०४ प्रामाणिक संक्षिप्त जीवनवृत्त

नमो राघवाय ॥श्रीराघव: शन्तनोतु॥

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श्रीमद्‌रामचरित्रमानसमिदं वर्वर्ति भूमावधि॥

श्रीरामचरितमानस के प्रणेता महाकवि गोस्वामी तुलसीदासजी का

प्रामाणिक संक्षिप्त जीवनवृत्त
—- वाल्मीकिस्तुलसीदास: कलौ देवि भविष्यति। रामचन्द्रकथामेतां भाषाबद्धां करिष्यति॥

भविष्योत्तर पुराण– प्रतिसर्ग पर्व, ४.२० भविष्योत्तर पुराण में सम्पूर्ण श्रीरामकथा कहकर भगवान भूतभावन शंकर जी, भगवती पार्वती जी से कहते हैं, हे पार्वती जी! जब वाल्मीकीय रामायण के श्रवणार्थ अपने पास बारम्बार आए हुए श्रीहनुमानजी का महर्षि वाल्मीकिजी ने वानरजाति को श्रीरामकथा में अनाधिकारी कहकर अपमान किया और उसकी प्रतिक्रिया में श्रीहनुमानजी महाराज ने वाल्मीकीय रामायण से कोटि गुणित सुन्दर ‘महानाटक’ नाम से नाट्‌यशैली में श्रीरामकथा प्रस्तुत की, यथा– महानाटकनिपुणकोटिकपिकुलतिलकगानगुणगर्वगन्धर्वजेता। –विनयपत्रिका। वाल्मीकि जी के अनुनय–विनय करने पर निरभिमान श्रीहनुमान जी ने शिला पर लिखित सम्पूर्ण श्रीरामकथापटल को समुद्र में फेंक दिया, जिसके कतिपय अंश आज भी उपलब्ध होते हैं। उसी समय श्रीअंजनानन्दवर्द्धन हनुमान जी ने वाल्मीकि जी को तुलसीदास जी के रूप में सामान्य ग्राम्यभाषा में श्रीरामकथा गाने का निर्देश दिया कि वे ही (महर्षि वाल्मीकि) आगामी कराल कलिकाल में तुलसीदास के रूप में अवतीर्ण होंगे और हिन्दी भाषा में सम्पूर्ण शतकोटि रामायणात्मक श्रीरामचरित का गान करेंगे। भगवान श्री शिवजी की इस भविष्यवाणी के अनुसार स्वयं महर्षि वाल्मीकि श्रवणशुक्ल सप्तमी विक्रमी संवत्‌ १५५४ में श्रीचित्रकूट तथा प्रयाग के मध्यवर्ती श्रीयमुना तट पर बसे हुए राजापुर नामक ग्राम में पराशर गोत्रीय परसोना के दूबे ब्राह्मणश्रेष्ठ पण्डित आत्माराम दूबे की धर्मपत्नी पूज्य माता हुलसीजी के गर्भ से तुलसीदास

के रूप में प्रकट हुए, यथा–

पन्द्रह सौ चौवन बिसै कालिन्दी के तीर। श्रावण शुक्ला सप्तमी तुलसी धरे शरीर॥

होनहार बिरवान के होत चीकने पात’ लोकोक्ति आज अक्षरश: चरितार्थ हुई। जन्म के समय ही तुलसीदास जी पाँच वर्ष के बालक के समान हृष्टपुष्ट थे। वे जन्म लेकर रोये नहीं, जन्मते ही उनके मुख से ‘राम’ निकला उसी समय भगवान श्रीराम जी ने आकाशवाणी करके

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उस अद्भुत बालक का नाम ‘रामबोला’ रखा। जैसा कि, गोस्वामी जी स्वयं विनयपत्रिका में कहते हैं–

राम को गुलाम नाम रामबोला राख्यो राम।

विनयपत्रिका, ७६

उस नवजात बालक पर प्रभु की अलौकिक कृपा देखकर तथा स्वयं श्रीराघवेन्द्र सरकार से नवजात बालक का रामबोला नाम सुनकर प्रसन्नता एवं विस्मय से भरे देवता आकाश में बधावे बजाने लगे, इससे घबराये हुए दूरदर्शिताशून्य आत्माराम दूबे ने बालक को दूर फिंकवा दिया। इस विडम्बना की चर्चा करते हुए स्वयं गोस्वामी तुलसीदास जी चीखकर कहते हैं–

