१९ गरुड़जीके सात प्रश्न तथा काकभुशुण्डिके उत्तर

मूल (चौपाई)

पुनि सप्रेम बोलेउ खगराऊ।
जौं कृपाल मोहि ऊपर भाऊ॥
नाथ मोहि निज सेवक जानी।
सप्त प्रस्न मम कहहु बखानी॥

अनुवाद (हिन्दी)

पक्षिराज गरुड़जी फिर प्रेमसहित बोले—हे कृपालु! यदि मुझपर आपका प्रेम है, तो हे नाथ! मुझे अपना सेवक जानकर मेरे सात प्रश्नोंके उत्तर बखानकर कहिये॥ १॥

मूल (चौपाई)

प्रथमहिं कहहु नाथ मतिधीरा।
सब ते दुर्लभ कवन सरीरा॥
बड़ दुख कवन कवन सुख भारी।
सोउ संछेपहिं कहहु बिचारी॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे नाथ! हे धीरबुद्धि! पहले तो यह बताइये कि सबसे दुर्लभ कौन-सा शरीर है? फिर सबसे बड़ा दुःख कौन है और सबसे बड़ा सुख कौन है, यह भी विचारकर संक्षेपमें ही कहिये॥ २॥

मूल (चौपाई)

संत असंत मरम तुम्ह जानहु।
तिन्ह कर सहज सुभाव बखानहु॥
कवन पुन्य श्रुति बिदित बिसाला।
कहहु कवन अघ परम कराला॥

अनुवाद (हिन्दी)

संत और असंतका मर्म (भेद) आप जानते हैं, उनके सहज स्वभावका वर्णन कीजिये। फिर कहिये कि श्रुतियोंमें प्रसिद्ध सबसे महान् पुण्य कौन-सा है और सबसे महान् भयंकर पाप कौन है?॥ ३॥

मूल (चौपाई)

मानस रोग कहहु समुझाई।
तुम्ह सर्बग्य कृपा अधिकाई॥
तात सुनहु सादर अति प्रीती।
मैं संछेप कहउँ यह नीती॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर मानस-रोगोंको समझाकर कहिये। आप सर्वज्ञ हैं और मुझपर आपकी कृपा भी बहुत है। (काकभुशुण्डिजीने कहा—) हे तात! अत्यन्त आदर और प्रेमके साथ सुनिये। मैं यह नीति संक्षेपसे कहता हूँ॥ ४॥

मूल (चौपाई)

नर तन सम नहिं कवनिउ देही।
जीव चराचर जाचत तेही॥
नरक स्वर्ग अपबर्ग निसेनी।
ग्यान बिराग भगति सुभ देनी॥

अनुवाद (हिन्दी)

मनुष्य-शरीरके समान कोई शरीर नहीं है। चर-अचर सभी जीव उसकी याचना करते हैं। यह मनुष्य-शरीर नरक, स्वर्ग और मोक्षकी सीढ़ी है तथा कल्याणकारी ज्ञान, वैराग्य और भक्तिको देनेवाला है॥ ५॥

मूल (चौपाई)

सो तनु धरि हरि भजहिं न जे नर।
होहिं बिषय रत मंद मंद तर॥
काँच किरिच बदलें ते लेहीं।
कर ते डारि परस मनि देहीं॥

अनुवाद (हिन्दी)

ऐसे मनुष्य-शरीरको धारण (प्राप्त) करके भी जो लोग श्रीहरिका भजन नहीं करते और नीचसे भी नीच विषयोंमें अनुरक्त रहते हैं, वे पारसमणिको हाथसे फेंक देते हैं और बदलेमें काँचके टुकड़े ले लेते हैं॥ ६॥

मूल (चौपाई)

नहिं दरिद्र सम दुख जग माहीं।
संत मिलन सम सुख जग नाहीं॥
पर उपकार बचन मन काया।
संत सहज सुभाउ खगराया॥

अनुवाद (हिन्दी)

जगत् में दरिद्रताके समान दुःख नहीं है तथा संतोंके मिलनके समान जगत् में सुख नहीं है। और हे पक्षिराज! मन, वचन और शरीरसे परोपकार करना, यह संतोंका सहज स्वभाव है॥ ७॥

मूल (चौपाई)

संत सहहिं दुख पर हित लागी।
पर दुख हेतु असंत अभागी॥
भूर्ज तरू सम संत कृपाला।
पर हित निति सह बिपति बिसाला॥

अनुवाद (हिन्दी)

संत दूसरोंकी भलाईके लिये दुःख सहते हैं और अभागे असंत दूसरोंको दुःख पहुँचानेके लिये। कृपालु संत भोजके वृक्षके समान दूसरोंके हितके लिये भारी विपत्ति सहते हैं (अपनी खालतक उधड़वा लेते हैं)॥ ८॥

मूल (चौपाई)

सन इव खल पर बंधन करई।
खाल कढ़ाइ बिपति सहि मरई॥
खल बिनु स्वारथ पर अपकारी।
अहि मूषक इव सुनु उरगारी॥

अनुवाद (हिन्दी)

किन्तु दुष्ट लोग सनकी भाँति दूसरोंको बाँधते हैं और (उन्हें बाँधनेके लिये) अपनी खाल खिंचवाकर विपत्ति सहकर मर जाते हैं। हे सर्पोंके शत्रु गरुड़जी! सुनिये; दुष्ट बिना किसी स्वार्थके साँप और चूहेके समान अकारण ही दूसरोंका अपकार करते हैं॥ ९॥

मूल (चौपाई)

पर संपदा बिनासि नसाहीं।
जिमि ससि हति हिम उपल बिलाहीं॥
दुष्ट उदय जग आरति हेतू।
जथा प्रसिद्ध अधम ग्रह केतू॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे परायी सम्पत्तिका नाश करके स्वयं नष्ट हो जाते हैं, जैसे खेतीका नाश करके ओले नष्ट हो जाते हैं। दुष्टका अभ्युदय (उन्नति) प्रसिद्ध अधम ग्रह केतुके उदयकी भाँति जगत् के दुःखके लिये ही होता है॥ १०॥

मूल (चौपाई)

संत उदय संतत सुखकारी।
बिस्व सुखद जिमि इंदु तमारी॥
परम धर्म श्रुति बिदित अहिंसा।
पर निंदा सम अघ न गरीसा॥

अनुवाद (हिन्दी)

और संतोंका अभ्युदय सदा ही सुखकर होता है, जैसे चन्द्रमा और सूर्यका उदय विश्वभरके लिये सुखदायक है। वेदोंमें अहिंसाको परम धर्म माना है और परनिन्दाके समान भारी पाप नहीं है॥ ११॥

मूल (चौपाई)

हर गुर निंदक दादुर होई।
जन्म सहस्र पाव तन सोई॥
द्विज निंदक बहु नरक भोग करि।
जग जनमइ बायस सरीर धरि॥

अनुवाद (हिन्दी)

शंकरजी और गुरुकी निन्दा करनेवाला मनुष्य (अगले जन्ममें) मेढक होता है और वह हजार जन्मतक वही मेढकका शरीर पाता है। ब्राह्मणोंकी निन्दा करनेवाला व्यक्ति बहुत-से नरक भोगकर फिर जगत् में कौएका शरीर धारण करके जन्म लेता है॥ १२॥

मूल (चौपाई)

सुर श्रुति निंदक जे अभिमानी।
रौरव नरक परहिं ते प्रानी॥
होहिं उलूक संत निंदा रत।
मोह निसा प्रिय ग्यान भानु गत॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो अभिमानी जीव देवताओं और वेदोंकी निन्दा करते हैं, वे रौरव नरकमें पड़ते हैं। संतोंकी निन्दामें लगे हुए लोग उल्लू होते हैं, जिन्हें मोहरूपी रात्रि प्रिय होती है और ज्ञानरूपी सूर्य जिनके लिये बीत गया (अस्त हो गया) रहता है॥ १३॥

मूल (चौपाई)

सब कै निंदा जे जड़ करहीं।
ते चमगादुर होइ अवतरहीं॥
सुनहु तात अब मानस रोगा।
जिन्ह ते दुख पावहिं सब लोगा॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो मूर्ख मनुष्य सबकी निन्दा करते हैं, वे चमगादड़ होकर जन्म लेते हैं। हे तात! अब मानस-रोग सुनिये, जिनसे सब लोग दुःख पाया करते हैं॥ १४॥

मूल (चौपाई)

मोह सकल ब्याधिन्ह कर मूला।
तिन्ह ते पुनि उपजहिं बहु सूला॥
काम बात कफ लोभ अपारा।
क्रोध पित्त नित छाती जारा॥

अनुवाद (हिन्दी)

सब रोगोंकी जड़ मोह (अज्ञान) है। उन व्याधियोंसे फिर और बहुत-से शूल उत्पन्न होते हैं। काम वात है, लोभ अपार (बढ़ा हुआ) कफ है और क्रोध पित्त है जो सदा छाती जलाता रहता है॥ १५॥

मूल (चौपाई)

प्रीति करहिं जौं तीनिउ भाई।
उपजइ सन्यपात दुखदाई॥
बिषय मनोरथ दुर्गम नाना।
ते सब सूल नाम को जाना॥

अनुवाद (हिन्दी)

यदि कहीं ये तीनों भाई (वात, पित्त और कफ) प्रीति कर लें (मिल जायँ) तो दुःखदायक सन्निपात रोग उत्पन्न होता है। कठिनतासे प्राप्त (पूर्ण) होनेवाले जो विषयोंके मनोरथ हैं, वे ही सब शूल (कष्टदायक रोग) हैं; उनके नाम कौन जानता है (अर्थात् वे अपार हैं)॥ १६॥

मूल (चौपाई)

ममता दादु कंडु इरषाई।
हरष बिषाद गरह बहुताई॥
पर सुख देखि जरनि सोइ छई।
कुष्ट दुष्टता मन कुटिलई॥

अनुवाद (हिन्दी)

ममता दाद है, ईर्ष्या (डाह) खुजली है, हर्ष-विषाद गलेके रोगोंकी अधिकता है (गलगंड, कण्ठमाला या घेघा आदि रोग हैं), पराये सुखको देखकर जो जलन होती है, वही क्षयी है। दुष्टता और मनकी कुटिलता ही कोढ़ है॥ १७॥

मूल (चौपाई)

अहंकार अति दुखद डमरुआ।
दंभ कपट मद मान नेहरुआ॥
तृस्ना उदरबृद्धि अति भारी।
त्रिबिधि ईषना तरुन तिजारी॥

अनुवाद (हिन्दी)

अहंकार अत्यन्त दुःख देनेवाला डमरू (गाँठका) रोग है। दम्भ, कपट, मद और मान नहरुआ (नसोंका) रोग है। तृष्णा बड़ा भारी उदरवृद्धि (जलोदर) रोग है। तीन प्रकार (पुत्र, धन और मान) की प्रबल इच्छाएँ प्रबल तिजारी हैं॥ १८॥

मूल (चौपाई)

जुग बिधि ज्वर मत्सर अबिबेका।
कहँ लगि कहौं कुरोग अनेका॥

अनुवाद (हिन्दी)

मत्सर और अविवेक दो प्रकारके ज्वर हैं। इस प्रकार अनेकों बुरे रोग हैं, जिन्हें कहाँतक कहूँ॥ १९॥

दोहा

मूल (दोहा)

एक ब्याधि बस नर मरहिं ए असाधि बहु ब्याधि।
पीड़हिं संतत जीव कहुँ सो किमि लहै समाधि॥ १२१(क)॥

अनुवाद (हिन्दी)

एक ही रोगके वश होकर मनुष्य मर जाते हैं, फिर ये तो बहुत-से असाध्य रोग हैं। ये जीवको निरन्तर कष्ट देते रहते हैं, ऐसी दशामें वह समाधि (शान्ति) को कैसे प्राप्त करे?॥ १२१ (क)॥

मूल (दोहा)

नेम धर्म आचार तप ग्यान जग्य जप दान।
भेषज पुनि कोटिन्ह नहिं रोग जाहिं हरिजान॥ १२१(ख)॥

अनुवाद (हिन्दी)

नियम, धर्म, आचार (उत्तम आचरण), तप, ज्ञान, यज्ञ, जप, दान तथा और भी करोड़ों ओषधियाँ हैं, परन्तु हे गरुड़जी! उनसे ये रोग नहीं जाते॥ १२१(ख)॥

मूल (चौपाई)

एहि बिधि सकल जीव जग रोगी।
सोक हरष भय प्रीति बियोगी॥
मानस रोग कछुक मैं गाए।
हहिं सब कें लखि बिरलेन्ह पाए॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार जगत् में समस्त जीव रोगी हैं, जो शोक, हर्ष, भय, प्रीति और वियोगके दुःखसे और भी दुखी हो रहे हैं। मैंने ये थोड़े-से मानस-रोग कहे हैं। ये हैं तो सबको, परन्तु इन्हें जान पाये हैं कोई विरले ही॥ १॥

मूल (चौपाई)

जाने ते छीजहिं कछु पापी।
नास न पावहिं जन परितापी॥
बिषय कुपथ्य पाइ अंकुरे।
मुनिहु हृदयँ का नर बापुरे॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्राणियोंको जलानेवाले ये पापी (रोग) जान लिये जानेसे कुछ क्षीण अवश्य हो जाते हैं, परन्तु नाशको नहीं प्राप्त होते। विषयरूप कुपथ्य पाकर ये मुनियोंके हृदयमें भी अंकुरित हो उठते हैं, तब बेचारे साधारण मनुष्य तो क्या चीज हैं॥ २॥

मूल (चौपाई)

राम कृपाँ नासहिं सब रोगा।
जौं एहि भाँति बनै संजोगा॥
सदगुर बैद बचन बिस्वासा।
संजम यह न बिषय कै आसा॥

अनुवाद (हिन्दी)

यदि श्रीरामजीकी कृपासे इस प्रकारका संयोग बन जाय तो ये सब रोग नष्ट हो जायँ। सद्गुरुरूपी वैद्यके वचनमें विश्वास हो। विषयोंकी आशा न करे, यही संयम (परहेज) हो॥ ३॥

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