०२ भूमिका

—- सीतारामयशोमृतामललसत्कीलाललालित्यभृत्‌ भास्वद्‌भारतसंस्कृतिच्छविमयं प्रेमैकसारं शुचि। सोपानैर्मुनिभि: श्रितं कविवरै: संसेवितं हंसकै: श्रीमद्‌रामचरित्रमानसमिदं वर्वर्ति भूमावधि॥ जयति कविकुमुदचन्द्रो हुलसीहर्षवर्धनस्तुलसी। सुजनचकोरकदम्बो यत्कविताकौमुदीं पिबति॥

परिपूर्णतम परात्परपरब्रह्म परमेश्वर परमात्मा पुराणपुरुषोत्तम परतत्त्व परापराविद्दाप्रतिपाद्द भगवान श्री सीतारामजी ने ही अपने सनातननिश्वासभूत भ्रमप्रमादविप्रलिप्साकरणापाटवादि पुरुषदोषरहित सनातन वेद के निगूढतत्त्वों की भूतार्थ व्याख्या प्रस्तुत करने हेतु अपने अंशांश पद्मयोनि ब्रह्मा जी को परमप्रत्युत्पन्न परमर्षि प्राचेतस वाल्मीकि के रूप में पुनश्च, कराल कलिकाल के कुमतिकरवाल से विलुलित, मानवीय मूल्यों से अपरिचित मानवजाति को वैदिकमार्ग पर प्रतिष्ठित करने के लिये उन्हीं महर्षि वाल्मीकि को एक ही साथ सम्पूर्ण सनातन वैदिक भारतीय वाङ्‌मय का भाष्य करने हेतु कविताभामिनीविलास हुलसीहृदयहुलास गोस्वामी श्रीतुलसीदासजी के रूप में अपनी त्रिकालाबाधित वाङ्‌मयप्रतिभा प्रत्युत्पन्न संवित्‌शक्ति के साथ भारतवसुन्धरा पर समवतीर्ण किया।

हम जैसे अनादिकालीन वासनामलीमस कदाचारकलुषित कलिकालकदर्थित बद्धजीवों को वेदवेदान्तसारसर्वस्व परमपुरुषार्थ त्रैवर्गापवर्गातीत परमपुनीत श्रीसीतारामप्रेमपीयूष समुपलब्ध कराते हुये नवनीत कोमल सन्तहृदय सर्वभूतकरुणावशंवद परमप्रियम्वद गोस्वामी तुलसीदासजी के श्रीरामनामसुधासंधुक्षित निर्मल, निष्कलुष, निष्कलङ्क, निष्कम्प, निरुपद्रव, निर्लेप मनोव्योम में विक्रमी सम्वत्‌ १६३१ की श्रीचैत्र रामनवमी के दिन जिस श्रीरामचरितमानसरूप त्रिकालजयी जयादित्य का प्रकाश हुआ, उसकी भास्वती प्रभा अनन्तवर्षपर्यन्त मोहनिशानिमीलित मानवताकमलिनी को विकसित करती रहेगी। आज से ४३३ वर्ष पूर्व हुलसीहर्षवर्द्धन गोस्वामी श्रीतुलसीदासजी महाराज द्वारा उन्हीं के शब्दों में भाषाभनिति भनितिभदेस गिराग्राम्य अर्थात्‌ अवधी भाषा में गाया हुआ निरवधि परमपुरुषार्थावधि श्रीरामभक्तिसुधासमुल्लसित श्रीरामचरितमानस आज भी उतना ही प्रासंगिक, उपयोगी, उपादेय तथा औपयिक है जितना उस समय रहा होगा अथवा उससे भी अधिक। क्योंकि ज्यों–ज्यों तापमान अधिकतर होता जाता है त्यों–त्यों रिगोतुङ्गतरङ्गा भगवती गंगाजी की निसर्गसिद्ध शीतलता की उपयोगिता अधिकाधिक होने लगती है। यह आविद्वत्पामरसिद्ध सिद्धान्त है।

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प्रभु श्रीसीताराम जी के अप्रतिम कृपापात्र, क्रान्तद्रष्टा, मनीषिमौलिमणि, महाकवि महनीयकीर्ति हुलसीहर्षवर्धन प्रभु के निष्कलुष स्वान्त:सुख ने सम्पूर्ण वैश्विक सनातन सुख को समाहित कर लिया था। इसलिए उन्होंने अपने मानस के सातों सोपानों में सात्विक सनातन सुखप्राप्ति के उन सिद्धान्तों की सर्वसुलभ तथा सर्वबोधगम्य मनोहर व्याख्या प्रस्तुत की, जिन्हें बहुत पूर्व में ही भारतीय चिन्तन के मूर्धन्यमनीषी कपिल, पतञ्जलि, कणाद, गौतम, जैमिनी, बादरायण, तथा देवर्षि नारद ने सांख्य, योग, वैशेषिक, न्याय, पूर्वमीमांसा, वेदान्त तथा भक्तिदर्शन के व्याज से अतिसूक्ष्मरूप में कह दिया था। अहो! आजन्म ब्रह्मचारी, कोटिकोटि परब्रह्म परमहंस परिव्राजकों के भी पूज्यचरण विरक्तचूडामणि श्रीरामानन्दीय श्रीवैष्णवशिरोमणि गोस्वामी श्रीतुलसीदासजी महाराज के उदात्तमानस की कोटि–कोटि सिन्धुओं जैसी गम्भीरता तथा अरबों व्योममण्डलों की व्यापकता ने मानवमात्र के मानस में उपजने वाली किंवा, प्राणिमात्र के मानस में प्रतिबिम्बित होने वाली उन छोटी-बड़ी सभी समस्याओं के समाधान के ऐसे अमोघ सूत्र ढूँ़ढ निकाले जिनका लोहा मानने के लिए विवश हो गया है आज का समस्त प्राच्य–प्रतीच्य बौद्धिक वर्ग।

इसीलिए तो गोस्वामी तुलसीदासजी के श्रीरामचरितमानस ने एक ओर जहाँ ज्ञानदीपक प्रकरण से “सोऽहमस्मि” जैसे वेदान्त की दुरूह ग्रन्थग्रन्थियाँ सुलझाईं, वहीं दूसरी ओर **“कृषी निरावहिं चतुर किसाना” **कहकर छोटी से छोटी ग्रामीण समस्याओं की समाधानात्मक सरल रीतियाँ भी सुझाईं। यदि गोस्वामीजी के मानस ने उत्तरकाण्ड में मानसरोगों का निदान प्रस्तुत किया तो वह **“जनु छुइ गयउ पाक बरतोरा” **जैसी निर्बल पक्ष की समस्या से भी अनभिज्ञ न रहा।

श्रीरामचरितमानस में मानव जीवन के सभी उतार–च़ढाव अन्तरंग तथा बहिरंग रीति से उन्मुक्त रूप में तरंगायित हुये, जो राजमहल से झोपड़ी पर्यन्त सदैव देखे और सुने जाते रहे हैं। **“श्रीरामचरितमानस मानवमानसदर्पण है” **यह उक्ति अतिरंजना नहीं प्रत्युत शाश्वत सत्य है, इसलिए दिवानिशि यन्त्रवत्‌ चलनेवाले अविरामगति से संसरणशील इस भौतिकवादी युग में भी उत्तरी ध्रुव से लेकर दक्षिणीध्रुवपर्यन्त इस सभ्य मानवजाति का श्रीरामचरितमानस ही सम्बल बना हुआ है। **“मंगल भवन अमंगलहारी” **आज भुवनमंगल का संदेश दे रही है। अतएव आज सभी पुस्तकों की अपेक्षा श्रीरामचरितमानस की सर्वाधिक माँग ब़ढी है और सबसे अधिक मानसजी की प्रतियाँ ही लोगों के उपयोग में आ रही हैं। लगभग अरबों की संख्या में श्रीरामचरितमानस पुस्तकाकार होकर लोगों की जिजीविषा का पथप्रदर्शन कर रहा है। विदेशों में बसे प्रवासी भारतीय श्रीरामचरितमानस से ही प्रेरणा लेकर वैदिक हिन्दू धर्म पर अपनी निष्ठा रखे हुए हैं। मारीशस, सूरिनाम, गयाना, सिंगापुर, मलेशिया, वियतनाम, फिजी, स्विटजरलैण्ड, हालैण्ड आदि विदेशों में आज भी श्रीरामचरितमानस परम्पराबद्ध रूप से संगीतशैली में गाया जाता है। लगभग पच्चीस सौ राष्ट्रीय, प्रान्तीय, क्षेत्रिय तथा आंचलिक भाषाओं में श्रीरामचरितमानस के अनुवाद उपलब्ध हैं जो एक कीर्तिमान है। किं बहुणा, आज श्रीरामचरितमानस से ही हिन्दी भाषा को पहचाना एवं जाना जाता है। साहित्यिक जन जहाँ अपनी जिज्ञासा की शान्ति करते हैं तो आध्यात्मिक जन वही मानससुधा पी–पीकर अपनी आध्यात्मिक प्यास बुझा लेते हैं।

श्रीरामचरितमानस पर अद्दावधि शताधिक टीकाएं लिखी जा चुकी हैं और इसी मानसकल्पवृक्ष की छाया में भक्तिसहित चर्तुवर्ग की प्राप्ति कर रहे हैं सहस्राधिक व्यासबन्धु। राजमहल से लेकर चौपालों तक

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अपनी–अपनी बुद्धि के अनुसार व्याख्यायित होती हुई यह मानसी गंगा चार शतकों से मानवीय मूल्यों की

स्थापना के साथ कोटि–कोटि जनमानसों को पावन करती आ रही है। तुलसीगिरिसम्भूता रामसागरसंगमा। एषा श्रीमानसीगंगा पुनाति भुवनत्रयम्‌॥

कहना न होगा कि भगवान वेद की भाँति श्रीरामचरितमानस का स्वरूप विश्वतोमुख है। इससे प्रत्येक वैदिक सिद्धान्तानुगामी अपने–अपने सिद्धान्तों की पोषक समुचित सामग्री प्राप्त करके जन्मजन्मान्तरों के लिये श्रीमानसजी का आधमर्ण्य स्वीकार कर लेता है। वेदान्त के अद्वैत, विशिष्टाद्वैत, शुद्धाद्वैत, द्वैताद्वैत, अचिन्त्याभेद तथा द्वैत ये छहों वाद भी इसी मानस महारत्नाकर को अपना उपजीव्य मानते हैं। यद्दपि मानसजी का मुख्य प्रतिपाद्द श्रीसीताराम विशिष्टाद्वैतवाद ही है, जो जगद्‌गुरु श्रीमदाद्दरामानन्दाचार्य भगवान्‌ का प्रतिपाद्द दर्शन है, क्योंकि श्रीरामचरितमानस के रचयिता अभिनव वाल्मीकि महाकवि गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज भी जगद्‌गुरु श्रीमदाद्दरामानन्दाचार्य भगवान्‌ के नाती चेला अर्थात्‌ प्रशिष्य ही तो हैं। यह सर्वविदित है कि, जगद्‌गुरु रामानन्दाचार्यजी के चतुर्थ शिष्य नरहरिदास अर्थात्‌ नरहर्यानन्दाचार्य जी महाराज के अनन्य कृपापात्र हैं गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज। व्यासपरम्परा में भी श्रीरामचरितमानस ने कई पद्धतियों को जन्म दिया। संगतिवाद, युक्तिवाद, स्वरवाद, प्रतीकवाद एवं पदार्थवाद जैसे सिद्धान्त श्रीरामचरितमानस के ही तरलतरंग परिणाम हैं। कतिपय व्यास महानुभाव तो श्रीरामचतिमानस की एक–एक पंक्ति पर महीनों–महीनों पर्यन्त अपने प्रवचन प्रस्तुत करते रहते हैं। **“उठे राम सुनि प्रेम अधीरा” **मानस २.२४०.८ पर प्रस्तुत संपादकीय के लेखक मुझ अकिंचन जीव के ही १२१ घंटे प्रवचन हुए। इस कराल कलिकाल में श्रीसीतारामभक्त महानुभावों के लिए तो श्रीरामचरितमानस ही एकमात्र ध्येय, ज्ञेय, गेय तथा साधनसर्वस्व बन गया है। यहाँ इस भ्रम को निरस्त करना मैं अत्यन्त आवश्यक मानता हूँ और अनुसन्धित्सु तथा सुधीपाठकों के लिए भी बहुत उपयोगी समझता हूँ। सामान्यत: लोग दो–दो पंक्तियों को एक चौपाई मानते आये हैं परन्तु विचार करने से यह मान्यता भ्रमपूर्ण और अशास्त्रीय ही सिद्ध होती है। यदि दो–दो पंक्तियों को मिलाकर चौपाई कहा जायेगा तो **हनुमान चालीसा **ही सिद्ध नहीं हो सकेगा क्योंकि उसमें चालीस ही पंक्तियाँ हैं जिन्हें जोड़ने पर चौपाईयों की संख्या मात्र बीस हो पाती है। इस दृष्टि से इसे “हनुमान बीसा” क्यों नहीं कहा गया? जबकि तुलसीदासजी ने “हनुमान चालीसा” ही कहा है–

जो यह प़ढै हनुमान चालीसा।

**पद्मावत **काव्य की समीक्षा लिखते हुए आचार्य श्री रामचन्द्र शुक्ल ने भी यही कहा है कि जायसी ने प्रत्येक सात चौपाई अर्थात्‌ सात पंक्तियों के पश्चात्‌ एक दोहा रखा है। वस्तुत: चौपाई हिन्दी का एक मात्रिक वृत्त है वार्णिक नहीं, यहाँ चौपाई का तात्पर्य चार यतियों वाले वृत्त से है। चौपाई की प्रत्येक आठवीं मात्रा पर एक यति होती है। जिस प्रकार महर्षि वाल्मीकि जी को बत्तीस अक्षरों वाला अनुष्टुप्‌ सिद्ध है, उसी प्रकार गोस्वामी तुलसीदासजी को बत्तीस मात्राओं वाली चौपाई सिद्ध है।

इसे संयोग ही कहें कि १४ जनवरी १९५० ई० को जन्म लेकर और जन्म के दो महीने पश्चात्‌ ही अपने भौतिक नेत्रों को सदा–सदा के लिए विदाई देकर भी मैं जो कुछ भी हूँ, उस सबके लिए एकमात्र

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श्रेय है श्रीरामचरितमानसजी को। अपनी आठ वर्ष की बाल्यावस्था में पूर्वाश्रम के पूज्य पितामह स्वर्गीय पण्डित सूर्यबली मिश्र जी की कृपा से साठ दिनों में ही सम्पूर्ण मानसजी को कण्ठस्थ करके १४ जनवरी १९५७ ई० अर्थात्‌ अपने आठवें जन्मदिवस पर जब सम्पूर्ण श्रीरामचरितमानसजी का मैंने प्रथम मौखिक पाठ किया, उसी दिन से मेरा जीवन क्रमश: सरस, प्रसन्न, अभावमुक्त, अन्त:करण से स्वावलम्बी, प्रत्युत्पन्न एवं श्रीरामपरायण होने लगा। तब से अब तक के इस जीवन खण्ड काल में मैंने आँखों के बन्द होने पर भी श्रीरामचरितमानसजी की चार हजार से अधिक मौखिक आवृत्तियाँ कर ली हैं। जबकि शास्त्र की आज्ञानुसार कोई भी सद्‌ग्रन्थ सौ आवृत्तियों के पश्चात्‌ ही स्वयमेव अपना निगूढ अर्थ बताने लगता हैशतमावर्तितो ग्रन्थ: स्वयमर्थं प्रयच्छति।

इसलिए श्रीरामचरितमानसजी के पौर्वापर्य, पाठपरम्परा, भाषा, भाव, शैली कथासिद्धान्तों के प्रति मैं पूर्णतया विश्वस्त एवं आश्वस्त हूँ। इसे दुर्भाग्य ही कहना चाहिए की एक ओर जहाँ भगवान श्रीसीतारामजी ने समस्त जीवों, विशेष रूप से हम जैसे श्रीसीतारामोपासक श्रीरामानन्दी, श्रीवैष्णव जीवों पर कृपा करके श्रीरामचरितमानस जैसा परमात्मविग्रहरूप परमपावन ग्रन्थरत्न प्रदान किया वहीं श्रीमानसजी की सरलता के कारण उनमें सहस्राधिक पाठान्तर, अपपाठ, तथा अशुद्ध पाठ दृष्टिगोचर होने लगे हैं। **“कतहुँ सुधायिहुँ ते बड़ दोषू” **पंक्ति अक्षरश: यहाँ चरितार्थ हो रही है।

यहाँतक की एक–एक चौपाई में पाँच–पाँच, छह–छह अशुद्धियाँ दिखाई पड़ती हैं, निरर्थक अनुस्वार, चन्द्रबिन्दु, अनावश्यक उकार आदि अपपाठों की तो गिनती ही नहीं की जा सकती। श्रीरामचरितमानसजी का लगभग दस हजार पंक्तियों का छोटा–सा कलेवर उनमें लगभग तीन हजार अशुद्धियाँ, यह विडम्बना नहीं तो और क्या है? उदाहरणार्थ: दो–चार पंक्तियाँ देखिए–

**प्रेमु प्रमोदु बिनोदु बड़ाई। समउ समाजु मनोहरताई॥ मानस, **१.३५५.४

यहाँ एक ही पंक्ति में पाँच बार उकार के प्रयोग का क्या औचित्य हो सकता है ? यह प्रश्न अद्दावधि अनुत्तरित ही है। गोस्वामीजी ने तुक मिलाने की दृष्टि से कहीं–कहीं पद के अन्त में कर्तृवाचक शब्दों को उकारान्त प्रयोग किया है। यथा**जगत प्रकाश्य प्रकाशक रामू। मायाधीश ग्यान गुन धामू॥ **मानस, १.११७.७

कहीं प्रभु पर दशरथ–कौसल्या आदि के वात्सल्य को सूचित करने के लिए राम शब्द का उकारान्त प्रयोग हुआ है। यथा–

बन्दउँ बालरूप सोइ रामू।

परन्तु सामान्यरूप से कर्तृवाचक शब्द के अन्त में उकार प्रयोग का औचित्य समझ में नहीं आता। यथा–

**जो सहससीसु अहीसु महीधरु लखनु सचराचर धनी। **मानस, २.१२६.९

सुधी पाठक ही समझ सकते हैं यहाँ के उकारान्त प्रयोग के औचित्य को। सौभाग्य से मेरा भी जन्म अवधीभाषाप्रधान उत्तर प्रदेश के जौनपुर जनपद में हुआ। चूँकि श्री अवध के अंचल में श्रीराम जी का

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प्राकट्‌य हुआ और अवधी में श्रीरामचरितमानस जी की रचना हुई इसी उपासना सम्बन्ध के कारण मैं त्रिदण्डी सन्यासी एक विशिष्ट सम्प्रदाय का जगद्‌गुरु, धर्माचार्य, विरक्त साधु, रामानन्दी श्रीवैष्णव होकर भी जन्मस्थाननिरपेक्षता परम्परा क्रम नहीं निभा पाया और अब भी अपनी तथा श्री राम जी की जन्मभूमि की मातृभाषा अवधी में बोलने में अपना सौभाग्य मानता हूँ। मुझे प्रतीत होता रहता है कि इसी अवधी में भगवान श्रीराम जी अपने जन्म नगर निवासियों से सम्भाषण करते ही होंगे। अतएव अवधी भाषा की प्रकृति उसके व्याकरण सम्बन्धी नियम तथा अवधी की आंचलिक परम्पराओं के सम्बन्ध में अवध क्षेत्र में जन्में लोगों से अधिक इतर लोग कैसे जान सकेंगे?

हम बहुत विश्वास के साथ कहना चाहते हैं कि अवधी भाषा के प्रयोगों की प्रामाणिकता के प्रति हम इसलिए और लोगों की अपेक्षा अधिक आश्वस्त हैं, क्योंकि हम अवधक्षेत्र में जन्मे, वहीं पले, वहीं प़ढेलिखे और सौभाग्य से जिस आध्यात्मिक उपासना से सम्बन्ध जुड़ा उसकी प्रकृति भी अवधी ही है– **हम सन पुन्य पुंज जग थोरे। जिनहिं राम जानत करि मोरे॥ **(मानस, २.२७४.७)

मैं जन्मना सरयूपारीण वसिष्ठ गोत्रिय ब्राह्मण हूँ तथा कर्मणा बालरूप श्री राम जी का उपासक। अत: मेरे रक्त के कण–कण में अवधी भाषा का ही संस्कारसिद्ध प्रवाह एवं प्रभाव है। मैंने कहीं भी अवधीभाषा में कर्तृपद के साथ उकार को जुड़ते न तो देखा और न ही सुना, जैसा कि दुर्भाग्य से श्रीरामचरितमानसजी की प्रचलित प्रतियों में उपलब्ध हो रहा है। यथा–

__**रामु तुरत मुनि बेषु बनाई। रामु चले बन प्रान न जाहीं। **

(मानस, २.७९.८)**(**मानस, २.८१.६)

__इसी प्रकार अवधी में उकार को कर्म का चिह्न सूचित करते हमने कभी नहीं देखा जबकि प्रचलित मानस

__प्रति में दिखायी पड़ रहा है। यथा–**सजि बन साज समाजु सबु। रामु लखनु सिय आनि देखाऊ। नाइ सिरु रथ अति बेग बनाइ। **

**(मानस, २.७९)(मानस, २.८२.२)(**मानस, २.८२)

__**करि बिनती रथ रामु च़ढाए। (**मानस, २.८३.१)

__**चलत रामु लखि अवध अनाथा। **

**(**मानस, २.८३.३)

कहाँ तक कहा जाए प्रचलित प्रति के सम्पादकपुङ्गव ने जिस अयोध्याकाण्ड को सबसे शुद्ध प्रमाणित किया उसी तीन हजार पदों वाले अयोध्याकाण्ड में कम से कम दो हजार पाठगत अशुद्धियाँ हैं। जैसे प्रचलित प्रति के अयोध्याकाण्ड में उकार की बहुलता है, उसी प्रकार अनावश्यक अनुनासिकों की प्रचुरता भी है, जिनका अवधी भाषा में न तो कोई औचित्य है और न ही इनकी कोई अर्थबोधक भूमिका ही। यथा–

__**जब तें राम ब्याहि घर आए। **

**(**मानस, २.१.१)

__यहाँ ‘ते’ स्वयं विभक्तिवाचक है, फिर अनुनासिक की क्या आवश्यकता ?

__**राजसभाँ रघुराज बिराजा। **

(मानस, २.२.१)

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यहाँ सप्तमी विभक्ति लुप्त है, उसके लिए चन्द्रबिन्दु का प्रयोग सर्वथा अनुचित एवं अव्यावहारिक है। कोई भी भाषाविज्ञान अनुनासिकों को विभक्तियों का वाचक या द्दोतक मानने के लिए कभी भी तैयार नहीं है “**उपस्थितस्य गतिश्चिन्तनीया” **इसलिए समीचीन नहीं होगा, क्योंकि अन्य पुरानी प्रामाणिक प्रतियों में उकार और अनुनासिकों का चन्द्रग्रहण नहीं लगा है। गोस्वामी जी ने अपनी कविता को सर्वसुलभ और सर्वबोधगम्य बनाने के लिए ही ऐसी सरल भाषा में लिखा, जिसका अनप़ढ भी सरलता से उच्चारण कर सके। अपने इसी मन्तव्य को स्पष्ट करते हुये गोस्वामीपाद ने बालकाण्ड के तेरहवें दोहे में सुस्पष्ट शब्दों में आज्ञा दी कि कीर्ति, कविता और विभूति वही श्रेष्ठ मानी जाती है जो गङ्गा जी के समान सभी के लिए कल्याणकारिणीं हो। जो कविता सरल हो तथा कीर्ति निर्मल हो उसी का सुजान लोग आदर करते हैं और वही कविता कविता है, जिसे सुनकर स्वाभाविक बैर भूलकर शत्रु भी प्रशंसा करे। यथा–

कीरति भनिति भूति भलि सोई।
__सुरसरि सम सब कहँ हित होई॥ सरल कबित कीरति बिमल सोइ आदरहिं सुजान।

**(**मानस, १.१४.९)

**सहज बयर बिसराय रिपु जो सुनि करहिं बखान॥ **(मानस, १.१४, क) यहाँ तो अनुनासिक और उकार का ऐसा भयंकर आडम्बर प्रस्तुत हुआ है, जिससे सामान्य व्यक्ति श्रीरामचरितमानस को इनके अनुसार शुद्ध–शुद्ध प़ढ भी नहीं सकता, कण्ठस्थ करने या समझने की बात तो कोसों दूर रही। कदाचित्‌ प्रचलित प्रतियों के संपादकों के द्वारा श्रीतुलसीदासजी का भी जायसीकरण का कुत्सित प्रयास किया गया है यह सर्वथा अनुचित है। श्रीतुलसीदासजी महाराज जायसी का अनुसरण करें यह अनिवार्य नहीं है। महापुरूष किसी के अनुगन्ता नहीं होते। हिन्दी में एक सूक्ति है–

लीक–लीक तीनों चलें कायर, क्रूर कपूत। लीक छाँतिड़ ीनों चलें सायर, सिंह सपूत॥

गोस्वामीपाद की मान्यता के अनुसार “**गिरा ग्राम्य सियराम जस” **इस खण्ड में प्रयुक्त ग्राम्य गिरा की एक परिभाषा है। उसी ग्राम्य गिरा को गोस्वामीजी ने स्वीकार किया है जिसमें अनुपम अर्थ, सुन्दर भाव तथा संस्कारयुक्त भाषा की प्रतीति हो। यथा–

**अरथ अनूप सुभाव सुभाषा। (**मानस १.३७.६)

श्रीतुलसीदासजी के आराध्य श्रीरामजी मर्यादा पुराषोत्तम्‌ हैं, वैसी ही उनकी मर्यादामयी संस्कारसम्पन्न तथा श्रुतिमनोहर भाषा भी है। गोस्वामीजी ग्राम्य गिरा लिखते हैं, किन्तु गँवारी गिरा नहीं लिखते हैं। यह आवश्यक नहीं कि प्रत्येक ग्राम निवासी संस्कारशून्य एवं असभ्य भाषा का ही व्यवहार करें। ग्राम में भी शिक्षित और अशिक्षित दोनों वर्गों के लोग रहते हैं। गोस्वामी जी की दृष्टि में आदर्शवादी, सुसंस्कृत, समृद्ध भारत राष्ट्र की परिकल्पना थी। अतएव, तदनुरूप ही उनका वक्तव्य भी था। कोई भी सुधी अमृत को दूषित पात्र में नहीं परोसता है। पात्र से ही भोजन की गुणवत्ता परिलक्षित होती है।

अतएव, श्रीरामचरितमानस में सर्वत्र आंचलिक, असंस्कृत एवं ठेठ शब्दों के प्रयोग की कोई बाध्यता नहीं थी। गोस्वामी जी महाराज का श्रीरामचरिमानस एक ही साथ साहित्यिकों का तथा धर्मपरायण लोगों का भी मार्गदर्शन एवं सम्बल है। अत: सम्पादन में भी मेरे द्वारा दोनों परम्पराओं के समन्वय से पाठ का

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निश्चय किया गया है। इसी प्रकार एक ‘न्ह’ की समस्या है जबकि गोस्वामी जी ने स्वयं इसका प्रयोग नहीं किया है। यथा–

**पुनि चरननि मेले सुत चारी। (**मानस, १.२०७.५)

इसी आधार पर हमने अपनी सम्पादित प्रति में प्रायश: नकार के साथ जुड़े हकार को हटा ही दिया है, क्योंकि यह प्रयोग ब्रजभाषा का है, जहाँ नकार से विभक्तियों का काम चलाया जाता है, वहाँ भी ‘न्ह’ संयुक्ताक्षर का प्रयोग नहीं मिलता।

प्रचलित प्रति में तो मानो ‘तुम’ शब्द को निष्कासित ही कर दिया गया है, उसके स्थान पर मनग़ढन्त रूप से ‘तुम्ह’ शब्द को प्रतिष्ठित किया गया है। यथा–

__**तुम्ह पुनि राम राम दिन राती। तुम्ह अपराध जोगु नहीं ताता। तुम्ह बिनु दुखी सुखी तुम्ह तेहीं। तुम्ह जानहु जिय जो जेहि केहीं॥ ते तुम्ह राम अकाम पिआरे। कहहु नाथ तुम्ह अंतरजामी। को तुम्ह स्यामल गौर सरीरा। तुम्ह प्रिय मोहि भरत जिमि भाई। जौं तुम्ह कीन्हि जानि जन दाया। ताते तुम्ह अतिसय प्रिय मोरे। तात तासु तुम्ह प्रान अधारा। **

**(मानस, १.१०८.७)(**मानस, २.४३.३)

__(मानस, २.२९१.३)**(मानस, ३.६.६)(मानस, ३.६.९)(मानस, ४.१.७)(मानस, ४.२१.७)(मानस, ५.४६.८)(मानस, ५.४९.१)(**मानस, ६.६१.१४)

__**राम प्रान प्रिय नाथ तुम्ह सत्य बचन मम तात। (**मानस, ७.२)

__इसी प्रकार ‘तुम्हहि’ शब्द भी अनुपयुक्त ही है। यथा– **भजी तुम्हहि सब देव बिहाई। पूजहिं तुम्हहि सहित परिवारा। **

**(मानस, ३.६.७)(**मानस, २.१२९.६)

‘तुम’ शब्द का प्रयोग प्रायश: बुन्देलखण्ड के बाँदा क्षेत्र में होता है। मैं विगत्‌ तीस वर्षों से चित्रकूट में निवास करने के कारण बाँदा की भाषा एवं बाँदा की भाषाभाषियों के सम्पर्क में हूँ, वहाँ मैंने कभी भी ‘तुम्ह’ शब्द का प्रयोग नहीं सुना। प्रचलित प्रतियों के सम्पादकों के मन में यह कहाँ से आया यह तो भगवान ही जाने। अवधी भाषा तथा अन्य भाषाओं में भी कर्तृवाच्य में क्रिया कर्त्ता की अनुगामिनी होती है। यह परम्परा संस्कृत व्याकरण से ही सर्वत्र ली गई है। जबकि प्रचलित प्रतियों में इस नियम का सर्वथा उल्लंघन किया गया है। यथा–

__**दीन्हि अशीश। आशिश दीन्हि राम प्रिय जाना। **

**(मानस, २.१०६)(**मानस, ५.१७.२)

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इसी प्रकार ‘जिन्हहिं’ ‘जिन्ह कर’ ‘जिन्ह’ के इत्यादि स्थलों में शुद्धि का प्रदर्शन करते हुये ‘न्ह’ संयुक्ताक्षर रखा गया है, जबकि गोस्वामी तुलसीदासजी ने अन्य ग्रन्थों में तथा मानसजी में भी इस नियम को नहीं माना है। यथा–

**राम कृपा अतुलित बल तिनहि। (**मानस, ५.५५.२)

जहाँ तक अपभ्रंश का प्रश्न है वहाँ मेरा यही अनुरोध है कि, गोस्वामीपाद जायसी की भाँति अत्यत गँवारू अवधी शब्दों के पक्षधर नहीं हैं। गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज वैदिक सनातन संस्कृति के उद्‌गाता तथा सनातन धर्म के व्याख्याता हैं, उन्हें ग्राम्य अवधी स्वीकृत है गँवारू नहीं।

**गिराग्राम्य सियराम जस। (**मानस, १.१०)

तात्पर्य यह है कि, तुलसीदासजी महाराज ग्राम्य शब्द का प्रयोग करके स्वयं को परिष्कृत अवधी के प्रयोग में रुचिमान सूचित करते हैं, जो ‘इदमित्थं’ कहि जाइ न सोई, ’पश्यामि राममनामयम्‌’, ‘एवमस्तु इति भइ नभ बानी’ जैसे परिष्कृत शब्दों के प्रयोग से स्वयं को कृतकार्य मानता हो, वह ‘हृदउ’ ‘अचिरिजु’ जैसे अत्यन्त गँवारू शब्दों का प्रयोग कैसे करेगा?

इसी प्रकार तालव्य ‘श’ के सम्बन्ध में भी तुलसीदासजी का मत बहुत सुस्पष्ट है। गोस्वामी जी को उसी स्थान पर तालव्य ‘श’ के स्थान पर दन्त्य ‘स’ करना अभीष्ट है जहाँ किसी आपत्तिजनक अर्थ की सम्भावना नहीं हो, जैसे ‘सोभा’, परन्तु जहाँ तालव्य शकार के स्थान पर दन्त्य सकार के प्रयोग से अमर्यादित अर्थ के बोध की सम्भावना हो वहाँ श्री तुलसीदासजी कभी भी दन्त्य सकार का प्रयोग नहीं करेंगे, यथा–

‘शंकर’ यहाँ तालव्य शकार के प्रयोग से शंकर का अर्थ शिव होगा तथा दन्त्य सकार का प्रयोग करने से ‘संकर’ का अर्थ वर्णसंकर हो जायेगा। इसी प्रकार अन्यत्र भी समझ लेना चाहिए। अब हम कतिपय शब्द सम्बन्धी अपपाठों पर विचार करेंगे।

मानस (१.२.०५) की प्रचलित प्रति में ‘साधु चरित सुभ चरित कपासू’ पाठ है, इसके विपरीत सभी प्राचीन एवं नवीन प्रतियों में **‘साधु चरित शुभ सरिस कपासू’ **पाठ मिलता है, हमने भी वही पाठ स्वीकारा है। इसी प्रकार अयोध्याकाण्ड के प्रथम मंगलाचरण में ‘यस्याङ्के’ और द्वितीय मंगलाचरण में **‘तथा न मम्ले’ **पाठ यद्दपि प्रचलित प्रति एवं राजापुर की पोथी में विद्दमान है, परन्तु इस पाठ में हमें बहुत–सी विसंगतियाँ प्रतीत होती हैं। ‘अंक’ शब्द का अर्थ गोद है ‘यस्याङ्के’ शब्द का अर्थ है जिनकी गोद में। यद्दपि शिव जी की गोद में पार्वती जी का विराजमान होना कोई अस्वभाविक नहीं है, तथापि अयोध्याकाण्ड की परिस्थिति एवं ग्रन्थकार की मर्यादापूर्ण प्रस्तुति की दृष्टि से यहाँ यह पाठ पूर्णतया अस्वाभाविक है जबकि अन्य पुस्तकों में इसके विपरीत ‘वामाङ्गे’ पाठ उपलब्ध होता है। यह पाठ गोस्वामी जी के स्वभाव के अनुकूल तथा अयोध्याकाण्ड की परिस्थिति के अनुरूप पूर्ण समीचीन बन पड़ती है। भगवती पार्वतीजी भगवान श्री शिवजी के वामभाग में विराजती हैं और यही नहीं शिवजी ने उन्हें अपना वाम अंग ही बना लिया है। यह तथ्य पुराण प्रसिद्ध है और गोस्वामी जी भी इस मान्यता से सहमत हैं। यथा–

**किय भूषन तियभूषन ती को। (**मानस, १.१९.७)

(xiii)

**सदा शम्भु अरधंग निवासिनी। वाम अंग अंगना। आवामावामार्द्धे। **

**(मानस, १.९७.३)(कवितावली, ७.१५१)(नैषध, **१३.८५)

आगे चलकर श्री सीताजी के लिए भी गोस्वामी जी इसी शैली का प्रयोग करते हैं। यथा– **सीतासमारोपित वामभागम्‌। **‘यस्याङ्के’ शब्द से श्रीउमामहेश्वर का शृंगार पक्ष सुस्पष्ट होता है, जबकि तुलसीदासजी महाराज पार्वती-परमेश्वर के शृंगारवर्णन के पक्ष में नहीं हैं। **जगत मात पितु शम्भु भवानी। तेहिं शृंगार न कहहुँ बखानी। (**मानस, १.१०३.४) शृंगार की दशा में ही पत्नी पति की गोद में बैठती है जबकि वैदिक कार्यों में वामभाग में। अत: हमने भी यहाँ ‘यस्याङ्के’ के स्थान पर ‘वामाङ्गे’ को स्वपाठ मान लिया है। ‘म्लै’ धातु परस्मैपदी है। ‘ग्लैम्लै धातुक्षये’ लिट्‌लकार प्रथम पुरुष एकवचन में ‘म्लै’ धातु का ‘मम्लौ’ रूप ही बनता है ‘मम्ले’ प्रयोग सर्वथा अनुचित अशास्त्रीय और असाधु है। अत: अन्य प्रतियों की भाँति हमनें भी अपनी प्रति में ‘मम्लौ’ पाठ को ही स्वीकारा है। मानस (४.२६.८९) प्रचलित पाठ की घोर आपत्तियों के कारण अन्य पुस्तकों के अनुरोध से हमने उन्हीं का सम्मत पाठ ले लिया है। प्रचलित प्रति में उपलब्ध पाठ के अनुसार दोनों पंक्तियों में तुक का विरोध और मात्रा की व्यस्तता सुस्पष्ट दृष्टिगोचर होती है, यथा– **छन एक सोच मगन होइ रहे। पुनि अस बचन कहत सब भए। (**मानस, ४.२७.८) यहाँ ‘रहे’ और ‘भए’ में तुक की घोर विषमता किसी से भी अज्ञात नहीं है, सबको समझ में आ जाती है। अत: अन्य पुस्तकों के अनुरोध से हमने भी ‘रहे’ के स्थान पर ‘गए’ पाठ मान लिया है। **‘‘हम सीता की सुधि लीन्हे बिना।” (**मानस, ४.२७.९) के स्थान पर हमने अन्य पुस्तकों के अनुरोध से **‘‘हम सीता कै शोध बिहीना” **पाठ स्वीकार कर लिया है। सुन्दरकाण्ड के प्रथम मंगलाचरण में सभी प्राचीन एवं मानसपीयूष जैसे आकर ग्रन्थ के अनुरोध से हमनें भी ‘निर्वाण’ के स्थान पर ‘गीर्वाण’ पाठ को स्वीकारा है और इसी पाठ के तृतीय मंगलाचरण में ‘हेम’ के स्थान पर ‘स्वर्ण’ तथा ‘प्रियभक्तं’ के स्थान पर ‘वरदूतं’ पाठ को प्रामाणिकता की कोटि में रखा है। इसी काण्ड के चौवालीसवें दोहे का प्रचलित प्रति वाले ‘अंगद हनू समेत’ पाठ को भी हमारी बुद्धि ने नहीं स्वीकार किया। यद्दपि इसके समर्थन में पीयूषकार ने भी बहुत पक्ष दिए हैं, तथापि हम तुलसीदासजी जैसे अनन्य हनुमदुपासक के श्रीमुख से उनके इष्टदेव के प्रति सामान्य परिकरों की भाँति नाम के अर्द्धांश काअशिष्ट प्रयोग करना उचित नहीं मानते। अत: अन्य प्रमाणिक पुस्तकों के अनुरोध से हमने भी ‘कृपा निकेत’ के स्थान पर ‘कृपा निधान’ तथा अंगद हनू समेत के स्थान पर ‘अंगदादि हनुमान’ पाठ को ही अपनी सम्पादि प्रति में स्वीकार किया है। इसी प्रकार इसी काण्ड के ५४वें दोहे के उत्तरार्द्ध को भी प्राचीन प्रतियों के अनुसार **‘‘दधिमुख केहरि कुमुद गव” **शब्द खण्ड से युक्त मैंने स्वीकार किया है। प्रचलित प्रति में प्रयुक्त ‘‘निसठ सठ”

(xiv)

नाम में वानरों का कहीं भी उल्लेख नहीं मिलता है। मानस, ५.५६,ख. को तो हमने सभी प्राचीन प्रतियों के आधार पर प्रचलित प्रति से पूर्णरूपेण परिवर्तित कर दिया है।

षष्ठ सोपान तो अपपाठों से ही प्रारम्भ होता है, **‘निशिचर निकर निवासपुरी’ **लंका के नाम पर श्रीरामचरितमानस के काण्ड का नामकरण सम्भव ही नहीं है। भला खलनायक के नाम पर नायक के यशोगान का शीर्षक कैसे हो सकता है? इसलिए हमनें प्रचलित प्रति में प्राप्त ‘लंकाकाण्ड’ शीर्षक के स्थान पर ‘युद्धकाण्ड’ शीर्षक ही प्रामाणिक माना है, जो कोदौराम की प्रति तथा अन्य प्रामाणिक पुस्तकों से अनुमोदित है। मानस, (६.३२.५) में प्रचलित प्रति में *‘‘भूतल परेउ मुकुट अति सुन्दर” ***पाठ माना है, जो सर्वथा सिद्धान्त के विरुद्ध है, क्योंकि तुलसीदासजी ने भगवान श्रीरामजी के पक्ष में प्रयुक्त होने वाले लीला परिकरों को ही ‘अति सुन्दर’ शब्द से विशेषित किया है। यथा–

__**अतिसुन्दर दीन्हे जनवासा। रामनाम अंकित अति सुन्दर। लागे कहन कथा अति सुन्दर। **

**(मानस, १.३०५.६)(मानस, ५.१३.१)(**मानस, ५.३३.३)

फिर यह अति सुन्दर शब्द रावणपक्षीय परिकरों के लिए गोस्वामीजी द्वारा कैसे प्रयुक्त किया जा सकेगा ? अतएव हमनें कोदौराम प्रति तथा अन्य प्रतियों के अनुमोदन से “गिरत दशानन उठेउ सँभारी”। भूतल परे मुकुट षट चारी॥” यह परिवर्तित पाठ ही अपनी सम्पादित प्रति में ले लिया है।

सुन्दरकाण्ड में प्रयुक्त श्रीसीताजी के कथन के अनुसार रावण मायाबल से श्रीरामजी की मुद्रिका का भी निर्माण नहीं कर सकता–

**माया ते अस रची न जाई। **(मानस, ५.१३.३)

तो फिर उसके द्वारा मायाबल से श्रीरामजी की रचना कैसे सम्भव है ? जबकि प्रचलित प्रति के पाठ के अनुसार रावण ने माया से भगवान श्रीरामजी की भी रचना कर दी। यथा–

देखि कपिन्ह निशाचर अनी। अनुज सहित बहु कोसल धनी॥

**बहु राम लछमन देखि मरकट भालु मन अति अपडरे॥ (**मानस, ६.९०.८-९)

यद्दपि इसके समर्थन में पीयूषकार ने महाभारत के वनपर्व की श्रीरामकथा का उद्धरण देते हुए यह बताने का प्रयास किया है कि महाभारत की श्रीरामकथा में रावण द्वारा माया से भी श्रीरामजी के निर्माण का प्रसंग मिल जाता है, परन्तु यह पक्ष तुलसीदासजी को अभीष्ट नहीं है। यदि ऐसा होता तब वे श्रीसीताजी

से इसके विरुद्ध वाक्य क्यों कहलवाते ‘‘माया ते अस रची न जाई।”

गोस्वामी जी की दृष्टि में कोई भी उनके आराध्य भगवान्‌ श्रीरामजी की रचना कर ही नहीं सकता। इस सिद्धान्त के पोषण में महाकवि श्रीतुलसीदासजी महाराज ने अयोध्याकाण्ड की वनपथ–कथा के प्रसंग में ग्रामवधुओं से एक रोचक उत्प्रेक्षा भी करा डाली,

**इन्हहिं देखि बिधि मन अनुरागा। पटतर जोग बनावइ लागा॥ (**मानस, २.१२०.५)

**कीन्ह बहुत श्रम ऐक न आए। तेहिं ईर्ष्या बन आनि दुराए॥ (**मानस, २.१२०.६)

(xv)

अर्थात्‌ श्रीराम, लक्ष्मण, सीताजी के रूपमाधुरी को देखकर ब्रह्माजी के मन में बहुत अनुराग हुआ और वे इनकी उपमा के योग्य उपमानों की रचना करने लगे, जब बहुत श्रम करने पर भी श्रीराम, लक्ष्मण, सीताजी के उपमान नहीं बना पाए तब उसी ईर्ष्या के कारण ब्रह्माजी ने ही इन तीनों को वन भिजवा दिया।

निष्कर्षत: श्रीतुलसीदासजी के श्रीराम मायातीत होने से किसी के द्वारा मायाबल से बनाए नहीं जा सकते। जबकि प्रचलित प्रति में रावण द्वारा मायाबल से श्रीरामजी का निर्माण वर्णित हुआ। अतएव हमनें कोदौराम की प्रति तथा अन्य प्रतियों में छपे हुए पाठ को ही प्रामाणिक माना और प्रचलित पाठ को निरस्त किया।

यहाँ दो चौपाई तथा उनके पश्चात्‌ आनेवाले छन्द के प्रथम चरण का हमनें प्राचीन प्रतियों के आधार पर पाठ परिवर्तन किया है। यथा–

सब काहू मानी करि साँची। बहु अंगद लछिमन कपि धनी॥
बहु बालिसुत अंगद कपीश बिलोकि मरकट अपडरे।

प्रचलित प्रति में मानस (६.१०१) का भी पाठ अनुचित है। जहाँ श्रीतुलसीदासजी को मक्खी के रूप में प्रस्तुत किया गया है। जबकि मक्खी श्रीतुलसीदासजी के ही द्वारा अन्यत्र खल के मन का उपमान बनी है–

**परहित घृत जिनके मन माखी। (**मानस, .४.४) यहाँ की प्रस्तुति देखिए–

जिमि निज बल अनुरूप ते माछी उड़इ अकास।

अतएव प्रचलित प्रति का यह पाठ निरस्त करके हमने यहाँ कोदौराम प्रति तथा और सभी प्राचीन अर्वाचीन प्रतियों में मुद्रित पाठ को ही प्रसन्नतापूर्वक अपनी सम्पादित प्रति में ले लिया है। यथा–

कहे तासु गुनगन कछुक, ज़डमति तुलसीदास।

**निज पौरुष अनुरूप जिमि, मशक उड़ाहिं अकास॥ (**मानस, ६.१०१ क.)

गोस्वामी जी ने इस प्रकार की उपमा अन्यत्र भी दी है–

**तुमहि आदि खग मशक प्रजंता। नभ उड़ाहिं नहिं पावहिं अंता॥ (**मानस, ७.९१.५)

इसी प्रकार मानस (६.३२) तथा मानस (६.६० क.) के पश्चात्‌ प्रचलित प्रति में स्वकल्पित दोहे बना दिए गए हैं, जबकि इसके अतिरिक्त सभी प्राचीन-अर्वाचीन प्रतियों में दो–दो चौपाईयाँ उपलब्ध हैं, यथा–

__**प्रचलित प्रति– **

**उहाँ सकोपि दसानन, सब सन कहत रिसाइ।धरहु कपिहिं धरि मारहु, सुनि अंगद मुसकाइ॥ (**मानस, ६.३२ख.)

संशोधित प्रति– उहाँ कहत दशकन्ध रिसाई। धरि मारउ कपि भाजि न जाई॥
**प्रचलित प्रति– तव ** प्रताप उर राखि प्रभु जैहउँ नाथ तुरंत।

(xvi)

**अस कहि आयसु पाइ पद बंदि चलेउ हनुमंत॥ **(मानस, ६.६०क.)

संशोधित प्रति– तव प्रताप उर राखि गोसाईं। जैहों राम बान की नाईं॥

**भरत हरषि तब आयसु दयऊ। पद सिर नाइ चलत कपि भयऊ॥ **उत्तरकाण्ड की गरुड़ गीता प्रसंग में प्रचलित प्रति के पाठानुसार भुशुण्डीजी के यहाँ श्रीरामकथा

श्रवणार्थ वृद्ध–वृद्ध पक्षियों का आना ही प्रतिपादित किया गया है। यथा–

**बृद्ध बृद्ध बिहंग तहँ आए। (**मानस, ७.६२.४)

इस प्रतिपादन से तो श्रीरामकथा के श्रवण में युवकों एवं बालकों का अधिकार ही निरस्त हो जाएगा, जबकि गोस्वामी जी के अनुसार बालक, युवक, वृद्ध सभी श्रीरामकथा के अधिकारी हैं। निश्चित ही प्रचलित प्रति के पाठ के प्रति लिपिकर्त्ता से कोई प्रमाद हुआ है। श्रीरामेश्वर भट्‌ट की प्रति में हमनें ‘बृद्ध बृद्ध’ के स्थान पर ‘वृन्द वृन्द’ पाठ देखा है और उसी को गोस्वामी जी का मूल पाठ मानकर अपनी प्रति में भी स्वीकार किया है– **‘‘बृन्द बृन्द बिहंग तहँ आए।” **(मानस, ७.६२.४)

यहाँ लेख विस्तार भय से कतिपय प्रसंग ही दिखाए गए हैं । कतिपय स्थलों पर हमने प्रचलित पाठ का आमूलचूल परिवर्तन भी किया है तथा प्रचलित प्रति में मुद्रित न होने पर भी श्रीरामकथा का आवश्यक अंग तथा प्रसंग सिद्धान्त महाकवि की भावना के अनुकूल जानकर तीन छन्द, दो दोहे तथा बाईस चौपाईयाँ आदरपूर्वक अपनी प्रति में स्वीकारी है, जो कोदौराम की प्रति तथा अन्य प्रतियों में भी सादर संगृहीत हैं। इसी प्रकार–

__**करउ अनुग्रह अस जियजानी। कीन्हेसि कठिन प़ढाइ कुपाठू। कह गुरु बादि छोभ छल छाड़ू। **

**(मानस, १.१४.१२)(मानस, २.२०.४)(**मानस, २.२१८.१)

सभी प्राचीन तथा नवीन प्रतियों में मुद्रित हैं। न जाने क्यों इन्हें प्रचलित प्रति में क्यों नहीं लिया गया है, परन्तु हमने अपनी प्रति में इन्हें भी सादर संगृहीत कर लिया है। प्राय: मानस पीयूष प्रचलित प्रति की वकालत करता हुआ–सा दिखता है, परन्तु प्रचलित प्रति के कुछ ऐसे स्थल हैं जहाँ पीयूष ने भी उसका साथ छोड़ दिया है। यथा–मानस, १.३४४.१, १.१९९.५, ५.३५.९ और ६.१११.९ इत्यादि। कहीं–कहीं तो प्रचलित प्रति की हठधर्मिता बहुत खुलकर सामने आ गई हैं। जैसे– मानस, १.२६०.७ “प्रभुतन चितए प्रेमतन ठाना।” मानस, १.२९६.६ “तदपि प्रीत की प्रीत सुहाई।” मानस, १.१७५.७ “परम तुम्हार राम कर जानिहि।” मानस, ५.५४ “दधिमुख केहरि निशठ शठ” जबकि इनके विरुद्ध अन्य प्रतियों में शुद्ध पाठ निम्न रूप से छपे हैं–

(क) प्रभुतन चितइ प्रेम पन ठाना। (ख) तदपि प्रीति की रीति सुहाई। (ग) मरम तुम्हार राम करि जानहिं। (घ) दधिमुख केहरि कुमुद गव। (ङ) सब रूप सदा सब होइ न जो।

(xvii)

एक ऐसा भी स्थल है जहाँ सत्य की रक्षा के लिए मुझे प्रायश: प्राचीन और नवीन प्रचलित प्रतियों की भी अनदेखी करके नौ चौपाईयाँ तथा दो दोहे साहसिक निर्णय करते हुए अपनी प्रति में रखना पड़ा है जिन्हें, ज्वालाप्रसाद, रामेश्वर भट्‌ट, कपूरथला प्रति एवं और भी अनगिनत प्राचीन प्रतियों में सादर संगृहीत किया गया है और मेरे पूज्य पितामह जी ने भी जिस प्रति से मुझे मानसजी कण्ठस्थ कराया था उसमें भी ये संगृहीत थे। यह प्रसंग है अरण्यकाण्ड के सीताहरण का जिसमें ‘लक्ष्मण रेखा’ तथा ‘रावणभिक्षाटन’ प्रकरण को प्रचलित प्रतियों में नहीं संगृहीत किया गया है। ‘लक्ष्मण रेखा’ प्रकरण तो इतना प्रसिद्ध हो चुका है कि प्राय: सम्पूर्ण भारतीय जनमानस एवं विश्व के ९० प्रतिशत प़ढे-लिखे लोगों की जीभ पर बैठ सा गया है। भारत में तो लक्ष्मण रेखा एक लोकोक्ति सी बन गई है। सामान्यतया लोग कहते सुने जाते हैं कि “लक्ष्मण रेखा नहीं लाँघनी चाहिए”। संस्कृत में हनुमन्नाटक आदि रामायण साहित्य, हिन्दी में रामचन्द्रिका आदि लोक साहित्य के साथ श्रीरामचरितमानस की मन्दोदरी भी लक्ष्मण रेखा की चर्चा से वंचित नहीं रही। “रामानुज लघु रेख खिंचाई।” (मानस, ६.३६.२.) इसी प्रकार यतिवेषधारी रावण का भिक्षाटन भी बहुत प्रसिद्ध प्रकरण है। अत: इन दोनों प्रसंगों की चौपाईयों को हमने पूर्व निर्दिष्ट प्रतियों के आधार पर ज्यों का त्यों अपनी प्रति में संगृहीत कर लिया है। इसी प्रकार अनेकश: स्थलों में प्रचलित पाठगत आपत्तियों को निराकृत करते हुए भिन्न–भिन्न प्रतियों से गोस्वामी जी के सिद्धान्तानुकूल पाठों को हमने संग्रह मात्र किया है, अपने मन से कुछ भी जोड़ा या तोड़ा नहीं है। गोस्वामी तुलसीदासजी की ही कृपा से मेरी मृतप्राय जीवनयात्रा ‘स्वर्णयात्रा’ बनी और वह उन्हीं की कृपा से ‘हीरकयात्रा’ एवं ‘अमृतयात्रा’ की भी तैयारी में है। इसलिए मैं अनन्त जन्मों के लिए गोस्वामी तुलसीदासजी का ऋणी हूँ। मेरा रोम–रोम प्रतिक्षण उनकी कृतज्ञता का बोध करता है। मेरा प्रत्येक श्वास गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज की कृपाकादम्बिनी की शीतलछाया में ही चल रहा है। सत्य तो यह है कि मैंने अब तक गोस्वामी तुलसीदासजी का ही नमक खाया है, अभी भी खा रहा हूँ, और भविष्य में भी खाता एवं खिलाता रहूँगा। गोस्वामी तुलसीदासजी के कालजयी महाकाव्य श्रीरामचरितमानस भगवान्‌ ने मेरी जीवन कर्मनाशा को जीवनजाह्नवी बनाया। मैं एकमुख से उनके कितने उपकार कहूँ, उपकार, अनन्त उपकार, असंख्य उपकार, अगणित उपकार, अपरिमित उपकार। जैसाकि पहले ही कहा जा चुका है कि मैंने श्रीरामचरितमानसजी के अब तक चार हजार से ऊपर मौखिक पाठ किये। क्योंकि मुझे मानसजी कण्ठस्थ किये हुए पचास वर्ष हो चुके हैं, इसलिए उनके पौर्वापर्यविचार में श्रीसीतारामजी की कृपा से प्रायश: मैं नि:सन्दिग्ध तथा विश्वस्त एवं आश्वस्त हूँ। मुझे श्रीरामचरितमानसजी के प्रति भगवान्‌ वेद की भाँति ही अपूर्व श्रद्धा है। मैं भगवान्‌ वेद के ही समान श्रीरामचरितमानसजी के प्रत्येक अक्षर को भूतार्थ परमप्रामाणिक अप्रामाण्यज्ञानानाशकन्दित, त्रिकालाबाधित, सत्यस्वरूप स्वत: प्रमाण, श्रीरामजी का विग्रह ही मानता हूँ और वस्तुत: यही विश्वग्रन्थशेखर श्रीरामचरितमानस भगवान **“भारतीय राष्ट्रग्रन्थ” **होने की पूर्ण पात्रता रखते हैं। इनका सम्पादन करके और आम जन तक इनके सामान्य अर्थ को पहुँचा कर मैं मानस भगवान्‌ के चरण में केवल विवेक पुष्पांजलि ही प्रस्तुत कर रहा हूँ। गोस्वामी तुलसीदासजी को भावांजलि समर्पित करने के लिए ही श्रीचित्रकूट में मैंने श्रीतुलसीपीठ की प्रतिष्ठापना की। अत: यह सम्पादन भी **‘‘श्रीतुलसीपीठ संस्करण” **के नाम से जाना जाएगा। जिसे हजार आँख वाले भी करने में समर्थ नहीं हो पा रहे थे उसी

(xviii)

कार्य को बन्द आँखो वाला मैं खेल–खेल में सानन्द सम्पन्न कर रहा हूँ। यह तो केवल मेरे परमाराध्य कौसल्याक्रोडवर्ती शिशु वेषधारी सरकार श्रीराघवजू की ही कृपाकटाक्ष का प्रभाव है।

मैं उन्मुक्त भाव से अवनतकन्धर होकर उन सभी मानसजी के प्राचीन एवं नवीन प्रतियों के प्रति भूरि– भूरि आभार स्वीकार करता हूँ, जिनसे मुझे इस सम्पादन में सत्क्रियात्मक या प्रतिक्रियात्मक सहयोग मिला।

मैं धन्यवाद निवेदित कर रहा हूँ मानस पीयूष, मानसगू़ढार्थचन्द्रिका मानसमयंक, विनायकी, विजया, बालबोधिनी, ज्वालाप्रसादीय, रामेश्वरभट्टीय, गीताप्रेस आदि मानसजी की सभी प्रामाणिक टीकाओं एवं टीकाकारों के प्रति जिनके सद्‌विचार सम्बल से मैं इस दुर्गम पथ को पार कर सका।

‘‘हम तो हमारे राघव जू के राघव जू हमारे हैं”

मैं नि:संकोच मन से सादर कृतज्ञता ज्ञापन करता हूँ अपनी बड़ी बहन, श्रीराघव एवं राघवपरिवार की ‘बुआ जी’ जगद्‌गुरु रामभद्राचार्य विकलांग शिक्षण संस्थान, चित्रकूट, उ०प्र० की महासचिव, जगद्‌गुरु रामभद्राचार्य विकलांग विश्वविद्दालय चित्रकूट, उ०प्र० के जीवनपर्यन्त कुलाधिपति की सचिव डा० कुमारी गीतादेवी मिश्रा जी के प्रति, जिनके अनिर्वचनीय सहयोग के कारण ही इस शताब्दी का यह गुरुतम कार्य मैं सानन्द सम्पन्न कर पाया। वस्तुत: मेरी जीवन-जाह्नवी के साथ यह रविनन्दिनी न होती तो कदाचित्‌ यह सारस्वत प्रयाग भी न होता। मैं अपने सहयोगी श्रीदुर्गाप्रसाद द्विवेदी, वित्ताधिकारी, जे०आर०एच०यू० के प्रति बहुत आभार व्यक्त करता हूँ, जिन्होंने इस सम्पादन-कार्य में मुझे अमूल्य समय एवं सुझाव दिए। मैं प्रो० योगेशचन्द्र दुबे, संस्कृत विभागाध्यक्ष, जगद्‌गुरु रामभद्राचार्य विकलांग विश्वविद्दालय को अनेक आशीर्वाद देता हूँ जिन्होंने अत्यन्त श्रमपूर्वक इस ग्रन्थ में वर्तनी संशोधन का कार्य सम्पन्न कियाा। मैं प्रो० सत्यप्रकाश मिश्र, हिन्दी विभागाध्यक्ष, प्रयाग विश्वविद्दालय को निज सौहार्दभाजन को अनेक साधुवाद प्रदान करता हूँ जिन्होंने मेरा अनुरोध स्वीकार करके मेरे विश्वविद्दालय में अन्तर्राष्ट्रीय श्रीरामचरितमानस अनुसंधान केन्द्र के मानद निदेशक पद को अलंकृत करके तथा इस संस्करण का प्रकाशकीय लिखकर अपनी सरस्वती को पवित्र किया तथा सुधी पाठकजनों को अनुगृहीत किया।

इस प्रकार श्रीतुलसीपीठ संस्करण का यह प्रामाणिक भावार्थबोधिनी टीका मानस पाठकों के लिए तथा श्रीरामचरितमानस का नित्य पाठ करनेवालों के लिए परम उपादेय होगा यह मेरा दृ़ढ विश्वास है।

इक्कीसवीं शताब्दी का यह भावार्थबोधिनी टीका का तुलसीपीठ संस्करण सूर्य, जगद्‌गुरु रामभद्राचार्य विकलांग विश्वविद्दालय चित्रकूट, (उ०प्र०) रूप उदयाचल से ही प्रकाशित हो रहा है, जिसे निहारकर मैं जीवनपर्यन्त कश्यप जैसे परमानन्द की अनुभूति करता रहूँगा।

रामभद्र आचारज द्वारा शुभ सम्पादित। भिन्न भिन्न संशोधन विविध प्रतिन प्रतिपादित॥ तुलसीदास भनित वर सीतारामविमल जस। रामचरितमानस मंगलमय भगतिसुधारस॥
अमितकाल जावत लसौ भारतीय संस्कृतिभरन।

(xix)

गिरिधर सम्पादित बिसद तुलसीपीठ शुभ संस्करण॥

अन्ततः यह साहित्यिक प्रसूनांजलि मैं अपने भगवान गोस्वामी श्रीतुलसीदासजी महाराज के ही कर कमलों में सादर समर्पित कर रहा हूँ।

यावद्‌ राजति राजराजमुकुटालंकारहीरो हरि:
श्रीराम: सह सीतया सभगवान सौमित्रिसंसेवित:। यावत्तिष्ठति मारुतिहरिकथापीयूषपानव्रती

तावद्‌रामचरित्रमानसमिदंश्री चित्रकूटेऽवतु॥

॥श्रीसीतारामार्पणमस्तु॥ इति मंगलमाशास्ते।

जगद्‌गुरु रामानन्दाचार्य स्वामी डॉ० रामभद्राचार्य

जीवनपर्यन्त कुलाधिपति, जगद्‌गुरु रामभद्राचार्य विकलांग विश्वविद्दालय, चित्रकूट, (उ० प्र०)

(xx)

!!श्रीमद्राघवो विजयते!!