०२ अयोध्याकाण्ड

श्री सीतारामौ विजयेते श्रीमद्‌गोस्वामितुलसीदासकृत

श्रीरामचरितमानस

श्री:

भावार्थबोधिनी टीका द्वितीय सोपान

श्लोक मंगलाचरण

🟈🟏🟈

सौमित्रि सीतानुचरं प्रसन्नं यान्तं वनं नीलसरोजशोभं। धृतेषुचापं तपनप्रतापं रामं भजे ब्रह्ममुनीन्द्रसेव्यम्‌॥ नत्वा श्रीतुलसीदासं अयोध्याकाण्ड इ र्᐀्यते। श्री रामभद्राचार्येण टीका भावार्थबोधिनी॥

श्री सीताराम, श्री गणपति को नमस्कार। भगवान्‌ श्री सीताराम सबसे उत्कृष्ट विराजमान हो रहे हैं। द्वितीय सोपान अयोध्याकाण्ड का प्रारम्भ होता है। यहाँ तीन मंगलाचरण श्लोक लिखे गये हैं।

वामाङ्गे च विभाति भूधरसुता देवापगा मस्तके भाले बालविधुर्गले च गरलं यस्योरसि व्यालराट्‌। सोऽयं भूतिविभूषण: सुरवर: सर्वाधिप: सर्वदा। शर्व: सर्वगत: शिव: शशिनिभ: श्रीशङ्कर: पातु माम्‌॥१॥

भाष्य

जिनके वाम अंग में पर्वतराजपुत्री श्रीपार्वती जी विराजमान हैं, जिनके मस्तक पर देवनदी गंगा जी लहरा रही हैं, जिनके भाल पर बाल चन्द्रमा तथा जिनके गले में हलाहल विष है, जिनके हृदय पर सर्पराज शेष विद्दमान हैं, वे ही भस्म को भी आभूषण बनाने वाले देवताओं में श्रेष्ठ, सबके स्वामी, पापों के नाशकर्त्ता, सर्वव्यापक, चन्द्रमा के समान गौर और शीतल, कल्याणमय, श्रीसीता के द्वारा अनुगृहीत शङ्कर जी मेरी रक्षा करें।

**विशेष– **यह शार्दूल विक्रीडित वृत्त है। **“श्रिया अनुगृहीत: शङ्कर, श्रीशङ्कर सीतानुगृहीत शङ्कर इति** **भाव:।”**

अर्थात्‌ यहां श्रीपद का अर्थ है सीताजी श्रिया अनुगृहीत: शङ्कर इस विग्रह में मध्यम पद लोपी तृतीया तत्पुरुष समास करके श्रीशङ्कर शब्द निष्पन्न होता है, इसका अर्थ है श्रीसीता जी के द्वारा अनुगृहीत शङ्कर।

प्रसन्नतां या न गताभिषेकतस्तथा न मम्लौ वनवासदु:खत:। मुखाम्बुजश्री रघुनन्दस्य मे सदास्तु सा मंजुलमंगलप्रदा॥२॥
[[३०६]]

भाष्य

जिनके मुख की शोभा राज्याभिषेक के समाचार से भी प्रसन्नता को नहीं प्राप्त हुई और जो वनवास के दु:ख से भी नहीं मलिन हुई, वही श्रीसीता के सहित रघुनन्दन भगवान्‌ श्रीराम के मुख कमल की शोभा मुझ तुलसीदास के लिए सदैव सुन्दर और मधुर मंगल प्रदान करने वाली बनी रहे। विशेष-यह वंशस्थ वृत्त है।

**नीलाम्बुजश्यामलकोमलाङ्गं सीतासमारोपितवामभागम्‌। पाणौ महासायकचारुचापं नमामि रामं रघुवंशनाथम्‌॥३॥**
भाष्य

नीले कमल के समान श्यामल और कोमल अंगवाले, जिनके वाम भाग में वेद के अनुशासन से वसिष्ठ जी द्वारा सीता जी विराजमान करायी गईं हैं, जिनके हाथ में अमोघ लक्ष्य होने के कारण महान बाण और सुन्दर धनुष है, ऐसे रघुवंश के स्वामी भगवान्‌ श्रीराम को मैं नमन करता हूँ।

**विशेष– **यही श्लोक पूर्ण और पवित्र एक श्लोकी रामायण है। इसके प्रत्येक चरण में प्रभु की बाललीला, विवाहलीला, रणलीला, राज्यलीला का क्रमश: वर्णन हुआ है। यह उपजाति वृत्त है।

दो०- श्रीगुरुचरन सरोज रज, निज मन मुकुर सुधारि।
बरनउँ रघुबर बिमल जस, जो दायक फल चारि॥

भाष्य

श्री सम्प्रदायानुगत्‌ गुरुदेव के चरणकमल के पराग रूप रज से अपने मन रूप दर्पण को सुधार कर, मैं (तुलसीदास) रघुवर श्रीराम के निर्मल यश का वर्णन करता हूँ। अथवा, रघुकुल में श्रेष्ठ चारों भाई श्रीराम, भरत, लक्ष्मण एवं शत्रुघ्न के निर्मल यश का वर्णन करता हूँ तथा जिन परम भागवतों के कारण रघुवर प्रभु श्रीराम का यश निर्मल हुआ, उन्हीं भगवती सीताजी, लक्ष्मणजी, केवट एवं भावते भैया भरत जी का वर्णन करता हूँ, जो अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष नामक चारों फलों को देनेवाले हैं तथा जो अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष इन चारों फलों के भी फल अविरल भक्ति, अनपायनी भक्ति, निर्भरा भक्ति और प्रेमा भक्ति को देनेवाले हैं।

**विशेष– **यह दोहा हनुमान चालीसा का भी प्रथम दोहा है। वहाँ भी *रघुवर** विमल जस *शब्द में बहुव्रीहि समास करके हनुमान जी को अन्य पदार्थ मान लेना चाहिए *रघुवरस्य** विमलं यश: येन *अर्थात्‌ जिन हनुमान जी के कारण श्रीराम का यश विमल हुआ है, ऐसे हनुमान जी का वर्णन करता हूँ। इससे उनके मुख में अवश्य अज्ञान की कालिख लगेगी जो हनुमान चालीसा को तुलसीदास जी की कृति नहीं मानते।

जब ते राम ब्याहि घर आए। नित नव मंगल मोद बधाए॥ भुवन चारिदस भूधर भारी। सुकृत मेघ बरषहिं सुख बारी॥

भाष्य

जब से भगवान्‌ श्रीराम विवाहित होकर घर आये हैं, तभी से श्रीअवध में नित्य नये मंगल, प्रसन्नतायें और बधावे अर्थात्‌ उत्सव हो रहे हैं। चौदहों भुवन रूप विशाल पर्वतों पर, सत्कर्म रूप मेघ, सुख रूप जल की वर्षा कर रहे हैं अर्थात्‌ जैसे पर्वत पर मेघ प्राय: बहुत वर्षा करते हैं, उसी प्रकार चक्रवर्ती दशरथ जी द्वारा शासित चौदहों भुवनों में सत्कर्म, सुख की वर्षा कर रहे हैं।

__ऋधि सिधि संपति नदी सुहाई। उमगि अवध अंबुधि कहँ आई॥ मनिगन पुर नर नारि सुजाती। शुचि अमोल सुंदर सब भाँती॥

भाष्य

ऋद्धि अर्थात्‌ निधि, सिद्धि और संपत्ति रूप सुन्दर नदियाँ उमड़कर अवध रूप समुद्र के पास आ गई हैं अर्थात्‌ जैसे गंगाजी, यमुनाजी, सरस्वती जी सागर के पास आती हैं, उसी प्रकार, ऋद्धि, सिद्धि एवं संपत्तियाँ अवध के पास आ गईं हैं। मणि समूहों के समान नगर के नर–नारी पवित्र, अमूल्य और सब प्रकार से सुन्दर हैं।

[[३०७]]

**कहि न जाइ कछु नगर बिभूती। जनु इतनिय बिरंचि करतूती॥ सब बिधि सब पुर लोग सुखारी। रामचंद्र मुख चंद्र निहारी॥**
भाष्य

नगर की विभूति कुछ भी कही नहीं जाती है, मानो ब्रह्मा जी की इतनी ही सृष्टि रचना की चातुरी है। श्रीरामचन्द्र के मुखचन्द्र को देखकर सभी अवधपुर के लोग सब प्रकार से सुखी हैं।

**मुदित मातु सब सखी सहेली। फलित बिलोकि मनोरथ बेली॥ राम रूप गुन शील सुभाऊ। प्रमुदित होहिं देखि सुनि राऊ॥**
भाष्य

सभी मातायें, उनकी सभी समवयस्क सखियाँ मनोरथ की लता को फलती हुई देखकर प्रसन्न हैं। श्रीराम के रूप, गुण, शील और स्वभाव को देख–सुनकर, महाराज दशरथ जी प्रसन्न हो रहे हैं।

**दो०- सब के उर अभिलाष अस, कहहिं मनाइ महेश।** **आपु अछत जुबराज पद, रामहिं देउ नरेश॥१॥**
भाष्य

सबके मन में यही इच्छा है और सभी अवधवासी शिव जी से मनाकर यही कहते हैं कि, महाराज दशरथ जी अपने रहते हुए प्रभु श्रीराम को युवराज पद दे दें।

**एक समय सब सहित समाजा। राजसभा रघुराज बिराजा॥ सकल सुकृत मूरति नरनाहू। राम सुजस सुनि अतिहि उछाहू॥**
भाष्य

एक समय सम्पूर्ण समाज अर्थात्‌ मंत्री, अमात्य, सेनापति, सामन्त, सभासदों के सहित रघुकुल के राजा दशरथ जी राजसभा में विराजमान हुए। महाराज दशरथ जी सम्पूर्ण पुण्यों के मूर्ति रूप थे। बंदीजनों के मुख से श्रीराम का सुयश सुनकर महाराज को बहुत ही उत्साह था।

**नृप सब रहहिं कृपा अभिलाषे। लोकप करहिं प्रीति रुख राखे॥ त्रिभुवन तीनि काल जग माहीं। भूरि भाग दशरथ सम नाहीं॥**
भाष्य

सभी राजा चक्रवर्ती जी की कृपा की इच्छा करते रहते हैं और सभी लोकपाल महाराज की संतुय्ि और रुख अर्थात्‌ इच्छा की रक्षा करते हुए सब कुछ करते हैं। तीनों लोकों और भूत, वर्तमान, भविष्यत्‌ इन तीनों कालों में महाराज दशरथ जी के समान बड़ा भाग्यशाली कोई नहीं है।

**मंगलमूल राम सुत जासू। जो कछु कहिय थोर सब तासू॥ राय सुभाय मुकुर कर लीन्हा। बदन बिलोकि मुकुट सम कीन्हा॥ श्रवन समीप भए सित केशा। मनहुँ जरठपन अस उपदेशा॥ नृप जुबराज राम कहँ देहू। जीवन जनम लाहु किन लेहू॥**
भाष्य

सम्पूर्ण मंगलों के मूल कारण परमात्मा श्रीराम जिनके पुत्र हैं, उनके लिए जो कुछ कहा जाये सब थोड़ा है। चक्रवर्ती महाराज दशरथ जी ने स्वभावत: अर्थात्‌ बिना किसी प्रयोजन के हाथ में दर्पण ले लिया। अपना मुख देखकर टे़ढे हुए मुकुट को समान अर्थात्‌ सीधा किया। कानों के समीप के केश श्वेत हो गये थे मानो उनके बहाने वृद्धावस्था ही दशरथ जी के कान के समीप जाकर यह उपदेश दे रही थी कि, हे महाराज! अब युवराज पद श्रीराम को दे दीजिये। आप अपने जीवन में ही अपने जीवन और जन्म का लाभ क्यों नहीं ले लेते?

**दो०- यह बिचार उर आनि नृप, सुदिन सुअवसर पाइ।** **प्रेम पुलकि तन मुदित मन, गुरुहिं सुनायउ जाइ॥२॥**

[[३०८]]

भाष्य

यह विचार हृदय में लाकर सुन्दर दिन और मंगल अवसर पाकर महाराज दशरथ जी ने प्रेम से रोमांचित शरीर और मन में प्रसन्न होकर अपने सिंंहासन से गुरुदेव के सिंहासन के पास जाकर, श्री गुरुवर को अपना मन्तव्य सुनाया।

**कहइ भुआल सुनिय मुनिनायक। भए राम सब बिधि सब लायक॥ सेवक सचिव सकल पुरवासी। जे हमरे अरि मित्र उदासी॥ सबहिं राम प्रिय जेहि बिधि मोही। प्रभु अशीष जनु तनु धरि सोही॥**

**बिप्र सहित परिवार गोसाईं। करहिं छोह सब रौरिहिं नाईं॥ भा०– **पृथ्वी के पालक चक्रवर्ती दशरथ जी कहने लगे, हे मुनियों के स्वामी गुव्र्देव! सुनिये, अब रामभद्र जी सभी विधियों से सब लायक हो चुके हैं। सेवक, मंत्रीजन, सभी अवधपुर के वासी और भी जो हमारे शत्रु रावणादि, मित्र जनकादि और तटस्थ, उदासीन दाक्षिणात्य राजा हैं सभी को श्रीराम उतने ही प्रिय हैं, जैसे मुझे प्रिय हैं, मानो आपका आशीर्वाद ही शरीर धारण करके श्रीराम रूप में सुशोभित हो रहा हैं। हे गोसाईं (स्वामी)! अपने परिवारों के साथ ब्राह्मण वर्ग आप के ही समान श्रीराम पर छोह अर्थात्‌ ममत्व के साथ स्नेह करते हैं।

जे गुरु चरन रेनु सिर धरहीं। ते जन सकल बिभव बस करहीं॥ मोहि सम यह अनुभयउ न दूजे। सब पायउँ रज पावनि पूजे॥

भाष्य

जो लोग गुरुदेव की चरणधूलि अपने सिर पर धारण करते हैं वे सम्पूर्ण विश्व के विभवों को अपने वश में कर लेते हैं। मेरे समान किसी दूसरे ने इस प्रकार का अनुभव नहीं किया है। आपश्री गुरुदेव के श्रीचरणकमलों की पवित्र धूलि की पूजा करके मैंने सब कुछ पा लिया।

**अब अभिलाष एक मन मोरे। पूजिहिं नाथ अनुग्रह तोरे॥ मुनि प्रसन्न लखि सहज सनेहू। कहेउ नरेश रजायसु देहू॥**
भाष्य

अब (इस समय) मेरे मन में एकमात्र इच्छा है। हे नाथ! वह आपके ही अनुग्रह से पूर्ण होगी। महाराज का स्वाभाविक स्नेह देखकर श्री वसिष्ठ मुनि प्रसन्न हुए और कहने लगे, हे राजन्‌! आप रजायसु अर्थात्‌ राजाज्ञा दीजिये।

**दो०- राजन राउर नाम जस, सब अभिमत दातार।** **फल अनुगामी महिप मनि, मन अभिलाष तुम्हार॥३॥**
भाष्य

हे राजन्‌! आपका नाम और यश सभी मनोवांछित कामनाओं को देने वाला है। आपके मन की अभिलाषा राजाओं की भी मुकुटमणि है, फल उसका अनुगामी है। अथवा, हे राजाओं के मुकुटमणि चक्रवर्ती जी! आपके मन की अभिलाषा का फल अनुगामी है अर्थात्‌ और लोगों की इच्छाओं का फल अनुगमन नहीं करता। प्रत्येक प्राणी की प्रत्येक इच्छा नहीं पूरी होती।

**सब बिधि गुरु प्रसन्न जिय जानी। बोलेउ राउ रहसि मृदु बानी॥ नाथ राम करियहिं जुबराजू। कहिय कृपा करि करिय समाजू॥**
भाष्य

गुरुदेव को मन में सब प्रकार से प्रसन्न जानकर महाराज दशरथ जी प्रसन्न होकर कोमल वाणी में बोले, हे नाथ! श्रीराम को युवराज बना लीजिये। आप कृपा करके कहिये हम उस समाज अर्थात्‌ महोत्सव की रचना करें।

**मोहि अछत यह होइ उछाहू। लहहिं लोग सब लोचन लाहू॥ प्रभु प्रसाद शिव सबइ निबाहीं। यह लालसा एक मन माहीं॥** [[३०९]]
भाष्य

मेरे रहते यह उछाह अर्थात्‌ श्रीराम राज्याभिषेक महोत्सव हो जाये। सभी अवध के लोग नेत्रों का लाभ प्राप्त कर लें। आपके प्रसाद से शिव जी ने मेरा सब कुछ निर्वाह कर दिया। यही एकमात्र श्रीराम राज्याभिषेक की लालसा मन में अवशिष्ट रह गई है।

**पुनि न सोच तनु रहउ कि जाऊ। जेहिं न होइ पाछे पछिताऊ॥ सुनि मुनि दशरथ बचन सुहाए। मंगल मोद मूल मन भाए॥**
भाष्य

पुन: अर्थात्‌ इस इच्छा के पूर्ण होने के पश्चात्‌ शरीर रहे या जाये इसका मुझे कोई शोक नहीं, जिससे पीछे कोई पश्चात्ताप न हो। दशरथ जी के मंगल और प्रसन्नता के मूल वचन सुनकर मुनि वसिष्ठ जी को बहुत अच्छे लगे और वे बोले–

**सुनु नृप जासु बिमुख पछिताहीं। जासु भजन बिनु जरनि न जाहीं॥ भयउ तुम्हार तनय सोइ स्वामी। राम पुनीत प्रेम अनुगामी॥**
भाष्य

हे राजन्‌! सुनिये जिन प्रभु से विमुख होकर लोग पछताते हैं और जिनके भजन के बिना मन की जलन नहीं जाती है, वे ही पवित्र प्रेम का अनुगमन करने वाले, समस्त संसार के स्वामी भगवान्‌ श्रीराम, आपके पुत्र हुए हैं।

**दो०- बेगि बिलंब न करिय नृप, साजिय सबइ समाज।** **सुदिन सुमंगल तबहिं जब, राम होहिं जुबराज॥४॥**
भाष्य

हे राजन्‌! शीघ्रता कीजिये, विलम्ब मत कीजिये। शीघ्र ही सम्पूर्ण समाज को सजाइये। उसी समय सुन्दर दिन और सुन्दर मुहूर्त होगा जब श्री राम युवराज होंगे।

**मुदित महीपति मंदिर आए। सेवक सचिव सुमंत्र बोलाए॥ कहि जयजीव शीश तिन नाए। भूप सुमंगल बचन सुनाए॥**
भाष्य

महाराज दशरथ जी प्रसन्नतापूर्वक राजभवन आये और उनकी आज्ञा से सुमंत्र जी ने उनके सभी सेवकों और मंत्रियों को बुला लिया। अथवा, महाराज ने ही अपने सेवकों और मंत्रियों तथा विशेषकर सुमंत्र जी को बुला लिया। जय जीव! आप की जय हो, आप चिरंजीवी रहें, कहकर सभी सेवकों और सुमंत्र आदि सचिवों ने मस्तक नवाकर महाराज का अभिवादन किया और राजा दशरथ जी ने उन सबको सुन्दर मंगल भरे वचन सुनाये।

**प्रमुदित मोहि कहेउ गुरु आजू। रामहिं राय देहु जुबराजू॥ जौ पंचहिं मत लागौ नीका। करहु हरषि हिय रामहिं टीका॥ मंत्री मुदित सुनत प्रिय बानी। अभिमत बिरव परेउ जनु पानी॥ बिनती सचिव करहिं कर जोरी। जियहु जगतपति बरिस करोरी॥**
भाष्य

आज प्रसन्नतापूर्वक गुरुदेव ने मुझे आदेश दे कर कहा है कि, हे राजन्‌! श्रीराम को युवराज पद दे दो। यदि आप सब पंच परमेश्वर को यह मत अच्छा लगता हो तो प्रसन्न होकर श्रीराम को राजतिलक कर दीजिये। प्यारी वाणी सुनते ही सभी मंत्री प्रसन्न हो गये, मानो अभिमत अर्थात्‌ मनोभिलषित मन से चाहे हुए पदार्थ रूप बिरवे अर्थात्‌ शीघ्र अंकुरित हुए वृक्ष पर पानी पड़ गया हो। सभी मंत्री हाथ जोड़कर विनती करने लगे। हे जगत्‌पति चक्रवर्ती जी! आप करोड़ों वर्षपर्यन्त जीवित रहें।

**जग मंगल भल काज बिचारा। बेगिय नाथ न लाइय बारा॥ नृपहिं मोद सुनि सचिव सुभाषा। ब़ढत बौंजिड़ नु लही सुशाखा॥** [[३१०]]
भाष्य

यह तो जगत्‌ का मंगल करने वाला कार्य आप ने विचारा है। हे नाथ! शीघ्रता कीजिये विलम्ब मत कीजिये। मंत्रियों की सुन्दर वाणी सुनकर महाराज को प्रसन्नता हुई, मानो ब़ढती हुई लता ने सुन्दर आम्र की शाखा का अवलम्बन पा लिया हो।

**दो०- कहेउ भूप मुनिराज कर, जोइ जोइ आयसु होइ।** **राम राज अभिषेक हित, बेगि करहु सोइ सोइ॥५॥**
भाष्य

महाराज ने कहा, मुनियों के राजा वसिष्ठ जी की श्रीराम के राज्याभिषेक के लिए जो–जो आज्ञा हो आप लोग वही–वही करें।

**हरषि मुनीश कहेउ मृदु बानी। आनहु सकल सुतीरथ पानी॥ औषध मूल फूल फल पाना। कहे नाम गनि मंगल नाना॥**
भाष्य

प्रसन्न होकर मुनियों के ईश्वर वसिष्ठ जी ने कोमल वाणी में कहा, सम्पूर्ण श्रेष्ठतीर्थों का जल ले आओ और ओषधियाँ, ज़डी-बूटियाँ पुष्प, फल, पत्ते और ताम्बूल इस प्रकार अनेक मंगलों के नाम गिना कर कहे।

**चामर चरम बसन बहु भाँती। रोम पाट पट अगनित जाती॥ मनिगन मंगल बस्तु अनेका। जो जग जोग भूप अभिषेका॥**
भाष्य

चामर, चर्म अर्थात्‌ मृगचर्म, बहुत प्रकार के वस्त्र, नाना जातियों के ऊनी कम्बल तथा रेशमी वस्त्र, सुन्दर मणियों के समूह, अनेक मांगलिक वस्तुयें और जगत्‌ के एकमात्र राजा अर्थात्‌ सार्वभौम चक्रवर्ती के अभिषेक के लिए जो भी उचित हो उन सभी को लाने के लिए वसिष्ठ जी ने आज्ञा दी।

**बेद बिदित कहि सकल बिधाना। कहेउ रचहु पुर बिबिध बिताना॥ सफल रसाल पूँगिफल केरा। रोपहु बीथिन पुर चहुँ फेरा॥ रचहु मंजु मनि चौके चारू। कहहु बनावन बेगि बजारू॥ पूजहु गनपति गुरु कुलदेवा। सब बिधि करहु भूमिसुर सेवा॥**
भाष्य

वेद में विदित सभी विधानों को कहकर वसिष्ठ जी ने कहा, नगर में अनेक प्रकार के मण्डप बनाओ और नगर के चारों ओर फल से युक्त आम्र, सुपारी और कदली के वृक्षोंें को लगा दो। सुन्दर मणियों से युक्त चौके बनाओ और शीघ्र बाजारों को सजाने के लिए कहो। गणपति, कुल के गुरु और देवता इन सब की पूजा करो और ब्राह्मणों की सब प्रकार से सेवा करो।

**दो०- ध्वज पताक तोरन कलश, सजहु तुरग रथ नाग।** **सिर धरि मुनिवर बचन सब, निज निज काजहिं लाग॥६॥**
भाष्य

सब लोग ध्वजा, पताका, तोरणद्वार, मंगलकलश, घोड़े रथ और हाथी सजाओ। सभी लोग वसिष्ठ जी के आदेश को सिर पर धारण करके अपने–अपने कार्य में लग गये।

**जो मुनीश जेहिं आयसु दीन्हा। सो तेहिं काज प्रथम जनु कीन्हा॥ बिप्र साधु सुर पूजत राजा। करत राम हित मंगल काजा॥ सुनत राम अभिषेक सुहावा। बाज गहागह अवध बधावा॥**
भाष्य

वसिष्ठ जी ने जिसे जो आज्ञा दी, उसने वह कार्य मानो पहले ही कर लिया था। दशरथ जी ब्राह्मणों, सन्तों और देवताओं की पूजा कर रहे हैं और श्रीराम के लिए मांगलिक कार्य कर रहे हैं। श्रीराम का सुहावना अभिषेक सुनकर अवध में धमाकों के साथ बधावे बजने लगे।

[[३११]]

**राम सीय तनु सगुन जनाए। फरकहिं मंगल अंग सुहाए॥ पुलकि सप्रेम परसपर कहहीं। भरत आगमन सूचक अहहीं॥ भए बहुत दिन अति अवसेरी। सगुन प्रतीति भेंट प्रिय केरी॥**
भाष्य

श्रीराम और सीता जी के शरीर में मांगलिक शकुन प्रतीत होने लगे। उनके सुहावने मंगलमय अंग फ़डकने लगे अर्थात्‌ श्रीराम के दाहिने और सीता जी के वाम अंग फ़डकने लगे। दम्पति (श्रीसीता–राम जी) रोमांचित होकर प्रेमपूर्वक परस्पर कहने लगे कि, ये शकुन भरत के आगमन के सूचक हैं अर्थात्‌ ये भरत के आने की सूचना दे रहे हैं। भरत, शत्रुघ्न को ननिहाल गये बहुत दिन हो गये, मन में अत्यन्त चिन्ता है। शकुनों से प्रियजनों के मिलने का विश्वास हो रहा है।

**भरत सरिस प्रिय को जग माहीं। इहइ सगुन फल दूसर नाहीं॥ रामहिं बंधु सोच दिन राती। अंडनि कमठ हृदय जेहि भाँती॥**
भाष्य

हम लोगों के लिए संसार में भरत के समान कौन प्रिय है? शकुन का यही फल है और कोई दूसरा नहीं। हम दोनों से भरत मिलेंगे, वह मिलने का स्थान कोई भी हो। प्रभु श्रीराम को भैया भरत की, दिन–रात चिन्ता रहती है, जैसे कछुवे के हृदय को अंडे की चिन्ता रहती है।

**विशेष– **जनश्रुति यह है कि, जल में रहने वाला कछुवा अपना अंडा जल से दूर स्थल में रख देता है और जल में रहकर भी वह दूरवर्ती अंडों का अपने मानसिक चिन्तन और संकल्प से पालन करता है, उसी प्रकार प्रभु श्रीराम ने भी अवध में विरह–जल का संकट जानकर अपनी लीलाशक्ति से भरत जी को ननिहाल भेज दिया है, परन्तु श्रीअवध में रहकर भी अपने मानसिक संकल्प से सुदूर रहनेवाले भैया भरत का लालन–पालन कर रहे हैं।

दो०- एहि अवसर मंगल परम, सुनि रहसेउ रनिवास।
शोभत लखि बिधु ब़ढत जनु, बारिधि बीचि बिलास॥७॥

भाष्य

इस अवसर पर श्रीरामराज्याभिषेक रूप परम मंगल सुनकर रनिवास प्रसन्न हुआ, मानो पूर्ण चन्द्रमा को सुशोभित देखकर समुद्र में तरंगों का विलास ब़ढ रहा हो अर्थात्‌ जैसे पूर्ण चन्द्र को देखकर समुद्र में लहरें अठखेलियाँ करने लगती हैं, उसी प्रकार श्रीरामचन्द्र का राज्य उत्कर्ष देखकर रनिवास रूप महासागर में प्रसन्नता की लहरें उठ गईं।

**प्रथम जाइ जिन बचन सुनाए। भूषन बसन भूरि तिन पाए॥ प्रेम पुलकि तनु मन अनुरागीं। मंगल कलश सजन सब लागीं॥**
भाष्य

जिन सेवकों ने सर्वप्रथम जाकर रानियों को श्रीरामराज्याभिषेक का समाचार का वचन सुनाया, उन्होंने अनेक आभूषण और वस्त्र पाये। महारानियाँ प्रेम से रोमांचित शरीरवाली हुईं तथा मन में अत्यन्त अनुराग उमड़ आया। सभी मांगलिक कलश सजाने लगीं।

**चौके चारु सुमित्रा पूरी। मनिमय बिबिध भाँति अति रूरी॥ आनँद मगन राम महतारी। दिए दान बहु बिप्र हँकारी॥**
भाष्य

सुमित्रा जी ने अनेक प्रकार के सुन्दर मणियों से चौकें पूरी अर्थात्‌ बनाईं। चारों ओर से चतुष्कोण बनाकर बीच में मुक्तामणियाँ भरीं। श्रीराम की माता कौसल्या आनन्द में मग्न हो गईं और उन्होंने ब्राह्मणों को बुलाकर बहुत दान दिये।

[[३१२]]

**पूजी ग्रामदेबि सुर नागा। कहेउ बहोरि देन बलिभागा॥ जेहि बिधि होइ राम कल्यानू। देहु दया करि सो बरदानू॥ गावहिं मंगल कोकिलबयनी। बिधुबदनी मृगशावकनयनी॥**
भाष्य

उन्होंने ग्राम के देवी, देवता और नागराज की पूजा की, फिर देवताओं को बलि–भाग अर्थात्‌ पूजा–भाग देने के लिए कहा। कौसल्या जी कहने लगीं, हे देवताओं! जिस प्रकार से श्रीरामलला जी का कल्याण हो आप दयाकर वही वरदान दें। चन्द्रमुखी, बालमृग के समान नेत्रवाली, कोकिलाओं के समान बोलने वाली श्रीअवध की नारियाँ मंगल गाने लगीं।

**विशेष– **यहाँ बलि का अर्थ पशुओं को काटकर बलि च़ढाने से नहीं है, प्रत्युत्‌ बलि वैश्वदेव की भाँति देवताओं के निमित्त सात्विक भोजन के समर्पण से है। इसलिए संस्कृत में बलि का अर्थ पूजा भी होता है– अंतिकन्यस्त बलिप्रदीपां। रघुवंश, २.२४।

दो०- राम राज अभिषेक सुनि, हिय हरषे नर नारि।

**लगे सुमंगल सजन सब, बिधि अनुकूल बिचारि॥८॥ भा०– **श्रीराम–राज्याभिषेक सुनकर, अवध के नर–नारी हृदय में प्रसन्न हुए और ब्रह्मा जी को अपने अनुकूल जानकर सभी लोग मंगल सजाने लगे।

तब नरनाह बसिष्ठ बोलाए। रामधाम सिख देन पठाए॥ गुरु आगमन सुनत रघुनाथा। द्वार आइ पद नायउ माथा॥ सादर अरघ देइ घर आने। सोरह भाँति पूजि सनमाने॥ गहे चरन सिय सहित बहोरी। बोले राम कमल कर जोरी॥

भाष्य

तब राजा दशरथ जी ने वसिष्ठ जी को बुलाया और शिक्षा देने के लिए उन्हें श्रीराम के भवन भेज दिया। श्रीरघुनाथ ने गुरुदेव का आगमन सुनते ही द्वार पर आकर उनके चरणों में मस्तक नवाया। आदरपूर्वक अर्घ्य देकर उन्हें अपने घर में ले आये तथा षोडशोपचार से गुरुदेव की पूजा करके उनका सम्मान किया। फिर भगवती सीता जी के सहित भगवान्‌ श्रीराम गुरुदेव के चरण पक़ड लिए और कमल के समान कोमल हाथों को जोड़कर बोले–

**सेवक सदन स्वामि आगमनू। मंगल मूल अमंगल दमनू॥**

**तदपि उचित जन बोलि सप्रीती। पठइय काज नाथ असि नीती॥ भा०– **सेवक के घर में स्वामी का आगमन सभी मंगलों का कारण और अमंगलों का नाशक होता है, फिर भी उचित नीति तो यह है कि, प्रेमपूर्वक सेवक को बुलाकर उसे कार्य के लिए भेज देना चाहिये। कार्य सौंपने के लिए स्वामी को सेवक के घर नहीं जाना चाहिये।

प्रभुता तजि प्रभु कीन्ह सनेहू। भयउ पुनीत आजु यह गेहू॥ आयसु होइ सो करौं गोसाईं। सेवक लहइ स्वामि सेवकाई॥

भाष्य

आप प्रभु ने अपनी प्रभुता को छोड़ मुझ पर स्नेह किया यह घर पवित्र हो गया। हे स्वामी! जो आदेश हो वह करूँ। सेवक, स्वामी की सेवा प्राप्त करे।

[[३१३]]

**विशेष– **सर्वज्ञ प्रभु श्रीराम को आगामी वनवास का वृत्तान्त विदित है, इसीलिए उन्होंने यहाँ “मम गेहू” का प्रयोग नहीं किया ‘यह गेहू’ कहा अर्थात्‌ यह मेरा घर नहीं है, कल इसे छोड़ मुझे जाना होगा, परन्तु आपश्री के पदार्पण से इसकी पवित्रता अवश्य नि:सन्दिग्ध हो गई।

दो०- सुनि सनेह साने बचन, मुनि रघुबरहिं प्रशंस।
राम कस न तुम कहहु अस, हंस बंश अवतंस॥९॥

भाष्य

इस प्रकार, प्रेम से सने वचन सुनकर मुनि वसिष्ठ जी ने रघुश्रेष्ठ श्रीराम की प्रशंसा की। हे सूर्यवंश के आभूषण श्रीराम! भला तुम ऐसा क्यों नहीं कहोगे?

**बरनि राम गुन शील सुभाऊ। बोले प्रेम पुलकि मुनिराऊ॥ भूप सजेउ अभिषेक समाजू। चाहत देन तुमहिं जुबराजू॥ राम करहु सब संजम आजू। जौ बिधि कुशल निबाहै काजू॥**
भाष्य

भगवान्‌ श्रीराम के गुण, शील और स्वभाव का वर्णन करके प्रेम से रोमांचित होकर मुनिराज वसिष्ठ जी बोले, राजा दशरथ ने राजतिलक के उपकरण सजा लिए हैं। वे तुम्हें युवराज पद देना चाहते हैं। हे श्रीराम! आज सब प्रकार का संयम कीजिये। अथवा, सब के प्राणों का संयमन अर्थात्‌ प्रतिरोध कीजिये क्योंकि कैकेयी द्वारा आप को वनवास दे दिये जाने पर शरीर छोड़कर सभी के प्राण आप के पास जाना चाहेंगे। अत: उन सब का संयमन कीजिये, रोक दीजिये किसी को मरने न दीजिये। यदि विधाता यह कार्य सकुशल सम्पन्न कर दें।

**गुरु सिख देइ राय पहिं गयऊ। राम हृदय अस बिसमय भयऊ॥ जनमे एक संग सब भाई। भोजन शयन केलि लरिकाई॥ करनबेध उपबीत बियाहा। संग संग सब भए उछाहा॥ बिमल बंश यह अनुचित एकू। बंधु बिहाइ बड़ेहि अभिषेकू॥ प्रभु सप्रेम पछितानि सुहाई। हरउ भगत मन कै कुटिलाई॥**
भाष्य

गुरुदेव, श्रीराम को लौकिक और पारलौकिक शिक्षा देकर महाराज दशरथ जी के यहाँ चले गये। श्रीराम के मन में इस प्रकार का विष्मय हुआ, हम सभी चारों भाई एक ही साथ जन्मे और लड़कपन में भी एक ही साथ भोजन–शयन और क्रीड़ायें सम्पन्न की। एक ही साथ कर्णच्छेदन, उपवीत और विवाह के उत्सव सम्पन्न हुए। निर्मल वंश में यह अनुचित हो रहा है कि, छोटे भैया भरत को छोड़कर अथवा, छोटे भाइयों को छोड़कर बड़े का अभिषेक किया जा रहा है। प्रभु का प्रेमपूर्ण यह पछताना, श्रीरामभक्तों के हृदय की कुटिलता को दूर कर दे।

**दो०- तेहि अवसर आए लखन, मगन प्रेम आनन्द।** **सनमाने प्रिय बचन कहि, रघुकुल कैरव चंद॥१०॥**
भाष्य

उसी समय प्रेम और आनन्द में मग्न होकर, लक्ष्मण जी वहाँ आये और प्रिय वचन कहकर, रघुकुल के चन्द्रमा भगवान्‌ श्रीराम ने लक्ष्मण जी का सम्मान किया।

**बाजहिं बाजन बिबिध बिधाना। पुर प्रमोद नहिं जाइ बखाना॥ भरत आगमन सबहिं मनावहिं। आवहिं बेगि नयन फल पावहिं॥** [[३१४]]
भाष्य

अनेक प्रकार के बाजे बज रहे हैं, नगर का प्रमोद कहा नहीं जा सकता है। सभी नर–नारी भरत जी का आगमन मना रहे हैं। सभी मन से कह रहे हैं कि, भरत जी शीघ्र आ जायें और वे भी सिंहासनासीन राजा श्रीराम को निहारकर नेत्रों का फल पा लें।

**हाट बाट घर गली अथाई। कहहिं परसपर लोग लुगाई॥**

**कालि लगन भलि केतिक बारा। पूजिहिं बिधि अभिलाष हमारा॥ भा०– **बाजार, मार्ग, घर, गली और चौपालों में बैठे हुए नर–नारी परस्पर चर्चा करते हैं कि, हे विधाता! कल का वह सुन्दर मुहूर्त अभी कितनी देर है, जब हमारी इच्छा पूर्ण होगी?

कनक सिंघासन सीय समेता। बैठहिं राम होइ चित चेता॥ सकल कहहिं कब होइहि काली। बिघन मनावहिं देव कुचाली॥

भाष्य

सीता जी के सहित श्रीराम जब स्वर्ण–सिंहासन पर बैठेंगे, तभी हमारे चित्त में चेत होगा अर्थात्‌ शान्ति होगी। सभी कह रहे हैं कि, कल कब होगा? इधर दुष्ट देवता विघ्न मना रहे हैं।

**तिनहिं सोहाइ न अवध बधावा। चोरहिं चंदिनि राति न भावा॥ शारद बोलि बिनय सुर करहीं। बारहिं बार पायँ लै परहीं॥**
भाष्य

उन्हें अवध का बधावा अर्थात्‌ बधाई का मंगलमय उत्सव नहीं अच्छा लग रहा है, क्योंकि चोर को चॉंदनी रात नहीं भाती। देवता, सरस्वती जी को बुलाकर विनय कर रहे हैं और बार–बार उनके चरणों को पक़डकर लेट जाते हैं।

**दो०- बिपति हमारि बिलोकि बमिड़, ातु करिय सोइ आजु।** **राम जाहिं बन राज तजि, होइ सकल सुरकाजु॥११॥**
भाष्य

हे माँ! हमारी बहुत बड़ी विपत्ति को देखकर आज आप वही कीजिये, जिससे श्रीरामचन्द्र अयोध्या का राज्य छोड़कर वन चले जायें और देवताओं के सभी कार्य पूर्ण हो जायें।

**सुनि सुर बिनय ठाढि़ पछिताती। भइउँ सरोज बिपिन हिमराती॥**

**देखि देव पुनि कहहिं निहोरी। मातु तोहि नहिं थोरिउ खोरी॥ भा०– **देवताओं का वचन सुनकर सरस्वती जी ख़डी-ख़डी पछता रही हैं। वे सोचती हैं कि, मैं रघुकुलरूप कमल–वन को नष्ट करने के लिए हेमन्त की रात्रि बन गई। सरस्वती जी को पछताती हुई देखकर, देवता उनका निहोरा करते हुए अर्थात्‌ प्रार्थना करते हुए कहने लगे, हे माँ! आपका थोड़ा भी दोष नहीं है।

बिसमय हरष रहित रघुराऊ। तुम जानहु सब राम प्रभाऊ॥ जीव करम बश सुख दुख भागी। जाइय अवध देवहित लागी॥

भाष्य

भगवान्‌ श्रीराम विषाद और हर्ष इत्यादि द्वन्द्वों से रहित हैं। आप तो श्रीराम का सब प्रभाव जानती हैं। जीव ही कर्म के वश में होने के कारण सुख–दु:ख का भागी अर्थात्‌ भोक्ता बनता है। अत: आप देवताओं के हित के लिए श्रीअवध अवश्य जाइये।

**बार बार गहि चरन सँकोची। चली बिचारि बिबुध मति पोची॥ ऊँच निवास नीचि करतूती। देखि न सकहिं पराइ बिभूती॥** [[३१५]]
भाष्य

देवताओं ने बार–बार चरण पक़ड कर सरस्वती जी को संकोच में डाला और सरस्वती जी यह विचार कर चलीं कि, देवताओं की बुद्धि बहुत निकृष्ट होती है। इनका निवास तो ऊँचा अर्थात्‌ स्वर्ग में है पर इनकी करतूत अर्थात्‌ कर्म बहुत निम्न हैं। ये किसी दूसरे की विभूति देख नहीं सकते अर्थात्‌ दूसरों का उत्कर्ष इनसे देखा नहीं जाता।

**आगिल काज बिचारि बहोरी। करिहैं चाह कुशल कबि मोरी॥ हरषि हृदय दशरथ पुर आई। जनु ग्रह दशा दुसह दुखदाई॥**
भाष्य

फिर अगले कार्य का विचार करके चतुर कवि मेरी चाह करेंगे। तात्पर्य यह है कि, जब मेरे निमित्त से श्रीराम का वनगमन होगा, तभी तो रावण का वध होगा और तभी तो जगत्‌ को शान्ति मिल सकेगी। ऐसा विचार कर सरस्वती जी हृदय में प्रसन्न होकर, दशरथ जी के पुर श्रीअयोध्या में आईं, मानो असहनीय दु:ख देने वाली शनिश्चर की महादशा आ गई हो।

**दो०- नाम मंथरा मंदमति, चेरी कैकइ केरि।** **अजस पेटारी ताहि करि, गई गिरा मति फेरि॥१२॥**
भाष्य

मंथरा नाम वाली एक मंदबुद्धि कैकेयी जी की दासी थी। सरस्वती जी उसी को अपयश की पिटारी अर्थात्‌ विशाल पेटिका बनाकर उसी की बुद्धि को फेरकर अर्थात्‌ विपरीत करके चली गईं।

**दीख मंथरा नगर बनावा। मंजुल मंगल बाज बधावा॥ पूछेसि लोगन काह उछाहू। राम तिलक सुनि भा उर दाहू॥**
भाष्य

मंथरा ने श्रीअवधनगर की सजावट और सुन्दर मंगल बधावे बजते देखा। उसने लोगों से पूछा, “यह कैसा उत्साह अर्थात्‌ उत्सव है?” उनसे श्रीराम जी के सम्भावित तिलक की तैयारी सुनकर मंथरा के हृदय में बहुत जलन हुई।

**करइ बिचार कुबुद्धि कुजाती। होइ अकाज कवनि बिधि राती॥ देखि लागि मधु कुटिल किराती। जिमि गवँ तकइ लहउँ केहि भाँती॥**
भाष्य

कुत्सितबुद्धि और कुजाति अर्थात्‌ दुष्टप्रकृति से युक्त, मंथरा विचार करने लगी कि, आज रात में ही किस प्रकार से अकाज अर्थात्‌ श्रीरामराज्याभिषेक में विघ्न पड़े। जैसे मधुमक्खी के रस से भरे हुए छत्ते को देखकर कुटिल हृदयवाली भिल्लिनी अवसर ढू़ढती है कि, किस भाँति से मैं मधु के छत्ते का रस पा जाऊँ, उसी प्रकार मंथरा भी वह उपाय सोचने लगी कि, यह श्रीरामराज्य का रस उसे प्राप्त हो, जिसका वह अपने स्वामिनी महारानी कैकेयी के पक्ष में उपयोग कर सके।

**भरतमातुपहँ गइ बिलखानी। का अनमनि हसि कह हँसि रानी॥ उतर देइ नहिं लेइ उसासू। नारिचरित करि ढारइ आँसू॥**
भाष्य

वह मंथरा रोती, बिलखती श्रीभरत की माता कैकेयी जी के पास गई। रानी कैकेयी ने हँसकर कहा, अरी मंथरा! तू क्यों अनमनि हो गई है अर्थात्‌ तेरा मन उदास क्यों है? मंथरा उत्तर नहीं देती है, लम्बे–लम्बे श्वास लेती जाती है और स्वार्थी नारी का नाटक से भरा चरित्र प्रस्तुत करके झूठे आँसू बहाती है।

**हँसि कह रानि गाल बड़–तोरे। दीन्ह लखन सिख अस मन मोरे॥ तबहुँ न बोल चेरि बपिड़ ापिनि। छाड़इ श्वास कारि जनु साँपिनि॥** [[३१६]]
भाष्य

रानी कैकेयी ने हँसकर कहा, तेरे पास बहुत बड़ा गाल है अर्थात्‌ तू बहुत असभ्य प्रकार से बोलती है। मेरे मन में ऐसा लगता है कि, तुझे लक्ष्मण ने शिक्षा दी है अर्थात्‌ डाँट–फटकार लगाई है। फिर भी बहुत बड़ी पापिनी दासी (मंथरा) नहीं बोलती है और काली साँपिन के समान ऊँचे–ऊँचे फुफकार के श्वास छोड़ती जाती है।

**दो०- सभय रानि कह कहसि किन, कुशल राम महिपाल।** **लखन भरत रिपुदमन सुनि, भा कुबरी उर साल॥१३॥**
भाष्य

रानी कैकेयी मंथरा के अनुत्तर का दृश्य देखकर भयभीत होती हुई कहने लगीं, उत्तर क्यों नहीं देती है, श्रीरामभद्र जी, चक्रवर्ती जी, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न कुशल हैं न? इनका कोई अमंगल तो नहीं हुआ? यह सुनकर, कुबड़ी (कुबड़वाली) मंथरा के हृदय में साल अर्थात्‌ असहनीय कष्ट हुआ।

**कत सिख देइ हमहिं कोउ माई। गाल करब केहि कर बल पाई॥ रामहिं छाकिड़ ुशल केहि आजू। जाहि जनेश देइ जुबराजू॥**
भाष्य

मंथरा व्यंग्य भरे वचनों में बोली, हे माँ! मुझे कोई क्यों शिक्षा देगा और मैं किसका बल पाकर गाल करूँगी अर्थात्‌ किसके बल से बोलूँगी? आज श्रीराम को छोड़कर किसका कुशल हो सकता है, जिन श्रीराम को महाराज दशरथ जी युवराज पद दे रहे हैं?

**भयउ कौसिलहि बिधि अति दाहिन। देखत गरब रहत उर नाहिन॥ देखहु कस न जाइ सब शोभा। जो अवलोकि मोर मन छोभा॥**
भाष्य

महारानी कौसल्या के लिए ब्रह्मा जी अत्यन्त दाहिने अर्थात्‌ अनुकूल हो गये हैं। यह देखकर कौसल्या के हृदय में सौभाग्य का गर्व समाता नहीं। अथवा, देखने में तो कौसल्या के हृदय में गर्व रहता नहीं दिखता, परन्तु वे सौभाग्य से गर्वीली हो चुकी हैं। अथवा, कौसल्या के प्रति विधाता की अनुकूलता देखकर मेरे हृदय में अब आपके सौभाग्य का गर्व नहीं रह रहा है। अब मैं अत्यन्त असहाय हो गई हूँ। आप ही जाकर अवध नगर की शोभा क्यों नहीं देख लेतीं, जिसे देखकर मेरे मन में अत्यन्त क्षोभ अर्थात्‌ दु:ख हुआ है ?

**पूत बिदेश न सोच तुम्हारे। जानति हहु बश नाह हमारे॥ नींद बहुत प्रिय सेज तुराई। लखहु न भूप कपट चतुराई॥**
भाष्य

आपका पुत्र भरत विदेश (ननिहाल) दूर देश में है। आपको उसकी किसी प्रकार की चिन्ता नहीं है। आप जानती हैं कि, महाराज हमारे अर्थात्‌ कैकेयी के वश में हैं। सुन्दर तोषक की सेज पर आप को नींद बहुत प्रिय है अर्थात्‌ गद्‌दे–मसनद लगाकर आप सोती रहती हैं। राजा दशरथ की कपटयुक्त चतुरता को नहीं देखती हैं।

**सुनि प्रिय बचन मलिन मन जानी। झुकी रानि अब रहु अरगानी॥ पुनि अस कबहुँ कहसि घरफोरी। तब धरि जीभ क़ढावउँ तोरी॥**
भाष्य

मंथरा के सामान्य लोगों को प्रिय लगने वाले वचनों को सुनकर तथा उसके मन को मलिन (मल से युक्त) जानकर रानी कैकेयी उस पर झिड़क पड़ीं और बोलीं, बस अब तू चूप रह। हे घर को फोड़ने वाली! यदि कभी फिर ऐसा कहा, तो पक़ड कर तेरी जीभ निकलवा लूँगी।

**दो०- काने खोरे कूबरे, कुटिल कुचाली जानि।** **तिय बिशेषि पुनि चेरि कहि, भरत मातु मुसुकानि॥१४॥**

[[३१७]]

भाष्य

सरस्वती जी की माया से विशेषस्त्री अर्थात्‌ कैकेयी की बुद्धि विपरीत हुई, इसलिए विकलांगों के प्रति अपमान का भाव रखती हुईं कानों अर्थात्‌ एक नेत्र के विकार से युक्त, खोरों अर्थात्‌ लंग़डों एवं निकले हुए कुबड़ के कारण विकलांग बन्धुओं को कुटिल और विपरीत आचरणवाला जानकर, फिर चेरि कहकर श्रीभरत की माता कैकेयी परिहास की मुद्रा में मुस्कुरा पड़ीं।

**प्रियबादिनि सिख दीन्हिउँ तोही। सपनेहुँ तो पर कोप न मोही॥ सुदिन सुमंगल दायक सोई। तोर कहा फुर जेहि दिन होई॥**
भाष्य

फिर कैकेयी बोलीं, हे प्रियवादिनि! अर्थात्‌ श्रीरामतिलक का प्रिय संदेश सुनाने वाली मंथरे! मैंने तुझको शिक्षा दी है, मुझे स्वप्न में भी तुम पर क्रोध नहीं है। जिंस दिन तुम्हारा कथन सत्य अर्थात्‌ श्रीराम का राजतिलक होगा वही सुन्दर मंगलों को देने वाला शुभ दिन होगा।

**जेठ स्वामि सेवक लघु भाई। यह दिनकर कुल रीति सुहाई॥ राम तिलक जौ साँचेहु काली। देउँ माँगु मन भावत आली॥**
भाष्य

बड़ा भाई स्वामी और छोटा भाई सेवक हुआ करता है, सूर्यकुल की यही सुहावनी रीति है। हे सखी! यदि कल सत्य ही श्रीराम का राजतिलक होगा तो तुम अपना मनभाया माँग लो, मैं अभी दे दूँगी।

**कौसल्या सम सब महतारी। रामहिं सहज स्वभाव पियारी॥ मो पर करहिं सनेह बिशेषी। मैं करि प्रीति परीक्षा देखी॥**
भाष्य

सरल स्वभाववाले श्रीराम को कौसल्या के समान ही सभी (सात सौ) मातायें प्रिय हैं। मुझ पर श्रीराम विशेष स्नेह करते हैं, मैंने उनकी प्रीति की परीक्षा करके देख लिया है।

**जौ बिधि जनम देइ करि छोहू। होहु राम सिय पूत पुतोहू॥ प्रान ते अधिक राम प्रिय मोरे। तिन के तिलक छोभ कस तोरे॥**
भाष्य

यदि विधाता मुझ पर कृपा और ममत्व करके मुझे अगला जन्म दें तो श्रीराम और श्रीसीता मेरे पुत्र और पुत्रवधू हों। श्रीराम मेरे प्राण से भी अधिक मुझे प्रिय हैं, उनके तिलक से तुझे क्षोभ क्यों है ?

**दो०- भरत शपथ तोहि सत्य कहु, परिहरि कपट दुराउ।** **हरष समय बिसमय करसि, कारन मोहि सुनाउ॥१५॥**
भाष्य

तुझे भरत की शपथ है, तू कपट और दुराउ (छिपाव) की भावना छोड़कर सत्य कह। हे मंथरा! हर्ष के समय विषाद और आश्चर्य कर रही है, इसका कारण मुझे सुना।

**एकहिं बार आस सब पूजी। अब कछु कहब जीभ करि दूजी॥ फोरै जोग कपार अभागा। भलेउ कहत दुख रउरेहि लागा॥**
भाष्य

मंथरा ने व्यंग्य करते हुए कहा, महारानी जी एक ही बार के कहने से तो मेरी सभी आशायें पूर्ण हो गईं। अब यदि कुछ कहूँगी तो दूसरी जीभ लगानी पड़ेगी अर्थात्‌ मेरी यह जीभ तो निकल जायेगी, फिर कैसे कुछ कह सकूँगी? मेरा यह अभागा कपाल (सिर) फोड़ने योग्य है, क्योंकि अच्छा कहने पर भी आपको दु:ख लग गया अर्थात्‌ मैंने तो अच्छा समझकर ही कहा, उसका आपने उल्टा अर्थ निकाला।

**कहहिं झूठि फुरि बात बनाई। ते प्रिय तुमहिं करुइ मैं माई॥ हमहुँ कहब अब ठकुरसोहाती। नाहिं त मौन रहब दिन राती॥** [[३१८]]
भाष्य

जो लोग झूठ–सच बातें बनाकर कहते हैं अर्थात्‌ झूठ को सत्य बनाकर आपको वास्तविकता से दूर रखते हैं, वे लोग ही आपको प्रिय हैं। हे माँ! मैं सच–सच बोलती हूँ, इसलिए मैं क़डवी हूँ। अब मैं ठकुरसोहाती अर्थात्‌ स्वामिनी को अच्छी लगनेवाली, भले ही वह सत्य से दूर हो ऐसी बातें कहूँगी नहीं तो दिन–रात मौन रहूँगी।

**करि कुरूप बिधि परबश कीन्हा। बवा सो लुनिय लहिय जो दीन्हा॥ कोउ नृप होउ हमहिं का हानी। चेरि छाबिड़ अ होब कि रानी॥**
भाष्य

कुरूप अर्थात्‌ विपरीत रूपवाली बनाकर विधाता ने मुझे पराधीन कर दिया, जो बोया वही काटा जा रहा है। जो पूर्व में दिया है, वही अब पा रही हूँ। कोई भी राजा हो जाये हमें क्या हानि है? क्या मैं दासी छोड़कर अब रानी बन जाऊँगी? अर्थात्‌ न ही श्रीराम के अभिषेक से व्यक्तिगत मेरी कोई हानि है और न ही श्रीभरत के अभिषेक से मेरा कोई व्यक्तिगत लाभ है।

**जारै जोग सुभाउ हमारा। अनभल देखि न जाइ तुम्हारा॥ ताते कछुक बात अनुसारी। छमिय देबि बचिड़ ूक हमारी॥**
भाष्य

हे महारानीजी! हमारा स्वभाव तो जलाने योग्य है, क्योंकि आपका अहित हम से देखा नहीं जाता है, इसलिए कुछ बात की थी। हे देवी! मेरी यह बहुत बड़ी भूल क्षमा कीजिये।

**दो०- गू़ढ कपट प्रिय बचन सुनि, तीय अधरबुधि रानि।** **सुरमाया बश बैरिनिहिं, सुहृद जानि पतियानि॥१६॥**
भाष्य

नारियों में अधमप्रकृति की श्रीराम–विरोधिनी मंथरा जिसे अस्थिर बुद्धि मिली है, छिपे हुए कपट अर्थ वाले प्रिय वचन सुनकर देवताओं की माया के वशीभूत रानी कैकेयी अपनी शत्रु मंथरा को अपना स्वाभाविक मित्र जानकर उस का विश्वास कर बैठीं।

विशेष – अधरा अधमा बुद्धि: यस्या: सा अधर बुद्धि: संस्कृत में अधर शब्द अधम का भी वाचक है। मंथरा की बुद्धि को सरस्वती ने अधर अर्थात्‌ अधम कर दिया है। अत: अधरबुद्धि विशेषज्ञ मंथरा का ही है।

सादर पुनि पुनि पूँछति ओही। शबरी गान मृगी जनु मोही॥ तसि मति फिरी अहइ जसि भाबी। रहसी चेरि घात जनु फाबी॥ तुम पूँछहु मैं कहत डेराऊँं। धरेहु मोर घरफोरी नाऊँ॥ सजि प्रतीति बहुबिधि गढि़ छोली। अवध सा़ढसाती तब बोली॥

भाष्य

रानी कैकेयी आदरपूर्वक बार–बार मंथरा से पूछ रही हैं, मानो भिल्लिनी के गान से हरिणी मोहित हो गई हो। जैसी भवितव्यता अर्थात्‌ होनहार है, उसी प्रकार कैकेयी की बुद्धि फिर गई। दासी मंथरा प्रसन्न हुई, मानो उसका घात लग गया हो अर्थात्‌ मंथरा ने भ्रमवश अपनी योजना को सफल होते देख प्रसन्नता का अनुभव किया, जबकि कैकेयी की बुद्धि भवितव्यता के कारण फिरी थी। मंथरा ने प्रत्युत्तर दिया, महारानी जी! आप पूछ रही हैं, परन्तु मैं कहने से डर रही हूँ, क्योंकि आपने पहले ही मेरा नाम घरफोड़ी (घर फोड़ने वाली) रख दिया है। इसके अनन्तर, बहुत प्रकार से छील–ग़ढकर अर्थात्‌ जैसे कोई लक़डी को छीलकर, ग़ढकर सजाता है, उसी प्रकार अपनी बात को काट–पीटकर विश्वास को सजाकर (जमा कर) अवध की सा़ढेसाती अर्थात्‌ शनिश्चर की (सा़ढे सात वर्ष तक चलने वाली) महाभयंकर दशा के समान मंथरा बोली–

[[३१९]]

**प्रिय सिय राम कहा तुम रानी। रामहिं तुम प्रिय सो फुरि बानी॥ रहे प्रथम अब ते दिन बीते। समय फिरे रिपु होहिं पिरीते॥**
भाष्य

हे रानी! श्रीसीताराम जी आपको प्रिय हैं ऐसा आप ने कहा है और आप श्रीराम को प्रिय हैं, आपकी यह वाणी भी सत्य है, परन्तु वे दिन पहले थे अर्थात्‌ तब समय आपके अनुकूल था जब श्रीसीताराम जी आपको प्रिय थे और आप उन्हें प्रिय थीं, परन्तु अब वे दिन चले गये। समय के फिरने अर्थात्‌ विपरीत होने पर प्रिय भी शत्रु हो जाते हैं।

**भानु कमल कुल पोषनिहारा। बिनु जल जारि करइ सोइ छारा॥ जरि तुम्हारि चह सवति उखारी। रूँधहु करि उपाउ बर बारी॥**
भाष्य

देखिये, जो सूर्य कमल समूह को पोषण करने वाले हैं, वही सूर्यनारायण उसी कमल को जल के बिना जलाकर खाक कर देते हैं। आपकी सौतें आपकी ज़ड को उखाड़ फेंकना चाहती हैं। आप उपाय रूप सुन्दर बाड़ की व्यवस्था करके उस ज़ड को रुँध दीजिये, जिससे आपकी सौतें आपकी ज़ड तक पहुँच ही न सकें।

**दो०- तुमहिं न सोच सोहाग बल, निज बश जानहु राउ।** **मन मलीन मुह मीठ नृप, राउर सरल सुभाउ॥१७॥**
भाष्य

आपको तो अपने सौभाग्य के बल के कारण चिन्ता नहीं है। आप महाराज को अपने वश में जानती हैं, जबकि ऐसा नहीं है। राजा दशरथ मन के मैले और मुँह के मीठे हैं अर्थात्‌ बोलते बहुत मधुर हैं, पर उनका मन मलों से भरा है और आपका स्वभाव सरल है।

**चतुर गँभीर राम महतारी। बीच पाइ निज बात सँवारी॥ पठए भरत भूप ननियउरे। राम मातु मत जानब रउरे॥**
भाष्य

श्रीराम की माता कौसल्या जी बहुत चतुर और गंभीर हैं, उन्होंने अवसर पाकर इसी बीच अपनी बात बना ली है। आप यह बात जान लें की श्रीराम की माता कौसल्या जी की सम्मति से ही महाराज ने श्रीभरत को ननिहाल भेज दिया है।

**सेवहिं सकल सवति मोहि नीके। गरबित भरत मातु बल पी के॥**

**शाल तुम्हार कौसिलहि माई। कपट चतुर नहिं होइ जनाई॥ भा०– **(कौसल्या जी की यह धारणा है कि,) मेरी सभी सौतें भली प्रकार से मेरी सेवा करती हैं, परन्तु प्रियतम महाराज दशरथ के बल से भरत की माता कैकेयी गर्वीली हो रही हैं। अथवा, हे श्रीभरत की माँ कैकेयी! आपकी यह धारणा है कि, सभी सौतें मेरी सेवा करती हैं और इसी कारण से भरत की माता आप, अपने पति दशरथ के बल से गर्वीली हो गईं हैं, जबकि परिस्थिति इसके विपरीत है। हे माँ! कौसल्या जी को आपका खटक है। वे कपट में चतुर हैं, इसलिए आपके प्रति वे अपने असंतोष को प्रकट नहीं करतीं।

राजहिं तुम पर प्रेम बिशेषी। सवति सुभाउ सकइ नहिं देखी॥ रचि प्रपंच भूपहिं अपनाई। राम तिलक हित लगन धराई॥

भाष्य

कौसल्या जी सौतन के स्वभाव के कारण तुम पर महाराज का विशेष प्रेम नहीं देख सकती हैं, इसलिए प्रपंच रचकर महाराज दशरथ को अपने वश में करके उन्होंने श्रीराम के राजतिलक के लिए मुहूर्त निश्चित करा लिया।

[[३२०]]

**यह कुल उचित राम कहँ टीका। सबहिं सोहाइ मोहि सुठि नीका॥ आगिलि बात समुझि डर मोही। दैव देउ फिरि सो फल ओही॥**
भाष्य

इस कुल अर्थात्‌ रघुकुल में श्रीराम के लिए राजतिलक उचित है, वह सब को अच्छा लग रहा है, मुझे तो बहुत अच्छा लगता है, परन्तु इससे आगे की बात समझकर मुझे बहुत डर लग रहा है अर्थात्‌ कहीं राजमाता बनकर कौसल्या आप के साथ अत्याचार कर बैठें। फिर ईश्वर उन्हें उसी प्रकार का फल दें अर्थात्‌ राजमाता बन कर भी कौसल्या आप पर अत्याचार न कर सकें और ईश्वर करें कि, कौसल्या कभी राजमाता न बन पायें।

**दो०- रचि पचि कोटिक कुटिलपन, कीन्हेसि कपट प्रबोध।**

**कहिसि कथा शत सवति कै, जेहि बिधि बा़ढ बिरोध॥१८॥ भा०– **इस प्रकार, करोड़ों कुटिलताओं को सजावट के साथ रचकर मंथरा ने कैकेयी को कपटपूर्ण ज्ञान दिया अर्थात्‌ उन्हें कपट के सिद्धान्तों से प्रबोधित किया और सैक़डों ऐसी सौतों की कथायें कही, जिससे कैकेयी के मन में कौसल्या जी के प्रति विरोध ब़ढ गया।

भावीबश प्रतीति उर आई। पूँछ रानि पुनि शपथ देवाई॥ का पूँछहु तुम अबहुँ न जाना। निज हित अनहित पशु पहिचाना॥

भाष्य

भवितव्यता के कारण कैकेयी के हृदय में मंथरा के वाक्यों के प्रति विश्वास आ गया फिर रानी ने अपनी शपथ दिलाकर मंथरा से वास्तविकता पूछी। मंथरा क्रुद्ध होकर बोली, आप क्या पूछ रही हैं? आप ने अभी भी नहीं जाना, जबकि पशु भी अपना हित और अहित पहचान जाता है।

**भयउ पाख दिन सजत समाजू। तुम पाई सुधि मोहि सन आजू॥ खाइय पहिरिय राज तुम्हारे। सत्य कहे नहिं दोष हमारे॥ जौ असत्य कछु कहब बनाई। तौ बिधि देइहि हमहिं सजाई॥**
भाष्य

श्रीराम राजतिलक का साज सजाते पन्द्रह दिन बीत गये, आप ने आज मुझसे समाचार पाया। हम आपके ही राज्य में खाती और पहनती हैं अर्थात्‌ आप ही के कृपा से हमारा भोजन और वस्त्र चल रहा है। सत्य कहने से हमें दोष नहीं लगेगा। यदि मैं कुछ बनाकर असत्य कहूँगी तो ब्रह्मा जी मुझे उसका दण्ड देंगे।

**रामहिं तिलक कालि जौ भयऊ। तुम कहँ बिपति बीज बिधि बयऊ॥ रेख खँचाइ कहउँ बल भाखी। भामिनि भइहु दूध कइ माखी॥ जौ सुत सहित करहु सेवकाई। तौ घर रहहु न आन उपाई॥**
भाष्य

यदि कल श्रीराम का राजतिलक हो गया तो समझो कि, विधाता ने तुम्हारे लिए विपत्ति का बीज बो दिया है। मैं रेखा खींचकर बलपूर्वक भाषण करती हुई कह रही हूँ कि, हे भामिनि (सुलक्षणे)! आप दूध की मक्खी हो चुकी हैं अर्थात्‌ जैसे दूध में से मक्खी निकाल दी जाती है, उसी प्रकार अवध–राजपरिवार में आपका अस्तित्व नहीं रहा। यदि पुत्र श्रीभरत के साथ आप कौसल्या जी की सेविका की भाँति सेवा करेंगी तभी घर में रह सकती

हैं, इसके अतिरिक्त कोई दूसरा उपाय नहीं है।

दो०- कद्रू बिनतहिं दीन्ह दुख, तुमहिं कौसिला देब।
भरत बंदिगृह सेइहैं, लखन राम के नेब॥१९॥

भाष्य

जिस प्रकार कद्रू ने विनता को कष्ट दिया था, उसी प्रकार कौसल्या जी आपको दु:ख देंगी। श्रीभरत बंदिगृह के सेवक बनेंगे अर्थात्‌ बंदी बना लिए जायेंगे और लक्ष्मण जी, श्रीराम के मुख्य सहायक होंगे। अथवा,

[[३२१]]

श्रीभरत बंदी (चारण) बनकर राजगृह की सेवा करेंगे और श्रीलक्ष्मण, श्रीराम के नेब अर्थात्‌ समान सुख के भोक्ता बनेंगे।

**विशेष– **यहाँ प्रयुक्त नेब शब्द अर्द्धवाचक नेम शब्द का अपभ्रंश है। तात्पर्य यह है कि, श्रीलक्ष्मण, श्रीराम के नेम अर्थात अर्द्ध यानी युवराज पद के अधिकारी होंगे।

कैकयसुता सुनत कटु बानी। कहि न सकइ कछु सहमि सुखानी॥ तन पसेउ कदली जिमि काँपी। कुबरी दशन जीभ तब चाँपी॥

भाष्य

मंथरा की यह कटुवाणी सुनकर कैकयराजपुत्री कुछ भी नहीं कह पा रही थीं। वे सहसा भयभीत होकर सूख गईं। उनके शरीर में पसीना आ गया, वे केले के वृक्ष की भाँति काँँप उठीं। तब कुबजा मंथरा ने अपने दाँत से जीभ दबा लिया अर्थात्‌ दाँत से जीभ दबाकर उसने यह बताना चाहा कि, सत्य की इतनी भयंकर सूचना मैंने रानी को क्यों दी?

**कहि कहि कोटिक कपट कहानी। धीरज धरहु प्रबोधेसि रानी॥ कीन्हेसि कठिन प़ढाय कुपाठू। जिमि न नवै फिरि उकठि कुकाठू॥**
भाष्य

मंथरा ने करोड़ों कपट के कथानक कहकर, धैर्य धारण कीजिये इस प्रकार, आश्वासन देते हुए रानी को प्रबुद्ध किया अर्थात्‌ समझाया। कुत्सित दोषपूर्ण पाठ प़ढाकर कैकेयी को मंथरा ने उतना कठिन बना दिया जैसे हवन आदि शुभकार्याें में न आने वाली सूखी लक़डी फिर नहीं झुक पाती।

**फिरा करम प्रिय लागि कुचाली। बकिहिं सराहइ मानि मराली॥ सुनु मंथरा बात फुरि तोरी। दहिनि आँखि नित फरकइ मोरी॥ दिन प्रति देखउँ राति कुसपने। कहउँ न तोहि मोहबश अपने॥ काह करौं सखि सूध सुभाऊ। दाहिन बाम न जानउँ काऊ॥** **दो०- अपने चलत न आजु लगि, अनभल काहुक कीन्ह।**

केहिं अघ एकहिं बार मोहि, दैव दुसह दुख दीन्ह॥२०॥

भाष्य

कैकेयी का कर्म फिर गया अर्थात्‌ सत्कर्म, दुष्कर्म बन गया। वे बगली को हंसिनी मानकर उसकी प्रशंसा करने लगीं अर्थात्‌ मंथरा जैसी दुष्ट महिला को कैकेयी ने साध्वी मान लिया और बोलीं, हे मंथरा! सुन, तेरी बात सत्य है। मेरी दाहिनी आँख नित्य फ़डकती है। मैं प्रतिदिन–रात को बुरे सपने देखती हूँ, परन्तु अपने ही मोह के वश में होकर तुमसे नहीं कहती हूँ। हे सखी! क्या करूँ मेरा स्वभाव बहुत सीधा है। मैं कुछ भी दाहिना और बाँया नहीं समझती अर्थात्‌ मुझे अनुकूलता और प्रतिकूलता की पहचान ही नहीं है। अपने चलते तो मैंने किसी का बुरा नहीं किया है। विधाता ने मेरे किस पाप से मुझे एक ही बार में असहनीय दु:ख दे दिया?

**नैहर जनम भरब बरु जाई। जियत न करब सवति सेवकाई॥ अरि बश दैव जियावत जाही। मरन नीक तेहि जीवन चाही॥**
भाष्य

मैं मायके में ही जाकर सम्पूर्ण जीवन समाप्त कर लूँगी, परन्तु जीते जी सौतन की सेवा नहीं करूँगी। विधाता जिसे शत्रु के अधीन रखकर जिलाता है, उस जीवन की अपेक्षा तो मरण ही अच्छा है।

**दीन बचन कह बहुबिधि रानी। सुनि कुबरी तियमाया ठानी॥ अस कस कहहु मानि मन ऊना। सुख सोहाग तुम कहँ दिन दूना॥** [[३२२]]
भाष्य

जब रानी ने बहुत प्रकार से दीनतापूर्ण वचन कहे तब कूबड़ वाली मंथरा ने गॅंवार अवसरवादिनी स्त्री की माया (कपट वञ्चना) प्रारम्भ की और बोली, अपने मन को कौसल्या की अपेक्षा अल्प मानकर आप इस प्रकार की निराशापूर्ण वचन क्यों कह रही हैं? आपके लिए सुख और सौभाग्य तो दिन दूना और रात चौगुना है।

**जेहिं राउर अति अनभल ताका। सोइ पाइहि यह फल परिपाका॥ जब ते कुमत सुना मैं स्वामिनि। भूख न बासर नींद न जामिनि॥ पूँछेउँ गुनिन रेख तिन खाँची। भरत भुआल होहिं यह साँची॥** **भामिनि करहु त कहौं उपाऊ। हैं तुम्हरी सेवाबश राऊ॥**
भाष्य

जिसने आपका अत्यन्त अहित सोचा है अथवा, अपनी दृष्टि से देखा है, वही परिणाम में यह पका हुआ फल पायेगा अर्थात्‌ उसी का भयंकर अहित होगा, आपका नहीं। हे स्वामिनी जी! जब से मैंने यह कुमंत्र अर्थात्‌ भरत की अनुपस्थिति में श्रीराम का राज्याभिषेक सुना है, तब से मुझे न ही दिन भर भूख लगती है और न ही रात को नींद आती है। मैंने गुणियों अर्थात्‌ फलित ज्योतिष के विद्वानों से पूछा, उन्होंने यह सत्य रेखा खींचकर कह दिया है कि, श्रीभरत ही श्रीअवध के भूपाल अर्थात्‌ शासक बनेंगे। हे सुलक्षणे! यदि आप करें तो मैं उपाय कहूँ। महाराज दशरथ आपकी सेवा के वश में हैं।

विशेष

जो ज्योतिषियों ने मंथरा से कहा था कि भरत “भुआल” अर्थात्‌ भूपाल होंगे तात्पर्यत: भूमि का पालन करेंगे और १४ वर्ष पर्यन्त भूमि से पालित होकर भूमि के नीचे गुफा बना कर रहेंगे। भूआल होंगे अर्थात्‌ भूमि ही उनका आलवाल यानी स्थल बन जायेगी। परन्तु मंथरा ने उनका आशय नहीं समझा और वह भुआल शब्द का अर्थ राजा ही समझ बैठी। यहाँ ज्योतिषी झूठे नहीं थे प्रत्युत्‌ झूठी थी मंथरा।

दो०- परउँ कूप तुअ बचन पर, सकउँ पूत पति त्यागि।

**कहसि मोर दुख देखि बड़, कस न करब हित लागि॥२१॥ भा०– **कैकेयी बोलीं, मैं तेरे वचन के आधार पर कुँए में भी गिर सकती हूँ तथा अपने पुत्र भरत और पति महाराज दशरथ जी को छोड़ सकती हूँ। तुम मेरा बहुत बड़ा दु:ख देखकर यदि कोई उपाय कह रही हो तो उसे अपने हित के लिए क्यों नहीं करूँगी?

कुबरी करि कबुली कैकेई। कपट छुरी उर पाहन टेई॥ लखइ न रानि निकट दुख कैसे। चरइ हरित तृन बलि पशु जैसे॥

भाष्य

कुबरी ने कैकेयी को कबुली अर्थात्‌ अपनी बात मानने के लिए वचनबद्ध करके, अपने हृदयरूप पत्थर पर कपटरूप छुरी (चाकू) तेज अर्थात्‌ रग़ड कर तीखी की। रानी कैकेयी अपने निकटवर्ती दु:ख को किस प्रकार नहीं देख रही है, जैसे बलि पर च़ढने वाला पशु कटने के ठीक पहले हरी घास चरता है पर उसके अनन्तर होने वाली अपनी मृत्यु को नहीं समझ पाता।

**सुनत बात मृदु अंत कठोरी। देति मनहुँ मधु माहुर घोरी॥**

**कहइ चेरि सुधि अहइ कि नाहीं। स्वामिनि कहिहु कथा मोहि पाहीं॥ भा०– **मंथरा की बात सुनने में कोमल, परन्तु परिणाम में अत्यन्त कठोर अर्थात्‌ भयानक है। मानो मंथरा मधु में घोलकर विष पिला रही है। दासी कहने लगी, स्वामिनी जी! आपको स्मरण है या नहीं, यह कथा आपने एक बार मुझसे कही थी।

[[३२३]]
दुइ बरदान भूप सन थाती। माँगहु आजु जुड़ावहु छाती॥ सुतहिं राज रामहिं बनबासू। देहु लेहु सब सवति हुलासू॥

भाष्य

देवासुर संग्राम में महाराज दशरथ ने जो दो वरदान आपको दिये थे, धरोहर में पड़े हुए उन्हीं दोनों वरदानों को आज महाराज दशरथ से माँग लीजिये। अपनी तथा मेरी छाती को शीतल कीजिये। प्रथम वरदान से अपने पुत्र श्रीभरत को राज्य और द्वितीय वरदान से श्रीराम को वनवास दे दीजिये। अपनी सभी सौतनों का आनन्द छीन लीजिये।

**भूपति राम शपथ जब करई। तब माँगेहु जेहिं बचन न टरई॥ होइ अकाज आजु निशि बीते। बचन मोर प्रिय मानेहु जी ते॥**
भाष्य

जब महाराज श्रीराम की शपथ कर लें तभी वरदान माँगिये, जिससे वे वचन से न मुकर सकें। आज की रात बीत जाने पर अकाज अर्थात्‌ काज की हानि हो जायेगी, क्योंकि कल ही श्रीराम का राजतिलक हो जाने पर कुछ भी नहीं किया जा सकेगा। इसलिए मेरे वचन अपने हृदय से प्रिय मानो और उस पर क्रियान्वयन करो। अथवा, मेरे वचन प्राण से भी प्रिय मानना, प्राण चले जायें पर अपने निश्चय से नहीं डिगना।

**दो०- बड़ कुघात करि पातकिनि, कहेसि कोपगृह जाहु।** **काज सँवारेहु सजग सब, सहसा जनि पतियाहु॥२२॥**
भाष्य

पापिनी मंथरा ने बहुत बड़ा भयंकर आघात करके कैकेयी से फिर कहा, कोपभवन में चली जाइये, सतर्क रह कर काम बनाइये। सहसा विश्वास मत कीजियेगा, सब कुछ सोच–विचार कर कीजियेगा।

**कुबरिहिं रानि प्रानप्रिय जानी। बार बार बबिड़ ुद्धि बखानी॥ तोहि सम हित न मोर संसारा। बहे जात कर भयसि अधारा॥ जौ बिधि पुरब मनोरथ काली। करौं तोहि चख पूतरि आली॥ बहुबिधि चेरिहिं आदर देई। कोपभवन गवनी कैकेई॥**
भाष्य

रानी कैकेयी ने कुबरी मंथरा को अपने प्राणों से भी प्रिय समझा। बार–बार मंथरा की विशाल बुद्धि की प्रशंसा की। कैकेयी ने कहा, हे मन्थरे! इस संसार में तेरे समान मेरा कोई भी हितैषी नहीं है। तू बहे जाते के लिए आधार हो गई अर्थात्‌ विपत्ति के सागर में बहती हुई मुझ कैकेयी को तुमने आश्रय देकर किनारे पर लगा लिया। हे सखी! यदि कल विधाता ने मेरा मनोरथ पूर्ण किया तो मैं तुम्हें अपनी आँख की पुतली बना लूँगी। दासी मंथरा को बहुत प्रकार से सम्मान देकर, कैकेयी कोपभवन में चलीं गईं।

**बिपति बीज बरषा ऋतु चेरी। भुइँ भइ कुमति कैकयी केरी॥ पाइ कपट जल अंकुर जामा। बर दोउ दल दुख फल परिनामा॥**
भाष्य

यहाँ विपत्ति ही बीज है और दासी मंथरा ही वर्षा ऋतु है, कैकेयी की कुबुद्धि ही भूमि बन गई, उसमें कपट का जल पाकर वह अंकुर जम आया, जिसके छोटे–छोटे दो दल अर्थात्‌ पत्ते के समान बने दोनों वरदान और परिणाम में आनेवाला दु:ख ही इसका फल बन गया अर्था््त्‌ जैसे वर्षा ऋतु में पृथ्वी पर पड़ा हुआ बीज जल की सहायता से दो दलों के साथ अंकुरित होकर फल उत्पन्न करता है, उसी प्रकार मंथरा की प्रेरणा से कैकेयी की कुबुद्धि में विपत्ति का वपन हुआ जो दोनों वरदान रूप दलों के साथ अंकुरित होकर कपट–जल की सहायता से ही दु:ख रूप फल का परिणामी बन गया।

[[३२४]]

**कोप समाज साजि सब सोई। राज करत निज कुमति बिगोई॥ राउर नगर कोलाहल होई। यह कुचालि कछु जान न कोई॥**
भाष्य

क्रोध के सभी उपकरणों को सजाकर कैकेयी कोपभवन में जाकर सो गईं। राज करते हुए कैकेयी अपनी ही कुबुद्धि के द्वारा नष्ट कर दी र्गइं। राजभवन और श्रीअवध नगर में कोलाहल हो रहा है कोई भी कैकेयी की यह कुचाल कुछ भी नहीं जान रहा है।

**दो०- प्रमुदित पुर नर नारि सब, सजहिं सुमंगलचार।** **एक प्रबिसहिं एक निर्गमहिं, भीर भूप दरबार॥२३॥**
भाष्य

नगर के प्रसन्न नर–नारी सुन्दर मंगलाचार सजा रहे हैं। एक राजद्वार में प्रवेश करते हैं और एक राजद्वार से निकल रहे हैं। महाराज के द्वार पर बहुत भीड़ है।

**बाल सखा सुनि हिय हरषाहीं। मिलि दस पाँच राम पहँ जाहीं॥ प्रभु आदरहिं प्रेम पहिचानी। पूँछहिं कुशल छेम मृदु बानी॥**
भाष्य

भगवान्‌ श्रीराम के बालमित्र श्रीराम के राजतिलक का समाचार सुनकर, हृदय में बहुत प्रसन्न होते हैं और दस–दस, पाँच–पाँच के समूहों में मिलकर श्रीराम के पास जाते हैं। उनका प्रेम पहचान कर, प्रभु श्रीराम उन्हें सम्मानित करते हैं और कोमल वाणी में उनसे कुशलक्षेम पूछते हैं।

**फिरहिं भवन प्रभु आयसु पाई। करत परसपर राम बड़ाई॥ को रघुबीर सरिस संसारा। शीज सनेह निबाहनिहारा॥**
भाष्य

परस्पर श्रीराम की प्रशंसा करते हुए उनके बालमित्र प्रभु की आज्ञा पाकर अपने घरों को लौटते हैं और कहते हैं कि, संसार में रघुकुल के वीर श्रीराम के समान शील एवं स्नेह का एक साथ निर्वहन करने वाला कौन है?

**जेहिं जेहिं जोनि करम बश भ्रमहीं। तहँ तहँ ईश देउ यह हमहीं॥ सेवक हम स्वामी सियनाहू। होउ नात यह ओर निबाहू॥**
भाष्य

सभी लोग परमेश्वर से प्रार्थना करते हैं कि, हे भगवान्‌! हम अपने कर्माें के अधीन होकर चौरासी लाख योनियों मेें से जिस–जिस योनि में जन्म लेकर भ्रमण करें वहाँ–वहाँ आप हमें यही दीजिये कि उन–उन योनियों में हम सेवक रहें और भगवती सीता जी के पति भगवान्‌ श्रीराम हमारे स्वामी बनें रहें। इस सेवक–सेव्यभाव सम्बन्ध का हमारे जीवनपर्यन्त निर्वाह होता रहे अर्थात्‌ हमें मुक्ति नहीं चाहिये। हम तो प्रत्येक जन्म में प्रभु श्रीराम के सेवक ही बने रहना चाहते हैं।

**अस अभिलाष नगर सब काहू। कैकयसुता हृदय अति दाहू॥ को न कुसंगति पाइ नसाई। रहइ न नीच मते चतुराई॥**
भाष्य

श्रीअवध नगर के सभी लोगों के मन में इसी प्रकार की अभिलाषा है। उधर कोपभवन में सोयी हुई कैकेयी के हृदय में बहुत जलन हो रही है। बुरी संगति पाकर कौन नहीं नष्ट हो जाता? नीच लोगों के मत में रहनेवाले व्यक्ति के मन में चतुरता नहीं रह जाती अर्थात्‌ नीच व्यक्ति के मंत्रणा से चलने पर लोक और परलोक दोनों नष्ट हो जाते हैं।

**दो०- साँझ समय सानंद नृप, गयउ कैकयी गेह।** **गमन निठुरता निकट किय, जनु धरि देह सनेह॥२४॥**

[[३२५]]

भाष्य

संध्या के समय संध्यावंदन आदि नित्यकृत्यों से निवृत होकर चक्रवर्ती महाराज दशरथजी, श्रीराम राज्याभिषेक का समाचार सुनाने के लिए आनन्दपूर्वक कैकेयी के भवन में गये। मानो शरीर धारण किये हुए स्नेह ने ही निष्ठुरता अर्थात्‌ कठोरता के निकट प्रस्थान किया हो।

**कोपभवन सुनि सकुचेउ राऊ। भय बस अगहुड़ परइ न पाऊ॥**
भाष्य

कैकेयी को कोपभवन में प्रविष्ट हुए सुनकर, महाराज दशरथ जी संकुचित हो गये और कैकेयी के रुष्ट होने पर प्राणाराध्य श्रीराम के दुखित होने के डर से महाराज के चरण आगे नहीं पड़ रहे थे, क्योंकि महाराज की दृष्टि में कैकेयी अत्यन्त रामानुरागिनीं थीं। अत: उनके कुपित होने पर श्रीराम का दु:खी होना सम्भव था, जो महाराज के भय का कारण बना।

**सुरपति बसइ बाहुबल जाके। नरपति सकल रहहिं रुक ताके॥ सो सुनि तिय रिस गयउ सुखाई। देखहु काम प्रताप बड़ाई॥ शूल कुलिश असि अँगवनिहारे। ते रतिनाथ सुमन शर मारे॥**
भाष्य

यहाँ गोस्वामी जी काकवक्रोक्ति के माध्यम से श्रीरामकथा के सामान्य श्रोताओं को जागरूक करते हुए, महाराज दशरथ पर मिथ्या आरोपित कामुकता का खण्डन करते हुए, उसके समाधान में तीन प्रश्न करते हैं– हे श्रोताओं जिन महाराज दशरथ जी के बाहुबल से इन्द्र अमरावती में सुखपूर्वक निवास करते हैं, जिनके रुख को देखकर ही सभी राजा महाराज की इच्छा का पालन करते हैं, क्या वे चक्रवर्ती महाराज पत्नी का प्रणयकोप सुनकर सूख गये? क्या यहाँ तुम लोग काम का प्रताप और काम का बड़प्पन देख रहे हो? जो चक्रवर्ती महाराज दशरथजी, देवासुर संग्राम में महादेव शिव जी का त्रिशूल, इन्द्र का वज्र और महाकाली की तलवार का प्रहार भी सह चुके थे, उन्हीं परमश्रीरामभक्त श्रीराघव सरकार के पूज्य पिता दशरथ जी को रति के पति कामदेव ने पुष्पों के बाणों से ही मार डाला? अर्थात्‌ नहीं। यहाँ सब कुछ एकमात्र श्रीरामप्रेम के आधार पर ही घटा। महाराज ने कैकेयी को श्रीराम प्रिय जानकर ही उनके सभी कदाचरणों को सहन किया।

**सभय नरेश प्रिया पहँ गयऊ। देखि दशा दुख दारुन भयऊ॥ भूमि शयन पट मोट पुराना। दिए डारि तन भूषन नाना॥ कुमतिहिं कसि कुबेषता फाबी। अनअहिवात सूच जनु भाबी॥ जाइ निकट नृप कह मृदु बानी। प्रानप्रिया केहि हेतु रिसानी॥**
भाष्य

महाराज दशरथ जी भयभीत होते हुए अपनी प्रिया कैकेयी के पास गये। वे तो उसे श्रीरामभक्ता ही जान रहे थे। उसकी वर्तमान दशा देखकर चक्रवर्ती जी को असहनीय दु:ख हुआ। कैकेयी भूमि पर शयन किये हुई थी। उसने मोटे और पुराने वस्त्र पहन रखे थे और उसने अपने शरीर के आभूषण जहाँ–तहाँ फेंक दिये थे। यह भयंकर वेश धारणकर कुबुद्धि वाली कैकेयी किस प्रकार सुशोभित हो रही थी, मानो वह कुवेषता कैकेयी के भविष्यत्‌कालीन वैधव्य की सूचना दे रही थी। कैकेयी के निकट जाकर महाराज ने कोमल वाणी में कहा, हे प्राणप्रिय! अर्थात्‌ मेरे प्राण श्रीराम को अपना परमप्रेमास्पद मानने वाली कैकेयी तुम किस कारण रुठी हुई हो?

**छं०: केहि हेतु रानि रिसानि परसत पानि पतिहिं नेवारई।** **मानहुँ सरोष भुजंग भामिनि बिषम भाँति निहारई॥ दोउ बासना रसना दशन बर मरम ठाहर देखई। तुलसी नृपति भवितब्यता बश काम कौतुक लेखई॥**

[[३२६]]

भाष्य

हे रानी कैकेयी! तुम किस कारण से रुठी हो, ऐसा कहकर हाथ का स्पर्श करते हुए पति महाराज दशरथ को कैकेयी झटक कर उन्हें दूर कर देती है, मानो क्रोध से युक्त हुई सर्प की पत्नी नागिन भयंकर दृष्टि से महाराज को देख रही है। कैकेयी के हृदय में मंथरा द्वारा उत्पन्न की हुई भरत राज्याभिषेक तथा श्रीराम–वनवास की वासना ही कैकेयी रूप नागिन की दो जिह्वायें हैं और भरत को राज्याभिषेक तथा श्रीराम को वनवास नामक दो वरदान ही उस नागिन के दो दाँत हैं। वह डसने के लिए मर्मस्थान देख रही है कि, कब महाराज शपथ करें और मैं वरदान माँग लूँ। गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं कि, होनहार भावी के वश हुए महाराज दशरथजी, कैकेयी की पूर्वोक्त क्रियाओं को उसका काम–कौतुक समझ रहे हैं। उन्हें अभी तक यह ज्ञात नहीं हो पाया है कि, मंथरा ने कैकेयी को श्रीराम–विमुख बना दिया है और वे स्वार्थ के आवेश में अब अपने वात्सल्यभाजन श्रीराघव को शत्रु समझ कर वनवास दे रही हैं।

**सो०- बार बार कह राउ, सुमुखि सुलोचनि पिकबचनि।** **कारन मोहि सुनाउ, गजगामिनि निज कोपकर॥२५॥**
भाष्य

राजा दशरथ जी बार–बार कह रहे हैं, हे सुमुखी (सुन्दर मुखवाली)! हे सुलोचनि (सुन्दर नेत्रवाली)! हे पिकबचनि (कोयल के समान मधुर बोलने वाली)! हे गजगामिनि (हाथी के सामन चलनेवाली)! अपने क्रोध का मुझे कारण सुनाओ।

**विशेष– **यहाँ कैकेयी जी को महाराज द्वारा दिये हुए चारों विशेषण, श्रीरामप्रेम के अभिप्राय से है। महाराज का मानना है कि, बालरूप श्रीराघव को बारम्बार चूमने के कारण कैकयी सुमुखी हैं। राजीवलोचन श्रीराम को पुन:– पुन: निहारने के कारण कैकेयी सुलोचनि हैं। राम–राम कह कर बुलाने के कारण कैकेयी पिकबचनि हैं और बालरूप श्रीराघव को गोद में लेकर झूम–झूम कर चलने के कारण कैकेयी गजगामिनि भी हैं।

अनहित तोर प्रिया केहिं कीन्हा। केहि दुइ सिर केहि जम चह लीन्हा॥ कहु केहि रंकहि करहु नरेशू। कहु केहि नृपहिं निकासौं देशू॥

भाष्य

हे प्रिय कैकेयी! तुम्हारा अहित किसने किया है? कौन ऐसा दो सिरोंवाला है, क्योंकि एक सिरवाला तुम्हारा अहित नहीं कर सकता? किसे यमराज लेना चाहते हैं अर्थात्‌ मेरे द्वारा दण्डित होकर कौन यमलोक जाना चाहता है? बोलो, किस दरिद्र को राजा बना दूँ और किस राजा को देश से निकाल दूँ।

**सकउँ तोर अरि अमरउ मारी। कहा कीट बपुरे नर नारी॥ जानसि मोर स्वभाव बरोरू। मन तव आनन चंद्र चकोरू॥**
भाष्य

कैकेयी मैं तुम्हारे शत्रु देवता को भी मार सकता हूँ अर्थात्‌ तुमसे शत्रुता करने वाले उस देवता का भी मैं वध कर सकता हूँ, जो अमृत पीकर अमर हो चुका है, फिर कीड़े-मकोड़ों के समान निरीह मर्त्यलोक के नर– नारियों की क्या बात है? हे बरोरू (रघुवर श्रीराम को गोद में बिठाने के कारण सुन्दर उरू अर्थात्‌ पलथी वाली) कैकेयी! तुम तो मेरा स्वभाव जानती हो। मेरा मन तुम्हारे मुखचन्द्र का चकोर है, क्योंकि श्रीरामचन्द्र विषयक

वात्सल्य–रससुधा तुम्हारे मुखचन्द्र में विराजमान है, उसी को मेरा मन चकोर पीता रहता है।

प्रिया प्रान सुत सरबस मोरे। परिजन प्रजा सकल बश तोरे॥ जौ कछु कहौं कपट करि तोहीं। भामिनि राम शपथ शत मोहीं॥

भाष्य

हे श्रीरामप्रेमास्पद कैकेयी! मेरे प्राण, पुत्र, सर्वस्व परिवार और प्रजा ये सब तुम्हारे अधीन हैं। यदि मैं तुमसे कुछ भी कपट करके कह रहा हूँ, तो हे सुलक्षणे! मुझे श्रीराम जी की सैक़डों शपथ है।

[[३२७]]

**बिहँसि माँगु मनभावति बाता। भूषन साजु मनोहर गाता॥ घरी कुघरी समुझि जिय देखू। बेगि प्रिया परिहरहु कुबेषू॥**
भाष्य

तुम हँस करके अपनी मनचाही बात मुझसे माँग लो और अपने सुन्दर शरीर पर आभूषण सजाओ तथा घड़ी और कुघड़ी अर्थात्‌ समय और कुसमय का हृदय में विचार करके देखो। हे श्रीराम प्रियमयी कैकयी! इस निन्दित वेश को शीघ्र छोड़ दो।

**दो०- यह सुनि मन गुनि शपथ बबिड़, िहँ सि उठी मतिमंद।**

**भूषन सजति बिलोकि मृग, मनहुँ किरातिनि फंद॥२६॥ भा०– **महाराज का यह वचन सुनकर, मन में बहुत बड़ा श्रीराम–शपथ का विचार करके, मंदबुद्धि वाली कैकेयी हँसकर उठी और वह अपने अंगों में उसी प्रकार आभूषण सजाने लगी, मानो हरिण को देखकर उसे फाँसने के लिए भिलनी जाल का फंदा सजा रही हो।

पुनि कह राउ सुहृद जिय जानी। प्रेम पुलकि मृदु मंजुल बानी॥ भामिनि भयउ तोर मनभावा। घर घर नगर अनंद बधावा॥ रामहिं देउँ कालि जुबराजू। सजहु सुलोचनि मंगल साजू॥

भाष्य

फिर महाराज ने अपने मन में कैकेयी को सुहृद अर्थात्‌ सुन्दर हृदयवाली मित्र जानकर प्रेम से रोमांचित होकर कोमल और मधुर वाणी में कहा, हे भामिनी! तुम्हारा मनचाहा हो गया। देखो श्रीअवध नगर के घर–घर में आनन्द उत्सव हो रहा है। हे सुन्दर नेत्रोंवाली कैकेयी! कल श्रीराम को युवराज पद दे रहा हूँ। अब तुम मंगल के साज–सजाओ।

**दलकि उठेउ सुनि हृदय कठोरू। जनु छुइ गयउ पाक बरतोरू॥ ऐसेउ पीर बिहँसि तेहि गोई। चोर नारि जिमि प्रगटि न रोई॥**
भाष्य

यह सुनकर कैकेयी का कठोर हृदय भी उसी प्रकार फट उठा, जैसे पका हुआ बरतोरू (बाल टूट जाने पर हुआ फोड़ा) छू जाने पर पीड़ा के साथ फूटता है। ऐसी भयंकर पीड़ा को भी कैकेयी ने हँस कर छिपा लिया और चोर की नारी (चोरी करने वाले की स्त्री) के समान वह प्रकट करके नहीं रो सकीं।

**लखहिं न भूप कपट चतुराई। कोटि कुटिल मनि गुरू प़ढाई॥ जद्दपि नीति निपुन नरनाहू। नारि चरित जलनिधि अवगाहू॥**
भाष्य

महाराज दशरथजी, कैकेयी की उस कपट भरी चतुरता को नहीं देख रहे हैं, क्योंकि कैकेयी करोड़ों कुटिल–शिरोमणियों की भी आचार्या मंथरा द्वारा प़ढाई हुई शिष्या हैं अर्थात्‌ वह साधारण गुरु की विद्दार्थी नहीं हैं। यद्दपि महाराज दशरथ जी नीति में निपुण हैं, परन्तु माता, बहन, पत्नी तथा पुत्री इन चारों मान्यताओं से दूर भोगप्रधान प्राकृतनारी का चरित्र अगाध सागर भी तो है।

**कपट सनेह ब़ढाइ बहोरी। बोली बिहँसि नयन मुख मोरी॥** **दो०- माँगु माँगु पै कहहु पिय, कबहुँ न देहु न लेहु।**

देन कहेहु बरदान दुइ, तेउ पावत संदेहु॥२७॥

भाष्य

फिर कपटपूर्ण स्नेह को ब़ढाकर आँखों और मुख को मोड़कर कैकेयी हँसती हुई बोलीं, हे प्रिय! आप माँगो–माँगो ऐसा कहते भर हैं, कभी देते–लेते नहीं हैं। मुझे दो वरदान देने के लिए कहा था, उन्हें पाने में भी मुझे संदेह लग रहा है।

[[३२८]]

**जानेउँ मरम राउ हँसि कहई। तुमहिं कोहाब परम प्रिय अहई॥ थाती राखि न माँगिहु काऊ। बिसरि गयउ मोहि भोर सुभाऊ॥**
भाष्य

महाराज हँसकर कहते हैं कि, हाँ मैंने रहस्य जान लिया, तुम्हें तो रूठना ही बहुत प्रिय है। वरदानों को धरोहर में रखकर तुमने मुझसे कभी नहीं माँगा और सीधा स्वभाव होने के कारण मुझे दोनों वरदान भूल गये थे।

**झूँठेहुँ हमहिं दोष जनि देहू। दुइ कै चारि माँगि मकु लेहू॥ रघुकुल रीति सदा चलि आई। प्रान जाहिं बरु बचन न जाई॥**
भाष्य

हमें झूठा दोष मत दो, दो के स्थान पर चार क्यों नहीं माँग लेती? सदा से चली आ रही रघुकुल की यही रीति है कि, रघुवंशियों के प्राण चले जाते हैं पर उनका वचन नहीं जाता।

**नहिं असत्य सम पातक पुंजा। गिरिसम होहिं कि कोटिक गुंजा॥ सत्यमूल सब सुकृत सुहाए। बेद पुरान बिदित मनु गाए॥**
भाष्य

असत्य के समान पापों के समूह भी नहीं हो सकते। क्या करोड़ों छोटी–छोटी गुंजायें (घूमचियाँ) एक पर्वत के समान हो सकती हैं? सभी सुन्दर सत्कर्म सत्यमूलक हैं अर्थात्‌ सभी श्रेष्ठकर्मों का मूल्य सत्य है। यह बात चारों वेदों तथा अठारहों पुराणों में प्रसिद्ध है और स्वायम्भुव मनु ने भी अपनी मनुस्मृति में गाया है।

**तेहि पर राम शपथ करि आई। सुकृत सनेह अवधि रघुराई॥ बात दृ़ढाइ कुमति हँसि बोली। कुमत कुबिहग कुलह जनु खोली॥**
भाष्य

इस पर भी मेरे द्वारा श्रीराम की शपथ कर ली गई है। श्रीरघुनाथ तो मेरे पुण्यों और मेरे स्नेह की सीमा हैं। इस प्रकार, महाराज से अपनी बात दृ़ढ कराके दुष्टबुद्धि वाली कैकेयी हँसकर बोली, मानो निकृष्ट मंत्रणारूप दुष्टपक्षी बाज की टोपी खोल दी हो।

**दो०- भूप मनोरथ सुभग बन, सुख सुबिहंग समाज।**

**भिल्लिनि जिमि छाड़न चहति, बचन भयंकर बाज॥२८॥ भा०– **महाराज दशरथ जी के मनोरथरूप सुन्दर वन में निवास करनेवाले सुखरूप सुन्दर पक्षियों के समाज पर कैकेयी भिलनी के समान अपने भयंकर वचनरूप बाज पक्षी को छोड़ना चाहती है।

सुनहु प्रानप्रिय भावत जी का। देहु एक बर भरतहिं टीका॥ माँगउँ दूसर बर कर जोरी। पुरवहु नाथ मनोरथ मोरी॥ तापस बेष बिशेष उदासी। चौदह बरिस राम बनबासी॥

भाष्य

कैकेयी बोली, हे प्राणप्रिय चक्रवर्ती जी महाराज! मेरे मन को भानेवाला वरदान सुनिये। एक वरदान भरत का राज्याभिषेक दे दीजिये। हे नाथ! दूसरा वरदान मैं हाथ जोड़कर माँग रही हूँ, मेरे मनोरथ पूर्ण कीजिये, श्री राम तपस्वी का वेश धारण करके एक विशिष्ट शेष अर्थात्‌ सेवक को साथ लेकर और एक उत्कृष्ट दासी अपनी अनन्य सेविका को सहचरी बनाकर चौदह वर्षों के लिए वनवासी बनें।

**विशेष– **यहाँ विशेष और उदासी दोनों ही शब्द सारगर्भित है। संस्कृत में शेष शब्द शेषनाग अवशिय् \(काटने से बचा हुआ\) और परिकर का वाचक है। यहाँ तृतीय अर्थ ही लिया गया है। *विशिष्ट**: शेष: सेवक: यस्य स:*

[[३२९]]

विशेष*:। तथा उत्कृष्टा दासी यस्य स: उदासी। *यहाँ उकार उत्कृष्ट का वाचक है, इस प्रकार कैकेयी के मुख से स्वयं ही श्रीराम–वनवास के साथ सरस्वती जी ने श्रीसीता एवं श्रीलक्ष्मण के वनवास की घोषणा करा दी।

सुनि तिय बचन भूप हिय शोकू। शशि कर छुअत बिकल जिमि कोकू॥ गयउ सहमि नहिं कछु कहि आवा। जनु सचान बन झपटेउ लावा॥ बिबरन भयउ निपट नरपालू। दामिनि हनेउ मनहुँ तरु तालू॥

भाष्य

स्त्री अर्थात्‌ साधारण नारी की भूमिका में रहनेवाली कैकेयी के वचन सुनकर महाराज दशरथ जी के हृदय में अत्यन्त शोक हुआ, मानो चन्द्रमा की किरणों का स्पर्श करते ही चकवा विकल हो गया हो। महाराज भय से सहम गये अर्थात्‌ किंकर्त्तव्यविमू़ढ हो गये। उनके मुख से कुछ भी कहा नहीं जा रहा था, मानो लवा अर्थात्‌ बटेर पक्षी के समूह पर बाज पक्षी झपट पड़ा हो। मनुष्यों के पालक महाराज दशरथ विकृत वर्णवाले हो गये अर्थात्‌ उनका आकार शोक के विकार से शोभाहीन हो गया। मानो आकाश से गिरी हुई बिजली ने ताल वृक्ष को नष्ट कर दिया हो।

**माथे हाथ मूंदि दोउ लोचन। तनु धरि सोच लाग जनु सोचन॥ मोर मनोरथ सुरतरु फूला। फरत करिनि जिमि हतेउ समूला॥ अवध उजारि कीन्ह कैकेई। दीन्हेसि अचल बिपति कै नेई॥**
भाष्य

महाराज दशरथ जी अपने मस्तक पर हाथ रखकर दोनों आँखे मूँदकर उसी प्रकार चिन्ता करने लगे, मानो, शोक ही शरीर धारण करके शोक कर रहा हो। चक्रवर्ती जी ने मन में ही कहा, मानो मेरे मनोरथरूप कल्पवृक्ष के पुष्प में फल लगते ही, हथिनी ने कल्पवृक्ष को ज़ड सहित उखाड़कर नष्ट कर दिया हो। कैकेयी ने अवध को उजाड़ कर रख दिया और उसने अचल विपत्ति की नींव डाल दी।

**दो०- कवने अवसर का भयउ, गयेउ नारि बिश्वास।** **जोग सिद्धि फल समय जिमि, जतिहिं अबिद्दा नास॥२९॥**
भाष्य

अरे! किस अवसर में क्या हो गया? पत्नी के ऊपर से मेरा विश्वास उठ गया। कैकेयी ने मुझे उसी प्रकार नष्ट कर दिया, जैसे प्रयत्नशील योगी को योग की सिद्धि रूप फल के समय तम, मोह, महामोह, तामिश्र और अंधतामिश्र नामक पाँच पर्वों से युक्त अविद्दा नष्ट कर देती है। अथवा किस समय क्या उपस्थित हो गया? अवसर था श्रीराम के राज्याभिषेक का और उपस्थित हो गया श्रीराम का वनवास, मुझ नर की सहचारिणीं नारी (पत्नी) के विश्वास से मैं नष्ट हो गया, जैसे योगी को योग की सिद्धि रूप फल के समय पर अविद्दा नष्ट कर देती है।

**एहि बिधि राउ मनहिं मन झाँखा। देखि कुभाँति कुमति मन माखा॥ भरत कि राउर पूत न होंही। आनेहु मोल बेसाहि कि मोही॥**
भाष्य

महाराज दशरथ जी इस प्रकार से मन ही मन खीझ कर पश्चातताप करने लगे। उनकी यह व्याकुल चेष्टा देखकर कुमति अर्थात्‌ अवधभूमि की सत्ता पर बुद्धि रखनेवाली कैकेयी मन में कुपित हो उठीं। कैकेयी बोलीं, हे महाराज! क्या भरत आपके पुत्र नहीं हैं? क्या आप उन्हें क्रय करके ले आये हैं तथा क्या मुझ को आप किसी बाजार से क्रय कर लाये हैं? क्योंकि यदि मैं आप की परिणीता पत्नी हूँ और भरत आप द्वारा हविष्यान्न की विधि से गर्भाधान क्रिया द्वारा मुझसे जन्मे हैं तो उनका राज्य पर अधिकार बनता है।

[[३३०]]

**विशेष– **कुमति का ‘कु’ शब्द संस्कृत में पृथ्वी का भी वाचक है और पृथ्वी का सम्बन्ध सत्ता से है। इस समय कैकेयी की बुद्धि पृथ्वी के राज्य–सुखभोग में केन्द्रित है, इसलिए गोस्वामी जी ने उन्हें कुमति कहा “***कौ** पृथिव्यां मति: बुद्धि: यस्या सा कुमति:*।”**

जो सुनि शर अस लाग तुम्हारे। काहे न बोलहु बचन सँभारे॥ देहु उतर अनुकरहु कि नाहीं। सत्यसंध तुम रघुकुल माहीं॥

भाष्य

जो सुनकर आपको बाण जैसे लगे, आप सम्भाल कर वचन क्यों नहीं बोलते हैं, महाराज आप उत्तर दीजिये। मुझे अनुकूलता से वरदान प्रदान कर रहे हैं की नहीं, क्योंकि आप रघुकुल में सत्यप्रतिज्ञ हैं।

**देन कहेहु अब जनि बर देहू। तजहु सत्य जग अपजस लेहू॥ सत्य सराहि कहेहू बर देना। जानेहु लेइहि माँगि चबेना॥**
भाष्य

आपने वरदान देने के लिए कहा था, अब मत दीजिये। सत्य छोड़ दीजिये, जगत्‌ में अपयश लीजिये। आपने, अपने सत्य की प्रशंसा करके मुझे वरदान देने के लिए कहा था। आप जानते थे कि, चबैना अर्थात्‌ दाँत से चबाकर खाने वाला भूना हुआ चना तथा मक्के का लावा कैकेयी माँग लेगी।

**शिबि दधीचि बलि जो कछु भाखा। तनु धन तजेउ बचन पन राखा॥**

**अति कटु बचन कहति कैकेई। मानहुँ लोन जरे पर देई॥ भा०– **महाराज शिवि, महर्षि दधीचि, दैत्यराज बलि ने जो कुछ देने के लिए प्रतिज्ञा करके कहा, उन्होंने अपना शरीर और धन छोड़ा परन्तु अपने वचन और प्रतिज्ञा का पालन किया। कैकेयी अत्यन्त कटुवचन कह रही है, मानो वह जले हुए पर नमक छिड़क रही है।

दो०- धरम धुरंधर धीर धरि, नयन उघारे राय।
सिर धुनि लीन्ह उसास असि, मारेसि मोहि कुठाय॥३०॥

भाष्य

धर्म की धूरी को धारण करने वाले महाराज दशरथ ने धैर्य धारण करके आँखें खोलीं। उन्होंने सिर पीट कर लम्बा श्वास लिया और बोले, अरे कैकेयी ने तो मुझे बुरे स्थान पर तलवार मारी है।

**आगे दीखि जरत रिस भारी। मनहुँ रोष तरवारि उघारी॥ मूठि कुबुद्धि धार निठुराई। धरी कूबरी सान बनाईं॥ लखी महीप कराल कठोरा। सत्य कि जीवन लेइहि मोरा॥**
भाष्य

महाराज ने अपने सन्मुख भयंकर क्रोध में जलती हुई कैकेयी को देखा। मानो म्यान से निकली हुई क्रोध की नंगी तलवार हो। कैकेयी की कुबुद्धि जिसकी मुठिया थी और निष्ठुरता ही जिसकी तेज धार थी तथा जो मंथरा रूप सान पर बनाकर रखी गई थी। अथवा, मंथरा ने जिस पर सान बनाकर रखी अर्थात्‌ अपने प्रपंच से उसकी धार और नुकिली कर दी। महाराज ने देखा यह तलवार तो बहुत भयंकर और कठोर है, क्या यह सत्य ही मेरा जीवन ले लेगी?

**बोले राउ कठिन करि छाती। बानी सबिनय तासु सोहाती॥**

**प्रिया बचन कस कहसि कुभाँती। भीरु प्रतीति प्रीति करि हाती॥ भा०– **महाराज अपनी छाती को कठिन करके कैकेयी को भानेवाली विनयपूर्ण वाणी बोले, हे प्रिये रामानुरागिणीं! हे भीर शोभावाली कैकेयी! इस प्रकार विश्वास और प्रेम की हत्या करके कुत्सित विचार वाले वचन क्यों कह रही हो?

[[३३१]]
मोरे भरत राम दुइ आँखी। सत्य कहउँ करि शङ्कर साखी॥ अवसि दूत मैं पठइब प्राता। ऐहैं बेगि सुनत दोउ भ्राता॥ सुदिन सोधि सब साज सजाई। देउँ भरत कहँ राज बजाई॥

भाष्य

मैं शिव जी को साक्षी करके सत्य कह रहा हूँ कि, भरत और श्रीराम मेरे दो बायें–दाहिने नेत्र हैं। मैं कल प्रात:काल दूतों को अवश्य भेजूँगा। मेरा संदेश सुनते ही दोनों भाई भरत–शत्रुघ्न ननिहाल से शीघ्र श्रीअवध आ जायेंगे। सुन्दर मुहूर्त का शोधन करके राज्याभिषेक के सभी साज सजाकर डंका बजाकर मैं भरत को राज्य दे दूँगा।

**दो०- लोभ न रामहिं राज कर, बहुत भरत पर प्रीति।** **मैं बड़ छोट बिचारि जिय, करत रहेउँ नृप नीति॥३१॥**
भाष्य

श्रीराम को राज्य का लोभ नहीं है, उन्हें श्रीभरत पर बहुत प्रेम है, परन्तु मैं ही हृदय में बड़े-छोटे का विचार करके राजनीति करता रहा, अर्थात्‌ राजनीति के आधार पर श्रीभरत के बड़े भाई श्रीराम को युवराज पद देने का विचार करता रहा।

**रामशपथ शत कहउँ सुभाऊ। राममातु कछु कहेउ न काऊ॥ मैं सब कीन्ह तोहि बिनु पूँछे। तेहि ते परेउ मनोरथ छॅूंछे॥ रिसि परिहरु अब मंगल साजू। कछु दिन गए भरत जुबराजू॥**
भाष्य

मैं शुद्धभाव से कह रहा हूँ मुझे श्रीराम की सैक़डों शपथ है कि, मुझे कभी भी, कुछ भी श्रीराम की माता कौसल्या ने नहीं कहा। मैंने तुझसे पूछे बिना सब कुछ किया, इसीलिए तो मेरे मनोरथ छूँछे अर्थात्‌ रिक्त पड़ गये, उनका कोई फल नहीं मिला। कैकेयी! क्रोध छोड़ दो अब मांगलिक साज–सजाओ। कुछ दिन बीतने पर भरत युवराज बन जायेंगे।

**एकहि बात मोहि दुख लागा। बर दूसर असमंजस माँगा॥ अजहूँ हृदय दहत तेहि आँचा। रिसि परिहास कि साँचेहुँ साँचा॥**
भाष्य

एक ही बात से मुझे बहुत कष्ट की अनुभूति हुई है। तुमने दूसरा वरदान सामंजस्यहीन अर्थात्‌ असामंजस्यपूर्ण माँगा है, क्योंकि श्रीभरत के राज्य से श्रीराम के वनवास की कोई संगति नहीं बैठती। अब भी उसी ताप से मेरा हृदय जल रहा है। यह क्रोध परिहास का है या सत्य ही सत्य है अर्थात्‌ यह अर्द्धसत्य तो नहीं है?

**कहु तजि रोष राम अपराधू। सब कोउ कहइ राम सुठि साधू॥ तुहूँ सराहसि करसि सनेहू। अब सुनि मोहि भयउ संदेहू॥ जासु स्वभाव अरिहि अनुकूला। सो किमि करिहि मातु प्रतिकूला॥**
भाष्य

तुम क्रोध छोड़कर श्रीराम का अपराध कहो, क्योंकि सभी लोग कहते हैं कि, श्रीराम सुठि अर्थात्‌ सुन्दर और साधु हैं अर्थात्‌ उनमें सम्पूर्णतया साधुता विराजमान है। तुम भी उनकी सराहना करती थी और स्नेह करती थी। अभी श्रीराम के विरुद्ध यह वचन सुनकर मुझे संदेह हो गया। जिन श्रीराम का स्वभाव शत्रु को भी अनुकूल लगता है, वे श्रीराघव अपनी माँ के प्रतिकूल आचरण कैसे करेंगे?

**दो०- प्रिया हास रिसि परिहरहि, माँगु बिचारि बिबेक।** **जेहिं देखौं अब नयन भरि, भरत राज अभिषेक॥३२॥**

[[३३२]]

भाष्य

हे श्रीराम–प्रेमास्पद कैकेयी! यह परिहास का क्रोध छोड़ो विवेक से विचार करके वरदान माँगो, जिससे मैं अब भरत का राज्याभिषेक नेत्र भर देख सकूँ।

**\* मासपारायण, ग्यारहवाँ विश्राम \*** **जियइ मीन बरु बारि बिहीना। मनि बिनु फनिक जियइ दुख दीना॥ कहउँ स्वभाव न छल मन माहीं। जीवन मोर राम बिनु नाहीं॥**

समुझि देखु जिय प्रिया प्रबीना। जीवन राम दरस आधीना॥

भाष्य

हे कैकेयी! जल से रहित मछली भले जी ले, कदाचित्‌ मणि के बिना दु:ख से दीन अर्थात्‌ अभावग्रस्त सर्प भले जी सके, परन्तु मैं अपना वास्तविक भाव कहता हूँ, मेरे मन में कोई छल नहीं है। मेरा जीवन श्रीराम के बिना नहीं रह सकता। अर्थात्‌ मछली और सर्प तिर्यगयोनि होने के कारण मुझसे अधिक संवेदनशील कैसे हो सकते हैं। उनके प्रेमास्पद अचिद्‌वर्ग के ज़ड पदार्थ हैं, किन्तु मेरे प्रेमास्पद प्रभु चिद्‌–अचिद्‌ विशिष्ट अद्वैततत्त्व हैं। हे चतुर अनुरागिणी कैकेयी! समझकर देखो, मेरा जीवन श्रीराम के दर्शन के अधीन है।

**सुनि मृदु बचन कुमति अति जरई। मनहुँ अनल आहुति घृत परई॥ कहइ करहु किन कोटि उपाया। इहाँ न लागिहि राउरि माया॥**
भाष्य

दशरथ जी के कोमल वचन सुनकर कुत्सितबुद्धि वाली कैकेयी मन में क्रोध से जली जा रही है, मानो अग्नि में घी की आहुति पड़ रही हो। कैकेयी कहने लगी, महाराज! क्यों न आप करोड़ों उपाय कर डालें, पर यहाँ आपकी माया नहीं लगेगी अर्थात्‌ मैं आपके छल से प्रभावित नहीं होऊँगी।

**देहु कि लेहु अजस करि नाहीं। मोहि न बहुत प्रपंच सोहाहीं॥ राम साधु तुम साधु सयाने। राममातु भलि सब पहिचाने॥ जस कौसिला मोर भल ताका। तस फल उनहिं देउँ करि साका॥**
भाष्य

आप वरदान दीजिये अथवा (नहीं कहकर) संसार में अपयश लीजिये। मुझे बहुत प्रपंच अच्छे नहीं लगते। श्रीराम साधु हैं और आप चतुर साधु हैं। श्रीराम की माता कौसल्या भली हैं, अब यह तथ्य सभी लोग पहचान गये हैं। कौसल्या ने जिस प्रकार मेरा भला देखा अर्थात्‌ निश्चित किया, मैं उन्हें सब्जी के भाव से उसी प्रकार का फल दूँगी अर्थात्‌ जैसे धन के ही अनुपात में सब्जी मिला करती है, उसी प्रकार कौसल्या के कार्य के अनुपात में ही उन्हें फल मिलेगा।

**दो०- होत प्रात मुनिबेष धरि, जौ न राम बन जाहिं।** **मोर मरन राउर अजस, नृप समुझिय मन माहिं॥३३॥**
भाष्य

हे राजन्‌! अपने मन में समझ लीजिये कि, यदि कल प्रात:काल होते ही मुनिवेश धारण करके श्रीराम वन को नहीं चले जाते तो, मेरा मरण और आप का अपयश निश्चित है।

**अस कहि कुटिल भई उठि ठा़ढी। मानहुँ रोष तरंगिनि बा़ढी॥ पाप पहार प्रगट भइ सोई। भरी क्रोध जल जाइ न जोई॥ दोउ बर कूल कठिन हठ धारा। भँवर कूबरी बचन प्रचारा॥ ़ढाहत भूप रूप तरु मूला। चली बिपति बारिधि अनुकूला॥** [[३३३]]
भाष्य

ऐसा कहकर कुटिल हृदय वाली कैकेयी जो पृथ्वी पर लेटी थी उठकर ख़डीं हो गई, मानो क्रोध की नदी ही ब़ढ गई हो। वह क्रोध रूप नदी पाप रूप पर्वत से प्रकट हुई, जो क्रोध के जल से भरी थी और देखी नहीं जा रही थी। दोनों वरदान ही उसके दोनो किनारे थे और कठिन हठ ही उस नदी की धारा थी। कुबरी मंथरा के वचनों का प्रचार ही उस क्रोध नदी की घोर भंवर थी। वह क्रोध नदी महाराज दशरथरूप वृक्ष की ज़ड को ढहाती हुई विपत्ति रूप समुद्र के सम्मुख चल पड़ी।

**लखी नरेश बात सब साँची। तिय मिस मीचु शीष पर नाची॥ गहि पद बिनय कीन्ह बैठारी। जनि दिनकर कुल होसि कुठारी॥**
भाष्य

राजा ने देखा की इसकी सभी बातें सत्य हैं। स्त्री के बहाने मेरे सिर पर मृत्यु नाच रही है। उन्होंने चरण पक़डकर विनय करके कैकेयी को बैठाया और कहा, कैकेयी! सूर्यकुल को काटने के लिए कुल्हाड़ी मत बन जाओ।

**माँगु माथ अबहीं देउँ तोही। राम बिरह जनि मारसि मोही॥**

**राखु राम कहँ जेहि तेहि भाँती। नाहिं त जरिहि जनम भरि छाती॥ भा०– **कैकेयी मस्तक माँग लो तुझे अभी दे दूँ। श्रीराम के विरह में मुझे मत मार डालो। जिस किसी प्रकार से श्रीराम को वन जाने से रोक लो, नहीं तो जीवन भर छाती जलेगी।

दो०- देखी ब्याधि असाध नृप, परेउ धरनि धुनि माथ।
कहत परम आरत बचन, राम राम रघुनाथ॥३४॥

भाष्य

महाराज दशरथ ने जब ब्याधि को असाध्य देखा अर्थात्‌ जब कैकेयी को किसी भी प्रकार से मानते नहीं देखा, तब अत्यन्त व्याकुल वचनों से राम–राम रघुनाथ शब्द का उच्चारण करते हुए सिर पीटकर पृथ्वी पर गिर पड़े।

**ब्याकुल राउ शिथिल सब गाता। करिनि कलपतरु मनहुँ निपाता॥**

**कंठ सूख मुख आव न बानी। जनु पाठीन दीन बिनु पानी॥ भा०– **महाराज व्याकुल हो गये, उनके सभी अंग शिथिल (ढीले) पड़ गये, मानो हथिनी ने कल्पवृक्ष को तोड़कर गिरा दिया हो। राजा का कंठ सूख गया। मुख से वाणी नहीं निकलती, जैसे पानी के बिना पुराना मछली दीन अर्थात्‌ अभाव से युक्त हो गया हो।

पुनि कह कटु कठोर कैकेयी। मनहुँ घाय महँ माहुर देई॥ जौ अंतहुँ अस करतब रहेऊ। माँगु माँगु तुम केहिं बल कहेऊ॥

भाष्य

फिर कठोर कैकेयी अत्यन्त क़डवे कठोर वचन कहने लगी, मानों वह घाव में विष दे रही थी। यदि अन्त में आप को यही करना था, तो प्रारम्भ में किस बल से वरदान माँगो–वरदान माँगो कहा था।

**दुइ कि होइ एक समय भुआलू। हँसब ठठाइ फुलाउब गालू॥** **दानि कहाउब अरु कृपनाई। होइ कि छेम कुशल रौताई॥**
भाष्य

हे महाराज! ठहाका लगाकर हँसना और गाल फुलाना, ये परस्पर विरोधी दोनों क्रियायें क्या एक साथ हो सकती है अर्थात्‌ ठहाके लगाकर हँसने वाला व्यक्ति क्या गाल को फुला सकता है? नहीं, क्योंकि ठहाके में ही वह वायु निकल गया होता है, जिसके द्वारा गाल फुलाया जाता है। लोगों के सामने दानी कहलाना और कृपणता

[[३३४]]

करना क्या ऐसा सम्भव है? रावत अर्थात्‌ शूरवीर बनकर युद्ध भी करना और शरीर का कुशल तथा क्षेम चाहना कैसे सम्भव है?

छाड़हु बचन कि धीरज धरहू। जनि अबला जिमि करुना करहू॥ तनु तिय तनय धाम धन धरनी। सत्यसंध कहँ तृन सम बरनी॥

भाष्य

या तो वचन छोयिड़े अथवा, धैर्य धारण कीजिये। सामान्य बलहीन ग्रामीण नारी की भाँति करुणा मत कीजिये। सत्यप्रतिज्ञ के लिए शरीर, स्त्री, पुत्र, भवन, धन और पृथ्वी, ये तृण के समान कहे गये हैं अर्थात्‌ सत्यप्रतिज्ञ व्यक्ति इन्हें तिनके के समान छोड़ देता है।

**दो०- मरम बचन सुनि राउ कह, कछुक दोष नहिं तोर।** **लागेउ तोहि पिशाच जिमि, काल कहावत मोर॥३५॥**
भाष्य

कैकेयी के मर्मभेदी वचन सुनकर चक्रवर्ती जी ने कहा, तेरा कुछ भी दोष नहीं है, मेरा काल ही तुम्हें पिशाच जैसे लग गया है और वही तुमसे सब कुछ कहला रहा है।

**चहत न भरत भूपतहिं भोरे। बिधिबश कुमति बसी उर तोरे॥ सो सब मोर पाप परिनामू। भयउ कुठाहर जेहिं बिधि बामू॥**
भाष्य

भरत भूल कर भी भूपता अर्थात्‌ राजपद नहीं चाहते हैं। दुर्भाग्यवश तुम्हारे हृदय में कुबुद्धि निवास करने लगी है। वह सब मेरे पाप का परिणाम है, जिससे अनुचित स्थान पर और अनुचित अवसर पर विधाता प्रतिकूल हो गये हैं।

**सुबस बसिहि फिरि अवध सुहाई। सब गुन धाम राम प्रभुताई॥ करिहैं भाइ सकल सेवकाई। होइहि तिहुँ पुर राम बड़ाई॥ तोर कलंक मोर पछिताऊ। मुएहुँ न मिटिहि न जाइहि काऊ॥ अब तोहि नीक लाग करु सोई। लोचन ओट बैठु मुँह गोई॥ जब लगि जिऔं कहउँ कर जोरी। तब लगि जनि कछु कहसि बहोरी॥ फिरि पछितैहसि अंत अभागी। मारसि गाइ नहारू लागी॥**
भाष्य

सम्पूर्ण गुणों के आश्रय श्रीराम की प्रभुता से अयोध्या फिर सुहावनी होकर सुन्दर वास के साथ बस जायेगी। सभी तीनों भाई श्रीराम की सेवा करेंगे। तीनों लोक में श्रीराम की बड़ाई होगी, परन्तु तुम्हारा कलंक और मेरा पश्चात ताप ये दोनों हम दोनों के मरने पर भी नहीं मिटेंगे और कभी भी नहीं जायेंगे। अब तुम्हें जो अच्छा लगे वही करो। तुम अपना मुख छिपाकर मेरी आँखों से ओझल होकर बैठो। मैं तुमसे हाथ जोड़कर कहता हूँ कि, जब तक मैं जीवित रहूँ तब तक मुझसे फिर कुछ मत कहना। हे अभागिनी कैकेयी! तू फिर अन्त में पछतायेगी, क्योंकि सामान्य ताँत के लिए तू गाय को मार रही है। अथवा, वचनरूप रस्सी से बँधे हुए गाय की हत्या कर रही है। अथवा, सिंह के बच्चे के लिए गाय का वध कर रही है, जबकि सिंह अपने ही द्वारा मारे हुए पशु का माँस खाता है, दूसरे के द्वारा किये हुए शिकार का माँस नहीं खाता।

**दो०- परेउ राउ कहि कोटि बिधि, काहे करसि निदान।** **कपट सयानि न कहति कछु, जागति मनहुँ मसान॥३६॥**

[[३३५]]

भाष्य

महाराज दशरथ करोड़ों प्रकार से कहकर (समझाकर) पृथ्वी पर पड़ गये और कहने लगे, कैकेयी अयोध्या का सर्वनाश क्यों कर रही हो? परन्तु कपट में चतुर कैकेयी कुछ भी नहीं कहती अर्थात्‌ महाराज के किसी भी वाक्य का उत्तर नहीं दे रही है। मानो, श्मशान में जगती हुई प्रेतमंत्र की सिद्धि कर रही हो।

**राम राम रट बिकल भुआलू। जनु बिनु पंख बिहंग बिहालू॥ हृदय मनाव भोर जनि होई। रामहिं जाइ कहै जनि कोई॥**
भाष्य

महाराज व्याकुल होकर राम–राम रट रहे हैं। मानो पंख के बिना पक्षी विकल हो रहा हो। चक्रवर्ती जी अपने हृदय में सूर्यनारायण को मना रहे हैं, हे भगवान्‌! आज प्रात:काल नहीं हो और कोई श्रीराम को वन जाने के लिए न कहे।

**उदय करहु जनि रबि रघुकुलगुरु। अवध बिलोकि शूल होइहि उरु॥ भूप प्रीति कैकयि निठुराई। उभय अवधि बिधि रची बनाई॥**
भाष्य

महाराज दशरथ जी कह रहे हैं, हे रघुकुल के श्रेष्ठ (रघुवंश के प्रवर्तक) सूर्यनारायण! आप अपना उदय मत प्रस्तुत कीजिये अर्थात्‌ उदित नहीं होइये, क्योंकि आप का सूर्योदय देखकर अयोध्या में अत्यन्त विषाद हो जायेगा। महाराज की प्रीति और कैकेयी की निष्ठुरता इन दोनों की ही सीमा विधाता ने बनाकर रची है अर्थात्‌ प्रीति की सीमा हैं, महाराज दशरथ और निष्ठुरता की सीमा है कैकेयी।

**बिलपत नृपहि भयउ भिनुसारा। बीना बेनु शंख धुनि द्वारा॥ प़ढहि भाट गुन गावहिं गायक। सुनत नृपहिं जनु लागहिं सायक॥ मंगल सकल सोहाहिं न कैसे। सहगामिनिहिं बिभूषन जैसे॥ तेहिं निशि नींद परी नहिं काहू। रामदरस लालसा उछाहू॥**
भाष्य

महाराज के विलाप करते हुए प्रात:काल हो गया। राजद्वार पर वीणा, वंशी और शंख की ध्वनि होने लगी। बंदीजन विरुदावलि प़ढने लगे, गायक अर्थात्‌ मागध महाराज के गुणगान गाने लगे, जिसे सुनते ही राजा के हृदय में बाण जैसे चुभने लगे थे। सभी मंगल महाराज दशरथ की पुरी के लिए इसी प्रकार नहीं शोभित हो रहे है जैसे पति के साथ जानेवाली साध्वी अनुरागिणीं को आभूषण नहीं भाते क्योंकि पतित्रता के लिए पति ही परम आभूषण होता है और पतिप्रेम ही उसका श्रंगार तात्पर्यत: थोड़ी ही देर में प्रभु श्रीराम वन को जायेंगे और अवधपुरी सहगामिनी बनकर प्रभु के साथ वन को ही चली जायेगी। अवध तहाँ जह राम निवासू। श्रीराम के दर्शनों की लालसा और उत्साह के कारण उस रात्रि में किसी भी अयोध्यावासी को नींद नहीं आई।

**विशेष– **यहाँ सहगामिनी शब्द पति के साथ चलने वाली महिला के लिए प्रयुक्त हुआ है। *स**: गच्छति या सा सहगामिनी*

दो०- द्वार भीर सेवक सचिव, कहहिं उदित रबि देखि।
जागेउ अजहुँ न अवधपति, कारन कवन बिसेषि॥३७॥

भाष्य

सेवकों और मंत्रियों की भीड़ राजद्वार पर होने लगी। वे सूर्यनारायण को उदित होते देखकर कहने लगे कि, श्रीअयोध्यापति महाराज अभी भी नहीं जगे, यहाँ कौन ऐसा विशेष कारण है?

**पछिले पहर भूप नित जागा। आजु हमहिं बड़ अचरज लागा॥ जाहु सुमंत्र जगावहु जाई। कीजिय काज रजायसु पाई॥** [[३३६]]
भाष्य

महाराज निरन्तर पिछले प्रहर अर्थात्‌ चतुर्थ प्रहर में ही जग जाते हैं। आज हमें बहुत बड़ा आश्चर्य लग रहा है। सुमंत्र! जाओ और महाराज को जगाओ। राजाज्ञा पाकर श्रीराम राज्याभिषेक का कार्य प्रारम्भ किया जाये।

**गए सुमंत्र तब राउर माहीं। देखि भयानक जात डेराहीं॥** **धाइ खाइ जनु जाइ न हेरा। मानहुँ बिपति बिषाद बसेरा॥**
भाष्य

तब सुमंत्र जी राजभवन में गये, उसे भयंकर देखकर सुमंत्र जाने में डर रहे थे, मानो राजभवन दौड़कर खा रहा था। वह देखा नहीं जा रहा था, मानो वहाँ पर विपत्ति और दु:ख का निवास हो चुका था।

**पूँछे कोउ न उत्तर देई। गए जेहिं भवन भूप कैकेई॥ कहि जयजीव बैठ सिर नाईं। देखि भूप गति गयउ सुखाई॥**
भाष्य

पूछने पर कोई उत्तर नहीं दे रहा था। जिस कोपभवन में महाराज दशरथ और कैकेयी थे, सुमंत्र वहाँ गये। “जय जीव” (आप की जय हो और आप जीवित रहें) कहकर मस्तक नवाकर सुमंत्र जी बैठ गये। महाराज की करुण दशा देखकर सुमंत्र जी सूख गये।

**सोच बिकल बिबरन महि परेऊ। मानहुँ कमल मूल परिहरेऊ॥ सचिव सभीत सकइ नहिं पूँछी। बोली अशुभ भरी शुभ छूछी॥**
भाष्य

सुमंत्र जी ने देखा महाराज शोक से व्याकुल और विकृत आकार होकर पृथ्वी पर पड़े हुए हैं, मानो कमल ने अपनी ज़ड छोड़ दी है। मंत्री सुमंत्र जी अत्यन्त भयभीत हैं, वे पूछ नहीं सक रहे हैं। फिर कल्याण से रिक्त और अशुभ से भरी हुई कैकेयी बोली–

**दो०- परी न राजहिं नीद निशि, हेतु जान जगदीश।** **राम राम रटि भोर किय, कहइ न मरम महीश॥३८॥**
भाष्य

आज महाराज को रात में नींद नहीं आई, इसका कारण तो भगवान्‌ ही जाने। महाराज ने राम–राम रट कर सबेरा कर दिया अर्थात्‌ सारी रात राम–राम का रट करते रहे। वे कोई रहस्य नहीं बता रहे हैं।

**आनहु रामहिं बेगि बोलाई। समाचार तब पूँछेहु आई॥ चलेउ सुमंत्र राय रुख जानी। लखी कुचालि कीन्हि कछु रानी॥**
भाष्य

श्रीराम को शीघ्र बुला ले आओ, फिर आकर समाचार पूछ लेना। महाराज का रुख जानकर सुमंत्रजी, श्रीराम को बुलाने चल पड़े। उन्होंने देख लिया की रानी ने कुछ बुरा कार्य कर दिया है।

**सोच बिकल मग परइ न पाँऊ। रामहिं बोलि कहिहिं का राऊ॥ उर धरि धीरज गयउ दुआरे। पूँंछिंहिं सकल देखि मन मारे॥**
भाष्य

शोक से विकल होने के कारण सुमंत्र जी के चरण मार्ग में नहीं पड़ रहे हैं। वे सोचने लगे कि, श्रीराम को बुलाकर महाराज क्या कहेंगे? हृदय में धैर्य धारण करके सुमंत्र जी भवन से द्वार पर आ गये। सभी लोग सुमंत्र जी को मन मारे हुए देखकर पूछने लगे–

**समाधान करि सो सबही का। गयउ जहाँ दिनकर कुल टीका॥ राम सुमंत्रहिं आवत देखा। आदर कीन्ह पिता सम लेखा॥ निरखि बदन कहि भूप रजाई। रघुकुलदीपहिं चलेउ लिवाई॥ राम कुभाँति सचिव सँग जाहीं। देखि लोग जहँ तहँ बिलखाहीं॥** [[३३७]]
भाष्य

सुमंत्र जी सबका समाधान करके, जहाँ सूर्यकुल के तिलक श्रीराम थे, वहाँ गये। श्रीराम ने सुमंत्र जी को आते देखा, उनका आदर किया और उन्हें पिता के समान समझा। श्रीराम का मुख देखकर महाराज की राजाज्ञा कहकर रघुकुल के दीपक प्रभु श्रीराम को अपने संग लिवाकर, सुमंत्र राजभवन की ओर चल पड़े। श्रीराम, कुभाँति अर्थात्‌ बिना कोई अलंकार धारण किये, चरण में बिना पदत्राण के अस्त–व्यस्त मुद्रा में मंत्री के साथ जा रहे हैं, यह देखकर जहाँ–तहाँ लोग बिलखने लगे।

**दो०- जाइ दीख रघुबंशमनि, नरपति निपट कुसाज।** **सहमि परेउ लखि सिंघिनिहिं, मनहुँ बृद्ध गजराज॥३९॥ सूखहिं अधर जरहिं सब अंगू। मनहुँ दीन मनिहीन भुजंगू॥ सरुष समीप दीखि कैकेई। मानहुँ मीचु घरी गनि लेई॥**
भाष्य

रघुवंश के मणि श्रीराम ने जाकर मनुष्यों के स्वामी राजा दशरथ जी का ऐसा अनुचित साज देखा अर्थात्‌ उन्हें अस्त–व्यस्त पृथ्वी पर पड़े हुए देखा, मानो सिंहनी को देखकर वृद्ध गजराज (हाथियों का राजा) पृथ्वी पर गिर पड़ा हो। महाराज के ओष्ठ सूख रहे हैं, उनके सभी अंग जल रहे हैं, मानो मणि से हीन सर्प दीन–दु:खी होकर पड़ा हो। महाराज के समीप क्रुद्ध कैकेयी को भगवान्‌ श्रीराम ने ऐसे देखा, मानो वह महाराज की मृत्यु की घड़ी गिन रही हो। अथवा, मानो साक्षात्‌ मृत्यु ही महाराज के महाप्रस्थान की घड़ी गिन रही हो।

**करुनामय मृदु राम सुभाऊ। प्रथम दीख दुख सुना न काऊ॥ तदपि धीर धरि समय बिचारी। पूँछी मधुर बचन महतारी॥ मोहि कहु मातु तात दुख कारन। करिय जतन जेहिं होइ निवारन॥ सुनहु राम सब कारन एहू। राजहिं तुम पर बहुत सनेहू॥ देन कहेनि मोहि दुइ बरदाना। माँगेउँ जो कछु मोहि सोहाना॥ सो सुनि भयउ भूप उर सोचू। छानिड़ सकहिं तुम्हार सँकोचू॥**
भाष्य

भगवान्‌ श्रीराम का स्वभाव करुणा से युक्त और कोमल है। उन्होंने प्रथम बार यह दु:ख देखा है, इसके पूर्व कहीं सुना भी नहीं था। फिर भी धैर्य धारण करके समय का विचार करके श्रीराम ने माता कैकेयी से मधुर वचन में पूछा, हे माँ! मुझ से पिताश्री के दु:ख का कारण कहो। वही यत्न किया जाय जिससे उनके कष्ट का निवारण हो सके। कैकेयी बोलीं, हे श्रीराम! ये सब कारण सुनिये, महाराज के सम्पूर्ण दु:ख का कारण यह है कि, महाराज को आप पर बहुत स्नेह है। महाराज ने मुझे दो वरदान देने के लिए कहा था, मैंने उनसे वही माँगा जो कुछ मुझे अच्छा लगा। उसे सुनकर महाराज के हृदय में शोक हो गया, क्योंकि वे आपका संकोच नहीं छोड़ सकते।

**दो०- सुत सनेह इत बचन उत, संकट परेउ नरेश।** **सकहु त आयसु धरहु सिर, मेटहु कठिन कलेश॥४०॥**
भाष्य

इधर पुत्र का प्रेम और उधर वचन, महाराज इन दोनों के संकट में पड़ गये हैं। यदि तुम समर्थ हो तो आज्ञा को सिर पर धारण करो और अपने पिताश्री का कठिन क्लेश मिटा दो।

**निधरक बैठि कहइ कटु बानी। सुनत कठिनता अति अकुलानी॥ जीभ कमान बचन शर नाना। मनहुँ महिप मृदु लच्छ समाना॥ जनु कठोरपन धरे शरीरू। सिखइ धनुषबिद्दा बर बीरू॥ सब प्रसंग रघुपतिहिं सुनाई। बैठि मनहुँ तनु धरि निठुराई॥** [[३३८]]
भाष्य

कैकेयी नि:संकोच बैठ कर कठोर वाणी कह रही है, उसे सुनते ही कठोरता भी अत्यन्त व्याकुल हो उठी। कैकेयी की जीभ धनुष के समान है और उससे निकलते हुए वचन, मानो अनेक बाण हैं। महाराज दशरथ कोमल लक्ष्य के समान हैं, मानो कठोरत्व (कठोरपन) ही श्रेष्ठवीर का शरीर धारण करके धनुर्विद्दा सीख रहा है। रघुकुल के स्वामी श्रीराम को सम्पूर्ण प्रसंग सुनाकर, मानो शरीर धारण की हुई निष्ठुरता ही बैठ गई है।

**मन मुसुकाइ भानुकुल भानू। राम सहज आनन्द निधानू॥**

**बोले बचन बिगत सब दूषन। मृदु मंजुल जनु बाग बिभूषन॥ भा०– **स्वाभाविक आनन्द के खजाने, सूर्यकुल के सूर्य भगवान्‌ श्रीराम मन में मुस्कुरा कर सभी दोषों से रहित कोमल और मधुर वाणी के विभूषण जैसे वचन बोले–

सुनु जननी सोइ सुत बड़भागी। जो पितु मातु बचन अनुरागी॥ तनय मातु पितु तोषनिहारा। दुर्लभ जननि सकल संसारा॥

भाष्य

हे माँ! सुनो, वही पुत्र बड़भागी है, जो पिता–माता के आदेश में अनुराग रखता है। हे माँ! माता–पिता को सन्तुष्ट करने वाला पुत्र सम्पूर्ण संसार में बहुत दुर्लभ है।

**दो०- मुनिगन मिलन बिशेष बन, सबहिं भाँति हित मोर।** **तेहि महँ पितु आयसु बहुरि, सम्मत जननी तोर॥४१॥**
भाष्य

हे माँ! मुनियों तथा मेरे लिए दिन गिनने वाले कोल, किरात, वानर, भालू आदि मेरे गणों के मिलन से वन में विशेष रूप से मेरा सब प्रकार का हित होगा। उसमें भी पिताश्री की आज्ञा और फिर आप की सम्मति है।

**भरत प्रानप्रिय पावहिं राजू। बिधि सब बिधि मोहि सनमुख आजू॥ जौ न जाउँ बन ऐसेहु काजा। प्रथम गनिय मोहि मू़ढ समाजा॥**
भाष्य

मेरे प्राणों से प्रिय भरत राज्य पा जायेंगे। आज विधाता सब प्रकार से मेरे अनुकूल हैं। यदि इस प्रकार के कार्य में भी मैं वन नहीं जाता हूँ, तो मूर्खों के समाज में मेरी प्रथम गिनती होगी।

**सेवहिं अरँड कलपतरु त्यागी। परिहरि अमृत लेहिं बिष माँगी॥ तेउ न पाइ अस समय चुकाहीं। देखु बिचारि मातु मन माहीं॥**
भाष्य

जो लोग कल्पवृक्ष को छोड़कर रेंड़-वृक्ष की सेवा करते हैं, जो अमृत को छोड़कर विष माँग लेते हैं, वे भी ऐसा समय पाकर नहीं चूकते। हे माँ! मन में विचार करके देखिये, क्या मैं पूर्वोक्त प्रकार के मूर्खों से अधिक मूर्ख हूँ?

