१८ ज्ञान-भक्ति-निरूपण, ज्ञानदीपक और भक्तिकी महान् महिमा

मूल (दोहा)

भगति पच्छ हठ करि रहेउँ दीन्हि महारिषि साप।
मुनि दुर्लभ बर पायउँ देखहु भजन प्रताप॥ ११४(ख)॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैं हठ करके भक्तिपक्षपर अड़ा रहा, जिससे महर्षि लोमशने मुझे शाप दिया; परन्तु उसका फल यह हुआ कि जो मुनियोंको भी दुर्लभ है, वह वरदान मैंने पाया। भजनका प्रताप तो देखिये!॥ ११४(ख)॥

मूल (चौपाई)

जे असि भगति जानि परिहरहीं।
केवल ग्यान हेतु श्रम करहीं॥
ते जड़ कामधेनु गृहँ त्यागी।
खोजत आकु फिरहिं पय लागी॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो भक्तिकी ऐसी महिमा जानकर भी उसे छोड़ देते हैं और केवल ज्ञानके लिये श्रम (साधन) करते हैं, वे मूर्ख घरपर खड़ी हुई कामधेनुको छोड़कर दूधके लिये मदारके पेड़को खोजते फिरते हैं॥ १॥

मूल (चौपाई)

सुनु खगेस हरि भगति बिहाई।
जे सुख चाहहिं आन उपाई॥
ते सठ महासिंधु बिनु तरनी।
पैरि पार चाहहिं जड़ करनी॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे पक्षिराज! सुनिये, जो लोग श्रीहरिकी भक्तिको छोड़कर दूसरे उपायोंसे सुख चाहते हैं, वे मूर्ख और जड़ करनीवाले (अभागे) बिना ही जहाजके तैरकर महासमुद्रके पार जाना चाहते हैं॥ २॥

मूल (चौपाई)

सुनि भसुंडि के बचन भवानी।
बोलेउ गरुड़ हरषि मृदु बानी॥
तव प्रसाद प्रभु मम उर माहीं।
संसय सोक मोह भ्रम नाहीं॥

अनुवाद (हिन्दी)

(शिवजी कहते हैं—) हे भवानी! भुशुण्डिके वचन सुनकर गरुड़जी हर्षित होकर कोमल वाणीसे बोले—हे प्रभो! आपके प्रसादसे मेरे हृदयमें अब सन्देह, शोक, मोह और भ्रम कुछ भी नहीं रह गया॥ ३॥

मूल (चौपाई)

सुनेउँ पुनीत राम गुन ग्रामा।
तुम्हरी कृपाँ लहेउँ बिश्रामा॥
एक बात प्रभु पूँछउँ तोही।
कहहु बुझाइ कृपानिधि मोही॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैंने आपकी कृपासे श्रीरामचन्द्रजीके पवित्र गुणसमूहोंको सुना और शान्ति प्राप्त की। हे प्रभो! अब मैं आपसे एक बात और पूछता हूँ। हे कृपासागर! मुझे समझाकर कहिये॥ ४॥

मूल (चौपाई)

कहहिं संत मुनि बेद पुराना।
नहिं कछु दुर्लभ ग्यान समाना॥
सोइ मुनि तुम्ह सन कहेउ गोसाईं।
नहिं आदरेहु भगति की नाईं॥

अनुवाद (हिन्दी)

संत, मुनि, वेद और पुराण यह कहते हैं कि ज्ञानके समान दुर्लभ कुछ भी नहीं है। हे गोसाईं! वही ज्ञान मुनिने आपसे कहा, परन्तु आपने भक्तिके समान उसका आदर नहीं किया॥ ५॥

मूल (चौपाई)

ग्यानहि भगतिहि अंतर केता।
सकल कहहु प्रभु कृपा निकेता॥
सुनि उरगारि बचन सुख माना।
सादर बोलेउ काग सुजाना॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे कृपाके धाम! हे प्रभो! ज्ञान और भक्तिमें कितना अन्तर है? यह सब मुझसे कहिये। गरुड़जीके वचन सुनकर सुजान काकभुशुण्डिजीने सुख माना और आदरके साथ कहा—॥ ६॥

मूल (चौपाई)

भगतिहि ग्यानहि नहिं कछु भेदा।
उभय हरहिं भव संभव खेदा॥
नाथ मुनीस कहहिं कछु अंतर।
सावधान सोउ सुनु बिहंगबर॥

अनुवाद (हिन्दी)

भक्ति और ज्ञानमें कुछ भी भेद नहीं है। दोनों ही संसारसे उत्पन्न क्लेशोंको हर लेते हैं। हे नाथ! मुनीश्वर इनमें कुछ अन्तर बतलाते हैं। हे पक्षिश्रेष्ठ! उसे सावधान होकर सुनिये॥ ७॥

मूल (चौपाई)

ग्यान बिराग जोग बिग्याना।
ए सब पुरुष सुनहु हरिजाना॥
पुरुष प्रताप प्रबल सब भाँती।
अबला अबल सहज जड़ जाती॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे हरिवाहन! सुनिये; ज्ञान, वैराग्य, योग, विज्ञान—ये सब पुरुष हैं; पुरुषका प्रताप सब प्रकारसे प्रबल होता है। अबला (माया) स्वाभाविक ही निर्बल और जाति (जन्म) से ही जड़ (मूर्ख) होती है॥ ८॥

दोहा

मूल (दोहा)

पुरुष त्यागि सक नारिहि जो बिरक्त मति धीर।
न तु कामी बिषयाबस बिमुख जो पद रघुबीर॥ ११५(क)॥

अनुवाद (हिन्दी)

परन्तु जो वैराग्यवान् और धीरबुद्धि पुरुष हैं वही स्त्रीको त्याग सकते हैं, न कि वे कामी पुरुष, जो विषयोंके वशमें हैं (उनके गुलाम हैं) और श्रीरघुवीरके चरणोंसे विमुख हैं॥ ११५(क)॥

सोरठा

मूल (दोहा)

सोउ मुनि ग्याननिधान मृगनयनी बिधु मुख निरखि।
बिबस होइ हरिजान नारि बिष्नु माया प्रगट॥ ११५(ख)॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे ज्ञानके भण्डार मुनि भी मृगनयनी (युवती स्त्री) के चन्द्रमुखको देखकर विवश (उसके अधीन) हो जाते हैं। हे गरुड़जी! साक्षात् भगवान् विष्णुकी माया ही स्त्रीरूपसे प्रकट है॥ ११५(ख)॥

मूल (चौपाई)

इहाँ न पच्छपात कछु राखउँ।
बेद पुरान संत मत भाषउँ॥
मोह न नारि नारि कें रूपा।
पन्नगारि यह रीति अनूपा॥

अनुवाद (हिन्दी)

यहाँ मैं कुछ पक्षपात नहीं रखता। वेद, पुराण और संतोंका मत (सिद्धान्त) ही कहता हूँ। हे गरुड़जी! यह अनुपम (विलक्षण) रीति है कि एक स्त्रीके रूपपर दूसरी स्त्री मोहित नहीं होती॥ १॥

मूल (चौपाई)

माया भगति सुनहु तुम्ह दोऊ।
नारि बर्ग जानइ सब कोऊ॥
पुनि रघुबीरहि भगति पिआरी।
माया खलु नर्तकी बिचारी॥

अनुवाद (हिन्दी)

आप सुनिये, माया और भक्ति—ये दोनों ही स्त्रीवर्गकी हैं, यह सब कोई जानते हैं। फिर श्रीरघुवीरको भक्ति प्यारी है। माया बेचारी तो निश्चय ही नाचनेवाली (नटिनीमात्र) है॥ २॥

मूल (चौपाई)

भगतिहि सानुकूल रघुराया।
ताते तेहि डरपति अति माया॥
राम भगति निरुपम निरुपाधी।
बसइ जासु उर सदा अबाधी॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरघुनाथजी भक्तिके विशेष अनुकूल रहते हैं। इसीसे माया उससे अत्यन्त डरती रहती है। जिसके हृदयमें उपमारहित और उपाधिरहित (विशुद्ध) रामभक्ति सदा बिना किसी बाधा (रोक-टोक) के बसती है;॥ ३॥

मूल (चौपाई)

तेहि बिलोकि माया सकुचाई।
करि न सकइ कछु निज प्रभुताई॥
अस बिचारि जे मुनि बिग्यानी।
जाचहिं भगति सकल सुख खानी॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसे देखकर माया सकुचा जाती है। उसपर वह अपनी प्रभुता कुछ भी नहीं कर (चला) सकती। ऐसा विचारकर ही जो विज्ञानी मुनि हैं, वे भी सब सुखोंकी खानि भक्तिकी ही याचना करते हैं॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

यह रहस्य रघुनाथ कर बेगि न जानइ कोइ।
जो जानइ रघुपति कृपाँ सपनेहुँ मोह न होइ॥ ११६(क)॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरघुनाथजीका यह रहस्य (गुप्त मर्म) जल्दी कोई भी नहीं जान पाता। श्रीरघुनाथजीकी कृपासे जो इसे जान जाता है, उसे स्वप्नमें भी मोह नहीं होता॥ ११६(क)॥

मूल (दोहा)

औरउ ग्यान भगति कर भेद सुनहु सुप्रबीन।
जो सुनि होइ राम पद प्रीति सदा अबिछीन॥ ११६(ख)॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे सुचतुर गरुड़जी! ज्ञान और भक्तिका और भी भेद सुनिये, जिसके सुननेसे श्रीरामजीके चरणोंमें सदा अविच्छिन्न (एकतार) प्रेम हो जाता है॥ ११६(ख)॥

मूल (चौपाई)

सुनहु तात यह अकथ कहानी।
समुझत बनइ न जाइ बखानी॥
ईस्वर अंस जीव अबिनासी।
चेतन अमल सहज सुखरासी॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे तात! यह अकथनीय कहानी (वार्ता) सुनिये। यह समझते ही बनती है, कही नहीं जा सकती। जीव ईश्वरका अंश है। (अतएव) वह अविनाशी, चेतन, निर्मल और स्वभावसे ही सुखकी राशि है॥ १॥

मूल (चौपाई)

सो मायाबस भयउ गोसाईं।
बँध्यो कीर मरकट की नाईं॥
जड़ चेतनहि ग्रंथि परि गई।
जदपि मृषा छूटत कठिनई॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे गोसाईं! वह मायाके वशीभूत होकर तोते और वानरकी भाँति अपने-आप ही बँध गया। इस प्रकार जड़ और चेतनमें ग्रन्थि (गाँठ) पड़ गयी। यद्यपि वह ग्रन्थि मिथ्या ही है, तथापि उसके छूटनेमें कठिनता है॥ २॥

मूल (चौपाई)

तब ते जीव भयउ संसारी।
छूट न ग्रंथि न होइ सुखारी॥
श्रुति पुरान बहु कहेउ उपाई।
छूट न अधिक अधिक अरुझाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

तभीसे जीव संसारी (जन्मने-मरनेवाला) हो गया। अब न तो गाँठ छूटती है और न वह सुखी होता है। वेदों और पुराणोंने बहुत-से उपाय बतलाये हैं। पर वह (ग्रन्थि) छूटती नहीं वरं अधिकाधिक उलझती ही जाती है॥ ३॥

मूल (चौपाई)

जीव हृदयँ तम मोह बिसेषी।
ग्रंथि छूट किमि परइ न देखी॥
अस संजोग ईस जब करई।
तबहुँ कदाचित सो निरुअरई॥

अनुवाद (हिन्दी)

जीवके हृदयमें अज्ञानरूपी अन्धकार विशेषरूपसे छा रहा है, इससे गाँठ देख ही नहीं पड़ती, छूटे तो कैसे? जब कभी ईश्वर ऐसा संयोग (जैसा आगे कहा जाता है) उपस्थित कर देते हैं तब भी कदाचित् ही वह (ग्रन्थि) छूट पाती है॥ ४॥

मूल (चौपाई)

सात्त्विक श्रद्धा धेनु सुहाई।
जौं हरि कृपाँ हृदयँ बस आई॥
जप तप ब्रत जम नियम अपारा।
जे श्रुति कह सुभ धर्म अचारा॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीहरिकी कृपासे यदि सात्त्विकी श्रद्धारूपी सुन्दर गौ हृदयरूपी घरमें आकर बस जाय; असंख्यों जप, तप, व्रत, यम और नियमादि शुभ धर्म और आचार (आचरण), जो श्रुतियोंने कहे हैं,॥ ५॥

मूल (चौपाई)

तेइ तृन हरित चरै जब गाई।
भाव बच्छ सिसु पाइ पेन्हाई॥
नोइ निबृत्ति पात्र बिस्वासा।
निर्मल मन अहीर निज दासा॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन्हीं (धर्माचाररूपी) हरे तृणों (घास)को जब वह गौ चरे और आस्तिक भावरूपी छोटे बछड़ेको पाकर वह पेन्हावे। निवृत्ति (सांसारिक विषयोंसे और प्रपञ्चसे हटना) नोई (गौके दूहते समय पिछले पैर बाँधनेकी रस्सी) है, विश्वास (दूध दूहनेका) बरतन है, निर्मल (निष्पाप) मन जो स्वयं अपना दास है (अपने वशमें है), दुहनेवाला अहीर है॥ ६॥

मूल (चौपाई)

परम धर्ममय पय दुहि भाई।
अवटै अनल अकाम बनाई॥
तोष मरुत तब छमाँ जुड़ावै।
धृति सम जावनु देइ जमावै॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे भाई! इस प्रकार (धर्माचारमें प्रवृत्त सात्त्विकी श्रद्धारूपी गौसे भाव, निवृत्ति और वशमें किये हुए निर्मल मनकी सहायतासे) परम धर्ममय दूध दुहकर उसे निष्काम भावरूपी अग्निपर भलीभाँति औटावे। फिर क्षमा और संतोषरूपी हवासे उसे ठंढा करे और धैर्य तथा शम (मनका निग्रह)-रूपी जामन देकर उसे जमावे॥ ७॥

मूल (चौपाई)

मुदिताँ मथै बिचार मथानी।
दम अधार रजु सत्य सुबानी॥
तब मथि काढ़ि लेइ नवनीता।
बिमल बिराग सुभग सुपुनीता॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब मुदिता (प्रसन्नता) रूपी कमोरीमें तत्त्वविचाररूपी मथानीसे दम (इन्द्रिय-दमन)के आधारपर (दमरूपी खंभे आदिके सहारे) सत्य और सुन्दर वाणीरूपी रस्सी लगाकर उसे मथे और मथकर तब उसमेंसे निर्मल, सुन्दर और अत्यन्त पवित्र वैराग्यरूपी मक्खन निकाल ले॥ ८॥

दोहा

मूल (दोहा)

जोग अगिनि करि प्रगट तब कर्म सुभासुभ लाइ।
बुद्धि सिरावै ग्यान घृत ममता मल जरि जाइ॥ ११७(क)॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब योगरूपी अग्नि प्रकट करके उसमें समस्त शुभाशुभ कर्मरूपी ईंधन लगा दे (सब कर्मोंको योगरूपी अग्निमें भस्म कर दे)। जब (वैराग्यरूपी मक्खनका) ममतारूपी मल जल जाय, तब (बचे हुए) ज्ञानरूपी घीको (निश्चयात्मिका) बुद्धिसे ठंढा करे॥ ११७(क)॥

मूल (दोहा)

तब बिग्यानरूपिनी बुद्धि बिसद घृत पाइ।
चित्त दिआ भरि धरै दृढ़ समता दिअटि बनाइ॥ ११७(ख)॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब विज्ञानरूपिणी बुद्धि उस (ज्ञानरूपी) निर्मल घीको पाकर उससे चित्तरूपी दियेको भरकर, समताकी दीवट बनाकर, उसपर उसे दृढ़तापूर्वक (जमाकर) रखे॥ ११७(ख)॥

मूल (दोहा)

तीनि अवस्था तीनि गुन तेहि कपास तें काढ़ि।
तूल तुरीय सँवारि पुनि बाती करै सुगाढ़ि॥ ११७(ग)॥

अनुवाद (हिन्दी)

(जाग्रत्, स्वप्न और सुषुप्ति) तीनों अवस्थाएँ और (सत्त्व, रज और तम) तीनों गुणरूपी कपाससे तुरीयावस्थारूपी रूईको निकालकर और फिर उसे सँवारकर उसकी सुन्दर कड़ी बत्ती बनावे॥ ११७(ग)॥

सोरठा

मूल (दोहा)

एहि बिधि लेसै दीप तेज रासि बिग्यानमय।
जातहिं जासु समीप जरहिं मदादिक सलभ सब॥ ११७(घ)॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार तेजकी राशि विज्ञानमय दीपकको जलावे, जिसके समीप जाते ही मद आदि सब पतंगे जल जायँ॥ ११७(घ)॥

मूल (चौपाई)

सोहमस्मि इति बृत्ति अखंडा।
दीप सिखा सोइ परम प्रचंडा॥
आतम अनुभव सुख सुप्रकासा।
तब भव मूल भेद भ्रम नासा॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘सोऽहमस्मि’ (वह ब्रह्म मैं हूँ) यह जो अखण्ड (तैलधारावत् कभी न टूटनेवाली) वृत्ति है वही (उस ज्ञानदीपककी) परम प्रचण्ड दीपशिखा (लौ) है। (इस प्रकार) जब आत्मानुभवके सुखका सुन्दर प्रकाश फैलता है, तब संसारके मूल भेदरूपी भ्रमका नाश हो जाता है,॥ १॥

मूल (चौपाई)

प्रबल अबिद्या कर परिवारा।
मोह आदि तम मिटइ अपारा॥
तब सोइ बुद्धि पाइ उँजिआरा।
उर गृहँ बैठि ग्रंथि निरुआरा॥

अनुवाद (हिन्दी)

और महान् बलवती अविद्याके परिवार मोह आदिका अपार अन्धकार मिट जाता है। तब वही (विज्ञानरूपिणी) बुद्धि (आत्मानुभवरूप) प्रकाशको पाकर हृदयरूपी घरमें बैठकर उस जड़-चेतनकी गाँठको खोलती है॥ २॥

मूल (चौपाई)

छोरन ग्रंथि पाव जौं सोई।
तब यह जीव कृतारथ होई॥
छोरत ग्रंथि जानि खगराया।
बिघ्न अनेक करइ तब माया॥

अनुवाद (हिन्दी)

यदि वह (विज्ञानरूपिणी बुद्धि) उस गाँठको खोलने पावे, तब यह जीव कृतार्थ हो। परन्तु हे पक्षिराज गरुड़जी! गाँठ खोलते हुए जानकर माया फिर अनेकों विघ्न करती है॥ ३॥

मूल (चौपाई)

रिद्धि सिद्धि प्रेरइ बहु भाई।
बुद्धिहि लोभ दिखावहिं आई॥
कल बल छल करि जाहिं समीपा।
अंचल बात बुझावहिं दीपा॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे भाई! वह बहुत-सी ऋद्धि-सिद्धियोंको भेजती है, जो आकर बुद्धिको लोभ दिखाती हैं। और वे ऋद्धि-सिद्धियाँ कल (कला), बल और छल करके समीप जाती और आँचलकी वायुसे उस ज्ञानरूपी दीपकको बुझा देती हैं॥ ४॥

मूल (चौपाई)

होइ बुद्धि जौं परम सयानी।
तिन्ह तन चितव न अनहित जानी॥
जौं तेहि बिघ्न बुद्धि नहिं बाधी।
तौ बहोरि सुर करहिं उपाधी॥

अनुवाद (हिन्दी)

यदि बुद्धि बहुत ही सयानी हुई, तो वह उन (ऋद्धि-सिद्धियों) को अहितकर (हानिकर) समझकर उनकी ओर ताकती नहीं। इस प्रकार यदि मायाके विघ्नोंसे बुद्धिको बाधा न हुई, तो फिर देवता उपाधि (विघ्न) करते हैं॥ ५॥

मूल (चौपाई)

इंद्री द्वार झरोखा नाना।
तहँ तहँ सुर बैठे करि थाना॥
आवत देखहिं बिषय बयारी।
ते हठि देहिं कपाट उघारी॥

अनुवाद (हिन्दी)

इन्द्रियोंके द्वार हृदयरूपी घरके अनेकों झरोखे हैं। वहाँ-वहाँ (प्रत्येक झरोखेपर) देवता थाना किये (अड्डा जमाकर) बैठे हैं। ज्यों ही वे विषयरूपी हवाको आते देखते हैं त्यों ही हठपूर्वक किवाड़ खोल देते हैं॥ ६॥

मूल (चौपाई)

जब सो प्रभंजन उर गृहँ जाई।
तबहिं दीप बिग्यान बुझाई॥
ग्रंथि न छूटि मिटा सो प्रकासा।
बुद्धि बिकल भइ बिषय बतासा॥

अनुवाद (हिन्दी)

ज्यों ही वह तेज हवा हृदयरूपी घरमें जाती है, त्यों ही वह विज्ञानरूपी दीपक बुझ जाता है। गाँठ भी नहीं छूटी और वह (आत्मानुभवरूप) प्रकाश भी मिट गया। विषयरूपी हवासे बुद्धि व्याकुल हो गयी (सारा किया-कराया चौपट हो गया)॥ ७॥

मूल (चौपाई)

इंद्रिन्ह सुरन्ह न ग्यान सोहाई।
बिषय भोग पर प्रीति सदाई॥
बिषय समीर बुद्धि कृत भोरी।
तेहि बिधि दीप को बार बहोरी॥

अनुवाद (हिन्दी)

इन्द्रियों और उनके देवताओंको ज्ञान (स्वाभाविक ही) नहीं सुहाता; क्योंकि उनकी विषय-भोगोंमें सदा ही प्रीति रहती है। और बुद्धिको भी विषयरूपी हवाने बावली बना दिया। तब फिर (दुबारा) उस ज्ञानदीपकको उसी प्रकारसे कौन जलावे?॥ ८॥

दोहा

मूल (दोहा)

तब फिरि जीव बिबिधि बिधि पावइ संसृति क्लेस।
हरि माया अति दुस्तर तरि न जाइ बिहगेस॥ ११८(क)॥

अनुवाद (हिन्दी)

(इस प्रकार ज्ञानदीपकके बुझ जानेपर) तब फिर जीव अनेकों प्रकारसे संसृति (जन्म-मरणादि) के क्लेश पाता है। हे पक्षिराज! हरिकी माया अत्यन्त दुस्तर है, वह सहजहीमें तरी नहीं जा सकती॥ ११८(क)॥

मूल (दोहा)

कहत कठिन समुझत कठिन साधत कठिन बिबेक ।
होइ घुनाच्छर न्याय जौं पुनि प्रत्यूह अनेक॥ ११८(ख)॥

अनुवाद (हिन्दी)

ज्ञान कहने (समझाने) में कठिन, समझनेमें कठिन और साधनेमें भी कठिन है। यदि घुणाक्षरन्यायसे (संयोगवश) कदाचित् यह ज्ञान हो भी जाय, तो फिर (उसे बचाये रखनेमें) अनेकों विघ्न हैं॥ ११८(ख)॥

मूल (चौपाई)

ग्यान पंथ कृपान कै धारा।
परत खगेस होइ नहिं बारा॥
जो निर्बिघ्न पंथ निर्बहई।
सो कैवल्य परम पद लहई॥

अनुवाद (हिन्दी)

ज्ञानका मार्ग कृपाण (दुधारी तलवार) की धारके समान है। हे पक्षिराज! इस मार्गसे गिरते देर नहीं लगती। जो इस मार्गको निर्विघ्न निबाह ले जाता है, वही कैवल्य (मोक्ष) रूप परमपदको प्राप्त करता है॥ १॥

मूल (चौपाई)

अति दुर्लभ कैवल्य परम पद।
संत पुरान निगम आगम बद॥
राम भजत सोइ मुकुति गोसाईं।
अनइच्छित आवइ बरिआईं॥

अनुवाद (हिन्दी)

संत, पुराण, वेद और (तन्त्र आदि) शास्त्र (सब) यह कहते हैं कि कैवल्यरूप परमपद अत्यन्त दुर्लभ है; किन्तु हे गोसाईं! वही (अत्यन्त दुर्लभ) मुक्ति श्रीरामजीको भजनेसे बिना इच्छा किये भी जबरदस्ती आ जाती है॥ २॥

मूल (चौपाई)

जिमि थल बिनु जल रहि न सकाई।
कोटि भाँति कोउ करै उपाई॥
तथा मोच्छ सुख सुनु खगराई।
रहि न सकइ हरि भगति बिहाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे स्थलके बिना जल नहीं रह सकता, चाहे कोई करोड़ों प्रकारके उपाय क्यों न करे। वैसे ही, हे पक्षिराज! सुनिये, मोक्षसुख भी श्रीहरिकी भक्तिको छोड़कर नहीं रह सकता॥ ३॥

मूल (चौपाई)

अस बिचारि हरि भगत सयाने।
मुक्ति निरादर भगति लुभाने॥
भगति करत बिनु जतन प्रयासा।
संसृति मूल अबिद्या नासा॥

अनुवाद (हिन्दी)

ऐसा विचारकर बुद्धिमान् हरिभक्त भक्तिपर लुभाये रहकर मुक्तिका तिरस्कार कर देते हैं। भक्ति करनेसे संसृति (जन्म-मृत्युरूप संसार) की जड़ अविद्या बिना ही यत्न और परिश्रमके (अपने-आप) वैसे ही नष्ट हो जाती है,॥ ४॥

मूल (चौपाई)

भोजन करिअ तृपिति हित लागी।
जिमि सो असन पचवै जठरागी॥
असि हरि भगति सुगम सुखदाई।
को अस मूढ़ न जाहि सोहाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे भोजन किया तो जाता है तृप्तिके लिये और उस भोजनको जठराग्नि अपने-आप (बिना हमारी चेष्टाके) पचा डालती है, ऐसी सुगम और परम सुख देनेवाली हरिभक्ति जिसे न सुहावे, ऐसा मूढ़ कौन होगा?॥ ५॥

दोहा

मूल (दोहा)

सेवक सेब्य भाव बिनु भव न तरिअ उरगारि।
भजहु राम पद पंकज अस सिद्धांत बिचारि॥ ११९(क)॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे सर्पोंके शत्रु गरुड़जी! मैं सेवक हूँ और भगवान् मेरे सेव्य (स्वामी) हैं, इस भावके बिना संसाररूपी समुद्रसे तरना नहीं हो सकता। ऐसा सिद्धान्त विचारकर श्रीरामचन्द्रजीके चरणकमलोंका भजन कीजिये॥ ११९(क)॥

मूल (दोहा)

जो चेतन कहँ जड़ करइ जड़हि करइ चैतन्य।
अस समर्थ रघुनायकहि भजहिं जीव ते धन्य॥ ११९(ख)॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो चेतनको जड कर देता है और जडको चेतन कर देता है, ऐसे समर्थ श्रीरघुनाथजीको जो जीव भजते हैं, वे धन्य हैं॥ ११९(ख)॥

मूल (चौपाई)

कहेउँ ग्यान सिद्धांत बुझाई।
सुनहु भगति मनि कै प्रभुताई॥
राम भगति चिंतामनि सुंदर।
बसइ गरुड़ जाके उर अंतर॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैंने ज्ञानका सिद्धान्त समझाकर कहा। अब भक्तिरूपी मणिकी प्रभुता (महिमा) सुनिये। श्रीरामजीकी भक्ति सुन्दर चिन्तामणि है। हे गरुड़जी! यह जिसके हृदयके अंदर बसती है,॥ १॥

मूल (चौपाई)

परम प्रकास रूप दिन राती।
नहिं कछु चहिअ दिआ घृत बाती॥
मोह दरिद्र निकट नहिं आवा।
लोभ बात नहिं ताहि बुझावा॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह दिन-रात (अपने-आप ही) परम प्रकाशरूप रहता है। उसको दीपक, घी और बत्ती कुछ भी नहीं चाहिये। (इस प्रकार मणिका एक तो स्वाभाविक प्रकाश रहता है) फिर मोहरूपी दरिद्रता समीप नहीं आती (क्योंकि मणि स्वयं धनरूप है); और (तीसरे) लोभरूपी हवा उस मणिमय दीपको बुझा नहीं सकती, (क्योंकि मणि स्वयं प्रकाशरूप है, वह किसी दूसरेकी सहायतासे नहीं प्रकाश करती)॥ २॥

मूल (चौपाई)

प्रबल अबिद्या तम मिटि जाई।
हारहिं सकल सलभ समुदाई॥
खल कामादि निकट नहिं जाहीं।
बसइ भगति जाके उर माहीं॥

अनुवाद (हिन्दी)

(उसके प्रकाशसे) अविद्याका प्रबल अन्धकार मिट जाता है। मदादि पतंगोंका सारा समूह हार जाता है। जिसके हृदयमें भक्ति बसती है, काम, क्रोध और लोभ आदि दुष्ट तो उसके पास भी नहीं जाते॥ ३॥

मूल (चौपाई)

गरल सुधा सम अरि हित होई।
तेहि मनि बिनु सुख पाव न कोई॥
ब्यापहिं मानस रोग न भारी।
जिन्ह के बस सब जीव दुखारी॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसके लिये विष अमृतके समान और शत्रु मित्र हो जाता है। उस मणिके बिना कोई सुख नहीं पाता। बड़े-बड़े मानस-रोग, जिनके वश होकर सब जीव दुखी हो रहे हैं, उसको नहीं व्यापते॥ ४॥

मूल (चौपाई)

राम भगति मनि उर बस जाकें।
दुख लवलेस न सपनेहुँ ताकें॥
चतुर सिरोमनि तेइ जग माहीं।
जे मनि लागि सुजतन कराहीं॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरामभक्तिरूपी मणि जिसके हृदयमें बसती है, उसे स्वप्नमें भी लेशमात्र दुःख नहीं होता। जगत् में वे ही मनुष्य चतुरोंके शिरोमणि हैं जो उस भक्तिरूपी मणिके लिये भलीभाँति यत्न करते हैं॥ ५॥

मूल (चौपाई)

सो मनि जदपि प्रगट जग अहई।
राम कृपा बिनु नहिं कोउ लहई॥
सुगम उपाय पाइबे केरे।
नर हतभाग्य देहिं भटभेरे॥

अनुवाद (हिन्दी)

यद्यपि वह मणि जगत् में प्रकट (प्रत्यक्ष) है, पर बिना श्रीरामजीकी कृपाके उसे कोई पा नहीं सकता। उसके पानेके उपाय भी सुगम ही हैं पर अभागे मनुष्य उन्हें ठुकरा देते हैं॥ ६॥

मूल (चौपाई)

पावन पर्बत बेद पुराना।
राम कथा रुचिराकर नाना॥
मर्मी सज्जन सुमति कुदारी।
ग्यान बिराग नयन उरगारी॥

अनुवाद (हिन्दी)

वेद-पुराण पवित्र पर्वत हैं। श्रीरामजीकी नाना प्रकारकी कथाएँ उन पर्वतोंमें सुन्दर खानें हैं। संत पुरुष (उनकी इन खानोंके रहस्यको जाननेवाले) मर्मी हैं और सुन्दर बुद्धि (खोदनेवाली) कुदाल है। हे गरुड़जी! ज्ञान और वैराग्य—ये दो उनके नेत्र हैं॥ ७॥

मूल (चौपाई)

भाव सहित खोजइ जो प्रानी।
पाव भगति मनि सब सुख खानी॥
मोरें मन प्रभु अस बिस्वासा।
राम ते अधिक राम कर दासा॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो प्राणी उसे प्रेमके साथ खोजता है, वह सब सुखोंकी खान इस भक्तिरूपी मणिको पा जाता है। हे प्रभो! मेरे मनमें तो ऐसा विश्वास है कि श्रीरामजीके दास श्रीरामजीसे भी बढ़कर हैं॥ ८॥

मूल (चौपाई)

राम सिंधु घन सज्जन धीरा।
चंदन तरु हरि संत समीरा॥
सब कर फल हरि भगति सुहाई।
सो बिनु संत न काहूँ पाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरामचन्द्रजी समुद्र हैं तो धीर संत पुरुष मेघ हैं। श्रीहरि चन्दनके वृक्ष हैं तो संत पवन हैं। सब साधनोंका फल सुन्दर हरिभक्ति ही है। उसे संतके बिना किसीने नहीं पाया॥ ९॥

मूल (चौपाई)

अस बिचारि जोइ कर सतसंगा।
राम भगति तेहि सुलभ बिहंगा॥

अनुवाद (हिन्दी)

ऐसा विचारकर जो भी संतोंका संग करता है, हे गरुड़जी! उसके लिये श्रीरामजीकी भक्ति सुलभ हो जाती है॥ १०॥

दोहा

मूल (दोहा)

ब्रह्म पयोनिधि मंदर ग्यान संत सुर आहिं।
कथा सुधा मथि काढ़हिं भगति मधुरता जाहिं॥ १२०(क)॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्रह्म (वेद) समुद्र है, ज्ञान मन्दराचल है और संत देवता हैं, जो उस समुद्रको मथकर कथारूपी अमृत निकालते हैं, जिसमें भक्तिरूपी मधुरता बसी रहती है॥ १२०(क)॥

मूल (दोहा)

बिरति चर्म असि ग्यान मद लोभ मोह रिपु मारि।
जय पाइअ सो हरि भगति देखु खगेस बिचारि॥ १२०(ख)॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैराग्यरूपी ढालसे अपनेको बचाते हुए और ज्ञानरूपी तलवारसे मद, लोभ और मोहरूपी वैरियोंको मारकर जो विजय प्राप्त करती है, वह हरिभक्ति ही है; हे पक्षिराज! इसे विचारकर देखिये॥ १२०(ख)॥

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