०१ बालकाण्ड

श्री सीतारामौ विजयेते श्रीमद्‌गोस्वामितुलसीदासकृत

श्रीरामचरितमानस

श्री:

भावार्थबोधिनी टीका प्रथम सोपान

मङ्गलाचरण —

अयोध्यासौभाग्यं भविकमथभाग्यं भवभृताम्‌ समंचत्‌सौन्दर्यं विगलितकदर्यं कलगिरम्‌ तमालाभं लाभं निचितमिह मूर्तं मनुभुवाम्‌ जनारामं रामं मनसि कलये राघवशिशुम्‌॥१॥
मन्दाकिनीपुण्यतटेविहारी सौमित्रिसीतार्चितपादपद्म:। भग्नत्त्रिकूट: श्रितचित्रकूट: श्रीराघवो मंगलमातनोतु॥२॥

श्रीरामपादाम्बुजचञ्चरीकं समुल्लसन्मानसपुण्डरीकम्‌ । चण्डाट्टहासार्दितकालकालं वन्दामहे वानरवारणेन्द्रम्‌॥३॥
जयति कविकुमुदचन्द्रो हुलसीहर्षवर्द्धनस्तुलसी। सुजनचकोरकदम्बो यत्‌कविताकौमुदीं पिबति॥४॥

सीतारामगुणालवालकलित: श्रीराम नामोन्मिषद्‌
बीजो भक्तिसुवारिवर्धिततनु: काण्डैर्युत: सप्तभि:।

शाखावेदवसून्नत: सदयुतै: पर्णै: खयुग्मग्रहै: श्रीमद्‌रामचरित्रमानसमय: कल्याणकल्पद्रुम:॥५॥
हिन्दीभाषां समाशृत्य मानसस्य पदं प्रति। इहान्वयमुखेनैव भाषे भावार्थबोधिनीम्‌॥६॥

मानसे सुमहाकाव्यपुङ्गवे तुलसीगवे।
टीके टीकां रामभद्राचार्यो भावार्थबोधिनीम्‌॥ ७॥

श्लोक वर्णानामर्थसङ्घानां रसानां छन्दसामपि।
मङ्गलानां च कर्त्तारौ वन्दे वाणीविनायकौ॥१॥

[[२]]

भाष्य

महाकवि गोस्वामी श्रीतुलसीदास जी अपनी कालजयी रचना श्रीरामचरितमानस महाकाव्य की निर्विघ्न समाप्ति के लिए श्रुतिसम्मत एवं शियें द्वारा अनुमोदित ग्रन्थ की मङ्गलाचरण परम्परा का पालन करते हुए श्री मानस जी के बालकाण्ड के प्रथम श्लोक का मङ्गलाचरण करते हैं– “मैं (गोस्वामी तुलसीदास) वर्णों, अर्थसमूहों, रसों, छन्दों तथा नमस्कारात्मक, वस्तुनिर्देशात्मक, आशीर्वादात्मक मंगलों को करनेवाली भगवती सरस्वती तथा वर्णों (ब्राह्मणादि चारों वर्णों), अर्थों अर्थात्‌ सभी प्रकार के प्रयोजनों, रसों अर्थात्‌ आनन्दों तथा जीवन के समस्त छन्दों, गीतों आदि मंगलों अर्थात्‌ सभी प्रकार के मांगलिक कार्यों के सम्पादक श्रीगणपति तथा इसी प्रकार की योग्यताओं से सम्पन्न वाणी (भगवती श्री सीता जी), विनायक अर्थात्‌ विशिष्ट नायक (धीरोदात्त नायक) भगवान्‌ श्रीराम जी को तथा वाणी के विशेष नियन्ता श्रीराम नाम के दोनों अक्षर ‘रेफ’ और ‘मकार’ को वन्दन करता हूँ।

**भवानीशङ्करौ वन्दे श्रद्धाविश्वासरूपिणौ। याभ्यां विना न पश्यन्ति सिद्धा: स्वान्त:स्थमीश्वरम्‌॥२॥**
भाष्य

मैं (तुलसीदास) श्रद्धा और विश्वास रूप तथा इन दोनों को बोधित करनेवाले श्रीपार्वती जी एवं भगवान्‌ श्रीशिव जी को वन्दन करता हूँ, जिनके बिना सिद्धजन अपने अन्त:करण में विराजमान परमात्मा श्रीराम जी को नहीं देखते अर्थात्‌ श्रद्धा–विश्वासरूप श्रीपार्वती जी एवं श्रीशिव जी की कृपा के बिना प्रभु श्रीराम जी का साक्षात्कार नहीं कर पाते।

**वन्दे बोधमयं नित्यं गुरुं शङ्कररूपिणम्‌। यमाश्रितो हि वक्रोऽपि चन्द्र: सर्वत्र वन्द्दते॥३॥**
भाष्य

मैं ज्ञान के आश्रय और ज्ञानरूप अविनाशी शिवस्वरूप गुरुदेव की नित्य वन्दना करता हूँ, जिनके आश्रित होकर टे़ढा चन्द्रमा (द्वितीया का) भी सर्वत्र वन्दित और सम्मानित होता है अर्थात्‌ जैसे श्रीशिव जी के आश्रय होकर शुक्ल द्वितीया का टे़ढा चन्द्रमा सर्वत्र सम्मानित होता है, उसी प्रकार गुव्र्देव की कृपा प्राप्तकर सभी गुणों से हीन कुटिल शिष्य भी सर्वत्र सम्मान पाता है।

**सीतारामगुणग्रामपुण्यारण्यविहारिणौ ।** **वन्दे विशुद्धविज्ञानौ कवीश्वरकपीश्वरौ॥४॥**
भाष्य

श्रीसीताराम जी के गुण-समूहरूप पवित्र वन में सहज रूप से विहार करनेवाले श्रुतिसम्मत पवित्र विज्ञान से सम्पन्न कवियों के ईश्वर महर्षि वाल्मीकि तथा कपियों अर्थात्‌ वानरों के ईश्वर श्रीहनुमान्‌ जी को मैं वन्दन करता हूँ।

**उद्भवस्थितिसंहारकारिणीं क्लेशहारिणीम्‌। सर्वश्रेयस्करीं सीतां नतोऽहं रामवल्लभाम्‌॥५॥**
भाष्य

ब्रह्मा जी, विष्णु जी एवं शिव जी को निमित्त बनाकर जगत्‌ की उत्पत्ति, स्थिति (पालन) तथा संहार कराने वाली, भगवान्‌ श्रीराम जी द्वारा शरणागतों के जन्मक्लेश हरण करानेवाली, स्वयं सभी का श्रेयोविधान

अर्थात्‌ कल्याण करनेवाली भगवान्‌ श्रीराम की प्रियतमा धर्मपत्नी श्रीसीता जी को मैं प्रणत हो रहा हूँ।

यन्मायावशवर्त्ति विश्वमखिलं ब्रह्मादिदेवासुरा यसत्त्वादमृषैव भाति सकलं रज्जौ यथाऽहेर्भ्रम:। यत्पाद: प्लव एक एव हि भवाम्भोधेस्तितीर्षावतां
वन्देऽहं तमशेषकारणपरं रामख्यमीशं हरिम्‌॥६॥

[[३]]

भाष्य

सम्पूर्ण चराचर जगत्‌ तथा ब्रह्मा जी आदि देवता और असुर जिन परमेश्वर की माया के वश में होकर वर्त्तन करते हैं। रस्सी में सर्प के भ्रम की भाँति यह सत्य जगत भी जिनकी सत्ता से ही प्रकाशित होता हुआ प्रतीति में आता है, संसार–सागर से पार होने के इच्छुक साधक जनों के लिए जिनका श्रीचरण एकमात्र जहाज है, उन्हीं सम्पूर्ण कारणों से परे तथा उत्पत्ति, पालन, प्रलय के निमित्तकारण ब्रह्मा, विष्णु तथा शङ्कर से भी श्रेष्ठ, अभिधावृत्ति से श्रीराम नाम से प्रसिद्ध, सर्वपापहारी, श्रीहरि, परम प्रभु भगवान्‌ श्रीराम को मैं वन्दन करता हूँ।

**नानापुराणनिगमागमसम्मतं यद्रामायणे निगदितं क्वचिदन्यतोऽपि।** **स्वान्त:सुखाय तुलसी रघुनाथगाथा भाषानिबन्धमतिमञ्जुलमातनोति ॥७॥**
भाष्य

जिस रामायण में भगवान्‌ शिव के द्वारा नाना पुराणों, वेदों, उपवेदों तथा तन्त्रों एवं स्मृतियों से सम्मत और कहीं अन्यत: अर्थात्‌ काव्यों, नाटकों एवं अन्यान्य आर्षसंहिताओं से सम्मत श्रीरामचरित कहा गया है, उसी मधुर शिव जी द्वारा रचित मानसरामायण को अपने ‘स्व’ अर्थात्‌ आत्मा, आत्मीयजन, समस्त मानव जाति तथा अपने जीवनधन भगवान्‌ श्रीराम जी के अन्त:करण के सुख के लिए कवि तुलसीदास (मुझ से अभिन्न) श्रीरघुनाथ जी की गाथा की भाषा अर्थात्‌ अवधी भाषा में निबद्ध करके आदरपूर्वक विस्तृत करता है।

**सो०- जेहिं सुमिरत सिधि होइ, गननायक करिवर बदन।** **करउ अनुग्रह सोइ, बुद्धिराशि शुभगुन सदन॥१॥**
भाष्य

जिनको स्मरण करने मात्र से सभी कार्यों की सिद्धि हो जाती है, वे ही बुद्धि के राशि, कल्याणकारी गुणों के धाम, श्रेष्ठ हाथी के मुखवाले, शिव जी के गणों के नायक अर्थात्‌ श्रीगणपति गणेश जी अनुग्रह अर्थात्‌ कृपा करें, जिससे मैं निर्विघ्न श्रीरामचरितमानस रच सकूँ।

**सो०- मूक होइ बाचाल, पंगु च़ढइ गिरिवर गहन।** **जासु कृपा सो दयाल, द्रवउ सकल कलिमल दहन॥२॥**

भा०- जिनकी कृपा से मूक अर्थात्‌ गूँगा वाचाल अर्थात्‌ सुन्दर वाणी से अलंकृत हो जाता है और पंगु ऊँंचे कठिन पर्वत पर च़ढ जाता है, वे ही सम्पूर्ण कलियुग के मलों अर्थात्‌ दोषों को भस्म कर देनेवाले दयालु भगवान्‌ सूर्यनारायण मुझ पर द्रवित हो जायें, जिससे मैं भी दिव्यवाणी से सम्पन्न होकर श्रीरघुनाथ जी के गुण गा सकूंँ और मेरी पंगुबुद्धि भी वेदपुराणरूप कठिन पर्वतों पर स्वयं च़ढकर उनमें छिपी हुई श्रीरामकथा की खानों का पता लगाकर श्रीरामभक्तिमणि को ढूँ़ढ सके।

सो०- नील सरोरुह श्याम, तरुन अरुन बारिज नयन।
करउ सो मम उर धाम, सदा छीरसागर शयन॥३॥

भाष्य

जो नीले कमल के समान श्यामवर्ण हैं, जिनके नेत्र नवीन कमल के समान लाल हैं, जो निरन्तर क्षीरसागर में शयन करते हैं, वे ही वैकुण्ठ, श्वेतद्वीप और क्षीरसागर में विराजनेवाले भगवान्‌ विष्णु मुझ तुलसीदास के हृदय को धाम अर्थात्‌ श्रीसीताराम जी का निवासस्थान मंदिर बना दें, जिससे मैं अपने हृदय के मंदिर में प्रभु श्रीसीताराम जी को विराजमान करा सकूँ।

**सो०- कुन्द इन्दु सम देह, उमा रमन करुना अयन।** **जाहि दीन पर नेह, करउ कृपा मर्दनमयन॥४॥**

[[४]]

भाष्य

जिनका शरीर कुन्द–पुष्प तथा चन्द्रमा के समान सुगन्धपूर्ण और गौर है, जो पार्वती जी के रमण (पति) तथा कव्र्णा के गृहस्वरूप हैं, जिन्हें दीनजनों पर स्नेह है, वे कामदेव को नय् करनेवाले अर्द्धनारीनटेश्वर भगवान्‌ शिव मानस–रचना के लिए कृतसंकल्प मुझ तुलसीदास पर कृपा करें ।

**सो०- बंदउँं गुरुपद कंज, कृपासिन्धु नररूपहरि।** **महामोह तम पुंज, जासु बचन रबिकर निकर॥५॥**
भाष्य

मैं उन्हीं श्रीगुरुदेव के श्रीचरणकमलों की वन्दना करता हूँ, जो कृपा के सागर तथा मनुष्य के रूप में वर्तमान स्वयं भगवान्‌ राम और सूर्य के समान हैं तथा महामोहरूप अंधकार-पुंज को नष्ट करने के लिए जिनके वचन ही सूर्यकिरणों के समूह हैं।

**बंदउँ गुरु पद पदुम परागा। सुरुचि सुबास सरस अनुरागा॥ अमिय मूरिमय चूरन चारू। शमन सकल भवरुज परिवारू॥**
भाष्य

मैं श्रीगुरुदेव के श्रीचरणकमल की धूलरूप पराग का वन्दन करता हूँ, जो सुन्दर रुचिरूप सुगन्ध तथा अनुपम अनुरागरूप मकरंद से पूर्ण है। वह अमृत की मूलिका (संजीवनी बूटी) से युक्त ऐसा सुन्दर चूर्ण है, जो सभी सांसारिक रोगों के परिवार का नाशक है ।

**सुकृति शंभु तन बिमल बिभूती। मंजुल मंगल मोद प्रसूती॥ जन मन मंजु मुकुर मल हरनी। किये तिलक गुनगन बस करनी॥**
भाष्य

श्रीगुरुदेव की जो चरणधूलि सत्कर्मरूप श्रीशङ्कर के शरीर की निर्मल विभूति है, जो मधुर मंगलों और प्रसन्नताओं को जन्म देनेवाली है, जो सेवकों के सुन्दर मनरूप दर्पण के विषयरूप मल को हरनेवाली है, जो तिलक करने मात्र से सद्‌गुण–समूहों को साधक के वश में कर देती है, उसी गुरुचरण-धूलि का मैं वन्दन करता हूँ।

**श्रीगुरुपद नख मनिगन जोती। सुमिरत दिब्य दृष्टि हिय होती॥ दलन मोह तम सो सुप्रकासू। बड़े भाग उर आवइ जासू॥**
भाष्य

मैं श्रीगुरुदेव के श्रीचरण के नखरूप मणिगणों की ज्योति का स्मरण करता हूँ, जिसके स्मरणमात्र से हृदय में दिव्यदृष्टि उत्पन्न हो जाती है, जिसका सुन्दर प्रकाश मोहरूप अंधकार को नष्ट कर देता है और अशु अर्थात्‌ प्राणों को प्रकाशित कर देता है। जिसके हृदय में गुरुदेव के श्रीचरणों की नखमणि–ज्योति आ जाती है उसके भाग्य बड़े हो जाते हैं अर्थात्‌ वह सौभाग्यशाली बन जाता है।

**उघरहिं बिमल बिलोचन ही के। मिटहिं दोष दुख भवरजनी के॥**
भाष्य

उस साधक के हृदय के (ज्ञान, वैराग्यरूप) निर्मल नेत्र खुल जाते हैं और संसार-रात्रि के दोष (अन्धकार) और दु:ख मिट जाते हैं।

**सूझहिं रामचरित मनिमानिक। गुपुत प्रगट जहँ जो जेहि खानिक॥** **दो०- जथा सुअंजन अंजि दृग, साधक सिद्ध सुजान।**

कौतुक देखहिं शैल बन, भूतल भूरि निधान॥१॥

भाष्य

जहाँ भी जिस खान में गुप्त और प्रकट श्रीरामचरित्ररूप मणि और माणिक्य विद्दमान हैं, वे सब उस साधक के ज्ञान और वैराग्यरूप हृदय के नेत्रों से सूझ जाते हैं अर्थात्‌ स्वयं दृष्टिगोचर हो जाते हैं। जैसे चतुर

[[५]]

साधक और सिद्धजन नेत्र में सुअंजन अर्थात्‌ सिद्धांजन लगाकर खेल–खेल में ही पर्वतों, वनों तथा पृथ्वीतल के नीचे छिपे हुए निधान अर्थात्‌ सोना, चाँदी, मणियों तथा मुद्राओं के खजाने को देख लेते हैं।

गुरु पद रज मृदु मंजुल अंजन। नयन अमिय दृग दोष बिभंजन॥

भाष्य

वही श्रीगुरुदेव की कोमल माधुर्य तथा सौन्दर्य से युक्त श्रीचरणधूलि नेत्र के दोषों को नष्ट करनेवाली ज्ञान–वैराग्यरूप आँंखों का अमृतांजन है ।

**तेहिं करि बिमल बिबेक बिलोचन। बरनउंँ रामचरित भव मोचन॥**
भाष्य

उसी श्रीगुरुचरणधूलि अमृतांजन के द्वारा विवेकनेत्र को निर्मल बनाकर मैं (तुलसीदास) भवबन्धन से छुड़ानेवाले श्रीरामचरित्र का वर्णन करता हूँ।

**बंदउँ प्रथम महीसुर चरना। मोह जनित संशय सब हरना॥**
भाष्य

सर्वप्रथम, मोह से उत्पन्न सभी संशयों को हरण करनेवाले पृथ्वी के देवता सात्विक ब्राह्मणों के चरणों का मैं वंदन करता हूँ ।

**सुजन समाज सकल गुन खानी। करउँ प्रनाम सप्रेम सुबानी॥**
भाष्य

मैं समस्त सद्‌गुणों की खानि सुजन अर्थात्‌ सन्तसमाज को प्रेमपूर्वक सुन्दर वाणी में प्रणाम करता हूँ।

**साधु चरित शुभ सरिस कपासू। निरस बिशद गुनमय फल जासू॥**
भाष्य

साधुओं का शुभचरित्र कपास के समान है, जिसका फल नीरस होने पर भी स्वच्छ एवं गुणों से युक्त है अर्थात्‌ जैसे कपास का फल नीरस होने पर भी श्वेत होता है और उसकी रूई से सुन्दर वस्त्र बन जाते हैं, उसी प्रकार सन्तों का जीवनचरित्र, विषय–आसक्ति से दूर रहकर भी समस्त संसार का आदर्श बन जाता है ।

**जो सहि दुख परछिद्र दुरावा। बंदनीय जेहिं जग जस पावा॥**
भाष्य

जो कष्ट सहकर भी दूसरों के छिद्रों अर्थात्‌ दोषों को ढँकता है, जिसने जगत्‌ में वन्दन करनेयोग्य यश पाया अर्थात्‌ जैसे कपास स्वयं वस्त्र बनकर दूसरों के अदर्शनीय अंगों को ढँकता है, उसी प्रकार सन्तजन भी अनेक यातनायें सहकर दूसरों के दोषों को ढँक देते हैं ।

**मुद मंगलमय संत समाजू। जो जग जंगम तीरथराजू॥**
भाष्य

मैं उसी सन्तसमाज को वन्दन करता हूँ, जो सन्तसमाज प्रसन्नता और मंगलस्वरूप है तथा जो जगत्‌ का चलता–फिरता तीर्थराज प्रयाग है ।

**रामभगति जहँ सुरसरि धारा। सरसइ ब्रह्मबिचार प्रचारा॥ बिधिनिषेधमय कलिमलहरनी। करमकथा रबिनंदिनि बरनी॥ हरिहर कथा बिराजति बेनी। सुनत सकल मुद मंगल बेनी॥ बट बिश्वास अचल निज धरमा। तीरथराज समाज सुकरमा॥**
भाष्य

जिस सन्तसमाज में श्रीराम जी की भक्ति ही गंगा जी की धारा है, जहाँ ब्रह्मविचार अर्थात्‌ वेदान्त का प्रचार ही गुप्तसलिला सरस्वती हैं। (पौराणिक तथ्य के आधार पर सरस्वती श्रीप्रयाग के सरस्वती कूप में रहती हुई भी जल को छिपाये रहती हैं, कभी–कभी किसी साधक को उनके दर्शन हो जाते हैं।) विधि और निषेध से युक्त कही गयी कर्मकथा ही जहाँ कलियुग के मलों को हरनेवाली यमुना जी हैं। (करणीय कर्मों की आज्ञा विधि कहलाती है तथा अकरणीय कर्मों को न करने की आज्ञा निषेध कहलाती है।) श्रीहरि महाविष्णु श्रीराम जी, हर (शङ्कर जी) की कथा ही जहाँ त्रिवेणी के समान विराजती है, जो सुनने मात्र से समस्त प्रसन्नताओं तथा मंगलों

[[६]]

को दे देती है। जहाँ अपने वैदिक अर्थात सनातन धर्म पर दृ़ढ विश्वास ही अक्षयवट है और श्रेष्ठकर्म ही तीर्थराज प्रयाग के समाज अर्थात्‌ परिकर हैं।

सबहिं सुलभ सब दिन सब देशा। सेवत सादर शमन कलेशा॥ अकथ अलौकिक तीरथराऊ। देइ सद्द फल प्रगट प्रभाऊ॥

भाष्य

यह साधु समाजरूप जंगम प्रयाग सभी के लिए सभी दिनों और सब देशों में सुलभ है। यह आदर तथा प्रेमपूर्वक सेवन करने से सभी क्लेशों को नष्ट कर डालता है। यह सन्त समाजरूप तीर्थराज प्रयाग अकथनीय और अलौकिक है। यह शीघ्र ही फल दे देता है और इसका प्रभाव प्रकट अर्थात्‌ प्रत्यक्ष है।

**दो०- सुनि समुझहिं जन मुदितमन, मज्जहिं अति अनुराग। लहहिं चारि फल अछत तनु, साधु समाज प्रयाग॥२॥**
भाष्य

जो सज्जन इस साधु समाजरूप प्रयाग को सुनकर समझते हैं और अतिप्रेम से इसमें आशीर्षस्नान करते हैं वे अपने शरीर के रहते हुए ही अर्थ, धर्म, काम तथा मोक्ष इन चारों फलों को प्राप्त कर लेते हैं। अथवा, जो सज्जन इसे सुनकर समझते हैं वे ही प्रसन्न मन से प्रेमपूर्वक इसमें मज्जन करते हैं (सन्त समाजरूप प्रयाग का श्रवण और मनन ही इसमें गोते लगाना है) और उन्हें इसी जीवन में चारों पुरुषार्थों का फलरूप प्रेम लक्षणा भक्ति प्राप्त हो जाती है।

**मज्जन फल पेखिय ततकाला। काक होहिं पिक बकउ मराला॥**
भाष्य

सन्त समाजरूप प्रयाग में मज्जन का फल तत्काल दिखायी पड़ जाता है इसमें मज्जन करने से कौवा कोयल और बगुला हंस बन जाता है।

**सुनि आचरज करै जनि कोई। सतसंगति महिमा नहिं गोई॥**
भाष्य

इसे सुनकर कोई आश्चर्य नहीं करे क्योंकि सत्संगति की महिमा किसी से छिपी नहीं है । बालमीकि नारद घटजोनी। निज निज मुखनि कही निज होनी॥

भाष्य

महर्षि वाल्मीकि, देवर्षि नारद और ब्रह्मर्षि अगत्स्य जी ने अपनी–अपनी उत्पत्ति अपने–अपने मुख से कही है।

**जलचर थलचर नभचर नाना । जे ज़ड चेतन जीव जहाना॥ मति कीरति गति भूति भलाई। जब जेहिं जतन जहाँ जेहिं पाई॥ सो जानब सतसंग प्रभाऊ। लोकहुँ बेद न आन उपाऊ॥**
भाष्य

जलचर अर्थात्‌ जल में रहनेवाले जीव, थलचर अर्थात्‌ पृथ्वी पर रहनेवाले पशु, मनुष्य आदि और नभचर अर्थात्‌ आकाश में उड़नेवाले पक्षी आदि इस संसार में जो भी ज़ड–चेतन जीव हैं, उनमें जिस समय जिसने जिस स्थान पर बुद्धि, कीर्ति, गति, सम्पत्ति और भलाई अर्थात्‌ शिष्टता प्राप्त की है, वह सब सत्संग का प्रभाव ही समझिये। लोक और वेद में इसके अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं है।

**बिनु सतसंग बिबेक न होई। रामकृपा बिनु सुलभ न सोई॥** **सतसंगति मुद मंगलमूला। सोइ फल सिधि सब साधन फूला॥**

शठ सुधरहिं सतसंगति पाई। पारस परसि कुधातु सुहाई॥
बिधि बस सुजन कुसंगति परहीं। फनिमनि सम निज गुन अनुसरहीं॥

[[७]]

भाष्य

बिना सत्संग के विवेक नहीं होता और भगवान्‌ श्रीराम की कृपा के बिना वह सत्संग सुलभ नहीं हो पाता। सन्त की संगति प्रसन्नता और मंगल की मूल है, उसकी सिद्धि अर्थात्‌ प्राप्ति फल है और सभी साधन पुष्प हैं। शठ भी सत्संगति पाकर सुधर जाते हैं, क्योंकि पारस यानी स्पार्श मणि का स्पर्श करके कुधातु अर्थात्‌ लोहा भी सुहावनी धातु अर्थात्‌ सोना बन जाता है। संयोगवश सज्जन भी कुसंगति में पड़ जाते हैं, उस समय वे अपने गुणों का उसी प्रकार अनुसरण करते हैं, जैसे सर्प मणि का अनुसरण करता है अर्थात्‌ सन्तों पर कुसंगति का प्रभाव नहीं पड़ता है।

**बिधि हरि हर कबि कोबिद बानी। कहत साधु महिमा सकुचानी॥ सो मो सन कहि जात न कैसे। शाकबनिक मनिगनगुन जैसे॥**
भाष्य

ब्रह्मा जी, विष्णु जी, शिव जी, कवि, वेदज्ञजन और सरस्वती जी अथवा इन सबकी वाणी सन्तजन की जिस महिमा को कहने में संकोच अनुभव करती है, वह मुझसे (तुलसीदास से) उसी प्रकार नहीं कही जा सकती है, जैसे सब्जी बेचनेवाले व्यापारी के द्वारा मणियों के गुण नहीं कहे जा सकते।

**दो०- बंदउँ संत समान चित, हित अनहित नहीं कोउ।** **अंजलिगत शुभ सुमन जिमि, सम सुगंध कर दोउ॥३\(क\)॥**
भाष्य

जिंस प्रकार अञ्जली में रखा हुआ सुगन्धित पुष्प अपने तोड़नेवाले तथा अपने रखनेवाले इन दोनों हाथों को समान मात्रा में सुगन्धित करता है, उसी प्रकार जिनका कोई भी हितैषी तथा शत्रु नहीं है ऐसे समानचित्तवाले सन्तजन का मैं वन्दन करता हूँ।

**दो०- संत सरलचित जगत हित, जानि स्वभाव सनेहु।** **बालबिनय सुनि करि कृपा, रामचरन रति देहु॥३\(ख\)॥**
भाष्य

हे सन्तजन! आप सरल चित्तवाले एवं जगत्‌ के हितैषी हैं, अत: आप मेरा सुन्दर भाव और स्नेह जानकर मुझ बालक की विनती सुनकर और कृपा करके मुझे प्रभु श्रीराम जी के श्रीचरणों की भक्ति दीजिये।

**बहुरि बंदि खलगन सतिभाएँ। जे बिनु काज दाहिनेहु बाएँ।**
भाष्य

अब सत्यभाव से दुष्टगणों की वन्दना की जाती है, जो बिना प्रयोजन के ही दाहिने अर्थात्‌ अनुकूल लोगों के प्रति भी बायें अर्थात्‌ प्रतिकूल रहते हैं ।

**परहित हानि लाभ जिन केरे। उजरे हरष बिषाद बसेरे॥**
भाष्य

दूसरों के हित की हानि ही जिनके लिए लाभ है, दूसरों को उज़डने में जिनको हर्ष होता है और दूसरों को बसने में जिन्हें विषाद हो जाता है अर्थात्‌ जो दु:खी हो जाते हैं।

**हरिहरजस राकेश राहु से। पर अकाज भट सहसबाहु से॥**
भाष्य

जो विष्णु जी एवं शिव जी के यशरूप पूर्णमासी के चन्द्र के लिए राहु के समान हैं अर्थात्‌ जैसे पूर्णचन्द्र का राहु ग्रसन करता है, उसी प्रकार खलगण भगवान्‌ विष्णु जी और शङ्कर जी के सुयश को भी ग्रसने का प्रयास करते हैं, जो दूसरों के अकाज अर्थात्‌ कार्य को नष्ट करने के लिए सहस्रबाहु के समान वीर बन जाते हैं यानी हजारों हाथों से दूसरे के कार्य को नष्ट करने में तत्पर होते हैं।

**जे परदोष लखहिं सहसाखी। परहित घृत जिन के मन माखी॥ तेज कृशानु रोष महिषेशा। अघ अवगुन धन धनिक धनेशा॥** [[८]]
भाष्य

जो दूसरों के दोषों को हजारों आँखों से देखते हैं, जिनके मन दूसरों के भलाईरूप घी के लिए मक्खी के समान हो जाते हैं अर्थात्‌ जैसे मक्खी घी में पड़ कर स्वयं नष्ट होकर भी उसे दूषित करती है, उसी प्रकार दुष्टजन दूसरे के कल्याणों को स्वयं नष्ट होकर भी नष्ट करने का प्रयास करते हैं। जो तेज में अग्नि के समान अर्थात्‌ दूसरे को जलाने के लिए अग्नि के समान होते हैं और जो क्रोध में महिषासुर अथवा यमराज के समान हैं, जो पाप और अवगुण रूप धन के कुबेर के समान धनी होते हैं अर्थात्‌ जैसे कुबेर सम्पूर्ण धन के धनाध्यक्ष हैं, उसी प्रकार खलगण पाप और अवगुणरूप धन के संरक्षक और अध्यक्ष होते हैं।

**उदय केतु सम हित सबही के। कुंभकरन सम सोवत नीके॥**
भाष्य

दुष्टजन का अभ्युदय केतु अर्थात्‌ पुच्छल तारा और नौवें ग्रह केतु के समान सभी के लिए अशुभ होता है। अत: ये कुम्भकर्ण के समान सोते हुए ही अच्छे लगते हैं अर्थात्‌ दुय् सक्रिय होकर संसार में पुच्छल तारे की भूमिका निभाते हैं, अत: इनकी निष्क्रियता ही भली है।

**पर अकाज लगि तनु परिहरहीं। जिमि हिम उपल कृषी दलि गरहीं॥**
भाष्य

जो दुष्टजन दूसरों की हानि के लिए उसी प्रकार अपना शरीर भी छोड़ देते हैं, जैसे बर्फ और ओले सुन्दर फसल को नष्ट करके स्वयं भी गलकर नष्ट हो जाते हैं ।

**बंदउँ खल जस शेष सरोषा। सहसबदन बरनइ पर दोषा॥**
भाष्य

मैं दुष्टजनों का शेषनारायण के समान वन्दन करता हूँ, जो दूसरे के दोषों का एक हजार मुखों से क्रोधपूर्वक वर्णन करते हैं अर्थात्‌ जैसे शेष, भगवान्‌ के गुणगणों को एक हजार मुखों से कहते हैं, उसी प्रकार खल दूसरों के दोषों को सहस्रमुख से कहते हैं ।

**पुनि प्रनवउँ पृथुराज समाना। पर अघ सुनइ सहस दश काना॥**
भाष्य

फिर मैं खल को उन महाराज पृथु के समान प्रणाम करता हूँ, जिन्होंने भगवत्‌कथा श्रवण करने के लिए दस हजार कान माँगे थे, क्योंकि खल भी दूसरों के पापों को दस हजार कानों से सुनते हैं।

**बहुरि शक्र सम बिनवउँ तेही। संतत सुरानीक हित जेही॥ बचन बज्र जेहि सदा पियारा। सहस नयन पर दोष निहारा॥**
भाष्य

मैं दुष्टों को इन्द्र के समान समझकर उनसे विनती करता हूँ, जिसे निरन्तर सुरानीक हित है अर्थात्‌ सुरा यानी मदिरा नीक अर्थात्‌ भली प्रकार से प्रिय है। इधर इन्द्र को सुरानीक देवताओं की अनीक अर्थात्‌ सेना हित अर्थात्‌ सदैव प्रिय है। (यहाँ श्लेष अलंकार का प्रयोग है)। जिसे वचनवज्र अर्थात्‌ वज्र के समान कठोर वचन निरन्तर प्रिय होता है और जो इन्द्र के समान दूसरों के दोषों को एक हजार नेत्रों से निहारता है ।

**दो०- उदासीन अरि मीत हित, सुनत जरहिं खल रीति।** **जानि पानिजुग जोरि जन, बिनती करइ सप्रीति॥४॥**
भाष्य

खल अर्थात्‌ दुष्ट प्रवृत्ति के व्यक्ति, उदासीन अर्थात्‌ तटस्थ, शत्रु और मित्र किसी का भी हित सुनकर जल–भुन उठते हैं अर्थात्‌ वे किसी की भी भलाई से संतुष्ट नहीं होते। खलों की ऐसी रीति जानकर यह जन अर्थात्‌ तुलसीदास हृदय में श्रीराम के प्रति प्रेम रखते हुए भी दुष्टों से दोनों हाथ जोड़कर विनती करता है, जिससे वे मुझ तुलसीदास के भगवत्‌–भजन में बाधा नहीं डालें।

**मैं अपनी दिशि कीन्ह निहोरा। तिन निज ओर न लाउब भोरा॥ पायस पलियहिं अति अनुरागा। होहिं निरामिष कबहुँ कि कागा॥** [[९]]
भाष्य

मैंने अपनी ओर से निहोरा कर दिया (बारह पंक्तियों में खलों का वन्दन कर लिया), परन्तु वे अर्थात्‌ खलगण अपनी ओर से भोर नहीं लायेंगे अर्थात्‌ असावधानी नहीं बरतेंगे अपने स्वभाववश मेरा अहित करने का प्रयास करेंगे ही। भले ही खीर पिलाकर अतिप्रेम से कौवे का पालन किया जाये तो भी क्या कौवे कभी भी निरामिष हो सकते हैं, अर्थात्‌ मांस खाना छोड़ सकते हैं? अर्थात्‌ नहीं, क्योंकि मांसाहार कौवे की प्रवृत्ति है। इसी प्रकार दूसरोंका अहित करना दुष्टों की प्रकृति है।

**बंदउँ संत असंतन चरना। दुखप्रद उभय बीच कछु बरना॥ बिछुरत एक प्रान हरि लेहीं। मिलत एक दुख दारुन देहीं॥**
भाष्य

मैं सन्तों और असन्तों दोनों के चरणों का वन्दन करता हूँ। ये दोनों ही दु:ख देनेवाले होते हैं, परन्तु दोनों के दु:ख देने में कुछ अन्तर का वर्णन किया गया है। एक (सन्त) बिछुड़ते समय अर्थात्‌ वियोगकाल में प्राण हर लेते हैं, तथा एक (दुष्टजन) मिलते समय ही दारुण दु:ख देते हैं, अर्थात्‌ सन्तों का वियोग दुखद होता है और असन्तों (दुष्टजनों) का संयोग।

**उपजहिं एक संग जग माहीं। जलज जोंक जिमि गुन बिलगाहीं॥ सुधा सुरा सम साधु असाधू। जनक एक जग जलधि अगाधू॥**
भाष्य

दोनों सन्त और असन्त कमल और जोंक के समान एक ही साथ संसार में उत्पन्न होते हैं, परन्तु इनके गुण इन्हें अलग कर देते हैं। अथवा, ये अपने गुणांें से अलग हो जाते हैं अर्थात्‌ सन्त कमल के अनुसार दर्शन और स्पर्श से सुख देते हैं और असन्त जोंक की भाँति स्पर्शमात्र से लोगों का खून पी लेते हैं। साधु और असाधु, सुधा अर्थात्‌ अमृत तथा सुरा अर्थात्‌ मदिरा के समान होते हैं। इन दोनों का संसाररूप अगाध सागर ही एक पिता है अर्थात्‌ जैसे एक ही क्षीरसागर से जन्म लेकर भी अमृत और मदिरा में विषमता दिखती है, उसी प्रकार एक ही संसार से उत्पन्न होकर भी सन्त और असन्त अपने गुणों से स्पष्टतया भिन्न दिख जाते हैं।

**भल अनभल निज निज करतूती। लहत सुजस अपलोक बिभूती॥**
भाष्य

भले और बुरे व्यक्ति अपने–अपने कर्म के अनुसार संसार में सुयश और अपयश की संपत्ति प्राप्त कर लेते हैं अर्थात्‌ भले प्राणी को उसके कर्म के अनुसार सुयश मिल जाता है और बुरे व्यक्ति को उसके कर्म के फलस्वरूप अपयश प्राप्त हो जाता है।

**सुधा सुधाकर सुरसरि साधू। गरल अनल कलिमल सरि ब्याधू॥ गुन अवगुन जानत सब कोई। जो जेहि भाव नीक तेहि सोई॥**
भाष्य

अमृत, चन्द्रमा, गंगा जी तथा सन्त इनके विकल्प में विष, अग्नि, कलियुग के पापों की नदी कर्मनाशा और व्याध अर्थात्‌ बहेलिया इन दोनों वर्गों के गुणों और अवगुणों को सभी लोग जानते हैं, पर जिसे जो भाता है उसके लिए वही अच्छा है, जैसे कुछ लोग अमृत आदि के पक्षधर बन जाते हैं और कुछ लोग विष आदि के प्रशंसक होते हैं।

**दो०- भलो भलाई पै लहइ, लहइ निचाई नीच।** **सुधा सराहिय अमरता, गरल सराहिय मीच॥५॥**
भाष्य

फिर भी भला प्राणी भलाई ही प्राप्त करता है तथा निम्न श्रेणी का व्यक्ति नीचता को ही प्राप्त करता है। अमृत की अमरता के कारण प्रशंसा की जाती है और विष की मृत्यु के पक्ष से प्रशंसा होती है अर्थात्‌ सभी के न तो सभी प्रशंसक होते हैं और न ही निन्दक।

[[१०]]

**खल अघ अगुन साधु गुन गाहा। उभय अपार उदधि अवगाहा॥ तेहि ते कछु गुन दोष बखाने। संग्रह त्याग न बिनु पहिचाने॥**
भाष्य

दुष्टों के पापों और अवगुणों की तथा सन्तों के दिव्य गुणों की गाथाओं के दोनों प्रकार दो अपार और अगाध महासागर हैं अर्थात्‌ दुष्टों के पापों और दोषों की कोई सीमा नहीं है और सन्तों के गुणों की भी कोई थाह नहीं है। इनके गुण और दोष इसलिए कहे गये जिससे साधारण लोग भी इनका अन्तर समझ सकें क्योंकि बिना परिचय के स्वीकार या त्याग संभव नहीं हो पाता ।

**भलेउ पोच सब बिधि उपजाए। गनि गुन दोष बेद बिलगाए॥ कहहिं बेद इतिहास पुराना। बिधि प्रपंच गुन अवगुन साना॥**
भाष्य

यद्दपि भले और बुरे इन दोनों वर्गों के प्राणियों को उन्हीं के कर्मों के अनुसार ब्रह्मा जी ने उत्पन्न किया है, फिर भी वेदों ने गुणों और दोषों की गणना करके इन्हें पृथक्‌–पृथक्‌ कर दिया है, जिससे भले–बुरे की पहचान हो सके। चारों वेद, दोनों इतिहास (रामायण और महाभारत) तथा पुराण (१८ पुराण और १८ उप–पुराण) यह सभी कहते हैं कि, ब्रह्मा जी का रचा हुआ प्रपंच गुणों और अवगुणों से सना हुआ है अर्थात्‌ जैसे दाल में चावल मिला दिया जाता है, उसी प्रकार ब्रह्मा जी ने गुणों और दोषों को एक में मिला कर सृष्टि की रचना की है।

**दुख सुख पाप पुन्य दिन राती। साधु असाधु सुजाति कुजाती॥ दानव देव ऊँच अरु नीचू। अमिय सजीवन माहुर मीचू॥ माया ब्रह्म जीव जगदीशा। लच्छि अलच्छि रंक अवनीशा॥ काशी मग सुरसरि क्रमनाशा। मरु मालव महिदेव गवाशा॥ स्वर्ग नरक अनुराग बिरागा। निगम अगम गुन दोष बिभागा॥**
भाष्य

जैसे दु:ख–सुख, पाप–पुण्य, साधु–असाधु, सुन्दर जाति–बुरी जाति, दैत्य–देवता, ऊँचा–नीचा, अमृत– विष, सुन्दर जीवन–मृत्यु, माया–ब्रह्म, जीव–जगदीश्वर अर्थात्‌ परमात्मा, लक्ष्मी–दरिद्रता, दरिद्र–राजा, काशी– मगध, गंगा जी–कर्मनाशा, मरुभूमि–मालव प्रदेश, ब्राह्मण–कसाई, स्वर्ग–नरक, हीनवर्ग का राग, और वैराग्य इस प्रकार गुणों और दोषों का पूर्ण रूप से विभाग करना निगमों अर्थात्‌ वेदोें के लिए भी पूर्णत: अगम अर्थात्‌ कठिन ही है, यह तो लोगों को समझने के लिए वेदों ने कतिपय गुणों और दोषों की चर्चा की है।

**दो०- ज़ड चेतन गुन दोषमय, बिश्व कीन्ह करतार॥** **संत हंस गुन गहहिं पय, परिहरि बारि बिकार॥६॥**
भाष्य

ब्रह्मा जी ने ज़ड चेतनात्मक इस संसार को गुणों और दोषों से मिलाकर बनाया है, इसमें से सन्तरूप हंस दोषरूप जल को छोड़कर गुणरूप दूध को ग्रहण कर लेते हैं, जैसे मिले हुए दूध और जल में से हंस दोनों को अलग कर दूध लेकर जल छोड़ देता है उसी प्रकार गुण–दोषात्मक इस संसार में सन्तजन दोनों की पहचान कर

दोष छोड़कर गुण ग्रहण कर लेते हैं।

अस बिबेक जब देइ बिधाता। तब तजि दोष गुनहिं मन राता॥

भाष्य

यद्दपि विधाता अर्थात्‌ परमात्मा जब किसी को इस प्रकार का विवेक देते हैं तब दोषों को छोड़कर मन गुणों में रम जाता है, परन्तु ऐसा विरले लोगों के साथ होता है।

[[११]]

**काल स्वभाव करम बरियाईं। भलेउ प्रकृति बश चूक भलाईं॥ सो सुधारि हरिजन जिमि लेहीं। दलि दुख दोष बिमल जस देहीं॥ खलउ करहिं भल पाइ सुसंगू। मिटइ न मलिन स्वभाव अभंगू॥**
भाष्य

कभी–कभी भला व्यक्ति भी माया के वश होकर काल, स्वभाव और कर्मों की प्रबलता के कारण भलाई से चूक जाता है, अर्थात्‌ कदाचित्‌ भला व्यक्ति भी बुरा बन जाता है, उसे भगवान्‌ के भक्तजन जिस प्रकार से सुधार लेते हैं उसके दु:ख और दोषों को नष्ट करके निर्मल यश दे देते हैं, उसी प्रकार कभी–कभी भले लोगों को प्राप्त करके खल भी भले लोगों के साथ भलाई कर लेते हैं, परन्तु उनका कभी न नष्ट होने वाला मलिन स्वभाव नहीं नष्ट होता अर्थात्‌ भले लोग ही अच्छी संगति से सुधरते हैं, दुष्ट नहीं।

**लखि सुबेष जग बंचक जेऊ। बेष प्रताप पूजियहिं तेऊ॥ उघरहिं अन्त न होइ निबाहू। कालनेमि जिमि रावन राहू॥**
भाष्य

संसार में जो वंचक अर्थात्‌ ठग लोग भी हैं, वे भी सुन्दर वेष देखकर अर्थात्‌ वेश के प्रताप से लोगों द्वारा पूजे जाते हैं, परन्तु अन्तत: वे उघर जाते हैं अर्थात्‌ उनकी पोल खुल जाती है। वे अन्त में अपनी वास्तविकता में आ जाते हैं, फिर उनका निर्वाह नहीं होता जैसे सुन्दर वेश बनाने पर भी कालनेमि, रावण और राहु के साथ हुआ था।

**किएहुँ कुबेष साधु सनमानू। जिमि जग जामवंत हनुमानू॥**
भाष्य

कुवेश धारण करने पर भी जगत्‌ में साधुओं का सम्मान होता है जैसे भालू और वानर का वेश बना लेने पर भी जाम्बवान्‌ जी और श्रीहनुमान्‌ जी का सम्मान हुआ। तात्पर्य यह है कि सन्त और असन्त वेश से नहीं उद्‌देश्य से सम्मानित या अपमानित होते हैं।

**हानि कुसंग सुसंगति लाहू। लोकहुँ बेद बिदित सब काहू॥ गगन च़ढइ रज पवन प्रसंगा। कीचहिं मिलइ नीच जलसंगा॥ साधु असाधु सदन शुक सारी। सुमिरहिं राम देहिं गनि गारी॥ धूम कुसंगति कारिख होई। लिखिय पुरान मंजु मसि सोई॥ सोइ जल अनल अनिल संघाता। होइ जलद जग जीवन दाता॥**
भाष्य

लोक और वेदों में यह तथ्य प्रसिद्ध है और सभी को ज्ञात भी है कि, बुरी संगति से हानि और अच्छी संगति से लाभ होता है, जैसे सामान्य धूलि पवन की अच्छी संगति पाकर आकाश पर च़ढ जाती है और वही धूलि नीच अर्थात्‌ निम्नगामी जल की संगति पाकर कीचड़ में मिल जाती है। पक्षी कोटि के तोता और मैना साधु की संगति पाकर उनके घर में राम का स्मरण करते हुए राम–राम रटते हैं और वही असन्त के घर जाकर उनकी संगति के प्रभाव से लोगों को गिन–गिन कर गालियाँ देते हैं। धूआँ दीवार की कुसंगति पाकर कालिख बन जाता है और वही सुन्दर स्याही बनकर पुराण लिखने के उपयोग में आता है।

**दो०- ग्रह भेषज जल पवन पट, पाइ कुजोग सुजोग।** **होहिं कुबस्तु सुबस्तु जग, लखहिं सुलच्छन लोग॥७\(क\)॥ सम प्रकाश तम पाख दुहुँ, नाम भेद बिधि कीन्ह।**

शशि पोषक शोषक समुझि, जग जस अपजस दीन्ह॥७(ख)॥
[[१२]]

ज़ड चेतन जग जीव जत, सकल राममय जानि।
बंदउँ सब के पदकमल, सदा जोरि जुगपानि॥७(ग)॥ देव दनुज नर नाग खग, प्रेत पितर गंधर्ब।

बंदउँ किन्नर रजनिचर, कृपा करहु अब सर्ब॥७(घ)॥

भाष्य

ग्रह, ओषधि, जल, वायु और वस्त्र कुयोग पाकर कुवस्तु अर्थात्‌ बुरी वस्तु बन जाते हैं और सुयोग पाकर अर्थात्‌ सुन्दर उपकरणों का साथ पाकर अच्छी वस्तु बन जाते हैं, इनको तो संसार में सूक्ष्मदृष्टिवाले लोग ही देख पाते हैं। यद्दपि महीने के दोनों शुक्ल और कृष्ण पक्षों में प्रकाश और अंधकार समान होते हैं। फिर भी ब्रह्मा जी ने नाम का भेद किया है अर्थात्‌ एक को शुक्ल पक्ष और दूसरे को कृष्ण पक्ष कहा है। एक को चन्द्रमा का पोषक और एक को उसका शोषक समझकर संसार ने भी एक को यश और एक को अपयश दिया। संसार में जितने भी ज़ड और चेतन जीव हैं, सभी को श्रीराममय अर्थात्‌ श्रीराम से आया हुआ तथा उन्हीं से उत्पन्न जानकर, सभी के चरणकमल की मैं सदैव वन्दना करता हूँ। (राममय शब्द और आगे आनेवाले सीयराममय शब्द में मयट्‌ प्रत्यय “तत्‌ आगत:” पा०सू० ४-३-७४ सूत्र से हुआ है।) देवता, दैत्य, मनुष्य, सर्प, पक्षी, प्रेत, पितृगण, गंधर्व, किन्नर, राक्षस इन सभी वर्गों के प्राणियों को श्रीराम से उत्पन्न जानकर ही (उनका) मैं वन्दन करता हूँ। अब आप सभी चिद्‌वर्ग के लोग मुझ पर कृपा कीजिये ।

**आकर चारि लाख चौरासी। जाति जीव जल थल नभ बासी॥ सीयराममय सब जग जानी। करउँ प्रनाम जोरि जुगपानी॥**
भाष्य

मैं अण्डज, स्वेदज, उद्भिज्ज तथा जरायुज इन चार खानों तथा बीस लाख स्थावर, नौ लाख जल जन्तु, ग्यारह लाख कीड़े-मकोड़े, दस लाख पक्षी, तीस लाख पशु एवं चार लाख वानरों के योनियों में वर्तमान जल– थल और आकाश में निवास करनेवाले जीवों से युक्त सम्पूर्ण चित्‌ जगत्‌ को नारी–नर की दृष्टि से सीयराममय अर्थात्‌ श्रीसीताराम जी से जन्मा हुआ जानकर दोनों हाथ जोड़कर प्रणाम करता हॅूँ।

**जानि कृपा करि किंकर मोहू। सब मिलि करहु छाछिड़ ल छोहू॥**
भाष्य

आप लोग मुझे सेवक जानकर और मुझ पर कृपा करके सभी चार खान चौरासी लाख योनियों के चित्‌ जीववर्ग छल–छोड़कर मुझ पर दया कीजिये।

**निज बुधि बल भरोस मोहि नाहीं। ताते बिनय करउँसब पाहीं॥**
भाष्य

मुझको अपने बुद्धि के बल पर विश्वास नहीं है इसलिए मैं सब से विनय करता हूँ। करन चहउॅंरघुपति गुन गाहा। लघु मति मोरि चरित अवगाहा॥ सूझ न एकउ अंग उपाऊ। मन मति रंक मनोरथ राऊ॥

भाष्य

मैं रघुकुल के स्वामी श्रीराम के गुणों की गाथा की रचना करना चाहता हूँ। मेरी छोटी सी बुद्धि इस सागर जैसे चरित्र में अवगाहन करना चाहती है। अथवा मेरी बुद्धि छोटी है और चरित्र अगाध है। मुझे उपाय का एक भी अंग अर्थात्‌ प्रकार नहीं सूझ रहा है, सूक्ष्मता से भी नहीं समझ में आ रहा है, क्योंकि मन बुद्धि का तो दरिद्र है और उसका मनोरथ राजा है। अथवा मेरा मन और बुद्धि दोनों ही दरिद्र और मनोरथ राजा है। वह इन्हें आज्ञा देता रहता है, पर ये उसकी आज्ञापालन में असमर्थ हो रहे हैं।

**मति अति नीचि ऊँचि रुचि आछी। चहिय अमिय जग जुरइ न छाछी॥** [[१३]]
भाष्य

मेरी बुद्धि अत्यन्त निम्नश्रेणी की छोटी है और व्रᐃच बहुत ही ऊँची है, उसे चाहिये तो अमृत, पर संसार में छाछ अर्थात्‌ मट्ठा भी उपलब्ध नहीं हो रहा है।

**छमिहैं सज्जन मोर ढिठाई। सुनिहैं बाल बचन मन लाई॥** **जौ बालक कह तोतरि बाता। सुनहिं मुदित मन पितु अरु माता॥**
भाष्य

सज्जन लोग मेरी ढिठाई अर्थात्‌ धृष्टता को क्षमा करेंगे और मुझ बालक के बचन मन लगाकर सुनेंगे। जैसे यदि बालक तोतली बात कहता है तो पिता–माता प्रसन्न मन से उसे सुनते हैं, उसी प्रकार मुझ तुलसीदास की तोतली बात भगवद्‌भक्त मातायें और श्री वैष्णव पितृतुल्य सन्त मन लगाकर सुनेंगे ।

**हँसिहैं कूर कुटिल कुबिचारी। जे परदूषन भूषनधारी॥** **निजकबित्त केहि लाग न नीका। सरस होउ अथवा अति फीका॥ जे पर भनिति सुनत हरषाहीं। ते बरपुरुष बहुत जग नाहीं॥**
भाष्य

जो दूसरों के दोषों को आभूषणों के समान अपने मन में धारण करते हैं ऐसे दुष्ट–कुटिल (टे़ढी प्रकृति वाले) एवं बुरे विचार के लोग मेरी हँसी उड़ायेंगे। भला अपनी रचना किसको अच्छी नहीं लगती, चाहे वह सुन्दर रस से परिपूर्ण हो अथवा अत्यन्त फीकी, परन्तु जो दूसरों की कविता सुनकर प्रसन्न होते हैं ऐसे श्रेष्ठ पुव्र्ष इस संसार में अधिक नहीं हुआ करते।

**जग बहु नर सर सरिसम भाई। जे निज बाढि़ ब़ढहिं जल पाई॥ सज्जन सकृत सिंधुसम कोई। देखि पूर बिधु बा़ढइ जोई॥**
भाष्य

हे भाई! संसार में बहुत से प्राणी तालाब और नदी के समान हैं, जो अपनी उपलब्धिरूप जल को पाकर ब़ढ जाते हैं। समुद्र के समान तो कोई एक सज्जन हुआ करते हैं, जो पूर्ण चन्द्रमारूप दूसरों को ब़ढते देखकर प्रसन्न होते हैं।

**दो०- भाग छोट अभिलाष बड़, करउँ एक बिस्वास।** **पैहैं सुख सुनि सुजन सब, खल करिहैं उपहास॥८॥**
भाष्य

मेरा भाग्य छोटा है, परन्तु इच्छा बहुत बड़ी है। एक विश्वास करता हूँ कि, मेरी रचना सुनकर सभी सन्तजन सुख पायेंगे और दुष्ट लोग इसका उपहास करेंगे।

**खल परिहास होइ हित मोरा। काक कहहिं कलकंठ कठोरा॥** **हंसहिं बक गादुर चातकहीं। हँसहिं मलिन खल बिमल बतकहीं॥**
भाष्य

दुष्टों के परिहास से मेरा हित ही होगा, क्योंकि कौवे तो कोयल को कठोर कहते ही हैं, बगुले हंस की हँसी उड़ाते ही हैं तथा चमगादड़ पपीहे की हँसी करते ही हैं, उसी प्रकार निर्मल वार्ता का मलिन मनवाले दुष्टजन परिहास करते ही हैं।

**कबित रसिक न रामपद नेहू। तिन कहँ सुखद हासरस एहू॥ भाषा भनिति भोरि मति मोरी। हँसिबे जोग हँसे नहिं खोरी॥**
भाष्य

जो कविता के रसिक नहीं हैं और जिनके मन में प्रभु श्रीराम के चरणों में प्रेम नहीं है, उनके लिए भक्तिरस प्रधान मेरी रचना पर किया हुआ यह हास्यरस सुखप्रद होगा, क्योंकि नवों रसों में हास्य भी तो एक रस है। मेरी कविता संस्कृत में नहीं अवधी भाषा में लिखी गई है और मेरी बुद्धि भी बहुत भोली है, इसलिए मेरी कविता हँसी के योग्य ही है, अत: इस पर हँसने में किसी का कोई दोष नहीं है।

[[१४]]

**प्रभुपदप्रीति न सामुझि नीकी। तिनहिं कथा सुनि लागिहि फीकी॥ हरिहरपदरति मति न कुतरकी। तिन कहॅँ मधुर कथा रघुबर की॥ रामभगति भूषित जिय जानी। सुनिहैं सुजन सराहि सुबानी॥**
भाष्य

जिनके मन में प्रभु श्रीराम के श्रीचरणों में भक्ति नहीं है और जिनकी समझ अच्छी नहीं है, उन्हे यह कथा सुनकर फीकी लगेगी। जिनके मन में प्रभु श्रीराम और उनके अनन्य सेवक भगवान्‌ शङ्कर के चरणों में भक्ति है और जिनकी बुद्धि कुतर्क से युक्त नहीं है, उनको मेरे द्वारा कही हुई रघुवर श्रीराम की कथा मधुर लगेगी। इस कथा को हृदय में श्रीराम की भक्ति से सुशोभित समझकर सज्जन लोग सुन्दर वाणी में सराह कर सुनेंगे।

**कबि न होउँ नहिं बचन प्रबीनू। सकल कला सब बिद्दाहीनू॥ आखर अरथ अलंकृति नाना। छंद प्रबंध अनेक बिधाना॥ भावभेद रसभेद अपारा। कबित दोष गुन बिबिध प्रकारा॥ कबित बिबेक एक नहिं मोरे। सत्य कहउॅँ लिखि कागद कोरे॥**
भाष्य

मैं कवि भी नहीं हूँ और वचन में चतुर भी नहीं हूँ। मैं सभी काव्य–कलाओं और सभी विद्दाओं से हीन हूँ। अक्षर, उनके अर्थ, अनेक शब्दालंकार, अर्थालंकार तथा अनेक प्रकार के छन्द और अनेक प्रकार के प्रबन्धों के विधान, भावों के अपारभेद और रसों की अनेक विधायें इस प्रकार कविता के अनेक प्रकार के दोष और गुण काव्यशास्त्र में देखे जाते हैं, उनमें से एक भी कविता का विवेक मेरे पास नहीं है, यह मैं कोरे अर्थात्‌ सादे काग़ज पर लिखकर सत्य की शपथ करके प्रतिज्ञापूर्वक कह रहा हूँ।

**दो०- भनिति मोरिे सब गुन रहित, बिश्व बिदित गुन एक।** **सो बिचारि सुनिहैं सुमति, जिन के बिमल बिबेक॥९॥**
भाष्य

मेरी कविता सभी गुणों से रहित है परन्तु इसमें विश्व प्रसिद्ध एक गुण है जिनके पास विमल विवेक होगा वे सुन्दर बुद्धिवाले सज्जन उसी गुण का विचार करके मेरी कविता सुनेंगे।

**एहि महँ रघुपति नाम उदारा। अति पावन पुरान श्रुति सारा॥ मंगल भवन अमंगल हारी। उमा सहित जेहिं जपत पुरारी॥**
भाष्य

मेरी इस कविता में अत्यन्त पावन पुराणों और वेदों का सार, सभी मंगलों का गृह और अमंगलों का हरण करनेवाला रघुकुल के स्वामी भगवान्‌ श्रीराम का वह उदार रामनाम वर्णित है, जिसे पार्वती जी के सहित त्रिपुर के शत्रु शिव जी स्वयं जपते रहते हैं।

**भनिति बिचित्र सुकबि कृत जोऊ। राम नाम बिनु सोह न सोऊ॥ बिधुबदनी सब भाँॅति सँॅवारी। सोह न बसन बिना बर नारी॥**
भाष्य

सुन्दर कवि द्वारा रची हुई जो भी बिचित्र कविता है, वह भी श्रीराम नाम के बिना नहीं शोभित होती है, जैसे सब प्रकार से सॅंवारी हुई श्रेष्ठमहिला वस्त्र के बिना नहीं शोभित होती है, क्योंकि कविता–वनिता का रामनाम ही दुकूल वस्त्र है।

**सब गुन रहित कुकबिकृत बानी। राम नाम जस अंकित जानी॥ सादर कहहिं सुनहिं बुध ताही। मधुकर सरिस संत गुनग्राही॥** [[१५]]
भाष्य

जो सभी काव्य–गुणों से रहित और काव्यशास्त्र से अनभिज्ञ कवि की वाणी है उसको भी श्रीराम नाम के यश से अंकित समझकर पंडितजन आदरपूर्वक कहते और सुनते हैं, क्योंकि सन्तजन भ्रमर के समान गुणग्राही होते हैं, जो बाहरी चाकचिक्य (तड़क-भड़क) से नहीं, आन्तरिक गुणों से प्रभावित होते हैं।

**जदपि कबित रस एकउ नाहीं। राम प्रताप प्रगट एहि माहीं॥ सोइ भरोस मोरे मन आवा। केहिं न सुसंग बड़प्पन पावा॥**
भाष्य

यद्दपि मेरी कविता में तथाकथित एक भी कविता का रस अर्थात्‌ आनन्द नहीं है, किन्तु इसमें श्रीराम का प्रताप प्रकट रूप से वर्णित हुआ है। मेरे मन को वही विश्वास आया है कि, सुन्दर संगति से भला किसने बड़प्पन नहीं पाया ?

**धूमउ तजइ सहज करुवाई। अगरु प्रसंग सुगंध बसाई॥ भनिति भदेस बस्तु भलि बरनी। राम कथा जग मंगल करनी॥**
भाष्य

धूआँ भी अगर की संगति पाकर स्वाभाविक कटुता को छोड़ देता है और अगर की सुगंध से बासित होकर पूरे स्थान को सुगंधमय बना देता है । यद्दपि मेरी कविता भद्दी (गँवई) है पर इसमे श्रीराम की गुणगाथा रूप श्रेष्ठ वस्तु का वर्णन हुआ है, क्योंकि श्रीरामकथा सम्पूर्ण जगत्‌ का मंगल कर देती है।

**छं०- मंगलकरनि कलिमलहरनि तुलसी कथा रघुनाथ की।** **गति कूर कबिता सरित की ज्यों सरित पावन पाथ की॥ प्रभु सुजस संगति भनिति भलि होइहि सुजन मनभावनी। भव अंग भूति मसान की सुमिरत सुहावनि पावनी॥**
भाष्य

मुझ तुलसीदास द्वारा कविता में बद्ध की गयी श्रीरघुनाथ जी की कथा मंगलों को करनेवाली और कलियुग के मलों को हरनेवाली है। मेरी कवितारूप नदी की गति पवित्र जलवाली देवनदी गंगा जी के गति के समान टे़ढी है। प्रभु भगवान्‌ श्रीराम के सुयश का साथ पाकर मेरी कविता भली और सज्जनों के लिए मनभावनी हो जायेगी, क्योंकि श्मशान की राख भी शिव जी के अंग का संग पाकर स्मरण करनेवालों के लिए स्मरण में सुहावनी और समान्यजन के लिए पवित्र हो गयी है।

**दो०- प्रिय लागिहि अति सबहि मम, भनिति राम जस संग।** **दारु बिचारु कि करइ कोउ, बंदिय मलय प्रसंग॥१० \(क\)॥ श्याम सुरभि पय बिशद अति, गुनद करहिं सब पान।**

**गिरा ग्राम्य सियराम जस, गावहिं सुनहिं सुजान॥१० (ख)॥ भा०- **मेरी कविता श्रीराम जी के यश के सम्पर्क के कारण सभी को अत्यन्त प्रिय लगेगी। भला मलय के सम्पर्क के कारण क्या कोई चन्दन की लक़डी का विचार करता है ? प्रत्युत्‌ उसकी वन्दना ही की जाती है। जिस प्रकार श्यामा गाय का दूध अत्यन्त स्वच्छ, शुद्ध और गुणकारी होता है और सभी उस का पान करते हैं, उसी प्रकार ग्राम्यवाणी में मेरे द्वारा कहे हुए श्रीसीताराम के यश को सुजान लोग गायेंगे और सुनेंगे।

मनि मानिक मुकता छबि जैसी। अहि गिरि गज सिर सोह न तैसी॥ नृप किरीट तरुनी तनु पाई। लहहिंं सकल शोभा अधिकाई॥ तैसेहिं सुकबि कबित बुध कहहीं। उपजहिं अनत अनत छबि लहहीं॥
[[१६]]

भाष्य

मणि, माणिक्य और गजमुक्ता की जैसी प्राकृतिक छवि है, वह उनके जन्मस्थान (सर्प, पर्वत और हाथी का सिर) पर उस प्रकार नहीं शोभित होती है जैसे वे सभी राजा, राजमुकुट तथा युवती के शरीर को प्राप्तकर शोभा की अधिकता को प्राप्त कर लेते हैं। उसी प्रकार विद्वान्‌ लोग कहते हैं कि सुन्दर कवियों की कवितायें अन्यत्र उत्पन्न होती हैं और अन्यत्र छवि को प्राप्त होती हैं, अर्थात्‌ कविता कभी भी अपने जन्म–स्थान पर उत्कर्ष को नहीं प्राप्त करती है। तात्पर्य यह है कि, जैसे मणि सर्प से उत्पन्न होकर भी वहाँ उतना उत्कर्ष नहीं प्राप्त करता जितना राजा के कण्ठ को प्राप्त करके, उसी प्रकार ओजगुण सम्पन्न कविता, रचयिता के पास नहीं प्रत्युत्‌ ओजस्वभाव सम्पन्न काव्यरसिक पाठक के पास उत्कर्ष को प्राप्त होती है। इसी प्रकार माणिक्यधर्मी कविता माधुर्य गुण सम्पन्न होकर भी अपने निर्माता कवि के पास उतनी उत्कृष्ट नहीं हो पाती जितनी कि राजमुकुट रूप मधुर काव्यरसिक के पास शोभा को प्राप्त करती है। वैसे ही प्रसाद गुण सम्पन्न गजमुक्ताधर्मिणी कविता हाथी के समान रचयिता के पास वह सौन्दर्य नहीं प्राप्त कर पाती जितना कि युवतीधर्मिणी काव्यरसिक के प्रसन्नबुद्धि के पास जाकर सुन्दरता को प्राप्त होती है। यहाँ कविता का सौन्दर्य रस की अनुभूति से सम्बद्ध है, क्योंकि कविता कर्त्ता को नहीं प्रत्युत्‌ रसिक को आनन्द देती है।

**भगति हेतु बिधिभवन बिहाई। सुमिरत सारद आवति धाई॥ राम चरित सर बिनु अन्हवाए। सो श्रम जाइ न कोटि उपाए॥ कबि कोबिद अस हृदय बिचारी। गावहिं हरि जस कलि मल हारी॥**
भाष्य

भक्तकवि के भक्ति के कारण उसके स्मरण करते ही ब्रह्मा जी का भवन छोड़कर सरस्वती जी कवि के पास दौड़ी आती हैं। श्रीरामचरितरूप सरोवर में सरस्वती जी को स्नान कराये बिना सरस्वती जी का ब्रह्मा जी के भवन से कवि के पास तक आने में जो श्रम हुआ, वह अन्य करोड़ों उपायों से नहीं जा सकता, ऐसा अपने हृदय में विचार कर वेदज्ञ विद्वान्‌ कविगण कलिमल को हरनेवाले हरि श्रीराम जी के यश का ही गान करते हैं जिससे सरस्वती जी का श्रम चला जाये।

**कीन्हे प्राकृत जन गुन गाना। सिर धुनि गिरा लगति पछिताना॥**
भाष्य

प्राकृत जनों का गुणगान करने से सरस्वती जी सिर पीटकर पछताने लगती हैं कि मैं क्यों इसके बुलाने पर आयी।

**हृदय सिंधु मति सीपि समाना। स्वाति सारदा कहहिं सुजाना॥ जौ बरषइ बर बारि बिचारू। होहिं कबित मुकता मनि चारू॥** **दो०- जुगुति बेधि पुनि पोहियहिं, रामचरित बर ताग।**

पहिरहिं सज्जन बिमल उर, शोभा अति अनुराग॥११॥

भाष्य

काव्यरस के मर्मज्ञ लोग कहते हैं कि, कवि का विशाल हृदय ही समुद्र होता है, उसमें बुद्धि सीप और सरस्वती जी स्वाति नक्षत्र के समान होती हैं। ऐसी परिस्थिति में जब विचाररूप श्रेष्ठजल बरसता है और सरस्वती रूप स्वाति के संयोग से जब बरसते हुए विचार–जल का बिन्दु बुद्धिरूप सीप में पड़ता है, उसी समय कविता रूप सुन्दर मुक्तामणि उत्पन्न हो जाती है। युक्ति रूप सूई से बेधकर उसे श्रीरामचरित्‌रूप सुन्दर धागे में पिरोया जाता है और उसे सज्जन लोग अपने निर्मल हृदय में पहनते हैं। वहाँ आध्यात्मिक शोभा और अत्यन्ंत अनुराग उपस्थित होता है अथवा, अत्यन्त अनुराग ही वहाँ की शोभा हो जाता है।

**जे जनमे कलिकाल कराला। करतब बायस बेष मराला॥ चलत कुपंथ बेदमग छाँड़े। कपट कलेवर कलिमल भाँड़े॥ बंचक भगत कहाइ राम के। किंकर कंचन कोह काम के॥ तिन महँ प्रथम रेख जग मोरी। धींग धरमधुज धंधक धोरी॥** [[१७]]
भाष्य

जो लोग इस कराल कलिकाल में जन्म लेते हैं, जिनका वेश तो हंस जैसा परन्तु कर्म कौवे जैसा है, जो वैदिकमार्ग को छोड़कर कुपथ मार्ग पर चलते हैं, जिनका शरीर कपटमय है और जो स्वयं कलियुग के मलों के पात्र हैं, जो श्रीराम जी के भक्त कहलाकर वंचक अर्थात्‌ लोगों को ठगते फिरते हैं, जो कंचन अर्थात्‌ स्वर्ण, क्रोध और काम के सेवक हैं, जो धींग अर्थात्‌ अकर्मण्य धर्म की झूठी ध्वजा फहरानेवाले श्रीराम नाम के व्यापारी और इन सभी दुर्गुणों के धुरी हैं, उनमें सबसे प्रथम मैंने स्वयं को रखा है।

**जौ अपने अवगुन सब कहऊँ। बा़ढइ कथा पार नहिं लहऊँ॥ ताते मैं अति अलप बखाने। थोरे महँ जानिहैं सयाने॥ समुझि बिबिध बिधि बिनती मोरी। कोउ न कथा सुनि देइहि खोरी॥ एतेहु पर करिहैं जे शंका। मोहि ते अधिक ते ज़डमति रंका॥**
भाष्य

यदि मैं अपने सभी अवगुणों को कहूँ तो कथा ब़ढ जायेगी और मैं पार नहीं पाऊँगा। इसलिए मैंने अपने बहुत थोड़े दोष कहे हैं। चतुर लोग थोड़े में ही जान जायेंगे। मेरी अनेक प्रकार की विनती सुनकर, कोई भी मेरी कथा सुनकर मुझे दोष नहीं देगा। इतने पर भी जो शंका करेंगे, वे मुझसे भी अधिक ज़ड और बुद्धि के दरिद्र हैं।

**कबि न होउँ नहिं चतुर कहावउँ। मति अनुरूप राम गुन गावउँ॥**
भाष्य

मैं कवि भी नहीं हूँ और न हीं स्वयं को चतुर कहलाता हूँ, मैं तो अपनी बुद्धि के अनुसार भगवान्‌ श्रीराम के गुण गा रहा हूँ।

**कहँ रघुपति के चरित अपारा। कहँ मति मोरि निरतसंसारा॥ जेहिं मारुत गिरि मेरु उड़ाहीं। कहहु तूल केहि लेखे माहीं॥ समुझत अमित राम प्रभुताई। करत कथा मन अति कदराई॥**
भाष्य

कहाँ भगवान्‌ श्रीराम के अपार चरित्र और कहाँ संसार के विषयों में फँसी हुई मेरी बुद्धि। जिस वायु से सुमेरु जैसे बड़े-बड़े पर्वत उड़ जाते हैं भला कहिये, वहाँ रूई किस श्रेणी में है? श्रीराम की प्रभुता को अमित समझते हुए, कथा कहते हुए मन अत्यन्त कतरा रहा है ।

**दो०- सारद शेष महेश बिधि, आगम निगम पुरान।** **नेति नेति कहि जासु गुन, करहिं निरंतर गान॥१२॥**
भाष्य

सरस्वती जी, शेष जी, शिव जी, ब्रह्मा जी, तंत्र, वेद और पुराण ‘नेति–नेति’ (इतना नहीं–इतना नहीं) इस प्रकार कह कर जिन श्रीराम का निरन्तर गुणगान करते रहते हैं ।

**चौ०- सब जानत प्रभु प्रभुता सोई। तदपि कहे बिनु रहा न कोई॥ तहाँ बेद अस कारन राखा। भजन प्रभाव भाँति बहु भाखा॥**
भाष्य

ये सभी भगवान्‌ की प्रभुता को उसी प्र्रकार अकथनीय जानते हैं, फिर भी कोई बिना कहे नहीं रह पाया। वहाँ वेद ने इस प्रकार कारण रखा है, जिसमें अनेक प्रकार से भजन का प्रभाव कहा गया है अर्थात्‌ यद्दपि भगवान्‌ की प्रभुता को कोई भी पूर्ण रूप से नहीं कहता, फिर भी इसके बहाने भगवान्‌ का भजन किया जा सकता है अर्थात्‌ कथा कहने के बहाने से भगवान्‌ के नाम, रूप, लीला, धाम का चिन्तन होता है, जिससे साधक का परमकल्याण हो जाता है।

**एक अनीह अरूप अनामा। अज सच्चिदानंद पर धामा॥ ब्यापक बिश्वरूप भगवाना। तेहिं धरि देह चरित कृत नाना॥** [[१८]]
भाष्य

भगवान्‌ श्रीराम एक अर्थात्‌ समानता और आधिक्य से रहित हैं, उनमें कोई चेष्टा नहीं है, वे प्राकृत रूप और नाम से रहित हैं, वे अजन्मा, सच्चिदानंद तथा परमधाम अर्थात्‌ परमज्योतिस्वरूप हैं, प्रभु सर्वव्यापक, विश्वरूप तथा ऐश्वर्य, धर्म, यश, श्री, ज्ञान और वैराग्य नामक छहों माहात्म्यों से निरन्तर सम्पन्न हैं, उन्होंने ही अलौकिक शरीर धारण करके अनेक चरित्र किये हैं।

**सो केवल भगतन हित लागी । परम कृपालु प्रनत अनुरागी॥ जेहिं जन पर ममता अति छोहू। जेहिं करुना करि कीन्ह न कोहू॥ गई बहोर गरीब निवाजू । सरल सबल साहिब रघुराजू॥**
भाष्य

उनका वह चरित्र केवल भक्तों के हित के लिए है, क्योंकि परमात्मा परमकृपालु और शरणागतों के प्रति अनुराग करनेवाले हैं, जिन्हें अपने भक्त पर ममता और अत्यन्त वात्सल्य है, जिन्होंने एक बार करुणा करके फिर अपराध करने पर भी क्रोध नहीं किया। प्रभु श्रीराम गयी हुई वस्तु को लौटानेवाले, गरीबनिवाज अर्थात्‌ दीनजनों को अलौकिक उपहार से सम्मानित करनेवाले, अतिसरल, असीम बल से युक्त, सबके स्वामी तथा रघुकुल के राजा और जीवमात्र के हृदय में अन्तर्यामी रूप से विराजमान रहनेवाले हैं।

**बुध बरनहिं हरिजस अस जानी। करहिं पुनीत सुफल निज बानी॥ तेहि बल मैं रघुपति गुन गाथा। कहिहउँ नाइ राम पद माथा॥ मुनिन प्रथम हरिकीरति गाई। तेहि मग चलत सुगम मोहि भाई॥**
भाष्य

बुध अर्थात्‌ (पण्डित जन) ऐसा समझकर ही श्रीहरि का यश वर्णन करते हैं और इसी बिधि से अपनी वाणी को पवित्र और सफल बनाते हैं। मैं तुलसीदास भी उसी बल के आधार पर (भगवद्‌ यश गाने से वाणी पवित्र होगी और भजन ब़ढेगा) इसी उद्‌देश्य से श्रीराम के चरणों में मस्तक नवाकर श्रीराम जी की दिव्य गुणगाथा कहूंॅगा। हे भाई! इसी उद्‌देश्य से वाल्मीकि, अगस्त्य, लोमश, अग्निवेश, कृष्णद्वैपायन वेदव्यास आदि मुनियों ने पहले ही श्रीहरि प्रभु श्रीराम की कीर्ति का गान किया है, उसी मार्ग से चलना मेरे लिए सुगम होगा।

**दो०- अति अपार जे सरित बर, जौ नृप सेतु कराहिं।** **चढि़ पिपीलिकउ परम लघु, बिनु श्रम पारहिं जाहिं॥१३॥**
भाष्य

जो अत्यन्त अपार नदियांँ हैं, उनमें यदि कोई राजा सेतु बना देता है तो उन पर च़ढकर बहुत छोटी चीटियाँ भी बिना श्रम के पार चली जाती हैं, उसी प्रकार महर्षियों ने श्रीरामकथा रूप सरिताओं पर राजा की भाँति सौ करोड़ से अधिक सेतु बाँध दिये हैं, अत: उन्हीं के सहारे चींटी की भाँति छोटी बुद्धिवाला मैं (तुलसीदास) बिना श्रम के पार पा लूँगा और सौ करोड़ रामायण के सारांश रूप को सरल अवधी भाषा में मानस रामायण की रचना कर सकूँगा।

**एहि प्रकार बल मनहि दृ़ढाई। करिहउँ रघुपति कथा सुहाई॥ ब्यास आदि कबि पुंगव नाना। जिन सादर हरि सुजस बखाना॥ चरनकमल बंदउँ तिन केरे। पुरवहु सकल मनोरथ मेरे॥**
भाष्य

मन में इस प्रकार का बल दृ़ढ करके मैं सुहावनी श्रीराम कथा कहूँगा। व्यास आदि अनेक श्रेष्ठकवि जिन्होंने आदरपूर्वक पापहारी श्रीराम के सुयश का बखान किया है, उनके चरणकमलों की मैं वन्दना करता हूँ। आप सभी मेरे मनोरथों को पूर्ण कीजिये जिससे मैं भी श्रीराम के सुयश का वर्णन कर सकूँ।

**कलि के कबिन करउँ परनामा। जिन बरने रघुपति गुन ग्रामा॥**
भाष्य

मैं कलियुग के भी उन कवियों (जैसे कालिदास, कुमारदास, जयदेव, मुरारि मिश्र, भवभूति, राजशेखर आदि) को प्रणाम करता हूँ, जिन्होंने श्रीरघुपति राम जी के गुणों के समूहों का वर्णन किया है।

[[१९]]

**जे प्राकृत कबि परम सयाने। भाषा जिन हरि चरित बखाने॥ भए जे अहहिं जे होइहैं आगे। प्रनवउँ सबहिं कपट छल त्यागे॥**
भाष्य

जो संस्कृत भाषा के अतिरिक्त तमिल, कन्ऩड, तेलगू, उयिड़ा, बंग, मैथिली, अवधी, ब्रज, बुन्देलखण्डी, भोजपुरी, ख़डी हिन्दी आदि भाषाओं के परम चतुर कवि हैं और जिन्होंने हिन्दी भाषा में प्रभु श्रीराम के चरित्रों का बखान किया है, जो हो चुके हैं, जो हैं और जो भविष्य में होंगे उन सभी श्रीरामचरित्‌ के कविश्रेष्ठों को मैं कपट और छल छोड़कर प्रणाम करता हूँ।

**होहु प्रसन्न देहु बरदानू। साधु समाज भनिति सनमानू॥ जो प्रबंध बुध नहिं आदरहीं। सो श्रम बादि बाल कबि करहीं॥**
भाष्य

हे कविश्रेष्ठों, आप सब प्रसन्न हों और मुझे यह वरदान दें कि जिससे सन्तों के समाज में मेरी कविता का सम्मान हो, क्योंकि सन्त श्रीरामयश से समन्वित कविता का ही सम्मान करते हैं और वह आप भगवदीय कवियों के वरदान से ही सम्भव हो सकेगी। जिस प्रबंधकाव्य का श्रीरामानुरागी विद्वान्‌ सन्तजन समादर नहीं करते, श्रीराम भक्तिशास्त्र से अनभिज्ञ कवि वह श्रम निरर्थक ही करते हैं, क्योंकि भगवत्‌ प्रेमरहित प्रबंधकाव्य की रचना का श्रम व्यर्थ ही हो जाता है।

**कीरति भनिति भूति भलि सोई। सुरसरि सम सब कहँ हित होई॥ राम सुकीरति भनिति भदेसा। असमंजस अस मोहि अँदेसा॥ तुम्हरी कृपा सुलभ सोउ मोरे। सियनि सुहावनि टाट पटोरे॥ करहु अनुग्रह अस जिय जानी। बिमल जसहिं अनुहरै सुबानी॥**
भाष्य

वही कीर्ति, वही कविता, वही संपत्ति श्रेष्ठ है, जो गंगा जी के समान सभी के लिए कल्याणकारिणी हो, परन्तु श्री राम जी की कीर्ति अत्यन्त श्रेष्ठ और मेरी कविता, लोकभाषा में होने से बड़ी भद्दी है यही मेरे लिए असमंजस और असौविध्य है अर्थात्‌ श्रीराम जी की कीर्ति से मेरी कविता का कोई मेल नहीं बैठ पा रहा है। आप कवि-पुंगवों की कृपा से मेरे लिए वह भी सुलभ हो सकता है, क्योंकि टाट पर भी रेशम की सिलाई सुहावनी लगती है अर्थात्‌ मेरी टाट के समान अतितुच्छ कविता पर श्रीराम जी की कीर्ति रेशमी तागे की सिलाई के समान बड़ी ही सुहावनी लगेगी।

**दो०- सरल कबित कीरति बिमल, सोइ आदरहिं सुजान।** **सहज बैर बिसराइ रिपु, जो सुनि करहिं बखान॥१४\(क\)॥ सो न होइ बिनु बिमल मति, मोहि मतिबल अति थोर।**

करहु कृपा हरिजस कहउॅँ, पुनि पुनि करउॅँ निहोर॥१४(ख)॥ कबि कोबिद रघुबर चरित, मानस मंजु मराल।
बाल बिनय सुनि सुरुचि लखि, मोपर होहु कृपाल॥१४(ग)॥

भाष्य

जो कविता प्रसादगुण से सम्पन्न अतिसरल हो और उसके द्वारा कही हुई जो कीर्ति अत्यन्त बिमल होती है, उसी का सुजान लोग आदर करते हैं जिसे सुनकर शत्रु अपना स्वभाविक बैर भूलकर प्रशंसा करने लगते हैं। वह कविता निर्मलबुद्धि के बिना सम्भव नहीं हो सकती। मुझमें बुद्धि का बल बहुत थोड़ा है। आप लोग कृपा कीजिये, जिससे मैं श्रीहरि का यश कह सकूँ। मैं बार–बार निहोरा अर्थात्‌ आपकी मनुहार कर रहा हूँ। श्रीराम जी

[[२०]]

के चरित्ररूप मानस सरोवर के सुन्दर राजहंस रूप हे विद्वान्‌ कवियों! मुझ बालक तुलसीदास का विनय सुनकर और मेरी भगवद्‌ यश कहने की सुंदर रुचि देखकर आप लोग मुझ पर कृपालु हो जाइये।

सो०- बंदउँ मुनिपद कंजु, रामायन जेहिं निरमयउ।
सखर सुकोमल मंजु, दोषरहित दूषन सहित॥१४(घ)

भाष्य

मैं उन मुनि मननशील महर्षि वाल्मीकि के चरणकमलों की वन्दना करता हूँ, जिन्होंने ऐसे विचित्र विरोधाभासों से युक्त रामायण का निर्माण किया जो खर नामक राक्षस के पराक्रम से युक्त होकर भी अत्यन्त कोमल और मधुर है और दूषण सहित अर्थात दूषण राक्षस की चर्चा से युक्त होकर भी दोष रहित है। अर्थात्‌ दूषण भी जिसमें दोष नहीं ला सका और खर की उपस्थिति से भी जो कठोर नहीं बन सका।

**बंदउँ चारिउ बेद, भव बारिधि बोहित सरिस।** **जिनहिं न सपनेहुँ खेद, बरनत रघुबर बिशद जस॥१४\(ङ\)॥**
भाष्य

भवसागर के जहाज के समान मैं ऋक्‌, यजुष, साम, अथर्वण इन चारों वेदों का वंदन कर रहा हूँ, जिन्हें श्रीराम जी के स्वच्छ–निष्कलंक यश का वर्णन करने में स्वप्न में भी श्रम और आलस्य का आभास नहीं होता।

**बंदउँ बिधि पद रेनु, भव सागर जेहिं कीन्ह जहँ।** **संत सुधा शशि धेनु, प्रगटे खल बिष बारुनी॥१४\(च\)**
भाष्य

मैं ब्रह्मा जी के चरणों की रेणु को वंदन करता हूँ, जिन्होंने इस संसार को सागर जैसा बनाया, जहाँ अमृत, चन्द्रमा और कामधेनु के समान सन्त तथा विष एवं मदिरा के समान खल उत्पन्न हुए।

**दो०- बिबुध बिप्र बुध ग्रह चरन, बंदि कहउँ कर जोरि।** **होइ प्रसन्न पुरवहु सकल, मंजु मनोरथ मोरि॥१४\(छ\)॥**
भाष्य

मैं देवता, ब्राह्मण, पंडितजन एवं नवोंग्रहों के चरणों का वन्दन करके, हाथ जोड़कर कह रहा हूँ कि, आप सब प्रसन्न होकर मेरे मधुर मनोरथ को पूर्ण कीजिये।

**पुनि बंदउँ सारद सुर सरिता। जुगल पुनीत मनोहर चरिता॥ मज्जन पान पापहर एका। कहत सुनत एक हर अबिबेका॥**
भाष्य

फिर मैं सरस्वती जी एवं गंगा जी का एक साथ वन्दन कर रहा हूँ, क्योंकि दोनों में ही दो–दो चरित्र पवित्र और मनोहर हैं अर्थात्‌ गंगा जी स्नान और पान से जीव के पाप को हर लेती हैं और सरस्वती जी कहने और सुनने से अविवेक हर लेती हैं।

**गुरु पितु मातु महेश भवानी। प्रनवउँ दीनबंधु दिन दानी॥** **सेवक स्वामि सखा सिय पी के। हित निरुपधि सब बिधि तुलसी के॥ कलि बिलोकि जगहित हर गिरिजा। शाबर मंत्रजाल जिन सिरिजा॥ अनमिल आखर अरथ न जापू। प्रगट प्रभाव महेश प्रतापू॥ सो महेश मोहि पर अनुकूला। करउँ कथा मुद मंगल मूला॥ सुमिरि शिवा शिव पाइ पसाऊ। बरनउँ रामचरित चित चाऊ॥**
भाष्य

मैं गुरु, पिता और माता के समान पूज्य दीनबंधु, निरंतर दान देनेवाले शिव जी और पार्वती जी को प्रणाम करता हूँ, जो शिव जी श्रीसीतापति भगवान्‌ श्रीराम के सेवक, स्वामी, और सखा हैं तथा मुझ तुलसीदास के सब प्रकार से निष्कपट हितैषी हैं। कलियुग को देखकर जगत्‌ के कल्याण के लिए जिन शिव–पार्वती ने ‘शाबर’

[[२१]]

मंत्रजाल की रचना की, जिसमें अक्षरों का कोई मेल नहीं है, और न ही उसका कोई विशेष अर्थ है और न ही जप। फिर भी भगवान्‌ शङ्कर के प्रताप से उसका प्रभाव प्रकट है। वे ही शिव जी मुझ पर प्रसन्न हैं और मैं प्रसन्नता और मंगल की मूलरूपा श्रीरामकथा को काव्यबद्ध कर रहा हूँ। पार्वती जी एवं शिवजी को स्मरण करके उमा महेश्वर का प्रसाद पाकर चित्त में आनन्द के साथ मैं श्रीरामचरित्‌ का वर्णन कर रहा हूँ।

भनिति मोर शिवकृपा बिभाती। शशि समाज मिलि मनहुँ सुराती॥

भाष्य

भगवान्‌ शिव जी की कृपा से मेरी कविता सज्जन समाजरूप चन्द्रमा को प्राप्त करके सुन्दर शुक्लपक्ष की रात की भाँति सुशोभित होगी।

**जे एहि कथहिं सनेह समेता। कहिहैं सुनिहैं समुझि सचेता॥ होइहैं राम चरन अनुरागी। कलि मल रहित सुमंगल भागी॥**
भाष्य

जो लोग इस कथा को श्रीराम के स्नेह से युक्त होकर कहेंगे और सुनेंगे तथा स्वस्थ चित्तवृत्ति के साथ समझेंगे वे श्रीराम जी के श्रीचरण के अनुरागी हो जायेंगे और कलियुग के मलों से दूर होकर सुमंगलों के भागी बनेंगे।

**दो०- सपनेहुँ साचेहुँ मोहि पर, जौ हर गौरि पसाउ।** **तौ फुर होउ जो कहेउँ सब, भाषा भनिति प्रभाउ॥१५॥**
भाष्य

यदि स्वप्न में भी मुझ पर भगवान्‌ शिव जी और भगवती पार्वती जी का सत्य प्रसाद है, तो फिर जो मैंने अपने अवधी भाषा में रची हुयी कविता का प्रभाव कहा है, वह सत्य हो।

**बंदउँ अवधपुरी अति पावनि। सरजू सरि कलि कलुष नसावनि॥**
भाष्य

मैं अत्यन्त पावनी श्रीअवधपुरी तथा कलियुग के पाप को नष्ट करनेवाली श्रीसरयू नदी को वंदन करता हूँ ।

**प्रनवउँ पुर नर नारि बहोरी। ममता जिन पर प्रभुहिं न थोरी॥ तिय निंदक अघ ओघ नसाए। लोक बिशोक बनाइ बसाए॥**
भाष्य

फिर मैं अयोध्यापुर के नर–नारियों को प्रणाम करता हूँ जिन पर भगवान्‌ श्रीराम की थोड़ी नहीं अर्थात्‌ बहुत ममता है। जिस अयोध्या की निवासिनी, दासीकोटि की नारी तथा अपनी निंदा करनेवाली मंथरा के पापसमूह को प्रभु ने नष्ट कर दिया। उसे इस लोक में निश्चिन्त किया और साकेतलोक में सुन्दर भवन बनाकर निवास दिया।

**बंदउँ कौसल्या दिशि प्राची। कीरति जासु सकल जग माची॥ प्रगटेउ जहँ रघुपति शशि चारू। बिश्व सुखद खल कमल तुषारू॥**
भाष्य

मैं भगवती कौसल्यारूप पूर्व दिशा की वंदना करता हूँ, जिनकी कीर्ति सम्पूर्ण जगत्‌ में मची अर्थात्‌ व्याप्त होकर पूजित हुई। जिन कौसल्यारूप पूर्व दिशा में विश्व को सुख देनेवाले, खलरूप कमल को नष्ट करने के लिए तुषार अर्थात्‌ बर्फरूप, श्रीरामरूप चन्द्रमा प्रकट हुए अर्थात्‌ जैसे पूर्व दिशा में पूर्णचन्द्र का उदय होता है, उसी

प्रकार कौसल्या के सम्मुख श्रीरामचन्द्र जी प्रकट हुए ।

विशेष

जैसे कि मेरे द्वारा प्रणीत “राघव भाव दर्शन” नामक पुस्तक का एक शिखरिणी छन्द इस सन्दर्भ में द्रष्टव्य है—

अनापीतोऽपीत* द्दुभिरनभिभूतोऽमृत तृषा अनाक्लिष्ट: क्लेशैरनपहृत रोचिर्गुरुगृहै :।*

[[२२]]

अनाश्लिष्ट* : सृष्ट्याा स्मर शरकरस्यांक रहितो दिवाकौ कौसल्या हरि हरिति पूर्णो हरिरभूत॥*

**भावानुवाद : **स्वर्ग प्राप्त करके भी देवगण जिसकी कलायें नहीं पी सके, तथा अमृत का पिपासु राहु जिसे कभी भी ग्रस नहीं सका, जो कभी भी अविद्दा, अस्मिता, राग, द्वेष तथा अभिनिवेश जैसे पाँचों क्लेशों से क्लिष्ट नहीं हुआ और गुरु पत्नी के द्वारा जिसके तेज का हरण नहीं किया गया, प्रत्युत्‌ आर्शीवादों से वर्धन ही किया गया, जो कामदेव के बाणों की सृष्टि से प्रभावित नहीं हुआ और जिसमें कभी भी किसी प्रकार का कलंक नहीं लगा, ऐसा श्रीरामरुप पूर्ण चन्द्रमा कौसल्या रुप पूर्ण दिशा में चैत्र रामनवमी के मध्याह्न में पृथ्वी पर प्रकट हुआ। भाव यह है कि साधारण चन्द्रमा की अपेक्षा श्रीरामचन्द्र जी में बहुत विलक्षणतायें हैं। सामान्य चन्द्रमा की कलायें कृष्णपक्ष में देवताओं द्वारा पी ली जाती हैं, और अमावस्या के दिन सूर्य से उसे कलाएँ प्राप्त होती हैं, पर श्रीरामचन्द्र जी की कलाओं का पान देवता नहीं कर सकते। इन्हें कैकेयी का कुकृत्य राहु नहीं ग्रस पाया, चन्द्रमा क्षयी है, पर श्रीरामचन्द्र जी सभी क्लेशों से मुक्त परमेश्वर हैं। चन्द्रमा गुरु पत्नी गमन से तेजोहीन है, परन्तु श्रीरामचन्द्र जी अरुन्धती जी के आर्शीवाद से परम तेजस्वी हैं। चन्द्रमा कामुक है और भगवान्‌ श्रीराम निष्काम हैं। चन्द्रमा सकलंक है, तथा भगवान्‌ श्रीराम अकलंक हैं। ऐसे अलौकिक श्रीराघवरुप पूर्ण चन्द्र का कौसल्यारूपिणी पूर्व दिशा में पृथ्वी पर प्राकट्‌य हुआ।

पद्दानुवाद :

स्वर्गहुँ पहुँचि सुर जाकी कला पी न सके कबहुँ न नीच राहु, जाहि ग्रस पायो है। क्लेशित न भयो जो, कबहुँ पंच क्लेशहु ते गुरु तियहुँ न जा को सुजस नसायो है। भयो न प्रभावित कबहुँ काम बाण ते जो कबहुँ न नीच राहु, जाहि ग्रस पायो है। क्लेशित न भयो जो, कबहुँ पंच क्लेशहु ते गुरु तियहुँ न जाको सुजस नसायो है। भयो न प्रभावित कबहुँ काम बाण ते कबहुँ कलंक जाहि परसि न पायो है। गिरिधर भनै कौसिला सु प्राची दिशि मही दिवस में राम पूर्ण चन्द्र प्रगटायो है॥

दशरथ राउ सहित सब रानी। सुकृत सुमंगल मूरति मानी॥ करउँ प्रनाम करम मन बानी। करहु कृपा सुत सेवक जानी॥ जिनहिं बिरचि बड़ भयउ बिधाता। महिमा अवधि राम पितु माता॥

भाष्य

सभी रानियों के सहित महाराज दशरथ को पुण्य और सुन्दर मंगल की मूर्ति मानकर मैं तुलसीदास कर्म, मन और वाणी से प्रणाम करता हूँ। मुझे अपने पुत्र श्रीराम जी का सेवक जानकर आप सब मुझ पर कृपा करेंगे। जिन महाराज दशरथ एवं उनकी महारानियों की, सम्पूर्ण महिमाओं की सीमा भगवान्‌ श्रीराम जी के पिता–माता के रूप में विशिष्ट रचना करके ब्रह्मा जी भी बड़े हो गये अर्थात्‌ श्रीराम जी के भी पितामह का पद प्राप्त कर लिया।

[[२३]]

**सो०- बंदउँ अवध भुआल, सत्य प्रेम जेहिं राम पद।**

बिछुरत दीनदयाल, प्रिय तनु तृन इव परिहरेउ॥१६॥

भाष्य

मैं श्री अवध के महाराज दशरथ जी की वंदना करता हूँ जिन्हें श्रीराम के चरणों में यथार्थ प्रेम है, जिन्होंने दीनों पर दया करने वाले श्रीराम के बिछुड़ते ही अपने प्रिय शरीर का तृण के समान त्याग कर दिया।

**प्रनवउँ परिजन सहित बिदेहू। जाहि राम पद गू़ढ सनेहु॥ जोग भोग महँ राखेउ गोई। राम बिलोकत प्रगटेउ सोई॥**
भाष्य

मैं परिजनों (परिवार) के सहित विदेहराज जनक जी को प्रणाम करता हूँ जिन्हें श्रीराम जी के श्री चरणों में गू़ढ प्रेम है, जिन्होंने उस श्रीरामप्रेम को योग और भोग के सम्पुट में छिपा कर रखा और उसे श्रीराम जी के दर्शन करते ही प्रकट कर दिया अर्थात्‌ साधारण लोगों की दृय्ि में जनक जी भोगी थे और विशिष्ट लोगों की दृष्टि में जनक जी योगी थे। वस्तुत: वे थे श्रीराम जी के वियोगी।

**प्रनवउँ प्रथम भरत के चरना। जासु नेम ब्रत जाइ न बरना॥ राम चरन पंकज मन जासू। लुब्ध मधुप इव तजइ न पासू॥**
भाष्य

मैं श्रीराम जी के भ्राताओं में सर्वप्रथम श्रीभरत जी के चरणों को प्रणाम करता हूँ, जिन श्रीभरत जी के नियमों–व्रतों का वर्णन नहीं किया जा सकता। जिनका मन श्रीराम जी के श्रीचरणकमल में निरंतर रहता है, वह मकरंद के लोभी भ्रमर की भाँति प्रभु के श्रीचरण का सानिध्य नहीं छोड़ता।

**बंदउँ लछिमन पद जल जाता। शीतल सुभग भगत सुखदाता॥ रघुपति कीरति बिमल पताका। दंड समान भयउ जस जाका॥ शेष सहस्र शीष जग कारन। जो अवतरेउ भूमि भय दारन॥ सदा सो सानुकूल रह मो पर। कृपासिंधु सौमित्रि गुनाकर॥**
भाष्य

मैं शीतल, सुन्दर और भक्तों को सुख देनेवाले श्रीलक्ष्मण जी के चरणकमलों का वंदन करता हूँ जिनका यश श्रीराम की निर्मल कीर्ति रूप बिमल पताका का दण्ड अर्थात्‌ ध्वज बना जो संसार के कारण स्वरूप अर्थात्‌ विराट्‌ सहस्रसिरों वाले शेष अर्थात्‌ अविनाशी तत्त्व होकर भी पृथ्वी का भय नष्ट करने के लिए रघुकुल में श्रीराम जी के छोटे भाई बनकर अवतीर्ण हुए। वे ही सुमित्रा जी के ज्येष्ठपुत्र कृपा के सागर गुणों की खानि श्रीलक्ष्मण जी मुझ पर निरन्तर अनुकूल रहें।

**रिपुसूदन पद कमल नमामी। शूर सुशील भरत अनुगामी॥**
भाष्य

बाहरी और भीतरी शत्रुओं के संग्राम में एकमात्र शूरता से सम्पन्न वीर, सुन्दर स्वभाव वाले तथा निरन्तर श्रीभरत जी का अनुगमन करने वाले श्रीशत्रुघ्न जी के चरणकमलों को मैं नमन करता हूँ।

**महाबीर बिनवउँ हनुमाना। राम जासु जस आपु बखाना॥** **सो०- प्रनवउँ पवनकुमार, खल बन पावक ग्यानघन।**

जासु हृदय आगार, बसहिं राम शर चाप धर॥१७॥

भाष्य

मैं महावीर श्रीहनुमान्‌ जी की प्रार्थना कर रहा हूँ, जिनके यश को स्वयं भगवान्‌ श्रीराम जी ने ब्याख्यान करके कहा। दुष्ट रूप वन को जलाने के लिए अग्नि के समान, ज्ञान के घनीभूत विग्रह अथवा ज्ञान के मेघ पवनपुत्र श्रीहनुमान्‌ जी को मैं प्रणाम करता हूँ, जिनके हृदयरूप भवन में भगवान्‌ श्रीराम जी धनुष–बाण धारण करके निवास करते हैं ।

[[२४]]

**कपिपति ऋक्ष निशाचर राजा। अंगदादि जे कीश समाजा॥ बंदउँ सब के चरन सुहाए। अधम शरीर राम जिन पाये॥**
भाष्य

वानरराज सुग्रीव, ऋक्षराज जाम्बवान्‌, राक्षसराज विभीषण और अंगद आदि जो अठारह पद्‌म यूथपतियों में विभक्त वानरों का समाज है, उन सभी के सुन्दर चरणों की मैं वंदना करता हूँ, जिन वानरों ने अधम पशु शरीर में भी श्रीराम जी को प्राप्त कर लिया।

**रघुपति चरन उपासक जेते। खग मृग सुर नर असुर समेते॥ बंदउँ पद सरोज सब केरे। जे बिनु काम राम के चेरे॥**
भाष्य

पक्षी, मृग, देवता, मनुष्य और राक्षस समेत जितने भी श्रीराम जी के चरणों के उपासक हैं उन सब के चरणकमलों की मैं वन्दना करता हूँ, जो बिना कामना के श्रीराम जी के सेवक बन गये हैं।

**शुक सनकादि भगत मुनि नारद। जे मुनिवर बिग्यान बिशारद॥ प्रनवउॅं सबहिं धरनि धरि शीशा। करहु कृपा जन जानि मुनीशा॥**
भाष्य

शुकाचार्य, सनकादि (सनक, सनंदन, सनातन, सनतकुमार) एवं भक्तप्रवर मुनि नारद तथा और भी जो विज्ञान में निपुण मुनिवर हैं, उन सबको मैं पृथ्वी पर मस्तक नवा कर प्रणाम कर रहा हूँ। हे मुनीश्वरों! आप सब मुझे अपना सेवक अथवा पारिवारिक जानकर कृपा करें ।

**जनकसुता जगजननि जानकी। अतिशय प्रिय करुना निधान की॥ ताके जुग पद कमल मनावउँ। जासु कृपा निरमल मति पावउँ॥**
भाष्य

जो जनकराज की पुत्री, सम्पूर्ण जगत्‌ की माता तथा जनक जी के गोत्र में प्रकट र्हुइं, जो कव्र्णानिधान श्रीराम जी को अत्यन्त प्रिय हैं उन श्रीसीता जी के दोनों चरणकमलों को मैं मना रहा हूँ अर्थात्‌ सम्मानपूर्वक उनकी पूजा कर रहा हूँ, जिनकी कृपा से मैं निर्मल बुद्धि प्राप्त कर रहा हूँ, जिससे श्री रामकथा कहने का मेरे मन में संकल्प उठा।

**पुनि मन बचन कर्म रघुनायक। चरन कमल बंदउँ सब लायक॥ राजिवनयन धरे धनु सायक। भगत बिपति भंजन सुखदायक॥**
भाष्य

फिर मैं मन, वचन और कर्म से सब प्रकार से समर्थ रघुकुल के नायक भगवान्‌ श्रीराम जी के श्रीचरणकमलों की वंदना करता हूँ, जिन भगवान्‌ श्रीराम जी के नेत्र लालकमल के समान हैं, जो निरंतर धनुष– बाण धारण किये रहते हैं, जो भक्तों की विपत्ति को नष्ट करते हैं और सुख प्रदान करते हैं।

**दो०- गिरा अरथ जल बीचि सम, देखियत भिन्न न भिन्न।** **बंदउँ सीता राम पद, जिनहिं परम प्रिय खिन्न॥१८॥**
भाष्य

जो वाणी तथा अर्थ के समान, जल एवं तरंग के समान भिन्न दिखते हुए भी एक दूसरे से अभिन्न हैं, जिन्हें खिन्न अर्थात्‌ दीन–दु:खी विकलांग जन परमप्रिय हैं, ऐसे श्रीसीताराम जी रूप परब्रह्म पद को मैं वन्दन करता हूँ।

**बंदउँ राम नाम रघुबर को। हेतु कृशानु भानु हिमकर को॥ बिधि हरि हर मय बेद प्रान सो। अगुन अनूपम गुन निधान सो॥** [[२५]]
भाष्य

मैं (तुलसीदास) रघुवर अर्थात्‌ रघुकुल में श्रेष्ठ भगवान्‌ श्रीराम जी के रामनाम की वंदना करता हूँ, जो अग्नि, सूर्य और चन्द्र इन तीनों के कारण हैं अर्थात्‌ ‘र’ से अग्नि ‘आ’ से सूर्य और ‘म’ से चन्द्रमा का उद्‌भव होता है। कृशानु में ‘र’, भानु में ‘आ’, दिनकर में ‘म’ क्रमश: राम नाम के तीन अक्षरों से पूर्व के तीनों शब्द सिद्ध हो जाते हैं। श्रीराम नाम ब्रह्मा, विष्णु और शङ्करमय है। यह वेद के प्राणरूप प्रणव के समान है, यह निर्गुण और उपमारहित होते हुए भी समस्त सद्‌गुणों के खजाने के समान है।

**महामंत्र जोइ जपत महेशू। काशी मुकुति हेतु उपदेशू॥ महिमा जासु जान गनराऊ। प्रथम पूजियत नाम प्रभाऊ॥**
भाष्य

ईश्वर शङ्कर जी जिस राम नाम रूप महामंत्र को जपते हैं और काशी में जिस राम नाम का मुक्ति के लिए सामान्य जन को उपदेश करते हैं, जिसकी महिमा शिव गणों के राजा श्रीगणेश जी जानते हैं, जो राम नाम के प्रभाव से ही देवताओं में सर्वप्रथम पूजे जाते हैं।

**विशेष– **पौराणिक कथा के अनुसार जब यह निश्चय किया गया कि, जो सबसे पहले पृथ्वी की परिक्रमा कर लौट आयेगा वही प्रथम पूज्य होगा तब गणेश जी ने राम नाम लिखकर उसी की परिक्रमा कर त्रिदेवों को प्रणाम किया और सर्वप्रथम पूज्य बन बैठे।

जान आदिकबि नाम प्रतापू। भयउ शुद्ध करि उलटा जापू॥

भाष्य

आदिकवि महर्षि वाल्मीकि जी श्रीराम नाम का प्रताप जानते हैं वे राम नाम का उल्टा अर्थात्‌ मरा–मरा जप कर ही शुद्ध हो गये (मरा मरा मरा चैव मरेति जप सर्वदा-भविष्योत्तर पुराण।)

**सहस नाम सम सुनि शिवबानी। जपि जेईं पिय संग भवानी॥**
भाष्य

शिव जी की वाणी से अनेक सहस्रनामों के समान सुनकर, जिस राम नाम को अपने प्राण प्रिय शिव जी के साथ जपकर पार्वती जी ने भगवान्‌ शङ्कर जी के साथ प्रसाद पाया ।

**हरषे हेतु हेरि हर ही को। किय भूषन तिय भूषन ती को॥ नाम प्रभाव जान शिव नीको। कालकूट फल दीन्ह अमी को॥**
भाष्य

भगवान्‌ शङ्कर जी, पार्वती जी के हृदय में राम नाम का दिव्य प्रेम देखकर बहुत प्रसन्न हुए और स्त्रीभूषण पार्वती जी को अपने अंग का आभूषण बना लिया, अर्थात्‌ रामनाम के प्रभाव से ही पार्वती जी ने शिव जी का अर्द्धांग प्राप्त कर लिया। शिव जी राम नाम का प्रभाव भली–भाँति जानते हैं। राम नाम ने शिव जी को काल कूट का अमृतफल दे दिया अथवा राम नाम के प्रभाव से ही विष ने भी शिव जी को अमृत का फल दिया।

**दो०- बरषा रितु रघुपति भगति, तुलसी शालि सुदास।** **राम नाम बर बरन जुग, सावन भादव मास॥१९॥**
भाष्य

श्रीराम जी की भक्ति वर्षा–ऋतु के समान है और भगवद्‌भक्त सुन्दर धान (ज़डहन) के समान हैं। तुलसीदास कहते हैं कि, राम नाम के दोनों अक्षर ‘रकार’ और ‘मकार’ सावन–भादो के समान हैं।

**आखर मधुर मनोहर दोऊ। बरन बिलोचन जनजिय जोऊ॥ सुमिरत सुलभ सुखद सब काहू। लोक लाहु परलोक निबाहू॥** [[२६]]
भाष्य

ये दोनों ‘रकार’ और ‘मकार’ अक्षर बड़े ही मधुर तथा मनोहर हैं और यही सभी वर्णों के नेत्र रूप हैं। भगवद्‌भक्तों! इन्हें हृदय के नेत्र से देखो। ये स्मरण करने में सुखदायक और सभी के लिए सुलभ हैैं, इनको जपने से लोक में लाभ और परलोक में निर्वाह हो जाता है।

**कहत सुनत सुमिरत सुठि नीके। राम लखन सम प्रिय तुलसी के॥ बरनत बरन प्रीति बिलगाती। ब्रह्म जीव सम सहज सँघाती॥**
भाष्य

ये कहने, सुनने और समझने में अत्यन्त सुंदर लगते हैं और मुझ तुलसीदास को तो राम नाम के दोनों अक्षर श्रीराम जी तथा श्रीलक्ष्मण जी के समान प्रिय हैं। वर्णों की दृष्टि से वर्णन करने में तो प्रीति अलग हो जाती है, अर्थात्‌ ‘र’ का उच्चारण स्थान मूर्द्धा है और ‘म’ का ओष्ठ परन्तु इन दोनों में पृथक्‌ता होते हुए भी राम नाम के दोनों अक्षर वर्णधर्म की सीमा से ऊपर उठकर ब्रह्म और जीव के समान परस्पर स्वाभाविक मित्र हैं।

**नर नारायन सरिस सुभ्राता। जग पालक विशेष जन त्राता॥ भगति सुतिय कल करन बिभूषन। जग हित हेतु बिमल बिधु पूषन॥**
भाष्य

ये नर और नारायण के समान श्रेष्ठ सगे भाई–भाई हैं। ये जगत्‌ के पालक और विशेष रूप से भक्तों के रक्षक हैं। राम नाम के दोनों वर्ण भक्तिरूपिणी सौभाग्यवती महिला के दो कर्णालंकार हैं। जगत्‌ के हित के लिए ये दोनों अक्षर निर्मल चन्द्र और सूर्य हैं।

**स्वाद तोष सम सुगति सुधा के। कमठ शेष सम धर बसुधा के॥ जन मन मंजु कंज मधुकर से। जीह जसोमति हरि हलधर से॥**
भाष्य

ये राम नाम के दोनों अक्षर सुगति रूपिणी सुधा अर्थात्‌ अमृत के स्वाद और संतोष हैं। ये ही दोनों अक्षर कच्छप और शेष नारायण के समान पृथ्वी को धारण करनेवाले हैं। ये ही ‘रकार’ और ‘मकार’ भक्तों के मधुर मनरूप कमल के दो भौंरे हैं। राम नाम के दोनों अक्षर जिह्वारूप यशोदा जी के लिए कृष्ण और बलराम हैं।

**दो०- एक छत्र एक मुकुटमनि, सब बरनन पर जोउ।** **तुलसी रघुबर नाम के, बरन बिराजत दोउ॥२०॥**
भाष्य

तुलसीदास जी कहते हैं कि देखो, श्रीरघुनाथ जी के राम नाम के ‘रकार’ और ‘मकार’ नामक दोनों वर्ण सभी वर्णों के ऊपर ‘रकार’ अर्थात्‌ छत्र के रूप में और ‘मकार’ अर्थात्‌ मुकुटमणि के रूप में विराज रहे हैं।

**समुझत सरिस नाम अरु नामी। प्रीति परसपर प्रभु अनुगामी॥ नाम रूप दुइ ईश उपाधी। अकथ अनादि सुसामुझि साधी॥**
भाष्य

समझने में तो राम नाम और उसके अर्थ रूप भगवान्‌ श्रीराम जी एक समान हैं, परन्तु इनकी प्रीति स्वामी और सेवक जैसी है अर्थात्‌ नाम स्वामी और नामी सेवक है, पर नाम और रूप ये दोनों ईश्वर की उपाधियाँ हैं, जो अकथनीय, आदिरहित तथा सुन्दर समझनेवाली शक्ति द्वारा ही साध्य हैं।

**को बड़ छोट कहत अपराधू। सुनि गुन भेद समुझिहैं साधू॥ देखिय रूप नाम आधीना। रूप ग्यान नहिं नाम बिहीना॥**
भाष्य

कौन बड़ा है और कौन छोटा, यह कहना अपराध होगा। इनके गुणों का भेद सुनकर साधुजन स्वयं समझ जायेंगे। नाम के अधीन ही रूप देखे जा सकते हैं, नाम के बिना रूप का ज्ञान नहीं होता।

**रूप बिशेष नाम बिनु जाने। कर तल गत न परहिं पहिचाने॥ सुमिरिय नाम रूप बिनु देखे। आवत हृदय सनेह बिशेषे॥** [[२७]]
भाष्य

नाम को जाने बिना हथेली में रहने पर भी रूप विशेष पहचाना नहीं जा सकता परन्तु रूप को बिना देखे भी नाम का स्मरण करने से रूप विशेष स्नेह के साथ हृदय में आ जाता है।

**नाम रूप गति अकथ कहानी। समुझत सुखद न परति बखानी॥ अगुन सगुन बिच नाम सुसाखी। उभय प्रबोधक चतुर दुभाखी॥**
भाष्य

नाम, रूप की गति और कथा ये दोनों ही अकथनीय हैं यह समझने में तो सुखद है पर कही नहीं जा सकती। निर्गुण और सगुण के बीच राम नाम ही सुन्दर साक्षी है, यह दोनों को समझानेवाला चतुर दुभाषिया है।

**दो०- राम नाम मनिदीप धरु, जीह देहरी द्वार।** **तुलसी भीतर बाहेरहुँ, जौ चाहसि उजियार॥२१॥**
भाष्य

हे तुलसीदास! यदि भीतर और बाहर अत्यन्त प्रकाश चाहते हो, तो अपनी जिह्वा के द्वाररूप देहरी पर राम नामरूप मणिदीप को स्थापित कर लो।

**नाम जीह जपि जागहिं जोगी। बिरति बिरंचि प्रपंच बियोगी॥ ब्रह्म सुखहिं अनुभवहिं अनूपा। अकथ अनामय नाम न रूपा॥**
भाष्य

ब्रह्मा जी के प्रपंच से दूर रहनेवाले वैराग्यवान्‌ योगीजन भी अपनी जिह्वा से राम नाम का जप करके जग जाते हैं अर्थात्‌ ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं और अकथनीय सांसारिक रोगों से रहित, प्राकृतिक नाम रूप से दूर, अनुपम ब्रह्मसुख का भी ज्ञानीजन राम नाम के जप के बल से अनुभव कर लेते हैं।

**जाना चहहिं गू़ढ गति जेऊ। नाम जीह जपि जानहिं तेऊ॥ साधक नाम जपहिं लय लाए। होहिं सिद्ध अनिमादिक पाए॥ जपहिं नाम जन आरत भारी। मिटहिं कुसंकट होहिं सुखारी॥**
भाष्य

जो जिज्ञासु जन परमात्मा की गू़ढ अर्थात्‌ परमेश्वर के गोपनीय रहस्य को जानना चाहते हैं, वे भी अपनी जिह्वा से राम नाम का जप करके उसे जान लेते हैं। जो साधक लय लगाकर अर्थात्‌ नाम जप में मनोवृत्ति को लीन करके राम नाम का जप करते हैं वे अणिमा, गरिमा, महिमा, लघिमा, प्राप्ती, प्राकाम्य, ईशित्व, वशित्व आदि सिद्धियों को प्राप्त करके सिद्ध हो जाते हैं। अत्यन्त आर्तजन राम नाम का जप करते हैं तो उनके बुरे संकट नष्ट हो जाते हैं और वे सुखी हो जाते हैं। (इस प्रकार राम नाम जप से ज्ञानी, जिज्ञासु, अर्थार्थी और आर्त इन चारों भक्तों का लाभ होता है।)

**राम भगत जग चारि प्रकारा। सुकृती चारिउ अनघ उदारा॥ चहु चतुरन कहँ नाम अधारा। ग्यानी प्रभुहिं बिशेष पियारा॥**
भाष्य

संसार में आर्त, जिज्ञासु, अर्थार्थी, ज्ञानी ये चार प्रकार के रामभक्त हैं। ये चारों ही सुकृती, निष्पाप और उदार हैं। आर्त अर्थ और काम की सिद्धि के लिए भगवान्‌ का भजन करते हैं, जिज्ञासु धर्म और मोक्ष की सिद्धि के लिए, अर्थार्थी अर्थ सिद्धि के लिए तथा ज्ञानी तत्त्वज्ञान द्वारा आत्मा की मुक्ति के लिए अथवा ज्ञान प्राप्त होने पर भी भजन का आनन्द लेने के लिए भगवान्‌ का भजन करते हैं। इन चारों चतुर श्रीरामभक्तों का नाम ही आधार है (जैसा चौपाई के पूर्वार्द्ध में कहा जा चुका है।) इन सभी भक्तों में ज्ञानी प्रभु श्रीराम को विशेष प्रिय हैं क्योंकि वे परमेश्वर की नि:स्वार्थ भक्ति करते हैं।

**चहुँ जुग चहुँ श्रुति नाम प्रभाऊ। कलि बिशेष नहिं आन उपाऊ॥** [[२८]]
भाष्य

चारों युगों और चारों वेदों में श्रीराम नाम का ही प्रभाव है, कलियुग में तो विशेषकर, क्योंकि इसमें श्रीराम नाम जप के अतिरिक्त मुक्ति और भक्ति का कोई उपाय ही नहीं हैं ।

**दो०- सकल कामनाहीन जे, राम भगतिरस लीन।** **नाम सुप्रेम पियूष ह्रद, तिनहुँ किए मन मीन॥२२॥**
भाष्य

जो लोग सभी कामनाओं से रहित होकर एकमात्र श्रीराम भक्तिरस में लीन रहते हैं, ऐसे निष्किंचन जन भी श्रीराम नाम के प्रेम रूप सरोवर में अपने मन को मछली बनाकर मग्न किये रहते हैं अर्थात्‌ अपने मन को राम नाम से एक भी क्षण अलग नहीं करते।

**अगुन सगुन दुइ ब्रह्म स्वरूपा। अकथ अगाध अनादि अनूपा॥ मोरे मत बड़ नाम दुहूँ ते। किए जेहिं जुग निज बस निज बूते॥**
भाष्य

निर्गुण और सगुण ये दोनों ब्रह्म के स्वरूप हैं, दोनों ही अकथनीय, अगाध, आदिरहित और उपमा से रहित हैं। मेरे (तुलसीदास) के मत में श्रीराम नाम निर्गुण और सगुण दोनों ही ब्रह्मस्वरूपों से बड़ा है, जैसे श्रीराम नाम ने निर्गुण तथा सगुण दोनों ब्रह्मस्वरूपों को अपने ही बल से अपने वश में कर रखा है।

**प्रौढि़ सुजन जनि जानहिं जन की। कहउँ प्रतीति प्रीति रुचि मन की॥**
भाष्य

सज्जन लोग इस कथन के आधार पर मुझ सेवक तुलसीदास की प्रौढि़ अर्थात्‌ गर्वोक्ति न समझें, मैं तो अपने मन की प्रतीति (विश्वास), प्रीति तथा रुचि कह रहा हूँ।

**एक दारुगत देखिय एकू। पावक सम जुग ब्रह्म बिबेकू॥ उभय अगम जुग सुगम नाम ते। कहेउँ नाम बड़ ब्रह्म राम ते॥**
भाष्य

दोनों ब्रह्मस्वरूप अग्नि के समान हैं, जैसे एक अग्नि अरणी नामक लक़डी में छिपा रहता है और एक अग्नि स्पष्ट रूप में दिख पड़ता है। इन्हीं दो अग्नियों के समान निर्गुण, सगुण दोनों ब्रह्म का विवेचन समझना चाहिए अर्थात्‌ निर्गुण ब्रह्म लक़डी में छिपे अग्नि के समान और सगुण ब्रह्म प्रत्यक्ष अग्नि के समान हैं। दोनों ही (निर्गुण ब्रह्म तथा सगुण ब्रह्म) अगम हैं, परन्तु श्रीराम नाम से दोनों ही सुगम हो जाते हैं, इसलिए मैंने श्रीराम नाम को निर्गुण ब्रह्म और सगुण राम से भी बड़ा कहा है।

**ब्यापक एक ब्रह्म अबिनाशी। सत चेतन घन आनँद राशी॥ अस प्रभु हृदय अछत अबिकारी। सकल जीव जग दीन दुखारी॥ नाम निरूपन नाम जतन ते। सोउ प्रगटत जिमि मोल रतन ते॥**
भाष्य

निर्गुण ब्रह्म सर्वव्यापक, अद्वितीय, नाशरहित तथा सत्य और चेतना का घनीभूत विग्रह एवं आनन्द की राशि है। ऐसे सर्वसमर्थ, निर्विकार, निर्गुण ब्रह्म को अन्तर्यामी रूप में प्रत्येक प्राणी के हृदय में रहते हुए भी सम्पूर्ण जीव–जगत्‌ दीन और दु:खी है। निर्गुण ब्रह्म हृदय में रहते हुए भी जीव के उन तापों को नहीं दूर कर पाता, क्योंकि वह सोता रहता है, परन्तु वह निष्क्रिय ब्रह्म भी श्रीराम नाम के निरूपण अर्थात्‌ माहात्म्य ज्ञान तथा जतन अर्थात्‌ जपरूप यत्न से उसी प्रकार प्रकट हो जाता है, जैसे निरूपण और रक्षण के माध्यम से रत्न से उसका मूल्य प्रकट हो जाता है।

**विशेष– **कितना भी मूल्यवान हीरा तब तक अपना उचित मूल्य नहीं दे पाता, जब तक जौहरी के द्वारा उसे जानकर उसकी रक्षा नहीं की जाती, क्योंकि सामान्य व्यक्ति पत्थर का टुक़डा जान उसे फेंक सकता है।

दो०- निरगुन ते एहि भाँति बड़, नाम प्रभाव अपार।
कहउँ नाम बड़ राम ते, निज बिचार अनुसार॥२३॥

[[२९]]

भाष्य

इस प्रकार निर्गुण ब्रह्म से श्रीराम नाम का अपार प्रभाव बड़ा है। अब मैं अपने विचार के अनुसार श्रीराम नाम को श्रीराम से भी बड़ा कह रहा हूँ।

**राम भगत हित नर तनु धारी। सहि संकट किए साधु सुखारी॥ नाम सप्रेम जपत अनयासा। भगत होहिं मुद मंगल बासा॥**
भाष्य

श्रीराम ने भक्तों के लिए मनुष्य शरीर धारण किया और कष्ट सहकर देवताओं तथा सन्तों को सुखी किया, किन्तु श्रीराम नाम को तो प्रेमपूर्वक जपने मात्र से भक्तजन अनायास ही हर्ष और मंगल के निवास स्थान बन जाते हैं ।

**राम एक तापस तिय तारी। नाम कोटि खल कुमति सुधारी॥**
भाष्य

श्रीराम ने तो एकमात्र तपस्वी गौतम जी की पत्नी अहिल्या जी का उद्धार किया, किन्तु श्रीराम नाम ने तो करोड़ों खलों की कुबुद्धियों को सुधारा।

**ऋषि हित राम सुकेतु सुता की। सहित सैन सुत कीन्ह बिबाकी॥ सहित दोष दुख दास दुराशा। दलइ नाम जिमि रबि निशि नाशा॥**
भाष्य

श्रीराम ने महर्षि विश्वामित्र के हित के लिए सुकेतु नामक यक्ष की पुत्री ताटका को उसके पुत्रों और उनकी सेना सहित युद्ध में समाप्त किया, परन्तु श्रीराम नाम तो आज भी अपने भक्तों के दोष, दु:ख और दुराशा को उसी प्रकार नष्ट करता आ रहा है, जैसे सूर्यनारायण रात्रि को नष्ट कर दिया करते हैं ।

**भंजेउ राम आपु भव चापू। भव भय भंजन नाम प्रतापू॥**
भाष्य

श्रीराम ने स्वयं भगवान्‌ शङ्कर जी के धनुष को तोड़ा परन्तु श्रीराम नाम का प्रताप ही भव अर्थात्‌ संसार के भय को नष्ट कर देता है, वहाँ श्रीराम नाम को कुछ भी नहीं करना पड़ता।

**दंडक बन प्रभु कीन्ह सुहावन। जन मन अमित नाम किए पावन॥ निशिचर निकर दले रघुनंदन। नाम सकल कलि कलुष निकंदन॥**
भाष्य

प्रभु श्रीराम ने दंडक वन को शुक्राचार्य अथवा महर्षि गौतम के शाप से मुक्त करके उसे सुहावना अर्थात्‌ हरा–भरा बनाया। श्रीराम नाम ने तो अनेक भक्तों के मन को पवित्र कर दिया। रघुनन्दन श्रीराम ने तो खर, दूषण, त्रिशिरा सहित चौदह हजार राक्षसों का वध किया, परन्तु श्रीराम नाम तो कलियुग के सम्पूर्ण पापों को नष्ट करता रहता है।

**दो०- शबरी गीध सुसेवकनि, सुगति दीन्ह रघुनाथ।** **नाम उधारे अमित खल, बेद बिदित गुन गाथ॥२४॥**
भाष्य

श्रीराम जी ने तो शबरी और जटायु जैसे सुन्दर सेवकों को सुगति दी, परन्तु श्रीराम नाम ने तो असंख्य कभी न सुधरनेवाले दुष्टों का उद्धार कर दिया। श्रीराम नाम की गुणगाथायें वेदों मे प्रसिद्ध हैं।

**राम सुकंठ बिभीषण दोऊ। राखे सरन जान सब कोऊ॥ नाम गरीब अनेक निवाजे। लोक बेद बर बिरद बिराजे॥**
भाष्य

श्रीराम ने सुग्रीव और विभीषण इन दो भक्तों को अपने शरण में रखा यह बात सभी लोग जानते हैं, परन्तु श्रीराम नाम ने तो अनेक दीनजनों को निवाजा अर्थात्‌ सम्मानित किया। श्रीराम नाम के श्रेष्ठ यश लोकों और चारों वेदों में विराज रहे हैं।

**राम भालु कपि कटक बटोरा। सेतु हेतु श्रम कीन्ह न थोरा॥ नाम लेत भवसिंधु सुखाहीं। करहु बिचार सुजन मन माहीं॥** [[३०]]
भाष्य

श्रीराम ने भालुओं और वानरों की सेना को इकट्ठा किया और समुद्र में सेतु बाँधने के लिए थोड़ा नहीं अर्थात्‌ बहुत श्रम किया। पहले मंत्रणा की, फिर तीन दिनपर्यन्त समुद्र के तट पर अनशन करके उससे मार्ग माँगा, फिर इस नीति के असफल हो जाने पर श्रीलक्ष्मण के पक्ष का अनुसरण करते हुए आग्नेय बाण का संधान करके समुद्र कोप्रतातिड़ किया। फिर नल, नील की सहायता से अनेक वृक्षों और पर्वतों को दूर–दूर से मँगाकर सागर में तैराया, फिर श्रीराम नाम की कृपा से सभी को एकदूसरे से जोड़ा परन्तु श्रीराम नाम के तो उच्चारण मात्र से अनेक भवसागर सूख जाते हैं। हे सज्जनो! मन में विचार तो करो।

**राम सकुल रन रावन मारा। सीय सहित निज पुर पगु धारा॥ राजा राम अवध रजधानी। गावत गुन सुर मुनि बर बानी॥ सेवक सुमिरत नाम सप्रीती। बिनु श्रम प्रबल मोह दल जीती॥ फिरत सनेह मगन सुख अपने । नाम प्रसाद सोच नहिं सपने॥**
भाष्य

श्रीराम ने युद्ध में कुल सहित रावण का वध किया और श्रीसीता जी के साथ अपने पुर श्रीअवध को पधारे। श्रीराम जी राजा बने अयोध्या उनकी राजधानी बनी। उनके गुण देवता, श्रेष्ठ मुनिगण और सरस्वती जी गा रही हैं, परन्तु सेवकजन प्रेमपूर्वक श्रीराम नाम का स्मरण करके श्रम के बिना अत्यन्त प्रबल मोह के दल को जीतकर, स्नेह में मग्न होकर, अपने अर्थात्‌ आत्मानन्द के साथ निश्चिन्त भ्रमण करते रहते हैं। श्रीराम नाम के प्रसाद से स्वप्न में भी उन्हें किसी प्रकार का शोक नहीं होता।

**दो०- ब्रह्म राम ते नाम बड़, बर दायक बर दानि।** **रामचरित शत कोटि महँ, लिय महेश जिय जानि॥२५॥**
भाष्य

श्रीराम नाम, ब्रह्म अर्थात्‌ निर्गुण ब्रह्म से तथा श्रीराम अर्थात्‌ सगुण ब्रह्म से भी बड़ा है और यह वरदान देनेवालों को भी वरदान देने वाला है, इसलिए वरदानी देवताओं के भी वरदानी देवता भगवान्‌ शिव जी ने सौ करोड़ रामायणों में से श्रीराम नाम के दो अक्षरों को ही बाँटने की प्रक्रिया के पारिश्रमिक के रूप में इसकी श्रेष्ठता को जानकर ले लिया था।

**विशेष– **एक सौ करोड़ रामायणों का तीनों लोकों में विभाग करते समय प्रत्येक को तैंतीस करोड़, तैंतीस लाख, तैंतीस हजार तीन सौ दस का बँटवारा करके शिव जी ने यही श्रीराम नाम के दो अक्षर पारिश्रमिक के रूप में ले लिया।

नाम प्रसाद शंभु अबिनाशी। साज अमंगल मंगल राशी॥
शुक सनकादि सिद्ध मुनि जोगी। नाम प्रसाद ब्रह्म सुख भोगी॥

भाष्य

श्रीराम नाम के प्रसाद से ही शिव जी कालकूट पी कर भी अविनाशी बन गये और मुण्डमाला श्मशान की विभूति, विष, सर्प आदि अमंगलों का साज स्वीकारते हुए भी मंगलों की राशि हो गये। शुकाचार्य, सनकादि एवं अन्य सिद्धमुनि और योगीजन श्रीराम नाम के प्रसाद से ही ब्रह्मसुख–भोग के अधिकारी बन गये।

**नारद जानेउ नाम प्रतापू। जग प्रिय हरि हरि हर प्रिय आपू॥ नाम जपत प्रभु कीन्ह प्रसादू। भगत सिरोमनि भे प्रहलादू॥**
भाष्य

देवर्षि नारद जी ने श्रीराम नाम का प्रताप जान लिया है। संसार को श्रीहरि विष्णु जी प्रिय हैं और विष्णु जी को शिव जी प्रिय हैं, परन्तु श्रीराम नाम के प्रताप से नारद जी, हरि (विष्णु जी) एवं हर (शिव जी) इन दोनों को प्रिय हैं। नाम के जपते ही प्रभु ने कृपा प्रसाद प्रकट किया और प्रह्‌लाद भक्तोंके शिरोमणि बन गये,

[[३१]]

अथवा श्रीराम नाम के जपते ही प्रभु ने प्रह्लाद को अपना प्रसादस्वरूप बना दिया और दैत्य–कुल में जन्म लेकर भी प्रह्लाद भक्त शिरोमणि बन बैठे।

ध्रुव सगलानि जपेउ हरि नाऊँ। पायउ अचल अनूपम ठाऊँ॥ सुमिरि पवनसुत पावन नामू। अपने बश करि राखे रामू॥

भाष्य

ध्रुव ने विमाता सुरुचि के द्वारा अपमानित होकर, ग्लानि के साथ श्रीहरि का नाम जप किया तथा अचल और उपमारहित स्थान अर्थात्‌ ध्रुवलोक प्राप्त कर लिया, जिसकी परिक्रमा सूर्यनारायण भी एक वर्ष में कर पाते हैं। पवित्र श्रीराम नाम का स्मरण करके श्रीहनुमान ने श्रीराम को ही अपने वश में कर रखा है।

**अपत अजामिल गज गनिकाऊ। भए मुक्त हरि नाम प्रभाऊ॥ कहौं कहाँ लगि नाम बड़ाई। राम न सकहिं नाम गुन गाई॥**
भाष्य

अत्यन्त अपवित्र अजामिल, गजेन्द्र और गणिका जैसे भी श्रीराम नाम के प्रभाव से मुक्त हो गये। मैं श्रीराम नाम की बड़ाई कहाँ तक कहूँ, श्रीराम भी अपने श्रीराम नाम के गुण नहीं गा सकते।

**दो०- नाम राम को कलपतरु, कलि कल्यान निवास।** **जो सुमिरत भयो भाँग ते, तुलसी तुलसीदास॥२६॥**
भाष्य

श्रीरघुनाथ का श्रीराम नाम सम्पूर्ण कल्याणों का निवास स्थान, इस कलियुग का कल्पवृक्ष है, जिसका स्मरण करते ही भांग–वृक्ष के समान निम्नकोटि का मैं तुलसीदास आज तुलसी–वृक्ष के समान सबका पूजनीय और प्रभु श्रीराम जी का प्रिय बन गया। स्वयं मधुसूदन सरस्वती जी ने भी कहा–

**आनन्दकानने कश्चित्‌ जंगमस्तुलसी तरु:। कविता मञ्जरी भाति रामभ्रमरभूषित:॥**

अर्थात्‌ आनन्द–वन, इस काशी में एक ऐसा अपूर्व तुलसीदासरूप तुलसी का वृक्ष है, जिसकी कविता ही मंजरी है और जो श्रीरामरूप भ्रमर से सुशोभित रहता है अर्थात्‌ तुलसीदास की कविता–मंजरी पर भौंरे के समान श्रीराम मंडराते रहते हैं।

चहुँ जुग तीनि काल तिहुँ लोका। भए नाम जपि जीव बिशोका॥

भाष्य

कृतयुग, त्रेतायुग, द्वापर तथा कलियुग इन चारों युगों में; भूत, वर्तमान, और भविष्यत्‌ इन तीनों कालों में; आकाश, पाताल और मर्त्यलोक इन तीनों लोकों में श्रीराम नाम का जप करने से ही जीव शोकरहित होता रहा है और होगा।

**बेद पुरान संत मत एहू । सकल सुकृत फल राम सनेहू॥ ध्यान प्रथम जुग मख बिधि दूजे। द्वापर परितोषत प्रभु पूजे॥ कलि केवल मल मूल मलीना। पाप पयोनिधि जन मन मीना॥ नाम कामतरु काल कराला। सुमिरत शमन सकल जग जाला॥**
भाष्य

चारों वेद, अठारहों पुराण और सभी वैदिक सन्तों का यही मत है कि, श्रीराम का प्रेम ही सम्पूर्ण सत्कर्मों का फल है। प्रथम्‌ अर्थात्‌ कृतयुग में ध्यान से, दूसरे अर्थात्‌ त्रेतायुग में विधिपूर्वक किये हुए यज्ञ से तथा द्वापर में पूजा से प्रभु प्रसन्न होते हैं, परन्तु कलिकाल तो एकमात्र सभी मलों अर्थात्‌ दोषों का मूल है और स्वयं भी मलों से व्याप्त है। यह पाप का महासागर जिसमें लोगों के मन मछली के समान मग्न होते रहते हैं अर्थात्‌ इस

[[३२]]

कलिकाल में कोई भी हरि–परितोषण व्रत नहीं किये जा सकते। इस कराल काल में तो श्रीराम नाम ही एक ऐसा कल्प वृक्ष है, जिसके स्मरण मात्र से सम्पूर्ण जगत्‌ का जाल नष्ट हो जाता है।

राम नाम कलि अभिमत दाता। हित परलोक लोक पितु माता॥ नहिं कलि करम न भगति बिबेकू। राम नाम अवलंबन एकू॥ कालनेमि कलि कपट निधानू। नाम सुमति समरथ हनुमानू॥

भाष्य

श्रीराम नाम इस कराल कलिकाल में मनोवांछित फल देनेवाला है, यह परलोक में हितैषी और लोक में पिता–माता के समान पालन करनेवाला है। इस कलिकाल में कर्म, उपासना और ज्ञान संभव ही नहीं है। इसमें तो श्रीराम नाम ही एकमात्र जीव का अवलम्बन है। कपट के निवासस्थान कलिकाल रूप कालनेमि को नय् करने के लिए श्रीराम नाम ही सुन्दर बुद्धि सम्पन्न समर्थ श्री हनुमान हैं ।

**दो०- राम नाम नरकेसरी, कनक कशिपु कलिकाल।** **जापक जन प्रहलाद जिमि, पालिहि दलि सुरसाल॥२७॥**
भाष्य

श्रीराम नाम श्रीनृसिंह भगवान्‌ हैं, कलिकाल हिरण्यकशिपु है और जापकजन प्रह्लाद हैं अर्थात्‌ जैसे प्रह्लाद की रक्षा करने के लिए खम्भे से प्रकट होकर श्रीनृसिंह भगवान्‌ ने हिरण्यकशिपु का वक्षस्थल विदीर्ण करके देवताओं का कष्ट दूर कर भक्त पह्लाद का पालन किया था, उसी प्रकार श्रीराम नाम महाराज नृसिंह भगवान्‌ के समान जीभरूप खम्भे से बैखरी वाणी में प्रकट होकर कलिकाल के प्रभाव को समाप्त करके सद्‌गुण रूप देवताओं के कष्टों का निवारण करके जापक प्रह्लाद की रक्षा करेंगे ।

**भाय कुभाय अनख आलसहूँ। नाम जपत मंगल दिशि दसहूँ॥ सुमिरि सो नाम राम गुन गाथा। करउँ नाइ रघुनाथहिं माथा॥**
भाष्य

भाव, कुभाव और क्रोध तथा आलस्य में भी श्रीराम नाम को जपने से दसों दिशाओं में मंगल होता है। उसी श्रीराम नाम का स्मरण करके श्रीरघुनाथ को मस्तक नवाकर मैं श्रीराम जी के गुणमयी गाथा का वर्णन कर रहा हूँ।

**मोरि सुधारिहिं सो सब भाँती। जासु कृपा नहिं कृपा अघाती॥ राम सुस्वामि कुसेवक मोसे। निज दिशि देखि दयानिधि पोसे॥**
भाष्य

वे ही प्रभु श्रीराम जी मेरी सब प्रकार से सुधार लेंगे, जिनकी कृपा से कृपा भी नहीं तृप्त होती अर्थात्‌ सामान्य कृपा को श्रीरघुनाथ के कृपा की निरन्तर ललक रह जाती है। श्रीराम, दया के सागर एवं उच्चकोटि के स्वामी हैं, इसलिए मुझ जैसे कुसेवकों को भी अपनी ओर अर्थात्‌ अपनी शरण में आया देखकर उन्होंने पाला पोसा।

**लोकहुँ बेद सुसाहिब रीती। बिनय सुनत पहिचानत प्रीती॥ गनी गरीब ग्रामनर नागर। पंडित मू़ढ मलीन उजागर॥ सुकबि कुकबि निज मति अनुहारी। नृपहिं सराहत सब नर नारी॥ साधु सुजान सुशील नृपाला। ईश अंश भव परम कृपाला॥ सुनि सनमानहिं सबहिं सुबानी। भनिति भगति मति गति पहिचानी॥**
भाष्य

लोक और वेद में भी यही सुन्दर स्वामी की रीति है कि, वे विनय सुनकर ही प्रीति को पहचानते हैं। धनाढ्‌य लोग, दीनजन, गॅंवार और चतुर, पंडित, मूर्ख, मलीनजन और उत्कृष्ट लोग, सुकवि तथा कुकवि (अभद्र

[[३३]]

रचना करनेवाले) इस प्रकार सभी नर, नारी अपनी–अपनी बुद्धि के अनुसार राजा की प्रशंसा करते हैं। ईश्वर के अंश से उत्पन्न प्रेमी, कृपालु, सात्विक आचरण करनेवाले, चतुर, सुन्दर स्वभाववाले राजागण सब की बातें सुनकर कविता, भक्ति और बुद्धि के गति को पहचानकर सब का सम्मान करते हैं।

यह प्राकृत महिपाल सुभाऊ। जान सिरोमनि कोसलराऊ॥ रीझत राम सनेह निसोते। को जग मंद मलिन मति मोते॥

भाष्य

यह तो साधारण राजा का स्वभाव होता है, परन्तु कोसल जनपद के राजा श्रीराम तो जाननेवालों के शिरोमणि अर्थात्‌ सर्वज्ञ हैं। प्रभु श्रीराम निसोतेअर्थात्‌ अविच्छिन्न स्नेह से ही रीझ जाते हैं। संसार में मुझ जैसा कौन मलीन बुद्धि और मूर्ख होगा जो राजाधिराज श्रीराम की समुचित प्रशंसा कर सके।

**दो०- शठ सेवक की प्रीति रुचि, रखिहैं राम कृपालु।**

**उपल किए जलयान जेहिं, सचिव सुमति कपि भालु॥२८(क)॥ भा०- **जिन प्रभु श्रीराम ने पत्थर को जल का यान बना लिया और वानर–भालू जैसे अव्यवस्थित बुद्धिवाले पशुओं को सुंदर बुद्धिसम्पन्न अपने मंत्री बनाये, ऐसे कृपालु प्रभु श्रीराम मुझ तुलसीदास जैसे शठसेवक की भी प्रीति एवं रूचि की रक्षा करेंगे।

दो०- हौंहु कहावत सब कहत, राम सहत उपहास।
साहिब सीतानाथ से, सेवक तुलसीदास॥२८(ख)

भाष्य

मैं भी स्वयं को श्रीराम जी का सेवक कहलवाता हूँ और सब लोग मुझे श्रीराम जी का सेवक कहते हैं, प्रभु श्रीराम जी यह उपहास सहन कर रहे हैं। कहाँ सीतापति श्रीराम जी जैसा स्वामी और कहाँ मुझ तुलसीदास जैसा अत्यन्त साधारण सेवक।

**अति बमिड़ ोरि ढिठाई खोरी। सुनि अघ नरकहुँ नाक सिकोरी॥ समुझि सहम मोहि अपडर अपनें। सो सुधि राम कीन्हि नहिं सपनें॥ सुनि अवलोकि सुचित चख चाही। भगति मोरि मति स्वामि सराही॥**
भाष्य

मेरी बहुत बड़ी ढिठाई मेरा बहुत बड़ा दोष है। मेरे इस पाप को सुनकर, नरक ने भी नाक सिकोड़ लिया अर्थात्‌ नरक में भी मेरे पाप का प्रायश्चित नहीं है। इस अपने द्वारा कल्पित किये हुए डर को समझ–समझ कर मुझे बहुत भय लग रहा है, परन्तु श्रीराम जी ने स्वप्न में भी उसका स्मरण नहीं किया, प्रत्युत्‌ मेरे सम्बन्ध में सुनकर और देखकर सुन्दर चिन्तन के चक्षु से निरीक्षण करके स्वामी श्रीराम ने मेरी भक्ति और मेरी बुद्धि की सराहना की।

**कहत नसाइ होइ हिय नीकी। रीझत राम जानि जन जी की॥ रहति न प्रभु चित चूक किए की। करत सुरति शत बार हिए की॥**
भाष्य

बात कहने से बिग़डती है और हृदय में रखने से अच्छी होती है। मैं भले ही लोगों के समक्ष अपने को अच्छा कहूँ, पर हृदय से तो अपने को साधनहीन और पापी स्वीकारता ही हूँ। भगवान्‌ राम भी प्राणी के हृदय की वास्तविकता जानकर ही रीझते हैं। प्रभु श्रीराम के मन में भक्त के चूक करने की बात नहीं रहती वे तो हृदय की ही परिस्थितियों का सैक़डो बार स्मरण करते हैं।

**जेहिं अघ बधेउ ब्याध जिमि बाली। फिरि सुकंठ सोइ कीन्ह कुचाली॥ सोइ करतूति बिभीषन केरी। सपनेहुँ सो न राम हिय हेरी॥** **ते भरतहिं भेंटत सनमाने। राजसभा रघुबीर बखाने॥**

[[३४]]

भाष्य

जिस ईश्वरापमानरूप पाप के कारण श्रीराम ने बालि को ब्याध की भाँति निर्दय होकर मारा, सुग्रीव ने भी फिर वही कुचाल की अर्थात्‌ जैसे तारा के कहने पर भी बालि श्रीराम को नहीं समझ सका और सुग्रीव से भिड़ गया, उसी प्रकार श्रीराम से मिलकर भी बालि वध के पश्चात्‌ सुग्रीव इतने प्रमादी हो गये कि, चार महीने तक प्रभु का कोई समाचार नहीं लिया, फिर भी सुग्रीव को प्रभु ने क्षमा किया। विभीषण की भी वही करतूत थी अर्थात्‌ प्रभु को जानते हुए भी रावणवध के पश्चात्‌ विभीषण भाई के मोह में फँसे और रावण के प्रति विलाप करने लगे। पुन: श्रीलक्ष्मण के समझाने पर सामान्य स्थिति में आये, परन्तु श्रीराम ने स्वप्न मंें भी सुग्रीव की कुचाल और विभीषण की करतूत का चिन्तन नहीं किया, क्योंकि वे दोनों श्रीराम जी के शरणागत थे। वनवास से लौटकर श्रीभरत जी से मिलते समय प्रभु ने इन्हीं दोनों सुग्रीव और विभीषण का भरत जी से परिचय कराकर सम्मान किया और अपने प्रथम राजसभा में पुरजनों और परिजनों के समक्ष इन दोनों की प्रशंसा की।

**दो०- प्रभु तरु तर कपि डार पर, ते किए आपु समान।** **तुलसी कहूँ न राम से, साहिब शीलनिधान॥२९\(क\)॥**
भाष्य

प्रभु श्रीराम वृक्ष के नीचे अर्थात्‌ धर्मरूप कल्पवृक्ष की छाया में हैं और वानर डाल पर अर्थात्‌ आश्रय की अनिश्चय दशा में कहाँ राजाधिराज मर्यादा पुरुषोत्तम परब्रह्म परमेश्वर और कहाँ डाल पर कूद–फाँद करनेवाला चंचल प्रवृत्ति का अव्यवस्थित वानर, उनको भी श्रीराघव सरकार ने अपने समान बना लिया अर्थात्‌ मित्र का पद देकर उन्हें राजकीय सम्मान दिया। तुलसीदास जी कहते हैं कि “हे तुलसीदास के मन! तुम्हीं बताओ श्रीराम जी के समान शील के निधान स्वामी कहीं हैं? अर्थात्‌ कहीं भी नहीं।

**राम निकाई रावरी, है सबही को नीक।** **जौ यह साँची है सदा, तौ नीको तुलसीक॥२९\(ख\)॥**

भा०- गोस्वामी तुलसीदास जी प्रभु श्रीराम से कार्पण्य भरे शब्दों में प्रार्थना करते हुए कहते हैं कि हे प्रभु श्रीराम! आपश्री की “निकाई” अर्थात्‌ सरलतापूर्वक उदारता सभी के लिए अच्छी है। आपका स्वभाव किसी के लिए बुरा है ही नहीं। यदि आपकी मत प्रकृति सदैव सत्य है तो मुझ तुलसीदास का भी भला ही होगा।

दो०- एहि बिधि निज गुन दोष कहि, सबहिं बहुरि सिर नाइ।

**बरनउँ रघुबर बिशद जस, सुनि कलि कलुष नसाइ॥२९(ग)॥ भा०- **इस प्रकार अपने गुण–दोष को कह कर फिर सभी को बार–बार प्रणाम करके, मैं रघुकुल में श्रेष्ठ श्रीराम के निर्मल यश का वर्णन करने जा रहा हूँ। इसे सुनकर कलियुग का पाप नष्ट हो जायेगा ।

जाग्यबल्क्य जो कथा सुहाई। भरद्वाज मुनिवरहिं सुनाई॥
कहिहउँ सोइ संबाद बखानी। सुनहु सकल सज्जन सुख मानी॥

भाष्य

जो सुहावनी श्रीराम कथा श्रीयाज्ञवल्क्य मुनि ने मुनिश्रेष्ठ भरद्वाज को सुनायी थी, मैं वही श्रीयाज्ञवल्क्य और श्रीभरद्वाज संवाद का बखान व्याख्यानपूर्वक कहूँगा सभी सन्तजन मन में सुख मान कर इसे सुनें।

**शंभु कीन्ह यह चरित सुहावा। बहुरि कृपा करि उमहिं सुनावा॥ सोइ शिव काग भुशुंडिहिं दीन्हा। राम भगत अधिकारी चीन्हा॥ तेहि सन जाग्यबल्क्य पुनि पावा। तिन पुनि भरद्वाज प्रति गावा॥ ते श्रोता बक्ता सम शीला । समदरशी जानहिं हरि लीला॥ जानहिं तीनि काल निज ग्याना। करतलगत आमलक समाना॥ औरउ जे हरिभगत सुजाना। कहहिं सुनहिं समुझहिं बिधि नाना॥** [[३५]]
भाष्य

भगवान्‌ शङ्कर ने इस सुहावने श्रीरामचरित की रचना की, फिर कृपा करके उन्होंने भगवती पार्वती जी को सुनाया। उसी श्रीरामचरित को शिव जी ने काकभुशुण्डि जी को दिया, क्योंकि उन्हें शिव जी ने श्रीराम जी का भक्त और मानस का अधिकारी वक्ता पहचान लिया था। उन्हीं काकभुशुण्डि जी से याज्ञवल्क्य जी ने यह श्रीरामचरित पाया और उन्होंने इसे मुनि भरद्वाज को गाकर सुनाया। वे दोनों श्रोता और वक्ता (भरद्वाज जी और याज्ञवल्क्य जी) समान स्वभाववाले हैं, जो सर्वत्र समरूप से श्रीराम जी के दर्शन करते हैं और भू–भारहारी श्रीराम की लीलाओं को जानते हैं। वे श्रोता और वक्ता (भरद्वाज और याज्ञवल्क्य जी) अपने अबाधित ज्ञान से तीनों कालों (भूत, वर्तमान्‌ और भविष्यत्‌) की घटनाओं को अपने हाथ में रखे हुए आँवले की भाँति जान लेते हैं। उसी परम्परा में और भी जो श्रीरामभक्त हैं, वे भी इस श्रीरामचरित्‌मानस को अनेक प्रकार से कहते, सुनते और समझते हैं। (यहाँ संकेत यह है कि, फिर भरद्वाज से सनकादि को श्रीरामचरितमानस प्राप्त हुआ और वे ही सनकादि इस कलिकाल में जगद्‌गुरु श्रीमद्‌आद्दरामानन्दाचार्य के चतुर्थ शिष्य नरहर्यानन्द जी के रूप में अवतीर्ण हुए, उन्हीं से श्रीरामचरितमानस सूकर क्षेत्र में श्री तुलसीदास जी को प्राप्त हुआ।)

**दो०- मैं पुनि निज गुरु सन सुनी, कथा सो सूकरखेत।** **समुझी नहिं तसि बालपन, तब अति रहेउँ अचेत॥३०\(क\)॥**
भाष्य

फिर मैंने (तुलसीदास) वही कथा सूकर क्षेत्र में अपने गुरुदेव श्री श्री १००८ श्री नरहर्यानन्द जी (श्रीनरहरिदास स्वामी जी) से सुनी। बाल्यावस्था में उस प्रकार से नहीं समझी, क्योंकि मैं तब बहुत अचेत था अर्थात्‌ चिन्तनशक्ति से शून्य था, इसलिए जैसी गुरुदेव ने कही वैसी नहीं समझी ।

**दो०- श्रोता बक्ता ग्याननिधि, कथा राम कै गू़ढ।**

**किमि समुझौं मैं जीव ज़ड, कलि मल ग्रसित बिमू़ढ॥३०(ख)॥ भा०- **श्रीराम की कथा बहुत गू़ढ होती है, उसके लिए श्रोता और वक्ता दोनों ही ज्ञान के निधान होने चाहिए। उतनी कठिन कथा को कलियुग के मलों से ग्रस्त अत्यन्त मूढ मैं कैसे समझ पाता?

