०३ जीवन जाह्नवी

धर्मचक्रवर्ती, महामहोपाध्याय श्रीचित्रकूटतुलसीपीठाधीश्वर जगद्‌गुरु रामानन्दाचार्य स्वामी रामभद्राचार्य जी महाराज

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जीवन जाह्नवी

अनादिकाल से प्राणिमात्र के ऐहलौकिक एवं पारलौकिक अभ्युदय प्राप्त कराने वाले सनातनधर्म की जगद्‌गुरुपरम्परा में ऐसे विरले महापुरुष इस धराधाम पर अवतीर्ण हुए हैं, जिन्होंने अपने दिव्यज्ञान, शाश्वतचिन्तन एवं महनीय तप के द्वारा सम्पूर्ण विश्व का सफल मार्गदर्शन किया है। सौभाग्य से इसी अक्षुण्ण परम्परा में धर्मचक्रवर्ती, महामहोपाध्याय, पदवाक्यप्रमाणपारावारीण, समस्ततुलसीसाहित्यकण्ठस्थीकृत, श्रीचित्रकूटतुलसीपीठाधीश्वर जगद्‌गुरु रामानन्दाचार्य स्वामी रामभद्राचार्यजी महाराज का शुभनाम बहुत श्रद्धा और गर्व से लिया जाता है। सनातन धर्म के क्षेत्र में शास्त्रीय समाधान एवं राष्ट्रदेव के आराधन में सन्तों का योगदान प्रस्तुत करने वाले दुर्लभ महापुरुषों में पूज्यपाद जगद्‌गुरुजी की गणना सम्मानपूर्वक की जाती है।

**आविर्भाव– **उत्तर प्रदेश के जौनपुर जनपद में शांडी खुर्द नामक ग्राम में १४ जनवरी १९५० ई० को मकर संक्रान्ति की प्रथमप्रहरीय रात्रि वेला में वशिष्ठगोत्रीय सरयूपारीण ब्राह्मण मिश्रवंश में पूज्य माता श्रीमती शची देवी एवं पूज्य पिता पं० राजदेव मिश्र के घर एक अलौकिक दिव्यशक्ति का आविर्भाव हुआ। पूज्य पितामह पं० सूर्यबली मिश्र जी ने इस अद्‌भुत बालक का नाम ‘गिरिधर मिश्र’ रखा।

**ईश्वरेच्छा बलीयसी– **जगन्नियन्ता परमपिता परमेश्वर ने बालक गिरिधर के हितार्थ सांसारिक प्रपंचों से दूर रखने के लिए कुछ और ही सोच रखा था। अत: जन्म के दो मास पश्चात्‌ ही बालक के कोमल नेत्रों को रोहे रूपी राहु ने सदा–सदा के लिए ग्रस लिया। यह घटना पारिवारिक सदस्यों के लिए तो हृदयविदारक बनी, किन्तु बालक गिरिधर और सम्पूर्ण मानवमात्र के लिए वरदान सिद्ध हुई। बाह्यचक्षु बन्द होने के साथ ही दिव्यज्ञान के अन्तर्चक्षु खुल गये। तभी से इस बालक को निरन्तर परमात्मतत्त्व के चिन्तन और मनन के अतिरिक्त अन्य कोई सांसारिक प्रपंच लेशमात्र भी स्पर्श नहीं कर सका।

**प्रारम्भिक शिक्षा– **बालक गिरिधर को अन्तर्मुखता का उदय होते ही दिव्य मेधाशक्ति तथा विलक्षण स्मरणशक्ति के बल पर कठिनतम श्लोक, आदि अनेक दुर्लभ विधाएँ एक बार सुनकर ही कण्ठस्थ हो जाती थीं। पाँच वर्ष की अल्पायु में ही इस “गौरवटु” ने सम्पूर्ण गीताजी तथा आठ वर्ष की अवस्था में पूज्य पितामह पं० सूर्यबली मिश्र जी के प्रयास से श्रीरामचरितमानसजी क्रमबद्ध–पंक्तिसंख्या सहित कण्ठस्थ करके मानो यज्ञोपवीत संस्कार कराने की पात्रता स्वयं अर्जित कर ली। इस दिव्यप्रतिभा से समन्वित स्मरणशक्ति के फलस्वरूप शनै:–शनै: संस्कृत व्याकरण के मूर्धन्य ग्रन्थ, श्रीमद्‌भागवतमहापुराण, अनेक उपनिषद तथा पूज्यपाद गोस्वामी श्रीतुलसीदासजी के सम्पूर्णग्रन्थ धाराप्रवाह शैली में कण्ठस्थ हो गये। तदनन्तर श्रीअवधजानकीघाट के प्रवर्तक श्री १००८ श्रीरामबल्लभाशरणजी महाराज के परम कृपापात्र पं० ईश्वरदासजी महाराज ने बालक गिरिधर को

