१२ शिव-पार्वती-संवाद, गरुड़-मोह, गरुड़जीका काकभुशुण्डिसे रामकथा और राम-महिमा सुनना

मूल (चौपाई)

गिरिजा सुनहु बिसद यह कथा।
मैं सब कही मोरि मति जथा॥
राम चरित सत कोटि अपारा।
श्रुति सारदा न बरनै पारा॥

अनुवाद (हिन्दी)

(शिवजी कहते हैं—) हे गिरिजे! सुनो, मैंने यह उज्ज्वल कथा, जैसी मेरी बुद्धि थी, वैसी पूरी कह डाली। श्रीरामजीके चरित्र सौ करोड़ (अथवा) अपार हैं। श्रुति और शारदा भी उनका वर्णन नहीं कर सकते॥ १॥

मूल (चौपाई)

राम अनंत अनंत गुनानी।
जन्म कर्म अनंत नामानी॥
जल सीकर महि रज गनि जाहीं।
रघुपति चरित न बरनि सिराहीं॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् श्रीराम अनन्त हैं; उनके गुण अनन्त हैं; जन्म, कर्म और नाम भी अनन्त हैं। जलकी बूँदें और पृथ्वीके रज-कण चाहे गिने जा सकते हों, पर श्रीरघुनाथजीके चरित्र वर्णन करनेसे नहीं चुकते॥ २॥

मूल (चौपाई)

बिमल कथा हरि पद दायनी।
भगति होइ सुनि अनपायनी॥
उमा कहिउँ सब कथा सुहाई।
जो भुसुंडि खगपतिहि सुनाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह पवित्र कथा भगवान् के परमपदको देनेवाली है। इसके सुननेसे अविचल भक्ति प्राप्त होती है। हे उमा! मैंने वह सब सुन्दर कथा कही जो काकभुशुण्डिजीने गरुड़जीको सुनायी थी॥ ३॥

मूल (चौपाई)

कछुक राम गुन कहेउँ बखानी।
अब का कहौं सो कहहु भवानी॥
सुनि सुभ कथा उमा हरषानी।
बोली अति बिनीत मृदु बानी॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैंने श्रीरामजीके कुछ थोड़े-से गुण बखानकर कहे हैं। हे भवानी! सो कहो, अब और क्या कहूँ? श्रीरामजीकी मङ्गलमयी कथा सुनकर पार्वतीजी हर्षित हुईं और अत्यन्त विनम्र तथा कोमल वाणी बोलीं—॥ ४॥

मूल (चौपाई)

धन्य धन्य मैं धन्य पुरारी।
सुनेउँ राम गुन भव भय हारी॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे त्रिपुरारि! मैं धन्य हूँ, धन्य-धन्य हूँ जो मैंने जन्म-मृत्युके भयको हरण करनेवाले श्रीरामजीके गुण (चरित्र) सुने॥ ५॥

दोहा

मूल (दोहा)

तुम्हरी कृपाँ कृपायतन अब कृतकृत्य न मोह।
जानेउँ राम प्रताप प्रभु चिदानंद संदोह॥ ५२(क)॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे कृपाधाम! अब आपकी कृपासे मैं कृतकृत्य हो गयी। अब मुझे मोह नहीं रह गया। हे प्रभु! मैं सच्चिदानन्दघन प्रभु श्रीरामजीके प्रतापको जान गयी॥ ५२(क)॥

मूल (दोहा)

नाथ तवानन ससि स्रवत कथा सुधा रघुबीर।
श्रवन पुटन्हि मन पान करि नहिं अघात मतिधीर॥ ५२(ख)॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे नाथ! आपका मुखरूपी चन्द्रमा श्रीरघुवीरकी कथारूपी अमृत बरसाता है। हे मतिधीर! मेरा मन कर्णपुटोंसे उसे पीकर तृप्त नहीं होता॥ ५२(ख)॥

मूल (चौपाई)

राम चरित जे सुनत अघाहीं।
रस बिसेष जाना तिन्ह नाहीं॥
जीवनमुक्त महामुनि जेऊ।
हरि गुन सुनहिं निरंतर तेऊ॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरामजीके चरित्र सुनते-सुनते जो तृप्त हो जाते हैं (बस कर देते हैं), उन्होंने तो उसका विशेष रस जाना ही नहीं। जो जीवन्मुक्त महामुनि हैं, वे भी भगवान् के गुण निरन्तर सुनते रहते हैं॥ १॥

मूल (चौपाई)

भव सागर चह पार जो पावा।
राम कथा ता कहँ दृढ़ नावा॥
बिषइन्ह कहँ पुनि हरि गुन ग्रामा।
श्रवन सुखद अरु मन अभिरामा॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो संसाररूपी सागरका पार पाना चाहता है, उसके लिये तो श्रीरामजीकी कथा दृढ़ नौकाके समान है। श्रीहरिके गुणसमूह तो विषयी लोगोंके लिये भी कानोंको सुख देनेवाले और मनको आनन्द देनेवाले हैं॥ २॥

मूल (चौपाई)

श्रवनवंत अस को जग माहीं।
जाहि न रघुपति चरित सोहाहीं॥
ते जड़ जीव निजात्मक घाती।
जिन्हहि न रघुपति कथा सोहाती॥

अनुवाद (हिन्दी)

जगत् में कानवाला ऐसा कौन है जिसे श्रीरघुनाथजीके चरित्र न सुहाते हों। जिन्हें श्रीरघुनाथजीकी कथा नहीं सुहाती, वे मूर्ख जीव तो अपनी आत्माकी हत्या करनेवाले हैं॥ ३॥