तदपि कही गुरु बारहिं बारा। समुझि परी कछु मति अनुसारा॥ भाषा बद्ध करब मैं सोई। मोरे मन प्रबोध जेहिं होई॥

भाष्य

फिर भी मेरे गुरुदेव ने बार–बार यह कथा कही, तब मेरी बुद्धि के अनुसार कुछ समझ पड़ी। उसी गुरु परम्परा प्राप्त श्रीरामकथा को मैं अवधी भाषा में सोरठा, चौपाई, दोहा, छन्द आदि अठारह वृत्तों में बद्ध करके कहूँगा, जिससे मेरे मन को दिव्यज्ञान और संतोष हो।

**जस कछु बुधि बिबेक बल मेरे। तस कहिहउँ हिय हरि के प्रेरे॥**
भाष्य

मेरे पास जैसा कुछ बुद्धि और विवेक का बल है, उसी प्रकार मैं हरि अर्थात्‌ श्रीराम जी तथा श्री हनुमान जी एवं गुरुदेव श्री नरहरिदास की प्रेरणा से कहूँगा। (यहाँ हरि शब्द श्रीराम, श्री हनुमान जी और श्री गुरुदेव का वाचक है, क्योंकि हरि का अर्थ वानर भी होता है।)

**निज संदेह मोह भ्रम हरनी। करउँ कथा भव सरिता तरनी॥**
भाष्य

मैं अपने संदेह और मोहभ्रम को हरने वाली तथा संसाररूप नदी की नावरूप अलौकिक श्रीरामकथा का लेखन कर रहा हूँ।

**बुध बिश्राम सकल जन रंजनि। रामकथा कलि कलुष बिभंजनि॥ रामकथा कलि पन्नग भरनी। पुनि बिबेक पावक कहँ अरनी॥** [[३६]]
भाष्य

श्रीराम कथा बुद्धजनों को विश्राम देनेवाली तथा सभी प्राणियों को आनन्द देने वाली और कलियुग के मलों और पापों को नष्ट करनेवाली है, इसलिए श्रीरामकथा कलियुगरूप सर्प के लिए भरनी अर्थात्‌ मयूरी है, तात्पर्यत: जैसे मोरनी सर्प को खा जाती है, उसी प्रकार श्रीरामकथा कलियुग के प्रभाव को नष्ट कर देती है। फिर यह विवेकरूप अग्नि के लिए अरणी नामक लक़डी है, जैसे अरणी से अग्नि प्रकट होता है, उसी प्रकार श्रीरामकथा से विवेक प्रकट होता है।

**रामकथा कलि कामद गाई। सुजन सजीवनि मूरि सुहाई॥ सोइ बसुधातल सुधा तरंगिनि। भय भंजनि भ्रम भेक भुजंगिनि॥**
भाष्य

श्रीराम कथा कलियुग की कामधेनु गौ है और वह सन्त के लिए सुहावनी संजीवनी बूटी है, वही श्रीराम कथा इस पृथ्वीलोक में अमृत की नदी है। यह भय को नष्ट करनेवाली और भ्रम रूप मेंढक के लिए सर्पिणी है।

**असुरसेन सम नरक निकंदिनि। साधु बिबुध कुल हित गिरिनंदिनि॥ संत समाज पयोधि रमा सी। विश्व भार भर अचल छमा सी॥ जम गन मुँह मसि जग जुमना सी। जीवन मुकुति हेतु जनु कासी॥ रामहिं प्रिय पावनि तुलसी सी। तुलसीदास हित हिय हुलसी सी॥ शिवप्रिय मेकल शैल सुता सी। सकल सिद्धि सुख संपति रासी॥ सदगुन सुरगन अंब अदिति सी। रघुबर भगति प्रेम परमिति सी॥**
भाष्य

श्रीराम कथा असुरों की सेना रूप नरक–यातना को नष्ट करनेवाली सन्तरूप देवताओं की हितैषिणी साक्षात्‌ पर्वतपुत्री पार्वती के समान है, और यह सन्त–समाजरूप क्षीरसागर से उत्पन्न हुई लक्ष्मी के समान है और विश्व का भार धारण करने के लिए न चलायमान्‌ होनेवाली पृथ्वी के समान है। यह श्रीराम कथा यमगणों के मुख में कालिख लगाने के लिए, संसार में यमुना जी के समान है, जीवों की मुक्ति के लिए यह मानो काशी है। श्रीरामकथा पवित्र तुलसी के समान श्रीराम को प्रिय है और तुलसीदास के लिए हृदय में प्रेम से सम्पन्न माता हुलसी के समान है। श्रीरामकथा भगवान्‌ शङ्कर को मेकल पर्वतपुत्री नर्मदा के समान प्रिय है और यह सम्पूर्ण सिद्धियों, सुखों तथा सम्पत्तियों की राशि है। श्रेष्ठ गुण–रूप देवगणों के लिए यह माता अदिति के समान है, श्रीरामकथा श्रीराम जी की प्रेमाभक्ति की पराकाष्ठा है ।

**दो०- रामकथा मंदाकिनी, चित्रकूट चित चारु।** **तुलसी सुभग सनेह बन, सिय रघुबीर बिहारु॥३१॥**
भाष्य

तुलसीदास जी कहते हैं कि, श्रीरामकथा सुन्दर चित्त रूप चित्रकूट में बहनेवाली मंदाकिनी नदी है, जिसके सुभग अर्थात्‌ अलौकिक श्रीराम के स्नेह-वन में श्रीसीताराम जी का विहार हो रहा है। अथवा श्रीराम कथा मंदाकिनी नदी है और सुन्दर चित्र चित्रकूट। तुलसीदास जी कहते हैं कि, पवित्र स्नेह ही श्रीसीताराम जी का विहार–स्थल और श्रीरामकथा मंदाकिनी के तट पर विराजमान वन है।

**रामचरित चिंतामनि चारू। संत सुमति तिय सुभग सिंगारू॥ जग मंगल गुनग्राम राम के। दानि मुकुति धन धरम धाम के॥**
भाष्य

श्रीरामचन्द्र का चरित्र सुन्दर चिन्तामणि है, जो अपने श्रोता और वक्ता दोनों के मनोरथों को पूर्ण करता है। यह सन्त की सुन्दर बुद्धि का सुन्दर शृंगार है। प्रभु श्रीराम के गुणों के समूह जगत्‌ के मंगलस्वरूप हैं। ये मुमुक्षुओं को मुक्ति, अर्थार्थियों को धन, जिज्ञासुओं को धर्म तथा आर्तों को धाम अर्थात्‌ आश्रय देने वाले हैं।

[[३७]]

**सदगुरु ग्यान बिराग जोग के। बिबुध बैद भव भीम रोग के॥ जननि जनक सिय राम प्रेम के। बीज सकल ब्रत धरम नेम के॥**
भाष्य

श्रीराम के गुणग्राम ज्ञान, वैराग्य और योग के सद्‌गुरु हैं और संसाररूप भयंकर रोग को नष्ट करने के लिए ये देववैद्द अश्विनीकुमार हैैं। ये ही श्रीसीताराम प्रेम के जन्मदाता (माता–पिता) हैं। श्रीरामचरित सम्पूर्ण व्रतों, धर्मों, नियमों के बीज अर्थात्‌ कारण है।

**शमन पाप संताप शोक के। प्रिय पालक परलोक लोक के॥ सचिव सुभट भूपति बिचार के। कुंभज लोभ उदधि अपार के॥ काम कोह कलिमल करिगन के। केहरि शावक जन मन बन के॥**
भाष्य

ये पाप, संताप (दैविक, दैहिक, भौतिक कष्ट) और शोक का नाश करने वाले हैं। ये परलोक और लोक के प्रियपालक हैं। ये विचार रूप राजा के मंत्री और सैनिक हैं। ये अपार लोभ महासागर के लिए कुंभज अर्थात्‌ अगस्त्य के समान हैं। श्रीरामचरित काम, क्रोध तथा कलियुग के मल रूप हाथियांें के समूह को नय् करने के लिए भक्तों के मनरूप वन में निवास करने वाले सिंह के शावकों के समान है।

**अतिथि पूज्य प्रियतम पुरारि के। कामद घन दारिद दवारि के॥ मंत्र महामनि बिषय ब्याल के। मेटत कठिन कुअंक भाल के॥ हरन मोह तम दिनकर कर से। सेवक शालि पाल जलधर से॥ अभिमत दानि देवतरु वर से। सेवत सुलभ सुखद हरि हर से॥ सुकबि शरद नभ मन उडुगन से। रामभगत जन जीवन धन से॥ सकल सुकृत फल भूरि भोग से। जग हित निरुपधि साधु लोग से॥ सेवक मन मानस मराल से। पावन गंग तरंग माल से॥**
भाष्य

श्रीरामचरित त्रिपुर के शत्रु शिव जी के पूज्य तथा बहुत प्रिय अतिथि हैं। श्रीरामचरित दरिद्रता रूप दावानल को बुझानेवाले अभीष्ट कामनाओं के दाता मेघ हैं। श्रीरामचरित विषय रूप सर्प को नियन्त्रित करने वाले महामंत्र और मणि हैं। ये मस्तक पर लिखे हुए कठिन कुअंक अर्थात्‌ प्रतिकूल ब्रह्मलेख को भी मिटानेवाले हैं। श्रीरामचरित मोहरूप अंधकार का हरण करनेवाले सूर्य–किरण के समान है। ये सेवक रूप धान को पालने वाले मेघ हैं। श्रीरामचरित कल्पवृक्ष के समान मनोवांछित कामनाओं कोदेनेवाले हैं। ये ही सेवा करने में अतिसुलभ और भगवान्‌ विष्णु जी तथा शङ्कर जी के समान सुख देनेवाले हैं। श्रीरामचरित श्रेष्ठ कवियों के मनरूप शरदकालीन आकाश के तारागणों के समान हैं। ये ही श्रीराम–भक्तों के जीवनधन के समान हैं। श्रीरामचरित सम्पूर्ण सत्कर्मों के फलस्वरूप और अनन्त भोगों के समान हैं। यही संसार के हितैषी निष्कपट साधु लोगों के समान हैं। श्रीरामचरित सेवकों के मन रूप मानस सरोवर में विहार करने वाले हंसों के समान हैं और श्रीराम जी के चरित्र श्री गंगा जी के लहरों की माला के समान पवित्र हैं।

**दो०- कुपथ कुतरक कुचालि कलि, कपट दंभ पाखंड।** **दहन राम गुन ग्राम जिमि, इंधन अनल प्रचंड॥३२\(क\)॥**
भाष्य

जिस प्रकार प्रचंड अर्थात्‌ प्रज्वलित अग्नि ईंधन को जला देता है, उसी प्रकार श्रीराम जी के गुणग्राम, कुमार्ग, कुत्सित तर्क, काल की कुचाल, कपट, दंभ तथा पाखंड को भस्म करनेवाले हैं।

**दो०- रामचरित राकेश कर, सरिस सुखद सब काहु।** **सज्जन कुमुद चकोर चित, हित बिशेष बड़ लाहु॥३२\(ख\)॥**

[[३८]]

भाष्य

श्रीराम जी के चरित्र पूर्णिमा के चन्द्रमा की किरणों के समान सभी के लिए सुखद हैं। सन्तजनरूप कुमुद पुष्प और चित्तरूप चकोर के लिए तो श्रीरामचरित से विशेष हित और बहुत लाभ है।

**कीन्ह प्रश्न जेहि भाँति भवानी। जेहि बिधि शङ्कर कहा बखानी॥ सो सब हेतु कहब मैं गाई। कथा प्रबंध बिचित्र बनाई॥**
भाष्य

जिस प्रकार से भवानी अर्थात्‌ भगवती पार्वती जी ने शिव जी से प्रश्न किये और शङ्कर जी ने जिस विधि से उनके प्रश्नोें का व्याख्यान सहित उत्तर दिया, मैं विचित्र कथा–प्रबन्ध की रचना करके वह सब हेतु सोरठा, चौपाई, दोहा और छन्द में गा कर कहूँगा।

**जेहिं यह कथा सुनी नहिं होई। जनि आचरज करै सुनि सोई॥ कथा अलौकिक सुनहिं जे ग्यानी। नहिं आचरज करहिं अस जानी॥**
भाष्य

जिसने मानस रामायण की यह कथा पहले नहीं सुनी हो वह इसे सुनकर आश्चर्य न करे, अर्थात्‌ यह कथा प्रथम सुनने वाला कहीं ऐसा न सोच बैठे कि यह कथा वाल्मीकि रामायण से भिन्न होने के कारण अप्रमाणित है। जो ज्ञानीजन इस अलौकिक कथा को सुनते हैं वह यह जान कर आश्चर्य नहीं करते।

**रामकथा कै मिति जग नाहीं। असि प्रतीति तिन के मन माहीं॥ नाना भाँति राम अवतारा। रामायन शत कोटि अपारा॥**
भाष्य

उनके मन में इस प्रकार का विश्वास रहता है कि, संसार में श्रीराम जी के चरित्र की कोई सीमा नहीं है। श्रीराम जी के अवतार अनेक प्रकार के हैं और वाल्मीकि जी द्वारा सौ करोड़ रामायण बनायी गयीं उनके अतिरिक्त अन्य मुनियों द्वारा भी अनेक रामायण बनायी गयी हैं।

**कलप भेद हरि चरित सुहाए। भाँति अनेक मुनीशन गाए॥ करिय न संशय अस उर आनी। सुनिय कथा सादर रति मानी॥**
भाष्य

पुराणों की दृय्ि से कल्पभेद के कारण प्रकट हुए अनेक प्रकार के सुहावने श्रीरामचरित्र को मुनियों ने गाया है। ऐसा विचार हृदय में लाकर संशय न कीजिये और प्रभु के चरणों में प्रेम मानकर आदरपूर्वक यह कथा सुनिये।

**दो०- राम अनंत अनंत गुन, अमित कथा बिस्तार।** **सुनि आचरज न मानिहैैं, जिन के बिमल बिचार॥३३॥**
भाष्य

श्रीराम जी अनन्त हैं, उनके गुण भी अन्तरहित हैं, उनकी कथाओं का विस्तार असीम है। जिनके विचार निर्मल हैं, वे इस कथा को सुनकर आश्चर्य नहीं करेंगे।

**एहि बिधि सब संशय करि दूरी। सिर धरि गुरु पद पंकज धूरी॥ पुनि सबहीं बिनवउँ कर जोरी। करत कथा जेहिं लाग न खोरी॥**
भाष्य

इस प्रकार सभी के संशयों को दूर करके श्रीगुरुदेव के चरणकमल की धूलि सिर पर धारण करके फिर सभी से हाथ जोड़कर विनय कर लेता हूँ, जिससे मानसकथा कहने में दोष न लगे।

**सादर शिवहिं नाइ अब माथा। बरनउँ बिशद राम गुन गाथा॥ संबत सोरह सै एकतीसा। करउँ कथा हरि पद धरि शीसा॥**
भाष्य

मैं तुलसीदास अब आदरपूर्वक शिव जी को मस्तक नवाकर निर्मल श्रीरामकथा का वर्णन करता हूँ। विक्रमी संवत्‌ १६३१ के प्रारम्भ में हरि श्रीराम जी के तथा हरि अर्थात्‌ वानरश्रेष्ठ श्रीहनुमान जी के एवं हरि

[[३९]]

अर्थात्‌ श्रीगुरुदेव नरहरिदास के श्रीचरणों को मस्तक पर धारण करके, मैं तुलसीदास अवधी भाषा में श्रीरामकथा को कह रहा हूँ।

नौमी भौम बार मधु मासा। अवधपुरी यह चरित प्रकासा॥ जेहि दिन राम जनम श्रुति गावहिं। तीरथ सकल इहाँ चलि आवहिं॥ असुर नाग खग नर मुनि देवा। आइ करहिं रघुनायक सेवा॥ जन्म महोत्सव रचहिं सुजाना। करहिं राम कल कीरति गाना॥

भाष्य

विक्रम संवत्‌ १६३१ के चैत्र शुक्ल नवमी, मंगलवार के दिन श्री अवधपुरी में मेरे हृदय में यह चरित्र प्रकाशित हुआ, श्रुति जिस दिन को श्रीराम जन्मदिन के रूप में गाती है और जिस दिन सम्पूर्ण तीर्थ यहाँ अर्थात्‌ श्रीअवधपुरी में पैदल चलकर आ जाते हैं। असुर (देवताओं के विरोधी दैत्यजन), नाग (सर्पजन), पक्षी, मनुष्य, मुनि और देवता, ये सब जिस श्रीरामनवमी के दिन श्रीअयोध्या में आकर रघुनायक श्रीरामलला की सेवा करते हैं। चतुर श्रीवैष्णव भक्तजन श्रीराम जी के जन्ममहोत्सवों की रचना करते हैं और अनेक पदावलियों अर्थात्‌ बधाई गीतों द्वारा श्रीराम जी की मधुरकीर्ति का गान करते हैं।

**दो०- मज्जहिं सज्जन बृंद बहु, पावन सरजू नीर।** **जपहिं राम धरि ध्यान उर, सुन्दर श्याम शरीर॥३४॥**
भाष्य

जिस श्रीरामनवमी के दिन प्रात:काल से ही अनेक सज्जनों के समूह पवित्र श्रीसरयू–जल में मज्जन करते हैं अर्थात्‌ गोते लगाते हैं और हृदय में श्रीरामलला के सुन्दर श्यामल शरीर का ध्यान धारण करके श्रीराम नाम का जप करते हैं।

**दरस परस मज्जन अरु पाना। हरइ पाप कह बेद पुराना॥ नदी पुनीत अमित महिमा अति। कहि न सकइ शारदा बिमलमति॥**
भाष्य

वेद और पुराण यह कहते हैं कि, दर्शन, आचमन, स्नान और जलपान से श्रीसरयू मइया प्राणी के सारे पापों को हर लेती हैं। श्रीसरयू मइया सभी नदियों में पवित्र हैं और इनकी महिमा अत्यन्त असीम है। इसे निर्मल मतिवाली श्रीसरस्वती जी भी नहीं कह सकतीं।

**राम धामदा पुरी सुहावनि। लोक समस्त बिदित अति पावनि॥ चारि खानि जग जीव अपारा। अवध तजे तनु नहिं संसारा॥**
भाष्य

सुहावनी श्रीअयोध्यापुरी श्रीराम के दिव्य साकेत को प्रदान करनेवाली सम्पूर्ण लोकों में प्रसिद्ध और अत्यन्त पवित्र हैं। संसार में अण्डज, स्वेदज, उद्भिज्ज, और जरायुज इन चारों खानों में जो भी असंख्य जीव हैं, वे श्रीअवध में शरीर छोड़ने पर फिर संसार में नहीं आते अर्थात्‌ वे मुक्त हो जाते हैं।

**सब बिधि पुरी मनोहर जानी । सकल सिद्धिप्रद मंगल खानी॥ बिमल कथा कर कीन्ह अरंभा। सुनत नसाहिं काम मद दंभा॥**
भाष्य

इस श्रीअवधपुरी को सब प्रकार से मनोहारिणीं सम्पूर्ण सिद्धियों को देनेवाली सभी मंगलों की खान समझकर, मैंने (तुलसीदास) विक्रम संवत्‌ १६३१ की चैत्र शुक्ल, रामनवमी, मंगलवार के दिन उस निर्मल श्रीरामकथा को प्रारम्भ किया है, जिसे सुनते ही काम, मद, दम्भ आदि विकार नष्ट हो जाते हैं।

**रामचरितमानस एहि नामा । सुनत स्रवन पाइय बिश्रामा॥ मन करि बिषय अनल बन जरई। होइ सुखी जौ एहिं सर परई॥** [[४०]]
भाष्य

इस कथाप्रबन्ध का श्रीरामचरितमानस्‌ नाम है, जिसे श्रवणेन्द्री से सुनने मात्र से मनुष्य विश्राम पा जाता है अथवा जिसे सुनने से श्रवणेन्द्री स्वयं विश्राम पा जाती हैं। श्रीरामचरितमानस सुनकर कानों को दूसरी कथा का श्रवण भाता ही नहीं और मानस में ही उसका विश्राम हो जाता है। यह मनरूप हाथी संसार के वन में भटकता हुआ विषयों की अग्नि में जल रहा है, यदि वह इस श्रीरामचरितमानस सरोवर में पड़ जाता है तब सुखी हो जाता है।

**रामचरितमानस मुनि भावन। बिरचेउ शंभु सुहावन पावन॥ त्रिबिध दोष दुख दारिद दावन। कलि कुचालि कुलि कलुष नसावन॥**
भाष्य

मुनियों को भानेवाले सुन्दर और पावन इस श्रीरामचरितमानस की भगवान्‌ शङ्कर जी ने रचना की है। यह तीनों प्रकार के दोष अर्थात्‌ शारीरिक, मानसिक और वाचिक दोष, दैहिक, दैविक और भौतिक दु:खों तथा दरिद्रता को नष्ट कर डालता है और कलियुग के कुचाल तथा सम्पूर्ण पापों और मलों को समाप्त कर देता है।

**रचि महेश निज मानस राखा। पाइ सुसमय शिवा सन भाखा॥ ताते रामचरितमानस बर। धरेउ नाम हिय हेरि हरषि हर॥ कहउँ कथा सोइ सुखद सुहाई। सादर सुनहु सुजन मन लाई॥**
भाष्य

इस मानस रामायण को रचकर महेश अर्थात्‌ महान्‌ ईश्वर भगवान्‌ शङ्कर जी ने अपने मन में रख लिया था। फिर सुन्दर अर्थात्‌ अनुकूल समय पाकर कैलाश पर्वत पर शिवा अर्थात्‌ कल्याणमयी पार्वती जी से कहा, इसलिए हृदय में विचार करके प्रसन्न होकर दु:खों को हरनेवाले हर श्रीशङ्कर जी ने इस प्रबन्ध का नाम रामचरितमानस रखा, जिसका शाब्दिक अर्थ है, मन से रचकर, मन में रखा हुआ रामचरित अर्थात्‌ रामायण (रामचरित रामायण का पर्यायवाची शब्द है मनसा रचितं मनसि चरितं इति मानसं अथवा मानसं यत्‌ रामचरितं तद्‌ रामचरित मानसं बाहुलक ग्रहणात्‌ विशेषणस्यापि पर प्रयोग:) उसी सुखदायिनी कथा को मैं कह रहा हूँ, हे सन्तजन! इसे मन लगाकर आदरपूर्वक सुनिये।

**दो०- जस मानस जेहि बिधि भयउ, जग प्रचार जेहि हेतु।** **अब सोइ कहउँ प्रसंग सब, सुमिरि उमा बृषकेतु॥३५॥**
भाष्य

यह मानस जिस प्रकार का है, यह जिस प्रकार से प्रकट हुआ, इसका जगत्‌ में जिस कारण से प्रचार हुआ अब मैं वह सब प्रसंग पार्वती जी और वृषभध्वज भगवान्‌ शङ्कर जी को स्मरण करके कह रहा हूँ।

**\* मासपारायण, पहला विश्राम \*** **शंभु प्रसाद सुमति हिय हुलसी। रामचरितमानस कबि तुलसी॥ करइ मनोहर मति अनुहारी। सुजन सुचित सुनि लेहु सुधारी॥**
भाष्य

शिव जी के प्रसाद से हृदय में कविता के अनुकूल सुन्दर बुद्धि उल्लसित हो चुकी है और अब तुलसीदास नामक कवि (मैं) अपनी बुद्धि के अनुसार श्रीरामचरितमानस की रचना कर रहा है। सन्तजन! आप लोग स्वस्थ चित्त से सुनकर इसे सुधार लीजिये।

**सुमति भूमि थल हृदय अगाधू। बेद पुरान उदधि घन साधू॥ बरषहिं राम सुजस बर बारी। मधुर मनोहर मंगलकारी॥**
भाष्य

सुन्दर अर्थात्‌ भगवत्‌ प्रेमयुक्त बुद्धि ही भूमि है, अगाध गंभीर हृदय ही स्थल है तथा वेद और पुराण सागर हैं एवं सन्तजन बादल हैं, वे ही वेद, पुराणरूप सागर से मीठा मनोहर, मंगल करने वाला, श्रीराम सुयश रूप श्रेष्ठजल सुमति भूमि के अगाध हृदय स्थल में बरसते हैं।

[[४१]]

**लीला सगुन जो कहहिं बखानी। सोइ स्वच्छता करइ मल हानी॥ प्रेम भगति जो बरनि न जाई। सोइ मधुरता सुशीतलताई॥**
भाष्य

सन्तजन जो सगुण लीला का व्याख्यान करके वर्णन करते हैं, वही इस श्रीराम के यशरूप जल की स्वच्छता है, जो संसार के मल को नष्ट कर देती है। जो अनिर्वचनीय प्रेमाभक्ति है, वही श्रीराम के यश रूप जल की मधुरता और सुख देनेवाली शीतलता है अर्थात्‌ अलकनन्दा जैसी शीतलता नहीं है, प्रत्युत्‌ वह हरिद्वार की गंगा जैसी शीतलता है, क्योंकि अलकनन्दा की शीतलता शरीर पर थोड़ा सा भी जल डालने पर कँपा डालती है और हरिद्वार की गंगा जी की शीतलता गर्मी में स्नान काल में बहुत सुखद होती है।

**सो जल सुकृत शालि हित होई। राम भगत जन जीवन सोई॥**
भाष्य

वह श्रीराम के यशरूप जल, सत्कर्मरूप धान की खेती के लिए बहुत लाभप्रद होता है और वही श्रीराम जी के भक्तजनों का जीवन अर्थात्‌ जीने का आधार है।

**मेधा महि गत सो जल पावन। सकिलि स्रवन मग चलेउ सुहावन॥ भरेउ सुमानस सुथल थिराना। सुखद शीत रुचि चारु चिराना॥**
भाष्य

शीघ्र धारणाशक्ति से सम्पन्न मेधा कही जानेवाली बुद्धिरूप भूमि में गया हुआ वह सुहावना जल इकट्ठा होकर श्रवणमार्ग से चला और सुन्दर अगाध मानस अर्थात्‌ हृदयरूप सुन्दर स्थल में भर गया और स्थिर हो गया। उसकी शीतलता भी सुखद हुई। उसमें रुचि अर्थात्‌ स्वाद और तृप्ति सुन्दर हो गयी। वह चिरकालीन हो गया इससे निर्मल हो गया।

**दो०- सुठि सुन्दर संबाद बर, बिरचे बुद्धि बिचारि।** **तेइ एहि पावन सुभग सर, घाट मनोहर चारि॥३६॥**
भाष्य

बुद्धि के द्वारा विचार कर मैंने जो चार संवादों की रचना की, वे ही इस पवित्र सुन्दर श्रीरामचरितरूप मानस सरोवर के मनोरम चार घाट हैं। (यहाँ चार संवाद ही चार घाटों से उपमित हुए हैं, जैसे सरोवर की उत्तर दिशा में काकभुशुण्डि–गव्र्ड़ संवाद = पनघट = भक्तिघाट, पूर्व दिशा में शिव–पार्वती संवाद = राजघाट = ज्ञानघाट, दक्षिण दिशा में याज्ञवाल्क्य–भरद्वाज संवाद = पंचायती घाट = कर्मघाट, पश्चिम दिशा में तुलसीदास– सन्त संवाद = गौ घाट = प्रपत्ति घाट)।

**सप्त प्रबंध सुभग सोपाना। ग्यान नयन निरखत मन माना॥ रघुपति महिमा अगुन अबाधा। बरनब सोइ बर बारि अगाधा॥**
भाष्य

इसके बालकाण्ड, अयोध्याकाण्ड, अरण्यकाण्ड, किष्किंधाकाण्ड, सुन्दरकाण्ड, युद्धकाण्ड और उत्तरकाण्ड नामवाले सात प्रबन्ध ही सुन्दर सात सोपान अर्थात्‌ श्रीरामचरितमानस सरोवर की सात सीढि़याँ हैं। इन्हें ज्ञान के नेत्र से देखते ही मन प्रसन्नता से पूर्ण होकर इनका सम्मान करने लगता है। प्राकृतिक गुणों से रहित और सभी बाधाओं से रहित श्रीराम की महिमा का वर्णन ही इस मानस-जल की श्रेष्ठता और गंभीरता (गहरापन) है।

**राम सीय जस सलिल सुधासम। उपमा बीचि बिलास मनोरम॥ पुरइनि सघन चारु चौपाई। जुगुति मंजु मनि सीपि सुहाई॥**
भाष्य

इस मानस सरोवर में विराजमान अमृत के समान जीवनदायी एवं मधुर श्रीसीताराम जी के यश रूप जल में उपमा आदि अलंकारों का विधान मन को रमाने वाले तरंगों का विलास है (यहाँ उपमा सभी अलंकारों का उपलक्षण है।) और घनी पुरइन (कमल–दण्ड के पत्ते) ही सुन्दर ९३८८ चौपाइयाँ हैं, इसमें कविता की युक्तियाँ ही मनोहर मुक्तामणियों को उत्पन्न करने वाली सुहावनी सीपियाँ हैं।

[[४२]]

**छंद सोरठा सुन्दर दोहा। सोइ बहुरंग कमल कुल सोहा॥ अरथ अनूप सुभाव सुभाषा। सोइ पराग मकरंद सुबासा॥**
भाष्य

इसमें ४७ श्लोक, २०८ छन्द, ८७ सोरठे, ११७२ सुन्दर दोहे इन्हीं का समूह बहुरंगे अर्थात्‌ श्वेत, पीत, नील और अरुण रंगवाले कमलों का समूह शोभित हो रहा है। जो इन पाँच प्रकार के वृत्तों का उपमारहित वाच्य, लक्ष्य और व्यंग्य अर्थ है और जो मानस रामायण के सुन्दर–सुन्दर भाव हैं तथा जो इसकी संस्कृत गर्भित परिष्कृत अवधी भाषा है, वही यहाँ पराग, मकरंद और सुगंध है। यहाँ छन्द शब्द श्लोक का भी उपलक्षण है।

**सुकृत पुंज मंजुल अलि माला। ग्यान बिराग बिचार मराला॥ धुनि अवरेव कबित गुन जाती। मीन मनोहर ते बहुभाँती॥**
भाष्य

इसमें सत्कर्मों तथा रचयिता कवि एवं वक्ताओं तथा श्रोताओं के पुण्यों का पुंज ही सौन्दर्य और माधुर्य से मिश्रित भौंरों की पंक्तियाँ हैं। ज्ञान, वैराग्य और भक्ति सम्बन्धी विचार ही इस मानस-सरोवर के परमहंस, कलहंस और राजहंस नामक तीन प्रकार के हंस हैं। ध्वनि, वक्रोक्ति, कविता के अनेक अलंकरण प्रसाद और माधुर्य नामक गुण; लाटी, पाञ्चाली, गौड़ी वैदर्भी नामक रीतियाँ ही इस मानस-सरोवर की अनेक प्रकार की मछलियाँ हैं।

**अरथ धरम कामादिक चारी। कहब ग्यान बिग्यान बिचारी॥ नव रस जप तप जोग बिरागा। ते सब जलचर चारु तड़ागा॥**
भाष्य

अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष तथा सायुज्य, सारूप्य, सामीप्य और सालोक्य नामक चारों मुक्तियाँ, विचारपूर्वक ज्ञान अर्थात्‌ ब्रह्मज्ञान, विज्ञान, संसार की नश्वरता का ज्ञान, नवरस अर्थात्‌ वीर, करुण, शान्त, भयानक, रौद्र, वीभत्स, अद्‌भुत, शृंगार तथा हास अथवा नव यानी भक्ति, वत्सल तथा प्रेयो रस इन नवीन रसों जप, तप, योग, वैराग्य, ये सभी साहित्यिक एवं आध्यात्मिक विषयों के वर्णन इस श्रीरामचरितमानस रूप सुन्दर सरोवर के जलचर हैं।

**सुकृती साधु नाम गुन गाना। ते बिचित्र जल बिहग समाना॥ संतसभा चहुँ दिशि अमराई। श्रद्धा ऋतु बसंत सम गाई॥**
भाष्य

जो श्रेष्ठ सत्पुव्र्षों और साधुजनों के गुणगण गाये गये हैं, ये ही इस श्रीरामचरितमानस सरोवर में जल पक्षियों के समान हैं। सन्तों की सभा ही इस मानस-सरोवर के चारों ओर की अमराई अर्थात्‌ आम की वाटिका (आम्रपाली) है। श्रोता और वक्ता की वैदिक वाङ्‌मय और प्रभु श्रीराम जी के प्रति आस्थारूपिणि श्रद्धा ही वसंतऋतु के समान गायी गयी है।

**भगति निरूपन बिबिध बिधाना। छमा दया द्रुम लता बिताना॥ संयम नियम फूल फल ग्याना। हरि पद रति रस बेद बखाना॥**
भाष्य

अनेक प्रकार की नवधा, दशधा, एकादशधा, साध्या, साधना, अनपायनी, अविरल, निर्भरा तथा प्रेमा आदि नामों से किये गये भक्ति के निरूपण, क्षमा तथा दया के वर्णन मानस सरोवर के तट पर लगे हुए वृक्षों की लताओं के बितान हैं। संयम और नियम इस सरोवर के पास लगे वृक्षों के फूल हैं, ज्ञान ही फल है तथा वेदों में विख्यात प्रभु श्रीराम की प्रेमलक्षणाभक्ति ही श्रीरामचरितमानस के तटवर्ती वृक्षों में लगे ज्ञान रूप फल का रस है।

**औरउ कथा अनेक प्रसंगा। तेइ शुक पिक बहुबरन बिहंगा॥** [[४३]]
भाष्य

और भी जो मानस रामायण में अनेक अवतार कथा–प्रसंग कहे गये हैं, वे ही इस मानस सरोवर के पास आनेवाले तोता, कोयल आदि अनेक प्रकार के बाहरी पक्षी हैं।

**दो०- पुलक बाटिका बाग बन, सुख सुबिहंग बिहारु।** **माली सुमन सनेह जल, सींचत लोचन चारु॥३७॥**
भाष्य

मानस रामायण की कथा में जो वक्ता और श्रोता को अधिक, मध्यम और सामान्य प्रकार के रोमांच होते हैं, वे ही इस सरोवर की वाटिका (उद्दान), बाग और वन हैं। कथा में जो वक्ता और श्रोता की सुख की अनुभूति है, वही इस सरोवर में पक्षियों का विहार है। वक्ता और श्रोता के सुन्दर मन ही माली हैं, जो अश्रुपात के बहाने सुन्दर नेत्र से स्नेहजल द्वारा इस सरोवर के तटवर्ती वाटिकाओं, बागों और वनों को सींचते रहते हैं।

**जे गावहिं यह चरित सँभारे। तेइ एहि ताल चतुर रखवारे॥ सदा सुनहिं सादर नर नारी। तेइ सुरवर मानस अधिकारी॥**
भाष्य

जो लोग इस श्रीरामचरितमानस को सँभाल कर गाते हैं अर्थात्‌ उपक्रमोपसंहार के साथ शास्त्रीय परम्परा के अनुसार इस चरित्र का गान करते हैं अथवा जो स्वयं के चरित्र को सँभाल कर इसे गाते हैं वे ही कुशल श्रीवैष्णव वक्ता इस श्रीरामचरितमानस रूप सरोवर के चतुर रक्षक हैं। जो नर–नारी आदरपूर्वक इस मानस रामायण का सदैव श्रवण करते हैं, वे ही देवतुल्य पुव्र्ष और स्त्री इस श्रेष्ठ देवसरोवर के अधिकारी हैं।

**अति खल जे बिषई बक कागा। एहि सर निकट न जाहिं अभागा॥ संबुक भेक सेवार समाना। इहाँ न बिषय कथा रस नाना॥ तेहि कारन आवत हिय हारे। कामी काक बलाक बिचारे॥**
भाष्य

जो अत्यन्त विषयी खल प्रकृति के लोग हैं, वे ही बगुले और कौवे हैं। वे अभागे बगुले और कौवे रूप विषयी दुष्टजन उस मानस-सरोवर के निकट नहीं आ पाते। घोंघे, मेंढक और शैवाल (जल में जमा हुआ कचड़े से परिपूर्ण घास) के समान अनेक लौकिक आनन्द से युक्त विषय की कथा यहाँ नहीं है, इसलिए बेचारे कामान्ध कौवे और बगुले इस मानस-सरोवर के पास आते–आते हृदय में हार जाते हैं।

**आवत एहिं सर अति कठिनाई। राम कृपा बिनु आइ न जाई॥**
भाष्य

इस मानस सरोवर के पास आने में बड़ी कठिनता है। प्रभु श्रीराम जी की कृपा के बिना तो यहाँ आया ही नहीं जा सकता।

**कठिन कुसंग कुपंथ कराला। तिन के बचन बाघ हरि ब्याला॥ गृह कारज नाना जंजाला। ते अति दुर्गम शैल बिशाला॥ बन बहु बिषम मोह मद माना। नदी कुतर्क भयंकर नाना॥**
भाष्य

बुरे लोगों का कठिन कुसंग ही भयंकर कुमार्ग है। कुसंगियों के श्रीराम विरोधी वचन ही मार्ग में कष्ट देने वाले बाघ, सिंह और सर्प हैं। जो गृह के नाना प्रकार के जंजाल से भरे कार्य हैं, वे ही इस मानस सरोवर के पास आने में बाधक बनने वाले अनेक बड़े-बड़े दुर्गम पर्वत हैं। मोह, मद और मान बहुत भयंकर वन हैं और वेद– विरोधी कुत्सित तर्क ही भयानक नदियाँ हैं, जिन्हें पार करना बड़ा कठिन है।

**दो०- जे श्रद्धा संबल रहित, नहिं संतन कर साथ।** **तिन कहँ मानस अगम अति, जिनहिं न प्रिय रघुनाथ॥३८॥**

[[४४]]

भाष्य

जो लोग श्रद्धा (आस्था) रूप सम्बल अर्थात्‌ पाथेय (रास्ते का खर्च) से रहित हैं, जिनको सन्तों का साथ नहीं है और जिन्हें रघुकुल के नाथ श्रीरामचंद्र जी प्रिय नहीं हैं, उनके लिए मानस-सरोवर बहुत अगम्य है अर्थात्‌ वे इसके पास फटक भी नहीं सकते।

**जो करि कष्ट जाइ पुनि कोई। जातहिं नींद जुड़ाई होई॥ ज़डता जाड़ बिषम उर लागा। गएहुँ न मज्जन पाव अभागा॥**
भाष्य

फिर जो कोई कष्ट करके वहाँ चला भी जाता है तो उसे जाते ही नींद रूप ठंड हो जाती है और हृदय में भयंकर ज़डतारूप शीत लग जाता है, इसलिए वह अभागा मानस-सरोवर के पास जाकर भी स्नान नहीं कर पाता अर्थात्‌ कथा सुनने जाकर भी तुरन्त सो जाता है।

**करि न जाइ सर मज्जन पाना। फिरि आवइ समेत अभिमाना॥ जौ बहोरि कोउ पूछन आवा। सर निंदा करि ताहि बुझावा॥**
भाष्य

उससे नींद रूप ठंड के कारण मानस रामायणरूप मानस-सरोवर में श्रवण, मज्जनरूप स्नान और पान नहीं किया जाता तथा अभिमान के साथ वह लौट आता है। फिर जो कोई पूछने आता है तो उसे वह मानस सरोवर की निंदा करके समझा देता है। यह नहीं कहता कि मुझे नींद रूप ठंड लग गई थी, इसलिए मैं सरोवर में स्नान नहीं कर पाया। वह तो लोगों से यही कहता है कि मानस सरोवर कोई तालाब नहीं वह एक साधारण सी तलैया है।

**सकल बिघ्न ब्यापहिं नहिं तेही। राम सुकृपा बिलोकहिं जेही॥ सोइ सादर सर मज्जन करई। महाघोर त्रयताप न जरई॥**
भाष्य

जिसको भगवान्‌ श्रीराम अपनी सुन्दर कृपादृष्टि से निहार लेते हैं उसे पूर्व के ग्यारह पंक्तियों में कहे हुए ये सभी विघ्न नहीं व्यापते अर्थात्‌ प्रभावित नहीं कर पाते। वही आदरपूर्वक इस सरोवर में मज्जन करता है और अत्यन्त भयंकर दैहिक, दैविक तथा भौतिक इन तीनों अग्नियों से नहीं जलता ।

**ते नर यह सर तजहिं न काऊ। जिन के राम चरन भल भाऊ॥ जो नहाइ चह एहिं सर भाई। सो सतसंग करउ मन लाई॥**
भाष्य

वे मनुष्य इस मानस रामायणरूप मानस सरोवर को कभी नहीं छोड़ते जिनका भगवान्‌ श्रीराम जी के चरणों में सुन्दर भाव है। हे भाई! जो इस मानस सरोवर में स्नान करना चाहता हो, वह मन लगाकर सत्संग करे।

**अस मानस मानस चख चाही। भइ कबि बुद्धि बिमल अवगाही॥ भयउ हृदय आनंद उछाहू। उमगेउ प्रेम प्रमोद प्रबाहू॥**
भाष्य

इस प्रकार वर्णित आध्यात्मिक मानस-सरोवर को मानस-नेत्र से देखकर और उसमें स्नान करके कवि (मुझ तुलसीदास) की बुद्धि बिमल हो गयी है। हृदय में आनंद व उत्साह उत्पन्न हो गया है, उसमें प्रेम और प्रमोद अर्थात्‌ मनचाही इच्छा की पूर्ति से उत्पन्न आनंद का प्रवाह उमड़ कर चल पड़ा है।

**चली सुभग कबिता सरिता सो। राम बिमल जस जल भरिता सो॥**
भाष्य

उसी श्रीरामचरितमानसरूप मानस-सरोवर से श्रीराम जी के विमल यशरूप जल को भर कर नदी के समान सुन्दर कविता चल पड़ी है।

**सरजू नाम सुमंगलमूला। लोक बेद मत मंजुल कूला॥ नदी पुनीत सुमानस नंदिनि। कलिमल तृन तरु मूल निकंदिनि॥** [[४५]]
भाष्य

वह श्रीसरयू नाम से प्रसिद्ध है और वह सुन्दर कल्याणों की मूल अर्थात्‌ कारण है। लोकमत और वेदमत ही उसके सुन्दर दो तट हैं । सुन्दर मानस रामायणरूप मानस-सरोवर से निकली हुई मेरी कविता रूप सरयू नदी बड़ी ही पवित्र है, वह कलिकाल के मलरूप तृणों और वृक्षों को ज़ड से उखाड़ कर फेंक देती है।

**दो०- श्रोता त्रिबिध समाज पुर, ग्राम नगर दुहुँ कूल।** **संतसभा अनुपम अवध, सकल सुमंगल मूल॥३९॥**
भाष्य

उस कविता रूप सरयू के दोनों तटों पर विषयी, साधक, सिद्ध अथवा साधारण, मध्यम और उत्तम, तीनों प्रकार के श्रोता समाज ग्राम, नगर और पुर के समान हैं। सन्तों की सभा ही उस सरयू के तीर पर बसी हुई सम्पूर्ण सुमंगलों की मूल, उपमारहित श्रीअयोध्यापुरी है।

**रामभगति सुरसरितहिं जाई। मिली सुकीरति सरजु सुहाई॥ सानुज राम समर जस पावन। मिलेउ महानद सोन सुहावन॥**
भाष्य

वह सुन्दर कीर्ति कवितारूप सरयू जी श्रीरामभक्तिरूप गंगा जी से जाकर मिल गयी। अनुज लक्ष्मण जी के साथ प्रभु श्रीराम जी का पवित्र करनेवाला, विश्वामित्र जी के यज्ञ–रक्षा के समय का, खर–दूषण के वध के समय का, लंका के समरांगण का युद्ध, यशरूप महानद सोनभद्र उस सरयू–गंगा संगम से जाकर मिल गया।

**जुग बिच भगति देवधुनि धारा। सोहति सहित सुबिरति बिचारा॥ त्रिबिध ताप त्रासक त्रिमुहानी। राम स्वरूप सिंधु समुहानी॥**
भाष्य

इन दोनों सरयू और सोनभद्र के बीच वैराग्य और विचारों के साथ श्रीरामभक्तिरूप गंगा की धारा सुशोभित हो रही है। इस प्रकार तीनों तापों को त्रस्त करने वाली त्रिमुहानी अर्थात्‌ भगवत्‌कीर्ति कवितारूप सरयू, श्रीराम के सामरिक यशरूप सोनभद्र तथा श्रीरामभक्ति रूप गंगा जी की समन्वितधारा त्रिमुहानी श्रीराम स्वरूप महासागर से मिलने के लिए उसके सम्मुख हो चुकी है अर्थात्‌ उसमें समाहित होती जा रही है।

**मानस मूल मिली सुरसरिहीं। सुनत सुजन मन पावन करिहीं॥ बिच बिच कथा बिचित्र बिभागा। जनु सरि तीर तीर बन बागा॥**
भाष्य

मेरी कवितारूप सरयू का मूल है श्रीरामचरितरूप मानस और यह मिली है श्रीरामभक्ति गंगा जी से। यह सुनने मात्र से ही सज्जनों के मन को पवित्र कर देगी। बीच–बीच में जो अनेक विभागों की अर्न्तकथायें कही गयी हैं, वही मानो श्रीरामरूप सरयू तट के तटवर्ती वन और बगीचे हैं।

**उमा महेश बिबाह बराती। ते जलचर अगनित बहुभाँती॥ रघुबर जनम अनंद बधाई। भँवर तरंग मनोहरताई॥**
भाष्य

पार्वती जी और शिव जी के विवाह में जो बाराती भूत–प्रेतों का वर्णन किया गया है, वे ही इस सरयू नदी के अनेक प्रकार के मकर, घयिड़ाल महामत्स्य आदि जल, जन्तु हैं। श्रीराम जी, भरत जी, लक्ष्मण जी और शत्रुघ्न जी के जन्मकालीन आनन्द एवं बधाई का वर्णन ही इस नदी की भँवर और लहरों का सौन्दर्य है।

**दो०- बालचरित चहु बंधु के, बनज बिपुल बहुरंग।** **नृप रानी परिजन सुकृत, मधुकर बारि बिहंग॥४०॥**
भाष्य

चारों भाइयों के बालचरित्र ही बहुत से रंगोंवाले अनेक कमल हैं। महाराज दशरथ, कौसल्या आदि महारानियों और उनके परिजनों के पुण्य ही यहाँ भ्रमर और जल के पक्षी हैं।

[[४६]]

विशेष

श्रीराम का बालचरित्र नीलकमल, श्रीभरत का पीतकमल, श्रीलक्षमण का रक्तकमल और श्रीशत्रुघ्न का श्वेतकमल है।

चौ०- सीय स्वयंबर कथा सुहाई। सरित सुहावनि सो छबि छाई॥ नदी नाव पटु प्रश्न अनेका। केवट कुशल उतर सबिबेका॥ सुनि अनुकथन परस्पर होई। पथिक समाज सोह सरि सोई॥

भाष्य

जो सीता जी के स्वयंवर की सुहावनी कथा यहाँ वर्णनीय है, वही इस सुहावनी कविता सरयू की छाई हुई छवि है। इस प्रसंग में अनेक चतुर प्रश्न ही इस नदी की नाव हैं और विवेकपूर्वक दिये हुए उत्तर ही इस नदी के कुशल केवट हैं। प्रश्नोत्तरों के क्रम को सुनकर, जो परस्पर अनुकथन (विचार–विमर्श) होता है, वही इस नदी में पथिकों का समाज सुशोभित हो रहा है।

**घोर धार भृगुनाथ रिसानी। घाट सुबद्ध राम बर बानी॥**
भाष्य

परशुराम जी का क्रोध ही इस नदी की तीव्रधारा है और श्रीराम की श्रेष्ठ वाणी ही यहाँ सुन्दर बाँधे हुए घाट हैं।

**सानुज राम बिबाह उछाहू। सो शुभ उमग सुखद सब काहू॥ कहत सुनत हरषहिं पुलकाहीं। ते सुकृती मन मुदित नहाहीं॥**
भाष्य

जो छोटे भाइयों के सहित भगवान्‌ श्रीराम के विवाह का उत्साह वर्णित होगा, वही कल्याणकारी उमंग सबके लिए सुखद होगा अर्थात्‌ श्रीराम के विवाह का उत्साह ही इस नदी का उफान है। इसे कहते, सुनते, जो लोग मन में प्रसन्न होते हैं और शरीर से रोमांचित हो जाते हैं, वे ही सुकृतजन प्रसन्नतापूर्वक इस ब़ढी हुई नदी में स्नान करते हैं।

**राम तिलक हित मंगल साजा। परब जोग जनु जुरेउ समाजा॥ काई कुमति कैकयी केरी। परी जासु फल बिपति घनेरी॥**
भाष्य

श्रीराम के राजतिलक के लिए श्रीअयोध्या में जो मंगल सजाये गये मानो वे ही स्नानार्थ पर्व का योग प्राप्त करके स्नानार्थियों के समूह रूप में जुड़ गये। उसमें कैकेयी की कुमति ही इस नदी की काई है जिसके फलस्वरूप अयोध्या में भयंकर विपत्ति आ पड़ी।

**दो०- शमन अमित उतपात सब, भरतचरित जपजाग।** **कलि अघ खल अवगुन कथन, ते जलमल बक काग॥४१॥**
भाष्य

उसमें असंख्य सभी उत्पातों को नष्ट करनेवाला भरत जी का चरित्र ही जपयज्ञ है। कलियुग के मल तथा खलों के पापों और अवगुणों का कथन, यही इसके जल के मलरूप बगुले और कौवे हैं।

विशेष

जब पर्वकाल में नदी में काई आ जाती है, तब शकुनशास्त्र के अनुसार कोई-न-कोई अशुभ संम्भावित हो जाता है। फिर उसे शान्त करने के लिए जप, यज्ञ का आयोजन होता है। यहाँ कैकेयी की कुमति ने काई की भूमिका निभाई और उससे उपस्थित होनेवाली विपत्ति के नाश में भरत जी के चरित्र की अहम्‌ भूमिका थी।

कीरति सरित छहू रितु रूरी। समय सुहावनि पावनि भूरी॥ हिम हिमशैलसुता शिव ब्याहू। शिशिर सुखद प्रभु जनम उछाहू॥ बरनब राम बिबाह समाजू। सो मुद मंगलमय ऋतुराजू॥ ग्रीषम दुसह राम बनगवनू। पंथकथा खर आतप पवनू॥
[[४७]]

बरषा घोर निशाचर रारी। सुरकुल शालि सुमंगलकारी॥ राम राज सुख बिनय बड़ाई। बिशद सुखद सोइ शरद सुहाई॥

भाष्य

यह अत्यन्त पवित्र श्रीराम की कीर्तिरूपी श्रीसरयू नदी, हेमन्त, शिशिर, वसन्त, ग्रीष्म, वर्षा और शरद्‌ इन छहों ऋतुओं के समय में सुहावनी बनी रहती है। यहाँ हिमालयराज की पुत्री पार्वती जी और शिव जी का विवाह ही हेमन्त ऋतु है और प्रभु श्रीराम के जन्म का उत्साहपूर्ण महोत्सव ही सुखदायी शिशिर ऋतु है। जो श्रीराम के विवाह–समाज का वर्णन है, वही प्रसन्नता और मंगलमय वसन्त ऋतु है। दुस्सह श्रीराम का वनगमन ही ग्रीष्म ऋतु है और मार्ग की कथायें ही प्रचण्ड धूप और गर्म पवन है। घोर राक्षसों का युद्ध ही वर्षा ऋतु है, जो देवकुलरूप धान की खेती के लिए सुन्दर मंगल करने वाला सिद्ध हुआ। जो श्रीरामराज्य का सुख, प्रभु श्रीराम का विनय और बड़प्पन है, वही स्वच्छ, सुखदायक और सुहावनी शरद ऋतु है।

**सती सिरोमनि सिय गुनगाथा। सोइ गुन अमल अनूपम पाथा॥ भरत स्वभाव सुशीतलताई। सदा एकरस बरनि न जाई॥**
भाष्य

सतीशिरोमणि सीता जी की जो दिव्य गुणगाथा है, वही इस अनुपमेय जल की निर्मलतारूप गुण है। जो श्रीभरत का स्वभाव निरन्तर एकरस रहता है तथा जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता, वही इस जल की शीतलता है।

**दो०- अवलोकनि बोलनि मिलनि, प्रीति परसपर हास।** **भायप भलि चहु बंधु की, जल माधुरी सुबास॥४२॥**
भाष्य

परस्पर प्रीतिपूर्वक एक–दूसरे को निहारना, बात करना, मिलना और परस्पर हास–परिहास करना, इस प्रकार चारों भाइयों का भला भायप अर्थात्‌ भ्रातृ प्रेम ही इस जल की मधुरता और सुगंध है।

**आरति बिनय दीनता मोरी। लघुता ललित सुबारि न थोरी॥**
भाष्य

मेरी आर्ति, विनय और दैन्यभाव यही इस अत्यन्त ललित सुन्दर जल की बहुत बड़ी लघुता अर्थात्‌ हल्कापन है क्योंकि जल का हल्का होना ही उसका बहुत बड़ा वैशिय््‌य है। भारी जल पाचनक्रिया को प्रभावित करता है अत: मेरी आर्ति पूर्ण विनय से भरी दीनता लघु होने पर भी लालित्य की भूमिका निभायेगी।

**अदभुत सलिल सुनत गुनकारी। आस पियास मनोमल हारी॥**
भाष्य

यह जल बहुत अद्‌भुत है, श्रवणमात्र से यह गुणकारी है। यह आशारूप प्यास एवं मन के मल को हर लेता है।

**राम सुप्रेमहि पोषत पानी। हरत सकल कलि कलुष गलानी॥ भव श्रम शोषक तोषक तोषा। शमन दुरित दुख दारिद दोषा॥**
भाष्य

यह जल, श्रीराम जी के सुन्दर प्रेम को पुष्ट करता है तथा कलियुग के सम्पूर्ण पाप और ग्लानियों को हर लेता है। यह संसार के श्रम को सुखा डालता है तथा संतोष को भी संतुष्ट करता है। यह दुर्भाग्य, दु:ख और दोषों को नष्ट कर डालता है।

**काम कोह मद मोह नसावन। बिमल बिबेक बिराग ब़ढावन॥ सादर मज्जन पान किए ते। मिटहिं पाप परिताप हिए ते॥**
भाष्य

यह काम, क्रोध, मद, मोह को नय् करनेवाला और निर्मल विवेक तथा वैराग्य को ब़ढाने वाला है। इसमें आदरपूर्वक मज्जन और पान करने से हृदय से पाप और कष्ट नष्ट हो जाते हैं।

[[४८]]

**जिन ऐहिं बारि न मानस धोए। ते कायर कलिकाल बिगोए॥ तृषित निरखि रबि कर भव बारी। फिरिहैं मृग जिमि जीव दुखारी॥**
भाष्य

जिन लोगों ने इस जल से अपने मन को नहीं धोया उन कायरों को कलिकाल ने नष्ट कर दिया। ये प्यासे जीव संसार सूर्य की किरणों में मिले सुखरूप जल को देखकर मृग की भाँति प्यासे और दु:खी होकर इधर–उधर भटकते रहेंगे।

**दो०- मति अनुहारि सुबारि गुन, गन गनि मन अन्हवाइ।** **सुमिरि भवानी शङ्करहिं, कह कबि कथा सुहाइ॥४३\(क\)॥**
भाष्य

इस प्रकार से अपनी बुद्धि के अनुसार इस सुन्दर जल के गुणों की गणना करके, इसमें अपने मन को स्नान कराके, भवानी अर्थात्‌ भगवती पार्वती जी और शङ्कर जी को स्मरण करके मैं कवि (तुलसीदास) सुन्दर कथा कह रहा हूँ।

**दो०- अब रघुपति पद पंकरुह, हिय धरि पाइ प्रसाद।** **कहउँ जुगल मुनिवर्य कर, मिलन सुभग संबाद॥४३\(ख\)॥**
भाष्य

अब रघुकुल के स्वामी श्रीराम के चरणकमल को हृदय में स्थापित करके, उनका प्रसाद पाकर मैं तुलसीदास, दोनों मुनिश्रेष्ठ भरद्वाज और याज्ञवल्क्य जी के मिलन का सुन्दर संवाद कह रहा हूँ।

**भरद्वाज मुनि बसहिं प्रयागा। तिनहिं राम पद अति अनुरागा॥ तापस शम दम दया निधाना। परमारथ पथ परम सुजाना॥**
भाष्य

मुनि भरद्वाज जी प्रयाग में निवास करते हैं, उन्हें श्रीराम जी के चरणों में अत्यन्त अनुराग है। वे तपस्वी, शम, दम तथा दया के निधान हैं। वे परमार्थ पथ (मोक्ष) के उत्कृष्ट ज्ञाता हैं।

**माघ मकरगत रबि जब होई। तीरथपतिहिं आव सब कोई॥ देव दनुज किंनर नर श्रेनीं । सादर मज्जहिं सकल त्रिबेनीं॥ पूजहिं माधव पद जलजाता। परसि अछय बट हरषहिं गाता॥ भरद्वाज आश्रम अति पावन। परम रम्य मुनिवर मन भावन॥**
भाष्य

जब माघ मास में सूर्यनारायण मकर राशि में विराजमान होते हैं, तब सभी लोग कल्पवास के लिए प्रयाग में आते हैं। देव, दानव, मनुष्य और सभी किन्नरों की श्रेणियाँ आदरपूर्वक त्रिवेणी में गोते लगाती हैं। सभी लोग बारहों माधव के चरणकमल की पूजा करते हैं और अक्षयवट का स्पर्श करके सबके अंग रोमांचित हो जाते हैं। उसी प्रयाग में मुनि भरद्वाज जी का बड़ा ही पावन रमणीय और मुनियों के मन को भानेवाला आश्रम है।

**तहाँ होइ मुनि ऋषय समाजा। जाहिं जे मज्जन तीरथराजा॥ मज्जहिं प्रात समेत उछाहा। कहहिं परस्पर हरि गुन गाहा॥**
भाष्य

उसी भरद्वाज आश्रम में मुनियों और ऋषियों का समाज इकट्ठा होता है। जो तीर्थराज प्रयाग में स्नान करने जाते हैं, वे प्रात:काल उत्साह के साथ श्रीत्रिवेणी में स्नान करते हैं और परस्पर भगवान्‌ की गुणगाथाओं का वर्णन करते हैं।

**दो०- ब्रह्म निरूपन धरम बिधि, बरनहिं तत्व बिभाग।**

कहहिं भगति भगवंत कै, संजुत ग्यान बिराग॥४४॥

[[४९]]

भाष्य

मुनिगण वेदान्त की दृष्टि से ब्रह्म निरूपण तथा पूर्वमीमांसा की पद्धति से धर्म की विधि एवं सांख्य, योग, वैशेषिक, न्याय की सरणी से तत्त्वों का विभाग–वर्णन और अंगिरा, शाण्डिल्य एवं नारद के सूत्रों के अनुसार ज्ञान, वैराग्य सहित भगवान्‌ की भक्ति का कथन करते हैं।

**एहि प्रकार भरि माघ नहाहीं। पुनि सब निज निज आश्रम जाहीं॥ प्रति संबत अति होइ अनंदा। मकर मज्जि गवनहिं मुनिबृंदा॥**
भाष्य

इस प्रकार मुनिगण माघ मासपर्यन्त स्नान करते हैं और फिर सभी महर्षि अपने–अपने आश्रम को चले जाते हैं। प्रत्येक वर्ष इसी प्रकार अत्यन्त आनन्द होता है। मकर स्नान करके मुनिबृन्द चले जाते हैं।

**एक बार भरि मकर नहाए। सब मुनीश आश्रमनि सिधाए॥ जाग्यबल्क्य मुनि परम बिबेकी। भरद्वाज राखे पद टेकी॥**
भाष्य

एक बार महर्षिगणों ने सम्पूर्ण मकर राशिपर्यन्त श्रीप्रयाग जी मेें त्रिवेणी स्नान किया और अपने–अपने आश्रम को लौट गये, किन्तु परमविवेकी याज्ञवल्क्य मुनि को महर्षि भरद्वाज ने चरण पक़ड कर अनुरोधपूर्वक अपने आश्रम में रख लिया अर्थात्‌ उन्हें जाने नहीं दिया।

**सादर चरन सरोज पखारे। अति पुनीत आसन बैठारे॥ करि पूजा मुनि सुजस बखानी। बोले अति पुनीत मृदु बानी॥**
भाष्य

भरद्वाज जी ने आदरपूर्वक याज्ञवल्क्य जी के चरणकमल का प्रक्षालन किया और उन्हें अत्यन्त पवित्र आसन पर विराजमान कराया। पूजा करके, मुनि याज्ञवल्क्य जी के सुयश का बखान करके, भरद्वाज अत्यन्त पावन–कोमल वाणी बोले।

**नाथ एक संशय बड़ मोरे। करगत बेदतत्व सब तोरे॥**

कहत सो मोहि लागत भय लाजा। जौ न कहउँ बड़ होइ अकाजा॥

भाष्य

हे नाथ! मेरे मन में एक बहुत बड़ा संशय है, सम्पूर्ण वेद के तत्त्व आपको हस्तगत्‌ हैं अर्थात्‌ आप सब कुछ जानते हैं। वह संशय कहने में मुझे बहुत भय और लज्जा लग रही है, यदि नहीं कह रहा हूँ तो बहुत बड़ा अकाज अर्थात्‌ कार्यों की हानि हो रही है। अत: भय और लज्जा होने पर भी संशय कहना आवश्यक जान पड़ रहा है।

**दो०- संत कहहिं असि नीति प्रभु, श्रुति पुरान मुनि गाव।**

होइ न बिमल बिबेक उर, गुरु सन किये दुराव॥४५॥

भाष्य

हे प्रभो! सन्त इस प्रकार की नीति कहते हैं और यही वेद, पुराण और मुनिगण गाते हैं कि, सद्‌गुरु के समक्ष छिपाव करने पर निर्मल विवेक उत्पन्न नहीं होता।

**अस बिचारि प्रगटउँ निज मोहू। हरहु नाथ करि जन पर छोहू॥**
भाष्य

ऐसा विचार कर मैं अपने मोह को प्रकट कर रहा हूँ। हे नाथ! मुझ सेवक पर दया करते हुए मेरे मोह को

हर लीजिये।

राम नाम कर अमित प्रभावा। संत पुरान उपनिषद गावा॥ संतत जपत शंभु अबिनाशी। शिव भगवान्‌ ग्यान गुन राशी॥ आकर चारि जीव जग अहहीं। काशी मरत परम पद लहहीं॥ सोपि राम महिमा मुनिराया। शिव उपदेश करत करि दाया॥

[[५०]]

भाष्य

सन्तों, पुराणों और उपनिषदों ने श्रीराम नाम का असीम प्रभाव गाया है। कल्याण को उत्पन्न करने वाले, ज्ञान और गुणों की राशि भगवान्‌ शिव जी इसी नाम को निरंतर जपते रहते हैं। चारों खानों में संसार में जो भी जीव हैं, वे काशी में मर कर परमपद को प्राप्त कर लेते हैं। वह भी श्रीराम नाम की महिमा ही है। हे मुनिश्रेष्ठ! स्वयं भगवान्‌ शिव जी जीवों पर दया करके मृत्यु के समय उनके दाहिने कान में जाकर श्रीराम नाम का ही उपदेश करते हैं। (मरणकाल में उपदेश किये हुए श्रीराम नाम के प्रभाव से काशी में मरने वाला प्रत्येक प्राणी मुक्त हो जाता है।)

**राम कवन प्रभु पूछउँ तोही। कहिय बुझाइ कृपानिधि मोही॥**
भाष्य

हे कृपानिधि याज्ञवल्क्य जी! वे प्रभु श्रीराम कौन हैं ? मैं आपसे पूछ रहा हूँ। आप मुझे समझाकर कहिये।

**एक राम अवधेश कुमारा। तिन कर चरित बिदित संसारा॥ नारि बिरह दुख सहेउ अपारा। भयउ रोष रन रावन मारा॥**
भाष्य

एक राम तो अवधनरेश महाराज दशरथ के पुत्र हैं। उनका चरित्र संसार में विदित है। उन्होंने अपनी पत्नी सीता जी के विरह का अपार दु:ख सहा। उन्हें क्रोध आया और उन्होंने युद्ध में रावण को मार डाला।

**दो०- प्रभु सोइ राम कि अपर कोउ, जाहि जपत त्रिपुरारि।**

सत्यधाम सर्बग्य तुम, कहहु बिबेक बिचारि॥४६॥

भाष्य

हे प्रभो! क्या वे ही श्रीराम हैं या और कोई, जिन्हें भगवान्‌ शङ्कर जी जपते रहते हैं? आप सत्य के निवास स्थान और सब कुछ जाननेवाले हैं, इसलिए विवेक से विचार कर कहिये कि शिव जी के आराध्य श्रीराम कौन हैं, दशरथ पुत्र या और कोई ?

**जैसे मिटै मोर भ्रम भारी। कहहु सो कथा नाथ बिस्तारी॥**
भाष्य

हे नाथ! मेरा बहुत बड़ा मोह जिस प्रकार मिट सके वही कथा विस्तार करके कहिये। जाग्यबल्क्य बोले मुसुकाई। तुमहिं बिदित रघुपति प्रभुताई॥ रामभगत तुम मन क्रम बानी। चतुराई तुम्हारि मैं जानी॥ चाहहु सुनै राम गुन गू़ढा। कीन्हेहु प्रश्न मनहुँ अति मू़ढा॥

भाष्य

याज्ञवल्क्य मुनि भरद्वाज मुनि से मुस्कुरा कर बोले, “हे महर्षि! तुम्हें श्रीराम जी की प्रभुता ज्ञात है। तुम मन, कर्म और वाणी से श्रीराम जी के भक्त हो। मैंने तुम्हारी चतुरता जान ली है। तुम श्रीराम के गोपनीय गुणों को सुनना चाहते हो। तुमने ऐसा प्रश्न किया है मानो अत्यन्त मू़ढ हो।

**तात सुनहु सादर मन लाई। कहउँ राम कै कथा सुहाई॥ महामोह महिषेश बिशाला। राम कथा कालिका कराला॥ रामकथा शशि किरन समाना। संत चकोर करहिं जेहि पाना॥**
भाष्य

हे तात (प्रिय) भरद्वाज! आदरपूर्वक मन लगाकर सुनो, मैं श्रीराम की सुहावनी कथा कह रहा हूँ। बहुत बड़ा मोह ही महिषासुर राक्षस है, उसे नष्ट करने के लिए श्रीराम की कथा भयंकर कालिका देवी है। श्रीराम कथा चन्द्रमा के किरण के समान है, सन्त रूप चकोर जन जिसका पान करते रहते हैं।

**ऐसेइ संशय कीन्ह भवानी । महादेव तब कहा बखानी॥**

[[५१]]

दो०- कहउँ सो मति अनुहारि अब, उमा शंभु संबाद।

भयउ समय जेहि हेतु जेहि, सुनु मुनि मिटिहि बिषाद॥४७॥

भाष्य

इसी प्रकार का संशय भगवती पार्वती जी ने किया था, तब महादेव शङ्कर ने व्याख्यान के साथ श्रीराम– कथा कही थी। हे महर्षे! मैं अपनी बुद्धि के अनुसार वही पार्वती–शिव संवाद कह रहा हूँ। वह जिस समय, जिस कारण और जहाँ सम्पन्न हुआ था, वह सब सुनो, तुम्हारा मोह से उत्पन्न विषाद अर्थात्‌ दु:ख मिट जायेगा।

**एक बार त्रेता जुग माहीं। शंभु गए कुंभज रिषि पाहीं॥ संग सती जगजननि भवानी। पूजे ऋषि अखिलेश्वर जानी॥**
भाष्य

एक बार त्रेता युग में भगवान्‌ शङ्कर अगस्त्य जी के पास गये। शिव जी के साथ जगत्‌ की माता शिव जी की धर्मपत्नी सती जी भी थीं। सारे संसार का ईश्वर जानकर ऋषि अगस्त्य जी ने सती जी के सहित शिव जी की पूजा की अर्थात्‌ सम्मान किया।

**रामकथा मुनिवर्य बखानी। सुनी महेश परम सुख मानी॥ ऋषि पूछी हरि भगति सुहाई। कही शंभु अधिकारी पाई॥**
भाष्य

मुनिश्रेष्ठ अगस्त्य जी ने श्रीरामकथा कही और मन में परमसुख मानकर भगवान्‌ शिव ने वह कथा सुनी। सती जी ने वह कथा नहीं सुनी। ब्रह्मर्षि अगस्त्य जी ने शिव जी से सुहावनी श्रीरामभक्ति पूछी अर्थात्‌ श्रीराम जी के भक्ति के सम्बन्ध में प्रश्न किये और अगस्त्य जी को अधिकारी जानकर शिव जी ने उत्तर के रूप में श्रीरामभक्ति का वर्णन किया।

**कहत सुनत रघुपति गुनगाथा। कछु दिन तहाँ रहे गिरिनाथा॥ मुनि सन बिदा माँगि त्रिपुरारी। चले भवन सँग दक्षकुमारी॥**
भाष्य

इस प्रकार, श्रीराम जी के गुणों की गाथा को कहते-सुनते कैलाश पर्वत के ईश्वर भगवान्‌ शङ्कर, अगस्त्य जी के आश्रम में कुछ दिन रह गये । त्रिपुर के शत्रु भगवान्‌ शङ्कर मुनि अगस्त्य जी से विदा माँगकर अपने भवन अर्थात्‌ दक्षिण में त्र्यम्बकेश्वर की ओर चल पड़े, उनके साथ दक्ष की पुत्री सती जी भी थीं।

**तेहि अवसर भंजन महिभारा। हरि रघुबंश लीन्ह अवतारा॥ पिता बचन तजि राज उदासी। दंडक बन बिचरत अबिनासी॥**
भाष्य

उसी समय (शिव जी के कथाश्रवण के समय) पृथ्वी के भार को नष्ट करने के लिए, श्रीहरि पापहारी प्रभु श्रीराम जी ने रघुवंश में अवतार ले लिया था। पिता दशरथ जी के कैकेयी को दिये हुए वचन की रक्षा करते हुए अविनाशी श्रीराम जी उदासीन भाव से श्रीअवध का राज छोड़कर दण्डक वन में विचरण कर रहे थे।

**दो०- हृदय बिचारत जात हर, केहिं बिधि दरसन होइ।**

गुप्त रूप अवतरेउ प्रभु, गए जान सब कोइ॥४८(क)॥

भाष्य

शिव जी मार्ग में जाते–जाते मन में विचार कर रहे थे कि, प्रभु श्रीराम जी के दर्शन किस विधि से हो सकते हैं। प्रभु श्रीराम गुप्तरूप में अपना ऐश्वर्य छिपाकर अवतीर्ण हुए हैं। यदि मैं सीधे–सीधे उनके पास चला जाऊँगा तो सभी लोग जान जायेंगे कि, ये तो शिव जी के भी आराध्य प्रभु श्रीराम हैं।

**सो०- शङ्कर उर अति छोभ, सती न जानहिं मरम सोइ।**

तुलसी दरशन लोभ, मन डर लोचन लालची॥४८(ख)

[[५२]]

भाष्य

शङ्कर जी के मन में बहुत क्षोभ है, सती जी वह मर्म नहीं जान पा रही हैं। कवि तुलसीदास जी कहते हैं कि, शिव जी के मन में तुलसी अर्थात्‌ तुरीय श्रीराम ‘ल’ अर्थात्‌ लक्ष्मण तथा ‘सी’ अर्थात्‌ सीता जी के दर्शनों का लोभ है। शिव जी के मन में प्रभु की गोपनीयता भंग का डर है, पर उनके नेत्र श्रीराम जी के दर्शनों के लालची हो गये हैं।

**रावन मरन मनुज कर जाचा। प्रभु बिधि बचन कीन्ह चह साचा॥ जौ नहिं जाउँ रहइ पछितावा। करत बिचार न बनत बनावा॥**
भाष्य

रावण ने ब्रह्मा जी से मनुष्य के हाथ अपना मरण माँगा है। प्रभु श्रीराम ब्रह्मा जी के वचन को सत्य करना चाह रहे हैं, अत: रावण वध करने के लिए ही प्रभु मनुष्य रूप में अवतीर्ण हुए हैं। यदि प्रभु के पास नहीं जाता हूँ, तो मन में दर्शन नहीं करने का पश्चात ताप बना रहेगा। शिव जी विचार कर रहे हैं, पर कोई समाधान नहीं बन पा रहा है अर्थात्‌ प्रभु के दर्शनों की कोई अनुकूल परिस्थिति नहीं बन रही है।

**एहि बिधि भए सोचबस ईशा। तेही समय जाइ दसशीशा॥ लीन्ह नीच मारीचहि संगा। भयउ तुरत सो कपट कुरंगा॥ करि छल मू़ढ हरी बैदेही। प्रभु प्रभाव तस बिदित न तेही॥**
भाष्य

इस प्रकार दर्शन की समस्या नहीं हल होने से सर्वसमर्थ शङ्कर जी भी सोच के वश हो गये। उसी समय दस शिरवाले रावण ने जाकर मारीच को साथ लिया, वह मारीच तुरन्त कपटी मृग बन गया और मूढ रावण ने छल करके विदेहराज–पुत्री और विगत देह अर्थात्‌ श्रीसीता जी की परछाँई से बनी हुई माया निर्मित सीता का हरण कर लिया, क्योंकि रावण को प्रभु श्रीराम का वैसा प्रभाव ज्ञात नहीं था।

**मृग बधि बंधु सहित हरि आए। आश्रम देखि नयन जल छाए॥ बिरह बिकल नर इव रघुराई। खोजत बिपिन फिरत दोउ भाई॥ कबहूँ जोग बियोग न जाके। देखा प्रगट बिरह दुख ताके॥**
भाष्य

कपट मृग मारीच का वध करके पृथ्वी का भार हरण करनेवाले हरि प्रभु श्रीराम अपने छोटे भाई लक्ष्मण जी के साथ आश्रम में आये, तो सीता जी के बिना आश्रम को देखकर उनके नेत्र जल से पूर्ण हो गये। रघुकुल के राजा अथवा सभी प्राणियों के हृदय में अन्तर्यामी रूप से विराजने वाले प्रभु श्रीराम मनुष्य की भाँति सीता जी के विरह से व्याकुल जैसे लगने लगे हैैं और दोनों भ्राता श्रीराम–लक्ष्मण, सीता जी को खोजते हुए वन–वन में फिर रहे हैं। जिनके जीवन में संयोग–वियोग कभी संभव नहीं है, उन्हीं का विरह दु:ख आज प्रत्यक्ष रूप में देखा जा रहा है।

**दो०- अति बिचित्र रघुपति चरित, जानहिं परम सुजान।**

जे मतिमंद बिमोह बश, हृदय धरहिं कछु आन॥४९॥

भाष्य

रघुपति श्रीराम का चरित्र अत्यन्त विचित्र है उसे परमचतुर लोग ही जान पाते हैं। जो मन्दबुद्धि के लोग होते हैं वे विकृतमोह के वशीभूत होकर हृदय में कुछ दूसरा ही धारण कर लेते हैं अर्थात्‌ प्रभु के साधारण व्यवहार को देखकर उन्हें साधारण मनुष्य मानने की भूल कर बैठते हैं।

**शंभु समय तेहि रामहिं देखा। उपजा हिय अति हरष बिशेषा॥ भरि लोचन छबिसिंधु निहारी। कुसमय जानि न कीन्ह चिन्हारी॥**
भाष्य

उसी समय कल्याणों के दाता शिव जी ने भगवान्‌ श्रीराम के दर्शन कर लिए। शिव जी के हृदय में अतिविशेष हर्ष हुआ, क्योंकि गोपनीयता भी बची रही और दर्शन भी हो गये। छवि के सागर प्रभु श्रीराम को

[[५३]]

भरनयन निहारकर अथवा प्रेमपूर्वक निहारते हुए छवि के महासागर को अपने नेत्रों में भरकर प्रतिकूल समय जानकर शिव जी ने कोई परिचय नहीं किया ।

जय सच्चिदानंद जग पावन। अस कहि चले मनोज नसावन॥ चले जात शिव सती समेता। पुनि पुनि पुलकत कृपानिकेता॥

भाष्य

हे सत्‌ चित्‌ आनन्दस्वरूप! हे जगत्‌ को पवित्र करनेवाले! हे मनोज अर्थात्‌ काम आदि विकारों को नष्ट करने वाले राघव सरकार! आप की जय हो! जय हो! इस प्रकार पाँचों मुखों से पाँच बार जय कहकर शिव जी चल पड़े। कृपा के धाम शिव जी, सती जी के साथ चले जा रहे हैं, परन्तु पुन:–पुन: वे रोमांचित हो उठते हैं अर्थात्‌ श्रीराम दर्शन–जनित आनन्द सँभाल नहीं पा रहे हैं।

**सती सो दशा शंभु कै देखी। उर उपजा संदेह बिशेषी॥ शङ्कर जगतबंद्द जगदीशा। सुर नर मुनि सब नावत शीशा॥ तिन नृपसुतहिं कीन्ह परनामा। कहि सच्चिदानंद परधामा॥ भये मगन छबि तासु बिलोकी। अजहुँ प्रीति उर रहति न रोकी॥**
भाष्य

सती जी ने भगवान्‌ शङ्कर की वह दशा देखी, तो उनके हृदय में विशेष प्रकार का संदेह उत्पन्न हो गया। सती जी विचार करने लगीं कि भगवान्‌ शङ्कर जगत्‌ वंदनीय और सारे संसार के ईश्वर हैं। सभी देवता, मनुष्य और मुनि उन्हें शीश नवाते हैं, ऐसे प्रभु शङ्कर ने भी सत्‌–चित्‌–आनन्द परधाम कहकर विरही राजकुमार को प्रणाम कर लिया। उसकी छवि देखकर इतने मग्न हो गये कि अब भी हृदय में वह प्रीति नहीं समा पा रही है।

**दो०- ब्रह्म जो ब्यापक बिरज अज, अकल अनीह अभेद।**

सो कि देह धरि होइ नर, जाहि न जानत बेद॥५०॥

भाष्य

जो ब्रह्म हैं तथा जो सर्वव्यापक रजोगुण से रहित और अजन्मा हैं, जिनमें किसी प्रकार की कला और कोई चेष्टा नहीं है, जिनमें अपने-पराये का भेद नहीं है, जिन्हें वेद भी नहीं जानते, क्या वह ब्रह्म शरीर धारण करके मनुष्य बन सकते हैं?

**बिष्णु जो सुर हित नरतनु धारी। सोउ सर्बग्य जथा त्रिपुरारी॥ खोजत सो कि अग्य इव नारी। ग्यानधाम श्रीपति असुरारी॥**
भाष्य

देवताओं के लिए जो विष्णु जी मनुष्य शरीर धारण करते हैं, वे भी शिव जी के समान सर्वज्ञ हैं, परन्तु क्या वे ज्ञान के भवन, असुरों के शत्रु लक्ष्मीपति विष्णु जी आज मनुष्यों की भाँति स्त्री को ढूँढ रहे हैं अर्थात्‌ क्या सर्वज्ञ को अपनी पत्नी का पता नहीं चल रहा है ?

**शंभुगिरा पुनि मृषा न होई। शिव सर्बग्य जान सब कोई॥ अस संशय मन भयउ अपारा। होइ न हृदय प्रबोध प्रचारा॥**
भाष्य

फिर भगवान्‌ शङ्कर की वाणी असत्य नहीं हो सकती। यह सभी लोग जानते हैं कि, शिव जी सर्वज्ञ हैं। यदि ये राजकुमार ब्रह्म नहीं होते तो इन्हें शिव जी सच्चिदानन्द क्यों कहते? जो असत्य अर्थात्‌ झूठे मृग के पीछे दौड़ रहा है, वह सत्‌ कैसे? जो अपनी पत्नी का पता भी नहीं लगा पा रहा है वह चित्‌ कैसे? जो विरह में रो रहा है, वह आनन्द कैसे? जो निर्दोष हिरण की हत्या करने में तत्पर है वह जग पावन कैसे? तथा जो विरही है, वह मनोज नशावन अर्थात्‌ काम का नाशक कैसे हो सकता है? इस प्रकार, सती जी के मन में अपार संशय हो गया। उनके हृदय में प्रबोध अर्थात्‌ ज्ञान का प्रसार नहीं हो पा रहा था।

**जद्दपि प्रगट न कहेउ भवानी। हर अंतरजामी सब जानी॥**

सुनहु सती तव नारि सुभाऊ। संशय अस न धरिय मन काऊ॥

[[५४]]

भाष्य

यद्दपि ‘भव’ अर्थात्‌ शिव जी की पत्नी सती जी ने अपना संशय प्रकट नहीं कहा, परन्तु अन्तर का नियमन करनेवाले शिव जी ने सब जान लिया और बोले-हे सती! सुनो, तुम्हारा नारी का स्वभाव है अर्थात्‌ तुम कोमल और भावुक स्वभाव की हो, इस प्रकार का संशय मन में कभी नहीं धारण करना चाहिए।

**जासु कथा कुंभज ऋषि गाई। भगति जासु मैं मुनिहिं सुनाई॥ सोइ मम इष्टदेव रघुबीरा। सेवत जाहि सदा मुनि धीरा॥**
भाष्य

महर्षि कुम्भज ने जिनकी कथा गायी और मैंने जिनकी भक्ति मुनि अगस्त्य जी को सुनायी, धीर मुनिजन जिनकी सदैव सेवा करते रहते हैं, वे ही त्याग–वीरता, दया–वीरता, विद्दा–वीरता, पराक्रम–वीरता और धर्म– वीरता से उपलक्षित रघुवीर प्रभु श्रीराम मेरे इष्टदेव हैं।

**छ०- मुनि धीर जोगी सिद्ध संतत बिमल मन जेहिं ध्यावहीं।**

कहि नेति निगम पुरान आगम जासु कीरति गावहीं॥ सोइ राम ब्यापक ब्रह्म भुवन निकाय पति माया धनी। अवतरेउ अपने भगत हित निज तंत्र नित रघुकुलमनी॥

भाष्य

हे सती! मुनिजन, धीर बुद्धिवाले योगीजन, सिद्धजन निर्मल मन से जिनका निरन्तर ध्यान करते रहते हैं। वेद, पुराण और आगम ‘नेति–नेति’ कह कर जिनकी कीर्ति का गान करते हैं, वे ही सर्वव्यापक, भुवन समूहों के स्वामी, मायापति, रघुकुल के मणि, परब्रह्म श्रीराम जी अपने तंत्र अर्थात्‌ वैदिकमार्ग के निमित्त अपने भक्तों के लिए अवतीर्ण हुए हैं।

**सो०- लाग न उर उपदेश, जदपि कहेउ शिव बार बहु।**

बोले बिहसि महेश, हरिमाया बल जानि जिय॥५१॥

भाष्य

यद्दपि शिव जी ने बार–बार समझाकर कहा, फिर भी उनका उपदेश सती जी के हृदय में नहीं लगा अर्थात्‌ सती जी को नहीं प्रभावित कर पाया। अनन्तर हृदय में भगवान्‌ श्रीराम जी की माया के बल को जानकर महेश महादेव जी विशेष रूप से हँसकर बोले अर्थात्‌ हृदय में चि़ढे और बाहर से हँसकर बोले–

**जौं तुम्हरे मन अति संदेहू। तौ किन जाइ परीक्षा लेहू॥ तब लगि बैठ अहउँ बटछाहीं। जब लगि तुम ऐहउ मोहि पाहीं॥ जैसे जाइ मोह भ्रम भारी। करेहु सो जतन बिबेक बिचारी॥**
भाष्य

शिव जी ने कहा-हे सती! यदि तुम्हारे मन में अत्यन्त सन्देह हो गया है, तो फिर इसके समाधान के लिए जाकर परीक्षा क्यों नहीं ले लेती? तब तक मैं बटवृक्ष की छाया में बैठा हूँ, जब तक तुम परीक्षा लेकर मेरे पास आओगी। जिस प्रकार तुम्हारा बड़ा मोह–भ्रम मिट जाये विवेकपूर्वक विचार कर वही यत्न करना।

**चलीं सती शिव आयसु पाई। करहिं बिचार करौं का माई॥**
भाष्य

शिव जी से आज्ञा पाकर सती जी चलीं, वे हृदय में विचार करने लगीं, अरे माँ! मैं क्या करूँ?

**इहाँ शंभु अस मन अनुमाना। दक्षसुता कहँ नहिं कल्याना॥ मोरेहु कहे न संशय जाहीं। बिधि बिपरीत भलाई नाहीं॥ होइहि सोइ जो राम रचि राखा। को करि तर्क ब़ढावै शाखा॥ अस कहि लगे जपन हरिनामा। गईं सती जहँ प्रभु सुखधामा॥**

[[५५]]

भाष्य

इधर शिव जी ने मन में इस प्रकार अनुमान किया कि, अब दक्षपुत्री सती के लिए कल्याण नहीं है। मेरे कहने से भी सती जी के संशय नहीं जा रहे हैं, अब तो विधि अर्थात्‌ ब्रह्मा जी इनसे विपरीत हो चुके हैं और अब भलाई नहीं है। अब तो वही होगा जो सती के लिए श्रीराम ने रच कर रखा है। इसमें कौन तर्क करके नाना प्रकार के विचारों की शाखा ब़ढाये, ऐसा कहकर शिव जी श्रीरघुनाथ जी का श्रीराम नाम जपने लगे और सती जी वहाँ गयीं जहाँ सुख के धाम श्रीराम जी, लक्ष्मण जी के सहित सीता जी को ढूँ़ढ रहे थे।

**दो०- पुनि पुनि हृदय बिचार करि, धरि सीता कर रूप।**

आगे होइ चलि पंथ तेहिं, जेहिं आवत नरभूप॥ ५२॥

भाष्य

पुन:–पुन: हृदय में विचार करके सीता जी का रूप धारण करके, सती जी उसी मार्ग में आगे होकर चलीं, जिस मार्ग से मनुष्यों के राजा श्रीराम चले आ रहे थे।

**लछिमन दीख उमाकृत बेषा। चकित भए भ्रम हृदय बिशेषा॥ कहि न सकत कछु अति गंभीरा। प्रभु प्रभाव जानत मतिधीरा॥**
भाष्य

लक्ष्मण जी ने देख लिया कि हृदय में विशेष भ्रम के कारण आज ‘उ’ अर्थात्‌ शिव जी की ‘मा’ अर्थात्‌ शक्ति तात्पर्यत: शिव जी की शक्ति सती जी ने ही सीता जी का वेश बना लिया है। श्रीलक्ष्मण जी चकित हो गये, अत्यन्त गंभीर होने के कारण वह कुछ भी नहीं बोल सक रहे थे, क्योंकि धीरबुद्धिवाले कुमार लक्ष्मण प्रभु श्रीराम का प्रभाव जानते थे।

**सती कपट जानेउ सुरस्वामी। सबदरशी सब अंतरजामी॥ सुमिरत जाहि मिटइ अग्याना। सोइ सरबग्य राम भगवाना॥**
भाष्य

सब कुछ देखनेवाले और सभी के अन्तर्यामी, देवताओं के स्वामी श्रीराम ने सती जी के कपट को जान लिया। जिनके स्मरणमात्र से अज्ञान मिट जाता है, ऐसे भगवान्‌ श्रीराम सर्वज्ञ हैं अर्थात्‌ सब कुछ जानते हैं, उनसे छिपा क्या है?

**सती कीन्ह चह तहउँ दुराऊ। देखहु नारि स्वभाव प्रभाऊ॥ निज माया बल हृदय बखानी। बोले बिहँसि राम मृदु बानी॥**
भाष्य

वहाँ भी अर्थात्‌ छहों ऐश्वर्यों से सम्पन्न सर्वज्ञाता भगवान्‌ श्रीराम के समक्ष भी सती जी ने छिपाव करना चाहा, प्राकृत नारी के स्वभाव का प्रभाव तो देखिये। हृदय में अपने माया के बल की प्रशंसा करके श्रीराम जी हँसकर कोमल वाणी में बोले–

**जोरि पानि प्रभु कीन्ह प्रनामू। पिता समेत लीन्ह निज नामू॥ कहेउ बहोरि कहाँ बृषकेतू। बिपिन अकेलि फिरहु केहि हेतू॥**
भाष्य

प्रभु श्रीराम ने हाथ जोड़कर सती जी को प्रणाम किया और पिताश्री दशरथ जी के सहित अपना नाम लिया अर्थात्‌ मैं श्रीदशरथ का पुत्र राम हूँ, यह कहकर अपना परिचय दिया। फिर, बोले-भगवान्‌ वृषभध्वज शिव जी कहाँ हैं? आप इस निर्जन वन में अकेली किस कारण घूम रही हैं?

**दो०- राम बचन मृदु गू़ढ सुनि, उपजा अति संकोच।**

सती सभीत महेश पहँ, चलीं हृदय बड़ सोच॥ ५३॥

भाष्य

श्रीराम जी के कोमल और गू़ढवचन सुनकर उनके हृदय में अत्यन्त संकोच हुआ। सती जी भयभीत होकर शिव जी के पास चल पड़ीं। उस समय उनके हृदय में बहुत बड़ा शोक था।

[[५६]]

मैं शङ्कर कर कहा न माना। निज अग्यान राम पर आना॥ जाइ उतर अब दैहउँ काहा। उर उपजा अति दारुन दाहा॥

भाष्य

मैंने भगवान्‌ शङ्कर का कहा नहीं माना और भगवान्‌ श्रीराम पर अपना अज्ञान ले आयी अर्थात्‌ प्रभु के प्रति अपना संशय प्रकट किया। अब जाकर शिव जी को क्या उत्तर दूँगी ? यह सोचकर उनके हृदय में अत्यन्त भयंकर ताप उत्पन्न हो गया।

**जाना राम सती दुख पावा। निज प्रभाव कछु प्रगटि जनावा॥ सती दीख कौतुक मग जाता। आगे राम सहित श्री भ्राता॥**
भाष्य

श्रीराम जी ने जान लिया कि, सती जी को दु:ख हुआ है। अत: अपने प्रभाव को कुछ प्रकट करके उन्हें ज्ञान कराया। मार्ग में जाते हुए सती जी ने एक कौतुक देखा; उनके आगे श्री अर्थात्‌ जनकनंदिनी सीता जी एवं भ्राता लक्ष्मण जी के साथ भगवान्‌ श्रीराम थे।

**फिरि चितवा पाछे प्रभु देखा। सहित बंधु सिय सुन्दर बेषा॥ जहँ चितवहिं तहँ प्रभु आसीना। सेवहिं सिद्ध मुनीश प्रबीना॥ देखे शिव बिधि बिष्णु अनेका। अमित प्रभाव एक ते एका॥ बंदत चरन करत प्रभु सेवा। बिबिध बेष देखे सब देवा॥**
भाष्य

फिर पीछे मुड़कर देखा तो लक्ष्मण जी एवं सीता जी के साथ सुन्दर वेश धारण किये हुए श्रीराम जी को देखा। सती जी जहाँ निहारती हैं, वहीं प्रभु श्रीराम बैठे हुए उन्हें दिखते हैं। उनकी कुशलसिद्ध एवं मुनिश्रेष्ठ सेवा कर रहे होते हैं। सती जी ने असीम प्रभाव वाले एक से एक ब़ढकर अनेक शङ्कर जी, अनेक ब्रह्मा जी और असंख्य विष्णु जी ही देखे। वे प्रभु श्रीराम जी के चरण की वंदना करते हुए उनकी सेवा कर रहे थे। सभी देवताओं को सती जी ने अनेक वेशों में देखा।

**दो०- सती बिधात्री इंदिरा, देखीं अमित अनूप।**

जेहि जेहि बेष अजादि सुर, तेहि तेहि तनु अनुरुप॥ ५४॥

भाष्य

सती जी ने स्वयं असीम सतियों, असीम ब्रह्माणियों एवं अनेक उपमारहित लक्ष्मियों को देखा। जिन–जिन वेशों में ब्रह्मादि देवता थे देवियाँ भी उन्हीं–उन्हीं के अनुरूप शरीर धारण किये हुए थीं।

**देखे जहँ तहँ रघुपति जेते। शक्तिन सहित सकल सुर तेते॥ जीव चराचर जे संसारा। देखे सकल अनेक प्रकारा॥**
भाष्य

सती जी ने जहाँ–तहाँ जितनी मात्रा में श्रीराम जी को देखा उतनी ही मात्रा में अपने–अपने शक्तियों के साथ सभी देवताओं को भी देखा जो श्रीसीताराम जी की सेवा कर रहे थे। संसार के जो भी ज़ड-चेतन जीव हैं, उन सबको अनेक प्रकार से सती जी ने वहाँ देखा।

**पूजहिं प्रभुहिं देव बहु बेषा। राम रूप दूसर नहिं देखा॥ अवलोके रघुपति बहुतेरे। सीता सहित न बेष घनेरे॥ सोइ रघुबर सोइ लछिमन सीता। देखि सती अति भईं सभीता॥**
भाष्य

अनेक वेश धारण किये हुए सभी देवता भगवान्‌ श्रीसीताराम जी की पूजा कर रहे हैं, पर सती जी ने श्रीराम का दूसरा रूप नहीं देखा। उन्होंने बहुत से श्रीसीता जी के सहित श्रीराम के दर्शन किये, परन्तु उनके रूप अनेक नहीं थे। वही श्रीराम, वही श्री लक्ष्मण, वही भगवती श्रीसीता जी अनन्त संख्याओं में दिखे। उन्हें देखकर सती जी बहुत भयभीत हो गयीं।

[[५७]]

हृदय कंप तन सुधि कछु नाहीं। नयन मूँदि बैठीं मग माहीं॥ बहुरि बिलोकेउ नयन उघारी। कछु न दीख तहँ दक्षकुमारी॥ पुनि पुनि नाइ राम पद शीशा। चलीं तहाँ जहँ रहे गिरीशा॥

भाष्य

उनके शरीर में कम्पन हो उठा शरीर की कोई सुधि नहीं थी। सती जी मार्ग में आँख मूँदकर बैठ गईं। फिर जब आँख खोलकर देखा तो दक्षपुत्री सती जी को वहाँ कुछ भी नहीं दिखा। पुन:–पुन: श्रीराम जी के चरणचिन्हों में मस्तक नवाकर सती जी वहाँ चलीं जहाँ गिरीश पर्वत पर शयन करनेवाले भगवान्‌ शिव जी विराज रहे थे।

**दो०- गईं समीप महेश तब, हँसि पूछी कुशलात।**

लीन्ह परीक्षा कवनि बिधि, कहहु सत्य सब बात॥ ५५॥

भाष्य

सती जी शिव जी के समीप गयीं, तब महान्‌ ईश्वर भगवान्‌ शङ्कर ने हँसकर उनसे कुशल समाचार पूछा “कहो सती! किस विधि से परीक्षा ली, सब बातें सत्य बताओ।”

**सती समुझि रघुबीर प्रभाऊ। भय बश शिव सन कीन्ह दुराऊ॥ कछु न परीक्षा लीन्ह गोसाईं। कीन्ह प्रनाम तुम्हारिहि नाईं॥**
भाष्य

सती जी ने श्रीराम के प्रभाव को समझकर भय के वश में होकर शिव जी से छिपाव किया और बोलीं “हे गोसाईं अर्थात्‌ हे प्रभु, इन्द्रियों के स्वामी शिव जी! मैंने श्रीराम जी की कुछ भी परीक्षा नहीं ली, आप ही के समान उन्हें प्रणाम कर लिया।

**जो तुम कहा सो मृषा न होई। मोरे मन प्रतीति अति सोई॥ तब शङ्कर देखेउ धरि ध्याना। सती जो कीन्ह चरित सब जाना॥ बहुरि राममायहिं सिर नावा। पे्ररि सतिहिं जेहिं झूँठ कहावा॥ हरि इच्छा भावी बलवाना। हृदय बिचारत शंभु सुजाना॥**
भाष्य

आप ने जो कहा वह असत्य नहीं हो सकता, मेरे मन में वही अत्यन्त विश्वास है। तब शङ्कर भगवान्‌ ने ध्यान करके देखा तो सती जी ने जो किया था उसे और उस समय प्रस्तुत श्रीराम जी के सभी चरित्रों को जान लिया अर्थात्‌ शिव जी ध्यान की महिमा से सती जी के कुकृत्य और श्रीराम जी के सुकृत्य से परिचित हो गये। फिर शिव जी ने श्रीराम की माया को शीश नवाकर प्रणाम किया, जिस श्रीराममाया ने प्रेरित करके सती जी से झूठ बुलवा दिया। चतुर शङ्कर जी अपने हृदय में भगवान्‌ श्रीराम की इच्छा और बलवती भवितव्यता पर विचार कर रहे हैैं।

**सती कीन्ह सीता कर बेषा। शिव उर भयउ बिषाद बिशेषा॥ जौ अब करउँ सती सन प्रीती। मिटइ भगति पथ होइ अनीती॥**
भाष्य

सती जी ने सीता जी का वेश धारण कर लिया है, यह जानकर शिव जी के हृदय में विशेष प्रकार का कष्ट हुआ। वे विचार करने लगे यदि अब सती जी से दाम्पत्यमूलक प्रेम करूँगा तो भक्ति का पथ मिट जायेगा और

अनीति हो जायेगी ।

दो०- परम प्रेम नहिं जाइ तजि, किए प्रेम बड़ पाप।

प्रगटि न कहत महेश कछु, हृदय अधिक संताप॥ ५६॥

भाष्य

परमप्रेम अर्थात्‌ दाम्पत्यप्रेम छोड़ा नहीं जाता और प्रेम करने से बहुत बड़ा पाप होगा। महान्‌ ईश्वर शिव जी प्रकट करके कुछ नहीं कह रहे हैं, परन्तु उनके हृदय में बहुत बड़ा संताप है।

[[५८]]

तब शङ्कर प्रभु पद सिर नावा। सुमिरत राम हृदय अस आवा॥ एहिं तन सतिहिं भेंट मोहि नाहीं। शिव संकल्प कीन्ह मन माहीं॥

भाष्य

तब भगवान्‌ शङ्कर ने प्रभु श्रीराम के चरणों में अथवा दण्डक वन में अंकित भगवान्‌ के चरणचिह्नों में मस्तक नवाकर प्रणाम किया। श्रीराम का स्मरण करते–करते शिव जी के हृदय में इस प्रकार का विचार आया कि, सती जी के इस शरीर से मुझे भेंट अर्थात्‌ आलिंगन स्वीकार्य नहीं होगा। शिव जी ने अपने मन में यह संकल्प कर लिया।

**अस बिचारि शङ्कर मतिधीरा। चले भवन सुमिरत रघुबीरा॥ चलत गगन भइ गिरा सुहाई। जय महेश भलि भगति दृढाई॥**
भाष्य

ऐसा विचार करके धीरबुद्धिवाले भगवान्‌ शङ्कर मन से सती जी का त्याग करके श्रीराम का स्मरण करते हुए अपने भवन अर्थात्‌ कैलाश पर्वत पर निर्मित आश्रम की ओर चल पड़े। उनके चलते ही सुहावनी आकाशवाणी हुई, हे महेश! आप की जय हो! आप ने श्रीरामभक्ति भली प्रकार से दृ़ढ कर ली है।

**अस पन तुम बिनु करइ को आना। रामभगत समरथ भगवाना॥ सुनि नभगिरा सती उर सोचा। पूछा शिवहिं समेत सकोचा॥**
भाष्य

हे श्रीरामभक्त! हे सर्वसमर्थ! हे प्रशस्त छहों माहात्म्यों से सम्पन्न सर्वसमर्थ भगवान्‌ श्रीराम के भक्त शिव जी, आप के बिना ऐसी प्रतिज्ञा और कौन कर सकता है। आकाशवाणी सुनकर सती जी के हृदय में शोक हुआ और उन्होंने शिव जी से संकोच के सहित पूछा–

**कीन्ह कवन पन कहहु कृपाला। सत्यधाम प्रभु दीनदयाला॥ जदपि सती पूछा बहु भाँती। तदपि न कहेउ त्रिपुर आराती॥**
भाष्य

हे सत्य के निवासस्थान! हे प्रभो! हे दीनों पर दया करनेवाले! हे कृपालु शिव जी! बताइये, आप ने कौन–सा पण कर लिया है ? यद्दपि सती जी ने शिव जी से बहुत प्रकार से पूछा, फिर भी त्रिपुर के शत्रु शिव जी ने अपने पण के सम्बन्ध में सती जी से कुछ नहीं कहा।

**दो०- सती हृदय अनुमान किय, सब जानेउ सर्बग्य।**

कीन्ह कपट मैं शंभु सन, नारि सहज ज़ड अग्य॥ ५७(क)॥

भाष्य

सती जी ने हृदय में यह अनुमान कर लिया कि, सर्वज्ञ शिव जी ने सब कुछ जान लिया है। स्वभावत: ज़ड ज्ञानशून्य मैं साधारण नारी भगवान्‌ शिव जी से कपट कर बैठी।

**सो०- जल पय सरिस बिकाइ, देखहु प्रीति कि रीति भलि।**

बिलग होइ रस जाइ, कपट खटाई परत ही॥५७(ख)

भाष्य

देखो तो प्रीति की रीति कितनी भली होती है, दूध से मिलकर जल भी दूध के समान मूल्य से बिकता है। वहीं कपट की खटाई पड़ने मात्र से जब जल दूध से अलग हो जाता है तब दूध का स्वाद भी चला जाता है।

**हृदय सोच समुझत निज करनी। चिंंता अमित जाइ नहिं बरनी॥ कृपासिंधु शिव परम अगाधा। प्रगट न कहेउ मोर अपराधा॥**

[[५९]]

भाष्य

अपनी करनी को समझ सती जी के हृदय में अत्यन्त सोच है, उनकी चिन्ता असीम है, जिसका वर्णन नही किया जा सकता। उन्होंने समझ लिया कि शिव जी अगाध कृपा के सागर हैं इसलिए उन्होंने मेरा अपराध प्रकट नहीं कहा।

**शङ्कर रुख अवलोकि भवानी। प्रभु मोहि तजेउ हृदय अकुलानी॥ निज अघ समुझि न कछु कहि जाई। तपइ अवाँ इव उर अधिकाई॥**
भाष्य

शङ्कर जी के रुख को देखकर सती जी ने समझ लिया कि प्रभु ने मुझे छोड़ दिया है। ऐसा समझकर वे हृदय में अकुला गईं। अपना पाप समझकर सती से कुछ कहा नहीं जा रहा है। उनका हृदय कुम्हार के आँवे कि भाँति अत्यन्त सुलग कर तप रहा है।

**सतिहिं ससोच जानि बृषकेतू। कही कथा सुन्दर सुखहेतू॥ बरनत पंथ बिबिध इतिहासा। बिश्वनाथ पहुँचे कैलासा॥**
भाष्य

वृषभध्वज शङ्कर जी ने सती जी को शोकयुक्त जानकर उनके सुख के लिए सुन्दर–सुन्दर कथायें कहीं। मार्ग में अनेक इतिहासों का वर्णन करते हुए भगवान्‌ विश्वनाथ जी कैलाश पहुँच गये।

**तहँ पुनि शंभु समुझि पन आपन। बैठे बट तर करि कमलासन॥ शङ्कर सहज स्वरूप सम्हारा। लागि समाधि अखंड अपारा॥**
भाष्य

फिर वहाँ पर शिव जी अपनी प्रतिज्ञा का स्मरण करके पद्‌मासन लगाकर वटवृक्ष के नीचे बैठ गये। भगवान्‌ शिव ने सहजस्वरूप अर्थात्‌ सेवक–सेव्य भाव का चिन्तन किया और उन्हें अखण्ड–अपार समाधि लग गयी। अथवा, शिव जी ने श्रीराम जी के ही ऐश्वर्यमय सहजस्वरूप का चिन्तन किया जिससे वे असम्प्रज्ञात समाधि में लीन हो गये।

**दो०- सती बसहिं कैलास तब, अधिक सोच मन माहिं।**

मरम न कोऊ जान कछु, जुग सम दिवस सिराहिं॥५८॥

भाष्य

शिव जी के समाधि में चले जाने के पश्चात्‌ सती जी कैलाश में निवास कर रही हैं। उनके मन में अत्यन्त शोक है, कोई भी कुछ मर्म नहीं जान रहा है, सती जी के दिन युग के समान बीत रहे हैं।

**नित नव सोच सती उर भारा। कब जैहउँ दुख सागर पारा॥ मैं जो कीन्ह रघुपति अपमाना। पुनि पतिबचन मृषा करि जाना॥ सो फल मोहिं बिधाता दीन्हा। जो कछु उचित रहा सोइ कीन्हा॥ अब बिधि अस बूझिय नहिं तोही। शङ्कर बिमुख जियावसि मोही॥**
भाष्य

सती जी के हृदय में शोक का भार नित्य नया होता जा रहा है। वे मन ही मन विचार कर रही हैं कि मैं इस दु:ख–सागर से पार कब जाऊँगी? मैंने जो रघुपति श्रीराम जी का अपमान किया और अपने पति शङ्कर जी के वचन को झूठ जाना, विधाता ने मुझे वही फल दिया है, जो कुछ उचित था वही किया है, परन्तु हे विधाता! तुम्हें अब ऐसा नहीं करना चाहिए जो कि, तुम शिव जी से विमुख करके भी मुझे जिला रहे हो।

**कहि न जाइ कछु हृदय गलानी। मन महँ रामहिं सुमिरि सयानी॥ जौ प्रभु दीनदयालु कहावा। आरति हरन बेद जस गावा॥ तौ मैं बिनय करउँ कर जोरी। छूटउ बेगि देह यह मोरी॥ जौ मोरे शिव चरन सनेहू। मन क्रम बचन सत्य ब्रत एहू॥**

[[६०]]

भाष्य

सती जी से कुछ कहा नहीं जाता है हृदय में अत्यन्त ग्लानि है। चतुर सती जी ने मन में श्रीराम का स्मरण किया और बोलीं– “यदि प्रभु श्रीराम दीनों के दयालु और आर्ति को हरण करनेवाले कहे जाते हैं, जिनका वेदों ने यश गाया है तो मैं उन्हीं प्रभु से हाथ जोड़कर विनय कर रही हूँ कि, यह मेरा शरीर शीघ्र ही छूट जाये। यदि मन में शिव जी के चरण में मेरा स्नेह है तो मन, कर्म तथा वाणी का यही सत्य व्रत है। ”

**दो०- तौ समदरसी सुनिय प्रभु, करहु सो बेगि उपाइ।**

होइ मरन जेहिं बिनहिं श्रम, दुसह बिपत्ति बिहाइ॥ ५९॥

भाष्य

तो हे समदर्शी प्रभु सुनिये! आप वही उपाय शीघ्र कीजिये जिससे बिना श्रम के मेरी मृत्यु हो जाये और दुस्सह विपत्ति चली जाये ।

**एहि बिधि दुखित प्रजेशकुमारी। अकथनीय दारुन दुख भारी॥ बीते संबत सहस सतासी। तजी समाधि शंभु अबिनासी॥**
भाष्य

इस प्रकार प्रजापति दक्ष की पुत्री सती जी शिव जी की समाधि की अवधि तक दु:खी रहीं। उनका विशाल दारुण दु:ख कहने योग्य नहीं है। सत्तासी हजार वर्ष बीतने के पश्चात्‌ नाशरहित शिव जी ने अपनी समाधि छोड़ी।

**राम नाम शिव सुमिरन लागे। जानेउ सती जगतपति जागे॥ जाइ शंभु पद बंदन कीन्हा। सनमुख शङ्कर आसन दीन्हा॥**
भाष्य

शिव जी श्रीराम नाम का स्मरण करने लगे। सती जी जान गयीं जगत्‌ के पति शिव जी अब समाधि से जाग गये हैं, उन्होंने समीप जाकर शिव जी के चरणों का वन्दन किया और शङ्कर जी ने उन्हें अपने सन्मुख आसन दिया।

**लगे कहन हरिकथा रसाला। दक्ष प्रजेश भए तेहि काला॥ देखा बिधि बिचारि सब लायक। दक्षहिं कीन्ह प्रजापति नायक॥**
भाष्य

शिव जी, भगवान्‌ श्रीराम की रसमयी कथा कहने लगे। उसी समय दक्ष प्रजापति बने। ब्रह्मा जी ने उन्हें सब लायक देखा तब उन्होंने दक्ष को प्रजापतियों का नायक बना दिया ।

**बड़ अधिकार दक्ष जब पावा। अति अभिमान हृदय तब आवा॥ नहिं कोउ अस जनमा जग माहीं। प्रभुता पाइ जाहि मद नाहीं॥**
भाष्य

जब दक्ष बड़ा अधिकार पाये तब उनके हृदय में अभिमान आ गया, क्योंकि संसार में कोई भी ऐसा नहीं जन्मा, जिसे प्रभुता पाकर मद नहीं हुआ हो।

**दो०- दक्ष लिए मुनि बोलि सब, करन लगे बड़ जाग।**

नेवते सादर सकल सुर, जे पावत मख भाग॥ ६०॥

भाष्य

दक्ष जी ने सभी मुनियों को बुलाया और बहुत बड़ा यज्ञ करने लगे। जो देवता यज्ञ में भाग पाते हैं, उन सभी देवों को दक्ष ने आदरपूर्वक निमंत्रित किया।

**किन्नर नाग सिद्ध गंधर्बा। बधुन समेत चले सुर सर्बा॥ बिष्णु बिरंचि महेश बिहाई। चले सकल सुर यान बनाई॥**

[[६१]]

भाष्य

किन्नर, नाग, सिद्ध, गंधर्व और सभी देवता अपनी–अपनी बहुओं के सहित दक्ष के यज्ञ के लिए चल पड़े ब्रह्मा जी, विष्णु जी और शिव जी को छोड़कर सभी देवता विमानों को व्यवस्थित करके दक्ष के यज्ञ में प्रस्थान किये।

**सती बिलोके ब्योम बिमाना। जात चले सुन्दर बिधि नाना॥ सुर सुन्दरी करहिं कल गाना। सुनत स्रवन छूटहिं मुनि ध्याना॥**
भाष्य

सती जी ने देखा आकाश में अनेक प्रकार के विमान चले जा रहे हैं, देवताओं की सुन्दरियाँ इतना सुन्दर गान कर रही हैं कि, जिसे कान से सुनकर मुनियों का भी ध्यान छूट रहा है।

**पूँछेउ तब शिव कहेउ बखानी। पिता जग्य सुनि कछु हरषानी॥ जौ महेश मोहि आयसु देहीं। कछु दिन जाइ रहौं मिस एहीं॥**
भाष्य

जब सती जी ने पूछा तब शिव जी ने दक्ष के यज्ञ की बात कही। पिता का यज्ञ सुनकर सती जी कुछ प्रसन्न र्हुइं। वे मन में सोचने लगीं, यदि महेश्वर शिव जी मुझे आज्ञा दें तो कुछ दिन इसी बहाने पिताश्री के यहाँ जाकर रह लूँ।

**पति परित्याग हृदय दुख भारी। कहइ न निज अपराध बिचारी॥ बोली सती मनोहर बानी। भय संकोच प्रेम रस सानी॥**
भाष्य

पति के परित्याग का हृदय में बहुत बड़ा दु:ख है, परन्तु अपना अपराध विचार कर सती जी कुछ नहीं कहतीं। सती जी भय, संकोच और प्रेम–रस से सानी हुई मनोहर वाणी बोलीं ।

**दो०- पिता भवन उत्सव परम, जौ प्रभु आयसु होइ।**

तौं मैं जाउँ कृपायतन, सादर देखन सोइ॥६१॥

भाष्य

हे कृपा के घर शिव जी! मेरे पिता के भवन में सुन्दर उत्सव हो रहा है, यदि प्रभु की आज्ञा हो तो मैं उसे आदरपूर्वक देखने जाऊँ।

**कहेहु नीक मोरेहुँ मन भावा। यह अनुचित नहिं नेवत पठावा॥ दक्ष सकल निज सुता बोलाई। हमरे बैर तुमहुँ बिसराई॥**
भाष्य

शिव जी बोले-हे सती! तुमने बहुत अच्छा कहा। यह प्रस्ताव मेरे भी मन को बहुत अच्छा लगा, परन्तु यहाँ अनुचित यह है कि, दक्ष जी ने निमंत्रण नहीं भेजा है। दक्ष ने अपनी सभी पुत्रियों को बुला लिया, किन्तु हमारे वैर के कारण वे तुम्हें भी भूल गये।

**ब्रह्मसभा हम सन दुख माना। तेहि ते अजहुँ करहिं अपमाना॥ जौ बिनु बोले जाहु भवानी। रहइ न शील सनेह न कानी॥ जदपि मित्र प्रभु पितु गुरु गेहा। जाइय बिनु बोलेहुँ न सँदेहा॥ तदपि बिरोध मान जहँ कोई। तहाँ गए कल्यान न होई॥**
भाष्य

ब्रह्मा जी की सभा में दक्ष ने मुझसे दु:ख मान लिया था। उस कारण वे आज भी अपमान करते रहते हैं। हे भवानी! यदि बिना बुलाये जाती हो तो शील, स्नेह और प्रतिष्ठापूर्ण संकोच कुछ भी नहीं रह जायेगा। यद्दपि मित्र, स्वामी, पिता और गुरुजन के घर बिना बुलाये भी जाना चाहिए इसमें कोई संदेह नहीं है, फिर भी यदि कोई विरोध मान रहा हो, तो वहाँ जाने से कल्याण नहीं होता।

**भाँति अनेक शंभु समुझावा। भावी बश न ग्यान उर आवा॥ कह प्रभु जाहु जो बिनहिं बोलाए। नहिं भलि बात हमारे भाए॥**

[[६२]]

भाष्य

शिव जी ने अनेक प्रकार से सती जी को समझाया, परन्तु भवितव्यता के कारण उनके हृदय में यह ज्ञान नहीं आया। शिव जी ने कहा-यदि तुम बिना बुलाये जा रही हो तो यह बात हमें किंचित्‌ भी नहीं भा रही है।

**दो०- कहि देखा हर जतन बहु, रहइ न दक्षकुमारि।**

दिए मुख्य गन संग तब, बिदा कीन्ह त्रिपुरारि॥ ६२॥

भाष्य

शिव जी ने बहुत प्रकार से कहकर देख लिया, दक्षपुत्री सती जी अनेक यत्नों के करने पर भी नहीं रुकना चाह रही थीं, तब साथ में मुख्य गणों को दिया और त्रिपुर दैत्य के शत्रु शिव जी ने सती जी को विदा कर दिया।

**पिता भवन जब गईं भवानी। दक्ष त्रास काहु न सनमानी॥ सादर भलेहिं मिली एक माता। भगिनीं मिली बहुत मुसुकाता॥**
भाष्य

जब सती जी पिता दक्ष के भवन में गयीं तब दक्ष के त्रास के कारण किसी ने भी उनका सम्मान नहीं किया, भले ही सती जी की माता प्रसूति जी उनसे आदरपूर्वक मिलीं। उनकी पन्द्रहों बहनें बहुत मुस्कुराते हुए उनसेमिलीं।

**दक्ष न कछु पूछी कुशलाता। सतिहिं बिलोकि जरे सब गाता॥ सती जाइ देखेउ तब जागा। कतहुँ न दीख शंभु कर भागा॥**
भाष्य

दक्ष ने कोई कुशल समाचार नहीं पूछा और सती जी को देखकर उनके सभी अंग क्रोध से जल–भुन उठे। सती जी ने जाकर दक्ष का समस्त यज्ञ देखा वहाँ कहीं भी शिव जी का भाग नहीं देखा।

**तब चित च़ढेउ जो शङ्कर कहेऊ। प्रभु अपमान समुझि उर दहेऊ॥ पाछिल दुख न हृदय अस ब्यापा। जस यह भयउ महा परितापा॥**
भाष्य

तब वही पक्ष सती जी के चित्त में च़ढ गया जो शिव जी ने कहा था। अपने प्रभु का अपमान समझकर सती जी का हृदय जल गया। पिछले दु:ख इस प्रकार हृदय में नहीं व्याप्त हुए थे, जिस प्रकार यह परिताप हृदय में उपस्थित हुआ।

**जद्दपि जग दारुन दुख नाना। सब ते कठिन जाति अपमाना॥ समुझि सो सतिहि भयउ अति क्रोधा। बहु बिधि जननी कीन्ह प्रबोधा॥**
भाष्य

यद्दपि संसार में अनेक प्रकार के भयंकर दु:ख हैं, पर जाति द्वारा किया हुआ अपमान सबसे कठिन होता है। यह समझकर सती जी को अत्यन्त क्रोध हुआ। माता प्रसूति ने उन्हें बहुत प्रकार से समझाया।

**दो०- शिव अपमान न जाइ सहि, हृदय न होइ प्रबोध।**

सकल सभहिं हठि हटकि तब, बोलीं बचन सक्रोध॥६३॥

भाष्य

शिव जी का अपमान सहा नहीं जा रहा था, हृदय में प्रबोध अर्थात्‌ ज्ञान नहीं हो रहा था। हठपूर्वक सम्पूर्ण सभा को रोककर सती जी क्रोध पूर्वक बोलीं–

**सुनहु सभासद सकल मुनिंदा। कही सुनी जिन शङ्कर निंदा॥ सो फल तुरत लहब सब काहू। भली भाँति पछिताब पिताहू॥**
भाष्य

हे सभासदों, सम्पूर्ण श्रेष्ठ मुनियों! सुनो, जिन लोगों ने शिव जी की निन्दा कही या सुनी है, सब लोग उसका फल प्राप्त करेंगे और मेरे पिता भी भली–भाँति पछतायेंगे।

**संत शंभु श्रीपति अपबादा। सुनिय जहाँ तहँ असि मरजादा॥**

काटिय तासु जीभ जो बसाई। स्रवन मूँदि न त चलिय पराई॥

[[६३]]

भाष्य

सन्तों, शिव जी और भगवान्‌ श्रीपति अर्थात्‌ भगवान्‌ श्रीराम जी का अपबाद अर्थात्‌ अपमान जहाँ सुना जाये वहाँ ऐसी मर्यादा है कि, यदि वश चले तो उस निन्दक की जीभ काट लेनी चाहिए नहीं तो कान मूँदकर उस स्थल से भाग चलना चाहिए।

**जगदातमा महेश पुरारी। जगत जनक सब के हितकारी॥ पिता मंदमति निंदत तेही। दक्ष शुक्र संभव यह देही॥**
भाष्य

त्रिपुर के शत्रु महेश भगवान्‌ शिव समष्टि रूप से सारे संसार की आत्मा हैं। वे सारे संसार के पिता और सब के हितकारी भी हैं। मेरे मंदमति पिता उनकी भी निन्दा करते हैं। यह शरीर भी उसी शिव निन्दक दक्ष के शुक्र से उत्पन्न हुआ है ।

**तजिहउँ तुरत देह तेहि हेतू। उर धरि चंद्रमौलि बृषकेतू॥**

अस कहि जोग अगिनि तनु जारा। भयउ सकल मख हाहाकारा॥

भाष्य

हृदय में चन्द्रशेखर वृषभध्वज शिव जी को धारण करके, इसी कारण से तुरन्त मैं इस शरीर को छोड़ दूँगी। इतना कहकर सती जी ने योगाग्नि से शरीर को भस्म कर दिया। सम्पूर्ण यज्ञस्थल में हाहाकार मच गया।

**दो०- सती मरन सुनि शंभु गन, लगे करन मख खीस।**

जग्य बिधंस बिलोकि भृगु, रक्षा कीन्ह मुनीश॥६४॥

भाष्य

सती जी का मरण देखकर शिव जी के गण यज्ञ को नष्ट करने लगे, यज्ञ का विध्वंस होता देखकर मुनिश्रेष्ठ भृगु ने उसकी रक्षा कर ली।

**समाचार सब शङ्कर पाए। बीरभद्र करि कोप पठाए॥ जग्य बिधंस जाइ तिन कीन्हा। सकल सुरन बिधिवत फल दीन्हा॥**
भाष्य

जब शङ्कर जी ने सब समाचार पाया तब उन्होंने क्रोध करके अपने प्रमुख गण वीरभद्र को भेजा। उन्होंने जाकर यज्ञ का विध्वंस कर दिया और सभी देवताओं को विधिवत्‌ फल दिया।

**भइ जगबिदित दक्ष गति सोई। जसि कछु शंभु बिमुख कै होई॥**

यह इतिहास सकल जग जाना। ताते मैं संक्षेप बखाना॥

भाष्य

संसार में विदित है कि दक्ष की वही गति हुई जो कुछ शिवविमुख की होनी चाहिए। इस इतिहास को सारा संसार जानता है, इसलिए मैंने इसे संक्षेप में ही कहा है।

**सती मरत हरि सन बर माँगा। जनम जनम शिव पद अनुरागा॥ तेहि कारन हिमगिरि गृह जाई। जनमीं पारबती तनु पाई॥**
भाष्य

सती जी ने मरते समय श्रीहरि से जन्म–जन्म में शिव जी के चरण में अनुरागरूप वर माँगा था। इसी कारण वे पर्वतराज हिमाचल के घर में जाकर पार्वती जी अर्थात्‌ पर्वत की पुत्री का शरीर पाकर जन्मीं।

**जब ते उमा शैल गृह जाई। सकल सिद्धि संपति तहँ छाई॥ जहँ तहँ मुनिन सुआश्रम कीन्हे। उचित बास हिम भूधर दीन्हे॥**
भाष्य

जब से पार्वती जी हिमाचल के घर में जन्म ली हैं, तभी से वहाँ सम्पूर्ण सिद्धियाँ और सम्पत्तियाँ छा गयी हैं। जहाँ–तहाँ मुनियों ने सुन्दर आश्रम बनाये और हिमाचल पर्वत ने उन सबको उचित निवास दिया।

**दो०- सदा सुमन फल सहित सब, द्रुम नव नाना जाति।**

प्रगटीं सुन्दर शैल पर, मनि आकर बहु भाँति॥ ६५॥

[[६४]]

भाष्य

नाना प्रकार के नवीन वृक्षगण निरन्तर पुष्पों और फलों से लदे रहने लगे। सुन्दर हिमालय पर्वत पर अनेक प्रकार के मणियों की खानें प्रकट हो गयीं।

**सरिता सब पुनीत जल बहहीं। खग मृग मधुप सुखी सब रहहीं॥ सहज बैर सब जीवन त्यागा। गिरि पर सकल करहिं अनुरागा॥ सोह शैल गिरिजा गृह आए। जिमि जन रामभगति के पाए॥ नित नूतन मंगल गृह तासू। ब्रह्मादिक गावहिं जस जासू॥**
भाष्य

जब से पार्वती जी ने जन्म लिया है, हिमालय की सभी नदियाँ पवित्र जल बह रही हैं। पशु, पक्षी और भौंरे सभी सुखी रह रहे हैं, जीवों ने अपना स्वाभाविक बैर छोड़ दिया है और सभीलोग पर्वत पर अनुरागपूर्ण व्यवहार कर रहे हैं। पार्वती जी के आने से हिमाचल पर्वत उसी प्रकार शोभित हो रहा है, जैसे श्रीवैष्णवजन श्रीरामभक्ति पाकर शोभित होते हैं। जिस हिमाचल का यश ब्रह्मादि गा रहे हैं, उसके घर में नित्य नवीन मांगलिक उत्सव हो रहे हैं।

**नारद समाचार सब पाए। कौतुक हिमगिरि गेह सिधाए॥ शैलराज बड़ आदर कीन्हा। पद पखारि बर आसन दीन्हा॥**
भाष्य

सब समाचार नारद जी ने पा लिया और कौतूहलवश हिमाचल पर्वत के घर पधारे। पर्वतराज हिमाचल ने नारद जी का बहुत आदर किया। उनके चरण–पखार कर उन्हें श्रेष्ठ आसन दिया।

**नारि सहित मुनि पद सिर नावा। चरन सलिल सब भवन सिंचावा॥ निज सौभाग्य बहुत गिरि बरना। सुता बोलि मेली मुनि चरना॥**
भाष्य

हिमाचलराज ने अपनी पत्नी मैना सहित देवर्षि नारद के चरणों में शीश नवाया और नारद जी के चरण का जल सम्पूर्ण घर में छिड़ककर पर्वत ने अपने सौभाग्य का बहुत वर्णन किया और पुत्री पार्वती जी को बुलाकर नारद मुनि के चरणों में डाल दिया।

**दो०- त्रिकालग्य सर्बग्य तुम, गति सर्बत्र तुम्हारि।**

कहहु सुता के दोष गुन, मुनिवर हृदय बिचारि॥६६॥

भाष्य

हिमाचलराज बोले, हे मुनिश्रेष्ठ नारद! आप भूत, वर्तमान और भविष्यत्‌ काल को जानते हैं। आप सर्वज्ञ हैं, आपकी जल, थल, आकाश, मर्त्यलोक, देवलोक और दानवलोक आदि सभी चौदहों भुवनों में गति है अर्थात्‌ आप सर्वत्र भ्रमण करते रहते हैं। अतएव, हृदय में विचार करके मेरी पुत्री के दोष और गुण कहिये।

**कह मुनि बिहँसि गू़ढ मृदु बानी। सुता तुम्हारी सकल गुन खानी॥ सुंदरि सहज सुशील सयानी। नाम उमा अंबिका भवानी॥**
भाष्य

महर्षि नारद जी नेहँसकर गोपनीय और कोमल वाणी में कहा, “तुम्हारी पुत्री सभी गुणों की खान, सुन्दर स्वभाव और चरित्रवाली तथा चतुर है। इसके उमा, अम्बिका, भवानी इत्यादि प्रसिद्ध नाम हैं। इसका नाम उमा है, क्योंकि यह ‘उ’ अर्थात्‌ शिव जी की ‘मा’ अर्थात्‌ शक्ति है। यह सारे संसार की कृपालु माता है, ये भव अर्थात्‌ शिव जी की स्त्री अर्थात्‌ अनादिकालीन धर्मपत्नी हैं। (उ: शिवस्य मा शक्ति: उमा। अनुकम्पिता अम्बा अम्बिका। भवस्य शिवस्य स्त्री भवानी।)

**सब लच्छन संपन्न कुमारी। होइहि संतत पियहिं पियारी॥ सदा अचल एहि कर अहिवाता। एहि ते जस पैहैं पितु माता॥**

[[६५]]

भाष्य

यह प्रथम अवस्था प्राप्त तुम्हारी बेटी सभी लक्षणों से सम्पन्न है। ये निरंतर अपने प्रियतम पति को प्रिय होगी। इसका सौभाग्य सदैव अचल रहेगा। इसके कारण इसके पिता–माता यश पायेंगे।

**होइहि पूज्य सकल जग माहीं। एहि सेवत कछु दुर्लभ नाहीं॥ एहि कर नाम सुमिरि संसारा। तिय चढि़हहिं पतिब्रत असिधारा॥**
भाष्य

यह कन्या सम्पूर्ण जगत्‌ में पूज्य होगी। इसकी सेवा से सेवक को कुछ भी दुर्लभ नहीं होगा। संसार में स्त्रियाँ इसके नाम का स्मरण करके पातिव्रत रूप खड्‌गधारा पर च़ढकर कुशलता से पातिव्रत–धर्म का निर्वाह कर लेंगी।

**शैल सुलच्छनि सुता तुम्हारी। सुनहु जे अब अवगुन दुइ चारी॥ अगुन अमान मातु पितु हीना। उदासीन सब संशय छीना॥**

दो०- जोगी जटिल अकाम मन, नगन अमंगल बेष।

अस स्वामी एहि कहँ मिलिहि, परी हस्त असि रेख॥ ६७॥

भाष्य

हे पर्वतराज! तुम्हारी पुत्री सुलक्षणा है। अब उसे सुनो, जो इसके दो–चार अवगुण हैं। गुणों से रहित, मान से शून्य, माता और पिता से हीन, उदासीन अर्थात्‌ सभी से तटस्थ, सम्पूर्ण संशयों से युक्त, क्षीण अर्थात्‌ निराकार प्रकृति का, योगी, जटाधारी, कामनाओं से रहित मनवाला, वस्त्रहीन, मंगलरहित वेशवाला इस प्रकार बारह अवगुणों से सम्पन्न वर इसे मिलेगा। इसको प्राप्त करके वे अवगुण चौबीस होंगे। इसलिए दो–चार अर्थात्‌ चौबीस अवगुणों से युक्त वर इसे प्राप्त होगा। इसके हाथ में इसी प्रकार की रेखा पड़ी है।

**सुनि मुनि गिरा सत्य जिय जानी। दुख दंपतिहिं उमा हरषानी॥ नारदहूँ यह भेद न जाना। दशा एक समुझब बिलगाना॥**
भाष्य

मुनि की वाणी को सुनकर और हृदय में उसे सत्य जानकर हिमाचलराज और मैना को दु:ख हुआ तथा पार्वती जी प्रसन्न हो गयीं। नारद जी भी यह अन्तर नहीं समझ पाये, क्योंकि पर्वतदम्पति और पार्वती जी की दशा तो समान थी, परन्तु दोनों ओर का समझना अलग–अलग था अर्थात्‌ पर्वतदम्पति इन बारह विशेषताओं को शिव जी के दुर्गुण के रूप में देखकर रोमांचित थे और पार्वती जी इन्हें शिव जी के उच्च गुणों के रूप में देखकर पुलकित थीं।

विशेष

(१) पर्वत दम्पत्ति की दृय्ि में “अगुण” शब्द का अर्थ था सभी सद्‌गुणों से रहित और अनुचित गुणों से सम्पन्न, परन्तु पार्वती जी “अगुण” शब्द से शिवजी को प्राकृत सत्व-रजस्‌ और तमस्‌ से रहित निर्गुण ब्रह्म समझ रही थीं। (२) हिमालय और मैना “अमान” शब्द से पार्वती के भावी वर को सम्मान रहित समझाने लगे थे इधर पार्वती जी ने “मान” शब्द का अहंकार अर्थ समझकर अपने पति को अहंकार रहित समझा। एक ओर “मान” शब्द का पूजा और दूसरी ओर अहंकार अर्थ लिया गया। (३) (४) “मातु पितुहीना” हिमालय दम्पत्ति ने माता और पिता से हीनता का अर्थ अज्ञात कुल समझ लिया। इधर पार्वती जी ने इस विशेषण से अपने पति में परमेश्वरता का भाव लिया, क्योंकि परमेश्वर ही समस्त प्राणिमात्र के माता पिता हैं “त्वमेव माता च पिता त्वमेव”। (५) “उदासीन” हिमालय-मैना की दृष्टि में उदासीनता, गृहस्थाश्रम का त्याग और भिक्षुचर्या थी इससे वे दु:खी हुये, परन्तु पार्वती “उदासीनता” शब्द का सभी द्वन्द्वों में समभाव अर्थ समझकर सुखी हुईं। (६) “सब संशय” हिमालय दम्पत्ति ने पार्वती के भावी वर में सभी के संशयों का स्थान समझकर एक संदिग्ध व्यक्तित्व माना, परंतु पार्वती जी ने ब्रह्मतत्व को दुर्बोध समझकर, समस्त प्राणियों के सन्देहास्पद मानकर, अपने पति को

[[६६]]

जिज्ञासा का विषय समझा। (७) “छीना” हिमालय और मैना ने ‘छीन’ शब्द से पार्वती के भावी वर में दरिद्रता और अभावों की कल्पना कर ली। परन्तु पार्वती जी ने अपने वर में सभी दु:खों के अभाव और निराकारता की कल्पना कर ली। (८) “जोगी” पर्वत दम्पत्ति ने योगी शब्द से पार्वती के वर में गृहत्याग की कल्पना कर ली और पार्वती जी ने समाधिनिष्ठता की भावना की। (९) “जटिल” जटिल से पर्वतदम्पत्ति ने अपने जवाई में असभ्यता की कल्पना की पर पार्वती जी ने अपने वर में साक्षात्‌ शिव के दर्शन किये। (१०) “अकाम” अकाम शब्द से पर्वतदम्पत्ति ने अपने जामाता में क्लीबता की आशंका कर ली। उधर पार्वती जी ने अपने वर में प्राकृत कामनाओं का अभाव समझकर सुख का अनुभव किया। (११) “नगन” नग्न शब्द से जहाँ हिमालय मैना ने पार्वती के पति में मर्यादा शून्यता का बोध किया, वहीं पार्वती जी ने “नग्न” शब्द से दिगम्बर शिवजी की प्राप्ति का निश्चय कर के हर्ष प्राप्त किया। (१२) “अमंगल वेष” अमंगल वेष सुनकर हिमालय और मैना को उनके भावी जामाता में वेष की भयंकरता तथा सभी शुभों के अभावों का बोध करके दु:ख हुआ, वहीं पार्वती जी को अपने वर में वेष निरपेक्ष्य, परम सन्त, परम साधु सदाशिव की भावना करके शिवजी की प्राप्ति का दृ़ढ निश्चय हो गया और गिरिजा बहुत प्रसन्न हुईं। दोनों ओर के समझने भर का फेर था।

सकल सखी गिरिजा गिरि मैना। पुलक शरीर भरे जल नैना॥

भाष्य

सम्पूर्ण सखियाँ, पार्वती जी, हिमाचलराज और मैना माता के शरीर पुलकित हो रहे थे और इन सबके आँखों में अश्रुजल भरे थे।

**होइ न मृषा देवरिषि भाखा। उमा सो बचन हृदय धरि राखा॥ उपजेउ शिव पद कमल सनेहू। मिलन कठिन मन भा संदेहू॥ जानि कुअवसर प्रीति दुराई। सखि उछँग बैठी पुनि जाई॥**
भाष्य

देवर्षि नारद जी की वाणी झूठी नहीं हो सकती, अत: पार्वती जी ने उस अर्थात्‌ वर प्राप्ति की भविष्यवाणी वाले वचन को अपने हृदय में धारण कर रखा। देवर्षि द्वारा कही हुई बारहों विशेषताओं का गू़ढार्थ समझकर उन्हें शिव जी में समाहित जानकर पार्वती जी के मन में शिव जी के चरणकमलों के प्रति स्नेह उत्पन्न हो गया। शिव जी का मिलना कठिन है, ऐसा समझकर मन में संदेह भी हुआ। कुअवसर जानकर शिव विषयक प्रीति को मन में छिपाकर फिर पार्वती जी सखी की गोद में जाकर बैठ गयीं।

**झूठि न होइ देवरिषि बानी। सोचहिं दंपति सखी सयानी॥ उर धरि धीर कहइ गिरिराऊ। कहहु नाथ का करिय उपाऊ॥**
भाष्य

देवर्षि की वाणी झूठी नहीं हो सकती, ऐसा निश्चय करके हिमाचलराज, मैना माता और चतुर सखियाँ शोक कर रही हैं कि, पार्वती के लिए इस प्रकार का वर उचित नहीं होगा। हृदय में धैर्य धारण करके पर्वतराज हिमाचल कहते हैं, हे स्वामी! कहिये इस समस्या के समाधान के लिए कौन सा उपाय किया जाय?

**दो०- कह मुनीश हिमवंत सुनु, जो बिधि लिखा लिलार।**

देव दनुज नर नाग मुनि, कोउ न मेटनिहार॥६८॥

भाष्य

मुनियों के ईश्वर नारद जी बोले, हे हिमाचलराज! सुनो, विधाता ने जो मस्तक पर लिख दिया है, उसे देवता, दैत्य, मनुष्य, नाग और मुनि कोई भी नहीं मिटा सकता अर्थात्‌ पार्वती जी को तो यही वर मिलेगा।

**तदपि एक मैं कहउँ उपाई। होइ करै जौ दैव सहाई॥ जस बर मैं बरनेउँ तुम पाहीं। मिलिहि उमहिं तस संशय नाहीं॥**

[[६७]]

भाष्य

फिर भी मैं एक उपाय कहता हूँ, यदि ईश्वर सहायता करें तो वह सफल हो सकता है। तुम्हारे पास जैसे वर का मैंने वर्णन किया है, उसी प्रकार का वर पार्वती जी को मिलेगा, इसमें कोई संशय नहीं है।

**जे जे बर के दोष बखाने। ते सब शिव पहँ मैं अनुमाने॥**

जौ बिबाह शङ्कर सन होई। दोषउ गुन सम कह सब कोई॥

भाष्य

मैंने वर के जिन–जिन दोषों की चर्चा की है, वे सभी दोष शिव जी के पास हैं, ऐसा मैंने अनुमान–प्रमाण से निश्चय कर लिया है। यदि पार्वती जी का विवाह शङ्कर जी के साथ हो जाये, तो दोष भी गुण के समान हो जायेंगे, ऐसा सभी कहते हैं।

**जौ अहि सेज शयन हरि करहीं। बुध कछु तिन कर दोष न धरहीं॥ भानु कृशानु सर्ब रस खाहीं। तिन कहँ मंद कहत कोउ नाहीं॥ शुभ अरु अशुभ सलिल सब बहई। सुरसरि कोउ अपुनीत न कहई॥ समरथ कहँ नहिं दोष गोसाईं। रबि पावक सुरसरि की नाई॥**
भाष्य

जो भगवान्‌ विष्णु जी, सर्पराज शेष की शैया पर शयन करते हैं, तो भी विद्वान्‌ लोग उनका किसी प्रकार का दोष अपने मन में धारण नहीं करते। सूर्यनारायण और अग्नि सभी रसों का भक्षण करते हैं, अर्थात्‌ सर्वभक्षी हैं, फिर भी उन दोनों को कोई भी मंद अर्थात्‌ निकृष्ट नहीं कहता। गंगा जी शुभ और अशुभ सभी प्रकार के जल को अपनी तरंगों में धारण करती हैं, फिर भी देवनदी गंगा जी को कोई भी अपवित्र नहीं कहता, क्योंकि विष्णु जी, सूर्य, अग्नि और गंगा जी के समान समर्थ के लिए कुछ भी दोषावह नहीं होता, इनको पाकर तो दोष भी गुण हो जाता है। सौभाग्य से पूर्वोक्त चारों समर्थ, शिव जी में विराजते हैं। विष्णु जी हृदय में, सूर्य और चन्द्र नेत्रों में, तथा गंगा जी सिर पर। अत: शिव जी चार–चार समर्थों के आश्रय होने के कारण परमसमर्थ हैं।

**दो०- जौ अस हिसिषा करहिं नर, ज़ड बिबेक अभिमान।**

परहिं कलप भरि नरक महँ, जीव कि ईश समान॥ ६९॥

भाष्य

जो ज़ड स्वभाव वाले, विवेक के अहंकार से युक्त लोग अस हिसिषा अर्थात्‌ असहिष्णुता करते हैं या करेंगे तो वे एक–एक कल्पपर्यन्त के लिए नर्क में पड़ते हैं तथा पड़े रहेंगे। क्या कभी जीव ईश्वर के समान हो सकता है?

**सुरसरि जल कृत बारुनि जाना। कबहुँ न संत करहिं तेहि पाना॥ सुरसरि मिले सो पावन जैसे। ईश अनीशहि अंतर तैसे॥**
भाष्य

गंगा जी के जल से बनायी हुई जानकर भी उस वारुणी अर्थात्‌ मदिरा को सन्त कभी पान नहीं करते, परन्तु वही वारुणी गंगा जी में मिलकर जिस प्रकार पावन हो जाती है, ईश्वर और अनीश्वर में उसी प्रकार का अन्तर है अर्थात्‌ असमर्थ अच्छी वस्तु को भी बुरी बना देता है और समर्थ बुरी वस्तु को भी अच्छा बना देता है, जैसे मदिरा अपने से मिली हुई गंगाजल को भी मदिरा बना कर अपवित्र बना देती है और गंगा जी स्वयं में मिली

हुई वारुणी को भी पवित्र कर देती है, क्योंकि गंगा जी समर्थ हैं और वारुणी असमर्थ है।

शंभु सहज समरथ भगवाना। एहि बिबाह सब बिधि कल्याना॥ दुराराध्य पै अहहिं महेशू। आशुतोष पुनि किए कलेशू॥

भाष्य

शङ्कर जी स्वभाव से समर्थ तथा भगवान्‌ अर्थात्‌ ऐश्वर्य, धर्म, यश, श्री, ज्ञान और वैराग्य इन छ: प्रशस्त भगों अर्थात्‌ माहात्म्यों से युक्त हैं, इसलिए यदि शिव जी के साथ पार्वती जी का विवाह हो जाये तो इसमें सब

[[६८]]

प्रकार का कल्याण ही है। यद्दपि शिव जी दुराराध्य हैं, परन्तु क्लेश करने पर वे आशुतोष अर्थात्‌ शीघ्र प्रसन्न हो जाते हैं।

विशेष

मानसकाव्य में श्रीराम और शिव जी इन दोनों को भगवान्‌ कहा है, जैसे श्रीराम के लिए– *सोइ सरबग्य राम भगवाना। ***मानस, १.५३.४ शिव जी के लिए– *शंभु सहज समरथ भगवाना। ***मानस, १.७०.३ इन दोनों में अन्तर यही है कि ऐश्वर्यादि शिव जी में प्रशस्त रूप में रहते हैं और श्रीराम में प्रशस्त और नित्ययोग इन दोनों रूप में क्योंकि मतुप प्रत्यय प्रशंसा तथा नित्ययोग में भी होता है। श्रीराम की भगवत्ता नित्य है, वह उनसे अलग नहीं हो सकती और शिव जी की भगवत्ता प्रशंसामूलक है वह कदाचित्‌ उनसे अलग भी हो सकती है।

जौ तप करै कुमारि तुम्हारी। भाविउ मेटि सकहिं त्रिपुरारी॥ जद्दपि बर अनेक जग माहीं। एहि कहँ शिव तजि दूसर नाहीं॥

भाष्य

यदि तुम्हारी पुत्री तप करे तो त्रिपुर के शत्रु शिव जी भवितव्यता को भी मिटा सकेंगे, क्योंकि वे देव नही महादेव हैं। यद्दपि संसार में अनेक वर हैं, परन्तु इस पर्वतपुत्री के लिए शिव जी को छोड़कर दूसरा नहीं है।

**बर दायक प्रनतारित भंजन। कृपासिंधु सेवक मन रंजन॥**

इच्छित फल बिनु शिव अवराधे। लहिय न कोटि जोग जप साधे॥

भाष्य

वर देनेवाले, चरणों में नत हुए भक्तों की आर्ति को दूर करनेवाले, कृपा के सागर और सेवकों के मन को प्रसन्न करनेवाले ऐसे शिव जी की आराधना किये बिना करोड़ों योगजपों को करने पर भी इच्छानुसार मनोवांछित फल नहीं प्राप्त होता।

**दो०- अस कहि नारद सुमिरि हरि, गिरिजहिं दीन्ह अशीश।**

होइहि यहि कल्यान अब, संशय तजहु गिरीश॥ ७०॥

भाष्य

ऐसा कहकर श्रीहरि भगवान्‌ श्रीराम का स्मरण करके नारद जी ने पार्वती जी को आशीर्वाद दिया और हिमाचलराज से बोले, हे पर्वतराज! अब इसका कल्याण होगा तुम संशय छोड़ दो।

**\* मासपारायण, दूसरा विश्राम \***

कहि अस ब्रह्मभवन मुनि गयऊ। आगिल चरित सुनहु जस भयऊ॥

भाष्य

ऐसा कहकर देवर्षि नारद जी ब्रह्मलोक चले गये। हे भरद्वाज! अगला चरित्र जैसा हुआ वह अब सुनो।

**पतिहि एकांत पाइ कह मैना। नाथ न मैं समुझे मुनि बैना॥ जौ घर बर कुल होइ अनूपा। करिय बिबाह सुता अनुरूपा॥**

न त कन्या बरु रहउ कुआँरी। कंत उमा मम प्रानपियारी॥

जौ न मिलिहि बर गिरिजहिं जोगू। गिरि ज़ड सहज कहहिं सब लोगू॥ सोइ बिचारि पति करेहु बिबाहू। जेहिं न बहोरि होइ उर दाहू॥

भाष्य

अपने पति हिमाचलराज को अकेले में पाकर, पर्वतों की महारानी मैना माता ने कहा, हे स्वामी! मैंने देवर्षि नारद जी के वचन नहीं समझे अर्थात्‌ पार्वती का विवाह शिव जी से ही होगा, ये मेरी समझ में नहीं आया। यदि घर, वर और कुल ये तीनों अनुपम तथा पुत्री के अनुरूप हों तभी विवाह करना चाहिए, नहीं तो भले ही कन्या कुआँरी रह जाये पर घर, वर, कुल की अनुरूपता के बिना विवाह नहीं करना चाहिए। हे पतिदेव! उमा

[[६९]]

मुझे मेरे प्राणों के समान प्रिय है। यदि पार्वती के योग्य वर नहीं मिला तो सब लोग आप जैसे पर्वतराज को स्वभावत: ज़ड ही कहेंगे अर्थात्‌ आपकी देवात्मा, लोगों के सामने प्रमाणित नहीं हो सकेगी। हे पतिदेव! उस पक्ष पर विचार करके पार्वती का वैसा ही विवाह कीजियेगा जिससे फिर हृदय में जलन न हो।

अस कहि परी चरन धरि शीशा। बोले सहित सनेह गिरीशा॥ बरु पावक प्रगटै शशि माहीं। नारद बचन अन्यथा नाहीं॥

भाष्य

मैना ऐसा कहकर हिमाचल के चरणों में मस्तक रखकर दण्ड–प्रणाम की मुद्रा में पृथ्वी पर पड़ गयी। पर्वतराज प्रेम सहित बोले, भले ही चन्द्रमा में अग्नि प्रकट हो जाये फिर भी नारद जी का वचन अन्यथा अर्थात्‌ सत्य से भिन्न प्रकार का नहीं हो सकता।

**दो०- प्रिया सोच परिहरहु सब, सुमिरहु श्रीभगवान।**

पारबतिहिं जेहिं निरमयउ, सोइ करिहैं कल्यान॥७१॥

भाष्य

हे प्रिये! सभी शोक छोड़ दीजिये, श्रीभगवान्‌ अर्थात्‌ सीता जी के सहित षड्‌ैश्वर्य सम्पन्न प्रभु श्रीराम का स्मरण कीजिये, जिन्होंने पार्वती को निर्मित किया है, वे ही भगवान्‌ श्रीराम उसका कल्याण करेंगे।

**अब जो तुमहिं सुता पर नेहू। तौ अस जाइ सिखावन देहू॥ करै सो तप जेहिं मिलहिं महेशू। आन उपाय न मिटिहि कलेशू॥**
भाष्य

अब यदि आपको पुत्री पार्वती से प्रेम है, तो उसे जाकर यही शिक्षा दीजिये कि, वह तप करे जिससे महेश्वर शङ्कर भगवान्‌ पार्वती को मिल जायें। इसके अतिरिक्त अन्य किसी उपाय से पार्वती का कष्ट नहीं मिटेगा।

**नारद बचन सगर्भ सहेतू। सुंदर सब गुन निधि बृषकेतु॥ अस बिचारि तुम तजहु अशंका। सबहि भाँति शङ्कर अकलंका॥**
भाष्य

नारद जी के वचन सगर्भ अर्थात्‌ गोपनीय मर्मों से युक्त और सहेतु यानी विशेष कारण से युक्त हैं। वृषभध्वज शिव जी सभी सद्‌गुणों के समुद्र और सुन्दर हैं, ऐसा विचार करके आप सभी आशंकाओं को छोड़ दीजिये। वे शङ्कर जी सभी प्रकार से निष्कलंक हैं, क्योंकि नारद जी ने जिन–जिन अवगुणों की चर्चा की वे सब शिव जी के पास जाकर सद्‌गुण बन चुके हैं। जैसे अगुण अर्थात्‌ प्राकृत, सत्त्व, रजस और तमस गुणों से रहित, अमान अर्थात्‌ सम्मान की इच्छा नही करने वाले, मातु–पितु हीन अर्थात्‌ स्वयं सबके माता–पिता, उदासीन अर्थात्‌ सभी शत्रुओं और मित्रों की संकीर्णताओं से दूर, सब संशय अर्थात्‌ सभी संशय जहाँ समाप्त हो जाते हैं, क्षीण अर्थात्‌ पाप को क्षीण करनेवाले, योगी प्रपत्तियोग से युक्त, जटिल अर्थात्‌ भगवान्‌ की चरणोदक रूप गंगा जी के विश्राम करने के लिए जटा धारण करनेवाले, अकाम मन अर्थात्‌ अपने मन में श्रीराम को धारण करने से सांसारिक कामनाओं से रहित, नग्न अर्थात्‌ सर्वांग पवित्र होने के कारण सांसारिक आवरण से रहित, अमंगल वेश अर्थात्‌ मंगल भवन श्रीराम को हृदय में धारण करने के कारण बाह्य आडम्बर से दूर, ऐसे शिव जी सब प्रकार से निष्कलंक हैं।

**सुनि पति बचन हरषि मन माहीं। गई तुरत उठि गिरिजा पाहीं॥ उमहिं बिलोकि नयन भरे बारी। सहित सनेह गोद बैठारी॥**
भाष्य

इस प्रकार अपने पति गिरिराज हिमाचल के वचन सुनकर, मन में प्रसन्न होकर, माता मैना तुरन्त उठकर गिरिराज पुत्री पार्वती जी के पास चली गयीं। उमा जी को निहारकर आँखों में आँसू भर कर मैना माता ने प्रेमपूर्वक पुत्री को गोद में बैठा लिया।

[[७०]]

बारहिं बार लेति उर लाई। गदगद कंठ न कछु कहि जाई॥ जगत मातु सर्बग्य भवानी। मातु सुखद बोलीं मृदु बानी॥

भाष्य

मैंना बार–बार पार्वती को हृदय से लगा रहीं हैं। उनका कंठ गद्‌गद होकर भर आता है, उनसे कुछ भी कहा नहीं जा रहा है। जगत्‌ की माता, सब कुछ जाननेवाली, भव अर्थात्‌ शङ्कर जी की नित्य पत्नी पार्वती जी माता मैना को सुख देनेवाली कोमल वाणी में बोलीं–

**दो०- सुनहु मातु मैं दीख अस, सपन सुनावउँ तोहि।**

सुन्दर गौर सुबिप्रवर, अस उपदेशेउ मोहि॥७२॥

भाष्य

हे माता जी! मैंने ऐसा सपना देखा है, वह आपको सुना रही हूँ। एक सुन्दर गोरे श्रेष्ठ वैदिक ब्राह्मण ने स्वप्न में मुझे इस प्रकार उपदेश दिया–

**करहु जाइ तप शैल कुमारी। नारद कहा सो सत्य बिचारी॥ मातु पितहिं पुनि यह मत भावा। तप सुखप्रद दुख दोष नसावा॥**
भाष्य

हे पर्वतपुत्री पार्वती! वन में जाकर तप कीजिये, जो नारद जी ने विचार कर कहा है, वह सत्य है। आपके माता–पिता को भी यह मत भा गया है अर्थात्‌ दोनों ने आपके लिए तप करने के लिए आग्रह करने का ही निश्चय किया है, क्योंकि तप सुख प्रदान करने वाला तथा दु:खों और दोषों को नष्ट करनेवाला है।

**तपबल रचइ प्रपंच बिधाता। तपबल बिष्णु सकल जग त्राता॥ तपबल शंभु करहिं संघारा। तपबल शेष धरइ महिभारा॥ तप अधार सब सृष्टि भवानी। करहु जाइ तप अस जिय जानी॥**
भाष्य

तप के बल से ही ब्रह्मा जी इस पंचभूतात्मक जगत्‌ की रचना करते हैं। तप के बल से ही विष्णु जी सारे संसार का पालन करते हैं। तप के बल से ही शङ्कर जी इस जगत्‌ का संहार करते हैं अर्थात्‌ बिखरे हुए संसार को समेटकर प्रभु श्रीराम जी के चरणों में विश्राम करा देते हैं। तप के बल से ही शेषनारायण पृथ्वी का भार धारण करते हैं। हे भवानी! अर्थात्‌ कल्याणमय शङ्कर जी की शाश्वत पत्नी पार्वती जी! यह सम्पूर्ण सृष्टि तप के आधार पर चल रही है।ऐसा हृदय में जानकर वन में जाकर तप कीजिये।

**सुनत बचन बिसमित महतारी। सपन सुनायउ गिरिहिं हँकारी॥ मातु पितहिं बहुबिधि समुझाई। चलीं उमा तप हित हरषाई॥**
भाष्य

पार्वती जी के मुख से स्वप्न की बात सुनकर माता मैना विस्मित अर्थात्‌ आश्चर्यचकित हो गयीं। उन्होंने पर्वतराज हिमाचल को बुलाकर यह स्वप्न सुनाया। फिर माता–पिता को बहुत प्रकार से समझाकर प्रसन्न होकर पार्वती जी तप के लिए चल पड़ीं।

**प्रिय परिवार पिता अरु माता। भए बिकल मुख आव न बाता॥**

दो०- बेदसिरा मुनि आइ तब, सबहिं कहा समुझाइ।

पारबती महिमा सुनत, रहे प्रबोधहिं पाइ॥७३॥

भाष्य

प्रिय परिवार, पिता हिमाचल और माता मैना सभी लोग व्याकुल हो गये। किसी के मुख से बात नहीं निकल रही थी। तब वेदसिरा नामक मुनि ने आकर सब को समझाकर पार्वती जी की महिमा का वर्णन किया और पार्वती जी के लोकोत्तर महत्व को सुनकर प्रबोध अर्थात्‌ आश्वासन पाकर वे लोग धैर्य धारण किये रहे ।

**उर धरि उमा प्रानपति चरना। जाइ बिपिन लागीं तप करना॥ अति सुकुमारि न तनु तप जोगू। पति पद सुमिरि तजेउ सब भोगू॥**

[[७१]]

भाष्य

हृदय में प्राणपति भगवान्‌ शङ्कर जी के चरणों को धारण करके पार्वती जी वन में जाकर तपस्या करने लगीं। पार्वती जी अत्यन्त सुकुमारी थीं, उनका शरीर तप के योग्य नहीं था, उन्होंने अपने नित्यपति शङ्कर भगवान्‌ के चरणों को स्मरण करके सभी भोग छोड़ दिये।

**नित नव चरन उपज अनुरागा। बिसरी देह तपहिं मन लागा॥ संबत सहस मूल फल खाए। शाक खाइ शत बरष गवाँए॥**
भाष्य

पार्वती जी के हृदय में शङ्कर जी के प्रति नित्य नया अनुराग उत्पन्न होने लगा। वे अपने शरीर को भूल गयीं, उनका मन तपस्या में लग गया। पार्वती जी ने एक सहस्र वर्ष तक मूल-फल खाये। शाक खाकर सौ वर्ष व्यतीत किये।

**कछु दिन भोजन बारि बतासा। किए कठिन कछु दिन उपवासा॥ बेल पात महि परइ सुखाई। तीनि सहस संबत सोइ खाई॥ पुनि परिहरे सुखानेउ परना। उमहिं नाम तब भयउ अपरना॥**
भाष्य

कुछ दिन तो जल और वायु ही पार्वती जी का भोजन रहा। कुछ दिन उन्होंने इन्हें भी छोड़ कठिन उपवास किया। पृथ्वी पर जो सूखे बेल के पत्ते पड़े रहते थे, उन्हें पार्वती जी ने तीन हजार वर्षों तक खाया, फिर जब सूखे बेल के पत्ते भी छोड़ दिये तब उमा जी का नाम अपर्णा पड़ गया।

**देखि उमहिं तप खीन शरीरा। ब्रह्मगिरा भइ गगन गँभीरा॥**

दो०- भयउ मनोरथ सुफल तव, सुनु गिरिराजकुमारि।

परिहरु दुसह कलेश सब, अब मिलिहैं त्रिपुरारि॥७४॥

भाष्य

पार्वती जी को तपस्या से क्षीण शरीरवाली देखकर आकाश में परब्रह्म परमात्मा भगवान्‌ श्रीराम जी की गम्भीर वाणी हुई। प्रभु श्रीराम बोले, हे पार्वती! सुनिये, अब आपके सभी मनोरथ सफल हो चुके हैं। आप सभी असहनीय क्लेशों को छोड़ दीजिये। अब त्रिपुरासुर के शत्रु शिव जी आप को मिलेंगे।

**अस तप काहु न कीन्ह भवानी। भए अनेक धीर मुनि ग्यानी॥ अब उर धरहु ब्रह्म बर बानी। सत्य सदा संतत शुचि जानी॥ आवै पिता बोलावन जबहीं। हठ परिहरि घर जाएहु तबहीं॥ मिलहिं तुमहिं जब सप्त रिषीशा। जानेहु तब प्रमान बागीशा॥**
भाष्य

श्रीराम जी की गम्भीर आकाशवाणी की व्याख्या करते हुए, पार्वती जी को समझाकर ब्रह्मा जी ने कहा, हे भवानी! अनेक धीर मुनि, ज्ञानी इस सृष्टि में हुए, पर प्रारम्भ से लेकर अद्दावधि ऐसा तप किसी ने नहीं किया। अब सदैव सत्य और निरन्तर पवित्र समझकर परब्रह्म परमात्मा श्रीराम जी की श्रेष्ठवाणी को हृदय में धारण कर लो। जब भी तुम्हारे पिता हिमाचल तुम्हें बुलाने आयें तभी हठ छोड़ घर चली जाना। जब तुम्हें सात श्रेष्ठ मुनिगण (विश्वामित्र, जमदग्नि, भरद्वाज, गौतम, अत्रि, वसिष्ठ तथा कश्यप) आकर दर्शन दें, उसी समय तुम प्रभु की

वाणी को प्रमाणित समझ लेना।

सुनत गिरा बिधि गगन बखानी। पुलक गात गिरिजा हरषानी॥ उमा चरित सुन्दर मैं गावा। सुनहु शंभु कर चरित सुहावा॥

[[७२]]

भाष्य

तब श्रीराम जी की आकाशवाणी को ब्रह्मा जी द्वारा व्याख्यायित सुनकर पार्वती जी का शरीर रोमांचित हो उठा और गिरिजा जी प्रसन्न हुईं। याज्ञवल्क्य जी भरद्वाज जी को सम्बोधित करते हुए कहते हैं कि, मैंने पार्वती जी का सुन्दर चरित्र गाया, अब शिव जी का सुहावना चरित्र सुनो।

**जब ते सती जाइ तनु त्यागा। तब ते शिव मन भयउ बिरागा॥ जपहिं सदा रघुनायक नामा। जहँ तहँ सुनहिं राम गुन ग्रामा॥**
भाष्य

जब श्रीसती जी ने दक्ष के यज्ञ में जाकर अपने शरीर का त्याग किया, तभी से शिव जी के मन में वैराग्य हो गया। वे सदैव रघुनाथ ़(प्रभु श्रीराम जी) का दो अक्षरों वाला श्रीराम नाम जपते हैं और जहाँ–तहाँ जाकर श्रीराम जी के गुणसमूहों का गान करते हैं।

**दो०- चिदानंद सुखधाम शिव, बिगत मोह मद काम।**

बिचरहिं महि धरि हृदय हरि, सकल लोक अभिराम॥७५॥

भाष्य

चित्‌ और आनन्दस्वरूप सुख के निवास स्थान शङ्कर जी मोह, मद और काम से रहित होकर सम्पूर्ण लोकों को आनन्द देनेवाले, भूमि का भार हरण करनेवाले प्रभु श्रीराम जी को अपने हृदय में धारण करके पृथ्वी पर विचरण करते हैं। अथवा, मोह, मद, काम से रहित हुए शिव जी अपने हृदय में चिदानन्दस्वरूप सुख के धाम, सम्पूर्ण लोकों को अभीष्ट रूप से रमानेवाले श्रीहरि भगवान्‌ श्रीराम जी को धारण करके पृथ्वी पर विचरण करते हैं।

**कतहुँ मुनिन उपदेशहिं ग्याना। कतहुँ राम गुन करहिं बखाना॥ जदपि अकाम तदपि भगवाना। भगत बिरह दुख दुखित सुजाना॥**
भाष्य

शिव जी कहीं मुनियों को सेवक–सेव्य भाव, सम्बन्ध ज्ञान का उपदेश करते हैं और कहीं श्रीराम जी के गुणों का व्याख्यान करते हैं। यद्दपि शिव जी कामनारहित और ऐश्वर्यादि प्रशस्त छहों माहात्म्य से युक्त और सुजान हैं, फिर भी अपनी भक्ता सती जी के वियोग से कभी–कभी दु:खी हो जाते हैं।

**एहि बिधि गयउ काल बहु बीती। नित नइ होइ राम पद प्रीती॥ नेम प्रेम शङ्कर कर देखा। अबिचल हृदय भगति कै रेखा॥ प्रगटे राम कृतग्य कृपाला। रूप शील निधि तेज बिशाला॥**
भाष्य

इस प्रकार बहुत समय बीत गया। शिव जी के मन में श्रीराम जी के श्रीचरण के प्रति निरन्तर नयी प्रीति होती जा रही है। शिव जी के नियम, प्रेम तथा उनके हृदय में भक्ति की न चलायमान होने वाली रेखा, श्रीराम जी ने देखी। कृत्य को समझने वाले परमकृपालु, रूप और शील के समुद्र, विशाल तेज से सम्पन्न भगवान्‌ श्रीराम जी, शिव जी के समक्ष प्रकट हुए।

**बहु प्रकार शङ्करहिं सराहा। तुम बिनु अस ब्रत को निरबाहा॥ बहुबिधि राम शिवहिं समुझावा। पारबती कर जन्म सुनावा॥ अति पुनीत गिरिजा कै करनी। बिस्तर सहित कृपानिधि बरनी॥**
भाष्य

श्रीरघुनाथ जी ने शङ्कर जी को बहुत प्रकार से सराहा और कहा कि, आपके बिना इस प्रकार के कठोर व्रत का कौन निर्वाह कर सकता है? भगवान्‌ श्रीराम जी ने शिव जी को अनेक विधि से समझाया तथा उन्हें पार्वती जी का जन्म–प्रसंग भी सुनाया। पार्वती जी की अत्यन्त पवित्र तपस्यारूप कृति का कृपा के सागर श्रीराघव सरकार ने विस्तार के साथ वर्णन किया।

[[७३]]

दो०- अब बिनती मम सुनहु शिव, जौ मो पर निज नेहु।

जाइ बिबाहहु शैलजहिं, यह मोहि माँगे देहु॥७६॥

भाष्य

श्रीराघवेन्द्र सरकार बोले, हे शिव जी! अब मेरी प्रार्थना सुनिये, यदि आपको मुझ पर निजनेह अर्थात्‌ आत्मीयप्रेम है, तो हिमालयराज के भवन में जाकर पार्वती जी के साथ विवाह कीजिए। यह मुझे माँगने पर दीजिए अर्थात्‌ आज मैं औ़ढरदानी से भीख माँग रहा हूँ।

**कह शिव जदपि उचित अस नाहीं। नाथ बचन पुनि मेटि न जाहीं॥ सिर धरि आयसु करिय तुम्हारा। परम धरम यह नाथ हमारा॥**
भाष्य

शिव जी ने कहा, यद्दपि ऐसा उचित नहीं है, फिर भी स्वामी के आदेशात्मक वचन मिटाये भी तो नहीं जा सकते। हे नाथ! आपका आदेश सिर पर धारण करके पालन करें यह हमारा अर्थात्‌ समस्त चिद्‌वर्ग का परमधर्म है।

**मातु पिता गुरु प्रभु कै बानी। बिनहिं बिचार करिय शुभ जानी॥ तुम सब भाँति परम हितकारी। आग्या सिर पर नाथ तुम्हारी॥**
भाष्य

माता, पिता, गुरु और स्वामी की वाणी को कल्याणमय जानकर बिना विचारे ही पालन करना चाहिए। आप तो सब प्रकार से परमहितैषी हैं। हे स्वामी! आपकी आज्ञा मेरे सिर पर अर्थात्‌ आप जो कहेंगे, वह मैं करूँगा।

**प्रभु तोषेउ सुनि शङ्कर बचना। भगति बिबेक धर्म जुत रचना॥ कह प्रभु हर तुम्हार पन रहेऊ। अब उर राखेहु जो हम कहेऊ॥**
भाष्य

भक्ति, विवेक और धर्म से युक्त वाक्यरचना से सम्पन्न शिव जी के वचनों को सुनकर प्रभु श्रीराम संतुष्ट हो गये और बोले, हे हर! हे संसार के संहारकर्त्ता शिव! आपकी प्रतिज्ञा रह गयी अर्थात्‌ अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार आपने दक्षपुत्री के शरीर में सती जी का स्पर्श नहीं किया। अब वह बात हृदय में रखिये जो हमने कही है अर्थात्‌ दक्षपुत्री सती जी ही मेरे वर प्रसाद से हिमाचलराज के यहाँ प्रकट होकर उग्र तपस्या करके प्रथम शरीर के पाप का प्रायश्चित कर चुकी हैं, आप जाकर उनसे विवाह कीजिए।

**अंतरधान भए अस भाखी। शङ्कर सोइ मूरति उर राखी॥**
भाष्य

ऐसा कहकर भगवान्‌ श्रीराम अन्तर्धान हो गये अर्थात्‌ शिव जी की आँखों से ओझल हो गये। शङ्कर जी ने प्रभु श्रीराम जी की उसी मूर्ति को अपने हृदय में धारण कर लिया।

**तबहिं सप्तऋषि शिव पहँ आए। बोले प्रभु अति बचन सुहाए॥**

दो०- पारबती पहँ जाइ तुम, प्रेम परीक्षा लेहु।

गिरिहिं प्रेरि पठएहु भवन, दूरि करेहु संदेहु॥७७॥

भाष्य

उसी समय अर्थात्‌ श्रीराम के अन्तर्धान होते ही विश्वामित्र आदि सातों ऋषि शिव जी के पास आये। प्रभु अर्थात्‌ समर्थ शिव जी अत्यन्त सुन्दर वचन बोले, हे ऋषियों! आप पार्वती जी के पास जाकर उनके प्रेम की परीक्षा ले लीजिये। हिमाचल को प्रेरित करके पार्वती जी को वन से घर भेज दीजिये। उनका संदेह दूर कर दीजिये अर्थात्‌ मैं पार्वती जी के साथ विवाह करूँगा, प्रक्रिया में विलम्ब हो सकता है।

**तब ऋषि तुरत गौरि पहँ गयऊ। देखि दशा मन बिसमय भयऊ॥**

ऋषिन गौरि देखी तहँ कैसी। मूरतिमंत तपस्या जैसी॥

[[७४]]

भाष्य

तब सप्तर्षि तुरन्त पार्वती जी के पास गये। उनकी स्थिति देखकर सप्तर्षियों के मन में बहुत आश्चर्य हुआ। ऋषियों ने वहाँ पार्वती जी को किस प्रकार देखा, जैसे तपस्या ने ही रूप धारण कर लिया हो ।

**बोले मुनि सुनु शैलकुमारी। करहु कवन कारन तप भारी॥ केहि अवराधहु का तुम चहहू। हम सन सत्य मरम किन कहहू॥**
भाष्य

सातों ऋषि बोले, हे पर्वतराज पुत्री! सुनिये, आप किस कारण इतना बड़ा तप कर रही हैं ? आप किसकी आराधना कर रही हैं? आप क्या चाह रही हैं? हमसे अपना सत्यमर्म क्यों नहीं कह रही हैं?

**सुनत रिषिन के बचन भवानी। बोली गू़ढ मनोहर बानी॥ कहत मरम मन अति सकुचाई। हँसिहउ सुनि हमारि ज़डताई॥**
भाष्य

ऋषियों के वचन सुनकर शिव जी में विवाह के पूर्व पतिभाव रखने वाली भव अर्थात्‌ शिव जी की सम्बन्धिनी स्त्री पार्वती जी रहस्यपूर्ण मनोहर वाणी बोलीं-ऋषियों! मर्म कहने में मन अत्यन्त सकुचा रहा है, क्योंकि आप लोग हमारी ज़डता सुनकर हँसेंगे।

**मन हठ परा न सुनइ सिखावा। चहत बारि पर भीति उठावा॥ नारद कहा सत्य सोइ जाना। बिनु पंखन हम चहहिं उड़ाना॥ देखहु मुनि अबिबेक हमारा। चाहिय सदा शिवहिं भरतारा॥**
भाष्य

हे महर्षियों! मन तो अब हठ में तत्पर हो गया है अर्थात्‌ किसी की सीख सुनना नहीं चाहता, वह जल पर मिट्टी की दीवार उठाना चाहता है। उसने नारद के कथन को ही सत्य जान लिया है। पंखों के बिना भी मैं उड़ना चाहती हूँ अर्थात्‌ दुराराध्य शङ्कर जी को प्रसन्न करना चाहती हूँ, अकाम शिव जी की कामिनी बनना चाहती हूँ। हे मुनियों! मेरा अविवेक तो देखो, मैं सदाशिव को ही पति रूप में चाह रही हूँ।

विशेष

मंगल के समय अपने लिए एकवचन का प्रयोग शास्त्र में निषिद्ध है, अतएव भगवान्‌ शिव के साथ अपने विवाह को परममंगलमय मानती हुई पार्वती जी अपने लिए बहुवचन का प्रयोग कर रहीं हैं।

दो०- सुनत बचन बिहँसे रिषय, गिरि संभव तव देह।

नारद कर उपदेश सुनि, कहहु बसेउ किसु गेह॥७८॥

भाष्य

पार्वती जी का वचन सुनकर सप्तर्षि ठहाका लगाकर हँस पड़े और बोले, पार्वती! तुम्हारा शरीर तो पर्वत से ही उत्पन्न हुआ है अर्थात्‌ पत्थर के समान तुम भी विवेकशून्य हो गयी हो। अरे, भला बताओ तो नारद का उपदेश सुनकर किसका घर बसा है?

**दक्षसुतन उपदेसेनि जाई। तिन फिरि भवन न देखा आई॥ चित्रकेतु कर घर उन घाला। कनककशिपु कर पुनि अस हाला॥**
भाष्य

नारद ने जाकर दक्ष जी के दस हजार पुत्रों को उपदेश दिया, उन लोगों ने आकर फिर अपना घर नहीं देखा अर्थात्‌ बाबा बन गये, फिर उन्होंने चित्रकेतु राजा का घर नष्ट किया, फिर हिरण्यकशिपु का भी वही हाल हुआ। इस प्रकार नारद ने तो तीन घर चौपट किये, अब तुम्हारे घर की बारी है।

**नारद सिख जे सुनहिं नर नारी। अवसि होहिं तजि भवन भिखारी॥ मन कपटी तन सज्जन चीन्हा। आपु सरिस सबही चह कीन्हा॥**
भाष्य

जो नर या नारी, नारद की शिक्षा सुनते हैं वे घर–बार छोड़कर अवश्य भिखारी बन जाते हैं। नारद मन से कपटी हैं, केवल उनके शरीर पर सन्त के चिह्न हैं। वे सभी को अपने समान भिखारी कर देना चाहते हैं।

[[७५]]

तेहि के बचन मानि बिश्वासा। तुम चाहहु पति सहज उदासा॥

भाष्य

उन नारद के वचन पर विश्वास मानकर तुम स्वाभाव से उदासीन पति चाह रही हो। निर्गुन निलज कुबेष कपाली। अकुल अगेह दिगंबर ब्याली॥ कहहु कवन सुख अस बर पाए। भल भूलिहु ठग के बौराए॥

भाष्य

जो गुणरहित, निर्लज्ज, कुत्सित वेशवाला, मुण्डों की माला धारण करनेवाला, कुल से रहित, गृह से शून्य, दिशाओं को वस्त्र बनाकर कोई वस्त्र नहीं पहननेवाला, अपने अंग में सर्पों को लपेटे हुए हो, भला बताओ, ऐसे विचित्र वर को पाकर तुझे कौन–सा सुख मिलेगा? पार्वती! तुम भली अर्थात्‌ उच्चकुल की कन्या होकर भी उस ठग नारद के द्वारा पागल बनाने के कारण उनके बहकावे में आकर भूल चुकी हो।

**पंच कहे शिव सती बिबाही। पुनि अवडेरि मराएनि ताही॥**

दो०- अब सुख सोवत सोच नहिं, भीख माँगि भव खाहिं।

सहज एकाकिन के भवन, कबहुँ की नारि खटाहिं॥७९॥

भाष्य

पंच अर्थात्‌ लोगों के कहने पर शिव जी ने सती के साथ विवाह किया, फिर उसका त्याग करके मरवा डाला। अब वे सुख की नींद सो रहे हैं। शिव जी भीख माँगकर खाते हैं। भला बताओ तो, स्वभाव से अकेले रहनेवाले के घर में क्या कभी नारियाँ सुख से रह सकती हैं अर्थात्‌ जिसे अकेला रहना ही भाता है, वह गृहिणी को कैसे सँभाल सकेगा?