जायो कुलमंगन बधावनो बजायो सुनि। भयो परिताप पाप जननी–जनक को॥

कवितावली, ७.७३ अर्थात्‌ नवजात बालक की अलौकिक घटनाओं ने माता को परिताप तथा पिता को पाप से

समाकुल कर दिया, जिसके कारण वे दोनों की छत्रछाया से दूर हो गए। वे कहते हैं–

मातु पिता जग जाइ तज्यो।
बिधि हूँ न लिखी कछु भाल भलाई॥

कवितावली, ७.५६

विनयपत्रिका के अन्तिम आठ पदों में तो महाकवि ने बार–बार अपनी दीनता और व्यथा का वर्णन किया है। बालक के प्रति पति के असहिष्णु व्यवहार की आशंका से माता हुलसी ने उसे मुनिया नामक एक दासी के साथ उसी के पीहर हरिपुर भिजवाकर स्वयं भी हरिपुर का मार्ग पक़ड लिया, अर्थात्‌ नश्वर शरीर छोड़ दिया। अत: हरिपुर का गोस्वामी जी अपने साहित्य में बार–बार स्मरण करते हैं–

हरिपुर गयेउ परम बड़भागी।
मानस, ४.२७.८ सुखी हरिपुर बसत होत परीक्षितहिं पछताव।

विनयपत्रिका, २२०

माँ हुलसी बालक के प्रति वात्सल्यवती थीं, इसीलिए तुलसीदास जी ने मानस- १.३१.१२ में माँ के वात्सल्य का स्मरण करके उन्हें भावांजलि दे दी–

रामहिं प्रिय पावनि तुलसी सी। तुलसिदास हित हिय हुलसी सी।

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दूसरी ओर महाकवि ने आत्माराम का कहीं नाम भी नहीं लिया। केवल इतना ही कहकर संतोष कर लिया कि–

तन तज्यो कुटिल कीट ज्यों तज्यो मात पिताहू।

विनयपत्रिका, २७५

संयोगवशात्‌ यह तुलसीतरु मुनिया दासी मालिनी का भी सिंचन चिरकाल तक नहीं पा सका और उसे प्रभु के सहारे छोड़कर वह भी साकेतवासिनी हो गयी। अब तो भगवती पार्वती जी ही बालक रामबोला का लालन–पालन करने लगीं। गोस्वामी तुलसीदास जी बार–बार इस घटना पर कृतज्ञताबोध करते हैं।

गुरु पितु मातु महेश भवानी।

मानस, १.१५.३

मेरे गुरु मातु पितु शंकर भवानियै।

कवितावली, ७

पाँच वर्ष के अनन्तर रामबोला के जीवन में एक ऐतिहासिक नाटकीय मोड़ आया। हरिपुर के बाहर वृक्षों के नीचे अनाथवत्‌ जीवन बिता रहे बालक रामबोला के पास शिवजी की प्रेरणा से जगद्‌गुरु श्रीमदाद्दरामानन्दाचार्य जी के द्वादश प्रमुख शिष्यों में चतुर्थ सुयोग्य शिष्य सनकादिकों के समवेत अवतार श्री नरहरिदास (श्री नरहर्यानन्द जी महाराज) स्वयं दर्शन देने पधारे और बोले– बालक! तेरा क्या नाम है?

बालक ने उत्तर दिया– रामबोला। क्यों बालक ? गुरुदेव ने पूछा। बालक– क्योंकि जन्म के समय मेरे मुख से रामनाम निकला था। गुरुदेव– यह नाम किसने रखा ?

बालक– स्वयं श्रीरामजी ने। गुरुदेव– तू क्या काम करता है ?

बालक– कभी दो–चार बार “राम–राम” कह लेता हूँ।

राम को गुलाम नाम रामबोला राख्यो राम काम यहै नाम द्वै हों कबहुँ कहत हौं।

विनयपत्रिका, ७६.१ गुरुदेव– क्या करोगे ?

बालक– आपका चेला बनूँगा।

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गुरुदेव– तुम्हारे परिवार में कोई है ?