**अंब एक दुख मोहि बिशेषी। निपट बिकल नरनायक देखी॥ थोरिहिं बात पितहिं दुख भारी। होति प्रतीति न मोहि महतारी॥**
भाष्य

हे माँ! महाराज को अत्यन्त व्याकुल देखकर मुझे यह एक विशेष दु:ख है। थोड़ी बात से पिताश्री को बहुत बड़ा दु:ख हुआ, हे माँ! मुझे विश्वास नहीं हो रहा है।

**राउ धीर गुन उदधि अगाधू। भा मोहि ते कछु बड़ अपराधू॥ जाते मोहि न कहत कछु राऊ। मोरि शपथ तोहि कहु सतिभाऊ॥** [[३३९]]
भाष्य

महाराज धैर्यवान और गुणों के अगाध सागर हैं। मुझसे कुछ बड़ा अपराध हो गया है, जिससे महाराज मुझे कुछ भी नहीं कह रहे हैं अर्थात्‌ कुछ भी आदेश नहीं दे रहे हैं। तुम्हें मेरी शपथ मुझसे इसका सत्यभाव कहो अर्थात्‌ वास्तविक रहस्य बताओ।

**दो०- सहज सरल रघुबर बचन, कुमति कुटिल करि जान।**

**चलइ जोंक जल बक्रगति, जद्दपि सलिल समान॥४२॥ भा०– **स्वभाव से सरल रघुकुल में श्रेष्ठ श्रीराम के वचन को कुबुद्धि कैकेयी ने कुटिल वचन करके जाना। जोंक जल में टे़ढी गति से चलती है, यद्दपि जल समान होता है, ठीक उसी प्रकार जल के समान श्रीरघुनाथ का स्वभाव है और जोंक के समान कैकेयी की टे़ढी बुद्धि है।

रहसी रानि राम रुख पाई। बोली कपट सनेह जनाई॥ शपथ तुम्हार भरत कै आना। हेतु न दूसर मैं कछु जाना॥

भाष्य

श्रीराम जी का रुख अर्थात्‌ रुझान देखकर रानी कैकेयी प्रसन्न हुई और कृत्रिम स्नेह प्रकट करती बोली, तुम्हारी शपथ और भरत की सौगंध मैंने और कुछ दूसरा हेतु नहीं समझा है।

**तुम अपराध जोग नहिं ताता। जननी जनक बंधु सुखदाता॥ राम सत्य सब जो कछु कहहु। तुम पितु मातु बचन रत अहहु॥**
भाष्य

हे तात! तुम अपराध के योग्य नहीं हो, क्योंकि तुम माता–पिता और भाइयों को सुख देने वाले हो। हे राम! तुम जो कुछ कह रहे हो वह सब सत्य है। तुम माता–पिता के वचन पालन में तत्पर हो।

**पितहिं बुझाइ कहहु बलि सोई। चौथेपन जेहिं अजस न होई॥ तुम सम सुअन सुकृत जेहिं दीन्हे। उचित न तासु निरादर कीन्हे॥**
भाष्य

हे राघव! मैं बलिहारी जाऊँ, तुम अपने पिताश्री को समझाकर वही कहो जिससे, चौथेपन अर्थात्‌ वृद्धावस्था में उनका अपयश न हो। जिस पुण्य ने महाराज को तुम जैसा आज्ञाकारी पुत्र प्रदान किया, उस पुण्य का निरादर करना चक्रवर्ती जी के लिए उचित नहीं है।

**लागहिं कुमुख बचन शुभ कैसे। मगह गयादिक तीरथ जैसे॥ रामहिं मातु बचन सब भाए। जिमि सुरसरि गत सलिल सुहाए॥**
भाष्य

कैकेयी के निन्दित मुख में वचन कैसे शुभ लगते हैं जैसे, मगध में गया, विष्णुपद, फल्गु आदि तीर्थ कल्याणकारी हैं। श्रीराम को माता कैकेयी के सभी वचन भाये, जैसे गंगा जी को प्राप्त करके, सभी प्रकार का अपवित्र प्रदूषित जल भी सुन्दर हो जाता है।

**दो०- गइ मुरछा रामहिं सुमिरि, नृप फिरि करवट लीन्ह।** **सचिव राम आगमन कहि, बिनय समय सम कीन्ह॥४३॥**
भाष्य

इसी बीच महाराज की मूर्च्छा समाप्त हुई, उन्होंने श्रीराम का स्मरण करके कैकेयी की ओर से पीछे मुड़कर करवट लिया अर्थात्‌ पार्श्व परिवर्तन किया, बायीं ओर से दाहिनी ओर शरीर को मोड़ लिया। मंत्री सुमंत्र जी ने श्रीराम का आगमन सूचित करके समय के अनुकूल विनय किया। (महाराज! श्रीराम पधार आये हैं, यह सूचना दी।)

[[३४०]]

**अवनिप अकनि राम पगु धारे। धरि धीरज तब नयन उघारे॥ सचिव सँभारि राउ बैठारे। चरन परत नृप राम निहारे॥**
भाष्य

तब श्रीराम को अपने पास पधारे हुए सुनकर, पृथ्वीपति महाराज दशरथ जी ने धैर्य धारण करके नेत्र खोले। मंत्री सुमंत्र जी ने सम्भाल कर महाराज को बिठा दिया। अपने चरणों में पड़ते हुए अर्थात्‌ प्रणाम करते हुए श्रीराम को राजा दशरथ जी ने देखा।

**लिए सनेह बिकल उर लाई। गै मनि मनहुँ फनिक फिरि पाई॥ रामहिं चितइ रहेउ नरनाहू। चला बिलोचन बारि प्रबाहू॥**
भाष्य

महाराज दशरथ जी ने स्नेह से व्याकुल होकर श्रीराम को हृदय से लगा लिया, मानो सर्प ने गयी हुई मणि को फिर से प्राप्त कर लिया हो। मनुष्यों के राजा दशरथ, श्रीराम को देखते ही रहे। उनके विमल नेत्रों से अश्रुजल का प्रवाह चल पड़ा।

**शोक बिबश कछु कहै न पारा। हृदय लगावत बारहिं बारा॥ बिधिहिं मनाव राउ मन माहीं। जेहिं रघुनाथ न कानन जाहीं॥**
भाष्य

महाराज दशरथ शोक के वश में होने से कुछ भी नहीं कह पा रहे हैं। वे बारम्बार श्रीराघव को हृदय से लगा लेते हैं। महाराज दशरथ मन में ब्रह्मा जी को मना रहे हैं, जिससे श्रीरघुनाथ जी वन को न जायें।

**सुमिरि महेशहिं कहँइ निहोरी। बिनती सुनहु सदाशिव मोरी॥ आशुतोष तुम अवढरदानी। आरति हरहु दीन जन जानी॥**
भाष्य

शिव जी का स्मरण करके अत्यन्त दीनतापूर्वक विनती कर महाराज दशरथ जी कहते हैं, हे सदाशिव! आप मेरी प्रार्थना सुनिये, आप आशुतोष (शीघ्र संतुष्ट होने वाले) हैं तथा अवढरदानी (किसी की भी ओर होकर मनोवांछित दान देने वाले) हैं। मुझे दीनसेवक जानकर मेरी आर्ति यानी पीड़ा हर लें।

**दो०- तुम प्रेरक सब के हृदय, सो मति रामहिं देहु।** **बचन मोर तजि रहहिं घर, परिहरि शील सनेहु॥४४॥**
भाष्य

आप सबके हृदय के प्रेरक हैं, श्रीराम को वही बुद्धि दे दीजिये, जिससे श्रीराघव मेरा वचन अर्थात्‌ आदेश छोड़कर शील और स्नेह का त्याग करके घर में ही रह जायें।

**अजस होउ जग सुजस नसाऊ। नरक परौं बरु सुरपुर जाऊ॥ सब दुख दुसह सहावहु मोहीं। लोचन ओट राम जनि होहीं॥**
भाष्य

हे शिवजी! चाहे जगत्‌ में मेरा अपयश हो या पूर्व का सुयश नष्ट हो जाये। चाहे मैं नरक में पड़ जाऊँ या पूर्वपुण्यों से अर्जित मेरी स्वर्ग की प्राप्ति भी नष्ट हो जाये। मुझसे सभी असहनीय दु:ख को सहन करा लीजिये, पर श्रीराम मेरी आँखों से ओझल न हों।

**अस मन गुनइ राउ नहिं बोला। पीपर पात सरिस मन डोला॥ रघुपति पितहिं प्रेमबश जानी। पुनि कछु कहिहि मातु अनुमानी॥ देश काल अवसर अनुसारी। बोले बचन बिनीत बिचारी॥**
भाष्य

महाराज मन में इस प्रकार विचार कर रहे हैं, बोलते नहीं हैं। उनका मन पीपल के पत्ते के समान चंचल हो उठा अर्थात्‌ कभी ब्रह्मा जी को मनाता, कभी शिव जी को, कभी श्रीराम को वन देने के पक्ष में हो जाता, तो

[[३४१]]

कभी घर में रखने के पक्ष में। रघुकुल के स्वामी श्रीराम, पिताश्री दशरथ जी को प्रेम के वश जान कर और माता कैकेयी फिर कुछ कहेंगी, ऐसा उनके लक्षणों से अनुमान करके देश, काल और समय का अनुसरण करते हुए विचार करके विनम्र वचन बोले–

तात कहउँ कछु करउँ ढिठाई। अनुचित छमब जानि लरिकाई॥ अति लघु बात लागि दुख पावा। काहु न मोहि कहि प्रथम जनावा॥ देखि गोसाइँहिं पूँछेउँ माता। सुनि प्रसंग भए शीतल गाता॥

भाष्य

हे तात्‌! कुछ कह रहा हूँ, धृष्टता कर रहा हूँ, मेरा लड़कपन जानकर अनुचित को क्षमा कीजियेगा। बहुत छोटी–सी बात के लिए पिताश्री ने दु:ख पाया। किसी ने भी मुझे पहले कहकर नहीं बताया। हे पृथ्वी के स्वामी! आपको व्याकुल देखकर, मैंने माताश्री से पूछा। कैकेयी माँ के मुख से सम्पूर्ण प्रसंग सुनकर मेरे अंग शीतल हो गये।

**विशेष– **‘गोसाइँहिं’ शब्द खण्ड में प्रयुक्त ‘गो’ शब्द पृथ्वी का वाचक है, इस प्रयोग के पीछे भगवान्‌ श्रीराम का यह अभिप्राय छिपा हुआ है कि, गोस्वामी अर्थात्‌ पृथ्वी के स्वामी आप ही हैं, इसे आप भरत को दे दीजिये। मैं तो वन में जाने का निश्चय कर चुका हूँ।

दो०- मंगल समय सनेह बश, सोच परिहरिय तात।
आयसु देइय हरषि हिय, कहि पुलके प्रभु गात॥४५॥

भाष्य

हे पिताश्री! इस मंगल के समय में आप मुझ पर पुत्र स्नेह से वशीभूत होकर शोक करना छोड़ दीजिये। हृदय में प्रसन्न होकर मुझे वन जाने की आज्ञा दीजिये, ऐसा कहकर प्रभु श्रीराम के अंग रोमांचित हो उठे।

**धन्य जनम जगतीतल तासू। पितहिं प्रमोद चरित सुनि जासू॥ चारि पदारथ करतल ताके। प्रिय पितु मातु प्रान सम जाके॥**
भाष्य

संसार में उसी का जन्म धन्य है जिसके आचरणों को सुनकर पिता को प्रमोद अर्थात्‌ इष्टलाभ से जनित आनन्द हो। चारों पदार्थ (अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष) उसी के करतल अर्थात्‌ हथेली में आ जाते हैं, जिसको पिता– माता प्राण के समान प्रिय होते हैं।

**विशेष– **संयोग से भगवान्‌ श्रीराम के पास कौसल्या, कैकेयी, सुमित्रा ये तीन मातायें और पिताश्री दशरथ, ये चारो मानो चार पदार्थ, अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष के दाता हैं। प्रभु श्रीराम, पिताश्री दशरथ की प्रीति से धर्म की, कैकेयी की प्रसन्नता से अर्थ की, सुमित्रा की संतुष्टि से काम की और कौसल्या जी की प्रियता से मोक्ष की सिद्धि समझ रहे हैं।

आयसु पालि जनम फल पाई। ऐहउँ बेगिहिं होउ रजाई॥ बिदा मातु सन आवउँ माँगी। चलिहउँ बनहिं बहुरि पग लागी॥

भाष्य

आज्ञा का पालन करके, अपने जन्म लेने का फल पाकर, मैं शीघ्र ही आ जाऊँगा। मुझे वन जाने की राजाज्ञा हो जाये, मैं माताश्री से विदा माँग आऊँ, फिर आपश्री को प्रणाम करके वन चला जाऊँगा।

**अस कहि राम गमन तब कीन्हा। भूप शोक बश उतर न दीन्हा॥ नगर ब्यापि गइ बात सुतीछी। छुअत च़ढी जनु सब तन बीछी॥** [[३४२]]
भाष्य

तब ऐसा कहकर श्रीराम ने विदा माँगने के लिए माता जी के पास प्रस्थान किया। महाराज ने शोक के वश में होने के कारण कुछ भी उत्तर नहीं दिया। वह तीखी वार्ता (समाचार) नगर में इस प्रकार व्याप्त हो गई मानो स्पर्श करते ही सबके शरीर में बीछी नामक घास च़ढ गई हो।

**विशेष– **हिमाचल प्रदेश में एक बीछी नामक घास होती है जो छूते ही बिच्छू के डंक की भाँति सारे शरीर में असहनीय पीड़ा उत्पन्न कर देती है।

सुनि भए बिकल सकल नर नारी। बेलि बिटप जिमि देखि दवारी॥

**जो जहँ सुनइ धुनइ सिर सोई। बड़ बिषाद नहिं धीरज होई॥ भा०– **जिस प्रकार वन की अग्नि को देखते ही लता और वृक्ष सूख जाते हैं उसी प्रकार श्रीराम वनगमन का समाचार सुनकर श्रीअवध के सभी नर–नारी विकल हो गये। जो जहाँ सुनता वह वहीं सिर पीटने लगता था। लोगों के मन में बहुत बड़ा दु:ख था, मन में धैर्य नहीं हो रहा था।

दो०- मुख सुखाहिं लोचन स्रवहिं, शोक न हृदय समाइ।
मनहुँ करुन रस कटकई, उतरी अवध बजाइ॥४६॥

भाष्य

लोगों के मुख सूख जाते थे, उनके नेत्र अश्रुपात कर रहे थे, शोक हृदय में नहीं समा रहा था, मानो करुणरस की सेना ही डंका बजाकर श्रीअवध में उतर आई हो।

**मिलेहि माझ बिधि बात बेगारी। जहँ तहँ देहि कैकयिहिं गारी॥ एहि पापिनिहिं बूझि का परेऊ। छाइ भवन पर पावक धरेऊ॥**
भाष्य

ब्रह्मा जी ने मेल अर्थात्‌ सुन्दर संयोग के बीच में ही बात बिगाड़ दी। लोग जहाँ–तहाँ कैकेयी को गाली देने लगे। बोले, इस पापिनी कैकेयी को क्या समझ पड़ा, इसने छप्पर छाकर उस पर अग्नि रख दिया अर्थात्‌ जैसे सरकंडे की छत बड़े परिश्रम से बनाकर, कोई अल्पबुद्धिवाला व्यक्ति उस पर स्वयं आग रख दे, कैकेयी ने उसी प्रकार का कार्य किया, स्वयं पहले श्रीराम पर प्रेम किया और आज उसी प्रेम रूप सरकंडे की छत पर वनवास रूप अग्नि रख दी।

**निजकर नयन काढि़ चह दीखा। डारि सुधा बिष चाहत चीखा॥ कुटिल कठोर कुबुद्धि अभागी। भइ रघुबंश बेनु बन आगी॥**
भाष्य

कैकेयी अपने हाथ से अपना नेत्र निकाल कर देखना चाहती है। अमृत फेंक कर, विष का स्वाद चख लेना चाहती है। कैकेयी कुटिल, कठोर और कुत्सित बुद्धिवाली तथा अभागिनी है। यह रघुवंश रूप बाँस के वन के लिए अग्नि बन गई।

**पालव बैठि पेड़ एहिं काटा। सुख महँ शोक ठाट धरि ठाटा॥ सदा राम एहि प्रान समाना। कारन कवन कुटिलपन ठाना॥**
भाष्य

इसने पल्लव पर बैठकर, वृक्ष को काट डाला अर्थात्‌ भरत की राजसत्ता पर आश्रित रहकर इसने महाराज दशरथ रूप वृक्ष को ही काट डाला। सुख में शोक का समाज रच डाला। श्रीराम सदैव इसको प्राण के समान प्रिय थे, किस कारण कैकयी ने यह कुटिलता ठान दी?

**सत्य कहहिं कबि नारि सुभाऊ। सब बिधि अगह अगाध दुराऊ॥७॥ निज प्रतिबिंब बरुक गहि जाई। जानि न जाइ नारि गति भाई॥८॥** [[३४३]]
भाष्य

कविगण सत्य ही कहते हैं कि, माँ, बहन, पत्नी और बेटी इन चारों अवधारणाओं से दूर भोगवादिनी नारी का स्वभाव सब प्रकार से अगाह अर्थात्‌ अग्राह्य होता है और उसकी छिपाने की प्रवृत्ति बहुत ही गंभीर होती है। हे भाई! कदाचित्‌ अपनी परछायीं पक़डना सम्भव है, परन्तु स्वार्थपरायण और भगवान्‌ से विमुख नारी की मनोदशा नहीं जानी जा सकती।

**दो०- काह न पावक जारि सक, का न समुद्र समाइ।** **का न करै अबला प्रबल, केहि जग काल न खाइ॥४७॥**
भाष्य

अग्नि क्या नहीं जला सकता, समुद्र में क्या नहीं समा सकता तथा अबला अर्थात्‌ आध्यात्मिक बल से रहित, प्रबल अर्थात्‌ भौतिक भोगबल से युक्त भगवत्‌ भजनहीन स्त्री क्या नहीं कर सकती? काल किसे नहीं खा सकता? अर्थात्‌ जैसे अग्नि सब कुछ जला सकता है, समुद्र में सब कुछ समा सकता है और काल सब को खा सकता है उसी प्रकार आध्यात्मिक बल से रहित केवल भोगपरायण स्त्री यहाँ वह सब कुछ कर सकती है।

**का सुनाइ बिधि काह सुनावा। का देखाइ चह काह देखावा॥ एक कहहिं भल भूप न कीन्हा। बर बिचारि नहिं कुमतिहिं दीन्हा॥ जो हठि भयउ सकल दुख भाजनु। अबला बिबश ग्यान गुन गा जनु॥**
भाष्य

ब्रह्मा जी ने क्या सुना कर, क्या सुना दिया? क्या दिखाना चाहिये था और क्या दिखा दिया? अर्थात्‌ राज्याभिषेक सुनाकर, वनवास सुनाया और श्रीराम का राजतिलक दिखाना चाहिये था, पर आज श्रीराम की करुण वनयात्रा दिखा रहे हैं। उनमें से कुछ लोग कहने लगे कि, महाराज ने अच्छा नहीं किया, कुत्सित बुद्धिवाली कैकयी को विचार करके वरदान नहीं दिया। वही बिना विचारे दिया हुआ वरदान आज हठात्‌ सभी दु:खों का पात्र बन गया। आध्यात्मिक बल से हीन कैकेयी के विवश हुए महाराज का मानो ज्ञानरूप गुण चला गया।

**एक धरम परमिति पहिचाने। नृपहिं दोष नहिं देहिं सयाने॥ शिवि दधीचि हरिचंद्र कहानी। एक एक सन कहहिं बखानी॥**
भाष्य

दूसरे लोग जो धर्म की परिमिति अर्थात्‌ मर्यादा को पहचानते थे, वे चतुर लोग महाराज को दोष नहीं देते। शिवि, दधीचि और हरिश्चन्द्र की कथा एक दूसरे से बखान कर अर्थात्‌ व्याख्यान के साथ कहते हैं।

**एक भरत कर सम्मत कहहीं। एक उदास भाव सुनि रहहीं॥ कान मूँदि कर रद गहि जीहा। एक कहहिं यह बात अलीहा॥ सुकृत जाहिं अस कहत तुम्हारे। राम भरत कहँ प्रानपिआरे॥**
भाष्य

कुछ लोग श्रीराम के वनवास प्रकरण में कैकेयी के साथ श्रीभरत की सम्मति कहते हैं, दूसरे लोग यह भाव सुनकर उदास रह जाते हैं अर्थात्‌ खिन्न हो जाते हैं। हाथ से कान मूँदकर दाँत से जीभ दबाकर कुछ लोग कहते हैं कि, यह बात निराधार और मर्यादा रहित है। ऐसा कहते ही तुम्हारे सभी पुण्य चले जायेंगे, क्योंकि श्रीभरत को श्रीराम प्राण के समान प्रिय हैं।

**दो०- चन्द्र चवै बरु अनल कन, सुधा होइ बिषतूल।** **सपनेहुँ कबहुँ न करहिं कछु, भरत राम प्रतिकूल॥४८॥**

[[३४४]]

भाष्य

भले ही चन्द्रमा बर्फीली किरणों वाला होकर भी अग्नि के कण गिराये, भले ही अमृत विष के समान हो जाये अर्थात्‌ अपने जीवन गुण को छोड़कर लोगों के प्राण लेने लगे। इतने पर भी श्रीभरत स्वप्न में भी, कभी भी, कुछ भी, श्रीराम के प्रतिकूल नहीं करेंगे।

**एक बिधातहिं दूषन देही। सुधा देखाइ दीन्ह बिष जेहीं॥ खरभर नगर सोच सब काहू। दुसह दाह उर मिटा उछाहू॥**
भाष्य

अन्य लोग ब्रह्मा जी को दोष देते हैं, जिन्होंने अमृत दिखाकर विष दे दिया, अर्थात्‌ श्रीराम का राज्याभिषेकरूप अमृत दिखाकर, वनवासरूप विष दे दिया। श्रीअवध नगर में खलबली मच गई सभी लोगों के मन में शोक और असहनीय तपन होने लगी, हृदय का उत्साह मिट गया।

**बिप्रबधू कुलमान्य जठेरी। जे प्रिय परम कैकयी केरी॥ लगीं देन सिख शील सराही। बचन बानसम लागहिं ताही॥**
भाष्य

जो कैकेयी को परमप्रिय, ब्राह्मणों की पत्नियाँ, कुल की सम्मानित वृद्ध महिलायें तथा गुरुपत्नी अरुन्धती जी और परम्परा से कैकेयी की जेठानियाँ थीं, वे कैकेयी के शील की प्रशंसा करके शिक्षा देने लगीं। उनके वचन कैकेयी को बाण के समान लग रहे थे।

**भरत न मोहि प्रिय राम समाना। सदा कहहु यह सब जग जाना॥ करहु राम पर सहज सनेहू। केहिं अपराध आजु बन देहू॥**
भाष्य

हे कैकेयी! तुम सदैव यही कहती हो कि, मुझे श्रीराम के समान भरत प्रिय नहीं हैं। यह बात सारा संसार जानता है कि, तुम श्रीराम पर स्वभाव से प्रेम करती हो, आज किस अपराध पर कुपित होकर निर्दोष श्रीराम को वन दे रही हो?

**कबहुँ न कियहु सवति आरेसू। प्रीति प्रतीति जान सब देसू॥ कौसल्या अब काह बिगारा। तुम जेहि लागि बज्र पुर पारा॥**
भाष्य

तुमने कभी अपनी सौतनों के प्रति आरेसू (ऐर्ष्य) अर्थात्‌ ईर्ष्या नहीं की। तुम्हारी श्रीराम के प्रति प्रीति और विश्वास को सम्पूर्ण कोसल देश जानता है। अब कौसल्या ने आपका क्या बिगाड़ा है, जिसके लिए आप ने श्रीअवधपुर में वज्रपात कर डाला।

**विशेष– **ईर्ष्या एव ऐर्ष्य अर्थात्‌ ईर्ष्या शब्द ही स्वार्थिक अण्‌ प्रत्यय करने से ऐर्ष्य बन जाता है और ऐर्ष्य का ही अपभ्रंश आरेसू है।

दो०- सीय कि पिय सँग परिहरिहिं, लखन कि रहिहैं धाम।
राज कि भूँजब भरत पुर, नृप कि जिइहिं बिनु राम॥४९॥

भाष्य

हे कैकेयी! क्या सीता जी अपने प्रियतम श्रीराम का साथ छोड़ देंगी, क्या श्रीलक्ष्मण, श्रीराम के बिना श्रीअवधधाम में रहेंगे, क्या श्रीराम–लक्ष्मण के बिना श्रीभरत श्रीअवध का राज भोगेंगे, क्या महाराज दशरथ श्रीराम के बिना जीवित रहेंगे?

**विशेष– **भोगब के स्थान पर भूँजब कह कर, ब्राह्मण पत्नियाँ क्रोध में यही कहना चाहती हैं कि, श्रीराम के बिना श्रीभरत राज्यरूप फल भून कर भी नहीं खायेंगे।

अस बिचारि उर छाड़हु कोहू। शोक कलंक कोठि जनि होहू॥ भरतहिं अवसि देहु जुबराजू। कानन काह राम कर काजू॥
[[३४५]]

भाष्य

हे कैकयी! हृदय में ऐसा विचार करके क्रोध छोड़ दीजिये। शोक और कलंक की कोठी (मिट्टी या ईंट का बना हुआ बहुत बड़ा स्थान)मत बनिये। भरत जी को राज्य अवश्य दीजिये, परन्तु वन में श्रीराम का क्या कार्य है?

**नाहिन राम राज के भूखे। धरम धुरीन बिषय रस रूखे॥ गुरु गृह बसहुँ राम तजि गेहू। नृप सन अस बर दूसर लेहू॥**
भाष्य

कैकेयी! प्रभु श्रीरामचन्द्र राज्य के भूखे नहीं हैं। ये धर्म की धुरी को वहन करने वाले तथा विषय रस से रुखे अर्थात्‌ आसक्ति रहित हैं। इसलिए तुम्हें यह आशंका नहीं होनी चाहिये कि, श्रीराम, भरत जी से राज्य छीन लेंगे। (तब अरुन्धती जी ने कहा–) श्रीराम, राजभवन छोड़कर गुरुदेव के भवन अर्थात्‌ आश्रम में रह लें, इस प्रकार महाराज से दूसरा वरदान ले लो।

**जौ नहि लगिहहु कहे हमारे। नहिं लागिहि कछु हाथ तुम्हारे॥ जौ परिहास कीन्ह कछु होई। तौ कहि प्रगट जनावहु सोई॥**
भाष्य

यदि हमारे कहने में नहीं लगोगी अर्थात्‌ हमारा कहना नहीं मानोगी तब तुम्हारे हाथ कुछ भी नहीं लगेगा अर्थात्‌ तुम्हें कोई लाभ नहीं होगा। यदि तुमने कोई परिहास किया हो, तो उसे प्रकट कह कर सबके सामने बता दो।

**राम सरिस सुत कानन जोगू। काह कहिहिं सुनि तुम कहँ लोगू॥ उठहु बेगि सोइ करहु उपाई। जेहि बिधि शोक कलंक नसाई॥**
भाष्य

श्रीराम जैसा बेटा वन के योग्य है, ऐसा सुनते ही लोग तुम्हें क्या कहेंगे? कैकेयी! जल्दी उठकर ख़डी हो जाओ और वही उपाय करो, जिस विधि से लोगों का शोक और आपका कलंक नष्ट हो जाये।

**छं०: जेहि भाँति शोक कलंक जाइ उपाय करि कुल पालहू।** **हठि फेरु रामहिं जात बन जनि बात दूसरि चालहू॥ जिमि भानु बिनु दिन प्रान बिनु तनु चंद्र बिनु जिमि जामिनी। तिमि अवध तुलसीदास प्रभु बिनु समुझि धौं जिय भामिनी॥**
भाष्य

जिस प्रकार से अवधवासियों का शोक और आपका कलंक चला जाये, वही उपाय करके रघुकुल का पालन कर लीजिये। वन जाते हुए श्रीराम को हठात्‌ लौटा लीजिये और दूसरी बात मत चलाइये। तुलसीदास जी कहते हैं कि, अरुन्धती आदि ब्राह्मण वधुयें और रघुकुल की माननीया वृद्ध महिलायें तथा रानी कैकेयी की परम्परागत जेठानियाँ, तीन उदाहरण देकर समझाते हुए बोलीं, हे शुभलक्षणों वाली कैकेयी! तनिक अपने मन में तो समझो, जिस प्रकार सूर्य के बिना दिन तेज से हीन हो जाता है, जिस प्रकार प्राण के बिना शरीर शोभाहीन हो जाता है, तथा जिस प्रकार चन्द्रमा के बिना रात्रि प्रकाशहीन और भयानक हो जाती है, उसी प्रकार अवध, प्रभु श्री राम के बिना क्रियाहीन और शोभाहीन हो जायेगा। अथवा, श्रीभरत, श्रीराम के बिना सूर्य से रहित दिन की भाँति तेज से हीन हो जायेंगे और प्रभु के बिना महाराज दशरथ प्राण के बिना शरीर के समान निष्क्रिय, निरर्थक हो जायेंगे तथा राघवेन्द्र जी के बिना प्रजा, चन्द्र के बिना रात्रि के समान शोभाहीन और अंधकार से युक्त हो जायेगी।

**सो०- सखिन सिखावन दीन्ह, सुनत मधुर परिनाम हित।** **तेहिं कछु कान न कीन्ह, कुटिल प्रबोधी कूबरी॥५०॥**

[[३४६]]

भाष्य

सखियों ने मधुर और परिणाम में हितकर शिक्षा दी, उसे सुनते हुए उस कैकेयी ने कुछ भी कान नहीं दिया अर्थात्‌ श्रवणेन्द्रिय से नहीं सुना। अनसुनी कर दी, क्योंकि वह कुटिल कुबड़ी मंथरा द्वारा प्रबोधित हुई थीं, अर्थात्‌ समझायी गईं थी।

**उतर न देइ दुसह रिसि रूखी। मृगिन चितव जनु बाघिनि भूखी॥ ब्याधि असाधि जानि तिन त्यागी। चलीं कहत मतिमंद अभागी॥**
भाष्य

असहनीय क्रोध से रूक्ष अर्थात्‌ निष्ठुर और उग्र हुई कैकेयी उनका उत्तर नहीं दे रही है और उन्हें उसी प्रकार देख रही है, जैसे आहार के लिए भूख से तड़पती हुई बाघिन हरिणियों को देखती है। रोग को असहनीय जानकर अर्थात्‌ कैकेयी का हठ छोड़ना असम्भव जानकर अरुन्धती आदि ब्राह्मणियाँ, कुल की वृद्धायें और कैकेयी की पारम्परिक जेठानियाँ उसे छोड़कर मतिमन्द (मन्दबुद्धि वाली), अभागी (भाग्यहीन), कहते हुए राजभवन से चल दीं।

**राज करत यहि दैव बिगोइ। कीन्हेसि अस जस करइ न कोई॥ एहि बिधि बिलपहिं पुर नर नारी। देहिं कुचालहिं कोटिक गारी॥**
भाष्य

राज्य करते हुए अर्थात्‌ राज्यसुख भोगते हुए इसको विधाता ने नष्ट कर दिया। कैकेयी ने तो ऐसा कर डाला, जैसा कोई नहीं कर सकता। इस प्रकार, अवधपुर के सभी नर–नारी विलाप करने लगे और बुरी चाल चलने वाली कैकेयी को करोड़ों गालियाँ देने लगे।

**जरहिं बिषम जर लेहिं उसासा। कवनि राम बिनु जीवन आसा॥**

**बिपुल बियोग प्रजा अकुलानी। जनु जलचर गन सूखत पानी॥ भा०– **अवधवासी भयंकर शोक के ज्वर में जलते हुए ऊँची–ऊँची श्वास लेने लगे और कहने लगे कि, श्रीराम के बिना जीवन की कौन–सी आशा है? बहुत–बड़े वियोग से श्रीअवध की प्रजा उसी प्रकार अकुला उठी, जैसे जल के सूखते ही तलैयों और नदियों में रहने वाले जल–जन्तु अकुला उठते हैं।

अति बिषाद बश लोग लुगाई। गए मातु पहिं राम गोसाँई॥ मुख प्रसन्न चित चौगुन चाऊ। मिटा सोच जनि राखै राऊ॥

भाष्य

अवध के पुरुष और महिलायें अतिशय विषाद अर्थात्‌ दु:ख के वश में हो गये। इन्द्रियों के स्वामी, ऋषिकेश, परमात्मा श्रीराम, माता कौसल्या जी के पास गये। उनका मुख प्रसन्न था, उनके मन में पूर्वोक्त चार उपलब्धियों की आशा में चार गुणा उत्साह था। महाराज उन्हें भवन में न रख लें, यह सम्भावित शोक भी मिट गया।

**विशेष– **श्रीराम ने कैकेयी के समक्ष वनवास की चार उपलब्धियों में क्रम से मोक्ष, धर्म, अर्थ और काम के रूप में स्वीकारा था। मुनिगणों का मिलन मोक्ष, पिता की आज्ञा का पालन धर्म, कैकेयी की सम्मति अर्थ और प्राणप्रिय भरत की राज्य प्राप्ति काम, द्रष्टव्य है– अयोध्याकाण्ड का ४१ वाँ दोहा और उसी के पश्चात्‌ पहली चौपाई। वनवास का निश्चय हो जाने पर इन्हीं चारों उपलब्धियों की प्रत्याशा से श्रीराम जी के हृदय में चार गुणा उत्साह हुआ।

दो०- नव गयंद रघुबीरमन, राज अलान समान।
छूट जानि बन गमन सुनि, उर आनंद अधिकान॥५१॥

[[३४७]]

भाष्य

रघुकुल के वीर श्रीराम के मनरूप युवा हाथी के हृदय में राज्यरूप बन्धन को छूटा जानकर और वन में जाना सुनकर, आनन्द अधिक हो गया अर्थात्‌ जैसे बन्धन के छूटने से गजशाला से निकलकर वन की ओर चला हुआ युवा हाथी बहुत आनन्दित हो उठता है, उसी प्रकार भगवान्‌ का मन भी राज्यरूप बन्धन को छूटा हुआ जानकर और अपने वनगमन की आज्ञा सुनकर बहुत प्रसन्न हुआ।

**रघुकुलतिलक जोरि दोउ हाथा। मुदित मातु पद नायउ माथा॥ दीन्हि अशीष लाइ उर लीन्हे। भूषन बसन निछावर कीन्हे॥**
भाष्य

रघुकुल के तिलक (श्रेष्ठ) श्रीराम ने दोनों हाथ जोड़कर प्रसन्न होकर माता कौसल्या जी के चरणों मेें मस्तक नवाया। माताश्री ने प्रभु को आशीर्वाद दिया, उन्हें हृदय से लगा लिया और आभूषण तथा वस्त्र याचकों को न्यौछावर दिया।

**बार बार मुख चुंबति माता। नयन नेह जल पुलकित गाता॥ गोद राखि पुनि हृदय लगाए। स्रवत प्रेमरस पयद सुहाए॥**
भाष्य

माता कौसल्या प्रभु के श्रीमुख को बार–बार चूम रही हैं। उनके नेत्रों में स्नेह का जल है और उनके अंगों में रोमांच हो रहा है। कौसल्या जी ने प्रभु श्रीराम को गोद में लेकर, फिर हृदय से लगा लिया। उनके सुन्दर थनों से प्रेम–रस अर्थात्‌ वत्सलरस रूप दुग्ध चू रहा था।

**प्रेम प्रमोद न कछु कहि जाई। रंक धनद पदबी जनु पाई॥ सादर सुंदर बदन निहारी। बोली मधुर बचन महतारी॥**
भाष्य

कौसल्या का प्रेम और प्रमोद अर्थात्‌ श्रीरामरूप अभीष्ट की प्राप्ति से उत्पन्न हुआ आनन्द, कुछ भी नहीं कहा जा सकता। मानो दरिद्र ने देवों के धनाध्यक्ष कुबेर की पदवी पा ली। माँ कौसल्या आदरपूर्वक भगवान्‌ के सुन्दर मुख को निहार कर मधुर वचन बोलीं–

**कहहु तात जननी बलिहारी। कबहिं लगन मुद मंगलकारी॥ सुकृत शील सुख सीवँ सुहाई। जनम लाभ कइ अवधि अघाई॥**
भाष्य

हे तात्‌! कहिये माता बलिहारी जाती है, प्रसन्नता और मंगल को करने वाले आप के तिलक का शुभ मुहूर्त कब है? आज हमारे पुण्य, शील एवं सुख की सीमा है और आज हमारे जन्म के लाभ की पूर्ण पराकाष्ठा है।

**दो०- जेहि चाहत नर नारि सब, अति आरत एहि भाँति।**

**जिमि चातक चातकि तृषित, बृष्टि शरद ऋतु स्वाति॥५२॥ भा०– **जिस मुहूर्त को अवध के सभी नर–नारी अत्यन्त आर्त होकर, इस प्रकार चाह रहे हैं, जैसे प्यासे चातक और चातकी शरदऋतु में स्वाति नक्षत्र की वर्षा को चाहते हैं।

तात जाउँ बलि बेगि नहाहू। जो मन भाव मधुर कछु खाहू॥ पितु समीप तब जाएहू भैया। भइ बबिड़ ार जाइ बलि मैया॥

भाष्य

हे तात्‌ (मेरे वात्सल्य के आस्पद) राघव! मैं बलिहारी जाती हूँ, तुम शीघ्र नहा लो और जो तुम्हारे मन को भाये, कुछ मधुर (मिष्ठान्न, मोदक आदि) खा लो। हे भैया (भद्र)! पिताश्री के समीप तब अर्थात्‌ स्वल्पाहार के पश्चात्‌ जाना, बहुत देर हो गई है, माँ बलिहारी जाती है।

**मातु बचन सुनि अति अनुकूला। जनु सनेह सुरतरु के फूला॥ सुख मकरंद भरे श्रियमूला। निरखि राम मन भवँर न भूला॥** [[३४८]]
भाष्य

अत्यन्त अनुकूल अपनी माता श्री कौसल्या जी के वचन सुनकर, जो स्नेह अर्थात्‌ वात्सल्य प्रेम रूप कल्पवृक्ष के मानो पुष्प थे, जो सुख रूप मकरंद (पुष्परस) से भरे थे, जो श्री अर्थात्‌ राज्यलक्ष्मी के मूल आश्रय थे, उन्हें देखकर भी श्रीराम का मनरूप भ्रमर नहीं भूला अर्थात्‌ उन पर आकर्षित नहीं हुआ।

**विशेष– **तात्पर्य यह है कि, माताश्री ने पूर्व के अनुच्छेद में चार चौपाई और एक दोहा द्वारा जो वचन कहे, उनसे सामान्य व्यक्ति को आकर्षित होना स्वभाविक था, परन्तु परमेश्वर श्रीराम उन पर क्यों आकर्षित होते?

धरम धुरीन धरम गति जानी। कहेउ मातु सन अति मृदु बानी॥ पिता दीन्ह मोहि कानन राजू। जहँ सब भाँति मोर बड़ काजू॥

भाष्य

धर्म की धुरी को धारण करने वाले श्रीराम ने धर्म की गति का ज्ञान करके अर्थात्‌ वन यात्रा में धर्म यात्रा का लाभ समझकर, माता कौसल्या जी से अत्यन्त कोमल वाणी में कहा, हे माँ! पिता जी ने मुझे वन का राज्य दिया है। जहाँ मेरा सब प्रकार से बहुत बड़ा कार्य है अर्थात्‌ अब अयोध्या में मेरी कोई उपयोगिता नहीं है।

**आयसु देहि मुदित मन माता। जेहिं मुद मंगल कानन जाता॥ जनि सनेह बस डरपसि भोरे। आनँद अम्ब अनुग्रह तोरे॥**
भाष्य

हे माँ! आप प्रसन्न मन से मुझे आज्ञा दें, जिससे वन जाने में प्रसन्नता और मंगल हो, आप वात्सल प्रेम के वश होकर भूल कर भी मत डरियेगा। हे माँ! आपकी कृपा से वहाँ आनन्द ही आनन्द होगा।

**दो०- बरष चारिदस बिपिन बसि, करि पितु बचन प्रमान।**

**आइ पायँ पुनि देखिहउँ, मन जनि करसि मलान॥५३॥ भा०– **चौदह वर्ष पर्यन्त वन में निवास करके, पिताश्री के वचन को प्रमाणित करके पुन: श्रीअवध आकर आपके श्रीचरणों के दर्शन करूँगा। अपने मन को मलान अर्थात्‌ हर्ष से रहित मत कीजियेगा अर्थात्‌ दु:ख मत कीजियेगा।

बचन बिनीत मधुर रघुबर के। शर सम लगे मातु उर करके॥ सहमि सूखि सुनि शीतलि बानी। जिमि जवास परे पावस पानी॥

भाष्य

रघुकुल में श्रेष्ठ श्रीराम के विनम्र एवं मधुर वचन माता कौसल्या के हृदय में बाण के समान लगे और करके अर्थात्‌ रूक–रूक कर कसकने लगे। प्रभु की शीतल वाणी सुनकर, माताश्री उसी प्रकार भयभीत होकर सूख गईं, जैसे वर्षा का जल पड़ने पर जवास नामक घास सूख जाती है।

**कहि न जाइ कछु हृदय बिषादू। मनहुँ मृगी सुनि केहरि नादू॥ नयन सजल तन थर थर काँपी। माजहिं खाइ मीन जनु मापी॥**
भाष्य

माता कौसल्या जी से कुछ भी कहा नहीं जा रहा है, उनके हृदय में उसी प्रकार का शोक हुआ, जैसे सिंह की गर्जना सुनकर हरिणी को हो जाता है। माँ कौसल्या जी के नेत्र अश्रुजल से पूर्ण हो गये। उनका शरीर थर–थर काँप उठा (बहुत कम्पित हो उठा)। मानो मांजा अर्थात्‌ प्रथम वर्षा से उत्पन्न फेन को खाकर मीन (स्त्री मछली) मतवाली, मरणासन्न हो उठी हो।

**धरि धीरज सुत बदन निहारी। गदगद बचन कहति महतारी॥ तात पितहिं तुम प्रानपियारे। देखि मुदित नित चरित तुम्हारे॥ राज देन कहँ शुभ दिन साधा। कहेउ जान बन केहिं अपराधा॥ तात सुनावहु मोहि निदानू। को दिनकर कुल भयउ कृशानू॥** [[३४९]]
भाष्य

धैर्य धारण करके, पुत्र श्रीराम के मुख को निहार कर, माता कौसल्या टूटते हुए स्वर में वचन कहने लगीं, हे तात्‌! मेरे वात्सल्य रस के आलम्बन पुत्र राघव! तुम अपने पिताश्री को प्राण के समान प्रिय हो, तुम्हारे चरित्र को देखकर महाराज निरन्तर प्रसन्न होते रहते हैं। तुम्हे राज्य देने के लिए उन्होंने शुभ दिन निश्चित किया, फिर तुम्हारे किस अपराध से चक्रवर्ती जी ने तुम्हें वन जाने के लिए कह दिया। हे बेटे! मुझे वह कारण सुनाओ कौन व्यक्ति सूर्यकुल के लिए अग्नि बन गया।

**दो०- निरखि राम रुख सचिवसुत, कारन कहेउ बुझाइ।** **सुनि प्रसंग रहि मूक जिमि, दशा बरनि नहिं जाइ॥ ५४॥**
भाष्य

प्रभु श्रीराम का रुख (संकेत) देखकर, मंत्री सुमंत्र के पुत्र अभिनन्दन ने माताश्री को सब कारण समझाकर कहा। सब प्रसंग सुनकर कौसल्या माता मूक अर्थात्‌ गूंगे की भाँति चुप रह गईं। उनकी दशा का वर्णन नहीं किया जा सकता।

**राखि न सकइ न कहि सक जाहू। दुहूँ भाँति उर दारुन दाहू॥ लिखत सुधाकर गा लिखि राहू। बिधि गति बाम सदा सब काहू॥**
भाष्य

कौसल्या जी न तो श्रीराम को घर में रख सकती हैं और न ही, वन जाओ, ऐसा कह सकती हैं। दोनों प्रकार से कौसल्या माता के हृदय में असहनीय दाह अर्थात्‌ जलन हो रही है। वे सोचने लगीं कि, देखो विधाता की गति अर्थात्‌ चाल सदैव सभी के लिए वाम अर्थात्‌ टे़ढी हुआ करती है। चन्द्रमा लिखते समय राहु लिखा गया अर्थात्‌ कहाँ तो चक्रवर्तीजी, श्रीराम के राजतिलकरूप चन्द्रमा की रचना कर रहे थे और कहाँ उन्हीं से राहुरूप श्रीराम का वनवास रचा लिया गया।

**विशेष– **कर्मकाण्ड में ग्रहों के आकार के क्रम में चन्द्रमा का आकार द्वितीया के चन्द्र के समान निर्दिष्ट है। चन्द्रमा लिखते समय उसके बीच में सहसा अधिक स्याही गिर जाये, तो वह सूर्पाकार हो जाता है और वही बन जाता है, राहु। यहाँ तात्पर्य यही है कि, महाराज द्वितीया के चन्द्र के समान श्रीराम–राज्याभिषेक की रचना कर रहे थे, जो उनके अनुसार कैकेयी के विश्वासरूप शिव जी का आभूषण बन जाता, परन्तु विधाता के वाम होने के कारण उसी के बीच में कैकेयी की कुमति रूप स्याही गिर पड़ी जिससे नहीं चाहते हुए भी महाराज के हाथ से श्रीराम वनवासरूप राहु रच दिया गया।

धरम सनेह उभय मति घेरी। भइ गति साँप छछुंदरि केरी॥ राखउँ सुतहिं करउँ अनुरोधू। धरम जाइ अरु बंधु बिरोधू॥ कहउँ जान बन तौ बहिड़ ानी। संकट सोच बिबश भइ रानी॥

भाष्य

धर्म और स्नेह (पुत्र वात्सल्य) इन दोनों ने कौसल्या माता की बुद्धि को घेर लिया और उनकी अर्थात्‌ माता कौसल्या की गति साँप–छछूंदर की हो गई। भाव यह है कि, जब सर्प छछूंदर नामक विशेष कीड़े को मुँह में लेता है, तो न ही उसे निगल पाता है और न ही छोड़ पाता है, क्योंकि जनश्रुति के अनुसार यदि सर्प छछूंदर को निगल जाये, तो उसकी मृत्यु होगी और जब छोड़ दे तो वह दृष्टिहीन हो जायेगा। ठीक इसी प्रकार, यदि कौसल्याजी, श्रीराम को रखती हैं, तो पुत्र के धर्म के लोप की सम्भावना से माँ की मृत्यु सम्भावित है और यदि श्रीराम को वन जाने के लिए कहती हैं, तो पुत्र के वियोग से रोते–रोते उनकी दृष्टिहीनता भी अवश्यम्भावी है। कौसल्या जी सोचने लगीं, यदि अनुरोध अर्थात्‌ प्रेमपूर्वक हठ करूँ और पुत्र श्रीराम को श्रीअवध के राजभवन में

[[३५०]]

रख लूँ, तो इनका धर्म चला जायेगा और भाइयों के बीच विरोध हो सकता है और यदि इन्हें वन जाने के लिए कहूँ, तो मुझे बहुत–बड़ी हानि होगी। इस प्रकार, महारानी कौसल्या धर्मसंकट तथा पुत्रशोक के विवश हो गईं।

बहुरि समुझि तिय धरम सयानी। राम भरत दोउ सुत सम जानी॥ सरल स्वभाव राम महतारी। बोली बचन धीर धरि भारी॥

भाष्य

फिर परमचतुर और सरल स्वभाववाली श्रीराम की माता कौसल्याजी, भारतीय आदर्श, वैदिक, धर्मावलम्बिनी श्रेष्ठ महिला का धर्म समझकर तथा श्रीराम और श्रीभरत इन दोनों पुत्रों को समान जानकर, बहुत– बड़ा धैर्य धारण करके, भगवान्‌ श्रीराम से यह वचन बोलीं–

**तात जाउँ बलि कीन्हेहु नीका। पितु आयसु सब धरमक टीका॥** **दो०- राज देन कहि दीन्ह बन, मोहि न सो दुख लेश।**

तुम बिनु भरतहिं भूपतिहिं, प्रजहिं प्रचंड कलेश॥५५॥

भाष्य

हे तात्‌! मेरे प्यारे पुत्र राघव, मैं तुम्हारी बलिहारी जाऊँगी, तुमने अपने पिताश्री की आज्ञा से बिना प्रयास के पाये हुए राज्य को छोड़कर वन जाने का निर्णय करके बहुत अच्छा किया, क्योंकि पिताश्री की आज्ञा सम्पूर्ण धर्म का तिलक है। महाराज ने राज्य देने के लिए कहकर वन दिया, इसका मुझे लेशमात्र भी दु:ख नहीं है। वस्तुत: तुम्हारे बिना श्रीभरत को, महाराज को और श्रीअवध की प्रजा को प्रचण्ड क्लेश होगा।

**जौ केवल पितु आयसु ताता। तौ जनि जाहु जानि बमिड़ ाता॥ जौ पितु मातु कहेउ बन जाना। तौ कानन शत अवध समाना॥**
भाष्य

हे तात्‌ (पुत्र)! यदि तुम्हें वन जाने के लिए केवल तुम्हारे पिताश्री की आज्ञा हो, तब तुम पिता से माता को बड़ी जानकर वन मत जाओ, किन्तु यदि तुम्हारे पिताश्री महाराज एवं तुम्हारी माता कैकेयी इन दोनों ने मिलकर तुम्हें वन जाने के लिए कहा हो, तब तो वन तुम्हारे लिए एक सौ अयोध्या के समान है, क्योंकि पिता से दस गुनी बड़ी होती है माता और माता से दस गुनी बड़ी होती है, सौतेली माता। यथा–

पितुर्दशगुणा* माता गौरवेणातिरिच्यते। मातुर्दशगुणा मान्यां विमाताधर्मभिरुणा।*

पितु बनदेव मातु बनदेवी। खगमृग चरन सरोरुह सेवी॥ अंतहुँ उचित नृपहिं बनबासू। बय बिलोकि हिय होइ हरासू॥

भाष्य

हे राघव! अब वनदेवता आपके पिता होंगे और वनदेवियाँ आपकी माता। पशु और पक्षी ही आपके चरणकमलों के सेवक होंगे। राजा के लिए अंत अर्थात्‌ चतुर्थ आश्रम में ही वनवास उचित है। तुम्हारी यह अवस्था देखकर जो वन के लिए उचित नहीं है, मन में बहुत क्लेश हो रहा है।

**बड़भागी बन अवध अभागी। जो रघुबंश तिलक तुम त्यागी॥** **जौ सुत कहौं संग मोहि लेहू। तुम्हरे हृदय होइ संदेहू॥**
भाष्य

हे रघुवंश के तिलक श्रीराम! वन बड़भागी है और अवध भाग्यहीन है, जिसे आपने छोड़ दिया। हे पुत्र! यदि मैं कहूँ कि, आप मुझे साथ ले लीजिये, तो आपके हृदय में संदेह हो सकता है। आप सोच सकते हैं कि, माँ मेरी धर्मपरायणता के प्रति विश्वस्त नहीं हैं अथवा अपने पतित्रत पर दृ़ढ नहीं है इसीलिए विपत्ति ग्रस्त मेरे

[[३५१]]

पिताश्री को छोड़कर मेरे साथ वन जाना चाहती है। इसलिए मैं स्वयं आप से स्वयं को साथ ले चलने के लिए नहीं कहूँगी। मैं चौदह वर्षपर्यन्त भवन में ही रह लूँगी।

पूत परम प्रिय तुम सबही के। प्रान प्रान के जीवन जी के॥ ते तुम कहहु मातु बन जाऊँ। मैं सुनि बचन बैठि पछिताऊँ॥

भाष्य

हे पुत्र राघव! आप सभी को बहुत प्रिय हैं। आप प्राण के भी प्राण और जीवन के भी जीवन अर्थात्‌ परमात्मा हैं। वही आप परमात्मा और प्राणि मात्र के परमप्रेमास्पद श्रीराम कह रहे हैं, “माताश्री मैं वन जा रहा हूँ।” मैं यह वचन सुनकर बैठकर पछता रही हूँ, क्योंकि न तो मैं आपके संग जा सकती हूँ और न ही आपको घर में रोक सकती हूँ।

**दो०- यह बिचारि नहिं करहुँ हठ, झूठ सनेह ब़ढाइ॥** **मानि मातु कर नात बलि, सुरति बिसरि जनि जाइ॥५६॥**
भाष्य

यह विचार करके और असत्य स्नेह ब़ढाकर मैं आप से स्वयं को संग ले चलने का हठ नहीं कर रही हूँ। मैं बलिहारी जाऊँ, माता का नाता मानकर आपको मेरी स्मृति भूल नहीं जाये अर्थात्‌ माता का सम्बन्ध मानकर आप मुझे भूल मत जाइयेगा। समय–समय पर स्मरण करते रहियेगा।

**देव पितर सब तुमहिं गोसाईं। राखहुँ पलक नयन की नाईं॥ अवधि अंबु प्रिय परिजन मीना। तुम करुनाकर धरम धुरीना॥ अस बिचारि सोइ करहु उपाई। सबहिं जियत जेहिं भेंटहु आई॥ जाहु सुखेन बनहिं बलि जाऊँ। करि अनाथ जन परिजन गाऊँ॥ सब कर आजु सुकृत फल बीता। भयउ कराल काल बिपरीता॥**
भाष्य

हे इन्द्रियों के स्वामी परमात्मा श्रीराम! नरलीला में वनवास के समय देवता और पितर सभी आपकी उसी प्रकार से रक्षा करें, जैसे पलक के दोनों पल्ले नयन अर्थात्‌ आँख की पुतली की रक्षा करते हैं। हे राघव! आप करुणा की खानि और धर्म की धुरी को धारण करने वाले हैं, चौदह वर्ष की अवधि जल है और प्यारे परिवार के लोग मछली हैं। अर्थात्‌ जैसे जल के समाप्त होने पर मछली जीवित नहीं रह सकती, उसी प्रकार चौदह वर्ष वनवास की अवधि समाप्त होने पर आपके परिजन जीवित नहीं रहेंगे। ऐसा विचार करके, आप वही उपाय करें जिससे जीते जी आप सबको मिल सकें। अर्थात्‌ नन्दीग्राम में ही आपके अवधि का अंतिम क्षण पूर्ण हो और उसी समय श्रीअवध के नर–नारी आपके दर्शन कर सकें। मैं बलिहारी जाऊँ, आप सेवकों परिवार और अयोध्या को अनाथ करके सुखपूर्वक वन पधार जाइये। आज सभी का पुण्य–फल समाप्त हो गया है, समय सबके विपरीत और भयंकर हो गया है।

**बहुबिधि बिलपि चरन लपटानी। परम अभागिनि आपुहिं जानी॥ दारुन दुसह दाह उर ब्यापा। बरनि न जाहिं बिलाप कलापा॥**
भाष्य

कौसल्या जी बहुत प्रकार से विलाप करके स्वयं को बहुत–बड़ी अभागिनी जानकर श्रीराघव जी के चरणों से लिपट गईं। हृदय में असहनीय भयंकर दाह अर्थात्‌ ताप व्याप्त हो गया। माँ कौसल्या के विलापों के समूह वर्णन नहीं किये जा सकते।

[[३५२]]

**राम उठाइ मातु उर लाई। कहि मृदु बचन बहुरि समुझाई॥**
भाष्य

श्रीराम ने उठाकर माता को हृदय से लगा लिया और कोमल वचन कहकर फिर उन्हें समझाया कि, आप यदि विकल हो जायेंगी, तो मैं धर्म का पालन कैसे कर सकूँगा?

**दो०- समाचार तेहि समय सुनि, सीय उठी अकुलाइ।** **जाइ सासु पद कमल जुग, बंदि बैठि सिर नाइ॥५७॥**
भाष्य

उसी समय श्रीराम वनगमन का समाचार सुनकर, सीता जी अकुलाकर उठीं। अपने भवन से कौसल्या जी के भवन में जाकर सासु माँ के दोनों चरणकमलों का वंदन करके सिर झुका कर बैठ गईं।

**दीन्ह अशीष सासु मृदु बानी। अति सुकुमारि देखि अकुलानी॥ बैठि नमितमुख सोचति सीता। रूप राशि पति प्रेम पुनीता॥**
भाष्य

सासु कौसल्या ने कोमल वाणी में सीता जी को आशीर्वाद दिया। श्रीसीता को अत्यन्त सुकुमारी देखकर (वन जाने के लिए उनकी उत्सुकता समझकर) कौसल्या जी अकुला गईं। रूप की राशि तथा पति श्रीराम के प्रेम से पवित्र भगवती श्रीसीताजी, मुख नीचे करके बैठ कर चिन्ता करने लगीं।

**चलन चहत बन जीवननाथा। केहि सुकृती सन होइहि साथा॥ की तनु प्रान कि केवल प्राना। बिधि करतब कछु जाइ न जाना॥**
भाष्य

सीता जी विचार करने लगीं, आज तो मेरे जीवन के स्वामी रघुनाथ जी वन को चलना चाहते हैं, उनका किस सुकृति से साथ हो सकेगा? क्या मेरे शरीर और प्राण दोनों प्रभु के साथ जायेंगे? अथवा, केवल मेरे प्राण श्रीराघव के साथ जायेंगे। विधाता को क्या करणीय है? यह कुछ भी ज्ञात नहीं हो रहा है।

**चारु चरन नख लेखति धरनी। नूपुर मुखर मधुर कबि बरनी॥ मनहुँ प्रेम बश बिनती करहीं। हमहिं सीय पद जनि परिहरही॥**
भाष्य

सीता जी अपने सुन्दर चरणों के नखों से पृथ्वी को कुरेद रही हैं और उनके श्रीचरणों के नूपुरों के मधुर शब्दों को कवि (तुलसीदास) वर्णन कर रहे हैं। कवि उत्प्रेक्षा में कहते हैं, मानो प्रेमवश होकर सीता जी के नूपुर, भगवती सीता जी के चरणों से प्रार्थना कर रहे हैं कि, वनगमन के समय सीता जी के चरण हमें (नूपुरों) को न त्यागें।

**मंजु बिलोचन मोचति बारी। बोली देखि राम महतारी॥ तात सुनहु सिय अति सुकुमारी। सासु ससुर परिजनहिं पियारी॥**
भाष्य

सीता जी को सुन्दर नेत्रों सेजल गिराते अर्थात्‌ अश्रुपात करते हुए देखकर, श्रीराम की माता कौसल्या जी बोलीं, हे तात! राघव सुनिये, सीता जी बहुत सुकुमारी हैं, वे सासुओं, श्वसुर महाराज चक्रवर्ती जी तथा परिवार को भी बहुत प्रिय हैं।

**दो०- पिता जनक भूपाल मनि, ससुर भानुकुल भानु।** **पति रबिकुल कैरव बिपिन, बिधु गुन रूप निधानु॥५८॥**
भाष्य

हे राघव! इनके पिता हैं राजाओं के मुकुटमणि महाराज जनक और इनके श्वसुर हैं सूर्यकुल के सूर्य चक्रवर्ती जी महाराज तथा इन सीता जी के पति आप, जो कि, रघुकुलरूप कुमुदवन के लिए चन्द्रमा, गुणों और रूप के निधान स्वयं श्रीरामचन्द्र हैं।

[[३५३]]

**मैं पुनि पुत्रबधू प्रिय पाई। रूप राशि गुन शील सुहाई॥ नयन पुतरि करि प्रीति ब़ढाई। राखेउँ प्रान जानकिहिं लाई॥**
भाष्य

फिर मैंने (कौसल्या) भी रूप की राशि, गुणों और स्वभाव से सुहावनी सीता को प्यारी पुत्रवधू के रूप में पाया। मैंने सीता को नेत्रों की पुतली बनाकर, अपनी प्रसन्नता और प्रेम ब़ढाकर अपने प्राणों को जनकनंदिनी में लगाकर रखा (बारह वर्षपर्यन्त)।

**कलपबेलि जिमि बहुबिधि लाली। सींचि सनेह सलिल प्रतिपाली॥ फूलत फलत भयउ बिधि बामा। जानि न जाइ काह परिनामा॥**
भाष्य

हे राघव! मैंने सीता जी को कल्पवृक्ष की लता की भाँति स्नेह के जल से सींचकर बहुत प्रकार से दुलारा और पाला। उस सीतारूप कल्पलता के फूलते–फलते समय ही विधाता प्रतिकूल हो गये। यह समझ में नहीं आता की परिणाम कैसा होगा ?

**पलँग पीठ तजि गोद हिंडोरा। सिय न दीन्ह पगु अवनि कठोरा॥ जिवनमूरि जिमि जोगवत रहऊँ। दीप बाति नहिं टारन कहऊँ॥**
भाष्य

सीता जी ने पलंग, पीठ अर्थात्‌ भोजन करते समय का भारतीय पी़ढा, मेरी गोद और हिंडोले को छोड़कर कठोर पृथ्वी पर बारह वर्षपर्यन्त चरण नहीं रखा अर्थात्‌ प्रायश: मैं सीता जी को पलंग पर पौ़ढा देती, फिर उन्हें पीठ अर्थात्‌ पी़ढे पाटे पर विराजमान कराके भोजन कराती, फिर सीता जी को गोद में लेकर वाटिका में घुमाती और फिर झूलने के लिए हिंडोले पर विराजित कर देती हूँ। इसी क्रम में इन्हें श्रीअवध आये बारह वर्ष बीते और इन्होंने इस काल में कठोर पृथ्वी पर चरण नहीं रखा। अथवा, पृथ्वी पर कठोरता से चरण नहीं रखा। इन्हें मैंने दौड़कर चलने का अवसर नहीं दिया। मैं इनको संजीवनी (ज़डी) की मूलिका की भाँति सावधानी से बचा– बचाकर पालती–पोषती रहती हूँ। इनको मैं दीपक की बत्ती हटाने के लिए भी नहीं कहती हूँ। प्रायश: भवन में मणि का दीपक रखती हूँ, जिन्हें जलाने या बुझाने की आवश्यकता नहीं पड़ती।

**सोइ सिय चलन चहति बन साथा। आयसु काह होइ रघुनाथा॥ चंद्र किरन रस रसिक चकोरी। रबि रुख नयन सकइ किमि जोरी॥**
भाष्य

वही सीता जी आज आपके साथ वन चलना चाहती हैं। हे रघुनाथजी! आपकी क्या आज्ञा हो रही है? चन्द्रमा के किरणों के रस की रसिक चकोरी सूर्य के सामने अपने नेत्रों को कैसे जोड़ सकती है, अर्थात्‌ जिसके नेत्र चन्द्रमा को निहारने के अभ्यस्त हैं, वह सूर्य को कैसे देख सकती है? तात्पर्य यह है कि, सीता जी के लिए वनवास सर्वथा प्रतिकूल और अनुपयुक्त हैं।

**दो०- करि केहरि निशिचर चरहिं, दुष्ट जंतु बन भूरि।** **बिष बाटिका कि सोह सुत, सुभग सजीवनि मूरि॥५९॥**
भाष्य

वन में हाथी, सिंह, राक्षस और बहुत से दुष्ट जीव–जन्तु घूमते रहते हैं। हे पुत्र! क्या विष की वाटिका में

सुन्दर संजीवनी बूटी शोभा पाती है?

बन हित कोल किरात किशोरी। रचीं बिरंचि बिषय सुख भोरी॥ पाहन कृमि जिमि कठिन सुभाऊँ। तिनहिं कलेश न कानन काऊँ॥ कै तापसतिय कानन जोगू। जिन तप हेतु तजा सब भोगू॥ सिय बन बसिहि तात केहि भाँती। चित्रलिखित कपि देखि डेराती॥
[[३५४]]

भाष्य

हे राघव! वन के लिए तो ब्रह्मा जी ने विषयसुखों से अनभिज्ञ, कोलों और किरातों की किशोरियों को बनाया है। हमारी जनकराजकिशोरी वन के लिए नहीं हैं। जिन कोल, किरात किशोरियों का स्वभाव पत्थर के कीड़ों के समान कठिन होता है, उनको वन में कभी भी क्लेश नहीं होता। अथवा, तपस्वियों की पत्नियाँ वन के योग्य होती हैं, जिन्होंने तप के लिए सभी भोगों का त्याग कर दिया हो। हे तात्‌ (मेरे वत्सल रस के आलम्बन) राघव! सीता जी वन में किस प्रकार रहेंगी, जो चित्र में लिखे (चित्रित) वानरों को देख कर भी डर जाती है?

**सुरसर सुभग बनज बनचारी। डाबर जोग कि हंसकुमारी॥ अस बिचारि जस आयसु होई। मैं सिख देउँ जानकिहिं सोई॥**
भाष्य

हे राघव! देवताओं के तालाब मानससरोवर के सुन्दर कमलवन में विहार करने वाली हंस की कुमारी क्या साधारण गड्ढे के योग्य हैं, अर्थात्‌ जो देव तालाब के कमलवन में विहार करती हों, क्या वह बालमरालिका उस पंकिल जल से भरे छोटे से गड्ढे के योग्य हैं, जिसमें सूकर–कूकर आदि लोटते हों ? ऐसा विचार करके आप की जो आज्ञा हो, मैं सीता जी को वही शिक्षा दूँ।

**जौ सिय भवन रहै कह अंबा। मोहि कहँ होइ बहुत अवलंबा॥ सुनि रघबीर मातु पिय बानी। शील सनेह सुधा जनु सानी॥** **दो०- कहि प्रिय बचन बिबेकमय, कीन्ह मातु परितोष।**

लगे प्रबोधन जानकिहिं, प्रगटि बिपिन गुन दोष॥६०॥

भाष्य

माता कौसल्या जी ने फिर कहा, यदि सीता जी वनगमन का निश्चय छोड़कर भवन में रहें, तो मेरे लिए वे बहुत–बड़ी अवलम्ब हो सकती हैं। रघुकुल के वीर श्रीराम ने शील और स्नेह के अमृत से सनी हुई सी माता कौसल्या जी की कोमल वाणी सुनकर विवेक से पूर्ण वचन कहकर माता कौसल्या जी को परितुष्ट किया और वन के गुण और दोष को प्रकट करते हुए जनकनन्दिनी सीता जी को समझाने लगे।

**मातु समीप कहत सकुचाहीं। बोले समय समुझि मन माहीं॥ राजकुमारि सिखावन सुनहू। आनि भाँति जिय जनि कछु गुनहू॥**
भाष्य

भगवान्‌ श्रीराम माता कौसल्या जी के समीप अपनी धर्मपत्नी सीता जी से कहने में संकोच करते हैं, परन्तु मन में समय समझकर प्रभु बोले, हे राजकुमारीजी! मेरी सिखावन (शिक्षा) सुनिये, मन में और दूसरे प्रकार से कुछ मत विचार कीजिये।

**आपन मोर नीक जौ चहहू। बचन हमार मानि गृह रहहू॥ आयसु मोर सासु सेवकाई। सब बिधि भामिनि भवन भलाई॥**
भाष्य

यदि आप अपना और मेरा दोनों का भला चाहती हैं, तो हमारा वचन मानकर घर में रह लीजिये। सासु की सेवा मेरी आज्ञा है। हे भामिनी (श्रेष्ठ लक्षणों से सम्पन्न) सीते! भवन में रहने में सब प्रकार से भलाई है।

**एहि ते अधिक धरम नहिं दूजा। सादर सासु ससुर पदपूजा॥ जब जब मातु करिहिं सुधि मोरी। होइहि प्रेम बिकल मति भोरी॥ तब तब तुम कहि कथा पुरानी। सुंदरि समुझाएहु मृदु बानी॥ कहउँ स्वभाव शपथ शत मोहीं। सुमुखि मातु हित राखउँ तोहीं॥** [[३५५]]
भाष्य

आदरपूर्वक सासु और श्वसुर के चरणों की पूजा करना इससे अधिक कोई दूसरा धर्म नहीं है। माता जी जब–जब मेरा स्मरण करेंगी, प्रेम–विकल होने के कारण उनकी बुद्धि, भोरी अर्थात्‌ बावली, विभ्रमित हो जायेगी। हे सुन्दरी! तब–तब तुम पुरानी अर्थात्‌ पुराण प्रसिद्ध (मनु–शतरूपा अवतार की ) कथा कहकर उन्हें कोमल वाणी में समझाना। मैं अपना भाव कह रहा हूँ, मुझे सैक़डों शपथ है अथवा, मुझे अपने स्वभाव की सैक़डों शपथ है, हे सुमुखी! मैं तुम्हें माताश्री के लिए ही श्रीअवध में रख रहा हूँ।

**दो०- गुरु श्रुति सम्मत धरम फल, पाइय बिनहिं कलेश।** **हठ बश सब संकट सहे, गालव नहुष नरेश॥६१॥**
भाष्य

हे सीते! गुरु एवं वेद से सम्मत धर्म का फल क्लेश के बिना ही प्राप्त कर लिया जाता है। महर्षि गालव और राजा नहुष ने हठ के कारण बहुत संकट सहन किये थे, अर्थात्‌ जैसे अपने हठ के कारण विश्वामित्र जी द्वारा माँगे गये आठ सौ श्यामकर्ण घोड़ों को इकट्ठा करने में गालव मुनि को बहुत संकट सहना पड़ा और हठ के कारण ही इन्द्राणी की प्राप्ति के लिए ऋषियों की सवारी का प्रयोग करके नहुष को अजगर बनकर घोर संकट सहना पड़ा उसी प्रकार आप को भी वन में संकट सहने पड़ेंगे।

**विशेष– **यहाँ दोनों उदाहरणों का तात्पर्य यह है कि, सीता जी को बिम्ब शरीर और प्रतिबिम्ब शरीर इन दोनों में घोर संकट सहना पड़ा। वास्तविक शरीर में वनमार्ग का कय् और अग्निवास तथा प्रतिबिम्ब शरीर में हरण, लंका की यातना और अग्नि में प्रवेश।

मैं पुनि करि प्रमान पितु बानी। बेगि फिरब सुनु सुमुखि सयानी॥ दिवस जात नहिं लागिहि बारा। सुंदरि सिखवनु सुनहु हमारा॥

भाष्य

हे सुन्दर मुखवाली चतुर सीते! सुनो, फिर मैं पिताश्री की वाणी को प्रमाणित करके शीघ्र लौट आऊँगा। हे सुन्दरी! हमारी सिखावन सुनो, चौदह वर्ष के दिन जाते विलम्ब न लगेगा।

**जौ हठ करहु प्रेम बश बामा। तौ तुम दुख पाउब परिनामा॥ कानन कठिन भयंकर भारी। घोर घाम हिम बारि बयारी॥**
भाष्य

हे वामांगिनी! यदि तुम प्रेम के वश हठ करोगी तो परिणाम में तुम दु:ख पाओगी। वन बहुत कठिन और बहुत ही भय उत्पन्न करने वाला है। उसमें धूप, ठंड बर्फीला जल और वायु ये सभी बहुत भयंकर होते हैं।

**कुश कंटक मग काँकर नाना। चलब पयादेहिं बिनु पदत्राना॥ चरनकमल मृदु मंजु तुम्हारे। मारग अगम भूमिधर भारे॥**
भाष्य

वहाँ कुश, काँटे और अनेक प्रकार के कंक़डों पर, जूते, पनहीं के बिना पैदल चलना यह सब कष्टकर है। तुम्हारे चरण कमल के समान कोमल और सुन्दर हैं। मार्ग बहुत ही अगम्य है तथा वहाँ बड़े-बड़े पर्वत होते हैं।

**कंदर खोह नदी नद नारे। अगम अगाध न जाहिं निहारे॥ भालु बाघ बृक केहरि नागा। करहिं नाद सुनि धीरज भागा॥**
भाष्य

वन में बड़ी-बड़ी अगम्य और गंभीर गुफायें, खोह, अगाध नदियाँ, नद और नाले हैं, जो देखे नहीं जा सकते। वहाँ भालू, बाघ, भेयिड़े, सिंह और हाथी इतना भयंकर गर्जन करते हैं, जिसे सुनकर धैर्य भाग जाता है।

[[३५६]]

दो०- भूमि शयन बलकल बसन, अशन कंद फल मूल।

ते कि सदा सब दिन मिलिहिं, सबइ समय अनुकूल॥६२॥

भाष्य

वन मेें पृथ्वी पर शयन, वस्त्र के लिए वल्कल (पेड़ों की छालें), भोजन के लिए कंदमूल और वन के फल होते हैं। वे भी क्या सब दिन समय के अनुकूल मिलते हैं ? अर्थात्‌ नहीं। कभी मिलते हैं तो कभी निराहार ही रहना पड़ता है।

**नर अहार रजनीचर चरहीं। कपट बेष बिधि कोटिक धरहीं॥ लागइ अति पहार कर पानी। बिपिन बिपति नहिं जाइ बखानी॥**
भाष्य

वन में मनुष्यों का भोजन करने वाले राक्षस घूमते रहते हैं। वे करोड़ों प्रकार से कपटमय वेश धारण करते हैं। पहाड़ का पानी बहुत लगता है अर्थात्‌ कष्ट देता है, पाचन के प्रतिकूल होता है, वन की विपत्ति बखानी नहीं जा सकती।

**ब्याल कराल बिहग बन घोरा। निशिचर निकर नारि नर चोरा॥ डरपहिं धीर गहन सुधि आए। मृगलोचनि तुम भीरु सुभाए॥**
भाष्य

वन में भयंकर सर्प और घोर पक्षी होते हैं। स्त्रियों और पुरुषों को चुराने वाले राक्षसों के समूह वन में रहते हैं। हे मृगलोचनी (हरिण के समान नेत्र वाली) सीते! वन का स्मरण करने पर धीर लोग भी डर जाते हैं। तुम तो स्वभाव से भीरु अर्थात्‌ डरने वाली हो।

**हंसगमनि तुम नहिं बन जोगू। सुनि अपजस मोहि देइहिं लोगू॥ मानस सलिल सुधा प्रतिपाली। जियइ कि लवन पयोधि मराली॥**
भाष्य

हे हंसगामिनी (हंस के समान चलने वाली) सीते! तुम वन के योग्य नहीं हो, सुनकर लोग मुझे अपयश ही देंगे। भला बताओ, मानससरोवर के अमृत के समान जल द्वारा पाली–पोषी गई हंसिनी कहीं नमक के समुद्र में जी सकती है ?

**नव रसाल बन बिहरनशीला। सोह कि कोकिल बिपिन करीला॥ रहहु भवन अस हृदय बिचारी। चंद्रबदनि दुख कानन भारी॥**
भाष्य

नवीन आम्र के वन में विहार करने वाली कोकिला (कोयल) क्या करील के वन में शोभित होती है ? हे चन्द्रमुखी सीते! हृदय में ऐसा विचार करके, तुम घर में रह जाओ, वन में बहुत दु:ख है।

**दो०- सहज सुहृद गुरु स्वामि सिख, जो न करइ सिर मानि।**

**सो पछिताइ अघाइ उर, अवसि होइ हित हानि॥६३॥ भा०– **स्वभाव सेमित्ररूप हितैषी, गुरु और स्वामी की शिक्षा को सिर पर मान कर अर्थात्‌ शिरोधार्य करके जो नहीं करते, वह पश्चात ताप करके अघा जाते हैं अर्थात्‌ मन भरकर पछताते हैं और उनके हित की अवश्य हानि होती है।

सुनि मृदु बचन मनोहर पिय के। लोचन ललित भरे जल सिय के॥ शीतल सिख दाहक भइ कैसे। चकइहिं शरद चंद्र निशि जैसे॥

[[३५७]]

भाष्य

प्रियतम श्रीराम जी के कोमल और मन को हरने वाले वचन सुनकर, श्रीसीता जी के ललित अर्थात्‌ अति सुहावने नेत्रों में जल भर आये। प्रभु श्रीराम की शीतल शिक्षा सीता जी के लिए किस प्रकार दाह (जलन) उत्पन्न करने वाली हुई, जैसे चकवी के लिए शरद्‌पूर्णिमा की चाँदनी रात।

**उतर न आव बिकल बैदेही। तजन चहत शुचि स्वामि सनेही॥ बरबस रोकि बिलोचन बारी। धरि धीरज उर अवनिकुमारी॥ लागि सासु पग कह कर जोरी। छमब देबि बबिड़ अिनय मोरी॥**
भाष्य

सीता जी के मुख से कुछ उत्तर नहीं आ रहा है। विदेहनन्दिनी व्याकुल हो गईं और सोचने लगीं कि, मेरे परमपवित्र स्नेहीस्वामी श्रीरघुनाथ जी मुझे छोड़ना चाहते हैं। हठपूर्वक विमल नेत्रों में अश्रुजल को रोककर हृदय में धैर्य–धारण करके भूमिपुत्री श्रीसीता ने सासु कौसल्याजी के चरणों में लिपटकर, हाथ जोड़कर कहा, हे देवी! मेरी बहुत बड़े अविनय अर्थात्‌ धृष्टता (उद्‌दण्डता) को क्षमा कीजियेगा।

**दीन्ह प्रानपति मोहि सिख सोई। जेहि बिधि मोर परमहित होई॥ मैं पुनि समुझि दीखि मन माही। पिय बियोग सम दुख जग नाहीं॥**
भाष्य

मेरे प्राणपति श्रीराघवेन्द्र जी ने मुझे वही शिक्षा दी जिंस विधि से मेरा परमकल्याण हो, फिर मैंने अपने मन मेें समझकर यह देखा कि, संसार में प्रियतम के वियोग से बड़ा कोई दु:ख नहीं है।

**दो०- प्राननाथ करुनायतन, सुंदर सुखद सुजान।**

**तुम बिनु रघुकुल कुमुद बिधु, सुरपुर नरक समान॥६४॥ भा०– **अनन्तर भगवती श्रीसीता, श्रीराम से बोलीं, हे करुणा के मंदिर! हे सुन्दर सुख देने वाले! सब कुछ जानने वाले, मेरे प्राणनाथ श्रीराघव! हे रघुकुल रूप कुमुद के चन्द्रमा प्रभु! आपके बिना स्वर्ग भी मेरे लिए नरक के समान है।

मातु पिता भगिनी प्रिय भाई। प्रिय परिवार सुहृद समुदाई॥ सासु ससुर गुरु सजन सहाई। सुत सुंदर सुशील सुखदाई॥ जहँ लगि नाथ नेह अरु नाते। पिय बिनु तियहिं तरनिहुँ ते ताते॥

भाष्य

हे नाथ! माता–पिता, बहन एवं प्यारा भाई, प्रिय परिवार और मित्रों के समूह, सास, श्वसुर, गुरुजन, मित्र, सहायक, सुन्दर, शोभन शीलवाले सुखदाता पुत्र तथा पुत्री, ये सभी जहाँ तक नेह और सम्बन्ध है, ये सब पति के बिना स्त्री के लिए सूर्यनारायण से भी अधिक तपाने वाले अर्थात्‌ ताप देने वाले और कष्टदायी हैं।

**तन धन धाम धरनि पुर राजू। पति बिहीन सब शोक समाजू॥ भोग रोगसम भूषन भारू। जम जातना सरिस संसारू॥ प्राननाथ तुम बिनु जग माहीं। मो कहँ सुखद कतहुँ कछु नाहीं॥**
भाष्य

शरीर, धन, घर, पृथ्वी, नगर और राज्य, पति के बिना ये सब कुछ नारी के लिए शोक का ही समाज है। पति के बिना पत्नी के लिए भोग रोग के समान है, आभूषण बोझ के समान है और संसार यम की यातना (पापियों को मरण के पश्चात्‌ यमराज द्वारा दिया जाने वाला कठोर दंड) के समान है। हे प्राणनाथ! आपके बिना संसार में मेरे लिए कहीं भी कोई भी सुख देने वाला नहीं है।

**जिय बिनु देह नदी बिनु बारी। तैसै नाथ पुरुष बिनु नारी॥ नाथ सकल सुख साथ तुम्हारे। शरद बिमल बिधु बदन निहारे॥**

[[३५८]]

भाष्य

हे नाथ! जैसे जीवात्मा के बिना शरीर और जल के बिना नदी निरर्थक होती है, उसी प्रकार पुरुष (पति) के बिना नारी (पत्नी) भी अर्थहीन और शोभाहीन है। हे नाथ! आपके शरद्‌कालीन निर्मल चन्द्रमा के समान श्रीमुख को निहारकर आपके साथ मुझे सभी सुख उपलब्ध हो जायेंगे तथा उपलब्ध हैं।

**दो०- खग मृग परिजन नगर बन, बलकल बिमल दुकूल।**

**नाथ साथ सुरसदन सम, परनसाल सुख मूल॥६५॥ भा०– **आपके साथ रहने पर पक्षी और पशु मेरे कुटुम्बी होंगे, वल्कल (वृक्षों के छाल) मेरे लिए निर्मल दुकूल उत्तरीय तथा साड़ी के समान होंगे और आप के साथ मेरे लिए पर्णकुटी भी देवभवन के समान सुख का आश्रय बनेगी।

चौ०: बनदेबी बनदेव उदारा। करिहैं सासु ससुर सम सारा॥

कुश किसलय साथरी सुहाई। प्रभु सँग मंजु मनोज तुराई॥

भाष्य

उदार वनदेवियाँ और वनदेव सास–श्वसुर के समान मेरी देखभाल करेंगे। पुष्प और पल्लवों की बनी हुई साथरी (भूमि की शैय्या) आपके साथ सुन्दर कामदेव द्वारा बनाई हुई तोशक की शैय्या के समान सुखदायिनी होगी।

**कंद मूल फल अमिय अहारू। अवध सौध शत सरिस पहारू॥ छिन छिन प्रभु पद कमल बिलोकी। रहिहउँ मुदित दिवस जिमि कोकी॥**
भाष्य

कंदमूल, फल ही मेरे लिए अमृत का भोजन होगा। वन के पर्वत ही मेरे लिए सैक़डों श्रीअवध के राजमहल के समान होंगे। क्षण–क्षण आप प्रभु राघव के चरणकमल को देखकर दिन में चकवी की भाँति मैं प्रसन्न रह लूँगी।

**बन दुख नाथ कहे बहुतेरे। भय बिषाद परिताप घनेरे॥ प्रभु बियोग लवलेश समाना। सब मिलि होहिं न कृपानिधाना॥**
भाष्य

हे नाथ! आप ने वन के बहुत से दु:ख, अनेक भय, कष्ट और परितापों का वर्णन किया, परन्तु हे कृपानिधान! ये सब मिलकर भी आप प्रभु राघव के वियोग के लवलेश के समान भी नहीं होंगे।

**अस जिय जानि सुजान शिरोमनि। लेइय संग मोहि छायिड़ जनि॥ बिनती बहुत करौं का स्वामी। करुनामय उर अंतरजामी॥**
भाष्य

हे सुजानों अर्थात्‌ सुन्दर ज्ञानवालों के शिरोमणि! हृदय में ऐसा जानकर मुझे साथ ले लीजिये, छोयिड़े मत। हे स्वामी! मैं बहुत क्या प्रार्थना करूँ, क्योंकि आप स्वयं करुणा के स्वरूप, हृदय में निवास करने वाले और अन्तर्यामी हैं अर्थात्‌ सभी का नियंत्रण करने वाले हैं।

**दो०- राखिय अवध जो अवधि लगि, रहत न जनियहिं प्रान।**

दीनबंधु सुंदर सुखद, शील सनेह निधान॥६६॥

भाष्य

हे दीनबन्धु! हे सर्वसुन्दर! हे सुखदाता! हे शील और स्नेह के कोश राघवेन्द्र सरकार! यदि आप मुझे चौदह वर्ष की अवधिपर्यन्त श्रीअयोध्या में रखेंगे तो मेरे प्राणों को रहते मत जानियेगा अर्थात्‌ तब मेरे प्राण नहीं रहेंगे।

[[३५९]]

मोहि मग चलत न होइहि हारी। छिन छिन चरन सरोज निहारी॥ सबहि भाँति पिय सेवा करिहौं। मारग जनित सकल श्रम हरिहौं॥

भाष्य

मुझे, मार्ग चलते समय क्षण–क्षण आप के श्रीचरणकमल को देखकर हार अर्थात्‌ थकावट नहीं होगी। मैं सब प्रकार से अपने प्रियतम आपश्री रघुनाथ जी की सेवा करूँगी और मार्ग में उत्पन्न सभी श्रमों को हर लूँगी।

**पायँ पखारि बैठि तरु छाहीं। करिहउँ बायु मुदित मन माहीं॥ श्रम कन सहित श्याम तनु देखे। कहँ दुख समय प्रानपति पेखे॥**
भाष्य

आपके चरणों को धोकर वृक्ष की छाया में बैठकर, मन में प्रसन्न होते हुए आपको आँचल से बयार करूँगी। श्रमकणों (पसीने की बूॅंदों) के सहित आप के श्यामल शरीर को देखकर अपने प्राणपति आप श्रीराघव सरकार के दर्शन करके मुझे दु:ख का समय ही कहाँ रहेगा?

**सम महि तृन तरुपल्लव डासी। पायँ पलोटिहि सब निशि दासी॥**

**बार बार मृदु मूरति जोही। लागिहि ताति बयारि न मोही॥ भा०– **समतल, भूतल पर घास और वृक्ष के पल्लव को बिछाकर, यह दासी सीता पूरी रात आपके चरण दबायेगी, बारम्बार आपकी कोमल मूर्ति को देखकर मुझे गर्म हवा भी नहीं लगेगी।

को प्रभु सँग मोहि चितवनिहारा। सिंघबधुहिं जिमि शशक सिआरा॥

**मैं सुकुमारि नाथ बनजोगू। तुमहिं उचित तप मो कहँ भोगू॥ भा०– **जैसे सिंह की पत्नी को खरगोश और गीदड़ नहीं देख सकते, उसी प्रकार आपके साथ में रह रही मुझ सीता को कौन देख सकता है? प्रभु क्या मैं सुकुमारी हूँ, तो आप तपस्या के योग्य हैं? क्या आपके लिए तपस्या उचित है और मेरे लिए भोग? अर्थात्‌ नहीं।

दो०- ऐसेउ बचन कठोर सुनि, जौ न हृदय बिलगान।

तौ प्रभु बिषम बियोग दुख, सहिहैं पामर प्रान॥६७॥

भाष्य

आपके ऐसे कठोर वचनों को सुनकर यदि मेरा हृदय नहीं फटा, तो निश्चय ही मेरे नीच प्राण आपश्री राघव के वियोग के विषम दु:ख को सहन करेंगे।

**अस कहि सीय बिकल भइ भारी। बचन बियोग न सकी सँभारी॥ देखि दशा रघुपति जिय जाना। हठि राखे नहिं राखिहि प्राना॥**
भाष्य

ऐसा कहकर श्रीसीता जी बहुत व्याकुल हो गईं और वे प्रभु के वचन वियोग को भी नहीं सम्भाल सकीं। सीता जी की यह दशा देखकर रघुकुल के स्वामी भगवान्‌ श्रीराम ने हृदय में जान लिया कि, श्रीअवध में हठपूर्वक रखने पर सीता जी अपने प्राण नहीं रखेंगी।

**कहेउ कृपालु भानुकुलनाथा। परिहरि सोच चलहु बन साथा॥ नहिं बिषाद कर अवसर आजू। बेगि करहु बन गमन समाजू॥**
भाष्य

सूर्यकुल के स्वामी कृपालु भगवान्‌ श्रीराम ने कहा, हे सीते! चिन्ता छोड़कर मेरे साथ वन में चलिए। आज विषाद अर्थात्‌ दु:ख का समय नहीं है। वनगमन के समाज को शीघ्र सजाइये, अर्थात्‌ राजकीय वस्त्र छोड़कर तपस्वी का वेश धारण कीजिये। अन्नाहार छोड़कर फलाहार के लिए तैयार रहिये। अलंकरण और वस्त्र सखियों में वितरित कर दीजिये।

[[३६०]]

कहि प्रिय बचन प्रिया समुझाई। लगे मातु पद आशिष पाई॥ बेगि प्रजा दुख मेटब आई। जननी निठुर बिसरि जनि जाई॥

भाष्य

इस प्रकार प्रिय वचन कहकर अपनी प्राणप्रिया सीता जी को समझाया। श्रीराम माता कौसल्या के चरणों में लिपट गये। उनसे आशीर्वाद प्राप्त किया। माँ बोलीं, हे राघव! चौदह वर्ष का वनवास पूर्ण करके शीघ्र अयोध्या लौटकर प्रजा का दु:ख मिटाइये और यह निर्दय कठोर माता आपके द्वारा न भुलाई जाये।

**फिरिहिं दशा बिधि बहुरि कि मोरी। देखिहउँ नयन मनोहर जोरी॥ सुदिन सुघरी तात कब होइहि। जननी जियत बदन बिधु जोइहि॥**
भाष्य

हे विधाता! क्या यह मेरी कव्र्ण दशा फिर लौटगी अर्थात्‌ जो मैं आज प्रभु को वनवास के लिए भेज रही हूँ, क्या इनका पुन: प्रत्यागमन देखूँगी? क्या फिर मैं श्रीसीता–राम जी की मनोहर जोड़ी को आँख भर देखूँगी? हे प्यारे राघव! उस सुन्दर दिन की वह सुन्दर घड़ी कब होगी, जब जीती हुई माँ कौसल्या आपके चन्द्रमुख को निहारेगी?

**दो०- बहुरि बच्छ कहि लाल कहि, रघुपति रघुबर तात।**

कबहिं बोलाइ लगाइ हिय, हरषि निरखिहउँ गात॥६८॥

भाष्य

हे राघव! मैं फिर कब ‘वत्स’ कहकर, ‘लाल’ कहकर, ‘रघुपति, रघुवर’ और तात्‌’ के सम्बोधनों से आपको बुलाकर हृदय से लगाकर प्रसन्नतापूर्वक आपके शरीर को निरखूँगी (देखूँगी)?

**लखि सनेह कातरि महतारी। बचन न आव बिकल भइ भारी॥ राम प्रबोध कीन्ह बिधि नाना। समय सनेह न जाइ बखाना॥**
भाष्य

श्रीराम ने देखा की माता कौसल्या उनके स्नेह में कातर हो गईं हैं और उनके मुख से कोई वचन नहीं निकल रहा है, वे बहुत व्याकुल हैं। श्रीराम ने नाना प्रकार से माता का प्रबोधन किया अर्थात्‌ उन्हें समझाया। उस समय का स्नेह कहा नहीं जा सकता।

**तब जानकी सासु पग लागी। सुनिय माय मैं परम अभागी॥ सेवा समय दैव बन दीन्हा। मोर मनोरथ सफल न कीन्हा॥**
भाष्य

तब जनकनन्दिनी सीता जी सासु माँ कौसल्या के चरणों से लिपट गईं और बोलीं, हे माँ! सुनिये, मैं बहुत बड़ी दुर्भाग्यशालिनी हूँ। अब तक तो आप मेरी सेवा करती रहीं और जब मेरी सेवा का समय आया तब ईश्वर ने मुझे वनवास दे दिया। मेरे मनोरथ सफल नहीं किये।

**तजब छोभ जनि छायिड़ छोहू। करम कठिन कछु दोष न मोहू॥**

**सुनि सिय बचन सासु अकुलानी। दशा कवनि बिधि कहौं बखानी॥ भा०– **माताजी! मेरे प्रति क्षोभ छोड़ दीजिये और अपनी ममता कभी मत छोयिड़ेगा। कर्त्तव्य का पालन करना बहुत कठिन है, मेरा भी कोई दोष नहीं है। सीता जी के वचन सुनकर सासु कौसल्या जी अकुला गईं, यह दशा किस प्रकार बखान कर कहूँ?

बारहिं बार लाइ उर लीन्ही। धरि धीरज सिख आशिष दीन्ही॥ अचल होउ अहिवात तुम्हारा। जब लगि गंग जमुन जल धारा॥

[[३६१]]

भाष्य

कौसल्या जी ने सीता जी को बारम्बार हृदय से लगाया और धैर्य धारण करके उन्हें शिक्षा और आशीर्वाद दिया। हे सीते! जब तक गंगा जी और यमुना जी में जल की धारा है, तब तक तुम्हारा सौभाग्य अखण्ड रहे।

**दो०- सीतहिं सासु अशीष सिख, दीन्हि अनेक प्रकार।**

चली नाइ पद पदुम सिर, अति हित बारहिं बार॥६९॥

भाष्य

सासु कौसल्या जी ने सीता जी को अनेक प्रकार से आशीर्वाद और शिक्षायें दीं। सीता जी अत्यन्त प्रेम से बारम्बार कौसल्या जी के चरणकमलों में मस्तक नवाकर, श्रीराम के साथ कौसल्या जी के भवन से चल पड़ीं।

**\* मासपारायण, बारहवाँ विश्राम \***

समाचार जब लछिमन पाए। ब्याकुल बिलख बदन उठि धाए॥ कंप पुलक तन नयन सनीरा। गहे चरन अति प्रेम अधीरा॥

भाष्य

जब लक्ष्मण जी ने समाचार पाया (उर्मिला जी से) तब वे व्याकुल हो उठे, उनका मुख बिलख अर्थात्‌ शोभा से रहित हो गया, तथा औदास्य और अश्रुओं से पूर्ण होने के कारण साधारणतया विकृत लक्ष्य अर्थात्‌ देखने में सुखप्रद नहीं रहा। वे अपने भवन से उठकर दौड़े, उनके शरीर में कम्पन और रोमांच था। उनके नेत्र आँसू से युक्त थे। प्रेम में अत्यन्त अधीर होकर श्रीलक्ष्मण ने श्रीराम के चरण पक़ड लिए।

**कहि न सकत कछु चितवत ठा़ढे। मीन दीन जनु जल ते का़ढे॥ सोच हृदय बिधि का होनिहारा। सब सुख सुकृत सिरान हमारा॥**
भाष्य

लक्ष्मण जी से कुछ कहा नहीं जा रहा है, वे ख़डे-ख़डे श्रीराम को देख रहे हैं, मानो जल से निकाला हुआ दैन्यावस्था को प्राप्त मछली हो। लक्ष्मण जी हृदय में सोचने लगे कि, विधाता! अब क्या होने वाला है? मेरे सम्पूर्ण सुख और पुण्य नष्ट हो गये।

**मो कहँ काह कहब रघुनाथा। रखिहैं भवन कि लैहैं साथा॥ राम बिलोकि बंधु कर जोरे। देह गेह सब सन तृन तोरे॥ बोले बचन राम नय नागर। शील सनेह सरल सुख सागर॥ तात प्रेम बश जनि कदराहू। समुझि हृदय परिनाम उछाहू॥**
भाष्य

रघुनाथ जी मुझको क्या कहेंगे? मुझे अयोध्या के राजभवन में रखेंगे या साथ ले लेंगे। श्रीराम ने शरीर, घर, सभी से तृण तो़ेड अर्थात्‌ तृण के समान ममत्व तोड़े हुए, दोनों हाथ जोड़े हुए, भाई लक्ष्मण को देखा। नीति में निपुण, शील और स्नेह के कारण सरल, सुख के समुद्र श्रीराम, लक्ष्मण जी से बोले, अथवा नीति में निपुण, स्वभाव से सरल, शील, स्नेह एवं सुखों के समुद्र भगवान्‌ श्रीराम यह वचन बोले, हे तात्‌! अपने हृदय में परिणाम में उत्साह (महोत्सव) समझकर प्रेम के कारण कदराओ मत अर्थात्‌ व्याकुल होकर कर्त्तव्य मत छोड़ो।

**दो०- मातु पिता गुरु स्वामि सिख, सिर धरि करहिं सुभाय।**

लहेउ लाभ तिन जनम कर, नतरु जनम जग जाय॥७०॥

भाष्य

जो लोग माता–पिता, गुरु और स्वामी की सुन्दर शिक्षा को सिर पर धारण करके पालन करते हैं, उन्होंने ही संसार में जन्म का लाभ लिया नहीं तो और लोगों का जन्म व्यर्थ है।

[[३६२]]

अस जिय जानि सुनहु सिख भाई। करहु मातु पितु पद सेवकाई॥ भवन भरत रिपुसूदन नाहीं। राउ बृद्ध मम दुख मन माहीं॥ मैं बन जाउँ तुमहिं लेइ साथा। होइ सबहिं बिधि अवध अनाथा॥

भाष्य

हे भैया! हृदय में ऐसा जानकर मेरी शिक्षा सुनो, माता–पिता के चरणों की सेवा करो, इस समय भरत और शत्रुघ्न घर में नहीं हैं, महाराज वृद्ध हैं, उन्हें मन में मेरा दु:ख भी है। यदि मैं तुम्हें साथ लेकर वन जाता हूँ, तो सब प्रकार से अयोध्या अनाथ हो जायेगी।

**गुरु पितु मातु प्रजा परिवारू। सब कहँ परइ दुसह दुख भारू॥ रहहु करहु सब कर परितोषू। नतरु तात होइहि बड़ दोषू॥**
भाष्य

गुरु, पिता–माता, प्रजा और परिवार इन सबको असहनीय दु:ख का भार पड़ेगा, इसलिए अवध में रहो और सबका परितोष करो अर्थात्‌ सबको समझाओ नहीं तो बहुत–बड़ा दोष होगा।

**जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी। सो नृप अवसि नरक अधिकारी॥**

**रहहु तात असि नीति बिचारी। सुनत लखन भए ब्याकुल भारी॥ भा०– **जिसके राज्य में प्यारी प्रजा दु:खी होती है, वह राजा अवश्य ही नरक का अधिकारी बन जाता है, ऐसी नीति का विचार करके, हे भैया लक्ष्मण! तुम अयोध्या में रहो। प्रभु का यह वचन सुनकर, लक्ष्मण जी बहुत व्याकुल हुए।

सिअरे बचन सूखि गए कैसे। परसत तुहिन तामरस जैसे॥

दो०- उतर न आवत प्रेम बश, गहे चरन अकुलाइ।

नाथ दास मैं स्वामि तुम, तजहु त काह बसाइ॥७१॥

भाष्य

प्रभु के शीतल वचन से लक्ष्मण जी किस प्रकार सूख गये, जैसे तुहिन अर्थात्‌ पाले का स्पर्श करते ही कमल सूख जाता है। प्रेम के वश होने से लक्ष्मण जी के मुख से उत्तर नहीं आ रहा है। उन्होंने अकुलाकर भगवान्‌ श्रीराम के चरण पक़ड लिए और बोले हे नाथ! मैं दास हूँ, आप स्वामी हैं, यदि आप मुझे छोड़ रहे हैं, तो मेरा वश ही क्या है?

**दीन्ह सीख मोहि नीक गोर्साइं। लागि अगम अपनी कदराईं॥ नरबर धीर धरम धुर धारी। निगम नीति कहँ ते अधिकारी॥ मैं शिशु प्रभु सनेह प्रतिपाला। मंदर मेरु कि लेहिं मराला॥**
भाष्य

हे भगवन्‌! हे मेरे नाथ! आप ने तो मुझे बहुत अच्छी शिक्षा दी है, परन्तु अपनी कायरता के कारण वह मुझे कठिन लग रही है, क्योंकि जो धर्म की धुरी धारण करने वाले, धीर अर्थात्‌ विकारों का कारण रहने पर भी विकृत नहीं होने वाले श्रेष्ठ पुव्र्ष हैं, वे इस वेद की नीति के अधिकारी हैं। मैं तो आप प्रभु श्रीराघव के वत्सल स्नेह का पाला–पोषा छोटा सा बालक हूँ। क्या हंस मंदराचल और सुमेरू को उठा सकते हैं?

**गुरु पितु मातु न जानउँ काहू। कहउँ स्वभाव नाथ पतियाहू॥**

जहँ लगि जगत सनेह सगाई। प्रीति प्रतीति निगम निज गाई॥ मोरे सबइ एक तुम स्वामी। दीनबंधु उर अंतरजामी॥

[[३६३]]

भाष्य

हे नाथ! मैं अपना स्वभाव कहता हूँ, आप विश्वास कीजिये मैं आपको छोड़कर गुरु, पिता–माता किसी को नहीं जानता हूँ, इस संसार में वेदों ने जहाँ तक अपने स्नेह की सगाई (सम्बन्ध), प्रीति और विश्वास का गान किया है, वह सब मेरे लिए दीनों के बन्धु, हृदय के अन्तर्यामी, एकमात्र स्वामी आप ही हैं।

**धरम नीति उपदेशिय ताही। कीरति भूति सुगति प्रिय जाही॥ मन क्रम बचन चरन रत होई। कृपासिंधु परिहरिय कि सोई॥**
भाष्य

धर्म और नीति का तो उसे उपदेश देना चाहिये, जिसे कीर्ति, सम्पत्ति और श्रेष्ठगति प्रिय हो। हे कृपा के सागर श्रीराघव! जो मन से, कर्म से और वाणी से आपके श्रीचरणों में ही रत अर्थात्‌ प्रेमपूर्वक लगा हो, क्या आप उसे छोड़ देंगे? अथवा, क्या उसे आपको छोड़ देना चाहिये?

**दो०- करुनासिंंधु सुबंधु के, सुनि मृदु बचन बिनीत।**

समुझाए उर लाइ प्रभु, जानि सनेह सभीत॥७२॥

भाष्य

कव्र्णा के सागर श्रीराम ने, श्रेष्ठ भाई लक्ष्मण जी के कोमल और विनम्र वचन सुनकर, उन्हें प्रेम के कारण भयभीत जानकर, हृदय से लगा कर समझाया।

**माँगहु बिदा मातु सन जाई। आवहु बेगि चलहु बन भाई॥ मुदित भए सुनि रघुबर बानी। भयउ लाभ बड़ गइ बहिड़ ानी॥**
भाष्य

हे भाई! जाकर सुमित्रा माता जी से विदा माँगो, शीघ्र आओ और मेरे साथ वन चलो। रघुश्रेष्ठ श्रीराम की वाणी सुनकर, लक्ष्मण जी प्रसन्न हो गये। उनको बहुत बड़ा लाभ हुआ अर्थात्‌ साथ चलने की अनुमति मिली और बहुत बड़ी हानि समाप्त हुई, क्योंकि लक्ष्मण जी की दृष्टि में प्रभु से पृथक्‌ होना ही सब से बड़ी हानि थी और प्रभु के साथ रहना सब से बड़ा लाभ।

**हरषित हृदय मातु पहँ आए। मनहुँ अंध फिरि लोचन पाए॥ जाइ जननि पग नायउ माथा। मन रघुनंदन जानकि साथा॥**
भाष्य

लक्ष्मण जी हृदय में प्रसन्न होकर माता सुमित्रा के पास आये, मानो दृष्टिहीन ने गया हुआ नेत्र फिर पा लिया। लक्ष्मण जी ने जाकर जन्म देने वाली सुमित्रा जी के चरणों में मस्तक नवाया, परन्तु उनका मन रघुकुल को आनन्दित करने वाले प्रभु श्रीराम और जनकनन्दिनी श्रीसीता जी के साथ था।

**पूँछेउ मातु मलिन मन देखी। लखन कही सब कथा बिसेषी॥ गई सहमि सुनि बचन कठोरा। मृगी देखि दव जनु चहुँ ओरा॥**
भाष्य

माता सुमित्रा जी ने लक्ष्मण जी का मन मलिन अर्थात्‌ दु:खी देखकर पूछा, लक्ष्मण जी ने सब विशेष कथा सुनायी। श्रीराम–वनवास समाचाररूप कठोर वचन सुनकर, सुमित्रा जी उसी प्रकार अप्रत्याशित भय से डर कर सहम गईं, जैसे हरिणी चारों ओर वन की आग देखकर डर जाती है।

ᐃंᐃवशेष : यहाँ मलिन शब्द मल से युक्त अर्थ में नहीं प्रयुक्त हुआ है, क्योंकि लक्ष्मण जी के मन में कोई मल है ही नहीं, यहाँ मलिन शब्द म्लान शब्द का तद्‌भव समझना चाहिये। संस्कृत में म्लान शब्द का दु:खी होना अर्थ होता है।

लखन लखेउ भा अनरथ आजू। एहिं सनेह बश करब अकाजू॥ माँगत बिदा सभय सकुचाहीं। जाइ संग बिधि कहिहि कि नाहीं॥

[[३६४]]

भाष्य

लक्ष्मण जी ने देखा, आज तो अनर्थ हो गया, यह माता सुमित्रा जी श्रीराम पर वात्सल्य स्नेह के कारण मेरा अकाज करेंगी अर्थात्‌ मेरे कार्य में रूकावट डालेंगी। लक्ष्मणजी, माता जी से विदा माँगते समय भयभीत होकर संकोच कर रहे हैं और कह रहे हैं, हे ब्रह्माजी! मुझे माता जी श्रीरघुनाथ जी के साथ जाने के लिए कहेंगी या नहीं?

**दो०- समुझि सुमित्रा राम सिय, रूप सुशील सुभाउ।**

नृप सनेह लखि धुनेउ सिर, पापिनि दीन्ह कुदाउ॥७३॥

भाष्य

सुमित्रा जी ने श्रीराम एवं भगवती श्रीसीता के रूप, शील और स्वभाव को समझकर, उन पर महाराज के स्नेह को देखकर सिर पीटा और बोलीं, पापिनी कैकेयी ने तो बुरा दाँव अर्थात्‌ बुरे स्थान पर घात लगाया और गंभीर दावाग्नि लगा दी।

**धीरज धरेउ कुअवसर जानी। सहज सुहृद बोली मृदु बानी॥ तात तुम्हारि मातु बैदेही। पिता राम सब भाँति सनेही॥**
भाष्य

प्रतिकूल समय जानकर, सुमित्रा जी ने धैर्य धारण किया और स्वभाव से सुन्दर हृदय वाली तथा प्राणि मात्र की मित्र यथार्थ नामवाली सुमित्राजी, लक्ष्मण जी से कोमल वाणी बोलीं, हे तात्‌, पुत्र लक्ष्मण! विशिष्ट शरीर वाली सभी शक्तियों की अवतारी रूप भगवती सीता जी तुम्हारी माँ हैं और नित्य स्नेह करने वाले परमात्मा श्रीराम सब प्रकार से तुम्हारे पिता हैं।

**अवध तहाँ जहँ राम निवासू। तहँइँ दिवस जहँ भानु प्रकासू॥ जौ पै सीय राम बन जाहीं। अवध तुम्हार काज कछुनाहीं॥**
भाष्य

जहाँ श्रीराम का निवास है अयोध्या वहीं है, जहाँ सूर्यनारायण का प्रकाश है दिन वहीं है। श्रीराम के वन चले जाने पर, श्रीअयोध्या उन्हीं के साथ चली जायेगी। यदि श्रीसीताराम जी वन जा रहे हैं, तो अयोध्या में तुम्हारा कोई कार्य नहीं है।

**गुरु पितु मातु बंधु सुर साईं। सेइय सकल प्रान की नाईं॥ राम प्रानप्रिय जीवन जी के। स्वारथ रहित सखा सबही के॥**
भाष्य

यद्दपि गुरु, पिता, माता, बड़ा भाई, देवता और स्वामी इन सब की प्राण के समान सेवा करनी चाहिये, परन्तु श्रीराम इस मान्यता से भी ऊपर हैं, क्योंकि भगवान्‌ श्रीराम प्राणों को भी प्रिय हैं, जीवात्मा के भी जीवन हैं और सभी के स्वार्थरहित मित्र हैं।

**पूजनीय प्रिय परम जहाँ ते। मानिय सबहिं राम के नाते॥ अस जिय जानि संग बन जाहू। लेहु तात जग जीवन लाहू॥**
भाष्य

संसार में जहाँ तक पूजा के योग्य और परमप्रिय अर्थात्‌ पवित्र प्रेम के आश्रय लोग हैं, सबको श्रीराम के ही सम्बन्ध से मानना चाहिये अर्थात्‌ जिनका श्रीराम से सम्बन्ध नहीं है, वे न तो पूजा करने के योग्य हैं और न ही प्रेम करने योग्य। हे बेटे लक्ष्मण! ऐसा हृदय में जानकर तुम सीताराम जी के साथ वन जाओ और जगत्‌ में जीने का लाभ ले लो।

**दो०- भूरि भाग भाजन भयहु, मोहि समेत बलि जाउँ।**

जौ तुम्हरे मन छाछिड़ ल, कीन्ह राम पद ठाउँ॥७४॥

[[३६५]]

भाष्य

हे लक्ष्मण! मैं बलिहारी जाती हूँ, यदि तुम्हारे मन ने छल छोड़कर श्रीराम के चरणों में स्थान अर्थात्‌ निवास स्थान बना लिया है और यदि छल छोड़े हुए तुम्हारे मन को श्रीराम के चरणों ने अपना निवासस्थान बना लिया, तब तुम मेरे सहित बहुत बड़े सौभाग्य के पात्र बन गये हो।

**पुत्रवती जुबती जग सोई। रघुपति भगत जासु सुत होई॥ नतरु बाँझ भलि बादि बियानी। राम बिमुख सुत ते हित हानी॥**
भाष्य

वही युवती महिला पुत्रवती अर्थात्‌ सुन्दर पुत्र को जन्म देने वाली है और वही पुत्रवती युवती अर्थात्‌ वास्तविक नारी है, जिसका पुत्र श्रीराम का भक्त हो, नहीं तो भगवत्‌ विमुख पुत्र की माँ से तो बाँझ अर्थात्‌ बंध्यास्त्री श्रेष्ठ है। भगवान्‌ का भजन नहीं करने वाले पुत्र को जन्म देकर माता व्यर्थ बियायी अर्थात्‌ पशु जैसी संतान को क्यों जन्म दिया? श्रीराम से विमुख पुत्र से माता के हित की हानि हो जाती है।

विशेष : पुत्रवती शब्द में मतुप्‌ प्रत्यय प्राशस्त्य अर्थ में हुआ है।

तुम्हरेहिं भाग राम बन जाहीं। दूसर हेतु तात कछु नाहीं॥ सकल सुकृत कर बड़ फल एहू। राम सीय पद सहज सनेहू॥

भाष्य

हे बेटे! तुम्हारे भाग्य से श्रीराम वन को जा रहे हैं, उनके वनवास में दूसरा और कुछ भी कारण नहीं है। जो भगवान्‌ श्रीराम एवं भगवती श्रीसीता के श्रीचरणों में स्वाभाविक स्नेह है वही सम्पूर्ण सत्कर्मों का सबसे बड़ा फल है।

**राग रोष इरिषा मद मोहू। जनि सपनेहु इनके बश होहू॥ सकल प्रकार बिकार बिहाई। मन क्रम बचन करेहु सेवकाई॥**
भाष्य

हे लक्ष्मण! राग, क्रोध, ईर्ष्या, मद और मोह इन पाँच विकारों के वश में स्वप्न में भी मत होना अर्थात्‌ मुझ पर और उर्मिला पर राग मत करना, कैकेयी पर क्रोध मत करना, श्रीवैष्णव के प्रति ईर्ष्या मत करना, अपनी सेवा पर मद मत करना और श्रीराम पर मोह मत करना। यदि ये आ भी जायें तो इन्हें नियंत्रित कर लेना। सभी प्रकार के विकारों को छोड़कर मन, वाणी, शरीर से सेवा करना।

**तुम कहँ बन सब भाँति सुपासू। सँग पितु मातु राम सिय जासू॥ जेहिं न राम बन लहहिं कलेशू। सुत सोइ करेहु इहइ उपदेशू॥**
भाष्य

जिनके साथ श्रीराम–सीता जी जैसे पिता–माता हों, ऐसे तुम्हारे लिए तो वन में सब प्रकार से सुपास अर्थात्‌ सभी सुविधायें हैं। हे पुत्र! श्रीराम जिससे वन में क्लेश नहीं पायें तुम वही करना मेरा यही उपदेश है।

**छं०: उपदेश यह जेहिं तात तुमते राम सिय सुख पावहीं।**

पितु मातु प्रिय परिवार पुर सुख सुरति बन बिसरावहीं॥ तुलसी सुतहिं सिख देइ आयसु दीन्ह पुनि आशिष दई। रति होउ अबिरल अमल सिय रघुबीर पद नित नित नई॥

भाष्य

हे तात्‌! मेरा यही उपदेश है कि, जिससे श्रीराम एवं भगवती सीता जी तुमसे सुख पाते रहें और वन में पिता, माता, प्रिय परिवार और अयोध्या तथा सुख की स्मृति भूल जायें। तुलसीदास जी कहते हैं, इस प्रकार पुत्र लक्ष्मण को शिक्षा देकर, माता सुमित्रा जी ने उन्हे वन जाने की आज्ञा दी फिर आशीर्वाद दिया कि, तुम्हारे हृदय में श्रीसीताराम जी के चरणों के प्रति अविरल निर्मल और नित्य–नित्य नवीन भक्ति हो।

[[३६६]]

सो०- मातु चरन सिर नाइ, चले तुरत शंकित हृदय।

बागुर बिषम तोराइ, मनहुँ भाग मृग भाग बश॥७५॥

भाष्य

माता सुमित्रा जी के चरणों में मस्तक नवाकर, उर्मिला जी के सम्बन्ध में हृदय में शंकित होते हुए श्रीलक्ष्मण उसी प्रकार चल पड़े मानो सौभाग्यवश हरिण भयंकर जाल को तोड़कर वन की ओर भग गया हो। यहाँ शंकित शब्द का प्रयोग करके गोस्वामी जी ने लक्ष्मण जी की उर्मिला जी के साथ चलने की इच्छा की आशंका स्पष्ट कर दी और मृग द्वारा जाल तोड़ने का उदाहरण देकर लक्ष्मण जी के वैराग्य का संकेत दे दिया। इस संबन्ध में विशेष जानने के लिये मेरे द्वारा लिखित “मानस में सुमित्रा” नामक पुस्तक अवश्य पढि़ये।

**गए लखन जहँ जानकिनाथा। भे मन मुदित पाइ प्रिय साथा॥ बंदि राम सिय चरन सुहाए। चले संग नृपमंदिर आए॥**
भाष्य

जहाँ जानकीपति भगवान्‌ श्रीराम थे लक्ष्मण जी वहाँ गये। प्रेमास्पद श्रीराम का साथ पाकर, लक्ष्मण जी मन में प्रसन्न हुए। श्रीसीता–राम जी के सुहावने चरणों को वंदन करके उनके संग चले। श्रीराम, सीता, लक्ष्मण विदा लेने के लिए महाराज दशरथ जी के भवन आये।

**कहहिं परसपर पुर नर नारी। भलि बनाइ बिधि बात बिगारी॥ तनु कृश मन दुख बदन मलीने। बिकल मनहुँ माखी मधु छीने॥**
भाष्य

पुर (अवधपुर) के पुरुष–स्त्री परस्पर कह रहे हैं कि, ब्रह्मा जी ने अच्छी बात बनाकर बिगाड़ दी। उनका शरीर दुर्बल है, मन में दु:खी और मुख से उदास नर–नारी इतने दु:खी हैं, मानो मधु को छीन लेने पर मधुमक्खीयाँ व्याकुल हो गई हों।

**कर मीजहिं सिर धुनि पछिताहीं। जनु बिनु पंख बिहग अकुलाहीं॥**

**भइ बभिड़ ीर भूप दरबारा। बरनि न जाइ बिषाद अपारा॥ भा०– **नगर के नर–नारी हाथ मलते और सिर पीट कर पछताते हैं, जैसे पंखों के बिना पक्षी अकुला रहे हों। महाराज के द्वार पर बहुत भीड़ हो गई है, वह अपार विषाद वर्णन नहीं किया जा सकता।

सचिव उठाइ राउ बैठारे। कहि प्रिय बचन राम पगु धारे॥ सिय समेत दोउ तनय निहारी। ब्याकुल भयउ भूमिपति भारी॥

भाष्य

श्रीराम पधारे हैं, यह प्रिय वचन कहकर, मंत्री सुमंत्र जी ने उठाकर महाराज को बिठाया। वनगमन के लिए तैयार सीता जी के सहित दोनों पुत्रों श्रीराम, लक्ष्मण को देखकर पृथ्वी के स्वामी महाराज दशरथ जी बहुत व्याकुल हो गये।

**दो०- सीय सहित सुत सुभग दोउ, देखि देखि अकुलाइ।**

बारहिं बार सनेह बश, राउ लेइ उर लाइ॥७६॥

भाष्य

सीता जी के सहित दोनों सुन्दर पुत्रों श्रीराम, लक्ष्मण को पुन:–पुन: देखकर शोक से आकुल महाराज दशरथ जी, स्नेहवश बारम्बार उन्हें हृदय से लगा लेते हैं।

**सकइ न बोलि बिकल नरनाहू। शोक जनित उर दारुन दाहू॥**
भाष्य

महाराज बोल नहीं सक रहे हैं, अत्यन्त व्याकुल है, उनके हृदय में पुत्र श्रीराम के वियोग की सम्भावना से उठे हुए शोक से उत्पन्न भयंकर दाह (जलन) हो रहा है।

[[३६७]]

नाइ शीष पद अति अनुरागा। उठि रघुबीर बिदा तब माँगा॥ पितु आशिष आयसु मोहि दीजै। हरष समय बिसमय कत कीजै॥ तात किए प्रिय प्रेम प्रमादू। जस जग जाइ होइ अपबादू॥

भाष्य

तब रघुकुल के वीर श्रीराम ने उठकर, अत्यन्त प्रेम से पिताश्री के चरण में मस्तक नवाकर, वन जाने के लिए विदा माँगी, हे पिताश्री! मुझे आशीर्वाद तथा चौदह वर्षाें के लिए वन जाने का आदेश दीजिये। आप हर्ष के समय विषाद क्यों कर रहे हैं? हे तात्‌! प्रेमास्पद के पे्रम के कारण प्रमाद करने पर यश चला जाता है और जगत्‌ में बहुत निन्दा होती है।

**सुनि सनेह बश उठि नरनाहा। बैठारे रघुपति गहि बाँहा॥ सुनहु तात तुम कहँ मुनि कहहीं। राम चराचर नायक अहहीं॥ शुभ अरु अशुभ करम अनुहारी। ईश देइ फल हृदय बिचारी॥ करइ जो करम पाव फल सोई। निगम नीति असि कह सब कोई॥**

दो०- और करै अपराध कोउ, और पाव फल भोग।

अति बिचित्र भगवंत गति, को जग जानै जोग॥७७॥

भाष्य

श्रीराम का वचन सुनकर, प्रेम के वश हुए महाराज दशरथ जी ने उठकर दोनों हाथ पक़डकर रघुकुल के स्वामी श्रीराम को निकट बैठा लिया और बोले, हे मेरे वत्सल प्रेम के आश्रय श्रीराम! आपके लिए मुनिजन कहते हैं कि, श्रीराम चर्‌–अचर्‌ अर्थात्‌ चेतन–ज़ड (चित्‌–अचित्‌) वर्ग के नायक हैं। शुभ और अशुभ कर्म के अनुसार हृदय में विचार करके ईश्वर फल देते हैं। जो जैसा कर्म करता है उसको वही फल मिलता है, वेद की यही नीति है, ऐसा सभी लोग कहते हैं। किन्तु अपराध कोई दूसरा करे फल किसी दूसरे को मिले भगवान्‌ की गति बहुत विचित्र है, इसे जगत्‌ में कौन जानने योग्य है? तात्पर्य यह है कि, मेरे अपराध का फल आप क्यों भोग रहे हैं?

**राय राम राखन हित लागी। बहुत उपाय किए छल त्यागी॥ लखा राम रुख रहत न जाने। धरम धुरंधर धीर सयाने॥**
भाष्य

महाराज दशरथ जी ने श्रीराम को रखने के लिए छल छोड़कर बहुत से उपाय किये, किन्तु उन्होंने जब श्रीराम का रुख देख लिया और जान गये कि, धर्म की धुरी को धारण करने वाले, विकारों से भी नहीं विचलित होने वाले, चतुर श्रीराम नहीं रह रहे हैं।

**तब नृप सीय लाइ उर लीन्हीं। अति हित बहुत भाँति सिख दीन्हीं॥ कहि बन के दुख दुसह सुनाए। सासु ससुर पितु सुख समुझाए॥**
भाष्य

तब महाराज ने भगवती सीता जी को हृदय से लगा लिया। उन्हें अत्यन्त प्रेम से बहुत प्रकार से शिक्षा दी। महाराज ने सीता जी को वन के असहनीय दु:ख कह सुनाये, उसके विपरीत सासु, श्वसुर और पिता का सुख समझाया। महाराज का संकेत यह था कि, चौदह वर्ष पर्यन्त, सीता जी ससुराल और मायके में रह कर समय काट लें।

**सिय मन राम चरन अनुरागा। घर न सुगम बन बिषम न लागा॥ औरउ सबहिं सीय समुझाई। कहि कहि बिपिन बिपति अधिकाई॥**

[[३६८]]

भाष्य

सीता जी का मन श्रीराम के चरणों में अनुरक्त था, इसलिए उन्हें न तो घर सुगम लगा और न ही वन भयंकर लगा और भी सभी लोगों ने वन की विपत्ति की अधिकता कह–कह कर सीता जी को समझाया।

**सचिव नारि गुरु नारि सयानी। सहित सनेह कहहिं मृदु बानी॥ तुम कहुँ तौ न दीन्ह बनबासू। करहु जो कहहिं ससुर गुरु सासू॥**
भाष्य

मंत्रियों की पत्नियाँ तथा चतुर गुरुपत्नी अरुंधती जी प्रेम के सहित कोमल वाणी में सीता जी से कहती हैं, सीते! तुम्हें तो वनवास नहीं दिया गया है, इसलिए, जो तुम्हारे श्वसुर, गुव्र्देव वसिष्ठ और सासु जी कहते हैं, तुम वही करो अर्थात्‌ वन में मत जाओ।

**दो०- सिख शीतल हित मधुर मृदु, सुनि सीतहिं न सोहानि।**

**शरद चंद्र चंदिनि निरखि, जनु चकई अकुलानि॥७८॥ भा०– **शीतल, कल्याणकारिणी, मधुर और कोमल शिक्षा सीता जी को सुनकर नहीं अच्छी लगी। शरद्‌कालीन चन्द्रमा की चांदनी को देखकर, मानो चकई अकुला गई हो।

सीय सकुच बश उतर न देई। सो सुनि तमकि उठी कैकेई॥ मुनि पट भूषन भाजन आनी। आगे धरि बोली मृदु बानी॥ नृपहिं प्रान प्रिय तुम रघुबीरा। शील सनेह न छाहिड़ि भीरा॥ सुकृत सुजस परलोक नसाऊ। तुमहिं जान बन कहिंहिं न काऊ॥ अस बिचारि सोइ करहु जो भावा। राम जननि सिख सुनि सुख पावा॥

भाष्य

संकोच के वश में होने के कारण सीता जी उत्तर नहीं दे रही हैं। महाराज दशरथ, मंत्रीपत्नी और गुरुपत्नी का वह वचन सुनकर क्रोध में तमतमाई हुई कैकेयी उठी। मुनियों के लिए उचित वल्कलवस्त्र, तिलक आदि आभूषण और कमण्डल आदि पात्रों को लाकर, श्रीराम के आगे रखकर, कोमल वाणी में बोली, हे रघुवीर! आप महाराज को प्राण के समान प्रिय हैं। भयभीत महाराज शील और स्नेह दोनों नहीं छोड़ेंगे परन्तु इससे उनके पुण्य, सुयश और परलोक का नाश हो जायेगा, फिर भी वे आपको वन जाने के लिए कभी नहीं कहेंगे, पर आपको महाराज के बिना कहे ही उनकी इच्छा का आदर करना चाहिये। ऐसा विचार कर, वही कीजिये जो आपको अच्छा लगे। माता कैकेयी की शिक्षा सुनकर श्रीराम ने सुख पाया अर्थात्‌ प्रसन्न हुए।

**भूपहिं बचन बान सम लागे। करहिं न प्रान पयान अभागे॥ लोग बिकल मुरछित नरनाहू। काह करिय कछु सूझ न काहू॥ राम तुरत मुनि बेष बनाई। चले जनक जननिहिं सिर नाई॥**
भाष्य

महाराज को कैकेयी के वचन बाण के समान लगे। वे सोचने लगे कि, अभागे प्राण प्रयाण नहीं कर रहे हैं, अर्थात्‌ शरीर छोड़कर क्यों नहीं चले जा रहे हैं? लोग विकल हैं और महाराज मूर्च्छित हो गये। क्या किया जाये किसी को कुछ नहीं सूझ रहा है? श्रीराम तुरन्त मुनिवेश बनाकर अर्थात्‌ वल्कलवस्त्र पादुका, कमण्डल धारण करके, पिता दशरथ और माता कैकेयी को मस्तक नवाकर वन के लिए चल पड़े।

**दो०- सजि बन साज समाज सब, बनिता बंधु समेत।**

बंदि बिप्र गुरु चरन प्रभु, चले करि सबहिं अचेत॥७९॥

[[३६९]]

भाष्य

वन की सज्जा और सभी उपकरणों से सुसज्जित होकर युवती पत्नी सीता एवं प्रत्येक परिस्थिति में सहायक छोटे भाई लक्ष्मण के साथ ब्राह्मणों और गुव्र्देव के चरणों का वंदन करके वहाँ उपस्थित सभी नर– नारियों को चेतनाशून्य अर्थात्‌ मूर्च्छित करके प्रभु श्रीराम वन को चल पड़े।

**निकसि बसिष्ठ द्वार भए ठा़ढे। देखे लोग बिरह दव दा़ढे॥ कहि प्रिय बचन सकल समुझाए। बिप्र बृंद रघुबीर बोलाए॥ गुरु सन कहि बरषाशन दीन्हे। आदर दान बिनय बश कीन्हे॥ जाचक दान मान संतोषे। मीत पुनीत प्रेम परितोषे॥**
भाष्य

राजभवन से निकलकर सीताजी, लक्ष्मण जी सहित श्रीराम वसिष्ठ जी के द्वार पर ख़डे हो गये। उन्होंने सभी लोगों को विरह रूप दावाग्नि से जलते हुए देखा। प्रिय वचन कहकर प्रभु ने सभी नर–नारियों को समझाया और पाँचों वीरताओं से सम्पन्न रघुकुल के वीर श्रीराम ने ब्राह्मणों के समूहों को बुला लिया। गुव्र्देव वसिष्ठ जी से प्रार्थना करके बुलाये हुए सभी ब्राह्मणों के लिए बरषाशन अर्थात्‌ चौदह वर्षाें के लिए भोजन दिया। सभी ब्राह्मणों को प्रभु ने आदर, दान और विनय के वश में कर लिया। भिक्षुकों को दान और मान से संतुष्ट किया। पवित्र मित्रों को पवित्र प्रेम से प्रभु ने परितुष्ट किया अर्थात्‌ प्रेम का ही पारितोषिक दिया।

**विशेष– **भाव यह है कि, ब्राह्मणों को चौदह वर्ष के दिनों के अनुसार, आय–व्यय का लेखा–जोखा तैयार करके, उतना ही अन्न गुरुदेव के आश्रम में उपस्थित कर दिया और गुरुदेव से प्रार्थना कर ली।

दासी दास बोलाइ बहोरी। गुरुहिं सौंपि बोले कर जोरी॥ सब कर सार सँभार गोसाँईं। करब जनक जननी की नाईं॥

भाष्य

मिथिला से आये हुए दासियों और दासों को बुलाकर, उन्हें गुरुदेव को सौंपकर प्रभु हाथ जोड़कर बोले, हे स्वामिन्‌! इन सभी दासी, दासों का आप माता–पिता की भाँति प्रबन्ध और सम्भाल कीजियेगा।

**बारहि बार जोरि जुग पानी। कहत राम सब सन मृदु बानी॥ सोइ सब भाँति मोर हितकारी। जेहि ते रहैं भुआल सुखारी॥**
भाष्य

बार–बार दोनों हाथ जोड़कर श्रीराम सब से कोमल वाणी में कह रहे हैं कि, वही सब प्रकार से मेरा हितकारी होगा, जिससे महाराज सुखी रहेंगे।

**दो०- मातु सकल मोरे बिरह, जेहिं न होहिं दुख दीन।**

सोइ उपाउ तुम करेहु सब, पुर जन परम प्रबीन॥८०॥

भाष्य

हे परमकुशल अवधपुरवासियों! तुम सब वही उपाय करना जिससे मेरी सभी मातायें मेरे दु:ख से दीन न हो जायें।

**एहि बिधि राम सबहिं समुझावा। गुरु पद पदुम हरषि सिर नावा॥ गनपति गौरि गिरीश मनाई। चले अशीष पाइ रघुराई॥**
भाष्य

इस प्रकार भगवान्‌ श्रीराम ने सबको समझाया और प्रसन्न होकर, गुरुदेव जी के चरणों में मस्तक नवाया। गुरुदेव का आशीर्वाद पाकर, श्रीगणेश, पार्वती एवं शिव जी से प्रार्थना करके रघुकुल के राजा श्रीराम वन को चल पड़े।

[[३७०]]

राम चलत अति भयउ बिषादू। सुनि न जाइ पुर आरत नादू॥ कुसगुन लंक अवध अति शोकू। हरष बिषाद बिबश सुरलोकू॥

भाष्य

श्रीराम के चलते समय अवधवासियों को बहुत दु:ख हुआ। अवधपुर का आर्तनाद सुना नहीं जाता था। उस समय लंका में अपशकुन, अयोध्या में अत्यन्त शोक और देवलोक हर्ष तथा विषाद दोनों के वश में था, अर्थात्‌ देवता श्रीराम वनगमन से प्रसन्न थे और अयोध्यावासियों की दयनीय दशा देखकर दु:खी थे।

**गइ मुरछा तब भूपति जागे। बोलि सुमंत्र कहन अस लागे॥ राम चले बन प्रान न जाहीं। केहि सुख लागि रहत तनु माहीं॥**
भाष्य

मूर्च्छा गई तब महाराज जगे, सुमंत्र जी को बुलाकर इस प्रकार कहने लगे, सुमंत्र! श्रीराम तो वन को चले गये, पर मेरे प्राण नहीं जा रहे हैं। यह किस सुख के लिए अभी शरीर में रह रहे हैं।

**यहि ते कवन ब्यथा बलवाना। जो दुख पाइ तजिहिं तनु प्राना॥ पुनि धरि धीर कहइ नरनाहू। लै रथ संग सखा तुम जाहू॥**
भाष्य

इससे कौन व्यथा अधिक बलवती होगी, जिस दु:ख को पाकर प्राण शरीर को छोड़ेंगे? फिर महाराज धैर्य धारण करके कहने लगे, हे मित्र! रथ लेकर श्रीराम, लक्ष्मण, सीता जी के संग जाओ।

**दो०- सुठि सुकुमार कुमार दोउ, जनकसुता सुकुमारि।**

रथ च़ढाइ देखराइ बन, फिरेहु गए दिन चारि॥८१॥

भाष्य

अत्यन्त सुकुमार दोनों राजपुत्रों श्रीराम, लक्ष्मण को तथा सुकुमारी जनकराजपुत्री सीता जी को रथ पर च़ढाकर वन दिखला कर, चार दिन बीतने पर लौट आना।

**जौ नहिं फिरहिं धीर दोउ भाई। सत्यसंध दृ़ढब्रत रघुराई॥**

तौ तुम बिनय करेहु कर जोरी। फेरिय प्रभु मिथिलेश किशोरी॥

भाष्य

यदि धीरशिरोमणि दोनों भाई नहीं लौटें, क्योंकि वे रघुकुल के राजा श्रीराम, सत्यसंध और दृ़ढत्रत हैं, तब तुम हाथ जोड़कर विनय कर लेना कि, हे प्रभु! जनक किशोरी सीता जी को ही अयोध्या लौटा दीजिये।

**जब सिय कानन देखि डेराई। कहेहु मोरि सिख अवसर पाई॥ सासु ससुर अस कहेउ सँदेशू। पुत्रि फिरिय बन बहुत कलेशू॥**
भाष्य

जब सीता जी वन देखकर डर जायें, तभी अवसर पाकर मेरी शिक्षा कहना। हे पुत्री सीते! आपके सास, श्वसुर ने इस प्रकार संदेशा कहा है, आप अयोध्या लौट चलिए, वन में बहुत क्लेश अर्थात्‌ कय् है।

**पितु गृह कबहुँ कबहुँ ससुरारी। रहेहु जहाँ रुचि होइ तुम्हारी॥ यहि बिधि करेहु उपाय कदंबा। फिरइ त होइ प्रान अवलंबा॥**
भाष्य

कभी पिता जनक जी के घर में तो कभी ससुराल में, आप वहीं रहना। जहाँ आप की रुचि हो। इस प्रकार, उपायों का समूह प्रस्तुत करियेगा, यदि सीता जी लौट आयें तो मेरे प्राण का अवलम्ब हो जायेगा।

**नाहिं त मोर मरन परिनामा। कछु न बसाइ भयउ बिधि बामा॥ अस कहि मुरछि परेउ महि राऊ। राम लखन सिय आनि देखाऊ॥**

[[३७१]]

भाष्य

नहीं तो परिणाम में मेरा मरण ही होगा। कुछ वश नहीं चल रहा है, विधाता प्रतिकूल हो गये हैं, ऐसा कहकर श्रीराम, लक्ष्मण और सीता को लाकर मुझे दिखाओ, इस प्रकार क्रंदन करके महाराज मूर्च्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़े।

**दो०- पाइ रजायसु नाइ सिर, रथ अति बेग बनाइ।**

गयउ जहाँ बाहेर नगर, सीय सहित दोउ भाइ॥८२॥

भाष्य

महाराज की राजाज्ञा पाकर, मस्तक नवाकर, अत्यन्त वेगशाली रथ सजाकर सुमंत्र जी नगर के बाहर गये, जहाँ सीता जी के सहित दोनों भाई श्रीराम, लक्ष्मण विराज रहे थे।

**तब सुमंत्र नृप बचन सुनाए। करि बिनती रथ राम च़ढाए॥ चढि़ रथ सीय सहित दोउ भाई। चले हृदय अवधहिं सिर नाई॥**
भाष्य

तब सुमंत्र जी ने महाराज का आदेश सुनाया और विनती करके श्रीराम को रथ पर चढाया, सीता जी के सहित दोनों भाई श्रीराम, लक्ष्मण हृदय में विराजमान श्रीअवध को प्रणाम करके वन को चल दिये।

**चलत राम लखि अवध अनाथा। बिकल लोग सब लागे साथा॥**

**कृपासिंधु बहुबिधि समुझावहिं। फिरहिं प्रेम बश पुनि फिरि आवहिं॥ भा०– **श्रीराम के चलते समय, श्रीअवध को अनाथ देखकर, सभी व्याकुल अवधवासी प्रभु के साथ लग गये। कृपा के सागर श्रीराम, अवधवासियों को बहुत प्रकार से समझाते हैं। अयोध्यावासी लौटते हैं, फिर प्रेमवश होकर प्रभु के पास आ जाते हैं।

लागति अवध भयावनि भारी। मानहुँ कालराति अँधियारी॥ घोर जंतु सम पुर नर नारी। डरपहिं एकहिं एक निहारी॥ घर मसान परिजन जनु भूता। सुत हित मीत मनहुँ जमदूता॥ बागन बिटप बेलि कुम्हिलाहीं। सरित सरोवर देखि न जाहीं॥

भाष्य

अयोध्या अत्यन्त भयानक लग रही है, मानो वह अंधेरी कालरात्रि हो। नगर के नर, नारी भयंकर जीव– जन्तु के समान हो गये हैं। वे एक दूसरे को देखकर डर रहे हैं। घर, श्मशान जैसा हो गया। नगरवासी यमदूत के समान लग रहे हैं। पुत्र, हितैषी, मित्रगण, मानो यमदूतों के समान दिखाई पड़ते हैं। वाटिकाओं में वृक्ष और लतायें सूख रही हैं, नदियाँ और तालाब देखे नहीं जा रहे हैं।

**दो०- हय गय कोटिन केलिमृग, पुरपशु चातक मोर।**

पिक रथांग शुक सारिका, सारस हंस चकोर॥८३॥ राम बियोग बिकल सब ठा़ढे। जहँ तहँ मनहुँ चित्र लिखि का़ढे॥

भाष्य

हाथी, घोड़े, करोड़ों खेल के लिए रखे हुए मृग, नगर के पशु, चातक, मयूर, कोयल, चकवा, शुक अर्थात्‌ तोता, मैंना, सारस, हंस तथा चकोर यह सब श्रीराम के वियोग से विकल होकर, जहाँ–तहाँ मानो दीवारों में खोद कर लिखे हुए चित्र के समान ख़डे हैं।

**नगर सकल जनु गहबर भारी। खग मृग बिपुल सकल नर नारी॥ बिधि कैकई किरातिनि कीन्ही। जेहिं दव दुसह दसहुँ दिशि दीन्ही॥**

[[३७२]]

भाष्य

सम्पूर्ण अयोध्या मानो एक विशाल घना वन बन गया। उसमें रहनेवाले सभी नर–नारी, मानो अनेक पक्षी और पशु हैं। विधाता ने कैकेयी को भिलनी रूप में बनाया, जिसने दसों दिशाओं में असहनीय दावाग्नि लगा दी।

**सहि न सके रघुबर बिरहागी। चले लोग सब ब्याकुल भागी॥ सबहिं बिचार कीन्ह मन माहीं। राम लखन सिय बिनु सुख नाहीं॥ जहाँ राम तहँ सबइ समाजू। बिनु रघुबीर अवध नहिं काजू॥ चले साथ अस मंत्र दृ़ढाई। सुर दुर्लभ सुख सदन बिहाई॥ राम चरन पंकज प्रिय जिनहीं। बिषय भोग बश करहिं कि तिनहीं॥**
भाष्य

वे श्रीराम के विरह की अग्नि को नहीं सह सके और सभी लोग व्याकुल होकर भाग चले। सबने मन में विचार किया कि, श्रीसीता, श्रीराम तथा लक्ष्मण जी के बिना सुख की सम्भावना नहीं है। जहाँ श्रीराम हैं, वहीं सम्पूर्ण समाज है। रघुवीर श्रीराम के बिना अवध में कोई कार्य नहीं है, इस प्रकार मंत्रणा दृ़ढ करके देव दुर्लभ सुखपूर्ण भवनों को छोड़कर अवधवासी श्रीराम के साथ चल दिये। जिनको श्रीराम के चरणकमल प्रिय हैं, क्या उन्हें विषय–भोग वश में कर सकते हैं?