**अजहूँ मानहु कहा हमारा। हम तुम कहँ बर नीक बिचारा॥ अति सुन्दर शुचि सुखद सुशीला। गावहिं बेद जासु जस लीला॥ दूषन रहित सकल गुन रासी। श्रीपति पुर बैकुंठ निवासी॥ अस बर तुमहि मिलाउब आनी। सुनत बिहँसि कह बचन भवानी॥**
भाष्य

पार्वती! आज भी हमारा कहा मान लीजिये, हमने आप के लिए एक भला वर विचारा है। जैसे हमनें शिव जी में आठ दुर्गुण गिनाये हैं, उसी प्रकार अपने द्वारा प्रस्तावित वर में आठ सद्‌गुण गिना रहें हैं। वह अत्यन्त सुन्दर, पवित्र, सुख देनेवाला, सुन्दर स्वभाव और चरित्रवाला, वेद जिसकी यशलीला गाते हैं, सभी दोषों से रहित, सभी गुणों की राशि, लक्ष्मी जी के पति तथा बैकुण्ठपुर के निवासी हैं। ऐसे विष्णु जी नामक वर को लाकर हम तुमसे मिलवायेंगे उनके लिए तुम्हें तपस्या नहीं करनी पड़ेगी। ऋषियों का वचन सुनकर पार्वती जी हँस कर बोलीं–

**सत्य कहेहु गिरिभव तनु एहा। हठ न छूट छूटै बरु देहा॥ कनकउ पुनि पषान ते होई। जारेहुँ सहज न परिहर सोई॥**
भाष्य

आप लोगों ने सत्य कहा है, यह शरीर पर्वत से ही उत्पन्न हुआ है, इसका हठ नहीं छूटेगा, भले यह शरीर छूट जाये, फिर सोना भी तो पत्थर से उत्पन्न होता है, वह अग्नि द्वारा जलाये जाने पर भी अपना स्वभाव नहीं

छोड़ता।

नारद बचन न मैं परिहरऊँ। बसउ भवन उजरउ नहिं डरऊँ॥ गुरु के बचन प्रतीति न जेही। सपनेहुँ सुगम न सुख सिधि तेही॥

भाष्य

नारद जी के वचनों को तो मैं नहीं छोड़ूँगी, घर बसे या उज़डे मैं नहीं डरती। जिसको गुरुदेव के वचनों पर विश्वास नहीं होता उसके लिए स्वप्न में भी सुख और सिद्धियाँ सुगम नहीं होतीं।

[[७६]]

दो०- महादेव अवगुन भवन, बिष्णु सकल गुन धाम।

जेहि कर मन रम जाहि सन, ताहि ताहि सन काम॥८०॥

भाष्य

भले ही आप लोगों की मान्यता के अनुसार महादेव जी अवगुणों के निवास स्थान हैं और विष्णु जी सभी गुणों के धाम हैं, परन्तु जिसका मन जिसके साथ रम जाता है, उसका तो उसी के साथ काम अर्थात्‌ प्रयोजन रहता है। अथवा, उसकी कामना उसी से सिद्ध होती है।

**जौ तुम मिलतेहु प्रथम मुनीशा। सुनतिउँ सिख तुम्हारि धरि शीशा॥ अब मैं जन्म शंभु हित हारा। को गुन दूषन करै बिचारा॥**
भाष्य

हे मुनिश्वरों! यदि आप लोग मुझे प्रथम में मिल गये होते, तो मैं आप लोगों की शिक्षा माथे मानकर सुनती। अब तो मैं शिव जी के लिए अपना जन्म ही हार चुकी हूँ, उनके गुणों और दोषों पर कौन विचार करने जाये?

**जौ तुम्हरे हठ हृदय बिशेषी। रहि न जाइ बिनु किए बरेषी॥ तौ कौतुकियन आलस नाहीं। बर कन्या अनेक जग माहीं॥**
भाष्य

यदि आप लोगों के हृदय में विशेष हठ है और बरेषी अर्थात्‌ वर देखी यानी विवाह निश्चित कराये बिना रहा नहीं जा रहा है, तो कौतुक करने वालों या देखने वालों के मन में आलस्य नहीं होता, वे तो अनेक विवाह लगाते और बिगाड़ते हैं। संसार में अनेक वर और कन्यायें हैं, आप शिव जी और हमारे पीछे ही क्यों पड़े हैं?

**जन्म कोटि लगि रगर हमारी। बरउँ शंभु न त रहउँ कुआँरी॥ तजउँ न नारद कर उपदेशू। आपु कहहिं शत बार महेशू॥ मैं पा परउँ कहइ जगदम्बा। तुम गृह गवनहु भयउ बिलंबा॥**
भाष्य

मेरी करोड़ों जन्म के लिए यही हठपूर्वक प्रतिज्ञा है कि, या तो शङ्कर जी के साथ विवाह करूँगी अन्यथा कुमारी अर्थात्‌ अविवाहित ही रह जाऊँगी। मैं देवर्षि नारद जी का उपदेश नहीं छोड़ूँगी भले ही स्वयं शङ्कर जी आकर सौ बार मुझसे कहें अर्थात्‌ जिन शङ्कर जी के लिए मैं तपस्या कर रही हूँ, वह भी नारद जी का उपदेश छोड़ने का अनुरोध मुझसे करें तो भी मैं नहीं मानूँगी तो आप लोगों की क्या बात। जगदम्बा कहती हैं कि, हे सप्तर्षियो! मैं आपके पाँव पड़ती हूँ। आप अपने–अपने घरों को चले जाइये, विलम्ब हो गया है। आप लोगों की गृहिणियाँ आप लोगों की प्रतीक्षा करती होंगी।

**देखि प्रेम बोले मुनि ग्यानी। जय जय जगदंबिके भवानी॥**

दो०- तुम माया भगवान्‌ शिव, सकल जगत पितु मात।

नाइ चरन सिर मुनि चले, पुनि पुनि पुलकित गात॥८१।

भाष्य

पार्वती जी का प्रेम देखकर सातों ज्ञानी मुनि बोले, हे जगत्‌ की माता! हे शिव जी की नित्य गृहिणी भवानी! पार्वती! आप की जय हो, आप की जय हो। आप महामाया हैं शिव जी ऐश्वर्यादि माहात्म्यों से युक्त महेश्वर हैं, आप दोनों के सम्बन्ध नित्य हैं। आप समस्त जगत्‌ के माता–पिता हैं। यह कह कर पार्वती जी के चरणों में मस्तक नवाकर सप्तर्षि शिव जी के पास चल पड़े। उनके शरीर बार–बार रोमांचित हो रहे थे।

**जाइ मुनिन हिमवंत पठाए। करि बिनती गिरजहिं गृह ल्याए॥**
भाष्य

सप्तर्षियों ने जाकर हिमाचल को पार्वती जी के पास भेजा और हिमाचलराज प्रार्थना करके पार्वती जी को वन से घर ले आये।

[[७७]]

बहुरि सप्तरिषि शिव पहिंं जाई। कथा उमा कै सकल सुनाई॥ भए मगन शिव सुनत सनेहा। हरषि सप्तऋषि गवने गेहा॥

भाष्य

फिर सप्तर्षियों ने शिव जी के पास जाकर पार्वती जी की सम्पूर्ण कथा उन्हें सुना दी। पार्वती जी का स्नेह सुनते ही शिव जी उनके प्रेम में मग्न हो गये और सप्तर्षि प्रसन्न होकर अपने–अपने आश्रम को चले गये।

**मन थिर करि तब शंभु सुजाना। लगे करन रघुनायक ध्याना॥**
भाष्य

तब मन को स्थिर करके सुन्दर ज्ञानसम्पन्न शिव जी रघुकुल के नायक भगवान्‌ श्रीराम का ध्यान करने लगे।

**तारक असुर भयउ तेहि काला। भुज प्रताप बल तेज बिशाला॥ तेहि सब लोक लोकपति जीते। भए देव सुख संपति रीते॥ अजर अमर सो जीति न जाई। हारे सुर करि बिबिध लराई॥ तब बिरंचि सन जाइ पुकारे। देखे बिधि सब देव दुखारे॥**
भाष्य

फिर उसी समय तारकासुर नाम का दैत्य उत्पन्न हो गया। जिसकी भुजाओं का प्रताप, बल और तेज बहुत विशाल था। उस तारकासुर ने सभी लोकों और लोकपालों को जीत लिया। देवता सुख और सम्पत्ति से रहित हो गये। वह अजर और अमर था इसलिए जीता नहीं जा सकता था। देवता अनेक युद्ध करके तारकासुर से हार गये। तब ब्रह्मा जी के सामने पुकार की, ब्रह्मा जी ने सभी देवताओं को दु:खी देखा।

**दो०- सब सन कहा बुझाइ बिधि, दनुज निधन तब होइ।**

शंभु शुक्र संभूत सुत, एहि जीतइ रन सोइ॥ ८२॥

भाष्य

ब्रह्मा जी ने सभी देवताओं को समझा कर कहा, इस दैत्य का मरण तभी होगा जब शङ्कर भगवान्‌ के वीर्य से उत्पन्न पुत्र हो और इसे युद्ध में वह जीते।

**मोर कहा सुनि करहु उपाई। होइहि ईश्वर करिहि सहाई॥ सती जो तजी दक्ष मख देहा। जनमी जाइ हिमाचल गेहा॥ तेहि तप कीन्ह शंभु पति लागी। शिव समाधि बैठे सब त्यागी॥**
भाष्य

मेरा कहा सुनकर तुम सब उपाय करो। वह उपाय सफल होगा। ईश्वर श्रीराम जी सहायता करेंगे। जो सती जी दक्ष के यज्ञ में शरीर छोड़ चुकी थीं, वे ही जाकर हिमाचल की गृहिणी मैना के गर्भ से जन्मी हैं। उन्होंने शङ्कर जी को ही अपना पति बनाने के लिए तपस्या की है और शिव जी सब कुछ छोड़ समाधि में बैठ गये हैं।

**जदपि अहइ असमंजस भारी। तदपि बात एक सुनहु हमारी॥**
भाष्य

यद्दपि यहाँ बहुत बड़ा असमंजस्य है, क्योंकि शिव जी समाधि में हैं। उनके विवाह के बिना उनसे पुत्र संभव नहीं है, फिर भी हमारी एक बात सुनो।

**पठवहु काम जाइ शिव पाहीं। करै छोभ शङ्कर मन माहीं॥ तब हम जाइ शिवहिं सिर नाई। करवाउब बिबाह बरियाँई॥**

भा०- तुम सब प्रार्थना करके कामदेव को भेजो, वह शिव जी के पास जाकर शङ्कर जी के मन में क्षोभ उत्पन्न करे और शिव जी समाधि से अलग हो जायें, तब हम जाकर शिव जी को मस्तक नवाकर हठपूर्वक विवाह (शिव–पार्वती विवाह) करवा देंगे।

[[७८]]

एहि बिधि भलेहिं देवहित होई। मत अति नीक कहैं सब कोई॥ अस्तुति सुरन कीन्ह अति हेतू। प्रगटेउ बिषमबान झषकेतू॥

दो०- सुरन कही निज बिपति सब, सुनि मन कीन्ह बिचार।

शंभु बिरोध न कुशल मोहि, बिहँसि कहेउ अस मार॥८३॥

भाष्य

इस प्रकार से देवताओं का भलेहिं अर्थात्‌ भलाई के साथ हित होगा। तात्पर्य यह है कि, इस में काम की मृत्यु भी हो सकती है। “यह मत बड़ा सुन्दर है” ऐसा सभी देवता कह रहे थे। देवताओं ने अत्यन्त प्रेम से स्तुति की और पाँच बाणवाला झष अर्थात्‌ मछली की पताका से युक्त कामदेव, देवताओं के समक्ष प्रकट हो गया। देवताओं ने अपनी सम्पूर्ण विपत्ति कामदेव से कही, सुनकर काम ने अपने मन में विचार किया और हँसकर इस प्रकार कहा कि, शङ्कर जी के विरोध में मेरे लिए कुशल नहीं है।

**तदपि करब मैं काज तुम्हारा। श्रुति कह परम धरम उपकारा॥ पर हित लागि तजइ जो देही। संतत संत प्रशंसहिं तेही॥ अस कहि चलेउ सबहिं सिर नाई। सुमन धनुष कर सहित सहाई॥ चलत मार अस हृदय बिचारा। शिव बिरोध ध्रुब मरन हमारा॥**
भाष्य

फिर भी मैं आप लोगों का कार्य करूँगा, क्योंकि श्रुति उपकार को ही परमधर्म कहती हैं। दूसरों के हित के लिए जो शरीर छोड़ते हैं सन्त निरन्तर उसकी प्रशंसा करते हैं। ऐसा कह कर सभी देवताओं को प्रणाम करके हाथ में पुष्प का धनुष लेकर वसन्त आदि सहायकों को साथ लेकर कामदेव शिव जी के पास चल पड़े। चलते हुए कामदेव ने ऐसा हृदय में विचार किया कि, शिव जी के विरोध में हमारा मरण निश्चित ही है।

**तब आपन प्रभाव बिस्तारा। निज बश कीन्ह सकल संसारा॥ कोपेउ जबहिं बारिचरकेतू। छन महँ मिटे सकल श्रुति सेतू॥**
भाष्य

तब उसने अपने प्रभाव का विस्तार किया और सारे संसार को अपने वश में कर लिया। जिस समय वारिचर अर्थात्‌ जल में रहनेवाले मछली को पताका बनानेवाला कामदेव क्रुद्ध हुआ। उसी समय क्षण भर में सभी वैदिक मर्यादाओं की सेतु मिट गये।

**ब्रह्मचर्ज ब्रत संजम नाना। धीरज धरम ग्यान बिग्याना॥ सदाचार जप जोग बिरागा। सभय बिबेक कटक सब भागा॥**
भाष्य

ब्रह्मचर्य व्रत, अनेक संयम, धैर्य, धर्म, ब्रह्मज्ञान और जगत्‌ की क्षणभंगुरता का विकृतपूर्वक ज्ञान, सदाचार, जप, योग, वैराग्य, आदि सम्पूर्ण विवेक का सैन्यबल भयभीत होकर भाग चला।

**छं०- भागेउ बिबेक सहाय सहित सो सुभट संजुग महि मुरे।**

सदग्रंथ पर्बत कंदरन महँ जाइ तेहि अवसर दुरे। होनिहार का करतार को रखवार जग खरभर परा।

दुइ माथ केहि रतिनाथ जेहि कहँ कोपि कर धनु शर धरा॥

भाष्य

सहायकों के सहित विवेक भाग ख़डा हुआ। उसके सैनिक समरभूमि में मुड़े अर्थात्‌ पीठ दिखा गये। उस समय वे सभी वीर सद्‌ग्रन्थ रूप पर्वत कन्दराओं में जाकर छिप गये। हे भगवान! क्या होने वाला है? कौन रक्षक है? इस प्रकार संसार में खलबली मच गयी। वह कौन दो सिरोंवाला है, जिसके लिए रतिपति काम ने क्रुद्ध होकर हाथ में धनुष–बाण धारण किया है।

[[७९]]

दो०- जे सजीव जग अचर चर, नारि पुरुष अस नाम।

ते निज निज मरजाद तजि, भए सकल बश काम॥८४॥

भाष्य

संसार में जो भी ज़ड-चेतन नारी–पुरुष, ऐसे नामवाले जीवन्त प्राणी थे, वे सभी अपनी–अपनी मर्यादा छोड़कर काम के वश में हो गये।

**सब के हृदय मदन अभिलाषा। लता निहारि नवहिं तरु शाखा॥ नदी उमगि अंबुधि कहँ धाई। संगम करहिं तलाव तलाई॥**
भाष्य

सब के हृदय में काम सम्बन्धी अभिलाषा जग गई। लताओं को देखकर वृक्षों की डालियाँ झुकने लगीं, नदियाँ उफनती हुई समुद्र की ओर दौड़ पड़ीं। तालाब और तलैया संगम करने लगीं।

**जहँ असि दशा ज़डन कै बरनी। को कहि सकइ सचेतन करनी॥ पशु पक्षी नभ जल थलचारी। भए कामबश समय बिसारी॥**
भाष्य

जहाँ ज़डों की इस प्रकार की दशा कही गयी है, तो फिर चेतनों की करनी कौन कह सकता है? जल, थल और आकाश में विचरण करने वाले पशु, पक्षी सभी समय की मर्यादा को भूलकर काम के वश में हो गये।

**मदन अंध ब्याकुल सब लोका। निशि दिन नहिं अवलोकहिं कोका॥ भा०- **काम से अन्धे होकर सभी लोग व्याकुल हो गये। अब चकवे रात या दिन नहीं देख रहे हैं।

देव दनुज नर किंनर ब्याला। प्रेत पिशाच भूत बेताला॥ इन कै दशा न कहेउँ बखानी। सदा काम के चेरे जानी॥ सिद्ध बिरक्त महामुनि जोगी। तेपि कामबश भए बियोगी॥

भाष्य

देवता, दैत्य, मनुष्य, किन्नर, सर्प, प्रेत, पिशाच, भूत और वैताल इन सब को निरन्तर काम के चेले जानकर इनकी दशा को मैंने बखान कर नहीं कहा है। जो भी सिद्ध, विरक्त, महर्षि और योगी थे, वे भी काम के वश में वियोगी बन गये।

**छं०- भय कामबश जोगीश तापस पामरन की को कहे।**

देखहिं चराचर नारिमय जे ब्रह्ममय देखत रहे। अबला बिलोकहिं पुरुषमय जग पुरुष सब अबलामयम्‌। दुइ दंड भरि ब्रह्मांड भीतर कामकृत कौतुक अयम्‌।

भाष्य

योगियों के ईश्वर और तपस्वी भी काम के वश में हो गये, पामरों की बात कौन कहे? जो ज़ड-चेतन संसार को ब्रह्ममय देख रहे थे, वे उसी चराचर को अब नारिमय देखने लगे। नारियाँ जगत्‌ को पुरुषमय देख रही थीं और पुरुष संसार को नारिमय देख रहे थे। इस प्रकार कामदेव के द्वारा किया हुआ यह कौतुक सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के भीतर दो दण्ड तक रहा।

**सो०- धरे न काहू धीर, सब के मन मनसिज हरे।**

जे राखे रघुबीर, ते उबरे तेहि काल महँ॥८५॥

भाष्य

किसी ने धैर्य धारण नहीं किया, सब के मन को मन में उत्पन्न होने वाले कामदेव ने हर लिया। जिनको श्रीराम जी ने रख लिया, वे ही उस समय बच पाये।

**उभय घरी अस कौतुक भयऊ। जब लगि काम शंभु पहँ गयऊ॥ भा०- **दो घड़ी में यह कौतुक हो गया जब तक कामदेव शङ्कर भगवान्‌ के पास गया।

[[८०]]

शिवहिं बिलोकि सशंकेउ मारू। भयउ जथाथिति सब संसारू॥ भए तुरत सब जीव सुखारे। जिमि मद उतरि गए मतवारे॥

भाष्य

शिव जी को देखकर कामदेव सशंकित हो उठा और संसार अपनी स्थिति में हो गया। संसार के सभी

जीव उसी प्रकार सुखी हो गये, जैसे मद के उतर जाने पर मतवाला हाथी सुखी हो जाता है।

रुद्रहिं देखि मदन भय माना। दुराधरष दुर्गम भगवाना॥ फिरत लाज कछु करि नहिं जाई। मरन ठानि मन रचेसि उपाई॥

भाष्य

रुद्र को देखकर कामदेव ने भय माना क्योंकि भगवान्‌ शङ्कर का प्रदर्शन कठिन है और उनके यहाँ जाना बहुत कठिन है, क्योंकि वे भगवान्‌ हैं। लौटने में उसे लज्जा लग रही थी, कुछ किया नहीं जा रहा था। कामदेव ने मन में मरण का निश्चय करके उपाय की रचना की।

**प्रगटेसि तुरत रुचिर ऋतुराजा। कुसुमित नव तरु राजि बिराजा॥ बन उपबन बापिका तड़ागा। परम सुभग सब दिशा बिभागा॥ जहँ तहँ जनु उमगत अनुरागा। देखि मुएहुँ मन मनसिज जागा॥**
भाष्य

उसने तुरन्त ऋतुराज वसन्त को प्रकट किया और पुष्पों से लदी हुई सुन्दर वृक्षों की पंक्तियाँ सुशोभित होने लगीं। वन, उपवन, बावलियाँ, तालाब ये सब दिशाओं के विभाग बहुत सुन्दर लग रहे थे। जहाँ–तहाँ मानो अनुराग ही उमंगित हो रहा था। ये सब देखकर मरे हुए मन में भी काम जाग्रत हो रहा था।

**छं०- जागेउ मनोभव मुएहुँ मन बन सुभगता न परै कही।**

शीतल सुगंध सुमंद मारुत मदन अनल सखा सही॥ बिकसे सरनि बहु कंज गुंजत पुंज मंजुल मधुकरा। कलहंस पिक शुक सरस रव करि गान नाचहिं अपसरा॥

भाष्य

मरे हुए मनों में भी काम जग गया, वन की सुन्दरता नहीं कही जा रही थी। कामरूप अग्नि का सच्चा मित्र वायु शीतल, सुरभित और मन्द–मन्द चल रहा था। तालाबों में बहुरंगे कमल विकसित हो गये और भ्रमरों के समूह गुंजार कर रहे थे। सुन्दर हंस, तोते, कोयल सुन्दर स्वर में बोल रहे थे और अप्सरायें सुन्दर गान कर नाच रही थीं।

**दो०- सकल कला करि कोटि बिधि, हारेउ सेन समेत।**

चली न अचल समाधि शिव, कोपेउ हृदय निकेत॥८६॥

भाष्य

इस प्रकार, करोड़ों प्रकार से अपनी सम्पूर्ण कलाओं को प्रस्तुत करके भी हृदय निवासी कामदेव अपनी सेना के सहित हार गया और शिव जी की अचल समाधि नहीं डिगी, तब कामदेव क्रुद्ध हो गया।

**देखि रसाल बिटप बर शाखा। तेहि पर च़ढेउ मदन मन माखा॥ सुमन चाप निज शर संधाने। अति रिसि ताकि स्रवन लगि ताने॥ छाड़ेसि बिषम बिशिख उर लागे। छूटि समाधि शंभु तब जागे॥**
भाष्य

आम्रविटप की सुन्दर शाखा देखकर मन में क्रुद्ध हुआ काम उसी पर च़ढ गया। अपने पुष्प के धनुष पर

पाँचों बाणों का संधान किया, अत्यन्त क्रोध से शिव जी की ओर तीखी दृय्ि से निहारकर धनुष (प्रत्यंचा) को कान तक खींचा और पाँच बाण छोड़े जो शिव जी के हृदय में लगे, उनकी समाधि छूट गयी तब शिव जी जग गये।

भयउ ईश मन छोभ बिशेषी। नयन उघारि सकल दिशि देखी॥

[[८१]]

भाष्य

शिव जी के मन में विशेष प्रकार का क्षोभ हुआ, उन्होंने आँखें खोलकर सभी दिशाओं में देखा। सौरभ पल्लव मदन बिलोका। भयउ कोप कंपेउ त्रैलोका॥

**तब शिव तीसर नयन उघारा। चितवत काम भयउ जरि छारा॥**
भाष्य

आम के पल्लव के ऊपर बैठे हुए कामदेव को शिव जी ने देखा। उनके मन में क्रोध उत्पन्न हुआ। तीनों लोक काँप उठे, तब शिव जी ने तीसरा नेत्र खोला। उसे देखते ही काम जल कर खाक हो गया।

**हाहाकार भयउ जग भारी। डरपे सुर भए असुर सुखारी॥**

समुझि काम सुख सोचहिं भोगी। भए अकंटक साधक जोगी॥

भाष्य

जगत्‌ में बहुत बड़ा हाहाकार हुआ, देवता डरे और दैत्य प्रसन्न हुए। काम का सुख सोचकर भोगी लोग शोक करने लगे और साधक तथा योगी निष्कंटक हो गये।

**छं०- जोगी अकंटक भए पति गति सुनत रति मुरछित भई।**

रोदति बदति बहु भाँति करुना करति शङ्कर पहँ गई॥ अति प्रेम करि बिनती बिबिध बिधि जोरि कर सन्मुख रही। प्रभु आशुतोष कृपालु शिव अबला निरखि बोले सही॥

भाष्य

योगी लोग निष्कंटक हो गये। पति की मृत्यु सुनते ही रति मूर्चि्छत हो गयी। वह रोती बहुत प्रकार से प्रलाप करती तथा विलाप करती हुई शङ्कर भगवान्‌ के पास गयी। अत्यन्त प्रेमपूर्वक विविध प्रकार से प्रार्थना करके हाथ जोड़कर शिव जी के सामने उपस्थित रही। सर्वसमर्थ, कृपालु, शीघ्र संतुष्ट होनेवाले आशुतोष शङ्कर जी अबला रति को देखकर सत्य वाणी बोले–

**दो०- अब ते रति तव नाथ कर, होइहि नाम अनंग।**

बिनु बपु ब्यापिहि सबहिं पुनि, सुनु निज मिलन प्रसंग॥८७॥

भाष्य

हे रति! आज से तुम्हारे पति का नाम अनंग होगा। वह बिना शरीर के ही सब में व्याप्त होगा। फिर तुम अपना मिलन प्रसंग सुनो।

**जब जदुबंश कृष्ण अवतारा। होइहि हरन महा महिभारा॥ कृष्ण तनय होइहि पति तोरा। बचन अन्यथा होइ न मोरा॥**
भाष्य

जब यदुवंश में महाभूमिभार को हरने के लिए भगवान्‌ कृष्ण का अवतार होगा, तब तुम्हारे पति कामदेव ही कृष्ण भगवान्‌ के पुत्र प्रद्दुम्न के रूप में अवतरित होंगे और तुम फिर उन्हें पति के रूप में प्राप्त कर लोगी। मेरे वचन अन्यथा नहीं हुआ करते।

**रति गवनी सुनि शङ्कर बानी। कथा अपर अब कहउँ बखानी॥**

देवन समाचार सब पाए। ब्रह्मादिक बैकुंठ सिधाए॥

सब सुर बिष्णु बिरंचि समेता। गए जहाँ शिव कृपानिकेता॥ पृथक पृथक तिन कीन्ह प्रशंसा। भए प्रसन्न चंद्र अवतंसा॥

भाष्य

शङ्कर भगवान्‌ की वाणी सुनकर रति चली गई। याज्ञवल्क्य जी, भरद्वाज जी से कहते हैं कि, अब मैं तुम्हें दूसरी कथा सुनाता हूँ। देवताओं ने सब समाचार पाया तब ब्रह्मादि बैकुण्ठ गये। विष्णु जी और ब्रह्मा जी के साथ सभी देवता वहाँ गये, जहाँ कृपा के गृह भगवान्‌ शङ्कर जी विराज रहे थे। उन देवताओं ने अलग–अलग शिव जी की प्रशंसा की और चन्द्रमा को आभूषण बनानेवाले शिव जी प्रसन्न हो गये।

[[८२]]

बोले कृपासिंधु बृषकेतू। कहहु अमर आए केहि हेतू॥

**कह बिधि तुम प्रभु अंतरजामी। तदपि भगति बश बिनवउँ स्वामी॥ भा०– **कृपा के सागर, वृष अर्थात्‌ धर्म रूप बैल के चिह्न से चिह्नित पताकावाले शिव जी बोले–कहो, मरणधर्म से रहित देवगणों किस कारण यहाँ आये हो? ब्रह्मा जी ने कहा, हे प्रभो! आप तो अन्तर्यामी हैं, हे स्वामी ! फिर

भी मैं भक्ति के वश होकर आप से प्रार्थना कर रहा हूँ, क्योंकि भक्ति में ऐश्वर्यादि का ध्यान नहीं रहता।

दो०- सकल सुरन के हृदय अस, शङ्कर परम उछाह।

निज नयननि देखा चहहिं, नाथ तुम्हार बिबाह॥८८॥

भाष्य

हे नाथ! सभी देवताओं के हृदय में इस प्रकार का परम उत्साह है, वे अपनी आँखों से आपका विवाह देखना चाहते हैं।

**यह उत्सव देखिय भरि लोचन। सोइ कछु करहु मदन मद मोचन॥**
भाष्य

हे कामदेव के मद को नष्ट करनेवाले शिव जी! जिससे हम सब यह उत्सव नेत्र भर देख सकें, वही कुछ कीजिये अर्थात्‌ विवाह स्वीकार कर लीजिये।

**काम जारि रति कहँ बर दीन्हा। कृपासिंधु यह अति भल कीन्हा॥ सासति करि पुनि करहिं पसाऊ। नाथ प्रभुन कर सहज सुभाऊ॥**
भाष्य

आप ने काम को भस्म करके रति को वरदान दे दिया है। कृपासागर यह बहुत अच्छा किया। हे नाथ! समर्थ स्वामीजनों का यह जन्मजात स्वभाव होता है, वे पहले कष्ट देकर फिर कृपा करते हैं।

**पारबती तप कीन्ह अपारा। करहु तासु अब अंगीकारा॥ भा०– **पार्वती जी ने अपार तप किया है, अब आप उन्हें अंगीकार कर लीजिये।

सुनि बिधि बिनय समुझि प्रभु बानी। ऐसेइ होउ कहा सुख मानी॥ तब देवन दुंदभी बजाईं। बरषि सुमन जय जय सुर साईं॥

भाष्य

ब्रह्मा जी की प्रार्थना सुनकर, प्रभु श्रीराम जी की वाणी समझकर सुख मानकर शिव जी ने कहा, “ऐसा ही हो।” तब देवताओं ने पुष्पों की वर्षा करके देवताओं के स्वामी शिव जी की जय हो! जय हो! इस प्रकार जय– जयकार करके नगारे बजाये।

**अवसर जानि सप्तऋषि आए। तुरतहिं बिधि गिरिभवन पठाए॥ प्रथम गए जहँ रहीं भवानी। बोले मधुर बचन छल सानी॥**
भाष्य

अवसर जानकर वहाँ सप्तर्षि आये, तुरन्त ही ब्रह्मा जी ने उन्हें शिव जी के विवाह की स्वीकृति समाचार देने के लिए पर्वतराज के भवन भेज दिया। सप्तर्षि पहले वहाँ गये जहाँ पार्वती जी विराज रही थीं। वे छल से मिश्रित वचन बोले–

**दो०- कहा हमार न सुनेहु तब, नारद के उपदेश।**

अब भा झूठ तुम्हार पन, जारेउ काम महेश॥८९॥

भाष्य

हे पार्वती जी! उस समय आपने नारद जी के उपदेश के कारण हमारा कहा नहीं सुना, अब तो आपकी प्रतिज्ञा झूठी हो गयी, क्योंकि महेश्वर शिव जी ने कामदेव को भस्म कर दिया है। अब शिव जी से कैसे विवाह करेंगी?

[[८३]]

सुनि बोलीं मुसुकाइ भवानी। उचित कहेहु मुनिबर बिग्यानी॥ तुम्हरे जान काम अब जारा। अब लगि शंभु रहे सबिकारा॥ हमरे जान सदा शिव जोगी। अज अनवद्द अकाम अभोगी॥

भाष्य

यह सुनकर पार्वती जी मुस्कुराकर बोलीं, हे विज्ञान सम्पन्न मुनीश्वरो! आप ने उचित ही कहा है। आप लोगों के संज्ञान में शिव जी ने अब काम को भस्म कर दिया है। अब तक भगवान्‌ शङ्कर जी विकारयुक्त रहे। मेरी समझ में तो शिव जी सदैव के जोगी हैं। वे अजन्मा, अनवद्द अर्थात्‌ निन्दाओं से रहित, अकार अर्थात्‌ कामवसना से मुक्त और अभोगी अर्थात्‌ संसार के भोगों से बहुत दूर हैं।

**जौ मैं शिव सेई अस जानी। प्रीति समेत कर्म मन बानी॥ तौ हमार पन सुनहु मुनीशा। करिहैं सत्य कृपानिधि ईशा॥**
भाष्य

यदि मैंने ऐसा समझकर पवित्र, प्रेमपूर्वक कर्म, मन और वचन से शिव जी की सेवा की होगी तो हे मुनिश्रेष्ठो! कृपानिधान भगवान्‌ श्रीराम जी हमारी प्रतिज्ञा सत्य करेंगे।

**तुम जो कहा हर जारेउ मारा। सोइ अति बड़ अबिबेक तुम्हारा॥ तात अनल कर सहज सुभाऊ। हिम तेहि निकट जाइ नहिं काऊ॥ गए समीप सो अवसि नसाई। असि मन्मथ महेश की नाई॥**
भाष्य

आप लोगों ने जो यह कहा कि, शङ्कर भगवान्‌ ने काम को जला डाला है, यह आप लोगों का बहुत बड़ा अविवेक है, क्योंकि ऊष्णता अग्नि का सहज स्वभाव है, बर्फ उसके निकट कभी नहीं जाता। वह समीप जाकर अवश्य नष्ट हो जाता है, यही कामदेव और शिव जी की स्थिति है।

**दो०- हिय हरषे मुनि बचन सुनि, देखि प्रीति बिश्वास।**

चले भवानिहिं नाइ सिर, गए हिमाचल पास॥९०॥

भाष्य

इस प्रकार, पार्वती जी की प्रीति तथा विश्वास देखकर और उमा जी के शिवविषयक निष्ठापूर्ण वचन सुनकर सप्तर्षि हृदय में प्रसन्न हुए। पार्वती जी को प्रणाम करके चले और हिमालय के पास गये ।

**सब प्रसंग गिरिपतिहिं सुनावा। मदन दहन सुनि अति दुख पावा॥**

**बहुरि कहेउ रति कर बरदाना। सुनि हिमवंत बहुत सुख माना॥ भा०– **पर्वतराज हिमाचल को सप्तर्षियों ने सभी प्रसंग सुनाया। काम का दहन सुनकर पर्वतराज बहुत दु:खी हुए, फिर सप्तर्षियों ने रति के वरदान का समाचार सुनाया। यह सुनकर हिमाचल बहुत प्रसन्न हुए।

हृदय बिचारि शंभु प्रभुताई। सादर मुनिवर लिए बोलाई॥ सुदिन सुनखत सुघरी शुचाई। बेगि बेदबिधि लगन धराई॥

भाष्य

पर्वतराज हिमाचल ने शिव जी की प्रभुता को हृदय में विचारकर आदरपूर्वक श्रेष्ठमुनियों को बुलाया। सुन्दर दिन, सुन्दर घड़ी और सुन्दर नक्षत्र को सूक्ष्मता से दिखवाकर शीघ्र ही वेदविधि के अनुसार विवाह का

लग्न रखा गया अर्थात्‌ निश्चित कर दिया।

पत्री सप्तऋषिन सोइ दीन्ही। गहि पद बिनय हिमाचल कीन्ही॥ जाइ बिधिहिं तिन दीन्ह सो पाती। बाँचत प्रीति न हृदय समाती॥

भाष्य

उस लग्नपत्रिका को हिमाचलराज ने सप्तर्षि को दी और चरण पक़ड कर प्रार्थना की। सप्तर्षियों ने जाकर ब्रह्मा जी को वह पत्रिका दी, जिसको बाँचते समय ब्रह्मा जी के हृदय में प्रीति समा नहीं रही थी।

[[८४]]

लगन बाचि अज सबहिं सुनाई। हरषे मुनि सब सुर समुदाई॥ सुमन बृष्टि नभ बाजन बाजे। मंगल कलश दसहुँ दिशि साजे॥

भाष्य

ब्रह्मा जी ने लग्नपत्रिका बाँचकर सभी को सुनायी। मुनि और देवताओं के समूह प्रसन्न हुए। पुष्पों की वृष्टि होने लगी, आकाश में बाजे बज उठे, दसों दिशाओं में मांगलिक शकुन सजाये गये।

**दो०- लगे सँवारन सकल सुर, बाहन बिबिध बिमान।**

होहिं सगुन मंगल सुखद, करहिं अपसरा गान॥९१॥

भाष्य

सभी देवता, अनेक प्रकार के वाहन तथा विमान सजाने लगे। सबको मंगल शकुन हो रहे हैं और अप्सरायें सुन्दर गान कर रहीं हैं।

**शिवहिं शंभु गन करहिं सिंगारा। जटा मुकुट अहि मौर सँवारा॥ कुंडल कंकन पहिरे ब्याला। तन बिभूति पट केहरि छाला॥ शशि ललाट सुंदर सिर गंगा। नयन तीनि उपबीत भुजंगा॥ गरल कंठ उर नर सिर माला। अशिव बेष शिव धाम कृपाला॥**
भाष्य

शङ्कर जी के गण, शिव जी का शृंगार कर रहे हैं। उन्होंने उनकी जटा का मुकुट बनाया और सर्प से मौर को सँवारा, कुंडल, कंकण और किंंकिनी के रूप में भी शिव जी ने सर्प को ही धारण किया। शरीर में विभूति और मृगचर्म को ही धोती के रूप धारण किया। मस्तक पर चन्द्रमा और सिर पर सुन्दर गंगा जी विराजे, तीन नेत्र और सर्प ही यज्ञोपवीत बने। कंठ में विष और हृदय पर मनुष्यों के सिर की माला धारण किया। उनका वेश तो अकल्याणमय अर्थात्‌ भयंकर हैं, पर स्वयं शङ्कर जी सभी कल्याणों के भवन और कृपालु हैं।

**कर त्रिशूल अरु डमरु बिराजा। चले बसह चढि़ बाजहिं बाजा॥ देखि शिवहिं सुरतिय मुसुकाहीं। बर लायक दुलहिनि जग नाहीं॥**
भाष्य

उनके हाथ में त्रिशूल और डमरू विराजमान हुआ। वे नन्दी बैल पर आरू़ढ होकर चले, बाजे बज रहे थे। शङ्कर जी को देखकर देवताओं की स्त्रियाँ मुस्कुराती हैं और कहती हैं, “ऐसे वर के योग्य संसार में कोई दुल्हन नहीं है।”

**बिष्णु बिरंचि आदि सुरब्राता। चढि़ चढि़ बाहन चले बराता॥ सुर समाज सब भाँति अनूपा। नहिं बरात दूलह अनुरूपा॥**
भाष्य

विष्णु जी और ब्रह्मादि सभी देवताओं के समूह अपने–अपने वाहनों पर च़ढकर शिव जी की बारात चले। देवताओं का समाज तो सब प्रकार से अनुपम था, परन्तु बारात दूल्हा के अनुरूप नहीं थी अर्थात्‌ देवताओं की बारात सजी–धजी थी और शिव जी सभी आडम्बरों से दूर अपने सहज वेश में थे।

**दो०- बिष्णु कहा अस बिहँसि तब, बोलि सकल दिशिराज।**

**बिलग बिलग होइ चलहु सब, निज निज सहित समाज॥९२॥ भा०– **सभी दिग्पालों को बुलाकर विष्णु जी ने इस प्रकार कहा, हे देवताओं ! अपने–अपने समाज के सहित सभी लोग अलग–अलग होकर चलिए। अपने लोग शिव जी के साथ नहीं चलेंगे।

बर अनुहारि बरात न भाई। हँसी करैहउ पर पुर जाई॥ बिष्णु बचन सुनि सुर मुसुकाने। निज निज सेन सहित बिलगाने॥

[[८५]]

भाष्य

हे भाईयों! यह बारात वर के अनुरूप नहीं है, इनके साथ चलकर दूसरे के नगर में अपनी हँसी ही कराओगे। विष्णु जी के वचन सुनकर देवता मुस्कुरायेऔर अपनी–अपनी सेना के सहित शिव जी से अलग हो गये।

**मनहीं मन महेश मुसुकाहीं। हरि के ब्यंग बचन नहिं जाहीं॥**

अति प्रिय बचन सुनत प्रिय केरे। भृंगिहिं प्रेरि सकल गन टेरे॥

भाष्य

शिव जी मन-ही-मन मुस्कुरा रहे थे कि, विष्णु के व्यंग्यवचन कभी छूटेंगे नहीं अर्थात्‌ देवताओं को अलग करने के बहाने श्रीहरि मेरे बारात में मेरे विकलांग भूतगणों को भी अवसर देना चाहते हैं। यदि देवता मेरे साथ होंगे तो विकृत अंग वाले मेरे भूतगणों को मेरे बारात में जाने का कैसे अवसर मिलेगा। इस प्रकार अपने प्रिय विष्णु भगवान्‌ के अत्यन्त प्रियवचनों को सुनकर, शिव जी ने भृंगी नामक गण को प्रेरणा देकर अपनी बारात में चलने के लिए सभी गणोें को बुला लिया।

**शिव अनुशासन सुनि सब आए। प्रभु पद जलज शीश तिन नाए॥**

नाना बाहन नाना बेषा। बिहँसे शिव समाज निज देखा॥

भाष्य

शिव जी का आदेश सुनकर सभी भूतगण उनके पास आ गये और उन्होंने अपने स्वामी शिव जी के चरणकमलों में सिर नवाया। अनेक वाहनों और अनेक वेशों में अपने समाज को देखकर शिव जी हँसे।

**कोउ मुखहीन बिपुल मुख काहू। बिनु पद कर कोउ बहु पद बाहू॥**

**बिपुल नयन कोउ नयन बिहीना। रिष्टपुष्ट कोउ अति तनखीना॥ भा०– **शिव जी के समाज मेें कोई बिना मुख के था तो किसी को बहुत मुख थे, कोई बिना पाँव–हाथ के था तो किसी को बहुत पाँव–हाथ थे, किसी के पास बहुत से नेत्र थे तो कोई बिना नेत्र का था, कोई अत्यन्त हृष्ट–पुष्ट, मोटा–ताजा था तो कोई बहुत दुबला–पतला था।

छं०- तन खीन कोउ अति पीन पावन कोउ अपावन गति धरे।

भूषन कराल कपाल कर सब सद्द सोनित तन भरे॥ खर स्वान सुअर शृँगाल मुख गन बेष अगनित को गनै। बहु जिनस प्रेत पिशाच जोगि जमात बरनत नहिं बनै॥

भाष्य

वहाँ कोई दुबले शरीरवाला तो कोई बहुत मोटा, कोई पवित्र वेशवाला तो कोई अपवित्र वेश धारण किये है। सभी के पास भयंकर अलंकार हैं। सब के हाथ में खोपड़ी है और सभी के शरीर ताजे खून से भरे (सने) हुए हैं। गधा, कुत्ता, सुअर और गीदड़ के मुखवाले गणों के अनगिनत वेशों का कौन वर्णन कर सकता है? बहुत प्रकार के भूत, प्रेत, पिशाच और योगिनियों के समूहों का वर्णन करते नहीं बनता है।

**सो०- नाचहिं गावहिं गीत, परम तरंगी भूत सब।**

देखत अति बिपरीत, बोलहिं बचन बिचित्र बिधि॥९३॥

भाष्य

परमतरंग में रहनेवाले अर्थात्‌ संसार के व्यवहारों की अनदेखी करके अपनी ही धुन मेें मग्न रहनेवाले

भूतगण नाच रहे हैं और गीत गा रहे हैं। वे देखने में अत्यन्त विपरीत हैं और विविध प्रकार की भाषायें और वचन बोलते हैं।

जस दूलह तस बनी बराता। कौतुक बिबिध होहिं मग जाता॥

[[८६]]

भाष्य

जिस प्रकार का दूल्हा है, उसी प्रकार की अब बारात बन गयी है अर्थात्‌ जैसे बाह्यदृष्टि से दूल्हे की भूमिका निभा रहे शिव जी भयंकर वेश में हैं, उसी प्रकार भयानक वेशवालों की बारात भी बन गई है। मार्ग में जाते हुए अनेक कौतुक हो रहें हैं।

**इहाँ हिमाचल रचेउ बिताना। अति बिचित्र नहिं जाइ बखाना॥ शैल सकल जहँ लगि जग माहीं। लघु बिशाल नहिं बरनि सिराहीं॥ बन सागर नद नदी तलावा। हिमगिरि सब कहँ नेवत पठावा॥**
भाष्य

इधर हिमाचल ने अत्यन्त विचित्र बितान अर्थात्‌ मण्डप की रचना करायी है, उनका बखान संभव नही है। इस संसार में जहाँ तक छोटे–बड़े अनेक पर्वत हैं, जिनका वर्णन करते–करते समाप्त नहीं हो सकता उन्हें, वन, सागर, छोटी–छोटी नदियाँ तथा तालाबों सभी को हिमाचल पर्वत ने बेटी के विवाह में आमंत्रण भेजा। (यहाँ पर्वत, वन आदि के अभिमानी देवताओं को आमंत्रण भेजे गये।)

**कामरूप सुंदर तन धारी। सकल समाज सहित बर नारी॥ गए सकल तुहिनाचल गेहा। गावहिं मंगल सहित सनेहा॥**
भाष्य

पर्वत आदि के अभिमानी देवता स्वेच्छानुसार सुन्दर शरीर धारण करके अपने समाज तथा श्रेष्ठ पत्नियों के सहित हिमाचल के भवन गये और इनकी पत्नियाँ स्नेह के साथ विवाह के मंगलगीत गा रही हैं।

**प्रथमहिं गिरि बहु गृह सँवराए। जथाजोग तहँ तहँ सब छाए॥ पुर शोभा अवलोकि सुहाई। लागइ लघु बिरंचि निपुनाई॥**
भाष्य

आमंत्रित लोगों के आने के पूर्व ही हिमाचल ने बहुत से अस्थायी भवनों को सजाकर बनवाया था, उन्हीं भवनों में योग्यतानुसार जहाँ–तहाँ सभी आमंत्रित अतिथिगण शोभा पा रहे थे। नगर की सुहावनी शोभा देखकर ब्रह्मा जी की शिल्प–कुशलता भी छोटी लग रही थी।

**छं०- लघु लागि बिधि की निपुनता अवलोकि पुर शोभा सही।**

बन बाग कूप तड़ाग सरिता सुभगता सक को कही॥

मंगल बिपुल तोरन पताका केतु गृह गृह सोहहीं।

बनिता पुरुष सुंदर चतुर छबि देखि मुनि मन मोहहीं॥

भाष्य

नगर की वास्तविक शोभा देखकर ब्रह्मा जी की निपुणता भी छोटी लग रही थी। वन, बाग, कुँए, तालाब और नदियों की सुन्दरता कौन कह सकता था? प्रत्येक घर में अनेक मंगल वंदनवार, पताका और ध्वज सुशोभित हो रहे थे। सभी स्त्री और पुरुष सुन्दर और चतुर थे, उनकी छवि देखकर मुनियों के भी मन मोहित हो रहे थे।

**दो०- जगदंबा जहँ अवतरी, सो पुर बरनि कि जाइ।**

ऋद्धि सिद्धि संपति सकल, नित नूतन अधिकाइ॥९४॥

भाष्य

जिस नगर में जगत्‌ की माता अवतार ले चुकी हों, उस पुर का वर्णन कैसे किया जाये? वहाँ ऋद्धि–सिद्धि और संपत्ति सभी नित्य-नयी होकर अधिक होती जा रही थीं।

**नगर निकट बरात सुनि आई। पुर खरभर शोभा अधिकाई॥ करि बनाव सजि बाहन नाना। चले लेन सादर अगवाना॥**

[[८७]]

भाष्य

बारात नगर के निकट आयी सुनकर पुर में हलचल और शोभा की अधिकता हो गयी। अनेक प्रकार के उपहारों का बनाव करके और अनेक वाहनों को सजाकर अगवान लोग आदरपूर्वक बारात की अगवानी लेने चले।

**हिय हरषे सुर सैन निहारी। हरिहिं देखि अति भए सुखारी॥ शिव समाज जब देखन लागे। बिडरि चले बाहन सब भागे॥**
भाष्य

अगवान लोग देवताओं की सेना निहारकर हृदय में हर्षित हुए और भगवान्‌ विष्णु को देखकर तो वे बहुत सुखी हुए, परन्तु जब शिव जी और उनके भूतगणों के समाज को देखने लगे तो अगवान लोग विशेष प्रकार से भयभीत होकर भाग चले और उनके सभी वाहन भी भाग ख़डे हुए।

**धरि धीरज तहँ रहे सयाने। बालक सब लै जीव पराने॥ गए भवन पूछहिं पितु माता। कहहिं बचन भय कंपित गाता॥**
भाष्य

बड़े (वयस्क) लोग धैर्य–धारण करके वहाँ रुके, परन्तु सभी बालक अपने प्राण लेकर अपने घरों को भाग गये। घरों में गये हुए बालकों से दूल्हा के सम्बन्ध में पिता–माता पूछ रहे थे और बालक भय से काँपते शरीर से उत्तर दे रहे थे।

**कहिय काह कहि जाइ न बाता। जम कै धारि किधौं बरियाता॥**

बर बौराह बरद असवारा। ब्याल कपाल बिभूषन छारा॥

भाष्य

क्या कहें बात कही नहीं जाती है, यह यमराज की सेना है अथवा बारात? दूल्हा पागल है और वह बैल पर बैठा है, उसके पास अलंकार के रूप में सर्प, मुण्डमाला और मृतकों की राख है।

**छं०- तन छार ब्याल कपाल भूषन नगन जटिल भयंकरा।**

सँग भूत प्रेत पिशाच जोगिन बिकट मुख रजनीचरा॥ जो जियत रहिहि बरात देखत पुन्य बड़ तेहि कर सही। देखिहि सो उमा बिबाह घर घर बात असि लरिकन कही॥

भाष्य

दूल्हा के शरीर में राख लिपटी हुई है सर्प और मुण्डमाला उसके आभूषण हैं, वह वस्त्रहीन और जटाधारी तथा अत्यन्त भयंकर है। उसके साथ बारात में आये भूत, प्रेत, पिशाच, योगिनियाँ तथा भयंकर रूप वाले राक्षस हैं। जो बारात देखते–देखते जीवित रहेगा उसी का बहुत बड़ा पुण्य है और वही पार्वती जी का विवाह देखेगा। इस प्रकार की बात घर–घर में बच्चों ने कही।

**दो०- समुझि महेश समाज सब, जननि जनक मुसुकाहिं।**

**बाल बुझाए बिबिध बिधि, निडर होहु डर नाहिं॥९५॥ भा०– **भगवान्‌ शंकर जी का समाज समझकर सभी माता–पिता मुस्कुराते हैं। उन्होंने बालकों को अनेक प्रकार से समझाया और कहा, बच्चो! निर्भय हो जाओ किसी प्रकार का डर नहीं है।

लै अगवान बरातहिं आए। दिए सबहिं जनवास सुहाए॥ मैना शुभ आरती सँवारी। संग सुमंगल गावहिं नारी॥

भाष्य

अगवान लोग बारात को लिवा कर आये और सबको सुन्दर जनवासा दिया। (बारात के ठहरने के स्थान को उत्तर भारत में जनवास कहते हैं, जो जन्यवास का तद्‌भव रूप है, संस्कृत में बारात को जन्य कहते हैं)

**कंचन थार सोह बर पानी। परिछन चली हरहिं हरषानी॥**

[[८८]]

भाष्य

सासू मैना ने मंगलमय आरती सजायी उनके साथ सौभाग्यवती नारियाँ सुन्दर मंगलगीत गा रहीं थीं। मैना के सुन्दर हाथ में स्वर्ण का थाल सुशोभित हो रहा था। वे प्रसन्न होकर हर अर्थात्‌ सीमाओं से रहित भगवान्‌ शङ्कर की परिछन–विधि सम्पन्न करने को चलीं।

**बिकट बेष रुद्रहिं जब देखा। अबलन उर भय भयउ बिशेषा॥ भागि भवन पैठीं अति त्रासा। गए महेश जहाँ जनवासा॥**
भाष्य

जब मैना आदि महिलाओं ने रुद्र अर्थात्‌ दुष्टों को रुलानेवाले शिव जी का भयंकर वेश देखा तब, अबला अर्थात्‌ निर्बलप्रकृतिवाली महिलाओं के हृदय में विशेष प्रकार का भय उत्पन्न हो गया। वे अत्यन्त भय के कारण वहाँ से भागकर अपने भवन में प्रवेश कर गयीं और महेश्वर शङ्कर भी परिछन कराये बिना ही जहाँ जनवास था वहाँ चले गये।

**मैना हृदय भयउ दुख भारी। लीन्ही बोलि गिरीशकुमारी॥ अधिक सनेह गोद बैठारी। श्याम सरोज नयन भरे बारी॥**
भाष्य

मैना के हृदय में बहुत दु:ख हुआ, उन्होंने गिरिराजपुत्री पार्वती जी को निकट बुलाया अत्यन्त स्नेह के साथ माँ ने बेटी पार्वती को अपनी गोद में बैठा लिया। मैना के नीले कमल जैसे नेत्र जल अर्थात्‌ आँसूओं से भर गये।

**जेहिं बिधि तुमहिं रूप अस दीन्हा। तेहिं ज़ड बरु बाउर कस कीन्हा॥**

छं०- कस कीन्ह बर बौराह बिधि जेहिं तुमहिं सुंदरता दई।

जो फल चहिय सुरतरुहिं सो बरबस बबूरहिं लागई॥ तुम सहित गिरि ते गिरौं पावक जरौं जलनिधि महँ परौं। घर जाउ अपजस होउ जग जीवत बिबाह न हौं करौं॥

भाष्य

मैना बोलीं, जिस विधाता ने तुम्हें इस प्रकार का सुन्दर रूप दिया, उसी ज़ड विधाता ब्रह्मा ने तुम्हारे वर को बावला क्यों बनाया? जिस विधाता ने तुम्हें ऐसी सुन्दरता दी उसने तुम्हारे लिए बावले वर की रचना क्यों की? जो फल कल्पवृक्ष में चाहिए था, वह काँटोंवाले बबूल के वृक्ष में बरबस अर्थात्‌ न चाहते हुए भी लग रहा है। मैं तुम्हारे साथ पर्वत से गिर सकती हूँ, अग्नि में जल सकती हूँ और समुद्र में डूब कर मर सकती हूँ, भले ही हमारा घर उज़ड जाये, संसार में अपयश हो, पर जीते जी मैं अपनी बेटी का बावले वर के साथ विवाह नहीं करूँगी।

**दो०- भईं बिकल अबला सकल, दुखित देखि गिरिनारि।**

**करि बिलाप रोदति बदति, सुता सनेह सँभारि॥९६॥ भा०– **गिरिराज हिमाचल की पत्नी को दु:खित देखकर सभी महिलायें व्याकुल हो गयीं और मैना पुत्री पार्वती के स्नेह का स्मरण करके विलाप करते हुए रोने–बिलखने लगीं।

नारद कर मैं काह बिगारा। भवन मोर जिन बसत उजारा॥ अस उपदेश उमहिं जिन दीन्हा। बौरे बरहिं लागि तप कीन्हा॥ साचेहुँ उनके मोह न माया। उदासीन धन धाम न जाया॥ पर घर घालक लाज न भीरा। बाँझ कि जान प्रसव की पीरा॥

भाष्य

मैना बोलीं, अरे! मैंने नारद का क्या बिगाड़ा था, जिन्होंने बसते हुए मेरे घर को उजाड़ दिया? जिन्होंने पार्वती को इस प्रकार का उपदेश दिया कि, उसने बावले वर के लिए तपस्या की? सच ही उन नारद जी के मन

[[८९]]

में न तो पुत्रादि की ममता है और न ही किसी प्रकार की दया। वे तटस्थ रहनेवाले हैं, उनके पास धन, घर और पत्नी नहीं है, वे दूसरों का घर नष्ट करनेवाले हैं। उन्हें लज्जा और डर नहीं है। भला बाँझ प्रसव की पीड़ा क्या समझे?

जननिहिं बिकल बिलोकि भवानी। बोली जुत बिबेक मृदुबानी॥ अस बिचारि सोचहु मति माता। सो न टरइ जो रचइ बिधाता॥

भाष्य

मैना माँ को व्याकुल देखकर, पार्वती जी विवेक से युक्त कोमल वाणी बोलीं, हे माता! ऐसा विचार करके शोक मत कीजिये। जो विधाता रच देते हैं वह टलता नहीं है।

**करम लिखा जौ बाउर नाहू। तौ कत दोष लगाइय काहू॥ तुम सन मिटहिं कि बिधि के अंका। मातु ब्यर्थ जनि लेहु कलंका॥**
भाष्य

हे माताश्री! यदि मेरे कर्म में बावला पति लिखा है, तो किसी को क्यों दोष लगाया जा रहा है? क्या आपसे ब्रह्मा जी के लिखे अंक मिट जायेंगे? माता जी आप बिना प्रयोजन का कलंक मत लीजिये।

**छं०- जनि लेहु मातु कलंक करुना परिहरहु अवसर नहीं।**

दुख सुख जो लिखा लिलार हमरे जाब जहँ पाउब तहीं॥ सुनि उमा बचन बिनीत कोमल सकल अबला सोचहीं। बहु भाँति बिधिहिं लगाइ दूषन नयन बारि बिमोचहीं॥

भाष्य

हे माँ! कलंक मत लीजिये, करुणा अर्थात्‌ शोक छोड़ दीजिये, उसका यह समय नहीं है, यह तो मंगलगान का समय है। मेरे मस्तक पर जो भी दु:ख–सुख लिखा होगा, मैं जहाँ जाऊँगी उसे वहीं पाऊँगी अर्थात्‌ स्थान के परिवर्तन से परिणाम में परिवर्तन नहीं होता। पार्वती जी के इस प्रकार के विनीत और कोमल वचन सुनकर सभी स्त्रियाँ शोक कर रही हैं। विधाता को बहुत प्रकार से दोष लगाकर नेत्रों से अश्रुपात कर रही हैं।

**दो०- तेहि अवसर नारद सहित, अरु रिषि सप्त समेत।**

समाचार सुनि तुहिनगिरि, गवने तुरत निकेत॥९७॥

भाष्य

इसी अवसर पर समाचार सुनकर पर्वतराज हिमाचल नारद जी के साथ और सप्तर्षियों को भी अपने साथ लेकर तुरन्त अपने भवन में गये ।

**तब नारद सबहीं समुझावा। पूरब कथाप्रसंग सुनावा॥ मयना सत्य सुनहु मम बानी। जगदंबा तव सुता भवानी॥ अजा अनादिशक्ति अबिनासिनि। सदा शंभु अरधंग निवासिनि॥ जग संभव पालन लय कारिनि। निज इच्छा लीला बपु धारिनि॥**
भाष्य

तब नारद जी ने सबको समझाया और पूर्व की कथा–प्रसंग सुनाया। मैना को सम्बोधित करते हुए नारद जी ने कहा, हे मैना ! मेरी सत्यवाणी सुनो, तुम्हारी पुत्री जगत्‌ की माता और ‘भव’ अर्थात्‌ शिव जी की नित्यपत्नी हैं। यह ‘अजा’ अर्थात्‌ माया हैं, इनकी शक्ति अनादि है, इनका कभी नाश नहीं होता, ये निरन्तर भगवान्‌ शङ्कर जी के अर्द्धांग अर्थात्‌ श्रेष्ठ वामांग में निवास करती हैं। ये ही संसार का उद्‌भव, पालन और प्रलय करने वाली हैं। लीला के लिए अपनी इच्छा से सती जी, पार्वती जी आदि रूप धारण कर लेती हैं।

**जनमीं प्रथम दक्ष गृह जाई। नाम सती सुंदर तनु पाई॥ तहँंहुँ सती शङ्करहिं बिबाहीं। कथा प्रसिद्ध सकल जग माहीं॥**

[[९०]]

भाष्य

इन्होंने प्रथम मनवन्तर में जाकर दक्ष की पत्नी प्रसूति के गर्भ में जन्म लिया था। तब इनका नाम सती था, इन्होंने बहुत सुन्दर शरीर प्राप्त किया था। वहाँ भी सती जी, शङ्कर भगवान्‌ के साथ ब्याही गयी थीं। यह कथा सारे संसार में प्रसिद्ध है।

**एक बार आवत शिव संगा। देखेउ रघुकुल कमल पतंगा॥ भयउ मोह शिव कहा न कीन्हा। भ्रम बस बेष सीय कर लीन्हा॥**
भाष्य

एक बार शिव जी के साथ आती हुईं सती जी ने मार्ग में रघुकुलरूप कमल के सूर्य भगवान्‌ श्रीराम को सीता जी को ढूँढते हुए देखा। सती जी के मन में मोह हो गया। उन्होंने शिव जी का कहा नहीं किया अर्थात्‌ भगवान्‌ श्रीराम पर संशय कर लिया, भ्रम के कारण उन्होंने सीता जी का वेश धारण कर लिया।

**छं०- सिय बेष सती जो कीन्ह तेहिं अपराध शङ्कर परिहरी।**

हर बिरह जाइ बहोरि पितु के जग्य जोगानल जरी॥ अब जनमि तुम्हरे भवन निज पति लागि दारुन तप किया। अस जानि संशय तजहु गिरिजा सर्बदा शङ्कर प्रिया॥

भाष्य

सती जी ने जो सीता जी का वेश धारण किया, उसी अपराध से शिव जी ने उनका परित्याग कर दिया। फिर शङ्कर जी के विरह के कारण पिता के यज्ञस्थल में जाकर सती जी योगाग्नि से भस्म हो गयीं। अब उन्होंने ही तुम्हारे घर जन्म लेकर अपने पति शङ्कर जी के लिए दारुण तपस्या की है। हे मैना! ऐसा जानकर संदेह छोड़ दो। पार्वती जी सदैव भगवान्‌ शङ्कर जी की प्रिय पत्नी हैं।

**दो०- सुनि नारद के बचन तब, सब कर मिटा बिषाद।**

छन महँ ब्यापेउ सकल पुर, घर घर यह संबाद॥ ९८॥

भाष्य

तब नारद जी के वचन सुनकर सभी का दु:ख मिट गया और क्षण भर में ही सम्पूर्ण नगर के घर–घर में यह नारद–मैना संवाद व्याप्त हो गया अर्थात्‌ फैल गया।

**तब मयना हिमवंत अनंदे। पुनि पुनि पारबती पद बंदे॥ नारि पुरुष शिशु जुबा सयाने। नगर लोग सब अति हरषाने॥ लगे होन पुर मंगलगाना। सजे सबहिं हाटक घट नाना॥**
भाष्य

तब मैना और हिमाचल आनन्दित हुए और उन्होंने बार–बार पार्वती जी के चरणों का वन्दन किया। नारी, पुरुष, बालक, युवक, वृद्ध सभी नगर के लोग बहुत प्रसन्न हुए। पुर में मंगलगान होने लगे, सभी ने अनेक स्वर्णकलश सजाये।

**भाँति अनेक भई जेवनारा। सूपशास्त्र जस कछु ब्यवहारा॥**

**सो जेवनार कि जाइ बखानी। बसहिं भवन जेहिं मातु भवानी॥ भा०– **पाकशास्त्र में जैसा कुछ व्यवहार वर्णित है, उसके अनुसार अनेक प्रकार की जेवनार हुई अर्थात्‌ अनेक प्रकार के भोजन बनाये गये। जिस भवन में माता पार्वती जी रह रही थीं, वहाँ की जेवनार अर्थात्‌ व्यंजन– व्यवस्था कैसे कही जा सकती है?

सादर बोले सकल बराती। बिष्णु बिरंचि देव सब जाती॥ बिबिध पाँति बैठी जेवनारा। लागे परुसन निपुन सुआरा॥

[[९१]]

भाष्य

विष्णु जी, ब्रह्मादि सभी जातियों के बराती देवताओं को भोजन कराने के लिए आदरपूर्वक बुलाया गया। भोजन करने वालों की अनेक पंक्तियाँ बैठीं और चतुर भोजन बनाने वाले विविध प्रकार के भोजन को परोसने लगे।

विशेष

रुद्र, आदित्य, वसु, सिद्ध, साध्य, विश्वदेव, मरुत्‌ आदि देवताओं की अनेक जातियाँ होती हैं।

**नारिबृंद सुर जेवँत जानी। लगी देन गारी मृदु बानी॥ भा०– **समूहबद्ध नारियाँ देवताओं को भोजन करते देखकर, कोमल वाणी में गारी के गीत गाने लगीं।

छं०- गारी मधुर सुर देहिं सुंदरि ब्यंग बचन सुनावहीं।

भोजन करहिं सुर अति बिलंब बिनोद सुनि सचु पावहीं॥ जेवँत जो ब़ढ्याो अनंद सो मुख कोटिहूँ न परै कह्यो। अँचवाइ दीन्हे पान गवने बास जहँ जाको रह्यो॥

भाष्य

सुंदरियाँ मधुरस्वर में गीत गाती हुई गारी दे रही हैं और व्यंग्यवचन सुना रही हैं। देवता अत्यन्त विलम्ब करते हुए धीरे–धीरे भोजन कर रहे हैं और विनोद सुनकर सुख पा रहे हैं। भोजन करते समय जो आनन्द ब़ढा वह करोड़ों मुखों से नहीं कहा जा सकता। बारातियों को आचमन कराके, ताम्बूल दिया गया। जिसका जहाँ निवास था वहाँ सभी चले गये।

**दो०- बहुरि मुनिन हिमवंत कहँ, लगन सुनाई आइ।**

समय बिलोकि बिबाह कर, पठए देव बोलाइ॥९९॥

भाष्य

फिर सप्तर्षियों ने गिरिराज हिमाचल को विवाह का मुहूर्त सुनाया विवाह का समय देखकर हिमाचल ने सभी देवताओं को बुला भेजा।

**बोलि सकल सुर सादर लीन्हे। सबहिं जथोचित आसन दीन्हे॥ बेदी बेद बिधान सँवारी। शुभग सुमंगल गावहिं नारी॥**
भाष्य

आदरपूर्वक हिमाचल ने सभी देवताओं को बुला लिया और सबको यथायोग्य आसन दिये। वेद–विधान के अनुसार सुन्दर विवाह की वेदिका सँवारी गयी। सौभाग्यवती नारियाँ सुन्दर मंगलगीत गाने लगीं।

**सिंघासन अति दिब्य सुहावा। जाइ न बरनि बिरंचि बनावा॥ बैठे शिव बिप्रन सिर नाई। हृदय सुमिरि निज प्रभु रघुराई॥**
भाष्य

वहाँ अत्यन्त दिव्य–सुन्दर ब्रह्मा जी के द्वारा बनाया गया सिंहासन स्थापित किया गया। उसका वर्णन नहीं किया जा सकता, उसी आसन पर ब्राह्मणों को प्रणाम करके तथा हृदय में अपने प्रभु श्रीराम जी को स्मरण करके शिव जी बैठे (विराजमान हुए)।

**बहुरि मुनीशन उमा बोलाईं। करि शृंगार सखी लै आईं॥**

देखत रूप सकल सुर मोहै। बरनै छबि अस जग कबि को है॥

भाष्य

फिर श्रेष्ठमुनियों ने विवाहार्थ पार्वती जी को मण्डप में बुलाया और उनका शृंगार करके सखियाँ उन्हें ले आयीं। पार्वती जी का रूप देखकर सभी देवता मोहित हो रहे थे, संसार में ऐसा कौन कवि है, जो उनके छवि का वर्णन कर सके?

[[९२]]

जगदंबिका जानि भव भामा। सुरन मनहिं मन कीन्ह प्रनामा॥

सुंदरता मरजाद भवानी। जाइ न कोटिहुँ बदन बखानी॥

भाष्य

पार्वती जी को जगत्‌ की माता और भगवान्‌ शङ्कर जी की पत्नी जानकर देवताओं ने मन-ही-मन प्रणाम किया। पार्वती जी सुन्दरता की मर्यादा हैं अर्थात्‌ उनसे अधिक सृष्टपदार्थ में कहीं सुन्दरता नहीं हो सकती। पार्वती जी का वर्णन करोड़ों मुख से भी संभव नहीं है।

**छं०- कोटिहुँ बदन नहिं बनै बरनत जग जननि शोभा महा।**

सकुचहिं कहत श्रुति शेष शारद मंदमति तुलसी कहा॥ छबिखानि मातु भवानि गवनीं मध्य मंडप शिव जहाँ। अवलोकि सकहिं न सकुच पति पद कमल मन मधुकर तहाँ॥

भाष्य

जगत्‌ जननी पार्वती जी की शोभा अत्यन्त श्रेष्ठ है। उनका वर्णन करोड़ों मुखों से भी नहीं करते बन सकता, उसे वेद, शेष और शारदा भी कहने में संकोच का अनुभव करते हैं। मंदबुद्धि तुलसीदास उसे कैसे कह सकता है? छवि की खानि माता पार्वती वहाँगयीं, जहाँ मध्यमण्डप में शिव जी विराज रहे थे। संकोच के कारण पार्वती जी शिव जी को देख नहीं सक रही थीं, परन्तु उनका मन–भ्रमर तो उन्हीं प्राणपति शिव जी के चरणकमल में था।

**दो०- मुनि अनुशासन गनपतिहिं, पूजेउ शंभु भवानि।**

कोउ सुनि संशय करै जनि, सुर अनादि जिय जानि॥१००॥

भाष्य

सप्तर्षियों की आज्ञा से शिव जी एवं पार्वती जी ने गणपति जी की पूजा की। इसे सुनकर और हृदय में देवताओं को अनादि अर्थात्‌ आदि से रहित जानकर कोई संशय नहीं करे। तात्पर्य यह है कि, सृष्टि के आदि में ही गणपति महाराज का आविर्भाव हो चुका था, उन्होंने तो पार्वती जी के यहाँ केवल फिर से अवतार लिया था। जैसे श्रीदशरथ जी के घर में रामावतार के पहले भी प्रह्लाद्‌ जी ने श्रीरामनाम का जप किया था। “**राम नाम जपतां कुतोऽभयं।” **(नृसिंह पुराण-प्रह्लाद वाक्य)।

**जसि बिबाह कै बिधि श्रुति गाई। महामुनिन सो सब करवाई॥ गहि गिरीश कुश कन्या पानी। भवहिं समरपी जानि भवानी॥**
भाष्य

वेदों ने विवाह की जैसी विधि बतायी है, महर्षियों ने वह सब सम्पन्न करवाया। पर्वतराज हिमाचल ने कुश और कन्या के हाथ को अपने हाथ में लेकर पार्वती जी को भवानी अर्थात्‌ शिव जी की पत्नी जानकर उन्हें ‘भव’ अर्थात्‌ शिव जी को सौंप दिया।

**पानिग्रहन जब कीन्ह महेशा। हिय हरषे तब सकल सुरेशा॥ बेदमंत्र मुनिवर उच्चरहीं। जय जय जय शङ्कर सुर करहीं॥**
भाष्य

जब शिव जी ने पार्वती जी का पाणिग्रहण किया तब सभी श्रेष्ठ देवतागण हृदय में प्रसन्न हुए। श्रेष्ठ मुनिजन वैदिकमंत्र का उच्चारण कर रहे हैं और देवतागण शङ्कर जी की जय हो! जय हो! जय हो! इस प्रकार जय– जयकार कर रहे हैं।

**बाजहिं बाजन बिबिध बिधाना। सुमन बृष्टि नभ भइ बिधि नाना॥ हर गिरिजा कर भयउ बिबाहू। सकल भुवन भरि रहा उछाहू॥**

[[९३]]

भाष्य

अनेक प्रकार के वाद्द बज रहे हैं, आकाश से अनेक प्रकार की पुष्प–वृष्टि हुई। शिव जी–पार्वती जी का विवाह हुआ, इस उत्सव का उत्साह सम्पूर्ण लोकों में भर गया।

**दासी दास तुरग रथ नागा। धेनु बसन मनि बस्तु बिभागा॥ अन्न कनकभाजन भरि याना। दाइज दीन्ह न जाइ बखाना॥**
भाष्य

पर्वतराज हिमाचल ने सेविका, सेवक, घोड़े, रथ, हाथी, गौ, वस्त्र, मणियाँ और भिन्न–भिन्न विभाग की वस्तुएँ स्वर्ण और सोने के पात्र में अन्न, अनेक विमान, इस प्रकार इतने दहेज दिये जो कहे नहीं जा सकते।

**छं०- दाइज दियो बहु भाँति पुनि कर जोरि हिमभूधर कह्यो।**

का देउँ पूरनकाम शङ्कर चरन पंकज गहि रह्यो॥ शिव कृपासागर ससुर कर परितोष सब भाँतिहिं कियो। पुनि गहे पद पाथोज मयना प्रेम परिपूरन हियो॥

भाष्य

पर्वतराज हिमाचल ने बहुत प्रकार से दहेज दिया और हाथ जोड़कर कहा, हे शिव जी! आप पूर्णकाम हैं अर्थात्‌ आपकी सभी इच्छाएँ प्रभु श्रीराम जी ने पूर्ण कर दी है, मैं आपको क्या दूँ? यह कहकर हिमाचल शिव जी के चरणकमल को पक़ड कर स्थिर रह गये। कृपा के सागर शिव जी ने अपने ससुर हिमाचल का सब प्रकार से परितोष किया अर्थात्‌ उन्हें संतुष्ट किया। पुन: मैना माता ने शिव जी के चरणकमल को पक़ड लिया, उनका हृदय प्रेम से परिपूर्ण हो उठा।

**दो०- नाथ उमा मम प्रान सम, गृह किंकरी करेहु।**

छमेहु सकल अपराध अब, होइ प्रसन्न बर देहु॥१०१॥

भाष्य

मैना बोली, हे नाथ ! उमा मेरे प्राण के समान है। उसे आप अपने घर की दासी बनाइये। अब सभी अपराधों को क्षमा कीजिये, प्रसन्न होकर वरदान दीजिये।

**बहु बिधि शंभु सासु समुझाई। गवनी भवन चरन सिर नाई॥ जननी उमा बोलि तब लीन्ही। लै उछंग सुंदर सिख दीन्हीं॥**
भाष्य

शङ्कर भगवान्‌ ने सासू माँ को बहुत प्रकार से समझाया। फिर शिव जी के चरणों में सिर नवाकर मैना विवाह–मण्डप से अपने भवन चली गयीं। माता ने पार्वती जी को बुला लिया, गोद में लेकर सुन्दर शिक्षा दी।

**करेहु सदा शङ्कर पद पूजा। नारिधरम पति देव न दूजा॥ बचन कहत भरे लोचन बारी। बहुरि लाइ उर लीन्ह कुमारी॥**
भाष्य

हे पार्वती! सदैव शङ्कर भगवान्‌ के चरणों की पूजा करना, क्योंकि नारी के लिए पति ही देवता है, उसका और दूसरा धर्म नहीं होता है। यह वचन कहते–कहते मैना के नेत्र जल से भर गये और फिर उन्होंने अपनी बेटी को हृदय से लगा लिया।

**कत बिधि सृजी नारि जग माहीं। पराधीन सपनेहुँ सुख नाहीं॥ भइ अति प्रेम बिकल महतारी। धीरज कीन्ह कुसमय बिचारी॥**
भाष्य

विधाता ने संसार में नारी की रचना क्यों की? पराधीन को स्वप्न में भी सुख नहीं मिलता। (इसी पंक्ति से गोस्वामी जी ने सर्वप्रथम नारी स्वतंत्रता के लिय सामूहिक क्रांति का श्रीगणेश किया।) माता प्रेम में अत्यन्त विकल हो उठीं, कुसमय जानकर फिर मन में धैर्य धारण किया।

[[९४]]

पुनि पुनि मिलति परति गहि चरना। परम प्रेम कछु जाइ न बरना॥ सब नारिन मिलि भेंटि भवानी। जाइ जननी उर पुनि लपटानी॥

भाष्य

मैना पार्वती जी से बार–बार मिल रही हैं। उन्हें देवी समझकर उनके चरण पकडकर बार–बार पृथ्वी पर गिर पड़ती हैं, उनके उस पूजनीय प्रेम का कुछ भी वर्णन नहीं किया जा सक रहा है। अन्य सभी नारियों से मिलकर सब के गले लगकर अंत में पार्वती जी जाकर फिर माता के हृदय से लिपट गयीं।

**छं०- जननिहिं बहुरि मिलि चली उचित अशीष सब काहू दईं।**

फिरि फिरि बिलोकति मातु तन तब सखी लै शिव पहँ गईं॥ जाचक सकल संतोषि शङ्कर उमा सहित भवन चले। सब अमर हरषे सुमन बरषि निसान नभ बाजे भले॥

भाष्य

फिर माता जी को मिलकर पार्वती जी चल पड़ीं। सभी वृद्ध महिलाओं ने पार्वती जी को उचित आशीर्वाद दिया। पार्वती जी लौट–लौटकर माता के शरीर को ही निहारती थीं। तब विजयादि सखियाँ उन्हें शिव जी के पास ले गयीं। अपने पाये हुए दहेज के धन से सभी याचकों को संतुष्ट करके भगवान्‌ शङ्कर जी, पार्वती जी के साथ अपने भवन कैलाश को चले। सभी देवतागण पुष्प–वृष्टि करके प्रसन्न हुए और आकाश में सुंदर नगारे बजे।

**दो०- चले संग हिमवंत तब, पहुँचावन अतिहेतु।**

बिबिध भाँति परितोष करि, बिदा कीन्ह बृषकेतु॥१०२॥

भाष्य

तब अत्यन्त प्रेम से पर्वतराज हिमाचल शिव–पार्वती को पहुँचाने के लिए उनके साथ ही चल पड़े। अनेक प्रकार से परितोष अर्थात्‌ आश्वासनों से संतुष्ट करके वृषभध्वज भगवान्‌ शङ्कर ने अपने ससुर हिमाचल को विदा किया।

**तुरत भवन आए गिरिराई। सकल शैल सर लिए बोलाई॥ आदर दान बिनय बहुमाना। सब करि बिदा कीन्ह हिमवाना॥**
भाष्य

पर्वतराज हिमाचल तुरन्त भवन आये और सभी पर्वतों, तालाबों आदि ज़डवस्तु के अभिमानी देवताओं को बुला लिया। हिमाचल ने आदर, दान, प्रार्थना और सम्मान करके सब को विदा किया।

**जबहिं शंभु कैलासहिं आए। सुर सब निज निज लोक सिधाए॥ जगत मातु पितु शंभु भवानी। तेहिं शृंगार न कहउँ बखानी॥**
भाष्य

जब शिव जी कैलाश आये तब सभी देवता अपने–अपने लोक को चले गये। पार्वती जी एवं शिव जी जगत के माता–पिता हैं, इसलिए उनका सम्प्रयोग शृंगार, मैं बखान कर नहीं कह रहा हूँ।

**करहिं बिबिध बिधि भोग बिलासा। गनन समेत बसहिं कैलासा॥ हर गिरिजा बिहार नित नयऊ। एहि बिधि बिपुल काल चलि गयऊ॥**
भाष्य

बाह्यदृष्टि से पार्वती जी और शिव जी अनेक प्रकार से भोग–विलास कर रहे हैं और अपने गणों के सहित कैलाश पर निवास कर रहे हैं। शिव जी एवं पार्वती जी का विहार नित्य–नूतन होता गया, इस प्रकार बहुत समय बीत गया।

**तब जनमेउ षडबदन कुमारा। तारक असुर समर जेहिं मारा॥ आगम निगम प्रसिद्ध पुराना। षडमुख जनम सकल जग जाना॥**

[[९५]]

भाष्य

इसके अनन्तर छ: मुखवाले कुमार स्वामी कार्तिकेय जी का जन्म हुआ, जिन्होंने युद्ध में तारकासुर का वध किया। कार्तिकेय जी का जन्म आगमों, वेदों और पुराणों में प्रसिद्ध है, इसे सारा संसार जानता है।

**छं०- जग जान षडमुख जन्म कर्म प्रताप पुरुषारथ महा।**

तेहि हेतु मैं वृषकेतु सुत कर चरित संक्षेपहिं कहा॥ यह उमा शंभु बिबाह जे नर नारि कहहिं जे गावहीं। कल्यान काज बिबाह मंगल सर्बदा सुख पावहीं॥

भाष्य

षडानन कार्तिकेय जी का जन्म, कर्म, प्रताप और महान्‌ पुरुषार्थ को संसार जानता है, इसलिए मैंने शङ्कर जी के पुत्र कार्तिकेय जी का चरित्र संक्षेप में कह दिया। यह पार्वती–शङ्कर का विवाह जो नर–नारी कल्याण कार्यों में, विवाह के समय और मांगलिक प्रसंगों में कहेंगे और गायेंगे वे सदैव सुख पायेंगे।

**दो०- चरित सिंधु गिरिजा रमन, बेद न पावहिं पार।**

बरनै तुलसीदास किमि, अति मतिमंद गॅंवार॥१०३॥

भाष्य

पार्वती जी के पति भगवान्‌ शिव जी चरित्रों के समुद्र हैं, वेद भी उनका पार नहीं पाते, फिर अत्यन्त मन्दबुद्धि वाला गॅंवार तुलसीदास उनका वर्णन कैसे कर सकता है?

**शंभु चरित सुनि सरस सुहावा। भरद्वाज मुनि अति सुख पावा॥ बहु लालसा कथा पर बा़ढी। नयन नीर रोमावलि ठा़ढी॥**
भाष्य

रसपूर्ण और सुहावना शिवचरित्र सुनकर भरद्वाज मुनि ने बहुत सुख पाया अर्थात्‌ असीम आनन्द की अनुभूति की। श्रीरामकथा पर उनके मन में बहुत लालसा ब़ढ गयी। उनकी आँखों में आँसू भर आये, रोमावलियाँ ख़डी हो गयीं, अर्थात्‌ शरीर के सा़ढे तीन करोड़ रोम ख़डे होकर प्रभु श्रीराम जी का अभिनन्दन करने लगे।

**प्रेम बिबश मुख आव न बानी। दशा देखि हरषे मुनि ग्यानी॥ अहो धन्य तव जन्म मुनीशा। तुमहि प्रान सम प्रिय गौरीशा॥**
भाष्य

भरद्वाज जी प्रेम में मग्न हो गये, उनके मुख से वाणी नहीं निकल रही थी। उनकी यह दशा देखकर ज्ञानी– मुनि याज्ञवल्क्य जी बहुत प्रसन्न हुए और बोले, अहो! हे मुनिश्रेष्ठ भरद्वाज! आप का जन्म धन्य है, क्योंकि गौरीपति शिव जी आपको प्राण के समान प्रिय हैं।

**शिव पद कमल जिनहि रति नाहीं। रामहिं ते सपनेहुँ न सोहाहीं॥ बिनु छल बिश्वनाथ पद नेहू। राम भगत कर लच्छन एहू॥**
भाष्य

जिनको शिव जी के चरणकमलों में भक्ति नहीं है, वे श्रीराम जी को सपने में भी नहीं भाते। विश्वनाथ के चरणों में छलशून्य प्रेम, यही श्रीराम के भक्ति का लक्षण है।

**शिव सम को रघुपति ब्रतधारी। बिनु अघ तजी सती असि नारी॥ पन कर रघुपति भगति दृ़ढाई। को शिव सम रामहिं प्रिय भाई॥**
भाष्य

हे भरद्वाज! शिव जी के समान श्रीराम जी की मर्यादा–व्रत को धारण करनेवाला और कौन होगा, जिन्होंने चरित्रहीनता रूप पाप के बिना भी सती जैसी नारी का त्याग कर दिया और प्रतिज्ञा करके श्रीराम जी की भक्ति को दृ़ढ किया? हे भाई! भला शिव जी के समान और कौन श्रीराम जी को प्रिय हो सकता है?

**दो०- प्रथमहिं मैं कहि शिव चरित, बूझा मरम तुम्हार।**

शुचि सेवक तुम राम के, रहित समस्त बिकार॥१०४॥

[[९६]]

भाष्य

कथा के प्रारम्भ में ही शिवचरित्र कहकर मैंने आपका मर्म समझ लिया है। आप सभी विकारों से रहित तथा श्रीराम जी के पवित्र सेवक हैं।

**मैं जाना तुम्हार गुन शीला। कहउँ सुनहु अब रघुपति लीला॥ सुनु मुनि आज समागम तोरे। कहि न जाइ जस सुख मन मोरे॥**
भाष्य

मैंने आपके गुण और स्वभाव को जान लिया है। अब मैं श्रीराम जी की लीला कह रहा हूँ सुनिये, हे मुनि! सुनो आज तुम्हारे समागम से मेरे मन में जितना सुख हुआ है, वह मुझसे कहा नहीं जा रहा है।

**राम चरित अति अमित मुनीशा। कहि न सकहिं शत कोटि अहीशा॥ तदपि जथाश्रुत कहउँ बखानी। सुमिरि गिरापति प्रभु धनुपानी॥**
भाष्य

हे मुनिराज भरद्वाज! श्रीराम जी के चरित्र अत्यन्त असीम है, इन्हें अरबों शेषनारायण भी नहीं कह सकते, फिर भी वाणी के स्वामी, धनुषपाणी, श्रीराम जी को स्मरण करके यथाश्रुत अर्थात्‌ जिस प्रकार मैंने काकभुशुण्डि जी से सुना है, उसी प्रकार बखान कर कह रहा हूँ। (याज्ञवल्क्य जी ने काकभुसुण्डि जी से ही श्रीरामचरितमानस प्राप्त किया है, यथा– **तेहिं सन जाग्यबल्क्य पुनि पावा। (**मानस, १.३०.५)

**शारद दारुनारि सम स्वामी। राम सूत्रधर अंतरजामी॥**

**जेहिं पर कृपा करहिं जन जानी। कबि उर अजिर नचावहिं बानी॥ भा०– **सरस्वती जी लक़डी से बनी हुई नारी अर्थात्‌ कठपुतली के समान हैं और अन्तर्यामी सबके स्वामी श्रीराम जी सूत्रधार अर्थात्‌ उस कठपुतली को नचानेवाले हैं। अपना भक्त जानकर जिस पर भी प्रभु श्रीराम जी कृपा कर देते हैं, वे कवि अपने हृदय रूप आँगन में वाणीरूप कठपुतली को नचाते हैं।

प्रनवउँ सोइ कृपालु रघुनाथा। बरनउँ बिशद तासु गुन गाथा॥ परम रम्य गिरिवर कैलासू। सदा जहाँ शिव उमा निवासू॥

भाष्य

उन्हीं कृपालु रघुनाथ जी को मैं प्रणाम करता हूँ। उन्ही श्रीराघवेन्द्र सरकार की निर्मल गुणगाथा का वर्णन करता हूँ। पर्वतों में श्रेष्ठ कैलाश बहुत रमणीय हैं जहाँ सदैव शिव जी एवं पार्वती जी का निवास अर्थात्‌ नियतवास है।

**दो०- सिद्ध तपोधन जोगिजन, सुर किंनर मुनिबृंद।**

बसहिं तहाँ सुकृती सकल, सेवहिं शिव सुखकंद॥१०५॥

भाष्य

सिद्ध, जिनका तप ही धन है ऐसे तपस्वी, योगिजन, देवता, किन्नर तथा मुनियों के समूह, इनके अतिरिक्त अन्य सभी सुकृति साधू–सन्त, उस कैलाश पर्वत पर वास करते हैं और सभी सुख के मेघस्वरूप शिव जी की सेवा करते हैं।

**\* मासपारायण, तीसरा विश्राम \***

हरि हर बिमुख धर्म रति नाहीं। ते नर तहँ सपनेहुँ नहिं जाहीं॥

भाष्य

जो विष्णु जी एवं शिव जी के विमुख हैं, जिन्हें वैदिक सनातनधर्म पर प्रेम नहीं है, वे लोग उस कैलाश पर्वत पर स्वप्न में भी नहीं जा सकते।

**तेहि गिरि पर बट बिटप बिशाला। नित नूतन सुंदर सब काला॥ त्रिबिध समीर सुशीतल छाया। शिव बिश्राम बिटप श्रुति गाया॥**

[[९७]]

भाष्य

उसी कैलाश पर निरन्तर नया, सभी कालों में सुन्दर लगनेवाला एक विशाल वटवृक्ष है। शीतल, मन्द, सुगन्ध नामक तीन प्रकार की वायु के कारण उस वटवृक्ष की छाया सुखद और शीतल बनी रहती है। उसे वेदों ने शिव–विश्राम विटप (शिव जी को विश्राम देनेवाला वृक्ष) की संज्ञा देकर गाया है।

**एक बार तेहि तर प्रभु गयऊ। तरु बिलोकि उर अति सुख भयऊ॥**

निज कर डासि नागरिपु छाला। बैठे सहजहिं शंभु कृपाला॥

भाष्य

सबके स्वामी और सहज समर्थ शिव जी एक बार उस वट वृक्ष के नीचे गये। उस वृक्ष को देखकर शिव जी के मन में अत्यन्त सुख हुआ। उस भगवत्‌ भजन सुख के परिणामस्वरूप, अपने हाथ से हाथियों के शत्रु बाघ का चर्म बिछाकर, कृपालु शङ्कर जी सहज ही बिना कुछ सोचे विचारे वहाँ बैठ गये।

**कुंद इंदु दर गौर शरीरा। भुज प्रलंब परिधन मुनिचीरा॥ तरुन अरुन अंबुज सम चरना। नख दुति भगत हृदय तम हरना॥ भुजग भूति भूषन त्रिपुरारी। आनन शरद चंद्र छबि हारी॥**

दो०- जटा मुकुट सुरसरित सिर, लोचन नलिन बिशाल।

नीलकंठ लावन्यनिधि, सोह बालबिधु भाल॥१०६॥

भाष्य

शिव जी का शरीर कुन्द–पुष्प के समान सुगंधित और श्वेत चन्द्रमा के समान मधुर, आकर्षक, प्रकाशमान तथा शंख के समान श्वेत और चिकना था। उनकी भुजाएँ लम्बी थीं और वे मुनिवस्त्र को परिधान रूप में पहने हुए थे। उनके चरण नवीन लालकमल के समान थे। उनके चरणों के नख की ज्योति भक्तों के हृदय के अंधकार को हरण कर रही थी। त्रिपुर के शत्रु शिव जी सर्प और भस्म को आभूषण रूप में धारण किये थे। उनका मुख शरद्‌ पूर्णिमा के चन्द्रमा के छवि को भी चुरा रहा था। उनके सिर पर जटा का मुकुट था और देवनदी गंगा जी लहरा रही थीं। कमल के जैसे उनके विशाल नेत्र थे। वे नीलकण्ठ, लावण्य अर्थात्‌ आकर्षक सौन्दर्य के सागर थे। शिव जी के मस्तक पर शुक्ल पक्ष की द्वितीया के बाल चन्द्रमा सुशोभित हो रहे थे।

**बैठे सोह कामरिपु कैसे। धरे शरीर शांतरस जैसे॥ पारबती भल अवसर जानी। गईं शंभु पहँ मातु भवानी॥**
भाष्य

कामदेव के शत्रु भगवान्‌ शिव जी वटवृक्ष के नीचे व्याघ्र के चर्म के आसन पर बैठे कैसे सुशोभित हो रहे थे, जैसे शान्तरस ने ही शरीर धारण कर लिया हो। भला अर्थात्‌ अनुकूल अवसर जानकर भवानी अर्थात्‌ शिव जी की पत्नी माता पार्वती जी भगवान्‌ शङ्कर जी के पास गयीं।

**जानि प्रिया आदर अति कीन्हा। बाम भाग आसन हर दीन्हा॥ बैठीं शिव समीप हरषाई। पूरब जन्म कथा चित आई॥**
भाष्य

प्रिया को आयी हुई समझकर, शिव जी ने उनका बहुत आदर किया और श्रीरामकथा कहकर संसार का क्लेश हरण करने वाले शिव जी ने पार्वती जी को बायें भाग में आसन दिया। पार्वती जी प्रसन्न होकर शिव जी के अत्यन्त समीप वामभाग में जाकर बैठ गयीं, उनके चित्त में पूर्वजन्म की कथा आ गयी।

**पति हिय हेतु अधिक अनुमानी। बिहँसि उमा बोलीं प्रिय बानी॥ कथा जो सकल लोक हितकारी। सोइ पूछन चह शैलकुमारी॥**

[[९८]]

भाष्य

अपने पति शिव जी के हृदय में स्वयं के प्रति अत्यन्त प्रेम का अनुमान करके उमा जी विनम्रतापूर्वक हँसकर प्रिय लगनेवाली वाणी बोलीं। जो कथा सम्पूर्ण लोकों का हित करती है, उसी श्रीरामकथा को पर्वतपुत्री पार्वती जी शिव जी से पूछना चाहीं।

**बिश्वनाथ मम नाथ पुरारी। त्रिभुवन महिमा बिदित तुम्हारी॥**

**चर अरु अचर नाग नर देवा। सकल करहिं पद पंकज सेवा॥ भा०– **पार्वती जी बोलीं, हे विश्वनाथ! हे मेरे नाथ, त्रिपुर के शत्रु शिव जी! आपकी महिमा तीनों लोकों में विदित है। ज़ड, चेतन, नाग, मनुष्य और देवता सभी आपके चरणकमलों की सेवा करते हैं।

दो०- प्रभु समरथ सर्बग्य शिव, सकल कला गुन धाम।

जोग ग्यान बैराग्य निधि, प्रनत कलपतरु नाम॥१०७॥

भाष्य

हेशिव जी! आप सबके स्वामी हैं। कर्तुमकर्त्तुमन्यथाकर्त्तुम्‌ समर्थ, सम्पूर्ण कलाओं और गुणों के मंदिर तथा योग, ज्ञान और वैराग्य के समुद्र हैं। आप का शिव यह दो अक्षरों का नाम प्रणत भक्तों के लिए कल्पवृक्ष है।

**जौ मो पर प्रसन्न सुखरासी। जानिय सत्य मोहि निज दासी॥ तौ प्रभु हरहु मोर अग्याना। कहि रघुनाथ कथा बिधि नाना॥**
भाष्य

हे सुख के राशि महादेव! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं और मुझको अपनी सत्यसेविका जानते हैं, तो हे प्रभो! अनेक प्रकार से श्रीरघुनाथ जी की कथा कहकर आप मेरा अज्ञान हर लीजिये।

**जासु भवन सुरतरु तर होई। सह कि दरिद्र जनित दुख सोई॥**

शशिभूषन अस हृदय बिचारी। हरहु नाथ मम मति भ्रम भारी॥

भाष्य

जिसका घर कल्पवृक्ष के नीचे हो तो क्या वह दरिद्रता से जनित दु:ख को सहन करता है अर्थात्‌ नहीं, उसको तो कल्पवृक्ष का लाभ मिलता ही मिलता है। हे बालचन्द्र को आभूषण बनाने वाले, मेरे स्वामी शिव जी! ऐसा अपने हृदय में विचार करके आप मेरी बुद्धि के भारी भ्रम को हर लीजिये।

**प्रभु जे मुनि परमारथबादी। कहहिं राम कहँ ब्रह्म अनादी॥ शेष शारदा बेद पुराना। सकल करहिं रघुपति गुन गाना॥**
भाष्य

हे स्वामी! जो परमार्थवादी, ब्रह्मज्ञानी मुनिजन हैं, वे श्रीराम को आदिरहित ब्रह्म कहते हैं। शेष, सरस्वती, वेद और पुराण ये सभी रघुपति अर्थात्‌ सगुणब्रह्म श्रीराम का गुणगान करते हैं।

**तुम पुनि राम राम दिन राती। सादर जपहु अनँग आराती॥ राम सो अवध नृपति सुत सोई। की अज अगुन अलख गति कोई॥**
भाष्य

हे कामदेव के शत्रु शिव जी! फिर आप भी आदरपूर्वक दिन–रात राम–राम रटते, जपते रहते हैं। वह राम क्या वही अवधनरेश के पुत्र हैं, जो मेरे पूर्वअवतार में सीता जी के वियोग में विकल दिख रहे थे? अथवा, कोई अनिर्वचनीय, अजन्मा, निर्गुण, अलच्छगति वाले हैं अर्थात्‌ कौन हैं, वे राम, जिन्हें मुनि ब्रह्म कहते हैं, शेष आदि जिनका यश गाते हैं और आप दिन रात राम–राम रट कर जिन्हें जपते हैं?

**दो०- जौ नृप तनय त ब्रह्म किमि, नारि बिरह मति भोरि।**

देखि चरित महिमा सुनत, भ्रमति बुद्धि अति मोरि॥१०८॥

[[९९]]

भाष्य

यदि सबके आराध्य श्रीराम, राजा दशरथ के पुत्र हैं, तो वे ब्रह्म कैसे? यदि दशरथराज–पुत्र होकर भी श्रीराम ब्रह्म हैं, तो फिर नारी के विरह में उनकी बुद्धि कैसी भोली हो गयी? उनका विरहीचरित्र देखकर और आप से लोकोत्तर महिमा सुनकर मेरी बुद्धि अत्यन्त भ्रमित हो रही है।

**जौ अनीह ब्यापक बिभु कोऊ। कहहु बुझाइ नाथ मोहि सोऊ॥ अग्य जानि रिसि उर जनि धरहू। जेहि बिधि मोह मिटै सोइ करहू॥**
भाष्य

यदि श्रीराम कोई चेष्टा से रहित, व्यापक और सर्वसमर्थ विलक्षण तत्त्व हों तो, हे नाथ! वह भी मुझे समझाकर कहिये। मुझे ज्ञानशून्य अथवा मूर्ख जानकर, हृदय में क्रोध धारण मत कीजिये, जिस प्रकार मेरा मोह मिटे वही कीजिये।

**मैं बन दीख राम प्रभुताई। अति भय बिकल न तुमहिं सुनाई॥ तदपि मलिन मन बोध न आवा। सो फल भली भाँति हम पावा॥**
भाष्य

मैंने सती शरीर से वन में श्रीराम जी की प्रभुता देखी थी। भय से अत्यन्त व्याकुल होने के कारण आपको नहीं सुनाया, फिर भी मलिन मन होने के कारण उस समय मेरे मन को ज्ञान नहीं आया। उसका फल हमने भली–भाँति पा लिया अर्थात्‌ आप के द्वारा त्यागी गयी, विरह की व्यथा सही, पिता के यहाँ अपना अपमान सहा, योगाग्नि से वह शरीर भस्म किया तथा उग्र तपस्या की, यह सब मेरे अपराधों का ही तो मुझे दण्ड मिला।

**अजहूँ कछु संशय मन मोरे। करहु कृपा बिनवउँ कर जोरे॥**

**प्रभु तब मोहि बहु भाँति प्रबोधा। नाथ सो समुझि करहु जनि क्रोधा॥ भा०– **अब भी मेरे मन में कुछ संशय है। आप कृपा कीजिये, मैं हाथ जोड़कर विनती करती हूँ। हे प्रभो ! उस समय आपने मुझे बहुत प्रकार से समझाया था, हे नाथ! वह समझकर क्रोध मत कीजिये।

तब कर अस बिमोह अब नाहीं। रामकथा पर रुचि मन माहीं॥ कहहु पुनीत राम गुन गाथा। भुजगराज भूषन सुरनाथा॥

भाष्य

इस समय पहले जैसा विकृत मोह नहीं है, मन में श्रीरामकथा पर रुचि है। हे सर्पों के राजा शेष को आभूषण बनाकर धारण करने वाले! हे देवताओं के स्वामी शिव जी ! आप श्रीराम के पवित्र गुणों की गाथा कहिये।

**दो०- बंदउँ पद धरि धरनि सिर, बिनय करउँ कर जोरि।**

बरनहु रघुबर बिशद जस, श्रुति सिद्धांत निचोरि॥१०९॥

भाष्य

पृथ्वी पर मस्तक रखकर, मैं आप के चरणों की वन्दना करती हूँ। हाथ जोड़कर आपसे विनय करती हूँ। आप वेदों के सिद्धान्तों को निचोड़कर श्रीराम के स्वच्छ यश का वर्णन कीजिये।

**जदपि जोषिता नहिं अधिकारी। दासी मन क्रम बचन तुम्हारी॥ गू़ढउ तत्त्व न साधु दुरावहिं। आरत अधिकारी जहँ पावहिं॥ अति आरत पूछउँ सुरराया। रघुपति कथा कहहु करि दाया॥**
भाष्य

यद्दपि प्राकृत नारी इन गू़ढसिद्धान्तों की अधिकारिणीं नहीं होती, फिर भी मैं मन, कर्म, वचन से आपकी दासी हूँ, कोई साधारण नारी नहीं हूँ। सन्तजन जहाँ आर्त अधिकारी पाते हैं, वहाँ गू़ढतत्व को भी नहीं छिपाते। हे देवताओं के स्वामी तथा देवताओं के धनस्वरूप शिव जी ! मैं अत्यन्त आर्त होकर पूछ रही हूँ। आप कृपा करके रघुकुल के स्वामी सगुणब्रह्म श्रीराम की कथा कहिये।

[[१००]]

प्रथम सो कारन कहहु बिचारी। निर्गुन ब्रह्म सगुन बपु धारी॥ पुनि प्रभु कहहु राम अवतारा। बालचरित पुनि कहहु उदारा॥ कहहु जथा जानकी बिबाही। राज तजा सो दूषन काही॥ बन बसि कीन्हे चरित अपारा। कहहु नाथ जिमि रावन मारा॥ राज बैठि कीन्हीं बहु लीला। सकल कहहु शङ्कर शुभशीला॥

भाष्य

पहले तो विचार कर वह कारण कहिये, जिस कारण से निर्गुणब्रह्म ने सगुण शरीर धारण किया। हे प्रभो! फिर श्रीराम का अवतार कहिये, फिर आप भगवान्‌ श्रीराम का उदार बालचरित्र कहिये। जिस प्रकार श्रीराम ने सीता जी से विवाह किया, श्रीराम ने अपना राज्य छोड़ा उसमें किसका दोष था? हे नाथ! भगवान्‌ श्रीराम ने वन में निवास करके जो अपार चरित्र किये वह कहिये। श्रीराम ने रावण को कैसे मारा? हे शुभस्वभाव वाले शङ्कर जी! राजसिंहासन पर बैठकर भगवान्‌ श्रीराम ने जो बहुत सी लीलायें की, वह सब कहिये।

**दो०- बहुरि कहहु करुनायतन, कीन्ह जो अचरज राम।**

प्रजा सहित रघुबंशमनि, किमि गवने निज धाम॥ ११०॥

भाष्य

हे करुणा के भवन शिव जी! बहुरि अर्थात्‌ कथाप्रसंग से पीछे मुड़कर वह सुनाइये जो श्रीराम ने बहुत बड़ा आश्चर्य का कार्य किया। रावणवध के पश्चात्‌ एक ही पुष्पक विमान पर आरू़ढ होकर अठारह पद्‌म यूथपतियों से संचालित असंख्य वानरी प्रजा के साथ रघुवंशमणि भगवान्‌ श्रीराम अपने श्रीअवध धाम को कैसे गये?

**पुनि प्रभु कहहु सो तत्त्व बखानी। जेहिं बिग्यान मगन मुनि ग्यानी॥ भगति ग्यान बिग्यान बिरागा। पुनि सब बरनहु सहित बिभागा॥**
भाष्य

हे प्रभो! जिसके विशिष्टज्ञान में ज्ञानी–मुनि मग्न हैं, उन विशिष्टाद्वैत प्रतिपाद्द परमतत्त्व को आप बखान कर कहिये। फिर भक्ति, ज्ञान, विज्ञान और वैराग्य को विभाग सहित बखान करके समझाइये।

**औरउ राम रहस्य अनेका। कहहु नाथ अति बिमल बिबेका॥ जो प्रभु मैं पूछा नहिं होई। सोउ दयालु राखहु जनि गोई॥**
भाष्य

हे अत्यन्त निर्मल विवेकवाले, मेरे नाथ शिव जी! ऐसे अनेक श्रीराम रहस्यों का वर्णन कीजिये। हे दयालु प्रभो! जो मैंने न पूछा हो वह भी छिपाकर मत रखिये।

**तुम त्रिभुवन गुरु बेद बखाना। आन जीव पामर का जाना॥**
भाष्य

सोलह प्रश्न करके पार्वती जी विनयपूर्वक कहने लगीं, हे भोलेनाथ! आप तीनों लोकों के गुरु हैं, ऐसा वेद कहते हैं, अन्य साधारण पामरजीव आपको क्या जानें ?

**प्रश्न उमा के सहज सुहाये। छल बिहीन सुनि शिव मन भाये॥ हर हिय रामचरित सब आए। प्रेम पुलक लोचन जल छाए॥ श्रीरघुनाथ रूप उर आवा। परमानंद अमित सुख पावा॥**
भाष्य

इस प्रकार पार्वती जी के छल से रहित स्वभावत: सुन्दर सोलह प्रश्न सुनकर शिव जी बहुत प्रसन्न हुए। हर अर्थात्‌ पापहारी शिव जी के हृदय में सभी श्रीरामचरित आ गये। उनका शरीर प्रेम से पुलकित हो उठा। उनके नेत्र में आँसू भर आये। श्रीरघुनाथ जी का रूप उनके हृदय में आ गया। उन्हें परम आनन्द की अनुभूति हुई और शिव जी ने असीम सुख प्राप्त किया।

[[१०१]]

दो०- मगन ध्यानरस दंड जुग, पुनि मन बाहेर कीन्ह।

रघुपति चरित महेश तब, हरषित बरनै लीन्ह॥ १११॥

भाष्य

शिव जी प्रभु श्रीराम के ध्यानरस में दो दण्डपर्यन्त मग्न रहे, फिर मन को बाहर किया तब महान्‌ ईश अर्थात्‌ सबका ईशन्‌ करनेवाले शिव जी प्रसन्न होकर श्रीराम के चरित्रों का वर्णन वाणी में करना स्वीकार किया।

**झूठेउ सत्य जाहि बिनु जाने। जिमि भुजंग बिनु रजु पहिचाने॥ जेहि जाने जग जाइ हेराई। जागे जथा सपन भ्रम जाई॥**
भाष्य

जिस प्रकार रस्सी को पहचाने बिना असत्य सर्प भी सत्य प्रतीत होता है, उसी प्रकार जिन परमात्मा श्रीराम को जाने बिना संसार के असत्य सम्बन्ध भी सत्य लगते हैैं, जिन प्रभु श्रीराम को जान लेने से जगत्‌ उसी प्रकार खो जाता है, जैसे जागने पर स्वप्न का भ्रम चला जाता है।

**विशेष– **यहाँ ‘असत्य’ शब्द का अर्थ परिर्वतनशील है, मिथ्या नहीं। यहाँ ‘हेराई’ शब्द का प्रयोग करके गोस्वामी जी ने जगद्‌गुरु श्रीरामानन्दाचार्यसम्मत विशिष्टाद्वैतवादानुमोदित सत्‌ख्यातिवाद का अनुमोदन किया है।

बंदउ बालरूप सोइ रामू। सब सिधि सुलभ जपत जिसु नामू॥ मंगल भवन अमंगल हारी। द्रवउ सो दशरथ अजिर बिहारी॥

भाष्य

जिनका श्रीरामनाम जपने से सभी सिद्धियाँ सुलभ हो जाती है, बालरूप में विराजमान उन्हीं श्रीराम का मैं वन्दन करता हूँ। जो सभी मंगलों के भवन हैं और सभी अमंगलों को हरने वाले हैं, चक्रवर्ती महाराज दशरथ के आँगन में विहार करनेवाले, वे ही बालकरूप भगवान्‌ श्रीराम द्रवित हो जायें। (अणिमा, गरिमा, महिमा, लघिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व, वशित्व आदि सभी सिद्धियाँ श्रीरामनाम जप से ही साधक को सुलभ हो जाती हैं।)

**करि प्रनाम रामहिं त्रिपुरारी। हरषि सुधा सम गिरा उचारी॥ धन्य धन्य गिरिराजकुमारी। तुम समान नहिं कोउ उपकारी॥ पूँछिहु रघुपति कथा प्रसंगा। सकल लोक जस पावनि गंगा॥ तुम रघुबीर चरन अनुरागी। कीन्हेहु प्रश्न जगत हित लागी॥**
भाष्य

त्रिपुरासुर के शत्रु शिव जी, भगवान्‌ श्रीराम जी को प्रणाम करके प्रसन्न होकर अमृत के समान मधुर वाणी का उच्चारण करते हुए बोले, हे पर्वतराज पुत्री पार्वती! तुम धन्य हो! धन्य हो ! तुम्हारे समान जगत्‌ का कोई उपकारी नहीं है। तुमने समस्त लोकों को ही पवित्र करनेवाली गंगा जी के समान श्रीरामकथा के सोलह प्रसंग पूछे हैं। तुम श्रीराम के चरणों में अनुराग रखती हो। तुमने जगत्‌ के हित के लिए प्रश्न किये हैं।

**दो०- राम कृपा ते पारबति, सपनेहुँ तव मन माहिं।**

शोक मोह संदेह भ्रम, मम बिचार कछु नाहिं॥११२॥

भाष्य

हे पार्वती! मेरे विचार से श्रीराम की कृपा के कारण स्वप्न में भी तुम्हारे मन में शोक, मोह, संदेह और भ्रम आदि कुछ भी नहीं है अर्थात्‌ इष्टदेवता श्रीराम से तुम्हारा वियोग नहीं है। यद्दपि तुम्हें शोक नहीं है, तुम स्वयं ज्ञानमयी हो यद्दपि तुममें मोह नहीं है, तुम स्वयं सर्वज्ञ हो, इसलिए तुम्हें संदेह नहीं है। तुम्हारा ज्ञान प्रभु की कृपा से अज्ञान द्वारा आवृत नहीं होता, इसलिए तुम्हारे मन में भ्रम भी नहीं है।

[[१०२]]

तदपि अशंका किन्हिहु सोई। कहत सुनत सब कर हित होई॥ जिन हरि कथा सुनी नहिं काना। स्रवन रंध्र अहिभवन समाना॥

भाष्य

फिर भी तुमने वही अशंका अर्थात्‌ अकार के वाच्य श्रीराम जी के विषय में शंका की है, जिसके सम्बन्ध में कहने और सुनने से सबका हित होगा। (अकार: रामचन्द्र: तत्‌ सम्बन्धे शंका अशंका।)

**नयनन संत दरस नहिं देखा। लोचन मोरपंख कर लेखा॥ ते सिर कटु तुंबरि समतूला। जे न नमत हरि गुरु पद मूला॥ जिन हरिभगति हृदय नहिं आनी। जीवत शव समान तेइ प्रानी॥ जो नहिं करइ रामगुन गाना। जीह सो दादुर जीह समाना॥ कुलिश कठोर निठुर सो छाती। सुनि हरि चरित न जो हरषाती॥**
भाष्य

जिन कानों ने श्रीहरि भगवान्‌ की कथा नहीं सुनी है, उन कानों के छिद्र साँप के बिल के समान हैं। जिन नेत्रों ने सन्तों के दर्शन नहीं किया, उन नेत्रों को मोरपंख के नेत्र के समान निरर्थक समझना चाहिए। जो भगवान्‌ और गुरुदेव के श्रीचरणों के मूल में नहीं नमित्‌ हुआ, वे सिर तुमरी (क़डवी लौकी) के समान हैं अर्थात्‌ उनका कोई उपयोग नहीं है। जिन्होंने अपने हृदय में श्रीरामभक्ति को लाकर स्थापित नहीं किया, वे प्राणी जीते हुए भी मृतक के समान हैं। जो जिह्वा श्रीराम का गुणगान नहीं करती, वह में़ढक के जीभ के समान है। वह निष्ठुर छाती वज्र से भी कठोर है, जो प्रभु श्रीराम के चरित्र को सुनकर नहीं प्रसन्न होती।

**गिरिजा सुनहु राम कै लीला। सुर हित दनुज बिमोहन शीला॥**
भाष्य

हे पार्वती! अब श्रीराम की वह लीला सुनो, जो सुर अर्थात्‌ देवताओं और दैवी सम्पत्तिवालों के लिए हितैषिणीं है तथा दैत्यों और आसुरी सम्पत्तिवालों को सहज ही विमोहित कर देती है।

**दो०- रामकथा सुरधेनु सम, सेवत सब सुख दानि।**

संतसमाज सुरलोक सब, को न सुनै अस जानि॥११३॥

भाष्य

श्रीराम की कथा कामधेनु के समान ही सेवन करने मात्र से सभी सुखों को प्रदान करनेवाली होती है। सन्तों का समाज सम्पूर्ण देवलोक है, ऐसा जानकर श्रीरामकथा को कौन नहीं सुनेगा?

**रामकथा सुंदर कर तारी। संशय बिहग उड़ावनहारी॥**

रामकथा कलि बिटप कुठारी। सादर सुनु गिरिराजकुमारी॥

भाष्य

श्रीरामकथा अत्यन्त सुन्दर हाथ की ताली है, जो संशयरूप पक्षी को उड़ानेवाली है अर्थात्‌ जैसे ताली बजाने से पक्षी उड़ जाते हैं, उसी प्रकार श्रीरामकथा से संशय समाप्त हो जाता है।

**विशेष– **दोनों हाथों को मिलाने से ताली बजती है, इसी प्रकार लोकमत तथा वेदमत के समन्वय से श्रीराम कथा प्रस्तुत होती है।

राम नाम गुन चरित सुहाए। जनम करम अगनित श्रुति गाए॥ जथा अनंत राम भगवाना। तथा कथा कीरति गुन नाना॥ तदपि जथा श्रुत जसि मति मोरी। कहिहउँ देखि प्रीति अति तोरी॥

भाष्य

भगवान्‌ श्रीराम के नाम, गुण, सुहावने चरित्र, उनके जन्म तथा प्रभु के अलौकिक कर्म अनगिनत हैं, इस प्रकार वेदों ने गाया है। जैसे भगवान्‌ श्रीराम का अन्त नहीं है, वे अनन्त हैं, उसी प्रकार श्रीरामकथा, उनकी कीर्ति

[[१०३]]

और अनेक–अनेक प्रकार के गुण भी अनन्त हैं। हे पार्वती! फिर भी जैसे मैंने हंस के वेश मेें नित्य पर्वत पर जाकर काकभुशुण्डि जी के मुख से श्रीरामकथा सुनी है और जैसी मेरी बुद्धि है, इन दोनों श्रुति और मति के अनुसार श्रीरामकथा पर तुम्हारी प्रीति देखकर मैं श्रीहरिकथा कहूँगा।

उमा प्रश्न तव सहज सुहाये। सुखद संत सम्मत मोहि भाये॥ एक बात नहिं मोहि सोहानी। जदपि मोह बस कहिहु भवानी॥ तुम जो कहा राम कोउ आना। जेहिं श्रुति गाव धरहिं मुनि ध्याना॥

भाष्य

हे पार्वती! आप के सोलहों प्रश्न स्वभाव से सुहावने और सुखदायक हैं। यह सन्तों से सम्मत हैं, इसलिए सभी मुझे भाये अर्थात्‌ अच्छे लगे, परन्तु एक बात मुझे नहीं अच्छी लगी। हे पार्वती! यद्दपि तुमने वह मोह के वश होकर कही। तुमने जो कहा कि, जिन्हें वेद गाते हैं और मुनिजन जिनका ध्यान करते हैं वे श्रीराम दशरथपुत्र श्रीराम से कोई अतिरिक्त तत्त्व है।

**दो०- कहहिं सुनहिं अस अधम नर, ग्रसे जे मोह पिशाच।**

पाखंडी हरि पद बिमुख, जानहिं झूँठ न साँच॥ ११४॥

भाष्य

इस प्रकार, वे ही अधमकोटि के जीव कहते हैं, जो मोहरूप पिशाच के द्वारा खाये गये हैं, जो पाखण्डी हैं, जो भगवान्‌ के चरणों से विमुख हैं, जो झूठ और सत्य का अन्तर नहीं जानते।

**अग्य अकोबिद अंध अभागी। काई बिषय मुकुर मन लागी॥ लंपट कपटी कुटिल बिशेषी। सपनेहुँ संतसभा नहिं देखी॥**
भाष्य

जो अज्ञानी, वेद को न जाननेवाले, ज्ञान–वैराग्य रूप नेत्रों से रहित तथा भाग्यहीन हैं, जिनके मनरूप दर्पण पर विषय की काई लगी हुई है, जो लंपट अर्थात्‌ विषयभोगों में आसक्त हैं, जो कपटी और विशेष कुटिल हैं, जिन्होंने सन्तों की सभा का स्वप्न में भी दर्शन नहीं किया है।

**कहहिं ते बेद असम्मत बानी। जिनहिं न सूझ लाभ नहिं हानी॥ मुकुर मलिन अरु नयन बिहीना। राम रूप देखहिं किमि दीना॥**
भाष्य

जिन्हें लाभ और हानि कुछ भी नहीं समझ पड़ता वे ही इस प्रकार वेदों से असम्मत वाणी बोलते हैं। तात्पर्य यह है कि, वेद के अनुसार दशरथपुत्र श्रीराम ही परब्रह्म श्रीराम हैं। जिनका मनरूप दर्पण मलिन हैं और जो ज्ञान–वैराग्यरूप नेत्र से विहीन हैं, वे भवनरूप धन के दरिद्र साधारण लोग श्रीरामरूप के दर्शन कैसे कर सकते हैं ?

**जिन के अगुन न सगुन बिबेका। जल्पहिं कल्पित बचन अनेका॥ हरिमाया बश जगत भ्रमाहीं। तिनहिं कहत कछु अघटित नाहीं॥**
भाष्य

जिन्हें निर्गुण और सगुण का विवेक नहीं है, वे अपने मन से कल्पित अनेक प्रकार के सिद्धान्त शून्य वचन बोलकर जल्पना करते रहते हैं। वे प्रभु की माया के वश होकर संसार में भटकते रहते हैं। उन्हें कहने में कुछ भी अघटित नहीं है अर्थात्‌ वे सब कुछ कह सकते हैं, उन्हें कौन रोक सकता है?

**बातुल भूत बिबश मतवारे। ते नहिं बोलहिं बचन बिचारे॥ जिन कृत महामोह मद पाना। तिन कर कहा करिय नहिं काना॥**

[[१०४]]

भाष्य

जो सन्निपात से ग्रसित होते हैं, जिन पर भूत–प्रेतों का आवेश रहता है और जो मदिरा पीकर उन्मत्त अर्थात्‌ बावले हो जाते हैं, वे विचारपूर्वक वाणी नहीं बोलते। जिन्होंने महामोहरूप मदिरा का पान कर लिया है, उनके कथन को कान में नहीं लाना चाहिए अर्थात्‌ उनकी बात नहीं सुननी चाहिए, क्योंकि उसका कोई अर्थ नहीं होता।

**सो०- अस निज हृदय बिचारि, तजहु संशय भजु राम पद।**

सुनु गिरिराज कुमारि, भ्रम तम रबि कर बचन मम॥११५॥

भाष्य

हे पार्वती! अपने हृदय में इस प्रकार विचार करके संशय छोड़ दो। प्रभु श्रीराम के श्रीचरणों का भजन करो। भ्रमरूप अंधकार को नष्ट करने के लिए उदयकालीन सूर्य की किरणों के समान मेरे वचन सुनो।

**सगुनहिं अगुनहिं नहिं कछु भेदा। गावहिं मुनि पुरान बुध बेदा॥ अगुन अरूप अलख अज जोई। भगत प्रेम बश सगुन सो होई॥ जो गुन रहित सगुन सोइ कैसे। जल हिम उपल बिलग नहिं जैसे॥**
भाष्य

मुनि, पुराण, विद्वान्‌ तथा चारों वेद यही तथ्य गाकर कहते हैं कि, सगुण और निर्गुण में कुछ भी भेद नहीं है। जो प्रभु परमेश्वर श्रीराम निर्गुण, अरूप, अलक्ष्य, और अज हैं, वे ही भक्त के प्रेम के वश होकर सगुण, रूपवान, सबके लिए दृश्य और जन्मवान हो जाते हैं। जो गुणों से रहित हैं, वे किस प्रकार से सगुण हैं, जैसे जल, बर्फ और ओले अलग नहीं है। वही जलतत्त्व पिघलकर जल बन जाता है और तापमान के शून्य डिग्री पर चले जाने पर घनीभूत होकर छोटे–छोटे टुक़डों में ओला बन जाता है और बर्फ का पहाड़ भी बन जाता है।

**जासु नाम भ्रम तिमिर पतंगा। तेहि किमि कहिय बिमोह प्रसंगा॥ राम सच्चिदानंद दिनेशा। नहिं तहँ मोह निशा लवलेशा॥ हरष बिषाद ग्यान अग्याना। जीव धर्म अहमिति अभिमाना॥**
भाष्य

जिन श्रीरघुनाथ जी का श्रीराम नाम भ्रमरूप अंधकार को नष्ट करने के लिए सूर्य है, उनके लिए विमोह के प्रसंग कैसे कहे जा सकते हैं अर्थात्‌ वे श्रीराम नाम के वाच्य नामी प्रभु कैसे मोह से ग्रस्त हो सकते हैं? सच्चिदानन्दस्वरूप श्रीराम जी शाश्वत सूर्य हैं। वहाँ मोहरूप रात्रि का लव–लेशमात्र भी नहीं है अर्थात्‌ जैसे सूर्य के समक्ष रात्रि का छोटा सा भी अंश टिक नहीं सकता, उसी प्रकार भगवान्‌ श्रीराम के समक्ष मोह का लघुत्तम अंश भी नहीं रह सकता। भगवान्‌ श्रीराम स्वभावत: प्रकाश रूप हैं, फिर वहाँ विज्ञान के प्रभात नहीं रह सकता अर्थात्‌ जहाँ निरन्तर मध्याह्न ही हो, वहाँ कैसा प्रात:काल?

**राम ब्रह्म ब्यापक जग जाना। परमानंद परेश पुराना॥**
भाष्य

हर्ष, दु:ख, ज्ञान, अज्ञान, अहंकार और अभिमान ये जीव के धर्म हैं, ईश्वर के नहीं। सारा संसार जानता है कि, श्रीराम जी सर्वव्यापक, परमानन्दस्वरूप, सबसे परे और परमकारण ब्रह्मा, विष्णु, शिव के भी ईश्वर, पुराणपुरुष, परब्रह्म, परमात्मा हैं।

**दो०- पुरुष प्रसिद्ध प्रकाश निधि, प्रगट परावर नाथ। रघुकुलमनि मम स्वामि सोइ, कहि शिव नायउ माथ॥११६॥**
भाष्य

जो प्रसिद्ध पुरुष अर्थात्‌ क्षर प्रकृति और अक्षर जीवात्मा से भी उत्तम हैं, वे जो प्रकाश के खजाने प्रकट अर्थात्‌ माया के आवरण से दूर हैं, जो परावर अर्थात्‌ ब्रह्मादि से लेकर चींटीपर्यन्त पर अवर जीवों के नाथ हैं, वही रघुकुल के मणि दशरथनन्दन श्रीराम मेरे स्वामी हैं, ऐसा कहकर शिव जी ने मस्तक नवाकर श्रीराम को प्रणाम किया।

[[१०५]]

**निज भ्रम नहिं समुझहिं अग्यानी। प्रभु पर मोह धरहिं ज़ड प्रानी॥ भा०– **अज्ञानीजन अपने भ्रम तो समझते नहीं, वे ज़ड प्राणी प्रभु श्रीराम पर ही मोह का आरोपण करते हैं।

जथा गगन घन पटल निहारी। झाँपेउ भानु कहहिं कुबिचारी॥ चितव जो लोचन अंगुलि लाए। प्रगट जुगल शशि तेहि के भाए॥

भाष्य

जिस प्रकार, आकाश में मेघों के समूह को देखकर कुत्सित विचारवाले लोग कहते हैं कि, बादलों ने सूर्य को ढॅंक लिया है। जो लोग अपने आँखों में उँगली लगाकर देखते हैं, उनकी दृष्टि में चन्द्रमा दो प्रतीत होते हैं, जबकि वह भेद उँगली के कारण होता है न कि, वह चन्द्रमा का स्वाभाविक भेद है।

**उमा राम विषयक अस मोहा। नभ तम धूम धूरि जिमि सोहा॥**
भाष्य

हे पार्वती! श्रीराम जी के विषय में मोह की वही स्थिति है, जैसे आकाश में धूल और धुँये की शोभा होती है अर्थात्‌ जैसे आकाश में रहकर भी धुॅंआ और धूल आकाश के किसी अंश को नही ढँक पाते, उसी प्रकार भगवान्‌ श्रीराम के प्रति आरोपित हुए मोह, उनके ऐश्वर्य को लांछित नहीं कर पाते।

**बिषय करन सुर जीव समेता। सकल एक ते एक सचेता॥ सब कर परम प्रकाशक जोई। राम अनादि अवधपति सोई॥**
भाष्य

पाँचों विषय, दस बाह्यकरण और चार अन्त:करण इन चौदहों के चौदह देवता तथा जीवात्मा, ये सभी एक से चेतनावान्‌ हैं अर्थात्‌ जीवात्मा से चेतना मिली है चौदहों देवताओं को और इन देवताओं से चेतना मिली है चार अन्त:करण और दस इन्द्रियों को और उनसे चेतना प्राप्त होती है चौदहों करणों के चौदहों विषयों को, परन्तु जीवात्मा को भी भगवान्‌ श्रीराम से चेतना मिली है, इसलिए वे सब के परमप्रकाशक हैं। वे ही अनादि श्रीराम अनादि श्रीअयोध्या के अनादि राजा हैं।

**विशेष– **श्रवण, नेत्र, रसना, घ्राण, त्वक्‌, हस्त, चरण, पायु, उपस्थ, वाक्‌ ये दस इन्द्रियाँ हैं, इन्हें बाह्यकरण भी कहते हैं। मन, बुद्धि, अहंकार, चित्त ये चार अन्त:करण हैं। इनमें श्रवण, नेत्र, रसना, घ्राण और त्वक्‌ ये पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ हैं। हस्त, चरण, पायु, उपस्थ और वाक्‌ ये पाँच कर्मेन्द्रियाँ हैं। सांख्य की दृष्टि से मन उभयात्मक है और वेदान्त की दृष्टि से यह अन्त:करण ही है, इन्द्रियाँ नहीं। चौदहों करणों के चौदह विषय भी हैं, जैसे श्रवण इन्द्रियाँ श्रोत का शब्द, नेत्र का रूप, रसना का रस, घ्राण का सुगन्ध, त्वक्‌ का स्पर्श, हस्त का ग्रहण, पाद का गमन, पायु का मलत्याग, उपस्थ का आनन्द और उत्सर्ग, वाणी का वक्तव्य, मन का संकल्प, बुद्धि का व्यवसाय, अहंकार का अभिमान, तथा चित्त का चिन्तन। इनके चौदह देवता भी निम्न प्रकार के हैं–

श्रवण के दिशा, नेत्र के सूर्य, रसना के वरुण, घ्राण के अश्विनीकुमार, त्वक्‌ के वायु, हस्त के इन्द्र, पाद के उपेन्द्र, पायु के मृत्यु, उपस्थ के प्रजापति, वाक्‌ के अग्नि, मन के चन्द्रमा, बुद्धि के ब्रह्मा, अहंकार के शिव, चित्त के महान्‌ अर्थात्‌ विष्णु, इस प्रकार जीवात्मा से लेकर विषयपर्यन्त सभी की चेतना एक-दूसरे के आधीन है, केवल भगवान्‌ श्रीराम की चेतना पराधीन नही स्वत:सिद्ध स्वाधीन है।

जगत प्रकाश्य प्रकाशक रामू। मायाधीश ग्यान गुन धामू॥ जासु सत्यता ते ज़ड माया। भास सत्य इव मोह सहाया॥

[[१०६]]

भाष्य

यह चिदचिदात्मक्‌ जगत्‌ प्रकाश्य है और भगवान्‌ श्रीराम उसके प्रकाशक हैं। वे माया के अधिपति तथा ज्ञान एवं कल्याण गुणगणों के धाम हैं। जिनकी सत्यता से मोह की सहायता करनेवाली यह ज़ड माया भी सत्य की भाँति भासती है।

**दो०- रजत सीपि महँ भास जिमि, जथा भानु कर बारि।**

जदपि मृषा तिहुँ काल सोइ, भ्रम न सकइ कोउ टारि॥११७॥

भाष्य

जिस प्रकार सीप में रजत अर्थात्‌ चाँदी का आभास होता है और जैसे सूर्यनारायण की किरणों में जल का आभास होता है, अथवा जैसे जल में सूर्यनारायण की किरणों का आभास होता है, उसी प्रकार परमात्मा की सत्यता से परमात्मा में ही इस मायिक प्रपंच का भान हो रहा है। यद्दपि वह तीनों कालों में मृषा अर्थात्‌ परिवर्तनशील है, परन्तु इस भ्रम को कोई टाल नहीं सकता अर्थात्‌ इसे तो भगवान्‌ की कृपा ही समाप्त कर पाती है।

**एहि बिधि जग हरि आश्रित रहई। जदपि असत्य देत दुख अहई॥ जौ सपने सिर काटै कोई। बिनु जागे न दूरि दुख होई॥ जासु कृपा अस भ्रम मिटि जाई। गिरिजा सोइ कृपालु रघुराई॥**
भाष्य

इस प्रकार यह जगत्‌ श्रीहरि भगवान्‌ श्रीराम के आश्रित रहता है। यद्दपि यह असत्य अर्थात्‌ परिवर्तनशील है, फिर भी दु:ख देता रहता है। अथवा भगवान्‌ के आश्रित रहनेवाला यह जगत्‌ असत्य अर्थात्‌ क्षणभंगुर दु:ख दे रहा है। यदि स्वप्न में कोई किसी का सिर काट लेता है, तो सिर कटने का दु:ख बिना जागे दूर नहीं हो पाता। हे पार्वती! जिन परमात्मा की कृपा से वह स्वप्नजनित भ्रम मिट जाता है, वह कृपालु भगवान्‌ रघुकुल के राजा दशरथनन्दन श्रीराम ही हैं।

**आदि अंत कोउ जासु न पावा। मति अनुमानि निगम अस गावा॥**
भाष्य

जिन परमात्मा श्रीरामजी का कोई भी आदि और अन्त नहीं पा सकता, अपनी बुद्धि के अनुमान के अनुसार अर्थात्‌ बुद्धि के अनुकूल ज्ञान के अनुसार वेदों ने इस प्रकार गाया है–

**बिनु पद चलइ सुनइ बिनु काना। कर बिनु करम करइ बिधि नाना॥ आनन रहित सकल रस भोगी। बिनु बानी बक्ता बड़ जोगी॥ तन बिनु परस नयन बिनु देखा। ग्रहइ घ्रान बिनु बास अशेषा॥ असि सब भाँति अलौकिक करनी। महिमा जासु जाइ नहिं बरनी॥**
भाष्य

परमात्मा श्रीराम, चरणों की सहायता के बिना भी चल सकते हैं, कर्णेन्द्रियों के प्रयोग के बिना भी सुन लेते हैं, हाथ के हलन–चलन के बिना भी अनेक प्रकार के कार्य कर लेते हैं, मुख की क्रिया से रहित होकर भी सम्पूर्ण रसों का भोग कर लेते हैं, वाणी के प्रयोग के बिना भी बोल लेते हैं, वे बहुत बड़े योगी हैं, तनु अर्थात्‌ त्वगेन्द्रिय (चर्मेन्द्रिय) के बिना भी सब का स्पर्श कर लेते हैं। नेत्र के उन्मिलन के बिना भी सबको देख लेते हैं, नासिका के बिना भी सब प्रकार के वास अर्थात्‌ सुगन्ध को ग्रहण कर लेते हैं, इस प्रकार जिनकी करनी सब प्रकार से अलौकिक है अर्थात्‌ जो इन्द्रियों के अधीन न होकर स्वयं सभी इन्द्रियों का स्वामी है, जिनकी महिमा का वर्णन नहीं किया जा सकता।

**विशेष– **इस प्रकरण से भगवान्‌ के निराकारवाद का आरोप नहीं करना चाहिए, इसका इतना ही तात्पर्य है कि, भगवान्‌ हम लोगों की भाँति इन्द्रियों के पराधीन नहीं हैं प्रत्युत्‌ इन्द्रियाँ भगवान्‌ के आधीन हैं। उनकी एक–एक

[[१०७]]

इन्द्रियों में सभी इन्द्रियों की वृत्तियाँ रहती हैं। वस्तुत: भगवान्‌ की इन्द्रियाँ भगवान्‌ की आवश्यकता की पूर्ति के लिए नहीं प्रत्युत्‌ भक्तों की भावना पूर्तिके लिए होती हैं।

दो०- जेहि इमि गावहिं बेद बुध, जाहि धरहिं मुनि ध्यान।

सोइ दशरथ सुत भगत हित, कोसलपति भगवान॥११८॥

भाष्य

वेद और विद्वान्‌, जिन प्रभु श्रीराम को इस प्रकार गाते हैं और जिनका मुनि लोग ध्यान करते हैं, वे ही अयोध्यापति, महाराज दशरथ जी के पुत्र श्रीराम भक्तों के हितकारी भक्तवत्सल भगवान्‌ हैं।

**काशी मरत जंतु अवलोकी। जासु नाम बल करउँ बिशोकी॥ सोइ प्रभु मोर चराचर स्वामी। रघुबर सब उर अंतरजामी॥**
भाष्य

हे पार्वती! काशी में मरते हुए जीवों को देखकर, जिनके नाम के बल से मैं उन्हें शोकरहित कर देता हूँ, वे ही चर, अचर के स्वामी सब के हृदय के अन्तर्यामी रघुकुल के श्रेष्ठ दशरथनन्दन श्रीराम मेरे प्रभु हैं।

**बिबशहुँ जासु नाम नर कहहीं। जनम अनेक रचित अघ दहहीं॥ सादर सुमिरन जे नर करहीं। भव बारिधि गोपद इव तरहीं॥**
भाष्य

विवशता में भी जिन प्रभु श्रीराम का नाम जो रटते हैं अर्थात्‌ उच्चारण कर लेते हैं, वे अनेक जन्मों के अपने ही द्वारा किये हुए पाप को जला डालते हैं। जो लोग आदरपूर्वक स्मरण करते हैं वे लोग इस भवसागर को गौ के खुर के समान छोटा बनाकर उसे बिना प्रयास पार कर लेते हैं।

**राम सो परमातमा भवानी। तहँ भ्रम अति अबिहित तव बानी॥ अस संशय आनत उर माहीं। ग्यान बिराग सकल गुन जाहीं॥**
भाष्य

हे भवानी ! वही श्रीराम परमात्मा हैं, उनके प्रति इस प्रकार का भ्रम और उस भ्रम से युक्त यह वाणी अत्यन्त अविहित अर्थात्‌ श्रुतियों और स्मृतियों में विहित नहीं, प्रत्युत्‌ निषिद्ध है। हे पार्वती! प्रभु श्रीराम के प्रति इस प्रकार का संशय मन में लाते ही ज्ञान, वैराग्य आदि सभी श्रेष्ठगुण चले जाते हैं।

**सुनि शिव के भ्रम भंजन बचना। मिटि गइ सब कुतरक कै रचना॥**

भइ रघुपति पद प्रीति प्रतीती। दारुन असंभावना बीती॥

भाष्य

इस प्रकार भ्रम को नष्ट करनेवाले शिव जी के वचनों को सुनकर पार्वती जी के मन से सभी कुतर्कों की सृय्ि मिट गयी। उन्हें श्रीराम के प्रति प्रीति और विश्वास हो गया। उनकी भयंकर असंभावना अर्थात्‌ प्रभु श्रीराम के प्रति विपरीत भावना समाप्त हो गयी।

**दो०- पुनि पुनि प्रभु पद कमल गहि, जोरि पंकरुह पानि।**

**बोलीं गिरिजा बचन बर, मनहुँ प्रेम रस सानि॥ ११९॥ भा०– **बारम्बार भगवान्‌ शिव के श्रीचरणकमलों को पक़डकर कमल के समान दोनों हाथों को जोड़कर मानो प्रेमरस से मिश्रित करके पार्वती जी श्रेष्ठवचन बोलीं–

शशि कर सम सुनि गिरा तुम्हारी। मिटा मोह शरदातप भारी॥ तुम कृपालु सब संशय हरेऊ। राम स्वरूप जानि मोहि परेऊ॥

भाष्य

हे शशांकमौले! चन्द्रमा की किरणों के समान आपकी वाणी सुनकर मेरा विशाल मोहरूप शरद्‌कालीन आतप मिट गया अर्थात्‌ समाप्त हो गया है। जैसे शरद्‌कालीन पूर्णिमा के चन्द्र की किरणों से शरद्‌ऋतु के सूर्य

[[१०८]]

की गर्मी समाप्त हो जाती है, उसी प्रकार आप की वाणी से मेरा मोह समाप्त हो गया। हे कृपालु! आप ने मेरे सम्पूर्ण संशय हरण कर लिए। अब मुझे श्रीराम जी का परात्परस्वरूप ज्ञात हो गया है अर्थात्‌ मैं यह समझ चुकी हूँ कि, दशरथनन्दन श्रीराम ही परात्पर परब्रह्म भगवान्‌ श्रीराम हैं।

नाथ कृपा अब गयउ बिषादा। सुखी भइउँ प्रभु चरन प्रसादा॥ अब मोहि आपनि किंकरि जानी। जदपि सहज ज़ड नारि अयानी॥ प्रथम जो मैं पूछा सोइ कहहू। जौ मो पर प्रसन्न प्रभु अहहू॥

भाष्य

हे नाथ! आपकी कृपा से मेरा दु:ख समाप्त हो गया है। मैं आपके चरणों के प्रसाद से अब सुखी हो गई हूँ। यद्दपि मैं स्वभाव से ज़ड अज्ञानग्रस्त महिला हूँ, फिर भी मुझे अपनी सेविका जानकर यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं, तो हे प्रभो! मैंने जो प्रथम प्रश्न किये थे, उन्हीं के उत्तर दीजिये। मेरे सोलह प्रश्नों में से उत्तरार्द्ध के चार प्रश्नों का समाधान हो गया है। पूर्व के बारह प्रश्न अभी अवशेष हैं, उनमें से सर्वप्रथम अवतारवाद के प्रश्न का आप कृपया समाधान करें।

**राम ब्रह्म चिन्मय अबिनासी। सर्ब रहित सब उर पुर बासी॥ नाथ धरेउ नरतनु केहि हेतू। मोहि समुझाइ कहहू बृषकेतू॥**
भाष्य

हे वृषकेतु अर्थात्‌ वृषभध्वज भगवान्‌ शिव! जो श्रीराम वेदान्तवेद्द परब्रह्म हैं, जो चिन्‌मय अर्थात्‌ ज्ञानस्वरूप हैं, जो सम्पूर्ण प्रपंच से रहित और सभी के हृदयरूप भवन में निवास करनेवाले हैं, उन श्रीराम ने किस कारण मनुष्य रूप धारण किया ? हे नाथ! इस प्रश्न का उत्तर मुझे समझाकर कहिये।

**उमा बचन सुनि परम बिनीता। रामकथा पर प्रीति पुनीता॥**

दो०- हिय हरषे कामारि तब, शङ्कर सहज सुजान।

बहु बिधि उमहिं प्रशंसि पुनि, बोले कृपानिधान॥१२०॥

भाष्य

पार्वती जी के परमविनीत अर्थात्‌ विनम्रतापूर्ण वचनों को सुनकर तथा उनके मुख से श्रीरामकथा पर पवित्र प्रीति को सुनकर, कामदेव के शत्रु, स्वभावत: ज्ञान से सम्पन्न भगवान्‌ शङ्कर तब हृदय में अत्यन्त प्रसन्न हुए। इसके पश्चात्‌ बहुत प्रकार से पार्वती जी की प्रशंसा करके कृपा के निधान अर्थात्‌ कोषस्वरूप शिव जी बोले–

**\* नवाहपारायण पहला बिश्राम \***

सो०- सुनु शुभ कथा भवानि, रामचरितमानस बिमल।

कहा भुशुंडि बखानि, सुना बिहग नायक गरुड़॥१२०(क)॥

भाष्य

हे भवानी पार्वती जी! अब भगवान्‌ श्रीराम की कल्याणकारिणी कथा सुनो। यह निर्मल श्रीरामचरितमानस यद्दपि रचा मैंने, परन्तु व्याख्यान करके चौरासी प्रसंगों में काकभुशुण्डि जी ने इसे कहा और पक्षियों के राजा गरुड़ ने इसे सुना।

**सो संबाद उदार, जेहि बिधि भा आगे कहब।**

सुनहु राम अवतार, चरित परमसुंदर अनघ॥१२०(ख)॥

भाष्य

वह श्रेष्ठ संवाद जिस प्रकार से सम्पन्न हुआ, वह मैं आगे अर्थात्‌ सप्तम सोपान उत्तरकाण्ड में कहूँगा, अभी तो पूजनीय, सुन्दर तथा निष्पाप प्रभु श्रीराम के अवतार का चरित्र सुनो।

[[१०९]]

हरि गुन नाम अपार, कथा रूप अगनित अमित।

मैं निज मति अनुसार, कहउँ उमा सादर सुनहु॥१२०(ग)॥

भाष्य

हे पार्वती! भगवान्‌ श्रीराम के गुण और नामों का कोई पार नहीं है। उनकी कथायें अनगिनत हैं और उनके रूप, देश, काल तथा वस्तुओं की सीमा से परे हैं। मैं (शिव) अपनी बुद्धि के अनुसार, प्रभु श्रीराम की नाम, रूप, लीला–धामात्मक कथा कह रहा हूँ, इसे आप आदरपूर्वक सुनिये।

**सुनु गिरिजा हरिचरित सुहाए। बिपुल बिशद निगमागम गाए॥ हरि अवतार हेतु जेहिं होई। इदमित्थं कहि जाइ न सोई॥**
भाष्य

हे पर्वतराजपुत्री पार्वती! सुनिये, प्रभु के सुहावने चरित्र बड़े ही निर्मल और अनेक हैं। ये निगमों अर्थात्‌ चारों वेद तथा आगमों अर्थात्‌ वेदों से अतिरिक्त सभी पौरुषेय आर्षग्रन्थों ने गाये हैं। श्रीराम का अवतार जिस कारण से हुआ है वह यही है, वह इसी प्रकार से है, ऐसा उसे किसी के द्वारा कहा नहीं जा सकता।

**राम अतर्क्य बुद्धि मन बानी। मत हमार अस सुनहु सयानी॥ तदपि संत मुनि बेद पुराना। जस कछु कहहिं स्वमति अनुमाना॥ तस मैं सुमुखि सुनावउँ तोही। समुझि परइ जस कारन मोही॥**
भाष्य

हे चतुर पार्वती! सुनिये, मेरा तो ऐसा मत है कि श्रीराम जी बुद्धि, मन और वाणी से अतर्क्य हैं अर्थात्‌ उन्हें तर्क से नहीं जाना जा सकता है, फिर भी हे सुमुखी (श्रीरामविषयक प्रश्न करने के कारण सुन्दर मुखवाली)! सन्त, मुनि, चारों वेद, अठारहों पुराण और अठारहों उपपुराण अपने बुद्धि के अनुमान के अनुसार जैसा कुछ कहते हैं और मुझे जैसा कारण समझ पड़ रहा है, वैसा मैं तुम्हें सुना रहा हूँ।

**जब जब होइ धरम कै हानी। बा़ढहिं असुर अधम अभिमानी॥ करहिं अनीति जाइ नहिं बरनी। सीदहिंं बिप्र धेनु सुर धरनी॥ तब तब प्रभु धरि बिबिध शरीरा। हरहिं कृपानिधि सज्जन पीरा॥**

दो०- असुर मारि थापहिं सुरन, राखहिं निज श्रुतिसेतु।

जग बिस्तारहिं बिशद जस, रामजन्म कर हेतु॥१२१॥

भाष्य

जब–जब वैदिक अर्थात सनातनधर्म की हानि होने लगती है और नीच अभिमानी असुर अर्थात्‌ देवविरोधी आसुरीप्रकृति के प्राणी ब़ढने लगते हैं, ऐसी अनीति करते हैं जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता तथा जब ब्राह्मण, गौ, देवता और पृथ्वी ये सभी दु:खी होते हैं, तब–तब कृपा के सागर प्रभु भगवान्‌ श्रीराम अनेक प्रकार के शरीर धारण करके सज्जनों की पीड़ा को दूर करते हैं। असुरों को मारकर प्रभु श्रीराम, देवताओं को उनके स्थान पर स्थापित करते हैं और अपने वेद के सेतु की रक्षा करते हैं तथा संसार में निर्मल यश का विस्तार करते हैं, यही है श्रीरामजन्म का सामान्य हेतु।

**सोइ जस गाइ भगत भव तरहीं। कृपासिंधु जन हित तनु धरहीं॥**
भाष्य

उसी यश को गाकर भक्त भवसागर से पार हो जाते हैं। कृपा के समुद्र प्रभु श्रीराम अपने भक्तों के लिए

ही अवतार लेते हैं।

राम जनम के हेतु अनेका। परम बिचित्र एक ते एका॥ जनम एक दुइ कहउँ बखानी। सावधान सुनु सुमति भवानी॥

[[११०]]

भाष्य

श्रीरामचन्द्र जी के जन्म के अनेक हेतु अर्थात्‌ कारण हैं, जो एक से ब़ढकर एक तथा अत्यन्त बिचित्र हैं। हे सुन्दर बुद्धिवाली भवानी, मुझ शङ्कर की नित्यपत्नी पार्वती! मैं एक–दो जन्मों को अथवा, एक–दो अर्थात्‌ तीन जन्मों का बखान कर कह रहा हूँं, तुम सावधान होकर सुनो।

**द्वारपाल हरि के प्रिय दोऊ। जय अरु बिजय जान सब कोऊ॥ बिप्र स्राप ते दूनउ भाई। तामस असुर देह तिन पाई॥**
भाष्य

सभी लोग जानते हैं, बैकुण्ठविहारी भगवान्‌ विष्णु के जय और विजय नामक दो द्वारपाल बहुत प्रिय हैं। इन दोनों भ्राताओं ने ब्राह्मण अर्थात्‌ सनकादिकों के श्राप से तमोगुणी असुर अर्थात्‌ दैत्य का शरीर प्राप्त कर लिया।

**कनककशिपु अरु हाटक लोचन। जगत बिदित सुरपति मद मोचन॥ बिजयी समर बीर बिख्याता। धरि बराह बपु एक निपाता॥ होइ नरहरि दूसर पुनि मारा। जन प्रहलाद सुजस बिस्तारा॥**
भाष्य

ये जगत्‌ में विदित तथा युद्ध में इन्द्र के भी मद को नष्ट करनेवाले हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्ष नाम से प्रसिद्ध हुए। दोनों भ्राता विजयी और युद्ध में प्रसिद्ध वीर थे। भगवान्‌ नारायण ने वराह अर्थात्‌ सूकरावतार धारण करके एक अर्थात्‌ छोटे भाई हिरण्याक्ष को मार डाला, फिर नरसिंह अवतार धारण करके भगवान्‌ ने दूसरे अर्थात्‌ बड़े भाई हिरण्यकशिपु का वध किया और अपने भक्त प्रह्लाद के यश का विस्तार कर दिया।

**दो०- भये निशाचर जाइ तेइ, महाबीर बलवान।**

कुंभकरन रावन सुभट, सुर बिजयी जग जान॥१२२॥

भाष्य

यह बात जगत्‌ जानता है कि, वे ही हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु पुलस्त्य–वंश में जाकर विश्रवा और कैकसी के गर्भ से दो घोर राक्षस के रूप में उत्पन्न हुए। उसमें हिरण्याक्ष कुंभकर्ण नाम से और हिरण्यकशिपु रावण नाम से प्रसिद्ध हुआ। वे श्रेष्ठ भट्‌ थे, दोनों ही (कुंभकर्ण, रावण) देवविजेता थे। केवल महावीर हनुमान जी ही उनकी अपेक्षा अधिक बलशाली थे, अन्यथा जीववर्ग में कोई भी रावण, कुंभकर्ण से अधिक बलशाली न था।

**मुक्त न भए हते भगवाना। तीनि जनम द्विज बचन प्रमाना॥ एक बार तिन के हित लागी। धरेउ शरीर भगत अनुरागी॥ कश्यप अदिति तहाँ पितु माता। दशरथ कौसल्या बिख्याता॥ एक कलप एहि बिधि अवतारा। चरित पबित्र किए संसारा॥**
भाष्य

भगवान्‌ के द्वारा वध करने पर भी वे दोनों भाई मुक्त नहीं हुए, क्योंकि सनकादि के द्वारा दिये हुए शाप की प्रामाणिकता के अनुसार इन्हें तीन जन्मपर्यन्त आसुरी शरीर प्राप्त करना था, इसलिए जय–विजय प्रथम जन्म में हिरण्यकशिपु तथा हिरण्याक्ष नाम से दैत्यकुल में उत्पन्न हुए। द्वितीय जन्म में रावण–कुंभकर्ण नाम से राक्षसकुल में उत्पन्न हुए और तृतीय जन्म में शिशुपाल और दन्तवक्त्र नाम प्राप्त कर भगवत्‌ विरोधी राजकुल में जन्म लिए। एकबार भक्तों के अनुरागी प्रभु श्रीराम इन्हीं जय–विजय के हित के लिए मानव शरीर धारण किये थे। उस अवतार में कश्यप और अदिति ही प्रभु श्रीराम के प्रसिद्ध पिता–माता दशरथ–कौसल्या हुए थे अर्थात्‌ प्रजापति कश्यप दशरथ बने थे और अदिति जी ने कौसल्या अवतार लिया था। इस प्रकार एक कल्प में जय– विजय उद्धार के लिए ही श्रीरामावतार हुआ था और भगवान्‌ ने संसार में पवित्र चरित्र किये थे।

[[१११]]

एक कलप सुर देखि दुखारे। समर जलंधर सन सब हारे॥ शंभु कीन्ह संग्राम अपारा। दनुज महाबल मरइ न मारा॥ परम सती असुराधिप नारी। तेहि बल ताहि न जितहिं पुरारी॥

भाष्य

एक कल्प में युद्ध में जालन्धर के सामने पराजित हुए देवताओं को दु:खी देखकर, शिव जी ने जालन्धर से अपार संग्राम किया था, परन्तु महाबलशाली दैत्य जालन्धर शिव जी के मारने से भी नहीं मर रहा था, क्योंकि असुरराज जालन्धर की पत्नी वृन्दा परम सती थी। उसी के बल से जालन्धर को त्रिपुरासुर के शत्रु शिव जी भी नहीं जीत पा रहे थे।

**दो०- छल करि टारेउ तासु ब्रत, प्रभु सुर कारज कीन्ह।**

जब तेहिं जानेउ मरम तब, स्राप कोप करि दीन्ह॥१२३॥

तासु स्राप हरि कीन्ह प्रमाना। कौतुकनिधि कृपालु भगवाना॥ तहाँ जलंधर रावन भयऊ। रन हति राम परम पद दयऊ॥

भाष्य

सर्वसमर्थ प्रभु ने छल करके वृन्दा के व्रत को टाला अर्थात्‌ नय् नहीं किया, किन्तु स्थानान्तरित कर दिया। अब तक जो वृन्दा जालन्धर जैसे अत्याचारी, बहुगामी, अधर्मी, क्रूर जीव में पतिबुद्धि से उसके लिए व्रत करती रही अब उस वृन्दा की पतिबुद्धि प्राणिमात्र के प्राणपति भगवान्‌ में हो गई। जब वृन्दा ने यह मर्म जान लिया, तब उसने क्रोध करके भगवान्‌ को शाप दे दिया। कौतुकों के सागर, परम कृपालु, ऐश्वर्यादि माहात्म्यों से युक्त, भगवान्‌ ने वृन्दा के शाप को प्रमाणित किया। वहाँ जालन्धर रावण बना और भगवान्‌ श्रीराम ने उसे मार कर परमपद दे दिया।

**एक जनम कर कारन एहा। जेहि लगि राम धरी नरदेहा॥ प्रति अवतार कथा प्रभु केरी। सुनु मुनि बरनी कबिन घनेरी॥**
भाष्य

एक जन्म का यही कारण है, जिसके लिए भगवान्‌ श्रीराम ने मनुष्यरूप धारण किया। याज्ञवल्क्य जी ने भरद्वाज जी को सावधान करते हुए कहा कि हे मननशील मुनि! सुनिये, प्रत्येक अवतार में सम्पन्न हुई प्रभु श्रीराम की अनेक कथाओं का कवियों ने अनेक रामायणों, चम्पुओं, नाटकों, गद्दकाव्यों और महाकाव्यों द्वारा वर्णन किया है।

**नारद स्राप दीन्ह एक बारा। कलप एक तेहि लगि अवतारा॥ गिरिजा चकित भईं सुनि बानी। नारद बिष्णु भगत पुनि ग्यानी॥ कारन कवन स्राप मुनि दीन्हा। का अपराध रमापति कीन्हा॥ यह प्रसंग मोहि कहहु पुरारी। मुनि मन मोह आचरज भारी॥**
भाष्य

एक बार प्रभु श्रीराम के प्रमुख अंशावतार भगवान्‌ विष्णु जी को देवर्षि नारद जी ने शाप दिया था, उसी कारण एक कल्प में श्रीरामावतार हुआ था। यह वाणी सुनकर पर्वतराजपुत्री पार्वती जी चकित हो गईं और बोलीं, नारद जी भगवान्‌ विष्णु के भक्त हैं, उसमें भी ज्ञानीभक्त हैं। वह कौन–सा कारण था, जिससे देवर्षि नारद जी ने भगवान्‌ को शाप दे दिया। लक्ष्मी जी के पति भगवान्‌ विष्णु ने कौन–सा अपराध कर दिया था? हे त्रिपुरासुर के शत्रु शिव जी! मुझे यह प्रसंग सुनाइये क्योंकि यह बहुत बड़ा आश्चर्य मुनियों के मन को भी मोहित कर देता है।

[[११२]]

दो०- बोले बिहँसि महेश तब, ग्यानी मू़ढ न कोइ।

**जेहिं जस रघुपति करहिं जब, सो तस तेहिं छन होइ॥१२४(क)॥ भा०– **तब हँसकर महान्‌ ईश्वर शिवजी ने कहा, भगवान्‌ की लीलाक्रम में स्वतंत्ररूप से कोई भी ज्ञानी या मूर्ख नहीं होता। भगवान्‌ श्रीराम जब जिसके साथ जैसा करते हैं उसी क्षण वह उसी प्रकार का हो जाता है।

सो०- कहउँ राम गुन गाथ, भरद्वाज सादर सुनहु।

भव भंजन रघुनाथ, भजु तुलसी तजि मान मद॥१२४(ख)॥

भाष्य

हे भरद्वाज जी! अब मैं श्रीराम के गुणों की गाथायें कह रहा हूँ, आदरपूर्वक सुनिये। रघुनाथ जी भवबन्धनों को नष्ट करनेवाले हैं। तुलसीदास के मत के अनुसार मान और मद छोड़ ‘तु’ अर्थात्‌ तुरीय तत्त्व श्रीराम ‘ल’ अर्थात्‌ लक्ष्मण जी ‘सी’ अर्थात्‌ सीता जी का भजन करिये।

**विशेष– **यहाँ तुलसी शब्द में श्लेष है, प्रथम अर्थ के अनुसार तुलसी महाकवि तुलसीदास का वाचक है और द्वितीय अर्थ के अनुसार नामग्रहण में नाम के एक देश की वाचकता के सिद्धान्त से तुलसी शब्द क्रमश: ‘तु’ अर्थात्‌ तुरीयतत्त्व श्रीराम ‘ल’ अर्थात्‌ लक्ष्मण और ‘सी’ अक्षर से श्रीसीता का वाचक होगा।

हिमगिरि गुहा एक अति पावनि। बह समीप सुरसरी सुहावनि॥ आश्रम परम पुनीत सुहावा। देखि देवऋषि मन अति भावा॥

भाष्य

हिमाचल पर्वत में एक अत्यन्त पवित्र गुफा है, जिसके समीप अतिपवित्र सुहावनी गंगा जी अलकनन्दा नाम से बहती हैं। वहाँ एक सुहावना परमपवित्र आश्रम भी है, वह देवर्षि नारद के मन में देखते ही बहुत भा गया।

**निरखि शैल सरि बिपिन बिभागा। भयउ रमापति पद अनुरागा॥ सुमिरत हरिहिं स्राप गति बाँधी। सहज बिमल मन लागि समाधी॥**
भाष्य

पर्वत तथा वहाँ बहनेवाली अलकनन्दा गंगा जी एवं बदरी वन के विचित्र विभाग को देखकर नारद जी के मन में लक्ष्मीपति भगवान्‌ के चरणों के प्रति अनुराग अर्थात्‌ अनुपम प्रेम उमड़ गया। नारद जी ने भगवान्‌ का स्मरण करते–करते दक्ष जी के शाप की गति को बाँध दिया अर्थात्‌ दो दण्ड की स्थिरता का प्रतिबन्ध समाप्त हो गया। नारद जी स्थिर हो गये, उनके स्वभावत: निर्मल मन में समाधि लग गई और वे असम्प्रज्ञात समाधि की अवस्था में स्थिर बैठ गये।

**मुनि गति देखि सुरेश डेराना। कामहिं बोलि कीन्ह सनमाना॥ सहित सहाय जाहु मम हेतू। चलेउ हरषि हिय जलचरकेतू॥**
भाष्य

नारद मुनि की यह अलौकिक समाधि अवस्था तथा उनकी अतार्किक उपलब्धि देखकर, देवताओं के राजा इन्द्र डर गये। कामदेव को बुलाकर उनका सम्मान किया और कहा, हे कामदेव! तुम मेरे लिए सहायकों के साथ देवर्षि नारद के पास जाओ। जलचर अर्थात्‌ मछली को ही पताका के चिह्न–रूप में धारण करनेवाले कामदेव हृदय में प्रसन्न होकर चल पड़े।

**शुनासीर मन महँ अति त्रासा। चहत देवऋषि मम पुर बासा॥ जे कामी लोलुप जग माहीं। कुटिल काक इव सबहिं डेराहीं॥**

[[११३]]

भाष्य

शुनासीर अर्थात्‌ जिनके आगे चलने वाले देवता सुन्दर हैं तथा शुन पद के वाच्य सूर्य और सीर अर्थात्‌ वायु जिनके सहायक हैं, ऐसे शुनासीर इन्द्र देवता के मन में अत्यन्त भय हुआ। इन्द्र ने विचार किया कि, देवर्षि नारद मेरे पुर अर्थात्‌ अमरावती में निवास करना चाहते हैं और इस समाधि के द्वारा मेरे इन्द्र पद को भी जीतना चाहते हैं। तुलसीदास जी, सन्तों को सावधान करते हुए कहते हैं और याज्ञवल्क्य जी, भरद्वाज जी को सम्बोधित करते हुए कहते हैं कि, इस संसार में जो कामी और विषयों के लोलुप होते हैं, वे कुटिल प्रवृत्तिवाले कौवे की भाँति सब से डरते रहते हैं।

**दो०- सूख हाड़ लै भाग शठ, श्वान निरखि मृगराज।**

**छीनि लेइ जनि जान ज़ड, तिमि सुरपतिहिं न लाज॥१२५॥ भा०– **जिस प्रकार, सिंह को देखकर दुष्ट कुत्ता सूखी हड्डी लेकर भाग चला हो और वह ज़डबुद्धि सोच रहा हो कि, कहीं यह सिंह मेरी सूखी हड्डी को छीन न ले, उसी प्रकार इन्द्र को कोई लज्जा नहीं है। भला क्या गजेन्द्र के गण्डस्थल को विदीर्ण करके उससे निकलते हुए ताजे रक्त को पीने वाला सिंह, कुत्ते की सूखी हड्डी पर आसक्त

हो सकेगा? भला क्या अपनी तपस्या से योग–सिद्धियों के प्राप्तकर्त्ता नारद जी अनेक दुर्गुणों से भरे इन्द्र पद पर आसक्त हो सकेंगे?

