०१ टीकाकार का पुरोवाक्‌

भगवान श्री सीताराम जी की प्रेरणा से

इस प्रकार अनेक प्राचीन प्रतियों के आधार पर लगभग दस हजार नौ सौ (१०,९००) वृत्तों में प्राप्त और श्रीसीताराम जी की कृपा, श्रीहनुमानजी की अनुकम्पा एवं स्वयं की गोस्वामी श्रीतुलसीदास जी के श्रीचरणों के प्रति आस्था तथा अपनी सारस्वतसाधना के आलोक में परम प्रमाणिकता और विश्वसनियता के साथ सम्पादित यह श्रीरामचरितमानसजी का तुलसीपीठ संस्करण यद्दपि मूल गुटका के रूप में जनता जनार्दन के श्रीकरकमलों में समर्पित हो रहा था, इसी बीच इस संस्करण की पाण्डुलिपि देखकर ही स्वयं मेरे अंतर में विराजमान श्रीसीतारामजी, मेरे जीवन सर्वस्व बालक रूप श्रीरामजी, वसिष्ठानन्दवर्धन श्रीराघव सरकार, अन्जनान्दवर्धन श्रीहनुमानजी महाराज, मेरी अग्रजा श्रीराघव सरकार और आप सबकी ‘बुआजी’ डा० कुमारी गीतादेवी मिश्रा मेरे स्नेहभाजन श्री रमापति मिश्र वित्ताधिकारी एवं मेरे स्नेहभाजन डॉ० प्रो० रामदेव प्रसाद सिंह कुलपति, जे०आर०एच०यू०, मेरे वात्सल्यभाजन डा० अवनीशचन्द्र मिश्र, कुलसचिव, जे०आर०एच०यू० और मेरे बड़े ही अन्तरंग परिकर आयुष्मान्‌ अशोक बत्रा, राजीवनयन लोथरा तथा मेरे श्रीमानसपरम्परा के सुयोग्य विद्दार्थी एवं श्रीराममंत्रपरम्परा के निष्ठावान्‌ शिष्य मेरे अत्यंत वात्सल्यभाजन डा० ब्रजेश दीक्षित मानसमृगेन्द्र तथा मेरे श्रीमानस परम्परा के विद्दार्थी ब्राह्मण कर्मनिष्ठ डा० रामाधार शर्मा, मानस सारभौम आदि श्रीमानसजी पर एक भावार्थपरक सारस्वत व्याख्या लिखने का मुझसे बारम्बार सविनय अनुरोध करने लगे थे और मुझे भी श्रीमानसजी पर एक स्वस्थ भावार्थपरक संक्षिप्त व्याख्या की अनिवार्य आवश्यकता अनुभूत होने लगी थी, क्योंकि यह एक विडम्बनापूर्ण संयोग ही कह सकते हैं कि भारतेन्दु युग से लेकर अद्दावधि ख़डी बोली हिन्दी के इस विकासोन्मुख स्वर्णिम अध्याय में भी किसी सारस्वत साहित्यसेवी द्वारा श्रीरामचरितमानस की अपेक्षित सारस्वत समर्चा नहीं की जा सकी।

इस साठ वर्षीय स्वतंत्र भारत के युग में भी कदाचित्‌ सारस्वतों पर से मैकाले की शिक्षा तथा पाश्चात्य कुलाचार्य की कृष्णछाया नहीं दूर हो पाई। प्रतिभायें University कहे जानेवाले आधुनिक विश्वविद्दालयों में पिंज़डनिबद्ध सारिका की भाँति स्वार्थपरक राजनैतिक पर्यावरण में सिमटकर रह गई हैं।

प्रत्येक सारस्वत प्रायश: सरस्वती कमलिनी को तथाकथित धर्मनिरपेक्षता रूप हिमानी से परित्राण नहीं

दिला पाया और वह दो नावों पर च़ढे हुये जलयात्री की भाँति वाम और दक्षिण विचारधाराओं में बँट गया। वर्तमान के इस आधुनिक परिवेश में श्रीराम–कृष्णजी की चर्चा करना भी तथाकथित प़ढे-लिखे लोगों की दृष्टि में प्रज्ञापराध भाषीत होने लगा। तथाकथित प्रगतिशीलवाद के चक्रवात ने मानवमूल्यों की कल्पवल्ली को झकझोर दिया। भारतीय संस्कृति वैदेशिक सभ्यता के मारजारीय चंगुल में फँसकर त्राहिमाम की गुहार लगाने लगी। कोई भी विश्वविद्दालयों में नियुक्त प्रोफेसर श्रीरामचरितमानस जी पर इसलिए लिखने का साहस नहीं जुटा पाया कि कदाचित उसे धार्मिक न समझ लिया जाए। भले ही वासुदेवशरण अग्रवाल जैसे

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मनीषी ने पद्मावत पर संजीवनी व्याख्या लिखकर समाज में स्वयं को धर्मनिरपेक्ष प्रस्तुत करने में सफलता पाई हो, परन्तु क्या धार्मिकता को लोकापवाद के भय से श्रीरामचरितमानसजी से दूर रहकर उन्होंने स्वयं की सरस्वती को राजमरालिका के सौभाग्य से वंचित नहीं कर दिया ? आचार्य श्रीरामचन्द्र शुक्ल ने कुछ किया भी तो उन्हें प्रगतिशिलों द्वारा ब्राह्मणवाद के लांछन से लांछित किया गया। सम्प्रति विश्वविद्दालयों में इतने प्रपंच आ गये हैं कि उनसे उबर पाना आज के आचार्य, उपाचार्य तथा प्रवक्ताओं के लिये असम्भव नहीं तो कठिन अवश्य हो गया है।

यद्दपि श्रीमानस जी पर पचासों टीकायें लिखी गईं, परन्तु वे अल्पशिक्षित लोगों द्वारा या व्यासपद्धति के लोगों द्वारा लिखी जाने के कारण श्रीमानसजी के शब्दों के उचित अर्थ समझने एवं समझाने में उतनी सफल नहीं हो पाईं जितनी अपेक्षा थी। इसे दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि श्रीमानसजी के रचनाकाल के चार सौ तैंतीस वर्षों के बीतने के पश्चात्‌ भी श्रीमानसजी का भावार्थ भी ठीक–ठीक जनता के सामने नहीं आ सका, क्योंकि इन पर सारस्वतों द्वारा मन से कोई प्रयास नहीं किया गया, लोग इस ग्रन्थ को छूने से बचते रहे। मानसपीयूष, मानसगू़ढार्थ चन्द्रिका, सिद्धान्ततिलक, बालबोधिनी, संजीवनी, विजया, रामेश्वरभट्‌टीय, गीताप्रेस आदि टीकाओं के लेखक संस्कृत में श्रम नहीं करने के कारण और अवधी भाषा की प्रकृति तथा उसके संस्कारों से सर्वथा अपरिचित होने के कारण गोस्वामी श्रीतुलसीदास जी के मन्तव्य को अपेक्षित न्याय नहीं दे पाये। अतएव श्रीसीताराम जी की कृपा से समग्र तुलसीसाहित्य का कण्ठस्थकर्ता और अध्येता होने के साथ विश्वविद्दालयी सारस्वतपरम्परा से पूर्णत: परिचित मैं श्री मानस जी की एक व्यवस्थित सारस्वत व्याख्या प्रणीत करने का साहस जुटा पाया।

यह कटु सत्य है कि स्वातंत्र्योत्तर काल सारस्वती प्रतिभा के लिये दुष्काल ही सिद्ध हुआ है। ऐसा प्रतीत होता है कि स्वतंत्रता मिलने के पश्चात्‌ उसके सुख में उन्मत्त होकर हम अपने करणीयों की उपेक्षा कर बैठे, किन्तु साठ वर्षों में निन्यानवे प्रतिशत विसर्ग और एक प्रतिशत सर्ग देखने में आया। धर्म और संस्कृति को अस्पृश्य मान लिया गया। परम्परा और मूल्यों को ढोंग और पोंगापंथी समझकर पण्डितम्मन्यों द्वारा उनका परिहास किया गया, इसलिए स्वातंत्र्योत्तर काल में कारयित्री प्रतिभा के दर्शनों के लिये जिज्ञासुओं की आँखें तरस गईं। इस विशंकट संकट के समय में यह मेरा एक प्रयास मात्र है इसमें मैं कितना सफल रहूँगा यह तो भविष्य बतायेगा तथापि मैंने विनम्रता के साथ अपने निरुपाधिकनिष्ठा और शास्त्रीय परिश्रम में किसी भी प्रकार का संकोच नहीं बरता है। भागवत्‌ की भावार्थबोधिनी के रचयिता की भाँति मैं भी आत्मविश्वास के साथ कह रहा हूँ कि श्रीमानसजी की भावार्थदीपिका में मैंने कुछ भी अशास्त्रीय नहीं लिखा है यह प्रयास अवश्य किया कि जनता को इस टीका के माध्यम से श्रीमानस का मूलार्थ तो समझा ही दिया जाए।

भावार्थबोधिनी में मैंने संस्कृत टीकाओं की भाँति पदों के अन्वय के अनुसार ही अर्थ उद्‌घाटित किया है। पहले की अपेक्षा इस समय हिन्दी समृद्ध हुई है, अब उर्दू शब्दों की प्रयोगबहुलता का युग जा चुका है, मनुष्य का मानस स्वस्थ हो गया है अत: वह सतत्‌ खिचड़ी खाने में ही रुचि नहीं रखता उसे तो शुद्ध दाल–भात चाहिए, इसलिए हिन्दी से संस्कृत शब्दों का समन्वय तो स्वभाविक है। इसी अवधारणा से आकाशवाणी, दूरदर्शन, समाचार–पत्रों तथा पत्रिकाओं में संस्कृतगर्भित हिन्दी भाषा का विशुद्ध स्वरूप

दृष्टिगोचर होने लगा है मेरी व्याख्या में इसका भी बहुत बल मिला है। जहाँ कहीं पदों के एक से अधिक

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अर्थों की विवक्षा हुई है वहाँ मैंने ‘अथवा’ शब्द का प्रयोग किया है शब्दों को खण्डश: समझाने के लिये ‘अर्थात’ शब्द का संकेत और कोष्टकों का भी संकेत किया गया है।

अवधक्षेत्र में जन्म के सौभाग्य ने भी श्रीमानसजी को समझने और समझाने में मेरी प्रचुर सहायता की है। शब्द योजना और भावार्थ विधान में स्वयं को संतुष्ट करने के लिये मैंने कभी–कभी गीताप्रेस की टीका और मानसपीयूष अवश्य देखा है, पर उनसे कुछ चुराया नहीं है केवल यथार्थ का समर्थन माँगा है। जैसाकि सर्वविदित्‌ है कि गोस्वामी जी की भाषा ग्राम्य भाषा है गँवारू नहीं। वे परिष्किृत अवधी भाषा के प्रयोग शिल्पी रहे हैं उन्हें कृष्णा गौ का दूध पिलाना अभिष्ट है, परन्तु जैसे–तैसे जूठे और बिना मन के बनाये हुये पात्र में नहीं वह एक ऐसे मृन्मय पात्र में श्याम गौ का दूध परोसना चाहते हैं जिस पर स्वर्णपात्र भी ईर्ष्या करता है अब तक जिस पात्र में कालकूट विष, मदिरा और आमिष परोसा जाता था जिससे वह पात्र भी लांछित होता था, उसी पात्र में गोस्वामी श्रीतुलसीदासजी ने तुलसीदल पधराकर एक ऐसा कालजयी अमृत परोसा जिससे वह पात्र धन्य हो गया और उस सुधा को पीकर मानवजाति धन्य हो गई तथा इस ग्रन्थ का स्पर्श करके मेरी सरस्वती पावन हुईं।

अन्तर्राष्ट्रीय सम्पूर्णाधिकार सम्पन्न अपने प्रकार के अद्वितीय जगद्‌गुरु रामभद्राचार्य विकलांग विश्वविद्दालय, चित्रकूट, (उ०प्र०) का जीवनपर्यन्त कुलाधिपति होकर भी मैं तथाकथित सारस्वतों द्वारा थोपी गई अस्पृश्यता से नहीं डरा और बड़ी ही निष्ठा और तत्परता के साथ थोड़े ही समय में श्रीमानस भावार्थबोधिनी टीका सम्पन्न की, क्योंकि मैं पत्रकारों की कृपा से सामान्य जनता के मनद्वार पर ढकेली हुई धर्मनिरपेक्षतारूपी चुड़ैल से नहीं डरता। कदाचित्‌ सारस्वत बन्धु ‘धर्म’ शब्द का वास्तविक अर्थ समझ लेते तो वे भी नहीं डरते। वस्तुत: भारतीय वाङ्‌मय में धर्म शब्द कर्तव्य के अर्थ में ही प्रयुक्त होता है न कि पूजा पद्धति के अर्थ में। Secularism का अर्थ भी धर्मनिरपेक्षता न होकर पंथनिरपेक्षता होता है। सिद्धान्तों को पंथविशेष की अपेक्षा नहीं होती क्योंकि वे सार्वभौम होते हैं, परन्तु उन्हें भी उस धर्म की अपेक्षा अवश्य होती है जिसका अर्थ है कर्तव्य। कहीं–कहीं शब्दों का यथार्थ समझने और समझाने के लिये मैंने पाणिनी व्याकरण के सूत्रों की सहायता ली है, इसके लिये मुझे यावत्‌ जवीन महर्षि पाणिनी की कृतज्ञता का बोध रहेगा।

इस व्याख्या को लिखने में जितनी अनमुक्तता और निश्चिंतता की आवश्यकता थी वह सब उपलब्ध करायीं श्रीराघवसरकर और आप सबकी ‘बुआजी’ डा० कुमारी गीतादेवी मिश्रा जी ने जो जगद्‌गुरु रामभद्राचार्य विकलांग विश्वविद्दालय, चित्रकूट, उ०प्र० के जीवनपर्यन्त कुलाधिपति मुझ भावार्थबोधिनी लेखक की सचिव और अग्रजा हैं उनका मैं आजीवन कृतज्ञ रहूँगा। मैं प्रयाग विश्वविद्दालय के हिन्दी के पूर्व विभागाध्यक्ष तथा जे०आर०एच०यू० के अन्तर्राष्ट्रीय श्रीरामचरितमानस अनुशंधान केन्द्र के पूर्व मानद निदेशक हिन्दी साहित्य के मनीषियों में मूर्धन्य अपने परम स्नेही डा० स्वर्गीय सत्यप्रकाश मिश्र जी को कभी नहीं भूलूँगा जिनकी शुभेच्छा तथा सद्‌भावना से मैं यह कार्य कर पाया। मैं अपने वात्सल्य भाजन शिष्य आयुष्मान प्रसून तिवारी तथा सतीश कुमार गौतम को शुभाशीष देता हूँ, इनमें से एक अर्थात्‌ प्रसून ने सेवा से और सतीश गौतम ने लिपि संशोधन से मुझे इस कार्य में अत्यन्त परितुष्ट किया। इसके अलावा मैं श्री अरविंद पाण्डेय व श्री शरद अग्रवाल का आभारी हूँ जिन्होंने इस कार्य के मुद्रण में अपना भरपूर

सहयोग प्रदान किया।

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अन्तत: मैं श्रीरामचरितमानसजी की भावार्थबोधिनी व्याख्या को अपने परमाराध्य कविकुलगुरु गोस्वामी श्रीतुलसीदासजी महाराज के श्रीचरणकमलों में समर्पित कर रहा हूँ और विश्वास करता हूँ कि भावार्थबोधिनी की हिन्दी व्याख्या के साथ श्रीरामचरितमानस का यह तुलसीपीठ संस्करण सम्पूर्ण मानवजाति को अवश्य संस्कृत करेगा।

तुलसीपीठसंस्करणं मानसस्य मयाकृतम्‌। भावार्थबोधिनी युक्तं संस्वयान्मानसानिन:॥

॥इति मंगलामाशास्ते॥ ॥श्री परमात्मने नम:॥

राघवीयो जगद्गुरू रामानन्दाचार्य स्वामी रामभद्राचार्य जीवन पर्यन्त कुलाधिपति जगद्‌गुरु रामभद्राचार्य विकलांग विश्वविद्दालय, चित्रकूट (उ०प्र०)

विवाह पंचमी विक्रमी संवत २०६४ ★ ★ ★ ★ ★

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॥ नमो राघवाय ॥