मूल (चौपाई)

हरिचरित्र मानस तुम्ह गावा।
सुनि मैं नाथ अमिति सुख पावा॥
तुम्ह जो कही यह कथा सुहाई।
कागभसुंडि गरुड़ प्रति गाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे नाथ! आपने श्रीरामचरित्रमानसका गान किया, उसे सुनकर मैंने अपार सुख पाया। आपने जो यह कहा कि यह सुन्दर कथा काकभुशुण्डिजीने गरुड़जीसे कही थी—॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

बिरति ग्यान बिग्यान दृढ़ राम चरन अति नेह।
बायस तन रघुपति भगति मोहि परम संदेह॥ ५३॥

अनुवाद (हिन्दी)

सो कौएका शरीर पाकर भी काकभुशुण्डि वैराग्य, ज्ञान और विज्ञानमें दृढ़ हैं, उनका श्रीरामजीके चरणोंमें अत्यन्त प्रेम है और उन्हें श्रीरघुनाथजीकी भक्ति भी प्राप्त है, इस बातका मुझे परम सन्देह हो रहा है॥ ५३॥

मूल (चौपाई)

नर सहस्र महँ सुनहु पुरारी।
कोउ एक होइ धर्म ब्रतधारी॥
धर्मसील कोटिक महँ कोई।
बिषय बिमुख बिराग रत होई॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे त्रिपुरारि! सुनिये, हजारों मनुष्योंमें कोई एक धर्मके व्रतका धारण करनेवाला होता है और करोड़ों धर्मात्माओंमें कोई एक विषयसे विमुख (विषयोंका त्यागी) और वैराग्यपरायण होता है॥ १॥

मूल (चौपाई)

कोटि बिरक्त मध्य श्रुति कहई।
सम्यक ग्यान सकृत कोउ लहई॥
ग्यानवंत कोटिक महँ कोऊ।
जीवनमुक्त सकृत जग सोऊ॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रुति कहती है कि करोड़ों विरक्तोंमें कोई एक ही सम्यक् (यथार्थ) ज्ञानको प्राप्त करता है। और करोड़ों ज्ञानियोंमें कोई एक ही जीवन्मुक्त होता है। जगत् में कोई विरला ही ऐसा (जीवन्मुक्त) होगा॥ २॥

मूल (चौपाई)

तिन्ह सहस्र महुँ सब सुख खानी।
दुर्लभ ब्रह्म लीन बिग्यानी॥
धर्मसील बिरक्त अरु ग्यानी।
जीवनमुक्त ब्रह्मपर प्रानी॥

अनुवाद (हिन्दी)

हजारों जीवन्मुक्तोंमें भी सब सुखोंकी खान, ब्रह्ममें लीन विज्ञानवान् पुरुष और भी दुर्लभ है। धर्मात्मा, वैराग्यवान्, ज्ञानी, जीवन्मुक्त और ब्रह्मलीन—॥ ३॥

मूल (चौपाई)

सब ते सो दुर्लभ सुरराया।
राम भगति रत गत मद माया॥
सो हरिभगति काग किमि पाई।
बिस्वनाथ मोहि कहहु बुझाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

इन सबमें भी हे देवाधिदेव महादेवजी! वह प्राणी अत्यन्त दुर्लभ है जो मद और मायासे रहित होकर श्रीरामजीकी भक्तिके परायण हो। हे विश्वनाथ! ऐसी दुर्लभ हरिभक्तिको कौआ कैसे पा गया, मुझे समझाकर कहिये॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

राम परायन ग्यान रत गुनागार मति धीर।
नाथ कहहु केहि कारन पायउ काक सरीर॥ ५४॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे नाथ! कहिये, (ऐसे) श्रीरामपरायण, ज्ञाननिरत, गुणधाम और धीरबुद्धि भुशुण्डिजीने कौएका शरीर किस कारण पाया?॥ ५४॥

मूल (चौपाई)

यह प्रभु चरित पवित्र सुहावा।
कहहु कृपाल काग कहँ पावा॥
तुम्ह केहि भाँति सुना मदनारी।
कहहु मोहि अति कौतुक भारी॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे कृपालु! बताइये, उस कौएने प्रभुका यह पवित्र और सुन्दर चरित्र कहाँ पाया? और हे कामदेवके शत्रु! यह भी बताइये, आपने इसे किस प्रकार सुना? मुझे बड़ा भारी कौतूहल हो रहा है॥ १॥

मूल (चौपाई)

गरुड़ महाग्यानी गुन रासी।
हरि सेवक अति निकट निवासी॥
तेहिं केहि हेतु काग सन जाई।
सुनी कथा मुनि निकर बिहाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

गरुड़जी तो महान् ज्ञानी, सद्‍गुणोंकी राशि, श्रीहरिके सेवक और उनके अत्यन्त निकट रहनेवाले (उनके वाहन ही) हैं। उन्होंने मुनियोंके समूहको छोड़कर, कौएसे जाकर हरिकथा किस कारण सुनी?॥ २॥

मूल (चौपाई)

कहहु कवन बिधि भा संबादा।
दोउ हरिभगत काग उरगादा॥
गौरि गिरा सुनि सरल सुहाई।
बोले सिव सादर सुख पाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