तेहि आश्रमहिं मदन जब गयऊ। निज माया बसंत निरमयऊ॥ कुसुमित बिबिध बिटप बहुरंगा। कूजहिं कोकिल गुंजहिं भृंगा॥

भाष्य

जब कामदेव नारद जी के पास उस आश्रम में गये, तब उन्होंने अपनी माया से वसन्त का निर्माण कर दिया। वहाँ बहुरंगे अनेक प्रकार के वृक्ष पुष्पों से युक्त हो गये, कोकिलायें बोलने लगीं और भौंरे गुंजार करने लगे।

**चली सुहावनी त्रिबिध बयारी। काम कृशानु ब़ढावनिहारी॥ रंभादिक सुरनारि नबीना। सकल असमशर कला प्रबीना॥ करहिं गान बहु तान तरंगा। बहुबिधि क्रीड़हिं पानि पतंगा॥**
भाष्य

कामरूप अग्नि को ब़ढानेवाली सुहावनी शीतल, मन्द, सुगन्ध बयार चलने लगी। असमशर अर्थात्‌ विषम संख्या के पाँच बाणों को धारण करनेवाले कामदेव की सभी कलाओं में प्रवीण नयी नवेली अर्थात्‌ सोलह वर्ष की अवस्थावाली रम्भा आदि देव–वधुयें नाना प्रकार के तालों के तरंगों से युक्त दिव्यगान करने लगीं और पानी–पतंग अर्थात्‌ जल के पक्षीस्वरूप गेंदों से बहुत प्रकार से खेलने लगीं।

**देखि सहाय मदन हरषाना। कीन्हेसि पुनि प्रपंच बिधि नाना॥ काम कला कछु मुनिहिं न ब्यापी। निज भय डरेउ मनोभव पापी॥ सीम कि चाँपि सकइ कोउ तासू। बड़ रखवार रमापति जासू॥**
भाष्य

अपने सहायकों को देखकर काम बहुत प्रसन्न हुआ, फिर उसने नाना प्रकार के प्रपंच किये। काम की कोई भी कला महर्षि को कुछ भी नहीं व्यापी अर्थात्‌ रंचमात्र भी नहीं प्रभावित कर सकी। पापी कामदेव अपने ही किये हुए अपराध से उत्पन्न भय से भयभीत हो गया। भला बताओ, रमा के पति सर्वसमर्थ भगवान्‌ ही जिसके बहुत बड़े रक्षक हों, उसकी सीमा को भी कोई दबा सकता है।

**दो०- सहित सहाय सभीत अति, मानि हारि मन मैन।**

गहेसि जाइ मुनि चरन तब, कहि सुठि आरत बैन॥१२६॥

[[११४]]

भाष्य

तब डरे हुये काम ने मन में हार मानकर, सहायकों के सहित अत्यन्त आर्त वचन कहकर, देवर्षि नारद जी के चरण पक़ड लिए।

**भयउ न नारद मन कछु रोषा। कहि प्रिय बचन काम परितोषा॥ नाइ चरन सिर आयसु पाई। गयउ मदन तब सहित सहाई॥**
भाष्य

नारद जी के मन में कुछ भी क्रोध नहीं हुआ, उन्होंने प्रियवचन कहकर कामदेव को आश्वासन दिया। तब देवर्षि के चरणों में सिर नवाकर उनसे आज्ञा पाकर कामदेव अपने सहायकों के सहित देवलोक चला गया।

**मुनि सुशीलता आपनि करनी। सुरपति सभा जाइ सब बरनी॥ सुनि सब के मन अचरज आवा। मुनिहिं प्रशंसि हरिहिं सिर नावा॥**
भाष्य

इन्द्र की सभा में जाकर कामदेव ने मुनि की सुशीलता और अपने सभी कर्त्तवों का वर्णन किया। यह सुनकर सबके मन में बहुत आश्चर्य हुआ और इन्द्र के सहित सभी सभासदों ने देवर्षि नारद जी की प्रशंसा करके श्रीहरि को प्रणाम किया।

**तब नारद गवने शिव पाहीं। जिता काम अहमिति मन माहीं॥ मार चरित शङ्करहिं सुनाए। अति प्रिय जानि महेश सिखाए॥**
भाष्य

तब नारद जी शिव जी के पास प्रस्थान किये। उन्होंने काम को जीता था, उनके मन में अहंकार था। देवर्षि नारद जी ने शिव जी को काम का चरित्र सुनाया। नारद जी को अपना अत्यन्त प्रिय जानकर महेश्वर शिव जी ने उन्हें शिक्षा दी।

**बार बार बिनवउँ मुनि तोही। जिमि यह कथा सुनायहु मोही॥ तिमि जनि हरिहिं सुनावहु कबहूँ। चलेहुँ प्रसंग दुराएहु तबहुँ॥**
भाष्य

हे देवर्षि! तुमसे बारम्बार विनती करता हूँ, जिस प्रकार तुमने मुझे यह कथा सुनायी, इस प्रकार कभी भी भगवान्‌ नारायण को मत सुनाना। प्रसंग के चलने पर भी उसी समय उसको छिपा लेना।

**दो०- शंभु दीन्ह उपदेश हित, नहिं नारदहिं सोहान।**

भरद्वाज कौतुक सुनहु, हरि इच्छा बलवान॥१२७॥

भाष्य

शिव जी ने हितोपदेश दिया, पर वह नारद जी को नहीं भाया। हे भरद्वाज जी! यह कौतुक सुनिये, श्रीहरि की इच्छा ही सबसे बलवती होती है।

**राम कीन्ह चाहहिं सोइ होई। करै अन्यथा अस नहिं कोई॥ शंभु बचन मुनि मन नहिं भाए। तब बिरंचि के लोक सिधाए॥**
भाष्य

हे भरद्वाज जी! प्रभु श्रीराम जो करना चाहते हैं, वही हो जाता है। दूसरे प्रकार से प्रभु श्रीराम के समान ऐसा कोई भी नहीं करा सकता। अथवा, भगवान्‌ श्रीराम जो करना चाहते हैं वही होता है, ऐसा कोई भी नहीं है, जो श्रीराम के इच्छा के विरुद्ध कर सके। भगवान्‌ शङ्कर के वचन नारद जी को नहीं अच्छे लगे। तब वे ब्रह्मा जी के लोक में चले गये।

**एक बार करतल बर बीना। गावत हरि गुन गान प्रबीना॥ छीरसिंधु गवने मुनिनाथा। जहँ बस श्रीनिवास श्रुतिमाथा॥**

[[११५]]

भाष्य

एक बार अपने हाथ में श्रेष्ठ वीणा लेकर भगवान्‌ के गुणगान में कुशल मुनियों के स्वामी नारद जी क्षीरसागर को प्रस्थान किये। जहाँ श्रुतियों के मस्तकस्वरूप अर्थात्‌ महातात्पर्यरूप अथवा सभी श्रुतियाँ जिनके मस्तक पर आदरणीय रूप में विराजती हैं और जो स्वयं भी श्रुतियों के पति होने के कारण उनके मस्तक पर विराजते हैं, ऐसे श्री जी के जो निवासस्थान हैं अर्थात्‌ श्रीवत्सलाञ्छन रूप में श्री जी जिनके वक्षस्थल में निवास करती हैं, ऐसे शेषशैयाशायी भगवान्‌ नारायण जहाँ निवास करते हैं।

**हरषि मिले उठि रमानिकेता। बैठे आसन रिषिहिं समेता॥ बोले बिहँसि चराचर राया। बहुते दिनन कीन्हि मुनि दाया॥**
भाष्य

मुनि को आते देखकर लक्ष्मी जी के निवासस्थान भगवान्‌ अपने आसन से उठकर, उनसे प्रसन्नतापूर्वक मिले और ऋषि के सहित आसन पर बैठ गये। चेतनों, ज़डों के स्वामी अर्थात्‌ चिद्‌वर्ग और अचिद्‌वर्ग के शेषी भगवान्‌ नारायण हँसकर बोले, हे देवर्षि ! आपने बहुत दिनों के पश्चात्‌ दया की है।

**काम चरित नारद सब भाखे। जद्दपि प्रथम बरजि शिव राखे॥**

अति प्रचंड रघुपति कै माया। जेहि न मोह अस को जग जाया॥

भाष्य

नारद जी ने सम्पूर्ण कामचरित्र कह सुनाया। यद्दपि उन्हें पहले ही शिव जी ने ऐसा करने से रोक रखा था। रघुकुल के स्वामी भगवान्‌ श्रीराम की माया अत्यन्त प्रचण्ड अर्थात्‌ बहुत भयंकर और बहुत ही बलशालिनी है, संसार में ऐसा कौन जन्मा है, जिसे यह नहीं मोहित कर देती?

**दो०- रूख बदन करि बचन मृदु, बोले श्रीभगवान।**

तुम्हरे सुमिरन ते मिटहिं, मोह मार मद मान॥१२८॥

भाष्य

मुख को रूखा करके अर्थात्‌ अप्रसन्नता व्यक्त करते हुए भगवान्‌ नारायण नारद जी से कोमल वाणी में बोले, देवर्षि! आपके तो स्मरणमात्र से मोह, काम मद, मान आदि विकार स्वयं मिट जाते हैं अर्थात्‌ आपको इन्हें जीतने की कोई आवश्यकता ही नहीं है।

**सुनु मुनि मोह होइ मन ताके। ग्यान बिराग हृदय नहिं जाके॥ ब्रह्मचरज ब्रत रत मतिधीरा। तुमहिं कि करइ मनोभव पीरा॥**
भाष्य

हे मुनि! सुनो, मोह तो उसके हृदय में होता है, जिसके हृदय में ज्ञान और वैराग्य नहीं होते। तुम ब्रह्मचर्यव्रत में तल्लीन हो और तुम्हारी बुद्धि भी धीर है अर्थात्‌ विकारों के रहने पर भी विकृत नहीं होती। भला तुम्हें कामदेव कैसे पीड़ा दे सकता है?

**नारद कहेउ सहित अभिमाना। कृपा तुम्हारि सकल भगवाना॥ भा०– **नारद जी ने अभिमान के सहित उत्तर देते हुए कहा, हे भगवान\! यह सब आप ही की कृपा है।

करुनानिधि मन दीख बिचारी। उर अंकुरेउ गरब तरु भारी॥

**बेगि सो मैं डारिहउँ उखारी। पन हमार सेवक हितकारी॥ भा०– **करुणासागर भगवान्‌ ने मन में विचार कर देख लिया कि, नारद के हृदय में विशाल गर्व का वृक्ष अंकुरित हो गया है अर्थात्‌ उग गया है, उसे मैं शीघ्र ही उखाड़ डालूँगा, क्योंकि सेवक का हित करना ही मेरी प्रतिज्ञा है।

मुनि कर हित मम कौतुक होई। अवसि उपाय करब मैं सोई॥ तब नारद हरि पद सिर नाई। चले हृदय अहमिति अधिकाई॥ श्रीपति निज माया तब प्रेरी। सुनहु कठिन करनी तेहि केरी॥

[[११६]]

भाष्य

जिससे नारद मुनि का कल्याण हो और मेरा भी कौतुक हो जाये अर्थात्‌ मेरी भी नारद के शाप के माध्यम से एक कल्प की अवतारलीला सम्पन्न हो जाये, मैं वही उपाय अवश्य करूँगा। तब नारद जी भगवान्‌ के चरणों में मस्तक नवाकर चल पड़े, उनके हृदय में उस समय बहुत अहंकार था। तब श्री जी के पति भगवान्‌ ने अपनी माया को प्रेरित कर दिया। हे पार्वती! अब उस विष्णुमाया की कठिन करतूत सुनो।

**दो०- बिरचेउ मग महँ नगर तेहिं, शत जोजन बिस्तार।**

श्रीनिवासपुर ते अधिक, रचना बिबिध प्रकार॥ १२९॥

भाष्य

उस विष्णुमाया ने नारद जी के मार्ग में ही सौ योजन विस्तार वाला एक ऐसा नगर बना दिया, जिसमें बैकुण्ठपुर से भी अधिक अनेक प्रकार की कृतियाँ थीं ।

**बसहिं नगर सुंदर नर नारी। जनु बहु मनसिज रति तनुधारी॥ तेहिं पुर बसइ शीलनिधि राजा। अगनित हय गय सेन समाजा॥ शत सुरेश सम बिभव बिलासा। रूप तेज बल नीति निवासा॥**
भाष्य

उस नगर में सुन्दर पुरुष–स्त्री निवास करते थे मानो बहुत से कामदेव एवं रति ने ही शरीर धारण कर लिए हों। उस पुर में अनगिनत घोड़े, हाथी, सेना और समाज के साथ शीलनिधि नामक राजा निवास करते थे। जो रूप, शील, गुण तथा नीति के निवासस्थान थे और उनका वैभव तथा विलास असंख्य इन्द्रों के समान था।

**बिश्वमोहिनी तासु कुमारी। श्री बिमोह जिसु रूप निहारी॥ सोइ हरिमाया सब गुन खानी। शोभा तासु कि जाइ बखानी॥**
भाष्य

उन शीलनिधि की कुमारी अर्थात्‌ पुत्री विश्व को भी मोहित कर रही थी अथवा विश्वमोहिनी उसका नाम था। जिसके रूप को देखकर स्वयं लक्ष्मी जी भी मोहित हो जाती थीं। वही भगवान्‌ विष्णु जी की साक्षात्‌ माया थी। वह सभी गुणों की खान थी। उसकी शोभा का कैसे वर्णन किया जाये?

**करइ स्वयंबर सो नृपबाला। आए तहँ अगनित महिपाला॥ मुनि कौतुकी नगर तेहिं गयऊ। पुरबासिन सब पूछत भयऊ॥ सुनि सब चरित भूप गृह आए। करि पूजा नृप मुनि बैठाए॥**
भाष्य

वे महाराज अपनी बालिका का स्वयंवर आयोजित कर रहे थे। वहाँ पर अनगिनत राजा आये हुए थे। कौतुकप्रिय मुनि नारद जी उस नगर में गये। तब सभी पुरवासियों से पूछा, सम्पूर्ण चरित्र सुनकर वे शीलनिधि महाराज के भवन में आये। महाराज शीलनिधि ने नारद जी की पूजा करके उन्हें आसन पर बैठाया।

**दो०- आनि देखाई नारदहिं, भूपति राजकुमारि।**

**कहहु नाथ गुन दोष सब, एहि के हृदय बिचारि॥१३०॥ भा०– **शीलनिधि राजा ने राजकुमारी को लाकर नारद मुनि को दिखाया और बोले, हे नाथ! हृदय में विचार करके इसके सभी गुण–दोषों को कहिये।

देखि रूप मुनि बिरति बिसारी। बड़ी बार लगि रहे निहारी॥

**लच्छन तासु बिलोकि भुलाने। हृदय हरष नहिं प्रगट बखाने॥ भा०– **विश्वमोहिनी का रूप देखकर नारद मुनि अपना वैराग्य भूल गये। कन्या को बड़ी देर तक निहारते रहे। उसके लक्षण को देखकर नारद जी भी भुला गये अर्थात्‌ कन्या पर लुब्ध हो गये। अपने हृदय के हर्ष को उन्होंने छिपाया और प्रकट करके उसका व्याख्यान नहीं किया।

[[११७]]

जो एहि बरइ अमर सोइ होई। समरभूमि तेहि जीत न कोई॥ सेवहिं सकल चराचर ताही। बरइ शीलनिधि कन्या जाही॥

भाष्य

जो इस कन्या का वरण करेगा वह अमर अर्थात्‌ देवता होगा। उसे युद्ध में कोई नहीं जीत सकेगा। शीलनिधि की कन्या जिसका वरण करेगी उसकी सभी चेतन, ज़ड, जीव जगत्‌ के लोग सेवा करेंगे।

**विशेष– **माया के वश में होने के कारण नारद जी पूर्वोक्त गुणों को कन्या के वरण की महिमा से मान रहे थे अर्थात्‌ इस कन्या के वरण के पश्चात्‌ इसके पति में ये सब गुण आयेंगे, जबकि वास्तविकता इससे भिन्न है। वस्तुत: जो देव होगा और जो अजेय तथा सम्पूर्ण चराचर का सेव्य होगा यह कन्या उसी को वरण करेगी।

लच्छन सब बिचारि उर राखे। कछुक बनाइ भूप सन भाखे॥ सुता सुलच्छन कहि नृप पाहीं। नारद चले सोच मन माहीं॥

भाष्य

नारद जी ने राजकुमारी के सभी लक्षणों को विचारकर अपने हृदय में छिपाकर रख लिया। राजा शीलनिधि से कुछ लक्षण बनाकर असत्य कह दिया। महाराज के पास पुत्री को सुलक्षणी कहकर नारद वहॉँ से चल पड़े। उनके मन में शोक था।

**करौं जाइ सोइ जतन बिचारी। जेहि प्रकार मोहि बरै कुमारी॥ जप तप कछु न होइ एहि काला। हे बिधि मिलइ कवन बिधि बाला॥**
भाष्य

नारद जी सोचने लगे कि, ब्रह्मलोक जाकर मैं विचारकर वही यत्न करूँ जिस प्रकार राजकुमारी स्वयंवर में मेरा वरण कर ले। इस समय जप, तप कुछ भी नहीं हो सकता। हे विधाता! यह बाला अर्थात्‌ स्वयंवरा राजकुमारी मुझे किस प्रकार से मिल सकती है?

**दो०- एहि अवसर चाहिय परम, शोभा रूप बिशाल।**

जो बिलोकि रीझै कुअँरि, तब मेलै जयमाल॥१३१॥

भाष्य

इस अवसर पर तो मुझे उत्कृष्ट शोभा और बहुत बड़ा रूप चाहिए, जिसे देखकर राजकुमारी रीझ जाये। तब मेरे गले में जयमाला डाल दे।

**हरि सन मागौं सुंदरताई। होइहि जात गहरु अति भाई॥**

मोरे हित हरि सम नहिं कोऊ। एहि अवसर सहाय सोइ होऊ॥

भाष्य

नारद जी मन में विचार करने लगे कि, मैं भगवान्‌ से ही सुन्दरता माँग लूँ। फिर सोचा, हे भाई! श्रीहरि तो बैकुण्ठ में रहते हैं, वहाँ जाते–जाते बहुत विलम्ब हो जायेगा। भगवान्‌ के समान मेरे लिए कोई दूसरा हितैषी नहीं है, इस अवसर पर वे ही भगवान्‌ विष्णु मेरे सहायक हो जायें।

**बहुबिधि बिनय कीन्हि तेहि काला। प्रगटेउ प्रभु कौतुकी कृपाला॥**

**प्रभु बिलोकि मुनि नयन जुड़ाने। होइहि काज हिये हरषाने॥ भा०– **उस समय नारद जी ने बहुत प्रकार से भगवान्‌ की प्रार्थना की। कृपालु और कौतुकरसिक प्रभु नारद जी के सामने प्रकट हो गये। प्रभु को देखकर नारद जी के नेत्र शीतल हो गये। अब तो मेरा कार्य अर्थात्‌ विवाह हो जायेगा, यह विचार कर नारद जी हृदय में बहुत प्रसन्न हुए।

अति आरति कहि कथा सुनाई। करहु कृपा हरि होहु सहाई॥ आपन रूप देहु प्रभु मोहीं। आन भाँति नहिं पावौं ओही॥

[[११८]]

भाष्य

नारद जी ने अत्यन्त आर्त होकर सम्पूर्ण कथा भगवान्‌ विष्णु को सुनायी और कहा, हे श्रीहरि! अब आप मुझ पर कृपा कीजिये, हे प्रभो! आप, अपना रूप मुझे दे दीजिये, अन्य दूसरे प्रकार से मैं ओही अर्थात्‌ उस राजकुमारी को नहीं प्राप्त कर सकता।

**जेहि बिधि होइ नाथ हित मोरा। करहु सो बेगि दास मैं तोरा॥ निज माया बल देखि बिशाला। हिय हँसि बोले दीनदयाला॥**
भाष्य

हे नाथ! जिस प्रकार से मेरा हित हो आप वह शीघ्र कीजिये। मैं आपका दास हूँ। नारद जी पर अपनी विशाल माया का अर्थात्‌ बहुत बड़ा बल देखकर दीनों पर दया करनेवाले भगवान्‌ हृदय में हँसकर बोले–

**दो०- जेहि बिधि होइहि परम हित, नारद सुनहु तुम्हार।**

सोइ हम करब न आन कछु, बचन न मृषा हमार॥१३२॥

भाष्य

हे नारद! सुनो, जिस प्रकार तुम्हारा परमहित होगा मैं वही करूँगा, दूसरा कुछ नहीं। मेरा वचन झूठा नहीं होता।

**कुपथ माँग रुज ब्याकुल रोगी। बैद न देइ सुनहु मुनि जोगी॥ एहि बिधि हित तुम्हार मैं ठयऊ। कहि अस अंतरहित प्रभु भयऊ॥**
भाष्य

हे योगीमुनि! सुनो, रोग से व्याकुल रोगी जब कुपथ्य माँगता है, तो वैद्दराज आतुर को कुपथ्य नहीं देते अर्थात्‌ रोगी की माँग अनसुनी कर देते हैं। मैंने इसी प्रकार से तुम्हारे हित का निर्णय किया है। ऐसा कहकर प्रभु अन्तर्धान हो गये अर्थात्‌ मुनि की आँखों से ओझल हो गये।

**माया बिबश भए मुनि मू़ढा। समुझी नहिं हरि गिरा निगू़ढा॥ गवने तुरत तहाँ ऋषिराई। जहाँ स्वयंबर भूमि बनाई॥**
भाष्य

भगवान्‌ की माया के विवश होने के कारण नारद मुनि किंकर्त्तव्यविमू़ढ हो गये। उनकी बुद्धि में सोचने की शक्ति नहीं रही, इसी कारण उन्होंने श्रीहरि की निर्णयपूर्ण गू़ढ वाणी नहीं समझी, जबकि भगवान्‌ ने स्पष्ट रूप से कह दिया था कि, माया का वरण तुम्हारे लिए कुपथ्य है और तुम काम, क्रोध, लोभरूप वात, कफ, पित्त के सन्निपात से ग्रस्त हो। ऋषियों के राजा नारद जी शीघ्र वहाँ गये जहाँ स्वयंवर के लिए रंगभूमि बनायी गयी थी।

**निज निज आसन बैठे राजा। बहु बनाव करि सहित समाजा॥ मुनि मन हरष रूप अति मोरे। मोहि तजि आनहिं बरिहि न भोरे॥**
भाष्य

सभी राजा अनेक प्रकार के शृंगार करके अपने–अपने परिवार एवं समाज के साथ सभा द्वारा निर्दिष्ट अपने–अपने आसन पर बैठे थे। नारद मुनि के मन में बहुत प्रसन्नता थी। वे विचार कर रहे थे कि, मेरे पास अत्यन्त सुन्दर रूप है, राजकुमारी मुझे छोड़कर अन्य को भूलकर भी वरण नहीं करेगी।

**मुनि हित कारन कृपानिधाना। दीन्ह कुरूप न जाइ बखाना॥ सो चरित्र लखि काहु न पावा। नारद जानि सबहिंं सिर नावा॥**
भाष्य

कृपा के निधान भगवान्‌ ने मुनि का कल्याण करने के कारण उन्हें ऐसा कुरूप अर्थात्‌ भयंकर रूप दिया था, जो व्याख्यान करके कहा नहीं जा सकता। प्रभु के उस चरित्र को कोई भी नहीं देख पाया और मुनि को नारद जानकर ही सब ने प्रणाम किया।

**दो०- रहे तहाँ दुइ रुद्र गन, ते जानहिं सब भेउ।**

बिप्र बेष देखत फिरहिं, परम कौतुकी तेउ॥१३३॥

[[११९]]

भाष्य

वहाँ अर्थात्‌ स्वयंवर की रंगभूमि में दो रुद्रगण उपस्थित थे। वे भगवान्‌ का सारा भेद जानते थे। रुद्रगण ब्राह्मण का वेश धारण करके सब कुछ देखते हुए घूम रहे थे, क्योंकि वे भी परमकौतुकी थे अर्थात्‌ उन्हें भी इस प्रकार की अशोभनीय घटनाओं में आनन्द मिलता था।

**जेहिं समाज बैठे मुनि जाई। हृदय रूप अहमिति अधिकाई॥ तहँ बैठे महेश गन दोऊ। बिप्रबेष गति लखइ न कोऊ॥**
भाष्य

हृदय में रूप के अहंकार की अधिकता से युक्त होकर देवर्षि नारद जी स्वयंवर–स्थल के जिस राजसमाज में बैठे थे, उसी समाज में शिव जी के दोनों गण भी बैठे थे। वे ब्राह्मण के वेश में थे, अत: उनकी गति अर्थात्‌ ज्ञान की स्थिति कोई नहीं देख रहा था।

**करहिं कूटि नारदहिं सुनाई। नीकि दीन्हि हरि सुंदरताई॥ रीझिहिं राजकुअँरि छबि देखी। इनहिं बरिहि हरि जानि बिशेषी॥**
भाष्य

दोनों रुद्रगण नारद जी को सुना–सुना कर उनकी कूटि अर्थात्‌ परिहास कर रहे थे। श्रीहरि ने नारद जी को बड़ी भली सुन्दरता दी है, इनकी छवि देखकर राजकुमारी अवश्य रीझ जायेंगी और इन्हें हरि अर्थात्‌ नारायण जानकर विशेष रूप से वरण कर लेंगी। अथवा इन्हें विशेष प्रकार का हरि (वानर) जानकर बरिहि अर्थात्‌ क्रोध से जल–भुन जायेंगी।

**मुनिहिं मोह मन हाथ पराए। हँसहिं शंभु गन अति सचु पाए॥ जदपि सुनहिं मुनि अटपटि बानी। समुझि न परइ बुद्धि भ्रमसानी॥**
भाष्य

मुनि को मोह है और उनका मन पराये हाथ अर्थात्‌ विष्णु–माया के हाथ में है, अपने पास नहीं है। ऐसी स्थिति देखकर रुद्रगण अत्यन्त सुखी होकर बहुत चुपके से हँस रहे थे। यद्दपि मुनि नारद उनकी अटपटी वाणी सुनते हैं फिर भी उन्हें कुछ भी समझ नहीं पड़ता, क्योंकि उनकी बुद्धि भ्रम में सनी हुई है।

**काहु न लखा सो चरित बिशेषा। सो स्वरूप नृपकन्या देखा॥ मर्कट बदन भयंकर देही। देखत हृदय क्रोध भा तेही॥**
भाष्य

किसी ने भी प्रभु के उस विशेष चरित्र को नहीं देखा। नारद जी के उस वास्तविक रूप को राजकन्या ने देख लिया। वानर के मुखवाले एक भयंकर प्राणी को देखते ही राजकुमारी के हृदय में बहुत क्रोध हुआ।

**दो०- सखी संग लै कुअँरि तब, चलि जनु राजमराल।**

देखत फिरइ महीप सब, कर सरोज जयमाल॥१३४॥

भाष्य

तब सखियों को साथ लेकर राजकुमारी राजहंसिनी के समान स्वयंवर-स्थल में चल पड़ी। वह सभी राजाओं को देखती घूम रही थी। उसके करकमल में जयमाला विराजमान थी।

**जेहि दिशि बैठे नारद फूली। सो दिशि तेहिं न बिलोकी भूली॥ पुनि पुनि मुनि उकसहिं अकुलाहीं। देखि दशा हर गन मुसुकाहीं॥**
भाष्य

जिस दिशा में नारद जी रूप के अहंकार में फूल कर बैठे थे, उस दिशा को उस राजकुमारी ने भूल कर भी नहीं देखा। मुनि नारद बार–बार उत्सुक होते और अकुलाते हैं, उनकी इस विस्मयपूर्ण दशा को देखकर दोनों रुद्रगण मुस्कुराते हैं।

**धरि नृपतनु तहँ गयउ कृपाला। कुअँरि हरषि मेलेउ जयमाला॥ दुलहिनि लै गे लक्ष्मिनिवासा। नृपसमाज सब भयउ निरासा॥**

[[१२०]]

मुनि अति बिकल मोह मति नाठी। मनि गिरि गई छूटि जनु गाँठी॥ तब हर गन बोले मुसुकाई। निज मुख मुकुर बिलोकहु जाई॥

भाष्य

परमकृपालु भगवान्‌ राजा का वेश धारण करके वहाँ गये, राजकुमारी ने प्रसन्न होकर श्रीहरि के गले में जयमाला डाल दी। लक्ष्मी जी के निवासस्थान भगवान्‌ विष्णु मायारूप दुल्हन को स्वयंवर में जीतकर ले गये। सम्पूर्ण राजसमाज निराश हो गया। नारद जी अत्यन्त व्याकुल हो गये, मोह ने उनकी बुद्धि को नष्ट कर दिया था। वे ऐसे व्याकुल हो रहे थे मानो उनकी गाँठ में बँधी मणि छूटकर गिर गयी हो। तब दोनों रुद्रगण मुस्कुराकर बोले, अरे बाबा! जाकर दर्पण में अपना मुँह तो देखो।

**अस कहि दोउ भागे भय भारी। बदन दीख मुनि बारि निहारी॥ बेष बिलोकि क्रोध अति बा़ढा। तिनहिं सराप दीन्ह अति गा़ढा॥**
भाष्य

ऐसा कहकर, अत्यन्त भय से युक्त होकर, दोनों रुद्रगण भागे। नारद जी ने जल में निहारकर उसमें प्रतिबिम्बित अपना मुख देखा और अपना बन्दर का वेश देखकर, नारद जी का क्रोध बहुत ब़ढ गया। देवर्षि ने रुद्रगणों को बहुत कठिन शाप दिया।

**दो०- होहु निशाचर जाइ तुम, कपटी पापी दोउ।**

हँसेहु हमहिं सो लेहु फल, बहुरि हँसेहु मुनि कोउ॥१३५॥

भाष्य

दोनों कपटयुक्त और पापात्मक व्र्द्रगणों! यहाँ से जाकर राक्षस बनो। मेरा परिहास किया उसका फल लो, फिर और किसी मुनि का परिहास कर लेना।

**पुनि जल दीख रूप निज पावा। तदपि हृदय संतोष न आवा॥ फरकत अधर कोप मन माहीं। सपदि चले कमलापति पाहीं॥**
भाष्य

नारद जी ने जब फिर जल में देखा, तब अपना रूप प्राप्त कर लिया अर्थात्‌ रुद्रगणों के शाप के पश्चात्‌ नारद जी का बन्दर का मुख भी समाप्त हो गया और उन्हें अपना पूर्व का रूप मिल गया, फिर भी उनके हृदय में संतोष नहीं हुआ। उनके मन में अत्यन्त क्रोध था, उनके ओष्ठ फ़डक रहे थे। वे शीघ्र लक्ष्मीपति भगवान्‌ के पास चले।

**दैहउँ स्राप की मरिहउँ जाई। जगत मोरि उपहास कराई॥ बीचहिं पंथ मिले दनुजारी। संग रमा सोइ राजकुमारी॥**
भाष्य

नारद जी ने मन में निश्चय किया कि, यदि विष्णु आज मुझे मिल गये तो उन्हें शाप दे दूँगा, यदि नहीं मिले तो जाकर मर जाऊँगा। विष्णु ने सारे संसार में मेरी हँसी करा डाली। संयोग से बैकुण्ठ के बीच मार्ग में ही दैत्यों के शत्रु भगवान्‌ विष्णु, नारद जी को मिल गये। उनके साथ में लक्ष्मी जी और वही स्वयंवर में जीतकर लायी हुई राजकुमारी थी।

**बोले मधुर बचन सुरसाईं। मुनि कहँ चले बिकल की नाईं॥ सुनत बचन उपजा अति क्रोधा। माया बश न रहा मन बोधा॥**
भाष्य

देवताओं के स्वामी भगवान्‌ विष्णु मधुर वचन बोले अर्थात्‌ नारद से पूछा, हे मुनि! व्याकुल अथवा बावले व्यक्ति की भाँति कहाँ चले जा रहे हो? विष्णु जी का वचन सुनते ही नारद जी के मन में अत्यन्त क्रोध उत्पन्न हो गया। माया के वश में होने से उनके मन में कुछ भी ज्ञान नहीं रहा, नारद आक्रोश में बोले–

[[१२१]]

पर संपदा सकहु नहिं देखी। तुम्हरे इरिषा कपट बिशेषी॥ मथत सिंधु रुद्रहिं बौरायहु। सुरन प्रेरि बिष पान करायहु॥

भाष्य

हे विष्णु! तुम दूसरे की सम्पत्ति नहीं देख सकते हो, तुम्हारे मन में विशेष रूप से ईष्या और कपट है। समुद्रमन्थन के समय तुमने रुद्रदेव को बावला बना दिया और देवताओं को प्रेरित करके शिव जी को विषपान करा दिया।

**दो०- असुर सुरा बिष शङ्करहिं, आपु रमा मनि चारु।**

स्वारथ साधक कुटिल तुम, सदा कपट ब्यवहारु॥१३६॥

भाष्य

दैत्यों के लिए मदिरा, शिव जी के लिए विष और स्वंय के लिए सुन्दर लक्ष्मी और कौस्तुभमणि की व्यवस्था की। तुम स्वार्थ के साधक और कुटिल हो। तुम्हारा व्यवहार निरन्तर कपटपूर्ण रहता है।

**परम स्वतंत्र न सिर पर कोई। भावइ मनहिं करहु तुम र्सोई््॥ भलेहि मंद मंदहिं भल करहू। बिसमय हरष न हिय कछु धरहू॥**
भाष्य

तुम परमस्वतंत्र हो, तुम्हारे सिर पर कोई शासक नहीं है। तुम्हारे मन को जो भाता है, तुम वही कर डालते हो। तुम भले को बुरा और बुरे को भला कर डालते हो। तुम अपने मन में शोक और हर्ष कुछ भी नहीं धारण करते।

**डहकि डहकि परचेहु सब काहू। अति अशंक मन सदा उछाहू॥ करम शुभाशुभ तुमहिं न बाधा। अब लगि तुमहिं न काहू साधा॥**
भाष्य

तुम सब को ठगते–ठगते अब इस क्रिया से परिचित हो गये हो, तुम्हारा मन अत्यन्त निर्भीक है, तुम्हें सदा उत्साह बना रहता है। शुभ और अशुभ कर्म तुम्हें बाधित नहीं करते, अब तक किसी ने तुम्हें पहचान कर दण्डित नहीं किया।

**भले भवन अब बायन दीन्हा। पावहुगे फल आपन कीन्हा॥ बंचेहु मोहि जवन धरि देहा। सोइ तनु धरहु स्राप मम एहा॥**
भाष्य

अब तुमने अच्छे घर में बायन अर्थात्‌ अनुबन्ध का धन दिया है। तुम अपने किये का फल पाओगे। जो शरीर धारण करके तुमने मुझे ठगा, तुम वही शरीर धारण करो, मेरा यह शाप है।

**कपि आकृति तुम कीन्ह हमारी। करिहैं कीस सहाय तुम्हारी॥ मम अपकार कीन्ह तुम भारी। नारि बिरह तुम होब दुखारी॥**
भाष्य

तुमने मेरी आकृति वानर जैसी की, वे ही वानर तुम्हारी सहायता करेंगे। तुमने मेरा बहुत बड़ा अपकार किया है। अत: तुम भी नारी के विरह में दु:खी होगे।

**दो०- स्राप शीष धरि हरषि हिय, प्रभु बहु बिनती कीन्ह।**

निज माया कै प्रबलता, करषि कृपानिधि लीन्ह॥१३७॥

भाष्य

नारद जी के शाप को सिर पर धारण करके, हृदय में प्रसन्न होकर, श्रीहरि ने नारद जी से बहुत विनती की और कृपा के सागर भगवान्‌ विष्णु ने अपनी माया की प्रबलता को नारद पर से खींच ली।

**विशेष– **इस प्रसंग में यह ध्यान रखना होगा कि, भले ही देवर्षि नारद जी ने माया के आवेश में भगवान्‌ के प्रति विरुद्ध वाक्य कहे, परन्तु उनका यथार्थ बहुत ही विलक्षण है। जैसे नारद जी ने कहा, तुम परसम्पदा नहीं देख

[[१२२]]

सकते, इसका तात्पर्य यह है कि तुम ‘पर’ अर्थात्‌ भगवत्‌ भक्तों के शत्रुओं की सम्पदा नहीं देख सकते। नारद जी ने भगवान्‌ को ईर्ष्यालु और कपटी कहा, इसका तात्पर्य यह है कि, जिनको आप के प्रति ईर्ष्या और कपट है, वे कभी सम्पत्तिवान्‌ नहीं हो सकते। इस दृष्टि से उक्त पंक्ति का अर्थ इस प्रकार होगा कि जिनको आप के प्रति विशेष ईर्ष्या और कपट होता है ऐसे आसुरी सम्पत्ति वालों कि सम्पत्ति आप देख ही न ही सकते क्योंकि वे आपकी दृय्ि के पहले ही आप के प्रति कपट भाव रखने के पाप से नय् हो जाते हैं। नारद जी समुद्रमंथन के प्रकरण में जहाँ अभिधार्थ में भगवान्‌ को स्वार्थी और शिव जी के प्रति अन्यायकर्त्ता कह रहे हैं, वहाँ काकूवक्रोक्ति से समाधान कर लेना चाहिए अर्थात्‌ क्या आपने समुद्रमंथन के समय व्र्द्र को बावला बनाकर विषपान कराया था? अर्थात्‌ नहीं। उन्होंने जगत्‌ की रक्षा के लिए श्रीराम नाम का जप करते हुए स्वयं विषपान किया था। क्या आपने स्वयं लक्ष्मी जी और कौस्तुभमणि चाहा था? नहीं, लक्ष्मी जी ने स्वयं भगवान्‌ को वरण किया था और कौस्तुभमणि भगवान्‌ को देवतओं ने उपहार में दिया था। भगवान्‌ स्वार्थसाधकों के प्रति कुटिल हो जाते हैं। अथवा स्वार्थसाधक भगवान्‌ की दृष्टि में कुटिल होते हैं, ‘स्वार्थ साधक: कुटिल: यस्य’ यहाँ बहुव्रीहि समास समझना चाहिए ‘सदा अकपट ब्यवहारू’ अर्थात्‌ भगवान्‌ का व्यवहार निरन्तर कपट से रहित ही होता है। नारद जी ने भगवान्‌ पर यह आरोप लगाया कि, वे भले को मन्द और मन्द को भला कर डालते हैं इसका तात्पर्य यह है कि, जिनको ज्ञान का अहं होता है, वे भगवान्‌ के समक्ष मन्द हो जाते हैं और मन्दबुद्धि होकर भी जो भगवान्‌ की शरण में जाते हैं, वे भले बन जाते हैं। विषाद और हर्ष से रहित होना तो परमात्मा का स्वभाव है। वह परमस्वतंत्र हैं, उन पर किसी का शासन नहीं है। ‘डहकि डहकि परिचेहु सब काहू’ यहाँ कहने का तात्पर्य यह है कि, जिस पर भी भगवान्‌ कृपा करना चाहते हैं, उसे भौतिक चकाचौंध से दूर रखकर अपने भजन में लीन कर लेते हैं। उन्हें किसी प्रकार की शंका नहीं रहती, भक्तों के कष्टहरण में उन्हें सदा उत्साह रहता है। भगवान्‌ को शुभाशुभ कर्म नहीं बाँध सकते, क्योंकि वे विधि और निषेध से दूर हैं। अथवा प्रभु अनासक्तभाव से कर्म करते रहते हैं, इसलिए उनमें कर्म का लेप नहीं होता ‘न कर्म लिप्यते नरे’–(इ०उ० २)। भगवान्‌ असाध्य हैं, अत: उन्हें कौन साध सकता है? बायन अर्थात्‌ अनुबन्ध तो भगवान्‌ का गुण ही है। भगवान्‌ किसी का अहित नहीं करते, अत: उन्हें अशुभ फल मिल ही नहीं सकते। इस प्रकार भगवान्‌ के प्रति विरुद्ध प्रतीत होनेवाले वचनों की बुद्धिमता से अनुकूल संगति लगा लेना ही इस चरित्र को सम्भालकर गाना है।

जब हरि माया दूरि निवारी। नहिं तहँ रमा न राजकुमारी॥ तब मुनि अति सभीत हरि चरना। गहे पाहि प्रनतारति हरना॥

भाष्य

जब श्रीहरि ने नारद जी पर व्यापी हुई माया को उनसे बहुत दूर फेंक दिया, तब वहाँ न लक्ष्मी जी रहीं, न राजकुमारी विश्वमोहिनी। एकमात्र अवशेष रहे भगवान्‌ विष्णु और तब नारद मुनि ने अत्यन्त भयभीत होकर श्रीहरि के चरण पक़ड लिए और बोले, हे शरणागतों की आर्ति को दूर करनेवाले प्रभु! मेरी रक्षा कीजिये।

**मृषा होउ मम स्राप कृपाला। मम इच्छा कह दीनदयाला॥ मैं दुर्बचन कहे बहुतेरे। कह मुनि पाप मिटिहिं किमि मेरे॥**
भाष्य

हे कृपालु! मेरा शाप झूठा हो जाये, दीनों पर दया करनेवाले भगवान्‌ ने कहा, नहीं ऐसा नही होगा। आपके शाप का पालन करना मेरी इच्छा है, अथवा आपने मेरी इच्छा से ही मुझे शाप दिया है। तब नारद जी ने कहा, मैंने आपके प्रति बहुत दुर्वचन कहे हैं, उनसे उत्पन्न हुए मेरे पाप कैसे मिटेंगे?

**जपहु जाइ शङ्कर शत नामा। होइहि हृदय तुरत बिश्रामा॥ कोउ नहिं शिव समान प्रिय मोरे। असि परतीति तजहु जनि भोरे॥**

[[१२३]]

भाष्य

तब भगवान्‌ विष्णु जी ने कहा कि, यहाँ से हिमाचल पर्वत पर जाकर शिव जी के शतनामस्तोत्र का जप करो, हृदय में तुरन्त विश्राम हो जायेगा अर्थात्‌ तुम्हारे मन को शान्ति मिल जायेगी और तुम्हारी सारी थकान दूर हो जायेगी। शिव जी के समान मुझे कोई भी प्रिय नहीं है, इस विश्वास को कभी भूलकर भी नहीं छोड़ना।

**जेहि पर कृपा न करहिं पुरारी। सो न पाव मुनि भगति हमारी॥ अस उर धरि महि बिचरहु जाई। अब न तुमहिं माया नियराई॥**
भाष्य

हे देवर्षि! जिस पर शिव जी कृपा नहीं करते वह मेरी भक्ति नहीं पाता, ऐसा सिद्धान्त हृदय में धारण करके बैकुण्ठ से जाकर पृथ्वी पर भ्रमण करो। अब मेरी माया तुम्हारे निकट नहीं आयेगी।

**दो०- बहुबिधि मुनिहिं प्रबोधि प्रभु, तब भए अंतरधान।**

सत्यलोक नारद चले, करत राम गुन गान॥१३८॥

भाष्य

तब बहुत प्रकार से मुनि को समझाकर, सर्वसमर्थ भगवान्‌ विष्णु अन्तर्धान हो गये अर्थात्‌ अदृश्य हो गये। नारद जी श्रीराम का गुणगान करते हुए सत्यलोक को चल पड़े।

**हर गन मुनिहिं जात पथ देखी। बिगत मोह मन हरष बिशेषी॥ अति सभीत नारद पहँ आए। गहि पद आरत बचन सुनाए॥**
भाष्य

रुद्रगणों ने नारद जी को सत्यलोक के मार्ग में जाते हुए देखा, उनका मोह नष्ट हो चुका था, उनके मन में विशेष प्रकार का हर्ष था। रुद्र्रगण अत्यन्त भयभीत होकर नारद जी के पास आये, उनके चरणों को पक़डकर उन्हें आर्त अर्थात्‌ व्याकुलता से भरे वचन सुनाये।

**हर गन हम न बिप्र मुनिराया। बड़ अपराध कीन्ह फल पाया॥ स्राप अनुग्रह करहु कृपाला। बोले नारद दीनदयाला॥**
भाष्य

रुद्रगण बोले, हे मुनिराज! हम दोनों रुद्रदेव के गण हैं, ब्राह्मण नहीं हैं। हमने बहुत बड़ा अपराध किया, उसका फल आप से पा लिया। अब हमारा शापानुग्रह कीजिये अर्थात्‌ शाप के प्रभाव को कम कीजिये और शाप की मुक्ति का उपाय बताइये। तब दीनों पर दया करनेवाले नारद जी बोले–

**निशिचर जाइ होहु तुम दोऊ। बैभव बिपुल तेज बल होऊ॥**

**भुजबल बिश्व जितब तुम जहिया। धरिहैं बिष्णु मनुज तनु तहिया॥ भा०– **रुद्रगण, तुम दोनों जाकर अब राक्षस हो जाओ, तुम्हारे पास बहुत बड़ा धन और विशाल तेज तथा बल भी हो। जब तुम दोनों (रावण, कुंभकरण) अपनी भुजाओं के बल से सम्पूर्ण संसार को जीत लोगे, तब भगवान्‌ विष्णु अर्थात सर्वव्यापक परमात्मा मनुष्य शरीर धारण करेंगे।

समर मरन हरि हाथ तुम्हारा। होइहौ मुक्त न पुनि संसारा॥ चले जुगल मुनि पद सिर नाई। भए निशाचर कालहिं पाई॥

भाष्य

श्रीहरि के हाथ से युद्ध में तुम्हारा मरण होगा तुम मुक्त हो जाओगे, फिर संसार में नही आओगे। तत्पश्चात्‌ दोनों रुद्रगण मुनि के चरणों में मस्तक नवाकर चल पड़े और समय पाकर राक्षस रूप में जन्म लिए अर्थात्‌ रावण और कुंभकर्ण बने।

**दो०- एक कलप एहि हेतु प्रभु, लीन्ह मनुज अवतार।**

सुररंजन सज्जन सुखद, हरि भंजन भुवि भार॥१३९॥

[[१२४]]

भाष्य

देवताओं को आनन्द देनेवाले, सन्तजनों को सुख देनेवाले, पृथ्वी का भार हरनेवाले, सर्वसमर्थ, पापहारी, भगवान्‌ ने एक कल्प में इसी कारण अवतार लिया था।

**एहि बिधि जनम करम हरि केरे। सुंदर सुखद बिचित्र घनेरे॥ भा०– **इसी प्रकार प्रभु के अनेक सुन्दर, सुखद, आश्चर्यमय जन्म तथा कर्म होते रहते हैं।

कलप कलप प्रति प्रभु अवतरहीं। चारु चरित नानाबिधि करहीं॥

तब तब कथा मुनीशन गाई। परम पुनीत प्रबंध बनाई॥

बिबिध प्रसंग अनूप बखाने। करहिं न सुनि आचरज सयाने॥ हरि अनंत हरि कथा अनंता। कहहिं सुनहिं बहु बिधि सब संता॥

रामचंद्र के चरित सुहाए। कलप कोटि लगि जाहिं न गाए॥

भाष्य

प्रत्येक कल्प में प्रभु श्रीराम अवतार लेते हैं और वे अनेक प्रकार के सुन्दर चरित्र करते हैं। तब–तब अर्थात्‌ उन–उन कल्पों में अत्यन्त पवित्र प्रबन्ध बनाकर प्रत्येक कल्प की कथा अनेक रामायणों के माध्यम से श्रेष्ठमुनियों ने गायी है। उन्होंने अनेक उपमारहित प्रसंगों के व्याख्यान किये हैं। चतुरजन कथा की विविधता सुनकर भी आश्चर्य नहीं करते। श्रीहरि भगवान्‌ श्रीराम अनन्त हैं और उनकी कथाएँ भी अनन्त हैं। अनन्त श्रीराम की अनन्त कथाओं को सभी सन्तगण बहुत प्रकार से कहते और सुनते हैं। श्रीरामचन्द्र जी के सुहावने चरित्र करोड़ों कल्प पर्यन्त नहीं गाये जा सकते।

**यह प्रसंग मैं कहा भवानी। हरिमाया मोहहिंं मुनि ग्यानी॥ प्रभु कौतुकी प्रनत हितकारी। सेवत सुलभ सकल दुख हारी॥**
भाष्य

हे पार्वती ! यह प्रसंग अर्थात्‌ नारद–मोह प्रसंग मैंने तुम्हें सुनाया। भगवान्‌ की माया से ज्ञानीजन भी मोहित हो जाते हैं। भगवान्‌ सर्वसमर्थ, अनेक कौतुक करने वाले, शरणागतों के हितकारी और सभी दु:खों को हरने वाले हैं।

**दो०- सुर नर मुनि कोउ नाहिं, जेहिं न मोह माया प्रबल।**

**अस बिचारि मन माहिं, भजिय महामाया पतिहिं॥१४०॥ भा०– **देवता, मनुष्य, और मुनियों में ऐसा कोई भी नहीं है, जिसको भगवान्‌ की प्रबलमाया नहीं मोहित कर लेती हो। मन में ऐसा विचार करके महामाया के पति अर्थात्‌ सीतापति भगवान्‌ श्रीराम का भजन करना चाहिए।

* मासपारायण चौथा विश्राम *

अपर हेतु सुनु शैलकुमारी। कहउँ बिचित्र कथा बिस्तारी॥ जेहि कारन अज अगुन अरूपा। ब्रह्म भयउ कोसलपुर भूपा॥ जो प्रभु बिपिन फिरत तुम देखा। बंधु समेत धरे मुनिबेषा॥ जासु चरित अवलोकि भवानी। सती शरीर रहिहु बौरानी॥ अजहुँ न छाया मिटति तुम्हारी। तासु चरित सुनु भ्रम रुज हारी॥

भाष्य

हे पर्वतपुत्री पार्वती! अब श्रीराम–जन्म का दूसरा हेतु सुनो। इस आश्चर्यमय कथा को मैं विस्तार से कह रहा हूँ, जिस कारण से अजन्मा, निर्गुण, प्राकृतरूपरहित परब्रह्म साकेतविहारी भगवान्‌ श्रीराम भी अयोध्या के राजा राम हो गये। जिन प्रभु को तुमने छोटे भाई लक्ष्मण जी के सहित मुनिवेश धारण किये हुए सीता जी की

[[१२५]]

खोज में वन–वन भटकते देखा। हे पार्वती! जिनके चरित्र को देखकर तुम सती शरीर में बावली हो गई थी। अब भी तुम्हारी वह भ्रम की छाया नहीं मिट रही है, भ्रम रूप रोग को हरने वाले उन्हीं प्रभु श्रीराम के चरित्र को अब सुनो।

**लीला कीन्ह जो तेहिं अवतारा। सो सब कहिहउँ मति अनुसारा॥ भा०– **उस अवतार में प्रभु श्रीराम ने जो लीलाएँ की वह सब मैं अपनी बुद्धि के अनुसार कहूँगा।

भरद्वाज सुनि शङ्कर बानी। सकुचि सप्रेम उमा मुसुकानी॥ लगे बहुरि बरनै बृषकेतू। सो अवतार भयउ जेहि हेतू॥

भाष्य

याज्ञवल्क्य जी, भरद्वाज जी को सम्बोधित करते हुए कहते हैं, हे भरद्वाज! सुनिये, इस प्रकार शिव जी की वाणी सुनकर पार्वती जी संकोच करके प्रेमपूर्वक मुस्कुरायीं। फिर वृषभध्वज भ्‌गवान शिव जी वह वर्णन करने लगे, जिस कारण से साकेतविहारी भगवान्‌ श्रीराम का परात्पर श्रीरामावतार हुआ था।

**विशेष– **यहाँ यह स्मरण रहे कि, पूर्व के बीस दोहों में शिव जी ने जिन तीन जन्मों की चर्चा की है, वे ही विष्णु जी के श्रीरामावतार कहे जा सकते हैं। अब बारह दोहों में जिस अवतार की चर्चा की जा रही है, वह साकेतविहारी महाविष्णु परात्पर परब्रह्म भगवान्‌ श्रीराम का ही श्रीरामावतार है। ऐसे श्रीअवध और श्रीकाशी की मानसपरम्परा के व्याख्याता आचार्यों का मानना है। वस्तुत: गोस्वामी जी के आराध्य विष्णु जी के अवतार राम जी नहीं प्रत्युत्‌ साकेतविहारी श्रीराम से अभिन्न अवधविहारी श्रीराम हैं। हाँ, श्रीराम ही अवतारी और अवतार दोनों हैं अर्थात्‌ इन्ही में वैष्णव अवतारों का भी प्रवेश है, जिनके कुछ चरित्र समय–समय पर प्रकट होते रहते हैं, क्योंकि भगवान्‌ विष्णु भगवान्‌ श्रीराम के परम अन्तरंगतम्‌ अंश हैं।

दो०- सो मैं तुम सन कहउँ सब, सुनु मुनीश मन लाइ।

राम कथा कलि मल हरनि, मंगल करनि सुहाइ॥१४१॥

भाष्य

वही समस्त चरित्र मैं तुमसे कह रहा हूँ। हे मुनीश्वर! कलियुग के मलों को हरनेवाली सब प्रकार के मंगल करनेवाली, सुहावनी श्रीरामकथा मन लगाकर सुनो।

**स्वायम्भुव मनु अरु शतरूपा। जिन ते भइ नरसृष्टि अनूपा॥ दंपति धरम आचरन नीका। अजहुँ गाव श्रुति जिन कै लीका॥**
भाष्य

श्वेत वराहकल्प के प्रथम मनवन्तर में ब्रह्मा जी के मानसपुत्र स्वायम्भुव मनु प्रथम मनु हुए, शतरूपा उनकी धर्मपत्नी थी। जिनसे मनुष्य की यह अनुपम सृष्टि हुई। आज भी वेद जिन मनु, शतरूपा की मर्यादा का गान करते हैं। वे मनुदम्पति धर्माचरण में बहुत ही नीक अर्थात्‌ कुशल और निपुण थे। (यन्‌ मनुर्वदत्‌ तद्‌भेसजं अर्थात्‌ जो मनु ने कहा, वही प्राणि मात्र की ओषधि बन गयी।)

**नृप उत्तानपाद सुत तासू। ध्रुव हरि भगत भयउ सुत जासू॥ लघु सुत नाम प्रियब्रत ताही। बेद पुरान प्रशंसहिं जाही॥**
भाष्य

उन मनु के प्रथम पुत्र राजा उत्तानपाद थे। जिनके पुत्र परमभगवद्‌ भक्त ध्रुव जी हुए। मनु जी के छोटे और प्रिय पुत्र थे प्रियव्रत जिनकी वेद और पुराण प्रशंसा करते हैं।

**देवहूति पुनि तासु कुमारी। जो मुनि कर्दम कै प्रिय नारी॥ आदिदेव प्रभु दीनदयाला। जठर धरेउ जेहि कपिल कृपाला॥ सांख्य शास्त्र जिन प्रगट बखाना। तत्त्व बिचार निपुन भगवाना॥**

[[१२६]]

भाष्य

पुन: उन स्वायम्भुव मनु की देवहूति एक ऐसी पुत्री थी, जो कर्दम मुनि की प्रिय पत्नी हुई अर्थात्‌ जिन्हें कर्दम जी ने अपनी तपस्या से प्रसन्न कर वरदान देने पधारे हुए भगवान्‌ से मुख्य वर प्रसाद रूप में प्राप्त किया था। जिन देवहूति ने सर्वसमर्थ, दीनों पर दया करनेवाले, कृपालु आदिदेव भगवान्‌ नारायण के अंशस्वरूप कपिल जी को अपने गर्भ में धारण किया था। तत्व–विचार में कुशल ऐश्वर्यादि छहों माहात्म्य से नित्यसम्पन्न जिन भगवान्‌ कपिल जी ने आसुरी आदि आचार्यों को लुप्त हुए संख्यशास्त्र को प्रकट करके उपदेश दिया था।

**तेहिं मनु राज कीन्ह बहु काला। प्रभु आयसु सब बिधि प्रतिपाला॥**

दो०- होइ न बिषय बिराग, भवन बसत भा चौथपन।

हृदय बहुत दुख लाग, जनम गयउ हरिभगति बिनु॥१४२॥

भाष्य

उन्हीं स्वयाम्भुव मनु जी ने बहुत कालपर्यन्त अर्थात्‌ इकहत्तर चतुर्युगपर्यन्त राज किया था तथा सब प्रकार से भगवान्‌ की आज्ञा का प्रीतिपूर्वक पालन किया। विषयों से वैराग्य नहीं हो रहा था, भवन में रहते–रहते गृहस्थाश्रम में ही चौथापन (बु़ढापा) आ गया। हृदय में बहुत दु:ख हुआ, अरे! उन भगवान्‌ के भक्ति के बिना यह जन्म अर्थात्‌ जीवन चला गया। (**न जातु काम: कामानां उपभोगेन शाम्यति, हविषा कृष्ण वर्तमेव भूय एवाभि वर्धते॥ **अर्थात्‌ कामनाओं के उपभोग से कभी कामनाओं कि शान्ति नहीं होती, वह तो घृत से प्रज्वलित अग्नि की भाँति क्षण–प्रतिक्षण ब़ढती जाती है।)

**बरबस राज सुतहिं तब दीन्हा। नारि समेत गवन बन कीन्हा॥ तीरथ बर नैमिष बिख्याता। अति पुनीत साधक सिधि दाता॥ बसहिं तहाँ मुनि सिद्ध समाजा। तहँ हिय हरषि चलेउ मनु राजा॥**
भाष्य

तब स्वायम्भुव मनु जी ने जम्बूद्वीप का राज्य न चाहने पर भी हठपूर्वक अपने प्रथम पुत्र उत्तानपाद को दे दिया और स्वयं नारी अर्थात्‌ श्रेष्ठनर मनु की सहचारिणी शतरूपा जी के साथ तपस्या करने हेतु वन के लिए प्रस्थान किया। सभी तीर्थों में श्रेष्ठ अत्यन्त पुनीत, साधकों को सिद्धि देनेवाला नैमिषारण्य नाम का तीर्थ विख्यात है। वहाँ मुनियों और सिद्धों के समाज निवास करते हैं। राजा मनु हृदय में प्रसन्न होकर वहीं अर्थात्‌ नैमिषारण्य को चल पड़े।

**पंथ जात सोहहिं मतिधीरा। ग्यान भगति जनु धरे शरीरा॥ पहुँचे जाइ धेनुमति तीरा। हरषि नहाने निरमल नीरा॥**
भाष्य

मार्ग में जाते हुए धीरबुद्धिवाले, मनु-शत―पा शरीर धारण किये हुए ज्ञान और भक्ति के समान सुशोभित हो रहे थे। वे गोमती के तट पर जा पहुँचे और मनु दम्पति ने प्रसन्न होकर निर्मल जल में स्नान किया।

**आए मिलन सिद्ध मुनि ग्यानी। धरम धुरंधर नृपऋषि जानी॥ जहँ जहँ तीरथ रहे सुहाए। मुनिन सकल सादर करवाए॥**
भाष्य

राजर्षि मनु जी को धर्म का धुरन्धर जानकर सिद्ध, मुनि और ज्ञानी उनसे मिलने आये। जहाँ–जहाँ सुन्दर

तीर्थ थे, मुनियों ने आदरपूर्वक मनु दम्पति को सभी तीर्थ करवा दिये।

कृश शरीर मुनिपट परिधाना। सत समाज नित सुनहिं पुराना॥

दो०- द्वादश अक्षर मंत्रवर, जपहिं सहित अनुराग।

बासुदेव पद पंकरुह, दंपति मन अति लाग॥१४३॥

[[१२७]]

भाष्य

मनु और शतरूपा का शरीर दुर्बल हो चुका था। वे मुनिपट अर्थात्‌ मुनियों द्वारा पहने जानेवाले वल्कल वस्त्र पहनते थे और सन्तों की सभा में निरन्तर पुराण–कथा सुनते थे। मनु–शतरूपा श्रेष्ठ बारह अक्षरोंवाले श्रीसीताराम के युगलमंत्र का प्रेमपूर्वक जप करने लगे। सबको आच्छादन करने वाले और सर्वत्र प्रकाशमान्‌ वासुदेव भगवान्‌ श्रीसीताराम जी के श्रीचरणकमल में मनु दम्पति का मन अत्यन्त लग गया।

**करहिं अहार शाक फल कंदा। सुमिरहिं ब्रह्म सच्चिदानन्दा॥ पुनि हरि हेतु करन तप लागे। बारि अहार मूल फल त्यागे॥**
भाष्य

मनु दम्पति शाक, फल और कन्दमूल का आहार करते थे तथा सच्चिदानन्द परब्रह्म भगवान्‌ श्रीराम का स्मरण करते थे। फिर श्रीहरि भगवान्‌ श्रीराम के दर्शन के लिए मनु–शतरूपा तप करने लगे। वे कन्दमूल और फल छोड़कर केवल जल पी कर रहने लगे।

**उर अभिलाष निरंतर होई। देखिय नयन परम प्रभु सोई॥ अगुन अखंड अनंत अनादी। जेहिं चिंतहिं परमारथबादी॥ नेति नेति जेहिं बेद निरूपा। निजानंद निरुपाधि अनूपा॥ शंभु बिरंचि बिष्णु भगवाना। उपजहिं जासु अंश ते नाना॥**
भाष्य

मनु–शतरूपा के हृदय में यह अभिलाषा निरन्तर होती रहती थी कि, हम उन परमप्रभु, परात्पर परब्रह्म भगवान्‌ श्रीराम को अपने नयनों से निहारें, जो प्राकृत गुणों से रहित, अखण्ड, अन्त और आदि से रहित हैं, जिन्हें परमार्थवादी अर्थात्‌ मुमुक्षुजन अपने चिन्तन का विषय बनाते हैं। ‘नेति–नेति’ कहकर वेदों ने जिनका निरूपण किया, जो अपने ही आनन्द में लीन रहते हैं, अथवा निज जनों को आनन्दित करते रहते हैं, जिनके यहाँ कोई क्षणभंगुर उपाधि नहीं है, जो उपमारहित हैं, जिनके अंश से अनेक शिव जी, ब्रह्मा जी और भगवान्‌ विष्णु उत्पन्न होते रहते हैं।

**ऐसेउ प्रभु सेवक बस अहहीं। भगत हेतु लीलातनु गहहीं॥ जौ यह बचन सत्य श्रुति भाषा। तौ हमार पूजिहि अभिलाषा॥**
भाष्य

ऐसे पूर्वोक्त विशेषणों से विशिष्ट प्रभु सर्व, सर्वश्वर भगवान्‌ श्रीराम सेवकों के वश में हैं और भक्तों के लिए ही लीलाविग्रहों को धारण करते हैं, यदि वेदों द्वारा कहा हुआ यह वचन सत्य है, तो हम दोनों की भी अभिलाषा पूर्ण होगी।

**दो०- एहि बिधि बीते बरष षट, सहस बारि आहार।**

संबत सप्त सहस्र पुनि, रहे समीर अधार॥१४४॥

भाष्य

इस प्रकार चिन्तन के साथ तपस्या करते हुए, जलमात्र का आहार करके मनु दम्पति छ: हजार वर्षपर्यन्त स्थिर रहे, फिर वायु पीकर ही वे सात हजार वर्ष तक रहे।

**बरष सहस दस त्यागेउ सोऊ। ठा़ढे रहे एक पद दोऊ॥ बिधि हरि हर तप देखि अपारा। मनु समीप आए बहु बारा॥ माँगहु बर बहु भाँति लोभाए। परम धीर नहिं चलहिं चलाए॥ अस्थिमात्र होइ रहे शरीरा। तदपि मनाग मनहिं नहिं पीरा॥**
भाष्य

दस हजार वर्ष के लिए मनु दम्पति ने वायु भी छोड़ दिया और दोनों एक पद पर ख़डे रहे। मनु–शतरूपा का अपार तप देखकर ब्रह्मा जी, विष्णु जी और शङ्कर जी मनु दम्पति के पास बहुत बार आये तथा “वरदान

[[१२८]]

माँगो” इस प्रकार कहकर, तीनों देवताओं ने मनु दम्पति को बहुत प्रकार से प्रलोभित किया, परन्तु अत्यन्त धीर मनु–शतरूपा तीनों देवताओं के प्रलोभन से चलायमान नहीं हो सके। उनका शरीर अस्थिमात्र रह गया अर्थात्‌ नरकंकाल ही शेष रहा फिर भी उनके मन में थोड़ी सी भी पीड़ा नहीं थी।

प्रभु सर्व््ग्य दास निज जानी। गति अनन्य तापस नृप रानी॥ माँगु माँगु बर भै नभ बानी। परम गभीर कृपामृत सानी॥

भाष्य

सब कुछ जानने वाले साकेत विहारी प्रभु भगवान्‌ श्रीराम ने तपस्वी राजा मनु जी और तपस्विनी महारानी शतरूपा जी को अनन्य गतिवाले अपने सेवक जाने और तब अत्यन्त गम्भीर कृपारूप अमृत से सनी हुई आकाशवाणी हुई, ‘वरदान माँगो! वरदान माँगो’!

**मृतक जियावनि गिरा सुहाई। स्रवन रंध्र होइ उर जब आई॥ हृष्टपुष्ट तन भय सुहाए। मानहुँ अबहिं भवन ते आए॥**
भाष्य

मृतकों को जिलानेवाली प्रभु श्रीराम की सुहावनी वाणी जब कानों के छिद्रों से प्रविष्ट होकर मनु दम्पति के हृदय में आयी, तब उनके शरीर सुहावने, हृष्ट और पुष्ट हो गये मानो अभी–अभी घर से आये हैं।

**दो०- स्रवन सुधासम बचन सुनि, पुलक प्रफुल्लित गात।**

बोले मनु करि दंडवत, प्रेम न हृदय समात॥१४५॥

भाष्य

प्रभु श्रीराम की अमृत के समान मधुर वाणी अपने कानों से सुनकर रोमांच से प्रफुल्लित हुए शरीर वाले मनु–शतरूपा जी दण्डवत्‌ करके बोले, प्रेम उनके हृदय में नहीं समा रहा था।

**सुनु सेवक सुरतरु सुरधेनू। बिधि हरिहर बंदित पद रेनू॥ सेवत सुलभ सकल सुख दायक। प्रनतपाल सचराचर नायक॥**
भाष्य

हे सेवकों के लिए कल्पवृक्ष और कामधेनुस्वरूप श्रीराम! सुनिये, ब्रह्मा जी, विष्णु जी और शिव जी भी आपकी चरणधूलि की वन्दना करते हैं। आप सेवा करने में सुलभ हैं तथा सभी सुखों को देनेवाले हैं, आप शरणागतों के पालक और चर–अचर सभी के नायक अर्थात्‌ स्वामी हैं।

**जौ अनाथ हित हम पर नेहू। तौ प्रसन्न होइ यह बर देहू॥ जो स्वरूप बश शिव मन माहीं। जेहि कारन मुनि जतन कराहीं॥ जो भुशुण्डि मन मानस हंसा। सगुन अगुन जेहि निगम प्रशंसा॥ देखहिं हम सो रूप भरि लोचन। कृपा करहु प्रनतारति मोचन॥**
भाष्य

हे अनाथों के हितैषी प्रभु! यदि आपको हम पर प्रेम है, तो प्रसन्न होकर यह वरदान दीजिये कि, आप का जो स्वरूप शिव जी के मन में निवास करता है, जिसके लिए मुनिजन यत्न करते रहते हैं, जो काकभुशुण्डि जी के मनरूप मानस–सरोवर का हंस है। सगुण और निर्गुण के रूप में जिसकी वेदों ने प्रशंसा की है, हम उसी स्वरूप को नेत्र भर देखें। हे शरणागतों के कष्ट को नष्ट करने वाले प्रभु श्रीराम! आप ऐसी ही कृपा कीजिये।

**दंपति बचन परम प्रिय लागे। मृदुल बिनीत प्रेम रस पागे॥ भगत बछल प्रभु कृपानिधाना। बिश्वबास प्रगटे भगवाना॥**
भाष्य

कोमल, विनम्र एवं प्रेमरस से पगे हुए मनु दम्पति के वचन भगवान्‌ को बहुत प्रिय लगे तब भक्तवत्सल, सर्वसमर्थ, कृपा के कोष, सम्पूर्ण विश्व में निवास करने वाले तथा सम्पूर्ण विश्व के निवासस्थान साकेताधिपति भगवान्‌ श्रीराम प्रकट हो गये।

[[१२९]]

दो०- नील सरोरुह नील मनि, नील नीरधर श्याम।

लाजहिं तन शोभा निरखि, कोटि कोटि शत काम॥१४६॥

भाष्य

नीले कमल, नीली मरकतमणि एवं नीले वर्षाकालीन बादल के समान प्रभु श्रीराम के श्यामल श्रीविग्रह की शोभा को निहारकर करोड़ों-अरबों कामदेव लज्जित हो रहे थे।

**शरद मयंक बदन छबि सीवाँ। चारु कपोल चिबुक दर ग्रीवाँ॥**

**अधर अरुन रद सुंदर नासा। बिधु कर निकर बिनिंदक हासा॥ भा०–**शरद्‌काल के निष्कलंक पूर्ण चन्द्रमा के समान मुख, सम्पूर्ण छवियों की सीमा बन चुका था। भगवान्‌ के कपोल, ठोड़ी बहुत सुन्दर थे। शंख के समान उनका कण्ठ था। प्रभु के होठ लाल तथा दाँत और नासिका बहुत सुन्दर थे। भगवान्‌ श्रीराम का मन्द हास चन्द्रमा की किरणों के समूहों की निन्दा कर रहा था।

नव अंबुज अंबक छबि नीकी। चितवनि ललित भावती जी की॥ भृकुटि मनोज चाप छबि हारी। तिलक ललाट पटल दुतिकारी॥

भाष्य

नवीन कमल के समान भगवान्‌ के नेत्रों की छवि बहुत ही रमणीय थी, उनकी ललित चितवन जीवात्मा को भी भा रही थी। भगवान्‌ की भौंहे कामदेव के धनुष की शोभा को चुरा रही थीं। प्रभु के विशाल मस्तक पटल पर लगा हुआ ऊर्ध्व–पुण्ड्र तिलक दिव्यकान्ति को उत्पन्न कर रहा था।

**कुंडल मकर मुकुट सिर भ्राजा। कुटिल केश जनु मधुप समाजा॥ उर श्रीबत्स रुचिर बनमाला। पदिक हार भूषन मनिजाला॥**
भाष्य

प्रभु के कानों में मकर अर्थात्‌ मछली के आकार के दो कुण्डल सुशोभित हो रहे थे। प्रभु के सिर पर स्वर्ण का मुकुट शोभायमान हो रहा था। भगवान्‌ के घुँघराले केश ऐसे लग रहे थे मानो भौंरों का समूह हो। उनके हृदय पर श्रीवत्स चिह्न और श्रीचरणकमलपर्यन्त लटकने वाली तुलसी, कुन्द, मन्दार, पारिजात तथा कमल–पुष्पों से बनी वनमाला थी। हीरे का हार तथा मणियों के जाल से युक्त आभूषण सुशोभित हो रहे थे।

**केहरि कंधर चारु जनेऊ। बाहु बिभूषन सुंदर तेऊ॥**

करि कर सरिस सुभग भुजदंडा। कटि निषंग कर शर कोदंडा॥

भाष्य

सिंह के समान स्कन्ध पर सुन्दर जनेऊ सुशोभित था। जो बाहुओं में विभूषण थे वे भी बहुत सुन्दर थे। भगवान्‌ श्रीराम की सुन्दर भुजाएँ हाथी के सूँड़ के समान थीं। उनके कटि–प्रदेश में तरकस तथा श्रीहस्त में बाण, धनुष विराजमान थे।

**दो०- ततिड़ बिनिंदक पीत पट, उदर रेख बर तीनि।**

नाभि मनोहर लेति जनु, जमुन भँवर छबि छीनि॥१४७॥

भाष्य

प्रभु श्रीराम के कटितट पर विराजमान पीताम्बर बिजली की भी विशेष निन्दा कर रहा था अर्थात्‌ विद्दुत से भी अधिक प्रकाशमान था। भगवान्‌ के उदर पर श्रेष्ठ तीन रेखायें थीं। प्रभु की सुन्दर नाभि मानो यमुना जी की भँवर की शोभा को भी छीन ले रही थी।

**पद राजीव बरनि नहिं जाहीं। मुनि मन मधुप बसहिं जिन माहीं॥ भा०– **भगवान्‌ के लालकमल के समान सुन्दर चरणों का वर्णन नहीं किया जा सकता, जिनमें मुनिजन के मन

रूप भौंरें निवास करते हैं।

[[१३०]]

बाम भाग शोभति अनुकूला। आदिशक्ति छबिनिधि जगमूला॥ जासु अंश उपजहिं गुनखानी। अगनित उमा रमा ब्रह्मानी॥ भृकुटि बिलास जासु जग होई। राम बाम दिशि सीता सोई॥

भाष्य

प्रभु के वामभाग में सदैव अनुकूल रहनेवाली आदिशक्ति शोभा की खानिस्वरूप, संसार की मूल कारणस्वरूप सीता जी निरन्तर अनुकूलता के साथ सुशोभित हो रही थीं। जिनके अंश से सभी गुणों की खानि असंख्य पार्वती जी, लक्ष्मी जी तथा सरस्वती जी उत्पन्न हो जाती हैं, जिनके भृकुटि–विलासमात्र से यह चराचर जगत्‌ उत्पन्न होता है, वही भगवती सीता जी भगवान्‌ श्रीराम के वाम भाग में सुशोभित हो रहीं थीं।

**छबिसमुद्र हरि रूप बिलोकी। एकटक रहे नयन पट रोकी॥ चितवहिं सादर रूप अनूपा। तृप्ति न मानहिं मनु शतरूपा॥**
भाष्य

इस प्रकार से छवि के सागर श्रीहरि अर्थात्‌ सीता जी की पीलीकान्ति से मिलकर जिनका नीला विग्रह हरा हो गया था, ऐसे सीताभिराम श्रीराम के रूप को देखकर मनु दम्पति अपने नेत्रों के वस्त्र अर्थात्‌ पलकों को गिरने से रोककर एकटक देखते रहे। वे सादर प्रभु के अनुपम रूप को निहार रहे थे और प्रभु के दर्शन करते हुए वे (मनु–शतरूपा) तृप्ति अर्थात्‌ सन्तोष नहीं मान रहे थे।

**हरष बिबश तन दशा भुलानी। परे दंड इव गहि पद पानी॥ सिर परसे प्रभु निज कर कंजा। तुरत उठाए करुनापुंजा॥**
भाष्य

हर्ष के वश में होने से उन्हें अपने शरीर की दशा भूल गयी और प्रभु के चरणों को हाथों से पक़डकर मनु–शतरूपा दण्ड की भाँति पृथ्वी पर गिर पड़े। प्रभु श्रीराम ने अपने करकमल का मनु–शतरूपा के सिर पर स्पर्श किया और करुणा के पुंज श्रीराम ने पृथ्वी पर पड़े हुए मनु–शतरूपा को तुरन्त उठाया।

**विशेष– **यहाँ गहि पद पानी वाक्यखण्ड का प्रयोग बहुत ही भावनापूर्ण और साभिप्राय है। मनु दम्पति ने सोचा कि, कदाचित्‌ हमारी शरीर की विस्मृति का लाभ उठाकर प्रभु चले न जायें, इसीलिए अपने दोनों हाथों से प्रभु के श्रीचरणों को पक़ड लिया।

दो०- बोले कृपानिधान पुनि, अति प्रसन्न मोहि जानि।

माँगहु बर जोइ भाव मन, महादानि अनुमानि॥१४८॥

भाष्य

फिर कृपा के खजाने भगवान्‌ श्रीराम बोले, हे राजन्‌! मुझे अत्यन्त प्रसन्न जानकर और महादानी का अनुमान करके तुम वही वरदान माँगो जो तुम्हारे मन को भा रहा हो।

**सुनि प्रभु बचन जोरि जुग पानी। धरि धीरज बोले मृदु बानी॥ नाथ देखि पद कमल तुम्हारे। अब पूरे सब काम हमारे॥**
भाष्य

प्रभु के वचन सुनकर, दोनों हाथ जोड़कर धैर्य धारण करके, मनु जी कोमल वाणी में बोले, हे नाथ! आपके श्रीचरणकमलों को देखकर ही अब हमारी सभी इच्छाएँ पूरी हो गयीं।

**एक लालसा बरिड़ उ माहीं। सुगम अगम कहि जात सो नाहीं॥ तुमहि देत अति सुगम गोसाईं। अगम लाग मोहि निज कृपनाईं॥**
भाष्य

फिर भी मन में एक बहुत बड़ी लालसा है, वह सुगम भी है और अगम भी है, इसलिए वह कही नहीं जा रही है। वह देने में आपके लिए सुगम है, परन्तु अपनी कृपणता के कारण मुझे अत्यन्त अगम अर्थात्‌ कठिन लग रही है।

[[१३१]]

जथा दरिद्र बिबुधतरु पाई। बहु संपति माँगत सकुचाई॥ तासु प्रभाव जान नहिं सोई। तथा हृदय मम संशय होई॥

भाष्य

जैसे दरिद्र व्यक्ति कल्पवृक्ष को प्राप्त करके बहुत–सी सम्पत्ति माँगने में संकोच करता है, क्योंकि कल्पवृक्ष का प्रभाव वह दरिद्र नहीं जानता, उसी प्रकार मेरे मन में संशय हो रहा है।

**सो तुम जानहु अंतरजामी। पुरवहु मोर मनोरथ स्वामी॥ सकुच बिहाइ माँगु नृप मोही। मोरे नहिं अदेय कछु तोही॥**
भाष्य

हे अन्तर्यामी! आप वह जानते हैं, हे स्वामी! आप मेरे मनोरथ पूर्ण कर दीजिये। भगवान्‌ श्रीराम ने कहा, हे राजन्‌! संकोच छोड़कर मुझको मुझसे माँग लो। तुम्हारे लिए मेरे पास कुछ भी अदेय नहीं है अर्थात्‌ मैं तुम्हें सब कुछ दे सकता हूँ।

**दो०- दानि सिरोमनि कृपानिधि, नाथ कहउँ सतिभाव॥**

चाहउँ तुमहि समान सुत, प्रभु सन कवन दुराव॥१४९॥

भाष्य

हे दानियों के शिरोमणि! हे कृपानिधान! हे नाथ मैं अपने सत्यभाव कह रहा हूँ, मैं आप के समान पुत्र चाहता हूँ, अथवा मैं आपको भी चाहता हूँ और आप के समान पुत्र भी। प्रभु के सामने कैसा छिपाव?

**देखि प्रीति सुनि बचन अमोले। एवमस्तु करुनानिधि बोले॥ आपु सरिस खोजौं कहँ जाई। नृप तव तनय होब मैं आई॥**
भाष्य

मनु जी की प्रीति देखकर और उनके अमूल्य वचन सुनकर करुणा के सागर भगवान्‌ श्रीराम ‘एवमस्तु’ (ऐसा ही हो) कह कर फिर बोले, हे राजन्‌! अपने समान मैं कहाँ जाकर खोजूँ? मैं स्वयं आप की पत्नी के गर्भ में आकर आपका पुत्र बनूँगा।

**शतरूपहिं बिलोकि कर जोरे। देबि माँगु बर जो रुचि तोरे॥ जो बर नाथ चतुर नृप मागा। सोइ कृपालु मोहि अति प्रिय लागा॥**
भाष्य

शतरूपा को हाथ जोड़े हुए देखकर भगवान्‌ श्रीराम ने कहा, हे देवी! आपकी जो रुचि हो वह वरदान माँग लीजिये। अथवा, शतरूपा को देखकर प्रभु ने हाथ जोड़ लिए और बोले, हे देवी! यदि आप की रुचि हो तो आप देवी अर्थात्‌ सीता जी को ही अपनी पुत्रवधू के रूप में माँग लीजिये। शतरूपा जी ने कहा, हे नाथ! चतुर महाराज मनु ने आप से जो वरदान माँगें हैं, वही मुझे बहुत प्रिय लगे हैं, अर्थात्‌ यदि आप पुत्ररूप में हमारे यहाँ आयेंगे तब पुत्रवधू के रूप में सीता जी स्वयं आ जायेंगी।

**प्रभु परंतु सुठि होति ढिठाई। जदपि भगत हित तुमहिं सोहाई॥ तुम ब्रह्मादि जनक जग स्वामी। ब्रह्म सकल उर अंतरजामी॥ अस समुझत मन संशय होई। कहा जो प्रभु प्रमान पुनि सोई॥**
भाष्य

हे प्रभु! परन्तु मुझसे एक सुन्दर धृष्टता हो रही है। हे भक्तों के हितैषी भगवान्‌! यद्दपि वह ढिठाई आप को अच्छी लग रही है। आप ब्रह्मादि देवताओं के पिता अर्थात्‌ उत्पन्न करनेवाले हैं। आप सम्पूर्ण संसार के स्वामी, सबके हृदय के अन्तर्यामी तथा परब्रह्म हैं, फिर भी आप मेरे गर्भ में आकर हम दोनों के पुत्र बनेंगे ऐसा समझने में मन को संदेह तो हो रहा है, परन्तु आप ने जो कहा वह प्रमाण है, अर्थात्‌ यदि आप ने हमारे यहाँ पुत्र रूप में आने का वचन दे दिया तो वह सत्य होगा।

[[१३२]]

जे निज भगत नाथ तव अहहीं। जो सुख पावहिं जो गति लहहीं॥

दो०- सोइ सुख सोइ गति सोइ भगति, सोइ निज चरन सनेहु।

**सोइ बिबेक सोइ रहनि प्रभु, हमहिं कृपा करि देहु॥१५०॥ भा०– **हे प्रभु! आप भगवान्‌ हैं (षडैश्वर्य सम्पन्न हैं) इसलिए आप से यह छ: वरदान माँगती हूँ कि, हे नाथ!

जो आप के निजी भक्त हैं, वे आप से जो सुख पाते हैं और जो गति प्राप्त करते हैं, हे प्रभु! आप कृपा करके हम मनु दम्पति मनु और शतरुपा को वही सुख, वही गति, वही भक्ति, अपने चरणों में वही स्नेह, वही विवेक और वही रहनि अर्थात्‌ व्यवहार दे दीजिये।

सुनि मृदु गू़ढ रुचिर बच रचना। कृपासिंधु बोले मृदु बचना॥ जो कछु रुचि तुम्हरे मन माहीं। मैं सो दीन्ह सब संशय नाहीं॥ मातु बिबेक अलौकिक तोरे। कबहुँ न मिटिहि अनुग्रह मोरे॥

भाष्य

शतरूपा जी के कोमल और गम्भीर वचन की रचना सुनकर कृपा के सागर भगवान्‌ कोमल वाणी में बोले, हे माँ! आपके मन में जो कुछ भी रुचि है वह सब मैंने दे दिया, इसमें कोई संशय नहीं है। हे माता जी! मेरी कृपा से आपका यह अलौकिक विवेक कभी नहीं मिटेगा।

**बंदि चरन मनु कहेउ बहोरी। अवर एक बिनती प्रभु मोरी॥ सुत बिषयिक तव पद रति होऊ। मोहि बड़ मू़ढ कहै किन कोऊ॥ मनि बिनु फनि जिमि जल बिनु मीना। मम जीवन तिमि तुमहि अधीना॥**
भाष्य

फिर मनु जी ने श्रीराम जी के चरणों की वन्दना करके कहा, हे प्रभु! मेरी एक और विनती है कि, आपके चरणों में मेरी पुत्र विषयक रति हो अर्थात्‌ मैं वत्सलरस की मान्यता के अनुसार आपकी उपासना करूँ। मुझे कोई बहुत बड़ा मूर्ख क्यों न कहे अर्थात्‌ भले ही मैं लोगों की दृष्टि में बहुत–बड़ा मूर्ख रहूँ, परन्तु जैसे मणि के बिना सर्प नहीं रह सकता है, जैसे जल के बिना मछली नहीं रह सकती है, उसी प्रकार मेरा यह जीवन आप के ही अधीन रहे।

**अस बर माँगि चरन गहि रहेऊ। एवमस्तु करुनानिधि कहेऊ॥ अब तुम मम अनुशासन मानी। बसहु जाइ सुरपति रजधानी॥**
भाष्य

ऐसा वरदान माँगकर मनु जी प्रभु के श्रीचरणों को पक़ड स्थिर रह गये। करुणासागर भगवान्‌ ने एवमस्तु कहकर फिर कहा, हे मनु जी! अब आप मेरी आज्ञा मानकर माता शतरुपा के साथ इस लोक से जाकर इन्द्र की राजधानी अमरावती में निवास कीजिये।

**सो०- तहँ करि भोग बिशाल, तात गए कछु काल पुनि।**

होइहउ अवध भुआल, तब मैं होब तुम्हार सुत॥१५१।

भाष्य

हे पिताश्री ! उस अमरावती पुरी में देव–दुर्लभ सुखभोग करके, फिर आप विशाल अयोध्या के चक्रवर्ती महाराज होंगे, तब मैं आपका पुत्र होऊँगा।

**इच्छामय नरबेष सवाँरे। होइहउँ प्रगट निकेत तुम्हारे॥**

अंशन सहित देह धरि ताता। करिहउँ चरित भगत सुखदाता॥

भाष्य

मैं अपने तथा अपने भक्तजनों की इच्छा के अनुरूप सुन्दर मनुष्य वेश बनाकर आप के भवन में प्रकट होऊँगा। हे पिताश्री! अपने तीनों अंशों ब्रह्मा जी, विष्णु जी एवं शङ्कर जी के साथ अथवा, अपने तीनों अंशों

[[१३३]]

बैकुण्ठ, क्षीरसागर और श्वेतद्वीप निवासी विष्णुओं के साथ सुन्दर मनुष्य शरीर धारण करके भक्तों को सुख देनेवाले सुन्दर चरित्र करूँगा, अर्थात्‌ मुझ राम की सेवा के लिए क्षीरसागरविहारी विष्णु भरत, बैकुण्ठ–विहारी विष्णु लक्ष्मण, और श्वेतद्वीपविहारी विष्णु शत्रुघ्न के रूप में जन्म लेंगे।

**विशेष– **क्षीराधीशस्तु भरतो बैकुण्ठेशस्तुलक्ष्मणः, श्वेतद्वीपेशशत्रुघ्नो रामसेवार्थमागता:। जे सुनि सादर नर बड़भागी। भव तरिहैं ममता मद त्यागी॥ आदिशक्ति जेहिं जग उपजाया। सोउ अवतरिहिं मोरि यह माया॥

भाष्य

जिन चरित्रों को आदरपूर्वक सुनकर भाग्यशाली मनुष्य ममता और मद छोड़ संसार–सागर से तर जायेंगे। जिन आदिशक्ति सीता जी ने ब्रह्मा जी के माध्यम से जगत्‌ को बनाकर उत्पन्न किया वह मेरी माया आह्लादिनीशक्ति भी मिथिलांचल में जनकराज की पुत्री के रूप में पृथ्वी से अवतार लेंगी।

**पुरउब मैं अभिलाष तुम्हारा। सत्य सत्य पन सत्य हमारा॥ पुनि पुनि अस कहि कृपानिधाना। अंतरधान भए भगवाना॥**
भाष्य

मैं आप की अभिलाषा को पूर्ण करूँगा। हमारी प्रतिज्ञा सत्य है! सत्य है! सत्य है! कृपा के निधान भगवान्‌ श्रीराम मनु जी को बार–बार इस प्रकार आश्वासन देकर अन्तर्धान हो गये।

**दंपति उर धरि भगत कृपाला। तेहिं आश्रम निवसे कछु काला॥ समय पाइ तनु तजि अनयासा। जाइ कीन्ह अमरावति बासा॥**
भाष्य

भक्तों पर कृपालु भगवान्‌ श्रीराम को हृदय में धारण करके मनु और शतरूपा कुछ समय तक नैमिषारण्य के उसी आश्रम में निवास किये। समय पाकर अर्थात्‌ शरीर का प्रारब्ध क्षीण हो जाने पर, बिना प्रयास के पांचभौतिक शरीर को छोड़कर मनु–शतरूपा ने स्वर्ग जाकर अमरावती में निवास किया।

**दो०- यह इतिहास पुनीत अति, उमहिं कहेउ बृषकेतु।**

भरद्वाज सुनु अपर पुनि, राम जनम कर हेतु॥१५२॥

भाष्य

हे भरद्वाज जी! यह अत्यन्त पवित्र इतिहास शिव जी ने पार्वती जी से कहा, फिर दूसरा श्रीरामजन्म का हेतु सुनो।

**सुनु मुनि कथा पुनीत पुरानी। जो गिरिजा प्रति शंभु बखानी॥ बिश्व बिदित एक कैकय देशू। सत्यकेतु तहँ बसइ नरेशू॥ धरम धुरंधर नीति निधाना। तेज प्रताप शील बलवाना॥ तेहि के भए जुगल सुत बीरा। सब गुन धाम महा रनधीरा॥ राज धनी जो जेठ सुत आही। नाम प्रतापभानु अस ताही॥ अपर सुतहि अरिमर्दन नामा। भुजबल अतुल अचल संग्रामा॥**
भाष्य

याज्ञवल्क्य जी, भरद्वाज जी को सम्बोधित करते हुए कहते हैं कि, हे भरद्वाज मुनि! अब वह पुनीत और पुरानी कथा सुनो, जिसे पार्वती जी के प्रति शिव जी ने कही थी। विश्व में प्रसिद्ध कैकय नाम का एक देश है, जिसमें सत्यकेतु नाम का राजा निवास करता था। वह धर्म–धुरन्धर तथा नीति का निधान था। वह तेज, प्रताप और शील–गुणों से युक्त तथा बलवान भी था। उस सत्यकेतु के दो वीरपुत्र उत्पन्न हुए जो, सब गुणों के धाम और युद्ध में अत्यन्त धीर थे। महाराजा का जो ज्येष्ठपुत्र था, उसका प्रतापभानु इस प्रकार का सार्थक नाम था। सत्यकेतु के दूसरे पुत्र का नाम अरिमर्दन था, जो अतुलनीय भुजबलवाला और संग्राम में अटल था।

[[१३४]]

भाइहिं भाइहिं परम समीती। सकल दोष छल बरजित प्रीती॥ जेठे सुतहिं राज नृप दीन्हा। हरि हित आपु गमन बन कीन्हा॥

भाष्य

भाई–भाई में परस्पर समन्वय था और सम्पूर्ण दोषों और छल से रहित प्रेम था। महाराज ने बड़े पुत्र को राज्य दिया और स्वयं प्रभु की प्राप्ति के लिए वन चले गये।

**दो०- जब प्रतापरबि भयउ नृप, फिरी दोहाई देश।**

प्रजा पाल अति बेदबिधि, कतहुँ नाहिं अघ लेश॥१५३॥

भाष्य

जब प्रतापभानु राजा बने तो देश में उनकी दुहाई फिर गई। वे वेदविधि के अनुसार प्रजा का पालन करते थे और उनके राज्य में कहीं भी पाप का लेश भी नहीं था।

**नृप हितकारक सचिव सयाना। नाम धरमरुचि शुक्र समाना॥ सचिव सयान बंधु बलबीरा। आपु प्रतापपुंज रनधीरा॥ सैन संग चतुरंग अपारा। अमित सुभट सब समर जुझारा॥**
भाष्य

महाराज का हित करनेवाला धर्मव्रᐃच नामक मंत्री बहुत चतुर और नीति में शुक्र के समान था। मंत्री ज्ञानवृद्ध था तथा छोटा भाई अत्यन्त बलशाली और वीर था। राजा स्वयं प्रताप का समूह रूप तथा युद्ध में धीर था, उसके पास अपार चतुरंगिणी सेना थी, जिसमें असीम योद्धा थे, जो समर में बहुत ही लड़ाकू थे।

**सेन बिलोकि राउ हरषाना। अरु बाजे गहगहे निसाना॥ बिजय हेतु कटकई बनाई। सुदिन साधि नृप चलेउ बजाई॥**
भाष्य

अपनी सेना को देखकर राजा बहुत प्रसन्न हुआ और युद्ध के लिए गहगहे अर्थात्‌ ऊँचे स्वर से नगारे बज उठे। दिग्विजय के लिए महाराज ने सेना सजायी। सुन्दर मुहूर्त निकालकर नगारे बजाकर वह दिग्विजय के लिए निकल पड़ा।

**जहँ तहँ परी अनेक लराईं। जीते सकल भूप बरियाईं॥ सप्त दीप भुजबल बश कीन्हे। लै लै दण्ड छानिड़ ृप दीन्हे॥ सकल अवनि मंडल तेहि काला। एक प्रतापभानु महिपाला॥**
भाष्य

जहाँ–तहाँ अनेक युद्ध आन पड़े, प्रतापभानु ने सभी राजाओं को बलपूर्वक जीता और जम्बूद्वीप, लक्षद्वीप, कुशद्वीप, सातद्वीप, क्रंचद्वीप, शालमणिद्वीप तथा पुष्करद्वीप इन सातों द्वीपों को अपने भुजबल के वश में कर लिया। सब राजाओं से दण्ड लेकर उन्हें छोड़ दिया। उस समय सम्पूर्ण पृथ्वीमण्डल पर प्रतापभानु एकमात्र राजा था।

**दो०- स्वबश बिश्व करि बाहुबल, निज पुर कीन्ह प्रबेश।**

**अरथ धरम कामादि सुख, सेवइ समय नरेश॥१५४॥ भा०– **अपने बाहु के बल से सम्पूर्ण विश्व को अपने वश में करके प्रतापभानु ने अपने पुर में प्रवेश किया। वह समयानुसार अर्थ, धर्म, काम आदि सुखों का भोग करता था।

भूप प्रतापभानु बल पाई। कामधेनु भइ भूमि सुहाई॥ सब दुख बरजित प्रजा सुखारी। धरम शील सुंदर नर नारी॥

[[१३५]]

भाष्य

प्रतापभानु का बल पाकर सुहावनी पृथ्वी कामधेनु के समान हो गयी। उसकी प्रजा सभी दु:खों से रहित और सुखी थी। वहाँ सभी नर–नारी स्वभाव से धार्मिक और सुन्दर थे ।

**सचिव धरमरुचि हरि पद प्रीती। नृप हित हेतु सिखव नित नीती॥**

**गुरु सुर संत पितर महिदेवा। करइ सदा नृप सब कै सेवा॥ भा०– **प्रतापभानु का मन्त्री धर्मरुचि भगवान्‌ के चरणों में प्रीति रखता था और वह राजा के हित के लिए ही उसे निरन्तर नीति सिखाता रहता था। राजा सदैव गुरु, देवता, सन्त, पितृगण और ब्राह्मण इन सबकी सेवा करता था।

भूप धरम जे बेद बखाने। सकल करइ सादर सुख माने॥ दिन प्रति देइ बिबिध बिधि दाना। सुनइ शास्त्र बर बेद पुराना॥

भाष्य

वेदों में जो राजा के धर्म कहे गये हैं, प्रतापभानु उन सबका आदरपूर्वक सुख मानकर पालन करता था। वह प्रतिदिन अनेक प्रकार के दान देता था और वेद, पुराण तथा श्रेष्ठ ग्रन्थ सुनता था।

**नाना बापी कूप तड़ागा। सुमन बाटिका सुंदर बागा॥ बिप्रभवन सुरभवन सुहाए। सब तीरथनि बिचित्र बनाए॥**
भाष्य

प्रतापभानु ने सभी तीर्थों में अनेक प्रकार की बावलियाँ, कुँए, तालाब, पुष्पवाटिका, सुन्दर बगीचे, ब्राह्मणशाला तथा सुन्दर–सुन्दर देवताओं के मंदिर विचित्र प्रकार से बनवाये।

**दो०- जहँ लगि कहे पुरान श्रुति, एक एक सब जाग।**

बार सहस्र सहस्र नृप, किए सहित अनुराग॥१५५॥

भाष्य

जहाँ तक पुराणों और वेदों ने कहा है, उन सभी यज्ञों में से प्रत्येक को राजा ने करोड़ों बार अनुरागपूर्वक किया।

**हृदय न कछु फल अनुसंधाना। भूप बिबेकी परम सुजाना॥ करइ जे धरम करम मन बानी। बासुदेव अर्पित नृप ग्यानी॥**
भाष्य

प्रतापभानु विवेकी और बहुत चतुर था, उसके हृदय में कुछ फल का अनुसन्धान नहीं हुआ था अर्थात्‌ वह सभी वैदिक अनुष्ठान कर्त्तव्यबुद्धि से करता था। ज्ञानी राजा कर्म, मन और वाणी से जो भी धर्माचरण करता था, उसे भगवान्‌ वासुदेव को समर्पित कर देता था।

**चढि़ बर बाजि बार एक राजा। मृगया कर सब साजि समाजा॥ बिंध्याचल गभीर बन गयऊ। मृग पुनीत बहु मारत भयऊ॥**
भाष्य

एक बार आखेट का सम्पूर्ण उपकरण सजाकर श्रेष्ठ घोड़े पर च़ढकर राजा प्रतापभानु विन्ध्याचल के गम्भीर वन में गया और वहाँ उसने बहुत से पवित्र मृगों को मारा।

**फिरत बिपिन नृप दीख बराहू। जनु बन दुरेउ शशिहिं ग्रसि राहू॥ बड़ बिधु नहिं समात मुख माहीं। मनहु क्रोध बश उगिलत नाहीं॥ कोल कराल दशन छबि गाई। तनु बिशाल पीवर अधिकाई॥ घुरघुरात हय आरौ पाए। चकित बिलोकत कान उठाए॥**
भाष्य

वन में भ्रमण करते हुए राजा ने एक सुअर को देखा। उसके बहुत बड़े दाँत थे, जो मुख बन्द करने पर भी पूरे बन्द न होने के कारण बाहर से दिखते थे। ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो, चन्द्रमा को ग्रसकर राहु वन में छिप गया है। चन्द्रमा आकार में बड़ा होने के कारण राहु के मुख में नहीं समाता, मानो क्रोध के वश में होकर राहु उसे

[[१३६]]

उगल नहीं रहा हो। इस प्रकार भयंकर सुअर के दाँत की छवि कही, उसका शरीर विशाल और बहुत ही मोटा था। घोड़े का संकेत पाकर वह घुरघुरा रहा था और चकित होकर अपने कान उठाकर देख रहा था।

दो०- नील महीधर शिखर सम, देखि बिशाल बराहु।

**चपरि चलेउ हय सुटुकि नृप, हाँकि न होइ निबाहु॥१५६॥ भा०– **नील पर्वत के समान शरीरवाले सुअर को देखकर, घोड़े को कोड़े से मार कर राजा ने सुअर को ललकारा, अब तेरा निर्वहन नहीं होगा और ऐसा कह कर शीघ्रता से चला।

आवत देखि अधिक रय बाजी। चलेउ बराह मरुत गति भाजी॥ तुरत कीन्ह नृप शर संधाना। महि मिलि गयउ बिलोकत बाना॥

भाष्य

अधिक वेग से घोड़े को अपने पास आते देखकर, सुअर वायु कि गति से भाग चला। राजा ने तुरन्त धनुष पर बाण को सन्धान किया, पर सुअर बाण को देखते ही पृथ्वी से चिपक गया, जिससे राजा का निशाना व्यर्थ गया।

**तकि तकि तीर महीश चलावा। करि छल सुअर शरीर बचावा॥ प्रगटत दुरत जाइ मृग भागा। रिसि बश भूप चलेउ सँग लागा॥**
भाष्य

राजा प्रतापभानु ताक–ताक कर अर्थात्‌ सूक्ष्मता से साध–साध कर बाण चलाता रहा और मायावी सुअर छल करके प्रतापभानु के बाणों से अपना शरीर बचाता रहा। इस प्रकार मृग अर्थात्‌ शिकारी का लक्ष्य–पशु प्रकट होते छिपते भागता रहा और क्रोध के वश में होकर प्रतापभानु उसके साथ लग गया।

**गयउ दूरि घन गहन बराहू। जहँ नाहिन गज बाजि निबाहू॥**

अति अकेल बन बिपुल कलेशू। तदपि न मृग मग तजइ नरेशू॥

भाष्य

वह वराह बहुत दूर घने जंगल में गया, जहाँ हाथी–घोड़े जैसे बड़े पशुओं का निर्वाह सम्भव नहीं था। राजा अत्यन्त अकेला पड़ गया था, वहाँ उसे अत्यन्त क्लेश हो रहा था, फिर भी वह अपने लक्ष्य मृग का मार्ग नहीं छोड़ रहा था।

**कोल बिलोकि भूप बड़ धीरा। भागि पैठ गिरिगुहा गंभीरा॥ अगम देखि नृप अति पछताई। फिरेउ महाबन परेउ भुलाई॥**
भाष्य

कोल अर्थात्‌ सुअर प्रतापभानु को अत्यन्त धैर्यवान देखकर भाग कर पर्वत की गहरी गुफा में प्रवेश कर गया। उसे अगम्य देखकर मन में बहुत पछताता हुआ राजा लौटा और महान्‌ वन में वह अपना मार्ग भूल पड़ा।

**दो०- खेद खिन्न छुद्धित तृषित, राजा बाजि समेत।**

**खोजत ब्याकुल सरित सर, जल बिनु भयउ अचेत॥१५७॥ भा०– **श्रम के कारण खिन्न, भूखा–प्यासा प्रतापभानु राजा घोड़े के सहित व्याकुल होकर नदी, तालाब खोजता रहा। वह जल के बिना चेतनाशून्य हो गया।

फिरत बिपिन आश्रम एक देखा। तहँ बस नृपति कपट मुनिबेषा॥ जासु देश नृप लीन्ह छड़ाई। समर सैन तजि गयउ पराई॥ समय प्रतापभानु कर जानी। आपन अति असमय अनुमानी॥ गयउ न गृह मन बहुत गलानी। मिला न राजहिं नृप अभिमानी॥

[[१३७]]

भाष्य

वन में भटकते हुए प्रतापभानु ने एक आश्रम देखा वहाँ एक राजा कपटमुनि के वेश में निवास कर रहा था। प्रतापभानु राजा ने जिसका देश उससे छीन लिया था, और वह राजा युद्ध में अपनी सेना छोड़कर भाग गया था। प्रतापभानु का समय जानकर और अपने समय को अत्यन्त विपरीत अनुमानित कर वह अपने घर लौटकर नहीं गया। उसके मन में बहुत ग्लानि थी और पराजित हुए अभिमानी राजा ने प्रतापभानु से मेल–जोल भी नहीं किया।

**रिस उर मारि रंक जिमि राजा। बिपिन बसइ तापस के साजा॥ तासु समीप गमन नृप कीन्हा। यह प्रतापरबि तेहिं तब चीन्हा॥**
भाष्य

क्रोध को अपने हृदय में मारकर वह पराजित राजा तपस्वी का साज–सजाकर दरिद्र की भाँति वन में आश्रम बनाकर रह रहा था। प्रतापभानु ने उसी के समीप गमन किया अर्थात्‌ गया। उस कपटी राजा ने यह तो प्रतापभानु है, इस प्रकार स्मरण करके राजा प्रतापभानु को पहचान लिया।

**राउ तृषित नहिं सो पहिचाना। देखि सुबेष महामुनि जाना॥ उतरि तुरग ते कीन्ह प्रनामा। परम चतुर न कहेउ निज नामा॥**
भाष्य

प्यासे राजा ने अपने शत्रु को नहीं पहचाना। उसका सुन्दर तपस्वी वेश देखकर उसे महान्‌ मुनि जाना। प्रतापभानु ने घोड़े से उतरकर उस कपटीमुनि को प्रणाम किया। परमचतुर होने के कारण कपटीमुनि ने अपना नाम नहीं बताया, अथवा परमचतुर राजा ने प्रणाम करते समय अपना नाम नहीं बताया।

**दो०- भूपति तृषित बिलोकि तेहिं, सरबर दीन्ह देखाइ।**

मज्जन पान समेत हय, कीन्ह नृपति हरषाइ॥१५८॥

भाष्य

राजा को प्यासा देखकर कपटीमुनि ने उसे श्रेष्ठ तालाब दिखा दिया। राजा प्रतापभानु ने घोड़े सहित प्रसन्न होकर वहाँ स्नान और जलपान किया।

**गै श्रम सकल सुखी नृप भयऊ। निज आश्रम तापस लै गयऊ॥**

**आसन दीन्ह अस्त रबि जानी। पुनि तापस बोलेउ मृदु बानी॥ भा०– **तालाब में स्नान और जलपान से राजा प्रतापभानु के सब प्रकार के श्रम समाप्त हो गये अर्थात्‌ सारी थकान उतर गयी। राजा सुखी हो गया, कपटीमुनि राजा को अपने आश्रम ले गया। उसे बैठने के लिए आसन दिया तथा सूर्यनारायण को अस्त हुआ जानकर फिर वह तपस्वी कोमल वाणी में बोला।

को तुम कस बन फिरहु अकेले। सुंदर जुबा जीव परहेले॥

चक्रबर्ति के लच्छन तोरे। देखत दया लागि अति मोरे॥

भाष्य

तुम कौन हो और सुन्दर युवक होकर अपने प्राणों पर खेलते हुए अकेले वन में कैसे घूम रहे हो? तुम्हारे चक्रवर्ती के लक्षण देखते ही मुझे दया लग गयी।

**नाम प्रतापभानु अवनीशा। तासु सचिव मैं सुनहु मुनीशा॥ फिरत अहेरें परेउँ भुलाई। बड़े भाग देखउँ पद आई॥ हम कहँ दुर्लभ दरस तुम्हारा। जानत हौं कछु भल होनिहारा॥**
भाष्य

हे मुनीश्वर! सुनिये, प्रतापभानु नाम के एक राजा हैं, उनका मैं मंत्री हूँ। आखेट में भ्रमण करते हुए मैं मार्ग भूल गया, बहुत भाग्य से आपके चरणों के दर्शन कर रहा हूँ। हे मुनिश्रेष्ठ! हमारे लिए तो आपके दर्शन भी दुर्लभ हैं। मैं जान रहा हूँ कि, अब कुछ भला होनेवाला है।

[[१३८]]

कह मुनि तात भयउ अँधियारा। जोजन सत्तरि नगर तुम्हारा॥

दो०- निशा घोर गंभीर बन, पंथ न सूझ सुजान।

**बसहु आजु अस जानि तुम, जाएहु होत बिहान॥१५९(क)॥ भा०– **कपटीमुनि ने कहा, हे तात! अर्थात्‌ हे प्रिय, अब अँधेरा हो गया है। यहाँ से तुम्हारा नगर सत्तर योजन दूर है। यह घोर अँधेरी रात है और वन बहुत ही घोर अर्थात्‌ घना है। हे सुजान! अभी मार्ग नहीं सूझ रहा है। तुम ऐसा जानकर आज यहीं रुक जाओ, प्रात:काल होते ही चले जाना।

दो०- तुलसी जसि भवितब्यता, तैसी मिलइ सहाइ॥

**आप न आवइ ताहि पहँ, ताहि तहाँ लै जाइ॥१५९(ख)॥ भा०– **तुलसीदास जी कहते हैं कि, जैसी भवितव्यता होती है, उसी प्रकार की वहाँ सहायता भी मिल जाती है। वह भावी अनर्थवाले व्यक्ति के पास स्वयं नहीं आती दु:ख के पात्र को दु:ख के पास स्वयं ले जाती है। जैसे की

कपटीमुनि प्रतापभानु के पास नहीं आया, प्रत्युत्‌ प्रतापभानु को ही भवितव्यता कपटीमुनि के पास ले गई।

भलेहिं नाथ आयसु धरि शीशा। बाँधि तुरग तरु बैठ महीशा॥ नृप बहु भाँति प्रशंसेउ ताही। चरन बंदि निज भाग्य सराही॥

भाष्य

हे नाथ ! बहुत ही अच्छा है, इस प्रकार कपटीमुनि की आज्ञा शिरोधार्य करके प्रतापभानु वृक्ष में घोड़े को बाँधकर कपटीमुनि के पास बैठ गया। राजा ने कपटीमुनि की प्रशंसा की और उसके चरणों की वन्दना करके अपने भाग्य की सराहना की।

**पुनि बोलेउ मृदु गिरा सोहाई। जानि पिता प्रभु करउँ ढिठाई॥ मोहि मुनीश सुत सेवक जानी। नाथ नाम निज कहहु बखानी॥**
भाष्य

फिर प्रतापभानु कोमल सुहावनी वाणी बोला, हे प्रभु! आप को पिता जानकर मैं धृष्टता कर रहा हूँ। हे मुनिराज! मुझे अपना पुत्र और सेवक जानकर अपना नाम बखान कर बताइये।

**तेहि न जान नृप नृपहिं सो जाना। भूप सुहृद सो कपट सयाना॥ बैरी पुनि छत्री पुनि राजा। छल बल कीन्ह चहइ निज काजा॥ समुझि राजसुख दुखित अराती। अवाँ अनल इव सुलगइ छाती॥ सरल बचन नृप के सुनि काना। बैर सँभारि हृदय हरषाना॥**
भाष्य

राजा प्रतापभानु उसे नहीं जान सका पर कपटीमुनि ने राजा को पहचान लिया। राजा प्रतापभानु मित्र– प्रकृति का शुद्ध था और कपटीमुनि कपट में निपुण था। एक तो वह प्रतापभानु का शत्रु, दूसरे वह क्षत्रिय और तीसरे राजा। वह छल–बल से अपना कार्य सिद्ध करना चाहता था। अपने राज्य–सुख को स्मरण करके प्रतापभानु का शत्रु अत्यन्त दु:खी था, उसका हृदय कुम्हार के आँवे की भाँति सुलग रहा था। राजा के सरल वचन को कान से सुनकर कपटीमुनि पूर्व–वैर का स्मरण करके हृदय में प्रसन्न हुआ।

**दो०- कपट बोरि बानी मृदुल, बोलेउ जुगुति समेत।**

**नाम हमार भिखारि अब, निर्धन रहित निकेत॥१६०॥ भा०– **कपटीमुनि कपट के जल में डूबोकर युक्ति के साथ कोमल वाणी बोला, मेरा नाम भिखारी है, क्योंकि

अब मैं धनहीन और गृह से भी हीन हूँ।

[[१३९]]

कह नृप जे बिग्यान निधाना। तुम सारिखे गलित अभिमाना॥ सदा अपनपौ रहहिं दुराए। सब बिधि कुशल कुबेष बनाए॥

भाष्य

राजा प्रतापभानु ने कहा कि, जो लोग विज्ञान के निधान अर्थात्‌ ब्रह्मवेत्ता महापुरुष होते हैं, वे आप के ही समान अभिमान को नष्ट किये रहते हैं। वे निरन्तर सबप्रकार से कुशल होते हुए भी कुवेश अर्थात्‌ प्रतिकूल वेश बनाये हुए अपने स्वरूप को छिपाये रहते हैं।

**तेहि ते कहहिं संत श्रुति टेरे। परम अकिंचन प्रिय हरि केरे॥ तुम सम अधन भिखारि अगेहा। होत बिरंचि शिवहिं संदेहा॥**
भाष्य

इसी कारण सन्त और वेद पुकार कर कहते हैं कि, जो लोग परम अकिंचन अर्थात्‌ पुत्रैषणा, वितैषणा और लोकैषणा से रहित होते हैं, वे ही सन्तजन भगवान्‌ को प्रिय होते हैं। वस्तुत: आप जैसे लोग निर्धन, भिक्षुक और बिना घर के हों इस विषय पर ब्रह्मा जी और शिव जी को भी संदेह हो जाता है। अथवा, आप लोगों को निर्धन, भिखारी और गृहशून्य देखकर यह संदेह होता है कि, आप कहीं ब्रह्मा या शिव जी तो नहीं हैं।

**जोसि सोसि तव चरन नमामी। मो पर कृपा करिय अब स्वामी॥ भा०–**आप जो हैं वह हैं, मैं आपके चरणों को नमन करता हूँ। हे स्वामी\! अब मुझ पर कृपा कीजिये।

सहज प्रीति भूपति कै देखी। आपु बिषय बिश्वास बिशेषी॥ सब प्रकार राजहिं अपनाई। बोलेउ अधिक सनेह जनाई॥

भाष्य

राजा की स्वाभाविक प्रीति और अपने विषय में विशेष विश्वास देखकर, सब प्रकार से राजा प्रतापभानु को अपने वश में करके अधिक स्नेह का दिखावा करके कपटीमुनि बोला–

**सुनु सतिभाव कहउँ महिपाला। इहाँ बसत बीते बहु काला॥**

दो०- अब लगि मोहि न मिलेउ कोउ, मैं न जनावउँ काहु।

लोकमान्यता अनल सम, कर तप कानन दाहु॥१६१(क)

भाष्य

हे राजा! सुनो, मैं सत्यभाव से कह रहा हूँ। यहाँ मुझे निवास करते हुए बहुत समय बीत गये। अब तक मुझे कोई नहीं मिला अर्थात्‌ मैं जनसम्पर्क से दूर रहा। मैं भी किसी के सामने अपने को प्रकट नहीं करता, क्योंकि लोक का सम्मान अग्नि के समान है जो तपस्या रूप वन को भस्मसात्‌ कर देता है।

**विशेष– **‘अभिमानं सुरापानं गौरवं घोर रौरवं प्रतिष्ठा सूकरीविष्ठा त्रयं त्यक्त्वा सुखी भवेत्‌’ अर्थात्‌ अभिमान मदिरापान के समान है गौरव अर्थात्‌ बड़े का बोध रौरव नरक के समान दु:खदायी है और प्रतिष्ठा सुअर के मल के समान है, इन तीनों का बोध छोड़कर साधक सुखी हो जाता है।

सो०- तुलसी देखि सुबेषु, भूलहिं मू़ढ न चतुर नर।

**सुंदर केकिहिं पेखु, बचन सुधासम अशन अहि॥१६१(ख)॥ भा०– **तुलसीदास जी कहते हैं कि, सुन्दर वेश देखकर मोह से ग्रस्त लोग ही भुलावे में आते हैं, चतुर लोग बहकावे में नही आते। सुन्दर मोर को देखो, उसकी वाणी तो अमृत के समान है किन्तु उसका भोजन है भयंकर

विषवाला साँप ।

ताते गुपुत रहउ जग माहीं। हरि तजि किमपि प्रयोजन नाहीं॥ प्रभु जानत सब बिनहिं जनाए। कहहु कवन सिधि लोक रिझाए॥

[[१४०]]

भाष्य

इसलिए मैं संसार में गुप्त रहता हूँ, क्योंकि श्रीहरि को छोड़कर मेरा किसी से कोई प्रयोजन नहीं है। प्रभु बिन जनाये ही सब कुछ जान लेते हैं, भला बताओ, लोक को रिझाने से कौन–सी सिद्धि मिल सकती है?

**तुम शुचि सुमति परम प्रिय मोरे। प्रीति प्रतीति मोहि पर तोरे॥ अब जौ तात दुरावउँ तोही। दारुन दोष घटइ अति मोही॥**
भाष्य

तुम पवित्र सुन्दर बुद्धिवाले और मुझे परमप्रिय हो, मुझ पर तुम्हें प्रीति और विश्वास है। अब यदि मैं तुमसे कुछ छिपाता हूँ, तो मुझे अत्यन्त भयंकर दोष लगेगा।

**जिमि जिमि तापस कथइ उदासा। तिमि तिमि नृपहिं उपज बिश्वासा॥ देखा स्वबश कर्म मन बानी। तब बोला तापस बक ध्यानी॥**
भाष्य

जैसे–जैसे तापसमुनि उदासभाव से बोल रहा था, वैसे–वैसे प्रतापभानु को उस पर विश्वास होता जाता था। जब कपटीमुनि ने प्रतापभानु को मनसा, वाचा, कर्मणा अपने वश में देख लिया तब बगुले के समान ध्यान का आडम्बर करनेवाला अवसरवादी कपटी तपस्वी मुनि बोला–

**नाम हमार एकतनु भाई। सुनि नृप बोलेउ पुनि सिर नाई॥**

कहहु नाम कर अरथ बखानी। मोहि सेवक अति आपन जानी॥

भाष्य

हे भाई! मेरा नाम एकतनु है। यह सुनकर फिर सिर नवाकर राजा बोला, मुझको अपना अत्यन्त सेवक जानकर आप इस नाम का अर्थ बखान कर कहिये।

**दो०- आदिसृष्टि उपजी जबहिं, तब उतपति भइ मोरि।**

नाम एकतनु हेतु तेहि, देह न धरी बहोरि॥१६२॥

भाष्य

जब प्रथम सृष्टि उत्पन्न हुई तभी मेरी भी उत्पत्ति हो गयी थी। इसी कारण मेरा एकतनु नाम है, क्योंकि मैंने फिर शरीर धारण नहीं किया।

**जनि आचरज करहु मन माहीं। सुत तप ते दुर्लभ कछु नाहीं॥ तपबल ते जग सृजइ बिधाता। तपबल बिष्णु भए परित्राता॥ तपबल शंभु करहिं संघारा। तप ते अगम न कछु संसारा॥**
भाष्य

मेरे विषय में इस प्रकार सुनकर कोई आश्चर्य मत करो पुत्र। इस संसार में तपस्या से कुछ भी दुर्लभ नहीं है। तप के बल से ही ब्रह्मा जी संसार की रचना करते हैं, तप के बल से ही विष्णु जी संसार के रक्षक बन सके हैं, शिव जी तप के बल से ही संहार करते हैं। संसार में तप से कुछ भी अगम नहीं है।

**भयउ नृपहिं सुनि अति अनुरागा। कथा पुरातन कहै सो लागा॥ करम धरम इतिहास अनेका। करइ निरूपन बिरति बिबेका॥ उदभव पालन प्रलय कहानी। कहेसि अमित आचरज बखानी॥**
भाष्य

यह सुनकर प्रतापभानु के मन में अत्यन्त प्रेम हुआ और वह कपटीमुनि पुरानी कथा कहने लगा। वह कर्म और धर्म के अनेक इतिहास तथा वैराग्य और ज्ञान का निरूपण करने लगा। अनेक आश्चर्यों वाली उत्पत्ति, पालन और प्रलय की कहानियाँ उसने व्याख्यान करके कही।

**सुनि महीप तापस बश भयऊ। आपन नाम कहन तब लयऊ॥ कह तापस नृप जानउँ तोही। कीन्हेहु कपट लाग भल मोही॥**

[[१४१]]

भाष्य

यह सुनकर प्रतापभानु राजा तपस्वी के वश में हो गया और वह तब अपना नाम कहने के लिए जिह्वा पर शब्द लाया। तपस्वी ने कहा, राजन्‌! मैं तुम्हें जानता हूँ। तुमने मुझसे कपट किया फिर भी मुझे बहुत अच्छा लगा।

**सो०- सुनु महीश असि नीति, जहँ तहँ नाम न कहहिं नृप।**

मोहि तोहि पर अति प्रीति, सोइ चतुरता बिचारि तव॥१६३॥

भाष्य

हे राजन्‌! ऐसी राजनीति है कि, राजा जहाँ–तहाँ अपना नाम नहीं कहते। तुम्हारी इसी चतुरता का विचार करके तुम पर मुझे अत्यन्त प्रेम है।

**नाम तुम्हार प्रताप दिनेशा। सत्यकेतु तव पिता नरेशा॥**

गुरु प्रसाद सब जानिय राजा। कहिय न आपन जानि अकाजा॥

भाष्य

हे राजन्‌! तुम्हारा नाम प्रतापभानु है और सत्यकेतु तुम्हारे पिता हैं। हे राजा! हम अपने गुरुदेव के प्रसाद से सब जानते हैं, परन्तु अपने कार्य की बहुत बड़ी हानि समझकर नहीं कहते हैं।

**देखि तात तव सहज सुधाई। प्रीति प्रतीति नीति निपुनाई॥ उपजि परी ममता मन मोरे। कहउँ कथा निज पूछे तोरे॥**
भाष्य

तुम्हारी स्वाभाविक सरलता, प्रेम, विश्वास और नीति की निपुणता देखकर मेरे मन में अत्यन्त ममता उमड़ पड़ी। तुम्हारे पूछने पर मैं अपनी कथा कह रहा हूँ।

**अब प्रसन्न मैं संशय नाहीं। माँगु जो भूप भाव मन माहीं॥ सुनि सुबचन भूपति हरषाना। गहि पद बिनय कीन्ह बिधि नाना॥**
भाष्य

हे राजन्‌! अब मैं प्रसन्न हूँ, कोई संशय नहीं है, जो तुम्हें मन में अच्छा लगे, वह मुझसे माँग लो। कपटीमुनि के सुन्दर वचन सुनकर राजा प्रसन्न हुआ और कपटीमुनि के चरण पक़डकर अनेक प्रकार से विनय किया।

**कृपासिंधु मुनि दरसन तोरे। चारि पदारथ करतल मोरे॥ प्रभुहिं तथापि प्रसन्न बिलोकी। मागि अगम बर होउँ अशोकी॥**
भाष्य

हे कृपासागर मुनि! यद्दपि आपके दर्शन से ही मेरे लिए चारों पदार्थ हस्तगत्‌ हैं, फिर भी प्रभु को प्रसन्न देखकर अगम वरदान माँग कर मैं शोकरहित हो जाना चाहता हूँ।

**दो०- जरा मरन दुख रहित तनु, समर जितै जनि कोउ।**

एकछत्र रिपुहीन महि, राज कलप शत होउ॥१६४॥

भाष्य

हे मुनिवर! मेरा शरीर वृद्धावस्था और मरण से रहित हो जाये। मुझे युद्ध में कोई न जीत सके और इस पृथ्वी पर मेरा सौ कल्पपर्यन्त एकछत्र शत्रुहीन अकंटक राज्य हो जाये।

**कह तापस नृप ऐसेइ होऊ। कारन एक कठिन सुनु सोऊ॥ कालउ तुअ पद नाइहि शीशा। एक बिप्रकुल छामिड़ हीशा॥**
भाष्य

तपस्वी ने कहा, राजन्‌! ऐसा ही हो, पर एक कठिन कारण है, उसे भी सुनो, हे राजन्‌! ब्राह्मणकुल छोड़कर काल भी तुम्हारे चरण में सिर नवायेगा।

[[१४२]]

तपबल बिप्र सदा बरियारा। तिन के कोप न कोउ रखवारा॥ जौ बिप्रन बश करहु नरेशा। तौ तुअ बश बिधि बिष्णु महेशा॥

भाष्य

तपस्या के बल से ही ब्राह्मण सदैव बलिष्ठ रहते हैं। उन ब्राह्मणों के क्रोध से तुम्हारा कोई बचाने वाला नहीं हो सकेगा। यदि ब्राह्मणों को वश में कर लो, तब तो ब्रह्मा जी, विष्णु जी और शिव जी भी तुम्हारे वश में हो जायेंगे।

**चल न ब्रह्मकुल सन बरियाई। सत्य कहउँ दोउ भुजा उठाई॥ बिप्र स्राप बिनु सुनु महिपाला। तोर नाश नहिं कवनेहुँ काला॥**
भाष्य

मैं दोनो भुजायें उठाकर प्रतिज्ञापूर्वक सत्य वचन कह रहा हूँ कि, ब्राह्मणकुल के समक्ष बाहुबल नहीं चलता उन्हें तो विनम्रता से ही वश में करना होता है। हे राजा! सुनो, ब्राह्मण के शाप के बिना तुम्हारा किसी भी काल में नाश नहीं होगा।

**हरषेउ राउ बचन सुनि तासू। नाथ न होइ मोर अब नासू॥**

**तव प्रसाद प्रभु कृपानिधाना। मो कहँ सर्ब काल कल्याना॥ भा०– **कपटीमुनि के वचन सुनकर प्रतापभानु हर्षित हो उठा। हे नाथ! अब तो मेरा विनाश होगा ही नहीं, हे कृपानिधान प्रभु ! आप के प्रसाद से सभी कालों में मेरा कल्याण ही कल्याण है।

दो०- एवमस्तु कहि कपट मुनि, बोला कुटिल बहोरि।

**मिलब हमार भुलाब निज, कहहु त हमहिं न खोरि॥१६५॥ भा०– **कुटिल हृदय का कपटमुनि ‘एवमस्तु’ कहकर, फिर बोला, हे राजन्‌! मेरा मिलना और अपना मार्ग भूलना तुमने किसी से कहा तो मुझे दोष मत देना अर्थात्‌ यदि यह प्रसंग तुम किसी को कहते हो तो मेरा दोष न होगा।

ताते मैं तोहि बरजउँ राजा। कहे कथा तव परम अकाजा॥ छठें स्रवन यह परत कहानी। नाश तुम्हार सत्य मम बानी॥

भाष्य

हे राजा! इसलिए मैं तुम्हे रोक रहा हूँ कि, यह कथा कहने से तुम्हारी बहुत हानि हो जायेगी। छठे कान में इस कथा के पड़ने से तुम्हारा नाश होगा, यह मेरी वाणी सत्य है।

**यह प्रगटे अथवा द्विज स्रापा। नाश तोर सुनु भानुप्रतापा॥ आन उपाय निधन तव नाहीं। जौ हरि हर कोपहिं मन माहीं॥**
भाष्य

हे प्रतापभानु! सुनो, मेरे मिलने और अपने भूल जाने के प्रसंग को प्रकट करने से अथवा ब्राह्मण के शाप से तुम्हारा नाश होगा। और किसी उपाय से तुम्हारा मरण नहीं हो सकता। यदि ब्रह्मा जी और शङ्कर जी भी मन में क्रोध कर लें तो भी नहीं।

**सत्य नाथ पद गहि नृप भाखा। द्विज गुरु कोप कहहु को राखा॥ राखइ गुरु जौ कोप बिधाता। गुरु बिरोध नहिं कोउ जग त्राता॥**
भाष्य

हे नाथ! आप सत्य कह रहे हैं, राजा ने कपटीमुनि का चरण पक़डकर कहा। भला बताइये, ब्राह्मणों और गुव्र्जनों के क्रोध से कौन बचा सकता है? यदि ब्रह्मा कुपित हो जायें तो गुरुदेव बचा लेते हैं, परन्तु गुरुदेव के कुपित हो जाने पर संसार में कोई भी रक्षा नहीं कर पाता।

**जौ न चलब हम कहे तुम्हारे। होउ नाश नहिं सोच हमारे॥ एकहिं डर डरपत मन मोरा। प्रभु महिदेव स्राप अति घोरा॥**

[[१४३]]

भाष्य

यदि मैं आप के कथनानुसार नही चलूँगा तो नाश हो जाये, मुझे कोई चिन्ता नहीं, परन्तु हे प्रभु ! एक ही डर से मेरा मन डर रहा है, ब्राह्मण का शाप बहुत भयंकर होता है।

**दो०- होहिं बिप्र बश कवन बिधि, कहहु कृपा करि सोउ।**

**तुम तजि दीनदयाल निज, हितू न देखउँ कोउ॥१६६॥ भा०– **ब्राह्मण किस प्रकार से वश में हो सकते हैं, यह मुझे कृपा करके बताइये। हे दीनों के दयालु मुनि! आप को छोड़कर मैं किसी को अपना हितैषी नहीं देख रहा हूँ।

सुनु नृप बिबिध जतन जग माहीं। कष्टसाध्य पुनि होहिं कि नाहीं॥

**अहइ एक अति सुगम उपाई। तहाँ परंतु एक कठिनाई॥ भा०– **कपटीमुनि ने कहा, हे राजन्‌! सुनो, संसार में अनेक यत्न हैं, परन्तु यह सब कय्साध्य हैं, फिर भी वे सफल होंगे या नहीं इसका कोई निश्चय नहीं है। एक उपाय अत्यन्त सुगम है, परन्तु वहाँ भी एक कठिनता है।

मम आधीन जुगुति नृप सोई। मोर जाब तव नगर न होई॥ आजु लगे अरु जब ते भयऊँ। काहू के गृह ग्राम न गयऊँ॥ जौ न जाउँ तव होइ अकाजू। बना आइ असमंजस आजू॥

भाष्य

राजन्‌! वह युक्ति मेरे अधीन है और तुम्हारे नगर में मेरा जाना हो नहीं सकता। आज तक मैं जब से जन्मा हूँ किसी के गृह या गाँव में नहीं गया हूँ। यदि नहीं जाता हूँ तो बहुत बड़ी हानि हो जाती है, आज यह बहुत बड़ा असमंजस्य बन गया।

**सुनि महीश बोलेउ मृदु बानी। नाथ निगम असि नीति बखानी॥ बड़े सनेह लघुन पर करहीं। गिरि निज सिरनि सदा तृन धरहीं॥ जलधि अगाध मौलि बह फेनू। संतत धरनि धरत सिर रेनू॥**
भाष्य

कपटीमुनि के असमन्जस भरे वचन सुनकर प्रतापभानु कोमल वाणी में बोला, नाथ! वेदों ने ऐसी नीति कही है कि, बड़े लोग अपने से छोटों का भी आदर करते हैं। अग्नि धुँए को और पर्वत तिनके को धारण करके ढोता है और अगाध समुद्र अपने मस्तक पर फेन को धारण करता है। पृथ्वी अपने सिर पर निरन्तर धूलि को धारण करती है।

**दो०- अस कहि गहे नरेश पद, स्वामी होहु कृपाल।**

**मोहि लागि दुख सहिय प्रभु, सज्जन दीनदयाल॥१६७॥ भा०– **इतना कह कर राजा ने कपटीमुनि के चरण को पक़ड लिया और बोला, हे स्वामी! अब मुझ पर कृपा

कीजिये। हे सज्जनों और दीनों पर दया करने वाले! मेरे लिए कष्ट सह लीजिये।

जानि नृपहिं आपन आधीना। बोला तापस कपट प्रबीना॥ सत्य कहउँ भूपति सुनु तोही। जग नाहिन दुर्लभ कछु मोही॥ अवसि काज मैं करिहउँ तोरा। मन तन बचन भगत तैं मोरा॥

भाष्य

राजा को अपने अधीन जानकर कपट में कुशल मुनि बोला, हे राजा! सुनो, मैं तुमसे सत्य कहता हूँ। मुझको जगत्‌ में कुछ भी दुर्लभ नहीं है। मैं तेरा कार्य अवश्य करूँगा तुम मन, शरीर और वचन से मेरे भक्त हो।

[[१४४]]

जोग जुगुति जप मंत्र प्रभाऊ। फलइ तबहिं जब करिय दुराऊ॥ जौ नरेश मैं करौं रसोई। तुम परुसहु मोहि जान न कोई॥ अन्न सो जोइ जोइ भोजन करई। सोइ सोइ तव आयसु अनुसरई॥ पुनि तिन के गृह जेवँइ जोऊ। तव बश होइ भूप सुनु सोऊ॥

भाष्य

योग, युक्ति, जप तथा मंत्र का प्रभाव तभी फलीभूत होता है, जब उसका छिपाव किया जाता है। हे राजन्‌! यदि मैं रसोई करूँ और तुम परोसो तथा मुझे कोई नहीं जाने तो वह अन्न का जो–जो भोजन करेगा वह– वह तुम्हारी आज्ञा का पालन करेगा। हे राजन्‌! सुनो, फिर उनके घर मेें जो भी भोजन कर लेगा वह भी तुम्हारे वश में हो जायेगा।

**जाइ उपाय रचहु नृप एहू । संबत भरि संकलप करेहू॥**

दो०- नित नूतन द्विज सहस शत, बरेहु सहित परिवार।

मैं तुम्हरे संकलप लगि, दिनहिं करब जेवनार॥१६८॥

भाष्य

राजन्‌! घर जाकर इसी उपाय की रचना करो। एक वर्षपर्यन्त के लिए संकल्प कर नित्य नये–नये परिवार के सहित एक–एक लाख ब्राह्मणों का वरण करना। मैं तुम्हारे संकल्प के लिए दिन में ही रसोई कर दिया करूँगा।

**एहि बिधि भूप कष्ट अति थोरे। होइहैं सकल बिप्र बश तोरे॥ करिहैं बिप्र होम मख सेवा। तेहिं प्रसंग सहजहिं बश देवा॥**
भाष्य

हे राजन्‌! इस प्रकार बहुत ही थोड़े कष्ट में सभी ब्राह्मण तुम्हारे वश में हो जायेंगे और ब्राह्मण तुम्हारे हवनों और यज्ञों में सेवा करेंगे। उसी प्रसंग से सहज ही में अर्थात्‌ सरलता से देवता भी तुम्हारे वश में हो जायेंगे।

**और एक तोहि कहउँ लखाऊ। मैं एहि बेष न आउब काऊ॥**

तुम्हरे उपरोहित कहँ राया। हरि आनब मैं करि निज माया॥

भाष्य

हे राजन्‌! तुमको मैं एक और भी लखाऊ अर्थात्‌ पहचान बता रहा हूँ, मैं अपने इस वेश में कभी नहीं आऊँगा। मैं तो अपनी माया करके तुम्हारे पुरोहित को चुरा लाऊँगा अथवा अपहरण कर लाऊँगा।

**तपबल तेहि करि आपु समाना। रखिहउँ इहाँ बरष परमाना॥ मैं धरि तासु बेष सुनु राजा। सब बिधि तोर सवाँरब काजा॥**
भाष्य

तुम्हारे उस पुरोहित को तपस्या के बल से अपने समान बनाकर यहाँ एक वर्षपर्यन्त रखूँगा। हे राजा! सुनो, मैं तुम्हारे पुरोहित का वेश धारण करके तेरा कार्य सब प्रकार से सँवार दूँगा।

**गइ निशि बहुत शयन अब कीजे। मोहि तोहि भूप भेंट दिन तीजे॥**

मैं तपबल तोहि तुरग समेता। पहुँचैहउँ सोवतहिं निकेता॥

भाष्य

हे राजा! बहुत रात बीत गयी है, अब तुम शयन करो। मेरी तुम्हारी भेंट आज के तीसरे दिन होगी। मैं तपस्या के बल से तुमको घोड़े के समेत सोते–सोते ही तुम्हारे घर पहुँचा दूँगा।

**दो०- मैं आउब सोइ बेष धरि, पहिचानेहु तब मोहु।**

जब एकांत बोलाइ सब, कथा सुनावौं तोहि॥१६९॥

भाष्य

मैं वही अर्थात्‌ तुम्हारे पुरोहित का वेश धारण करके आऊँगा। तुम मुझे तब पहचानना जब मैं तुम्हें एकान्त में बुलाकर सम्पूर्ण कथा सुना दूँगा।

[[१४५]]

शयन कीन्ह नृप आयसु मानी। आसन जाइ बैठ छलग्यानी॥ श्रमित भूप निद्रा अति आई। सो किमि सोव सोच अधिकाई॥

भाष्य

कपटीमुनि की आज्ञा मानकर राजा प्रतापभानु ने शयन किया और छल से ज्ञानी बना हुआ कपटी राजा आसन पर जाकर बैठ गया। राजा प्रतापभानु श्रमित अर्थात्‌ बहुत थक गया था, उसे अत्यन्त अर्थात्‌ प्रगा़ढ निद्रा आ गयी। परन्तु कपटी राजा कैसे सोता? उसे तो प्रतापभानु से प्रतिशोध लेने के लिए अत्यन्त शोक था।

**कालकेतु निशिचर तहँ आवा। जेहिं सूकर होइ नृपहिं भुलावा॥ परम मित्र तापस नृप केरा। जानइ सो अति कपट घनेरा॥ तेहि के शत सुत अरु दस भाई। खल अति अजय देव दुखदाई॥ प्रथमहिं भूप समर सब मारे। बिप्र संत सुर देखि दुखारे॥**
भाष्य

वहाँ कालकेतु नामक राक्षस आया, जिसने सुअर का वेश बना कर राजा को भुला दिया था। वह कालकेतु तपस्वी राजा का परममित्र था। वह अत्यन्त बड़े-बड़े कपट के उपाय जानता था। उस कालकेतु के सौ बेटे और दस भाई थे, जो अत्यन्त खलप्रकृति के अजेय अर्थात्‌ किसी से भी न जीते जानेवाले तथा देवताओं को दु:ख देनेवाले थे। ब्राह्मणों, सन्तों और देवताओं को दु:खी देखकर राजा प्रतापभानु ने दिग्विजय के प्रारम्भिक दिनों में ही कालकेतु के सौ पुत्रों और दसों भ्राताओं को मार डाला था।

**तेहिं खल पाछिल बैर सँभारा। तापस नृप मिलि मंत्र बिचारा॥ जेहिं रिपु छय सोइ रचेसि उपाऊ। भावी बश न जान कछु राऊ॥**
भाष्य

उस खल कालकेतु ने अपने पिछले वैर का स्मरण किया और तपस्वी राजा से मिलकर गोपनीय उपाय का विचार किया। जिससे शत्रु का विनाश हो, कालकेतु ने वही उपाय रच दिया। भवितव्यता के वश में होने के कारण प्रतापभानु राजा कुछ भी नहीं जान पाया।

**दो०- रिपु तेजसी अकेल अपि, लघु करि गनिय न ताहु।**

**अजहुँ देत दुख रबि शशिहिं, सिर अवशेषित राहु॥१७०॥ भा०– **अकेला होते हुए भी शत्रु तेजस्वी होता है। उसे कभी छोटा समझकर उपेक्षित नहीं करना चाहिये। आज भी मात्र–सिर रूप में बचा हुआ राहु, सूर्य और चन्द्रमा को दु:ख देता रहता है।

तापस नृप निज सखहिं निहारी। हरषि मिलेउ उठि भयउ सुखारी॥

मित्रहिं कहि सब कथा सुनाई। जातुधान बोला सुख पाई॥

भाष्य

अपने मित्र कालकेतु को देखकर तापस राजा बहुत प्रसन्न हुआ और अपने आसन पर से उठकर हर्षित होकर उससे मिला। उसने अपने मित्र कालकेतु को राजा प्रतापभानु को बहकाने और उसे ब्राह्मण वशीकरण– निमित्त भोजन–यज्ञ के लिए उकसाने की सभी कथा कह सुनायी। राक्षस कालकेतु सुख पाकर बोला–

**अब साधेउँ रिपु सुनहु नरेशा। जौ तुम कीन्ह मोर उपदेशा॥ परिहरि सोच रहहु तुम सोई। बिनु औषध बियाधि बिधि खोई॥**
भाष्य

हे राजा! सुनो, अब मैंने प्रतापभानु राजा को साध लिया अर्थात्‌ इसे समाप्त कर लूँगा। यदि तुमने मेरे उपदेश का पालन किया है, तो तुम चिन्ता छोड़ सुख की नींद सोये रहो, विधाता ने ओषधि के बिना ही ब्याधि को समाप्त कर दिया।

[[१४६]]

कुल समेत रिपु मूल बहाई। चौथे दिवस मिलब मैं आई॥ तापस नृपहिं बहुत परितोषी। चला महाकपटी अतिरोषी॥

भाष्य

कुल के सहित शत्रु प्रतापभानु को ज़ड से उखाड़ फेंक कर, मैं चौथे दिन तुमसे आकर मिलूँगा। इस प्रकार, तपस्वी राजा को बहुत आश्वासन देकर महान्‌ कपटी, अत्यन्त क्रोधी कालकेतु वहाँ से चल पड़ा।

**भानुप्रतापहिं बाजि समेता। पहुँचाएसि छन माझ निकेता॥ नृपहिं नारि पहँ शयन कराई। हयगृह बाँधेसि बाजि बनाई॥**
भाष्य

कालकेतु ने एक क्षण में ही घोड़े सहित प्रतापभानु को उसके घर पहुँचा दिया। राजा को उसके पत्नी के पास शयन कराके, उसके घोड़े को कालकेतु ने घुड़साल में बनाकर बाँध दिया।

**दो०- राजा के उपरोहितहिं, हरि लै गयउ बहोरि॥**

लै राखेसि गिरि खोहि महँ, माया करि मति भोरि॥१७१॥

भाष्य

राजा के पुरोहित को फिर कालकेतु चुरा ले गया और माया से बुद्धि को भ्रमित करके उसे लाकर पर्वत की गुफा में फेंक दिया।

**आपु बिरचि उपरोहित रूपा। परेउ जाइ तेहि सेज अनूपा॥ जागेउ नृप अनुभये बिहाना। देखि भवन अति अचरज माना॥**
भाष्य

स्वयं पुरोहित का वेश बनाकर कालकेतु राक्षस पुरोहित के ही सुन्दर सेज पर सो गया। इधर प्रतापभानु प्रात:काल का अनुभव करके जगा अथवा, प्रात:काल होने पर प्रतापभानु जगा। उसने स्वयं को अपने भवन में देखकर अत्यन्त आश्चर्य माना।

**मुनि महिमा मन महँ अनुमानी। उठेउ गवँहिं जेहिं जान न रानी॥ कानन गयउ बाजि चढि़ तेहीं। पुर नर नारि न जानेउ केहीं॥**
भाष्य

मन में मिले हुए मुनि की महिमा का अनुमान करके प्रतापभानु धीरे से उठा, जिससे रानी भी नहीं जान पायी और घुड़साल में बँधे हुए अपने उसी घोड़े पर च़ढकर वन को चला गया। नगर के किसी भी नर या नारी ने राजा का आना या जाना नहीं देखा।

**गए जाम जुग भूपति आवा। घर घर उत्सव बाज बधावा॥**

उपरोहितहिं देख जब राजा। चकित बिलोक सुमिरि सोइ काजा॥

भाष्य

दिन के दोपहर बीत जाने पर अर्थात्‌ मध्याह्न में राजा अपने नगर में लौट आया। राजा के वन से सकुशल लौट आने पर घर–घर में उत्सव होने लगे और बधाइयाँ बजने लगी। जब राजा ने अपने पुरोहित को देखा तो उसी कार्य का स्मरण करके चकित होकर उसे देखने लगा।

**जुग सम नृपहिं गए दिन तीनी। कपटीमुनि पद रहि मति लीनी॥**

**समय जानि उपरोहित आवा। नृपहिं मते सब कहि समुझावा॥ भा०– **प्रतापभानु के तीन दिन, तीन युग के समान बीते। उसकी बुद्धि कपटीमुनि के चरण में लीन रही थी। निर्धारित समय जानकर पुरोहित आया और एकान्त में बुलाकर राजा को अपने सब मन्तव्य कहकर समझा दिया।

दो०- नृप हरषेउ पहिचानि गुरु, भ्रम बश रहा न चेत।

बरे तुरत शत सहस बर, बिप्र कुटुंब समेत॥१७२॥

[[१४७]]

भाष्य

गुरु को पहचानकर राजा प्रसन्न हुआ। भ्रमवशात्‌ उसके मन में चेतना नहीं रही और तुरन्त उसने सपरिवार एक लाख ब्राह्मणों का वरण कर लिया।

**उपरोहित जेवनार बनाई। छरस चारि बिधि जसि श्रुति गाई॥ मायामय तेहिं कीन्ह रसोई। ब्यंजन बहु गनि सकइ न कोई॥ बिबिध मृगन कर आमिष राँधा। तेहि महँ बिप्र माँस खल साँधा॥**
भाष्य

कपटी पुरोहित ने वह जेवनार बनाया, जो छहों रस और चारों विधान से युक्त था, जिस प्रकार वेदों ने गाया है। उसने कपटमय रसोई बनायी। राक्षसी माया से बने हुए बहुत से व्यंजनों को कौन गिन सकता है? उस दुष्ट ने अनेक प्रकार के मृगों का मांस पकाया, जो ब्राह्मणो के लिए अभक्षित है और उसमें भी ब्राह्मण का मांस डालकर मिला दिया जो सर्वथा असह्य हो गया, क्योंकि मृग–मांस तो कदाचित्‌ कोई अवैष्णव पंच मकार सेवी वाममार्गी खा भी ले, परन्तु नर–मांस, उसमें भी ब्राह्मण मांस तो कोई भी मनुष्य नहीं खा सकता।

**भोजन कहँ सब बिप्र बोलाए। पद पखारि सादर बैठाए॥ परुसन जबहिं लाग महिपाला। भइ अकाशबानी तेहि काला॥**
भाष्य

भोजन के लिए सभी ब्राह्मणों को प्रतापभानु राजा ने बुलाया। उनके चरण धोकर उन्हें आदरपूर्वक सात्विक आसनों पर बैठाया। जब राजा प्रतापभानु भोजन परोसने लगा, उसी समय कालकेतु द्वारा की हुई आकाशवाणी हुई।

**बिप्रबृंद उठि उठि गृह जाहू। है बहिड़ ानि अन्न जनि खाहू॥ भयउ रसोई भूसुर माँसू। सब द्विज उठे मानि बिश्वासू॥**
भाष्य

“हे ब्राह्मण समूह! उठ–उठ कर घर चले जाओ, बहुत बड़ी धर्म की हानि हो गई है। यह अन्न मत खाओ, इस रसोई में अन्य मांसों के साथ ब्राह्मण मांस की भी रसोई हुई है।” आकाशवाणी का विश्वास मान कर सभी ब्राह्मण भोजन छोड़कर उठ गये।

**भूप बिकल मति मोह भुलानी। भावी बश न आव मुख बानी॥**
भाष्य

राजा प्रतापभानु व्याकुल हो गया, उसकी बुद्धि मोह के भुलावे में आ गयी। होनहार के वश में होने से राजा के मुख से कुछ भी वाणी नहीं निकल रही थी जिससे वह अपनी स्पष्टता दे सकता।

**दो०- बोले बिप्र सकोप तब, नहिं कछु कीन्ह बिचार।**

जाइ निशाचर होहु नृप, मू़ढ सहित परिवार॥१७३॥

भाष्य

तब सभी एक लाख ब्राह्मण क्रोध करके बोले, कुछ भी विचार नहीं किया। कहने लगे, हे मूर्ख राजा! तू परिवार सहित राक्षसियों के गर्भ में जाकर राक्षस हो।

**छत्रबंधु तैं बिप्र बोलाई। घालै लिए सहित समुदाई॥ ईश्वर राखा धरम हमारा। जैहसि तैं समेत परिवारा॥**
भाष्य

हे नीच क्षत्रिय! तुमने तो धर्मभ्रष्ट करके नष्ट करने के लिए ही परिवार सहित ब्राह्मणों को बुलाया था। ईश्वर ने हमारे धर्म की रक्षा की, तू परिवार सहित नष्ट हो जायेगा।

**संबत मध्य नाश तव होऊ। जलदाता न रहिहि कुल कोऊ॥ नृप सुनि स्राप बिकल अति त्रासा। भइ बहोरि बर गिरा अकासा॥**

[[१४८]]

भाष्य

एक वर्ष के बीच ही तेरा नाश हो जाये। तेरे कुल में जलांजलि देनेवाला भी कोई न रहेगा। ब्राह्मणों का यह सामूहिक शाप सुनकर राजा विकल हुआ, उसके शरीर में भय व्याप्त हो गया। फिर आकाश से श्रेष्ठवाणी अर्थात्‌ देवताओं की वाणी हुई।

**बिप्रहु स्राप बिचारि न दीन्हा। नहिं अपराध भूप कछु कीन्हा॥ चकित बिप्र सब सुनि नभबानी। भूप गयउ जहँ भोजन खानी॥**
भाष्य

हे ब्राह्मणों! आप लोगों ने विचार करके शाप नहीं दिया। यहाँ राजा प्रतापभानु ने कुछ भी अपराध नहीं किया था। आकाशवाणी सुनकर सभी ब्राह्मण चकित हो गये। जहाँ भोजनों की खानि अर्थात्‌ भण्डार था वहाँ प्रतापभानु राजा गया।

**तहँ न अशन नहिं बिप्र सुआरा। फिरेउ राउ मन सोच अपारा॥ सब प्रसंग महिसुरन सुनाई। त्रसित परेउ अवनी अकुलाई॥**
भाष्य

वहाँ न तो भोजन था और न ही भोजन बनानेवाला पुरोहित ब्राह्मण। राजा लौट आया उसके मन में अपार शोक उत्पन्न हुआ। ब्राह्मणों को अपने भूल जाने, कपटमुनि के मिलने और उसके द्वारा प्रेरित आयोजन के सब प्रसंगों को सुनाकर, व्याकुल होकर भयभीत राजा पृथ्वी पर गिर पड़ा।

**दो०- भूपति भावी मिटइ नहिं, जदपि न दूषन तोर।**

किए अन्यथा होइ नहिं, बिप्रस्राप अति घोर॥१७४॥

भाष्य

हे राजन्‌! यद्दपि तुम्हारा कोई दोष नहीं है, फिर भी भवितव्यता नहीं मिटती, जो होना होता है वह होकर ही रहता है। ब्राह्मणों का शाप अत्यन्त भयंकर है, वह झूठा करने से भी झूठा नहीं होगा।

**अस कहि सब महिदेव सिधाए। समाचार पुरलोगन पाए॥ सोचहिं दूषन दैवहिं देहीं। बिरचत हंस काग किए जेहीं॥**
भाष्य

ऐसा कहकर सभी ब्राह्मण चले गये। नगर के लोगों ने यह समाचार पाया। सभी शोक कर रहे थे और दैव को दोष दे रहे थे, जिस दैव ने हंस बनाते–बनाते कौवा बना दिया।

**उपरोहितहिं भवन पहुँचाई। असुर तापसहिं खबरि जनाई॥ तेहिं खल जहँ तहँ पत्र पठाए। सजि सजि सेन भूप सब धाए॥**
भाष्य

पुरोहित को अपने भवन पहुँचाकर, कालकेतु राक्षस ने तपस्वी राजा को समाचार दिया। उस दुष्ट राजा ने जहाँ–तहाँ पत्र भेज दिये और अपनी–अपनी सेनाएँ सजाकर पूर्व में पराजित हुए सभी राजाओं ने धावा बोलते हुए प्रतापभानु पर आक्रमण कर दिया।

**घेरेनि नगर निसान बजाई। बिबिध भाँति नित होइ लराई॥ जूझे सकल सुभट करि करनी। बंधु समेत परेउ नृप धरनी॥**
भाष्य

राजाओं ने नगारे बजाकर प्रतापभानु का नगर घेर लिया। नित्य अनेक प्रकार की लड़ाई होने लगी। सभी वीर करनी करके लड़कर जूझ गये अर्थात्‌ युद्ध में मारे गये। छोटे भाई अरिमर्दन सहित प्रतापभानु राजा भी पृथ्वी पर पड़ गये, अर्थात्‌ मारे गये।

**सत्यकेतु कुल कोउ नहिं बाँचा। बिप्र स्राप किमि होइ असाँचा॥ रिपुहिं जीति नृप नगर बसाई। निज पुर गवने जय जस पाई॥**

[[१४९]]

भाष्य

सत्यकेतु के कुल में कोई भी नहीं बचा। ब्राह्मणों का शाप असत्य कैसे हो सकता है? आये हुए राजा पूर्वशत्रु प्रतापभानु को युद्ध में जीतकर अपने अनुसार नया नगर बसाकर विजययश पाकर अपने–अपने नगर को लौट गये।

**दो०- भरद्वाज सुनु जाहि जब, होइ बिधाता बाम।**

**धूरि मेरुसम जनक जम, ताहि ब्यालसम दाम॥१७५॥ भा०– **याज्ञवल्क्य जी कहते हैं, हे भरद्वाज! सुनो, जब जिसके लिए विधाता वाम अर्थात्‌ प्रतिकूल हो जाते हैं, उसके लिए धलिू भी सुमेरु पर्वत बन जाती है। जन्म देनेवाला पिता यमराज बनकर उसके प्राण ले लेता है और

रस्सी सर्प बनकर उसे डँसने लगती है।

काल पाइ मुनि सुनु सोइ राजा। भयउ निशाचर सहित समाजा॥ दश सिर ताहि बीस भुजदंडा। रावन नाम बीर बरिबंडा॥

भाष्य

हे भरद्वाज मुनि! सुनिये, वही प्रतापभानु राजा समय पाकर अपने समाज सहित राक्षस हुआ। उसके पास दस सिर और बीस दण्ड के समान भुजाएँ थीं। वह वीरों में श्रेष्ठ, वंदनीय तथा रावण नाम से विख्यात हुआ।

**भूप अनुज अरिमर्दन नामा। भयउ सो कुंभकरन बलधामा॥ सचिव जो रहा धरमरुचि जासू। भयउ बिमात्र बंधु लघु तासू॥ नाम बिभीषन जेहि जग जाना। बिष्णुभगत बिग्यान निधाना॥ रहे जे सुत सेवक नृप केरे। भए निशाचर घोर घनेरे॥**
भाष्य

प्रतापभानु का छोटा भाई अरिमर्दन, रावण का छोटा भाई बल का निवासस्थान कुंभकर्ण हुआ। प्रतापभानु का जो मन्त्री था, जिसकी धर्म में व्रᐃच थी वह रावण का छोटा सौतेला भाई हुआ, जिसको जगत्‌ विभीषण नाम से जानता है। जो महाविष्णु श्रीराम का परमभक्त और विशिष्टज्ञान का निधान था। जो भी प्रतापभानु के पुत्र और सेवक थे वे सब अत्यन्त भयंकर राक्षस बने।

**कामरूप खल जिनस अनेका। कुटिल भयंकर बिगत बिबेका॥ कृपा रहित हिंसक सब पापी। बरनि न जाहिं बिश्व परितापी॥**
भाष्य

वे स्वेच्छानुसार रूप बनानेवाले अनेक प्रकार के खल अर्थात्‌ दुष्ट प्रकृति के थे। वे सब बड़े ही कुटिल, भयानक, विवेकशून्य, कृपा से रहित अर्थात्‌ निर्दयी, हिंसक और पापी थे। विश्व को दु:ख देनेवाले उन राक्षसों का वर्णन नहीं किया जा सकता।

**दो०- उपजे जदपि पुलस्त्यकुल, पावन अमल अनूप।**

तदपि महीसुर स्राप बश, भए सकल अघरूप॥१७६॥

भाष्य

यद्दपि वे सब-के-सब पवित्र निर्मल और अनुपम पुलस्त्यकुल में उत्पन्न हुए थे, फिर भी ब्राह्मणों के शाप

के कारण वे सब पापस्वरूप हुए।

कीन्ह बिबिध तप तीनिहुँ भाई। परम उग्र नहिं बरनि सो जाई॥ गयउ निकट तप देखि बिधाता। मॉंगहुँ बर प्रसन्न मैं ताता॥ करि बिनती पद गहि दशशीशा। बोलेउ बचन सुनहु जगदीशा॥ हम काहू के मरहिं न मारे। बानर मनुज जाति दुइ बारे॥

[[१५०]]

भाष्य

रावण, कुम्भकर्ण और विभीषण इन तीनों भाइयों ने विविध प्रकार के तप किये। इनका तप बहुत उग्र था, उसका वर्णन सम्भव नहीं है। रावण का तप देखकर ब्रह्मा जी उसके पास आये और बोले, बेटे! मैं प्रसन्न हूँ, वरदान माँग लो। रावण प्रार्थना करके और ब्रह्मा जी के चरण को पक़डकर बोला, हे जगदीश्वर! सुनिये, वानर जाति और वैवश्वत्‌ मनु के वंश में उत्पन्न दो बालकों को छोड़कर हम किसी के हाथ से न मरें।

**एवमस्तु तुम बड़ तप कीन्हा। मैं ब्रह्मा मिलि तेहि बर दीन्हा॥**
भाष्य

शिव जी पार्वती जी से कहते हैं, “ऐसा ही हो, तुमने बहुत–बड़ा तप किया है,” ऐसा कहकर मैंने अर्थात्‌ शिव तथा ब्रह्मा ने मिलकर रावण को वरदान दिया।

**विशेष– **ब्रह्मा जी ने वानर और मनुष्यों को छोड़ सभी से अबधत्व का वरदान दिया और शिव जी ने दस सिरों की अनेकता तथा संसार की सम्पूर्ण सम्पत्ति दे दी और उन्हीं की कृपा से रावण को लंका नगरी भी प्राप्त हुई, जिसकी चर्चा आगे की जायेगी।

पुनि प्रभु कुंभकरन पहिं गयऊ। तेहि बिलोकि मन बिसमय भयऊ॥

जौ एहि खल नित करब अहारू। होइहि सब उजारि संसारू॥

शारद प्रेरि तासु मति फेरी। माँगेसि नींद मास षट केरी॥

भाष्य

फिर वरदान देने में समर्थ ब्रह्मा जी, कुंभकर्ण के पास गये। उसे देखकर ब्रह्मा जी के मन में बहुत आश्चर्य हुआ। ब्रह्मा जी सोचने लगे यदि यह दुष्ट नित्य आहार अर्थात्‌ भोजन करेगा तब तो सारा संसार उजाड़ हो जायेगा अर्थात्‌ कुछ ही दिनों में कुंभकर्ण सम्पूर्ण संसार को खा जायेगा। तब ब्रह्मा जी ने सरस्वती जी को प्रेरित करके उस कुंभकर्ण की बुद्धि फेर दी। उसने छ: महीने की निद्रा माँग ली अर्थात्‌ माँगना चाहिये इन्द्रासन माँग लिया निद्रासन।

**दो०- गएउ बिभीषन पास पुनि, कहेउ पुत्र बर माँगु।**

तेहिं माँगेउ भगवंत पद, कमल अमल अनुरागु॥१७७॥

भाष्य

फिर ब्रह्मा जी, विभीषण के पास गये और बोले, पुत्र! वरदान माँग लो। उन्होंने (विभीषण) भगवान्‌ श्रीराम के श्रीचरणकमलों में निर्मल प्रेम माँगा।

**तिनहिं देइ बर ब्रह्म सिधाए। हरषित ते अपने गृह आए॥**
भाष्य

इस प्रकार उन्हें अर्थात्‌ रावण, कुंभकर्ण और विभीषण को वरदान देकर ब्रह्मा जी सत्यलोक चले गये। वे अर्थात्‌ रावण, कुंभकर्ण, विभीषण भी मनोनुकूल वरदान पाकर अपने घर लौट आये।

**मय तनुजा मंदोदरि नामा। परम सुंदरी नारि ललामा॥ सोइ मय दीन्ह रावनहि आनी। होइहि जातुधानपति रानी॥ हरषित भयउ नारि भलि पाई। पुनि दोउ बंधु बियाहेसि जाई॥**
भाष्य

मय दानव की बेटी जो बहुत ही सुन्दर और नारियों में रत्न थी तथा जिसका नाम मंदोदरी था, उसको मय दानव ने लाकर रावण को दे दिया। वही भविष्य में राक्षसों के स्वामी रावण की पटरानी बनेगी। रावण सुन्दर पत्नी प्राप्त करके बहुत प्रसन्न हुआ। फिर उसने अपने दोनों छोटे भाइयों का भी दैत्यलोक और गंधर्वलोक में जाकर विवाह किया, अर्थात्‌ कुंभकर्ण का विवाह वृत्रज्वाला नामक दैत्यकन्या से किया और विभीषण का विवाह सरमा नामक गंधर्वकन्या से किया।

[[१५१]]

गिरि त्रिकूट एक सिंधु मझारी। बिधि निर्मित दुर्गम अति भारी॥ सोइ मय दानव बहुरि सँवारा। कनक रचित मनि भवन अपारा॥

भाष्य

दक्षिण समुद्र के बीच में ब्रह्मा जी के द्वारा निर्मित अत्यन्त विशाल और साधारण लोगों के लिए दुर्गम एक त्रिकूट नाम का पर्वत था। फिर उसी को मय दानव ने सजाया और उसमें स्वर्ण तथा मणियों से जटित असंख्य भवन बनाये।

**भोगावति जसि अहिकुल बासा। अमरावति जसि शक्रनिवासा॥ तिन ते अधिक रम्य अति बंका। जग बिख्यात नाम तेहि लंका॥**
भाष्य

जिस प्रकार, नागकुल की निवासनगरी पाताललोक की भोगावती है और जैसे इन्द्र की निवासपुरी स्वर्गलोक की अमरावती है। उन दोनों से भी अधिक रमणीय अत्यन्त सुन्दर वह दुर्ग बना, उसका जगत्‌ में प्रसिद्ध लंका नाम पड़ा।

**दो०- खाईं सिंधु गंभीर अति, चारिहुँ दिशि फिरि आव।**

कनक कोट मनिखचित दृ़ढ बरनि न जाइ बनाव॥१७८(क) हरि प्रेरित जेहिं कलप जोइ, जातुधानपति होइ।

शूर प्रतापी अतुलबल, दल समेत बश सोइ॥१७८(ख)

भाष्य

उस नगरी के चारों ओर स्वयं समुद्र ही खाई बनकर घिर आया था। उसका किला स्वर्ण से निर्मित, मणियों से जटित और सुदृ़ढ था। उसकी शिल्पकला वर्णनीय नहीं थी अर्थात्‌ अवर्णनीय थी। भगवान्‌ श्रीराम की प्रेरणा से जिस कल्प मेें जो भी राक्षसपति रावण के रूप में अवतरित होता है, वह वीर, प्रतापी, अतुलनीय बल से युक्त तथा सेना सहित इसी लंका में निवास करता है अर्थात्‌ जैसे राम जी की अयोध्यापुरी शाश्वत है, उसी प्रकार उनके प्रतिपक्षी रावण की लंकापुरी भी शाश्वत है।

**रहे तहाँ निशिचर भट भारे। ते सब सुरन समर संघारे॥ अब तहँ रहहिं शक्र के प्रेरे। रक्षक कोटि जक्षपति केरे॥**
भाष्य

पार्वती जी से शिव जी कहते हैं कि, प्रारम्भ में उस नगरी में माली, सुमाली, माल्यवान के नेतृत्व में अनेक बड़े राक्षस भट निवास किया करते थे। उन सबको देवताओं ने युद्ध में मार डाला था। अब अर्थात्‌ वैवश्वत मन्वन्तर में इन्द्र की प्रेरणा और इच्छा से प्रेरित हुए यक्षराज कुबेर एक करोड़ रक्षकों के साथ उस लंकापुरी में रहते हैैं।

**दशमुख कतहुँ खबरि असि पाई। सेन साजि ग़ढ घेरेसि र्जाई॥ देखि बिकट भट बकिड़ टकाई। जक्ष जीव लै गए पराई॥**
भाष्य

कहीं से अर्थात्‌ माता कैकसी से इस प्रकार का समाचार पाकर, रावण ने सेना सजाकर, त्रिकूट जाकर लंका ग़ढ को घेर लिया। रावण के सैनिक भटों को अत्यन्त भयंकर तथा उसकी सेना को अपनी अपेक्षा बड़ी देखकर कुबेर के सैनिक यक्ष अपने प्राण लेकर वहाँ से भाग गये।

**फिरि सब नगर दशानान देखा। गयउ सोच सुख भयउ बिशेषा॥ सुंदर सहज अगम अनुमानी। कीन्ह तहाँ रावन रजधानी॥**
भाष्य

इसके पश्चात्‌ नगर में प्रवेश करके दस मुखोंवाले रावण ने घूम–घूम कर दसों दिशा में दृष्टि डालकर सम्पूर्ण लंका नगरी का निरीक्षण किया। रावण का समस्त शोक चला गया और उसे विशेष सुख हुआ। लंकापुरी

[[१५२]]

को स्वभाव से सुन्दर और साधारण प्राणियों के लिए अत्यन्त अगम्य अनुमान करके वहाँ रावण ने अपनी राजधानी बनायी।

जेहि जस जोग बाँटि गृह दीन्हे। सुखी सकल रजनीचर कीन्हे॥ एक बार कुबेर पर धावा। पुष्पक यान जीति लै आवा॥

भाष्य

जो जिसके योग्य था उसी प्रकार घरों का आबंटन कर दिया और रावण ने सभी राक्षसों को सुखी कर दिया। एक बार रावण ने कुबेर पर धावा बोला और उनसे जीतकर पुष्पक विमान ले आया।

**दो०- कौतुकहीं कैलास पुनि, लीन्हेसि जाइ उठाइ।**

मनहुँ तौलि निज बाहुबल, चला बहुत सुख पाइ॥१७९॥

भाष्य

फिर खेल–खेल में ही जाकर रावण ने कैलाश पर्वत उठा लिया, मानो वह कैलाशरूप बटखरे पर अपने बाहुबल को तौलकर असीम सुख पाकर चल पड़ा हो।

**सुख संपति सुत सैन सहाई। जय प्रताप बल बुद्धि बड़ाई॥ नित नूतन सब बा़ढत जाई। जिमि प्रतिलाभ लोभ अधिकाई॥**
भाष्य

रावण का सुख, सम्पत्ति, पुत्र, सेना, सहायक, गण, विजय, प्रताप, बल, बुद्धि तथा बड़प्पन अर्थात्‌ गौरव यह सब नित्य नये होकर उसी प्रकार ब़ढते जा रहे थे, जैसे प्रत्येक लाभ के अनन्तर प्राणी का लोभ अधिक होता जाता है।

**अतिबल कुंभकरन अस भ्राता। जेहि कहँ नहिं प्रतिभट जग जाता॥ करइ पान सोवइ षट मासा। जागत होइ तिहूँ पुर त्रासा॥**
भाष्य

रावण का अत्यन्त बलशाली कुंभकर्ण जैसा छोटा भाई था, जिसका प्रतिद्वन्द्वी योद्धा संसार में नहीं जन्मा, क्योंकि उसके प्रतिद्वन्द्वी होनेवालेथे भगवान्‌ श्रीराम, जो संसार में जन्में नहीं थे, प्रत्युत्‌ कौसल्या जी के यहाँ प्रकट हुए थे। वह (कुंभकर्ण) मदिरापान करता और छ: महीने के लिए सो जाता था। उसके जगते ही तीनों लोको में भय फैल जाता था।

**जौ दिन प्रति अहार कर सोई। बिश्व बेगि सब चौपट होई॥ समर धीर नहिं जाइ बखाना। तेहि सम अधिक न कोउ बलवाना॥**
भाष्य

यदि वह प्रतिदिन आहार करता तो सम्पूर्ण विश्व शीघ्र ही चौपट हो जाता। कुंभकरर्ण युद्ध में इतना धीर अर्थात्‌ अविचल था कि, उसका बखान नहीं किया जा सकता। कोई संसारी प्राणी, न तो कुंभकर्ण के समान और न ही उससे अधिक बलवान था अर्थात्‌ संसार के सभी बलशाली कुंभकर्ण की अपेक्षा न्यून थे।

**बारिदनाद जेठ सुत तासू। भट महँ प्रथम लीक जग जासू॥ जेहि न होइ रन सनमुख कोई। सुरपुर नितहिं परावन होई॥**
भाष्य

मेघनाद रावण का ज्येष्ठपुत्र था, जिसकी वीरों में सर्वप्रथम मर्यादा थी। युद्ध में कोई भी मेघनाद के सन्मुख नहीं होता था। नित्य ही देवलोक से देवताओं का पलायन हुआ करता थ।

**दो०- कुमुख अकंपन कुलिशरद, धूम्रकेतु अतिकाय।**

एक एक जग जीति सक, ऐसे सुभट निकाय॥१८०॥

[[१५३]]

भाष्य

कुंभकर्ण और मेघनाद के अतिरिक्त रावण के पास दुर्मुख, अकम्पन, वज्रदंत, धूम्रकेतु और अतिकाय ऐसे अनेक योद्धा थे, जो एक–एक करके अर्थात्‌ अकेले ही सम्पूर्ण जगत्‌ को जीतने में समर्थ थे।

**कामरूप जानहिं सब माया। सपनेहुँ जिनके धरम न दाया॥**
भाष्य

वे सभी मनचाहा रूप धारण करने में समर्थ थे, और सभी माया जानते थे, जिनके पास स्वप्न में भी धर्म और दया नहीं थी।

**दशमुख बैठ सभा एक बारा। देखि अमित आपन परिवारा॥ सुत समूह जन परिजन नाती। गनै को पार निशाचर जाती॥ सेन बिलोकि सहज अभिमानी। बोला बचन क्रोध मद सानी॥**
भाष्य

एक बार दस मुखवाला रावण सभा में बैठकर सीमा से रहित अपने परिवार को देख रहा था। उसकी लाखों की संख्या में पुत्रों का समूह, स्वजन, अपने परिजन अर्थात्‌ पारिवारिक लोग तथा अनेक पोते थे। उसकी स्वयं की सम्बन्धिनी राक्षस जाति को कौन गिन पायेगा? अपनी इस विशाल सेना को देखकर स्वभाव से अभिमानी रावण क्रोध और अहंकार से मिश्रित करके वचन बोला–

**सुनहु सकल रजनीचर जूथा। हमरे बैरी बिबुध बरूथा॥ ते सनमुख नहिं करहिं लराई। देखि सबल रिपु जाहिं पराई॥**
भाष्य

सभी राक्षसों के यूथों! सुनो, देवताओं के समूह हमारे शत्रु हैं। वे सन्मुख युद्ध नहीं करते, शत्रु अर्थात्‌ हम सबको अधिक बलवान देखकर भाग जाते हैं।

**तिन कर मरन एक बिधि होई। कहउँ बुझाइ सुनहु अब सोई॥ द्विज भोजन मख होम सराधा। सब कै जाइ करहु तुम बाधा॥**
भाष्य

उन देवताओं का मरण एक प्रकार से हो सकता है, मैं समझाकर कह रहा हूँ, अब उसे सुनो। ब्राह्मण भोजन, यज्ञ, हवन, श्राद्ध इन सब में जाकर तुम बाधा डालो।

**दो०- छुधा छीन बलहीन सुर, सहजेहिं मिलिहैं आइ।**

तब मारिहउँ कि छाहिड़उँ, भली भाँति अपनाइ॥१८१॥

भाष्य

भूख से क्षीण अर्थात्‌ दुर्बल हुए बल से रहित देवता, सहज में ही आकर मुझसे मेल–मिलाप कर लेंगे अथवा, अनायास ही वे मेरे पक़ड में आ जायेंगे। तब मैं भली प्रकार से उन्हें अपनाकर अर्थात्‌ अपने वश में करके या तो मार डालूँगा या छोड़ दूँगा, पर वे रहेंगे मेरे अधीन ही।

**मेघनाद कहँ पुनि हँकरावा। दीन्हीं सिख बल बयर ब़ढावा॥ जे सुर समर धीर बलवाना। जिन के लरिबे कर अभिमाना॥ तिनहिं जीति रन आनेसु बाँधी। उठि सुत पितु अनुशासन काँधी॥**
भाष्य

फिर रावण ने अपने बड़े बेटे मेघनाद को बुलाया उसे शिक्षा दी और उसके बल और वैर को ब़ढाया अर्थात्‌ देवताओं के विरुद्ध बातें करके, उनकी निर्बलता का वर्णन करके, रावण ने मेघनाद के सोये हुए बल को जगाया और भूले हुए वैर को प्रोत्साहित किया, और बोला, बेटे! जो देवता युद्ध में अविचल रहते हैं, जो बलवान अर्थात्‌ प्रशंसनीय बलवाले हैं, जिनके पास लड़ने का अभिमान है, उन सब देवताओं को युद्ध में जीतकर बन्दी बना लाओ। बेटे ने उठकर पिता की आज्ञा को कँधे पर स्वीकारा अर्थात्‌ इन्द्रादि बड़े-बड़े वीर देवताओं को युद्ध में जीतकर बन्दी बना लाया।

[[१५४]]

एहि बिधि सबहीं आग्या दीन्ही। आपुन चलेउ गदा कर लीन्ही॥ चलत दशानन डोलति अवनी। गर्जत गर्भ स्रवहिं सुर रवनी॥

भाष्य

इस प्रकार रावण ने मेघनाद के अतिरिक्त अन्य सभी योद्धाओं को भी अनेक आज्ञाएँ दीं तथा स्वयं भी हाथ में गदा लिए हुए देवलोक पर आक्रमण करने के लिए पैदल ही चल पड़ा। रावण के चलने पर पृथ्वी हिलने लगती थी और उसकी गर्जना करते ही देवताओं की नारियाँ गर्भस्राव कर देती थीं।

**रावन आवत सुनेउ सकोहा। देवन तके मेरु गिरि खोहा॥ दिगपालन के लोक सुहाए। सूने सकल दशानन पाए॥**
भाष्य

रावण को क्रोध करके अपने लोक में आक्रमण के लिए आते हुए जब सुना, तब देवताओं ने सुमेरु पर्वत की कन्दराओं को ताका अर्थात्‌ सुमेरु की गुफाओं में जाकर छिप गये। दस मुखवाले रावण ने दसों दिग्पालों के सभी सुन्दर लोकों को उनसे सूना ही पाया।

**पुनि पुनि सिंघनाद करि भारी। देइ देवतन गारि पचारी॥**

रन मद मत्त फिरइ जग धावा। प्रतिभट खोजत कतहुँ न पावा॥

भाष्य

बार–बार भारी सिंहनाद करके ललकार कर रावण देवताओं को गालियाँ दे रहा था। वह युद्ध के मद में मतवाला होकर अपने प्रतिद्वन्द्वी वीर को खोजता हुआ जगत्‌ में दौड़ रहा था। वह कहीं अपने समान योद्धा पा नहीं सका अथवा युद्ध में रावण जगत्‌ में दौड़ता फिर रहा था। वह खोजता हुआ भी अपने प्रतिद्वन्द्वी वीर को कहीं भी नहीं पा सका।

**रबि शशि पवन बरुन धनधारी। अगिनि काल जम सब अधिकारी॥ किन्नर सिद्ध मनुज सुर नागा। हठि सबही के पंथहिं लागा॥**
भाष्य

सूर्य, चन्द्रमा, पवन, वरुण देवता, धनाध्यक्ष कुबेर, अग्नि, काल, यम, आदि जो भी अधिकारी देवगण थे, किन्नर, सिद्ध, मनुष्य, देवता और नाग इन सभी के मार्ग को रोककर, रावण हठात्‌ युद्ध का उपक्रम करता था। अथवा, सूर्यादि अधिकारी और किन्नर आदि विशिष्ट प्राणियों के मार्ग पर रावण हठात्‌ लग जाता था अर्थात्‌ इन्हें पीतिड़ करता और युद्ध के लिए विवश कर देता था। ये शान्ति से अपने मार्ग को भी नहीं जा पाते थे।

**ब्रह्मसृष्टि जहँ लगि तनुधारी। दशमुख बशबर्ती नर नारी॥ आयसु करहिं सकल भयभीता। नवहिं आइ नित चरन बिनीता॥**
भाष्य

इस ब्रह्मसृष्टि में जहाँ तक शरीरधारी पुरुष–स्त्री रहते थे, वे सब रावण के वश में रहते थे। वे सब भयभीत होकर रावण की आज्ञा का पालन करते थे और नित्य सभा में आकर विनम्र होकर रावण के चरणों में नमन करते थे।

**दो०- भुजबल बिश्व बश्य करि, राखेसि कोउ न स्वतंत्र।**

**मंडलीक मनि रावन, राज करइ निज मंत्र॥१८२(क)॥ भा०– **राजाओं के मुकुटमणि रावण ने सम्पूर्ण विश्व को अपनी भुजाओं के बल से अपने वश में करके किसी को भी स्वतंत्र नहीं रखा। वह अपनी ही मंत्रणा के अनुसार राज करता था अर्थात्‌ स्वेच्छाचारी होने के कारण मंत्रियों की भी मंत्रणा नहीं मानता था।

दो०- देव जक्ष गंधर्व नर, किन्नर नाग कुमारि।

जीति बरी निज बाहुबल, बहु सुंदरि बर नारि॥१८२(ख)॥

[[१५५]]

भाष्य

गंधर्व, मनुष्य, किन्नर और नागों की बहुत–सी सुन्दर अविवाहित प्रथम अवस्थावाली कुमारियों को तथा बहुत सी विवाहित परायी नारियों को अपने बाहुबल से जीतकर रावण ने बलात्‌ हरण और वरण किया।

**इंद्रजीत सन जो कछु कहेऊ। सो सब जनु पहिलेहि करि रहेऊ॥**

**प्रथमहिं जिन कहँ आयसु दीन्हा। तिन कर चरित सुनहु जो कीन्हा॥ भा०– **इन्द्रजीत ‘मेघनाद’ से रावण ने जो कहा था, वह सब मानो मेघनाद पहले ही कर चुका था अर्थात्‌ रावण की दिग्विजय–यात्रा के पहले ही मेघनाद ने इन्द्रादि देवताओं को बन्दी बना लिया था। सर्वप्रथम रावण ने जिनको आज्ञा दी थी, उन राक्षसों का चरित्र सुनो, जो उन्होंने किया।

देखत भीमरूप सब पापी। निशिचर निकर देव परितापी॥ करहिं उपद्रव असुर निकाया। नाना रूप धरहिं करि माया॥

भाष्य

वे सभी राक्षस समूह देखने में भयंकर रूपवाले, पाप के निवासस्थान और देवताओं को कष्ट देते थे। देवविरोधी राक्षस समूह माया करके नाना रूप धारण करते और उपद्रव करते थे।

**जेहि बिधि होइ धर्म निर्मूला। सो सब करहिं बेद प्रतिकूला॥ जेहिं जेहिं देश धेनु द्विज पावहिं। नगर गाउँ पुर आगि लगावहिं॥**
भाष्य

जिस विधि से वैदिक–सनातन धर्म की ज़ड उख़ड सके राक्षसलोक वे सभी वेदविरुद्ध आचरण करते थे। राक्षसगण, जिस–जिस देश में ब्राह्मण और गौ पाते उस नगर, गाँव और पुर में आग लगा देते थे।

**शुभ आचरन कतहुँ नहिं होई। देव बिप्र गुरु मान न कोई॥ नहिं हरिभगति जग्य तप ग्याना। सपनेहुँ सुनिय न बेद पुराना॥**
भाष्य

रावण के राज्य में कहीं भी कल्याणकारी आचरण नहीं होता था। कोई भी देवता, ब्राह्मण और गुरुदेव को नहीं मानता था। उस समय भगवान्‌ की भक्ति, यज्ञ, तप और ज्ञान आदि नहीं होता था और स्वप्न में भी वेद, पुराण नहीं सुने जाते थे।

**छं०- जप जोग बिरागा तप मख भागा स्रवन सुनइ दशशीसा।**

आपुन उठि धावइ रहै न पावइ धरि सब घालइ खीसा॥ अस भ्रष्ट अचारा भा संसारा धर्म सुनिय नहिं काना। तेहि बहुबिधि त्रासइ देश निकासइ जो कह बेद पुराना॥

भाष्य

जप, योग, वैराग्य, तप और यज्ञ में दिये जा रहे देवताओं के भाग के निमित्त उच्चरित मन्त्रों को जब रावण अपने कानों से सुनता तो वह स्वयं उठकर दौड़ पड़ता और कुछ भी सामग्री रहने नहीं पाती थी। क्रोध, खीस अर्थात्‌ उद्विग्न होकर रावण सब कुछ लेकर नष्ट कर डालता था। इस प्रकार संसार में भ्रष्टाचार हो चुका था। धर्म कान से भी नहीं सुनायी पड़ता था। जो वेद, पुराण वाचन करता उसे रावण बहुत प्रकार से डराता, धमकाता और देश से निकाल देता था।

**सो०- बरनि न जाइ अनीति, घोर निशाचर जो करहिं।**

हिंसा पर अति प्रीति, तिन के पापहि कवनि मिति॥१८३॥

भाष्य

भयंकर राक्षस जो कर रहे थे, उस अनीति का वर्णन नहीं किया जा सकता। उन राक्षसों की हिंसा पर बहुत प्रीति थी। उनके पाप की क्या सीमा कही जाये?