**दो०- बालक बृद्ध बिहाइ गृह, लगे लोग सब साथ।**

तमसा तीर निवास किय, प्रथम दिवस रघुनाथ॥८४॥

भाष्य

बालक और वृद्ध, घर छोड़कर सभी लोग प्रभु के साथ लग गये। वनवास के प्रथम दिन श्रीरघुनाथ ने तमसा के तट पर निवास किया।

**रघुपति प्रजा प्रेमबश देखी। सदय हृदय दुख भयउ बिशेषी॥ करुनामय रघुनाथ गोसाँई। बेगि पाइयहिं पीर पराई॥**
भाष्य

रघुकुल के स्वामी श्रीराम ने अवध की प्रजा को अपने प्रेम के वश में देखा। उनके दयापूर्ण हृदय में विशेष दु:ख हुआ। श्रीराम करुणास्वरूप, रघुकुल के नाथ और सभी जीवों के गो अर्थात्‌ सभी के इन्द्रियों के स्वामी हैं। वे दूसरों की पीड़ा को शीघ्र ही पा जाते हैं अर्थात्‌ जान जाते हैं और स्वीकार कर लेते हैं।

**कहि सप्रेम मृदु बचन सुहाए। बहिुबिधि राम लोग समुझाए॥ किए धरम उपदेश घनेरे। लोग प्रेम बश फिरहिं न फेरे॥**
भाष्य

प्रेमपूर्वक सुहावने कोमल वचन कहकर, श्रीराम ने लोगों को बहुत प्रकार से समझाया। बहुत से धर्म सम्बन्धी उपदेश भी किये, किन्तु श्रीअवध के लोग प्रेम के वश होने के कारण लौटाने पर भी नहीं लौट रहे थे।

**शील सनेह छानिड़ हिं जाई। असमंजस बश भे रघुराई॥ लोग शोक श्रम बश गए सोई। कछुक देवमाया मति मोई॥**
भाष्य

शील और स्नेह छोड़े नहीं जा सकते, श्रीराम असमंजस के विवश हैं अर्थात्‌ वन जायेंगे तो शील की रक्षा होगी और अवध लौटेंगे तो स्नेह की रक्षा होगी, दोनों को एक साथ कैसे निभाया जाये? अवध के लोग शोक और श्रम के वश में होकर सो गये, देवमाया ने भी उनकी बुद्धि को कुछ मोहित कर दिया।

**जबहिं जाम जुग जामिनि बीती। राम सचिव सन कहेउ सप्रीती॥ खोज मारि रथ हाँकहु ताता। आन उपाय बनिहि नहिं बाता॥**
भाष्य

जब दो प्रहर रात बीती, तब श्रीराम ने प्रेमपूर्वक मंत्री से कहा, हे तात्‌! खोज मारि अर्थात्‌ रथ के पहियों के चिह्नों को मिटाते हुए रथ आगे चलाइये और किसी उपाय से बात नहीं बनेगी।

[[३७३]]

दो०- राम लखन सिय यान चढि़, शंभु चरन सिर नाइ।

सचिव चलायउ तुरत रथ, इत उत खोज दुराइ॥८५॥

भाष्य

शिव जी के चरणों में मस्तक नवाकर श्रीराम, लक्ष्मण, सीता जी रथ पर आरु़ढ हुए और मंत्री सुमंत्र जी ने भी इधर–उधर रथ चलाकर रथ के चिह्नों को नष्ट करके शीघ्र रथ को चला दिया।

**जागे सकल लोग भए भोरू। गे रघुनाथ भयउ अति सोरू॥**

**रथ कर खोज कतहुँ नहिं पावहिं। राम राम कहि चहुँ दिसि धावहिं॥ भा०– **इधर सवेरा हुआ सभी अवधवासी जगे श्रीरघुनाथ चले गये हैं, तमसा तट पर बहुत कोलाहल हुआ। वे कहीं भी रथ का चिह्न नहीं पाते हैं। राम–राम कह कर चारों दिशाओं में दौड़ते हैं।

मनहुँ बारिनिधि बूड़ जहाजू। भयउ बिकल बड़ बनिक समाजू॥ एकहिं एक देहिं उपदेशू। तजे राम हम जानि कलेशू॥

भाष्य

मानो समुद्र में जहाज डूब जाने से बहुत–बड़ा व्यापारियों का समाज व्याकुल हो उठा हो। एक–दूसरे को उपदेश देते हैं कि, श्रीराम ने वन में क्लेश जानकर ही हमको छोड़ दिया। अथवा, हम लोगों से स्वयं पर क्लेश की सम्भावना देखकर प्रभु श्रीराम ने हमें छोड़ दिया।

**निंदहिं आपु सराहहिं मीना। धिग जीवन रघुबीर बिहीना॥**

**जौ पै प्रिय बियोग बिधि कीन्हा। तौ कस मरन न माँगे दीन्हा॥ भा०– **अवधवासी अपनी निन्दा करते हैं और मछली की प्रशंसा करते हैं अर्थात्‌ जल के बिना मछली नहीं जीती, परन्तु हम श्रीराम के बिना क्यों जी रहे हैं? श्रीराम से विहीन होकर जीवन को धिक्कार है। यदि विधाता ने हमारा प्रियतम से वियोग किया तो फिर हमें माँगने पर मृत्यु क्यों नहीं दी?

एहि बिधि करत प्रलाप कलापा। आए अवध भरे परितापा॥ बिषम बियोग न जाइ बखाना। अवधि आश सब राखहिं प्राना॥

भाष्य

इस प्रकार का प्रलाप अर्थात्‌ निरर्थक वाक्यों के समूह का उच्चारण करते हुए, दु:ख से भरे हुए अयोध्यावासी तमसा–तट से अवध लौट आये। उन्हें भगवान्‌ श्रीराम का इतना भयंकर वियोग था, जो व्याख्यान द्वारा कहा नहीं जा सकता। सब लोग अवधि की प्रत्याशा में अपने प्राण रख रहे हैं।

**दो०- राम दरस हित नेम ब्रत, लगे करन नर नारि।**

मनहुँ कोक कोकी कमल, दीन बिहीन तमारि॥८६॥

भाष्य

श्रीराम जी के दर्शनों के लिए नर, नारी नियम और व्रतानुष्ठान करने लगे, मानो सूर्य के बिना चकवा, चकवी और कमल दीन हो गये हों।

**सीता सचिव सहित दोउ भाई। श्रृंगबेरपुर पहुँचे जाई॥**

उतरे राम देवसरि देखी। कीन्ह दंडवत हरष बिशेषी॥

**लखन सचिव सिय कीन्ह प्रनामा। सबहि सहित सुख पायउ रामा॥ भा०– **श्रीसीता एवं सुमंत्र जी के सहित दोनों भाई श्रीराम, लक्ष्मण जाकर शृंगबेरपुर पहुँच गये। देवनदी गंगा जी को देखकर, श्रीराम रथ से उतरे और विशेष प्रसन्नता के साथ गंगा जी को दंडवत्‌ प्रणाम किया, लक्ष्मण, सुमंत्र

[[३७४]]

तथा सीता जी ने भी गंगा जी को प्रणाम किया। सभी तीनों परिकरों के सहित योगियों को भी रमाने वाले श्रीराम ने सुख पाया।

गंग सकल मुद मंगल मूला। सब सुख करनि हरनि सब शूला॥ कहि कहि कोटिक कथा प्रसंगा। राम बिलोकहिं गंग तरंगा॥

भाष्य

गंगा जी सभी प्रसन्नताओं और मंगलों की मूल हैं। वे सभी सुखों को उत्पन्न करनेवालीं और सभी दु:खों को हरनेवालीं हैं। इस प्रकार, करोड़ों कथा प्रसंगों को कह–कह कर, भगवान्‌ श्रीराम, गंगा जी की तरंग अर्थात्‌ लहरों के दर्शन कर रहे हैं।

**सचिवहिं अनुजहिं प्रियहिं सुनाई। बिबुध नदी महिमा अधिकाई॥ मज्जन कीन्ह पंथ श्रम गयऊ। शुचि जल पियत मुदित मन भयऊ॥ सुमिरत जाहि मिटइ श्रम भारू। तेहि श्रम यह लौकिक ब्यवहारू॥**
भाष्य

सुमंत्रजी, लक्ष्मण जी और परम प्रेमास्पद सीता जी को देवनदी गंगा जी की महिमा की अधिकता सुनाकर, भगवान्‌ श्रीराम ने गंगा जी में स्नान किया। उनके मार्ग का श्रम चला गया और पवित्र जल पीते ही श्रीराम का मन प्रसन्न हो गया। जिनका स्मरण करते ही श्रम का भार मिट जाता है उन्हें श्रम? यह तो नरलीला का व्यवहार है।

**दो०- शुद्ध सच्चिदानन्दमय, राम भानुकुल केतु।**

चरित करत नर अनुहरत, संसृति सागर सेतु॥८७॥

भाष्य

शुद्ध सत्‌, चित्‌ और आनन्दस्वरूप सूर्यकुल के पताका भगवान्‌ श्रीराम मनुष्यों का अनुसरण करते हुए संसार सागर के सेतुरूप चरित्रों को प्रस्तुत करते हैं।

**यह सुधि गुह निषाद जब पाई। मुदित लिए प्रिय बंधु बोलाई॥ लिए फल मूल भेंट भरि भारा। मिलन चलेउ हिय हरष अपारा॥**
भाष्य

यह अर्थात्‌ श्रीराम आगमन का समाचार जब गुहराज निषाद ने पाया तब प्रसन्न होकर उन्होंने अपने प्रिय बंधुओं को बुला लिया और बहंगियों में भर–भर कर फल और कंदमूल भेंट लिए हुए, मन में अपार हर्ष के साथ प्रभु श्रीराम से मिलने के लिए चले।

**करि दंडवत भेंट धरि आगे। प्रभुहिं बिलोकत अति अनुरागे॥ सहज सनेह बिबश रघुराई। पूँछी कुशल निकट बैठाईं॥**
भाष्य

प्रभु को दंडवत्‌ करके उनके सामने भेंट रखकर, अत्यन्त अनुराग से भरे हुए निषादराज प्रभु श्रीराम को निहारने लगे। रघकुल के राजा श्रीराम, निषादराज के स्वाभाविक स्नेह के विवश होकर उन्हें निकट बैठाकर उनसे कुशल समाचार पूछने लगे।

**नाथ कुशल पद पंकज देखे। भयउँ भागभाजन जन लेखे॥ देव धरनि धन धाम तुम्हारा। मैं जन नीच सहित परिवारा॥**
भाष्य

निषादराज ने कहा, हे नाथ! आपके श्रीचरणकमलों के दर्शन करके सब कुछ कुशल है। आज मैं लोगों की गिनती में भाग्य का पात्र बन गया। अथवा सौभाग्यपात्रों की गणना में आ गया। हे देव! पृथ्वी, धन, भवन यह सब कुछ आपका है, परिवार सहित कर्म से निकृष्ट मैं आपका सेवक हूँ।

[[३७५]]

कृपा करिय पुर धारिय पाँऊ। थापिय जन सब लोग सिहाऊ॥ कहेहु सत्य सब सखा सुजाना। मोहि दीन्ह पितु आयसु आना॥

भाष्य

आप कृपा करके नगर में चरण रखें। अपने भक्त को स्थापित कर दें, जिससे सभी लोग सिहायें अर्थात्‌ ईर्ष्यापूर्वक मेरी प्रशंसा करें। श्रीरघुनाथ ने कहा, हे चतुरमित्र! तुमने सब कुछ सत्य कहा है, पर पिताश्री ने मुझे दूसरी आज्ञा दी है।

**दो०- बरष चारिदश बास बन, मुनि ब्रत बेष अहार।**

ग्राम बास नहिं उचित सुनि, गुहहिं भयउ दुख भार॥८८॥

भाष्य

मुझे चौदह वर्ष वन में निवास करना होगा। मेरा व्रत, वेश और आहार मुनियों का सा होगा, मुझे ग्रामवास उचित नहीं है। यह सुनकर गुह को बहुत बड़ा दु:ख हुआ।

**राम लखन सिय रूप निहारी। कहहिं सप्रेम ग्राम नर नारी॥ ते पितु मातु कहहु सखि कैसे। जिन पठए बन बालक ऐसे॥ एक कहहिं भल भूपति कीन्हा। लोचन लाहु हमहिं बिधि दीन्हा॥**
भाष्य

श्रीराम, लक्ष्मण और भगवती सीता जी के रूप को देखकर ग्राम के नरों की नारियाँ अर्थात्‌ ग्राम–वधुयें प्रेमपूर्वक कहने लगीं, हे सखी! वे पिता–माता कैसे हैं, जिन्होंने ऐसे बालकों को वन भेजा दिया? उनमें से एक लोग कहने लगे महाराज ने बहुत अच्छा किया विधाता ने हमें नेत्रों का लाभ दे दिया।

**तब निषादपति उर अनुमाना। तरु शिंशुपा मनोहर जाना॥ लै रघुनाथहिं ठाउँ देखावा। कहेउ राम सब भाँति सुहावा॥**
भाष्य

तब निषादराज ने हृदय से अनुमान किया अर्थात्‌ प्रभु के अनुकूल सम्मान किया। अशोक वृक्ष को सुन्दर जाना और श्रीराम को लिवा कर, वह स्थान दिखलाया। श्रीराम ने कहा, यह सब प्रकार से सुन्दर है।

**पुरजन करि जोहार घर आए। रघुबर संध्या करन सिधाए॥ गुह सँवारि साथरी डसाई। कुश किसलयमय मृदुल सुहाई॥**
भाष्य

शृंगबेरपुरवासी प्रभु को प्रणाम करके अपने–अपने घर लौट आये। श्रीराम संध्या करने के लिए पधारे तब निषादराज गुह ने कुश और पल्लव से युक्त कोमल सुन्दर सॅंवार कर साथरी बिछायी अर्थात्‌ भूमि पर शैय्या बिछा दी।

**शुचि फल मूल मधुर मृदु जानी। दोना भरि भरि राखेसि आनी॥ भा०– **पवित्र फल और कंदमूल को मधुर और कोमल जानकर, दोने में भर–भर कर लाकर सामने रखा।

दो०- सिय सुमंत्र भ्राता सहित, कंद मूल फल खाइ।

शयन कीन्ह रघुमंशमनि, पायँ पलोटत भाइ॥८९॥

भाष्य

सीता जी, सुमंत्र जी तथा भ्राता लक्ष्मण जी के साथ कंदमूल, फल खाकर रघुवंश के मणि श्रीराम जी ने उसी साथरी पर शयन किया और भाई लक्ष्मण जी प्रभु के चरण दबाने लगे।

**उठे लखन प्रभु सोवत जानी। कहि सचिवहिं सोवन मृदु बानी॥ कछुक दूरि सजि बान शरासन। जागन लगे बैठि बीरासन॥**
भाष्य

प्रभु को शयन करते जानकर, कोमल वाणी में मंत्री सुमंत्र जी को सोने के लिए कहकर लक्ष्मण जी उठे। श्रीराम की शैय्या से कुछ दूरी पर धनुष पर बाण सजाकर वीरासन पर बैठ कर, लक्ष्मण जी जगने लगे।

[[३७६]]

गुह बोलाइ पाहरू प्रतीती। ठावँ ठावँ राखे अति प्रीती॥ आपु लखन पहँ बैठेउ जाई। कटि भाथी शर चाप च़ढाई॥

भाष्य

निषादराज गुह ने विश्वस्त पहरा देनेवालों को बुलाकर, अत्यन्त प्रेम से स्थान–स्थान पर रख दिया। कटि प्रदेश में तरकस, धनुष तथा बाण च़ढाकर स्वयं लक्ष्मण जी के पास जाकर बैठ गये।

**सोवत प्रभुहिं निहारि निषादू। भयउ प्रेम बश हृदय बिषादू॥ तनु पुलकित जल लोचन बहई। बचन सप्रेम लखन सन कहई॥**
भाष्य

प्रभु को सोते हुए देखकर निषादराज प्रेमवशात्‌ हृदय में बहुत दु:खी हुए। उनका शरीर रोमांचित हो उठा नेत्रों से अश्रुपात होने लगा। वे प्रेमपूर्वक लक्ष्मण जी से वचन कहने लगे।

**भूपति भवन स्वभाव सुहावा। सुरपति सदन न पटतर पावा॥ मनिमय रचित चारु चौबारे। जनु रतिपति निज हाथ सँवारे॥**
भाष्य

महाराज दशरथ जी का भवन स्वभावत: सुन्दर है। इन्द्र का भवन भी उसकी समता को नहीं पा सकता। उसमें सुन्दर मणियों से रचित मनोहर चौबारे अर्थात्‌ चार द्वारों वाले ऐसे छतों के ऊपर के बंगले हैं, जिन्हें कामदेव ने मानो अपने हाथ से सजाये हैं।

**दो०- शुचि सुबिचित्र सुभोगमय, सुमन सुगंध सुबास।**

पलँग मंजु मनि दीप जहँ, सब बिधि सकल सुपास॥९०॥

भाष्य

जो पवित्र, अत्यन्त विचित्र अर्थात्‌ विविध चित्रों से युक्त, सुन्दर भोग की सामग्रियों से समन्वित, सुगंधित पुष्पों की सुन्दर सुरभि से युक्त हैं, जहाँ अत्यन्त सुन्दर पलंग तथा मणियों के दीपक विराजते हैं। जहाँ सब प्रकार की सभी सुविधायें हैं।

**बिबिध बसन उपधान तुराई। छीर फेन मृदु बिशद सुहाई॥**

**तहँ सिय राम शयन निशि करहीं। निज छबि रति मनोज मद हरहीं॥ भा०– **अनेक प्रकार के सुन्दर वस्त्र और सुन्दर तकिया तथा दूध के फेन के समान श्वेत–सुन्दर तोषकें जिन पलंगों पर बिछायी गई हैं, उन्हीं पलंगों पर रात्रि में श्रीसीताराम जी शयन करते हैं, जो अपनी छवि से रति और कामदेव के मद को भी हर लेते हैं।

ते सिय राम साथरी सोए। श्रमित बसन बिनु जाहिं न जोए॥ मातु पिता परिजन पुरबासी। सखा सुशील दास अरु दासी॥ जोगवहिं जिनहिं प्रान की नाईं। महि सोवत तेइ राम गोसाईं॥

भाष्य

वे ही श्रीसीताराम जी श्रमित होकर, बिना चादर के कुश की चटाई पर सोये हुए हैं, जो देखे नहीं जाते हैं। जिन श्रीराम को माता–पिता, कुटुम्बी जन, पुरवासी, सुन्दर शील वाले मित्रगण, दास, दासियाँ प्राण के समान सावधानी से बचा–बचा कर रखते हैं। वे ही पृथ्वी के स्वामी श्रीराम आज पृथ्वी पर सो रहे हैं।

**पिता जनक जग बिदित प्रभाऊ। ससुर सुरेश सखा रघुराऊ॥ रामचंद्र पति सो बैदेही। सोवति महि बिधि बाम न केही॥**

[[३७७]]

भाष्य

संसार में विदित प्रभाववाले जनक जी जिनके पिता हैं तथा रघुकुल के राजा और इन्द्र के मित्र महाराज दशरथ जिनके श्वसुर हैं, प्रभु श्रीरामचन्द्र जैसे सर्वशक्तिमान प्रभु जिनके पति हैं, वही श्रीसीता पृथ्वी पर सो रहीं हैं। विधाता किस के लिए प्रतिकूल नहीं हैं ?

**सिय रघुबीर कि कानन जोगू। करम प्रधान सत्य कह लोगू॥**
भाष्य

क्या श्री सीताराम वन के योग्य हैं? क्या कर्म प्रधान है, यह बात लोग सत्य कहते हैं? अर्थात्‌ श्रीसीताराम जी ने कौन–सा ऐसा कर्म किया है, जिससे इन्हें वनवास मिला?

**दो०- कैकयनंदिंनि मंदमति, कठिन कुटिलपन कीन्ह।**

**जेहिं रघुनंदन जानकिहिं, सुख अवसर दुख दीन्ह॥९१॥ भा०– **मन्दबुद्धि वाली कैकयराजपुत्री कैकेयी ने ऐसी कठिन कुटिलता की है, जिसने रघुकुल को आनन्दित करने

वाले श्रीराम तथा जनकनन्दिनी श्रीसीता को सुख के अवसर पर दु:ख दिया है।

भइ दिनकर कुल बिटप कुठारी। कुमति कीन्ह सब बिश्व दुखारी॥ भयउ बिषाद निषादहिं भारी। राम सीय महि शयन निहारी॥

भाष्य

कैकेयी सूर्यकुल रूप वृक्ष के लिए कुल्हाड़ी बन गई। इस कुत्सितबुद्धि वाली कैकेयी ने सम्पूर्ण विश्व को दु:खी कर दिया। श्रीराम–सीता को पृथ्वी पर शयन करते हुए देखकर, निषादराज गुह को बहुत दु:ख हुआ।

**बोले लखन मधुर मृदु बानी। ग्यान बिराग भगति रस सानी॥ काहु न कोउ सुख दुख कर दाता। निज कृत करम भोग सब भ्राता॥**
भाष्य

लक्ष्मण जी ज्ञान, वैराग्य और भक्तिरस से सनी हुई मीठी कोमल वाणी बोले, हे भाई! कोई किसी को सुख–दु:ख नहीं देता, सभी अपने किये हुए कर्म के अनुसार ही सुख–दु:ख भोगते हैं।

**जोग बियोग भोग भल मंदा। हित अनहित मध्यम भ्रम फंदा॥ जनम मरन जहँ लगि जग जालू। संपति बिपति करम अरु कालू॥ धरनि धाम धन पुर परिवारू। सरग नरक जहँ लगि ब्यवहारू॥**

देखिय सुनिय गुनिय मन माहीं। मोह मूल परमारथ नाहीं॥

भाष्य

योग (संयोग), वियोग (अलगाव), भोग, भला, बुरा, हित, अहित, मध्यम अर्थात्‌ उदासीन ये सब भ्रम के फंदे हैं। इस जगत्‌ के जाल में जहाँ तक जन्म, मरण, संपत्ति, विपत्ति, कर्म तथा काल, पृथ्वी, भवन, धन, पुर, नगर, परिवार, स्वर्ग, और नरक इत्यादि, जहाँ तक व्यवहारिक सत्ता देखी, सुनी अथवा, मन में विचार की जा रही है, इसके मूल में केवल मोह है, यहाँ परमार्थ है ही नहीं।

**दो०- सपने होइ भिखारि नृप, रंक नाकपति होइ।**

जागे लाभ न हानि कछु, तिमि प्रपंच जिय जोइ॥९२॥

भाष्य

जिस प्रकार, स्वप्न में राजा भिखारी हो जाता है और दरिद्र स्वर्ग का पति इन्द्र हो जाता है, पर जगने पर राजा, राजा ही रहता है और दरिद्र, दरिद्र ही रहता है। राजा को न कोई हानि होती है और न ही दरिद्र को कोई लाभ, इसी प्रकार इस प्रपंच को भी हृदय में समझना चाहिये। अर्थात्‌ यह सम्पूर्ण व्यवहार क्षणभंगुर है, यहाँ कुछ भी स्थायी नहीं है।

[[३७८]]

अस बिचारि नहिं कीजिय रोषू। काहुहि बादि न दीजिय दोषू॥ मोह निशा सब सोवनिहारा। देखहिं सपन अनेक प्रकारा॥ एहिं जग जामिनि जागहिं जोगी। परमारथी प्रपंच बियोगी॥

भाष्य

ऐसा विचार कर क्रोध मत कीजिये और किसी को भी व्यर्थ का दोष मत दीजिये। इस मोहरूप रात्रि में सभी सोने वाले लोग, अनेक प्रकार के स्वप्न देखते हैं। इस जगत्‌ की रात्रि में परमार्थ के चिन्तक, प्रपंच से दूर रहने वाले योगी लोग ही जागते हैं।

**जानिय तबहिं जीव जग जागा। जब सब बिषय बिलास बिरागा॥ होइ बिबेक मोह भ्रम भागा। तब रघुनाथ चरन अनुरागा॥**
भाष्य

जीव को तभी जगत्‌ में जागा हुआ जानना चाहिये, जब वह संसार के विषयों के विलासों से विरक्त हो जाये। उसके मन में विवेक हो, उसका मोह–भ्रम भग जाये, तब उसे श्रीराम के चरणों में अनुराग प्राप्त हो जाता है।

**सखा परम परमारथ एहू। मन क्रम बचन राम पद नेहू॥ राम ब्रह्म परमारथ रूपा। अबिगत अलख अनादि अनूपा॥ सकल बिकार रहित गतभेदा। कहि नित नेति निरूपहिं बेदा॥**
भाष्य

हे मित्र यही परम परमार्थ है, जहाँ जीव को मन, शरीर और वाणी से श्रीराम जी के चरणों में स्नेह उत्पन्न हो जाये। श्रीराम परब्रह्म हैं, परमार्थ अर्थात्‌ मोक्ष उनका रूप है। वे अविगत्‌ अर्थात्‌ कहीं से गये हुए नहीं हैं, वे सर्वव्यापक हैं, किन्तु प्राकृतिक नेत्रों से नहीं दिखते, इसलिए अलख हैं। वे आदिरहित होने के कारण अनादि और उपमाओं से रहित होने के कारण अनूप हैं। प्रभु श्रीराम सम्पूर्ण विकारों से रहित तथा अपने–पराये के भेद से शून्य हैं। वेद निरन्तर ‘न इति’ अर्थात्‌ ‘यह भी नहीं, यह भी नहीं‘, ऐसा कहकर उनका निरन्तर निरूपण करते हैं।

**दो०- भगत भूमि भूसुर सुरभि, सुर हित लागि कृपाल।**

**करत चरित धरि मनुज तन, सुनत मिटहिं जग जाल॥९३॥ भा०– **भक्त, पृथ्वी, ब्राह्मण, गौ और देवताओं के हित के लिए, कृपालु श्रीराम, मनुष्य का शरीर धारण करके

चरित्र करते हैं। उसे सुनकर संसार के जाल मिट जाते हैं।

सखा समुझि अस परिहरि मोहू। सिय रघुबीर चरन रत होहू॥ कहत राम गुन भा भिनुसारा। जागे जग मंगल दातारा॥

भाष्य

हे मित्र! ऐसा समझकर, मोह छोड़कर श्रीसीताराम जी के श्रीचरणों में अनुरक्त हो जाओ। इस प्रकार, लक्ष्मण जी द्वारा श्रीराम के गुण कहते–कहते प्रात:काल हो गया और जगत्‌ को मंगल देने वाले श्रीराम जग गये।

**सकल शौच करि राम नहावा। शुचि सुजान बट छीर मँगावा॥ अनुज सहित सिर जटा बनाए। देखि सुमंत्र नयन जल छाए॥**
भाष्य

सब प्रकार की शौचक्रिया सम्पन्न कर भगवान्‌ श्रीराम ने गंगा जी में स्नान किया। संध्यावंदन के अनंतर पवित्र और चतुर श्रीराम ने बड़ का दूध मंगवाया, उससे लक्ष्मण जी के सहित प्रभु ने अपने सिर पर जटा बनायी। यह देखकर सुमंत्र जी की आँखों में आँसू छा गये।

[[३७९]]

हृदय दाह अति बदन मलीना। कह कर जोरि बचन अति दीना॥ नाथ कहेउ अस कोसलनाथा। लै रथ जाहु राम के साथा॥

भाष्य

सुमंत्र जी के हृदय में अत्यन्त दाह (जलन) हुआ। उनका मुख अत्यन्त मलीन अर्थात्‌ हर्ष से रहित, दु:खी हो गया। सुमंत्र जी हाथ जोड़कर अत्यन्त दीन वचन कहने लगे, हे नाथ! अयोध्याधिपति महाराज दशरथ जी ने मुझसे इस प्रकार कहा था, हे सुमंत्र! रथ लेकर श्रीराम के साथ जाओ।

**बन देखाइ सुरसरि अन्हवाई। आनहु फेरि बेगि दोउ भाई॥ लखन राम सिय आनेहु फेरी। संशय सकल सँकोच निबेरी॥**
भाष्य

वन दिखाकर गंगा जी में स्नान करा कर दोनों भाइयों को शीघ्र अयोध्या लौटा लाओ। सभी संशयों और संकोचों को समाप्त करके, लक्ष्मण, श्रीराम और श्रीसीता को लौटा लाओ।

**दो०- नृप अस कहेउ गोसाइँ जस, कहिय करौं बलि सोइ।**

करि बिनती पायँन परेउ, दीन्ह बाल जिमि रोइ॥९४॥

भाष्य

महाराज ने इस प्रकार कहा है, हे इन्द्रियों के स्वामी ऋषिकेश परमात्मा श्रीराम! आप जो कहें मैं वह करुँ। मैं आपके बलिहारी जाता हूँ, इस प्रकार प्रार्थना करके सुमंत्र जी प्रभु श्रीराम के चरण पर गिर पड़े और छोटे बालक की भाँति रो दिये अर्थात्‌ फूट–फूट कर रो पड़े।

**तात कृपा करि कीजिय सोई। जाते अवध अनाथ न होई॥ मंत्रिहिं राम उठाइ प्रबोधा। तात धरम मत तुम सब सोधा॥**
भाष्य

हे नाथ! आप कृपा करके वही करें जिससे अवध अनाथ न हो जाये। अपने चरणों पर पड़े हुए मंत्री को उठाकर, श्रीराम ने समझाया, हे तात्‌! आपने धर्म के सभी मतों का शोधन किया है अर्थात्‌ धर्म के सामान्य और विशेष सभी पक्ष आप को ज्ञात हैं।

**शिवि दधीचि हरिचंद्र नरेशा। सहे धरम हित कोटि कलेशा॥ रंतिदेव बलि भूप सुजाना। धरम धरेउ सहि संकट नाना॥ धरम न दूसर सत्य समाना। आगम निगम पुरान बखाना॥**
भाष्य

शिवि, दधीचि, महाराज हरिश्चन्द्र ने धर्म के लिए करोड़ों क्लेश सहे हैं। महाराज रन्तिदेव, दैत्यराज बलि और भी चतुर राजाओं ने अनेक संकट सहकर धर्म को धारण किया। सत्य के समान कोई दूसरा धर्म नहीं है। यह बात आगमों, वेदों एवं पुराणों ने व्याख्यान के माध्यम से गाकर सुनायी है।

**मैं सोइ धरम सुलभ करि पावा। तजे तिहूँ पुर अपजस छावा॥ संभावित कहँ अपजस लाहू। मरन कोटि सम दारुन दाहू॥**
भाष्य

उसी धर्म को मैंने सुलभ करके सहजता से प्राप्त कर लिया है, इसे छोड़ने से तीनों लोकों में अपयश छा जायेगा। संभावित अर्थात्‌ सम्मानित व्यक्ति के लिए अपयश की प्राप्ति करोड़ों मरण के समान असहनीय दाह कारक है, अर्थात्‌ वह सहने योग्य नहीं जलन उत्पन्न कर देती है।

**तुम सन तात बहुत का कहऊँ। दिए उतर फिरि पातक लहऊँ॥ भा०– **हे तात्‌\! आपको बहुत क्या कहूँ, उलट कर उत्तर देने से तो मैं पाप ही प्राप्त करूँगा।

[[३८०]]

दो०- पितु पद गहि कहि कोटि नति, बिनय करब कर जोरि।

**चिंता कवनिहुँ बात की, तात करिय जनि मोरि॥९५॥ भा०– **पिताश्री के चरण पक़डकर करोड़ों प्रणाम कहकर, हाथ जोड़कर मेरी ओर से विनती कर लीजियेगा। हे पिताश्री! आप मेरी किसी प्रकार की चिन्ता न करें।

तुम पुनि पितु सम अति हित मोरे। बिनती करउँ तात कर जोरे॥ सब बिधि सोइ करतब्य तुम्हारे। दुख न पाव पितु सोच हमारे॥

भाष्य

फिर आप पिताश्री के समान ही मेरे अत्यन्त हितैषी हैं। मैं आपसे हाथ जोड़कर विनती करता हूँ। आपश्री का वही सब प्रकार से कर्त्तव्य है, जिससे पिताश्री मेरे शोक में दु:ख नहीं पायें।

**सुनि रघुनाथ सचिव संबादू। भयउ सपरिजन बिकल निषादू॥ पुनि कछु लखन कही कटु बानी। प्रभु बरजे बड़ अनुचित जानी॥ सकुचि राम निज शपथ देवाई। लखन सँदेश कहिय जनि जाई॥**
भाष्य

श्रीराम एवं मंत्री का संबाद सुनकर, परिवार के सहित निषादराज गुह विकल हो गये। फिर लक्ष्मण जी ने कुछ कटु वाणी कही। बड़ा अनुचित जानकर प्रभु ने लक्ष्मण जी को रोका। श्रीराम ने संकुचित होकर अपनी शपथ दिलायी और मंत्री से कहा कि, लक्ष्मण का संदेश जाकर मत कहियेगा।

**कह सुमंत्र पुनि भूप सँदेशू। सहि न सकिहि सिय बिपिन कलेशू॥ जेहि बिधि अवध आव फिरि सीया। सोइ रघुबीर तुमहिं करनीया॥ नतरु निपट अवलंब बिहीना। मैं न जियब जिमि जल बिनु मीना॥**
भाष्य

फिर सुमंत्र जी ने सीता जी के प्रति दिया हुआ महाराज दशरथ जी का संदेशा कहा, सीता जी वन का क्लेश नहीं सह सकेंगी। हे रघुकुल के वीर श्रीराम! जिस विधि से सीता जी अयोध्या लौट आयें, तुम्हें वही करणीय है अर्थात्‌ करना चाहिये, नहीं तो अवलम्ब से पूर्णतया विहीन मैं उसी प्रकार नहीं जी सकूँगा, जैसे जल के बिना मछली नहीं जीता है।

**दो०- मइके ससुरे सकल सुख, जबहिं जहाँ मन मान।**

**तहँ तब रहहिं सुखेन सिय, जब लगि बिपति बिहान॥९६॥ भा०– **सीता जी के मायके जनकपुर और ससुराल अवधपुर में सब प्रकार के सुख हैं। जब तक विपत्तिरूप रात्रि का प्रात:काल नहीं हो, उसके मध्य जब, जहाँ उनका मन भाये तब, वहाँ सीता जी सुखपूर्वक रह लें।

बिनती भूप कीन्ह जेहि भाँती। आरति प्रीति न सो कहि जाती॥ पितु सँदेश सुनि कृपानिधाना। सियहिं दीन्ह सिख कोटि बिधाना॥

भाष्य

सुमंत्र जी फिर बोले, हे राघव! महाराज ने जिस प्रकार से प्रार्थना की है, वह आर्त (व्याकुलता) और वह प्रीति मुझसे कही नहीं जाती। पिताश्री का संदेश सुनकर, कृपानिधान श्रीराम ने सीता जी को करोड़ों प्रकार से शिक्षा दी।

**सासु ससुर गुरु प्रिय परिवारू। फिरहु त सब कर मिटै खभारू॥ सुनि पति बचन कहति बैदेही। सुनहु प्रानपति परम सनेही॥**

[[३८१]]

भाष्य

हे सीते! यदि तुम लौट जाओ, तो सासु, श्वसुर, गुव्र् और प्रिय परिवार इन सबका कय् दूर हो जायेगा। पति श्रीराम के वचन सुनकर, विदेह नन्दिनी जानकी जी कहने लगीं, हे मेरे परमस्नेह (दाम्पत्य प्रेम) के आश्रय प्राणेश्वर राघवेन्द्र! सुनिये–

**प्रभु करुनामय परम बिबेकी। तनु तजि रहति छाह किमि छेकी॥ प्रभा जाइ कहँ भानु बिहाई। कहँ चंद्रिका चंद्र तजि जाई॥**
भाष्य

हे प्रभु! आप में प्रचुर मात्रा में करुणा है, आप परम विवेकवान हैं। भला विचार कीजिये, शरीर को छोड़कर छाया रोकने से भी कैसे अलग रह सकती है? प्रभा सूर्य को छोड़कर कहाँ जा सकती है और चन्द्रिका, चन्द्रमा को छोड़कर कहाँ जा सकती है?

**पतिहिं प्रेममय बिनय सुनाई। कहति सचिव सन गिरा सुहाई॥ तुम पितु ससुर सरिस हितकारी। उतर देउँ फिरि अनुचित भारी॥**
भाष्य

इस प्रकार, अपने पति श्रीराम को प्रेम प्रचुर विनय सुनाकर, सीताजी, मंत्री के सामने सुहावनी वाणी कहने लगीं, आप मेरे पिता तथा मेरे श्वसुर के समान हैं, मेरा हित करने वाले हैं, आपको उलटकर उत्तर दे रही हूँ, यह बहुत बड़ा अनुचित है।

**दो०- आरति बश सनमुख भइउॅं, बिलग न मानब तात।**

आरजसुत पद कमल बिनु, बादि जहाँ लगि नात॥९७॥

भाष्य

हे तात्‌! मैं अपने मन की व्याकुलता भरी आतुरता के कारण आपके सामने हुई हूँं। इससे विलग अर्थात्‌ अन्यथा मत मानियेगा। आर्यपुत्र श्रीराघव के श्रीचरणकमल के बिना संसार में जहाँ तक नाते हैं, वे सब व्यर्थ हैं।

**पितु बैभव बिलास मैं दीठा। नृप मनि मुकुट मिलित पद पीठा॥ सुखनिधान अस पितु गृह मोरे। पिय बिहीन मन भाव न भोरे॥**
भाष्य

मैंनें पिताश्री जनकराज के वैभव का विलास भी देखा है, जिनकी चरण पादुकायें अधीनस्थ राजाओं के मुकुटमणियों से मिलती रहती हैं अर्थात्‌ सामन्त राजा मेरे पिताश्री की चरण पादुका पर अपनी मुकुटमणियों को रखकर प्रणाम करते हैं। सुख के निधान, ऐसे पिताश्री का घर भी प्रियतम श्रीराम के बिना मेरे मन को भूल कर भी नहीं भाता।

**ससुर चक्कवइ कोसलराऊ। भुवन चारिदस प्रगट प्रभाऊ॥**

आगे होइ जेहि सुरपति लेई। अरध सिंघासन आसन देई॥

ससुर एतादृश अवध निवासू। प्रिय परिवार मातु सम सासू॥ बिनु रघुपति पद पदुम परागा। मोहि केउ सपनेहुँ सुखद न लागा॥

भाष्य

मेरे श्वसुर अयोध्याधिपति महाराज स्वयं चक्रवर्ती जी हैं, उनका प्रभाव चौदहों भुवन में प्रकट है। जिन्हें इन्द्र आगे होकर ससम्मान अपने भवन में लिवा लाते हैं और अपना आधा सिंहासन ही चक्रवर्ती जी को आसन देते हैं। इस प्रकार, के मेरे श्वसुर, अयोध्या जैसा निवास, प्यारा परिवार, माता के समान सासुयें ये सब कुछ श्रीरघुपति के श्रीचरणकमल के पराग के बिना मुझे स्वप्न में भी कोई सुखदायक नहीं लगता।

**अगम पंथ बनभूमि पहारा। करि केहरि सर सरित अपारा॥ कोल किरात कुरंग बिहंगा। मोहि सब सुखद प्रानपति संगा॥**

[[३८२]]

भाष्य

अगम्यमार्ग, वन की भूमि, पर्वत, हाथी, सिंह, पार रहित तालाब और नदियाँ, कोल, किरात जैसी वनजातियाँ, मृग और पक्षी ये सभी प्राणपति श्रीराम के संग में मुझे सुखदायक ही लगते हैं।

**दो०- सासु ससुर सन मोरि हुँति, बिनय करब परि पाँय।**

मोर सोच जनि करिय कछु, मैं बन सुखी सुभाँय॥९८॥

भाष्य

मेरी ओर से मेरी सासुओं और श्वसुर जी को पाँव पक़डकर विनय कर लीजियेगा। मेरी कुछ भी चिन्ता नहीं करें, मैं स्वभावत: वन में सुखी हूँ।

**प्राननाथ प्रिय देवर साथा। बीर धुरीन धरे धनु भाथा॥ नहिं मग श्रम भ्रम दुख मन मोरे। मोहि लगि सोच करिय जनि भोरे॥**
भाष्य

वीरों की धुरी को धारण करने वाले, धनुष और तरकस धारण किये हुए मेरे प्राणनाथ श्रीराघव और प्यारे देवर मेरे साथ हैं। मेरे मन में मार्ग का श्रम, किसी प्रकार का भ्रम तथा दु:ख नहीं है। मेरे लिए भूलकर भी आप लोग शोक नहीं करें।

**सुनि सुमंत्र सिय शीतलि बानी। भयउ बिकल जनु फनि मनि हानी॥**

**नयन सूझ नहिं सुनइ न काना। कहि न सकइ कछु अति अकुलाना॥ भा०– **सीता जी की शीतल वाणी सुनकर, सुमंत्र जी उसी प्रकार व्याकुल हो गये, जैसे मणि की हानि से सर्प व्याकुल हो जाता है। वे इतने अधिक अकुला गये कि, न तो उन्हें नेत्रों से कुछ सूझता था और न ही कान से कुछ सुना जाता था, वे कुछ भी नहीं कह सक रहे थे।

राम प्रबोध कीन्ह बहु भाँती। तदपि होति नहिं शीतल छाती॥ जतन अनेक साथ हित कीन्हे। उचित उतर रघुनंदन दीन्हे॥

भाष्य

श्रीराम ने बहुत प्रकार से प्रबोध किया अर्थात्‌ समझाया, फिर भी उनकी छाती शीतल नहीं हो रही थी। सुमंत्र जी ने साथ चलने के लिए अनेक यत्न किये पर श्रीरघुनाथ ने उन्हें उचित उत्तर दिया। अथवा उचित न रघुनन्द उत्तर दीन्हे अर्थात आपका मेरे साथ चलना उचित न होगा इस प्रकार रघुकुल को आनंदित करने वाले श्रीराम ने सुमंत्र को उत्तर दिया।

**मेटि जाइ नहिं राम रजाई। कठिन करमगति कछु न बसाई॥ राम लखन सिय पद सिर नाई। फिरेउ बनिक जिमि मूर गवाँई॥**
भाष्य

श्रीराम जी की राजाज्ञा मिटायी नहीं जा सकती। कर्म की गति बहुत कठिन है, सुमंत्र जी का कुछ भी वश नहीं चल रहा है। श्रीराम, लक्ष्मण, सीता जी के चरणों में प्रणाम कर, सुमंत्र जी अवध की ओर ऐसे चल पड़े, जैसे व्यापारी बनिक ने अपना मूलधन ही गँवा दिया हो।

**दो०- रथ हाँकेउ हय राम तन, हेरि हेरि हिहिनाहिं।**

देखि निषाद बिषादबश, धुनहिं शीष पछिताहिं॥९९॥

भाष्य

सुमंत्र जी ने रथ को हाँका। घोड़े श्रीराम के शरीर को देख–देखकर हिनहिनाने लगे। घोड़े की ऐसी दशा देखकर, निषाद लोग सिर पीटने और पछताने लगे।

**जासु बियोग बिकल पशु ऐसे। प्रजा मातु पितु जीवहिं कैसे॥**
भाष्य

जिनके वियोग में पशु इस प्रकार विकल हो रहे हों, उनके वियोग में प्रजा, माता और पिता कैसे जी रहे हैं?

[[३८३]]

बरबस राम सुमंत्र पठाए। सुरसरि तीर आपु तब आए॥ माँगी नाव न केवट आना। कहइ तुम्हार मरम मैं जाना॥

भाष्य

श्रीराम जी ने हठपूर्वक तथा वर अर्थात्‌ वरदान के वश में होने के कारण सुमंत्र जी को श्रीअवध भेजा, फिर आप श्रीसीता जी एवं लक्ष्मण जी के साथ गंगा जी के किनारे आये। श्रीराम ने नाव माँगी केवट नहीं लाया, उसने कहा, मैंने आपका मर्म जान लिया है।

**विशेष– **१. ‘बरबस’ शब्द में श्लेष अलंकार होने के कारण अनेक अर्थों की अभिव्यक्ति होती है। सामान्यत: बरबस शब्द का अर्थ, हठ होता है और श्लेष से वर वश इन दो शब्दों के योग से बरबस शब्द वरदान के वशीभूत अर्थ को भी कहता है। अर्थात्‌ नारद जी द्वारा दिये हुए वरदान के अनुसार वन में वानर, भालू ही भगवान्‌ श्रीराम की सहायता करेंगे। अत: वहाँ सुमंत्र जी की कोई आवश्यकता नहीं है।

२. रावण ने श्रीराम–लक्ष्मण के हाथ से ही अपनी तथा कुम्भकर्ण की मृत्यु मांगी अत: वहाँ तृतीय मनुष्य की

आवश्यकता नहीं है। अत: प्रभु ने सुमंत्र जी को अवध भेज दिया।

३. कैकेयी ने केवल श्रीसीता एवं लक्ष्मण जी को श्रीराम के साथ वन जाने की अनुज्ञा दी है, अत: इन तीनों

वरदानों के वश में होने के कारण श्रीराम ने सुमंत्र जी को अवध भेज दिया।

चरन कमल रज कहँ सब कहई। मानुष करनि मूरि कछु अहई॥ छुअत शिला भइ नारि सुहाई। पाहन ते न काठ कठिनाई॥ तरनिउ मुनि घरनी होइ जाई। बाट परइ मोरि नाव उड़ाई॥

भाष्य

सभी लोग आपके चरणकमल की धूलि के लिए कहते हैं कि, वह मनुष्य बनाने वाली कोई ज़डी है, जिसके छूते ही पत्थर की शिला सुन्दर नारी बन गई तो पत्थर से काष्ठ कठिन नहीं होता। नाव भी मुनि की पत्नी हो जायेगी। मार्ग में ही मेरी नाव उड़ जायेगी। अथवा, ठगहारी हो जायेगी और मेरी नाव उड़ जायेगी।

**एहिं प्रतिपालउँ सब परिवारू। नहिं जानउँ कछु और कबारू॥ जौ प्रभु पार अवसि गा चहहू। मोहि पद पदुम पखारन कहहू॥**
भाष्य

इसी के द्वारा मैं सम्पूर्ण परिवार का पालन करता हूँ और कोई दूसरा कार्य नहीं जानता हूँ। हे प्रभु! यदि आप अवश्य पार जाना चाहते हैं, तो मुझे चरणकमल को पखारने के लिए कहिये।

**छं०: पद पदुम धोइ च़ढाइ नाव न नाथ उतराई चहौं।**

मोहि राम राउरि आन दशरथ शपथ सब साँची कहौं॥ बरुतीर मारहुँ लखन पै जब लगि न पायँ पखारिहौं। तब लगि न तुलसीदास नाथ कृपाल पार उतारिहौं॥

भाष्य

चरणकमल को धोकर नाव पर च़ढाकर मैं उतराई नहीं चाहता हूँ। हे श्रीराम! मुझे आपकी सौगन्ध और दशरथ जी की शपथ है, मैं सब कुछ सत्य कह रहा हूँ। भले लक्ष्मण जी गंगा तट पर बाण से मारें, फिर भी जब तक चरण नहीं धोऊँगा, हे तुलसीदास के नाथ श्रीराम! तब तक आप को पार नहीं उतारूँगा।

**सो०- सुनि केवट के बैन, प्रेम लपेटे अटपटे।**

बिहँसे करुना ऐन, चितइ जानकी लखन तन॥१००॥

भाष्य

केवट के प्रेम से लपेटे, किन्तु अटपटे अर्थात्‌ टे़ढे व्यंगोक्ति से भरे हुए वचन सुनकर, कव्र्णा के धाम श्रीराम, सीता जी और लक्ष्मण जी के शरीर को देखकर ठहाके लगाकर हँसे।

[[३८४]]

कृपासिंधु बोले मुसुकाई। सोइ करु जेहिं तव नाव न जाई॥ बेगि आनि जल पायँ पखारू। होत बिलंब उतारहि पारू॥

भाष्य

कृपा के सागर श्रीराम जी हँसकर बोले, वही करो जिससे तुम्हारी नाव न जाये। शीघ्रता से जल ले आकर चरण धो लो, बिलम्ब हो रहा है, हमें पार उतार दो।

**जासु नाम सुमिरत एक बारा। उतरहिं नर भवसिंधु अपारा॥ सोइ कृपालु केवटहिं निहोरा। जेहिं जग किय तिहुँ पगहु ते थोरा॥**
भाष्य

जिसका नाम एक बार स्मरण करके साधक लोग अपार भवसिन्धु से पार उतर जाते हैं, जिन्होंने संसार को इस चरण से थोड़ा कर दिया था अथवा तीन चरणों से भी थोड़ा कर दिया था। उन्हीं कृपालु श्रीराम ने केवट का निहोरा किया अर्थात्‌ अपना काम करवाने के लिए उसे मनाया।

**पद नख निरखि देवसरि हरषी। सुनि प्रभु बचन मोह मति करषी॥**

**केवट राम रजायसु पावा। पानि कठवता भरि लै आवा॥ भा०– **श्रीराम के चरण–नख को देखकर गंगा जी प्रसन्न हुईं और भगवान्‌ के वचन सुनकर उनकी बुद्धि को मोह ने आकर्षित कर लिया, अर्थात्‌ गंगा जी को थोड़ी देर के लिए भगवान्‌ के प्रति मोह हो गया। तात्पर्य यह है कि, जब पार जाने के लिए भगवान्‌ ने केवट से मनुहार की तब गंगा जी को क्षण भर के लिए यह लगा कि, श्रीराम भगवान्‌ हैं या नहीं ? केवट ने श्रीराम से राजाज्ञा पाई और वह कठौता भर कर गंगा जी का जल ले आया।

अति आनन्द उमगि अनुरागा। चरन सरोज पखारन लागा॥ बरषि सुमन सुर सकल सिहाहीं। एहि सम पुन्यपुंज कोउ नाहीं॥

भाष्य

अत्यन्त आनन्द और अनुराग में उमंगित होकर अर्थात्‌ आप्लावित होकर केवट श्रीराघव के चरणकमल को पखारने लगा (धोने लगा)। सभी देवता पुष्पों की वर्षा करके ईर्ष्या के साथ केवट की प्रशंसा कर रहे हैं, इसके समान आज कोई भी पुण्यपुंज नहीं है। अर्थात पुण्य समूहों वाला नहीं है।

**दो०- पद पखारि जल पान करि, आपु सहित परिवार।**

पितर पार करि प्रभुहिं पुनि, मुदित गयउ लै पार॥१०१॥

भाष्य

स्वयं परिवार के सहित श्रीराम के चरणों को पखारकर चरणामृत जल का पान करके, पितरों को पार करा के, फिर प्रसन्नता से केवट श्रीसीता, लक्ष्मण जी के साथ प्रभु श्रीराम को नाव पर बिठा कर गंगा जी के पार ले गया।

**उतरि ठा़ढ भए सुरसरि रेता। सीय राम गुह लखन समेता॥ केवट उतरि दंडवत कीन्हा। प्रभुहिं सकुच एहि नहिं कछु दीन्हा॥**
भाष्य

गुह और लक्ष्मण जी के सहित श्रीसीताराम जी नाव से उतरकर गंगा जी की रेत अर्थात्‌ बालू में ख़डे हो गये। केवट ने नाव से उतरकर प्रभु को दंडवत किया। प्रभु को संकोच हुआ, मैंने इसे कुछ भी नहीं दिया।

**पिय हिय की सिय जाननिहारी। मनि मुदरी मन मुदित उतारी॥ कहेउ कृपालु लेहु उतराई। केवट चरन गहे अकुलाई॥**
भाष्य

प्रियतम श्रीराम के हृदय को जानने वाली श्रीसीता ने मन में प्रसन्न होकर अपनी मणिमय मुद्रिका हाथ से उतार दी। अथवा अपने शीश का चूड़ामणि एवं हाथ की मुद्रिका प्रसन्न होकर उतार दी। कृपालु श्रीराम जी ने कहा, केवट! उतराई ले लो। केवट ने अकुलाकर श्रीसीताराम जी के चरण पक़ड लिए और बोला–

[[३८५]]

**विशेष– *क्योंकि केवट ने भगवान्‌ श्रीराम की उतराई लेने से मना कर दिया था नाथ उतराइ चहौं। *मानस २.१००.९, परन्तु श्रीलक्ष्मण एवं श्रीसीता की उतराई अभी शेष थी, इसलिए श्रीसीता जी ने लक्ष्मण जी की उतराई के लिए चूड़ामणि एवं स्वयं की उतराई के लिए मुद्रिका उतार ली।

नाथ आजु मैं काह न पावा। मिटे दोष दुख दारिद दावा॥ बहुत काल मैं कीन्हि मजूरी। आजु दीन्ह बिधि बनि भलि भूरी॥

भाष्य

नाथ! आज मैंने क्या नहीं पाया? मेरे दोष, दु:ख और दारिद्र रूप दावाग्नि सब मिट गये। मैंने बहुत काल तक मजदूरी की, पर आज विधाता ने सुन्दर और बहुत अधिक पारिश्रमिक दे दिया।

**अब कछु नाथ न चाहिय मोरे। दीनदयालु अनुग्रह तोरे॥ फिरती बार मोहि जो देवा। सो प्रसाद मैं सिर धरि लेवा॥**
भाष्य

हे नाथ! हे दीनदयालु! आपके अनुग्रह से अब मुझे कुछ भी नहीं चाहिये। हे नाथ! फिरती बार अर्थात्‌ वनवास से लौटते समय अथवा, मेरी जीवन–यात्रा के अन्त में आप मुझे जो देंगे वह प्रसाद मैं मस्तक पर च़ढा कर ले लूँगा।

**दो०- बहुत कीन्ह प्रभु लखन सिय, नहिं कछु केवट लेइ।**

बिदा कीन्ह करुनायतन, भगति बिमल बर देइ॥१०२॥

भाष्य

प्रभु श्रीराम, श्रीलक्ष्मण, श्रीसीता जी ने बहुत आग्रह किया, पर केवट कुछ भी नहीं ले रहा है। फिर कव्र्णा के भवन श्रीराम जी ने विमल भक्तिरूप वरदान देकर केवट को विदा किया। अथवा भगवती श्रीसीता जी ने करुणा के भवन श्रीराम जी की विमलभक्ति को ही केवट को वरदानरूप में देकर उसे विदा कर दिया।

**\* मासपारायण, तेरहवाँ विश्राम \***

तब मज्जन करि रघुकुलनाथा। पूजि पारथिव नायउ माथा॥

भाष्य

तब अर्थात्‌ केवट को विदा देने के पश्चात्‌, रघुकुल के स्वामी भगवान्‌ श्रीराम जी ने गंगा जी में स्नान करके पार्थवेश्वर (शिव जी) की पूजा करके मस्तक नवाया।

**सिय सुरसरिहिं कहेउ कर जोरी। मातु मनोरथ पुरउब मोरी॥ पति देवर सँग कुशल बहोरी। आइ करौं जेहिं पूजा तोरी॥**
भाष्य

सीता जी ने गंगा जी से हाथ जोड़कर कहा, हे माँ! आप मेरा मनोरथ पूर्ण कीजिये। जिससे मैं अपने पति श्रीराघव तथा छोटे देवर लक्ष्मण के साथ सकुशल वनवास–यात्रा पूरी करके, आकर आप की पूजा करूँ।

**सुनि सिय बिनय प्रेम रस सानी। भइ तब बिमल बारि बर बानी॥ सुनु रघुबीर प्रिया बैदेही। तव प्रभाव जग बिदित न केही॥ लोकप होहिं बिलोकत तोरे। तोहि सेवहिं सब सिधि कर जोरे॥ तुम जो हमहिं बबिड़ िनय सुनाई। कृपा कीन्हि मोहि दीन्हि बड़ाई॥ तदपि देबि मैं देब अशीषा। सफल होन हित निज बागीशा॥**

दो०- प्राननाथ देवर सहित, कुशल कोसला आइ।

पूजिहिं सब मन कामना, सुजस रहिहि जग छाइ॥१०३॥

[[३८६]]

भाष्य

इसके पश्चात्‌ सीता जी की प्रेमरस से सनी हुई प्रार्थना सुनकर, निर्मल जलवाली गंगा जी में श्रेष्ठ वाणी हुई अर्थात्‌ गंगा जी बोलीं, हे रघुवीर श्रीराम जी की प्रिया! हे विदेह नन्दिनी जानकी जी! सुनिये, संसार में आपका प्रभाव किसको नहीं ज्ञात है। अथवा, संसार में आपका प्रभाव किसी को ज्ञात नहीं है, क्योंकि उसे सामान्य बुद्धि से नहीं जाना जा सकता। वस्तुत: आपकी कृपादृष्टि से अर्थात्‌ देखने मात्र से साधारण जीव भी लोकपाल हो जाते हैं। सभी अणिमादि सिद्धियाँ, हाथ जोड़कर आपकी सेवा करती हैं। आपने जो हमें बहुत प्रार्थना सुनायी, वह तो कृपा की है और मुझको बड़प्पन दी है। हे देवी! आप देवाधिदेव श्रीराम जी की पत्नी हैं। सीते! फिर भी मैं अपनी वागीशा अर्थात्‌ सरस्वती को सफल करने के लिए आशीर्वाद अवश्य दूँगी। आप अपने प्राणपति श्रीराम एवं देवर लक्ष्मण के साथ वनवास–यात्रा पूर्ण करके, कुशलपूर्वक श्रीअयोध्या पधार आयेंगी। आपकी सभी मन : कामनाये पूर्ण होंगी, आपका सुयश संसार में छाया रहेगा।

**गंग बचन सुनि मंगल मूला। मुदित सीय सुरसरि अनुकूला॥**
भाष्य

गंगा जी की प्रसन्नता और मंगलों के आश्रय रूप वचनों को सुनकर और देवनदी गंगा जी को अपने अनुकूल जानकर सीता जी प्रसन्न हुईं।

**तब प्रभु गुहहिं कहेउ घर जाहू। सुनत सूख मुख भा उर दाहू॥ दीन बचन गुह कह कर जोरी। बिनय सुनहु रघुकुलमनि मोरी॥ नाथ साथ रहि पंथ देखाई। करि दिन चारि चरन सेवकाईं॥ जेहिं बन जाइ रहब रघुराई। परनकुटी मैं करब सुहाई॥ तब मोहि कहँ जस देब रजाई। सो करिहउँ रघुबीर दोहाई॥**
भाष्य

तब प्रभु श्रीराम ने निषादराज गुह से कहा, तुम घर लौट जाओ। यह सुनते ही निषादराज का मुख सूख गया और उनके हृदय में प्रभु के संभावित वियोग से बहुत–बड़ा दाह अर्थात्‌ ताप हुआ। निषादराज गुह हाथ जोड़कर दीनतापूर्वक वचन कहने लगे, हे रघुकुल के मणि श्रीराम जी! मेरी प्रार्थना सुनिये, मैं आपके साथ रहकर वन का मार्ग दिखलाकर चार दिनों तक आप के श्रीचरणों की सेवा करके, आप जिस वन में जाकर रहेंगे वहाँ मैं आपके लिए सुन्दर पर्णकुटी बनाऊँगा, फिर आप मुझे जैसी राजाज्ञा देंगे मैं वही करूँगा। हे रघुकुल के वीर श्रीराम! आप की दुहाई हो (आप का कल्याण हो)।

**सहज सनेह राम लखि तासू। संग लीन्ह गुह हृदय हुलासू॥ पुनि गुह ग्याति बोलि सब लीन्हे। करि परितोष बिदा तब कीन्हे॥**
भाष्य

श्रीराम ने निषादराज गुह का स्वाभाविक स्नेह देखकर हृदय में उल्लास के साथ गुह को अपने संग ले लिया। फिर राजा गुह ने अपने ग्याति अर्थात्‌ बंधु–बांधवों, परिजनों और सभी मंत्रियों को बुला लिया और उनका परितोष करके अर्थात्‌ समझा–बुझाकर सबको विदा कर दिया (लौटा दिया) तथा स्वयं प्रभु के साथ चले।

**दो०- तब गनपति शिव सुमिरि प्रभु, नाइ सुरसरिहिं माथ।**

सखा अनुज सिय सहित बन, गमन कीन्ह रघुनाथ॥१०४॥

भाष्य

तब प्रभु अर्थात्‌ सर्वसमर्थ रघु अर्थात्‌ शुभ–अशुभ का लंघन करने वाले, रघु शब्द के अर्थरूप सम्पूर्ण जीवों के नाथ यानी ईश्वर, भगवान्‌ श्रीराम ने श्रीगणेश तथा शिव जी का स्मरण करके, देवनदी गंगा जी को प्रणाम करके, मित्र गुह, छोटे भैया लक्ष्मण तथा सीता जी के सहित शृंगबेरपुर से वन के लिए गमन किया।

[[३८७]]

तेहि दिन भयउ बिटप तर बासू। लखन सखा सब कीन्ह सुपासू॥ प्रात प्रातकृत करि रघुराई। तीरथराज दीख प्रभु जाई॥

भाष्य

उस दिन संध्याकाल में भगवान्‌ श्रीराम का एक वृक्ष के नीचे वास अर्थात्‌ विश्राम हुआ। लक्ष्मण जी तथा मित्र निषादराज ने श्रीसीताराम जी की सभी सुविधापूर्ण व्यवस्थायें की। प्रात:काल रघुकुल के राजा प्रभु श्रीराम ने प्रात:कालीन कृत्य अर्थात्‌ वेद विहित संध्यावन्दन, अग्निहोत्र आदि नित्य नेम करके, जाकर तीर्थराज प्रयाग के दर्शन किये।

**सचिव सत्य श्रद्धा प्रिय नारी। माधव सरिस मीत हितकारी॥ चारि पदारथ भरा भँडारू। पुन्य प्रदेश देश अति चारू॥ छेत्र अगम ग़ढ गा़ढ सुहावा। सपनेहुँ नहिं प्रतिपच्छिन पावा॥ सैन सकल तीरथ बर बीरा। कलुष अनीक दलन रनधीरा॥ संगम सिंहासन सुठि सोहा। छत्र अछयबट मुनि मन मोहा॥ चवँर जमुन अरु गंग तरंगा। देखि होहिं दुख दारिद भंगा॥**

दो०- सेवहिं सुकृती साधु शुचि, पावहिं सब मनकाम॥

बंदी बेद पुरान गन, कहहिं बिमल गुन ग्राम॥१०५॥

भाष्य

यहाँ रूपक अलंकार द्वारा प्रयाग को तीर्थाें के राजा के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं। सत्य ही तीर्थराज प्रयाग का मंत्री है तथा श्रद्धा, अर्थात्‌ वेद और ईश्वर में आस्था तीर्थराज की प्रिय पत्नी हैं। उनके बारह माधव जैसे हित करने वाले मित्र हैं। अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष नामक चार पदार्थों से तीर्थराज का भंडार (राजकोष) भरा रहता है। पुण्यमय प्रयाग प्रदेश ही, उनका सुन्दर देश है। प्रयाग क्षेत्र (गंगा की धारा वाला क्षेत्र जहाँ कल्पवासी कल्पवास करते हैं) ही अगम्य और दृ़ढ ग़ढ अर्थात्‌ राजदुर्ग (किला) है, जिसे स्वप्न में भी पापरूप प्रतिपक्षी नहीं पा सकते (जीतकर नहीं अधिकृत कर सकते)। सभी (निन्यानबे करोड़) तीर्थ ही श्रेष्ठ वीर, युद्ध में धीर रहने वाले तीर्थराज की सेना हैं, जो दोषों की सेना को नष्ट करते रहते हैं। गंगा, यमुना, सरस्वती का संगम ही तीर्थराज का सिंहासन है और मुनियों के मन को मोहित करने वाला अक्षयवट, तीर्थराज का छत्र है। भगवती गंगा जी और यमुना जी की लहरें ही तीर्थराज के दो चामर हैं, जिनके दर्शन करने मात्र से दु:ख और दारिद्र नष्ट हो जाते हैं। सत्कर्म करने वाले पवित्र साधुजन, अर्थात्‌ सज्जनवृन्द प्रयाग रूप राजा की सेवा करते हैं (वे ही प्रयाग रूप राजा के परिकर हैं)। प्रयाग रूप राजा की सेवा से वे मन द्वारा इच्छित फल पाते हैं। चारों वेद, अठारहों पुराण, अठारहों उप–पुराण ही प्रयाग रूप राजा के बंदीगण हैं, जो तीर्थराज के निर्मल गुण समूह को कहते रहते हैं।

**को कहि सकइ प्रयाग प्रभाऊ। कलुष पुंज कुंजर मृगराऊ॥ अस तीरथपति देखि सुहावा। सुख सागर रघुबर सुख पावा॥ कहि सिय लखनहिं सखहिं सुनाई। श्रीमुख तीरथराज बड़ाई॥ करि प्रनाम देखत बन बागा। कहत महातम अति अनुरागा॥**
भाष्य

पापसमूह रूप हाथियों को नष्ट करने के लिए, सिंहस्वरूप प्रयाग के प्रभाव को कौन कह सकता है? ऐसे सुहावने तीर्थराज को देख कर सुख के समुद्र रघुवर श्रीराम ने सुख पाया, अर्थात्‌ प्रभु प्रसन्न हुए। अपने श्रीमुख

[[३८८]]

से सीताजी, लक्ष्मण जी और मित्र निषाद को तीर्थराज की बड़ाई सुना–सुनाकर कहते हुए, प्रणाम करके तीर्थराज के वनों और बगीचों को देखते हुए अत्यन्त प्रेम से प्रभु श्रीराम जी प्रयाग का माहात्म्य कह रहें हैं।

एहि बिधि आइ बिलोकी बेनी। सुमिरत सकल सुमंगल देनी॥ मुदित नहाइ कीन्हि शिव सेवा। पूजि जथाबिधि तीरथ देवा॥

भाष्य

इस प्रकार, से भगवान्‌ श्रीराम ने आकर स्मरण करने मात्र से सभी सुमंगलों को देने वाली त्रिवेणी के दर्शन किये, प्रसन्नतापूर्वक नहा कर सोमेश्वर भगवान्‌ शिव जी की श्रीराम ने सेवा की और विधिपूर्वक प्रयाग तीर्थ के सभी देवताओं की पूजा की।

**तब प्रभु भरद्वाज पहँ आए। करत दंडवत मुनि उर लाए॥ मुनि मन मोद न कछु कहि जाई। ब्रह्मानन्द राशि जनु पाई॥**
भाष्य

तब प्रभु श्रीराम, सीताजी, लक्ष्मण जी एवं निषादराज गुह जी के साथ महर्षि भरद्वाज के पास आये। उन्हें दण्डवत्‌ करते हुए मुनि ने हृदय से लगा लिया। भरद्वाज मुनि के मन का मोद अर्थात्‌ आनन्द कुछ भी नहीं कहा जा सकता, मानो महर्षि ने ब्रह्मानन्द की राशि को ही पा लिया है।

**दो०- दीन्ह अशीष मुनीश उर, अति आनँद अस जानि।**

**लोचन गोचर सुकृत फल, मनहुँ किए बिधि आनि॥१०६॥ भा०– **मुनि भरद्वाज ने भगवान्‌ श्रीराम को आशीर्वाद दिया, मानो ब्रह्मा जी ने सम्पूर्ण सत्कर्मों के फल को ही ले आकर, भरद्वाज के नेत्रों का विषय बना दिया अर्थात्‌ आज पुण्यों का फल ही शरीर धारण करके भरद्वाज के नेत्रों

के समक्ष उपस्थित हुआ, ऐसा जानकर, महर्षि के हृदय में अत्यन्त आनन्द हुआ।

कुशल प्रश्न करि आसन दीन्हे। पूजि प्रेम परिपूरन कीन्हे॥ कंद मूल फल अंकुर नीके। दिए आनि मुनि मनहुँ अमी के॥ सीय लखन जन सहित सुहाए। अति रुचि राम मूल फल खाए॥ भए बिगतश्रम राम सुखारे। भरद्वाज मृदु बचन उचारे॥ आजु सुफल तप तीरथ त्यागू। आजु सुफल जप जोग बिरागू॥ सफल सकल शुभ साधन साजू। राम तुमहिं अवलोकत आजू॥ लाभ अवधि सुख अवधि न दूजी। तुम्हरे दरस आस सब पूजी॥

भाष्य

महर्षि भरद्वाज ने प्रभु का कुशल पूछकर उन्हें आसन दिया। भगवान्‌ श्रीराम की पूजा करके, उन्हें अपने प्रेम से परिपूर्ण कर दिया। अथवा, भगवान्‌ की पूजा करके भरद्वाज ने अपने प्रेम को ही परिपूर्ण कर लिया। मुनि ने मानो अमृत के सम्बन्ध से उत्पन्न हुए सुन्दर कंदमूल, फल और अंकुर शाक प्रभु को नैवेद्द समर्पित किये। प्रभु श्रीराम ने सीता जी, लक्ष्मण जी और अपने सेवक निषादराज गुह के साथ रुचिपूर्वक सुहावने मूल और फल खाये अर्थात्‌ स्वीकार किया। भगवान्‌ श्रीराम का पैदल चलने से उत्पन्न श्रम समाप्त हो गया, वे सुखी हुए, तब भरद्वाज ने कोमल वचन कहे, हे भगवन्‌! आज मेरे तप, तीर्थयात्रा और त्याग सफल हो गये, आज जप, योग और वैराग्य सफल हो गये। हे श्रीराम! आज आपके दर्शन करते ही सम्पूर्ण कल्याणों का साज भी सफल हो गया। प्रभु कोई दूसरी लाभ की अवधि और सुख की अवधि नहीं है, अर्थात्‌ आपके दर्शन ही सभी लाभों और सभी सुखों की सीमा है। आपके दर्शनों से मेरी सभी आशायें पूर्ण हो गईं।

[[३८९]]

अब करि कृपा देहु बर एहू। निज पद सरसिज सहज सनेहू॥

दो०- करम बचन मन छाछिड़ ल, जब लगि जन न तुम्हार।

तब लगि सुख सपनेहुँ नहीं, किए कोटि उपचार॥१०७॥

भाष्य

हे प्रभु! अब कृपा करके अपने चरणकमलों में स्वाभाविक प्रेम दे दीजिये, मेरे लिए यही वरदान है। कर्म, वाणी और मन से छल छोड़कर जीव जब तक आपका सेवक नहीं बनता, तब तक करोड़ों सुखों के यत्न करने पर भी उसें स्वप्न में भी सुख नहीं मिल सकता।

**सुनि मुनि बचन राम सकुचाने। भाव भगति आनंद अघाने॥ तब रघुबर मुनि सुजस सुहावा। कोटि भाँति कहि सबहिं सुनावा॥ सो बड़ सो सब गुन गन गेहू। जेहि मुनीश तुम आदर देहू॥ मुनि रघुबीर परसपर नवहीं। बचन अगोचर सुख अनुभवहीं॥**
भाष्य

भरद्वाज मुनि के वचन सुनकर श्रीराम संकुचित हो गये और मुनि के भाव तथा भक्ति के आनन्द से तृप्त हो गये। तब रघुश्रेष्ठ श्रीराम ने भरद्वाज मुनि का सुहावना सुयश करोड़ों प्रकार से कहकर सुनाया। हे मुनियों के ईश्वर भरद्वाज! जिसे आप आदर देते हैं, वही बड़ा हो जाता है और वही सम्पूर्ण श्रेष्ठगुणों के समूहों का घर बन जाता है। मुनि तथा भगवान्‌ श्रीराम दोनों ही एक–दूसरे के प्रति विनम्र हो रहे हैं अर्थात्‌ झुक रहे हैं और दोनों वाणी के विषय से परे अनिर्वचनीय सुख का अनुभव कर रहे हैं।

विशेष

यहाँ यह तथ्य अत्यन्त ध्यान देने योग्य है कि महाभारत आदि पर्व एवं भागवत्‌ नवम स्कन्ध में वर्णित तथ्य भरद्वार से श्री रामायण में वर्णित सप्तर्षियों मण्डल में विराजमान श्री भरद्वार की कथा सर्वथा भिन्न है। महाभारत और भागवत में वर्णित भरद्वार यदि सामान्य कोटि के ब्राह्मण कुमार हैं जो द्रोणाचार्य जैसे अधम कक्षा के आचार्य के पिता हैं और श्रीरामायण में वर्णित भरद्वाज सप्तर्षियों में विशिष्ट अनादि ऋषि, महर्षि वाल्मीकि के शिष्य, श्रीमानस के ‘ाोता, परम रामभक्त ब्रह्मर्षि हैं।

यह सुधि पाइ प्रयाग निवासी। बटु तापस मुनि सिद्ध उदासी॥ भरद्वाज आश्रम सब आए। देखन दशरथ सुअन सुहाए॥

भाष्य

श्रीराम भरद्वाज आश्रम में पधारे हैं, यह समाचार पाकर सभी प्रयाग–क्षेत्र में रहने वाले, विषयों से उदासीन, ब्रह्मचारी, तपस्वी, मुनि और सिद्धजन, सुन्दर दशरथ राजकुमार को देखने के लिए भरद्वाज के आश्रम में आये।

**राम प्रनाम कीन्ह सब काहू। मुदित भए लहि लोचन लाहू॥**

देहिं अशीष परम सुख पाई। फिरे सराहत सुंदरताई॥

भाष्य

भगवान्‌ श्रीराम ने सभी ब्रह्मचारियों, मुनियों, तपस्वियों और सिद्धजनों को प्रणाम किया। वे सब नेत्रों का लाभ प्राप्त करके (प्रभु के दर्शन करके) प्रसन्न हुए। सभी परमसुख अर्थात्‌ श्रेष्ठसुख पाकर प्रभु को आशीर्वाद तथा शुभकामनायें देने लगे और भगवान्‌ श्रीराम की सुन्दरता की सराहना करते हुए अपने–अपने आश्रमों को लौट गये।

**दो०- राम कीन्ह बिश्राम निशि, प्रात प्रयाग नहाइ।**

चले सहित सिय लखन जन, मुदित मुनिहिं सिर नाइ॥१०८॥

[[३९०]]

भाष्य

श्रीराम ने रात्रि में भरद्वाज के आश्रम में ही विश्राम किया। प्रात:काल प्रयाग में स्नान करके तथा भरद्वाज जी को प्रणाम करके, सीताजी, लक्ष्मण जी तथा अपने सेवक निषादराज के साथ प्रसन्नतापूर्वक आगे चले।

**राम सप्रेम कहेउ मुनि पाहीं। नाथ कहिय हम केहि मग जाहीं॥**

**मुनि मन बिहँसि राम सन कहहीं। सुगम सकल मग तुम कहँ अहहीं॥ भा०– **भगवान्‌ श्रीराम जी ने प्रेम के साथ भरद्वाज जी से कहा (पूछा), हे नाथ! बतायें, हम किस मार्ग से जायें? भरद्वाज मुनि मन में हँसकर श्रीराम से कहते हैं, हे प्रभु! आपके लिए सभी मार्ग सुगम हैं।

साथ लागि मुनि शिष्य बोलाए। सुनि मन मुदित पचासक आए॥

भाष्य

प्रभु के साथ के लिए भरद्वाज मुनि ने शिष्यों को बुलाया। उनकी आज्ञा सुनकर मन में प्रसन्न होते हुए पचासों शिष्य आ गये।

**विशेष– **चार वेद, चार उप–वेद, अठारह पुराण, अठारह स्मृतियाँ, शिक्षा, कल्प, निरुक्त, ज्यौतिष, छन्द और व्याकरण ये छ: बेदांग, ये ही भरद्वाज मुनि के पचास शिष्य हैं।

सबहिं राम पर प्रेम अपारा। सकल कहहिं मग दीख हमारा॥ मुनि बटु चारि संग तब दीन्हे। जिन बहु जनम सुकृत सब कीन्हे॥ करि प्रनाम ऋषि आयसु पाई। प्रमुदित हृदय चले रघुराई॥

भाष्य

उन सभी पचास शिष्यों को भगवान्‌ श्रीराम पर अपार प्रेम था और सभी कह रहे थे कि, मार्ग हमारा देखा हुआ है। तब भरद्वाज मुनि ने उन चार ब्रह्मचारी शिष्यों को श्रीराम के साथ दिया, जिन्होंने बहुत से जन्मों में सभी शुभकर्म किये थे। प्रणाम करके, भरद्वाज मुनि की आज्ञा पाकर, रघुराज श्रीराम प्रसन्न मन से आगे चले।

**विशेष– **यहाँ चार बटु, ऋग्‌, यजुष्‌, साम्‌ तथा अथर्वण यह चार वेद ही थे। इन्होंने सौ करोड़ रामायण के रूप में सौ करोड़ जन्म लेकर, श्रीराम–गुण गाकर समस्त शुभकर्म कर दिये थे।

ग्राम निकट जब निकसहिं जाई। देखहिं दरस नारि नर धाई॥ होहिं सनाथ जनम फल पाई। फिरहिं दुखित मन संग पठाई॥

भाष्य

जब श्रीराम ग्राम के निकट से जाकर निकलते हैं, तब गाँव के नर–नारी दौड़कर दर्शनीय श्रीराम को देखते हैं। अपने जीवन का फल पाकर, सनाथ अर्थात्‌ प्रभु श्रीराम के द्वारा नाथवान्‌ हो जाते हैं (प्रभु श्रीराम जी को अपना स्वामी मानकर धन्य हो जाते हैं।) और अपने मन को प्रभु के साथ भेज कर दुखित होकर अपने घरों को लौट आते हैं।

**दो०- बिदा किए बटु बिनय करि, फिरे पाइ मन काम ।**

**उतरि नहाए जमुन जल, जो शरीर सम श्याम॥१०९॥ भा०– **भगवान्‌ श्रीराम ने प्रार्थना करके चारों ब्रह्मचारी बटुओं को विदा कर दिया। वे प्रभु के पास से मनचाहा वरदान्‌ पाकर भरद्वाज मुनि के आश्रम को लौट गये। फिर भगवान्‌ श्रीराम नौका से पार उतरकर, यमुना जी के

जल में स्नान किये, जो श्रीराघवेन्द्र के शरीर के समान ही श्यामल था।

सुनत तीरबासी नर नारी। धाए निज निज काज बिसारी॥ लखन राम सिय सुंदरताई। देखि करहिं निज भाग्य बड़ाई॥

[[३९१]]

भाष्य

प्रभु का आगमन सुनकर यमुना जी के तीर पर रहने वाले सभी पुरुष–स्त्री अपने–अपने कार्य छोड़कर दौड़े तथा लक्ष्मणजी, श्रीराम और भगवती श्रीसीता की सुन्दरता देखकर, अपने भाग्य की प्रशंसा करने लगे।

**अति लालसा सबहि मन माहीं। नाउँ गाउँ बूझत सकुचाहीं॥ जे तिन महँ बय बृद्ध सयाने। तिन करि जुगुति राम पहिचाने॥**
भाष्य

सबके मन में प्रभु के सम्बन्ध में जानने की बहुत लालसा अर्थात्‌ उत्कंठा थी, परन्तु सभी भगवान्‌ का नाम और ग्राम पूछने में संकोच कर रहे थे। उन यमुना तटवासियों में जो वयोवृद्ध और चतुर थे, उन्होंने युक्ति करके अर्थात्‌ श्रीवत्सलांछन आदि के दर्शनों से भगवान्‌ श्रीराम को पहचान लिया।

**सकल कथा तिन सबहिं सुनाई। बनहिं चले पितु आयसु पाई॥ सुनि सबिषाद सकल पछिताहीं। रानी राय कीन्ह भल नाहीं॥**
भाष्य

उन लोगों ने सभी को सम्पूर्ण कथा सुनायी और बताया कि, श्रीराम पिता की आज्ञा पाकर वन को चल पड़े हैं। यह समाचार सुनकर, सभी लोग दु:ख के साथ पश्चात्‌ ताप करने लगे और बोले, रानी कैकेयी और महाराज दशरथ ने अच्छा नहीं किया।

**तेहि अवसर एक तापस आवा। तेजपुंज लघु बयस सुहावा॥ कबि अलखित गति बेष बिरागी। मन क्रम बचन राम अनुरागी॥**
भाष्य

उसी अवसर पर एक प्रधान तपस्वी आया, जो तेज का तो समूह था तथा छोटी अवस्था का बड़ा सुन्दर लग रहा था। वह कवि था, उसकी गति अलक्ष्य थी अर्थात्‌ वह तपस्वी किस ओर से आया, किस मार्ग से आया, यह किसी ने नहीं देखा। वह वेश से विरागी था, अर्थात्‌ वह श्वेत काषायवस्त्र धारण किये हुए चरण में पादुका, गले में बहुत–बड़ी मणियों वाली सुन्दर तुलसी की कण्ठी, द्वादश तिलक, शिखा, यज्ञोपवीत तथा कमण्डल धारण किये था और वह मन कर्म और वचन से भगवान्‌ श्रीराम का अनुरागी था।

**दो०- सजल नयन तन पुलकि निज, इष्टदेव पहिचानि।**

परेउ दंड जिमि धरनितल, दशा न जाइ बखानि॥११०॥

भाष्य

अपने इष्टदेव श्रीराम, लक्ष्मण, सीता जी को पहचानकर, नेत्रों में आँसू भरकर रोमांचित शरीर वाला होकर तापस डण्डे की भाँति पृथ्वी पर गिर पड़ा। उसकी दशा बखानी नहीं जाती।

**राम सप्रेम पुलकि उर लावा। परम रंक जनु पारस पावा॥ मनहुँ प्रेम परमारथ दोऊ। मिलत धरे तन कह सब कोऊ॥**
भाष्य

श्रीराम ने प्रेमपूर्वक रोमांचित होकर तापस को हृदय से लगा लिया, मानो परमदरिद्र ने पारस मणि पा लिया। सभी लोग कहने लगे कि, मानो शरीर धारण करके प्रेम और परमार्थ मोक्ष परस्पर मिल रहे हों।

**बहुरि लखन पायँन सोइ लागा। लीन्ह उठाइ उमगि अनुरागा॥**

**पुनि सिय चरन धूरि धरि शीषा। जननि जानि शिशु दीन्ह अशीषा॥ भा०– **फिर वह तापस मुनि, श्रीलक्ष्मण के चरणों से लिपट गया। अनुराग से पूर्ण होकर लक्ष्मण जी ने उसे उठा

लिया, फिर तापस ने भगवती श्रीसीता जी के चरणों की धूलि को मस्तक पर धारण किया। माँ ने शिशु अर्थात्‌ तापस को छोटा बालक (पुत्र) जानकर आशीर्वाद दिया।

कीन्ह निषाद दंडवत तेही। मिलेउ मुदित लखि राम सनेही॥ पियत नयन पुट रूप पियूषा। मुदित सुअशन पाइ जिमि भूखा॥

[[३९२]]

भाष्य

फिर निषादराज गुह ने तापस को दण्डवत्‌ किया और वह तापस निषादराज को श्रीराम का स्नेही सखा देखकर, उनसे प्रसन्नतापूर्वक मिला। तापस अपने दोनों नेत्र से प्रभु श्रीराम के रूपसुधा का पान करने लगा। वह इतना प्रसन्न हुआ, मानो भूखा व्यक्ति सुन्दर भोजन पा गया हो।

**विशेष– **यहाँ तापस प्रसंग को लेकर अनेक शंकायें उठायी जाती हैं। कुछ लोग इसे क्षेपक कहते हैं और कुछ अनेक उत्प्रेक्षायें करते हैं। मेरी अवधारणा में यह तापस गोस्वामी तुलसीदास जी के अतिरिक्त और कोई नहीं हैं। यह गोस्वामी जी का समाधि–दर्शन है। श्रीराम की लीलायें देश, काल और परिस्थितियों से ऊपर उठकर उन भक्तों की भावना के अनुसार नित्य ही प्रकट या गुप्तरूप में होती रहती है। यमुना तट पर गोस्वामी तुलसीदास जी के जन्मभूमि राजापुर में भावना जगत्‌ के अनुसार पहुँचकर, तुलसीदास जी का प्रभु से मिलना, उनके रुपामृत का पान करना, यह सब कुछ स्वाभाविक है, जैसे महात्मा सूरदास जी का भगवान्‌ कृष्ण की लीला से मिलकर बाराती अथवा, ढॉं़ढी होना। इस प्रसंग के सम्बन्ध में विशेष जानने के लिए मेरे द्वारा लिखित, मानस में तापस प्रसंग नामक ग्रंथ देखिये।

राम लखन सिय रूप निहारी। होहिं सनेह बिकल नर नारी॥ ते पितु मातु कहहु सखि कैसे। जिन पठए बन बालक ऐसे॥

भाष्य

श्रीराम, लक्ष्मण, सीता जी का रूप देखकर यमुना तट के नर–नारी प्रेम से विकल हो गये। महिलायें बोलीं, हे सखी! वे पिता–माता कैसे हैं, जिन्होंने ऐसे बालकोें को वन भेज दिया?

**दो०- तब रघुबीर अनेक बिधि, सखहिं सिखावन दीन्ह।**

राम रजायसु शीष धरि, भवन गवन तेहिं कीन्ह॥१११॥

भाष्य

तब रघुकुल के वीर श्रीराम ने मित्र निषादराज गुह को अनेक प्रकार की शिक्षायें दीं। तब श्रीराम की राजाज्ञा को सिर पर धारण करके निषादराज गुह ने अपने घर के लिए प्रस्थान किया।

**पुनि सिय राम लखन कर जोरी। जमुनहिं कीन्ह प्रनाम बहोरी॥ चले ससीय मुदित दोउ भाई। रबितनुजा कइ करत बड़ाई॥**
भाष्य

फिर श्रीराम, लक्ष्मण, सीता जी ने हाथ जोड़कर यमुना जी को प्रणाम किया, फिर सीता जी के सहित दोनों भाई सूर्यपुत्री यमुना जी की प्रशंसा करते हुए चले।

**पथिक अनेक मिलहिं मग जाता। कहहिं सप्रेम देखि दोउ भ्राता॥ राज सुलच्छन अंग तुम्हारे। देखि सोच अति हृदय हमारे॥ मारग चलहु पयादेहिं पाएँ। ज्योतिष झूठ हमारे भाएँ।**
भाष्य

मार्ग में जाते हुए अनेक पथिक मिलते हैं और दोनों भ्राताओं को देखकर प्रेमपूर्वक कहते हैं कि, तुम दोनों के अंग में राजाओं के श्रेष्ठ लक्षण हैं। तुम्हें देखकर हमारे हृदय में अत्यन्त शोक हो रहा है। तुम बिना पदत्राण के पैदल मार्ग में चल रहे हो हमारे ही भाव से ज्योतिष झूठा पड़ रहा है।

**अगम पंथ गिरि कानन भारी। तेहि महँ साथ नारि सुकुमारी॥ करि केहरि बन जाइ न जोई। हम सँग चलहिं जो आयसु होई॥ जाब जहाँ लगि तहँ पहुँचाई। फिरब बहोरि तुमहिं सिर नाई॥**
भाष्य

मार्ग बड़ा कठिन है, वन में बहुत–बड़े पर्वत हैं, उसमें भी आप लोगों के साथ एक सुकुमारी महिला है। मार्ग में हाथी और सिंह है, जो देखे नहीं जा सकते। यदि आज्ञा हो तो हम साथ चलें, आप जहाँ तक जायेंगे वहाँ तक पहुँचाकर, फिर आपको प्रणाम करके हम पुन: लौट आयेंगे।

[[३९३]]

दो०- एहि बिधि पूँछिहिं प्रेम बश, पुलक गात जल नैन।

कृपासिंधु फेरहिं तिनहिं, कहि बिनीत मृदु बैन॥११२॥

भाष्य

इस प्रकार रोमांचित शरीर होकर, आँखों में आँसू भरकर प्रेम के विवश हुए पथिकगण, श्रीराम से पूछते हैं और कृपा के सागर भगवान्‌ श्रीराम विनम्र तथा कोमल वाणी कहकर उन्हें लौटा देते हैं।

**जे पुर गाँव बसहिं मग माहीं। तिनहिं नाग सुर नगर सिहाहीं॥ केहि सुकृती केहि घरी बसाए। धन्य पुन्यमय परम सुहाए॥**
भाष्य

मार्ग में जो पुर और ग्राम बस रहे हैं, उन्हें नागों और देवताओं के नगर ईर्ष्यापूर्वक सिहा रहे हैं। वे कहते हैं, इन परमसुन्दर पुण्यों की प्रचुरता से युक्त पुरों और ग्रामों को किस सत्कर्म करने वाले ने किस समय बसाया?

**जहँ जहँ राम चरन चलि जाहीं। तिन समान अमरावति नाहीं॥ पुन्यपुंज मग निकट निवासी। तिनहिं सराहहिं सुरपुर बासी॥ जे भरि नयन बिलोकहिं रामहिं। सीता लखन सहित घनश्यामहिं॥**
भाष्य

जहाँ जहाँ भगवान्‌ श्रीराम के चरण चले जाते हैं उन ग्रामों, नगरों और पुरों के समान इन्द्र की पुरी अमरावति भी नहीं है। मार्ग के निकट रहने वाले लोग पुण्यपुंज से मुक्त हैं, उन्हें देवलोक के निवासी सराहते हैं, जो लोग श्रीसीता एवं लक्ष्मण जी के सहित वर्षाकालीन बादल के समान श्यामल श्रीराम को आँख भर निहार रहे हैं।

**जे सर सरित राम अवगाहहिं। तिनहिं देवसर सरित सराहहिं॥ जेहि तरुतर प्रभु बैठहिं जाई। करहिं कलपतरु तासु बड़ाई॥ परसि राम पद पदुम परागा। मानति भूमि भूरि निज भागा॥**
भाष्य

जिन तालाब और नदियों में भगवान्‌ श्रीराम स्नान करते हैं, उन्हें देवताओं के तालाब मानससरोवर आदि और देवनदी गंगा जी आदि सराहती हैं (उनकी प्रशंसा करती है)। जिस वृक्ष के नीचे प्रभु श्रीराम जाकर विश्राम के लिए बैठते हैं, कल्पवृक्ष उनकी प्रशंसा करते हैं। श्रीराम के चरणकमल की पराग ―प धूलि का स्पर्श करके पृथ्वी अपना बहुत–बड़ा सौभाग्य मानती है।

**दो०- छाँहँ करहिं घन बिबुधगन, बरषहिं सुमन सिहाहिं।**

**देखत गिरि बन बिहग मृग, राम चले मग जाहिं॥११३॥ भा०– **बादल छाया कर रहे हैं और देवतागण पुष्पों की वर्षा करते हुए सिहा रहे हैं (ईर्ष्या के साथ प्रशंसा कर रहे हैं)। पर्वत, वन, पक्षी और पशुओं को देखते हुए, श्रीराम, लक्ष्मण, सीता जी मार्ग में चले जा रहे हैं।

**विशेष– **यहाँ राम पद से ही गोस्वामी जी ने श्रीराम, लक्ष्मण एवं सीता जी का बोध कराया है, यथा– ‘र’ राघव, ‘आ’ आदिशक्ति सीताजी, ‘म’ जीवाचार्य लक्ष्मणजी।

सीता लखन सहित रघुराई। गाँव निकट जब निकसहिं जाई॥ सुनि सब बाल बृद्ध नर नारी। चलहिं तुरत गृह काज बिसारी॥

भाष्य

सीता जी एवं लक्ष्मण जी के साथ जब, रघुकुल के राजा श्रीराम गाँव के निकट से जाकर निकलते हैं, तब सभी बालक, वृद्ध, पुरुष और स्त्रियाँ अपने घर के कार्य भूलकर प्रभु के दर्शनों के लिए तुरन्त चल पड़ते हैं।

[[३९४]]

राम लखन सिय रूप निहारी। पाइ नयन फल होहिं सुखारी॥ सजल बिलोचन पुलक शरीरा। सब भए मगन देखि दोउ बीरा॥

भाष्य

श्रीराम, लक्ष्मण और भगवती सीता जी के रूप को निहारकर (देखकर) नेत्रों का फल पाकर, ग्राम के सभी नर–नारी सुखी हो जाते हैं। दोनों भाइयों को देखकर सबके नेत्रों में जल भर आया। सभी के शरीरों में रोमांच हो आया और सभी प्रेम में मग्न हो गये।

**बरनि न जाइ दशा तिन केरी। लहि जनु रंकनि सुरमनि ढेरी॥ एकन एक बोलि सिख देहीं। लोचन लाहु लेहु छन एहीं॥**
भाष्य

उनकी दशा कही नहीं जाती, मानो दरिद्रोें ने सुरमणि अर्थात्‌ चिन्तामणि का ढेर पा लिया हो। एक–दूसरे को बुलाकर शिक्षा देते हैं, इसी क्षण नेत्रों का लाभ ले लो अर्थात्‌ भगवान्‌ श्रीराम को देख लो।

**रामहिं देखि एक अनुरागे। चितवत चले जाहिं सँग लागे॥ एक नयन मगछबि उर आनी। होहिं शिथिल तनु मन बर बानी॥**
भाष्य

कुछ लोग श्रीराम को देखकर, प्रेम में भरे हुए एकटक निहारते हुए, प्रभु के साथ लगे चले जा रहे हैं। अन्य लोग नेत्रों के माध्यम से श्रीराम, लक्ष्मण, सीता जी की छवि को हृदय में ले आकर, श्रेष्ठ शरीर, मन, वाणी से शिथिल हो जाते हैं अर्थात्‌ उनके शरीर निश्चेष्ट, मन संकल्पशून्य और वाणी मूक हो रही है।

**दो०- एक देखि बट छाँहँ भलि, डासि मृदुल तृन पात।**

**कहहिं गवाँइय छिनक श्रम, गवनब अबहिं कि प्रात॥११४॥ भा०– **अन्य लोग वटवृक्ष की सुन्दर छाया देखकर, कोमल घास और पत्ते बिछाकर कहते हैं कि, क्षण भर इस शैय्या पर बैठकर अपनी थकान उतार लीजिये, फिर अभी चले जाइयेगा अथवा, प्रात:काल पधारियेगा, जैसी आपकी अनुकूलता हो।

एक कलश भरि आनहिं पानी। अँचइय नाथ कहहिं मृदु बानी॥ सुनि प्रिय बचन प्रीति अति देखी। राम कृपालु सुशील बिशेषी॥ जानी श्रमित सीय मन माहीं। घरिक बिलंब कीन्ह बट छाहीं॥

भाष्य

अन्य लोग घड़ों में भर कर जल लाते हैं और कोमल वाणी में कहते हैं, स्वामी! आचमन कर लीजिये अर्थात्‌ थोड़ा जल पी लीजिये। ग्रामवासियों के कोमल वचन सुनकर, उनकी विशेष प्रीति को देखकर, सीता जी को मन में श्रमित अर्थात्‌ थकी हुई जानकर, कृपामय सुन्दर शील वाले श्रीराम ने एक घड़ी भर वट की छाया के नीचे विलम्ब अर्थात्‌ यात्रा को विलम्बित कर दिया (विश्राम किया)।

**मुदित नारि नर देखहिं शोभा। रूप अनूप नयन मन लोभा॥ एकटक सब सोहहिं चहुँ ओरा। रामचंद्र मुख चंद्र चकोरा॥**
भाष्य

प्रसन्न होकर स्त्री और पुरुष श्रीराम की शोभा को देख रहे हैं, क्योंकि प्रभु के उपमाओं से रहित रूप में सभी ग्रामवासियों के नेत्र और मन लुब्ध हो रहे हैं। सभी ग्रामवासी श्रीरामचन्द्र के मुखचन्द्र के चकोर बने हुए टकटकी लगाये हुए चारों ओर सुशोभित हो रहे हैं। अर्थात्‌ सभी नर–नारियों के चारों ओर श्रीरामचन्द्र के मुखचन्द्र के ही दर्शन हो रहे हैं, यही प्रभु का विश्वतोमुखत्व है।

**तरुन तमाल बरन तन सोहा। देखत कोटि मदन मन मोहा॥ दामिनि बरन लखन सुठि नीके। नख शिख सुभग भावते जी के॥**

[[३९५]]

भाष्य

भगवान्‌ श्रीराम का नवीन तमाल वृक्ष के समान श्यामल शरीर सुशोभित हो रहा है, जिसे देखते ही करोड़ों कामदेव के मन मोहित हो जाते हैं। विद्दुत के समान गौरवर्ण के लक्ष्मण जी बहुत सुन्दर हैं, वे नख से शिखापर्यन्त सुन्दर हैं और जीवात्मा को बहुत भाते हैं।

**मुनिपट कटिन कसे तूनीरा। सोहहिं कर कमलनि धनु तीरा॥**

दो०- जटा मुकुट शीषनि सुभग, उर भुज नयन बिशाल।

शरद परब बिधु बदन बर, लसत स्वेद कन जाल॥११५॥

भाष्य

उन दोनों भाइयों के कटि–प्रदेशों में मुनिपट अर्थात्‌ वल्कलवस्त्र और तरकस कसे हुए हैं। उनके हस्तकमलों में धनुष और बाण सुशोभित हो रहे हैं। उनके सिरों में सुन्दर जटायें ही मुकुट बन गई है। दोनों भ्राताओं के हृदय, भुजायें और नेत्र विशाल (बड़े-बड़े) हैं। उनके शरद्‌ की पूर्णिमा के चन्द्रमा जैसे मुखों पर पसीने की बूँदों के समूह सुशोभित हो रहे हैं।

**बरनि न जाइ मनोहर जोरी। शोभा बहुत थोरि मति मोरी॥ राम लखन सिय सुंदरताई। सब चितवहिं चित मन मति लाई॥ थके नारि नर प्रेम पियासे। मनहुँ मृगी मृग देखि दिया से॥**
भाष्य

इस मनोहर जोड़ी का वर्णन नहीं किया जा सकता। श्रीराम, लक्ष्मण की शोभा बहुत है और मेरी बुद्धि बहुत थोड़ी है। सभी ग्राम नर–नारी चित्त, मन और बुद्धि को लगा कर श्रीराम, लक्ष्मण, सीता जी की सुन्दरता के दर्शन कर रहे हैं। प्रेम के प्यासे नारी–नर अर्थात्‌ महिला और पुरुष उसी प्रकार, थके अर्थात्‌ भावविभोर होकर स्थिर हो गये, मानो दीपक को देखकर हरिणी और हिरण स्थिर हो गये हों।

**विशेष– **दीपक के प्रकाश को देखकर मृगी और मृग निश्चेष्ट हो जाते हैं। यह दृश्य आज भी बहुश: मार्ग में देखने को मिलता है।

सीय समीप ग्रामतिय जाहीं। पूँछत अति सनेह सकुचाहीं॥ बार बार सब लागहिं पाएँ। कहहिं बचन मृदु सरल सुभाएँ॥

भाष्य

भगवती श्रीसीता के समीप ग्राम की महिलायें जाती हैं और पूछने में अत्यन्त प्रेम के कारण सकुचा जाती हैं। सभी ग्रामीण महिलायें बार–बार श्रीसीता के चरणों में लिपटती हैं और स्वभाव से ही सरल तथा कोमल वाणी कहती हैं।

**राजकुमारि बिनय हम करहीं। तिय सुभाव कछु पूँछत डरहीं॥ स्वामिनि अबिनय छमब हमारी। बिलग न मानव जानि गॅंवारी॥**
भाष्य

हे राजकुमारी! हम ग्रामीण महिलायें आपसे प्रार्थना करती हैं। अपने नारी स्वभाव के कारण आपसे कुछ पूछने में हम डर रही हैं। हे स्वामिनी जी! हमारी इस अनुचित प्रार्थना को क्षमा कीजियेगा और हमको गँवार

अर्थात्‌ अशिक्षित और असभ्य जानकर अपने से दूर मत मानियेगा।

राजकुअँर दोउ सहज सलोने। इन ते लहि दुति मरकत सोने॥

दो०- श्यामल गौर किशोर बर, सुंदर सुषमा ऐन।

शरद शर्बरीनाथ मुख, शरद सरोरुह नैन॥११६॥ कोटि मनोज लजावनिहारे। सुमुखि कहहु को आहिं तुम्हारे॥

[[३९६]]

भाष्य

यह दोनों राजकुमार स्वभाव से सुन्दर हैं। मरकत मणि और स्वर्ण ने इन्हीं से कान्ति पाई है। अर्थात्‌ मरकत मणि को जो नीलिमा मिली है, वह साँवले राजकुमार से प्राप्त हुई है और स्वर्ण में जो पीलापन दिख रहा है, वह गोरे राजकुमार से ही प्राप्त हुआ है। दोनों राजकुमार किशोर साँवले और गोरे हैं तथा पन्द्रह वर्ष से कम वय वाले दिखते हैं। ये श्रेष्ठ सुन्दर तथा परमशोभा के ऐन, अर्थात्‌ आश्रय हैं। इनके मुख शरद्‌ पूर्णिमा की चन्द्रमा के समान हैं और इनके नेत्र शरद्‌काल के कमल जैसे हैं। अर्थात्‌ जैसे चन्द्रमा के सामने कमल संकुचित रहता है, उसी प्रकार हम चन्द्रमुखियों के सामने इनके नेत्र बंद हैं। हे सुमुखी! तुम्हारा मुख धन्य है, जिसे श्यामल राजकुमार बार–बार देखते हैं। ऐसे करोड़ों कामदेवों को लज्जित करने वाले दोनों राजकुमार तुम्हारे कौन (सम्बन्धी) हैं, बताओ?

**सुनि सनेहमय मंजुल बानी। सकुची सिय मन महँ मुसुकानी॥ तिनहिं बिलोकि बिलोकति धरनी। दुहुँ संकोच सकुचति बरबरनी॥ सकुचि सप्रेम बाल मृग नयनी। बोली मधुर बचन पिकबयनी॥**
भाष्य

ग्राम वधुओं की स्नेह से युक्त मधुर वाणी सुनकर, सीता जी संकुचित होने लगीं और मन में मुस्कुरायीं। कुलांगना वधू (सुन्दर दुल्हन) सीताजी, उन सखियों को देखकर पृथ्वी को देखती हैं और दोनों के संकोच से संकुचित हो जाती हैं। तात्पर्य यह है कि, सीता जी सोचती हैं कि, यदि उत्तर नहीं दूँगी, तो गाँव की स्त्रियाँ दु:खी हो जायेंगी, यदि उत्तर दूँगी, तो अपनी माता पृथ्वी के समक्ष अपने पति का परिचय देने से भारतीय महिला की शालीनता समाप्त हो जायेगी। फिर बालहरिणी के समान नेत्र वाली, कोकिला के समान बोलने वाली, जनकनन्दिनी जानकी जी संकुचित होकर प्रेमपूर्वक मधुर वचन बोलीं–

**सहज स्वभाव सुभग तन गोरे। नाम लखन लघु देवर मोरे॥ बहुरि बदन बिधु अंचल ढाँकी। पिय तन चितइ भौहँ करि बाँकी॥ खंजन मंजु तिरीछे नयननि। निज पति कहेउ तिनहिं सिय सयननि॥**
भाष्य

जिनका स्वभाव सहज अर्थात्‌ सरल है, अथवा जिनका जन्म से ही मेरे प्रति सुन्दर भाव है, ऐसे बहुत सुन्दर, जो गोरे शरीर वाले हैं, उनका नाम लक्ष्मण है, वे मेरे छोटे देवर हैं अर्थात्‌ बड़े देवर भरत ननिहाल में हैं। लक्ष्मण उनसे छोटे हैं, इसलिए वे लघु देवर हैं। फिर, सीता ने अपने मुखचन्द्र को आँचल से ढॅंककर, प्रियतम श्रीराम की ओर देखकर, अपनी भौंहें टे़ढी करके खंजन पक्षी के समान सुन्दर और मधुर तिरछे नेत्रों द्वारा, संकेत से उन ग्रामीण महिलाओं से खंजन पक्षी के समान श्रीराम को अपना पति कहकर अथवा, तिरछे नेत्रों से प्रभु की ओर निहार कर उन्हीं को अपना पति कहकर परिचय दिया।

**विशेष– **श्रीसीता ने आँचल से मुख ढॅंककर संकेत यह किया कि, जैसे चित्त के मिलित होते हुए भी पति को आँचल की ओट से देखने पर ही पत्नी को रसानुभूति होती है, उसी प्रकार परमात्मा की आराधना में भी किसी न किसी भक्ति सहित भाव का आश्रय लेने में ही भजन का आनन्द आता है।

__भईं मुदित सब ग्रामबधूटी। रंकन राय राशि जनु लूटी॥ दो०- अति सप्रेम सिय पायँ परि, बहुबिधि देहिं अशीश।

**सदा सुहागिनि रहहु तुम, जब लगि महि अहि शीश॥११७॥ भा०– **सभी ग्राम वधुयें बहुत प्रसन्न हुई, मानो दरिद्रों ने रायराशि अर्थात्‌ राजा की धनराशि (राजकोष) लूट ली हो। गाँव की नारियाँ अत्यन्त पवित्र प्रेम के साथ सीता जी के चरणों को पक़डकर बहुत प्रकार से आशीर्वाद दे

[[३९७]]

रहीं हैं। कहती हैं, हे राजकुमारी! जब तक पृथ्वी शेषनाग के सिर पर विराज रही है, उस कालपर्यन्त आप सदैव सौभाग्यवती रहें।

पारबती सम पतिप्रिय होहू। देबि न हम पर छाड़ब छोहू॥ पुनि पुनि बिनय करिय कर जोरी। जौ एहि मारग फिरिय बहोरी॥ दरशन देब जानि निज दासी। लखी सीय सब पे्रम पियासी॥ मधुर बचन कहि कहि परितोषी। जनु कुमुदिनी कौमुदी पोषी॥

भाष्य

हे राजकुमारी! आप श्रीपार्वती जी के ही समान अपने पति की प्यारी हों हे देवी! हम पर से अपनी ममता मत छोयिड़े। हम हाथ जोड़कर बार–बार विनय करती हैं। यदि आप इस मार्ग से फिर लौटें, तो अपनी दासी जानकर हमें दर्शन दीजियेगा। श्रीसीता जी ने सभी ग्रामीण महिलाओं को प्रेमरस की प्यासी देखा। मीठे वचन कह–कह कर सबको परितुष्ट किया। अर्थात्‌ समझाकर संतुष्ट किया, मानो कौमुदी अर्थात्‌ चांदनी ने कुमुदिनियों को अपने किरणों के माध्यम से पुष्ट कर दिया हो।

**तबहिं लखन रघुबर रुख जानी। पूँछेउ मग लोगन मृदु बानी॥ सुनत नारि नर भए दुखारी। पुलकित गात बिलोचन बारी॥**
भाष्य

उसी समय, श्रीराम का संकेत जानकर लक्ष्मण जी ने लोगों से कोमल वाणी में मार्ग पूछा, यह सुनते ही सभी स्त्री–पुरुष दु:खी हो गये, उनके शरीर रोमांचित हो उठे और उनके नेत्रों में आँसू भर आये।

**मिटा मोद मन भए मलीने। बिधि निधि दीन्ह लेत जनु छीने॥**

**समुझि करम गति धीरज कीन्हा। सोधि सुगम मग तिन कहि दीन्हा॥ भा०– **ग्रामवासियों की प्रसन्नता मिट गई, मन उदास हो गया, मानो दी हुई निधि को ब्रह्मा जी छीन ले रहें हैं। कर्म की गति समझकर, हमारे पास इतने क्षणों के लिए ही श्रीसीताराम जी के दर्शन का सौभाग्य था, ग्रामवासियों ने धैर्य धारण किया और सुगम मार्ग का शोधन करके उन लोगों ने लक्ष्मण जी को बता दिया।

दो०- लखन जानकी सहित तब, गमन कीन्ह रघुनाथ।

फेरे सब प्रिय बचन कहि, लिए लाइ मन साथ॥११८॥

भाष्य

इसके पश्चात्‌ लक्ष्मण जी और श्रीसीता जी के सहित श्रीरघुनाथ जी ने वन के लिए प्रस्थान किया। प्रिय वचन कहकर, सभी को लौटाया, पर सबके मन को अपने साथ ले लिया।

**फिरत नारि नर अति पछिताहीं। दैवहिं दोष देहिं मन माहीं॥ सहित बिषाद परसपर कहहीं। बिधि करतब उलटे सब अहहीं॥**
भाष्य

लौटते हुए ग्राम के नारी–नर बहुत पछताते हैं और वे मन में दैव अर्थात्‌ कर्मफलदाता ईश्वर को दोष देते हैं। विषाद के साथ एक–दूसरे से कहते हैं कि, विधाता के सभी कार्य उल्टे अर्थात्‌ विपरीत हैं।

**निपट निरंकुश निठुर निशंकू। जेहिं शशि कीन्ह सरुज सकलंकू॥ रूख कलपतरु सागर खारा। तेहिं पठए बन राजकुमारा॥**
भाष्य

कहते हैं कि, देखो, ब्रह्मा जी अत्यन्त निरंकुश हैं अर्थात्‌ इन पर किसी का प्रतिबन्ध नहीं है। वह निर्दय और नि:शंक, अर्थात्‌ निर्भीक हैं। जिन्होंने इतने सुन्दर चन्द्रमा को रोगी और कलंकी बना दिया, अर्थात्‌ अमृत किरणोंवाला होकर भी चन्द्रमा क्षय का रोगी बना और गुरुपत्नी पर आसक्त होकर कलंकी बन गया। कल्पवृक्ष को साधारण पेड़ बनाया और अगाध समुद्र को खारा करके अपेय बना दिया अर्थात्‌ जिस विधाता ने चन्द्रमा को

[[३९८]]

रोगी और कलंकी, देववृक्ष को सामान्य वृक्ष और सागर को खारा बनाया, उसी ने राज्यसुख के योग्य इन राजकुमारों को वन भेज दिया?

जौ पै इनहिं दीन्ह बनबासू। कीन्ह बादि बिधि भोग बिलासू॥ ए बिचरहिं मग बिनु पदत्राना। रचे बादि बिधि बाहन नाना॥

भाष्य

यदि विधाता ने इन राजकुमारों को वनवास दिया, तो फिर अनेक भोग की सामग्रियाँ क्यों रच डाली? ये राजकुमार बिना पनहीं के नंगे चरण से वन में भ्रमण कर रहे हैं, फिर विधाता ने अनेक हाथी, घोड़े, रथ, विमान आदि वाहनों की रचना व्यर्थ ही की।

**ए महि परहिं डासि कुश पाता। सुभग सेज कत सृजत बिधाता॥ तरुतर बास इनहिं बिधि दीन्हा। धवल धाम रचि कत श्रम कीन्हा॥**
भाष्य

यदि ये दो राजकुमार और राजकुमारी कुश और पत्ते बिछाकर पृथ्वी पर सोते हैं, तो विधाता सुन्दर-सुन्दर शैय्याओं की क्यों रचना करते हैं? विधाता ने इनको तो वृक्ष के नीचे निवास दिया, फिर दूसरों के लिए चूने से पोते हुए सुन्दर श्वेत भवनों की रचना करके क्यों श्रम किया?

**दो०- जौ ए मुनि पट धर जटिल, सुंदर सुठि सुकुमार।**

बिबिध भाँति भूषन बसन, बादि किए करतार॥११९॥

भाष्य

यदि सुन्दर और अत्यन्त सुकुमार ये तीनों मुनियों के ही वस्त्र धारण करते हैं और सिर पर जटा बना रखी है, अर्थात्‌ ब्रह्मा जी के रचित आभूषणों और वस्त्रों का इनके लिए कोई उपयोग नहीं है, तो फिर ब्रह्मा जी ने व्यर्थ ही अनेक प्रकार के आभूषणों और वस्त्रों की रचना की।

**जौ ए कंद मूल फल खाहीं। बादि सुधादि अशन जग माहीं॥**
भाष्य

यदि ये तीनों (श्रीसीता, राम एवं लक्ष्मण) कंदमूल तथा वन के फल ही खाते हैं और कोई भोजन इनके भाग्य में नहीं है, तो फिर संसार में अमृत आदि भोजन व्यर्थ है?

**एक कहहिं ए सहज सुहाए। आपु प्रगट भए बिधि न बनाए॥ जहँ लगि बेद कही बिधि करनी। स्रवन नयन मन गोचर बरनी॥ देखहु खोजि भुअन दस चारी। कहँ अस पुरुष कहाँ असि नारी॥ इनहिं देखि बिधि मन अनुरागा। पटतर जोग बनावै लागा॥ कीन्ह बहुत श्रम ऐक न आए। तेहिं इरिषा बन आनि दुराए॥**
भाष्य

अन्य लोग कहने लगे, स्वभाव से सुन्दर ये (श्रीसीता, राम, लक्ष्मण) स्वयं ही प्रकट हुए हैं, इन्हें विधाता ने नहीं बनाया। वेद ने जहाँ तक हमारे श्रवण (कान), नेत्र और मन का विषय बनी हुई ब्रह्मा जी की रचना को वर्णन करके कहा, वहाँ तक चौदहो भुवन ़ढूंढकर देखो श्रीराम, लक्ष्मण, ऐसे पुरुष कहाँ हैं और श्रीसीता जी जैसी नारी कहाँ है ? इन्हें देखकर विधाता का भी मन अनुरक्त हो गया और इनकी उपमा देने के लिए इनके सादृश्य के योग्य उपमानों को बनाने लगा। बहुत श्रम किया, परन्तु कोई भी विधाता के बनाये हुए नर–नारी इनकी समानता में नहीं आये। इसी ईर्ष्या के कारण विधाता ने इन तीनों को वन में ले आकर छिपा दिया।

**एक कहहिं हम बहुत न जानहिं। आपुहिं परम धन्य करि मानहिं॥ ते पुनि पुन्यपुंज हम लेखो। जे देखहिं देखिहैं जिन देखे॥**

[[३९९]]

भाष्य

दूसरे लोग कहने लगे, हम तो बहुत नहीं जानते हैं, हम अपने को ही अत्यन्त धन्य करके मान रहे हैं। फिर हमने उनको पुण्यों का पुंज मान लिया है, जो लोग इन्हें देख रहे हैं, भविष्य में जो देखेंगे और पूर्व में जिन्होंने इन्हें देखा है।

**दो०- एहि बिधि कहि कहि बचन प्रिय, लेहि नयन भरि नीर।**

**किमि चलिहैं मारग अगम, सुठि सुकुमार शरीर॥१२०॥ भा०– **इस प्रकार, प्यारे वचन कह–कह कर ग्राम के नर–नारी अपने नेत्रों मे आँसू भर लेते हैं और कहते हैं, अत्यन्त सुकुमार शरीर वाले ये तीनों पथिक अगम्य मार्ग में कैसे चलेंगे?

नारि सनेह बिकल सब होहीं। चकई साँझ समय जनु सोहीं॥ मृदु पद कमल कठिन मग जानी। गहबर हृदय कहहिं बर बानी॥

भाष्य

ग्राम की सभी नारियाँ प्रेम से विकल हो जाती है, जैसे सायंकाल में चकई शोभित होती है। इन तीनों पथिकों के चरणों को कमल के समान कोमल तथा वन को कठिन जानकर, करुण रस से घिरे हुए हृदय से नारियाँ श्रेष्ठ वाणी में कहती हैं।

**परसत मृदुल चरन अरुनारे। सकुचति महि जिमि हृदय हमारे॥ जौ जगदीश इनहिं बन दीन्हा। कस न सुमनमय मारग कीन्हा॥ जौ माँगा पाइय बिधि पाहीं। ए रखियहिं सखि आँखिन माहीं॥**
भाष्य

इनके कोमल लाल चरणों को स्पर्श करते हुए, पृथ्वी उसी प्रकार संकुचित हो रही है, जैसे हमारे हृदय संकुचित हो रहे हैं। यदि जगत्‌ के ईश्वर विधाता ने इन्हें (श्रीसीता, राम, लक्ष्मण) को वन दिया, तो मार्ग को पुष्पमय क्यों नहीं बनाया? यदि हम विधाता के पास से माँगा हुआ पातीं, तो हे सखी! इन तीनों पथिकों को हम अपनी आँखों में रख लेतीं।

**जे नर नारि न अवसर आए। तिन सिय राम न देखन पाए॥ सुनि सुरूप बूझहिं अकुलाई। अब लगि गए कहाँ लगि भाई॥ समरथ धाइ बिलोकहिं जाई। प्रमुदित फिरहिं जनम फल पाई॥**

दो०- अबला बालक बृद्ध जन, कर मीजहिं पछिताहिं।

होहिं प्रेमबश लोग इमि, राम जहाँ जहँ जाहिं॥१२१॥

भाष्य

उस अवसर पर जो पुरुष–स्त्री नहीं आये, वे श्रीसीता, राम, लक्ष्मण को नहीं देख पाये। (यहाँ राम शब्द लक्ष्मण का भी उपलक्षण है।) तीनों पथिकों का स्वरूप सुनकर वे अकुलाकर पूछने लगे, हे भाई! श्रीसीता, राम, लक्ष्मण अभी कहाँ तक गये होंगे? जो समर्थ हैं वे तो दौड़कर जाकर देख लेते हैं और प्रभु के दर्शन कर अपने जन्म लेने का फल पाकर इय्लाभ से उत्पन्न प्रसन्नता के साथ लौट आते हैं, किन्तु चलने फिरने में जो असमर्थ निर्बल महिलायें, बालक और वृद्धजन हैं, वे हाथ मलते और पछताते हैं कि, हाय विधाता! हमसे आने में विलम्ब क्यों हुआ? इस प्रकार श्रीराम जहाँ–जहाँ जाते हैं वहाँ–वहाँ लोग प्रेम के विवश हो जाते हैं।

**गाँव गाँव अस होइ अनंदू। देखि भानुकुल कैरव चंदू॥ जे कछु समाचार सुनि पावहिं। ते नृप रानिहिं दोष लगावहिं॥ कहहिं एक अति भल नरनाहू। दीन्ह हमहिं जोइ लोचन लाहू॥**

[[४००]]

भाष्य

इस प्रकार से सूर्यकुलरूप कुमुद के चन्द्रमा प्रभु श्रीरामचन्द्र जी को देखकर गाँव–गाँव में आनन्द होता है। जो लोग कुछ भी समाचार सुन पाते हैं, वे महाराज दशरथ और महारानी कैकेयी को दोष लगाते हैं। दूसरे लोग कहते हैं कि, महाराज दशरथ जी अच्छे हैं, जिन्होंने श्रीराम जी को वनवास देकर हमें नेत्रों का लाभ तो दे दिया।

**कहहिं परसपर लोग लुगाई। बातें सरल सनेह सुहाई॥ ते पितु मातु धन्य जिन जाए। धन्य सो नगर जहाँ ते आए॥ धन्य सो देश शैल बन गाऊँ। जहँ जहँ जाहिं धन्य सोइ ठाऊँ॥ सुख पायउ बिरंचि रचि तेही। ए जेहि के सब भाँति सनेही॥**
भाष्य

पुरुष और स्त्रियाँ परस्पर सरल स्नेह से सुन्दर बातें कह रहे हैं, वे पिता–माता धन्य हैं, जिन्होंने इन तीनों को जन्म दिया है। वह नगर धन्य है, जहाँ से ये लोग आये हैं। वह देश, वह पर्वत, वह वन, वह ग्राम धन्य हैं। जहाँ–जहाँ ये जा रहे हैं, वह स्थान धन्य है। जिस व्यक्ति के ये सब प्रकार से स्नेही अर्थात्‌ स्नेह के आश्रय हैं, उसी की रचना करके ब्रह्मा जी ने बहुत सुख पाया।

**राम लखन सिय कथा सुहाई। रही सकल मग कानन छाई॥**

दो०- एहि बिधि रघुकुल कमल रबि, मग लोगन सुख देत।

**जाहिं चले देखत बिपिन, सिय सौमित्रि समेत॥१२२॥ भा०– **श्रीराम, लक्ष्मण और सीता जी की कथा वन के सम्पूर्ण मार्ग में छायी रही। इस प्रकार, मार्ग के लोगों को सुख देते हुए वन को देखते हुए सूर्यकुलरूप कमल के सूर्य श्रीराम, सीता जी एवं लक्ष्मण जी के साथ चले जा

रहे हैं।

* नवाहपरायण, चौथा विश्राम *

आगे राम लखन बने पाछे। तापस बेष बिराजत काछे॥ उभय बीच सिय सोहति कैसी। ब्रह्म जीव बिच माया जैसी॥

भाष्य

आगे श्रीराम तथा उनके पीछे लक्ष्मण जी विराज रहे हैं, वे दोनों तपस्वियों के वेश धारण किये हुए, बहुत सुन्दर लग रहे हैं। दोनों भाई श्रीराम, लक्ष्मण के बीच में श्रीसीता जी किस प्रकार सुशोभित हो रही है, जैसे ब्रह्म और जीवाचार्य के बीच में भगवान्‌ की माया अर्थात्‌ कृपा सुशोभित होती है।

**विशेष– **कोशों में माया शब्द कृपा, लीला, मूल अज्ञान तथा छल, इन चार अर्थाें में प्रसिद्ध है। माया कृपायां लीलायां मूलाज्ञाने छले तथा। उक्त चार अर्थों में से यहाँ कृपा अर्थ अभीष्ट है। जीव शब्द यहाँ जीवाचार्य के अर्थ में प्रयुक्त है।

बहुरि कहउँ छबि जसि मन बसई। जनु मधु मदन मध्य रति लसई॥ उपमा बहुरि कहउँ जिय जोही। जनु बुध बिधु बिच रोहिनि सोही॥

भाष्य

फिर मैं वह छवि कह रहा हूँ, जो मेरे मन में निवास कर रही है। श्रीराम, लक्ष्मण जी के बीच में सीता जी ऐसे सुशोभित हो रही हैं, मानो वसन्त और काम के बीच में रति शोभा पा रही हों। फिर हृदय में देखकर अर्थात्‌ मानसिक नेत्रों से दर्शन करके उपमा कह रहा हूँ, मानो बुध और चन्द्रमा के बीच में रोहिणी सुशोभित हो रही हों।

[[४०१]]

**विशेष– **यहाँ मानसकार ने क्रम से तीन उपमायें देकर, भगवती श्रीसीता जी के ऐश्वर्य, सौन्दर्य और माधुर्य का दर्शन कराया है।

प्रभु पद रेख बीच बिच सीता। धरति चरन मग चलति सभीता॥ सीय राम पद अंक बराए। लखन चलहिं मग दाहिन लाए॥

भाष्य

भगवती श्रीसीता जी मार्ग में प्रभु श्रीराम के चरणों की रेखाओं के बीच–बीच में चरण रखती हैं और भयभीत होकर चलती हैं कि, कहीं उनके चरणों से प्रभु के चरणों की रेखायें मिट न जायें। सीता जी एवं श्रीराम के चरण चिन्हों को बचा–बचाकर लक्ष्मण जी मार्ग में दाहिनी ओर से चलते हैं, जिससे मर्यादा की रक्षा के साथ प्रभु की अनुकूलता की भी रक्षा होती रहे।

**राम लखन सिय प्रीति सुहाई। बचन अगोचर किमि कहि जाई॥ खग मृग मगन देखि छबि होहीं। लिए चोरि चित राम बटोहीं॥**
भाष्य

श्रीराम, लक्ष्मण, सीता जी की परस्पर प्रीति बड़ी ही सुहावनी तथा वाणी के विषय से परे है, वह किस प्रकार कही जाये? प्रभु की छवि को देखकर, पक्षी और पशु भी मग्न हो जाते हैं। बटोही श्रीराम ने चित्त को चुरा लिया है।

**दो०- जिन जिन देखे पथिक प्रिय, सिय समेत दोउ भाइ।**

भव मग अगम अनंद तेइ, बिनु श्रम रहे सिराइ॥१२३॥

भाष्य

जिन–जिन लोगोें ने सीता जी के सहित प्यारे पथिक दोनों भाई श्रीराम, लक्ष्मण जी को वन पथ में जाते हुए देखा, वे ही संसार के दुर्गम मार्ग अर्थात्‌ जन्म–मरणात्मक आवागमनमय मार्ग को आनन्दपूर्वक बिना श्रम के समाप्त करके, आनन्दित रह रहे हैं अर्थात्‌ अब उनके लिए कोई भवबन्धन नहीं रह गया, वे मुक्त होकर प्रभु के नित्य परिकरों में मिल गये हैं।

**अजहुँ जासु उर सपनेहुँ काऊ। बसहिं लखन सिय राम बटाऊ॥ राम धाम पथ पाइहि सोई। जो पथ पाव कबहुँ मुनि कोई॥**
भाष्य

आज भी जिसके हृदय में किसी भी समय स्वप्न में भी श्रीलक्ष्मण, सीता जी एवं श्रीराम रूप बटोही निवास करते हैं, वही श्रीरामधाम का वह पथ प्राप्त कर लेगा, जो मार्ग कभी कोई मुनि प्राप्त करता है।

**तब रघुबीर श्रमित सिय जानी। देखि निकट बट शीतल पानी॥ तहँ बसि कंद मूल फल खाई। प्रात नहाइ चले रघुराई॥**
भाष्य

तब रघुकुल के वीर श्रीराम ने सीता जी को श्रमित जाना और थोड़ी ही दूर पर वटवृक्ष तथा शीतल जल देखकर, रघुराज श्रीराम जी वहाँ निवास कर रात्रि में कन्द, मूल, फल का आहार कर, प्रात:काल स्नान करके आगे के लिए चले।

**देखत बन सर शैल सुहाए। बालमीकि आश्रम प्रभु आए॥ राम दीख मुनि बास सुहावन। सुंदर गिरि कानन जल पावन॥**
भाष्य

इस प्रकार, वन, तालाब और सुहावने पर्वतों को देखते हुए, प्रभु श्रीराम वाल्मीकि मुनि के आश्रम आये। श्रीराम ने मुनि का सुहावना निवास, सुन्दर वन और पर्वत तथा पावन जल देखा। (जो आज भी वाल्मीकि गंगा के नाम से प्रसिद्ध है।)

[[४०२]]

सरनि सरोज बिटप बन फूले। गुंजत मंजु मधुप रस भूले॥ खग मृग बिपुल कोलाहल करहीं। बिरहित बैर मुदित मन चरहीं॥

भाष्य

वहाँ तालाबों में कमल तथा वन में वृक्ष विकसित हो रहे थे। मकरन्द में भूले हुए भ्रमर मधुर गुंजार कर रहे थे। अनेक पक्षी, पशु कोलाहल करते और वैर से रहित होकर प्रसन्नता से वन में विचरण करते थे।

**दो०- शुचि सुंदर आश्रम निरखि, हरषे राजिवनैन।**

सुनि रघुबर आगमन मुनि, आगे आयउ लेन॥१२४॥

भाष्य

इस प्रकार, बहुत सुन्दर वाल्मीकि जी का आश्रम देखकर लाल कमल के समान नेत्रोंवाले भगवान्‌ श्रीराम प्रसन्न हुए। रघुकुल में श्रेष्ठ भगवान्‌ का आगमन सुनकर, उन्हें लिवा ले जाने के लिए महर्षि वाल्मीकि जी आगे आये।

**मुनि कहँ राम दंडवत कीन्हा। आशिरबाद बिप्रवर दीन्हा॥ देखि राम छबि नयन जुड़ाने। करि सनमान आश्रमहिं आने॥**
भाष्य

महर्षि वाल्मीकि जी को भगवान्‌ श्रीराम ने दण्डवत्‌ किया और श्रेष्ठ ब्राह्मण वाल्मीकि जी ने प्रभु को आशीर्वाद दिया। श्रीराम की छवि को देखकर, महर्षि के नेत्र शीतल हो गये, वे सम्मान करके प्रभु को आश्रम ले आये।

**मुनिवर अतिथि प्रानप्रिय पाए। तब मुनि आसन दिए सुहाए॥ कंद मूल फल मधुर मँगाए। सिय सौमित्रि राम फल खाए॥**
भाष्य

मुनि श्रेष्ठ वाल्मीकि जी ने आज प्राणों के प्रिय प्रभु को अतिथि रूप में प्राप्त किया है। इसके पश्चात्‌ मुनि ने श्रीराम, लक्ष्मण, सीता जी को सुन्दर आसन दिया। वाल्मीकि जी ने मधुर कन्द, मूल, फल मंगवाये। श्रीसीता, लक्ष्मणजी, और श्रीराम ने कन्द, मूल, फल खाये।

**बालमीकि मन आनँद भारी। मंगल मूरति नयन निहारी॥ तब कर कमल जोरि रघुराई। बोले बचन स्रवन सुखदाई॥**
भाष्य

मंगलमूर्ति श्रीराम, लक्ष्मण, सीता जी को अपने नेत्रों से निहारकर महर्षि वाल्मीकि जी के मन में बहुत– बड़ा-आनन्द हुआ। तब रघु अर्थात्‌ जीवमात्र के स्वामी और रघुकुल के राजा भगवान्‌ श्रीराम कमल के समान कोमल हाथ जोड़कर कानों को सुख देनेवाले वचन बोले–

**तुम त्रिकाल दरसी मुनिनाथा। बिश्व बदर जिमि तुम्हरे हाथा॥ अस कहि प्रभु सब कथा बखानी। जेहि जेहि भाँति दीन्ह बन रानी॥**
भाष्य

हे मुनियों के स्वामी वाल्मीकि जी! आप त्रिकालदर्शी अर्थात्‌ तीनों काल की घटनाओं को देख लेते हैं। सम्पूर्ण विश्व बेर–फल के समान आपके हाथ में है अर्थात्‌ जैसे कोई व्यक्ति बेर के फल को हाथ में लेकर उसकी सम्पूर्ण परिस्थिति समझ लेता है, उसी प्रकार आप विश्व के भीतर–बाहर सब कुछ जान लेते हैं। ऐसा कह कर, प्रभु ने वह सब कथा कह सुनायी, जिस–जिस प्रकार से रानी कैकेयी ने वनवास दिया था।

**दो०- तात बचन पुनि मातु हित, भाइ भरत अस राउ।**

मो कहँ दरस तुम्हार प्रभु, सब मम पुन्य प्रभाउ॥१२५॥

[[४०३]]

भाष्य

पिता जी के वचन का पालन, फिर माता कैकेयी का हित और भैया भरत जैसा राजा तथा मुझे आपका दर्शन, हे प्रभु! सब मेरे पुण्य का प्रभाव है।

**देखि पायँ मुनिराय तुम्हारे। भए सुकृत सब सुफल हमारे॥ अब जहँ राउर आयसु होई। मुनि उदबेग न पावै कोई॥ मुनि तापस जिन ते दुख लहहीं। ते नरेश बिनु पावक दहहीं॥ मंगल मूल बिप्र परितोषू। दहइ कोटि कुल भूसुर रोषू॥ अस जिय जानि कहिय सोइ ठाऊँ। सिय सौमित्रि सहित जहँ जाऊँ॥ तहँ रचि रुचिर परन तृन शाला। बास करौं कछु काल कृपाला॥**
भाष्य

हे मुनिराज! आपके श्रीचरणों के दर्शन करके मेरे सभी सत्कर्म सफल हो गये। अब जहाँ आपकी आज्ञा हो, जहाँ कोई मुनि मुझसे उद्वेग नहीं प्राप्त करें अर्थात्‌ मेरे रहने से किसी को विक्षेप नहीं हो वहाँ मैं रह लूँ, क्योंकि जिन राजाओं से मुनि और तपस्वीजन दु:ख पाते हैं, वे राजा बिना अग्नि के ही जल जाते हैं। ब्राह्मणों का संतोष सभी मंगलों का मूल है और ब्राह्मणों का क्रोध करोड़ों कुलों को जला देता है। मन में ऐसा जानकर, आप वही स्थान कहिये, जहाँ मैं सीता, लक्ष्मण के साथ जाऊँ। हे कृपालु! वहाँ सुन्दर पर्णकुटी बना कर कुछ कालपर्यन्त निवास करूँ।

**सहज सरल सुनि रघुबर बानी। साधु साधु बोले मुनि ग्यानी॥ कस न कहहु अस रघुकुल केतू। तुम पालक संतत श्रुति सेतू॥**
भाष्य

स्वभाव से सरल रघु अर्थात्‌ जीवों के वरणीय श्रीराम की वाणी सुनकर, ज्ञानी मुनि वाल्मीकि जी बोले, ‘साधु–साधु’(बहुत अच्छा–बहुत अच्छा), हे रघुकुल के पताका श्रीराम! आप ऐसा क्यों नहीं कहेंगे, क्योंकि आप सदैव वेदरूप सेतु के पालक हैं।

**छं०- श्रुति सेतु पालक राम तुम जगदीश माया जानकी।**

जो सृजति जग पालति हरति रुख पाइ कृपानिधान की॥ जो सहसशीष अहीश महिधर लखन सचराचर धनी। सुर काज धरि नरराज तनु चले दलन खल निशिचर अनी॥

भाष्य

हे श्रीराम! आप वेदरूप सेतु के पालक हैं। भगवती सीता जी आपकी माया अर्थात्‌ कृपाशक्ति हैं, जो कृपानिधान आपश्री राम जी का संकेत पाकर, ब्रह्मा जी द्वारा जगत्‌ का सृजन कराती हैं, विष्णु जी के द्वारा जगत्‌ का पालन कराती हैं तथा शिव जी द्वारा जगत्‌ का संहार कराती हैं। अथवा आप और जनकनन्दिनी जानकी जी वेदरूप सेतु के पालक हैं। सीता जी की माया अर्थात्‌ लीला ही कृपा के निधान आपश्री का संकेत पाकर क्रम से ब्रह्मा, विष्णु एवं शिव जी का रूप धारण करके जगत्‌ का सृजन, पालन और संहार करती हैं। जो सहस्र सिरवाले विराट्‌ तथा अहीश अर्थात्‌ शेषनाग के भी नियन्ता, वराहरूप से पृथ्वी को धारण करने वाले और चर (चिद्‌ वर्ग), अचर (अचिद्‌ वर्ग) के सहित इस जगत्‌ के धनी अर्थात्‌ पति, वैकुण्ठविहारी विष्णु हैं, वे ही आपके साथ लक्ष्मण जी के रूप में हैं। आप देवताओं के कार्य के लिए राजा का शरीर धारण करके, दुष्ट राक्षसों की सेना को नष्ट करने के लिए वन को चले हैं।

**सो०- राम स्वरूप तुम्हार, बचन अगोचर बुद्धिपर।**

अबिगत अकथ अपार, नेति नेति नित निगम कह॥१२६॥

[[४०४]]

भाष्य

हे श्रीराम! आपका स्वरूप, वाणी से अगम्य, बुद्धि से परे, सर्वव्यापक, अकथनीय और अपार है, उसे ‘नेति–नेति’ इस प्रकार समस्त पदार्थों का निर्षण करते हुए वेद निरन्तर कहते रहते हैं।

**जग पेखन तुम देखनिहारे। बिधि हरि शंभु नचावनिहारे॥ तेउ न जानहिं मरम तुम्हारा। और तुमहिं को जाननिहारा॥ सोइ जानइ जेहि देहु जनाई। जानत तुमहिं तुमहिं होइ जाई॥**
भाष्य

यह संसार एक प्रेक्षण अर्थात्‌ खेल है, इसे आप देखने वाले हैं। इस संसार रूप कठपुतली को क्रम से जन्म द्वारा ब्रह्मा, पालन द्वारा विष्णु और संहार द्वारा शिव जी नचाने वाले हैं। वे (ब्रह्मा, विष्णु और शिव जी) भी आप का मर्म नहीं जानते उनकी किस क्रिया से आप संतुय् होंगे, भला त्रिदेव के अतिरिक्त और कौन आपको जानने वाला है? हे परमात्मन्‌! आपको वही जान सकता है, जिसे आप स्वयं जना देते हैं, अर्थात्‌ जिसको आप स्वयं कृपा करके अपने स्वरूप का ज्ञान करा देते हैं। जो आपको जानते हैं, ऐसे साधक ज्ञाता आपको जानते– जानते आपके लिए हो जाते हैं।

**तुम्हरिहि कृपा तुमहिं रघुनंदन। जानहिं भगत भगत उर चंदन॥**
भाष्य

हे रघकुल तथा रघु नामक जीव को आनन्दित करने वाले! हे भक्तों के हृदय के चंदन अर्थात्‌ आह्लादक (भक्तों के हृदय को आनन्दित करने वाले) प्रभु श्रीराम! आपकी कृपा से आपके भक्त आप को जानते हैं।

**चिदानंदमय देह तुम्हारी। बिगत बिकार जान अधिकारी॥ नर तनु धरहु संत सुर काजा। कहहु करहु जस प्राकृत राजा॥**
भाष्य

भगवन्‌! आपका शरीर चैतन्य और आनन्दमय है। आप जन्म, मरण, स्थिति, परिवर्तन, परिवर्धन और विनाश इन छ: विकारों से रहित हैं। आपको अधिकारी ही जानते हैं। आप सन्तों और देवताआंें के कार्य के लिए मनुष्य का शरीर धारण करते हैं। आप साधारण राजा की भाँति कह और कर रहे हैं अर्थात्‌ साधारण राजकुमार की लीला कर रहे हैं।

**राम देखि सुनि चरित तुम्हारे। ज़ड मोहहिं बुध होहिं सुखारे॥ तुम जो कहहु करहु सब साँचा। जस काछिअ तस चाहिय नाचा॥**
भाष्य

हे श्रीराम! आपके चरित्रों को देख और सुनकर ज़डबुद्धि वाले लोग मोहित हो जाते हैं और विद्वान्‌ सुखी हो जाते हैं। आप जो कहते हैं, उसी को सत्य करते हैं, क्योंकि जिस प्रकार वेश बनाया जाये उसी प्रकार नाचना चाहिये।

**दो०- पूँछेहु मोहि कि रहौं कहँ, मैं पूँछत सकुचाउँ।**

जहँ न होहु तहँ देहु कहि, तुमहिं देखावौं ठाउँ॥१२७॥

भाष्य

आपने मुझ से पूछा कि, मैं कहाँ रहूँ? मैं तो पूछने में संकोच कर रहा हूँ। आप जहाँ न हों वहाँ बतायें अर्थात्‌ कोई ऐसा स्थान बतायें जहाँ आप की व्यापकता नहीं हो, तब मैं आपको स्थान दिखा दूँ, क्योंकि सर्वदेशवृत्ति को व्यापक कहते हैं, यदि वह एक भी अंगुल स्थान पर नहीं रहा तो परमात्मा का व्यापकत्व कैसा? आप सर्वव्याप्त हैं और सर्वत्र रह रहे हैं। अत: आपको स्थान दिखाने का प्रश्न ही नहीं उठता।

**सुनि मुनि बचन पे्रम रस साने। सकुचि राम मन महँ मुसुकाने॥ बालमीकि हँसि कहहिं बहोरी। बानी मधुर अमिय रस बोरी॥**

[[४०५]]

भाष्य

प्रेमरस में भीने हुए महर्षि बाल्मीकि जी के वचन सुनकर, श्रीराम संकुचित होकर मन में मुस्कुराये। फिर महर्षि बाल्मीकि जी हँसकर अमृतरस में डूबोयी हुई मधुर वाणी कहने लगे।

**सुनहु राम अब कहउँ निकेता। जहाँ बसहु सिय लखन समेता॥ भा०– **हे श्रीराम\! सुनिये, अब वह भवन बताता हूँ, जहाँ आप सीता जी एवं लक्ष्मण जी के साथ रहें।

**विशेष– **यहाँ से महर्षि बाल्मीकि जी चौदह स्थानों का निर्देश करना प्रारम्भ कर रहे हैं। इन्हीं के माध्यम से वे चौदह परमभागवतों की चर्चा करेंगे। अथवा, भक्तों के उन चौदह विशेषताओं की चर्चा करेंगे, जिनमें से किसी एक विशेषता के रहने पर भी भगवान्‌, भक्त के हृदय में निवास करते हैं। यहाँ यह ध्यान रहे कि, छन्द रचना के अनुरोध से भले ही कहीं सीता जी एवं लक्ष्मण जी का नाम न सुनायी पड़े, परन्तु उपलक्षण की विधा से प्रत्येक स्थान में तीनों का निवास समझना होगा।

जिन के स्रवन समुद्र समाना। कथा तुम्हारि सुभग सरि नाना॥ भरहिं निरन्तर होहिं न पूरे। तिन के हिय तुम कहँ गृह रूरे॥

भाष्य

जिनके कान समुद्र के समान हैं, वे आपकी अनेक कथारूप गंगा जी को भरते रहते हैं और कभी पूर्ण नहीं होते, उनके हृदय, आप तीनों श्रीराम, सीता, लक्ष्मण जी के लिए सुन्दर भवन हैं। अर्थात्‌ जिनके कान आपकी कथा सुनते–सुनते कभी तृप्त नहीं होते, उनके हृदय में आप निवास कीजिये।

**विशेष– **यह प्रथम विशेषता का वर्णन सम्पन्न हुआ, जो श्रीपार्वती, श्रीगरुड़ श्रीभरद्वाज तथा श्रीयाज्ञवल्क्य जी में समन्वित हो जाता है।

लोचन चातक जिन करि राखे। रहहिं दरस जलधर अभिलाषे॥ निदरहिं सरित सिंधु सर भारी। रूप बिंदु जल होहिं सुखारी॥ तिन के हृदय सदन सुखदायक। बसहु बंधु सिय सह रघुनायक॥

