१४ गुरुजीका अपमान एवं शिवजीके शापकी बात सुनना

सोरठा

मूल (दोहा)

गुर नित मोहि प्रबोध दुखित देखि आचरन मम।
मोहि उपजइ अति क्रोध दंभिहि नीति कि भावई॥ १०५(ख)॥

अनुवाद (हिन्दी)

गुरुजी मेरे आचरण देखकर दुखित थे। वे मुझे नित्य ही भलीभाँति समझाते, पर (मैं कुछ भी नहीं समझता, उलटे) मुझे अत्यन्त क्रोध उत्पन्न होता। दम्भीको कभी नीति अच्छी लगती है?॥ १०५(ख)॥

मूल (चौपाई)

एक बार गुर लीन्ह बोलाई।
मोहि नीति बहु भाँति सिखाई॥
सिव सेवा कर फल सुत सोई।
अबिरल भगति राम पद होई॥

अनुवाद (हिन्दी)

एक बार गुरुजीने मुझे बुला लिया और बहुत प्रकारसे (परमार्थ) नीतिकी शिक्षा दी कि हे पुत्र! शिवजीकी सेवाका फल यही है कि श्रीरामजीके चरणोंमें प्रगाढ़ भक्ति हो॥ १॥

मूल (चौपाई)

रामहि भजहिं तात सिव धाता।
नर पावँर कै केतिक बाता॥
जासु चरन अज सिव अनुरागी।
तासु द्रोहँ सुख चहसि अभागी॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे तात! शिवजी और ब्रह्माजी भी श्रीरामजीको भजते हैं (फिर) नीच मनुष्यकी तो बात ही कितनी है? ब्रह्माजी और शिवजी जिनके चरणोंके प्रेमी हैं, अरे अभागे! उनसे द्रोह करके तू सुख चाहता है?॥ २॥

मूल (चौपाई)

हर कहुँ हरिसेवक गुर कहेऊ।
सुनि खगनाथ हृदय मम दहेऊ॥
अधम जाति मैं बिद्या पाएँ।
भयउँ जथा अहि दूध पिआएँ॥

अनुवाद (हिन्दी)

गुरुजीने शिवजीको हरिका सेवक कहा। यह सुनकर हे पक्षिराज! मेरा हृदय जल उठा। नीच जातिका मैं विद्या पाकर ऐसा हो गया जैसे दूध पिलानेसे साँप॥ ३॥

मूल (चौपाई)

मानी कुटिल कुभाग्य कुजाती।
गुर कर द्रोह करउँ दिनु राती॥
अति दयाल गुर स्वल्प न क्रोधा।
पुनि पुनि मोहि सिखाव सुबोधा॥

अनुवाद (हिन्दी)

अभिमानी, कुटिल, दुर्भाग्य और कुजाति मैं दिन-रात गुरुजीसे द्रोह करता। गुरुजी अत्यन्त दयालु थे, उनको थोड़ा-सा भी क्रोध नहीं आता। (मेरे द्रोह करनेपर भी) वे बार-बार मुझे उत्तम ज्ञानकी ही शिक्षा देते थे॥ ४॥

मूल (चौपाई)

जेहि ते नीच बड़ाई पावा।
सो प्रथमहिं हति ताहि नसावा॥
धूम अनल संभव सुनु भाई।
तेहि बुझाव घन पदवी पाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

नीच मनुष्य जिससे बड़ाई पाता है, वह सबसे पहले उसीको मारकर उसीका नाश करता है। हे भाई! सुनिये, आगसे उत्पन्न हुआ धुआँ मेघकी पदवी पाकर उसी अग्निको बुझा देता है॥ ५॥

मूल (चौपाई)

रज मग परी निरादर रहई।
सब कर पद प्रहार नित सहई॥
मरुत उड़ाव प्रथम तेहि भरई।
पुनि नृप नयन किरीटन्हि परई॥

अनुवाद (हिन्दी)

धूल रास्तेमें निरादरसे पड़ी रहती है और सदा सब (राह चलनेवालों) के लातोंकी मार सहती है। पर जब पवन उसे उड़ाता (ऊँचा उठाता) है, तो सबसे पहले वह उसी (पवन) को भर देती है और फिर राजाओंके नेत्रों और किरीटों (मुकुटों) पर पड़ती है॥ ६॥

मूल (चौपाई)

सुनु खगपति अस समुझि प्रसंगा।
बुध नहिं करहिं अधम कर संगा॥
कबि कोबिद गावहिं असि नीती।
खल सन कलह न भल नहिं प्रीती॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे पक्षिराज गरुड़जी! सुनिये, ऐसी बात समझकर बुद्धिमान् लोग अधम (नीच) का संग नहीं करते। कवि और पण्डित ऐसी नीति कहते हैं कि दुष्टसे न कलह ही अच्छा है, न प्रेम ही॥ ७॥

मूल (चौपाई)

उदासीन नित रहिअ गोसाईं।
खल परिहरिअ स्वान की नाईं॥
मैं खल हृदयँ कपट कुटिलाई।
गुर हित कहइ न मोहि सोहाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे गोसाईं! उससे तो सदा उदासीन ही रहना चाहिये। दुष्टको कुत्तेकी तरह दूरसे ही त्याग देना चाहिये। मैं दुष्ट था, हृदयमें कपट और कुटिलता भरी थी। (इसीलिये यद्यपि) गुरुजी हितकी बात कहते थे,पर मुझे वह सुहाती न थी॥ ८॥

दोहा

मूल (दोहा)

एक बार हर मंदिर जपत रहेउँ सिव नाम।
गुर आयउ अभिमान तें उठि नहिं कीन्ह प्रनाम॥ १०६(क)॥

अनुवाद (हिन्दी)

एक दिन मैं शिवजीके मन्दिरमें शिवनाम जप रहा था। उसी समय गुरुजी वहाँ आये, पर अभिमानके मारे मैंने उठकर उनको प्रणाम नहीं किया॥ १०६(क)॥

मूल (दोहा)

सो दयाल नहिं कहेउ कछु उर न रोष लवलेस।
अति अघ गुर अपमानता सहि नहिं सके महेस॥ १०६(ख)॥

अनुवाद (हिन्दी)

गुरुजी दयालु थे, (मेरा दोष देखकर भी) उन्होंने कुछ नहीं कहा; उनके हृदयमें लेशमात्र भी क्रोध नहीं हुआ। पर गुरुका अपमान बहुत बड़ा पाप है; अतः महादेवजी उसे नहीं सह सके॥ १०६(ख)॥

मूल (चौपाई)

मंदिर माझ भई नभबानी।
रे हतभाग्य अग्य अभिमानी॥
जद्यपि तव गुर कें नहिं क्रोधा।
अति कृपाल चित सम्यक बोधा॥

अनुवाद (हिन्दी)

मन्दिरमें आकाशवाणी हुई कि अरे हतभाग्य! मूर्ख! अभिमानी! यद्यपि तेरे गुरुको क्रोध नहीं है, वे अत्यन्त कृपालु चित्तके हैं और उन्हें (पूर्ण तथा) यथार्थ ज्ञान है,॥ १॥

मूल (चौपाई)

तदपि साप सठ दैहउँ तोही।
नीति बिरोध सोहाइ न मोही॥
जौं नहिं दंड करौं खल तोरा।
भ्रष्ट होइ श्रुतिमारग मोरा॥

अनुवाद (हिन्दी)

तो भी हे मूर्ख! तुझको मैं शाप दूँगा; (क्योंकि) नीतिका विरोध मुझे अच्छा नहीं लगता। अरे दुष्ट! यदि मैं तुझे दण्ड न दूँ, तो मेरा वेदमार्ग ही भ्रष्ट हो जाय॥ २॥

मूल (चौपाई)

जे सठ गुर सन इरिषा करहीं।
रौरव नरक कोटि जुग परहीं॥
त्रिजग जोनि पुनि धरहिं सरीरा।
अयुत जन्म भरि पावहिं पीरा॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो मूर्ख गुरुसे ईर्ष्या करते हैं, वे करोड़ों युगोंतक रौरव नरकमें पड़े रहते हैं। फिर (वहाँसे निकलकर) वे तिर्यक् (पशु, पक्षी आदि) योनियोंमें शरीर धारण करते हैं और दस हजार जन्मोंतक दुःख पाते रहते हैं॥ ३॥

मूल (चौपाई)

बैठि रहेसि अजगर इव पापी।
सर्प होहि खल मल मति ब्यापी॥
महा बिटप कोटर महुँ जाई।
रहु अधमाधम अधगति पाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

अरे पापी! तू गुरुके सामने अजगरकी भाँति बैठा रहा। रे दुष्ट! तेरी बुद्धि पापसे ढक गयी है, (अतः) तू सर्प हो जा। और अरे अधमसे भी अधम! इस अधोगति (सर्पकी नीची योनि) को पाकर किसी बड़े भारी पेड़के खोखलेमें जाकर रह॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

हाहाकार कीन्ह गुर दारुन सुनि सिव साप।
कंपित मोहि बिलोकि अति उर उपजा परिताप॥ १०७(क)॥

अनुवाद (हिन्दी)

शिवजीका भयानक शाप सुनकर गुरुजीने हाहाकार किया। मुझे काँपता हुआ देखकर उनके हृदयमें बड़ा सन्ताप उत्पन्न हुआ॥ १०७(क)॥)

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