कहिये, काकभुशुण्डि और गरुड़ इन दोनों हरिभक्तोंकी बातचीत किस प्रकार हुई? पार्वतीजीकी सरल, सुन्दर वाणी सुनकर शिवजी सुख पाकर आदरके साथ बोले—॥ ३॥

मूल (चौपाई)

धन्य सती पावन मति तोरी।
रघुपति चरन प्रीति नहिं थोरी॥
सुनहु परम पुनीत इतिहासा।
जो सुनि सकल लोक भ्रम नासा॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे सती! तुम धन्य हो; तुम्हारी बुद्धि अत्यन्त पवित्र है। श्रीरघुनाथजीके चरणोंमें तुम्हारा कम प्रेम नहीं है (अत्यधिक प्रेम है)। अब वह परम पवित्र इतिहास सुनो, जिसे सुननेसे सारे लोकके भ्रमका नाश हो जाता है॥ ४॥

मूल (चौपाई)

उपजइ राम चरन बिस्वासा।
भव निधि तर नर बिनहिं प्रयासा॥

अनुवाद (हिन्दी)

तथा श्रीरामजीके चरणोंमें विश्वास उत्पन्न होता है और मनुष्य बिना ही परिश्रम संसाररूपी समुद्रसे तर जाता है॥ ५॥

दोहा

मूल (दोहा)

ऐसिअ प्रस्न बिहंगपति कीन्हि काग सन जाइ।
सो सब सादर कहिहउँ सुनहु उमा मन लाइ॥ ५५॥

अनुवाद (हिन्दी)

पक्षिराज गरुड़जीने भी जाकर काकभुशुण्डिजीसे प्रायः ऐसे ही प्रश्न किये थे। हे उमा! मैं वह सब आदरसहित कहूँगा, तुम मन लगाकर सुनो॥ ५५॥

मूल (चौपाई)

मैं जिमि कथा सुनी भव मोचनि।
सो प्रसंग सुनु सुमुखि सुलोचनि॥
प्रथम दच्छ गृह तव अवतारा।
सती नाम तब रहा तुम्हारा॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैंने जिस प्रकार वह भव (जन्म-मृत्यु) से छुड़ानेवाली कथा सुनी, हे सुमुखी! हे सुलोचनी! वह प्रसंग सुनो। पहले तुम्हारा अवतार दक्षके घर हुआ था। तब तुम्हारा नाम सती था॥ १॥

मूल (चौपाई)

दच्छ जग्य तव भा अपमाना।
तुम्ह अति क्रोध तजे तब प्राना॥
मम अनुचरन्ह कीन्ह मख भंगा।
जानहु तुम्ह सो सकल प्रसंगा॥

अनुवाद (हिन्दी)

दक्षके यज्ञमें तुम्हारा अपमान हुआ। तब तुमने अत्यन्त क्रोध करके प्राण त्याग दिये थे; और फिर मेरे सेवकोंने यज्ञ विध्वंस कर दिया था। वह सारा प्रसंग तुम जानती ही हो॥ २॥

मूल (चौपाई)

तब अति सोच भयउ मन मोरें।
दुखी भयउँ बियोग प्रिय तोरें॥
सुंदर बन गिरि सरित तड़ागा।
कौतुक देखत फिरउँ बेरागा॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब मेरे मनमें बड़ा सोच हुआ और हे प्रिये! मैं तुम्हारे वियोगसे दुखी हो गया। मैं विरक्तभावसे सुन्दर वन, पर्वत, नदी और तालाबोंका कौतुक (दृश्य) देखता फिरता था॥ ३॥

मूल (चौपाई)

गिरि सुमेर उत्तर दिसि दूरी।
नील सैल एक सुंदर भूरी॥
तासु कनकमय सिखर सुहाए।
चारि चारु मोरे मन भाए॥

अनुवाद (हिन्दी)

सुमेरु पर्वतकी उत्तर दिशामें, और भी दूर, एक बहुत ही सुन्दर नील पर्वत है। उसके सुन्दर स्वर्णमय शिखर हैं, (उनमेंसे) चार सुन्दर शिखर मेरे मनको बहुत ही अच्छे लगे॥ ४॥

मूल (चौपाई)

तिन्ह पर एक एक बिटप बिसाला।
बट पीपर पाकरी रसाला॥
सैलोपरि सर सुंदर सोहा।
मनि सोपान देखि मन मोहा॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन शिखरोंमें एक-एकपर बरगद, पीपल, पाकर और आमका एक-एक विशाल वृक्ष है। पर्वतके ऊपर एक सुन्दर तालाब शोभित है; जिसकी मणियोंकी सीढ़ियाँ देखकर मन मोहित हो जाता है॥ ५॥

दोहा

मूल (दोहा)

सीतल अमल मधुर जल जलज बिपुल बहुरंग।
कूजत कल रव हंस गन गुंजत मंजुल भृंग॥ ५६॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसका जल शीतल, निर्मल और मीठा है; उसमें रंग-बिरंगे बहुत-से कमल खिले हुए हैं; हंसगण मधुर स्वरसे बोल रहे हैं और भौंरे सुन्दर गुंजार कर रहे हैं॥ ५६॥

मूल (चौपाई)

तेहिं गिरि रुचिर बसइ खग सोई।
तासु नास कल्पांत न होई॥
माया कृत गुन दोष अनेका।
मोह मनोज आदि अबिबेका॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस सुन्दर पर्वतपर वही पक्षी (काकभुशुण्डि) बसता है। उसका नाश कल्पके अन्तमें भी नहीं होता। मायारचित अनेकों गुण-दोष, मोह, काम आदि अविवेक,॥ १॥

