवक जानकर आप ने दर्शन दिये। हे देव! हे भक्तों के मन को चुरानेवाले! मुझे दर्शन देकर आपने कोई निहोरा नहीं किया है अर्थात्‌ मेरे प्रति कृतज्ञता नहीं की है। मुझसे मिलकर तो केवल आपने अपनी प्रतिज्ञा की रक्षा की है। मुझ दीन शरभंग के कल्याण के लिए आप तब तक यहीं रहें अर्थात्‌ मेरी प्रतिक्षा करें जब तक यह नश्वर शरीर छोड़ मैं दिव्य शरीर से आपको मिलूँ, अर्थात्‌ आपकी सालोक्य मुक्ति प्राप्त कर सकूँ।

जोग जग्य जप तप ब्रत कीन्हा। प्रभु कहँ देइ भगति बर लीन्हा॥ एहि बिधि शर रचि मुनि शरभंगा। बैठे हृदय छाँसिड़ ब संगा॥

भाष्य

अपने द्वारा किये हुए योग, यज्ञ, जप, तप और व्रतों का सम्पूर्ण पुण्यफल भगवान्‌ श्रीराम को समर्पित करके शरभंग जी ने प्रभु से भेदमूलक सेवक–सेव्यभाव सम्बन्ध पर आश्रित प्रेमलक्षणा भक्ति का वरदान ले लिया। इस प्रक्रिया से शरभंग मुनि सरकण्डों से चिता बनाकर हृदय से सभी आसक्तियों को छोड़कर उस चिता पर बैठ गये और बोले–

**दो०– सीता अनुज समेत प्रभु, नील जलद तनु श्याम।** **मम हिय बसहु निरंतर, सगुनरूप श्रीराम॥८॥**
भाष्य

हे सगुण रूप अर्थात्‌ समस्त कल्याण गुणगणों के आश्रयस्वरूप श्रीसीता को रमण करानेवाले और उन्हीं श्रीसीता में रमण करनेवाले तथा उन्हीं श्रीसीता जी के साथ सर्वत्र रमने वाले, नीले वर्षोन्मुख मेघ के समान श्यामल शरीरवाले प्रभु श्रीराम! आप श्रीसीता एवं लक्ष्मण जी के साथ मेरे हृदय में निरन्तर वास करें।

**अस कहि जोग अगिनि तनु जारा। राम कृपा बैकुंठ सिधारा॥ ताते मुनि हरि लीन न भयऊ। प्रथमहिं भेद भगति बर लयऊ॥**
भाष्य

इतना कहकर शरभंग जी ने अपने योगबल से प्रकट किये हुए योगाग्नि से अपने शरीर को भस्म कर दिया। वे श्रीराम की कृपा से बैकुण्ठ अर्थात्‌ कुण्ठारहित साकेतलोक चले गये। मुनि शरभंग जी इसी कारण श्रीहरि भगवान्‌ श्रीराम में लीन नहीं हुए, क्योंकि उन्होंने चिता में प्रवेश के पहले ही प्रभु से भेदमूलक भक्ति का वरदान ले लिया था।

**ऋषि निकाय मुनि वर गति देखी। सुखी भए निज हृदय बिशेषी॥**

**अस्तुति करहिं सकल मुनि बृंदा। जयति प्रनत हित करुना कंदा॥ भा०– **ऋषियों के समूह, मुनिश्रेष्ठ शरभंग जी की सालोक्य मुक्तिरूप गति देखकर अपने हृदय में विशेष सुखी हुए। सभी मुनिवृन्द प्रभु की स्तुति करने लगे, हे प्रणतों (शरणागतों) के हितैषी! हे करुणारूप जल के मेघ प्रभु श्रीराम! आपकी जय हो।

पुनि रघुनाथ चले बन आगे। मुनिवर बृंद बिपुल सँग लागे॥ अस्थि समूह देखि रघुराया। पूँछी मुनिन लागि अति दाया॥

भाष्य

फिर श्रीरघुनाथ शरभंग आश्रम से आगे दण्डक वन की ओर चले। अनेक श्रेष्ठमुनियों के समूह प्रभु के संग लग गये अर्थात्‌ प्रभु के साथ चल पड़े। थोड़ी ही दूर पर रघुकुल के राजा भगवान्‌ श्रीराम ने मार्ग में पड़े हुए

[[५७९]]

मुनियों के हड्डियों के समूह को देखकर मुनियों से पूछा, प्रभु को बहुत दया लग गई अर्थात्‌ वे नरकंकालों को देखकर दु:खी हो गये।

जानतहूँ पूँछिय कस स्वामी। सबदरसी तुम अंतरजामी॥
निशिचर निकर सकल मुनि खाए। सुनि रघुबीर नयन जल छाए॥

भाष्य

हे स्वामी आप जानते हुए भी कैसे पूछ रहे हैं? क्योंकि आप सब कुछ देखनेवाले और सबके अन्तर्यामी अर्थात्‌ अन्तरात्मा का भी नियंत्रण करने वाले, भीतर की भी बात को जानने वाले हैं। राक्षसों के समूहों ने सभी वानप्रस्थी मुनियों को खा लिया। उन्हीं की अवशेष अस्थियाँ यहाँ पड़ी हैं। सुनकर रघुकुल के वीर अर्थात्‌ त्यागवीरता, दयावीरता, विद्दावीरता, पराक्रमवीरता और धर्मवीरता से उपलक्षित भगवान्‌ श्रीराम के नेत्रों में अश्रु भर आये।

**दो०– निशिचर हीन करहुँ मही, भुज उठाइ पन कीन्ह।** **सकल मुनिन के आश्रमनि, जाइ जाइ सुख दीन्ह॥९॥**
भाष्य

मैं पृथ्वी को राक्षसों से हीन कर दूँगा। प्रभु ने भुजा उठाकर प्रतिज्ञा की और सम्पूर्ण मुनियों के आश्रम में जा–जाकर सबको सुख दिया।

**मुनि अगस्त्य कर शिष्य सुजाना। नाम सुतिच्छन रति भगवाना॥ मन क्रम बचन राम पद सेवक। सपनेहुँ आन भरोस न देवक॥**
भाष्य

श्रीअगस्त्य मुनि के एक चतुर शिष्य थे, उनका नाम सुतीक्ष्ण था और उन्हें भगवान्‌ श्रीराम के प्रति बहुत अनुरक्ति थी। वे मन, कर्म और वचन से श्रीराम के श्रीचरणों के सेवक थे, उन्हें स्वप्न में भी दूसरे देवता का भरोसा नहीं था।

**प्रभु आगवन स्रवन सुनि पावा। करत मनोरथ आतुर धावा॥ हे बिधि दीनबंधु रघुराया। मो से शठ पर करिहैं दाया॥ सहित अनुज मोहि राम गोसाईं। मिलिहैं निज सेवक की नाईं॥**
भाष्य

ज्यों ही सुतीक्ष्ण जी अपने कानों से प्रभु श्रीराम का आगमन सुन पाये, त्यों ही वे मन में अनेक मनोरथ करते हुए आतुर होकर दौड़ पड़े। मन में सोचने लगे कि हे विधाता! क्या मुझ जैसे शठ पर दीनों के बन्धु, जीवमात्र के राया अर्थात्‌ सर्वस्व, रघुराज श्रीराम दया करेंगे? क्या मुझे अपने सेवक की भाँति ही लक्ष्मण जी के सहित सम्पूर्ण वैदिक वाङ्‌मय के स्वामी श्रीसीता से अभिन्न श्रीराम मिलेंगे?

**मोरे जिय भरोस दृ़ढ नाहीं। भगति बिरति न ग्यान मन माहीं॥ नहिं सतसंग जोग जप जागा। नहिं दृ़ढ चरन कमल अनुरागा॥**
भाष्य

मेरे हृदय में दृ़ढ विश्वास नहीं हो रहा है कि प्रभु मुझे दर्शन देंगे, क्योंकि मेरे मन में भक्ति, ज्ञान, वैराग्य कुछ भी नहीं है। न तो सत्संग किया है और न ही योग, जप, यज्ञ किया है और प्रभु के श्रीचरणकमलों में दृ़ढ प्रेम भी नहीं है।

**एक बानि करुनानिधान की। सो प्रिय जाके गति न आन की॥**

**होइहैं सुफल आजु मम लोचन। देखि बदन पंकज भव मोचन॥ भा०– **करुणानिधान भगवान्‌ श्रीराम की एक बानि अर्थात्‌ एक प्रकृति है। उनको वही प्रिय लगता है, जिसको दूसरे का आश्रय नहीं हो। कदाचित्‌ अपने उस स्वभाव के कारण प्रभु मुझे दर्शन दे देंगे, क्योंकि मुझे केवल श्रीराम

[[५८०]]

की ही गति है। अब विश्वास हो गया आज संसार–भाव को नष्ट करनेवाले प्रभु श्रीराम के मुखकमल को देखकर मेरे नेत्र सफल हो जायेंगे।

निर्भर पे्रम मगन मुनि ग्यानी। कहि न जाइ सो दशा भवानी॥ दिशि अरु बिदिशि पंथ नहिं सूझा। को मैं चलेउँ कहाँ नहिं बूझा॥

भाष्य

ज्ञानी मुनि निर्भर अर्थात्‌ जिसे मन में नहीं धारण किया जा सके ऐसे अपार प्रेम में मग्न हो गये। हे पार्वती! सुतीक्ष्ण जी की वह दशा नहीं कही जाती। उन्हें दिशा तथा विदिशा (दिशाओं का मध्य भाग) और मार्ग भी नहीं सूझ रहा था। मैं कौन हूँ, कहाँ के लिए चला हूँ? यह कुछ भी सुतीक्ष्ण जी नहीं समझ पा रहे थे।

**कबहुँक फिरि पाछे पुनि जाई। कबहुँक नृत्य करइ गुन गाई॥ अबिरल प्रेम भगति मुनि पाई। प्रभु देखहिं तरु ओट लुकाई॥**
भाष्य

सुतीक्ष्ण जी कभी–कभी पीछे की ओर मुड़ते हैं और पुन: आगे जाते हैं। कभी–कभी भगवान्‌ श्रीराम के गुणों को गाते हुए नृत्य करने लगते हैं, क्योंकि सुतीक्ष्ण जी को अब सब कुछ श्रीराममय दिख रहा है। मुनि सुतीक्ष्ण जी ने अविरला और प्रेमलक्षणा भक्ति प्राप्त कर ली है। वृक्ष की आड़ में छिपकर प्रभु श्रीराम भी सुतीक्ष्ण जी की यह भक्ति की उन्मत्तता देख रहे हैं।

**अतिशय प्रीति देखि रघुबीरा। प्रगटे हृदय हरन भव भीरा॥ मुनि मग माझ अचल होइ बैसा। पुलक शरीर पनस फल जैसा॥ तब रघुनाथ निकट चलि आए। देखि दशा निज जन मन भाए॥**
भाष्य

संसार के भय को दूर करनेवाले रघु अर्थात्‌ जीवों में वीर अर्थात्‌ विशेष प्रेरणा देनेवाले तात्पर्यत: जीवमात्र के प्रेरक श्रीराम, सुतीक्ष्ण जी की अतिशय प्रीति देखकर उनके हृदय में प्रकट हो गये। सुतीक्ष्ण मुनि मार्ग के बीच में ही स्थिर होकर बैठ गये। कटहल के फल के समान उनका शरीर पुलकित हो गया अर्थात्‌ जैसे कटहल के फल में छोटे–छोटे काँटे होते हैं जो बहुत चुभते नहीं उसी प्रकार, मुनि के शरीर के रोयें भी कटहल के काँटों के समान ख़डे हो गये। तब श्रीरघुनाथ वृक्ष की ओट से मुनि के निकट चले आये। अपने भक्त सुतीक्ष्ण जी की दशा देखकर प्रभु श्रीराम को बहुत अच्छा लगा।

**मुनिहिं राम बहु भाँति जगावा। जाग न ध्यान जनित सुख पावा॥**

**भूप रूप तब राम दुरावा। हृदय चतुर्भुज रूप देखावा॥ भा०– **भगवान्‌ श्रीराम ने अपने भक्त सुतीक्ष्ण जी को बहुत प्रकार से जगाया, परन्तु वे जगे नहीं, क्योंकि सुतीक्ष्ण जी भगवान्‌ श्रीराम के ध्यान से उत्पन्न अलौकिक सुख पा रहे थे। तब भगवान्‌ श्रीराम सुतीक्ष्ण जी के हृदय में विराजमान अपने धनुर्बाणधारी, नील नीरधर श्याम रमणीय राजा रूप को छिपा लिया और सुतीक्ष्ण जी के हृदय में अपने अंश विष्णु जी के चर्तुभुज रूप का दर्शन कराया।

मुनि अकुलाइ उठा तब कैसे। बिकल हीन मनि फनि वर जैसे॥ आगे देखि राम तनु श्यामा। सीता अनुज सहित सुख धामा॥ परेउ लकुट इव चरननि लागी। प्रेम मगन मुनिवर बड़भागी॥

भाष्य

तब सुतीक्ष्ण मुनि किस प्रकार अकुला कर उठे जैसे मणि से विहीन श्रेष्ठसर्प व्याकुल हो जाता है। अपने सम्मुख भगवती श्रीसीता एवं लक्ष्मण जी के सहित सुख के धाम, श्यामल शरीरवाले प्रभु श्रीराम को देखकर प्रेम में मग्न बड़ भागी मुनि सुतीक्ष्ण प्रभु के श्रीचरणों से लिपटकर लाठी की भाँति पृथ्वी पर पड़ गये।

[[५८१]]

**भुज बिशाल गहि लिए उठाई। परम प्रीति राखे उर लाई॥ मुनिहिं मिलत अस सोह कृपाला। कनक तरुहिं जनु भेंट तमाला॥ राम बदन बिलोकि मुनि ठा़ढा। मानहुँ चित्र माझ लिखि का़ढा॥**
भाष्य

प्रभु ने विशाल भुजाओं (अजानु लम्बी) से सुतीक्ष्ण जी को पक़डकर उठा लिया और अत्यन्त प्रियता के कारण श्रीराम ने सुतीक्ष्ण जी को देर तक हृदय से लगाये रखा। कृपालु श्रीराम मुनि सुतीक्ष्ण जी से मिलते हुए इस प्रकार सुशोभित हुए, मानो तमाल वृक्ष स्वर्णमय वृक्ष को भेंट रहा हो। सुतीक्ष्ण मुनि श्रीराम के मुख को देखते हुए ख़डे रहे, मानो वे चित्र फलक के बीच से निकाले हुए चित्र हैं।

**दो०– तब मुनि हृदय धीर धरि, गहि पद बारहिं बार।** **निज आश्रम प्रभु आनि करि, पूजा बिबिध प्रकार॥१०॥**
भाष्य

तब मुनि सुतीक्ष्ण जी ने हृदय में धैर्य धारण करके बारम्बार प्रभु के श्रीचरण पक़डकर भगवान्‌ को अपने आश्रम में ले आकर प्रभु श्रीराम की अनेक प्रकार से पूजा की।

**कह मुनि प्रभु सुनु बिनती मोरी। अस्तुति करौं कवन बिधि तोरी॥**

**महिमा अमित मोरि मति थोरी। रबि सन्मुख खद्दोत अँजोरी॥ भा०– **सुतीक्ष्ण मुनि कहने लगे, हे प्रभु श्रीराम! आप मेरी प्रार्थना सुनिये, मैं किस प्रकार से आपकी स्तुति करूँ? आपकी महिमा असीम है और मेरी बुद्धि बहुत थोड़ी है, जैसे सूर्य के सम्मुख जुगनू का उजाला अर्थात्‌ ज्योति हो।

श्याम तामरस दाम शरीरम्‌। जटा मुकुट परिधन मुनिचीरम्‌॥ पाणि चाप शर कटि तूणीरम्‌। नौमि निरंतर श्रीरघुबीरम्‌॥

भाष्य

नीले कमल की माला के समान छरहरे और विनम्रता से झुकने के कारण मालाकार शरीरवाले, जटा का मुकुट और मुनिवस्त्र को परिधान बनाकर धारण करने वाले, हाथों में धनुष–बाण तथा कटि प्रदेश में तरकस कसे हुए, ऐसे श्रीसीता के साथ वर्तमान रघुवीर आप श्रीराम को मैं निरन्तर नमन करता हूँ।

**मोह विपिन घन दहन कृशानु:। संत सरोरुह कानन भानु:॥ निशिचर करिवरूथ मृगराज:। त्रातु सदा नो भव खग बाज:॥**
भाष्य

घने मोह वन को जलाने के लिए अग्नि के समान और सन्तरूप कमलों को विकसित करने के लिए सूर्य के समान, राक्षसरूप हाथी समूहों के लिए सिंह तथा संसाररूप पक्षी को नष्ट करने के लिए बाज पक्षी स्वरूप श्रीराम जी आप हमारी निरन्तर रक्षा करें।

**अरुण नयन राजीव सुवेशम्‌। सीता नयन चकोर निशेशम्‌॥ हर हृदि मानस बाल मरालम्‌। नौमि राम उर बाहु विशालम्‌॥**
भाष्य

लाल कमल के समान अरुण नेत्र, सुन्दर वेशवाले, श्रीसीता के नेत्र चकोर के चन्द्रमा, शिव जी के मनरूप मानससरोवर के राजहंस, विशाल हृदय और विशाल भुजावाले श्रीराम को मैं प्रणाम करता हूँ।

**संशय सर्प ग्रसन उरगाद:। शमन सुकर्कश तर्क विषाद:॥ भव भंजन रंजन सुर यूथ:। त्रासु सदा नो कृपा वरूथ:॥**
भाष्य

संशयरूप सर्प को खाने के लिए गरुड़ के समान तथा कठोर कुतर्क और दु:ख को समाप्त करने वाले, भक्तों के संसारभाव को नष्ट करने वाले, देवसमूहों को आनन्द देनेवाले, ऐसे अनन्त कृपाओं को धारण करनेवाले, प्रभु श्रीराम जी आप हमारी रक्षा करें।

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**निर्गुण सगुण विषम सम रूपम्‌। ज्ञान गिरा गोतीतमनूपम्‌॥ अमलमखिल–मनवद्दमपारम्‌। नौमि राम भंजन महि भारम्‌॥**
भाष्य

हेयगुणों से दूर और सभी कल्याण गुणगणों से युक्त, भक्तिहीनों के लिए विषम और भक्तों के लिए समस्वरूप अथवा भक्तों के लिए विषम और ज्ञानियों के लिए समस्वरूप, ज्ञान अर्थात्‌ बुद्धि, वाणी और इन्द्रियों से अतीत, उपमारहित, निर्मल, अखण्ड, निन्दारहित तथा पाररहित पृथ्वी के भार को नष्ट करनेवाले, श्रीराम को मैं नमन करता हूँ।

**भक्त कल्पपादप आराम:। तर्जन क्रोध लोभ मद काम:॥ अति नागर भव सागर सेतु:। त्रातु सदा दिनकर कुल केतु:॥ अतुलित भुज प्रताप बल धाम:। कलिमल विपुल विभंजन नाम:॥** **धर्म वर्म नर्मद गुणु ग्राम:। संतत शन्तनोतु मम राम:॥**
भाष्य

भक्तों के लिए कल्पवृक्षों के आराम अर्थात्‌ उद्दानस्वरूप, क्रोध, लोभ, मद और काम को तर्जन अर्थात्‌ दंडित करनेवाले, अत्यन्त कुशल और भवसागर के सेतु तथा सूर्यकुल के पताकास्वरूप श्रीराम आप निरन्तर रक्षा करें। जिनकी भुजाओं के प्रताप अतुलनीय हैं, जो बल के धाम हैं, जिनका नाम कलियुग के अनेक मलों का नाशक है, जो स्वयं धर्म के कवचस्वरूप हैं, अथवा धर्म ही जिनका कवच है, जिनके गुणों के समूह नर्मद अर्थात्‌ सुख देने वाले और वासनात्मक विनोद को नष्ट करने वाले हैं, ऐसे भगवान्‌ श्रीराम निरन्तर मेरा कल्याण करते रहें।

**विशेष **: इस दोहे की प्रथम से लेकर १६ पंक्तियों में ही श्रीरामचरितमानस का पुरुष सूक्त है। **जदपि बिरज ब्यापक अबिनासी। सब के हृदय निरंतर बासी॥ तदपि अनुज श्री सहित खरारी। वसतु मनसि मम काननचारी॥**
भाष्य

भगवान्‌ यद्दपि रजोगुण से दूर, सर्वव्यापक, अविनाशी तथा निरन्तर सबके हृदय में निवास करने वाले हैं, फिर भी हे खर नामक राक्षस के शत्रु! हे दण्डक कानन में भ्रमण करनेवाले श्रीराम! आप श्रीलक्ष्मण और सीता जी के सहित मेरे मन में निवास करें।

**जे जानहिं ते जानहुँ स्वामी। सगुन अगुन उर अंतरजामी॥ जो कोसल पति राजिव नयना। करउ सो राम हृदय मम अयना॥**
भाष्य

हे स्वामी! जो लोग आप सगुण, साकार और सबके हृदय में अन्तर्यामी रूप से रहनेवाले प्रभु को निर्गुण रूप से जान रहे हैं, वे जानते रहें, उन असत्‌ पक्षियों को मैं छेड़ना ही नहीं चाहता। मैं तो इतना ही कहता हूँ कि जो अयोध्यापति कमलनयन आप भगवान्‌ श्रीराम हैं, वे ही आप मेरे हृदय को अपना मंदिर बना लें।

**अस अभिमान जाइ जनि भोरे। मैं सेवक रघुपति पति मोरे॥ सुनि मुनि बचन राम मन भाए। बहुरि हरषि मुनिवर उर लाए॥**
भाष्य

मेरे मन से ऐसा अभीष्ट मान, अथवा अभिमान भूलकर भी नहीं जाये कि मैं सुतीक्ष्ण, श्रीराम का सेवक हूँ और रघुकुल के स्वामी भगवान्‌ श्रीराम मेरे स्वामी हैं। मुनि के वचन सुनकर, श्रीराम के मन को बहुत भाये और प्रसन्न होकर प्रभु ने मुनियों में श्रेष्ठ सुतीक्ष्ण जी को फिर हृदय से लगा लिया और बोले–

**परम प्रसन्न जानु मुनि मोही। जो बर माँगहु देउ सो तोही॥ मुनि कह मैं बर कबहुँ न जाँचा। समुझि न परइ झूठ का साँचा॥** [[५८३]]
भाष्य

हे मुनि सुतीक्ष्ण! आप मुझे परम प्रसन्न जानें। आप जो वरदान माँगें वह मैं आपको दे दूँ। मुनि सुतीक्ष्ण जी ने कहा, मैंने कभी वरदान माँगा ही नहीं, क्योंकि क्या झूठा है और क्या सत्य मुझे कुछ भी समझ नहीं पड़ता।

**तुमहिं नीक लागै रघुराई। सो मोहि देहु दास सुखदाई॥** **अबिरल भगति बिरति बिग्याना। होहु सकल गुन ग्यान निधाना॥ प्रभु जो दीन्ह सो बर मैं पावा। अब सो देहु मोहि जो भावा॥**
भाष्य

हे रघुराज श्रीराम! हे दासों को सुख देनेवाले प्रभु! आपको जो अच्छा लगे वह मुझे दे दीजिये। तब भगवान्‌ श्रीराम ने कहा, हे सुतीक्ष्ण! तुम अविरल भक्ति, वैराग्य, संसार की नश्वरता के ज्ञान तथा सभी श्रेष्ठ गुणों एवं अर्थपंचक के ज्ञान के कोश हो जाओ। सुतीक्ष्ण जी ने कहा कि आपने जो वरदान दिया वह मैं पा गया, अथवा वह तो मैं पहले ही प्राप्त कर चुका हूँ। अब तो मुझे वह दीजिये, जो मुझे भाता है।

**विशेष– **स्वस्वरूप, परस्वरूप, उपायस्वरूप, विरोधीस्वरूप और फलस्वरूप के ज्ञान को अर्थपंचक ज्ञान कहते हैं। यही विज्ञान के नाम से जाना जाता है। तथा अनन्योपायत्व, अनर्न्याहत्व और अनन्यशेषत्व अर्थात्‌ भगवान्‌ ही मेरे एकमात्र उपाय हैं, मैं केवल भगवान्‌ के लिए हूँ और मैं केवल भगवान्‌ का हूँ, यही अकार त्रेय का ज्ञान ही यहाँ ज्ञान है।

दो०– अनुज जानकी सहित प्रभु, चाप बान धर राम।
मम हिय गगन इंदु इव, बसहु सदा निष्काम॥११॥

भाष्य

हे सर्वसमर्थ भगवान्‌ श्रीराम! आप छोटे भाई लक्ष्मण जी और जानकी जी के सहित धनुष–बाण धारण करके आकाश में चन्द्रमा की भाँति सांसारिक कामनाओं से रहित मेरे हृदय में निरन्तर निवास कीजिये।

**एवमस्तु कहि रमानिवासा। हरषि चले कुंभज ऋषि पासा॥** **मुनि प्रनाम करि कह कर जोरी। सुनहु नाथ बिनती एक मोरी॥**
भाष्य

रमा अर्थात्‌ सीता जी के हृदय में निवास करनेवाले भगवान्‌ श्रीराम “एवमस्तु” (ऐसा ही हो) इस प्रकार कहकर प्रसन्न होकर महर्षि कुम्भज के पास चले। सुतीक्ष्ण मुनि ने प्रणाम करके हाथ जोड़कर कहा, हे नाथ! मेरी एक प्रार्थना सुनिये–

**बहुत दिवस गुरु दरशन पाए। भए मोहि एहिं आश्रम आए॥ अब प्रभुा संग जाउँ गुरु पाहीं। तुम कहँ नाथ निहोरा नाहीं॥**
भाष्य

हे नाथ! मुझे इस आश्रम में आये हुए और गुरुदेव के दर्शन पाये हुए बहुत दिन हो गये। अब मैं आपके साथ ही गुरुदेव श्रीअगस्त्य के पास जाऊँगा। इसमेें आपको कोई निहोरा नहीं अर्थात्‌ मैं आपका कृतज्ञ नहीं रहूँगा। मुझे जाना तो था ही और साथ आप मिल गये। अथवा, आप पर मेरा कोई निहोरा नहीं होगा।

**देखि कृपानिधि मुनि चतुराई। लिए संग बिहँसे द्वौ भाई॥ पंथ कहत निज भगति अनूपा। मुनि आश्रम पहुँचे सुरभूपा॥**
भाष्य

कृपा के सागर भगवान्‌ श्रीराम ने मुनि की चतुरता देखकर, उनको (सुतीक्ष्ण जी को) अपने साथ ले लिया, दोनों भाई हँसने लगे। मार्ग में अपने उपमा से रहित अलौकिक भक्ति का वर्णन करते हुए, देवभूमि स्वर्ग की रक्षा करनेवाले भगवान्‌ श्रीराम मुनि श्रीअगस्त्य के आश्रम में पहुँच गये।

[[५८४]]

**तुरत सुतिच्छन गुरु पहिं गयऊ। करि दंडवत कहत अस भयऊ॥ नाथ कोसलाधीश कुमारा। आए मिलन जगत आधारा॥**

राम अनुज समेत बैदेही। निशि दिन देव जपत हउ जेही॥

भाष्य

सुतीक्ष्ण जी तुरन्त गुरुदेव अगस्त्य जी के पास गये और दण्डवत्‌ करके इस प्रकार कहने लगे, हे नाथ! जगत्‌ के आधारस्वरूप, अयोध्यानरेश श्रीदशरथ के पुत्र श्रीराम, आपसे मिलने के लिए अर्थात्‌ आपश्री के दर्शन के लिए आये हैं। हे देव! जिन्हें आप रात–दिन जपते हैं, वे ही परब्रह्म भगवान्‌ श्रीराम, लक्ष्मण जी और भगवती विदेहनन्दिनी श्रीसीता के साथ आपके यहाँ पधारे हैं।

**सुनत अगस्त्य तुरत उठि धाए। हरि बिलोकि लोचन जल छाए॥ मुनि पद कमल परे द्वौ भाई। ऋषि अति प्रीति लिए उर लाई॥**
भाष्य

सुतीक्ष्ण जी के वचन सुनते ही अगस्त्य जी तुरन्त उठ दौड़े और श्रीहरि को देखकर उनके नेत्रों में प्रेम के आँसू छा गये। दोनों भाई श्रीराम–लक्ष्मण जी अगस्त्य मुनि के चरणकमलों पर पड़ गये और अगस्त्य जी भी अत्यन्त प्रेम से उन्हें हृदय से लगा लिए।

**सादर कुशल पूँछि मुनि ग्यानी। आसन बर बैठारे आनी॥ पुनि करि बहु प्रकार प्रभु पूजा। मोहि सम भाग्यवंत नहिं दूजा॥ जहँ लगि रहे अपर मुनि बृंदा। हरषे सब बिलोकि सुखकंदा॥**
भाष्य

ज्ञानीमुनि अगस्त्य जी ने आदरपूर्वक प्रभु से कुशल पूछकर अपने आश्रम में ले आकर श्रीराम, लक्ष्मण, सीता जी को आसन पर बिठाया और फिर अगस्त्य जी ने प्रभु की बहुत प्रकार से पूजा की और कहा कि मेरे समान कोई दूसरा भाग्यशाली नहीं है। जहाँ तक और भी मुनियों के समूह थे, वे सब सुख के मेघस्वरूप भगवान्‌ श्रीराम को देखकर प्रसन्न हो गये।

**दो०– मुनि समूह महँ बैठ प्रभु, सन्मुख सब की ओर।** **शरद इंदु तन चितवत, मानहुँ निकर चकोर॥१२॥**
भाष्य

प्रभु श्रीराम मुनि समूह में सबकी ओर सम्मुख होकर बैठे हैं और सभी मुनिजन प्रभु को इसी प्रकार देख रहे हैं, जैसे चकोर के समूह शरद के चन्द्रमण्डल को निहारता है।

**तब रघुबीर कहा मुनि पाहीं। तुम सन प्रभु दुराव कछु नाहीं॥ तुम जानहु जेहि कारन आयउँ। ताते तात न कहि समुझायउँ॥**
भाष्य

तब रघुवीर श्रीराम ने अगस्त्य मुनि से कहा, हे प्रभु! आपसे कुछ भी छिपाव नहीं है। आप जानते हैं, मैं जिस कारण से यहाँ आया हूँ। हे तात! इसलिए मैंने आपको कहकर नहीं समझाया है।

**अब सो मंत्र देहु प्रभु मोही। जेहि प्रकार मारौं मुनिद्रोही॥ मुनि मुसुकाने सुनि प्रभु बानी। पूँछेहु नाथ मोहि का जानी॥**
भाष्य

हे प्रभु! अब आप मुझे वही मंत्र अर्थात्‌ सम्मति दीजिये जिस प्रकार से मैं मुनियों के द्रोही असुरों को मार सकूँ। प्रभु की वाणी सुनकर अगस्त्य जी मुस्कुराये, हे नाथ! आपने मुझे क्या जानकर पूछा है?