भाष्य

हे रघुकुल के स्वामी प्रभु श्रीराम! जिन्होंने अपने नेत्र को चातक बना रखा है, जो आपके दर्शनरूप मेघों की अभिलाषा किये रहते हैं और जो विशाल नदी, समुद्र तथा तालाबों का भी निरादर करते हैं। केवल आपश्री के रूप के बिन्दु जल से अर्थात्‌ आपकी एक हल्की झाँकी निहारकर सुखी हो जाते हैं, उनके सुख देने वाले हृदयरूप भवन में आप, भाई लक्ष्मण जी और धर्मपत्नी सीता जी के साथ वास कीजिये।

**विशेष– **यह द्वितीय महाभागवत का लक्षण है, जो बालकाण्ड के ही उत्तरार्द्ध में श्रीमनु–शतरूपा, श्रीदशरथ– कौसल्या, श्रीवसिष्ठ–अरुंधती, श्रीविश्वामित्र, श्रीअहल्या, श्रीजनक–सुनयना तथा समस्त मिथिलावासियों में समन्वित हो जाता है।

दो०- जस तुम्हार मानस बिमल, हंसिनि जीहा जासु।

मुकताहल गुन गन चुनइ, राम बसहु हिय तासु॥१२८॥

भाष्य

हे राघवेन्द्र! योगियों के भी रमण के आश्रय प्रभु! आपके निर्मल यश–चरित्ररूप मानससरोवर में जिसकी जिह्वा हंसिनी के समान आपके गुणगण रूप मोतियों को चूगती रहती है, उसके हृदय में आप श्रीसीता, लक्ष्मण जी के साथ वास करें।

**विशेष– **यह तृतीय स्थान है, जो तीसरे प्रकार के भगवत्‌भक्त का लक्षण है। यह अयोध्याकाण्ड के पूर्वार्द्ध में अवधवासियों, निषादराज गुह, केवट, सुमंत्र तथा ग्राम के नर–नारियों में समन्वित हो जाता है।

[[४०६]]

प्रभु प्रसाद शुचि सुभग सुबासा। सादर जासु लहइ नित नासा॥ तुमहिं निबेदित भोजन करहीं। प्रभु प्रसाद पट भूषन धरहीं॥ शीष नवहिं सुर गुरु द्विज देखी। प्रीति सहित करि बिनय बिशेषी॥ कर नित करहिं राम पद पूजा। राम भरोस हृदय नहिं दूजा॥ चरन राम तीरथ चलि जाहीं। राम बसहु तिन के मन माहीं॥

भाष्य

जिसकी नासिका आपके प्रसाद से आई हुई तुलसी, सुन्दर नैवेद्द, पुष्प, इत्र आदि सुगंधित द्रव्यों की पवित्र सुगंध को आदरपूर्वक निरन्तर ग्रहण करती रहती है। जो आपको निवेदित किये हुए पदार्थ का ही भोजन करते हैं अर्थात्‌ अपने भोजन के पूर्व, जो सुन्दर तुलसी पधराकर प्रत्येक सामग्री आपको भोग धरा कर फिर प्रसाद बुद्धि से पाते हैं। जो आपके प्रसाद रूप में ही वस्त्रों और आभूषणों को धारण करते हैं। जिनके सिर, देवता, गुरुजन एवं ब्राह्मणों को देखकर अत्यन्त विशेष विनय के साथ प्रीतिपूर्वक नमन करते हैं। जिनके हाथ, राम अर्थात्‌ परब्रह्म आप श्रीराम प्रभु के श्रीचरणकमल की पूजा करते हैं। जिनके हृदय में आपश्री प्रभु श्रीराम का ही विश्वास रहता है, आपश्री के अतिरिक्त जिन्हें इष्ट रूप में और किसी का विश्वास नहीं रहता। जिनके चरण श्रीराम अर्थात्‌ आपश्री के धाम रूप तीर्थ (श्रीअवध, श्रीचित्रकूट) चल कर जाते हैं। हे श्रीराम! सीता जी एवं लक्ष्मण जी के साथ आप उनके हृदय में निवास कीजिये।

**विशेष– **यह चतुर्थ स्थान की सम्पूर्ण विशेषता श्रीअयोध्याकाण्ड के उत्तरार्द्ध के प्रतिपाद्द भैया भरत में अक्षरश: घट जाती है।

मंत्रराज नित जपहिं तुम्हारा। पूजहिं तुमहिं सहित परिवारा॥ तरपन होम करहिं बिधि नाना। बिप्र जेवाँइ देहिं बहु दाना॥ तुम ते अधिक गुरुहिं जिय जानी। सकल भाय सेवहिं सनमानी॥

दो०- सब करि माँगहिं एक फल, राम चरन रति होउ।

तिन के मन मंदिर बसहु, सिय रघुनंदन दोउ॥१२९॥

भाष्य

जो निरन्तर आपके मंत्रराज षडक्षरमंत्र का जप करते हैं (कम से कम साठ माला का जप करते हैं)। जो अपने परिवार के सहित आपकी पूजा करते हैं (श्रीराम पंचायतन की पूजा)। जो अनेक प्रकार के तर्पण और होम करते हैं, ब्राह्मणों को भोजन कराके बहुत दान देते हैं। अपने हृदय में आपसे अपने सद्‌गुरुदेव को अधिक जानकर, सम्मान करके उनकी सब प्रकार से सेवा करते हैं। इस प्रकार, सम्पूर्ण वेदविहित्‌ कर्म करके सभी से एक ही वरदान माँगते हैं, वह यह कि, श्रीसीताराम जी के चरणों में रति अर्थात्‌ प्रेमाभक्ति हो जाये। उनके मन– मंदिर में लक्ष्मण के साथ आप दोनों श्रीसीताराम जी निवास करें।

**विशेष– **यह पाँचवे स्थान का सम्पूर्ण लक्षण अरण्यकाण्ड के पूर्वार्द्ध में प्रतिपादित सभी मुनिगणों, श्रीअत्रि, श्रीशरभंग, श्रीसुतीक्ष्ण, श्रीअगस्त्य आदि महाभागवतों में घट जाती है।

काम कोह मद मान न मोहा। लोभ न छोभ न राग न द्रोहा॥ जिन के कपट दंभ नहिं माया। तिन के हृदय बसहु रघुराया॥

भाष्य

हे रघुकुल के राजा श्रीराम! जिनके हृदय में काम, क्रोध, मद, मान और मोह नहीं है। जिनके हृदय में लोभ (लालच), क्षोभ (किसी भी प्रकार का मानसिक विकार) नहीं है। जिनके हृदय में राग और द्वेष नहीं है। जिनके पास कपट, दम्भ और माया अर्थात्‌ छल नहीं है, उन्हीं परमभागवतों के हृदय में आप सीता, लक्ष्मण जी के साथ वास कीजिये।

[[४०७]]

**विशेष– **इस छठें स्थान की पूरी विशेषता अरण्यकाण्ड के उत्तरार्द्ध में वर्णित श्रीजटायु, श्रीशबरी तथा श्रीनारद जैसे परम श्रीरामभक्तों में समन्वित हो जाती है।

सब के प्रिय सब के हितकारी। दुख सुख सरिस प्रशंसा गारी॥ कहहिं सत्य प्रिय बचन बिचारी। जागत सोवत शरन तुम्हारी॥ तुमहिं छागिड़ ति दूसरि नाहीं। राम बसहु तिन के मन माहीं॥

भाष्य

हे भगवान्‌ श्रीराम! जो सभी के प्रिय और सभी के हितैषी हैं। जिनके लिए सुख, दु:ख, प्रशंसा तथा गाली समान है। जो विचार करके सत्य और प्रियवचन ही कहते हैं। जो जागते और सोते अर्थात्‌ प्रत्येक अवस्था में आपकी शरण में रहते हैं अर्थात्‌ आपको छोड़कर जिनके लिए कोई दूसरी गति नहीं है अर्थात्‌ जो आपके अनन्य शरणागत्‌ हैं। उन्हीं के मन में आप श्रीसीता, लक्ष्मण जी के साथ निवास करें।

**विशेष– **यह सातवें स्थान का पूर्णलक्षण किष्किन्धकाण्ड के पूर्वार्द्ध में प्रतिपादित हनुमान जी महाराज तथा सुग्रीव जी में पूर्ण रूप से समन्वित हो जाती है।

जननी सम जानहिं परनारी। धन पराव बिष ते बिष भारी॥ जे हरषहिं पर संपति देखी। दुखित होहिं पद बिपति बिशेषी॥ जिनहिं राम तुम प्रानपियारे। तिन के मन शुभ सदन तुम्हारे॥

भाष्य

हे प्रभु राघवेन्द्र जी! जो परायी नारी को अपने माता के समान जानते हैं तथा जो, दूसरे के धन को विष से भी भयंकर विष मानते हैं। जो दूसरे की संपत्ति देखकर प्रसन्न होते हैं। जो दूसरे की विपत्ति में विशेष दु:खी हो जाते हैं। जिन्हें आप प्राणों के समान प्रिय हैं, उनके हृदय आप अर्थात्‌ श्रीसीता, राम लक्ष्मण जी के कल्याणमय भवन हैं।

**विशेष– **इस आठवें स्थान की विशेषता किष्किन्धाकाण्ड के उत्तरार्द्ध में प्रतिपादित श्रीसुग्रीव, जाम्बवान, नल, नील, अंगद आदि सम्पूर्ण वानरों तथा स्वयंप्रभा एवं सम्पाति आदि सहायक परिकरों में घट जाती है।

दो०- स्वामि सखा पितु मातु गुरु, जिन के सब तुम तात।

मन मंदिर तिन के बसहु, सीय सहित दोउ भ्रात॥१३०॥

भाष्य

हे तात्‌ अर्थात्‌ परमप्रेमास्पद श्रीराम! जिनके स्वामी, सखा, पिता, माता और गुरु सब कुछ आप ही हैं, उन्हीं के मन–मंदिर में श्रीसीता के सहित आप दोनों भ्राता निवास करें।

**विशेष– **यह नवम्‌ स्थान का लक्षण सुन्दरकाण्ड के पूर्वार्द्ध में प्रतिपादित हनुमान जी में समग्रत: समन्वित हो जाता है।

अवगुन तजि सब के गुन गहहीं। बिप्र धेनु हित संकट सहहीं॥ नीति निपुन जिन कइ जग लीका। घर तुम्हार तिन कर मन नीका॥

भाष्य

जो अवगुणों को छोड़कर सबके गुणों को ही ग्रहण करते हैं। ब्राह्मणों और गौओं के लिए संकट सहते हैं। जगत्‌ में जिनकी नीति में निपुण (कुशल) के रूप में मर्यादा रही है। उनका सुन्दर मन श्रीसीता, लक्ष्मण और आपका सुन्दर घर है।

**विशेष– **इस दशम्‌ स्थान का सम्पूर्ण वैशिष्ट्‌य सुन्दरकाण्ड के उत्तरार्द्ध में प्रतिपादित विभीषण जी में सुसंगठित हो जाता है।

[[४०८]]

गुन तुम्हार समुझइ निज दोसा। जेहि सब भाँति तुम्हार भरोसा॥ राम भगत प्रिय लागहिं जेही। तेहि उर बसहु सहित बैदेही॥

भाष्य

जो आपके गुणों और अपने दोषों का अनुसंधान करते हैं, जिन्हें सब प्रकार से आपका ही भरोसा रहता है। जिनको आप श्रीराम के भक्त प्रिय लगते हैं, उनके हृदय में श्रीसीता एवं लक्ष्मण जी के सहित आप निवास करें।

**विशेष– **यह ग्यारहवें स्थान का लक्षण, युद्धकाण्ड के पूर्वार्द्ध में प्रतिपादित समुद्र, मंदोदरी, अंगद आदि भागवतों में समन्वित हो जाता है।

जाति पाँति धन धरम बड़ाई। प्रिय परिवार सदन सुखदाई॥ सब तजि तुमहि रहइ लय लाई। तेहि के हृदय रहहु रघुराई॥

भाष्य

जो जाति (जाति का अभिमान), पाँति (वर्ग विशेष), धन, धर्म, बड़ाई, प्रिय कुटुम्ब, सुख देने वाले भवन, सब कुछ छोड़कर आप में ही अपनी चित्तवृत्ति को लगा करके रह लेता है, उस भागवत के हृदय में आप श्रीराम, सीता जी एवं लक्ष्मण जी के साथ रहें।

**विशेष– **यह बारहवें स्थान का लक्षण, युद्धकाण्ड के उत्तरार्द्ध में प्रतिपादित अग्नि, ब्रह्मा, इन्द्र, शिव जी आदि देवताओं में तथा देवांश वानरगण, महर्षि भरद्वाज और निषादराज गुह में संगठित हो जाता है।

सरग नरक अपबरग समाना। जहँ तहँ देख धरे धनु बाना॥ करम बचन मन राउर चेरा। राम करहु तेहि के उर डेरा॥

भाष्य

हे श्रीराम! जो समानरूप से स्वर्ग, नरक तथा मोक्ष इन तीनों को समान समझता है। अथवा, इन तीनों ही अवस्थाओं में समान रूप से जहाँ–तहाँ आपको धनुष, बाण धारण करते हुए देखता रहता है। जो कर्म, वाणी और मन से आपका ही सेवक है। आप, उसी के हृदय में श्रीसीता तथा लक्ष्मण जी के साथ डेरा अर्थात्‌ अपना निवास करें।

**विशेष– **यह तेरहवें स्थान का सम्पूर्ण लक्षण उत्तरकाण्ड के पूर्वार्द्ध में प्रतिपादित श्रीभरत, शत्रुघ्न, सनकादि महर्षि और श्रीअवध की सम्पूर्ण प्रजा में समन्वित हो जाता है।

दो०- जाहि न चाहिय कबहुँ कछु, तुम सन सहज सनेह।

**बसहु निरंतर तासु मन, सो राउर निज गेह॥१३१॥ भा०– **जिसको आपसे कभी भी कुछ भी नहीं चाहिये। जो आपसे स्वाभाविक स्नेह करता है, उसी के मन में आप श्रीसीता, लक्ष्मण के साथ निरन्तर वास करें। उसी परमभक्त का निष्किंचन मन आपका निज गेह अर्थात्‌ व्यक्तिगत्‌ स्थायी भवन है।

**विशेष– **यह चौदहवें स्थान का सम्पूर्ण लक्षण, उत्तरकाण्ड के उत्तरार्द्ध में प्रतिपादित श्रीभुशुण्डि में पूर्णरूपेण

समन्वित हो जाता है। वस्तुत: महर्षि बाल्मीकि जी द्वारा कहे हुए श्रीरामभक्तों की चौदहों विशेषतायें श्रीमानस जी के प्रतिपाद्द मूर्धन्यभक्त श्रीभरत और श्रीहनुमान में पूर्णत: घट जाते हैं। अत: यह अकेले ही चौदहों भक्तों का प्रतिनिधित्व कर लेते हैं। इसकी विस्तृत चर्चा पश्चात्‌ में लिखे जाने वाले श्रीराघव कृपा–भाष्य में की जायेगी।

[[४०९]]

एहि बिधि मुनिवर भवन देखाए। बचन सप्रेम राम मन भाए॥ कह मुनि सुनहु भानुकुलनायक। आश्रम कहउँ समय सुखदायक॥

भाष्य

इस प्रकार, से श्रेष्ठमुनि बाल्मीकि जी ने भगवान्‌ श्रीराम को चौदह भक्ति विधाओं के वर्णन के ब्याज से चौदह भवन दिखाये। उनके प्रेमपूर्वक वचन प्रभु श्रीराम के मन को भा गये। फिर मुनि बाल्मीकि जी ने कहा, हे सूर्यकुल के स्वामी श्रीराघव! अब वर्तमान समय में सुख देनेवाला आश्रम कहता हूँ।

**चित्रकूट गिरि करहु निवासू। तहँ तुम्हार सब भाँति सुपासू॥ शैल सुहावन कानन चारू। करि केहरि मृग बिहग बिहारू॥**
भाष्य

हे प्रभु! आप, श्रीचित्रकूटपर्वत पर निवास कीजिये। वहाँ आपका सब प्रकार से सुपास होगा, अर्थात्‌ वहाँ आपको सारी सुविधायें मिलेगी। श्रीचित्रकूटपर्वत बहुत सुहावना है। श्रीचित्रकूट के वन बहुत सुन्दर हैं, वहाँ हाथी, सिंह, हिरण और पक्षी विहार करते हैं।

**नदी पुनीत पुरान बखानी। अत्रि प्रिया निज तपबल आनी॥ सुरसरि धार नाम मंदाकिनि। जो सब पातक पोतक डाकिनि॥**
भाष्य

श्रीचित्रकूट में पुराणों में प्रशंसित पवित्र नदी है, जिसे अत्रि जी की प्रिय पत्नी अनुसूइया जी अपनी तपस्या के बल से चित्रकूट में ले आई थीं, जो देवनदी गंगा जी की धारा अर्थात्‌ तीन धाराओं में स्वर्ग की धारा है। इसका नाम मंदाकिनी है, जो सभी पापरूप बालकों को नष्ट करने के लिए, डाकिनी ग्रह के समान है। अर्थात्‌ जैसे डाकिनी ग्रह शिशुओं को मार डालती है। उसी प्रकार, मंदाकिनी जी दर्शन, आचमन, स्नान और जलपान मात्र से सभी पापों को समाप्त कर देती हैं।

**विशेष– **आर्षग्रन्थों के अनुसार जब भगीरथ महाराज की प्रार्थना पर शिव जी ने अपनी जटा से गंगा जी को छोड़ा तब गंगा जी तीन धाराओं में विभक्त हुईं। उनमें से गंगा जी की जो धारा पाताल को गईं, उन्हें भोगावती कहते हैं, जो स्वर्गलोक को गईं, वह मंदाकिनी नाम से प्रसिद्ध हुईं और जो इस पृथ्वीलोक में आईं, उन्हें भागीरथी कहते हैं। अत: स्वर्गलोक की मंदाकिनी को ही अनुसूइया जी श्रीचित्रकूट ले आईं, इसलिए यहाँ गोस्वामी जी ने सुरसरि– धारा का प्रयोग किया है।

अत्रि आदि मुनिवर बहु बसहीं। करहिं जोग जप तप तन कसहीं॥ चलहु सफल श्रम सब कर करहू। राम देहु गौरव गिरिवरहू॥

भाष्य

हे राघव, श्रीराम! श्रीचित्रकूट में अत्रि जी आदि बहुत से मुनिजन निवास करते हैं। वे तप से अपने शरीर को कसते रहते हैं अर्थात्‌ कृश करते रहते हैं। चलिए (मेरे साथ चलिए), सबका श्रम सफल कीजिये। हे श्रीराम! पर्वतों में श्रेष्ठ विन्ध्य और उससे भी श्रेष्ठ श्रीचित्रकूट पर्वत को गौरव प्रदान कीजिये, जो आपके निवास के कारण अब कामदगिरि के नाम से प्रसिद्धि प्राप्त कर लेगा।

**दो०- चित्रकूट महिमा अमित, कही महामुनि गाइ।**

आइ नहाए सरितवर, सिय समेत दोउ भाइ॥१३२॥

भाष्य

महामुनि बाल्मीकि जी ने श्रीचित्रकूट की असीम महिमा को गाकर कहा। श्रीसीता के सहित दोनों भ्राता, श्रीराम और लक्ष्मण जी ने आकर नदियों में श्रेष्ठ मंदाकिनी जी में स्नान किये।

**रघुबर कहेउ लखन भल घाटू। करहु कतहुँ अब ठाहर ठाटू॥ लखन दीख पय उतर करारा। चहुँ दिशि फिरेउ धनुष जिमि नारा॥ नदी पनच शर शम दम दाना। सकल कलुष कलि साउज नाना॥**

[[४१०]]

चित्रकूट जनु अचल अहेरी। चुकइ न घात मार मुठभेरी॥ अस कहि लखन ठाँव देखरावा। थल बिलोकि रघुबर सुख पावा॥ रमेउ राम मन देवन जाना। चले सहित सुर थपति पधाना॥ कोल किरात बेष सब आए। रचे परन तृन सदन सुहाए॥ बरनि न जाहिं मंजु दुइ शाला। एक ललित लघु एक बिशाला॥

भाष्य

रघुकुल में श्रेष्ठ और रघु अर्थात्‌ जीवों के द्वारा वरणीय भगवान्‌ श्रीराम ने कहा, लक्ष्मण! यह घाट बहुत अच्छा है, यहीं कहीं पर स्थान की व्यवस्था करो अर्थात्‌ कुटी बनाने की व्यवस्था करो। लक्ष्मण जी ने पयस्वनी नदी का उत्तरी ऊँचा किनारा देखा और बोले, यहाँ चारों ओर से धनुष के समान एक नाला फिरा हुआ है। मंदाकिनी नदी उसकी पनच अर्थात्‌ प्रत्यंचा (डोरी) हैं। आध्यात्मिक लोगों के शम अर्थात्‌ मन को शान्त करने की प्रक्रिया, दम अर्थात्‌ इन्द्रियों का दमन, दान अर्थात्‌ सात्विक दान ही बाण हैं। कलियुग के सभी दोष, अनेक प्रकार के हिंसक जन्तु जो इन बाणों के लक्ष्य अर्थात्‌ निशाने हैं। चित्रकूट पर्वत मानो स्थिर अहेरि अर्थात्‌ आखेटक (शिकारी) है, जो घात अर्थात्‌ मारने से नहीं चूकता। मुठभेर करके, ललकार कर, युद्ध करके, सामने से इन पापरूप जन्तुओं को मारता है। ऐसा कह कर लक्ष्मण जी ने भगवान्‌ श्रीराम को कुटी बनाने के लिए उपयुक्त स्थान दिखलाया। लक्ष्मण जी द्वारा निर्दिय् स्थान देखकर, रघुकुल में श्रेष्ठ श्रीराम ने सुख पाया अर्थात्‌ प्रभु प्रसन्न हुए। श्रीचित्रकूट में सभी योगियों को रमानेवाले परब्रह्म श्रीराम का मन रम गया है, जब देवताआंें ने यह जाना तब स्थपति अर्थात्‌ देवताओं के शिल्पी विश्वकर्मा को प्रधान मानकर सभी देवता चले अर्थात्‌ विमानों के बिना पैदल चले। सभी देवता कोलों, किरातों के वेश में श्रीचित्रकूटविहारी प्रभु के पास आये और पत्तों तथा घास से सुन्दर भवन बनाये। दो सुन्दर कुटिया बनायी गई, जिनका वर्णन नहीं किया जा सकता। इनमें से एक सुन्दर बहुत छोटी कुटी बनायी गई, जिसमें प्रभु अपनी प्राणप्रिया श्रीसीता एवं लक्ष्मण जी के साथ भोजन, विश्राम आदि करेंगे। एक विशाल कुटि बनायी गई, जहाँ भगवान्‌ श्रीराम आगन्तुक मुनियों के साथ सामूहिक, सार्वजनिक चर्चा करेंगे।

**दो०- लखन जानकी सहित प्रभु, राजत रुचिर निकेत।**

**सोह मदन मुनि बेष जनु, रति ऋतुराज समेत॥१३३॥ भा०– **लक्ष्मण जी और भगवती सीता जी के सहित प्रभु श्रीराम सुन्दर पर्णगृह में सुशोभित हो रहे हैं, मानो रति और ऋतुओं के राजा वसन्त के सहित मुनिवेश धारण करके कामदेव ही सुशोभित हो रहेहैं।

* मासपारायण, चौदहवाँ विश्राम *

अमर नाग किंनर दिशिपाला। चित्रकूट आए तेहि काला॥ राम प्रनाम कीन्ह सब काहू। मुदित देव लहि लोचन लाहू॥

भाष्य

उस समय देवता, नाग, किन्नर और दसों दिक्‌पाल श्रीचित्रकूट आये। सबको श्रीराम ने प्रणाम किया और सभी देवताओं ने श्रीराम को प्रणाम किया। नेत्रों का लाभ लेकर देवता प्रसन्न हुए।

**बरषि सुमन कह देव समाजू। नाथ सनाथ भए हम आजू॥ करि बिनती दुख दुसह सुनाए। हरषित निज निज सदन सिधाए॥**

[[४११]]

भाष्य

पुष्पों की वर्षा करके देवताओं के समाज ने कहा, हे नाथ! आज हम सनाथ हो गये। देवताओं ने प्रार्थना करके रावण से प्राप्त हो रहे अपने असहनीय दु:ख को सुनाया और प्रभु का आश्वासन पाकर अपने–अपने लोक को चले गये।

**चित्रकूट रघुनंदन छाए। समाचार सुनि सुनि मुनि आए॥ आवत देखि मुदित मुनिबृंदा। कीन्ह दंडवत रघुकुल चंदा॥**
भाष्य

श्रीचित्रकूट में रघुनंदन अर्थात्‌ जीवमात्र को आनन्द देनेवाले भगवान्‌ श्रीराम छाये, अर्थात्‌ पर्णकुटी बना कर रह रहे हैं। यह समाचार सुन–सुन कर मुनिगण आ गये। प्रसन्न मुनि समूहों को आते देखकर, रघुकुल के चन्द्रमा भगवान्‌ श्रीराम ने उन्हें दण्डवत्‌ किया।

विशेष

यहाँ रघुशब्द रघुकुल और सम्पूर्ण जीव जगत्‌ इन दोनों अर्थों का बोधक है भगवान्‌ श्रीराम दोनों को ही आनन्द देते हैं इसीलिए उन्हें रघुनंदन कहा जाता है। “रघुन सम्पूर्ण जीवान्‌ रघुकुलो तमवांश्च नन्दयति इति रघुनन्दन :”**

मुनि रघुबरहिं लाइ उर लेहीं। सुफल होन हित आशिष देहीं॥ सिय सौमित्रि राम छबि देखहिं। साधन सकल सफल करि लेखहिं॥

भाष्य

मुनिजन, श्रीराम को हृदय से लगा लेते हैं और असुरों के संहार के लिए प्रभु को आशीर्वाद देते हैं। श्रीसीता एवं सुमित्रा पुत्र लक्ष्मण जी तथा श्रीराम की छवि देखते हैं और अपने सम्पूर्ण साधनों को सफल करके समझते हैं।

**दो०- जथाजोग सनमानि प्रभु, बिदा किए मुनिबृंद।**

**करहिं जोग जप जाग तप, निज आश्रमनि स्वछंद॥१३४॥ भा०– **योग्यता के अनुसार मुनियों का सम्मान करके, प्रभु ने मुनि समूह को विदा किया। वे अपने आश्रमों में स्वच्छन्द अर्थात्‌ अपनी इच्छा के अनुसार योग, जप, यज्ञ और तप करने लगे। श्रीचित्रकूट में उन्हें कोई नहीं रोकता, तात्पर्य यह है कि श्रीचित्रकूट में रावण का प्रवेश नहीं है।

यह सुधि कोल किरातन पाई। हरषे जनु नव निधि घर आई॥ कंद मूल फल भरि भरि दोना। चले रंक जनु लूटन सोना॥

भाष्य

जब कोल, किरातों ने यह सुधि अर्थात्‌ श्रीचित्रकूट में श्रीसीता, लक्ष्मण सहित प्रभु श्रीराम के निवास का समाचार पाया तब वे इतने प्रसन्न हुए, मानो उनके घर में नौ निधियाँ आ गई हों। कोल, किरात पत्तों के दोनों में कन्द, मूल, फल भर–भर कर प्रभु के पास ऐसे चले, मानो सोना लूटने के लिए दरिद्र जा रहे हों।

**तिन महँ जिन देखे दोउ भ्राता। अपर तिनहिं पूँछहिं मग जाता॥ कहत सुनत रघुबीर निकाई । आइ सबनि देखे रघुराई॥**
भाष्य

जिन लोगों ने दोनों भ्राता श्रीराम, लक्ष्मण जी को देखा है, उनसे मार्ग में जाते हुए दूसरे लोग पूछते हैं। श्रीराम की सुन्दरता कहते और सुनते आकर सभी ने रघुराज श्रीराम जी को देखा।

**करहिं जुहार भेंट धरि आगे। प्रभुहिं बिलोकहिं अति अनुरागे॥ चित्र लिखे जनु जहँ तहँ ठा़ढे। पुलक शरीर नयन जल बा़ढे॥**

[[४१२]]

भाष्य

प्रभु के आगे भेंट रखकर जुहार अर्थात्‌ पृथ्वी पर सिर टेक कर प्रणाम करते हैं और अत्यन्त अनुराग में भर कर प्रभु श्रीराम को देखते हैं। सभी चित्र में लिखे हुए के समान, जहाँ–तहाँ ख़डे रह गये। उनके शरीर रोमांचित हो गये, नेत्रों में अश्रुजल की बा़ढ आ गई अर्थात्‌ उनके नेत्र आँसुओं से भर गये।

**राम सनेह मगन सब जाने। कहि प्रिय बचन सकल सनमाने॥ प्रभुहिं जुहारि बहोरि बहोरी। बचन बिनीत कहहिं कर जोरी॥**
भाष्य

श्रीराम ने सभी कोल, किरातोंको प्रेम में मग्न जाना, तब प्रिय वचन कहकर सबका सम्मान किया। प्रभु श्रीराम को बारम्बार जुहार के साथ प्रणाम करके, हाथ जोड़कर प्रेमपूर्वक कोल, किरात प्रार्थना करने लगे।

**दो०- अब हम नाथ सनाथ सब, भए देखि प्रभु पाँय।**

भाग हमारे आगमन, राउर कोसलराय॥१३५॥

भाष्य

हे नाथ! अब हम आपके चरणों को देखकर सनाथ हो गये हैं अर्थात्‌ हम को एक समर्थ स्वामी प्राप्त हो चुके हैं। हे कोसल जनपद के राजा श्रीराम! हमारे भाग्य से आपका वन में आगमन हुआ है।

**धन्य भूमि बन पंथ पहारा। जहँ जहँ नाथ पाउँ तुम धारा॥ धन्य बिहग मृग काननचारी। सफल जनम भए तुमहिं निहारी॥ हम सब धन्य सहित परिवारा। दीख दरस भरि नयन तुम्हारा॥**
भाष्य

हे नाथ! जहाँ–जहाँ आपने चरण रखा वह भूमि, वन, मार्ग और पर्वत धन्य है। वन में भ्रमण करने वाले पक्षी और मृग धन्य हैं। आपको निहारकर (देखकर) उनके जन्म अर्थात्‌ जीवन सफल हो गये हैं। हम सब कोल, किरात अपने परिवारों के साथ धन्य हैं, क्योंकि हम ने नेत्र भर आपके दर्शन किये।

**कीन्ह बास भल ठाउँ बिचारी। इहाँ सकल ऋतु रहब सुखारी॥ हम सब भाँति करब सेवकाई। करि केहरि अहि बाघ बराई॥ बन बेहड़ गिरि कंदर खोहा। सब हमार प्रभु पग पग जोहा॥ तहँ तहँ तुमहिं अहेर खेलाउब। सर निरझर जलठाउँ देखाउब॥ हम सेवक परिवार समेता। नाथ न सकुचब आयसु देता॥**
भाष्य

आपने सुन्दर स्थान का विचार करके निवास किया है। यहाँ आप सभी ऋतुओं में सुखी रहेंगे। हम हाथी, सिंह, सर्प और बाघों से बचाते हुए आपकी सब प्रकार से सेवा करेंगे। हे प्रभु! अत्यन्त सघन वन, पर्वत, गुफायें और खोह अर्थात्‌ ढलाव की भूमि, ऊबड़-खाबड़ गड्ढे, नाले, सब कुछ हमारा एक–एक पग देखा हुआ है। हम वहाँ–वहाँ अर्थात्‌ अनेक स्थानों पर आपको आखेट खेलायेंगे अर्थात्‌ शिकार खेलने में सहायता करेंगे। आपको सुन्दर तालाब, झरने आदि जल के स्थान दिखायेंगे। हम परिवार के सहित आपके सेवक हैं, हे नाथ! आप आज्ञा देने में संकोच नहीं करेंगे।

**दो०- बेद बचन मुनि मन अगम, ते प्रभु करुना ऐन।**

बचन किरातन के सुनत, जिमि पितु बालक बैन॥१३६॥

भाष्य

जो वेदों के वचन और मुनियों के मन के लिए भी अगम्य हैं, ऐसे करुणा के भवन, सर्व समर्थ श्रीराम किरातों के वचन इस प्रकार सुन रहे हैं, जैसे पिता बालक के वचन सुनता है।

**रामहिं केवल प्रेम पियारा। जानि लेहु जो जाननिहारा॥ राम सकल बनचर तब तोषे। कहि मृदु बचन प्रेम परिपोषे॥**

[[४१३]]

भाष्य

जो जानने वाले हैं, वे आप लोग जान लें कि, श्रीराम को केवल प्रेम अर्थात्‌ शुद्ध प्रेम प्रिय है। अथवा, श्रीराम को प्रेम ही प्रिय है और कुछ नहीं। इसके पश्चात्‌ श्रीराम ने सभी कोल, किरातों को संतुष्ट किया। कोमल वचन कहकर, सभी को प्रेम से परिपुष्ट कर दिया।

**बिदा किए सिर नाइ सिधाए। प्रभु गुन कहत सुनत घर आए॥ एहि बिधि सिय समेत दोउ भाई। बसहिं बिपिन सुर मुनि सुखदाई॥**
भाष्य

प्रभु ने सभी कोल, किरातों को विदा किया। वे भी भगवान्‌ श्रीराम को सिर नवाकर गये और प्रभु के गुणों को कहते–सुनते अपने घरों कोआ गये। इस प्रकार, देवताओं और मुनियों को सुख देने वाले दोनों भाई श्रीराम– लक्ष्मण, सीता जी के सहित वन में निवास करने लगे।

**जब ते आइ रहे रघुनायक। तब ते भा बन मंगलदायक॥**

**फूलहिं फलहिं बिटप बिधि नाना। मंजु बलित बर बेलि बिताना॥ भा०– **रघुकुल के नायक श्रीराम जब से आकर श्रीचित्रकूट में रहे (विराजे) तब से, श्रीचित्रकूट वन मंगल देने वाला हो गया। वहाँ सुन्दर लताओं के वितानों से आलिंगित अनेक प्रकार के वृक्ष सदैव फूलने और फलने लगे।

सुरतरु सरिस सुभाय सुहाए। मनहुँ बिबुध बन परिहरि आए॥ गुंजत मंजुल मधुकर श्रेनी। त्रिबिध बयारि बहइ सुख देनी॥

भाष्य

वे वृक्ष स्वभाव से सुन्दर और कल्पवृक्ष के समान थे, मानो वे नन्दन वन को छोड़कर, वहाँ चित्रकूट में आये हों। सुन्दर भ्रमरों की पंक्तियाँ मधुर गुंजार कर रही है और सब प्रकार से सुख देने वाली तीनों प्रकार की बयार बह रही है।

**दो०- नीलकंठ कलकंठ शुक, चातक चक्क चकोर।**

**भाँति भाँति बोलहिं बिहग, स्रवन सुखद चित चोर॥१३७॥ भा०– **नीलकंठ अर्थात्‌ मयूर, कोयल, तोते, चातक, चकवा और चकोर आदि अनेक पक्षी कानों को सुख देने वाले और चित्त को चुराने वाले स्वरों में बोलते हैं।

करि केहरि कपि कोल कुरंगा। बिगत बैर बिचरहिं सब संगा॥ फिरत अहेर राम छबि देखी। होहिं मुदित मृगबृंद बिशेषी॥

भाष्य

हाथी, सिंह, वानर, सुअर, मृग, वैर छोड़कर सब साथ विचरण करते हैं। आखेट (शिकार) में भ्रमण करते हुए श्रीराम की छवि देखकर, मृगों के समूह बहुत प्रसन्न होते हैं।

**बिबुध बिपिन जहँ लगि जग माहीं। देखि राम बन सकल सिहाहीं॥ सुरसरि सरसइ दिनकर कन्या। मेकलसुता गोदावरि धन्या॥**

**सब सर सिंधु नदी नद नाना। मंदाकिनि कर करहिं बखाना॥ भा०– **संसार में जहाँ तक देवताओं के वन हैं, वे सभी श्रीराम का वन देखकर ईर्ष्या के साथ प्रशंसा करते हैं। देवनदी गंगा जी, सरस्वती जी, सूर्य की कन्या यमुना जी, मेकलपर्वत की पुत्री नर्मदा जी तथा धन्य गोदावरी जी, सभी मानससरोवर आदि तालाब, चारों महासागर, सरयू जी आदि नदियाँ, सोनभद्र आदि अनेक नद, मंदाकिनी जी की प्रशंसा करते हैं।

उदय अस्त गिरि वर कैलासू। मंदर मेरु सकल सुरबासू॥ शैल हिमाचल आदिक जेते। चित्रकूट जस गावहिं तेते॥ बिंध्य मुदित मन सुख न समाई। श्रम बिनु बिपुल बड़ाई पाई॥

[[४१४]]

भाष्य

उदयाचल, अस्ताचल, पर्वतों में श्रेष्ठ कैलाश, सभी देवताओं के निवासस्थान मंदराचल, सुमेव्र् और हिमाचल आदि जितने पर्वत हैं, वे सब श्रीचित्रकूट पर्वत का यश गाते हैं। विन्ध्याचल मन में प्रसन्न हैं, उनका सुख उनके मन में नहीं समा रहा है, क्योंकि बिना श्रम के विन्ध्याचल ने बहुत बड़ाई पा ली।

**दो०- चित्रकूट के बिहग मृग, बेलि बिटप तृन जाति।**

**पुन्य पुंज सब धन्य अस, कहहिं देव दिन राति ॥१३८॥ भा०– **श्रीचित्रकूट वन के पक्षी, पशु, लतायें, वृक्ष, तृणों की जातियाँ सब के सब पुण्यों के पुंजस्वरूप और धन्य हैं, इस प्रकार देवता दिन–रात कहते हैं।

नयनवंत रघुबरहिं बिलोकी। पाइ जनम फल होहिं बिशोकी॥ परसि चरन रज अचर सुखारी। भए परम पद के अधिकारी॥

भाष्य

नेत्रवान्‌ लोग रघुवर श्रीराम को देखकर, जीवन का फल पाकर, शोकरहित हो जाते हैं और अचर्‌ अर्थात्‌ ज़ड स्थावर लोग, प्रभु श्रीराम की चरण धूलि का स्पर्श करके, सुखी और परमपद के अर्थात्‌ श्रीसाकेत में निवास अधिकारी हो गये।

**सो बन शैल सुभाय सुहावन। मंगलमय अति पावन पावन॥ महिमा कहिय कवनि बिधि तासू। सुखसागर जहँ कीन्ह निवासू॥**
भाष्य

वह श्रीचित्रकूट वन और श्रीचित्रकूट पर्वत स्वभावत: सुन्दर, मंगलमय और अत्यन्त पवित्रों को भी पवित्र करने वाला है। उस श्रीचित्रकूट की महिमा किस प्रकार कही जाये, जहाँ सुख के सागर प्रभु श्रीराम ने निवास किया।

**पय पयोधि तजि अवध बिहाई। जहँ सिय लखन राम रहे आई॥**

**कहि न सकहिं सुषमा जसि कानन। जौ शत सहस होहिं सहसानन॥ भा०– **क्षीरसागर को छोड़कर और अयोध्या का त्याग करके, जहाँ (जिस श्रीचित्रकूट में) आकर श्रीसीता, लक्ष्मण जी के साथ श्रीराम रह रहे हैं, उस वन की जैसी परमशोभा है, उसको यदि एक लाख शेषनारायण हों तो भी वे नहीं कह सकते।

सो मैं बरनि कहौं बिधि केही। डाबर कमठ कि मंदर लेही॥ सेवहिं लखन करम मन बानी। जाइ न शील सनेह बखानी॥

भाष्य

वह मैं किस विधि से वर्णन करके कहूँ ? क्या साधारण गड्ढे के कछुवे मंदर पर्वत को उठा सकते हैं? लक्ष्मण जी कर्म, मन और वाणी से भगवान्‌ श्रीसीताराम जी की सेवा करते हैं, उनके शील और स्नेह का वर्णन नहीं किया जा सकता।

**दो०- छिन छिन लखि सिय राम पद, जानि आपु पर नेह।**

**करत न सपनेहुँ लखन चित, बंधु मातु पितु गेह॥१३९॥ भा०– **क्षण–क्षण श्रीसीताराम जी के चरणों को देखकर, अपने पर उनका वात्सल्य स्नेह जानकर, लक्ष्मण जी स्वप्न में भी भाई शत्रुघ्न, माता कौसल्या, सुमित्रा, पिता दशरथ और राजभवन पर अपना चित्त नहीं करते।

अथवा, अपने चित्त में इन सबका स्मरण नहीं करते।

राम संग सिय रहति सुखारी। पुर परिजन गृह सुरति बिसारी॥ छिन छिन पिय बिधु बदन निहारी। प्रमुदित मनहुँ चकोरकुमारी॥

[[४१५]]

भाष्य

नगर, परिवार और घर की स्मृति भुलाकर, सीताजी, श्रीराम के साथ श्रीचित्रकूट में सुखपूर्वक रहती हैं। क्षण–क्षण अपने प्रियतम श्रीराम के मुख को निहारकर सीता जी चकोर की कुमारी की भाँति प्रसन्न रहती हैं।

**नाह नेह नित ब़ढत बिलोकी। हरषित रहति दिवस जिमि कोकी॥**

**सिय मन राम चरन अनुरागा। अवध सहस सम बन प्रिय लागा॥ भा०– **निरन्तर अपने प्राणनाथ श्रीराम जी का प्रेम देखकर श्रीसीता जी दिन में चकवे की भाँति प्रसन्न रहती हैं। श्रीसीता जी का मन श्रीराम जी के चरणों में अनुरक्त है। उन्हें सहस्र अयोध्या की भाँति वन प्रिय लग रहा है।

परनकुटी प्रिय प्रियतम संगा। प्रिय परिवार कुरंग बिहंगा॥

**सासु ससुर सम मुनितिय मुनिवर। अशन अमिय सम कंद मूल फर॥ भा०– **प्रियतम श्रीराम के साथ सीता जी को पर्णकुटी प्रिय लगती है। मृग और पक्षी उन्हें परिवार के समान प्रिय लगते हैं। मुनि पत्नियाँ और मुनिगण सीता जी को सास और श्वसुर के समान लगते हैं। कन्द, मूल और फल का

भोजन उन्हें अमृत के समान लगता है।

नाथ साथ साथरी सुहाई। मयन शयन शत सम सुखदाई॥ लोकप होहिं बिलोकत जासू। तेहि कि मोहि सक बिषय बिलासू॥

भाष्य

प्रभु के साथ कुश और पल्लवों की शैय्या सीता जी को सैक़डों काम शैय्याओं की भाँति सुख देती है। जिनके दर्शन मात्र से भी सामान्य लोग लोकपाल हो जाते हैं, क्या उन्हीं सीता जी को विषयों के विलास मोहित कर सकते हैं?

**दो०- सुमिरत रामहिं तजहिं जन, तृन सम बिषय बिलासु।**

**रामप्रिया जग जननि सिय, कछु न आचरज तासु॥१४०॥ भा०– **श्रीराम का स्मरण करते ही भगवान्‌ के भक्तजन विषय–भोगों को तृण के समान छोड़ देते हैं। जो स्वयं जगत्‌ की माता और भगवान्‌ श्रीराम की परमप्रेमास्पद पत्नी हैं, उन सीता जी के लिए सब कुछ त्याग देने में आश्चर्य नहीं।

सीय लखन जेहि बिधि सुख लहहीं। सोइ रघुनाथ करहिं सोइ कहहीं॥

**कहहिं पुरातन कथा कहानी। सुनहिं लखन सिय अति सुख मानी॥ भा०– **सीता जी और लक्ष्मण जी जिस प्रकार सुख प्राप्त करते हैं, श्रीरघुनाथ वही करते हैं और वही कहते हैं। पुरानी कथायें और कहानियाँ कहते हैं तथा लक्ष्मण जी और सीता जी अत्यन्त सुख मानकर सुनते हैं।

जब जब राम अवध सुधि करहीं। तब तब बारि बिलोचन भरहीं॥ सुमिरि मातु पितु परिजन भाई। भरत सनेह शील सेवकाई॥ कृपासिंधु प्रभु होहिं दुखारी। धीरज धरहिं कुसमय बिचारी॥ लखि सिय लखन बिकल होइ जाहीं। जिमि पुरुषहिं अनुसर परिछाहीं॥

भाष्य

जब–जब श्रीराम श्रीअवध का स्मरण करते हैं, तब–तब उनके नेत्रों में जल भर जाता है। माता, पिता, परिवार, भ्राता, भरत जी का स्नेह, उनका शील तथा उनकी सेवा का स्मरण करके कृपा के सागर भगवान्‌ श्रीराम दु:खी हो जाते हैं, फिर अनुचित समय जानकर धैर्य धारण करते हैं। यह देखकर सीता जी और लक्ष्मण जी व्याकुल हो जाते हैं, जैसे परछायीं पुरुष का अनुसरण करती है।

[[४१६]]

प्रिया बंधु गति लखि रघुनंदन। धीर कृपालु भगत उर चंदन॥

**लगे कहन कछु कथा पुनीता। सुनि सुख लहहिं लखन अरु सीता॥ भा०– **प्राणप्रिया सीता जी एवं लक्ष्मण जी की गति देखकर, परमधीर, कृपालु, भक्त के हृदय को शीतल करने वाले, श्रीराम कुछ ऐसी पवित्र कथा कहने लगते हैं, जिससे लक्ष्मण जी और सीता जी सुख प्राप्त करते हैं।

दो०- राम लखन सीता सहित, सोहत परन निकेत।

जिमि बासव बस अमरपुर, शची जयंत समेत॥१४१॥

भाष्य

श्रीसीता-लक्ष्मण जी के सहित श्रीराम पर्णकुटी में इस प्रकार सोहित हो रहे हैं, जैसे शची और जयन्त के साथ इन्द्र अमरावती में रहतेहैं।

**जोगवहि प्रभु सिय लखनहिं कैसे। पलक बिलोचन गोलक जैसे॥ सेवहिं लखन सीय रघुबीरहिं। जिमि अबिबेकी पुरुष शरीरहिं॥ एहि बिधि प्रभु बन बसहिं सुखारी। खग मृग सुर तापस हितकारी॥**
भाष्य

प्रभु श्रीराम और सीताजी, लक्ष्मण जी को किस प्रकार सावधानी से पालते–पोषते हैं, जिस प्रकार से दोनों पलकें नेत्रों के गोलक का सम्हाल करते हैं। लक्ष्मणजी, श्रीसीताराम जी की इस प्रकार सेवा करते हैं, जिस प्रकार अविवेकी पुरुष शरीर की रक्षा करता है। इस प्रकार, पक्षी, मृग, देवता और तपस्वियों का हित करने वाले, प्रभु श्रीराम, सीता जी और लक्ष्मण जी के साथ वन मंें सुखपूर्वक निवास कर रहे हैं।

**कहेउँ राम बन गमन सुहावा। सुनहु सुमंत्र अवध जिमि आवा॥**
भाष्य

भुशुण्डि जी गरुड़जी को, शिव जी पार्वती जी को, याज्ञवल्क्य जी भरद्वाज जी को और तुलसीदास जी सन्तों को सावधान करते हुए कहते हैं, मैंने श्रीराम का सुहावना वनगमन कहा, अब वह प्रसंग सुनो, जिस प्रकार सुमंत्र जी श्रीअवध आये।

**फिरेउँ निषाद प्रभुहिं पहुँचाई। सचिव सहित रथ देखेउ आई॥ मंत्री बिकल बिलोकि निषादू। कहि न जाइ जस भयउ बिषादू॥**
भाष्य

प्रभु श्रीराम को यमुना पार छोड़कर निषादराज गुह शृंगबेरपुर लौटे और आकर उन्होंने सुमंत्र सहित श्रीराम का रथ देखा। मंत्री सुमंत्र जी को व्याकुल देखकर, निषादराज को जैसा विषाद हुआ वह कहा नहीं जा सकता।

**राम राम सिय लखन पुकारी। परेउ धरनितल ब्याकुल भारी॥**

**देखि दखिन दिशि हय हिहिनाहीं। जनु बिनु पंख बिहग अकुलाहीं॥ भा०– **राम–राम, सीता, लक्ष्मण इस प्रकार, पुकार लगाते हुए अत्यन्त व्याकुल होकर सुमंत्र जी पृथ्वी पर पड़े हुए हैं। दक्षिण दिशा की ओर देखकर, घोड़े हिनहिना रहे हैं, मानो पंखों के बिना पक्षी अकुला रहे हों।

दो०- नहिं तृन चरहिं न पियहिं जल, मोचहिं लोचन बारि।

**ब्याकुल भए निषाद सब, रघुबर बाजि निहारि॥१४२॥ भा०– **घोड़े न तो तृण चर रहे (खा रहे) हैं और न ही जल पी रहे हैं। वे नेत्रों से आँसू गिरा रहे हैं। इस प्रकार श्रीराम जी के घोड़ों को देखकर सभी निषाद गण व्याकुल हो गये।

धरि धीरज तब कहइ निषादू। अब सुमंत्र परिहरहु बिषादू॥ तुम पंडित परमारथ ग्याता। धरहु धीर लखि बिमुख बिधाता॥

[[४१७]]

भाष्य

तब धैर्य धारण करके निषादराज गुह कहने लगे, सुमंत्र जी! अब दु:ख छोयिड़े। आप परमार्थ तत्त्व के ज्ञाता पण्डित हैं। ब्रह्मा जी को इस समय श्रीअवध के प्रतिकूल देखकर धैर्य धारण कीजिये।

**बिबिध कथा कहि कहि मृदु बानी। रथ बैठारेउ बरबस आनी॥ शोक शिथिल रथ सकइ न हाँकी। रघुबर बिरह पीर उर बाँकी॥**
भाष्य

कोमल वाणी में अनेक कथायें कह–कह कर गुहराज ने सुमंत्र जी को लाकर हठपूर्वक रथ पर बिठाया। सुमंत्र जी शोक के कारण शिथिल होने से रथ को नहीं चला सक रहे हैं। उनके हृदय में श्रीराम विरह की तीखी पीड़ा है।

**चरफराहिं मग चलहिं न घोरे। बन मृग मनहुँ आनि रथ जोरे॥ अढुकि परहि फिरि हेरहिं पीछे। राम बियोग बिकल दुख तीछे॥**
भाष्य

रथ के घोड़े तड़फ़डा रहे हैं, मार्ग में चल नहीं पा रहे हैं। मानों वन के हिरणों को ले आकर रथ में जोड़ दिया गया हो। वे ठोकर खाकर गिर पड़ते हैं, अर्थात्‌ किसी पत्थर या मिट्टी के ढेले से टकरा कर गिर पड़ते हैं। फिर पीछे मुड़कर देखते हैं, क्योंकि वे श्रीराम के वियोग के तीक्ष्ण दु:ख से व्याकुल हैं।

**जो कह राम लखन बैदेही। हिंकरि हिंकरि हित हेरहिं तेही॥**

**बाजि बिरह गति कहि किमि जाती। बिनु मनि फनिक बिकल जेहि भाँती॥ भा०– **जो कोई श्रीराम, लक्ष्मण, सीता जी इस प्रकार कहता है, उसे ये घोड़े बार–बार हिंकार करके प्रेम से देखते हैं। घोड़ों के विरह की गति किस प्रकार कही जा सकती है, जैसे मणि के बिना सर्प व्याकुल हो गए हों।

दो०- भयउ निषाद बिषाद बश, देखत सचिव तुरंग।

बोलि सुसेवक चारि तब, दिए सारथी संग॥१४३॥

भाष्य

मंत्री सुमंत्र और घोड़ों को देखकर निषादराज गुह दु:ख के वश हो गये। तब सुमंत्र जी को रथ ले जाने में असमर्थ जानकर, चार सुन्दर सेवकों को बुलाकर, सारथी (सुमंत्र जी के संग) दे दिया। अथवा, सुमंत्र जी के साथ चार सेवक और एक सारथी भी दे दिया।

**गुह सारथिहिं फिरेउ पहुँचाई। बिरह बिषाद बरनि नहिं जाई॥ चले अवध लेइ रथहिं निषादा। होहिं छनहिं छन मगन बिषादा॥**
भाष्य

महाराज दशरथ जी के सारथी मंत्री सुमंत्र जी को पहुँचाकर, निषादराज गुह लौटे। उनके विरह और दु:ख का वर्णन नहीं किया जा सकता। निषाद अर्थात्‌ गुह के चारों सेवक रथ लेकर श्रीअवध को चले। वे क्षण–क्षण विषाद (दु:ख) में मग्न हो रहे थे।

**सोच सुमंत्र बिकल दुख दीना। धिग जीवन रघुबीर बिहीना॥ रहिहि न अंतहु अधम शरीरू। जस न लहेउ बिछुरत रघुबीरू॥**
भाष्य

दु:ख से दीन होकर व्याकुल हुए सुमंत्र जी शोक करने लगे, रघुवीर श्रीराम जी से विहीन इस जीवन को धिक्कार है। यह अधम शरीर अन्त में तो नहीं रहेगा, परन्तु रघुकुल के वीर प्रभु श्रीराम के बिछुड़ते अर्थात्‌ अलग होते समय इसने यश नहीं प्राप्त कर लिया (छूटा नहीं)।

**भए अजस अघ भाजन प्राना। कवन हेतु नहिं करत पयाना॥ अहह मंद मन अवसर चूका। अजहुँ न हृदय होत दुइ टूका॥**

[[४१८]]

भाष्य

मेरे प्राण अपयश और पाप के पात्र बन गये। ये किस कारण से शरीर छोड़कर प्रयाण नहीं कर रहे हैं, अर्थात्‌ श्रीराम के पास नहीं चले जा रहे हैं। अरे, नीच मन! तू अवसर चूक गया अर्थात्‌ (क) जब कैकेयी ने मुझे श्रीराम को बुलाने भेजा। (ख) जब अयोध्यावासियों के सामने से मैं श्रीराम को रथ पर लेकर गया। (ग) जब प्रथम रात्रि में तमसा तट से सोते हुए अयोध्यावासियों को छोड़कर मुझे श्रीराम का रथ ले जाना पड़ा। (घ) जब प्रभु की आज्ञा से सूना रथ लेकर मुझे अयोध्या जाना पड़ रहा है। इन अवसरों का तुमने लाभ नहीं उठाया। अब भी हृदय के दो टुक़डे नहीं हो जाते, अर्थात्‌ हृदय फट नहीं जाता।

**मीजि हाथ सिर धुनि पछिताई। मनहुँ कृपन धन राशि गवाँई॥ बिरद बाँधि बर बीर कहाई। चलेउ समर जनु सुभट पराई॥**
भाष्य

सुमंत्र जी हाथ मलकर सिर पीटकर पछता रहे हैं, मानो कृपण ने धन की राशि ही गुमा दी है, मानो बहुत–बड़ा यश प्राप्त कर वीर कहलाकर कोई सुन्दर भट संग्रामभूमि को छोड़कर भग चला हो।

**दो०- बिप्र बिबेकी बेदबिद, सम्मत साधु सुजाति।**

**जिमि धोखे मदपान कर, सचिव सोच तेहि भाँति॥१४४॥ भा०– **विवेक से पूर्ण, वेदज्ञों के द्वारा सम्मानित, साधु, सुन्दर जाति में उत्पन्न हुआ ब्राह्मण, जिस प्रकार धोखे से अन्जाने में मदिरा पीकर शोकित हो जाता है, उसी प्रकार सुमंत्र जी शोक करने लगे।

जिमि कुलीन तिय साधु सयानी। पतिदेवता कर मन बानी॥ रहै करम बश परिहरि नाहू। सचिव हृदय तिमि दारुन दाहू॥

भाष्य

जिस प्रकार, सुन्दर कुल में उत्पन्न हुई साध्वी, चतुर, कर्म, मन और वाणी से पतिव्रता स्त्री को उसका पति दुर्भाग्यवश छोड़ रहा हो और वह नारी विकल हो, मंत्री के हृदय में उसी प्रकार का दाह, ताप (जलन) है।

विशेष

यहाँ सुमंत्र के लिए प्रयुक्त चार उपमायें सुमंत्र जी की पूर्वोक्त चारों मनोदशाओं की सूचक है। तात्पर्यत: प्रथम बार की भूल पर सुमंत्र जी अपनी धनराशि गुमाये हुए एक कृपण व्यापारी की भाँति पछता रहे हैं कि कैकेयी के कहने पर वे श्रीराम को महाराज के राजमहल में क्यों ले गए ? क्यों नही श्रीराम को स्वयं और वसिष्ठजी के द्वारा अयोध्या के राज सिंहासन पर अभिषिक्त कर दिया। दूसरी भूल पर सुमंत्र जी को युद्ध तजकर भागे हुए यशस्वी योद्धा जैसा पश्चात ताप हो रहा है कि हाय! प्रभु को रोकने के लिए मार्ग में लेटे हुए श्रीअवधवासियों को धक्के दे-देकर सुमंत्र जी श्रीराम का रथ क्यों ले गए ? अपनी तीसरी भूल पर सुमंत्र जी विवेकी वेदज्ञ सम्मत सज्जन कुलीन उस ब्राह्मण की भाँति पश्चात ताप कर रहे हैं जिसने धोखे में मदिरा पी ली हो। हाय! तमसा तट पर सोये हुए श्री अयोध्यावासियों को छोड़कर मैंने प्रभु श्रीराम का रथ आगे क्यों ब़ढाया? कम से कम अयोध्यावासियों को जगाकर उन्हें प्रभु के दर्शन ही करा देता। अपने अंतिम चूक पर सुमंत्र जी पति परित्यक्ता सात्विक नारी की भाँति पछता रहे हैं। अरे! जब श्रीराघव ने मुझे अयोध्या लौट आने की आज्ञा दी उसी समय मेरा हृदय दो टूक क्यों नहीं हो गया ?

लोचन सजल डीठि भइ थोरी। सुनइ न स्रवन बिकल मति भोरी॥ सूखहिं अधर लागि मुँह लाटी। जिउ न जाइ उर अवधि कपाटी॥

भाष्य

सुमंत्र जी के नेत्र सजल अर्थात्‌ अश्रुजल से पूर्ण हो गये हैं। उनकी दृष्टि बहुत थोड़ी हो चुकी है अर्थात्‌ उन्हें बहुत कम दिख रहा है। वे कानों से भी नहीं सुन पा रहे हैं और उनकी बुद्धि व्याकुल तथा भोली हो चुकी है

[[४१९]]

अर्थात्‌ वह स्थिर नहीं है। उनके अधर सूख रहे हैं, मुख में लाटी लग गई है अर्थात्‌ मुख का लार सूख गया है। यह सब मृत्यु के लक्षण होने पर भी उनके प्राण नहीं जा रहे हैं, क्योंकि उनके हृदय में चौदह वर्षों के श्रीराम– वनवास अवधि का किवाड़ लगा है अर्थात्‌ सुमंत्र जी को यह आशा है कि चौदह वर्षों के पश्चात्‌ भगवान्‌ श्रीराम मिलेंगे।

बिबरन भयउ न जाइ निहारी। मारेसि मनहुँ पिता महतारी॥ हानि गलानि बिपुल मन ब्यापी। जमपुर पंथ सोच जिमि पापी॥

भाष्य

सुमंत्र का आकार विकृत हो गया वह देखा नहीं जा रहा था, मानो उन्होंने पिता–माता की हत्या कर दी हो। सुमंत्र के मन में बहुत–बड़ी हानि और ग्लानि व्याप्त हो गई, जैसे कोई पापी यमपुर के मार्ग में शोक कर रहा हो।

**बचन न आव हृदय पछिताई। अवध काह मैं देखब जाई॥ राम रहित रथ देखिहि जोई। सकुचिहि मोहि बिलोकत सोई॥**
भाष्य

सुमंत्र जी के मुख से वाक्य नहीं निकल रहे हैं, वे हृदय में पछता कर सोच रहे हैं कि, मैं अवध में जाकर क्या देखूँगा? अथवा, श्रीअवध जाकर कैसे देखूँगा? जो भी रथ को श्रीराम जी से रहित देखेगा वह मुझे देखने में संकुचित होगा।

**दो०- धाइ पूँछिहैं मोहि जब, बिकल नगर नर नारि।**

उतर देब मैं सबहिं तब, हृदय बज्र बैठारि॥१४५॥

भाष्य

जब व्याकुल नगर के नर–नारी मुझसे दौड़कर पूछेंगे, तब मैं अपने हृदय में वज्र को बैठाकर सभी को उत्तर दूँगा। अथवा, अपने हृदय को वज्र बनाकर सब को बिठा कर व्यवस्थित उत्तर दूँगा।

**पुछिहैं दीन दुखित सब माता। कहब काह मैं तिनहिं बिधाता॥ पूछिहिं जबहिं लखन महतारी। कहिहउँ कवन सँदेश सुखारी॥**
भाष्य

हे विधाता! जब दीन और दु:ख से पीतिड़ श्रीराम की सभी मातायें मुझसे श्रीराघव के विषय में पूछेंगी, तब उनसे मैं क्या कहूँगा? जब लक्ष्मण की माँ सुमित्रा पूछेंगी, तब उनसे मैं कौन–सा सुखद संदेश कहूँगा?

**राम जननि जब आइहिं धाई। सुमिरि बच्छ जिमि धेनु लवाई॥ पूँछत उतर देब मैं तेही। गए बन राम लखन बैदेही॥**
भाष्य

जब बछड़े का स्मरण करके तत्काल जनी हुई गौ की भाँति श्रीराम की माता कौसल्या जी दौड़कर आयेंगी, तब उनके पूछने पर मैं उन्हें यही उत्तर दूँगा कि, श्रीराम, लक्ष्मण, सीता जी वन चले गये।

**जोइ पूँछिहि तेहि उत्तर देबा। जाइ अवध अब यह सुख लेबा॥ पूँछिहिं जबहिं राउ दुख दीना। जिवन जासु रघुनाथ अधीना॥ दैहउँ उतर कौन मुह लाई। आयउँ कुशल कुअँर पहुँचाई॥ सुनत लखन सिय राम सँदेशू। तृन जिमि तनु परिहरिहिं नरेशू॥**
भाष्य

जो पूछेगा उसे उत्तर दूँगा, अब श्री अवध जाकर मैं यही सुख लूँगा (सुमंत्र जी का यह वचन व्यंगात्मक है)। जब दु:खी और दीन हुए महाराज दशरथ जी पूछेंगे, जिनका जीवन श्रीरघुनाथ के अधीन है, तब मैं कौन–सा मुँह लेकर उत्तर दूँगा कि, मैं राजकुमारों को कुशलपूर्वक वन में छोड़कर आ गया? श्रीराम, लक्ष्मण, सीता जी का संदेश सुनकर महाराज तृण के समान शरीर छोड़ देंगे।

[[४२०]]

दो०- हृदय न बिदरेउ पंक जिमि, बिछुरत प्रियतम नीर।

**जानत हौं मोहि दीन्ह बिधि, यह जातना शरीर॥१४६॥ भा०– **प्रियतम श्रीरामरूप जल के बिछुड़ते अर्थात्‌ अलग होते ही मेरा हृदय कीचड़ की भाँति नहीं फट गया। अत: मैं जानता हूँ कि ब्रह्मा जी ने मुझे इसी शरीर में यह यातना दे दी है। अथवा, यह शरीर ही यातनारूप में दे दिया है, जो पापियों को भोगने के लिए मिला करती है।

एहि बिधि करत पंथ पछितावा। तमसा तीर तुरत रथ आवा॥ बिदा किए करि बिनय निषादा। फिरे पायँ परि बिकल बिषादा॥

भाष्य

इस प्रकार, मार्ग में सुमंत्र जी के पश्चात्‌ ताप करते–करते तुरन्त ही रथ तमसा के तट पर आ गया। सुमंत्र जी ने विनय करके गुहराज के सेवक निषादों को लौटा दिया। वे भी (गुहराज के सेवक) दु:ख से व्याकुल होकर प्रणाम करके शृंगबेरपुर लौट गये।

**पैठत नगर सचिव सकुचाई। जनु मारेसि गुरु बाभन गाई॥ बैठि बिटप तर दिवस गवाँवा। साँझ समय तब अवसर पावा॥**
भाष्य

नगर में प्रवेश करते हुए सुमंत्र जी संकुचित हो रहे हैं, मानो उन्होंने गुरु, ब्राह्मण और गौ की हत्या कर दी हो। वृक्ष के नीचे बैठकर दिन बिताया। जब संध्या का समय हुआ तब उन्होंने अवसर पाया।

विशेष- सुमंत्र जी की दृष्टि में महाराज दशरथ में गुरु जैसी श्रीराम प्रेम दीक्षा दान की पात्रता है, ब्राह्मण जैसी पूज्यता है और गौ जैसी प्रभु श्रीराम के प्रति पुत्र वत्सलता है। संयोग से सुमंत्र जी प्रभु का संदेश सुनाकर उन्हीं महाराज दशरथ जी के मरण के निमित्त बन रहे हैं। अतएव स्वयं को गुरु, ब्राह्मण और गौ का हत्यारा समझकर सुमंत्र जी को अवध प्रवेश में संकोच की अनुभूति हो रही है।

अवध प्रबेश कीन्ह अँधियारे। पैठ भवन रथ राखि दुवारे॥ जिन जिन समाचार सुनि पाए। भूप द्वार रथ देखन आए॥

भाष्य

सुमंत्र जी ने अन्धेरे में अयोध्या में प्रवेश किया। रथ को राजद्वार पर रख कर, सुमंत्र राजभवन में प्रविष्ट हुए। जो–जो लोग सुमंत्र जी के आगमन का समाचार सुन पाये, वे रथ को देखने के लिए राजा के द्वार पर आये।

**रथ पहिचानि बिकल लखि घोरे। गरहिं गात जिमि आतप ओरे॥ नगर नारि नर ब्याकुल कैसे। निघटत नीर मीनगन जैसे॥**
भाष्य

रथ को पहचानकर, घोड़ों को व्याकुल देखकर, अवधवासियों के शरीर उसी प्रकार गल रहे थे, जैसे धूप से बर्फ के ओले पिघल जाते हैं। नगर के स्त्री–पुरुष, किस प्रकार से व्याकुल थे, जैसे जल के समाप्त होते समय मछलियों के समूह व्याकुल हो जाते हैं।

**दो०- सचिव आगमन सुनत सब, बिकल भयउ रनिवास।**

**भवन भयंकर लाग तेहिं, मानहुँ प्रेत निवास॥१४७॥ भा०– **मंत्री का आगमन सुनकर, सम्पूर्ण रनिवास व्याकुल हो उठा। सुमंत्र जी को राजभवन इतना भयंकर लगा, मानो वह प्रेतों का निवासस्थान बन गया हो।

अति आरति सब पूँछहिं रानी। उतर न आव बिकल भइ बानी॥ सुनइ न स्रवन नयन नहिं सूझा। कहहु कहाँ नृप जेहि तेहि बूझा॥ दासिन दीख सचिव बिकलाई। कौसल्या गृह र्गइं लिवाई॥

[[४२१]]

भाष्य

अत्यन्त आर्त्त अर्थात्‌ आकुलता से सभी रानियाँ पूछ रही हैं, सुमंत्र जी के मुख से कोई उत्तर नहीं आ रहा है। उनकी वाणी व्याकुल हो गई, वे कान से नहीं सुन रहे हैं और नेत्रों से कुछ नहीं दिख रहा है। बताओ, महाराज कहाँ हैं? इस प्रकार, वे जिस–किसी से पूछ रहे हैं। दासियों ने मंत्री सुमंत्र जी की व्याकुलता देखी तब उन्हें कौसल्या के भवन में ले गईं।

**जाइ सुमंत्र दीख कस राजा। अमिय रहित जनु चंद्र बिराजा॥ आसन शयन बिभूषन हीना। परेउ भूमितल निपट मलीना॥**
भाष्य

सुमंत्र जी ने जाकर, महाराज दशरथ जी को किस प्रकार देखा, मानो अमृत से रहित चन्द्रमा विकृत रूप से शोभित हो रहा हो। महाराज, आसन, शयन और आभूषणों से रहित होकर अत्यन्त उदास स्थिति में पृथ्वी पर पड़े हैं।

**लेइ उसास सोच एहि भाँती। सुरपुर ते जनु खँसेउ जजाती॥ राम राम कह राम सनेही। पुनि कह राम लखन बैदेही॥ लेत सोच भरि छिन छिन छाती। जनु जरि पंख परेउ संपाती॥**
भाष्य

महाराज ऊँचे–ऊँचे श्वास ले रहे हैं और इस प्रकार से शोक कर रहे हैं, मानो पुण्य के क्षीण होने पर महाराज ययाति स्वर्ग से गिर गये हों। वे राम–राम, स्नेही राम कहते हैं। फिर हा राम! हा लक्ष्मण! हा सीता! कहते हुये क्षण–क्षण शोक से अपने हृदय भर लेते हैं, मानो पंखों के जल जाने पर सम्पाती नीचे गिर पड़ा हो।

**दो०- देखि सचिव जय जीव कहि, कीन्हेउ दंड प्रनाम।**

**सुनत उठेउ ब्याकुल नृपति, कहु सुमंत्र कहँ राम॥१४८॥ भा०– **महाराज को देखकर, मंत्री सुमंत्र जी ने “जय–जीव” कहकर दण्डवत्‌ प्रणाम किया। मंत्री की वाणी सुनते ही महाराज व्याकुल होकर उठे और बोले, सुमंत्र! कहो श्रीराम कहाँ हैं ?

भूप सुमंत्र लीन्ह उर लाई। बूड़त कछु अधार जनु पाई॥ सहित सनेह निकट बैठारी। पूँछत राउ नयन भरि बारी॥ राम कुशल कहु सखा सनेही। कहँ रघुनाथ लखन बैदेही॥ आने फेरि कि बनहिं सिधाए। सुनत सचिव लोचन जल छाए॥

भाष्य

महाराज दशरथ जी ने सुमंत्र जी को हृदय से लगा लिया, मानो शोक के सागर में डूबते हुए महाराज कुछ आधार पा गए हैं। स्नेह के साथ सुमंत्र जी को निकट बैठाकर नेत्रों में आँसू भरकर महाराज पूछने लगे, हे प्रेमी मित्र सुमंत्र! श्रीराम का कुशल समाचार सुनाओ। रघुकुल के नाथ श्रीराम, लक्ष्मण तथा सीता जी कहाँ हैं? क्या तुम श्रीराम, लक्ष्मण, सीता को लौटा लाये या वे वन को ही पधार गये? यह सुनते ही मंत्री के नेत्रों में आँसू छा गये।

**शोक बिकल पुनि पूँछ नरेशू। कहु सिय राम लखन संदेशू॥ राम रूप गुन शील सुभाऊ। सुमिरि सुमिरि उर सोचत राऊ॥ राज सुनाइ दीन्ह बनबासू। सुनि मन भयउ न हरष हरासू॥ सो सुत बिछुरत गए न प्राना। को पापी बड़ मोहि समाना॥**
भाष्य

शोक से विकल महाराज ने फिर पूछा, सुमंत्र! सीता, राम, लक्ष्मण का संदेशा कहो। श्रीराम के रूप, गुण, चरित्र और स्वभाव का हृदय में स्मरण करके महाराज शोक करने लगे। जिस पुत्र श्रीराम को राज्य की सूचना

[[४२२]]

देकर मैंने वनवास दे दिया, फिर भी उनके मन में न तो राज्य सुनकर प्रसन्नता हुई और न ही वनवास सुनकर विषाद। उस पुत्र के भी बिछुड़ते अर्थात्‌ अलग होते ही मेरे प्राण नहीं गये। मेरे समान बड़ा पापी कौन है?

दो०- सखा राम सिय लखन जहँ, तहाँ मोहि पहुँचाउ।

नाहिं त चाहत चलन अब, प्रान कहउँ सतिभाउ॥१४९॥

भाष्य

हे मित्र! जहाँ श्रीराम, लक्ष्मण, सीता रह रहे हैं, वहाँ मुझे भी पहुँचा दो अर्थात्‌ ले चलो नहीं तो अब मेरे प्राण चलना चाहते हैं। मैं अपना सत्यभाव कह रहा हूँ।

विशेष

महाराज के अनुरोध करने पर भी चतुर मंत्री सुमंत्र चक्रवर्ती जी को प्रभु के पास दो कारणों से नहीं ले जा सके प्रथम तो सुमंत्र जी को प्रभु के वर्तमान निवास का ठीक-ठीक परिज्ञान नहीं था। कदाचित्‌ वे गुह के माध्यम से प्रभु राम के वनवास स्थान का पता लगा भी लेते तो भी महाराज का प्रभु के पास जाना सर्वथा धर्म से विरुद्ध हो जाता। अतएव सुमंत्र जी ने महाराज को प्रभु के पास ले जाने की अपेक्षा चक्रवर्ती जी की मृत्यु को श्रेष्ठ माना।

पुनि पुनि पूँछत मंत्रिहिं राऊ। प्रियतम सुवन सँदेश सुनाऊ॥ करउ सखा सोइ बेगि उपाऊ। राम लखन सिय नयन देखाऊ॥

भाष्य

महाराज मंत्री से बारम्बार पूछ रहे हैं, हे मित्र! मेरे सबसे प्रिय पुत्र श्रीराम का संदेश सुनाओ। मित्रवर! वह उपाय शीघ्र करो श्रीराम, लक्ष्मण, सीता को आँखों से दिखा दो।

**सचिव धीर धरि कह मृदु बानी। महाराज तुम पंडित ग्यानी॥**

बीर सुधीर धुरंधर देवा। साधु समाज सदा तुम सेवा॥

भाष्य

मंत्री ने धैर्य धारण करके कोमल वाणी में कहा, हे महाराज! आप ज्ञानी, पण्डित, वीर, सुन्दर, धैर्य की धुरी को धारण करने वाले देवतुल्य हैं। आप ने सदैव सन्त समाज की सेवा की है।

**जनम मरन सब दुख सुख भोगा। हानि लाभ प्रिय मिलन बियोगा॥ काल करम बश होहिं गोसाईं। बरबस राति दिवस की नाईं॥**
भाष्य

हे स्वामी! जन्म, मृत्यु, सुख, दु:ख, सभी शुभ, अशुभ भोग, हानि, लाभ, प्रियजनों का मिलन और वियोग ये हठपूर्वक रात और दिन के समान समय और कर्म के वश होते ही रहते हैं, अर्थात्‌ इन्हें टाला नहीं जा सकता। उसी नियम के अनुसार पच्चीस वर्ष पहले आपका श्रीराम से मिलन हुआ और आज वियोग हो गया।

**सुख हरषहिं ज़ड दुख बिलखाहीं। दोउ सम धीर धरहि मन माहीं॥ धीरज धरहु बिबेक बिचारी। छायिड़ सोच सकल हितकारी॥**
भाष्य

ज़ड लोग सुख में प्रसन्न होते हैं और दु:ख में विलखने लगते हैं, परन्तु धैर्यवान्‌ पुरुष सुख और दु:ख दोनों को समान रूप से मन में धारण करते हैं। हे सभी के हितकारी महाराज! विवेक से विचार कर धैर्य धारण कीजिये और शोक छोड़ दीजिये।

**दो०- प्रथम बास तमसा भयउ, दूसर सुरसरि तीर।**

न्हाइ रहे जलपान करि, सिय समेत दोउ बीर॥१५०॥

भाष्य

श्रीराम का तमसा तट पर प्रथम वास हुआ और शृंगबेरपुर में गंगा जी के तट पर दूसरा निवास हुआ। उस दिन सीता जी के सहित दोनों भाई श्रीराम, लक्ष्मण गंगा जी में स्नान करके केवल जलपान करके ही रह गये।

[[४२३]]

**विशेष– **शृंगबेरपुर मे श्रीराम ने सीता, लक्ष्मण और सुमंत्र जी के सहित कन्द, मूल, फल खाया था, जैसे की अयोध्याकाण्ड के ८९ वें(नवासीवें) दोहे में स्पष्ट है, परन्तु यहाँ सुमंत्र जी ने केवल जलपान की बात इसलिए कही, क्योंकि उनकी बुद्धि शोक से भ्रमित हो गई थी।

केवट कीन्हि बहुत सेवकाई। सो जामिनि सिंगरौर गवाँई॥ होत प्रात बट छीर मँगावा। जटा मुकुट निज शीष बनावा॥

भाष्य

केवट ने बहुत सेवा की। प्रभु ने वह रात्रि सिंगरौर अर्थात्‌ शृंगबेरपुर में बितायी। प्रात:काल होते ही श्रीराम ने वटवृक्ष का दूध मंगाया और अपने सिर पर जटा का मुकुट बनाया।

**राम सखा तब नाव मँगाई। प्रिया च़ढाइ च़ढे रघुराई॥ लखन बान धनु धरे बनाई। आपु च़ढे प्रभु आयसु पाई॥**
भाष्य

श्रीराम के सखा निषादराज ने तब नाव मंगायी। पत्नी श्रीसीता को नाव पर च़ढाकर रघुवंश में सुशोभित होने वाले श्रीराम स्वयं नाव पर च़ढे। लक्ष्मण जी व्यवस्थित करके श्रीराम का धनुष–बाण लिए हुए थे। प्रभु से आज्ञा पाकर स्वयं श्रीलक्ष्मणकुमार भी नाव पर च़ढे।

**बिकल बिलोकि मोहि रघुबीरा। बोले मधुर बचन धरि धीरा॥ तात प्रनाम तात सन कहेहू। बार बार पद पंकज गहेहू॥**
भाष्य

मुझको व्याकुल देखकर, त्याग वीरता, दया वीरता, विद्दा वीरता, पराक्रम वीरता और धर्म वीरता से युक्त रघुवीर श्रीराम धैर्य धारण करके मधुर वचन बोले, हे तात्‌! पिताश्री को प्रणाम कहियेगा, बार–बार उनके चरणकमल पक़ड लीजियेगा।

**करब पायँ परि बिनय बहोरी। तात करिय जनि चिंता मोरी॥ बन मग मंगल कुशल हमारे। कृपा अनुग्रह पुन्य तुम्हारे॥**
भाष्य

फिर पिताश्री के चरण पर पड़ कर, मेरी ओर से विनय कर लीजियेगा और मेरा संदेश कहियेगा। “हे पिताश्री! आप मेरी चिन्ता न करें, आपकी कृपा, आपके अनुग्रह और आपके पुण्य से हमारे लिए वन के मार्ग में मंगल और कुशल ही होगा।” अर्थात्‌ आपकी कृपा से मैं कुशल मंगल से रहूँगा, आपके अनुग्रह अर्थात्‌ अनुकम्पा से लक्ष्मण का मंगल होगा और आप के पुण्य से सीता जी भी सकुशल और मंगल में रहेंगी।

**छं०: तुम्हरे अनुग्रह तात कानन जात सब सुख पाइहौं।**

प्रतिपालि आयसु कुशल देखन पायँ पुनि फिरि आइहौं॥ जननी सकल परितोषि परि परि पायँ करि बिनती घनी। तुलसी करेहु सोइ जतन जेहिं बिधि कुशल रह कोसलधनी॥

भाष्य

हे तात्‌! आपके अनुग्रह अर्थात्‌ अनुकम्पा से वन में जाते हुए मैं सभी सुख को प्राप्त कर लूँगा। मैं आपकी आज्ञा का प्रतिष्ठापूर्वक पालन करके वनवास अवधि के पश्चात्‌ पुन: सकुशल आपके श्रीचरणों के दर्शन के लिए श्रीअवध लौट आऊँगा। इसी प्रकार, सभी माताओं को समझाकर संतुष्ट करके बार–बार चरणों पर पड़कर बहुत विनती कीजियेगा। तुलसीदास जी कहते हैं कि, “तु” अर्थात्‌ तुरीय श्रीराम, “ल” अर्थात्‌ लक्ष्मण, “सी” अर्थात्‌ श्रीसीता जी ने कहा, “हे सुमंत्र, वही यत्न करियेगा जिससे कोसलपति महाराज कुशल से रहें।

**सो०- गुरु सन कहब सँदेश, बार बार पद पदुम गहि।**

करब सोइ उपदेश, जेहिं न सोच मोहि अवधपति॥१५१॥

[[४२४]]

भाष्य

गुरुदेव के भी बार–बार चरण पक़डकर उनसे मेरा संदेश कहियेगा। “हे गुव्र्देव! आप महाराज को उसी प्रकार वही उपदेश दीजियेगा जिससे अयोध्याधिपति मेरे विषय में शोक न करें।”

**पुरजन परिजन सकल निहोरी। तात सुनायेहु बिनती मोरी॥ सोइ सब भाँति मोर हितकारी। जाते रह नरनाह सुखारी॥**
भाष्य

हे तात्‌! पुरवासी, परिवार के सभी लोगों को मेरी ओर से निहोरा करते हुए अर्थात्‌ बार–बार अनुरोध करते हुए यही विनती सुनाइयेगा कि, “वही सब प्रकार से मेरा हितैषी होगा जिससे महाराज सुख पायेंगे।”

**कहब सँदेश भरत के आए। नीति न तजिय राजपद पाए॥ पालेहु प्रजहिं करम मन बानी। सेयेहु मातु सकल सम जानी॥ ओर निबाहेहु भायप भाई। करि पितु मातु सुजन सेवकाई॥ तात भाँति तेहि राखब राऊ। सोच मोर जेहिं करैं न काऊ॥**
भाष्य

भरत के आने पर मेरा यह संदेश कह दीजियेगा। “हे भैया भरत! आप राजपद पाकर नीति नहीं छोड़ें। कर्म, मन और वाणी से प्रजा का पालन करें। सभी माताआंें को समान जानकर उनकी सेवा करें। हे भाई! पिता, माता और सज्जनों की सेवा करके भायप अर्थात्‌ भ्रातृत्व के सम्बन्ध को निभाते रहें। हे भैया! महाराज को उसी प्रकार रखें जिससे वे कभी भी मेरे विषय में शोक नहीं करें।”

**लखन कहे कछु बचन कठोरा। बरजि राम पुनि मोहि निहोरा॥ बार बार निज शपथ देवाई। कहब न तात लखन लरिकाई॥**
भाष्य

फिर लक्ष्मण जी ने कुछ कठोर वचन कहे, उन्हें रोककर फिर श्रीराम जी ने मुझसे अनुरोध किया। बार– बार अपनी शपथ दिलायी और कहा, लक्ष्मण के लड़कपन की बात पिताश्री से मत कहियेगा।

**दो०- कहि प्रनाम कछु कहन लिय, सिय भइ शिथिल सनेह।**

**थकित बचन लोचन सजल, पुलक पल्लवित देह॥१५२॥ भा०– **प्रणाम कहकर सीता जी कुछ कहना चाहीं। उसी समय में स्नेह से शिथिल हो गईं, उनकी वाणी रुक गई, उनके नेत्र अश्रुजल से पूर्ण हो गये, उनका शरीर रोमांचित होकर पल्लव के समान काँपने लगा।

तेहि अवसर रघुबर रुख पाई। केवट पारहिं नाव चलाई॥ रघुकुल तिलक चले एहिं भाँती। देखेउँ ठा़ढ कुलिश धरि छाती॥

भाष्य

उसी अवसर पर रघुकुल में श्रेष्ठ श्रीराम का संदेश पाकर केवट ने गंगा जी के उस पार जाने के लिए नाव चला दी। इस प्रकार, रघुकुल के तिलक श्रीराम शृंगबेरपुर से वन के लिए चले और मैं अपने हृदय पर वज्र रखकर, यह दृश्य देखता रहा।

**मैं आपन किमि कहौं कलेशू। जियत फिरेउँ लेइ राम सँदेशू॥ अस कहि सचिव बचन रहि गयऊ। हानि गलानि सोच बश भयऊ॥**
भाष्य

मैं अपना क्लेश कैसे कहूँ, मैं तो श्रीराम का संदेश लेकर जीवित लौटा अर्थात्‌ यदि श्रीराम का संदेश आपको नहीं देना होता, तो मैं भी प्रभु श्रीराम के वियोग में प्राण त्याग देता। ऐसे वचन कहकर मंत्री चुप रह गये। वे हानि, ग्लानि और शोक के वश हो गये।

**सूत बचन सुनतहिं नरनाहू। परेउ धरनि उर दारुन दाहू॥ तलफत बिषम मोह मन मापा। माजा मनहुँ मीन कहँ ब्यापा॥**

[[४२५]]

भाष्य

सारथी और मंत्री सुमंत्र जी का वचन सुनते ही महाराज दशरथ जी पृथ्वी पर गिर पड़े। हृदय में असहनीय दाह अर्थात्‌ जलन होने लगी, महाराज तड़फ़डाने लगे और उनका मन मोह अर्थात्‌ भ्रमात्मक विचार से उन्मत्त हो उठा, मानो मछली को माँजा अर्थात्‌ प्रथम वर्षा का फेन व्याप्त हो गया हो।

**करि बिलाप सब रोवहिं रानी। महा बिपति किमि जाइ बखानी॥**

**सुनि बिलाप दुखहूँ दुख लागा। धीरजहूँ कर धीरज भागा॥ भा०– **विलाप करके सभी रानियाँ रो रही थीं। वह महान्‌ विपत्ति कैसे बखानी जा सकती है ? महारानियों का विलाप सुनकर दु:ख को भी दु:ख लग गया और धैर्य का भी धैर्य भाग गया।

दो०- भयउ कोलाहल अवध अति, सुनि नृप राउर शोर।

**बिपुल बिहग बन परेउ निशि, मानहुँ कुलिश कठोर॥१५३॥ भा०– **महाराज के राजभवन में विलाप जनित क्रन्दन (चिल्लाना) सुनकर, अवध में भी बहुत कोलाहल मच गया, मानो रात्रि में बहुत से पक्षियों से युक्त वन में कठोर वज्र गिर पड़ा हो।

प्रान कंठगत भयउ भुआलू। मनि बिहीन जनु ब्याकुल ब्यालू॥

**इंद्रिय सकल बिकल भइँ भारी। जनु सर सरसिज बन बिनु बारी॥ भा०– **महाराज के प्राण उनके कण्ठगत्‌ हो गये, मानो मणि से विहीन सर्प व्याकुल हो गया हो। सभी इन्द्रियाँ व्याकुल हो उठीं, मानो जल के बिना तालाब का कमल समूह सूख रहा हो।

कौसल्या नृप दीख मलाना। रबिकुल रबि अथयउ जिय जाना॥

**उर धरि धीर राम महतारी। बोली बचन समय अनुसारी॥ भा०– **कौसल्या जी ने महाराज को मलान अर्थात्‌ हर्ष से रहित देखा, और जान गईं कि सूर्यकुल के सूर्य, महाराज अब अस्त ही होने वाले हैं। श्रीराम की माँ कौसल्या जी हृदय में धैर्य धारण करके समय का अनुसरण करती हुई बोलीं–

नाथ समुझि मन करिय बिचारू। राम बियोग पयोधि अपारू॥ करनधार तुम अवध जहाजू। च़ढेउ सकल प्रिय पथिक समाजू॥

भाष्य

हे नाथ महाराज! हृदय में समझकर विचार कीजिये। श्रीराम का वियोग अपार सागर है। चौदह वर्ष की अवधि जहाज है। उस पर श्रीराम के सम्पूर्ण प्रियजन रूप पथिकों का समाज च़ढा हुआ है, आप उसके कर्णधार हैं।”

**धीरज धरिय त पाइय पारू। नाहिं त बूहिड़ि सब परिवारू॥ जौ जिय धरिय बिनय पिय मोरी। राम लखन सिय मिलिहिं बहोरी॥**
भाष्य

आप धैर्य धारण करें तो पार पाया जा सकता है, नहीं तो सम्पूर्ण परिवार श्रीराम के विरह–सागर में डूब जायेगा। हे प्रियतम महाराज! यदि आप मेरी प्रार्थना हृदय में धारण कर लें तो फिर श्रीराम, लक्ष्मण, सीता जी मिल जायेंगे।

**दो०- प्रिया बचन मृदु सुनत नृप, चितयउ आँखि उघारि।**

तलफत मीन मलीन जनु, सींचत शीतल बारि॥१५४॥

[[४२६]]

भाष्य

अपनी प्रियतमा कौसल्या जी के वचन सुनकर, महाराज ने आँख खोलकर देखा, जैसे जल–क्षय से उदास, पानी के बिना तड़पता हुआ मछली शीतल जल से सींचने पर चेतना प्राप्त कर उठा हो।

**धरि धीरज उठि बैठ भुआलू। कहु सुमंत्र कहँ राम कृपालू॥ कहाँ लखन कहँ राम सनेही। कहँ प्रिय पुत्रबधू बैदेही॥**
भाष्य

धैर्य धारण करके महाराज दशरथ उठकर बैठ गये और बोले, सुमंत्र! बताओ, कृपालु श्रीराम कहाँ हैं? लक्ष्मण कहाँ हैं? मेरे वात्सल्य स्नेह के आश्रय श्रीराम कहाँ हैं और प्यारी पुत्रवधू विदेहनन्दिनी जानकी जी कहाँ हैं?

**बिलपत राउ बिकल बहु भाँती। भइ जुग सरिस सिराति न राती॥ तापस अंध स्राप सुधि आई। कौसल्यहिं सब कथा सुनाई॥**
भाष्य

महाराज व्याकुल होकर विलाप करने लगे। रात्रि युग के समान हो गयी, वह बीतती ही नहीं थी। दृष्टिहीन तपस्वी के शाप का स्मरण हो आया। कौसल्या जी को सब कथा सुनायी।

**विशेष– **लोक में प्रचलित श्रवण कुमार, श्रमण का अपभ्रंश है, जो अविवाहित, परिव्राजक के अर्थ में पहले प्रचलित था। महर्षि पाणिनी ने भी \(कुमार: श्रमणादिभी:। पा०अ०, २.९.६०\) कहा, इसलिए अन्धदम्पति ब्राह्मण थे और वैश्य द्वारा शूद्र \(चतुर्थ वर्ण की स्त्री\) से जन्मेहुए एक परिचारक को अपनी सेवा में रखा था, जो इन दृष्टिहीन दम्पति को ही माता–पिता मानता था। जनश्रुति के आधार पर दृष्टिहीन महिला का नाम सुशीला और दृष्टिबाधित पुरुष का नाम शान्तनु कहा जाता है। हमें किसी आर्षग्रन्थ में श्रमण के माता–पिता का नाम लिखित रूप में अभी तक उपलब्ध नहीं हुआ है, कहीं होगा– हरि अनंत हरि कथा अनंता।

भयउ बिकल बरनत इतिहासा। राम रहित धिग जीवन आसा॥ सो तनु राखि करब मैं काहा। जेहिं न प्रेम पन मोर निबाहा॥

भाष्य

इस इतिहास का वर्णन करते–करते चक्रवर्ती जी बहुत व्याकुल हो गये और विकल अर्थात्‌ उनके शरीर की दसों इन्द्रियों और पंचप्राणों की शक्ति कलायें विकृत हो गईं। महराज ने कहा, श्रीराम के बिना मेरे जीवन की आशा करना धिक्कार है। वह शरीर रखकर मैं क्या करूँगा, जिसने मेरे प्रेम और प्रतिज्ञा का निर्वाह नहीं किया? अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार श्रीराम के बिना मुझे एक क्षण नहीं जीवित रहना चाहिये था। पर मैं छह दिन जीवित रहा अत: यह शरीर प्रभु के विरहाग्नि में भस्म कर देना ही उचित होगा।

**हा रघुनंदन प्रान पिरीते। तुम बिनु जियत बहुत दिन बीते॥ हा जानकी लखन हा रघुबर। हा पितु हित चित चातक जलधर॥**
भाष्य

हा! प्राणों के समान प्रिय रघुकुल तथा रघु शब्द के वाच्यार्थ सभी जीवात्माओं को आनन्दित करने वाले श्रीराम! आप के बिना जीते हुए बहुत दिन (छ: दिन) बीत गये। हा जनकनन्दिनी सीते! हा लक्ष्मण! हा पिता के प्रेमपूर्ण चित्त रूप चातक के बादल! अथवा, हा पिता के हितैषी और मेरे चित्त रूप चातक के मेघ श्रीराघव!

**दो०- राम राम कहि राम कहि, राम राम कहि राम।**

तनु परिहरि रघुबर बिरह, राउ गयउ सुरधाम॥१५५॥

भाष्य

इस प्रकार राम–राम कहकर, फिर राम कहकर, पुन: राम–राम, राम कहकर (छ: बार राम) कहकर अर्थात्‌ इसी माध्यम से षडक्षर श्रीरामनाम जप कर तथा छ: बार श्रीरामनाम के उच्चारण से प्रभु के बिना छ: दिन तक जीवित रहने के पाप का प्रायश्चित करके और छ: बार श्रीरामनाम का उच्चारण करके छ: प्रकार की

[[४२७]]

शरणागति की प्रतिज्ञा करके तथा छ: बार श्रीरामनाम के उच्चारण से शरीर, स्त्री, पुत्र, भवन, धन और पृथ्वी के मोह का त्याग करके श्रीराम के विरह में शरीर छोड़कर महाराज चक्रवर्ती दशरथ जी सुरधाम अर्थात्‌ सुरपति इन्द्र के लोक में चले गये।

**विशेष– **यहाँ सुरधाम का अर्थ है, इन्द्र का धाम, क्योंकि आगे के प्रकरणों में ऐसे ही संकेत मिलते हैं। पुन: युद्धकाण्ड में सुरधाम शब्द साकेतलोक के लिए प्रयुक्त होगा।

जिवन मरन फल दशरथ पावा। अंड अनेक अमल जस छावा॥ जियत राम बिधु बदन निहारा। राम बिरह मरि मरन सँवारा॥

भाष्य

महाराज दशरथ जी ने जीवन और मरण दोनों का फल पा लिया। अनेक ब्रह्माण्डों में उनका निर्मल यश छा गया। अपने जीवन काल में महाराज श्रीराम के मुख–चन्द्र को निहारते रहे और श्रीराम के वियोग में मरकर उन्होंने मृत्यु को भी सँवारा, अर्थात्‌ सजाया तथा मृत्यु का शृंगार किया। अमंगल में भी मंगल बना दिया।

**शोक बिकल सब रोवहिं रानी। रूप शील बल तेज बखानी। करहिं बिलाप अनेक प्रकारा। परहिं भूमि तल बारहिं बारा॥**
भाष्य

सभी रानियाँ (कैकेयी को छोड़कर) महाराजश्री के रूप, शील, बल और तेज की प्रशंसा करके रो रहीं हैं। अनेक प्रकार से विलाप कर रही हैं, बारम्बार पृथ्वी पर पछाड़ खा कर गिर रही हैं।

**बिलपहिं बिकल दास अरु दासी। घर घर रुदन करहिं पुरबासी॥**

**अथयउ आजु भानुकुल भानू। धरम अवधि गुन रूप निधानू॥ भा०– **व्याकुल हुए दास और दासियाँ विलाप कर रही हैं। घर–घर में अवधवासी रुदन कर रहे हैं अर्थात्‌ रो रहे हैं। वे कहते हैं, आज धर्म की सीमा तथा गुणों और रूप के कोशस्वरूप श्रीदशरथरूप सूर्यकुल के सूर्य अस्त हो गये।

गारी सकल कैकइहिं देहीं। नयन बिहीन कीन्ह जग जेहीं॥ एहि बिधि बिलपत रैनि बिहानी। आए सकल महामुनि ग्यानी॥

भाष्य

सभी लोग कैकेयी को गालियाँ दे रहे हैं, जिसने जगत्‌ को ही नेत्र से विहीन कर दिया है। इस प्रकार, विलाप करते वह रात बीत गई। प्रात:काल सभी ज्ञानी महर्षिगण राजभवन में आये।

**दो०- तब बसिष्ठ मुनि समय सम, कहि अनेक इतिहास।**

शोक निवारेउ सबहिं कर, निज बिग्यान प्रकास॥१५६॥

भाष्य

तब वसिष्ठ मुनि समय के समान ही अनेक पूर्व इतिहास कहकर, अपने विशिष्ट ज्ञान के प्रकाश से (विशिष्टाद्वैत सिद्धान्त के अनुसार) सभी के शोक को सीमा पार करने से रोक दिया।

**तेल नाव भरि नृप तनु राखा। दूत बोलाइ बहुरि अस भाखा॥ धावहु बेगि भरत पँह जाहू। नृप सुधि कतहुँ कहहु जनि काहू॥**
भाष्य

वसिष्ठ जी ने तेल से भरी नाव में महाराज के शरीर को रख दिया और फिर दूतों को बुलाकर ऐसा कहा, दौड़ो शीघ्र भरत के पास जाओ और कहीं भी किसी से भी महाराज का समाचार मत कहना।

**इतनहिं कहेहु भरत सन जाई। गुरु बोलाइ पठयउ दोउ भाई॥ सुनि मुनि आयसु धावन धाए। चले बेग बर बाजि लजाए॥**

[[४२८]]

भाष्य

जाकर भरत जी को केवल इतना कहना कि, दोनों भाई श्रीभरत, शत्रुघ्न जी को गुव्र् वसिष्ठ ने बुला भेजा है। मुनि वसिष्ठ जी का आदेश सुनकर, दौड़नेवाले दूत दौड़ते हुए चले, वे अपने वेग से श्रेष्ठ घोड़ों को भी लज्जित कर रहे थे।

**अनरथ अवध अरंभेउ जब ते। कुसगुन होहिं भरत कहँ तब ते॥ देखहिं राति भयानक सपना। जागि करहिं कटु कोटि कलपना॥**
भाष्य

जब से श्रीअवध में अनर्थ का आरम्भ हुआ, तब से श्रीभरत के लिए अपशकुन होने लगे। वे रात्रि में भयानक स्वप्न देखते हैं और जागकर, करोड़ों क़डवी कल्पनायें करते हैं अर्थात्‌ अपने मन में अशुभ विचार लाते हैं।

**बिप्र जिवाँइ देहिं दिन दाना। शिव अभिषेक करहिं बिधि नाना॥ माँगहि हृदय महेश मनाई। कुशल मातु पितु परिजन भाई॥**
भाष्य

श्रीभरत दिन में ब्राह्मणों को भोजन कराके दान देते हैं और अनेक प्रकार से शिव जी का अभिषेक अथवा, मंगलमय सनातन धर्म के पाँचों देवताओं का अभिषेक करते हैं। हृदय में शिव जी से प्रार्थना करके, सभी माताओं, पिताश्री, परिवार (भगवती श्रीसीता सहित तीनों बहुओं और भ्राता श्रीराम, लक्ष्मण) के कुशल अर्थात्‌ कल्याण की याचना करते हैं।

**दो०- एहि बिधि सोचत भरत मन, धावन पहुँचे आइ।**

गुरु अनुशासन स्रवन सुनि, चले गणेश मनाइ॥१५७॥

भाष्य

इस प्रकार मन में श्रीभरत के चिन्ता करते समय ही श्रीअवध के दौड़ाक दूत उनके पास आकर पहुँच गये। गुरुदेव की आज्ञा सुनकर सम्भावित विघ्न की आशंका से ग्रस्त श्रीभरत, शत्रुघ्न जी के साथ श्रीगणेश की प्रार्थना करके श्रीअवध के लिए चल पड़े।

**चले समीर बेग हय हाँके। नाघत सरित शैल बन बाँके॥ हृदय सोच बड़ कछु न सोहाई। अस जानहिं जिय जाउँ उड़ाई॥**
भाष्य

सारथी द्वारा हाँके हुए घोड़े नदियों, पर्वत और टे़ढ-मे़ढे वनों को लाँघते हुए वायु के वेग से चल पड़े। श्रीभरत के हृदय में बहुत शोक था, उन्हें कुछ भी नहीं अच्छा लग रहा था। वे हृदय में ऐसा विचार कर रहे थे कि, उड़कर अवध राजभवन में चला जाऊँ।

**एक निमेष बरष सम जाई। एहि बिधि भरत नगर नियराई॥ असगुन होहिं नगर पैठारा। रटहिं कुभाँति कुखेत करारा॥**
भाष्य

एक-एक क्षण वर्ष के समान जा रहा था। इस प्रकार, श्रीभरत, श्रीअवध नगर के निकट आ गये। नगर में प्रवेश करते ही अनेक अपशकुन हो रहे हैं, खेतों में कौवे बुरी प्रकार से कऱड-कऱड रट रहे हैं।

**खर सियार बोलहिं प्रतिकूला। सुनि सुनि होइ भरत उर शूला॥ श्रीहत सर सरिता बन बागा। नगर बिशेष भयावन लागा॥**
भाष्य

गधे और गीदड़ भी प्रतिकूल अर्थात्‌ अशुभ रीति से बोल रहे हैं। यह सुन–सुनकर श्रीभरत के हृदय में बहुत दु:ख हो रहा है। तालाब, नदी, वन और बगीचे शोभा से हीन हैं। अवध नगर बहुत भयंकर लग रहा है।

**खग मृग हय गय जाहिं न जोए। राम बियोग कुरोग बिगोए॥ नगर नारि नर निपट दुखारी। मनहुँ सबनि सब संपति हारी॥**

[[४२९]]

भाष्य

पक्षी, पशु, हाथी, घोड़े देखे नहीं जा रहे हैं, वे श्रीराम के वियोगरूप भयंकर रोग से नष्ट कर दिये गये हैं। अवधनगर की महिलायें और पुरुष अत्यन्त दु:खी हैं, मानो सभी ने अपनी सारी सम्पत्ति बाजी में हार दी हो।

**दो०- पुरजन मिलहिं न कहहिं कछु, गवँहिं जोहारहिं जाहिं।**

**भरत कुशल पूँछि न सकहिं, भय बिषाद मन माहिं॥१५८॥ भा०– **नगर के लोग श्रीभरत से मिलते हैं, कुछ भी नहीं कहते, प्रणाम करते हैं और धीरे से चले जाते हैं। उनके मन में भय और दु:ख है, वे श्रीभरत का कुशल भी नहीं पूछ सकते। अथवा, वे इतने शीघ्र चले जाते हैं कि, श्रीभरत उनका कुशल भी नहीं पूछ पाते हैं।

हाट बाट नहिं जाइ निहारी। जनु पुर दश दिशि लागि दवारी॥ आवत सुत सुनि कैकयनंदिनि। हरषी रबिकुल जलरुह चंदिनि॥

भाष्य

अवध के बाजार और मार्ग देखे नहीं जा रहे हैं, मानो अवध के दसों दिशाओं में जंगली आग लगी हुई है। पुत्र (श्रीभरत) को आते हुए (मंथरा से) सुनकर सूर्यकुलरूप कमल के लिए चाँदनी रात के समान कैकय राजपुत्री कैकेयी प्रसन्न हुईं।

**सजि आरती मुदित उठि धाई। द्वारेहिं भेंटि भवन लेइ आई॥ भरत दुखित परिवार निहारा। मानहुँ तुहिन बनज बन मारा॥**
भाष्य

कैकेयी प्रसन्नता से उठकर, स्वयं आरती सजाकर दौड़ी और राजद्वार पर ही भरत जी से मिलकर दोनों भाइयों को अपने भवन में ले आइ। श्रीभरत ने परिवार को (मांडवी जी को) उसी प्रकार दु:खी देखा, मानो कमल के वन को पाला मार गया हो।

**कैकेयी हरषित एहि भाँती। मनहुँ मुदित दव लाइ किराती॥ सुतहिं ससोच देखि मन मारे। पूँछति नैहर कुशल हमारे॥**
भाष्य

कैकेयी इस प्रकार प्रसन्न हुई, मानो वन में आग लगाकर भिलनी प्रसन्न हो रही हो। पुत्र को मन मारे हुए शोक से युक्त देखकर, कैकेयी पूछती हैं कि, हमारे मायके में कुशल तो है?

**विशेष– **हमें एक भिलनी से यह ज्ञात हुआ कि, वह अग्निदेव से यह मान्यता माँगती है कि, हे अग्निदेव\! मेरे पुत्र का विवाह होने पर मैं आग लगाकर सम्पूर्ण वन आपको भोजन के लिए सौंप दूँगी और ऐसा करके वह प्रसन्न होती है। जबकि, इससे उसी की हानि होती है, क्योंकि वन की लकयिड़ों से ही उसके पुत्र की जीविका चलती है तथा वन की अग्नि से उसके पुत्र के जलने की भी सम्भावना रहती है।

सकल कुशल कहि भरत सुनाई। पूँछी निज कुल कुशल भलाई॥

**कहु कहँ तात कहाँ सब माता। कहँ सिय राम लखन प्रिय भ्राता॥ भा०– **श्रीभरत ने कैकेयी को उसके मायके का सम्पूर्ण कुशल समाचार कह सुनाया, फिर अपने कुल का कुशल मंगल पूछा। (श्रीभरत बोले–कहो!) पिताश्री कहाँ हैं? सभी मातायें कहाँ हैं? भगवती सीता जी कहाँ हैं? प्यारे भ्राता श्रीराम–लक्ष्मण कहाँ हैं?

**विशेष– **कैकेयी के क्षण भर चुप रहने पर, भरत जी ने मांडवी को संकेत करके कहा, बोलो, पिताश्री, सभी मातायें, श्रीसीता एवं दोनों भ्राता श्रीराम, लक्ष्मण कहाँ हैं? मांडवी जी उत्तर नहीं दे सकीं।

दो०- सुनि सुत बचन सनेहमय, कपट नीर भरि नैन।

भरत स्रवन मन शूल सम, पापिनि बोली बैन॥१५९॥

[[४३०]]

भाष्य

पुत्र भरत के प्रेमपूर्ण वचन सुनकर, नेत्रों में कपट के आँसू भरकर पाप करने वालीं कैकेयी, भरत जी के कानों और मन को त्रिशूल के समान चुभनेवाले कष्टकारक वचन बोलीं–

**तात बात मैं सकल सँवारी। भइ सहाय मंथरा बिचारी॥ कछुक काज बिधि बीच बिगारेउ। भूपति सुरपति पुर पगु धारेउ॥**
भाष्य

हे बेटे! मैंने सब बात बना ली, बिचारी निरीह मंथरा मेरी सहायक हुईं। बीच में विधाता ने कुछ थोड़ी-सी बात बिगाड़ दी, महाराज इन्द्रपुर को पधार गये।

**सुनत भरत भए बिबश बिषादा। जनु सहमेउ करि केहरि नादा॥ तात तात हा तात पुकारी। परे भूमितल ब्याकुल भारी॥**
भाष्य

यह सुनते ही श्रीभरत इस प्रकार विषाद अर्थात्‌ दु:ख के विवश हो गये, मानो सिंह की गर्जना से हाथी भय से सहम गया हो। हा तात्‌! हा तात्‌! (हा! पिताश्री! हा पिताश्री! हा! पिताश्री) ऊँचे स्वर से चिल्लाकर बहुत व्याकुल होकर, श्रीभरत आसन पर से पृथ्वी तल पर गिर पड़े और बोले–

**चलत न देखन पायउँ तोही। तात न रामहिं सौंपेहु मोही॥ बहुरि धीर धरि उठे सँभारी। कहु पितु मरन हेतु महतारी॥**
भाष्य

हे पिताश्री! आपके इन्द्रलोक प्रस्थान करते समय मैं नहीं देख पाया और आपने मुझे भगवान्‌ श्रीराम को नहीं सौंपा अर्थात्‌ मुझे बीच में ही छोड़कर चले गये। फिर धैर्य धारण करके, श्रीभरत सम्भालकर उठे और कैकेयी से पूछा, माँ! पिताश्री की मृत्यु का कारण बताओ।

**सुनि सुत बचन कहति कैकेई। मरम पाँछि जनु माहुर देई॥ आदिहु ते सब आपनि करनी। कुटिल कठोर मुदित मन बरनी॥**
भाष्य

पुत्र भरत जी के वचन सुनकर कैकेयी ऐसे कह रही है अर्थात्‌ उत्तर दे रही है, मानो पीठ पर मर्मान्तक घाव करके, उस पर विष के घोल का छिड़कन दे रही हो। कुटिल हृदयवाली, कठोर प्रकृति की कैकेयी ने प्रसन्न मन से प्रारम्भ से अपनी सम्पूर्ण करनी कह सुनायी।

**दो०- भरतहिं बिसरेउ पितु मरन, सुनत राम बन गौन।**

हेतु अपनपउ जानि जिय, थकित रहे धरि मौन॥१६०॥

भाष्य

भरत जी को पिताश्री का मरण भूल गया। श्रीराम का वनगमन सुनते ही हृदय में स्वयं को ही उसका कारण जानकर, मौन धारण करके श्रीभरत थकित अर्थात्‌ सम्पूर्ण चेष्टायें शान्त करके स्तब्ध रह गये।

**बिकल बिलोकि सुतहिं समुझावति। मनहुँ जरे पर लोन लगावति॥ तात राउ नहिं सोचन जोगू। बि़ढई सुकृत जस कीन्हेउ भोगू॥**
भाष्य

पुत्र भरत को विकल अर्थात्‌ व्याकुल और सम्पूर्ण चेष्टाओं से शून्य देखकर, कैकेयी समझा रही है, मानो वह जले पर नमक लगा रही है। कैकयी बोली, हे तात्‌! महाराज शोक करने योग्य नहीं हैं, उन्होंने पुण्य और यश का अर्जन करके सभी राजभोग किये और उन पुण्यों तथा यश का सुख भोगा।

**जीवत सकल जनम फल पाए। अंत अमरपति सदन सिधाए॥ अस अनुमानि सोच परिहरहू। सहित समाज राज पुर करहू॥**

[[४३१]]

भाष्य

महाराज ने जीवित रहते ही जन्म के सम्पूर्ण फल प्राप्त कर लिए और अन्त में देवताओं के स्वामी इन्द्र के भवन पधार गये। ऐसा अनुमान करके तुम अपने पिताश्री का शोक छोड़ दो। अपने मंत्री, सेनापति, पुरजन और परिजन समाज के साथ अवधपुर में राज्य करो।

**सुनि सुठि सहमेउ राजकुमारू। पाके छत जनु लाग अँगारू॥ धीरज धरि भरि लेहिं उसासा। पापिनि सबहिं भाँति कुल नासा॥**
भाष्य

कैकेयी का यह वचन सुनकर, राजकुमार श्रीभरत बहुत सहम गये अर्थात्‌ व्याकुल हो उठे, मानो पके हुए घाव पर अंगार अर्थात्‌ जलती हुई अग्नि के कणों का समूह लग गया हो। धैर्य धारण करके, श्रीभरत जी ऊँचा श्वास भर लेते हैं। मन में सोचते हैं कि, पापिनी कैकेयी ने तो सभी प्रकार से कुल को ही नष्ट कर दिया।

**जौ पै कुरुचि रही असि तोही। जनमत काहे न मारेसि मोही॥ पेड़ काटि तैं पालउ सींचा। मीन जियन निति बारि उलीचा॥**
भाष्य

श्रीभरत कैकेयी से बोले, यदि तुम्हारे मन में इसी प्रकार की कुत्सित बुद्धि थी अर्थात्‌ बुरी रुचि थी, तो तुम ने जन्म लेते ही मुझे क्यों नहीं मार डाला? तुम ने वृक्ष को काट कर पल्लव को सींचा है। मछली के जीवन के लिए (तालाब से) जल को ही उलीच डाला अर्थात्‌ श्रीदशरथरूप वृक्ष को काटकर, मुझ भरतरूप पल्लव को राज्यजल से तुमने सींचना चाहा। मुझ भरतरूप मछली को जिलाने के लिए श्रीअवधरूप तालाब से तुम ने श्रीरामरूप जल को उलीचा, अर्थात्‌ बाहर फेंक दिया।

**दो०- हंसबंश दशरथ जनक, राम लखन से भाइ।**

जननी तू जननी भई, बिधि सन कछु न बसाइ॥१६१॥

भाष्य

कहाँ मेरा सूर्य का वंश, श्रीचक्रवर्ती जी जैसे पिता, श्रीराम, लक्ष्मण जैसे परमेश्वर मेरे भ्राता, (ऐसे शुभ संयोग के बीच) हे माँ! जननी तू जननी भई अर्थात्‌ अपनी माता के ही समान पति को मारनेवाली तू मेरी माँ बन गई। विधाता के सामने किसी का कुछ भी वश नहीं चलता।

**जब तैं कुमति कुमतजिय ठयऊ। खंड खंड होइ हृदय न गयऊ॥ बर माँगत मन भइ नहिं पीरा। गरि न जीह मुहँ परेउ न कीरा॥**
भाष्य

हे कुबुद्धि कैकेयी! जब तुमने अपने जीवात्मा में यह कुत्सित बुद्धि धारण की तब तुम्हारे हृदय के टुक़डे- टुक़डे क्यों नहीं हो गये? वरदान माँगते समय तुम्हारे मन को पीड़ा क्यों नहीं हुई? तुम्हारी जीभ क्यों नहीं गल गई? तुम्हारे मुख में कीड़े क्यों नहीं पड़ गये?

**भूप प्रतीति तोरि किमि कीन्ही। मरन काल बिधि मति हरि लीन्ही॥ बिधिहुँ न नारि हृदय गति जानी। सकल कपट अघ अवगुन खानी॥ सरल सुशील धरम रत राऊ। सो किमि जानहिं तीय सुभाऊ॥**
भाष्य

महाराज ने तुम्हारा विश्वास क्यों कर लिया? मरणकाल में विधाता ने उनकी बुद्धि हर ली थी, जो सम्पूर्ण पाप, कपट और दुर्गुणों की खानि होती है, ऐसी स्वार्थपरायण (कौसल्या, सीता आदि महिलाओं के अतिरिक्त) साधारण नारी के हृदय की गति ब्रह्मा जी भी नहीं जान पाये। महाराज, सरल, सुन्दर चरित्रवाले और धर्म में अनुरक्त थे, वे ग्राम्य–नारी का स्वभाव कैसे जान सकते थे?

**विशेष– **यह उक्ति उस साधारण स्वार्थिनी नारी के लिए है, जो माता, पुत्री, बहन और पत्नी इन चारों भारतीय संस्कृति की अवधारणाओं से दूर खल प्रकृति की नारी है।

[[४३२]]

अस को जीव जंतु जग माहीं। जेहिं रघुनाथ प्रानप्रिय नाहीं॥ भे अति अहित राम तेउ तोही। को तू अहसि सत्य कहु मोही॥ जो हसि सो हसि मुहँ मसि लाई। आँखि ओट उठि बैठहि जाई॥

भाष्य

संसार में कौन ऐसा जीव–जन्तु अर्थात्‌ बड़ा, छोटा प्राणी है, जिसे रघुनाथ अर्थात्‌ सम्पूर्ण जीवों के स्वामी श्रीराम प्राण के समान प्रिय नहीं हैं। वे भी श्रीराम तुम्हारे लिए अत्यन्त अहित अर्थात्‌ शत्रु हो गये। तुम कौन हो मुझ से सत्य कहो? तुम जो हो वह रहो, मुख में स्याही लगाकर यहाँ से उठकर मेरी आँखों से ओझल होकर जाकर बैठो अर्थात्‌ अब मैं तुम्हें अपनी आँखों से नहीं देखना चाहता।

**दो०- राम बिरोधी हृदय ते, प्रगट कीन्ह बिधि मोहि।**

मो समान को पातकी, बादि कहउँ कछु तोहि॥१६२॥

भाष्य

जिसका हृदय राम विरोधी है, ऐसी माँ की कोख से विधाता ने मुझे प्रकट किया है। मेरे समान पापी कौन है? मैं तुम्हें व्यर्थ ही कुछ कह रहा हूँ।

**सुनि शत्रुघ्न मातु कुटिलाई। जरहिं गात रिसि कछु न बसाई॥ तेहि अवसर कुबरी तहँ आई। बसन बिभूषन बिबिध बनाई॥**
भाष्य

माता की कुटिलता सुनकर शत्रुघ्न जी के अंग क्रोध से जले जा रहे हैं। उनका कुछ वश नहीं चल रहा है। उसी अवसर पर अनेक वस्त्र और आभूषण अपने शरीर पर सजाकर वहाँ अर्थात्‌ जहाँ श्रीभरत, शत्रुघ्न बैठे थे, उस कैकेयी भवन में मंथरा दासी आ गई।

**लखि रिसि भरेउ लखन लघु भाई। बरत अनल घृत आहुति पाई॥ हुमकि लात तकि कूबर मारा। परि मुँह भरि महि करति पुकारा॥**
भाष्य

उसे देखकर, श्रीलक्ष्मण के छोटे भाई शत्रुघ्न जी क्रोध से भर गये। जलते हुए अग्नि ने घी की आहुति पा ली, उन्होंने अपने चरण को हुमकि, अर्थात्‌ दृ़ढ करके जोड़ से फटकार कर, कठोर दृय्ि से देखकर, मंथरा के कूबड़ पर ही मार दिया। वह ऊँचे स्वर में पुकार अर्थात्‌ क्रन्दन करती हुई, चिल्लाती हुई पृथ्वी पर गिर पड़ी।

**कूबर टूटेउ फूट कपारू। दलित दशन मुख रुधिर प्रचारू॥ आह दैव मैं काह नसावा। करत नीक फल अनइस पावा॥**
भाष्य

उसका कूबड़ टूट गया, सिर फूट गया, उसके सभी बत्तीसों दाँत टूट गये और मुख से रक्त का प्रवाह चल पड़ा। वह चीखती हुई बोली, आह ईश्वर! मैंने क्या बिगाड़ा? अच्छा करते हुए बुरा फल पाया।

**सुनि रिपुहन लखि नख शिख खोटी। लगे घसीटन धरि धरि झोंटी॥**

**भरत दयानिधि दीन्हि छुड़ाई। कौसल्या पहिं गे दोउ भाई॥ भा०– **मंथरा की बात सुनकर, नख से शिखा तक तथा खोटी अर्थात्‌ बहुत बुरी दुय् स्त्री जानकर शत्रुघ्न जी उसके बाल पक़ड कर घसीटने लगे। दया के सागर भरत जी ने मंथरा को शत्रुघ्न जी से छुड़ा दिया और श्रीभरत,

शत्रुघ्न दोनों भाई माता कौसल्या जी के पास गये।

दो०- मलिन बसन बिबरन बिकल, कृश शरीर दुख भार।

कनक कलप बर बेलि बन, मानहुँ हनी तुषार॥१६३॥

[[४३३]]

भाष्य

कौसल्या जी के वस्त्र मलिन हो गये थे, उनका आकार बिबरन, अर्थात्‌ विकृत और उदास हो गया था, वे व्याकुल थीं। दु:ख के भार से कौसल्या जी का शरीर उसी प्रकार दुर्बल हो गया था, मानो स्वर्ण से निर्मित श्रेष्ठ कल्पलतिका के वन को तुषार अर्थात्‌ हिमपात ने नष्ट कर दिया हो।

**भरतहिं देखि मातु उठि धाई। मुरछित अवनि परी झइँ आई॥ देखत भरत बिकल भए भारी। परे चरन तनु दशा बिसारी॥**
भाष्य

शत्रुघ्न जी के साथ श्रीभरत को देखकर, माता कौसल्या उठकर दौड़ीं और वे चक्कर खाकर मूर्च्छित होकर, पृथ्वी पर गिर पड़ीं। माता जी की दशा देखते ही श्रीभरत बहुत व्याकुल हो गये और वे अपने शरीर की दशा को भुलाकर, बड़ी माताश्री के चरणों पर गिर पड़े।

**मातु तात कहँ देहु देखाई। कहँ सिय राम लखन दोउ भाई॥ कैकयि कत जनमी जग माँझा। जौ जनमि त भइ काहे न बाँझा॥**

**कुल कलंक जेहि जनमेउ मोही। अपजस भाजन प्रियजन द्रोही॥ भा०– **श्रीभरत बोले, माँ! पिता जी को दिखा दो। श्रीसीता तथा दोनों भाई श्रीराम, लक्ष्मण कहाँ हैं? कैकेयी इस संसार में क्यों जन्मी? जन्मी भी तो वह क्यों नहीं बाँझ (नि:स्संतान) हो गई, जिसने अपयश के पात्र, प्रियजनों का द्रोह करने वाले मुझ जैसे कुल के कलंक को जन्म दिया।

को त्रिभुवन मोहि सरिस अभागी। गति असि तोरि मातु जेहि लागी॥ पितु सुरपुर बन रघुकुल केतू। मैं केवल सब अनरथ हेतू॥

**धिग मोहि भयउँ बेनु बन आगी। दुसह दाह दुख दूषन भागी॥ भा०– **हे माँ! तीनों लोकों में मेरे समान कौन भाग्यहीन है, जिसके कारण आपकी ऐसी गति हुई? पिता जी इन्द्रपुर में हैं और रघुकुल के पताका श्रीराम वन में हैं और मैं एकमात्र सभी अनर्थों का हेतु यहाँ हूँ। मुझे धिक्कार है। मैं असहनीय जलन, दु:ख और दोष का पात्र तथा सूर्यवंशरूप बाँस के वन के लिए अग्नि बन गया।

दो०- मातु भरत के बचन मृदु, सुनि पुनि उठी सँभारि।

लिए उठाइ लगाइ उर, लोचन मोचति बारि॥१६४॥

भाष्य

माता कौसल्या, भरत जी के कोमल वचन सुनकर, फिर सम्भालकर उठीं। नेत्रों से आँसू गिराती हुई भरत जी को उठाकर हृदय से लगा लिया।

**सरल सुभाय माय हिय लाए। अति हित मनहुँ राम फिरि आए॥ भेंटेउ बहुरि लखन लघु भाई। शोक सनेह न हृदय समाई॥**
भाष्य

सरल स्वभाव वाली माता जी ने अत्यन्त प्रेम से श्रीभरत को गले लगा लिया, मानो प्रभु श्रीराम वन से श्रीअवध लौट आये हैं, फिर लक्ष्मण जी के छोटे भाई शत्रुघ्न जी को माँ ने हृदय से लगा लिया। शोक और स्नेह उनके हृदय में नहीं समा रहा था।

**देखि स्वभाव कहत सब कोई। राम मातु अस काहे न होई॥ माता भरत गोद बैठारे। आँसु पोंछि मृदु बचन उचारे॥**
भाष्य

माँ कौसल्या जी का स्वभाव देखकर, सभी लोग कह रहे थे कि, श्रीराम की माता जी ऐसी क्यों न हों? माता जी ने भरत जी को गोद में बैठा लिया। उनके आँसू पोंछकर, कोमल वचन बोलीं–

[[४३४]]

अजहुँ बच्छ बलि धीरज धरहू। कुसमय समुझि शोक परिहरहू॥ जनि मानहु हिय हानि गलानी। काल करम गति अघटित जानी॥

भाष्य

हे वत्स! मैं बलिहारी जाऊँ अब भी धैर्य धारण करो, समय को विपरीत समझकर शोक छोड़ दो। मन में पिताश्री के निधन से हानि और श्रीराम के वनगमन से ग्लानि मत मानो। हे तात्‌! यह जान लो कि, समय और कर्म की गति अघटित है अर्थात्‌ यह तो होकर ही रहता है, इसका नाश नहीं हो सकता।

**काहुहिं दोष देहु जनि ताता। भा मोहि सब बिधि बाम बिधाता॥ जो एतेहुँ दुख मोहि जियावा। अजहुँ को जानइ का तेहि भावा॥**
भाष्य

हे तात्‌! किसी को दोष मत दो। मेरे लिए ही विधाता सब प्रकार से प्रतिकूल हो गये हैं, जो इतने बड़े दु:ख में भी मुझे जिला रहे हैं। अभी भी कौन जाने कि, उन्हें क्या अच्छा लग रहा है?