बालक– कोई नहीं। गुरुदेव– विवाहादि? बालक– कोई इच्छा नहीं।

बस, अब तो कृपा कादम्बिनी बरस पड़ी बालक रामबोला पर और श्रीनरहरिदास जी महाराज ने बालक रामबोला का व्रतबन्ध संस्कार करके उन्हें गायत्री दीक्षा तथा पंचसंस्कारपूर्वक श्रीरामानन्दीय परम्परा में विरक्त श्रीवैष्णव दीक्षा दे दी और रामबोला के स्थान पर “तुलसीदास” यह साम्प्रदायिक श्रीवैष्णव साधूचित नाम रख दिया। अब तो उनका वेष भगवान का सब सन्तों तथा सद्‌गुरु महाराज का दिया हुआ एक सुन्दर सा नाम तुलसीदास समस्त दिग्दिगन्त में विख्यात हो गया।

तुलसी तुलसी सब कहैं, तुलसी बन की घास। कृपा भई रघुनाथ की, तुलसी तुलसीदास॥

तुलसीदोहाशतक, ९८

केहि गिनती महँ गिनती जस बन घास। राम भजत भे तुलसी तुलसीदास॥
बरबैरामायण, ७.१० जो सुमिरत भए भाँग ते तुलसी तुलसीदास।

मानस, १.२६

गोस्वामी जी ने अपनी विरक्त दीक्षा की घटना को बड़े ही नाटकीय पद्धति से विनयपत्रिका में प्रस्तुत किया है–

बूझ्‌यो ज्यों ही ‘कह्‌यौं’ मैं हूँ चेरा ह्वैहौं रावरो जू
मेरो कोउ कहूँ नहिं चरन गहत हौं। मींज्यो गुरु पीठि अपनाइ बोलि बाँह गहि

सेवक सुखद बाँको बिरुद बहत हौं। लोग कहें पोच, सो न सोच न संकोच मेरे
ब्याह न बरेखी जात पाँत न चहत हौं। तुलसी अकाज काज राम ही के रीझे खीझे,

प्रीति की प्रतीति ताते मुदित रहत हौं॥

विनयपत्रिका, ७६

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**‘‘ब्याह न बरेखी जात पाँत न चहत हौं।” –(विनयपत्रिका, ७६) गोस्वामी श्रीतुलसीदासजी महाराज का यह वचन ही इस तथ्य को पूर्णतया स्पष्ट कर रहा है कि न तो तुलसीदासजी का विवाह हुआ था और न ही उनका रत्नावली नामक किसी महिला से कोई लेना–देना था। अभिनव वाल्मीकि तुलसीदासजी महाराज बाल्यकालीन साधु थे। कतिपय शास्त्रसाहित्यानभिज्ञ पण्डितम्मन्यों की कृपा ने तुलसीदासजी जैसे श्रीवैष्णवरत्न के साथ रत्नावली की घटना जोड़ दी। ‘हनुमानबाहुक’ में भी गोस्वामीजी स्वयं को बाल्यकालीन साधु ही कहते हैंबालपने सूधमन रामसनमुख भयो रामनाम लेत माँगि खात टूक टाक हौं। हनुमानबाहुक, ४० जगद्‌गुरु श्रीमदाद्दरामानन्दाचार्य जी के चतुर्थ कृपापात्र श्री नरहर्यानन्द (नरहरिदास) जी की विरक्त दीक्षा ने अब तो इस जंगम तुलसीतरु में श्रीरामभक्ति सुरभि उद्‌बुद्ध कर दी तथा सद्‌गुरुदेव श्रीनरहरिदासजी अभिनव शिष्य अभिनव वाल्मीकि तुलसीदास जी को अपने साथ सूकर क्षेत्र ले गये एवं सनकादि के रूप में महर्षि याज्ञवल्क्यजी से प्राप्त पारम्परिक शिवभाषित श्रीरामचरितमानस कथा श्रीतुलसीदासजी को बार–बार सुनायी। गोस्वामीजी इस तथ्य की स्पष्टता में स्वयं अपना मन्तव्य प्रस्तुत करते हैंमैं पुनि निज गुरु सन सुनी कथा सो सूकर खेत। समझी नहिं तस बालपन तब अति रहेउँ अचेत॥ **मानस, १.३० क. अर्थात्‌ उसी परम्परा प्राप्त श्रीरामकथा को सूकर क्षेत्र में मैंने अर्थात्‌ तुलसीदास ने सुनी परन्तु बाल्यावस्था के कारण मैं अचेत उसे नहीं समझ पाया, फिर भी उन्होंने बारम्बार समझायी, वही कथा मैं भाषाबद्ध कर रहा हूँ। अपने गुरुदेव का नाम भी तुलसीदासजी ने आलंकारिक मुद्रा में स्मरण किया। **बन्दउँ गुरुपद कंज कृपासिन्धु नररूप हरि। **सो०, मानस, १.५ गुरुदेव की कृपा से ही तुलसीदासजी ने समस्त पुराण निगमागमों को सहजत: अध्ययन कर लिया। प्रेत की कृपा से उन्हें काशी कर्णघण्टा में श्रीहनुमानजी महाराज के दिव्य दर्शन हुए और संकटमोचन स्थल तक आते–आते गोस्वामी जी को हनुमानजी का पूर्ण परिचय प्राप्त हो गया। वहीं पश्चिमाभिमुख हनुमानजी ने एक हाथ अपनी छाती पर रखकर दूसरे श्रीहस्तकमल