**तुम्हरेइ भजन प्रभाव अघारी। जानउँ महिमा कछुक तुम्हारी॥ ऊमरि तरु बिशाल तव माया। फल ब्रह्मांड अनेक निकाया॥ जीव चराचर जंतु समाना। भीतर बसहिं न जानहिं आना॥** [[५८५]]

ते फल भक्षक कठिन कराला। तव डर डरत सदा सोउ काला॥ ते तुम सकल लोकपति साईं। पूँछेहु मोहि मनुज की नाईं॥

भाष्य

हे अघारी अर्थात्‌ पापों के नाशक! आप ही के भजन के प्रभाव से मैं आपकी कुछ महिमा को जानता हूँ। आपकी माया विशाल गूलर के वृक्ष के समान है। अनेक ब्रह्माण्डों के समूह उसी के फल हैं। चर–अचर अर्थात्‌ चित्‌–अचित्‌, चेतन–ज़ड जीव उन फलों में रहनेवाले छोटे–छोटे जन्तु मच्छरों के समान हैं जो उन ब्रह्माण्डरूप फलों के भीतर रहते हैं और अपने अतिरिक्त और कुछ भी नहीं जानते अर्थात्‌ सीमित ज्ञानवाले होते हैं। उन ब्रह्माण्डरूप फलों का भक्षण करने वाला, कठिन भयंकर वह काल भी आपके भय से निरन्तर डरता रहता है। वही आप सम्पूर्ण लोकों के स्वामी श्रीराम मनुष्य की भाँति मुझसे प्रश्न कर रहें हैं।

**विशेष– **यहाँ ऊदुम्बर शब्द का अपभ्रंश ही ऊमरि है, जिसका अर्थ होता है, गूलर।

यह बर मागउँ कृपानिकेता। बसहु हृदय श्री अनुज समेता॥ अबिरल भगति बिरति सतसंगा। चरन सरोरुह प्रीति अभंगा॥ जद्दपि ब्रह्म अखंड अनंता। अनुभव गम्य भजहिं जेहि संता॥ अस तव रूप बखानउँ जानउँ। फिरि फिरि सगुन ब्रह्मरति मानउँ॥
संतत दासन देहु बड़ाई। ताते मोहि पूँछेहु रघुराई॥

भाष्य

हे कृपा के भवन श्रीराम! मैं आप से यह वरदान माँगता हूँ कि, आप मेरे हृदय में भगवती श्रीसीता जी एवं लक्ष्मण जी के साथ निवास कीजिये। यद्दपि आप खण्डरहित और अन्तरहित परब्रह्म परमात्मा हैं जो अनुभव गम्य हैं, जिन्हें सन्त भजते हैं। आपके इस प्रकार के रूप को मैं जानता भी हूँ और व्याख्यान करके कहता भी हूँ, तथापि सगुणब्रह्म में ही मैं बारम्बार अपना प्रेम मानता हूँ अर्थात्‌ निर्गुणब्रह्म को जानकर भी सगुणब्रह्म में प्रेम करता हूँ। आप दासोें को निरन्तर बड़प्पन देते हैं। हे रघुकुल के राजा श्रीराम! इसलिए आपने मुझसे पूछा है।

**है प्रभु परम मनोहर ठाऊँ। पावन पंचबटी तेहि नाऊँ॥ गोदावरी नदी तहँ बहई। चारिहु जुग प्रसिद्ध सो अहई॥**
भाष्य

हे प्रभु! एक परम मनोहर अर्थात्‌ सुन्दर और पवित्र स्थान है, उसका पंचवटी नाम है। वहाँ पाँच वट के वृक्ष हैं, इसलिए उसे पंचवटी कहते हैं। वहाँ पर गोदावरी नदी बहती हैं, जो चारों युगों में प्रसिद्ध हैं।

**दंडक बन पुनीत प्रभु करहू। उग्र स्राप मुनिवर कर हरहू॥ बास करहु तहँ रघुकुल राया। कीजे सकल मुनिन पर दाया॥**
भाष्य

हे प्रभु! दण्डक वन को पवित्र कर दीजिये और मुनिश्रेष्ठ गौतम जी के शाप के प्रभाव को अब समाप्त कर दीजिये। हे रघुकुल के राजा! श्रीराम दण्डक वन के अर्न्तगत्‌ उसी पंचवटी नामक स्थान में आप निवास कीजिये और सभी मुनियों पर दया कीजिये।

**चले राम मुनि आयसु पाई। तुरतहिं पंचबटी नियराई॥** **दिव्य लता द्रुम प्रभु मन भाये। निरखि राम तेउ भये सुहाये॥ लखन राम सिय चरन निहारी। कानन अघ गा भा सुखकारी॥**
भाष्य

मुनि की आज्ञा पाकर श्रीसीता एवं लक्ष्मण जी से उपलक्षित भगवान्‌ श्रीराम चल पड़े और शीघ्र ही पंचवटी जा पहुँचे। स्वर्गीय लताओं से आलिंगित वृक्ष प्रभु के मन को भा गये, वे भी (लता और वृक्ष) प्रभु श्रीराम के

[[५८६]]

दर्शन करके बहुत सुहावने हो गये। लक्ष्मण जी, भगवान्‌ श्रीराम एवं भगवती श्रीसीता के श्रीचरणों के दर्शन करके दण्डक वन का पाप चला गया और वह सुखकर हो गया।

दो०– गीधराज सों भेंट भइ, बहु बिधि प्रीति ब़ढाइ।
गोदावरी समीप प्रभु, रहे परन गृह छाइ॥१३॥

भाष्य

बहुत प्रकार से प्रेम ब़ढाकर प्रभु श्रीराम की गिद्धराज से भेंट अर्थात्‌ मित्रता हुई। प्रभु पर्णकुटी बनाकर गोदावरी नदी के समीप निवास किये।

**जब ते राम कीन्ह तहँ बासा। सुखी भए मुनि बीती त्रासा॥ गिरि बन नदी ताल छबि छाए। दिन दिन प्रति अति होहिं सुहाए॥ खग मृग बृंद अनंदित रहहीं। मधुप मधुर गुंजत छबि लहहीं॥ सो बन बरनि न सक अहिराजा। जहाँ प्रगट रघुबीर बिराजा॥**
भाष्य

भगवान्‌ श्रीराम ने जब से पंचवटी में निवास किया तभी से सभी मुनि सुखी हो गये और सबका भय समाप्त हो गया। पर्वत, वन, नदी और तालाब ये सब दिनोदिन छाँव से युक्त और अत्यन्त सुहावने होने लगे। पक्षियों और हिरणों के समूह आनन्दित रहने लगे। भ्रमर मधुर गुंजार करते हुए छवि प्राप्त कर रहे हैं अर्थात्‌ सुन्दर लग रहे हैं। उस वन का वर्णन सर्पराज शेष भी नहीं कर सकते, जहाँ प्रकट अर्थात्‌ सगुण साकार रूप में रघुवीर अर्थात्‌ जीवों के विशेष प्रेरक श्रीराम विराज रहे हैं।

**विशेष– *लंघन्ति** पाप पुण्य मार्गान्‌ ये ते रघव: जीवा: तान्‌ विशेषेण इरयति, अर्थात्‌ प्रेरयति य: स: रघुवीर:।*** **एक बार प्रभु सुख आसीना। लछिमन बचन कहे छलहीना॥ सुर नर मुनि सचराचर साईं। मैं पूछउँ निज प्रभु की नाईं॥ मोहि समुझाइ कहहु सोइ देवा। सब तजि करौं चरन रज सेवा॥ कहहु ग्यान बिराग अरु माया। कहहु सो भगति करहु जेहिं दाया॥**
भाष्य

एक बार जब प्रभु श्रीराम सुखासन पर बैठे हुए थे, अथवा, सुखपूर्वक आसीन थे, उस समय लक्ष्मण जी ने छल से विहीन वचन कहे, हे प्रभु! यद्दपि आप चर और अचर सहित देवताओं, मनुष्यों और मुनियों के स्वामी हैं, फिर भी मैं आप से अपने प्रभु की भाँति पूछ रहा हूँ अर्थात्‌ विशेषाधिकार का प्रयोग कर रहा हूँ। हे देव! मुझे वही तत्त्व समझाकर कहिये, जिससे सब कुछ छोड़कर आपकी श्रीचरणरज की सेवा कर सकूँ। मुझे मायातत्त्व को समझाइये और ज्ञान और वैराग्य के सम्बन्ध में कहिए। मुझे वह भक्ति समझाइये, जिसके कारण आप जीवों पर दया करते हैं।

**दो०– ईश्वर जीवहिं भेद प्रभु, सकल कहहु समुझाइ।** **जाते होइ चरन रति, शोक मोह भ्रम जाइ॥१४॥**
भाष्य

हे प्रभु! ईश्वर और जीव के बीच वर्तमान सम्पूर्ण भेदों को समझाकर कहिये, जिससे मुझे आपके श्रीचरणों में भक्ति हो जाये और मेरा शोक, मोह तथा भ्रम चला जाये।

**थोरेहि महँ सब कहउँ बुझाई। सुनहु तात मन मति चित लाई॥**
भाष्य

भगवान्‌ श्रीराम बोले, हे भैया लक्ष्मण! अब मैं थोड़े में ही सब कुछ समझाकर कहता हूँ। हे भैया लक्ष्मण! इसे मन, बुद्धि और चित्त लगाकर सुनिये इसमें अहंकार मत लगाइयेगा, अन्यथा शास्त्र समझ में नहीं आयेगा।

[[५८७]]

**मैं अरु मोर तोर तैं माया। जेहिं बश कीन्हे जीव निकाया॥ गो गोचर जहँ लगि मन जाई। सो सब माया जानेहु भाई॥**
भाष्य

यह मैं हूँ यह मेरा है, यह तू है यह तेरा है, इस प्रकार जगत्‌ में अपने सम्बन्धों की कल्पना ही माया है, जिसने सम्पूर्ण जीवों को अपने वश में कर रखा है। यह मन जहाँ तक इन्द्रियों और इन्द्रियों के विषयों में जाता है, हे भाई! वह सब माया ही समझो।

**तेहि कर भेद सुनहु तुम सोऊ। बिद्दा अपर अबिद्दा दोऊ॥ एक दुष्ट अतिशय दुखरूपा। जा बश जीव परे भवकूपा॥ एक रचइ जग गुन बश जाके। प्रभु प्रेरित नहिं निज बल ताके॥**
भाष्य

उस माया का भी तुम भेद सुनो। वह माया भी विद्दा और अविद्दा नामक दो भेदों से युक्त हैं। एक अर्थात्‌ अविद्दा नामक माया अत्यन्त दुष्ट और दु:खरूप है, जिसके वश में हुए ये जीव संसार के कूप में पड़े हैं। एक अर्थात्‌ विद्दा जगत्‌ की रचना करती है, जिसके वश में सत्व, रजस, और तमस ये तीनों गुण हैं। वह प्रभु से प्रेरित होकर जगत्‌ की रचना करती है, उसके पास निजी कोई बल नहीं है।

**ग्यान मान जहँ एकउ नाहीं। देखिय ब्रह्म रूप सब माहीं॥** **कहिय तात सो परम बिरागी। तृण सम सिद्धि तीनि गुन त्यागी॥**
भाष्य

ज्ञान उसे कहते हैं, जहाँ मान आदि एक भी दोष नहीं रहता और जहाँ सब में ब्रह्मरूप के दर्शन होते हैं। हे तात! उसी को परम वैराग्यवान कहना चाहिये जो अणिमादि सिद्धियों और तीनों गुणों को तृण के समान त्याग देता है।

**दो०– माया ईश न आपु कहँ, जान कहिय सो जीव।** **बंध मोक्ष प्रद सर्ब पर, माया प्रेरक शीव॥१५॥**
भाष्य

जो अपने को माया का ईश्वर नहीं समझता उसी को जीव कहते हैं और ईश्वर भगवद्‌विरुद्धों को बन्धन तथा भगवद्‌भक्तों को मोक्ष देनेवाला अथवा अपने भक्तों को मोक्ष देने वाले सभी कारणों तथा चित्‌–अचित्‌ वर्ग से परे माया का प्रेरक तथा शिव अर्थात्‌ कल्याणकारी है।

**धर्म ते बिरति जोग ते ग्याना। ग्यान मोक्षप्रद बेद बखाना॥ जाते बेगि द्रवउँ मैं भाई। सो मम भगति भगत सुखदाई॥ सो स्वतंत्र अवलंब न आना। तेहि आधीन ग्यान बिग्याना॥ भगति तात अनुपम सुखमूला। मिलइ जो संत होइ अनुकूला॥**
भाष्य

धर्म से वैराग्य तथा योग से ज्ञान उपलब्ध होता है। वेदों ने कहा है कि ज्ञान मोक्ष को देने वाला है। हे भाई! जिससे मैं शीघ्र प्रसन्न हो जाता हूँ, वही भक्तों को सुख देने वाली मेरी भक्ति है। वह स्वतंत्र है, उसका कोई दूसरा अवलम्ब नहीं है। ज्ञान और विज्ञान सब उसी के अधीन हैं। हे तात! मेरी भक्ति उपमारहित, सुखों का कारण

है, जब सन्त अनुकूल होते हैं, तभी वह मिलती है।

भगति कि साधन कहउँ बखानी। सुगम पंथ मोहि पावहिं प्रानी॥ प्रथमहिं बिप्र चरन अति प्रीती। निज निज कर्म निरत श्रुति रीती॥ एहि कर फल पुनि बिषय बिरागा। तब मम चरन उपज अनुरागा॥ श्रवणादिक नव भक्ति दृ़ढाहीं। मम लीला रति अति मन माहीं॥
[[५८८]]

संत चरन पंकज अति प्रेमा। मन क्रम बचन भजन दृ़ढ नेमा॥ गुरु पितु मातु बंधु पति देवा। सब मोहि कहँ जाने दृ़ढ सेवा॥ मम गुन गावत पुलक शरीरा। गदगद गिरा नयन बह नीरा॥ काम आदि मद दंभ न जाके। तात निरंतर बश मैं ताके॥

भाष्य

हे लक्ष्मण! अब मैं भक्ति के साधनों को बखानकर कहता हूँ इसका मार्ग बहुत ही सुगम है, इससे प्राणी मुझे पा जाते हैं। सर्वप्रथम जन्मना ब्राह्मण एवं संस्कार से द्विज, सांगोपांग वेदपाठ से विप्र और वेदज्ञ होने से श्रोत्रिय कहे जानेवाले ब्राह्मणों के चरणों में अत्यन्त प्रीति होनी चाहिये और वेदविहित और वेद की परम्परा के अनुसार अपने–अपने कर्म में निष्ठापूर्वक रत हो। फिर इसी का फल है विषयों का वैराग्य अर्थात्‌ वेद विहित कर्म में निरत होने से इसके फल के रूप में साधक को विषयों से वैराग्य हो जाता है। फिर उसमें मेरे चरणों के प्रति प्रेम उत्पन्न होता है, फिर श्रवण, कीर्तन, स्मरण, पादसेवन, अर्चन, वन्दन, दास्य, सख्य तथा आत्म निवेदन यह नौ भक्तियाँ दृ़ढ होती है और मेरी लीला के प्रति मन में अत्यन्त अनुराग हो जाता है। सन्तों के श्रीचरणकमलों में अत्यन्त प्रेम, मन, कर्म और वचन के द्वारा दृ़ढ नियमपूर्वक मेरा भजन करना, गुरु, पिता, माता, पति, देवता यह सब मुझी को जान ले और दृ़ढ सेवा करे। मेरे गुणों को गाते–गाते जब शरीर में पुलकावलि हो जाये, वाणी गदगद हो, नेत्रों से अश्रुपात हो, काम, क्रोध, लोभ, मद, दम्भ, ये सब जिनके पास न हो, हे भैया! मैं निरन्तर उसी के वश में रहता हूँ।

**दो०– बचन कर्म मन मोरि गति, भजन करहिं निष्काम।** **तिन के हृदय कमल महँ, करउँ सदा बिश्राम॥१६॥**
भाष्य

जो मन, कर्म और वचन से एकमात्र मेरा ही आश्रय लेकर निष्काम भाव से भजन करते हैं, उनके हृदय कमल में मैं निरन्तर विश्राम करता हूँ।

**भगति जोग सुनि अति सुख पावा। लछिमन प्रभु चरननि सिर नावा॥ एहि बिधि गए कछुक दिन बीती। कहत बिराग ग्यान गुन नीती॥**
भाष्य

भगवान्‌ श्रीराम के मुख से भक्ति-योग सुनकर लक्ष्मण जी ने बहुत सुख प्राप्त किया और उन्होंने प्रभु श्रीराम के श्रीचरणों में सिर नवाया। इस प्रकार से वैराग्य, ज्ञान, गुण, नीति कहते हुए श्रीराम के पंचवटी में निवास करते कुछ दिन बीत गये।

**विशेष– **यहाँ पर लक्ष्मणजी ने प्रभु से अर्थपंचक सिद्धान्त के पाँच प्रश्न किये, जिनमें माया का प्रश्न, विरोधीस्वरूप, ज्ञान, वैराग्य, साधन भक्ति का प्रश्न, उपायस्वरूप ईश्वर और जीव का भेद परस्वरूप और स्वस्वरूप है वही भगवत्‌ चरण में रति अर्थात्‌ प्रेमलक्षणा भक्ति है, जो शोक, मोह, भ्रम की समाप्ति के फलस्वरूप है। श्रीराम ने भी इसीलिए क्रम से पहले माया का विवेचन, फिर ज्ञान, वैराग्य का विवेचन, पुन: ईश्वर, जीव के भेद का विवेचन और पुन: प्रेमलक्षणा भक्ति का विवेचन किया। अर्थपंचक की श्लोकतालिका इस प्रकार है– प्राप्यस्य ब्रह्मणो रूपं, प्राप्तुश्च प्रत्यगात्मन:। प्राप्ति उपायं फलं चैव, तथा प्राप्ति विरोधी च॥ अर्थात्‌ परस्वरूप, स्वस्वरूप, उपायस्वरूप, फलस्वरूप और विरोधीस्वरूप यही अर्थ पंचक है।

सूपनखा रावन कै बहिनी। दुष्ट हृदय दारुन जस अहिनी॥ पंचबटी सो गइ एक बारा। देखि बिकल भइ जुगल कुमारा॥

भाष्य

शूर्पणखा रावण की बहन थी, जो सर्पिणि के ही समान भयंकर और दुष्ट हृदयवाली थी। वह शूर्पणखा एक बार पंचवटी गई और दोनों राजकुमारों श्रीराम, एवं लक्ष्मणजी को देखकर व्याकुल हो गई।

[[५८९]]

**भ्राता पिता पुत्र उरगारी। पुरुष मनोहर निरखत नारी॥**

होइ बिकल सक मनहिं न रोकी। जिमि रबि मनि द्रव रबिहिं बिलोकी॥

भाष्य

भुशुण्डि जी गरुड़ जी को सम्बोधित करते हुए कहते हैं कि हे सर्पाें के शत्रु गरुड़ देव जी! भ्राता, पिता और पुत्र इन तीनों को नारी, पुरुष की दृष्टि से, सुन्दरता की दृष्टि से अर्थात्‌ पौरुष सम्पन्न सुन्दर देखते ही विकल हो जाती है, मन को नहीं रोक सकती, जैसे सूर्यनारायण को देखकर चन्द्रकान्त मणि पिघल जाता है। तात्पर्य यही है कि नारी को अपने पति के अतिरिक्त किसी भी नर में पौरुष और सुन्दरता की अनुभूति नहीं करनी चाहिये। इसी से शूर्पणखा का पतन हुआ और भगवान्‌ श्रीराम का पतन इसलिए नहीं हुआ, क्योंकि उन्होंने शूर्पणखा में मनोहरता की अनुमति नही की। भ्राता, पिता अथवा पुत्र कोटि का पुव्र्ष जब नारी में मनोहरता देखने लगता है, तब वह विकल हो जाता है, मन को नहीं रोक पाता, जैसे चन्द्रकान्त मणि सूर्य को देखकर पिघलती है, उसी प्रकार किसी भी कोटि का पुव्र्ष जब नारी के सौन्दर्य की अनुभूति करता है, तब वह पतित होता है।

**विशेष– **संयोग से श्रीराम जी की शूर्पणखा के प्रति तीनों कोटियाँ है। राजा की बहन होने के कारण शूर्पणखा के श्रीराम जी भ्राता हैं। जगत्‌ पिता होने से प्रभु शूर्पणखा के पिता हैं और शूर्पणखा की अपेक्षा बहुत छोटी अवस्था होने के कारण श्रीराम जी शूर्पणखा के पुत्र स्थानी भी हैं। परन्तु शूर्पणखा ने श्रीराम जी में मनोहरता और पौरुष दोनों देखा। यथा– **देखि बिकल भइ जुगल कुमारा। **\(मानस, ३.१७.४\). और **तुम सम पुरुष न मो सम नारी। **\(मानस ३.१७.८\).ठीक इसके विपरीत भगवान्‌ श्रीराम ने न तो शूर्पणखा में मनोहरता का बोध किया और न ही नर–सहचारिणी नारीभाव का, वे तो श्रीसीता को ही देखते रहे। यथा– **सीतहिं चितइ कही प्रभु बाता **\(मानस, ३.१७.११\)।. यहाँ यह ध्यान रहे कि इस दोहे की पाँचवीं पंक्ति में प्रयुक्त पुरुष और मनोहर शब्द भाववाचक हैं और भ्राता, पिता तथा पुत्र ये तीनों शब्द सप्तम्यन्त हैं। यहाँ विभक्ति का लोप हुआ है अर्थात्‌ जब नारी भ्राता, पिता और पुत्र में पौरुष और मनोहर अर्थात्‌ मनोहरता सौन्दर्य देखेगी तब पतित होगी, परन्तु जब वह इन तीनों को इनके मूलभाव से देखेगी अर्थात्‌ भ्राता को भ्रातृत्व से, पिता को पितृत्व से और पुत्र को पुत्रत्व से देखेगी तब उसका पतन सम्भव ही नहीं है। इसी प्रकार पुरुष–पक्ष में भी नारी शब्द लुप्तविभक्तिकसप्तम्यन्त है अर्थात्‌ जब भ्राता, पिता तथा पुत्र वर्ग का पुरुष नारी में सौन्दर्यबोध करेगा और उसमें नरसहचारिणी भाव देखेगा तब उसका पतन होगा। यहाँ श्रीराम ने माया रूपधारिणी शूर्पणखा में सौन्दर्य नहीं देखा, इसलिए वे स्थिर रहे। शूर्पणखा ने सौन्दर्य भी देखा और पुरुषत्व भी। यथा– **मन माना कछु तुमहिं निहारी**–मानस, ३.१७.१०. और **तुम सम पुरुष न मो सम नारी**–मानस, ३.१७.८\).