**दो०- पितु आयसु भूषन बसन, तात तजे रघुबीर।**

बिसमय हरष न हृदय कछु, पहिरे बलकल चीर॥१६५॥

भाष्य

हे बेटे भरत! पिताश्री के ही आदेश से रघुकुल के वीर श्रीराम ने आभूषण और वस्त्र छोड़ दिया। उनके हृदय में विस्मय अर्थात्‌ शोक और हर्ष कुछ भी नहीं था तात्पर्यत: हर्ष–विषाद के द्वन्द्व से ऊपर उठकर, उन्होंने वल्कल वस्त्र धारण किया।

**मुख प्रसन्न मन राग न रोषू। सब कर सब बिधि करि परितोषू॥ चले बिपिन सुनि सिय सँग लागी। रहइ न राम चरन अनुरागी॥**
भाष्य

श्रीराम का मुख प्रसन्न था, उनके मन में राग और रोष नहीं था। वे सब प्रकार से सबका परितोष करके अर्थात्‌ सबको समझाकर वन को चले। सुनकर, सीता जी उनके साथ लग गईं। श्रीराम के चरण की अनुरागिणी श्रीसीता रोकने पर भी नहीं रहीं।

**सुनतहिं लखन चले उठि साथा। रहहिं न जतन किए रघुनाथा॥ तब रघुपति सबही सिर नाई। चले संग सिय अरु लघु भाई॥**
भाष्य

सुनते ही उठकर लक्ष्मण जी भी साथ चल पड़े। यत्न करने पर भी रघुनाथ जी श्रीअवध में नहीं रह सके। अथवा श्रीरघुनाथ जी के यत्न करने पर भी लक्ष्मण अयोध्या में नहीं रह सके। तब सभी को प्रणाम करके रघुकुल के स्वामी श्रीराम, श्रीसीता जी और छोटे भाई लक्ष्मण के साथ वन को चल पड़े।

**राम लखन सिय बनहिं सिधाए। गइउँ न संग न प्रान पठाए॥**
भाष्य

श्रीराम, लक्ष्मण, सीता वन को चले गये, न तो मैं उनके संग गई और न ही उनके साथ अपने प्राणों को भेज सकी।

**यह सब भा इन आँखिन आगे। तउ न तजा तनु जीव अभागे॥ मोहि न लाज निज नेह निहारी। राम सरिस सुत मैं महतारी॥ जियइ मरइ भल भूपति जाना। मोर हृदय शत कुलिश समाना॥**
भाष्य

यह सब इन्हीं आँखों के सामने हो गया, फिर भी अभागे मेरे जीवात्मा ने शरीर को नहीं छोड़ा। मुझे अपना वत्सल स्नेह देखकर लज्जा नहीं लग रही है। श्रीराम जैसे पुत्र और मुझ जैसी माँ, दोनों में क्या तुलना? महाराज श्री ने भली प्रकार से जीना और मरना जान लिया था अर्थात्‌ श्रीराम की उपस्थिति में जीवन और श्रीराम की

[[४३५]]

अनुपस्थिति में मरण श्रेष्ठ है, यही जीवन–मरण का रहस्य महाराज ने भली प्रकार से जाना और अपने व्यवहार में उतारा मेरा हृदय तो सैक़डों वज्रों के समान है।

दो०- कौसल्या के बचन सुनि, भरत सहित रनिवास।

**ब्याकुल बिलपत राजगृह, मानहुँ शोक निवास॥१६६॥ भा०– **कौसल्या के वचन सुनकर, श्रीभरत के सहित सम्पूर्ण रनिवास व्याकुल होकर विलाप करने लगा, मानो राजभवन में शोक का निवास हो गया था।

बिलपहिं बिकल भरत दोउ भाई। कौसल्या लिए हृदय लगाईं॥ भाँति अनेक भरत समुझाये। कहि बिबेकमय बचन सुनाये॥

भाष्य

व्याकुल होकर भरत जी और उनसे उपलक्षित शत्रुघ्न जी ये दोनों भाई विलाप करने लगे। अथवा ‘भ’ यानी भक्त, भक्ति, भगवान्‌ तथा भाव में ‘रत’ यानी लगे हुए दोनों भाई व्याकुल होकर विलाप करने लगे। तब कौसल्या जी ने दोनो भाइयों को हृदय से लगा लिया। कौसल्या जी ने विवेकपूर्ण सुहावने वचन कहकर, अनेक प्रकार से श्रीभरत को समझाया।

विशेष

यहाँ प्रथम पंक्ति में प्रयुक्त भरत शब्द योग शक्ति से भक्त, भक्ति, भगवान्‌ और भाव में रत का वाचक है। अतएव वह दोउ भाई शब्द का विशेषण बन गया। भेषु भक्त भक्ति भगवद्‌ भावेषु रतौ भरतौ।

भरतहुँ मातु सकल समुझाई। कहि पुरान श्रुति कथा सुहाई॥ छल बिहीन शुचि सरल सुबानी। बोले भरत जोरि जुग पानी॥

भाष्य

भरत जी ने भी पुराणों और वेदों की सुन्दर कथायें कहकर, सभी (छह सौ अन्ट्‌ठानबे) माताओं को समझाया। भरत जी दोनों हाथ जोड़कर छल से रहित, पवित्र, सरल और सुन्दर वचन बोले–

**जे अघ मातु पिता सुत मारे। गाइगोठ महिसुर पुर जारे॥ जे अघ तिय बालक बध कीन्हे। मीत महीपति माहुर दीन्हें॥ जे पातक उपपातक अहहीं। करम बचन मन भव कबि कहहीं॥ ते पातक मोहि देउ बिधाता। जौ यह हो इ मोर मत माता॥**
भाष्य

माता, पिता और पुत्रों को मारने पर तथा गौ का गोष्ठ अर्थात गोशाला और ब्राह्मणों का नगर जलाने पर जो पाप होते हैं, जो पाप स्त्री और बालक का वध करने पर होते हैं, जो पाप मित्र और राजा को विष देने पर होता है, जो पाप और उप–पाप मन, वाणी, शरीर से उत्पन्न होते हैं, ऐसे मनीषीजन कहते हैं, यदि इस प्रकार का मेरा मत हो तो विधाता मुझे उन्हीं पापों का फल दे दें अर्थात्‌ मैं उन्हीं पापों के फल भोगूँ।

**दो०- जे परिहरि हरि हर चरन, भजहिं भूतगन घोर।**

तिन की गति मोहि देउ बिधि, जौ जननी मत मोर॥१६७॥

भाष्य

जो लोग विष्णु और शिव जी के चरणों को छोड़कर घोर भूतगणों को भजते हैं। हे माँ! यदि श्रीरामवनवास में मेरा मत हो, तो उन्हीं भूत–भक्तों की गति विधाता मुझे दे दें।

**बेचहिं बेद धरम दुहि लेहीं। पिशुन पराय पाप कहि देहीं॥ कपटी कुटिल कलहप्रिय क्रोधी। बेद बिदूषक बिश्व बिरोधी॥ लोभी लंपट लोलुपचारा। जे ताकहिं परधन परदारा॥ पावौं मैं तिन कै गति घोरा। जौ जननी यह सम्मत मोरा॥**

[[४३६]]

भाष्य

जो लोग वेद को बेच देते हैं और धर्म का दोहन कर लेते हैं, जो पिशुन अर्थात्‌ एक की बात दूसरे तक पहुँचाते हैं, जो दूसरों का पाप कहते रहते हैं, जो लोग कपटी, कुटिल, कलहप्रिय, तथा क्रोधी होते हैं और जो वेदों की निन्दा करते रहते हैं तथा विश्वभर के विरोधी होते हैं, जो लोभी, विषयों के लम्पट, लोलुप और चार अर्थात्‌ छिपकर दूसरों के भाव जानने का यत्न करते हैं, जो दूसरों के धन और दूसरों की स्त्री पर बुरी दृष्टि डालते हैं, हे माँ! उन्हीं की घोर गति मैं प्राप्त करूँ, यदि मेरी श्रीरामवनवास में तनिक भी सम्मति हो। अथवा, यदि श्रीरामवनवास मेरी सम्मति से हुआ हो।

**जे नहिं साधुसंग अनुरागे। परमारथ पथ बिमुख अभागे॥ जे न भजहिं हरि नरतनु पाई। जिनहिं न हरि हर सुजस सोहाई॥ तजि श्रुतिपंथ बाम पथ चलहीं। बंचक बिरचि बेष जग छलहीं॥ तिन कै गति मोहि शङ्कर देऊ। जननी जौ यह जानौं भेऊ॥**
भाष्य

जो सन्तों के संग में अनुराग नहीं रखते, जो अभागे मोक्ष के मार्ग से विमुख हैं, जो मानव शरीर धारण करके भी भगवान्‌ को नहीं भजते, जिनको विष्णु और शिव जी का शोभन यश नहीं सुहाता, जो वेदमार्ग छोड़कर वाममार्ग पर चलते हैं, जो वंचक लोग ठग का वेश बनाकर जगत्‌ को छलते रहते हैं, हे माँ! उन्हीं की गति मुझे शङ्कर जी दे दें, यदि मैं यह भेद जानता होऊँ।

**दो०- मातु भरत के बचन सुनि, साँचे सरल सुभाय।**

कहति राम प्रिय तात तुम, सदा बचन मन काय॥१६८॥

भाष्य

माता जी सरल स्वभाववाले भरत जी के कोमल और सत्य वचन सुनकर कहने लगीं, हे बेटे भरत! तुम वाणी, मन और शरीर से स्वभावत: सरल तथा श्रीराम को प्रिय हो।

**राम प्रान के प्रान तुम्हारे। तुम रघुपतिहिं प्रानहु ते प्यारे॥ बिधु बिष चवै स्रवै हिम आगी। होइ बारिचर बारि बिरागी॥ भए ग्यान बरु मिटै न मोहू। तुम रामहिं प्रतिकूल न होहू॥**

मत तुम्हार यह जो जग कहहीं। सो सपनेहुँ सुख सुगति न लहहीं॥

भाष्य

हे तात्‌! श्रीराम तुम्हारे प्राणों के भी प्राण हैं। तुम श्रीरघुपति के प्राणों के भी प्रिय हो। चाहे चन्द्रमा विष गिरायें, चाहे अग्नि हिमपात करे, चाहे जल में रहनेवाले मछली आदि जन्तु जल के विरागी हो जायें अर्थात्‌ जल से वैराग्य ले लें। भले ही ज्ञान के होने पर मोह न मिटे, इतने पर भी तुम श्रीराम के प्रतिकूल नहीं होओगे। श्रीरामवनगमन में तुम्हारा मत है, जो ऐसा कहेंगे, वे स्वप्न में भी सुख और सुन्दर गति नहीं प्राप्त करेंगे।

**अस कहि मातु भरत हिय लाए। थन पय स्रवहिं नयन जल छाए॥ करत बिलाप बहुत यहि भाँती। बैठेहिं बीति गई सब राती॥**
भाष्य

ऐसा कहकर माता कौसल्या जी ने श्रीभरत को हृदय से लगा लिया। उनके स्तन दुग्धस्राव करने लगे, उनके नेत्रों में आँसू छा गये। इस प्रकार, बहुत विलाप करते हुए माता कौसल्या जी के साथ बैठे–बैठे ही श्रीभरत की सम्पूर्ण रात बीत गई।

**बामदेव बसिष्ठ तब आए। सचिव महाजन सकल बोलाए॥ मुनि बहु भाँति भरत उपदेशे। कहि परमारथ बचन सुदेशे॥**

[[४३७]]

भाष्य

तब वामदेव और वसिष्ठजी, भरत जी के पास आये और सभी मंत्रियों और संभ्रान्त लोगों को बुला लिया। मननशील वसिष्ठ जी ने सुन्दर देश कालानुसार परमार्थ अर्थात्‌ मोक्ष के वचन कहकर, बहुत प्रकार से श्रीभरत को उपदेश दिया। गुरुदेव बोले–

**दो०- तात हृदय धीरज धरहु, करहु जो अवसर आजु।**

उठे भरत गुरु बचन सुनि, करन कहेउ सब साजु॥१६९॥

भाष्य

हे बेटे भरत! अब हृदय में धैर्य धारण करो, आज जो अवसर है वह करो अर्थात्‌ पिताश्री का अन्त्येकिर्म करो। गुरुदेव के वचन अर्थात्‌ आदेश सुनकर, भरत जी उठे और सभी प्रकार का साज अर्थात्‌ दाहसंस्कार का प्रबन्ध करने के लिए कहा।

**नृपतनु बेद बिदित अन्हवावा। परम बिचित्र बिमान बनावा॥ गहि पद भरत मातु सब राखी। रहीं राम दरसन अभिलाषी॥**
भाष्य

श्रीभरत ने तेल भरी नाव में रखे हुए महाराज दशरथ जी के शरीर को वेदों में प्रसिद्ध विधान से स्नान कराया और अत्यन्त विचित्र अर्थात्‌ विविध चित्रों से युक्त विमान सजाया तथा उसमें महाराज के शरीर को पधराया। श्रीभरत ने महाराज के साथ सती होने के लिए तैयार कौसल्या आदि सभी माताओं को चरण पक़डकर रख लिया अर्थात्‌ उन्हें सती नहीं होने दिया। सभी मातायें चौदह वर्षों के पश्चात्‌ श्रीअवध आनेवाले श्रीराम के दर्शनों की अभिलाषा में रह गईं अर्थात्‌ महाराज के साथ सती होने के लिए श्मशान नहीं गईं।

**चंदन अगर भार बहु आए। अमित अनेक सुगंध सुहाए॥ सरजु तीर रचि चिता बनाई। जनु सुरपुर सोपान सुहाई॥**
भाष्य

चन्दन, अगर और अनेक प्रकार के अपार सुगन्ध द्रव्यों के बहुत से भार समूह आये। सरयू के तीर पर सँवार कर महाराज दशरथ की चिता लगाई गई, मानो वह स्वर्गलोक की सुंदर सी़ढी हो।

**एहि बिधि दाह क्रिया सब कीन्ही। बिधिवत न्हाइ तिलांजलि दीन्ही॥**

**सोधि समृति सब बेद पुराना। कीन्ह भरत दशगात्र बिधाना॥ भा०– **इस प्रकार, श्रीभरत ने महाराज की सम्पूर्ण दाह–क्रिया सम्पन्न की और विधिपूर्वक सरयू जी में स्नान करके महाराज को तिलांजलि दी। अठारहों स्मृति, चारों वेद, और सभी पुराणों का शोधन करके श्रीभरत ने महाराज का दशगात्र विधान सम्पन्न किया।

जहँ जस मुनिवर आयसु दीन्हा। तहँ तस सहस भाँति सब कीन्हा॥ भये बिशुद्ध दिये सब दाना। धेनु बाजि गज बाहन नाना॥

भाष्य

वसिष्ठ जी ने जहाँ जैसा आदेश दिया, वहाँ उसी प्रकार से श्रीभरत ने सब कुछ सहस्र प्रकार से किया। विशुद्ध हुए अर्थात एकादशा करके लगे हुये सूतक से छूटकर शुद्ध हुए और गौ, घोड़े, हाथी, नाना प्रकार के वाहन तथा अन्य भी बहुत से दान दिये।

**दो०- सिंघासन भूषन बसन, अन्न धरनि धन धाम।**

दिये भरत लहि भूमिसुर, भे परिपूरन काम॥१७०॥

भाष्य

भरत जी ने सिंहासन, अलंकार, वस्त्र, अन्न, पृथ्वी, धन और भवन सब दिया। उन्हें प्राप्त कर महाब्राह्मणगण परिपूर्ण काम हो गये अर्थात्‌ उनकी कामनायें पूर्ण हुईं।

[[४३८]]

* मासपारायण, पन्द्रहवाँ विश्राम *

पितु हित भरत कीन्हि जसि करनी। सो मुख लाख जाइ नहिं बरनी॥

**सुदिन सोधि मुनिवर तब आए। सचिव महाजन सकल बुलाए॥ भा०– **पिताश्री दशरथ जी के लिए श्रीभरत ने जो श्राद्धकर्म किया वह लाखों मुखों से वर्णन नहीं किया जा सकता। सुन्दर मुहूर्त का शोधन करके सभी श्रेष्ठ मुनिगण आये और सभी मंत्रियों तथा श्रेष्ठजनों को बुला लिया।

बैठे राजसभा सब जाई। पठये बोलि भरत दोउ भाई॥ भरत बसिष्ठ निकट बैठारे। नीति धरममय बचन उचारे॥

भाष्य

सभी जाकर राजसभा में बैठे और श्रीभरत और शत्रुघ्न जी इन दोनों भाइयों को बुला भेजा। अथवा भरत अर्थात भक्ति, भक्त, भगवान्‌ में रत दोनों भाई भरत शत्रुघ्न को राजसभा में वसिष्ठ जी ने बुला भेजा। वसिष्ठ जी ने श्रीभरत को अपने निकट बैठा लिया और नीति तथा धर्म से पूर्ण कोमल वचन बोले।

**प्रथम कथा सब मुनिवर बरनी। कैकयि कुटिल कीन्हि जसि करनी॥**

**भूप धरमब्रत सत्य सराहा। जेहिं तनु परिहरि प्रेम निबाहा॥ भा०– **सर्वप्रथम वसिष्ठ जी ने सम्पूर्ण वह कथा कह सुनायी, जिस प्रकार कुटिल कैकेयी ने कार्य किया था, फिर महाराज दशरथ के धर्म, व्रत और सत्य की सराहना की, जिन्होंने शरीर का त्याग करके प्रेम का निर्वाह किया।

कहत राम गुन शील सुभाऊ। सजल नयन पुलकेउ मुनिराऊ॥

**बहुरि लखन सिय प्रीति बखानी। शोक सनेह मगन मुनि ग्यानी॥ भा०– **श्रीराम के गुण, शील और स्वभाव का वर्णन करते–करते वसिष्ठ जी सजल नेत्र और पुलकित हो उठे अर्थात्‌ मुनि के नेत्रों में आँसू और शरीर में रोमांच हो गया, फिर लक्ष्मण जी और सीता जी के प्रेम का बखान करके ज्ञानीमुनि शोक और स्नेह में डूब गये।

दो०- सुनहु भरत भावी प्रबल, बिलखि कहेउ मुनिनाथ।

**हानि लाभ जीवन मरन, जस अपजस बिधि हाथ॥१७१॥ भा०– **वसिष्ठ जी ने विलखकर अर्थात्‌ दु:खी होकर कहा, हे भरत! सुनो, भवितव्यता प्रबल होती है। हानि– लाभ, जीवन–मृत्यु, यश और अपयश ये सभी ब्रह्मा जी के हाथ में है।

**विशेष– **हानि भई दसमौलि की, लाभ विभीषण राज।

जीवन भा मुनि मखन को, दशरथ मरण अकाज॥ सुयश भयो जग भरत को, अपयश कैकयि साथ। हानि लाभ जीवन मरण, जस अपजस विधि हाथ॥

अस बिचारि केहि देइय दोषू। ब्यर्थ काहि पर कीजिय रोषू॥ तात बिचार करहु मन माहीं। सोच जोग दशरथ नृप नाहीं॥

भाष्य

ऐसा विचार कर किसे दोष दिया जाये और व्यर्थ किस पर क्रोध किया जाये? हे भरत! मन में विचार करो राजा दशरथ शोक के योग्य नहीं हैं।

[[४३९]]

सोचिय बिप्र जो बेद बिहीना। तजि निज धर्म बिषय लयलीना॥ सोचिय नृपति जो नीति न जाना। जेहि न प्रजा प्रिय प्रान समाना॥

भाष्य

उस ब्राह्मण के लिए शोक करना चाहिये, जो वेद से विहीन हो और अपना धर्म छोड़कर विषय–भोगों में लिप्त हो गया हो। वह राजा सोचनीय है, जो नीति नहीं जानता और जिसे प्रजा प्राण के समान प्रिय नहीं है।

**सोचिय बैश्य कृपन धनवानू। जो न अतिथि शिव भगत सुजानू॥ सोचिय शूद्र बिप्र अपमानी। मुखर मानप्रिय ग्यान गुमानी॥**
भाष्य

वह वैश्य शोक करने योग्य है, जो धनी होकर भी कृपण है जो अतिथि और शिव जी का भक्त नहीं है और जो चतुर नहीं है। ब्राह्मणों का अपमान करनेवाला, बहुत बोलने वाला, ज्ञान का अहंकार रखने वाला, शोक के कारण असन्तुलित चतुर्थ वर्णवाला भी शोक के योग्य है।

**सोचिय पुनि पति बंचक नारी। कुटिल कलह प्रिय इच्छाचारी॥ सोचिय बटु निज ब्रत परिहरई। जो नहिं गुरु आयसु अनुसरई॥**
भाष्य

फिर अपने पति को ठगनेवाली कुटिल, जिसे झग़डा करना प्रिय हो ऐसे स्वेच्छा के अनुसार आचरण करने वाली भोगपरायण महिला भी सोचनीय है। वह ब्रह्मचारी शोक करने योग्य है, जिसने अपना व्रत छोड़ दिया हो और गुरु की आज्ञा का पालन नहीं करता हो।

**दो०- सोचिय गृही जो मोह बश, करइ करम पथ त्याग।**

सोचिय जती प्रपंच रत, बिगत बिबेक बिराग॥१७२॥

भाष्य

जो मोह के वश में होकर अपने वैदिक कर्म–मार्ग का त्याग कर दिया है, वह गृहस्थ मरण के पश्चात्‌ सोचनीय है। प्रपंच में लगा हुआ, ज्ञान और वैराग्य से रहित सन्यासी मरण के पश्चात्‌ शोक के योग्य है।

**बैखानस सोइ सोचन जोगू। तप बिहाइ जेहि भावइ भोगू॥ सोचिय पिशुन अकारन क्रोधी। जननि जनक गुरु बंधु बिरोधी॥**
भाष्य

वह वानप्रस्थ मरण के पश्चात्‌ सोचने योग्य है, जिसे तपस्या छोड़ भोग अच्छा लगता है। जो एक की बात दूसरे तक पहुँचाने वाला, बिना कारण क्रोध करने वाला, माता–पिता, गुरु तथा भाइयों का विरोध करने वाला हो, वह भी सोचने योग्य है।

**सब बिधि सोचिय पर अपकारी। निज तनु पोषक निरदय भारी॥ सोचिय लोभनिरत अतिकामी। सुर श्रुति निन्दक परधनस्वामी॥**
भाष्य

दूसरों का अपकार करने वाला, अपने शरीर का पोषण करने वाला, बहुत ही निर्दयी व्यक्ति सब प्रकार से सोचनीय है। लोभ में लगा हुआ, अत्यन्त कामी, देवता और वेदों का निन्दक तथा दूसरों के धन का स्वामी, अर्थात्‌ दूसरों के धन को हड़पने वाला भी सोचनीय है।

**सोचनीय सबहीं बिधि सोई। जो न छाछिड़ ल हरि जन होई॥ सोचनीय नहिं कोसलराऊ। भुवन चारिदस प्रगट प्रभाऊ॥**
भाष्य

जो छल छोड़कर भगवान्‌ श्रीराम का भक्त नहीं हो जाता, वही सभी प्रकारों से सोचनीय है। अयोध्यापति महाराज दशरथ जी शोक के योग्य नहीं हैं, उनका प्रभाव चौदहों भुवन में प्रकट है।

**भयउ न अहइ न अब होनिहारा। भूप भरत जस पिता तुम्हारा॥ बिधि हरि हर सुरपति दिशिनाथा। बरनहिं सब दशरथ गुन गाथा॥**

[[४४०]]

भाष्य

हे भरत! जिस प्रकार तुम्हारे पिताश्री थे, ऐसा राजा नहीं हुआ, नहीं है और नहीं अब होने वाला है। ब्रह्मा, विष्णु, शिव, इन्द्र और दिक्पाल ये सभी महाराज के गुणों की गाथाओं का वर्णन करते हैं।

**दो०- कहहु तात केहि भाँति कोउ, करिहि बड़ाई तासु।**

राम लखन तुम शत्रुहन, सरिस सुवन शुचि जासु॥१७३॥

भाष्य

हे तात! बताओ, उस व्यक्ति की बड़ाई किस प्रकार से कोई करेगा, जिसके श्रीराम, लक्ष्मण, तुम अर्थात्‌ भरत और शत्रुघ्न जैसे पवित्र पुत्र हों।

**सब प्रकार भूपति बड़भागी। बादि बिषाद करिय तेहि लागी॥ यह सुनि समुझि सोच परिहरहू। सिर धरि राज रजायसु करहू॥**
भाष्य

महाराज सब प्रकार से भाग्यशाली हैं, उनके लिए व्यर्थ ही शोक किया जा रहा है। ऐसा सुनकर और समझकर तुम शोक छोड़ो और महाराज की राजाज्ञा सिर पर धारण करके उसका पालन करो।

**राय राजपद तुम कहँ दीन्हा। पिता बचन फुर चाहिय कीन्हा॥ तजे राम जेहिं बचनहिं लागी। तनु परिहरेउ राम बिरहागी॥**

**नृपहिं बचन प्रिय नहिं प्रिय प्राना। करहु तात पितु बचन प्रमाना॥ भा०– **महाराज ने तुम्हें राजपद दिया है, पिता का वचन सत्य करना चाहिये। महाराज ने अपने जिस सत्य वचन के लिए श्रीराम को भी छोड़ दिया और उन्हीं श्रीराम की विरह–अग्नि में शरीर का भी त्याग कर दिया। महाराज को वचन प्रिय है, प्राण प्रिय नहीं है, इसलिए हे तात्‌! पिता जी के वचन को प्रमाणित कीजिये।

करहु शीष धरि भूप रजाई। है तुम कहँ सब भाँति भलाई॥ परशुराम पितु आग्या राखी। मारी मातु लोक सब साखी॥ तनय जजातिहिं जौबन दयऊ। पितु आग्या अघ अजस न भयऊ॥

भाष्य

हे भरत! महाराज की आज्ञा को शिरोधार्य करके पालन करो। तुम्हारे लिए सब प्रकार से भलाई ही है। सम्पूर्ण लोक साक्षी है कि, पिता की आज्ञा की रक्षा करके परशुराम जी ने अपनी माँ को ही मार डाला। ययाति को पिता की आज्ञा से पुत्र पुरु ने अपनी युवावस्था दे दी, उन्हें पाप और अपयश नहीं हुआ।

**दो०- अनुचित उचित बिचार तजि, जे पालहिं पितु बैन।**

**ते भाजन सुख सुजस के, बसहिं अमरपति ऐन॥१७४॥ भा०– **अनुचित, उचित का विचार छोड़कर, जो पिता के वचन का पालन करते हैं, वे सुख और सुयश के पात्र होते हैं और देवताओं के पति इन्द्र के भवन में निवास करते हैं।

अवसि नरेश बचन फुर करहू। पालहु प्रजा शोक परिहरहू॥ सुरपुर नृप पायिहिं परितोषू। तुम कहँ सुकृत सुजस नहिं दोषू॥

भाष्य

पिता जी के वचन को आप अवश्य सत्य कीजिये, प्रजा का पालन कीजिये, शोक छोयिड़े। महाराज दशरथ भी इन्द्रलोक में परितोष अर्थात्‌ पूर्ण संतोष प्राप्त करेंगे। आपको भी पुण्य और सुयश मिलेगा, कोई दोष नहीं होगा।

**बेद बिदित सम्मत सबही का। जेहि पितु देइ सो पावइ टीका॥ करहु राज परिहरहु गलानी। मानहु मोर बचन हित जानी॥**

[[४४१]]

भाष्य

यह सिद्धान्त वेदों में विदित और सभी का सम्मत है अर्थात्‌ सम्मानित है कि, जिसे पिता देते हैं, वही राजतिलक पाता है। आप राज्य कीजिये, ग्लानि छोड़ दीजिये। मेरा वचन कल्याणप्रद जानकर मान लीजिये।

**सुनि सुख लहब राम बैदेही। अनुचित कहब न पंडित केही॥ कौसल्यादि सकल महतारी। तेउ प्रजा सुख होहिं सुखारी॥**
भाष्य

यह सुनकर, श्रीराम और सीता जी सुख प्राप्त करेंगे और कोई भी पण्डित किसी को भी अनुचित नहीं कहेगा। कौसल्या जी आदि जो भी श्रीराम की मातायें हैं, वे भी प्रजा के सुख से सुखी होंगी।

**मरम तुम्हार राम सब जानहिं। सो सब बिधि तुम सन भल मानहिं॥**

**सौंपेहु राज राम के आए। सेवा करेहु सनेह सुहाए॥ भा०– **तुम्हारा सम्पूर्ण मर्म श्रीराम जानते हैं। वह तुमसे सब प्रकार से भला ही मानते हैं। श्रीराम के आने पर उन्हें राज्य सौंप देना और सुहावने स्नेह के साथ उनकी सेवा करना।

दो०- कीजिय गुरु आयसु अवसि, कहहिं सचिव कर जोरि।

**रघुपति आए उचित जस, तस तब करब बहोरि॥१७५॥ भा०– **मंत्रीगण भी हाथ जोड़कर कहते हैं कि हे भरत! गुरुदेव की आज्ञा का अवश्य पालन कीजिये। श्रीराम के आने पर जो उचित हो, फिर वही कर लीजियेगा।

कौसल्या धरि धीरज कहई। पूत पथ्य गुरु आयसु अहई॥ सो आदरिय करिय हित मानी। तजिय बिषाद काल गति जानी॥

भाष्य

माता कौसल्या धैर्य धारण करके कहने लगीं, हे पुत्र! गुरुदेव की आज्ञा पथ्य है अर्थात्‌ इसका सेवन करने से पापरूप रोग नष्ट हो जाता है। उसे कल्याणकारी मानकर आदर करो और उसका पालन करो। काल की गति समझकर दु:ख छोड़ दो।

**बन रघुपति सुरपुर नरनाहू। तुम एहि भाँति तात कदराहू॥ परिजन प्रजा सचिव सब अंबा। तुमहीं सुत सब कहँ अवलंबा॥**
भाष्य

श्रीराम वन में हैं, महाराज देवपुर अर्थात्‌ इन्द्रलोक में हैं। हे तात्‌! तुम श्रीअवध में रहकर इस प्रकार कदरा रहे हो अर्थात्‌ शोक से आतुर होकर राज्य नहीं स्वीकार रहे हो। हे बेटे! परिवार, प्रजा, मंत्री, सभी मातायें इन सबके तुम ही अवलम्ब अर्थात्‌ आश्रय हो।

**लखि बिधि बाम काल कठिनाई। धीरज धरहु मातु बलि जाई॥ सिर धरि गुरु आयसु अनुसरहू। प्रजा पालि परिजन दुख हरहू॥**
भाष्य

विधाता को प्रतिकूल देखकर और समय की कठिनता को समझकर तुम धैर्य धारण करो, माँ तुम्हारी बलिहारी जाती है। गुरुदेव की आज्ञा को मस्तक पर धारण करके उनका अनुसरण करो, प्रजा का पालन करके अपने परिजनों का कष्ट हर लो।

__गुरु के बचन सचिव अभिनंदन। सुने भरत हिय हित जनु चंदन॥ सुनी बहोरि मातु मृदु बानी। शील सनेह सरल रस सानी॥

भाष्य

हृदय में चन्दन के समान हितकर गुरुदेव के वचन और मंत्रियों का अभिनन्दन अर्थात्‌ गुरुदेव के वचन का अनुमोदन श्रीभरत ने सुना, फिर माता कौसल्या जी की स्नेह, शील, सरल रस अर्थात वत्सल रस से सनी हुई वाणी श्रीभरत ने सुनी।

[[४४२]]

छं०: सानी सरल रस मातु बानी सुनि भरत ब्याकुल भए।

लोचन सरोरुह स्रवत सींचत बिरह उर अंकुर नए॥ सो दशा देखत समय तेहि बिसरी सबहिं सुधि देह की। तुलसी सराहत सकल सादर सीवँ सहज सनेह की॥

भाष्य

सरल तथा भक्तिरस से सनी हुई, बड़ी माता कौसल्या जी की वाणी सुनकर, श्रीभरत व्याकुल हो गये। उनके अश्रुपात करते हुए नेत्र हृदय में अंकुरित विरह वृक्ष के अंकुरों को सींचने लगे। उस समय वह दशा देखकर, सभी सभासदों को शरीर की सुधि भूल गई। तुलसीदास जी कहते हैं कि, सभी सभासद आदरपूर्वक स्वाभाविक स्नेह की सीमा श्रीभरत की प्रशंसा करने लगे।

**सो०- भरत कमल कर जोरि, धीर धुरंधर धीर धरि।**

बचन अमिय जनु बोरि, देत उचित उत्तर सबहिं॥१७६॥

भाष्य

धीरों की धुरी को धारण करने वाले भरत जी, कमल के समान हाथों को (जो राज्य के कीचड़ से दूर हो चुके हैं) जोड़कर, मानो अमृतरस से डुबोये हुए वचनों से सभी (गुरुदेव, मंत्री और बड़ी माताश्री) को उचित उत्तर दे रहें हैं।

**मोहि उपदेश दीन्ह गुरु नीका। प्रजा सचिव सम्मत सबही का॥ मातु उचित पुनि आयसु दीन्हा। अवसि शीष धरि चाहउँ कीन्हा॥**
भाष्य

मुझे गुरुदेव ने बहुत सुन्दर उपदेश दिया है, जो प्रजा और मंत्री सभी को सम्मत है। फिर बड़ी माताश्री ने भी मुझे उचित उपदेश दिया है। उसे शिरोधार्य करके मैं अवश्य करना चाहता हूँ।

**गुरु पितु मातु स्वामि हित बानी। सुनि मन मुदित करिय भलि जानी॥**

**उचित कि अनुचित किए बिचारू। धरम जाइ सिर पातक भारू॥ भा०– **गुरु, पिता, माता और स्वामी की हित सम्बन्धिनी वाणी को सुनकर, उसे भली अर्थात्‌ श्रेष्ठ जानकर प्रसन्न मन से पालन करना चाहिये। यह उचित है अथवा अनुचित इस प्रकार विचार करने पर धर्म चला जाता है और सिर पर पाप का भार च़ढ जाता है।

तुम तौ देहु सरल सिख सोई। जो आचरत मोर भल होई॥ जद्दपि यह समुझत हौं नीके। तदपि होत परितोष न जी के॥

भाष्य

आप सब तो मुझे वही सरल शिक्षा दे रहे हैं, जिसके आचरण से मेरी भलाई हो। यद्दपि मैं यह भली प्रकार से समझ रहा हूँ, फिर भी मेरे हृदय को संतोष नहीं हो रहा है।

**अब तुम बिनय मोरि सुनि लेहू। मोहि अनुहरत सिखावन देहू॥ उत्तर देउँ छमब अपराधू। दुखित दोष गुन गनहिं न साधू॥**
भाष्य

अब आप सब मेरा विनय सुन लें और मुझे अनुसरण करने योग्य शिक्षा दें। मैं उत्तर दे रहा हूँ, मेरे अपराध को क्षमा करें, क्योंकि सज्जन लोग दुखित जनों के दोष और गुणों को नहीं गिना करते।

**दो०- पितु सुरपुर सिय राम बन, करन कहहु मोहि राज।**

**एहि ते जानहु मोर हित, कै आपन बड़ काज॥१७७॥ भा०– **पिताश्री देवलोक में हैं और श्रीसीताराम जी वन में, आप लोग मुझे राज्य करने के लिए कह रहे हैं। इससे आप लोग मेरा बहुत–बड़ा हित समझ रहे हैं अथवा अपना बहुत–बड़ा कार्य अर्थात्‌ इन दोनों की अनुपस्थिति में

[[४४३]]

मुझे राज्य देकर आप मेरा कौन–सा बहुत–बड़ा हित करना चाहते हैं? या, अपने किस बहुत–बड़े कार्य को सिद्ध करना चाहते हैं, क्योंकि पिताश्री और श्रीसीताराम जी की अनुपस्थिति में मेरा अथवा आप सबका कोई बहुत– बड़ा हित होगा, मुझे इसकी सम्भावना ही नहीं प्रतीत होती।

हित हमार सियपति सेवकाई। सो हरि लीन्ह मातु कुटिलाई॥ मैं अनुमानि दीख मन माहीं। आन उपाय मोर हित नाहीं॥

भाष्य

श्रीसीता जी के पति श्रीराम जी की सेवा में ही हमारा बहुत–बड़ा हित है। वह भी माता जी की कुटिलता ने हर लिया अर्थात्‌ मेरी माता की कुटिलता से मुझसे भगवान्‌ श्रीराम की सेवा छिन गई। मैंने मन में अनुमान करके देख लिया है कि, दूसरे उपाय से मेरा हित नहीं होगा।

**शोक समाज राज केहि लेखे। लखन राम सिय पद बिनु देखे॥ बादि बसन बिनु भूषन भारू। बादि बिरति बिनु ब्रह्म बिचारू॥ सरुज शरीर बादि बहु भोगा। बिनु हरिभगति जाय जप जोगा॥**

**जाय जीव बिनु देह सुहाई। बादि मोर सब बिनु रघुराई॥ भा०– **लक्ष्मण, श्रीराम एवं श्रीसीता जी के चरणों को बिना देखे शोक का समाज स्वरूप यह राज्य मेरे लिए किस गिनती में है? वस्त्रों के बिना भारस्वरूप आभूषण व्यर्थ है। वैराग्य के बिना ब्रह्मविचार अर्थात्‌ वेदान्त शास्त्र का चिन्तन व्यर्थ है। रोग से युक्त शरीर के लिए बहुत से पदार्थों का भोग व्यर्थ है। श्रीरामभक्ति के बिना जप और योग व्यर्थ है। जीवात्मा के बिना सुन्दर शरीर व्यर्थ है। उसी प्रकार रघुकुल के राजा श्रीराम के बिना मेरा सब कुछ व्यर्थ है।

जाउँ राम पहिं आयसु देहू। एकहिं आँक मोर हित एहू॥ मोहि नृप करि भल आपन चहहू। सोउ सनेह ज़डता बश कहहू॥

भाष्य

मैं श्रीराम जी के पास जा रहा हूँ, यही मुझे आज्ञा दीजिये, यही एक निश्चित सिद्धान्त है और यही मेरा हित है। मुझे राजा बनाकर आप अपना भला चाह रहे हैं, वह भी स्नेह की ज़डता के वश में होकर कह रहे हैं।

**दो०- कैकेयी सुत कुटिलमति, राम बिमुख गतलाज।**

तुम चाहत सुख मोहबश, मोहि से अधम के राज॥१७८॥

भाष्य

जो कैकेयी का पुत्र है, जिसकी बुद्धि अत्यन्त कुटिल है, जो श्रीराम जी से विमुख और निर्लज्ज है, ऐसे मुझ भरत जैसे अधम के राज्य में आप लोग मोहवश होने के कारण ही सुख चाह रहे हैं।

**कहउँ साँच सब सुनि पतियाहू। चाहिय धरमशील नरनाहू॥ मोहि राज हठि देइहउ जबहीं। रसा रसातल जाइहि तबहीं॥**
भाष्य

मैं सत्य कह रहा हूँ, आप सब सुनकर विश्वास कीजिये। राजा को स्वभाव से धर्मशील होना चाहिये। जिस समय आप लोग हठपूर्वक मुझे राज्य दीजियेगा, उसी समय पृथ्वी रसातल में चली जायेगी।

**मोहि समान को पाप निवासू। जेहि लगि सीय राम बनबासू॥ राय राम कहँ कानन दीन्हा। बिछुरत गमन अमरपुर कीन्हा॥ मैं शठ सब अनरथ कर हेतू। बैठि बात सब सुनउँ सचेतू॥ बिनु रघुबीर बिलोकिय बासू। रहे प्रान सहि जग उपहासू॥**
भाष्य

मेरे समान और कौन पाप का निवास स्थान होगा, जिसके कारण श्रीसीताराम जी का वनवास हुआ। महाराज ने श्रीराम को वनवास दिया और उनके बिछुड़ते (अलग होते) ही देवलोक में प्रस्थान किया। सभी

[[४४४]]

अनर्थों का कारण रूप दुष्ट मैं (भरत) सचेत हुआ बैठकर सब बात सुन रहा हूँ। रघुकुल के वीर श्रीराम जी के बिना श्रीअवध का राजभवन देखते हुए, संसार का उपहास सहकर मेरे प्राण रह रहे हैं, वे निकलते नहीं।

राम पुनीत बिषय रस रूखे। लोलुप भूमि भोग के भूखे॥

**कहँ लगि कहौं हृदय कठिनाई। निदरि कुलिश जेहिं लही बड़ाई॥ भा०– **क्योंकि मेरे प्राण श्रीरामरूप पवित्ररस से रूखे हैं और ये विषयों के लोलुप तथा भूमि के भोग के भूखे हैं, इसलिए ये श्रीराम जी के बिना भी मेरे शरीर में रह रहे हैं। मैं अपने हृदय की कठिनता कहाँ तक कहूँ, जिसने वज्र का निरादर करके बड़ाई पाई है अर्थात्‌ इतनी बड़ी कव्र्णा की घड़ी में भी मेरा हृदय नहीं फटा, जबकि इस परिस्थिति में वज्र होता तो फट जाता।

दो०- कारन ते कारज कठिन, होइ दोष नहिं मोर।

कुलिश अस्थि ते उपल ते, लोह कराल कठोर॥१७९॥

भाष्य

मेरा कोई दोष नहीं है, कारण अर्थात्‌ जन्म देने वाले से कार्य अर्थात्‌ कारण में उत्पन्न होने वाला पदार्थ कठिन होता है, जैसे दधीचि के अस्थि से उत्पन्न हुआ वज्र अस्थि की अपेक्षा भयंकर होता है, और पत्थर से उत्पन्न हुआ लोहा पत्थर की अपेक्षा कठोर होता है, उसी प्रकार कैकेयी से उत्पन्न हुआ मैं, कैकेयी की अपेक्षा भयंकर और कठोर हूँ।

**कैकेयी भव तनु अनुरागे। पामर प्रान अघाइ अभागे॥ जौ प्रिय बिरह प्रान प्रिय लागे। देखब सुनब बहुत अब आगे॥**
भाष्य

मेरे नीच प्राण कैकेयी से उत्पन्न हुए शरीर से प्रेम करते हैं, इसलिए वे दुर्भाग्य से तृप्त हो रहे हैं। यदि प्यारे श्रीराम के विरह में भी मुझे प्राण प्रिय लगे हैं अर्थात्‌ श्रीराम जी का वनगमन सुनकर नहीं निकले तो आगे भी मैं बहुत कुछ देखूँगा और सुनूँगा।

**लखन राम सिय कहँ बन दीन्हा। पठइ अमरपुर पति हित कीन्हा॥ लीन्ह बिधवपन अपजस आपू। दीन्हेउ प्रजहिं शोक संतापू॥ मोहि दीन्ह सुख सुजस सुराजू। कीन्ह कैकयी सब कर काजू॥ एहि ते मोर काह अब नीका। तेहि पर देन कहहु तुम टीका॥**
भाष्य

कैकेयी ने लक्ष्मण, श्रीराम और भगवती श्रीजानकी को वनवास दे दिया। महाराज को बिना अवसर के देवलोक भेजकर अपने पति का भी हित किया, स्वयं विधवापन और अपयश प्राप्त किया, प्रजा को शोक और दु:ख दिया, मुझे भी सुख, सुयश और सुन्दर राज्य दिया। इस प्रकार, कैकेयी ने सबका कार्य किया है। अर्थात्‌ श्रीलक्ष्मण, श्रीराम, भगवती श्रीसीता जी को राज्य के स्थान पर वनवास दिया जो बहुत अनुचित हुआ, अपने पति महाराज चक्रवर्ती जी को बिना समय के ही इन्द्रलोक भेज दिया, क्या यह उचित कहा जायेगा? स्वयं सौभाग्य के स्थान पर विधवापन, सुयश के स्थान पर अपयश ले लिया, क्या यह भारतीय नारी के लिए आदर्श होगा? प्रजा को हर्ष के स्थान पर शोक, सुख के स्थान पर दु:ख देकर कैकेयी ने क्या सम्राज्ञी की मर्यादा का निर्वहन किया? मुझे क्या उसने सुख, सुयश और सुराज्य दिया है? कदापि नहीं। क्या पुत्र के प्रति माता का यही कर्त्तव्य है? इस प्रकार से कैकेयी ने सम्पूर्ण लोक का अकार्य ही तो किया है। इससे अधिक अब मेरी क्या भलाई हो सकेगी? इस पर भी आप लोग टीका अर्थात्‌ राजतिलक देने के लिए कह रहे हैं।

[[४४५]]

कैकयि जठर जनमि जग माहीं। यह मोहि कहँ कछु अनुचित नाहीं॥ मोरि बात सब बिधिहिं बनाई। प्रजा पाँच कत करहु सहाई॥

भाष्य

कैकेयी के गर्भ से संसार में जन्म लेकर, यह मेरे लिए कुछ भी अनुचित नहीं है। विधाता ने ही मेरी सभी बात बना दी है। हे प्रजा वर्ग! हे निर्णायक पंचजन! गुरुदेव! मंत्री! और माता जी! आप लोग क्या सहायता कर रहे हैं अर्थात्‌ सब प्रकार से मेरी बात बिग़ड ही गई है, फिर राजतिलक देने के लिए कह कर आप लोग उसे और अधिक क्यों बिगाड़ रहे हैं?

**दो०- ग्रह गृहीत पुनि बात बश, तेहि पुनि बीछी मार।**

ताहि पियाइय बारुनी, कहहु कौन उपचार॥१८०॥

भाष्य

हे सभासदों! आप यही बतायें, जो ग्रहों के द्वारा पक़ड लिया गया हो, फिर वात के रोग से पीतिड़ हो, फिर उसी को बिच्छू ने डंस लिया हो, पुन: उसी को मदिरा पिला दी जाये, तो उसका कोई उपचार हो सकता है? अर्थात्‌ नहीं। इसी प्रकार, मुझको मंथरा रूप सा़ढेसाती, शनिश्चर की महादशा ने पूर्णरूप से ग्रहण कर लिया है और पिताश्री की मृत्यु के कारण मैं वात रोगी की भाँति बावला हो चुका हूँ तथा प्रभु श्रीराम के वनवास के समाचार ने मुझे बिच्छू के समान डंक मार कर पीड़ा से विकल कर दिया है। इतने पर भी आप लोग मुझे राजतिलक देकर राज्य रूप मदिरा पिलाना चाहते हैं। अब मेरा क्या उपचार होगा? अब तो मेरी मृत्यु होगी ही।

**कैकयि सुवन जोग जग जोई। चतुर बिरंचि दीन्ह मोहि सोई॥ दशरथ तनय राम लघु भाई। दीन्ह मोहि बिधि बादि बड़ाई॥**
भाष्य

कैकेयी के पुत्र के योग्य संसार में जो कुछ भी था, वह सब चतुर विधाता ने मुझे दे दिया है। विधाता ने दशरथ जी के पुत्र और श्रीराम के छोटे भाई का गौरव मुझे व्यर्थ ही दे डाला, मैं इसके योग्य नहीं हूँ।

**तुम सब कहहु क़ढावन टीका। राय रजायसु सब कहँ नीका॥ उतर देउँ केहि बिधि केहि केही। कहहु सुखेन जथा रुचि जेही॥**
भाष्य

आप सब मुझे टीका क़ढाने के लिए अर्थात्‌ राजतिलक करवाने के लिए कह रहे हैं। सबके लिए महाराज की राजाज्ञा अच्छी है। मैं किस–किसको किस प्रकार से उत्तर दूँ? जिसको जैसी रुचि हो आप लोग सुखपूर्वक वही कहें।

**मोहि कुमातु समेत बिहाई। कहहु कहिहि केहि कीन्हि भलाई॥ मो बिनु को सचराचर माहीं। जेहि सिय राम प्रानप्रिय नाहीं॥**
भाष्य

आप लोग ही बतायें कि दुष्ट माता कैकेयी के समेत मुझ भरत को छोड़कर कौन कहेगा की यह भलाई की गई अर्थात्‌ अच्छा कार्य किया गया? अर्थात्‌ श्रीरामवनवास को या तो कैकेयी अच्छा कहेगी या मैं।

**विशेष– **यह श्रीभरत जी का व्यंग्य है। मुझे छोड़कर चित्‌–अचित्‌ से युक्त इस संसार में कौन है, जिसे श्रीसीताराम जी प्राण के समान प्रिय नहीं हैं?

परम हानि सब कहँ बड़ लाहू। अदिन मोर नहिं दूषन काहू॥ संशय शील प्रेम बश अहहू। सबइ उचित सब जो कछु कहहू॥

भाष्य

बहुत बड़ी-हानि ही सबके लिए बहुत–बड़ा लाभ हो गया है अर्थात्‌ आप सब बहुत–बड़ी हानि को बहुत–बड़ा लाभ मान रहे हैं, इसलिए श्रीराम जी और पिताश्री की अनुपस्थिति में भी आप मुझे राजा बनाना

[[४४६]]

चाहते हैं। इसमें मेरा ही दुर्दिन है, किसी का दोष नहीं है। आप सब संदेह से युक्त प्रेम के वश में हो गये हैं अर्थात्‌ आपको यह लगता है कि, भरत, श्रीराम जी के बिना सुखपूर्वक रह सकेंगे या नहीं, जबकि ऐसा नहीं है, मैं प्रभु के बिना कैसे सुखी रह सकता हूँ? आप सब जो कुछ कह रहे हैं, वह आप सबके लिए उचित है।

दो०- राम मातु सुठि सरलचित, मो पर प्रेम बिशेषि।

कहत सुभाय सनेह बश, मोरि दीनता देखि॥१८१॥

भाष्य

श्रीराम की माता कौसल्या जी सुन्दर और सरल चित्तवाली हैं। उन्हें मुझ पर विशेष वात्सल्य प्रेम है, इसलिए मेरी दीनता देखकर, वे भी स्वाभाविक स्नेह के वश में होकर मुझे राज्य स्वीकारने के लिए कह रहीं हैं, जबकि उनकी वह वास्तविकता नहीं है।

**गुरु बिबेक सागर जग जाना। जिनहिं बिश्व कर बदर समाना॥ मो कहँ तिलक साज सज सोऊ। भए बिधि बिमुख बिमुख सब कोऊ॥**
भाष्य

जगत जानता है, गुव्र्देव महर्षि वसिष्ठ जी विवेक के समुद्र हैं। उनके लिए यह विश्व बेर के फल के समान है अर्थात्‌ वे विश्व की प्रत्येक परिस्थिति से परिचित हैं। वे भी मेरे लिए राजतिलक का साज सजा रहे हैं। जब विधाता ही विमुख हो गये तथा सभी लोग मुझ से विमुख हो ही गये हैं, तो फिर विधाता के पुत्र गुरुदेव क्यों नहीं विमुख होंगे?

**परिहरि राम सीय जग माहीं। कोउ न कहिहि मोर मत नाहीं॥ सो मैं सुनब सहब सुख मानी। अंतहु कीच तहाँ जहँ पानी॥**
भाष्य

अन्तर्यामीस्वरूप श्रीसीताराम जी को छोड़कर कोई भी संसार में यह नहीं कहेगा कि, श्रीरामवनवास प्रकरण में मेरा अर्थात्‌ भरत का सम्मत नहीं है। मेरी वास्तविकता तो केवल श्रीसीताराम जी जानते हैं। वह सब मैं सुख मानकर सुनूँगा और सहूँगा, क्योंकि जहाँ पानी होता है, वहाँ अन्तत: कीचड़ होता ही है अर्थात्‌ गुण के साथ दोष का रहना स्वाभाविक ही है।

**डर न मोहि जग कहिहि कि पोचू। परलोकहु कर नाहिन सोचू॥ एकइ उरबस दुसह दवारी। मोहि लगि भे सिय राम दुखारी॥**
भाष्य

मुझे संसार क्यों न बुरा कहे, इसका मुझे डर नहीं है और मुझे परलोक की भी कोई चिन्ता नहीं है। मेरे हृदय में एक ही असहनीय दावाग्नि (जंगल की आग) निवास कर रहा है वह यह कि, मेरे लिए श्रीसीताराम जी दु:खी हो गये।

**जीवन लाहु लखन भल पावा। सब तजि राम चरन मन लावा॥**

**मोर जनम रघुबर बन लागी। झूठ काह पछिताउँ अभागी॥ भा०– **लक्ष्मण ने जीवन का भला अर्थात्‌ श्रेष्ठ लाभ पाया, उन्होंने सब कुछ छोड़कर श्रीराम जी के चरणों में अपना मन लगा लिया है। मेरा जन्म तो श्रीराम जी के वन के लिए हुआ है। मैं भाग्यहीन भरत क्यों झूठा

पश्चात्ताप कर रहा हूँ?

दो०- आपनि दारुन दीनता, कहउँ सबहिं सिर नाइ।

देखे बिनु रघुनाथ पद, जिय कै जरनि न जाइ॥१८२॥

भाष्य

अपनी असहनीय दीनता मैं सबको सिर नवाकर कह रहा हूँ। श्रीराम के चरणों के दर्शन किये बिना मेरे हृदय की जलन नहीं जा सकती।

[[४४७]]

आन उपाउ मोहि नहिं सूझा। को जिय कै रघुबर बिनु बूझा॥ एकहिं आँक इहइ मन माहीं। प्रातकाल चलिहउँ प्रभु पाहीं॥

भाष्य

मुझे और दूसरा उपाय नहीं सूझ रहा है। रघु अर्थात्‌ सम्पूर्ण जीवों के द्वारा वरण करने योग्य श्रीराम जी के बिना मेरे हृदय को कौन समझ सकता है? मेरे मन में यही एकमात्र निश्चय है कि, मैं कल प्रात:काल प्रभु के पास चला जाऊँगा।

**जद्दपि मैं अनभल अपराधी। भइ मोहि कारन सकल उपाधी॥ तदपि शरन सनमुख मोहि देखी। छमि सब करिहैं कृपा बिशेषी॥**
भाष्य

यद्दपि मैं अत्यन्त बुरा और अपराधी हूँ, मेरे ही कारण सब अनर्थ हुआ है, फिर भी मुझे अपने सम्मुख शरण में आया हुआ देखकर, सब कुछ क्षमा करके प्रभु विशेष कृपा करेंगे।

**शील सकुच सुठि सरल सुभाऊ। कृपा सनेह सदन रघुराऊ॥ अरिहुक अनभल कीन्ह न रामा। मैं शिशु सेवक जद्दपि बामा॥**
भाष्य

रघुकुल के राजा अथवा, रघु अर्थात्‌ सभी जीवों के हृदय में अन्तर्यामी रूप से विराजमान श्रीराम, शील (चरित्र और संकोच के कारण), सुन्दर, सरल स्वभाव वाले हैं। वे कृपा और स्नेह के भवन हैं। श्रीराम जी ने अपने शत्रु का भी अहित नहीं किया है। मैं बालक और सेवक हूँ, यद्दपि मैं प्रभु से प्रतिकूल हूँ।

**तुम पै पाँच मोर भल मानी। आयसु आशिष देहु सुबानी॥ जेहिं सुनि बिनय मोहि जन जानी। आवहिं बहुरि राम रजधानी॥**
भाष्य

तुम (आप) भी अर्थात्‌ सभी पंच लोग मेरा भला मानकर, सुन्दर वाणी में आज्ञा और आशीर्वाद दे दीजिये। जिससे भगवान्‌ श्रीराम जी मेरी प्रार्थना सुनकर, मुझे अपना सेवक जानकर अपनी राजधानी अयोध्या में लौट आयें।

**दो०- जद्दपि जनम कुमातु ते, मैं शठ सदा सदोस।**

आपन जानि न त्यागिहैं, मोहि रघुबीर भरोस॥१८३॥

भाष्य

यद्दपि मेरा जन्म दुष्ट माता से हुआ है। मैं दुष्ट और सदैव दोषयुक्त हूँ, फिर भी प्रभु मुझे अपना जानकर नहीं छोड़ेंगे। मुझे रघुवीर श्रीराम का भरोसा है।

**भरत बचन सब कहँ प्रिय लागे। राम सनेह सुधा जनु पागे॥ लोग बियोग बिषम बिष दागे। मंत्र सबीज सुनत जनु जागे॥**
भाष्य

श्रीराम जी के स्नेहामृत से पगे हुए जैसे श्रीभरत जी के वचन, सबको प्रिय लगे। लोग वियोगरूप तीक्ष्ण विष से दग्ध हो गये थे, मानो बीज से युक्त श्रीराममंत्र सुनते ही जग गये।

**विशेष– **यहाँ श्रीभरत जी के द्वारा कहा हुआ सात दोहों में विसर्ग के साथ षडक्षर श्रीराम मंत्र की व्याख्या की गई।

मातु सचिव गुरु पुर नर नारी। सकल सनेह बिकल भए भारी॥ भरतहिं कहहिं सराहि सराही। राम प्रेम मूरति तनु आही॥

भाष्य

मातायें, मंत्री, गुरुजन और अवधपुर के सभी नर–नारी प्रेम से बहुत विकल हो गये। सब लोग बारम्बार प्रशंसा करके श्रीभरत जी के लिए कहते हैं कि, श्रीभरत जी का शरीर तो श्रीरामप्रेम की मूर्ति है।

**तात भरत अस काहे न कहहू। प्रान समान राम प्रिय अहहू॥**
भाष्य

हे भैया भरत! आप ऐसा क्यों नहीं कहेंगे, क्योंकि आप श्रीराम जी को प्राण के समान प्रिय हैं।

[[४४८]]

जो पामर आपनि ज़डताई। तुमहिं सुगाइ मातु कुटिलाई॥

सो शठ कोटिक पुरुष समेता। बसिहि कलप शत नरक निकेता॥

भाष्य

जो दुय् अपनी ज़डता के कारण आप पर कैकेयी माता की कुटिलता की आशंका करेगा, वह शठ अपने करोड़ों पूर्वजों के साथ सौ कल्पपर्यन्त नरक के भवन में निवास करेगा।

**अहि अघ अवगुन नहिं मनि गहई। हरइ गरल दुख दारिद दहई॥**
भाष्य

मणि, सर्प के पाप और अवगुणों को नहीं ग्रहण करता, प्रत्युत्‌ उसके विष का हरण कर लेता है और सर्प के भयंकर दु:ख और दारिद्र को जला डालता है। उसी प्रकार कैकेयी से उत्पन्न होकर भी आप भैया भरत उसके कुकृत्य से प्रभावित नहीं हुये, प्रत्युत्‌ उसके रामविरोध रूप विष को नष्ट करके माँ को भगवान्‌ राम से मिलाकर उसके सन्ताप और दारिद्रय को नष्ट कर डालेंगे।

**दो०- अवसि चलिय बन राम जहँ, भरत मंत्र भल कीन्ह।**

शोक सिंधु बूड़त सबहिं, तुम अवलंबन दीन्ह॥१८४॥

भाष्य

जहाँ श्रीराम जी हैं, उस वन में अवश्य चला जाये, हे भरतजी! आपने बहुत अच्छी मंत्रणा की है, शोक के समुद्र में डूबते हुए सभी को आपने अवलम्बन दिया है।

**भा सबके मन मोद न थोरा। जनु घन धुनि सुनि चातक मोरा॥ चलत प्रात लखि निरनय नीके। भरत प्रान प्रिय भे सबही के॥**
भाष्य

सबके मन में बहुत–बड़ी प्रसन्नता हुई, मानो बादल की गर्जना सुनकर, मे़ढक और मोर प्रसन्न हो गये हों। श्रीभरत प्रात:काल चलना चाहते हैं, यह सुन्दर निर्णय देखकर, भरत जी सभी को प्राण के समान प्रिय हो गये।

**मुनिहिं बंदि भरतहिं सिर नाई। चले सकल घर बिदा कराई॥ धन्य भरत जीवन जग माहीं। शील सनेह सराहत जाहीं॥**
भाष्य

वसिष्ठ जी की वन्दना करके, श्रीभरत को प्रणाम करके, विदा लेकर सभी सभासद अपने घरों को चल पड़े। संसार में श्रीभरत का जीवन धन्य है। इस प्रकार, सभासद उनके शील और स्नेह की प्रशंसा करते हुए जा रहे हैं।

**कहहिं परसपर भा बड़ काजू। सकल चलै कर साजहिं साजू॥ जेहि राखहिं रहु घर रखवारी। सो जानइ जनु गरदन मारी॥**
भाष्य

सब लोग परस्पर कह रहे हैं, बहुत–बड़ा कार्य हो गया। सभी चलने का साज सजा रहे हैं, जिस व्यक्ति को घर में, “रखवाली के लिए रहो” ऐसा कहकर रखते हैं, वह जानता है, मानो उसका गर्दन काट दिया।

**कोउ कह रहन कहिय नहिं काहू। को न चहइ जग जीवन लाहू॥ केहि न भाव सिय लछिमन रामू। सब कहँ प्रिय हिय सदा सकामू॥**
भाष्य

कोई कहता है, किसी को भी रहने के लिए नहीं कहना चाहिये। संसार में जीवन का लाभ कौन नहीं चाहता? सभी के प्रिय श्रीसीता, लक्ष्मण, एवं श्रीराम किसको नहीं भाते ? सदैव मन में कोई न कोई कामना रहती ही है।

[[४४९]]

दो०- जरउ सो संपति सदन सुख, सुहृद मातु पितु भाइ।

**सनमुख होत जो राम पद, करै न सहज सहाइ॥१८५॥ भा०– **श्रीराम के चरणों के सन्मुख होने में जो स्वभावत: सहायता नहीं करता, वह सम्पत्ति, सुख, घर, माता– पिता और भाई जल जायें अर्थात्‌ वही परिवार के लोग स्नेह करने योग्य हैं, जो श्रीराम के भजन करने में

सहायक हों।

घर घर साजहिं बाहन नाना। हरष हृदय परभात पयाना॥

भाष्य

सभी अवधवासी (प्रात:काल श्रीभरत के साथ चलने के लिए), अनेक वाहन सजा रहे हैं। प्रात:काल श्रीराघव के दर्शन के लिए प्रस्थान करेंगे। इसलिए सबके हृदय में हर्ष है।

**भरत जाइ घर कीन्ह बिचारू। नगर बाजि गज भवन भँडारू॥ संपति सब रघुपति कै आही। जौ बिनु जतन चलौं तजि ताही॥ तौ परिनाम न मोहि भलाई। पाप शिरोमनि साइँ दोहाई॥**
भाष्य

श्रीभरत ने घर जाकर विचार किया कि, नगर, घोड़े, हाथी, राजभवन, भाण्डागार, यह सम्पूर्ण सम्पत्ति रघुकुल के स्वामी भगवान्‌ श्रीराम की है। यदि इसकी कोई व्यवस्था किये बिना, इसी प्रकार, छोड़कर चलता हूँ, तब परिणाम में मेरी भलाई (कल्याण) नहीं होगी। यह स्पष्ट स्वामी का द्रोह होगा और अपने स्वामी का द्रोह सभी पापों का शिरोमणि अर्थात्‌ सबसे बड़ा पाप है।

**करइ स्वामि हित सेवक सोई। दूषन कोटि देइ किन कोई॥ अस बिचारि शुचि सेवक बोले। जे सपनेहुँ निज धरम न डोले॥**

**कहि सब मरम धरम भल भाखा। जो जेहिं लायक सो तेहिं राखा॥ भा०– **ऐसा विचार करके श्रीभरत ने उन पवित्र सेवकों को बुलाया, जो स्वप्न में भी अपने धर्म अर्थात्‌ कर्त्तव्य से नहीं डिगते। उन्हें सभी गोपनीय मर्म समझाकर (श्रीअवध में रहकर नगर की रक्षा करना ही श्रेष्ठ कर्त्तव्य है) सुन्दर धर्म अर्थात्‌ कर्त्तव्य कहा। जो जिसके योग्य था, उसे उसी कार्य में नियुक्त किया अर्थात्‌ श्रीअवध की पूरी सुरक्षा सुनिश्चित की।

करि सब जतन राखि रखवारे। राम मातु पहँ भरत सिधारे॥

भाष्य

इस प्रकार, सम्पूर्ण यत्न (व्यवस्था) करके, नगर में रक्षकों को नियुक्त करके, भरत जी, श्रीराम की माताश्री कौसल्या जी के पास गये।

**दो०- आरत जननी जानि सब, भरत सनेह सुजान।**

कहेउ सजावन पालकी, सुखद सुखासन यान॥१८६॥

भाष्य

सभी माताओं को श्रीराम के दर्शनों के लिए आर्त्त अर्थात्‌ व्याकुलतापूर्वक उत्सुक जानकर, स्नेह में चतुर श्रीभरत ने सुन्दर सुख देने वाली पालकियाँ और सुखपूर्वक बैठने योग्य आसनों से युक्त वाहनों को सजाने के

लिए कहा।

चक चकई जिमि पुर नर नारी। चहत प्रात उर आरत भारी॥ जागत सब निशि भयउ बिहाना। भरत बोलाए सचिव सुजाना॥ कहेउ लेहु सब तिलक समाजू। बनहिं देब मुनि रामहिं राजू॥ बेगि चलहु सुनि सचिव जोहारे। तुरत तुरग रथ नाग सँवारे॥

[[४५०]]

भाष्य

नगर के नर–नारी, चकवे और चकवी की भाँति हृदय में अत्यन्त आर्त्त होकर शीघ्र प्रात:काल चाह रहे हैं। इस प्रकार, सम्पूर्ण रात्रि भर जागते हुए प्रात:काल हो गया। श्रीभरत ने चतुर मंत्रियों (सुमंत्र जी आदि) को बुलाया और कहा, सभी राजतिलक के उपकरण ले लीजिये। वन में ही गुरुदेव श्रीराम को राज्य दे देंगे। शीघ्र चलिए, सुनकर मंत्रियों ने प्रणाम किया तथा तुरन्त घोड़े रथ हाथियों को सजाया।

**अरुंधती अरु अगिनि समाजू। रथ चढि़ चले प्रथम मुनिराजू॥ बिप्र बृंद चढि़ बाहन नाना। चले सकल तप तेज निधाना॥**
भाष्य

भगवती अरुन्धती जी और अग्नि समाज अर्थात्‌ अग्निहोत्र की समूपर्ण सामग्री के साथ सर्वप्रथम मुनियों के राजा वसिष्ठ जी रथ पर च़ढकर श्रीचित्रकूट के लिए चले। सभी तपस्याओं और तेज के निधान अर्थात्‌ कोशस्वरूप अन्य ब्राह्मण समूह भी अनेक वाहनों पर च़ढकर वन के लिए चल पड़े।

**नगर लोग सब सजि सजि याना। चित्रकूट कहँ कीन्ह पयाना॥ शिबिका सुभग न जाहिं बखानी। चढि़ चढि़ चलत भइ सब रानी॥**
भाष्य

श्रीअवध नगर के सब लोगों ने वाहनों को सजा–सजाकर श्रीचित्रकूट के लिए प्रस्थान किया। जो बखानी नहीं जा सकती ऐसे अनेक सुन्दर पालकियों पर च़ढ-च़ढकर सभी रानियाँ अर्थात्‌ राजघराने की महिलायें वन के लिए चल पड़ीं।

**विशेष– **निषादराज गुह द्वारा श्रीसीता, राम एवं लक्ष्मण के श्रीचित्रकूट निवास का समाचार श्रीअवध में आ गया था। अतएव, सबको पूर्व से ही ज्ञात है कि, श्रीराम श्रीचित्रकूट में विराज रहे हैं।

दो०- सौंपि नगर शुचि सेवकन, सादर सबहिं चलाइ।

सुमिरि राम सिय चरन तब, चले भरत दोउ भाइ॥१८७॥

भाष्य

पवित्र सेवकों को श्रीअवधनगर की सुरक्षा और व्यवस्था सौंपकर, आदरपूर्वक वन जाने वाले सभी नर– नारियों को प्रस्थान करा कर सबसे पीछे श्रीभरत, शत्रुघ्न जी दोनों भाई, श्रीराम तथा भगवती श्रीसीता का स्मरण करके श्रीचित्रकूट के लिए चले।

**राम दरश बश सब नर नारी। जनु करि करिनि चले तकि बारी॥ बन सिय राम समुझि मन माहीं। सानुज भरत पयादेहिं जाहीं॥ देखि सनेह लोग अनुरागे। उतरि चले हय गय रथ त्यागे॥**
भाष्य

सभी अवध के नर–नारी श्रीराम दर्शन की इच्छा के वश में होकर उसी प्रकार आतुरता से चले, जैसे प्यासे हाथी और हथिनी जल की ओर दृष्टि करके चल पड़ते हैं। मन में श्रीसीताराम जी को वन में विराजते हुए अर्थात्‌ बिना जूते पहनकर पदयात्रा करते हुए समझकर छोटे भाई शत्रुघ्न जी के साथ श्रीभरत पैदल चले जा रहे हैं। उनका स्नेह देखकर, सभी लोग अनुराग से भर गये। घोड़े, हाथी तथा रथों को छोड़ दिया तथा वाहनों से उतरकर पैदल चल पड़े।

**जाइ समीप राखि निज डोली। राम मातु मृदु बानी बोली॥ तात च़ढहु रथ बलि महतारी। होइहि प्रिय परिवार दुखारी॥**

**तुम्हरे चलत चलिहिं सब लोगू। सकल शोक कृश नहिं मग जोगू॥ भा०– **समीप जाकर, अपनी पालकी श्रीभरत के पास रोककर, श्रीराम की माता कौसल्या जी श्रीभरत से कोमल वाणी में बोलीं, बेटे भरत! रथ पर च़ढो अर्थात्‌ रथ पर च़ढकर चलो। माता बलिहारी जाती है, अन्यथा प्रिय

[[४५१]]

परिवार दु:खी हो जायेगा। तुम्हारे पैदल चलते सभी लोग पैदल ही चलेंगे। शोक के कारण सभी लोग दुर्बल हो चुके हैं, वे पैदल मार्ग के योग्य नहीं हैं।

सिर धरि बचन चरन सिर नाई। रथ चढि़ चलत भए दोउ भाई॥ तमसा प्रथम दिवस करि बासू। दूसर गोमति तीर निवासू॥

भाष्य

माताश्री के वचन को शिरोधार्य करके उनके चरणों में मस्तक नवाकर दोनों भाई श्रीभरत–शत्रुघ्न जी रथ पर च़ढकर चले। प्रथम दिन तमसा के तट पर वास करके, दूसरा निवास गोमती के तट पर किया।

**दो०- पय अहार फल अशन एक, निशि भोजन एक लोग।**

**करत राम हित नेम ब्रत, परिहरि भूषन भोग॥१८८॥ भा०– **कुछ अयोध्यावासी दूध का आहार करके और कुछ फलाहार करके तथा कुछ रात्रि–भोजन करके अर्थात्‌ सम्पूर्ण दिन रात्रि में एक बार भोजन करके आभूषण और भोगों को छोड़कर श्रीराम के लिए नियम और व्रत कर

रहे हैं।

सई तीर बसि चले बिहाने। शृंगबेरपुर सब नियराने॥ समाचार सब सुने निषादा। हृदय बिचार करइ सबिषादा॥

भाष्य

सई नदी (सिंदिका) के तट पर वास करके, प्रात:काल ही लोग चल पड़े और सभी शृंगबेरपुर के निकट आ गये। गुहराज निषाद ने सम्पूर्ण समाचार सुना, वे दु:ख के साथ हृदय में विचार करने लगे।

**कारन कवन भरत बन जाहीं। है कछु कपट भाव मन माहीं॥ जौ पै जिय न होति कुटिलाई। तौ कत लीन्ह संग कटकाई॥**
भाष्य

किस कारण से भरत वन को जा रहे हैं? उनके मन में क्या कुछ कपट का भाव है? यदि भरत के हृदय में कुटिलता नहीं होती, तो उन्होंने अपने साथ सेना क्यों ली है?

**जानहिं सानुज रामहिं मारी। करउँ अकंटक राज सुखारी॥ भरत न राजनीति उर आनी। तब कलंक अब जीवन हानी॥**
भाष्य

वे (भरत) जान रहे होंगे कि, छोटे भैया लक्ष्मण के साथ श्रीराम को मारकर मैं सुखी रहकर अकंटक अर्थात्‌ विघ्न–बाधाओं से रहित राज्य करूँ। भरत ने हृदय में राजनीति का विचार नहीं किया। तब अर्थात्‌ श्रीरामवनवास से तो उन्हें कलंक लगा ही और वनयात्रा करते समय उनके जीवन की हानि भी होगी।

**सकल सुरासुर जुरहिं जुझारा। रामहिं समर न जीतनिहारा॥ का आचरज भरत अस करहीं। नहिं बिष बेलि अमिय फल फरहीं॥**
भाष्य

सम्पूर्ण देवता और असुर योद्धा यदि एक साथ मिलकर युद्ध करें, तो भी युद्ध में वे श्रीराम को नहीं जीत सकते। भरत कौन–सा ऐसा आश्चर्य कर रहे हैं अर्थात्‌ यह तो उनके लिए स्वाभाविक है, क्योंकि वे कैकेयी के बेटे हैं। कभी विष की लता में अमृत के फल नहीं फला करते अर्थात्‌ विष की लता में तो विष के ही फल लगेंगे।

**दो०- अस बिचारि गुह ग्याति सन, कहेउ सजग सब होहु।**

हथवाँसहु बोरहु तरनि, कीजिय घाटारोहु॥१८९॥

[[४५२]]

भाष्य

ऐसा विचार करके, निषादराज गुह ने अपनी जाति के सभी लोगों से कहा, सब लोग सावधान हो जाओ। पूरी नौकाओं को तथा पूरे घाटों को अपने हाथ में ले लो। नौकायें गंगा जी में डूबो दो और घाटारोहु अर्थात्‌ घाट पर आक्रमण कर दो तथा उन्हें रोक लो।

**होहु सँजोइल रोकहु घाटा। ठाटहु सकल मरै के ठाटा॥ सनमुख लोह भरत सन लेऊँ। जियत न सुरसरि उतरन देऊँ॥**
भाष्य

सब लोग सुसज्जित हो जाओ, घाटों को रोक लो, मरने की सम्पूर्ण व्यवस्था कर लो (युद्ध में लड़ने और मरने के लिए तैयार हो जाओ)। मैं सामने से भरत से लोहा लूँगा अर्थात्‌ युद्ध करूँगा और जीते जी उन्हें गंगा जी पार होने नहीं दूँगा।

**समर मरन पुनि सुरसरि तीरा। राम काज छनभंग शरीरा॥ भरत भाइ नृप मैं जन नीचू। बड़े भाग असि पाइय मीचू॥ स्वामि काज करिहउँ रन रारी। जस धवलिहउँ भुवन दश चारी॥ तजउँ प्रान रघुनाथ निहोरे। दुहूँ हाथ मुद मोदक मोरे॥**
भाष्य

एक ओर युद्ध में मरना, फिर गंगा जी का तट, पुन: श्रीराम का कार्य और यह शरीर भी क्षणभंगुर, उधर श्रीराम के छोटे भ्राता राजा भरत और इधर मैं श्रीराम का एक छोटा–सा सेवक, ऐसी मृत्यु बड़े सौभाग्य से प्राप्त होती है। अपने स्वामी श्रीराम के कार्य के लिए रणभूमि में भरत से युद्ध करूँगा और चौदहों भुवन को अपने यश से धवल, अर्थात्‌ उज्जवल (शुभ्र) कर दूँगा। श्रीराम के ही निहोरे पर (कृतज्ञता में) अपने प्राण छोड़ूँगा। मेरे दोनों हाथ में लड्‌डू है, अर्थात्‌ युद्ध में जीतूँगा तो, श्रीराम का कृतज्ञ सेवक रहूँगा और भरत के हाथों मरूँगा तो स्वर्ग–सुख को प्राप्त करूँगा तथा चौदहों भुवन में स्वच्छ कीर्ति का पात्र बनूँगा।

**साधु समाज न जाकर लेखा। राम भगत महँ जासु न रेखा॥ जाय जियत जग सो महिभारू। जननी जौबन बिटप कुठारू॥**
भाष्य

साधुओं के समाज में जिसकी गिनती नहीं हो तथा श्रीरामभक्तों में जिसकी रेखा अर्थात्‌ गणना न हो, वह पृथ्वी का भार तथा माँ की युवावस्थारूप वृक्ष की कुल्हाड़ी बनकर जगत में व्यर्थ ही जीता है अर्थात्‌ सन्तों के समाज द्वारा अपमानित और भगवान्‌ की भक्ति से दूर रहने वाला व्यक्ति पृथ्वी का भार है और अपने जन्म से माँ की युवावस्था को भी उसने निरर्थक समाप्त किया।

**दो०- बिगत बिषाद निषादपति, सबहिं ब़ढाई उछाह।**

सुमिरि राम माँगेउ तुरत, तरकस धनुष सनाह॥१९०॥

भाष्य

स्वयं दु:ख छोड़कर अर्थात्‌ उत्साहित होकर निषादों के राजा गुह ने सबके मन में उत्साह ब़ढाकर श्रीराम का स्मरण करके तुरन्त बाणों से भरा तरकस–धुनष और कवच मँगाया।

**बेगिहिं भाइहु सजहु सँजोऊ। सुनि रजाइ कदराइ न कोऊ॥ भलेहिं नाथ सब कहहिं सहरषा। एकहिं एक ब़ढावइं करषा॥**
भाष्य

भाइयों! शीघ्र ही मेरी राजाज्ञा सुनकर, युद्ध के सम्पूर्ण संयोगों को सजा लो कोई कायर न बने। सभी लोग हर्षपूर्वक कहने लगे, स्वामी! जैसी आज्ञा, बहुत अच्छा है। एक–दूसरे में युद्ध के प्रति आकर्षण अर्थात्‌ उत्साह ब़ढा रहे हैं।

[[४५३]]

चले निषाद जोहारि जोहारी। शूर सकल रन रूचइ रारी॥ सुमिरि राम पद पंकज पनहीं। भाथा बाँधि च़ढावँहि धनुहीं॥

भाष्य

गुहराज को बार–बार प्रणाम करके, सभी निषाद सैनिक चले। सभी वीर हैं और सबको युद्ध भाता है। भगवान्‌ के चरणकमल की पनही अर्थात्‌ जूती का स्मरण करके, कटिप्रदेश में तरकस बाँधकर निषाद सैनिक धनुषों पर प्रत्यंचायें च़ढा रहे हैं।

**अँगरी पहिरि कूँसिड़ िर धरहीं। फरसा बाँस सेल सम करहीं॥ एक कुशल अति ओड़न खाँड़े। कूदहिं गगन मनहुँ छिति छाँड़े॥**
भाष्य

वे अँगरी अर्थात्‌ अंगरक्षक कवच पहन कर सिर पर कूँर्थिड़ अात्‌ कुण्ड के आकार का लोहे का टोप धारण करते हैं। फरसा, लाठी में लगे हुए भाले तथा बरछे को सीधा कर रहे हैं और एक तलवार के प्रहार को सहन करने मंें अत्यन्त कुशल सैनिक, आकाश में ऐसे उछलते हैं, मानो पृथ्वी को छोड़ चुके हों।

**निज निज साज समाज बनाई। गुह राउतहिं जोहारे जाई॥ देखि सुभट सब लायक जाने। लै लै नाम सकल सनमाने॥**
भाष्य

अपने–अपने साज और युद्ध के उपकरणों को सजाकर, सभी सैनिकों ने जाकर अपने राजा गुह को ऊँचे स्वर में जय–जयकार करके प्रणाम किया। राजा गुह ने सभी योद्धाओं को युद्ध में सब प्रकार से योग्य जानकर नाम ले–लेकर सभी का सम्मान किया।

**दो०- भाइहु लावहु धोख जनि, आजु काज बड़ मोहि।**

सुनि सरोष बोले सुभट, बीर अधीर न होहि॥१९१॥

भाष्य

गुह राजा ने कहा, भाइयों! धोखा मत लाना अर्थात्‌ प्रमाद और असावधानी मत करना, आज मुझे बहुत– बड़ा कार्य है। गुह राजा के वचन सुनकर, सभी योद्धा युद्धोचित क्रोधपूर्वक बोले, हे वीर महाराज गुह! आप अधीर मत होइये।

**राम प्रताप नाथ बल तोरे। करहिं कटक बिनु भट बिनु घोरे॥ जीवत पाउँ न पाछे धरहीं। रुंड मुंडमय मेदिनि करहीं॥**
भाष्य

हे स्वामी! श्रीराम के प्रताप और आपके बल से हम शत्रु सेना को बिना वीरों के और बिना घोड़े के कर देंगे अर्थात्‌ सभी वीरों, अश्वारोहियों, गजारोहियों को मार डालेंगे। हम जीते– जी युद्ध में पीछे पग नहीं रखेंगे अर्थात्‌ यावत्‌ जीवन युद्ध से भागेंगे नहीं। हम पृथ्वी को रुंड–मुंडमय अर्थात्‌ धड़ों और सिरों से युक्त कर देंगे।

**दीख निषादनाथ भल टोलू। कहेउ बजाउ जुझाऊ ढोलू॥ एतना कहत छींक भइ बाँए। कहेउ सगुनियन खेत सुहाए॥**
भाष्य

निषादों के राजा गुह ने अपने वीर सैनिकों की टोली भली देखकर अर्थात्‌ अपनी सेना को सब प्रकार से सुसज्जित और सशक्त जानकर कहा कि, अब युद्ध का ढोल बजा दो अर्थात्‌ युद्ध के बाजे से आक्रमण का संकेत कर दो। निषादराज के इतना कहते ही, उनके बायीं ओर किसी की छींक हुई। शकुनवेत्ताओं ने कहा, खेत सुहाये अर्थात्‌ युद्ध का क्षेत्र सुन्दर है, हम युद्ध में विजयी अवश्य होंगे।

**बू़ढ एक कह सगुन बिचारी। भरतहिं मिलिय न होइहि रारी॥ रामहिं भरत मनावन जाहीं। सगुन कहइ अस बिग्रह नाहीं॥**

[[४५४]]

भाष्य

एक वृद्ध ने शकुन विचारकर कहा, श्रीभरत से मिलना चाहिये, युद्ध नहीं होगा अथवा, श्रीभरत से मिलना होगा, युद्ध नहीं। शकुन ऐसा कहता है कि, श्रीभरत, श्रीराम को मनाने श्रीचित्रकूट जा रहे हैं अर्थात्‌ राज्य स्वीकार करने के लिए, श्रीराम को श्रीभरत सहमत करना चाह रहे हैं। उनके मन में विग्रह यानी विरोध नहीं है और वे प्रभु के साथ विग्रह अर्थात्‌ युद्ध करने नहीं जा रहे हैं।

**सुनि गुह कहइ नीक कह बू़ढा। सहसा करि पछिताहिं बिमू़ढा॥ भरत स्वभाव शील बिनु बूझे। बहिड़ ित हानि जानि बिनु जूझे॥**
भाष्य

वृद्ध की यह बात सुनकर राजा गुह ने कहा, वृद्ध बहुत ठीक कह रहे हैं। सहसा विचार के बिना कार्य करके विशिष्ट मोह से युक्त मूर्ख लोग पश्चात्‌ताप करते हैं। भरत जी का स्वभाव और चरित्र बिना समझे, बिना जानकारी के युद्ध करके बहुत–बड़ी हानि हो सकती है।

**दो०- गहहु घाट भट समिटि सब, लेउँ मरम मिलि जाइ।**

बूझि मित्र अरि मध्यगति, तस तब करिहउँ आइ॥१९२॥

भाष्य

हे सभी वीरों! इकट्ठे होकर इस घाट को पक़डकर ग्रहण कर लो अर्थात्‌ अपने अधिकार में किये रहो। मैं जाकर श्रीभरत को मिलकर उनका मर्म अर्थात्‌ गोपनीय भाव जान लूँ। शत्रु–मित्र और उदासीनों की भावनायें समझकर, जैसी परिस्थिति होगी आकर उसी प्रकार करूँगा।

**लखब सनेह सुभाय सुहाए। बैर प्रीति नहिं दुरइ दुराए॥**
भाष्य

मैं श्रीभरत के स्नेह और सुहावने लगने वाले सुन्दर भाव को सूक्ष्मता से देखूँगा, क्योंकि वैर और प्रेम छिपाने से छिपते नहीं हैं, वे किसी न किसी चेय से प्रकट हो ही जाते हैं।

**अस कहि भेंट सँजोवन लागे। कंद मूल फल खग मृग माँगे॥ मीन पीन पाठीन पुराने। भरि भरि भार कहारन आने॥**
भाष्य

सैनिकों से इस प्रकार कहकर निषादराज भेंट की सामग्री इकट्ठी करने लगे। उन्होंने कन्दमूल तथा खग– मृग अर्थात्‌ आकाश में उड़नेवाले तोते पक्षी के द्वारा खोजकर खाये जाने वाला आम्रफल मँगवाया। कहारों ने काँवरों में भर–भर कर पुराणों में पठित अर्थात्‌ अनेक पौराणिक स्तुतियों द्वारा प्रशंसित और जिसमें मछली स्वस्थ होती है, ऐसी मध्यधारा का गंगाजल लाये।

**विशेष– **यहाँ खग–मृग और मीन–पीन ये दोनों शब्द गोस्वामी श्रीतुलसीदास के कूट गूढार्थक तथा मार्मिक हैं और यही बालकाण्ड के प्रारम्भ में प्रतिज्ञात अर्थ की अनूपता भी है। सामान्यत: इन पदों का यही अर्थ निकलता है कि, निषादराज ने कन्दमूल, पक्षी, हिरण और मछली मँगायी, क्योंकि तीनों ही प्रकार की सामग्रियों के माध्यम से वे भरत जी की मनोवृत्ति का परीक्षण करना चाहते थे। उनकी धारणा में यदि भरत जी सात्विक होंगे तो कन्द– मूल ग्रहण करेंगे, राजस होंगे तो पक्षी और हिरण से संतुष्ट होंगे और यदि तमोगुणी होंगे तो मछलियों से संतुष्ट होंगे, परन्तु यह धारणा सत्य से बहुत दूर है, क्योंकि निषादराज परम श्रीरामभक्त, सात्विक और श्रीवैष्णव हैं। अतएव, वे भेंट में इन वस्तुओं को नहीं ले जा सकते और पूर्वोक्त अर्थ अनूप अर्थ नहीं है, जो गोस्वामी जी को अभीष्ट है। अत: यहाँ गोस्वामी जी का अभीष्ट अनूप अर्थ ही प्रतिपाद्द ग्रन्थ का हृदय तथा प्रस्तोतव्य है। निषादराज ने कन्द–मूल के साथ वह फल मँगाया, जो कोश में खग–मृग का भी वाचक है। सात्वत कोश में आम्रफल के पर्यायवाचियों में खग–मृग की भी गणना है। यथा–

[[४५५]]

रसालं स्यात्‌ खगमृगं सहकार च सौरभं। चूतमाम्रफलं स्वीष्टं देवेष्टं कोकिलप्रियम्‌॥

आम्र के फल को खग–मृग इसलिए कहा गया है, क्योंकि इसे आकाशगामी तोता नाम का पक्षी मार्गण अर्थात्‌ खोज करके खाता है। **खगेन शुकेन मृग्यते इति खगमृगं। **आम्रफल के साथ जल पीने में कोई स्वास्थ्य की बाधा नहीं होती और लंग़डा आदि देशी आम खाने पर जल पीना बहुत अनुकूल रहता है। निषादराज ने कहारों से बहँगियों द्वारा गंगाजल भी मँगाया। अत: उसके लिए यहाँ ग्रन्थकार ने मीन, पीन, पाठीन, पुराने तीन विशेषण दिये। वह गंगाजल मँगाया, जो पुराने अर्थात्‌ पुराणों में प्रसिद्ध है। पाठीन अर्थात्‌ जो वेदों में भी अनेक मंत्रों द्वारा पठित है। “पठितमेव पाठीनं, मीनपीन मीना: पीना यस्मिन्‌ तत्‌ मीनपीनं” ाᐃजसमें मछली मोटे हो जाते हैं। इस प्रकार पुराणों में प्रसिद्ध वेदों में पठित्‌ जहाँ मछली स्वस्थ होती है, ऐसे गंगा के मध्य से विशुद्ध गंगाजल बहँगियों में कहार ले आये। यदि यहाँ मछली अर्थ विवक्षित होता तो कहार शब्द का प्रयोग नहीं हुआ होता, यहाँ मल्लाहों की बात की जाती। आज भी बड़े घरों में पानी भरने का कार्य कहार ही करते हैं। सात्वत कोश में जल के पर्यायवाची शब्दों में मीनपीन भी आया है। जैसे– “कीलालं सलिलं पाथो मीनपीनं च जीवनं। कुशं वनं जलं नीरं पानीय तोयमबृणं॥”

मिलन साज सजि मिलन सिधाए। मंगल मूल सगुन शुभ पाए॥ देखि दूरि ते कहि निज नामू। कीन्ह मुनीशहिं दंड प्रनामू॥

भाष्य

इस प्रकार मिलन के साज सजाकर गुहराज श्रीभरत से मिलने के लिए गये। उन्होंने मंगलों के आश्रय, कल्याणकारी शकुनों को ही प्राप्त किया। वसिष्ठ जी को देखकर अपना नाम कहकर, गुह जी ने मुनिराज को दूर से ही प्रणाम किया।

**जानि रामप्रिय दीन्ह अशीशा। भरतहिं कहेउ बुझाइ मुनीशा॥ राम सखा सुनि स्यन्दन त्यागा। चले उतरि उमगत अनुरागा॥ गाउँ जाति गुह नाउँ सुनाई। कीन्ह जोहार माथ महिं लाई॥**
भाष्य

गुह जी को श्रीराम का प्रिय जानकर वसिष्ठ जी ने आशीर्वाद दिया और मुनियों के ईश्वर गुव्र्देव ने श्रीभरत को बुलाकर, गुहराज का परिचय दिया। भरत जी ने श्रीराम के सखा गुह जी का वसिष्ठ जी से परिचय सुनकर और उन्हें अपने पास आते देखकर, रथ छोड़ दिया और उमड़ते हुए अनुराग के साथ रथ से उतरकर गुह जी से मिलने चल पड़े। निषादराज ने अपने गाँव शृंगबेरपुर का, निषाद जाति का, और गुह नाम का श्रवण करा कर पृथ्वी पर मस्तक टेक कर जोहार अर्थात्‌ प्रणाम किया।

**दो०- करत दंडवत देखि तेहि, भरत लीन्ह उर लाइ।**

मनहुँ लखन सन भेंट भइ, प्रेम न हृदय समाइ॥१९३॥

भाष्य

उन्हें अर्थात्‌ निषादराज को दण्डवत्‌ करते हुए देखकर, श्रीभरत ने हृदय से लगा लिया, मानो उनकी

लक्ष्मण जी से भेंट हो गई हो। प्रेम श्रीभरत के हृदय में नहीं समा रहा था।

भेंटत भरत ताहि अति प्रीती। लोग सिहाहिं प्रेम कै रीती॥ धन्य धन्य धुनि मंगल मूला। सुर सराहि तेहिं बरषहिं फूला॥

[[४५६]]

भाष्य

श्रीभरत अत्यन्त प्रीति अर्थात्‌ प्रसन्नता के साथ निषाद को भेंट रहे हैं अर्थात्‌ मिल रहे हैं। लोग श्रीभरत के प्रेम की रीति की प्रशंसा कर रहे हैं। सम्पूर्ण मंगलों की मूल आश्रयरूप धन्य–धन्य ध्वनि हो रही है। निषादराज की प्रशंसा करके देवता पुष्पवृष्टि कर रहे हैं।

**लोक बेद सब भाँतिहिं नीचा। जासु छाँह छुइ लेइय सींचा॥ तेहि भरि अंक राम लघु भ्राता। मिलत पुलक परिपूरित गाता॥**
भाष्य

जो लोक और वेद दोनों ही प्रकार से सामान्य लोगों की दृय्ि में निकृय्कोटि का है। साधारण लोग जिसकी छाया का स्पर्श करके भी अपने पर जल का छींटा लेते हैं, उसी निषाद को अपनी भुजाओं में भरकर श्रीराम के छोटे भ्राता श्रीभरत रोमांच से परिपूर्ण शरीर के साथ प्रेम से मिल रहे हैं अर्थात्‌ श्रीरामप्रेम–महिमा से श्रीभरत वैदिक मंत्रों के गंभीर अर्थ को जानते हैं, जिनमें किसी के भी प्रति अपमान या तिरस्कार का भाव नहीं है। इसलिए, मीमांसा के “निषाद स्थपति याजकाधिकरण” में निषाद को यज्ञ करने का अधिकार दिया गया है।

**राम राम कहि जे जमुहाहीं। तिनहि न पाप पुंज समुहाहीं॥ यहि तौ राम लाइ उर लीन्हा। कुल समेत जग पावन कीन्हा॥**
भाष्य

राम–राम कहकर जो अंग़डाई लेते हैं, उनके भी समीप पापों के समूह नहीं आते। इस निषादराज को तो साक्षात्‌ परब्रह्म परमात्मा श्रीराम ने हृदय से लगा लिया और इसे परिवार के समेत जगत्‌ में पवित्र और जगत को पवित्र करने वाला बना दिया।

**करमनाश जल सुरसरि परई। तेहि को कहहु शीष नहिं धरई॥ उलटा नाम जपत जग जाना। बालमीकि भए ब्रह्म समाना॥**
भाष्य

भला बताइये, यदि कर्मनाशा नदी का जल गंगा जी में मिल जाता है तो क्या कोई उसे सिर पर नहीं धारण करता? अर्थात्‌ जैसे गंगा जी से मिलकर कर्मनाशा का जल भी पवित्र हो जाता है, उसी प्रकार श्रीराम से मिलकर पतित जीव भी पावन हो जाता है। जगत जानता है कि, राम नाम का उल्टा मरा–मरा जप कर महर्षि वाल्मीकि जी, ब्रह्मा जी के समान काव्यजगत के प्रथमकर्त्ता बन गये अर्थात्‌ जैसे ब्रह्मा जी ने प्राणियों के भोगायतन शरीरों की सृय्ि की, उसी प्रकार श्रीरामनाम का उल्टा मरा–मरा जपकर, महर्षि वाल्मीकि जी ने सर्वप्रथम काव्यजगत्‌ की सृष्टि की।

**विशेष– **मरा शब्द यद्दपि राम नाम का उल्टा है, फिर भी वह श्रीराम का नाम ही है। अथवा, उलटा नाम जपत जग जाना। अर्थात्‌ जगत की जानकारी में यह उल्टा है, परन्तु परमार्थत: यह भी भगवान्‌ श्रीराम जी का नाम है, नहीं तो सप्तर्षि वाल्मीकि जी को ‘मरा–मरा’ का ही उपदेश क्यों करते ? मरा मरा मरा चैव मरेति जप सर्वदा मरा शब्द निरर्थक नहीं है और न ही मरे हुए का वाचक है, “म” शब्द जीव के कल्याण कारक शिव जी तथा चन्द्रमा का वाचक है। यथा–मम राति इति मरा। जो साधक को कल्याण एवं कल्याण स्वरूप शिव जी तथा रामचन्द्ररूप चन्द्रमा को भी दे डालता है, उसे मरा कहते हैं।

दो०- स्वपच शबर खस जमन ज़ड, पामर कोल किरात।

**राम कहत पावन परम, होत भुवन बिख्यात॥१९४॥ भा०– **स्वपच (कुत्ते का माँस पकानेवाला चाण्डाल), शबर, भील, खस, असभ्य जाति, जमन, ज़ड (ज़डप्रकृति के यमन) अर्थात्‌ इस्लाम आदि, पामर (निम्न संस्कारवाले) कोल और किरात भी श्रीरामनाम का बैखरी वाणी में जप करने मात्र से चौदहों भुवन में विख्यात और परमपवित्र हो जाते हैं।

[[४५७]]

नहिं अचरज जुग जुग चलि आई। केहि न दीन्ह रघुबीर बड़ाई॥ राम नाम महिमा सुर कहहीं। सुनि सुनि अवध लोग सुख लहहीं॥

भाष्य

यह आश्चर्य नहीं है, यह परम्परा युग–युग से चलती आ रही है। रघुवीर, अर्थात्‌ जिनके कारण सामान्य जीव भी वीर हो जाते हैं, ऐसे भगवान्‌ श्रीराम ने किस को बड़प्पन नहीं दिया। इस प्रकार, देवता श्रीराम नाम की महिमा कह रहे हैं और सुन–सुन कर अवध के लोग सुख प्राप्त कर रहे हैं।

**विशेष– ***रघव**: अर्थात्‌ जीवा: वीरा: भवन्ति येन स रघुवीर: *अर्थात्‌ पाप, पुण्य का भोग करने वाले सामान्य जीव भी जिनकी कृपा से वीर बन जाते हैं, उन्हीं परब्रह्म परमात्मा को रघुवीर कहते हैं।

रामसखहिं मिलि भरत सप्रेमा। पूँछी कुशल सुमंगल छेमा॥ देखि भरत कर शील सनेहू। भा निषाद तेहि समय बिदेहू॥

भाष्य

श्रीराम जी के सखा गुह जी को प्रेम के सहित मिलकर श्रीभरत ने उनके कुशल, सुन्दर मंगल और कल्याण के सम्बन्ध में पूछा। श्रीभरत जी के स्वभाव और स्नेह को देखकर, उस समय निषादराज गुह विदेह हो गये, अर्थात्‌ उन्हें शरीर की सुधि भूल गई।

**सकुच सनेह मोद मन बा़ढा। भरतहिं चितवत एकटक ठा़ढा॥ धरि धीरज पद बंदि बहोरी। बिनय सप्रेम करत कर जोरी॥**
भाष्य

निषादराज के मन में संकोच, प्रेम और प्रसन्नता ब़ढ गई। वे टकटकी लगाकर श्रीभरत को निहारते हुए ख़डे रह गये। फिर धैर्य धारण करके श्रीभरत के श्रीचरणों का वन्दन करके हाथ जोड़कर निषादराज प्रेमपूर्वक विनय करने लगे।

**कुशल मूल पद पंकज पेखी। मैं तिहुँ काल कुशल निज लेखी॥ अब प्रभु परम अनुग्रह तोरे। सहित कोटि कुल मंगल मोरे॥**
भाष्य

हे प्रभु! सम्पूर्ण कुशलों के आश्रयरूप आपके श्रीचरणकमल को देखकर, मैंने भूत, वर्तमान और भविष्यत्‌ तीनों काल में अपनी कुशलता समझ ली है। हे प्रभु! आपके परमअनुग्रह से करोड़ों कुलों के सहित मेरा मंगल ही मंगल है।

**दो०- समुझि मोरि करतूति कुल, प्रभु महिमा जिय जोइ।**

जो न भजइ रघुबीर पद, जग बिधि बंचित सोइ॥१९५॥

भाष्य

मेरी कार्यशैली और कुल समझकर तथा मन में प्रभु श्रीराम की महिमा का विचार करके, जो व्यक्ति रघुवीर श्रीराम के श्रीचरण का भजन नहीं करता, संसार में विधाता के द्वारा वही वंचित हुआ अर्थात्‌ ठगा गया।

**कपटी कायर कुमति कुजाती। लोक बेद बाहेर सब भाँती॥ राम कीन्ह आपन जबही ते। भयउँ भुवन भूषन तबही ते॥**
भाष्य

मैं कपटी, कायर, दुय्बुद्धि वाला तथा हीन जाति वाला और सब प्रकार से लोक और वेद से बहिष्कृत हूँ, पर जब से श्रीराम ने मुझे अपना बना लिया तभी से मैं संसार का आभूषण बन गया।

**देखि प्रीति सुनि बिनय सुहाई। मिलेउ बहोरि भरत लघु भाई॥ कहि निषाद निज नाम सुबानी। सादर सकल जोहारी रानी॥**

[[४५८]]

भाष्य

निषादराज की प्रीति देखकर और सुहावनी विनती सुनकर, फिर श्रीभरत के छोटे भाई श्रीशत्रुघ्न निषादराज से मिले। निषादों के स्वामी गुह ने अपना नाम बताकर, राजघराने की सभी महिलाओं को आदरपूर्वक प्रणाम किया।

**जानि लखन सम देहिं अशीषा। जियहु सुखी शत लाख बरीषा॥**

**निरखि निषाद नगर नर नारी। भए सुखी जनु लखन निहारी॥ भा०– **निषादराज को श्रीलक्ष्मण के समान जानकर, सभी राजमातायें आशीर्वाद दे रहीं हैं, तुम सुखपूर्वक सौ लाख वर्ष जीवित रहो। निषादराज को देखकर श्रीअवधनगर के नर–नारी इतने सुखी हुए, मानो उन्होंने श्रीलक्ष्मण को निहार लिया हो।

कहहिं लहेउ एहि जीवन लाहू। भेंटेउ रामभद्र भरि बाहू॥ सुनि निषाद निज भाग बड़ाई। प्रमुदित मन लइ चलेउ लेवाई॥

भाष्य

सभी नर–नारी कहने लगे, इस निषादराज ने तो अपने जीवन का लाभ ले लिया, क्योेंकि श्रीरामभद्र ने इसे अपने बाँहों में भरकर भेंटा। निषादपति गुह जी अपने भाग्य की बड़ाई सुनकर, प्रसन्न मन से सभी को लिवा ले चले।

**दो०- सनकारे सेवक सकल, चले स्वामि रुख पाइ।**

घर तरु तर सर बाग बन, बास बनाएनि जाइ॥१९६॥

भाष्य

सभी सेवकों को निषादराज ने संकेत दिया, वे अपने स्वामी का संकेत पाकर चले। उन्होंने घरों में, वृक्षों के नीचे, तालाबों के तट पर, बागों और वनों मे सेना के लिए अस्थायी निवास बनाये।

**शृंगबेरपुर भरत दीख जब। भे सनेह बश अंग शिथिल तब॥ सोहत दिए निषादहिं लागू। जनु तनु धरें बिनय अनुरागू॥**
भाष्य

जब श्रीभरत ने शृंगबेरपुर देखा, तब स्नेह के वश होने से उनके सभी अंग शिथिल हो गये। निषादराज को अपना कन्धा दिये हुए, सहारा लेकर श्रीभरत इस प्रकार शोभित हो रहे हैं, मानो विनय और अनुराग ने शरीर धारण कर लिया।

**एहि बिधि भरत सैन सब संगा। दीख जाइ जग पावनि गंगा॥ रामघाट कहँ कीन्ह प्रनामू। भा मन मगन मिले जनु रामू॥**
भाष्य

इस प्रकार श्रीभरत ने संग में आई हुई सम्पूर्ण सेना के साथ जगतपावनी गंगा जी के दर्शन किये। उन्होंने रामघाट को प्रणाम किया, उनका मन प्रेम में ऐसा मग्न हुआ, मानो श्रीभरत को श्रीराम ही मिल गये हों।

**करहिं प्रनाम नगर नर नारी। मुदित ब्रह्ममय बारि निहारी॥ करि मज्जन माँगहिं कर जोरी। रामचंद्र पद प्रीति न थोरी॥**
भाष्य

नगर के नर–नारी गंगा जी को प्रणाम करते हैं और ब्रह्मस्वरूप गंगा जी का जल देखकर, बहुत प्रसन्न हो रहे हैं। गंगा जी में स्नान करके हाथ जोड़कर उनसे श्रीरामचन्द्र के श्रीचरणों में अत्यन्त प्रीति (प्रेम) माँगते हैं।

**भरत कहेउ सुरसरि तव रेनू। सकल सुखद सेवक सुरधेनू॥ जोरि पानि बर माँगउँ एहू। सीय राम पद सहज सनेहू॥**

[[४५९]]

भाष्य

श्रीभरत जी ने कहा, हे गंगाजी! आपकी रेणुका सबको सुख देनेवाली और सेवकों के लिए तो कामधेनु है। मैं हाथ जोड़कर यही वरदान माँगता हूँ कि, श्रीसीताराम जी के चरणों में मुझे स्वाभाविक प्रेम मिल जाये।

**दो०- एहि बिधि मज्जन भरत करि, गुरु अनुशासन पाइ।**

मातु नहानी जानि सब, डेरा चले लिवाइ॥१९७॥

भाष्य

इस प्रकार गंगा जी में स्नान करके, गुरुदेव की आज्ञा पाकर, सभी माताओं को स्नान की हुयी जानकर, श्रीभरत सभी को निवास पर लिवा चले।

**जहँ तहँ लोगन डेरा कीन्हा। भरत सोध सबही कर लीन्हा॥ गुरु सेवा करि आयसु पाई। राम मातु पहँ गे दोउ भाई॥**
भाष्य

लोगों ने जहाँ–तहाँ निवास किया था, श्रीभरत ने सबका समाचार लिया। गुरुदेव की सेवा करके, उनसे आज्ञा पाकर, दोनों भाई श्रीभरत–शत्रुघ्नजी, श्रीराम की माताश्री कौसल्या जी के पास गये।

**चरन चाँपि कहि कहि मृदु बानी। जननी सकल भरत सनमानी॥**

**भाइहिं सौंपि मातु सेवकाई। आपु निषादहिं लीन्ह बोलाई॥ भा०– **माताओं के चरण दबाकर, कोमल वाणी में कह–कह कर श्रीभरत ने सभी माताओं का सम्मान किया। शत्रुघ्न जी को माता की सेवा सौंप कर श्रीभरत ने निषादराज को बुला लिया।

चले सखा करसों कर जोरे। शिथिल शरीर सनेह न थोरे॥ पूँछत सखहिं सो ठाउँ देखाऊ। नेकु नयन मन जरनि जुड़ाऊ॥

भाष्य

निषादराज के हाथ से हाथ जोड़कर भरत जी चले। उनका शरीर शिथिल था और स्नेह थोड़ा नहीं अर्थात्‌ बहुत था। भरत जी मित्र निषाद से पूछने लगे, सखे! वह स्थान दिखाइये, तनिक नेत्रों और मन की तपन को बुझा दीजिये।

**जहँ सिय राम लखन निशि सोए। कहत भरे जल लोचन कोए॥ भरत बचन सुनि भयउ बिषादू। तुरत तहाँ लइ गयउ निषादू॥**
भाष्य

जहाँ रात्रि में श्रीसीता, राम एवं लक्ष्मण जी शयन किये थे। ऐसा कहते–कहते श्रीभरत के नेत्रोें के कोने में अश्रुजल भर आये। श्रीभरत का वचन सुनकर, निषादराज के मन में बहुत दु:ख हुआ और श्रीभरत को वे तुरन्त वहाँ ले गये।

**दो०- जहँ शिंशुपा पुनीत तरु, रघुबर किय बिश्राम।**

अति सनेह सादर भरत, कीन्हेउ दंड प्रनाम॥१९८॥

भाष्य

जहाँ शिंशुपा अर्थात्‌ अशोक के पवित्र वृक्ष के नीचे श्रीराम ने विश्राम किया था। श्रीभरत ने अत्यन्त प्रेम के साथ आदरपूर्वक दण्डवत्‌ प्रणाम किया।

**कुश साथरी निहारि सुहाई। कीन्ह प्रनाम प्रदच्छिन जाई॥ चरन रेख रज आँखिन लाई। बनइ न कहत प्रीति अधिकाई॥**
भाष्य

सुन्दर कुश की शैय्या देखकर, जाकर श्रीभरत जी ने प्रदक्षिणापूर्वक प्रणाम किया, अथवा प्रदक्षिणा की पद्धति से जाकर प्रणाम किया। प्रभु के चरणों की रेखा की धूलि को आँखों में लगाया। श्रीभरत की प्रीति की अधिकता कहते नहीं बनती।

[[४६०]]

कनक बिंदु दुइ चारिक देखे। राखे शीष सीय सम लेखे॥ सजल बिलोचन हृदय गलानी। कहत सखा सन बचन सुबानी॥

भाष्य

कुश की शैय्या में चिपके हुए श्रीसीता की साड़ी से निकले हुए दो–चार अथवा, छह अथवा, दो की चतुर्गुणी आठ अथवा, दो–चार चौबीस सुवर्ण बिन्दु श्रीभरत जी ने देखे। उन्हें सिर पर रख लिया और उन स्वर्ण के बिन्दुओं को सीता जी के समान जान उनके नेत्र अश्रुपूर्ण हो गये, हृदय में अत्यन्त ग्लानि होने लगी। अपने मित्र गुहराज निषाद से सुन्दर वाणी में श्रीभरत यह वचन कहने लगे–

**श्रीहत सीय बिरह दुतिहीना। जथा अवध नर नारि मलीना॥ पिता जनक देउँ पटतर केही। करतल भोग जोग जग जेही॥ ससुर भानुकुल भानु भुआलू। जेहि सिहात अमरावतिपालू॥ प्राननाथ रघुनाथ गोसाईं। जो बड़ होत सो राम बड़ाई॥**
भाष्य

मित्र! देखो, ये स्वर्ण के बिन्दु श्रीसीता के विरह में शोभा से हत और प्रकाश से हीन हो गये हैं, जैसे अयोध्या के नर–नारी श्रीसीताराम जी के वियोग में मलीन हैं अर्थात्‌ यही स्वर्णबिन्दु जब भगवती श्रीसीता की साड़ी में थे, तब कितने प्रकाशित होते थे, आज श्रीसीता से अलग होकर, वे कान्ति और शोभा से हीन हो रहे हैं। जब इन्हें श्रीसीता के वियोग की अनुभूति हो रही है तो, अवध के नर–नारियों का क्या कहना है? जिन श्रीसीता के पिताश्री जनक जी की किससे उपमा दूँ, जिनको संसार में ही भोग और योग दोनों हस्तगत्‌ हुए? जिनके श्वसुर सूर्यकुल के सूर्य महाराज श्रीदशरथ थे, जिनकी प्रशंसा अमरावती के स्वामी इन्द्र भी करते हैं। जिनके प्राणपति सम्पूर्ण जीवों की इन्द्रियों के स्वामी भगवान्‌ श्रीराम हैं। जो भी बड़ा होता है, वह श्रीराम की बड़ाई से ही होता है।

**दो०- पति देवता सुतीय मनि, सीय साथरी देखि।**

**बिहरत हृदय न हहरि हर, पबि ते कठिन बिशेषि॥१९९॥ भा०– **पतिव्रता श्रेष्ठनारियों की मुकुटमणि भगवती श्रीसीता की कुश की शैय्या को देखकर, मेरा हृदय अत्यन्त दु:ख से आहत होकर नहीं फटा। हे शिवजी! यह वज्र से भी विशेष कठिन है।

लालन जोग लखन लघु लोने। भे न भाइ अस अहहिं न होने॥ पुरजन प्रिय पितु मातु दुलारे। सिय रघुबीरहिं प्रानपियारे॥ मृदु मूरति सुकुमार सुभाऊ। तात बाउ तन लाग न काऊ॥ ते बन सहहिं बिपति सब भाँती। निदरे कोटि कुलिश एहिं छाती॥

भाष्य

लक्ष्मण, सुन्दर, मुझसे भी छोटे और लालन, पालन के योग्य हैं, ऐसा भाई न हुआ, न है और न ही होने वाला है। लक्ष्मण, पुरजनों को प्रिय, पिता–माता के दुलारे तथा श्रीसीताराम जी को प्राणों के समान प्यारे हैं, उनकी मूर्ति कोमल तथा स्वभाव बहुत सुकुमार है, उनके शरीर में कभी गर्मवायु भी नहीं लगा, वही लक्ष्मण, वन में सब प्रकार से विपत्ति सह रहे हैं अर्थात्‌ मैं यहाँ उनकी कुश की शैय्या भी नहीं देख रहा हूँ। फलत: मेरे लक्ष्मण रात्रि में विश्राम भी नहीं करते होंगे, मेरी इस छाती ने तो करोड़ों वज्र का भी निरादर कर दिया।

**राम जनमि जग कीन्ह उजागर। रूप शील सुख सब गुन सागर॥ पुरजन परि जन गुरु पितु माता। राम स्वभाव सबहिं सुखदाता॥ बैरिउ राम बड़ाई करहीं। बोलनि मिलनि बिनय मन हरहीं॥ शारद कोटि कोटि शत शेषा। करि न सकहिं प्रभु गुन गन लेखा॥**

[[४६१]]

दो०- सुखस्वरूप रघुबंशमनि, मंगल मोद निधान।

ते सोवत कुश डासि महि, बिधि गति अति बलवान॥२००॥

भाष्य

रूप, चरित्र तथा स्वभाव, सुख, एवं अन्य शुभगुणों के समुद्र श्रीराम ने जन्म लेकर जगत को उजागर अर्थात्‌ प्रसिद्ध कर दिया। तात्पर्य यह है कि, श्रीरामजन्म के कारण आज मर्त्यलोक, उसमें भी भारतवर्ष, उसमें भी कोसल जनपद, उसमें भी अवधनगर सबसे प्रसिद्ध हुआ। अवधपुर निवासी, परिवार, गुरुजन, पिता तथा मातायें सभी को श्रीराम का स्वभाव सुख देने वाला है। शत्रु भी श्रीराम की प्रशंसा करते हैं। श्रीराम अपने भाषण, मिलन और विनम्रता से सभी के मन को चुरा लेते हैं। करोड़ों सरस्वती और अरबों शेष भी प्रभु श्रीराम के श्रेष्ठ गुणगणों की गणना नहीं कर सकते। जो रघुकुल के मणि भगवान्‌ श्रीराम सुखस्वरूप तथा मंगलों और प्रसन्नताओें के कोश हैं, वे भी कुश की साथरी बिछाकर पृथ्वी पर सोते हैं, विधाता की गति अत्यन्त बलवती होती है।

**राम सुना दुख कान न काऊ। जीवनतरु जिमि जोगवत राऊ॥ पलक नयन फनि मनि जेहिं भाँती। जोगवहिं जननि सकल दिन राती॥**
भाष्य

श्रीराम ने कभी भी कान से दु:ख सुना भी नहीं था। महाराज चक्रवर्ती जी संजीवन वृक्ष अर्थात्‌ जीवन मूलिका के वृक्ष की भाँति उन्हें बचा–बचाकर रखते थे। जिस प्रकार नेत्रों की रक्षा पलकें करती हैं और सर्प जिस प्रकार मणियों को रखा करते हैं, उसी प्रकार दिन–रात सभी मातायें उन्हें सावधानी से बचा कर लालती–पालती थीं।

**ते अब फिरत बिपिन पदचारी। कंद मूल फल फूल अहारी॥ धिग कैकयी अमंगल मूला। भइसि प्रान प्रियतम प्रतिकूला॥**
भाष्य

वही श्रीराम इस समय कन्दमूल, फल और फूल का आहार करके वन में पैदल भ्रमण कर रहे हैं। सभी अमंगलों की राशि कैकेयी को धिक्कार है, जो प्राणों के भी प्रियतम परमात्मा श्रीराम के प्रतिकूल हो गई।

**मैं धिग धिग अघ उदधि अभागी। सब उतपात भयउ जेहि लागी॥**

**कुल कलंक करि सृजेउ बिधाता। साइँद्रोह मोहि कीन्ह कुमाता॥ भा०– **सम्पूर्ण पापों का समुद्र, भाग्यहीन मैं भरत भी धिक्कार का पात्र हूँ.. मैं धिक्कार का पात्र हूँ, जिसके लिए सभी उत्पात हुए। विधाता ने मुझे रघुकुल के कलंक के रूप में रचा और कुमाता कैकेयी ने मुझे स्वामी श्रीराम के द्रोह के रूप में ही जन्म दिया।

सुनि सप्रेम समुझाव निषादू। नाथ करिय कत बादि बिषादू॥ राम तुमहिं प्रिय तुम प्रिय रामहिं। यह निरजोस दोष बिधि बामहिं॥

भाष्य

भरत जी का वचन सुनकर निषादराज उन्हें प्रेमपूर्वक समझाने लगे, हे नाथ! आप निरर्थक शोक क्यों कर रहे हैं? श्रीराम आपको प्रिय हैं और आप श्रीराम को प्रिय हैं। पूरे प्रकरण का यही निष्कर्ष, यही निचोड़ है, यही निर्णय है और समस्त श्रीरामभक्तों का यही निश्चय है। वैदिक वाङ्‌मय का यही सिद्धान्त है तथा आप दोनों का परस्पर प्रेम निरजोस अर्थात्‌ अतुलनीय है। किसी प्राकृत या अप्राकृत तराजू पर नहीं तौला जा सकता। दोष तो प्रतिकूल विधाता और विधाता की वामा, अर्थात्‌ ब्रह्मपत्नी सरस्वती जी का है।

**छं०- बिधि बाम की करनी कठिन जेहिं मातु कीन्ही बावरी।**

तेहि राति पुनि पुनि करहिं प्रभु सादर सरहना रावरी॥

[[४६२]]

तुलसी न तुम सों राम प्रियतम कहत हौं सौंहैं किए। परिनाम मंगल जानि अपने आनिए धीरज हिए॥

भाष्य

हे भरत! प्रतिकूल विधाता और विधाता की पत्नी सरस्वती जी की करनी अर्थात्‌ कृति बहुत कठिन है। जिसने माँ कैकेयी को बावली बना दिया। उस रात अर्थात्‌ मेरे शृंगबेरपुर में प्रभु के विश्राम की रात में श्रीराम प्रभु बारम्बार आदरपूर्वक आपकी ही सराहना करते रहे। तुलसीदास जी कहते हैं कि, निषादराज ने कहा, मैं शपथ करके कहता हूँ कि, आपके समान श्रीराम का कोई भी प्रियतम नहीं है। परिणाम को मंगल जानकर, आप अपने हृदय में धैर्य धारण कीजिये।

**सो०- अंतरजामी राम, सकुच सप्रेम कृपायतन।**

**चलिय करिय बिश्राम, यह बिचार दृ़ढ आनि मन॥२०१॥ भा०– **संकोच, शुद्ध प्रेम और कृपा के विशाल भवन श्रीराम अन्तर्यामी हैं अर्थात्‌ सबके हृदय में रहकर सबके हृदय की सब परिस्थिति जानते हैं। हृदय में यह दृ़ढ विचार ले आकर चलिए और विश्राम कीजिये।

* मासपारयण, सोलहवाँ विश्राम *

सखा बचन सुनि उर धरि धीरा। बास चले सुमिरत रघुबीरा॥ यह सुधि पाइ नगर नर नारी। चले बिलोकन आरत भारी॥

भाष्य

मित्र निषादराज के वचन सुनकर, हृदय में धैर्य धारण करके, रघुवीर श्रीराम का स्मरण करते हुए, श्रीभरत अपने निवासस्थान को चले गये। यह समाचार पाकर निषादराज के नगर के नर–नारी बहुत बड़ी व्याकुलता के साथ श्रीभरत के दर्शन करने के लिए चल पड़े। अथवा, श्रीभरत के आगमन का समाचार पाकर नगर के नर–नारी श्रीभरत को देखने के लिए चल पड़े। उनके मन में श्रीभरत के दर्शनों की बहुत–बड़ी आर्ति अर्थात्‌ विकलता थी।

**परदछिना करि करहिं प्रनामा। देहिं कैकयिहिं खोरि निकामा॥ भरि भरि बारि बिलोचन लेहीं। बाम बिधातहिं दूषन देहीं॥ एक सराहहिं भरत सनेहू। कोउ कह नृपति निबाहेउ नेहू॥ निंदहिं आपु सराहि निषादहिं। को कहि सकइ बिमोह बिषादहिं॥**
भाष्य

शृंगबेरपुर के नर–नारी, श्रीभरत की परिक्रमा करके प्रणाम करते हैं और कैकेयी को बहुत दोष देते हैं। अपने निर्मल नेत्रों में बार–बार आँसू भर लेते हैं और प्रतिकूल विधाता को दोष देते हैं। कुछ लोग श्रीभरत के स्नेह की प्रशंसा करते हैं और कुछ दूसरे लोग कहते हैं कि, महाराज दशरथ जी ने प्रेम का निर्वाह कर लिया। वे सब निषादराज की सराहना करके अपनी निन्दा करते हैं। उनके विमोह अर्थात्‌ मोह से रहित निर्दोष विषाद अर्थात्‌ दु:ख को कौन कह सकता है?

**एहि बिधि राति लोग सब जागा। भा भिनुसार गुदारा लागा॥ गुरुहिं सुनाव च़ढाइ सुहाई। नई नाव सब मातु च़ढाई॥ दंड चारि महँ भा सब पारा। उतरि भरत तब सबहिं सँभारा॥**
भाष्य

इस प्रकार सभी लोग रात भर जागते रहे। प्रात:काल होने पर गंगा जी के तट पर पार उतरने की प्रक्रिया में गुदारा अर्थात्‌ कोलाहल होने लगा। गुरुदेव को सुहावनी और सुदृ़ढ नाव पर च़ढाकर श्रीभरत ने नवीन नौका पर

[[४६३]]

सभी माताओं को च़ढाया। चार दण्डों में श्रीभरत की सम्पूर्ण सेना पार हो गई। श्रीभरत ने पार उतरकर तब सभी को सम्भाल लिया।

**विशेष– *अवधी में बोलने के अर्थ में गुदरन की क्रिया का प्रयोग होता है। यथा– मिलि न जाइ नहिं गुदरत बनई। *मानस २.२४०.५। उसी का यहाँ प्रयोग है। प्रात:काल नदी के तट पर प्रायश: पार जाने वालों की भीड़ का कोलाहल करना स्वाभाविक है।

दो०- प्रातक्रिया करि मातु पद, बंदि गुरुहिं सिर नाइ।

आगे किए निषाद गन, दीन्हेउ कटक चलाइ॥२०२॥

भाष्य

प्रात:काल की क्रिया अर्थात्‌ सन्ध्यावन्दन आदि करके, माताओं के चरणों की वन्दना करके, गुरुदेव को प्रणाम करके भरत जी ने निषादगणों को आगे किया और उन्हीं की देख–रेख में सेना को चला दिया अर्थात्‌ चलने का आदेश दिया।

**कियउ निषादनाथ अगुआई। मातु पालकी सकल चलाई॥ साथ बोलाइ भाइ लघु दीन्हा। बिप्रन सहित गमन गुरु कीन्हा॥**
भाष्य

निषादनाथ गुह ने अगुआई की अर्थात्‌ वे आगे–आगे चले और नेतृत्व सम्भाला। सभी माताओं की पालकियाँ चलायी गई। उनके साथ बुलाकर, छोटे भाई शत्रुघ्न जी को दे दिया। ब्राह्मणों के साथ गुव्र्देव ने वन के लिए प्रस्थान किया।

**आपु सुरसरिहिं कीन्ह प्रनामू। सुमिरे लखन सहित सिय रामू॥ गवने भरत पयादेहिं पाएँ। कोतल संग जाहिं डोरिआएँ॥**
भाष्य

आप अर्थात्‌ श्रीभरत ने गंगा जी को प्रणाम किया और लक्ष्मण जी के सहित श्रीसीताराम जी का स्मरण किया। श्रीभरत बिना पनहीं के ही पैदल चल पड़े। पालतू घोड़े रस्सियों में बँधे हुए श्रीभरत के साथ चले जा रहे हैं अर्थात्‌ श्रीभरत के साथ सेवक घोड़ों को रस्सियों से बाँधकर लिए ले जा रहे हैं।

**कहहिं सुसेवक बारहिं बारा। होइय नाथ अश्व असवारा॥ राम पयादेहिं पायँ सिधाए। हम कहँ रथ गज बाजि बनाए॥**
भाष्य

सुन्दर सेवक बार–बार कह रहे हैं, हे नाथ! घोड़े पर असवार हो जाइये। श्रीभरत कहने लगे, श्रीराम तो बिना जूते, पनहीं के पदयात्रा करके वन गये और हमारे लिए रथ, हाथी और घो़ेडे बनाये गये।

**सिर भरि जाउँ उचित अस मोरा। सब ते सेवक धरम कठोरा॥ देखि भरत गति सुनि मृदु बानी। सब सेवक गन गरहिं गलानी॥**
भाष्य

मैं सिर के बल वन जाऊँ मेरे लिए यही उचित होगा। सेवक धर्म सबसे कठोर होता है। श्रीभरत जी की यह गति देखकर और उनकी कोमल वाणी सुनकर सभी सेवकगण ग्लानि से गले जा रहे हैं।

**दो०- भरत तीसरे पहर कहँ, कीन्ह प्रबेश प्रयाग।**

**कहत राम सिय राम सिय, उमगि उमगि अनुराग॥२०३॥ भा०– **राम–सीता, राम–सीता कहते हुए बार–बार अनुराग से उमगते हुए श्रीभरत ने दिन के तीसरे प्रहर प्रयाग में प्रवेश किया।

[[४६४]]

झलका झलकत पायँन कैसे। पंकज कोश ओस कन जैसे॥ भरत पयादेहिं आए आजू। भयउ दुखित सुनि सकल समाजू॥

भाष्य

श्रीभरत के चरणों में झलका अर्थात्‌ फफोले किस प्रकार झलकते अर्थात्‌ दिख रहे हैं, जैसे कमल के कोश पर प्रात:काल ओस के कण दिखते हैं। आज श्रीभरत शृंगबेरपुर से प्रयाग पैदल आये हैं, यह सुनकर सम्पूर्ण समाज दु:खी हो गया।

**खबरि लीन्ह सब लोग नहाए। कीन्ह प्रनाम त्रिबेनिहिं आए॥ सबिधि सितासित नीर नहाने। दिए दान महिसुर सनमाने॥**
भाष्य

श्रीभरत जी ने जब सबका समाचार पा लिया कि, सभी लोग स्नान कर चुके हैं, तब प्रणाम किया और सभी लोग त्रिवेणी संगम पर आ गये। सभी लोगों ने विधिपूर्वक श्वेत और नीले अर्थात्‌ गंगा–यमुना जी के जल के संगम में स्नान किया, दान दिया और तीर्थ पुरोहित ब्राह्मणों का सम्मान किया।

**देखत श्यामल धवल हिलोरे। पुलकि शरीर भरत कर जोरे॥ सकल कामप्रद तीरथराऊ। बेद बिदित जग प्रगट प्रभाऊ॥ माँगउँ भीख त्यागि निज धरमू। आरत काह न करइ कुकरमू॥ अस जिय जानि सुजान सुदानी। सफल करहिं जग जाचक बानी॥**

**__दो०- **

अरथ न धरम न काम रुचि, गति न चहउँ निरबान।जनम जनम रति राम पद, यह बरदान न आन॥२०४॥

भाष्य

नीले और श्वेत (यमुना जी और गंगा जी) के हिलोरें अर्थात्‌ जलप्रवाहों को परस्पर मिलते हुए देख रोमांचित शरीर श्रीभरत ने हाथ जोड़ लिए और बोले, हे तीर्थराज प्रयाग! आप सभी कामनायें देनेवाले हैं, आपका प्रभाव वेदों में प्रसिद्ध तथा वेदों द्वारा ज्ञात और जगत में प्रकट है। मैं अपने कुलधर्म, वर्णधर्म, वैष्णव सम्प्रदाय, धर्म और जातिधर्म छोड़कर आप से भीख माँगता हूँ, क्योंकि अपने मनोवांछित वस्तु को पाने के लिए आर्त्त अर्थात्‌ व्याकुल व्यक्ति कौन–सा कुकर्म नहीं करता? ऐसा हृदय में जानकर संसार के चतुर और श्रेष्ठ दानीजन याचकों की वाणी अर्थात्‌ याचना को सफल करते हैं। याचक जो माँगता है, वह दे डालते हैं, इसलिए आपको मेरी भिक्षा मुझे देनी पड़ेगी। हे तीर्थराज! यद्दपि अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष ये चारों पदार्थ आप के भाण्डागार में भरे हैं, फिर भी मेरी अर्थ, धर्म और काम में रुचि नहीं है। तात्पर्य यह है कि, त्रिवर्ग को तो मैं कभी नहीं चाहता और चारों गतियाँ (सलोक्य, सामीप्य, सायुज्य और सारूप्य) को भी नहीं चाहता और मतान्तर से सिद्ध एकत्व ऐक्यलक्षण निर्वाण अर्थात्‌मोक्ष भी नहीं चाहता। मैं प्रत्येक जन्मों में श्रीसीताराम जी के चरणों में अनुरक्ति (प्रेमलक्षणा) भक्ति चाहता हूँ। मुझे यही वरदान दीजिये दूसरा नहीं।

**विशेष– **ऐसे प्रत्येक स्थान पर जहाँ गोस्वामी जी ने केवल राम शब्द का प्रयोग किया हो, वहाँ उपलक्षण की विधा से श्रीसीता का भी तात्पर्य समझ लेना चाहिये। अथवा *राकारात्‌** राघवो गेय: मकारात्‌ मैथिली स्मृता *यानी राम के रकार से श्रीराघव और मकार से मैथिलराजनन्दिनी श्रीसीता समझ लेना चाहिए।

जानहुँ राम कुटिल करि मोही। लोग कहहुँ गुरु साहिब द्रोही॥ सीता राम चरन रति मोरे। अनुदिन ब़ढउ अनुग्रह तोरे॥

भाष्य

भले ही श्रीराम मुझे कुटिल समझें, भले ही लोग मुझे गुव्र्देव और स्वामी का द्रोही कहें, इन प्रतिक्रियाओं से मेरे मन में कोई अन्तर नहीं पड़ना चाहिये। हे तीर्थराज प्रयाग! आपके अनुग्रह से मेरे मन में श्रीसीताराम जी के श्रीचरणों की भक्ति दिन–दिन अनुकूलता से ब़ढती रहे।

[[४६५]]

जलद जनम भरि सुरति बिसारउ। जाचत जल पबि पाहन डारउ॥ चातक रटनि घटे घटि जाई। ब़ढे प्रेम सब भाँति भलाई॥ कनकहिं बान च़ढइ जिमि दाहे। तिमि प्रियतम पद नेम निबाहे॥

भाष्य

भले मेघ जीवनभर चातक की स्मृति भुलाये रहे और चातक के माँगने पर भले ही बादल जल के रूप में वज्र और पाहन अर्थात्‌ ओला गिराये अर्थात्‌ भले ही बादल चातक की उपेक्षा करे और उसे हानि पहुँचाये, फिर भी चातक को अपने प्रेम मेें अडिग रहना चाहिये, क्योंकि चातक की रटन (पी–कहाँऽऽ– पी–कहाँऽऽ) के घटने से उसकी प्रेमपरायणता ही घट जायेगी अर्थात्‌ यदि बादल के दण्ड देने पर चातक ने व्र्ठकर मेघ से माँगना छोड़ दिया, तब तो स्वयं चातक ही समाप्त हो जायेगा। इस उपेक्षा पर भी चातक के प्रेम के ब़ढते रहने पर ही उसकी सब प्रकार से भलाई अर्थात्‌ कल्याण है।

**विशेष– **यही रागानुगा भक्ति है, जिसे गोस्वामी जी ने मानस जी के बीज रूप में और दोहावली में बत्तीस दोहों के माध्यम से विस्तृत रूप में प्रस्तुत किया। दोहावली के उस प्रकरण को सुधिजन *चातक** बत्तिसी *के नाम से जानते हैं। द्रष्टव्य्‌ है– दोहावली, २७७ से ३०९। जैसे अग्नि में तपाने से स्वर्ण में भी बान च़ढती है अर्थात्‌ उसमें उसका वास्तविक स्वरूप आरू़ढ हो जाता है। अग्नि में तपाने से स्वर्ण में उसका तेज उपस्थित होता है और कीर्ति ब़ढती है, उसी प्रकार प्रियतम के चरणों में नियम का निर्वाह करने से प्रेम में अनादिकालीन वासना–वश खोया हुआ तथा भूला हुआ सहजस्वरूप \(सेवक–सेव्यभाव लक्षण\) आ जाता है।

भरत बचन सुनि माझ त्रिबेनी। भइ मृदु बानि सुमंगल देनी॥ तात भरत तुम सब बिधि साधू। राम चरन अनुराग अगाधू॥ बादि गलानि करहु मन माहीं। तुम सम रामहिं कोउ प्रिय नाहीं॥

भाष्य

श्रीभरत के वचन सुनकर त्रिवेणी के मध्य से सुन्दर मंगल देनेवाली कोमल वाणी हुई। संगम, प्रयाग का सिंहासन है, “संगम सिंहासन सुठि सोहा।” (मानस, २.१०५.७) अत: उसी त्रिवेणी के मध्य संगम–सिंहासन पर आसीन होकर तीर्थराज प्रयाग ने गंगा, यमुना, सरस्वती जी को माध्यम बनाकर, कोमल वाणी में श्रीभरत के वचनों का उत्तर दिया। गंगा जी की धारा से प्रयाग ने कहा, हे तात भावते भरत! आप सभी प्रकार से साधु हैं। यमुना जी की धारा से प्रयाग ने कहा, आपके हृदय में श्रीसीताराम जी के श्रीचरणों के प्रति अगाध और अनुपम राग है, अर्थात्‌ आपके श्रीसीतारामविषयक प्रेम का कोई थाह नहीं है। सरस्वती जी की गुप्तधारा से प्रयाग ने कहा, भद्र! आप व्यर्थ ही मन में ग्लानि कर रहे हैं, आपके समान श्रीसीताराम जी को कोई प्रिय नहीं है।

**दो०- तनु पुलकेउ हिय हरष सुनि, बेनि बचन अनुकूल।**

**भरत धन्य कहि धन्य सुर, हरषित बरषहिं फूल॥२०५॥ भा०– **त्रिवेणी के माध्यम से तीर्थराज प्रयाग द्वारा कहे हुए अनुकूल वचन सुनकर श्रीभरत के शरीर में रोमांच हो गया और हृदय में प्रसन्नता हुई। “श्रीभरत धन्य हैं… श्रीभरत धन्य हैं” कहकर देवता प्रसन्न होते हुए पुष्पों की

वर्षा करने लगे।

प्रमुदित तीरथराज निवासी। बैखानस बटु गृही उदासी॥ कहहिं परस्पर मिलि दस पाँचा। भरत सनेह शील शुचि साँचा॥

[[४६६]]

भाष्य

तीर्थराज प्रयाग में निवास करने वाले वानप्रस्थ, ब्रह्मचारी, गृहस्थ और सन्यासी ये चारों आश्रमों के लोग अत्यन्त प्रसन्न हो गये। दस–पाँच के समूह में मिलकर परस्पर अर्थात्‌ एक–दूसरे से कहने लगे कि, श्रीभरत का श्रीरामविषयक स्नेह और उनका स्वभाव पवित्र तथा सत्य है।

**सुनत राम गुन ग्राम सुहाए। भरद्वाज मुनिवर पहँ आए॥ दंड प्रनाम करत मुनि देखे। मूरतिमंत भाग्य निज लेखे॥**
भाष्य

श्रीराम के सुन्दर गुणसमूहों को सुनते–सुनते श्रीभरत, मुनिश्रेष्ठ भरद्वाज जी के पास आ गये। मुनि भरद्वाज जी ने श्रीभरत को दण्डवत्‌ प्रणाम करते देखा तो उन्होंने अपना मूर्तिमान भाग्य ही समझा अर्थात्‌ श्रीभरत के दर्शनों से महर्षि को ऐसा प्रतीत हुआ, जैसे उनका भाग्य ही शरीर धारण करके आ गया हो।

**धाइ उठाइ लाइ उर लीन्हे। दीन्ह अशीष कृतारथ कीन्हे॥ आसन दीन्ह नाइ सिर बैठे। चहत सकुच गृह जनु भजि पैठे॥**
भाष्य

मुनि भरद्वाज जी ने दौड़कर अपनी भुजाओं से पृथ्वी पर पड़े हुए श्रीभरत को उठाकर हृदय से लगा लिया। आशीर्वाद दिया (तुम्हें श्रीसीताराम जी के दर्शन अवश्य होंगे) और श्रीभरत जी को कृतार्थ कर दिया। आसन दिया, श्रीभरत सिर नवाकर बैठ गये, मानो वे भागकर संकोच के गृह में प्रविष्ट होना चाहते थे।

**मुनि पूँछब कछु यह बड़ सोचू। बोले ऋषि लखि शील सकोचू॥ सुनहु भरत हम सब सुधि पाई। बिधि करतब पर कछु न बसाई॥**
भाष्य

श्रीभरत जी के हृदय में यह बहुत–बड़ी चिन्ता है कि, महर्षि भरद्वाज जी मुझ से कुछ पूछेंगे तो मैं क्या उत्तर दूँगा? श्रीभरत के स्वभाव और संकोच को देखकर ऋषि अर्थात्‌ मंत्रद्रष्टा *(ऋषयो मंत्र द्रष्टार:) *भरद्वाज जी बोले, हे भरत! सुनो, हमने अपने त्रिकालज्ञान के आधार पर सब समाचार पा लिया है। ब्रह्मा जी के कृत्य पर किसी का कुछ वश नहीं चलता।

**दो०- तुम गलानि जिय जनि करहु, समुझि मातु करतूति।**

**तात कैकयिहिं दोष नहिं, गई गिरा मति धूति॥२०६॥ भा०– **माता की करतूती अर्थात्‌ कुत्सित करनी समझकर, तुम अपने हृदय में ग्लानि मत करो। बेटे! कैकेयी का कोई दोष नहीं है, सरस्वती जी ही उनकी दासी मंथरा तथा कैकेयी की भी बुद्धि को भ्रष्ट करके चली गईं हैं अर्थात्‌ फेर गईं हैं।

**विशेष– **धूति शब्द कम्पनार्थक धुँये धातु से सिद्ध हुआ जान पड़ता है अर्थात्‌ सरस्वती जी, कैकेयी और मंथरा की बुद्धि को चलायमान करके चली गईं, इसलिए वह श्रीरामप्रेम की निष्ठा पर अडिग न रह सकीं।

यहउ कहत भल कहिहि न कोऊ। लोक बेद बुध सम्मत दोऊ॥ तात तुम्हार बिमल जस गाई। पाइहि लोकहु बेद बड़ाई॥

भाष्य

महर्षि ने फिर कहा, मेरे यह कहते हुए भी अर्थात्‌ कैकेयी के कृत्य को कोई भी भला नहीं कहेगा, क्योंकि लोक और वेद ये दोनो ही विद्वानों द्वारा सम्मत है अर्थात्‌ प्रत्येक व्यक्ति को लोक और वेद दोनों का समन्वय करके ही कार्य करना चाहिये। हे तात! आपके विमल यश को गाकर साधक, लोक और वेद दोनों की दृष्टि से बड़ाई अर्थात्‌ गौरव प्राप्त कर सकेंगे। तात्पर्य यह है कि, कैकेयी जी का कार्य भले ही वेद सम्मत होते हुए भी लोक सम्मत नहीं हो, पर आपका कार्य तो उभयसम्मत है अर्थात्‌ उसकी लोक और वेद दोनों ही दृष्टियों से प्रशंसा हो रही है।

[[४६७]]

लोक बेद सम्मत सब कहई। जेहि पितु देइ राज सो लहई॥ राउ सत्यब्रत तुमहिं बोलाई। देत राज सुख धरम बड़ाई॥

भाष्य

यह पक्ष लोक और वेद दोनों से सम्मत है और सभी कहते हैं कि, जिसे पिता राज्य दें वही राज्य प्राप्त करता है। इसमें बड़े या छोटे का पिता के लिए कोई प्रतिबन्ध नहीं है।

**विशेष– **जैसे नहुष ने बड़े पुत्र को छोड़कर मध्यम पुत्र ययाति को राज्य दिया। तुम्हारे समक्ष वचन देने के कारण सत्यव्रत महाराज दशरथ जी यदि तुम्हारी माता के समक्ष तुम्हें ननिहाल से बुलाकर राज्य दे देते तो उन्हें सुख, धर्म और बड़प्पन तीनों की प्राप्ति हो जाती अर्थात्‌ तुम्हें राज्य देने के लिए श्रीराम को वन भेजने की कोई आवश्यकता नहीं थी।

राम गमन बन अनरथ मूला। जो सुनि सकल बिश्व भा शूला॥ सो भावी बश रानि अयानी। करि कुचालि अंतहुँ पछितानी॥

भाष्य

श्रीराम का वनगमन ही सभी अनर्थों का कारण बन गया, क्योंकि यह किसी भी प्रकार न तो विधिसम्मत है और न ही तर्कसम्मत जिसे सुनकर, सम्पूर्ण विश्व को बहुत दु:ख हुआ। भवितव्यतावश ज्ञान से शून्य रानी कैकेयी भी वह कुचाल कुकृत्य करके अन्त में पछताईं और पछतायेंगी।

**तहँउँ तुम्हार अलप अपराधू। कहै सो अधम अयान असाधू॥ करतेहु राज त तुमहिं न दोषू। रामहिं होत सुनत संतोषू॥**
भाष्य

वहाँ भी जो तुम्हारा थोड़ा भी अपराध कहता है, या कहेगा, वह नीच है, ज्ञानरहित है और असज्जन है अर्थात्‌ दुष्ट है। यदि तुम राज्य करते तो भी तुम्हें कोई दोष नहीं लगता, श्रीराम जी को सुनकर संतोष हो जाता।

**दो०- अब अति कीन्हेउ भरत भल, तुमहिं उचित मत एहु।**

**सकल सुमंगल मूल जग, रघुबर चरन सनेहु॥२०७॥ भा०– **परन्तु हे भरत! अब तो तुमने बहुत अच्छा किया है, जो पाये हुए राज्य को छोड़कर प्रभु श्रीराम के दर्शनों के लिए श्रीचित्रकूट जा रहे हो। तुम्हारे लिए यही मत उचित है, क्योंकि श्रीराम के चरणों में स्नेह, संसार के सभी शुभमंगलों का कारण है।

सो तुम्हार धन जीवन प्राना। भूरिभाग को तुमहिं समाना॥ यह तुम्हार आचरज न ताता। दशरथ सुवन राम प्रिय भ्राता॥

भाष्य

वह अर्थात्‌ श्रीराम के श्रीचरणों का स्नेह, तुम्हारा धन, जीवन और प्राण है। तुम्हारे समान बड़ा भाग्यशाली कौन है? हे तात! यह तुम्हारे लिए आश्चर्य नहीं है, क्योंकि तुम महाराज दशरथ जैसे परम श्रीरामानुरागी के पुत्र हो और शुद्धप्रेम के अनुगामी, परमात्मा श्रीराम के प्रेमास्पद भाई हो।

**सुनहु भरत रघुबर मन माहीं। प्रेम पात्र तुम सम कोउ नाहीं॥ लखन राम सीतहिं अति प्रीती। निशि सब तुमहिं सराहत बीती॥ जाना मरम नहात प्रयागा। मगन होहिं तुम्हरे अनुरागा॥**
भाष्य

हे भरत! सुनो, रघुश्रेष्ठ श्रीराम के मन में तुम्हारे समान कोई भी प्रेम पात्र नहीं है अर्थात्‌ तुम श्रीराम के अद्वितीय प्रेम के पात्र हो। जबकि समस्त संसार श्रीराघव का कृपापात्र है। अपनी वनयात्रा के क्रम में जिस दिन प्रभु श्रीराम मेरे आश्रम में पधारे श्रीलक्ष्मण, राम और सीता जी की वह सम्पूर्ण रात्रि अत्यन्त प्रेमपूर्वक तुम्हारी

[[४६८]]

प्रशंसा करते हुए ही बीत गई। मैंने श्रीप्रयाग में स्नान करते समय प्रभु का मर्म जान लिया। वे उस समय भी मन में तुम्हारे ही अनुराग में मग्न होते रहे। तन से भले ही प्रयाग में डुबकि लगा रहे हों।

**विशेष– **प्रयाग स्नान करते समय जब भरद्वाज जी ने श्रीराम से संकल्प प़ढने के क्रम में भरतखण्डे शब्द का उच्चारण कराया, उस समय प्रभु भरत जी का स्मरण करके, भावविभोर होकर फूट–फूटकर रो पड़े, यही भरद्वाज जी का मर्म जानना है।

तुम पर अस सनेह रघुबर के। सुख जीवन जग जस ज़ड नर के॥ यह न अधिक रघुबीर बड़ाई। प्रनत कुटुंब पाल रघुराई॥ तुम तौ भरत मोर मत एहू। धरे देह जनु राम सनेहू॥

भाष्य

हे भरत! श्रीराम का तुम पर इसी प्रकार का स्नेह है, जैसे ज़डबुद्धि वाले सांसारिक प्राणी को जगत्‌ के सुख और अपने जीवन पर होता है। जिनके कारण सामान्य जीव भी वीर हो जाता है, ऐसे रघुवीर श्रीराम की यह कोई अधिक प्रशंसा नहीं है। रघुकुल के राजा श्रीराम तो शरणागत भक्तसमूहों का पालन करते हैं। अथवा प्रभु प्रणतजन के कुटुम्ब यानी परिवार का भी पालन करते हैं, तुम तो साक्षात्‌ उनके शरणागत्‌ भक्त हो। हे भरत! मेरा तो ऐसा मानना है कि, तुम तो मानो शरीरधारी श्रीरामप्रेम ही हो अर्थात्‌ यदि परब्रह्म परमेश्वर श्रीराम हैं, तो श्रीरामप्रेम भरत अर्थात्‌ तुम हो।

**दो०- तुम कहँ भरत कलंक यह, हम सब कहँ उपदेश।**

राम भगति रस सिद्धि हित, भा यह समय गणेश॥२०८॥

भाष्य

हे भरत! यह श्रीरामवनवास की घटना तुम्हारे लिए कलंक और हम सबके लिए उपदेश है, क्योंकि हम साधु होकर भी छोटी–सी एक कुटिया नहीं छोड़ सकते। यहाँ तो श्रीराम ने तुम्हारे लिए अयोध्या का राज्य छोड़ा और तुमने श्रीराम जी के लिए। वस्तुत: यह लांछन अर्थवाला कलंक नहीं है, प्रत्युत्‌ पारद रस को सिद्ध करनेवाला यह पारद भस्म रूप कलंक है। श्रीरामभक्ति रससिद्धि के लिए यह समय गणेश बन गया है अर्थात्‌ जैसे गणेश जी सम्पूर्ण विघ्नों को नष्ट कर देते हैं, उसी प्रकार यह रामवनवास समय श्रीरामभक्त के रसत्व की सिद्धि में आनेवाले सम्पूर्ण विघ्नों को नष्ट कर रहा है और नष्ट करता रहेगा।

**नव बिधु बिमल तात जस तोरा। रघुबर किंकर कुमुद चकोरा॥ उदित सदा अथइहि कबहूँ ना। घटिहि न जग नभ दिन दिन दूना॥**
भाष्य

हे वत्स! तुम्हारा यश निर्मल, निष्कलंक, नवीन, पूर्णचन्द्रमा है। रघुवर श्रीराम के सेवक ही उसके कुमुद और चकोर हैं अर्थात्‌ जैसे चन्द्रमा को देखकर कुमुद विकसित होता है, उसी प्रकार भगवान्‌ के भक्त तुम्हारे यश सुनकर प्रसन्न होंगे। जैसे चकोर चन्द्रमा की किरणों को पीता है, उसी प्रकार रघुवर श्रीराम के भक्त अपने कानों के दोने से तुम्हारे यश को पीते रहते हैं। तुम्हारा यश, चन्द्रमारूप आकाश में निरन्तर उदित रहेगा। यह दिन–दिन दूना होगा कभी अस्त नहीं होगा।

**कोक त्रिलोक प्रीति अति करिही। प्रभु प्रताप रबि छबिहिं न हरिही॥**

**निशि दिन सुखद सदा सब काहू। ग्रसिहि न कैकयि करतब राहू॥ भा०– **त्रिलोकरूप चकवा इस पर अत्यन्त प्रेम करेंगे। भगवान्‌ श्रीराम का प्रतापरूप सूर्य इसकी छवि अर्थात्‌ सुन्दरता का हरण नहीं करेगा। यह दिन–रात सदैव सभी के लिए सुखदायक रहेगा। कैकेयी का कुकर्मरूप राहु इसे नहीं ग्रसेगा।

[[४६९]]

पूरन राम सुप्रेम पियूषा। गुरु अपमान दोष नहिं दूषा॥ रामभगत अब अमिय अघाहू। कीन्हेहु सुलभ सुधा बसुधाहू॥

भाष्य

यह श्रीराम के प्रेमरूप अमृत से पूर्ण है और आपका यशश्चन्द्र गुरु के अपमान के दोष से दूषित नहीं हुआ। हे श्रीरामभक्तों! अब यह अमृत पी–पीकर तृप्त हो जाओ। भरत जी ने तो पृथ्वी पर भी सुधा अर्थात्‌ श्रीरामप्रेमामृत को सुलभ कर दिया।

**भूप भगीरथ सुरसरि आनी। सुमिरत सकल सुमंगल खानी॥**

**दशरथ गुन गन बरनि न जाहीं। अधिक कहा जेहि सम जग नाहीं॥ भा०– **महाराज भगीरथ जी पृथ्वी पर गंगा जी को ले आये, जो स्मरण मात्र से सम्पूर्ण सुमंगलों की खानि बन गई, परन्तु महाराज दशरथ के तो गुणगन वर्णित नहीं किये जा सकते। उनसे अधिक कौन होगा, जिनके समान भी इस जगत्‌ में और कोई नहीं है?