मूल (चौपाई)

रहे ब्यापि समस्त जग माहीं।
तेहि गिरि निकट कबहुँ नहिं जाहीं॥
तहँ बसि हरिहि भजइ जिमि कागा।
सो सुनु उमा सहित अनुरागा॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो सारे जगत् में छा रहे हैं, उस पर्वतके पास भी कभी नहीं फटकते। वहाँ बसकर जिस प्रकार वह काक हरिको भजता है, हे उमा! उसे प्रेमसहित सुनो॥ २॥

मूल (चौपाई)

पीपर तरु तर ध्यान सो धरई।
जाप जग्य पाकरि तर करई॥
आँब छाँह कर मानस पूजा।
तजि हरि भजनु काजु नहिं दूजा॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह पीपलके वृक्षके नीचे ध्यान धरता है। पाकरके नीचे जपयज्ञ करता है। आमकी छायामें मानसिक पूजा करता है। श्रीहरिके भजनको छोड़कर उसे दूसरा कोई काम नहीं है॥ ३॥

मूल (चौपाई)

बर तर कह हरि कथा प्रसंगा।
आवहिं सुनहिं अनेक बिहंगा॥
राम चरित बिचित्र बिधि नाना।
प्रेम सहित कर सादर गाना॥

अनुवाद (हिन्दी)

बरगदके नीचे वह श्रीहरिकी कथाओंके प्रसङ्ग कहता है। वहाँ अनेकों पक्षी आते और कथा सुनते हैं। वह विचित्र रामचरित्रको अनेकों प्रकारसे प्रेमसहित आदरपूर्वक गान करता है॥ ४॥

मूल (चौपाई)

सुनहिं सकल मति बिमल मराला।
बसहिं निरंतर जे तेहिं ताला॥
जब मैं जाइ सो कौतुक देखा।
उर उपजा आनंद बिसेषा॥

अनुवाद (हिन्दी)

सब निर्मल बुद्धिवाले हंस, जो सदा उस तालाबपर बसते हैं, उसे सुनते हैं। जब मैंने वहाँ जाकर यह कौतुक (दृश्य) देखा, तब मेरे हृदयमें विशेष आनन्द उत्पन्न हुआ॥ ५॥

दोहा

मूल (दोहा)

तब कछु काल मराल तनु धरि तहँ कीन्ह निवास।
सादर सुनि रघुपति गुन पुनि आयउँ कैलास॥ ५७॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब मैंने हंसका शरीर धारण कर कुछ समय वहाँ निवास किया और श्रीरघुनाथजीके गुणोंको आदरसहित सुनकर फिर कैलासको लौट आया॥ ५७॥

मूल (चौपाई)

गिरिजा कहेउँ सो सब इतिहासा।
मैं जेहि समय गयउँ खग पासा॥
अब सो कथा सुनहु जेहि हेतू।
गयउ काग पहिं खग कुल केतू॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे गिरिजे! मैंने वह सब इतिहास कहा कि जिस समय मैं काकभुशुण्डिके पास गया था। अब वह कथा सुनो जिस कारणसे पक्षिकुलके ध्वजा गरुड़जी उस काकके पास गये थे॥ १॥

मूल (चौपाई)

जब रघुनाथ कीन्हि रन क्रीड़ा।
समुझत चरित होति मोहि ब्रीड़ा॥
इंद्रजीत कर आपु बँधायो।
तब नारद मुनि गरुड़ पठायो॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब श्रीरघुनाथजीने ऐसी रणलीला की जिस लीलाका स्मरण करनेसे मुझे लज्जा होती है—मेघनादके हाथों अपनेको बँधा लिया—तब नारद मुनिने गरुड़को भेजा॥ २॥

मूल (चौपाई)

बंधन काटि गयो उरगादा।
उपजा हृदयँ प्रचंड बिषादा॥
प्रभु बंधन समुझत बहु भाँती।
करत बिचार उरग आराती॥

अनुवाद (हिन्दी)

सर्पोंके भक्षक गरुड़जी बन्धन काटकर गये, तब उनके हृदयमें बड़ा भारी विषाद उत्पन्न हुआ। प्रभुके बन्धनको स्मरण करके सर्पोंके शत्रु गरुड़जी बहुत प्रकारसे विचार करने लगे—॥ ३॥

मूल (चौपाई)

ब्यापक ब्रह्म बिरज बागीसा।
माया मोह पार परमीसा॥
सो अवतार सुनेउँ जग माहीं।
देखेउँ सो प्रभाव कछु नाहीं॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो व्यापक, विकाररहित, वाणीके पति और माया-मोहसे परे ब्रह्म परमेश्वर हैं, मैंने सुना था कि जगत् में उन्हींका अवतार है। पर मैंने उस (अवतार) का प्रभाव कुछ भी नहीं देखा॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

भव बंधन ते छूटहिं नर जपि जा कर नाम।
खर्ब निसाचर बाँधेउ नागपास सोइ राम॥ ५८॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिनका नाम जपकर मनुष्य संसारके बन्धनसे छूट जाते हैं उन्हीं रामको एक तुच्छ राक्षसने नागपाशसे बाँध लिया॥ ५८॥

मूल (चौपाई)

नाना भाँति मनहि समुझावा।
प्रगट न ग्यान हृदयँ भ्रम छावा॥
खेद खिन्न मन तर्क बढ़ाई।
भयउ मोहबस तुम्हरिहिं नाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