रुचिर रूप धरि प्रभु पहँ जाई। बोली बचन बहुत मुसुकाई॥

**तुम सम पुरुष न मो सम नारी। यह सँजोग बिधि रचा बिचारी॥ भा०– **शूर्पणखा राक्षसी माया के बल से सुन्दरी नारी का रूप धारण करके प्रभु श्रीराम के पास जाकर बहुत मुस्कुराकर यह वचन बोली, युवक! इस संसार में न तो कोई तुम समान सुन्दर पुरुष है और न ही मेरे समान कोई सुन्दर नारी, ब्रह्मा जी ने विचार कर तुम्हारा और मेरा यह संयोग रचा है।

मम अनुरूप पुरुष जग माहीं। देखेउँ खोजि लोक तिहुँ नाहीं॥ ताते अब लगि रहेउँ कुमारी। मन माना कछु तुमहि निहारी॥

भाष्य

मेरे अनुरूप संसार में पुरुष (वर) नहीं है, मैंने तीनों लोकों में खोजकर देख लिया है, इसलिए अब तक मैं कुमारी अर्थात्‌ अविवाहिता रही हूँ। तुम्हें देखकर मेरा मन कुछ माना है, क्योंकि तुम साँवले हो, इसलिए मेरा मन पूरा नहीं माना फिर भी काम चल जायेगा।

[[५९०]]

**सीतहिं चितइ कही प्रभु बाता। अहइ कुमार मोर लघु भ्राता॥ गइ लछिमन रिपु भगिनी जानी। प्रभु बिलोकि बोले मृदु बानी॥**
भाष्य

भगवती श्रीसीता को देखकर प्रभु भगवान्‌ श्रीराम ने यह बात कही कि, मेरा छोटा भ्राता कुमार है। शूर्पणखा, लक्ष्मण जी के पास गई। लक्ष्मण जी उसे शत्रु की बहन जानकर, प्रभु श्रीराम को देखकर कोमल वाणी में बोले–

**विशेष– **मेरे छोटे भ्राता होने पर भी लक्ष्मण सीता जी की दृष्टि से पुत्र हैं और लड़के हैं, यथा–**जल को गए लक्खन हैं लरिका। \(**कवितावली २.१२\)। अत: सीता जी की दृष्टि से अभी वे अविवाहित हैं। चूँकि तुम विवाहित होकर भी, पति की अनुपस्थिति से स्वयं को कुमारी अर्थात्‌ अविवाहिता बता रही हो, अत: तुम्हारी ही परिभाषा में मैं लक्ष्मण की धर्मपत्नी उर्मिला की अनुपस्थिति से लक्ष्मण को कुमार अर्थात्‌ अविवाहित घोषित कर रहा हूँ। चूँकि मुझे देखकर तुम्हारा मन कुछ माना है क्योंकि मैं श्याम हूँ, अत: लक्ष्मण को स्वीकार करो, क्योंकि वे गौर हैं और वे ‘कुमार’ अर्थात्‌ अपनी सुन्दरता से कामदेव को भी कुत्सित अर्थात्‌ निन्दित कर चुके हैं **कुत्सित: मार: येन्‌ स कुमार:। **तुम राजभगिनी हो अत: रानी न सही तो राजकुमार की पत्नी होकर तुम्हें सन्तोष करना होगा। यहाँ मैं राजा हूँ, भरत युवराज हैं। यथा–**राजा राम जानकी राना**ᐂ–मानस, २.२७३.६. और **भरतहिं राम करहिं जुबराजा**–मानस, २.२७३.७. लक्ष्मण जी कुमार हैं, **करि बिनती समझाउ कुमारा**–मानस ४.२०.३. अत: उनकी पत्नी बनकर तुम कुँवरानी तो बन ही जाओगी। इसलिए भगवान्‌ श्रीराम ने झूठ न बोलकर सत्य वस्तुस्थिति कही–**अहइ कुमार मोर लघु भ्राता। **अर्थात्‌ मेरे छोटे भ्राता लक्ष्मण कुमार हैं, मुझ से अवस्था में छोटे हैं।

सुंदरि सुनु मैं उन कर दासा। पराधीन नहिं तोर सुपासा॥
प्रभु समर्थ कोसलपुर राजा। जो कछु करहिं उनहिं सब छाजा॥ सेवक सुख चह मान भिखारी। ब्यसनी धन शुभ गति ब्यभिचारी॥ लोभी जस चह चारि गुमानी। नभ दुहि दूध चहत ए प्रानी॥

भाष्य

हे सुन्दरी! सुन, मैं उन प्रभु श्रीराम का दास हूँ, मुझ पराधीन के यहाँ तेरी सुख–सुविधा नहीं हो सकेगी। श्रीराम स्वामी, सर्वसमर्थ और अयोध्यापुरी के राजा हैं अर्थात्‌ वहाँ पूर्व में राजा बहुपत्निक होते रहे तो यहाँ भी तुम दूसरी पत्नी हो जाओगी तो क्या आपत्ति हो जायेगी? वह जो कुछ करें उन्हें सब कुछ शोभा देता है, पर मेरे लिए यह सम्भव नहीं है क्योंकि न तो मैं प्रभु हूँ और न ही कोसलपुर का राजा। यदि सेवक सुख चाहता हो, भिखारी सम्मान चाहता हो, व्यसनी अर्थात्‌ मदिरा आदि के व्यसन से युक्त धनसंग्रह की इच्छा करे, व्यभिचारी अर्थात्‌ चरित्रहीन, (परनारी-लम्पट) शुभगति चाहता हो, लोभी यश चाहे और अहंकारी चारि अर्थात्‌ अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष की इच्छा करे, तो ये प्राणी आकाश दुहकर दूध ग्रहण करना चाहते है अर्थात्‌ इनकी अपेक्षा उसी प्रकार निरर्थक सिद्ध होगी जैसे आकाश से दूध की अपेक्षा।

**पुनि फिरि राम निकट सो आई। प्रभु लछिमन पहँ बहुरि पठाई॥ लछिमन कहा तोहि सो बरई। जो तृन तोरि लाज परिहरई॥**
भाष्य

पुन: वह लक्ष्मण जी के यहाँ से लौटकर श्रीराम के निकट आई। प्रभु श्रीराम ने उसे फिर लक्ष्मण जी के पास भेजा। लक्ष्मण जी ने क्रुद्ध होकर कहा कि तेरा वरण तो वही कर सकता है जो तिनके के समान तोड़कर लज्जा को छोड़ चुका हो।

[[५९१]]

**विशेष– **इस प्रसंग में शूर्पणखा को दो बार लक्ष्मण जी के पास भेजकर प्रभु श्रीराम उसका सुधार करना चाहते थे, क्योंकि लक्ष्मण जी जीवाचार्य हैं, कदाचित्‌ इसका कल्याण हो जाये, परन्तु ऐसा नहीं हो पाया।

तब खिसियानि राम पहँ गई। रूप भयंकर प्रगटत भई॥
सीतहिं सभय देखि रघुराई। कहा अनुज सन सयन बुझाई॥

भाष्य

तब क्रोध में तिलमिलायी हुई शूर्पणखा भगवान्‌ श्रीराम के पास गई और श्रीसीता को खा जाने के उद्‌देश्य से भयंकर रूप प्रकट किया। श्रीसीता को भयभीत देखकर, रघुकुल के स्वामी भगवान्‌ श्रीराम ने लक्ष्मण जी को संकेत में समझाकर कह दिया कि इसका नाक, कान काट लो।

**विशेष– **लक्ष्मण जी को भगवान्‌ श्रीराम ने कैसे समझाया इसकी चर्चा स्वयं मानसकार बरवै रामायण में करते हैं–

बेद नाम कहि, अँगुरिन, खंडि आकास।

**पठयो सूपनखाहि लषन के पास॥ **(वरवै रामायण ३़१)

अर्थात्‌ पहले भगवान्‌ श्रीराम ने चार अंगुलियाँ दिखाईं, वेद चार होते हैं और वेद को संस्कृत में श्रुति कहते हैं और फिर तर्जनी अंगुली ऊपर करके आकाश का संकेत किया, संस्कृत में आकाश को नाक कहते हैं तथा नासिका का संक्षिप्त नाम नाक भी है, फिर अंगुली को नीचे करके काटने का संकेत किया, जिसे लक्ष्मण जी तुरन्त समझ गये।

दो०– लछिमन अति लाघव तेहिं, नाक कान बिनु कीन्ह।
ताके कर रावन कहँ, मनहुँ चुनौती दीन्ह॥१७॥

भाष्य

लक्ष्मण जी ने अत्यन्त शीघ्रता से शूर्पणखा को नाक, कान के बिना कर दिया अर्थात्‌ उसके नाक, कान काटकर शूर्पणखा के ही हाथ में दे दिया, मानो शूर्पणखा के हाथ में कटे हुए दोनों कान और नासिका को रखकर लक्ष्मण जी ने शूर्पणखा के हाथों से ही रावण को चुनौती दे दी अर्थात्‌ ललकार दिया या युद्ध के लिए सावधान रहने की सूचना दे दी।

**नाक कान बिनु भइ बिकरारा। जनु स्रव शैल गेरु कै धारा॥**

**खर दूषन पहिं गइ बिलपाता। धिग धिग तस पौरुष बल भ्राता॥ भा०– **शूर्पणखा नाक, कान के बिना अत्यन्त विकराल हो गई। उसके कटे हुए नाक और कान के स्थान से ऐसे रक्त की धारा बह चली, मानो पर्वत से गेरु की लालधारा चल पड़ी हो। शूर्पणखा विलाप करती हुई खर–दूषण के

पास गई और खर से बोली, हे भाई! तुम्हारे बल और पौरुष को धिक्कार है।

तेहिं पूछा सब कहेसि बुझाई। जातुधान सुनि सैन बनाई॥
चौदह सहस सुभट सँग लीन्हे। जिन सपनेहुँ रन पीठि न दीन्हे॥

भाष्य

खर ने पूछा, तब शूर्पणखा ने सब कुछ समझाकर कहा। यह सुनकर गुल्म के अधिपति खर ने सेना सजा ली और उन चौदह सहस्र वीर सैनिकों को अपने साथ लिया जिन्होंने स्वप्न में भी युद्ध में पीठ नहीं दिखाया था।

**धाए निशिचर निकर बरूथा। जनु सपच्छ कज्जल गिरि जूथा॥** **नाना बाहन नानाकारा। नानायुध धर घोर अपारा॥**

[[५९२]]

भाष्य

अनेक वाहनों को सजाकर अनेक आकार वाले, अनेक अस्त्र–शस्त्र लिए हुए भयंकर अपार राक्षसों के सैन्य समूह दौड़े, मानो पंखों से युक्त कज्जल पर्वत के समूह ही सामने आ रहे हों।

**सूपनखा आगे करि लीनी। अशुभ रूप श्रुति नासा हीनी॥ असगुन अमित होहि भयकारी। गनहिं न मृत्यु बिबश सब झारी॥**
भाष्य

अशुभ रूपवाली कान और नाक से रहित शूर्पणखा को ही खर ने अपनी सेना के आगे कर लिया। उस समय सीमा से रहित भयंकर अपशकुन होने लगे, उनसे इन राक्षस सैनिकों को डर नहीं लग रहा था, क्योंकि ये सारे मृत्यु के विवश हो चुके थे।

**गर्जहिं तर्जहिं गगन उड़ाहीं। देखि कटक भट अति हरषाहीं॥ कोउ कह जियत धरहु द्वौ भाई। धरि मारहु तिय लेहु छुड़ाई॥**
भाष्य

वीर गरजते हैं, ललकारते हैं, आकाश मे उड़ जाते हैं, अपनी सेना देखकर वीर सैनिक बहुत प्रसन्न होते हैं। कोई कहता है कि, दोनों भाई राम, लक्ष्मण को जीते जी पक़ड लो। पक़डकर अथवा, बंदी बनाकर उनके साथ रहनेवाली नारी को छीन लो।

**धूरि पूरि नभ मंडल रहेऊ। राम बोलाइ अनुज सन कहेऊ॥**

**लै जानकिहिं जाहु गिरि कंदर। आवा निशिचर कटक भयंकर॥ भा०– **आकाशमण्डल धूल से भर गया, तब भगवान्‌ श्रीराम ने बुलाकर छोटे भाई लक्ष्मण जी से कहा, लक्ष्मण! जनकनन्दिनी को लेकर पर्वत की गुफा में जाकर छिप जाओ, क्योंकि इनके समक्ष राक्षसों का वध नहीं किया जा सकेगा, इस समय भयंकर राक्षसों की सेना आ गई है।

रहेहु सजग सुनि प्रभु कै बानी। चले सहित श्री शर धनु पानी॥ देखि राम रिपुदल चलि आवा। बिहँसि कठिन कोदंड च़ढावा॥

भाष्य

सजग रहना, इस प्रकार प्रभु की वाणी सुनकर, हाथ में धनुष–बाण लेकर सीता जी के साथ लक्ष्मण जी पर्वत की गुफा में चले गये। इधर श्रीराम ने देखा की शत्रुदल निकट चला आया है उन्होंने हँसकर कठिन कोदंड अर्थात्‌ धनुष च़ढाया।

**छं०– कोदंड कठिन च़ढाइ सिर जटा जूट बाँधत सोह क्यों।** **मरकत कुधर पर लरत दामिनि कोटि सों जुग भुजग ज्यों॥ कटि कसि निषंग बिशाल भुज गहि चाप बिशिख सुधारि कै। चितवत मनहुँ मृगराज प्रभु गजराज घटा निहारि कै॥**
भाष्य

कठिन अर्थात्‌ शत्रुओं की ओर अभेद्द शारंग धनुष च़ढाकर सिर पर जटा का जूट बाँधते हुए प्रभु किस प्रकार शोभित हो रहे हैं, जैसे मरकत मणि के पर्वत पर करोड़ों बिजलियों के साथ दो सर्प लड़ रहे हों। कटि प्रदेश में तरकस कसकर विशाल भुजा से धनुष हाथ में लेकर, बाण सुधारकर प्रभु खर–दूषण की सेना को उसी प्रकार उत्साह से निहार रहें हैं, जैसे श्रेष्ठ हाथियों के समूह को देखकर सिंह सतर्कता से देखता है।

**सो०– आइ गए बगमेल, धरहु धरहु धावत सुभट।** **जथा बिलोकि अकेल, बाल रबिहिं घेरत दनुज॥१८॥**
भाष्य

पक़डो-पक़डो कहकर खर के चौदह सहस्र सैनिक अपनी पंक्तियाँ तोड़कर उसी प्रकार प्रभु श्रीराम को आकर घेर लिए, जैसे प्रात:काल अकेले देखकर बालसूर्य को दस हजार मंदेह नामक राक्षस घेर लेते हैं।

[[५९३]]

**विशेष– **पौराणिक कथा के अनुसार सूर्यनारायण के उदय के समय दस हजार मंदेह नामक राक्षस प्रतिदिन घेर लेते हैं फिर सूर्यनारायण ब्राह्मणों द्वारा दिये हुए सूर्यार्घ्यादि आयुधों से प्रतिदिन प्रात: उन मंदेह राक्षसों को मार डालते हैं और रात्रि में वे फिर जन्म ले लेते हैं।

प्रभु बिलोकि शर सकहिं न डारी। थकित भये रजनीचर झारी॥ सचिव बोलि बोले खर दूषन। यह कोउ नृपबालक नर भूषन॥

भाष्य

प्रभु श्रीराम को देखकर राक्षस उन पर बाण नहीं चला सक रहे हैं, सभी राक्षस सैनिक स्तब्ध रह गए। मंत्रियों को बुलाकर खर–दूषण बोले, (खर ने कहा, यह कोई राजकुमार है, दूषण ने कहा, ये मनुष्यों के आभूषण हैं।) दोनों ने संवेत स्वर में कहा–

**नाग असुर सुर नर मुनि जेते। देखे जिते हते हम केते॥ हम भरि जन्म सुनहु सब भाई। देखी नहिं असि सुंदरताई॥**
भाष्य

संसार में जितने भी नाग, दैत्य, देवता, नर और मुनि हैं, सबको हमने देखा भी, जीता भी और कितनों को मार डाला, परन्तु हे सभी भाइयों! हमने अपने सम्पूर्ण जीवन में ऐसी सुन्दरता नहीं देखी।

**जद्दपि भगिनी कीन्ह कुरूपा। बध लायक नहिं पुरुष अनूपा॥ देहु तुरत निज नारि दुराई। जीवत भवन जाहु द्वौ भाई॥**
भाष्य

यद्दपि इन्होंने मेरी बहन को कुरूप कर दिया है, पर इतने सुन्दर, अनुपम पुरुष बध लायक नहीं हैं अर्थात्‌ अवध्य हैं। उनसे जाकर कहो कि, (गुफा में) छिपायी हुई अपनी नारी को शीघ्र दे दो और दोनों भाई जीते जी घर लौट जाओ।

**मोर कहा तुम ताहि सुनावहु। तासु बचन सुनि आतुर आवहु॥ दूतन कहा राम सन जाई। सुनत राम बोले मुसुकाई॥**
भाष्य

हे दूतों! मेरा कहा हुआ संदेश तुम लोग जाकर उसे अर्थात्‌ बड़े राजपुत्र को सुनाओ और उनका संदेश सुनकर मेरे यहाँ शीघ्र आ जाओ। दूतों ने श्रीराम को खर का संदेश कहा, यह सुनकर श्रीराम मुस्करा कर बोले–

**हम छत्री मृगया बन करहीं। तुम से खल मृग खोजत फिरहीं॥ रिपु बलवंत देखि नहिं डरहीं। एक बार कालहु सन लरहीं॥**
भाष्य

हम तो क्षत्रिय हैं, वन में आखेट करते रहते हैं, तुम जैसे खल मृगों को ढूँढते रहते हैं, बलवान शत्रु से भी नहीं डरते, एक बार तो काल से लड़ जाते हैं।

**जद्दपि मनुज दनुज कुल घालक। मुनि पालक खल सालक बालक॥ जौ न होइ बल घर फिरि जाहू। समर बिमुख मैं हतउँ न काहू॥**
भाष्य

यद्दपि हम लोग मनुष्य हैं, फिर भी राक्षसकुल का नाश करने वाले हैं, मुनियों के पालक हैं और खलों को नय् करनेवाले वीर पिता श्रीदशरथ के पुत्र हैं। यदि तुम लोगों के पास बल न हो तो घर लौट जाओ। युद्ध से विमुख होकर पीठ दिखाने पर मैं किसी को नहीं मारता।

**रन चढि़ करिय कपट चतुराई। रिपु पर कृपा परम कदराई॥ दूतन जाइ तुरत सब कहेऊ। सुनि खर दूषन उर अति दहेऊ॥** [[५९४]]
भाष्य

रणभूमि में आकर तथा युद्ध के सिद्धान्तों पर आव्ऱ्ढ होकर कपटपूर्ण चतुरता करना और शत्रु पर कृपा का प्रर्दशन करना तो बहुत–बड़ी कायरता है। श्रीराम के पास से तुरन्त लौटकर दूतों ने सब कुछ कह दिया। प्रभु का प्रत्युत्तर सुनकर खर–दूषण अपने हृदय में बहुत जल उठे।

**छं०– उर दहेउ कहेउ कि धरहु धावहु बिकट भट रजनीचरा।** **शर चाप तोमर शक्ति शूल कृपान परिघ परशु धरा॥ प्रभु कीन्ह धनुष टकोर प्रथम कठोर घोर भयावहा। भए बधिर ब्याकुल जातुधान न ग्यान तेहि अवसर रहा॥**
भाष्य

खर–दूषण के हृदय जले और उन्होंने कहा– “धनुष, बाण, तोमर, शक्ति (बर्छी), त्रिशूल, कृपाण, परिघ और फरसे को लेकर हे भयंकर राक्षसों! मारो, दौड़ौ।” प्रभु श्रीराम ने प्रथम ही कठोर और भयंकर धनुष का टंकार किया, यह सुनकर राक्षस सैनिक बहरे और व्याकुल हो गये। उस अवसर पर उन्हें कुछ भी ज्ञान नहीं रहा।

**दो०– सावधान होइ धाए, जानि सबल आराति।** **लागे बरषन राम पर, अस्त्र शस्त्र बहुभाँति॥१९\(क\)॥ तिन के आयुध तिल सरिस, करि काटे रघुबीर।**

तानि शरासन स्रवन लगि, पुनि छाड़े निज तीर॥१९(ख)॥

भाष्य

शत्रु श्रीराम को अपनी अपेक्षा सबल जानकर राक्षस सावधान होकर दौड़े और भगवान्‌ श्रीराम पर अनेक प्रकार से अस्त्र–शस्त्रों की वर्षा करने लगे। रघुवीर अर्थात्‌ रघुकुल के पराक्रमी वीर श्रीराम ने उन राक्षसों के आयुधों (अस्त्र–शस्त्रों को) तिल के समान करके काट दिया। पुन: धनुष कान तक खींचकर अपने बाण छोड़े।

**छं०– तब चले बान कराल। फुंकरत जनु बहु ब्याल।** **कोपेउ समर श्रीराम। चले बिशिख निशित निकाम॥१॥ अवलोकि खर तर तीर। मुरि चले निशिचर बीर। एक एक को न सम्हार। करैं तात भ्रात पुकार॥२॥**
भाष्य

तब श्रीराम के भयंकर बाण चले, वे ऐसे फुंकार कर रहे थे, मानो बहुत से सर्प हों। श्रीराम युद्ध में कुपित हो गये और उनके अत्यन्त तीखे बाण चल पड़े। अत्यन्त तीखे बाणों को देखकर वीर राक्षस युद्ध से मुड़ चले, एक–एक को नही सम्भाल रहा था सभी लोग “अरे बाप–अरे भाई” कहकर चिल्ला रहे थे।

**कोउ कहै खर का कीन्ह। जो जुद्ध इन सन लीन्ह। जाके बान अतिहिं कराल। ग्रसैं आय मानहु ब्याल॥३॥**
भाष्य

कोई कह रहा था कि खर ने यह क्या कर डाला, जो इनसे युद्ध ले लिया, जिनके बाण इतने भयंकर हैं, जो सर्प के समान आकर हमें खाये जा रहे हैं।

**भए क्रुद्ध तीनिउ भाइ। जो भागि रन ते जाइ।** **तेहिं बधव हम निज पानि। फिरे मरन मन महँ ठानि॥४॥**
भाष्य

फिर तीनों भाई खर, दूषण और त्रिशिरा बहुत क्रुद्ध हुए और बोले, जो भी युद्ध से भाग जायेगा उसे हम अपने ही हाथ से मार डालेंगे। फिर मन में मरने का निश्चय करके वे राक्षस सैनिक युद्ध के लिए लौटे।

**आयुध अनेक प्रकार। सनमुख ते करहिं प्रहार। रिपु परम कोपे जानि। प्रभु धनुष शर संधानि॥५॥** [[५९५]]

छाड़े बिपुल नाराच। लगे कटन बिकट पिशाच। उर शीष भुज कर चरन। जहँ तहँ लगे महिं परन॥६॥

भाष्य

वे अनेक प्रकार के शस्त्रों द्वारा सामने से प्रहार करने लगे। प्रभु श्रीराम ने शत्रुओं को बहुत कुपित समझकर धनुष पर बाण संधान करके बहुत से बाण छोड़े उनसे भयंकर माँसाहारी राक्षस कटने लगे। जहाँ–तहाँ पृथ्वी पर राक्षसों के हृदय, सिर, भुजायें, हथेलियाँ और चरण कटकर गिरने लगे।

**चिक्करत लागत बान। धर परत कुधर समान।** **भट कटत तन शत खंड। पुनि उठत करि पाषंड॥७॥**
भाष्य

बाणों के लगने से राक्षस वीर चिल्लाते थे उनके पर्वत के समान धड़ गिर रहे थे। राक्षस वीरों के शरीर सैक़डों खण्डों में कट रहे थे, फिर भी वे पाखण्ड करके उठ जाते थे।

**नभ उड़त बहु भुज मुंड। बिनु मौलि धावत रुंड। खग कंक काक शंृगाल। कटकटहिं कठिन कराल॥८॥**
भाष्य

आकाश में बहुत सी भुजायें और सिर उड़ रहे थे और बिना सिर के राक्षसों के धड़ दौड़ रहे थे। गृध्र, कौवे, चील, गीदड़ कठिन और भयंकर कटकटाहट कर रहे थे।

**छं०– कटकटहिं जंबुक भूत प्रेत पिशाच खर्पर संचहीं।** **बेताल बीर कपाल ताल बजाइ जोगिनि नंचहीं॥ रघुबीर बान प्रचंड खंडहि भटन के उर भुज सिरा। जहँ तहँ परहिं उठि लरहिं धर धरु धरु करहिं भयकर गिरा॥९॥**
भाष्य

गीदड़ कटकटा रहे हैं, भूत, प्रेत और पिशाच कटी हुई खोपयिड़ों का संचय कर रहे हैं अर्थात्‌ इकट्ठे कर रहे हैं। वेताल लोगों के सिरों का ताल बजा रहे हैं, योगिनियाँ नाच रही हैं। रघुकुल के वीर भगवान्‌ श्रीराम के भयंकर बाण राक्षस भटों के हृदय, भुजा और सिरों को काट रहे हैं। जहाँ–तहाँ राक्षसों के धड़ पड़ते और फिर उठकर लड़ते हैं और भयंकर वाणी में “धरो, पक़डो” इस प्रकार कहते हैं।

**अंतावरी गहि उड़त गीध पिशाच कर गहि धावहीं। संग्राम पुर बासी मनहुँ बहु बाल गुड़ी उड़ावहीं॥** **मारे पछारे उर बिदारे बिपुल भट कहँरत परे। अवलोकि निज दल बिकल भट त्रिशिरादि खर दूषन फिरे॥१०॥**
भाष्य

गृध्र पक्षी राक्षसों की अंतयिड़ों को लेकर उड़ते हैं और उन्हें हाथ में लेकर पिशाच दौड़ते हैं मानो संग्रामपुर में रहनेवाले बहुत से बालक पतंग उड़ा रहे हों। भगवान्‌ श्रीराम के द्वारा बहुत से वीर मारे गये, बहुत से गिराये गये, बहुतों के हृदय फाड़ डाले गये और बहुत से वीर अपने फटे हुए हृदयों के साथ कराहते हुए समर–भूमि में पड़े हैं। इस प्रकार अपने दल के वीरों को देखकर, त्रिशिरा, खर–दूषण आदि वीर सेनापति युद्ध करने के लिए

लौटे।

शर शक्ति तोमर परशु शूल कृपान एकहि बारहीं। करि कोप श्रीरघुबीर पर अगनित निशाचर डारहीं॥ प्रभु निमिष महँरिपु शर निवारि पचारि डारे सायका।
दस दस बिशिख उर माझ मारे सकल निशिचर नायका॥११॥

[[५९६]]

भाष्य

क्रुद्ध होकर अनगिनत राक्षस रघुवीर भगवान्‌ श्रीराम पर एक ही साथ बाण, बर्छी, तोमर, फरसे और तलवार फेंकते हैं। प्रभु श्रीराम ने एक ही क्षण में शत्रुओं के बाण आदि आयुधों को काटकर, ललकार कर बाण छोड़े और सभी राक्षस सेनापतियों के हृदय के मध्य में दस–दस बाण मारे।

**महि परत उठि भट भिरत मरत न करत माया अति घनी। सुर डरत चौदह सहस निशिचर देखि इक कोसल धनी॥ सुर मुनि सभय प्रभु देखि मायानाथ अति कौतुक कर्‌यो।** **देखहिं परसपर राम करि संग्राम रिपुदल लरि मर्‌यो॥१२॥**
भाष्य

वीर राक्षस पृथ्वी पर पड़ते हैं, फिर उठकर भिड़ते हैं, मरते ही नहीं और अत्यन्त घनी माया करते हैं। चौदह सहस्र राक्षसों के सामने एकमात्र अयोध्यापति श्रीराघव को देखकर देवता डर रहे हैं। देवता और मुनियों को भयभीत देखकर समस्त मायाओं के ईश्वर श्रीराम ने एक अत्यन्त कौतुक किया। सभी लोग परस्पर अर्थात्‌ एक– दूसरे को श्रीराम के ही रूप में देख रहे हैं। इस प्रकार श्रीराम की बुद्धि से एक–दूसरे को मारकर स्वयं ही शत्रुदल अपने ही हाथों लड़कर मर गये।

**दो०– राम राम कहि तनु तजहिं, पावहिं पद निर्बान।** **करि उपाय रिपु मारेउ, छन महँ कृपानिधान॥२०\(क\)॥**
भाष्य

वे राम–राम कहकर अपना शरीर छोड़ते हैं और मोक्ष पद पा जाते हैं। इस प्रकार कृपा के निधान श्रीराम ने उपाय करके एक क्षण में ही चौदह सहस्र राक्षस शत्रुओं को मार डाला।

**हरषित बरषहिं सुमन सुर, बाजहिं गगन निसान।** **अस्तुति करि करि सब चले, शोभित बिबिध बिमान॥२०\(ख\)॥**
भाष्य

देवता प्रसन्न होकर पुष्पवर्षा कर रहे हैं, आकाश में नगारे बज रहे हैं। स्तुति कर–करके अनेक विमानों पर शोभित होकर सभी देवता मुनि अपने–अपने लोक को चले गये।

**जब रघुनाथ समर रिपु जीते। सुर नर मुनि सब के भय बीते॥ तब लछिमन सीतहिं लै आए। प्रभु पद परत हरषि उर लाए॥ सीता चितव श्याम मृदु गाता। परम प्रेम लोचन न अघाता॥ पंचबटी बसि श्री रघुनायक। करत चरित सुर मुनि सुखदायक॥**
भाष्य

जब श्रीरघुनाथ ने युद्ध में शत्रुओं को जीत लिया और देवता, मनुष्य और मुनि सबके भय समाप्त हो गये, तब लक्ष्मण जी पर्वत की गुफा से भगवती श्रीसीता को ले आये। अपने चरणों में पड़ते हुए लक्ष्मण जी को प्रभु ने हर्षित होकर हृदय से लगा लिया। अथवा, लक्ष्मण जी भगवान्‌ श्रीराम के चरणों पर पड़ रहे थे और श्रीसीता ने प्रसन्न होकर प्रभु को हृदय से लगा लिया। श्रीसीता श्रीराघवेन्द्र सरकार के कोमल और श्यामल शरीर को एकटक निहारने लगीं। इसलिए कि राक्षसों के शस्त्रों से कहीं प्रभु को घाव तो नहीं लगा। प्रभु के प्रति श्रीसीता के मन मेें उस समय दाम्पत्यमूलक परमप्रेम उमड़ आया। उनके नेत्र नहीं अघा रहे थे। इस प्रकार पंचवटी में निवास करते हुए रघुकुल के नायक भगवान्‌ श्रीराम देवता, मनुष्यों और मुनियों को सुख देने वाले सुन्दर चरित्र कर रहे हैं।

**विशेष– **यहाँ खर के वध से देवता, दूषण के वध से नर और त्रिशिरा के वध से मुनि निर्भय हुए। इस प्रकार यह चरित्र तीनों के लिए सुखदायक बना।

[[५९७]]
धुआँ देखि खरदूषन केरा। जाइ सुपनखा रावन प्रेरा॥ बोली बचन क्रोध करि भारी। देश कोश कै सुरति बिसारी॥ करसि पान सोवसि दिन राती। सुधि नहिं तव सिर पर आराती॥

भाष्य

खर, दूषण और त्रिशिरा का धुँआ अर्थात्‌ ध्वंस (विनाश) देखकर, अथवा श्रीराम जी के द्वारा अग्निबाण से इन्हें भस्म कर दिये जाने पर इनके उठे हुए धूम को देखकर, अथवा खर, दूषण आदि चौदह सहस्र राक्षसों के शव देखकर शूर्पणखा ने लंका जाकर रावण को प्रेरित किया अर्थात्‌ उत्तेजित किया। शूर्पणखा बहुत–बड़ा क्रोध करके बोली, हे रावण! तू देश और कोश की स्मृति भूलकर मदिरा का पान करता है और दिन–रात सोता है। तुझे स्मरण ही नहीं है कि तेरे सिर पर शत्रु है।

**राज नीति बिनु धन बिनु धर्मा। हरिहिं समर्पे बिनु सतकर्मा॥ बिद्दा बिनु बिबेक उपजाए। श्रम फल प़ढे किए अरु पाए॥ संग ते जती कुमंत्र ते राजा। मान ते ग्यान पान ते लाजा॥ प्रीति प्रनय बिनु मद ते गुनी। नासहिं बेगि नीति असि सुनी॥**
भाष्य

हे रावण! मैंने ऐसी नीति सुनी है कि नीति के बिना राज्य, धर्म के बिना धन, श्रीहरि के समर्पण के बिना सत्कर्म, बिना विवेक उत्पन्न किये हुए विद्दा और प़ढने, करने और पाने के श्रम का फल, आसक्ति से सन्यासी, बुरी मंत्रणा से राजा, अभिमान से ज्ञान, मदिरापान से लज्जा, विनम्रता के बिना प्रीति, मद से गुणी, शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं।

**सो०– रिपु रुज पावक पाप, प्रभु अहि गनिय न छोट करि।**

**अस कहि बिबिध बिलाप, करि लागी रोदन करन॥२१(क)॥ भा०– **शत्रु, रोग, अग्नि, पाप, फल स्वामी और सर्प इन्हें कभी छोटा करके नहीं गिनना चाहिये, ऐसा कहकर अनेक प्रकार से विलाप करके शूर्पणखा रोदन करने लगी।

दो०– सभा माझ ब्याकुल परी, बहु प्रकार कह रोइ।

**तोहि जियत दशकंधर, मोरि कि असि गति होइ॥२१(ख)॥ भा०– **रावण की सभा के बीच शूर्पणखा व्याकुल होकर गिर पड़ी और बार–बार रोकर कहने लगी कि हे दस सिरोंवाले रावण! तेरे जीते जी मेरी ऐसी गति क्यों हो रही है? अर्थात्‌ मेरी ऐसी गति कैसे हो रही है? तेरे जीते रहने पर मेरी ऐसी दुर्दशा का होना क्या उचित है?