दो०- जासु सनेह सकोच बश, राम प्रगट भए आइ ।

जे हर हिय नयननि कबहुँ, निरखे नाहिं अघाइ॥२०९॥

भाष्य

जिन महाराज दशरथ जी के स्नेह और संकोच के वश में होकर, वे परब्रह्म परमात्मा भगवान्‌ श्रीराम श्रीअयोध्या आकर प्रकट हुए, जिनको शङ्कर जी अपने हृदय में विराजमान करा कर तीनों नेत्र से निहारते हुए नहीं अघाते। फलत: महाराज दशरथ जी का व्यक्तित्व महाराज भगीरथ से भी बड़ा है।

**कीरति बिधु तुम कीन्ह अनूपा। जहँ बश राम प्रेम मृगरूपा॥ तात गलानि करहु जिय जाए। डरहु दरिद्रहिं पारस पाए॥**
भाष्य

हे भरत! तुमने अनुपम यशरूप चन्द्रमा को प्रकट किया, जहाँ श्रीराम का प्रेम मृगरूप में निवास करता है अर्थात्‌ तुम्हारे यशोरूप चन्द्रमा में जो श्यामता दिख रही है, वह श्रीरामप्रेमरूप कृष्णमृग की श्यामता है। हे तात्‌ भरत! तुम व्यर्थ ही ग्लानि कर रहे हो और पारसमणि को प्राप्त करने पर भी दारिद्र से डर रहे हो।

**सुनहु भरत हम झूठ न कहहीं। उदासीन तापस बन रहहीं॥ सब साधन कर सुफल सुहावा। लखनराम सिय दरशन पावा॥ तेहिं फल कर फल दरस तुम्हारा। सहित प्रयाग सुभाग हमारा॥ भरत धन्य तुम जस जग जयऊ। कहि अस प्रेम मगन मुनि भयऊ॥**
भाष्य

हे भरत! हम तपस्वी, शत्रु–मित्र, हित–अहित, दु:ख–सुख, आदि द्वन्द्वों से उदासीन होकर वन में रहते हैं। अत: झूठ नहीं बोल रहे हैं, सभी साधनों के सुहावने शुभफल के रूप में हमने श्रीलक्ष्मण, राम एवं भगवती सीता जी के दर्शन पाये। श्रीरामदर्शनरूप उस फल का भी फल है तुम्हारा दर्शन। प्रयाग के सहित यह हमारा सौभाग्य है। हे भरत! तुम धन्य हो, तुमने अपने यश से जगत्‌ के यश को जीत लिया। ऐसा कह कर, महर्षि भरद्वाज श्रीरामप्रेम में मग्न हो गये।

__सुनि मुनि बचन सभासद हरषे। साधु सराहि सुमन सुर बरषे॥ धन्य धन्य धुनि गगन प्रयागा। सुनि सुनि भरत मगन अनुरागा॥

भाष्य

मुनि के वचन सुनकर सभी सभासद प्रसन्न हुए। देवताओं ने साधु–साधु शब्द का उच्चारण करके श्रीभरत की सराहना करते हुए पुष्प बरसाये अर्थात्‌ नन्दनवन के पुष्पों की वर्षा किये। आकाश और प्रयाग में धन्य–धन्य की ध्वनि गूंज गई, उसे सुन–सुनकर श्रीभरत जी अनुराग में डूब गये।

[[४७०]]

दो०- पुलक गात हिय राम सिय, सजल सरोरुह नैन।

करि प्रनाम मुनि मंडलिहिं, बोले गदगद बैन॥२१०॥

भाष्य

श्रीभरत के शरीर में रोमांच था, उनके हृदय में श्रीसीताराम जी विराज रहे थे और उनके कमलनेत्र अश्रुपूर्ण थे। मुनि–मण्डली को प्रणाम करके श्रीभरत प्रेम से स्खलित वचन बोले–

**मुनि समाज अरु तीरथराजू। साँचिहुँ शपथ अघाइ अकाजू॥ एहिं थल जौ कछु कहिय बनाई। एहि सम अधिक न अघ अधमाई॥ तुम सर्बग्य कहउँ सतिभाऊ। उर अंतरजामी रघुराऊ॥**
भाष्य

एक ओर मुनियों का समाज और दूसरा तीर्थराज प्रयाग का क्षेत्र, यहाँ सत्य का शपथ करने पर भी व्यक्ति अकाज अर्थात्‌ बहुत–बड़ी हानि से अघा जाता है, अर्थात्‌ तृप्त हो जाता है। तात्पर्य यह है कि, इतने पवित्र स्थल पर सत्य की शपथ भी बहुत–बड़ी हानि कर सकती है, तो असत्य का प्रश्न ही नहीं है। इस स्थल पर यदि कुछ बनाकर कहा जाये, तो इससे अधिक न तो पाप होगा और न ही कोई नीचता। आप अर्थात्‌ भरद्वाज सर्वज्ञ हैं, सब कुछ जानते हैं, और भगवान्‌ श्रीराम हृदय के अन्तर्यामी हैं। अत: मैं अपना सत्यभाव कह रहा हूँ।

**मोहि न मातु करतब कर सोचू। नहिं दुख जिय जग जानिह पोचू॥ नाहिन डर बिगरिहिं परलोकू। पितहु मरन कर मोहि न शोकू॥ सुकृत सुजस भरि भुवन सुहाए। लछिमन राम सरिस सुत पाए॥ राम बिरह तजि तनु छनभंगू। भूप सोच कर कवन प्रसंगू॥**
भाष्य

मुझे कैकेयी माता के किये कुकृत्य का शोक नहीं है और मुझे हृदय में यह भी दु:ख नहीं है कि, संसार मुझे बुरा समझेगा, परलोक नष्ट हो जायेगा इसका भी डर नहीं है। मुझे पिताश्री के मरण का भी शोक नहीं है, उनके तो सुहावने सत्कर्म और सुन्दर यश से सभी भुवन भर रहे हैं। उन्होंने लक्ष्मण और श्रीराम जैसे सुयोग्य पुत्रों को प्राप्त किया और श्रीराम के वियोग में क्षणभंगुर शरीर छोड़ा, महाराज के शोक का कोई प्रसंग ही नहीं है।

**राम लखन सिय बिनु पग पनहीं। करि मुनि बेष फिरहिं बन बनहीं॥**

दो०- अजिन बसन फल अशन महि, शयन डासि कुश पात।

बसि तरु तर नित सहत हिम, आतप बरषा बात॥२११॥

भाष्य

श्रीराम, लक्ष्मण, सीता जी बिना पनही वाले चरणों से मुनिवेश धारण करके वन–वन में भटकते फिर रहे हैं, मृगचर्म पहनकर, फल का भोजन करके, कुश और पत्ते को बिछाकर, पृथ्वी पर शयन करके, वृक्ष के नीचे निवास करते हुए, निरन्तर शीत, धूप, वर्षा और वायु को सहन कर रहे हैं।

**एहि दुख दाह दहइ दिन छाती। भूख न बासर नींद न राती॥ एहि कुरोग कर औषध नाहीं। सोधेउँ सकल बिश्व मन माहीं॥**
भाष्य

इसी दु:ख और जलन से मेरी छाती दिन–दिन जली जा रही है। दिन में भूख नहीं लगती और रात में नींद नहीं आती। मैंने सम्पूर्ण विश्व में और अपने मन में भी ढूं़ढ लिया, मेरे इस कुरोग की कहीं भी औषधि नहीं है।

**मातु कुमत ब़ढई अघ मूला। तेहिं हमार हित कीन्ह बसूला॥ कलि कुकाठ कर कीन्ह कुजंत्रू। गाविड़ अध पढि़ कठिन कुमंत्रू॥**

[[४७१]]

मोहि लगि यह कुठाट तेहिं ठाटा। घालेसि सब जग बारह बाटा॥ मिटइ कुजोग राम फिरि आए। बसइ अवध नहिं आन उपाए॥

भाष्य

माँ कैकेयी का कुमत अर्थात्‌ बुरा विचार ही सभी पापों का मूल ब़ढई (लक़डी की वस्तु बनानेवाला) है। उसने मेरे हित को ही वसूला अर्थात्‌ लक़डी काटनेवाला एक शस्त्र बनाया और कलहरूप अशुभ लक़डी का उसने अभिचारात्मक यन्त्र बनाया, कठिन कुत्सित मंत्र प़ढकर अयोध्या में उसे गाड़ दिया। मेरे लिए उसने (कैकेयी ने) यह बुरा साज बनाया और सारे संसार को बारह मार्गों में बाँटकर उसे नय् कर दिया। यह कुयोग श्रीराम के अवध लौट आने से ही नय् होगा नहीं तो और किसी दूसरे उपाय से श्रीअवध में ही निवास करेगा।

**विशेष– **इस रुपक में पूर्वी उत्तर प्रदेश में प्रचलित ग्रामीण अभिसारात्मक प्रयोग का संकेत है। ब़ढई से बहेरे अथवा, भिलावे की लक़डी को काट कर, ग़ढकर एक पुतला बनवाया जाता है और कुछ भयंकर मंत्र प़ढकर उसे अपनी शत्रुता के लक्ष्य व्यक्ति के घर के पास रात में ही गाड़ दिया जाता है। जिसके घर के पास यह गाड़ा जाता है, उसका प्राय: सर्वनाश होकर ही रहता है। उसी रुपक से श्रीभरत अपनी बात स्पष्ट कर रहे हैं कि, माता कैकेयी का कुमंत्र पाप का मूल ब़ढई है, उसने मेरे हित को ही वसूला अर्थात्‌ कुल्हाड़ी की ही जाति का एक शस्त्र बनाया, उसी से कलहरूप बहेरे या भिलावे की लक़डी को ग़ढकर पुतला अथवा, तेल पेरने वाला कोल्हु का भयंकर यंत्र बनाया और विरोध अथवा, श्रीरामवनगमन प्रस्थानरूप कठोर और बुरा मंत्र प़ढकर चौदह वर्षों के लिए अयोध्या में गाड़ दिया। मेरे लिए कैकेयी ने ऐसा कुप्रबंध किया और सारे जगत को बारह मार्गों में विभक्त कर दिया।

भरत बचन सुनि मुनि सुख पाई। सबहि कीन्हि बहु भाँति बड़ाई॥ तात करहु जनि सोच बिशेषी। सब दुख मिटिहिं राम पग देखी॥

भाष्य

श्रीभरत का वचन सुनकर, भरद्वाज मुनि ने सुख पाया अर्थात्‌ श्रीभरत की राज्य के प्रति निष्क्रियता और श्रीराम के प्रति अखण्ड भक्ति से उन्हें सुख मिला। सभी ने बहुत प्रकार से श्रीभरत की प्रशंसा की। महर्षि भरद्वाज ने कहा, वत्स! भरत बहुत शोक मत करो। श्रीराम के श्रीचरणों को देखकर सभी दु:ख मिट जायेंगे।

**दो०- करि प्रबोध मनिुवर कहेउ, अतिथि प्रेमप्रिय होहु।**

**कंद मूल फल फूल हम, देहिं लेहु करि छोहु॥२१२॥ भा०– **श्रीभरत को समझाकर मुनिश्रेष्ठ भरद्वाज जी ने कहा, हे प्रेमप्रिय अर्थात्‌ श्रीरामप्रेम ही जिन्हें प्रिय है, ऐसे भरत! आज तुम हमारे अतिथि बन जाओ। हम तुम्हें कन्द, मूल, फल और फूल दे रहे हैं। हम पर ममता और आत्मीयता करके उन्हें स्वीकार करो।

सुनि मुनि बचन भरत हिय सोचू। भयउ कुअवसर कठिन सँकोचू॥ जानि गरुइ गुरु गिरा बहोरी। चरन बंदि बोले कर जोरी॥

**सिर धरि आयसु करिय तुम्हारा। परम धरम यह नाथ हमारा॥ भा०– **मुनि के वचन सुनकर, श्रीभरत के हृदय में चिन्ता होने लगी, यह तो कुसमय में कठिन संकोच हो गया अर्थात्‌ श्रीराम के दर्शनों के बिना कन्द, मूल स्वीकार करना मेरे लिए उचित नहीं है। फिर गुरुतुल्य भरद्वाज जी की वाणी को गरुइ अर्थात्‌ अनुलंघनीय जानकर, उनके चरणों की वन्दना करके श्रीभरत हाथ जोड़कर बोले, हे नाथ! आप की आज्ञा को सिर पर धारण करके हम पालन करें यह हमारा परमधर्म है।

[[४७२]]

भरत बचन मुनिवर मन भाए। शुचि सेवक तब निकट बोलाए॥ चाहिय कीन्ह भरत पहुनाई। कंद मूल फल आनहु जाई॥

भाष्य

भरत जी के वचन भरद्वाज मुनि के मन को भाये, फिर उन्होंने पवित्र सेवकों को निकट बुला लिया। भरत जी का आतिथ्य करना चाहिये अर्थात्‌ मैं श्रीभरत की पहुनाई करना चाहता हूँ। तुम लोग जाकर कन्द, मूल, फल ले आओ।

**भलेहिं नाथ कहि तिन सिर नाए। प्रमुदित निज निज काज सिधाए॥ मुनिहिं सोच पाहुन बड़ नेवता। तसि पूजा चाहिय जस देवता॥ सुनि ऋधि सिधि अनिमादिक आईं। आयसु होइ सो करहिं गोसाईं॥**
भाष्य

“ठीक है स्वामी” ऐसा कहकर सेवकों ने महर्षि को प्रणाम किया और प्रसन्न मन से अपने–अपने कार्य के लिए वन को चले गये। इधर भरद्वाज मुनि के मन में चिन्ता हुई कि, मैंने बहुत–बड़े अतिथि को आमंत्रित कर लिया। जैसा देवता हो उसकी वैसी पूजा होनी चाहिये अर्थात्‌ श्रीभरत राजकुमार हैं, तो उनकी राजकीय पहुनाई होनी चाहिये। भरद्वाज जी का मानसिक संकल्प सुनकर अणिमादिक सिद्धियाँ और महापदम आदि ऋद्धियाँ भरद्वाज जी के पास आईं और बोलीं, स्वामी! आप की जो आज्ञा हो हम वही करें।

**दो०- राम बिरह ब्याकुल भरत, सानुज सहित समाज।**

पहुनाई करि हरहु श्रम, कहा मुदित मुनिराज॥२१३॥

भाष्य

भरद्वाज जी ने प्रसन्न होकर कहा कि, छोटे भाई और अन्य राजसमाज सहित श्रीभरत, श्रीराम के वियोग में व्याकुल हैं। अतिथि सत्कार करके, उनका श्रम हर लो अर्थात्‌ उन्हें सुखी कर दो, यही हमारी आज्ञा है।

**ऋधि सिधि सिर धरि मुनिवर बानी। बड़भागिनि आपुहिं अनुमानी॥**

**कहहिं परसपर सिधि समुदाई। अतुलित अतिथि राम लघु भाई॥ भा०– **ऋद्धियाँ और सिद्धियाँ मुनि भरद्वाज की आज्ञा को शिराधार्य करके स्वयं को परमसौभाग्यशालिनी समझीं। सभी ऋद्धि–सिद्धियाँ परस्पर विचार करती हुईं कहने लगीं कि, भगवान्‌ श्रीराम के छोटे भाई श्रीभरत अतुलनीय अतिथि हैं।

मुनि पद बंदि करिय सोइ काजू। होइ सुखी सब राज समाजू॥

**अस कहि रचेउ रुचिर गृह नाना। जेहि बिलोकि बिलखाहिं बिमाना॥ भा०– **भरद्वाज मुनि के चरणों की वन्दना करके आज हम वही करें जिससे सम्पूर्ण राजसमाज सुखी हो जाये। ऐसा कह कर, सिद्धियों ने अनेक सुन्दर भवन बनाये, जिन्हें देखकर देवताओं के विमान भी बिलखने लगे।

भोग बिभूति भूरि भरि राखे। देखत जिनहिं अमर अभिलाषे॥ दासी दास साज सब लीन्हे। जोगवत रहहिं मनहि मन दीन्हे॥

भाष्य

उन भवनों में सिद्धियों ने अनेक भोगों और विभूतियों को भर–भरकर रखा, जिन्हें देखते हुए देवता भी उन्हें प्राप्त करने के लिए इच्छुक हो जाते थे। वे अपने साथ दासियों और दासों को भी लिए थीं, जो मन की इच्छा को देखते रहते और सबको मन के अनुकूल वस्तुयें दे दिया करते थे।

**सब समाज सजि सिधि पल माहीं। जे सुख सुरपुर सपनेहुँ नाहीं॥ प्रथमहिं बास दिए सब केही। सुंदर सुखद जथा रुचि जेही॥**

[[४७३]]

भाष्य

जो सुख देवलोक में स्वप्न में भी उपलब्ध नहीं होते ऐसे सुखों के सम्पूर्ण समाज को एक क्षण में सजाकर सिद्धियों ने सर्वप्रथम सब को निवास स्थान दिया जो सुन्दर और सुखद थे। जिसको जैसी रुचि थी, उसको उसी प्रकार का निवास दिया गया।

**दो०- बहुरि सपरिजन भरत कहँ, ऋषि अस आयसु दीन्ह।**

**बिधि बिसमय दायक बिभव, मुनिवर तपबल कीन्ह॥२१४॥ भा०– **फिर परिजनों सहित भरत जी को ऋषि भरद्वाज ने इसी प्रकार की आज्ञा दी कि, तुम राजोचित्‌ आतिथ्य स्वीकार करो। भरद्वाज मुनि ने अपनी तपस्या के बल से ब्रह्मा जी को भी विस्मय देने वाले वैभव की रचना कर दी।

मुनि प्रभाव जब भरत बिलोका। सब लघु लगे लोकपति लोका॥ सुख समाज नहिं जाइ बखानी। देखत बिरति बिसारहिं ग्यानी॥

भाष्य

जब श्रीभरत ने भरद्वाज मुनि का प्रभाव देखा, तब उन्हें सभी लोक और लोकपाल छोटे लगे। वहाँ के सुख के समाज का वर्णन नहीं किया जा सकता, जिसे देखकर ज्ञानी लोग भी अपना वैराग्य भूल रहे थे।

**आसन शयन सुबसन बिताना। बन बाटिका बिहग मृग नाना॥ सुरभि फूल फल अमिय समाना। बिमल जलाशय बिबिध बिधाना॥ अशन पान शुचि अमिय अमी से। देखि लोग सकुचात जमी से॥ सुर सुरभी सुरतरु सबही के। लखि अभिलाष सुरेश शची के॥**
भाष्य

वहाँ सुन्दर आसन, शैय्या, तम्बू, वन और वाटिकायें अनेक प्रकार के पक्षी और मृग, सुगन्धित पुष्प तथा अमृत के समान फल, अनेक प्रकार के निर्मल जलाशय, अमृत के समान पवित्र भोजन और पेय पदार्थ, जिन्हें देखकर लोग संयमी के समान सकुचा रहे थे अर्थात्‌ वस्तुओं का उपयोग तो हो जाता था, पर संयम उन्हें मना कर देता था। सब के पास कामधेनु और कल्पवृक्ष थे। जिन्हें देखकर इन्द्र और शची को भी पाने की इच्छा हो जाती थी।

**ऋतु बसंत बह त्रिबिध बयारी। सब कहँ सुलभ पदारथ चारी॥ स्रक चंदन बनितादिक भोगा। देखि हरष बिसमय बश लोगा॥**
भाष्य

वहाँ वसन्त–काल था, तीनों प्रकार की शीतल, मन्द, सुगन्ध वायु बह रहा था। सब के लिए चारों पदार्थ (अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष) सुलभ थे। वहाँ माला–चन्दन और स्त्री आदि तथा अन्य भोग–पदार्थ भी थे, जिन्हें देखकर लोग प्रसन्न भी थे और विस्मित भी।

**दो०- संपति चकई भरत चक, मुनि आयसु खेलवार।**

तेहि निशि आश्रम पिंजरा, राखे भा भिनुसार॥२१५॥

भाष्य

मुनि के आदेशरूप खिलाड़ी ने उस रात आश्रम रूप पिंज़डे में सम्पत्तिरूप चकवी और श्रीभरतरूप चकवे को रख दिया और चकवे की अनासक्ति में ही सवेरा हो गया।

**विशेष– **जनश्रुति के अनुसार एक कौतुकी बालक ने एक दिन चकवी और चकवे को दिन में एक साथ पिंज़डे में बन्द कर दिया। कदाचित्‌ उसके मन में यह धारणा थी कि, आज की रात में चकवी और चकवे एक ही पिंज़डे में रहते हुए एक–दूसरे से कैसे बिछुड़ सकेंगे? संयोग से सायंकाल उसी ने चकवे दम्पति के जलपानार्थ जल भरा एक कटोरा पिंज़डे में रख दिया और रात्रि में वही दोनों के वियोग का कारण बना। कटोरे के इस पार चकवा

[[४७४]]

और उस पार चकवी, दोनों ही कटोरे को नहीं लांघ पाये यही परिस्थिति बनी भरत जी और भरद्वाज जी के बीच। कदाचित्‌ भरद्वाज जी ने आश्रमरूप पिंज़डे में भरत जी और सम्पत्ति का समागम कराना चाहा, पर चकवे दंपति के समान श्रीरामप्रेम के कटोरे ने ऐसा नहीं होने दिया।

कीन्ह निमज्जन तीरथराजा। नाइ मुनिहिं सिर सहित समाजा॥ ऋषि आयसु आशिष सिर राखी। करि दंडवत बिनय बहु भाषी॥ पथ गति कुशल साथ सब लीन्हें। चले चित्रकूटहिं चित दीन्हें॥

भाष्य

समाज के सहित श्रीभरत ने तीर्थराज प्रयाग में सशिरष्क स्नान किया। मुनि भरद्वाज जी को सिर नवाकर तथा ऋषि की आज्ञा और आशीर्वाद को शिरोधार्य करके और वाणी से बहुत से विनयपूर्ण वचन बोलकर, मार्ग के ज्ञान में कुशल सभी मार्गदर्शकों को साथ लिए हुए, श्रीचित्रकूट में अपना चित्त लगाकर, श्रीभरत जी चल पड़े।

**रामसखा कर दीन्हें लागू। चलत देह धरि जनु अनुरागू॥ नहिं पद त्रान शीष नहिं छाया। प्रेम नेम ब्रत धरम अमाया॥ लखन राम सिय पंथ कहानी। पूँछत सखहिं कहत मृदु बानी॥ राम बास थल बिटप बिलोके। उर अनुराग रहत नहिं रोके॥**
भाष्य

श्रीराम के सखा निषाद के हाथ को सहारा दिये हुए अर्थात्‌ अपने स्कन्ध पर रखे हुए श्रीभरत ऐसे चल रहे हैं, मानो अनुराग शरीर धारण करके चल रहा हो। श्रीभरत के चरणों मे न ही पनहीं है और न ही उनके सिर पर कोई छाया है। श्रीभरत का प्रेम, नियम, व्रत और धर्म–अमाया अर्थात्‌ छल–प्रपंच से रहित है। श्रीलक्ष्मण, राम और भगवती सीता जी की वनमार्ग की कथा मित्र निषादराज से पूछ रहे हैं और वे (निषादराज) कोमल वाणी में कह रहे हैं। श्रीराम के वास के स्थान वाले वृक्षों को देखकर, श्रीभरत के हृदय में अनुराग रोकने से भी नहीं रुक रहा है।

**देखि दशा सुर बरषहिं फूला। भइ मृदु महि मग मंगल मूला॥**
भाष्य

भरत जी की दशा देखकर देवता पुष्पवृष्टि कर रहे हैं। पृथ्वी कोमल हो गई है और मार्ग मंगलों का आश्रय अर्थात्‌ कारण और जन्मदाता बन गया है।

**दो०- किए जाहिं छाया जलद, सुखद बहइ बर बात।**

**तस मग भयउ न राम कहँ, जस भा भरतहिं जात॥२१६॥ भा०– **जल–वर्षा करने वाले बादल छाया किये जा रहे हैं और सुख देने वाला श्रेष्ठ वायु बह रहा है। उस प्रकार का मार्ग श्रीराम के लिए भी नहीं हुआ था, जैसा श्रीभरत के श्रीचित्रकूट जाते समय हो गया।

ज़ड चेतन मग जीव घनेरे। जे चितए प्रभु जिन प्रभु हेरे॥ ते सब भए परम पद जोगू। भरत दरस मेटा भव रोगू॥ यह बबिड़ ात भरत कइ नाहीं। सुमिरत जिनहिं राम मन माहीं॥ बारक राम कहत जग जेऊ। होत तरन तारन नर तेऊ॥ भरत राम प्रिय पुनि लघु भ्राता। कस न होइ मग मंगलदाता॥ सिद्ध साधु मुनिवर अस कहहीं। भरतहिं निरखि हरष हिय लहहीं॥

भाष्य

मार्ग के अनेक ज़ड और चेतन जीवों में, जिन्होंने प्रभु श्रीराम को देखा अर्थात्‌ सद्‌भाव से दर्शन किये तथा जिनको प्रभु श्रीराम ने निहार लिया, वे दोनों प्रकार के सभी जीव परमपद के योग्य हो गये अर्थात्‌ उनमें श्रीराम के दर्शन करने तथा श्रीराम के दृश्य बनने से परमपद अर्थात्‌ साकेत लोक प्राप्त करने की योग्यता आ

[[४७५]]

गई, जो उनके प्रारब्ध शरीर क्षय होने पर सम्भव थी, परन्तु श्रीभरत के दर्शनों ने तो उन सबको भवरोग अर्थात्‌ संसार के बन्धनरूप प्रारब्धमय शरीर के रोगों से दूर कर दिया और वे सब तुरन्त ही अपने भवरूप शरीर को छोड़-छोड़कर सद्‌योमुक्ति प्राप्त कर साकेत लोक को चले गये। श्रीभरत के लिए यह कोई बड़ी बात नहीं है, जिनको श्रीराम अपने मन में स्मरण करते रहते हैं। संसार के जो भी लोग एक बार भी श्रीराम कह लेते हैं, वे स्वयं संसार–सागर से पार हो जाते हैं और दूसरों को भी पार कर देते हैं। श्रीभरत तो प्रभु श्रीराम के प्रिय और फिर प्रभु के छोटे भ्राता हैं, तो उनके लिए वन–मार्ग मंगल देने वाला क्यों न हो? सिद्ध, साधु और श्रेष्ठ मुनि इस प्रकार कह रहे हैं तथा श्रीभरत को देखकर हृदय में हर्ष प्राप्त कर रहे हैं।

देखि प्रभाव सुरेशहिं सोचू। जग भल भलेहि पोच कहँ पोचू॥ गुरु सन कहेउ करिय प्रभु सोई। रामहिं भरतहिं भेंट न होई॥

भाष्य

श्रीभरत का प्रभाव देखकर देवराज इन्द्र को चिन्ता होने लगी, क्योंकि संसार भले के लिए भला और बुरे के लिए बुरा है अर्थात्‌ दोष दृष्टि का है सृष्टि का नहीं। इन्द्र ने अपने गुरु बृहस्पति जी से कहा, हे प्रभु! वही किया जाये, जिससे श्रीराम की श्रीभरत से भेंट न हो।

**दो०- राम सँकोची प्रेम बश, भरत सप्रेम पयोधि।**

**बनी बात बिगरन चहति, करिय जतन छल सोधि॥२१७॥ भा०– **श्रीराम प्रेम के विवश और स्वभाव से संकोची हैं। श्रीभरत सुष्ठु प्रेम के सागर हैं, बनी हुई बात बिग़डना चाहती है, छल ढू़ढकर उसी के आधार पर यत्न किया जाये।

बचन सुनत सुरगुरु मुसुकाने। सहसनयन बिनु लोचन जाने॥ कह गुरु बादि छोभ छल छाँड़ू। इहाँ कपट करि होइहिं भाँडू॥

भाष्य

इन्द्र के वचन सुनते ही देवगुरु बृहस्पति जी मुस्कुराये और सहस्रनेत्रों वाले होने पर भी इन्द्र को बिना नेत्र के अर्थात्‌ दृष्टिहीन जाना। बृहस्पति जी ने कहा, हे इन्द्र! व्यर्थ का दु:ख और छल छोड़ दो, यहाँ अर्थात्‌ इस अवसर पर जब श्रीभरत, श्रीराघवेन्द्र सरकार से मिलने जा रहे हैं, कपट करके भण्डाफोड़ हो जायेगा अर्थात्‌ तुम्हारी सारी कुचाल लोगों के सामने उजागर हो जायेगी।

**मायापति सेवक सन माया। करिय त उलटि परइ सुरराया॥ तब कछु कीन्ह राम रुख जानी। अब कुचालि करि होइहि हानी॥**
भाष्य

हे देवताओं के राजा इन्द्र! यदि माया के पति श्रीराम के सेवकों से माया की जाती है, तो वह उलट पड़ती है अर्थात्‌ करने वाले के ऊपर ही अपना प्रभाव दिखाती है। तब (श्रीराम वनगमन के समय) श्रीराम का रुख अर्थात्‌ प्रभु की इच्छा और संकेत जानकर ही हम लोगों ने कुछ किया था अर्थात्‌ सरस्वती जी से प्रार्थना करके मंथरा और कैकेयी की बुद्धि फेरने के लिए विवश किया था। पुन: देवमाया का प्रयोग करके कैकेयी को मंथरा के प्रति विश्वस्त कराया था। फिर तमसा–तट पर आये हुए अवधवासियों को देवमाया के प्रयोग से घोरनिद्रा में मग्न कर दिया था। परन्तु इस समय कुछ भी कुचाल करने पर हम सब देव परिवार की ही हानि होगी, क्योंकि अभी श्रीराम स्वयं श्रीभरत से मिलने के लिए बहुत ही इच्छुक और उत्कण्ठित हैं।

**सुनु सुरेश रघुनाथ सुभाऊ। निज अपराध रिसाहिं न काऊ॥ जो अपराध भगत कर करई। राम रोष पावक सो जरई॥**
भाष्य

हे देवों के राजा इन्द्र! श्रीरघुनाथ का स्वभाव सुनो, वे अपने अपराध पर कभी भी रुष्ट नहीं होते, परन्तु जो प्रभु श्रीराम के भक्त का अपराध करता है, वह भगवान्‌ श्रीराम के क्रोधाग्नि में जल जाता है।

[[४७६]]

लोकहु बेद बिदित इतिहासा। यह महिमा जानहिं दुरबासा॥ भरत सरिस को राम सनेही। जग जप राम राम जप जेही॥

भाष्य

यह इतिहास लोक और वेदों में विदित है अर्थात्‌ वेद से अुनमोदित सभी पुराण इसकी चर्चा कर चुके हैं। यह महिमा दुर्वासा ऋषि जानते हैं कि, अम्बरीश का अपराध करने पर उन्हें क्या भोगना पड़ा था। श्रीभरत के समान प्रभु श्रीराम का स्नेह–भाजन कौन हो सकता है? सम्पूर्ण संसार श्रीराम का (राम–राम) जप करता है और श्रीराम स्वयं जिन्हें (भरत–भरत) जपते हैं।

**दो०- मनहुँ न आनिय अमरपति, रघुबर भगत अकाज।**

अजस लोक परलोक दुख, दिन दिन शोक समाज॥२१८॥

भाष्य

हे देवताओं के स्वामी इन्द्र! श्रीराम और श्रीभरत के मिलनरूप कार्य में व्यवधान की बात अथवा, रघुकुल में श्रेष्ठ श्रीभरत के श्रीराम दर्शनरूप कर्म में व्र्कावट का उपाय मन में भी मत ले आना अर्थात्‌ मन में भी मत सोचना, करने की बात तो बहुत दूर है। अन्यथा लोक में अपयश हो जायेगा, परलोक में दु:ख होगा और दिन–दिन अर्थात्‌ सदैव शोक का समूह उपस्थित रहेगा।

**सुनु सुरेश उपदेश हमारा। रामहिं सेवक परम पियारा॥ मानत सुख सेवक सेवकाई। सेवक बैर बैर अधिकाई॥**
भाष्य

हे देवताओं के राजा इन्द्र! हमारा (देवगुरु बुहस्पति का) उपदेश सुनो, भगवान्‌ श्रीराम को सेवक परम– प्रिय होते हैं। वे (प्रभु श्रीराम) अपनी सेवक की सेवा से सुख मानते हैं अर्थात्‌ प्रसन्न होते हैं और सेवक के वैर से वे अधिक वैर मान लेते हैं।

**जद्दपि सम नहिं राग न रोषू। गहहिं न पाप पुन्य गुन दोषू॥**

**करम प्रधान बिश्व करि राखा। जो जस करइ सो तस फल चाखा॥ भा०– **यद्दपि भगवान्‌ श्रीराम सम हैं, वे राग–रोष, पाप–पुण्य, गुण–दोष कुछ भी नहीं स्वीकारते। उन्होंने इस संसार को कर्मप्रधान करके रखा है अर्थात्‌ प्रभु श्रीराम ने जीवों के शुभ–अशुभ कर्मफलों के भोगरूप में ही इस संसार की सृष्टि की है। यहाँ जो जैसा करता है, वह उसी प्रकार का फल भोगता है अर्थात्‌ संसार के प्रति भगवान्‌ श्रीराम की भूमिका एक चतुर माता की है, जैसे चतुर माता पुत्रों के कमाये हुए धन के अनुसार उन्हें वस्तु का वितरण करती है अर्थात्‌ कमाई के अनुपात में ही उन्हें उपकरण देती है, उसी प्रकार भगवान्‌ जीव के कर्मों के ही अनुपात में उसके फल–योग की व्यवस्था करते हैं।

तदपि करहिं सम बिषम बिहारा। भगत अभगत हृदय अनुसारा॥ अगुन अलेप अमान एकरस। राम सगुन भए भगत प्रेम बस॥

भाष्य

फिर भी भक्ति के क्षेत्र में भगवान्‌ इस नियम का पालन नहीं करते। यहाँ भक्त और अभक्त के हृदय अर्थात्‌ हृदय में रहनेवाले भाव के अनुसार सम होते हुए भी भगवान्‌ विषम व्यवहार करते हैं अर्थात्‌ कुकर्म करने पर भी, अपने विशेषाधिकार से भक्त के अशुभ फलों को समाप्त कर देते हैं। उसके हृदय की भावना देखकर अशुभ कृत्यों की ओर ध्यान नहीं देते। भक्तों के प्रेम के वश में होने के कारण ही अगुण अर्थात्‌ हेय गुणों से रहित और सभी गुणों को अपने में अन्तरलीन करके भी, कर्मफल के लेप से दूर रहकर भी, मानरहित होने पर भी, सदैव एकमात्र रसस्वरूप होकर भी, श्रीराम सगुण अर्थात्‌ दिव्य कल्याण–गुणगणों के साथ प्रकट हुए हैं।

[[४७७]]

राम सदा सेवक रुचि राखी। बेद पुरान साधु सुर साखी॥ अस जिय जानि तजहु कुटिलाई। करहु भरत पद प्रीति सुहाई॥

भाष्य

श्रीराम ने सदैव अपने सेवकों की रुचि ही रखी है। इसके वेद और उससे अनुमोदित पुराण तथा वेद, पुराणों से सम्मत सन्त और देवता भी साक्षी हैं। हे इन्द्र! हृदय में ऐसा जानकर अपनी कुटिलता छोड़ दो और श्रीभरत के चरणों में सुहावनी अर्थात्‌ निर्दोष प्रीति (प्रेम) करो।

**दो०- राम भगत परहित निरत, पर दुख दुखी दयाल।**

भगत शिरोमनि भरत ते, जनि डरपहु सुरपाल॥२१९॥

भाष्य

हे इन्द्र! श्रीराम के भक्त, परोपकार में लगे हुए, दूसरों के दु:ख में दु:खी हो जानेवाले, दयालु और भक्तों के शिरोमणि श्रीभरत से निरर्थक मत डरो।

**सत्यसंध प्रभु सुर हितकारी। भरत राम आयसु अनुसारी॥ स्वारथ बिबश बिकल तुम होहू। भरत दोष नहिं राउर मोहू॥**
भाष्य

प्रभु श्रीराम सत्यसंध अर्थात्‌ सत्य प्रतिज्ञावाले तथा देवों के हितकारी हैं और श्रीभरत, श्रीराम की आज्ञा का अनुसरण करने वाले हैं। तात्पर्य यह है कि, जब श्रीराम, पिताश्री के समक्ष वनगमन की प्रतिज्ञा कर चुके हैं अर्थात्‌ चौदह वर्षपर्यन्त वन में रहने और इस अवधि के बीच ग्राम, नगर तथा पुर न लौटने की प्रतिज्ञा कर चुके हैं, तो फिर क्या वे अपनी प्रतिज्ञा से मुकरेंगे? श्रीभरत, श्रीराम के आज्ञापालक हैं, तो क्या वे प्रभु की आज्ञा का उल्लंघन करेंगे? निष्कर्षत: श्रीराम चौदह वर्ष पर्यन्त वन में प्रवास कर, रावण का वध कर, देवताओं को सुखी करेंगे और श्रीभरत प्रभु की आज्ञा मानकर श्रीअवध लौट जायेंगे। तुम स्वार्थ के विवश होकर व्याकुल हो रहे हो। श्रीरामदर्शन के लिए श्रीचित्रकूट जाना श्रीभरत का दोष नहीं है। यह आपका मोह ही है, जो इस पवित्र प्रकरण को भी दोष–दृष्टि से भाषित करा रहा है।

**सुनि सुरवर सुरगुरु बर बानी। भा प्रबोध मन मिटी गलानी॥ बरषि प्रसून हरषि सुरराऊ। लगे सराहन भरत सुभाऊ॥**
भाष्य

देवगुरु बृहस्पति की श्रेष्ठवाणी सुनकर, देवश्रेष्ठ इन्द्र के मन में प्रबोध अर्थात्‌ ज्ञान हो गया मन की ग्लानि मिट गई। प्रसन्न होकर, पुष्पों की वर्षा करके, देवराज इन्द्र भरत जी के स्वभाव की सराहना करने लगे।

**विशेष– **प्रायश: बहुत से स्थानों पर गोस्वामी जी की दृष्टि में निन्दा का पात्र होकर भी इन्द्र इसलिए प्रसन्नता के पात्र बने, क्योंकि इन्होंने देवगुरु से श्रीभगवान्‌ की महिमा सुनी, इसलिए गोस्वामी जी ने इस प्रसंग में उन्हें सुरवर कहा।

एहि बिधि भरत चले मग जाहीं। दशा देखि मुनि सिद्ध सिहाहीं॥ जबहि राम कहि लेहिं उसासा। उमगत प्रेम मनहुँ चहुँ पासा॥

भाष्य

इस प्रकार श्रीभरत, श्रीचित्रकूट के मार्ग में चले जा रहे हैं। उनकी दशा देखकर मुनि और सन्त ईर्ष्या के साथ उनकी प्रशंसा करते हैं। (मुनि और सन्त सोचते हैं कि, हाय! श्रीभरत के समान श्रीराम का प्रेमी कोई नहीं हो सकता।) जब श्रीभरत, “श्रीराम” कहकर ऊँची श्वास लेते हैं, तब मानो उनके हृदय का प्रेम चारों ओर उमड़ पड़ता है।

**द्रवहि बचन सुनि कुलिश पषाना। पुरजन प्रेम न जाइ बखाना॥ बीच बास करि जमुनहिं आए। निरखि नीर लोचन जल छाए॥**

[[४७८]]

भाष्य

श्रीभरत के वचन सुनकर उनके दर्शनों के लिए आये हुए इन्द्र के आयुध वज्र तथा वनमार्ग के पत्थर भी पिघल जा रहे हैं और पुरजनों का प्रेम तो कहा ही नहीं जा सकता। बीच में निवास करके श्रीभरत यमुना जी के पास आ गये। यमुना जी का नीला जल देखकर श्रीभरत के नेत्र जल से पूर्ण हो गये।

**दो०- रघुबर बरन बिलोकि बर, बारि समेत समाज।**

होत मगन बारिधि बिरह, च़ढे बिबेक जहाज॥२२०॥

भाष्य

श्रीराम के समान नीले वर्णवाले यमुना जी के जल को देखकर सम्पूर्ण समाज के साथ श्रीभरत विवेक जहाज पर च़ढकर भी श्रीराम के विरह–सागर में डूबने लगे।

**जमुन तीर तेहिं दिन करि बासू। भयउ समय सम सबहिं सुपासू॥ रातिहिं घाट घाट की तरनी। आईं अगनित जाहिं न बरनी॥**
भाष्य

उस दिन श्रीयमुना जी के तट पर निवास किया। सब की समय के अनुकूल व्यवस्था हुई। रात में ही अनेक घाटों की अगणित नौकायें आ गईं, जिनका वर्णन नहीं किया जा सकता।

**प्रात पार भए एकहि खेवा। तोषे रामसखा की सेवा॥ चले नहाइ नदिहिं सिर नाई। साथ निषादनाथ लघु भाई॥**
भाष्य

प्रात:काल एक ही खेवे अर्थात्‌ एक ही बार में पार जाने वाली नौकाओं पर सभी श्रीचित्रकूट के यात्री यमुना पार हो गये। श्रीराम–सखा निषादराज की सेवा से संतुष्ट होकर, नदी अर्थात्‌ भगवान्‌ के वियोग में आर्त्तनाद कर रही यमुना जी को प्रणाम करके निषादों के राजा गुह एवं छोटे भाई शत्रुघ्न जी के साथ श्रीभरत श्रीचित्रकूट की ओर चल पड़े।

**आगे मुनिवर बाहन आछे। राजसमाज जाइ सब पाछे॥ तेहि पाछे दोउ बंधु पयादे। भूषन बसन बेष सुठि सादे॥**
भाष्य

सबसे आगे वसिष्ठ जी तथा अन्य श्रेष्ठब्राह्मणों के सुन्दर वाहन चल रहे थे। उनके पीछे सम्पूर्ण राजसमाज जा रहा था। उसके भी पीछे साधारण सात्विक आभूषण और सात्विक वस्त्र धारण किये हुए अर्थात्‌ सामान्य सा धौतवस्त्र और कन्धे पर पीला श्रीरामनाम अंकित उत्तरीय डाले हुए श्रीभरत–शत्रुघ्न जी जा रहे थे।

**सेवक सुहृद सचिवसुत साथा। सुमिरत लखन सीय रघुनाथा॥ जहँ जहँ राम बास बिश्रामा। तहँ तहँ करहिं सप्रेम प्रनामा॥**
भाष्य

श्रीभरत के साथ में सेवक, मित्रगण, और मंत्री सुमंत्र के पुत्र अभिनन्दन भी जा रहे थे। वे सब श्रीलक्ष्मण, सीता और रघुनाथ जी का स्मरण कर रहे थे। जहाँ–जहाँ श्रीराम के रुकने के स्थान और विश्राम स्थान दिखते थे, वहीं–वहीं श्रीभरत प्रेमपूर्वक प्रणाम करते थे।

**दो०- मगबासी नर नारि सुनि, धाम काम तजि धाइ।**

देखि स्वरूप सनेह बश, मुदित जनम फल पाइ॥२२१॥

भाष्य

मार्ग के निवासी, नर–नारी, श्रीभरत का आगमन सुनकर, अपने घरों और कार्यों को छोड़कर दौड़कर श्रीभरत–शत्रुघ्न जी के स्वरूप को देखकर, अपने जन्म का फल पाकर, स्नेह के वश होकर, प्रसन्न हो जाते थे।

**कहहिं सप्रेम एक एक पाहीं। राम लखन सखि होहिं कि नाहीं॥ बय बपु बरन रूप सोइ आली। शील सनेह सरिस सम चाली॥**

[[४७९]]

भाष्य

ग्राम की नारियाँ परस्पर एक–दूसरे से प्रेमपूर्वक कहती हैं, सखी! ये दोनों युवक पथिक श्रीराम–लक्ष्मण हो सकते हैं या नहीं, क्योंकि इनकी अवस्था, शरीर, वर्ण और रूप वही है। उसी प्रकार का स्वभाव वैसा ही पारस्परिक स्नेह और उसी प्रकार की इनके चलने की प्रकृति है।

**बेष न सो सखि सीय न संगा। आगे अनी चली चतुरंगा॥ नहिं प्रसन्न मुख मानस खेदा। सखि संदेह होइ एहिं भेदा॥**
भाष्य

दूसरी सखी बोली, सखी! इनका वह अर्थात्‌ श्रीराम, लक्ष्मण जी जैसा वल्कल, जटा रूपधारी, धनुर्बाण एवं निषंग से सुशोभित वेश नहीं है। इनके साथ श्रीसीता भी तो नहीं हैं। इनके आगे चतुरंगिनी सेना चल रही है। श्रीराम–लक्ष्मण जी के समान इनके मुख प्रसन्न नहीं हैं। इनके मन में खेद है, इस भेद से संदेह हो रहा है।

**विशेष– **यहाँ सात समानताओं के होने पर भी श्रीराम–लक्ष्मण जी तथा श्रीभरत–शत्रुघ्न जी में पाँच विषमतायें भी हैं। इसी से प्रत्यगात्मा और परमात्मा का स्वरूपगत्‌ भेद स्पष्ट हो जाता है। भजन करके जीवात्मा परमात्मा के साथ कतिपय अंशों में समानता प्राप्त कर लेता है, जैसे कि श्रीभरत ने श्रीराम के कुछ अंशों में समानता प्राप्त कर ली है। वे हैं– अवस्थागत, शरीरगत, वर्णगत, रूपगत, शीलगत, स्नेहगत और गमन चेष्टागत यही है जीवात्मा, पमात्मा का भोगमात्र साम्य जो ब्रह्मसूत्र, ४.४.१८ में निर्दिष्ट है, परन्तु जीवात्मा को परमात्मा का वेश, उनकी आह्लादिनीशक्ति, सहाय निरपेक्षता, स्वाभाविक प्रसन्नता और मानसिक आनन्द ये पाँचों कभी नहीं प्राप्त हो सकते, यही इस प्रसंग का दार्शनिक तथ्य है।

तासु तरक तियगन मन मानी। कहहिं सकल तोहि सम न सयानी॥ तेहि सराहि बानी फुरि पूजी। बोली मधुर बचन तिय दूजी॥

भाष्य

द्वितीय सखी के तर्क को नारीगण अर्थात्‌ बुद्धिमती महिलाओं ने मन से बहुत सम्मानित किया और सभी कहने लगीं कि, सखी! तुम्हारे समान इसमें कोई भी चतुरस्त्री नहीं है जो, इन पथिकों की विलक्षणताओं के आधार पर जीवात्मा और परमात्मा के श्रुतिसम्मत भेद को इतना स्पष्ट कर सके। उस की सराहना करके उसकी सत्यवाणी का सम्मान करके दूसरी महिला मधुर वाणी बोली–

**कहि सप्रेम सब कथाप्रसंगू। जेहि बिधि राम राज रस भंगू॥ भरतहिं बहुरि सराहन लागी। शील सनेह सुभाय सुभागी॥**
भाष्य

शील (चरित्र), स्नेह तथा सुन्दरभाव से सौभाग्यवती ग्रामवधू, जिस प्रकार श्रीराम के राज्य में रसभंग अर्थात्‌ विघ्न हुआ उस सम्पूर्ण कथाप्रसंग को प्रेमपूर्वक कहकर, फिर स्वभाव, स्नेह एवं सुन्दरभावों से भाग्यशाली श्रीभरत की प्रेमपूर्वक प्रशंसा करने लगे।

**दो०- चलत पयादेहिं खात फल, पिता दीन्ह तजि राजु।**

जात मनावन रघुबरहिं, भरत सरिस को आजु॥२२२॥

भाष्य

सखी! श्रीभरत पैदल चलते हुए, फल खाते हुए, पिता जी के द्वारा दिये हुए राज्य को छोड़कर रघुवर श्रीराम को मनाने के लिए श्रीचित्रकूट जा रहे हैं, आज उनके समान कौन है?

**भायप भगति भरत आचरनू। कहत सुनत दुख दूषन हरनू॥ जो कछु कहब थोर सखि सोई। राम बंधु अस काहे न होई॥**
भाष्य

श्रीभरत का भ्रातृत्व और इनके दिव्य आचरण कहते और सुनते दु:ख और दोषों को हर लेते हैं। हे सखी! मैं इनके सम्बन्ध में जो कुछ कहूँगी वह सब थोड़ा ही होगा, भला श्रीराम के भाई श्रीभरत ऐसे क्यों न हों?

[[४८०]]

हम सब सानुज भरतहिं देखे। भइनि धन्य जुबती जन लेखे॥ सुनि गुन देखि दशा पछिताहीं। कैकयि जननि जोग सुत नाहीं॥

भाष्य

हम सभी महिलायें छोटे भाई शत्रुघ्न जी के साथ श्रीभरत के दर्शन करके धन्य हो गईं हैं, श्रीभरत के गुण सुनकर और उनकी दशा देखकर सभी महिलायें विषादपूर्वक पश्चात्ताप कर रही हैं। कहती हैं, आह! कैकेयी माता के योग्य तो बेटा नहीं है अथवा, श्रीभरत जैसे उच्च आदर्श सम्पन्न बेटे के योग्य माता कैकेयी नहीं हैं।

**कोउ कह दूषन रानिहिं नाहिन। बिधि सब कीन्ह हमहिं जो दाहिन॥ कहँ हम लोक बेद बिधि हीनी। लघु तिय कुल करतूति मलीनी॥**
भाष्य

कोई महिला कहने लगीं, अरे सखी! रानी कैकेयी का कोई दोष नहीं है? सब कुछ ब्रह्मा जी ने किया है, जो हमारे लिए दाहिन अर्थात्‌ अनुकूल हैं। कहाँ हम लौकिक और वैदिक विधि से हीन, कुल और कर्म से भी मलीन अर्थात्‌ सामान्य कर्म करके अपनी जीविका चलाने वाली, अनप़ढ, संस्कारों से शून्य, साधारण स्त्रियाँ और कहाँ श्रीभरत जैसे श्रीरामभक्त शिरोमणि के दर्शन अर्थात्‌ यदि श्रीराम का वनवास नहीं हुआ होता तो, हमको श्रीभरत के दर्शन कैसे होते?

**बसहिं कुदेश कुगाँव कुबामा। कहँ यह दरस पुन्य परिनामा॥ अस अनंद अचरज प्रति ग्रामा। जनु मरुभूमि कलपतरु जामा॥**
भाष्य

हम कुत्सित देश अर्थात्‌ चोर, डाकूवाले देश में निवास करते हैं। हमारा गाँव भी कुगाँव है अर्थात्‌ धार्मिक संस्कारों से शून्य है। हम कुबामा अर्थात्‌ पृथ्वी के ही भोगों में आसक्त रहनेवालीं, भगवान्‌ श्रीराम के भक्ति से हीन सामान्य स्त्रियाँ और कहाँ ये पुण्यों के प्रभाव से प्राप्त होनेवाले श्रीभरत का अपूर्व दर्शन, ये सब हमारे पुण्यों का फल है। हमने कोई पुण्य किया है, नहीं तो, अहैतुक अकारण कृपा करने वाले, विधि अर्थात्‌ ब्रह्मा जी के भी विधाता भगवान्‌ श्रीराम की अनुकूलता का फल है। इस प्रकार, श्रीभरत के दर्शनों से प्रत्येक ग्राम को आनन्द के साथ आश्चर्य हो रहा था, मानो मरुभूमि में कल्पवृक्ष जम गया हो अर्थात्‌ अंकुरित हो गया हो।

**दो०- भरत दरस देखत खुलेउ, मग लोगन कर भाग।**

**जनु सिंघलबासिन भयउ, बिधि बश सुलभ प्रयाग॥२२३॥ भा०– **भरत जी के दर्शन करते ही मार्ग के लोगों का भाग्य खुल गया, मानो सिंघलद्वीप वासियों को संयोगवश प्रयाग सुलभ हो गया हो।

**विशेष– **आज की श्रीलंका ही सिंघलद्वीप है। आज भी वहाँ सिंघली जाति के लोग पाये जाते हैं। आज की श्रीलंका को रावण की लंका समझनी बड़ी भूल होगी, क्योेंकि सेतुबन्ध से श्रीलंका की अधिक से अधिक दूरी पच्चीस किलोमीटर के अन्दर ही कही जा सकती है, जबकि सेतुबन्ध से लंका की दूरी कम से कम सौ योजन अर्थात्‌ बारह सौ किलोमीटर है। यह लंका समुद्र में डूबी हुई है और यदि है भी तो उसे आस्ट्रेलिया माना जा सकता है। आज भी वहाँ के लोग अन्य देशवासियों की अपेक्षा बड़े होते हैं, जिन्हें हम लोग विनोद में कँगारू कहते हैं। भरत जी के प्रति गोस्वामी जी ने कदाचित्‌ प्रयाग की उत्प्रेक्षा की है, क्योंकि यहाँ भी श्रीरामभक्तिरूपिणी गंगा जी, श्रीरामप्रेमरूपिणी यमुना जी और श्रीरामतत्त्वज्ञानरूपिणी सरस्वती जी विराजती हैं और भरत नाम का भी यही निर्वचन है। **‘भ’ **(भक्ति), **‘र’ **(श्रीराम प्रेमरस), **‘त’ **(तत्त्वज्ञान), भम्‌ च, रम्‌ च, तम्‌ च, इति भरतानि तानि सन्ति अस्मिन्‌ इति भरत:।

[[४८१]]

निज गुन सहित राम गुन गाथा। सुनत जाहिं सुमिरत रघुनाथा॥ तीरथ मुनि आश्रम सुरधामा। निरखि निमज्जहिं करहिं प्रनामा॥ मनही मन मागहिं बर एहू। सीय राम पद पदुम सनेहू॥

भाष्य

श्रीभरत अपने गुणों के सहित श्रीराम की गुणगाथाओं को अथवा, अपने गुणों पर सहित अर्थात्‌ प्रेमपूर्वक अनुरक्त श्रीराम की गुणगाथाओं को सुनते हुए और श्रीरघुनाथ का स्मरण करते हुए चले जा रहे हैं। तीर्थाें, मुनियों के आश्रमों तथा देवताओं के मंदिरों को देखकर, जलाशयों में निष्ठापूर्वक स्नान करते हैं तथा मुनियों और देवताओं को प्रणाम करते हैं। मन ही मन यही वरदान माँगते हैं कि, हे महर्षि और देवताओं! मेरे मन में श्रीसीताराम जी के श्रीचरणकमल के प्रति स्नेह हो जाये।

**मिलहिं किरात कोल बनबासी। बैखानस बटु जती उदासी॥ करि प्रनाम पूँछहिं जेहि तेही। केहि बन लखन राम बैदेही॥**
भाष्य

मार्ग में वनवासी कोल, किरात, वानप्रस्थ, ब्रह्मचारी तथा विषयों से उदासीन सन्यासी मिलते हैं। श्रीभरत जिस किसी को प्रणाम करके पूछते हैं, भैया! बताओ, श्रीलक्ष्मण, राम एवं भगवती सीता जी किस वन में निवास करते हैं?

**ते प्रभु समाचार सब कहहीं। भरतहिं देखि जनम फल लहहीं॥ जे जन कहहिं कुशल हम देखे। ते प्रिय राम लखन सम लेखे॥**
भाष्य

वे सभी ( कोल, किरात, वानप्रस्थ, ब्रह्मचारी और सन्यासी) प्रभु का सम्पूर्ण समाचार सुनाते हैं और श्रीभरत को निहारकर अपने जन्म का फल पा जाते हैं। जो लोग कहते हैं कि, हमनें श्रीराम, लक्ष्मण, सीता जी को सकुशल देखा है, उनको श्रीभरत ने श्रीराम–लक्ष्मण के समान प्रिय माना।

**एहि बिधि बूझत सबहिं सुबानी। सुनत राम बनबास कहानी॥**

दो०- तेहि बासर बसि प्रातहीं, चले सुमिरि रघुनाथ।

राम दरस की लालसा, भरत सरिस सब साथ॥२२४॥

भाष्य

इस प्रकार से सुन्दर वाणी में सभी से श्रीरामवनवास की कथायें पूछते हुए और सबसे सुनते हुए, उस दिन, रात्रि–विश्राम करके प्रात:काल श्रीरघुनाथ का स्मरण करके आगे चले। श्रीभरत के ही समान सम्पूर्ण साथ अर्थात्‌ समूह को श्रीरामदर्शन की लालसा है।

**विशेष– **यहाँ साथ शब्द सार्थ का अपभ्रंश है, जिसका अर्थ होता है मार्ग में जानेवाले एक ही प्रकार के मनुष्यों का समूह।

मंगल सगुन होहिं सब काहू। फरकहिं सुखद बिलोचन बाहू॥ भरतहिं सहित समाज उछाहू। मिलिहैं राम मिटिहिं दुख दाहू॥

भा०– सभी मंगलमय शकुन हो रहे हैं, सबको सुख देने वाली, नेत्र और भुजायें फ़डक रही हैं अर्थात्‌ पुरुषों के दक्षिण नेत्र–भुजायें और महिलाओं के वाम नेत्र–भुजायें फ़डक रही हैं। समाज के सहित श्रीभरत को बहुत उत्साह है कि श्रीराम मिलेंगे और दु:ख तथा विरह के सन्ताप मिट जायेंगे।

करत मनोरथ जस जिय जाके। जाहिं सनेह सुरा सब छाके॥ शिथिल अंग पग मग डगि डोलहिं। बिहबल बचन प्रेम बश बोलहिं॥

[[४८२]]

भाष्य

जिसके हृदय में जैसी भावना है, उसके अनुसार सभी लोग मनोरथ कर रहे हैं और सब लोग प्रेम की मदिरा में छके हुए चले जा रहे हैं। सभी के अंग शिथिल हो गये हैं। वे मार्ग में लड़ख़डाते हुए चरणों से धीरे– धीरे चलते हैं और प्रेम के वश में होकर विह्वल अर्थात्‌ व्याकुल होकर वचन बोलते हैं।

**रामसखा तेहि समय देखावा। शैल शिरोमनि सहज सुहावा॥ जासु समीप सरित पय तीरा। सीय समेत बसहिं दोउ बीरा॥**
भाष्य

उसी समय श्रीराम के सखा (मित्र) केवट ने स्वभाव से सुन्दर पर्वतों के शिरोमणि श्रीचित्रकूट, कामद पर्वत, श्रीभरत को दिखाया, जिस कामदगिरि के समीप लगभग छह फीट दूर बायीं ओर विराजमान पयस्विनी नदी के तट पर श्रीसीता के सहित दोनों भ्राता श्रीराम, लक्ष्मण जी निवास करते हैं।

**विशेष– **श्रीचित्रकूट पर्वत ही प्रभु श्रीराम के आगमन से कामद नाम से प्रसिद्ध हो गया, जो आज कामदगिरि, कामदेश्वर तथा कामतानाथ नाम से जाना जाता है। कामदगिरि की परिक्रमा लगभग पाँच किलोमीटर की है। आज भी कामदगिरि परिक्रमा के मध्य में उनकी बायीं ओर कामदपर्वत से लगभग छह फीट की दूरी पर ही पयस्विनी नदी का उद्‌गम स्थल ब्रह्मकुण्ड है। उसमें वर्षाकाल में जल आ जाता है।

देखि करहिं सब दंड प्रनामा। कहि जय जानकि जीवन रामा॥ प्रेम मगन अस राज समाजू। जनु फिरि अवध चले रघुराजू॥

भाष्य

श्रीकामदगिरि के दर्शन करके, ‘जानकी–जीवन श्रीराम जी की जय’ कहते हुए, सभी अवधवासी दण्डवत्‌ प्रणाम करने लगे (उसी समय से कामदगिरि की दण्डवती परिक्रमा प्रारम्भ हुई)। राजसमाज इस प्रकार प्रेम में मग्न हो गया, मानो रघुकुल के राजा श्रीराम वनवास पूर्ण करके श्रीअयोध्या लौट चले हों।

**दो०- भरत प्रेम तेहि समय जस, तस कहि सकइ न शेषु।**

कबिहि अगम जिमि ब्रह्मसुख, अह मम मलिन जनेषु॥२२५॥

भा०– उस समय श्रीभरत का जैसा प्रेम दृष्टिगोचर हुआ, उसे उस प्रकार से शेष भी नहीं कह सकते। (मुझ तुलसीदास जैसे) कवि को वह उसी प्रकार अनुभव में भी अगम्य है, जैसे अहंकार और ममता से मलिन प्राणियों में वेदान्त प्रतिपाद्द ब्रह्मसुख अर्थात्‌ ब्रह्मानन्द दुलर्भ होता है।

सकल सनेह शिथिल रघुबर के। गए कोश दुइ दिनकर ढरके॥ जल थल देखि बसे निशि बीते। कीन्ह गवन रघुनाथ पिरीते॥

भाष्य

सभी अयोध्यावासी रघु अर्थात्‌ सभी प्राणियों के वरणीय भगवान्‌ श्रीराम के प्रेम में शिथिल होने के कारण प्रात:काल से सूर्य भगवान्‌ के अस्त होने तक, मात्र दो कोस अर्थात्‌ लगभग छ: किलोमीटर की ही यात्रा सम्पन्न कर सके अर्थात्‌ दो कोस तक ही गये। श्रीराम के प्रिय और श्रीराम को प्रेम करने वाले श्रीभरत और उनके सहयात्री जल–स्थल देखकर रात में विश्राम किये। रात बीतने पर श्रीरघुनाथ के पर्णकुटी की ओर गमन किया।

**उहाँ राम रजनी अवशेषा। जागे सीय सपन अस देखा॥**

सहित समाज भरत जनु आए। नाथ बियोग ताप तनु ताए॥ सकल मलिन मन दीन दुखारी। देखीं सासु आन अनुहारी॥

भाष्य

वहाँ अर्थात्‌ श्रीरघुनाथ जी की पर्णकुटी में विराजमान श्रीरामचन्द्र रात्रि के कुछ शेष रहते ही ब्रह्ममुहूर्त में जगे। श्रीसीता ने इस प्रकार स्वप्न देखा और जग कर प्रभु से बोलीं, भगवन्‌! मैंने अभी एक स्वप्न देखा है, मानो

[[४८३]]

आपके वियोग के तप से तपे हुए शरीरवाले भरत समाज–सहित श्रीचित्रकूट आये हुए हैं। सभी के मन उदास हैं, सभी दीन अर्थात्‌ सब कुछ खोकर अभावग्रस्त तथा दु:खी दिखे, सभी सासुयें दूसरी जैसी विधवा–वेश में दिखीं।

सुनि सिय सपन भरे जल लोचन। भए सोचबश सोच बिमोचन॥ लखन सपन यह नीक न होई। कठिन कुचाह सुनाइहि कोई॥ अस कहि बंधु समेत नहाने। पूजि पुरारि साधु सनमाने॥

भाष्य

श्रीसीता के स्वप्न सुनकर भगवान्‌ श्रीराम के नेत्र जल से भर गये और भक्तों का शोक नष्ट करने वाले प्रभु श्रीराम शोक के वश में हो गये तथा बोले, लक्ष्मण! यह अर्थात्‌ प्रात:काल देखा हुआ सीता का स्वप्न अच्छा नहीं हो सकता। आज कोई हमें कठोर और अप्रिय समाचार सुनायेगा। ऐसा कह कर भगवान्‌ श्रीराम भाई लक्ष्मण जी के साथ मंदाकिनी में स्नान किया और पुरारी अर्थात्‌ त्रिपुरासुर के शत्रु, श्रीचित्रकूट में विराजमान पुराण प्रसिद्ध, सृष्टि के प्रारम्भिक शिवलिंग मत्यगजेन्द्रनाथ शङ्कर जी की पूजा करके साधुजनों का सम्मान किया।

**छं०– सनमानि सुर मुनि बंदि बैठे उतर दिशि देखत भए।**

नभ धूरि खग मृग भूरि भागे बिकल प्रभु आश्रम गए॥ तुलसी उठे अवलोकि कारन काह चित सचकित रहे। सब समाचार किरात कोलन आइ तेहि अवसर कहे॥

भाष्य

देव अर्थात्‌ शिव जी एवं अन्य देवताओं का सम्मान करके, मुनियों का वन्दन करके अपनी पर्णकुटी में बैठे हुए प्रभु श्रीराम उत्तर दिशा की ओर देखने लगे। उस समय आकाश में धूल थी। बहुत से पक्षी, हिरण व्याकुल होकर भागे हुए प्रभु श्रीराम के आश्रम में गये। तुलसीदास जी कहते हैं कि, यह दृश्य देखकर ‘तु’ अर्थात्‌ तुरीय श्रीराम, **‘ल’ **अर्थात्‌ श्रीलक्ष्मण, **‘सी’ **अर्थात्‌ श्रीसीता, ये तीनों (श्रीराम, लक्ष्मण, सीता) उठकर ख़डे हो गये। क्या कारण है यह जानने के लिए उनके चित्त में आश्चर्य भर गया। उसी अवसर पर आकर किरातों और कोलों ने सम्पूर्ण समाचार कह सुनाया।

**विशेष– **यहाँ श्लेष अलंकार के बल से तुलसीदास पद तथा “**नामैकदेश ग्रहण**े **नाम ग्रहणम्‌” **अर्थात्‌ नाम के एक अंग के ग्रहण से पूरे नाम का ग्रहण हो जाता है इस सिद्धान्त के अनुसार ‘तु’ से तुरीय श्रीराम, ‘ल’ से श्रीलक्ष्मण, ‘सी’ से श्रीसीता अर्थात्‌ श्रीराम, लक्ष्मण, सीता का वाचक बना।

दो०- सुनत सुमंगल बैन, मन प्रमोद तन पुलक भर।

**शरद सरोरुह नैन, तुलसी भरे सनेह जल॥२२६॥ भा०– **तुलसीदास जी कहते हैं कि, कोल, किरातों से श्रीभरत के आगमन का सूचक, मंगलमय समाचार वचन सुनकर, श्रीराम का शरीर पुलक से भर गया और उनके मन में प्रमोद अर्थात्‌ अनुकूल लाभ की प्रसन्नता हो गई। उनके शरद्‌कालीन कमल जैसे नेत्रों में स्नेह का जल भर आया।

बहुरि सोचबस भे सियरमनू। कारन कवन भरत आगमनू॥

एक आइ अस कहा बहोरी। सैन संग चतुरंग न थोरी॥

भाष्य

फिर श्रीसीतारमण भगवान्‌ श्रीरामशोक वश हो गये। किस कारण से भरत का आगमन हुआ है? एक किरात ने आकर फिर ऐसा कहा, भरत के साथ तो बहुत–बड़ी चतुरंगिणी सेना है।

**सो सुनि रामहिं भा अति सोचू। इत पितु बच उत बंधु सँकोचू॥ भरत स्वभाव समुझि मन माहीं। प्रभु चित हित थिति पावत नाहीं॥**

[[४८४]]

भाष्य

वह सुनकर श्रीराम को बहुत शोक हुआ। उधर पिता की वाणी इधर भाई का संकोच अर्थात्‌ भरत स्वयं मुझे संकोच में डलवाने के लिए ही चतुरंगिणी सेना ला रहे हैं। उनकी यह धारणा है कि, इतने लोगों में किसी न किसी का तो भगवान्‌ श्रीराम संकोच करेंगे ही। मन में भरत का स्वभाव समझकर प्रभु का चित्त न तो शांति पा रहा है और न ही स्थिरता। वे सोच रहे हैं कि, इस धर्मसंकट का कैसे समाधान हो?

**समाधान तब भा यह जाने। भरत कहे महँ साधु सयाने॥**

लखन लखोउ प्रभु हृदय खभारू। कहत समय सम नीति बिचारू॥

भाष्य

तब स्वयं ही समाधान हो गया, श्रीराम ने यह जान लिया कि, भरत हमारे कहने में हैं अर्थात्‌ मेरा कहना मान जायेंगे, क्योंकि वे चतुर और साधु पुरुष हैं। लक्ष्मण जी ने प्रभु के हृदय में खलबली तथा वैचारिक द्वन्द्व देखा, फिर वे समय के ही समान राजनीति से पूर्ण विचार कहने लगे।

**बिनु पूँछे कछु कहउँ गोसाईं। सेवक समय न ढीठ ढिठाईं॥ तुम सर्बग्य शिरोमनि स्वामी। आपनि समुझि कहउँ अनुगामी॥**
भाष्य

हे इन्द्रियों के स्वामी ऋषिकेश भगवान्‌! मैं आपके बिना कुछ पूछे ही कह रहा हूँ (क्षमा कीजियेगा), क्योंकि समय पर सेवक की धृष्टता से वह धृष्ट नहीं माना जाता अर्थात्‌ इस समय की धृष्टता से आप मुझे धृष्ट नहीं समझें। हे स्वामी! आप सर्वज्ञों के शिरोमणि हैं। मैं आपका अनुगमन करनेवाला सेवक हूँ, इसलिए मैं यहाँ अपनी समझ कह रहा हूँ, कोई सिद्धान्त नहीं कह रहा हूँ।

**दो०- नाथ सुहृद सुठि सरल चित, शील सनेह निधान।**

सब पर प्रीति प्रतीति जिय, जानिय आपु समान॥२२७॥

भाष्य

हे भगवन्‌! आप सबके स्वामी, सुन्दर हृदयवाले, सबके मित्र, अत्यन्त सरल चित्त, चरित्र, स्वभाव और स्नेह के निधान अर्थात्‌ कोश हैं, इसलिए आप सब पर अपने ही समान प्रेम और विश्वास हृदय में जानते हैं।

**बिषई जीव पाइ प्रभुताई। मू़ढ मोह बश होहिं जनाई॥ भरत नीति रत साधु सुजाना। प्रभु पद प्रेम सकल जग जाना॥ तेऊ आजु राज पद पाई। चले धरम मरजाद मिटाई॥**
भाष्य

परन्तु विषयी जीव प्रभुता पाकर मोह के वश होकर किंकर्त्तव्यविमू़ढ हो जाते हैं और स्वयं को प्रकट कर देते हैं। यह सारा संसार जानता है कि, भरत राजनीति में प्रेम रखते हैं। वे चतुर और साधु हैं, उन्हें प्रभु अर्थात्‌ आप श्रीराम के चरणों में प्रीति भी है। वे भी आज राजपद पाकर अर्थात्‌ अवधराज की पदवी पाकर धर्म की मर्यादा को मिटा कर श्रीचित्रकूट के लिए चल पड़े हैं।

**कुटिल कुबंधु कुअवसर ताकी। जानि राम बनबास एकाकी॥ करि कुमंत्र मन साजि समाजू। आए करै अकंटक राजू॥**
भाष्य

भरत कुटिल और दुय् हैं। वे कुसमय देखकर श्रीराम को वनवास में अकेले जानकर मन में कुमंत्रणा करके सेना सजाकर निष्कंटक अर्थात्‌ शत्रुविहीन राज्य करने के लिए आये हुए हैं।

**विशेष– **आवेश में श्रीलक्ष्मण, भले ही श्रीभरत की निन्दा कर रहे हैं, परन्तु उनके मुख से सरस्वती जी कुछ दूसरा ही कह रहीं हैं। यहाँ सब कुछ द्वयर्थक है। श्रीलक्ष्मण की जिज्ञासा है, क्या राजपदवी पाकर श्रीभरत धर्ममर्यादा का विचार कर आये हैं? यद्दपि श्रीभरत की सहायक बनी बन्धुरूपिणीं माता कैकेयी कुटिल हैं, उसने कुअवसर देखा है, परन्तु क्या श्रीभरत ऐसे हैं? क्या वे श्रीराम को वन में अकेले जानते हैं? क्या उनके मन में

[[४८५]]

कुमंत्रणा है? क्या वे निष्कंटक राज्य करना चाहते हैं? अर्थात्‌ नहीं। वे तो श्रीराम के दर्शन करके प्रभु का प्रसाद पाकर कृतकृत्य होंगे।

कोटि प्रकार कलपि कुटिलाई। आए दल बटोरि दोउ भाई॥ जौ जिय होति न कपट कुचाली। केहि सोहाति रथ बाजि गजाली॥

भाष्य

करोड़ों प्रकार से कुटिलता करके दोनों भाई भरत–शत्रुघ्न सेना इकट्ठी करके आये हैं। यदि हृदय में कपट भरी कुचाल नहीं होती तो रथ, घोड़े और हाथियों के समूह किसे अच्छे लगते?

**विशेष– **यहाँ भी श्रीलक्ष्मण की वक्रोक्ति है, क्या दोनों भाई कुटिलता के कारण सेना इकट्ठी करके आये हैं? अर्थात्‌ नहीं। सभी प्रभु के दर्शन करने और प्रभु को श्रीअवध लौट चलने की प्रर्थना करने आये हैं। श्रीलक्ष्मण नकार का चौपाई के उत्तरार्द्ध में अन्वय करके कहते हैं, *केहि** न सोहाति रथ बाजि गजाली *यदि भरत जी के हृदय में कपट और कुचाल होता तो वे प्रसन्न मन से आये होते, क्योंकि रथ, हाथी, घोड़े किसे अच्छे नहीं लगते? फिर भरत पैदल क्यों चले आये? इससे सिद्ध हुआ कि, उनके मन में कुचाल नहीं है, क्योंकि विषयी जीव प्रभुता पाकर अहंकारी होते हैं, न कि भरत जैसे।

भरतहिं दोष देइ को जाए। जग बौराइ राज पद पाए॥

दो०- शशि गुरु तिय गामी नहुष, च़ढेउ भूमिसुर यान।

लोक बेद ते बिमुख भा, अधम न बेन समान॥२२८॥ सहसबाहु सुरनाथ त्रिशंकू। केहि न राजमद दीन्ह कलंकू॥

भाष्य

श्रीलक्ष्मण कहते हैं, कोई भरत को क्यों दोष दे? राजपद पाकर संसार ही बावला हो जाता है। ब्राह्मणों का राज्य पाकर अर्थात्‌ ब्रह्मा जी द्वारा ब्राह्मणों और वनस्पतियों का राजा बनाये जाने पर चन्द्रमा गुरुपत्नी गामी बन गया। राजा नहुष ब्रह्महत्या के कारण इन्द्र के मानससरोवर में छिप जाने पर इन्द्र का पद पाकर ब्राह्मणों द्वारा ढोयी जानेवाली पालकी पर च़ढा। राजा वेन जम्बूद्वीप का राज पाकर लोक और वेद से विमुख हुआ। उसके समान कोई भी नीच नहीं हो सकता। सहस्रबाहु (कार्तवीर्य), इन्द्र और त्रिशंकु इनमें से किसको राजमद ने कलंक नहीं दिया अर्थात्‌ सभी लोग पागल हुए। सहस्रार्जुन पागल होकर जमदग्नि की कामधेनु हर लाया और परशुराम जी द्वारा मारा गया। इन्द्र अधिकार के मद में अहल्या जी से ही अनुचित व्यवहार कर बैठा। त्रिशंकु ने सदेह स्वर्ग जाने की ठानी, इस प्रकार राजमद ने किसे नहीं कलंक दिया।

**विशेष– **यहाँ श्रीलक्ष्मण कहते हैं कि, श्रीभरत को दोष देना ठीक नहीं है, क्योंकि राजमद से जगत बावला होता है। श्रीभरत जगत से ऊपर हैं। चन्द्रमा, नहुष, वेन, सहस्रार्जुन एवं इन्द्र तथा त्रिशंकु श्रीभरत की कक्षा से बहुत नीचे हैं।

भरत कीन्ह यह उचित उपाऊ। रिपु ऋन रंच न राखब काऊ॥ एक कीन्ह नहिं भरत भलाई। निदरे राम जानि असहाई॥

**समुझि परिहि सोउ आजु बिशेषी। समर सरोष राम मुख पेखी॥ भा०– **(लक्ष्मण जी कहते हैं कि) भरत ने यह उचित ही उपाय किया है, क्योंकि शत्रु और ऋण को कभी भी थोड़े अंश में भी नहीं रखना चाहिये अर्थात्‌ दोनों को समाप्त कर देना चाहिये, परन्तु भरत ने एक बात अच्छी नहीं की, उन्होंने श्रीराम को असहाय जानकर उनका निरादर किया है। वह भी आज युद्ध में क्रुद्ध हुए श्रीराम के

[[४८६]]

मुख को देखकर उन्हें विशेष रूप से समझ में आ जायेगा अर्थात्‌ जब मैं (लक्ष्मण) श्रीराम की ओर से भरत के विरूद्ध युद्ध करूँगा तब उन्हें इसका संज्ञान होगा कि, श्रीराम असहाय हैं या ससहाय।

**विशेष– **लक्ष्मण की सरस्वती जी कहती हैं कि, श्रीचित्रकूट आकर श्रीभरत ने बहुत उचित प्रयत्न किया है। यहाँ वे भगवान्‌ श्रीराम के दर्शन करके अपने बड़े भ्राता के ऋण से और कलंकरूप शत्रु से मुक्त हो जायेंगे। क्या श्रीभरत ने एक भी अच्छा कार्य नहीं किया है? क्या श्रीराम को असहाय जानकर उनका उन्होंने निरादर किया है? अर्थात्‌ नहीं। उनका आदर करने के लिए ही इतनी बड़ी सेना के साथ गुरुजन, मंत्री तथा माताओं को लेकर श्रीभरत आये हैं। समर अर्थात्‌ स्मर कामदेव भी जिसके सौन्दर्य को देखकर अपने सौन्दर्य पर सरोष अर्थात्‌ क्रुद्ध हो जाता है, ऐसे श्रीराम के मुखारविन्द को देखकर वह रहस्य भी विशेषरूप से समझ में आ जायेगा। यदि श्रीभरत, श्रीराम का निरादर करते तो उनके प्रति श्रीराम का मुख इतना भावुक क्यों होता?

इतना कहत नीति रस भूला। रन रस बिटप पुलक मिस फूला॥ प्रभु पद बंदि शीष रज राखी। बोले सत्य सहज बल भाखी॥

भाष्य

इतना कहते–कहते लक्ष्मण जी को राजनीति का रस अर्थात्‌ आनन्द विस्मृत हो गया। रोमांच के व्याज से श्रीलक्ष्मण का वीररस पुष्पित हो उठा अर्थात्‌ युद्ध के लिए उत्साहित होने के कारण लक्ष्मण जी के रोम ख़डे हो गये और ऐसा लगा, मानो वीररस रूप वृक्ष में पुष्प आ गये हैं। प्रभु श्रीराम के श्रीचरणों को वन्दन करके, उनकी धूल मस्तक पर रखकर, श्रीलक्ष्मण सत्य और स्वाभाविक बल कहते हुए बोले–

विशेष

वस्तुत: भरत जी के सम्बन्ध में इतने मधुर उद्‌गार कहते-कहते लक्ष्मण जी को नीतिरस अर्थात राजनैतिक दृष्टि से वन में शान्तिपूर्वक रहने का सैद्धान्तिक आनन्द भूल गया, लक्ष्मण जी के मन में एक आशंका जगी कि कदाचित्‌ श्रीभरत के चित्रकूट चले आने पर श्री अवध नगर को सूना जानकर रावणादि विपक्षी श्रीअवध पर आक्रमण करने का मन नहीं बना रहे हों। अतएव उनसे मुझे युद्ध करना चाहिये। अतएव रावणादि से युद्ध करने के लिये उत्साहित श्रीलक्ष्मण का वीररस रूप वृक्ष पुलकावलि के बहाने से पुष्पित हो उठा। कुमार लक्ष्मण प्रभु को वन्दन कर श्रीचरणों की धूलि सिरपर रखकर अपना स्वाभाविक बल कहते हुए बोले युद्ध के लिये उत्साहित होना मेरा कोई अनुचित कार्य नहीं है, क्योंकि भैया भरत आपश्री से मिलने चित्रकूट पधार रहे हैं। आप उनसे प्रसन्नतापूर्वक मिलिये, यदि रावण इस अवसर का लाभ उठाकर श्रीअवध पर आक्रमण करने जा रहा हो तो मैं उसे रोकूँगा। क्योंकि मैं रावण से थोड़ा भी नहीं डरता, आप साथ में हैं और धनुष हमारे हाथ में है। श्रीअयोध्या जाने के लिये रावण का यही मार्ग होगा अत: मैं उसे यहीं रोककर समाप्त कर दूँगा।

अनुचित नाथ न मानब मोरा। भरत हमहिं उपचार न थोरा॥ कहँ लगि सहिय रहिय मन मारे। नाथ साथ धनु हाथ हमारे॥

भाष्य

हे नाथ! आप मेरा थोड़ा भी अनुचित मत मानियेगा। भरत ने हमें थोड़ा नहीं चि़ढाया है अर्थात्‌ बहुत चि़ढाया है। कहाँ तक सहें और अपना मन मार कर कब तक रहें, आप हमारे साथ हैं और धनुष हमारे हाथ में।

**दो०- छत्रि जाति रघुकुल जनम, राम अनुज जग जान।**

लातहु मारे च़ढति सिर, नीच को धूरि समान॥२२९॥

भाष्य

मेरी क्षत्रिय जाति है, रघुकुल में जन्म हुआ, मैं श्रीराम का छोटा भ्राता हूँ, यह सारा संसार जानता है। धूलि के समान कौन छोटा है, फिर भी लात अर्थात्‌ पैर के मारने से वह धूल भी सिर पर च़ढ जाती है, तो फिर इतने अधिकारों को प्राप्त करके भरत के अपमान पर मेरा उत्तेजित होना स्वाभाविक है।

[[४८७]]

**विशेष– **श्रीलक्ष्मण की श्रीसरस्वती कहती हैं कि, श्रीभरत ने हमें थोड़ा भी नहीं चि़ढाया अर्थात्‌ हमारा सम्मान किया है। जबकि श्रीभरत की जाति क्षत्रिय है, उनका जन्म रघुकुल में हुआ, वे श्रीराम के छोटे भाई हैं, यह जगत जानता है। इतने पर भी श्रीभरत कितने विनम्र हैं। जबकि सबसे नीच धूल भी लात के मारने से सिर पर च़ढ जाती है, परन्तु संसार में अपमानित होने पर भी श्रीभरत के मन में कोई प्रतिक्रिया नहीं है। वे कहाँ तक सहें और कहाँ तक अपना मन मार कर रहें। उनके पास तो कोई नहीं है। हमारे पास तो स्वयं श्रीराघव सरकार और धनुष भी है।

उठि कर जोरि रजायसु माँगा। मनहुँ बीर रस सोवत जागा॥ बाँधि जटा सिर कसि कटि भाथा। साजि शरासन सायक हाथा॥

भाष्य

लक्ष्मण जी ने उठकर हाथ जोड़कर भगवान्‌ श्रीराम से राजाज्ञा माँगी, मानो सोता हुआ वीररस जग गया हो। सिर पर जटा बाँधकर कटि–प्रदेश में तरकस कसकर धनुष पर प्रत्यंचा च़ढाकर हाथ में धनुष लेकर श्रीलक्ष्मण बोले–

**विशेष– **यहाँ श्रीलक्ष्मण की सरस्वती जी कहती हैं कि, श्रीलक्ष्मण, भरत जी के साथ युद्ध करने के लिए नहीं प्रत्युत्‌ श्रीभरत के चित्रकूट आ जाने पर, श्रीअवध को सूना जानकर रावण द्वारा सम्भावित आक्रमण के प्रतिकार पर चिन्तित हुए। प्रभु श्रीराम को आश्वस्त करते हुए श्रीलक्ष्मण, रावण के साथ युद्ध करने के लिए उद्दत हैं, इसलिए उन्होंने जटा बाँधकर, कटि में तरकस कस कर, हाथ में धनुष–बाण लेकर रावण के विरुद्ध युद्ध करने के लिए प्रभु से राजाज्ञा माँगी।

आजु राम सेवक जस लेऊँ। भरतहिं समर सिखावन देऊँ॥ राम निरादर कर फल पाई। सोवहुँ समर सेज दोउ भाई॥ आइ बना भल सकल समाजू। प्रगट करउँ रिसि पाछिल आजू॥

भाष्य

आज मैं श्रीरामसेवक का यश ले लूँ, युद्ध में भरत को शिक्षा दूँ। श्रीराम का निरादर अर्थात्‌ अपमान का फल पाकर दोनों भाई युद्ध की शैय्या पर सोयें। बहुत ही अच्छे प्रकार से आज सम्पूर्ण समाज श्रीचित्रकूट में आ बना है। मैं अपना पिछला क्रोध प्रकट कर लूँ अर्थात्‌ श्रीरामवनवास के समय कैकेयी और भरत पर उत्पन्न क्रोध को जो मैंने छिपा लिया था, वह प्रकट कर लूँ।

**जिमि करि निकर दलइ मृगराजू। लेइ लपेटि लवा जिमि बाजू॥ तैंसेहिं भरतहिं सैन समेता। सानुज निदरि निपातउँ खेता॥ जौ सहाय कर शङ्कर आई। तौ मारउँ रन राम दोहाई॥**
भाष्य

मैं श्रीराम की दुहाई करके कहता हूँ कि, जिस प्रकार सिंह, हाथियों के समूह को मार डालता है, जिस प्रकार बाज पक्षी, लवा अर्थात्‌ बटेर को लपेट लेता है, उसी प्रकार मैं सेना के सहित एवं शत्रुघ्न के साथ भरत को अपमानित करते हुए मार डालूँ। यदि शङ्कर जी भी सहायता करें तो भी मैं युद्ध में भरत को मार सकता हूँ।

**विशेष– **यहाँ सरस्वती जी पूर्ववत्‌ कुमार श्रीलक्ष्मण से वक्रोक्ति विधा द्वारा अपना मन्तव्य प्रस्तुत करती हैं। श्रीलक्ष्मण वस्तुत: प्रश्न की मुद्रा में जगत्‌ से प्रश्न करते हैं कि, क्या मैं श्रीभरत को युद्ध की शिक्षा दूँ अर्थात्‌ क्या मैं भैया भरत से प्रार्थना करूँ कि, मेरी अनुपस्थिति में आपको अयोध्या पर संभावित शत्रुओं के आक्रमण का कठोरता से उत्तर देना होगा, जिससे श्रीराम के निरादर का फल पाकर दोनों भाई रावण, कुम्भकर्ण यदि अयोध्या पर आक्रमण करने की इच्छा चाहें तो भरत जी के हाथों युद्ध की शैय्या पर सो जायें। यदि इस समय श्रीभरत के चित्रकूट आ जाने पर अयोध्या को सूनी जानकर रावण आक्रमण करने की सोचे तो मैं स्वयं उसका उत्तर देने के

[[४८८]]

लिए कुछ क्षणपर्यन्त श्रीअवध की रक्षा करने के लिए तैयार हूँ और देवताओं के अत्याचार से उत्पन्न क्रोध को मैं आज रावण पर प्रकट कर दूँगा, इसीलिए मैंने सिर पर जटा, कटि में तरकस बाँध लिया है और हाथ में धनुष– बाण ले लिया है। आप से इसलिए राजाज्ञा माँग रहा हूँ। २३०वें दोहे की सातवीं पंक्ति में प्रयुक्त ‘निदरि’ शब्द निराधार नहीं प्रत्युत्‌ श्रीभरत का विशेषण है अर्थात्‌ सरस्वती जी की दृष्टि में लक्ष्मण जी का यह वक्तव्य है कि, प्रभु के दर्शन के लिए सेना सहित श्रीचित्रकूट में पधारे हुए छोटे भाई सहित ‘भरतहिं’ अर्थात्‌ भरत जी को ‘निदरि’ यानी अपमानित करके श्रीअवध पर आक्रमण करने वाले रावण, कुम्भकर्ण को उसी प्रकार युद्ध में मार सकता हूँ, जैसे सिंह हाथी को और बाज बटेर को मार डालता है, यदि रावण की सहायता करने के लिए शङ्कर जी भी आयें तो भी मैं आपकी कृपा से उसे युद्ध में मार सकता हूँ। अत: आप श्रीभरत की अनुपस्थिति में श्रीअयोध्या पर रावण के आक्रमण की सम्भावना से चिन्तित न हों। तब आकाशवाणी ने लक्ष्मण जी को इसलिए रोक दिया, जिससे रावण द्वारा प्रभु के हाथों माँगी हुई मृत्यु का वरदान सफल हो सके।

दो०- अति सरोष माखे लखन, लखि सुनि सपथ प्रमान।

सभय लोक सब लोकपति, चाहत भभरि भगान॥२३०॥

भाष्य

श्रीलक्ष्मण को युद्ध में अत्यन्त आमर्षित अर्थात्‌ आवेशित और क्रुद्ध देखकर एवं उनके प्रामाणिक शपथ को सुनकर सभी लोकपाल और लोक भयभीत होकर अपने स्थान से भागने की इच्छा करने लगे।

**जग भय मगन गगन भइ बानी। लखन बाहुबल बिपुल बखानी॥ तात प्रताप प्रभाव तुम्हारा। को कहि सकइ को जाननिहारा॥ अनुचित उचित काज कछु होऊ। समुझि करिय भल कह सब कोऊ॥ सहसा करि पाछे पछिताहीं। कहहिं बेद बुध ते बुध नाहीं॥**
भाष्य

सारा संसार भय में मग्न हो गया, अर्थात्‌ डूब गया। उस समय श्रीलक्ष्मण के विपुल अर्थात्‌ बहुत–बड़ी बाहुबल की प्रशंसा करके आकाशवाणी हुई, हे तात! आपके प्रताप और प्रभाव को कौन कह सकता है और कौन जान सकता है? परन्तु अनुचित अथवा उचित जो भी कुछ कार्य हो उसे, जो समझकर करता है, उसे सभी लोग भला कहते हैं। जो लोग एकाएक कोई कार्य करके फिर पीछे से पछताते हैं वेद के विद्वान कहते हैं कि, वे पण्डित नहीं प्रत्युत्‌ मूर्ख होते हैं।

**सुनि सुर बचन लखन सकुचाने। राम सीय सादर सनमाने॥ कही तात तुम नीति सुहाई। सब ते कठिन राजमद भाई॥**
भाष्य

देववचन सुनकर श्रीलक्ष्मण सकुचा गये। श्रीराम तथा सीता जी ने उनका आदरपूर्वक सम्मान किया (उन्हें पास बैठाया)। भगवान्‌ श्रीराम बोले, तात्‌! अर्थात्‌ प्रिय भाई! तुमने सुन्दर नीति कही है कि, राजमद सब से कठिन होता है।

**जो अँचवत नृप मातहिं तेई। नाहिन साधुसभा जेहिं सेई॥**

सुनहु लखन भल भरत सरीसा। बिधि प्रपंच कहँ सुना न दीसा॥

भाष्य

जिसे पीकर वे राजा बावले होते हैं, जिन्होंने सन्तों की सभा की सेवा नहीं की है अर्थात्‌ जिन्होंने सत्संग नहीं किया है। हे लक्ष्मण! सुनो भरत जी के समान भला व्यक्ति विधाता के प्रपंच (सृष्टि) में न तो सुना गया है और न ही देखा गया है।

[[४८९]]

दो०- भरतहि होइ न राजमद, बिधि हरि हर पद पाइ।

कबहुँ कि काँजी सीकरनि, छीरसिंधु बिनसाइ॥२३१॥

भाष्य

ब्रह्माजी, विष्णु जी एवं शिव जी का पद अर्थात्‌ अधिकार (पदवी) पाकर भी भरत को राजमद नहीं हो सकता। फिर क्या कभी काँजी अर्थात्‌ दही जमाने वाली खटाई की दो–चार बूँदों से सम्पूर्ण क्षीरसागर नष्ट हो सकता है अर्थात्‌ फट सकता है?

**तिमिर तरुन तरनिहिं मकु गिलई। गगन मग न मकु मेघहिं मिलई॥ गोपद जल बूड़हिं घटजोनी। सहज छमा बरु छाड़ै छोनी॥ मसक फूँक मकु मेरु उड़ाई। होइ न नृपमद भरतहिं भाई॥**
भाष्य

चाहे मध्याह्न के सूर्य को अन्धकार निगल जाये, चाहे आकाश मार्ग से रहित होकर बादल में मिल जाये, चाहे गौ के खुर के जल में घड़े से जन्म लेनेवाले अगस्त्य जी (जिन्होंने समुद्र को भी सोख लिया था।) डूब जायें, चाहे पृथ्वी अपनी स्वाभाविक क्षमा को छोड़ दे, चाहे मच्छर की फूँक से सुमेरु पर्वत उड़ जाये। हे भाई! इतने पर भी भरत को राजमद नहीं हो सकता।

**लखन तुम्हार शपथ पितु आना। शुचि सुबंधु नहिं भरत समाना॥ सुगुन छीर अवगुन जल ताता। मिलइ रचइ परपंच बिधाता॥ भरत हंस रबिबंश तड़ागा। जनमि कीन्ह गुन दोष बिभागा॥ गहि गुन पय तजि अवगुन बारी। निज जस जगत कीन्ह उजियारी॥**
भाष्य

हे लक्ष्मण! तुम्हारी शपथ और पिताश्री की शपथ करके मैं बहुत सत्य कह रहा हूँ कि, भरत के समान पवित्र और सुन्दर भाई इस संसार में नहीं है। हे भैया लक्ष्मण! शुभ गुणरूप दूध और दुर्गुण रूप जल को मिला कर विधाता अर्थात्‌ ब्रह्मा जी सृष्टि करते हैं। तात्पर्य यह है कि, जैसे दूध में मिले हुए जल को हंस के अतिरिक्त कोई भी अलग नहीं कर सकता, उसी प्रकार शुभगुणों और दुर्गुणों से मिश्रित संसार में से, दुर्गुणों और सद्‌गुणों को पृथक्‌ करना सबके वश का नहीं है। सूर्यवंशरूप तालाब से जन्म लेकर भरतरूप हंस ने गुणों और दोषों का विभाग कर दिया। अवगुणरूप जल को छोड़कर गुणरूप दूध को ग्रहण करके भरत ने अपने यश से जगत में प्रकाश कर दिया।

विशेष

इस प्रकरण में ग्यारह (११) पंक्तियों द्वारा भगवान्‌ श्रीराम ने श्रीलक्ष्मण के रौद्रभाव को शान्त करते हुये उन्हें श्रीभरत के प्रति आश्वस्त करते हुये यह संकेत किया कि भरत श्रीअवध की सुरक्षा के पक्ष में भी बहुत जागरूक हैं, तुम्हारी आशंका से पूर्व ही भरत को अपनी अनुपस्थिति में श्रीअवध पर रावणादि के आक्रमण की संभावना की आशंका हो गयी थी। भरत अवध का उत्तराधिकार पाकर पागल नहीं हुये, उन्होंने श्रीचित्रकूट आने के पूर्व ही श्रीअवध की सुरक्षा की सुदृ़ढ व्यवस्था कर ली, यथाभरत** जाइ घर कीन्ह विचारू। नगर बाजि गज भवन भँडारू॥ शंपति सब रघुपति कै आही। जौ बिनु जतन चलौं तजि ताही॥ तौ परिनाम न मोरि भलाई। पाप शिरोमनि साइँ दोहाई॥ करइ स्वामि हित सेवक सोई। दूषन कोटि देइ किन कोई॥ अस विचारि शुचि सेवक बोले। जे सपनेहुँ निज धरम न डोले॥ कहि सब मरम धरम भल भाखा। जो जेहिं लायक सो तेहिं राखा॥

[[४९०]]

अर्थात्‌ भरत जी ने स्वयं विचार किया कि श्रीराम की संपत्ति और अवध को असुरक्षित छोड़कर जाना बहुत ही अनुचित होगा, परिणाम में मुझ पर ही राष्ट्रद्रोह का पाप लगेगा। ऐसा विचार कर श्रीभरत ने पवित्र सेवकों और सुरक्षाधिकारियों को स्थल-स्थल पर बड़ी ही कुशलता से नियुक्त किया, और संभावित आक्रमणों को रोकने के लिये सम्पूर्ण गोपनीय मर्मों का निर्देश किया। प्रभु श्रीराम श्रीलक्ष्मण पर व्यंग्य करते हुये कहते हैं कि मेरे स्नेह में बावले होकर तुम उत्तरदायित्वों से मुकरे, जब कि मैंने तुम्हें श्रीअवध की रक्षा में नियुक्त करना चाहा था। परंतु भरत ने ऐसा नहीं किया, वे तो श्रीअवध की सुरक्षा सुनिश्चित करके ही चित्रकूट आये हैं। अत: भरत हंस हैं तुम नहीं। “भरत हंस रविवंस तड़ागा”।

कहत भरत गुन शील सुभाऊ। प्रेम पयोधि मगन रघुराऊ॥

भाष्य

भरत जी के गुण, शील (चरित्र) और स्वभाव का वर्णन करते–करते रघुकुल के राजा श्रीराम प्रेमसागर में मग्न हो गये।

**दो०- सुनि रघुबर बानी बिबुध, देखि भरत पर हेतु।**

सकल सराहत राम सो, प्रभु को कृपानिकेतु॥२३२॥

भाष्य

श्रीराम जी की वाणी सुनकर और श्रीभरत पर प्रभु का प्रेम देखकर, सभी देवता श्रीराम जैसे कृपा के भवन अर्थात्‌ स्वामी की सराहना करने लगे।

**\* मासपारायण, सत्रहवाँ विश्राम \***

जौ न होत जग जनम भरत को। सकल धरम धुर धरनि धरत को॥ कबि कुल अगम भरत गुन गाथा। को जानइ तुम बिनु रघुनाथा॥ लखन राम सिय सुनि सुर बानी। अति सुख लहेउ न जाइ बखानी॥

भाष्य

(देवता कहने लगे) हे श्रीरघुनाथ! यदि श्रीभरत का जन्म नहीं हुआ होता तो सम्पूर्ण धर्मों की धुरी तथा पृथ्वी को कौन धारण करता? श्रीभरत के गुणों की गाथा कविकुल के लिए अगम्य है अर्थात्‌ आदि कवि से लेकर अद्दावधि उसे पूर्णतया कोई नहीं कह पाया। ऐसे कवि समूहों के लिए अगम्य श्रीभरत की गुणगाथा आपके बिना कौन जान सकता है? देवताओं की वाणी सुनकर श्रीलक्ष्मण, राम एवं सीता जी ने अत्यन्त सुख प्राप्त किया, जिसे कहा नहीं जा सकता।

**इहाँ भरत सब सहित सहाए। मंदाकिनी पुनीत नहाए॥ सरित समीप राखि सब लोगा। माँगि मातु गुरु सचिव नियोगा॥ चले भरत जहँ सिय रघुराई। साथ निषादनाथ लघु भाई॥**
भाष्य

यहाँ अर्थात्‌ श्रीअवध के वनयात्री समाज में सभी सहागन्तुकों के साथ श्रीभरत ने पवित्र मन्दाकिनी जी में स्नान किया। सभी लोगों को मन्दाकिनी के समीप रखकर, माताश्री कौसल्या, गुव्र्देव वसिष्ठ जी एवं मंत्रियों से अनुमति माँगकर श्रीभरत अपने साथ निषादोें के राजा गुह एवं छोटे भ्राता शत्रुघ्न जी को लेकर जहाँ सीता जी एवं लक्ष्मण जी के साथ रघुकुल के राजा श्रीराम विराज रहे थे, वहाँ के लिए चल पड़े।

**समुझि मातु करतब सकुचाहीं। करत कुतर्क कोटि मन माहीं॥ राम लखन सिय सुनि मम नाऊँं। उठि जनि अनत जाहिं तजि ठाऊँ॥**

[[४९१]]

दो०- मातु मते महँ मानि मोहि, जो कछु करहिं सो थोर।

अघ अवगुन छमि आदरहिं, समुझि आपनी ओर॥२३३॥

जौ परिहरहिं मलिन मन जानी। जौ सनमानहिं सेवक मानी॥ मोरे शरन राम की पनहीं। राम सुस्वामि दोष सब जनहीं॥

भाष्य

श्रीभरत माता कैकेयी का कुकृत्य समझकर, मन में संकोच कर रहे हैं और करोड़ों कुतर्क अर्थात्‌ प्रतिकूल शंका–आशंका कर रहे हैं। मन में सोचते हैं, अहा! कदाचित्‌ मेरा नाम सुनकर श्रीराम, लक्ष्मण, सीता जी अपना निवास स्थान छोड़ उठकर अन्यत्र न चले जायें। मुझे माता कैकेयी के मत में मानकर मेरे लिए वे जो कुछ भी करेंगे, वह थोड़ा ही होगा। अथवा मुझे अपने पक्ष में समझकर मेरे पाप और अवगुणों को क्षमा करके, प्रभु मेरा आदर करेंगे। यदि श्रीराम मुझे मलिन मनवाला जानकर मेरा त्याग कर दें, अथवा यदि मुझे अपना सेवक मानकर मेरा सम्मान करें। किसी भी स्थिति में श्रीराम की पनहीं ही मेरे लिए शरण अर्थात्‌ रक्षक और आश्रय है। श्रीराम एकमात्र सुन्दर स्वामी हैं, दोष मुझ सेवक का ही है।

**जग जस भाजन चातक मीना। नेम प्रेम निज निपुन नबीना॥ अस मन गुनत चले मग जाता। सकुच सनेह शिथिल सब गाता॥**
भाष्य

संसार में चातक और मछली ही यश के पात्र हैं, क्योंकि वे अपने नियम और प्रेम में निपुण अर्थात्‌ कुशल हैं तथा उनका यह नियम और प्रेम नित्य नया बना रहता है। अर्थात्‌ चातक जैसा कोई नियम का निर्वाह नहीं कर सकता और मछली जैसा किसी का प्रेम नहीं हो सकता। चातक स्वाति के जल को ही पीने का नियम लेकर उसका मरण पर्यन्त निर्वाह करता है और मछली जल से जो प्रेम करता है, उसका वह यावत्‌ जीवन निर्वाह करता है। मैं इन दोनों की अपेक्षा छोटा हूँ, क्योंकि न तो मैं चातक का नियम निभा पाया और न ही मछली का प्रेम। इस प्रकार, मन में विचार करते हुए श्रीभरत मार्ग में चले जा रहे हैं। उनके सम्पूर्ण अंग संकोच और स्नेह से शिथिल पड़ गये।

**फेरति मनहिं मातु कृत खोरी। चलत भगति बल धीरज धोरी॥ जब समुझत रघुनाथ सुभाऊ। तब पथ परत उताइल पाऊ॥ भरत दशा तेहि अवसर कैसी। जल प्रबाह जल अलि गति जैसी॥**
भाष्य

श्रीभरत के मन को माता कैकेयी द्वारा की हुई करनी लौट जाने के लिए वाध्य कर रही है, परन्तु धीरज धोरी अर्थात्‌ धैर्य–धौरेय* *धीरज की धुरी को धारण करने वाले भरत भगवान्‌ श्रीराम की भक्ति के बल से आगे चले जा रहे हैं। जब श्रीरघुनाथ के स्वभाव का स्मरण करते हैं तब मार्ग में श्रीभरत के चरण शीघ्रता से पड़ने लगते हैं। उस समय श्रीभरत की दशा किस प्रकार की है, जैसे जल के प्रवाह में जल के भ्रमर की हो जाती है। अर्थात्‌ जैसे जल का भ्रमर (काला कीड़ा) कभी जल के सामान्य होने पर रुक–रुक कर चलता है और कभी जल की तीव्रता में शीघ्रता से चलता है। उसी प्रकार, श्रीभरत का मन माता के कुकृत्य का स्मरण करके कभी उन्हें लौटने को विवश करता है, कभी भक्ति के बल से धैर्य धारण करके श्रीभरत सामान्य गति से चलते हैं और कभी प्रभु के स्वभाव का स्मरण करके जल्दी–जल्दी चलने लगते हैं।

**देखि भरत कर सोच सनेहू। भा निषाद तेहि समय बिदेहू॥**

दो०- लगे होन मंगल सगुन, सुनि गुनि कहत निषाद।

मिटिहि सोच होइहिं हरष, पुनि परिनाम बिषाद॥२३४॥

[[४९२]]

भाष्य

भरत जी के शोक और स्नेह को देखकर, उस समय निषादराज गुह विदेह हो गये, उन्हें देह की सुधि भूल गई। भरत जी के लिए मांगलिक शकुन होने लगे। उन्हें सुनकर (श्रीभरत के मुख से) विचार करके निषादराज कहने लगे, भद्र! आपका शोक मिट जायेगा, प्रसन्नता होगी, फिर परिणाम में दु:ख रूप फल भी होगा।

**विशेष– **इस यात्रा में गुह निषाद की ये तीनों बातें सत्य हुईं। श्रीराम, लक्ष्मण, सीता जी के दर्शनों से श्रीभरत का शोक मिट गया। श्रीराम–भरतमिलाप से श्रीभरत को हर्ष हुआ और पुन: प्रभु की पादुका के साथ लौटने पर प्रभु के वियोग से श्रीभरत को विषाद भी तो हुआ।

सेवक बचन सत्य सब जाने। आश्रम निकट जाइ नियराने॥ भरत दीख बन शैल समाजू। मुदित छुधित जनु पाइ सुनाजू॥

भाष्य

भरत जी ने सेवक अर्थात्‌ केवट निषादराज गुह के सभी वचनों को सत्य माना और भगवान्‌ श्रीराम के आश्रम के निकट जा पहुँचे। श्रीभरत ने वन और श्रीचित्रकूट पर्वत का जब साज–समाज देखा तो वे इतने प्रसन्न हुए, मानो भूखे को सुन्दर भोजन मिल गया हो।

**विशेष– **विनय पत्रिका पद संख्या २१९ में भक्ति को ही अमृत भोजन कहा गया है, *पेटभरि** तुलसीहिं जिवाईय भगत सुधा सुनाज। *यही सुनाज श्रीचित्रकूट में श्रीभरत जी को उपलब्ध हुआ।

ईति भीति जनु प्रजा दुखारी। त्रिबिधि ताप पीतिड़ ग्रह मारी॥ जाइ सुराज सुदेश सुखारी। होइ भरत गति तेहि अनुहारी॥

भाष्य

जैसे टिड्डी आदि छह ईतियों के भय से दु:खी तथा दैहिक, दैविक, भौतिक तीन प्रकार के तापों से एवं ग्रह तथा महामारी से पीतिड़ प्रजा सुन्दर राज्य और सुन्दर देश को पाकर सुखी हो जाती है। उसी प्रकार की श्रीभरत की गति हुई, अर्थात्‌ वे भी महाराज दशरथ की मृत्युरूप ईति के भय से दु:खी थे, उन्हें भी श्रीराम, लक्ष्मण, सीता जी के वनवास से तीनों प्रकार के ताप सता रहे थे। उन्हें मंथरारूप ग्रह दशा (सा़ढे साती) शनिश्चर की महादशा कष्ट दे रही थी और वे कैकेयी के कुकृत्यरूप महामारी से भी पीतिड़ थे। अब उन्हें विवेक के सुराज्य और श्रीचित्रकूट देश में शान्ति मिल रही है।

**राम बास बन संपति भ्राजा। सुखी प्रजा जनु पाइ सुराजा॥ सचिव बिराग बिबेक नरेशू। बिपिन सुहावन पावन देशू॥**
भाष्य

श्रीराम, लक्ष्मण, सीता जी के निवास से वन की सम्पत्ति सुशोभित हो रही है। अथवा, श्रीराम के निवासरूप सम्पत्ति से वन इस प्रकार सुशोभित है, जैसे सुन्दर राजा को प्राप्त करके प्रजा सुखी हो गई हो। वहाँ वैराग्य ही मंत्री है और विवेक राजा, सुहावना वन ही उस राज्य का सुन्दर देश है।

**भट जम नियम शैल रजधानी। शांति सुमति शुचि सुंदरि रानी॥ सकल अंग संपन्न सुराऊ। राम चरन आश्रित चित चाऊ॥**
भाष्य

अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह ये पाँच यम तथा तप, शौच सन्तोष, स्वाध्याय (अपनी वैदिक शाखा का अध्ययन) और ईश्वर का प्रणिधान ये पाँच नियम ही विवेकरूप महाराज के वीर सैनिक हैं। श्री चित्रकूट पर्वत ही विवेक महाराज की राजधानी है। शान्ति ही सुन्दर बुद्धिवाली पवित्र तथा सुन्दर महारानी है। ये विवेकरूप महाराज राज्य के सभी अंगों से परिपूर्ण एवं भगवान्‌ श्रीराम के श्रीचरणों के आश्रित तथा प्रसन्न मन वाले हैं।

**दो०- जीति मोह महिपाल दल, सहित बिबेक भुआल।**

करत अकंटक राज पुर, सुख संपदा सुकाल॥२३५॥

[[४९३]]

भाष्य

यह विवेकरूप महाराज, मोहरूप राजा को जीतकर, सुख–सम्पत्ति और सुन्दर समय के साथ, अपने श्रीचित्रकूट के नगर में निष्कंटक अर्थात्‌ शत्रुओं से विहीन होकर राज्य कर रहा है।

**बन प्रदेश मुनि बास घनेरे। जनु पुर नगर गाउँ गन खेरे॥ बिपुल बिचित्र बिहग मृग नाना। प्रजा समाज न जाइ बखाना॥**
भाष्य

उसका वन ही प्रदेश है तथा वन के परिसर में मुनियों के अनेक निवास स्थान ही मानो उस राज्य के पुर, नगर, ग्राम तथा छोटे–छोटे खेड़े अर्थात्‌ पुरवे हैं। अनेक प्रकार के विविध रंगों के पक्षी और अनेक मृग ही इस राज्य के प्रजाओं के समाज हैं, जो बखाने नहीं जा सकते।

**खगहा करि हरि बाघ बराहा। देखि महिष बृष साज सराहा॥ बयर बिहाइ चरहिं एक संगा। जहँ तहँ मनहुँ सैन चतुरंगा॥**
भाष्य

गैंडा, हाथी, सिंह, बाघ, वराह (शूकर), भैंसा, बैल, इनके साज देखकर, इनकी प्रशंसा की जाती है। ये सब पारस्परिक विरोध को छोड़कर जहाँ–तहाँ एक साथ वन में भ्रमण करते हैं। यही मानो विवेक रूप राजा की चतुरंगिणी सेना है।

**झरना झरहिं मत्त गज गाजहिं। मनहुँ निसान बिबिध बिधि बाजहिं॥ चक चकोर चातक शुक पिक गन। कूजत मंजु मराल मुदित मन॥ अलिगन गावत नाचत मोरा। जनु सुराज मंगल चहुँ ओरा॥ बेलि बिटप तृन सफल सफूला। सब समाज मुद मंगल मूला॥**
भाष्य

झरने झर रहे हैं अर्थात्‌ जल प्रवाहित कर रहे हैं। मतवाले हाथी गरज रहे हैं, मानो ये ही विवेकरूप राजा के अनेक प्रकार के नगारे बज रहे हैं। चकवे, चकोर, पपीहा, तोते, कोयल के समूह और सुन्दर हंस प्रसन्न मन से बोल रहे हैं। भ्रमर गा रहे हैं, मोर नाच रहे हैं, मानो इस सुन्दर राज्य में चारों ओर मांगलिक उत्सव हो रहे हैं। लतायें, वृक्ष और तृण (घास) सब पुष्प से युक्त हैं। इस प्रकार, वन का सम्पूर्ण समाज ही आनन्द और मंगल का आश्रय बन गया है।

**दो०- राम शैल शोभा निरखि, भरत हृदय अति प्रेम।**

तापस तप फल पाइ जिमि, सुखी सिराने नेम॥२३६॥

भाष्य

भगवान्‌ श्रीराम के पर्वत श्रीचित्रकूट की शोभा देखकर, श्रीभरत के हृदय में अत्यन्त प्रेम है, जैसे तपस्या का फल पाकर, नियम के समाप्त होने पर, तपस्वी सुखी हो गया हो।

**तब केवट ऊँचे चढि़ धाई। कहेउ भरत सन भुजा उठाई॥ नाथ देखियहिं बिटप बिशाला। पाकरि जंबु रसाल तमाला॥ तिन तरुबरन मध्य बट सोहा। मंजु बिशाल देखि मन मोहा॥ नील सघन पल्लव फल लाला। अबिरल छाहँ सुखद सब काला॥ मानहुँ तिमिर अरुनमय रासी। बिरची बिधि सकेलि सुषमा सी॥**

ए तरु सरित समीप गोसाँई। रघुबर परनकुटी जहँ छाई॥

भाष्य

तब केवट अर्थात्‌ निषादराज गुह दौड़कर, ऊँचे स्थान पर च़ढकर दोनों भुजायें उठाकर, श्रीभरत से कहने लगे, नाथ! इन विशाल चार वृक्षों को देख रहे हैं, जो पाक़ड, जामुन, आम और तमाल के नाम से जाने जाते हैं, उन्हीं वृक्षों के बीच में सुन्दर और विशाल वटवृक्ष सुशोभित हो रहा है, जिसे देखकर मन मोहित हो उठता है। इसके पल्लव नीले और अत्यन्त घने हैं, इसके फल लाल तथा सभी कालों में सुख देनेवाली छाया भी घनी है,

[[४९४]]

मानो विधाता ने सुषमा अर्थात्‌ परमशोभा को एकत्र करके अरुण और अंधकार की राशि की रचना की है। हे गोसाईं! अर्थात्‌ अपनी इन्द्रियों को नियंत्रित करके भगवान्‌ श्रीराम के भजन में लगाने वाले श्रीभरत! पूर्वोक्त ये पाँचो वृक्ष (पाक़ड, जामुन, आम, तमाल और वट) मंदाकिनी नदी के समीप में हैं। जहाँ रघुवर अर्थात्‌ सम्पूर्ण जीवों के वरणीय श्रीराम की पर्णकुटी देवताओं द्वारा छायी गई है अर्थात्‌ कुछ दिन पूर्व ही बनायी गई है।

**विशेष– **नीले पल्लव ही यहाँ अंधकार के उपमेय हैं और लाल फल अरुण के।

तुलसी तरुवर बिबिध सुहाए। कहुँ सिय पिय कहुँ लखन लगाए॥ बट छाया बेदिका बनाई। सिय निज पानि सरोज सुहाई॥

भाष्य

यहाँ तुलसी जी के अनेक श्रेष्ठ वृक्ष सुहावने लग रहे हैं। कहीं पर तो श्रीसीतापति प्रभु श्रीराम ने लगाये हैं और कहीं पर श्रीलक्ष्मण ने लगाये हैं। वटवृक्ष की छाया के नीचे भगवती श्रीसीता ने अपने करकमलों से सुहावनी यज्ञवेदिका बनाई है।

**दो०- जहँ बैठे मुनिगन सहित, नित सिय राम सुजान।**

सुनहिं कथा इतिहास सब, आगम निगम पुरान॥२३७॥

भाष्य

जिस वेदिका पर बैठे अर्थात्‌ विराजमान हुए चतुर श्रीसीता–राम जी नित्य ही सभी इतिहास तथा आगम अर्थात्‌ ऋषिप्रणीत संहितायें, वेद एवं पुराणों की कथायें सुनते हैं।

**सखा बचन सुनि बिटप निहारी। उमगे भरत बिलोचन बारी॥ करत प्रनाम चले दोउ भाई। कहत प्रीति शारद सकुचाई॥**
भाष्य

मित्र निषादराज के वचन सुनकर, पूर्वोक्त पाँचों वृक्षों को देखकर, श्रीभरत के विलोचन अर्थात्‌ विशिष्ट नेत्रों में जल उमड़ आये। दोनों भाई श्रीभरत एवं शत्रुघ्न जी प्रणाम करते हुए चले। उनका प्रेम कहते हुए सरस्वती जी भी संकुचित हो रही थीं।

**हरषहिं निरखि राम पद अंका। मानहुँ पारस पायउ रंका॥**

**रज सिर धरि हिय नयननि लावहिं। रघुबर मिलन सरिस सुख पावहिं॥ भा०– **श्रीराम के चरण चिन्हों को देखकर श्रीभरत इस प्रकार प्रसन्न हो रहे थे, मानो दरिद्र को पारस अर्थात्‌ पारसमणि मिल गया हो। प्रभु की चरणधूलि सिर पर रखकर, श्रीभरत उसे हृदय और आँखों में लगा रहे हैं। उससे वे श्रीराम के मिलन के समान सुख पा रहे हैं।

देखि भरत गति अकथ अतीवा। प्रेम मगन मृग खग ज़ड जीवा॥ सखहिं सनेह बिबश मग भूला। कहि सुपंथ सुर बरषहिं फूला॥

भाष्य

श्रीभरत की अत्यन्त अनिर्वचनीय गति को देखकर हिरण, पक्षी तथा ज़ड-जीव भी प्रेम में मग्न हो गये। श्रीभरत प्रेम के विवश होने से मित्र निषादराज को मार्ग भूल गया। सुन्दर मार्ग कहकर, देवता पुष्पवृष्टि करने लगे।

**निरखि सिद्ध साधक अनुरागे। सहज सनेह सराहन लागे॥ होत न भूतल भाव भरत को। अचर सचर चर अचर करत को॥**
भाष्य

उन्हें देखकर, सिद्ध और साधक भी अनुरक्त हो उठे अर्थात्‌ प्रेम में भर गये और श्रीभरत के स्वाभाविक स्नेह की प्रशंसा करने लगे। यदि संसार में श्रीभरत का भाव प्रकट न हुआ होता, अथवा श्रीभरत का जन्म न हुआ होता, तो ज़डों को चेतन और चेतन को ज़ड कौन करता?

[[४९५]]

दो०- प्रेम अमिय मंदर बिरह, भरत पयोधि गँभीर।

मथि प्रगटेउ सुर साधु हित, कृपासिंधु रघुबीर॥२३८॥

भाष्य

विरह को मंदराचल पर्वत बनाकर उसी से देवतारूप सन्तों के लिए श्रीभरतरूप गम्भीर क्षीरसागर का मंथन करके, कृपा के सागर, रघुकुल के वीर भगवान्‌ श्रीराम ने प्रेमरूप अमृत को प्रकट कर दिया।

**विशेष– **क्षीरसागर के मंथन से तो तेरह अन्य रत्नों के साथ अमृत प्रकट हुआ था, परन्तु भगवान्‌ श्रीराम ने श्रीभरतरूप क्षीरसागर को मथ कर प्रेमामृत को ही चौदह बार प्रकट किया।

सखा समेत मनोहर जोटा। लखेउ न लखन सघन बन ओटा॥ भरत दीख प्रभु आश्रम पावन। सकल सुमंगल सदन सुहावन॥

**करत प्रबेश मिटे दुख दावा। जनु जोगी परमारथ पावा॥ भा०– **श्रीलक्ष्मण ने घने वन के ओट में होने के कारण मित्र गुह के साथ मनोहर जोड़ी श्रीभरत–शत्रुघ्न जी को नहीं देखा। श्रीभरत ने सम्पूर्ण शुभमंगलों के निवास स्थान तथा सुन्दर पवित्र श्रीराम के आश्रम को देख लिया, आश्रम में प्रवेश करते ही श्रीभरत के सभी दु:ख दावाग्नि समाप्त हो गये, मानो योगी ने परमार्थ को पा लिया।

देखे भरत लखन प्रभु आगे। पूँछे बचन कहत अनुरागे॥ शीष जटा कटि मुनि पट बाँधे। तून कसे कर शर धनु काँधे॥

भाष्य

श्रीभरत ने देखा की श्रीलक्ष्मण प्रभु श्रीराम के आगे ख़डे हैं। वे श्रीराम के द्वारा पूछे हुए प्रश्नों के उत्तररूप वचनों को कहते–कहते प्रेममग्न हो गये हैं। उन्होंने शीश पर जटा और कटि–प्रदेश में मुनिपट अर्थात्‌ वल्कल वस्त्र बाँध रखा है। तरकस कस रखा है, उनके हाथ में बाण और स्कन्ध में धनुष शोभित है।

**बेदी पर मुनि साधु समाजू। सीय सहित राजत रघुराजू॥ बलकल बसन जटिल तनु श्यामा। जनु मुनि बेष कीन्ह रति कामा॥ कर कमलनि धनु सायक फेरत। जिय की जरनि हरत हँसि हेरत॥**
भाष्य

यज्ञ–वेदिका पर मुनि और सन्तों के समाज के साथ श्रीसीता के सहित रघुकुल के राजा श्रीरामचन्द्र विराज रहे हैं। उन्होंने वल्कल वस्त्र धारण किया है, उनके सिर पर जटा विराज रही है, उनका शरीर श्यामल है। प्रभु श्रीसीता के सहित ऐसे शोभायमान हो रहे हैं, मानोरति और कामदेव ने ही मुनि का वेश बना लिया है। प्रभु अपने करकमलों से धनुष–बाण फेर रहे हैं और हँसकर निहारते हुए जीवमात्र के जलन को समाप्त कर रहे हैं।

**दो०- लसत मंजु मुनि मंडली, मध्य सीय रघुचंद।**

**ग्यान सभा जनु तनु धरे, भगति सच्चिदानंद॥२३९॥ भा०– **मुनि–मण्डली के मध्य में भगवती श्रीसीता एवं रघुकुल के चन्द्रमा भगवान्‌ श्रीराम सुशोभित हो रहे हैं, मानो ज्ञान की सभा में भक्ति तथा सच्चिदानन्द अर्थात्‌ सत्‌–चित्त्‌–आनन्द स्वरूप परब्रह्म ही शरीर धारण करके विराजमान हैं।

सानुज सखा समेत मगन मन। बिसरे हरष शोक सुख दुख गन॥ पाहि नाथ कहि पाहि गोसाईं। भूतल परे लकुट की नाईं॥

[[४९६]]

भाष्य

श्रीशत्रुघ्न एवं श्रीनिषादराज के साथ श्रीभरत का मन मग्न हो गया। वे हर्ष, शोक, सुख और दु:खों के समूहों को भूल गये। हे नाथ! हे गोसाईं! प्रभु श्रीराम मेरी रक्षा कीजिये–रक्षा कीजिये। ऐसा कह कर, श्रीभरत छोटी–सी छड़ी के समान पृथ्वी पर संज्ञाशून्य की दशा में गिर पड़े।

**बचन सप्रेम लखन पहिचाने। करत प्रनाम भरत जिय जाने॥ बंधु सनेह सरस एहि ओरा। उत साहिब सेवा बर जोरा॥ मिलि न जाइ नहिं गुदरत बनई। सुकबि लखन मन की गति भनई॥ रहे राखि सेवा पर भारू। च़ढी चंग जनु खैंच खेलारू॥**
भाष्य

श्रीभरत के प्रेमपूर्वक वचन को लक्ष्मण जी ने पहचान लिया और यह भी जान लिया कि, श्रीभरत प्रेमपूर्वक प्रभु को प्रणाम कर रहे हैं। इस ओर भ्राता का स्नेह ब़ढता जा रहा है और उस ओर स्वामी की सेवा भी अपना बल ब़ढा रही है अर्थात्‌ लक्ष्मण जी के हृदय में उमड़ा हुआ श्रीभरत के प्रति भ्रातृस्नेह उन्हें श्रीभरत से मिलने के लिए विवश कर रहा है और उधर स्वामी श्रीराम की सेवा श्रीलक्ष्मण को सेवा करते रहने के लिए बाध्य कर रही है। अत: न तो श्रीलक्ष्मण से श्रीभरत को मिला जा रहा है और न ही उनसे श्रीभरत के सम्बन्ध में प्रभु से कुछ कहते बन रहा है। कोई सुकवि ही श्रीलक्ष्मण की इस मानसिक दशा का वर्णन कर सकता है। लक्ष्मण जी अपना सम्पूर्ण भार सेवा पर ही रख चुके हैं, उन्होंने अपने मन को सेवा के प्रति इसी प्रकार खींचा जैसे कुशल पतंग उड़ाने वाला खिलाड़ी आकाश में च़ढी हुई पतंग को खींच लेता है।

**कहत सप्रेम नाइ महि माथा। भरत प्रनाम करत रघुनाथा॥ उठे राम सुनि प्रेम अधीरा। कहुँ पट कहुँ निषंग धनु तीरा॥**
भाष्य

श्रीलक्ष्मण पृथ्वी पर सिर नवाकर प्रेमपूर्वक प्रभु से कहने लगे, हे श्रीरघुनाथ! भैया श्रीभरत पृथ्वी पर मस्तक नवाकर आपको प्रेमपूर्वक प्रणाम कर रहे हैं। यह सुनकर, प्रेम में अधीर होते हुए अर्थात्‌ अपने धैर्य का त्याग करते हुए भगवान्‌ श्रीराम आसन पर से उठ ख़डे हुए, उनका उत्तरीय वस्त्र कहीं गिर पड़ा, तरकस कहीं गिरा, धनुष–बाण कहीं गिरे।

**दो०- बरबस लिए उठाइ उर, लाए कृपानिधान।**

**भरत राम की मिलनि लखि, बिसरा सबहिं अपान॥२४०॥ भा०– **कृपा के कोश भगवान्‌ श्रीराम ने पृथ्वी पर पड़े हुए श्रीभरत को बरबस अर्थात्‌ श्रीभरत के नहीं चाहने पर भी, बलपूर्वक उठा लिया और हृदय से लगा लिया। श्रीभरत और भगवान्‌ श्रीराम का मिलन अर्थात्‌ मिलाप देखकर सभी को अपनापन भूल गया।

मिलनि प्रीति किमि जाइ बखानी। कबिकुल अगम करम मन बानी॥ परम प्रेम पूरन दोउ भाई। मन बुधि चित अहमिति बिसराई॥

भाष्य

कविकुल के लिए कर्म, मन और वाणी से अगम्य श्रीराम–भरत की मिलनि और उनकी प्रीति किस प्रकार कही जाये? दोनों भाई श्रीराम–भरत जी परमपूजनीय प्रेम से परिपूर्ण हैं, उन्होंने मन, बुद्धि, अहंकार और चित्त इन सबको भुला दिया है।

**कहहु सो प्रेम प्रगट को करई। केहि छाया कबि मति अनुसर्रई॥ कबिहिं अरथ आखर बल साँचा। अनुहरि ताल गतिहि नट नाचा॥**

[[४९७]]

भाष्य

यहाँ चारों वक्ता श्रीभुशुण्डि, शङ्करजी, याज्ञवल्क्य जी एवं तुलसीदास जी अपने–अपने श्रोताओं श्रीगरुड़, पार्वती, भरद्वाज एवं श्रीवैष्णव सन्तगण के मन को सावधान करते हुए कहते हैं कि, भला बताइये, भगवान्‌ श्रीराम और श्रीभरत के उस प्रेम को कौन प्रकट करे? कवि की मति (बुद्धि) किसकी छाया का अनुसरण करे। कवि को अर्थ और अक्षरों का ही वास्तविक बल होता है। नट, ताल की गति का अनुसरण करके ही नाचता है।

**अगम सनेह भरत रघुबर को। जहँ न जाइ मन बिधि हरि हर को॥ सो मैं कुमति कहौं केहि भाँती। बाज सुराग कि गाँडर ताँती॥**
भाष्य

श्रीभरत एवं भगवान्‌ श्रीराम का प्रेम इतना अगम्य अर्थात्‌ कठिन है कि जहाँ ब्रह्माजी, विष्णुजी, शिव जी का मन भी नहीं जाता। उसको कुत्सित बुद्धिवाला मैं (तुलसीदास, भुशुण्डि, शिव, याज्ञवल्क्य) किस प्रकार से कहूँ? क्या गाँडर अर्थात्‌ गाँठवाली कोमल पत्तियों की घास से बनी ताँत से बनी हुई सारंगी से सुन्दर राग बज सकती है? वह तो एक ही रग़ड में टूट जायेगी।

**मिलनि बिलोकि भरत रघुबर की। सुरगन सभय धुकधुकी धरकी॥**

**समुझाए सुरगुरु ज़ड जागे। बरषि प्रसून प्रशंसन लागे॥ भा०– **श्रीराम एवं श्रीभरत का मिलन देखकर देवताओं के समूह डर गये, उनकी धुकधुकी अर्थात्‌ छाती धड़कने लगी। देवगुरु बृहस्पति ने समझाया, फिर वे स्वार्थ से ज़ड देवता जगे और पुष्पवर्षा करके प्रशंसा करने लगे।

दो०- मिलि सप्रेम रिपुसूदनहिं, केवट भेंटेउ राम।

भूरि भाय भेंटे भरत, लछिमन करत प्रनाम॥२४१॥

भाष्य

श्रीराम ने प्रेमपूर्वक शत्रुघ्न जी से मिलकर निषादराज को गले से लगा लिया और श्रीभरत ने प्रणाम करते हुए लक्ष्मण जी को अत्यन्त भाव से हृदय से लगाया।

**भेंटेउ लखन ललकि लघु भाई। बहुरि निषाद लीन्ह उर लाई॥**

**पुनि मुनिगन दुहुँ भाइन बंदे। अभिमत आशिष पाइ अनंदे॥ भा०– **श्रीलक्ष्मण ने ललककर अर्थात्‌ प्रेम से आकुल होकर छोटे भाई शत्रुघ्न जी को भेंटा अर्थात्‌ मिले, फिर उन्होंने निषादराज गुह को गले से लगा लिया, फिर दोनों भाई श्रीभरत एवं शत्रुघ्न जी ने श्रीचित्रकूट के मुनिगणों को वन्दन किया तथा उनसे मनचाहा आशीर्वाद पाकर आनन्दित हुए।

सानुज भरत उमगि अनुरागा। धरि सिर सिय पद पदुम परागा॥ पुनि पुनि करत प्रनाम उठाए। सिर कर कमल परसि बैठाए॥

भाष्य

छोटे भाई शत्रुघ्न जी के सहित श्रीभरत ने प्रेम में उमंगित होकर सीता जी के चरणकमलों की धूलरूप पराग को अपने सिर पर धारण किया। बार–बार प्रणाम करते हुए दोनों भ्राता श्रीभरत–शत्रुघ्न जी को सीता जी ने उठा लिया। उनके सिर पर अपने करकमल को स्पर्श करके उन्हें बिठाया।

__सीय अशीष दीन्ह मन माहीं। मगन सनेह देह सुधि नाहीं॥ सब बिधि सानुकूल लखि सीता। भे निसोच उर अपडर बीता॥

भाष्य

श्रीसीता ने दोनों भ्राता श्रीभरत–शत्रुघ्न जी को मन में ही आशीर्वाद दिया। वे प्रेम में मग्न हो गईं, उन्हें शरीर का स्मरण भी नहीं रहा। श्रीसीता को सब प्रकार से अपने अनुकूल देखकर श्रीभरत–शत्रुघ्न जी शोक से रहित हो गये। उनके हृदय का अपडर अर्थात्‌ कल्पित भय दूर हो गया।

[[४९८]]

कोउ कछु कहइ न कोउ कछु पूँछा। प्रेम भरा मन निज गति छूँछा॥ तेहि अवसर केवट धीरज धरि। जोरि पानि बिनवत प्रनाम करि॥

भाष्य

न कोई किसी से कुछ कह रहा है और न कोई किसी से कुछ पूछ रहा है। सबका मन प्रेम से भरा हुआ है, परन्तु निज गति अर्थात्‌ अपने संकल्प की गति से शून्य हो गया है। उसी समय धैर्य धारण करके, प्रणाम करके, हाथ जोड़कर निषादराज केवट विनती करने लगे।

**दो०- नाथ साथ मुनिनाथ के, मातु सकल पुर लोग।**

सेवक सेनप सचिव सब, आए बिकल बियोग॥२४२॥

भाष्य

हे नाथ! (राघवजी) मुनियों के राजा वसिष्ठ जी के साथ आपके वियोग में व्याकुल हुई सभी मातायें, नगर के लोग, सेवक, सेनापति और सभी मंत्रिगण आपके दर्शनों के लिए श्रीचित्रकूट आये हैं। (हम लोग आपके आश्रम का पता लगाने के लिए आये थे, अब उन लोगों को बुला लिया जाये।)

**शीलसिंधु सुनि गुरु आगमनू। सिय समीप राखे रिपुदमनू॥ चले सबेग राम तेहि काला। धीर धरम धुर दीनदयाला॥**
भाष्य

शील अर्थात्‌ स्वभाव के सागर धर्म की धुरी को धारण करने में धैर्यवान, दीनों पर दया करने वाले भगवान्‌ श्रीराम गुरुदेव का आगमन सुनकर सीता जी के समीप शत्रुघ्न जी को रखा और स्वयं उसी समय वेगपूर्वक चल दिये।

**गुरुहिं देखि सानुज अनुरागे। दंड प्रनाम करन प्रभु लागे॥ मुनिवर धाइ लिए उर लाई। प्रेम उमगि भेंटे दोउ भाई॥**
भाष्य

गुव्र्देव को देखकर, छोटे भाई श्रीलक्ष्मण के सहित भगवान्‌ श्रीराम अनुराग से भर गये और उन्हें दण्डवत्‌ प्रणाम करने लगे। मुनिश्रेष्ठ वसिष्ठ जी ने दौड़कर दोनों भाई श्रीराम–लक्ष्मण जी को हृदय से लगा लिया और प्रेम के तरंग में तरंगित होकर उन्हें मिले।

**प्रेम पुलकि केवट कहि नामू। कीन्ह दूरि ते दंड प्रनामू॥ रामसखा ऋषि बरबस भेंटे। जनु महि लुठत सनेह समेटे॥**
भाष्य

प्रेम से रोमांचित होकर अपना नाम कहकर निषादराज गुह ने दूर से ही वसिष्ठ जी को दण्डवत्‌ प्रणाम किया और महर्षि वसिष्ठ जी श्रीराम के सखा गुह जी को बलपूर्वक उठाकर हृदय से लगाकर मिले, मानो पृथ्वी पर लोटते हुए स्नेह को ही वसिष्ठ जी ने समेट कर हृदय से लगा लिया हो।

**विशेष– **यहाँ दो बार वसिष्ठ जी को निषाद जी के प्रणाम का वर्णन आता है। इसका कारण यह है कि, पहली बार निषाद जी ने वसिष्ठ जी को श्रीराम के मित्र के अधिकार से प्रणाम किया था और दूसरी बार श्रीराम की कुटिया का पता लगा लेने के हर्ष में श्रीभरत के मित्र के अधिकार से अथवा इस बार भी उन्होंने स्वयं को श्रीराम परिवार का मानकर उस अधिकार से ही प्रणाम किया।

रघुपति भगति सुमंगल मूला। नभ सराहि सुर बरषहिं फूला॥ एहि सम निपट नीच कोउ नाहीं। बड़ बसिष्ठ सम को जग माहीं॥

दो०- जेहि लखि लखनहु ते अधिक, मिले मुदित मुनिराउ।

सो सीतापति भजन को, प्रगट प्रताप प्रभाउ॥२४३॥

[[४९९]]

भाष्य

सभी सुमंगलों की आश्रय तथा कारणरूप श्रीरामभक्ति की सराहना करके आकाश से देवता पुष्पवृष्टि करने लगे और बोले, संसार में निषादराज गुह जैसा अत्यन्त निकृय् कोई नहीं है और महर्षि वसिष्ठ जी के समान संसार में कोई बड़ा भी नहीं है, जिस निषाद को देखकर लक्ष्मण जी से अधिक मानकर प्रसन्नतापूर्वक मुनिराज वसिष्ठ जी उससे मिल रहे हैं, वह तो श्रीसीतापति श्रीराम की भक्ति का ही प्रताप और प्रभाव प्रकट है। अन्यथा, वसिष्ठ जी जैसे सर्वोच्च कोटि का ब्राह्मण अपने वर्णाभिमान को छोड़कर लक्ष्मण जी से भी अधिक वात्सल्य से निषादराज को क्यों मिलते?

**आरत लोग राम सब जाना। करुनाकर सुजान भगवाना॥**

जो जेहि भाय रहा अभिलाषी। तेहि तेहि कै तसि तसि रुचि राखी॥ सानुज मिलि पल महँ सब काहू। कीन्ह दूरि दुख दारुन दाहू॥ यह बबिड़ ात राम कै नाहीं। जिमि घट कोटि एक रबि छाहीं॥

भाष्य

करुणा की खानि, चतुर ऐश्वर्य आदि छहों माहात्म्यों से युक्त भगवान्‌ श्रीराम ने सब लोगों को अपने दर्शनों के लिए आर्त्त अर्थात्‌ अत्यन्त व्याकुलता के साथ उत्सुक जाना। जो जिस भाव से प्रभु के दर्शनों के लिए इच्छुक था भगवान्‌ श्रीराम ने उस–उस व्यक्ति की उसी–उसी प्रकार से रुचि की रक्षा की। एक क्षण में छोटे भाई लक्ष्मण जी के सहित भगवान्‌ श्रीराम ने सभी को मिलकर असहनीय दु:ख और भगवत्‌ वियोग से उत्पन्न हुए ताप को दूर कर दिया। भगवान्‌ श्रीराम के लिए एक क्षण में सबसे मिल लेना यह कोई बड़ी बात नहीं है, जैसे एक सूर्य की छाया करोड़ों घड़ों को प्रभावित कर देती है अर्थात्‌ करोड़ों घड़ों में एक ही सूर्यनारायण की छाया (प्रतिबिम्ब) प्रकटरूप में दिखती है, उसी प्रकार भगवान्‌ श्रीराम ने एक होकर भी असंख्य लोगों को मिलकर सभी का दु:ख और संताप दूर कर दिया।

**मिलि केवटहिं उमगि अनुरागा। पुरजन सकल सराहहिं भागा॥ देखी राम दुखित महतारी। जनु सुबेलि अवली हिम मारी॥**
भाष्य

अनुराग के उमंग से युक्त होकर निषादराज केवट को मिलकर सभी अवधवासी उनके सौभाग्य की सराहना करने लगे। भगवान्‌ श्रीराम ने माताओं को उसी प्रकार दु:खी देखा, मानो हिमपात के द्वारा मारी हुई सुन्दर लताओं की पंक्तियाँ हों।

**प्रथम राम भेंटी कैकेयी। सरल सुभाय भगति मति भेयी॥ पग परि कीन्ह प्रबोध बहोरी। काल करम बिधि सिर धरि खोरी॥**
भाष्य

सर्वप्रथम श्रीराम कैकेयी से मिले उनके गले लगे। अपने सरल स्वभाव और भक्ति से प्रभु ने कैकेयी की बुद्धि को भिंगो दिया। फिर उनके चरणों पर पड़कर, प्रभु ने प्रबोध किया अर्थात्‌ कैकेयी जी को समझाया, माँ! काल और कर्म के कारण विधाता ने आपके सिर पर दोष म़ढ दिया।

**दो०- भेंटी रघुबर मातु सब, करि प्रबोध परितोष।**

अंब ईश आधीन जग, काहु न देइय दोष॥२४४॥

भाष्य

प्रबोध और परितोष करके अर्थात्‌ दिव्यज्ञान एवं उपदेश और संतोष का उपाय करके, समझा–बुझाकर श्रीराम सब माताओं से मिले और अनेक रूप धारण करके सब के गले लगे। बोले, हे माताओं! यह जगत्‌ ईश्वर के अधीन है, इसलिए किसी को दोष मत दीजिये।

[[५००]]

गुरुतिय पद बंदे दुहुँ भाई। सहित बिप्रतिय जे सँग आई॥ गंग गौरि सम सब सनमानीं। देहिं अशीष मुदित मृदु बानीं॥

भाष्य

दोनों भाई श्रीराम–लक्ष्मण जी ने गुरुपत्नी अरुन्धती जी के श्रीचरणों को वन्दन किया और साथ में जो ब्राह्मणपत्नियाँ आई थीं उनके भी चरणों को प्रेमपूर्वक वन्दन किया। गंगाजी, एवं पार्वती जी की भाँति सबका सम्मान किया। सभी ब्राह्मण पत्नियाँ कोमल वाणी में श्रीराम को आशीर्वाद देने लगीं।

**गहि पद लगे सुमित्रा अंका। जनु भेंटी संपति अति रंका॥ पुनि जननी चरननि दोउ भ्राता। परे प्रेम ब्याकुल सब गाता॥**
भाष्य

इसके अनन्तर दोनों भाई श्रीराम–लक्ष्मण जी चरण पक़डकर सुमित्रा जी की गोद में जाकर लिपट गये, मानो अत्यन्त दरिद्र को सम्पत्ति मिल गई हो, फिर श्रीराम–लक्ष्मण जी माता कौसल्या जी के चरणों में पड़ गये, उनके सभी अंग प्रेम से व्याकुल हो रहे थे।

**अति अनुराग अंब उर लाए। नयन सनेह सलिल अन्हवाए॥ तेहि अवसर कर हरष बिषादू। किमि कबि कहै मूक जिमि स्वादू॥**
भाष्य

अत्यन्त अनुराग (प्रेम) से माता कौसल्या जी ने दोनों भ्राता श्रीराम–लक्ष्मण जी को हृदय से लगा लिया और नेत्रों से बहते हुए प्रेम के जल से उन्हें नहला दिया। उस समय के हर्ष और शोक को कवि कैसे कह सकता है? जैसे गूँगा स्वाद को कह नहीं सकता, केवल अनुभव करता है उसी प्रकार, कवि उस समय के हर्ष और विषाद को कह नहीं पा रहा है।

**मिलि जननिहिं सानुज रघुराऊ। गुरु सन कहेउ कि धारिय पाँऊ॥ पुरजन पाइ मुनीश नियोगू। जल थल तकि तकि उतरेउ लोगू॥**
भाष्य

छोटे भाई लक्ष्मण जी के साथ रघुकुल के राजा भगवान्‌ श्रीराम ने माता कौसल्या जी से मिलकर गुव्र्देव से कहा कि, आश्रम में पधारें। अवधवासी सभी लोग गुरुदेव वसिष्ठ जी का आदेश पाकर, जल और स्थल देख– देखकर मंदाकिनी पार उतरे।

**दो०- महिसुर मंत्री मातु गुरु, गने लोग लिए साथ।**

पावन आश्रम गमन किय, भरत लखन रघुनाथ॥२४५॥

भाष्य

ब्राह्मण, मंत्री, मातायें, गुरुजन और अन्य गणमान्य सभी लोगों को साथ लेकर श्रीभरत, लक्ष्मण तथा राम जी पवित्र आश्रम को प्रस्थान किये।

**सीय आइ मुनिवर पग लागी। उचित अशीष लही मन माँगी॥ गुरुपत्निहिं मुनितियन समेता। मिली प्रेम कहि जाइ न जेता॥ बंदि बंदि पग सिय सबही के। आशिरबचन लहे प्रिय जी के॥**
भाष्य

भगवती श्रीसीता आकर मुनिश्रेष्ठ वसिष्ठ जी के चरणों में लिपट गईं और उन्होंने मन माँगा उचित आशीर्वाद पाया। ब्राह्मणों की पत्नियों के साथ गुरुपत्नी अरुन्धती जी को सीता जी मिलीं। उनके हृदय में जितना प्रेम था, वह नहीं कहा जा सकता। सबके चरणों को बार–बार वन्दन करके सीता जी ने अपने मन को प्रिय लगने वाले आशीर्वाद प्राप्त किये।

**सासु सकल जब सीय निहारी। मूदे नयन सहमि सुकुमाारी॥ परी बधिक बश मनहुँ मराली। काह कीन्ह करतार कुचाली॥**

[[५०१]]

भाष्य

जब सासुओं ने सुकुमारी श्रीसीता को निहारा अर्थात्‌ देखा, तब उन्होंने दु:ख से सहम कर अर्थात्‌ भयभीत होकर अपनी आँखें मूँद ली, मानो बहेलिए के वश में हंसिनी पड़ गई हो। विधाता ने यह कौन–सा कुचाल कर डाला? अथवा, जब सुकुमारी श्रीसीता ने अपनी सभी सासुओं को विधवारूप में देखा, तब उन्होंने दु:ख से भयभीत होकर अपनी आँखें बन्द कर ली। वे सोचने लगीं, मानो हंसिनी बहेलिए के वश में हो गई है, बुरी चाल चलने वाले विधाता ने यह क्या कर दिया?