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से दक्षिण की ओर संकेत करते हुए श्रीरामजी के दर्शन के लिए चित्रकूट जाने की आज्ञा दी। प्रेत पर कृतज्ञभाव रखते हुए गोस्वामीजी मानसजी के आरम्भ में उसकी भी वन्दना करते हैं।

देव दनुज नर नाग खग प्रेत पितर गन्धर्व। बन्दउँ किन्नर रजनिचर कृपा करहु अब सर्व॥

मानस, १.७ श्रीहनुमानजी की आज्ञा से गोस्वामी श्रीतुलसीदासजी महाराज श्रीचित्रकूट पधारे और वहाँ निरन्तर श्रीरामनाम की जप साधना करने लगे। एक दिन श्रीकामदगिरि की परिक्रमा मार्ग में अपने सद्‌गुरुदेव श्रीनरहरि गुफा के पास अपने ही द्वारा लगाए हुए पीपल वृक्ष के नीचे ख़डे तुलसीदासजी ने उस वृक्ष से थोड़ी दूर बाँयीं ओर से आते हुए मृगया वेष में विराजमान हरितपरिधान से सुसज्जित अलौकिक घोड़ों पर विराजमान अश्वारोहणकुशल दो श्याम गौर राजकुमारों को निर्निमेष नयनों से निहारा। इस झाँकी ने यद्दपि गोस्वामी श्रीतुलसीदासजी को सौन्दर्यसागर में डुबो दिया, परन्तु वे प्रभु श्रीरामलक्ष्मणजी को पहचान नहीं पाए। पुन: जब श्रीहनुमानजी ने मिलकर उनके समक्ष पधारे श्रीरामलक्ष्मणजी का परिचय दिया तब तो गोस्वामीजी बहुत दु:खी हुए। श्रीहनुमानजी का आश्वासन पाकर तुलसीदासजी ने पुन:

श्रीरामनाम जप साधना प्रारम्भ की। विक्रम सम्वत्‌ १६२० की माघ कृष्ण अमावस्या अर्थात्‌ मौनी अमावस्या के परम पावन पर्व पर श्रीचित्रकूट के रामघाट पर बनी अपनी कुटिया में विराजमान मलयचन्दन उतारते हुए श्रीतुलसीदासजी के समक्ष श्रीरामलक्ष्मण दो बालकों के रुप में उपस्थित हुए और कहा– “ए बाबा! हमें भी तो चन्दन दो।” इन भुवनसुन्दर बालकों को देखकर श्रीतुलसीदासजी महाराज ठगे से रह गए और भगवान श्रीरामजी अपने मस्तक पर चन्दन का तिलक लगाकर तुलसीदासजी के भी मस्तक पर मलयगिरि चन्दन से ऊर्ध्वपुण्ड्र करने लगे तब श्रीहनुमानजी ने सोचा कहीं यह बाबा फिर न ठगा जाए और प्रभु को न पहचान पाए अत: अञ्जनानन्दवर्धन प्रभु श्रीहनुमन्तलाल जी सुन्दर तोते का वेष बनाकर कुटी के निकटस्थ आम की डाल पर बैठकर प्रभु के परिचय से ओतप्रोत यह दोहा बोले–

