१३ काकभुशुण्डिका अपनी पूर्वजन्मकथा और कलिमहिमा कहना

मूल (चौपाई)

सुनु खगेस रघुपति प्रभुताई।
कहउँ जथामति कथा सुहाई॥
जेहि बिधि मोह भयउ प्रभु मोही।
सोउ सब कथा सुनावउँ तोही॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे पक्षिराज गरुड़जी! श्रीरघुनाथजीकी प्रभुता सुनिये। मैं अपनी बुद्धिके अनुसार वह सुहावनी कथा कहता हूँ। हे प्रभो! मुझे जिस प्रकार मोह हुआ, वह सब कथा भी आपको सुनाता हूँ॥ १॥

मूल (चौपाई)

राम कृपा भाजन तुम्ह ताता।
हरि गुन प्रीति मोहि सुखदाता॥
ताते नहिं कछु तुम्हहि दुरावउँ।
परम रहस्य मनोहर गावउँ॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे तात! आप श्रीरामजीके कृपापात्र हैं। श्रीहरिके गुणोंमें आपकी प्रीति है, इसीलिये आप मुझे सुख देनेवाले हैं। इसीसे मैं आपसे कुछ भी नहीं छिपाता और अत्यन्त रहस्यकी बातें आपको गाकर सुनाता हूँ॥ २॥

मूल (चौपाई)

सुनहु राम कर सहज सुभाऊ।
जन अभिमान न राखहिं काऊ॥
संसृत मूल सूलप्रद नाना।
सकल सोक दायक अभिमाना॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरामचन्द्रजीका सहज स्वभाव सुनिये। वे भक्तमें अभिमान कभी नहीं रहने देते। क्योंकि अभिमान जन्म-मरणरूप संसारका मूल है और अनेक प्रकारके क्लेशों तथा समस्त शोकोंका देनेवाला है॥ ३॥

मूल (चौपाई)

ताते करहिं कृपानिधि दूरी।
सेवक पर ममता अति भूरी॥
जिमि सिसु तन ब्रन होइ गोसाईं।
मातु चिराव कठिन की नाईं॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसीलिये कृपानिधि उसे दूर कर देते हैं; क्योंकि सेवकपर उनकी बहुत ही अधिक ममता है। हे गोसाईं! जैसे बच्चेके शरीरमें फोड़ा हो जाता है, तो माता उसे कठोर हृदयकी भाँति चिरा डालती है॥४॥

दोहा

मूल (दोहा)

जदपि प्रथम दुख पावइ रोवइ बाल अधीर।
ब्याधि नास हित जननी गनति न सो सिसु पीर॥ ७४(क)॥

अनुवाद (हिन्दी)

यद्यपि बच्चा पहले (फोड़ा चिराते समय) दुःख पाता है और अधीर होकर रोता है, तो भी रोगके नाशके लिये माता बच्चेकी उस पीड़ाको कुछ भी नहीं गिनती (उसकी परवा नहीं करती और फोड़ेको चिरवा ही डालती है)॥ ७४(क)॥

मूल (दोहा)

तिमि रघुपति निज दास कर हरहिं मान हित लागि।
तुलसिदास ऐसे प्रभुहि कस न भजहु भ्रम त्यागि॥ ७४(ख)॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसी प्रकार श्रीरघुनाथजी अपने दासका अभिमान उसके हितके लिये हर लेते हैं। तुलसीदासजी कहते हैं कि ऐसे प्रभुको भ्रम त्यागकर क्यों नहीं भजते॥ ७४(ख)॥

मूल (चौपाई)

राम कृपा आपनि जड़ताई।
कहउँ खगेस सुनहु मन लाई॥
जब जब राम मनुज तनु धरहीं।
भक्त हेतु लीला बहु करहीं॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे पक्षिराज गरुड़जी! श्रीरामजीकी कृपा और अपनी जड़ता (मूर्खता) की बात कहता हूँ, मन लगाकर सुनिये। जब-जब श्रीरामचन्द्रजी मनुष्यशरीर धारण करते हैं और भक्तोंके लिये बहुत-सी लीलाएँ करते हैं॥ १॥

मूल (चौपाई)

तब तब अवधपुरी मैं जाऊँ।
बालचरित बिलोकि हरषाऊँ॥
जन्म महोत्सव देखउँ जाई।
बरष पाँच तहँ रहउँ लोभाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब-तब मैं अयोध्यापुरी जाता हूँ और उनकी बाललीला देखकर हर्षित होता हूँ। वहाँ जाकर मैं जन्ममहोत्सव देखता हूँ और (भगवान् की शिशुलीलामें) लुभाकर पाँच वर्षतक वहीं रहता हूँ॥ २॥

मूल (चौपाई)

इष्टदेव मम बालक रामा।
सोभा बपुष कोटि सत कामा॥
निज प्रभु बदन निहारि निहारी।
लोचन सुफल करउँ उरगारी॥

अनुवाद (हिन्दी)

बालकरूप श्रीरामचन्द्रजी मेरे इष्टदेव हैं, जिनके शरीरमें अरबों कामदेवोंकी शोभा है। हे गरुड़जी! अपने प्रभुका मुख देख-देखकर मैं नेत्रोंको सफल करता हूँ॥ ३॥

मूल (चौपाई)

लघु बायस बपु धरि हरि संगा।
देखउँ बालचरित बहु रंगा॥

अनुवाद (हिन्दी)

छोटे-से कौएका शरीर धरकर और भगवान् के साथ-साथ फिरकर मैं उनके भाँति-भाँतिके बालचरित्रोंको देखा करता हूँ॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

लरिकाईं जहँ जहँ फिरहिं तहँ तहँ संग उड़ाउँ।
जूठनि परइ अजिर महँ सो उठाइ करि खाउँ॥ ७५(क)॥

अनुवाद (हिन्दी)

लड़कपनमें वे जहाँ-जहाँ फिरते हैं, वहाँ-वहाँ मैं साथ-साथ उड़ता हूँ और आँगनमें उनकी जो जूठन पड़ती है, वही उठाकर खाता हूँ॥ ७५(क)॥

मूल (दोहा)

एक बार अतिसय सब चरित किए रघुबीर।
सुमिरत प्रभु लीला सोइ पुलकित भयउ सरीर॥ ७५(ख)॥

अनुवाद (हिन्दी)

एक बार श्रीरघुवीरने सब चरित्र बहुत अधिकतासे किये। प्रभुकी उस लीलाका स्मरण करते ही काकभुशुण्डिजीका शरीर (प्रेमानन्दवश) पुलकित हो गया॥ ७५(ख)॥

मूल (चौपाई)

कहइ भसुंड सुनहु खगनायक।
राम चरित सेवक सुखदायक॥
नृप मंदिर सुंदर सब भाँती।
खचित कनक मनि नाना जाती॥

अनुवाद (हिन्दी)

भुशुण्डिजी कहने लगे—हे पक्षिराज! सुनिये, श्रीरामजीका चरित्र सेवकोंको सुख देनेवाला है। (अयोध्याका) राजमहल सब प्रकारसे सुन्दर है। सोनेके महलमें नाना प्रकारके रत्न जड़े हुए हैं॥ १॥

मूल (चौपाई)

बरनि न जाइ रुचिर अँगनाई।
जहँ खेलहिं नित चारिउ भाई॥
बालबिनोद करत रघुराई।
बिचरत अजिर जननि सुखदाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

सुन्दर आँगनका वर्णन नहीं किया जा सकता, जहाँ चारों भाई नित्य खेलते हैं। माताको सुख देनेवाले बालविनोद करते हुए श्रीरघुनाथजी आँगनमें विचर रहे हैं॥ २॥

मूल (चौपाई)

मरकत मृदुल कलेवर स्यामा।
अंग अंग प्रति छबि बहु कामा॥
नव राजीव अरुन मृदु चरना।
पदज रुचिर नख ससि दुति हरना॥

अनुवाद (हिन्दी)

मरकत मणिके समान हरिताभ श्याम और कोमल शरीर है। अङ्ग-अङ्गमें बहुत-से कामदेवोंकी शोभा छायी हुई है। नवीन (लाल) कमलके समान लाल-लाल कोमल चरण हैं। सुन्दर अँगुलियाँ हैं और नख अपनी ज्योतिसे चन्द्रमाकी कान्तिको हरनेवाले हैं॥ ३॥

मूल (चौपाई)

ललित अंक कुलिसादिक चारी।
नूपुर चारु मधुर रवकारी॥
चारु पुरट मनि रचित बनाई।
कटि किंकिनि कल मुखर सुहाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

(तलवेमें) वज्रादि (वज्र, अंकुश, ध्वजा और कमल) के चार सुन्दर चिह्न हैं, चरणोंमें मधुर शब्द करनेवाले सुन्दर नूपुर हैं, मणियों, रत्नोंसे जड़ी हुई सोनेकी बनी हुई सुन्दर करधनीका शब्द सुहावना लग रहा है॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

रेखा त्रय सुंदर उदर नाभी रुचिर गँभीर।
उर आयत भ्राजत बिबिधि बाल बिभूषन चीर॥ ७६॥

अनुवाद (हिन्दी)

उदरपर सुन्दर तीन रेखाएँ (त्रिवली) हैं, नाभि सुन्दर और गहरी है। विशाल वक्षःस्थलपर अनेकों प्रकारके बच्चोंके आभूषण और वस्त्र सुशोभित हैं॥ ७६॥

मूल (चौपाई)

अरुन पानि नख करज मनोहर।
बाहु बिसाल बिभूषन सुंदर॥
कंध बाल केहरि दर ग्रीवा।
चारु चिबुक आनन छबि सींवा॥

अनुवाद (हिन्दी)

लाल-लाल हथेलियाँ, नख और अँगुलियाँ मनको हरनेवाले हैं और विशाल भुजाओंपर सुन्दर आभूषण हैं। बालसिंह (सिंहके बच्चे) के-से कंधे और शंखके समान (तीन रेखाओंसे युक्त) गला है। सुन्दर ठुड्डी है और मुख तो छबिकी सीमा ही है॥ १॥

मूल (चौपाई)

कलबल बचन अधर अरुनारे।
दुइ दुइ दसन बिसद बर बारे॥
ललित कपोल मनोहर नासा।
सकल सुखद ससि कर सम हासा॥

अनुवाद (हिन्दी)

कलबल (तोतले) वचन हैं, लाल-लाल ओंठ हैं। उज्ज्वल, सुन्दर और छोटी-छोटी (ऊपर और नीचे) दो-दो दँतुलियाँ हैं। सुन्दर गाल, मनोहर नासिका और सब सुखोंको देनेवाली चन्द्रमाकी (अथवा सुख देनेवाली समस्त कलाओंसे पूर्ण चन्द्रमाकी) किरणोंके समान मधुर मुसकान है॥ २॥

मूल (चौपाई)

नील कंज लोचन भव मोचन।
भ्राजत भाल तिलक गोरोचन॥
बिकट भृकुटि सम श्रवन सुहाए।
कुंचित कच मेचक छबि छाए॥

अनुवाद (हिन्दी)

नीले कमलके समान नेत्र जन्म-मृत्यु (के बन्धन) से छुड़ानेवाले हैं। ललाटपर गोरोचनका तिलक सुशोभित है। भौंहें टेढ़ी हैं, कान सम और सुन्दर हैं, काले और घुँघराले केशोंकी छबि छा रही है॥ ३॥

मूल (चौपाई)

पीत झीनि झगुली तन सोही।
किलकनि चितवनि भावति मोही॥
रूप रासि नृप अजिर बिहारी।
नाचहिं निज प्रतिबिंब निहारी॥

अनुवाद (हिन्दी)

पीली और महीन झँगुली शरीरपर शोभा दे रही है। उनकी किलकारी और चितवन मुझे बहुत ही प्रिय लगती है। राजा दशरथजीके आँगनमें विहार करनेवाले रूपकी राशि श्रीरामचन्द्रजी अपनी परछाहीं देखकर नाचते हैं,॥ ४॥

मूल (चौपाई)

मोहि सन करहिं बिबिधि बिधि क्रीड़ा।
बरनत मोहि होति अति ब्रीड़ा॥
किलकत मोहि धरन जब धावहिं।
चलउँ भागि तब पूप देखावहिं॥

अनुवाद (हिन्दी)

और मुझसे बहुत प्रकारके खेल करते हैं, जिन चरित्रोंका वर्णन करते मुझे लज्जा आती है! किलकारी मारते हुए जब वे मुझे पकड़ने दौड़ते और मैं भाग चलता, तब मुझे पूआ दिखलाते थे॥ ५॥

दोहा

मूल (दोहा)

आवत निकट हँसहिं प्रभु भाजत रुदन कराहिं।
जाउँ समीप गहन पद फिरि फिरि चितइ पराहिं॥ ७७(क)॥

अनुवाद (हिन्दी)

मेरे निकट आनेपर प्रभु हँसते हैं और भाग जानेपर रोते हैं और जब मैं उनका चरण स्पर्श करनेके लिये पास जाता हूँ, तब वे पीछे फिर-फिरकर मेरी ओर देखते हुए भाग जाते हैं॥ ७७(क)॥

मूल (दोहा)

प्राकृत सिसु इव लीला देखि भयउ मोहि मोह।
कवन चरित्र करत प्रभु चिदानंद संदोह॥ ७७(ख)॥

अनुवाद (हिन्दी)

साधारण बच्चों-जैसी लीला देखकर मुझे मोह (शङ्का) हुआ कि सच्चिदानन्दघन प्रभु यह कौन (महत्त्वका) चरित्र (लीला) कर रहे हैं॥ ७७(ख)॥

मूल (चौपाई)

एतना मन आनत खगराया।
रघुपति प्रेरित ब्यापी माया॥
सो माया न दुखद मोहि काहीं।
आन जीव इव संसृत नाहीं॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे पक्षिराज! मनमें इतनी (शङ्का) लाते ही श्रीरघुनाथजीके द्वारा प्रेरित माया मुझपर छा गयी। परन्तु वह माया न तो मुझे दुःख देनेवाली हुई और न दूसरे जीवोंकी भाँति संसारमें डालनेवाली हुई॥ १॥

मूल (चौपाई)

नाथ इहाँ कछु कारन आना।
सुनहु सो सावधान हरिजाना॥
ग्यान अखंड एक सीताबर।
माया बस्य जीव सचराचर॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे नाथ! यहाँ कुछ दूसरा ही कारण है। हे भगवान् के वाहन गरुड़जी! उसे सावधान होकर सुनिये। एक सीतापति श्रीरामजी ही अखण्ड ज्ञानस्वरूप हैं और जड-चेतन सभी जीव मायाके वश हैं॥ २॥

मूल (चौपाई)

जौं सब कें रह ग्यान एकरस।
ईस्वर जीवहि भेद कहहु कस॥
माया बस्य जीव अभिमानी।
ईस बस्य माया गुन खानी॥

अनुवाद (हिन्दी)

यदि जीवोंको एकरस (अखण्ड) ज्ञान रहे, तो कहिये, फिर ईश्वर और जीवमें भेद ही कैसा? अभिमानी जीव मायाके वश है और वह (सत्त्व, रज, तम—इन) तीनों गुणोंकी खान माया ईश्वरके वशमें है॥ ३॥

मूल (चौपाई)

परबस जीव स्वबस भगवंता।
जीव अनेक एक श्रीकंता॥
मुधा भेद जद्यपि कृत माया।
बिनु हरि जाइ न कोटि उपाया॥

अनुवाद (हिन्दी)

जीव परतन्त्र है, भगवान् स्वतन्त्र हैं; जीव अनेक हैं, श्रीपति भगवान् एक हैं। यद्यपि मायाका किया हुआ यह भेद असत् है तथापि वह भगवान् के भजन बिना करोड़ों उपाय करनेपर भी नहीं जा सकता॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

रामचंद्र के भजन बिनु जो चह पद निर्बान।
ग्यानवंत अपि सो नर पसु बिनु पूँछ बिषान॥ ७८(क)॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरामचन्द्रजीके भजन बिना जो मोक्षपद चाहता है, वह मनुष्य ज्ञानवान् होनेपर भी बिना पूँछ और सींगका पशु है॥ ७८(क)॥

मूल (दोहा)

राकापति षोडस उअहिं तारागन समुदाइ।
सकल गिरिन्ह दव लाइअ बिनु रबि राति न जाइ॥ ७८(ख)॥

अनुवाद (हिन्दी)

सभी तारागणोंके साथ सोलह कलाओंसे पूर्ण चन्द्रमा उदय हो और जितने पर्वत हैं उन सबमें दावाग्नि लगा दी जाय, तो भी सूर्यके उदय हुए बिना रात्रि नहीं जा सकती॥ ७८(ख)॥

मूल (चौपाई)

ऐसेहिं हरि बिनु भजन खगेसा।
मिटइ न जीवन्ह केर कलेसा॥
हरि सेवकहि न ब्याप अबिद्या।
प्रभु प्रेरित ब्यापइ तेहि बिद्या॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे पक्षिराज! इसी प्रकार श्रीहरिके भजन बिना जीवोंका क्लेश नहीं मिटता। श्रीहरिके सेवकको अविद्या नहीं व्यापती। प्रभुकी प्रेरणासे उसे विद्या व्यापती है॥ १॥

मूल (चौपाई)

ताते नास न होइ दास कर।
भेद भगति बाढ़इ बिहंगबर॥
भ्रम तें चकित राम मोहि देखा।
बिहँसे सो सुनु चरित बिसेषा॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे पक्षिश्रेष्ठ! इसीसे दासका नाश नहीं होता और भेद-भक्ति बढ़ती है। श्रीरामजीने मुझे जब भ्रमसे चकित देखा, तब वे हँसे। वह विशेष चरित्र सुनिये॥ २॥

मूल (चौपाई)

तेहि कौतुक कर मरमु न काहूँ।
जाना अनुज न मातु पिताहूँ॥
जानु पानि धाए मोहि धरना।
स्यामल गात अरुन कर चरना॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस खेलका मर्म किसीने नहीं जाना, न छोटे भाइयोंने और न माता-पिताने ही। वे श्याम शरीर और लाल-लाल हथेली और चरणतलवाले बालरूप श्रीरामजी घुटने और हाथोंके बल मुझे पकड़नेको दौड़े॥ ३॥

मूल (चौपाई)

तब मैं भागि चलेउँ उरगारी।
राम गहन कहँ भुजा पसारी॥
जिमि जिमि दूरि उड़ाउँ अकासा।
तहँ भुज हरि देखउँ निज पासा॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे सर्पोंके शत्रु गरुड़जी! तब मैं भाग चला। श्रीरामजीने मुझे पकड़नेके लिये भुजा फैलायी। मैं जैसे-जैसे आकाशमें दूर उड़ता, वैसे-वैसे ही वहाँ श्रीहरिकी भुजाको अपने पास देखता था॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

ब्रह्मलोक लगि गयउँ मैं चितयउँ पाछ उड़ात।
जुग अंगुल कर बीच सब राम भुजहि मोहि तात॥ ७९(क)॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैं ब्रह्मलोकतक गया और जब उड़ते हुए मैंने पीछेकी ओर देखा, तो हे तात! श्रीरामजीकी भुजामें और मुझमें केवल दो ही अंगुलका बीच था॥ ७९(क)॥

मूल (दोहा)

सप्ताबरन भेद करि जहाँ लगें गति मोरि।
गयउँ तहाँ प्रभु भुज निरखि ब्याकुल भयउँ बहोरि॥ ७९(ख)॥

अनुवाद (हिन्दी)

सातों आवरणोंको भेदकर जहाँतक मेरी गति थी, वहाँतक मैं गया। पर वहाँ भी प्रभुकी भुजाको (अपने पीछे) देखकर मैं व्याकुल हो गया॥ ७९(ख)॥

मूल (चौपाई)

मूदेउँ नयन त्रसित जब भयऊँ।
पुनि चितवत कोसलपुर गयऊँ॥
मोहि बिलोकि राम मुसुकाहीं।
बिहँसत तुरत गयउँ मुख माहीं॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब मैं भयभीत हो गया, तब मैंने आँखें मूद लीं। फिर आँखें खोलकर देखते ही अवधपुरीमें पहुँच गया। मुझे देखकर श्रीरामजी मुसकराने लगे। उनके हँसते ही मैं तुरंत उनके मुखमें चला गया॥ १॥

मूल (चौपाई)

उदर माझ सुनु अंडज राया।
देखेउँ बहु ब्रह्मांड निकाया॥
अति बिचित्र तहँ लोक अनेका।
रचना अधिक एक ते एका॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे पक्षिराज! सुनिये, मैंने उनके पेटमें बहुत-से ब्रह्माण्डोंके समूह देखे। वहाँ (उन ब्रह्माण्डोंमें) अनेकों विचित्र लोक थे, जिनकी रचना एक-से-एककी बढ़कर थी॥ २॥

मूल (चौपाई)

कोटिन्ह चतुरानन गौरीसा।
अगनित उडगन रबि रजनीसा॥
अगनित लोकपाल जम काला।
अगनित भूधर भूमि बिसाला॥

अनुवाद (हिन्दी)

करोड़ों ब्रह्माजी और शिवजी, अनगिनत तारागण, सूर्य और चन्द्रमा, अनगिनत लोकपाल, यम और काल, अनगिनत विशाल पर्वत और भूमि,॥ ३॥

मूल (चौपाई)

सागर सरि सर बिपिन अपारा।
नाना भाँति सृष्टि बिस्तारा॥
सुर मुनि सिद्ध नाग नर किंनर।
चारि प्रकार जीव सचराचर॥

अनुवाद (हिन्दी)

असंख्य समुद्र, नदी, तालाब और वन तथा और भी नाना प्रकारकी सृष्टिका विस्तार देखा। देवता, मुनि, सिद्ध, नाग, मनुष्य, किन्नर तथा चारों प्रकारके जड़ और चेतन जीव देखे॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

जो नहिं देखा नहिं सुना जो मनहूँ न समाइ।
सो सब अद्भुत देखेउँ बरनि कवनि बिधि जाइ॥ ८०(क)॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो कभी न देखा था, न सुना था और जो मनमें भी नहीं समा सकता था (अर्थात् जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती थी), वही सब अद्भुत सृष्टि मैंने देखी। तब उसका किस प्रकार वर्णन किया जाय!॥ ८०(क)॥

मूल (दोहा)

एक एक ब्रह्मांड महुँ रहउँ बरष सत एक।
एहि बिधि देखत फिरउँ मैं अंड कटाह अनेक॥ ८०(ख)॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैं एक-एक ब्रह्माण्डमें एक-एक सौ वर्षतक रहता। इस प्रकार मैं अनेकों ब्रह्माण्ड देखता फिरा॥ ८०(ख)॥

मूल (चौपाई)

लोक लोक प्रति भिन्न बिधाता।
भिन्न बिष्नु सिव मनु दिसित्राता॥
नर गंधर्ब भूत बेताला।
किंनर निसिचर पसु खग ब्याला॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रत्येक लोकमें भिन्न-भिन्न ब्रह्मा, भिन्न-भिन्न विष्णु, शिव, मनु, दिक्पाल, मनुष्य, गन्धर्व, भूत, वैताल, किन्नर, राक्षस, पशु, पक्षी, सर्प,॥ १॥

मूल (चौपाई)

देव दनुज गन नाना जाती।
सकल जीव तहँ आनहि भाँती॥
महि सरि सागर सर गिरि नाना।
सब प्रपंच तहँ आनइ आना॥

अनुवाद (हिन्दी)

तथा नाना जातिके देवता एवं दैत्यगण थे। सभी जीव वहाँ दूसरे ही प्रकारके थे। अनेक पृथ्वी, नदी, समुद्र, तालाब, पर्वत तथा सब सृष्टि वहाँ दूसरी-ही-दूसरी प्रकारकी थी॥ २॥

मूल (चौपाई)

अंडकोस प्रति प्रति निज रूपा।
देखेउँ जिनस अनेक अनूपा॥
अवधपुरी प्रति भुवन निनारी।
सरजू भिन्न भिन्न नर नारी॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रत्येक ब्रह्माण्डमें मैंने अपना रूप देखा तथा अनेकों अनुपम वस्तुएँ देखीं। प्रत्येक भुवनमें न्यारी ही अवधपुरी, भिन्न ही सरयूजी और भिन्न प्रकारके ही नर-नारी थे॥ ३॥

मूल (चौपाई)

दसरथ कौसल्या सुनु ताता।
बिबिध रूप भरतादिक भ्राता॥
प्रति ब्रह्मांड राम अवतारा।
देखउँ बालबिनोद अपारा॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे तात! सुनिये, दशरथजी, कौसल्याजी और भरतजी आदि भाई भी भिन्न-भिन्न रूपोंके थे। मैं प्रत्येक ब्रह्माण्डमें रामावतार और उनकी अपार बाललीलाएँ देखता फिरता॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

भिन्न भिन्न मैं दीख सबु अति बिचित्र हरिजान।
अगनित भुवन फिरेउँ प्रभु राम न देखेउँ आन॥ ८१(क)॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे हरिवाहन! मैंने सभी कुछ भिन्न-भिन्न और अत्यन्त विचित्र देखा। मैं अनगिनत ब्रह्माण्डोंमें फिरा, पर प्रभु श्रीरामचन्द्रजीको मैंने दूसरी तरहका नहीं देखा॥ ८१(क)॥

मूल (दोहा)

सोइ सिसुपन सोइ सोभा सोइ कृपाल रघुबीर।
भुवन भुवन देखत फिरउँ प्रेरित मोह समीर॥ ८१(ख)॥

अनुवाद (हिन्दी)

सर्वत्र वही शिशुपन, वही शोभा और वही कृपालु श्रीरघुवीर! इस प्रकार मोहरूपी पवनकी प्रेरणासे मैं भुवन-भुवनमें देखता फिरता था॥ ८१(ख)॥

मूल (चौपाई)

भ्रमत मोहि ब्रह्मांड अनेका।
बीते मनहुँ कल्प सत एका॥
फिरत फिरत निज आश्रम आयउँ।
तहँ पुनि रहि कछु काल गवाँयउँ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अनेक ब्रह्माण्डोंमें भटकते मुझे मानो एक सौ कल्प बीत गये। फिरता-फिरता मैं अपने आश्रममें आया और कुछ काल वहाँ रहकर बिताया॥ १॥

मूल (चौपाई)

निज प्रभु जन्म अवध सुनि पायउँ।
निर्भर प्रेम हरषि उठि धायउँ॥
देखउँ जन्म महोत्सव जाई।
जेहि बिधि प्रथम कहा मैं गाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर जब अपने प्रभुका अवधपुरीमें जन्म (अवतार) सुन पाया, तब प्रेमसे परिपूर्ण होकर मैं हर्षपूर्वक उठ दौड़ा। जाकर मैंने जन्म-महोत्सव देखा, जिस प्रकार मैं पहले वर्णन कर चुका हूँ॥ २॥

मूल (चौपाई)

राम उदर देखेउँ जग नाना।
देखत बनइ न जाइ बखाना॥
तहँ पुनि देखेउँ राम सुजाना।
माया पति कृपाल भगवाना॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरामचन्द्रजीके पेटमें मैंने बहुत-से जगत् देखे, जो देखते ही बनते थे, वर्णन नहीं किये जा सकते। वहाँ फिर मैंने सुजान मायाके स्वामी कृपालु भगवान् श्रीरामको देखा॥ ३॥

मूल (चौपाई)

करउँ बिचार बहोरि बहोरी।
मोह कलिल ब्यापित मति मोरी॥
उभय घरी महँ मैं सब देखा।
भयउँ भ्रमित मन मोह बिसेषा॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैं बार-बार विचार करता था। मेरी बुद्धि मोहरूपी कीचड़से व्याप्त थी। यह सब मैंने दो ही घड़ीमें देखा। मनमें विशेष मोह होनेसे मैं थक गया॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

देखि कृपाल बिकल मोहि बिहँसे तब रघुबीर।
बिहँसतहीं मुख बाहेर आयउँ सुनु मतिधीर॥ ८२(क)॥

अनुवाद (हिन्दी)

मुझे व्याकुल देखकर तब कृपालु श्रीरघुवीर हँस दिये। हे धीरबुद्धि गरुड़जी! सुनिये, उनके हँसते ही मैं मुँहसे बाहर आ गया॥ ८२(क)॥

मूल (दोहा)

सोइ लरिकाई मो सन करन लगे पुनि राम।
कोटि भाँति समुझावउँ मनु न लहइ बिश्राम॥ ८२(ख)॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरामचन्द्रजी मेरे साथ फिर वही लड़कपन करने लगे। मैं करोड़ों (असंख्य) प्रकारसे मनको समझाता था, पर वह शान्ति नहीं पाता था॥ ८२(ख)॥

मूल (चौपाई)

देखि चरित यह सो प्रभुताई।
समुझत देह दसा बिसराई॥
धरनि परेउँ मुख आव न बाता।
त्राहि त्राहि आरत जन त्राता॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह (बाल) चरित्र देखकर और (पेटके अंदर देखी हुई) उस प्रभुताका स्मरण कर मैं शरीरकी सुध भूल गया और ‘हे आर्तजनोंके रक्षक! रक्षा कीजिये, रक्षा कीजिये’ पुकारता हुआ पृथ्वीपर गिर पड़ा। मुखसे बात नहीं निकलती थी!॥ १॥

मूल (चौपाई)

प्रेमाकुल प्रभु मोहि बिलोकी।
निज माया प्रभुता तब रोकी॥
कर सरोज प्रभु मम सिर धरेऊ।
दीनदयाल सकल दुख हरेऊ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर प्रभुने मुझे प्रेमविह्वल देखकर अपनी मायाकी प्रभुता (प्रभाव) को रोक लिया। प्रभुने अपना कर-कमल मेरे सिरपर रखा। दीनदयालुने मेरा सम्पूर्ण दुःख हर लिया॥ २॥

मूल (चौपाई)

कीन्ह राम मोहि बिगत बिमोहा।
सेवक सुखद कृपा संदोहा॥
प्रभुता प्रथम बिचारि बिचारी।
मन महँ होइ हरष अति भारी॥

अनुवाद (हिन्दी)

सेवकोंको सुख देनेवाले, कृपाके समूह (कृपामय) श्रीरामजीने मुझे मोहसे सर्वथा रहित कर दिया। उनकी पहलेवाली प्रभुताको विचार-विचारकर (याद कर-करके) मेरे मनमें बड़ा भारी हर्ष हुआ॥ ३॥

मूल (चौपाई)

भगत बछलता प्रभु कै देखी।
उपजी मम उर प्रीति बिसेषी॥
सजल नयन पुलकित कर जोरी।
कीन्हिउँ बहु बिधि बिनय बहोरी॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रभुकी भक्तवत्सलता देखकर मेरे हृदयमें बहुत ही प्रेम उत्पन्न हुआ। फिर मैंने (आनन्दसे) नेत्रोंमें जल भरकर, पुलकित होकर और हाथ जोड़कर बहुत प्रकारसे विनती की॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

सुनि सप्रेम मम बानी देखि दीन निज दास।
बचन सुखद गंभीर मृदु बोले रमानिवास॥ ८३(क)॥

अनुवाद (हिन्दी)

मेरी प्रेमयुक्त वाणी सुनकर और अपने दासको दीन देखकर रमानिवास श्रीरामजी सुखदायक, गम्भीर और कोमल वचन बोले—॥ ८३(क)॥

मूल (दोहा)

काकभसुंडि मागु बर अति प्रसन्न मोहि जानि।
अनिमादिक सिधि अपर रिधि मोच्छ सकल सुख खानि॥ ८३ (ख)॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे काकभुशुण्डि! तू मुझे अत्यन्त प्रसन्न जानकर वर माँग। अणिमा आदि अष्ट सिद्धियाँ, दूसरी ऋद्धियाँ तथा सम्पूर्ण सुखोंकी खान मोक्ष,॥ ८३(ख)॥

मूल (चौपाई)

ग्यान बिबेक बिरति बिग्याना।
मुनि दुर्लभ गुन जे जग नाना॥
आजु देउँ सब संसय नाहीं।
मागु जो तोहि भाव मन माहीं॥

अनुवाद (हिन्दी)

ज्ञान, विवेक, वैराग्य, विज्ञान (तत्त्वज्ञान) और वे अनेकों गुण जो जगत् में मुनियोंके लिये भी दुर्लभ हैं, ये सब मैं आज तुझे दूँगा, इसमें सन्देह नहीं। जो तेरे मन भावे, सो माँग ले॥ १॥

मूल (चौपाई)

सुनि प्रभु बचन अधिक अनुरागेउँ।
मन अनुमान करन तब लागेउँ॥
प्रभु कह देन सकल सुख सही।
भगति आपनी देन न कही॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रभुके वचन सुनकर मैं बहुत ही प्रेममें भर गया। तब मनमें अनुमान करने लगा कि प्रभुने सब सुखोंके देनेकी बात कही, यह तो सत्य है; पर अपनी भक्ति देनेकी बात नहीं कही॥ २॥

मूल (चौपाई)

भगति हीन गुन सब सुख ऐसे।
लवन बिना बहु बिंजन जैसे॥
भजन हीन सुख कवने काजा।
अस बिचारि बोलेउँ खगराजा॥

अनुवाद (हिन्दी)

भक्तिसे रहित सब गुण और सब सुख वैसे ही (फीके) हैं जैसे नमकके बिना बहुत प्रकारके भोजनके पदार्थ। भजनसे रहित सुख किस कामके? हे पक्षिराज! ऐसा विचारकर मैं बोला—॥ ३॥

मूल (चौपाई)

जौं प्रभु होइ प्रसन्न बर देहू।
मो पर करहु कृपा अरु नेहू॥
मन भावत बर मागउँ स्वामी।
तुम्ह उदार उर अंतरजामी॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे प्रभो! यदि आप प्रसन्न होकर मुझे वर देते हैं और मुझपर कृपा और स्नेह करते हैं, तो हे स्वामी! मैं अपना मन-भाया वर माँगता हूँ। आप उदार हैं और हृदयके भीतरकी जाननेवाले हैं॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

अबिरल भगति बिसुद्ध तव श्रुति पुरान जो गाव।
जेहि खोजत जोगीस मुनि प्रभु प्रसाद कोउ पाव॥ ८४(क)॥

अनुवाद (हिन्दी)

आपकी जिस अविरल (प्रगाढ़) एवं विशुद्ध (अनन्य, निष्काम) भक्तिको श्रुति और पुराण गाते हैं, जिसे योगीश्वर मुनि खोजते हैं और प्रभुकी कृपासे कोई विरला ही जिसे पाता है,॥ ८४(क)॥

मूल (दोहा)

भगत कल्पतरु प्रनत हित कृपा सिंधु सुख धाम।
सोइ निज भगति मोहि प्रभु देहु दया करि राम॥ ८४(ख)॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे भक्तोंके (मन-इच्छित फल देनेवाले) कल्पवृक्ष! हे शरणागतके हितकारी! हे कृपासागर! हे सुखधाम श्रीरामजी! दया करके मुझे अपनी वही भक्ति दीजिये॥ ८४(ख)॥

मूल (चौपाई)

एवमस्तु कहि रघुकुलनायक।
बोले बचन परम सुखदायक॥
सुनु बायस तैं सहज सयाना।
काहे न मागसि अस बरदाना॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘एवमस्तु’ (ऐसा ही हो) कहकर रघुवंशके स्वामी परम सुख देनेवाले वचन बोले—हे काक! सुन, तू स्वभावसे ही बुद्धिमान् है। ऐसा वरदान कैसे न माँगता?॥ १॥

मूल (चौपाई)

सब सुख खानि भगति तैं मागी।
नहिं जग कोउ तोहि सम बड़भागी॥
जो मुनि कोटि जतन नहिं लहहीं।
जे जप जोग अनल तन दहहीं॥

अनुवाद (हिन्दी)

तूने सब सुखोंकी खान भक्ति माँग ली, जगत् में तेरे समान बड़भागी कोई नहीं है। वे मुनि जो जप और योगकी अग्निसे शरीर जलाते रहते हैं, करोड़ों यत्न करके भी जिसको (जिस भक्तिको) नहीं पाते॥ २॥

मूल (चौपाई)

रीझेउँ देखि तोरि चतुराई।
मागेहु भगति मोहि अति भाई॥
सुनु बिहंग प्रसाद अब मोरें।
सब सुभ गुन बसिहहिं उर तोरें॥

अनुवाद (हिन्दी)

वही भक्ति तूने माँगी। तेरी चतुरता देखकर मैं रीझ गया। यह चतुरता मुझे बहुत ही अच्छी लगी। हे पक्षी! सुन, मेरी कृपासे अब समस्त शुभ गुण तेरे हृदयमें बसेंगे॥ ३॥

मूल (चौपाई)

भगति ग्यान बिग्यान बिरागा।
जोग चरित्र रहस्य बिभागा॥
जानब तैं सबही कर भेदा।
मम प्रसाद नहिं साधन खेदा॥

अनुवाद (हिन्दी)

भक्ति, ज्ञान, विज्ञान, वैराग्य, योग, मेरी लीलाएँ और उनके रहस्य तथा विभाग—इन सबके भेदको तू मेरी कृपासे ही जान जायगा। तुझे साधनका कष्ट नहीं होगा॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

माया संभव भ्रम सब अब न ब्यापिहहिं तोहि।
जानेसु ब्रह्म अनादि अज अगुन गुनाकर मोहि॥ ८५(क)॥

अनुवाद (हिन्दी)

मायासे उत्पन्न सब भ्रम अब तुझको नहीं व्यापेंगे। मुझे अनादि, अजन्मा, अगुण (प्रकृतिके गुणोंसे रहित) और (गुणातीत दिव्य) गुणोंकी खान ब्रह्म जानना॥ ८५(क)॥

मूल (दोहा)

मोहि भगत प्रिय संतत अस बिचारि सुनु काग।
कायँ बचन मन मम पद करेसु अचल अनुराग॥ ८५(ख)॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे काक! सुन, मुझे भक्त निरन्तर प्रिय हैं, ऐसा विचारकर शरीर, वचन और मनसे मेरे चरणोंमें अटल प्रेम करना॥ ८५(ख)॥

मूल (चौपाई)

अब सुनु परम बिमल मम बानी।
सत्य सुगम निगमादि बखानी॥
निज सिद्धांत सुनावउँ तोही।
सुनु मन धरु सब तजि भजु मोही॥

अनुवाद (हिन्दी)

अब मेरी सत्य, सुगम, वेदादिके द्वारा वर्णित परम निर्मल वाणी सुन। मैं तुझको यह ‘निज सिद्धान्त’ सुनाता हूँ। सुनकर मनमें धारण कर और सब तजकर मेरा भजन कर॥ १॥

मूल (चौपाई)

मम माया संभव संसारा।
जीव चराचर बिबिधि प्रकारा॥
सब मम प्रिय सब मम उपजाए।
सब ते अधिक मनुज मोहि भाए॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह सारा संसार मेरी मायासे उत्पन्न है। (इसमें) अनेकों प्रकारके चराचर जीव हैं। वे सभी मुझे प्रिय हैं; क्योंकि सभी मेरे उत्पन्न किये हुए हैं। (किन्तु) मनुष्य मुझको सबसे अधिक अच्छे लगते हैं॥ २॥

मूल (चौपाई)

तिन्ह महँ द्विज द्विज महँ श्रुतिधारी।
तिन्ह महुँ निगम धरम अनुसारी॥
तिन्ह महँ प्रिय बिरक्त पुनि ग्यानी।
ग्यानिहु ते अति प्रिय बिग्यानी॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन मनुष्योंमें भी द्विज, द्विजोंमें भी वेदोंको (कण्ठमें) धारण करनेवाले, उनमें भी वेदोक्त धर्मपर चलनेवाले, उनमें भी विरक्त (वैराग्यवान्) मुझे प्रिय हैं। वैराग्यवानोंमें फिर ज्ञानी और ज्ञानियोंसे भी अत्यन्त प्रिय विज्ञानी हैं॥ ३॥

मूल (चौपाई)

तिन्ह ते पुनि मोहि प्रिय निज दासा।
जेहि गति मोरि न दूसरि आसा॥
पुनि पुनि सत्य कहउँ तोहि पाहीं।
मोहि सेवक सम प्रिय कोउ नाहीं॥

अनुवाद (हिन्दी)

विज्ञानियोंसे भी प्रिय मुझे अपना दास है, जिसे मेरी ही गति (आश्रय) है, कोई दूसरी आशा नहीं है। मैं तुझसे बार-बार सत्य (‘निज सिद्धान्त’) कहता हूँ कि मुझे अपने सेवकके समान प्रिय कोई भी नहीं है॥ ४॥

मूल (चौपाई)

भगति हीन बिरंचि किन होई।
सब जीवहु सम प्रिय मोहि सोई॥
भगतिवंत अति नीचउ प्रानी।
मोहि प्रानप्रिय असि मम बानी॥

अनुवाद (हिन्दी)

भक्तिहीन ब्रह्मा ही क्यों न हो, वह मुझे सब जीवोंके समान ही प्रिय है। परन्तु भक्तिमान् अत्यन्त नीच भी प्राणी मुझे प्राणोंके समान प्रिय है, यह मेरी घोषणा है॥ ५॥

दोहा

मूल (दोहा)

सुचि सुसील सेवक सुमति प्रिय कहु काहि न लाग।
श्रुति पुरान कह नीति असि सावधान सुनु काग॥ ८६॥

अनुवाद (हिन्दी)

पवित्र, सुशील और सुन्दर बुद्धिवाला सेवक, बता, किसको प्यारा नहीं लगता? वेद और पुराण ऐसी ही नीति कहते हैं। हे काक! सावधान होकर सुन॥ ८६॥

मूल (चौपाई)

एक पिता के बिपुल कुमारा।
होहिं पृथक गुन सील अचारा॥
कोउ पंडित कोउ तापस ग्याता।
कोउ धनवंत सूर कोउ दाता॥

अनुवाद (हिन्दी)

एक पिताके बहुत-से पुत्र पृथक्-पृथक् गुण, स्वभाव और आचरणवाले होते हैं। कोई पण्डित होता है, कोई तपस्वी, कोई ज्ञानी, कोई धनी, कोई शूरवीर, कोई दानी,॥ १॥

मूल (चौपाई)

कोउ सर्बग्य धर्मरत कोई।
सब पर पितहि प्रीति सम होई॥
कोउ पितु भगत बचन मन कर्मा।
सपनेहुँ जान न दूसर धर्मा॥

अनुवाद (हिन्दी)

कोई सर्वज्ञ और कोई धर्मपरायण होता है। पिताका प्रेम इन सभीपर समान होता है। परन्तु इनमेंसे यदि कोई मन, वचन और कर्मसे पिताका ही भक्त होता है, स्वप्नमें भी दूसरा धर्म नहीं जानता,॥ २॥

मूल (चौपाई)

सो सुत प्रिय पितु प्रान समाना।
जद्यपि सो सब भाँति अयाना॥
एहि बिधि जीव चराचर जेते।
त्रिजग देव नर असुर समेते॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह पुत्र पिताको प्राणोंके समान प्रिय होता है, यद्यपि (चाहे) वह सब प्रकारसे अज्ञान (मूर्ख) ही हो। इस प्रकार तिर्यक् (पशु-पक्षी), देव, मनुष्य और असुरोंसमेत जितने भी चेतन और जड जीव हैं,॥ ३॥

मूल (चौपाई)

अखिल बिस्व यह मोर उपाया।
सब पर मोहि बराबरि दाया॥
तिन्ह महँ जो परिहरि मद माया।
भजै मोहि मन बच अरु काया॥

अनुवाद (हिन्दी)

(उनसे भरा हुआ) यह सम्पूर्ण विश्व मेरा ही पैदा किया हुआ है। अतः सबपर मेरी बराबर दया है। परन्तु इनमेंसे जो मद और माया छोड़कर मन, वचन और शरीरसे मुझको भजता है,॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

पुरुष नपुंसक नारि वा जीव चराचर कोइ।
सर्ब भाव भज कपट तजि मोहि परम प्रिय सोइ॥ ८७(क)॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह पुरुष हो, नपुंसक हो, स्त्री हो अथवा चर-अचर कोई भी जीव हो, कपट छोड़कर जो भी सर्वभावसे मुझे भजता है वही मुझे परम प्रिय है॥ ८७(क)॥

दोहा

मूल (दोहा)

सत्य कहउँ खग तोहि सुचि सेवक मम प्रानप्रिय।
अस बिचारि भजु मोहि परिहरि आस भरोस सब॥ ८७(ख)॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे पक्षी! मैं तुझसे सत्य कहता हूँ, पवित्र (अनन्य एवं निष्काम) सेवक मुझे प्राणोंके समान प्यारा है। ऐसा विचारकर सब आशा-भरोसा छोड़कर मुझीको भज॥ ८७(ख)॥

मूल (चौपाई)

कबहूँ काल न ब्यापिहि तोही।
सुमिरेसु भजेसु निरंतर मोही॥
प्रभु बचनामृत सुनि न अघाऊँ।
तनु पुलकित मन अति हरषाऊँ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तुझे काल कभी नहीं व्यापेगा। निरन्तर मेरा स्मरण और भजन करते रहना। प्रभुके वचनामृत सुनकर मैं तृप्त नहीं होता था। मेरा शरीर पुलकित था और मनमें मैं अत्यन्त ही हर्षित हो रहा था॥ १॥

मूल (चौपाई)

सो सुख जानइ मन अरु काना।
नहिं रसना पहिं जाइ बखाना॥
प्रभु सोभा सुख जानहिं नयना।
कहि किमि सकहिं तिन्हहि नहिं बयना॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह सुख मन और कान ही जानते हैं। जीभसे उसका बखान नहीं किया जा सकता। प्रभुकी शोभाका वह सुख नेत्र ही जानते हैं। पर वे कह कैसे सकते हैं? उनके वाणी तो है नहीं॥ २॥

मूल (चौपाई)

बहु बिधि मोहि प्रबोधि सुख देई।
लगे करन सिसु कौतुक तेई॥
सजल नयन कछु मुख करि रूखा।
चितइ मातु लागी अति भूखा॥

अनुवाद (हिन्दी)

मुझे बहुत प्रकारसे भलीभाँति समझाकर और सुख देकर प्रभु फिर वही बालकोंके खेल करने लगे। नेत्रोंमें जल भरकर और मुखको कुछ रूखा-सा बनाकर उन्होंने माताकी ओर देखा—(और मुखाकृति तथा चितवनसे माताको समझा दिया कि) बहुत भूख लगी है॥ ३॥

मूल (चौपाई)

देखि मातु आतुर उठि धाई।
कहि मृदु बचन लिए उर लाई॥
गोद राखि कराव पय पाना।
रघुपति चरित ललित कर गाना॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह देखकर माता तुरंत उठ दौड़ीं और कोमल वचन कहकर उन्होंने श्रीरामजीको छातीसे लगा लिया। वे गोदमें लेकर उन्हें दूध पिलाने लगीं और श्रीरघुनाथजी (उन्हीं) की ललित लीलाएँ गाने लगीं॥ ४॥

सोरठा

मूल (दोहा)

जेहि सुख लागि पुरारि असुभ बेष कृत सिव सुखद।
अवधपुरी नर नारि तेहि सुख महुँ संतत मगन॥ ८८(क)॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिस सुखके लिये (सबको) सुख देनेवाले कल्याणरूप त्रिपुरारि शिवजीने अशुभ वेष धारण किया, उस सुखमें अवधपुरीके नर-नारी निरन्तर निमग्न रहते हैं॥ ८८(क)॥

मूल (दोहा)

सोई सुख लवलेस जिन्ह बारक सपनेहुँ लहेउ।
ते नहिं गनहिं खगेस ब्रह्मसुखहि सज्जन सुमति॥ ८८(ख)॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस सुखका लवलेशमात्र जिन्होंने एक बार स्वप्नमें भी प्राप्त कर लिया, हे पक्षिराज! वे सुन्दर बुद्धिवाले सज्जन पुरुष उसके सामने ब्रह्मसुखको भी कुछ नहीं गिनते॥ ८८(ख)॥

मूल (चौपाई)

मैं पुनि अवध रहेउँ कछु काला।
देखेउँ बालबिनोद रसाला॥
राम प्रसाद भगति बर पायउँ।
प्रभु पद बंदि निजाश्रम आयउँ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैं और कुछ समयतक अवधपुरीमें रहा और मैंने श्रीरामजीकी रसीली बाललीलाएँ देखीं। श्रीरामजीकी कृपासे मैंने भक्तिका वरदान पाया। तदनन्तर प्रभुके चरणोंकी वन्दना करके मैं अपने आश्रमपर लौट आया॥ १॥

मूल (चौपाई)

तब ते मोहि न ब्यापी माया।
जब ते रघुनायक अपनाया॥
यह सब गुप्त चरित मैं गावा।
हरि मायाँ जिमि मोहि नचावा॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार जबसे श्रीरघुनाथजीने मुझको अपनाया, तबसे मुझे माया कभी नहीं व्यापी। श्रीहरिकी मायाने मुझे जैसे नचाया, वह सब गुप्त चरित्र मैंने कहा॥ २॥

मूल (चौपाई)

निज अनुभव अब कहउँ खगेसा।
बिनु हरि भजन न जाहिं कलेसा॥
राम कृपा बिनु सुनु खगराई।
जानि न जाइ राम प्रभुताई॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे पक्षिराज गरुड़! अब मैं आपसे अपना निजी अनुभव कहता हूँ। (वह यह है कि) भगवान् के भजन बिना क्लेश दूर नहीं होते। हे पक्षिराज! सुनिये, श्रीरामजीकी कृपा बिना श्रीरामजीकी प्रभुता नहीं जानी जाती;॥ ३॥

मूल (चौपाई)

जानें बिनु न होइ परतीती।
बिनु परतीति होइ नहिं प्रीती॥
प्रीति बिना नहिं भगति दिढ़ाई।
जिमि खगपति जल कै चिकनाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रभुता जाने बिना उनपर विश्वास नहीं जमता, विश्वासके बिना प्रीति नहीं होती और प्रीति बिना भक्ति वैसे ही दृढ़ नहीं होती जैसे हे पक्षिराज! जलकी चिकनाई ठहरती नहीं॥ ४॥

सोरठा

मूल (दोहा)

बिनु गुर होइ कि ग्यान ग्यान कि होइ बिराग बिनु।
गावहिं बेद पुरान सुख कि लहिअ हरि भगति बिनु॥ ८९(क)॥

अनुवाद (हिन्दी)

गुरुके बिना कहीं ज्ञान हो सकता है? अथवा वैराग्यके बिना कहीं ज्ञान हो सकता है? इसी तरह वेद और पुराण कहते हैं कि श्रीहरिकी भक्तिके बिना क्या सुख मिल सकता है?॥ ८९(क)॥

मूल (दोहा)

कोउ बिश्राम कि पाव तात सहज संतोष बिनु।
चलै कि जल बिनु नाव कोटि जतन पचि पचि मरिअ॥ ८९(ख)॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे तात! स्वाभाविक संतोषके बिना क्या कोई शान्ति पा सकता है? (चाहे) करोड़ों उपाय करके पच-पच मरिये; (फिर भी ) क्या कभी जलके बिना नाव चल सकती है?॥ ८९(ख)॥

मूल (चौपाई)

बिनु संतोष न काम नसाहीं।
काम अछत सुख सपनेहुँ नाहीं॥
राम भजन बिनु मिटहिं कि कामा।
थल बिहीन तरु कबहुँ कि जामा॥

अनुवाद (हिन्दी)

संतोषके बिना कामनाका नाश नहीं होता और कामनाओंके रहते स्वप्नमें भी सुख नहीं हो सकता। और श्रीरामके भजन बिना कामनाएँ कहीं मिट सकती हैं? बिना धरतीके भी कहीं पेड़ उग सकता है?॥ १॥

मूल (चौपाई)

बिनु बिग्यान कि समता आवइ ।
कोउ अवकास कि नभ बिनु पावइ॥
श्रद्धा बिना धर्म नहिं होई।
बिनु महि गंध कि पावइ कोई॥

अनुवाद (हिन्दी)

विज्ञान (तत्त्वज्ञान) के बिना क्या समभाव आ सकता है? आकाशके बिना क्या कोई अवकाश (पोल) पा सकता है? श्रद्धाके बिना धर्म (का आचरण) नहीं होता। क्या पृथ्वीतत्त्वके बिना कोई गन्ध पा सकता है?॥ २॥

मूल (चौपाई)

बिनु तप तेज कि कर बिस्तारा।
जल बिनु रस कि होइ संसारा॥
सील कि मिल बिनु बुध सेवकाई।
जिमि बिनु तेज न रूप गोसाँई॥

अनुवाद (हिन्दी)

तपके बिना क्या तेज फैल सकता है? जल-तत्त्वके बिना संसारमें क्या रस हो सकता है? पण्डितजनोंकी सेवा बिना क्या शील (सदाचार) प्राप्त हो सकता है? हे गोसाईं! जैसे बिना तेज (अग्नि-तत्त्व) के रूप नहीं मिलता॥ ३॥

मूल (चौपाई)

निज सुख बिनु मन होइ कि थीरा।
परस कि होइ बिहीन समीरा॥
कवनिउ सिद्धि कि बिनु बिस्वासा।
बिनु हरि भजन न भव भय नासा॥

अनुवाद (हिन्दी)

निज-सुख (आत्मानन्द) के बिना क्या मन स्थिर हो सकता है? वायु-तत्त्वके बिना क्या स्पर्श हो सकता है? क्या विश्वासके बिना कोई भी सिद्धि हो सकती है? इसी प्रकार श्रीहरिके भजन बिना जन्म-मृत्युके भयका नाश नहीं होता॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

बिनु बिस्वास भगति नहिं तेहि बिनु द्रवहिं न रामु।
राम कृपा बिनु सपनेहुँ जीव न लह बिश्रामु॥ ९०(क)॥

अनुवाद (हिन्दी)

बिना विश्वासके भक्ति नहीं होती, भक्तिके बिना श्रीरामजी पिघलते (ढरते) नहीं और श्रीरामजीकी कृपाके बिना जीव स्वप्नमें भी शान्ति नहीं पाता॥ ९०(क)॥

सोरठा

मूल (दोहा)

अस बिचारि मतिधीर तजि कुतर्क संसय सकल।
भजहु राम रघुबीर करुनाकर सुंदर सुखद॥९०(ख)॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे धीरबुद्धि! ऐसा विचारकर सम्पूर्ण कुतर्कों और सन्देहोंको छोड़कर करुणाकी खान सुन्दर और सुख देनेवाले श्रीरघुवीरका भजन कीजिये॥ ९०(ख)॥

मूल (चौपाई)

निज मति सरिस नाथ मैं गाई।
प्रभु प्रताप महिमा खगराई॥
कहेउँ न कछु करि जुगुति बिसेषी।
यह सब मैं निज नयनन्हि देखी॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे पक्षिराज! हे नाथ! मैंने अपनी बुद्धिके अनुसार प्रभुके प्रताप और महिमाका गान किया। मैंने इसमें कोई बात युक्तिसे बढ़ाकर नहीं कही है। यह सब अपनी आँखों देखी कही है॥ १॥

मूल (चौपाई)

महिमा नाम रूप गुन गाथा।
सकल अमित अनंत रघुनाथा॥
निज निज मति मुनि हरि गुन गावहिं।
निगम सेष सिव पार न पावहिं॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरघुनाथजीकी महिमा, नाम, रूप और गुणोंकी कथा सभी अपार एवं अनन्त हैं तथा श्रीरघुनाथजी स्वयं भी अनन्त हैं। मुनिगण अपनी-अपनी बुद्धिके अनुसार श्रीहरिके गुण गाते हैं। वेद, शेष और शिवजी भी उनका पार नहीं पाते॥ २॥

मूल (चौपाई)

तुम्हहि आदि खग मसक प्रजंता।
नभ उड़ाहिं नहिं पावहिं अंता॥
तिमि रघुपति महिमा अवगाहा।
तात कबहुँ कोउ पाव कि थाहा॥

अनुवाद (हिन्दी)

आपसे लेकर मच्छरपर्यन्त सभी छोटे-बड़े जीव आकाशमें उड़ते हैं, किन्तु आकाशका अन्त कोई नहीं पाते। इसी प्रकार हे तात! श्रीरघुनाथजीकी महिमा भी अथाह है। क्या कभी कोई उसकी थाह पा सकता है?॥ ३॥

मूल (चौपाई)

रामु काम सत कोटि सुभग तन।
दुर्गा कोटि अमित अरि मर्दन॥
सक्र कोटि सत सरिस बिलासा।
नभ सत कोटि अमित अवकासा॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरामजीका अरबों कामदेवोंके समान सुन्दर शरीर है। वे अनन्त कोटि दुर्गाओंके समान शत्रुनाशक हैं। अरबों इन्द्रोंके समान उनका विलास (ऐश्वर्य) है। अरबों आकाशोंके समान उनमें अनन्त अवकाश (स्थान) है॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

मरुत कोटि सत बिपुल बल रबि सत कोटि प्रकास।
ससि सत कोटि सुसीतल समन सकल भव त्रास॥ ९१(क)॥

अनुवाद (हिन्दी)

अरबों पवनके समान उनमें महान् बल है और अरबों सूर्योंके समान प्रकाश है। अरबों चन्द्रमाओंके समान वे शीतल और संसारके समस्त भयोंका नाश करनेवाले हैं॥ ९१(क)॥

मूल (दोहा)

काल कोटि सत सरिस अति दुस्तर दुर्ग दुरंत।
धूमकेतु सत कोटि सम दुराधरष भगवंत॥ ९१(ख)॥

अनुवाद (हिन्दी)

अरबों कालोंके समान वे अत्यन्त दुस्तर, दुर्गम और दुरन्त हैं। वे भगवान् अरबों धूमकेतुओं (पुच्छल तारों) के समान अत्यन्त प्रबल हैं॥ ९१(ख)॥

मूल (चौपाई)

प्रभु अगाध सत कोटि पताला।
समन कोटि सत सरिस कराला॥
तीरथ अमित कोटि सम पावन।
नाम अखिल अघ पूग नसावन॥

अनुवाद (हिन्दी)

अरबों पातालोंके समान प्रभु अथाह हैं। अरबों यमराजोंके समान भयानक हैं। अनन्तकोटि तीर्थोंके समान वे पवित्र करनेवाले हैं। उनका नाम सम्पूर्ण पापसमूहका नाश करनेवाला है॥ १॥

मूल (चौपाई)

हिमगिरि कोटि अचल रघुबीरा।
सिंधु कोटि सत सम गंभीरा॥
कामधेनु सत कोटि समाना।
सकल काम दायक भगवाना॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरघुवीर करोड़ों हिमालयोंके समान अचल (स्थिर) हैं और अरबों समुद्रोंके समान गहरे हैं। भगवान् अरबों कामधेनुओंके समान सब कामनाओं (इच्छित पदार्थों) के देनेवाले हैं॥ २॥

मूल (चौपाई)

सारद कोटि अमित चतुराई।
बिधि सत कोटि सृष्टि निपुनाई॥
बिष्नु कोटि सम पालन कर्ता।
रुद्र कोटि सत सम संहर्ता॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनमें अनन्तकोटि सरस्वतियोंके समान चतुरता है। अरबों ब्रह्माओंके समान सृष्टिरचनाकी निपुणता है। वे करोड़ों विष्णुओंके समान पालन करनेवाले और अरबों रुद्रोंके समान संहार करनेवाले हैं॥ ३॥

मूल (चौपाई)

धनद कोटि सत सम धनवाना।
माया कोटि प्रपंच निधाना॥
भार धरन सत कोटि अहीसा।
निरवधि निरुपम प्रभु जगदीसा॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे अरबों कुबेरोंके समान धनवान् और करोड़ों मायाओंके समान सृष्टिके खजाने हैं। बोझ उठानेमें वे अरबों शेषोंके समान हैं। (अधिक क्या) जगदीश्वर प्रभु श्रीरामजी (सभी बातोंमें) सीमारहित और उपमारहित हैं॥ ४॥

छंद

मूल (दोहा)

निरुपम न उपमा आन राम समान रामु निगम कहै।
जिमि कोटि सत खद्योत सम रबि कहत अति लघुता लहै॥
एहि भाँति निज निज मति बिलास मुनीस हरिहि बखानहीं।
प्रभु भाव गाहक अति कृपाल सप्रेम सुनि सुख मानहीं॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरामजी उपमारहित हैं, उनकी कोई दूसरी उपमा है ही नहीं। श्रीरामके समान श्रीराम ही हैं, ऐसा वेद कहते हैं। जैसे अरबों जुगनुओंके समान कहनेसे सूर्य (प्रशंसाको नहीं वरं) अत्यन्त लघुताको ही प्राप्त होता है (सूर्यकी निन्दा ही होती है)। इसी प्रकार अपनी-अपनी बुद्धिके विकासके अनुसार मुनीश्वर श्रीहरिका वर्णन करते हैं। किन्तु प्रभु भक्तोंके भावमात्रको ग्रहण करनेवाले और अत्यन्त कृपालु हैं। वे उस वर्णनको प्रेमसहित सुनकर सुख मानते हैं।

दोहा

मूल (दोहा)

रामु अमित गुन सागर थाह कि पावइ कोइ।
संतन्ह सन जस किछु सुनेउँ तुम्हहि सुनायउँ सोइ॥ ९२(क)॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरामजी अपार गुणोंके समुद्र हैं, क्या उनकी कोई थाह पा सकता है? संतोंसे मैंने जैसा कुछ सुना था, वही आपको सुनाया॥ ९२(क)॥

सोरठा

मूल (दोहा)

भाव बस्य भगवान सुख निधान करुना भवन।
तजि ममता मद मान भजिअ सदा सीतारवन॥ ९२(ख)॥

अनुवाद (हिन्दी)

सुखके भण्डार, करुणाधाम भगवान् भाव (प्रेम) के वश हैं। (अतएव) ममता, मद और मानको छोड़कर सदा श्रीजानकीनाथजीका ही भजन करना चाहिये॥ ९२(ख)॥

मूल (चौपाई)

सुनि भुसुंडि के बचन सुहाए।
हरषित खगपति पंख फुलाए॥
नयन नीर मन अति हरषाना।
श्रीरघुपति प्रताप उर आना॥

अनुवाद (हिन्दी)

भुशुण्डिजीके सुन्दर वचन सुनकर पक्षिराजने हर्षित होकर अपने पंख फुला लिये। उनके नेत्रोंमें (प्रेमानन्दके आँसुओंका) जल आ गया और मन अत्यन्त हर्षित हो गया। उन्होंने श्रीरघुनाथजीका प्रताप हृदयमें धारण किया॥ १॥

मूल (चौपाई)

पाछिल मोह समुझि पछिताना।
ब्रह्म अनादि मनुज करि माना॥
पुनि पुनि काग चरन सिरु नावा।
जानि राम सम प्रेम बढ़ावा॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे अपने पिछले मोहको समझकर (याद करके) पछताने लगे कि मैंने अनादि ब्रह्मको मनुष्य करके माना। गरुड़जीने बार-बार काकभुशुण्डिजीके चरणोंपर सिर नवाया और उन्हें श्रीरामजीके ही समान जानकर प्रेम बढ़ाया॥ २॥

मूल (चौपाई)

गुर बिनु भव निधि तरइ न कोई।
जौं बिरंचि संकर सम होई॥
संसय सर्प ग्रसेउ मोहि ताता।
दुखद लहरि कुतर्क बहु ब्राता॥

अनुवाद (हिन्दी)

गुरुके बिना कोई भवसागर नहीं तर सकता, चाहे वह ब्रह्माजी और शंकरजीके समान ही क्यों न हो। (गरुड़जीने कहा—) हे तात! मुझे सन्देहरूपी सर्पने डस लिया था और (साँपके डसनेपर जैसे विष चढ़नेसे लहरें आती हैं, वैसे ही) बहुत-सी कुतर्करूपी दुःख देनेवाली लहरें आ रही थीं॥ ३॥

मूल (चौपाई)

तव सरूप गारुड़ि रघुनायक।
मोहि जिआयउ जन सुखदायक॥
तव प्रसाद मम मोह नसाना।
राम रहस्य अनूपम जाना॥

अनुवाद (हिन्दी)

आपके स्वरूपरूपी गारुड़ी (साँपका विष उतारनेवाले) के द्वारा भक्तोंको सुख देनेवाले श्रीरघुनाथजीने मुझे जिला लिया। आपकी कृपासे मेरा मोह नाश हो गया और मैंने श्रीरामजीका अनुपम रहस्य जाना॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

ताहि प्रसंसि बिबिधि बिधि सीस नाइ कर जोरि।
बचन बिनीत सप्रेम मृदु बोलेउ गरुड़ बहोरि॥ ९३(क)॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनकी (भुशुण्डिजीकी) बहुत प्रकारसे प्रशंसा करके, सिर नवाकर और हाथ जोड़कर फिर गरुड़जी प्रेमपूर्वक विनम्र और कोमल वचन बोले—॥ ९३(क)॥

मूल (दोहा)

प्रभु अपने अबिबेक ते बूझउँ स्वामी तोहि।
कृपासिंधु सादर कहहु जानि दास निज मोहि॥ ९३(ख)॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे प्रभो! हे स्वामी! मैं अपने अविवेकके कारण आपसे पूछता हूँ। हे कृपाके समुद्र! मुझे अपना ‘निज दास’ जानकर आदरपूर्वक (विचारपूर्वक) मेरे प्रश्नका उत्तर कहिये॥ ९३(ख)॥

मूल (चौपाई)

तुम्ह सर्बग्य तग्य तम पारा।
सुमति सुसील सरल आचारा॥
ग्यान बिरति बिग्यान निवासा।
रघुनायक के तुम्ह प्रिय दासा॥

अनुवाद (हिन्दी)

आप सब कुछ जाननेवाले हैं, तत्त्वके ज्ञाता हैं, अन्धकार (माया) से परे, उत्तम बुद्धिसे युक्त, सुशील, सरल आचरणवाले, ज्ञान, वैराग्य और विज्ञानके धाम और श्रीरघुनाथजीके प्रिय दास हैं॥ १॥

मूल (चौपाई)

कारन कवन देह यह पाई।
तात सकल मोहि कहहु बुझाई॥
राम चरित सर सुंदर स्वामी।
पायहु कहाँ कहहु नभगामी॥

अनुवाद (हिन्दी)

आपने यह काकशरीर किस कारणसे पाया? हे तात! सब समझाकर मुझसे कहिये। हे स्वामी! हे आकाशगामी! यह सुन्दर रामचरितमानस आपने कहाँ पाया, सो कहिये॥ २॥

मूल (चौपाई)

नाथ सुना मैं अस सिव पाहीं।
महा प्रलयहुँ नास तव नाहीं॥
मुधा बचन नहिं ईस्वर कहई।
सोउ मोरें मन संसय अहई॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे नाथ! मैंने शिवजीसे ऐसा सुना है कि महाप्रलयमें भी आपका नाश नहीं होता और ईश्वर (शिवजी) कभी मिथ्या वचन कहते नहीं। वह भी मेरे मनमें सन्देह है॥ ३॥

मूल (चौपाई)

अग जग जीव नाग नर देवा।
नाथ सकल जगु काल कलेवा॥
अंड कटाह अमित लयकारी।
कालु सदा दुरतिक्रम भारी॥

अनुवाद (हिन्दी)

(क्योंकि) हे नाथ! नाग, मनुष्य, देवता आदि चर-अचर जीव तथा यह सारा जगत् कालका कलेवा है। असंख्य ब्रह्माण्डोंका नाश करनेवाला काल सदा बड़ा ही अनिवार्य है॥ ४॥

सोरठा

मूल (दोहा)

तुम्हहि न ब्यापत काल अति कराल कारन कवन।
मोहि सो कहहु कृपाल ग्यान प्रभाव कि जोग बल॥ ९४(क)॥

अनुवाद (हिन्दी)

(ऐसा वह) अत्यन्त भयङ्कर काल आपको नहीं व्यापता (आपपर प्रभाव नहीं दिखलाता) इसका क्या कारण है? हे कृपालु! मुझे कहिये, यह ज्ञानका प्रभाव है या योगका बल है?॥ ९४(क)॥

दोहा

मूल (दोहा)

प्रभु तव आश्रम आएँ मोर मोह भ्रम भाग।
कारन कवन सो नाथ सब कहहु सहित अनुराग॥ ९४(ख)॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे प्रभो! आपके आश्रममें आते ही मेरा मोह और भ्रम भाग गया। इसका क्या कारण है? हे नाथ! यह सब प्रेमसहित कहिये॥ ९४(ख)॥

मूल (चौपाई)

गरुड़ गिरा सुनि हरषेउ कागा।
बोलेउ उमा परम अनुरागा॥
धन्य धन्य तव मति उरगारी।
प्रस्न तुम्हारि मोहि अति प्यारी॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे उमा! गरुड़जीकी वाणी सुनकर काकभुशुण्डिजी हर्षित हुए और परम प्रेमसे बोले—हे सर्पोंके शत्रु! आपकी बुद्धि धन्य है! धन्य है! आपके प्रश्न मुझे बहुत ही प्यारे लगे॥ १॥

मूल (चौपाई)

सुनि तव प्रस्न सप्रेम सुहाई।
बहुत जनम कै सुधि मोहि आई॥
सब निज कथा कहउँ मैं गाई।
तात सुनहु सादर मन लाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

आपके प्रेमयुक्त सुन्दर प्रश्न सुनकर मुझे अपने बहुत जन्मोंकी याद आ गयी। मैं अपनी सब कथा विस्तारसे कहता हूँ। हे तात! आदरसहित मन लगाकर सुनिये॥ २॥

मूल (चौपाई)

जप तप मख सम दम ब्रत दाना।
बिरति बिबेक जोग बिग्याना॥
सब कर फल रघुपति पद प्रेमा।
तेहि बिनु कोउ न पावइ छेमा॥

अनुवाद (हिन्दी)

अनेक जप, तप, यज्ञ, शम (मनको रोकना), दम (इन्द्रियोंको रोकना), व्रत, दान, वैराग्य, विवेक, योग, विज्ञान आदि सबका फल श्रीरघुनाथजीके चरणोंमें प्रेम होना है। इसके बिना कोई कल्याण नहीं पा सकता॥ ३॥

मूल (चौपाई)

एहिं तन राम भगति मैं पाई।
ताते मोहि ममता अधिकाई॥
जेहि तें कछु निज स्वारथ होई।
तेहि पर ममता कर सब कोई॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैंने इसी शरीरसे श्रीरामजीकी भक्ति प्राप्त की है। इसीसे इसपर मेरी ममता अधिक है। जिससे अपना कुछ स्वार्थ होता है, उसपर सभी कोई प्रेम करते हैं॥ ४॥

सोरठा

मूल (दोहा)

पन्नगारि असि नीति श्रुति संमत सज्जन कहहिं।
अति नीचहु सन प्रीति करिअ जानि निज परम हित॥ ९५(क)॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे गरुड़जी! वेदोंमें मानी हुई ऐसी नीति है और सज्जन भी कहते हैं कि अपना परम हित जानकर अत्यन्त नीचसे भी प्रेम करना चाहिये॥ ९५(क)॥

मूल (दोहा)

पाट कीट तें होइ तेहि तें पाटंबर रुचिर।
कृमि पालइ सबु कोइ परम अपावन प्रान सम॥ ९५(ख)॥

अनुवाद (हिन्दी)

रेशम कीड़ेसे होता है, उससे सुन्दर रेशमी वस्त्र बनते हैं। इसीसे उस परम अपवित्र कीड़ेको भी सब कोई प्राणोंके समान पालते हैं॥ ९५(ख)॥

मूल (चौपाई)

स्वारथ साँच जीव कहुँ एहा।
मन क्रम बचन राम पद नेहा॥
सोइ पावन सोइ सुभग सरीरा।
जो तनु पाइ भजिअ रघुबीरा॥

अनुवाद (हिन्दी)

जीवके लिये सच्चा स्वार्थ यही है कि मन, वचन और कर्मसे श्रीरामजीके चरणोंमें प्रेम हो। वही शरीर पवित्र और सुन्दर है जिस शरीरको पाकर श्रीरघुवीरका भजन किया जाय॥ १॥

मूल (चौपाई)

राम बिमुख लहि बिधि सम देही।
कबि कोबिद न प्रसंसहिं तेही॥
राम भगति एहिं तन उर जामी।
ताते मोहि परम प्रिय स्वामी॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो श्रीरामजीके विमुख है वह यदि ब्रह्माजीके समान शरीर पा जाय तो भी कवि और पण्डित उसकी प्रशंसा नहीं करते। इसी शरीरसे मेरे हृदयमें रामभक्ति उत्पन्न हुई। इसीसे हे स्वामी! यह मुझे परम प्रिय है॥ २॥

मूल (चौपाई)

तजउँ न तन निज इच्छा मरना।
तन बिनु बेद भजन नहिं बरना॥
प्रथम मोहँ मोहि बहुत बिगोवा।
राम बिमुख सुख कबहुँ न सोवा॥

अनुवाद (हिन्दी)

मेरा मरण अपनी इच्छापर है, परन्तु फिर भी मैं यह शरीर नहीं छोड़ता; क्योंकि वेदोंने वर्णन किया है कि शरीरके बिना भजन नहीं होता। पहले मोहने मेरी बड़ी दुर्दशा की। श्रीरामजीके विमुख होकर मैं कभी सुखसे नहीं सोया॥ ३॥

मूल (चौपाई)

नाना जनम कर्म पुनि नाना।
किए जोग जप तप मख दाना॥
कवन जोनि जनमेउँ जहँ नाहीं।
मैं खगेस भ्रमि भ्रमि जग माहीं॥

अनुवाद (हिन्दी)

अनेकों जन्मोंमें मैंने अनेकों प्रकारके योग, जप, तप, यज्ञ और दान आदि कर्म किये। हे गरुड़जी! जगत् में ऐसी कौन योनि है, जिसमें मैंने (बार-बार) घूम-फिरकर जन्म न लिया हो॥ ४॥

मूल (चौपाई)

देखेउँ करि सब करम गोसाईं।
सुखी न भयउँ अबहिं की नाईं॥
सुधि मोहि नाथ जन्म बहु केरी।
सिव प्रसाद मति मोहँ न घेरी॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे गुसाईं! मैंने सब कर्म करके देख लिये, पर अब (इस जन्म) की तरह मैं कभी सुखी नहीं हुआ। हे नाथ! मुझे बहुत-से जन्मोंकी याद है। (क्योंकि) श्रीशिवजीकी कृपासे मेरी बुद्धिको मोहने नहीं घेरा॥ ५॥

दोहा

मूल (दोहा)

प्रथम जन्म के चरित अब कहउँ सुनहु बिहगेस।
सुनि प्रभु पद रति उपजइ जातें मिटहिं कलेस॥ ९६(क)॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे पक्षिराज! सुनिये, अब मैं अपने प्रथम जन्मके चरित्र कहता हूँ, जिन्हें सुनकर प्रभुके चरणोंमें प्रीति उत्पन्न होती है, जिससे सब क्लेश मिट जाते हैं॥ ९६(क)॥

मूल (दोहा)

पूरुब कल्प एक प्रभु जुग कलिजुग मल मूल।
नर अरु नारि अधर्म रत सकल निगम प्रतिकूल॥ ९६(ख)॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे प्रभो! पूर्वके एक कल्पमें पापोंका मूल युग कलियुग था, जिसमें पुरुष और स्त्री सभी अधर्मपरायण और वेदके विरोधी थे॥ ९६(ख)॥

मूल (चौपाई)

तेहिं कलिजुग कोसलपुर जाई।
जन्मत भयउँ सूद्र तनु पाई॥
सिव सेवक मन क्रम अरु बानी।
आन देव निंदक अभिमानी॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस कलियुगमें मैं अयोध्यापुरीमें जाकर शूद्रका शरीर पाकर जन्मा। मैं मन, वचन और कर्मसे शिवजीका सेवक और दूसरे देवताओंकी निन्दा करनेवाला अभिमानी था॥ १॥

मूल (चौपाई)

धन मद मत्त परम बाचाला।
उग्रबुद्धि उर दंभ बिसाला॥
जदपि रहेउँ रघुपति रजधानी।
तदपि न कछु महिमा तब जानी॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैं धनके मदसे मतवाला, बहुत ही बकवादी और उग्रबुद्धिवाला था; मेरे हृदयमें बड़ा भारी दम्भ था। यद्यपि मैं श्रीरघुनाथजीकी राजधानीमें रहता था, तथापि मैंने उस समय उसकी महिमा कुछ भी नहीं जानी॥ २॥

मूल (चौपाई)

अब जाना मैं अवध प्रभावा।
निगमागम पुरान अस गावा॥
कवनेहुँ जन्म अवध बस जोई।
राम परायन सो परि होई॥

अनुवाद (हिन्दी)

अब मैंने अवधका प्रभाव जाना। वेद, शास्त्र और पुराणोंने ऐसा गाया है कि किसी भी जन्ममें जो कोई भी अयोध्यामें बस जाता है, वह अवश्य ही श्रीरामजीके परायण हो जायगा॥ ३॥

मूल (चौपाई)

अवध प्रभाव जान तब प्रानी।
जब उर बसहिं रामु धनुपानी॥
सो कलिकाल कठिन उरगारी।
पाप परायन सब नर नारी॥

अनुवाद (हिन्दी)

अवधका प्रभाव जीव तभी जानता है, जब हाथमें धनुष धारण करनेवाले श्रीरामजी उसके हृदयमें निवास करते हैं। हे गरुड़जी! वह कलिकाल बड़ा कठिन था। उसमें सभी नर-नारी पाप-परायण (पापोंमें लिप्त) थे॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

कलिमल ग्रसे धर्म सब लुप्त भए सदग्रंथ।
दंभिन्ह निज मति कल्पि करि प्रगट किए बहु पंथ॥ ९७(क)॥

अनुवाद (हिन्दी)

कलियुगके पापोंने सब धर्मोंको ग्रस लिया, सद्‍ग्रन्थ लुप्त हो गये, दम्भियोंने अपनी बुद्धिसे कल्पना कर-करके बहुत-से पंथ प्रकट कर दिये॥ ९७(क)॥

मूल (दोहा)

भए लोग सब मोहबस लोभ ग्रसे सुभ कर्म।
सुनु हरिजान ग्यान निधि कहउँ कछुक कलिधर्म॥ ९७(ख)॥

अनुवाद (हिन्दी)

सभी लोग मोहके वश हो गये, शुभकर्मोंको लोभने हड़प लिया। हे ज्ञानके भण्डार! हे श्रीहरिके वाहन! सुनिये, अब मैं कलिके कुछ धर्म कहता हूँ॥ ९७(ख)॥

मूल (चौपाई)

बरन धर्म नहिं आश्रम चारी।
श्रुति बिरोध रत सब नर नारी॥
द्विज श्रुति बेचक भूप प्रजासन।
कोउ नहिं मान निगम अनुसासन॥

अनुवाद (हिन्दी)

कलियुगमें न वर्णधर्म रहता है, न चारों आश्रम रहते हैं। सब पुरुष-स्त्री वेदके विरोधमें लगे रहते हैं। ब्राह्मण वेदोंके बेचनेवाले और राजा प्रजाको खा डालनेवाले होते हैं। वेदकी आज्ञा कोई नहीं मानता॥ १॥

मूल (चौपाई)

मारग सोइ जा कहुँ जोइ भावा।
पंडित सोइ जो गाल बजावा॥
मिथ्यारंभ दंभ रत जोई।
ता कहुँ संत कहइ सब कोई॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिसको जो अच्छा लग जाय, वही मार्ग है। जो डींग मारता है, वही पण्डित है। जो मिथ्या आरम्भ करता (आडम्बर रचता) है और जो दम्भमें रत है, उसीको सब कोई संत कहते हैं॥ २॥

मूल (चौपाई)

सोइ सयान जो परधन हारी।
जो कर दंभ सो बड़ आचारी॥
जो कह झूँठ मसखरी जाना।
कलिजुग सोइ गुनवंत बखाना॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो (जिस किसी प्रकारसे) दूसरेका धन हरण कर ले, वही बुद्धिमान् है। जो दम्भ करता है वही बड़ा आचारी है। जो झूठ बोलता है और हँसी-दिल्लगी करना जानता है, कलियुगमें वही गुणवान् कहा जाता है॥ ३॥

मूल (चौपाई)

निराचार जो श्रुति पथ त्यागी।
कलिजुग सोइ ग्यानी सो बिरागी॥
जाकें नख अरु जटा बिसाला।
सोइ तापस प्रसिद्ध कलिकाला॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो आचारहीन है और वेदमार्गको छोड़े हुए है, कलियुगमें वही ज्ञानी और वही वैराग्यवान् है। जिसके बड़े-बड़े नख और लंबी-लंबी जटाएँ हैं, वही कलियुगमें प्रसिद्ध तपस्वी है॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

असुभ बेष भूषन धरें भच्छाभच्छ जे खाहिं।
तेइ जोगी तेइ सिद्ध नर पूज्य ते कलिजुग माहिं॥ ९८(क)॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो अमङ्गल वेष और अमङ्गल भूषण धारण करते हैं और भक्ष्य-अभक्ष्य (खाने योग्य और न खाने योग्य) सब कुछ खा लेते हैं, वे ही योगी हैं, वे ही सिद्ध हैं और वे ही मनुष्य कलियुगमें पूज्य हैं॥ ९८(क)॥

सोरठा

मूल (दोहा)

जे अपकारी चार तिन्ह कर गौरव मान्य तेइ।
मन क्रम बचन लबार तेइ बकता कलिकाल महुँ॥ ९८(ख)॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिनके आचरण दूसरोंका अपकार (अहित) करनेवाले हैं, उन्हींका बड़ा गौरव होता है और वे ही सम्मानके योग्य होते हैं। जो मन, वचन और कर्मसे लबार (झूठ बकनेवाले) हैं, वे ही कलियुगमें वक्ता माने जाते हैं॥ ९८(ख)॥

मूल (चौपाई)

नारि बिबस नर सकल गोसाईं।
नाचहिं नट मर्कट की नाईं॥
सूद्र द्विजन्ह उपदेसहिं ग्याना।
मेलि जनेऊ लेहिं कुदाना॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे गोसाईं! सभी मनुष्य स्त्रियोंके विशेष वशमें हैं और बाजीगरके बंदरकी तरह (उनके नचाये) नाचते हैं। ब्राह्मणोंको शूद्र ज्ञानोपदेश करते हैं और गलेमें जनेऊ डालकर कुत्सित दान लेते हैं॥ १॥

मूल (चौपाई)

सब नर काम लोभ रत क्रोधी।
देव बिप्र श्रुति संत बिरोधी॥
गुन मंदिर सुंदर पति त्यागी।
भजहिं नारि पर पुरुष अभागी॥

अनुवाद (हिन्दी)

सभी पुरुष काम और लोभमें तत्पर और क्रोधी होते हैं। देवता, ब्राह्मण, वेद और संतोंके विरोधी होते हैं। अभागिनी स्त्रियाँ गुणोंके धाम सुन्दर पतिको छोड़कर परपुरुषका सेवन करती हैं॥ २॥

मूल (चौपाई)

सौभागिनीं बिभूषन हीना।
बिधवन्ह के सिंगार नबीना॥
गुर सिष बधिर अंध का लेखा।
एक न सुनइ एक नहिं देखा॥

अनुवाद (हिन्दी)

सुहागिनी स्त्रियाँ तो आभूषणोंसे रहित होती हैं, पर विधवाओंके नित्य नये शृङ्गार होते हैं। शिष्य और गुरुमें बहरे और अंधेका-सा हिसाब होता है। एक (शिष्य) गुरुके उपदेशको सुनता नहीं, एक (गुरु) देखता नहीं (उसे ज्ञानदृष्टि प्राप्त नहीं है)॥ ३॥

मूल (चौपाई)

हरइ सिष्य धन सोक न हरई।
सो गुर घोर नरक महुँ परई॥
मातु पिता बालकन्हि बोलावहिं।
उदर भरै सोइ धर्म सिखावहिं॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो गुरु शिष्यका धन हरण करता है, पर शोक नहीं हरण करता, वह घोर नरकमें पड़ता है। माता-पिता बालकोंको बुलाकर वही धर्म सिखलाते हैं, जिससे पेट भरे॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

ब्रह्म ग्यान बिनु नारि नर कहहिं न दूसरि बात।
कौड़ी लागि लोभ बस करहिं बिप्र गुर घात॥ ९९(क)॥

अनुवाद (हिन्दी)

स्त्री-पुरुष ब्रह्मज्ञानके सिवा दूसरी बात नहीं करते, पर वे लोभवश कौड़ियों (बहुत थोड़े लाभ)के लिये ब्राह्मण और गुरुकी हत्या कर डालते हैं॥ ९९(क)॥

मूल (दोहा)

बादहिं सूद्र द्विजन्ह सन हम तुम्ह ते कछु घाटि।
जानइ ब्रह्म सो बिप्रबर आँखि देखावहिं डाटि॥ ९९(ख)॥

अनुवाद (हिन्दी)

शूद्र ब्राह्मणोंसे विवाद करते हैं (और कहते हैं) कि हम क्या तुमसे कुछ कम हैं? जो ब्रह्मको जानता है वही श्रेष्ठ ब्राह्मण है। (ऐसा कहकर) वे उन्हें डाँटकर आँखें दिखलाते हैं॥ ९९(ख)॥

मूल (चौपाई)

पर त्रिय लंपट कपट सयाने।
मोह द्रोह ममता लपटाने॥
तेइ अभेदबादी ग्यानी नर।
देखा मैं चरित्र कलिजुग कर॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो परायी स्त्रीमें आसक्त, कपट करनेमें चतुर और मोह, द्रोह और ममतामें लिपटे हुए हैं, वे ही मनुष्य अभेदवादी (ब्रह्म और जीवको एक बतानेवाले) ज्ञानी हैं। मैंने उस कलियुगका यह चरित्र देखा॥ १॥

मूल (चौपाई)

आपु गए अरु तिन्हहू घालहिं।
जे कहुँ सत मारग प्रतिपालहिं॥
कल्प कल्प भरि एक एक नरका।
परहिं जे दूषहिं श्रुति करि तरका॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे स्वयं तो नष्ट हुए ही रहते हैं; जो कहीं सन्मार्गका प्रतिपालन करते हैं, उनको भी वे नष्ट कर देते हैं। जो तर्क करके वेदकी निन्दा करते हैं, वे लोग कल्प-कल्पभर एक-एक नरकमें पड़े रहते हैं॥ २॥

मूल (चौपाई)

जे बरनाधम तेलि कुम्हारा।
स्वपच किरात कोल कलवारा॥
नारि मुई गृह संपति नासी।
मूड़ मुड़ाइ होहिं संन्यासी॥

अनुवाद (हिन्दी)

तेली, कुम्हार, चाण्डाल, भील, कोल और कलवार आदि जो वर्णमें नीचे हैं, स्त्रीके मरनेपर अथवा घरकी सम्पत्ति नष्ट हो जानेपर सिर मुँड़ाकर संन्यासी हो जाते हैं॥ ३॥

मूल (चौपाई)

ते बिप्रन्ह सन आपु पुजावहिं।
उभय लोक निज हाथ नसावहिं॥
बिप्र निरच्छर लोलुप कामी।
निराचार सठ बृषली स्वामी॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे अपनेको ब्राह्मणोंसे पुजवाते हैं और अपने ही हाथों दोनों लोक नष्ट करते हैं। ब्राह्मण अपढ़, लोभी, कामी, आचारहीन, मूर्ख और नीची जातिकी व्यभिचारिणी स्त्रियोंके स्वामी होते हैं॥ ४॥

मूल (चौपाई)

सूद्र करहिं जप तप ब्रत नाना।
बैठि बरासन कहहिं पुराना॥
सब नर कल्पित करहिं अचारा।
जाइ न बरनि अनीति अपारा॥

अनुवाद (हिन्दी)

शूद्र नाना प्रकारके जप, तप और व्रत करते हैं तथा ऊँचे आसन (व्यासगद्दी) पर बैठकर पुराण कहते हैं। सब मनुष्य मनमाना आचरण करते हैं। अपार अनीतिका वर्णन नहीं किया जा सकता॥ ५॥

दोहा

मूल (दोहा)

भए बरन संकर कलि भिन्नसेतु सब लोग।
करहिं पाप पावहिं दुख भय रुज सोक बियोग॥ १००(क)॥

अनुवाद (हिन्दी)

कलियुगमें सब लोग वर्णसंकर और मर्यादासे च्युत हो गये। वे पाप करते हैं और (उनके फलस्वरूप) दुःख, भय, रोग, शोक और (प्रिय वस्तुका) वियोग पाते हैं॥ १००(क)॥

मूल (दोहा)

श्रुति संमत हरि भक्ति पथ संजुत बिरति बिबेक।
तेहिं न चलहिं नर मोह बस कल्पहिं पंथ अनेक॥ १००(ख)॥

अनुवाद (हिन्दी)

वेदसम्मत तथा वैराग्य और ज्ञानसे युक्त जो हरिभक्तिका मार्ग है, मोहवश मनुष्य उसपर नहीं चलते और अनेकों नये-नये पंथोंकी कल्पना करते हैं॥ १००(ख)॥

छंद

मूल (दोहा)

बहु दाम सँवारहिं धाम जती।
बिषया हरि लीन्हि न रहि बिरती॥
तपसी धनवंत दरिद्र गृही।
कलि कौतुक तात न जात कही॥

अनुवाद (हिन्दी)

संन्यासी बहुत धन लगाकर घर सजाते हैं। उनमें वैराग्य नहीं रहा, उसे विषयोंने हर लिया। तपस्वी धनवान् हो गये और गृहस्थ दरिद्र। हे तात! कलियुगकी लीला कुछ कही नहीं जाती॥ १॥

मूल (दोहा)

कुलवंति निकारहिं नारि सती।
गृह आनहिं चेरि निबेरि गती॥
सुत मानहिं मातु पिता तब लौं।
अबलानन दीख नहीं जब लौं॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुलवती और सती स्त्रीको पुरुष घरसे निकाल देते हैं और अच्छी चालको छोड़कर घरमें दासीको ला रखते हैं। पुत्र अपने माता-पिताको तभीतक मानते हैं जबतक स्त्रीका मुँह नहीं दिखायी पड़ा॥ २॥

मूल (दोहा)

ससुरारि पिआरि लगी जब तें।
रिपुरूप कुटुंब भए तब तें॥
नृप पाप परायन धर्म नहीं।
करि दंड बिडंब प्रजा नितहीं॥

अनुवाद (हिन्दी)

जबसे ससुराल प्यारी लगने लगी, तबसे कुटुम्बी शत्रुरूप हो गये। राजा लोग पापपरायण हो गये, उनमें धर्म नहीं रहा। वे प्रजाको नित्य ही (बिना अपराध) दण्ड देकर उसकी विडम्बना (दुर्दशा) किया करते हैं॥ ३॥

मूल (दोहा)

धनवंत कुलीन मलीन अपी।
द्विज चिन्ह जनेउ उघार तपी॥
नहिं मान पुरान न बेदहि जो।
हरि सेवक संत सही कलि सो॥

अनुवाद (हिन्दी)

धनी लोग मलिन (नीच जातिके) होनेपर भी कुलीन माने जाते हैं। द्विजका चिह्न जनेऊमात्र रह गया और नंगे बदन रहना तपस्वीका। जो वेदों और पुराणोंको नहीं मानते, कलियुगमें वे ही हरिभक्त और सच्चे संत कहलाते हैं॥ ४॥

मूल (दोहा)

कबि बृंद उदार दुनी न सुनी।
गुन दूषक ब्रात न कोपि गुनी॥
कलि बारहिं बार दुकाल परै।
बिनु अन्न दुखी सब लोग मरै॥

अनुवाद (हिन्दी)

कवियोंके तो झुंड हो गये, पर दुनियामें उदार (कवियोंका आश्रयदाता) सुनायी नहीं पड़ता। गुणमें दोष लगानेवाले बहुत हैं, पर गुणी कोई भी नहीं है। कलियुगमें बार-बार अकाल पड़ते हैं। अन्नके बिना सब लोग दुखी होकर मरते हैं॥ ५॥

दोहा

मूल (दोहा)

सुनु खगेस कलि कपट हठ दंभ द्वेष पाषंड।
मान मोह मारादि मद ब्यापि रहे ब्रह्मंड॥ १०१(क)॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे पक्षिराज गरुड़जी! सुनिये, कलियुगमें कपट, हठ (दुराग्रह), दम्भ, द्वेष, पाखण्ड, मान, मोह और काम आदि (अर्थात् काम, क्रोध और लोभ) और मद ब्रह्माण्डभरमें व्याप्त हो गये (छा गये)॥ १०१(क)॥

मूल (दोहा)

तामस धर्म करहिं नर जप तप ब्रत मख दान।
देव न बरषहिं धरनीं बए न जामहिं धान॥ १०१(ख)॥

अनुवाद (हिन्दी)

मनुष्य जप, तप, यज्ञ, व्रत और दान आदि धर्म तामसी भावसे करने लगे। देवता (इन्द्र) पृथ्वीपर जल नहीं बरसाते और बोया हुआ अन्न उगता नहीं॥ १०१(ख)॥

छंद

मूल (दोहा)

अबला कच भूषन भूरि छुधा ।
धनहीन दुखी ममता बहुधा॥
सुख चाहहिं मूढ़ न धर्म रता।
मति थोरि कठोरि न कोमलता॥

अनुवाद (हिन्दी)

स्त्रियोंके बाल ही भूषण हैं (उनके शरीरपर कोई आभूषण नहीं रह गया) और उनको भूख बहुत लगती है (अर्थात् वे सदा अतृप्त ही रहती हैं।) वे धनहीन और बहुत प्रकारकी ममता होनेके कारण दुखी रहती हैं। वे मूर्ख सुख चाहती हैं, पर धर्ममें उनका प्रेम नहीं है। बुद्धि थोड़ी है और कठोर है; उनमें कोमलता नहीं है॥ १॥

मूल (दोहा)

नर पीड़ित रोग न भोग कहीं।
अभिमान बिरोध अकारनहीं॥
लघु जीवन संबतु पंच दसा।
कलपांत न नास गुमानु असा॥

अनुवाद (हिन्दी)

मनुष्य रोगोंसे पीड़ित हैं, भोग (सुख) कहीं नहीं है। बिना ही कारण अभिमान और विरोध करते हैं। दस-पाँच वर्षका थोड़ा-सा जीवन है, परन्तु घमंड ऐसा है मानो कल्पान्त (प्रलय) होनेपर भी उनका नाश नहीं होगा॥ २॥

मूल (दोहा)

कलिकाल बिहाल किए मनुजा।
नहिं मानत क्वौ अनुजा तनुजा॥
नहिं तोष बिचार न सीतलता।
सब जाति कुजाति भए मगता॥

अनुवाद (हिन्दी)

कलिकालने मनुष्यको बेहाल (अस्त-व्यस्त) कर डाला। कोई बहिन-बेटीका भी विचार नहीं करता। (लोगोंमें) न सन्तोष है, न विवेक है और न शीतलता है। जाति, कुजाति सभी लोग भीख माँगनेवाले हो गये॥ ३॥

मूल (दोहा)

इरिषा परुषाच्छर लोलुपता।
भरि पूरि रही समता बिगता॥
सब लोग बियोग बिसोक हए।
बरनाश्रम धर्म अचार गए॥

अनुवाद (हिन्दी)

ईर्ष्या (डाह), कड़ुवे वचन और लालच भरपूर हो रहे हैं, समता चली गयी। सब लोग वियोग और विशेष शोकसे भरे पड़े हैं। वर्णाश्रम-धर्मके आचरण नष्ट हो गये॥ ४॥

मूल (दोहा)

दम दान दया नहिं जानपनी।
जड़ता परबंचनताति घनी॥
तनु पोषक नारि नरा सगरे।
परनिंदक जे जग मो बगरे॥

अनुवाद (हिन्दी)

इन्द्रियोंका दमन, दान, दया और समझदारी किसीमें नहीं रही। मूर्खता और दूसरोंको ठगना यह बहुत अधिक बढ़ गया। स्त्री-पुरुष सभी शरीरके ही पालन-पोषणमें लगे रहते हैं। जो परायी निन्दा करनेवाले हैं, जगत् में वे ही फैले हैं॥ ५॥

दोहा

मूल (दोहा)

सुनु ब्यालारि काल कलि मल अवगुन आगार।
गुनउ बहुत कलिजुग कर बिनु प्रयास निस्तार॥ १०२(क)॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे सर्पोंके शत्रु गरुड़जी! सुनिये, कलिकाल पाप और अवगुणोंका घर है। किन्तु कलियुगमें एक गुण भी बड़ा है कि उसमें बिना ही परिश्रम भवबन्धनसे छुटकारा मिल जाता है॥ १०२(क)॥

मूल (दोहा)

कृतजुग त्रेताँ द्वापर पूजा मख अरु जोग।
जो गति होइ सो कलि हरि नाम ते पावहिं लोग॥ १०२(ख)॥

अनुवाद (हिन्दी)

सत्ययुग, त्रेता और द्वापरमें जो गति पूजा, यज्ञ और योगसे प्राप्त होती है, वही गति कलियुगमें लोग केवल भगवान् के नामसे पा जाते हैं॥ १०२(ख)॥

मूल (चौपाई)

कृतजुग सब जोगी बिग्यानी।
करि हरि ध्यान तरहिं भव प्रानी॥
त्रेताँ बिबिध जग्य नर करहीं।
प्रभुहि समर्पि कर्म भव तरहीं॥

अनुवाद (हिन्दी)

सत्ययुगमें सब योगी और विज्ञानी होते हैं। हरिका ध्यान करके सब प्राणी भवसागरसे तर जाते हैं। त्रेतामें मनुष्य अनेक प्रकारके यज्ञ करते हैं और सब कर्मोंको प्रभुके समर्पण करके भवसागरसे पार हो जाते हैं॥ १॥

मूल (चौपाई)

द्वापर करि रघुपति पद पूजा।
नर भव तरहिं उपाय न दूजा॥
कलिजुग केवल हरि गुन गाहा।
गावत नर पावहिं भव थाहा॥

अनुवाद (हिन्दी)

द्वापरमें श्रीरघुनाथजीके चरणोंकी पूजा करके मनुष्य संसारसे तर जाते हैं, दूसरा कोई उपाय नहीं है। और कलियुगमें तो केवल श्रीहरिकी गुणगाथाओंका गान करनेसे ही मनुष्य भवसागरकी थाह पा जाते हैं॥ २॥

मूल (चौपाई)

कलिजुग जोग न जग्य न ग्याना।
एक अधार राम गुन गाना॥
सब भरोस तज जो भज रामहि।
प्रेम समेत गाव गुन ग्रामहि॥

अनुवाद (हिन्दी)

कलियुगमें न तो योग और यज्ञ है और न ज्ञान ही है। श्रीरामजीका गुणगान ही एकमात्र आधार है। अतएव सारे भरोसे त्यागकर जो श्रीरामजीको भजता है और प्रेमसहित उनके गुणसमूहोंको गाता है,॥ ३॥

मूल (चौपाई)

सोइ भव तर कछु संसय नाहीं।
नाम प्रताप प्रगट कलि माहीं॥
कलि कर एक पुनीत प्रतापा।
मानस पुन्य होहिं नहिं पापा॥

अनुवाद (हिन्दी)

वही भवसागरसे तर जाता है, इसमें कुछ भी सन्देह नहीं। नामका प्रताप कलियुगमें प्रत्यक्ष है। कलियुगका एक पवित्र प्रताप (महिमा) है कि मानसिक पुण्य तो होते हैं, पर (मानसिक) पाप नहीं होते॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

कलिजुग सम जुग आन नहिं जौं नर कर बिस्वास।
गाइ राम गुन गन बिमल भव तर बिनहिं प्रयास॥ १०३(क)॥

अनुवाद (हिन्दी)

यदि मनुष्य विश्वास करे, तो कलियुगके समान दूसरा युग नहीं है। (क्योंकि) इस युगमें श्रीरामजीके निर्मल गुणसमूहोंको गा-गाकर मनुष्य बिना ही परिश्रम संसार (रूपी समुद्र) से तर जाता है॥ १०३(क)॥

मूल (दोहा)

प्रगट चारि पद धर्म के कलि महुँ एक प्रधान।
जेन केन बिधि दीन्हें दान करइ कल्यान॥ १०३(ख)॥

अनुवाद (हिन्दी)

धर्मके चार चरण (सत्य, दया, तप और दान) प्रसिद्ध हैं, जिनमेंसे कलिमें एक (दानरूपी) चरण ही प्रधान है। जिस किसी प्रकारसे भी दिये जानेपर दान कल्याण ही करता है॥ १०३(ख)॥

मूल (चौपाई)

नित जुग धर्म होहिं सब केरे।
हृदयँ राम माया के प्रेरे॥
सुद्ध सत्व समता बिग्याना।
कृत प्रभाव प्रसन्न मन जाना॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरामजीकी मायासे प्रेरित होकर सबके हृदयोंमें सभी युगोंके धर्म नित्य होते रहते हैं। शुद्ध सत्त्वगुण, समता, विज्ञान और मनका प्रसन्न होना, इसे सत्ययुगका प्रभाव जाने॥ १॥

मूल (चौपाई)

सत्व बहुत रज कछु रति कर्मा।
सब बिधि सुख त्रेता कर धर्मा॥
बहु रज स्वल्प सत्व कछु तामस।
द्वापर धर्म हरष भय मानस॥

अनुवाद (हिन्दी)

सत्त्वगुण अधिक हो, कुछ रजोगुण हो, कर्मोंमें प्रीति हो, सब प्रकारसे सुख हो, यह त्रेताका धर्म है। रजोगुण बहुत हो, सत्त्वगुण बहुत ही थोड़ा हो, कुछ तमोगुण हो, मनमें हर्ष और भय हो, यह द्वापरका धर्म है॥ २॥

मूल (चौपाई)

तामस बहुत रजोगुन थोरा।
कलि प्रभाव बिरोध चहुँ ओरा॥
बुध जुग धर्म जानि मन माहीं।
तजि अधर्म रति धर्म कराहीं॥

अनुवाद (हिन्दी)

तमोगुण बहुत हो, रजोगुण थोड़ा हो, चारों ओर वैर-विरोध हो, यह कलियुगका प्रभाव है। पण्डित लोग युगोंके धर्मको मनमें जान (पहिचान) कर, अधर्म छोड़कर धर्ममें प्रीति करते हैं॥ ३॥

मूल (चौपाई)

काल धर्म नहिं ब्यापहिं ताही।
रघुपति चरन प्रीति अति जाही॥
नट कृत बिकट कपट खगराया।
नट सेवकहि न ब्यापइ माया॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिसका श्रीरघुनाथजीके चरणोंमें अत्यन्त प्रेम है, उसको कालधर्म (युगधर्म) नहीं व्यापते। हे पक्षिराज! नट (बाजीगर) का किया हुआ कपट-चरित्र (इन्द्रजाल) देखनेवालोंके लिये बड़ा विकट (दुर्गम) होता है, पर नटके सेवक (जंभूरे) को उसकी माया नहीं व्यापती॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

हरि माया कृत दोष गुन बिनु हरि भजन न जाहिं।
भजिअ राम तजि काम सब अस बिचारि मन माहिं॥ १०४(क)॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीहरिकी मायाके द्वारा रचे हुए दोष और गुण श्रीहरिके भजन बिना नहीं जाते। मनमें ऐसा विचारकर, सब कामनाओंको छोड़कर (निष्कामभावसे) श्रीरामजीका भजन करना चाहिये॥ १०४(क)॥

मूल (दोहा)

तेहिं कलिकाल बरष बहु बसेउँ अवध बिहगेस।
परेउ दुकाल बिपति बस तब मैं गयउँ बिदेस॥ १०४(ख)॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे पक्षिराज! उस कलिकालमें मैं बहुत वर्षोंतक अयोध्यामें रहा। एक बार वहाँ अकाल पड़ा, तब मैं विपत्तिका मारा विदेश चला गया॥ १०४(ख)॥

मूल (चौपाई)

गयउँ उजेनी सुनु उरगारी।
दीन मलीन दरिद्र दुखारी॥
गएँ काल कछु संपति पाई।
तहँ पुनि करउँ संभु सेवकाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे सर्पोंके शत्रु गरुड़जी! सुनिये। मैं दीन, मलिन (उदास), दरिद्र और दुखी होकर उज्जैन गया। कुछ काल बीतनेपर कुछ सम्पत्ति पाकर फिर मैं वहीं भगवान् शंकरकी आराधना करने लगा॥ १॥

मूल (चौपाई)

बिप्र एक बैदिक सिव पूजा।
करइ सदा तेहि काजु न दूजा॥
परम साधु परमारथ बिंदक।
संभु उपासक नहिं हरि निंदक॥

अनुवाद (हिन्दी)

एक ब्राह्मण वेदविधिसे सदा शिवजीकी पूजा करते, उन्हें दूसरा कोई काम न था। वे परम साधु और परमार्थके ज्ञाता थे, वे शम्भुके उपासक थे, पर श्रीहरिकी निन्दा करनेवाले न थे॥ २॥

मूल (चौपाई)

तेहि सेवउँ मैं कपट समेता।
द्विज दयाल अति नीति निकेता॥
बाहिज नम्र देखि मोहि साईं।
बिप्र पढ़ाव पुत्र की नाईं॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैं कपटपूर्वक उनकी सेवा करता। ब्राह्मण बड़े ही दयालु और नीतिके घर थे। हे स्वामी! बाहरसे नम्र देखकर ब्राह्मण मुझे पुत्रकी भाँति मानकर पढ़ाते थे॥ ३॥

मूल (चौपाई)

संभु मंत्र मोहि द्विजबर दीन्हा।
सुभ उपदेस बिबिध बिधि कीन्हा॥
जपउँ मंत्र सिव मंदिर जाई।
हृदयँ दंभ अहमिति अधिकाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन ब्राह्मणश्रेष्ठने मुझको शिवजीका मन्त्र दिया और अनेकों प्रकारके शुभ उपदेश किये। मैं शिवजीके मन्दिरमें जाकर मन्त्र जपता। मेरे हृदयमें दम्भ और अहंकार बढ़ गया॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

मैं खल मल संकुल मति नीच जाति बस मोह।
हरिजन द्विज देखें जरउँ करउँ बिष्नु कर द्रोह॥ १०५(क)॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैं दुष्ट, नीच जाति और पापमयी मलिन बुद्धिवाला मोहवश श्रीहरिके भक्तों और द्विजोंको देखते ही जल उठता और विष्णुभगवान् से द्रोह करता था॥ १०५(क)॥

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