**तिन सिय निरखि निपट दुख पावा। सो सब सहिय जो दैव सहावा॥ जनकसुता तब उर धरि धीरा। नील नलिन लोचन भरि नीरा॥ मिली सकल सासुन सिय जाई। तेहि अवसर करुना महि छाई॥**
भाष्य

सासुओं ने श्रीसीता को तपस्विनी वेश में देखकर बहुत दु:ख पाया। वे सोचने लगीं कि, वह सब सहना पड़ता है, जो ईश्वर सहाते हैं (सहन करने के लिए विवश करते हैं)। तब जनकनन्दिनी सीता जी हृदय में धैर्य धारण करके नीले कमल जैसे नेत्रों में अश्रुजल भरकर, जाकर सभी सासुओं से मिलीं, उस अवसर पर करुणा पृथ्वी पर छा गई। अथवा, पृथ्वी करुणा से ढँक गई।

**दो०- लागि लागि पग सबनि सिय, भेंटति अति अनुराग।**

**हृदय अशीषहिं प्रेम बश, रहिहहु भरी सुहाग॥२४६॥ भा०– **श्रीसीता सभी सासुओं के चरणों में लिपट–लिपटकर अत्यन्त प्रेम से सबके गले मिल रही हैं। सभी (सात सौ) सासुयें प्रेमवश होकर हृदय में आशीर्वाद दे रही हैं, हे सीते! तुम सदैव सौभाग्य से भरी रहोगी।

बिकल सनेह सीय सब रानी। बैठन सबहि कहेउ गुरु ग्यानी॥ कहि जग गति मायिक मुनिनाथा। कहे कछुक परमारथ गाथा॥

भाष्य

श्रीसीता एवं राजघराने की सभी स्त्रियाँ प्रेम से व्याकुल हो रही हैं। ज्ञानी गुव्र्देव वसिष्ठ जी ने सभी को बैठने के लिए कहा। मायामय संसार की गति का वर्णन करके, मुनियों के राजा वसिष्ठ जी ने मोक्ष की कुछ गाथायें सुनायीं।

**नृप कर सुरपुर गमन सुनावा। सुनि रघुनाथ दुसह दुख पावा॥ मरन हेतु निज नेह बिचारी। भे अति बिकल धीर धुर धारी॥**
भाष्य

महाराज दशरथ का इन्द्रपुर गमन अर्थात्‌ शरीर त्यागकर इन्द्रलोक जाने का समाचार सुनाया, यह सुनकर रघुकुल के स्वामी श्रीराम ने असहनीय दु:ख पाया। अपने पर सत्यप्रेम को ही महाराज के मरने का कारण विचार कर, धीरों की धुरी को धारण करने वाले प्रभु श्रीराम बहुत व्याकुल हो गये।

**कुलिश कठोर सुनत कटु बानी। बिलपत लखन सीय सब रानी॥ शोक बिकल अति सकल समाजू। मानहुँ राज अकाजेउ आजू॥**
भाष्य

वज्र के समान कठोर क़डवी वाणी सुनकर, लक्ष्मणजी, भगवती श्रीसीता एवं सभी महाराज दशरथ की रानियाँ विलाप करने लगीं। सम्पूर्ण समाज शोक से अत्यन्त व्याकुल हो उठा, मानो आज ही महाराज का अकाज अर्थात्‌ शरीर छोड़कर इन्द्रलोक गमन हुआ हो।

**मुनिवर बहुरि राम समुझाए। सहित समाज सुसरित नहाए॥ ब्रत निरंबु तेहि दिन प्रभु कीन्हा। मुनिहु कहे जल काहु न लीन्हा॥**

[[५०२]]

भाष्य

मुनिश्रेष्ठ वसिष्ठ जी ने फिर श्रीराम को समझाया। प्रभु श्रीराम ने अपने समाज के सहित मंदाकिनी जी में स्नान किया। उस दिन प्रभु श्रीराम ने सीता एवं लक्ष्मण जी के साथ निरंबु व्रत अर्थात्‌ निर्जल व्रत किया। वसिष्ठ जी ने इस व्रत की सहमति दी और किसी अवधवासी ने जल आदि नहीं लिया।

**दो०- भोर भए रघुनंदनहिं, जो मुनि आयसु दीन्ह।**

श्रद्धा भगति समेत प्रभु, सो सब सादर कीन्ह॥२४७॥

भाष्य

प्रात:काल होने पर रघुकुल को आनन्दित करने वाले श्रीराम को वसिष्ठ जी ने जो आज्ञा दी, प्रभु ने श्रद्धा अर्थात्‌ आस्था तथा भक्ति अर्थात्‌ प्रेम के सहित वह सब आदरपूर्वक सम्पन्न किया।

**करि पितु क्रिया बेद जसि बरनी। भे पुनीत पातक तम तरनी॥ जासु नाम पावक अघ तूला। सुमिरत सकल सुमंगल मूला॥ शुद्ध सो भयउ साधु सम्मत अस। तीरथ आवाहनि सुरसरि जस॥**
भाष्य

वेदों में जिस प्रकार वर्णित है, उसी प्रकार से अपने पिताश्री की श्राद्ध–क्रिया करके पापरूप अन्धकार के लिए सूर्य भगवान्‌ श्रीराम पवित्र हुए। जिनका नाम स्मरणमात्र से पापरूप रूई के लिए अग्नि के समान है तथा जो स्मरण करने पर सम्पूर्ण शुभों और मंगलों का आश्रय है और कारण भी, वे भी शुद्ध हुए। यहाँ सन्तों का इस प्रकार की सम्मति है कि, जैसे नित्य शुद्ध गंगा जी की शुद्धि के लिए तीर्थों का आवाहन्‌ किया जाता है, जबकि गंगा जी के सम्पर्क से सभी तीर्थ शुद्ध हो जाते हैं, ठीक उसी प्रकार, शुद्ध सच्चिदानन्दघन भगवान्‌ श्रीराम की शुद्धि के सम्बन्ध में समझना चाहिये। जिनके सम्पर्क से सम्पूर्ण वैदिककृत्य शुद्ध होते हैं, उन प्रभु की शुद्धि का प्रयोग केवल लोकमर्यादा की रक्षा है।

**शुद्ध भए दुइ बासर बीते। बोले गुरु सन राम पिरीते॥ नाथ लोग सब निपट दुखारी। कंद मूल फल अंबु अहारी॥ सानुज भरत सचिव सब माता। देखि मोहि पल जिमि जुग जाता॥ सब समेत पुर धारिय पाँऊ। आपु इहाँ अमरावति राऊ॥ बहुत कहेउँ सब कियउँ ढिठाई। उचित होइ तस करिय गोसाँई॥**
भाष्य

श्रीराम के शुद्ध हुए दो दिन बीते, फिर प्रीति से युक्त श्रीराम, गुरुदेव से प्रार्थना करते हुए बोले, हे नाथ! कन्दमूल, फल और जल का आहार करते हुए सभी श्रीअवध के लोग बहुत दु:खी हो रहे हैं, क्योंकि मेरे लिए विहित कन्दमूल इन्हें खाना पड़ रहा है, जो इनके लिए विहित नहीं है। छोटे भाई शत्रुघ्न के सहित भरत, मंत्रीगण और सभी माताओं को देखकर, मेरे लिए एक पल युग के समान बीत रहा है, क्योंकि इनके यहाँ रहने पर मेरी प्रतिज्ञा टूट रही है। कारण यह है कि, मुझे उदासी अर्थात्‌ मात्र श्रीसीता एवं लक्ष्मण के साथ वन में निवास करने के लिए आदिष्ट किया गया है। यहाँ माताओं, दोनों भ्राताओं, मंत्रियों को देखकर, अपने व्रत के भंग होने के भय से मुझे इतना कष्ट हो रहा है कि, एक पल युग के समान बीत रहे हैं। अथवा, हे प्रभु! यद्दपि मैं सुखी हूँ, क्योंकि शत्रुघ्न के साथ भरत, सभी मंत्रियों को देखकर मुझे तो इतनी प्रसन्नता हो रही है कि “**पल जिमि जुग जाता” **अर्थात्‌ एक युग एक क्षण के समान बीत रहा है अर्थात्‌ यद्दपि मैं आप सबकी उपस्थिति में बहुत सुखी हूँ, परन्तु कन्दमूल, फल आदि आहार करके लोग दु:खी हैं। इसलिए सबके सहित अब श्रीअवधपुर को पधार जाइये, क्योंकि आप तो यहाँ हैं और महाराज अमरावती में अर्थात्‌ इन्द्रलोक में, अयोध्या सब प्रकार से असुरक्षित है। मैंने बहुत कहा और सब धृष्टता की, हे स्वामी! जो उचित हो आप वही कीजिये।

[[५०३]]

**विशेष– *देखि मोहि पल जिमि जुग जाता अंश का यद्दपि मानस पीयूष, गीता प्रेस, सिद्धान्ततिलक तथा गूढार्थचन्द्रिका आदि टीकाओं में एक ही प्रकार का अर्थ लिखा गया है, जिसमें भगवान्‌ श्रीराम कहते हैं कि, भरत, शत्रुघ्न, सभी मंत्री और माताओं को देखकर, मुझे एक पल युग के समान बीत रहा है, परन्तु यह अर्थ उचित नहीं है और न ही यहाँ के अक्षर इस अर्थ का समर्थन कर रहे हैं। यदि “युग पल जिमि जाता” वाक्य खण्ड होता तब पूर्व के टीकाकारों का अर्थ उचित लगता, परन्तु जिमि शब्द का अन्वय पल शब्द के साथ है, न कि युग शब्द के साथ, इसलिए पूर्व अर्थ से न तो मैं सहमत हूँ और न ही वहाँ के अक्षर। अत: यही अर्थ करना चाहिये कि, श्रीरघुनाथ जी कह रहे हैं कि, पल जिमि जुग जाता *अर्थात्‌ यद्दपि भरत, शत्रुघ्न, मंत्री और सभी माताओं को देखकर युग मुझे पल के समान जा रहा है। इनकी उपस्थिति में वनवास की अवधि सुख से बीत जायेगी फिर भी यह दु:ख है। अत: आप पधार जाइये, क्योंकि आप यहाँ हैं और महाराज इन्द्रलोक में, अयोध्या सुरक्षित नहीं है।

दो०- धर्म सेतु करुनायतन, कस न कहहु अस राम।

लोग दुखित दिन दुइ दरस, देखि लहहिं बिश्राम॥२४८॥

भाष्य

वसिष्ठ जी बोले, हे धर्म के सेतु और कव्र्णा के धाम स्वरूप श्रीराम! आप ऐसा क्यों नहीं कहेंगे? दुखित श्रीअवध के लोग आपके दर्शन पाकर दो दिन तो विश्राम कर लें।

**राम बचन सुनि सभय समाजू। जनु जलनिधि महँ बिकल जहाजू॥**

**सुनि गुरु गिरा सुमंगल मूला। भयउ मनहुँ मारुत अनुकूला॥ भा०– **श्रीराम का अवध प्रत्यागमन सम्बन्धी वचन सुनकर, सम्पूर्ण अवधसमाज भयभीत हो गया, मानो सागर के मध्य डूबने की आशंका से जहाज विकल हो रहा हो। सुन्दर मंगलों की मूल गुरुदेव के वाणी को सुनकर सब लोग इतने प्रसन्न हुए, मानो उन्हें अनुकूल वायु मिल गया हो, जिससे नाव किनारे लग जायेगी।

पावन पय तिहुँ काल नहाहीं। जो बिलोकि अघ ओघ नसाहीं॥ मंगलमूरति लोचन भरि भरि। निरखहिं हरषि दंडवत करि करि॥

भाष्य

श्रीअयोध्यावासी पवित्र पयस्विनी के जल में तीनों काल स्नान करते हैं, जिसे देखकर पापों के समूह नष्ट हो जाते हैं। स्नान के पश्चात्‌ मंगलमूर्ति श्रीराम, लक्ष्मण, सीता जी को बार–बार नेत्रों में भरकर पुन:–पुन: प्रणाम करके प्रसन्नतापूर्वक निहारते हैं।

**राम शैल बन देखन जाहीं। जहँ सुख सकल शकल दुख नाहीं॥**

**झरना झरहिं सुधासम बारी। त्रिबिध तापहर त्रिबिध बयारी॥ भा०– **श्रीअवधवासी श्रीराम के पर्वत श्रीचित्रकूट और उनके वनों को देखने जाते हैं, जहाँ सब सुख है पर दु:खों का शकल अर्थात्‌ खण्ड भी नहीं है। यहाँ के झरने अमृत के समान जल प्रवाहित करते रहते हैं। शीतल, मन्द, सुगन्ध तीनों प्रकार की वायु तीनों प्रकार के आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक तापों को हर लेता है।

बिटप बेलि तृन अगनित जाती। फल प्रसून पल्लव बहु भाँती॥ सुंदर शिला सुखद तरु छाहीं। जाइ बरनि बन छबि केहि पाहीं॥

भाष्य

वहाँ के वृक्ष, लतायें और तृण अनेक जातियों के हैं और सब प्रकार से फल, पुष्प और पल्लवों से सम्पन्न रहते हैं। वहाँ की शिलायें सुन्दर और वृक्षों की छाया सुख देने वाली हैं। श्रीरामवन अर्थात्‌ श्रीचित्रकूट की छवि किसके द्वारा अर्थात्‌ किसके पास से वर्णन का विषय बन सकती है अर्थात्‌ इसका वर्णन कौन कर सकता है?

[[५०४]]

दो०- सरनि सरोरुह जल बिहग, कूजत गुंजत भृंग।

बैर बिगत बिहरत बिपिन, मृग बिहंग बहुरंग॥२४९॥

भाष्य

तालाबों में कमल खिल रहे हैं और जल के पक्षी बोल रहे हैं तथा भौंरें गुंजार कर रहे हैं, बहुरंगे हरिण और पक्षी पारस्परिक वैर छोड़कर वन में विचरण कर रहे हैं।

**कोल किरात भिल्ल बनबासी। मधु शुचि सुंदर स्वाद सुधा सी॥ भरि भरि परन पुटी रचि रूरी। कंदमूल फल अंकुर जूरी॥ सबहिं देहिं करि बिनय प्रनामा। कहि कहि स्वाद भेद गुन नामा॥**

देहिं लोग बहु मोल न लेहीं। फेरत राम दोहाई देहीं॥

भाष्य

श्रीचित्रकूट वन में रहने वाले कोल, किरात और भील्ल, सुन्दर और अमृत के समान स्वाद वाली पवित्र मधु एवं कन्दमूल, फल तथा अंकुरों की गट्ठियों को सुन्दर रची हुई पत्तों की दोनियों में भर–भरकर मूल, फल और अंकुरों के स्वादों के भेद, गुण और नामों को कह–कहकर सभी को प्रार्थना और प्रणाम करके देते हैं। लोग उनका बहुत मूल्य दे रहे हैं, परन्तु कोल, किरात, भील्ल कुछ नहीं ले रहे हैं। वस्तुओं को लौटाने पर वे श्रीराम की दुहाई देते हैं अर्थात्‌ श्रीराम के नाम का शपथ देकर लेने के लिए विवश करते हैं।

**कहहिं सनेह मगन मृदु बानी। मानत साधु प्रेम पहिचानी॥ तुम सुकृती हम नीच निषादा। पावा दरशन राम प्रसादा॥**
भाष्य

कोल, किरात स्नेह में मग्न होकर कोमल वाणी में कहते हैं कि, साधुजन प्रेम को पहचानकर ही भाव और वस्तु का सम्मान करते हैं अर्थात्‌ आप लोग साधुजन हैं, वस्तुयें लौटाकर अथवा, उनका मूल्य देकर आप हमारे प्रेम का अपमान मत कीजिये। आप लोग सुकृत अर्थात्‌ श्रेष्ठकर्म करने वाले पुण्यात्मा जन हैं। हम निकृय् निषाद लोग हैं भगवान्‌ श्रीराम के प्रसाद से ही हमने आप लोगों के दर्शन पाये।

**हमहिं अगम अति दरस तुम्हारा। जस मरु धरनि देवधुनि धारा॥ राम कृपालु निषाद नेवाजा। परिजन प्रजउ चहिय जस राजा॥**
भाष्य

हमको आपके दर्शन उसी प्रकार कठिन थे, जैसे मरुभूमि में देवनदी गंगा जी की धारा कठिन होती है। कृपालु श्रीराम ने हम लोगों को निवाजा अर्थात्‌ कृपा पुरस्कार से पुरस्कृत किया है, जैसा राजा हो उसी प्रकार राजा के परिवार और प्रजा को भी तो होना चाहिये।

**दो०- यह जिय जानि सँकोच तजि, करिय छोह लखि नेहु।**

हमहिं कृतारथ करन लगि, फल तृन अंकुर लेहु॥२५०॥

भाष्य

हे अयोध्यावासियों! हृदय में ऐसा जानकर, संकोच छोड़कर हमारा स्नेह देखकर, आप सब हम लोगों पर ममतापूर्ण दया करें। हमें कृतार्थ करने के लिए ही हमारा फल, तृण और अंकुर (उपलक्षणतया) कन्दमूल, फल ले लें।

__तुम प्रिय पाहुने बन पगु धारे। सेवा जोग न भाग हमारे॥ देब काह हम तुमहिं गोसाँईं। ईंधन पात किरात मिताई॥

भाष्य

आप हमारे प्रिय अतिथि वन में चरण रखें अर्थात्‌ पधारे हैं, आपके सेवा योग्य हमारे भाग्य नहीं हैं। हे स्वामी! हम आपको क्या देंगे, क्योंकि हम किरातों की तो आग में जलने वाले ईंधन तथा पत्तों से ही मित्रता है अर्थात्‌ आपको देने के लिए हमारे पास सूखी लक़डी और पत्तों के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है।

[[५०५]]

यह हमारि अति बसिड़ ेवकाई। लेहिं न बासन बसन चोराई॥ हम ज़ड जीव जीव गन घाती। कुटिल कुचाली कुमति कुजाती॥ पाप करत निशि बासर जाहीं। नहिं पट कटि नहिं पेट अघाहीं॥ सपनेहुँ धरम बुद्धि कस काऊ। यह रघुनंदन दरस प्रभाऊ॥

भाष्य

हमारी आप लोगों के लिए यही बहुत बड़ी सेवा है कि, हम आपके पात्र और वस्त्र नहीं चुरा ले रहे हैं। हम दुय्जीव हैं, हम जीवगणों की हत्या करते हैं। हम कुटिल, कुचाल करने वाले, दुय्बुद्धि वाले और नीचकर्म करने वाले जाति में उत्पन्न हुए हैं। पाप करते–करते हमारे रात–दिन बीत जाते हैं। फिर भी हमारे पास तन ढँकने के लिए न तो कपड़े होते हैं और न ही हम पेट से तृप्त होते हैं अर्थात्‌ नंगे–भूखे रहकर अपना जीवन समाप्त कर देते हैं। स्वप्न में भी कभी हमारे मन में कैसी धर्मबुद्धि? यह रघुकुल को आनन्दित करने वाले भगवान्‌ श्रीराम के दर्शनों का प्रभाव है।

**जब ते प्रभु पद पदुम निहारे। मिटे दुसह दुख दोष हमारे॥ बचन सुनत पुरजन अनुरागे। तिन के भाग सराहन लागे॥**
भाष्य

हमने जब से श्रीसीता, लक्ष्मण सहित प्रभु श्रीराम के श्रीचरणकमलों के दर्शन किये हैं, तभी से हमारे असहनीय दु:ख और दोष मिट गये हैं। कोल, किरातों के वचन सुनकर, श्रीअवधपुरवासी अनुराग से पूर्ण हो गये और उनके अर्थात्‌ कोल, किरातों के भाग्य की सराहना करने लगे।

**छं०: लागे सराहन भाग सब अनुराग बचन सुनावहीं।**

बोलनि मिलनि सिय राम चरन सनेह लखि सुख पावहीं॥ नर नारि निदरहिं नेह निज सुनि कोल भिल्लनि की गिरा। तुलसी कृपा रघुबंशमनि की लोह लै लौका तिरा॥

भाष्य

सभी अवधपुरवासी कोल, किरातों के भाग्य सराहने लगे। वे लोग अनुरागपूर्ण वाणी सुनाते हैं। उनका मधुर बोलना, मिलना और श्रीसीताराम जी के श्रीचरणों में स्नेह देखकर, अवधवासी अत्यन्त सुख पाते हैं। कोल, भील्लों की वाणी सुनकर श्रीअवध के नर–नारी अपने प्रेम का निरादर करते हैं। तुलसीदास जी कहते हैं कि, रघुकुल के रत्न भगवान्‌ श्रीराम की कृपा से लौका अर्थात्‌ लौकी का तुमरा लोहों को लेकर तर गया अर्थात्‌ लोहों को डूबने न दिया। तात्पर्य यह है कि, श्रीराम की कृपा से आज कोल, किरातों का स्नेह, अवधवासियों के स्नेह से अधिक हो गया।

**सो०- बिहरहिं बन चहुँ ओर, प्रतिदिन प्रमुदित लोग सब।**

**जल ज्यों दादुर मोर, भए पीन पावस प्रथम॥२५१॥ भा०– **प्रतिदिन प्रसन्न हुए अवध के नर–नारी वन के चारों ओर भ्रमण करते हैं, जैसे वर्षा के प्रथम जल में मेंढक और मयूर मोटे हो जाते हैं।

* नवाहपारायण, पाँचवाँ विश्राम *

पुर नर नारि मगन अति प्रीती। बासर जाहिं पलक सम बीती॥सीय सासु प्रति बेष बनाई। सादर करहिं सरिस सेवकाई॥

लखा न मरम राम बिनु काहूँ। माया सब सिय माया माहूँ॥

सीय सासु सेवा बश कीन्हीं। तिन लहि सुख सिख आशिष दीन्हीं॥

[[५०६]]

भाष्य

श्रीअवधपुर के नर–नारी अत्यन्त प्रेम में मग्न हैं, इनके दिन पलक के समान बीत जाते हैं। श्रीसीता जी सासुओं की संख्या के अनुपात में अपना वेश बनाकर आदरपूर्वक सभी सासुओं की सेवा करती हैं अर्थात्‌ सात सौ सासुओं की सेवा करने के लिए श्रीसीता सात सौ वेश बनाकर सबकी समान सेवा कर रही हैं। यह मर्म भगवान्‌ श्रीराम के अतिरिक्त किसी ने भी नहीं देखा, क्योंकि संसार की सभी माया भगवती श्रीसीता की ही है अर्थात्‌ भगवती श्रीसीता महामाया हैं, इसलिए उनकी माया को मायारहित मुकुन्द भगवान्‌ श्रीराम ही जान सकते हैं। श्रीसीता ने सभी सासुओं को अपनी सेवा द्वारा अपने वश में कर लिया, उन्होंने सुख प्राप्त कर श्रीसीता जी को शिक्षा और आशीर्वाद दिया।

**लखि सिय सहित सरल दोउ भाई। कुटिल रानि पछितानि अर्घाई॥ अवनि जमहिं जाचति कैकेई। महि न बीच बिधि मीच न देई॥ लोकहुँ बेद बिदित कबि कहहीं। राम बिमुख थल नरक न लहहीं॥**
भाष्य

श्रीसीता जी के सहित दोनों भाई श्रीराम–लक्ष्मण को सरल देखकर कुटिल हृदय की रानी कैकेयी पश्चात ताप से तृप्त होने लगीं अर्थात्‌ भर पेट पछताने लगीं। कैकेयी पृथ्वी और यमराज से याचना करने लगीं कि, पृथ्वी बीच अर्थात्‌ फटकर स्थान नहीं दे रही हैं और विधि अर्थात्‌ मृत्यु के विधाता यमराज मृत्यु नहीं दे रहे हैं। यह बात लोक और वेद में विदित है तथा कवि अर्थात्‌ क्रान्तदर्शी मनीषी कहते हैं कि भगवान्‌ श्रीराम से विमुख लोग नरक में भी स्थान नहीं पाते।

**यह संशय सब के मन माहीं। राम गमन बिधि अवध कि नाहीं॥**

दो०- निशि न नीद नहिं भूख दिन, भरत बिकल सुठि सोच।

नीच कीच बिच मगन जस, मीनहिं सलिल सँकोच॥२५२॥

भाष्य

यह सन्देह सभी अवधवासियों के मन में है, विधाता! इस समय श्रीअयोध्या में श्रीराम का गमन होगा या नहीं अर्थात्‌ श्रीराम इस समय श्रीभरत के कहने से श्रीअवध पधारेंगे या नहीं। इधर श्रीभरत को रात में नींद नहीं आती, दिन में भूख नहीं लगती। श्रीभरत उसी प्रकार अत्यन्त शोक में विकल हैं, जैसे पृथ्वी के निचले तल पर अर्थात्‌ बहुत गहराई में वर्तमान कीचड़ के बीच में डूबे हुए मछली को जल की अल्पता से शोक और तड़फ़डाहट होती है।

**कीन्हि मातु मिस काल कुचाली। ईति भीति जस पाकत साली॥ केहि बिधि होइ राम अभिषेकू। मोहि अवकलत उपाउ न एकू॥**
भाष्य

(श्रीभरत जी विचार करने लगे) माता कैकेयी का बहाना लेकर काल ने उसी प्रकार की कुचाल कर दी, जैसे पकती हुई फसल पर इतियों अर्थात्‌ टिड्‌डियों का भय हो जाये अर्थात्‌ जैसे पकने के निकट आये हुए फसल पर, टिड्डी, चूहे आदि का प्रकोप हो, उसी प्रकार श्रीरामराज्य सम्पन्न होते–होते काल ने कुचाल कर दी। श्रीराम का राज्याभिषेक किस प्रकार से हो मुझे तो एक भी उपाय समझ में नहीं आ रहा है।

**अवसि फिरिहिं गुरु आयसु मानी। मुनि पुनि कहब राम रुचि जानी॥**

**मातु कहेहुँ बहुरहिं रघुराऊ। राम जननि हठ करब कि काऊ॥ भा०– **गुव्र्देव की आज्ञा मानकर श्रीराम जी अवश्य लौट चलेंगे। पुन: वसिष्ठ जी श्रीराम की रुचि जानकर ही उन्हें आदेश देंगे। माताश्री कौसल्या जी के कहने पर भी रघुकुल के राजा श्रीराम लौट सकते हैं, परन्तु क्या कभी श्रीराम की माता कौसल्या जी हठ करेंगी?

[[५०७]]

मोहि अनुचर कर केतिक बाता। तेहि महँ कुसमय बाम बिधाता॥ जौ हठ करउँ त निपट कुकरमू। हरगिरि ते गुरु सेवक धरमू॥

भाष्य

मुझ सेवक की कितनी बात, उसमें भी प्रतिकूल समय और विधाता भी मुझसे रुठे हैं। यदि मैं हठ करूँ तो मेरा बहुत–बड़ा कुकर्म होगा, क्योंकि सेवक का धर्म शिव जी के पर्वत कैलाश से भी भारी है अर्थात्‌ कैलाश को तो रावण ने उठा लिया था, परन्तु वह भी सेवकधर्म का निर्वहन नहीं कर पाया।

**एकउ जुगुति न मन ठहरानी। सोचत भरतहिं रैनि बिहानी॥ प्रात नहाइ प्रभुहिं सिर नाई। बैठत पठए ऋषय बोलाई॥**
भाष्य

श्रीभरत के मन में एक भी युक्ति स्थिर नहीं हो पाई, इस प्रकार चिन्ता करते–करते श्रीभरत की पूरी रात बीत गई। प्रात:काल स्नान (सन्ध्यावंदनादि) करके प्रभु श्रीराम को प्रणाम करके बैठते ही श्रीभरत ने ऋषियों को बुला भेजा।

**दो०- गुरु पद कमल प्रनाम करि, बैठे आयसु पाइ।**

बिप्र महाजन सचिव सब, जुरे सभासद आइ॥२५३॥

भाष्य

गुव्र्देव वसिष्ठ जी के श्रीचरणकमलों में प्रणाम करके आज्ञा पाकर, श्रीभरत बैठ गये। ब्राह्मण, गणमान्य लोग, सभी मंत्री आदि सम्पूर्ण सभासद आ कर इकट्ठे हो गये।

**बोले मुनिवर समय समाना। सुनहु सभासद भरत सुजाना॥ धरम धुरीन भानुकुल भानू। राजा राम स्वबश भगवानू॥ सत्यसंध पालक श्रुति सेतू। राम जनम जग मंगल हेतू॥ गुरु पितु मातु बचन अनुसारी। खल दल दलन देव हितकारी॥ नीति प्रीति परमारथ स्वारथ। कोउ न राम सम जान जथारथ॥**
भाष्य

मुनियों में श्रेष्ठ वसिष्ठ जी समय के अनुकूल वचन बोले, हे सभासदों! और हे चतुर भरत! सब लोग सुनिये, श्रीराम धर्म की धुरी को धारण करने वाले सूर्यकुलरूप कमल के लिए सूर्यस्वरूप, स्वतंत्र, ऐश्वर्यादि सभी छहों माहात्म्य से नित्यसम्पन्न, भगवान्‌ तथा श्रीअवध के राजा हैं। वे सत्यप्रतिज्ञ, वेद–सेतु के पालक अर्थात्‌ रक्षक हैं। भगवान्‌ श्रीराम का जन्म जगत के मंगल के लिए हुआ है। वे गुरु, पिता एवं माता के वचन अर्थात्‌ आदेश का अनुसरण अर्थात्‌ पालन करने वाले हैं। श्रीराम खलों के दल को नष्ट करने वाले और देवताओं के हितकारी हैं। राजनीति, प्रेम, मोक्ष तथा स्वार्थ अर्थात्‌ धर्मार्थ कर्म और अपने प्रयोजन के सम्बन्ध में श्रीराम के अतिरिक्त यथार्थ रूप में कोई नहीं जानता।

**बिधि हरि हर शशि रबि दिशिपाला। माया जीव करम कुलि काला॥ अहिप महिप जहँ लगि प्रभुताई। जोग सिद्धि निगमागम गाई॥ करि बिचार जिय देखहु नीके। राम रजाइ शीष सबही के॥**
भाष्य

ब्रह्मा, विष्णु, शिव, चन्द्र, सूर्य, दिग्पाल, माया, जीव, कर्म और भूत, भविष्य, वर्तमान ये तीनों काल, शेष तथा महीप अर्थात्‌ पृथ्वी की रक्षा करने वाले शूकरावतार वराह, योग की सिद्धियाँ एवं वेद और आगमों में गायी हुई जहाँ तक प्रभुता है। सब लोग मन में विचार कर ठीक–ठीक देख लो तो यह निष्कर्ष निकलेगा कि, इन सभी के सिर पर भगवान्‌ श्रीराम की राजाज्ञा है अर्थात्‌ पूर्वोक्त चौदहों प्रभुताओं के श्रीराम ही नियन्ता हैं।

[[५०८]]

विशेष

यहाँ वसिष्ठ जी ने भगवान्‌ श्रीराम की १४ प्रभुताओं का संकेत किया है। इसी सूत्र से उन्होंने भगवान्‌ श्रीराम के वनवास की १४ वर्ष की अवधि का भी संकेत किया। कैकेई भगवान्‌ श्रीराम के लिए १२ वर्षों का भी वनवास माँग सकती थी, परन्तु सरस्वती जी ने कैकेई के मुख से १४ वर्ष ही क्यों कहलवाया? यथा**-“तापस वेष विशेष उदासी। चौदह बरष राम वनवासी”॥ **(मानस २.२९.३) कदाचित्‌ सरस्वती जी के मन में यह धारणा रही होगी कि १४ वर्षों में ही श्रीराम के द्वारा खर दूषण की १४ हजार सेनाओं का संहार किया जा सकेगा। मेघनाद को ब्रह्मा जी के वरदान के अनुसार १४ वर्ष पर्यन्त निद्रा, नारी और भोजन का त्याग करनेवाला ही मार सकता है जो राम जी के वनवास काल में साथ रहने पर लक्ष्मण जी के लिये सम्भव हुआ। महर्षि वाल्मीकि द्वारा भगवान्‌ श्रीराम के लिए निवासार्थ जो १४ अलौकिक भवन बताये गये उन १४ भागवतों के दर्शन भी वनवास काल के १४ वर्षों में सम्पन्न होंगे। दस इन्द्रियों और ४ अन्त:करणों की शुद्धि भी १४ वर्षों में ही सम्भव है। और अभी-अभी वसिष्ठ जी द्वारा जिन १४ प्रभुताओं का संकेत किया गया उनके दर्शन भी श्रीराम वनवास के १४ वर्षों में ही सम्भव है। इत्यादि अनेक कारण कहे जा सकते हैं, पर यहाँ इतना ही पर्याप्त है।

दो०- राखे राम रजाइ रुख, हम सब कर हित होइ।

**समुझि सयाने करहु अब, सब मिलि सम्मत सोइ॥२५४॥ भा०– **श्रीराम की राजाज्ञा और उनके इच्छापूर्ण संकेत की रक्षा करने से ही हम सभी का हित हो सकता है। हे चतुर सभासदों! यह बात समझकर सभी लोग मिलकर अब वही सर्वसम्मत उपाय करो।

सब कहँ सुखद राम अभिषेकू। मंगल मोद मूल मग एकू॥

केहि बिधि अवध चलहिं रघुराऊ। कहहु समुझि सोइ करिय उपाऊ॥

भाष्य

हे सभासदों! श्रीराम का राज्याभिषेक सबके लिए सुखद है और यह एकमात्र मंगल एवं प्रसन्नता का मूलकारण और आश्रय है। रघुकुल के राजा श्रीराम किस विधि से श्रीअयोध्या लौटेंगे, सभी लोग समझ कर कहो, वही उपाय किया जाये।

**सब सादर सुनि मुनिवर बानी। नय परमारथ स्वारथ सानी॥ उतर न आव लोग भए भोरे। तब सिर नाइ भरत कर जोरे॥**
भाष्य

नीति, परमार्थ अर्थात्‌ मोक्ष और अपने प्रयोजनों से मिश्रित वसिष्ठ जी की वाणी को आदरपूर्वक सुनकर, सभी लोग भोरे अर्थात्‌ किंकर्तव्यविमू़ढ हो गये, किसी को भी मुख से उत्तर नहीं आ रहा है। तब मस्तक नवाकर श्रीभरत ने हाथ जोड़कर कहना प्रारम्भ किया।

**भानुबंश भए भूप घनेरे। अधिक एक ते एक बड़ेरे॥ जनम हेतु सब कहँ पितु माता। करम शुभाशुभ देइ बिधाता॥ दलि दुख सजइ सकल कल्याना। अस आशिष राउरि जग जाना॥ सो गोसाइँ बिधि गति जेहिं छेंकी। सकइ को टारि टेक जो टेकी॥**
भाष्य

सूर्यवंश में अनेक राजा हुए, वे सब एक से एक अधिक बड़े हुए। सभी के जन्म के कारण तो माता–पिता होते हैं, परन्तु शुभ और अशुभ कर्मों का फल विधाता अर्थात्‌ परमेश्वर दिया करते हैं, परन्तु आप का आशीर्वाद सम्पूर्ण दु:खों को नष्ट करके सभी कल्याणों को सजा अथवा सृजन करके रच देता है, यह जगत जानता है। हे स्वामी! आप वही हैं, जिन्होंने ब्रह्मा जी की गति को भी छेंक दिया था अर्थात्‌ रोक दिया था। आप जो निश्चय कर लेते हैं, उसे कौन टाल सकता है?

[[५०९]]

**विशेष– **श्रीभरत के कहने का तात्पर्य है कि, विधाता ने मेरे पिताश्री के भाग्य में पुत्र प्राप्ति का लेख नहीं लिखा था, परन्तु आपने उस लेख पर छेंक लगाकर पिताश्री को चार पुत्र दे दिये, तो यदि आपकी इच्छा से श्रीराम श्रीसाकेत से श्रीअवध निकेत आ गये तो यदि आप इच्छा करें तो श्रीराम चित्रकूट से अवध चल सकते हैं।

दो०- बूझिय मोहि उपाय अब, सो सब मोर अभाग।

सुनि सनेह मय बचन गुरु, उर उमगा अनुराग॥२५५॥

भाष्य

ऐसे समर्थ गुरुदेव आप भी अब मुझसे उपाय पूछ रहे हैं। यह मेरा दुर्भाग्य ही तो है। भरत जी के प्रेमपूर्ण वचन सुनकर गुव्र्देव वसिष्ठ जी के हृदय में अनुराग उमड़ पड़ा।

**तात बात फुरि राम कृपाहीं। राम बिमुख सिधि सपनेहुँ नाहीं॥ सकुचउँ तात कहत एक बाता। अरध तजहिं बुध सरबस जाता॥ तुम कानन गवनहु दोउ भाई। फेरियहिं लखन सीय रघुराई॥**
भाष्य

हे तात्‌! श्रीराम कृपा से यह बात सत्य है। जो श्रीराम से विमुख हो जाता है, उसे स्वप्न में भी कोई सिद्धि नहीं मिलती अर्थात्‌ प्रभु श्रीराम की कृपा एवं उनकी इच्छा से ही मैंने विधाता की गति रोकी थी और अपने प्रभाव से श्रीराम को रघुवंश में प्रकट होने के लिए विवश किया था, परन्तु उस प्रभाव का प्रयोग यहाँ नहीं कर सकता, क्योंकि प्रभु की इच्छा अभी साथ नहीं दे रही है। हे तात्‌! एक बात कहने में मैं संकोच कर रहा हूँ, जहाँ सब कुछ जा रहा हो, वहाँ विद्वान्‌ लोग आधा छोड़कर आधा ले लेते हैं। उसी प्रकार तुम भी आधे–आधे का बँटवारा कर लो अर्थात्‌ अभी तो अयोध्या से श्रीराम दूर हो रहे हैं और उनकी सेवा से तुम, इसमें से आधा ले लो। अत: तुम दोनों भाई भरत–शत्रुघ्न वन को चले जाओ और लक्ष्मण, सीताजी, श्रीराम अयोध्या को लौट जायेंगे अर्थात्‌ श्रीराम अयोध्या में रहें। इससे केवल तुम्हारे कैंकर्य की हानि होगी अर्थात्‌ तुम्हें चौदह वर्षाें तक प्रभु की सेवा नहीं मिल सकेगी, यही आधा छूटेगा।

**सुनि सुबचन हरषे दोउ भ्राता। भे प्रमोद परिपूरन गाता॥ मन प्रसन्न तन तेज बिराजा। जनु जिय राउ राम भए राजा॥ बहुत लाभ लोगन लघु हानी। सम दुख सुख सब रोवहिं रानी॥**
भाष्य

यह सुन्दर वचन सुनकर दोनों भ्राता श्रीभरत एवं शत्रुघ्न जी प्रसन्न हो गये। उनके शरीर अभीष्ठ लाभ से उत्पन्न प्रसन्नता से परिपूर्ण हो गये। उनका मन प्रसन्न हुआ, शरीर में तेज सुशोभित होने लगा। मानो महाराज दशरथ जीवित हो उठे और श्रीराम राजा बन गये। वसिष्ठ जी के इस सुझाव से लोगों को बहुत लाभ अर्थात्‌ श्रीराम के अयोध्या चलने से लाभ की सम्भावना हुई और श्रीभरत की अनुपस्थिति से थोड़ी-सी हानि की भी अनुभूति हुई, परन्तु सभी रानियों को दु:ख–सुख दोनों समान ही लगे और वे रोने लगीं अर्थात्‌ श्रीराम के श्रीअवध गमन की सम्भावना से एक ओर जहाँ सुख हुआ वहीं दूसरी ओर श्रीभरत के वनगमन की आशंका से दु:ख भी तो हुआ। वस्तुत: उन्हें तो श्रीराम एवं श्रीभरत इन दोनों भाइयों की एक साथ उपस्थिति चाहिए थी।

**कहहिं भरत मुनि कहा सो कीन्हे। फल जग जीवन अभिमत दीन्हे॥ कानन करउँ जनम भरि बासू। एहिं ते अधिक न मोर सुपासू॥**
भाष्य

श्रीभरत कहने लगे, हे महर्षि! आपने जो कहा वही किया और जगत में जीवन का मनोवांछित फल दे दिया अर्थात्‌ अन्ततोगत्वा मुझे वनवास देकर तथा श्रीराम के लिए श्रीअवध चलने का प्रस्ताव करके आपने सबको मनचाहा फल दे दिया। अथवा, महर्षि गुव्र्देव वसिष्ठ जी ने मेरे लिए जो चौदह वर्षाें के वनवास का पक्ष कहा है, उसे करने से तो मुझे जगत के जीवों को मनचाही वस्तु देने का फल मिलेगा। मैं जीवन भर वन में ही

[[५१०]]

वास करूँगा। यहाँ से अधिक सुपास अर्थात्‌ सुख–सुविधा श्रीअवध में नहीं सम्भव है, क्योंकि वन प्रभु श्रीराम के चरण–चिन्हों से अंकित है, जो मुझ दरिद्र के लिए पारस है।

दो०- अंतरजामी राम सिय, तुम सरबग्य सुजान।

जौ फुर कहहुँ त नाथ निज, कीजिय बचन प्रमान॥२५६॥

भाष्य

हे गुरुदेव! भगवान्‌ श्रीराम और भगवती श्रीसीता अन्तर्यामी हैं अर्थात्‌ सभी के मन के नियन्ता होने के कारण श्रीसीताराम जी सभी के अन्तर्गत जानते हैं और आप भी सब कुछ जानने वाले तथा चतुर हैं। अथवा, सर्वज्ञ श्रीराम के सम्बन्ध में पूर्णरूप से जानते हैं। अत: आप दोनों मेरे भी मन के सत्य और असत्य इन दोनों पक्षों को जानते हैं। यदि मैं सत्य कह रहा हूँ कि, मैं श्रीअवध की अपेक्षा वन में अधिक सुखी रहूँगा, तो फिर हे स्वामी! आप अपने वचन को प्रमाणित कीजिये अर्थात्‌ मुझे वनवास दीजिये तथा श्रीराम को श्रीअवध लौटा ले जाइये।

**भरत बचन सुनि देखि सनेहू। सभा सहित मुनि भए बिदेहू॥ भरत महा महिमा जलरासी। मुनि मति ठाढि़ तीर अबला सी॥ गा चह पार जतन हिय हेरा। पावति नाव न बोहित बेरा॥ और करिहि को भरत बड़ाई। सरसी सीपि कि सिंधु समाई॥**
भाष्य

श्रीभरत का यह वचन सुनकर और उनका प्रेम देखकर सभी के सहित वसिष्ठ जी विदेह हो गये अर्थात्‌ उन्हें अपने शरीर की सुधि–बुधि भूल गई। श्रीभरत की महामहिमा जल की राशि अर्थात्‌ सागर है, वसिष्ठ जी की बुद्धि उस सागर के तट पर ख़डी हुई किंकर्तव्यविमू़ढ, आत्मबल से हीन, भोली–भाली महिला के समान है। वह श्रीभरत की महिमा–सागर के पार जाना चाहती है। हृदय में यत्न ढूँढ रही है, किन्तु न तो वह नाव प्राप्त कर रही है और न ही जहाज और बेड़ा पा रही है अर्थात्‌ वहाँ विद्दारूप नाव, विवेकरूप जहाज और शरीररूप बेड़ा यह तीनों ही श्रीभरत के स्नेह के प्रवाह में डूब गये हैं। वसिष्ठ जी के अतिरिक्त और कौन श्रीभरत की प्रशंसा करेगा? क्या तलैया में उत्पन्न हुई सीपि में अथाह सागर समा सकता है?

**भरत मुनिहिं मन भीतर भाए। सहित समाज राम पहँ आए॥**

**प्रभु प्रनाम करि दीन्ह सुआसन। बैठे सब सुनि मुनि अनुशासन॥ भा०– **श्रीभरत मुनि वसिष्ठ जी के मन के भीतर भा गये और प्रथम सभा को विश्राम देकर वसिष्ठ जी सम्पूर्ण समाज के सहित भगवान्‌ श्रीराम के पास आये। प्रभु श्रीराम ने प्रणाम करके सबको सुन्दर आसन दिया। मुनि की आज्ञा सुनकर सभी लोग बैठ गये अर्थात्‌ दूसरी सभा की कार्यवाही प्रारम्भ हुई।

बोले मुनिवर बचन बिचारी। देश काल अवसर अनुहारी॥ सुनहु राम सरबग्य सुजाना। धरम नीति गुन ग्यान निधाना॥

भाष्य

मुनि वसिष्ठ जी विचार कर देश, काल तथा समय के अनुरूप वचन बोले, हे सब कुछ जानने वाले चतुर! हे धर्म,नीति, सद्‌गुण और ज्ञान के कोश स्वरूप प्रभु श्रीराम! सुनिये,

**दो०- सब के उर अंतर बसहु, जानहु भाउ कुभाउ।**

पुरजन जननी भरत हित, होइ सो कहिय उपाउ॥२५७॥

भाष्य

आप सभी के हृदय के भीतर निवास करते हैं और सभी के श्रेष्ठ भाव और बुरे भाव को जानते हैं। जिससे अवधपुरवासियों का, सभी माताओं का और भरत का हित हो आप वही उपाय कहिये।

[[५११]]

आरत कहहिं बिचारि न काऊ। सूझ जुआरिहिं आपन दाऊ॥ सुनि मुनि बचन कहत रघुराऊ। नाथ तुम्हारेहि हाथ उपाऊ॥

भाष्य

आर्त्तलोग अर्थात्‌ अभीष्ट वस्तु पाने के लिए व्याकुल लोग कभी भी विचार करके कुछ भी नहीं कहते, क्योंकि जुआ खेलनेवाले को अपना ही दाव सूझता है, उसे दूसरों के हानि–लाभ की चिन्ता नहीं रहती। अत: हम आर्त्त हैं, हम कुछ भी विचार करके नहीं कह रहे हैं। वसिष्ठ जी के वचन सुनकर, रघुराज श्रीराम बोले, हे नाथ! वह उपाय आपके हाथ में है।

**सब कर हित रुख राउर राखे। आयसु किए मुदित फुर भाखे॥ प्रथम जो आयसु मो कहँ होई। माथे मानि करौं सिख सोई॥ पुनि जेहि कहँ जस कहब गोसाँई। सो सब भाँति घटिहि सेवकाई॥**
भाष्य

आपके व्र्ख अर्थात्‌ मनोभाव को प्रकट करने वाले संकेत का पालन करने में तथा प्रसन्नतापूर्वक सत्य कहे हुए आदेश का पालन करने में सभी का हित है। सर्वप्रथम जो मेरे लिए आज्ञा हो, उसको मैं अपने मस्तक पर धारण करके आपकी शिक्षा मानकर पालन करूँगा। हे स्वामी! फिर आप जिसके लिए जो कहेंगे वह सब प्रकार से आपकी सेवा में तत्पर रहेगा।

**कह मुनि राम सत्य तुम भाखा। भरत सनेह बिचार न राखा॥ तेहिं ते कहउँ बहोरि बहोरी। भरत भगति बश भइ मति मोरी॥ मोरे जान भरत रुचि राखी। जो कीजिय सो शुभ शिव साखी॥**
भाष्य

मननशील महर्षि वसिष्ठ जी ने कहा, हे श्रीराम! आपने सत्य ही कहा है, परन्तु भरत के प्रेम ने मेरे मन में कोई विचार नहीं रहने दिया, इसलिए मैं आप से पुन:–पुन: कह रहा हूँ कि, मेरी बुद्धि भरत की भक्ति के वश में हो गई है। मेरी समझ में आप भरत की रुचि की रक्षा करके, जो भी करेंगे वह शुभ होगा। मेरी इस अवधारणा में शिव जी साक्षी हैं।

**दो०- भरत बिनय सादर सुनिय, करिय बिचार बहोरि।**

करब साधुमत लोकमत, नृपनय निगम निचोरि॥२५८॥

भाष्य

पहले आदरपूर्वक भरत का विनय सुन लीजिये, फिर विचार कीजिये इसके पश्चात्‌ साधुमत, लोकमत, राजनीति और वेदों को निचोड़कर निष्कर्ष निकालकर वही करियेगा।

**गुरु अनुराग भरत पर देखी। राम हृदय आनन्द बिशेषी॥ भरतहिं धरम धुरंधर जानी। निज सेवक तन मानस बानी॥ बोले गुरु आयसु अनुकूला। बचन मंजु मृदु मंगलमूला॥**
भाष्य

गुरुदेव का श्रीभरत पर अनुराग अर्थात्‌ उपमा रहित अनुच्छिष्ट अनुकूल राग यानी लगाव देखकर, भगवान्‌ श्रीराम के हृदय में विशेष आनन्द हुआ। श्रीभरत जी को धर्म की धुरी को धारण करने वाला जानकर, शरीर, मन और वाणी से श्रीभरत को अपना सेवक मानकर, भगवान्‌ श्रीराम गुरुदेव की आज्ञा के अनुकूल मधुर कोमल, प्रसन्नता और कल्याण के आश्रयरूप वचन बोले–

**नाथ शपथ पितु चरन दोहाई। भयउ न भुवन भरत सम भाई॥ जे गुरु पद अंबुज अनुरागी। ते लोकहुँ बेदहुँ बड़ भागी॥ राउर जा पर अस अनुरागू। को कहि सकइ भरत कर भागू॥**

[[५१२]]

लखि लघु बंधु बुद्धि सकुचाई। करत बदन पर भरत बड़ाई॥ भरत कहहिं सोइ किए भलाई। अस कहि राम रहे अरगाई॥

भाष्य

हे नाथ! आपकी शपथ और पिताश्री के चरणों की दुहाई करके मैं सत्य कहता हूँ कि, भरत जैसा भाई संसार में नहीं हुआ। जो गुरुदेव के श्रीचरणकमल में प्रेम करते हैं, वे लोक और वेद दोनों में बहुत–बड़े भाग्यशाली होते हैं। जिस पर आपका ऐसा अनुराग हो, उस भरत के भाग्य को कौन कह सकता है? भरत को छोटा भाई देखकर, मुख पर भरत की बड़ाई करते हुए मेरी बुद्धि संकुचित हो रही है। जो भरत कहें वही करने में भलाई अर्थात्‌ कल्याण है। ऐसा कहकर, भगवान्‌ श्रीराम चुप रह गये।

**दो०- तब मुनि बोले भरत सन, सब सँकोच तजि तात।**

कृपासिंधु प्रिय बंधु सन, कहहु हृदय की बात॥२५९॥

भाष्य

तब महर्षि वसिष्ठजी, भरत जी से बोले, हे वत्स! सम्पूर्ण संकोच छोड़कर कृपा के सागर अपने प्यारे भैया श्रीराम से अपने हृदय की बात कहो।

**सुनि मुनि बचन राम रुख पाई। गुरु साहिब अनुकूल अघाई॥**

लखि अपने सिर सब छर भारू। कहि न सकहिं कछु करहिं बिचारू॥

भाष्य

मुनि वसिष्ठ जी के वचन सुनकर, श्रीराम की इच्छासूचक संकेत पाकर एवं गुव्र्देव तथा स्वामी को पूर्ण अनुकूल जानकर और गुरुदेव एवं स्वामी की अनुकूलता से तृप्त होकर, अपने ही सिर पर सम्पूर्ण कार्य–भार देखकर श्रीभरत कुछ भी नहीं कह सके, विचार करने लगे।

**पुलकि शरीर सभा भए ठा़ढे। नीरज नयन नेह जल बा़ढे॥ कहब मोर मुनिनाथ निबाहा। एहि ते अधिक कहौं मैं काहा॥**
भाष्य

रोमांचित शरीर होकर श्रीभरत कुछ बोलने के लिए सभा में ख़डे हो गये। उनके कमल जैसे नेत्रों में स्नेह का जल भर आया, परन्तु अमंगल के भय से वह गिरा नहीं। श्रीभरत ने कहा, मुनियों के नाथ गुरुदेव ने मेरे कथन का निर्वाह किया इससे अधिक मैं क्या कहूँ?

**मैं जानउँ निज नाथ सुभाऊ। अपराधिहु पर कोह न काऊ॥ मो पर कृपा सनेह बिशेषी। खेलत खुनिस न कबहूँ देखी॥**
भाष्य

मैं अपने नाथ श्रीराघव का स्वभाव जानता हूँ। अपराधी पर भी उन्हें कभी भी क्रोध नहीं आता। मुझ पर कृपा और विशेष स्नेह करते हैं। खेल में भी कभी उनमें क्रोध नहीं देखा।

**शिशुपन ते परिहरेउँ न संगू। कबहुँ न कीन्ह मोर मन भंगू॥ मैं प्रभु कृपा रीति जिय जोही। हारेउँ खेल जितावहिं मोही॥**
भाष्य

बाल्यावस्था से उन्होंने कभी मेरा साथ नहीं छोड़ा। अथवा, मुझ पर से कभी लगाव नहीं छोड़ा। प्रभु ने कभी भी मेरा मनोभंग नहीं किया अर्थात्‌ मेरा मन नहीं तोड़ा, सतत मेरे मन का ही किया। मैंने प्रभु श्रीराघव की कृपा की पद्धति अपने हृदय में और हृदय से देखी है। खेल में हारे हुए मुझ भरत को प्रभु जिता दिया करते थे।

**दो०- महूँ सनेह सकोच बश, सनमुख कहा न बैन।**

दरशन तृपित न आजु लगि, प्रेम पियासे नैन॥२६०॥

भाष्य

मैंने भी स्नेह और संकोच के कारण प्रभु के सन्मुख वचन नहीं कहे अर्थात्‌ एक भी वाक्य नहीं बोला, कभी अपनी इच्छा नहीं प्रकट की। प्रेम के प्यासे मेरे नेत्र आज तक प्रभु श्रीराम के दर्शनों से तृप्त नहीं हुए।

[[५१३]]

बिधि न सकेउ सहि मोर दुलारा। नीच बीच जननी मिस पारा॥

**यहउ कहत मोहि आजु न शोभा। आपनि समुझि साधु शुचि को भा॥ भा०– **परन्तु विधाता प्रभु श्रीराघव द्वारा किये जा रहे मेरे दुलार को नहीं सह सके और उन्होेंने निम्नश्रेणी वाली माता कैकेयी के बहाने मेरे और प्रभु के बीच अन्तर डाल दिया। आज यह कहने में भी मेरे लिए शोभा नहीं है, क्योंकि अपनी समझ से कौन पवित्र साधु हुआ है अर्थात्‌ अपने द्वारा दिये हुए प्रमाण–पत्र में न कोई साधु होता है

और न माना जाता है। जिसे समाज प्रमाण–पत्र देता है तथा प्रशंसा करता है, वही साधु है।

मातु मंद मैं साधु सुचाली। उर अस आनत कोटि कुचाली॥ फरइ कि कोदव बालि सुशाली। मुकता प्रसव कि शंबुक ताली॥

भाष्य

माता निकृष्ट प्रकृति की है और मैं सुन्दर कार्य करने वाला साधु हूँ, ऐसी धारणा हृदय में लाने पर करोड़ों कुचाल हो जाता है अर्थात्‌ माता के गुण तो पुत्र में आते ही हैं, क्या कोदव में सुन्दर धान की बाल फल सकती है? क्या तलैया के घोंघे में मोती उत्पन्न हो सकती है?

**सपनेहुँ दोसक लेश न काहू। मोर अभाग उदधि अवगाहू॥ बिनु समुझे निज अघ परिपाकू। जारेउँ जाय जननि कहि काकू॥**
भाष्य

स्वप्न में भी किसी के दोष का लेश भी नहीं है अर्थात्‌ कुछ भी दोष नहीं है। मेरा दुर्भाग्य ही अगाध सागर है, अपने पाप का परिणाम समझे बिना मैंने व्यर्थ ही काकू अर्थात्‌ तीखी वक्रोक्तियाँ कह कर अपनी माँ को जलाया।

**हृदय हेरि हारेउँ सब ओरा। एकहि भाँति भलेहिं भल मोरा॥ गुरु गोसाइँ साहिब सिय रामू। लागत मोहि नीक परिनामू॥**
भाष्य

हृदय में सब ओर ढूँढ कर मैं हार चुका हूँ। मेरा तो एक ही प्रकार से भला ही भला है, आप जैसे समर्थ इन्द्रियों के नियन्ता वसिष्ठ जी मेरे गुव्र्देव हैं और श्रीसीताराम जी मेरे स्वामिनी और स्वामी हैं, मुझे परिणाम अच्छा लग रहा है।

**दो०- साधु सभा गुरु प्रभु निकट, कहउँ सुथल सति भाउ।**

प्रेम प्रपंच कि झूँठ फुर, जानहिं मुनि रघुराउ॥२६१॥

भाष्य

सन्तों की सभा में अपने गुव्र्देव आप वसिष्ठ मुनि एवं प्रभु श्रीसीता, राम जी के निकट इस पवित्र स्थल श्रीचित्रकूट में मैं अपने हृदय का सत्यभाव कह रहा हूँ। यह मेरे प्रेम का प्रपंच अर्थात्‌ निरर्थक विस्तार है। अथवा, असत्य है या सत्य है इसे तो मननशील गुव्र्देव वसिष्ठ जी एवं रघु अर्थात्‌ जीवों के हृदय में राउ यानी अन्तर्यामी रूप से विराजमान श्रीसीताराम जी ही जानते हैं।

**भूपति मरन प्रेम पन राखी। जननी कुमति जगत सब साखी॥ देखि न जाहिं बिकल महतारी। जरहिं दुसह जर पुर नर नारी॥**

मैंहि सकल अनरथ कर मूला। सो मन समुझि सहेउँ सब शूला॥

भाष्य

प्रेम और प्रतिज्ञा की रक्षा करने से महाराज दशरथ जी का मरण हुआ और मेरी माँ दुष्टबुद्धि की है, इस तथ्य का सारा संसार साक्षी है। प्रभु के वियोग में व्याकुल मातायें देखी नहीं जा रही हैं। श्रीराघव के वियोग के विषम ज्वर से श्रीअवध के सभी नर–नारी जले जा रहे हैं। मैं ही इस सम्पूर्ण अनर्थ का मूल कारण हूँ। मन में यह समझ कर मैंने सम्पूर्ण कष्ट सहन किया।

[[५१४]]

सुनि बन गमन कीन्ह रघुनाथा। करि मुनि बेष लखन सिय साथा॥

**बिनु पानहिन पयादेहिं पाएँ। शङ्कर साखि रहेउँ एहि घाएँ॥ भा०– **मुनिवेश धारण करके चरणों मेें पनहीं धारण किये बिना नंगे चरणों से पैदल ही लक्ष्मण, भगवती श्रीसीता के सहित श्रीराम ने वन के लिए गमन किया, यह समाचार सुनकर, इस घाव से मैं जीवित रहा, इसमें शिवजी साक्षी हैं अर्थात्‌ जैसे विष पी कर शिव जी जीवित रहे, उसी प्रकार यह विष पीकर मैं जीवित रहा।

बहुरि निहारि निषाद सनेहू। कुलिश कठिन उर भयउ न बेहू॥

अब सब आँखिन देखेउँ आई। जियत जीव ज़ड सबई सहाई॥ जिनहिं निरखि मग सापिनि बीछी। तजहिं बिषम बिष तामस तीछी॥

भाष्य

फिर निषादराज गुह के स्नेह को देखकर भी वज्र से भी कठिन मेरे हृदय में बेहू अर्थात्‌ वेध नहीं हुआ अर्थात्‌ यह फट नहीं गया। अब श्रीचित्रकूट आकर सब कुछ आँखों से देखा। जीता हुआ यह दुष्ट जीव सब कुछ सहा रहा है और सब कुछ सहन करायेगा। जिन श्रीराम, लक्ष्मण, सीता जी को देखकर वन मार्ग की सर्पिणियाँ और बीछियाँ अर्थात्‌ बिच्छू की स्त्रियाँ अपने भयंकर विष और तीक्ष्ण तमोगुण से उत्पन्न क्रोध को छोड़ देती है।

**दो०- तेइ रघुनंदन लखन सिय, अनहित लागे जाहि।**

तासु तनय तजि दुसह दुख, दैव सहावइ काहि॥२६२॥

भाष्य

वे ही रघुकुल के नन्दन तथा रघु अर्थात्‌ जीवमात्र को आनन्द देने वाले श्रीराम, लक्ष्मण, भगवती सीताजी, जिस कैकेयी को अनहित अर्थात्‌ शत्रु प्रतीत हुए। उस कैकेयी के पुत्र मुझ भरत को छोड़कर विधाता और किसे असहनीय दु:ख सहायेंगे? अर्थात्‌ ऐसे निष्ठुर माता के पुत्र को ही यह असहनीय दु:ख सहना होगा?

**सुनि अति बिकल भरत बर बानी। आरति प्रीति बिनय नय सानी॥ शोक मगन सब सभा खभारू। मनहुँ कमल बन परेउ तुषारू॥**
भाष्य

इस प्रकार आर्त्ति, प्रीति, विनम्रता और राजनीति से सनी हुई अत्यन्त व्याकुल हुए श्रीभरत की श्रेष्ठ वाणी सुनकर शोक से विकल हुई सम्पूर्ण सभा को खभार, भयंकर दु:ख हुआ अर्थात्‌ खलबली मच गई मानो कमल के समूह पर हिमपात हो गया हो।

**कहि अनेक बिधि कथा पुरानी। भरत प्रबोध कीन्ह मुनि ग्यानी॥ बोले उचित बचन रघुनंदू। दिनकर कुल कैरव बन चंदू॥**
भाष्य

अनेक प्रकार से पौराणिक कथा कहकर, ज्ञानीमुनि वसिष्ठ जी ने भरत जी को प्रबोधित किया अर्थात्‌ उन्हें समझाया। सूर्यकुलरूप कुमुदवन के चन्द्रमा रघु अर्थात्‌ सम्पूर्ण जीवों को आनन्दित करने वाले प्रभु श्रीराम उचित वचन बोले–

**तात जाय जनि करहु गलानी। ईश अधीन जीव गति जानी॥**

तीनि काल त्रिभुवन मत मोरे। पुन्यसलोक तात तर तोरे॥

भाष्य

हे भैया भरत! जीव की गति को ईश्वर के अधीन जानकर तुम मन में व्यर्थ ही ग्लानि कर रहे हो। हे भैया! भूत, वर्तमान, भविष्यत्‌ नामक तीनों कालों में स्वर्गलोक, मर्त्यलोक और पाताललोक इन तीनों लोकों में और मेरे मत में सभी पुण्यश्लोक तुम्हारे नीचे हैं, तुम सर्वश्रेष्ठ पुण्यश्लोक हो।

[[५१५]]

**विशेष– **शास्त्रों में नल, युधिष्ठिर, महाराज जनक और भगवान्‌ विष्णु को पुण्यश्लोक कहा गया है।

पुण्यश्लोको* नलो राजा, पुण्यश्लोको युधिष्ठिर:॥ पुण्यश्लोको विदेहश्च, पुण्यश्लोको जनार्दन:॥*

परन्तु भरत इन सभी पुण्यश्लोकों से सर्वश्रेष्ठ हैं।

उर आनत तुम पर कुटिलाई। जाइ लोक परलोक नसाई॥ दोष देहिं जननिहिं ज़ड तेई। जिन गुरु साधु सभा नहिं सेई॥

भाष्य

तुम पर हृदय में कुटिलता का भाव लाते ही लोक चला जायेगा और परलोक भी नय् हो जायेगा। वे ही ज़ड प्रकृति के लोग माता कैकेयी को दोष देते हैं और देंगे, जिन्होंने गुरुजनों और साधुओं की सभा की सेवा नहीं की है।

**दो०- मिटिहैं पाप प्रपंच सब, अखिल अमंगल भार।**

लोक सुजस परलोक सुख, सुमिरत नाम तुम्हार॥२६३॥

भाष्य

हे भैया! आपके भरत–भरत इस नाम का स्मरण करते ही सभी पापों का प्रपंच अर्थात्‌ विस्तार समूह, अमंगलों के भार नष्ट हो जायेंगे, लोक में सुयश होगा और परलोक में सुख होगा।

**कहउँ स्वभाव सत्य शिव साखी। भरत भूमि रह राउरि राखी॥ तात कुतरक करहु जनि जाए। बैर प्रेम नहिं दुरइ दुराए॥**
भाष्य

मैं शिव जी को साक्षी करके अपना सत्यभाव कह रहा हूँ, हे भरत! आपके ही रखने से यह पृथ्वी रह रही है। हे तात्‌! व्यर्थ का कुतर्क मत करो अर्थात्‌ अपने मन में कुविचार मत करो, वैर और प्रेम छिपाने से नहीं छिपते।

**मुनि गन निकट बिहग मृग जाहीं। बाधक बधिक बिलोकि पराहीं॥ हित अनहित पशु पच्छिउ जाना। मानुष तनु गुन ग्यान निधाना॥**
भाष्य

देखो भरत! अबोध पक्षी और हिरण भी शान्त अहिंसाप्रिय मुनिगणों के निकट चले जाते हैं और हिंसक कसाई को देखकर स्वयं भाग जाते हैं। जब अज्ञानी पशु और पक्षी भी अपना हित और अनहित समझते हैं तब मनुष्य शरीर तो गुणों और ज्ञान का कोश है।

**तात तुमहिं मैं जानउँ नीके। करौं काह असमंजस जीके॥**

राखेउ राय सत्य मोहि त्यागी। तनु परिहरेउ प्रेम पन लागी॥

तासु बचन मेटत मन सोचू। तेहि ते अधिक तुम्हार सँकोचू॥ तापर गुरु मोहि आयसु दीन्हा। अवसि जो कहहु चहउँ सोइ कीन्हा॥

भाष्य

हे भैया! मैं तुम्हें अच्छी प्रकार से जानता हूँं। अपने मन में असमंजस क्यों करूँ? महाराज पिताश्री ने मुझे त्याग कर सत्य की रक्षा की और प्रेम और प्रतिज्ञा के लिए अपना शरीर छोड़ दिया। उनका वचन रूप आदेश मेटने अर्थात्‌ मिटा देने में मुझे अत्यन्त शोक हो रहा है, उससे भी अधिक है तुम्हारा संकोच, उस पर गुरुदेव ने मुझे आज्ञा दी है। तुम जो कहोगे मैं वही अवश्य करना चाहूँगा।

[[५१६]]

दो०- मन प्रसन्न करि सकुच तजि, कहहु करौं सोइ आज।

**सत्यसंध रघुबर बचन, सुनि भा सुखी समाज॥२६४॥ भा०– **अपने मन को प्रसन्न करके संकोच छोड़कर तुम जो कहोगे आज मैं वही करूँगा। सत्यप्रतिज्ञ भगवान्‌ श्रीराम का वचन सुनकर सम्पूर्ण समाज सुखी हो गया।

* मासपारायण, अठारहवाँ विश्राम *

सुर गन सहित सभय सुरराजू। सोचहिं चाहत होन अकाजू॥ करत उपाउ बनत कछु नाहीं। राम शरन सब गे मन माहीं॥

भाष्य

देवगणों के सहित भयभीत देवराज इन्द्र चिन्ता करने लगे। अब तो अकार्य हुआ चाहता है, कोई उपाय करते नहीं बन रहा है। सभी देवगण मन में श्रीराम के शरण में गये।

**बहुरि बिचारि परस्पर कहहीं। रघुपति भगत भगति बस अहहीं॥ सुधि करि अंबरीष दुर्बासा। भे सुर सुरपति निपट निराशा॥**
भाष्य

फिर देवगण विचार करके परस्पर कहते हैं कि, श्रीराम भक्तों के भक्ति के वश में रहते हैं। अम्बरीश और दुर्वासा का स्मरण करके देवता और इन्द्र बहुत निराश हुए।

**विशेष– **उस प्रकरण में भगवान्‌ ने दुर्वासा का नहीं प्रत्युत्‌ अम्बरीश का पक्ष लिया था। कदाचित्‌ यहाँ भी भगवान्‌ देवताओं का पक्ष न लेकर भरत जी का पक्ष ले लें, यही तथ्य देवताओं के निराशा का कारण है।

सहे सुरन बहु काल बिषादा। नरहरि किए प्रगट प्रहलादा॥

**लगि लगि कान कहहिं धुनि माथा। अब सुर काज भरत के हाथा॥ भा०– **देवताओं ने बहुत काल तक कय् सहे, इसके पश्चात्‌ प्रह्‌लाद ने श्रीनृसिंहदेव को प्रकट कर दिया। सभी देवता सिर पीट–पीट कर एक दूसरे के कान में लग–लग कर कहते हैं कि, अब तो श्रीभरत के हाथ में ही देवताओं का कार्य है।

आन उपाय न देखिय देवा। मानत राम सुसेवक सेवा॥

हिय सप्रेम सुमिरहु सब भरतहिं। निज गुन शील राम बश करतहिं॥

भाष्य

हे देवताओं! अब और उपाय हम लोग नहीं देख रहे हैं। भगवान्‌ श्रीराम सुन्दर सेवक की सेवा को ही मानते हैं और उसे सम्मान देते हैं। अपने गुण और स्वभाव के द्वारा भगवान्‌ श्रीराम को अपने वश में कर रहे श्रीभरत को प्रेमपूर्वक हृदय में स्मरण करो।

**दो०- सुनि सुरमत सुर गुरु कहेउ, भल तुम्हार बड़ भाग।**

**सकल सुमंगल मूल जग, भरत चरन अनुराग॥२६५॥ भा०– **देवताओं का मत सुनकर, देवगुरु बृहस्पति ने कहा, तुम्हारा बहुत–बड़ा श्रेष्ठ भाग्य है, क्योंकि श्रीभरत के चरणों का प्रेम संसार के सभी शुभ मंगलों का मूल है।

सीतापति सेवक सेवकाई। कामधेनु शत सरिस सुहाई॥ भरत भगति तुम्हरे मन आई। तजहु सोच बिधि बात बनाई॥

भाष्य

श्रीसीता के पति भगवान्‌ श्रीराम के सेवक की सेवा सैक़डों कामधेनु के समान सुहावनी है। तुम्हारे मन में श्रीराम के सेवक श्रीभरत की भक्ति आ गई है। देवताओं चिन्ता छोड़ दो विधाता ने सब बात बना दी है।

[[५१७]]

देखु देवपति भरत प्रभाऊ। सहज स्वभाव बिबश रघुराऊ॥ मन थिर करहु देव डर नाही। भरतहि जानि राम परिछाहीं॥

भाष्य

हे इन्द्र! श्रीभरत का प्रभाव तो देखो उनके सहज स्वभाव के विवश हो रहे हैं भगवान्‌ श्रीराम। देवताओं! कोई डर नहीं है श्रीभरत को श्रीराम की परछाईं जानकर मन को स्थिर कर लो।

**सुनि सुरगुरु सुर सम्मत सोचू। अंतरजामी प्रभुहिं सँकोचू॥**

**निज सिर भार भरत जिय जाना। करत कोटि बिधि उर अनुमाना॥ भा०– **देवगुरु का सम्मत और देवताओं की चिन्ता सुनकर, अन्तर्यामी प्रभु श्रीराम को संकोच होने लगा। श्रीभरत ने जब अपने सिर पर पूरा भार जाना, तब वे मन में करोड़ों प्रकार से अनुमान करने लगे।

करि बिचार मन दीन्ही ठीका। राम रजायसु आपन नीका॥ निज पन तजि राखेउ पन मोरा। छोह सनेह कीन्ह नहिं थोरा॥

भाष्य

उन्होंने विचार करके मन में एक ठीका दिया अर्थात्‌ निश्चय किया कि भगवान्‌ श्रीराम की राजाज्ञा का पालन अपने लिए बहुत अच्छा है, उसके पालन में अपनी भलाई है। भगवान्‌ श्रीराम ने अपनी प्रतिज्ञा छोड़कर मेरी प्रतिज्ञा की रक्षा की। मुझ पर उन्होंने ममता और स्नेह थोड़ा नहीं किया है अर्थात्‌ बहुत किया है।

**दो०- कीन्ह अनुग्रह अमित अति, सब बिधि सीतानाथ।**

**करि प्रनाम बोले भरत, जोरि जलज जुग हाथ॥२६६॥ भा०– **श्रीसीता के पति भगवान्‌ श्रीराम ने सब प्रकार से असीम और अत्यन्त अनुग्रह किया है। इस प्रकार निश्चय करके दोनों करकमलों को जोड़ प्रणाम करके श्रीभरत बोले–

कहौं कहावौं का अब स्वामी। कृपा अंबुनिधि अंतरजामी॥

गुरु प्रसन्न साहिब अनुकूला। मिटी मलिन मन कलपित शूला॥

भाष्य

हे कृपा के सागर! हे अन्तर्यामी मेरे स्वामी राघवेन्द्र! अब मैं क्या कहूँ और क्या कहलाऊँ? गुरुदेव को प्रसन्न और स्वामी श्रीराघव को अपने अनुकूल देखकर मेरे मलिन (मैले मल से युक्त) मन द्वारा कल्पित दु:ख मिट गया।

**अपडर डरेउँ न सोच समूले। रबिहि न दोष देव दिशि भूले॥ मोर अभाग मातु कुटिलाई। बिधि गति बिषम काल कठिनाई॥ पाउँ रोपि सब मिलि मोहि घाला। प्रनतपाल पन आपन पाला॥**
भाष्य

हे देव! मैं अपने द्वारा कल्पित डर से डर गया जबकि, मेरे शोक में मूल नहीं है। मैं निराधर शोक कर रहा हूँ। हे देव! यदि कोई दिशा भूल जाये तो इसमें सूर्यनारायण का दोष नहीं समझना चाहिये। मेरा दुर्भाग्य, माता की कुटिलता, विधाता की प्रतिकूल गति और काल की कठिनता सबने मिलकर मेरा पाँव पक़डकर गिराया अर्थात्‌ नष्ट किया। परन्तु हे शरणागतों के पालक! आप ने अपने प्रण का पालन किया।

**यह नइ रीति न राउरि होई। लोकहुँ बेद बिदित नहिं गोई॥ जग अनभल भल एक गोसाईं। कहिय होइ भल कासु भलाई॥**

[[५१८]]

भाष्य

हे भगवन्‌! यह आपकी कोई नयी रीति नहीं है। यह लोक और वेद में प्रसिद्ध है, किसी से छिपी नहीं है। हे गोसाईं प्रभु श्रीराम! सारा संसार अनभल अर्थात्‌ बुरा है। आप ही एक भले हैं, फिर कहिये आपकी भलाई को छोड़कर किसकी भलाई से जीव का भला हो सकता है।

**देव देवतरु सरिस सुभाऊ। सनमुख बिमुख न काहुहि काऊ॥**

दो०- जाइ निकट पहिचानि तरु, छाहँ शमन सब सोच।

माँगत अभिमत पाव फल, राउ रंक भल पोच॥२६७॥

भाष्य

हे देव! आपका स्वभाव कल्पवृक्ष के समान है, जो कभी भी किसी के लिए न ही सन्मुख है, न तो विमुख अर्थात्‌ न ही प्रतिकूल है और न ही अनुकूल। हे भगवन्‌! चाहे राजा हो या दरिद्र, चाहे भला हो या बुरा, कभी भी कल्पवृक्ष के निकट जाकर, उसे पहचानकर, उससे कुछ भी माँगे तो वह अभिमत फल दे देता है और अपनी छाया से सम्पूर्ण शोकों को नष्ट कर देता है। उसी प्रकार राजा–भिखारी, भला–बुरा कोई भी जब आपके निकट जाता है और आपको पहचान लेता है तो उसकी चिन्ता मिट जाती है और वह मनचाहा फल पा जाता है।

**लखि सब बिधि गुरु स्वामि सनेहू। मिटेउ छोभ नहिं मन संदेहू॥ अब करुनाकर कीजिय सोई। जन हित प्रभु चित छोभ न होई॥**
भाष्य

सब प्रकार से गुरुदेव एवं स्वामी आपश्री भगवान्‌ राम के स्नेह को देखकर मेरा क्षोभ मिट गया है, मेरे मन में कोई संदेह नहीं है। हे करुणा की खानि भगवान्‌ श्रीराघव जी! अब वही कीजिये जिससे दास का हित हो और आपके चित्त में क्षोभ भी न हो।

**जो सेवक साहिबहिं सँकोची। निज हित चहइ तासु मति पोची॥ सेवक हित साहिब सेवकाई। करै सकल सुख लोभ बिहाई॥**
भाष्य

जो सेवक स्वामी को संकोच में डालकर अपना हित चाहता है, उसकी बुद्धि निम्न होती है। सेवकों का हित तो इसमें है कि, वह सम्पूर्ण सुखों और लोभों को छोड़कर स्वामी की सेवा करे।

**स्वारथ नाथ फिरे सबही का। किए रजाइ कोटि बिधि नीका॥ यह स्वारथ परमारथ सारू। सकल सुकृत फल सुगति सिंगारू॥**
भाष्य

हे नाथ! आपके श्रीअवध लौट चलने से सभी का स्वार्थ सिद्ध हो जायेगा, पर उसकी अपेक्षा आपकी राजाज्ञा का पालन करने से करोड़ों प्रकार से भला होगा। हे भगवन्‌! आपको जो मैं पक्ष दे रहा हूँ, यह स्वार्थ और परमार्थ का तत्त्व है तथा सम्पूर्ण सत्कर्मों का फल है और सुन्दर गति, निर्वाण का भी शृंगार है।

**देव एक बिनती सुनि मोरी। उचित होइ तस करब बहोरी॥ तिलक समाज साजि सब आना। करिय सुफल प्रभु जौ मन माना॥**
भाष्य

हे देव! एक मेरी प्रार्थना सुन लीजिये, फिर जैसा उचित हो वैसा कर दीजियेगा। हे प्रभु! आपके तिलक का सम्पूर्ण समाज अर्थात्‌ सामग्री सजाकर श्रीचित्रकूट ले आया हूँ। यदि आपका मन मान जाये तो उसको सफल कर दीजिये।

**दो०- सानुज पठइय मोहि बन, कीजिय सबहिं सनाथ।**

नतरु फेरियहिं बंधु दोउ, नाथ चलौं मैं साथ॥२६८॥

[[५१९]]

भाष्य

हे राघव! आप छोटे भाई शत्रुघ्न के सहित मुझे वन भेज दीजिये और श्रीसीता, लक्ष्मण के साथ श्रीअवध पधारकर सभी को सनाथ अर्थात्‌ आश्रयवान बना लीजिये। नहीं तो, दोनों भाई लक्ष्मण, शत्रुघ्न को अयोध्या भेज दीजिये और हे नाथ! आपके साथ वन को मैं चलूँ।

**नतरु जाहिं बन तीनिउ भाई। बहुरिय सीय सहित रघुराई॥ जेहि बिधि प्रभु प्रसन्न मन होई। करुना सागर कीजिय सोई॥**
भाष्य

नहीं तो हम तीनों भाई, भरत, लक्ष्मण, शत्रुघ्न वन को चले जायें और हे रघुराज प्रभु! आप श्रीसीता के सहित श्रीअवध को पधार जाइये। हे प्रभु! जिस प्रकार आपका मन प्रसन्न हो, हे करुणा के समुद्र श्रीराघवेन्द्र सरकार! आप वही कीजिये।

**देव दीन्ह सब मोहि शिर भारू। मोरे नीति न धरम बिचारू॥ कहउँ बचन सब स्वारथ हेतू। सहत न आरत के चित चेतू॥ उतर देइ सुनि स्वामि रजाई। सो सेवक लखि लाज लजाई॥ अस मैं अवगुन उदधि अगाधू। स्वामि सनेह सराहत साधू॥ अब कृपालु मोहि सो मत भावा। सकुच स्वामि मन जाइ न पावा॥ प्रभु पद शपथ कहउँ सति भाऊ। जग मंगल हित एक उपाऊ॥**

दो०- प्रभु प्रसन्न मन सकुच तजि, जो जेहि आयसु देब।

सो सिर धरि धरि करिहिं सब, मिटिहिं अनट अवरेब॥२६९॥

भाष्य

हे देव! आप ने मेरे सिर पर सारा भार दे दिया है, जबकि मेरे पास न तो नीति है और न ही धर्म का विचार। मैं सभी वचन अपने स्वार्थ के लिए कहता हूँ, क्योंकि आर्त्त को चित्त का चेत नहीं होता अर्थात्‌ चेतना नहीं होती। स्वामी की राजाज्ञा सुनकर भी जो सेवक उसके प्रतिपक्ष में उत्तर देता है, उस सेवक को देखकर लज्जा भी लज्जित हो जाती है। इसी प्रकार का मैं दुर्गुणों का अगाध सागर हूँ, किन्तु स्वामी के स्नेह के कारण ही साधुजन सराहना करते हैं और आप भी स्नेह के कारण मुझे साधु कहकर सराहते हैं। हे कृपालु! अब तो मुझे वही मत अच्छा लग रहा है, जिससे स्वामी के मन में संकोच न आवे। अथवा, हे कृपालु मुझे तो वही मत अच्छा लगता है। आप निस्संकोच आज्ञा दें, क्योंकि संकोच के कारण आपश्री का वास्तविक मनोभाव पाया नहीं जाता। मैं आपके चरणों की शपथ करके सत्यभाव से जगत्‌ के मंगल के लिए ही उपाय कह रहा हूँ। हे प्रभु! आप मन में प्रसन्न होकर जिसे जो आज्ञा देंगे वह सभी लोग सिर पर धारण कर–कर के पालन करेंगे और सभी अन्याय, उपद्रव और अवरेब अर्थात्‌ उलझनें मिट जायेंगी।

**भरत बचन शुचि सुनि सुर हरषे। साधु सराहि सुमन बहु बरषे॥ असमंजस बश अवध निवासी। प्रमुदित मन तापस बनबासी॥ चुपहिं रहे रघुनाथ सँकोची। प्रभु गति देखि सभा सब सोची॥**
भाष्य

श्रीभरत के पवित्र वचन सुनकर, देवता प्रसन्न हुए, सभी लोग साधु–साधु कहकर श्रीभरत की सराहना करके बहुत से पुष्पों की वर्षा किये। सभी श्रीअयोध्यावासी असमंजस के वश में हो गये अर्थात्‌ श्रीराम श्रीअवध को लौटेंगे या नहीं इस दुविधा में पड़ गये। तपस्वी और वनवासी मन में बहुत प्रसन्न हुए। स्वभाव से संकोची श्रीरघुनाथ चुप रहे। प्रभु की यह दशा देखकर सम्पूर्ण सभा सोच में पड़ गई।

**जनक दूत तेहि अवसर आए। मुनि बसिष्ठ सुनि बेगि बोलाए॥ करि प्रनाम तिन राम निहारे। बेष देखि भए निपट दुखारे॥**

[[५२०]]

भाष्य

उसी अवसर पर जनक जी के दूत श्रीचित्रकूट आ गये। सुनते ही वसिष्ठ मुनि ने उन्हें शीघ्र ही सभा में बुला लिया। प्रणाम करके दूतों ने श्रीराम को देखा और उनका तपस्वी वेश देखकर बहुत दु:खी हुए।

**दूतन मुनिवर बूझी बाता। कहहु बिदेह भूप कुशलाता॥ सुनि सकुचाइ नाइ महि माथा। बोले चरवर जोरे हाथा॥ बूझब राउर सादर साईं। कुशल हेतु सो भयउ गोसाईं॥**
भाष्य

दूतों से मुनिश्रेष्ठ वसिष्ठ जी ने बाता अर्थात्‌ वार्ता कुशल पूछी, हे दूतों! विदेहराज जनक जी का कुशल सुनाओ। वसिष्ठ जी के वचन सुनकर संकुचित होकर, पृथ्वी पर मस्तक नवाकर हाथ जोड़े हुए श्रेष्ठदूत बोले, हे स्वामी! हे इन्द्रियों के नियन्ता महर्षि! आपका आदरपूर्वक जनकराज का कुशल पूछना वही उनकी कुशलता का कारण बन गया।

**विशेष– **वसिष्ठ जी के कुशल प्रश्नों से जनकराज के दूतों को इसलिए संकोच हुआ कि, वे यह सोचने लगे कि, कदाचित्‌ वसिष्ठ जी की अवधारणा हो कि, महाराज का निधन सुनकर भी श्रीजनक श्रीअवध को क्यों नहीं पधारे? परन्तु उनका उत्तर भी बहुत सुन्दर है कि, महराज जनक जी के नहीं आने पर आपको भी तो उनकी कुशल के विषय में आशंका होनी चाहिये थी। चूँकि आप कुशल प्रश्न पूछ रहे हैं इसलिए जनकराज की कुशलता तो सुनिश्चित हो ही गई।

दो०- नाहिं त कोसल नाथ के, साथ कुशल गइ नाथ।

मिथिला अवध बिशेष ते, जग सब भयउ अनाथ॥२७०॥

भाष्य

नहीं तो, हे नाथ! अयोध्यापति दशरथ जी के साथ ही जनक जी की भी कुशलता चली गई। विशेषकर मिथिला, अयोध्या और सामान्यतया सारा संसार अनाथ हो गया।

**कोसलपति गति सुनि जनकौरा। भे सब लोग सोच बस बौरा॥**

**जेहिं देखे तेहि समय बिदेहू। नाम सत्य अस लाग न केहू॥ भा०– **अयोध्यापति दशरथ जी की गति सुनकर जनकपुर के सभी लोग शोक के वश होकर बावले हो गये। उस समय जिसने श्रीजनक को देखा उसे उनका विदेह नाम सत्य जैसा नहीं लगा अर्थात्‌ विदेह होकर भी श्रीजनक शोक से बहुत प्रभावित हुए।

रानि कुचालि सुनत नरपालहिं। सूझ न कछु जस मनि बिनु ब्यालहिं॥ भरत राज रघुबर बनबासू। भा मिथिलेशहिं हृदय हरासू॥

भाष्य

रानी कैकेयी की कुचाल सुनकर मनुष्यों के पालक महाराज श्रीजनक को उसी प्रकार कुछ नहीं सूझा जैसे मणि के बिना सर्प को कुछ नहीं सूझता। श्रीभरत का राज्य और श्रीराम का वनवास सुनकर, महाराज के हृदय में बहुत दु:ख हुआ। अर्थात्‌ श्रीजनक श्रीभरत को राज्य और श्रीराम को वनवास इन दोनों में से किसी को उचित नहीं ठहरा पाये।

**नृप बूझे बुध सचिव समाजू। कहहु बिचारि उचित का आजू॥**

**समुझि अवध असमंजस दोऊ। चलिय कि रहिय न कह कछु कोऊ॥ भा०– **महाराज जनक जी ने विद्वानों और मंत्रियों के समाज से पूछा आप लोग विचार करके कहिये, आज क्या उचित है? श्रीअवध में दोनों असमंजस समझकर रुकना चाहिये अथवा चलना चाहिये, इन दोनों पक्षों में से कोई कुछ भी नहीं कह रहा है, क्योंकि श्रीभरत और श्रीराम दोनों ही जनकपुर के जामाता हैं।

[[५२१]]

नृपहिं धीर धरि हृदय बिचारी। पठए अवध चतुर चर चारी॥ बूझि भरत गति भाउ कुभाऊ। आएहु बेगि न होइ लखाऊ॥

भाष्य

महाराज श्रीजनक ने ही धैर्य धारण करके, हृदय में विचार कर, चार चतुर गुप्तचरों को श्रीअवध भेजा। उनसे कहा कि, श्रीभरत की मनोदशा, भाव और कुभाव को समझकर शीघ्र चले आओ, कोई भी तुम्हें देख नहीं सके।

**दो०- गए अवध चर भरत गति, बूझि देखि करतूति।**

चले चित्रकूटहिं भरत, चार चले तिरहूति॥२७१॥

भाष्य

श्रीअवध में गुप्तचर गये और उन्होंने भरत जी की गति समझी और उनके कर्म देखे। जब श्रीभरत श्रीचित्रकूट चल पड़े, तब श्रीजनक के चारों गुप्तचर भी मिथिला के लिए चले।

**दूतन आइ भरत कइ करनी। जनक समाज जथामति बरनी॥**

**सुनि गुरु परिजन सचिव महीपति। भे सब सोच सनेह बिकल अति॥ भा०– **श्रीजनक के दूतों ने मिथिलापुर आकर अपनी बुद्धि के अनुसार श्रीजनक की सभा में श्रीभरत के कृत्य कह सुनाये। दूतों के वचन सुनकर, गुरु याज्ञवल्क्य जी, परिवार के लोग, मंत्री और महाराज श्रीजनक, सभी लोग स्नेह में अत्यन्त व्याकुल हो गये।

धरि धीरज करि भरत बड़ाई। लिए सुभट साहनी बोलाई॥ घर पुर देश राखि रखवारे। हय गय रथ बहु यान सँवारे॥ दुघरी साधि चले ततकाला। किए बिश्राम न मग महिपाला॥ भोरहिं आजु नहाइ प्रयागा। चले जमुन उतरन सब लागा॥ खबरि लेन हम पठए नाथा। तिन कहि अस महि नायउ माथा॥

भाष्य

धैर्य धारण करके तथा भरत की बड़ाई करके श्रीजनक ने वीर सैनिकों और साहनी, अर्थात्‌ रक्षकों अथवा, घोड़ों के पालने वालों को बुला लिया। राजभवन, जनकपुर और मिथिला देश में रक्षकों को रखकर हाथी, घोड़े, रथ और बहुत सी पालकी आदि अन्य वाहन सजाये। दुघरी अर्थात्‌ द्वीघटी मुहूर्त का शोधन करके तत्काल चल पड़े। महाराज श्रीजनक ने मार्ग में विश्राम नहीं किया। आज ही प्रात:काल प्रयाग नहाकर चले और जब सब लोग यमुना पार उतरने लगे, उसी समय श्रीचित्रकूट का समाचार लेने के लिए श्रीजनक द्वारा हम लोग भेजे गये हैं। ऐसा कहकर, श्रीजनक जी के दूतों ने पृथ्वी पर प्रणाम किया।

**साथ किरात छ सातक दीन्हे। मुनिवर तुरत बिदा चर कीन्हे॥**

दो०- सुनत जनक आगमन सब, हरषेउ अवध समाज।

रघुनंदनहिं सँकोच बड़ सोच बिबश सुरराज॥२७२॥

भाष्य

उनके साथ छ:–सात किरातों को दिया और वसिष्ठ जी ने शीघ्र ही दूतों को विदा किया। जनक जी का चित्रकूट आगमन सुनते ही सम्पूर्ण अवध समाज प्रसन्न हुआ। श्रीराम को बहुत संकोच हो रहा है और इन्द्र शोक के वश हो गये हैं।

**गरइ गलानि कुटिल कैकेयी। काहि कहै केहि दूषन देई॥ अस मन आनि मुदित नर नारी। भयउ बहोरि रहब दिन चारी॥**

[[५२२]]

भाष्य

कुटिल कैकेयी ग्लानि से गलीं जा रहीं हैं। वह किसे क्या कहें और किसे दोष दें? ऐसा विचार मन में लाकर श्रीअवध के नर–नारी बहुत प्रसन्न हुए कि, अब तो फिर कम से कम चार दिन तक तो यहाँ रहना हो ही गया, क्योंकि जनक जी के आगमन के पश्चात्‌ महाराज दशरथ का त्रिदिवसीय राजकीय शोक मनाया जायेगा, इसके पश्चात्‌ कोई कार्यवाही होगी।

**एहि प्रकार गत बासर सोऊ। प्रात नहान लगे सब कोऊ॥ करि मज्जन पूजहिं नर नारी। गनपति गौरि पुरारि तमारी॥**
भाष्य

इस प्रकार, वह दिन भी बीत गया। प्रात:काल सब लोग स्नान करने लगे और स्नान करके सभी नर–नारी गणेश, गौरी, शिवजी, सूर्य और विष्णु जी की पूजा करते हैं।

**रमा रमन पद बंदि बहोरी। बिनवहिं अंजलि अंचल जोरी॥ राजा राम जानकी रानी। आनँद अवधि अवध रजधानी॥ सुबस बसउ फिरि सहित समाजा। भरतहिं राम करहिं जुबराजा॥ एहि सुख सुधा सीचि सब काहू। देव देहु जग जीवन लाहू॥**
भाष्य

और फिर लक्ष्मीपति भगवान्‌ विष्णु जी के चरणों का वन्दन करके पुरुषगण हाथ जोड़ और नारियाँ हाथ में आँचल लेकर पंचदेव (गणपति, शक्ति, शिवजी, सूर्य और विष्णु जी) से प्रार्थना करने लगे। श्रीराम राजा बनकर और भगवती श्रीजानकी अवध की साम्राज्ञी बनकर आनन्द की सीमारूप श्रीअयोध्या राजधानी में समाज के सहित फिर सुखपूर्वक निवास करें और श्रीराजाराम, श्रीभरत को युवराज बनायें। हे देव! (हे पंचदेव!) इस सुख के अमृत से सभी अवधवासियों को सींचकर जगत्‌ में जीवन का लाभ दीजिये।

**दो०- गुरु समाज भाइन सहित, राम राज पुर होउ।**

अछत राम राजा अवध, मरिय माँग सब कोउ॥२७३॥

भा०– हे पंचदेवताओं! गुरुजन, परिजन और भाइयों के सहित श्रीअवधपुर में श्रीराम का राज्य हो और श्रीअवध में श्रीराम के राजा रहते ही हम लोग मरें अर्थात्‌ अपना शरीर छोड़ें, इस प्रकार सभी लोग पाँचों देवताआंें से माँग रहे थे।

सुनि सनेहमय पुरजन बानी। निंदहिं जोग बिरति मुनि ज्ञानी॥

**एहि बिधि नित्यकरम करि पुरजन। रामहिं करहिं प्रनाम पुलकि तन॥ भा०– **अवधवासियों की प्रेममयी वाणी सुनकर ज्ञानी मुनिजन अपने योग और वैराग्य की निन्दा करते हैं। इस प्रकार सभी अवधवासी नित्यक्रिया, स्नान, सन्ध्या, तर्पण, अग्निहोत्र, पंचयज्ञ बलिवैश्वदेव करके भगवान्‌ श्रीराम को रोमांचित शरीर होकर प्रणाम करते हैं।

ऊँच नीच मध्यम नर नारी। लहहिं दरस निज निज अनुहारी॥ सावधान सबहीं सनमानहिं। सकल सराहत कृपानिधानहिं॥

भाष्य

सभी अवध के नर–नारी अपनी–अपनी अनुहार अर्थात्‌ उत्कृष्ट, निकृष्ट और मध्यम भावना के अनुसार

प्रभु के दर्शन प्राप्त करते हैं। प्रभु श्रीराम सावधान रहकर सबका सम्मान करते हैं। सभी कृपानिधान श्रीराम की प्रशंसा करते हैं।

लरिकाइहिं ते रघुबर बानी। पालत प्रीति रीति पहिचानी॥ शील सकोच सिंधु रघुराऊ। सुमुख सुलोचन सरल सुभाऊ॥

[[५२३]]

कहत राम गुन गन अनुरागे। सब निज भाग सराहन लागे॥ हम सम पुन्य पुंज जग थोरे। जिनहिं राम जानत करि मोरे॥

भाष्य

लड़कपन से ही प्रीति की पद्धति पहचानकर रघुश्रेष्ठ श्रीराम की वाणी का पालन करते हैं। वे कहते हैं कि, रघुकुल के राजा भगवान्‌ श्रीराम शील अर्थात्‌ चरित्र और संकोच के तो सागर ही हैं। प्रभु सुन्दर मुख और सुन्दर नेत्रवाले हैं, प्रभु का स्वभाव बहुत सरल है। इस प्रकार, भगवान्‌ श्रीराम के गुणगणों को कहते–कहते श्रीअवधवासी प्रेम में मग्न हो गये और सभी अपने भाग्य की सराहना करने लगे कि, इस संसार में हम जैसे थोड़े ही लोग पुण्यसमूह के स्वरूप हैं तथा पुण्यसमूहों को इकट्ठे किये हैं, जिन्हें श्रीराम अपना करके जानते हैं।

**विशेष– **यहाँ अवधवासियों का अभिप्राय मिथिलावासियों से है, क्योंकि अवधवासियों को श्रीराम अपने भाई, पिता, माता, बहन करके मानते हैं और मिथिलावासियों को श्वसुर, साले, सास, सलहज और साली करके मानते हैं।

दो०- प्रेम मगन तेहि समय सब, सुनि आवत मिथिलेश।

सहित सभा संभ्रम उठेउ, रबिकुल कमल दिनेश॥२७४॥

भाष्य

उस समय सभी लोग प्रेम में मग्न थे, इसी बीच मिथिलाधिराज श्रीजनक को आते सुनकर, सूर्यकुलरूप कमल के सूर्य, भगवान्‌ श्रीराम सभा के सहित संभ्रम अर्थात्‌ उत्कंठा के साथ उठे।

**भाइ सचिव गुरु पुरजन साथा। आगे गमन कीन्ह रघुनाथा॥**

गिरिवर दीख जनकपति जबहीं। करि प्रनाम रथ त्यागेउ तबहीं॥

भाष्य

तीनों भाई, मंत्री, गुरुजन और पुरजनों को साथ लेकर श्रीरघुनाथ श्रीजनक की अगवानी लेने के लिए आगे चले। जिस समय जनकवंश के राजा शिरध्वज महाराज विदेह ने पर्वतश्रेष्ठ श्रीचित्रकूट कामदनाथ को देखा, उसी समय उन्होंने प्रणाम करके अपना रथ छोड़ दिया।

**राम दरस लालसा उछाहू। पथ श्रम लेश कलेश न काहू॥ मन तहँ जहँ रघुबर बैदेही। बिनु मन तन दुख सुख सुधि केही॥**
भाष्य

श्रीराम के दर्शनों की लालसा और उत्साह में किसी को भी मार्ग के श्रम का लेश और किसी प्रकार का क्लेश नहीं था, क्योंकि सबके मन वहाँ थे, जहाँ रघुश्रेष्ठ श्रीराम, लक्ष्मण और सीता जी थीं और बिना मन के शारीरिक दु:ख और सुख का स्मरण किसे रह सकता है?

**आवत जनक चले एहि भाँती। सहित समाज प्रेम मति माती॥ आए निकट देखि अनुरागे। सादर मिलन परस्पर लागे॥**
भाष्य

इस प्रकार श्रीजनक समाज के सहित चले आ रहे थे। उनकी बुद्धि प्रेम में मत्त हो गई है। श्रीजनक अब श्रीराम के निकट आ गये। अवध और मिथिला के लोग एक–दूसरे को देखकर अनुराग में भरकर जहाँ–तहाँ परस्पर मिलने लगे।

**लगे जनक मुनि जन पद बंदन। ऋषिन प्रनाम कीन्ह रघुनंदन॥ भाइन सहित राम मिलि राजहिं। चले लिवाइ समेत समाजहिं॥**
भाष्य

श्रीजनक मुनिजनों के चरणों का वन्दन करने लगे और रघुवंश को आनन्द देने वाले श्रीराम ने भी मिथिलांचल से पधारे ऋषियों को प्रणाम किया। श्रीराम अपने तीनों भाइयों के साथ अगवानी में आकर महाराज श्रीजनक से मिलकर उन्हें समाज के सहित लेकर चले।

[[५२४]]

दो०- आश्रम सागर शांत रस, पूरन पावन पाथ।

**सैन मनहुँ करुना सरित, लिए जाहिं रघुनाथ॥२७५॥ भा०– **शान्तरसरूप पवित्र जल से पूर्ण आश्रमरूप सागर से, मानो सेनारूप करुणा की नदी को मिलाने के लिए श्रीरघुनाथ लिए चले जा रहे हैं।

बोरति ग्यान बिराग करारे। बचन सशोक मिलत नद नारे॥ सोच उसास समीर तरंगा। धीरज तट तरुवर कर भंगा॥

भाष्य

वह कव्र्णा की नदी अपने तट पर ही ज्ञान और वैराग्य तटों को डूबो दे रही है। लोगों के शोकपूर्ण वचन ही छोटे–छोटे नद और नाले बनकर इस नदी में मिल रहे हैं। यहाँ शोक के ऊँचे–ऊँचे श्वास ही वायु से उठने वाले उसके तरंग हैं, जो धैर्यरूप तटवर्ती वृक्षों को तोड़ डाल रही है।

**बिषम बिषाद तोरावति धारा। भय भ्रम भवँर अबर्त अपारा॥ केवट बुध बिद्दा बनिड़ ावा। सकहिं न खेइ ऐकि नहिं आवा॥**
भाष्य

भयंकर दु:ख ही इस नदी की वेगवती धारा है, लोगों के मन में बसा हुआ भय और भ्रम यही नदी के भँवर और आवर्त (चक्र) हैं, विद्वान्‌ ही केवट हैं और उनकी विद्दा बहुत–बड़ी नाव है, जिसे वे खे (चला) नहीं सक रहे है, क्योंकि उनको नदी की ऐक, अर्थात्‌ पार का अटकल नहीं मिल रहा है।

**बनचर कोल किरात बिचारे। थके बिलोकि पथिक हिय हारे॥ आश्रम उदधि मिली जब जाई। मनहुँ उठेउ अंबुधि अकुलाई॥**
भाष्य

वन में रहने वाले बेचारे कोल, किरात ही पथिक हैं, जो इसे देखकर वहीं रुक गये और हृदय में हार गये। यह करुणा की नदी जब आश्रमरूप सागर से जाकर मिली तो मानो सागर ही अकुला उठा अर्थात्‌ ज्वार की परिस्थिति में आ गया।

**शोक बिकल दोउ राज समाजा। रहा न ग्यान न धीरज लाजा॥ भूप रूप गुन शील सराही। सोचहि शोक सिंधु अवगाही॥**
भाष्य

दोनों अर्थात्‌ अवध–मिथिला राजसमाज शोक से व्याकुल हो उठे। उस समय किसी को भी ज्ञान, धैर्य और लज्जा नहीं रही। महाराज दशरथ के रूप, गुण और शील की सराहना करके दोनों समाज के सभी नर–नारी शोकसागर में डूब कर चिन्ता करने लगे।

**छं०: अवगाहिं शोक समुद्र सोचहिं नारि नर ब्याकुल महा।**

दै दोष सकल सरोष बोलहिं बाम बिधि कीन्हो कहा॥ सुर सिद्ध तापस जोगिजन मुनि देखि दशा बिदेह की। तुलसी न समरथ कोउ जो तरि सकै सरित सनेह की॥

भाष्य

सभी नर–नारी व्याकुल होकर शोकसागर में डूब कर सोच कर रहे हैं। सभी लोग विधाता को दोष देकर क्रोधपूर्वक बोलते हैं, प्रतिकूल विधाता ने यह क्या किया? तुलसीदास जी कहते हैं कि, विदेहराज श्रीजनक की यह दशा देखकर देवता, सिद्ध, तपस्वी, योगीजन और मुनि वसिष्ठ जी कोई भी उस समय समर्थ नहीं था, जो इस स्नेह–सरिता को पार कर सके।

**सो०- किए अमित उपदेश, जहँ तहँ लोगन मुनिवरन।**

धीरज धरिय नरेश, कहेउ बसिष्ठ बिदेह सन॥२७६॥

[[५२५]]

भाष्य

जहाँ–तहाँ श्रेष्ठ मुनियों ने दोनों समाज के लोगों के लिए असीम उपदेश किये। हे महाराज श्रीजनक! धैर्य धारण कीजिये, इस प्रकार वसिष्ठ जी ने विदेहराज श्रीजनक से कहा।

**जासु ग्यान रबि भव निशि नासा। बचन किरन मुनि कमल बिकासा॥ तेहि कि मोह ममता नियराई। यह सिय राम सनेह बड़ाई॥**
भाष्य

जिन महाराज का ज्ञानरूप सूर्य साधक की संसार–रात्रि का नाश कर देता है, जिनके वचनरूप सूर्य किरणों से मुनिरूप कमलों का विकास होता है, क्या उन महाराज श्रीजनक के निकट मोह और ममता आ सकती है? कदापि नहीं। यह श्रीसीताराम के स्नेह का बड़प्पन है, जिसके कारण श्रीजनक भी ममतावान्‌ दिख रहे हैं। वस्तुत: यह उनका श्रीसीतारामविषयक वात्सल्य भाव है।

**बिषयी साधक सिद्ध सयाने। त्रिबिध जीव जग बेद बखाने॥ राम सनेह सरस मन जासू। साधु सभा बड़ आदर तासू॥ सोह न राम प्रेम बिनु ग्यानू। करनधार बिनु जिमि जल यानू॥**
भाष्य

वेद ने संसार में विषयी, साधक, सिद्ध इन तीन प्रकार के जीवों का व्याख्यान किया है। इन तीनों प्रकार के जीवोें में जिस जीव का मन, श्रीसीताराम जी के स्नेह में सरस होता है अर्थात्‌ रस की अनुभूति करता है, भगवान्‌ श्रीराम की साधना करने वाले साधुओं के समाज में उसका बहुत–बड़ा आदर होता है, चाहे वह विषयी हो अथवा, साधक या सिद्ध, सम्मान का मापदण्ड भगवत्‌ प्रेम है। श्रीरामप्रेम के बिना ज्ञान उसी प्रकार नहीं सुशोभित होता, जैसे मल्लाह के बिना जल की नाव अर्थात्‌ खेनेवाले के बिना, जैसे नाव कभी भी जल में डूब सकती है अथवा अपने लक्ष्य से भटक कर किसी भी किनारे पर लग सकती है, उसी प्रकार श्रीरामप्रेम के बिना शुष्कज्ञान या मोह–महासागर में डूब जायेगा या लक्ष्यविहीन होकर भटक जायेगा।

**मुनि बहुबिधि बिदेह समुझाए। रामघाट सब लोग नहाए॥ सकल शोक संकुल नर नारी। सो बासर बीतेउ बिनु बारी॥ पशु खग मृगन न कीन्ह अहारू। प्रिय परिजन कर कौन बिचारू॥**
भाष्य

मुनि वसिष्ठ जी ने विदेहराज जनक जी को बहुत प्रकार से समझाया और सभी लोगों ने श्रीचित्रकूट के रामघाट पर स्नान किया। सभी नर–नारी शोक से युक्त हो गये थे। वह दिन बिना जल के ही बीत गया। पशु– पक्षी और हिरणों ने भी आहार नहीं किया, तो फिर प्रिय परिवार अर्थात्‌ परिजन का कौन विचार करे?

**दो०- दोउ समाज निमिराज रघु, राज नहाने प्रात।**

बैठे सब बट बिटप तर, मन मलीन कृश गात॥२७७॥

भाष्य

दोनों अर्थात्‌ अवध–मिथिला समाज तथा नीमिकुल के राजा महाराज श्रीजनक एवं रघुकुल के राजा भगवान्‌ श्रीराम ने प्रात:काल, स्नान, सन्ध्या, तर्पण आदि सम्पन्न किया। सभी वटवृक्ष के नीचे बैठे, सभी के मन उदास थे और शरीर दुर्बल हो गये थे।

**जे महिसुर दशरथ पुर बासी। जे मिथिलापति नगर निवासी॥ हंस बंश गुरु जनक पुरोधा। जिन जग मग परमारथ सोधा॥ लगे कहन उपदेश अनेका। सहित धरम नय बिरति बिबेका॥ कौशिक कहि कहि कथा पुरानीं। समुझाई सब सभा सुबानीं॥**

[[५२६]]

भाष्य

जो दशरथपुर अर्थात्‌ श्रीअवध के वासी ब्राह्मण थे और जो मिथिलापुर के अर्थात्‌ राजा जनक जी के नगर में निवास करने वाले ब्राह्मण थे, जिन्होंने संसार के लिए परमार्थ अर्थात्‌ मोक्ष के मार्ग का संशोधन किया था और सिद्ध किया था कि, संसार में रहकर भी व्यक्ति अन्ततोगत्वा मोक्ष पा सकता है, ऐसे सूर्यवंश के गुरु ब्रह्मर्षि वसिष्ठ जी तथा महाराज जनक जी के पुरोहित शतानन्द जी धर्म, नीति, वैराग्य और ज्ञान के सहित उपदेश वचन कहने लगे। ब्रह्मर्षि विश्वामित्र जी ने सुन्दर वाणी में पौराणिक कथायें कहकर सम्पूर्ण सभा को समझाया।

**विशेष– **यहाँ सामान्य लोग कौशिक शब्द से यह सन्देह करते हैं कि, अयोध्याकाण्ड के श्रीरामवनवास प्रसंग में विश्वामित्र जी का आना कैसे सम्भव हुआ? इसका उत्तर यह है कि, ऋषि, देश, काल और वस्तुओं की सीमा से ऊपर होता है। विश्वामित्र जी सप्तर्षि मण्डल के तारा भी हैं, जो आकाश में उदित रहता है। कुछ लोग कौशिक शब्द से शतानन्द जी का तात्पर्य ग्रहण करते हैं और **कौशिकश्च शतानंद **शब्द को उदाहरण के रूप में प्रस्तुत करते हैं, परन्तु वे उस उदाहरण में प्रयुक्त ‘च’ शब्द पर ध्यान नहीं देते, जो समुच्चय का वाचक है अर्थात्‌ कौशिक और शतानन्द। अयोध्याकाण्ड में ही चार बार कौशिक शब्द का प्रयोग हुआ है। यथा– **कौशिक कहि कहि कथा पुरानीं **\(मानस, २.२७८.४\). **तब रघुनाथ कौशिकहिं कहेऊ **\(मानस, २.२७८.५\). **कौशिकादि मुनि सचिव समाजू **\(मानस, २.२९३.३\). **कौशिक बामदेव जाबाली **\(मानस, २.३१९.६\). इन चारों प्रयोग में कौशिक जी को अवध पक्ष का सिद्ध किया गया है, क्योंकि इसके पूर्व यह कहा गया कि, भगवान्‌ श्रीराम मिथिलापक्षीय लोगों को विदा दे चुके। यथा– **मुनि महिदेव साधु सनमाने। बिदा किए हरि हर सम जाने **\(मानस, २.३१९.४\). **सासु समीप गए दोउ भाई। फिरे बंदि पग आशिष पाइ**᐀् \(मानस, २.३१९.५\). अर्थात्‌ फिर श्रीरामचन्द्र ने मुनि, ब्राह्मण और साधुओं को विष्णु जी और शिव जी के समान जानकर सम्मान करके उनको विदा किया। तब श्रीराम, लक्ष्मण जी दोनों भाई सास के पास गये और उनके चरणों की वन्दना करके आशीर्वाद पाकर लौट आये। इसके अनन्तर श्रीअवध के परिवार को विदा करने का प्रसंग आता है, जिसमें कौशिक की चर्चा की गई है। यथा– **कौशिक बामदेव जाबाली। पुरजन परिजन सचिव सुचाली **\(मानस, २.३१९.६\). **जथा जोग करि बिनय प्रनामा। बिदा किए सब सानुज रामा **\(मानस, २.३१९.७\). अर्थात्‌ फिर विश्वामित्रजी, वामदेवजी, जाबाली जी और शुभ आचरणों वाले कुटुम्बी, नगर के निवासी और मंत्री सबको छोटे भाई लक्ष्मण जी के सहित श्रीराम ने यथायोग्य विनय एवं प्रणाम करके विदा किया। इस उद्धरण से यह सिद्ध होता है कि, कौशिक जी अवध पक्ष के हैं न कि मिथिला पक्ष के, इसलिए शतानन्द जी का तात्पर्य ग्रहण करना केवल मूर्खतापूर्ण पण्डित मान्यता का प्रदर्शन होगा।

तब रघुनाथ कौशिकहिं कहेऊ। नाथ कालि जल बिनु सब रहेऊ॥ मुनि कह उचित कहत रघुराई। गयउ बीति दिन पहर अ़ढाई॥

भाष्य

तब श्रीरघुनाथ जी ने कुशिकपुत्र ब्रह्मर्षि विश्वामित्र जी से कहा, हे नाथ! कल सभी लोग बिना जल के ही रह गये थे अर्थात्‌ आज सबको पहले जलपान कर लेना चाहिये, फिर और कुछ। विश्वामित्र जी ने कहा, हे रघुकुल के राजा श्रीराम! आप उचित कह रहे हैं। आज भी अ़ढाई प्रहर दिन बीत गया, अर्थात्‌ मध्याह्न से अधिक हो गया। अभी भी कोई जल नहीं लेना चाहता। अब तो अवश्य ही जलपान कर लेना चाहिये, अभी सभा विसर्जित की जाती है।

**ऋषि रुख लखि कह तिरहुतिराजू। इहाँ उचित नहिं अशन अनाजू॥ कहा भूप भल सबहिं सोहाना। पाइ रजायसु चले नहाना॥**

[[५२७]]

भाष्य

ब्रह्मर्षि विश्वामित्र जी का रुख अर्थात्‌ इच्छासूचक संकेत देखकर तिरहुति राजा अर्थात्‌ मिथिलाधिराज जनक जी ने कहा, भगवन्‌! इस श्रीचित्रकूट में अन्न–भोजन करना उचित नहीं है, क्योंकि प्रभु श्रीराम फलाहार करें और हम सब अन्नाहार करें, यह तो उचित नहीं होगा। महाराज का यह कथन सुनकर, सभी को अच्छा लगा और सभी लोग फलाहार का ही निश्चय करके श्रीराम और जनक जी की राजाज्ञा पाकर सायंकालीन स्नान के लिए चल पड़े।

**दो०- तेहि अवसर फल फूल दल, मूल अनेक प्रकार।**

लइ आए बनचर बिपुल, भरि भरि काँवरि भार॥२७८॥

भाष्य

उसी समय बहुत से वनचर अर्थात्‌ कोल, किरातगण काँवरों और गद्धियों में भर–भरकर अनेक प्रकार के फल, पुष्प दल और कंद, मूल ले आये।

**कामद भे गिरि राम प्रसादा। अवलोकत अपहरत बिषादा॥**
भाष्य

भगवान्‌ श्रीराम के प्रसाद से सभी पर्वत कामदपर्वत के समान हो गये। अथवा, भगवान्‌ श्रीराम के प्रसाद से श्रीचित्रकूट भगवान्‌ कामद बन गये, जो दर्शनमात्र से सभी दु:खों को समाप्त कर देते हैं अर्थात्‌ सभी दु:खों का अपहरण कर लेते हैं।

**विशेष– **श्रीचित्रकूट पर्वत का ही एक नाम कामद भी है, जो भगवान्‌ श्रीराम के आगमन के पश्चात्‌ उन्हीं के प्रसाद से रखा गया। कामद शब्द की व्युत्पति कई प्रकार से की जाती है। “**कामान्‌ मनोवांछित पदार्थं ददाति इति कामद:” **अर्थात्‌ जो साधकों को प्रेमपूर्वक परिक्रमा करने मात्र से मनोवांछित पदार्थ दे देते हैं उन्हीं गिरिराज श्रीचित्रकूट को कामद कहते हैं। अथवा, **“कं ब्रह्माणं अं विष्णुं मं महेश्वरं ददाति इति कामद:” **संस्कृत में ब्रह्मा जी को **‘क’ **भगवान्‌ विष्णु जी को **‘अ’ **और शिव जी को **‘म’ **कहा जाता है, श्रीकामदगिरिराज इन तीनों के दर्शन करा देते हैं, इसलिए इन्हंें कामद कहा जाता है। अथवा, “**कश्च अश्च मश्च इति कामा: ते सन्ति अस्मिन्‌ इति काम:, रामचन्द्रस्य तं ददाति इति कामद:” **अर्थात्‌ **‘क’ **ब्रह्मा जी **‘अ’ **विष्णु जी और **‘म’ **महेश्वर ये तीनों जिनमें निरन्तर विराजते हैं, ऐसे बह्मा जी, विष्णु जी और शङ्कर जी के भी कारणरूप भगवान्‌ श्रीराम को काम कहते हैं। उन्हीं श्रीराम को, परिक्रमा से प्रसन्न होकर, जो साधक को अर्पित कर देते हैं, उन्हीं श्रीचित्रकूट के प्रखण्ड विशेष \(जो लगभग पाँच किलोमीटर में फैले हैं उन्हीं पर्वत श्रेष्ठ\) को कामद कहते हैं। अथवा, “**कामं द्दति खण्डयति इति कामद:” **अर्थात्‌ जो कामवासना को नष्ट कर देते हैं, उन्हीं श्रीचित्रकूट के प्रखण्ड विशेष को कामद कहते हैं। साधकों का तो ऐसा मानना है कि, जीवों पर प्रसन्न हुए भगवान्‌ श्रीराम ही कामद बन गये। उनकी दृय्ि से इस चौपाई का अन्वय होगा “**प्रसादा राम कामदगिरि भे” **अर्थात्‌ प्रसन्न हुए श्रीरामचन्द्र ही कामदगिरि बन गये, जो दर्शनमात्र से प्राणियों के कष्ट को हर लेते हैं, इसलिए रामस्तवराज के तीसवें श्लोक में भगवान्‌ श्रीराम को कामद कहा गया है **कामदं कमलेक्षणम्‌।**

सर सरिता बन भूमि बिभागा। जनु उमगत आनँद अनुरागा॥ बेलि बिटप सब सफल सफूला। बोलत खग मृग अलि अनुकूला॥ तेहि अवसर बन अधिक उछाहू। त्रिबिध समीर सुखद सब काहू॥ जाइ न बरनि मनोहरताई। जनु महि करति जनक पहुनाई॥

भाष्य

तालाबों, नदियों, वन और पृथ्वी के प्रदेश में मानो आनन्द और अनुराग उमड़ रहा था। लतायें और वृक्ष सभी सुन्दर फल और सुन्दर फूलों से युक्त हो गये। पक्षी, पशु और भ्रमर अनुकूलता से बोलने लगे थे। उस अवसर

[[५२८]]

पर वन में बहुत उत्साह था, तीनों प्रकार का वायु सबको सुख दे रहा था। वन की सुन्दरता का वर्णन नहीं किया जा सकता था, मानो पृथ्वी स्वयं अपने वास्तविक पति जनक जी का आतिथ्य कर रही थीं।

तब सब लोग नहाइ नहाई। राम जनक मुनि आयसु पाई॥ देखि देखि तरुवर अनुरागे। जहँ तहँ पुरजन उतरन लागे॥

भाष्य

इसके पश्चात्‌ सभी लोग स्नान कर–करके भगवान्‌ श्रीराम, श्रीजनक एवं गुव्र्देव वसिष्ठ जी का आदेश पाकर वृक्षों को देख–देखकर प्रेम से अनुरक्त हो उठे और मिथिलापुर के निवासी जहाँ–तहाँ उतरने लगे अर्थात्‌ वृक्षों के नीचे समतल भूमि में व्यवस्थित होने लगे।

**दल फल मूल कंद बिधि नाना। पावन सुंदर सुधा समाना॥**

दो०- सादर सब कहँ राम गुरु, पठए भरि भरि भार।

पूजि पितर सुर अतिथि गुरु, लगे करन फरहार॥२७९॥

भाष्य

अनेक प्रकार के खाने योग्य पत्ते, फल और पवित्र सुन्दर अमृत के समान स्वाद वाले मूल, कन्द गद्धियाँ भर–भरकर आदरपूर्वक भगवान्‌ श्रीराम के गुव्र्देव वसिष्ठ जी ने सभी श्रीमिथिला निवासियों के लिए भेज दिये। सब लोग पितृ, देवता, गुरुजन, अतिथि और देवताओं की पूजा करके अर्थात्‌ पंचयज्ञ और बलिवैश्वदेव सम्पन्न करके फलाहार करने लगे।

**एहि बिधि बासर बीते चारी। राम निरखि नर नारि सुखारी॥ दुहुँ समाज असि रुचि मन माहीं। बिनु सिय राम फिरब भल नाहीं॥**
भाष्य

इस प्रकार से चार दिन बीत गये। श्रीसीता–राम को देखकर सभी नर–नारी सुखी हो रहे थे। दोनों समाज के मन में ऐसी व्रᐃच है कि, श्रीसीताराम जी के बिना लौटना उचित नहीं है।

**सीता राम संग बनबासू। कोटि अमरपुर सरिस सुपासू॥**

परिहरि लखन राम बैदेही। जेहि घर भाव बाम बिधि तेही॥ दाहिन दैव होइ जब सबहीं। राम समीप बसिय बन तबहीं॥ मंदाकिनि मज्जन तिहुँ काला। राम दरस मुद मंगल माला॥ अटन राम गिरि बन तापस थल। अशन अमिय सम कंद मूल फल॥ सुख समेत संबत दुइ साता। पल सम होहि न जनियहिं जाता॥

भाष्य

श्रीसीताराम जी के साथ वन में निवास करना तो करोड़ों देवपुर के समान सुखद होगा। भगवती श्रीसीता, लक्ष्मण एवं भगवान्‌ श्रीराम को छोड़कर जिसे अपना घर अच्छा लगता हो, उसके लिए विधाता प्रतिकूल ही हैं। जब सबके लिए ईश्वर अनुकूल होंगे तभी भगवान्‌ श्रीराम के समीप वन में निवास कर सकेंगे। तीनों काल अर्थात्‌ प्रात:, मध्याह्न और सायंकाल भगवती मंदाकिनी जी में मज्जन अर्थात्‌ डुबकी लगाकर स्नान और उनके साथ प्रसन्नता और मंगलों की मालिकारूप श्रीसीता, लक्ष्मण सहित प्रभु श्रीराम का दर्शन, भगवान्‌ श्रीकामदगिरि की परिक्रमा और पवित्र तपस्वियों की स्थली श्रीचित्रकूट का भ्रमण तथा अमृत के समान कन्द, मूल, फल का भोजन इन क्रियाओं से दो सात अर्थात्‌ सात के दोगुणे चौदह वर्ष सुख के साथ एक पलक के समान हो जायेंगे, वे जाते हुए भी नहीं जान पड़ेंगे।

**दो०- एहि सुख जोग न लोग सब, कहहिं कहाँ अस भाग।**

सहज स्वभाव समाज दुहुँ, राम चरन अनुराग॥२८०॥

[[५२९]]

भाष्य

सब लोग कह रहें हैं कि, हम लोग इस सुख के योग्य कहाँ हैं? हमारे ऐसे भाग्य कहाँ है कि, हम अपनी घर–गृहस्थी की ममता छोड़कर भगवान्‌ श्रीराम के सान्निध्य में रह सकें और चाहें भी तो प्रभु हमें कहाँ ऐसी अनुमति दे सकेंगे? क्योंकि उन्हें केवल श्रीसीता एवं लक्ष्मण जी के साथ वनवास की अनुमति हुई है। श्रीसीता एवं लक्ष्मण जी के अतिरिक्त परिवार के तीसरे व्यक्ति को प्रभु के साथ वन में रहने के लिए अनुमति नहीं मिली है। दोनों समाज अर्थात्‌ अवध–मिथिला के लोगों का भाव स्वाभाविक और सुन्दर है। दोनों समाज का श्रीराम के प्रति अनुपम और अनुच्छिष्ठ राग है अर्थात्‌ प्रेम है।

**एहि बिधि सकल मनोरथ करहीं। बचन सप्रेम सुनत मन हरहीं॥**
भाष्य

इस प्रकार अवध–मिथिला, दोनों ओर के सभी नर–नारी श्रीराम के सान्निध्य में रहने का मनोरथ कर रहे हैं। उनके प्रेमपूर्ण वचन सुनने मात्र से मन को चुरा लेते हैं अर्थात्‌ संसार में भटक रहे मन को चुराकर उसे श्रीरामप्रेम के कोषागार में छिपा देते हैं।

**सीय मातु तेहि समय पठाई। दासी देखि सुअवसर आई॥ सावकाश सुनि सब सिय सासू। आयउ जनकराज रनिवासू॥ कौसल्या सादर सनमानी। आसन दिए समय सम आनी॥**
भाष्य

उसी समय भगवती सीता जी की माता महारानी सुनयना जी द्वारा भेजी हुई दासी सुन्दर अवसर देखकर श्रीअवध रनिवास आई और सुनयना जी के आने की अनुमति माँगी। सीता जी की सभी सासुओं को सावकाश सुनकर अर्थात्‌ उनका रिक्त समय जानकर, अथवा अपने लिए सुरक्षित समय जानकर राजा जनक जी का रनिवास अवध रनिवास के पास आया अर्थात्‌ श्रीजनकराज की महारानियाँ भगवान्‌ श्रीराम की माताओं से मिलने के लिए उनके निवास स्थान पर आईं। श्री कौसल्या माता ने आदरपूर्वक समधिन का सम्मान किया और उन्हें समय के समान ही आसन लाकर दिये अर्थात्‌ कुश की चटाई समर्पित की।

**शील सनेह सरिस दुहुँ ओरा। द्रवहि देखि सुनि कुलिश कठोरा॥ पुलक शिथिल तन बारि बिलोचन। महि नख लिखन लगीं सब सोचन॥ सब सिय राम प्रीति की मूरति। जनु करुना बहु बेष बिसूरति॥**
भाष्य

दोनों ओर अर्थात्‌ श्रीअवध–मिथिला पक्ष में समान रूप से शील और स्नेह था, जिसे देख और सुनकर वज्र के समान कठोर लोग भी द्रवित हो उठते थे। उनके शरीर रोमांच से युक्त और शिथिल थे। उनके विमल नेत्रों में प्रेम के आँसू थे। वे पृथ्वी को नख से कुरेदती हुईं सबकी सब शोक करने लगीं। सभी महारानियाँ श्रीसीताराम जी के प्रेम की मूर्ति थीं। वे ऐसे शोकमग्न हो रही थीं, मानो करुणा ही बहुत से वेशों में चिन्तित हो रही हो।

**सीय मातु कह बिधि बुधि बाँकी। जो पय फेन फोर पबि टाँकी॥**

दो०- सुनिय सुधा देखिय गरल, सब करतूति कराल।

**जहँ तहँ काक उलूक बक, मानस सकृत मराल॥२८१॥ भा०– **भगवती श्रीसीता की माता सुनयना जी ने कहा कि, विधाता की बुद्धि बड़ी टे़ढी है, जो वज्र की टाँकी अर्थात्‌ छेनी से दूध के फेन को फोड़ रही है अर्थात्‌ दूध के फेन के समान कोमल श्रीराम, श्रीदशरथ एवं श्रीकौसल्या के संयोग को विधाता ने श्रीराम–वनवासरूप वज्र की टाँकी से फोड़कर तितर–बितर कर दिया अर्थात्‌ श्रीराम को वन में, दशरथ जी को इन्द्र के भवन में और कौसल्या जी को श्रीअवधराजभवन में करके अलग–अलग कर दिया। अथवा, युवराज पदरूप दूध के फेन को श्रीराम को वनवास प्रदानरूप छेनी से फोड़ा,

[[५३०]]

यही विधाता की बुद्धि का टे़ढापन है। अमृत केवल सुना जाता है, परन्तु विष प्रत्यक्षत: दिखाई पड़ता है। विधाता के सभी कार्य भयंकर हैं। कौवे, उल्लू और बगुले तो जहाँ–तहाँ बहुश: दिखते हैं, परन्तु हंस तो एकमात्र मानस सरोवर में ही उपलब्ध होता है।

सुनि ससोच कह देबि सुमित्रा। बिधि गति बबिड़ िपरीत बिचित्रा॥

**जो सृजि पालइ हरइ बहोरी। बाल केलि सम बिधि मति भोरी॥ भा०– **महारानी सुनयना जी के वचन को सुनकर देवी सुमित्रा जी ने शोक के साथ कहा, विधाता की गति बड़ी ही विपरीत अर्थात्‌ उल्टी और विचित्र अर्थात्‌ विषम चित्रोंवाली है, जो जगत्‌ की रचना करके उसका पालन करते हैं और फिर उसे समाप्त कर डालते हैं। यदि समाप्त ही करना था, तो फिर उसे बनाया ही क्यों? बनाकर भी पाल–पोषकर बड़ा किया फिर संहार किया। बालक की क्रीड़ा के समान ही विधाता की बुद्धि बड़ी ही भोली है। जैसे बालक मिट्टी के घरौंदों को बनाता है, फिर फोड़ देता है। घरौंदों को बनाने से न तो उसे हर्ष होता है और न ही बिगाड़ने में शोक, वह तो उसकी लीला है। उसी प्रकार विधाता की बुद्धि के सम्बन्ध में भी समझना चाहिये।

कौसल्या कह दोष न काहू। करम बिबश दुख सुख छति लाहू॥

**कठिन करम गति जान बिधाता। जो शुभ अशुभ सकल फल दाता॥ भा०– **भगवती कौसल्या जी ने कहा कि, इसमें किसी का भी दोष नहीं है। दु:ख, सुख, हानि, लाभ ये सब कुछ कर्म के पराधीन हैं। जो सभी जीवों के शुभाशुभ कर्म के अनुसार सभी फल देते हैं, वे विधाता कर्म की कठिन गति को जानते हैं, इसलिए उन्हें निरर्थक कोसना ठीक नहीं है।

ईश रजाइ शीष सबही के। उतपति थिति लय बिषहु अमी के॥ देबि मोह बश सोचिय बादी। बिधि प्रपंच अस अचल अनादी॥

भाष्य

उत्पत्ति, स्थिति अर्थात्‌ पालन, लय अर्थात्‌ संहार, विष और अमृत इन सभी के सिर पर ईश्वर की राजाज्ञा है अर्थात्‌ इन पाँचों का नियंत्रण भी ईश्वर करते हैं। हे देवी! मोहवश हमलोग व्यर्थ ही शोक कर रहे हैं। विधाता का आदिरहित प्रपंच भी इसी प्रकार अचल है अर्थात्‌ अडिग है। इसे कोई इधर–उधर स्थानान्तरित नहीं कर सकता।

**भूपति जियब मरब उर आनी। सोचिय सखि लखि निज हित हानी॥**

सीय मातु कह सत्य सुबानी। सुकृती अवधि अवधपति रानी॥

भाष्य

हे सखी! महाराज चक्रवर्ती जी के जीने और मरने को हृदय में लाकर अपने स्वार्थ की हानि देखकर हमलोग शोक कर रहे हैं। वस्तुत: महाराज ने तो प्रभु से यह वरदान ही माँग रखा था कि, वे अपने जीवन के अन्तिम क्षणपर्यन्त श्रीराम को गोद में लेकर खेलायेंगे और उनकी अनुपस्थिति में अपने शरीर का त्याग कर देंगे। इसमें विधाता का क्या दोष है? श्रीसीता की माता सुनयना जी ने कहा, हे महारानी जी! आपकी वाणी सत्य है, क्योंकि अयोध्यापति चक्रवर्ती जी महाराज सत्कर्म और पुण्य की सीमा थे।

**दो०- लखन राम सिय जाहिं बन, भल परिनाम न पोच।**

**गहबरि हिय कह कौसिला, मोहि भरत कर सोच॥२८२॥ भा०– **श्रीलक्ष्मण, भगवान्‌ श्रीराम और श्रीसीता यदि वन जाते ही हैं, तो परिणाम में अच्छा ही होगा बुरा नहीं अर्थात्‌ प्रभु श्रीराम, रावण का वध करके श्रीअवध को पधारेंगे और फिर श्रीरामराज्य की स्थापना होगी।

कौसल्या जी ने शोक से घिरा हुआ हृदय करके कहा कि मुझे तो भरत की बहुत चिन्ता है।

ईश प्रसाद अशीष तुम्हारी। सुत सुतबधू देवसरि बारी॥

[[५३१]]

राम शपथ मैं कीन्ह न काऊ। सो करि कहउँ सखी सति भाऊ॥

भाष्य

ईश्वर साकेताधिपति भगवान्‌ श्रीराम के प्रसाद से और आपके आशीर्वाद से मेरे पुत्र श्रीराम और पुत्रवधू श्रीसीता तो गंगाजल के समान बहुत ही पवित्र हैं उनकी मुझे कोई चिन्ता नहीं है। अथवा मेरे चारों पुत्र (श्रीराम, भरत, लक्ष्मण और शत्रुघ्न) और चारों पुत्रवधुयें (श्रीसीता, मांडवी, उर्मिला और श्रुतिकीर्ति) गंगाजल के समान निर्मल है। इनमें तो कभी परस्पर मतभेद की सम्भावना ही नहीं है, परन्तु हे सखी! मैंने कभी श्रीराम की शपथ नहीं की है, आज वह भी करके अपना सत्य भाव कहती हूँ।

**भरत शील गुन बिनय बड़ाई। भायप भगति भरोस भलाई॥ कहत शारदहु कर मति हीचे। सागर सीपि कि जाहिं उलीचे॥**
भाष्य

भरत का शील, गुण, विनम्रता, बड़प्पन, भ्रातृप्रेम, श्रीराम के प्रति भक्ति, श्रीराम के प्रति विश्वास और भलाई अर्थात्‌ भद्रता, अच्छापन कहने में सरस्वती जी की भी बुद्धि हिचकती है। क्या समुद्र सीपि द्वारा उलीचने पर समाप्त हो सकता है।

विशेष

– यहाँ श्रीभरत के सात गुण, शील, विनम्रता, बड़प्पन, भ्रातृत्व, भक्ति, विश्वास और भद्रता, सात सागरों का उपमेय बनाया गया है। शील को गुण का विशेषण माना गया है और सरस्वती जी की बुद्धि को सीपि का उपमेय बनाया गया है।

जानउँ सदा भरत कुलदीपा। बार बार मोहि कहेउ महीपा॥ कसिय कनक मनि पारिख पाए। पुरुष परिखियहिं समय सुभाए॥

भाष्य

हे सुनयनाजी! मैं तो निरन्तर भरत को रघुकुल का दीपक जानती हूँ और चक्रवर्ती महाराज ने भी मुझे बार–बार यही कहा है।

**विशेष– **सूर्य और चन्द्र दोनों की अनुपस्थिति में दीपक ही प्रकाश दान की भूमिका निभाता है, उसी प्रकार श्रीदशरथरूप सूर्य के अस्त हो जाने पर और श्रीरामरूप चन्द्र के उदय में बिलम्ब हो जाने पर, अमावस्या की रात्रि में श्रीभरतरूप दीपक से ही रघुकुल को प्रकाश मिलेगा। यहाँ श्रीभरत दीपक हैं, चौदह वर्ष की अवधि बत्ती है, श्रीरामप्रेम स्नेह अर्थात्‌ घी है और विरह अग्नि। इस दीपक को कैकेयी का लोभरूप वायु नहीं बुझा पाया। अथवा, श्रीभरत, श्रीरामनाम का जप करते–करते श्रीरामनाम रूप हो गये हैं। अतएव, श्रीभरत श्रीरामनाम रूप मणिदीप हैं, जिन्हें कैकेयी का लोभरूप वायु नहीं बुझा सकेगा। जहाँ दिन–रात परमप्रेम का प्रकाश रहेगा, जहाँ दीप, पात्र, घी और बत्ती की आवश्यकता नहीं होगी, जहाँ विष, अमृत बनेगा और जहाँ काम आदि खल निकट फटकेंगे भी नहीं। **जानउँ सदा भरत कुलदीपा **पंक्ति में प्रयुक्त ‘सदा’ शब्द का यही भाव प्रतीत होता है। स्वर्ण कसौटी पर कसे जाने पर, रत्न–पारखी प्राप्त होने पर परखा जाता है, उसी प्रकार पुव्र्ष भी समय की कसौटी पर और सुभाय अर्थात्‌ अपने स्वभाव और सुन्दर चरित्र से परीक्षित होता रहता है अर्थात्‌ परखा जाता है। तात्पर्य यह है कि, आज मेरे भरत की ईश्वर द्वारा दोनों प्रकार की परीक्षायें हो रही हैं। यह समय उनके लिए कसौटी का

समय है और उनका स्वभाव और चरित्र ही पारखी है।

अनुचित आजु कहब अस मोरा। शोक सनेह सयानप थोरा॥ सुनि सुरसरि सम पावनि बानी। भईं सनेह बिकल सब रानी॥

[[५३२]]

भाष्य

आज मेरा इस प्रकार कहना भी अनुचित है, क्योंकि शोक और स्नेह में चतुरता बहुत थोड़ी रह जाती है और चतुरता के बिना परीक्षार्थी परीक्षा में उतीर्ण नहीं हो सकता। गंगा जी के समान भगवती कौसल्या जी की पवित्र करनेवाली वाणी सुनकर, सभी रघुकुल और निमिकुल की रानियाँ प्रेम से विकल हो गईं।

**दो०- कौसल्या कह धीर धरि, सुनहु देबि मिथिलेशि।**

**को बिबेक निधि बल्लभहिं, तुमहिं सकइ उपदेशि॥२८३॥ भा०– **कौसल्या जी ने धैर्य धारण करके कहा, हे मिथिलेश्वरी देवी सुनयना जी! सुनिये, विवेक के सागर महाराज जनक जी की प्रियतमा आपश्री सुनयना जी को कौन उपदेश दे सकता है?

रानि राय सन अवसर पाई। आपनि भाँति कहब समुझाई॥ राखिय लखन भरत गवनहिं बन। जौ यह मत मानै महीप मन॥ तौ भल जतन करब सुबिचारी। मोरे सोच भरत कर भारी॥ गू़ढ सनेह भरत मन माहीं। रहे नीक मोहि लागत नाहीं॥

भाष्य

हे महारानी सुनयना जी! समय पाकर सम्राट्‌ श्रीजनक को आप अपने प्रकार से (अर्थात्‌ मेरी दृय्ि से नहीं) समझाकर कहियेगा। लक्ष्मण जी को अयोध्या में रखा जाये और भरत जी, श्रीराम के साथ वन में गमन करें। यदि यह मत महाराज श्रीजनक का मन मान ले, तो आप सुन्दर विचारपूर्वक यत्न कीजियेगा, क्योंकि ऐसा करने पर भला ही होगा। मुझे भरत की बड़ी चिन्ता है। भरत के मन में श्रीराम के प्रति गोपनीय प्रेम है, उनके श्रीअवध में रह जाने पर मुझे अच्छा नहीं लग रहा है, क्योंकि चौदह वर्षपर्यन्त भरत, श्रीराम के बिना जीवित रहेंगे, इसमें मुझे संदेह है।

**लखि स्वभाव सुनि सरल सुबानी। सब भइ मगन करुन रस रानी॥ नभ प्रसून झरि धन्य धन्य धुनि। शिथिल सनेह सिद्ध जोगी मुनि॥**
भाष्य

माता कौसल्या जी का स्वभाव देखकर और उनकी सत्य, सुन्दर वाणी सुनकर, सभी रानियाँ करुणरस में मग्न हो गईं। आकाश से पुष्पों की झरी लग गई और धन्य–धन्य ध्वनि होने लगी। सिद्ध, योगी और मुनि स्नेह से शिथिल हो गये।

**सब रनिवास बिथकि लखि रहेऊ। तब धरि धीर सुमित्रा कहेऊ॥ देबि दंड जुग जामिनि बीती। राम मातु सुनि उठी सप्रीती॥**
भाष्य

यह देखकर अर्थात्‌ कौसल्या जी की चिन्ता की आकाश में भी प्रतिक्रिया देखकर, सम्पूर्ण रनिवास थकित अर्थात्‌ स्तब्ध रह गया। तब सुमित्रा जी ने धैर्य धारण करके कहा, हे देवी! दो दण्ड अर्थात्‌ दो घड़ी रात्रि बीत गई। तात्पर्यत: अब राजपरिवार को रात्रि में बहुत देर तक बैठना उचित नहीं होगा। यह सुनकर श्रीराम की माता कौसल्या जी प्रेमपूर्वक उठीं और सुनयना जी से कहने लगीं।

**दो०- बेगि पायँ धारिय थलहि, कह सनेह सतिभाय।**

हमरे तौ अब ईश गति, कै मिथिलेश सहाय॥२८४॥

भाष्य

कौसल्या जी स्नेह और सत्यभाव से कहने लगीं, हे महारानी सुनयना जी! अपने निवासस्थान को शीघ्र पधारें। अब तो हमारे लिए ईश्वर ही गति अर्थात्‌ आश्रय हैं अथवा, जनक जी की सहायता अथवा, हमारे लिए तो मिथिलापति जनक जी को हमारा सहायक बना कर ईश्वर ही उनके माध्यम से हमारे रक्षक हैं।

[[५३३]]

लखि सनेह सुनि बचन बिनीता। जनक प्रिया गह पायँ पुनीता॥ देबि उचित असि बिनय तुम्हारी। दशरथ घरनि राम महतारी॥

भाष्य

माता कौसल्या जी का स्वभाव देखकर और उनके विनम्र वचन सुनकर, जनकराज की प्रियतमा सुनयना जी ने कौसल्या जी के पवित्र चरण पक़ड लिए और बोलीं, हे देवी! आपकी इस प्रकार की विनम्रता बहुत उचित है, क्योंकि आप जिनका रथ दसों दिशाओं में जाता था, ऐसे चक्रवर्ती महाराज श्रीदशरथ की गृहलक्ष्मी और परब्रह्म परमात्मा भगवान्‌ श्रीराम की माँ हैं।

**प्रभु अपने नीचहु आदरहीं। अगिनि धूम गिरि सिर तृन धरहीं॥**

सेवक राउ करम मन बानी। सदा सहाय महेश भवानी॥

रउरे अंग जोग जग को है। दीप सहाय कि दिनकर सोहै॥

भाष्य

समर्थ लोग अपने से छोटों को भी आदर देते हैं। देखिये अग्नि देवता धुँये को और पर्वत छोटे से तिनके को अपने सिर पर धारण करते हैं। महाराज मिथिलाधिपति, मनसा, वचसा, कर्मणा आपके सेवक हैं। आपके सहायक तो सदैव शिव जी और पार्वती जी ही हैं। इस संसार में आपके सहायक होने योग्य कौन है? क्या सूर्यनारायण दीपक को सहायक बनाकर शोभित होते हैं? अथवा, क्या सूर्यनारायण का सहायक बनकर छोटा सा दीपक शोभा पा सकता है?