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श्रीराममन्त्र की दीक्षा दी। आगे चलकर यही बालक गिरिधर युगपुरुष की कोटि में आकर जगद्‌गुरु रामानन्दाचार्य स्वामी रामभद्राचार्य जी महाराज के नाम से प्रख्यात हुए।

**उच्च शिक्षा– **वैष्णवोचित परम्परा की दीक्षाग्रहण करने के पश्चात्‌ स्थानीय आदर्श गौरीशंकर संस्कृत महाविद्दालय में पाँच वर्ष तक पाणिनीय व्याकरण की शिक्षा सम्पन्न करके आप उच्च शिक्षा हेतु वाराणसी गये। सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्दालय, वाराणसी की शास्त्री एवं आचार्य परीक्षाओं में सर्वप्रथम स्थान प्राप्त करके अनेक स्वर्णपदक प्राप्त किये। इसी कालखण्ड में अखिल भारतीय संस्कृत अधिवेशन में व्याकरण–सांख्य– न्याय–वेदान्त–श्लोकान्त्याक्षरी और समस्यापूर्ति की असाधारण ज्ञान के फलस्वरूप प्रथम पाँच पुरस्कार प्राप्त किये। उल्लेखनीय है कि पूज्य आचार्यचरणों ने अभिनवपाणिनि, व्याकरण–विभागाध्यक्ष पूज्य पं० श्रीरामप्रसाद त्रिपाठी जी (वाराणसी) से व्याकरण की भाष्यान्त शिक्षा प्राप्त की। इतना ही नहीं इसी विश्वविद्दालय से “अध्यात्मरामायणे अपाणिनीय प्रयोगानां विमर्श:” विषय पर अनुसन्धान करके विद्दावारिधि (पी.एच.डी.) तथा “अष्टाध्याय्या: प्रतिसूत्रं शाब्धबोधसमीक्षणम्‌” विषय पर शिक्षा जगत्‌ की सर्वोच्च उपाधि “वाचस्पति” (डी.लिट्‌) प्राप्त की।

**जगद्‌गुरु एवं धर्मचक्रवर्ती उपाधि– **सन्‌ १९८७ ई० में पूज्यपाद आचार्यश्री ने अपने इष्टदेव भगवान श्रीराघवेन्द्र सरकार की विहारस्थली एवं कर्मभूमि श्रीचित्रकूटधाम में श्रीतुलसीपीठ की स्थापना की। तभी से सन्त महात्माओं एवं मनीषियों के द्वारा आप “श्रीतुलसीपीठाधीश्वर” के रूप में प्रतिष्ठित हुए। इसी क्रम में २४ जून १९८८ को काशी नगरी में तथा १ अगस्त १९९५ ई० को दिगम्बर अखाड़ा अयोध्या में अनेक सन्त, महन्त, विद्वान एवं श्रीवैष्णवों द्वारा आपको “जगद्‌गुरुरामानन्दाचार्य” के पद पर विधिवत्‌ अभिषिक्त किया गया। उपाधियों के इसी क्रम में १९९८ में हरिद्वार के महाकुम्भ के पावनपर्व पर पूज्यपाद जगद्‌गुरु जी को विश्वधर्मसंसद द्वारा “धर्मचक्रवर्ती” के सर्वोच्च उपाधि से विभूषित किया गया पश्चात्‌ २००१ ई० में भाउराव देवरस पुरस्कार, लालबहादुर शास्त्री केन्द्रीय संस्कृत विद्दापीठ (मानित विश्वविद्दालय) नई दिल्ली द्वारा २००२ ई० में महामहोपाध्याय, सन्‌ २००३ ई० में महामहिम राष्ट्रपति द्वारा महर्षि बादरायण पुरस्कार तथा दिवालीबेन मेहता पुरस्कार, २००५ ई० में साहित्य अकादमी पुरस्कार तथा २००६ ई० में रामकृष्णजयदयाल डालमिया फाउण्डेशन द्वारा श्रीवाणीअलंकरण पुरस्कार प्राप्त हुये। सत्य भी है- क्रियासिद्धि: सत्वे भवति महतां नोपकरणे

**श्रीरामभक्ति एवं राष्ट्रभक्ति के विलक्षण उद्‌गाता– **विगत्‌ पाँच दशकों से पूज्यपाद जगद्‌गुरुजी सम्पूर्ण भारत तथा विश्व के अनेक देशों में श्रीरामकथा की मन्दाकिनी, श्रीकृष्णकथा की कालिन्दी तथा अन्य वैदिकग्रन्थों की सरस्वती से हिन्दु जनमानस के अभ्युदय एवं कल्याण का मार्ग प्रशस्त कर रहे हैं। पूज्यपाद जगद्‌गुरु जी आज भी अपने दिव्य प्रवचनों के माध्यम से भारत के वर्तमान धर्मविहीन स्वरूप से दु:खी होकर भारत राष्ट्र को आदर्श रामराज्य युक्त देखने के लिए आशान्वित रहते हैं। यही कारण है कि “श्रीराम ही राष्ट्र हैं एवं राष्ट्र ही श्रीराम हैं” का शंखनाद पूज्यपाद जगद्‌गुरुजी के प्रवचनों में सदैव गूंजता रहता है। भारत में ही नहीं अपितुविदेशों में भी पूज्यपाद जगद्‌गुरुजी भारतीय आर्षग्रन्थों में वर्णित सनातनधर्म सिद्धान्तों की तथा मर्यादापुरुषोत्तम भगवान श्रीरामजी के उदात्त आदर्शों की विलक्षण व्याख्याओं से प्रवासी भारतीयों के मन में भारतीय संस्कृति के प्रति अनन्यनिष्ठा जागृत करने में सतत्‌

प्रयत्नशील रहते हैं।

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**अनुपम कृतित्व– **अत्यधिक प्रसन्नता का विषय यह भी है कि पूज्यपाद जगद्‌गुरुजी के व्यक्तित्व के साथ–साथ कृतित्व भी इतना विलक्षण एवं गम्भीर है कि समस्त विद्वानों के लिए औषध और जिज्ञासु साधकों के लिए पाथेय सिद्ध होता है। पूज्यआचार्यश्री ने संस्कृत, हिन्दी, गुजराती, उयिड़ा, मैथिली, भोजपुरी, अवधी, ब्रज आदि अनेक भाषाओं में आशुकविता के माध्यम से श्रीरामकथा, श्रीकृष्णकथा एवं अनेक दुर्लभ पौराणिक प्रसंगों को सुन्दर एवं सरस शैली में छन्दोबद्ध किया है।

उल्लेखनीय है कि जगद्‌गुरु जी की पराऋतम्भरा प्रज्ञा से अब तक ७५ पुस्तकें प्रकाशित हैं। जिनमें प्रमुख हैं–

(क) महाकाव्य

१. भार्गवराघवीयम्‌ (संस्कृतमहाकाव्य), प्रकाशक– जगद्‌गुरुरामभद्राचार्य विकलांगविश्वविद्दालय, चित्रकूट

(उ०प्र०)

२. अरून्धतीमहाकाव्य (हिन्दी महाकाव्य), प्रकाशक– श्रीराघवसाहित्य प्रकाशननिधि, राजकोट (गुजरात) (ख) खण्डकाव्य –

१. आजादचन्द्रशेखरचरितम्‌ (संस्कृतकाव्य), प्रकाशक– श्रीतुलसीपीठसेवान्यास आमोदवन, चित्रकूट, सतना

(म०प्र०)

२. लघुरघुबरम्‌ (संस्कृतकाव्य), प्रकाशक– श्रीतुलसीपीठसेवान्यास आमोदवन, चित्रकूट, सतना (म०प्र०)

३. सरयूलहरी (संस्कृतकाव्य ), प्रकाशक– श्रीतुलसीपीठसेवान्यास आमोदवन, चित्रकूट, सतना (म०प्र०)

५. काका विदुर (हिन्दी काव्य), प्रकाशक – श्रीगीताज्ञानमन्दिर, राजकोट (गुजरात)

६. माँ शबरी (हिन्दीखण्डकाव्य), प्रकाशक– गिरिधरकोशलेन्द्र समिति दरभंगा (बिहार)

(ग) नाटककाव्य

१. श्रीराघवाभ्युदयम्‌ एकांकीनाटक (संस्कृत), प्रकाशक– श्रीतुलसीपीठसेवान्यास, चित्रकूट (म०प्र०)

२. उत्साह (हिन्दीनाटक), प्रकाशक– श्रीतुलसीपीठसेवान्यास, चित्रकूट (म०प्र०) (घ) पत्रकाव्य

१. कुब्जापत्रम्‌ (संस्कृतपत्रकाव्य), प्रकाशक– जगद्‌गुरु रामभद्राचार्य विकलांग विश्वविद्दालय, चित्रकूट

(उ०प्र०) (ड.) गीतकाव्य

१. राघवगीतगुंजन (हिन्दीगीतकाव्य), प्रकाशक– श्रीराघवसाहित्य प्रकाशननिधि, राजकोट (गुजरात)

२. भक्तिगीतसुधा (हिन्दीगीतकाव्य), प्रकाशक– श्रीराघवसाहित्य प्रकाशननिधि, राजकोट (गुजरात) (च) शतककाव्य –

१. श्रीरामभक्तिसर्वस्वम्‌(शतककाव्य एवं स्त्रोत्रकाव्य), प्रकाशक– त्रिवेणीधाम पो०–साईबाड

जयपुर(राजस्थान)

२. आर्याशतकम्‌ (संस्कृत– अप्रकाशित)

३. चण्डीशतकम्‌ (संस्कृत– अप्रकाशित)

४. राघवेन्द्रशतकम्‌ (संस्कृत– अप्रकाशित)

५. गणपतिशतकम्‌ (संस्कृत– अप्रकाशित)

६. श्रीराघवचरणचिन्हशतकम्‌ (संस्कृत – अप्रकाशित)

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(छ) स्तोत्रकाव्य –

१. श्रीगंगामहिम्न: स्त्रोतम्‌ (संस्कृत स्तोत्रकाव्य), प्रकाशक– श्रीराघवसाहित्य प्रकाशननिधि राजकोट (गुजरात)

२. श्रीजानकीकृपाकटाक्षस्तोत्रम्‌ (संस्कृत स्तोत्रकाव्य), प्रकाशक– श्रीतुलसीपीठसेवान्यास, चित्रकूट (म०प्र०)

३. श्रीरामबल्लभास्त्रोतम्‌, (संस्कृत स्तोत्रकाव्य), प्रकाशक– श्रीतुलसीपीठसेवान्यास, चित्रकूट (म०प्र०)

४. श्रीचित्रकूटविहार्याष्टकम्‌ (संस्कृत स्तोत्रकाव्य), प्रकाशक– श्रीतुलसीपीठसेवान्यास, चित्रकूट (म०प्र०)

५. भक्तिसारसर्वत्रम्‌ (संस्कृत स्तोत्रकाव्य), प्रकाशक– श्रीतुलसीपीठसेवान्यास, चित्रकूट (म०प्र०)

६. श्रीराघवभावदर्शनम्‌ (संस्कृत स्तोत्रकाव्य), प्रकाशक –श्रीतुलसीपीठसेवान्यास, चित्रकूट (म०प्र०)

दर्शन एवं भाष्यग्रन्थ

**प्रकाशक– **श्रीतुलसीपीठसेवान्यास, चित्रकूट (म०प्र०)

१. श्रीरामस्तवराजस्तोत्र श्रीराघवकृपाभाष्यम्‌

२. ब्रह्मसूत्रेषु श्रीराघवकृपाभाष्यम्‌ (संस्कृतग्रन्थ)

३. श्रीमद्‌भगवद्‌गीतासु श्रीराघवकृपाभाष्यम्‌ (भाष्यग्रन्थ)

४. कठोपनिषदि श्रीराघवाकृपाभाष्यम्‌ (भाष्यग्रन्थ)

५. केनोपनिषदि श्रीराघवकृपाभाष्यम्‌ (भाष्यग्रन्थ)

६. माण्डूक्योपनिषदि श्रीराघवकृपाभाष्यम्‌ (भाष्यग्रन्थ)

७. ईशावास्योपनिषदि श्रीराघवकृपाभाष्यम्‌(भाष्यग्रन्थ)

८. प्रश्नोपनिषदि श्रीराघवकृपाभाष्यम्‌ (भाष्यग्रन्थ)

९. तैत्तरीयोपनिषदि श्रीराघवकृपाभाष्यम्‌ (भाष्यग्रन्थ)

१०. ऐतरेयोपनिषदि (भाष्यग्रन्थ)

११. श्वेतश्वतरोपनिषदि श्रीराघवकृपाभाष्यम्‌ (भाष्यग्रन्थ)

१२. छान्दोग्योपनिषदि श्रीराघवकृपाभाष्यम्‌ (भाष्यग्रन्थ)

१३. वृहदारण्यकोपनिषदि श्रीराघवकृपाभाष्यम्‌ (भाष्यग्रन्थ)

१४. श्रीनारदभक्तिसूत्रेषु श्रीराघवकृपाभाष्यम्‌ (भाष्यग्रन्थ), प्रकाशक– श्रीराघवसाहित्यप्रकाशननिधि राजकोट

(गुजरात)

१५. श्रीगीतातात्पर्य (दार्शनिकहिन्दीग्रन्थ), प्रकाशक– श्रीराघवसाहित्यप्रकाशननिधि (गुजरात)

**शोधग्रन्थ : **१. अध्यात्मरामायणे अपाणनीयप्रयोगाणाम विमर्श:

२. पाणिनीयाष्टाध्याय्‌या: प्रतिसूत्रम्‌ शाब्दबोध समीक्षणम्‌

पूज्यपाद जगद्‌गुरुजी द्वारा प्रणीत संस्कृत–हिन्दी के ऐसे और अनेक ग्रन्थों से जहाँ एक ओर धर्मप्राण जनता को लोकोत्तर आनन्दाब्धि में अवगाहन करने का सौभाग्य प्राप्त होता है वहीं दूसरी ओर संस्कृत और सस्कृति के अनेक अनुसन्धित्सुओं को तत्त्व एवं शास्त्रचिन्तन की गम्भीर व समुचित दिशा भी प्राप्त होती है। जनता के साथ–साथ शासकवर्ग भी पूज्यपाद जगद्‌गुरुजी के इस अनुपम कृतित्व से उपकृत है। सन्‌ १९९६ ई० में तत्कालीन

महामहिम राष्ट्रपति डॉ० शंकरदयाल शर्मा द्वारा **‘अरुन्धती महाकाव्य’ **का विमोचन सम्पन्न हुआ।

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भारत के यशस्वी प्रधानमंत्री माननीय अटल बिहारी वाजपेयी जी द्वारा १९९८ में ऐतिहासिक एवं विशालकाय ग्रन्थ **प्रस्थानत्रयीभाष्य **तथा अक्टूबर २००२ ई० में २१ वीं शताब्दी के प्रथम संस्कृतमहाकाव्य **श्रीभार्गवराघवीयम्‌ **का लोकार्पण उल्लेखनीय है। इन भव्य समारोहों में महामहिम राष्ट्रपति एवं प्रधानमंत्री दोनों ने ही पूज्यपाद जगद्‌गुरुजी के प्रति सम्पूर्ण राष्ट्र की ओर से एवं व्यक्तिगत रूप से हार्दिक कृतज्ञता ज्ञापित की है।

**अविकल विकलांग सेवा– **उल्लेखनीय है कि पूज्य जगद्‌गुरु जी ने विकलांगता के कालकूट को स्वयं पिया है उससे अन्य विकलांग बहिन–भाईयों को बचाने के लिए इन्होंने विश्व के प्रथम “जगद्‌गुरु रामभद्राचार्य विकलांग विश्वविद्दालय, चित्रकूट (उत्तर प्रदेश)” की जुलाई २००१ ई० में स्थापना की है। उत्तरप्रदेश शासन ने इन्हीं को इस विश्वविद्दालय का जीवनपर्यन्त कुलाधिपति नियुक्त किया है। सभी प्रकार के विकलांगों को पूर्ण शिक्षित बनाने के लिए तथा उन्हें तकनीकी प्रशिक्षण दिलाने के लिए इस विश्वविद्दालय में नि:शुल्क सेवा का अद्वितीय उदाहरण प्रस्तुत किया गया है। विकलांगों को आत्मनिर्भर देखने का स्वप्न संजोने वाले पूज्य जगद्‌गुरुजी का यह उद्‌घोष कितना मार्मिक है–

मानवता ही मेरा मन्दिर, मैं हूँ इसका एक पुजारी। हैं विकलांग महेश्वर मेरे, मैं हूँ इनका कृपाभिखारी॥

इस प्रकार हम कह सकते हैं कि विश्व के असाधारण ज्योतिपुंज, लोकोत्तर प्रतिभा के धनी, प्रगा़ढ पाण्डित्य के निदर्शन, सरस एवं सरल व्यक्तित्व के साक्षातस्वरूप, आर्षपरम्परा के दुर्लभ विभूतियों की मणिमाला में सुमेरू की भाँति महत्वपूर्ण व्यक्तिव के रूप में प्रख्यात पूज्य जगद्‌गुरु रामानन्दाचार्य स्वामी श्रीरामभद्राचार्य जी महाराज मानवमात्र का कल्याण साधन करके जहाँ अपने जगद्‌गुरुत्व के प्रति जागरूक हैं वहीं भारतराष्ट्र को पुन: जगद्‌गुरु के पद पर प्रतिष्ठित कराने के लिए मन, वाणी और कर्म से पूर्णतया समर्पित भी हैं।

राजदेवात्मजो विप्रो वाशिष्ठश्च श्शचीभव:। गीताभ्राता गिरिधरो रामभद्रो जगद्‌गुरु:॥

इति निवेदयते डॉ० कुमारी गीता देवी मिश्रा