१६ गुरुजीका शिवजीसे अपराध-क्षमापन, शापानुग्रह और काकभुशुण्डिकी आगेकी कथा

दोहा

मूल (दोहा)

सुनि बिनती सर्बग्य सिव देखि बिप्र अनुरागु।
पुनि मंदिर नभबानी भइ द्विजबर बर मागु॥ १०८(क)॥

अनुवाद (हिन्दी)

सर्वज्ञ शिवजीने विनती सुनी और ब्राह्मणका प्रेम देखा। तब मन्दिरमें आकाशवाणी हुई कि हे द्विजश्रेष्ठ! वर माँगो॥ १०८(क)॥

मूल (दोहा)

जौं प्रसन्न प्रभु मो पर नाथ दीन पर नेहु।
निज पद भगति देइ प्रभु पुनि दूसर बर देहु॥ १०८(ख)॥

अनुवाद (हिन्दी)

(ब्राह्मणने कहा—) हे प्रभो! यदि आप मुझपर प्रसन्न हैं और हे नाथ! यदि इस दीनपर आपका स्नेह है, तो पहले अपने चरणोंकी भक्ति देकर फिर दूसरा वर दीजिये॥ १०८(ख)॥

मूल (दोहा)

तव माया बस जीव जड़ संतत फिरइ भुलान।
तेहि पर क्रोध न करिअ प्रभु कृपासिंधु भगवान॥ १०८(ग)॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे प्रभो! यह अज्ञानी जीव आपकी मायाके वश होकर निरन्तर भूला फिरता है। हे कृपाके समुद्र भगवान्! उसपर क्रोध न कीजिये॥ १०८(ग)॥

मूल (दोहा)

संकर दीनदयाल अब एहि पर होहु कृपाल।
साप अनुग्रह होइ जेहिं नाथ थोरेहीं काल॥ १०८(घ)॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे दीनोंपर दया करनेवाले (कल्याणकारी) शङ्कर! अब इसपर कृपालु होइये (कृपा कीजिये), जिससे हे नाथ! थोड़े ही समयमें इसपर शापके बाद अनुग्रह (शापसे मुक्ति) हो जाय॥ १०८(घ)॥

मूल (चौपाई)

एहि कर होइ परम कल्याना।
सोइ करहु अब कृपानिधाना॥
बिप्र गिरा सुनि परहित सानी।
एवमस्तु इति भइ नभबानी॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे कृपानिधान! अब वही कीजिये, जिससे इसका परम कल्याण हो। दूसरेके हितसे सनी हुई ब्राह्मणकी वाणी सुनकर फिर आकाशवाणी हुई—‘एवमस्तु’ (ऐसा ही हो)॥ १॥

मूल (चौपाई)

जदपि कीन्ह एहिं दारुन पापा।
मैं पुनि दीन्हि कोप करि सापा॥
तदपि तुम्हारि साधुता देखी।
करिहउँ एहि पर कृपा बिसेषी॥

अनुवाद (हिन्दी)

यद्यपि इसने भयानक पाप किया है और मैंने भी इसे क्रोध करके शाप दिया है, तो भी तुम्हारी साधुता देखकर मैं इसपर विशेष कृपा करूँगा॥ २॥

मूल (चौपाई)

छमासील जे पर उपकारी।
ते द्विज मोहि प्रिय जथा खरारी॥
मोर श्राप द्विज ब्यर्थ न जाइहि।
जन्म सहस अवस्य यह पाइहि॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे द्विज! जो क्षमाशील एवं परोपकारी होते हैं, वे मुझे वैसे ही प्रिय हैं जैसे खरारि श्रीरामचन्द्रजी। हे द्विज! मेरा शाप व्यर्थ नहीं जायगा। यह हजार जन्म अवश्य पावेगा॥ ३॥

मूल (चौपाई)

जनमत मरत दुसह दुख होई।
एहि स्वल्पउ नहिं ब्यापिहि सोई॥
कवनेउँ जन्म मिटिहि नहिं ग्याना।
सुनहि सूद्र मम बचन प्रवाना॥

अनुवाद (हिन्दी)

परन्तु जन्मने और मरनेमें जो दुःसह दुःख होता है, इसको वह दुःख जरा भी न व्यापेगा और किसी भी जन्ममें इसका ज्ञान नहीं मिटेगा। हे शूद्र! मेरा प्रामाणिक (सत्य) वचन सुन॥ ४॥

मूल (चौपाई)

रघुपति पुरीं जन्म तव भयऊ।
पुनि तैं मम सेवाँ मन दयऊ॥
पुरी प्रभाव अनुग्रह मोरें।
राम भगति उपजिहि उर तोरें॥

अनुवाद (हिन्दी)

(प्रथम तो) तेरा जन्म श्रीरघुनाथजीकी पुरीमें हुआ। फिर तूने मेरी सेवामें मन लगाया। पुरीके प्रभाव और मेरी कृपासे तेरे हृदयमें रामभक्ति उत्पन्न होगी॥ ५॥

मूल (चौपाई)

सुनु मम बचन सत्य अब भाई।
हरितोषन ब्रत द्विज सेवकाई॥
अब जनि करहि बिप्र अपमाना।
जानेसु संत अनंत समाना॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे भाई! अब मेरा सत्य वचन सुन। द्विजोंकी सेवा ही भगवान् को प्रसन्न करनेवाला व्रत है। अब कभी ब्राह्मणका अपमान न करना। संतोंको अनन्त श्रीभगवान् ही के समान जानना॥ ६॥

मूल (चौपाई)

इंद्र कुलिस मम सूल बिसाला।
कालदंड हरि चक्र कराला॥
जो इन्ह कर मारा नहिं मरई।
बिप्र द्रोह पावक सो जरई॥

अनुवाद (हिन्दी)

इन्द्रके वज्र, मेरे विशाल त्रिशूल, कालके दण्ड और श्रीहरिके विकराल चक्रके मारे भी जो नहीं मरता, वह भी विप्रदोहरूपी अग्निसे भस्म हो जाता है॥ ७॥

मूल (चौपाई)

अस बिबेक राखेहु मन माहीं।
तुम्ह कहँ जग दुर्लभ कछु नाहीं।
औरउ एक आसिषा मोरी।
अप्रतिहत गति होइहि तोरी॥

अनुवाद (हिन्दी)

ऐसा विवेक मनमें रखना। फिर तुम्हारे लिये जगत् में कुछ भी दुर्लभ न होगा। मेरा एक और भी आशीर्वाद है कि तुम्हारी सर्वत्र अबाध गति होगी (अर्थात् तुम जहाँ जाना चाहोगे, वहीं बिना रोक-टोकके जा सकोगे)॥ ८॥

दोहा

मूल (दोहा)

सुनि सिव बचन हरषि गुर एवमस्तु इति भाषि।
मोहि प्रबोधि गयउ गृह संभु चरन उर राखि॥ १०९(क)॥

अनुवाद (हिन्दी)

(आकाशवाणीके द्वारा) शिवजीके वचन सुनकर गुरुजी हर्षित होकर ‘ऐसा ही हो’ यह कहकर मुझे बहुत समझाकर और शिवजीके चरणोंको हृदयमें रखकर अपने घर गये॥ १०९(क)॥

मूल (दोहा)

प्रेरित काल बिंधि गिरि जाइ भयउँ मैं ब्याल।
पुनि प्रयास बिनु सो तनु तजेउँ गएँ कछु काल॥ १०९(ख)॥

अनुवाद (हिन्दी)

कालकी प्रेरणासे मैं विन्ध्याचलमें जाकर सर्प हुआ। फिर कुछ काल बीतनेपर बिना ही परिश्रम (कष्ट) के मैंने वह शरीर त्याग दिया॥ १०९(ख)॥

मूल (दोहा)

जोइ तनु धरउँ तजउँ पुनि अनायास हरिजान।
जिमि नूतन पट पहिरइ नर परिहरइ पुरान॥ १०९(ग)॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे हरिवाहन! मैं जो भी शरीर धारण करता, उसे बिना ही परिश्रम वैसे ही सुखपूर्वक त्याग देता था, जैसे मनुष्य पुराना वस्त्र त्याग देता है और नया पहिन लेता है॥ १०९(ग)॥

मूल (दोहा)

सिवँ राखी श्रुति नीति अरु मैं नहिं पावा क्लेस।
एहि बिधि धरेउँ बिबिधि तनु ग्यान न गयउ खगेस॥ १०९ (घ)॥

अनुवाद (हिन्दी)

शिवजीने वेदकी मर्यादाकी रक्षा की और मैंने क्लेश भी नहीं पाया। इस प्रकार हे पक्षिराज! मैंने बहुत-से शरीर धारण किये, पर मेरा ज्ञान नहीं गया॥ १०९(घ)॥

मूल (चौपाई)

त्रिजग देव नर जोइ तनु धरऊँ।
तहँ तहँ राम भजन अनुसरऊँ॥
एक सूल मोहि बिसर न काऊ।
गुर कर कोमल सील सुभाऊ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तिर्यक् योनि (पशु-पक्षी), देवता या मनुष्यका, जो भी शरीर धारण करता, वहाँ-वहाँ (उस-उस शरीरमें) मैं श्रीरामजीका भजन जारी रखता। (इस प्रकार मैं सुखी हो गया) परन्तु एक शूल मुझे बना रहा। गुरुजीका कोमल, सुशील स्वभाव मुझे कभी नहीं भूलता (अर्थात् मैंने ऐसे कोमल-स्वभाव दयालु गुरुका अपमान किया, यह दुःख मुझे सदा बना रहा)॥ १॥

मूल (चौपाई)

चरम देह द्विज कै मैं पाई।
सुर दुर्लभ पुरान श्रुति गाई॥
खेलउँ तहूँ बालकन्ह मीला।
करउँ सकल रघुनायक लीला॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैंने अन्तिम शरीर ब्राह्मणका पाया, जिसे पुराण और वेद देवताओंको भी दुर्लभ बताते हैं। मैं वहाँ (ब्राह्मण-शरीरमें) भी बालकोंमें मिलकर खेलता तो श्रीरघुनाथजीकी ही सब लीलाएँ किया करता॥ २॥

मूल (चौपाई)

प्रौढ़ भएँ मोहि पिता पढ़ावा।
समझउँ सुनउँ गुनउँ नहिं भावा॥
मन ते सकल बासना भागी।
केवल राम चरन लय लागी॥

अनुवाद (हिन्दी)

सयाना होनेपर पिताजी मुझे पढ़ाने लगे। मैं समझता, सुनता और विचारता, पर मुझे पढ़ना अच्छा नहीं लगता था। मेरे मनसे सारी वासनाएँ भाग गयीं। केवल श्रीरामजीके चरणोंमें लव लग गयी॥ ३॥

मूल (चौपाई)

कहु खगेस अस कवन अभागी।
खरी सेव सुरधेनुहि त्यागी॥
प्रेम मगन मोहि कछु न सोहाई।
हारेउ पिता पढ़ाइ पढ़ाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे गरुड़जी! कहिये, ऐसा कौन अभागा होगा जो कामधेनुको छोड़कर गदहीकी सेवा करेगा? प्रेममें मग्न रहनेके कारण मुझे कुछ भी नहीं सुहाता। पिताजी पढ़ा-पढ़ाकर हार गये॥ ४॥

मूल (चौपाई)

भए कालबस जब पितु माता।
मैं बन गयउँ भजन जनत्राता॥
जहँ जहँ बिपिन मुनीस्वर पावउँ।
आश्रम जाइ जाइ सिरु नावउँ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब पिता-माता कालवश हो गये (मर गये), तब मैं भक्तोंकी रक्षा करनेवाले श्रीरामजीका भजन करनेके लिये वनमें चला गया। वनमें जहाँ-जहाँ मुनीश्वरोंके आश्रम पाता, वहाँ-वहाँ जा-जाकर उन्हें सिर नवाता॥ ५॥

मूल (चौपाई)

बूझउँ तिन्हहि राम गुन गाहा।
कहहिं सुनउँ हरषित खगनाहा॥
सुनत फिरउँ हरि गुन अनुबादा।
अब्याहत गति संभु प्रसादा॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे गरुड़जी! उनसे मैं श्रीरामजीके गुणोंकी कथाएँ पूछता। वे कहते और मैं हर्षित होकर सुनता। इस प्रकार मैं सदा-सर्वदा श्रीहरिके गुणानुवाद सुनता फिरता। शिवजीकी कृपासे मेरी सर्वत्र अबाधित गति थी (अर्थात् मैं जहाँ चाहता वहीं जा सकता था)॥ ६॥

मूल (चौपाई)

छूटी त्रिबिधि ईषना गाढ़ी।
एक लालसा उर अति बाढ़ी॥
राम चरन बारिज जब देखौं।
तब निज जन्म सफल करि लेखौं॥

अनुवाद (हिन्दी)

मेरी तीनों प्रकारकी (पुत्रकी, धनकी और मानकी) गहरी प्रबल वासनाएँ छूट गयीं और हृदयमें एक यही लालसा अत्यन्त बढ़ गयी कि जब श्रीरामजीके चरणकमलोंके दर्शन करूँ तब अपना जन्म सफल हुआ समझूँ॥ ७॥

मूल (चौपाई)

जेहि पूँछउँ सोइ मुनि अस कहई।
ईस्वर सर्ब भूतमय अहई॥
निर्गुन मत नहिं मोहि सोहाई।
सगुन ब्रह्म रति उर अधिकाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिनसे मैं पूछता, वे ही मुनि ऐसा कहते कि ईश्वर सर्वभूतमय है। यह निर्गुण मत मुझे नहीं सुहाता था। हृदयमें सगुण ब्रह्मपर प्रीति बढ़ रही थी॥ ८॥

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