**राम जाइ बन करि सुर काजू। अचल अवधपुर करिहैं राजू॥ अमर नाग नर राम बाहुबल। सुख बसिहैं अपने अपने थल॥ यह सब जाग्यबल्क्य कहि राखा। देबि न होइ मुधा मुनि भाखा॥**
भाष्य

श्रीराम वन में जाकर देवताओं का कार्य करके श्रीअवधपुर में अचल राज्य करेंगे अर्थात्‌ न तो श्रीराम अयोध्या छोड़कर कहीं जायेंगे और न ही उनका राज्य समाप्त होगा। वे सदैव अपने दिव्यप्राण के साथ अपने दिव्य अवधपुर में विराजमान होकर दिव्यराज्य करेंगे। भगवान्‌ श्रीराम के बाहुबल से स्वर्ग में सभी देवता, पाताल में सभी नाग और मनुष्य लोक में सभी मनुष्य अपने–अपने स्थल पर सुखपूर्वक निवास करेंगे। यह सब पहले ही महर्षि याज्ञवल्क्य जी ने मुझ से कह रखा है। हे देवी! महर्षियों की वाणी कभी झूठी नहीं होती।

**दो०- अस कहि पग परि प्रेम अति, सिय हित बिनय सुनाइ।**

**सिय समेत सियमातु तब, चली सुआयसु पाइ॥२८५॥ भा०– **ऐसा कहकर, अत्यन्त प्रेम से कौसल्या जी के चरणों पर पड़कर अपने साथ थोड़ी देर के लिए सीता जी को लिवा जाने की प्रार्थना सुनाकर, कौसल्या जी की सुन्दर आज्ञा पाकर, श्रीसीता की माता सुनयना जी श्रीसीता के साथ अपने निवास स्थल के लिए चलीं।

प्रिय परिजनहिं मिली बैदेही। जो जेहि जोग भाँति तस तेही॥

**तापस बेष जानकिहिं देखी। भे सब बिकल बिषाद बिशेषी॥ भा०– **विदेहनंदिनी श्रीसीता अपने मायके के प्रिय परिवार से जो जिसके योग्य था उसे, उसी प्रकार से मिलीं। भगवती श्रीसीता को तपस्विनी के वेश में देखकर सभी लोग विशेष दु:ख से विकल हो गये।

जनक राम गुरु आयसु पाई। चले थलहिं सिय देखी आई॥ लीन्ह लाइ उर जनक जानकी। पाहुनि पावन प्रेम प्रान की॥

[[५३४]]

भाष्य

इधर श्रीराम के गुव्र्देव वसिष्ठ जी की आज्ञा पाकर, महाराज जनक जी अपने निवास स्थल को विश्राम के लिए चले और आकर वहाँ पधारी हुईं भगवती श्रीसीता को देखा। प्रेम और प्राण की पवित्र अतिथि श्रीजानकी को देखकर श्रीजनक ने हृदय से लगा लिया।

**उर उमगेउ अंबुधि अनुरागू। भयउ भूप मन मनहुँ प्रयागू॥ सिय सनेह बट बा़ढत जोहा। ता पर राम प्रेम शिशु सोहा॥**
भाष्य

महाराज श्रीजनक के हृदय में अनुराग का सागर उमड़ गया, मानो श्रीजनक का मन प्रयाग हो गया, उसमें सीता जी के स्नेहरूप अक्षयवट को ब़ढते हुए देखकर, उसी पर श्रीराम–प्रेमरूप शिशु (बाल मुकुन्द) सुशोभित हुए।

**चिरजीवी मुनि ग्यान बिकल जनु। बूड़त लहेउ बाल अवलंबनु॥ मोह मगन मति नहिं बिदेह की। महिमा सिय रघुबर सनेह की॥**
भाष्य

मानो ज्ञानरूप चिरंजीवी मुनि मार्कण्डेय ने उस अनुराग सागर में डूबते हुए श्रीराम प्रेमरूप बालक का अवलम्ब ले लिया। तात्पर्य यह है कि, जैसे प्रयाग में बैठे–बैठे वहीं पर आये हुए सागर की लहरों में डूबते हुए, मार्कण्डेय मुनि को उसी जल में तैर रहे अक्षयवट के पत्ते पर विराजमान बाल मुकुन्द जी का अवलम्ब मिल गया था, उसी प्रकार से पुत्री–प्रेम के प्रवाह में डूबते हुए श्रीजनक के ज्ञान को भी भगवती श्रीसीता के प्रेम पर आधारित श्रीरामप्रेम का अवलम्ब मिल गया।

**विशेष– **विदेहराज जनक जी की बुद्धि सांसारिक पुत्री राग विषयक मोह में नहीं डूबी, यही श्रीसीताराम जी के प्रेम की महिमा है, जिसने जनक जी के मन में क्षण भर के लिए सीता जी के प्रति आये हुए पुत्रीभाव को समाप्त कर दिया। अथवा श्रीसीताराम जी के स्नेह की महिमा से विदेहराज जनक जी की बुद्धि सांसारिक पुत्री–जामाता विषयक मोह में नहीं डूबी अर्थात्‌ ज्यों ही जनक जी के मन में श्रीसीताराम जी के प्रति बेटी और जामाता का सांसारिक भाव जगा तत्क्षण उनके प्रति ब्रह्मभाव ने उसे दबा दिया।

दो०- सिय पितु मातु सनेह बश, बिकल न सकी सँभारि।

**धरनिसुता धीरज धरेउ, समय सुधरम बिचारि॥२८६॥ भा०– **श्रीसीता, माता–पिता के प्रेम के वश होकर व्याकुल हो गईं और अपने को सम्भाल नहीं सकीं, फिर पृथ्वीपुत्री सीता जी ने समय और अपने कर्त्तव्यों का विचार करके धैर्य धारण किया।

तापस बेष जनक सिय देखी। भयउ प्रेम परितोष बिशेषी॥

पुत्रि पबित्र किए कुल दोऊ। सुजस धवल जग कह सब कोऊ॥

भाष्य

तपस्वी वेश में विराजमान श्रीसीता को देखकर श्रीजनक को विशेष प्रेमपूर्ण संतोष हुआ। वे बोले, हे पुत्री! तुमने दोनों कुलों अर्थात्‌ रघुकुल और निमिकुल को पवित्र कर दिया। सभी लोग कहते हैं कि, तुम्हारे सुयश से सम्पूर्ण संसार धवल अर्थात्‌ श्वेत हो रहा है। अथवा, तुम्हारा सुयश इस जगत को ही धवलित अर्थात्‌ प्रकाशित कर रहा है।

**जिति सुरसरि कीरति सरि तोरी। गमन कीन्ह बिधि अंड करोरी॥ गंग अवनि थल तीनि बड़ेरे। एहिं किए साधु समाज घनेरे॥ पितु कह सत्य सनेह सुबानी। सीय सकुच महि मनहुँ समानी॥**

[[५३५]]

भाष्य

तुम्हारी कीर्तिरूप नदी ने देवनदी गंगा जी को जीतकर विधाता के करोड़ों ब्रह्माण्ड में गमन किया है। गंगा जी ने तो तीन स्थलों हरिद्वार, प्रयाग और गंगासागर को बड़ा बनाया, परन्तु हमारी मैथिली की इस कीर्ति–नदी ने तो अनेक साधु–समाज को बड़ा बना दिया। पिता जी ने स्नेहपूर्ण एवं सत्य–सुन्दर वाणी कही, परन्तु श्रीसीता तो मानो संकोच की पृथ्वी में ही समा गईं।

**पुनि पितु मातु लीन्ह उर लाई। सिख आशिष हित दीन्ह सुहाई॥**
भाष्य

फिर पिता और माता ने श्रीसीता को हृदय से लगा लिया और कल्याणपूर्ण सुहावनी शिक्षा और हितैषी आशीर्वाद दिया।

**कहति न सीय सकुचि मन माहीं। इहाँ बसब रजनी भल नाहीं॥ लखि रुख रानि जनायउ राऊ। हृदय सराहत शील सुभाऊ॥**
भाष्य

मन में संकोच करके श्रीसीता कह तो नहीं रही हैं, पर विचार करती हैं कि, यहाँ अर्थात्‌ मायके वालों के साथ रात में रहना उचित नहीं है। श्रीसीता का रुख देखकर महारानी ने श्रीजनक को अवगत कराया और हृदय में श्रीसीता के शील और स्वभाव की प्रशंसा करने लगीं।

**दो०- बार बार मिलि भेंटि सिय, बिदा कीन्ह सनमानि।**

**कही समय सिर भरत गति, रानि सुबानि सयानि॥२८७॥ भा०– **श्रीसीता के माता–पिता सुनयना जी और महाराज श्रीजनक ने बार–बार मिलकर और भेंटकर श्रीसीता का सम्मान करके विदा किया। फिर समय पाकर चतुर रानी ने सुन्दर वाणी में श्रीभरत की गति का वर्णन किया।

सुनि भूपाल भरत ब्यवहारू। सोन सुगंध सुधा शशि सारू॥ मूदे सजल नयन पुलके तन। सुजस सराहन लगे मुदित मन॥

भाष्य

महाराज श्रीजनक ने स्वर्ण में सुगन्धरूप और चन्द्रमा के साररूप अमृत के समान श्रीभरत का व्यवहार सुनकर, अपने अश्रुपूर्ण नेत्रों को मूँद लिया अर्थात्‌ बन्द कर लिया, उनके शरीर में रोमांच हो गया और महाराज श्रीजनक प्रसन्न मन से श्रीभरत के सुयश की प्रशंसा करने लगे।

**सावधान सुनु सुमुखि सुलोचनि। भरत कथा भव बंध बिमोचनि॥ धरम राजनय ब्रह्मबिचारू। इहाँ जथामति मोर प्रचारू॥ सो मति मोरि भरत महिमाहीं। कहै काह छल छुअति न छाँहीं॥**
भाष्य

हे सुमुखी! और हे सुलोचनी! अब संसार के बन्धन को नष्ट करने वाली श्रीभरत कथा सावधान होकर सुनो। धर्म, राजनीति और ब्रह्मविचार अर्थात्‌ वेदान्त इन विषयों में मेरी बुद्धि के अनुसार मेरा प्रचार है अर्थात्‌ इन जटिल विषयों में भी मेरा साधिकार प्रवेश है। वही मेरी बुद्धि श्रीभरत की महिमा कैसे कहे, क्योंकि वह उसकी छाया को छल से भी नहीं छू सकती।

**बिधि गनपति अहिपति शिव शारद। कबि कोबिद बुध बुद्धि बिशारद॥ भरत चरित कीरति करतूती। धरम शील गुन बिमल बिभूती॥ समुझत सुनत सुखद सब काहू। शुचि सुरसरि रुचि निदर सुधाहू॥**
भाष्य

ब्रह्माजी, गणेश जी, शेष जी, शिव जी, सरस्वती जी, मनीषी, वेदज्ञ पण्डित और बौद्धिक सम्पत्ति में चतुर विद्वानगण, सभी के लिए श्रीभरत का चरित्र कीर्ति, कार्य, धर्म, स्वभाव, गुण और निर्मल ऐश्वर्य यह सब कुछ

[[५३६]]

समझने में सुलभ और सबको सुख देने वाला है। ये गंगा जी को पवित्रता से और अपने स्वाद द्वारा अमृत का भी निरादर करते हैं।

दो०- निरवधि गुन निरुपम पुरुष, भरत भरत सम जानि।

**कहिय सुमेरु कि सेर सम, कबिकुल मति सकुचानि॥२८८॥ भा०– **श्रीभरत के गुणों की सीमा नहीं है और वे उपमा रहित पुरुष हैं। क्या सुमेरु पर्वत को सेर अर्थात्‌ सेर के बटखरे के समान कहा जा सकता है? श्रीभरत को श्रीभरत के समान जानकर कविकुल की बुद्धि संकुचित हो

गई।

अगम सबहि बरनत बरबरनी। जिमि जलहीन मीन गम धरनी॥ भरत अमित महिमा सुनु रानी। जानहिं राम न सकहिं बखानी॥

भाष्य

हे सुन्दर वर्णवाली सुनयना! श्रीभरत का चरित्र सबके लिए इसी प्रकार वर्णन करने में कठिन है, जैसे जल के बिना मछली का पृथ्वी पर चलना। हे रानी! सुनो, श्रीभरत की असीम महिमा को केवल भगवान्‌ श्रीराम जानते हैं, पर वे कह नहीं सकते।

**बरनि सप्रेम भरत अनुभाऊ। तिय जिय की रुचि लखि कह राऊ॥**

**बहुरहिं लखन भरत बन जाहीं। सब कर भल सब के मन माहीं॥ भा०– **प्रेमपूर्वक श्रीभरत के प्रभाव का वर्णन करके पत्नी के हृदय की रुचि को देखकर, महाराज श्रीजनक बोले, श्रीलक्ष्मण अयोध्या लौटें और श्रीभरत, श्रीराम के साथ वन को जायें इसमें सबका भला है और यह सबके मन में है।

देबि परन्तु भरत रघुबर की। प्रीति प्रतीति जाइ नहिं तरकी॥ भरत अवधि सनेह ममता की। जद्दपि राम सींव समता की॥

भाष्य

परन्तु, हे देवी! श्रीभरत और श्रीराम की प्रीति और प्रतीति (विश्वास) तर्क का विषय बनाई नहीं जा सकती। श्रीभरत यद्दपि स्नेह और ममता की अवधि हैं, परन्तु श्रीराम समता की सीमा भी हैं।

**परमारथ स्वारथ सुख सारे। भरत न सपनेहुँ मनहुँ निहारे॥ साधन सिद्धि राम पग नेहू। मोहि लखि परत भरत मत एहू॥**
भाष्य

परमार्थ और निजी हित तथा सम्पूर्ण सुखों को श्रीभरत ने स्वप्न में भी मन से भी नहीं देखा। मुझे तो ऐसा प्रतीत होता है कि श्रीभरत का यही मत है कि श्रीराम के चरणों में प्रेम ही सम्पूर्ण साधनों की सिद्धि है।

**दो०- भोरेहुँ भरत न पेलिहैं, मनसहुँ राम रजाइ।**

**करिय न सोच सनेह बश, कहेउ भूप बिलखाइ॥२८९॥ भा०– **महाराज जनक जी ने बिलखकर कहा कि, भरत जी भूलकर भी मन से भी श्रीराम की राजाज्ञा का उल्लंघन नहीं करेंगे। आप स्नेह के वश होकर शोक मत कीजिये।

राम भरत गुन गनत सप्रीती। निशि दम्पतिहिं पलक सम बीती॥

**राज समाज प्रात जुग जागे। न्हाइ न्हाइ सुर पूजन लागे॥ भा०– **प्रेमपूर्वक श्रीराम और श्रीभरत के गुणों की चर्चा करते हुए दम्पति सुनयना जी और जनक जी की रात्रि पलक के समान बीत गई। प्रात:काल दोनों राज समाज के लोग जगे और स्नान कर–करके देवताओं की पूजा करने लगे।

[[५३७]]

गे नहाइ गुरु पहँ रघुराई। बंदि चरन बोले रुख पाई॥ नाथ भरत पुरजन महतारी। शोक बिकल बनबास दुखारी॥

भाष्य

रघुकुल के राजा श्रीराम स्नान करके गुरुदेव के पास गये और उनका रुख पाकर उनके चरणों की वन्दना करके बोले, हे नाथ! शत्रुघ्न के साथ भरत, पुरजन और सभी मातायें वन में वास करके शोक से विकल और दु:खी हैं।

**सहित समाज राज मिथिलेशू। बहुत दिवस भए सहत कलेशू॥ उचित होइ सोइ कीजिय नाथा। हित सबही कर रौरे हाथा॥**
भाष्य

समाज के सहित महाराज श्रीजनक को भी क्लेश सहते बहुत दिन हो गये। हे नाथ! जो उचित हो वही कीजिये, क्योंकि आप ही के हाथ में सबका हित है।

**अस कहि अति सकुचे रघुराऊ। मुनि पुलके लखि शील सुभाऊ॥ तुम बिनु राम सकल सुख साजा। नरक सरिस दुहुँ राज समाजा॥**
भाष्य

इतना कहकर भगवान्‌ श्रीराम अत्यन्त संकुचित रह गये। प्रभु के शील और स्वभाव को देखकर, मुनि वसिष्ठ जी रोमांचित हो उठे और बोले, हे श्रीराम! आपके बिना सम्पूर्ण सुखों का साज और दोनों राजसमाज नरक के समान है।

**दो०- प्रान प्रान के जीव के, जिव सुख के सुख राम।**

तुम तजि तात सोहात गृह, जिनहिं तिनहिं बिधि बाम॥२९०॥

भाष्य

हे श्रीराम! आप प्राण के प्राण, जीवात्मा के भी जीवनदाता, परब्रह्म परमात्मा तथा सुख के भी सुख हैं। आपको छोड़कर जिन्हें घर अच्छा लगता हो उनके लिए विधाता प्रतिकूल हैं।

**सो सुख करम धरम जरि जाऊ। जहँ न राम पद पंकज भाऊ॥ जोग कुजोग ग्यान अग्यानू। जहँ नहिं रामप्रेम परधानू॥**
भाष्य

हे राघव! वह सुख, वह कर्म, वह धर्म जल जाये, जिसमें आपके श्रीचरणकमलों के प्रति भाव न हो अर्थात्‌ जिसका आचरण करने से आपके प्रति प्रेम की अनुभूति न हो, जहाँ आप श्रीराम का प्रेम मुख्य न हो, वह योग, कुयोग है, वह ज्ञान अज्ञान है।

**तुम बिनु दुखी सुखी तुम तेहीं। तुम जानहु जिय जो जेहि केहीं॥ राउर आयसु सिर सबही के। बिदित कृपालहिं गति सब नीके॥ आपु आश्रमहिं धारिय पाँऊ। भयउ सनेह शिथिल मुनिराऊ॥**
भाष्य

वस्तुत: दोनों राज समाज आपके बिना दु:खी होंगे और आप से ही अर्थात्‌ आपके उपस्थिति में ही सुखी होंगे। जिस किसी के हृदय में जो है, वह आप जानते हैं। आपकी आज्ञा सबके सिर पर है। हे कृपालु! आपश्री को सम्पूर्ण गति विदित है। अथवा, सम्पूर्ण प्राणी मात्र आपके बिना दु:खी रह जायेगा अर्थात्‌ जीव तब दु:खी रहेगा जब उसको आपकी समीपता का बोध नहीं होगा और जिसको भी जो सुख है, वह आप से ही है। आप प्रत्येक प्राणी के हृदय की बात जानते हैं। आपकी आज्ञा सब के सिर पर है। ब्रह्मा जी से लेकर चींटी पर्यन्त कोई भी आपकी आज्ञा टाल नहीं सकता, क्योंकि आप सबकी स्थिति जानते हैं। आप आश्रम में पधारंें, हम इस समस्या के समाधान का प्रयत्न करेंगे। ऐसा कहकर ब्रह्मर्षि वसिष्ठ जी महाराज, भगवान्‌ के प्रेम में शिथिल हो गये।

[[५३८]]

करि प्रनाम तब राम सिधाए। ऋषि धरि धीर जनक पहँ आए॥ राम बचन गुरु नृपहिं सुनाए। शील सनेह सुभाय सुहाए॥

भाष्य

इसके पश्चात्‌ प्रणाम करके प्रभु श्रीराम अपने आश्रम को चले गये। महर्षि वसिष्ठ जी धैर्य धारण करके, जनक जी के पास गये। गुव्र् वसिष्ठ जी ने शील (स्वभाव), स्नेह और श्रेष्ठ भावों से सुहावने श्रीराम के वचन महाराज जनक जी को सुनाये।

**महाराज अब कीजिय सोई। सब कर धरम सहित हित होई॥**

दो०- ग्यान निधान सुजान शुचि, धरम धीर नरपाल।

तुम बिनु असमंजस शमन, को समरथ एहि काल॥२९१॥

भाष्य

हे महाराज! अब वही कीजिये जिससे सभी का धर्म के साथ कल्याण हो अर्थात्‌ धर्म से हीन कल्याण किसी को अभीष्ठ नहीं है और न ही स्वीकार्य है। हे महाराज! आप ज्ञान के कोश हैं, आप परमचतुर, पवित्र तथा धर्म के आचरण में धीर और स्थिर एवं संसार के भोगों में न रमने वाले साधक, मनुष्यों के पालक हैं। इस समय आपके बिना इस असमंजस को नष्ट करने मे कौन समर्थ है अर्थात्‌ कोई नहीं। इसलिए ऐसा कुछ कीजिये जिससे श्रीराम एवं श्रीभरत दोनों भ्राताओं को संतोष हो जाये।

**सुनि मुनि बचन जनक अनुरागे। लखि गति ग्यान बिराग बिरागे॥ शिथिल सनेह गुनत मन माहीं। आए इहाँ कीन्ह भल नाहीं॥ रामहि राय कहेउ बन जाना। कीन्ह आपु प्रिय प्रेम प्रमाना॥ हम अब बन ते बनहिं पठाई। प्रमुदित फिरब बिबेक ब़ढाई॥**

भा०– महर्षि वसिष्ठ जी के वचन को सुनकर श्रीजनक अनुराग में मग्न हो गये। उनकी दशा देखकर ज्ञान और वैराग्य भी विरक्त हो गया अर्थात्‌ दोनों ने अपने–अपने दायित्व छोड़ दिये। प्रेम में शिथिल होकर श्रीजनक मन में ही विचार करने लगे कि, मैं यहाँ आया यह अच्छा नहीं किया। महाराज ने श्रीराम को वन जाने के लिए कह दिया और स्वयं अपने प्रियतम श्रीराम के प्रेम को प्रमाणित कर दिया। अर्थात्‌ प्रभु के प्रेम में प्राण त्यागकर अपने सत्य प्रेम को जगत्‌ में प्रमाणित किया और मैं (राजा जनक) प्रभु को वन से गहन वन में भेजकर अपने विवेक को बड़ाई के साथ ब़ढाकर अर्थात्‌ श्रेष्ठ विवेक का दम्भ लेकर प्रसन्नता से मिथिला लौट जाऊँगा अर्थात्‌ मेरे पास चक्रवर्ती जी जैसा प्रेम नहीं है कि जिससे मैं प्रभु के वियोग में उत्सर्जित हो सकूँ। इसके विपरीत मैं लोगों के समक्ष प्रसन्नता का अभिनय करके अपने विवेकवत्ता का निरर्थक प्रमाण पत्र ही तो लूँगा और विवेक के बड़प्पन से प्रसन्न होकर प्रसन्नता से लौट जाऊँगा।

तापस मुनि महिसुर सुनि देखी। भए प्रेम बश बिकल बिशेषी॥ समय समुझि धरि धीरज राजा। चले भरत पहँ सहित समाजा॥

भाष्य

तपस्वी, मुनिगण और अवध, मिथिला के ब्राह्मण लोग श्रीजनक की ऐसी दशा सुन और देखकर, प्रेम के वश होकर विशेष व्याकुल हो उठे। समय को समझकर धैर्य धारण करके राजा जनक जी समाज के साथ श्रीभरत के पास चले आये।

**भरत आइ आगे भइ लीन्हे। अवसर सरिस सुआसन दीन्हे॥ तात भरत कह तिरहुति राऊ। तुमहिं बिदित रघुबीर सुभाऊ॥**

[[५३९]]

दो०- राम सत्यब्रत धरम रत, सब कर शील सनेहु।

संकट सहत सकोच बश, कहिय जो आयसु देहु॥२९२॥

भाष्य

श्रीभरत ने आगे होकर महाराज की अगवानी की और समय के अनुसार सुन्दर आसन दिया। मिथिला नरेश श्रीजनक कहने लगे, हे प्रेमास्पद भरत! आपको रघुकुल के वीर श्रीराम का स्वभाव ज्ञात है कि, वे अपराधियों पर भी क्रोध नहीं करते और किसी के मन को दु:खी नहीं करते। सत्य की रक्षा जिनका व्रत है, ऐसे धर्माचरण मंें लगे हुए श्रीराम सभी के शील और स्नेह के कारण संकोचवश संकट सह रहे हैं। जो आप आयसु अर्थात्‌ सम्मति दें, वही उनसे कहा जाये।

**विशेष– **तात्पर्य यह है कि, श्रीराम सत्यव्रत होने के कारण वन से श्रीअवध नहीं लौटेंगे, क्योंकि इससे उनका व्रतभंग होगा जबकि वे दृ़ढत्रत हैं। यथा– “**सत्यसंध दृ़ढव्रत रघुराई” **\(मानस, २.८२.१\)। वे धर्मव्रत हैं इसलिए भी अयोध्या नहीं लौटेंगे, क्योंकि इससे सम्पूर्ण धर्म की टीका पिताश्री की आज्ञा का स्पष्ट उल्लंघन होता है। वे सभी के शील और स्नेह का निर्वाह भी करना चाहते हैं। इसलिए किसी को स्पष्ट जाने के लिए भी नहीं कहेंगे और न ही गुव्र्जन का संकोच तोड़ेंगे। अत: संकट सह रहे हैं अब तुम जो सम्मति दो हम वही करें।

सुनि तन पुलकि नयन भरि बारी। बोले भरत धीर धरि भारी॥ प्रभु प्रिय पूज्य पिता सम आपू। कुलगुरु सम हित माय न बापू॥ कौशिकादि मुनि सचिव समाजू। ग्यान अंबुनिधि आपुन आजू॥ शिशु सेवक आयसु अनुगामी। जानि मोहि सिख देइय स्वामी॥

भाष्य

श्रीजनक के वचन सुनकर शरीर में रोमांचित होकर नेत्रों में प्रेम का जल भरकर बहुत–बड़ा धैर्य धारण करके श्रीभरत बोले, मेरे प्रभु श्रीराम स्वयं मेरे प्रेमास्पद, पूज्य और पिताश्री के समान हैं। कुलगुव्र् वसिष्ठ जी के समान माता–पिता भी हितैषी नहीं हैं और यहाँ विश्वामित्र जी आदि मुनि तथा मन्त्रियों का समाज उपस्थित है। आज ज्ञान के समुद्र स्वयं आप महाराज श्रीजनक इस सभा में उपस्थित हैं। हे महाराज! मुझे बालक, अपना सेवक और स्वामी की आज्ञा का अनुगमन करने वाला जानकर शिक्षा दीजिये।

**एहिं समाज थल बूझब राउर। मौन मलिन मैं बोलब बाउर॥ छोटे बदन कहउँ बबिड़ ाता। छमब तात लखि बाम बिधाता॥**
भाष्य

इतने बड़े समाज में और इतने पवित्र श्रीचित्रकूट स्थल में आपका पूछना मेरे लिए बड़ा असमंजस लग रहा है, क्योंकि यदि मैं मौन रहता हूँ, कोई उत्तर नहीं देता हूँ, तब मुझे मलिन अर्थात्‌ मलों से युक्त मनवाला माना जायेगा। यदि मैं बोलता हूँ तो मुझे बावला अर्थात्‌ पागल समझा जायेगा, तो मैं करूँ क्या? हे तात्‌! (श्वसुरश्री) मैं छोटे मुख से बड़ी बात कह रहा हूँ, विधाता को प्रतिकूल देखकर आप मुझे क्षमा कीजिये।

**आगम निगम प्रसिद्ध पुराना। सेवाधरम कठिन जग जाना॥ स्वामि धरम स्वारथहिं बिरोधू। बैर अंध प्रेमहिं न प्रबोधू॥**
भाष्य

यह संहिताओं, स्मृतियों, तन्त्रग्रन्थों, वेदों और पुराणों में प्रसिद्ध है और जगत जानता है कि, सेवाधर्म बहुत कठिन है। स्वामीधर्म का स्वार्थ से विरोध है, वैर दृष्टिहीन होता है और प्रेम को प्रबोध अर्थात्‌ ज्ञान नहीं होता है (समझ नहीं होती है)। इसलिए मैं किसी भी ओर से कुछ भी कहने की स्थिति में नहीं हूँ, क्योंकि मेरा स्वार्थ है। जो स्वामीधर्म से सर्वथा विरुद्ध है, वैर स्वयं अन्धा होता है और प्रेम को कोई ज्ञान नहीं होता, इसलिए मुझसे न कहलायें।

[[५४०]]

दो०- राखि राम रुख धरम ब्रत, पराधीन मोहि जानि।

सब के सम्मत सर्बहित, करिय प्रेम पहिचानि॥२९३॥

भाष्य

धर्मपरायण श्रीराम के रुख, धर्म और व्रत की रक्षा करके मुझे पराधीन अर्थात्‌ प्रभु के आज्ञा के अधीन समझकर सबकी सम्मति, सबके हित और प्रेम को पहचानकर ही कुछ किया जाये अर्थात्‌ वही किया जाये, जिसमें श्रीराम के रुख की, उनके धर्म की और व्रत की रक्षा हो सके, सबकी सम्मति हो, तथा सबका हित भी हो जाये और प्रेम की हानि भी न हो।

**भरत बचन सुनि देखि सुभाऊ। सहित समाज सराहत राऊ॥**
भाष्य

श्रीभरत के वचन सुनकर उनका स्वभाव देखकर समाज के सहित महाराज श्रीजनक, श्रीभरत के वचनों की सराहना करने लगे।

**सुगम अगम मृदु मंजु कठोरे। अरथ अमित अति आखर थोरे॥ ज्यों मुख मुकुर मुकुर निज पानी। गहि न जाइ अस अदभुत बानी॥**
भाष्य

जनक जी कहने लगे कि, श्रीभरत के वचन कहने में सुगम है और करने में कठिन है, समझने में यह कोमल और मधुर, पर आचरण में बहुत कठोर है। इनके अर्थ अत्यन्त असीम हैं और अक्षर बहुत थोड़े हैं। यह वाणी ऐसी आश्चर्यमयी है जैसे अपने ही हाथ के शीशे में अपना ही मुख प्रतिबिम्बत होता है, पर वह दर्पण में पक़डा नहीं जा सकता, उसी प्रकार यह वाणी कान से सुनी जा सक रही है, परन्तु पक़डी नही जा रही है।

**विशेष– **श्रीभरत कहते हैं कि, सेवाधर्म कठिन है अर्थात्‌ सेवक आज्ञा नहीं दे सकता। मैं आप सबको कैसे आज्ञा दूँ? स्वामीधर्म का सेवक के स्वार्थ से विरोध है अर्थात्‌ स्वामी श्रीराम का धर्म है वन में रहना और मेरा स्वार्थ है प्रभु श्रीराम को श्रीअवध लौटाकर उनकी सेवा करना इन दोनों का विरोध है। विरोध बिना वैर के नहीं रह सकता, इसलिए मेरा स्वार्थ स्वामीधर्म से वैर बाँध लेने के कारण सेवाधर्म को देख नहीं पा रहा है। वह प्रभु की आज्ञा पर ही छोड़ दें और श्रीराघवेन्द्र सरकार से हठ नहीं करें \(कहें की श्रीराम को अपने रुख के अनुसार करने दें\) तो, प्रेम को समझ कहाँ है। अत: मेरे स्वार्थ और मेरे प्रेम, ये दोनों ही मुझको सता रहे हैं। आप लोग श्रीराम के रुख, धर्म और व्रत की रक्षा कीजिये, अर्थात्‌ इससे तो श्रीराम का वनगमन ही निश्चित होगा पर क्या उसमें सर्वसम्मति और सर्वहित की सम्भावना है? क्या उससे सबके प्रेम की रक्षा होगी? यदि प्रेम, सर्वसम्मति और सर्वहित की रक्षा करने जायेंगे तब श्रीराम के रुख, उनके धर्म और व्रत की रक्षा नहीं हो सकेगी। यही सब परस्पर विरोध है। अत: यह सुनने में सुगम और करने में अगम्य है। कहने में कोमल और आचरण में लाने में बहुत कठोर है। यहाँ अक्षर कम हैं पर अर्थ बहुत अधिक है।

भूप भरत मुनि साधु समाजू। गे जहँ बिबुध कुमुद द्विजराजू॥ सुनि सुधि सोच बिकल सब लोगा। मनहुँ मीनगन नव जल जोगा॥

भाष्य

महाराज श्रीजनक, श्रीभरत, मुनि वसिष्ठ जी एवं साधुजन का समाज सब लोग वहाँ गये जहाँ देवतारूप कुमुदों को विकसित करने वाले चन्द्रमा भगवान्‌ श्रीराम विराज रहे थे। यह समाचार सुनकर सभी लोग शोक से व्याकुल हो गये। मानो नवीन जल के संयोग से मछली गण तलफला उठे हों।

**विशेष– “सोमो राजा अस्माकं ब्राह्मणानां”**, इस श्रुति के अनुसार चन्द्रमा को द्विजराज अर्थात्‌ ब्राह्मणों का राजा कहा जाता है।

[[५४१]]

देव प्रथम कुलगुरु गति देखी। निरखि बिदेह सनेह बिशेषी॥ राम भगतिमय भरत निहारे। सुर स्वारथी हहरि हिय हारे॥ सब कोउ राम प्रेममय पेखा। भए अलेख सोच बश लेखा॥

भाष्य

देवताओं ने सर्वप्रथम श्रीराम के कुलगुव्र् वसिष्ठ जी की गति देखी और विदेहराज श्रीजनक के विशेष स्नेह को निहारकर, जब श्रीभरत को श्रीरामप्रेम स्वरूप निहारा तब तो स्वार्थी देवता हृदय में डर कर हार गये। उन्होंने सभी को श्रीरामप्रेममय देखा अर्थात्‌ श्रीचित्रकूट आये हुए सभी नर–नारियों में श्रीरामप्रेम की प्रचुरता देखी। तब लेखा अर्थात्‌ अदिति के पुत्र सभी देवता असीम सोच के वश हो गये।

विशेष

लेखा अदिति नन्दना:। **(अमर कोश)

दो०- राम सनेह सकोच बश, कह ससोच सुरराज।

रचहु प्रपंचहिं पंच मिलि, नाहिं त भयउ अकाज॥२९४॥

भाष्य

इन्द्र ने चिन्तित होकर कहा, श्रीराम प्रेम और संकोच के वश में हैं, पंच अर्थात्‌ सभी लोग मिलकर कुछ माया का प्रपंच रचो नहीं तो अकाज अर्थात्‌ कार्य में तो व्यवधान हो ही गया समझो।

**सुरन सुमिरि शारदा सराही। देबि देव शरनागत पाही॥**

**फेरि भरत मति करि निज माया। पालु बिबुध कुल करि छल छाया॥ भा०– **देवताओं ने स्मरण करके सरस्वती जी की प्रशंसा की और बोले, हे देवी! अपनी शरण में आये हुए देवताओं की रक्षा कीजिये। अपनी माया करके श्रीभरत की बुद्धि को फेर दीजिये और अपनी छल की छाया करके देवताओं के समूह का पालन कीजिये।

बिबुध बिनय सुनि देबि सयानी। बोली सुर स्वारथ ज़ड जानी॥

**मो सन कहहु भरत मति फेरू। लोचन सहस न सूझ सुमेरू॥ भा०– **देवताओं की विनय अर्थात्‌ प्रार्थना सुनकर चतुर देवी सरस्वतीजी, देवताओं को स्वार्थ के कारण ज़ड जानकर बोलीं, देवताओं! मुझ से कह रहे हो कि, श्रीभरत की बुद्धि को फेर दो। हे इन्द्रदेव! तुम्हें एक हजार आँखों से भी सुमेरु पर्वत नहीं दिख रहा है अर्थात्‌ श्रीभरत का व्यक्तित्व सुमेरु के समान है।

बिधि हरि हर माया बभिड़ ारी। सोउ न भरत मति सकइ निहारी॥ सो मति मोहि कहत करु भोरी। चंदनि कर कि चंडकर चोरी॥

भाष्य

ब्रह्मा, विष्णु और शिव जी की माया बहुत–बड़ी है, वह भी श्रीभरत की बुद्धि को देख भी नहीं सकती। मुझे कह रहे हो कि, उसी बुद्धि को भोरी कर दीजिये। क्या चन्द्रमा की किरण सूर्यनारायण की चोरी कर सकती है? अर्थात्‌ मैं चन्द्रिका के समान बहुत छोटी हूँ और श्रीभरत का ज्ञान ग्रीष्म के सूर्य के समान है।

**भरत हृदय सिय राम निवासू। तहँ कि तिमिर जहँ तरनि प्रकासू॥**

**अस कहि शारद गइ बिधि लोका। बिबुध बिकल निशि मानहुँ कोका॥ भा०– **श्रीभरत के हृदय में श्रीसीताराम जी का निवास है। जहाँ सूर्यनारायण का प्रकाश हो क्या वहाँ अन्धकार रह सकता है? ऐसा कहकर सरस्वती जी ब्रह्मलोक चली गईं। देवता विकल हो गये, मानो रात्रि में चकवे व्याकुल हो गये हों।

दो०- सुर स्वारथी मलीन मन, कीन्ह कुमंत्र कुठाट।

रचि प्रपंच माया प्रबल, भय भ्रम अरति उचाट॥२९५॥

[[५४२]]

भाष्य

मैले मनवाले स्वार्थसाधक देवताओं ने प्रपंच, प्रबलमाया, भय, भ्रम, अप्रसन्नता और उच्चाटन की रचना करके अपनी कुमंत्रणा का बुरा साज सजा दिया अर्थात्‌ कुत्सित मंत्रणा के अनुसार कुप्रबंध कर दिया।

**करि कुचालि सोचत सुरराजू। भरत हाथ सब काज अकाजू॥ गए जनक रघुनाथ समीपा। सनमाने सब रबिकुल दीपा॥**
भाष्य

कुचाल अर्थात्‌ बुरा कर्त्तव्य करके देवराज इन्द्र चिन्ता करने लगे कि, सम्पूर्ण कार्य और अकार्य अब श्रीभरत के हाथ में है अर्थात्‌ सभी कार्याें का सिद्ध होना अथवा, असिद्ध होना श्रीभरत के हाथ में है। श्रीजनक रघुकुल के नाथ भगवान्‌ श्रीराम के पास गये और रघुकुल के दीपक श्रीराम ने सबका सम्मान किया।

**समय समाज धरम अबिरोधा। बोले तब रघुबंश पुरोधा॥ जनक भरत संबाद सुनाई। भरत कहाउति कही सुहाई॥**
भाष्य

इसके अनन्तर रघुकुल के पुरोहित वसिष्ठ जी समय, समाज और धर्म के अविव्र्द्ध अर्थात्‌ समयानुकूल, समाजानुकूल और धर्मानुकूल वचन बोले। गुरुदेव ने श्रीजनक और श्रीभरत का सम्वाद सुनाया और श्रीभरत की सुन्दर उक्ति भी कही।

**तात राम जस आयसु देहू। सो सब करैं मोर मत एहू॥ सुनि रघुनाथ जोरि जुग पानी। बोले सत्य सरल मृदु बानी॥**
भाष्य

हे जीवमात्र के परमप्रेमास्पद श्रीराम! आप जैसी आज्ञा दें सब लोग वही करें, यही मेरा मत है। गुरुदेव का यह वचन सुनकर दोनों हाथ जोड़कर श्रीरघुनाथ स्वभावत: सत्य और कोमल वाणी बोले–

**बिद्दमान आपुन मिथिलेसू। मोर कहब सब भाँति भदेसू॥ राउर राय रजायसु होई। राउर शपथ सही सिर सोई॥**
भाष्य

आपश्री (गुरूदेव) तथा मिथिलाधिपति श्रीजनक के उपस्थित रहने पर मेरा कुछ भी कहना सब प्रकार से भद्‌दापन ही तो है। मैं आपकी शपथ करके कहता हूँ कि, आप श्रीगुरुदेव की और महाराज श्रीजनक की जो आज्ञा होगी, मैं उसे सिर धारण करके प्रतिकूलता में भी सहन करूँगा।

**दो०- राम शपथ सुनि मुनि जनक, सकुचे सभा समेत।**

**सकल बिलोकत भरत मुख, बनइ न उत्तर देत॥२९६॥ भा०– **भगवान्‌ श्रीराम की शपथ सुनकर, राजसभा के सहित महर्षि वसिष्ठ जी और राजर्षि श्रीजनक संकुचित हो गये। सभी श्रीभरत का मुख देखने लगे, किसी से उत्तर देते नहीं बन रहा था।

सभा सकुच बश भरत निहारी। राम बंधु धरि धीरज भारी॥ कुसमय देखि सनेह सँभारा। ब़ढत बिंध्य जिमि घटज निवारा॥

भाष्य

सम्पूर्ण सभा संकोच के वश में होकर श्रीभरत को देखने लगी। तब भगवान्‌ श्रीराम के छोटे भ्राता श्रीभरत ने बहुत–बड़ा धैर्य धारण करके फिर प्रतिकूल समय देखकर अपने स्नेह को उसी प्रकार सम्भाल लिया, जैसे ब़ढते हुए विन्ध्याचल को अगस्त्य जी ने रोक लिया था।

**शोक कनकलोचन मति छोनी। हरी बिमल गुन गन जग जोनी॥ भरत बिबेक बराह बिशाला। अनायास उधरी तेहि काला॥**

[[५४३]]

भाष्य

श्रीभरत के शोकरूप हिरण्याक्ष ने गुणगणरूप जगत को जन्म देने वाली श्रीभरत की विमलबुद्धिरूप पृथ्वी का अपहरण कर लिया था। श्रीभरत के विवेकरूप विशाल वराह ने उसे उसी समय बिना प्रयास के हिरण्याक्ष से उद्धृत कर लिया अर्थात्‌ छुड़ा लिया।

**विशेष– **पौराणिक कथा के अनुसार पृथ्वी को हिरण्याक्ष ने चुरा लिया था, फिर भगवान्‌ ने शूकरावतार लेकर हिरण्याक्ष का वध करके उससे पृथ्वी को मुक्त कराया, उसी का यहाँ गोस्वामी जी ने रूपक प्रस्तुत किया है। उन्होंने शोक को हिरण्याक्ष, बुद्धि को पृथ्वी तथा श्रीभरत के विवेक को शूकरावतार भगवान्‌ से उपमित किया है।

करि प्रनाम सब कहँ कर जोरे। राम राउ गुरु साधु निहोरे॥ छमब आजु अति अनुचित मोरा। कहउँ बदन मृदु बचन कठोरा॥

भाष्य

श्रीभरत ने प्रणाम करके सबको हाथ जोड़ा और भगवान्‌ श्रीराम, योगिराज श्रीजनक, ब्रह्मर्षि गुव्र्देव वसिष्ठ जी और साधुसमाज से कृतज्ञतापूर्ण प्रार्थना की। आज सभी लोग मेरा बहुत–बड़ा अनुचित क्षमा कीजिये, मैं कोमल मुख से कठोर वचन कह रहा हूँ।

**हिय सुमिरी शारदा सुहाई। मानस ते मुख पंकज आई॥ बिमल बिबेक धरम नय शाली। भरत भारती मंजु मराली॥**
भाष्य

उन्होंने हृदय में सुहावनी शारदा जी का स्मरण किया। वे मानससरोवर से श्रीभरत के मुखकमल पर विराजमान हो गईं। निर्मल विवेक, धर्म तथा राजन्‌ीति से सुशोभित श्रीभरत की वाणी सुन्दर हंसिनी बन गई।

**दो०- निरखि बिबेक बिलोचननि, शिथिल सनेह समाज।**

**करि प्रनाम बोले भरत, सुमिरि सीय रघुराज॥२९७॥ भा०– **विवेक के नेत्रों से समाज को शिथिल देखकर श्रीसीता एवं श्रीराम का स्मरण करके, प्रणाम करके श्रीभरत बोले–

* मासपारायण, उन्नीसवाँ विश्राम *

प्रभु पितु मातु सुहृद गुरु स्वामी। पूज्य परम हित अंतरजामी॥ सरल सुसाहिब शील निधानू। प्रनतपाल सर्बग्य सुजानू॥ समरथ शरनागत हितकारी। गुनगाहक अवगुन अघहारी॥ स्वामि गोसाँइहि सरिस गोसाईं। मोहि समान मैं साइँ दोहाईं॥

भाष्य

हे प्रभु! आप पिता, माता, मित्र, गुरु, स्वामी, पूज्य, परमहितैषी और अन्तर्यामी हैं। सरल, सुन्दर ईश्वर, शील के निधान (भाण्डागार), प्रणतों के पालक, सर्वज्ञ, चतुर, समर्थ, शरणागतों के भय को हरने वाले, गुणगणों को ग्रहण करने वाले, पाप और अवगुणों को हरने वाले हैं। ऐसे मेरे स्वामी श्रीराघवेन्द्र अपने समान आप ही हैं और मेरे समान स्वामी का द्रोह करने वाला मैं ही हूँ।

**प्रभु पितु बचन मोह बश पेली। आयउँ इहाँ समाज सकेली॥**

जग भल पोच ऊँच अरु नीचू। अमिय अमरपद माहुर मीचू॥ राम रजाइ मेट मन माहीं। देखा सुना कतहुँ कोउ नाहीं॥ सो मैं सब बिधि कीन्हि ढिठाई। प्रभु मानी सनेह सेवकाई॥

[[५४४]]

भाष्य

हे प्रभु! मोह के कारण पिताश्री के वचन का उल्लंघन करके, मैं पूरे समाज को इकट्ठा करके यहाँ आया हूँ। जगत का भला–बुरा, ऊँच–नीच, अमृत, अमर पद अर्थात्‌ अमरत्व, विष, मृत्यु कोई भी, मन में भी श्रीराम की राजाज्ञा का उल्लंघन किया हो, ऐसा हमने न तो देखा है न सुना है। वह भी मैंने सब प्रकार से धृष्टता की है अर्थात्‌ आपकी आज्ञा का उल्लंघन किया है, परन्तु आपने उसे स्नेह और सेवा मान ली।

**दो०- कृपा भलाई आपनी, नाथ कीन्ह भल मोर।**

दूषन भे भूषन सरिस, सुजस चारु चहुँ ओर॥२९८॥

भाष्य

हे नाथ! अपनी कृपा तथा अपनी भद्रता से आपने मेरा बहुत भला किया है। मेरे दोष आभूषण के समान हो गये हैं, मेरा सुन्दर सुयश चारों ओर फैल रहा है।

**राउरि रीति सुबानि बड़ाई। जगत बिदित निगमागम गाई॥ कूर कुटिल खल कुमति कलंकी। नीच निसील निरीश निशंकी॥ तेउ सुनि शरन सामुहें आए। सकृत प्रनाम किये अपनाए॥**

**देखि दोष कबहुँ न उर आने। सुनि गुन साधु समाज बखाने॥ भा०– **आपकी रीति, सुन्दर स्वभाव तथा आपका बड़प्पन यह जगत्‌ में विदित है। इसे निगमों तथा उनसे अनुमोदित पुराणों और स्मृतियों ने गाया है। दुय्, कुटिल तथा टे़ढी प्रकृतिवाले खल, कलंक से युक्त चरित्र से नीच, निम्न स्वभाव वाला, असमर्थ और स्वामी के संरक्षण से रहित, शंका से रहित, अर्थात्‌ निर्भीक वे लोग भी आपका सुयश सुनकर, आपके सन्मुख होकर, आपश्री के शरण में आ गये तो, एक बार भी प्रणाम करने पर आपने उन्हें अपना लिया। उनका दोष देखकर हृदय में कभी भी नहीं लाये, परन्तु भक्तों के गुण सुनकर उन्हें सन्तों के समाज में बखाना।

को साहिब सेवकहिं नेवाजी। आपु समान साज सब साजी॥ निज करतूति न समुझिय सपने। सेवक सकुच सोच उर अपने॥

भाष्य

हे प्रभु! ऐसे किस स्वामी ने अपने सेवक को इस प्रकार निवाजा अर्थात्‌ कृपापूर्वक सम्मानित किया? अथवा, किस स्वामी ने अपने सेवक को इस प्रकार कृपापूर्वक पुरस्कृत किया और अपने ही समान उसके सम्पूर्ण साज को सजाया। जो स्वप्न में भी सेवक के प्रति की हुई, अपनी कृति का स्मरण नहीं करते, उसके विपरीत सेवक को अपने से किसी प्रकार का संकोच न हो जाये, इस प्रकार अपने हृदय में चिन्ता करते रहते हैं अर्थात्‌ सेवक के संकोच से अपने हृदय में चिन्तित होते रहते हैं।

**सो गोसाइँ नहिं दूसर कोपी। भुजा उठाइ कहउँ पन रोपी॥ पशु नाचत शुक पाठ प्रबीना। गुन गति नट पाठक आधीना॥**
भाष्य

वह स्वामी आप ही हैं, कोई भी दूसरा नहीं है। मैं भुजा उठाकर प्रतिज्ञा करके कहता हूँ, जैसे पशु अर्थात्‌ बन्दर नाचते हैं, तोता बोलने में कुशल हो जाता है, परन्तु बन्दर के नाचने की कला मदारी के अधीन होती है और तोते के बोलने की कला प़ढाने वाले के अधीन होती है।

**दो०- यों सुधारि सनमानि जन, किए साधु सिरमौर।**

को कृपालु बिनु पालिहैं, बिरुदावलि बरजोर॥२९९॥

भाष्य

इसी प्रकार आपने भी भक्तों को सुधारकर और सम्मानित करके उन्हें साधुओं का शिरोमणि बना दिया। हे कृपालु! आपके बिना अपनी विरुदावलि को हठपूर्वक कौन पालेगा?

[[५४५]]

शोक सनेह कि बाल सुभाएँ। आयउँ लाइ रजायसु बाएँ॥ तबहुँ कृपालु हेरि निज ओरा। सबहि भाँति भल मानेउ मोरा॥

भाष्य

शोक और स्नेह के कारण, अथवा बालक स्वभाव के कारण, मैं आपकी राजाज्ञा को बायें करके अर्थात्‌ इसका अपमान करके श्रीचित्रकूट आया, फिर भी परमकृपामय आपश्री ने अपनी ओर अर्थात्‌ अपना सम्बन्धी देखकर, मेरा सब प्रकार से भला ही माना, मेरे किसी भी कृत्य को बुरा नहीं माना।

**देखेउँ पायँ सुमंगल मूला। जानेउँ स्वामि सहज अनुकूला॥ बड़े समाज बिलोकेउँ भागू। बड़ी चूक साहिब अनुरागू॥**
भाष्य

सभी शुभमंगलों के मूल आपके श्रीचरणों के मैंने दर्शन किये और अपने स्वामी को सहजत: अपने अनुकूल जाना बहुत–बड़े समाज में मैंने अपना सौभाग्य देखा और मेरी बहुत–बड़ी भूल पर भी स्वयं पर स्वामी का प्रेम भी देखा।

**कृपा अनुग्रह अंग अघाई। कीन्हि कृपानिधि सब अधिकाई॥ राखा मोर दुलार गोसाईं। अपने शील स्वभाव भलाईं॥**
भाष्य

हे कृपा के सागर! आपने मुझ पर कृपा और अनुग्रह अर्थात्‌ अनुकूल ग्रहण अनुकम्पा के सभी अंगों को तृप्त होकर अर्थात्‌ जी भरकर अत्यन्त अधिक किया है अर्थात्‌ मुझ पर सर्वांग कृपा और सर्वांग अनुग्रह, पूर्ण– तृप्त होकर किया है। जितनी मेरी पात्रता थी उससे भी अधिक किया है। हे गोसाईं! आपने अपने स्वभाव, अपने स्नेह तथा अपने ही भलेपन से मेरा दुलार अर्थात्‌ लाड़-प्यार रखा है।

**नाथ निपट मैं कीन्हि ढिठाई। स्वामि समाज सकोच बिहाई॥ अबिनय बिनय जथारुचि बानी। छमिय देव अति आरत जानी॥**
भाष्य

हे नाथ! स्वामी के समाज का संकोच छोड़कर मैंने बहुत ही ढिठाई अर्थात्‌ धृष्टता की है। हे देव! मुझको अत्यन्त आर्त्त जानकर मेरे द्वारा अपनी रुचि के अनुसार बोली गई अविनय अर्थात्‌ अशिष्ट अथवा, शिष्ट विनयपूर्ण वाणी क्षमा कीजिये। अथवा, मेरे द्वारा अविनय में भी विनय समझकर अपनी रुचि अनुसार बोली हुई वाणी को क्षमा कीजिये।

**दो०- सुहृद सुजान सुसाहिबहिं, बहुत कहब बखिड़ ोरि।**

आयसु देइय देव अब, सबइ सुधारिय मोरि॥३००॥

भाष्य

अपने मित्र, कल्प चतुर, सुन्दर स्वामी के समक्ष बहुत बोलना भी बहुत–बड़ा दोष है। हे देव! आदेश दीजिये और अब मेरी सब बिग़डी हुई सुधार लीजिये।

**प्रभु पद पदुम पराग दोहाई। सत्य सुकृत सुख सीवँ सुहाई॥ सो करि कहउँ हिए अपने की। रुचि जागत सोवत सपने की॥**
भाष्य

हे प्रभु! जो सत्य, सत्कर्म और सुख की सीमा है, उसी सुहावनी आपके श्रीचरणकमल के परागरूप धूलि की दुहाई करके अर्थात्‌ शपथ करके मैं जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति अवस्था की अपने हृदय की रुचि कहता हूँ।

**सहज सनेह स्वामि सेवकाई। स्वारथ छल फल चारि बिहाई॥ आज्ञा सम न सुसाहिब सेवा। सो प्रसाद जन पावै देवा॥**

[[५४६]]

भाष्य

स्वाभाविक स्नेह के साथ स्वार्थ, कपट और अर्थ, धर्म, काम, मोक्षरूप चारों फलों को छोड़कर स्वामी की सेवा करना ही मेरी सामान्य व्रᐃच है। वस्तुत: आज्ञापालन के समान श्रेष्ठ स्वामी की कोई सेवा नहीं है। हे देव! अब सेवक वही प्रसाद पा जाये अर्थात्‌ आप मुझे आज्ञा दें, मैं उसका पालन करूँगा।

**अस कहि प्रेम बिबश भए भारी। पुलक शरीर बिलोचन बारी॥ प्रभु पद कमल गहे अकुलाई। समय सनेह न सो कहि जाई॥**
भाष्य

इतना कहकर, श्रीभरत प्रेम के बहुत विवश हो गये। उनके शरीर में रोमांच हो गया और विमल नेत्रों में आँसू भर आये। उन्होंने अकुलाकर प्रभु के श्रीचरणकमलों को पक़ड लिया। वह समय और उस समय का श्रीभरत का वह स्नेह मुझसे कहा नहीं जा रहा है।

**कृपासिंधु सनमानि सुबानी। बैठाए समीप गहि पानी॥**

भरत बिनय सुनि देखि सुभाऊ। शिथिल सनेह सभा रघुराऊ॥

भाष्य

कृपा के सागर भगवान्‌ श्रीराम ने सुन्दर वाणी से श्रीभरत का सम्मान करके हाथ पक़डकर उन्हें अपने समीप बैठा लिया। श्रीभरत की प्रार्थना सुनकर उनका स्वभाव देखकर सम्पूर्ण राजसभा और रघुकुल के राजा श्रीराम स्नेह में शिथिल हो गये।

**छं०: रघुराउ शिथिल सनेह साधु समाज मुनि मिथिला धनी।**

मन महँ सराहत भरत भायप भगति की महिमा घनी॥ भरतहिं प्रशंसत बिबुध बरषत सुमन मानस मलिन से। तुलसी बिकल सब लोग सुनि सकुचे निशागम नलिन से॥

भाष्य

भगवान्‌ श्रीराम, साधुओं का समाज, मुनिगण तथा मिथिलाधिपति श्रीजनक स्नेह में शिथिल हो गये। मन में श्रीभरत के भ्रातृत्व और उनकी भक्ति की बहुत–बड़ी महिमा की सराहना करने लगे। मन में मलिन होने से देवतागण श्रीभरत की प्रशंसा करते हुए, पुष्पों की वर्षा करने लगे। तुलसीदास जी कहते हैं कि, यह सुनकर सब लोग व्याकुल हो गये और रात्रि के आगमन के समय के कमल के समान संकुचित हो गये।

**सो०- देखि दुखारी दीन, दुहुँ समाज नर नारि सब।**

मघवा महा मलीन, मुए मारि मंगल चहत॥३०१॥

भाष्य

दोनों समाज (श्रीअवध–मिथिला समाज) के सभी नर–नारी अर्थात्‌ स्त्री–पुरुषों को दु:खी और दीन देखकर भी मलिन (मलों से युक्त) इन्द्र मरे हुए को मारकर भी मंगल चाहने लगा।

**कपट कुचालि सीवँ सुरराजू। पर अकाज प्रिय आपन काजू॥ काक समान पाकरिपु रीती। छली मलिन कतहूँ न प्रतीती॥ प्रथम कुमत करि कपट सँकेला। सो उचाट सब के सिर मेला॥ सुरमाया सब लोग बिमोहे। राम प्रेम अतिशय न बिछोहे॥**
भाष्य

इन्द्र कपट और बुरी चाल की सीमा हैं, उन्हें दूसरों का कार्य बिगाड़ना और अपना कार्य बनाना प्रिय है।

पाक नामक दैत्य के शत्रु देवराज इन्द्र की पद्धति छली, मलिन स्वभाववाले, कहीं भी किसी का भी विश्वास नहीं करने वाले कौवे के समान है। सर्वप्रथम इन्द्र ने कुमत अर्थात्‌ कुमंत्रणा करके कपट को संकलित किया अर्थात्‌ इकट्ठा किया और वह उच्चाटन सभी अवध–मिथिलावासियों के सिर पर डाल दिया। इन्द्र ने देवमाया से सभी अवध–मिथिला के लोगों को विशेषरूप से मोहित कर दिया। यद्दपि वे (देवमाया से मोहित लोग) श्रीरामप्रेम से

[[५४७]]

बहुत नहीं बिछड़े अर्थात्‌ बहुत अलग नहीं हुए। देवमाया से मोहित होने पर भी श्रीअवध–मिथिलावासियों के मन में सामान्यरूप से श्रीरामप्रेम बना ही रहा।

भय उचाट बश मन थिर नाहीं। छन बन रुचि छन सदन सोहाहीं॥ दुबिध मनोगति प्रजा दुखारी। सरित सिंधु संगम जनु बारी॥

भाष्य

श्रीअवध–मिथिलावासियों के मन इन्द्र द्वारा प्रेरित उच्चाटन के वश में हो गये, वे स्थिर नहीं हो पा रहे थे। एक क्षण तो लोगों को वन के लिए रुचि हो जाती थी और दूसरे क्षण उन्हें अपने–अपने घर अच्छे लगने लगते थे। इस प्रकार द्विविधावाली मानसिक दशा के कारण प्रजा दु:खी हो रही थी, मानो नदी और सागर के संगम में जल हो अर्थात्‌ जैसे नदी और सागर के संगम के समय जल की परिस्थिति द्विविधा की हो जाती है। उसी प्रकार प्रजा भी द्विविधा में पड़ गई, कभी तो वह अपने घररूप नदी की ओर मुड़ती और कभी श्रीरामरूप सागर की ओर।

**दुचित कतहुँ परितोष न लहहीं। एक एक सन मरम न कहहीं॥ लखि हिय हँसि कह कृपानिधानू। सरिस श्वान मघवान जुबानू॥**
भाष्य

इस प्रकार भवन और वन इन दो स्थानों में चित्त होने के कारण श्रीअवध–मिथिलावासी कहीं भी संतोष नहीं प्राप्त कर रहे हैं और एक–दूसरे से अपने गोपनीय मनोभाव भी नहीं कह रहे हैं। प्रजा की इस परिस्थिति को देखकर कृपा के कोश भगवान्‌ श्रीराम ने हँसकर हृदय में कहा कि, कुत्ते, इन्द्र और युवक ये तीनों एक ही समान होते हैं अर्थात्‌ तीनों अपना कार्य सिद्ध करने के लिए अनर्थ की किसी भी सीमा तक जा सकते हैं।

**विशेष– **“सरिस श्वान मघवान जुबानू” का प्रयोग गोस्वामी जी ने पाणिनि के एक सूत्र और संस्कृत की सुप्रसिद्ध एक सूक्ति के आधार पर किया है। कोई एक भारतीय कन्या, माला के एक ही तागे में शीशा, मणि और स्वर्ण की लयिड़ाँ पिरो रही थी। उसे देखकर किसी ने पूछा, भद्रे\! आप एक ही तागे में तीनों को क्यों पिरो रही हैं? तब उसने \(कन्या ने\) शालीनता से उत्तर दिया, इसमें मेरा कोई दोष नहीं है। मैं तो व्याकरण के सर्वश्रेष्ठ आचार्य भगवान्‌ पाणिनि का अनुकरण कर रही हूँ। उन्होंने \(पाणिनि ने\) भी संस्कृत के एक ही सूत्र में श्वान, युवान और मघवान को पिरोया। यथा– **श्वयुवमघोनामतद्धिते **\(६.४.९३३\) श्लोक इस प्रकार है– **कांचं मणिं कांचनमेकसूत्रे ग्रथनासि बाले किंमूचित्रमेतत्‌। अशेषवित पाणिनिरेकसूत्रे श्वानं युवानं मघवानमाह॥**

दो०- भरत जनक मुनि जन सचिव, साधु सचेत बिहाइ।

लागि देवमाया सबहिं, जथाजोग जन पाइ॥३०२॥

कृपासिंधु लखि लोग दुखारे। निज सनेह सुरपति छल भारे॥

भाष्य

श्रीभरत, शत्रुघ्न, योगिराज जनक, वसिष्ठ जी आदि मुनिजन, मंत्रीगण, चेतनावान्‌ साधु समाज जो भगवत्‌ भजन से जागरूक रहते हैं, को छोड़कर योग्यतानुसार लोगों को पाकर सभी पर देवमाया लग गई। यहाँ साधु– समाज शब्द में सभी माताओं का भी समावेश हो गया। कृपा के सागर भगवान्‌ श्रीराम ने अपने स्नेह तथा देवराज के छल से भरे अर्थात्‌ बोझिल सभी लोगों को दु:खी देखा अर्थात्‌ लोग एक ओर तो भगवत्‌ प्रेम से आकर्षित होकर प्रभु के साथ वन में रहना चाहते थे और दूसरी ओर इन्द्र के छल के कारण अपने–अपने घरों का स्मरण करके व्याकुल हो रहे थे।

[[५४८]]

सभा राउ गुरु महिसुर मंत्री। भरत भगति सब कै मति जंत्री॥

रामहिं चितवत चित्र लिखे से। सकुचत बोलत बचन सिखे से॥

भाष्य

जिन्हें देवमाया ने प्रभावित किया था, उनकी मनोदशा का वर्णन करते हुए गोस्वामी जी कहते हैं कि, श्रीचित्रकूट की तीसरी सभा में योगिराज जनकजी, गुव्र्देव वसिष्ठ जी एवं विश्वामित्रजी, सभी ब्राह्मण एवं मंत्रीगण इन सबकी बुद्धि श्रीभरत की भक्ति से नियंत्रित हो गई थी अर्थात्‌ इन पर इन्द्र की देवमाया का प्रभाव नहीं पड़ा था। वे सभी चित्र में चित्रित किये हुए से चेष्टारहित होकर टकटकी लगाये भगवान्‌ श्रीराम को निहार रहे थे और सीखे हुए के समान अर्थात्‌ स्वाभाविकता छोड़कर वचन बोलने में संकोच कर रहे थे।

**भरत प्रीति नति बिनय बड़ाई। सुनत सुखद बरनत कठिनाई॥ जासु बिलोकि भगति लवलेशू। प्रेम मगन मुनिजन मिथिलेशू॥ महिमा तासु कहै किमि तुलसी। भगति सुभाय सुमति हिय हुलसी॥ आपु छोटि महिमा बजिड़ ानी। कबिकुल कानि मानि सकुचानी॥ कहि न सकति गुन रुचि अधिकाई। मति गति बाल बचन की नाई॥**
भाष्य

श्रीभरत की प्रीति, नम्रता, विनय, बड़प्पन यह सब सुनने में सुख देते हैं, परन्तु इनका वर्णन करना बहुत कठिन है। जिन श्रीभरत की भक्ति के लवलेश, अर्थात्‌ छीटे के परिमाण मात्र को देखकर मुनिजन और श्रीजनक जी प्रेम में मग्न हो गये। उन श्रीभरत जी की महिमा तुलसीदास किस प्रकार कह सकता है? तथापि श्रीभरत की भक्ति और उनके स्वभाव से मुझ कवि तुलसीदास के हृदय में सुन्दर बुद्धि हुलस पड़ी है अर्थात्‌ उल्लासित हो रही है, परन्तु स्वयं को छोटी जानकर और श्रीभरत की महिमा को बहुत–बड़ी समझकर कविकुल की कानि, अर्थात्‌ मर्यादापूर्ण संकोच मानकर फिर मुझ तुलसीदास की बुद्धि संकुचित हो रही है। मेरी बुद्धि श्रीभरत के गुणांें को कह नहीं सकती और कहने की रुचि अधिक हो रही है। अब तो मेरी बुद्धि की दशा बालक के वचन के जैसी हो गई है। जैसे बालक बोलना तो बहुत चाहता है, परन्तु अपने भावों को व्यक्त करने के लिए उसके पास शब्दों का अभाव, दारिद्र और संकट रहता है।

**दो०- भरत बिमल जस बिमल बिधु, सुमति चकोर कुमारि।**

उदित बिमल जन हृदय नभ, एकटक रही निहारि॥३०३॥

भाष्य

भक्तों के हृदयरूप आकाश में उदित हुए श्रीभरत के निर्मल यशरूप निष्कलंक चन्द्रमा को मुझ तुलसीदास की सात्विक बुद्धिरूप चकोर की छोटी बालिका टकटकी लगाकर निहार रही है अर्थात्‌ जैसे अविवाहिता छोटी–सी चकोर की पुत्री केवल चन्द्रमा को टकटकी लगाकर देखती रहती है, क्योंकि तब तक उसका चकोर के साथ कोई शारीरिक सम्बन्ध नहीं हुआ रहता, उसी प्रकार मेरी बुद्धि केवल श्रीभरत के यश का ही चिन्तन कर रही है।

**भरत स्वभाव न सुगम निगमहूँ। लघु मति चापलता कबि छमहूँ॥ कहत सुनत सति भाव भरत को। सीय राम पद होइ न रत को॥ सुमिरत भरतहिं प्रेम राम को। जेहि न सुलभ तेहि सरिस बाम को॥**
भाष्य

हे कवि, अर्थात्‌ मनीषियों! (वाल्मीकि, व्यास आदि ऋषि महाकवियों) श्रीभरत के स्वभाव का वर्णन तो वेदों के लिए भी सुगम नहीं है, क्योंकि वेद भगवान्‌ श्रीराम के श्वासरूप हैं, जो श्रीभरत के स्वभाव को देखकर प्रेम के प्रवाह में रुक जाती है। इसलिए मेरी छोटी बुद्धि की चपलता को आप सब क्षमा करेंगे। श्रीभरत के सत्य अर्थात्‌ सन्तों के हितैषीभाव को कहते–सुनते श्रीसीताराम जी के चरणों में कौन अनुरक्त नहीं हो जायेगा?

[[५४९]]

श्रीभरत का स्मरण करते हुए जिसे श्रीसीताराम जी का प्रेम न सुलभ हो उसके समान वाम अर्थात्‌ भगवत्‌ विरुद्ध, दुय्, कुटिल कौन हो सकता है?

देखि दयालु दशा सबही की। राम सुजान जानि जन जी की॥ धरम धुरीन धीर नय नागर। सत्य सनेह शील सुख सागर॥ देश काल लखि समय समाजू। नीति प्रीति पालक रघुराजू॥ बोले बचन बानि सरबस से। हित परिनाम सुनत शशि रस से॥

भाष्य

दया के आगार और सबके हृदय की जानने वाले अर्थात्‌ सबके साथ श्रीभरत की भी स्थिति को समझने वाले, परमचतुर, धर्म की धुरी को धारण करने वाले, धैर्यवान और ‘धी‘, अर्थात्‌ बुद्धि के ‘इर’ अर्थात्‌ प्रेरक, नीति में निपुण, सत्य, स्नेह, शील अर्थात्‌ स्वभाव एवं चरित्र तथा सुखों के सागर, नीति और प्रीति का पालन करने वाले, रघुकुल के राजा एवं ‘रघु’ शब्द के मुख्यार्थ सम्पूर्ण जीवों के हृदयों में अन्तर्यामी रूप से विराजमान, योगियों के भी हृदय में रमनेवाले और चराचर को रमानेवाले परमेश्वर भगवान्‌ श्रीराम देश, काल और समय अर्थात्‌ अवसर और समाज को देखकर ऐसे वचन बोले, जो वाणी अर्थात्‌ भगवती सरस्वती जी के सर्वस्व के समान थे। जो परिणाम में हितकर अर्थात्‌ कल्याणकारी थे और जो सुनने में शशिरस अर्थात्‌ चन्द्रमा के सारभूत अमृत के समान थे।

**विशेष– **यहाँ वाणी शब्द सरस्वती जी का वाचक है और रस शब्द सारतत्त्व का बोधक है। **तात भरत तुम धरम धुरीना। लोक बेद बिद प्रेम प्रबीना॥**

दो०- करम बचन मानस बिमल, तुम समान तुम तात।

गुरु समाज लघु बंधु गुन, कुसमय किमि कहि जात॥३०४॥

भाष्य

श्रीराम ने कहा, हे तात्‌ (मेरे प्रेमपात्र) भरत! तुम धर्म के धुरीन, लोक और वेद के ज्ञाता तथा प्रेम में प्रवीण अर्थात्‌ कुशल हो। हे भैया! तुम कर्म, वाणी और मन से निर्मल हो, तुम्हारे समान तुम ही हो। गुरुजनों के समाज और इस प्रतिकूल समय में छोटे और प्रिय भाई के गुण कैसे कहे जा सकते हैं? अर्थात्‌ यदि यहाँ गुरुजन नहीं होते और यह प्रतिकूल समय नहीं होता तो मैं कदाचित्‌ तुम्हारे सम्बन्ध में बहुत कुछ कहता।

**जानहु तात तरनि कुल रीती। सत्यसंध पितु कीरति प्रीती॥ समय समाज लाज गुरुजन की। उदासीन हित अनहित मन की॥ तुमहिं बिदित सबही कर करमू। आपन मोर परम हित धरमू॥ मोहि सब भाँति भरोस तुम्हारा। तदपि कहउँ अवसर अनुसारा॥**
भाष्य

हे भैया! तुम सूर्यकुल की रीति अर्थात्‌ परम्परा को, सत्यप्रतिज्ञ पिताश्री के यश और उनके मुझ रामविषयक प्रेम को, समय, समाज एवं गुरुजन की लज्जा और मर्यादा को, उदासीन अर्थात्‌ मध्यस्थ, मित्र और शत्रुओं के मन की दशा को जानते हो। मुझे तुम्हारा सब प्रकार से विश्वास है, फिर मैं भी समय के अनुसार, अथवा, अवसर का अनुसरण करते हुए कुछ कह रहा हूँ।

**तात तात बिनु बात हमारी। केवल कुलगुरु कृपा सँभारी॥ नतरु प्रजा परिजन परिवारू। हमहिं सहित सब होत खुआरू॥**

भा०**– **हे भैया! पिताश्री के बिना (अनुपस्थिति में) हमारी बात (वार्ता अर्थात्‌ कुशल) केवल कुलगुरु अर्थात्‌ रघुवंश के आचार्य वसिष्ठ जी की कृपा ने ही सम्भाल दिया अर्थात्‌ उन्हीं की कृपा से हमारी कुशलता सम्भली हुई

[[५५०]]

है, नहीं तो चारों भाइयों सहित श्रीअवध की प्रजा, हमारे आश्रित सेवक, अथवा सगे सम्बन्धी और राजपरिवार सबके सब नष्ट हो गये होते।

**विशेष– **यद्दपि इस चौपाई में प्रयुक्त परिजन और परिवार एक ही अर्थ के वाचक हैं, परन्तु गोस्वामी जी ने इनका एक साथ प्रयोग करके थोड़ा-सा अन्तर सूचित किया है। यहाँ परिजन का अर्थ है निजी सेवक, अथवा सगे सम्बन्धी और परिवार का अर्थ है एक ही कुल में उत्पन्न हुए लोगों का समूह।

जौ बिनु अवसर अथव दिनेशू। जग केहि कहहु न होइ कलेशू॥ तस उतपात तात बिधि कीन्हा। मुनि मिथिलेश राखि सब लीन्हा॥

भाष्य

हे भैया! बताओ, यदि बिना अवसर के अर्थात्‌ निर्धारित अस्तकाल के पूर्व सूर्यनारायण अस्त हो जायें तो जगत में किसे नहीं क्लेश होगा? हे तात्‌! विधि, अर्थात्‌ हमारे भाग्य ने उसी प्रकार का उत्पात कर दिया, परन्तु उसे गुव्र्देव वसिष्ठ जी एवं मिथिलापति श्वसुर श्रीजनक ने बचा लिया। तात्पर्य यह है कि, पिताश्री मुझे युवराज पद देकर, अभी कुछ दिन और राजा के पद पर रहना चाहते थे, परन्तु श्रवण कुमार के माता–पिता के शाप के कारण मुझ पुत्र का वियोग उपस्थित होने पर वे अपने मनोरथ के निर्धारित समय के पूर्व चले गये।

**विशेष– **यहाँ **“बिनु अवसर अथव दिनेशू” **शब्द से महाराज दशरथ की अकाल मृत्यु की आशंका नहीं करनी चाहिये। वस्तुत: बिनु अवसर शब्द से भगवान्‌ श्रीराम, महाराज चक्रवर्ती जी की इच्छा द्वारा निर्धारित समय से प्रथम अवसर की चर्चा कर रहे हैं। अथवा, बिनु अवसर का तात्पर्य यह है कि, सूर्य के अस्त का उचित अवसर तब होता है जब, उनका दायित्व सम्भालने के लिए चन्द्रमा का उदय प्राप्त हो। पिताश्री मुझ श्रीरामचन्द्र के दायित्व सम्भालने के पहले ही गये यही बिनु अवसर है। अथवा, पिताश्री के महाप्रस्थान काल में हम चारों भाइयों में से कोई भी उपस्थित नहीं था, यही बिनु अवसर है।

दो०- राज काज सब लाज पति, धरम धरनि धन धाम।

**गुरु प्रभाव पालिहिं सबहिं, भल होइहि परिनाम॥३०५॥ भा०– **सम्पूर्ण राज्य का कार्य, लज्जा और मर्यादा, धर्म, पृथ्वी, धन और राजभवन सबका पालन गुरुदेव का कृपा प्रसाद ही करेगा, परिणाम बहुत अच्छा होगा।

सहित समाज तुम्हार हमारा। घर बन गुरु प्रसाद रखवारा॥ मातु पिता गुरु स्वामि निदेशू। सकल धरम धरनीधर शेषू॥ सो तुम करहु करावहु मोहू। तात तरनिकुल पालक होहू॥ साधन एक सकल सिधि देनी। कीरति सुगति भूतिमय बेनी॥

भाष्य

हे भैया भरत! गुरुदेव का प्रसाद ही समाज के सहित तुम्हारा और हमारा घर तथा वन में रक्षक है। माता– पिता, गुरु और स्वामी का आदेश सम्पूर्ण धर्मों की पृथ्वी को धारण करने वाले शेष है अर्थात्‌ माता–पिता, गुरु और स्वामी की आज्ञा का पालन ही सबसे श्रेष्ठ धर्म है, वही तुम करो और मुझ से भी करवाओ। हे भरत! तुम सूर्यकुल के रक्षक बन जाओ। आज्ञापालन रूप यही एक साधना कीर्ति, मोक्ष और ऐश्वर्य से युक्त त्रिवेणी है अर्थात्‌ जैसे गंगाजी, यमुनाजी और सरस्वतीजी के संगम में एकमात्र स्नान से तीन वस्तुयें प्राप्त हो जाती है। उसी प्रकार माता–पिता की आज्ञापालनरूप गंगाप्रवाह, गुरुदेव की आज्ञा पालनरूप यमुनाप्रवाह तथा स्वामी की आज्ञापालनरूप गुप्त सलिला सरस्वती जी के प्रवाह के संगमरूप तुम्हारे लिए अवध–प्रवास और मेरे लिए वन–

[[५५१]]

प्रवास रूप आज्ञापालन की साधना, सेवा की त्रिवेणी बनकर कीर्ति, श्रेष्ठ गति और ऐश्वर्य को देने वाली त्रिवेणी की भूमिका निभायेगी।

सो बिचारि सहि संकट भारी। करहु प्रजा परिवार सुखारी॥ बाँटी बिपति सबहिं मोहि भाई। तुमहि अवधि भरि बकिड़ ठिनाई॥

भाष्य

हे भैया! उस पक्ष का विचार कर बहुत–बड़ा संकट सहकर तुम अवधिपर्यन्त (चौदह वर्षों तक), प्रजा और परिवार को सुखी करो। हे भैया भरत! पड़ी हुई यह विपत्ति केवल एक को नहीं सहनी है। यह सभी को और मुझे भी विधाता द्वारा बाँट दी गई है अर्थात्‌ हम, तुम और समस्त अवधवासी मिलकर इसका सामना करेंगे। यद्दपि चौदह वर्ष के वनवास की अवधिपर्यन्त तुम्हें बहुत कठिनता होगी।

**जानि तुमहिं मृदु कहउँ कठोरा। कुसमय तात न अनुचित मोरा॥ होहिं कुठायँ सुबंधु सहाए। ओयिड़हिं हाथ अशनिहु के घाए॥**
भाष्य

तुम्हें कोमल जानकर भी मैं यह आदेशरूप वियोगात्मक कठोर वचन कह रहा हूँ, हे भैया! यह प्रतिकूल समय की विडम्बना है अर्थात्‌ अभी हमारा समय अनुकूल नहीं है, नहीं तो मैं तुम्हें अपने से क्यों अलग करता? मेरा यह अनुचित कार्य नहीं है। श्रेष्ठ भ्राता कुठाऊँ अर्थात्‌ बुरे स्थान पर ही सहायक होते हैं। जैसे वज्र के भी घाव को हाथ पर रोक लिया जाता है अर्थात्‌ सम्भाला जाता है, अथवा, वज्र के भी घाव को पहले हाथ सहन करता है, उसी प्रकार यह वज्र का आघात है और तुम मेरे हाथ हो।

**दो०- सेवक कर पद नयन से, मुख सो साहिब होइ।**

**तुलसी प्रीति कि रीति सुनि, सुकबि सराहहिं सोइ॥३०६॥ भा०– **सेवक हाथ, चरण और नेत्र के समान होने चाहिये और स्वामी मुख के समान होना चाहिये। तुलसीदास जी कहते हैं कि, सेवक और स्वामी की प्रीति की यह परम्परा सुनकर श्रेष्ठकवि उसी की सराहना करते हैं। **विशेष– **यह संयोग और सौभाग्य ही कहना चाहिये कि, श्रीराम जैसे स्वामी को तीन सेवक श्रीभरत, लक्ष्मण और सीता जी प्राप्त हैं और ये तीनों यहाँ कहे हुए हाथ, चरण और नेत्र की भूमिका निभा रहे हैं। श्रीभरत प्रभु के

हाथ हैं, लक्ष्मण जी प्रभु के चरण हैं और श्रीसीता प्रभु के नेत्र हैं।

सभा सकल सुनि रघुबर बानी। प्रेम पयोधि अमिय जनु सानी॥ शिथिल समाज सनेह समाधी। देखि दशा चुप शारद साधी॥

भाष्य

प्रेमरूप क्षीरसागर के सारतत्त्व अमृत से सनी हुई–सी रघुकुल में श्रेष्ठ भगवान्‌ श्रीराम की वाणी सम्पूर्ण सभा ने सुनी और प्रेम की समाधि में सम्पूर्ण सभा शिथिल हो गई। उसकी दशा देखकर निरन्तर बोलने वाली श्रीसरस्वती जी ने भी चुप रहने की साधना कर ली, अर्थात्‌ मौन हो गईं।

**भरतहिं भयउ परम संतोषू। सनमुख स्वामि बिमुख दुख दोषू॥ मुख प्रसन्न मन मिटा बिषादू। भा जनु गूँगेहि गिरा प्रसादू॥**
भाष्य

श्रीभरत को प्रभु के वचनों से परम संतोष हो गया। स्वामी श्रीराम के सम्मुख होते ही दु:ख, दोष श्रीभरत से विमुख हुए अर्थात्‌ दूर हो गये अथवा स्वामी श्रीराम, भरत जी के सम्मुख हो गये तथा दु:ख और दोष उनसे विमुख हो गये। उनका मुख प्रसन्न हो गया, मन का कय् मिट गया, मानो गूँगे को वाणी अर्थात्‌ सरस्वती जी का प्रसाद मिल गया।

**कीन्ह सप्रेम प्रनाम बहोरी। बोले पानि पंकरुह जोरी॥ नाथ भयउ सुख साथ गए को। लहेउँ लाहु जग जनम भए को॥**

[[५५२]]

भाष्य

फिर श्रीभरत ने प्रेमपूर्वक प्रभु को प्रणाम किया और कमल जैसे कोमल हाथों को जोड़कर बोले, हे नाथ! साथ जाने का सुख मुझे मिल गया और मैंने संसार में जन्म लेने का लाभ भी प्राप्त कर लिया।

**अब कृपालु जस आयसु होई। करौं शीष धरि सादर सोई॥ सो अवलंब देव मोहि देई। अवधि पार पावौं जेहि सेई॥**
भाष्य

हे कृपालु! अब जैसी आज्ञा हो मैं सिर पर धारण करके आदरपूर्वक वही करूँ। हे देव! मुझे वही अवलम्ब दीजिये जिसकी सेवा करके मैं अवधि का पार पा सकूँ अर्थात्‌ अवधिरूप महासागर को पार करके जीवित रह कर चौदह वर्षों के पश्चात्‌ फिर आपके दर्शन कर सकूँ।

**दो०- देव देव अभिषेक हित, गुरु अनुशासन पाइ।**

आनेउँ सब तीरथ सलिल, तेहिं कहँ काह रजाइ॥३०७॥

भाष्य

हे देव! आपश्री देवाधिदेव श्री राघवेन्द्र सरकार के अभिषेक के लिए गुरुदेव की आज्ञा पाकर मैं सम्पूर्ण तीर्थों का जल यहाँ ले आया हूँ, उसके लिए क्या राजाज्ञा हो रही है?

**एक मनोरथ बड़ मन माहीं। सभय सकोच जात कहि नाहीं॥ कहहु तात प्रभु आयसु पाई। बोले बानि सनेह सुहाई॥**
भाष्य

मेरे मन में एक बहुत–बड़ा मनोरथ है, परन्तु भय और संकोच के साथ होने से वह मुझ से कहा नहीं जा रहा है। “भैया! बताओ” इस प्रकार, श्रीराम की आज्ञा पाकर श्रीभरत स्नेह से सुहावनी वाणी बोले–

**चित्रकूट शुचि थल तीरथ बन। खग मृग सर सरि निर्झर गिरिगन॥ प्रभु पद अंकित अवनि बिशेषी। आयसु होइ त आवौं देखी॥**
भाष्य

हे प्रभु! यदि आज्ञा हो तो श्रीचित्रकूट के पवित्र स्थलों, तीर्थों, वनों, पक्षियों, हरिणों, तालाबों, नदियों, झरनों और पर्वतसमूहों तथा प्रभु अर्थात्‌ आप श्रीराम के श्रीचरणों से चिह्नित विशिष्ट भूमियों के दर्शन कर आऊँ।

**अवसि अत्रि आयसु सिर धरहू। तात बिगतभय कानन चरहू॥ मुनि प्रसाद बन मंगल दाता। पावन परम सुहावन भ्राता॥ ऋषिनायक जहँ आयसु देहीं। राखेहु तीरथ जल थल तेहीं॥ सुनि प्रभु बचन भरत सुख पावा। मुनि पद कमल मुदित सिर नावा॥**
भाष्य

भगवान्‌ श्रीराम बोले, हे भैया! अवश्य देख आओ। महर्षि अत्रि जी की आज्ञा को शिरोधार्य करो और भय छोड़कर श्रीचित्रकूट वन में विचरण करो। हे मेरे प्रेमपात्र भैया भरत! अत्रि मुनि के प्रसाद से ही यह श्रीचित्रकूट वन सभी मंगलों को देनेवाला, अत्यन्त पवित्र और सुहावना है। ऋषियों के राजा अत्रि जी जहाँ आज्ञा दें, उसी स्थल पर सम्पूर्ण तीर्थों के जल को स्थापित कर दो। प्रभु श्रीराम के वचन को सुनकर श्रीभरत ने सुख पाया और प्रसन्न होकर अत्रि मुनि के श्रीचरणकमलों में सिर नवाया।

**दो०- भरत राम संबाद सुनि, सकल सुमंगल मूल।**

सुर स्वारथी सराहि कुल, बरषत सुरतरु फूल॥३०८॥

भाष्य

सम्पूर्ण श्रेष्ठ मंगलों के आश्रय और कारणस्वरूप भरत–राम संवाद सुनकर स्वार्थी देवता, रघुकुल की सराहना करते हुए कल्पवृक्ष के पुष्प बरसाने लगे।

**धन्य भरत जय राम गोसाईं। कहत देव हरषत बरियाईं॥ मुनि मिथिलेश सभा सब काहू। भरत बचन सुनि भयउ उछाहू॥**

[[५५३]]

भाष्य

श्रीभरत धन्य हैं और पृथ्वी के स्वामी भगवान्‌ श्रीराम की जय हो! इस प्रकार कहते हुए देवगण, प्रभु श्रीराम के भरत वियोग से सम्भावित करुण प्रसंग में भी, रावण के भय का वातावरण होने पर भी, हठात्‌ प्रसन्न हो रहे हैं। जबकि इनकी प्रसन्नता यहाँ की परिस्थिति और वातावरण के अनुकूल नहीं है। श्रीभरत का वचन सुनकर मुनि वसिष्ठ जी, विश्वामित्र जी तथा मिथिलाधिराज श्रीजनक और सभा के सम्पूर्ण सदस्यों को उत्साह हुआ।

**भरत राम गुन ग्राम सनेहू। पुलकि प्रशंसत राउ बिदेहू॥ सेवक स्वामि स्वभाव सुहावन। नेम प्रेम अति पावन पावन॥ मति अनुसार सराहन लागे। सचिव सभासद सब अनुरागे॥**
भाष्य

महाराज जनक जी पुलकित होकर श्रीभरत एवं भगवान्‌ श्रीराम के गुण समूहों की तथा दोनों भाइयों के पारस्परिक प्रेम की प्रशंसा करने लगे। मिथिलाधिराज के मंत्री और उनके सभी सभासद अनुराग से पूर्ण होकर सेवक श्रीभरत और स्वामी श्रीराम के सुहावने स्वभाव की और श्रीभरत के अत्यन्त पवित्र नियम तथा सबको पवित्र करने वाले प्रेम की अपनी बुद्धि के अनुसार सराहना करने लगे।

**सुनि सुनि राम भरत संबादू। दुहुँ समाज हिय हरष बिषादू॥ राम मातु दुख सुख सम जानी। कहि गुन राम प्रबोधीं रानी॥**

**एक कहहिं रघुबीर बड़ाई। एक सराहत भरत भलाई॥ भा०– **श्रीराम–भरत संवाद सुन–सुनकर दोनों समाज अर्थात्‌ मिथिलावासियों एवं अवधवासियों के हृदय में हर्ष के साथ दु:ख हो रहा है। हर्ष इस बात का कि समस्या का समाधान हो गया और अब चौदह वर्षपर्यन्त श्रीभरत जीवित रह लेंगे तथा दु:ख इस बात का कि अब हम अतिशीघ्र चौदह वर्षों के लिए प्रभु से बिछड़ जायेंगे। श्रीराम की माता कौसल्या जी ने दु:ख और सुख दोनों को समान जाना। उन्होंने श्रीराम के गुणों का वर्णन करके अवध राजघराने की सभी महिलाओं को समझाया। कोई रघुकुल के वीर भगवान्‌ श्रीराम के बड़प्पन की बात कह रहा है, अर्थात्‌ प्रभु की ईश्वरता का वर्णन कर रहा है और एक लोग श्रीभरत की भलाई अर्थात्‌ भलेपन की सराहना कर रहे हैं।

दो०- अत्रि कहेउ तब भरत सन, शैल समीप सुकूप।

राखिय तीरथ तोय तहँ, पावन अमिय अनूप॥३०९॥

भाष्य

तब महर्षि अत्रि जी ने श्रीभरत से कहा, इसी श्रीचित्रकूट कामदपर्वत के समीप सुन्दर कुआँ है। वहीं पर पवित्र और अमृत के समान अनुपम सम्पूर्ण तीर्थों का जल स्थापित कर दिया जाये।

**भरत अत्रि अनुशासन पाई। जल भाजन सब दिए चलाई॥ सानुज आपु अत्रि मुनि साधू। सहित गए जहँ कूप अगाधू॥ पावन पाथ पुन्यथल राखा। प्रमुदित प्रेम अत्रि अस भाखा॥**
भाष्य

श्रीभरत ने अत्रि जी की आज्ञा पाकर सभी तीर्थजल के पात्रों को चला दिया अर्थात्‌ सेवकों द्वारा कूप के पास पहुँचवा दिया। महर्षि अत्रि जी, मुनि वसिष्ठ जी एवं अन्य साधुओं के सहित छोटे भाई शत्रुघ्न जी को साथ लेकर स्वयं श्रीभरत वहाँ गये, जहाँ अपार जलवाला कूप था। श्रीभरत ने उसी पुण्यमय स्थल पर पवित्र तीर्थजल को स्थापित कर दिया। प्रेम से प्रसन्न होकर अत्रि मुनि ने इस प्रकार कहा–

**तात अनादि सिद्ध थल एहू। लोपेउ काल बिदित नहिं केहू॥ तब सेवकन सरस थल देखा। कीन्ह सुजल हित कूप बिशेषा॥ बिधि बश भयउ बिश्व उपकारू। सुगम अगम अति धरम बिचारू॥**

[[५५४]]

भरतकूप अब कहिहैं लोगा। अति पावन तीरथ जल जोगा॥

प्रेम सनेम निमज्जत प्रानी। होइहैं बिमल करम मन बानी॥

भाष्य

हे तात्‌ भरत! यह स्थल अनादिकाल से सिद्ध है, परन्तु समय ने इसे छिपा दिया था, इसलिए यह बहुत दिनों तक किसी को भी ज्ञात नहीं हुआ। इसके पश्चात्‌ हमारे सेवकों ने इस स्थल को सरस अर्थात्‌ सुन्दर तथा सरस जल के स्रोतों से युक्त देखा, तो स्वादयुक्त जल के लिए यहाँ विशिष्ट कूप बना लिया। संयोगवश आज तो इससे विश्व का उपकार हो गया। अत्यन्त अगम धर्म का विचार आज इस कूप के कारण सुगम हो गया। पवित्र स्थल और तीर्थजल के संयोग से अब अर्थात्‌ इस क्षण से लोग इसे भरतकूप कहेंगे। जिसका अर्थ है श्रीभरत द्वारा स्थापित सभी तीर्थों के जलों से भरा हुआ कूप अर्थात्‌ कुआँ। प्रेम और नियम के साथ इस कूप में निष्ठापूर्वक स्नान करते ही प्राणी कर्म, मन और वाणी से निर्मल हो जायेंगे।

**दो०- कहत कूप महिमा सकल, गए जहाँ रघुराउ।**

अत्रि सुनायउ रघुबरहिं, तीरथ पुन्य प्रभाउ॥३१०॥

भाष्य

सभी लोग भरतकूप की महिमा कहते हुए जहाँ श्रीरघुराज थे, वहाँ गये। अत्रि जी ने रघुश्रेष्ठ भगवान्‌ श्रीराम को भरतकूप तीर्थ का पुण्य और प्रभाव सुनाया।

**कहत धरम इतिहास सप्रीती। भयउ भोर निशि सो सुख बीती॥ नित्य निबाहि भरत दोउ भाई। राम अत्रि गुरु आयसु पाई॥ सहित समाज साज सब सादे। चले राम बन अटन पयादे॥**
भाष्य

इस प्रकार प्रेमपूर्वक धर्मशास्त्र और इतिहास की चर्चा करते हुए प्रात:काल हो गया। वह रात्रि बीत गई। संक्षेप में नित्य–क्रिया करके दोनों भाई श्रीभरत, और शत्रुघ्नजी, भगवान्‌ श्रीराम, महर्षि अत्रि जी और गुव्र् वसिष्ठ जी का आदेश पाकर सम्पूर्ण समाज और सात्विक साज अर्थात्‌ व्यवस्था के सहित, पैदल ही श्रीराम वन श्रीचित्रकूट के पर्यटन अर्थात्‌ यात्रा के लिए चल दिये।

**कोमल चरन चलत बिनु पनहीं। भइ मृदु भूमि सकुचि मन मनहीं॥ कुश कंटक काँकरी कुराई। कटुक कठोर कुबस्तु दुराई॥ महि मंजुल मृदु मारग कीन्हे। बहत समीर त्रिबिध सुख लीन्हे॥ सुमन बरषि सुर घन करि छाहीं। बिटप फूलि फलि तृन मृदुलाहीं॥ मृग बिलोकि खग बोलि सुबानीं। सेवहिं सकल राम प्रिय जानी॥**
भाष्य

श्रीभरत कोमल चरणों से बिना पनहीं के चल रहे हैं। मन ही मन संकुचित होकर पृथ्वी कोमल हो गई। कुश, काँटे, कंक़ड और घास से ढकी हुयी कोपली भूमि तथा कटु अर्थात्‌ चुभने वाली बीछी आदि वन की घासें और कठोर बुरी वस्तुओं को छिपाकर पृथ्वी ने कोमल और सुन्दर मार्ग बना दिया। शीतल, मंद और सुगंध वायु तीनों प्रकार के सुखों को लिए बहने लगा। देवता पुष्प बरसाकर, बादल छाया करके, वृक्ष फूल और फल देकर, तृण कोमलता के द्वारा, हिरण अपने नेत्रों से निहारकर, पक्षी सुन्दर वाणी में बोलकर, इस प्रकार प्रकृति के सभी उपकरण, श्रीरामप्रिय जानकर श्रीभरत की सेवा करने लगे।

**दो०- सुलभ सिद्धि सब प्राकृतहुँ, राम कहत जमुहात।**

राम प्रानप्रिय भरत कहँ, यह न होइ बबिड़ ात॥३११॥

भाष्य

श्रीराम कहते–कहते जम्हाई लेने वाले साधारण लोगों को भी जब सम्पूर्ण सिद्धियाँ सुलभ हो जाती है, तो फिर श्रीराम के प्राणप्रिय श्रीभरत के लिए यह कोई बड़ी बात नहीं हो रही है।

[[५५५]]

एहि बिधि भरत फिरत बन माहीं। नेम प्रेम लखि मुनि सकुचाहीं॥ पुन्य जलाश्रय भूमि बिभागा। खग मृग तरु तृन गिरि बन बागा॥ चारु बिचित्र पबित्र बिशेषी। बूझत भरत दिब्य सब देखी॥ सुनि मन मुदित कहत रिषिराऊ। हेतु नाम गुन पुन्य प्रभाऊ॥

भाष्य

इस प्रकार श्रीभरत जी वन में भ्रमण कर रहे हैं। उनका नियम और प्रेम देखकर मुनि भी संकुचित हो उठते हैं। पवित्र जलाशय, भूमि के विशिष्ट भागों में वर्तमान पक्षी, पशु, वृक्ष, घास, सुन्दर बाग, पर्वत, वन, बगीचे इन सबको सुन्दर, पवित्र और विशेष प्रकार के विविध चित्रों से युक्त तथा सबको दिव्य देखकर श्रीभरत पूछते हैं। उनका प्रश्न सुनकर ऋषियों के राजा अत्रि जी उनके कारण, नाम, गुण, पुण्य एवं प्रभाव को कहते हैं।

**कतहुँ निमज्जन कतहुँ प्रनामा। कतहुँ बिलोकत मन अभिरामा॥ कतहुँ बैठि मुनि आयसु पाई। सुमिरत सीय सहित दोउ भाई॥**
भाष्य

श्रीभरत कहीं स्नान करते हैं, कहीं प्रणाम करते हैं, कहीं मन को आनन्दित करने वाले श्रीसीताराम जी के विहार स्थलों को देखते हैं। कहीं मुनि की आज्ञा पाकर बैठकर श्रीसीता के सहित दोनों भाई श्रीराम, लक्ष्मण का स्मरण करते हैं।

**देखि स्वभाव सनेह सुसेवा। देहिं अशीष मुदित बनदेवा॥**

फिरहिं गए दिन पहर अ़ढाई। प्रभु पद कमल बिलोकहि आई॥

भाष्य

उनके स्वभाव, स्नेह, और सुन्दर सेवा को देखकर वन के देवता प्रसन्न होकर भरत जी को आशीर्वाद देते हैं। भरत जी अ़ढाई प्रहर दिन बीतने तक श्रीचित्रकूट का भ्रमण करते हैं, फिर आकर प्रभु के श्रीचरणकमलों के दर्शन करते हैं।

**दो०- देखे थल तीरथ सकल, भरत पाँच दिन माँझ।**

कहत सुनत हरि हर सुजस, गयउ दिवस भइ साँझ॥३१२॥

भाष्य

इस प्रकार श्रीभरत ने पाँच दिनों के भीतर सभी तीर्थ स्थानों को देखा। भगवान्‌ श्रीराम एवं शिव जी अथवा “हरिं हरति इति हरिहर:” अर्थात हरि यानी नारायण को भी हर यानी मोहित करने वाले महाविष्णु श्रीराम का सुयश कहते–सुनते विश्राम का दिन बीता और सन्ध्या हो गई। लोगों ने सन्ध्यावन्दन एवं लघु आहार करके विश्राम किया।

**भोर न्हाइ सब जुरा समाजू। भरत भूमिसुर तिरहुति राजू॥**

**भल दिनु आजु जानि मन माहीं। राम कृपालु कहत सकुचाहीं॥ भा०– **प्रात:काल स्नान करके, श्रीभरत, ब्राह्मणगण और महाराज जनक जी इन सबके साथ सम्पूर्ण समाज इकट्ठा हुआ। आज अच्छा दिन है अर्थात्‌ अब इन लोगों को श्रीअवध और श्रीमिथिला भेज देना चाहिये। ऐसा मन में जानकर कृपालु श्रीराम कहने में संकुचित हो रहे हैं।

गुरु नृप भरत सभा अवलोकी। सकुचि राम फिरि अवनि बिलोकी॥

**शील सराहि सभा सब सोची। कहुँ न राम सम स्वामि सँकोची॥ भा०– **श्रीराम ने पहले गुरुदेव, महाराज जनक जी और श्रीभरत के सहित सभा को देखा, फिर संकुचित होकर पृथ्वी को देखा। प्रभु के शील की सराहना करके सम्पूर्ण सभा सोचने लगी कि, श्रीराम के समान संकोची स्वामी कहीं नहीं है।

भरत सुजान राम रुख देखी। उठि सप्रेम धरि धीर बिशेषी॥ करि दंडवत कहत कर जोरी। राखी नाथ सकल रुचि मोरी॥

[[५५६]]

भाष्य

चतुर श्रीभरत, श्रीराम का रुख देखकर, प्रेमपूर्वक उठकर विशेष धैर्य धारण करके दण्डवत्‌ करके हाथ जोड़कर कहने लगे, हे नाथ! आपने मेरी सभी रुचियों की रक्षा की है।

**मोहि लगि सहेउ सबहिं संतापू। बहुत भाँति दुख पावा आपू॥ अब गोसाइँ मोहि देउ रजाई। सेवौं अवध अवधि भरि जाई॥**
भाष्य

मेरे लिए सभी ने बहुत कष्ट सहा और आपने भी बहुत प्रकार से दु:ख पाया। हे सम्पूर्ण पृथ्वी के स्वामी श्रीराघव! अब मुझे राजाज्ञा दीजिये, जाकर अवधिपर्यन्त श्रीअवध की सेवा करूँ।

**दो०- जेहिं उपाय पुनि पाँय जन, देखै दीनदयाल।**

सो सिख देइय अवधि लगि, कोसलपाल कृपाल॥३१३॥

भाष्य

हे कोसल जनपद के पालक कृपालु श्रीरघुनाथ! जिस उपाय से यह दास आपश्री दीनदयालु श्रीरघुनाथ के श्रीचरणों का फिर दर्शन कर सके अवधि भर के लिए आप मुझे वही शिक्षा दीजिये।

**पुरजन परिजन प्रजा गोंसाईं। सब शुचि सरस सनेह सगाई॥ राउर बदि भल भव दुख दाहू। प्रभु बिनु बादि परम पद लाहू॥ स्वामि सुजान जानि सब ही की। रुचि लालसा रहनि जन जी की॥ प्रनतपाल पालिहि सब काहू। देव दुहुँ दिशि ओर निबाहू॥**
भाष्य

हे गोसाईं अर्थात्‌ इन्द्रियों के स्वामी परमात्मा श्रीराम! आपके स्नेह और सम्बन्ध से सभी अवधपुरवासी, सभी परिवार के लोग एवं सम्पूर्ण प्रजा, पवित्र और सरस अर्थात्‌ आनन्द से युक्त हैं। आपके लिए संसार के दु:ख का ताप भी सभी को श्रेष्ठ लगता है और आपके बिना परमपद की प्राप्ति भी व्यर्थ है। चतुरस्वामी आपश्री राघव सभी की रुचि, लालसा और रहन तथा मुझ सेवक की हृदय की बात जानकर प्रणतों के पालक आप सभी का लालन–पालन करेंगे और हे देव! इस प्रकार दोनों दिशाओं में अर्थात्‌ हमारे और आपके पक्ष में ओर अर्थात्‌ सम्बन्ध का निर्वाह हो जायेगा। तात्पर्यत: हम सबका आपके साथ पालक–पाल्यभाव सम्बन्ध होगा।

**अस मोहि सब बिधि भूरि भरोसो। किए बिचार न सोच खरो सो॥ आरति मोरि नाथ कर छोहु। दुहुँ मिलि कीन्ह ढीठ हठि मोहु॥ यह बड़ दोष दूरि करि स्वामी। तजि सकोच सिखइय अनुगामी॥ भरत बिनय सुनि सबहिं प्रशंसी। छीर नीर बिबरन गति हंसी॥**
भाष्य

इस प्रकार मुझे भी सब प्रकार से बहुत विश्वास है और विचार करने पर मुझे तिनके–सी भी चिन्ता नहीं है। मेरी आर्त्ति अर्थात्‌ अभीष्ठ लाभ की प्राप्ति की आतुरता और आपके छोहों अर्थात्‌ ममतापूर्ण कृपा इन दोनों ने मुझको हठात्‌ ढीठ अर्थात्‌ धृष्ट कर दिया है। हे स्वामी! मेरे इस बहुत–बड़े दोष को दूर करके मुझ अनुगामी को संकोच छोड़कर शिक्षा दीजिये। क्षीर–नीर अर्थात दूध और जल का विश्लेषण करने वाली हंसिनी की दशा से सम्पन्न श्रीभरत की विनती सुनकर सभी ने उनकी प्रशंसा की।

**दो०- दीनबंधु सुनि बंधु के, बचन दीन छलहीन।**

देश काल अवसर सरिस, बोले राम प्रबीन॥३१४॥

भाष्य

दीनों के बन्धु, चतुर श्रीराम अपने भाई, श्रीभरत की छल से रहित और दैन्य से पूर्ण वचन सुनकर, देश, समय और अवसर के अनुकूल वचन बोले–

**तात तुम्हारि मोरि परिजन की। चिंता गुरुहि नृपहिं घर बन की॥ माथे पर गुरु मुनि मिथिलेशू। हमहिं तुमहिं सपनेहुँ न कलेशू॥**

[[५५७]]

भाष्य

हे तात्‌! तुम्हारी, मेरी और परिजनों की तथा श्रीअयोध्या एवं श्रीचित्रकूट वन की, गुव्र्देव वसिष्ठ जी को और महाराज जनक जी को चिन्ता है। हमारे सिर पर गुव्र् वसिष्ठ जी एवं विश्वामित्र जी आदि मुनि तथा श्रीजनक विराजमान हैं। हमें और तुम्हें तो स्वप्न में भी कोई क्लेश नहीं है।

**मोर तुम्हार परम पुरुषारथ। स्वारथ सुजस धरम परमारथ॥ पितु आयसु पालिहिं दुहु भाई। लोक बेद भल भूप भलाई॥**
भाष्य

मेरा और तुम्हारा यही पूजनीय पुरुषार्थ है, यही स्वार्थ, यही सुन्दर यश और यही धर्म तथा यही मोक्ष का साधन है कि, हम दोनों भाई राम और भरत पिताश्री की आज्ञा का पालन करें, क्योंकि राजा की भलाई से ही लोक और वेद में भला होता है।

**गुरु पितु मातु स्वामि सिख पाले। चलेहुँ कुमग पग परहिं न खाले॥**

**अस बिचारि सब सोच बिहाई। पालहु अवध अवधि भरि जाई॥ भा०– **गुरु, पिता, माता और स्वामी की शिक्षा का पालन करने से बुरे मार्ग चलने पर भी चरण नीचे अर्थात्‌ गड्ढे में नहीं पड़ते। ऐसा विचार करके सभी चिन्ताओं को छोड़कर चौदह वर्ष वनवास की अवधिपर्यन्त श्रीअवध का पालन करो।

देश कोश पुरजन परिवारू। गुरु पद रजहिं लाग छरभारू॥

तुम मुनि मातु सचिव सिख मानी। पालेहु पुहुमि प्रजा रजधानी॥

भाष्य

अवध देश, राजकोष, अवधवासियों तथा रघु परिवार का सम्पूर्ण भार गुरुदेव की श्रीचरण धूलि पर ही लगा हुआ है अर्थात्‌ निर्भर है, आधारित है और आश्रित है, फिर तुम गुरुदेव, माताश्री एवं मंत्रियों की शिक्षा मानकर, पृथ्वी, प्रजा एवं राजधानी का पालन करना।

**दो०- मुखिया मुख सो चाहिए, खान पान कहँ एक।**

पालइ पोषइ सकल अँग, तुलसी सहित बिबेक॥३१५॥

भाष्य

गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं कि, भगवान्‌ श्रीराम जी ने कहा कि, हे भरत! मुखिया अर्थात्‌ किसी समुदाय के प्रमुख (स्वामी) को मुख के समान होना चाहिये, जो खाने–पीने के लिए तो अकेला होता है, परन्तु विवेक के साथ वह सम्पूर्ण अंगों का पालन–पोषण करता है अर्थात्‌ शरीर में प्रायश: सभी अंग दो–दो होते हैं, केवल मुख एक होता है, जो संग्रह करता है थोड़ा और परिग्रह करता है अधिक।

**राजधरम सरबस एतनोई। जिमि मन माहँ मनोरथ गोई॥ बंधु प्रबोध कीन्ह बहु भाँती। बिनु अधार मन तोष न साँती॥**
भाष्य

राजधर्म सर्वस्व इतना ही है, जैसे मन में मनोरथ छिपा रहता है अर्थात्‌ गोपनीयता ही राजधर्म का सर्वस्व है। इस प्रकार भगवान्‌ श्रीराम ने छोटे भाई श्रीभरत को बहुत प्रकार से प्रबोध किया अर्थात्‌ उन्हें बहुत प्रकार से समझाया, परन्तु श्रीभरत को किसी आधार के बिना मन में न तो संतोष हो रहा था और न ही शान्ति मिल रही थी।

**भरत शील गुरु सचिव समाजू। सकुच सनेह बिबश रघुराजू॥ प्रभु करि कृपा पाँवरी दीन्हीं। सादर भरत शीष धरि लीन्ही॥**
भाष्य

एक ओर श्रीभरत का शील अर्थात्‌ स्वभाव है और दूसरी ओर गुरुजन और मंत्रियों का समाज है। अत: जीवमात्र को प्रकाशित करने वाले रघुराज श्रीराम संकोच और स्नेह के विवश हो गये अर्थात्‌ श्रीराम, भरत जी

[[५५८]]

के स्नेह के विवश होकर उन्हें अपनी चरण पादुका देना चाहते हैं, किन्तु उन्हें गुव्र्जन अर्थात्‌ वसिष्ठजी, विश्वामित्र जी तथा गुरुतुल्य सभी माताओं एवं मंत्री समाज का संकोच होता है कि, इनके सामने स्वयं को कैसे पूज्य के रूप में प्रस्तुत करूँ? कैसे भरत से पादुका पूजवाऊँ? कैसे ऐश्वर्य प्रकट करूँ? अन्ततोगत्वा श्रीभरत के स्नेह की जीत हुई और प्रभु श्रीराम ने श्रीभरत तथा प्राणिमात्र पर कृपा करके, श्रीभरत को अपनी पादुका दे दी। अथवा, कृपाशक्ति ने ही प्रभु श्रीराम को पादुका बनाकर अर्थात्‌ श्रीसीताराम जी को दो पादुका के रूप में अवतीर्ण करके श्रीभरत को दे दी और श्रीभरत ने उन्हें आदरपूर्वक सिर पर धारण कर लिया अर्थात्‌ स्वीकार किया। इस सम्बन्ध में विशेष जानने के लिए मेरे द्वारा लिखित **“प्रभु करि कृपा पाँवरी दीन्हीं” **नामक पुस्तक देखिये।

चरनपीठ करुनानिधान के। जनु जुग जामिक प्रजा प्रान के॥ संपुट भरत सनेह रतन के। आखर जुग जनु जीव जतन के॥ कुल कपाट कर कुशल करम के। बिमल नयन सेवा सुधरम के॥ भरत मुदित अवलंब लहे ते। अस सुख जस सिय राम रहे ते॥

भाष्य

करुणा के कोश श्रीराम के दोनों चरणपीठ (पादुका युगल) मानो श्रीअवध की प्रजा के प्राणों के लिए (प्राण रक्षा के लिए) जामिक अर्थात्‌ दो प्रहरी बन गये। वे श्रीभरत के स्नेहरूप रत्न को सुरक्षित करने के लिए सम्पुट अर्थात्‌ दो पल्ली वाले डिब्बे बन गये, मानो वे दोनों चरणपीठ जीव के जप रूप यत्न के लिए, श्रीरामनाम के दो अक्षर “रकार” और “मकार” ही थे। वे रघुकुल के कपाट अर्थात्‌ किवाड़ के दो पल्ले और कुशल कर्म को सम्पादित करने के लिए दो सुन्दर हाथ तथा सेवारूप सुधर्म के मार्गदर्शन के लिए, दो निर्मल ज्ञान, वैराग्यरूप नेत्र ही बन गये। श्रीभरत यह अवलम्ब प्राप्त करने से बहुत प्रसन्न हुए। उन्हें वही सुख मिला जो श्रीसीताराम जी के रहने से अर्थात्‌ उनकी उपस्थिति में होता।

**दो०- माँगेउ बिदा प्रनाम करि, राम लिए उर लाइ।**

लोग उचाटे अमरपति, कुटिल कुअवसर पाइ॥३१६॥

भाष्य

श्रीभरत ने प्रणाम करके श्रीअवध चलने के लिए विदा माँगी। श्रीराम ने उन्हें हृदय से लगा लिया। कुटिल और दुय् देवराज इन्द्र ने प्रतिकूल अवसर पाकर लोगों को उच्चाटित कर दिया।

**सो कुचालि सब कहँ भइ नीकी। अवधि आस सम जीवनि जी की॥**

**नतरु लखन सिय राम बियोगा। हहरि मरत सब लोग कुरोगा॥ भा०– **इन्द्र की वह कुचाल सबके लिए अच्छी हो गई, वह अवधि की आशा के समान और जीव के लिए संजीवनी के समान हुई नहीं तो श्रीलक्ष्मण, श्रीसीता एवं भगवान्‌ श्रीराम के वियोगरूप कुरोग से भयभीत होकर सभी लोग मर गये होते।

रामकृपा अवरेव सुधारी। बिबुध धारि भइ गुनद गोहारी॥

भेंटत भुज भरि भाइ भरत सो। राम प्रेम रस कहि न परत सो॥

भाष्य

भगवान्‌ श्रीराम जी की कृपा ने सभी अवरेव अर्थात्‌ अड़चनें, उपद्रव तथा विघ्नों को सुधार दिया। देवताओं की सेना जो लूट–पाट करने आई थी, वही गुण देने वाली गुहार अर्थात्‌ रक्षक बनी। श्रीभरत जैसे भ्राता को भगवान्‌ श्रीराम बाँहों में भर कर भेंट रहे हैं। वह श्रीराम प्रेमरस अर्थात्‌ प्रभु प्रेम का सार नहीं कहा जा सकता।

[[५५९]]

**विशेष–**संकट में चिल्लाते हुए लोगों को बचाने के लिए जो लोग आते हैं, उन्हीं को अवधी में गोहारी कहा जाता है। तन मन बचन उमग अनुरागा। धीर धुरंधर धीरज त्यागा॥

बारिज लोचन मोचत बारी। देखि दशा सुर सभा दुखारी॥

भाष्य

प्रभु के शरीर, मन और वचन से प्रेम फूट–फूटकर उमड़ रहा है। धीरों की धुरी को धारण करने वाले प्रभु ने अपना धैर्य छोड़ दिया। प्रभु श्रीराम कमल जैसे नेत्रों से अश्रुपात कर रहे हैं। उनकी दशा देखकर देवता तथा श्रीचित्रकूट की चतुर्थ सभा के सभासद दु:खी हो गये।

**मुनिगन गुरु धुर धीर जनक से। ग्यान अनल मन कसे कनक से॥ जे बिरंचि निरलेप उपाए। पदुम पत्र जिमि जग जल जाए॥**

दो०- तेउ बिलोकि रघुबर भरत, प्रीति अनूप अपार।

भए मगन मन तन बचन, सहित बिराग बिचार॥३१७॥

भाष्य

जिन्होंने ज्ञान की अग्नि में मन को स्वर्ण की भाँति कसा अर्थात्‌ तपाया है ऐसे धैर्य की धुरी स्वरूप मुनियों के समूह, गुव्र्देव वसिष्ठ जी और जनक जी जैसे लोग, जिन्हें ब्रह्मा जी ने निर्लेप ही उत्पन्न किया और जो संसाररूप जल के कमल के पत्र की भाँति निर्लेप जन्मे, वे लोग भी श्रीराम और श्रीभरत की उपमा रहित अपार प्रीति देखकर, विवेक और विचार के साथ तन, मन और वचन से मग्न हो गये।

**जहाँ जनक गुरु गति मति भोरी। प्राकृत प्रीति कहत बखिड़ ोरी॥ बरनत रघुबर भरत बियोगू। सुनि कठोर कबि जानिहिं लोगू॥ सो सकोच रस अकथ सुबानी। समय सनेह सुमिरि सकुचानी॥ भेंटि भरत रघुबर समुझाए। पुनि रिपुदमन हरषि हिय लाए॥**
भाष्य

जहाँ जनक जी एवं गुव्र्देव वसिष्ठ जी की दशा और बुद्धि भोली हो गई हो तो फिर प्राकृत लोगों के प्रेम का कहना तो बहुत–बड़ा दोष होगा। भगवान्‌ श्रीराम और श्रीभरत के वियोग का वर्णन सुनकर लोग मुझे कठोर कवि जानेंगे। वह संकोच और अकथनीय करुणरस तथा उस समय का स्नेह स्मरण करके मेरी सुन्दर वाणी संकुचित हो रही है। श्रीभरत को गले मिलकर श्रीराम ने बहुत समझाया, फिर रोमांचित होकर शत्रुघ्न जी को हृदय से लगा लिया।

**सेवक सचिव भरत रुख पाई। निज निज काज लगे सब जाई॥ सुनि दारुन दुख दुहूँ समाजा। लगे चलन के साजन साजा॥**
भाष्य

श्रीभरत का संकेत पाकर सभी सेवक और मंत्रीगण अपने–अपने कार्य में लग गये। चलना सुनकर दोनों समाज को असहनीय दु:ख हुआ और सब लोग चलने का साज सजाने लगे।

**प्रभु पद पदुम बंदि दोउ भाई। चले शीष धरि राम रजाई॥ मुनि तापस बनदेव निहोरी। सब सनमानि बहोरि बहोरी॥**

दो०- लखनहिं भेंटि प्रनाम करि, सिर धरि सिय पद धूरि।

**चले सप्रेम अशीष सुनि, सकल सुमंगल मूरि॥३१८॥ भा०– **दोनों भाई श्रीभरत एवं शत्रुघ्नजी, प्रभु श्रीराम के श्रीचरणकमलों का वन्दन करके सिर पर श्रीराम की राजाज्ञा रूप पादुका धारण करके चल पड़े। मुनियों, तपस्वियों, और वनदेवताओं से कृतज्ञता के साथ अनुनय–

[[५६०]]

विनय करके और सभी को बारम्बार सम्मानित करके लक्ष्मण जी को मिलकर तथा प्रणाम करके और श्रीसीता के श्रीचरणकमल की धूलि सिर पर धारण करके सम्पूर्ण सुमंगलों की मूलिका अर्थात्‌ कारण रूप संजीवनी बूटी के समान श्रीसीता का दिव्य आशीर्वाद सुनकर प्रेमपूर्वक चल पड़े।

सानुज राम नृपहिं सिर नाई। कीन्ह बहुत बिधि बिनय बड़ाई॥ देव दया बश बड़ दुख पायउ। सहित समाज काननहिं आयउ॥ पुर पगु धारिय देइ अशीशा। कीन्ह धीर धरि गवन महीशा॥ मुनि महिदेव साधु सनमाने। बिदा किए हरि हर सम जाने॥ सासु समीप गए दोउ भाई। फिरे बंदि पग आशिष पाई॥

भाष्य

श्रीलक्ष्मण के साथ भगवान्‌ श्रीराम ने महाराज श्रीजनक को मस्तक नवाकर बहुत प्रकार से प्रार्थना और प्रशंसा की। हे देव! आपने दया के वश होकर बहुत दु:ख पाया। आप समाज के सहित वन में आये, अब आशीर्वाद देकर श्रीमिथिलापुर पधार जाइये। योगीराज श्रीजनक ने धैर्य धारण कर श्रीमिथिलापुर के लिए प्रस्थान किया। श्रीमिथिला से आये याज्ञवल्क्य जी, अयवक्र जी आदि मुनियों, शतानन्द जी आदि ब्राह्मणों और साधुओं का भी भगवान्‌ श्रीराम ने सम्मान किया और उन्हें भगवान्‌ विष्णु जी और शिव जी के समान जाना तथा पूज्यभाव से विदा किया। दोनों भाई श्रीराम, लक्ष्मण सासु सुनयना जी के पास गये और उनके चरणों की वन्दना करके उनका आशीर्वाद पाकर लौटे।

**कौशिक बामदेव जाबाली। पुरजन परिजन सचिव सुचाली॥ जथा जोग करि बिनय प्रनामा। बिदा किए सब सानुज रामा॥ नारि पुरुष लघु मध्य बड़ेरे। सब सनमानि कृपानिधि फेरे॥**
भाष्य

कुशिक के पुत्र विश्वामित्रजी, वामदेवजी, जाबालि जी, अवधपुरवासी परिवार के लोग तथा अच्छे मार्ग पर चलने वाले मंत्री, सभी को यथायोग्य प्रार्थना और प्रणाम करके छोटे भाई लक्ष्मण जी के सहित श्रीरामचन्द्र ने सबको विदा किया। कृपा के सागर श्रीरामचन्द्र ने स्त्रियों (महिलाओं), छोटे बालकों, मध्यावस्था के युवकों और सभी वृद्धों को सम्मानित करके लौटा दिया।

**दो०- भरत मातु पद बंदि प्रभु, शुचि सनेह मिलि भेंटि।**

बिदा कीन्ह सजि पालकी, सकुच सोच सब मेटि॥३१९॥

भाष्य

प्रभु श्रीराम ने पवित्र प्रेम के साथ श्रीभरत की माता कैकेयी जी के चरणों का वन्दन करके, उनसे गले मिलकर, उनके संकोच और शोक को मिटा कर, सजी हुई पालकी पर बिठाकर उन्हें विदा किया।

**परिजन मातु पितहिं मिलि सीता। फिरी प्रानप्रिय प्रेम पुनीता॥ करि प्रनाम भेंटंीं सब सासू। प्रीति कहत कबि मन न हुलासू॥**
भाष्य

प्राण प्रिय श्रीराम के प्रेम से पवित्र श्रीसीता अपने पीहर के परिवार तथा माता–पिता से मिलकर लौटीं। प्रणाम करके श्रीसीता सभी सासुओं को गले मिलीं। उस समय की प्रीति का वर्णन करने में कवि के हृदय में उल्लास नहीं हो रहा है अर्थात्‌ उस करुणा की अभिव्यक्ति करते नहीं बन रहा है।

**सुनि सिख अभिमत आशिष पाई। रही सीय दुहुँ प्रीति समाई॥ रघुपति पटु पालकीं मगाई। करि प्रबोध सब मातु च़ढाई॥ बार बार हिलि मिलि दुहुँ भाई। सम सनेह जननी पहुँचाई॥**

[[५६१]]

भाष्य

शिक्षा सुनकर, मनचाहा आशीर्वाद पाकर श्रीसीता दोनों ओर के प्रेम में मानो समा गईं। भगवान्‌ श्रीराम ने सुन्दर पालकियाँ मँगाई और समझा–बुझाकर सभी माताओं को पालकियों पर च़ढाया। रघुकुल के राजा श्रीराम ने बार–बार हिल–मिलकर समान स्नेह के साथ सभी माताओं को पहुँचाया अर्थात्‌ अयोध्या भेजा।

**साजि बाजि गज बाहन नाना। भरत भूप दल कीन्ह पयाना॥ हृदय राम सिय लखन समेता। चले जाहिं सब लोग अचेता॥ बसह बाजि गज पशु हिय हारे। चले जाहिं परबश मन मारे॥**
भाष्य

घोड़े, हाथी और अनेक वाहनों को सजाकर श्रीभरत और श्रीजनक की सेना ने प्रस्थान किया। हृदय में श्रीलक्ष्मण के सहित श्रीराम एवं सीता जी को विराजमान करके अचेत हुए सभी लोग श्रीचित्रकूट से चले जा रहे हैं। बैल, घोड़े, हाथी आदि पशु भी हृदय में हार कर अपने मन को मारे हुए पराधीन होकर चले जा रहे हैं।

**दो०- गुरु गुरुतिय पद बंदि प्रभु, सीता लखन समेत।**

फिरे हरष बिसमय सहित, आए परन निकेत॥३२०॥

भाष्य

प्रभु श्रीराम, सीता जी एवं लक्ष्मण जी के साथ गुरुदेव और गुरुपत्नी अरुन्धति जी के चरणों का वन्दन करके, धर्मसंकट के टलने से हर्ष और प्रियजनों के बिछुड़ने से विषाद के सहित लौटे और अपने पत्तों के बने हुए भवन में आ गये।

**बिदा कीन्ह सनमानि निषादू। चलेउ हृदय बड़ बिरह बिषादू॥ कोल किरात भिल्ल बनचारी। फेरे फिरे जोहारि जोहारी॥**
भाष्य

भगवान्‌ श्रीराम ने सम्मान करके निषादराज गुह को विदा किया और वे भी हृदय में विरह से उत्पन्न बहुत–बड़े दु:ख के साथ चले। कोल, किरात, भील आदि वनवासियों को अयोध्यावासियों ने लौटाया और वे भी बार–बार प्रणाम करके लौटे।

**प्रभु सिय लखन बैठि बट छाहीं। प्रिय परिजन बियोग बिलखाहीं॥ भरत सनेह सुभाव सुबानी। प्रिया अनुज सन कहत बखानी॥ प्रीति प्रतीति बचन मन करनी। श्रीमुख राम प्रेमबश बरनी॥**
भाष्य

प्रभु श्रीराम, भगवती श्रीसीता जी एवं श्रीलक्ष्मण जी वट की छाया में बैठकर अपने प्रिय परिजनों के वियोग में बिलख रहे हैं, अर्थात्‌ दु:खी हो रहे हैं। प्रभु श्रीराम, श्रीभरत जी के स्नेह, स्वभाव और सुन्दर वाणी को प्रिया भगवती और छोटे भाई श्रीलक्ष्मण जी के समक्ष बखान कर कह रहे हैं। वचन, मन और कर्म से श्रीभरत जी की प्रीति और उनके विश्वास को प्रेमवश होकर श्रीमुख श्रीराम जी ने बार–बार वर्णन किया।

**तेहि अवसर खग मृग जल मीना। चित्रकूट चर अचर मलीना॥**

बिबुध बिलोकि दशा रघुबर की। बरषि सुमन कहि गति घर घर की॥ प्रभु प्रनाम करि दीन्ह भरोसो। चले मुदित मन डर न खरो सो॥

भाष्य

उस समय पक्षी, हिरण, जल के मछली और श्रीचित्रकूट के चेतन और ज़ड सभी लोग, अवध– मिथिलावासियों के वियोग से मलिन अर्थात्‌ दु:खी थे। देवगण भगवान्‌ श्रीराम की दशा देखकर पुष्प–वर्षा करके उनसे प्रत्येक देवता के घर की गति अर्थात्‌ दशा का वर्णन किये। तात्पर्यत: प्रत्येक देवता को रावण ने जो कष्ट दिया था, सब कह सुनाया। प्रभु ने प्रणाम करके उन्हें भरोसा दिया कि, शीघ्र ही रावण वध करके वे देवताओं की समस्या का समाधान कर देंगे। देवता प्रसन्न मन से स्वर्गलोक को चले, उन्हें अब तिनका भर भी डर नहीं है।

[[५६२]]

दो०- सानुज सीय समेत प्रभु, राजत परन कुटीर।

भगति ग्यान बैराग्य जनु, सोहत धरे शरीर॥३२१॥

भाष्य

छोटे भाई श्रीलक्ष्मण एवं श्रीसीता के सहित प्रभु श्रीराम पर्णकुटी में विराज रहे हैं, जैसे भक्ति, ज्ञान और वैराग्य ही शरीर धारण करके सुशोभित हो रहे हों।

**विशेष– **यहाँ श्रीसीता भक्ति की, श्रीराम ज्ञान के और लक्ष्मण जी वैराग्य के उपमेय हैं। **मुनि महिसुर गुरु भरत भुआलू। राम बिरह सब साज बिहालू॥ प्रभु गुन ग्राम गुनत मन माहीं। सब चुपचाप चले मग जाहीं॥**
भाष्य

मुनि विश्वामित्रजी, याज्ञवल्क्य जी आदि, ब्राह्मण शतानन्द जी आदि, गुव्र्देव वसिष्ठजी, शत्रुघ्न जी के सहित श्रीभरत और योगीराज श्रीजनक का समाज श्रीराम के विरह में अत्यन्त दु:खी है। मन में प्रभु श्रीराम के गुणसमूहों का चिन्तन करते हुए सभी लोग मार्ग में चुपचाप चले जा रहें हैं।

**जमुना उतरि पार सब भयऊ। सो बासर बिनु भोजन गयऊ॥ उतरि देवसरि दूसर बासू। रामसखा सब कीन्ह सुपासू॥**
भाष्य

यमुना जी उतर कर सब लोग पार हुए, वह दिन बिना भोजन के ही गया। गंगा तट पर उतर कर दूसरा विश्राम हुआ। वहाँ श्रीराम के सखा निषादराज ने सब सुविधा कर दी।

**सई उतरि गोमती नहाए। चौथे दिवस अवधपुर आए॥ जनक रहे पुर बासर चारी। राज काज सब साज सँभारी॥**
भाष्य

सई, अर्थात्‌ स्यंदिका नदी को पार करके सब ने गोमती जी में स्नान किया और चौथे दिन श्रीअयोध्या आ गये। श्रीजनक श्रीअयोध्या में चार दिन रहे वहाँ राजकार्य और सभी व्यवस्थाओं को सम्भाला।

**सौंपि सचिव गुरु भरतहिं राजू। तिरहुति चले साजि सब साजू॥ नगर नारि नर गुरु सिख मानी। बसे सुखेन राम रजधानी॥**
भाष्य

मंत्री, गुरु और भरत जी को राज्य सौंपकर, अपना सम्पूर्ण साज सजाकर जनक जी मिथिला चले गये। श्रीअवध के नर–नारी (स्त्री–पुरुष), गुरुदेव की शिक्षा मानकर सुखपूर्वक श्रीराम की राजधानी श्रीअयोध्या में निवास किये।

**दो०- राम दरस लगि लोग सब, करत नेम उपवास।**

**तजि तजि भूषन भोग सुख, जियत अवधि की आस॥३२२॥ भा०– **सभी लोग श्रीराम के दर्शनों के लिए आभूषण, भोग और सुखों को छोड़-छोड़कर नियम और उपवास कर रहे हैं और अवधि की इसी आशा में जी रहे हैं कि, चौदह वर्षों के पश्चात्‌ श्रीराम जी अयोध्या अवश्य पधारेंगे।

सचिव सुसेवक भरत प्रबोधे। निज निज काज पाइ सिख ओधे॥

**पुनि सिख दीन्ह बोलि लघु भाई। सौंपी सकल मातु सेवकाई॥ भा०– **श्रीभरत ने मंत्रियों और सुन्दर सेवकों को समझाया, वे श्रीभरत की शिक्षा पाकर अपने–अपने कार्य में ओधे अर्थात्‌ लग गये। फिर श्रीभरत ने छोटे भ्राता शत्रुघ्न जी को बुलाकर शिक्षा दी और उन्हें सभी सात सौ माताओं की सेवा सौंप दी।

[[५६३]]

भूसुर बोलि भरत कर जोरे। करि प्रनाम बर बिनय निहोरे॥ ऊँच नीच कारज भल पोचू। आयसु देब न करब सँकोचू॥ परिजन पुरजन प्रजा बोलाए। समाधान करि सुबस बसाए॥

भाष्य

ब्राह्मणों को बुलाकर श्रीभरत ने हाथ जोड़ प्रणाम और श्रेष्ठ प्रार्थना करके उनसे अनुनय–विनय किया और बोले, हे प्रभु! ऊँचा–नीचा, बड़ा-छोटा जो भी कार्य हो आप आज्ञा देंगे संकोच नहीं करेंगे। पुरजनों तथा राजघरानों के लोगों और प्रजा को बुलाया सबकी समस्याओं का समाधान करके उन्हें सुन्दर निवास और सुख सुविधा देकर अवध में फिर बसाया।

**सानुज गे गुरु गेह बहोरी। करि दंडवत कहत कर जोरी॥ आयसु होइ त रहौं सनेमा। बोले मुनि तन पुलकि सप्रेमा॥ समुझब कहब करब तुम जोई। धरम सार जग होइहि सोई॥**
भाष्य

फिर श्रीभरत, छोटे भाई शत्रुघ्न जी के साथ गुव्र्देव वसिष्ठ जी के घर गये। उन्हें दण्डवत करके हाथ जोड़कर कहने लगे, यदि आपश्री की आज्ञा हो तो चौदह वर्षपर्यन्त नियमपूर्वक रह लूँ। मुनि वसिष्ठ जी शरीर में रोमांचित होकर प्रेमपूर्वक बोले, हे भरत! तुम जो समझोगे, जो कहोगे और जो करोगे वह संसार के लिए धर्म का सारतत्त्व हो जायेगा।

**दो०- सुनि सिख पाइ अशीष बगिड़, नक बोलि दिन साधि।**

सिंघासन प्रभु पादुका, बैठारे निरुपाधि॥३२३॥

भाष्य

गुरुदेव की शिक्षा सुनकर बहुत–बड़ा आशीर्वाद पाकर ज्योतिषियों को बुलाकर शुभ दिन का शोधन करके श्रीभरत ने किसी प्रकार के विघ्न के बिना अर्थात्‌ कैकेयी माता की भी सम्मति से अवधराज के सिंहासन पर प्रभु श्रीराम की पादुकाओं को विराजमान कराया।

**राम मातु गुरु पद सिर नाई। प्रभु पद पीठ रजायसु पाई॥ नंदिग्राम करि परन कुटीरा। कीन्ह निवास धरम धुर धीरा॥**
भाष्य

श्रीराम की माता कौसल्या जी और गुरुदेव को सिर नवाकर प्रभु श्रीराम की चरणपादुका की राजाज्ञा पाकर धर्म की धुरी को धारण करने में स्थिर अर्थात्‌ तत्पर श्रीभरत ने पर्णकुटी बनाकर नंदिग्राम में निवास किया।

**जटाजूट सिर मुनिपट धारी। महि खनि कुश साथरी सँवारी॥ अशन बसन बासन ब्रत नेमा। करत कठिन ऋषि धरम सप्रेमा॥ भूषन बसन भोग सुख भूरी। मन तन बचन तजे तृन तूरी॥ अवध राज सुरराज सिहाई। दशरथ धन सुनि धनद लजाई॥ तेहि पुर बसत भरत बिनु रागा। चंचरीक जिमि चंपक बागा॥ रमा बिलास राम अनुरागी। तजत बमन जिमि जन बड़भागी॥**
भाष्य

सिर पर जटाजूट और मुनिवस्त्र धारण करके, पृथ्वी को खोदकर गुफा बनाकर, वहाँ कुश की चटाई बिछाकर, भोजन, वस्त्र और पात्र, व्रत, नियम में प्रेमपूर्वक कठिन ऋषिधर्म का पालन करने लगे अर्थात्‌ भोजन में कन्द, मूल, वस्त्र में वल्कल, पात्र में मिट्टी के पात्र और लौकी से निर्मित कमण्डलु, व्रत में चन्द्रायण आदि, नियम में तप, संतोष, शौच, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान का आचरण करते हुए प्रेमपूर्वक राजर्षि–धर्म का पालन करने लगे। श्रीभरत ने मन, वाणी और शरीर से तिनके की भाँति सम्बन्ध तोड़कर आभूषण, वस्त्र और

[[५६४]]

भोग तथा बहुत से राजकीय सुखों को छोड़ दिया। श्रीअवध के राज्य को इन्द्र ईर्ष्या के साथ सिहाते हैं अर्थात्‌ ईर्ष्या के साथ उसकी प्रशंसा करते हैं। दशरथ जी का धन सुनकर कुबेर लज्जित हो उठते हैं। उसी अवधपुर में श्रीभरत बिना लगाव के उसी प्रकार निवास कर रहे हैं, जैसे चम्पा के बगीचे में भ्रमर उसका रस लिए बिना ही रह लेता है। श्रीराम के अनुरागी भाग्यशाली भगवत्‌भक्त श्रीवैष्णव, लक्ष्मी का विलास अर्थात्‌ संसार का भौतिक सुख वमन की भाँति छोड़ देते हैं।

दो०- राम प्रेम भाजन भरत, बड़े न एहिं करतूति।

चातक हंस सराहियत, टेक बिबेक बिभूति॥३२४॥

भाष्य

श्रीभरत तो श्रीराम के प्रेम के पात्र ही हैं वे इस भोगैश्वर्य त्यागरूप कृत्य से बड़े नहीं हुए। वह उनका स्वभाव है, जैसे चातक और हंस को टेक और विवेक की विभूति के कारण सराहा जाता है अर्थात्‌ पृथ्वी का जल न पीने की टेक से चातक और नीर–क्षीर विवेक की शक्ति से हंस की सराहना की जाती है। यदि ऐसा न हो तो उसे क्यों सराहा जायेगा? टेक चातक का स्वरूप है और विवेक हंस का, उसी प्रकार त्याग श्रीभरत का स्वरूप है। अत: इनकी स्वभावत: प्रशंसा होती ही है और होगी ही। यदि टेक और विवेक के कारण चातक और हंस जैसे पक्षियों की सराहना हो सकती है, तो क्या स्वयं भगवत्‌ प्रेममूर्ति श्रीभरत की सराहना नहीं होनी चाहिये?

**देह दिनहुँ दिन दूबरि होई। घटन तेज बल मुख छबि सोई॥ नित नव राम प्रेम पन पीना। ब़ढत धरम दल मन न मलीना॥**
भाष्य

दिनो दिन श्रीभरत का शरीर दुर्बल हो रहा है, उनका तेज और बल नहीं घट रहा है, मुख की छवि उसी प्रकार की बनी हुई है। प्रतिज्ञा से दृ़ढ होते हुए श्रीराम प्रेम निरन्तर नया होता जा रहा है। उनके धर्म का दल ब़ढ रहा है अर्थात्‌ श्रीभरत के धार्मिक विचारों में वृद्धि हो रही है। उनका मन उदास नहीं हो रहा है।

**जिमि जल निघटत शरद प्रकासे। बिलसत बेतस बनज बिकासे॥ शम दम संजम नियम उपासा। नखत भरत हिय बिमल अकासा॥**
भाष्य

जिस प्रकार शरदऋतु के प्रकाश में जल घटता है, बेंत वृक्ष सुशोभित होते हैं और कमल विकसित हो जाते हैं, उसी प्रकार भरत जी के शरीर का मेद्दांश घट रहा है और तेज, बलरूप बेतस वृक्ष सुशोभित हो रहा है तथा मुख, कमल के समान विकसित हो रहा है। भरत जी के हृदयरूप निर्मल आकाश में शम, दम, संयम, नियम और उपवास, नक्षत्र मण्डल के समान चमक रहे हैं।

**ध्रुव बिश्वास अवधि राका सी। स्वामि सुरति सुरबीथि बिकासी॥ राम प्रेम बिधु अचल अदोषा। सहित समाज सोह नित चोखा॥**
भाष्य

प्रभु श्रीराम के प्रति भरत जी का विश्वास ही ध्रुवतारा है। चौदह वर्ष की अवधि राका अर्थात्‌ शारदीय पूर्णिमा के समान है। स्वामी श्रीराम की स्मृति सुरवीथि अर्थात्‌ देवताओं का नक्षत्र मार्ग आकाशगंगा के समान सुशोभित हो रही है। श्रीराम जी का निष्कलंक, निर्दोष प्रेम ही शरद्‌पूर्णिमा का कलंक रहित निर्दोष चन्द्रमा है, जो श्रीभरत के हृदयरूप शरद्‌कालीन निर्मल आकाश में निरन्तर नक्षत्र–समाज के सहित सुन्दर रूप में सुशोभित हो रहा है।

**भरत रहनि समुझनि करतूती। भगति बिरति गुन बिमल बिभूती॥ बरनत सकल सुकबि सकुचाहीं। शेष गणेश गिरा गम नाहीं॥**

[[५६५]]

भाष्य

श्रीभरत की रहन (रहने की पद्धति), उनकी समझन (श्रीरामविषयक ज्ञान), उनकी भक्ति, उनका वैराग्य, उनके गुणों की निर्मल सम्पत्ति इन सबका वर्णन करते हुए सभी श्रेष्ठकवि संकुचित हो रहे हैं। वहाँ शेष जी, गणेश जी एवं सरस्वती जी का भी प्रवेश नहीं है।

**दो०- नित पूजत प्रभु पाँवरी, प्रीति न हृदय समाति।**

माँगि माँगि आयसु करत, राज काज बहु भाँति॥३२५॥

भाष्य

श्रीभरत निरन्तर प्रभु श्रीराम की चरणपादुका जी का पूजन करते हैं। उनके हृदय में भगवान्‌ की प्रीति नहीं समाती। वे पादुका जी से आदेश माँग–माँगकर अनेक प्रकार से राजकीय कार्य करते हैं।

**पुलक गात हिय सिय रघुबीरू। जीह नाम जप लोचन नीरू॥ लखन राम सिय कानन बसही। भरत भवन बसि तप तनु कसहीं॥ दोउ दिशि समुझि कहत सब लोगू। सब बिधि भरत सराहन जोगू॥ सुनि ब्रत नेम साधु सकुचाहीं। देखि दशा मुनिराज लजाहीं॥**
भाष्य

श्रीभरत के अंग पुलकित हैं, श्रीभरत के हृदय में श्रीसीताराम जी विराज रहे हैं। श्रीभरत जीभ से श्रीसीताराम जी का श्रीरामनाम जप रहे हैं। उनके नेत्रों में प्रेम का जल है। श्रीलक्ष्मण, श्रीराम एवं भगवती श्रीसीता वन में निवास करते हैं, परन्तु श्रीभरत भवन मेें निवास करके भी शरीर को तप से कसते हैं। दोनों दिशाओं अर्थात्‌ श्रीभरत एवं श्रीराम के पक्षों को समझकर सभी लोग कहते हैं कि, श्रीभरत सब प्रकार से प्रशंसा करने योग्य हैं। उनके व्रत और नियम सुनकर साधु अर्थात्‌ साधक लोग सकुचा जाते हैं। श्रीभरत की दशा देखकर श्रेष्ठ मुनि लज्जित हो जाते हैं।

**विशेष– **इसके विशेष विवेचन के लिए मेरे द्वारा लिखित **“भरत महिमा” **नामक पुस्तक को अवश्य देखिये।

परम पुनीत भरत आचरनू। मधुर मंजु मुद मंगल करनू॥ हरन कठिन कलि कलुष कलेशू। महामोह निशि दलन दिनेशू॥ पाप पुंज कुंजर मृगराजू। शमन सकल संताप समाजू॥ जन रंजन भंजन भव भारू। राम सनेह सुधाकर सारू॥

भाष्य

श्रीभरत का परमपवित्र आचरण बड़ा ही मधुर, सुन्दर और प्रसन्नताओं और मंगलों को उत्पन्न करने वाला है। सम्पूर्ण कलियुग के पाप और क्लेशों को हरनेवाला तथा महामोह रात्रि को नष्ट करने के लिए यह सूर्य के समान है। पाप पुंज रूप हाथियों के लिए श्रीभरत का आचरण सिंह के समान है। यह सम्पूर्ण संताप, अर्थात्‌ दु:खों के समाज को नष्ट कर देता है। श्रीभरत का आचरण भगवान्‌ के भक्तों को प्रसन्न करता है, संसार के भार को नष्ट कर देता है और श्रीभरत का आचरण श्रीराम के स्नेहरूप चन्द्रमा का सारसर्वस्व अमृत है।

**छं०: सिय राम प्रेम पियूष पूरन होत जनम न भरत को।**

मुनि मन अगम जम नियम शम दम बिषम ब्रत आचरत को॥ दुख दाह दारिद दंभ दूषन सुजस मिस अपहरत को। कलिकाल तुलसी से शठनि हठि राम सनमुख करत को॥

भाष्य

श्रीसीताराम जी के प्रेमामृत से पूर्ण श्रीभरत का जन्म यदि नहीं हुआ होता तो मुनियों के मन के लिए अगम, यम, नियम, शम, दम और कठोर व्रतों का आचरण कौन करता और अपने सुन्दर यश के बहाने दु:ख और तीनों प्रकार के ताप, दरिद्रता, दम्भ और दोषों को अपहरण कौन करता? इस कलिकाल में तुलसीदास जैसे शठों को उनके न चाहते हुए भी हठपूर्वक श्रीराम के सम्मुख कौन करता?

[[५६६]]

**विशेष– **अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह ये पाँच यम कहे जाते हैं। तप, संतोष, शौच, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान ये पाँच नियम हैं। मन को असत्य संकल्पों से हटाना शम है, इन्द्रियों को बाहरी विषयों से बलपूर्वक मोड़ना दम है। यहाँ इस अकिंचन दास का भी एक निवेदन है–

आते जो न भरत भद्र भारत वसुंधरा पै, जन जन में राम प्रेम सागर लहराता कौन? कौन सरसाता शुष्क मानस मरुस्थल को, विरति विवेक वरवारि बरसाता कौन? कौन हरसाता कोटि कोटि राम भक्तन को, सीता राम भक्ति भागीरथी भू पे लाता कौन? रामभद्राचार्य जैसे कोटि क्रूर पामरों को, मानस मंदाकिनी में मुदित नहलाता कौन?

सो०- भरत चरित करि नेम, तुलसी जे सादर सुनहिं।

सीय राम पद प्रेम, अवसि होइ भव रस बिरति॥३२६॥

भाष्य

गोस्वामी तुलसीदास जी अयोध्याकाण्ड की फलश्रुति में कहते हैं कि, जो लोग नियम करके आदरपूर्वक श्रीभरत के चरित्र सुनते हैं और सुनेंगे उनके हृदय में श्रीसीताराम जी के चरणों के प्रति प्रेम हो जाता है और हो जायेगा। अवश्य ही उन्हें संसार के आनन्द से वैराग्य हो जाता है और होता रहेगा।

**\* मासपारायण, बीसवाँ विश्राम \***

इति श्रीमद्‌गोस्वामितुलसीदासविरचिते श्रीमद्राचरितमानसे सकलकलिकलुषविध्वंसने विषादशमनं नाम द्वितीयं सोपानं अयोध्याकाण्डं सम्पूर्णम्‌

॥श्रीसीतारामार्पणमस्तु॥

भा०– इस प्रकार सम्पूर्ण कलिकलुष के नाशक श्री गोस्वामी तुलसीदास जी द्वारा विरचित श्रीरामचरितमानस मेें विषादशमन नामक द्वितीय सोपान अयोध्याकाण्ड सम्पन्न हुआ। यह श्री सीताराम जी को समर्पित हो।

श्रीरामभद्राचार्यण कृता भावार्थबोधिनी मानसस्य द्वितीयोऽस्मिन्‌ सोपाने राष्ट्रभाषया।

॥श्री राघव:शन्तनोतु॥ अयोध्याकाण्ड समाप्त

—-

॥श्री सीताराम॥

श्री गणेशाय नम: