१७ काकभुशुण्डिजीका लोमशजीके पास जाना और शाप तथा अनुग्रह पाना

दोहा

मूल (दोहा)

गुर के बचन सुरति करि राम चरन मनु लाग।
रघुपति जस गावत फिरउँ छन छन नव अनुराग॥ ११०(क)॥

अनुवाद (हिन्दी)

गुरुजीके वचनोंका स्मरण करके मेरा मन श्रीरामजीके चरणोंमें लग गया। मैं क्षण-क्षण नया-नया प्रेम प्राप्त करता हुआ श्रीरघुनाथजीका यश गाता फिरता था॥ ११०(क)॥

मूल (दोहा)

मेरु सिखर बट छायाँ मुनि लोमस आसीन।
देखि चरन सिरु नायउँ बचन कहेउँ अति दीन॥ ११०(ख)॥

अनुवाद (हिन्दी)

सुमेरुपर्वतके शिखरपर बड़की छायामें लोमश मुनि बैठे थे। उन्हें देखकर मैंने उनके चरणोंमें सिर नवाया और अत्यन्त दीन वचन कहे॥ ११०(ख)॥

मूल (दोहा)

सुनि मम बचन बिनीत मृदु मुनि कृपाल खगराज।
मोहि सादर पूँछत भए द्विज आयहु केहि काज॥ ११०(ग)॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे पक्षिराज! मेरे अत्यन्त नम्र और कोमल वचन सुनकर कृपालु मुनि मुझसे आदरके साथ पूछने लगे—हे ब्राह्मण! आप किस कार्यसे यहाँ आये हैं॥ ११०(ग)॥

मूल (दोहा)

तब मैं कहा कृपानिधि तुम्ह सर्बग्य सुजान।
सगुन ब्रह्म अवराधन मोहि कहहु भगवान॥ ११०(घ)॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब मैंने कहा—हे कृपानिधि! आप सर्वज्ञ हैं और सुजान हैं। हे भगवन्! मुझे सगुण ब्रह्मकी आराधना (की प्रक्रिया) कहिये॥ ११०(घ)॥

मूल (चौपाई)

तब मुनीस रघुपति गुन गाथा।
कहे कछुक सादर खगनाथा॥
ब्रह्मग्यान रत मुनि बिग्यानी।
मोहि परम अधिकारी जानी॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब हे पक्षिराज! मुनीश्वरने श्रीरघुनाथजीके गुणोंकी कुछ कथाएँ आदरसहित कहीं। फिर वे ब्रह्मज्ञानपरायण विज्ञानवान् मुनि मुझे परम अधिकारी जानकर—॥ १॥

मूल (चौपाई)

लागे करन ब्रह्म उपदेसा।
अज अद्वैत अगुन हृदयेसा॥
अकल अनीह अनाम अरूपा।
अनुभव गम्य अखंड अनूपा॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्रह्मका उपदेश करने लगे कि वह अजन्मा है, अद्वैत है, निर्गुण है और हृदयका स्वामी (अन्तर्यामी) है। उसे कोई बुद्धिके द्वारा माप नहीं सकता, वह इच्छारहित, नामरहित, रूपरहित अनुभवसे जाननेयोग्य, अखण्ड और उपमारहित है,॥ २॥

मूल (चौपाई)

मन गोतीत अमल अबिनासी।
निर्बिकार निरवधि सुख रासी॥
सो तैं ताहि तोहि नहिं भेदा।
बारि बीचि इव गावहिं बेदा॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह मन और इन्द्रियोंसे परे, निर्मल, विनाशरहित, निर्विकार, सीमारहित और सुखकी राशि है। वेद ऐसा गाते हैं कि वही तू है (तत्त्वमसि), जल और जलकी लहरकी भाँति उसमें और तुझमें कोई भेद नहीं है॥ ३॥

मूल (चौपाई)

बिबिधि भाँति मोहि मुनि समुझावा।
निर्गुन मत मम हृदयँ न आवा॥
पुनि मैं कहेउँ नाइ पद सीसा।
सगुन उपासन कहहु मुनीसा॥

अनुवाद (हिन्दी)

मुनिने मुझे अनेकों प्रकारसे समझाया, पर निर्गुण मत मेरे हृदयमें नहीं बैठा। मैंने फिर मुनिके चरणोंमें सिर नवाकर कहा—हे मुनीश्वर! मुझे सगुण ब्रह्मकी उपासना कहिये॥ ४॥

मूल (चौपाई)

राम भगति जल मम मन मीना।
किमि बिलगाइ मुनीस प्रबीना॥
सोइ उपदेस कहहु करि दाया।
निज नयनन्हि देखौं रघुराया॥

अनुवाद (हिन्दी)

मेरा मन रामभक्तिरूपी जलमें मछली हो रहा है (उसीमें रम रहा है)। हे चतुर मुनीश्वर! ऐसी दशामें वह उससे अलग कैसे हो सकता है? आप दया करके मुझे वही उपदेश (उपाय) कहिये जिससे मैं श्रीरघुनाथजीको अपनी आँखोंसे देख सकूँ॥ ५॥

मूल (चौपाई)

भरि लोचन बिलोकि अवधेसा।
तब सुनिहउँ निर्गुन उपदेसा॥
मुनि पुनि कहि हरिकथा अनूपा।
खंडि सगुन मत अगुन निरूपा॥

अनुवाद (हिन्दी)

(पहले) नेत्र भरकर श्रीअयोध्यानाथको देखकर, तब निर्गुणका उपदेश सुनूँगा। मुनिने फिर अनुपम हरिकथा कहकर, सगुण मतका खण्डन करके निर्गुणका निरूपण किया॥ ६॥

मूल (चौपाई)

तब मैं निर्गुन मत कर दूरी।
सगुन निरूपउँ करि हठ भूरी॥
उत्तर प्रतिउत्तर मैं कीन्हा।
मुनि तन भए क्रोध के चीन्हा॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब मैं निर्गुण मतको हटाकर (काटकर) बहुत हठ करके सगुणका निरूपण करने लगा। मैंने उत्तर-प्रत्युत्तर किया, इससे मुनिके शरीरमें क्रोधके चिह्न उत्पन्न हो गये॥ ७॥

मूल (चौपाई)

सुनु प्रभु बहुत अवग्या किएँ।
उपज क्रोध ग्यानिन्ह के हिएँ॥
अति संघरषन जौं कर कोई।
अनल प्रगट चंदन ते होई॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे प्रभो! सुनिये, बहुत अपमान करनेपर ज्ञानीके भी हृदयमें क्रोध उत्पन्न हो जाता है। यदि कोई चन्दनकी लकड़ीको बहुत अधिक रगड़े, तो उससे भी अग्नि प्रकट हो जायगी॥ ८॥

दोहा

मूल (दोहा)

बारंबार सकोप मुनि करइ निरूपन ग्यान।
मैं अपने मन बैठ तब करउँ बिबिधि अनुमान॥ १११(क)॥

अनुवाद (हिन्दी)

मुनि बार-बार क्रोधसहित ज्ञानका निरूपण करने लगे। तब मैं बैठा-बैठा अपने मनमें अनेकों प्रकारके अनुमान करने लगा॥ १११(क)॥

मूल (दोहा)

क्रोध कि द्वैतबुद्धि बिनु द्वैत कि बिनु अग्यान।
मायाबस परिछिन्न जड़ जीव कि ईस समान॥ १११(ख)॥

अनुवाद (हिन्दी)

बिना द्वैतबुद्धिके क्रोध कैसा और बिना अज्ञानके क्या द्वैतबुद्धि हो सकती है? मायाके वश रहनेवाला परिच्छिन्न जड़ जीव क्या ईश्वरके समान हो सकता है?॥ १११(ख)॥

मूल (चौपाई)

कबहुँ कि दुख सब कर हित ताकें।
तेहि कि दरिद्र परस मनि जाकें॥
परद्रोही की होहिं निसंका।
कामी पुनि कि रहहिं अकलंका॥

अनुवाद (हिन्दी)

सबका हित चाहनेसे क्या कभी दुःख हो सकता है? जिसके पास पारसमणि है, उसके पास क्या दरिद्रता रह सकती है? दूसरेसे द्रोह करनेवाले क्या निर्भय हो सकते हैं और कामी क्या कलङ्करहित (बेदाग) रह सकते हैं?॥ १॥

मूल (चौपाई)

बंस कि रह द्विज अनहित कीन्हें।
कर्म कि होहिं स्वरूपहि चीन्हें॥
काहू सुमति कि खल सँग जामी।
सुभ गति पाव कि परत्रिय गामी॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्राह्मणका बुरा करनेसे क्या वंश रह सकता है? स्वरूपकी पहिचान (आत्मज्ञान) होनेपर क्या (आसक्तिपूर्वक) कर्म हो सकते हैं? दुष्टोंके सङ्गसे क्या किसीके सुबुद्धि उत्पन्न हुई है? परस्त्रीगामी क्या उत्तम गति पा सकता है?॥ २॥

मूल (चौपाई)

भव कि परहिं परमात्मा बिंदक।
सुखी कि होहिं कबहुँ हरि निंदक॥
राजु कि रहइ नीति बिनु जानें।
अघ कि रहहिं हरिचरित बखानें॥

अनुवाद (हिन्दी)

परमात्माको जाननेवाले कहीं जन्म-मरण (के चक्कर) में पड़ सकते हैं? भगवान् की निन्दा करनेवाले कभी सुखी हो सकते हैं? नीति बिना जाने क्या राज्य रह सकता है? श्रीहरिके चरित्र वर्णन करनेपर क्या पाप रह सकते हैं?॥ ३॥

मूल (चौपाई)

पावन जस कि पुन्य बिनु होई।
बिनु अघ अजस कि पावइ कोई॥
लाभु कि किछु हरि भगति समाना।
जेहि गावहिं श्रुति संत पुराना॥

अनुवाद (हिन्दी)

बिना पुण्यके क्या पवित्र यश (प्राप्त) हो सकता है? बिना पापके भी क्या कोई अपयश पा सकता है? जिसकी महिमा वेद, संत और पुराण गाते हैं उस हरि-भक्तिके समान क्या कोई दूसरा लाभ भी है?॥ ४॥

मूल (चौपाई)

हानि कि जग एहि सम किछु भाई।
भजिअ न रामहि नर तनु पाई॥
अघ कि पिसुनता सम कछु आना।
धर्म कि दया सरिस हरिजाना॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे भाई! जगत् में क्या इसके समान दूसरी भी कोई हानि है कि मनुष्यका शरीर पाकर भी श्रीरामजीका भजन न किया जाय? चुगलखोरीके समान क्या कोई दूसरा पाप है? और हे गरुड़जी! दयाके समान क्या कोई दूसरा धर्म है?॥ ५॥

मूल (चौपाई)

एहि बिधि अमिति जुगुति मन गुनऊँ।
मुनि उपदेस न सादर सुनऊँ॥
पुनि पुनि सगुन पच्छ मैं रोपा।
तब मुनि बोलेउ बचन सकोपा॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार मैं अनगिनत युक्तियाँ मनमें विचारता था और आदरके साथ मुनिका उपदेश नहीं सुनता था। जब मैंने बार-बार सगुणका पक्ष स्थापित किया, तब मुनि क्रोधयुक्त वचन बोले—॥ ६॥

मूल (चौपाई)

मूढ़ परम सिख देउँ न मानसि।
उत्तर प्रतिउत्तर बहु आनसि॥
सत्य बचन बिस्वास न करही।
बायस इव सबही ते डरही॥

अनुवाद (हिन्दी)

अरे मूढ़! मैं तुझे सर्वोत्तम शिक्षा देता हूँ, तो भी तू उसे नहीं मानता और बहुत-से उत्तर-प्रत्युत्तर (दलीलें) लाकर रखता है। मेरे सत्य वचनपर विश्वास नहीं करता! कौएकी भाँति सभीसे डरता है॥ ७॥

मूल (चौपाई)

सठ स्वपच्छ तव हृदयँ बिसाला।
सपदि होहि पच्छी चंडाला॥
लीन्ह श्राप मैं सीस चढ़ाई।
नहिं कछु भय न दीनता आई॥

अनुवाद (हिन्दी)

अरे मूर्ख! तेरे हृदयमें अपने पक्षका बड़ा भारी हठ है, अतः तू शीघ्र चाण्डाल पक्षी (कौआ) हो जा। मैंने आनन्दके साथ मुनिके शापको सिरपर चढ़ा लिया। उससे मुझे न कुछ भय हुआ, न दीनता ही आयी॥ ८॥

दोहा

मूल (दोहा)

तुरत भयउँ मैं काग तब पुनि मुनि पद सिरु नाइ।
सुमिरि राम रघुबंस मनि हरषित चलेउँ उड़ाइ॥ ११२(क)॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब मैं तुरंत ही कौआ हो गया। फिर मुनिके चरणोंमें सिर नवाकर और रघुकुलशिरोमणि श्रीरामजीका स्मरण करके मैं हर्षित होकर उड़ चला॥ ११२(क)॥

मूल (दोहा)

उमा जे राम चरन रत बिगत काम मद क्रोध।
निज प्रभुमय देखहिं जगत केहि सन करहिं बिरोध॥ ११२(ख)॥

अनुवाद (हिन्दी)

(शिवजी कहते हैं—) हे उमा! जो श्रीरामजीके चरणोंके प्रेमी हैं और काम, अभिमान तथा क्रोधसे रहित हैं, वे जगत् को अपने प्रभुसे भरा हुआ देखते हैं, फिर वे किससे वैर करें?॥ ११२(ख)॥

मूल (चौपाई)

सुनु खगेस नहिं कछु रिषि दूषन।
उर प्रेरक रघुबंस बिभूषन॥
कृपासिंधु मुनि मति करि भोरी।
लीन्ही प्रेम परिच्छा मोरी॥

अनुवाद (हिन्दी)

(काकभुशुण्डिजीने कहा—) हे पक्षिराज गरुड़जी! सुनिये, इसमें ऋषिका कुछ भी दोष नहीं था। रघुवंशके विभूषण श्रीरामजी ही सबके हृदयमें प्रेरणा करनेवाले हैं। कृपासागर प्रभुने मुनिकी बुद्धिको भोली करके (भुलावा देकर) मेरे प्रेमकी परीक्षा ली॥ १॥

मूल (चौपाई)

मन बच क्रम मोहि निज जन जाना।
मुनि मति पुनि फेरी भगवाना॥
रिषि मम महत सीलता देखी।
राम चरन बिस्वास बिसेषी॥

अनुवाद (हिन्दी)

मन, वचन और कर्मसे जब प्रभुने मुझे अपना दास जान लिया, तब भगवान् ने मुनिकी बुद्धि फिर पलट दी। ऋषिने मेरा महान् पुरुषोंका-सा स्वभाव (धैर्य, अक्रोध, विनय आदि) और श्रीरामजीके चरणोंमें विशेष विश्वास देखा,॥ २॥

मूल (चौपाई)

अति बिसमय पुनि पुनि पछिताई।
सादर मुनि मोहि लीन्ह बोलाई॥
मम परितोष बिबिध बिधि कीन्हा।
हरषित राममंत्र तब दीन्हा॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब मुनिने बहुत दुःखके साथ बार-बार पछताकर मुझे आदरपूर्वक बुला लिया। उन्होंने अनेकों प्रकारसे मेरा सन्तोष किया और तब हर्षित होकर मुझे राममन्त्र दिया॥ ३॥

मूल (चौपाई)

बालकरूप राम कर ध्याना।
कहेउ मोहि मुनि कृपानिधाना॥
सुंदर सुखद मोहि अति भावा।
सो प्रथमहिं मैं तुम्हहि सुनावा॥

अनुवाद (हिन्दी)

कृपानिधान मुनिने मुझे बालकरूप श्रीरामजीका ध्यान (ध्यानकी विधि) बतलाया। सुन्दर और सुख देनेवाला यह ध्यान मुझे बहुत ही अच्छा लगा। वह ध्यान मैं आपको पहले ही सुना चुका हूँ॥ ४॥

मूल (चौपाई)

मुनि मोहि कछुक काल तहँ राखा।
रामचरितमानस तब भाषा॥
सादर मोहि यह कथा सुनाई।
पुनि बोले मुनि गिरा सुहाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

मुनिने कुछ समयतक मुझको वहाँ (अपने पास) रखा। तब उन्होंने रामचरितमानस वर्णन किया। आदरपूर्वक मुझे यह कथा सुनाकर फिर मुनि मुझसे सुन्दर वाणी बोले—॥ ५॥

मूल (चौपाई)

रामचरित सर गुप्त सुहावा।
संभु प्रसाद तात मैं पावा॥
तोहि निज भगत राम कर जानी।
ताते मैं सब कहेउँ बखानी॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे तात! यह सुन्दर और गुप्त रामचरितमानस मैंने शिवजीकी कृपासे पाया था। तुम्हें श्रीरामजीका ‘निज भक्त’ जाना, इसीसे मैंने तुमसे सब चरित्र विस्तारके साथ कहा॥ ६॥

मूल (चौपाई)

राम भगति जिन्ह कें उर नाहीं।
कबहुँ न तात कहिअ तिन्ह पाहीं॥
मुनि मोहि बिबिधि भाँति समुझावा।
मैं सप्रेम मुनि पद सिरु नावा॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे तात! जिनके हृदयमें श्रीरामजीकी भक्ति नहीं है, उनके सामने इसे कभी भी नहीं कहना चाहिये। मुनिने मुझे बहुत प्रकारसे समझाया। तब मैंने प्रेमके साथ मुनिके चरणोंमें सिर नवाया॥ ७॥

मूल (चौपाई)

निज कर कमल परसि मम सीसा।
हरषित आसिष दीन्ह मुनीसा॥
राम भगति अबिरल उर तोरें।
बसिहि सदा प्रसाद अब मोरें॥

अनुवाद (हिन्दी)

मुनीश्वरने अपने कर-कमलोंसे मेरा सिर स्पर्श करके हर्षित होकर आशीर्वाद दिया कि अब मेरी कृपासे तेरे हृदयमें सदा प्रगाढ़ रामभक्ति बसेगी॥ ८॥

दोहा

मूल (दोहा)

सदा राम प्रिय होहु तुम्ह सुभ गुन भवन अमान।
कामरूप इच्छामरन ग्यान बिराग निधान॥ ११३(क)॥

अनुवाद (हिन्दी)

तुम सदा श्रीरामजीको प्रिय होओ और कल्याणरूप गुणोंके धाम, मानरहित इच्छानुसार रूप धारण करनेमें समर्थ, इच्छामृत्यु (जिसकी शरीर छोड़नेकी इच्छा करनेपर ही मृत्यु हो, बिना इच्छाके मृत्यु न हो), एवं ज्ञान और वैराग्यके भण्डार होओ॥ ११३(क)॥

मूल (दोहा)

जेहिं आश्रम तुम्ह बसब पुनि सुमिरत श्रीभगवंत।
ब्यापिहि तहँ न अबिद्या जोजन एक प्रजंत॥ ११३(ख)॥

अनुवाद (हिन्दी)

इतना ही नहीं, श्रीभगवान् को स्मरण करते हुए तुम जिस आश्रममें निवास करोगे वहाँ एक योजन (चार कोस) तक अविद्या (माया-मोह) नहीं व्यापेगी॥ ११३(ख)॥

मूल (चौपाई)

काल कर्म गुन दोष सुभाऊ।
कछु दुख तुम्हहि न ब्यापिहि काऊ॥
राम रहस्य ललित बिधि नाना।
गुप्त प्रगट इतिहास पुराना॥

अनुवाद (हिन्दी)

काल, कर्म, गुण, दोष और स्वभावसे उत्पन्न कुछ भी दुःख तुमको कभी नहीं व्यापेगा। अनेकों प्रकारके सुन्दर श्रीरामजीके रहस्य (गुप्त मर्मके चरित्र और गुण), जो इतिहास और पुराणोंमें गुप्त और प्रकट हैं (वर्णित और लक्षित हैं)॥ १॥

मूल (चौपाई)

बिनु श्रम तुम्ह जानब सब सोऊ।
नित नव नेह राम पद होऊ॥
जो इच्छा करिहहु मन माहीं।
हरि प्रसाद कछु दुर्लभ नाहीं॥

अनुवाद (हिन्दी)

तुम उन सबको भी बिना ही परिश्रम जान जाओगे। श्रीरामजीके चरणोंमें तुम्हारा नित्य नया प्रेम हो। अपने मनमें तुम जो कुछ इच्छा करोगे, श्रीहरिकी कृपासे उसकी पूर्ति कुछ भी दुर्लभ नहीं होगी॥ २॥

मूल (चौपाई)

सुनि मुनि आसिष सुनु मतिधीरा।
ब्रह्मगिरा भइ गगन गँभीरा॥
एवमस्तु तव बच मुनि ग्यानी।
यह मम भगत कर्म मन बानी॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे धीरबुद्धि गरुड़जी! सुनिये, मुनिका आशीर्वाद सुनकर आकाशमें गम्भीर ब्रह्मवाणी हुई कि हे ज्ञानी मुनि! तुम्हारा वचन ऐसा ही (सत्य) हो। यह कर्म, मन और वचनसे मेरा भक्त है॥ ३॥

मूल (चौपाई)

सुनि नभगिरा हरष मोहि भयऊ।
प्रेम मगन सब संसय गयऊ॥
करि बिनती मुनि आयसु पाई।
पद सरोज पुनि पुनि सिरु नाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

आकाशवाणी सुनकर मुझे बड़ा हर्ष हुआ। मैं प्रेममें मग्न हो गया और मेरा सब सन्देह जाता रहा। तदनन्तर मुनिकी विनती करके, आज्ञा पाकर और उनके चरणकमलोंमें बार-बार सिर नवाकर—॥ ४॥

मूल (चौपाई)

हरष सहित एहिं आश्रम आयउँ।
प्रभु प्रसाद दुर्लभ बर पायउँ॥
इहाँ बसत मोहि सुनु खग ईसा।
बीते कलप सात अरु बीसा॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैं हर्षसहित इस आश्रममें आया। प्रभु श्रीरामजीकी कृपासे मैंने दुर्लभ वर पा लिया। हे पक्षिराज! मुझे यहाँ निवास करते सत्ताईस कल्प बीत गये॥ ५॥

मूल (चौपाई)

करउँ सदा रघुपति गुन गाना।
सादर सुनहिं बिहंग सुजाना॥
जब जब अवधपुरीं रघुबीरा।
धरहिं भगत हित मनुज सरीरा॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैं यहाँ सदा श्रीरघुनाथजीके गुणोंका गान किया करता हूँ और चतुर पक्षी उसे आदरपूर्वक सुनते हैं। अयोध्यापुरीमें जब-जब श्रीरघुवीर भक्तोंके (हितके) लिये मनुष्यशरीर धारण करते हैं,॥ ६॥

मूल (चौपाई)

तब तब जाइ राम पुर रहऊँ।
सिसुलीला बिलोकि सुख लहऊँ॥
पुनि उर राखि राम सिसुरूपा।
निज आश्रम आवउँ खगभूपा॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब-तब मैं जाकर श्रीरामजीकी नगरीमें रहता हूँ और प्रभुकी शिशुलीला देखकर सुख प्राप्त करता हूँ। फिर हे पक्षिराज! श्रीरामजीके शिशुरूपको हृदयमें रखकर मैं अपने आश्रममें आ जाता हूँ॥ ७॥

मूल (चौपाई)

कथा सकल मैं तुम्हहि सुनाई।
काग देह जेहिं कारन पाई॥
कहिउँ तात सब प्रस्न तुम्हारी।
राम भगति महिमा अति भारी॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिस कारणसे मैंने कौएकी देह पायी, वह सारी कथा आपको सुना दी। हे तात! मैंने आपके सब प्रश्नोंके उत्तर कहे। अहा! रामभक्तिकी बड़ी भारी महिमा है॥ ८॥

दोहा

मूल (दोहा)

ताते यह तन मोहि प्रिय भयउ राम पद नेह।
निज प्रभु दरसन पायउँ गए सकल संदेह॥ ११४(क)॥

अनुवाद (हिन्दी)

मुझे अपना यह काकशरीर इसीलिये प्रिय है कि इसमें मुझे श्रीरामजीके चरणोंका प्रेम प्राप्त हुआ। इसी शरीरसे मैंने अपने प्रभुके दर्शन पाये और मेरे सब सन्देह जाते रहे (दूर हुए)॥ ११४(क)॥

भागसूचना

मासपारायण, उनतीसवाँ विश्राम

Misc Detail