[[१५६]]

बा़ढे खल बहु चोर जुआरा। जे लंपट परधन परदारा॥ मानहिं मातु पिता नहिं देवा। साधुन सन करवावहिं सेवा॥

भाष्य

खल प्रकृति के बहुत से चोर और जुआरी ब़ढ रहे थे, जो दूसरों के धन और दूसरों की स्त्रियों के प्रति लम्पट थे, वे माता–पिता और देवताओं को नहीं मानते थे और साधु, श्रीवैष्णवों से अपनी सेवा करवाते थे।

**जिन के यह आचरन भवानी। ते जानेहु निशिचर सम प्रानी॥ भा०– **हे पार्वती\! जिनके ऐसे आचरण हों उन प्राणियों को राक्षसों के समान ही जानना।

अतिशय देखि धर्म कै ग्लानी। परम सभीत धरा अकुलानी॥ गिरि सरि सिंधु भार नहिं मोही। जस मोहि गरुव एक पर द्रोही॥

भाष्य

धर्म की अत्यन्त ग्लानि अर्थात्‌ दु:ख देखकर अत्यन्त भयभीत हुई पृथ्वी अकुला गयीं और वह बोलीं पर्वत, नदी और समुद्र का भार मुझे उतना कष्ट नहीं दे रहा है जैसा कि, एक ही परद्रोही रावण ने मुझे भार से बोझिल बना दिया।

**सकल धर्म देखइ बिपरीता। कहि न सकइ रावन भय भीता॥ धेनु रूप धरि हृदय बिचारी। गई तहाँ जहँ सुर मुनि झारी॥ निज संताप सुनाएसि रोई। काहू ते कछु काज न होई॥**
भाष्य

सम्पूर्ण धर्मों को पृथ्वी विपरीत देख रही थीं, पर रावण से भयभीत होने के कारण वह कुछ भी नहीं कह सक रही थीं। हृदय में विचार करके, गौ का रूप धारण करके पृथ्वी वहाँ गयीं जहाँ सभी देवता और मुनि थे। पृथ्वी ने अपना कष्ट रोकर सुनाया। किसी से भी कुछ कार्य नहीं हो पा रहा था।

**दो०- सुर मुनि गंधर्बा मिलि करि सर्बा गे बिरंचि के लोका।**

सँग गोतनुधारी भूमि बिचारी परम बिकल भय शोका॥ ब्रह्मा सब जाना मन अनुमाना मोरउ कछु न बसाई। जा करि तैं दासी सो अबिनाशी हमरेउ तोर सहाई॥

भाष्य

सभी देवता, मुनि, गंधर्व मिलकर ब्रह्मा जी के लोक गये। उनके साथ गौ का शरीर धारण की हुई भय और शोक से अत्यन्त व्याकुल बिचारी अर्थात्‌ निरीह पृथ्वी भी थी। ब्रह्मा जी ने सब जान लिया, मन में अनुमान किया कि, मेरी कुछ नहीं बसाती है अर्थात्‌ वश नहीं चल रहा है। हे पृथ्वी माता! जिनकी तू दासी है, वे अविनाशी श्रीराम हमारे और तुम्हारे सभी के सहायक हैं।

**सो०- धरनि धरहु मन धीर, कह बिरंचि हरिपद सुमिरु।**

जानत जन की पीर, प्रभु भंजिहिं दारुन बिपति॥१८४॥

भाष्य

ब्रह्मा जी ने कहा, हे पृथ्वी माँ! आप धैर्य धारण कीजिये, भूभारहारि, श्रीहरि भगवान्‌ श्रीराम का स्मरण कीजिये। सर्वसमर्थ प्रभु सेवक की पीड़ा जानते हैं। प्रभु श्रीराम हम लोगों की असहनीय विपत्ति को नष्ट कर देंगे।

[[१५७]]

* मासपारायण, पाँचवाँ विश्राम *

बैठे सुर सब करहिं बिचारा। कहँ पाइय प्रभु करिय पुकारा॥ पुर बैकुंठ जान कह कोई। कोउ कह पयनिधि बस प्रभु सोई॥

भाष्य

सभा में बैठे हुए सभी देवता यह विचार कर रहे हैं कि प्रभु अर्थात्‌ सर्वसमर्थ साकेताधिपति भगवान्‌ श्रीराम को कहाँ पायें, जिनसे पुकार करें अर्थात्‌ अपनी आर्ति और पीड़ा कहें? कोई बैकुण्ठ पुर जाने के लिए कहता अर्थात्‌ सम्मति देता था तो कोई देवता कह रहा था कि, वे प्रभु क्षीरसागर में निवास करते हैं।

**जाके हृदय भगति जसि प्रीती। प्रभु तहँ प्रगट सदा तेहिं रीती॥ तेहिं समाज गिरिजा मैं रहेऊँ। अवसर पाइ बचन एक कहेऊँ॥**
भाष्य

जिसके हृदय में जैसी भक्ति और प्रीति होती है प्रभु उसी रीति से वहाँ सदैव प्रकट रहते हैं। शिव जी कहते हैं, हे पार्वती! मैं भी देवताओं की उस सभा में था अर्थात्‌ अध्यक्षता कर रहा था। अवसर पाकर सभी देवताओं द्वारा अपने–अपने मत व्यक्त करके शान्त हो जाने पर, मैंने सबसे महत्त्वपूर्ण वचन कहा।

**हरि ब्यापक सर्बत्र समाना। प्रेम ते प्रगट होहिं मैं जाना॥**

**देश काल दिशि बिदिशिहु माहीं। कहहु सो कहाँ जहाँ प्रभु नाहीं॥ भा०– **श्रीहरि भगवान्‌ श्रीराम सर्वत्र समान रूप से व्यापक हैं। अथवा, श्रीहरि व्यापक भी हैं और सर्वत्र समाये हुए अर्थात्‌ व्याप्त भी हैं। वे प्रेम से प्रकट हो जाते हैं, इस रहस्य को मैंने जान लिया है। देवताओं! भला बताओ, देश, काल दिशायें और दिशाओं के मध्य भाग में वह स्थल कहाँ और कौन है जहाँ प्रभु श्रीराम नहीं हैं?

अग जगमय सब रहित बिरागी। प्रेम ते प्रभु प्रगटइ जिमि आगी॥ मोर बचन सब के मन माना। साधु साधु करि ब्रह्म बखाना॥

भाष्य

प्रभु भगवान्‌ श्रीराम अग-जगमय अर्थात्‌ ज़ड-चेतन स्व―प हैं। अथवा, स्थावर और जंगम जीवजगत्‌ कर्म, फल, भोग के लिए उन्हीं प्रभु के पास से आया है। (यहाँ आगत अर्थ में पंचम्यांत अग-जगमय शब्द से तत आगत: अर्थ में “मयट्‌ च” पा०सू० ४-३-८२ इस पाणिनीय सूत्र द्वारा मयट्‌ प्रत्यय हुआ है।) वे सब से रहित अर्थात्‌ सब से परे हैं, वे विरागी हैं अर्थात्‌ सामान्य जगत्‌ से वे विगत राग हैं और भक्तजनों से उन्हें विशिष्ट राग है। वे अग्नि के समान प्रेम से प्रकट हो जाते हैं, इसलिए यहाँ बैठे–बैठे प्रेम से प्रभु को बुलाओ, वे प्रकट हो जायेंगे। मेरा यह वचन सभी देवताओं के मन ने मान लिया अर्थात्‌ सब ने प्रसन्नतापूर्वक स्वीकार कर लिया। साधु! साधु! (बहुत अच्छा ! बहुत अच्छा !) कहकर ब्रह्मा जी ने इसकी प्रशंसा की।

**दो०- सुनि बिरंचि मन हरष तन, पुलकि नयन बह नीर।**

अस्तुति करत जोरि कर, सावधान मतिधीर॥१८५॥

भाष्य

मेरा वचन सुनकर ब्रह्मा जी मन में अत्यन्त प्रसन्न हुए। उनके शरीर में रोमांच हो आया और उनके आठों नेत्रों से जल बहने लगे। बुद्धि के धीर भागवत्‌ धर्म के वे प्रथम्‌ आचार्य ब्रह्मा जी सभी देवताओं के प्रतिनिधि के रूप में स्वयं हाथ जोड़कर सावधान होकर, साकेतविहारी प्रभु भगवान्‌ श्रीराम की चारों मुखों से स्तुति करने लगे।

**छं०- जय जय सुरनायक जन सुखदायक प्रनतपाल भगवंता।**

गो द्विज हितकारी जय असुरारी सिंधुसुता प्रिय कंता॥ पालन सुर धरनी अद्‌भुत करनी मरम न जानइ कोई। जो सहज कृपाला दीनदयाला करउ अनुग्रह सोई॥

[[१५८]]

भाष्य

हे देवताओं के नायक, भक्तों को सुख देनेवाले, शरणागतों के पालक, गौ एवं ब्राह्मणों का हित करनेवाले भगवान्‌ श्रीराम! आपकी जय हो! जय हो! हे असुरों के शत्रु! हे सिन्धुसुता अर्थात्‌ क्षीरसागर की पुत्री लक्ष्मी के प्रियतम भगवान्‌ विष्णु को भी सुख देनेवाले! आपकी जय हो। (सिन्धुसुता लक्ष्मी तस्या: प्रिय: पति: विष्णु: तस्य कम्‌ सुखं तनोति इति सिंधुसुता प्रिय कन्ता।) जो देवता एवं पृथ्वी का पालन करने वाले हैं, जिनकी अद्‌भुत लीला का रहस्य कोई नहीं जानता, जो स्वभावत: कृपालु और दीनों पर दया करनेवाले हैं वे ही आप (प्रभु श्रीराम) हम देवताओं पर अनुग्रह करें।

**छं०- जय जय अबिनाशी सब घट बासी ब्यापक परमानंदा।**

अविगत गोतीतं चरित पुनीतं मायारहित मुकुंदा॥ जेहि लागि बिरागी अति अनुरागी बिगत मोह मुनिबृंदा। निशि बासर ध्यावहिं गुनगन गावहिं जयति सच्चिदानंदा॥

भाष्य

हे अविनाशी! अर्थात्‌ तीनों कालों में नाशरहित तथा तीनों कालों में भक्तजनों के लिए अन्तर्यामी रूप में सभी प्राणियों के हृदय में निवास करनेवाले सर्वव्यापक, परमानन्द, सर्वत्र गमनशील, इन्द्रियों से परे, पवित्र चरित्रवाले, माया से रहित, मुक्ति और भुक्ति के प्रदाता प्रभु श्रीराम, आपकी जय हो ! जय हो ! जिन आपश्री के लिए मोह से रहित वैराग्यवान्‌ मुनिजन अत्यन्त अनुराग से पूर्ण होकर रात–दिन ध्यान करते रहते हैं और जिन आपश्री के समस्त कल्याणमय गुणों का गान करते रहते हैं, ऐसे हे सच्चिदानन्द भगवान्‌ श्रीराम! आपकी जय हो!

**छं०- जेहिं सृष्टि उपाई त्रिबिध बनाई संग सहाय न दूजा।**

सो करउ अघारी चिंत हमारी जानिय भगति न पूजा॥ जो भव भय भंजन मुनि मन रंजन गंजन बिपति बरूथा। मन बच क्रम बानी छासिड़ यानी शरन सकल सुर जूथा॥

भाष्य

जिन आपश्री ने देवता, मनुष्य और तिर्यक्‌ नामवाली तीनों प्रकार की सृष्टि को किसी दूसरे को संग में सहायक लिए बिना अपने ही संकल्प से उत्पन्न किया, फिर उसे सुन्दर शरीर आदि उपकरणों से युक्त करके बनाया, अर्थात्‌ सजाया, वे ही अघारी अर्थात्‌ पाप और पापियों के शत्रु आप भगवान्‌ श्रीराम, हम सब नित्य, मुक्त, बद्धजीवों की चिन्ता करें। हम आपकी भक्ति तथा पूजा नहीं जानते हैं। जो आपश्री संसार के भय को नष्ट करनेवाले, मुनिजन के मनों का रंजन करने वाले और विपत्ति के समूहों का नाश करनेवाले हैं, मन, वाणी, कर्म से वाणी की चतुरता को छोड़कर सम्पूर्ण देवताओं के समूह उन्हीं आपश्री के शरण में हैं।

**छं०- शारद श्रुति शेषा ऋषय अशेषा जा कहुँ कोउ नहिं जाना।**

जेहिं दीन पियारे बेद पुकारे द्रवउ सो श्रीभगवाना॥ भव बारिधि मंदर सब बिधि सुंदर गुनमंदिर सुख पुंजा। मुनि सिद्ध सकल सुर परम भयातुर नमत नाथ पदकंजा॥

भाष्य

जिन आपश्री को सरस्वती, वेद, शेष और सम्पूर्ण ऋषिगण इनमें से कोई नहीं जानता। वेद पुकार कर कहते हैं कि, जिन आप श्रीराम को दीनजन प्रिय हैं वे ही आप (श्रीसीता सहित भगवान्‌ श्रीराम) हम जीवों पर द्रवित हो जायें। हे नाथ! आप भवसागर का मंथन करनेवाले मन्दर के समान सब प्रकार से सुन्दर दिव्य कल्याण गुणगणों के मंदिर तथा सुख के पुंज अर्थात्‌ एकीकृत की हुई राशि हैं। रावण के भय से परम आतुर मुनि, सिद्ध और सभी देवता आप के श्रीचरण कमल में नमन कर रहे हैं।

[[१५९]]

**विशेष– **यहाँ ब्रह्मा जी ने चारों मुख से चार चौपाया छन्द में स्तुति की है।

दो०- जानि सभय सुर भूमि सुनि, बचन समेत सनेह।

गगनगिरा गंभीर भइ, हरनि शोक संदेह॥१८६॥

भाष्य

देवताओं और पृथ्वी को भयभीत जानकर तथा ब्रह्मा जी के प्रेमपूर्ण वचन सुनकर, शोक और सन्देह को हरण करनेवाली, आकाशस्वरूप, परब्रह्म श्रीराम की गम्भीर आकाशवाणी हुई।

**विशेष– **यहाँ श्लेष अलंकार के प्रभाव से ‘गगन’ शब्द आकाश और परमात्मा श्रीराम का भी वाचक है। ‘आकाशस्तल्लिंगात्‌।’ ब्रह्मसूत्र–१.१.२४ में ब्रह्म को भी आकाश कहा गया है।

जनि डरपहु मुनि सिद्ध सुरेशा। तुमहिं लागि धरिहउँ नरबेशा॥ अंशन सहित मनुज अवतारा। लैहउँ दिनकर बंश उदारा॥

भाष्य

आकाशवाणी में भगवान्‌ श्रीराम बोले, हे मुनियों! हे सिद्धों, हे समर्थ देवताओं! मत डरो, तुम्हारे लिए ही मैं नरवेश धारण करूँगा अर्थात्‌ द्विभुज, धनुर्बाणधारी, सीतापति, श्रीराम होकर मैं कौसल्या के गर्भ में प्रवेश करूँगा और छोटे बालक के रूप में लोगों के समक्ष उपस्थित होऊँगा। (नित्य किशोर होकर भी छोटा राजकुमार बनना ही नर–वेश है) अपने अंशों अर्थात्‌ क्षीरसागरशायी विष्णु, बैकुण्ठविहारी विष्णु तथा भूमा विष्णु के साथ मैं उदार सूर्यवंश में मनुष्य अवतार लूँगा अर्थात्‌ मैं साकेताधिपति द्विभुज, धनुर्बाणधारी नित्य पन्द्रह वर्ष की अवस्था में दिखनेवाले भगवान्‌ श्रीराम इसी रूप में, इसी नाम से दशरथ जी का ज्येष्ठ राजकुमार बनूँगा। मेरे तीनों अंश क्षीरसागरविहारी, बैकुण्ठविहारी तथा भूमा नाम के तीनों विष्णु क्रमश: भरत, लक्ष्मण और शत्रुघ्न होंगे। इस कल्प में मेरे पिता–माता, मनु–शतरूपा ही होंगे। यही मुख्य अवतार होगा, इसमें तीनों वैष्णव श्रीरामावतारों का भी समय–समय पर आवेश दिखेगा।

**कश्यप अदिति महातप कीन्हा। तिन कहँ मैं पूरब बर दीन्हा॥ ते दशरथ कौसल्या रूपा। कोसलपुरी प्रगट नरभूपा॥**
भाष्य

पूर्वकाल में कश्यप और अदिति ने बहुत बड़ा तप किया था। उनको मैंने पूर्व में वरदान दिया था कि, तुम दोनों का पुत्र बनूँगा। वे कोसलपुरी अयोध्या में दशरथ–कौसल्या के रूप में राजा–रानी होंगे।

**तिन के गृह अवतरिहउँ जाई। रघुकुल तिलक सो चारिउ भाई॥ नारद बचन सत्य सब करिहउँ। परम शक्ति समेत अवतरिहउँ॥ हरिहउँ सकल भूमि गरुआई। निर्भय होहु देव समुदाई॥**
भाष्य

उन्हीं रघुकुल तिलक महाराज दशरथ जी के भवन में तथा उनके गृह अर्थात्‌ ज्येष्ठपत्नी कौसल्या जी के समीप, मैं स्वयं चार रूप बनाकर लोकलीला में चारों भाई अर्थात्‌ चतुष्पद्‌ विभूति से अवतार लूँगा। नारद जी के सभी वचनों को सत्य करूँगा। परमशक्ति सीता जी के सहित अवतार लूँगा। पृथ्वी के सम्पूर्ण भार को हर लूँगा। हे देवताओं के समुदाय! अब तुम सब निर्भय हो जाओ।

**विशेष– **\(क\) यहाँ धरिहउँ नरबेशा।

(ख) मनुज अवतारा लैहउँ। (ग) अवतरिहउँ जाई।

(घ) परम शक्ति समेत अवतरिहउँ।

[[१६०]]

इन चार वाक्यखण्डों में चार बार अवतार की प्रतिज्ञा करके, प्रभु चार कल्प के अवतारों की सूचना दे रहे हैं, जिनमें पूर्व का अवतार मुख्य और पश्चात्‌ के सूचित तीन अवतार गौण हैं। उन सबका मुख्य अवतार में समावेश है। अन्तर इतना ही है कि, मनु–शतरूपा को वरदान देनेवाले परात्पर परब्रह्म साकेताधिपति सभी के अंशी भगवान्‌ श्रीराम की ही कथा मानस में मुख्यत: वर्णित होगी। शेष तीन अवतारों की कथाएँ स्थल विशेष पर बहुत न्यून अंशों में प्रदर्शित की जायेंगी।

गगन ब्रह्मबानी सुनि काना। तुरत फिरे सुर हृदय जुड़ाना। तब ब्रह्मा धरनिहिं समुझावा। अभय भई भरोस जिय आवा॥

भाष्य

आकाश में की गयी परब्रह्म परमात्मा श्रीराम की वाणी अपने कानों से सुनकर हृदय में प्रसन्न हुए देवता तुरन्त लौट आये। तब ब्रह्मा जी ने पृथ्वी को समझाया। वे निर्भय हो गईं उनके हृदय में प्रभु के प्रति विश्वास हो आया।

**दो०- निज लोकहिं बिरंचि गे, देवन इहइ सिखाइ।**

बानर तनु धरि धरनि महँ, हरि पद सेवहु जाइ॥१८७॥

भाष्य

हे देवताओं! पृथ्वी पर वानर शरीर धारण करके स्वर्गलोक से भारत भूमि पर जाकर, वहाँ प्रकट होने वाले भू–भारहारी श्रीहरि भगवान्‌ श्रीराम की सेवा करो। इस प्रकार देवताओं को सिखाकर ब्रह्मा जी अपने लोक को चले गये।

**गए देव सब निज निज धामा। भूमि सहित मन कहँ बिश्रामा॥ जो कछु आयसु ब्रह्मा दीन्हा। हरषे देव बिलंब न कीन्हा॥ बनचर देह धरी छिति माहीं। अतुलित बल प्रताप तिन पाहीं॥ गिरि तरु नख आयुध सब बीरा। हरि मारग चितवहिं मति धीरा॥ गिरि कानन जहँ तहँ भरि पूरी। रहे निज निज अनीक रचि रूरी॥**
भाष्य

मन में प्रभु के आश्वासन से विश्राम पाकर पृथ्वी सहित सभी देवता अपने–अपने धाम को चले गये। ब्रह्मा जी ने जो कुछ आज्ञा दी थी, देवता उसे स्वीकार कर प्रसन्न हुए और विलम्ब नहीं किया। इस भारत भूमि में देवताओं ने वन में विचरण करने वाले वानर–भालुओं का शरीर धारण किया। उनके पास अतुलनीय बल और प्रताप था। वे सभी वीर वानर–भालु, पर्वत, वृक्ष और अपने नाखूनों को शस्त्र बनाकर धीरबुद्धि से भगवान्‌ का मार्ग निहारते रहते थे अर्थात्‌ प्रभु की बाट जोहने लगे। जहाँ–तहाँ पर्वतों और वनों में अपनी सुन्दर सेना की रचना करके और वन प्रान्तरों को पूर्णरूप से भरकर वानर-भालू रह रहे थे।

**यह सब रुचिर चरित मैं भाखा। अब सो सुनहु जो बीचहिं राखा॥ अवधपुरी रघुकुलमनि राऊ। बेद बिदित तेहिं दशरथ नाऊँ॥ धरम धुरंधर गुननिधि ग्यानी। हृदय भगति मति शारंगपानी॥**
भाष्य

शिव जी कहते हैं कि, हे पार्वती ! यह सब सुन्दर चरित्र मैंने कहा, अब वह सुनो, जिसे बीच में ही छोड़ रखा था। प्रभु श्रीराम के वरदानानुसार प्रथम मन्वन्तर के अधिपति स्वायम्भुव मनु अपनी पत्नी शतरूपा के साथ रघुकुल में महाराज अज की धर्मपत्नी इन्दुमति के गर्भ से जन्म लेकर रघुकुल के मणि और अयोध्यापुरी के चक्रवर्ती शासक बने। उनका वेद प्रसिद्ध दशरथ नाम था। वे धर्म की धुरी को धारण करनेवाले गुणनिधि तथा ज्ञानी थे। उनके हृदय में शारंग धनुषधारी भगवान्‌ श्रीराम की भक्ति थी और बुद्धि भी उन्हीं पर समर्पित थी।

[[१६१]]

दो०- कौसल्यादिक नारि प्रिय, सब आचरन पुनीत।

पति अनुकूल प्रेम दृ़ढ, हरि पद कमल बिनीत॥१८८॥

भाष्य

उनकी कौसल्यादिक सात सौ महारानियाँ उन्हंें बहुत प्रिय, सभी आचरणों में पवित्र, पति के अनुकूल, श्रीहरि के चरणकमलों में दृ़ढ प्रेमवाली और विनम्र थीं।

**विशेष– **शतरूपा यहाँ कौसल्या हुई थीं और उन्हीं शतरूपा ने अपने और सात सौ दो नारियों का रूप बनाया जो महाराज दशरथ की गौण पटरानियाँ बनीं। इस प्रकार कौसल्या जी मुख्य और सात सौ दो गौण, कुल रानियों की संख्या थी सात सौ तीन।

एक बार भूपति मन माहीं। भइ गलानि मोरे सुत नाहीं॥ गुरु गृह गयउ तुरत महिपाला। चरन लागि करि बिनय बिशाला॥ निज दुख सुख सब गुरुहिं सुनायउ। कहि बसिष्ठ बहुबिधि समुझायउ॥

भाष्य

एक बार (साठ हजार वर्ष बीतने पर) चक्रवर्ती महाराज दशरथ के मन में ग्लानि हुई अर्थात्‌ उनकी प्रसन्नता समाप्त हो गयी और अभाव की अनुभूति हुई। वे सोचने लगे कि, मेरे पुत्र नहीं है। पृथ्वी का पालन करने वाले महाराज दशरथ तुरन्त गुव्र्देव वसिष्ठ जी के गृह अर्थात्‌ आश्रम को गये। उनके चरणों से लिपटकर विनय करके अपना विशाल दु:ख और सभी प्रजाओं का सुख गुरुदेव को कह सुनाया। तब वसिष्ठ जी ने महाराज को बहुत प्रकार से समझाया।

**धरहु धीर होइहैं सुत चारी। त्रिभुवन बिदित भगत भय हारी॥**
भाष्य

हे राजन्‌! धैर्य धारण कीजिये। आप के चार पुत्र होंगे, वे आकाश, पाताल, मर्त्यलोक में प्रसिद्ध तथा अपने भक्तों के भय को हरनेवाले होंगे।

**शृंगी रिषिहिं बसिष्ठ बोलावा। पुत्रकाम शुभ जग्य करावा॥ भगति सहित मुनि आहुति दीन्हे। प्रगटे अगिनि चरू कर लीन्हे॥**
भाष्य

वसिष्ठ जी ने शृंगी अर्थात्‌ जिनके मस्तक पर हिरण के जैसी सींग थी ऐसे ऋष्य शृंग नामक ऋषि को बुलाया और उन्हीं से पुत्र की कामना के लिए कल्याणकारी पुत्रेष्टि यज्ञ करवाया। ऋषि शृंगी ने भक्ति सहित मन से आहुतियाँ दीं तब हाथ में चव्र् (पायस, खीर) लिए हुए अग्निदेव स्वयं प्रकट हो गये।

**जो बसिष्ठ कछु हृदय बिचारा। सकल काज भा सिद्ध तुम्हारा॥ यह हबि बाँटि देहु नृप जाई। जथा जोग जेहि भाग बनाई॥**
भाष्य

अग्निदेव महाराज दशरथ को सम्बोधित करते हुए बोले, हे राजन्‌! वसिष्ठ जी ने जो कुछ हृदय में विचार किया था, तुम्हारा वह सब कार्य सिद्ध होगा। हे राजन्‌! यह मेरे द्वारा दिया हुआ हवि यानी खीर विभाग करके अपनी तीन सवर्ण पत्नियों में जिसकी जैसी योग्यता हो, उसी प्रकार जाकर बाँट दो।

**दो०- तब अदृश्य भए पावक, सकल सभहिं समुझाइ।**

परमानंद मगन नृप, हरष न हृदय समाइ॥१८९॥

भाष्य

इसके पश्चात्‌ सम्पूर्ण सभा को समझाकर अग्निदेव अदृश्य अर्थात्‌ सबकी आँखों से ओझल हो गये। अग्निदेव द्वारा दिये हुए हविष्यान्न को पाकर महाराज दशरथ परमानन्द में मग्न हो गये। उनके हृदय में हर्ष समा नहीं रहा था।

[[१६२]]

तबहिं राय प्रिय नारि बोलाईं। कौसल्यादि तहाँ चलि आईं॥ अर्ध भाग कौसल्यहिं दीन्हा। उभय भाग आधे कर कीन्हा॥ कैकयी कहँ नृप सो दयऊ। रह्यो सो उभय भाग पुनि भयऊ॥ कौसल्या कैकेयी हाथ धरि। दीन्ह सुमित्रहिं मन प्रसन्न करि॥

भाष्य

उसी समय महाराज दशरथ जी ने अपनी सवर्णा प्रिय कौसल्या, कैकेयी और सुमित्रा नामक तीनों महारानियों को यज्ञशाला में बुला लिया। महाराज की आज्ञा से कौसल्यादि महारानियाँ पत्नीशाला से यज्ञशाला पैदल चलकर आयीं। महाराज ने हवि का आधा भाग कौसल्या जी को दे दिया, फिर आधे के दो भाग हुए। महाराज ने आधे का प्रथम अर्थात्‌ पूर्ण का चौथा भाग कैकेयी को दे दिया, जो चौथा भाग अवशिष्ट था फिर उसके भी दो भाग हो गये महाराज ने उन दोनों भागों को कौसल्या जी एवं कैकेयी के हाथ में रखकर मन प्रसन्न करके सुमित्रा जी को दे दिया अर्थात्‌ सुमित्रा जी को दोनों महारानियों से सम्मानित कराया।

**एहि बिधि गर्भसहित सब नारी। भईं हृदय हरषित सुख भारी॥ जा दिन ते हरि गर्भहिं आए। सकल लोक सुख संपति छाए॥**
भाष्य

इस विधि से अर्थात्‌ हविष्य–प्रदान मात्र से बुलायी हुईं सभी महारानियाँ हर्षित हृदय से गर्भाधान संस्कार द्वारा गर्भवती हुईं। उनके हृदय में बहुत बड़ा सुख हुआ। तात्पर्य यह है कि, हविष्य के अर्द्ध भाग से कौसल्या जी के गर्भ में परब्रह्म तुरीय परमेश्वर श्रीराम पधारे, हविष्य के चतुर्थ भाग से कैकेयी जी के गर्भ में प्राज्ञ ईश्वर भरतजी पधारे और हविष्य के अष्टम-अष्टम भागों से सुमित्रा जी के गर्भ में क्रमश: विराट्‌रूप लक्ष्मण जी और हिरण्यगर्भरूप शत्रुघ्न जी पधारे। जब से श्रीहरि साकेताधीश भगवान्‌ श्रीराम अपने तीनों अंश (विष्णुओं) के साथ गर्भ में आये तब से सम्पूर्ण लोकों में सुख तथा सम्पत्ति छा गयी।

**मंदिर महँ सब राजहिं रानी। शोभा शील तेज की खानी॥**

सुख जुत कछुक काल चलि गयऊ। जेहिं प्रभु प्रगट सो अवसर भयऊ॥

भाष्य

शोभा, शील और तेज की खानिरूप सभी तीनों रानियाँ राजमंदिर में सुशोभित हो रही थीं। (कौसल्या जी शोभा की, कैकेयी जी शील की और सुमित्रा जी तेज की खानि थीं।) इस प्रकार पुंसवन तथा सीमन्तोन्नयन संस्कार–क्रियाओं से उत्पन्न सुख से युक्त कुछ काल बीता अर्थात्‌ बारह मासपर्यन्त प्रभु गर्भ में विराजे। जिस समय प्रभु को प्रकट होना है, वह प्रभव संवत्सर, चैत्र शुक्ल नवमी मध्याह्न का समय उपस्थित हो गया।

**दो०- जोग लगन ग्रह बार तिथि, सकल भए अनुकूल।**

चर अरु अचर हरषजुत, राम जनम सुखमूल॥१९०॥

भाष्य

योग, लग्न, ग्रह, दिन और तिथि ये सभी अनुकूल हो गयीं। सुख के मूल कारण श्रीरामजन्म के समय चेतन तथा ज़ड, चिद्‌वर्ग तथा अचिद्‌वर्ग प्रसन्नता से युक्त हो गया।

**नौमी तिथि मधु मास पुनीता। शुक्ल पक्ष अभिजित हरि प्रीता॥ मध्य दिवस अति शीत न घामा। पावन काल लोक बिश्रामा॥**
भाष्य

उस समय पवित्र मधुमास अर्थात्‌ चैत्र का महीना, शुक्ल पक्ष, नवमी तिथि, हरि प्रीता अर्थात्‌ श्रीराम जिस पर प्रसन्न रहते हैं, ऐसा पुनर्वसु नक्षत्र तथा अभिजित मुहूर्त था। दिन का मध्य जिसमें न बहुत ठंड थी और न ही बहुत क़डी धूप, सम्पूर्ण लोकों को विश्राम देनेवाला मध्याह्न का पवित्र समय था।

[[१६३]]

शीतल मंद सुरभि बह बाऊ। हरषित सुर संतन मन चाऊ॥

**बन कुसुमित गिरि गन मनियारा। स्रवहिं सकल सरिताऽमृतधारा॥ भा०– **शीतल, मंद और सुगंध वायु बह रहा था, देवता हर्षित थे, सन्तों के मन में चाव अर्थात्‌ उत्साह था, वन पुष्पों से लदे थे, पर्वतों के समूह मणियों से युक्त हो गये थे, सभी नदियाँ अमृत की धारा बहा रही थीं।

सो अवसर बिरंचि जब जाना। चले सकल सुर साजि बिमाना॥ गगन बिमल संकुल सुर जूथा। गावहिं गुन गंधर्ब बरूथा॥

भाष्य

जब ब्रह्मा जी ने सो अवसर अर्थात्‌ प्रभु के प्राकट्‌य का समय जाना तब उनकी प्रेरणा से सभी देवता विमानों को सजाकर उन पर आरू़ढ होकर देवलोक से श्रीअयोध्यापुरी को चल पड़े। श्रीअवध का निर्मल आकाश देवताओं के समूहों से भर गया था और वहाँ गन्धर्वों के समूह प्रभु के दिव्यगुण गा रहे थे।

**बरषहिं सुमन सुअंजलि साजी। गहगहि गगन दुंदुभी बाजी॥**

**अस्तुति करहिं नाग मुनि देवा। बहुबिधि लावहिं निज निज सेवा॥ भा०– **देवता सुन्दर पुष्पांजलि सजाकर सुमन अर्थात्‌ प्रसन्न मन से, सुमनवृष्टि कर रहे थे। आकाश में गहगहे एवं देव–दुन्दुभियाँ अपने आप बज उठीं। नाग, मुनि और देवगण स्तुति (गर्भ–स्तुति) कर रहे थे और बहुत प्रकार से भगवान्‌ के चरणों में अपनी–अपनी सेवाएँ समर्पित कर रहे थे।

दो०- सुर समूह बिनती करि, पहुँचे निज निज धाम।

**जगनिवास प्रभु प्रगटे, अखिल लोक बिश्राम॥१९१॥ भा०– **देवताओं के समूह बिनती अर्थात्‌ प्रभु की गर्भ–स्तुति करके अपने–अपने धाम को पहुँचे। उसी समय सम्पूर्ण लोकों के विश्रामस्थानस्वरूप जगन्निवास अर्थात्‌ सम्पूर्ण जगत्‌ के निवासस्थान तथा सम्पूर्ण जगत्‌ में निवास करनेवाले सर्वसमर्थ प्रभु भगवान्‌ श्रीराम, महाराज दशरथ जी के राजभवन में माता कौसल्या जी के समक्ष द्विभुज रूप से किशोर अवस्था में धनुष–बाण के साथ प्रकट हो गये।

छं०- भए प्रगट कृपाला दीनदयाला कौसल्या हितकारी।

हरषित महतारी मुनि मन हारी अद्भुत रूप निहारी॥ लोचन अभिरामा तनु घनश्यामा निज आयुध भुज चारी। भूषन बनमाला नयन बिशाला शोभासिंधु खरारी॥ कह दुइ कर जोरी अस्तुति तोरी केहि बिधि करौं अनंता। माया गुन ग्यानातीत अमाना बेद पुरान भनंता॥ करुना सुखसागर सब गुन आगर जेहि गावहिं श्रुति संता। सो मम हित लागी जन अनुरागी भयउ प्रगट श्रीकंता॥ ब्रह्मांड निकाया निर्मित माया रोम रोम प्रति बेद कहै। मम उदर सो बासी यह उपहासी सुनत धीर मति थिर न रहै॥ उपजा जब ग्याना प्रभु मुसुकाना चरित बहुत बिधि कीन्ह चहै। कहि कथा सुहाई मातु बुझाई जेहि प्रकार सुत प्रेम लहै॥ माता पुनि बोली सो मति डोली तजहु तात यह रूपा। कीजै शिशुलीला अति प्रियशीला यह सुख परम अनूपा॥ सुनि बचन सुजाना रोदन ठाना होइ बालक सुरभूपा। यह चरित जे गावहिं हरि पद पावहिं ते न परहिं भवकूपा॥

[[१६४]]

भाष्य

अहैतुकी कृपा करनेवाले दीनों पर दया करनेवाले कौसल्या जी का हित करनेवाले प्रभु श्रीराम प्रकट हुए। उनके मुनियों के मन को हरनेवाले आश्चर्यजनक रूप को निहार कर, माता कौसल्या प्रसन्न हो गयीं। प्रभु का शरीर, नेत्रों को आनन्द देनेवाले, नीले बादल के समान था। उनकी दोनों भुजाओं पर प्रभु के निजी शस्त्र, धनुष– बाण विराज रहे थे। प्रभु के श्रीविग्रह पर कुण्डल, कंकन, किंकिणि, हार, नूपुर आदि आभूषण विराज रहे थे। भगवान्‌ श्रीराम के वक्षस्थल पर तुलसी, कुन्द, मन्दार, पारिजात और कमल के पुष्पों से गुँथी हुई कण्ठ से लेकर चरणपर्यन्त लटकती हुई वनमाला सुशोभित थी। भगवान्‌ के नेत्र विशाल थे। खर नामक राक्षस के शत्रु भगवान्‌ श्रीराम शोभा के महासागर रूप में प्रकट हुए। कौसल्या जी दोनों हाथ जोड़कर कहने लगीं, हे अनन्त! अर्थात्‌ अन्त से रहित परब्रह्म श्रीराम! मैं आपकी स्तुति किस प्रकार से करूँ। वेद और पुराण आप को माया तथा उसके गुणों, ज्ञान से परे और मानरहित कहते हैं। जो आपश्री करुणारूप और सुख के समुद्र हैं तथा सभी कल्याणकारी गुणगणों के आगार अर्थात्‌ भवन हैं, जिन आपश्री को वेद तथा सन्त गाते हैं, वे ही भक्तों के अनुरागी आप साकेतबिहारिणी सीता जी के पति साकेताधीश भगवान्‌ श्रीराम मेरे हित के लिए ही प्रकट हुए हैं। वेद कहते हैं कि, जिनकी एक–एक रोम में माया से निर्मित ब्रह्माण्डों के समूह विराजते हैं, वे ही प्रभु मुझ कौसल्या के उदर अर्थात्‌ पेट के गर्भाशय में निवास किये यह सुनकर धीरों की भी बुद्धि स्थिर नहीं रह सकती अर्थात्‌ उन्हें भी आश्चर्य हो सकता है। माता जी के मन में जब ज्ञान उत्पन्न हुआ और प्रभु के प्रति ऐश्वर्यभाव आ गया तब भगवान्‌ श्रीराम मुस्कुराये। वे बहुत प्रकार के चरित्र करना चाहते हैं, जो माताश्री के ऐश्वर्यभाव में सम्भव नहीं है, इसलिए भगवान्‌ श्रीराम ने मनु–शतरूपा की तपस्या एवं उन्हें अपने द्वारा दिये हुए वरदान की सुहावनी कथा कहकर माता कौसल्या को समझाया। जिस प्रकार कौसल्या माता प्रभु के विषय में सुतप्रेम अर्थात्‌ वात्सल्य–भाव प्राप्त कर सकेंगी, अब वह मति अर्थात्‌ भगवान्‌ के प्रति ऐश्वर्यबुद्धि डिग गयी तथा प्रभु के प्रति पुत्रविषयक प्रेम से भावित माता कौसल्या जीं बोली, हे पुत्र! यह रूप अर्थात्‌ किशोरावस्था का रूप छोड़ दीजिये। जिसमें आपका स्वभाव अत्यन्त प्रिय होगा ऐसी शिशुलीला कीजिये अर्थात्‌ नन्हें–मुन्ने छोटे से नवजात बालक बन जाइये, यही सुख परम अनूप अर्थात्‌ पूजनीय एवं उपमा से रहित है। सुजान अर्थात्‌ माता जी का अभिप्राय समझने वाले, देवताओं के भी राजाधिराज भगवान्‌ श्रीराम ने माता जी के यह वचन सुनकर छोटे से बालक रूप में अवतीर्ण होकर रुदन प्रारम्भ किया अर्थात्‌ कहाँऽऽ–कहाँऽऽ कर रोने लगे। तुलसीदास जी फलश्रुति कहते हुए आज्ञा करते हैं कि, आज भी यह अवतार चरित्र जो गाते हैं, वे हरिपद पा जाते हैं अर्थात्‌ वे भगवान्‌ श्रीराम के श्रीचरणों की सेवा प्राप्त कर लेते हैं और वे संसाररूप कूप में नहीं पड़ते।

**दो०- बिप्र धेनु सुर संत हित, लीन्ह मनुज अवतार।**

निज इच्छा निर्मित तनु, माया गुन गो पार॥१९२॥

भाष्य

ब्राह्मणों, गौओं, देवताओं तथा सन्तों का हित करने के लिए माया के गुणों और इन्द्रियों से परे होते हुए भी, प्रभु श्रीराम ने अपने तथा अपने भक्तजनों की इच्छा से छोटा–सा बालरूप बनाकर मनुष्य का अवतार अथवा मनुवंश में जन्म लेकर श्रीरामावतार ले लिया।

**सुनि शिशु रुदन परम प्रिय बानी। संभ्रम चलि आईं सब रानी॥ हरषित जहँ तहँ धाईं दासी। आनँद मगन सकल पुर बासी॥**
भाष्य

परमप्रिय वाणी में शिशुरूप राम जी का रुदन सुनकर सभी रानियाँ प्रसन्नतायुक्त आश्चर्य से युक्त होकर, कौसल्या जी के भवन में चलकर गयीं। प्रसन्न हुईं दासियाँ जहाँ–तहाँ दौड़ पड़ीं सम्पूर्ण अवधवासी आनन्द में मग्न हो गये।

[[१६५]]

दशरथ पुत्रजन्म सुनि काना। मानहुँ ब्रह्मानंद समाना॥

परम प्रेम मन पुलक शरीरा। चाहत उठन करत मति धीरा॥

भाष्य

पुत्र का जन्म स्वयं अपने कानों से सुनकर महाराज दशरथ मानो ब्रह्मानन्द में समा गये अर्थात्‌ लीन हो गये। मन में परमप्रेम उमड़ आया, शरीर पुलकित हो उठा। वे उठकर राजभवन में जाना चाहते थे, परन्तु बुद्धि उनको धीर अर्थात्‌ स्थिर कर रही थी कि, अभी राजभवन में जाना उचित नहीं होगा अर्थात्‌ गुरुदेव के साथ ही पुत्र को निहारना धर्मसंगत होगा।

**जाकर नाम सुनत शुभ होई। मोरे गृह आवा प्रभु सोई॥ परमानंद पूरि मन राजा। कहा बोलाइ बजावहु बाजा॥**
भाष्य

जिनका नाम सुनते ही शुभ हो जाता है, वही साकेतबिहारी भगवान्‌ श्रीराम मेरे गृह में बालक बनकर आये हैं, ऐसा सोचते ही राजा दशरथ जी का मन परमानन्द से पूर्ण हो गया और स्वयं उन्होंने बजनियों को बुलाकर कहा, बाजे बजाओ।

**गुरु बसिष्ठ कहँ गयउ हँकारा। आए द्विजन सहित नृप द्वारा॥ अनुपम बालक देखेनि जाई। रूप राशि गुन कहि न सिराई॥**
भाष्य

गुव्र्देव वसिष्ठ जी के लिए महाराज का बुलावा गया, अथवा स्वयं महाराज गुव्र्देव वसिष्ठ जी के पास उन्हें बुलाने के लिए गये और वसिष्ठ जी, वामदेव आदि अन्य ब्राह्मणों के साथ राजभवन में पधारे। उपमारहित उन बालक परमेश्वर को जाकर वसिष्ठ जी ने देखा, अथवा वसिष्ठ जी ने ऐसा उपमारहित बालक देखा, जिसके ‘बाल’ अर्थात्‌ रोम–रोम में ‘क’ अर्थात्‌ अनेक ब्रह्माण्ड विराज रहे थे, ब्रह्मा जी भी जिसके ‘बाल’ अर्थात्‌ पुत्र हैं, जिसके अलक अर्थात्‌ केश वक्र अर्थात्‌ घुँघराले हैं, जो बालों अर्थात्‌ बाल–स्वभाव वालों को ‘क’ अर्थात्‌ अपने पास बुला लेता है, उस अनुपम बालक को महाराज दशरथ जी के साथ वसिष्ठ जी ने देखा। वह रूप की राशि था और उसके गुण कहने में समाप्त नहीं हो रहे थे।

**दो०- तब नंदीमुख श्राद्ध करि, जातकरम सब कीन्ह।**

हाटक धेनु बसन मनि, नृप बिप्रन कहँ दीन्ह॥१९३॥

भाष्य

तब राजा ने नान्दीमुख श्राद्ध करके सम्पूर्ण जातकर्म का विधान सम्पन्न किया और ब्राह्मणों को स्वर्ण, गौ, वस्त्र तथा मणियाँ दीं।

**ध्वज पताक तोरन पुर छावा। कहि न जाइ जेहि भाँति बनावा॥ सुमनबृष्टि आकाश ते होई। ब्रह्मानंद मगन सब कोई॥**
भाष्य

नगर में ध्वजा, पताका और तोरण छा गये। जिस प्रकार श्रीअवध को सजाया गया था, वह कहा नहीं जा सकता। आकाश से पुष्पवृष्टि हो रही थी और सभी ब्रह्मानन्द में मग्न थे।

**बृंद बृंद मिलि चलीं लुगाई। सहज सिंगार किए उठि धाई॥ कनक कलश मंगल भरि थारा। गावत पैठहिं भूप दुआरा॥**
भाष्य

समूह–समूह में मिलकर श्रीअवध की सुहागिनियाँ चल पड़ीं वे स्वभावत: शृंगार किये हुए उठकर दौड़ीं वे स्वर्ण से भरे कलश और मंगलों से भरे थालों को लेकर गाती हुई महाराज के द्वार में प्रवेश कर रही थीं।

**करि आरति नेवछावरि करहीं। बार बार शिशु चरननि परहीं॥ मागध सूत बंदिगन गायक। पावन गुन गावहिं रघुनायक॥**

[[१६६]]

भाष्य

श्रीअवध की सौभाग्यवती नारियाँ आरती करके निछावर करती और बार–बार शिशुरूप राघव के चरणों में पड़ जाती हैं। मागध (वंश प्रशंसक), सूत (पौराणिक गायक), बन्दिजन और प्रस्ताव के अनुकूल उक्तियाँ कहनेवाले अन्य गायकजन, रघुकुल के नायक भगवान्‌ श्रीराम के पवित्र गुणों को गा रहे हैं।

**सर्बस दान दीन्ह सब काहू। जेहिं पावा राखा नहिं ताहू॥**

मृगमद चंदन कुंकुम सींचा। मची सकल बीथिन बिच कीचा॥

भाष्य

सभी लोगों ने सर्वस्व दान दे दिया, जिसने पाया उसने भी नहीं रखा। अन्तत: वह फिर राजभवन में आ गया। सभी गलियों को कस्तूरी, कुंकुम और चंदन के द्रव से सींचा गया इसलिए गलियों में कीचड़ हो गया।

**दो०- गृह गृह बाज बधाव शुभ, प्रगटे सुषमा कंद।**

हरषवंत सब जहँ तहँ, नगर नारि नर बृंद॥१९४॥

भाष्य

श्रीअयोध्या के प्रत्येक घर में बधावा बज रहा था, क्योंकि सुषमा अर्थात्‌ परमपूजनीय शोभा के मेघस्वरूप भगवान्‌ श्रीराम श्रीअवध में प्रकट हो गये थे। नगर के नारी और पुरुष जहाँ–तहाँ प्रसन्न थे।

**चौ०- कैकयसुता सुमित्रा दोऊ। सुंदर सुत जनमत भइ ओऊ॥ वह सुख संपति समय समाजा । कहि न सकहिं शारद अहिराजा॥**
भाष्य

कैकय–राजपुत्री कैकेयी तथा सुमित्रा इन दोनों महारानियों ने भी सुन्दर पुत्रों को जन्म दिया अर्थात्‌ कैकेयी जी ने एक पुत्र और सुमित्रा जी ने दो पुत्रों को जन्म दिया। उस सुख, सम्पत्ति, समय और समाज का वर्णन सरस्वती जी और सर्पों के राजा शेष जी भी नहीं कर सकते।

**अवधपुरी सोहइ एहि भाँती। प्रभुहिं मिलन आई जनु राती॥ देखि भानु जनु मन सकुचानी। तदपि बनी संध्या अनुमानी॥**
भाष्य

अवधपुरी इस प्रकार से शोभित हो रही थी मानो प्रभु श्रीरामचन्द्र जी से मिलने रात्रि आयी हो, वह मानो सूर्यनारायण को देखकर मन में सकुचा गयी हो फिर भी अनुमानत: संध्या तो बन ही गयी।

**अगर धूप बहु जनु अँधियारी। उड़इ अबीर मनहुँ अरुनारी॥ मंदिर मनि समूह जनु तारा। नृप गृह कलश सो इंदु उदारा॥**
भाष्य

अगर की धूप ही मानो संध्या की अँधियारी है अर्थात्‌ अंधेरापन है। अबीर उड़ रहे हैं मानो वही संध्या की लालिमा है, मंदिर में ज़डे मणियों के समूह ही मानो तारागणों का समूह है। महाराज के भवन का कलश मानो सुन्दर पूर्ण चन्द्रमा है।

**भवन बेदधुनि अति मृदु बानी। जनु खग मुखर समय सुख सानी॥ कौतुक देखि पतंग भुलाना। एक मास तेहि जात न जाना॥**
भाष्य

राजभवन में अत्यन्त कोमल वाणी में हो रहे वेदध्वनि मानो सन्ध्याकालीन सुख से सनी हुई पक्षियों की कलरव ध्वनि हो, यह कौतुक देखकर सूर्यनारायण मानो भुला गये। महीने भर के दिनों को उन्होंने जाते नहीं जाना अर्थात्‌ श्रीरामजन्म के समय रामनवमी का एक दिन एक महीने के दिनों के बराबर अर्थात्‌ सात सौ बीस घण्टों का हो गया और सूर्यनारायण को इसका संज्ञान ही नहीं हो पाया, इसलिए वे एक महीनेपर्यन्त अस्ताचल को गये ही नहीं, श्रीरामजन्मोत्सव देखते रहे।

**दो०- मास दिवस कर दिवस भा, मरम न जानइ कोइ।**

रथ समेत रबि थाकेउ, निशा कवन बिधि होइ॥१९५॥

[[१६७]]

भाष्य

एक महीने के दिन का एक दिन हो गया और कोई भी यह मर्म नहीं जान रहा है। रथ के सहित सूर्यनारायण श्रीअवध के आकाश में स्थिर हो गये, तो रात्रि किस प्रकार से हो, क्योंकि वह तो सूर्यनारायण के अस्त होने पर ही सम्भव है।

**यह रहस्य काहूँ नहिं जाना। दिनमनि चले करत गुनगाना॥ देखि महोत्सव सुर मुनि नागा। चले भवन बरनत निज भागा॥**
भाष्य

यह रहस्य किसी ने भी नहीं जाना। सात सौ बीस घण्टों के पश्चात्‌ सूर्यनारायण भगवान्‌ श्रीराम का गुणगान करते अस्ताचल को चल पड़े। भगवान्‌ श्रीराम का जन्ममहोत्सव देखकर देवता, मुनि और नाग अपनेअपने भाग्य का वर्णन करते हुए अपने–अपने घरों को चले।

**औरउ एक कहउँ निज चोरी। सुनु गिरिजा अति दृ़ढ मति तोरी॥ काकभुशुण्डि संग हम दोऊ। मनुजरूप जानइ नहिं कोऊ॥ परमानंद प्रेमसुख फूले। बीथिन फिरहिं मगन मन भूले॥**

यह शुभ चरित जान पै सोई। कृपा राम कै जापर होई॥

भाष्य

हे पार्वती! आप की बुद्धि अत्यन्त धीर हो चुकी है, इसलिए मैं अपनी एक अन्य चोरी कह रहा हूँ अर्थात्‌ आपसे छिपाकर मनुष्यरूप धारण करके साथ में काकभुशुण्डि जी को लेकर हम दोनों परमानन्द, प्रेम और सुख में फूले हुए मग्न मनवाले भूले–भूले अयोध्या की गलियों में भटकते–फिरते थे। हमें कोई नहीं जान पाता था। पर यह सब चरित्र वही जान जाता है, जिस पर श्रीराम की कृपा हो जाती है अर्थात्‌ श्रीराम की कृपा से इस गोपनीय चरित्र को भी तुलसीदास जी ने मानस में निबद्ध कर दिया।

**तेहि अवसर जो जेहि बिधि आवा। दीन्ह भूप जो जेहि मन भावा॥ गज रथ तुरग हेम गो हीरा। दीन्हे नृप नानाबिधि चीरा॥**
भाष्य

इस अवसर पर जो जिंस प्रकार से आया, जिसे जो मन में भाया राजा ने उसे वह दे दिया। हाथी, घोड़े स्वर्ण, गौ, हीरे और नाना प्रकार के वस्त्र महाराज दशरथ ने दान में दिये।

**दो०- मन संतोषे सबनि के, जहँ तहँ देहिं अशीश।**

सकल तनय चिर जीवहु, तुलसिदास के ईश॥१९६॥

भाष्य

सबके मन सन्तुष्ट हो गये। लोग जहाँ–तहाँ आशीर्वाद दे रहे थे और बोल रहे थे कि, तुलसीदास के ईश्वर आराध्यरूप महाराज के सभी पुत्र चिरंजीवी हों।

**कछुक दिवस बीते एहि भाँती। जात न जानिय दिन अरु राती॥ नामकरन कर अवसर जानी। भूप बोलि पठए मुनि ग्यानी॥**
भाष्य

इस प्रकार से कुछ दिन अर्थात्‌ ग्यारह दिन बीत गये। दिन और रात जाते हुए नहीं जान पड़ते थे। बारहवें दिन नामकरण का अवसर जानकर महाराज ने ज्ञानीमुनि वसिष्ठ जी को बुला भेजा।

**करि पूजा भूपति अस भाषा। धरिय नाम जो मुनि गुनि राखा॥ इन के नाम अनेक अनूपा। मैं नृप कहब स्वमति अनुरूपा॥**
भाष्य

पूजा करके महाराज दशरथ जी ने इस प्रकार कहा, हे मननशील गुरुदेव! आप ने जो विचार कर रखा हो, बालकों का वही नाम रख दीजिये। (मुनि वसिष्ठ जी ने कहा–) हे महाराज! इनके अनेक अनुपम नाम हैं, फिर भी मैं अपनी बुद्धि के अनुरूप कहूँगा।

[[१६८]]

जो आनंद सिंधु सुखरासी। सीकर ते त्रैलोक सुपासी॥ सो सुख धाम राम अस नामा। अखिल लोक दायक बिश्रामा॥

भाष्य

वसिष्ठ जी ने कहा, हे राजन्‌! जो आनन्द के सागर, सुखों की राशि हैं और जो उस आनन्द के एक बूँद से ही स्वर्गलोक, मर्त्यलोक तथा पाताललोक इन तीन लोकों को आनन्दित करते रहते हैं। जो सम्पूर्ण लोकों को विश्राम देनेवाले हैं, वही सुखों के आश्रय प्रभु ‘श्रीराम’ इस नाम से प्रसिद्ध होंगे अर्थात्‌ सब में रमण करने और सब में रमण कराने के कारण बड़े राजकुमार का नाम राम होगा।

**बिश्व भरन पोषन कर जोई। ताकर नाम भरत अस होई॥ जाके सुमिरन ते रिपु नाशा। नाम शत्रुहन बेद प्रकाशा॥**
भाष्य

जो विश्व का भरण–पोषण करते हैं, उनका नाम ‘भरत’ इस प्रकार होगा, जिनके स्मरणमात्र से शत्रुओं का नाश हो जाता है, उनका वेद में प्रसिद्ध ‘शत्रुघ्न’ नाम होगा।

**दो०- लच्छन धाम राम प्रिय, सकल जगत आधार।**

गुरु बशिष्ठ तेहि राखा, लछिमन नाम उदार॥१९७॥

भाष्य

जो शुभलक्षणों के धाम, श्रीराम के प्रिय, सारे संसार के आधार और अत्यन्त उदार हैं, गुव्र् वसिष्ठ जी ने उन्हीं सुमित्रा जी के बड़े पुत्र का नाम ‘लक्ष्मण’ रखा।

**विशेष– **यद्दपि लक्ष्मण जी, शत्रुघ्न जी से बड़े हैं, फिर भी दार्शनिक सिद्धान्तों के आधार पर तुलसीदास जी ने लक्ष्मण का नाम अन्त में रखा। तुरीय होने के कारण श्रीराम का नाम प्रथम, प्राज्ञ होने से भरत का नाम द्वितीय, हिरण्यगर्भ होने से शत्रुघ्न का नाम तृतीय और विराट्‌ होने से लक्ष्मण जी का नाम चतुर्थ में रखा गया। श्रीरामतापनीयोपनिषद्‌ के अनुसार भी अर्द्धमात्रात्मक श्रीराम का नाम प्रथम, मकरात्मक भरत का नाम द्वितीय, उकारात्मक शत्रुघ्न का नाम तृतीय और अकारात्मक लक्ष्मण जी का नाम चतुर्थ में रख गया।

धरे नाम गुरु हृदय बिचारी। बेद तत्व नृप तव सुत चारी॥ मुनि धन जन सरबस शिव प्राना। बाल केलि रस तेहिं सुख माना॥

भाष्य

गुरुदेव ने हृदय में विचार कर चारों बालकों का नाम रखा। अथवा श्रीराम, भरत, लक्ष्मण, शत्रुघ्न नाम के अर्थ को हृदय में विचारकर चारों राजकुमारों को ही गुव्र् वसिष्ठ जी ने हृदय में धारण कर लिया और बोले, हे महाराज! तुम्हारे चारों पुत्र वेद के तत्त्व ओंकार ही हैं, अर्थात्‌ लक्ष्मण जी अकार के अर्थ हैं, शत्रुघ्न जी उकार के, भरत जी मकार के तथा श्रीराम अर्द्धमात्रा के अर्थ हैं। अब बाललीला का उपक्रम करते हुए गोस्वामी जी कहते हैं कि, जो प्रभु मुनियों के धन, भक्तजनों के सर्वस्व तथा शिव जी के प्राण हैं उन्हीं प्रभु श्रीराम ने बाल– क्रीड़ा के रस में सुख मान लिया है अर्थात्‌ स्वयं बाललीला में आनन्द ले रहे हैं, साथ ही मुनियों, भक्तों और शिव जी को भी आनन्द दे रहे हैं।

**बारेहिं ते निज हित पति जानी। लछिमन राम चरन रति मानी॥**

**भरत शत्रुहन दूनउ भाई। प्रभु सेवक जसि प्रीति ब़ढाई॥ भा०– **बाल्यावस्था से ही अपना हितैषी और स्वामी जानकर लक्ष्मण जी ने श्रीराम के चरणों में रति अर्थात्‌ भक्ति मान ली है। श्रीभरत और श्रीशत्रुघ्न इन दोनों भाइयों ने स्वामी और सेवक जैसी परस्पर प्रीति ब़ढा ली है।

श्याम गौर सुंदर दोउ जोरी। निरखहिं छबि जननीं तृन तोरी॥ चारिउ शील रूप गुन धामा। तदपि अधिक सुखसागर रामा॥

[[१६९]]

भाष्य

श्याम और गौरवर्णवाली सुन्दर दोनों जोयिड़ों श्रीराम–लक्ष्मण तथा भरत–शत्रुघ्न की छवि, माताएँ तिनका तोड़कर देखती हैं। यद्दपि चारों भाई शील, रूप और गुणों के भवन हैं, फिर भी सुख के सागर श्रीराम, भरत, लक्ष्मण और शत्रुघ्न से अधिक हैं।

**हृदय अनुग्रह इंदु प्रकासा। सूचत किरन मनोहर हासा॥ कबहुँ उछंग कबहुँ बर पलना। मातु दुलारइ कहि प्रिय ललना॥**
भाष्य

प्रभु के हृदय में अनुग्रहरूप चन्द्रमा प्रकाशित हो रहा है। जिसकी किरणें प्रभु की मनोहारिणीं हँसी से सूचित हो रही हैं। कभी गोद में लेकर, कभी श्रेष्ठ पालने पर पौ़ढाकर ‘प्रिय ललना’ कहकर माता कौसल्या प्रभु श्रीराम को दुलारतीं हैं।

**दो०- ब्यापक ब्रह्म निरंजन, निर्गुन बिगत बिनोद।**

सो अज प्रेम भगति बश, कौसल्या के गोद॥१९८॥

भाष्य

जो प्रभु व्यापक, ब्रह्म, निरंजन अर्थात्‌ कर्म के लेख से रहित तथा प्राकृत हेयगुणों से शून्य, विनोदरहित और अजन्मा हैं। वे ही प्रभु श्रीराम कौसल्या जी की प्रेमाभक्ति के वश में होकर उनकी गोद में विराज रहे हैं।

**काम कोटि छबि श्याम शरीरा। नील कंज बारिद गंभीरा॥ अरुन चरन पंकज नख जोती। कमल दलनि बैठे जनु मोती॥**
भाष्य

करोड़ों कामदेव की छवि से युक्त नीले कमल और वर्षाकालीन गम्भीर बादल के समान प्रभु का श्यामल शरीर है। अथवा, करोड़ों कामदेवों को भी जिनसे सुन्दरता मिली है, ऐसे श्यामल शरीरवाले प्रभु श्रीराम, कौसल्या की गोद में संलग्न नीली साड़ी पर बैठकर इस प्रकार विराज रहे हैं, जैसे नीले कमल पर गम्भीर वर्षाकालीन बादल विराजमान हो। प्रभु के चरण कमल के समान हैं। उनकी नखों की ज्योति ऐसी प्रतीत होती है, मानो दस कमल के दलों पर दस मोती बैठे हुए हों।

**रेख कुलिश ध्वज अंकुश सोहै। नूपुर धुनि सुनि मुनि मन मोहै॥ कटि किंकिनी उदर त्रय रेखा। नाभि गभीर जान जेहिं देखा॥**
भाष्य

प्रभु के चरण में रेखा आकार वाले वज्र, ध्वज और अंकुश बहुत सुन्दर शोभायमान हो रहे हैं। नूपुर की ध्वनि सुनकर मुनियों के मन भी मोहित हो जाते हैं। प्रभु के कटि–तट पर किंकिणी और उनके उदर पर तीन रेखायें विराजमान हैं। उनकी नाभि गम्भीर है उसे वही जान सकता है, जिसने देखा हो।

**भुज बिशाल भूषन जुत भूरी। हिय हरि नख अति शोभा रूरी॥ उर मनिहार पदिक की शोभा। बिप्र चरन देखत मन लोभा॥**
भाष्य

अनेक आभूषणों से युक्त प्रभु की भुजाएँ विशाल अर्थात्‌ बड़ी और आजानु (घुटने से नीचे तक) हैं। हृदय पर बघनखा की शोभा बहुत ही अद्‌भुत और प्यारी है। हृदय पर मणियों की माला और हीरे के हार की शोभा है। प्रभु के हृदय पर दृष्टिदोष वारन के लिए माता कौसल्या द्वारा आदरातिशय से स्थापित कराये हुए वसिष्ठ जी के चरणचिह्न को देखकर तो मन लुब्ध हो जाता है।

**विशेष– **विष्णु भगवान्‌ राम के अंश हैं। **शम्भु बिरंचि विष्णु भगवाना। उपजहिं जासु अंश ते नाना॥ **मानस १.१४५.६। इसलिए विष्णु के वक्ष का भृगु–चरणचिह्न, उनके अंशी भगवान्‌ श्रीराम के वक्ष पर नहीं आ सकता, क्योंकि अंशी के गुण अंश में जाते हैं, न कि अंश के अंशी में, जैसे समुद्र का गुण लहर में जा सकता है, पर लहर का गुण समुद्र में नहीं जा सकता है।

[[१७०]]

कंबु कंठ अति चिबुक सुहाई। आनन अमित मदन छबि छाई॥ दुइ दुइ दशन अधर अरुनारे। नासा तिलक को बरनै पारे॥

भाष्य

प्रभु के कण्ठ शंख के समान हैं, उनकी चिबुक अर्थात्‌ ठो़ढी बहुत सुहावनी है। प्रभु के मुख पर असीम कामदेवों की छवि छायी हुई है। दो–दो दतुलियाँ, लाल अधर (होठ), नासिका और भाल पर लगी हुई तिलक का वर्णन कौन कर सकता है ?

**सुन्दर स्रवन सुचारु कपोला। अति प्रिय मधुर तोतरे बोला॥**

**नील कमल दोउ नयन बिशाला। बिकट भृकुटि लटकनि बर भाला॥ भा०–**प्रभु श्रीराम के कान बड़े ही सुन्दर हैं और उनके कुछ उभरे हुए कपोल बड़े ही सुन्दर और मनमोहक हैं। उनकी तोतली बोली अत्यन्त प्रिय और मधुर है। नीले कमल के समान प्रभु के विशाल दो नेत्र, टे़ढी भौंहें और मस्तक पर लटकती हुई घुँघराली लटों की लटकन श्रेष्ठता के साथ सुशोभित हो रही है।

चिक्कन कच कुंचित गभुआरे। बहु प्रकार रचि मातु सँवारे॥ पीत झगुलिया तनु पहिराई। जानु पानि बिचरनि मोहि भाई॥ रूप सकहिं नहिं कहि श्रुति शेषा। सो जानइ सपनेहुँ जेहिं देखा॥

भाष्य

प्रभु के गभुआरे अर्थात्‌ गर्भ के केश बड़े ही चिक्कन और घुँघराले हैं, जिन्हें माता जी ने बहुत प्रकार से सजाकर बनाया है। उनके शरीर पर पीली झगुलिया पहनायी हुई है और उनके चरण और हाथ के बल से चलना मुझे बहुत भाता है। भगवान्‌ श्रीराम के रूप को वेद और शेष भी नहीं कह सकते। उसको तो वही जान सकता है, जिसने स्वप्न में भी उसे देखा हो।

**दो०- सुख संदोह मोहपर, ग्यान गिरा गोतीत।**

दंपति परम प्रेम बश, कर शिशुचरित पुनीत॥१९९॥

भाष्य

जो सुख के घनीभूत, मोह से परे, ज्ञान, वाणी और इन्द्रियों से अतीत हैं, वही प्रभु श्रीराम, राजदम्पति दशरथ और कौसल्या के परमप्रेम के वश में होकर पवित्र शिशुचरित्र कर रहे हैं।

**एहि बिधि राम जगत पितु माता। कोसलपुर बासिन सुखदाता॥ जिन रघुनाथ चरन रति मानी। तिन की यह गति प्र्रगट भवानी॥**
भाष्य

इस प्रकार से जगत्‌ के पिता–माता भगवान्‌ श्रीराम कोसलपुरवासियों को सुख देनेवाले हो गये अर्थात्‌ सुख देने लगे। हे पार्वती! जिन्होंने श्रीरघुनाथ के चरणों में रति अर्थात्‌ भक्ति मान ली है, उनकी यह गति प्रत्यक्ष है अर्थात्‌ उन्हें प्रभु की बाललीला के दर्शन का सौभाग्य प्राप्त हो रहा है।

**रघुपति बिमुख जतन करि कोरी। कवन सकइ भव बंधन छोरी॥ जीव चराचर बश कै राखे। सो माया प्रभु सो भय भाखे॥**
भाष्य

श्रीराम से विमुख होकर करोड़ों यत्न करके भी भवबन्धन को कौन छोड़ सकता है? जो माया, चर–अचर अर्थात्‌ ज़ड-चेतन जीवों को वश में करके रखती है, वह माया भी प्रभु के समक्ष भयभीत होकर कुछ कहती है।

**भृकुटि बिलास नचावइ ताही। अस प्रभु छाभिड़ जिय कहु काही॥ मन क्रम बचन छाचिड़ तुराई। भजत कृपा करिहैं रघुराई॥**
भाष्य

उस माया को भी जो प्रभु भौंहों के संकेत से नचाते रहते हैं, भला बताओ ऐसे प्रभु को छोड़कर किसे भजना चाहिए? मन, कर्म और वचन से चतुरता छोड़कर भजन करने से रघुकुल के राजा श्रीराम कृपा करेंगे ही।

[[१७१]]

एहि बिधि शिशुबिनोद प्रभु कीन्हा। सकल नगरबासिन सुख दीन्हा॥ लै उछंग कबहुँक हलरावै। कबहुँ पालने घालि झुलावै॥

भाष्य

इस प्रकार, प्रभु ने शिशुलीला की और सम्पूर्ण नगरवासियों को सुख दिया। माता कौसल्या कभी गोद में लेकर हलरातीं अर्थात्‌ श्रीराघव को उछालती हैं और कभी पालने पर पौ़ढाकर झुलाती हैं।

**दो०- प्रेम मगन कौसल्या, निशि दिन जात न जान।**

सुत सनेह बश माता, बालचरित कर गान॥२००॥

भाष्य

प्रेम में मग्न माता कौसल्या जी रात और दिन जाते हुए नहीं जान पाती हैं। पुत्र के प्रेम के वश में होकर माता प्रभु के बालचरित्र का गान किया करती हैं।

**एक बार जननी अन्हवाए। करि शृंगार पलना पौ़ढाए॥ निज कुल इष्टदेव भगवाना। पूजा हेतु कीन्ह पकवाना॥**
भाष्य

एक बार माता कौसल्या ने प्रभु को नहलाया और श्रीरामलला का शृंगार करके उन्हें पालने पर पौ़ढा दिया। अपने कुल के इष्टदेव भगवान्‌ रंगनाथ की पूजा करने के लिए माता कौसल्या ने पकवान बनाया।

**करि पूजा नैबेद्द च़ढावा। आपु गई जहँ पाक बनावा॥ बहुरि मातु तहवाँ चलि आई। भोजन करत देख सुत जाई॥**
भाष्य

पूजा करके माता कौसल्या ने रंगनाथ जी को नैवेद्द अर्पित किया और पट बन्द करके, जहाँ पकवान बनाया गया था। वहाँ चली गयीं। वहाँ से लौटकर माता मंदिर में आईं तो वहाँ जाकर पुत्र श्रीरामलला को ही भोजन करते हुए देखा।

**गइ जननी शिशु पहँ भयभीता। देखा बाल तहाँ पुनि सूता॥ बहुरि आइ देखा सुत सोई। हृदय कंप मन धीर न होई॥ इहाँ उहाँ दुइ बालक देखा। मतिभ्रम मोर कि आन बिशेषा॥ देखि राम जननी अकुलानी। प्रभु हँसि दीन्ह मधुर मुसुकानी॥**
भाष्य

भयभीत होकर माता बालक के पास गयीं तो वहाँ पालने पर श्रीरामलला को सोते हुए देखा, फिर मंदिर में आकर उन्हीं अपने पुत्र रामलला को भोजन करते देखा। उनके हृदय में कम्पन हो गया, मन में धैर्य नहीं हो रहा था। यहाँ (मंदिर में) वहाँ (पालने पर) कौसल्या जी ने एक ही बालक श्रीराम को दो शरीरों में देखा। वह विचार करने लगीं कि, यह मेरी बुद्धि का भ्रम है या कुछ और विशेष है। एक ही बालक दो स्थानों पर दो अलग–अलग क्रियाएँ करता हुआ कैसे दिख रहा है? माँ को व्याकुल देखकर प्रभु ने मधुर मुस्कान के साथ हँस दिया।

**दो०- देखरावा मातहिं निज, अद्‌भुत रूप अखंड।**

रोम रोम प्रति लागे, कोटि कोटि ब्रह्माण्ड॥२०१॥

भाष्य

अपनी माता को प्रभु ने वह अपना अद्‌भुत और अखण्ड रूप दिखाया जिसके एक–एक रोम में करोड़ों ब्रह्माण्ड लग रहे थे।

**अगनित रबि शशि शिव चतुरानन। बहुगिरि सरित सिंधु महि कानन॥ काल कर्म गुन ग्यान सुभाऊ। सोउ देखा जो सुना न काऊ॥**

[[१७२]]

भाष्य

कौसल्या जी ने प्रभु में अनेक सूर्य, अनेक चन्द्रमा, अनेक शङ्कर, अनेक विष्णु, अनेक ब्रह्मा, बहुत से पर्वत, नदियाँ, समुद्र, पृथ्वी, वन, काल, कर्म, गुण, ज्ञान और स्वभाव आदि देखते हुए, वह भी देखा जो किसी ने सुना नहीं था।

**देखी माया सब बिधि गा़ढी। अति सभीत जोरे कर ठा़ढी॥ देखा जीव नचावइ जाही। देखी भगति जो छोरइ ताही॥**
भाष्य

कौसल्या जी ने सब प्रकार से कठोर अत्यन्त भयभीत प्रभु के सामने हाथ जोड़कर ख़डी हुई उस माया को भी देखा। उन्होंने प्रभु के शरीर में विराजमान उस जीवात्मतत्त्व को भी देखा, जिसे यह माया नचाती है और उस भक्ति को भी देखा जो जीव को माया के बन्धन से छुड़ाती है।

**तन पुलकित मुख बचन न आवा। नयन मूदि चरननि सिर नावा॥ बिसमयवंत देखि महतारी। भए बहुरि शिशुरूप खरारी॥**
भाष्य

माता का शरीर पुलकित हो उठा, उनके मुख से वचन नहीं निकल रहे थे। कौसल्या जी ने नेत्र बन्द करके प्रभु के चरणों में मस्तक नवाया, माता को आश्चर्य से युक्त देखकर खर के शत्रु श्रीरघुनाथ फिर बाल रूप में हो गये।

**अस्तुति करि न जाइ भय माना। जगत पिता मैं सुत करि जाना॥ हरि जननी बहुबिधि समुझाई। यह जनि कतहुँ कहसि सुनु माई॥**
भाष्य

माता से स्तुति की नहीं जा रही थी, उन्होंने अपने मन में भय माना अर्थात्‌ वे डर गयीं। कौसल्या जी विचार करने लगीं, अरे! जगत्‌ के पिता प्रभु श्रीराम को मैंने पुत्र करके जाना। श्रीहरि ने माँ को बहुत प्रकार से समझाया और बोले, हे माँ! सुनो, यह प्रसंग कहीं भी मत कहना।

**दो०- बार बार कौसल्या, बिनय करइ कर जोरि।**

अब जनि कबहूँ ब्यापै, प्रभु मोहि माया तोरि॥२०२॥

भाष्य

कौसल्या जी बारम्बार हाथ जोड़कर प्रभु से प्रार्थना करती हैं कि, हे प्रभो! अब आपकी यह माया मुझे कभी नहीं व्यापे अर्थात्‌ कभी भी मुझको नहीं प्रभावित करे।

**बालचरित हरि बहुबिधि कीन्हा। अति अनंद दासन कहँ दीन्हा॥ कछुक काल बीते सब भाई। बड़े भए परिजन सुखदाई॥**
भाष्य

श्रीहरि ने बहुत प्रकार के बालचरित्र किये और अपने दासों को भी अत्यन्त आनन्द दिया। कुछ समय बीतने पर परिजनों को सुख देनेवाले सभी भाई श्रीराम, भरत, लक्ष्मण तथा शत्रुघ्न बड़े हो गये, अर्थात्‌ तीन वर्ष के हो गये।

**चूड़ाकरन कीन्ह गुरु जाई। बिप्रन पुनि दछिना बहु पाई॥ परम मनोहर चरित अपारा। करत फिरत चारिउ सुकुमारा॥**
भाष्य

गुरुदेव ने तब जाकर चूड़ाकर्म की विधि सम्पन्न की अर्थात्‌ वहाँ नाई को मुण्डन नहीं करना पड़ा। प्रभु के संकल्पमात्र से घुँघराले केश अपने आप अदृश्य हो गये और सुन्दर शिखा की विधि सम्पन्न हुई। फिर ब्राह्मणों ने बहुत सी दक्षिणा पायी। चारों सुकुमार राजकुमार अत्यन्त सुन्दर अपारचरित्र करते महाराज के आँगन में विचरते थे।

[[१७३]]

मन क्रम बचन अगोचर जोई। दशरथ अजिर बिचर प्रभु सोई॥

भाष्य

जो मन, कर्म और वाणी के भी परे हैं, वही प्रभु श्रीराम तीनों छोटे भाइयों के साथ महाराज दशरथ जी के आँगन में विचरण कर रहे हैं।

**भोजन करत बुलावत राजा। नहिं आवत तजि बाल समाजा॥ कौसल्या जब बोलन जाई। ठुमुकि ठुमुकि प्रभु चलहिं पराई॥ निगम नेति शिव अंत न पावा। ताहि धरै जननी हठि धावा॥ धूसर धूरि भरे तनु आए। भूपति बिहँसि गोद बैठाए॥**
भाष्य

भोजन करते समय महाराज दशरथ जी, श्रीरामलला को बुलाते हैं, परन्तु प्रभु बाल–समाज को छोड़कर नहीं आते। कौसल्या जी जब राघव जी को बुलाने जाती हैं, तब वे ठुमक–ठुमक कर अर्थात्‌ रुक–रुक कर फिर भाग चलते हैं। जिन्हें वेदों ने ‘नेति–नेति’ कहा और शिव जी जिनका अन्त नहीं पाये, उन्हीं श्रीराम को हठपूर्वक पक़डने के लिए माता कौसल्या जी दौड़ पड़ीं। स्वयं धूल से सने हुए और माता को भी धूल से भर कर श्रीरामलला, दशरथ जी के पास आ गये। महाराज ने ठहाके से हँसकर प्रभु को गोद में बिठा लिया।

**दो०- भोजन करत चपल चित, इत उत अवसर पाइ।**

**भाजि चले किलकात मुख, दधि ओदन लपटाइ॥२०३॥ भा०– **भोजन करते समय चंचल चित्तवाले रामलला जी अवसर पाकर अपने मुख में दही–भात लगाये हुए किलकारी करते हुए इधर–उधर को भाग चले, जिससे मुख से गिरे हुए दही–भात को काकभुशुण्डि जी प्राप्त कर सकें।

बालचरित अति सरल सुहाए। शारद शेष शंभु श्रुति गाए॥

जिन कर मन इन सन नहिं राता। ते जन बंचित किए बिधाता॥

भाष्य

अत्यन्त सुन्दर और सरल प्रभु के बालचरित्र सरस्वती, शेष, शिव जी तथा वेदों ने भी गाया। जिनका मन दशरथ जी के इन चारों पुत्रों पर नहीं अनुरक्त हुआ उनको विधाता ने ठग लिया और उन्हीं को अगले जन्म में विधाता ने जनवंचित किया अर्थात्‌ नि:संतान कर दिया।

**भए कुमार जबहिं सब भ्राता। दीन्ह जनेऊ गुरु पितु माता॥ गुरुगृह गए प़ढन रघुराई। अलप काल बिद्दा सब आई॥**
भाष्य

जब सभी भ्राता कुमार अर्थात्‌ पाँच वर्ष की अवस्था पूर्ण कर चुके, तब गुव्र् वसिष्ठ, पिता दशरथ, माता कौसल्या, माता कैकेयी, माता सुमित्रा जी ने उन्हें जनेऊ दिया अर्थात्‌ चारों भाइयों का उपनयन संस्कार हुआ। रघुराई अर्थात्‌ रघुकुल के राजा भगवान्‌ श्रीराम तीनों भाइयों के साथ गुव्र्देव वसिष्ठ जी के घर प़ढने गये। थोड़े ही समय में सभी विद्दाएँ उनके पास आ गईं।

**विशेष– **‘बलकामस्तु क्षत्रियं षष्ठे वर्षे’ अर्थात्‌ ब्रह्मवर्चस्वी बनाने के लिए ब्राह्मणपुत्र का जनेऊ पाँचवें वर्ष में करना चाहिए और बलवान बनाने के लिए क्षत्रियपुत्र का जनेऊ छठे वर्ष में करना चाहिए। इसी नियम के अनुसार कुमार अर्थात्‌ पाँच वर्ष के होने पर ही श्रीराम का यज्ञोपवीत छठें वर्ष हुआ।

जाकी सहज श्वास श्रुति चारी। सो हरि प़ढ यह कौतुक भारी॥ बिद्दा बिनय निपुन गुन शीला। खेलहिं खेल सकल नृपलीला॥

[[१७४]]

भाष्य

चारों वेद जिनके स्वाभाविक श्वास हैं, वे प्रभु प़ढ रहे हैं, यह उनका बहुत बड़ा कौतुक है अर्थात्‌ यही अपूर्व बाललीला है। विद्दा और विनय में निपुण दिव्यगुणों और स्वभाव से युक्त श्रीराम, भरत, लक्ष्मण, शत्रुघ्न खेल में भी सम्पूर्ण राजलीलाओं को ही खेलते हैं, अर्थात्‌ खेल में भी राम जी को राजा और भरत जी को युवराज बनाकर, राजा राम की लीला का अभिनय करते हैं।

**करतल बान धनुष अति सोहा। देखत रूप चराचर मोहा॥**

जिन बीथिन बिहरहिं सब भाई। थकित होहिं सब लोग लुगाई॥

भाष्य

प्रभु के करतल अर्थात्‌ हथेली में बाण और धनुष अत्यन्त शोभायमान हो रहे हैं। भगवान्‌ का रूप देखकर चर और अचर सभी मोहित हो जाते हैं। जिन गलियों में सभी चारों भ्राता विहार करते हैं, वहाँ के सभी पुरुष और स्त्रियाँ उनके दर्शन के लिए इकट्ठे हो जाते हैं।

**दो०- कोसलपुर बासी नर, नारि बृद्ध अरु बाल।**

**प्रानहु ते प्रिय लागत, सब कहँ राम कृपाल॥२०४॥ भा०– **अयोध्यापुरवासी नर, नारी, बू़ढे और बालक सभी को कृपालु श्रीराम प्राणों से भी अधिक प्रिय लगते हैं।

चौ०- बंधु सखा सँग लेहिं बोलाई। बन मृगया नित खेलहिं जाई॥

पावन मृग मारहिं जिय जानी। दिन प्रति नृपहिं देखावहिं आनी॥

भाष्य

भगवान्‌ श्रीराम साथ में तीनों भाइयों और मित्रों को बुला लेते हैं। प्रतिदिन वन में मृगया खेलते हैं अर्थात्‌ मृगोें का आखेट करते हैं। मन में पवित्र जानकर अथवा, पवित्र करने के लिए ही मृगों को मारते हैं और प्रतिदिन महाराज दशरथ जी को ले जाकर दिखाते हैं।

**जे मृग राम बान के मारे। ते तनु तजि सुरलोक सिधारे॥ अनुज सखा सँग भोजन करहीं। मातु पिता आग्या अनुसरहीं॥**
भाष्य

जो मृग श्रीराम के बाणों से मारे गये हैं, वे शरीर छोड़कर सुरलोक अर्थात्‌ दिव्य साकेतलोक को पधार गये। श्रीराघव छोटे भाइयों एवं मित्रों के साथ भोजन करते हैैं और माता–पिता की आज्ञा का पालन करते हैं।

**जेहिं बिधि सुखी होहिं पुर लोगा। करहिं कृपानिधि सोइ संजोगा॥ बेद पुरान सुनहिं मन लाई। आपु कहँहिं अनुजन समुझाई॥**
भाष्य

जिस प्रकार श्रीअवधपुर के लोग सुखी हो जाते हैं कृपा के सागर भगवान्‌ श्रीराम वही संयोग अर्थात्‌ वही परिस्थिति उपस्थित करते हैं। प्रभु मन लगाकर गुरुदेव से वेद–पुराण सुनते हैं और स्वयं भरत आदि छोटे भाइयों को समझाकर कहते हैं, अर्थात्‌ शास्त्रीय परम्परा के अनुसार श्रीराम छोटे भाइयों का पाठ लगवाते हैं।

**प्रातकाल उठि कै रघुनाथा। मातु पिता गुरु नावहिं माथा॥ आयसु माँगि करहिं पुर काजा। देखि चरित हरषइ मन राजा॥**
भाष्य

श्रीरघुनाथ प्रात:काल अर्थात्‌ ब्राह्ममुहूर्त में उठकर माता–पिता एवं गुरुदेव को मस्तक नवाकर प्रणाम करते हैं। पिताश्री से आज्ञा माँगकर पुर के सभी राजकाज करते हैं। उनका यह चरित्र देखकर महाराज मन में अत्यन्त प्रसन्न होते हैं।

[[१७५]]

दो०- ब्यापक अकल अनीह अज, निर्गुन नाम न रूप।

भगत हेतु नाना बिधि, करत चरित्र अनूप॥२०५॥

भाष्य

जो प्रभु श्रीराम, सर्वव्यापक, अव्यक्त कलाओंवाले, सांसारिक चेष्टाओं से रहित, अजन्मा, गुणातीत तथा प्राकृत नाम और प्राकृत रूपों से रहित हैं, वे ही भगवान्‌ श्रीराम भक्तों के लिए नाना प्रकार के बालचरित्र कर रहें हैं।

**यह सब चरित कहा मैं गाई। आगिलि कथा सुनहु मन लाई॥ बिश्वामित्र महामुनि ग्यानी। बसहिं बिपिन शुभ आश्रम जानी॥**
भाष्य

शिव जी पार्वती जी को, काकभुशुण्डि जी गरुड़ जी को, याज्ञवल्क्य जी भरद्वाज जी को, एवं तुलसीदास जी सन्तसमाज को सम्बोधित करते हुए कहते हैं कि, मैंने (शिव, भुशुण्डि, याज्ञवल्क्य और तुलसीदास) यह सब चरित्र गा कर कहा। आप (पार्वती जी, गरुड़ जी भरद्वाज जी और सन्तजन) अब अगली कथा मन लगाकर सुनिये। ज्ञानी महर्षि विश्वामित्र जी वन में शुभ आश्रम अर्थात्‌ भगवान्‌ वामन द्वारा सेवित होने से सिद्धाश्रम को शुभ अर्थात्‌ कल्याणमय जानकर वहीं निवास करते थे।

**तहँ जप जग्य जोग मुनि करहीं। अति मारीच सुबाहुहिं डरहीं॥ देखत जग्य निशाचर धावहिं। करहिं उपद्रव मुनि दुख पावहिं॥**
भाष्य

मुनि विश्वामित्र जी वहाँ (सिद्धाश्रम) में जप, यज्ञ और योगाभ्यास करते थे तथा मारीच और सुबाहु से बहुत डरते थे। यज्ञ को देखते ही राक्षस लोग दौड़ पड़ते थे। वे बहुत उपद्रव अर्थात्‌ उत्पात करते थे। जिससे विश्वामित्र जी सहित सभी मुनिजन बहुत दु:खी हो जाते थे।

**गाधितनय मन चिंता ब्यापी। हरि बिनु मरहिं न निशिचर पापी॥ तब मुनिवर मन कीन्ह बिचारा। प्रभु अवतरेउ हरन महि भारा॥**
भाष्य

राजा गाधि के पुत्र ब्रह्मर्षि विश्वामित्र जी के मन में चिन्ता व्याप्त हो गयी। वे सोचने लगे कि, पृथ्वी का भार हरण करनेवाले, श्रीहरि के बिना पापी राक्षस नहीं मर सकते। तब मुनियों में श्रेष्ठ विश्वामित्र जी ने मन में विचार किया कि, पृथ्वी का भार हरनेवाले प्रभु श्रीराम श्रीअवध में अवतार ले चुके हैं।

**एहि मिस देखौं प्रभु पद जाई। करि बिनती आनौं दोउ भाई॥ ग्यान बिराग सकल गुन अयना। सो प्रभु मैं देखब भरि नयना॥**
भाष्य

इसी बहाने श्रीअवध में जाकर मैं प्रभु श्रीराम के चरणों के दर्शन करूँ और प्रार्थना करके दोनों भाई श्रीराम–लक्ष्मण को अपने आश्रम में ले आऊँ। जो ज्ञान, वैराग्य तथा सभी सद्‌गुणों के अयन अर्थात्‌ निवास स्थान हैं, उन्हीं प्रभु श्रीराम को मैं भर आँख निहारूँगा।

**दो०- बहुबिधि करत मनोरथ, जात लागि नहिं बार।**

करि मज्जन सरजू सलिल, गए भूप दरबार॥२०६॥

भाष्य

बहुत प्रकार से मनोरथ करते हुए विश्वामित्र जी को मनोरथ अर्थात्‌ मन के रथ से श्रीअवध जाते विलम्ब न लगा। वे श्रीसरयू जल में स्नान करके राजद्वार पर गये।

**विशेष– **यहाँ मनोरथ शब्द में श्लेष अलंकार है, इसका प्रथम अर्थ है ‘सुन्दर कल्पना’ और दूसरा अर्थ है ‘मन रूप रथ’।

[[१७६]]

मुनि आगमन सुना जब राजा। मिलन गयउ लै बिप्र समाजा॥ करि दंडवत मुनिहिं सनमानी। निज आसन बैठारेनि आनी॥

भाष्य

जब महाराज दशरथ जी ने मुनि विश्वामित्र जी का आगमन सुना, तब वे ब्राह्मणसमाज को साथ लेकर विश्वामित्र जी से मिलने अर्थात्‌ अगवानी करने गये। दण्डवत्‌ करके मुनि विश्वामित्र जी को सम्मानित करके महाराज ने उन्हें अपने आसन पर ले जाकर बैठा दिया।

**चरन पखारि कीन्ह अति पूजा। मो सम आजु धन्य नहिं दूजा॥ बिबिध भाँति भोजन करवावा। मुनिवर हृदय हरष अति पावा॥**
भाष्य

महाराज दशरथ जी ने विश्वामित्र जी का चरण–प्रक्षालन करके, उनकी अत्यन्त पूजा की अर्थात्‌ सोडषोपचार तथा महाराजोपचार पूजा की और बोले, ‘आज मेरे समान कोई दूसरा धन्य नहीं है।’ चक्रवर्ती जी ने महर्षि को विविध प्रकार के भक्ष्य, भोज्य, लेह्य, चोश्य भोजन कराया और श्रेष्ठमुनि ने हृदय में अत्यन्त हर्ष प्राप्त किया तथा मन में विचार करने लगे कि, अब तो सारी प्रक्रिया पूरी हो चुकी है। थोड़ी ही देर में प्रभु श्रीराम के चरणों के दर्शन हो जायेंगे।

**पुनि चरननि मेले सुत चारी। राम देखि मुनि देह बिसारी॥ भए मगन देखत मुख शोभा। जनु चकोर पूरन शशि लोभा॥**
भाष्य

फिर श्रीराम, भरत, लक्ष्मण, शत्रुघ्न नामक चारों पुत्रों को महाराज ने विश्वामित्र जी के चरणों में डाल दिया। श्रीराम को देखकर विश्वामित्र जी अपनी देह भूल गये। वे प्रभु के मुख की शोभा को देखकर ऐसे मग्न हुए जैसे पूर्णिमा के चन्द्रमा पर चकोर लुब्ध हो जाता है।

**तब मन हरषि बचन कह राऊ। मुनि अस कृपा न कीन्हेउ काऊ॥ केहि कारन आगमन तुम्हारा। कहहु सो करत न लावउँ बारा॥**
भाष्य

तब महाराज दशरथ जी मन में प्रसन्न होकर यह वचन बोले, हे मुनि! आपने ऐसी कृपा पहले कभी नहीं की। आप का आगमन किस कारण से हुआ है? आप कहें, मैं उसे करने में विलम्ब नहीं लगाऊँगा।

**असुर समूह सतावहिं मोही। मैं जाचन आयउँ नृप तोही॥ अनुज समेत देहु रघुनाथा। निशिचर बध मैं होब सनाथा॥**
भाष्य

तब विश्वामित्र जी बोले-हे राजन्‌! असुरों के समूह मुझे सताते हैं। हे मनुष्यों के पालक महाराज! मैं आपसे प्राणिमात्र के रक्षक श्रीराम की याचना करने आया हूँ। आप छोटे भइया लक्ष्मण के साथ, रघुनाथ जी को मुझे दे दीजिये। उनके द्वारा राक्षसों का वध होगा और मैं सनाथ हो जाऊँगा।

**दो०- देहु भूप मन हरषित, तजहु मोह अग्यान।**

धर्म सुजस नृप तुम कहँ, इन कहँ अति कल्याण॥२०७॥

भाष्य

हे राजन्‌! मन में प्रसन्न होकर दोनों प्राणप्रिय राजकुमारों को मुझे दे दीजिये और अज्ञानजनित मोह छोड़ दीजिये। हे राजन्‌! आप के लिए धर्म और सुयश होगा और इनका अत्यन्त कल्याण होगा। अथवा, अद्वितीय विवाह हो जायेगा (तमिल भाषा में विवाह को भी कल्याण कहते हैं।)

**सुनि राजा अति अप्रिय बानी। हृदय कंप मुख दुति कुम्हिलानी॥ चौथेपन पायउँ सुत चारी। बिप्र बचन नहिं कहेहु बिचारी॥**

[[१७७]]

भाष्य

विश्वामित्र जी की अत्यन्त अप्रिय वाणी सुनकर महाराज दशरथ जी के हृदय में कम्पन उत्पन्न हो गया और उनके मुख की शोभा कुम्हला गयी। वे बोले, हे महर्षि! हम ने चौथेपन में चार पुत्र पाये, आपने विचार कर वचन नहीं कहा।

**माँगहु भूमि धेनु धन कोषा। सर्बस देउँ आजु सहरोषा॥ देह प्रान ते प्रिय कछु नाहीं। सोउ मुनि देउँ निमिष एक माहीं॥**
भाष्य

महाराज ने कहा, हे महर्षि! आप श्रीराम के विकल्प में, पृथ्वी, गौ, धन, कोष, सब कुछ सहर्ष माँगिये, मैं प्रसन्नतापूर्वक सब कुछ दे सकता हूँ। हे मुनीश्वर! जीवात्मा को देह और प्राण से अधिक कुछ भी प्रिय नहीं होता, मैं अपने शरीर और प्राण भी क्षण में दे सकता हूँ।

**सब सुत प्रिय मोहि प्रान की नाईं। राम देत नहिं बनइ गोसाईं॥ कहँ निशिचर अति घोर कठोरा। कहँ सुन्दर सुत परम किशोरा॥**
भाष्य

हे स्वामी! सभी पुत्र मुझे प्राण के समान प्रिय हैं, परन्तु श्रीराम को मुझसे देते नहीं बनता है। अथवा, राम मुझसे देते नहीं बनते। भला कहाँ अत्यन्त भयंकर और कठोर राक्षस और कहाँ परम किशोर अर्थात्‌ बारहवें वर्ष में प्रवेश किये हुए मेरे राम, लक्ष्मण दोनों पुत्र। बहुत असंगति है राक्षसों और मेरे पुत्रों के बीच।

**सुनि नृप गिरा प्रेम रस सानी। हृदय हरष माना मुनि ग्यानी॥ तब बसिष्ठ बहुबिधि समुझावा। नृप संदेह नाश कहँ पावा॥**
भाष्य

प्रेम–रस में भींगी हुई महाराज दशरथ जी की वाणी सुनकर, ज्ञानीमुनि विश्वामित्र जी ने अपने हृदय में बहुत हर्ष माना अर्थात्‌ बहुत प्रसन्न हुए। तब वसिष्ठ जी ने चक्रवर्ती महाराज दशरथ जी को बहुत प्रकार से समझाया और महाराज दशरथ जी सन्देह नाश को प्राप्त कर गये अर्थात्‌ महाराज का संदेह दूर हो गया और श्रीराम में उनकी भगवत्‌बुद्धि हो गयी।

**अति आदर दोउ तनय बोलाए। हृदय लाइ बहु भाँति सिखाए॥ मेरे प्रान नाथ सुत दोऊ। तुम मुनि पिता आन नहिं कोऊ॥**
भाष्य

महाराज ने अत्यन्त आदर से श्रीराम–लक्ष्मण दोनों पुत्रों को बुलाया, उन्हें हृदय से लगाकर बहुत प्रकार से शिक्षा दी और विश्वामित्र जी से बोले, हे नाथ! दोनों पुत्र मेरे प्राण हैं और आप मेरे पिता हैं, दूसरा कोई नहीं। फलत: जैसे पिता अपने पुत्र के प्राणों की रक्षा करता है, उसी प्रकार आप मेरे प्राण समान दोनों पुत्रों की रक्षा कीजियेगा।

**दो०- सौंपे भूप रिषिहिं सुत, बहुबिधि देइ अशीश ।**

जननी भवन गए प्रभु, चले नाइ पद शीश॥२०८(क)॥

भाष्य

बहुत प्रकार से आशीर्वाद देकर महाराज दशरथ जी ने दोनों पुत्र (श्रीराम–लक्ष्मण) को विश्वामित्र जी को सौंप दिये। प्रभु श्रीराम, माता कौसल्या जी के भवन में गये और उनके चरणों में मस्तक नवाकर चल पड़े।

**सो०- पुरुषसिंह दोउ बीर, हरषि चले मुनि भय हरन।**

कृपासिंधु मतिधीर, अखिल बिश्व कारन करन॥२०८(ख)॥

भाष्य

पुव्र्षों में सिंह के समान पराक्रमी, कृपा के सागर, धीर बुद्धिवाले, सम्पूर्ण संसार के कारणरूप, ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव के भी कारण अर्थात्‌ परमकारण, दोनों वीर श्रीराम एवं लक्ष्मण जी मुनि विश्वामित्र जी का भयहरण करने के लिए प्रसन्न होकर विश्वामित्र जी के साथ चल पड़े।

[[१७८]]

अरुन नयन उर बाहु बिशाला। नील जलज तनु श्याम तमाला॥ कटि पट पीत कसे बर भाथा। रुचिर चाप सायक दुहुँ हाथा॥

भाष्य

भगवान्‌ श्रीराम के नेत्र लाल एवं हृदय तथा भुजाएँ विशाल हैं। उनका शरीर नीले कमल और तमाल के समान श्यामवर्ण है। वे कटि–तट पर पीताम्बर और तरकस कस कर बाँधे हुए हैं। उनके दोनों हाथों में सुन्दर धनुष और बाण हैं।

**श्याम गौर सुन्दर दोउ भाई। बिश्वामित्र महानिधि पाई॥ प्रभु ब्रह्मण्यदेव मैं जाना। मोहि नित पिता तजेउ भगवाना॥**
भाष्य

श्यामल और गोरे सुन्दर दोनों भाइयों को विश्वामित्र जी ने महानिधि नील और पद्‌म के रूप में प्राप्त कर लिया । विश्वामित्र जी मन में विचार करने लगे, मैं जान गया प्रभु श्रीराम ब्रह्मण्यदेव हैं अर्थात्‌ वे हम ब्राह्मणों को देवता के समान मानते हैं, इसलिए तो भगवान्‌ श्रीराम ने मेरे लिए अपने परमस्नेही पिताश्री को भी छोड़ दिया।

**चले जात मुनि दीन्ह देखाई। सुनि ताड़का क्रोध करि धाई॥ एकहिं बान प्रान हरि लीन्हा। दीन जानि तेहि निज पद दीन्हा॥**
भाष्य

मार्ग में जाते हुए, मुनि विश्वामित्र जी ने प्रभु को ताटका राक्षसी को दिखा दिया। श्रीराम के समक्ष अपने विषय में विश्वामित्र द्वारा कहे जाते हुए वचनों को सुनकर, ताटका क्रोध करके दौड़ी और उसने श्रीराम–लक्ष्मण पर आक्रमण कर दिया। श्रीहरि ने एक ही बाण में ताटका के प्राणों का हरण कर लिया और उसे दीन अर्थात्‌ सब साधनों से हीन असहाय राक्षसी जानकर प्रभु ने अपने परमपद परमधाम साकेत दिया। अथवा, अपने पद अर्थात्‌ चरणों में ताटका को निवास दिया। सब के देखते–देखते ताटका की जीवनज्योति भगवान्‌ श्रीराम के चरणों मेें विलीन हो गयी।

**तब ऋषि निज नाथहिं जिय चीन्ही। बिद्दानिधि कहँ बिद्दा दीन्ही॥ जाते लाग न छुधा पिपासा। अतुलित बल तनु तेज प्रकासा॥**
भाष्य

तब मन्त्रद्रष्टा ब्रह्मर्षि विश्वामित्र जी ने हृदय में अपने नाथ को पहचान लिया अर्थात्‌ श्रीराम को अपना, इय्देव, ब्रह्मा, विष्णु, शिव से भी श्रेष्ठ परब्रह्म परमात्मा के रूप में पहचान लिया और विद्दाओं के निधि अर्थात्‌ समस्त विद्दाओं के महासागर श्रीराम को बला, अतिबला नामक दो विद्दाएँ प्रदान की, जिनसे भूख–प्यास नहीं लगती एवं शरीर में अतुलनीय बल आ जाता है तथा तेज प्रकाशित हो जाता है।

विशेष

ताटका के वध से प्रभु ने विश्वामित्र जी की अविद्दा समाप्त कर दी और विद्दाएँ लेकर उन्हें विद्दाभिमान से मुक्त कर दिया, जिससे वे अमृतरूप मोक्ष के अधिकारी हो गये और चरितार्थ हो गयी उपनिषद्‌।

अविद्दया मृत्युं तीर्त्वा विद्दयामृतमश्नुते।

दो०- आयुध सर्ब समर्पि कै, प्रभु निज आश्रम आनि।

कंद मूल फल भोजन, दीन्ह भगत हित जानि॥२०९॥

भाष्य

सम्पूर्ण दिव्यास्त्रों को प्रभु के करमल में समर्पित करके श्रीराम–लक्ष्मण को अपने आश्रम (सिद्धाश्रम) में ले आकर विश्वामित्र जी ने भक्तों का हितकारी जानकर श्रीराघवेन्द्र सरकार को कंद, मूल, फल ही भोजन के रूप में दिया और प्रभु ने उसे स्वीकार किया।

[[१७९]]

प्रात कहा मुनि सन रघुराई। निर्भय जग्य करहु तुम जाई॥ होम करन लागे मुनि झारी। आपु रहे मख की रखवारी॥

भाष्य

रात्रि बीतने के पश्चात्‌ संध्यादि नित्यकर्मों के अनन्तर रघुकुल के राजा भगवान्‌ श्रीराम ने मुनि विश्वामित्रजी से कहा, आप निर्भय होकर यज्ञशाला में जाकर यज्ञ प्रारम्भ कीजिये। मुनियों के समूह होम अर्थात्‌ आहुति–प्रधान यज्ञ करने लगे। स्वयं प्रभु श्रीराम, लक्ष्मण जी के साथ यज्ञ की रक्षा छ: दिनपर्यन्त करते रहे। **अनिद्रं षडहोंरात्रं तपोवनमरक्षताम्‌॥ **(वाल्मिकी रामायण-१़३०़५)

**सुनि मारीच निशाचर कोही। लै सहाय धावा मुनिद्रोही॥ बिनु फर बान राम तेहि मारा। शत जोजन गा सागर पारा॥**
भाष्य

मुनियों का स्वाहाकार सुनकर मुनियों से द्रोह करने वाला क्रोधी राक्षस मारीच सहायकों को लेकर दौड़ा अर्थात्‌ यज्ञस्थल पर धावा बोल दिया। भगवान्‌ श्रीराम ने बिना फल के बाण से उसे अर्थात्‌ मारीच को मारा और वह सौ योजन सागर के पार जा गिरा।

**विशेष– **जनश्रुति यह है कि, भगवान्‌ श्रीराम ने पश्चिमी बिहार के बक्सर में स्थित सिद्धाश्रम से मारीच को फेंका और वह समुद्र पार अफ्रीका के टापू में गिरा, जिसे पहले मारीचशीष कहते थे, अब उसका अपभ्रंश मॉरीशस हो गया है।

पावक शर सुबाहु पुनि जारा। अनुज निशाचर कटक सँघारा॥ मारि असुर द्विज निर्भयकारी। अस्तुति करहिं देव मुनि झारी॥

भाष्य

फिर भगवान्‌ श्रीराम ने आग्नेय बाण से सुबाहु नामक राक्षस को मारकर भस्म कर दिया। शेष राक्षस– सेना का छोटे भइया लक्ष्मण जी ने संहार किया। इस प्रकार युद्ध में देवविरोधी राक्षसों को मारकर श्रीराघव सरकार ने ब्राह्मणों को निर्भय किया। विश्वामित्र जी का यज्ञ सम्पन्न हो गया। देव और मुनियों के समूह श्रीराम– लक्ष्मणजी की स्तुति करने लगे।

**तहँ पुनि कछुक दिवस रघुराया। रहे कीन्ह बिप्रन पर दाया॥ भगति हेतु बहु कथा पुराना। कहे बिप्र जद्दपि प्रभु जाना॥**
भाष्य

फिर रघुराज श्रीरामचन्द्र, ब्राह्मणों पर दया करते हुए कुछ दिनों तक वहीं अर्थात्‌ सिद्धाश्रम में निवास किये। प्रभु की भक्ति प्राप्ति के लिए ब्राह्मणों ने पुराणों की बहुत सी कथायें भगवान्‌ के सामने कही। यद्दपि प्रभु श्रीराम सब कुछ जानते हैं।

**तब मुनि सादर कहा बुझाई। चरित एक प्रभु देखिय जाई॥ धनुषजग्य सुनि रघुकुल नाथा। हरषि चले मुनिवर के साथा॥**
भाष्य

जब प्रभु श्रीराम ने अवध जाने के लिए विश्वामित्र जी से आज्ञा माँगी तब कौशिक जी ने आदरपूर्वक समझाकर कहा, प्रभु श्रीमिथिला चलकर और भी एक चरित्र देखा जाये। अथवा, श्रीमिथिला में आप का एक और चरित्र देखा जाना है। मिथिला में धनुषयज्ञ का आयोजन सुनकर रघुकुल के स्वामी भगवान्‌ श्रीराम प्रसन्न होकर मुनि विश्वामित्र जी के साथ श्रीमिथिला के लिए चल दिये।

**आश्रम एक दीख मग माहीं। खग मृग जीव जंतु तहँ नाहीं॥ पूछा मुनिहिं शिला प्रभु देखी। सकल कथा मुनि कही बिशेषी॥**

[[१८०]]

भाष्य

श्रीरघुनाथ ने मिथिला के मार्ग में एक आश्रम देखा वहाँ पशु, पक्षी, मृग, मनुष्यादि बड़े जीव, कीड़ेमकोड़े आदि छोटे प्राणी भी नहीं थे। प्रभु श्रीराम ने उस आश्रम में नारी के आकार की एक पाषाण की शिला देखी और ब्रह्मर्षि विश्वामित्र जी से पूछा। विश्वामित्र जी ने उसकी सम्पूर्ण विशेषकथा श्रीराघव से कह सुनायी।

**दो०- गौतम नारी स्राप बस, उपल देह धरि धीर।**

चरन कमल रज चाहती, कृपा करहु रघुबीर॥२१०॥

भाष्य

कथा कहकर विश्वामित्र जी बोले, हे धीर! अर्थात्‌ परमधैर्यवान रघुवीर अर्थात्‌ त्यागवीर, दयावीर, विद्दावीर, पराक्रमवीर तथा धर्मवीर इन पाँचों के उपलक्षणस्वरूप रघुकुल के वीर भगवान्‌ श्रीराम यह गौतम ऋषि की पत्नी अहल्या, गौतम जी के शाप के कारण पत्थर का शरीर धारण करके आपश्री के चरणकमल की परागस्वरूप धूलि चाह रही हैं। प्रभु इन पर कृपा कीजिये और इन्हें चरणकमल की धूलि प्रदान कर दीजिये।

**छं०- परसत पद पावन शोक नसावन प्रगट भई तपपुंज सही। देखत रघुनायक जन सुखदायक सनमुख होइ कर जोरि रही॥ अति प्रेम अधीरा पुलक शरीरा मुख नहिं आवइ बचन कही। अतिशय बड़भागी चरनन लागी जुगल नयन जलधार बही॥**
भाष्य

शोक को नष्ट करनेवाले पवित्र प्रभु श्रीराम जी के चरण का स्पर्श होते ही तापसमूह को सहन करनेवालीं अहल्या तपस्या के हस्ताक्षर के समान सत्यत: तपस्या की राशि जैसे प्रकट हो गयीं। उनका पाषाण शिला का शरीर अदृश्य हो गया। अपने स्वरूप में आई हुयी ऋषिपत्नी अहल्या, भक्तों के सुखदाता रघुकुल के स्वामी भगवान्‌ श्रीराम को देखते ही उनके सम्मुख होकर दोनों हाथ जोड़कर ख़डी रहीं। अहल्या प्रभु के प्रति उत्पन्न हुए अत्यन्त प्रेम के कारण अधीर हो गयीं अर्थात्‌ धैर्य खो बैठीं उनका शरीर रोमांचित हो गया। उनके मुख से कोई वाक्य कहे नहीं जा रहे थे। अतिशय बड़भागिनीं अहल्या जी प्रभु के चरणों से लिपट गईं। उनके दोनों नेत्रों से जल अर्थात्‌ अश्रु की धारा बह चली। अथवा, युगल अर्थात्‌ अहल्या एवं गौतम के नेत्रों से अश्रु की धारा बह चली। अथवा अपने चरणों में लिपटी हुयी देखकर युगल श्रीराम एवं लक्ष्मण जी के नेत्रों से अश्रुधारा बह चली।

**धीरज मन कीन्हा प्रभु कहँ चीन्हा रघुपति कृपा भगति पाई। अति निर्मल बानी अस्तुति ठानी ग्यानगम्य जय रघुराई॥ मैं नारि अपावन प्रभु जग पावन रावन रिपु जन सुखदाई। राजीव बिलोचन भव भय मोचन पाहि पाहि शरनहिं आई॥**
भाष्य

फिर अहल्या जी ने मन में धैर्य धारण किया। उन्होंने सर्वसमर्थ प्रभु श्रीराम को पहचान लिया और रघुपति श्रीराघवेन्द्र सरकार की कृपा से अहल्या जी ने प्रभु की भक्ति प्राप्त कर ली। उन्होंने अत्यन्त निर्मल वाणी में प्रभु की स्तुति करना प्रारम्भ किया, हे वेदान्त–ज्ञान द्वारा प्राप्त किये जाने योग्य, रघुराज श्रीराम! आपकी जय–हो। प्रभु मैं अपवित्र नारी हूँ और आप जगत्‌ को पवित्र करनेवाले, रावण के शत्रु और भक्तों के सुखदायक, शरणागतों को संसार के भ्रम से छुड़ानेवाले लालकमल के समान विशिष्ट नेत्रोंवाले हैं। हे भगवन्‌! रक्षा कीजिये, रक्षा कीजिये, मैं आपके शरण में आई हूँ।

**मुनि श्राप जो दीन्हा अति भल कीन्हा परम अनुग्रह मैं माना। देखेउँ भरि लोचन हरि भवमोचन इहइ लाभ शङ्कर जाना॥ बिनती प्रभु मोरी मैं मति भोरी नाथ न माँगउँ बर आना। पद पदुम परागा रस अनुरागा मम मन मधुप करै पाना॥**

[[१८१]]

भाष्य

हे नाथ! मुनि गौतम जी ने जो मुझे शाप दिया वह बहुत अच्छा किया। उसे तो मैं आप का परम अनुग्रह मानती हूँ। इसी कारण, मैं संसार के भव को नष्ट करने वाले आप श्रीहरि के भर नेत्र दर्शन कर रही हूँ। शिव जी नेभी यही लाभ जाना है अर्थात्‌ जैसे नारायण की इच्छा से शिव जी ने विषपान करके द्वितीया के चन्द्र को प्राप्त कर लिया था, उसी प्रकार मैंने भी अपने पतिपरमेश्वर के शापरूप विष पीकर उस चन्द्रमा से भी करोड़ों गुणा सुन्दर निष्कलंक श्रीरामचन्द्र को प्राप्त कर लिया। हे प्रभु! मेरी एक विनती है, मैं बुद्धि की बहुत भोली हूँ, आपसे दूसरा वरदान नहीं माँग रही हूँ, मेरा मनरूप भ्रमर आप के चरणकमल के पराग के प्रेमरूप मकरन्द का पान करता रहे।

**जेहिं पद सुरसरिता परम पुनीता प्रगट भईं शिव शीश धरी। सोई पद पंकज जेहिं पूजत अज मम सिर धरेउ कृपालु हरि॥ एहि भाँति सिधारी गौतम नारी बार बार हरि चरन परी। जो अति मन भावा सो बर पावा गइ पतिलोक अनंद भरी॥**
भाष्य

जिन श्रीचरणों से प्रकट हुई गंगा जी परमपवित्र हो गयीं और उन्हें शिव जी ने अपने सिर पर धारण किया। ब्रह्मा जी भी जिनकी पूजा करते हैं, वही श्रीचरणकमल कृपालु हरि अर्थात्‌ पापहरण करनेवाले आप श्रीराघव ने मेरे सिर पर रखा। इस प्रकार, श्रीराम के चरणों में बार–बार दण्डवत्‌ प्रणाम करके गौतम जी की पत्नी अहल्या गौतम जी के साथ चलीं। जो उन्हें मन में अत्यन्त भाया, वही वरदान और उसी प्रकार के नवीन अवस्था से सम्पन्न गौतमरूप दूल्हा को पाया। आनन्द से पूर्ण होकर अहल्या अपने पति के लोक चली गईं।

**दो०- अस प्रभु दीनबंधु हरि, कारन रहित कृपाल। तुलसिदास शठ ताहि भजु, छाकिड़ पट जंजाल॥२११॥**
भाष्य

इस प्रकार सर्वसमर्थ, दीनों के बन्धु, सभी पापों का हरण करनेवाले, अकारण कृपा करनेवाले, भगवान्‌ श्रीराम हैं। तुलसीदास कहते हैं कि, हे शठ मन! सभी कपटों और जंजालों को छोड़ उन्हीं भगवान्‌ श्रीराघव सरकार का भजन कर।

**चले राम लछिमन मुनि संगा। गए जहाँ जग पावनि गंगा॥ अनुज सहित प्रभु कीन्ह प्रनामा। बहु प्रकार सुख पायउ रामा॥**
भाष्य

अहल्या उद्धार के पश्चात्‌ भगवान्‌ श्रीराम एवं श्रीलक्ष्मण वहाँ चले, जहाँ जगत्‌ को पवित्र करनेवाली गंगा जी थीं। प्रभु ने लक्ष्मण जी के सहित गंगा जी को प्रणाम किया और सबको रमानेवाले भगवान्‌ श्रीराम ने बहुत प्रकार से सुख पाया।

**गाधिसुवन सब कथा सुनाई। जेहि प्रकार सुरसरि महि आई॥ तब प्रभु रिषिन समेत नहाए। बिबिध दान महिदेवन पाए॥**
भाष्य

गाधि के पुत्र विश्वामित्र जी ने श्रीराम–लक्ष्मण को वह कथा सुनाई जिस प्रकार गंगा जी पृथ्वी पर आईं थीं। तब प्रभु श्रीराम ने ऋषियों के साथ गंगा जी में स्नान किया और गंगातटवासी तीर्थपुरोहित ब्राह्मणों ने अनेक दान पाये।

**हरषि चले मुनि बृंद सहाया। बेगि बिदेह नगर नियराया॥ पुर रम्यता राम जब देखी। हरषे अनुज समेत बिशेषी॥**

[[१८२]]

भाष्य

मुनि–समूह की सहायता करनेवाले प्रभु श्रीराम प्रसन्न होकर चले। विदेहराज का नगर शीघ्र ही निकट आ गया। अथवा, प्रभु श्रीराम ही जनकपुर के निकट आ गये। जब छोटे भाई लक्ष्मण के सहित श्रीराम ने नगर की सुन्दरता देखी तब वे बहुत प्रसन्न हुए।

**बापी कूप सरित सर नाना। सलिल सुधासम मनि सोपाना॥ गुंजत मंजु मत्त रस भृंगा। कूजत कल बहुबरन बिहंगा॥ बरन बरन बिकसे जल जाता। त्रिबिध समीर सदा सुखदाता॥**
भाष्य

विदेहनगर में अनेक बावलियाँ, अनेक कुँए, अनेक सरोवर तथा कमला, विमला आदि सुन्दर नदियाँ हैं। उनका जल अमृत के समान तथा सीढि़याँ मणियों से जटित हैं। मकरन्दरस से मतवाले भ्रमर मधुर गुंजार कर रहे हैं। अनेक प्रकार के पक्षी कोमल कलरव करते हुए बोल रहे हैं। अनेक प्रकार के (श्वेत, नील, पीत और अरुण) कमल खिले हुए हैं। शीतल, मन्द, सुगन्ध तीनों प्रकार का वायु सदैव (सभी ऋतुओं में) सभी को सुख देता है।

**दो०- सुमन बाटिका बाग बन, बिपुल बिहंग निवास।**

फूलत फलत सुपल्लवत, सोहत पुर चहुँ पास॥२१२॥

भाष्य

अनेक पक्षियों के निवासस्थानरूप पुष्पवाटिका, बगीचे और वन फूलते–फलते और सुन्दर पल्लवों से युक्त होते नगर के चारों ओर सुशोभित हो रहे हैं।

**बनइ न बरनत नगर निकाई। जहाँ जाइ मन तहँइँ लोभाई॥ चारु बजार बिचित्र अँबारी। मनिमय जनु बिधि स्वकर सँवारी॥**
भाष्य

नगर की सुन्दरता का वर्णन करते नहीं बनता। मन जहाँ जाता है वहीं लुभा जाता है। मिथिला के बाजार बड़े सुन्दर हैं और वहाँ के अम्बारे अर्थात्‌ छज्जे मणियों से युक्त हैं, मानो विधाता ने अपने हाथ से उन्हें बनाया है।

**धनिक बनिक बर धनद समाना। बैठे सकल बस्तु लै नाना॥ चौहट सुन्दर गली सुहाई। संतत रहहिं सुगंध सिंचाई॥**
भाष्य

सभी बनिकजन कुबेर के समान धनाढ्‌य हैं और वे विक्रयकेन्द्रों में अनेक वस्तुएँ लेकर बैठे हैं। वहाँ के चौराहे बहुत ही सुन्दर हैं और मिथिला की गलियाँ सदैव अर्गजा आदि सुगंधित द्रवों से सिंची रहती हैं।

**मंगलमय मंदिर सब केरे। चित्रित जनु रतिनाथ चितेरे॥ पुर नर नारि सुभग शुचि संता। धरमशील ग्यानी गुनवंता॥**
भाष्य

सभी नगरवासियों के भवन, देवमन्दिर के समान मंगलमय हैं, मानो वे कामदेवरूप शिल्पी के द्वारा चित्रित किये गये हैं। जनकपुर के सभी नर–नारी सुन्दर, पवित्र, सन्त स्वभाव के, धार्मिक, ज्ञानी (ब्रह्मज्ञानी) और सद्‌गुणों से सम्पन्न हैं।

**अति अनूप जहँ जनक निवासू। बिथकहिं बिबुध बिलोकि बिलासू॥ होत चकित चित कोट बिलोकी। सकल भुवन शोभा जनु रोकी॥**
भाष्य

जहाँ महाराज जनक का राजभवन है, वह बहुत ही सुन्दर है। देवता भी जनकराज के विलास को देखकर आश्चर्य से थकित रह जाते हैं। नगर के परकोटे को देखकर चित्त चकित हो जाता है, मानो उसने सम्पूर्ण लोकों की शोभा को अपने पास ही रोक रखा है।

[[१८३]]

दो०- धवल धाम मनि पुरट पट, सुघटित नाना भाँति।

**सिय निवास सुन्दर सदन, शोभा किमि कहि जाति॥२१३॥ भा०– **धवल अर्थात्‌ पत्थरों से बने हुए और चूने से लिप्त श्वेत भवनों में लगे हुए मणि तथा स्वर्ण से सुशोभित और सुन्दर प्रकार से बनाये हुए अनेक प्रकार के वस्त्रों के परदे हैं। सीता जी के निवास सुन्दर सदन की शोभा कैसे कही जा सकती है? (सीता जी के भवन का नाम सुन्दर सदन था।)

सुभग द्वार सब कुलिश कपाटा। भीर भूप नट मागध भाटा॥

बनी बिशाल बाजि गज शाला। हय गज रथ संकुल सब काला॥

भाष्य

सभी द्वार सुन्दर हैं, जिनमें हीरे की किवाड़ें लगी हैं। वहाँ सामन्त, राजाओं, नटों, मागधों अर्थात्‌ वंश प्रशंसकों और भाटों की भीड़ लगी रहती है। विशाल अश्वशाला और गजशालाएँ बनी हुई हैं, जो सभी कालों में घोड़ों, हाथियों, रथों से भरपूर रहा करती हैं।

**शूर सचिव सैनप बहुतेरे। नृपगृह सरिस सदन सब केरे॥ पुर बाहेर सर सरित समीपा। उतरे जहँ तहँ बिपुल महीपा॥**
भाष्य

वहाँ बहुत से योद्धा, भट, मन्त्रीगण और सेनापति हैं। राजभवन के समान ही सभी के भवन हैं। मिथिलानगर के बाहर तालाबों और नदियों के समीप जहाँ–तहाँ सीता जी के स्वयंवर के निमित्त आये हुए, बहुत से राजागण उतरे हुए हैं।

**देखि अनूप एक अँवराई। सब सुपास सब भाँति सुहाई॥ कौशिक कहेउ मोर मन माना। इहाँ रहिय रघुबीर सुजाना॥**
भाष्य

सभी आवासीय सुविधाओं से युक्त एवं सब प्रकार से सुहावनी एक अनूप अर्थात्‌ दोनों ओर जलाशयों से युक्त अँवराई (आम के बगीचे) देखकर विश्वामित्र जी ने कहा, हे चतुर रघुवीर! (रघुकुल में वीर श्रीराम) मेरे मन का तो ऐसा मानना है कि, यहाँ रुक लिया जाये।

**भलेहिं नाथ कहि कृपानिकेता। उतरे तहँ मुनिबृंद समेता॥ बिश्वामित्र महामुनि आए। समाचार मिथिलापति पाए॥**
भाष्य

नाथ! अच्छी बात है, ऐसा कहकर कृपा के आश्रय स्थान भगवान्‌ श्रीराम मुनिवृन्दों के सहित वहाँ उतरे अर्थात्‌ रुक गये। महामुनि विश्वामित्र जी मिथिलानगर में पधारे हैं, ऐसा समाचार मिथिला के शासक शिरध्वज जनक जी ने पाया।

**दो०- संग सचिव शुचि भूरि भट, भूसुर बर गुरु ग्याति।**

चले मिलन मुनिनायकहिं, मुदित राउ एहि भाँति॥२१४॥

भाष्य

साथ में पवित्र मन्त्रीगण, अनेक योद्धा, श्रेष्ठ ब्राह्मण, गुव्र्जन और अपनी जाति के राजवंशियों को लेकर इस प्रकार प्रसन्न होकर राजा जनक जी मुनियों के राजा विश्वामित्र जी से मिलने अर्थात्‌ अगवानी लेने के लिए

चले।

कीन्ह प्रणाम धरनि धरि माथा। दीन्ह अशीष मुदित मुनिनाथा॥ बिप्रबृंद सब सादर बंदे। जानि भाग्य बड़ राउ अनंदे॥

भाष्य

पृथ्वी पर मस्तक रखकर मिथिलाधिराज जनक जी ने विश्वामित्र जी को प्रणाम किया। प्रसन्न होकर मुनियों के स्वामी विश्वामित्र जी ने जनक जी को आशीर्वाद दिया। जनक जी ने विश्वामित्र जी के साथ पधारे

[[१८४]]

सभी ब्राह्मणवृन्दों को आदर सहित वन्दन किया। अपना बहुत बड़ा भाग्य जानकर राजा जनक जी आनन्दित हो गये।

कुशल प्रश्न कहि बारहिं बारा। बिश्वामित्र नृपहिं बैठारा॥ तेहि अवसर आए दोउ भाई। गए रहे देखन फुलवाई॥

भाष्य

बारम्बार जनक जी द्वारा पूछे हुए कुशल प्रश्नों का उत्तर देकर विश्वामित्र जी ने जनक जी को बिठा लिया। उसी अवसर पर दोनों भाई श्रीराम–लक्ष्मण आ गये, जो जनक जी के आने के समय विश्वामित्र जी के पास नहीं थे, क्योंकि वे गुव्र्देव की पूजा की व्यवस्था के लिए पुष्पवाटिका देखने चले गये थे।

**श्याम गौर मृदु बयस किसोरा। लोचन सुखद बिश्वचित चोरा॥ उठे सकल जब रघुपति आए। बिश्वामित्र निकट बैठाए॥**
भाष्य

वे दोनों भाई श्यामल और गौर वर्णवाले, कोमल अवस्थावाले किशोर, अर्थात्‌ बारह वर्ष में भी लगभग सा़ढे पाँच महीने कम थे। वे सब के नेत्रोें को सुख देनेवाले और विश्व के चित्त को चुरानेवाले थे। जब रघुकुल के पालक भगवान्‌ श्रीराम वहाँ आये, तब अगवानी लेने आये हुए सभी राजा, मन्त्री, योद्धा, ब्राह्मण, गुरु और जनक परिवार के अन्य क्षत्रियजन अपने आप ही उठकर ख़डे हो गये। विश्वामित्र जी ने श्रीराम-लक्ष्मण को अपने पास बिठा लिया।

**भए सब सुखी देखि दोउ भ्राता। बारि बिलोचन पुलकित गाता॥ मूरति मधुर मनोहर देखी। भयउ बिदेह बिदेह बिशेषी॥**
भाष्य

जनक जी के साथ आये हुए सभी लोग, दोनोें भाई श्रीराम–लक्ष्मण को देखकर सुखी हो गये। सब के विमल नेत्रों में जल अर्थात्‌ आँसू थे और सब के शरीर में रोमांच था। दोनों भाइयों की श्यामल–गौर और मनोहर मूर्ति देखकर विदेहराजा जनक जी विशेष विदेह हो गये, अर्थात्‌ उनके शरीर की सुधि–बुधि जाती रही। उनका भौतिक देहज्ञान भी समाप्त हो गया तथा उनमें विशिष्ट देहज्ञान अर्थात्‌ सेवक–सेव्यभाव का बोध आ गया।

**दो०- प्रेम मगन मन जानि नृप, करि बिबेक धरि धीर।**

बोलेउ मुनि पद नाइ सिर, गदगद गिरा गभीर॥२१५॥

भाष्य

अपने मन को प्रेम में मग्न जानकर, विवेक का अवलम्बन लेकर धैर्य–धारण करके, मुनि विश्वामित्र जी के चरणों में सिर नवाकर, राजा जनक जी गदगद्‌ अर्थात्‌ प्रेम के कारण स्वरभंग के साथ, गम्भीर अर्थों वाली वाणी बोले।

**कहहु नाथ सुन्दर दोउ बालक। मुनिकुल तिलक कि नृपकुल पालक॥ ब्रह्म जो निगम नेति कहि गावा। उभय बेष धरि की सोइ आवा॥**
भाष्य

हे नाथ! कहिये, ये सुन्दर दोनों बालक मुनिकुल के तिलक अर्थात्‌ कोई मुनिकुमार हैं, या राजकुलों के पालन करनेवाले कोई चक्रवर्ती कुमार हैं। अथवा, जिस ब्रह्म को वेदों ने ‘नेति–नेति’ कहकर गाया है, क्या वही परब्रह्म, दो वेश धारण करके (राम–लक्ष्मण के रूप में अथवा सीताराम के रूप में) सगुण–साकार रूप में आ गया है?

**सहज बिरागरूप मन मोरा। थकित होत जिमि चंद्र चकोरा॥ ताते प्रभु पूछउँ सतिभाऊ। कहहु नाथ जनि करहु दुराऊ॥**

[[१८५]]

भाष्य

जो मेरा मन स्वभाव से विरागरूप अर्थात्‌ संसार के राग (लगाव) से रहित स्वरूप वाला है, वह इन्हें देखकर इनमें इस प्रकार स्थगित अर्थात्‌ सभी संकल्पों को छोड़कर स्थिर हो रहा है, जैसे चन्द्रमा में चकोर रम जाता है। इसलिए, हे प्रभु! मैं सत्यभाव से पूछ रहा हूँ, आप कहिए, छिपाव मत कीजिये।

**इनहिं बिलोकत अति अनुरागा। बरबस ब्रह्मसुखहिं मन त्यागा॥**
भाष्य

इनको देखते ही मेरा मन अत्यन्त अनुराग से युक्त हो गया है और वह हठात्‌ ब्रह्मसुख को छोड़ रहा है अर्थात्‌ इनमें मुझको ब्रह्मसुख की अपेक्षा अधिक आनन्द की अनुभूति हो रही है। इसका क्या कारण है? क्या ब्रह्म ने अवतार ले लिया है? क्या निर्गुण ब्रह्म सगुण हो गये हैं? क्या यहाँ देह और देही में भेद नहीं है? क्या इन दोनों राजकुमारों का शरीर मायामय और असत्य नहीं है? इन सभी प्रश्नों का उत्तर दीजिये।

**कह मुनि बिहँसि कहेहु नृप नीका। बचन तुम्हार न होइ अलीका॥ भा०– **विश्वामित्र जी ने हँसकर कहा, राजन्‌\! तुमने बहुत अच्छा कहा। तुम्हारे वचन अर्थात्‌ अनुमानगर्भित प्रश्न असत्य हो ही नहीं सकते। ये राजवंशी हैं। यही सगुण साकार ब्रह्म हैं। रामानन्द की अपेक्षा ब्रह्मानन्द त्याज्य है। यहाँ देह और देही में भेद नहीं है। ये माया सबलित ब्रह्म नहीं प्रत्युत्‌ परब्रह्म हैं। ये हेयगुणों से दूर होकर निर्गुण होते हुए सभी कल्याणगुणों के आश्रय होने के कारण सगुण भी हैं।

ये प्रिय सबहिं जहाँ लगि प्रानी। मन मुसुकाहिं राम सुनि बानी॥ रघुकुलमनि दशरथ के जाए। मम हित लागि नरेश पठाए॥

भाष्य

जहाँ तक इस त्रिलोक में प्राणी रहते हैं, ये अर्थात्‌ प्रभु श्रीराम सब के प्रिय हैं। इसलिए सभी जीवात्माओें के भी प्रेमास्पद परमात्मा यही हैं। विश्वामित्र जी की वाणी सुनकर श्रीराम मन में मुस्कुरा रहे हैं। उनकी मुखमुद्रा गम्भीर है। विश्वामित्र जी ने कहा, ये रघुकुल के मणि हैं, अर्थात्‌ श्रीराम अज के पुत्र महाराज दशरथ के ज्येष्ठ और श्रीलक्ष्मण महाराज दशरथ के तृतीय राजकुमार हैं। इनको महाराज ने मेरे हित के लिए यज्ञ के रक्षार्थ मेरे साथ भेजा है।

**दो०- राम लखन दोउ बंधुबर, रूप शील बल धाम।**

मख राखेउ सब साखि जग, जिते असुर संग्राम॥२१६॥

भाष्य

ये रूप, शील और बल के निवासस्थान श्रीराम और श्रीलक्ष्मण दोनों श्रेष्ठ भ्राता हैं। जो कि क्रमश: तुम्हारी सीता और उर्मिला नामक दो पुत्रियों के वर के रूप में भी प्रस्तुत हो सकते हैं। सारा संसार साक्षी है, इन्हीं दोनों भ्राताओं ने मेरे यज्ञ की रक्षा की है और युद्ध में मारीच, सुबाहु जैसे अजेय देवविरोधी राक्षसों को जीता है।

**मुनि तव चरन देखि कह राऊ। कहि न सकउँ निज पुन्य प्रभाऊ॥ सुन्दर श्याम गौर दोउ भ्राता। आनँदहू के आनँद दाता॥ इन की प्रीति परसपर पावनि। कहि न जाइ मन भाव सुहावनि॥ सुनहु नाथ कह मुदित बिदेहू। ब्रह्म जीव इव सहज सनेहू॥**
भाष्य

राजा जनक जी ने कहा, हे मुनिवर! आपके श्रीचरणों के दर्शन करके मैं अपने पुण्य के प्रभाव को कह नहीं सक रहा हूँ। श्यामल और गौर ये दोनों भ्राता श्रीराम और श्रीलक्ष्मण आनन्द को भी आनन्द देनेवाले हैं। इन दोनों भाइयों की पारस्परिक प्रीति बहुत ही पवित्र है, वह कही नहीं जा सकती। वह अत्यन्त सुहावनी और मन को भानेवाली है। जनक जी ने प्रसन्न होकर कहा, हे नाथ! सुनिये, श्रीराम–लक्ष्मण का परस्पर प्रेम तो ब्रह्म और जीव के समान स्वाभाविक है। मुझे लगता है कि, श्रीराम परब्रह्म परमात्मा हैं और श्रीलक्ष्मण जीवाचार्य विराट्‌ ब्रह्म हैं।

[[१८६]]

पुनि पुनि प्रभुहिं चितव नरनाहू। पुलक गात उर अधिक उछाहू॥ मुनिहिं प्रशंसि नाइ पद शीशा। चलेउ लिवाइ नगर अवनीशा॥

भाष्य

मनुष्यों के राजा जनक जी, प्रभु श्रीराम को बार–बार निहार रहे हैं। उनके अंग रोमांचित हो रहे हैं और हृदय में अत्यन्त उत्साह है। मुनि विश्वामित्र जी की प्रशंसा करके, उनके चरणों में मस्तक नवाकर पृथ्वी के स्वामी राजा जनक जी श्रीराम–लक्ष्मण और मुनियों के सहित विश्वामित्र जी को अपने नगर में लिवा ले चले।

**सुन्दर सदन सुखद सब काला। तहाँ बास लै दीन्ह भुआला॥ करि पूजा सब बिधि सेवकाई। गयउ राउ गृह बिदा कराई॥**
भाष्य

जो सभी कालों में सुखद और सुन्दर सदन नाम से विख्यात था तथा जो सीता जी का निवासस्थान था, सीता जी से लेकर राजा जनक जी ने, विश्वामित्र जी को वही निवास दिया। क्योंकि वह किसी गृहस्थ का निवासस्थान नहीं होने के कारण ब्रह्मर्षि विश्वामित्र और उनके सभी ब्रह्मचारी शिष्यों के लिए अनुकूल था। विश्वामित्र जी की पूजा और उनकी बहुत प्रकार से सेवा करके मुनि से जाने की आज्ञा लेकर जनक जी अपने भवन को चले गये।

**दो०- ऋषय संग रघुबंशमनि, करि भोजन बिश्राम।**

बैठे प्रभु भ्राता सहित, दिवस रहा भरि जाम॥२१७॥

भाष्य

ऋषि विश्वामित्र जी के साथ मध्याह्न का भोजन और विश्राम करके प्रभु श्रीराम भ्राता लक्ष्मण के साथ विश्वामित्र जी के पास आकर बैठ गये। उस समय दिन एक प्रहर अर्थात्‌ तीन घंटे शेष था।

**लखन हृदय लालसा बिशेषी। जाइ जनकपुर आइय देखी॥**

**प्रभु भय बहुरि मुनिहिं सकुचाहीं। प्रगट न कहहिं मनहिं मुसुकाहीं॥ भा०– **लक्ष्मण जी के हृदय में यह विशेष लालसा है कि, जाकर जनकपुर देख आना चाहिए। उन्हें प्रभु श्रीराम का भय है, फिर विश्वामित्र जी से सकुचाते हैं। प्रकट कुछ नहीं कह रहें हैं, मन में मुस्कुरा रहे हैं।

राम अनुज मन की गति जानी। भगत बछलता हिय हुलसानी॥ परम बिनीत सकुचि मुसुकाई। बोले गुरु अनुशासन पाई॥

भाष्य

श्रीराम ने छोटे भैया लक्ष्मण जी के मन की अवस्था जान ली। उनके हृदय में भक्तवत्सलता हुलस पड़ी, अर्थात्‌ आज उसे आश्रित दोष को समाप्त करने का अवसर मिलेगा, क्योंकि श्रीलक्ष्मण, श्रीराम के अतिरिक्त जनकपुर देखने की इच्छा कर रहें हैं। इस दोष का समापन भक्तवत्सलता का मुख्य कार्य होगा। इसलिए उसको प्रसन्नता हो रही है। परमविनम्र श्रीराम संकुचित होकर और थोड़ा सा मुस्कुराकर गुरुदेव की आज्ञा पाकर बोले–

**नाथ लखन पुर देखन चहहीं। प्रभु सँकोच डर प्रगट न कहहीं॥ जौ राउर आयसु मैं पावौं। नगर देखाइ तुरत लै आवौं॥**
भाष्य

हे नाथ! लक्ष्मण जनकपुर देखना चाहते हैं। वे प्रभु के संकोच और डर के कारण प्रकट अर्थात्‌ स्पय्रूप से नहीं कह रहे हैं। यदि मैं आपश्री से आदेश पा जाऊँ तो लक्ष्मण को जनकपुर दिखाकर तुरन्त ले आऊँ।

**सुनि मुनीश कह बचन सप्रीती। कस न राम तुम राखहु नीती॥ धरम सेतु पालक तुम ताता। प्रेम बिबश सेवक सुखदाता॥**
भाष्य

श्रीराम के वचन सुनकर मुनियों के राजा विश्वामित्र जी ने प्रेमपूर्वक कहा, हे श्रीराम! भला आप वेद की मर्यादा क्यों नहीं रखेंगे, क्योंकि हे तात्‌! आप धर्मसेतु के पालक, प्रेम के विवश तथा सेवकों को सुख देनेवाले हैं।

[[१८७]]

दो०- जाइ देखि आवहु नगर, सुख निधान दोउ भाइ।

करहु सुफल सब के नयन, सुन्दर बदन देखाइ॥२१८॥

भाष्य

सुख के कोषस्वरूप दोनों भाई (श्रीराम–लक्ष्मण) जाकर नगर देख आओ। अपने सुन्दर मुख दिखाकर सभी मिथिलावासियों के नेत्रों को सुफल कर दो अर्थात्‌ उन्हें नेत्रों का सुन्दर फल दे दो।

**मुनि पद कमल बंदि दोउ भ्राता। चले लोक लोचन सुखदाता॥**

**बालकबृंद देखि अति शोभा। लगे संग लोचन मन लोभा॥ भा०– **संसार के नेत्रों को सुख देनेवाले दोनों भाई श्रीराम, लक्ष्मण मुनि विश्वामित्र जी के चरणकमलों की वन्दना करके जनकनगर देखने चल पड़े। नगर के बालकों के समूह ने श्रीराम, लक्ष्मण की अक्षयशोभा देखी। वे दोनों भाइयों के साथ लग गये। उनके मन और नेत्र प्रभु के रूप पर लुब्ध हो गये।

पीत बसन परिकर कटि भाथा। चारु चाप शर सोहत हाथा॥ तनु अनुहरति सुचंदन खोरी। श्यामल गौर मनोहर जोरी॥

भाष्य

प्रभु के कटि–प्रदेश पर पीताम्बर, फेटा और तरकस बँधा है। उनके श्रीहस्त में सुन्दर धनुष और बाण शोभित हैं। श्याम और गौर दोनों भाई (श्रीराम-लक्ष्मण) की जोड़ी के श्याम–गौर विग्रहों का उन पर लगी हुई सुन्दर चन्दन की खोरी अनुसरण कर रही है अर्थात्‌ प्रभु के शरीर पर लगी हुई चन्दन की खोरी श्याम दिखती है और लक्ष्मण जी के शरीर पर लगी हुई चन्दन की खोरी श्वेत।

**केहरि कंधर बाहु बिशाला। उर अति रुचिर नागमनि माला॥ सुभग सोन सरसीरुह लोचन। बदन मयंक तापत्रय मोचन॥**
भाष्य

दोनों भाइयों के स्कन्ध सिंह के समान हैं। उनकी भुजाएँ विशाल हैं, उनके वक्ष पर नागमणि अर्थात्‌ गजमुक्ता की माला बहुत सुन्दर लग रही है। उनके सुन्दर और लालकमल के समान नेत्र हैं। उनके मुखचन्द्र आध्यात्मिक, आधिदैविक, आधिभौतिक तीनों तापों के नाशक हैं।

**कानन कनक फूल छबि देहीं। चितवत चितहिं चोरि जनु लेहीं॥ चितवनि चारु भृकुटि बर बाँकी। तिलक रेख शोभा जनु चाँकी॥**
भाष्य

उनके कानों में स्वर्ण के बने हुए कर्णफूल सुन्दरता प्रदान कर रहे हैं। ये देखते ही मानो चित्त को चुरा लेते हैं। दोनों भाइयों की चितवन सुन्दर तथा भौहें श्रेष्ठ और टे़ढी हैं। उनके उर्ध्वपुण्ड्र तिलक की रेखा ने मानो शोभा को ही चाँकी अर्थात्‌ इकट्ठी करके रख लिया है। अथवा, प्रभु के ऊर्ध्वपुण्ड्र तिलक की रेखा मानो चन्द्रमा की शोभा है।

**दो०- रुचिर चौतनीं सुभग सिर, मेचक कुंचित केश।**

नख शिख सुन्दर बंधु दोउ, शोभा सकल सुदेश॥२१९॥

भाष्य

उनके सुन्दर सिर पर सुन्दर टोपी विराज रही है। केश काले और घुँघराले हैं। दोनों भाई चरण के नख से

शिखापर्यन्त सुन्दर हैं, उनके सभी सुदेश अर्थात्‌ सुन्दर अंगों पर दिव्यशोभा है।

देखन नगर भूपसुत आए। समाचार पुरवासिन पाए॥ धाए धाम काम सब त्यागी। मनहुँ रंक निधि लूटन लागी॥ निरखि सहज सुन्दर दोउ भाई। होहिं सुखी लोचन फल पाई॥

[[१८८]]

भाष्य

दो राजकुमार नगर देखने आये हैं, यह समाचार जनकपुरवासियों ने प्राप्त किया। वे सब घरों और घर के कार्यों को छोड़कर वैसे ही दौड़े मानो निधि लूटनेके लिए दरिद्रजन दौड़ रहे हों। स्वभाव से सुन्दर दोनों भाई श्रीराम, लक्ष्मण को निहारकर नेत्रों का फल पाकर मिथिलानगर के सभी निवासी सुखी हो रहे हैं।

**जुबती भवन झरोखनि लागी। निरखहिं राम रूप अनुरागी॥ कहहिं परसपर बचन सप्रीती। सखि इन कोटि काम छबि जीती॥**
भाष्य

मिथिला की युवतियाँ अपने–अपने घरों के झरोखों अर्थात्‌ डिख़कियों पर लगकर अनुराग से युक्त होकर श्रीराम जी का रूप निरख रही हैं और परस्पर प्रेमपूर्वक वचन कहती हैं, सखियों! इन्हांेंने तो करोड़ों कामदेवों की छवि को जीत लिया है।

**सुर नर असुर नाग मुनि माहीं। शोभा असि कहुँ सुनियत नाहीं॥ बिष्णु चारि भुज बिध मुख चारी। बिकट बेष मुख पंच पुरारी॥ अपर देव अस कोउ न आही। यह छबि सखि पटतरिये जाही॥**
भाष्य

देवता, मनुष्य, असुर अर्थात्‌ दैत्य, नाग और मुनियों में ऐसी शोभा कहीं भी नहीं सुनी जाती है। विष्णु चार भुजावाले हैं अर्थात्‌ स्वाभाविकता से अधिक हैं, ब्रह्मा के चार मुख हैं, जो स्वाभाविकता से तीन गुना अधिक है। त्रिपुरासुर के शत्रु शिव जी बड़ी ही भयंकर वेशवाले और पाँच मुखवाले हैं (शिव जी के पाँच मुखों के नाम अधोलिखित हैं– सद्दोजात्‌, अघोर, वामदेव, तत्पुरुष तथा ईशान।)। यहाँ तो सब कुछ अस्वाभाविक है। हे सखी! विष्णु जी, ब्रह्मा जी और शिव जी को छोड़कर दूसरा कोई देवता इस प्रकार नहीं हैं, जिससे यह छवि उपमित की जा सके।

**दो०- बय किशोर सुषमा सदन, श्याम गौर सुखधाम।**

अंग अंग पर वारियहिं, कोटि कोटि शत काम॥२२०॥

भाष्य

ये दोनों भाई श्रीराम, लक्ष्मण वय में किशोर अर्थात्‌ प्रथम किशोरावस्था में सा़ढे ग्यारह वर्ष के दिखते हैं। ये सुषमा अर्थात्‌ परमशोभा के मंदिर हैं। साँवरे और गोरे सुख के निवासस्थान श्रीराम, लक्ष्मण के एक–एक अंग पर करोड़ों-अरबों कामदेवों को वार देना चाहिए।

**कहहु सखी अस को तनुधारी। जो न मोह यह रूप निहारी॥**
भाष्य

अणिमा नाम की सिद्धि बोली, कहो सखी! ऐसा कौन शरीरधारी है, जो श्रीराम–लक्ष्मण का यह रूप देखकर न मोहित हो जाये?

**कोउ सप्रेम बोली मृदु बानी। जो मैं सुना सो सुनहु सयानी॥ ए दोउ नृप दशरथ के ढोटा। बाल मरालनि के कल जोटा॥ मुनि कौशिक मख के रखवारे। जिन रन अजय निशाचर मारे॥**
भाष्य

कोई सखी अर्थात्‌ गरिमा नाम की सिद्धि प्रेमपूर्वक कोमल वाणी में बोली, हे चतुर सखी! जो मैंने सुनी है, वह सुनो, ये बाल राजहंसों के सुन्दर जोड़े स्वरूप दोनों भाई श्रीराम–लक्ष्मण महाराज दशरथ के किशोर पुत्र हैं। ये विश्वामित्र जी के यज्ञ के रक्षक हैं, जिन्होंने युद्ध में अजेय राक्षसों को मारा है।

**श्यामगात कल कंज बिलोचन। जो मारीच सुभुज मद मोचन॥ कौसल्या सुत सो सुख खानी। नाम राम धनु सायक पानी॥**

[[१८९]]

भाष्य

जो श्यामल शरीर, सुन्दर कमल जैसे नेत्रोंवाले हैं, जिन्होनें मारीच और सुबाहु के मद को नष्ट किया है अर्थात्‌ मारीच को सौ योजन समुद्र के पार फेंक दिया है तथा सुबाहु को आग्नेय बाण से भस्म कर दिया है। जिनके हाथ में धनुष और बाण है, वे रमणीय कुमार समस्त सुख की खानि तथा चक्रवर्ती दशरथ जी की बड़ी पटरानी कौसल्या जी के पुत्र हैं अर्थात्‌ उन्हें कौसल्या जी ने गर्भ में धारण किया और उनका नाम श्रीराम है।

**गौर किशोर बेष बर काछे। कर शर चाप राम के पाछे॥ लछिमन नाम राम लघु भ्राता। सुनु सखि तासु सुमित्रा माता॥**
भाष्य

जो गौर वर्ण के किशोर हैं, जिनका बड़ा सुन्दर वेश और जो दृ़ढता से फेटा बाँधे हैं, जिनके हाथ में धनुष और बाण है, जो श्रीराम जी के पीछे–पीछे चल रहे हैं, वह लक्ष्मण नाम से प्रसिद्ध और श्रीराम के प्रिय छोटे भाई हैं। हे सखी! सुनो, उनकी माता का नाम सुमित्रा है।

**दो०- बिप्रकाज करि बंधु दोउ, मग मुनिबधू उधारि।**

आए देखन चापमख, सुनि हरषीं सब नारि॥२२१॥

भाष्य

ब्राह्मण विश्वामित्र जी के यज्ञ की रक्षारूप कार्य करके मार्ग में मुनिपत्नी अहल्या का उद्धार करके दोनों भाई धनुषयज्ञ देखने को श्रीमिथिला में पधारे हैं। यह सुनकर सभी मिथिलानी महिलाएँ प्रसन्न हो गईं।

**देखि राम छबि कोउ एक कहई। जोग्य जानकिहिं यह बर अहई॥ जौ सखि इनहिं देख नरनाहू। पन परिहरि हठि करइ बिबाहू॥**
भाष्य

श्रीराम की छवि देखकर कोई एक अर्थात्‌ महिमा नामक सिद्धि कहने लगी, हे सखी! ये अर्थात्‌ साँवले राजकुमार, जानकी जी के योग्य हैं। यदि मनुष्यों के ईश्वर जनक जी इस साँवले राजकुमार को देख लेते तो प्रतिज्ञा छोड़कर हठपूर्वक इनसे श्रीसीता का विवाह कर देते।

**कोउ कह ए भूपति पहिचाने। मुनि समेत सादर सनमाने॥ सखि परंतु पन राउ न तजई। बिधि बश हठि अबिबेकहिं भजई॥**
भाष्य

कोई अर्थात्‌ लघिमा नामक सिद्धि कहने लगी, सखी! इनको जनक जी नेपहचान लिया है। मुनि विश्वामित्र जी के सहित आदरपूर्वक इनका सम्मान किया है। अर्थात्‌ इन्हें अपने नगर ले आकर सुन्दरसदन में निवास दिया है। फिर भी राजा जनक जी अपनी प्रतिज्ञा नहीं छोड़ रहे हैं। विधाता की किसी विशेष योजना के वश में होने के कारण महाराज हठ करके अविवेक का ही भजन कर रहे हैं।

**कोउ कह जौ भल अहइ बिधाता। सब कहँ सुनिय उचित फलदाता॥ तौ जानकिहिं मिलिहिं बर एहू। नाहिन आलि इहाँ संदेहू॥**
भाष्य

कोई अर्थात्‌ प्राप्ति नामक सिद्धि कहने लगी, यदि ब्रह्मा जी भले हैं और सुना तो जाता है कि, वे सभी को उचित फल देते हैं, तब तो जानकी जी को यही (श्याम राजकुमार) वर मिलेंगे। सखी यहाँ कोई सन्देह नहीं है।

**जौ बिधि बश अस बनै सँजोगू। तौ कृतकृत्य होहिं सब लोगू॥ सखि हमरे आरति अति ताते। कबहुँक ए आवहिं एहि नाते॥**
भाष्य

यदि सौभाग्यवश यह संयोग बन जाये तो सब लोग कृतकृत्य हो जायेंगे। हे सखी! हमारे मन में तो इस कारण अत्यन्त उतावलापन है कि, विवाह होने पर कभी तो ये यहाँ ससुराल के नाते आयेंगे ही।

[[१९०]]

दो०- नाहिं त हम कहँ सुनहु सखि, इन कर दरशन दूरि।

यह संघट तब होइ जब, पुन्य पुराकृत भूरि॥२२२॥

भाष्य

हे सखी! सुनो नहीं तो अर्थात्‌ विवाह नहीं होने पर हमारे लिए इन श्रीराम–लक्ष्मण के दर्शन बहुत दूर है। यह संयोग तभी बन सकता है, जब हम लोगों के पूर्वकाल में किये हुए बहुत से पुण्य हों, जिनकी सहायता से या तो जनक जी प्रतिज्ञा में ढील दें अथवा श्रीराम ही शिवधनुष तोड़ दें।

**बोली अपर कहेहु सखि नीका। एहिं बिबाह अति हित सबही का॥ भा०– **तब अपर अर्थात्‌ प्राकाम्य नामक सिद्धि बोली, हे सखी\! तुमने बहुत अच्छा कहा है। इस

श्रीसीतारामविवाह से सभी का बहुत भला होगा।

कोउ कह शङ्कर चाप कठोरा। ए श्यामल मृदुगात किशोरा॥ सब असमंजस अहइ सयानी। यह सुनि अपर कहइ मृदु बानी॥

भाष्य

कोई अर्थात्‌ ईशित्व नामक सिद्धि कहने लगी, हे चतुर सखी! शिव जी का धनुष अत्यन्त कठोर है और ये श्यामलकिशोर कोमल शरीर के हैं। यहाँ सब कुछ असमंजस है, अर्थात्‌ बिना मेल का है। शिवधनुष कठोरता की सीमा है और श्रीराम कोमलता की पराकाष्ठा हैं। यह सुनकर अपर अर्थात्‌ दूसरी वशित्व नामक सिद्धि कोमल वाणी में कहने लगी–

**सखि इन कहँ कोउ कोउ अस कहहीं। बड़ प्रभाव देखत लघु अहहीं॥ परसि जासु पद पंकज धूरी। तरी अहल्या कृत अघ भूरी॥ सो कि रहहिं बिनु शिवधनु तोड़े। यह प्रतीति परिहरिय न भोरे॥ जेहिं बिरंचि रचि सीय सँवारी। तेहिं श्यामल बर रचेउ विचारी॥ तासु बचन सुनि सब हरषानी। ऐसेइ होउ कहहिं मृदु बानी॥**
भाष्य

हे सखी! कोई–कोई ऐसा कहते हैं कि, इनका प्रभाव बहुत बड़ा है। भले ही ये देखने में छोटे हैं। जिनके चरणकमल की धूलि का स्पर्श करके बहुत बड़ा पाप करनेवाली अहल्या भी तर गईं, क्या वे श्रीराम, शिवधनुष तोड़े बिना रह सकेंगे? यह विश्वास भूलकर भी नहीं छोड़ना चाहिए। जिन ब्रह्मा जी ने सीता जी को सँवार कर रचा है अर्थात्‌ बहुत सुन्दर सजाकर बनाया है, उन्होंने ही विचार कर सीता जी के लिए साँवले वर की रचना की है। उसके वचन सुनकर सभी सखियाँ हृदय में प्रसन्न हुईं और ‘ऐसा ही हो’ इस प्रकार कोमल वाणी में कहने लगीं।

**दो०- हिय हरषहिं बरषहिं सुमन, सुमुखि सुलोचनि बृंद।**

जाहिं जहाँ जहँ बंधु दोउ, तहँ तहँ परमानंद॥२२३॥

भाष्य

सुन्दर मुखों और सुन्दर नेत्रोंवाली सखियों के समूह हृदय में प्रसन्न होते हैं और सुन्दर मन से सुमन अर्थात्‌ पुष्पों की वृष्टि करते हैं। अथवा समूहबद्ध सुमुखियाँ और सुलोचनियाँ हृदय में प्रसन्न हो रही हैं और प्रभु पर सुमनों (पुष्पों) के बहाने अपने सुन्दर मनों की ही वर्षा कर रही हैं। जहाँ–जहाँ दोनों भ्राता जाते हैं वहाँ–वहाँ परमानन्द हो जाता है।

**पुर पूरब दिशि गे दोउ भाई। जहँ धनुमख हित भूमि बनाई॥ अति बिस्तार चारु गच ़ढारी। बिमल बेदिका रुचिर सँवारी॥**

[[१९१]]

भाष्य

नगर के पूर्व दिशा में दोनों भ्राता श्रीराम–लक्ष्मण गये, जहाँ धनुषयज्ञ के लिए भूमि बनायी गयी थी अर्थात्‌ यज्ञभूमि की रचना की गयी थी। वहाँ अत्यन्त विस्तृत क्षेत्र में सुन्दर फर्श ढाली गयी थी और निर्मल तथा सुन्दर यज्ञवेदिका भी बनायी गयी थी।

**चहुँ दिशि कंचन मंच बिशाला। रचे जहाँ बैठहिं महिपाला॥ तेहि पाछे समीप चहुँ पासा। अपर मंच मंडली बिलासा॥ कछुक ऊँचि सब भाँति सुहाई। बैठहिं नगर लोग जहँ जाई॥**
भाष्य

चारों ओर विशाल स्वर्ण के मंच बनाये गये थे, जहाँ सीता जी के स्वयंवर में आये हुए सभी राजा बैठेंगे। उसके पीछे निकट ही चारों ओर और भी मंचों के समूह का विलास अर्थात्‌ सौन्दर्य था। वह मंच मण्डली कुछ ऊँची और सब प्रकार से सुन्दर थी, जहाँ जाकर नगर के लोग स्वयंवर देखने के लिए बैठेंगे।

**तिन के निकट बिशाल सुहाए। धवल धाम बहुबरन बनाए॥ जहँ बैठी देखहिं सब नारी। जथा जोग निज कुल अनुहारी॥**
भाष्य

उन मंचों के निकट ही विशाल, सुन्दर तथा बहुत प्रकार के श्वेत–पक्के भवन बनाये गये थे। अपने कुल तथा योग्यता के अनुसार जहाँ बैठकर सभी मिथिलापुर की नारियाँ स्वयंवर की कार्यवाही देखा करेंगी।

**पुर बालक कहि कहि मृदु बचना। सादर प्रभुहिं देखावहिं रचना॥ भा०– **पुर के बालक कोमल वचन कहकर प्रभु को आदरपूर्वक रंगभूमि की रचना दिखा रहे हैं।

दो०- सब शिशु एहि मिस प्रेमबश, परसि मनोहर गात।

तन पुलकहिं अति हरष हिय, देखि देखि दोउ भ्रात॥२२४॥

भाष्य

सभी बालक प्रेम के वश होकर इसी बहाने प्रभु के कोमल शरीर का स्पर्श करके और दोनों भ्राताओं को देख–देखकर शरीर से पुलकित और हृदय में प्रसन्न होते हैं।

**शिशु सब राम प्रेमबश जाने। प्रीति समेत निकेत बखाने॥ निज निज रुचि सब लेहिं बोलाई। सहित सनेह जाहिं दोउ भाई॥**
भाष्य

प्रभु श्रीराम ने सभी बालकों को प्रेम के वश में जाना और प्रसन्नता सहित रंगभूमि के भवनों की प्रशंसा की। अथवा, अपने घर का परिचय दिया कि, हम श्रीअवध के राजकुमार हैं। बालक अपने–अपने रुचि के अनुसार प्रभु को अपने पास बुलाते हैं और दोनों भाई स्नेह सहित उनके पास चले जाते हैं।

**राम देखावहिं अनुजहिं रचना। कहि मृदु मधुर मनोहर बचना॥**
भाष्य

मीठे और मनोहर वचन कह–कह कर श्रीराम छोटे भैया लक्ष्मण को रंगभूमि की रचना दिखा रहे हैं।

**लव निमेष महँ भुवन निकाया। रचइ जासु अनुशासन माया॥ भगत हेतु सोइ दीनदयाला। चितवत चकित धनुष मखशाला॥**
भाष्य

जिनका अनुशासन पाकर उनकी माया क्षण भर के लव मात्र में अनेक ब्रह्माण्डों के समूहों को रच डालती है, वे ही दीनों पर दया करनेवाले प्रभु श्रीराम अपने भक्त लक्ष्मण के तथा स्वभक्त मिथिला के बालकों के आनन्द के लिए चकित होकर धनुर्यज्ञशाला का निरीक्षण कर रहे हैं।

**कौतुक देखि चले गुरु पाहीं। जानि बिलंब त्रास मन माहीं॥ जासु त्रास डर कहँ डर होई। भजन प्रभाव देखावत सोई॥ कहिं बातें मृदु मधुर सुहाईं। किए बिदा बालक बरियाँईं॥**

[[१९२]]

भाष्य

यह कौतुक देखकर श्रीराम-लक्ष्मण गुरुदेव विश्वामित्र जी के पास चले। विलम्ब हुआ जानकर श्रीराम के मन में गुरुदेव विश्वामित्र जी का डर है। जिनके त्रास से डर को भी डर हो जाता है, वही प्रभु श्रीराम भजन का प्रभाव दिखा रहे हैं अर्थात्‌ विश्वामित्र जी से डर रहे हैं। कोमल और सुहावनी बातें कह–कहकर प्रभु ने मिथिला के बालकों को हठपूर्वक विदा किया।

**दो०- सभय सप्रेम बिनीत अति, सकुच सहित दोउ भाइ।**

**गुरु पद पंकज नाइ सिर, बैठे आयसु पाइ॥२२५॥ भा०– **भयभीत, प्रेमयुक्त, अत्यन्त विनीत, दोनों भ्राता (श्रीराम–लक्ष्मण) विलम्ब होने के कारण संकोच सहित गुरुदेव के चरणकमलों में मस्तक नवाकर आज्ञा पाकर बैठ गये।

* मासपारायण, छठा विश्राम *

निशि प्रबेश मुनि आयसु दीन्हा। सबहीं संध्या बंदन कीन्हा॥ कहत कथा इतिहास पुरानी। रुचिर रजनि जुग जाम सिरानी॥

भाष्य

रात्रि के प्रवेश होते ही मुनि विश्वामित्र जी ने सन्ध्योपासन की आज्ञा दी और श्रीराम–लक्ष्मण सहित सभी ब्रह्मचारी शिष्यों ने विश्वामित्र जी के नेतृत्व में सन्ध्यावन्दन किया। इतिहास–पुराण की सुन्दर कथायें कहते हुए दो प्रहर रात बीत गयी।

**मुनिवर शयन कीन्ह तब जाई। लगे चरन चाँपन दोउ भाई॥ जिन के चरन सरोरुह लागी। करत बिबिध जप जोग बिरागी॥ तेइ दोउ बंधु प्रेम जनु जीते। गुरु पद कमल पलोटत प्रीते॥**
भाष्य

तब मुनिश्रेष्ठ विश्वामित्र जी ने शयन किया और दोनों भाई श्रीराम–लक्ष्मण विश्वामित्र जी के चरण दबाने लगे। जिनके चरणकमलों के लिए विरागी सन्तजन अनेक जप, योग करते हैं। वे ही दोनों भाई मानो प्रेम द्वारा जीत लिए गये हैं और प्रसन्नतापूर्वक गुरुदेव श्रीविश्वामित्र जी के चरणकमलों को धीरे–धीरे पलोट रहे हैं अर्थात्‌ दबा रहे हैं।

**बार बार मुनि आग्या दीन्ही। रघुबर जाइ शयन तब कीन्ही॥ चापत चरन लखन उर लाए। सभय सप्रेम परम सचु पाए॥ पुनि पुनि प्रभु कह सोवहु ताता। पौढे धरि उर पद जलजाता॥**
भाष्य

मुनि विश्वामित्र जी ने बार–बार आज्ञा दी, तब रघुकुल में श्रेष्ठ श्रीराम ने जाकर शयन किया। श्रीलक्ष्मण प्रभु के चरणों को हृदय से लगाकर भय से युक्त होकर प्रेमपूर्वक अत्यन्त सुख पाते हुए चुपचाप धीरे–धीरे दबा रहे हैं। बार–बार प्रभु श्रीराम ने कहा, हे भैया! सो जाओ। तब हृदय में प्रभु के चरणों का ध्यान करके और अपनी छाती पर प्रभु के चरणकमल को रखकर अर्थात्‌ अपने वक्षस्थल को ही प्रभु के चरणों की तकिया बनाकर लक्ष्मण जी पौ़ढ गये अर्थात्‌ लेट गये परन्तु उन्हें नींद नहीं आयी।

__**दो०- **

उठे लखन निशि बिगत सुनि, अरुनशिखा धुनि कान।गुरु ते पहिलेहिं जगतपति, जागे राम सुजान॥२२६॥

भाष्य

रात्रि के समाप्त होने पर लालशिखा वाले मुर्ग की कुक़डू…कू धुनि अपने कानों से सुनकर लक्ष्मण जी उठ गये। गुरुदेव के जागरण के प्रथम ही सेवा में चतुर श्रीराम भी जग गये।

[[१९३]]

विशेष

यहाँ से दस दोहेपर्यन्त पुष्पवाटिका का वर्णन करके गोस्वामी जी ने एक ही साथ साहित्य तथा वेदान्त इन दोनों विधाओं की सैद्धान्तिक पराकाष्ठा का निदर्शन कराया है। जैसे आद्दशङ्कराचार्य ने दस उपनिषदों के व्याख्यान में अद्वैतमत का प्रतिपादन किया और दस श्लोकी से निम्बार्काचार्य ने द्वैताद्वैत की प्रतिष्ठा की, उसी प्रकार फुलवारी के दस दोहे के माध्यम से अभिनववाल्मीकि गोस्वामी तुलसीदास ने श्रीसीताराम विशिष्टाद्वैत मत के प्रतिष्ठापना में विद्वद्‌ विमृग्य विरूद प्राप्त किया।

सकल शौच करि जाइ नहाए। नित्य निबाहि मुनिहिं सिर नाए॥ समय जानि गुरु आयसु पाई। लेन प्रसून चले दोउ भाई॥

भाष्य

दोनों भाइयों ने (श्रीराम–लक्ष्मण ने) प्रेमपूर्वक सम्पूर्ण पवित्रता के विधानों का सम्पादन करके जाकर कमला नदी में स्नान किया। वेदविहित नित्यकर्म, सन्ध्यावन्दन सम्पन्न करके गुरुदेव विश्वामित्र जी को सिर नवा कर प्रणाम किया। गुरुदेव की पूजा का, नरलीला–रंगमंच पर सीता जी से प्रथम मिलन का, मिथिला के अचर वृक्षों के उद्धार का, स्वयंवर के पूर्वविधेय पार्वती–पूजन के हेतु पुष्पवाटिका में सीता जी के आगमन का, श्रीलक्ष्मण तथा श्रीसीता की सखियों के युगलरूप–दर्शन के सौभाग्य का, भक्त–भगवान्‌, शक्ति–शक्तिमान, प्रकृति–पुरुष, माया–महेश्वर तथा प्रत्यगात्मा एवं परमात्मा के समागम का समय जानकर गुरुदेव विश्वामित्र जी का आदेश पाकर, दोनों भाई प्रत्यगात्मा रूप श्रीलक्ष्मण तथा परमात्मारूप श्रीराम पुष्प लेने के लिए चल पड़े।

**भूप बाग बर देखेउ जाई। जहँ बसंत ऋतु रहइ लोभाई॥ लागे बिटप मनोहर नाना। बरन बरन बर बेलि बिताना॥ नव पल्लव फल सुमन सुहाए। निज संपति सुररूख लजाए॥**
भाष्य

श्रीराम–लक्ष्मण ने जाकर जनक जी का श्रेष्ठ बाग देखा, जहाँ लुब्ध होकर वसन्तऋतु निरन्तर रहता है। अथवा, जहाँ वसंतऋतु लुभाया रहता है। वहाँ बहुरंगी श्रेष्ठ लताओं के वितानों से युक्त अनेक मनोहर वृक्ष लगे हैं, जो नवीन पल्लवों, फलों और पुष्पों से शोभायमान हैं, जिन्होंने अपने पल्लव, फल, पुष्प की संपत्ति से कल्पवृक्ष को रूखा अर्थात्‌ रसहीन बनाकर लज्जित कर दिया है।

**चातक कोकिल कीर चकोरा। कूजत बिहग नचत कल मोरा॥ मध्य बाग सर सोह सुहावा। मनि सोपान बिचित्र बनावा॥ बिमल सलिल सरसिज बहुरंगा। जलखग कूजत गुंजत भृंगा॥**
भाष्य

वहाँ चातक, कोयल, तोते, चकोर बोल रहे हैैं और मयूर मधुर गति से नाच रहें हैं। बाग के मध्य में सुन्दर तालाब शोभित है, जिसकी सीढि़याँ मणियों से जटित तथा विविध आश्चर्यमय कला से बनायी गयी है। उस तालाब का जल निर्मल है। वहाँ बहुरंगे अर्थात्‌ नीले, पीले, श्वेत और रक्त कमल खिले हैं। जल के पक्षी बोल रहे हैं और भौंरे गुंजार कर रहे हैं।

**दो०- बाग तड़ाग बिलोकि प्रभु, हरषे बंधु समेत।**

परम रम्य आराम यह, जो रामहिं सुख देत॥२२७॥

भाष्य

इस बाग और सरोवर को देखकर प्रभु श्रीराम, लक्ष्मण जी के सहित प्रसन्न हुए। यह आराम अर्थात्‌ वाटिका अत्यन्त सुन्दर है, जो समस्त चराचर को रमानेवाले सुखस्वरूप श्रीराम को भी सुख दे रही है।

**चहुँ दिशि चितइ पूँछि मालीगन। लगे लेन दल फूल मुदित मन॥**

[[१९४]]

भाष्य

भगवान्‌ श्रीराम चारों ओर अर्थात्‌ आर्त, जिज्ञासु, अर्थार्थी एवं ज्ञानीभक्तों की ओर अथवा, जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति एवं तुरीयावस्था की ओर अथवा, ऋग्‌, यजुष, साम, अथर्वन्‌ नामक चार वेदों की ओर अथवा, ज्ञान, कर्म, उपासना, शरणागति इन चार साधनापथों की ओर अथवा पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण दिशा की ओर अथवा सीता जी की पुत्री, बहूरानी, युवरानी तथा महारानी इन चार रूपों की ओर अथवा, उत्पत्ति, पालन, प्रलयकारिणीं, क्लेशहारिणीं, सर्वश्रेयष्करी, श्रीराम–प्रियतमा इन सीता जी की चार दशाओं की ओर अथवा, समन्वय, विरोध, परिहार, साधन तथा फल इन चार दार्शनिक विधाओं की ओर अथवा चातक, कोयल, तोते एवं चकोर नामक अपने स्वागत्‌ में बोलनेवाले चार पक्षियों की ओर अथवा, नित्य, नैमित्यिक, प्रायश्चित तथा उपासना नामक चारों वैदिक कर्मों की ओर अथवा, नाम, रूप, लीला, धाम इन चार वर्णों से युक्त चतुर्विध रामायण के कथा–प्रसंगों की ओर अथवा, जय–विजय, जलन्धर, नारदमोह तथा मनु–शतरूपा की तपस्या के क्रम से सम्पन्न होने वाले चार कल्पों के अवतारचरित्रों की ओर अथवा, दशरथ, जनक, वसिष्ठ तथा विश्वामित्र इन चार पितृकल्प महाविभूतियों की ओर अथवा कौसल्या, कैकेयी, सुमित्रा, सुनयना इन चार माताओं की ओर अथवा अयोध्या में संस्कारलीला, मिथिला में शृंगारलीला, चित्रकूट में विहारलीला तथा लंका में संहारलीला की चार मनोहर छायाओं की ओर देखकर तथा मालीगणों से अथवा, माँ अर्थात आदिशक्ति जगत्‌ माता सीता जी के आलीगण अर्थात्‌ सखी गणों से पूछकर मुदित मन से श्रीराम, तुलसीदल और पुष्प चुनने लगे।

**विशेष– **माँ रु आलीगण = मालीगण। पुष्पवाटिका में कोई पुव्र्ष नहीं जा सकता था, इसलिए भगवान्‌ श्रीराम ने माँ सीता के आलीगण अर्थात्‌ सखी गणों से ही फूल लेने की अनुमति माँगी और प्रसन्नता से तुलसीदल और पुष्प लेने लगे।

तेहिं अवसर सीता तहँ आई। गिरिजा पूजन जननि पठाई॥ संग सखी सब सुभग सयानी। गावहिं गीत मनोहर बानी॥

भाष्य

उसी अवसर पर माता सुनयना जी द्वारा स्वयंवर के पूर्व करणीय पार्वती पूजा के हेतु भेजी हुई सीता जी भी वहाँ अर्थात्‌ पुष्पवाटिका में आईं, जहाँ श्रीराम जी प्रसन्नतापूर्वक तुलसीदल और पुष्प ले रहे थे। उन भगवती सीता जी के साथ सभी सुन्दर तथा चतुर सखियाँ हैं, जो सुन्दर वाणी में स्वयंवरोचित्‌ मंगलगीत गा रही हैं।

**सर समीप गिरिजा गृह सोहा। बरनि न जाइ देखि मन मोहा॥ मज्जन करि सर सखिन समेता। गईं मुदित मन गौरि निकेता॥ पूजा कीन्ह अधिक अनुरागा। निज अनुरूप सुभग बर मांगा॥**
भाष्य

उस सरोवर के समीप पार्वती जी का मंदिर सुशोभित है, जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता। उसे देखकर मन मोहित हो जाता है। भगवती सीता जी उस तालाब मंें अपनी सभी सखियों के साथ स्नान करके प्रसन्न मन से गौरी जी के मंदिर में गईं। जनकनंदिनी जी ने अधिक अनुराग के साथ गिरिजा जी की पूजा की तथा उनसे अपने अनुरूप अर्थात्‌ अपने रूप के योग्य सुन्दर वर (दूल्हा) माँगा।

**एक सखी सिय संग बिहाई। गयी रही देखन फुलवाई॥ तेहिं दोउ बंधु बिलोके जाई। प्रेम बिबश सीता पहँ आई॥**
भाष्य

‘अकार’ अर्थात्‌ विष्णुजी को भी ‘क’ अर्थात्‌ आनन्द देनेवाले भगवान्‌ श्रीराम की सखी अर्थात्‌ सखा शिवजी की पत्नी तात्पर्यत: विष्णु जी को भी आनन्द देनेवाले भगवान्‌ श्रीराम के सखा शिवजी की धर्मपत्नी पार्वतीजी सखी वेश में सीता जी के साथ रहती थीं। उस समय वे सीताजी का साथ छोड़कर पुष्पवाटिका देखने गयी हुई थीं अर्थात्‌ सीताजी के पूजन के समय पार्वतीजी अपने मंदिर में उपस्थित नहीं थीं। इसलिए, वरदान

[[१९५]]

माँगने पर भी मंदिर में से “एवमस्तु” शब्द सुनायी नहीं पड़ा। उन्हीं सखी वेशधारिणी एक सखी (श्रीराम जी के सखा शिव जी की स्त्री) पार्वती जी ने पुष्पवाटिका में जाकर पुष्प लेते हुए दोनों भाई श्रीराम–लक्ष्मण को देखा और वह प्रेम के विवश होकर सीता जी के पास (पार्वती जी के मंदिर) में आ गईं।

दो०- तासु दशा देखी सखिन, पुलक गात जल नैन।

कहु कारन निज हरष कर, पूछहिं सब मृदु बैन॥२२८॥

भाष्य

सखियों ने उस एक सखी की दशा देखी, उसके अंग रोमांचित थे और आँखों में प्रेम से उमड़ा हुआ अश्रुजल। सभी सखियाँ उससे कोमल वाणी में पूछने लगीं कि तुम अपने हर्ष का कारण बताओ।

**देखन बाग कुअँर दोउ आए। बय किशोर सब भाँति सुहाए॥ श्याम गौर किमि कहौं बखानी। गिरा अनयन नयन बिनु बानी॥**
भाष्य

वह एक सखी बोली, सखियों! जनक जी का बाग देखने के लिए किशोर अवस्थावाले सब प्रकार से सुन्दर साँवले और गोरे दो राजकुमार आये हैं। उनकी कैसे प्रशंसा करूँ? क्योंकि जो वाणी बोल सकती है उसके पास नेत्र नहीं है अर्थात्‌ उसने प्रभु को देखा नहीं, जिन नेत्रों ने उन्हें देखा है उनके पास वाणी नहीं है अर्थात्‌ वे बोल नहीं सकते। भाव यह है कि, उनका वर्णन तो वही कर सकता है जिसमें एक साथ दर्शन और वचन का समन्वय हो। कदाचित्‌ वाणी के पास नेत्र होते अथवा नेत्र के पास वाणी होती तो ही उनका वर्णन संभव होता।

**सुनि हरषीं सब सखी सयानी। सिय हिय अति उतकंठा जानी॥ एक कहइ नृपसुत तेइ आली। सुने जे मुनि सँग आए काली॥**
भाष्य

उस सखी का वचन सुनकर और उन्हें देखने के लिए सीता जी के मन में अत्यन्त उत्कंठा अर्थात्‌ उत्सुकता जानकर सभी चतुर सखियाँ प्रसन्न हुईं। एक सखी कहने लगीं, हे सखियों! ये दोनों वही राजकुमार हैं, जो कल मुनि विश्वामित्र जी के साथ आये हुए सुने गये।

**जिन निज रूप मोहिनी डारी। कीन्हे स्वबस नगर नर नारी॥ बरनत छबि जहँ तहँ सब लोगू। अवसि देखियहिं देखन जोगू॥**
भाष्य

जिन्होंने अपने रूप की मोहिनी डालकर (जादू चलाकर) नगर के सभी पुरुषों और स्त्रियों को अपने वश में कर लिया तथा अपने वश में किये हुए मिथिला के सभी नरों को नारी बना दिया। सभी लोग जहाँ–तहाँ उन दोनों राजकुमारों की छवि का वर्णन कर रहे हैं। उनके दर्शन अवश्य करने चाहिए, वे देखने योग्य अर्थात्‌ दर्शनीय हैं।

**तासु बचन अति सियहिं सोहाने। दरश लागि लोचन अकुलाने॥ चली अग्र करि प्रिय सखि सोई। प्रीति पुरातन लखइ न कोई॥**
भाष्य

उस सखी के वचन सीता जी को बहुत प्रिय लगे और श्रीराम के दर्शनों के लिए जानकी जी के नेत्र अकुलाने अर्थात्‌ तलफलाने लगे। सीता जी अपनी उसी प्यारी एक सखी को आगे करके फुलवारी की ओर चलीं। श्रीराम के प्रति सीता जी की पुरातन अर्थात्‌ साकेतलोक की प्रीति को कोई नहीं देख रहा था।

**दो०- सुमिरि सीय नारद बचन, उपजी प्रीति पुनीत।**

**चकित बिलोकति सकल दिशि, जनु शिशु मृगी सभीत॥२२९॥ भा०– **नारद जी के वचन का स्मरण करके सीता जी के मन में पुनीत अर्थात्‌ श्रीराम के प्रति पतिविषयक प्रीति उत्पन्न हो गयी। भयभीत हुई बालहरिणीं की भाँति वे सभी दिशाओं में चकित होकर देख रही थीं।

[[१९६]]

विशेष

स्वयंवर की घटना से कतिपय मासपूर्व दुधमति के तट पर विराजमान भगवती सीताजी के दर्शनों के लिए देवर्षि नारद पधारे थे। उस समय देवर्षि ने भगवती सीता जी को यह अभिज्ञान निर्दिष्ट किया था कि जिस पुरुषपुंगव की सुंदरता का वर्णन सुनकर आपके मन में उसे देखने की उत्कंठा जग जाये आप उसी को अपने पति के रुप में वरण कर लीजियेगा । वे होंगे स्वयंपुराण पुरुषोत्तम भगवानराम और उन्हीं के द्वारा स्वयंवर में शिव धर्नुभंग भी होगा। सीता जी को नारद जी के उसी वचन का स्मरण करके प्रभु श्रीराम के प्रति दाम्पत्य प्रेम उद्‌बुद्ध हो गया।

कंकन किंकिनि नूपुर धुनि सुनि। कहत लखन सन राम हृदय गुनि॥ मानहुँ मदन दुंदुभी दीन्ही। मनसा बिश्व बिजय कहँ कीन्ही॥

भाष्य

सीता जी के श्रीहस्तकमलों में विराजमान कंकणों तथा उनके कटि पर विराजमान किंकिंणी (करधनी) एवं जानकी जी के श्रीचरणों में शोभित नूपुरों की धुनि सुनकर हृदय में विचार करके भगवान्‌ श्रीराम, लक्ष्मण जी से कह रहे हैं, लक्ष्मण! मानो मदन अर्थात्‌ मदादि विकारों से रहित मेरे भजनानन्द अथवा मेरे प्रेम ने ऋग्वेद रूप कंकण, यजुर्वेदरूप किंकिणी और सामवेदरूप नूपुर के माध्यम से दुंदुभी बजाई है और विश्वविजय की इच्छा की है, क्योंकि काम ने पुष्प का बाण लेकर विश्वविजय करके उसे नष्टप्राय कर डाला। अब श्रीरामप्रेम विश्व को निकृष्ट काम से मुक्ति दिलाकर, उसे जीतकर, भगवत्‌-प्राप्ति-सुधा से उसे अमर बनाना चाहता है। (यहाँ मदन शब्द का अर्थ है काम को नष्ट करने वाला, यथा– मदं नाशयति इति मदन: अथवा मदं नाशं नयति इति मदन:)

**अस कहि फिरि चितए तेहि ओरा। सियमुख शशि भे नयन चकोरा॥ भए बिलोचन चारु अचंचल। मनहुँ सकुचि निमि तजे दृगंचल॥**
भाष्य

लक्ष्मण जी से इस प्रकार कहकर, भगवान्‌ श्रीराम ने जिस ओर से कंकण, किंकिणी, नूपुर का स्वर आ रहा था उसी ओर पीछे मुड़कर देखा, तो सीता जी के मुखचन्द्र के श्रीराम के नेत्र चकोर बन गये। अर्थात्‌ जैसे चकोर चन्द्रमा को अपलक निहारता है, उसी प्रकार, सीता जी के मुख को भगवान्‌ श्रीराम के नेत्र अपलक निहारने लगे और श्रीमुख–माधुरी सुधा का पान करने लगे। प्रभु श्रीराम के सुन्दर और विमल नेत्र अचंचल हो गये अर्थात्‌ पलक गिराने की चंचलता छोड़कर टकटकी लगाकर श्रीमुख पर टिक गये। मानो विदेहवंश के प्रथमपुव्र्ष निमि अपने कुल की बेटी सीता जी तथा रघुकुल के आयुष्मान्‌ श्रीराम के दाम्पत्य–मूलक पूर्वरागप्रसंग में अपनी उपस्थिति को मर्यादा विरुद्ध मानकर तथा प्रिया, प्रियतम के मधुरमिलन को ऐकान्तिक लाभ देने के लिए श्रीराम के नेत्र के अंचलरूप पलकों को छोड़कर चले गये।

**देखि सीय शोभा सुख पावा। हृदय सराहत बचन न आवा॥ जनु बिरंचि सब निज निपुनाई। बिरचि बिश्व कहँ प्रगटि देखाई॥ सुंदरता कहँ सुन्दर करई। छबिगृह दीपशिखा जनु बरई॥**
भाष्य

सीता जी की शोभा देखकर सुखस्वरूप श्रीराम ने भी सुख पाया। वे हृदय से सीता जी की सुन्दरता की प्रशंसा कर रहे हैं। मुख से वचन नहीं आ रहा है अर्थात्‌ अनिर्वचनीय प्रेम ने प्रभु को भी निर्वचन करने से रोक दिया है। प्रभु श्रीराम स्वगत्‌ कह रहे हैं, मानो ब्रह्मा जी ने सीता जी के माध्यम से अपनी सम्पूर्ण रचना की चतुरता को ही विशिष्ट रूप से रचकर संसार को प्रत्यक्ष दिखा दिया है कि, अब कला का भी आकार देखो। सीता जी सुन्दरता को भी सुन्दर बना रही हैं और स्वयं छविरूप भवन में दीपक की शिखा अर्थात्‌ लौ की भाँति जाज्वल्यमान हो रही हैं।

[[१९७]]

सब उपमा कबि रहे जुठारी। केहिं पटतरौं बिदेहकुमारी॥

भाष्य

सामान्य कवि लोग प्राकृत भोगमयी नारियों के प्रति प्रयोग कर–कर के सभी उपमाएँ जूठी अर्थात्‌ उच्छिष्ट कर चुके हैं, अत: अब मैं विदेहनन्दिनी सीता जी को किस नये उपमान से उपमित करूँ।

**विशेष– **यहाँ गोस्वामी जी ने जायसी आदि प्रकृत नारिलंपट कवियों पर सीधा प्रहार किया है।

दो०- सिय शोभा हिय बरनि प्रभु, आपनि दशा बिचारि।

**बोले शुचि मन अनुज सन, बचन समय अनुहारि॥२३०॥ भा०– **सीता जी की शोभा का हृदय में वर्णन करके और अपने प्रेमदशा का विचार करके, समय का अनुसरण करते हुए प्रभु श्रीराम पवित्र मन से छोटे भैया लक्ष्मण के समक्ष आगे आनेवाली आठ पंक्तियों में यह महावाक्य स्वरूप वचन बोले–

तात जनकतनया यह सोई। धनुषजग्य जेहि कारन होई॥ पूजन गौरि सखी लै आई। करत प्रकाश फिरत फुलवाई॥

भाष्य

हे भैया लक्ष्मण! यह वही जनकपुत्री सीता जी हैं, जिनके कारण धनुषयज्ञ तथा उसके आधार पर स्वयंवर हो रहा है। स्वयंवर के पूर्व प्रभात में इन्हें पार्वती जी की पूजा करने के लिए सखियाँ ले आयी हैं। यह प्रकाश करते हुए पुष्पवाटिका में भ्रमण कर रही हैं।

**जासु बिलोकि अलौकिक शोभा। सहज पुनीत मोर मन लोभा॥ सो सब कारन जान बिधाता। फरकहिं शुभद अंग सुनु भ्राता॥**
भाष्य

हे भाई लक्ष्मण! सुनो, जिन जनकनन्िंदनी की अलौकिक अर्थात्‌ इस लोक से विलक्षण शोभा को देखकर स्वभाव से पवित्र मेरा मन भी लुब्ध अर्थात्‌ इन्हें प्राप्त करने के लिए लालची हो गया है। वह सब कारण ब्रह्माजी जानते हैं। मेरे शुभदायक दक्षिण अंग फ़डक रहे हैं।

**रघुवंशिन कर सहज सुभाऊ। मन कुपंथ पग धरइ न काऊ॥ मोहि अतिशय प्रतीति मन केरी। जेहिं सपनेहुँ परनारि न हेरी॥**
भाष्य

रघुवंशियों का यह जन्मजात स्वभाव है कि, उनका मन कुपन्थ अर्थात्‌ वेद द्वारा निषिद्ध पन्थ पर अपना पाँव कभी नहीं रखता। मुझे अपने मन पर अत्यन्त विश्वास है, जिसने सपने में भी परायी नारी को नहीं हेरा अर्थात्‌ मानसिक दृष्टि से भी नहीं देखा।

**जिन कै लहहिं न रिपु रन पीठी। नहिं पावहिं परतिय मन डीठी॥ मंगन लहहिं न जिन कै नाहीं। ते नरबर थोरे जग माहीं॥**
भाष्य

हे भाई लक्ष्मण! शत्रुगण युद्ध में जिनके पास से पीठ नहीं पाते अर्थात्‌ जो शत्रुगणों से हार कर कभी पीठ नहीं दिखाता, परायी नारियाँ जिनके मन और दृष्टि को भी नहीं प्राप्त कर पातीं और माँगनेवाले भिक्षुक जिनके यहाँ नकरात्मक शब्द नहीं प्राप्त करते अर्थात्‌ जो कभी भीख माँगनेवाले को बिना कुछ दिये नहीं लौटाते, ऐसे श्रेष्ठ पुव्र्ष इस संसार में बहुत थोड़े हैं।

**दो०- करत बतकही अनुज सन, मन सिय रूप लोभान।**

मुख सरोज मकरंद छबि, करइ मधुप इव पान॥२३१॥

[[१९८]]

भाष्य

श्रीराम छोटे भैया लक्ष्मण जी से वार्ता कर रहे हैं। उनका मन सीता जी के रूप पर लोभायित है। वह तो सीता जी के मुखकमल की छविरूप मकरंद का भ्रमर की भाँति पान कर रहा है।

**चितवति चकित चहूँ दिशि सीता। कहँ गए नृपकिशोर मन चिंता॥**

**जहँ बिलोक मृग शावक नैनी। जनु तहँ बरष कमल सित श्रेनी॥ भा०– **सीता जी चकित होकर चारों ओर निहार रही हैं कि किशोर राजकुमार कहाँ चले गये? जनकनन्दिनी जी के मन में चिन्ता होने लगी। बालमृग के समान नेत्रवाली सीता जी जिस ओर देखती हैं, मानो वे वहाँ श्वेत कमलों की पंक्तियों की वर्षा करती हैं।

लता ओट तब सखिन लखाए। श्यामल गौर किशोर सुहाए॥ देखि रूप लोचन ललचाने। हरषे जनु निज निधि पहिचाने॥

भाष्य

तब सखियों ने साँवले और गोरे सुहावने राजकिशोरों को लता की ओट अर्थात्‌ आड़ में दिखाया। श्रीराम के रूप को देखकर सीता जी के ललचाये हुए नेत्र भी हर्षित हुए मानो उन्होंने अपने निधि को पहचान लिया हो।

**थके नयन रघुपति छवि देखे। पलकनहूँ परिहरीं निमेषे॥ अधिक सनेह देह भइ भोरी। शरद शशिहिं जनु चितव चकोरी॥**
भाष्य

श्रीराम की छवि को देखकर सीता जी के नयन थके अर्थात्‌ पुतली ने चलना छोड़ दिया और उनके पलकों ने भी निमेष अर्थात्‌ गिरना छोड़ दिया। अधिक स्नेह के कारण सीता जी को शरीर की सुधि भोरी हो गयी अर्थात्‌ उन्हें देह का भान भूल गया। मानो शरद्‌ के पूर्ण चन्द्र को चकोरी निहार रही हो।

**लोचन मग रामहिं उर आनी। दीन्हे पलक कपाट सयानी॥**

जब सिय सखिन प्रेमबश जानी। कहि न सकहिं कछु मन सकुचानी॥

भाष्य

चतुर सीता जी ने नेत्र के मार्ग से श्रीरामचन्द्र को हृदय में लाकर पलकों का किवाड़ बन्द कर लिया। जब सखियों ने सीता जी को प्रेम के वश में जाना तो वे कुछ कह नहीं सक पा रही थीं, मन में सकुचा गईं।

**दो०- लताभवन ते प्रगट भे, तेहि अवसर दोउ भाइ।**

**निकसे जनु जुग बिमल बिधु, जलद पटल बिलगाइ॥२३२॥ भा०– **उसी अवसर पर दोनों भाई, लताओं के झुरमुटरूप भवन से निकलकर सीता जी एवं सखियों के सामने प्रकट हुए, मानो वर्षाकालीन बादल के पटल अर्थात्‌ परदे को अलग करके दो विमल चन्द्रमा ही निकल पड़े हों।

शोभा सीवँ सुभग दोउ बीरा। नील पीत जलजात शरीरा॥ मोर पंख सिर सोहत नीके। गुच्छ बीच बिच कुसुम कली के॥

भाष्य

अब सखियाँ युगलगीत प्रस्तुत करते हुए कह रही हैं कि, नीले और पीले कमल के शरीर वाले दोनों भाई, श्रीराम–लक्ष्मण शोभा की सीमा तथा बहुत सुन्दर हैं। उनके सिर पर मयूर–पिच्छ (मोर का पंख) बहुत सुन्दर लग रहा है। उसके बीच-बीच में फूलों की कली के गुच्छे शोभित हो रहे हैं।

**भाल तिलक श्रमबिंदु सुहाए। स्रवन सुभग भूषन छबि छाए॥ बिकट भृकुटि कच घूँघरवारे। नव सरोज लोचन रतनारे॥**

[[१९९]]

भाष्य

इन दोनों भाइयों के मस्तक पर तिलक और श्रम के कारण उत्पन्न हुए पसीने की बूँदें सुहावनी लग रही हैं। इनके सुन्दर कानों में विराजमान कुण्डलों पर तो छवि ही छायी हुई है। इनकी भौंहें टे़ढी तथा बाल घुँंघराले हैं। नवीन कमल के समान नेत्र रतनारे हैं अर्थात्‌ कोने में कुछ लालिमा लिए हुए हैं।

**चारु चिबुक नासिका कपोला। हास बिलास लेत मन मोला॥**

**मुखछबि कहि न जाइ मोहि पाहीं। जो बिलोकि बहु काम लजाहीं॥ भा०– **इनकी ठो़ढी नासिका और कपोल बहुत सुन्दर हैं। इनके हास की शोभा तो मन को ही क्रय कर ले रही है। इनके मुख की छवि मुझसे नहीं कही जा रही है, जिसे देखकर बहुत से काम लज्जित हो जाते हैं।

उर मनि माल कंबु कल ग्रीवा। काम कलभ कर भुज बलसींवा॥ सुमन समेत बाम कर दोना। साँवर कुअँर सखी सुठि लोना॥

भाष्य

इनके हृदय पर मणियों की माला तथा शंख के समान कण्ठ बहुत सुन्दर हैं। इनकी भुजायें कामदेव के हस्तिसावक के सूँ़ढ के समान सुन्दर तथा बल की पराकाष्ठा है। हे सखी! पुष्पों से भरा हुआ दोना बायें हाथ में लिए हुए, साँवले राजकुमार बहुत सुन्दर हैं।

विशेष

“कलभ: करिसावक:” **हाथी के बच्चे को संस्कृत में कलभ कहते हैं।

दो०- केहरि कटि पट पीत धर, सुषमा शील निधान।

देखि भानुकुलभूषनहिं, बिसरा सखिन अपान॥२३३॥

भाष्य

सिंह के समान कटि प्रदेश पर पीताम्बर धारण किये हुए परमशोभा तथा शील अर्थात्‌ सुन्दर स्वभाव और सद्‌वृत्त के खजानेस्वरूप सूर्यकुल के अलंकार भगवान्‌ श्रीराम को देखकर सखियों को अपान अर्थात्‌ अपने शरीर का व्यवहार भूल गया।

**धरि धीरज एक आलि सयानी। सीता सन बोली गहि पानी॥ बहुरि गौरि कर ध्यान करेहू। भूपकिशोर देखि किन लेहू॥**
भाष्य

धैर्य धारण करके एक चतुर सखी हाथ पक़ड सीता जी से बोली, राजकुमारी जी! पार्वती जी का ध्यान पीछे कर लीजियेगा, लता के भवन से प्रकट हुए राजकिशोर को क्यों नहीं देख लेतीᐂं?

**सकुचि सीय तब नयन उघारे। सनमुख दोउ रघुसिंघ निहारे॥ नख शिख देखि राम कै शोभा। सुमिरि पिता पन मन अति छोभा॥**
भाष्य

तब सीता जी ने संकोचपूर्वक दोनों नेत्रों को खोला और अपने समक्ष रघुकुल के सिंह के समान पराक्रमी श्रीराम को निहारा। नख से शिखापर्यन्त श्रीराम की शोभा देखकर पिता की प्रतिज्ञा का स्मरण करके सीता जी के मन में बहुत क्षोभ हुआ कि, इतने कोमल श्रीहस्त से राघव जी कैसे धनुष तोड़ेंगे।

**परबश सखिन लखी जब सीता। भयउ गहरु सब कहहिं सभीता॥ पुनि आउब एहि बेरिआँ काली। अस कहि मन बिहँसी एक आली॥**
भाष्य

जब सखियों ने सीता जी को परवश अर्थात्‌ परमात्मा श्रीराम के वश में देखा और परमेश्वर श्रीराम को सीता जी के वश में देखा तब सभी भयभीत होकर बोलीं, विलम्ब हो गया अर्थात्‌ शीघ्र राजभवन चल देना चाहिये। अथवा विलम्ब हो गया यह श्रीसीताराम का मिलाप पहले ही हो जाना चाहिये था। कल इसी समय हम लोग फिर आयेंगे। अथवा, हे सीते! अभी चलिए, इसी समय कल फिर आ जाइयेगा। अथवा, हे राघव! अब तो

[[२००]]

हमलोग जा रहीं हैं, इसी समय कल आप फिर आ जाइयेगा। अथवा, आज जितना विलम्ब हो रहा है होने दो, क्या कल यह समय फिर आयेगा? ऐसा कहकर एक आली अर्थात्‌ एक सखी मन में विशेष रूप से हँसीं।

गू़ढ गिरा सुनि सिय सकुचानी। भयउ बिलंब मातु भय मानी॥ धरि बधिड़ ीर राम उर आनी। फिरी अपनपउ पितुबश जानी॥

भाष्य

एक सखी की इस गम्भीर वाणी को सुनकर सीता जी संकुचित हो गईं। विलम्ब हो गया, उन्होंने अपने मन में माता सुनयना का भय माना। बहुता बड़ा धैर्य धारण करके श्रीराम को अपने हृदय में पधराकर अपने तथा अपने मनोरथों को पिता के अधीन समझकर, सीता जी पुष्पवाटिका से भवन की ओर लौटीं।

**दो०- देखन मिस मृग बिहग तरु, फिरइ बहोरि बहोरि।**

निरखि निरखि रघुबीर छबि, बा़ढइ प्रीति न थोरि॥२३४॥

भाष्य

सीता जी मृग, पक्षी और वृक्षों को देखने के बहाने से बारम्बार पुष्पवाटिका की ओर लौट आती हैं और वहाँ रघुवीर श्रीराम जी की छवि देखकर उनकी प्रीति थोड़ी नहीं ब़ढती अर्थात्‌ बहुत ब़ढ जाती है। यही यहाँ अवहित्था संचारीभाव का उदाहरण है।

**जानि कठिन शिवचाप बिसूरति। चली राखि उर श्यामल मूरति॥ प्रभु जब जात जानकी जानी। सुख सनेह शोभा गुन खानी॥ परम प्रेममय मृदु मसि कीन्ही। चारु चित्त भीती लिखि लीन्ही॥**
भाष्य

शिव जी के धनुष को कठिन जानकर चिन्ता करती हुईं सीता जी, हृदय में श्रीराम की श्याममूर्ति रखकर गिरिजा मन्दिर की ओर चलीं। सुख, स्नेह, शोभा और दिव्यगुणों की खानि प्रभु श्रीराम ने इन चारों की खानि सीताजी को जब जाते देखा, तब मर्यादापुरुषोत्तम भगवान्‌ श्रीराम ने परमप्रेम अर्थात्‌ दाम्पत्य–प्रेम को ही कोमल स्याही बनायी और उससे अपने सुन्दर चित्तभित्ति (दीवार) पर सीता जी को चित्रित कर लिया।

**गयी भवानी भवन बहोरी। बंदि चरन बोली करजोरी॥**
भाष्य

सीता जी फिर भवानी अर्थात्‌ भव की स्त्री पार्वती जी के मंदिर में गयीं। पार्वती जी के चरणों की वन्दना करके हाथ जोड़कर बोलीं–

**जय जय जय गिरिराज किशोरी। जय महेश मुख चंद्र चकोरी॥ जय गजबदन षडानन माता। जगत जननि दामिनि दुति गाता॥ नहिं तव आदि मध्य अवसाना। अमित प्रभाव बेद नहिं जाना॥ भव भव विभव पराभव कारिनि। बिश्व बिमोहनि स्वबश बिहारिनि॥**
भाष्य

हे पर्वतराज की किशोरी पुत्री! आपकी जय हो! जय हो! जय हो! हे महेश! अर्थात्‌ महान्‌ ईश्वर शिव जी के मुखरूप चन्द्र की चकोरी! आप की जय हो! हे हाथी के मुखवाले गणेश और छ: मुखोंवाले कार्तिकेय की माता! हे जगत्‌ को जन्म देनेवाली, बिजली के समान प्रकाशमान्‌ शरीरवाली भगवती, आप की जय हो! आप का आदि, मध्य और अन्त नहीं है। आपके असीम प्रभाव को वेद भी नहीं जानते। आप संसार के जन्म, वैभवयुक्त पालन और पराभव अर्थात्‌ संहार करनेवाली हैं। आप विश्व को मोहित करनेवाली तथा अपने वश में किये हुये शिवजी के साथ विहार करनेवाली हैं।

**दो०- पतिदेवता सुतीय महँ, मातु प्रथम तव रेख।**

महिमा अमित न सकहिं कहि, सहस शारदा शेष॥२३५॥

[[२०१]]

भाष्य

हे माता जी! पतिव्रता सुन्दर नारियों में आपकी प्रथम रेखा है अर्थात्‌ आप सर्वप्रथम सती शिरोमणि हैं। आप की असीम महिमा को सहस्रों सरस्वती और शेष नहीं कह सकते।

**सेवत तोहि सुलभ फल चारी। बरदायनि त्रिपुरारि पियारी॥ देबि पूजि पद कमल तुम्हारे। सुर नर मुनि सब होहिं सुखारे॥**
भाष्य

हे वर देने वाली! हे त्रिपुरासुर के शत्रु शिव जी की प्रिय पत्नी पार्वती जी! आपकी सेवा करने से सेवक को अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष ये चारों फल सुलभ हो जाते हैं। हे देवी! आपके चरणकमल की पूजा करके देवता, मनुष्य, मुनि सब सुखी हो जाते हैं।

**मोर मनोरथ जानहु नीके। बसहु सदा उर पुर सबही के॥ कीन्हेउँ प्रगट न कारन तेही। अस कहि चरन गहे बैदेही॥**
भाष्य

आप मेरा मनोरथ अच्छी प्रकार जानती हैं, क्योंकि आप सदा सबके हृदय रूप नगर में निवास करती हैं। इसी कारण, मैंने उसे प्रकट नहीं किया। इतना कहकर सीता जी ने पार्वती जी के चरण पक़ड लिए।

**बिनय प्रेमबश भईं भवानी। खसी माल मूरति मुसुकानी॥ सादर सिय प्रसाद सिर धरेऊ। बोलि गौरि हरष हिय भरेऊ॥**
भाष्य

पार्वती जी, सीता जी के विनय और प्रेम के वश में हो गईं। उन्होंने सीता जी को माला पहनानी चाही, परन्तु पार्वती जी के हाथों से माला भी गिर पड़ी, मानो कदाचित्‌ उन्हें ऐसा लगा हो कि, सीता जी के हृदय में श्रीराम जी का निवास है, यदि मेरी माला सीता जी के गले में पड़ेगी तो श्रीराम जी के कण्ठ में भी चली जायेगी। पूर्वावतार में सीता जी का वेश बनाने के कारण शिव जी ने मुझे त्यागा था। इस बार यदि अपराध हुआ तब तो जन्म–जन्मान्तर के लिए शिव जी मुझे त्याग देंगे। इस भय से पार्वती जी के हाथ से माला गिर पड़ी। उनकी इस चतुरता पर सीता जी के हृदय में विराजमान श्रीराम की मूर्ति मुस्कुरा पड़ी। सीता जी ने आदरपूर्वक पार्वती जी की माला–प्रसाद को सिर पर धारण कर लिया। हृदय में हर्ष से पूर्ण होकर पार्वती जी बोलीं–

**सुनु सिय सत्य अशीष हमारी। पूजिहि मन कामना तुम्हारी॥ नारद बचन सदा शुचि साँचा। सो बर मिलिहि जाहि मन राँचा॥**
भाष्य

हे सीता जी! हमारी सत्य आशीष सुनिये। आपकी मन:कामना पूर्ण होगी। नारद जी का वचन पवित्र है और वह निरन्तर सत्य होता है। आपको वही वर (श्रीराम) मिलेंगे, जिन पर आपका मन रच गया है अर्थात्‌ लुभा गया है अथवा तल्लीन हो गया है।

**छं०- मन जाहिं राँचेउ मिलिहि सो बर सहज सुन्दर साँवरो।**

करुना निधान सुजान शील सनेह जानत रावरो॥ एहि भाँति गौरि अशीष सुनि सिय सहित हिय हरषीं अलीं। तुलसी भवानिहिं पूजि पुनि पुनि मुदित मन मंदिर चलीं॥

भाष्य

जिन पर आपका मन अनुरक्त है, आपको वे ही स्वभाव से सुन्दर, करुणा के निधान, दिव्यज्ञान से सम्पन्न, आपके शील और स्नेह को जाननेवाले, साँवले श्रीराम ही वर रूप में मिलेंगे। इस प्रकार, पार्वती जी का आशीर्वाद सुनकर सीता जी के सहित सखियाँ बहुत प्रसन्न हुईं। तुलसीदास जी कहते हैं कि, तुलसी माता एवं पार्वती माता जी का बार–बार पूजन करके प्रसन्न मन से सखियों सहित सीता जी राजमन्दिर चली गईं।

[[२०२]]

दो०- जानि गौरि अनुकूल, सिय हिय हरष न जाइ कहि।

**मंजुल मंगल मूल, बाम अंग फरकन लगे॥२३६॥ भा०– **पार्वती जी को अनुकूल जानकर सीता जी के हृदय में जैसा हर्ष हुआ उसे कहा नहीं जा सकता। मधुर मंगलों के मूल कारण रूप सीता जी के वाम अंग फ़डकने लगे।

हृदय सराहत सीय लुनाई। गुरु समीप गवने दोउ भाई॥ राम कहा सब कौशिक पाहीं। सरल स्वभाव छुआ छल नाहीं॥

भाष्य

इधर श्रीराम, सीता जी के सौन्दर्य की प्रशंसा कर रहे हैं। फिर श्रीराम–लक्ष्मण दोनों भाई पुष्प और दल लेकर गुव्र् विश्वामित्र जी के पास गमन किये। श्रीराम ने विश्वामित्र जी से पुष्पवाटिका की सम्पूर्ण घटना कह सुनायी, क्योंकि उनका स्वभाव बहुत ही सरल है। जिसे छल कभी स्पर्श ही नहीं कर पाया।

**सुमन पाइ मुनि पूजा कीन्ही। पुनि अशीष दुहु भाइन दीन्ही॥ सुफल मनोरथ होहुँ तुम्हारे। राम लखन सुनि भए सुखारे॥**
भाष्य

सुमन अर्थात्‌ श्रीराम के सुन्दर मन तथा पुष्प पाकर मुनि विश्वामित्र जी ने देवपूजा की। फिर दोनोें भाइयों को आशीर्वाद दिया कि, तुम दोनों के मनोरथ सुन्दर फलवाले हों अर्थात्‌ श्रीराम को सीता जी बहू रूप में प्राप्त हों तथा वही सीताजी, श्रीलक्ष्मण को भाभी–माँ के रूप में दर्शन दें। यह सुनकर श्रीराम–लक्ष्मण सुखी हुए।

**करि भोजन मुनिवर बिग्यानी। लगे कहन कछु कथा पुरानी॥ बिगत दिवस गुरु आयसु पाई। संध्या करन चले दोउ भाई॥**
भाष्य

मध्याह्न भोजन करके, विज्ञानी अर्थात्‌ सेवक–सेव्यभाव के विशिय्ज्ञान से सम्पन्न मुनिश्रेष्ठ विश्वामित्रजी, कुछ पुराण की कथा कहने लगे। दिन के समाप्त होने पर गुरुदेव की अनुमति पाकर, दोनों भाई श्रीराम–लक्ष्मण सायंकालीन तृतीय सन्ध्या सम्पन्न करने चले।

**प्राची दिशि शशि उयउ सुहावा। सिय मुख सरिस देखि सुख पावा॥ बहुरि बिचार कीन्ह मन माहीं। सीय बदन सम हिमकर नाहीं॥**
भाष्य

सन्ध्या सम्पन्न करने के पश्चात्‌ पूर्वाभिमुख चलते हुए भगवान्‌ श्रीराम ने पूर्व दिशा में उदित हुए सुहावने चन्द्रमा को सीता जी के मुख के समान देखकर सुख प्राप्त किया। अर्थात्‌ सामान्य रूप से चन्द्रमा को सीता जी के मुख का उपमान जानकर प्रभु प्रसन्न हुए। फिर दूसरे ही क्षण श्रीराम ने अपने मन में विचार किया कि, चन्द्रमा सीता जी के मुख के समान नहीं है, क्योंकि वह हिमकर अर्थात्‌ बर्फ को उत्पन्न करनेवाला है और बर्फ कमल का शत्रु है, जबकि सीता जी के मुख में कमलत्व और चन्द्रत्व ये दोनों विरुद्ध गुण एक साथ रहते हैं।

**दो०- जनम सिंधु पुनि बंधु बिष, दिन मलीन सकलंक।**

**सिय मुख समता पाव किमि, चंद्र बापुरो रंक॥२३७॥ भा०– **जिसका जन्म समुद्र में हुआ, फिर जिसका भाई विष है, जो दिन में मलिन रहता है तथा कलंक से पूर्ण है,

ऐसा बिचारा कलाओं से क्षीण होने के कारण दरिद्र चन्द्रमा, सीता जी के मुख की समता को कैसे प्राप्त कर सकता है?

घटइ ब़ढइ बिरहिनि दुखदाई। ग्रसइ राहु निज संधिहिं पाई॥ कोक शोकप्रद पंकज द्रोही। अवगुन बहुत चन्द्रमा तोही॥

[[२०३]]

भाष्य

भगवान्‌ श्रीराम चन्द्रमा को सम्बोधित करते हुए कहते हैं कि, चन्द्रमा! तुम घटते और ब़ढते हो, तुम विरहिणियों को दु:ख देते हो और अपनी संधि में पाकर अर्थात्‌ पूर्णिमा और प्रतिपदा की संधि में पाकर तुम्हे राहु ग्रस लेता है। तुम चकवे–चकवी को परस्पर वियोग का शोक देते हो और कमल के तुम द्रोही हो। हे चन्द्रमा! तुममें बहुत से अवगुण हैं, जबकि सीता जी के मुख में कोई अवगुण नहीं है।

**बैदेही मुख पटतर दीन्हे। होइ दोष बड़ अनुचित कीन्हे॥ सिय मुख छबि बिधु ब्याज बखानी। गुरु पहँ चले निशा बजिड़ ानी॥**
भाष्य

हे चन्द्रमा! तुम्हें उपमान बनाकर सीता जी के मुख की उपमा देने से अत्यन्त अनुचित कर्म करने के कारण बहुत ही दोष होगा, क्योंकि अन्य उपमानों में एक–आध दोष होता है, जबकि तुम्हारे तो मैंने बारह दोष गिनाये। इस प्रकार, चन्द्रमा के बहाने से सीता जी के मुख की प्रशंसा करके श्रीरामजी, बहुत रात्रि जानकर गुरुदेव के पास चले आये।

**विशेष– **इस प्रसंग में व्यतिरेक तथा ब्याजस्तुति अलंकार की छटा बहुत ही रमणीय बन पड़ी है। **करि मुनि चरन सरोज प्रनामा। आयसु पाइ कीन्ह बिश्रामा॥ बिगत निशा रघुनायक जागे। बंधु बिलोकि कहन अस लागे॥**
भाष्य

मुनि विश्वामित्र के चरण कमल में प्रणाम करके, आज्ञा पाकर, प्रभु श्रीराम ने विश्राम किया। रात्रि के समाप्त होने पर रघुकुल के नायक प्रभु श्रीराम जगे और पूर्व से ही जाग्रत अवस्था में देखकर, अपने प्रिय भाई लक्ष्मण कुमार से इस प्रकार कहने लगे–

**उयउ अरुन अवलोकहु ताता। पंकज कोक लोक सुखदाता॥ बोले लखन जोरि जुग पानी। प्रभु प्रभाव सूचक मृदु बानी॥**
भाष्य

हे भैया! देखो, कमल–चकवे एवं सम्पूर्ण संसार को सुख देनेवाले अरुण अर्थात्‌ सूर्यनारायण के सारथी गव्र्ड़ के छोटे भाई अव्र्णदेव उदित हो चुके हैं। अब शीघ्र ही सूर्योदय हो जायेगा। लक्ष्मण जी दोनों हाथ जोड़कर प्रभु के प्रभाव की सूचना देनेवाली कोमल वाणी में बोले–

**दो०- अरुणोदय सकुचे कुमुद, उडुगन जोति मलीन।**

जिमि तुम्हार आगमन सुनि, भए नृपति बलहीन॥२३८॥

भाष्य

हे प्रभु! अरुण के उदित होने से कुमुद–पुष्प संकुचित हो गये हैं। तारागणों की ज्योति मलिन अर्थात्‌ धूमिल पड़ गयी है। जिस प्रकार आपका आगमन सुनकर सीता जी के स्वयंवर में आये हुए सम्पूर्ण राजा शारीरिक और मानसिक बलों से हीन हो चुके हैं।

**नृप सब नखत करहिं उजियारी। टारि न सकहिं चाप तम भारी॥**
भाष्य

सभी राजा रूप नक्षत्र प्रकाश तो कर रहे हैं, पर वे धनुषरूप अन्धकार को नहीं टाल सकते अर्थात्‌ नहीं दूर कर सकते। तात्पर्य यह है कि, जैसे नक्षत्रों के प्रकाश से अन्धकार का नाश नहीं होता, उसी प्रकार स्वयंवर में आये हुए राजाओं के शक्ति प्रयोग से धनुष का भंग संभव ही नहीं है। इसके लिए तो आप श्रीराघव रूप सूर्योदय की आवश्यकता है।

**कमल कोक मधुकर खग नाना। हरषे सकल निशा अवसाना॥ ऐसेहिं प्रभु सब भगत तुम्हारे। होइहैं टूटे धनुष सुखारे॥**

[[२०४]]

भाष्य

हे भगवन्‌! जैसे रात्रि का अन्त होने पर कमल, चकवे, भ्रमर एवं अनेक पक्षी प्रसन्न हो रहे हैं। उसी प्रकार आप के आर्त, जिज्ञासु, अर्थार्थी तथा ज्ञानी ये सभी प्रकार के भक्त धनुष के टूटने पर सुखी हो जायेंगे।

**विशेष– **यहाँ आर्तभक्त कमल का, जिज्ञासुभक्त चकवा का, अर्थार्थीभक्त भ्रमर का और ज्ञानीभक्त पक्षी का उपमेय समझना चाहिये।

उयउ भानु बिनु श्रम तम नाशा। दुरे नखत जग तेज प्रकाशा॥

**रबि निज उदय ब्याज रघुराया। प्रभु प्रताप सब नृपन दिखाया॥ भा०– **सूर्यनारायण के उदित होने से श्रम के बिना ही अन्धकार का नाश हो गया, तारागण छिप गये और जगत्‌ में तेज तथा प्रकाश फैल गया। सूर्यनारायण ने अपने उदय के बहाने से सभी राजाओं को आप प्रभु श्रीराम का प्रभाव दिखला दिया है।

तव भुज बल महिमा उदघाटी। प्रगटी धनु बिघटन परिपाटी॥

भाष्य

हे प्रभु! वस्तुत: यह धनुष तोड़ने की परम्परा आप के भुजबल की महिमा के उद्‌घाटन के रूप में प्रकट हुई है, अर्थात्‌ जैसे किसी शुभकार्य के प्रारम्भ को उद्‌घाटन कहते हैं, उसी प्रकार यह धनुर्भंग, सीता जी के स्वयंवर के साथ आपके बाहुबल की महिमा का उद्‌घाटन समारोह है। अथवा, जैसे सूर्यनारायण का उदय उदयाचल पर्वत पर होता है, उसी प्रकार धनुर्भंग की परिपाटी ही आपके भुजबल की महिमा रूप सूर्यनारायण के उदय के लिए उदयाचल की घाटी के रूप में प्रकट हुई है।

**बंधु बचन सुनि प्रभु मुसुकाने। होइ शुचि सहज पुनीत नहाने॥ नित्यक्रिया करि गुरु पहँ आए। चरन सरोज सुभग सिर नाए॥**
भाष्य

अपने भाई लक्ष्मण जी का वचन सुनकर प्रभु श्रीराम मुस्कुराये। स्वभावत: पवित्र होते हुए भी लोक लीला में दसविध स्नानक्रिया से पवित्र होकर प्रभु ने स्नान किया। नित्यक्रिया अर्थात्‌ प्रात:कालीन सन्ध्यावन्दन करके गुरुदेव विश्वामित्र जी के पास आये और स्वयं सुभग अर्थात्‌ सुन्दर ऐश्वर्यादि छह माहात्म्यों से युक्त परमसौभाग्यशाली प्रभु ने विश्वामित्र जी के सुन्दर चरणकमलों में सिर नवाया।

**शतानंद तब जनक बोलाए। कौशिक मुनि पहँ तुरत पठाए॥ जनक बिनय तिन आइ सुनाई। हरषे बोलि लिए दोउ भाई॥**
भाष्य

तब जनक जी ने अपने पुरोहित शतानन्द जी को बुलाया और उन्हें तुरन्त मुनि विश्वामित्र जी के पास भेज दिया। उन्होंने (शतानन्द जी ने) विश्वामित्र जी को जनक जी की प्रार्थना सुनायी और प्रसन्न हुए दोनों भाई, श्रीराम–लक्ष्मण को अपने पास बुला लिया। अथवा, जनक जी का रंगभूमि में आमंत्रण का समाचार सुनकर विश्वामित्र जी प्रसन्न हुए और उन्होंने रंगभूमि में चलने के लिए उद्दत होने के संकेतार्थ दोनों भाई श्रीराम– लक्ष्मण को अपने पास बुला लिया।

**दो०- शतानंद पद बंदि प्रभु, बैठे गुरु पहँ जाइ।**

**चलहु तात मुनि कहेउ तब, पठवा जनक बोलाइ॥२३९॥ भा०– **शतानन्द जी के चरणों की वन्दना करके, प्रभु श्रीराम और लक्ष्मण गुरुदेव विश्वामित्र जी के पास जाकर बैठ गये। तब विश्वामित्र जी ने कहा कि, हे तात! अब रंगभूमि में चला जाये, शतानन्द जी के माध्यम से जनक

जी ने हमें बुला भेजा है।

[[२०५]]

सीय स्वयंबर देखिय जाई। ईश काहि धौं देइ बड़ाई॥ लखन कहा जस भाजन सोई। नाथ कृपा तव जापर होई॥

भाष्य

सीता जी का स्वयंवर चलकर देखा जाये, देखते हैं भगवान्‌ शङ्कर किस को बड़ाई देना चाहते हैं अर्थात्‌ शिव जी का धनुष तोड़कर कौन सीता जी को वरण का सौभाग्य प्राप्त करेगा? लक्ष्मण जी ने कहा, नाथ! आज वही यश का पात्र बनेगा, जिस पर आपश्री (विश्वामित्रजी) की कृपा होगी।

**हरषे मुनि सब सुनि बर बानी। दीन्ह अशीष सबहिं सुख मानी॥ पुनि मुनिबृंद समेत कृपाला। देखन चले धनुष मखशाला॥**
भाष्य

लक्ष्मण जी की श्रेष्ठ वाणी सुनकर, विश्वामित्र जी सहित सभी मुनि प्रसन्न हो गये और सभी ने मन में प्रसन्न होकर लक्ष्मण जी एवं प्रभु श्रीराम को आशीर्वाद दिया अर्थात्‌ मुनियों ने लक्ष्मण जी से कहा, “तव* भ्राता विजयी भूयात्‌।” अर्थात्‌ तुम्हारे भैया विजयी हों और श्रीराम से कहा–“राघव** विजयी भव।” *अर्थात्‌ हे राघव सरकार! आप विजयी हों। फिर कृपालु श्रीराम और लक्ष्मण मुनिबृन्दों सहित धनुषयज्ञ देखने चले।

**रंगभूमि आए दोउ भाई। असि सुधि सब पुरबासिन पाई॥ चले सकल गृह काज बिसारी। बाल जुबान जरठ नर नारी॥**
भाष्य

रंगभूमि में दोनों भाई श्रीराम–लक्ष्मण आ गये हैं, ऐसा समाचार सभी मिथिलावासियों ने पाया। तब बालक, युवक और वृद्ध नर–नारी घर के सभी कार्यों को भूलकर श्रीराम–लक्ष्मण के दर्शनार्थ रंगभूमि को चल पड़े।

**देखी जनक भीर भइ भारी। शुचि सेवक सब लिए हँकारी॥ तुरत सकल लोगन पहँ जाहू। आसन उचित देहु सब काहू॥**
भाष्य

जनक जी ने देखा, यहाँ बहुत भीड़ हो गयी है। तब उन्होंने पवित्र सेवकों को बुला लिया और कहा, “सभी लोगोें के पास तुरन्त जाओ और सभी को बैठने के लिए उचित आसन दो, जिससे शान्तिपूर्वक स्वयंवर की कार्यवाही प्रारम्भ हो सके।”

**दो०- कहि मृदु बचन बिनीत तिन, बैठारे नर नारि।**

उत्तम मध्यम नीच लघु, निज निज थल अनुहारि॥२४०॥

भाष्य

उन जनक जी के सेवकों ने सभी पुरुष और महिलाओं को अपने–अपने स्थल के अनुसार अर्थात्‌ पूज्यों के प्रति शिष्ट शब्दों में, समवयस्कों को मध्यम अर्थात्‌ मित्रोचित्‌ शब्दों में, कोलाहल करने वाले असुर–प्रकृति के राजा के परिकरों को नीच अर्थात्‌ तर्जना (डाँटने, धमकाने वाले शब्दों में) और छोटे–छोटे बालकों को लघु अर्थात्‌ हल्के शब्दों में कोमल वचन कहकर बैठाया।

**राजकुअँर तेहि अवसर आए। मनहुँ मनोहरता तनु छाए॥ गुन सागर नागर बर बीरा। सुन्दर श्यामल गौर शरीरा॥ राज समाज बिराजत रूरे। उडुगन महँ जनु जुग बिधु पूरे॥**
भाष्य

उसी अवसर पर (सभी नर–नारियों के बैठ जाने पर) श्रीअवध के राजकुमार श्रीराम-लक्ष्मण रंगभूमि में आये, मानो उनके शरीर पर मनोहरता ही छाई हुई थी। सभी सद्‌गुणों के सागर, चतुर, श्रेष्ठ वीर, सुन्दर, श्याम– गौर शरीरवाले श्रीराम–लक्ष्मण, सुन्दर राजसमाज में उसी प्रकार सुशोभित हो रहे थे, जैसे तारागणों के मध्य में दो पूर्ण चन्द्रमा सुशोभित हो रहे हों।

[[२०६]]

**जिन के रही भावना जैसी। प्रभु मूरति देखि तिन तैसी॥ भा०– **जिनके मन में जैसी भावना थी, उन्होंने प्रभु श्रीराम–लक्ष्मण की मूर्ति उसी प्रकार, से देखी।

**विशेष– **यहाँ वीर रस, भयानक रस, रौद्र रस, अद्‌भुत रस, शृंगार रस, वीभत्स रस, हास रस, प्रेयो रस, करुण रस, वत्सल रस, शान्त रस और भक्ति रस के संस्कारों से भावुक नर–नारियों ने क्रमश: इन्हीं रसों की मूर्ति के रूप में प्रभु श्रीराम–लक्ष्मण के दर्शन किये।

देखहिं भूप महा रनधीरा। मनहुँ बीर रस धरे शरीरा॥ डरे कुटिल नृप प्रभुहिं निहारी। मनहुँ भयानक मूरति भारी॥

भाष्य

महारणधीर अर्थात्‌ युद्ध में कुशल राजा, भगवान्‌ श्रीराम–लक्ष्मण को ऐसे देख रहे थे, मानो वीर रस ने ही दो शरीर धारण कर लिए हों। कुटिल राजा, भगवान्‌ श्रीराम को निहारकर डरे, मानो उनके सामने अत्यन्त भयानक रस की मूर्ति उपस्थित हो।

**रहे असुर छल छोनिप बेषा। तिन प्रभु प्रगट कालसम देखा॥**

पुरबासिन देखे दोउ भाई। नरभूषन लोचन सुखदाई॥

भाष्य

छल से राजा के वेश में आये हुए, जो असुर रंगभूमि में स्थित थे, उन्होंने भगवान्‌ श्रीराम को प्रत्यक्ष काल के समान रौद्र रस रूप में देखा। जनकपुरवासियों ने दोनों भाइयों (श्रीराम–लक्ष्मण) को नेत्रों को आनन्द देनेवाले पुरुषों के अलंकारस्वरूप अद्‌भुत रस के रूप में देखा।

**दो०- नारि बिलोकहिं हरषि हिय, निज निज रुचि अनुरूप।**

**जनु सोहत शृंगार धरि, मूरति परम अनूप॥२४१॥ भा०– **हृदय में प्रसन्न होकर मिथिलानी नारियाँ अपनी–अपनी रुचि के अनुरूप प्रभु को इस प्रकार देख रही हैं, मानो शृंगार रस ही पूजनीय उपमारहित मूर्ति को धारण करके सुशोभित हो रहा हो।

बिदुषन प्रभु बिराटमय दीसा। बहु मुख कर पग लोचन सीसा॥ जनक जाति अवलोकहिं कैसे। सजन सगे प्रिय लागहिं जैसे॥

भाष्य

विद्वानों को प्रभु श्रीराम बहुत से मुख, हाथ, चरण, नेत्र और सिरों से युक्त विराट रूप में ही वीभत्स रस स्वरूप दिखे। राजा जनक जी के जाति के लोग प्रभु को किस प्रकार देख रहे हैं, जैसे सगे, सम्बन्धी और अपने मित्र प्रिय लगते हैं अर्थात्‌ उन्होंने प्रभु को हास रस और प्रेयो रस के रूप में देखा।

**सहित बिदेह बिलोकहिं रानी। शिशु सम प्रीति न जाति बखानी॥ जोगिन परम तत्त्वमय भासा। शांत शुद्ध सम सहज प्रकासा॥ हरिभगतन देखे दोउ भ्राता। इष्टदेव इव सब सुख दाता॥**
भाष्य

जनक जी के सहित सुनयना आदि रानियाँ प्रभु को करुण रस और वत्सल रस के रूप में देख रही हैं। उन्हें प्रभु के प्रति छोटे बालक जैसी प्रीति है, जो बखानी नहीं जा सकती। योगीजनों को प्रभु परमतत्त्वमय (चिद्‌– अचिद्‌ विशिष्टाद्वैत परब्रह्म) शुद्ध, स्वाभाविक प्रकाश से सम्पन्न, समदर्शी, शान्तस्वरूप में भाषित हो रहे हैं अर्थात्‌ योगीजन भगवान्‌ को शान्त रस में देख रहे हैं। श्रीरामभक्तों ने दोनों भाई श्रीराम–लक्ष्मण को सभी सुखों को देनेवाले इष्टदेव के समान भक्ति रस में देखा।

**रामहिं चितव भाव जेहि सीया। सो सनेह मुख नहिं कथनीया॥ उर अनुभवति न कहि सक सोऊ। कवन प्रकार कहै कबि कोऊ॥**

[[२०७]]

भाष्य

सीता जी जिस भाव से प्रभु को निहार रही हैं, वह स्नेह–मुख से कथनीय नहीं है अर्थात्‌ कथन के योग्य नहीं है, क्योंकि सीता जी भी उस आनन्द को अपने हृदय में अनुभव–मात्र कर रही हैं। वह भी कह नहीं सकती तो कोई कवि किस प्रकार से कह सकता है ?

**जेहि बिधि रहा जाहि जस भाऊ। तेहि तस देखेउ कोसलराऊ॥**
भाष्य

जिसके मन में जिस प्रकार का जैसा भाव था, उसने कोसलराज भगवान्‌ श्रीराम को उसी प्रकार से देखा।

**दो०- राजत राज समाज महँ, कोसलराज किशोर।**

**सुन्दर श्यामल गौर तनु, बिश्व बिलोचन चोर॥२४२॥ भा०– **कोसलराज दशरथ जी के दोनों किशोर पुत्र श्रीराम–लक्ष्मण रंगभूमि में आकर राजसमाज में विराज रहे हैं। उनके श्यामल और गौर शरीर बहुत सुन्दर हैं और वे विश्व के नेत्रों को चुरा रहे हैं। अथवा, सुन्दर श्याम–गौर शरीरवाले, विश्व के विमल नेत्रों को चुरानेवाले, कोसलराज दशरथ जी के दोनों किशोर पुत्र, सीता स्वयंवर में

स्थित राजसमाज में देदीप्यमान हो रहे हैं।

सहज मनोहर मूरति दोऊ। कोटि काम उपमा लघु सोऊ॥ शरद चंद्र निंदक मुख नीके। नीरज नयन भावते जी के॥

भाष्य

दोनों मूर्तियाँ (श्रीराम-लक्ष्मण) स्वभाव से ही मनोहर अर्थात्‌ सुन्दर हैं, यदि उनकी करोड़ों कामदेव से भी उपमा दी जाये तो भी छोटी हो जायेगी। उन दोनों भाइयों के श्रीमुख शरद्‌काल के चन्द्रमा की भी निन्दा करनेवाले और बड़े सुन्दर हैं। उनके कमल जैसे नेत्र जीवात्मा को ही भा जाते हैं।

**चितवनि चारु मार मन हरनी। भावति हृदय जाति नहिं बरनी॥**
भाष्य

उनकी सुन्दर चितवन कामदेव के भी मन को हर लेती है। वह हृदय को भाती है, वर्णित नहीं की जा सकती।

**कल कपोल श्रुति कुंडल लोला। चिबुक अधर सुन्दर मृदु बोला॥**
भाष्य

उनके कपोल बड़े सुन्दर हैं, कानों के कुण्डल चंचल हो रहे हैं, उनकी ठो़ढी और अधर (होंठ) बड़े सुन्दर हैं और उनकी बोली कोमल और मधुर है।

**कुमुदबंधु कर निंदक हासा। भृकुटी बिकट मनोहर नासा॥ भाल बिशाल तिलक झलकाहीं। कच बिलोकि अलि अवलि लजाहीं॥**
भाष्य

उनका हास कुमुदपुष्प के बंधु अर्थात्‌ चन्द्रमा के किरणों की भी निन्दा करते हैं अर्थात्‌ चन्द्रकिरण से भी सुन्दर हैं। उनकी भौंहे टे़ढी और नासिका मन को हरने वाली है। दोनों भ्राता के विशाल मस्तक पर विशाल उर्ध्वपुण्ड्र की तीन–तीन रेखायें दूर से ही झलकती हैं अर्थात्‌ प्रकाश के साथ दिख जाती हैं। उनके काले घुँघराले बालों को देखकर, भौंरों की पंक्तियाँ भी लज्जित हो जाती है।

**पीत चौतनीं सिरन सुहाई। कुसुम कली बिच बीच बनाई॥ रेखा रुचिर कंबु कल ग्रीवाँ। जनु त्रिभुवन सुषमा की सींवाँ॥**
भाष्य

उनके सिरों पर पीली टोपी शोभा दे रही है और बीच–बीच में पुष्पों की कलियाँ सजाई गयी हैं। रेखाओं के कारण सुन्दर कण्ठ शंख के समान सुडौल और चिक्कन हैं, मानो वह तीनों लोक की परमशोभा की सीमा है।

[[२०८]]

दो०- कुंजर मनि कंठा कलित, उरनि तुलसिका माल।

बृषभ कंध केहरि ठवनि, बल निधि बाहु बिशाल॥२४३॥

भाष्य

उनके कण्ठ में गजमुक्ता का सुन्दर कण्ठहार है। उनके वक्षांें पर नवीन तुलसी की माला विराज रही है। उनके स्कन्ध श्रेष्ठ बैल के कन्धे के समान हैं। उनकी ठवनि (चलने की एक प्रक्रिया) सिंह के समान है तथा उनके बाहु बल के सागर और विशाल हैं।

**कटि तूनीर पीत पट बाँधे। कर शर धनुष बाम बर काँधे॥ पीत जग्य उपवीत सुहाए। नख शिख मंजु महाछबि छाए॥**
भाष्य

उन्होंने अपने कटि प्रदेश में तरकस और पीताम्बर बाँध रखे हैं। उनके हाथ में बाण और बायें स्कन्ध पर श्रेष्ठ धनुष है। उनके बाम स्कन्ध पर ही सुहावने पीले यज्ञोपवीत हैं। वे नख से शिखापर्यन्त मंजु अर्थात्‌ माधुर्य मिश्रित सौन्दर्यवान हैं और उन पर महती छवि छा रही है अर्थात्‌ अद्‌भुत सुन्दरता सुशोभित है।

**देखि लोग सब भए सुखारे। एकटक लोचन चलत न तारे॥ हरषे जनक देखि दोउ भाई। मुनि पद कमल गहे तब जाई॥**
भाष्य

श्रीराम–लक्ष्मण को देखकर सभी लोग सुखी हो गये। उनके नेत्र एकटक स्थिर हो गये। उनकी पुतलियों ने भी चंचलता छोड़ दी अर्थात्‌ चलना छोड़ दिया। राजा जनक जी दोनों भ्राताओं को देखकर प्रसन्न हुए। तब जाकर उन्होंने मुनि विश्वामित्र जी के चरणकमल को पक़ड लिया।

**करि बिनती निज कथा सुनाई। रंग अवनि सब मुनिहिं देखाई॥**

**जहँ जहँ जाहिं कुअँर वर दोऊ। तहँ तहँ चकित चितव सब कोऊ॥ भा०– **जनक जी ने प्रार्थना करके अपनी सब कथा सुनायी और सम्पूर्ण रंगभूमि मुनि विश्वामित्र जी को दिखायी। श्रेष्ठ दोनों राजकुमार जहाँ–जहाँ जाते हैं वहाँ–वहाँ सभी लोग चकित होकर उन्हें देखने लगते हैं।

निज निज रुख रामहिं सब देखा। कोउ न जान कछु मरम बिशेषा॥ भलि रचना मुनि नृप सन कहेऊ। राजा मुदित महासुख लहेऊ॥

भाष्य

अपने–अपने रुझान के अनुसार सब लोगों ने श्रीराम को देखा किसी ने भी कुछ विशेष मर्म नहीं जाना। रंगभूमि की रचना बहुत अच्छी है, इस प्रकार मुनि विश्वामित्र जी ने राजा जनक जी से कहा। राजा जनक जी ने प्रसन्न होकर महान्‌ सुख प्राप्त किया।

**दो०- सब मंचन ते मंच एक, सुन्दर बिशद बिशाल।**

मुनि समेत दोउ बंधु तहँ, बैठारे महिपाल॥२४४॥

भाष्य

सभी मंचों से एक मंच बड़ा सुन्दर, स्वच्छ और विशाल था। उसी मंच पर महाराज जनक जी ने मुनि विश्वामित्र जी के सहित श्रीराम–लक्ष्मण को बिठाया (विराजमान कराया)।

[[२०९]]

* नवाहपरायण, दूसरा विश्राम *

प्रभुहिं देखि सब नृप हिय हारे। जनु राकेश उदय भए तारे॥ असि प्रतीति सब के मन माहीं। राम चाप तोरब सक नाहीं॥

भाष्य

प्रभु श्रीराम को देखकर, सीता स्वयंवर में आये हुए सभी राजा हृदय से हार गये, मानो चन्द्रमा के उदय से तारे मलिन हो गये हों। सब के मन मंें ऐसा विश्वास हो गया कि, श्रीराम ही शिव जी का धनुष तोड़ेंगे इसमें कोई संदेह नहीं है।

**बिनु भंजेहुँ भव धनुष बिशाला। मेलिहि सीय राम उर माला॥ अस बिचारि गवनहु घर भाई। जस प्रताप बल तेज गवाँई॥**
भाष्य

राजा परस्पर कहने लगे, भाई! विशाल शिवधनुष को तोड़े बिना भी सीताजी, श्रीराम के गले में जयमाला डाल देंगी, ऐसा विचार करके जय, प्रताप, बल और तेज को समाप्त करके अपने–अपने घर चले जाओ।

**बिहँसे अपर भूप सुनि बानी। जे अबिबेक अंध अभिमानी॥ तोरेहुँ धनुष ब्याह अवगाहा। बिनु तोरे को कुअँरि बियाहा॥**
भाष्य

यह वाणी सुनकर अन्य राजा हँसे, जो अविवेक के कारण अन्धे और अभिमानी हो चुके थे। वे बोले, धनुष के तोड़ने पर भी विवाह अवगाह है अर्थात्‌ विवाहरूप महासागर थहाने में कठिन है, तो बिना धनुष तोड़े राजकुमारी का विवाह कौन कर सकेगा?

**विशेष– **यहाँ अवगाह का शुद्धरूप अविगाध है और विवाह शब्द का उपमान है। सागर उसका प्रयोग न होने के कारण लुप्तोपमाना उपमा अलंकार है।

एक बार कालउ किन होऊ। सिय हित समर जितब हम सोऊ॥ यह सुनि अवर महिप मुसुकाने। धरमशील हरिभगत सयाने॥

भाष्य

एकबार काल भी क्यों न हो सीता जी के लिए, हम उसे भी युद्ध में जीत लेंगे। यह सुनकर, अन्य धार्मिक, श्रीरामभक्त, चतुर, राजा मुस्कुराये जो ‘अ’ अर्थात्‌ श्रीराम को ही वर अर्थात्‌ सीता जी का वर और श्रेष्ठ समझते थे।

**सो०- सीय बियाहब राम, गरब दूरि करि नृपन को।**

जीति को सक संग्राम, दशरथ के रन बाँकुरे॥२४५॥

भाष्य

राजाओं का गर्व दूर करके भगवान्‌ श्रीराम ही सीता जी को ब्याहेंगे दशरथ जी के रण बाँकुरे अर्थात्‌ युद्ध में कुशल श्रीराम–लक्ष्मण को संग्राम में कौन जीत सकता है?

**ब्यर्थ मरहु जनि गाल बजाई। मन मोदकनि कि भूख बुताई॥ सिख हमारि सुनि परम पुनीता। जगदंबा जानहु जिय सीता॥ जगत पिता रघुपतिहिं बिचारी। भरि लोचन छबि लेहु निहारी॥**
भाष्य

राजाओं गाल बजाकर निरर्थक मत मरो। क्या मन के लड्‌डुओं से भूख मर सकती है? अर्थात्‌ अर्थहीन मनोरथों से लक्ष्य की पूर्ति नहीं होती। हमारी परमपवित्र शिक्षा सुनकर, हृदय में सीता जी को जगत्‌ की माता

समझो और श्रीराम को जगत्‌ का पिता समझकर इन दोनों की छवि को भर आँख से निहार लो।

सुन्दर सुखद सकल गुन रासी। ए दोउ बंधु शंभु उर बासी॥ सुधा समुद्र समीप बिहाई। मृगजल निरखि मरहु कत धाई॥

[[२१०]]

भाष्य

ये दोनों भाई श्रीराम–लक्ष्मण सुन्दर, सुख देनेवाले, सभी सद्‌गुणों की राशि तथा भगवान्‌ शङ्कर के हृदय में निवास करनेवाले हैं। अपने समीपवर्ती अमृत का सागर छोड़कर झूठा मृगजल देखकर उसके लिए क्यों दौड़ मर रहे हो?

**करहु जाइ जा कहँ जोइ भावा। हम तौ आजु जनम फल पावा॥ अस कहि भले भूप अनुरागे। रूप अनूप बिलोकन लागे॥**
भाष्य

जिसको जो अच्छा लगे वही जाकर करो, हमने तो आज जन्म का फल पा लिया। ऐसा कहकर, भले राजा प्रभु के प्रेम से भर गये और दोनों भाइयों के उपमारहित रूप को देखने लगे।

**देखहिं सुर नभ च़ढे बिमाना। बरषहिं सुमन करहिं कल गाना॥**
भाष्य

देवता विमानों पर च़ढकर आकाश से सीता स्वयंवर का दृश्य देख रहे हैं। वे पुष्प वृष्टि कर रहे हैं तथा मधुर गीत भी गा रहे हैं।

**दो०- जानि सुअवसर सीय तब, पठई जनक बोलाइ।**

चतुर सखी सुंदरि सकल, सादर चलीं लिवाइ॥२४६॥

भाष्य

तब सुन्दर अवसर जानकर, जनक जी ने सीता जी को बुला भेजा। सुन्दर सम्पूर्ण सीता जी की सखियाँ, उन्हें आदरपूर्वक रंगभूमि की ओर लिवा ले चलीं।

**सिय शोभा नहिं जाइ बखानी। जगदंबिका रूप गुन खानी॥ उपमा सकल मोहि लघु लागीं। प्राकृत नारि अंग अनुरागीं॥**
भाष्य

जगत की माता रूप और गुणों की खानि भगवती सीता जी की शोभा बखानी नहीं जाती। मुझे सभी उपमायें छोटी लग रही हैं, क्योंकि ये साधारण विलासिनी नारियों के अंगों में अनुरक्त हो चुकी हैं अर्थात्‌ उनका साधारण ग्राम्य–नारियों के लिए उपयोग हो चुका है।

**सिय बरनिय तेइ उपमा देई। कुकबि कहाइ अजस को लेई॥ जौ पटतरिय तीय सम सीया। जग असि जुबति कहाँ कमनीया॥**
भाष्य

उन्हीं उपमाओं को देकर सीता जी का वर्णन करके कुत्सितकवि कहलाकर कौन अपयश ले? यदि सीता जी को सामान्य स्त्री के समान उपमित किया जाये, तो बताओ संसार में ऐसी सुन्दर युवती कहाँ है?

**गिरा मुखर तन अरध भवानी। रति अति दुखित अतनु पति जानी॥**

**बिष बारुनी बंधु प्रिय जेही। कहिय रमासम किमि बैदेही॥ भा०– **सरस्वती जी मुखर अर्थात्‌ बहुत बोलती हैं, पार्वती जी का सर्वांग सौन्दर्य नहीं है, क्योंकि उनका आधा ही शरीर स्त्री का है, अपने पति को शरीररहित जानकर रति बहुत दुखित रहती हैं। भला बताइये, विष और मदिरा जिनके प्रिय भाई और बहन हों, ऐसी लक्ष्मी के समान विदेह–राजपुत्री सीता जी कैसे हो सकती हैं?

जौ छबि सुधा पयोनिधि होई। परम रूपमय कच्छप सोई॥ शोभा रजु मंदर शृंगारु। मथै पानि पंकज निज मारू॥

भाष्य

यदि छविरूप अमृत का क्षीरसागर हो और उसमें परमपूज्य रूप से ही निर्मित अपूर्व कच्छप भगवान्‌ हों, उसको (अमृत के क्षीरसागर को) शोभा की रस्सी से बँधे हुए शृंगाररूप मंदराचल द्वारा कामदेव अपने कर कमलों से मथें।

[[२११]]

दो०- एहि बिधि उपजे लच्छि जब, सुन्दरता सुख मूल।

तदपि संकोच समेत कबि, कहहिं सीय समतूल॥२४७॥

भाष्य

यदि इस विधा से सुन्दरता और सुख के मूलकारण लक्ष्मी प्रकट हों तो भी उसे कवि संकोच के सहित सीता जी के समान कह सकता है। (यहाँ उदात्त अलंकार की बड़ी ही मनोहारिणी छटा है।)

**चलीं संग लै सखी सयानी। गावत गीत मनोहर बानी॥**

सोह नवल तनु सुंदरि सारी। जगत जननि अतुलित छबि भारी॥

भाष्य

मनोहर वाणी में गीत–गाती हुई चतुर सखियाँ सीता जी को साथ लेकर चलीं। जगत्‌ की माता सीता जी के नवीन श्रीविग्रह पर सुन्दर साड़ी सुशोभित थी और उनकी महती छवि अतुलनीय थी अर्थात्‌ किसी से उनकी तुलना नहीं की जा सकती।

**भूषन सकल सुदेश सुहाए। अंग अंग रचि सखिन बनाए॥ रंगभूमि जब सिय पगु धारी। देखि रूप मोहे नर नारी॥**
भाष्य

भगवती जी के सुन्दर अवयवों में सभी आभूषण सुहावने लग रहे थे जिन्हें सखियों ने अंग–अंग में रच– रच कर सजाया था। जब सीता जी ने रंगभूमि में अपने चरण रखे, तब उनके रूप को देखकर सभी नर–नारी मोहित हो गये।

**विशेष– **चूँकि सीता जी परब्रह्मस्वरूप हैं, इसलिए वे नर और नारी दोनों की परिस्थितयों से ऊपर हैं। अत: *मोह** न नारि, नारि के रूपा। *मानस, ७.११६.२ का सिद्धान्त यहाँ प्रभावी नहीं होगा और दूसरी बात यह है कि, यहाँ मोह शब्द का अर्थ प्रेमाकुल होना है और उत्तरकाण्ड के प्रकरण में मोह का अर्थ है, वासनामूलक आकर्षण, इसलिए सीता जी के रूप पर मिथिला के नरों के मोहित होने पर भी आपत्ति नहीं है।

हरषि सुरन दुंदुभी बजाईं। बरषि प्रसून अपसरा गाईं॥ पानि सरोज सोह जयमाला। अवचट चितये सकल भुआला॥

भाष्य

देवताओं ने प्रसन्न होकर दुंदुभी अर्थात्‌ नगारे बजाये। पुष्पों की वर्षा करके अप्सराओं ने गीत गाये। सीता जी के करकमलों में जयमाला सुशोभित थी। सभी राजाओं ने सीता जी को सहसा आश्चर्य भरी दृष्टि से देखा।

**सीय चकित चित रामहिं चाहा। भए मोहबश सब नरनाहा॥ मुनि समीप देखे दोउ भाई। लगे ललकि लोचन निधि पाई॥**
भाष्य

सीता जी ने भी चकित चित्त से श्रीराम जी को देखा। सभी राजा मोहवश हो गये। सीता जी ने मुनि विश्वामित्र जी के समीप बैठे हुए श्रीराम–लक्ष्मण को देखा। निधि पाकर सीता जी के नेत्र आकुल होकर श्रीराम जी में लग गये।

**दो०- गुरुजन लाज समाज बड़, देखि सीय सकुचानि।**

**लगी बिलोकन सखिन तन, रघुबीरहिं उर आनि॥२४८॥ भा०– **गुरुजनों की लज्जा और बहुत बड़ा समाज देखकर सीता जी संकुचित हो गईं। रघुकुल के वीर श्रीराम को अपने हृदय में लाकर सीता जी सखियों के शरीर की ओर देखने लगीं।

राम रूप अरु सिय छबि देखी। नर नारिन परिहरीं निमेषी॥ सोचहिं सकल कहत सकुचाहीं। बिधि सन बिनय करहिं मन माहीं॥

[[२१२]]

भाष्य

श्रीराम का रूप एवं सीता जी की छवि देखकर पुरुषों और महिलाओं ने पलक गिराना छोड़ दिया। सभी लोग शोक कर रहे हैं, जनक जी को कहने में सकुचाते हैं, अपने मन में विधाता से प्रार्थना करते हैं।

**हरु बिधि बेगि जनक ज़डताई। मति हमारि असि देहु सुहाई॥ बिनु बिचार पन तजि नरनाहू। सीय राम कर करै बिबाहू॥**
भाष्य

हे विधाता! राजा जनक की ज़डता को हर लीजिये। उन्हें हमारी जैसी सुहावनी बुद्धि दीजिये। महाराज कोई विचार किये बिना प्रतिज्ञा को छोड़कर सीता जी का विवाह श्रीराम के साथ कर दें।

**जग भल कहिहि भाव सब काहू। हठ कीन्हें अंतहुँ उर दाहू॥ एहिं लालसा मगन सब लोगू। बर साँवरो जानकी जोगू॥**
भाष्य

इस विवाह को संसार भला ही कहेगा। अथवा, इस कार्य से प्रसन्न होकर संसार जनक जी को भला कहेगा, क्योंकि श्रीराम–सीता की जोड़ी सब को भा रही है। हठ करके तो अन्ततोगत्वा हृदय में जलन ही होगी। सभी लोग इसी लालसा में मग्न हैं कि, साँवला राजकुमार जानकी जी के योग्य वर है।

**तब बंदीजन जनक बोलाए। बिरुदावली कहत चलि आए॥ कह नृप जाइ कहहु पन मोरा। चले भाँट हिय हरष न थोड़ा॥**
भाष्य

तब जनक जी ने बंदीजनों को बुलाया, वे विरुदावली का पाठ करते हुए जनक जी के पास चले आये। राजा ने कहा, स्वयंवर में जाकर मेरी प्रतिज्ञा की घोषणा करो। भाट मन में प्रसन्न होकर चले अथवा उनके मन में थोड़ा भी हर्ष नहीं था, क्योंकि मिथिलावासियों के साथ बंदीजन भी इसी पक्ष में थे कि जनक जी को प्रतिज्ञा छोड़कर श्रीसीतारामविवाह सम्पन्न कर देना चाहिये। धनुर्भंग की प्रतिज्ञा से तो श्रीराम–सीता की सौन्दर्य का अनादर ही होगा।

**दो०- बोले बंदी बचन बर, सुनहु सकल महिपाल।**

पन बिदेह कर कहहिं हम, भुजा उठाइ बिशाल॥२४९॥

भाष्य

बन्दीजन श्रेष्ठ वचन बोले, हे सभी पृथ्वी के पालक राजाओं! हम अपनी दोनों विशाल भुजाओं को उठा कर जनक जी का विशाल पण कह रहे हैं।

**नृप भुजबल बिधु शिवधनु राहू। गरुअ कठोर बिदित सब काहू॥ रावन बान महाभट भारे। देखि शरासन गवँहिं सिधारे॥**
भाष्य

यह सब लोगों को ज्ञात है कि, अत्यन्त गरुअ (भारी) और कठोर शिव जी का धनुष राजाओं के भुजबलरूप चन्द्रमा के लिए राहु के समान है अर्थात्‌ जैसे राहु, चन्द्रमा को ग्रस लेता है, उसी प्रकार स्पर्श–मात्र से शिवधनुष सब राजाओं के बल को खा जाता है। इस धनुष को देखकर रावण और बाणासुर जैसे बड़े महान्‌ योद्धा चुपके से चले गये।

**सोइ पुरारि कोदंड कठोरा। राज समाज आजु जोइ तोरा॥ त्रिभुवन जय समेत बैदेही। बिनहिं बिचार बरइ हठि तेही॥**
भाष्य

उसी शिव जी के कठिन धनुष को आज इस राजसमाज में जिसने भी तोड़ दिया, उसी को सीता जी विचार किये बिना तीनों लोक के विजय के सहित वरण कर लेंगी।

[[२१३]]

सुनि पन सकल भूप अभिलाषे। भटमानी अतिशय मन माखे॥ परिकर बाँधि उठे अकुलाई। चले इष्टदेवन सिर नाई॥

भाष्य

बन्दीजन के मुख से प्रतिज्ञा सुनकर, स्वयंवर में आये हुए सभी राजा विश्वविजय, यश और जानकी जी को पाने के लिए इच्छुक हो उठे। स्वयं को भट माननेवाले राजागण तो मन में बहुत कुपित हो गये। कटि प्रदेश में फेटा बाँधकर आतुर होकर उठे और अपने–अपने इष्टदेवों को प्रणाम करके धनुष तोड़ने के लिए चल पड़े।

**तमकि ताकि तकि शिवधनु धरहिं। उठई न कोटि भाँति बल करहीं॥ जिन के कछु बिचार मन माहीं। चाप समीप महीप न जाहीं॥**
भाष्य

राजा लोग कुपित होकर बार–बार क़डी दृष्टि से देखकर, शिव जी के धनुष को पक़डते हैं। वह नहीं उठता, करोड़ों प्रकार से बल करते हैं। जिनके मन में किसी प्रकार का श्रीसीताराम जी के प्रति परमेश्वरभाव का विचार आता है, वे राजा धनुष के पास नहीं जाते। उन्हें ज्ञान है कि, शिव जी का धनुष उनसे नहीं टूटेगा, व्यर्थ की हँसी होगी और उपासना भी नष्ट हो जायेगी।

**दो०- तमकि धरहिं धनु मू़ढ नृप, उठइ न चलहिं लजाइ।**

मनहुँ पाइ भट बाहुबल, अधिक अधिक गरुआइ॥२५०॥

भाष्य

मोह से युक्त राजा, क्रोध करके शिवधनुष पक़डते हैं, वह नहीं उठता, राजा लज्जित होकर लौट जाते हैं। मानो वीरोें के भुजाओं का बल पाकर धनुष क्षण–प्रतिक्षण अधिक से अधिक गरुअ (भारी) होता जाता है।

**भूप सहस दस एकहिं बारा। लगे उठावन टरइ न टारा॥ डगइ न शंभु शरासन कैसे। कामी बचन सती मन जैसे॥**
भाष्य

दस हजार राजा एक ही बार धनुष उठाने लगे अर्थात्‌ स्वयंवर के अंतिम दिन राजसभा में आये हुए सभी दस हजार राजाओं ने एक साथ मिलकर धनुष उठाने का प्रयास किया, परन्तु वह टालने से भी नहीं टलता अर्थात्‌ अपना स्थान नहीं छोड़ता। शिव जी का धनुष किस प्रकार से नहीं डिगता, जैसे कामियों के वचनों को सुनने से पतिव्रता सती नारी का मन नहीं चलायमान होता।

**सब नृप भए जोग उपहासी। जैसे बिनु बिराग सन्यासी॥ कीरति बिजय बीरता भारी। चले चाप कर बरबस हारी॥ श्रीहत भए हारि हिय राजा। बैठे निज निज जाइ समाजा॥**
भाष्य

सभी राजा उपहास के योग्य हो गये, जैसे वैराग्य से रहित सन्यासी परिहास का पात्र बन जाता है। सभी राजागण कीर्ति, विजय और बहुत बड़ी वीरता को धनुष के हाथ हठात्‌ हारकर लौट चले। हृदय में हार कर सभी राजा श्रीहत्‌ हो गये अर्थात्‌ शोभा से रहित हो गये। अथवा श्रीहत्‌ अर्थात्‌ श्रीजी के द्वारा हत्‌ हो गये (मार डाले गये)। सभी अपने–अपने समाज में जाकर बैठ गये।

**नृपन बिलोकि जनक अकुलाने। बोले बचन रोष जनु साने॥ दीप दीप के भूपति नाना। आए सुनि हम जो पन ठाना॥ देव दनुज धरि मनुज शरीरा। बिपुल बीर आए रनधीरा॥**
भाष्य

राजा जनक जी अकुला गये और मानो क्रोध में सने हुए वचन बोले, “मैंने जो प्रतिज्ञा की उसे सुनकर द्वीप–द्वीप से अर्थात्‌ सातों द्वीपों से अनेक राजा आये। अनेक वीर और युद्ध में कुशल देवता तथा दैत्य भी मनुष्य शरीर धारण करके इस सीता स्वयंवर में आये।”

[[२१४]]

दो०- कुअँरि मनोहर बिजय बकिड़, ीरति अति कमनीय।

पावनहार बिरंचि जनु, रचेउ न धनु दमनीय॥२५१॥

भाष्य

मानो मन को हरनेवाली सुन्दर पुत्री और बहुत बड़ी विजय तथा अत्यन्त कमनीय अर्थात्‌ सब की कामना का विषय बनी हुई कीर्ति को पाने वाले और शिवधनुष तोड़ने वाले को विधाता ने नहीं बनाया।

**कहहु काहु यह लाभ न भावा। काहुँ न शङ्कर चाप च़ढावा॥ रहेउ च़ढाउब तोरब भाई। तिल भरि भूमि न सकेउ छुड़ाई॥**
भाष्य

कहो, यह लाभ किसको नहीं भाता अर्थात्‌ सभी सीताजी, विजयलक्ष्मी और अपूर्वकीर्ति के लोभी हो सकते हैं, परन्तु किसी ने भी शिव जी के धनुष पर डोरी नहीं च़ढाई। अरे भाइयों! धनुष पर प्रत्यंचा च़ढाना और तोड़ना तो बहुत दूर रहा, कोई इसे तिल भर भूमि से भी नहीं छुड़ा पाया अर्थात, कोई इस धनुष से पृथ्वी को तिल भर भी नहीं अलग कर पाया।

**अब जनि कोउ माखै भट मानी। बीर बिहीन मही मैं जानी॥ तजहु आस निज निज गृह जाहू। लिखा न बिधि बैदेहि बिबाहू॥**
भाष्य

अब कोई भी अपने को वीर–भट माननेवाला माख अर्थात्‌ क्रोध न करे। मैंने इस पृथ्वी को वीरों से विहीन जान लिया है। हे राजाओं! आशा छोड़ दो, मैं धनुष तोड़े बिना सीता जी का किसी से विवाह नहीं करूँगा। सभी अपने–अपने घर चले जाओ। विधाता ने मुझ विदेह की पुत्री जानकी जी का विवाह नहीं लिखा है।

**सुकृत जाइ जौ पन परिहरऊँ। कुअँरि कुआँरि रहउ का करऊँ॥ जौ जनतेउँ बिनु भट भूबि भाई। तौ पन करि होतेउँ न हँसाई॥**
भाष्य

यदि प्रतिज्ञा छोड़ दूँ, तो पुण्य चला जायेगा। बेटी कुमारी रह जाये, मैं क्या कर सकता हूँ? हे भाई! यदि मैं जानता की पृथ्वी वीरों से विहीन हो गयी है, तो प्रतिज्ञा करके हँसी का पात्र अथवा हँसी का हेतु नहीं बनता।

**जनक बचन सुनि सब नर नारी। देखि जानकिहिं भए दुखारी॥ माखे लखन कुटिल भइँ भौहें। रदपट फरकत नयन रिसौहें॥**
भाष्य

जनक जी का वचन सुनकर और जनकनन्दिनी सीता जी को देखकर, सभी नर–नारी दु:खी हो गये। लक्ष्मण जी कुपित हो गये, उनकी भौंहें टे़ढी हो गईं, उनके रदपट अर्थात्‌ दाँतों के वस्त्र ओठ फ़डकने लगे, नेत्र क्रोध से युक्त हो गये।

**दो०- कहि न सकत रघुबीर डर, लगे बचन जनु बान।**

नाइ राम पद कमल सिर, बोले गिरा प्रमान॥२५२॥

भाष्य

वे रघुकुल के वीर श्रीराम के डर से कुछ कह नहीं रहे थे। जनक जी के वचन लक्ष्मण जी को बाण के समान लग गये। श्रीराम के चरणकमल में मस्तक नवाकर लक्ष्मण जी प्रमाणभूत वाणी बोले–

**रघुबंशिन महँ जहँ कोउ होई। तेहिं समाज अस कहइ न कोई॥ कही जनक जसि अनुचित बानी। बिद्दमान रघुकुलमनि जानी॥**
भाष्य

जिस समाज में कोई भी रघुवंशी होता है, उस समाज में पृथ्वी वीरों से विहीन हो गयी है ऐसा कोई नहीं कहता, जैसा कि, रघुकुल में मणि के समान श्रेष्ठ परमवीर श्रीराम को इस सभा में विद्दमान जानकर भी राजा जनकजी ने अनुचित वाणी कही है।

[[२१५]]

**विशेष– *यहाँ विद्दमान शब्द से लक्ष्मण जी जनक जी की नैयायिकता पर संदेह कर रहे हैं, जैसे एक भी घट के विद्दमान रहने पर कोई भी घटाभाववद्‌ भूतलम्‌ *नहीं कह सकता, उसी प्रकार श्रीराम की विद्दमानता में जनक जी का वीर विहीन मही मैं जानी कथन अत्यन्त आपत्तिजनक, अमर्यादित और अशास्त्रीय है।

सुनहु भानुकुल पंकज भानू। कहउँ स्वभाव न कछु अभिमानू॥ जौ तुम्हार अनुशासन पावौं। कंदुक इव ब्रह्माण्ड उठावौं॥

भाष्य

हे सूर्यकुलरूप कमल के सूर्य राघवेन्द्र! सुनिये, मैं स्वभाव कह रहा हूँ, कोई गर्व नहीं। यदि मैं आपका आदेश पा जाऊँ, तो इस ब्रह्माण्ड को गेंद की भाँति उठा लूँ।

**काचे घट जिमि डारौं फोरी। सकउँ मेरु मूलक जिमि तोरी॥ तव प्रताप महिमा भगवाना। का बापुरो पिनाक पुराना॥**
भाष्य

मैं उस ब्रह्माण्ड को कच्चे घड़े के समान फोड़ डालूँ, मैं सुमेरु पर्वत को मूली के समान तोड़ सकता हूँ। हे भगवन्‌! आप के प्रताप की महिमा से मेरे लिए बिचारा पुराना पिनाक धनुष क्या है ?

**नाथ जानि अस आयसु होऊ। कौतुक करौं बिलोकिय सोऊ॥ कमल नाल जिमि चाप च़ढावौं। जोजन शत प्रमान लै धावौं॥**
भाष्य

हे नाथ! ऐसा जानकर, आदेश हो तो मैं कौतुक करूँ और उसे भी आप देखिये की कमल के नाल के समान धनुष पर प्रत्यंचा च़ढाऊँ और सौ योजन तक उसे लेकर दौड़ूँ।

**दो०- तोरौं छत्रक दंड जिमि, तव प्रताप बल नाथ।**

जौं न करौं प्रभु पद शपथ, पुनि न धरौं धनु हाथ॥२५३॥

भाष्य

हे नाथ! आप के प्रताप के बल से मैं उस धनुष को बरसाती छत्ते के दंड के समान तोड़ सकता हूँ। यदि ऐसा नहीं कर सकूँ, तो आप के चरण की शपथ करके कहता हूँ कि, फिर अपने हाथ में धनुष नहीं धारण करूँगा।

**लखन सकोप बचन जब बोले। डगमगानि महि दिग्गज डोले॥ सकल लोक सब भूप डेराने। सिय हिय हरष जनक सकुचाने॥**
भाष्य

जब लक्ष्मण जी क्रोध करके वचन बोले तब पृथ्वी डगमगा गयी अर्थात्‌ भूकम्प आ गया और दिग्गज अर्थात्‌ दिशाओं के हाथी भी डोल गये। सम्पूर्ण लोक में भय व्याप्त हो गया, सभी राजा डर गये, सीता जी के हृदय में हर्ष हुआ और जनक जी संकुचित हो गये।

**गुरु रघुपति सब मुनि मन माहीं। मुदित भए पुनि पुनि पुलकाहीं॥**
भाष्य

गुरु विश्वामित्रजी, रघुकुल के स्वामी श्रीराम तथा अन्य सभी मुनिजन, लक्ष्मण के पराक्रमपूर्ण वचन सुनकर बहुत प्रसन्न हुए। उनके शरीर में बार–बार रोमांच होता था।

**सैनहि रघुपति लखन निवारे। प्रेम समेत निकट बैठारे॥**
भाष्य

श्रीरघुनाथ ने आँख के संकेत से लक्ष्मण जी को क्रोध के आवेश से रोका और प्रेम के साथ अपने निकट बिठा लिया।

[[२१६]]

बिश्वामित्र समय शुभ जानी। बोले अति सनेहमय बानी॥ उठहु राम भंजहु भवचापा। मेटहु तात जनक परितापा॥

भाष्य

सुन्दर समय जानकर विश्वामित्र जी अत्यन्त स्नेहपूर्ण वाणी बोले, हे राम! अर्थात्‌ राय्र् के मंगल (‘रा’ अर्थात्‌ राय्र् ‘म’ अर्थात्‌ मंगल) और सबको रमाने वाले राघव उठिये, शिव जी का धनुष तोयिड़े। हे तात्‌! अर्थात्‌ परमप्रेमास्पद, धनुर्भंग से जनक जी का कय् मिटा दीजिये।

**सुनि गुरु बचन चरन सिर नावा। हरष विषाद न कछु उर आवा॥ ठा़ढ भए उठि सहज सुहाए। ठवनि जुबा मृगराज लजाए॥**
भाष्य

गुरुदेव विश्वामित्र जी का आदेशात्मक वचन सुनकर, प्रभु श्रीराम ने उनके चरणों में प्रणाम किया। श्रीराम के हृदय में सीता जी की प्राप्ति का हर्ष तथा अपने प्रिय शिव जी के धनुष तोड़ने का विषाद इनमें से कुछ भी नहीं हुआ। स्वभाव से सुन्दर प्रभु श्रीराम उठकर मंच पर ख़डे हो गये। वह अपनी ठवनि अर्थात्‌ चलने की प्रक्रिया से युवक सिंह को भी लज्जित कर रहे थे।

**दो०- उदित उदय गिरि मंच पर, रघुबर बालपतंग।**

बिकसे संत सरोज सब, हरषे लोचन भृंग॥२५४॥

भाष्य

जब मंच रूप उदयाचल पर श्रीराम रूप बालसूर्य उदित हुए तब सन्तरूप कमल विकसित हो गये (खिल गये) और सब के नेत्र रूप भ्रमर प्रसन्न हो गये।

**नृपन केरि आशा निशि नाशी। बचन लखत अवली न प्रकाशी॥ मानी महिप कुमुद सकुचाने। कपटी भूप उलूक लुकाने॥**
भाष्य

श्रीराम रूप बालसूर्य के उदित होते ही राजाओं की आशा रूप रात्रि नष्ट हो गयी और दुष्ट राजाओं की वचन नक्षत्रावली भी प्रकाशित नहीं हुई अर्थात्‌ जैसे सूर्य के उदित होने पर रात्रि नष्ट हो जाती है, उसी प्रकार राजाओं की सीता जी की प्राप्ति की आशा समाप्त हो गयी और जैसे सूर्योदय होने पर तारागण छिप जाते हैं, उसी प्रकार जब श्रीराम धनुष तोड़ने के लिए मंच पर ख़डे हुए तब दुष्ट राजा के वचन भी समाप्त हो गये। सभी चुपचाप यह दृश्य देखने लगे। अहंकारी राजारूप कुमुदपुष्प संकुचित होकर सिकुड़ गये और कपटी राजारूप उल्लू छिप गये।

**भए बिशोक कोक मुनि देवा। बरषहिं सुमन जनावहिं सेवा॥ गुरु पद बंदि सहित अनुरागा। राम मुनिन सन आयसु मांगा॥**
भाष्य

मुनि और देवता रूप चकवे शोक से रहित हो गये। वे पुष्पों की वर्षा करके प्रभु के प्रति अपनी सेवायें प्रकट करने लगे। अनुरागपूर्वक गुव्र्देव के चरणों की वन्दना करके श्रीराम ने मुनियों से धनुष तोड़ने की आज्ञा माँगी।

**सहजहिं चले सकल जग स्वामी। मत्त मंजु बर कुंजर गामी॥ चलत राम सब पुर नर नारी। पुलक पूरि तनु भए सुखारी॥**
भाष्य

सारे संसार के स्वामी श्रीराम मतवाले मधुर श्रेष्ठ हाथी की चाल से अपनी स्वभाविक गति से चल पड़े। शिवधनुष तोड़ने के लिए भगवान्‌ श्रीराम के चलते ही सभी नर–नारी शरीर में रोमांच से पूर्ण होकर सुखी हो गये।

[[२१७]]

बंदि पितर सुर सुकृत सँभारे। जौ कछु पुन्य प्रभाव हमारे॥ तौ शिवधनुष मृनाल कि नाईं। तोरहुँ राम गणेश गोसाईं॥

भाष्य

रंगभूमि में बैठे सभी नर–नारियों ने पितरों और देवताओं को वन्दन करके अपने पूर्व में किये हुए सत्कर्मों का स्मरण किया और प्रार्थना करने लगे, “हे स्वामी गणेश जी यदि हमारे पुण्यों का कुछ भी प्रभाव हो तो श्रीराम, शिवधनुष को कमल के दंड की भाँति तोड़ डालें।

**दो०- रामहि प्रेम समेत लखि, सखिन समीप बोलाइ।**

सीता मातु सनेह बश, बचन कहइ बिलखाइ॥२५५॥

भाष्य

श्रीराम को प्रेम के सहित निहार कर सखियोें को अपने समीप बुलाकर प्रभु पर वात्सल्यभाव से युक्त प्रेम के वश होकर, सीता जी की माता सुनयना जी विलख कर (दु:खी होकर) वचन कहने लगीं।

**सखि सब कौतुक देखनिहारे। जेउ कहावत हितू हमारे॥**

कोउ न बुझाइ कहइ नृप पाहीं। ए बालक अस हठ भल नाहीं॥

भाष्य

सखी! जो लोग भी मेरे हितैषी कहलाते हैं, वे सभी केवल खेल देखने वालेहैं। कोई भी महाराज के पास समझाकर नहीं कहता कि, यह (श्रीराम) बालक हैं। इनके लिए इस प्रकार का अर्थात्‌ शिवधनुष तोड़ने का हठ अच्छा नहीं है।

**रावन बान छुआ नहिं चापा। हारे सकल भूप करि दापा॥ सो धनु राजकुअँर कर देहीं। बाल मराल कि मंदर लेहीं॥**
भाष्य

जिस शिवधनुष को रावण और बाणासुर ने छुआ नहीं और स्वयंवर में आये हुए सभी राजा दर्प अर्थात्‌ अभिमान करके जिससे हार गये, महाराज वही धनुष श्रीअवध के ग्यारह वर्षीय राजकुमार के हाथ में दे रहे हैं। क्या कहीं बालहंस अर्थात्‌ हंस के शावक मंदराचल ग्रहण कर सकते हैं, अर्थात्‌ उसे उठा सकते हैं? मंदराचल को उठाने के लिए तो कच्छप भगवान्‌ की पीठ समर्थ है, अथवा गरुड़।

**भूप सयानप सकल सिरानी। सखि बिधि गति कछु जाइ न जानी॥ बोली चतुर सखी मृदु बानी। तेजवंत लघु गनिय न रानी॥**
भाष्य

हे सखी! महाराज की सम्पूर्ण चतुरता समाप्त हो चुकी है। विधाता की गति कुछ भी जानी नहीं जाती। अर्थात्‌ वे क्या समझकर ऐसी व्यवस्था कर रहे होंगे, यह हम जैसे साधारण लोग नहीं जान पाते। चतुर सखी कोमल वाणी में बोली, हे महारानी जी! तेजस्वियों को छोटा करके नहीं गिनना चाहिये अर्थात्‌ उनका आकार भले छोटा हो परन्तु प्रभाव बहुत बड़ा होता है।

**कहँ कुंभज कहँ सिंधु आपारा। सोषेउ सुजस सकल संसारा॥ रबि मंडल देखत लघु लागा। उदय तासु त्रिभुवन तम भागा॥**
भाष्य

देखिये, कहाँ छोटे से (चौरासी अंगुल के) महर्षि कुम्भज और कहाँ अपार अनेक हाथ गहरा सागर, फिर भी कुम्भज अर्थात्‌ अगस्त्य जी ने उसे तीन आचमनों में सोख लिया। उनका सुयश सारे संसार में व्याप्त हो गया। सूर्यनारायण का मण्डल देखने में छोटा लगता है, परन्तु उन्हीं सूर्य का उदय होने से तीनों लोक का अन्धकार भाग जाता है।

[[२१८]]

दो०- मंत्र परम लघु जासु बश, बिधि हरि हर सुर सर्ब।

**महामत्त गजराज कहँ, बश कर अंकुश खर्ब॥२५६॥ भा०– **जिसके वश में ब्रह्मा, विष्णु, शिव आदि सभी देवता हैं, वह ‘राम’ यह महामंत्र भी तो बहुत छोटा है। अत्यन्त मतवाले विशाल हाथी को छोटा–सा अंकुश (बर्छी) वश में कर लेता है।

काम कुसुम धनु सायक लीन्हे। सकल भुवन अपने बश कीन्हे॥ देबि तजिय संशय अस जानी। भंजब धनुष राम सुनु रानी॥

भाष्य

कामदेव ने अत्यन्त सामान्य कोमल पुष्प के धनुष–बाण लेकर सम्पूर्ण लोकों को अपने वश में कर लिया है। हे देवी! ऐसा जानकर संशय छोड़ दें, क्योंकि जिन पाँच तेजस्वियों की मैंने चर्चा की है, वे सब श्रीराम जी की विभूतियाँ हैं। यदि धनुष सागर के समान अपार है तो उस के लिए श्रीराम अगस्त्य मुनि हैं, उसे सोख लेंगे। यदि धनुष त्रिलोकी का अन्धकार है, तो उसके लिए श्रीराम बालसूर्यमण्डल हैं। यदि धनुष सर्वदेवमय हैं, तो श्रीराम इस द्वैक्षर महामंत्र के अर्थ हैं। यदि धनुष मतवाला हाथी है, तो श्रीराम अंकुश अर्थात्‌ बर्छी हैं, उसे नियंत्रित कर लेंगे। यदि धनुष सम्पूर्ण संसार का समष्टिरूप है तो श्रीराम पुष्पधन्वा कामदेव हैं, इसलिए हे महारानी! सुनिये, श्रीराम जी धनुष तोड़ेंगे ही।

**सखी बचन सुनि भइ परतीती। मिटा बिषाद बाढि़ अति प्रीति॥ तब रामहिं बिलोकि बैदेही। सभय हृदय बिनवति जेहि तेही॥**
भाष्य

सखी के वचन सुनकर सुनयना जी के मन में प्रभु श्रीराम की सर्वश्रेष्ठ तेजस्विता के प्रति विश्वास हो गया। उनका दु:ख मिट गया और हृदय में श्रीराम जी के प्रति भक्तिमूलक प्रीति अत्यन्त ब़ढ गयी। इसके पश्चात्‌ शिव जी का धनुष तोड़ने के लिए मंच से नीचे आते हुए श्रीराम जी को देखकर, विदेहनन्दिनी सीता जी भयभीत हृदय से जिस किसी देवता से प्रार्थना करने लगीं।

**मनहीं मन मनाव अकुलानी। होहु प्रसन्न महेश भवानी॥ करहु सफल आपनि सेवकाई। करि हित हरहु चाप गरुआई॥**
भाष्य

सीता जी व्याकुल होकर मन ही मन शिव जी एवं पार्वती जी को मनाने लगीं और बोलीं, हे शिव जी और पार्वतीजी! आप प्रसन्न हो जायें, मेरे द्वारा की हुई अपनी सेवा को तथा श्रीराम के प्रति अपने सेवकभाव को सफल कर दें। हमारा हित करके धनुष का भारीपन हर लें, अर्थात्‌ उसे बहुत हल्का कर दें।

**गननायक बरदायक देवा। आजु लगे किन्हिउँ तुअ सेवा॥ बार बार बिनती सुनि मोरी। करहु चाप गुरुता अति थोरी॥**
भाष्य

हे देवताओं को भी वर देनेवाले भूतगणों और विघ्नगणों के भी नियन्ता श्री गणपति! आज के लिए ही मैंने तुम्हारी सेवा की है। मेरी बारम्बार विनती सुनकर धनुष की गुरुता अर्थात्‌ भारीपन को बहुत थोड़ा बना दो।

**दो०- देखि देखि रघुबीर तनु, सुर मनाव धरि धीर।**

भरे बिलोचन प्रेम जल, पुलकावली शरीर॥२५७॥

भाष्य

रघुकुल के वीर श्रीराम के श्रीविग्रह को देख–देखकर धैर्य धारण करके श्रीसीता जी देवताओं को मना रही है अर्थात्‌ विनय कर रही हैं। उनके निर्मल नेत्र प्रेम के अश्रु से भरे हैं एवं उनका शरीर रोमांच से युक्त है।

**नीके निरखि नयन भरि शोभा। पितु पन सुमिरि बहुरि मन छोभा॥ अहह तात दारुन हठ ठानी। समुझत नहिं कछु लाभ न हानी॥**

[[२१९]]

भाष्य

नेत्र भर श्रीराम जी की शोभा को भलीभाँति निहार कर पिताश्री की प्रतिज्ञा का स्मरण कर फिर सीता जी का मन क्षुब्ध हो गया। सीता जी पश्चाताप की मुद्रा में बोलीं, अहह…खेद है। पिताश्री ने भयंकर प्रतिज्ञा कर ली है, वे लाभ और हानि कुछ भी नहीं समझ पा रहे हैं।

**सचिव सभय सिख देइ न कोई। बुध समाज बड़ अनुचित होई॥ कहँ धनु कुलिशहु चाहि कठोरा। कहँ श्यामल मृदुगात किशोरा॥**
भाष्य

मन्त्रीगण भयभीत हैं पिताश्री को कोई भी शिक्षा नहीं दे रहा है। विद्वानों के समाज में बहुत बड़ा अनुचित हो रहा है। कहाँ वज्र से अधिक काठोर शिवधनुष और कहाँ कोमल अंगवाले श्यामल किशोर प्रभु श्रीराम, यह कितनी विसंगति है।

**बिधि केहि भाँति धरौं उर धीरा। सिरिस सुमन कत बेधिय हीरा॥ सकल सभा कै मति भइ भोरी। अब मोहि शंभुचाप गति तोरी॥**
भाष्य

हे विधता! मैं हृदय में किस प्रकार धैर्य धारण करूँ। शिरीष के फूल से हीरा कैसे बेधा जा सकता है? इस समय सम्पूर्ण सभा की बुद्धि भोरी अर्थात्‌ भ्रष्ट हो गयी है। हे शिवधनुष! मुझे तुम्हारा ही आश्रय है अर्थात्‌ तुम स्वयं हल्के हो जाओ तो काम बन जाये।

**निज ज़डता लोगन पर डारी। होहि हरुअ रघुपतिहिं निहारी॥ अति परिताप सीय मन माहीं। लव निमेष जुग शत सम जाहीं॥**
भाष्य

अपनी जटता को इन मिथिला के लोगों पर डालकर रघुवंश के पालक श्रीराम को सूक्ष्मता से देखकर उनकी भुजा की शक्ति के अनुसार हल्के हो जाओ अर्थात्‌ श्रीरघुनाथ जितना भार उठा सकें तुम उतने ही भार से युक्त हो जाओ। सीता जी के मन में अत्यन्त दु:ख है, उनके लव निमेष अर्थात्‌ क्षणों के भाग, सैक़डौं युगों के समान बीत रहे हैं।

**दो०- प्रभुहिं चितव पुनि चितव महि, राजत लोचन लोल।**

**खेलत मनसिज मीन जुग, जनु बिधु मंडल डोल॥२५८॥ भा०– **सीता जी पहले प्रभु श्रीराम को देखती हैं फिर पृथ्वी को। उनके चंचल नेत्र भी सुन्दर लग रहे हैं, मानो चन्द्रमण्डल रूप बाल्टी में कामदेव की दो मछली खेल रही हों।

**विशेष– **यहाँ सीता जी का मुखमण्डल चन्द्रमा है और वही बाल्टी है। अश्रुबिन्दु ही जल है और इधर–उधर दृष्टि डालने वाले सीता जी के दोनों नेत्र ही कामदेव की दो मछली हैं।

गिरा अलिनि मुख पंकज रोकी। प्रगट न लाज निशा अवलोकी॥ लोचन जल रह लोचन कोना। जैसे परम कृपन कर सोना॥

भाष्य

सीता जी ने वाणीरूप भ्रमरी को मुखरूप कमल में रोक लिया है। वे लज्जारूप रात्रि को देखकर उसे प्रकट नहीं कर रही थीं। अथवा, वाणीरूप भ्रमरी को सीता जी के मुखरूप कमल ने ही रोक रखा है। वह लज्जारूप रात्रि को देखकर उस वाणीरूप भ्रमरवधू को प्रकट नहीं कर रहा है। सीता जी के नेत्रों के अश्रुबिन्दु नेत्रों के कोनों में रह गये हैं, जैसे बहुत बड़े कृपण का स्वर्ण उसकी पेटिका में छिपा हुआ होता है।

[[२२०]]

सकुची ब्याकुलता बजिड़ ानी। धरि धीरज प्रतीति उर आनी॥ तन मन बचन मोर पन साँचा। रघुपति पद सरोज मन राँचा॥ तौ भगवान्‌ सकल उर बासी। करिहैं मोहि रघुबर की दासी॥

भाष्य

अपनी बहुत बड़ी व्याकुलता जानकर भगवती सीता जी संकुचित हो गईं और धैर्य धारण करके अपने हृदय में दृ़ढ विश्वास को ले आई। उन्होंने स्वगत्‌ कहा, यदि शरीर, मन तथा वचन से मेरी प्रतिज्ञा सत्य है और मेरा मन श्रीराम के चरणकमल में अनुरक्त है, तो सबके हृदय में निवास करनेवाले साकेताधिपति भगवान्‌ श्रीराम मुझे रघुकुल में श्रेष्ठ भगवान्‌ श्रीराम की दासी बनायेंगे ही।

**जेहि के जेहिं पर सत्य सनेहू। सो तेहि मिलइ न कछु संदेहू॥**
भाष्य

जिसको जिस पर सत्य स्नेह होता है, वह उसे मिलता ही है, इसमें कोई सन्देह नहीं है अर्थात्‌ यदि मेरा प्रभु श्रीराम पर सत्य स्नेह होगा, तो वे मुझे मिलेंगे ही इसमें मुझे किसी प्रकार का सन्देह नहीं होना चाहिये और मेरे स्नेह की सत्यता के आधार पर रघुनाथजी, शिवधनुष तोड़ेंगे ही।

**प्रभु तन चितइ प्रेम पन ठाना। कृपानिधान राम सब जाना॥ सियहिं बिलोकि तकेउ धनु कैसे। चितव गरुड़ लघु ब्यालहिं जैसे॥**
भाष्य

सीता जी ने प्रभु श्रीराम के शरीर को देखकर अपनी प्रेमपूर्ण प्रतिज्ञा को दृ़ढ कर लिया। कृपा के कोश श्रीरामचन्द्र ने सब जान लिया। प्रभु श्रीराम ने सीता जी को निहारकर धनुष को किस प्रकार से देखा, जैसे गरुड़ छोटे से सर्प (सपोले) को देखते है।

**दो०- लखन लखेउ रघुबंशमनि, ताकेउ हर को दंड।**

पुलकि गात बोले बचन, चरन चापि ब्रह्मांड॥२५९॥

भाष्य

लक्ष्मण जी ने देख लिया कि, रघुवंश के रत्न श्रीरामचन्द्र ने शिव जी के धनुष को ताका अर्थात्‌ तोड़ने की दृष्टि से देखा है। तब लक्ष्मणजी, भूकम्प की आशंका से ब्रह्माण्ड को अपने चरणों से दबाकर रोमांचित शरीर से पृथ्वी के धारण में नियुक्त परिकरों से यह वचन बोले–

**दिशिकुंजरहुँ कमठ अहि कोला। धरहु धरनि धरि धीर न डोला॥ राम चहहिं शङ्कर धनु तोरा। होहु सजग सुनि आयसु मोरा॥**
भाष्य

हे दिशाओं के हाथियों! हे कच्छप! हे शेष! हे वराह भगवान! आप सब धैर्य धारण करके पृथ्वी को धारण कीजिये, वह डगमगा न उठे। श्रीराम, शिव जी का धनुष तोड़ना चाहते हैं। सब लोग मेरा आदेश सुनकर सजग अर्थात्‌ सावधान हो जाइये।

**विशेष– **इन्हीं पंक्तियों से यह तथ्य स्पष्ट हो जाता है कि, लक्ष्मण जी शेषनाग के अवतार नहीं प्रत्युत्‌ उनके अवतारी बैकुण्ठविहारी विष्णु हैं और उनके भी अंशी हैं परब्रह्म श्रीराम। जहाँ–जहाँ मानस में अहीषादि शब्द आये हैं वहाँ अहि अर्थात्‌ शेषनाग का ईश्वर अर्थ ही समझना होगा।

चाप समीप राम जब आए। नर नारिन सुर सुकृत मनाए॥

भाष्य

जब भगवान्‌ श्रीराम, शिवधनुष के पास आ गये। तब मिथिला के पुरुष और महिलाओं ने देवताओं और पुण्यों का स्मरण किया। अथवा, सुन्दर कर्मवाले देवताओं से प्रार्थना की।

[[२२१]]

**विशेष– यहाँ सुकृति शब्द बहुव्रीहि से समस्त होकर सुर शब्द का विशेषण हुआ है। शोभनानि कृतानि एषा ं ते सुकृता:।

सब कर संशय अरु अग्यानू। मंद महीपन कर अभिमानू॥ भृगुपति केरि गरब गरुआई। सुर मुनिवरन केरि कदराई॥ सिय कर सोच जनक पछितावा। रानिन कर दारुन दुख दावा॥ शंभुचाप बड़ बोहित पाई। च़ढे जाइ सब संग बनाई॥ राम बाहुबल सिंधु अपारा। चहत पार नहिं कोउ कनहारा॥

भाष्य

सभी का संशय और अज्ञान, मंदबुद्धि वाले राजाओं का अहंकार, परशुराम जी के गर्व की गुरुता (भारीपन), देवताओं, मनुष्यों और मुनियों की व्याकुलता, सीता जी का शोक, जनक जी का पश्चाताप, सुनयना आदि रानियों का असहनीय दावाग्नि के समान दु:ख, ये सभी आठों मानसिक दुर्बलभाव अपना समाज बनाकर शिव जी के धनुष रूप बहुत बड़े जलपोत अर्थात्‌ पानी के जहाज को प्राप्त करके जाकर च़ढ गये। ये सभी शिवधनुष रूप जहाज के द्वारा श्रीराम के बाहुबल रूप अपार सागर का पार पाना चाह रहे थे, परन्तु वहाँ कोई कर्णधार अर्थात्‌ उस जहाज को खेनेवाला नहीं था। तात्पर्य यह है कि कुछ ही क्षणों में इन आठ संशयादि यात्री– समाजोें के साथ शिवधनुष रूप जलपोत श्रीराम के भुजबल रूप सागर में डूबने ही वाला है, क्योंकि खेवैया के बिना जहाज का सागर में डूबना अवश्यम्भावी है।

**दो०- राम बिलोके लोग सब, चित्र लिखे से देखि।**

चितई सीय कृपायतन, जानी बिकल बिशेषि॥२६०॥

भाष्य

श्रीराम ने सभी लोगों को देखा और उन्हें चित्र में लिखे हुए के समान स्तब्ध देखकर फिर कृपायतन (कृपा के आश्रय) प्रभु ने सीता जी को निहारा और उन्हें विशेष व्याकुल जाना।

**देखी बिपुल बिकल बैदेही। निमिष बिहात कलप सम तेही॥ तृषित बारि बिनु जो तनु त्यागा। मुए करइ का सुधा तड़ागा॥ का बरषा जब कृषी सुखाने। समय चुके पुनि का पछिताने॥**
भाष्य

प्रभु ने सीता जी को बहुत व्याकुल देखा। उनके लिए एक–एक क्षण कल्प के समान बीत रहे थे। प्रभु ने विचार किया कि पानी के बिना प्यासा यदि अपने शरीर को छोड़ ही देता है, तो उसके मरने पर अमृत का सरोवर क्या कर लेगा? अर्थात्‌ उसके पूर्व की तलफलाहट के क्षण को सुख के क्षण में तो नहीं परिवर्तन कर सकेगा। इसी प्रकार, जब कृषि सूख ही गयी तो फिर वर्षा की क्या उपयोगिता? अत: समय चूक जाने पर पछताने से क्या लाभ?

**अस जिय जानि जानकी देखी। प्रभु पुलके लखि प्रीति बिशेषी॥**
भाष्य

ऐसा मन में जानकर भगवान्‌ श्रीराम ने जानकी जी को देखा और सीता जी की विशेष प्रीति देखकर प्रभु पुलकित हो उठे।

**गुरुहिं प्रनाम मनहिं मन कीन्हा। अति लाघव उठाइ धनु लीन्हा॥**

**दमकेउ दामिनि जिमि जब लयऊ। पुनि धनु नभ मंडल सम भयऊ॥ भा०– **प्रभु श्रीराम ने मन ही मन गुरुदेव विश्वामित्रजी, गुव्र् वशिष्ठ जी तथा त्रिभुवन गुव्र् शिव जी को प्रणाम किया। अतिलाघव अर्थात्‌ अत्यन्त शीघ्रता से शिव जी के धनुष को उठा लिया। प्रभु ने जब शिवधनुष को लिया,

[[२२२]]

तब वह बिजली के समान चमक उठा, फिर धनुष आकाशमण्डल के समान मण्डलाकृति अर्थात्‌ गोलाकार हो गया।

लेत च़ढावत खैंचत गा़ढे। काहुँ न लखा देख सब ठा़ढे॥ तेहि छन राम मध्य धनु तोरा। भरे भुवन धुनि घोर कठोरा॥

भाष्य

धनुष को लेते, च़ढाते तथा शीघ्रता और दृ़ढता से खींचते हुए प्रभु श्रीराम को किसी ने नहीं देखा, जबकि सभी लोग ख़डे होकर देख रहे थे। इधर प्रभु श्रीराम ने जिस क्षण में धनुष को उठाया प्रत्यंचा च़ढाई और खींचा उसी क्षण में श्रीराम ने खेलते–खेलते धनुष को मध्य भाग से तोड़ा अर्थात्‌ चारों क्रियायें एक ही क्षण में सम्पन्न कर ली। धनुष के कठोर और भयंकर ध्वनि से चौदहों भुवन भर गये।

**छं०- भरे भुवन घोर कठोर रव रबि बाजि तजि मारग चले।**

चिक्करहिं दिग्गज डोल महि अहि कोल कूरम कलमले॥ सुर असुर मुनि कर कान दीन्हे सकल बिकल बिचारहीं। कोदंड खंडेउ राम तुलसी जयति बचन उचारहीं॥

भाष्य

धनुर्भंग का कठोर और भयंकर शब्द चौदहों भुवन में भर गया। सूर्यनारायण के घोड़े अपने दक्षिण मार्ग को छोड़कर उत्तर मार्ग की ओर चल पड़े और समय से पूर्व सूर्यनारायण उत्तरायण में चले गये। दिशाओं के हाथी चिक्कार करने लगे। पृथ्वी हिलने लगी, शेष, वाराह और कच्छप कलमले अर्थात्‌ हिलने–डुलने लगे। तुलसीदास जी कहते हैं कि, सभी देवता, दैत्य और मुनिजन कान में हाथ की ऊंगली डाले हुए व्याकुल होकर विचार करने लगे। श्रीराम ने धनुष तोड़ा है ऐसा निश्चय करके, जय हो! जय हो! वचन का उच्चारण करने लगे।

**सो०- शङ्कर चाप जहाज, सागर रघुबर बाहुबल।**

बूड़ सो सकल समाज, च़ढा जो प्रथमहिं मोह बश॥२६१॥

भाष्य

शिव जी का धनुष जहाज अर्थात्‌ जलपोत के समान है, श्रीराम का भुजबल ही महासागर है। वह सम्पूर्ण समाज डूब गया। जो मोह के वश में होकर पहले ही उस जहाज पर च़ढा था अर्थात्‌ जो पहले मोहवश संशयादि आठ यात्रियों का समाज शिव जी के धनुषरूप जहाज पर च़ढा था, वह श्रीराम की भुजाओं के बल रूप महासागर में जहाज के सहित डूब गया। भाव यह है कि, शिवधनुष को ही आश्रय मानकर सामान्य नर–नारियों ने संशय और अज्ञान किया था कि, श्रीराम शिवधनुष नहीं तोड़ सकेंगे, मूर्ख राजाओं ने अहंकार किया कि, शिवधनुष उनसे टूट जायेगा और परशुराम जी की गर्व–गरुता यह थी कि, मेरे अतिरिक्त और कोई शिवधनुष उठा ही नहीं सकता। देवताओं और मुनियों की भयपूर्ण व्याकुलता यह थी कि, यदि रावण ने शिवधनुष तोड़ा तब बड़ा अनर्थ हो जायेगा। प्रभु की सुकुमारता को लेकर सीता जी की चिन्ता, जनक जी का पश्चात ताप और सुनयना आदि महारानियों को दु:ख था। इन आठों मानसिक यात्रियों का अवलम्बन था शिवधनुष रूप जलपोत। जब वही (शिव धनुष रूप जलपोत) श्रीराम के भुजबल रूप सागर में डूबा तब यह सब भी डूब गये। तात्पर्य यह है कि, शिवधनुष के टूटते ही सभी का संशय और अज्ञान नय् हुआ। राजाओं का अभिमान चूर हो गया। परशुराम जी का गर्व भंग हुआ। देवता और मुनियों की कातरता समाप्त हुई, सीता जी का शोक, जनक जी का पश्चात ताप और सुनयना आदि रानियों का दु:ख मिट गया। यहाँ रूपक अलंकार का अद्‌भुत प्रयोग है।

**प्रभु दोउ चापखंड महि डारे। देखि लोग सब भए सुखारे॥**

[[२२३]]

भाष्य

भगवान्‌ श्रीराम ने धनुष तोड़कर उसके दोनों खण्डों को पृथ्वी पर फेंक दिया। यह देखकर सभी लोग बहुत सुखी हो गये।

**कौशिकरूप पयोनिधि पावन। प्रेम बारि अवगाहु सुहावन॥ रामरूप राकेश निहारी। ब़ढत बीचि पुलकावली भारी॥**
भाष्य

प्रेम रूप अगाध सुन्दर जल से युक्त विश्वामित्र जी रूप सागर में श्रीरामरूप पूर्णिमा के चन्द्र को निहारकर विशाल रोमांच रूप तरंगें ब़ढ गईं, अर्थात्‌ विश्वामित्र जी ही अगाध समुद्र हैं, प्रेम ही वहाँ जल है, श्रीराम पूर्ण चन्द्रमा हैं और विश्वामित्र जी के शरीर का रोमांच ही समुद्र की लहरें हैं। जैसे जल से भरे हुए सागर में पूर्णिमा के चन्द्रमा को देखकर ज्वार आता है और सागर में बड़ी लहरें उठने लगती हैं, उसी प्रकार आज शिवधनुष तोड़ते हुए पूर्णचन्द्र के समान श्रीराम को निहार कर विश्वामित्र जी के शरीर में अत्यधिक रोमांच हो रहा है, अर्थात्‌ प्रेम से उनके रोंगटे ख़डे हो जाते हैं।

**बाजेनभ गहगहे निसाना। देवबधू नाचहिं करि गाना॥ ब्रह्मादिक सुर सिद्ध मुनीशा। प्रभुहिं प्रशंसहिं देहिं अशीशा॥ बरषहिं सुमन रंग बहुमाला। गावहिं किन्नर गीत रसाला॥ रही भुवन भरि जय जय बानी। धनुषभंग धुनि जात न जानी॥ मुदित कहहिं जहँ तहँ नर नारी। भंजेउ राम शंभुधनु भारी॥**
भाष्य

आकाश में गहगहे अर्थात्‌ मिलित रूप में नगारे बिना किसी के बजाये ही अपने आप बज उठे। देवताओं की पत्नियाँ वैवाहिक मंगलगीत गा कर नाचने लगीं। ब्रह्मादि देवता कपिल आदि सिद्धगण, भृगु आदि महर्षिगण प्रभु की प्रशंसा करते हुए आशीष अर्थात्‌ शुभकामनायें अर्पित करने लगे। वे बहुरंगें पुष्पों की मालाओं का वर्षण करने लगे और किन्नरगण मधुर गीत गाने लगे। सम्पूर्ण भुवनों में जय–जय वाणी ही भर रही थी और धनुषभंग की ध्वनि जानी ही नहीं जा रही थी अर्थात्‌ लोगों के जय–जयकार शब्द ने धनुष टूटने के शब्द को सब के मन से भुलवा दिया। जहाँ–तहाँ मिथिलापुर के नर–नारी प्रसन्न होकर परस्पर कहने लगे कि, श्रीराम जी ने आज विशाल शिवधनुष तोड़ दिया।

**दो०- बंदी मागध सूतगन, बिरुद बदहिं मतिधीर।**

करहिं निछावरि लोग सब, हय गय धन मनि चीर॥२६२॥

भाष्य

धीरबुद्धि वाले बन्दी, समय के अनुसार यश गाने वाले मागध, राजा के वंश प्रशंसक और सूतजन अर्थात्‌ पौराणिक जन, श्रीराम की गद्द–पद्दमयी स्तुति बोलने लगे। मिथिलापुर के सभी लोग हाथी, घोड़े धन, मणि और वस्त्र न्यौछावर कर रहे हैं।

**विशेष– गद्दपद्दमयी राज्ञ: स्तुतिर्विरुदमुच्यते **अर्थात्‌ गद्द और पद्द से युक्त राजा की स्तुति को विरुद कहते हैं।

झाँझ मृदंग शंख सहनाई। भेरि ढोल दुंदुभी सुहाई॥ बाजहिं बहु बाजने सुहाए। जहँ तहँ जुबतिन मंगल गाए॥

भाष्य

झाँझ, मृदंग, शंख, शहनाई, भेरी, ढोल तथा सुहावने नगारे आदि बहुत से बाजे बज उठे और जहाँ तहाँ सौभाग्यवती नारियाँ मंगल गाने लगीं।

**सखिन सहित हरषी सब रानी। सूखत धान परा जनु पानी॥ जनक लहेउ सुख सोच बिहाई। पैरत थके थाह जनु पाई॥**

[[२२४]]

भाष्य

सखियों के सहित सुनयना आदि रानियाँ प्रसन्न हो उठीं, मानो सूखती हुई धान की खेती में पानी पड़ गया हो। राजा जनक जी ने भी शिव धनुर्भंग के अनन्तर चिन्ता छोड़ सुख प्राप्त किया, जैसे उन्होंने तैरते–तैरते थक कर अगाध सागर की थाह पा ली हो।

**श्रीहत भए भूप धनु टूटे। जैसे दिवस दीप छबि छूटे॥ सीय सुखहिं बरनिय केहि भाँती। जनु चातकी पाइ जल स्वाती॥**
भाष्य

धनुष के टूटने पर सभी राजा श्रीहत अर्थात्‌ शोभा से हीन हो गये, जैसे दिन में दीपक छवि से रहित हो जाते हैं। सीता जी के सुख का वर्णन किस प्रकार से किया जाये? वे उतनी ही प्रसन्न हुईं, मानो स्वाति का जल पाकर चातकी प्रसन्न हो गयी हो।

**रामहिं लखन बिलोकत कैसे। शशिहिं चकोर किशोरक जैसे॥ शतानंद तब आयसु दीन्हा। सीता गमन राम पहँ कीन्हा॥**
भाष्य

श्रीराम को लक्ष्मण जी किस प्रकार से देख रहे हैं, जैसे चन्द्रमा को चकोर का शावक देखता है। तब शतानन्द जी ने सीता जी को श्रीराम को जयमाला पहनाने का आदेश दिया और सीता जी ने श्रीराम जी के पास गमन किया।

**दो०- संग सखी सुंदरि चतुर, गावहिं मंगलचार।**

गवनी बाल मराल गति, सुषमा अंग अपार॥२६३॥

भाष्य

उनके साथ में सभी सुन्दर सखियाँ दिव्यमंगलगीत गा रहीं हैं। सीता जी बालहंसिंनी की चाल से श्रीराम के पास चलीं, उनके अंगों में अपार शोभा थी।

**सखिन मध्य सिय सोहति कैसी। छबिगन मध्य महाछबि जैसी॥ कर सरोज जयमाल सुहाई। बिश्व बिजय शोभा जेहिं छाई॥**
भाष्य

सखियों के बीच में सीता जी किस प्रकार शोभित हो रहीं हैं, जैसे छवियों के समूह के बीच में महाछवि हो। सीता जी के कर कमलों में जयमाला सुशोभित हो रही है, जिस पर विश्वविजय की शोभा छाई हुई है।

**तन सँकोच मन परम उछाहू। गू़ढ प्रेम लखि परइ न काहू॥ जाइ समीप राम छबि देखी। रहि जनु कुअँरि चित्र अवरेखी॥**
भाष्य

सीता जी के शरीर में संकोच और मन में परमउत्साह है। संकोच और उत्साह के सम्पुट में छिपा हुआ सीता जी का प्रेम (रत्न) किसी को भी नहीं दिख पड़ रहा है। सीता जी ने समीप जाकर श्रीराम जी की छवि देखी राजकुमारी मानो चित्र में लिखी हुई सी स्थिर रह गईं।

**चतुर सखी लखि कहा बुझाई। पहिरावहु जयमाल सुहाई॥ सुनत जुगल कर माल उठाई। प्रेम बिबश पहिराइ न जाई॥**
भाष्य

सीता जी को स्थिर देखकर चतुर सखी ने समझाकर कहा, हे सीते! यह सुहावनी जयमाला श्रीराम को पहना दीजिये। सीता जी ने यह सुनते ही दोनों हाथों से जयमाला उठाई, प्रेम के विवश होने के कारण सीता जी से प्रभु को माला पहनायी नहीं जा रही है। उन्हें यह भय है कि, जयमाला पर मंडरा रहा भौंरा प्रभु को कहीं काट न ले। अथवा, जयमाला के पुष्पों का प्रभु को आघात नहीं लग जाये। अथवा, जयमाला पहनाने के पश्चात्‌ प्रभु की शोभा का वियोग हो जायेगा।

[[२२५]]

सोहत जनु जुग जलज सनाला। शशिहिं सभीत देत जयमाला॥ गावहिं छबि अवलोकि सहेली। सिय जयमाल राम उर मेली॥

भाष्य

मानो दण्ड के सहित सुशोभित हो रहे दो कमल भयभीत होकर चन्द्रमा को जयमाला अर्पित कर रहें हों। यह छवि देखकर सखियाँ गीत गा रही हैं। सीता जी ने श्रीराम के गले में जयमाला पहना दी।

**दो०- रघुबर उर जयमाल, देखि देव बरषहिं सुमन।**

**सकुचे सकल भुआल, जनु बिलोकि रबि कुमुदगन॥२६४॥ भा०– **रघुकुल में श्रेष्ठ श्रीराम के वक्षस्थल पर विराजमान जयमाला देखकर देवता पुष्पों की वर्षा कर रहे हैं।

सभी राजा उसी प्रकार संकुचित हो गये, जैसे सूर्यनारायण को देखकर कुमुदों के समूह संकुचित हो जाते हैं।

पुर अरु ब्योम बाजने बाजे। खल भए मलिन साधु सब राजे॥ सुर किन्नर नर नाग मुनीशा। जय जय जय कहि देहिं अशीशा॥

भाष्य

नगर और आकाश में मंगल वाद्द बज उठे। खल प्रकृति के लोग मलिन हो गये और साधु स्वभाव वाले लोग देदीप्यमान हो उठे। देवता, किन्नर, मनुष्य, नाग और श्रेष्ठ मुनिगण जय हो! जय हो! जय हो! कहकर आशीर्वाद और शुभकामनायें देने लगे।

**नाचहिं गावहिं बिबुध बधूटी। बार बार कुसुमाञ्जलि छूटी॥ जहँ तहँ बिप्र बेदधुनि करहीं। बंदी बिरुदावलि उच्चरहीं॥**
भाष्य

देवताओं की पत्नियाँ नाचने और गाने लगीं। आकाश से बार–बार पुष्पाञ्जलियों की वर्षा हुई। जहाँ–तहाँ ब्राह्मण वेदध्वनि करने लगे और बंदीजन विरुदावली का उच्चारण करने लगे।

**महि पाताल नाक जस ब्यापा। राम बरी सिय भंजेउ चापा॥ करहिं आरती पुर नर नारी। देहिं निछावरि बित्त बिसारी॥**
भाष्य

पृथ्वी, पाताल और देवलोक में यह यश व्याप्त हो गया कि, श्रीराम जी ने धनुष को तोड़ा और सीता जी ने स्वयंवर में श्रीराम जी का वरण कर लिया। मिथिलापुर के सभी नर–नारी आरती करने लगे और अपना धन भूलकर न्यौछावर देने लगे।

**सोहति सीय राम कै जोरी। छबि शृंगार मनहुँ एक ठौरी॥ सखी कहहिं प्रभुपद गहु सीता। करति न चरन परस अति भीता॥**
भाष्य

श्रीसीता जी एवं श्रीराम जी की जोड़ी सुशोभित हो रही है, मानो छवि और श्रृंगार एक स्थान पर एक दूसरे से सम्मानित हुए हैं। सखियाँ कहती हैं कि, हे सीते! प्रभु श्रीराम के चरण पक़ड लीजिए, पर अत्यन्त भयभीत होने के कारण सीता जी श्रीराम के चरणों का स्पर्श नहीं करती हैं।

**दो०- गौतम तिय गति सुरति करि, नहिं परसति पग पानि।**

मन बिहँसे रघुबंशमनि, प्रीति अलौकिक जानि॥२६५॥

भाष्य

महर्षि गौतम की पत्नी अहल्या की गति का स्मरण करके सीता जी अपने हाथों से श्रीराम जी के चरणों का स्पर्श नहीं कर रही हैं। उन्हंें यह भय हुआ कि, कहीं मेरे कंकण में लगे हुए मणि इनके चरणों के स्पर्श से नारी बन गये तो निरर्थक सौतनों का संकट होगा और उनको यह भी डर लगा कि, इनके चरणों का स्पर्श करके

[[२२६]]

अहल्या जी तपोलोक चली गईं और प्रभु के चरणकमलों से दूर हो गईं, कदाचित्‌ इनका स्पर्श करके मैं प्रभु से दूर हो जाऊँगी तो बहुत अनर्थ होगा। इसलिए वियोग की अपेक्षा चरणों का स्पर्श नहीं करना ही श्रेयस्कर है। सीता जी के इस अलौकिक प्रेम को देखकर रघुवंश के मणि श्रीराम मन में मुस्कुराये।

* मासपारायण, सातवाँ विश्राम *

तब सिय देखि भूप अभिलाषे। कूर कपूत मू़ढ मन माखे॥ उठि उठि पहिरि सनाह अभागे। जहँ तहँ गाल बजावन लागे॥

भाष्य

तब सीता जी को देखकर स्वयंवर में आये हुए राजा उन्हें पाने के लिए इच्छुक हो उठे। क्रूर, कपूत अर्थात्‌ कुत्सित संस्कारो से जन्मे हुए कुपुत्र, मोहग्रस्त राजागण, मन में कुपित हो उठे। वे भाग्यहीन अपने आसनों से उठकर युद्ध का कवच पहन कर जहाँ–तहाँ गाल बजाने लगे अर्थात्‌ अनाप–शनाप बकने लगे।

**लेहु छुड़ाई सीय कह कोऊ। धरि बाँधहु नृप बालक दोऊ॥ तोरे धनुष चाड़ नहीं सरई। जीवत हमहिं कुअँरि को बरई॥**
भाष्य

(कोई कहता है–) हम में से कोई सीता को राम के हाथ से छीन लो। अथवा सखियों के संरक्षण से अलग करके हरण कर लो। दोनों राजपुत्रों को पक़ड कर बाँध लो। धनुष तोड़ने से कोई कार्य नहीं बनता। हमारे जीते जी राजकुमारी का वरण कौन कर सकता है ?

**जो बिदेह कछु करैं सहाई। जीतहु समर सहित दोउ भाई॥ भा०– **यदि राजा जनक कुछ सहायता करें तो उन्हें भी युद्ध में दोनों भाइयों के सहित जीत लो।

साधु भूप बोले सुनि बानी। राज समाजहि लाज लजानी॥

बल प्रताप बीरता बड़ाई। नाक पिनाकहि संग सिधाई॥

सोइ शूरता की अब कहुँ पाई। असि बुधि तौ बिधि मुँह मसि लाई॥

भाष्य

साधु राजा, दुष्ट राजाओं के वचन सुनकर बोले कि, इस निर्लज्ज राजसमाज को देखकर तो लज्जा भी लज्जित हो उठी है। तुम्हारा बल, प्रताप, तुम्हारी वीरता और बड़ाई तथा तुम्हारी नाक भी पिनाक धनुष के साथ चली गयी। क्या वह शूरता अभी कहीं से प्राप्त की है, जो धनुष तोड़ते समय नहीं थी ? इसी प्रकार की बुद्धि पर तो विधाता ने तुम सब के मुख पर काली स्याही लगा दी है।

**दो०- देखहु रामहिं नयन भरि, तजि इरिषा मद मोहु।**

लखन रोष पावक प्रबल, जानि शलभ जनि होहु॥२६६॥

भाष्य

सब लोग ईर्ष्या, मद और मोह छोड़कर भर आँख श्रीराम के दर्शन करो। लक्ष्मण जी के क्रोध को प्रबल अग्नि समझकर उसके पतंगे मत बनो अर्थात्‌ लक्ष्मण जी के क्रोधाग्नि में पंखे की भाँति मत जल जाओ।

**बैनतेय बलि जिमि चह कागू। जिमि शश चहै नाग अरि भागू॥ जिमि चह कुशल अकारन कोही। सुख संपदा चहै शिवद्रोही॥ लोभी लोलुप कीरति चहई। अकलंकता की कामी लहई॥**

हरि पद बिमुख परम गति चाहा। तस तुम्हार लालच नरनाहा॥

भाष्य

जिस प्रकार विनता के पुत्र गरुड़ का भोग कौआ चाहे, जैसे हाथियों के शत्रु सिंह के अंश की खरगोश इच्छा करे, जैसे बिना कारण के क्रोध करनेवाला कुशल चाहता हो, जैसे शिव जी का द्रोही सुख सम्पत्ति की

[[२२७]]

इच्छा करता हो, जैसे लोभी और विषयों का लोलुप कीर्ति की अभिलाषा करता हो। क्या किसी समय कामी निष्कलंकता को प्राप्त कर सकता है ? जैसे प्रभु श्रीराम के चरण से विमुख परमगति अर्थात्‌ मोक्ष की आकांक्षा करता हो। हे राजाओं! सीता जी के प्रति तुम्हारा लालच उसी प्रकार असंगत और असंभव है।

**विशेष– अर्थात्‌ सीता जी को प्राप्त करने के लिए गव्र्ड़ सिंह, क्रोधविजेता, शिवप्रिय, निर्लोभ, अलोलुप, निष्काम एवं श्रीवैष्णव–वृत्तिवाले महापुरुष की विशेषताओं की अपेक्षा है। इनमें से तुम लोगों के पास एक भी नहीं है, फिर किस आधार पर तुम सीता जी के लिए लालायित हो रहे हो? पूर्वोक्त छहों विशेषतायें एकमात्र प्रभु श्रीराम में ही हैं, क्योंकि इन विशेषताओं का सम्बन्ध, ऐश्वर्य, धर्म, यश, श्री, ज्ञान और वैराग्य से है और ये छहों एकमात्र प्रभु श्रीराम में नित्य और निरन्तर विराजते हैं। इसी कारण अब से कुछ देर पहले आए लक्ष्मण जी प्रभु श्रीराम को भगवान्‌ का सम्बोधन दे चुके हैं। यथा– तव प्रताप महिमा भगवाना। -मानस, १.२५३.६।

कोलाहल सुनि सीय सकानी। सखी लिवाई गईं जहँ रानी॥ राम सुभाय चले गुरु पाहीं। सिय सनेह बरनत मन माहीं॥

भाष्य

राजाओं का कोलाहल सुनकर सीता जी डर गईं। जहाँ रानियाँ थीं वहाँ सखियाँ उन्हें लिवा गईं। श्रीराम मन में सीता जी के स्नेह का वर्णन करते हुए स्वभावत: अर्थात्‌ राजाओं के प्रति कोई भी प्रतिक्रिया किये बिना ही गुरु विश्वामित्र जी के पास चले गये।

**रानिन सहित सोचबस सीया। अब धौं बिधिहि काह करनीया॥ भूपबचन सुनि इत उत तकहीं। लखन राम डर बोलि न सकहीं॥**
भाष्य

राजाओं के इस व्यवहार से सुनयना आदि रानियाँ तथा भगवती सीता जी चिन्ता के वश हो गईं और सोचने लगीं की इस समय विधाता को क्या करना उचित है? अथवा सभी पर अनुशासन करनेवाले विधि को श्रीराम से इस समय क्या कराना चाहिये? दुष्ट राजाओं से युद्ध अथवा गुरु विश्वामित्र जी की सेवा? राजाओं के वचन सुनकर लक्ष्मण जी इधर उधर क़डी दृष्टि से देखते हैं, परन्तु श्रीराम जी के डर से कुछ बोल नहीं सक रहे हैं।

**दो०- अरुन नयन भृकुटी कुटिल, चितवत नृपन सकोप।**

**मनहुँ मत्त गजगन निरखि, सिंघकिशोरहिं चोप॥२६७॥ भा०– **लक्ष्मण जी भौंहें टे़ढी करके लाल नेत्रों से क्रोधपूर्वक दुय् राजाओं को देख रहे हैं, मानो मतवाले हाथियों

के झुण्ड को देखकर किशोर अर्थात्‌ युवावस्था के निकट पहुँचे हुए सिंह के बच्चे को उत्साह हो गया हो।

खरभर देखि बिकल पुर नारी। सब मिलि देहिं महीपन गारी॥

भाष्य

नगर में खलबली देखकर मिथिलापुर की नारियाँ व्याकुल हो उठीं और सभी मिलकर दुष्ट राजाओं को गालियाँ देने लगीं।

**तेहि अवसर सुनि शिव धनुभंगा। आयउ भृगुकुल कमल पतंगा॥ देखि महीप सकल सकुचाने। बाज झपट जनु लवा लुकाने॥**

[[२२८]]

भाष्य

उसी अवसर पर शिव धनुर्भंग का समाचार सुनकर भृगुकुल रूप कमल के पतंगा अर्थात्‌ अपराह्न के सूर्य परशुराम जी आकाशमार्ग से मिथिलापुर की रंगभूमि में आये। उन्हें देखकर सभी राजा उसी प्रकार संकुचित होकर सिकुड़ गये, जैसे बाज पक्षी के झपटने पर छोटे लावा पक्षी छिप गये हों।

**गौर शरीर भूति भलि भ्राजा। भाल बिशाल त्रिपुंड्र बिराजा॥ शीश जटा शशिबदन सुहावा। रिसिबस कछुक अरुन होइ आवा॥ भृकुटी कुटिल नयन रिसि राते। सहजहुँ चितवत मनहुँ रिसाते॥ बृषभ कंध उर बाहु बिशाला। चारु जनेउ माल मृगछाला॥ कटि मुनिबसन तून दुइ बाँधे। धनु शर कर कुठार कल काँधे॥**
भाष्य

उनके गौर शरीर पर भस्म भली प्रकार शोभित हो रही थी। विशाल मस्तक पर त्रिपुंड्र विराजमान था। उनके सिर पर जटा और चन्द्र के समान मुख सुन्दर था, जो क्रोध के कारण कुछ लाल हो आया था। उनकी भौंहे टे़ढी और नेत्र क्रोध से लाल हो गये थे, जो स्वभाव से निहारते हुए मानो क्रुद्ध हो रहे थे। बैल के समान उनका कंधा, हृदय और भुजायें विशाल, सुन्दर यज्ञोपवीत, रुद्राक्ष की माला और सुन्दर मृगछाला भी उत्तरीय के रूप में विराजमान थी। उन्होंने अपने कटि प्रदेश में मुनिवस्त्र तथा दो तरकस बाँध रखे थे, उनके हाथ में बाण तथा धनुष और उनके स्कन्ध पर सुन्दर फरसा विराजमान था।

**दो०- शांत बेष करनी कठिन, बरनि न जाइ स्वरूप।**

धरि मुनितनु जनु बीररस, आयउ जहँ सब भूप॥२६८॥

भाष्य

उनका वेश शान्त था, परन्तु कार्य बहुत कठिन थे। उनका यह विरुद्ध व्यक्तित्वों से सम्पन्न स्वरूप वर्णन नहीं किया जा सकता, मानो मुनि का वेश धारण करके वीररस ही जहाँ सम्पूर्ण राजा हैं, वहाँ आ गया हो।

**देखत भृगुपति बेष कराला। उठे सकल भय बिकल भुआला॥**

**पितु समेत कहि कहि निज नामा। लगे करन सब दंड प्रनामा॥ भा०– **भृगुकुल के स्वामी परशुराम जी के इस भयंकर वेश को देखकर सभी राजा भय से व्याकुल होकर उठ ख़डे हुए। सभी राजा अपने पिताओं के समेत अपना–अपना नाम लेकर परशुराम जी को दण्डवत प्रणाम करने लगे।

**जेहि सुभाय चितवहिं हितु जानी। सो जानइ जनु आयु खुटानी॥ भा०– **परशुरामजी, जिसको अपना प्रेमी तथा हितैषी और समर्थक जानकर सुन्दर भाव से भी देख लेते हैं, तो वह समझता है, मानो उसकी आयु समाप्त हो गयी हो।

जनक बहोरि आइ सिर नावा। सीय बोलाइ प्रनाम करावा॥ आशिष दीन्ह सखी हरषानी। निज समाज लै गईं सयानी॥

भाष्य

फिर जनक जी ने आकर परशुराम जी को मस्तक नवाया और सीता जी को बुलाकर मुनि को प्रणाम कराया। परशुराम जी ने सीता जी को अखण्ड सौभाग्यवती होने का आशीर्वाद दिया। सखियाँ प्रसन्न हो गईं और सीता जी को चतुर सहेलियाँ अपने समाज में लेकर चलीं गयीं।

**बिश्वामित्र मिले पुनि आई। पदसरोज मेले दोउ भाई॥ राम लखन दशरथ के ढोटा। दीन्ह अशीष देखि भल जोटा॥**

[[२२९]]

भाष्य

फिर विश्वामित्र जी आकर परशुराम जी से मिले। परशुराम जी के पिता जमदग्नि के मामा होने के कारण विश्वामित्र जी ने अपनी बहन के दौहित्र परशुराम जी को प्रणाम नहीं किया। मिलकर कुशल समाचार पूछ लिया और अहंकार की अतिशयता के कारण परशुराम जी ने भी विश्वामित्र जी को प्रणाम नहीं किया। तब विश्वामित्र जी ने दशरथ जी के किशोर पुत्र दोनों भाई श्रीराम–लक्ष्मण को परशुराम जी के चरणकमलों में डाल दिया। सुन्दर जोड़ी देखकर परशुराम जी ने भी श्रीराम–लक्ष्मण जी कोअत्यन्त आयुष का आशीर्वाद दिया।

**रामहिं चितइ रहे थकि लोचन। रूप अपार मार मद मोचन॥**
भाष्य

श्रीराम जी को निहारते हुए परशुराम जी के नेत्र अनेक कामदेव के मद को नष्ट करनेवाले प्रभु श्रीराम के अपार रूप सागर में स्थगित हो गये अर्थात्‌ स्थिर हो गये।

**दो०- बहुरि बिलोकि बिदेह सन, कहहु काह अति भीर।**

पूछत जानि अजान जिमि, ब्यापेउ कोप शरीर॥२६९॥

भाष्य

फिर परशुराम जी जनक जी को सामने देखकर जान–बूझकर अंजान जैसे पूछ रहे हैं, कहो राजन्‌! इतनी भीड़ कैसी? प्रश्न करते–करते परशुराम जी के शरीर में क्रोध व्याप्त हो गया।

**समाचार कहि जनक सुनाए। जेहि कारन महीप सब आए॥ सुनत बचन फिरि अनत निहारे। देखे चापखंड महि डारे॥**
भाष्य

जिस कारण सम्पूर्ण राजा मिथिला नगर में आये थे, वह सब समाचार कह कर जनक जी ने सुनाया। जनक जी के वचन सुनकर परशुराम जी ने पीछे मुड़कर दूसरे स्थान पर निहारा तो उन्होंने पृथ्वी पर फेंके हुए शिव जी के धनुष के दो टुक़डे देखे।

**अति रिसि बोले बचन कठोरा। कहु ज़ड जनक धनुष केहिं तोरा॥ बेगि देखाउ मू़ढ न त आजू। उलटउँ महि जहँ लगि तव राजू॥**
भाष्य

परशुराम जी अत्यन्त क्रोध से कठोर वचन बोले, अरे जनक! किस ज़ड ने इस ज़ड धनुष को तोड़ा। हे मूर्ख! शिव जी के धनुष को तोड़नेवाले को शीघ्र दिखा दे नहीं तो आज जहाँ तक तेरे राज्य की सीमा है, वहाँ तक की पृथ्वी को उलट दूँगा।

**अति डर उतर देत नृप नाहीं। कुटिल भूप हरषे मन माहीं॥ सुर मुनि नाग नगर नर नारी। सोचहिं सकल त्रास उर भारी॥**
भाष्य

अत्यन्त डर के कारण जनकजी, परशुराम जी को उत्तर नहीं दे रहे हैं। कुटिल प्रकृति के राजा मन में बहुत प्रसन्न हुए। देवता, मुनि, नाग तथा मिथिलापुर के सभी नर–नारी चिन्ता कर रहे हैं। सबके मन में परशुराम जी का बहुत बड़ा भय है।

**मन पछिताति सीय महतारी। बिधि अब सँवरी बात बिगारी॥ भृगुपति कर स्वभाव सुनि सीता। अरध निमेष कलप सम बीता॥**
भाष्य

सीता जी की माता सुनयना जी मन में अत्यन्त पश्चात्ताप कर रही हैं। अब तो विधाता ने बनी हुई बात बिगाड़ दी अर्थात्‌ सब कुछ अनुकूल करके प्रतिकूल कर डाला। परशुराम जी का स्वभाव सुनकर सीता जी के लिए आधा क्षण कल्प के समान बीत रहा था।

[[२३०]]

दो०- सभय बिलोके लोग सब, जानि जानकी भीर।

हृदय न हरष बिषाद कछु, बोले श्रीरघुबीर॥२७०॥

भाष्य

प्रभु श्रीराम ने सभी को भयभीत देखा। सीता जी को विशेष डरी हुई जानकर श्रीजी से नित्य समन्वित रघुकुल के वीर श्रीराघवसरकार बोले। उस समय प्रभु के हृदय में कुछ भी हर्ष या विषाद नहीं था।

**नाथ शंभुधनु भंजनिहारा। होइहि कोउ एक दास तुम्हारा॥ आयसु काह कहिय किन मोही। सुनि रिसाइ बोले मुनि कोही॥**
भाष्य

हे नाथ! शिव जी का धनुष तोड़नेवाला कोई एक प्रधान आपका दास ही होगा। क्या आज्ञा है, आप मुझसे क्यों नहीं कहते? प्रभु का यह वचन सुनकर स्वभाव से क्रोधी मुनि परशुराम जी क्रुद्ध होते हुए बोले–

**सेवक सो जो करै सेवकाई। अरि करनी करि करिय लराई॥ सुनहु राम जेहिं शिवधनु तोरा। सहसबाहु सम सो रिपु मोरा॥ सो बिलगाउ बिहाइ समाजा। न त मारे जैहैं सब राजा॥**
भाष्य

परशुराम जी बोले, हे राघव ! सेवक वह है, जो सेवा करता है। शत्रु के जैसा आचरण करके तो लड़ाई ही करनी चाहिये। हे राम! सुनो, जिसने शिव जी का धनुष तोड़ा है, वह सहस्रबाहु के समान मेरा शत्रु है। वह (शिव धनुष तोड़ने वाला) राजसमाज छोड़कर स्वयं अलग हो जाये अथवा, यदि तुम मेरी आज्ञा का पालन करना चाहते हो तो, इस राजसमाज से शिवधनुष तोड़नेवाले को अलग कर दो। यदि वह अलग नहीं होता, तो राजसमाज ही बिहाई अर्थात्‌ उसे छोड़कर अलग हो जाये नहीं तो सभी राजा मारे जायेंगे।

**सुनि मुनि बचन लखन मुसुकाने। बोले परशुधरहिं अपमाने॥ बहु धनुहीं तोरीं लरिकाईं। कबहुँ न असि रिसि कीन्ह गोसाईं॥ एहि धनु पर ममता केहि हेतू। सुनि रिसाइ कह भृगुकुलकेतू॥**
भाष्य

मुनि परशुराम जी के वचन सुनकर लक्ष्मण जी मुस्कुराये और सभी राजाओं का अपमान करनेवाले परशुराम जी से बोले, हे स्वामी! लड़कपन में हमनें धनुर्विद्दा का अभ्यास करते समय बहुत से छोटे धनुषों को तोड़ा है। तब आपने कभी भी ऐसा क्रोध नहीं किया था। इस धनुष पर किस कारण आपको ममता है? यह सुनकर भृगुकुल के पताका स्वरूप परशुराम जी क्रुद्ध होकर बोले–

**दो०- रे नृप बालक कालबश, बोलत तोहि न सँभार।**

धनुही सम त्रिपुरारि धनु, बिदित सकल संसार॥२७१॥

भाष्य

हे काल के वश में हुआ राजा का बालक! तुझे बोलते समय सँभार अर्थात्‌ मर्यादाओं का ज्ञान नहीं रह रहा है। क्या सारे संसार में प्रसिद्ध त्रिपुरासुर के शत्रु शिव जी का धनुष, साधारण छोटी–छोटी धनुहियों के समान है अर्थात्‌ हिमालय के तत्व से बने हुए जिंस धनुष से छुटे हुए विष्णुरूप बाण ने शिव जी द्वारा त्रिपुरासुर को नष्ट कर डाला, उस पूजनीय धनुष की तुलना तू साधारण बालकों की खेलनेवाली धनुहियों से कर रहा है।

__लखन कहा हँसि हमरे जाना। सुनहु देव सब धनुष समाना॥ का छति लाभ जून धनु तोरे। देखा राम नये के भोरे॥

भाष्य

लक्ष्मण जी ने हँस कर कहा, हे देव! सुनिये, मेरे संज्ञान में तो सभी धनुष समान हैं। उस पुराने पिनाक धनुष के तोड़ने से क्या हानि, लाभ अर्थात्‌ आपकी क्या हानि हुई और श्रीराम को क्या लाभ हुआ? श्रीराम ने तो उस धनुष को नये के धोखे में देखा।

[[२३१]]

छुअत टूट रघुपतिहिं न दोषू। मुनि बिनु काज करिय कत रोषू॥

भाष्य

वह धनुष प्रभु के स्पर्श करते ही अपने आप टूट गया अर्थात्‌ शिवधनुष इतना पुराना हो चुका था कि, वह हमारे राघव जी के हाथ का हल्का स्पर्श भी नहीं सह पाया। उसमें रघुकुल के स्वामी श्रीराघवसरकार का कोई दोष नहीं है। हे वेदशास्त्रों का मनन करनेवाले मुनि! आप अकारण क्यों क्रोध कर रहे हैं ?

**बोले चितइ परशु की ओरा। रे शठ सुनेहि स्वभाव न मोरा॥ बालक बोलि बधउँ नहिं तोही। केवल मुनि ज़ड जानहि मोही॥**
भाष्य

तब परशुराम जी अपने फरसे की ओर देखते हुए लक्ष्मण जी से बोले, अरे शठ! क्या तुमने मेरा स्वभाव नहीं सुना है? मैं तुझे बालक बोलकर अर्थात्‌ बाल्यावस्था का जानकर नहीं मार रहा हूँ। अरे ज़ड! क्या तू मुझे मुनि मात्र जानता है?

**बाल ब्रह्मचारी अति कोही। बिश्व बिदित छत्रियकुल द्रोही॥ भुजबल भूमि भूप बिनु कीन्हीं। बिपुल बार महिदेवन दीन्हीं॥ सहसबाहु भुज छेदनिहारा। परशु बिलोकु महीपकुमारा॥**
भाष्य

मैं संसार में प्रसिद्ध बाल्यावस्था से ब्रह्मचारी, अत्यन्त क्रोधी और क्षत्रिय कुल का द्रोही हूँ अथवा क्षत्रिय कुल मेरा द्रोही रहा है। मैंने अपनी भुजाओं के बल से अनेक बार इस पृथ्वी को ब्राह्मणद्रोही क्षत्रियों से हीन किया और अनेक बार उसे ब्राह्मणों को दान में दिया है। हे राजकुमार! सहस्रबाहु की एक हजार भुजाओं को काटने वाले मेरे इस फरसे को तो देख।

**दो०- मातु पितहिं जनि सोचबश, करसि महीप किशोर।**

गर्भन के अर्भक दलन, परशु मोर अति घोर॥२७२॥

भाष्य

हे राजा दशरथ के किशोर पुत्र लक्ष्मण! अपने माता–पिता को शोकवश मत कर, क्योंकि मेरा अत्यन्त भयंकर फरसा गर्भाें के बालकों को भी नष्ट करने वाला है।

**बिहँसि लखन बोले मृदु बानी। अहो मुनीश महा भटमानी॥ पुनि पुनि मोहि देखाव कुठारू। चहत उड़ावन फूँकि पहारू॥**
भाष्य

लक्ष्मण जी हँसकर कोमल वाणी में बोले, अहो! आश्चर्य है, हे मुनियों में श्रेष्ठ! आप अपने को बहुत बड़ा वीर मानते हैं। आप मुझे बारम्बार फरसा दिखा रहे हैं और अपनी फूँक से पहाड़ को भी उड़ाना चाहते हैं अर्थात्‌ जो पर्वत बड़े-बड़े झंझावातों से नहीं उड़ते उस को आप अपने मुख के पवन से उड़ाना चाहते हैं।

**इहाँ कुम्हड़बतिया कोउ नाहीं। जे तरजनी देखि मरि जाहीं॥ देखि कुठार शरासन बाना। मैं कछु कहा सहित अभिमाना॥**
भाष्य

यहाँ कोई छोटी सी कद्‌दू की बतिया (नवजात फल) नहीं है, जो तर्जनी अंगुली देखकर मर जाती है। आपके फरसे, धनुष और बाण तथा आपको भी अभिमान के सहित देखकर उसी के उत्तर में मैंने कुछ कहा।

**विशेष– **जनश्रुति यह है कि, कद्‌दू का दो–चार दिनों का फल तर्जनी अंगुली के दिखाने से मर जाता है।

भृगुकुल समुझि जनेउ बिलोकी। जो कछु कहहु सहउँ रिसि रोकी॥ सुर महिसुर हरिजन अरु गाई। हमरे कुल इन पर न सुराई॥

[[२३२]]

भाष्य

आप का भृगुकुल समझकर और आपके स्कन्ध पर यज्ञोपवीत देखकर आप जो कुछ कह रहे हैं और जो कहेंगे वह सब मैं अपने क्रोध को रोक कर सह रहा हूँ और सहूँगा, क्योंकि देवता, ब्राह्मण, भगवान्‌ के भक्त श्रीवैष्णव तथा गौ इन पर हमारे कुल में कोई सुराई अर्थात्‌ सुरता नहीं दिखाई जाती।

**बधे पाप अपकीरति हारे। मारतहूँ पा परिय तुम्हारे॥ कोटि कुलिश सम बचन तुम्हारा। ब्यर्थ धरहु धनु बान कुठारा॥**
भाष्य

आप लोगोें को मारने से पाप होगा और आप से हारने पर अपयश होगा, इसलिए आप के मारते हुए भी हम आप के चरण पर ही पड़ते हैं। हे भगवन! आपका वचन ही करोड़ों वज्रों के समान अमोघ और कठोर है, फिर आप धनुष, बाण और फरसे को निरर्थक ही धारण कर रहे हैं, अर्थात्‌ अपने वचनों से ही प्रबल से प्रबल व्यक्ति को आहत या हत्‌ कर सकते हैं, फिर इन शस्त्रों की क्या आवश्यकता?

**दो०- जो बिलोकि अनुचित कहेउँ, छमहु महामुनि धीर।**

सुनि सरोष भृगुबंशमनि, बोले गिरा गभीर॥२७३॥

भाष्य

यदि फरसे और धनुष–बाण को देखकर, मैंने कुछ अनुचित कह दिया हो तो, हे धैर्यवान्‌ पूजनीय मुनिवर! आप क्षमा करें। यह सुनकर भृगुवंश के रत्न परशुराम जी क्रोध करके गम्भीर वचन अर्थात्‌ गम्भीर अर्थोंवाली वाणी में बोले–

**कौशिक सुनहु मंद यह बालक। कुटिल काल बश निजकुलघालक॥ भानु बंश राकेश कलंकू। निपट निरंकुश अबुध अशंकू॥ काल कवल होइहि छन माहीं। कहउँ पुकारि खोरि मोहि नाहीं॥**
भाष्य

हे विश्वामित्रजी! सुनिये, यह बालक अर्थात्‌ लक्ष्मण, मन्दबुद्धिवाला, टे़ढी प्रवृत्तिवाला, मृत्यु के वश तथा अपने कुल का नाशक है। यह सूर्यवंशरूप चन्द्र का कलंक है। यह अत्यन्त निरंकुश अर्थात्‌ अनुशासन से रहित मूर्ख और निर्भीक है। यह क्षण भर में काल का ग्रास हो जायेगा। मैं पुकार कर अर्थात्‌ जोर–जोर से ऊँचे स्वर में सुना कर कह रहा हूँ, फिर मेरा कोई दोष न होगा।

**तुम हटकहु जौ चहहु उबारा। कहि प्रताप बल रोष हमारा॥**
भाष्य

यदि आप इसको बचाना चाहते हैं तो, मेरे प्रताप, बल और क्रोध कहकर इसे मना कर दीजिये। लखन कहेउ मुनि सुजस तुम्हारा। तुमहि अछत को बरनै पारा॥

**अपने मुँह तुम आपनि करनी। बार अनेक भाँति बहु बरनी॥**
भाष्य

लक्ष्मण जी ने कहा, हे मुनि परशुरामजी! आपका सुयश आपके रहते और कौन कह सकता है? आप ने अपने मुख से अपनी की हुई करनी को अनेक बार अनेक प्रकार से कहा है।

**नहिं संतोष त पुनि कछु कहहू। जनि रिसि रोकि दुसह दुख सहहू॥ बीरब्रती तुम धीर अछोभा। गारी देत न पावहु शोभा॥**
भाष्य

यदि आपको संतोष नहीं हो रहा हो तो पुन: कुछ कहिये, अपने क्रोध रोककर असहनीय दु:ख मत सहिये। आप वीरव्रती अर्थात्‌ नैष्ठिक ब्रह्मचारी, धीर अर्थात्‌ विकारों के कारण के रहने पर भी न विकृत होनेवाले और अक्षोभ अर्थात्‌ इन्द्रियों की चंचलता से रहित हैं। आप गाली देते हुए शोभा को नहीं पा रहे हैं। आपकी शोभा तो आशीर्वाद देने में है।

[[२३३]]

दो०- शूर समर करनी करहिं, कहि न जनावहिं आपु।

बिद्दमान रन पाइ रिपु, कायर करहिं प्रलापु॥२७४॥

भाष्य

शूरवीर लोग युद्ध में करनी अर्थात्‌ रणकौशल करते हैं, परन्तु स्वयं कह कर उसे प्रकट नहीं करते। इसके विपरीत कायर लोग शत्रु को युद्धभूमि में पाकर प्रलाप करते हैं अर्थात्‌ निरर्थक वाणी का प्रयोग करते हैं।

**तुम तौ काल हाँकि जनु लावा। बार बार मोहि लागि बोलावा॥ सुनत लखन के बचन कठोरा। परशु सुधारि धरे कर घोरा॥**
भाष्य

मानो आप काल को तो, पशु के समान हाँककर लाये हैं अर्थात्‌ उसे रस्सी से बाँधकर घसीट लाये हैं, इसलिए इस काल पशु को बार–बार मेरे लिए बुला रहे हैं। लक्ष्मण जी के इस कठोर वचन को सुनकर परशुराम जी ने घोर फरसे को सुधार कर स्कंध के ऊपर से अपने हाथ में ले लिया।

**अब जनि देइ दोष मोहि लोगू। कटुबादी बालक बधजोगू॥ बाल बिलोकि बहुत मैं बाँचा। अब यह मरनिहार भा साँचा॥**
भाष्य

हे लोगों! अब मुझे दोष मत देना। कटु बोलनेवाला यह बालक बध के योग्य है। बालक जानकर इसे मैंने बहुत बचाया, परन्तु यह सत्य ही मरणहार अर्थात्‌ मरने योग्य बन गया है। अथवा, मरण (मृत्यु) ही इसका हार बन गयी है।

**विशेष– ***मरणं** हार: यस्य स मरणहार: *अर्थात्‌ मृत्यु ही जिसका हार बन गयी हो वह मरणहार है।

कौशिक कहा छमिय अपराधू। बाल दोष गुन गनहिं न साधू॥ खर कुठार मैं अकरुन कोही। आगे अपराधी गुरुद्रोही॥ उतर देत छाड़उँ बिनु मारे। केवल कौशिक शील तुम्हारे॥ न तु एहि काटि कुठार कठोरे। गुरुहिं उरिन होतेउँ श्रम थोरे॥

भाष्य

विश्वामित्र जी ने कहा, अपराध क्षमा कीजिये। साधुजन बालकों के गुण और दोष को नहीं गिनते। परशुराम जी ने कहा, मेरा फरसा कठोर है और मैं करुणा रहित और क्रोधी हूँ तथा मेरे आगे अपराध करने वाला गुरुद्रोही, मुझे उत्तर दे रहा है, फिर भी मैं आपके शील के कारण इसे बिना मारे छोड़ रहा हूँ, नहीं तो इसे हठपूर्वक कठोर फरसे से काट कर थोड़े से ही श्रम में (गुरुद्रोही को) दण्ड देकर गुरुदेव से उऋण हो जाता।

**दो०- गाधिसूनु कह हृदय हँसि, मुनिहिं हरिअरइ सूझ।**

अजगव खंडेउ ऊख जिमि, अजहूँ न बूझ अबूझ॥२७५॥

भाष्य

विश्वामित्र जी ने हृदय में हँसकर कहा, मुनि परशुराम जी को हरियाली ही सूझ रही है और हरि अर्थात्‌ भगवान्‌ अरई अर्थात्‌ शत्रुरूप से दिख रहे हैं। जिन प्रभु श्रीराम ने अजगव नामक शिव जी के धनुष को गन्ने के समान तोड़ डाला, उन प्रभु को अब भी यह अबोध परशुराम जी नहीं पहचान पा रहे हैं।

**विशेष– ***पिनाकोऽजगवं** धनु: *अर्थात्‌ जिस धनुष को श्रीराम ने तोड़ा उसके पिनाक और अजगव ये दो नाम थे।

कहेउ लखन मुनि शील तुम्हारा। को नहिं जान बिदित संसारा॥ माता पितहिं उऋन भए नीके। गुरु ऋन रहा सोच बड़ जीके॥ सो जनु हमरेहिं माथे का़ढा। दिन चलि गए ब्याज बहु बा़ढा॥ अब आनिय ब्यवहरिआ बोली। तुरत देउँ मैं थैली खोली॥

[[२३४]]

भाष्य

लक्ष्मण जी ने कहा, हे मुनि परशुरामजी! आपके स्वभाव और चरित्र को कौन नहीं जानता? वह तो संसार में विदित ही है। लक्ष्मण जी काकुवक्रोक्ति में कहने लगे। भगवन्‌! आप माता और पिता से पूर्ण रूप में उऋण हो ही गये। आपके लिए गुरु का ही ऋण शेष रहा, इसलिए आपके मन को बहुत शोक है। वह ऋण मानो मेरे ही मस्तक के निमित्त लिया था। बहुत दिन बीत गये इसका बहुत बड़ा ब्याज (चक्रवृद्धि) ब़ढ गया है। अब आप व्यवहरिया अर्थात्‌ ऋण देनेवाला महाजन को बुला लाइये। मैं थैली (पैसों के सिक्कों की झोली) खोल कर तुरन्त ऋण देकर चुकता कर दूँ।

**सुनि कटु बचन कुठार सुधारा। हाय हाय सब सभा पुकारा॥ भृगुवर परशु देखावहु मोही। बिप्र बिचारि बचउँ नृपद्रोही॥**
भाष्य

लक्ष्मण जी के कटु वचन सुनकर, उन्हें मारने के लिए परशुराम जी ने फरसे को सुधार लिया। सम्पूर्ण सभा हाय! हाय! कहकर चिल्लाने लगी। लक्ष्मण जी बोले हे राजाओं के द्रोही परशुरामजी! आप मुझे फरसा दिखाते हैं। मैं ब्राह्मण विचार करके आपको बचा रहा हूँ।

**मिले न कबहुँ सुभट रन गा़ढे। द्विज देवता घरहि के बा़ढे॥ अनुचित कहि सब लोग पुकारे। रघुपति सयनहिं लखन निवारे॥**
भाष्य

आप को कभी युद्ध में गम्भीर योद्धा नहीं मिला है। ब्राह्मण देवता! आप अपने घर के ही बड़े हैं अर्थात्‌ अपनी माता और तीन भाइयों के समक्ष वीरता का प्रदर्शन करके आप बड़े हो गये। लक्ष्मण जी द्वारा इस प्रतिज्ञा के करते ही, यह वचन अनुचित है, लक्ष्मण जी को इतना कठोर वचन नहीं बोलना चाहिये ऐसा कहकर सब लोग चिल्लाने लगे, फिर प्रभु श्रीराम ने संकेत से लक्ष्मण जी को रोका।

**दो०- लखन उतर आहुति सरिस, भृगुवर कोप कृशानु।**

**ब़ढत देखि जल सम बचन, बोले रघुकुल भानु॥२७६॥ भा०– **आहुति के समान लक्ष्मण जी के उत्तरों से परशुराम जी के क्रोधरूप अग्नि को ब़ढते देखकर रघुकुल के सूर्य भगवान्‌ श्रीराम जल के समान वाणी बोले। जिससे परशुराम जी का क्रोधरूप अग्नि थोड़ा शान्त हो जाये।

नाथ करहु बालक पर छोहू। सूध दूधमुख करिय न कोहू॥ जौ पै प्रभु प्रभाव कछु जाना। तौ कि बराबरी करत अयाना॥

भाष्य

हे नाथ! बालक पर वात्सल्यपूर्ण स्नेह कीजिये। शुद्ध दुधमुँहे बच्चे पर क्रोध मत कीजिये। यदि यह आपका कुछ भी प्रभाव जानता, तो यह अनजान आपकी बराबरी कैसे करता अर्थात्‌ आपके सामने उत्तर कैसे देता?

**जौ लरिका कछु अचगरि करहीं। गुरु पितु मातु मोद मन भरहीं॥ करिय कृपा शिशु सेवक जानी। तुम सम शील धीर मुनि ग्यानी॥**
भाष्य

यदि बालक कुछ अनुचित करता भी है तो गुरु, पिता, माता मन में अत्यन्त प्रसन्न हो जाते हैं। आप लक्ष्मण को बालसेवक जानकर कृपा कीजिये। आप स्वभाव से शमप्रधान अर्थात्‌ शान्तिप्रिय, धीर अर्थात्‌ विकाररहित और ज्ञानीमुनि हैं।

**राम बचन सुनि कछुक जुड़ाने। कहि कछु लखन बहुरि मुसुकाने॥ हँसत देखि नख शिख रिसि ब्यापी। राम तोर भ्राता बड़ पापी॥**

[[२३५]]

भाष्य

श्रीराम जी का वचन सुनकर परशुराम जी कुछ शीतल अर्थात्‌ शान्त हुए, फिर लक्ष्मण जी कुछ कह कर मुस्कुराये। लक्ष्मण जी को हँसते देखकर परशुराम जी का क्रोध उनके चरणों के नख से शिखापर्यन्त व्याप्त हो गया। वे बोले, हे राम! तेरा भ्राता तो बहुत पापी है।

**गौर शरीर श्याम मन माहीं। कालकूट मुख पयमुख नाहीं॥ सहज टे़ढ अनुहरइ न तोही। नीच मीच सम देख न मोही॥**
भाष्य

इसका शरीर तो गोरा है, पर मन से काला है। यह कालकूट अर्थात्‌ विषमुहाँ है, दुधमुहाँ नहीं। यह स्वभाव से टे़ढा है, तुम्हारा अनुगमन नहीं करता यह निकृय् बालक मुझे मृत्यु के समान नहीं देखता।

**दो०- लखन कहेउ हँसि सुनहु मुनि, क्रोध पाप कर मूल।**

**जेहि बश जन अनुचित करहिं, चरहिं बिश्व प्रतिकूल॥२७७॥ भा०– **लक्ष्मण जी ने हँसकर कहा, हे मुनि! सुनिये, यह क्रोध पाप का मूल है, जिसके वश होकर लोग अनुचित कार्य करते हैं और संसार के प्रतिकूल आचरण करते हैं।

मैं तुम्हार अनुचर मुनिराया। परिहरि कोप करिय अब दाया॥ टूट चाप नहिं जुरिहि रिसाने। बैठिय होइहिं पाँय पिराने॥

भाष्य

हे मुनियों के राजा परशुरामजी! मैं आपका अनुगामी सेवक हूँ, क्रोध छोड़ अब दया कीजिये। टूटा हुआ धनुष क्रोध करने से तो नहीं जुड़ेगा। आप बैठ जायें, आपके चरण दु:ख रहे होंगे।

**जौ अति प्रिय तौ करिय उपाई। जोरिय कोउ बड़ गुनी बुलाई॥ बोलत लखनहिं जनक डेराहीं। मष्ट करहु अनुचित भल नाहीं॥**
भाष्य

यदि यह धनुष आपको बहुत प्रिय है तो एक उपाय करना चाहिये, किसी बड़े गुणी अर्थात्‌ ब़ढई को बुलवा कर इसे जुड़वा लेना चाहिये। लक्ष्मण जी के बोलते समय जनक जी बहुत डरते हैं और उनसे कहते हैं कि, आप चुप रहें, इतना अनुचित उत्तर अच्छा नहीं है।

**थर थर काँपहिं पुर नर नारी। छोट कुमार खोट अति भारी॥ भृगुपति सुनि सुनि निरभय बानी। रिसि तन जरइ होइ बल हानी॥**
भाष्य

मिथिलापुर के नर–नारी थर–थर काँप रहें हैं। मन में कहते हैं, छोटे राजकुमार तो बहुत खोटे हैं अर्थात्‌ क्रोधी मुनि को चि़ढा कर बहुत अनर्थ करा रहे हैं। परशुराम जी का शरीर लक्ष्मण जी की निर्भीक वाणी सुन– सुनकर क्रोध से जला जा रहा है अर्थात्‌ उनके शरीर में क्रोध की ज्वाला उठ रही है और उनके बल की हानि होती जा रही है। भाव यह है कि लक्ष्मण जी के निर्भीक वचनों से परशुराम जी का क्रोध ब़ढ रहा है और बल घट रहा है।

**बोले रामहिं देइ निहोरा। बचउँ बिचारि बंधु लघु तोरा॥ मन मलीन तनु सुन्दर कैसे। बिषरस भरा कनक घट जैसे॥**
भाष्य

परशुराम जी श्रीराम जी को निहोरा अर्थात्‌ उनके प्रति कृतज्ञता का भाव प्रकट करते हुए बोले, हे राघव! मैं, तुम्हारा छोटा भाई है ऐसा विचार करके इस लक्ष्मण को बचाता जा रहा हूँ। यह मन से मलिन और शरीर से सुन्दर किस प्रकार से है, जैसे विष के द्रव से भरा हुआ सुवर्ण का घड़ा अर्थात्‌ इसका शरीर तो सुवर्ण के घड़े के समान है, पर मन विषाक्त है।

[[२३६]]

दो०- सुनि लछिमन बिहँसे बहुरि, नयन तरेरे राम।

गुरु समीप गवने सकुचि, परिहरि बानी बाम॥२७८॥

भाष्य

परशुराम जी का यह वचन सुनकर लक्ष्मण जी फिर ठहाका लगाकर हँसे। तब श्रीराम ने लक्ष्मण जी को फटकार भरी क़डी दृय्ि से देखा, जिससे लक्ष्मण जी संकुचित होकर प्रतिकूल वाणी छोड़ गुव्र्देव विश्वामित्र जी के पास चले गये।

**अति बिनीत मृदु शीतल बानी। बोले राम जोरि जुग पानी॥**

**सुनहु नाथ तुम सहज सुजाना। बालक बचन करिय नहिं काना॥ भा०– **भगवान्‌ श्रीराम दोनों हाथ जोड़कर अत्यन्त विनम्र, शीतल और कोमल वाणी बोले, हे नाथ! सुनिये, आप स्वभावत: सुजान अर्थात्‌ सुन्दर ज्ञान से सम्पन्न हैं। इस बालक का वचन अपने कानों का विषय मत बनाइये, अर्थात्‌ अनसुनी कर दीजिये। (एक कान से सुनकर दूसरे कान से निकाल दीजिये।)

बर्रै बालक एक सुभाऊ। इनहिं न संत बिदूषहिं काऊ॥ तेहिं नाहीं कछु काज बिगारा। अपराधी मैं नाथ तुम्हारा॥ कृपा कोप बध बंध गोसाईं। मो पर करिय दास की नाईं॥ कहिय बेगि जेहि बिधि रिसि जाई। मुनिनायक सोइ करौं उपाई॥

भाष्य

बर्रै (काटने वाला मधुमक्खी की जाति का एक कीड़ा) और बालक ये दोनों एक ही प्रकृति के होते हैं। सन्त कभी भी इन्हें छेड़ते नहीं। उस बालक लक्ष्मण ने कुछ भी कार्य नहीं बिगाड़ा है। हे नाथ! आप का अपराधी तो मैं हूँ अर्थात्‌ शिवधनुष मैंने तोड़ा है। आप दास की ही भाँति मुझ पर कृपा, क्रोध, वध (मृत्यु) की व्यवस्था अथवा बंध (बाँधने) का विधान कुछ भी करिये। हे मुनियों के नायक स्वामी! आप शीघ्र कहिये, जिस विधि से आपका क्रोध जाये, मैं वही उपाय करूँ।

**कह मुनि राम जाइ रिसि कैसे। अजहुँ अनुज तव चितव अनैसे॥**

**एहि के कंठ कुठार न दीन्हा। तव मैं काह कोप करि कीन्हा॥ भा०–**परशुराम जी ने कहा, हे राम! मेरा क्रोध कैसे जायेगा? इस समय भी तुम्हारा छोटा भाई अनुचित दृय्ि से ही देख रहा है। इसके गले पर फरसा नहीं दिया अर्थात्‌ इसका गला फरसे से नहीं काटा, तब मैंने क्रोध करके किया ही क्या? अर्थात्‌ मेरे क्रोध का कोई परिणाम ही नहीं निकला। उल्टे क्रोधी–क्रोधी कह कर मेरी निन्दा ही की गयी।

दो०- गर्भ स्रवहिं अवनिप रवनि, सुनि कुठार गति घोर।

परशु अछत देखउँ जियत, बैरी भूपकिशोर॥२७९॥

भाष्य

जिस फरसे की भयंकर गति अर्थात्‌ कीर्ति सुनकर राजपत्नियाँ गर्भपात कर देती हों उसी अपने फरसे के रहते हुए भी मैं अपने शत्रु किशोर राजपुत्र को जीवित देख रहा हूँ।

**बहइ न हाथ दहइ रिसि छाती। भा कुठार कुंठित नृपघाती॥ भयउ बाम बिधि फिरेउ सुभाऊ। मोरे हृदय कृपा कस काऊ॥**
भाष्य

मेरे हाथ आगे नहीं ब़ढ रहे हैं, मेरी छाती क्रोध से जली जा रही है। राजाओं को मारने वाला मेरा यह फरसा कुण्ठित हो गया है अर्थात्‌ इसमें धार नहीं रही। विधाता प्रतिकूल हो गये, मेरा स्वभाव फिर गया अर्थात्‌ उग्र से कोमल बन गया। मेरे हृदय में कब और क्यों कृपा अर्थात्‌ आज कृपा का न तो समय है और न ही कोई कारण, फिर भी मुझमें आज कृपाण के स्थान पर कृपा आ गयी।

[[२३७]]

आजु दया दुख दुसह सहावा। सुनि सौमित्रि बिहँसि सिर नावा॥ बाउ कृपा मूरति अनुकूला। बोलत बचन झरत जनु फूला॥ जौ पै कृपा जरै मुनि गाता। क्रोध भए तनु राख बिधाता॥

भाष्य

आज दया ने मुझे असहनीय दु:ख सहन कराया है। यह सुनकर सुमित्रा जी के पुत्र लक्ष्मण जी ने ठहाके से हँसकर, सिर नवाकर कहा, मुनिवर! आपकी कृपा रूप बयार आपकी मूर्ति के ही अनुकूल है। आप बचन बोल रहे हैं तो मानो फूल झड़ रहे हैं अर्थात्‌ जैसे वायु के झकोरे से हिलते हुए वृक्ष से फूलझड़ी होती है, उसी प्रकार आपकी कृपा के प्रभाव से आपकी मूर्ति भी आपके मुख को माध्यम बनाकर वचनों की फूलझड़ी कर रही है। यदि कृपा के होने पर आपका शरीर जल रहा है, तो हे मुनि! क्रोध के होने पर तो आपके शरीर को विधाता ही रखें।

**देखु जनक हठि बालक एहू। कीन्ह चहत ज़ड जमपुर गेहू॥**

**बेगि करहु किन आँखिन ओटा। देखत छोट खोट नृप ढोटा॥ भा०– **परशुराम जी ने जनक जी को सम्बोधित करते हुए कहा, हे राजा जनक! देखो, यह बालक हठी है और यह ज़डबुद्धि यमपुरी में अपना घर बनाना चाहता है। इसे शीघ्र मेरी आँखों से ओझल क्यों नहीं कर देते? यह राजकिशोर देखने में छोटा, पर बहुत खोटा है।

बिहँसे लखन कहा मुनि पाहीं। मूँदिय आँखि कतहुँ कोउ नाहीं॥

भाष्य

लक्ष्मण जी हँसे और परशुराम जी से कहा, हे मुनिवर! आँख मूँद लीजिये, आँख मूँदने पर कहीं भी कोई नहीं दीख पड़ता क्योंकि मैं विराट्‌ हूँ, आप से पृथक्‌ हो ही नहीं सकूँगा।

**दो०- परशुराम तब राम प्रति, बोले वचन सक्रोध।**

शंभु शरासन तोरि शठ, करसि हमार प्रबोध॥२८०॥

भाष्य

तब परशुरामजी, भगवान्‌ श्रीराम के प्रति क्रोधपूर्वक वचन बोले। अरे शठ! शिव जी का धनुष तोड़कर मेरा प्रबोध करता है अर्थात्‌ मुझे सान्त्वना दे रहा है।

**बंधु कहइ कटु सम्मत तोरे। तू छल बिनय करसि कर जोरे॥ करु परितोष मोर संग्रामा। नाहिं त छाड़ु कहाउब रामा॥**
भाष्य

तेरी ही सम्मति से तेरा छोटा भाई कटु वचन कहता जा रहा है और तू हाथ जोड़कर छलपूर्ण विनय कर रहा है। संग्राम में मेरा परितोष कर अर्थात्‌ मेरे साथ द्वन्द्व युद्ध करके अपने पराक्रम से मुझे संतुय् कर, नहीं तो स्वयं को राम कहलाना छोड़ दे। (अर्थात्‌ राम का वाच्य परब्रह्म ही मुझे युद्ध में संतुष्ट कर सकता है।)

**छल तजि करहि समर शिवद्रोही। बंधु सहित न त मारउँ तोही॥ भृगुपति बकहिं कुठार उठाए। मन मुसुकाहिं राम सिर नाए॥**
भाष्य

हे शिवद्रोही! तू छल छोड़कर मुझसे द्वन्द्व युद्ध कर, नहीं तो तुझे तेरे छोटे भाई के साथ मार डालूँगा। परशुराम जी फरसा उठाकर बक रहे हैं अर्थात्‌ मर्यादारहित वाक्य बोल रहे हैं और सिर नवाये हुए प्रभु श्रीराम मन में मुस्कुरा रहे हैं।

**गुनह लखन कर हम पर रोषू। कतहुँ सुधाइहु ते बड़ दोषू॥ टे़ढ जानि शंका सब काहू। बक्र चंद्रमहिं ग्रसइ न राहू॥**

[[२३८]]

भाष्य

श्रीराम जी विचार कर रहे हैं कि, देखिये, इनके क्षत्रियदमन बलरूप गुण को, अपने वचनचातुर्य से लक्ष्मण ने नष्ट किया। फिर भी परशुराम जी मुझ पर क्रोध कर रहे हैं। कहीं–कहीं सरलता से भी बहुत दोष हो जाता है। लोक में भी टे़ढा जानकर सभी को भय लगता है। राहु भी टे़ढे चन्द्रमा को नहीं ग्रसता।

विशेष

गुणं** क्षत्रिय दमनोचित पराक्रमं बलं हन्ति इति गुणह:। अर्थात्‌ लक्ष्मण जी ने अपने निर्भीक वचनों से परशुराम जी में क्रोध का संचार किया, जिससे परशुराम जी का बल समाप्त हो गया। यथा– भृगुपति सुनि सुनि निरभय वाणी। रिसि तन जरइ होइ बल हानी॥ मानस, १.२७८.६। अत: यहाँ ‘गुनह’ *शब्द फारसी भाषा का अपराध वाचक नहीं मानना चाहिये।

राम कहेउ रिसि तजिय मुनीशा। कर कुठार आगे यह शीशा॥ जेहिं रिसि जाइ करिय सोइ स्वामी। मोहि जानिय आपन अनुगामी॥

भाष्य

भगवान्‌ श्रीराम ने कहा, हे मुनियों के ईश्वर परशुरामजी! आप क्रोध छोड़ दीजिये। आपके हाथ में फरसा और आपके ही समक्ष मेरा यह सिर, आपको कहीं दूर नहीं जाना है। हे स्वामी! जिस प्रकार से आप का क्रोध जा रहा हो, आप वही कीजिये। आपको मुझे अपना अनुगमन करनेवाला सेवक ही मानना चाहिये।

**दो०- प्रभुहिं सेवकहिं समर कस, तजहु बिप्रवर रोष।**

बेष बिलोकि कहेसि कछु, बालकहूँ नहिं दोष॥२८१॥

भाष्य

स्वामी और सेवक के बीच युद्ध कैसा? हे ब्राह्मणश्रेष्ठ! क्रोध छोड़ दीजिये, आप को क्षत्रियोचित्‌ परिवेष में देखकर लक्ष्मण ने कुछ कह दिया। बालक लक्ष्मण का भी कोई दोष नहीं है।

**देखि कुठार बान धनु धारी। भइ लरिकहिं रिसि बीर बिचारी॥ नाम जान पै तुमहिं न चीन्हा। बंश स्वभाव उतर तेहिं दीन्हा॥**
भाष्य

आपको फरसा, बाण और धनुष धारण किये हुए देखकर और वीर विचार करके बालक को क्रोध हो गया होगा। वह आपका नाम जानता था, परन्तु उसने आपको पहचाना नहीं था। क्षत्रियवंश के स्वभाव के कारण आपके अनुचित वाक्यों का उसने प्रत्युत्तर दे दिया।

**जौ तुम औतेहु मुनि की नाईं। पदरज सिर शिशु धरत गोसाईं॥ छमहु चूक अनजानत केरी। चहिय बिप्र उर कृपा घनेरी॥**
भाष्य

हे स्वामी! यदि आप मुनि की भाँति आये होते तो यह बालक आपके चरणधूलि को सिर पर धारण करता। अज्ञान की इस चूक अर्थात्‌ त्रुटि को क्षमा कीजिये। ब्राह्मण के हृदय में तो बहुत अधिक कृपा होनी चाहिये।

**हमहिं तुमहिं सरबरि कसि नाथा। कहहु त कहाँ चरन कहँ माथा॥ राम मात्र लघु नाम हमारा। परशुसहित बड़ नाम तुम्हारा॥**
भाष्य

हे नाथ! हमारी, आपकी क्या तुलना और हमारा आपका क्या वाद–विवाद? भला बताइये तो, कहाँ चरण और कहाँ मस्तक अर्थात्‌ मैं आपके चरण का सेवक हूँ और आप मस्तक के समान सब के पूज्य। सबसे छोटे की सबसे बड़े के साथ क्या तुलना? राम (‘रा’, ‘म’ ) यह दो अक्षर का सब से छोटा मेरा नाम और आपका तो परशु के साथ बहुत बड़ा पाँच अक्षरों का परशुराम नाम है। अत: परशुराम से राम की क्या तुलना और परशुराम को राम से क्या ईर्ष्या?

[[२३९]]

देव एक गुन धनुष हमारे। नव गुन परम पुनीत तुम्हारे॥ सब प्रकार हम तुम सन हारे। छमहु बिप्र अपराध हमारे॥

भाष्य

हे देव! मेरे पास तो धनुष ही एकमात्र गुण है और आपके पास तो अत्यन्त पवित्र यज्ञोपवीत के शम, दम, तप, शौच, क्षान्ति, आर्जव, ज्ञान, विज्ञान और आस्तिक्य ये नौ गुण हैं। हम सब प्रकार से आप से हारे हुए हैं। हे ब्राह्मणदेव! हमारे अपराधों को क्षमा कीजिये।

**दो०- बार बार मुनि बिप्रवर, कहा राम सन राम।**

बोले भृगुपति सरुष हँसि, तहूँ बंधु सम बाम॥२८२॥

भाष्य

इस प्रकार (परशुराम) को श्रीराम भगवान्‌ ने बार–बार मुनि और विप्रवर कहा, तब भृगुवंश के स्वामी क्रोधपूर्वक बोले, तू भी अपने भाई के समान टे़ढा है।

**निपटहिं द्विज करि जानहि मोही। मैं जस बिप्र सुनावउँ तोही॥ चाप स्रुवा शर आहुति जानू। कोप मोर अति घोर कृशानू॥ समिध सैन चतुरंग सुहाई। महा महीप भए पशु आई॥ मैं एहिं परशु काटि बलि दीन्हे। समर जग्य जग कोटिन कीन्हे॥**
भाष्य

क्या तू मुझे केवल ब्राह्मण करके ही समझता है। मैं जैसा ब्राह्मण हूँ, वह तुझे सुना रहा हूँ। मेरे धनुष को स्त्रुवा और उससे छूटने वाले बाणों को आहुति समझ। मेरा क्रोध अत्यन्त भयंकर अग्नि है। राजाओं की सुहावनी चतुरंगिणी सेनायें ही समिधा बनीं और बड़े-बड़े मूर्धाभिषिक्त पृथ्वीपति राजे–महाराजे ही बलि–पशु बने। मैंने इसी फरसे से काटकर बलि दिये और संसार में करोड़ों समरयज्ञ कर डाला।

**मोर प्रभाव बिदित नहिं तोरे। बोलसि निदरि बिप्र के भोरे॥ भंजेउ चाप दाप बड़ बा़ढा। अहमिति मनहुँ जीति जग ठा़ढा॥**
भाष्य

मेरा प्रभाव तुझे विदित नहीं है, इसलिए ब्राह्मण के धोखे से मेरा अपमान करके तू बोलता रहा। धनुष तोड़ा तो तेरा बहुत गर्व ब़ढ गया। तुझे अहंकार इतना है, मानो संसार को जीत कर ख़डा हुआ है।

**राम कहा मुनि कहहु बिचारी। रिसि अति बलिड़ घु चूक हमारी॥ छुअतहिं टूट पिनाक पुराना। मैं केहि हेतु करौं अभिमाना॥**
भाष्य

प्रभु श्रीराम ने कहा, वेद, शास्त्रों के तत्त्व को समझने वाले मननशील मुनि! आप विचार करके कहें, आपका क्रोध बहुत बड़ा है और हमारी भूल बहुत छोटी है। बहुत पुराना शिव जी का पिनाक धनुष मेरे स्पर्श करते ही टूट गया। मैंने उसमें कोई श्रम नहीं किया तो फिर मैं किस कारण अभिमान करूँ।

**दो०- जौ हम निदरहिं बिप्र बदि, सत्य सुनहु भृगुनाथ।**

तौ अस को जग सुभट जेहि, भय बश नावहिं माथ॥२८३॥

भाष्य

हे भृगुकुल के स्वामी परशुरामजी! सुनिये, यदि हम ब्राह्मण जानकर आप का अपमान करते हों तो हम

सत्यप्रतिज्ञा करके कहते हैं कि, इस संसार में ऐसा कौन सा सुन्दर वीर है, जिसे हम भयवश सिर नवायेंगे?

देव दनुज भूपति भट नाना। समबल अधिक होउ बलवाना॥ जौ रन हमहिं पचारै कोऊ। लरहिं सुखेन काल किन होऊ॥ छत्रिय तनु धरि समर सकाना। कुल कलंक तेहिं पामर आना॥

[[२४०]]

कहउँ स्वभाव न कुलहिं प्रशंसी। कालहु डरहिं न रन रघुबंसी॥ बिप्रवंश कै असि प्रभुताई। अभय होइ जो तुमहिं डेराई॥

भाष्य

देवता, दैत्य, राजा और अनेक प्रकार के वीर इनमें कोई समान बलवाले हों अथवा, अधिक बलवान हों, जो भी हमें युद्ध में ललकारेगा उससे हम सुखपूर्वक युद्ध करेंगे। काल भी क्यों न हो क्षत्रिय शरीर धारण करके जो युद्ध में डरा, उस क्षत्रियाधम ने अपने कुल में कलंक ला दिया। मैं स्वभाव कहता हूँ, कुल की प्रशंसा नहीं करता हूँ। रघुवंशी लोग युद्ध में काल से भी नहीं डरते, फिर भी हम आप से डर रहे हैं और आपको प्रणाम कर रहे हैं। अत: ब्राह्मण जानकर हम आपका अपमान कर रहे हैं, यह आपका पूर्ण भ्रम है। ब्राह्मणवंश की ऐसी प्रभुता है कि, जो आपसे डरता है, वह सर्वत्र अभय हो जाता है। अथवा, जो अभय अर्थात्‌ परमात्मा भी है, वह भी आप से डरता है।

**सुनि मृदु गू़ढ बचन रघुपति के। उघरे पटल परशुधर मति के॥**
भाष्य

इस प्रकार रघु अर्थात्‌ सम्पूर्ण जीवजगत्‌ मात्र के पति अर्थात्‌ पालक भगवान्‌ श्रीराम के कोमल किन्तु गोपनीय रहस्यों से भरे पिछले छ: पंक्तियों में कहे हुए षडैश्वर्यबोधक वचन सुनकर परशुधर अर्थात्‌ फरसा धारण करनेवाले परशुराम जी की बुद्धि के मोह के परदे खुल गये।

**राम रमापति कर धनु लेहू। खैंचहु मिटै मोर संदेहू॥ देत चाप आपुहिं चढि़ गयऊ। परशुराम मन बिसमय भयऊ॥**
भाष्य

परशुराम जी बोले, हे राम (योगियों के रमण स्थान) सच्चिदानन्द, परब्रह्म परमात्मा आप लक्ष्मीपति विष्णु जी का यह धनुष मुझसे लीजिये इसे खींचिये और इस पर प्रत्यंचा च़ढा दीजिए जिससे मेरा संदेह मिट जाये। यह कहकर प्रभु श्रीराम के हाथ में वैष्णव धनुष देते ही वह स्वयं च़ढ गया। परशुराम जी के मन में बहुत आश्चर्य हुआ।

**दो०- जाना राम प्रभाव तब, पुलक प्रफुल्लित गात।**

जोरि पानि बोले बचन, हृदय न प्रेम अमात॥२८४॥

भाष्य

तब परशुराम जी ने भगवान्‌ श्रीराम का प्रभाव जान लिया, उनका शरीर रोमांच से प्रफुल्लित हो गया, उनके हृदय में प्रेम नहीं समा रहा था। वे हाथ जोड़कर प्रभु श्रीराम से यह वचन बोले–

**जय रघु बंश बनज बन भानू। गहन दनुज कुल दहन कृशानू॥ जय सुर बिप्र धेनु हितकारी। जय मद मोह कोह भ्रमहारी॥ बिनय शील करुना गुन सागर। जयति बचन रचना अति नागर॥ सेवक सुखद सुभग सब अंगा। जय शरीर छबि कोटि अनंगा॥ करौं काह मुख एक प्रशंसा। जय महेश मन मानस हंसा॥ अनुचित बहुत कहेउँ अग्याता। छमहु छमामंदिर दोउ भ्राता॥ कहि जय जय जय रघुकुलकेतू। भृगुपति गए बनहिं तप हेतू॥**
भाष्य

परशुराम जी बोले, हे रघुवंशरूप कमल के सूर्य! आपकी जय हो। हे अत्यन्त घने दैत्यरूप वन को जलाने के लिए अग्नि रूप प्रभो! आपकी जय हो। हे देवता, ब्राह्मण और गौओं के हितकारी! आपकी जय हो। हे मद, मोह, क्रोध और भ्रम को हरनेवाले परमेश्वर! आपकी जय हो। हे विनम्रता, शील, करुणा आदि गुणगणों के सागर और वचन रचना में अत्यन्त कुशल परमेश्वर! आपकी जय हो। हे सेवकों को सुख देनेवाले, हे सर्वांग

[[२४१]]

सुन्दर, हे करोड़ों कामदेवों के समान छवि से युक्त शरीर वाले परमात्मा! आपकी जय हो। मैं एक मुख से आपकी कैसे प्रशंसा करूँ? हे शिव जी के मन रूप मानस सरोवर के हंस! आपकी जय हो। मैंने आपको न जानकर, बहुत अनुचित कहा। हे क्षमा के मंदिर दोनों भ्राता श्रीराम–लक्ष्मण! आप मुझे क्षमा कीजिये। हे रघुकुल के पताकास्वरूप श्रीराम! आपकी जय हो। इस प्रकार नौ बार जय कहकर भृगुकुल के स्वामी परशुराम जी तपस्या के लिए वन को चले गये।

**अपभय कुटिल महीप डेराने। जहँ तहँ कायर गवँहिं पराने॥ भा०– **अपने ही भय से कुटिल राजा डर गये और वे कायर लोग जहाँ–तहाँ चुपके–चुपके भाग गये।

दो०- देवन दीन्हीं दुंदुभी, प्रभु पर बरषहिं फूल।

हरषे पुर नर नारि सब, मिटेउ मोह भय शूल॥२८५॥

भाष्य

देवताओं ने नगारे बजाये और प्रभु श्रीराम पर पुष्पों की वर्षा करने लगे। मिथिलापुर के सभी नर–नारी प्रसन्न हुए उनके मोह, भय और कय् मिट गये।

**अति गहगहे बाजने बाजे। सबहिं मनोहर मंगल साजे॥**

**जूथ जूथ मिलि सुमुखि सुनयनी। करहिं गान कल कोकिलबयनी॥ भा०– **मिथिला में अत्यन्त घने मंगलवाद्द बजने लगे। सभी ने सुन्दर मंगल सजाये। यूथ–यूथ में मिलकर सुन्दर मुखोंवाली, सुन्दर नेत्रोंवाली, कोकिल के सामन बोलनेवाली मैथिलानियाँ मंगलगीत गाने लगीं।

सुख बिदेह कर बरनि न जाई। जनम दरिद्र मनहुँ निधि पाई॥ बिगत त्रास भइ सीय सुखारी। जनु बिधु उदय चकोरकुमारी॥

भाष्य

जनक जी के सुख का वर्णन नहीं किया जा सकता। वे इतने प्रसन्न हुए, मानो जन्मजात दरिद्र ने निधि प्राप्त कर ली हो। परशुराम जी का त्रास नष्ट हुआ, सीता जी सुखी हुईं, मानो चन्द्रमा के उदय होने पर चकोर की कुमारी प्रसन्न हो गयी हो।

**जनक कीन्ह कौशिकहिं प्रनामा। प्रभु प्रसाद धनु भंजेउ रामा॥ मोहि कृतकृत्य कीन्ह दुहुँ भाई। अब जो उचित सो कहिय गोसाई॥**
भाष्य

जनक जी ने विश्वामित्र जी को प्रणाम किया और कहा कि, हे प्रभु! आपके प्रसाद से ही राम जी ने धनुष तोड़ा, अथवा, आपकी प्रसन्नता के लिए प्रभु श्रीराम ने धनुष तोड़ा अर्थात्‌ शिवधनुष तो प्रभु श्रीराम के संकल्पमात्र से टूट गया होता और सीता जी तो उनकी शाश्वत धर्मपत्नी हैं ही, पर प्रभु ने धनुर्भंग–लीला आपकी प्रसन्नता के लिए की। हे स्वामी! दोनों भाई श्रीराम–लक्ष्मण ने आज मुझे कृतकृत्य कर दिया, क्योंकि परशुराम मदभंग–प्रसंग से मुझे धनुष के क्षरत्व का, श्रीलक्ष्मण के अक्षरत्व का और श्रीराम के पुरुषोत्तमत्त्व का ज्ञान हो गया। अत: मैं कृतकृत्य हो गया। अब मेरे लिए जो उचित कर्त्तव्य हो आप वह कहें।

**कह मुनि सुनु नरनाथ प्रबीना। रहा बिबाह चाप आधीना॥ टूटतहीं धनु भयउ बिबाहू। सुर नर नाग बिदित सब काहू॥**
भाष्य

मुनि विश्वामित्र जी ने कहा, हे चतुर नरेश जनकजी! सुनिये, आपकी प्रतिज्ञा के अनुसार सीता जी का विवाह धनुष के आधीन था। धनुष के टूटते ही भगवती सीता जी का भगवान्‌ श्रीराम से विवाह हो गया। यह तथ्य देवताओं, मुनियांें और नागों को ज्ञात हो चुका है, फिर भी श्रीसीताराम नरलीला कर रहे हैं, अतएव, नरलोक के सुख के लिए वैदिक विवाहविधि होनी ही चाहिये।

[[२४२]]

दो०- तदपि जाइ तुम करहु अब, जथा बंश ब्यवहार।

बूझि बिप्र कुलबृद्ध गुरु, बेदबिदित आचार॥२८६॥

भाष्य

फिर भी यहाँ से जाकर तुम, ब्राह्मणों, कुल के वृद्धों, अपने कुलगुरु याज्ञवल्क्यजी, और शतानन्द जी से पूछकर, जिस प्रकार तुम्हारे वंश का व्यवहार हो और जिस प्रकार वेदों में विदित ब्राह्मविवाह का आचार अर्थात्‌ पद्धति हो वह सब करो।

**दूत अवधपुर पठवहु जाई। आनहिं नृप दशरथहिंबोलाई॥ मुदित राउ कहि भलेहि कृपाला। पठए दूत बोलि तेहि काला॥**
भाष्य

तुम यहाँ से जाकर श्रीअवध के लिए दूत भेजो। वे चक्रवर्ती महाराज दशरथ को (वरयात्रा के विधान के अनुसार) बुला लायें। महाराज जनक जी ने प्रसन्न होकर कहा, हे कृपालु! बहुत अच्छा अर्थात्‌ आपका सुझाव बहुत उचित है। यह कहकर, उसी समय विश्वामित्र जी के सामने ही, सत्यव्रत आदि दूतों को बुलाकर विश्वामित्र जी के हाथों लग्न पत्रिका लिखवाकर, दोनों के संयुक्त हस्ताक्षर से युक्त पत्रिका देकर महाराज जनक जी ने दूत श्रीअवध भेज दिये।

**बहुरि महाजन सकल बोलाए। आइ सबनि सादर सिर नाए॥ हाट बाट मंदिर सुरबासा। नगर सवाँरहु चारिहुँ पासा॥**
भाष्य

फिर जनक जी ने सभी महाजनों (निर्माणकुशल शिल्पियों) को बुलाया और सब ने आदरपूर्वक सिर नवाकर महाराज को प्रणाम किया। महाराज ने आज्ञा दी, नगर और इसके चारों ओर वर्तमान बाजार, मार्ग, राजभवन तथा देवालयों को व्यवस्थित करके सजाओ।

**हरषि चले निज निज गृह आए। पुनि परिचारक बोलि पठाए॥ रचहु बिचित्र बितान बनाई। सिर धरि बचन चले सचु पाई॥**
भाष्य

वे प्रसन्नतापूर्वक चले और अपने–अपने घर आये, फिर उन्होंने परिचारकों (अनुबंधकर्त्ताओं) को बुला भेजा और उनसे कहा, तुम लोग विशिष्ट चित्रोंवाले सुन्दर–सुन्दर वितानों (मण्डपों) को रच–रच कर बनाओ। वे

सेवक भी महाजनों के वचनों को सिर पर धारण करके सुख पाकर चल पड़े।

पठए बोलि गुनी तिन नाना। जे बितान बिधि कुशल सुजाना॥ बिधिहि बंदि तिन कीन्ह अरंभा। बिरचे कनक कदलि के खंभा॥

भाष्य

उन लोगों ने भी अनेक शिल्पियों को बुला भेजा, जो मण्डप बनाने की विधि में चतुर और निपुण थे। उन्होंने ब्रह्मा जी की वन्दना करके निर्माण का कार्य आरम्भ किया और स्वर्ण के केले के खम्भे बनाये।

**दो०- हरित मनिन के पत्र फल, पदुमराग के फूल।**

रचना देखि बिचित्र अति, मन बिरंचि कर भूल॥२८७॥

भाष्य

उन्होंने हरी–हरी मणियों (पन्ना) के पत्ते और फल बनाये। पद्‌मराग मणि के पीले–पीले पुष्प बनाये उनकी अत्यन्त विचित्र रचना देखकर वहाँ ब्रह्मा जी का मन भी भूल जाता था।

**बेनु हरित मनिमय सब कीन्हें। सरल सपरब परहिं नहिं चीन्हें॥ कनक कलित अहिबेलि बनाई। लखि नहिं परइ सपरन सुहाई॥ तेहि के रचि पचि बन्ध बनाए। बिच बिच मुक्ता दाम सुहाए॥**

[[२४३]]

मानिक मरकत कुलिश पिरोजा। चीरि कोरि पचि रचे सरोजा॥ किए भृंग बहुरंग बिहंगा। गुंजहिं कूजहिं पवन प्रसंगा॥ सुर प्रतिमा खंभन गढि़ का़ढीं। मंगल द्रब्य लिए सब ठा़ढीं॥ चौके भाँति अनेक पुराई। सिंधुर मनिमय सहज सुहाई॥

दो०- सौरभ पल्लव सुभग सुठि, किए नीलमनि कोरि।

हेम बौर मरकत घवरि, लसत पाटमय डोरि॥२८८॥

भाष्य

उन्होंने हरितमणि अर्थात्‌ पन्ना से, सीधे और गाँठों के सहित सुन्दर सभी बाँस के वृक्ष बनाये, जो पहचान में ही नहीं आते थे कि, कृत्रिम हैं या स्वाभाविक। उन्होंने स्वर्ण की नागबेलि अर्थात्‌ पान की लतायें बनायी, जो सुहावनी और सुन्दर पत्तों से युक्त होने के कारण पहचान में ही नहीं आती थी कि, वे वास्तविक हैं या अवास्तविक। उन्हीं के बीच–बीच में पच्चीकारी करके बन्ध बनाये और मध्य–मध्य में मुक्ता के, मोतियों की झालरें भी बनायी। लाल माणिक्य, नील मरकत, श्वेत हीरे और पीले पुखराज के कोणों को चीरकर पच्चीकारी के साथ लाल, नीले, पीले और श्वेत कमल बनाये। उनमें उन्होंने बहुत से भ्रमर और पक्षी भी बनाये, जो वायु के साथ मिलकर गुन्जार करते और बोलते थे। खम्भों में शिल्पियों ने देवताओं की प्रतिमायें ग़ढ कर निकालीं। वे सभी (मूर्तियाँ) मंगलद्रव्य लिए ख़डी थीं। अनेक प्रकार की परमसुन्दर गजमुक्ताओं से पूर कर चौकें बनायी गयी थीं। मरकतमणि को कुरेद कर, उन्होंने बहुत सुन्दर आम के पल्लव भी बनाये। वहाँ रेशम की डोर में सुवर्ण के बौर (आम के फूल) और मरकतमणि के घवर (आम के फलों के झब्बे अर्थात्‌ वृन्त) सुशोभित हो रहे थे।

**रचे रुचिर बर बंदनवारे। मनहुँ मनोभव फंद सँवारे॥**

मंगल कलश अनेक बनाए। ध्वज पताक पट चमर सुहाए॥

भाष्य

अनेक प्रकार के सुन्दर वंदनवार बनाये गये थे। मानो कामदेव ने लोगों को फँसाने के लिए अपने फन्दे सँवारे हों। अनेक प्रकार के मंगलकलश और सुहावनी ध्वजायें, पताकायें, सुन्दर वस्त्रों के परदे और झालरें तथा चामर भी सुशोभित थे।

**दीप मनोहर मनिमय नाना। जाइ न बरनि बिचित्र बिताना॥ जेहिं मंडप दुलहिनि बैदेही। सो बरनै असि मति कबि केही॥**
भाष्य

अनेक मणिमय दीपक भी बनाये गये और विचित्र मण्डपों का वर्णन नहीं किया जा सकता। जिस मण्डप में दुल्हन (विवाहोन्मुखी) सीता जी विराजेंगी उसका वर्णन कर सके ऐसी बुद्धि किस कवि के पास है?

**दूलह राम रूप गुन सागर। सो बितान तिहुँ लोक उजागर॥ जनक भवन कै शोभा जैसी। गृह गृह प्रति पुर देखिय तैसी॥**
भाष्य

जिस मण्डप में रूप और गुणों के सागर श्रीराम दूल्हा (वर) रूप में विराजमान होंगे, वह मण्डप तो तीनों लोकों में उजागर हो रहा है अर्थात्‌ सर्वश्रेष्ठ रूप में सुशोभित हो रहा है। महाराज जनक के भवन की जैसी शोभा थी, उसी प्रकार की शोभा जनकपुर के प्रत्येक गृह में दिख पड़ती थी।

**जेहिं तिरहुति तेहि समय निहारी। तेहि लघु लगै भुवन दस चारी॥ जो संपदा नीच गृह सोहा। सो बिलोकि सुरनायक मोहा॥**
भाष्य

उस समय (श्रीसीताराम विवाह के पूर्व) जिसने भी जनकपुर का निरीक्षण किया, उसको चौदहों भुवन जनकपुर की अपेक्षा छोटे ही लगे। सामान्य कोटि की प्रजा के घर में अथवा, चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारी के घर में जो संपत्ति शोभित हो रही थी उसे देखकर देवताओं के राजा इन्द्र भी मोहित हो जाते थे।

[[२४४]]

दो०- बसइ नगर जेहिं लक्ष्मि करि, कपट नारि बर बेष।

तेहि पुर की शोभा कहत, सकुचहिं शारद शेष॥२८९॥

भाष्य

जिस नगर में माया से श्रेष्ठ नारी का वेश बनाकर श्रीसीतारूपिणीं महालक्ष्मी विराजती हों अथवा, जिस नगर में भगवती आदिशक्ति श्रीसीता की सेवा करने के लिए वैकुण्ठ, क्षीरसागर और श्वेत द्वीप की लक्ष्मी जी ही माया से श्रेष्ठ नारी अर्थात्‌ राजकुमारी का वेश बनाकर उर्मिला, मांडवी और श्रुतिकीर्ति के रूप में विराजती हैं, उस जनकपुर की शोभा कहने में सरस्वती जी और शेष भी संकुचित हो जाते हैं।

**पहुँचे दूत राम पुर पावन। हरषे नगर बिलोकि सुहावन॥ भूप द्वार तिन खबरि जनाई। दशरथ नृप सुनि लिए बोलाई॥**
भाष्य

सत्यव्रत आदि जनक जी के दूत, पवित्र श्रीरामपुर (श्रीअवध धाम) पहुँच गये। नगर को सुन्दर देखकर वे प्रसन्न हुए। उन्होंने चक्रवर्ती जी के राजद्वार पर जाकर प्रतिहारों द्वारा महाराज को अपने आने का समाचार दिया। महाराज ने सुनते ही जनकराज के दूतों को अपने पास बुला लिया।

**करि प्रनाम तिन पाती दीन्ही। मुदित महीप आपु उठि लीन्ही॥ बारि बिलोचन बाँचत पाती। पुलक गात आई भरि छाती॥**
भाष्य

जनक जी के दूतों ने प्रणाम करके, चक्रवर्ती जी को जनकराज की पत्रिका दी। महाराज ने प्रसन्न होकर सिंहासन से उठकर स्वयं पत्रिका ले ली। पत्रिका का वाचन करते हुए महाराज दशरथ जी के आँखों में आँसू आ गये। उनका शरीर रोमांचित हुआ और हृदय भर आया।

**राम लखन उर कर बर चीठी। रहि गए कहत न खाटी मीठी॥ पुनि धरि धीर पत्रिका बाँची। हरषी सभा बात सुनि साँची॥**
भाष्य

उनके हृदय में श्रीराम–लक्ष्मण और हाथ में श्रेष्ठ पत्रिका थी, इन दोनों के समागम से महाराज थोड़ी देर तक स्तब्ध रहे। पत्रिका में लिखे ताटका, मारीच, सुबाहु के आक्रमण, अहल्याश्रम का निरीक्षण, शिवधनुष की कठोरता, परशुराम के क्रोध जैसे खट्टे अर्थात्‌ कटु समाचार पुन: राक्षसों पर विजय, अहल्योद्धार, शिव–धनुर्भंग, सीता–जयमाल समर्पण और परशुराम पराजय जैसे मीठे समाचारों को भी महाराज नहीं कह सके। फिर धैर्य धारण करके महाराज ने स्वयं पत्रिका का वाचन किया। सब बातें सत्य सुनकर राजसभा बहुत प्रसन्न हुई।

**खेलत रहे तहाँ सुधि पाई। आए भरत सहित लघु भाई॥ पूछत अति सनेह सकुचाई। तात कहाँ ते पाती आई॥**
भाष्य

सरयू तट पर खेलते हुए, वहीं पर जनकराज की पत्रिका के आने का समाचार पाकर, छोटे भैया शत्रुघ्न के साथ भरत जी राजसभा में आ गये। अत्यन्त प्रेम से संकोच करके दशरथ जी से पूछने लगे, हे पिताश्री! यह पत्रिका कहाँ से आई है?

**दो०- कुशल प्रानप्रिय बंधु दोउ, अहहिं कहहु केहिं देश।**

सुनि सनेह साने बचन, बाँची बहुरि नरेश॥२९०॥

भाष्य

पिता श्री बताईये, हमारे प्राण प्रिय दोनों भाई श्रीराम–लक्ष्मण कुशल से किस देश में रह रहे हैं? इस प्रकार, भरत जी के प्रेम से सने हुए वचन सुनकर महाराज ने जनक जी की पत्रिका का फिर वाचन किया।

**सुनि पाती पुलके दोउ भ्राता। अधिक सनेह समात न गाता॥ प्रीति पुनीत भरत कै देखी। सकल सभा सुख लहेउ बिशेषी॥**

[[२४५]]

भाष्य

पत्रिका सुनकर दोनों भाई श्रीभरत और श्रीशत्रुघ्न रोमांचित हो उठे। उनका अत्यधिक स्नेह उनके शरीर में नहीं समा रहा था। श्रीभरत की प्रभु श्रीराम पर पवित्र प्रीति देखकर सम्पूर्ण राजसभा ने विशेष सुख प्राप्त किया।

**तब नृप दूत निकट बैठारे। मधुर मनोहर बचन उचारे॥ भैया कहहु कुशल दोउ बारे। तुम नीके निज नयन निहारे॥**
भाष्य

तब महाराज दशरथ जी ने दूतों को अपने निकट बैठा लिया और मधुर तथा सुन्दर वचन बोले, भैया! पहले अपना कुशल सुनाओ और यह बताओ कि, तुमने मेरे दोनों बालकोें को सकुशल अपनी आँखों से निहारा है?

**श्यामल गौर धरे धनु भाथा। बय किशोर कौशिक मुनि साथा॥ पहिचानहु तुम कहहु सुभाऊ। प्रेम बिबश पुनि पुनि कह राऊ॥**
भाष्य

वे श्यामल और गोरे वर्ण के हैं, धनुष और तरकस धारण करते हैं, उनकी किशोरावस्था है और वे ब्रह्मर्षि विश्वामित्र जी के साथ हैं। यदि तुम उन्हें पहचानते हो तो उनके स्वभाव का वर्णन करो, क्योंकि प्रभु श्रीराम के स्वभाव के जैसा स्वभाव त्रिलोक में किसी का नहीं है। इस प्रकार, प्रेम के विवश होकर महाराज ने बार–बार पूछा।

**जा दिन ते मुनि गए लिवाई। तब ते आजु साँचि सुधि पाई॥ कहहु बिदेह कवन बिधि जाने। सुनि प्रिय बचन दूत मुसुकाने॥**
भाष्य

जब से श्री विश्वामित्र जी मेरे पुत्रों को लेकर गये हैं, तब से आज ही मैंने सत्य समाचार पाया है। बताओ, जनक जी ने मेरे राघव जी को कैसे जाना? महाराज के प्रिय वचन सुनकर जनक जी के दूत मुस्कुरा पड़े।

**दो०- सुनहु महीपति मुकुट मनि, तुम सम धन्य न कोउ।**

राम लखन जिनके तनय, बिश्व बिभूषन दोउ॥२९१॥

भाष्य

हे राजाओं के मुकुटमणि चक्रवर्ती महाराज! सुनिये, आप के समान कोई भी प्राणी धन्य नहीं है। विश्व के आभूषणस्वरूप श्रीराम–लक्ष्मण जिन आप के दोनों पुत्र हैं।

**पूछन जोग न तनय तुम्हारे। पुरुष सिंघ तिहुँ पुर उजियारे॥**
भाष्य

महाराज पुरुषों में सिंह के समान तीनों लोक में प्रकाशमान आप के दोनों पुत्र श्रीराम–लक्ष्मण पूछने योग्य नहीं हैं।

**जिन के जस प्रताप के आगे। शशि मलीन रबि शीतल लागे॥ तिन कहँ कहिय नाथ किमि चीन्हें। देखिय रबि कि दीप कर लीन्हें॥**
भाष्य

जिनके यश और प्रताप के सामने चन्द्रमा मलिन और सूर्यनारायण शीतल लगने लगते हैं। हे नाथ! उनके लिए आप कहते हैं कि, उन्हें तुमने कैसे पहचाना? क्या हाथ में दीपक लेकर सूर्यनारायण को देखा जाता है? अर्थात्‌ उनको देखने के लिए किसी उपकरण की आवश्यकता नहीं होती।

**सीय स्वयंबर भूप अनेका। सिमटे सुभट एक ते एका॥ शंभु शरासन काहु न टारा। हारे सकल बीर बरिआरा॥**

[[२४६]]

तीनि लोक महँ जे भटमानी। सब कै शक्ति शंभु धनु भानी॥ सकइ उठाइ शरासुर मेरू। सोउ हिय हारि गयउ करि फेरू॥ जेहि कौतुक शिव शैल उठावा। सोउ तेहि सभा पराभव पावा॥

भाष्य

सीता जी के स्वयंवर मंें अनेक राजा एक से एक सुन्दर भट योद्धा सिमट कर आये थे अर्थात्‌ इकट्ठे हुए थे। शिव जी का धनुष कोई हिला भी नहीं सका और सभी बलवान वीर हार गये। तीनों लोक में जो भी भट माने जानेवाले अर्थात अपने को वीर मानने वाले योद्धा थे, शिव जी के धनुष ने सबकी शक्ति नष्ट कर दी। जो बाणासुर सुमेव्र् पर्वत को भी उठा सकता है, वह भी हृदय में हार कर शिवधनुष की परिक्रमा करके लौट गया। जिस रावण ने खेल–खेल में शिव जी के पर्वत कैलाश को उठा लिया था, उस रावण ने भी उस सीता स्वयंवर में पराभव अर्थात्‌ अपमानजनक पराजय पायी।

**दो०- तहाँ राम रघुबंश मनि, सुनिय महा महिपाल।**

भंजेउ चाप प्रयास बिनु, जिमि गज पंकजनाल॥२९२॥

भाष्य

हे महाराज चक्रवर्तीजी! सुनिये, उस सीता–स्वयंवरसभा में रघुवंश के मणि श्रीराम ने शिवधनुष को बिना प्रयास के उसी प्रकार तोड़ डाला, जैसे हाथी कमल दण्ड को तोड़ डालता है।

**सुनि सरोष भृगुनायक आए। बहुत भाँति तिन आँखि देखाए॥ देखि राम बल निज धनु दीन्हा। करि बहु बिनय गमन बन कीन्हा॥**
भाष्य

धनुर्भंग सुनकर परशुराम जी क्रोध करके उस सभा में आये और उन्होंने बहुत प्रकार से आँखें दिखायीं अर्थात्‌ क्रोध प्रकट किया। फिर श्रीराम का बल देखकर उन्हें वैष्णवधनुष दिया और श्रीराम के कर कमल में उसे अपने आप ही च़ढते देख कर श्रीराम की परीक्षा करके परशुराम जी ने उन्हें अपना धनुष देदिया और बहुत प्रकार से विनय करके वन के लिए प्रस्थान किया।

**राजन राम अतुलबल जैसे। तेज निधान लखन पुनि तैसे॥ कंपहिं भूप बिलोकत जाके। जिमि गज हरि किशोर के ताके॥**
भाष्य

हे राजन्‌! जिस प्रकार, श्रीराम अतुलनीय बलवाले हैं, उसी प्रकार लक्ष्मण जी भी तेज के निधान अर्थात्‌ कोष हैं। जिनके देखने से राजा उसी प्रकार कंपित हो जाते हैं, जैसे सिंह के बच्चे द्वारा क़डी दृष्टि से देखने पर हाथी काँप जाते हैं।

**देव देखि तव बालक दोऊ। अब न आँखि तर आवत कोऊ॥**
भाष्य

हे देव! आपके दोनों बालकों को देखकर अब कोई भी आँख के नीचे नहीं आता अर्थात्‌ वे दोनों अद्वितीय हैं।

**दूत बचन रचना प्रिय लागी। प्रेम प्रताप बीर रस पागी॥ सभा समेत राउ अनुरागे। दूतन देन निछावरि लागे॥ कहि अनीति ते मूँदेउ काना। धरम बिचारि सबहिं सुख माना॥**
भाष्य

प्रेम–प्रताप और वीररस से पगी हुई जनकराज के दूतों की वचन रचना महाराज को बहुत प्रिय लगी। सभा सहित चक्रवर्ती महाराज प्रेम में मग्न हो गये और दूतों को न्यौछावर देने लगे, परन्तु दूतों ने अनीति कह कर अपने कान मूँद लिए अर्थात्‌ दशरथ जी से कहा कि, सीता जी जैसे जनक जी की बेटी हैं, वैसे हमारी भी। श्रीअयोध्या सीता जी की ससुराल है, यहाँ हम देने के लिए आये हैं लेने के लिए नहीं, यहाँ से कुछ भी लेना

[[२४७]]

अनीति है। इस प्रकार की बात हम सुनना भी नहीं चाहते। इसलिए हम अपने कान बन्द कर रहे हैं। दूतों के इस धर्म का विचार करके सभी सभासद बहुत प्रसन्न हुए।

दो०- तब उठि भूप बशिष्ठ कहँ, दीन्ह पत्रिका जाइ।

कथा सुनाई गुरुहिं सब, सादर दूत बोलाइ॥२९३॥

भाष्य

तब सिंहासन से उठकर महाराज ने जाकर वसिष्ठ जी को पत्रिका दी और दूतों को बुलाकर गुव्र्देव को आदरपूर्वक सम्पूर्ण कथा सुनायी।

**सुनि बोले गुरु अति सुख पाई। पुन्य पुरुष कहँ महि सुख छाई॥ जिमि सरिता सागर महँ जाहीं। जद्दपि ताहि कामना नाहीं॥ तिमि सुख संपति बिनहिं बोलाए। धरमशील पहँ जाहिं सुहाए॥**
भाष्य

सम्पूर्ण समाचार सुनकर के अत्यन्त सुख पाकर गुव्र्देव वसिष्ठ जी बोले, पवित्र पुव्र्षों के लिए पृथ्वी सुखों से छायी रहती है। जैसे गंगा आदि सभी नदियाँ समुद्र के पास जाती हैं, यद्दपि उसे कोई कामना नहीं होती, उसी प्रकार सभी सुख और संपत्तियाँ धर्मात्मा के पास बिना बुलाये ही चली जाती हैं।

**तुम गुरु बिप्र धेनु सुर सेबी। तसि पुनीत कौसल्या देबी॥ सुकृती तुम समान जग माहीं। भयउ न है कोउ होनेउ नाहीं॥**
भाष्य

जैसे आप गुरु, ब्राह्मण, गौ और देवताओं के सेवक हैं, उसी प्रकार कौसल्या देवी भी पवित्र हैं। हे राजन्‌! आपके समान पुण्यात्मा इस संसार में न हुआ, न है और न हीं कोई होगा।

**तुम ते अधिक पुन्य बड़ काके। राजन राम सरिस सुत जाके॥ बीर बिनीत धरम ब्रत धारी। गुन सागर बर बालक चारी॥ तुम कहँ सर्ब काल कल्याना। सजहु बरात बजाइ निसाना॥**
भाष्य

हे राजन्‌! तुम्हारे समान बड़ा पुण्य किसका हो सकता है, जिनके श्रीराम जैसे पुत्र हों? आप के चारों श्रेष्ठ पुत्र वीर, विनम्र, धर्मव्रत धारण करने वाले गुणों के समुद्र हैं। आपके लिए सभी कालों में कल्याण ही कल्याण है। अब नगारे बजाकर बारात की तैयारी करो।

**दो०- चलहु बेगि सुनि गुरु बचन, भलेहिं नाथ सिर नाइ।**

**भूपति गवने भवन तब, दूतन बास देवाइ॥२९४॥ भा०– **जल्दी श्रीमिथिला चलो, गुव्र्देव के ऐसे वचन सुनकर “ठीक है गुव्र्देव, जैसी आज्ञा” कहकर, प्रणाम करके दूतों को निवास दिलवाकर, महाराज राजभवन चले गये।

राजा सब रनिवास बोलाई। जनक पत्रिका बाँचि सुनाई॥ सुनि संदेश सकल हरषानी। अपर कथा सब भूप बखानी॥

भाष्य

महाराज ने सम्पूर्ण सात सौ रानियों के रनिवास को बुला लिया और स्वयं जनक जी की पत्रिका का वाचन करके सुनाया। संदेश सुनकर सभी रानियाँ प्रसन्न हुईं। अन्य सभी कथायें भी महाराज ने बखान कर सुनायी।

**प्रेम प्रफुल्लित राजहिं रानी। मनहुँ शिखिनि सुनि बारिद बानी॥ मुदित अशीष देहिं गुरु नारी। अति आनंद मगन महतारी॥ लेहिं परस्पर अति प्रिय पाती। हृदय लगाइ जुड़ावहिं छाती॥**

[[२४८]]

भाष्य

प्रेम से प्रफुल्लित होकर रानियाँ इस प्रकार शोभित हो रही हैं, मानो वर्षाकालीन बादल की वाणी (गर्जना) सुनकर मयूरी प्रसन्न हो रही हो। गुरुपत्नी अरुंधती जी प्रसन्न होकर आशीर्वाद दे रहीं हैं। सभी मातायें आनन्द में अतिमग्न हैं। सभी रानियाँ परस्पर अत्यन्त प्रिय पत्रिका ले लेती हैं। उसे हृदय से लगाकर अपनी छाती को शीतल करती हैं अर्थात्‌ पत्रिका के अक्षरों में रानियों को अक्षर परब्रह्म की अनुभूति हो रही है।

**राम लखन कै कीरति करनी। बारहिं बार भूपबर बरनी॥ मुनि प्रसाद कहि द्वार सिधाए। रानिन तब महिदेव बोलाए॥ दिए दान आनंद समेता। चले बिप्रवर आशिष देता॥**
भाष्य

महाराज दशरथ जी ने श्रीराम–लक्ष्मण की कीर्ति और उनके कर्मों का बारम्बार वर्णन किया और यह सब मुनि विश्वामित्र जी का प्रसाद है, ऐसा कहकर महाराज दशरथ जी दरबार में चले गये। तब रानियों ने ब्राह्मणों को बुलाया और आनन्द के साथ उन्हें अनेक दान दिये। श्रेष्ठ ब्राह्मण दान प्राप्त करके आशीर्वाद देते हुए राजभवन से चल पड़े।

**सो०- जाचक लिए हँकारि, दीन्हि निछावरि कोटि बिधि।**

**चिर जीवहुँ सुत चारि, चक्रबर्र्ति दशरत्थ के॥२९५॥ भा०– **महारानियों ने याचकों को बुला लिया और करोड़ों प्रकार से न्यौछावर दिया। याचकों ने कहा, चक्रवर्ती महाराज के चारों पुत्र (श्रीराम, भरत, लक्ष्मण और शत्रुघ्न) चिरंजीवी हों।

कहत चले पहिरे पट नाना। हरषि हने गहगहे निसाना॥ समाचार सब लोगन पाए। लागे घर घर होन बधाए॥

भाष्य

महाराज के चारों पुत्र चिरंजीवी हों, इस प्रकार कहकर, नाना प्रकार के वस्त्र पहने हुए याचकजन चल पड़े। सभी लोगों ने श्रीसीताराम–विवाह का समाचार पाया और श्रीअवध के घर–घर में बधावे अर्थात्‌ उत्सव होने लगे।

**भुवन चारि दस भरेउ उछाहू। जनकसुता रघुबीर बिबाहू॥ सुनि शुभ कथा लोग अनुरागे। मग गृह गली सँवारन लागे॥ जद्दपि अवध सदैव सुहावनि। रामपुरी मंगलमय पावनि॥ तदपि प्रीति कै रीति सुहाई। मंगल रचना रची बनाई॥**
भाष्य

जनकनन्दिनी श्रीजानकी एवं रघुकुल के वीर भगवान्‌ श्रीराम के विवाह के उत्साह से चौदहों भुवन परिपूर्ण हो गये। श्रीराम के विवाह का शुभ समाचार सुनकर, अवध के लोग प्रेम में भर गये। वे मार्ग, घर तथा गलियों को सजाने लगे। यद्दपि श्रीअयोध्या भगवान, श्रीराम की पुरी, प्रचुर मंगलों से युक्त और सातों पुरियों में सभी से अत्यन्त पवित्र है, फिर भी यह तो सुहावनी प्रीति की रीति है, सबने मांगलिक रचनायें बनायीं।

**ध्वज पताक पट चामर चारू। छावा परम बिचित्र बजारू॥ कनक कलश तोरन मनि जाला। हरद दूब दधि अच्छत माला॥**

दो०- मंगलमय निज निज भवन, लोगन रचे बनाइ॥

बीथी सींचीं चतुरसम, चौके चारू पुराइ॥२९६॥

भाष्य

ध्वजा, पताका, सुन्दर वस्त्र और सुन्दर चामरों से अयोध्या का बाजार अत्यन्त विचित्र प्रकारों से ढॅंक

दिया गया। स्वर्ण के कलश, तोरण, मणियों की झालरें, हल्दी, दूर्बा, दही, अक्षत, और सुन्दर मालायें ये सभी

[[२४९]]

मंगलमय पदार्थ लोगों ने अपने–अपने घरों में बना कर रखे। सभी गलियाँ कुमकुम, चंदन, केशर और अर्गजा इन के समान मात्रा से बने हुए चार द्रवों से सींची और सुन्दर चौके पुरायी गईं अर्थात्‌ रची गयी।

जहँ तहँ जूथ जूथ मिलि भामिनि। सजि नवसप्त सकल दुति दामिनि॥ बिधुबदनी मृग शावक लोचनि। निज स्वरूप रति मान बिमोचनि॥ गावहिं मंगल मंजुल बानी। सुनि कलरव कलकंठि लजानी॥

भाष्य

जहाँ–तहाँ अनेक समूहों में मिलकर सोलहों शृंगार करके, विद्दुत के समान प्रकाश वाली सभी चन्द्रमुखियाँ तथा बालमृग के समान नेत्रोंवाली, अपने स्वरूप से काम की पत्नी रति के अहंकार को नष्ट करनेवाली, श्रीअवध की सुहावनी महिलायें कोमल वाणी में मंगलगीत गाने लगीं। उनके मधुर स्वर से कोकिलायें भी लज्जित हो गईं।

**भूप भवन किमि जाइ बखाना। बिश्वबिमोहन रचेउ बिताना॥ मंगल द्रब्य मनोहर नाना। राजत बाजत बिपुल निसाना॥**
भाष्य

महाराज दशरथ का भवन कैसे बखाना जाये? वहाँ विश्व को विशेष रूप से मोहित करनेवाले मण्डप बनाये गये थे। वहाँ नाना प्रकार के सुन्दर मांगलिक द्रव्य सुशोभित थे और अनेक नगारे बज रहे थे।

**कतहुँ बिरुद बंदी उच्चरहीं। कतहुँ बेद धुनि भूसुर करहीं॥ गावहिं सुंदरि मंगल गीता। लै लै नाम राम अरु सीता॥ बहुत उछाह भवन अति थोरा। मानहुँ उमगि चला चहुँ ओरा॥**
भाष्य

कहीं बंदीजन विरुदावली का उच्चारण कर रहे हैं, कहीं ब्राह्मण वेदपाठ कर रहे हैं। श्रीअवध की सुन्दरियाँ, श्रीराम और श्रीसीता का नाम लेकर विवाह के मांगलिक गीत गा रही हैं। उत्साह बहुत है, उसके लिए महाराज दशरथ का भवन भी बहुत छोटा पड़ रहा है, मानो श्री अवध का उत्साह महाराज के भवन की सीमा को पार करके उमड़ कर चारों ओर चल पड़ा हो।

**दो०- शोभा दशरथ भवन कइ, को कबि बरनै पार।**

जहाँ सकल सुर शीश मनि, राम लीन्ह अवतार॥२९७॥

भाष्य

महाराज दशरथ के भवन की शोभा का वर्णन कौन कवि कर सकता है? जिस घर में सम्पूर्ण देवताओं के शिरोमणि परब्रह्म परमात्मा भगवान्‌ श्रीराम अवतार लिए हैं।

**भूप भरत पुनि लिए बोलाई। हय गय स्यंदन साजहु जाई॥ चलहु बेगि रघुबीर बराता। सुनत पुलक पूरे दोउ भ्राता॥**
भाष्य

फिर महाराज ने भरत जी को बुला लिया और कहा, जाकर हाथी, घोड़े और रथों को सजवाओ और रघुवीर श्रीराम के बारात के लिए शीघ्र चलो। यह सुनकर दोनों भाई भरत जी और शत्रुघ्न जी रोमान्च से पूर्ण हो गये।

**भरत सकल साहनी बोलाए। आयसु दीन्ह मुदित उठि धाए॥ रचि रुचि जीन तुरग तिन साजे। बरन बरन बर बाजि बिराजे॥**
भाष्य

भरत जी ने सभी साहनियों अर्थात्‌ अश्वपालकों को बुलाया और घोड़ों को सजाने की आज्ञा दी। वे (अश्वशालाओं के अध्यक्ष) प्रसन्न होकर उठ कर दौड़े। उन्होंने अनेक प्रकार के सुन्दर जीनों को रचकर घोड़े को सजाये। वे बहुरंगे श्रेष्ठ घोड़े सुशोभित हो रहे थे।

[[२५०]]

सुभग सकल सुठि चंचल करनी। अय इव जरत धरत पग धरनी॥ नाना जाति न जाहिं बखाने। निदरि पवन जनु चहत उड़ाने॥

भाष्य

वे सभी घोड़े बड़े सुन्दर और चंचल क्रियाकलापों वाले थे। वे पृथ्वी पर इस प्रकार चरण रखते थे, जैसे वह जलता हुआ लोहा हो अर्थात्‌ जैसे कोई जलते हुए लोहे पर बहुत देर तक पाँव नहीं टिका सकता, उसी प्रकार वे पृथ्वी पर जल्दी–जल्दी पाँव रखते और उठा लेते थे। वे घोड़े नाना जातियों के थे, जो बखाने नहीं जा सकते। मानो वायु का भी निरादर करके वे आकाश में उड़ना चाहते हों।

**तिन सब छयल भए असवारा। भरत सरिस बय राजकुमारा॥ सब सुन्दर सब भूषनधारी। कर शर चाप तून कटि भारी॥**
भाष्य

उन्हीं घोड़ों पर भरत जी की समान अवस्थावाले सभी छैल अर्थात्‌ नयी अवस्थावाले, चाकचिक्य प्रिय, सभी महाराज दशरथ के अधीनस्थ राजाओं के पुत्र सवार हुए। सभी सुन्दर थे, सभी ने आभूषण धारण किया था, सभी के हाथ में धनुष–बाण तथा कटि प्रदेश में विशाल तरकस बँधे थे।

**दो०- छरे छबीले छयल सब, शूर सुजान नबीन।**

जुग पदचर असवार प्रति, जे असिकला प्रबीन॥२९८॥

भाष्य

सभी छरहरे अर्थात्‌ गठीले शरीरवाले, सुन्दर सजे–धजे वीर ,चतुर और नयी अवस्थावाले, चटक– मटकवाले राजकुमार हैं। प्रत्येक अश्वारोही के साथ दो–दो पदचर पदाति (पैदल सैनिक) नियुक्त हैं, जो तलवार चलाने की कला में कुशल हैं।

**बाँधे बिरद बीर रन गा़ढे। निकसि भए पुर बाहेर ठा़ढे॥ फेरहिं चतुर तुरग गति नाना। हरषहिं सुनि सुनि पनव निसाना॥**
भाष्य

कठिन युद्धों में विरुदावली को धारण करनेवाले ऐसे वीर सैनिक, निकलकर नगर के बाहर ख़डे हुए। वे नाना प्रकार की चालों में कुशल चतुर घोड़ों को फेर रहे हैं अर्थात्‌ उन्हें चलने का अभ्यास करा रहे हैं। वे तथा उनके घोड़े ढोल तथा नगाड़ों की धुन सुनकर प्रसन्न हो रहे हैं।

**रथ सारथिन बिचित्र बनाए। ध्वज पताक मनि भूषन लाए॥ चवँर चारु किंकिनि धुनि करहीं। भानु यान शोभा अप हरहीं॥**
भाष्य

सारथियों ने भी ध्वजा, पताका, मणि और आभूषणों को लाकर बहुत से विलक्षण चित्रों वाले रथों को सजाया। उनमें सुन्दर चामर धारण कर रहे हैं और अनेक किंकिणियाँ छन–छन की ध्वनि कर रही हैं। वे रथ सूर्यनारायण की रथ की शोभा का अपहरण कर रहे हैं।

**श्यामकरन अगनित हय होते। ते तिन रथन सारथिन जोते॥ सुन्दर सकल अलंकृत सोहे। जिनहिं बिलोकत मुनि मन मोहे॥**
भाष्य

अयोध्या में जो श्यामकर्ण जाति के असंख्य घोड़े उपलब्ध थे, उन्हीं को जनकपुर जानेवाले उन रथों में सारथियों ने जोत दिया। वे श्यामकर्ण घोड़े अनेक प्रकार से सजे हुए सुशोभित हो रहे थे। जिन्हें देखते ही मुनियांें के मन भी मोहित हो जाते थे।

**जे जल चलहिं थलहिं की नाई। टाप न बूड़ बेग अधिकाई॥ अस्त्र शस्त्र सब साज बनाई। रथी सारथिन लिए बोलाई॥**

[[२५१]]

भाष्य

जो श्यामकर्ण घोड़े जल में भी स्थल की भाँति चलते थे और अपनी वेग की अधिकता के कारण उनका टाप (नाल से लगा हुआ चरण) पानी में नहीं डूबता था। रथों में सब प्रकार से अस्त्र–शस्त्रों को सजाकर सारथियों ने रथियों को बुला लिया।

**दो०- चढि़ चढि़ रथ बाहेर नगर, लागी जुरन बरात।**

होत सगुन सुन्दर सबहिं, जो जेहि कारज जात॥२९९॥

भाष्य

रथों पर च़ढ-च़ढकर नगर के बाहर रथियों की बारात इकट्‌ठी होने लगी। जो जिस कार्य के लिए जाता उन सबको, सुन्दर मांगलिक शकुन होते थे।

**चौ०: कलित करिवरनि परीं अँबारी। कहि न जाहिं जेहिं भाँति सँवारी॥**

**चले मत्त गज घटा बिराजी। मनहुँ सुभग सावन घन राजी॥ भा०– **हाथियों पर सुन्दर हौदें सजायी गईं। वे जिस प्रकार सँवारी गयी थीं, उन्हें कहा नहीं जा सकता। चलते हुए

मतवाले हाथियों की कतारें सुशोभित हो रही थीं, मानो श्रावण मास के सुन्दर मेघों की पंक्तियाँ चल रही हों।

बाहन अपर अनेक बिधाना। शिबिका सुभग सुखासन याना॥ तिन चढि़ चले बिप्रवर बृंदा। जनु तनु धरे सकल श्रुति छंदा॥

भाष्य

और भी अनेक प्रकार के वाहन, सुन्दर पालकियाँ और बैठने में सुखद अनेक विमान भी सजाये गये। उन पर च़ढकर ब्राह्मणवृन्द बारात के लिए चल पड़े, मानो वेद के छन्दों ने ही शरीर धारण कर लिए हों।

**मागध सूत बंदि गुनगायक। चले यान चढि़ जो जेहि लायक॥ बेसर ऊँट बृषभ बहु जाती। चले बस्तु भरि अगनित भाँती॥**
भाष्य

मागध (वंश प्रशंसक), सूत (पौराणिक गायक), बंदी (भाट) आदि गुणों के गायक, चारण, जो जिनके योग्य थे, वे सब उन वाहनों पर च़ढकर, श्रीराम के बारात में चल पड़े। बेसर अर्थात्‌ अश्वतर (खच्चर), ऊँट और बहुत जातियों के बैल अनेक प्रकार की वस्तुयें पीठ पर धारण किये हुए चल पड़े।

**कोटिन काँवरि चले कहारा। बिबिध बस्तु को बरनै पारा॥ चले सकल सेवक समुदाई। निज निज साज समाज बनाई॥**
भाष्य

करोड़ों काँवर में अनेक वस्तुयें जिन्हें कौन वर्णन कर सकता है, लेकर कँहार अर्थात्‌ स्कन्ध भार (कंधों पर भार ढोने वाले सेवक) काँवर उठा–उठा कर चल पड़े। अपने–अपने समाज की सज्जा सजाकर सभी सेवकों के समूह चल पड़े।

**दो०- सब के उर निर्भर हरष, पूरित पुलक शरीर।**

कबहिं देखिबै नयन भरि, राम लखन दोउ बीर॥३००॥

भाष्य

सब के हृदय मंें निर्भर अर्थात्‌ अपार हर्ष है। सभी के शरीर रोमांच से पूर्ण हैं। सभी यही मनोरथ कर रहे हैं कि, दोनों भाई श्रीराम–लक्ष्मण को हम आँख भर कब देखेंगे?

[[२५२]]

* मासपरायण, आठवाँ विश्राम *

गरजहिं गज घंटा धुनि घोरा। रथ रव बाजि हिंस चहुँ ओरा॥ निदरि घनहिं घुर्मरहिं निसाना। निज पराव कछु सुनिय न काना॥

भाष्य

हाथी गरज रहे हैं, उनकी घंटों की घनघोर ध्वनि हो रही है। चारों ओर रथों के चलने की ध्वनि और घोड़ों की हिनहिनाहट हो रही है। बादलों को तिरस्कृत करके नगारे द्रुत ताल में धमाके से बज रहे हैं। अपना या पराया कुछ भी शब्द कान से सुनायी नहीं पड़ रहा है।

**महा भीर भूपति के द्वारे। रज होइ जाइ पषान पबारे॥ च़ढी अटारिन देखहिं नारी। लिए आरती मंगल थारी॥**
भाष्य

महाराज के द्वार पर बहुत भीड़ है, फेंके हुए पत्थर भी उस भीड़ के धक्का–मुक्की में टूट–टूट कर धूल होते जा रहे हैं। सुहागन नारियाँ थाल में मंगल आरती ली हुईं अट्टालिकाओं पर च़ढी हुईं बारात की शोभा देख रही हैं।

**गावहिं गीत मनोहर नाना। अति आनंद न जाइ बखाना॥ तब सुमंत्र दुइ स्यंदन साजी। जोते रबि हय निंदक बाजी॥**
भाष्य

श्रीअवध की नारियाँ नाना प्रकार के मंगल (च़ढावे) के गीत गा रही हैं। वह अतिशय आनन्द बखाना नहीं जा सकता। तब सुमंत्र जी ने दो रथ सजाये और उनमें सूर्यनारायण के घोड़ों को भी निंदित करनेवाले सुन्दर घोड़े जोते।

**विशेष– **सुमंत्र, महाराज के व्यक्तिगत सारथी, अर्थशास्त्री और आठवें मंत्री भी थे। **दोउ रथ रुचिर भूप पहँ आने। नहिं शारद पहँ जाहिं बखाने॥ राज समाज एक रथ साजा। दूसर तेज पुंज अति भ्राजा॥**
भाष्य

दोनों सुन्दर रथ सुमंत्र जी महाराज दशरथ के पास ले आये, जो सरस्वती जी के द्वारा भी बखाने नहीं जा सकते थे। एक रथ (जो महाराज के लिए लाया गया था) राजसमाज के अनुरूप सजाया गया था और दूसरा रथ वसिष्ठ जी के लिए था वह अत्यन्त तेजोमय सुशोभित हो रहा था अर्थात्‌ वह श्रोत्रिय ब्राह्मणोचित्‌ संध्यावंदन के पंचपात्र कुश, समिधा, अग्निहोत्र के उपकरणों और अग्नि से युक्त था।

**दो०- तेहिं रथ रुचिर बसिष्ठ कहँ, हरषि च़ढाइ नरेश।**

आपु चढेउ स्यंदन सुमिरि, हर गुरु गौरि गणेश॥३०१॥

भाष्य

उसी तेजोमय द्वितीय रथ पर महर्षि वसिष्ठ जी को प्रसन्नतापूर्वक आरू़ढ कराके, महाराज स्वयं शिवजी, गुरुदेव, गौरी एवं गणेश को स्मरण करके अपने राजोचित्‌ रथ पर च़ढे।

**सहित बसिष्ठ सोह नृप कैसे। सुर गुरु संग पुरंदर जैसे॥ करि कुल रीति बेद बिधि राऊ। देखि सबहिं सब भाँति बनाऊ॥ सुमिरि राम गुरु आयसु पाई। चले महीपति शंख बजाई॥**
भाष्य

वसिष्ठ जी सहित महाराज किस प्रकार सुशोभित हो रहे हैं, जैसे वृहस्पति के साथ इन्द्र सुशोभित होते हैं। महाराज कुल की रीति और वेदविधि करके सब प्रकार के साज से युक्त बारातियों को देखकर, श्रीराम का स्मरण करके, गुव्र्देव वशिष्ठ जी की आज्ञा पाकर, राजकीय शंख बजाकर मिथिलापुर के लिए चल पड़े।

[[२५३]]

हरषे बिबुध बिलोकि बराता। बरषहिं सुमन सुमंगल दाता॥ भयउ कोलाहल हय गय गाजे। ब्योम बरात बाजने बाजे॥

भाष्य

बारात देखकर देवता प्रसन्न हुए और शुभमंगल देनेवाले पुष्पों की वर्षा करने लगे। कोलाहल होने लगा, हाथी और घोड़े गरजने लगे, आकाश और बारात में बाजे बजने लगे।

**सुर नर नारि सुमंगल गाई। सरस राग बाजहिं सहनाई॥ घंट घंटि धुनि बरनि न जाहीं। सरव करहिं पाइक फहराहीं॥ करहिं बिदूषक कौतुक नाना। हास कुशल कल गान सुजाना॥**
भाष्य

देवियाँ और अवध की नारियाँ मंगलगीत गा उठीं। सुन्दर रसयुक्त मंगलराग में शहनाईयाँ बजने लगी। घंटा और छोटी घंटी की ध्वनि का वर्णन किया नहीं जा सकता। खेलने वाले अनेक प्रकार के व्यायाम से युक्त खेल कर रहे हैं और पताकायें फहरा रहे हैं। हास्य में कुशल और सुन्दर गान मंें चतुर विदूषकगण नाना प्रकार के विनोद भरे खेल कर रहे हैं।

**दो०- तुरग नचावहिं कुअँर बर, अकनि मृदंग निसान।**

**नागर नट चितवहिं चकित, डगहिं न ताल बँधान॥३०२॥ भा०– **मृदंगों और नगाड़ों को सुनकर श्रेष्ठ राजकुमार घोड़ों को नचा रहे हैं। घोड़े ताल बंधों से विचलित नहीं हो रहे हैं और चतुर नर्तकगण घोड़ों का नृत्य चकित होकर देख रहे हैं।

बनइ न बरनत बनी बराता। होहिं सगुन सुन्दर शुभदाता॥

भाष्य

जिस प्रकार से श्रीराम की बारात बन पड़ी है उसका वर्णन करते नहीं बन रहा है। मंगल देनेवाले सुन्दर शकुन हो रहे हैं। उनमें से यहाँ बारह शकुनों का वर्णन किया जा रहा है।

**चारा चाष बाम दिशि लेई। मनहुँ सकल मंगल कहि देई॥ दाहिन काग सुखेत सुहावा। नकुल दरस सब काहू पावा॥ सानुकूल बह त्रिबिध बयारी। सघट सबाल आव बर नारी॥ लोवा फिरि फिरि दरस देखावा। सुरभी सनमुख शिशुहिं पियावा॥ मृगमाला फिरि दाहिनि आई। मंगल गन जनु दीन्ह देखाई॥ छेमकरी कह छेम बिशेषी। श्यामा बाम सुतरु पर देखी॥ सनमुख आयउ दधि अरु मीना। कर पुस्तक दुइ बिप्र प्रबीना॥**
भाष्य

(१) चाष अर्थात्‌ नीलकंठ बारात के बायीं ओर चारा अर्थात्‌ अपने खाने की वस्तु ले रहे हैं, मानो वह सभी मंगलों को कह दे रहे हैं। (२) दाहिनी ओर सुन्दर हरे–भरे खेत में सुन्दर कौआ, भुशुण्डि महाराज के रूप में विराजमान हैं। (३) सभी लोगों ने नकुल अर्थात्‌ नेवले का दर्शन पाया। (४) अनुकूलता के साथ अर्थात्‌ धूल नहीं उड़ाता हुआ शीतल मंद सुगंध वायु बह रहा है। (५) जल पूर्ण घड़े और छोटे बालक को गोद में लेकर सौभाग्यवती महिला बारात के सन्मुख आईं। (६) लोमड़ी ने बार–बार अपना स्वरूप दिखाया। (७) कामधेनु बारात के सन्मुख बछड़े को दूध पिलाती हुई दिखी। (८) हिरणों की पंक्ति बारात के दाहिने ओर से आई, मानो उसने मंगलों के समूहों के दर्शन करा दिये। (९) छेमकरी अर्थात्‌ लाल रंग की चील विशेष कल्याण कह रही थी। (१०) बारात के बायीं ओर सुन्दर वृक्ष अर्थात्‌ आम्रवृक्ष पर श्यामा अर्थात्‌ कोयल चियिड़ा दिखी। (११)

[[२५४]]

बारात के सामने दही और मछली आयी। (१२) हाथ में पुस्तक लिए हुए दो कुशल वेदपाठी ब्राह्मण ब्रह्मचारी दिखे।

**विशेष– **इन बारह शकुनों से भगवान्‌ श्रीराम जी के चरित्र में बारह कल्याण के प्रसंग उपस्थित हुए। यथा– सकुशल विवाह–सम्पादन, सुखपूर्वक चित्रकूटनिवास, जयन्तनिग्रह, विराध–वध, शूर्पणखा विरूपीकरण, खर– दूषण–त्रिशिरा वध, मारीच–वध, हनुमान मिलन, बालि–वध, सेतुबन्ध, लंका विजय और राज्य प्राप्ति।

दो०- मंगलमय कल्यानमय, अभिमत फल दातार।

जनु सब साँचे होन हित, भए सगुन एक बार॥३०३॥

भाष्य

मानो सत्य होने के लिए ही सभी मंगलमय, प्रचुर कल्याणों से युक्त, मनोवांछित फल देने वाले बारहों शकुन एक साथ उपस्थित हो गये।

**मंगल सगुन सुगम सब ताके। सगुन ब्रह्म सुन्दर सुत जाके॥ राम सरिस बर दुलहिनि सीता। समधी दशरथ जनक पुनीता॥ सुनि अस ब्याह सगुन सब नाचे। अब कीन्हे बिरंचि हम साँचे॥**
भाष्य

जिन दशरथ जी के सगुण–साकार ब्रह्म श्रीराम जैसे सुन्दर पुत्र हैं, उनके लिए तो सभी मंगल शकुन सुगम ही हैं। जिसमें श्रीराम जैसा वर, श्रीसीता जैसी वधू और दशरथ–जनक जैसे पवित्र समधी हों ऐसा विवाह सुनकर, सभी शकुन बारात के सामने नाच उठे। उन्होंने विचार किया कि, ब्रह्मा जी ने अब हमें सत्य बना दिया अर्थात्‌ भगवान्‌ श्रीराम को तो बारह सफलतायें मिलेंगी ही, चाहे हम उपस्थित रहें या न रहें, परन्तु इस विवाह में हमें उपस्थित करके विधाता ने हमें सत्य कर दिया।

**एहि बिधि कीन्ह बरात पयाना। हय गय गाजहिं हने निसाना॥ आवत जानि भानुकुल केतू। सरितनि जनक बँधाए सेतू॥ बीच बीच बर बास बनाए। सुरपुर सरिस संपदा छाए॥ अशन शयन बर बसन सुहाए। पावहिं सब निज निज मन भाए॥ नित नूतन सुख लखि अनुकूले। सकल बरातिन मंदिर भूले॥**
भाष्य

इस प्रकार शकुनों और मंगलों के साथ श्रीराम की बारात ने श्रीअवध से श्रीमिथिला के लिए प्रस्थान किया। वहाँ हाथी, घोड़े गरज रहे हैं और नगारे बज रहे हैं। सूर्यकुल के पताका स्वरूप दशरथ जी को आते हुए जानकर, जनक जी ने मार्ग में पड़ने वाली नदियों में सेतु (पुल) बंधवा दिया। बीच–बीच में निवास के लिए सुन्दर विश्राम स्थल बनवाये गये, उनमें इन्द्रपुर के समान सभी सम्पत्तियाँ छा रही थीं। वहाँ सभी बाराती, भोजन, शैय्या, सुहावने सुन्दर वस्त्र, अपने–अपने मन के अनुकूल प्राप्त कर रहे थे। इस प्रकार, निरन्तर नवीन अपने अनुकूल, सुख के साधनों को देखकर, सभी बाराती अपने घरों को भूल गये अर्थात्‌ मिथिला के मार्ग में ही उन्हें इतनी सुविधायें मिली कि, वे वहीं रमने लगे।

**दो०- आवत जानि बरात बर, सुनि गहगहे निसान।**

सजि गज रथ पदचर तुरँग, लेन चले अगवान॥३०४॥

भाष्य

श्रेष्ठ बारात को आती जानकर गहगहे अर्थात्‌ प्रसन्नता भरे ऊँचे स्वर वाले नगाड़ों के वाद्द को सुनकर, मिथिला के अगवान लोग हाथी, रथ, पैदल और घोड़ों को सजाकर बारात की अगवानी लेने चले।

[[२५५]]

कनक कलश भरि कोपर थारा। भाजन ललित अनेक प्रकारा॥ भरे सुधासम सब पकवाने। भाँति भाँति नहिं जाहिं बखाने॥ फल अनेक बर बस्तु सुहाई। हरषि भेंट हित भूप पठाई॥

भाष्य

स्वर्ण के कलश और परात तथा थालों में भर कर, अनेक प्रकार के सुन्दर पात्र, जिनमें अवर्णनीय अमृत के समान स्वाद वाले सभी पकवान भरे हुए थे। अनेक फल और सुन्दर–सुन्दर वस्तुयें, दशरथ जी को भेंट देने के लिए राजा जनक जी ने प्रसन्न होकर अगवानों के साथ भेजा।

**भूषन बसन महामनि नाना। खग मृग हय गय बहु बिधि याना॥ मंगल सगुन सुगंध सुहाए। बहुत भाँति महिपाल पठाए॥ दधि चिउरा उपहार अपारा। भरि भरि काँवरि चले कहारा॥**
भाष्य

पृथ्वी के पालक महाराज जनक जी ने अनेक आभूषण, वस्त्र, सुन्दर मणियाँ, पक्षी (तोता, मैना आदि), मृग (कृष्णसार आदि), हाथी, घोड़े बहुत प्रकार के वाहन, अनेक प्रकार के मांगलिक शकुन और सुगंधित पदार्थ भेजे। दही और चिउरे का अपार उपहार काँवरों में भर–भर कर कहाँर (स्कंधभार सेवक) लेकर चले।

**अगवानन जब दीख बराता। उर आनंद पुलक भर गाता॥ देखि बनाव सहित अगवाना। मुदित बरातिन हने निसाना॥**
भाष्य

जनकपुर के अगवानों ने जब श्री अवध की अपूर्व बारात देखी तब उनके हृदय में आनन्द उमड़ आया और शरीर रोमांच से भर गये। उधर बारातियों ने अगवानों के साथ उपहार की साज–सज्जायें देखकर प्रसन्न होकर नगारे बजाये।

**दो०- हरषि परसपर मिलन हित, कछुक चले बगमेल।**

**जनु आनंद समुद्र दुइ, मिलत बिहाइ सुबेल॥३०५॥ भा०– **अगवानों और बारात में से कुछ लोग प्रसन्न होकर परस्पर मिलने के लिए, पंक्ति तोड़कर चल पड़े मानो अपनी–अपनी मर्यादायें छोड़कर, दो आनन्द के सागर परस्पर मिल रहे हों।

बरषि सुमन सुर सुंदरि गावहिं। मुदित देव दुंदुभी बजावहिं॥ बस्तु सकल राखी नृप आगे। बिनय कीन्ह तिन अति अनुरागे॥ प्रेम समेत राय सब लीन्हा। भइ बकसीस जाचकनि दीन्हा॥

करि पूजा मान्यता बड़ाई। जनवासे कहँ चले लिवाई॥

भाष्य

पुष्प की वर्षा करके देवताओं की सुन्दरियाँ मंगल गीत गा रही हैं और देवता प्रसन्न होकर नगारे बजा रहे हैं। अगवानों ने महाराज जनक द्वारा भेजी हुई सभी वस्तुयें, महाराज दशरथ जी के समक्ष उपस्थित कर दीं और उन अगवानों ने जनक जी की भेंट स्वीकारने के लिए अत्यन्त अनुराग से पूर्ण होकर चक्रवर्ती जी से प्रार्थना की। अवध नरेश ने प्रेम के साथ जनक जी की सब वस्तुयें स्वीकर कर लीं। प्रसन्नता से पुरस्कार वितरित हुए और वे याचकों को दे दिये गये। अगवान लोगों ने बारात की पूजा, सम्मान और प्रशंसा करके उन्हें जनवास के लिए ले चले।

**विशेष– **बारात के विश्रामस्थान को जन्यवास अर्थात्‌ जनवास कहते हैं, संस्कृत में बारात को जन्या तथा जन कहते हैं। इसी के अपभ्रंश रूप में गुजराती भाषा में बारात को जान कहा जाता है।

[[२५६]]

बसन बिचित्र पाँवड़े परहीं। देखि धनद धन मद परिहरहीं॥ अति सुन्दर दीन्हेउ जनवासा। जहँ सब कहँ सब भाँति सुपासा॥

भाष्य

विचित्र वस्त्रों के पाँवड़े (अतिथियों के चरणों के नीचे बिछाये जाने वाले वस्त्र) पड़ रहे हैं अर्थात्‌ बिछाये जा रहे हैं, जिन्हें देखकर कुबेर भी अपने धन का मद छोड़ देते हैं। मैथिल अगवानों ने बारात को बहुत सुन्दर जनवास (विश्राम स्थान) दिया जहाँ सभी बारातियों के लिए सब प्रकार की सुविधायें थी।

**जानी सिय बारात पुर आई। कछु निज महिमा प्रगटि जनाई॥ हृदय सुमिरि सब सिद्धि बोलाई। भूप पहुनई करन पठाई॥**
भाष्य

सीता जी ने यह जान लिया की जनकपुर में श्रीअवध से बारात आ गयी है, तब उन्होंने कुछ अपनी महिमा को प्रकट करके सूचित कर दिया। हृदय में स्मरण करके सीता जी ने सभी अणिमादि आठों सिद्धियों को बुला लिया तथा उन्हें चक्रवर्ती महाराज दशरथ जी के आतिथ्य–सत्कार करने के लिए जनवासे में भेज दिया।

**दो०- सिधि सब सिय आयसु अकनि, गईं जहाँ जनवास।**

लिए संपदा सकल सुख, सुरपुर भोग बिलास॥३०६॥

भाष्य

सभी सिद्धियाँ, भगवती सीता जी का आदेश सुनकर, इन्द्रलोक की सभी संपत्तियाँ सुख के सभी साधन और सभी दिव्य भोग–विलासों के साधनों को लिए हुए, जहाँ चक्रवर्ती दशरथ जी के बारात को जनवास दिया गया था वहाँ गईं और प्रत्येक बारातियों के अनुकूल भवन बनाकर क्षण भर में स्वर्ग के सभी सुख उपस्थित कर दिये।

**निज निज बास बिलोकि बराती। सुरसुख सकल सुलभ सब भाँती॥**

**बिभव भेद कछु कोउ न जाना। सकल जनक कर करहिं बखाना॥ भा०– **अपने–अपने निवासस्थान में सब प्रकार से सभी स्वर्गलोक के सुखों को सुलभ देखकर भी किसी ने कुछ भी विभव का भेद नहीं जाना और सभी बाराती जनक जी की प्रशंसा करने लगे, अर्थात्‌ सभी ने यह वैभव जनक जी का ही माना।

सिय महिमा रघुनायक जानी। हरषे हृदय हेतु पहिचानी॥

भाष्य

रघुकुल का उन्नयन करने वाले भगवान्‌ श्रीराम सीता जी की महिमा जान गये और इस स्वागत का कारण समझकर प्रभु हृदय में बहुत प्रसन्न हुए।

**पितु आगमन सुनत दोउ भाई। हृदय न अति आनंद अमाई॥ सकुचनि कहि न सकत गुरु पाहीं। पितु दरसन लालच मन माहीं॥**
भाष्य

पिता श्रीदशरथ का आगमन सुनते ही दोनों भाई श्रीराम–लक्ष्मण के हृदय मेें अतिशय होने के कारण आनन्द समा नहीं रहा है। प्रभु संकोच के कारण गुरुदेव के समक्ष कुछ कह नहीं सक रहे हैं, परन्तु दोनों भाई के मन में पिताश्री के दर्शन करने का लोभ है।

**बिश्वामित्र बिनय बदिड़ ेखी। उपजा उर संतोष बिशेषी॥ हरषि बंधु दोउ हृदय लगाए। पुलक अंग अंबक जल छाए॥ चले जहाँ दशरथ जनवासे। मनहु सरोवर तकेउ पियासे॥**

[[२५७]]

भाष्य

विश्वामित्र जी ने श्रीराम–लक्षमण की बहुत बड़ी विनम्रता देखी, तब उनके हृदय में विशेष संतोष उत्पन्न हो गया। उन्होंने प्रसन्न होकर दोनों भाई श्रीराम–लक्ष्मण को हृदय से लगा लिया। विश्वामित्र जी के अंग–अंग रोमांचित हो उठे और उनके अंबक अर्थात्‌ नेत्र प्रेमाश्रु से पूर्ण हो गये। विश्वामित्र जी दोनों भाई श्रीराम–लक्ष्मण को लेकर वहाँ चले जहाँ जनवास में महाराज दशरथ जी विराज रहे थे, मानो प्यासे लोग सरोवर देखकर उसकी ओर ब़ढ रहे हों, अर्थात्‌ विश्वामित्र जी उतनी ही आतुरता से दशरथ जी के पास जा रहे है,ं जैसे प्यासा सरोवर के पास जाता है।

**दो०- भूप बिलोके जबहिं मुनि, आवत सुतन समेत।**

उठे हरषि सुखसिंंधु महँ, चले थाह सी लेत॥३०७॥

भाष्य

जिस समय महाराज दशरथ जी ने विश्वामित्र जी को अपने दोनों पुत्रों सहित अपने पास आते देखा, वे प्रसन्न होकर आसन से उठ गये और सुख के समुद्र में थाह लेते हुए से चल पड़े।

**मुनिहिं दंडवत कीन्ह महीशा। बार बार पद रज धरि शीशा॥ कौशिक राउ लिए उर लाई। कहि आशिष पूछी कुशलाई॥**
भाष्य

पृथ्वी के ईश्वर, राजा दशरथ जी ने चरणधूलि को मस्तक पर लगा कर मुनि विश्वामित्र को बार–बार दण्डवत्‌ प्रणाम किया। विश्वामित्र जी ने महाराज दशरथ को अपने हृदय से लगा लिया और आशीर्वचन कह कर उनका कुशल समाचार पूछा।

**पुनि दंडवत करत दोउ भाई। देखि नृपति उर सुख न समाई॥ सुत हिय लाइ दुसह दुख मेटे। मृतक शरीर प्रान जनु भेंटे॥**
भाष्य

फिर दोनों भाई श्रीराम–लक्ष्मण को दण्डवत्‌ करते हुए देखकर नरेश दशरथ जी के हृदय में सुख समा नहीं रहा था। उन्होंने दोनों पुत्रों को हृदय से लगाकर पुत्र वियोग से उत्पन्न असहनीय दु:ख को मिटा दिया, मानो मृतक शरीर, अन्तर–बाह्य दोनों प्राणों से मिला हो।

**पुनि बसिष्ठ पद सिर तिन नाए। प्रेम मुदित मुनिवर उर लाए॥ बिप्र बृंद बंदे दुहुँ भाई। मन भावती आशिषें पाई॥**
भाष्य

फिर श्रीराम–लक्ष्मण ने वसिष्ठ जी के चरणों में सिर नवाया। मुनिश्रेष्ठ वसिष्ठ जी ने प्रेम और प्रसन्नता से युक्त होकर दोनों भाइयों को हृदय से लगा लिया। फिर दोनों भाइयों ने ब्राह्मणों के समूहों को वंदन किया और उनसे मन को भाने वाले आशीर्वाद पाये।

**भरत सहानुज कीन्ह प्रनामा। लिए उठाइ लाइ उर रामा॥ हरषे लखन देखि दोउ भ्राता। मिले प्रेम परिपूरित गाता॥**
भाष्य

शत्रुघ्न जी के साथ भरत जी ने भगवान्‌ श्रीराम को प्रणाम किया। श्रीराम ने उन्हें उठाकर हृदय से लगा लिया। दोनों भ्राता श्रीभरत और श्रीशत्रुघ्न को देखकर श्रीलक्ष्मण बहुत प्रसन्न हुए और प्रेम से परिपूर्ण शरीर होकर मिले अर्थात्‌ भरत जी को प्रणाम किया और प्रणाम करते हुए शत्रुघ्न जी को हृदय से लगाया।

**दो०- पुरजन परिजन जातिजन, जाचक मंत्री मीत।**

मिले जथाबिधि सबहिं प्रभु, परम कृपालु बिनीत॥३०८॥

[[२५८]]

भाष्य

अवधपुरवासी, परिवार के लोग, रघुवंश जाति के अन्य क्षत्रियजन, याचकजन, सुमंत्र आदि आठों मंत्री और अभिनन्दन आदि मित्र, इन सबको परमकृपालु विनम्र श्रीराम–लक्ष्मण विधि के अनुसार मिले अर्थात्‌ बड़ों को प्रणाम किया, छोटों को आशीर्वाद दिया और समवयस्कों को गले से लगा लिया।

**रामहिं देखि बरात जुड़ानी। प्रीति की रीति न जाति बखानी॥ नृप समीप सोहहिं सुत चारी। जनु धन धरमादिक तनुधारी॥**
भाष्य

श्रीराम को देखकर सम्पूर्ण बारात शीतल हो गयी। अवधवासियों की प्रीति की रीति बखानी नहीं जाती है। महाराज दशरथ जी के समीप चारों पुत्र ऐसे सुशोभित हो रहे हैं, मानो अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष ने शरीर धारण कर लिया हो।

**विशेष– **यहाँ शत्रुघ्न जी अर्थ, लक्ष्मण जी धर्म, भरत जी काम और भगवान्‌ श्रीराम को मोक्ष समझना चाहिये। यहाँ तथा दोहा क्रमांक ३२५ में उपमान के रूप में आया हुआ काम, स्त्री–पुरुष संयोगात्मक मिथुनधर्मी नहीं है, प्रत्युत्‌ परमात्मा श्रीराम के श्रीचरणकमल के कैंकर्य की अभिलाषा ही काम है। वही पुरुष का प्राप्य है, मिथुनधर्मी काम तो प्राणी की सहजवृत्ति है। वह तो सूकर, कुक्कुर को भी सुलभ है, उसकी धर्मादि पुरुषार्थों के साथ गिनती नहीं की जा सकती और न ही की गयी है।

सुतन समेत दशरथहिं देखी। मुदित नगर नर नारि बिशेषी॥ सुमन बरषि सुर हनहिं निसाना। नाकनटी नाचहिं करि गाना॥

भाष्य

चारों पुत्रों के सहित महाराज दशरथ जी को देखकर मिथिलानगर के नर–नारी विशेष प्रसन्न हुए। देवता पुष्पों की वर्षा करके नगारे बजा रहे हैं और स्वर्ग की नर्तकियाँ अर्थात्‌ अप्सरायें मंगलगीत गाकर नाच रही हैं।

**शतानंद अरु बिप्र सचिवगन। मागध सूत बिदुष बंदीजन॥ सहित बरात राउ सनमाना। आयसु माँगि फिरे अगवाना॥**
भाष्य

बारात के सहित महाराज दशरथ ने शतानन्दजी, अन्य ब्राह्मण, जनक जी के मंत्रीगण, मिथिलापुर के मागध, सूत और विद्वान्‌ बंदीजनों का सम्मान किया। महाराज दशरथ जी का आदेश पाकर, अगवानी लेने आये हुए अगवान लोग मिथिलापुर को लौट आये।

**प्रथम बरात लगन ते आई। ताते पुर प्रमोद अधिकाई॥ ब्रह्मानंद लोग सब लहहीं। ब़ढहुँ दिवस निशि बिधि सन कहहीं॥**
भाष्य

बारात विवाहमुहूर्त से पहले आई तथा सर्वप्रथम यह बारात मुहूर्त के अनुसार मिथिला में पधारी, इसलिए मिथिलापुर में अत्यन्त आनन्द हो रहा है। मिथिलापुर के नर–नारी ब्रह्मानन्द का अनुभव कर रहे हैं और विधाता से प्रार्थना करते हैं कि, ये दिन–रात और ब़ढ जायें २४ घण्टों में भी न समाप्त हों, प्रत्युत्‌ एक–एक दिन–रात अनगिनत घण्टों के हो जायें।

**दो०- राम सीय शोभा अवधि, सुकृत अवधि दोउ राज।**

**जहँ तहँ पुरजन कहहिं अस, मिलि नर नारि समाज॥३०९॥ भा०– **जहाँ–तहाँ पुरुषों और महिलाओं के समाज मिलकर, अथवा, पुरुष–पुरुष से मिलकर और महिलायें– महिलाओं से मिलकर इस प्रकार कह रहे हैं कि, जैसे श्रीराम एवं श्रीसीता दोनों शोभा की सीमा हैं, उसी प्रकार

दशरथ जी और जनक जी सुकृत अर्थात्‌ सत्कर्मों की सीमा हैं।

[[२५९]]

जनक सुकृत मूरति बैदेही। दशरथ सुकृत राम धरि देही॥ इन सम काहु न शिव अवराधे। काहु न इन समान फल लाधे॥

भाष्य

सीताजी, जनक जी के पुण्यों की मूर्ति हैं और श्रीराम शरीरधारी दशरथ जी के सुपुत्र। इन दोनों (जनक जी और दशरथ जी) के समान किसी ने भी शिव जी की आराधना नहीं की और न ही किसी ने इनके समान पुण्यों का फल प्राप्त किया।

**इन सम कोउ न भयेउ जग माहीं। है नहिं कतहूँ होनेउ नाहीं॥ हम सब सकल सुकृत के रासी। भए जग जनमि जनकपुर बासी॥ जिन जानकी राम छबि देखी। को सुकृती हम सरिस बिशेषी॥ पुनि देखब रघुबीर बिबाहू। लेब भली बिधि लोचन लाहू॥**
भाष्य

महाराज जनक जी एवं महाराज दशरथ जी के समान संसार में न तो कोई हुआ, न है और न ही कहीं होनेवाला है। हम सभी सम्पूर्ण सुकृतों की राशि हैं, क्योंकि हम संसार में जन्म लेकर भी जनकपुर के वासी हुए, जिन्होंने श्रीसीताराम की युगलछवि रंगभूमि में जयमाला समर्पण के समय देखी। उन हम मिथिलावासियों के समान और कौन विशिष्ट सत्कर्म वाले हो सकते हैं? फिर हम श्रीसीता के साथ सम्पन्न होनेवाले श्रीराम का विवाह भी देखेंगे और भली प्रकार से नेत्रों का लाभ लेंगे।

**कहहिं परसपर कोकिल बयनी। एहि बिबाह बड़ लाभ सुनयनी॥ बड़े भाग बिधि बात बनाई। नयन अतिथि होइहैं दोउ भाई॥**
भाष्य

कोकिल के समान बोलनेवाली सुन्दर नयनों वाली मिथिलानियाँ परस्पर कहने लगीं, हे सुनयनी (सुन्दर नेत्रों वाली सखियों)! इस विवाह से बहुत बड़ा लाभ होगा। हमारे बहुत बड़े भाग्य से विधाता ने बात बनायी। दोनों भाई श्रीराम–लक्ष्मण हमारे नेत्रों के अतिथि (पाहुने) होंगे अर्थात्‌ श्रीराम, सीता जी के पति होंगे और श्रीलक्ष्मण, उर्मिला जी के दूल्हा होंगे।

**दो०- बारहिं बार सनेह बश, जनक बोलाउब सीय।**

लेन आइहैं बंधु दोउ, कोटि काम कमनीय॥३१०॥

भाष्य

पुत्री प्रेम के वश में होकर जनक जी बारम्बार सीता जी को मिथिला बुलायेंगे, तब करोड़ों कामदेव से भी अधिक सुन्दर और करोड़ों कामों के भी प्राप्ति की इच्छा के विषय दोनों भाई श्रीराम–लक्ष्मण, सीता जी को लिवा जाने के लिए मिथिला आयेंगे।

**बिबिध भाँति होइहिं पहुनाई। प्रिय न काहि अस सासुर माई॥ तब तब राम लखनहिं निहारी। होइहैं सब पुर लोग सुखारी॥**
भाष्य

हे माँ! यहाँ श्रीराम–लक्ष्मण की अनेक प्रकार से पहुनाई (आतिथ्य– सत्कार) होगी, ऐसी ससुराल किस को नहीं प्रिय होगी ? तब–तब श्रीराम-लक्ष्मण जी को देखकर सभी मिथिला के नर–नारी सुखी हो जायेंगे।

**सखि जस राम लखन कर जोटा। तैसेइ भूप संग दुइ ढोटा॥ श्याम गौर सब अंग सुहाए। ते सब कहहिं देखि जे आए॥**
भाष्य

हे सखी! जैसी श्रीराम–लक्ष्मण की जोड़ी है, उसी प्रकार महाराज दशरथ जी के संग भी दो राजकुमार आये हैं। वे भी साँवले और गोरे तथा सब अंगों से सुन्दर हैं, जो देखकर आये हैं, वे ऐसा कहते हैं।

[[२६०]]

कहा एक मैं आजु निहारे। जनु बिरंचि निज हाथ सँवारे॥ भरत रामही की अनुहारी। सहसा लखि न सकहिं नर नारी॥

भाष्य

एक ने कहा, मैंने तो आज ही देखा है, मानो ब्रह्मा जी ने उन चारों राजकुमारों को अपने हाथ से सजाकर बनाया है। श्रीभरत, श्रीराम के ही समान हैं। कोई भी नर–नारी सहसा इनका भेद नहीं देख सकते।

**लखन शत्रुसूदन एकरूपा। नख शिख ते सब अंग अनूपा॥ मन भावहिं मुख बरनि न जाहीं। उपमा कहँ त्रिभुवन कोउ नाहीं॥**
भाष्य

श्रीलक्ष्मण और श्रीशत्रुघ्न समान रूप के हैं। नख से शिखापर्यन्त इनके सभी अंग उपमारहित और सुन्दर हैं। ये मन को भाते हैं, मुख से वर्णन नहीं किये जा सकते। इन चारों भाइयों की उपमा के लिए तीनों लोकों में कोई उपमान नहीं है।

**छं०: उपमा न कोउ कह दास तुलसी कतहुँ कबि कोबिद कहैं।**

बल बिनय बिद्दा शील शोभा सिंधु इन से एइ अहैं॥ पुर नारि सकल पसारि अंचल बिधिहिं बिनय सुनावहीं। ब्याहियहुँ चारिउ भाइ एहिं पुर हम सुमंगल गावहीं॥

भाष्य

तुलसीदास जी कहते हैं कि, कवि और कोविद अर्थात्‌ वेदज्ञ विद्वान्‌ कहते हैं कि, कहीं भी कोई भी इनका उपमान नहीं है। बल, विद्दा, विनय और शील (स्वभाव और सदवृत्ति) तथा शोभा के सागर इन चारों भाइयों के समान ये ही हैं। यही यहाँ अनन्वय है। सभी मिथिलापुर की नारियाँ आँचल फैलाकर ब्रह्मा जी को सुनाकर विनती करती हैं कि, हे परमेश्वर! ये चारों भाई (श्रीराम, भरत, लक्ष्मण और शत्रुघ्न) इसी जनकपुर में श्रीसीता, मांडवी, उर्मिला और श्रुतिकीर्ति के साथ विवाहित हों और हम मिथिलानियाँ सुन्दर मंगलगीत गायें।

**सो०- कहहिं परस्पर नारि, बारि बिलोचन पुलक तन।**

सखि सब करब पुरारि, पुन्य पयोनिधि भूप दोउ॥३११॥

भाष्य

नेत्रों में अश्रु भरकर रोमांचित शरीर वाली सभी मिथिलानियाँ परस्पर कह रही हैं, हे सखी! भगवान्‌ शिव जी सब कुछ सम्पन्न करेंगे, क्योंकि दोनों महाराज जनक जी और दशरथ जी पुण्यों के सागर हैं।

**एहि बिधि सकल मनोरथ करहीं। आनँद उमगि उमगि उर भरहीं॥**
भाष्य

इसी प्रकार सब लोग मनोरथ कर रहे हैं और बार–बार उमड़ रहे आनन्द से अपने हृदय को भर रहे हैं। जे नृप सीय स्वयंबर आए। देखि बंधु सब तिन सुख पाए॥

**कहत राम जस बिशद बिशाला। निज निज भवन गए महिपाला॥**
भाष्य

जो राजा, सीता जी के स्वयंवर में आये थे, वे सभी भाइयों को देखकर बहुत सुखी हुए और सभी राजा, श्रीराम के निर्मल और विशाल यश का वर्णन करते हुए अपने–अपने घरों को लौट गये।

**गए बीति कछु दिन एहि भाँती। प्रमुदित पुरजन सकल बराती॥ भा०– **इस प्रकार कुछ दिन बीत गये, सभी मिथिला के लोग और सभी बाराती बहुत प्रसन्न थे।

मंगल मूल लगन दिन आवा। हिम ऋतु अगहन मास सुहावा॥

भाष्य

हेमन्त ऋतु, अगहन अर्थात्‌ मार्गशीर्ष मास के कारण सुहावना, सभी मंगलों का मूल, विवाह का मुहूर्त दिन आ गया।

[[२६१]]

**विशेष– **इस दोहे की यह पाँचवी पंक्ति है, इससे पंचमी सूचित हुई, सुहावा से शुक्ल पक्ष सूचित हुआ। मंगल शब्द के श्लेष के कारण मंगलों का मूल मंगल दिन, हेमन्त ऋतु और अगहन मास की सूचना ग्रन्थकार ने शब्दत: दी है। इस प्रकार, इसी पंक्ति से हेमन्त ऋतु, मार्गशीर्ष मास, शुक्ल पक्ष, पंचमी तिथि तथा मंगल दिन, श्रीराम का वैवाहिक मुहूर्त दिन है, यह सब सूचित हो गया।

ग्रह तिथि नखत जोग बर बारू। लगन सोधि बिधि कीन्ह बिचारू॥ पठै दीन्ह नारद सन सोई। गनी जनक के गनकन जोई॥ सुनी सकल लोगन यह बाता। कहहिं जोतिषी अपर बिधाता॥

भाष्य

ग्रह, तिथि, नक्षत्र के योग और श्रेष्ठ दिन के अनुसार मुहूर्त का शोधन करके, ब्रह्मा जी ने विचार किया और लग्नपत्रिका लिखकर, नारद जी से श्रीसीता–राम विवाह के लिए वही मुहूर्त भेजा, जिसको महाराज जनक जी के ज्योतिषियों ने भी गणित–ज्योतिष के आधार पर गिन अर्थात्‌ शोध रखा था। सभी मिथिला के लोगों ने यह बात सुनी कि, मिथिला के ज्योतिषियों के मुहूर्त का समर्थन ब्रह्मा जी ने भी किया, तब वे कहने लगे ज्योतिषी भी दूसरे ब्रह्मा जी ही हैं।

**दो०- धेनुधूलि बेला बिमल, सकल सुमंगल मूल।**

बिप्रन कहेउ बिदेह सन, जानि सगुन अनुकूल॥३१२॥

भाष्य

सम्पूर्ण सुमंगलों की मूल गोधूलि बेला को ही ब्राह्मणों ने वैवाहिक शकुन के अनुकूल जानकर बताया। उपरोहितहिं कहेउ नरनाहा। अब बिलंब कर कारन काहा॥

**शतानंद तब सचिव बोलाए। मंगल सकल साजि सब ल्याए॥**
भाष्य

मिथिला नरेश ने अपने पुरोहित से कहा, अब विलम्ब का क्या कारण है ? तब शतानन्द जी ने मंत्रियों को बुलाया और वे सभी मंत्री सम्पूर्ण मांगलिक द्रव्यों को सजा कर ले आये।

**शंख निसान पनव बहु बाजे। मंगल कलश सगुन शुभ साजे॥ सुभग सुवासिनि गावहिं गीता। करहिं बेद धुनि बिप्र पुनीता॥**
भाष्य

बहुत से शंख, नगाड़े और ढोल बजने लगे। मंगलकलश और कल्याणमय शकुनों को सजाया गया। सुन्दर सौभाग्यवती मिथिलानियाँ गीत गाने लगीं और पवित्र ब्राह्मण वेदध्वनि करने लगे।

**लेन चले सादर एहि भाँती। गए जहाँ जनवास बराती॥ कोसलपति कर देखि समाजू। अति लघु लाग तिनहिं सुरराजू॥**
भाष्य

इस प्रकार, शतानन्द जी आदरपूर्वक अवधनरेश दशरथ जी को विवाहार्थ बुलाने चले, जहाँ जनवास में बाराती थे, वहाँ गये। कोसल जनपद के स्वामी महाराज दशरथ जी के समाज को देखकर जनकराज के पुरोहित और मंत्रियों को दशरथ जी की अपेक्षा देवताओं के राजा इन्द्र बहुत छोटे लगे।

**भयेउ समय अब धारिय पाऊ। यह सुनि परा निसाननि घाऊ॥ गुरुहिं पूछि करि कुल बिधि राजा। चले संग मुनि साधु समाजा॥**
भाष्य

अब समय हो गया है विवाह के लिए श्रीजनकपुर के द्वार पर पधारा जाये। शतानन्द जी का यह वचन सुनकर नगारों पर चोटें पड़ीं अर्थात्‌ ऊँची ध्वनि से नगारे बज उठे। गुव्र्देव से आज्ञा लेकर, कुलविधि अर्थात्‌ रघुवंश की परम्परा के अनुसार, गोदान आदि करके अपने साथ मुनियों और सन्तों का समाज लेकर, दशरथ जी जनवास से जनकद्वार चले।

[[२६२]]

दो०- भाग्य बिभव अवधेश कर, देखि देव ब्रह्मादि।

लगे सराहन सहस मुख, जानि जनम निज बादि॥३१३॥

भाष्य

अवध नरेश दशरथ जी के सौभाग्य की संपत्ति को देखकर, अपने जन्म को व्यर्थ जानकर ब्रह्मादि देवता और सहस्रमुखों वाले शेष जी सराहना करने लगे।

**सुरन सुमंगल अवसर जाना। बरषहिं सुमन बजाई निसाना॥ शिव ब्रह्मादिक बिबुध बरूथा। च़ढे बिमाननि नाना जूथा॥ प्रेम पुलक तन हृदय उछाहू। चले बिलोकन राम बिबाहू॥**
भाष्य

देवताओं ने प्रभु के विवाह का सुन्दर मांगलिक अवसर जाना और वे नगारे बजाकर पुष्पों की वृष्टि करने लगे। शिवजी, ब्रह्मादि और अनेक यूथों में विभक्त देवताओं के समूह, प्रेम के कराण रोमांचित शरीर होकर, हृदय में उत्साह से युक्त होकर प्रभु श्रीराम का विवाह देखने के लिए विमानों पर च़ढकर चल पड़े।

**देखि जनकपुर सुर अनुरागे। निज निज लोक सबहिं लघु लागे॥ चितवहिं चकित बिचित्र बिताना। रचना सकल अलौकिक नाना॥ नगर नारि नर रूप निधाना। सुघर सुधरम सुशील सुजाना॥ तिनहिं देखि सब सुर सुरनारी। भए नखत जनु बिधु उजियारी॥**
भाष्य

जनकपुर देखकर देवता अनुरक्त हुए। सभी को मिथिला की अपेक्षा अपने–अपने लोक छोटे लगने लगे। देवता चकित होकर, विचित्र अर्थात्‌ विविध आश्चर्याें वाले अनेक मण्डपों को देख रहे हैं। वहाँ सभी रचनायें अलौकिक अर्थात्‌ इस लोक से विलक्षण हैं। मिथिला नगर के सभी नर–नारी रूप के कोष, सुन्दर, धार्मिक, सुन्दर स्वभाव वाले और चतुर हैं। उन्हें देखकर सभी देव और देवियाँ उसी प्रकार फीके पड़ गये, जैसे चन्द्रमा के उजाले में तारा गण हो जाते हैं।

**बिधिहिं भयउ आचरज बिशेषी। निज करनी कछु कतहुँ न देखी॥**
भाष्य

ब्रह्मा जी को विशेष आश्चर्य हुआ, क्योंकि उन्होंने मिथिला में कहीं भी कुछ भी अपनी कृति (रचना) नहीं देखी।

**दो०- शिव समुझाए देव सब, जनि आचरज भुलाहु।**

हृदय बिचारहु धीर धरि, सिय रघुबीर बिबाहु॥३१४॥

भाष्य

शिव जी ने ब्रह्मा जी के सहित सभी देवातओं को समझाया, हे देवताओं! आश्चर्य में मत भूलो। धैर्य धारण करके हृदय में श्रीसीता एवं श्रीरघुवीर के विवाह पर विचार करो अर्थात्‌ यहाँ अपनी कृति का चिन्तन मत करो। यह विवाह तो तुम्हारे बाप के बाप का है।

**जिन कर नाम लेत जग माहीं। सकल अमंगल मूल नसाहीं॥ करतल होहिं पदारथ चारी। तेइ सिय राम कहेउ कामारी॥**
भाष्य

काम के शत्रु शिव जी ने कहा जिनका नाम लेते ही सभी अमंगलों के मूल नष्ट हो जाते हैं और संसार में चारों पदार्थ अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष हस्तगत्‌ हो जाते हैं, वही श्रीसीता–राम यहाँ दुल्हन–दूल्हा बने हैं।

**एहि बिधि शंभु सुरन समुझावा। पुनि आगे बर बसह चलावा॥ देवन देखे दशरथ जाता। महामोद मन पुलकित गाता॥**

[[२६३]]

भाष्य

इस प्रकार शिव जी ने देवताओें को समझाया और फिर सब से आगे श्रेष्ठ बैल नन्दी को चलाया। देवताओं ने दशरथ जी को जनकराज के द्वार पर जाते देखा। दशरथ जी के मन में बहुत बड़ी प्रसन्नता थी और उनके सभी अंग रोमांचित थे।

**साधु समाज संग महिदेवा। जनु तनु धरे करहिं सुख सेवा॥ सोहत साथ सुभग सुत चारी। जनु अपबरग सकल तनुधारी॥**
भाष्य

महाराज दशरथ जी के साथ सन्तों का समाज और ब्राह्मण लोग हैं, मानो सभी लौकिक और पारलौकिक सुख शरीर धारण करके चक्रवर्ती जी की सेवा कर रहे हैं। अवधनरेश के साथ चारों सुन्दर पुत्र सुशोभित हैं, मानो सभी मोक्षों (सारुप्य, सायुज्य, सामीप्य, सालोक्य) ने शरीर धारण कर लिया हो।

**विशेष– **यहाँ भगवान्‌ श्रीराम को सारुप्य से, श्रीभरत को सायुज्य से, श्रीलक्ष्मण को सामीप्य से और श्रीशत्रुघ्न को सालोक्य से उपमित किया गया है।

मरकत कनक बरन बर जोरी। देखि सुरन भइ प्रीति न थोरी॥ पुनि रामहिं बिलोकि हिय हरषे। नृपहिं सराहि सुमन तिन बरषे॥

भाष्य

मरकत मणि और स्वर्ण के समान श्रेष्ठ दो जोयिड़ों (राम–लक्ष्मण और भरत–शत्रुघ्न) को देखकर, देवताओं के हृदय में बहुत ही प्रीति अर्थात्‌ अनुरक्ति हुई। फिर भगवान्‌ श्रीराम को देखकर देवता हृदय में प्रसन्न हुए और राजा दशरथ जी की सराहना करते हुए उन्होंने पुष्पों की वर्षा की।

**दो०- रामरूप नखशिख सुभग, बारहिं बार निहारि।**

पुलक गात लोचन सजल, उमा समेत पुरारि॥३१५॥

भाष्य

नख से शिखापर्यन्त सुन्दर भगवान्‌ श्रीराम के रूप को बार–बार देखकर पार्वती जी के सहित श्रीशिव जी शरीर से रोमांचित और नेत्रों में अश्रुजल भर रहे थे।

**केकिकंठ दुति श्यामल अंगा। ततिड़ बिनिंदक बसन सुरंगा॥ ब्याह बिभूषन बिबिध बनाए। मंगल मय सब भाँति सुहाए॥**
भाष्य

प्रभु श्रीराम के श्यामल अंग मोर के कण्ठ की शोभा के समान शोभा से युक्त हैं। सुन्दर पीले रंग का उनका वस्त्र, विद्दुत की भी निन्दा करता है। सब प्रकार से सुन्दर मंगलमय अनेक प्रकार के विवाहकालिक आभूषण सजाये हुए हैं।

**शरद बिमल बिधु बदन सुहावन। नयन नवल राजीव लजावन॥ सकल अलौकिक सुन्दरताई। कहि न जाइ मनहीं मन भाई॥**
भाष्य

भगवान्‌ श्रीराम का सुहावना मुख, शरद्‌काल के निर्मल चन्द्रमा के समान है। उनके नेत्र नवीन अर्थात्‌ प्रात:कालीन राजीव यानी लाल कमल को भी लज्जित कर रहे हैं। उनकी सम्पूर्ण सुन्दरता अलौकिक है, वह कही नहीं जा सकती है। वह तो मन से मन को ही भाती है।

**बंधु मनोहर सोहहिं संगा। जात नचावत चपल तुरंगा॥ राजकुअँर बर बाजि देखावहिं। बंश प्रशंसक बिरुद सुनावहिं॥**
भाष्य

साथ जाते हुए चंचल घोड़ों को नचाते हुए प्रभु श्रीराम के सुन्दर तीनों भ्राता श्रीभरत, लक्ष्मण और शत्रुघ्न प्रभु श्रीराम के साथ बहुत सुन्दर लग रहे हैं। राजकुमार अपने श्रेष्ठ घोड़ों को दिखाते हैं अर्थात्‌ एक–दूसरे को अपने–अपने घोड़े की चाल दिखाते हैं। वंशों की प्रशंसा करने वाले बंदीजन उनका सुयश सुनाते हैं।

[[२६४]]

जेहि तुरंग पर राम बिराजे। गति बिलोकि खगनायक लाजे॥ कहि न जाइ सब भाँति सुहावा। बाजि बेष जनु काम बनावा॥

भाष्य

जिस घोड़े पर प्रभु श्रीराम विराज रहे हैं उसकी गति (चाल) देखकर पक्षीराज गरुड़ भी लज्जित हो रहे हैं। वह कहा नहीं जा सकता, क्योंकि वह सब प्रकार से सुन्दर है, मानो कामदेव ने ही घोड़े का वेश बना लिया हो।

**छं०: जनु बाजि बेष बनाइ मनसिज राम हित अति सोहई।**

आपने बय बल रूप गुन गति सकल भुवन बिमोहई॥ जगमगत जीन ज़डाव जोति सुमोति मनि मानिक लगे। किंकिनि ललाम लगाम ललित बिलोकि सुर नर मुनि ठगे॥

भाष्य

मानो भगवान्‌ श्रीराम के लिए स्वयं घोड़े का वेश धारण करके कामदेव अत्यन्त शोभित हो रहे हैं। अपनी अवस्था, बल, रूप, गुण और चाल से वह घोड़ा सम्पूर्ण घोड़ों को मोहित कर रहा है। उसके जीन में ज़डे हुए रत्नों की ज्योति जगमगा रही है। उसकी किंकिंणी अर्थात्‌ करधनी में लगे हुए रत्न और सुन्दर लगाम को देखकर देवता, मनुष्य, मुनि, सब ठग से गये अर्थात्‌ मानो, उसने ठगहारी करके सब के मन को लूट लिया है।

**दो०- प्रभु मनसहिं लयलीन मन, चलत बाजि छबि पाव।**

भूषित उडुगन ततिड़ घन, जनु बर बरहि नचाव॥३१६॥

भाष्य

प्रभु की इच्छा से लयलीन हुए अर्थात्‌ मिले हुए मनवाला घोड़ा चलता हुआ बहुत छवि प्राप्त कर रहा है, मानो तारागणों और विद्दुत से सुशोभित बादल, श्रेष्ठ मोर को नचा रहा हो। तात्पर्य यह है कि, उस अश्व ने अपने मन को प्रभु की इच्छा से मिला लिया और प्रभु के संकेत के बिना भी उनकी इच्छा से वह नाचता है। इस पर गोस्वामी जी ने उत्प्रेक्षा की मानो तारागणों और विद्दुत से सुशोभित बादल, मयूर को नचा रहा हो। यहाँ बादल हैं भगवान्‌ श्रीराम, नक्षत्रगण हैं उनके वैवाहिक आभूषण, बिजली है पीताम्बर और मयूर है, घोड़ा।

**जेहि बर बाजि राम असवारा। तेहि शारदउ न बरनै पारा॥ शङ्कर राम रूप अनुरागे। नयन पंचदश अति प्रिय लागे॥ हरि हित सहित राम जब जोहे। रमा समेत रमापति मोहे॥ निरखि राम छबि बिधि हरषाने। आठइ नयन जानि पछिताने॥ सुर सेनप उर बहुत उछाहू। बिधि ते डेव़ढ लोचन लाहू॥**
भाष्य

जिस श्रेष्ठ घोड़े पर भगवान्‌ श्रीराम आरू़ढ हैं उसका सरस्वती जी भी वर्णन नहीं कर सकतीं। शङ्करजी, भगवान्‌ श्रीराम के रूप पर अनुरक्त हुए तब उन्हें पन्द्रह नेत्र बहुत प्रिय लगे। जब श्री हरि (विष्णु) ने प्रेमपूर्वक श्रीराम जी को निहारा तब लक्ष्मी जी के सहित लक्ष्मीपति नारायण भी भगवान्‌ श्रीराम के रूप पर मोहित हो गये। श्रीराम की छवि देखकर ब्रह्मा जी प्रसन्न हुए, परन्तु अपने आठ ही नेत्र जानकर पश्चात्ताप करने लगे। देव सेनापति कार्तिकेय जी के मन में बहुत उत्साह है, क्योंकि उन्हें ब्रह्मा जी की अपेक्षा डे़ढ गुणा अधिक नेत्र लाभ मिल रहा है अर्थात्‌ कार्तिकेय जी बारह नेत्रों से भगवान्‌ श्रीराम को देख रहे हैं, जो आठ का डे़ढ गुना है।

**रामहिं चितव सुरेश सुजाना। गौतम स्राप परम हित माना॥ देव सकल सुरपतिहिं सिहाहीं। आजु पुरंदर सम कोउ नाहीं॥**
भाष्य

चतुर इन्द्र, भगवान्‌ श्रीराम को एक हजार नेत्रों से देखने लगे। उन्होंने अपने लिए दिये हुए गौतम मुनि के शाप को परमकल्याणकारी माना। सभी देवतागण इन्द्र को सिहाने लगे अर्थात्‌ ईर्ष्या के साथ प्रशंसा करने लगे

[[२६५]]

और बोले, आज इन्द्र के समान कोई भी सौभाग्यशाली नहीं है, क्योंकि वे सबसे अधिक एक हजार नेत्रों से प्रभु के सौन्दर्य को देख रहे हैं।

**विशेष– **यहाँ तात्पर्य यह है कि, अहल्या के साथ छल करने पर गौतम ऋषि ने इन्द्र को एक हजार गुप्तांगों से युक्त होने का शाप दिया था और इन्द्र की प्रार्थना करने पर कहा कि, जब तुम भगवान्‌ श्रीराम को दूल्हा रूप में देखोगे तब ये सभी गुप्तांग, नेत्र बन जायेंगे।

मुदित देवगन रामहिं देखी। नृपसमाज दुहुँ हरष बिशेषी॥

भाष्य

श्रीराम को देखकर देवगण भी प्रसन्न हैं और दोनों राजसमाज श्रीअवध और श्रीमिथिला में अत्यन्त विशेष हर्ष है।

**छं०- अति हरष राजसमाज दुहुँ दिशि दुंदुभी बाजहिं घनी।**

बरषहिं सुमन सुर हरषि कहि जय जयति जय रघुकुलमनी॥ एहि भाँति जानि बरात आवत बाजने बहु बाजहीं। रानी सुवासिनि बोलि परिछनि हेतु मंगल साजहीं॥

भाष्य

दोनों राजसमाजों को बहुत हर्ष है और नगारे बज रहे हैं। हे रघुकुलमणि श्रीराम! आप की जय हो! जय हो! जय हो! ऐसा कहकर देवता पुष्पों की वर्षा कर रहे हैं। इस प्रकार, बारात को आते जानकर जनक जी के द्वार पर बहुत से बाजे बजने लगे और सीता जी की माता सुनयना सुहागिन महिलाओं को बुलाकर परिछन करने के लिए मंगल साज सजाने लगीं।

**दो०- सजि आरती अनेक बिधि, मंगल कलश सँवारि।**

चलीं मुदित परिछनि करन, गजगामिनि बर नारि॥३१७॥

भाष्य

अनेक प्रकार से आरती सजाकर मांगलिक कलशों को सँवार कर हाथी की चाल चलने वाली सुनयना आदि श्रेष्ठ पूज्य–महिलायें प्रसन्न होती हुईं परिछन करने के लिए चल पड़ीं।

**बिधुबदनी सब सब मृगलोचनि। सब निज तनु छबि रति मद मोचनि॥ पहिरे बरन बरन बर चीरा। सकल बिभूषन सजे शरीरा॥ सकल सुमंगल अंग बनाए। करहिं गान कलकंठि लजाए॥ कंकन किंकिनि नूपुर बाजहिं। चालि बिलोकि काम गज लाजहिं॥ बाजहिं बाजन बिबिध प्रकारा। नभ अरु नगर सुमंगलचारा॥**
भाष्य

भगवान्‌ श्रीराम की सासू माँ सुनयना जी एवं उनकी सहयोगिनीं सभी उन्हीं की समवयस्क महिलायें चन्द्रमा के समान मुखवाली हैं। वे सभी हरिण के समान नेत्रवाली हैं और सभी महिलायें अपनी शरीर की कान्ति से कामपत्नी रति के मद को नष्ट करनेवाली हैं। सभी ने बहुत प्रकार की बहुरंगी सायिड़ाँ पहन रखी है और सभी ने आभूषणों से अपने शरीर को सजा रखा है। सभी महिलायें अपने अंगोें में सुन्दर मंगल सजा रखे हैं। वे कोकिलाओं को लज्जित करती हुई सुन्दर मंगलगान कर रही हैं। उनके कंकण, किंकिणि (करधनी) और नूपुर बज रहे हैं। उनकी चाल देखकर कामदेव के हाथी भी लज्जित हो जाते हैं। अनेक प्रकार के वाद्द बज रहे हैं। आकाश और नगर में सुन्दर मंगलाचार हो रहे हैं।

[[२६६]]

शची शारदा रमा भवानी। जे सुरतिय शुचि सहज सयानी॥ कपट नारि बर बेष बनाई। मिलीं सकल रनिवासहिं जाई॥ करहिं गान कल मंगल बानी। हरष बिबश सब काहुँ न जानी॥

भाष्य

शची (इन्द्राणी), शारदा, लक्ष्मी और पार्वती आदि जो स्वभाव से चतुर देवपत्नियाँ थीं। वे सब माया से श्रेष्ठ महिलाओं का वेश बनाकर जनक जी के रनिवास में जाकर मिल गईं। वे सुन्दर मंगलमय वाणी में गान करने लगीं। सभी रानियाँ हर्ष के विवश हैं, किसी ने इनको नहीं पहचाना।

**छं०- को जान केहि आनंद बश सब ब्रह्म बर परिछन चलीं।**

कल गान मधुर निसान बरषहिं सुमन सुर शोभा भलीं॥ आनंदकंद बिलोकि दूलह सकल हिय हरषित भईं। अंभोज अंबक अंबु उमगि सुअंग पुलकावलि छईं॥

भाष्य

आनन्द के वश में होने से किस को कौन जानती ? सभी महिलायें परब्रह्मरूप वर का परिछन करने चल पड़ी हैं। सुन्दर गान और मधुर नगारे की धुन हो रही है। देवता पुष्पों की वर्षा कर रहे हैं। यह शोभा बहुत श्रेष्ठ है। आनन्द रूप जल के मेघस्वरूप श्रीराम को ही दूल्हा देखकर सभी जनक जी की रानियाँ हृदय में प्रसन्न हो गईं। उनके कमल जैसे नेत्रों में जल उमड़ पड़ा और उनके सुन्दर अंगों में पुलकावलि छा गयी।

**दो०- जो सुख भा सिय मातु मन, देखि राम बर बेष।**

सो न सकहिं कहि कलप शत, सहस शारदा शेष॥३१८॥

भाष्य

सीता जी की माता सुनयना जी के मन में भगवान्‌ श्रीराम का दूल्हा वेश देखकर जो सुख हुआ वह सुख सहस्रों शारदा और शेष सैक़डों कल्पपर्यन्त भी नहीं कह सकते।

**नयन नीर हठि मंगल जानी। परिछनि करहिं मुदित मन रानी॥**

**बेद बिहित अरु कुल आचारू। कीन्ह भली बिधि सब ब्यवहारू॥ भा०– **मंगल का अवसर जानकर, नेत्रों के आँसुओं को रोककर रानी सुनयना जी प्रसन्न होकर श्रीराम का परिछन करने लगीं। उन्होंने वेदों में विहित कर्मों, कुल के आचारों तथा व्यवहारों को भलीभाँति सम्पन्न किया।

पंच सबद धुनि मंगल गाना। पट पाँवड़े परहिं बिधि नाना॥ करि आरती अरघ तिन दीन्हा। राम गमन मंडप तब कीन्हा॥

भाष्य

पंच शब्दों की धुन अर्थात्‌ जयध्वनि, मंगलध्वनि, वेदध्वनि, बंदीध्वनि और नगाड़ों की ध्वनि हो रही है तथा मंगलगान गाये जा रहे हैं और अनेक प्रकार के वस्त्रों के पाँवरे पड़ रहे हैं। रानियों ने आरती करके अर्घ दिया और श्रीराम ने द्वार से मण्डप की ओर गमन किया।

**दशरथ सहित समाज बिराजे। बिभव बिलोकि लोकपति लाजे॥ समय समय सुर बरषहिं फूला। शांति प़ढहिं महिसुर अनुकूला॥**
भाष्य

समाज के सहित महाराज दशरथ सुशोभित हो रहे हैं। उनका वैभव देखकर लोकपति भी लज्जित हो रहे हैं। समय–समय पर देवता पुष्पों की वर्षा कर रहे हैं और अनुकूल ब्राह्मण शान्तिपाठ कर रहे हैं।

**नभ अरु नगर कोलाहल होई। आपन पर कछु सुनइ न कोई॥ एहि बिधि राम मंडपहिं आए। अरघ देइ आसन बैठाए॥**

[[२६७]]

भाष्य

आकाश और नगर में कोलाहल हो रहा है। अपना और पराया कोई कुछ भी (शब्द) नहीं सुन रहा है। इस प्रकार भगवान्‌ श्रीराम मण्डप में आये, उन्हें अर्घ देकर आसन पर बैठाया गया।

**छं०- बैठारि आसन आरती करि निरखि बर सुख पावहीं।**

मनि बसन भूषन भूरि बारहिं नारि मंगल गावहीं॥ ब्रह्मादि सुरवर बिप्र बेष बनाइ कौतुक देखहीं। अवलोकि रघुकुल कमल रबि छबि सुफल जीवन लेखहीं॥

भाष्य

प्रभु को आसन पर बैठाकर, आरती करके, वर रूप में विराजमान श्रीराम को देखकर लोग सुख पा रहे हैं तथा महिलायें, मणि, वस्त्र और अनेक आभूषणों की न्यौछावर कर रही हैं एवं मंगल गा रही हैं। ब्रह्मादि श्रेष्ठ देवता ब्राह्मण का वेश बना कर विवाह मंगल देख रहे हैं और रघुकुलरूप कमल के सूर्य भगवान्‌ श्रीराम को देखकर अपने जीवन को सुफल अर्थात्‌ सुन्दर फल से युक्त समझ रहे हैं।

**दो०- नाऊ बारी भाँट नट, राम निछावरि पाइ।**

मुदित अशीषहिं नाइ सिर, हरष न हृदय समाइ॥३१९॥

भाष्य

नाई, बारी (पान देनेवाला) भाट, नट (नर्तक) ये सभी श्रीराम की न्यौछावर पाकर, सिर नवाकर प्रसन्नता से आशीर्वाद दे रहे हैं। इनके हृदय में हर्ष नहीं समा रहा है।

**मिले जनक दशरथ अति प्रीती। करि बैदिक लौकिक सब रीती॥ मिलत महा दोउ राज बिराजे। उपमा खोजि खोजि कबि लाजे॥**
भाष्य

लौकिक और वैदिक सभी परम्पराओं को सम्पन्न करके अत्यन्त प्रसन्नता से जनक जी और दशरथ जी एक–दूसरे से मिले (सामध का लोकाचार सम्पन्न किया)। दोनों महाराज मिलते समय बहुत सुशोभित हो रहे हैं। उनकी उपमा खोज–खोज कर कविगण लज्जित हो उठे।

**लही न कतहुँ हारि हिय मानी। इन सम एइ उपमा उर आनी॥ सामध देखि देव अनुरागे। सुमन बरषि जस गावन लागे॥**
भाष्य

कहीं भी इनकी उपमा प्राप्त नहीं की और हृदय में हार मान लिए। इनके समान यही हैं, अन्त में यही उपमा हृदय में निश्चित की। सामध अर्थात्‌ समधियों का मिलन देखकर, देवता प्रेम में मग्न हुए और पुष्पों की वर्षा करके दोनों का यश गाने लगे।

**जग बिरंचि उपजावा जब ते। देखे सुने ब्याह बहु तब ते॥ सकल भाँति सम साज समाजू। सम समधी देखे हम आजू॥**
भाष्य

जब से ब्रह्मा जी ने जगत्‌ को उत्पन्न किया है, तब से हम देवताओं ने बहुत से विवाह देखे और बहुत से विवाह सुने हैं। उनमें सज्जा और समाज सब प्रकार से समान थे, परन्तु हमने समान समधी तो आज ही देखे, अर्थात्‌ यथा* नाम तथा गुण:।*

**देव गिरा सुनि सुन्दर साँची। प्रीति अलौकिक दुहुँ दिशि माची॥**

**देत पाँवड़े अरघ सुहाए। सादर जनक मंडपहिं ल्याए॥ भा०– **देवताओं की सुन्दर और सत्यवाणी सुनकर, दोनोें राजसमाजों में अलौकिक प्रीति फैल गयी। पाँवड़े और सुन्दर अर्घ देते हुए जनक जी आदरपूर्वक दशरथ जी को मण्डप में ले आये।

[[२६८]]

छं०- मंडप बिलोकि बिचित्र रचना रुचिरता मुनि मन हरे।

निज पानि जनक सुजान सब कहँ आनि सिंघासन धरे॥ कुल इष्ट सरिस बसिष्ठ पूजे बिनय करि आशिष लही। कौशिकहिं पूजत परम प्रीति कि रीति तौ न परै कही॥

भाष्य

मण्डप की विचित्र रचना और सुन्दरता देखते ही मुनियों के मन भी अपहृत हो गये। चतुर जनक जी ने सभी बारातियों के लिए अपने हाथ से ले आकर सिंहासन रखे। कुल के इय्देवता के समान वसिष्ठ जी की पूजा की उनसे विनय करके आशीर्वाद प्राप्त किया। विश्वामित्र जी की पूजा करते समय जनक जी के मन में जो परमप्रीति हुई उसकी रीति तो कही नहीं जा सकती।

**दो०- बामदेव आदिक ऋषय, पूजे मुदित महीश।**

**दिए दिब्य आसन सबहिं, सब सन लही अशीश॥३२०॥ भा०– **वामदेव आदि ऋषियों की महाराज जनक ने प्रसन्न होकर पूजा की, सबको दिव्य अर्थात्‌ स्वर्गोचित आसन दिये और सभी से आशीर्वाद प्राप्त किये।

बहुरि कीन्ह कोसलपति पूजा। जानि ईश सम भाव न दूजा॥ कीन्ह जोरि कर बिनय बड़ाई। कहि निज भाग्य बिभव बहुताई॥

भाष्य

फिर ईश्वर के समान जानकर महाराज दशरथ जी की जनक जी ने पूजा की। उनके मन में कोई दूसरा भाव नहीं था। महाराज ने अपने भाग्य के वैभव की अधिकता कहकर हाथ जोड़कर विनय और प्रशंसा की।

**पूजे भूपति सकल बराती। समधी सम सादर सब भाँती॥ आसन उचित दिए सब काहू। कहौं काह मुख एक उछाहू॥**
भाष्य

महाराज जनक जी ने सभी बारातियों की अपने समधी महाराज दशरथ जी के समान ही आदरपूर्वक सब प्रकार से पूजा की और सबको उचित आसन दिये। एक मुख से मैं जनक जी का उत्साह कैसे कहूँ ?

**सकल बरात जनक सनमानी। दान मान बिनती बर बानी॥ बिधि हरि हर दिशिपति दिनराऊ। जे जानहिं रघुबीर प्रभाऊ॥ कपट बिप्र बर बेष बनाए। कौतुक देखहिं अति सचु पाए॥ पूजे जनक देव सब जाने। दिए सुआसन बिनु पहिचाने॥**
भाष्य

दान, सम्मान, प्रार्थना और श्रेष्ठवाणी से जनक जी ने सम्पूर्ण बारात का सम्मान किया। ब्रह्माजी, विष्णुजी, शिवजी, दिग्‌पाल, सूर्यनारायण और भी जो देवता भगवान्‌ श्रीराम के प्रभाव को जानते हैं, वे कपट से ब्राह्मण का वेश बनाकर अत्यन्त सुख पाते हुए कौतुक देख रहे हैं। उन सबको देवता के समान जानकर जनक जी ने पूजा की और बिना पहचाने ही उन्हें सुन्दर आसन दिया।

**छं०- पहिचान को केहि जान सबहिं अपान सुधि भोरी भई।**

आनंद कंद बिलोकि दूलह उभय दिशि आनँदमई॥ सुर लखे राम सुजान पूजे मानसिक आसन दए। अवलोकि शील स्वभाव प्रभु को बिबुध मन प्रमुदित भए॥

भाष्य

वहाँ कौन किसे पहचानता और कौन किसे जानता? सभी को अपनी सुधि भूल गयी। आनन्दकन्द श्रीराम को दूलह रूप में देखकर दोनों दिशाओं में अर्थात्‌ मिथिला और अवध के समाज में आनन्द ही आनन्द हो गया।

[[२६९]]

चतुर प्रभु श्रीराम ने देवताओं को देखा तथा पहचान लिया और उनकी पूजा की एवं उन्हें मानसिक आसन दिया। प्रभु श्रीराम के सुन्दर चरित्र और स्वभाव को देखकर देवता मन में प्रसन्न हो गये।

दो०- रामचंद्र मुख चंद्र छबि, लोचन चारु चकोर।

करत पान सादर सकल, प्रेम प्रमोद न थोर॥३२१॥

भाष्य

सभी के नेत्ररूप सुन्दर चकोर श्रीरामचन्द्र के मुखरूप चन्द्र की अमृत रूप छवि का पान कर रहे हैं। सबके मन में प्रेम और प्रमोद अर्थात्‌ इष्टलाभ से उत्पन्न हर्ष थोड़ा नहीं है अर्थात्‌ बहुत है।

**समय बिलोकि बसिष्ठ बोलाए। सादर शतानंद सुनि आए॥ बेगि कुअँरि अब आनहु जाई। चले मुदित मुनि आयसु पाई॥**
भाष्य

विवाह का समय देखकर ब्रह्मर्षि वसिष्ठ जी ने जनक जी के पुरोहित शतानन्द जी को बुला लिया। वसिष्ठ जी का आदेश सुनकर शतानन्द जी आदरपूर्वक उनके पास आये। वसिष्ठ जी ने कहा, अब राजकुमारी को शीघ्र ले आइये। मुनि का आदेश पाकर शतानन्द जी प्रसन्न होकर जनक जी के रनिवास को चले गये।

**रानी सुनि उपरोहित बानी। प्रमुदित सखिन समेत सयानी॥ बिप्र बधू कुलबृद्ध बोलाईं। करि कुलरीति सुमंगल गाईं॥**
भाष्य

चतुर रानियाँ (सुनयना आदि) ने अपने पुरोहित के मुख से श्रीअवध के पुरोहित वसिष्ठ जी की वाणी सुनकर सखियों के सहित प्रसन्न होकर ब्राह्मण पत्नियों (मैत्रेयी आदि) और अपने कुल की वृद्धाओं को बुला लिया और विवाह के पूर्व की रीतियों का पालन करके सुन्दर मंगलगीत गाने लगीं।

**नारि बेष जे सुर बर बामा। सकल सुभाय सुन्दरी श्यामा॥ तिनहिं देखि सुख पावहिं नारी। बिनु पहिचानि प्रानहु ते प्यारी॥**
भाष्य

मनुष्य नारियों के वेश में आई हुई जो स्वभाव से सुन्दर और श्यामा अर्थात्‌ सदैव सोलह वर्ष की दिखने वाली श्रेष्ठ देवपत्नियाँथीं, उन्हें देखकर मिथिला की नारियाँ बहुत सुख प्राप्त कर रही थीं। वे बिना जान–पहचान के भी मिथिलानियों को प्राण से भी अधिक प्रिय लग रही थीं।

**विशेष– **“श्यामा षोडश वार्षिकी” अर्थात्‌ सोलह वर्ष की युवती को श्यामा कहते हैं। **बार बार सनमानहिं रानी। उमा रमा शारद सम जानी॥ सीय सँवारि समाज बनाई। मुदित मंडपहिं चलीं लिवाई॥**
भाष्य

देववधूओं को पार्वतीजी, लक्ष्मी जी और सरस्वती जी के समान जानकर, जनक जी की रानियाँ उनका बार–बार सम्मान कर रही थीं। सीता जी को सजाकर और विवाह के उपकरणों को व्यवस्थित करके रानियाँ प्रसन्न होती हुई कुमारी को मण्डप की ओर लिवा ले चलीं।

**छं०- चलि ल्याइ सीतहिं सखी सादर सजि सुमंगल भामिनी।**

नव सप्त साजे सुन्दरी सब मत्त कुंजर गामिनी॥ कल गाान सुनि मुनि ध्यान त्यागहिं काम कोकिल लाजहीं। मंजीर नूपुर कलित कंकन ताल गति बर बाजहीं॥

भाष्य

सुन्दर लक्षणों वाली सखियाँ मंगलों को सजाकर सीता जी को आदरपूर्वक लिवा ले चलीं। सभी सुन्दरियों ने सोलह शृंगार सजाये थे। सभी मतवाले हाथी की चाल से चल रहीं थी। उनका सुन्दर गान सुनकर, मुनि भी

[[२७०]]

ध्यान छोड़ देते थे। कामदेव की कोकिलायें लज्जित हो रही थीं। उनके चरणों में पायल पैंजनियाँ, तथा सुन्दर कंकण ताल की गति के अनुसार श्रेष्ठ प्रकार से बज रहे थे।

दो०- सोहति बनिता बृंद महँ, सहज सुहावनि सीय।

**छबि ललना गन मध्य जनु, सुषमा तिय कमनीय॥३२२॥ भा०– **युवति नारियों के समूह में स्वभाव से सुन्दर सीता जी शोभित हो रही थीं मानो, छवि रूप सुन्दर महिलाओं के बीच सभी की कामना का विषय बनी हुई परमशोभारूप नारी विराजमान हो।

सिय सुन्दरता बरनि न जाई। लघु मति बहुत मनोहरताई॥ आवत देखि बरातिन सीता। रूपराशि सब भाँति पुनीता॥ सबहि मनहिं मन किए प्रनामा। देखि राम भए पूरनकामा॥

भाष्य

सीता जी की सुन्दरता का वर्णन नहीं किया जा सकता। मेरी बुद्धि बहुत छोटी और सीता जी की सुन्दरता बहुत बड़ी है। रूप की राशि सब प्रकार से पवित्र भगवती सीता जी को आते देखकर, सभी वर यात्रियों ने उन्हें मन ही मन में प्रणाम किया और सभी लोग सीता जी के सहित श्रीराम को देखकर पूर्णकाम हो गये अर्थात्‌ सभी की कामनायें पूर्ण हो गईं।

**हरषे दशरथ सुतन समेता। कहि न जाइ उर आनँद जेता॥ सुर प्रनाम करि बरिषहिं फूला। मुनि आशिष धुनि मंगल मूला॥ गान निसान कोलाहल भारी। प्रेम प्रमोद मगन नर नारी॥**
भाष्य

पुत्रों के सहित महाराज दशरथ जी भी बहुत प्रसन्न हुए। उनके हृदय में जितना आनन्द था, उसे कहा नहीं जा सकता। देवता प्रणाम करके पुष्पों की वर्षा कर रहे हैं और सभी मंगलों की मूल, मुनियों की आशीर्वादध्वनि हो रही है। मंगलगान और नगरोें की ध्वनि का भारी कोलाहल है। मिथिलानगर के नर–नारी श्रीसीता–राम विषयक प्रेम तथा मनचाहे लाभ से उत्पन्न प्रसन्नता में मग्न है।

**एहि बिधि सीय मंडपहिं आई। प्रमुदित शांति प़ढहिं मुनिराई॥ तेहि अवसर कर बिधि ब्यवहारू। दुहुँ कुलगुरु सब कीन्ह अचारू॥**
भाष्य

इस प्रकार से सीता जी मण्डप में आईं। मुनिराज वसिष्ठजी, विश्वामित्र जी याज्ञवल्क्यजी, शतानन्द जी आदि प्रसन्न होकर शान्तिपाठ करने लगे। उसी अवसर पर दोनों कुलगुव्र्ओं अर्थात्‌ वसिष्ठ और शतानन्द जी ने वेदविधि और लोकव्यवहार के अनुकूल सभी कुलाचार सम्पन्न किये।

**छं०- आचार करि गुरु गौरि गनपति मुदित बिप्र पुजावहीं।**

सुर प्रगटि पूजा लेहिं देहिं अशीष अति सुख पावहीं॥ मधुपर्क मंगल द्रव्य जो जेहि समय मुनि मन महँ चहैं। भरे कनक कोपर कलश सो तब लिए परिचारक रहैं॥१॥

भाष्य

गुरुजन कुलाचार सम्पन्न करके और सब ब्राह्मण प्रसन्न होकर श्रीसीता–राम जी से गणपति और गौरी की

पूजा करा रहे हैं। गणेश जी और पार्वती जी आदि देवता प्रकट होकर पूजा स्वीकारते हैं, आशीर्वाद देते हैं और बहुत सुख प्राप्त करते हैं। मधुपर्क अर्थात्‌ समान मात्रा में दही, घी और मधु का घोल आदि जो भी मांगलिकद्रव्य मुनिगण जिस समय मन में चाहते हैं, उसी समय, स्वर्ण के परातों और कलशों में भरकर सेवक लेकर उपस्थित हो रहे हैं।

[[२७१]]

छं०- कुल रीति प्रीति समेत रबि कहि देत सब सादर किये।

एहि भाँति देव पुजाइ सीतहिं सुभग सिंघासन दिये॥ सिय राम अवलोकनि परसपर प्रेम काहु न लखि परै। मन बुद्धि बर बानी अगोचर प्रगट कबि कैसे करै॥२॥

भाष्य

अपने कुल की रीति स्वयं सूर्यनारायण प्रेम के सहित कह रहे हैं। वह सब श्रीसीता–राम ने आदरपूर्वक सम्पन्न किये। इस प्रकार देवताओं की पूजा करा कर ब्राह्मणों ने सीता जी को सुन्दर सिंहासन बैठने के लिए दिया। श्रीसीता–राम की परस्पर चितवन और उस से उद्‌भूत पारस्परिक अनिर्वचनीय प्रेम किसी को नहीं दिख पड़ रहा है। मन, बुद्धि, श्रेष्ठ वाणी से भी परे उन परमात्म दंपति के प्रेम को कवि कैसे प्रकट कर सकता है।

**दो०- होम समय तनु धरि अनल, अति सुख आहुति लेहिं।**

**बिप्रबेष धरि बेद सब, कहि बिबाह बिधि देहिं॥३२३॥ भा०– **होम के समय अग्निदेव शरीर धारण करके अत्यन्त सुखपूर्वक श्रीसीता–राम द्वारा दी हुई आहुति स्वीकार

करते हैं। सभी वेद, ब्राह्मणों का वेश धारण करके विवाह की विधि कह देते हैं।

जनक पाटमहिषी जग जानी। सीय मातु किमि जाइ बखानी॥ सुजस सुकृत सुख सुन्दरताई। सब समेटि बिधि रची बनाई॥

भाष्य

सम्पूर्ण जगत्‌ जानता है कि, महाराज जनक जी की पट्टाभिषिक्त महारानी सुनयना को सुयश, सुकृत अर्थात्‌ सत्कर्म, सुख तथा सुन्दरता इन सभी उपकरणों को समेट कर इन्हीं से ब्रह्मा जी ने सँवार–सँवार कर बनाकर रचा है अर्थात्‌ सुनयना किसी माता–पिता के रज–शुक्र का परिणाम नहीं हैं, वे तो ब्रह्मा जी द्वारा बनायी हुई पितृ–देवताओं की मानसी पुत्री हैं, इसलिए उनका वर्णन कैसे किया जाय।

**समय जानि मुनिबरन बोलाईं। सुनत सुवासिनि सादर ल्याईं॥**

जनक बाम दिशि सोह सुनयना। हिमगिरि संग बनी जनु मयना॥

भाष्य

समय जानकर (कन्यादान का) वसिष्ठ, शतानन्द आदि श्रेष्ठमुनियों ने सुनयना जी को बुलवाया। मुनियों का आदेश सुनते ही सौभाग्यवती महिलायें सुनयना जी को आदरपूर्वक मंडप में ले आईं। कन्यादानार्थ जनक जी के वामभाग में सुनयना जी सुशोभित हुई,ं मानो हिमाचल पर्वत के साथ मैना बनी हुई हों।

**कनक कलश मनि कोपर रूरे। शुचि सुगंध मंगल जल पूरे॥ निज कर मुदित राय अरु रानी। धरे राम के आगे आनी॥**
भाष्य

पवित्र एवं सुगन्धित मंगल जल से पूर्ण सुवर्णों के कलश और मणियों के सुन्दर परातों को महाराज जनक जी और महारानी सुनयना जी ने प्रसन्न होते हुए अपने हाथ से लाकर श्रीराम जी के आगे रखा।

**प़ढहिं बेद मुनि मंगल बानी। गगन सुमन झरि अवसर जानी॥ बर बिलोकि दंपति अनुरागे। पायँ पुनीत पखारन लागे॥**
भाष्य

मुनिजन मंगल वाणी में वेदपाठ करने लगे। अवसर जानकर आकाश से पुष्पों की झड़ी लग गयी। प्रभु श्रीराम को वर रूप में देखकर जनक राजदंपति (शिरध्वज जी और सुनयनाजी) अनुरक्त हो गये और दूल्हा श्रीराम के पवित्र चरण पखारने लगे।

[[२७२]]

छं०- लागे पखारन पाय पंकज प्रेम तन पुलकावली।

नभ नगर गान निसान जयधुनि उमगि जनु चहुँ दिशि चली॥ जे पद सरोज मनोज अरि उर सर सदैव बिराजहीं।

जे सकृत सुमिरत बिमलता मन सकल कलि मल भाजहीं॥१॥

भाष्य

महाराज जनक जी और महारानी सुनयना जी मन के भगवत्‌प्रेम और तन की पुलकावलि अर्थात्‌ रोमांच के साथ दूल्हा श्रीराम के श्रीचरणकमल का प्रक्षालन करने लगे। आकाश और नगर में हो रहे मंगलगान, नगारे और जय–जयकार की ध्वनि मानो उमग कर (उफन कर) चारों दिशाओं में चली गयी। जो चरणकमल कामदेव के शत्रु शिव जी के हृदयरूप सरोवर में कमल की भाँति सदैव विराजते रहते हैं, जिन्हें एक बार स्मरण करते ही मन में निर्मलता आ जाती है और सभी कलियुग के मल स्मरणकर्त्ता के मन से भाग जाते हैं।

**जे परसि मुनिबनिता लही गति रही जो पातकमई। मकरंद जिन को शंभु सिर शुचिता अवधि सुर बरनई॥ करि मधुप मन मुनि जोगिजन जे सेइ अभिमत गति लहैं। ते पद पखारत भाग्यभाजन जनक जय जय सब कहैं॥२॥**
भाष्य

जिन श्रीचरणों का स्पर्श करके महर्षि गौतम जी की पत्नी अहल्या जी ने गति अर्थात्‌ पतिलोक प्राप्त कर ली, शाप से मुक्त हुईं और दिव्यशरीर की प्राप्ति हो गईं, जो पाप स्वरूप थीं। जिन श्रीचरणकमल का मकरन्द (जल) पवित्रता की सीमा देवताओं की श्रेष्ठ नदी गंगा जी बनकर शिव जी के सिर पर विराजमान हुआ। अपने मन को भ्रमर बनाकर मुनि और योगीजन, जिनकी सेवा करके मनोवांछित गति प्राप्त करते हैं। उन्हीं श्रीचरणकमलों को सौभाग्यशाली जनक दंपति सौभाग्यमय सुवर्ण पात्र में प्रक्षालित कर रहे हैं, (धो रहे हैं)। सभी लोग जय हो! जय हो! इस प्रकार जय–जयकार की ध्वनि कर रहे हैं।

**बर कुअँरि करतल जोरि शाखोच्चार दोउ कुलगुरु करैं। भयो पानिग्रहन बिलोकि बिधि सुर मनुज मुनि आनँद भरैं॥ सुखमूल दूलह देखि दंपति पुलक तनु हुलस्यो हियो। करि लोक बेद बिधान कन्यादान नृपभूषन कियो॥३॥**
भाष्य

वर और वधू (श्रीसीता–राम) के हाथ को जोड़कर अर्थात्‌ श्रीराम की हथेली सीता जी के हथेली पर रखकर दोनों कुलगुव्र् श्रीवसिष्ठ और श्रीशतानन्द शाखोच्चार अर्थात्‌ गोत्रोच्चार कर रहे हैं। इस प्रकार श्रीराम द्वारा सीता जी का पाणिग्रहण किया गया। यह पाणिग्रहण महोत्सव सम्पन्न हुआ। इसकी अनुपम विधि देखकर स्वर्गलोक के देवता मिथिला और अवध के मनुष्य, तथा तीनों लोक में भ्रमण करनेवाले मुनिजन आनन्द से परिपूर्ण हो गये। सभी सुखों के कारणस्वरूप दूल्हा श्रीराम को देखकर राजदंपति सुनयना जी और महाराज जनक जी रोमांचित शरीर होकर हृदय में उल्लसित (प्रसन्न) हुए। राजाओं के आभूषण जनक जी ने लौकिक और वैदिकविधान करके कन्यादान कर दिया अर्थात्‌ अपनी श्रीसीता नामक कन्या श्रीराम नामक वर को समर्पित कर दी।

**हिमवंत जिमि गिरिजा महेशहिं हरिहिं श्रीसागर दई। तिमि जनक रामहिं सिय समरपी बिश्व कल कीरति नई॥ क्यों करै बिनय बिदेह कियो बिदेह मूरति साँवरी। करि होम बिधिवत गाँठि जोरी होन लागी भाँवरी॥४॥**

[[२७३]]

भाष्य

जिस प्रकार हिमाचल पर्वत ने पार्वती जी को महेश्वर शिव जी के लिए समर्पित किया था और जिस प्रकार क्षीरसागर ने लक्ष्मी जी को भगवान्‌ श्रीहरि विष्णु के लिए प्रदान किया था, उसी प्रकार जनक जी ने भगवती सीता जी को भगवान्‌ श्रीराम को समर्पित कर दिया। विश्व में यह मधुर–नवीन कीर्ति स्थापित हुई अर्थात्‌ शिव जी एवं विष्णु जी के भी कारण–स्वरूप भगवान्‌ श्रीराम को पार्वती जी एवं लक्ष्मी जी की कारण स्वरूप सीता जी समर्पित की गईं। विदेहराज जनक जी किस प्रकार विनय करें, क्योंकि श्रीराम की श्यामल मूर्ति ने जनक जी को बिना देह के अर्थात्‌ आत्मभाव में व्यवस्थित कर दिया था। अब वे व्यवहार में आ ही नहीं पा रहे थे, इसलिए विनय नहीं कर सक रहे थे। विधिवत्‌ लाजाहुति करके गाँठ जोड़ी गयी अर्थात्‌ श्रीराम के पीताम्बर से श्रीसीता की चुनरी का ग्रन्थिबंधन हुआ और भाँवरी होने लगी अर्थात्‌ श्रीसीता–राम जी सुवर्ण कलश मण्डित अग्निदेव की भ्रामरी देते हुए परिक्रमा करने लगे। (सात फेरे लिए।)

**दो०- जय धुनि बंदी बेदधुनि, मंगल गान निसान।**

**सुनि हरषहिं बरषहिं बिबुध, सुरतरु सुमन सुजान॥३२४॥ भा०– **जयध्वनि, मंगलध्वनि, वेदध्वनि मांगलिक गान और नगाडे की ध्वनि सुनकर चतुर देवता प्रसन्न हो रहे हैं और कल्पवृक्ष के पुष्पों की वर्षा कर रहे हैं।

कुअँर कुअँरि कल भाँवरि देहीं। नयन लाभ सब सादर लेहीं॥ जाइ न बरनि मनोहर जोरी। जो उपमा कछु कहौं सो थोरी॥

भाष्य

कुअँर अर्थात्‌ दूल्हा श्रीराम, कुअँरि अर्थात्‌ दुल्हन श्रीसीता सुन्दर भांवरी दे रहे हैं। सभी बराती और घराती आदरपूर्वक नेत्रों का लाभ ले रहे हैं। यह मनोहर जोड़ी वर्णित नहीं की जा सकती। इसकी जो कुछ भी उपमा कहूँगा वह थोड़ी होगी, इसलिए श्रीसीता–राम की जोड़ी के प्रतिबिम्बों की उपमा कहकर कवि कर्म से संतुष्ट हो लूँगा।

**रामसीय सुन्दर परिछाहीं। जगमगात मनि खंभन माहीं॥ मनहुँ मदन रति धरि बहु रूपा। देखत राम बिबाह अनूपा॥ दरस लालसा सँकुच न थोरी। प्रगटत दुरत बहोरि बहोरी॥**
भाष्य

भगवान्‌ श्रीराम और भगवती श्रीसीता के सुन्दर प्रतिबिम्ब मिथिला–विवाहमण्डप के मणिमय खम्भों में प्रतिबिम्बित होकर जगमग (प्रकाशित) हो रहे हैं, मानो कामदेव और रति अगणित रूप धारण करके अनुपम श्रीसीता–राम विवाह देख रहे हैं। उन्हें श्रीसीता–राम विवाह के दर्शन की बड़ी लालसा है, परन्तु श्रीसीता–राम जी के सौन्दर्य का लेश भी अपने पास नहीं होने के कारण, काम और रति के मन में बहुत बड़ा संकोच है इसलिए जब दर्शन की इच्छा बलवती होती जाती है तो प्रतिबिम्बों के बहाने से खम्भों में प्रकट हो जाते हैं और जब अपनी सुन्दरता की न्यूनता का संकोच आता है, तब छिप जाते हैं। इन दोनों द्वन्द्वों में वे बार–बार प्रकट हो रहे हैं और छिप रहे हैं।

**भए मगन सब देखनिहारे। जनक समान अपान बिसारे॥ प्रमुदित मुनिन भाँवरी फेरी। नेगसहित सब रीति निबेरी॥**
भाष्य

सभी देखनेवाले श्रीसीता–राम जी की भाँवरी के सौन्दर्यसागर में डूब गये। जनक जी के ही समान सभी घराती–बराती अपनापन भूल गये हैं। मुनियों ने प्रसन्नतापूर्वक दूल्हा–दुल्हन श्रीराम–सीता जी की भाँवरी फिराई और नेग के साथ सभी रीतियाँ सम्पन्न की।

[[२७४]]

राम सीय सिर सेंदुर देहीं। शोभा कहि न जाति बिधि केहीं॥ अरुन पराग जलज भरि नीके। शशिहिं भूष अहि लोभ अमी के॥

भाष्य

भगवान्‌ श्रीराम, भगवती श्रीसीता के सिर पर सिंदूर दान कर रहे हैं। यह शोभा किसी भी विधि से नहीं कही जा सकती, इसलिए रूपकातिशयोक्ति अलंकार के माध्यम से इनके उपमानों की ही प्रतिक्रिया का वर्णन किया जा रहा है। सर्प, कमल में भली प्रकार से लाल पराग भरकर अमृत के लोभ से चन्द्रमा को लाल पराग से पूर्ण कमल के द्वारा भली प्रकार से विभूषित कर रहा है (सजा रहा है)।

**विशेष– **इस प्रसंग में उपमानों की ही क्रियाओं का वर्णन किया गया है। श्रीराम की भुजा उपमेय है और सर्प उपमान, लाल रंग का सिंदूर उपमेय है और अरुण पराग उसका उपमान है, श्रीराम का हस्त उपमेय है और पराग से भरा हुआ कमल उसका उपमान है, श्रीसीता का मुख उपमेय है और चन्द्रमा है उसका उपमान, सीता जी का सौन्दर्यानन्द उपमेय है और उसका उपमान है अमृत, सिंदूरदान उपमा क्रियात्मक उपमेय है और विभूषित करना क्रियात्मक उपमान है। तात्पर्य यह है कि, सर्प को अमृत की चाह है, उसी प्रकार भगवान्‌ श्रीराम की भुजाओं को श्रीसीता की सौन्दर्यानन्द की अपेक्षा है। चन्द्रमा, सर्प को अमृत तभी दे सकता है, जब उसे सर्प से कुछ अपूर्व वस्तु मिले। अत: सर्प उसे पराग से भरा हुआ कमल उपहार में दे रहा है और चन्द्रमा उसे अमृत देगा अर्थात्‌ श्रीराम सिंदूरदान के माध्यम से सीता जी के मुखमंडल को सौभाग्य दे रहे हैं और उससे अनुराग प्राप्त कर रहे हैं। श्रीराम के करतल में सिंदूर है और उनकी दाहिनी भुजा सर्प के समान लचकी हुई है। भगवती सीता जी का भालमंडल चन्द्रमा है, जो श्रीराम के सिंदूर भरे करतल से अलंकृत हो गया। यही उसका पराग से भरे कमल से अलंकृत होना है।

बहुरि बसिष्ठ दीन्ह अनुशासन। बर दुलहिनि बैठे एक आसन॥

भाष्य

फिर वसिष्ठ जी ने आदेश दिया और वर वधू (भगवान्‌ श्रीराम और भगवती श्रीसीता) एक आसन पर बैठ गये।

**छं०- बैठे बरासन राम जानकि मुदित मन दसरथ भए।**

तनु पुलक पुनि पुनि देखि अपने सुकृत सुरतरु फल नए॥ भरि भुवन रहा उछाह रामबिबाह भा सबहीं कहा। केहि भाँति बरनि सिरात रसना एक यह मंगल महा॥१॥

भाष्य

भगवान्‌ श्रीराम और भगवती श्रीसीता एक ही श्रेष्ठ आसन पर दूल्हा–दुल्हन के रूप में बैठे। दशरथ जी अपने पुण्यरूप कल्पवृक्ष के नवीन फल के रूप में श्रीराम–सीता को देखकर शरीर से रोमांचित होकर मन में प्रसन्न हुए। यह उत्साह सम्पूर्ण भुवनों में भर रहा था। सभी ने कहा, श्रीसीता–राम विवाह सम्पन्न हो गया। मेरी एक रसना से यह महान्‌ मंगल वर्णन करके किस प्रकार समाप्त किया जा सकता है।

**तब जनक पाइ बसिष्ठ आयसु ब्याह साज सँवारि कै। मांडवी श्रुतकीरति उरमिला कुअँरि लई हँकारि कै॥ कुशकेतु कन्या प्रथम जो गुन शील सुख शोभार्मई््। सब रीति प्रीति समेत करि सो ब्याहि नृप भरतहिं दई॥२॥**
भाष्य

तब वसिष्ठ जी की आज्ञा पाकर, विवाह का साज–सजाकर, जनक जी ने मांडवी, उर्मिला, श्रुतिकीर्ति नामक तीनों राजकुमारियों को बुला लिया। जो मांडवी नाम की, गुण, शील, सुख और शोभा की प्रचुरता से युक्त

[[२७५]]

जनक जी के छोटे भाई कुशध्वज जी की प्रथम कन्या थीं, उन्हें महाराज ने प्रेमपूर्वक सभी लौकिक–वैदिक रीतियों का सम्पादन करके भरत जी को ब्याह दिया अर्थात्‌ श्रीमांडवी का श्रीभरत से विवाह कर दिया।

जानकी लघु भगिनी सकल सुंदरि सिरोमनि जानि कै। सो जनक दीन्हीं ब्याहि लखनहिं सकल बिधि सनमानि कै॥ जेहि नाम श्रुतिकीरति सुलोचनि सुमुखि सब गुन आगरी।

सो दई रिपुसूदनहिं भूपति रूप शील उजागरी॥३॥

भाष्य

जो जानकी जी की छोटी बहन थीं अर्थात्‌ सुनयना जी के गर्भ से उत्पन्न हुई थीं, उन्हीं उर्मिला जी को सभी सुन्दरियों की शिरोमणि जानकर, सब प्रकार से सम्मान करके जनक जी ने लक्ष्मण जी से ब्याह दिया अर्थात्‌ उर्मिला जी का लक्ष्मण जी के साथ विवाह कर दिया। जिनका नाम श्रुतिकीर्ति था, जो सुन्दर मुख और सुन्दर नेत्रवाली थीं, जो सभी गुणों की खानिस्वरूप थीं और जो रूप तथा शील में भी तीनों लोक में प्रसिद्ध थीं, उन्हें जनक जी ने शत्रुघ्न जी को ब्याह दिया अर्थात्‌ श्रुतिकीर्ति जी का विवाह शत्रुघ्न जी के साथ कर दिया।

**अनुरूप बर दुलहिनि परस्पर लखि सकुचि हिय हरषहीं। सब मुदित सुन्दरता सराहहिं सुमन सुर गन बरषहीं॥ सुन्दरी सुन्दर बरनि सह सब एक मंडप राजहीं। जनु जीव उर चारिउ अवस्था बिभुन सहित बिराजहीं॥४॥**
भाष्य

इस प्रकार चारों वर (श्रीराम, भरत, लक्ष्मण और शत्रुघ्न) तथा चारों वधुयें (श्रीसीता, मांडवी, उर्मिला और श्रुतिकीर्ति) परस्पर अनुरूप होने के कारण, एक–दूसरे को निहारकर संकुचित होकर हृदय में प्रसन्न हो रहे हैं। सभी दर्शक प्रसन्न होकर चारों दूल्हा और चारों दुल्हनों की सुन्दरता सराह रहे हैं और देवगण पुष्पों की वर्षा कर रहे हैं। चारों सुन्दरियाँ (भगवती सीता, मांडवी, उर्मिला और श्रुतिकीर्ति) चारों सुन्दर वरों (श्रीराम, भरत, लक्ष्मण और शत्रुघ्न) के साथ एक ही मण्डप में सुशोभित हो रहे हैं। मानो जीव के हृदय में तुरीया, सुषुप्ति, स्वप्न और जाग्रत नाम की चारों अवस्थायें अपने विभुवों तुरीय, प्राज्ञ, हिरण्यगर्भ और वैश्वानर के साथ सुशोभित हो रही हैं।

**विशेष– **यहाँ सीता जी तुरीयावस्था, मांडवी जी सुषुप्ति अवस्था, श्रुतिकीर्ति जी स्वप्नावस्था और उर्मिला जी जाग्रत अवस्था हैं। इनके विभुवों में श्रीराम तुरीय चैतन्य सीतारूपिणी तुरीयावस्था के विभु, श्रीभरत प्राज्ञ मांडवीरूपिणीं सुषुप्ति अवस्था के विभु, श्रीशत्रुघ्न हिरण्यगर्भ श्रुतिकीर्तिरूपिणी स्वप्नावस्था के विभु और श्रीलक्ष्मण विराट्‌ वैश्वानर उर्मिलारूपिणीं जाग्रत अवस्था के विभु हैं।

दो०- मुदित अवधपति सकल सुत, बधुन समेत निहारि।

जनु पाए महिपाल मनि, क्रियन सहित फल चारि॥३२५॥

भाष्य

चारों पुत्रवधुओं सहित चारों पुत्रों को निहारकर अवधनरेश दशरथ जी अत्यन्त प्रसन्न हैं, मानो राजाओं के मुकुटमणि चक्रवर्ती दशरथ जी ने चारों क्रियाओं (भक्ति, तपस्या, श्रद्धा और सेवा) के सहित मोक्ष, काम, धर्म और अर्थ को प्राप्त कर लिया हो।

**विशेष– **यहाँ श्रीराम मोक्ष हैं और रामरूप मोक्ष की क्रिया भक्ति ही सीता जी हैं। श्रीभरत काम भगवत्‌कैंकर्याभिलाष हैं और उनकी क्रिया हैं मांडवीरूपिणी तपस्या, श्रीलक्ष्मण ही धर्म हैं और लक्ष्मणरूप धर्म की श्रद्धा क्रिया हैं। उर्मिलाजी, श्री शत्रुघ्न जी अर्थ हैं और शत्रुध्न―प अर्थ की सेवा क्रिया हैं श्रुतिकीर्ति।

[[२७६]]

**विशेष– **इस प्रसंग पर विशेष जिज्ञासार्थ मेरे द्वारा लिखित **“श्रीसीताराम विवाह दर्शन” **नामक पुस्तक पढि़ये। जसि रघुबीर ब्याह बिधि बरनी। सकल कुअँर ब्याहे तेहिं करनी॥

**कहि न जाइ कछु दाइज भूरी। रहा कनक मनि मंडप पूरी॥ भा०– **भगवान्‌ श्रीराम के विवाह की जैसी विधि कही गई, उसी पद्धति से सभी तीनों कुमारों का विवाह हुआ। जनक जी ने बहुत अधिक दहेज दिया, उसका कुछ भी वर्णन किया नहीं जा सकता। मण्डप स्वर्णों और मणियों से भर गया।

कंबल बसन बिचित्र पटोरे। भाँति भाँति बहु मोल न थोरे॥ गज रथ तुरग दास अरु दासी। धेनु अलंकृत कामदुहा सी॥ बस्तु अनेक करिय किमि लेखा। कहि न जाइ जानहिं जिन देखा॥

भाष्य

कम्बल, आश्चर्यजनक रेशमी वस्त्र, जो अनेक प्रकार के और बहुमूल्य थे। हाथी, रथ, घोड़े, दास, दासी, कामधेनु के समान सजी हुई गौयें, इस प्रकार की अनेक वस्तुयें जनक जी ने दहेज में दी, उनकी गणना कैसे की जाये? उन्हें तो वे ही जानते है,ं जिन्होंने उन्हें देखा हो।

**लोकपाल अवलोकि सिहाने। लीन्ह अवधपति सब सुख माने॥ दीन्ह जाचकन जो जेहिं भावा। उबरा सो जनवासेहिं आवा॥**
भाष्य

जिन्हें देखकर लोकपाल भी ईर्ष्या से प्रशंसा करने लगे। अवधनरेश दशरथ जी ने प्रसन्न होकर सब दहेज लिए। जिन्हें जो अच्छा लगा, वह माँगने वालों को दे दिया। जो अवशेष बचा वही जनवासे में आया।

**तब कर जोरि जनक मृदु बानी। बोले सब बरात सनमानी॥**
भाष्य

तब सम्पूर्ण बारात का सम्मान करके हाथ जोड़कर महाराज जनक जी कोमल वाणी में बोले–

**छं०- सनमानि सकल बरात आदर दान बिनय बड़ाइ कै।**

प्रमुदित महा मुनि बृंद बंदे पूजि प्रेम लड़ाइ कै॥ सिर नाइ देव मनाइ सब सन कहत कर संपुट किए।

सुर साधु चाहत भाव सिंधु कि तोष जल अंजलि दिए॥१॥

भाष्य

आदर, दान, मान और प्रशंसा करके, सम्पूर्ण बारात का सम्मान करके, प्रसन्न होकर प्रेम उड़ेलकर, पूजा करके, जनक जी ने श्रेष्ठ मुनिसमूहों का वन्दन किया। देवताओं से प्रार्थना करके, सिर नवाकर, हाथ जो़ेडे हुए जनक जी, सभी बारातियों से कहने लगे, देवता और सन्तजन तो शुद्धहृदय का भाव ही चाहते हैं। क्या एक चुल्लू जल देने से समुद्र संतुष्ट हो जाता है, अर्थात्‌ क्या एक चुल्लू जल से उस समुद्र की प्यास बुझ सकती है, जोअनेक नदियों के जल से भी नहीं भर पाता? अत: देवता और सन्त भाव के भूखे होतेहैं, वस्तु के नहीं।

**कर जोरि जनक बहोरि बंधु समेत कोसलराय सों। बोले मनोहर बैन सानि सनेह शील सुभाय सों॥ संबंध राजन रावरे हम बड़े अब सब बिधि भए। एहि राज साज समेत सेवक जानिबे बिनु गथ लए॥२॥**
भाष्य

फिर अपने छोटे भाई कुशध्वज के साथ, हाथ जोड़कर महाराज जनक जी ने कोसलनरेश दशरथ जी से स्वाभाविक शील और स्नेह से सने हुए मनोहर वचन बोले, हे राजन्‌! आपके इस वैवाहिक सम्बन्ध से अब हम

[[२७७]]

सब प्रकार से बड़े हो गये हैं। सभी साज–सज्जा सहित इस मिथिला राज्य को ही आप बिना मोल लिया हुआ, अपना सेवक जाने।

ए दारिका परिचारिका करि पालिबीं करुना नई। अपराध छमिबो बोलि पठए बहुत हौं ढीठी कई॥ पुनि भानुकुलभूषन सकल सनमान बिधि समधी किए। कहि जाति नहिं बिनती परस्पर प्रेम परिपूरन हिए॥३॥

भाष्य

हे महाराज! इन चारों राजकन्याओं को अपनी नवीन करुणा करते हुए अपनी सेविका करके जानियेगा। अथवा, आप अपने नवीन कव्र्णा से इन चार सेविकाओं को अपनी चार बेटी करके मानियेगा। मैंने आपको बुलावा भेजा और बहुत बड़ी धृष्टता की, आप इस अपराध को क्षमा कीजियेगा। फिर सूर्यकुल के भूषण दशरथ जी ने अपने समधी जनक जी का सभी प्रकार से सम्मान किया। दोनों समधी महाराज जनक जी और महाराज दशरथ जी की पारस्परिक विनम्रता कही नहीं जाती। दोनों महाराजों के हृदय प्रेम से परिपूर्ण हो गये।

**बृंदारका गन सुमन बरषहिं राउ जनवासेहिं चले। दुंदुभी जय धुनि बेद धुनि नभ नगर कौतूहल भले॥**

तब सखी मंगल गान करत मुनीश आयसु पाइ कै। दूलह दुलहिनिन सहित सुंदरि चलीं कोहबर ल्याइ कै॥४१॥

भाष्य

महाराज चारों पुत्रों का विवाह करके जनवासे चल पड़े। देवतागण पुष्पों की वर्षा करने लगे। आकाश और नगर दोनों में अत्यन्त सुन्दर कौतूहल (आनन्द से भरा हुआ कोलाहल) था। वहाँ नगाड़ों की जयध्वनि तथा वेदध्वनि हो रही थी। आकाश और नगर में अत्यन्त सुन्दर उत्सुकता से युक्त मांगलिक खेल हो रहे थे। तब वसिष्ठजी, विश्वामित्रजी, याज्ञवल्क्य जी और शतानन्द जी की आज्ञा पाकर सुन्दर सखियाँ चारों दूल्हा (श्रीराम, भरत, लक्ष्मण और शत्रुघ्न) चारों दुल्हिनियों (श्रीसीता, मांडवी, उर्मिला और श्रुतिकीर्ति) के साथ कोहवर को आदरपूर्वक लिवाकर चल दीं।

**दो०- पुनि पुनि रामहिं चितव सिय, सकुचति मन सकुचै न।**

**हरत मनोहर मीन छबि, प्रेम पियासे नैन॥३२६॥ भा०– **भगवती सीताजी, श्रीराम को पुन:–पुन: देख रही हैं, वे संकुचित हो रही हैं, पर उनका मन नहीं संकुचित हो रहा है। श्रीराम प्रेम के प्यासे सीता जी के दोनों नेत्र सुन्दर मछलियों की छवि को चुरा रहे हैं।

श्याम शरीर सुभाय सुहावन। शोभा कोटि मनोज लजावन॥ जावक जुत पदकमल सुहाए। मुनि मन मधुप रहत जिन छाए॥

भाष्य

भगवान्‌ श्रीराम का स्वभाव से सुन्दर श्यामल शरीर अपनी शोभा से करोड़ों कामदेव को लज्जित कर रहा है। महावर से युक्त श्रीराम के श्रीचरणकमल बहुत सुन्दर हैं। मुनियों के मन रूप भौंरे जिन पर छाये अर्थात्‌ मंडराये रहते हैं।

**पीत पुनीत मनोहर धोती। हरति बालरबि दामिनि जोती॥ कल किंकिनि कटि सूत्र मनोहर। बाहु बिशाल बिभूषन सुन्दर॥**

[[२७८]]

भाष्य

पीली, पवित्र मन को हरनेवाली प्रभु की धोती (वियहुती धोती) की ज्योति बालसूर्य और विद्दुत की ज्योति को भी मानो चुराती रहती है अर्थात्‌ उसको स्थानान्तरित करती रहती है। कटि प्रदेश में किंकिणि और मन को हरनेवाला कटिसूत्र है, विशाल बाहुओं में सुन्दर आभूषण सुशोभित हैं।

**पीत जनेउ महाछबि देई। कर मुद्रिका चोरि चित लेई॥ सोहत ब्याह साज सब साजे। उर आयत अतिभूषन राजे॥**
भाष्य

भगवान्‌ श्रीराम के वाम स्कन्ध पर पीला यज्ञोपवीत पूजनीय छवि प्रदान कर रहा है और दक्षिण श्रीहस्त में विराजमान नित्य आभूषण मुद्रिका चित्त को चुरा लेती है। सजे हुए विवाह के सभी साज अर्थात्‌ उपकरण (जोड़ा जामा इत्यादि) श्रीविग्रह पर बहुत शोभित हो रहे हैं। विशाल हृदय पर हार कौस्तुभमणि, वैजयन्ती माला आदि आभूषण अत्यन्त देदीप्यमान हो रहे हैं।

**पियर उपरना काँखा सोती। दुहुँ आँचरनि लगे मनि मोती॥ नयन कमल कल कुंडल काना। बदन सकल सौंदर्य निधाना॥**
भाष्य

पीला दुपट्टा काँखा सोती के पद्धति से अर्थात्‌ गले से लेकर दोनों काँख और पृष्ठभाग में पहना हुआ, सुन्दर लग रहा है। उसके दोनों आंचलों में मुक्तामणि लगी हुई है। कमल के समान प्रभु के नेत्र और कानों में पहने हुए कुण्डल बहुत मधुर हैं। मुख तो समस्त सुन्दरताआंें का खजाना ही है।

**सुन्दर भृकुटि मनोहर नासा। भाल तिलक रुचिरता निवासा॥ सोहत मौर मनोहर माथे। मंगलमय मुकता मनि गाथे॥**
भाष्य

प्रभु की भृकुटि बड़ी सुन्दर है और उनकी नासिका मन को चुरा रही है। मस्तक पर विराजमान तिलक सुन्दरता का निवासस्थान ही है। माथे पर मंगलमय मुक्तामणियों से गूँथा हुआ, मन को हरने वाला मौर (विवाहोचित मुकुट) बहुत शोभित हो रहा है।

**छं०- गाथे महामनि मौर मंजुल अंग सब चित चोरहीं।**

पुर नारि सुर सुन्दरी बरहिं बिलोकि सब तृन तोरहीं॥ मनि बसन भूषन वारि आरति करहिं मंगल गावहीं। सुर सुमन बरषहिं सूत मागध बंदि सुजस सुनावहीं॥१॥

भाष्य

श्रेष्ठ मणियों से गूँथा हुआ मौर बहुत ही मधुर और सुन्दर है। भगवान्‌ श्रीराम के सभी अंग ध्यान करने वालों के चित्त को चुरा रहे हैं। मिथिलापुर की नारियाँ और सभी देव सुन्दरियाँ, वर श्रीराम को देखकर तिनके तोड़ रही हैं कि, कहीं दृष्टिदोष न लग जाये। वे अनेक मणि, वस्त्र और आभूषणों की वर्षा करके आरती करती हैं और मंगल गाती हैं। देवता पुष्प बरसाते हैं और सूत, मागध तथा बंदी, भगवान्‌ श्रीराम का सुयश सुनाते हैं।

**कोहबरहिं आने कुअँर कुअँरि सुवासिनिन सुख पाइ कै। अति प्रीति लौकिक रीति लागी करन मंगल गाइ कै॥ लहकौरि गौरि सिखाव रामहिं सीय सन शारद कहैं। रनिवास हास बिलास रस बश जन्म को फल सब लहैं॥२॥**
भाष्य

सौभग्यवती महिलाओं ने सुख पाकर चारों राजकुमार और चारो राजकुमारियों को कोहवर में लाकर विराजमान कराया और मंगल गाकर अत्यन्त प्रेम से लौकिक रीति करने लगीं। लहकौरि की पद्धति पार्वतीजी, भगवान्‌ श्रीराम को सिखाती हैं और सरस्वतीजी, सीता जी को कहती हैं। सम्पूर्ण जनक–रनिवास हासरस के

[[२७९]]

सुन्दर प्रयोगों के आनन्द के वश में है। सभी महारानियाँ सखियाँ, सुवासिनियाँ अपने जन्म का फल प्राप्त कर रही हैं।

निज पानि मनि महँ देखि प्रति मूरति सुरूपनिधान की। चालति न भुजबल्ली बिलोकनि बिरह भय बश जानकी॥ कौतुक बिनोद प्रमोद प्रेम न जाइ कहि जानहिं अलीं।

बर कुअँरि सुंदरि सकल सखी लिवाइ जनवासेहिं चलीं॥३॥

भाष्य

अपने हाथ में धारण किये हुए कंकण के मणि में स्वरूप के निधान भगवान्‌ श्रीराम की प्रतिमूर्ति अर्थात्‌ परछायीं देखकर भगवती सीता जी अपनी भुजा रूप लता को नहीं हिला रही हैं, क्योंकि जनकनन्दिनी जी विरह के भय के वश में हैं। वे सोचती हैं कि, यदि अपना हाथ नीचे कर लेंगी तो प्रभु के दर्शन नहीं हो पायेंगे। इस प्रकार, कौतुक अर्थात्‌ परिहास भरे खेल (विनोद, हास, परिहास, प्रमोद तथा आनन्द) और प्रेम कहा नहीं जा सकता, इसे तो कोहवर की सखियाँ ही जानती हैं। सभी सुन्दर वर और बहुओं को सखियाँ कोहवर से लिवाकर जनवास को चली गईं।

**तेहि समय सुनिय अशीष जहँ तहँ नगर नभ आनँद महा।**

चिर जियहु जोरी चारु चारिउ मुदित मन सबहीं कहा॥ जोगींद्र सिद्ध मुनीश देव बिलोकि प्रभु दुंदुभि हनी। चले हरषि बरषि प्रसून निज निज लोक जय जय जय भनी॥४॥

भाष्य

उस समय जहाँ–तहाँ आशीर्वाद ही सुनायी पड़ रहा था। आकाश और मिथिला नगर में महान्‌ आनन्द था। सुन्दर चारों जोयिड़ाँ चिरंजीवी रहें इस प्रकार प्रसन्न होकर सभी ने कहा। श्रेष्ठ योगीजन, सिद्धगण, उच्चकोटि के मुनिजन तथा देवताओं ने प्रभु को देखकर नगारे बजाये और प्रसन्न होकर पुष्पों की वर्षा करके जय हो! जय हो! जय हो! इस प्रकार जय–जयकार बोलकर अपने–अपने लोक को चले गये।

**दो०- सहित बधूटिन कुअँर सब, तब आए पितु पास।**

शोभा मंगल मोद भरि, उमगेउ जनु जनवास॥३२७॥

भाष्य

तब अर्थात्‌ कोहवर की विधि सम्पन्न करके सभी चारों राजकुमार, बधूटिन अर्थात्‌ अपनी–अपनी नई बहुओं के साथ, पिताश्री दशरथ जी के पास आये, मानो वह जनवासा शोभा, मंगल और आनन्द से भरकर उमड़ चला हो।

**पुनि जेवनार भई बहु भाँती। पठए जनक बोलाइ बराती॥ परत पाँवड़े बसन अनूपा। सुतन समेत गवन कियो भूपा॥**
भाष्य

फिर बहुत प्रकार से रसोई बनी और जनक जी ने भोजन के लिए सभी बारातियों को बुला भेजा। सुन्दर अनूठे वस्त्रों के पाँवड़े पड़ रहे थे। पुत्रों के सहित महाराज भोजन के लिए चल पड़े।

**सादर सब के पायँ पखारे। जथा जोग पी़ढन बैठारे॥ धोए जनक अवधपति चरना। शील सनेह जाइ नहिं बरना॥**
भाष्य

आदरपूर्वक सभी के चरण पखारे गये (धोये गये) और योग्यतानुसार सब को लक़डी के पाटों (पी़ढा) पर बैठाया गया। जनक जी ने अवधनरेश दशरथ जी के चरण धोये। उनके स्वभाव और स्नेह का वर्णन नहीं किया जा सकता।

[[२८०]]

बहुरि राम पद पंकज धोए। जे हर हृदय कमल महँ गोए॥ तीनिउ भाइ राम सम जानी। धोए चरन जनक निज पानी॥

भाष्य

फिर जनक जी ने भगवान्‌ श्रीराम के उन श्रीचरणकमलों को धोया, जिन्हें शिव जी अपने हृदय कमल में छिपाकर रखते हैं। तीनों भाइयों को श्रीराम के समान जानकर जनक जी ने उनके चरण अपने हाथ से धोये।

**आसन उचित सबहिं नृप दीन्हे। बोलि सूपकारी सब लीन्हे॥ सादर लगे परन पनवारे। कनक कील मनि पान सँवारे॥**
भाष्य

सब को महाराज ने उचित आसन दिये फिर सूपकारी अर्थात्‌ भोजन बनाने वालों को बुला लिया। आदरपूर्वक पान की पत्तलें पड़ने लगीं। उनके पत्ते स्वर्ण के कीलों और मणियों से बनाये गये थे।

**दो०- सूपोदन सुरभी सरपि, सुन्दर स्वाद पुनीत।**

छन महँ सब के परुसि गे, चतुर सुआर बिनीत॥३२८॥

भाष्य

चतुर और विनम्र परोसने वाले एक क्षण में ही सबके लिए सुन्दर स्वाद से युक्त और पवित्र दाल–भात तथा कामधेनु गौ का घी परोस गये।

**पंच कवलि करि जेवन लागे। गारि गान सुनि अति अनुरागे॥ भाँति अनेक परे पकवाने। सुधा सरिस नहिं जाहिं बखाने॥ परुसन लगे सुआर सुजाना। बिंजन बिबिध नाम को जाना॥**
भाष्य

वे बाराती पंच कवल करके अर्थात्‌ प्राणाय स्वाहा, अपानाय स्वाहा, व्यानाय स्वाहा, उदानाय स्वाहा, समानाम स्वाहा इन मंत्रों से पाँच ग्रास अग्नि में हवन करके भोजन करने लगे। गारी–गान सुनकर वे बहुत अनुरक्त हो गये। पत्तलों पर अमृत के समान स्वादवाले अनेक प्रकार के पकवान पड़े थे। वे बखाने नहीं जा सकते थे। अनेक प्रकार के व्यंजन, जिनका कोई नाम नहीं जान सकता, चतुर रसोइये परोसने लगे।

**चारि भाँति भोजन श्रुति गाई। एक एक बिधि बरनि न जाई॥ छरस रुचिर बिंजन बहु जाती। एक एक रस अगनित भाँती॥**
भाष्य

वेदों में चार प्रकार के भक्ष्य, भोज्य, लेह्य, चोष्य भोजन गाये गये हैं। एक–एक के भी उतने ही उप–प्रकार हैं, उनका वर्णन सम्भव नहीं है। मधुर, अम्ल, लवण, कटु, कषाय तथा तिक्त इन छ: रसों के सुन्दर बहुत प्रकार के व्यंजन भी हैं। उनमें एक–एक रस के भी अनेक प्रकार हैं।

**जेवँत देहिं मधुर धुनि गारी। लै लै नाम पुरुष अरु नारी॥ समय सुहावनि गारि बिराजा। हँसत राउसुनि सहित समाजा॥ एहि बिधि सबहीं भोजन कीन्हा। आदर सहित आचमन लीन्हा॥**
भाष्य

बारातियों के भोजन करते समय मिथिला की नारियाँ अवध की नारियों और पुरुषों का नाम ले–लेकर मधुर स्वर से गारी देने लगीं। इस सुहावने समय में गारी भी सुन्दर लग रही है। मिथिलानियों की गारी सुनकर बरातियों के साथ महाराज दशरथ जी भी हँस रहे हैं। इस प्रकार, सभी ने भोजन किया और फिर आदर के साथ सभी बरातियों के लिए आचमन का जल दिया गया। सभी ने सुगंधित जल से मुख धोया।

विशेष

– **महाराज दशरथ जी के हास के संबन्ध में नवगाधी के प्रसिद्ध भगवत्‌ साक्षात्कार संपन्न परमहंस जी महाराज का एक भावबद्ध सवैया छन्द यहाँ उद्धृत किया जा रहा है—

[[२८१]]

कालिक हाल सुनो सजनी मड़ये प्रगट्‌यो एक कौतुक भारी जेवँत जानि वरात सबै अवधेश लख्यो मिथिलेश अटारी। राम को ―प निहारत ही सुधि भूलि गईं जित गावनिहारी भूलि गई अवधेश को नाम वे देन लगीं मिथिलेश को गारी॥

दो०- देइ पान पूजे जनक, दशरथ सहित समाज।

जनवासेहिं गवने मुदित, सकल भूप सिरताज॥३२९॥

भाष्य

जनक जी ने ताम्बूल (पान की बीड़ी) देकर बरातियों सहित दशरथ जी का सम्मान किया। सम्पूर्ण राजाओं के मुकुटमणि चक्रवर्ती महाराज दशरथ जी प्रसन्न होकर जनवासे की ओर चले गये।

**\* मासपरायण, नवाँ विश्राम \***

नित नूतन मंगल पुर माहीं। निमिष सरिस दिन जामिनि जाहीं॥ बड़े भोर भूपतिमनि जागे। जाचक गुन गन गावन लागे॥

भाष्य

इस प्रकार नगर में नित्य नवीन मंगल हो रहे हैं तथा दिन और रात क्षण के समान बीत रहे हैं। इधर राजाओं के मुकुटमणि महाराज दशरथ जी प्रात:काल जगे। याचकगण उनके गुणगणों को गाने लगे।

**देखि कुअँर बर बधुन समेता। किमि कहि जात मोद मन जेता॥ प्रातक्रिया करि गे गुरु पाहीं। महा प्रमोद प्रेम मन माहीं॥**
भाष्य

श्रेष्ठ वधुओं के सहित अपने चारों पुत्रों को देखकर उनके मन में जितना आनन्द हुआ वह कैसे कहा जाये? महाराज स्नान, सन्ध्यावन्दन करके गुव्र्देव वसिष्ठ जी के पास गये। उनके मन में बहुत बड़ा आनन्द और प्रेम था।

**करि प्रनाम पूजा कर जोरी। बोले गिरा अमिय जनु बोरी॥ तुम्हरी कृपा सुनहु मुनिराजा। भयउँ आजु मैं पूरनकाजा॥ अब सब बिप्र बोलाइ गोसाँई। देहु धेनु सब भाँति बनाई॥ सुनि गुरु करि महिपाल बड़ाई। पुनि पठए मुनि बृंद बोलाई॥**
भाष्य

प्रणाम और पूजा करके हाथ जोड़कर महाराज मानो अमृत में डुबोई हुई वाणी बोले, हे मुनिराज! सुनिये, आपकी कृपा से आज मैं पूर्णकाम हो गया अर्थात्‌ आज मेरे सभी कार्य पूर्ण हो गये। हे स्वामी! अब सभी वेदपाठी ब्राह्मणों को बुलाकर, सब प्रकार से सजायी हुई गौओं का दान करें। महाराज की वाणी सुनकर और चक्रवर्ती जी की प्रशंसा करके फिर गुव्र्देव वसिष्ठ जी ने मुनि समूहों को बुला भेजा।

**दो०- बामदेव अरु देवरिषि, बालमीकि जाबालि।**

आए मुनिवर निकर तब, कौशिकादि तपशालि॥३३०॥

भाष्य

वसिष्ठ जी के आमंत्रण पर ब्रह्मवेत्ता वामदेव, देवर्षि नारद आदिकवि वाल्मीकि, जाबाली और विश्वामित्र आदि तपस्या से सुशोभित होनेवाले श्रेष्ठ मुनियों के समूह वहाँ अर्थात्‌ जनकनगर में स्थित राजा दशरथ जी के जनवासे में आये।

[[२८२]]

दंड प्रनाम सबहिं नृप कीन्हे। पूजि सप्रेम बरासन दीन्हे॥ चारि लक्ष बर धेनु मँगाई। काम सुरभि सम शील सुहाई॥ सब बिधि सकल अलंकृत कीन्हीं। मुदित महिप महिदेवन दीन्हीं॥ करत बिनय बहु बिधि नरनाहू। लहेउँ आजु जगजीवन लाहू॥

भाष्य

चक्रवर्ती जी ने सभी को दंडवत्‌ प्रणाम किया। सभी महर्षियों की पूजा करके प्रेमपूर्वक श्रेष्ठ आसन दिया। कामधेनु के समान स्वभाव वाली सुन्दर श्रेष्ठ चार लाख कपिला गौवें मँगवाई। उन सभी को सब प्रकार से अलंकृत किया अर्थात्‌ सजाया और प्रसन्न होकर महाराज ने ब्राह्मणों को दे दिया। महाराज दशरथ जी बहुत प्रकार से विनय करने लगे और बोले, हे महर्षियों! आज मैंने जगत्‌ में जीवन का लाभ प्राप्त कर लिया।

**पाइ अशीष महीश अनंदा। लिए बोलि पुनि जाचक बृंदा॥ कनक बसन मनि हय गय स्यंदन। दिए बूझि रुचि रबिकुलनंदन॥**
भाष्य

आशीर्वाद प्राप्तकर चक्रवर्ती राजा दशरथ जी प्रसन्न हुए और उन्होंने याचक समूहों को बुला लिया। सूर्यकुल को आनन्दित करनेवाले महाराज दशरथ जी ने सभी याचकों की रुचि पूछकर स्वर्ण, वस्त्र, मणि, घोड़े, हाथी और रथ दिये।

**चले प़ढत गावत गुन गाथा। जय जय जय दिनकर कुल नाथा॥ एहि बिधि राम बिबाह उछाहू। सकइ न बरनि सहसमुख जाहू॥**
भाष्य

विरुदावली प़ढते हुए और महाराज की गुणगाथायें गाते हुए हे सूर्यकुल के स्वामी! आपकी जय हो! जय हो! जय हो! इस प्रकार जयकारा लगाते हुए याचकजन चले गये। इस प्रकार, श्रीराम का विवाह सम्पन्न हुआ। इस उत्साह को वे शेषनारायण भी नहीं कह सकते जिनके पास एक हजार मुख हैं।

**दो०- बार बार कौशिक चरन, शीश नाइ कह राउ।**

**यह सब सुख मुनिराज तव, कृपा कटाक्ष पसाउ॥३३१॥ भा०– **विश्वामित्र जी के चरणों में बार–बार सिर नवाकर चक्रवर्ती जी कहते हैं, हे नाथ! यह सभी सुख आपके कृपामय कटाक्ष के प्रसाद से ही सम्भव है।

जनक सनेह शील करतूती। नृप सब भाँति सराह बिभूती॥ दिन उठि बिदा अवधपति मागा। राखहिं जनक सहित अनुरागा॥

भाष्य

चक्रवर्ती दशरथ जी महाराज जनक जी के स्नेह, शील, कार्य और उनके ऐश्वर्य की सब प्रकार से सराहना करते हैं। अवधनरेश प्रतिदिन आकर जनक जी से जाने की अनुमति माँगते हैं, पर जनक जी प्रेम के साथ उन्हें रोक लेते हैं।

**नित नूतन आदर अधिकाई। दिन प्रति सहस भाँति पहुनाई॥ नित नव नगर अनंद उछाहू। दशरथ गवन सोहाइ न काहू॥**

[[२८३]]

भाष्य

नित्य नूतन आदर अधिक हो रहा है और नित्य नवीन रूप से सहस्रों प्रकार का आतिथ्य हो रहा है। मिथिलानगर में नित्य नया आनन्द और उत्साह है। किसी को भी महाराज दशरथ जी का जाना अच्छा नहीं लग रहा है।

**बहुत दिवस बीते एहि भाँती। जनु सनेह रजु बँधे बराती॥ कौशिक शतानंद तब जाई। कहा बिदेह नृपहिं समुझाई॥ अब दशरथ कहँ आयसु देहू। जद्दपि छाँनिड़ सकहु सनेहू॥ भलेहिं नाथ कहि सचिव बोलाए। कहि जय जीव शीश तिन नाए॥**
भाष्य

इस प्रकार से बहुत दिन बीत गये, मानो मिथिला के स्नेह की रस्सी में सभी बराती बँधे हुए थे। कोई अपने घर जाने का नाम ही नहीं ले रहा था। तब ब्रह्मर्षि विश्वामित्र जी एवं शतानन्द जी ने जाकर जनकराज को समझाकर कहा, अब चक्रवर्ती दशरथ जी को श्रीअवध पधारने की अनुमति दीजिये। यद्दपि आप प्रेम नहीं छोड़ सकते और प्रेम के कारण दशरथ जी को छोड़ नहीं सकते, फिर भी एक न एक दिन ऐसा करना ही पड़ेगा। हे नाथ! ठीक है इस प्रकार, विश्वामित्र जी एवं शतानन्द जी से कहकर, जनक जी ने अपने मंत्रियों को बुलाया। “आप सब से उत्कृय् हों, आप चिरंजीवी हों” इस प्रकार मंगल वचन कहकर उन मंत्रियों ने मस्तक नवाकर राजा जनक जी का अभिवादन किया।

**विशेष– **प्राचीन समय में मंत्री या अन्य प्रजा लोग राजा के लिए जय जीव इन दो क्रियाओं का प्रयोग करते थे। ये दोनों ही आशीर्वाद रूप में प्रयुक्त लोट्‌ लकार, मध्यमपुव्र्ष एक वचन के धातु रूप हैं। इनका अर्थ है, जय अर्थात्‌ आप सब से उत्कृष्ट हों, जीव अर्थात्‌ आप जीवित रहें। मानस जी में जय जीव शब्द का चार बार प्रयोग हुआ है। बालकाण्ड में महाराज जनक जी के लिए एक बार और अयोध्याकाण्ड में महाराज दशरथ जी के लिए तीन बार।

दो०- अवधनाथ चाहत चलन, भीतर करहु जनाउ।

भए पे्रम बस सचिव सुनि, बिप्र सभासद राउ॥३३२॥

भाष्य

राजा जनक जी ने कहा, अयोध्याधिपति महाराज दशरथ जी श्रीअवध को चलना चाह रहे हैं। भीतर अर्थात्‌ अन्त:पुर में रनिवास को सूचना कर दीजिये। यह सुनते ही मंत्रीगण, ब्राह्मण, जनक जी के सभासद और राजा स्वयं भी प्रेम के वश में हो गये।

**पुरवासी सुनि चलिहि बराता। बूझत बिकल परस्पर बाता॥**

**सत्य गमन सुनि सब बिलखाने। मनहुँ साँझ सरसिज सकुचाने॥ भा०– **मिथिला पुरवासी बारात अब प्रस्थान करेगी, ऐसा सुनकर व्याकुल होकर परस्पर बाता अर्थात्‌ समाचार पूछने लगे। बरात का गमन सत्य है, ऐसा सुनकर सभी लोग दु:खी हो गये, मानो संध्या के समय कमल मुरझा गये हों।

जहँ तहँ आवत बसे बराती। तहँ तहँ सीध चला बहु भाँती॥ बिबिध भाँति मेवा पकवाना। भोजन साज न जाइ बखाना॥ भरि भरि बसहँ अपार कहारा। पठए जनक अनेक सुआरा॥

भाष्य

श्रीअवध से श्रीमिथिला आते समय बारातियों ने जहाँ–जहाँ वास किया था उन–उन विश्राम स्थलों के लिए अनेक प्रकार की सीध अर्थात्‌ सीधा (सिद्धान्न, जैसे आटा, दाल, चावल, शाक, मसाले नमक आदि) चला

[[२८४]]

अर्थात्‌ जनक जी के द्वारा भेजा गया। अनेक प्रकार के मेवे, पकवान, मिठाइयाँ जिसको बखाना नहीं जा सकता ऐसा भोजन बनाने का उपकरण (क़डाही, बटलोही, थाली आदि) बैलों और अनेक कहाँरों पर भर–भर कर जनक जी ने भेजा और अनेक रसोइये भी साथ में भेजे।

तुरग लाख रथ सहस पचीसा। सकल सँवारे नख अरु शीशा॥ मत्त सहसदस सिंधुर साजे। जिनहिं देखि दिशि कुंजर लाजे॥ कनक बसन मनि भरि भरि याना। महिषी धेनु बस्तु बिधि नाना॥

भाष्य

एक लाख घोड़े, पच्चीस हजार रथ, जिन्हें नख से शिख तक सजाया गया था, ऐसे दस हजार मतवाले हाथी, जिन्हें देखकर दिशाओं के हाथी भी लज्जित हो रहे थे, तथा वाहनों में भर–भर कर स्वर्ण, वस्त्र, मणियाँ, भैंसें, गौयें और अनेक प्रकार की अन्य वस्तुयें दीं।

**दो०- दाइज अमित न सकिय कहि, दीन्ह बिदेह बहोरि।**

जो अवलोकत लोकपति, लोक संपदा थोरि॥३३३॥

भाष्य

ऐसे अनेक दहेज जिन्हें कहा नहीं जा सकता, जिन्हें देखने पर लोकपालों को लोकों की संपत्ति भी बहुत थोड़ी लगती थी, महाराज जनक जी ने दहेज में दिया।

**सब समाज एहि भाँति बनाई। जनक अवधपुर दीन्ह पठाई॥**
भाष्य

इस प्रकार सम्पूर्ण दहेज के समान को सजाकर, जनक जी ने महाराज के प्रस्थान के पहले श्रीअवध भेज दिया।

**विशेष– **क्योंकि देहेजों का संज्ञान महाराज दशरथ को हो जाता, तो वे भिक्षुकों को बाँट देते श्रीअयोध्या कुछ भी नहीं पहुँच पाता, इसलिए जनक जी ने दहेजों को महाराज के संज्ञान के पहले ही श्रीअवध भेज दिया।

चलिहि बरात सुनत सब रानी। बिकल मीनगन जनु लघु पानी॥ पुनि पुनि सीय गोद करि लेहीं। देइ अशीष सिखावन देहीं॥

भाष्य

बारात चल रही है, ऐसा सुनकर सभी रानियाँ उसी प्रकार विकल हुईं, जैसे थोड़ा जल रहने पर मछलियाँ व्याकुल हो जाती हैं। वे सीता जी को पुन:–पुन: गोद मंें लेती हैं, आशीर्वाद देकर उन्हें शिक्षा देती हैं।

**होएहु संतत पियहिं पियारी। चिर अहिबात अशीष हमारी॥ सासु ससुर गुरु सेवा करेहू। पति रुख लखि आयसु अनुसरेहू॥**
भाष्य

हे सीते! आप निरन्तर अपने प्रियतम श्रीराम की प्रिय रहेंगी। आपका सौभाग्य अनन्त वर्षाें तक रहेगा यही हमारा आशीर्वाद है। आप सासुओं, श्वसुर तथा गुरुओं की सेवा करियेगा और अपने पति श्रीराम की इच्छा देखकर उनकी आज्ञा का अनुसरण करियेगा।

**अति सनेह सब सखी सयानी। नारि धरम सिखवहिं मृदु बानी॥ सादर सकल कुअँरि समुझाई। रानिन बार बार उर लाई॥ बहुरि बहुरि भेंटहिं महतारी। कहहिं बिरंचि रची कत नारी॥**
भाष्य

अत्यन्त स्नेह से सभी चतुर सखियाँ कोमल वाणी में सीता जी को नारीधर्म सिखाती हैं। इसी प्रकार, सीता जी के अतिरिक्त मांडवीजी, उर्मिला जी एवं श्रुतिकीर्ति जी इन सभी राजकुमारियों को रानियों ने बारम्बार हृदय से

[[२८५]]

लगाकर समझाया। मातायें बार–बार भेंट रही हैं अर्थात्‌ चारों पुत्रियों को गले लगा रही हैैं और कहती हैं कि, ब्रह्मा जी ने नारियों को किस प्रकार बनाया?

**विशेष– **क्योंकि भारतीय नारि अपने जीवन को पीहर तथा ससुराल इन दो विरुद्ध स्थानों से जोड़कर अपनी ममता का संयोजन कैसे कर पाती है, और जन्मस्थान से भी ससुराल को अधिक ममतास्पद बना लेती है, यह कठिन कार्य तो उसी के वश का है, इसी दृष्टि से भारतीय नारि की रचना पर मैथिलानी मातायें आश्चर्य कर रही हैं।

दो०- तेहि अवसर भाइन सहित, राम भानु कुल केतु।

चले जनक मंदिर मुदित, बिदा करावन हेतु॥३३४॥

भाष्य

उसी समय सूर्यकुल के पताकास्वरूप भगवान्‌ श्रीराम तीनों भाइयों के साथ प्रसन्न होकर वधुओं को विदा कराने जनक जी के राजभवन चले।

**चारिउ भाइ सुभाय सुहाए। नगर नारि नर देखन धाए॥ कोउ कह चलन चहत हैं आजू। कीन्ह बिदेह बिदा कर साजू॥ लेहु नयन भरि रूप निहारी। प्रिय पाहुने भूप सुत चारी॥ को जानैं केहि सुकृत सयानी। नयन अतिथि कीन्हे बिधि आनी॥**
भाष्य

स्वभाव से सुहावने चारों भाइयों को देखने के लिए नगर के नारि–नर दौड़े। कोई सखी कहने लगीं, ये आज ही चलना चाहते हैं। जनक जी ने इनकी विदा की तैयारी कर ली है। इनका रूप आँख भर देख लो, अवधनरेश के चारों पुत्र प्यारे अतिथि हैं। हे सखी! कौन जाने किस पुण्य के फल से ब्रह्मा जी ने इन चारों भ्राताओं को यहाँ लाकर हमारे नेत्रों का अतिथि बनाया?

**मरनशील जिमि पाव पियूषा। सुरतरु लहै जनम कर भूखा॥ पाव नारकी हरिपद जैसे। इन कर दरसन हम कहँ तैसे॥**
भाष्य

जिस प्रकार, मरणासन्न व्यक्ति अमृत पा जाये, जिंस प्रकार जन्मों का भूखा कल्पवृक्ष पा जाये, जिस प्रकार नरक में जानेवाला व्यक्ति हरिपद अर्थात्‌ श्रीहरि का निवासस्थान वैकुण्ठ पा जाये, हमारे लिए इनके दर्शन उसी प्रकार दुर्लभ हैं।

**निरखि राम शोभा उर धरहू। निज मन फनि मूरति मनि करहू॥ एहि बिधि सबहिं नयन फल देता। गए कुअँर सब राज निकेता॥**
भाष्य

श्रीराम की शोभा को देखकर हृदय में धारण कर लो। अपने मन को सर्प और इनके मन को मणि बना लो अर्थात्‌ जैसे सर्प मणि को छिपा लेता है, उसी प्रकार प्रभु श्रीराम की मूर्ति को अपने मन में छिपा लो। इस प्रकार, सबको नेत्रों का फल देते हुए सभी राजकुमार जनक जी के राजभवन गये।

**दो०- रूप सिंधु सब बंधु लखि, हरषि उठेउ रनिवासु।**

करहिं निछावरि आरती, महा मुदित मन सासु॥३३५॥

भाष्य

रूप के चार सागरस्वरूप चारों भाइयों (श्रीराम, भरत, लक्ष्मण और शत्रुघ्नजी) को देखकर जनक जी का रनिवास प्रसन्न होकर उठ गया। सभी सासुयें मन में बहुत मुदित होकर न्यौछावर और आरती करने लगीं।

**देखि राम छबि अति अनुरागी। प्रेम बिबश पुनि पुनि पद लागी॥ रही न लाज प्रीति उर छाई। सहज सनेह बरनि किमि जाई॥**

[[२८६]]

भाष्य

भगवान्‌ श्रीराम की छवि देखकर सासुयें अत्यन्त अनुरक्त हो गईं। वे प्रेम के विवश होकर पुन:–पुन: चरणों में लिपट गईं। उनके मन में कोई लज्जा नहीं रही, हृदय में प्रीति छा गई। सुनयना आदि रानियों के स्वाभाविक प्रेम का कैसे वर्णन किया जाय?

**भाइन सहित उबटि अन्हवाए। छरस अशन अति हेतु जेवाँए॥ बोले राम सुअवसर जानी। शील सनेह सकुचमय बानी॥**
भाष्य

सासुओं ने तीनों भाइयों के सहित प्रभु श्रीराम को उबटन लगाकर स्नान करवाया और अत्यन्त प्रेम से मधुर, अम्ल, लवण, कटु, कषाय और तिक्त इन छ: रसों से निर्मित भोजन प्रभु को जिमाया। भगवान्‌ श्रीराम सुन्दर अवसर जानकर शील, स्नेह और संकोच से भरी हुई वाणी बोले–

**राउ अवधपुर चहत सिधाए। बिदा होन हम इहाँ पठाए॥ मातु मुदित मन आयसु देहू। बालक जानि करब नित नेहू॥**
भाष्य

हे माताओं! अवध के राजा (मेरे पिताश्री) श्रीअवध पधारना चाहते हैं। विदा होने के लिए हम यहाँ भेजे गये हैं। आप सब प्रसन्न मन से हमें आज्ञा दें और अपना बालक जानकर निरन्तर प्रेम करते रहियेगा।

**सुनत बचन बिलखेउ रनिवासू। बोलि न सकहिं प्रेमबश सासू॥ हृदय लगाइ कुअँरि सब लीन्हीं। पतिन सौंपि बिनती अति कीन्हीं॥**
भाष्य

प्रभु का यह वचन सुनकर सम्पूर्ण रनिवास विलख पड़ा प्रभु प्रेम के विवश हुई सभी सासुयें कुछ बोल नहीं पा रहीं थीं। उन्होंने सभी बेटियों को हृदय से लगा लिया और उनके पतियों को सौंपकर अत्यन्त विनती की।

**छं०- करि बिनय सिय रामहिं समरपी जोरि कर पुनि पुनि कहै।**

बलि जाउँ तात सुजान तुम कहँ बिदित गति सब की अहै॥ परिवार पुरजन मोहि राजहिं प्रानप्रिय सिय जानिबी। तुलसीश शील सनेह लखि निज किंकरी करि मानिबी॥

भाष्य

सुनयना जी ने प्रार्थना करके भगवती सीता जी को भगवान्‌ श्रीराम को समर्पित कर दिया। हाथ जोड़कर पुन:–पुन: कहने लगीं, हे चतुर सबके प्रेमास्पद श्रीराम! मैं बलिहारी जाती हूँ, आपको सबकी गति विदित है। आप इस मिथिलापरिवार को, पुरजनों को, मुझे और महाराज को, सीता जी प्राणप्रिय हैं ऐसा जानियेगा। हे तुलसीदास के ईश्वर! हमारी सीता जी के शील और स्नेह को देखकर उन्हें अपनी दासी करके मानियेगा।

**सो०- तुम परिपूरन काम, जान सिरोमनि भाव प्रिय।**

जन गुन गाहक राम, दोष दलन करुनायतन॥३३६॥

भाष्य

हे श्रीराम! आप परिपूर्ण काम, ज्ञानियों में शिरोमणि, भाव के प्रिय, सज्जनों के गुणों को ग्रहण करनेवाले, दोषों को नष्ट करनेवाले और करुणा के आयतन अर्थात्‌ निवासस्थान हैं।

**अस कहि रही चरन गहि रानी। प्रेम पंक जनु गिरा समानी॥ सुनि सनेहसानी बर बानी। बहुबिधि राम सासु सनमानी॥**
भाष्य

इतना कहकर महारानी सुनयनाजी, भगवान्‌ श्रीराम के चरणों को पक़डकर चुप रह गईं, मानो उनकी वाणी प्रेम रूप पंक अर्थात्‌ कीचड़ में समा गई अर्थात्‌ फँस गई। स्नेह से सनी हुई श्रेष्ठ वाणी सुनकर श्रीराम ने सासु माँ का बहुत प्रकार से सम्मान किया।

[[२८७]]

राम बिदा माँगत कर जोरी। कीन्ह प्रनाम बहोरि बहोरी॥ पाइ अशीष बहुरि सिर नाई। भाइन सहित चले रघुराई॥

भाष्य

भगवान्‌ श्रीराम ने हाथ जोड़कर विदा माँगते हुए बारम्बार प्रणाम किया। आशीर्वाद पाकर फिर मस्तक नवाकर तीनों भाइयों के सहित श्रीरघुनाथ जनकभवन से चले।

**मंजु मधुर मूरति उर आनी। भईं सनेह शिथिल सब रानी॥ भा०– **भगवान्‌ श्रीराम की सुन्दर और मधुर मूर्ति को हृदय में लाकर सभी रानियाँ स्नेह से शिथिल हो गईं।

पुनि धीरज धरि कुअँरि हँकारी। बार बार भेंटहिं महतारी॥ पहुँचावहिं फिरि मिलहिं बहोरी। ब़ढी परस्पर प्रीति न थोरी॥ पुनि पुनि मिलत सखिन बिलगाई। बाल बच्छ जिमि धेनु लवाई॥

भाष्य

फिर धैर्य धारण करके चारों बेटियों को बुलाकर मातायें बार–बार भेंटने लगीं अर्थात्‌ गले से लगाने लगीं। पहुँचाती और फिर मिलती थीं, परस्पर प्रेम बहुत ब़ढ रहा था। बार–बार मिलती हुईं माताओं को राजकुमारियों से सखियों ने इसी प्रकार अलग कर दिया जैसे तत्काल जनी हुई गौ को छोटे बछड़े से अलग कर दिया गया हो।

**दो०- प्रेमबिबस नर नारि सब, सखिन सहित रनिवास।**

मानहुँ कीन्ह बिदेहपुर, करुना बिरह निवास॥३३७॥

भाष्य

सभी मिथिला पुर के नर–नारी और सखियों के सहित सम्पूर्ण रनिवास प्रेम के विवश हो गया, मानो जनकपुर में करुणा और विरह ने निवास ही कर लिया हो।

**शुक सारिका जानकी ज्याए। कनक पिंजरनि राखि प़ढाए॥ ब्याकुल कहहिं कहाँ बैदेही। सुनि धीरज परिहरइ न केही॥ भए बिकल खग मृग एहि भाँती। मनुज दशा कैसे कहि जाती॥**
भाष्य

जिन तोते और मैनों को भगवती सीता जी ने जिलाये थे और स्वर्ण के पिंज़डें में रखकर उन्हें प़ढाया था। वे तोता और मैंना भी सीता जी की विदायी समय व्याकुल होकर कहने लगे, वैदेही कहाँऽऽ हैं…वैदेही कहाँऽऽ हैं? उनकी यह वाणी सुनकर भला किसको धैर्य न छोड़ दे। पशु, पक्षी इस प्रकार व्याकुल हो गये तो मनुष्यों की दशा कैसे कही जा सकती है?

**बंधु समेत जनक तब आए। प्रेम उमगि लोचन जल छाए॥ सीय बिलोकि धीरता भागी। रहे कहावत परम बिरागी॥ लीन्ह राय उर लाइ जानकी। मिटी महामरजाद ग्यान की॥ समुझावत सब सचिव सयाने। कीन्ह बिचार अनवसर जाने॥**
भाष्य

जब छोटे भाई कुशध्वज के साथ सिरध्वज जनकजी, सीता जी के पास आये तब उनके नेत्रों में प्रेम से उमड़े हुए आँसू छा गये। जनक जी तो परमवैराग्यवान कहला रहे थे, परन्तु सीता जी को देखकर उनका भी धैर्य भंग हो गया। राजा जनक जी ने सीता जी को हृदय से लगा लिया और उनके ज्ञान की बहुत बड़ी मर्यादा मिट गई। सभी चतुर मंत्री महाराज जनक जी को समझाने लगे। जनक जी ने अनुचित अवसर जानकर विचार किया अर्थात्‌ धैर्य धारण किया।

**बारहिं बार सुता उर लाई। सजि सुन्दर पालकी मगाई॥**

[[२८८]]

भाष्य

बार–बार पुत्री जानकी, मांडवी, उर्मिला तथा श्रुतिकीर्ति इन सभी पुत्रियों को हृदय से लगाकर जनक जी ने सजी हुई सुन्दर पालकी मंगवाई।

**दो०- प्रेमबिबश परिवार सब, जानि सुलगन नरेश।**

कुअँरि च़ढाई पालकिन, सुमिरे सिद्धि गणेश॥३३८॥

भाष्य

सम्पूर्ण परिवार प्रेम के विवश हो गया। महाराज जनक जी ने सुन्दर मुहूर्त जानकर छोटी अवस्थावाली चारों पुत्रियों अर्थात्‌ सीताजी, मांडवीजी, उर्मिला जी और श्रुतिकीर्ति जी को पालकियों पर च़ढवाया और सिद्धि सहित गणपति का स्मरण किया।

**विशेष– **सौतन की सम्भावना के डर से जनक जी ने सिद्धि के ही सहित गणपति जी का स्मरण किया, बुद्धि का स्मरण नहीं किया, इसीलिए सरस्वती जी ने मंथरा और कैकेयी की बुद्धि फेरी जिससे राज–रसभंग हुआ।

बहुबिधि भूप सुता समुझाई। नारिधरम कुलरीति सिखाई॥ दासी दास दिए बहुतेरे। शुचि सेवक जे प्रिय सिय केरे॥

भाष्य

जनक जी ने पुत्रियों को बहुत प्रकार से समझाया उन्होंने राजकुमारियों को नारी धर्म और कुल की रीति सिखाई। बहुत सी दासियाँ और दास दिये और ऐसे पवित्र सेवक दिये जो सीता जी को भी प्रिय थे।

**सीय चलत ब्याकुल पुरवासी। होहिं सगुन शुभ मंगल रासी॥ भूसुर सचिव समेत समाजा। संग चले पहुँचावन राजा॥**
भाष्य

सीता जी के चलते समय सभी मिथिलापुरवासी व्याकुल हो उठे। वहाँ सुन्दर कल्याणकारी मंगलों के राशि शकुन होने लगे। ब्राह्मणों, मंत्रियों और सभी समाज के साथ राजा जनकजी, सीता जी को पहुँचाने के लिए बारात के संग–संग चले।

**समय बिलोकि बाजने बाजे। रथ गज बाजि बरातिन साजे॥ दशरथ बिप्र बोलि सब लीन्हे। दान मान परिपूरन कीन्हे॥ चरन सरोज धूरि धरि शीषा। मुदित महीपति पाइ अशीषा॥ सुमिरि गजानन कीन्ह पयाना। मंगलमूल सगुन भए नाना॥**
भाष्य

प्रस्थान का समय देखकर बाजे बजने लगे और बारातियों ने रथ, घोड़े और हाथी सजाये। दशरथ जी ने सभी ब्राह्मणों को बुला लिया और दान तथा सम्मान से परिपूर्ण किया। उनके चरणकमल की धूलि को सिर पर रखकर तथा आशीर्वाद पाकर महाराज बहुत प्रसन्न हुए और गणपति जी का स्मरण करके श्रीअवध के लिए प्रयाण किया। उस समय अनेक मंगलों के मूल कारण शकुन हुए।

**दो०- सुर प्रसून बरषहिं हरषि, करहिं अप्सरा गान।**

चले अवधपति अवधपुर, मुदित बजाइ निसान॥३३९॥

भाष्य

देवता प्रसन्न होकर पुष्पों की वर्षा करने लगे, अप्सरायें मंगलगान करने लगीं प्रसन्नतापूर्वक नगारे बजाकर अवधनरेश दशरथजी, श्रीअवध के लिए चले।

**नृप करि बिनय महाजन फेरे। सादर सकल मागने टेरे॥ भूषन बसन बाजि गज दीन्हे। प्रेम पोषि ठा़ढे सब कीन्हे॥**

[[२८९]]

भाष्य

महाराज दशरथ जी ने विनय करके सभी श्रेष्ठजनों को लौटाया और आदरपूर्वक सभी भिक्षुकों को बुलाया, उन्हें आभूषण, वस्त्र, हाथी, घोड़े दिये। सबको प्रेम से पुष्ट करके अपने पाँव पर ख़डा कर दिया अर्थात्‌ व्यवस्थित जीविका दे दी, जिससे कोई भीख न माँगे।

**बार बार बिरुदावलि भाखी। फिरे सकल रामहिं उर राखी॥ बहुरि बहुरि कोसलपति कहहीं। जनक प्रेमबश फिरै न चहहीं॥**
भाष्य

वे सभी बार–बार महाराज की विव्र्दावली कहकर भगवान्‌ श्रीराम को हृदय में रखकर लौटे। दशरथ जी महाराज पुन:–पुन: जनक जी को लौट जाने के लिए कहते हैं, परन्तु महाराज जनक जी पे्रम के विवश में होने के कारण लौटना नहीं चाहते।

**पुनि कह भूपति बचन सुहाए। फिरिय महीश दूरि बरिड़ आए॥ ाउ बहोरि उतरि भए ठा़ढे। प्रेम प्रबाह बिलोचन बा़ढे॥ तब बिदेह बोले कर जोरी। बचन सनेह सुधा जनु बोरी॥ करौं कवन बिधि बिनय बनाई। महाराज मोहि दीन्ह बड़ाई॥**
भाष्य

फिर महाराज दशरथ जी ने सुन्दर वचन कहे, हे राजा जनक! अब लौट जाइये, बहुत दूर आ गये हैं। फिर राजा जनक जी उतरकर ख़डे हो गये और उनके नेत्रों में प्रेम के प्रवाह ब़ढ गये। तब जनक जी हाथ जोड़ करके मानो स्नेह की सुधा में डूबोकर वचन बोले, हे महाराज! मैं किस प्रकार बनाकर विनय करूँ?

**दो०- कोसलपति समधी सजन, सनमाने सब भाँति।**

**मिलनि परसपर बिनय अति, प्रीति न हृदय समाति॥३४०॥ भा०– **महाराज दशरथ जी ने अपने स्वजन (मित्र) समधी जनक जी का सब प्रकार से सम्मान किया। दोनों परस्पर मिल रहे थे, उनकी विनम्रता और प्रेम हृदय में नहीं समा रही थी।

मुनि मंडलिहिं जनक सिर नावा। आशिरबाद सबहिं सन पावा॥ सादर पुनि भेंटे जामाता। रूप शील गुननिधि सब भ्राता॥

भाष्य

तब जनक जी ने मुनियों के समूह को प्रणाम किया और सब से आशीर्वाद पाया। फिर आदरपूर्वक रूप शील एवं गुणों के महासागर चारों भाइयांें श्रीराम, भरत, लक्ष्मण और शत्रुघ्न नामक सभी जमाइयों को गले लगाया।

**जोरि पंकरुह पानि सुहाए। बोले बचन प्रेम जनु जाए॥ राम करौं केहि भाँति प्रशंसा। मुनि महेश मन मानस हंसा॥**
भाष्य

फिर सुन्दर कमल के समान हाथ जोड़कर मानो प्रेम से उत्पन्न हुए वचन बोले। जनक जी ने कहा, हे श्रीराम! हे मुनियों एवं शिव जी के मनरूप मानससरोवर के राजहंस! आपकी कैसे प्रशंसा करूँ?

**करहिं जोग जोगी जेहि लागी। कोह मोह ममता मद त्यागी॥ ब्यापक ब्रह्म अलख अबिनाशी। चिदानंद निरगुन गुनराशी॥**
भाष्य

क्रोध, मोह, ममता और मद छोड़कर योगी लोग जिनके लिए योग साधना करते हैं। जो सर्वव्यापक, ब्रह्म अर्थात्‌ सबसे बड़े अलख अर्थात्‌ प्राकृत नेत्रों से नहीं देखे जाने योग्य, अविनाशी अर्थात्‌ विनाशरहित, चिदानन्द अर्थात्‌ ज्ञान और आनन्दमय, निर्गुण अर्थात्‌ हेय गुणों से रहित, गुणों की राशि अर्थात्‌ सभी कल्याण गुणगणों के पुंज हैं।

[[२९०]]

मन समेत जेहि जान न बानी। तरकि न सकहि सकल अनुमानी॥ महिमा निगम नेति कहि कहई। जो तिहुँ काल एकरस रहई॥

भाष्य

जिन्हें मन के सहित वाणी नहीं जान पाती, सभी अनुमान करनेवाले प्राचीन और नव्यनैयायिक जिन्हें तर्क का विषय नहीं बना पाते, जिनकी महिमा को वेद ‘नेति–नेति’ कह कर कहते हैं, जो तीनों कालों मेें एक रस रहते हैं।

**दो०- नयन बिषय मो कहँ भयउ, सो समस्त सुख मूल।**

सबइ सुलभ जग जीव कहँ, भए ईश अनुकूल॥३४१॥

भाष्य

वे ही आप समस्त सुखों के परमकारण श्रीराम मेरे नेत्रों के विषय बन गये। वास्तव मंें आप जैसे ईश्वर के अनुकूल होने पर संसार में जीव को सब कुछ सुलभ हो जाता है।

**सबहिं भाँति मोहि दीन्ह बड़ाई।निज जन जानि लीन्ह अपनाई॥ होहिं सहस दश शारद शेषा। करहिं कलप कोटिक भरि लेखा॥ मोर भाग्य राउर गुन गाथा। कहि न सिराहिं सुनहु रघुनाथा॥**
भाष्य

हे रघुनाथजी! सुनिये, आपने सब प्रकार से मुझे बड़प्पन दिया है। अपना सेवक जानकर मुझे अपनाया है। यदि लाखों सरस्वती और शेष हों और वे करोड़ों कल्पपर्यन्त गणना करें तो भी वे मेरे भाग्य और आप की गुणगाथाओं का वर्णन करके समाप्त नहीं कर सकते अर्थात्‌ मेरे भाग्य का भी कोई अन्त नहीं है और आपके गुणों का भी कोई अन्त नहीं है।

**मैं कछु कहउँ एक बल मोरे। तुम रीझहु सनेह सुठि थोरे॥ बार बार मागउँ कर जोरे। मन परिहरै चरन जनि भोरे॥**
भाष्य

फिर भी कुछ कह रहा हूँ, मेरे पास एक ही बल है, वह है स्नेह का। आप थोड़े से ही सुन्दर और पवित्र स्नेह से रीझ जाते हैं। मैं हाथ जोड़कर बार–बार माँग रहा हूँं कि, यह मेरा मन आपके उन श्रीचरणों को धोखे से भी ज्ञानरूप प्रभात के होने पर भी नहीं छोड़े, जिन श्रीचरणों को धोकर मैंने कन्यादानविधि सम्पन्न की।

**सुनि बर बचन प्रेम जनु पोषे। पूरन काम राम परितोषे॥ करि बर बिनय ससुर सनमाने। पितु कौशिक बसिष्ठ सम जाने॥**
भाष्य

मानो प्रेम के द्वारा पुय् किये हुए श्रेष्ठ वचनों को सुनकर, पूर्णकाम भगवान्‌ श्रीराम प्रसन्न हुए और श्रेष्ठ विनय करके श्वसुरश्री जनक जी का सम्मान किया और उन्हें पिताश्री दशरथ जी एवं गुरुदेव विश्वामित्र जी तथा वसिष्ठ जी के समान जाना अर्थात्‌ इन तीनों की श्रेणी में रख लिया।

**बिनती बहुरि भरत सन कीन्ही। मिलि सप्रेम पुनि आशिष दीन्ही॥ भा०– **फिर जनक जी ने भरत जी से प्रार्थना की। उनसे प्रेमपूर्वक मिल कर पुन: आशीर्वाद दिया।

दो०- मिले लखन रिपुसूदनहिं, दीन्हि अशीष महीश।

भए परसपर प्रेमबश, फिरि फिरि नावहिं शीश॥३४२॥

भाष्य

फिर जनकजी, लक्ष्मण जी एवं शत्रुघ्न जी से मिले और अशीर्वाद दिया। महाराज जनक जी एवं श्रीराम, भरत, लक्ष्मण, शत्रुघ्न चारों भाई परस्पर प्रेम के वश हो गये और वे बार–बार प्रणाम कर रहे हैं अर्थात्‌ जनक जी चारों भाइयों को प्रणाम कर रहे हैं और चारों भाई जनक जी को प्रणाम कर रहे हैं।

[[२९१]]

बार बार करि बिनय बड़ाई रघुपति चले संग सब भाई॥ जनक गहे कौशिक पद जाई। चरन रेनु सिर नयनन लाई॥

भाष्य

बार–बार विनय और बड़ाई करके सभी तीनों भाइयों के साथ, भगवान्‌ श्रीराम चले। जनक जी ने जाकर विश्वामित्र जी के चरण पक़ड लिए और उनकी चरणधूलि अपने सिर और नेत्रों में लगाया।

**सुनु मुनीश बर दरसन तोरे। अगम न कछु प्रतीति मन मोरे॥ जो सुख सुजस लोकपति चहहीं। करत मनोरथ सकुचत अहहीं॥ सो सुख सुजस सुलभ मोहि स्वामी। सब सिधि तव दरसन अनुगामी॥**
भाष्य

जनक जी ने कहा, हे मुनिनाथ! आपके श्रेष्ठ दर्शनों से मेरे लिए अब कुछ भी कठिन नहीं है, ऐसा मुझे विश्वास है। जिन सुख और सुयशों को लोकपाल चाहते हैं और मनोरथ करने में भी संकुचित होते हैं। वे सुख और सुन्दर यश मेरे लिए सुलभ हो चुके हैं, क्योंकि सभी सिद्धियाँ आपके दर्शनों का अनुगमन करती हैं।

**कीन्ह बिनय पुनि पुनि सिर नाई। फिरे महीश आशिषा पाई॥ चली बरात निसान बजाई। मुदित छोट बड़ सब समुदाई॥ रामहिं निरखि ग्राम नर नारी। पाइ नयन फल होहिं सुखारी॥**
भाष्य

जनक जी ने पुन:–पुन: सिर नवाकर विश्वामित्र जी से विनय किया और आशीर्वाद पाकर लौट गये। इधर छोटे–बड़े अर्थात्‌ बालक–वृद्ध समुदायों से युक्त श्रीराम की वर–यात्रा नगारे बजाकर प्रसन्नतापूर्वक श्रीअवध के लिए चल पड़ी। श्रीराम को देखकर मार्ग में पड़ने वाले ग्रामों के नर–नारी नेत्रों का फल पाकर सुखी हो जाते थे।

**दो०- बीच बीच बर बास करि, मग लोगन सुख देत।**

**अवध समीप पुनीत दिन, पहुँची आइ जनेत॥३४३॥ भा०– **बीच–बीच में श्रेष्ठ विश्रामस्थलों पर निवास करके मार्ग के लोगों को सुख देते हुए, पवित्र दिन में बारात श्रीअवध के समीप जा पहुँची।

हने निसान पनव बर बाजे। भेरि शंख धुनि हय गय गाजे॥ झाँझि बीन डिमडिमी सुहाई। सरस राग बाजहिं सहनाई॥

भाष्य

ऊँचे धुन से नगारे बजाये गये, बहुत से ढोल बजे, भेरी और शंखों की ध्वनि हुई। हाथी, घोड़े गरजने लगे। झाँझ, वीणा, डिमडिमी तथा सुन्दर शहनाईयाँ सुन्दर मंगलराग में बजने लगीं।

**पुर जन आवत अकनि बराता। मुदित सकल पुलकावलि गाता॥**

**निज निज सुन्दर सदन सँवारे। हाट बाट चौहट पुर द्वारे॥ भा०– **अवधपुरवासी बारात को आते सुनकर प्रसन्न हुए। सबके अंगों में पुलकावलि छा गई। सबने अपने घर, बाजार, मार्ग, चौराहे और अवधपुर के द्वारों को सुन्दर सजाया।

गली सकल अरगजा सिंचाई। जहँ तहँ चौके चारु पुराई॥ बना बजार न जाइ बखाना। तोरन केतु पताक बिताना॥

भाष्य

सम्पूर्ण गलियाँ अर्गजा, के द्रव्य से सींचीं गईं। जहाँ–तहाँ सुन्दर चौकें पूरकर बनाई गईं। बाजार इतना सुन्दर बना था कि, वह बखाना नहीं जाता। वहाँ तोरण, ध्वज, पताका और मण्डप भी सजे थे।

[[२९२]]

सफल पूगिफल कदलि रसाला। रोपे बकुल कदंब तमाला॥ लगे सुभग तरु परसत धरनी। मनिमय आलबाल कल करनी॥

भाष्य

सुन्दर फलों से युक्त सुपारी के वृक्ष केले, आम्र, बकुल, कदम्ब और तमाल के वृक्ष भी लगाये गये। लगे हुए सुन्दर वृक्ष पृथ्वी को स्पर्श कर रहे थे। उनकी थालें मणियों से जटित थीं और उनकी कलाकृति बहुत सुन्दर थीं।

**दो०- बिबिधि भाँति मंगल कलश, गृह गृह रचे सँवारि।**

**सुर ब्रह्मादि सिहाहिं सब, रघुबर पुरी निहारि॥३४४॥ भा०– **प्रत्येक घरों पर अनेक प्रकार के मंगल कलश सजाकर रखे थे। श्रीराम की अवधनगरी को निहारकर, ब्रह्मा जी आदि देवता भी ईर्ष्या के सहित प्रशंसा करते थे।

भूप भवन तेहि अवसर सोहा। रचना देखि मदन मन मोहा॥ मंगल सगुन मनोहरताई। रिधि सिधि सुख संपदा सुहाई॥ जनु उछाह सब सहज सुहाए। तनु धरि धरि दशरथ गृह छाए॥ देखन हेतु राम बैदेही। कहहु लालसा होइ न केही॥

भाष्य

उस अवसर पर महाराज दशरथ जी का भवन बहुत शोभित हो रहा था। उसकी रचना को देख कर कामदेव का मन भी मोहित हो जाता था। मांगलिक शकुन, सुन्दरता, नवों निधि और आठों सिद्धि, सभी प्रकार के सुख और सुहावनी सम्पत्ति तथा अन्य सभी स्वभाव से सुन्दर उत्साह मानो शरीर धारण करके दशरथ जी के भवन में छा गये थे। भला बताइये, ब्रह्मदंपति भगवान्‌ श्रीराम और भगवती सीता जी को देखने की किसे इच्छा नहीं होगी?

**जूथ जूथ मिलि चलीं सुवासिनि। निज छबि निदरहिं मदन बिलासिनि॥**

**सकल सुमंगल सजे आरती। गावहिं जनु बहु बेष भारती॥ भा०– **अपनी सुन्दरता से कामदेव की पत्नी रति का निरादर करती हुईं, सभी सुमंगलों से पूर्ण आरती सजाई हुईं सौभाग्यवती महिलायें, अनेक समूहों में गाती हुई चलीं, मानो सरस्वती जी ही बहुत से वेश बनाकर प्रभु की आरती करने चली जा रही हों।

भूपतिभवन कोलाहल होई। जाइ न बरनि समय सुख सोई॥ कौसल्यादि राम महतारी। प्रेमबिबश तनु दशा बिसारी॥

भाष्य

महाराज के भवन में बहुत कोलाहल हो रहा है। इस समय के आनन्द का वर्णन नहीं किया जा सकता है। कौसल्यादि सभी श्रीराम की मातायें प्रेम के विवश होकर शरीर की दशा भूल गईं।

**दो०- दिए दान बिप्रन बिपुल, पूजि गणेश पुरारि।**

प्रमुदित परम दरिद्र जनु, पाइ पदारथ चारि॥३४५॥

भाष्य

गणपति जी और शिव जी की पूजा करके माताओं ने ब्राह्मणों को बहुत से दान दिये। वे ऐसी प्रसन्न थीं, मानो परमदरिद्र (बहुत जन्मों से निर्धन) अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष इन चारो पदार्थों को पाकर प्रसन्न हो रहा हो।

**पे्रम प्रमोद बिबश सब माता। चलहिं न चरन शिथिल भए गाता॥ राम दरस हित अति अनुरागीं। परिछनि साज सजन सब लागीं॥**

[[२९३]]

भाष्य

सभी मातायें प्रेम तथा इष्ट लाभ से उत्पन्न आनन्द के विवश हैं। उनके चरण नहीं चल रहे हैं। सभी अंग शिथिल हो गये हैं। सभी मातायें श्रीसीता–राम जी के दर्शन के लिए अत्यन्त अनुराग से युक्त हो गईं और परिछन के सभी साज–सजाने लगीं।

**बिबिध बिधान बाजने बाजे। मंगल मुदित सुमित्रा साजे॥ हरद दूब दधि पल्लव फूला। पान पूगिफल मंगल मूला॥ अक्षत अंकुर रोचन लाजा। मंजुल मंजरि तुलसि बिराजा॥ छुहे पुरट घट सहज सुहाए। मदन सकुन जनु नीड़ बनाए॥**
भाष्य

अनेक प्रकार के बाजे बजने लगे। सुमित्रा जी ने प्रसन्न होकर बारह मंगल सजाये। हल्दी, दूर्बा, दही, पल्लव, पुष्प, मंगल का मूल पान, सुपारी, अक्षत (चावल), अंकुर (अँखुयें), गोरोचन, धान का लावा और कोमल मंजरियों से सुशोभित तुलसी उपस्थित की गई। स्वभाव से सुन्दर छूहे अर्थात्‌ खयिड़ा मिट्टी के द्वारा अनेक प्रकार से चित्रित किये हुए स्वर्ण के घड़े ऐसे प्रतीत हो रहे थे मानो कामदेव के पक्षियों ने अपने घोंसले बनाये हों।

**सगुन सुगंध न जाहिं बखानी। मंगल सकल सजहिं सब रानी॥ रची आरती बहुत बिधाना। मुदित करहिं कल मंगल गाना॥**
भाष्य

अनेक प्रकार के शकुन सूचक सुगंधित पदार्थ उपस्थित किये गये, जो बखाने नहीं जा सकते। इस प्रकार, सभी रानियाँ सभी मंगल साज–सजा रही थीं। उन्होंने अनेक प्रकार की आरतियाँ बनाकर रचीं और प्रसन्न होकर मधुर मंगलगान करने लगीं।

**दो०- कनक थार भरि मंगलनि, कमल करनि लिए मात।**

**चलीं मुदित परिछनि करन, पुलक पल्लवित गात॥३४६॥ भा०– **मंगलों से सुवर्ण के थालों को भरकर, उन्हें अपने कमल के जैसे कोमल हाथों में लिए हुए रोमांच से युक्त पल्लव के समान आचरण कर रहे अर्थात्‌ प्रेम की विह्वलता से थोड़ा कांपते हुए शरीरवाली प्रभु श्रीराम की सात सौ मातायें प्रसन्न होती हुईं भगवान्‌ श्रीराम की परिछन करने चल पड़ीं।

धूप धूम नभ मेचक भयऊ। सावन घन घमंड जनु ठयऊ॥ सुरतरु सुमन माल सुर बरषहिं। मनहुँ बलाक अवलि मन करषहिं॥

भाष्य

धूप अर्थात्‌ अगर धूप के धुयें से आकाश काला हो गया, मानो श्रावण के महीने में उमड़े-घुमड़े हुए मेघ उस पर छा गये हों। देवता कल्पवृक्ष के पुष्पों की माला की वर्षा कर रहे हैं, वे मालायेें ऐसी लग रही हैं, मानो श्रावण के आकाश में छायी हुई बगुलों की पंक्तियाँ मनों को आकर्षित कर रही हों।

**मंजुल मनिमय बंदनवारे। मनहुँ पाकरिपु चाप सँवारे॥ प्रगटहिं दुरहिं अटन पर भामिनि। चारु चपल जनु दमकहिं दामिनि॥**
भाष्य

श्रीअवधनगर में मणियों से जटित सुन्दर बंदनवार ऐसे लग रहे हैं, मानो पाक दैत्य के शत्रु इन्द्र के धनुष

सजे हों। श्रीअवध की अट्टालिकाओं पर सुलक्षणा सौभाग्यवती महिलायें प्रकट होती और छिप जाती हैं, मानो सुन्दर चंचल बिजलियाँ चमक रही हों।

दुंदुभि धुनि घन गरजनि घोरा। जाचक चातक दादुर मोरा॥ सुर सुगंध शुचि बरषहिं बारी। सुखी सकल ससि पुर नर नारी॥

[[२९४]]

भाष्य

नगाड़ों की ध्वनि ही यहाँ बादलों की घोर गर्जना है। याचकगण ही यहाँ चातक मेंढक और मोर हैं। देवता ही सुन्दर सुगंधित गुलाब जल आदि के रूप में जलवृष्टि कर रहे हैं और नर–नारी रूप हरी–हरी खेती सुखी हो रही हैं।

**समय जानि गुरु आयसु दीन्हा। पुर प्रबेश रघुकुलमनि कीन्हा॥ सुमिरि शंभु गिरिजा गनराजा। मुदित महीपति सहित समाजा॥**
भाष्य

समय जानकर गुव्र्देव श्रीवसिष्ठ ने आज्ञा दी और रघुकुलमणि श्रीराम ने श्रीअवधपुर में प्रवेश किया। शिवजी, पार्वती जी और गणपति जी का स्मरण करके समाज सहित दशरथ जी बहुत प्रसन्न हुए।

**दो०- होहिं सगुन बरषहिं सुमन, सुर दुंदुभी बजाइ।**

बिबुध बधू नाचहिं मुदित, मंजुल मंगल गाइ॥३४७॥

भाष्य

सुन्दर शकुन होने लगे, देवता दुंदुभियाँ बजाकर पुष्पों की वर्षा करने लगे और देववधुयें सुन्दर मधुर मंगल गा कर नाचने लगीं।

**मागध सूत बंदि नट नागर। गावहिं जस तिहुँ लोक उजागर॥**

**जयधुनि बिमल बेद बर बानी। दस दिशि सुनिय सुमंगल सानी॥ भा०– **मागध, सूत, बंदी और श्रेष्ठ नट तीनों लोक में प्रसिद्ध प्रभु के यश गा रहे हैं। दसों दिशाओं में सुमंगलों से सनी हुई जयध्वनि और निर्मल–श्रेष्ठ वेदों की वाणी सुनायी पड़ रही है।

बिपुल बाजने बाजन लागे। नभ सुर नगर लोग अनुरागे॥ बने बराती बरनि न जाहीं। महा मुदित मन सुख न समाहीं॥

भाष्य

अनेक वाद्द बजने लगे, आकाश के देवता और नगर के लोग प्रेम में मग्न हो गये। बाराती सजे हुए थे, वे वर्णित नहीं किये जा सकते। वे अत्यन्त प्रसन्न हैं, उनके मन में अनेक प्रकार के सुख समा नहीं रहे हैं।

**पुरबासिन तब राय जोहारे। देखत रामहिं भए सुखारे॥ करहिं निछावरि मनिगन चीरा। बारि बिलोचन पुलक शरीरा॥**
भाष्य

तब बारात में नहीं गये हुए, श्रीअवधपुरवासियों ने चक्रवर्ती जी का अभिवादन किया और विवाहित श्रीराम को देखकर सुखी हो गये। उनके आँखों में आँसू और शरीर में रोमांच था। वे धन, मणि और वस्त्र न्यौछावर करने लगे।

**आरति करहिं मुदित पुर नारी। हरषहिं निरखि कुअँर बर चारी॥**

**शिबिका सुभग ओहार उघारी। देखि दुलहिनिन होहिं सुखारी॥ भा०– **श्रीअवधपुर की नारियाँ प्रसन्न होकर आरती कर रही हैं और चारों कुमारों को देखकर प्रसन्न हो रही हैं। पालकियों के सुन्दर ओहार अर्थात्‌ सामने लगे हुए पर्दाें को खोलकर चारों दुल्हनों को देख कर वे सुखी हो जाती

हैं।

दो०- एहि बिधि सबही देत सुख, आए राजदुआर।

मुदित मातु परिछनि करहिं, बधुन समेत कुमार॥३४८॥

भाष्य

इस प्रकार सबको सुख देते हुए चारों वधूओं सहित चारों राजकुमार राजद्वार पर आ गये और मातायें प्रसन्न होकर उनकी परिछन करने लगीं।

[[२९५]]

करहिं आरती बारहिं बारा। प्रेम प्रमोद कहै को पारा॥ भूषन मनि पट नाना जाती। करहिं निछावरि अगनित भाँती॥

भाष्य

मातायें बारम्बार आरती करती हैं, उनके प्रेम और प्रमोद अर्थात्‌ मनचाही वस्तु की उपलब्धि से होने वाली प्रसन्नता को कौन कह सकता है? नाना प्रकार के आभूषण मणि और वस्त्रों को मातायें अनेक प्रकार से न्यौछावर कर रही हैं।

**बधुन समेत देखि सुत चारी। परमानन्द मगन महतारी॥ पुनि पुनि सीय राम छबि देखी। मुदित सफल जग जीवन लेखी॥ सखी सीय मुख पुनि पुनि चाही। गान करहिं निज सुकृत सराही॥ बरषहिं सुमन छनहिं छन देवा। नाचहिं गावहिं लावहिं सेवा॥**
भाष्य

चारों बहुओं के साथ चारों पुत्रों को देखकर, मातायें परमानन्द में मग्न हो र्गइं। बार–बार श्रीसीता–राम जी की छवि को देखकर माताओं ने संसार में अपने जीवन को सफल समझा। सखियाँ बार–बार सीता जी का मुख देखकर अपने पुण्यों की प्रशंसा करके मंगलगान कर रही हैं। क्षण–क्षण में देवता पुष्पवृष्टि कर रहे हैं, नाच रहे हैं, गा रहे हैं और अपनी सेवायें उपस्थित कर रहे हैं।

**देखि मनोहर चारिउ जोरी। शारद उपमा सकल ढँढोरी॥ देत न बनहिं निपट लघु लागी। एकटक रही रूप अनुरागी॥**
भाष्य

मन को हरनेवाली चारों अर्थात्‌ श्रीसीता–रामजी, श्रीमांडवी–भरतजी, श्रीउर्मिला–लक्ष्मण जी तथा श्रीश्रुतिकीर्ति–शत्रुघ्न जी की जोयिड़ों को देखकर, सरस्वती जी ने सभी उपमायें ढूँ़ढी कोई उपमा देते न बनी। सभी उपमायें बहुत छोटी लगीं। फिर सरस्वती जी चारों जोयिड़ों के रूप में अनुरक्त होकर एकटक रहकर उन्हें देखने लगीं।

**दो०- निगम नीति कुल रीति करि, अरघ पाँवड़े देत।**

बधुन सहित सुत परिछि सब, चलीं लिवाइ निकेत॥३४९॥

भाष्य

इस प्रकार वेद की नीति (विधि) और कुल की रीति सम्पन्न करके अर्घ और वस्त्रों के पाँवड़े देती हुई, सभी मातायें वधुओं के सहित सभी पुत्रों की द्वार पर परिछन करके, उन्हें लिवाकर राजभवन चलीं।

**चारि सिंघासन सहज सुहाए। जनु मनोज निज हाथ बनाए॥ तिन पर कुअँरि कुअँर बैठारे। सादर पायँ पुनीत पखारे॥**
भाष्य

वहाँ स्वभावत: सुन्दर चार सिंहासन विराज रहे थे, मानो उन्हें कामदेव ने अपने हाथ से बनाया था। उन्हीं पर चारों वधुओं के सहित चारों वरों को बैठाया, अर्थात्‌ एक–एक सिंहासन पर एक-एक नवदम्पति को विराजमान कराया तथा आदरपूर्वक उनके पवित्र पाँव पखारे।

**धूप दीप नैवेद्द बेद बिधि। पूजे बर दुलहिनि मंगलनिधि॥ बारहिं बार आरती करहीं। ब्यजन चारु चामर सिर ढरहीं॥**
भाष्य

धूप, दीप, नैवेद्द आदि वैदिकविधि से मंगल के सागर रूप चारों वर–वधुओं की जोड़ी की पूजा की। मातायें बार–बार आरती कर रही हैं और चारों जोड़ी के मस्तक पर सुन्दर पंखे और चामर चल रहे हैं।

**बस्तु अनेक निछावरि होहीं। भरीं प्रमोद मातु सब सोहीं॥ पावा परम तत्त्व जनु जोगी। अमृत लहेउ जनु संतत रोगी॥ जनम रंक जनु पारस पावा। अंधहिं लोचन लाभ सुहावा॥ मूक बदन जनु शारद छाई। मानहुँ समर शूर जय पाई॥**

[[२९६]]

भाष्य

अनेक प्रकार की वस्तुयें न्यौछावर हो रही हैं। इष्टलााभ जनित प्रसन्नता से भरी हुईं सभी मातायें सुशोभित हो रही हैं, मानो योगी ने परमतत्त्व को पा लिया हो, मानो निरन्तर का रोगी ने अमृत पा लिया, मानो जन्मों के दरिद्र ने पारसमणि पा लिया, मानो दृष्टिहीन को सुन्दर नेत्रों का लाभ हो गया, मानो गूंगे के मुख पर सरस्वती जी छा गईं, मानो वीर ने युद्ध में विजय प्राप्त कर ली।

**दो०- एहि सुख ते शत कोटि गुन, पावहिं मातु अनंद।**

**भाइन सहित बियाहि घर, आए रघुकुल चंद॥३५०(क)॥ भा०– **इस सुख से भी अरबों गुणा आनन्द मातायें पा रही हैं। रघुकुल के चन्द्रमा भगवान्‌ श्रीराम, भाइयों सहित मिथिला में विवाहित होकर घर आ गये हैं।

**विशेष– **इस प्रसंग में माताओं के सुख की छ: उपमायें देकर गोस्वामी तुलसीदास जी ने श्रीराम की छ: सफलताओं की ओर संकेत किया है, वे हैं– ताटकावध, विद्दाप्राप्ति, मारीच–सुबाहु पराजय और यज्ञरक्षा, अहल्योद्धार, धनुर्भंग तथा परशुराम–पराजय।

दो०- लोकरीति जननीं करहिं, बर दुलहिनि सकुचाहिं।

**मोद बिनोद बिलोकि बड़, राम मनहिं मुसुकाहिं॥३५०(ख)॥ भा०– **मातायें लोकरीति कर रही हैं, चारों वर–वधुओं की जोयिड़ाँ संकुचित हो रही हैं। बहुत बड़ा आनन्द और विनोद देखकर भगवान्‌ श्रीराम मन में मुस्कुरा रहे हैं, क्योंकि यह आनन्द उन्हें साकेत में कहाँ मिलता?

देव पितर पूजे बिधि नीकी। पूजी सकल बासना जी की॥ सबहिं बंदि मागहिं बरदाना। भाइन सहित राम कल्याना॥

भाष्य

बहुत प्रकार से माताओं ने देवताओं और पितृगणों की पूजा की। हृदय की सभी वासना अर्थात्‌ शुभ– वस्तुओं की प्राप्ति की इच्छा पूर्ण हो गई। सभी की वन्दना करके मातायें तीनों भाइयों के सहित श्रीराम के कल्याण का वरदान माँगती हैं।

**अंतरहित सुर आशिष देहीं। मुदित मातु अंचल भरि लेहीं॥ भूपति बोलि बराती लीन्हे। यान बसन मनि भूषन दीन्हे॥ आयसु पाइ राखि उर रामहिं। मुदित गए सब निज निज धामहिं॥**
भाष्य

देवता अन्तर्धान रहकर छिपे–छिपे आशीर्वाद देते हैं और आशीर्वाद सुनकर मातायें उन्हें आँचल फैलाकर ले लेती हैं। चक्रवर्ती महाराज ने बारातियों को बुलाया और उन्हें वाहन, वस्त्र तथा मणिमय आभूषण दिये। सभी बाराती महाराज का आदेश पाकर हृदय में श्रीराम को विराजमान करा प्रसन्नता से अपने–अपने घर को गये।

**पुर नर नारि सकल पहिराए। घर घर बाजन लगे बधाए॥ जाचक जन जाचहिं जोइ जोई। प्रमुदित राउ देहिं सोइ सोई॥ सेवक सकल बजनिआ नाना। पुरन किए दान सनमाना॥**
भाष्य

श्रीअवधपुर के नर और नारियों को भी महाराज ने पहनने के लिए सुन्दर वस्त्र दिये। घर–घर में बधाइयाँ बजने लगीं। याचकजन जो–जो माँगते हैं महाराज दशरथ वही–वही प्रसन्नता से दे देते हैं। सभी सेवकों और अनेक बजनियाँ अर्थात्‌ बाजा बजाने वालों को महाराज दशरथ जी ने दान और सम्मान से पूर्ण कर दिया।

**दो०- देहिं अशीष जोहारि सब, गावहिं गुन गन गाथ।**

तब गुरु भूसुर सहित गृह, गमन कीन्ह नरनाथ॥३५१॥

[[२९७]]

भाष्य

सभी लोग महाराज का अभिवादन करके आशीष अर्थात्‌ आशीर्वाद अथवा शुभकामनायें दे रहे हैं और महाराज के दिव्यगुणों की गाथायें गाते हैं। तब महाराज ने गुरुजनों और ब्राह्मणों के साथ राजभवन में प्रस्थान किया।

**जो बसिष्ठ अनुशासन दीन्हा। लोक बेद बिधि सादर कीन्हा॥ भूसुर भीर देखि सब रानी। सादर उठीं भाग्य बड़ जानी॥ पायँ पखारि सकल अन्हवाए। पूजि भली बिधि भूप जेवाँए॥ आदर दान प्रेम परिपोषे। देत अशीष चले मन तोषे॥**
भाष्य

वसिष्ठ जी ने जो आज्ञा दी उन सभी लौकिक और वैदिक विधियों को महाराज ने आदरपूर्वक सम्पन्न किया। सभी रानियाँ अपने भवन में पधारी ब्राह्मणों की भीड़ देखकर अपना बहुत बड़ा भाग्य जानकर आदरपूर्वक उठीं। महाराज दशरथ जी ने सभी ब्राह्मणों के चरण धोकर उन्हें स्नान कराया। उनकी पूजा करके भली–भाँति जिमाया और उन्हें आदर, दान तथा प्रेम से परिपुष्ट किया। मन में संतुष्ट हुए ब्राह्मण भोजन करके आशीर्वाद देते हुए राजभवन से चले गये।

**बहु बिधि कीन्ह गाधिसुत पूजा। नाथ मोहि सम धन्य न दूजा॥ कीन्ह प्रशंसा भूपति भूरी। रानिन सहित लीन्ह पग धूरी॥ भीतर भवन दीन्ह बर बासू। मन जोगवत रह नृप रनिवासू॥**
भाष्य

महाराज ने गाधिनन्दन विश्वामित्र जी की बहुत प्रकार से पूजा की और कहने लगे, हे नाथ! आज मेरे समान कोई दूसरा धन्य नहीं है। चक्रवर्ती महाराज ने विश्वामित्र जी की बड़ी प्रशंसा की और सभी रानियों के साथ विश्वामित्र जी के चरणों की धूलि ली। विश्वामित्र जी को राजा दशरथ जी ने राजभवन के भीतरी कक्ष में निवास दिया जहाँ महाराज और सम्पूर्ण रनिवास उनके मनोभावों की रक्षा करते रहते थे अर्थात्‌ यह प्रयास करते थे कि किसी प्रकार विश्वामित्र जी का मन उदास न हो।

**पूजे गुरु पद कमल बहोरी। कीन्ह बिनय उर प्रीति न थोरी॥**
भाष्य

इसके पश्चात्‌ चक्रवर्ती महाराज ने गुव्र्देव वसिष्ठ जी के श्रीचरणकमलों की पूजा और प्रार्थना की। उनके हृदय में ब्रह्मर्षि वसिष्ठ जी के प्रति बहुत प्रीति अर्थात्‌ भक्ति थी।

**दो०- बधुन समेत कुमार सब, रानिन सहित महीश।**

पुनि पुनि बंदत गुरु चरन, देत अशीष मुनीश॥३५२॥

भाष्य

चारों बहुओं श्रीसीता, मांडवी, उर्मिला और श्रुतिकीर्ति सहित चारों कुमार श्रीराम, भरत, लक्ष्मण तथा शत्रुघ्न और सभी रानियों के सहित चक्रवर्ती महाराज दशरथ जी पुन:–पुन: गुरुदेव के श्रीचरणों का वन्दन करते थे और पुन:–पुन: वसिष्ठ जी उन्हें आशीर्वाद देते थे।

**बिनय कीन्ह उर अति अनुरागे। सुत संपदा राखि सब आगे॥ नेग माँगि मुनिनायक लीन्हा। आशिरबाद बहुत बिधि दीन्हा॥ उर धरि रामहिं सीय समेता। हरषि कीन्ह गुरु गमन निकेता॥**
भाष्य

सुख के साधन पुत्र और सभी प्रकार की संपत्ति महामुनि वसिष्ठ जी के सामने रखकर महाराज ने अतिशय प्रेम से युक्त होकर इन सुख–संपत्तियों को स्वीकार करने के लिए गुव्र्देव से प्रार्थना की। मुनियों के नाथ वसिष्ठ जी ने स्वेच्छा से नेग माँग लिया और बहुत प्रकार से महाराज को आशीर्वाद दिया। भगवती सीता जी के सहित भगवान्‌ श्रीराम को अपने हृदय में धारण करके प्रसन्न होते हुए गुव्र्देव ने अपने भवन अर्थात्‌ कुटिया के लिए प्रस्थान किया।

[[२९८]]

**विशेष– **प्रतीत होता है कि, वसिष्ठ जी ने बड़ी बहुरानी श्रीसीता के सहित बड़े राजकुमार श्रीराम को ही नेग में माँग लिया था।

बिप्रबधू सब भूप बोलाईं। चैल चारु भूषन पहिराईं॥ बहुरि बोलाइ सुवासिनि लीन्ही। रुचि बिचारि पहिरावन दीन्ही॥

भाष्य

महाराज दशरथ जी ने सभी ब्राह्मणपत्नियों को बुलाया और उन्हें सुन्दर वस्त्र तथा आभूषण (गहने) धारण कराये। इसके पश्चात्‌ सुवासिनी नगर की विवाहित पुत्रियों को बुलवाया और उनकी रुचि का विचार करके उन्हें पहनावे दिये, क्योंकि मुँहलगी होने के कारण नगर की बेटियाँ ही चक्रवर्ती जी से अपनी रुचि कह सकती थीं।

**नेगी नेग जोग सब लेहीं। रुचि अनुरूप भूपमनि देहीं॥ प्रिय पाहुने पूज्य जे जाने। भूपति भली भाँति सनमाने॥**
भाष्य

सभी नेगी लोग योग्यता के अनुसार नेग ले रहे हैं और महाराज उनके रुचि के अनुरुप नेग दे रहे हैं। जो प्यारे पाहुने अर्थात्‌ बेटी पक्ष के सम्बन्धी बहनोई, जमाई आदि पूज्य थे, उन्हें हृदय से पहचानकर महाराज ने भली–भाँति उनका सम्मान किया।

**देव देखि रघुबीर बिबाहू। बरषि प्रसून प्रशंसि उछाहू॥**
भाष्य

देवता रघुकुल के वीर भगवान्‌ श्रीराम का विवाह देखकर पुष्पों की वर्षा करके उत्साह की प्रशंसा करने लगे।

**दो०- चले निसान बजाइ सुर, निज निज पुर सुख पाइ।**

कहत परसपर राम जस, प्रेम न हृदय समाइ॥३५३॥

भाष्य

देवता नगारे बजा–बजाकर परस्पर में श्रीराम का यश कहते हुए सुख पाकर अपने–अपने लोक को चल पड़े उनके हृदय में प्रेम नहीं समा रहा था।

**सब बिधि सबहिं समदि नरनाहू। रहा हृदय भरि पूरि उछाहू॥ जहँ रनिवास तहाँ पगु धारे। सहित बधूटिन कुअँर निहारे॥**
भाष्य

महाराज ने सब प्रकार से सबका सम्मान किया। उनके हृदय में उत्साह परिपूर्ण हो रहा था, फिर महाराज वहाँ पधारे जहाँ अन्त:पुर में रनिवास एकत्र था और चारों बहुओं के साथ चारों पुत्रों को देखा।

**लिए गोद करि मोद समेता। को कहि सकइ भयउ सुख जेता॥ बधू सप्रेम गोद बैठारी। बार बार हिय हरषि दुलारी॥**
भाष्य

प्रसन्नता के सहित महाराज ने चारों पुत्रों को अपने गोद में बैठा लिया, उन्हें जितना बड़ा सुख हुआ, उसे कौन कह सकता है? प्रेमपूर्वक वधुओं को गोद में बैठा कर हृदय में प्रसन्न होकर महाराज ने बार–बार उन्हें

दुलारा।

देखि समाज मुदित रनिवासू। सब के उर आनँद कियो बासू॥ कहेउ भूप जिमि भयउ बिबाहू। सुनि सुनि हरष होइ सब काहू॥

[[२९९]]

भाष्य

उस समाज को देखकर रनिवास प्रसन्न हुआ। सबके हृदय में आनन्द ने निवास कर लिया था। जिस प्रकार चारों भ्राताओं का विवाह हुआ वह सब महाराज ने कहा। यह सुन–सुनकर सभी अन्त:पुर के परिजनों तथा महारानियों को हर्ष हो रहा था।

**जनक राज गुन शील बड़ाई। प्रीति रीति संपदा सुहाई॥**

**बहुबिधि भूप भाँट जिमि बरनी। रानी सब प्रमुदित सुनि करनी॥ भा०– **महाराज जनक जी के गुण, स्वभाव, बड़ी प्रीति की रीति, सुन्दर संपत्ति इन सबको महाराज दशरथ जी ने भाँट की भाँति बहुत प्रकार से वर्णन किया। सभी महारानियाँ यह कार्य सुनकर बहुत प्रसन्न हुईं।

दो०- सुतन समेत नहाइ नृप, बोलि बिप्र गुरु ग्याति।

भोजन कीन्ह अनेक बिधि, घरी पंच गइ राति॥३५४॥

भाष्य

पुत्रों के सहित स्नान करके ब्राह्मणों, गुरुजनों और अपनी जाति के लोगों को बुलाकर महाराज ने अनेक प्रकार के भोजन किये और पाँच घड़ी रात बीत गई।

**मंगलगान करहिं बर भामिनि। भइ सुखमूल मनोहर जामिनि॥ अँचइ पान सब काहूँ पाए। स्रक सुगंध भूषित छबि छाए॥ रामहिं देखि रजायसु पाई। निज निज भवन चले सिर नाई॥**
भाष्य

सौभाग्यवती स्त्रियाँ मंगलगान कर रही हैं। वह सुन्दर रात्रि सुख की कारण बन गई। सभी लोग आचमन करके ताम्बूल अर्थात्‌ पान के बीड़े प्राप्त किये और मालाओं तथा सुगंधित पदार्थ से सुशोभित होकर सुन्दरता से छाये अर्थात्‌ बहुत सुन्दर लगे। श्रीराम को देखकर राजा की आज्ञा पाकर उन्हें प्रणाम करके सभी लोग अपने– अपने घर चले गये।

**प्रेम प्रमोद बिनोद बड़ाई। समय समाज मनोहरताई॥ कहि न सकहिं शत शारद शेषू। बेद बिरंचि महेश गणेशू॥ सो मैं कहौं कवन बिधि बरनी। भूमिनाग सिर धरइ कि धरनी॥**
भाष्य

प्रेम, प्रमोद अर्थात्‌ अनुकूल उपलब्धि की प्रसन्नता, विनोद अर्थात्‌ हास-परिहास, बड़ाई आनन्दपूर्ण समय, विवाहोचित समाज तथा नगर की सुन्दरता इन सबको सैक़डों सरस्वती, शेष, वेद, ब्रह्मा, शिव जी और गणपति जी भी नहीं कह सकते तो उसको मैं कुत्सित बुद्धिवाला तुलसीदास किस प्रकार वर्णन करके कह सकता हूँ? क्या पृथ्वी पर उत्पन्न होनेवाला साधारण सर्प अथवा मिट्टी का बना हुआ साँप पृथ्वी को धारण कर सकता है?

**नृप सब भाँति सबहिं सनमानी। कहि मृदु बचन बोलाई रानी॥ बधू लरिकिनीं पर घर आईं। राखेउ नयन पलक की नाईं॥**
भाष्य

महाराज दशरथ जी ने सब प्रकार से सबका सम्मान किया और कोमल वचन कहकर सभी रानियों को बुलाया और बोले, ये चारों बहुयें लड़की अर्थात्‌ बहुत बालिकायें हैं, (छ:छ: वर्ष की ही हैं) दूसरे घर आईं हैं, इन्हें उसी प्रकार सम्भाल कर रखना जैसे पलकें नेत्र की पुतलियों को रखा करती हैं।

**दो०- लरिका श्रमित उनींद बश, शयन करावहु जाइ।**

अस कहि गे बिश्रामगृह, राम चरन चित लाइ॥३५५॥

[[३००]]

भाष्य

चारों बालक यात्रा के कारण थके हुए हैं, अत: ये उत्कृष्ट निद्रा के वश में हो चुके हैं। जाकर इन्हें शयन कराओ। महारानियों को इस प्रकार निर्देश देकर अपने चित्त को श्रीराम के चरणों में लगाकर चक्रवर्ती जी विश्राम गृह को चले गये।

**भूपबचन सुनि सहज सुहाए। जतिड़ कनक मनि पलँग डसाए॥ सुभग सुरभि पय फेन समाना। कोमल कलित सुपेती नाना॥ उपबरहन बर बरनि न जाहीं। स्रक सुगंध मनिमंदिर माहीं॥ रतनदीप सुठि चारु चँदोवा। कहत न बनइ जान जेहिं जोवा॥**
भाष्य

महाराज के स्वभाव से सुहावने वचन सुनकर, महारानियों ने स्वर्ण और मणियों से जटित पलंग स्वयं बिछाये। सुन्दर कामधेनु के दूध के फेन के समान श्वेत और कोमल अनेक प्रकार की सुपेतियाँ अर्थात्‌ सुन्दर चादरें बिछायी गईं। श्रेष्ठ उपबरहन अर्थात्‌ तकियों का वर्णन नहीं किया जा सकता। उस राजमंदिर में मालिकायें, सुगंधित द्रव्य और मणि विराज रहे थे। रत्न का दीप और ऊपर लगा हुआ चँदोवा अत्यन्त सुन्दर था। उसे कहते नहीं बनता, उसे तो वही जान सकता है जिसने देखा हो अर्थात्‌ जिसने ध्यान में भी प्रभु श्रीराम की शयन की झाँकी के दर्शन किये हों।

**सेज रुचिर रचि राम उठाए। प्रेम समेत पलँग पौ़ढाए॥ आग्या पुनि पुनि भाइन दीन्हीं। निज निज सेज शयन तिन कीन्हीं॥**
भाष्य

इस प्रकार सुन्दर शैय्या सजाकर माताओं ने श्रीराम को उठाया अर्थात्‌ गोद में उठाया। प्रेम के सहित उन्हें पलंग पर पौ़ढा दिया। प्रभु ने बार–बार तीनों भाइयों को आज्ञा दी। उन्होंने भी उसी कक्ष में सजे हुए अपने–अपने शैय्या पर शयन किया।

**देखि श्याम मृदु मंजुल गाता। कहहिं सप्रेम बचन सब माता॥ मारग जात भयावनि भारी। केहि बिधि तात ताड़का मारी॥**
भाष्य

भगवान्‌ श्रीराम के श्यामल सुन्दर कोमल अंगों को देखकर सभी मातायें प्रेम सहित कोमल वचन कहने लगीं, “हे तात! विश्वामित्र जी के साथ मार्ग में जाते हुए अत्यन्त भयंकर ताटका को आपने कैसे मार डाला?”

**दो०- घोर निशाचर बिकट भट, समर गनहिं नहिं काहु।**

मारे सहित सहाय किमि, खल मारीच सुबाहु॥३५६॥

भाष्य

जो अत्यन्त घोर राक्षस, भयंकर वीर और युद्ध में किसी को नहीं गिनते थे, ऐसे दुष्ट मारीच और सुबाहु को उनके सहायकों सहित आप ने कैसे मारा ?

**मुनि प्रसाद बलि तात तुम्हारी। ईश अनेक करवरें टारी॥ मख रखवारी करि दुहुँ भाई। गुरु प्रसाद सब बिद्दा पाई॥**
भाष्य

हे तात! मैं बलिहारी जाती हूँ, मुनि विश्वामित्र जी के प्रसाद से परमेश्वर ने आप दोनों भाइयों के अनेक विघ्न टाल दिये। दोनों भाइयों ने यज्ञ की रक्षा करके गुव्र्देव के प्रसाद से सारी विद्दायें प्राप्त कर ली।

**मुनितिय तरी लगत पग धूरी। कीरति रही भुवन भरि पूरी॥ कमठ पीठ पबि कूट कठोरा। नृप समाज महँ शिव धनु तोरा॥**

[[३०१]]

भाष्य

हे राघव! आपकी चरणधूलि लगते ही मुनि पत्नी अहल्या तर गईं। आपकी कीर्ति सम्पूर्ण लोकों में पूर्ण रूप से भर गई। आप ने सीता स्वयंवर के लिए आये हुए राजसमाज के बीच कछुवे की पीठ, वज्र और पर्वत के शिखर से भी कठोर शिवधनुष पिनाक को तोड़ दिया।

**बिश्व बिजय जस जानकि पाई। आए भवन ब्याहि सब भाई॥ सकल अमानुष करम तुम्हारे। केवल कौशिक कृपा सुधारे॥**
भाष्य

आपने विश्व विजय, यश और सीता जी को प्राप्त किया। साथ ही उसी मिथिला में अपने साथ तीनों भाइयों का विवाह करके सकुशल अपने घर अयोध्या लौट आये। आपके सभी कर्म अमानुष अर्थात्‌ मनुष्य से विलक्षण हैं। इन्हें मनुष्य नहीं कर सकते। यह सब कुछ विश्वामित्र जी की कृपा ने सुधारा है। अथवा, आपकी कोमल कृपा ने विश्वामित्र जी को भी सुधारा है। नवीन सृष्टिकर्त्ता विश्वामित्र जी की भी बिग़डी सुधारी तो केवल आप राघवसरकार की कृपा ने सुधारी।

**आजुसुफल जग जनम हमारा। देखि तात बिधुबदन तुम्हारा॥ जे दिन गए तुमहिं बिनु देखे। ते बिरंचि जनि पारहिं लेखे॥**
भाष्य

हे तात! आज आपका चन्द्रमा के समान सुन्दर मुख देखकर जगत्‌ में हमारा अर्थात्‌ आपकी हम सभी माताओं का जन्म लेना सुन्दर फल से युक्त हो गया। हमारे जो दिन आपश्री रामलला को देखे बिना अर्थात्‌ आपके दर्शन के बिना चले गये उन्हें ब्रह्मा लेखे अर्थात्‌ हमारी आयुष की दिनों की गणना में न डालें।

**दो०- राम प्रतोषी मातु सब, कहि बिनीत बर बैन।**

सुमिरि शंभु गुरु बिप्र पद, किए नींदबस नैन॥३५७॥

भाष्य

विनम्र और श्रेष्ठ वचन कहकर प्रभु श्रीराम ने सभी माताओं को संतुय् कर दिया और शिवजी, गुव्र्देव विश्वामित्र जी तथा अन्य ब्राह्मणों के चरणों को स्मरण करके अथवा, इन सबके निवासस्थान अपने स्वरूप का ही स्मरण करके, प्रभु ने अपने नेत्रों को नींद के वश कर लिया अर्थात्‌ माताआंें की इच्छा से शयन की लीला कर ली। वस्तुतस्तु प्रभु श्रीराम नित्य जागते ही रहते हैं।

**नीदउँ बदन सोह सुठि लोना। मनहुँ साँझ सरसीरुह सोना॥ घर घर करहिं जागरन नारी। देहिं परसपर मंगल गारी॥**
भाष्य

नींद में भी प्रभु का सुन्दर मुख ऐसे सुशोभित हो रहा है मानो, सायंकाल लालकमल सम्पुटित हो गया हो। श्रीअवध की नारियाँ प्रत्येक घर में जागरण कर रही हैं और परस्पर (ननद, भाभियों को और भाभियाँ, ननदों को) मंगल गारी दे रही हैं।

**पुरी बिराजति राजति रजनी। रानी कहहिं बिलोकहु सजनी॥ सुन्दर बधुन सासु लै सोईं। फनिकनि जनु सिरमनि उर गोईं॥**
भाष्य

रानियाँ कहती हैं, हे सखियों! देखो, रात्रि तो सुन्दर लग रही है, परन्तु श्रीअवधपुरी बहुत सुन्दर लग रही है, क्योंकि रात्रि को जो चन्द्रमा मिला है, वह सकलंक अर्थात्‌ घटता–ब़ढता रहता है, परन्तु इस अवधपुरी को जो श्रीरामचन्द्र मिले हैं, वे निष्कलंक और सदैव पूर्ण हैं। सासुओं ने चारों सुन्दर वधुओं को लेकर अलग सेज पर शयन किया मानो, सर्पिणियों ने अपने सिर में रहने वाली मणियों को अपने हृदय में छिपा लिया हो।

**प्रात पुनीत काल प्रभु जागे। अरुनचूड़ बर बोलन लागे॥ बंदी मागध गुनगन गाए। पुरजन द्वार जोहारन आए॥**

[[३०२]]

भाष्य

पवित्र प्रात:काल में प्रभु श्रीराम जगे श्रेष्ठ ताम्रचूड़ मुर्गे बोलने लगे। बंदी और मागधों ने गुणगणों का गान किया। पुरजन भगवान्‌ श्रीराम का अभिवादन करने के लिए राजद्वार पर आ गये।

**बंदि बिप्र सुर गुरु पितु माता। पाइ अशीष मुदित सब भ्राता॥ जननिन सादर बदन निहारे। भूपति संग द्वार पगु धारे॥**
भाष्य

ब्राह्मण देवता, गुरु, पिता तथा माताओं को वन्दन करके आशीर्वाद प्राप्त करके सभी चारों भाई, श्रीराम, भरत, लक्ष्मण, शत्रुघ्न प्रसन्न हुए। माताओं ने आदर के साथ प्रभु के श्रीमुख के दर्शन किये और प्रभु महाराज दशरथ जी के साथ राजद्वार पर पधार गये।

**दो०- कीन्ह शौच सब सहज शुचि, सरित पुनीत नहाइ।**

**प्रातक्रिया करि तात पहिं, आए चारिउ भाइ॥३५८॥ भा०– **स्वभावत: पवित्र प्रभु ने सभी शौच की विधियाँ पूर्ण की और पवित्र सरयू जी में स्नान करके प्रातक्रिया अर्थात प्रात:सन्ध्योपासन करके चारों भाई श्रीराम, भरत, लक्ष्मण, शत्रुघ्न, पिताश्री के समीप पधार आये।

भूप बिलोकि लिए उर लाई। बैठे हरषि रजायसु पाई॥ देखि राम सब सभा जुड़ानी। लोचन लाभ अवधि अनुमानी॥

भाष्य

महाराज ने देखकर प्रभु को हृदय से लगा लिया और राजाज्ञा पाकर प्रसन्न होकर भगवान्‌ श्रीराम बैठ गये। श्रीराम को देखकर और उनको नेत्रों के लाभ की सीमा जानकर सम्पूर्ण सभा शीतल अर्थात्‌ प्रसन्न हो गई।

**पुनि बसिष्ठ मुनि कौशिक आए। सुभग आसननि मुनि बैठाए॥ सुतन समेत पूजि पद लागे। निरखि राम दोउ गुरु अनुरागे॥**
भाष्य

फिर ब्रह्मर्षि वसिष्ठ जी एवं मुनि विश्वामित्र जी राजसभा में आये। महाराज ने दोनों मुनियों को सुन्दर आसनों पर बैठाया। चारों पुत्रों सहित महाराज दशरथ दोनों मुनियों की पूजा करके उनके चरणों में लिपट गये। श्रीराम को देखकर दोनों गुव्र् वसिष्ठ जी एवं विश्वामित्र जी अनुराग से भर गये।

**कहहिं बसिष्ठ धरम इतिहासा। सुनहिं महीप सहित रनिवासा॥ मुनि मन अगम गाधिसुत करनी। मुदित बसिष्ठ बिपुल बिधि बरनी॥ बोले बामदेव सब साँची। कीरति कलित लोक तिहुँ माँची॥**

**सुनि आनंद भयउ सब काहू। राम लखन उर अधिक उछाहू॥ भा०– **वसिष्ठ जी धार्मिक इतिहास कहते हैं और रनिवास सहित महाराज सुनते हैं। मुनियों के मन को भी अगम्य विश्वामित्र जी की कीर्ति को वसिष्ठ जी ने प्रसन्न होकर अनेक प्रकार से वर्णित किया। वामदेव जी बोले, यह सम्पूर्ण कीर्ति सत्य है, क्योंकि विश्वामित्र जी की सुन्दर कीर्ति तीनों लोक में फैल रही है अर्थात्‌ मंचित होती रहती है। यह सुनकर सम्पूर्ण सभासदों के मन में हर्ष हुआ और श्रीराम–लक्ष्मण जी के मन में तो बहुत उत्साह हुआ।

दो०- मंगल मोद उछाह नित, जाहिं दिवस एहि भाँति।

**उमगि अवध आनंद भरि, अधिक अधिक अधिकाति॥३५९॥ भा०– **निरन्तर मंगल, प्रसन्नता और उत्साह हो रहा है। इसी प्रकार दिन चले जा रहे हैं। उमगा हुआ आनन्द अयोध्या में भर गया और उसकी अधिकता दिन–प्रतिदिन अधिक होती जा रही है।

सुदिन सोधि कर कंकन छोरे। मंगल मोद बिनोद न थोरे॥ नित नव सुख सुर देखि सिहाहीं। अवध जन्म जाचहिं बिधि पाहीं॥

[[३०३]]

भाष्य

सुन्दर मुहूर्त का शोधन करके चारों भाइयों के हाथ के कंकण छोड़े गये अर्थात्‌ उन्हें अब गृहास्थाश्रम में प्रवेश की अनुमति मिल गई। उस समय मंगल, प्रसन्नता और हास–परिहास थोड़ा नहीं अर्थात्‌ बहुत हो रहा था। इस प्रकार निरन्तर नया सुख देखकर देवता सिहाते हैं और ब्रह्मा जी के पास श्रीअवध मंें ही जन्म माँगते हैं।

**बिश्वामित्र चलन नित चहहीं। राम सप्रेम बिनय बश रहहीं॥ दिन दिन शतगुन भूपति भाऊ। देखि सराह महामुनिराऊ॥**
भाष्य

विश्वामित्र जी नित्य चलना चाहते हैं, परन्तु भगवान्‌ श्रीराम के सुन्दर प्रेम और विनय के वश में होकर चलने का कार्यक्रम स्थगित करके ठहर जाते हैं। दिन–दिन महाराज दशरथ जी का विश्वामित्र जी के प्रति सौ गुणा श्रद्धाभाव ब़ढ जाता है, उसे देखकर महामुनियों के राजा विश्वामित्र जी महाराज की प्रशंसा करते हैं।

**माँगत बिदा राउ अनुरागे। सुतन समेत ठा़ढ भे आगे॥ नाथ सकल संपदा तुम्हारी। मैं सेवक समेत सुत नारी॥ करब सदा लरिकन पर छोहू। दरशन देत रहब मुनि मोहू॥ अस कहि राउ सहित सुत रानी। परेउ चरन मुख आव न बानी॥**
भाष्य

एक दिन विश्वामित्र जी ने विदा माँग ही लिया। महर्षि के विदा माँगते समय चक्रवर्ती जी अनुराग से विह्वल हो गये। चारों पुत्र सहित विश्वामित्र जी के आगे ख़डे हो गये और बोले, हे नाथ! यह सारी संपत्ति आपकी है। मैं पुत्रों और पत्नियों सहित आप का सेवक हूँ। निरन्तर बालकों पर ममतापूर्ण स्नेह कीजियेगा और हे मुने! मुझे भी दर्शन देते रहियेगा। इस प्रकार कहकर पुत्रों और महारानियों सहित महाराज, विश्वामित्र जी के चरणों पर पड़ गये। उनके मुख से वाणी नहीं निकल रही थी।

**दीन्ह अशीष बिप्र बहु भाँती। चले न प्रीति रीति कहि जाती॥ राम सप्रेम संग सब भाई। आयसु पाइ फिरे पहुँचाई॥**
भाष्य

ब्राह्मण विश्वामित्र जी ने महाराज को बहुत प्रकार से आशीर्वाद दिया और चले। वह प्रीति की रीति नहीं कही जा सकती। श्रीराम सभी भाइयों के साथ विश्वामित्र जी को प्रेमपूर्वक पहुँचाकर उनकी आज्ञा पाकर लौट आये।

**दो०- राम रूप भूपति भगति, ब्याह उछाह अनंद।**

जात सराहत मनहिं मन, मुदित गाधि कुल चंद॥३६०॥

भाष्य

श्रीराम का रूप, चक्रवर्ती महाराज दशरथ जी की भक्ति, श्रीराम विवाह के उत्साह और आनन्द को मन ही मन सराहते हुए प्रसन्न हुये गाधिवंश क्षीरसागर के चन्द्रमा विश्वामित्र जी चले जा रहे हैं।

**बामदेव रघुकुल गुरु ग्यानी। बहुरि गाधिसुत कथा बखानी॥ सुनि मुनि सुजस मनहिं मन राऊ। बरनत आपन पुन्य प्रभाऊ॥**
भाष्य

मुनि वामदेव और रघुकुल के ज्ञानी वसिष्ठ जी ने फिर से गाधिनन्दन विश्वामित्र जी की कथा सुनायी। मुनि विश्वामित्र जी का सुयश सुनकर महाराज दशरथ जी मन ही मन अपने पुण्य प्रभाव का वर्णन करने लगे।

**बहुरे लोग रजायसु भयऊ। सुतन समेत नृपति गृह गयऊ॥ जहँ तहँ राम ब्याह सब गावा। सुजस पुनीत लोक तिहुँ छावा॥**
भाष्य

महाराज दशरथ की राजाज्ञा हुई, सभा विसर्जित हुई लोग अपने–अपने घरों को गये और महाराज दशरथ जी भी अपने पुत्रों के सहित राजभवन को पधार गये। जहाँ–तहाँ सभी ने श्रीराम–विवाह के यश का गान किया, कर रहे हैं और करते रहेंगे। यह पवित्र यश तीनों लोक में छाया हुआ है।

[[३०४]]

आए ब्याहि राम घर जब ते। बसहिं अनंद अवध सब तब ते॥

भाष्य

जब से श्रीराम विवाह करके घर आये हैं, तब से सभी आनन्द श्रीअयोध्या में ही निवास कर रहे हैं।

**प्रभु बिबाह जस भयउ उछाहू। सकहिं न बरनि गिरा अहिनाहू॥ कबिकुल जीवन पावन जानी। राम सीय जस मंगल खानी॥ तेहि ते मैं कछु कहा बखानी। करन पुनीत हेतू निज बानी॥**

छं०- निज गिरा पावनि करन कारन राम जस तुलसी कह्यो।

रघुबीर चरित अपार बारिधि पार कबि कौनें लह्यो॥ उपबीत ब्याह उछाह मंगल सुनि जे सादर गावहीं। बैदेहि राम प्रसाद ते जन सर्बदा सुख पावहीं॥

भाष्य

प्रभु श्री राम जी के विवाह में जैसा उत्साह हुआ, उसे सरस्वती जी और शेष भी नहीं कह सकते। श्रीराम–सीता के यश को सभी मंगलों की खानि एवं कविकुल के जीवन को पवित्र करनेवाला जानकर मैंने (तुलसीदास ने) अपनी वाणी को पवित्र करने के लिए श्रीराम का यश कुछ अंशों में बखान कर कहा है। अपनी वााणी को पवित्र करने के कारण मुझ तुलसीदास ने प्रभु श्रीराम के बाल्यकालीन यश का वर्णन किया है। रघुवीर श्रीराम का चरित्र अपार सागर है, उसका पार किस कवि ने पाया? भगवान्‌ श्रीराम के उपवीत अर्थात्‌ उपनयन संस्कार और विवाह के उत्साह और मंगल को जो लोग आदरपूर्वक सुनते और गाते हैं तथा जो लोग सुनेंगे और गायेंगे वे लोग श्रीसीताराम जी के प्रसाद से सदैव सुख पा रहे हैं और सदैव सुख पाते रहेंगे।

**सो०- सिय रघुबीर बिबाह, जे सप्रेम गावहिं सुनहिं।**

तिन कहँ सदा उछाह, मंगलायतन राम जस॥३६१॥

भाष्य

जो लोग प्रेम के सहित श्रीसीताराम जी के विवाह को गाते हैं, सुनते हैं तथा गायेंगे और सुनेंगे, उनके लिए निरन्तर उत्साह अर्थात्‌ महोत्सव है और होता रहेगा, क्योंकि भगवान्‌ श्रीराम का यश सभी मंगलों का आयतन अर्थात्‌ भवन है।

**\* नवाहपारायण, तीसरा विश्राम \***

* मासपारायण, दसवाँ विश्राम *

इति श्रीमद्‌गोस्वामितुलसीदासविरचितेश्रीमद्रामचरितमानसेसकलकलिकलुषविध्वंसने

सुखसम्पादनं नाम प्रथमं सोपानं बालकाण्डं सम्पूर्णम्‌। ॥श्रीसीतारामार्पणमस्तु॥

इस प्रकार सम्पूर्ण कलियुग के पाप को नष्ट करने वाले श्री गोस्वामी तुलसीदास जी द्वारा विरचित श्रीरामचरितमानस में सुखसम्पादन नाम वाला प्रथम सोपान बालकाण्ड सम्पूर्ण हो गया। यह श्रीसीताराम जी को समर्पित हो।

श्री रामभद्राचार्यण बालकाण्डे च मानसे। टीका प्रथम सोपाने कृता भावार्थबोधिनी॥

॥श्रीराघव:शंतनोतु॥

बालकाण्ड समाप्त

🟈🟏🟈

॥श्री सीताराम॥ श्री गणेशाय नम: