२१ रामायण-माहात्म्य, तुलसी-विनय और फलस्तुति

मूल (चौपाई)

पूँछिहु राम कथा अति पावनि।
सुक सनकादि संभु मन भावनि॥
सत संगति दुर्लभ संसारा।
निमिष दंड भरि एकउ बारा॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो आपने मुझसे शुकदेवजी, सनकादि और शिवजीके मनको प्रिय लगनेवाली अति पवित्र रामकथा पूछी। संसारमें घड़ीभरका अथवा पलभरका एक बारका भी सत्संग दुर्लभ है॥ ३॥

मूल (चौपाई)

देखु गरुड़ निज हृदयँ बिचारी।
मैं रघुबीर भजन अधिकारी॥
सकुनाधम सब भाँति अपावन।
प्रभु मोहि कीन्ह बिदित जग पावन॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे गरुड़जी! अपने हृदयमें विचारकर देखिये, क्या मैं भी श्रीरामजीके भजनका अधिकारी हूँ? पक्षियोंमें सबसे नीच और सब प्रकारसे अपवित्र हूँ। परन्तु ऐसा होनेपर भी प्रभुने मुझको सारे जगत् को पवित्र करनेवाला प्रसिद्ध कर दिया (अथवा प्रभुने मुझको जगत्प्रसिद्ध पावन कर दिया)॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

आजु धन्य मैं धन्य अति जद्यपि सब बिधि हीन।
निज जन जानि राम मोहि संत समागम दीन॥ १२३(क)॥

अनुवाद (हिन्दी)

यद्यपि मैं सब प्रकारसे हीन (नीच) हूँ, तो भी आज मैं धन्य हूँ, अत्यन्त धन्य हूँ, जो श्रीरामजीने मुझे अपना ‘निज जन’ जानकर संत-समागम दिया (आपसे मेरी भेंट करायी)॥ १२३(क)॥

मूल (दोहा)

नाथ जथामति भाषेउँ राखेउँ नहिं कछु गोइ।
चरित सिंधु रघुनायक थाह कि पावइ कोइ॥ १२३(ख)॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे नाथ! मैंने अपनी बुद्धिके अनुसार कहा, कुछ भी छिपा नहीं रखा। (फिर भी) श्रीरघुवीरके चरित्र समुद्रके समान हैं; क्या उनकी कोई थाह पा सकता है?॥ १२३(ख)॥

मूल (चौपाई)

सुमिरि राम के गुन गन नाना।
पुनि पुनि हरष भुसुंडि सुजाना॥
महिमा निगम नेति करि गाई।
अतुलित बल प्रताप प्रभुताई॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरामचन्द्रजीके बहुत-से गुणसमूहोंका स्मरण कर-करके सुजान भुशुण्डिजी बार-बार हर्षित हो रहे हैं। जिनकी महिमा वेदोंने ‘नेति-नेति’ कहकर गायी है; जिनका बल, प्रताप और प्रभुत्व (सामर्थ्य) अतुलनीय है;॥ १॥

मूल (चौपाई)

सिव अज पूज्य चरन रघुराई।
मो पर कृपा परम मृदुलाई॥
अस सुभाउ कहुँ सुनउँ न देखउँ।
केहि खगेस रघुपति सम लेखउँ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिन श्रीरघुनाथजीके चरण शिवजी और ब्रह्माजीके द्वारा पूज्य हैं, उनकी मुझपर कृपा होनी उनकी परम कोमलता है। किसीका ऐसा स्वभाव कहीं न सुनता हूँ, न देखता हूँ। अतः हे पक्षिराज गरुड़जी! मैं श्रीरघुनाथजीके समान किसे गिनूँ (समझूँ)?॥ २॥

मूल (चौपाई)

साधक सिद्ध बिमुक्त उदासी।
कबि कोबिद कृतग्य संन्यासी॥
जोगी सूर सुतापस ग्यानी।
धर्म निरत पंडित बिग्यानी॥

अनुवाद (हिन्दी)

साधक, सिद्ध, जीवन्मुक्त, उदासीन (विरक्त), कवि, विद्वान्, कर्म (रहस्य) के ज्ञाता, संन्यासी, योगी, शूरवीर, बड़े तपस्वी, ज्ञानी, धर्मपरायण, पण्डित और विज्ञानी॥ ३॥

मूल (चौपाई)

तरहिं न बिनु सेए मम स्वामी।
राम नमामि नमामि नमामी॥
सरन गएँ मो से अघ रासी।
होहिं सुद्ध नमामि अबिनासी॥

अनुवाद (हिन्दी)

ये कोई भी मेरे स्वामी श्रीरामजीका सेवन (भजन) किये बिना नहीं तर सकते। मैं उन्हीं श्रीरामजीको बार-बार नमस्कार करता हूँ। जिनकी शरण जानेपर मुझ-जैसे पापराशि भी शुद्ध (पापरहित) हो जाते हैं, उन अविनाशी श्रीरामजीको मैं नमस्कार करता हूँ॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

जासु नाम भव भेषज हरन घोर त्रय सूल।
सो कृपाल मोहि तो पर सदा रहउ अनुकूल॥ १२४(क)॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिनका नाम जन्म-मरणरूपी रोगकी (अव्यर्थ) औषध और तीनों भयंकर पीड़ाओं (आधिदैविक, आधिभौतिक और आध्यात्मिक दुःखों) को हरनेवाला है, वे कृपालु श्रीरामजी मुझपर और आपपर सदा प्रसन्न रहें॥ १२४(क)॥

मूल (दोहा)

सुनि भुसुंडि के बचन सुभ देखि राम पद नेह।
बोलेउ प्रेम सहित गिरा गरुड़ बिगत संदेह॥ १२४(ख)॥

अनुवाद (हिन्दी)

भुशुण्डिजीके मंगलमय वचन सुनकर और श्रीरामजीके चरणोंमें उनका अतिशय प्रेम देखकर सन्देहसे भलीभाँति छूटे हुए गरुड़जी प्रेमसहित वचन बोले॥ १२४(ख)॥

मूल (चौपाई)

मैं कृतकृत्य भयउँ तव बानी।
सुनि रघुबीर भगति रस सानी॥
राम चरन नूतन रति भई।
माया जनित बिपति सब गई॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरघुवीरके भक्ति-रसमें सनी हुई आपकी वाणी सुनकर मैं कृतकृत्य हो गया। श्रीरामजीके चरणोंमें मेरी नवीन प्रीति हो गयी और मायासे उत्पन्न सारी विपत्ति चली गयी॥ १॥

मूल (चौपाई)

मोह जलधि बोहित तुम्ह भए।
मो कहँ नाथ बिबिध सुख दए॥
मो पहिं होइ न प्रति उपकारा।
बंदउँ तव पद बारहिं बारा॥

अनुवाद (हिन्दी)

मोहरूपी समुद्रमें डूबते हुए मेरे लिये आप जहाज हुए। हे नाथ! आपने मुझे बहुत प्रकारके सुख दिये (परम सुखी कर दिया)। मुझसे इसका प्रत्युपकार (उपकारके बदलेमें उपकार) नहीं हो सकता। मैं तो आपके चरणोंकी बार-बार वन्दना ही करता हूँ॥ २॥

मूल (चौपाई)

पूरन काम राम अनुरागी।
तुम्ह सम तात न कोउ बड़भागी॥
संत बिटप सरिता गिरि धरनी।
पर हित हेतु सबन्ह कै करनी॥

अनुवाद (हिन्दी)

आप पूर्णकाम हैं और श्रीरामजीके प्रेमी हैं। हे तात! आपके समान कोई बड़भागी नहीं है। संत, वृक्ष, नदी, पर्वत और पृथ्वी—इन सबकी क्रिया पराये हितके लिये ही होती है॥ ३॥

मूल (चौपाई)

संत हृदय नवनीत समाना।
कहा कबिन्ह परि कहै न जाना॥
निज परिताप द्रवइ नवनीता।
पर दुख द्रवहिं संत सुपुनीता॥

अनुवाद (हिन्दी)

संतोंका हृदय मक्खनके समान होता है, ऐसा कवियोंने कहा है; परन्तु उन्होंने (असली बात) कहना नहीं जाना। क्योंकि मक्खन तो अपनेको ताप मिलनेसे पिघलता है और परम पवित्र संत दूसरोंके दुःखसे पिघल जाते हैं॥ ४॥

मूल (चौपाई)

जीवन जन्म सुफल मम भयऊ।
तव प्रसाद संसय सब गयऊ॥
जानेहु सदा मोहि निज किंकर।
पुनि पुनि उमा कहइ बिहंगबर॥

अनुवाद (हिन्दी)

मेरा जीवन और जन्म सफल हो गया। आपकी कृपासे सब सन्देह चला गया। मुझे सदा अपना दास ही जानियेगा। (शिवजी कहते हैं—) हे उमा! पक्षिश्रेष्ठ गरुड़जी बार-बार ऐसा कह रहे हैं॥ ५॥

दोहा

मूल (दोहा)

तासु चरन सिरु नाइ करि प्रेम सहित मतिधीर।
गयउ गरुड़ बैकुंठ तब हृदयँ राखि रघुबीर॥ १२५(क)॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन (भुशुण्डिजी) के चरणोंमें प्रेमसहित सिर नवाकर और हृदयमें श्रीरघुवीरको धारण करके धीरबुद्धि गरुड़जी तब वैकुण्ठको चले गये॥ १२५(क)॥

मूल (दोहा)

गिरिजा संत समागम सम न लाभ कछु आन।
बिनु हरि कृपा न होइ सो गावहिं बेद पुरान॥ १२५(ख)॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे गिरिजे! संत-समागमके समान दूसरा कोई लाभ नहीं है। पर वह (संत-समागम) श्रीहरिकी कृपाके बिना नहीं हो सकता, ऐसा वेद और पुराण गाते हैं॥ १२५(ख)॥

मूल (चौपाई)

कहेउँ परम पुनीत इतिहासा।
सुनत श्रवन छूटहिं भव पासा॥
प्रनत कल्पतरु करुना पुंजा।
उपजइ प्रीति राम पद कंजा॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैंने यह परम पवित्र इतिहास कहा, जिसे कानोंसे सुनते ही भवपाश (संसारके बन्धन) छूट जाते हैं और शरणागतोंको (उनके इच्छानुसार फल देनेवाले) कल्पवृक्ष तथा दयाके समूह श्रीरामजीके चरणकमलोंमें प्रेम उत्पन्न होता है॥ १॥

मूल (चौपाई)

मन क्रम बचन जनित अघ जाई।
सुनहिं जे कथा श्रवन मन लाई॥
तीर्थाटन साधन समुदाई।
जोग बिराग ग्यान निपुनाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो कान और मन लगाकर इस कथाको सुनते हैं, उनके मन, वचन और कर्म (शरीर) से उत्पन्न सब पाप नष्ट हो जाते हैं। तीर्थयात्रा आदि बहुत-से साधन, योग, वैराग्य और ज्ञानमें निपुणता,॥ २॥

मूल (चौपाई)

नाना कर्म धर्म ब्रत दाना।
संजम दम जप तप मख नाना॥
भूत दया द्विज गुर सेवकाई।
बिद्या बिनय बिबेक बड़ाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

अनेकों प्रकारके कर्म, धर्म, व्रत और दान, अनेकों संयम, दम, जप, तप और यज्ञ, प्राणियोंपर दया, ब्राह्मण और गुरुकी सेवा; विद्या, विनय और विवेककी बड़ाई (आदि)—॥ ३॥

मूल (चौपाई)

जहँ लगि साधन बेद बखानी।
सब कर फल हरि भगति भवानी॥
सो रघुनाथ भगति श्रुति गाई।
राम कृपाँ काहूँ एक पाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

जहाँतक वेदोंने साधन बतलाये हैं, हे भवानी! उन सबका फल श्रीहरिकी भक्ति ही है। किन्तु श्रुतियोंमें गायी हुई वह श्रीरघुनाथजीकी भक्ति श्रीरामजीकी कृपासे किसी एक (विरले) ने ही पायी है॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

मुनि दुर्लभ हरि भगति नर पावहिं बिनहिं प्रयास।
जे यह कथा निरंतर सुनहिं मानि बिस्वास॥ १२६॥

अनुवाद (हिन्दी)

किन्तु जो मनुष्य विश्वास मानकर यह कथा निरन्तर सुनते हैं, वे बिना ही परिश्रम उस मुनिदुर्लभ हरिभक्तिको प्राप्त कर लेते हैं॥ १२६॥

मूल (चौपाई)

सोइ सर्बग्य गुनी सोइ ग्याता।
सोइ महि मंडित पंडित दाता॥
धर्म परायन सोइ कुल त्राता।
राम चरन जा कर मन राता॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिसका मन श्रीरामजीके चरणोंमें अनुरक्त है, वही सर्वज्ञ (सब कुछ जाननेवाला) है, वही गुणी है, वही ज्ञानी है। वही पृथ्वीका भूषण, पण्डित और दानी है। वही धर्मपरायण है और वही कुलका रक्षक है॥ १॥

मूल (चौपाई)

नीति निपुन सोइ परम सयाना।
श्रुति सिद्धांत नीक तेहिं जाना॥
सोइ कबि कोबिद सोइ रनधीरा।
जो छल छाड़ि भजइ रघुबीरा॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो छल छोड़कर श्रीरघुवीरका भजन करता है, वही नीतिमें निपुण है, वही परम बुद्धिमान् है। उसीने वेदोंके सिद्धान्तको भलीभाँति जाना है। वही कवि, वही विद्वान् तथा वही रणधीर है॥ २॥

मूल (चौपाई)

धन्य देस सो जहँ सुरसरी।
धन्य नारि पतिब्रत अनुसरी॥
धन्य सो भूपु नीति जो करई।
धन्य सो द्विज निज धर्म न टरई॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह देश धन्य है जहाँ श्रीगङ्गाजी हैं, वह स्त्री धन्य है जो पातिव्रत-धर्मका पालन करती है। वह राजा धन्य है जो न्याय करता है और वह ब्राह्मण धन्य है जो अपने धर्मसे नहीं डिगता॥ ३॥

मूल (चौपाई)

सो धन धन्य प्रथम गति जाकी।
धन्य पुन्य रत मति सोइ पाकी॥
धन्य घरी सोइ जब सतसंगा।
धन्य जन्म द्विज भगति अभंगा॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह धन धन्य है जिसकी पहली गति होती है (जो दान देनेमें व्यय होता है)। वही बुद्धि धन्य और परिपक्व है जो पुण्यमें लगी हुई है। वही घड़ी धन्य है जब सत्संग हो और वही जन्म धन्य है जिसमें ब्राह्मणकी अखण्ड भक्ति हो॥ ४॥
(धनकी तीन गतियाँ होती हैं—दान, भोग और नाश। दान उत्तम है, भोग मध्यम है और नाश नीच गति है। जो पुरुष न देता है, न भोगता है, उसके धनकी तीसरी गति होती है।)

दोहा

मूल (दोहा)

सो कुल धन्य उमा सुनु जगत पूज्य सुपुनीत।
श्रीरघुबीर परायन जेहिं नर उपज बिनीत॥ १२७॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे उमा! सुनो। वह कुल धन्य है, संसारभरके लिये पूज्य है और परम पवित्र है, जिसमें श्रीरघुवीरपरायण (अनन्य रामभक्त) विनम्र पुरुष उत्पन्न हो॥ १२७॥

मूल (चौपाई)

मति अनुरूप कथा मैं भाषी।
जद्यपि प्रथम गुप्त करि राखी॥
तव मन प्रीति देखि अधिकाई।
तब मैं रघुपति कथा सुनाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैंने अपनी बुद्धिके अनुसार यह कथा कही, यद्यपि पहले इसको छिपाकर रखा था। जब तुम्हारे मनमें प्रेमकी अधिकता देखी तब मैंने श्रीरघुनाथजीकी यह कथा तुमको सुनायी॥ १॥

मूल (चौपाई)

यह न कहिअ सठही हठसीलहि।
जो मन लाइ न सुन हरि लीलहि॥
कहिअ न लोभिहि क्रोधिहि कामिहि।
जो न भजइ सचराचर स्वामिहि॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह कथा उनसे न कहनी चाहिये जो शठ (धूर्त) हों, हठी स्वभावके हों और श्रीहरिकी लीलाको मन लगाकर न सुनते हों। लोभी, क्रोधी और कामीको, जो चराचरके स्वामी श्रीरामजीको नहीं भजते, यह कथा नहीं कहनी चाहिये॥ २॥

मूल (चौपाई)

द्विज द्रोहिहि न सुनाइअ कबहूँ।
सुरपति सरिस होइ नृप जबहूँ॥
राम कथा के तेइ अधिकारी।
जिन्ह कें सत संगति अति प्यारी॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्राह्मणोंके द्रोहीको, यदि वह देवराज (इन्द्र) के समान ऐश्वर्यवान् राजा भी हो, तब भी यह कथा कभी न सुनानी चाहिये। श्रीरामकी कथाके अधिकारी वे ही हैं जिनको सत्संगति अत्यन्त प्रिय है॥ ३॥

मूल (चौपाई)

गुर पद प्रीति नीति रत जेई।
द्विज सेवक अधिकारी तेई॥
ता कहँ यह बिसेष सुखदाई।
जाहि प्रानप्रिय श्रीरघुराई॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिनकी गुरुके चरणोंमें प्रीति है, जो नीतिपरायण हैं और ब्राह्मणोंके सेवक हैं, वे ही इसके अधिकारी हैं, और उसको तो यह कथा बहुत ही सुख देनेवाली है, जिसको श्रीरघुनाथजी प्राणके समान प्यारे हैं॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

राम चरन रति जो चह अथवा पद निर्बान।
भाव सहित सो यह कथा करउ श्रवन पुट पान॥ १२८॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो श्रीरामजीके चरणोंमें प्रेम चाहता हो या मोक्षपद चाहता हो, वह इस कथारूपी अमृतको प्रेमपूर्वक अपने कानरूपी दोनेसे पिये॥ १२८॥

मूल (चौपाई)

राम कथा गिरिजा मैं बरनी।
कलि मल समनि मनोमल हरनी॥
संसृति रोग सजीवन मूरी।
राम कथा गावहिं श्रुति सूरी॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे गिरिजे! मैंने कलियुगके पापोंका नाश करनेवाली और मनके मलको दूर करनेवाली रामकथाका वर्णन किया। यह रामकथा संसृति (जन्म-मरण)-रूपी रोगके (नाशके) लिये संजीवनी जड़ी है, वेद और विद्वान् पुरुष ऐसा कहते हैं॥ १॥

मूल (चौपाई)

एहि महँ रुचिर सप्त सोपाना।
रघुपति भगति केर पंथाना॥
अति हरि कृपा जाहि पर होई।
पाउँ देइ एहिं मारग सोई॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसमें सात सुन्दर सीढ़ियाँ हैं, जो श्रीरघुनाथजीकी भक्तिको प्राप्त करनेके मार्ग हैं। जिसपर श्रीहरिकी अत्यन्त कृपा होती है, वही इस मार्गपर पैर रखता है॥ २॥

मूल (चौपाई)

मन कामना सिद्धि नर पावा।
जे यह कथा कपट तजि गावा॥
कहहिं सुनहिं अनुमोदन करहीं।
ते गोपद इव भवनिधि तरहीं॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो कपट छोड़कर यह कथा गाते हैं, वे मनुष्य अपनी मनःकामनाकी सिद्धि पा लेते हैं। जो इसे कहते-सुनते और अनुमोदन (प्रशंसा) करते हैं, वे संसाररूपी समुद्रको गौके खुरसे बने हुए गड्ढेकी भाँति पार कर जाते हैं॥ ३॥

मूल (चौपाई)

सुनि सब कथा हृदय अति भाई।
गिरिजा बोली गिरा सुहाई॥
नाथ कृपाँ मम गत संदेहा।
राम चरन उपजेउ नव नेहा॥

अनुवाद (हिन्दी)

(याज्ञवल्क्यजी कहते हैं—) सब कथा सुनकर श्रीपार्वतीजीके हृदयको बहुत ही प्रिय लगी और वे सुन्दर वाणी बोलीं—स्वामीकी कृपासे मेरा सन्देह जाता रहा और श्रीरामजीके चरणोंमें नवीन प्रेम उत्पन्न हो गया॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

मैं कृतकृत्य भइउँ अब तव प्रसाद बिस्वेस।
उपजी राम भगति दृढ़ बीते सकल कलेस॥ १२९॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे विश्वनाथ! आपकी कृपासे अब मैं कृतार्थ हो गयी। मुझमें दृढ़ रामभक्ति उत्पन्न हो गयी और मेरे सम्पूर्ण क्लेश बीत गये (नष्ट हो गये)॥ १२९॥

मूल (चौपाई)

यह सुभ संभु उमा संबादा।
सुख संपादन समन बिषादा॥
भव भंजन गंजन संदेहा।
जन रंजन सज्जन प्रिय एहा॥

अनुवाद (हिन्दी)

शम्भु-उमाका यह कल्याणकारी संवाद सुख उत्पन्न करनेवाला और शोकका नाश करनेवाला है। जन्म-मरणका अन्त करनेवाला, सन्देहोंका नाश करनेवाला, भक्तोंको आनन्द देनेवाला और संत पुरुषोंको प्रिय है॥ १॥

मूल (चौपाई)

राम उपासक जे जग माहीं।
एहि सम प्रिय तिन्ह कें कछु नाहीं॥
रघुपति कृपाँ जथामति गावा।
मैं यह पावन चरित सुहावा॥

अनुवाद (हिन्दी)

जगत् में जो (जितने भी) रामोपासक हैं, उनको तो इस रामकथाके समान कुछ भी प्रिय नहीं है। श्रीरघुनाथजीकी कृपासे मैंने यह सुन्दर और पवित्र करनेवाला चरित्र अपनी बुद्धिके अनुसार गाया है॥ २॥

मूल (चौपाई)

एहिं कलिकाल न साधन दूजा।
जोग जग्य जप तप ब्रत पूजा॥
रामहि सुमिरिअ गाइअ रामहि।
संतत सुनिअ राम गुन ग्रामहि॥

अनुवाद (हिन्दी)

(तुलसीदासजी कहते हैं—) इस कलिकालमें योग, यज्ञ, जप, तप, व्रत और पूजन आदि कोई दूसरा साधन नहीं है। बस, श्रीरामजीका ही स्मरण करना, श्रीरामजीका ही गुण गाना और निरन्तर श्रीरामजीके ही गुणसमूहोंको सुनना चाहिये॥ ३॥

मूल (चौपाई)

जासु पतित पावन बड़ बाना।
गावहिं कबि श्रुति संत पुराना॥
ताहि भजहि मन तजि कुटिलाई।
राम भजें गति केहिं नहिं पाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

पतितोंको पवित्र करना जिनका महान् (प्रसिद्ध) बाना है—ऐसा कवि, वेद, संत और पुराण गाते हैं—रे मन! कुटिलता त्यागकर उन्हींको भज। श्रीरामको भजनेसे किसने परम गति नहीं पायी?॥ ४॥

छंद

मूल (दोहा)

पाई न केहिं गति पतित पावन राम भजि सुनु सठ मना।
गनिका अजामिल ब्याध गीध गजादि खल तारे घना॥
आभीर जमन किरात खस स्वपचादि अति अघरूप जे।
कहि नाम बारक तेपि पावन होहिं राम नमामि ते॥

अनुवाद (हिन्दी)

अरे मूर्ख मन! सुन, पतितोंको भी पावन करनेवाले श्रीरामको भजकर किसने परमगति नहीं पायी? गणिका, अजामिल, व्याध, गीध, गज आदि बहुत-से दुष्टोंको उन्होंने तार दिया। आभीर, यवन, किरात, खस, श्वपच (चाण्डाल) आदि जो अत्यन्त पापरूप ही हैं, वे भी केवल एक बार जिनका नाम लेकर पवित्र हो जाते हैं, उन श्रीरामजीको मैं नमस्कार करता हूँ॥ १॥

मूल (दोहा)

रघुबंस भूषन चरित यह नर कहहिं सुनहिं जे गावहीं।
कलि मल मनोमल धोइ बिनु श्रम राम धाम सिधावहीं॥
सत पंच चौपाईं मनोहर जानि जो नर उर धरै।
दारुन अबिद्या पंच जनित बिकार श्री रघुबर हरै॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो मनुष्य रघुवंशके भूषण श्रीरामजीका यह चरित्र कहते हैं, सुनते हैं और गाते हैं, वे कलियुगके पाप और मनके मलको धोकर बिना ही परिश्रम श्रीरामजीके परम धामको चले जाते हैं। (अधिक क्या) जो मनुष्य पाँच-सात चौपाइयोंको भी मनोहर जानकर (अथवा रामायणकी चौपाइयोंको श्रेष्ठ पंच (कर्तव्याकर्तव्यका सच्चा निर्णायक) जानकर उनको) हृदयमें धारण कर लेता है, उसके भी पाँच प्रकारकी अविद्याओंसे उत्पन्न विकारोंको श्रीरामजी हरण कर लेते हैं। (अर्थात् सारे रामचरित्रकी तो बात ही क्या है, जो पाँच-सात चौपाइयोंको भी समझकर उनका अर्थ हृदयमें धारण कर लेते हैं, उनके भी अविद्याजनित सारे क्लेश श्रीरामचन्द्रजी हर लेते हैं)॥ २॥

मूल (दोहा)

सुंदर सुजान कृपा निधान अनाथ पर कर प्रीति जो।
सो एक राम अकाम हित निर्बानप्रद सम आन को॥
जाकी कृपा लवलेस ते मतिमंद तुलसीदासहूँ।
पायो परम बिश्रामु राम समान प्रभु नाहीं कहूँ॥

अनुवाद (हिन्दी)

(परम) सुन्दर, सुजान और कृपानिधान तथा जो अनाथोंपर प्रेम करते हैं, ऐसे एक श्रीरामचन्द्रजी ही हैं। इनके समान निष्काम (निःस्वार्थ) हित करनेवाला (सुहृद्) और मोक्ष देनेवाला दूसरा कौन है? जिनकी लेशमात्र कृपासे मन्दबुद्धि तुलसीदासने भी परम शान्ति प्राप्त कर ली, उन श्रीरामजीके समान प्रभु कहीं भी नहीं हैं॥ ३॥

दोहा

मूल (दोहा)

मो सम दीन न दीन हित तुम्ह समान रघुबीर।
अस बिचारि रघुबंस मनि हरहु बिषम भव भीर॥ १३०(क)॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे श्रीरघुवीर! मेरे समान कोई दीन नहीं है और आपके समान कोई दीनोंका हित करनेवाला नहीं है। ऐसा विचारकर हे रघुवंशमणि! मेरे जन्म-मरणके भयानक दुःखका हरण कर लीजिये॥ १३०(क)॥

मूल (दोहा)

कामिहि नारि पिआरि जिमि लोभिहि प्रिय जिमि दाम।
तिमि रघुनाथ निरंतर प्रिय लागहु मोहि राम॥ १३०(ख)॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे कामीको स्त्री प्रिय लगती है और लोभीको जैसे धन प्यारा लगता है, वैसे ही हे रघुनाथजी! हे रामजी! आप निरन्तर मुझे प्रिय लगिये॥ १३०(ख)॥

श्लोक

मूल (दोहा)

यत्पूर्वं प्रभुणा कृतं सुकविना श्रीशम्भुना दुर्गमं
श्रीमद्रामपदाब्जभक्तिमनिशं प्राप्त्यै तु रामायणम्।
मत्वा तद्रघुनाथनामनिरतं स्वान्तस्तमःशान्तये
भाषाबद्धमिदं चकार तुलसीदासस्तथा मानसम्॥ १॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रेष्ठ कवि भगवान् श्रीशंकरजीने पहले जिस दुर्गम मानस-रामायणकी, श्रीरामजीके चरणकमलोंमें नित्य-निरन्तर (अनन्य) भक्ति प्राप्त होनेके लिये, रचना की थी, उस मानस-रामायणको श्रीरघुनाथजीके नाममें निरत मानकर अपने अन्तःकरणके अन्धकारको मिटानेके लिये तुलसीदासने इस मानसके रूपमें भाषाबद्ध किया॥ १॥

मूल (दोहा)

पुण्यं पापहरं सदा शिवकरं विज्ञानभक्तिप्रदं
मायामोहमलापहं सुविमलं प्रेमाम्बुपूरं शुभम्।
श्रीमद्रामचरित्रमानसमिदं भक्त्यावगाहन्ति ये
ते संसारपतङ्गघोरकिरणैर्दह्यन्ति नो मानवाः॥ २॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह श्रीरामचरितमानस पुण्यरूप, पापोंका हरण करनेवाला, सदा कल्याणकारी, विज्ञान और भक्तिको देनेवाला, माया, मोह और मलका नाश करनेवाला, परम निर्मल प्रेमरूपी जलसे परिपूर्ण तथा मंगलमय है। जो मनुष्य भक्तिपूर्वक इस मानससरोवरमें गोता लगाते हैं, वे संसाररूपी सूर्यकी अति प्रचण्ड किरणोंसे नहीं जलते॥ २॥

भागसूचना

मासपारायण, तीसवाँ विश्राम
नवाह्नपारायण, नवाँ विश्राम

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमद्रामचरितमानसे सकलकलिकलुषविध्वंसने सप्तमः सोपानः समाप्तः।

अनुवाद (समाप्ति)

कलियुगके समस्त पापोंका नाश करनेवाले श्रीरामचरितमानसका यह सातवाँ सोपान समाप्त हुआ।

मूलम् (समाप्तिः)

( उत्तरकाण्ड समाप्त)

Misc Detail