चित्रकूट के घाट पर भइ सन्तन की भीर। तुलसिदास चन्दन घिसें तिलक देत रघुबीर॥

आज भी सामान्य तोते ‘चित्रकूटी दूध रोटी’ ही पहले बोलते हैं। अब क्या था समझ गए गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज प्रभु आगमन को और पहचान गए हुलसीहर्षवर्धन प्रभु अपने परमाराध्य परमप्रिय परमपुरुष परमसुन्दर नीलजलधरश्याम लक्ष्मणाभिराम भगवान श्रीरामजी

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को। गोस्वामी जी ने विनय पत्रिका के उत्तरार्द्ध में इस घटना का स्पष्ट संकेत करते हुए कृतज्ञता ज्ञापन किया–

तुलसी तोकौ कृपाल जो कियौ कोसलपाल। चित्रकूट के चरित चेत चित करि सो।

विनयपत्रिका, २६४

अब तो प्रभु श्रीरामजी ने ही इस जंगमतुलसी की सुगन्धि दिग्दिगन्त में बिखेरने का निर्णय ले लिया और भगवान भूतभावन शंकरजी ने चैत्रशुक्ल सप्तमी विक्रम सम्वत्‌ १६३१ की रात में स्वप्न में ही श्रीतुलसीदासजी महाराज को लोकभाषा में श्रीरामगाथा लिखने की प्रेरणा दी। जिसका उल्लेख करते हुए गोस्वामी जी स्वयं कहते हैं–

सपनेहुँ साँचेहु मोहि पर जौ हरगौरि पसाउ। तौ फुर होउ जो कहेउँ सब भाषा भनिति प्रभाउ॥

मानस, १.१५

काशी में भगवान श्रीशंकरजी का आदेश पाकर तुलसीदासजी महाराज श्रीअवध पधारे और चैत्ररामनवमी के मध्याह्नवर्ती अभिजित मुहूर्त में गोस्वामी श्रीतुलसीदासजी के हृदयाकाश में श्रीरामचरितमानस का प्रकाश हुआसम्वत सोरह सै एकतीसा। करउँ कथा हरिपद धरि सीसा॥ नौमी भौम वार मधुमासा। अवधपुरी यह चरित प्रकासा॥

मानस, १.३४.४५. श्रीअवध, श्रीकाशी तथा श्रीचित्रकूट में निवास करके महाकवि गोस्वामी श्रीतुलसीदासजी ने सप्त प्रबन्धात्मक इस महाकाव्य श्रीरामचरितमानसजी की रचना सम्पन्न कर ली। हुलसीनन्दन श्रीवाल्मीकि नवावतार गोस्वामी श्रीतुलसीदासजी महाराज की सहजसमाधि लब्ध महादेव भाषा ने अपनी लोकप्रियता से सम्पूर्ण विश्व की मानवजाति को मन्त्रमुग्ध कर लिया और एक ही साथ महर्षियों की तपस्या, आचार्यों की वरिवस्या तथा कविवर्यों की नमस्या रूप त्रिवेणी से मण्डित होकर यह मानसप्रयाग सारस्वतों के लिए जंगम तीर्थराज बन गया। श्रीरामचरितमानसजी की इतनी ख्याति ब़ढी कि जिससे खल स्वभाववाले मानी पंडितों को अकारण ईर्ष्या होनी स्वभाविक थी और उन्होंने श्रीकाशी में इस प्रकार का बवण्डर भी ख़डा किया कि तुलसीदास ने ग्राम्य भाषा में श्रीरामकथा लिखकर देवभाषा संस्कृत का अपमान किया, परन्तु सत्य तो सत्य ही रहता है और वैसा ही हुआ। इस यथार्थ की परीक्षा के लिए श्रीकाशी के भगवान श्रीविश्वनाथजी के मन्दिर में सभी ग्रन्थों के ऊपर श्रीरामचरितमानसजी की