सुनत सभासद उठे अकुलाई। समुझाई गहि बाँह उठाई॥
कह लंकेश कहसि निज बाता। केहि तव नासा कान निपाता॥

भाष्य

शूर्पणखा के वचन सुनकर रावण के सभासद अकुलाकर उठे, शूर्पणखा को समझाया और उसकी बाँह पक़डकर उठाया। रावण ने कहा, अपनी बात तो कह, किसने तेरे नाक, कान काटे हैं? शूर्पणखा बोली–

**अवध नृपति दशरथ के जाए। पुरुष सिंघ बन खेलन आए॥** **समुझि परी मोहि उन कै करनी। रहित निशाचर करिहैं धरनी॥ जिन कर भुजबल पाइ दशानन। अभय भए बिचरहिं मुनि कानन॥**

देखत बालक काल समाना। परम धीर धन्वी गुन नाना॥
अतुलित बल प्रताप द्वौ भ्राता। खल बध रत सुर मुनि सुखदाता॥

[[५९८]]
शोभा धाम राम अस नामा। तिन के संग नारि एक श्यामा॥ रूप राशि बिधि रची सँवारी। रति शत कोटि तासु बलिहारी॥ तासु अनुज काटे श्रुति नासा। सुनि तव भगिनि करी परिहासा॥

भाष्य

अवध के महाराज दशरथ के पुत्र, पुव्र्षों में सिंह के समान, दो राजकुमार वन में आखेट खेलने आये हैं। मुझे उनकी करनी का ज्ञान हो गया है, वे पृथ्वी को राक्षसों से रहित कर देंगे। हे दस मुखवाले रावण! उनकी भुजाओं का बल पाकर अभय हुए मुनिगण वनों में विचरण कर रहे हैं। वे दोनों भ्राता देखने में बालक, परन्तु काल के समान हैं। वे अद्वितीय धनुर्धर, परमधीर तथा नाना गुणांें से सम्पन्न हैं। दोनों भ्राता अतुलनीय भुजा प्रताप से सम्पन्न हैं। वे दुष्टों के वध में निरत और देवता तथा मुनियों को सुख देनेवाले हैं। बड़े राजकुमार शोभा के धाम और राम इस नाम से प्रसिद्ध हैं, उनके साथ एक श्यामा अर्थात्‌ षोडश वर्षीया अप्रसूता नारी है। विधाता ने रूप की राशि को ही नारी रूप में सँवारकर बनाया है। उस पर करोड़ों-करोडों रतियां बलिहारी हैं। उन राम के छोटे भाई ने मेरे कान–नाक काटे और तुम्हारी बहन सुनकर उन्होंने मेरा परिहास किया।

**खर दूषन सुनि लगे पुकारा। छन महँ सकल कटक उन्ह मारा॥ खर दूषन त्रिशिरा कर घाता। सुनि दशशीष जरे सब गाता॥**
भाष्य

मेरी पुकार सुनकर खर, दूषण, त्रिशिरा मेरे लिए लगे अर्थात्‌ राम से युद्ध करने लगे परन्तु उन्होंने एक क्षण में ही चौदह सहस्र राक्षसी सेना का संहार कर डाला और खर, दूषण, त्रिशिरा का वध भी कर दिया। यह सुनकर रावण के सम्पूर्ण अंग जल–भुन गये।

**दो०– सूपनखहिं समुझाइ करि, बल बोलेसि बहु भाँति।** **गयउ भवन अति सोचबस, नींद परइ नहिं राति॥२२॥**
भाष्य

शूर्पणखा को समझाकर रावण ने बहुत प्रकार से अपने बल की प्रशंसा की और अत्यन्त चिन्ता के वश में होकर रावण अपने भवन गया। उसे रात में नींद नहीं आ रही थी।

**सुर नर असुर नाग खग माहीं। मोरे अनुचर सम कोउ नाहीं॥ खर दूषन मोहि सम बलवंता। तिनहिं को मारइ बिनु भगवंता॥ सुर रंजन भंजन महि भारा। जौ भगवंत लीन्ह अवतारा॥ तौ मैं जाइ बैर हठि करऊँ। प्रभु शर प्रान तजे भव तरऊँ॥ होइहि भजन न तामस देहा। मन क्रम बचन मंत्र दृ़ढ एहा॥**
भाष्य

रावण सोचने लगा, देवता, मनुष्य, मुनि, नाग और पक्षी इनमें से कोई भी मेरे सेवक के समान भी नहीं है फिर खर, दूषण तो मेरे समान बलवान थे। इन्हें भगवान्‌ के बिना कौन मार सकता है? यदि देवताओं को आनन्द देनेवाले, पृथ्वी का भार नष्ट करने वाले जगदीश्वर साकेतविहारी श्रीराम, श्रीदशरथ के यहाँ अवतार ले चुके हैं तब तो मैं हठपूर्वक जाकर वैर करूँगा और प्रभु श्रीराम के बाणों से अपने प्राणों को छोड़कर भवसागर पार हो जाऊँगा। इस तामसी शरीर में मन, कर्म, वचन से भजन नहीं होगा, मेरा यही दृ़ढ निश्चय है।

**जौ नररूप भूपसुत कोऊ। हरिहउँ नारि जीति रन दोऊ॥**
भाष्य

यदि ये नर रूप में कोई राजकुमार होंगे तो, इन दोनों को युद्ध में जीतकर, इनके साथ में रहने वाली महिला का हरण कर लूँगा।

[[५९९]]

**चला अकेल यान चढि़ तहवाँ। बस मारीच सिंधु तट जहवाँ॥ इहाँ राम जसि जुगुति बनाई। सुनहु उमा सो कथा सुहाई॥**
भाष्य

रावण अपने रथ पर च़ढकर अकेले वहाँ चल पड़ा जहाँ समुद्र तट पर मारीच रहता था। (शिव जी बोले–) हे पार्वती! इधर अर्थात्‌ पंचवटी में भगवान्‌ श्रीराम ने जैसी युक्ति बनाई वह सुन्दर कथा सुनो।

**दो०– लछिमन गए बनहिं जब, लेन मूल फल कंद।** **जनकसुता सन बोले, बिहँसि कृपा सुख बृंद॥२३॥**
भाष्य

जब युद्ध के पश्चात्‌ लक्ष्मण जी मूल, फल और कन्द लेने के लिए वन में चले गये, तब एकान्त में कृपा और सुख के आश्रय, अथवा, समूह रूप भगवान्‌ श्रीराम जी हँसकर जनकनन्दिनी श्रीसीता से बोले–

**सुनहु प्रिया ब्रत रुचिर सुशीला। मैं कछु करब ललित नरलीला॥ तुम पावक महँ करहु निवासा। जब लगि करौं निशाचर नासा॥**
भाष्य

पतिव्रता व्रत से सुन्दर स्वभाववाली मेरी प्रेमास्पद हे सीते! सुनिये, मैं अब कुछ ललित नरलीला करूँगा, इसलिए उसमें लीलाशक्ति की ही नायिका के रूप में आपकी आवश्यकता होगी, अत: जब तक मैं राक्षसों का नाश करता हूँ, तब तक के लिए आप अग्नि में निवास कीजिये।

**विशेष– **क्योंकि रावण ने सूर्य, चन्द्र और अग्नि को तेज से हीन कर दिया है, लंका दहन के लिए अग्नि को अलौकिक तेज की आवश्यकता है, इसलिए आप अग्नि में निवास कीजिये। महाराज श्रीदशरथ पहले ही कह चुके हैं कि, चौदहवर्षीय वनवास की अवधि में कभी पिता के घर और कभी श्वसुर के घर श्रीसीता रहेंगी। यथा–***पितु** गृह कबहुँ कबहुँ ससुराराᐂ**।*–मानस २.८२.५. अग्नि भी श्रीसीता के श्वसुर के समान हैं, क्योंकि उन्हीं के दिए हुए चव्र् को निमित्त मानकर भगवान्‌ श्रीराम का प्राकट्‌य हुआ है, इसलिए प्रभु ने ललित नरलीला काल में श्रीसीता को अग्नि में निवास करने के लिए कहा। लंकादहन करते समय कदाचित्‌ अग्नि श्रीहनुमान के अंगों को जला न दे, क्योंकि अग्नितत्त्व का स्वभाव ज़डप्राय है। यथा–***गगन** समीर अनल जल धरनी। इन कै नाथ सहज ज़ड करनाᐂ*–मानस, ५.५९.२. श्रीसीता की अग्नि में उपस्थिति से लंकादहन के समय श्रीहनुमान की सुरक्षा हो जायेगी। अत: प्रभु ने श्रीसीता को अग्नि में निवास करने के लिए कहा। अग्नि विराट्‌ भगवान्‌ का मुख है, यथा–***आनन** अनल अंबुपति जीहा***–मानस, ६.१५.६. भगवान्‌ को श्रीमुख भी कहा जाता है, अत: “***तुम** पावक महँ करहू निवासा” ***भगवान्‌ श्रीराम का क्रोध भी अग्नि है, यथा–***राम** रोष पावक अति घोरा*–मानस**, ३.३१.१७. कहीं प्रभु के क्रोध से राक्षसों का बहुत अनिय् न हो जाये, अत: कृपाशक्ति श्रीसीता की प्रभु की क्रोधाग्नि में उपस्थिति आवश्यक है, इसलिए ***तुम** पावक महँ करहू निवासा ***श्रीराम का बाण अग्नि है, ***रघुपति** बान कृशानु*–मानस, ५.१५. कहीं वह राक्षसों के शरीर में लगकर बहुत पीड़ा न पहुँचाये, इसलिए वहाँ श्रीसीता का रहना बहुत आवश्यक है, अत: **“*तुम** पावक महँ करहू निवासा”।** *वेद के अग्नि प्रथम देवता हैं, वे ही भगवती को सम्भाल सकते हैं, अत: **“*तुम** पावक महँ करहू निवासा”।** *पति के प्रवास के समय राजवधू को पुरोहित के पास रहना चाहिये और अग्नि प्रथम पुरोहित हैं, *“अग्नि** मिले पुरोहितं” ***\(ऋगवेद १.१.१\). इसलिए श्रीराम जी ने कहा, “*तुम** पावक महँ करहू निवासा” *और अधिक भाव जानने के लिए मेरे द्वारा लिखित ***“तुम** पावक महँ करहू निवासा” ***पुस्तक अवश्य पढि़ये।

जबहिं राम सब कहा बखानी। प्रभु पद धरि हिय अनल समानी॥ निज प्रतिबिंंब राखि तहँ सीता। तैसइ रूप सुशील बिनीता॥ लछिमनहूँ यह मरम न जाना। जो कछु चरित रचा भगवाना॥
[[६००]]

भाष्य

भगवान्‌ श्रीराम ने जब सब कुछ विस्तार से कहा, तब भगवती श्रीसीता हृदय में भगवान्‌ श्रीराम के श्रीचरणों को धारण करके अग्नि में प्रवेश कर गईं। श्रीसीता ने वहाँ अर्थात्‌ पंचवटी में अपने उसी प्रकार के रूप, सुन्दर–स्वभाव और विनम्रता से युक्त प्रतिबिम्ब को रख दिया। उसी में रणलीला के समय वेदवती का प्रवेश हुआ, जो रावण विनाश की निमित्त बनीं। भगवान्‌ श्रीराम ने जो कुछ चरित्र यहाँ रचा अर्थात्‌ श्रीसीता को अग्नि में प्रवेश कराया और उन्हीं की प्रतिबिम्ब को अपने वाम भाग में विराजमान कराया इस मर्म को श्रीलक्ष्मण भी नहीं जान सके और वन से लौटकर आने पर जस का तस देखा।

**दशमुख गयउ जहाँ मारीचा। नाइ माथ स्वारथ रत नीचा॥ नवनि नीच कै अति दुखदाई। जिमि अंकुश धनु उरग बिलाई॥ भयदायक खल कै प्रिय बानी। जिमि अकाल के कुसुम भवानी॥**
भाष्य

दस मुखोंवाला रावण–समुद्र तट पर जहाँ मारीच था वहाँ गया और स्वार्थ में तत्पर, अवसरवादी, निम्न प्रकृतिवाले रावण ने मारीच को मस्तक नवाया। श्रीपार्वती को सम्बोधित करते हुए, भगवान्‌ शिव कहते हैं कि हे भवानी! नीच व्यक्ति का नमन भी बहुत दुखद होता है। जैसे अंकुश अर्थात्‌ बर्छी, धनुष, सर्प और बिल्ली का झुकना। बर्छी झुकने पर ही चुभकर माँस निकालती है। झुके हुए धनुष से ही प्रत्यंचा से छूटा हुआ बाण प्राण ले लेता है। सर्प झुककर ही डंसता है। बिल्ली झुककर ही चूहे पर वार करती है। जिस प्रकार बिना समय के खिले हुए पुष्प भयंकर होते हैं, उसी प्रकार दुष्ट की कोमल वाणी भी भयदायक होती है।

**विशेष– **रावण को पाँच वस्तुओं से उपमित करके यह सूचित किया कि, उसके द्वारा श्रीराम, लक्ष्मण, भगवती श्रीसीता, जटायु और विभीषण इन पाँच लोगों को कय् मिला। उसने अंकुश के समान श्रीराम को व्यथित किया। धनुष बनकर लक्ष्मण जी को, सर्प बनकर श्रीसीता को, बिल्ली के समान जटायु जी को और असमय का पुष्प बनकर विभीषण जी को अथवा समस्त राक्षस समाज को, इस विषय पर विशेष चर्चा श्री राघवकृपाभाष्य में की जायेगी।

दो०– करि पूजा मारीच तब, सादर पूछी बात।
कवन हेतु मन ब्यग्र अति, अकसर आयहु तात॥२४॥

भाष्य

तब राक्षसराज रावण की पूजा (सम्मान) करके मारीच ने आदरपूर्वक बात अर्थात्‌ कुशल पूछी। हे तात! किस कारण से तुम्हारा मन अत्यन्त व्यग्र है और तुम यहाँ अकेले आये हो?

**विशेष– **यहाँ बात शब्द संस्कृत के ‘वार्त्त’ शब्द का अपभ्रंश है, जिसका अर्थ कुशल होता है। कालिदास ने रघुवंश महाकाव्य में वार्त्त शब्द को कुशल के अर्थ में प्रयुक्त किया है *सर्वत्र** नो वार्त्तमवेहि राजन। *-रघुवंश, ५.१३।

दशमुख सकल कथा तेहि आगे। कही सहित अभिमान अभागे॥ होहु कपट मृग तुम छलकारी। जेहि बिधि हरि आनौं नृपनारी॥

भाष्य

भाग्यहीन दस मुखवाले रावण ने मारीच के सामने अभिमानपूर्वक शूर्पणखा–विरूपीकरण तथा श्रीराम द्वारा मारे गये चौदह सहस्र राक्षसों के सहित खर, दूषण, त्रिशिरा वध की सम्पूर्ण कथा कह सुनायी और बोला, मारीच तुम छल करने वाला कपट मृग बन जाओ, जिस प्रकार से मैं नृप नारी अर्थात्‌ राजवधू (अयोध्या के राजा श्रीराम की धर्मपत्नी) सीता को हर लाऊँ।

**तेहिं पुनि कहा सुनहु दशशीशा। ते नररूप चराचर ईशा॥** **तासों तात बैर नहिं कीजै। मारे मरिय जियाए जीजै॥**

[[६०१]]
मुनि मख राखन गयउ कुमारा। बिनु फर शर रघुपति मोहि मारा॥ शत जोजन आयउँ छन माहीं। तिन सन बैर किए भल नाहीं॥ भइ मम कीट भृंग की नाई। जहँ तहँ मैं देखउँ दोउ भाई॥ जौं नर तात तदपि अति शूरा। तिनहिं बिरोधि न आइहि पूरा॥

भाष्य

फिर उस मारीच ने कहा, हे दस सिरोंवाले रावण! सुनो, वे अर्थात्‌ श्रीराम, लक्ष्मण मनुष्य के रूप में चर– अचर संसार के ईश्वर हैं। हे तात! उनसे कभी भी वैर नहीं करना चाहिये जिनके मारने से प्राणी मरता है और जिनके जिलाने से ही जीता है अर्थात्‌ जीव परवश है और परमेश्वर स्वतंत्र हैं, जीवन और मरण, उन्हीं के हाथ में है। विश्वामित्र जी की यज्ञ की रक्षा के लिए कुमार अर्थात्‌ प्रथमावस्था बाल्यकाल मेें ही भगवान्‌ श्रीराम, विश्वामित्र के साथ सिद्धाश्रम गये हुए थे। यज्ञविध्वंस करने आये हुए मुझ मारीच को रघुपति श्रीराम ने बिना फल के बाण से मारा और मैं एक क्षण में ही सौ योजन सागर के पार (आज की दृष्टि से बारह सौ किलोमीटर) दूर यहाँ आ गया। उन श्रीराम के साथ वैर करने से अच्छा नहीं है। मेरी स्थिति कीट, भृंग की हो गई है अर्थात्‌ जैसे झींगुर नामक कीड़े को ले आकर भ्रमर अपने समान बना देता है और भोर का चिन्तन करते–करते झींगुर कीड़ा भी अपना स्वरूप छोड़कर भ्रमर ही बन जाता है, उसी प्रकार मैं राक्षसभाव छोड़कर यत्र–तत्र, सर्वत्र दोनों भाई श्रीराम, लक्ष्मण को ही देखता रहता हूँ। हे तात! यदि श्रीराम मनुष्य भी हों तो भी बहुत–बड़े वीर हैं, उन्हें तुम नहीं जीत सकोगे, उनसे विरोध करके तुम्हारा पूरा नहीं पड़ेगा।

**दो०– जेहिं ताड़का सुबाहु हति, खंडेउ हर कोदंड।** **खर दूषन त्रिशिरा बधेउ, मनुज कि अस बरिबंड॥२५॥**
भाष्य

जिन श्रीराम ने ताटका तथा सुबाहु को मारकर शिव जी के धनुष के दो टुक़डे कर दिये और खर, दूषण तथा त्रिशिरा का वध किया, क्या कोई मनुष्य इस प्रकार का बलवान हो सकता है? अर्थात्‌ मनुष्य में इतना पराक्रम सम्भव नहीं है, क्योंकि शिव जी के धनुष को तोड़नेवाला व्यक्ति नि:स्संदेह शिव जी से भी अधिक प्रभावशाली है।

**विशेष– **बरिबंड शब्द बलिबन्द्द शब्द का अपभ्रंश है। जिसकी व्युत्पत्ति होगी *बलिनां** बन्द्द: *अर्थात्‌ बलवानों का भी वन्दनीय।

जाहु भवन कुल कुशल बिचारी। सुनत जरा दीन्हेसि बहु गारी॥ गुरु जिमि मू़ढ करसि मम बोधा। कहु जग मोहि समान को जोधा॥

भाष्य

हे रावण! अपनी कुल की कुशलता का विचार करके घर अर्थात्‌ लंका लौट जाओ। मारीच की बात सुनते ही रावण क्रोध से जल–भुन गया और मारीच को बहुत गालियाँ दी। रावण बोला, मूर्ख। तू गुरु के समान मेरा प्रबोध कर रहा है, भला कह तो संसार में मेरे समान योद्धा कौन है? क्या मैं राम से पराजित हो जाऊँगा?

**तब मारीच हृदय अनुमाना। नवहि बिरोधे नहिं कल्याना॥ शस्त्री मर्मी प्रभु शठ धनी। बैद बंदि कबि भानस गुनी॥**
भाष्य

मारीच ने हृदय में अनुमान किया कि शस्त्री अर्थात्‌ शस्त्र चालनेवाले, मर्मी अर्थात्‌ भेद जाननेवाले गुप्तचर, प्रभु अर्थात्‌ स्वामी, शठ अर्थात्‌ दुष्ट, धनी अर्थात्‌ धनवान व्यक्ति, वैद्द अर्थात्‌ चिकित्सक, बंदि अर्थात्‌ भाट (यश गानेवाले), कवि अर्थात्‌ साहित्यकार अथवा, विद्वान मनीषी भानस गुनी अर्थात्‌ रसोई बनाने में चतुर कुशल रसोइया, इन नौवों से विरोध करने पर कल्याण नहीं है। उनमें से रावण में पाँच विशेषतायें तो घटती ही है। यह शस्त्रधारी है, यह मेरा भेद भी जानता है अत: मर्मी भी है, यह राक्षसों का समर्थ स्वामी है तथा दुष्ट और धनवान

[[६०२]]

भी है, इसलिए, मेरे पाँच भौतिक शरीर को नष्ट करने में और मेरे पाँच प्राणों को हर लेने के लिए रावण के पास पर्याप्त सामग्री है।

उभय भाँति देखा निज मरना। तब ताकेसि रघुनायक सरना॥ उतर देत मोहि बधब अभागे। कस न मरौं रघुपति शर लागे॥

भाष्य

मारीच ने दोनों प्रकार से अर्थात्‌ न जाने पर रावण के हाथ से और जाने पर श्रीराघव के हाथ से अपना मरण देखा, तब उसने रघुकुल के नायक श्रीराम की शरण तकी अर्थात्‌ श्रीराम की शरण में जाने का निर्णय ले लिया। उत्तर देते ही अभागा रावण मुझे मार डालेगा, फिर तो रघुकुल के स्वामी श्रीराम के बाण लगने से क्यों न मर जाऊँ?

**विशेष– *रावणादपि** मर्त्तव्यम्‌ मर्त्तव्यम्‌ राघवादपि। उभयोर्यदि मर्त्तव्यम वरं रामो न रावण: ***अर्थात्‌ नहीं जाऊँगा तो रावण के हाथ से मरना पड़ेगा और यदि जाऊँगा तो श्रीराघव के हाथ से मरना पड़ेगा, यदि दोनों स्थानों पर मरना ही है तब तो श्रीराम ही श्रेष्ठ हैं, न कि रावण।

अस जियजानि दशानन संगा। चला राम पद प्रेम अभंगा॥ मन अति हरष जनाव न तेही। आजु देखिहउँ परम सनेही॥

भाष्य

मन में ऐसा जानकर मारीच दस मुखवाले रावण के संग चल पड़ा। उसके मन में श्रीराम के श्रीचरणों के प्रति अभंग अर्थात्‌ नहीं नष्ट होनेवाला प्रेम और हर्ष था, पर उसने यह रावण को नहीं जनाया। मारीच सोचने लगा आज मैं अपने परमस्नेह के आश्रय श्रीराम के दर्शन करूँगा।

**छं०– निज परम प्रिय तम देखि लोचन सुफल करि सुख पाइहौं।** **श्री सहित अनुज समेत कृपानिकेत पद मन लाइहौं॥ निर्बान दायक क्रोध जा कर भगति अबशहिं बशकरी। निज पानि शर संधानि सो मोहि बधिहिं सुखसागर हरी॥**
भाष्य

अपने परम प्रियतम (प्यारे) भगवान्‌ श्रीराम को देखकर अपने नेत्रों को सफल करके सुख पाऊँगा। श्रीसीता के सहित, अथवा श्रीसीता के हित अर्थात्‌ प्रेममय कल्याण से पूर्ण एवं लक्ष्मण जी के साथ विराजमान कृपा के निवासस्थान भगवान्‌ श्रीराम के श्रीचरणों में मन लगाऊँगा, जिनका क्रोध भी निर्वाण अर्थात्‌ मोक्ष देने वाला है, जिनकी भक्ति किसी के वश में नहीं आनेवाली स्वयं जिन परमात्मा को वश में कर लेती है, वही सुखों के समुद्र, पापहारी श्रीहरि भगवान्‌ श्रीराम बाण का संधान करके अपने ही हाथ से मेरा वध करेंगे।

**दो०– मम पाछे धर धावत, धरे शरासन बान।**

**फिरि फिरि प्रभुहिं बिलोकिहउँ, धन्य न मो सम आन॥२६॥ भा०– **धनुष–बाण धारण किये हुए मेरे पीछे–पीछे पृथ्वी पर दौड़ते हुए प्रभु श्रीराम को मैं मुड़-मुड़कर बार–बार देखूँगा, आज मेरे समान कोई दूसरा धन्य नहीं है।

सीता लखन सहित रघुराई। जहि बन बसहिं मुनिन सुखदाई॥ तेहि बन निकट दशानन गयऊ। तब मारीच कपट मृग भयऊ॥

भाष्य

श्रीसीता एवं लक्ष्मण जी के सहित मुनियों को सुख देनेवाले रघुकुल के राजा भगवान्‌ श्रीराम जिस वन में निवास कर रहे हैं, उसी पंचवटी वन के निकट जब रावण गया तब मारीच कपट मृग बन गया।

**अति बिचित्र कछु बरनि न जाई। कनक देह मनि रचित बनाई॥ सीता परम रुचिर मृग देखा। अंग अंग सुमनोहर बेषा॥** [[६०३]]
भाष्य

मारीच ने मणियों से रचित स्वर्ण का शरीर बनाया जो अत्यन्त विचित्र अर्थात्‌ आश्चर्यमय था जिसका कुछ भी वर्णन नहीं किया जा सकता, क्योंकि स्वर्णमृग इसके पहले न तो कहीं देखा गया और न ही कहीं सुना गया। श्रीसीता ने अंग–अंग में सुन्दर मन को हरने वाले वेश से युक्त उस परमसुन्दर मृग को देखा।

**सुनहु देव रघुबीर कृपाला। एहि मृग कर अति सुंदर छाला॥ सत्यसंध प्रभु बधि करि एही। आनहु चर्म कहति बैदेही॥**
भाष्य

वैदेही अर्थात्‌ देह से रहित प्रतिबिम्ब की बनी हुई श्रीसीता कहने लगीं कि, हे देव! अर्थात्‌ राक्षसों को जीतने के इच्छुक रघुकुल में श्रेष्ठ, रघुकुल के वीर, कृपामय श्रीराघव! सुनिये, इस मृग की छाल बड़ी सुन्दर है। हे सत्यप्रतिज्ञ समर्थ प्रभु! इस मारीच का वध करके इसका चर्म निश्चयपूर्वक ला दीजिये।

**विशेष– *विगतो** देह यस्य स: विदेह प्रतिबिम्ब: तस्य यम वैदेहाᐂ** *अर्थात्‌ देह से रहित प्रतिबिम्ब की बनी हुई श्रीसीता। दूसरे पक्ष में, *वै** निश्चेन देहि*–अर्थात्‌ मारीच का चर्म निश्चयपूर्वक ला दीजिये, यहाँ दोनों अर्थ श्लेष से ही निकलते हैं।

तब रघुपति जानत सब कारन। उठे हरषि सुर काज सँवारन॥ मृग बिलोकि कटि परिकर बाँधा। करतल चाप रुचिर शर साँधा॥

भाष्य

तब सम्पूर्ण कारणों को जानते हुए रघुकुल अर्थात्‌ तीनों प्रकार के नित्य, बध, मुक्त जीवकुल के स्वामी परब्रह्म परमात्मा श्रीराम देवताओं का कार्य बनाने के लिए प्रसन्न होकर उठे। मृग (कपटी हिरण) को देखकर प्रभु ने अपने कटि प्रदेश में परिकर अर्थात्‌ फेंटा बाँधा। अपने करतल अर्थात्‌ बायीं हथेली में लिए हुए धनुष पर रुचिर अर्थात्‌ सुन्दर ब्रह्मास्त्र के मंत्र से प्रेरित बाण का संधान किया।

**प्रभु लछिमनहिं कहा समुझाई। फिरत बिपिन निशिचर बहु भाई॥ सीता केरि करेहु रखवारी। बुधि बिबेक बल समय बिचारी॥**
भाष्य

प्रभु ने लक्ष्मण जी को समझाकर कहा, हे भैया! वन में बहुत से राक्षस भ्रमण कर रहे हैं, इसलिए बुद्धि, विवेक, बल और समय का विचार करके सीता की रक्षा करना।

**प्रभुहिं बिलोकि चला मृग भाजी। धाए राम शरासन साजी॥ निगम नेति शिव ध्यान न पावा। मायामृग पाछे सो धावा॥**
भाष्य

प्रभु श्रीराम को देखकर कपटी मृग भाग चला और धनुष को सजाकर भगवान्‌ श्रीराम भी उसके पीछे दौड़ पड़े। जिनको वेद ‘नेति–नेति’ कहकर गाते हैं, शिव जी जिन्हें ध्यान में भी सहसा नहीं प्राप्त करपाते, वे ही मायापति भगवान्‌ श्रीराम माया–मृग के पीछे दौड़ रहे हैं।

**कबहुँ निकट पुनि दूरि पराई। कबहुँक प्रगटइ कबहुँ छिपाई॥ प्रगटत दुरत करत छल भूरी। एहि बिधि प्रभुहिं गयउ लै दूरी॥**
भाष्य

स्वर्णमृग वेशधारी मारीच कभी तो श्रीराम के निकट आता और कभी दूर भाग जाता है, कभी प्रकट हो जाता है और कभी छिप जाता है। इस प्रकार प्रकट होते, छिपते और अनेक प्रकार का छल करते हुए कपटमृग मारीच प्रभु को आश्रम से बहुत दूर लेकर चला गया।

**तब तकि राम कठिन शर मारा। धरनि परेउ करि घोर पुकारा॥ लछिमन कर प्रथमहि लै नामा। पाछे सुमिरेसि मन महँ रामा॥** [[६०४]]
भाष्य

तब मारीच को क़डी दृष्टि से देखकर श्रीराम ने ब्रह्मास्त्र मंत्र से प्रेरित तीक्ष्ण बाण को मार दिया, वह (मारीच) भयंकर पुकार करते हुए पृथ्वी पर गिर पड़ा। पहले तो उच्च स्वर में श्रीलक्ष्मण का हाऽऽऽ!!लक्ष्मण उच्चारण के साथ नाम लेकर, पीछे उसने मन में श्रीराम नाम का स्मरण किया।

**प्रान तजत प्रगटेसि निज देही। सुमिरेसि राम सहित बैदेही॥ अंतर प्रेम तासु पहिचाना। मुनि दुर्लभ गति दीन्ह सुजाना॥**
भाष्य

अपने प्राणों को छोड़ते हुए मारीच ने अपने राक्षसी शरीर को प्रकट कर लिया और विदेहनन्दिनी श्रीसीता के सहित भगवान्‌ श्रीराम को “सीताराम–सीताराम” रटते हुए स्मरण किया। चतुर श्रीराम ने मारीच के आन्तरिक प्रेम को पहचान लिया और उसे मुनियों के लिए भी दुर्लभ गति दे दी अर्थात्‌ अपने चरण में ही लीन कर लिया, जहाँ उसकी माता ताटका लीन हुई थी।

**दो०– बिपुल सुमन सुर बरषहिं, गावहिं प्रभु गुन गाथ।**

निज पद दीन्हेउ असुर कहँ, दीनबंधु रघुनाथ॥२७॥

भाष्य

देवता बहुत से पुष्पों की वर्षा करने लगे और प्रभु श्रीराम के गुणों की गाथा गाने लगे। वे बोले, दीनों के बन्धु अर्थात्‌ सहायक अर्थात्‌ जीवमात्र के ईश्वर भगवान्‌ श्रीराम ने असुर अर्थात्‌ देवविरोधी और ‘असु’ यानी प्राणों में ‘र’, अर्थात्‌ रमण करनेवाले मारीच जैसे राक्षस को भी अपना पद अर्थात्‌ चरण दे दिया उसे अपने श्रीचरणों में लीन कर लिया।

**खल बधि तुरत फिरे रघुबीरा। सोह चाप कर कटि तूनीरा॥**
भाष्य

खल प्रकृतिवाले राक्षस मारीच का वध करके रघुवीर श्रीराम तुरन्त आश्रम के लिए लौटे। उनके हाथ में धनुष और कटि प्रदेश में तरकस सुशोभित था।

**विशेष– **मारीच को मारकर बाण भगवान्‌ श्रीराम के तरकस में प्रवेश कर चुका था, इसलिए गोस्वामी जी ने प्रभु के हाथ में केवल धनुष की चर्चा की।

आरत गिरा सुनी जब सीता। कह लछिमन सन परम सभीता॥

भाष्य

जब श्रीसीता ने आर्तवाणी सुनी तब वे परम भयभीत होती हुई, अथवा परम अर्थात्‌ परमशक्ति सम्पन्न भगवान्‌ श्रीराम के प्रति भयभीत होती हुई लक्ष्मण जी से कहने लगीं–

**विशेष– *परा** मा यस्मिन्‌ स परम: तस्मिन्‌ सभीता परम सभीता।***

जाहु बेगि संकट तव भ्राता। लछिमन बिहँसि कहा सुनु माता॥ भृकुटि बिलास सृष्टि लय होई। सपनेहुँ संकट परइ कि सोई॥

भाष्य

हे लक्ष्मण! शीघ्र जाओ तुम्हारे भैया संकट में हैं, लक्ष्मण जी हँसकर बोले, हे माताश्री! सुनिये, जिनके भृकुटि के विलासमात्र से, जगत्‌ की सृय्ि और उसका प्रलय हो जाता है अर्थात्‌ भौंहों के विशेष लास से जगत्‌ की सृय्ि और विकृत लास से प्रलय होता है, क्या वे परमात्मा श्रीराम स्वप्न में भी संकट में पड़ सकते हैं ?

**सौंपि गये रघुपति मोहि थाती। जो तजि जाउँ तोष नहिं छाती॥ मरम बचन जब सीता बोली। हरि प्रेरित लछिमन मति डोली॥**
भाष्य

हे माँ! रघुकुल के स्वामी श्रीराम आपको धरोहर रूप में मुझे सौंप कर गये हैं, जिसे छोड़कर जाता हूँ, तो मेरे हृदय में संतोष नहीं होगा। जब श्रीहरि भगवान्‌ श्रीराम से प्रेरित होकर श्रीसीता मर्मवचन अर्थात्‌ वास्तविक

[[६०५]]

श्रीसीता के अग्निप्रवेश सम्बन्धी गोपनीय वचन बोलीं। तब लक्ष्मण जी की बुद्धि डोल गई अर्थात्‌ श्रीसीता की रक्षा के निश्चय से डिग गई।

**विशेष– **यहाँ की परिस्थिति को न जानने के कारण मर्मवचन शब्द को लेकर भगवत्‌विमुख और अनभिज्ञ लोगों ने प्रारम्भ से लेकर आज तक कुछ वीभत्स पक्ष प्रस्तुत किये। वास्तव में तो जब बार–बार कहने पर भी लक्ष्मण जी ने अपना निश्चय नहीं छोड़ा, तब भगवान्‌ श्रीराम की प्रेरणा से माया की श्रीसीता वही मर्म अर्थात्‌ रहस्यपूर्ण वचन बोलीं जो चौबीसवें दोहे की पाँचवी पंक्ति में श्रीराम, लक्ष्मण जी से छिपा रखे थे, यथा– *लछिमनहूँ यह मरम न जाना–*मानस, ३.२४.५. श्रीसीता ने स्पष्ट कहा कि, हे लक्ष्मण! तुम बहुत हठी हो, मेरी बात समझने का प्रयास नहीं कर रहे हो, इस समय तुम्हारी माताश्री वास्तविक श्रीसीता यहाँ नहीं हैं, अभी तो उनके प्रतिबिम्ब में मैं वेदवती प्रविष्ट हो गई हूँ। प्रभु ने वास्तविक श्रीसीता को राक्षस नाशपर्यन्त अग्नि में निवास करने के लिए आदिष्ट कर दिया है। इसलिए तुम जाओ, तुम नहीं जाओगे तो मेरा हरण नहीं होगा और उसके बिना रावण सहित राक्षसों का मरण नहीं होगा, फिर तुम्हारी सेवा और प्रभु के अवतार का प्रयोजन ये दोनों सिद्ध नहीं हो पायेंगे।

चहु दिशि रेख खँचाइ अहीशा। बारहिं बार नाइ पद शीशा॥ बन दिशि देव सौंपि सब काहू। चले जहाँ रावन शशि राहू॥

भाष्य

अहि अर्थात्‌ शेषनाग के भी नियामक स्वामी, वैकुण्ठबिहारी विष्णुस्वरूप लक्ष्मण जी अपनी धनुष से कुटिया के चारों ओर रेखा खींचकर सीता जी के श्रीचरणों में बारम्बार मस्तक नवाकर, उन्हें सभी वन देवताओं और दिग्पालों को सौंपकर जहाँ रावणरूप चन्द्रमा के नाभिकुण्ड के अमृत के शोषक राहु―प भगवान्‌ श्रीराम विराज रहे थे, वहाँ चले।

**चितवहिं लखन सियहिं फिरि कैसे। तजत बच्छ निज मातहिं जैसे॥**

दो०– एक डरत डर राम के, दूजे सीय अकेलि।

लखन तेज तन हत भयी, जिमि डा़ढी दव बेलि॥२८॥

भाष्य

जाते समय लक्ष्मण जी, श्रीसीता को किस प्रकार निहार रहे हैं, जैसे गाय का छोटा बछड़ा अपनी माँ को छोड़ते हुए निहारता रहता है। एक तो लक्ष्मण जी श्रीराम के डर से डर रहे हैं और दूसरे श्रीसीता को अकेली छोड़कर भयभीत हैं। लक्ष्मण जी का शरीर इस प्रकार तेज से हीन हो गया है जैसे जंगल की आग से झुलसी हुई लता।

**सून बीच दशकंधर देखा। आवा निकट जती के बेषा॥ जाके डर सुर असुर डेराहीं। निशि न नींद दिन अन्न न खाहीं॥ सो दशशीष श्वान की नाईं। इत उत चितइ चला भयिड़ाईं॥ इमि कुपंथ पग देत खगेशा। रह न तेज तन बुधि बल लेशा॥**
भाष्य

इसी बीच रावण ने कुटिया को सून अर्थात्‌ श्रीराम, लक्ष्मण से रहित देखा, तब वह यति के वेश में अर्थात काषाय वस्त्र धारण करके, शिखा, छत्र और जूते पहनकर और बायें कन्धे पर ली हुई एक लाठी में कमण्डल लटका कर “भिक्षाम्‌ देहि” कहते हुए श्रीसीता के निकट आया। यथा–*श्लच्छणकाषायसंवीत: शिखी छत्री उपानही। वामे चांसेऽवसज्याथ शुभे यष्टिकमण्डलू॥–*वाल्मीकि रामायण, ३.४६.३. अर्थात्‌ सुन्दर काषाय वस्त्र धारण किये हुए, लम्बी चोटी, छत्र और चरण में जूता धारण किये हुए, बायें कन्धे पर लाठी, कमण्डल लटकाये हुए, रावण, श्रीसीता के पास आया। गू़ढार्थचन्द्रिकाकार ने अपनी क्षुद्र साम्प्रदायिक संकीर्णता के कारण जो यह कहने का प्रयास किया कि रावण त्रिदण्डी वेश में श्रीसीता के पास आया था, वह पक्ष श्रीवाल्मीकि द्वारा पूर्वलिखित श्लोक में निरस्त हो गया, क्योंकि त्रिदण्ड दाहिने हाथ में लिया जाता है और वह दाहिने स्कन्ध पर

[[६०६]]

आश्रित होता है, जबकि रावण ने बायें कन्धे पर लाठी लटकायी थी। यदि श्रीवाल्मीकि जी को त्रिदण्ड अभीहोता तो वे “ त्रिदण्ड कमण्डलूं”* कह देते। त्रिदण्डी सन्यासी चमड़े का जूता नहीं धारण करते और रावण ने चमड़े का जूता पहन रखा था। यथा–“शिखी छत्री उपानही”*–वाल्मीकि रामायण ३.४६.३.। जिसके डर से देवता डरते हैं, वे रात में नींद नहीं लेते और दिन में अन्न नहीं खाते, वही रावण कुत्ते की भाँति इधर–उधर देखकर परनारी की चोरी के लिए चल पड़ा। भुशण्डिु जी, गरुड़जी को सम्बोधित करते हुए कहते हैं कि हे पक्षीराज गरुड़देव! इसी प्रकार से बुरे मार्ग पर पग देते ही शरीर में तेज, बुद्धि और बल का लेशमात्र भी नहीं रह जाता।

विशेष

यहाँ “भयिड़ाईं” शब्द का अर्थ है चोरी करना।

करि अनेक बिधि छल चतुराई। माँगी भीख दशानन जाई॥ अतिथि जानि सिय कन्द मूल फल। देन लगीं तेहि कीन्ह बहुरि छल॥ कह रावन सुनु सुन्दरि बानी। बाँधी भीख न लेउँ सयानी॥ बिधि गति बाम काल कठिनाई। रेख नाघि सिय बाहेर आई॥

दो०– विश्व भरनि अघ दल दलनि, करनि सकल सुर काज।

जाना नहिं दशशीष तेहि, मू़ढ कपट के साज॥२९॥

भाष्य

अनेक प्रकार से छल और चतुरता करके दस मुखवाले रावण ने निकट जाकर श्रीसीता से भिक्षा माँगी। अतिथि को आया हुआ जानकर श्रीसीता उसे कन्द, मूल, फल देने लगीं। फिर रावण ने श्रीसीता से छल किया, रावण ने कहा, हे चतुर सुन्दरी! मेरी बात सुन, मैं बँधी हुई भिक्षा नहीं ले सकता अर्थात्‌ भिक्षा देने के लिए तुम्हें रेखा लाँघकर बाहर आना पड़ेगा। विधाता की गति की प्रतिकूलता और समय की कठिनता के कारण श्रीसीता लक्ष्मण जी द्वारा खींची हुई रेखा से बाहर आ गईं। जो विश्व का भरण–पोषण करनेवाली, पापसमूहों को नष्ट करनेवाली और देवताओं का समस्त कार्य सम्पन्न करनेवाली भगवान्‌ श्रीराम की लीलाशक्ति इस समय श्रीसीता के रूप में वर्तमान हैं, कपट का साज होने के कारण मोहवश रावण ने उन्हीं श्रीसीता को नहीं पहचाना अर्थात्‌ श्रीसीता को महाकाली के रूप में नहीं जाना। उन्हें तो वह भगवान्‌ श्रीराम की धर्मपत्नी जनकनन्दिनी श्रीसीता ही समझ रहा था। रावण ने माया सीता जी की बुद्धि से श्रीसीता का हरण ही नहीं किया था, क्योंकि वह रहस्य श्रीसीता, राम और लक्ष्मण जी के अतिरिक्त और कोई नहीं जानता था।

**नाना बिधि कहि कथा सुनाई। राजनीति भय प्रीति देखाई॥ कह सीता सुनु जती गोसाईं। बोलेहु बचन दुष्ट की नाईं॥**
भाष्य

रावण ने श्रीसीता की भिक्षा नहीं स्वीकारी उल्टे उन्हें नाना प्रकार से कहकर कथा सुनाने लगा और राजनीति व्याख्यान करने लगा, उसने भय और प्रीति भी दिखाई तब श्रीसीता जी ने कहा, हे गोसाईं यति अर्थात्‌ इन्द्रियों का ही चिन्तन करनेवाला पतित सन्यासी! तूने तो दुष्ट के समान वचन बोले हैं अर्थात्‌ तूने सन्यासी धर्म का उल्लंघन किया है।

**तब रावन निज रूप देखावा। भइ सभीत जब नाम सुनावा॥ कह सीता धरि धीरज गा़ढा। आइ गयउ प्रभु रहु खल ठा़ढा॥**
भाष्य

तब रावण ने श्रीसीता को अपना वास्तविक रूप दिखा दिया और जब उसने अपना रावण नाम सुनाया तब माया की श्रीसीता अपने वेदवती स्वरूप का स्मरण करके भयभीत हो गईं। फिर लीलाशक्ति का आवेश आते ही

[[६०७]]

श्रीसीता ने दृ़ढ धैर्य धारण करके कहा कि, दुष्ट रावण! ख़डा रह, प्रतिक्षा कर प्रभु श्रीराघव आ ही गये अर्थात्‌ आने ही वाले हैं।

जिमि हरिबधुहिं छुद्र शश चाहा। भएसि कालबस निशिचर नाहा॥ बायस कर चह खग पति समता। सिंधु समान होय किमि सरिता॥ खरि कि होइ सुरधेनु समाना। जाहु भवन निज सुनु अग्याना॥ सुनत बचन दशशीष लजाना। मन महँ चरन बंदि सुख माना॥

भाष्य

हे राक्षसराज! सिंह की वधू को जैसे खरगोश देखता है, उसी प्रकार मुझे देखकर अब तू काल के वश में हो गया है। जैसे कौवा गरुड़ की समता करना चाहता हो, उसी प्रकार तू श्रीराघव की समता करना चाहता है। क्या सिन्धु अर्थात्‌ समुद्रगामिनि गंगा जी के समान साधारण कर्मनाशा जैसी नदी हो सकती है? क्या गधी, कामधेनु के समान हो सकती है? उसी प्रकार तेरी अपहृत और परिणीता पत्नियाँ, मुझ श्रीराघव पत्नी सीता की समता नहीं कर सकती। ऐसा समझकर, हे अज्ञानग्रस्त रावण! तू अपनी लंका के भवन लौट जा। श्रीसीता के ये वचन सुनकर रावण लज्जित हो गया। मन में ही उनके चरणों की वन्दना करके उसने सुख माना, प्रसन्न हुआ और सुखपूर्वक श्रीसीता का सम्मान किया।

**दो०– क्रोधवंत तब रावन, लीन्हेसि रथ बैठाइ।**

चला गगनपथ आतुर, भय रथ हाँकि न जाइ॥३०॥

भाष्य

तब क्रोध से युक्त रावण ने माया की सीता जी को अपने रथ पर बैठा लिया और उतावलेपन की व्याकुलता के साथ आकाश मार्ग से चल पड़ा। भगवान्‌ श्रीराम से उत्पन्न हुए भय के कारण उससे शीघ्रता से रथ हाँका नहीं जा रहा था।

**हा जगदेक बीर रघुराया। केहि अपराध बिसारेहु दाया॥ आरति हरन शरन सुखदायक। हा रघुकुल सरोज दिननायक॥ हा लछिमन तुम्हार नहिं दोषा। सो फल पायउँ कीन्हेउँ रोषा॥ बिपति मोरि को प्रभुहिं सुनावा। पुरोडाश चह रासभ खावा॥**
भाष्य

हा! जगत्‌ के एकमात्र वीर रघुराज श्रीराघव! मेरे किस अपराध से, आप अपनी दया के गुण को भूल गये? हा! आर्त्ति का हरण करनेवाले! शरणागतों के सुखदायक श्रीरघुनाथ जी, हा! सूर्यकुल रूप कमल को विकसित करनेवाले सूर्य श्री राघव, हा! लक्ष्मण! तुम्हारा कोई दोष नहीं है। मैंने तुम जैसे निर्दोष सेवक पर क्रोध किया वह फल मैं पा चुकी हूँं। मेरी विपत्ति को प्रभु श्रीराम को कौन सुनायेगा, अथवा कौन सुनाये? अब तो पुरोडाश (यज्ञ की शेष हवि) गधा खाना चाहता है अर्थात्‌ जिस यज्ञ की शेष हवि को खाने का अधिकार यजमान को है, उसे गधा खा रहा है। आशय यह है कि मेरी प्राप्ति यज्ञ शेष हवि है उसके उपभोग का अधिकार निरन्तर यज्ञ करने वाले यजमान श्रीराघव को है, न कि रावण जैसे गधे को।

**बिबिध बिलाप करति बैदेही। भूरि कृपा प्रभु दूरि सनेही॥ सीता कर बिलाप सुनि भारी। भए चराचर जीव दुखारी॥**
भाष्य

श्रीसीता विविध प्रकार से विलाप कर रही हैं। अनन्तकृपा में समर्थ प्रभु श्रीसीता के परमप्रेमी श्रीराम आज उनसे दूर हैं, अथवा माया की श्रीसीता से भूरिकृपा यानी कृपाशक्ति श्रीजानकी और उनके प्रेमास्पद श्रीराम भी आज दूर हो गये हैं, क्योंकि इन्होंने परमभागवत्‌ लक्ष्मण जी का अपमान किया है, अथवा श्रीसीता ही अनेक

[[६०८]]

प्रकार से विलाप करती हुई कह रही हैं, हा! मेरे श्रीराघव प्रभु आपकी कृपा तो मुझ पर बहुत है, परन्तु मेरे प्रेमास्पद प्रभु मुझ से दूर हो गये हैं। आशय यह है कि यदि मुझ पर प्रभु की कृपा नहीं होती तो दो ही चार क्षणों के लिए क्यों न हो, प्रभु का और मेरा सम्पर्क क्यों होता? प्रभु, मुझे कतिपय क्षणों के लिए भी अपने वाम भाग में क्यों स्वीकारते? परन्तु शीघ्र ही प्रभु मुझसे दूर हो गये उनके सान्निध्य का मैं बहुत आनन्द नहीं ले पाई। श्रीसीता के इस भारी विलाप को सुनकर चर–अचर सभी जीव दु:खी हो गये।

गीधराज सुनि आरत बानी। रघुकुलतिलक नारि पहिचानी॥

अधम निशाचर लीन्हे जाई। जिमि मलेच्छ बश कपिला गाई॥

भाष्य

गृद्धों के राजा जटायु जी ने श्रीसीता की आर्तवाणी सुनकर रघुकुलतिलक भगवान्‌ श्रीराम की धर्मपत्नी श्रीसीता को पहचान लिया। इन्हें नीच राक्षस रावण लिए जा रहा है जैसे कसाई यवन के वश में कपिला गाय पड़ गई हो।

**सीते पुत्रि करसि जनि त्रासा। करिहउँ जातुधान कर नासा॥ धावा क्रोधवंत खग कैसे। छूटइ पबि परबत कहँ जैसे॥**
भाष्य

जटायु ने ललकारते हुए कहा, हे पुत्री सीते! मन में त्रास मत करो अर्थात्‌ मत डरो, मैं राक्षस रावण का नाश करूँगा। यह कहकर क्रोध से युक्त पक्षी जटायु किस प्रकार दौड़े, जैसे पर्वत के लिए इन्द्र का वज्र छूटता है।

**रे रे दुष्ट ठा़ढ किन होही। निर्भय चलेसि न जानेसि मोही॥ आवत देखि कृतांत समाना। फिरि दशकंधर कर अनुमाना॥ की मैनाक कि खगपति होई। मम बल जान सहित पति सोई॥ जाना जरठ जटायू एहा। मम कर तीरथ छाहिड़ि देहा॥**
भाष्य

जटायु ने ललकार कर कहा, रे–रे दुष्ट रावण! क्यों नहीं ख़डा हो जाता? तू निर्भय होकर चल पड़ा है, क्या तूने मुझे नहीं जाना कि श्रीसीता का श्वसुर के समान रक्षक जटायु भी यहाँ है? काल के समान जटायु जी को अपने सम्मुख आते हुए देखकर दसकंधर रावण ने फिर अपने मन में अनुमान किया, यह कौन है, क्या यह मैनाक पर्वत है? क्या यह गरुड़ है, क्योंकि वही अर्थात्‌ गरुड़देव ही अपने स्वामी विष्णु के साथ मेरा बल जानते हैं? जिनके चक्र के प्रहार से भी मेरी भुजायें नहीं कटी। इस प्रकार हेतुओं का चिन्तन करते हुए और निकट आने पर रावण ने जान लिया कि यह तो बू़ढा जटायु है, अब यह मेरे हाथरूप तीर्थ में अपना शरीर छोड़ देगा।

**सुनत गीध क्रोधातुर धावा। कह सुनु रावन मोर सिखावा॥ तजि जानकिहिं कुशल गृह जाहू। नाहिं त अस होइहि बहुबाहू॥ राम रोष पावक अति घोरा। होइहि शलभ सकल कुल तोरा॥**
भाष्य

यह सुनते ही क्रोध से आतुर हुए गृद्धराज जटायु जी दौड़े और बोले, रावण! मेरी सीख सुन ले, श्रीजानकी को छोड़कर कुशलपूर्वक लौट जा, नहीं तो हे बहुत बाहुओंवाले रावण! अब ऐसा कुछ होगा अथवा, नहीं तो बहुबाहू अर्थात्‌ बाहू बाहवि अर्थात्‌ हाथों से किया जानेवाला युद्ध यानी हाथापायी होगी, तात्पर्य यह है कि यदि तुम ने मेरी बात नहीं मानी तो इस प्रकार से हाथापायी वाला युद्ध होगा, जिसमें प्रभु श्रीराम के क्रोधरूप अत्यन्त भयंकर अग्नि में तुम्हारा सम्पूर्ण कुल पतंगा हो जायेगा अर्थात्‌ पतंगे की भाँति जल जायेगा।

**विशेष– **बहुबाहू शब्द रावण का विशेषण है, अथवा बाहू बाहवि शब्द का अपभ्रंश है। हाथ से किये जाने वाले अर्थात्‌ हाथापायी के युद्ध को बाहू बाहवि कहते हैं।

[[६०९]]

उतर न देत दशानन जोधा। तबहिं गीध धावा करि क्रोधा॥ धरि कच बिरथ कीन्ह महि गिरा। सीतहिं राखि गीध पुनि फिरा॥ चोचन मारि बिदारेसि देही। दंड एक भइ मुरछा तेही॥

भाष्य

योद्धा रावण जटायु जी का कोई भी उत्तर नहीं दे रहा था। उस समय गृद्धराज जटायु जी क्रोध करके दौड़े, उन्होंने रावण का केश पक़डकर उसे विरथ कर दिया अर्थात्‌ रथ पर से गिरा दिया और रथ भी तोड़ डाला। रावण पृथ्वी पर गिर गया। श्रीसीता को एक ओर रखकर गृद्धराज जटायु जी फिर मुड़े। चोंच से मारकर जटायु जी ने रावण के शरीर को विदीर्ण कर दिया और रावण को एक दण्ड के लिए मूर्च्छा हो गई।

विशेष

श्लेष अलंकार के आधार पर यहाँ गोस्वामी जी ने विरथ शब्द को दो अर्थों में प्रयुक्त किया है। पहला “विगतो रथो यस्य स विरथ:” अर्थात्‌ जटायु जी ने रावण को रथ से हीन कर दिया। दूसरा “विनाशितो रथो यस्य स विरथ:” अर्थात्‌ जटायु जी के द्वारा रावण का रथ तोड़कर विनय् कर दिया गया।

तब सक्रोध निशिचर खिसियाना। का़ढेसि परम कराल कृपाना॥ काटेसि पंख परा खग धरनी। सुमिरि राम करि अदभुत करनी॥ सीतहिं यान च़ढाइ बहोरी। चला उताइल त्रास न थोरी॥

भाष्य

तब क्रुद्ध रावण जटायु जी के ऊपर खीझ गया और उसने अत्यन्त भयंकर चन्द्रहास नाम की तलवार निकाल ली एवं उससे जटायु के दोनों पंख काट दिये। आकाशचारी जटायु जी श्रीराम का स्मरण करके और रणभूमि में आश्चर्यजनक पराक्रम करके पृथ्वी पर गिर गये। फिर श्रीसीता जी को विमान पर च़ढाकर रावण शीघ्रता के साथ चला, उसके मन में बहुत भय था।

**करति बिलाप जाति नभ सीता। ब्याध बिबश जनु मृगी सभीता॥ गिरि पर बैठे कपिन निहारी। कहि हरि नाम दीन्ह पट डारी॥ एहि बिधि सीतहिं सो लै गयऊ। बन अशोक महँ राखत भयऊ॥**
भाष्य

सीता जी विलाप करती हुई आकाश में चली जा रही थीं, मानो बहेलिए के वश में हुई भयभीत हरिणीं हो। ऋषिमुख पर्वत पर बैठे श्री सुग्रीव जी, श्रीहनुमान जी, श्री नल–नील और श्री जाम्बवान्‌ नामक वानर जाति के लोगों को देखकर, श्रीहरि का नाम लेकर श्रीसीता ने अपना उत्तरीय वस्त्र गिरा दिया। इस प्रकार वह रावण श्रीसीता जी को पंचवटी से लंका ले गया और उन्हें अशोक वन में बंदी बनाकर रख दिया।

**दो०– हारि परा खल बहु बिधि, भय अरु प्रीति देखाइ।**

तब अशोक पादप तर, राखेसि जतन कराइ॥३१(क)॥ जेहिं बिधि कपट कुरंग सँग, धाइ चले श्रीराम।

सो छबि सीता राखि उर, रटति रहति हरिनाम॥३१(ख)॥

भाष्य

बहुत प्रकार से भय और प्रेम दिखाकर जब खलप्रकृति का रावण हार गया और श्रीसीता को राजभवन में चलने के लिए सहमत नहीं कर पाया तब रावण ने यत्न पूर्वक श्रीसीता को अशोक वाटिका के अशोक वृक्ष के नीचे ही रख दिया। जिस प्रकार से कपट मृग के साथ श्रीजी को रमाने वाले भगवान्‌ श्रीराम दौड़कर चले थे, उसी छवि को अपने हृदय में रखकर श्रीसीता हरि अर्थात्‌ वेदवेद्द ब्रह्मा जी, विष्णु जी और शिव जी के भी अंशी महाविष्णु प्रभु के श्रीरामनाम को रटती रह रही हैं।

[[६१०]]

रघुपति अनुजहिं आवत देखी। बाहिज चिंता कीन्ह बिशेषी॥

जनकसुता परिहरी अकेली। आयहु तात बचन मम पेली॥

निशिचर निकर फिरहिं बन माहीं। मम मन सीता आश्रम नाहीं॥ गहि पद कमल अनुज कर जोरी। कहेउ नाथ कछु मोहि न खोरी॥

भाष्य

रघुपति अर्थात्‌ रघुकुल के स्वामी भगवान्‌ श्रीराम ने छोटे भाई लक्ष्मण जी को अपने पास आते देखा तो बाहर से विशेष चिन्ता की और बोले, हे भैया! जनकनन्दिनी श्रीसीता को कुटिया में अकेले छोड़ दिया और मेरे वचन अर्थात्‌ आदेश का उल्लंघन करके तुम चले आये। वन में राक्षस समूह घूमते रहते हैं। मेरा मन कहता है कि सीता जी आश्रम में नहीं हैं। व्यंग्यार्थ यह है कि श्रीसीता मेरे मन अर्थात्‌ हृदय में हैं, परन्तु आश्रम में नहीं हैं। लक्ष्मण जी भगवान्‌ के श्रीचरणकमल पक़डकर हाथ जोड़े और कहा, हे नाथ! मेरा कोई दोष नहीं है अर्थात्‌ माता जी ने हठपूर्वक मुझे आपके पास भेजा है।

**अनुज समेत गए प्रभु तहवाँ। गोदावरि तट आश्रम जहवाँ॥ आश्रम देखि जानकी हीना। भए बिकल जस प्राकृत दीना॥**
भाष्य

श्रीलक्ष्मण के सहित प्रभु श्रीराम वहाँ गये जहाँ गोदावरी नदी के तट पर उनका आश्रम था। अपने आश्रम को श्रीसीता से रहित देखकर प्रभु श्रीराम उसी प्रकार व्याकुल हो उठे, जैसे प्राकृत अर्थात्‌ अति साधारण अभावग्रस्त दीन व्यक्ति दु:खी हो जाता है।

**हा गुन खानि जानकी सीता। रूप शील ब्रत नेम पुनीता॥ लछिमन समुझाए बहु भाँती। पूँछत चले लता तरु पाँती॥**
भाष्य

श्रीराम विलाप करने लगे, हा! गुणों की खानि जानकी! हा सीते! हा! रूप, शील और व्रत से पवित्र सीते! हा! तुम कहाँ हो? लक्ष्मण जी ने श्रीराम को बहुत प्रकार से समझाया और प्रभु श्रीराम लताओं और वृक्षसमूहों से पूछते हुए आगे चले।

**हे खग मृग हे मधुकर श्रेनी। तुम देखी सीता मृगनैनी॥**

खंजन शुक कपोत मृग मीना। मधुप निकर कोकिला प्रबीना॥ कुंद कली दामिड़ दामिनी। कमल शरद शशि अहि भामिनी॥ बरुन पाश मनोज धनु हंसा। गज केहरि निज सुनत प्रशंसा॥ श्रीफल कनक कदलि हरषाहीं। नेकु न शंक सकुच मन माहीं॥ सुनु जानकी तोहि बिनु आजू। हरषे सकल पाइ जनु राजू॥ किमि सहि जात अनख तोहि पाहीं। प्रिया बेगि प्रगटसि कस नाहीं॥

भाष्य

हे पक्षियों! हे हरिणों! हे भ्रमरों की श्रेणियों! तुमने हरिण के समान नेत्रवाली तथा स्वर्ण के हरिण पर ही जिसका नेत्र गया हो ऐसी सीता जी को देखा है? खंजन पक्षी, तोता, कबूतर, हरिण, मछली, भौंरों के समूह, गान में कुशल कोकिला, कुन्द की कली, अनार, बिजली, कमल, शरदकालीन चन्द्रमा, अहिभामिनी, अर्थात्‌ नागिन, वरुण का पाश, कामदेव का धनुष, हंस, हाथी और सिंह, ये सभी अपनी प्रशंसा सुन रहे हैं अर्थात्‌ तुम्हारी उपस्थिति में ये सब तुम्हारे अंगों से निन्दित हो रहे थे, अब प्रसन्न हो रहे हैं। श्रीफल (बेल का फल), सुवर्ण, केले का वृक्ष, ये सब प्रसन्न हो रहे हैं, इनके मन में तनिक भी संकोच या शंका नहीं है। हे जानकी! सुनो, तुम्हारे बिना आज ये सब तुम्हारे अंगोें के उपमान, इतने हर्षित हो चुके हैं, मानो उन्हें राज्य मिल गया हो। इस प्रकार तुम्हारे द्वारा अनख अर्थात्‌ क्रोध कैसे सहा जा रहा है यानी इन सबका अपमान और ईर्ष्या तुम क्यों सह रही हो? हे प्रिय! तुम शीघ्र क्यों नहीं प्रकट हो जाती?

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**विशेष– **गोस्वामी तुलसीदास जी ने यहाँ भगवान्‌ श्रीराम से उपमानों का माध्यम लेकर भगवती श्रीसीता का नख, शिख वर्णन कराया। गोस्वामी तुलसीदास जी एक मर्यादावादी कवि हैं और महाकाव्य में नख, शिख वर्णन अनिवार्य है, इसलिए उन्होंने अपने धर्मसंकट का समाधान कर लिया। यहाँ भगवान्‌ श्रीराम, श्रीसीता के इक्कीस उपमानों का संकीर्तन करते हुए विलाप में भी व्यति????15रेक अलंकार प्रस्तुत कर रहे हैं अर्थात्‌ श्रीसीता की उपस्थिति में ये सब नगण्य थे और आज सबके सब प्रसन्न हो रहे हैं। खंजन, हरिण और मछली ये सब श्रीसीता के शृंगार, सौम्य और व्याकुल नेत्रों के उपमान हैं, तोता नासिका का, कबूतर कंठ का, भ्रमर केशों के, कोकिला मधुर वाणी की उपमान है। कुन्दकली, अनार और विद्दुत दाँतों के, कमल श्रीचरण एवं श्रीहस्त, नेत्र और मुख का, शरद्‌चन्द्र मुख का, नागिन श्रीसीता की वेणी का, वरुण–पाश केशबन्ध का, कामधनुष भौंहों का, हंस चाल का, गज प्रसन्नता की चाल का, सिंह कटि का, श्रीफल वक्षोज का, स्वर्ण सम्पूर्ण शरीर की गौरता का और कदली जंघे का उपमान है।

एहि बिधि खोजत बिलपत स्वामी। मनहुँ महा बिरही अति कामी॥ पूरनकाम राम सुख राशी। मनुज चरित कर अज अबिनाशी॥

भाष्य

इस प्रकार समस्त लोकों के स्वामी भगवान्‌ श्रीराम विलाप करते हुए भगवती श्रीसीता को ढूँ़ढ रहे हैं, मानो वे महाविरही और बहुत–बड़े कामी हों। भगवान्‌ श्रीराम पूर्णकाम हैं अर्थात्‌ उनकी समस्त कामनायें पूर्ण हैं। उन्हीं की कृपा से अनेक भक्तों की कामनायें भी पूर्ण हो जाती हैं, ऐसे पूर्णकाम, सुखों की राशि, अजन्मा, अविनाशी, भगवान्‌ श्रीराम स्त्री–विरही मनुष्य के चरित्र का अभिनय कर रहे हैं।

**सरवर अमित नदी गिरि खोहा। बहुबिधि राम लखन तहँ जोहा॥ सोच हृदय कछु कहि नहिं आवा। टूट धनुष सर आगे पावा॥ आगे परा गीध पति देखा। सुमिरत राम चरन चिन्ह रेखा॥**
भाष्य

श्रीराम, लक्ष्मण जी ने अनेक तालाबों, नदियों, पर्वत की कन्दराओं को देखा, वहाँ बहुत प्रकार से श्रीसीता को ढूँ़ढा। श्रीराम के मन में अत्यन्त शोक है, उनके मुख से कुछ कहा नहीं जा रहा है। थोड़ी दूर जाकर उन्होंने रावण का टूटा धनुष और बाण देखा, आगे पड़े हुए गृद्धराज जटायुजी को देखा जो श्रीराम के श्रीचरण चिन्ह की रेखाओं का स्मरण कर रहे थे।

**दो०– कर सरोज सिर परसेउ, कृपासिंधु रघुबीर।**

निरखि राम छबि धाम मुख, बिगत भई सब पीर॥३२॥

भाष्य

कृपा के सागर, रघुकुल के वीर भगवान्‌ श्रीराम ने जटायु के सिर पर अपने करकमल का स्पर्श किया और अपने करकमल से मानो कृपा का सागर जटायु जी के सिर पर परोस दिया। छवि के निवासस्थान प्रभु श्रीराम का मुख देखकर जटायु जी की सम्पूर्ण पीड़ा समाप्त हो गई।

**तब कह गीध बचन धरिधीरा। सुनहु राम भंजन भव भीरा॥ नाथ दशानन यह गति कीन्ही। तेहि खल जनकसुता हरि लीन्ही॥ लै दच्छिन दिशि गयउ गोसाईं। बिलपति अति कुररी की नाईं॥ दरस लागि प्रभु राखेउँ प्राना। चलन चहत अब कृपानिधाना॥**
भाष्य

तब हृदय में धैर्य धारण करके गृद्धराज जटायु जी ने कहा, हे संसार के भय को नय् करनेवाले श्रीराम! सुनिये, हे नाथ! दसमुख रावण ने मेरी यह दशा की है और उसी खल ने जनकसुता श्रीजानकी को हर लिया है। हे

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पृथ्वी के स्वामी! कुररी पक्षी की भाँति अत्यन्त करुण विलाप करती हुई सीता जी को लेकर वह दक्षिण दिशा की ओर गया है। हे प्रभु! आपके दर्शनों के लिए ही मैंने ये प्राण रखे, हे कृपा के भण्डागार, श्रीराम! अब येचलना चाहते हैं।

राम कहा तनु राखहु ताता। मुख मुसुकाइ कही तेहि बाता॥ जा कर नाम मरत मुख आवा। अधमउ मुकुत होइ श्रुति गावा॥ सो मम लोचन गोचर आगे। राखौं देह नाथ केहि खागे॥

भाष्य

भगवान्‌ श्रीराम ने कहा, हे तात अर्थात्‌ पिताश्री! शरीर रख लीजिये। जटायु जी ने मुख से मुस्कुराते हुए यह बात कही, जिनका नाम मरणकाल में यदि मुख में आ जाये तो अधम भी मुक्त हो जाता है, ऐसा वेद गाते हैं। वे ही प्रभु आप मेरे नेत्रों का विषय बनकर सम्मुख उपस्थित हैं। हे नाथ! अब किस न्यूनता की पूर्ति के लिए शरीर को रखूँ?

**जल भरि नयन कहहिं रघुराई। तात कर्म निज ते गति पाई॥ परहित बस जिन के मन माहीं। तिन कहँ जग दुर्लभ कछु नाहीं॥**

तनु तजि तात जाहु मम धामा। देउँ काह तुम पूरनकामा॥

भाष्य

नेत्रों में अश्रु जल भरकर रघुकुल के राजा भगवान्‌ श्रीराम कहने लगे, हे तात अर्थात्‌ पिताश्री जटायु! आपने अपने कर्म से ही यह गति पाई है इसमें मेरी कोई विशेषता नहीं है। जिनके मन में दूसरों का हित करने की भावना रहती है, उनके लिए जगत्‌ में कुछ भी दुर्लभ नहीं होता अर्थात्‌ उन्हें सब कुछ मिल जाता है। हे पिताश्री! यह शरीर छोड़कर आप मेरे धाम साकेतलोक को जाइये। मैं आप को क्या दूँ, आपकी सम्पूर्ण कामनायें पूर्ण हो चुकी हैं, क्योंकि मैं आपका पुत्र बना इसलिए आपकी भुक्ति सुधर गई। मेरे प्रति आपकी अविरलभक्ति है और इस समय आपने अपने कर्म के प्रभाव से चारों मुक्तियाँ प्राप्त कर ली है। मैंने अपने श्रीकरकमल से आपका स्पर्श किया और आपको गोद में लिया इससे आपको सायुज्यमुक्ति मिल गई। मैं आपके समीप हूँ अत: आपने सामीप्यमुक्ति पाई। आप मेरे लोक जा रहे हैं अत: सलोक्यमुक्ति भी आपको मिल गई और मेरा चतुर्भुज रूप धारण करके आप जा रहे हैं, अत: आप सारूप्यमुक्ति भी पा गये।

**दो०– सीता हरन तात जनि, कहहु पिता सन जाइ।**

जौं मैं राम त कुल सहित, कहिहि दशानन आइ॥३३॥

भाष्य

हे पिताश्री! सीताहरण की बात पूज्यपिता चक्रवर्ती जी से जाकर मत कहियेगा, यदि मैं वास्तव में राम अर्थात्‌ सभी अवतारों का अवतारी साकेताधिपति परमात्मा राम हूँ तो फिर सम्पूर्ण परिवार के सहित मेरे पास आकर मुझसे ही स्वयं सन्देशा लेकर रावण ही यह समाचार पिताश्री को सुनायेगा। अथवा, रावणवध के पश्चात्‌ पिताश्री साकेतलोक में मेरे पास होंगे और रावण भी वहीं आकर समाचार सुनायेगा।

**गीध देह तजि धरि हरि रूपा। भूषन बहु पट पीत अनूपा॥ श्याम गात बिशाल भुज चारी। अस्तुति करत नयन भरि बारी॥**
भाष्य

जटायु जी गृद्ध का शरीर छोड़कर भगवान्‌ का वैष्णवरूप धारण करके बहुत से आभूषण और अनुपम पीताम्बर धारण करके, श्याम शरीर और विशाल चार भुजाओं से युक्त होकर आँखों में अश्रुजल भरकर स्तुति करने लगे–

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**विशेष– **अर्थात्‌ चतुर्भुज रूप धारण करके भी जटायु जी के मन से सेवक–सेव्यभाव नहीं गया, क्योंकि जीव मुक्त हो सकता है, पर उस अवस्था में भी जीवात्मा का परमात्मा से स्वरूपगत्‌ भेद बना रहता है। इसीलिए

ब्रह्मसूत्र में भी केवल भोग में जीवात्मा का परमात्मा से सादृश्य कहा गया है, “भोगमात्र* शाम्यलिंगात्‌”।** (व०सू ४.४.१८)*

छं०– जय राम रूप अनूप निर्गुन सगुन गुन प्रेरक सही।

दश शीश बाहु प्रचंड खंडन चंड शर मंडन मही॥ पाथोद गात सरोज मुख राजीव आयत लोचनम्‌। नित नौमि राम कृपालु बाहु बिशाल भव भय मोचनम्‌॥१॥

भाष्य

जटायु जी बोले, हे श्रीराम! आपकी जय हो। हे अनुपम रूपवाले, हे निर्गुण और सगुण, हे गुणों के वास्तविक प्रेरक, हे रावण की प्रचण्ड भुजाओं को काटने में निपुण सुन्दर बाणों को धारण करनेवाले, पृथ्वी के आभूषण प्रभु! आपकी जय हो। जल बरसाने वाले बादल के समान श्यामल शरीर, कमल मुख, लाल कमल के समान विशाल नेत्र, आजानु विशाल बाहु, संसार के भय को नष्ट करनेवाले हे कृपालु श्रीराम! आपको मैं निरन्तर नमन करता हूँ।

**छं०– बल– मप्रमेय– मनादि– मज– मब्यक्त– मेक–मगोचरम्‌।**

गोबिंद गोपर द्वंद्वहर बिग्यानघन धरनीधरम्‌॥

जे राम मंत्र जपंत संत अनंत जन मन रंजनम्‌। नित नौमि राम अकाम प्रिय कामादि खल दल गंजनम्‌॥२॥

भाष्य

हे अमित बलवाले, सभी प्रमाणों से परे, आदिरहित, अजन्मा, प्राकृत इन्द्रियों से व्यक्त न होनेवाले, अद्वितीय, विषयों से परे, गोविन्द अर्थात्‌ वेद, वाणी, बुद्धि, इन्द्रियों तथा पृथ्वी को भी सेविका के रूप में उपलब्ध करनेवाले, इन्द्रियों से परे, द्वन्द्वों को नष्ट करनेवाले, विज्ञान के घनीभूत विग्रह, अथवा विज्ञान के पुंजस्वरूप, अथवा विज्ञान के मेघस्व―प पृथ्वी को धारण करनेवाले तथा जो श्रीराममंत्र का जप करते हैं ऐसे अनन्त सन्तों, अथवा राममंत्र जापक सन्त शेषावतार श्रीलक्ष्मण और अन्य श्रीभरत आदि निष्किंचन भक्तों के मन को आनन्द देनेवाले, कामनारहित जनों के हितैषी, काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर आदि खलों के दल को नष्ट करनेवाले, आप प्रभु श्रीराम जी को मैं निरन्तर नमन करता हूँ।

**छं०– जेहि श्रुति निरंजन ब्रह्म ब्यापक बिरज अज कहि गावहीं।**

करि ध्यान ग्यान बिराग जोग अनेक मुनि जेहि पावहीं॥ सो प्रगट करुना कंद शोभा बृंद अग जग मोहई। मम हृदय पंकज भृंग अंग अनंग बहु छबि सोहई॥३॥

भाष्य

जिन आपश्री को श्रुतियाँ निरन्जन अर्थात्‌ कर्मफल के लेप से रहित ब्रह्म, सर्वव्यापक, रजोगुण से रहित और अजन्मा कहकर गाती हैं। जिन आप श्रीराघव सरकार को अनेक मुनिगण अनेक प्रकार के ध्यान, ज्ञान, वैराग्य, योग, साधना करके प्राप्त कर लेते हैं, वे ही मेरे हृदय रूप कमल के भ्रमर, करुणा के बादल और शोभा के समूहों को धारण करनेवाले, आपश्री लोकाभिराम भगवान्‌ श्रीराम आज मेरी आँखों के सामने प्रकट होकर अपने अंगों में करोड़ों कामदेव की छवि को धारण करके सुशोभित हो रहे हैं और ज़ड-चेतन सबको मोहित कर रहे हैं।

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छं०– जो अगम सुगम स्वभाव निर्मल असम सम शीतल सदा।

पश्यन्ति यं जोगी जतन करि करत मन गो बश यदा॥ सो राम रमा निवास संतत दास बश त्रिभुवन धनी। मम उर बसउ सो शमन संसृति जासु कीरति पावनी॥४॥

भाष्य

जो आप श्रीराघवेन्द्र सरकार संसारियों के लिए अगम अर्थात्‌ कठिन और अपने भक्तों के लिए सुगम अर्थात्‌ सुखपूर्वक प्राप्त हो जाते हैं। जो भक्तों के लिए विषम व्यवहार करते हुए उनके अशुभ फल को भी शुभ में परिवर्तित कर देते हैं और अभक्तों के लिए सम अर्थात्‌ समान रूप से सत्कर्म और कुकर्म का फल देते हैं। जिनका स्वभाव अत्यन्त निर्मल है, जो सदैव शीतल हैं, जब मन और इन्द्रियों को वश में कर लेते हैं तभी योगी यत्नपूर्वक जिन आपश्री को देखते हैं अर्थात्‌ जिनका साक्षात्कार कर लेते हैं, वही तीनों लोक के स्वामी श्रीसीता के हृदय में निवास करनेवाले आप श्रीराम निरन्तर अपने दासों के वश में रहते हैं। जिन आपश्री की कीर्ति अत्यन्त पवित्र है और जो संसार के आवागमन को नष्ट कर देते हैं, वही आप श्रीराम मेरे हृदय में निरन्तर निवास करें।

**दो०– अबिरल भगति माँगि बर, गीध गयउ हरिधाम।**

तेहि की क्रिया जथोचित, निज कर कीन्ही राम॥३४॥

भाष्य

इस प्रकार स्तुति करके वरदान रूप में प्रभु से अविरल भक्ति माँगकर गृद्धराज जटायु जी श्रीहरि श्रीराम के साकेतधाम को चले गये। श्रीराम ने अपने हाथ से उन जटायु जी की यथोचित अंत्येय्ि क्रिया की।

**\* नवाहपारायण, छठाँ विश्राम \***

कोमल चित अति दीनदयाला। कारन बिनु रघुनाथ कृपाला॥ गीध अधम खग आमिष भोगी। गति दीन्ही जो जाचत जोगी॥

भाष्य

अत्यन्त कोमल चित्तवाले, दीनों पर दयालु, बिना कारण ही कृपा करने वाले ऐसे रघुनाथ जी ने माँसाहारी नीच पक्षी गृद्ध जटायु जी को वह गति दे दी जिसे नारदादि योगी माँगते रहते हैं और नहीं पाते।

**विशेष– **नारद जी ने श्रीनारायण से उन्हीं का रूप माँगा था, पर प्रभु ने नारद को अपना रूप न देकर उल्टे उन्हें वानर का रूप दे दिया, परन्तु जटायु जी को बिना माँगे ही चर्तुभुज रूप दे दिया।

सुनहु उमा ते लोग अभागी। हरि तजि होहिं बिषय अनुरागी॥

भाष्य

शिव जी कहते हैं कि, हे पार्वती! सुनिये, वे लोग बहुत दुर्भाग्यशाली हैं, जो भगवान्‌ को छोड़कर विषयों में अनुरक्त हो जाते हैं।

**पुनि सीतहिं खोजत द्वौ भाई। चले बिलोकत बन बहुताई॥ संकुल लता बिटप घन कानन। बहु खग मृग तहँ गज पंचानन॥**
भाष्य

फिर श्रीसीता को खोजते हुए, बहुत से वनों को देखते हुए दोनों भाई श्रीराम, लक्ष्मण जी आगे चले। वहाँ लताओं से युक्त वृक्ष और घने वन तथा बहुत से पक्षी, पशु, हाथी और सिंह थे।

**आवत पंथ कबंध निपाता। तेहिं सब कही स्राप कै बाता॥ दुरबासा मोहि दीन्हे स्रापा। प्रभु पद पेखि मिटा सो पापा॥**
भाष्य

मार्ग में आते हुए कबन्ध को भगवान्‌ ने मार डाला। कबन्ध ने शाप की बात कही। उसने कहा, हे श्रीराघव! मुझे दुर्वासा जी ने शाप दिया था, आज आपके श्रीचरणों को देखकर मेरे सब पाप मिट गये।

[[६१५]]

सुनु गंधर्ब कहउँ मैं तोही। मोहि न सोहाइ ब्रह्मकुल द्रोही॥

दो०– मन क्रम बचन कपट तजि, जो कर भूसुर सेव।

मोहि समेत बिरंचि शिव, बश ताके सब देव॥३५॥

भाष्य

भगवान्‌ श्रीराम ने कहा, हे गन्धर्व! सुनो, मैं तुमसे कहता हूँ कि मुझे ब्राह्मणकुल का द्रोही कभी अच्छा नहीं लगता। जो कपट छोड़कर मनसा, वाचा, कर्मणा, ब्राह्मण की सेवा करते हैं, मुझ महाविष्णु श्रीराम के साथ ब्रह्मा जी, शिव जी, विष्णु जी आदि सभी देवता उसके वश में हो जाते हैं।

**स्रापत ताड़त परुष कहंता। बिप्र पूज्य अस गावहिं संता॥ पूजिय बिप्र शील गुन हीना। शूद्र न गुनगन ज्ञान प्रबीना॥**
भाष्य

सन्त ऐसा गाते हैं कि शाप देता हुआ (नारद जी की भाँति), पिटाई करता हुआ (भृगु जी की भाँति), कठोर वचन कहता हुआ (परशुराम जी की भाँति) भी, ब्राह्मण पूज्य है। शील अर्थात्‌ स्वभाव–गुण से हीन, जन्मना ब्रह्मणत्व को प्राप्त करके (ब्राह्मण द्वारा गर्भाधान संस्कार क्रिया से उसकी सवर्ण पत्नी ब्राह्मणी से उत्पन्न हुए), पुन: गर्भाधान, पुंसवन, सीमन्तोनयन, जातकर्म, नामकरण, बहिर्निष्क्रमण, अन्नप्राशन, चूड़ाकरण, कर्णवेध, लिप्यारम्भ, व्रतबन्ध, वेदारम्भ, समावर्तन, विवाह, अग्निहोत्र इन पन्द्रह संस्कारों से सम्पन्न और सोलहवें अन्त्येष्टि संस्कार के लिए अधिकृत, ऐसे वेदपाठी ब्राह्मण की अवश्य पूजा करनी चाहिये। ब्राह्मणकुल में जन्म लेने पर भी उक्त सोलह संस्कारों से रहित और चिन्ता से असंतुलित, आचरणहीन व्यक्ति की गुणगणों और ज्ञान में प्रवीण (कुशल) होने पर भी पूजा नहीं करनी चाहिये।

**विशेष– **छान्दोग्य उपनिषद्‌ के रैक्व आख्यान से यह स्पष्ट है कि इन प्रकरणों में शूद्र शब्द जातिवाचक न होकर आचरणवाचक है, त्रिकाल सन्ध्यारहित ब्राह्मण भी शूद्र है। अत: स्पष्ट होता है कि शील, गुण से हीन होने पर भी विप्र अर्थात्‌ सदाचारी ब्राह्मण की पूजा करनी चाहिये और गुणगणों और ज्ञान में कुशल होने पर भी शूद्र अर्थात्‌ आचरणहीन किसी भी व्यक्ति की पूजा नहीं करनी चाहिये।

कहि निज धर्म ताहि समझावा। निज पद प्रीति देखि मन भावा॥ रघुपति चरन कमल सिर नाई। गयउ गगन आपनि गति पाई॥

भाष्य

प्रभु श्रीराम ने कबन्ध को उसका और अपना भी धर्म कहकर समझाया और अपने श्रीचरणों में प्रीतिमूलक भक्ति देखकर कबन्ध श्रीराम के मन को भा गया एवं श्रीराम के श्रीचरणकमलों में मस्तक नवाकर अपनी गति पाकर तुम्बुरु गन्धर्व आकाश मार्ग से गन्धर्व लोक चला गया।

**ताहि देइ गति राम उदारा। शबरी के आश्रम पगुधारा॥ शबरी देखि राम गृह आए। मुनि के बचन समुझि जिय भाए॥**
भाष्य

उदार श्रीराम कबन्ध को गति देकर, शबरी के आश्रम में पधारे। शबरी ने श्रीराम को अपने घर आया हुआ देखा, तब मुनिवर श्री मतंग जी के वचन का स्मरण करके शबरी को श्रीराम बहुत भाये।

**सरसिज लोचन बाहु बिशाला। जटा मुकुट सिर उर बनमाला॥ श्याम गौर सुंदर दोउ भाई। शबरी परी चरन लपटाई॥**
भाष्य

कमल जैसे नेत्र, विशाल भुजायें, सिर पर जटा का मुकुट और हृदय पर तुलसी, कुन्द, मन्दार, पारिजात और कमल इन पाँच पुष्पों से गूँथी हुई, चरणपर्यन्त लटकती हुई वनमाला को धारण किये हुए, श्यामल और गौर दोनों भ्राता श्रीराम, लक्ष्मण जी के चरणों में शबरी लिपट गई।

[[६१६]]

प्रेम मगन मुख बचन न आवा। पुनि पुनि पद सरोज सिर नावा॥ सादर जल लै चरन पखारे। पुनि सुंदर आसन बैठारे॥

भाष्य

प्रेम में मग्न होने से शबरी के मुख से वचन नहीं निकल रहे हैं, उन्होंने बारम्बार प्रभु के श्रीचरणकमलों में सिर नवाया। शबरी ने आदरपूर्वक जल लेकर प्रभु श्रीराम, लक्ष्मण जी के चरण पखारे, फिर उन्हें सुन्दर आसन पर बिठाया।

**दो०– कंद मूल फल सुरस अति, दिए राम कहँ आनि।**

प्रेम सहित प्रभु खाए, बारंबार बखानि॥३६॥

भाष्य

शबरी ने कन्द, मूल और अत्यन्त रसयुक्त फल लाकर श्रीराम को दिया और प्रभु ने बारम्बार उसकी प्रशंसा करके प्रेमपूर्वक खाया।

**विशेष– **प्रेमपत्तनम्‌ एवं सूरसागर के अनुसार भगवान्‌ श्रीराम ने शबरी के जूठे फल खाये, यद्दपि वाल्मीकि रामायण आदि में प्रभु द्वारा शबरी के फल खाने की चर्चा तो है, परन्तु जूठे फल खाने की चर्चा नहीं है। अतएव स्वभाव से समन्वयभाव के पक्षधर गोस्वामी जी ने सुरस अति कहकर दोनों पक्षों की बात कह दी जो जिस पक्ष का है, वही मान ले। वस्तुत: फलों में अत्यन्त शोभन रसवत्ता तो शबरी माता के चख–चख कर देने में ही है, क्योंकि भगवत्‌ भजन महिम्ना शबरी मनुष्यभाव से बहुत ऊपर उठ गई हैं और वर्णाश्रम धर्म के पालन का शरीर भाव के स्मरणपर्यन्त ही आज्ञा है। यदि अभिधा वृत्ति से ही यह पक्ष अभीष्ट हो तो खाए पद का कन्दमूल फल के साथ अन्वय करना चाहिए। खाए सुरस सुरस अति कंद मूल फल राम कँह आनि दिए पुन: प्रभु बारम्बार बखानि प्रेम सहित खाए अर्थात्‌ शबरी माता ने अपने द्वारा चखे हुए अत्यन्त स्वादयुक्त कन्दमूल और फल लाकर श्रीराम जी को दिए और प्रभु श्रीराम ने बारम्बार स्वाद की सराहना करके माँ शबरी द्वारा चखे हुए उस कंदमूल फलों को प्रेम सहित खाया।

पानि जोरि आगे भइ ठा़ढी। प्रभुहिं बिलोकि प्रीति अति बा़ढी॥ केहि बिधि अस्तुति करौं तुम्हारी। अधम जाति मैं ज़डमति भारी॥ अधम ते अधम अधम अति नारी। तिन महँ मैं मतिमंद अघारी॥

भाष्य

शबरी जी हाथ जोड़कर आगे ख़डी हो गईं। प्रभु श्रीराम को देखकर उनके मन में भगवत प्रेमभावना और ब़ढी। शबरी बोलीं, हे प्रभु! अत्यन्त ज़ड बुद्धि वाली, अधम जाति में उत्पन्न हुई मैं आपकी स्तुति किस प्रकार करूँ? मैं वर्ण से अधम, आश्रम से अधम और कुल से अत्यन्त अधम नारी हूँ। हे अघासुर के शत्रु! उनमें भी मैं अत्यन्त मन्दबुद्धि की महिला हूँ।

**कह रघुपति सुनु भामिनि बाता। मानउँ एक भगति कर नाता॥ जाति पाँति कुल धर्म बड़ाई। धन बल परिजन गुन चतुराई॥ भगति हीन नर सोहत कैसे। बिनु जल बारिद देखिय जैसे॥**
भाष्य

रघुकुल के स्वामी भगवान्‌ श्रीराम ने कहा, हे भामिनी अर्थात्‌ मेरी कैकेयी माँ के समान सर्वलक्षण सम्पन्न माता शबरी! मैं भक्ति को प्रधान मानता हूँ अर्थात्‌ जाति–पंक्ति, कुल, धर्म, बड़प्पन, धन, बल, परिवार, गुण और चतुरता से सम्पन्न भी मुझ श्रीराम की भक्ति से हीन प्राणी, उसी प्रकार शोभित होता है जैसे बिना जल का बादल दिखता है।

[[६१७]]

नवधा भगति कहउँ तोहि पाहीं। सावधान सुनु धरु मन माहीं॥ प्रथम भगति संतन कर संगा। दूसरि रति मम कथा प्रसंगा॥

दो०– गुरु पद पंकज सेवा, तीसरि भगति अमान।

चौथि भगति मम गुन गन, करइ कपट तजि गान॥३७॥

मंत्र जाप मम दृ़ढ बिश्वासा। पंचम भजन सो बेद प्रकासा॥ छठ दम शील बिरति बहु करमा। निरत निरंतर सज्जन धरमा॥ सातवँ सम मोहि मय जग देखा। मोते संत अधिक करि लेखा॥

आठवँ जथालाभ संतोषा। सपनेहुँ नहिं देखइ परदोषा॥

नवम सरल सब सन छलहीना। मम भरोस हिय हरष न दीना॥ नव महँ एकउ जिन के होई। नारि पुरुष सचराचर कोई॥ सोइ अतिशय प्रिय भामिनि मोरे। सकल प्रकार भगति दृ़ढ तोरे॥

भाष्य

हे शबरी माँ! आपके पास मैं भक्ति के नौ प्रकार कह रहा हूँ, उन्हें सावधान होकर सुनिये और मन में धारण कीजिये अर्थात्‌ यह सोचिये कि, नौ में से एक भी प्रकार की भक्ति से सम्पन्न व्यक्ति मुझे प्रिय हो जाता है और आप में तो मेरी भक्ति के नौवें प्रकार दृ़ढ हो चुके हैं, तो आपकी कक्षा कितनी ऊँची हो गई? सन्तों का संग प्रथम भक्ति है। मेरे कथा के प्रसंगों में अनुरक्ति दूसरी भक्ति है। मानरहित होकर अर्थात्‌ सम्मान–पूजा की लिप्सा के बिना गुव्र्देव के चरणकमलों की सेवा तृतीय भक्ति है। मेरे गुणगणों का कपट छोड़कर गायन चतुर्थ भक्ति है। मेरा दृ़ढ विश्वास करके मंत्र–जाप अर्थात्‌ मुझ श्रीराम का षड्‌क्षर मंत्र या द्वादशाक्षरमंत्र, अथवा अष्टाक्षर या चतुरक्षरमंत्र या द्वैक्षरमंत्र इनमें से किसी भी मंत्र का जाप करना, वेद में प्रसिद्ध मेरी पाँचवीं भक्ति है। स्वभाव से दमनशीलता बहुत से वाह्यकर्मों से वैराग्य और सज्जन अर्थात्‌ श्रीवैष्णवधर्म में निष्ठापूर्वक लगे रहना छठीं भक्ति है। सर्वत्र समदृष्टि रखना जगत को मुझ श्रीराममय देखना, सन्तों को मुझ से अधिक करके समझना यह सातवीं भक्ति है। जितना लाभ हो उसी में संतुष्ट रहना, स्वप्न में भी दूसरों के दोष को नहीं देखना मेरी आठवीं भक्ति है। सभी के समक्ष सरल, छलहीन रहना, हृदय में मेरा भरोसा, हर्ष और दैन्य दोनों से दूर होकर भजन के आनन्द में रहना, यही मेरी नवीं भक्ति है। इन नौ भक्तियों में एक भी भक्ति चर (चेतन) अथवा अचर (ज़ड), नारी अथवा पुरुष इनमें से जिस किसी के पास हो, हे भामिनी अर्थात्‌ कैकेयी तुल्या माँ! वही मुझे अत्यन्त प्रिय होता है। आप में तो मेरी भक्ति के सभी प्रकार दृ़ढ हो चुके हैं।

**विशेष– **इस प्रसंग में श्रीराम ने शबरी को तीन बार ‘भामिनी’ शब्द से सम्बोधित किया है। यथा–**कह रघुपति सुनु भामिनि बाता**–मानस, ३.३७.४. **सोइ अतिशय प्रिय भामिनि मोर**े–मानस, ३.३८.७. **जनकसुता कइ सुधि भामिनि**–मानस, ३.३८.१०. और यही सम्बोधन महाराज दशरथ जी ने कैकेयी को दिया था। यथा– **भामिनि भयउ तोर मनभावा**–मानस, २.२७.२. इससे भगवान्‌ श्रीराम का यही तात्पर्य है कि जितनी मुझे कैकेयी माँ प्रिय हैं उतनी ही प्रिय आप भी हैं।

जोगि बृंद दुरलभ गति जोई। तो कहँ आजु सुलभ भइ सोई॥ मम दरशन फल परम अनूपा। जीव पाव निज सहज स्वरूपा॥ जनकसुता कइ सुधि भामिनी। जानहु कहु करिवरगामिनी॥

[[६१८]]

भाष्य

हे माँ! जो गति योगिवृन्दों के लिए भी दुर्लभ है, वह आज आप को सुलभ हो गई है। मेरे दर्शन का फल

परमपूज्य, अनुपम अर्थात्‌ उपमारहित है। उसी से जीव अपने सहजस्वरूप अर्थात्‌ मेरे दास्यभाव को प्राप्त कर लेता है। हे भामिनी! क्या आप श्रेष्ठ गजगामिनी जनकनन्दिनी श्रीसीता का समाचार जानती हैं? तो कहिए। **विशेष– **दास्यभाव ही जीव का स्वाभाविक स्वरूप है। जीव, ईश्वर कभी नहीं हो सकता, क्योंकि जीव का ईश्वर से स्वरूपगत भेद शाश्वत सत्य है। इस सम्बन्ध में विशेष जानने के लिए प्रस्थानत्रयी पर मेरा राघवकृपाभाष्य देखिये।

पंपा सरहिं जाहु रघुराई। तहँ होइहि सुग्रीव मिताई॥ सो सब कहिहि देव रघुबीरा। जानतहू पूँछहु मतिधीरा॥ बार बार प्रभु पद सिर नाई। प्रेम सहित सब कथा सुनाई॥

भाष्य

हे रघुराज श्रीराम! आप पम्पासरोवर जाइये, वहाँ आपकी सुग्रीव से मित्रता हो जायेगी। हे देवाधिदेव रघु अर्थात्‌ जीवमात्र के वीर अर्थात्‌ प्रेरक प्रभु! वे सुग्रीव आपको श्रीसीता के सम्बन्ध में सब कुछ बतायंेंगे। हे मतिधीर! आप जानते हुए भी सब कुछ पूछ रहे हैं। शबरी माता ने भगवान्‌ श्रीराम के चरणों में बार–बार मस्तक नवाकर प्रेमपूर्वक सब कथा सुनायी।

**छं०– कहि कथा सकल बिलोकि हरि मुख हृदय पद पंकज धरे।**

तजि जोग पावक देह हरि पद लीन भइ जहँ नहिं फिरे॥ नर बिबिध कर्म अधर्म बहुमत शोकप्रद सब त्यागहू। बिश्वास करि कह दास तुलसी राम पद अनुरागहू॥

भाष्य

सम्पूर्ण कथा कहकर प्रभु का मुख निहारकर माता शबरी ने अपने हृदय में भगवान्‌ श्रीराम के श्रीचरणपंकज को धारण कर लिया और योगाग्नि में अपने शरीर को छोड़कर प्रभु के श्रीचरणों में लीन हो गईं, जहाँ जाकर फिर कोई नहीं लौटता। तुलसीदास जी कहते हैं कि हे मनुष्यों! कय् देनेवाले अनेक कर्म अनेक अधर्म और बहुत से मत–मतान्तर सब शोकप्रद है। इन्हें छोड़ दो और विश्वास करके भगवान्‌ श्रीराम के श्रीचरणकमलों में प्रेम करो।

**दो०– जाति हीन अघ जन्म महि, मुक्त कीन्ह असि नारि।**

महामंद मन सुख चहसि, ऐसे प्रभुहिं बिसारि॥३८॥

भाष्य

हे अत्यन्त मन्दमनवाले जीव! अथवा अत्यन्त मन्द मेरे मन! प्रभु श्रीराम ने अत्यन्त हीनजाति में उत्पन्न हुए पापों की जन्मभूमि हिंसाप्रधान कोल, किरातों के कुल में पली, ऐसी संस्कारहीन नारी को भी जब मुक्त कर दिया तो तुम ऐसे प्रभु को छोड़कर क्या सुख चाहते हो? प्रभु के बिना वह तुम्हें मिलेगा ही नहीं।

**विशेष– **इस प्रसंग में सन्त एक दोहा कहते हैं–

ब्याह न किन्हेउ सपनेहूँ, पति दरशन नहीं कीन्ह। शबरी पुत्रवती भई, प्रभु गोदी भरि दीन्ह॥

चले राम त्यागा बन सोऊ। अतुलित बल नर केहरि दोऊ॥ बिरही इव प्रभु करत बिषादा। कहत कथा अनेक संबादा॥

भाष्य

श्रीराम आगे चले, वह वन भी छोड़ा। दोनों भ्राता मनुष्यों में सिंह के समान अतुलनीय बलवाले हैं। प्रभु विरही की भाँति विषाद कर रहे हैं और लक्ष्मण जी से अनेक संवादों के क्रम में अनेक कथायें कह रहे हैं।

[[६१९]]

लछिमन देखु बिपिन कइ शोभा। देखत केहि कर मन नहिं छोभा॥

**नारि सहित सब खग मृग बृंदा। मानहुँ मोरि करत हैं निंदा॥ भा०– **लक्ष्मण! वन की शोभा तो देखो, इसे देखकर किस के मन में क्षोभ नहीं हो जाता? सभी पक्षी और पशु अपनी-अपनी पत्नियों के साथ भ्रमण करते हुए, मानो मेरी निन्दा कर रहे हैं।

हमहिं देखि मृग निकर पराहीं। मृगी कहहिं तुम कहँ भय नाहीं॥ तुम आनंद करहु मृग जाए। कंचन मृग खोजन ए आए॥ संग लाइ करिनी करि लेहीं। मानहुँ मोहि सिखावन देहीं॥

भाष्य

लक्ष्मण! हमें देखकर हरिण लोग भागते हैं, तब मृगियाँ कहती हैं कि तुमको डर नहीं है। हे मृगपुत्रों! तुम तो हमारे साथ आनन्द करो, ये तुमको नहीं मारेंगे, क्योंकि ये तो स्वर्णमृग खोजने आये हैं। हाथी, हथिनियों को अपने साथ लगा लेते हैं, मानो मुझे शिक्षा देते हैं कि तुम्हें सीता जी को छोड़कर स्वर्णमृग मारने के लिए नहीं जाना चाहिये था।

**शास्त्र सुचिंतित पुनि पुनि देखिय। भूप सुसेवित बश नहिं लेखिय॥ राखिय नारि जदपि उर माहीं। जुबती शास्त्र नृपति बश नाहीं॥**
भाष्य

भगवान्‌ श्रीराम, लक्ष्मण जी से कहते हैं कि सुविचारित होने पर भी शास्त्रों को बारम्बार देखना चाहिये, एक क्षण की उपेक्षा से भी शास्त्र भूल जाते हैं और विद्दार्थी को सर्वनाश के कगार पर ख़डा कर देते हैं। सेवा से संतुष्ट हुए राजा को भी अपने वश में नहीं समझना चाहिये। भले सामान्य लोग नारी को हृदय में ही रखें, परन्तु युवती नारी, शास्त्र और राजा किसी के वश में नहीं हुआ करते।

**विशेष– “***शास्त्रं** सुचिन्तितमपि प्रतिवीक्षणीयं संसेवितोऽपि नृपति: पुनरीक्षणीय: अंकेगतापि युवतिश्च निरीक्षणीया शास्त्रे नृपे च युवतौ च कुतोवसित्वं।”*

देखहु तात बसंत सुहावा। प्रिया हीन मोहि भय उपजावा॥

भाष्य

लक्ष्मण! देखो, यह सुहावना वसंत, प्रिया सीता जी से बिछुड़े हुए मुझ राम में भय उत्पन्न कर रहा है।

**दो०– बिरह बिकल बलहीन मोहि, जानेसि निपट अकेल।**

**सहित बिपिन मधुकर खगन, मदन कीन्ह बगमेल॥३९(क)॥ भा०– **मुझे काम ने विरह से व्याकुल सीतारूप शक्ति से अलग होने के कारण निर्बल और अत्यन्त अकेला जान लिया है, इसलिए कामदेव ने वन, भ्रमरों और पक्षियों के सहित, मानो पंक्ति तोड़कर आक्रमण किया है।

देखि गयउ भ्राता सहित, तासु दूत सुनि बात। डेरा कीन्हेउ मनहु तब, कटक हटकि मन जात॥३९(ख)॥

भाष्य

परन्तु कामदेव का दूत वायु जब मुझ राम को भ्राता लक्ष्मण के सहित देखकर गया तब उसकी बात सुनकर, मानो कामदेव ने सेना को रोककर वन में डेरा डाल दिया अर्थात्‌ छावनी बना ली, जिसे देखकर रोकने पर भी मन वहाँ चला जाता है।

**बिटप बिशाल लता अरुझानी। बिबिध बितान दिए जनु तानी॥ कदलि ताल बर धुजा पताका। देखि न मोह धीर मन जाका॥**
भाष्य

विशाल वृक्षों में लतायें उलझी हुई हैं, मानो ये ही काम सेना के अनेक तम्बू हैं। कदली अर्थात्‌ केलेऔर ताल के वृक्ष ही उसके ध्वज और पताका है जिसका मन धीर होगा वही उसे देखकर नहीं मोहित होगा।

[[६२०]]

बिबिध भाँति फूले तरु नाना। जनु बानैत बने बहु बाना॥

कहुँ कहुँ सुंदर बिटप सुहाए। जनु भट बिलग बिलग होइ छाए॥

भाष्य

यहाँ बहुत प्रकार से अनेक वृक्ष फूलों से लदे हैं, मानो ये ही सेना के परिवेश में कुशल तीर चलाने वाले सैनिक हैं। कहीं–कहीं सुन्दर वृक्ष बड़े आकार में सुहावने लग रहे हैं, मानो वे ही अलग–अलग छावनी डाले विशिष्ट योद्धा हैं।

**कूजत पिक मानहुँ गज माते। ढेक महोख ऊँट बिसराते॥ मोर चकोर कीर बर बाजी। पारावत मराल सब ताजी॥ तीतिर लावक पदचर जूथा। बरनि न जाइ मनोज बरूथा॥**
भाष्य

बोलते हुए कोयल मानो मतवाले हाथी हैं, ढेक और महोक पक्षी मानो ऊँट और खच्चर हैं। मोर, चकोर, तोते, कबूतर और हंस ये ही सब ताजी जाति के सुन्दर घोड़े हैं। तीतर और बटेर कामदेव के पैदल सैनिक हैं, कामदेव की सेना का वर्णन नहीं किया जा सकता।

**रथ गिरि शिला दुंदुभी झरना। चातक बंदी गुन गन बरना॥ मधुकर मुखर भेरि सहनाई। त्रिबिध बयारि बसीठी आई॥ चतुरंगिनी सेन सँग लीन्हे। बिचरत सबहिं चुनौती दीन्हे॥**
भाष्य

पर्वत की शिलायें कामदेव के रथ हैं, झरना उस के नगारे हैं। भ्रमरों का गुंजार कामदेव की भेरी और शहनाई है। शीतल, मन्द, सुगन्ध ये तीन प्रकार की बयार दूत बनकर आई है। यह काम वसंत के उपकरण रूप चतुरंगिणीं सेना लिए हुए, सबको चुनौती देता हुआ अर्थात्‌ युद्ध के लिए ललकारता हुआ इस वन में विचरण कर रहा है।

**लछिमन देखत काम अनीका। रहहिं धीर तिन कै जग लीका॥ एहि के एक परम बल नारी। तेहि ते उबर सुभट सोइ भारी॥**
भाष्य

हे लक्ष्मण! काम की सेना को देखते हुए जो लोग धीर अर्थात्‌ विकार से शून्य, पवित्र रह जाते हैं, संसार में उन्हीं की मर्यादा और प्रतिष्ठा होती है। इसके (कामदेव की) एकमात्र नारी परमबल है, उसकी आसक्ति से जो बच जाये वही बहुत–बड़ा योद्धा है अर्थात्‌ पुरुष ही वासना में प्रधान भूमिका निभाता है, अत: व्यभिचार में नारी की अपेक्षा पुरुष का अपराध अधिक होता है।

**दो०– तात तीनि अति प्रबल खल, काम क्रोध अरु लोभ।**

मुनि बिग्यान धाम मन, करहिं निमिष महँ छोभ॥४०(क)॥ लोभ के इच्छा दंभ बल, काम के केवल नारि।

**क्रोध के परुष बचन बल, मुनिवर कहहिं बिचारि॥४०(ख)॥ भा०– **हे तात! काम, क्रोध, और लोभ ये तीनों दुय् अत्यन्त प्रबल हैं, जो विज्ञान के निवास स्थान मुनियों के भी मन में एक क्षण में क्षोभ कर देते हैं। मुनिवर लोग विचार कर कहते हैं कि लोभ के पास इच्छा तथा दम्भ का बल होता है, काम का बल तो एकमात्र नारी है तथा क्रोध के पास कठोर वचन का बल होता है।

गुनातीत सचराचर स्वामी। राम उमा सब अंतरजामी॥

कामिन कै दीनता देखाई। धीरन के मन बिरति दृ़ढाई॥

क्रोध मनोज लोभ मद माया। छूटहिं सकल राम की दाया॥

[[६२१]]

सो नर इंद्रजाल नहिं भूला। जा पर होइ सो नट अनुकूला॥ उमा कहउँ मैं अनुभव अपना। सत हरि भजन जगत सब सपना॥

भाष्य

हे पार्वती! भगवान्‌ श्रीराम तीनों गुणों से परे, चर–अचर सहित सम्पूर्ण जगत्‌ के स्वामी और सभी के अन्तर्यामी हैं। सीताहरण में विलाप करके भगवान्‌ श्रीराम जी ने कामियों की दीनता का दर्शन कराकर धैर्यवानों के मन में वैराग्य को ही दृ़ढ किया है। क्रोध, काम, लोभ, मद, माया ये सभी भगवान्‌ श्रीराम की दया से ही छूट जाते हैं। वह मनुष्य कभी भी संसाररूप इन्द्रजाल में नहीं भूलता, जिस पर वह नट ऐन्द्रजालिक भगवान्‌ श्रीराम अनुकूल होते हैं। हे पार्वती! मैं अपना अनुभव कह रहा हूँ कि श्रीहरि भगवान्‌ श्रीराम का भजन अर्थात्‌ नाम, रूप, लीला, धाम का चिन्तन ही सत्य अर्थात्‌ अविनाशीतत्त्व है। इसके अतिरिक्त जगत्‌ का सम्पूर्ण व्यवहार सब सपना है अर्थात्‌ स्वप्न के समान परिवर्तनशील और अस्थायी है।

**विशेष– **जगत्‌ को स्वप्न कहकर गोस्वामी जी ने झूठा नहीं परन्तु अस्थिर कहा, क्योंकि चारों अवस्थाओं में स्वप्नावस्था भी एक अवस्था है, जिसके विभु हिरण्यगर्भ हैं जिन्हें गोस्वामी जी ने शत्रुघ्न जी से उपमित किया है। गोस्वामी जी के मत में जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति और तुरीया नामक चारों अवस्थायें उर्मिला, श्रुतिकीर्ति, माण्डवी तथा सीता जी की उपमान हैं और इनके विभु विराट्‌, हिरण्यगर्भ, प्राज्ञ और तुरीय परमेश्वर क्रमश: लक्ष्मण, शत्रुघ्न, भरत और श्रीराम के उपमान हैं। यथा– जनु जीव उर चारिउ अवस्था विभुन सहित विराजहीं–मानस, १.३२५.१४ अत: गोस्वामी जी स्वप्न को झूठा कैसे कहेंगे? जगत्‌ सब सपना‘कहकर उन्होंने स्पष्ट रूप से जगत्‌ की क्षणभंगुरता के साथ सत्‌ख्यातिवाद का सिद्धान्त ही स्वीकार किया है।

पुनि प्रभु गए सरोवर तीरा। पंपा नाम सुभग गंभीरा॥ संत हृदय जस निर्मल बारी। बाँधे घाट मनोहर चारी॥ जहँ तहँ पियहिं बिहग मृग नीरा। जनु उदार गृह जाचक भीरा॥

भाष्य

फिर प्रभु श्रीराम पम्पा नामक सुन्दर गम्भीर सरोवर के तट पर गये। उसमें सन्तों के हृदय जैसा निर्मल जल था और चार सुन्दर घाट बने हुए थे। जहाँ–तहाँ अनेक पक्षी और मृग जल पी रहे थे, मानो उदार के घर में याचकों की भीड़ लगी हो।

**दो०– पुरइनि सघन ओट जल, बेगि न पाइय मर्म।**

मायाछन्न न देखिए, जैसे निर्गुन ब्रह्म॥४१(क)॥

भाष्य

घनी पुरइनों अर्थात्‌ कमलिनियों के आर (व्यवधान) में जल का मर्म शीघ्रता से नहीं पाया जा सकता था, जैसे माया से आच्छन्न बुद्धि से निर्गुणब्रह्म नहीं देखे जा सकते।

**सुखी मीन सब एकरस, अति अगाध जल माहिं।**

**जथा धर्मशीलन के, दिन सुख संजुत जाहिं॥४१(ख)॥ भा०– **एकरस अर्थात्‌ स्थिर अत्यन्त अथाह जल में रहने वाले सभी मछली उसी प्रकार सुखी थे जैसे धर्मात्माजनों

के दिन सुखपूर्वक ही बीतते हैं।

बिकसे सरसिज नाना रंगा। मधुर मुखर गुंजत बहु भृंगा॥ बोलत जलकुक्कुट कलहंसा। प्रभु बिलोकि जनु करत प्रशंसा॥

[[६२२]]

भाष्य

पम्पा सरोवर में श्वेत रक्त, नील और पीत इन नाना रंगों के कमल खिले हुए थे। मधुर स्वर में बहुत से भ्रमर गुंजार कर रहे थे। वहाँ जल के मुर्गे और श्रेष्ठ हंस बोल रहे थे, मानो वे प्रभु श्रीराम को देखकर प्रशंसा कर रहे थे।

**चक्रवाक बक खग समुदाई। देखत बनइ बरनि नहिं जाई॥ सुंदर खग गन गिरा सुहाई। जात पथिक जनु लेत बोलाई॥**
भाष्य

वहाँ चक्रवाक और बगुलों का भी समुदाय था जो देखते बनता था और कहा नहीं जा सकता था। सुन्दर पक्षियों की सुहावनी वाणी, मानो जाते हुए पथिकों को तालाब के पास बुला लेती थी।

**ताल समीप मुनिन गृह छाए। चहुँ दिशि कानन बिटप सुहाए॥ चंपक बकुल कदंब तमाला। पाटल पनस परास रसाला॥ नव पल्लव कुसुमित तरु नाना। चंचरीक पटली कर गाना॥ शीतल मंद सुगंध सुभाऊ। संतत बहइ मनोहर बाऊ॥ कुहू कुहू कोकिल धुनि करहीं। सुनि रव सरस ध्यान मुनि टरहीं॥**
भाष्य

तालाब के समीप चारों ओर मुनियों ने कुटिया बनाई हुई थी और उनके चारों ओर वन में सुहावने वृक्ष थे। जिनमें चम्पा, बकुल, कदम्ब, तमाल, गुलाब, कटहल, ढाँक (टेसू) और आम्र प्रमुख थे। नवीन पल्लवों से युक्त कुसुमित अर्थात्‌ पुष्पों से लदे हुए अनेक प्रकार के वृक्षों पर भ्रमरों का समूह गान कर रहा था। स्वभाव से शीतल, मन्द, सुगन्ध सुन्दर वायु निरन्तर बह रहा था। कोयल कूहूऽऽऽ–कूहूऽऽऽ ध्वनि कर रहे थे, जिनका सरस स्वर सुनकर मुनियों के ध्यान टल जाते थे।

**दो०– फल भारन नमि बिटप सब, रहे भूमि नियराइ।**

पर उपकारी पुरुष जिमि, नवहिं सुसंपति पाइ॥४२॥

भाष्य

फल के बोझों से झुके हुए सभी वृक्ष पृथ्वी के समीप आ गये थे, जैसे परोपकारी पुरुष सुन्दर सम्पत्ति पाकर झुक जाते हैं।

**देखि राम अति रुचिर तलावा। मज्जन कीन्ह परम सुख पावा॥ देखी सुंदर तरुवर छाया। बैठे अनुज सहित रघुराया॥**
भाष्य

अत्यन्त सुन्दर तालाब देखकर भगवान्‌ श्रीराम ने परमसुख प्राप्त किया और उसमें स्नान किया। एक सुन्दर श्रेष्ठ वृक्ष की छाया देख वहाँ छोटे भाई सहित रघुराज श्रीराम बैठ गये।

**तहँ पुनि सकल देव मुनि आए। अस्तुति करि निज धाम सिधाए॥ बैठे परम प्रसन्न कृपाला। कहत अनुज सन कथा रसाला॥**
भाष्य

फिर वहाँ सम्पूर्ण देवता और मुनि आये। वे प्रभु की स्तुति करके अपने–अपने निवासस्थान को चले गये। पम्पा सरोवर के तट पर वृक्ष की छाया में लक्ष्मण जी के समक्ष रसयुक्त कथा कहते हुए कृपालु श्रीराम परमप्रसन्न हुए विराज रहे हैं।

**बिरहवंत भगवंतहिं देखी। नारद मन भा सोच बिशेषी॥ मोर स्राप करि अंगीकारा। सहत राम नाना दुख भारा॥ ऐसे प्रभुहिं बिलोकउँ जाई। पुनि न बनिहिं अस अवसर आई॥ यह बिचारि नारद कर बीना। गए जहाँ प्रभु सुख आसीना॥ गावत राम चरित मृदु बानी। प्रेम सहित बहु भाँति बखानी॥**

[[६२३]]

भाष्य

भगवान्‌ श्रीराम को विरहवान देखकर नारद जी के हृदय में विशेष चिन्ता हुई। वे सोचने लगे कि मेरे शाप को स्वीकार करके भगवान्‌ श्रीराम नाना प्रकार के दु:ख के भार सह रहे हैं, जाकर ऐसे प्रभु के दर्शन करूँ। फिर इस प्रकार का अवसर नहीं बनेगा। ऐसा विचार करके हाथ में वीणा लेकर प्रेम के साथ बहुत प्रकार से बखान कर श्रीरामचरित्र का गान करते हुए नारद जी जहाँ प्रभु सुखपूर्वक आसीन थे, वहाँ गये।

**करत दंडवत लिए उठाई। राखे बहुत बार उर लाई॥ स्वागत पूँछि निकट बैठारे। लछिमन सादर चरन पखारे॥**
भाष्य

दण्डवत्‌ करते देखकर देवर्षि नारद जी को भगवान्‌ श्रीराम ने उठा लिया और बहुत देर तक हृदय से लगाये रखा। वस्तुत: यह अर्थ प्राचीन टीकाकारों के अनुरोध से किया गया है। वास्तविकता इसके विपरीत है। नारद जी को आते देखकर ब्रह्मण्यदेव प्रभु श्रीराम दण्डवत्‌ करने लगे। प्रभु को दण्डवत्‌ करते देख नारद जी ने उन्हें उठा लिया और बहुत देर तक हृदय से लगा रखा। स्वागत अर्थात्‌ सुन्दर आगमन का समाचार पूछकर, प्रभु श्रीराम ने नारद जी को निकट बैठाया। लक्ष्मण जी ने नारद जी के चरणकमलों को पखारा।

**दो०– नाना बिधि बिनती करि, प्रभु प्रसन्न जिय जानि।**

नारद बोले बचन तब, जोरि सरोरुह पानि॥४३॥

भाष्य

तब नाना प्रकार से प्रार्थना करके प्रभु श्रीराम को मन में प्रसन्न जानकर कमल के समान कोमल हाथ जोड़कर देवर्षि नारद जी वचन बोले–

**सुनहु उदार सहज रघुनायक। सुंदर अगम सुगम बर दायक॥ देहु एक बर मागउँ स्वामी। जद्दपि जानत अंतरजामी॥**
भाष्य

हे स्वभावत: उदार और स्वभावत: सुन्दर, कठिन और सुगम वरदान देनेवाले, रघुकुल के नायक श्रीराम! सुनिये, मैं एक वरदान माँग रहा हूँं, उसे दे दीजिये। हे स्वामी! हे अन्तर्यामी श्रीराम! यद्दपि आप उसे जानते हैं।

**जानहु मुनि तुम मोर सुभाऊ। जन सन कबहुँ कि करउँ दुराऊ॥**

**कवनि बस्तु असि प्रिय मोहि लागी। जो मुनिवर न सकहु तुम माँगी॥ भा०– **भगवान्‌ श्रीराम ने कहा, हे मुनिश्रेष्ठ! आप मेरा स्वभाव जानते हैं। क्या मैं अपने भक्तों से कभी कुछ छिपाव करता हूँ? संसार में मुझे कौन ऐसी वस्तु प्रिय लगी है जो आप नहीं माँग सकते?

जन कहँ कछु अदेय नहिं मोरे। अस बिश्वास तजहु जनि भोरे॥

तब नारद बोले हरषाई। अस बर माँगउँ करउँ ढिठाई॥

भाष्य

भक्त के लिए मुझे कुछ भी अदेय नहीं है, ऐसा विश्वास भूलकर भी नहीं छोयिड़ेगा। तब नारद जी प्रसन्न होकर बोले, मैं ऐसा वर माँग रहा हूँ और ढिठाई कर रहा हूँ, क्योंकि नामापराध कर रहा हूँ।

**जद्दपि प्रभु के नाम अनेका। श्रुति कह अधिक एक ते एका॥ राम सकल नामन ते अधिका। होउ नाथ अघ खग गन बधिका॥**
भाष्य

यद्दपि वेद प्रभु के एक से एक श्रेष्ठ अनेक नाम कहते हैं, फिर भी हे नाथ! श्रीरामनाम आपके सभी नामों से अधिक प्रभावशाली हो जाये और यह पापरूप पक्षीसमूहों के लिए बहेलिए के समान हो जाये।

**दो०– राका रजनी भगति तव, राम नाम सोइ सोम।**

अपर नाम उडुगन बिमल, बसहुँ भगत उर ब्योम॥४४(क)॥

[[६२४]]

भाष्य

हे प्रभु! आपकी भक्तिरूपी पूर्णिमा की रात्रि में वही रामनाम चन्द्रमा के समान हो तथा आपके और नाम तारागणों के समान हों। इस प्रकार, भक्त के निर्मल हृदय आकाश में आपकी भक्ति पूर्णिमा के पर्व पर अन्य नामरूप तारागणों के सहित आपका श्रीरामनामरूप चन्द्रमा निवास करे।

**एवमस्तु मुनि सन कहेउ, कृपासिंधु रघुनाथ।**

तब नारद मन हरष अति, प्रभु पद नायउ माथ॥४४(ख)॥

भाष्य

कृपा के सागर श्रीरघुनाथ ने मुनि से कहा, एवमस्तु (ऐसा ही हो), तब मन में अत्यन्त प्रसन्न होकर नारद जी ने प्रभु के श्रीचरणों में मस्तक नवाया।

**अति प्रसन्न रघुनाथहिं जानी। पुनि नारद बोले मृदु बानी॥ राम जबहिं प्रेरेउ निज माया। मोहेहु मोहि सुनहु रघुराया॥ तब बिबाह मैं चाहउँ कीन्हा। प्रभु केहि कारन करै न दीन्हा॥**
भाष्य

श्रीरघुनाथ को अत्यन्त प्रसन्न जानकर, नारद जी फिर कोमल वाणी बोले, हे रघुकुल के राजा परब्रह्म परमात्मा श्रीराम! जब आप ने विष्णुरूप की अपनी माया को प्रेरित किया और मुझे मोहित कर लिया तब मैं विवाह करना चाहता था, हे प्रभु! तब आपने मुझे किस कारण से विवाह नहीं करने दिया?

**सुनु मुनि तोहि कहउँ सहरोसा। भजहिं जे मोहि तजि सकल भरोसा॥**

करउँ सदा तिन कै रखवारी। जिमि बालक राखइ महतारी॥

गह शिशु बच्छ अनल अहि धाई। तेहि राखइ जननी अरगाई॥

प्रौ़ढ भए तेहि सुत पर माता। प्रीति करइ नहिं पाछिलि बाता॥ मोरे प्रौ़ढ तनय सम ग्यानी। बालक सुत सम दास अमानी॥

भाष्य

हे नारद मुनि! मैं तुम से सहर्ष यह बात कह रहा हूँ। जो मुझे सभी का भरोसा छोड़कर भजते हैं, उनकी मैं उसी प्रकार सदैव रखवाली करता हूँ, जैसे वात्सल्यवती माँ बालक की रक्षा करती है। छोटा–सा वात्सल्यभाजन बालक अग्नि और सर्प दौड़कर पक़डता है, तब उसे चुपचाप माँ दौड़कर बचा लेती है और प्रौ़ढ हो जाने पर उसी पुत्र पर माता प्रीति तो करती है, पर उसकी पिछली बात नहीं रह जाती, क्योंकि अब प्रौ़ढ हुआ पुत्र माता पर ही निर्भर नहीं रहता स्वयं अपनी रक्षा करने लगता है और कुछ हित, अहित जानने लगता है। उसी प्रकार ज्ञानी–भक्त मेरे प्रौ़ढपुत्र के समान हैं और मानरहित दास शिशु पुत्र के समान हैं।

**जनहि मोर बल निज बल ताही। दुहुँ कहँ काम क्रोध रिपु आही॥ अस बिचारि पंडित मोहि भजहीं। पाएहुँ ग्यान भगति नहिं तजहीं॥**
भाष्य

जनहि अर्थात्‌ निष्किंचन दास को मेरा बल रहता है और ज्ञानीभक्त को उसका बल हो जाता है। दोनों के ही काम और क्रोध शत्रु हैं इसलिए ऐसा विचार करके पंडित लोग मेरा भजन करते हैं, ज्ञान प्राप्त करके भी भक्ति को नहीं छोड़ते। इसी कारण उनका पतन नहीं होता, केवल ज्ञान से पतन सम्भव है।

**दो०– काम क्रोध लोभादि मद, प्रबल मोह कै धारि।**

तिन महँ अति दारुन दुखद, मायारूपी नारि॥४५॥

भाष्य

काम, क्रोध, लोभ और मद ये सब मोह की बहुत बड़ी सेना हैं, उनमें भी मायारूपिणी, भोगवादिनी, वासनाप्रधान नारी अत्यन्त भयंकर दु:ख देनेवाली है।

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सुनु मुनि कह पुरान श्रुति संता। मोह बिपिन कहँ नारि बसंता॥ जप तप नेम जलाश्रय झारी। होइ ग्रीषम सोषइ सब नारी॥

भाष्य

हे मुनि! सुनो, पुराण, वेद और सन्त कहते हैं कि मोहरूप वन के लिए भोगप्रधान नारी वसन्त के समान होती है। जप, तप, नियम इन सभी जलाशय समूहों को भौतिक नारी ग्रीष्मऋतु बनकर सोख लेती है।

**काम क्रोध मद मत्सर भेका। इनहिं हरषप्रद बरषा एका॥ दुर्बासना कुमुद समुदाई। तिन कहँ शरद सदा सुखदाई॥**
भाष्य

काम, क्रोध, मद और मत्सर इन मे़ढकों को नारी एकमात्र वर्षाऋतु बनकर प्रसन्नता दे देती है और दुर्वासनारूप जो कुमुदों का समुदाय है, उन्हें भोगप्रिय नारीरूप शरदऋतु सदैव सुखद होती है।

**धर्म सकल सरसीरुह बृंदा। होइ हिम तिनहिं दहइ सुख मंदा॥ पुनि ममता जवास बहुताई। पलुहइ नारि शिशिर ऋतु पाई॥**
भाष्य

धार्मिक अनुष्ठानरूप अथवा, धर्मानुष्ठान से उत्पन्न पुण्यरूप सभी कमल समूहों को मन्द सुखवाली सांसारिक स्त्री हेमन्तऋतु बनकर जला डालती है, फिर ममतारूप जवास, नारीरूप शिशिरऋतु को पाकर बहुत हरा–भरा हो जाता है।

**पाप उलूक निकर सुखकारी। नारि निबिड़ रजनी अँधियारी॥ बुधि बल शील सत्य सब मीना। बनसी सम त्रिय कहहिं प्रबीना॥**

दो०– अवगुन मूल शूल प्रद, प्रमदा सब दुख खानि।

ताते कीन्ह निवारन, मुनि मैं यह जिय जानि॥४६॥

भाष्य

पापरूप उल्लू समूहों को सुखी करने के लिए कामप्रधान नारी घनी अँधेरी रात है। चतुर लोग कहते हैं कि बुद्धि, बल, शील सत्यरूप सभी मछलियों के लिए भगवत्‌ भजनहीन नारी कँटिया के समान है। जैसे कँटिया मछली फँसाती है, उसी प्रकार भोगप्रधान नारी, बुद्धि, बल, शील, और सत्य को फँसा लेती है। हे नारद मुनि! प्रकृष्ट भोगमद से युक्त माता, बहन, पत्नी तथा पुत्री इन चारों पवित्र सम्बन्धों से दूर, रूप बेचनेवाली वासनाप्रधान साधारण नारी सभी दुर्गुणों का कारण और कष्ट देनेवाली होती है, इसलिए मैंने हृदय में ऐसा जानकर मेरी माया के साथ विवाह करने जा रहे, आपको रोका। आप भागवत्‌प्रपन्न सन्यासी होकर गृहस्थ आश्रम की ओर जा रहे थे, आरू़ढ पतित हो रहे थे। अतएव मैंने आपको इस झंझट से बचा लिया।

**सुनि रघुपति के बचन सुहाए। मुनि तन पुलक नयन भरि आए॥ कहहु कवन प्रभु कै असि रीती। सेवक पर ममता अरु प्रीती॥ जे न भजहिं अस प्रभु भ्रम त्यागी। ग्यान रंक नर मंद अभागी॥**
भाष्य

श्रीरघुनाथ के सुहावने वचन सुनकर नारद मुनि के शरीर में रोमांच हो गया और उनके नेत्र भर आये। वे स्वगत्‌ कहने लगे अर्थात्‌ अपने से अपनी बात करने लगे। कहो, प्रभु की ऐसी कौन रीति है जो अपने सेवक पर इतनी ममता और अत्यन्त प्रेम करते हैं। जो लोग भ्रम छोड़कर ऐसे निर्व्याज प्रेम करनेवाले, बिना कारण सेवक पर ममता करनेवाले प्रभु श्रीराम को नहीं भजते वे मनुष्य ज्ञान के दरिद्र, मूर्ख और बहुत–बड़े दुर्भाग्यशाली हैं।

**पुनि सादर बोले मुनि नारद। सुनहु राम बिग्यान बिशारद॥ संतन के लच्छन रघुबीरा। कहहु नाथ भंजन भव भीरा॥**

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भाष्य

फिर आदरपूर्वक नारद जी बोले, हे विज्ञान के विशारद अर्थात्‌ विशिष्टाद्वैत विज्ञान के चतुर ज्ञाता श्रीराम! सुनिये, हे संसार के भय को दूर करनेवाले रघुवीर श्रीराम! आप सन्तों के लक्षण कहिये।

**सुनु मुनि संतन के गुन कहऊँ। जिन ते मैं उन के बस रहऊँ॥ षट बिकार जित अनघ अकामा। अचल अकिंचन शुचि सुखधामा॥ अमित बोध अनीह मितभोगी। सत्यसार कबि कोबिद जोगी॥**

सावधान मानद मदहीना। धीर धर्म गति परम प्रबीना॥

भाष्य

हे नारद मुनि! सुनिये, मैं अब सन्तों के गुण कह रहा हूँ। जिन गुणों के कारण मैं उनके वश में रहता हूँ। सन्त लोग छहों विकारों काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मत्सर को जीत लेते हैं तथा निष्पाप और कामनारहित होते हैं। वे अचल अर्थात्‌ निष्ठा से चलायमान नहीं होते। वे अकिंचन अर्थात्‌ श्रीरामनाम धन को छोड़कर किसी धन का संग्रह नहीं करते। वे पवित्र होते हैं और भगवद्‌ भजनरूप पवित्रसुख के आश्रय होते हैं। उनका भगवद्‌ सम्बन्धी ज्ञान असीम होता है। सन्तों की कोई चेष्टा नहीं होती, वे सांसारिक पदार्थों का सीमित भोग करते हैं। सत्यभाषण ही सन्तों का सारतत्त्व होता है। वे मनीषी, वेदज्ञ और योगी होते हैं। वे निरन्तर भजन में सावधान, सबको सम्मान देनेवाले, मद से हीन, धीर अर्थात्‌ विकारों की सामग्रियों के रहने पर भी विचलित नहीं होने वाले और धर्म की गति में परमकुशल होते हैं।

**दो०– गुनागार संसार दुख, रहित बिगत संदेह।**

तजि मम चरन सरोज प्रिय, तिन कहँ देह न गेह॥४७॥

भाष्य

सन्त गुणों के भण्डागार, संसार के दु:खों से रहित और सन्देह से रहित होते हैं। उन सन्तों को मेरे श्रीचरणकमलों को छोड़कर शरीर और घर भी प्रिय नहीं होते अर्थात्‌ सन्त शरीर और घर का प्रेम छोड़कर एकमात्र मेरे चरणकमल में ही प्रेम करते हैं।

**निज गुन स्रवन सुनत सकुचाहीं। पर गुन सुनत अधिक हरषाहीं॥ सम शीतल नहिं त्यागहिं नीती। सरल स्वभाव सबहिं सन प्रीती॥**
भाष्य

अपने गुण कानों से सुनकर सकुचाते हैं और दूसरों का गुण, अथवा पर अर्थात्‌ परमेश्वर के गुण सुनकर अधिक प्रसन्न होते हैं। वे समदर्शी और शीतल होते हैं तथा अपनी रीति नहीं छोड़ते। उनका स्वभाव सरल होता है और सबके समक्ष भगवद्‌ प्रीति का ही व्यवहार करते हैं।

**जप तप ब्रत दम संजम नेमा। गुरु गोबिंद बिप्रपद प्रेमा॥ श्रद्धा छमा मयत्री दाया। मुदिता मम पद प्रीति अमाया॥ बिरति बिबेक बिनय बिग्याना। बोध जथारथ बेद पुराना॥ दंभ मान मद करहिं न काऊ। भूलि न देहिं कुमारग पाऊ॥ गावहिं सुनहिं सदा मम लीला। हेतु रहित परहित रत शीला॥ सुनु मुनि साधुन के गुन जेते। कहि न सकहिं शारद श्रुति तेते॥**
भाष्य

सन्तों में जप, तप, व्रत, इन्द्रिय दमन, संयम अर्थात्‌ धारणा, ध्यान, समाधि का एकीकरण और अहिंसादि नियम होते हैं। सन्तों में गुरुदेव, भगवान्‌ और ब्राह्मणों के चरणों के प्रति प्रेम होता है। उनमें श्रद्धा अर्थात्‌ वैदिक सिद्धांत में आस्था, क्षमा, मित्रता, दया, मुदिता अर्थात्‌ प्रसन्नता, मेरे चरणों में छलरहित प्रीति, वैराग्य, विवेक, विनम्रता, विज्ञान तथा अर्थ के अनुकूल वेदपुराणों का बोध होता है। सन्त कभी भी दम्भ (पाखण्ड अथवा दिखावा), मान, मद नहीं करते और भूलकर भी बुरे मार्ग पर पग नहीं देते। सन्त निरन्तर मेरी लीलाओं को गाते

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और सुनते हैं। उनका स्वभाव स्वार्थरहित और परोपकार में लगा हुआ रहता है। हे नारद मुनि! सुनिये, सन्तों के जितने गुण हैं, उतने गुणों को सरस्वती जी और वेद भी नहीं कह सकते।

छं०– कहि सक न शारद शेष नारद सुनत पद पंकज गहे।

अस दीनबंधु कृपालु अपने भगत गुन निज मुख कहे॥ सिर नाइ बारहिं बार चरननि ब्रह्मपुर नारद गए। ते धन्य तुलसीदास आस बिहाइ जे हरि रँग रए॥

भाष्य

सन्तों के गुण सरस्वती जी और शेष जी नहीं कह सकते। इस प्रकार श्रीमुख से सन्तलक्षण सुनकर, नारद जी ने प्रभु श्रीराम के श्रीचरणकमल पक़ड लिए। कृपालु, दीनबन्धु श्रीराम ने इस प्रकार अपने ही श्रीमुख से अपने ही भक्तों के गुणगण कहे। प्रभु के श्रीचरणों में बारम्बार सिर नवाकर नारद जी ब्रह्मलोक पधार गये। गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं कि वे लोग धन्य हैं, जो सम्पूर्ण आशायें छोड़कर प्रभु श्रीराम के रंग में रंग जाते हैं।

**दो०– रावनारि जस पावन, गावहिं सुनहिं जे लोग।**

राम भगति दृ़ढ पावहिं, बिनु बिराग जप जोग॥४८॥

भाष्य

रावण के शत्रु भगवान्‌ श्रीराम के पवित्र यश को जो लोग गाते और सुनते हैं, अथवा गायेेंगे और सुनेंगे, वे वैराग्य, जप और योग के बिना भी श्रीराम की दृ़ढ भक्ति पा रहे हैं और पा जायेंगे।

**\* मासपारायण, इक्कीसवाँ विश्राम \***

इति श्रीमद्‌गोस्वामितुलसीदासविरचिते श्रीमद्रामचरितमानसे सकलकलिकलुषविध्वंसने भवभंजनं नाम तृतीयसोपानं अरण्यकाण्डं सम्पूर्णं।

श्रीसीतारामार्पणमस्तु।

इस प्रकार श्रीगोस्वामी तुलसीदास जी द्वारा विरचित सम्पूर्ण कलियुग के पाप को नष्ट करने वाले श्रीरामचरितमानस का भवभंजन नामक तृतीय सोपान, अर्थात्‌ अरण्यकाण्ड सम्पन्न हुआ। यह श्रीसीताराम जी को समर्पित हो।

श्रीरामभद्राचार्येण कृता भावार्थबोधिनी मानसे च तृतीयोऽस्मिन्‌ सोपाने राम तुष्टये।

॥श्रीराघव:शन्तनोतु॥ अरण्यकाण्ड समाप्त

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॥श्री सीताराम॥ श्री गणेशाय नम: