मूल (चौपाई)
रघुपति भगति सजीवन मूरी।
अनूपान श्रद्धा मति पूरी॥
एहि बिधि भलेहिं सो रोग नसाहीं।
नाहिं त जतन कोटि नहिं जाहीं॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीरघुनाथजीकी भक्ति संजीवनी जड़ी है। श्रद्धासे पूर्ण बुद्धि ही अनुपान (दवाके साथ लिया जानेवाला मधु आदि) है। इस प्रकारका संयोग हो तो वे रोग भले ही नष्ट हो जायँ, नहीं तो करोड़ों प्रयत्नोंसे भी नहीं जाते॥ ४॥
मूल (चौपाई)
जानिअ तब मन बिरुज गोसाँई।
जब उर बल बिराग अधिकाई॥
सुमति छुधा बाढ़इ नित नई।
बिषय आस दुर्बलता गई॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे गोसाईं! मनको नीरोग हुआ तब जानना चाहिये, जब हृदयमें वैराग्यका बल बढ़ जाय, उत्तम बुद्घिरूपी भूख नित नयी बढ़ती रहे और विषयोंकी आशारूपी दुर्बलता मिट जाय॥ ५॥
मूल (चौपाई)
बिमल ग्यान जल जब सो नहाई।
तब रह राम भगति उर छाई॥
सिव अज सुक सनकादिक नारद।
जे मुनि ब्रह्म बिचार बिसारद॥
अनुवाद (हिन्दी)
(इस प्रकार सब रोगोंसे छूटकर) जब मनुष्य निर्मल ज्ञानरूपी जलमें स्नान कर लेता है, तब उसके हृदयमें रामभक्ति छा रहती है। शिवजी, ब्रह्माजी, शुकदेवजी, सनकादि और नारद आदि ब्रह्मविचारमें परम निपुण जो मुनि हैं,॥ ६॥
मूल (चौपाई)
सब कर मत खगनायक एहा।
करिअ राम पद पंकज नेहा॥
श्रुति पुरान सब ग्रंथ कहाहीं।
रघुपति भगति बिना सुख नाहीं॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे पक्षिराज! उन सबका मत यही है कि श्रीरामजीके चरणकमलोंमें प्रेम करना चाहिये। श्रुति, पुराण और सभी ग्रन्थ कहते हैं कि श्रीरघुनाथजीकी भक्तिके बिना सुख नहीं है॥ ७॥
मूल (चौपाई)
कमठ पीठ जामहिं बरु बारा।
बंध्यासुत बरु काहुहि मारा॥
फूलहिं नभ बरु बहुबिधि फूला।
जीव न लह सुख हरि प्रतिकूला॥
अनुवाद (हिन्दी)
कछुएकी पीठपर भले ही बाल उग आवें, बाँझका पुत्र भले ही किसीको मार डाले, आकाशमें भले ही अनेकों प्रकारके फूल खिल उठें; परन्तु श्रीहरिसे विमुख होकर जीव सुख नहीं प्राप्त कर सकता॥ ८॥
मूल (चौपाई)
तृषा जाइ बरु मृगजल पाना।
बरु जामहिं सस सीस बिषाना॥
अंधकारु बरु रबिहि नसावै।
राम बिमुख न जीव सुख पावै॥
अनुवाद (हिन्दी)
मृगतृष्णाके जलको पीनेसे भले ही प्यास बुझ जाय, खरगोशके सिरपर भले ही सींग निकल आवें, अन्धकार भले ही सूर्यका नाश कर दे; परन्तु श्रीरामसे विमुख होकर जीव सुख नहीं पा सकता॥ ९॥
मूल (चौपाई)
हिम ते अनल प्रगट बरु होई।
बिमुख राम सुख पाव न कोई॥
अनुवाद (हिन्दी)
बर्फसे भले ही अग्नि प्रकट हो जाय (ये सब अनहोनी बातें चाहे हो जायँ), परन्तु श्रीरामसे विमुख होकर कोई भी सुख नहीं पा सकता॥ १०॥
दोहा
मूल (दोहा)
बारि मथें घृत होइ बरु सिकता ते बरु तेल।
बिनु हरि भजन न भव तरिअ यह सिद्धांत अपेल॥ १२२(क)॥
अनुवाद (हिन्दी)
जलको मथनेसे भले ही घी उत्पन्न हो जाय और बालू (को पेरने) से भले ही तेल निकल आवे; परन्तु श्रीहरिके भजन बिना संसाररूपी समुद्रसे नहीं तरा जा सकता, यह सिद्धान्त अटल है॥ १२२(क)॥
मूल (दोहा)
मसकहि करइ बिरंचि प्रभु अजहि मसक ते हीन।
अस बिचारि तजि संसय रामहि भजहिं प्रबीन॥ १२२(ख)॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रभु मच्छरको ब्रह्मा कर सकते हैं और ब्रह्माको मच्छरसे भी तुच्छ बना सकते हैं। ऐसा विचारकर चतुर पुरुष सब सन्देह त्यागकर श्रीरामजीको ही भजते हैं॥ १२२(ख)॥
श्लोक
मूल (दोहा)
विनिश्चितं वदामि ते न अन्यथा वचांसि मे।
हरिं नरा भजन्ति येऽतिदुस्तरं तरन्ति ते॥ १२२(ग)॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैं आपसे भलीभाँति निश्चित किया हुआ सिद्धान्त कहता हूँ—मेरे वचन अन्यथा (मिथ्या) नहीं हैं कि जो मनुष्य श्रीहरिका भजन करते हैं, वे अत्यन्त दुस्तर संसारसागरको (सहज ही) पार कर जाते हैं॥ १२२(ग)॥
मूल (चौपाई)
कहेउँ नाथ हरि चरित अनूपा।
ब्यास समास स्वमति अनुरूपा॥
श्रुति सिद्धांत इहइ उरगारी।
राम भजिअ सब काज बिसारी॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे नाथ! मैंने श्रीहरिका अनुपम चरित्र अपनी बुद्धिके अनुसार कहीं विस्तारसे और कहीं संक्षेपसे कहा। हे सर्पोंके शत्रु गरुड़जी! श्रुतियोंका यही सिद्धान्त है कि सब काम भुलाकर (छोड़कर) श्रीरामजीका भजन करना चाहिये॥ १॥
मूल (चौपाई)
प्रभु रघुपति तजि सेइअ काही।
मोहि से सठ पर ममता जाही॥
तुम्ह बिग्यानरूप नहिं मोहा।
नाथ कीन्हि मो पर अति छोहा॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रभु श्रीरघुनाथजीको छोड़कर और किसका सेवन (भजन) किया जाय, जिनका मुझ-जैसे मूर्खपर भी ममत्व (स्नेह) है। हे नाथ! आप विज्ञानरूप हैं, आपको मोह नहीं है। आपने तो मुझपर बड़ी कृपा की है॥ २॥