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पोथी रख दी गई और पट बन्द कर दिया गया। जब दूसरे दिन प्रात:काल पट खुला तब श्रीरामचरितमानसजी की पोथी सभी ग्रन्थों के नीचे दिखाई दी जिसके मुख्य पृष्ठ पर **सत्यं शिवं सुन्दरम्‌ **लिखकर भगवान श्रीविश्वनाथजी ने स्वयं अपने हस्ताक्षर कर दिये थे। इस दृश्य ने भगवद्‌विमुख विद्दाभिमानियों के मुख काले किये एवं सभी ने एक मत से यह तथ्य स्वीकार किया कि यदि संस्कृत भाषा देवभाषा है तो श्रीगोस्वामितुलसीदासकृत श्रीरामचरितमानसजी की भाषा महादेवभाषा है। क्योंकि संस्कृत में उद्‌भट विद्वान होकर भी गोस्वामी श्रीतुलसीदासजी ने महादेवजी की आज्ञा से श्रीरामचरितमानसजी को लोकभाषा में लिखा। जब श्रीरामचरितमानसजी को काशी के तत्कालीन मूर्धन्य विद्वान अद्वैतसिद्धिकार श्री मधुसूदन सरस्वती ने देखा तो वे आश्चर्यचकित रह गए और उन्होंने मानस और मानसकार की प्रशस्ति में एक बड़ा ही अद्‌भुत श्लोक लिखा–

आनन्दकानने कश्चिद्‌ जंगमस्तुलसीतरु:। कविता मञ्जरी यस्य रामभ्रमरभूषित:॥

अर्थात्‌ इस आनन्दमय श्रीकाशी में श्री गोस्वामी तुलसीदासजी एक अपूर्व जंगम अर्थात्‌ चलते–फिरते श्रीतुलसीवृक्ष ही हैं जिनकी कवितारूपी मंजरी पर निरन्तर श्रीरामजी भ्रमर बनकर मँडराते रहते हैं, इसलिए उनकी कविता मंजरी सर्वदैव श्रीरामरूपभ्रमर से समलंकृत रहती है। तात्पर्य यह है कि जैसे– श्रीतुलसीमंजरी को भ्रमर नही छोड़ता उसी प्रकार श्रीतुलसीदासजी की कविता को भगवान श्रीरामजी भी कभी नहीं छोड़ते उनका इससे स्वाद्द-स्वादक-भाव सम्बन्ध है। श्रीरामचरितमानसजी के सम्बन्ध में एक चमत्कारिक ऐतिह्य (घटना) प्रसिद्ध है। गोस्वामी जी जिन दिनों श्रीकाशी में विराजते थे और तत्कालीन श्रीकाशी नरेश पर उनकी कृपा भी थी उसी समय एक विचित्र घटना घटी। श्रीकाशी नरेश की द्रविड़ नरेश से परम मित्रता थी और इन दोनों में एक ऐसी सन्धि हो गई थी कि वे अपने होनेवाले विषमलिंग सन्ततियों में वैवाहिक सम्बन्ध करेंगे अर्थात्‌ यदि द्रविड़ नरेश के यहाँ प्रथम पुत्र आता है तो उसका श्रीकाशी नरेश की प्रथम होनेवाली पुत्री से सम्बन्ध होगा। यदि इसके विपरीत श्रीकाशी नरेश को प्रथम पुत्र उत्पन्न होगा तो वह द्रविड़ नरेश की पुत्री का पति बनेगा, परन्तु संयोग से दोनों नरेशों के यहाँ प्रथम बार पुत्रियों का ही जन्म हुआ, किन्तु काशी नरेश ने असत्य का अवलम्ब लेकर अपनी पुत्री को पुत्र के रूप में ही प्रस्तुत किया। फलत: दोनों की सन्धि के अनुसार श्रीकाशी नरेश के पुत्र के साथ द्रविड़ राजपुत्री का विवाह निश्चित हो गया।

गुप्तचरों से वास्तविकता का समाचार मिलने पर द्रविड़ नरेश ने अत्यन्त क्रुद्ध होकर श्रीकाशी नरेश पर आक्रमण करने का निश्चय कर लिया, अनन्तर श्रीकाशी नरेश भयभीत होकर गोस्वामी श्रीतुलसीदासजी की शरण में आए तब गोस्वामी जी ने–

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मन्त्र महा मनि बिषय ब्याल के। मेटत कठिन कुअंक भाल के॥

मानस, १.३२.९.

पंक्ति से श्रीमानसजी के प्रत्येक दोहे को संपुटित करके श्रीरामचरितमानसजी का नवाहपारायण कराया और हो गया चमत्कार, श्रीकाशी नरेश की पुत्री पुत्ररूप में परिणित हो गई। फिर उसका द्रविड़राजपुत्री के साथ महोत्सवपूर्वक विवाह सम्पन्न हुआ, इस ऐतिहासिक सत्य घटना से श्रीमानस जी के प्रति लोगों की आस्था जगी, अद्दावधि जग रही है और भविष्य में भी जगती रहेगी।

गोस्वामी श्रीतुलसीदासजी के जीवन का प्रत्येक क्षण श्रीसीतारामजी के श्रीचरणारविन्दों से जुड़ा रहा और उनका मनोमिलिन्द उसी परमप्रेमपीयूष मकरन्द को पी–पीकर सतत मत्त होता रहा। श्रीमानसजी के अतिरिक्त उनके मुख से कवितावली, हनुमानबाहुक, वृहद्‌बरवैरामायण, लघुबरवैरामायण, जानकीमङ्गल, पार्वतीमङ्गल, दोहावली, वैराग्यसंदीपनी, तुलसीदोहाशतक, हनुमानचालीसा, गीतावली रामायण, कृष्णगीतावली तथा विनयपत्रिका जैसे अनुपमेय काव्यरत्न भी प्रस्तुत हुए। इस प्रकार १२६ वर्ष पर्यन्त वैदिक साहित्योद्दान का यह मनोहर माली सम्वत्‌ सोलह सौ अस्सी श्रावण शुक्ल तृतीया शनिवार को वाराणसी के असी घाट पर अन्तिम बार बोला–

रामचन्द्र गुण बरनि के भयो चहत अब मौन। तुलसी के मुख दीजिए बेगहि तुलसी सोन॥

भावुक भक्तों ने जब बाबा जी के लम्बे आध्यात्मिक जीवन के अनुभवसारसर्वस्व के परिप्रेक्ष्य में अपने इति–कर्त्तव्यता की जिज्ञासा की तब श्रीचित्रकूटी बाबा गोस्वामी श्रीतुलसीदासजी बोले–

अलप तो अवधि तामें जीव बहु सोच पोच
करिबे को बहुत है कहा कहा कीजिए। ग्रन्थन को अन्त नाहिं काव्य की कला अनन्त

राग है रसीलो रस कहाँ कहाँ पीजिए। वेदन को पार न पुरानन को भेद बहु
वाणी है अनेक चित कहाँ कहाँ दीजिए। लाखन में एक बात तुलसी बताए जात

**जन्म जो सुधारा चाहो रामनाम लीजिए। **बस मौन हो गया श्रीरामकथा का अन्तिम उद्‌गाता।

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सम्वत सोरह सै असी असी गंग के तीर। श्रावण शुक्ला तीज शनि तुलसी तज्यौ शरीर॥

वस्तुत: हुलसीहर्षवर्द्धन कलिपावनावतार श्रीरामकथा के अनुपम एवं अन्तिम उद्‌गाता सांस्कृतिक क्रान्ति के सफल पुरोधा कविकुलपरमगुरु अभिनववाल्मीकि गोस्वामी श्रीतुलसीदासजी के जीवनवृत्त का वर्णन मुझ जैसे जीव के लिए उतना ही दुष्कर है जितना सामान्य पिपीलिका के लिए निरवधि महासागर का थाह लगाना। मैंने गोस्वामी जी की ही कृपा से अपने अन्त:करण में भासित उन पूज्यचरणों की जीवनकथा जाह्नवी में मात्र अपनी वाणी को ही स्नान कराने का प्रयास किया है।

तुलसी वैह तुलसी सुरभि: सुरभि: समा। तुलसीदाससदृशस्तुलसीदास एव हि॥

श्रीराघव: शन्तनोतु ॥श्रीसीतारामार्पणमस्तु॥ इति मंगलमाशास्ते

राघवीयो जगद्‌गुरु रामानन्दाचार्य स्वामी रामभद्राचार्य

जीवनपर्यन्त कुलाधिपति, जगद्‌गुरु रामभद्राचार्य विकलांग विश्वविद्दालय, चित्रकूट, उ०प्र०।

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