गरुड़जीने अनेकों प्रकारसे अपने मनको समझाया। पर उन्हें ज्ञान नहीं हुआ, हृदयमें भ्रम और भी अधिक छा गया। (सन्देहजनित) दुःखसे दुखी होकर, मनमें कुतर्क बढ़ाकर वे तुम्हारी ही भाँति मोहवश हो गये॥ १॥

मूल (चौपाई)

ब्याकुल गयउ देवरिषि पाहीं।
कहेसि जो संसय निज मन माहीं॥
सुनि नारदहि लागि अति दाया।
सुनु खग प्रबल राम कै माया॥

अनुवाद (हिन्दी)

व्याकुल होकर वे देवर्षि नारदजीके पास गये और मनमें जो सन्देह था, वह उनसे कहा। उसे सुनकर नारदको अत्यन्त दया आयी। (उन्होंने कहा—) हे गरुड़! सुनिये, श्रीरामजीकी माया बड़ी ही बलवती है॥ २॥

मूल (चौपाई)

जो ग्यानिन्ह कर चित अपहरई।
बरिआईं बिमोह मन करई॥
जेहिं बहु बार नचावा मोही।
सोइ ब्यापी बिहंगपति तोही॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो ज्ञानियोंके चित्तको भी भलीभाँति हरण कर लेती है और उनके मनमें जबर्दस्ती बड़ा भारी मोह उत्पन्न कर देती है, तथा जिसने मुझको भी बहुत बार नचाया है, हे पक्षिराज! वही माया आपको भी व्याप गयी है॥ ३॥

मूल (चौपाई)

महामोह उपजा उर तोरें।
मिटिहि न बेगि कहें खग मोरें॥
चतुरानन पहिं जाहु खगेसा।
सोइ करेहु जेहि होइ निदेसा॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे गरुड़! आपके हृदयमें बड़ा भारी मोह उत्पन्न हो गया है। यह मेरे समझानेसे तुरंत नहीं मिटेगा। अतः हे पक्षिराज! आप ब्रह्माजीके पास जाइये और वहाँ जिस कामके लिये आदेश मिले, वही कीजियेगा॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

अस कहि चले देवरिषि करत राम गुन गान।
हरि माया बल बरनत पुनि पुनि परम सुजान॥ ५९॥

अनुवाद (हिन्दी)

ऐसा कहकर परम सुजान देवर्षि नारदजी श्रीरामजीका गुणगान करते हुए और बारंबार श्रीहरिकी मायाका बल वर्णन करते हुए चले॥ ५९॥

मूल (चौपाई)

तब खगपति बिरंचि पहिं गयऊ।
निज संदेह सुनावत भयऊ॥
सुनि बिरंचि रामहि सिरु नावा।
समुझि प्रताप प्रेम अति छावा॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब पक्षिराज गरुड़ ब्रह्माजीके पास गये और अपना सन्देह उन्हें कह सुनाया। उसे सुनकर ब्रह्माजीने श्रीरामचन्द्रजीको सिर नवाया और उनके प्रतापको समझकर उनके अत्यन्त प्रेम छा गया॥ १॥

मूल (चौपाई)

मन महुँ करइ बिचार बिधाता।
माया बस कबि कोबिद ग्याता॥
हरि माया कर अमिति प्रभावा।
बिपुल बार जेहिं मोहि नचावा॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्रह्माजी मनमें विचार करने लगे कि कवि, कोविद और ज्ञानी सभी मायाके वश हैं। भगवान् की मायाका प्रभाव असीम है, जिसने मुझतकको अनेकों बार नचाया है॥ २॥

मूल (चौपाई)

अग जगमय जग मम उपराजा।
नहिं आचरज मोह खगराजा॥
तब बोले बिधि गिरा सुहाई।
जान महेस राम प्रभुताई॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह सारा चराचर जगत् तो मेरा रचा हुआ है। जब मैं ही मायावश नाचने लगता हूँ, तब पक्षिराज गरुड़को मोह होना कोई आश्चर्य (की बात) नहीं है। तदनन्तर ब्रह्माजी सुन्दर वाणी बोले—श्रीरामजीकी महिमाको महादेवजी जानते हैं॥ ३॥

मूल (चौपाई)

बैनतेय संकर पहिं जाहू।
तात अनत पूछहु जनि काहू॥
तहँ होइहि तव संसय हानी।
चलेउ बिहंग सुनत बिधि बानी॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे गरुड़! तुम शंकरजीके पास जाओ। हे तात! और कहीं किसीसे न पूछना। तुम्हारे सन्देहका नाश वहीं होगा। ब्रह्माजीका वचन सुनते ही गरुड़ चल दिये॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

परमातुर बिहंगपति आयउ तब मो पास।
जात रहेउँ कुबेर गृह रहिहु उमा कैलास॥ ६०॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब बड़ी आतुरता (उतावली) से पक्षिराज गरुड़ मेरे पास आये। हे उमा! उस समय मैं कुबेरके घर जा रहा था और तुम कैलासपर थीं॥ ६०॥

मूल (चौपाई)

तेहिं मम पद सादर सिरु नावा।
पुनि आपन संदेह सुनावा॥
सुनि ता करि बिनती मृदु बानी।
प्रेम सहित मैं कहेउँ भवानी॥

अनुवाद (हिन्दी)

गरुड़ने आदरपूर्वक मेरे चरणोंमें सिर नवाया और फिर मुझको अपना सन्देह सुनाया। हे भवानी! उनकी विनती और कोमल वाणी सुनकर मैंने प्रेमसहित उनसे कहा—॥ १॥

मूल (चौपाई)

मिलेहु गरुड़ मारग महँ मोही।
कवन भाँति समुझावौं तोही॥
तबहिं होइ सब संसय भंगा।
जब बहु काल करिअ सतसंगा॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे गरुड़! तुम मुझे रास्तेमें मिले हो। राह चलते मैं तुम्हें किस प्रकार समझाऊँ? सब सन्देहोंका तो तभी नाश हो जब दीर्घ कालतक सत्संग किया जाय॥ २॥

मूल (चौपाई)

सुनिअ तहाँ हरिकथा सुहाई।
नाना भाँति मुनिन्ह जो गाई॥
जेहि महुँ आदि मध्य अवसाना।
प्रभु प्रतिपाद्य राम भगवाना॥

अनुवाद (हिन्दी)

और वहाँ (सत्संगमें) सुन्दर हरिकथा सुनी जाय, जिसे मुनियोंने अनेकों प्रकारसे गाया है और जिसके आदि, मध्य और अन्तमें भगवान् श्रीरामचन्द्रजी ही प्रतिपाद्य प्रभु हैं॥ ३॥

मूल (चौपाई)

नित हरि कथा होत जहँ भाई।
पठवउँ तहाँ सुनहु तुम्ह जाई॥
जाइहि सुनत सकल संदेहा।
राम चरन होइहि अति नेहा॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे भाई! जहाँ प्रतिदिन हरिकथा होती है, तुमको मैं वहीं भेजता हूँ, तुम जाकर उसे सुनो। उसे सुनते ही तुम्हारा सब सन्देह दूर हो जायगा और तुम्हें श्रीरामजीके चरणोंमें अत्यन्त प्रेम होगा॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

बिनु सतसंग न हरि कथा तेहि बिनु मोह न भाग।
मोह गएँ बिनु राम पद होइ न दृढ़ अनुराग॥ ६१॥

अनुवाद (हिन्दी)

सत्संगके बिना हरिकी कथा सुननेको नहीं मिलती, उसके बिना मोह नहीं भागता और मोहके गये बिना श्रीरामचन्द्रजीके चरणोंमें दृढ़ (अचल) प्रेम नहीं होता॥ ६१॥

मूल (चौपाई)

मिलहिं न रघुपति बिनु अनुरागा।
किएँ जोग तप ग्यान बिरागा॥
उत्तर दिसि सुंदर गिरि नीला।
तहँ रह काकभुसुंडि सुसीला॥

अनुवाद (हिन्दी)

बिना प्रेमके केवल योग, तप, ज्ञान और वैराग्यादिके करनेसे श्रीरघुनाथजी नहीं मिलते। (अतएव तुम सत्संगके लिये वहाँ जाओ जहाँ) उत्तर दिशामें एक सुन्दर नील पर्वत है। वहाँ परम सुशील काकभुशुण्डिजी रहते हैं॥ १॥

मूल (चौपाई)

राम भगति पथ परम प्रबीना।
ग्यानी गुन गृह बहु कालीना॥
राम कथा सो कहइ निरंतर।
सादर सुनहिं बिबिध बिहंगबर॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे रामभक्तिके मार्गमें परम प्रवीण हैं, ज्ञानी हैं, गुणोंके धाम हैं और बहुत कालके हैं। वे निरन्तर श्रीरामचन्द्रजीकी कथा कहते रहते हैं, जिसे भाँति-भाँतिके श्रेष्ठ पक्षी आदरसहित सुनते हैं॥ २॥

मूल (चौपाई)

जाइ सुनहु तहँ हरि गुन भूरी।
होइहि मोह जनित दुख दूरी॥
मैं जब तेहि सब कहा बुझाई।
चलेउ हरषि मम पद सिरु नाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँ जाकर श्रीहरिके गुणसमूहोंको सुनो। उनके सुननेसे मोहसे उत्पन्न तुम्हारा दुःख दूर हो जायगा। मैंने उसे जब सब समझाकर कहा, तब वह मेरे चरणोंमें सिर नवाकर हर्षित होकर चला गया॥ ३॥

मूल (चौपाई)

ताते उमा न मैं समुझावा।
रघुपति कृपाँ मरमु मैं पावा॥
होइहि कीन्ह कबहुँ अभिमाना।
सो खोवै चह कृपानिधाना॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे उमा! मैंने उसको इसीलिये नहीं समझाया कि मैं श्रीरघुनाथजीकी कृपासे उसका मर्म (भेद) पा गया था। उसने कभी अभिमान किया होगा, जिसको कृपानिधान श्रीरामजी नष्ट करना चाहते हैं॥ ४॥

मूल (चौपाई)

कछु तेहि ते पुनि मैं नहिं राखा।
समुझइ खग खगही कै भाषा॥
प्रभु माया बलवंत भवानी।
जाहि न मोह कवन अस ग्यानी॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर कुछ इस कारण भी मैंने उसको अपने पास नहीं रखा कि पक्षी पक्षीकी ही बोली समझते हैं। हे भवानी! प्रभुकी माया (बड़ी ही) बलवती है, ऐसा कौन ज्ञानी है, जिसे वह न मोह ले?॥ ५॥

दोहा

मूल (दोहा)

ग्यानी भगत सिरोमनि त्रिभुवनपति कर जान।
ताहि मोह माया नर पावँर करहिं गुमान॥ ६२(क)॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो ज्ञानियोंमें और भक्तोंमें शिरोमणि हैं एवं त्रिभुवनपति भगवान् के वाहन हैं, उन गरुड़को भी मायाने मोह लिया। फिर भी नीच मनुष्य मूर्खतावश घमंड किया करते हैं॥ ६२(क)॥

भागसूचना

मासपारायण, अट्ठाईसवाँ विश्राम

मूल (दोहा)

सिव बिरंचि कहुँ मोहइ को है बपुरा आन।
अस जियँ जानि भजहिं मुनि माया पति भगवान॥ ६२(ख)॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह माया जब शिवजी और ब्रह्माजीको भी मोह लेती है, तब दूसरा बेचारा क्या चीज है? जीमें ऐसा जानकर ही मुनिलोग उस मायाके स्वामी भगवान् का भजन करते हैं॥ ६२(ख)॥

मूल (चौपाई)

गयउ गरुड़ जहँ बसइ भुसुंडा।
मति अकुंठ हरि भगति अखंडा॥
देखि सैल प्रसन्न मन भयऊ।
माया मोह सोच सब गयऊ॥

अनुवाद (हिन्दी)

गरुड़जी वहाँ गये जहाँ निर्बाध बुद्धि और पूर्ण भक्तिवाले काकभुशुण्डिजी बसते थे। उस पर्वतको देखकर उनका मन प्रसन्न हो गया और (उसके दर्शनसे ही) सब माया, मोह तथा सोच जाता रहा॥ १॥

मूल (चौपाई)

करि तड़ाग मज्जन जलपाना।
बट तर गयउ हृदयँ हरषाना॥
बृद्ध बृद्ध बिहंग तहँ आए।
सुनै राम के चरित सुहाए॥

अनुवाद (हिन्दी)

तालाबमें स्नान और जलपान करके वे प्रसन्नचित्तसे वटवृक्षके नीचे गये। वहाँ श्रीरामजीके सुन्दर चरित्र सुननेके लिये बूढ़े-बूढ़े पक्षी आये हुए थे॥ २॥

मूल (चौपाई)

कथा अरंभ करै सोइ चाहा।
तेही समय गयउ खगनाहा॥
आवत देखि सकल खगराजा।
हरषेउ बायस सहित समाजा॥

अनुवाद (हिन्दी)

भुशुण्डिजी कथा आरम्भ करना ही चाहते थे कि उसी समय पक्षिराज गरुड़जी वहाँ जा पहुँचे। पक्षियोंके राजा गरुड़जीको आते देखकर काकभुशुण्डिजीसहित सारा पक्षिसमाज हर्षित हुआ॥ ३॥

मूल (चौपाई)

अति आदर खगपति कर कीन्हा।
स्वागत पूछि सुआसन दीन्हा॥
करि पूजा समेत अनुरागा।
मधुर बचन तब बोलेउ कागा॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन्होंने पक्षिराज गरुड़जीका बहुत ही आदर-सत्कार किया और स्वागत (कुशल) पूछकर बैठनेके लिये सुन्दर आसन दिया। फिर प्रेमसहित पूजा करके काकभुशुण्डिजी मधुर वचन बोले—॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

नाथ कृतारथ भयउँ मैं तव दरसन खगराज।
आयसु देहु सो करौं अब प्रभु आयहु केहि काज॥ ६३(क)॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे नाथ! हे पक्षिराज! आपके दर्शनसे मैं कृतार्थ हो गया। आप जो आज्ञा दें मैं अब वही करूँ। हे प्रभो! आप किस कार्यके लिये आये हैं?॥६३(क)॥

मूल (दोहा)

सदा कृतारथ रूप तुम्ह कह मृदु बचन खगेस।
जेहि कै अस्तुति सादर निज मुख कीन्हि महेस॥ ६३(ख)॥

अनुवाद (हिन्दी)

पक्षिराज गरुड़जीने कोमल वचन कहे—आप तो सदा ही कृतार्थरूप हैं, जिनकी बड़ाई स्वयं महादेवजीने आदरपूर्वक अपने श्रीमुखसे की है॥ ६३(ख)॥

मूल (चौपाई)

सुनहु तात जेहि कारन आयउँ।
सो सब भयउ दरस तव पायउँ॥
देखि परम पावन तव आश्रम।
गयउ मोह संसय नाना भ्रम॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे तात! सुनिये, मैं जिस कारणसे आया था, वह सब कार्य तो यहाँ आते ही पूरा हो गया। फिर आपके दर्शन भी प्राप्त हो गये। आपका परम पवित्र आश्रम देखकर ही मेरा मोह, सन्देह और अनेक प्रकारके भ्रम सब जाते रहे॥ १॥

मूल (चौपाई)

अब श्रीराम कथा अति पावनि।
सदा सुखद दुख पुंज नसावनि॥
सादर तात सुनावहु मोही।
बार बार बिनवउँ प्रभु तोही॥

अनुवाद (हिन्दी)

अब हे तात! आप मुझे श्रीरामजीकी अत्यन्त पवित्र करनेवाली, सदा सुख देनेवाली और दुःखसमूहका नाश करनेवाली कथा आदरसहित सुनाइये। हे प्रभो! मैं बार-बार आपसे यही विनती करता हूँ॥ २॥

मूल (चौपाई)

सुनत गरुड़ कै गिरा बिनीता।
सरल सुप्रेम सुखद सुपुनीता॥
भयउ तासु मन परम उछाहा।
लाग कहै रघुपति गुन गाहा॥

अनुवाद (हिन्दी)

गरुड़जीकी विनम्र, सरल, सुन्दर प्रेमयुक्त, सुखप्रद और अत्यन्त पवित्र वाणी सुनते ही भुशुण्डिजीके मनमें परम उत्साह हुआ और वे श्रीरघुनाथजीके गुणोंकी कथा कहने लगे॥ ३॥

मूल (चौपाई)

प्रथमहिं अति अनुराग भवानी।
रामचरित सर कहेसि बखानी॥
पुनि नारद कर मोह अपारा।
कहेसि बहुरि रावन अवतारा॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे भवानी! पहले तो उन्होंने बड़े ही प्रेमसे रामचरितमानस सरोवरका रूपक समझाकर कहा। फिर नारदजीका अपार मोह और फिर रावणका अवतार कहा॥ ४॥

मूल (चौपाई)

प्रभु अवतार कथा पुनि गाई।
तब सिसु चरित कहेसि मन लाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर प्रभुके अवतारकी कथा वर्णन की। तदनन्तर मन लगाकर श्रीरामजीकी बाललीलाएँ कहीं॥ ५॥

दोहा

मूल (दोहा)

बालचरित कहि बिबिधि बिधि मन महँ परम उछाह।
रिषि आगवन कहेसि पुनि श्रीरघुबीर बिबाह॥ ६४॥

अनुवाद (हिन्दी)

मनमें परम उत्साह भरकर अनेकों प्रकारकी बाललीलाएँ कहकर, फिर ऋषि विश्वामित्रजीका अयोध्या आना और श्रीरघुवीरजीका विवाह वर्णन किया॥ ६४॥

मूल (चौपाई)

बहुरि राम अभिषेक प्रसंगा।
पुनि नृप बचन राज रस भंगा॥
पुरबासिन्ह कर बिरह बिषादा।
कहेसि राम लछिमन संबादा॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर श्रीरामजीके राज्याभिषेकका प्रसङ्ग, फिर राजा दशरथजीके वचनसे राजरस (राज्याभिषेकके आनन्द)में भङ्ग पड़ना, फिर नगरनिवासियोंका विरह, विषाद और श्रीराम-लक्ष्मणका संवाद (बातचीत) कहा॥ १॥

मूल (चौपाई)

बिपिन गवन केवट अनुरागा।
सुरसरि उतरि निवास प्रयागा॥
बालमीक प्रभु मिलन बखाना।
चित्रकूट जिमि बसे भगवाना॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरामका वनगमन, केवटका प्रेम, गङ्गाजीसे पार उतरकर प्रयागमें निवास, वाल्मीकिजी और प्रभु श्रीरामजीका मिलन और जैसे भगवान् चित्रकूटमें बसे, वह सब कहा॥ २॥

मूल (चौपाई)

सचिवागवन नगर नृप मरना।
भरतागवन प्रेम बहु बरना॥
करि नृप क्रिया संग पुरबासी।
भरत गए जहँ प्रभु सुख रासी॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर मन्त्री सुमन्त्रजीका नगरमें लौटना, राजा दशरथजीका मरण, भरतजीका (ननिहालसे) अयोध्यामें आना और उनके प्रेमका बहुत वर्णन किया। राजाकी अन्त्येष्टि क्रिया करके नगरनिवासियोंको साथ लेकर भरतजी वहाँ गये जहाँ सुखकी राशि प्रभु श्रीरामचन्द्रजी थे॥ ३॥

मूल (चौपाई)

पुनि रघुपति बहु बिधि समुझाए।
लै पादुका अवधपुर आए॥
भरत रहनि सुरपति सुत करनी।
प्रभु अरु अत्रि भेंट पुनि बरनी॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर श्रीरघुनाथजीने उनको बहुत प्रकारसे समझाया, जिससे वे खड़ाऊँ लेकर अयोध्यापुरी लौट आये, यह सब कथा कही। भरतजीकी नन्दिग्राममें रहनेकी रीति, इन्द्रपुत्र जयन्तकी नीच करनी और फिर प्रभु श्रीरामचन्द्रजी और अत्रिजीका मिलाप वर्णन किया॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

कहि बिराध बध जेहि बिधि देह तजी सरभंग।
बरनि सुतीछन प्रीति पुनि प्रभु अगस्ति सतसंग॥ ६५॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिस प्रकार विराधका वध हुआ और शरभंगजीने शरीर त्याग किया, वह प्रसंग कहकर, फिर सुतीक्ष्णजीका प्रेम वर्णन करके प्रभु और अगस्त्यजीका सत्संग-वृत्तान्त कहा॥ ६५॥

मूल (चौपाई)

कहि दंडक बन पावनताई।
गीध मइत्री पुनि तेहिं गाई॥
पुनि प्रभु पंचबटीं कृत बासा।
भंजी सकल मुनिन्ह की त्रासा॥

अनुवाद (हिन्दी)

दण्डकवनका पवित्र करना कहकर फिर भुशुण्डिजीने गृध्रराजके साथ मित्रताका वर्णन किया। फिर जिस प्रकार प्रभुने पञ्चवटीमें निवास किया और सब मुनियोंके भयका नाश किया,॥ १॥

मूल (चौपाई)

पुनि लछिमन उपदेस अनूपा।
सूपनखा जिमि कीन्हि कुरूपा॥
खर दूषन बध बहुरि बखाना।
जिमि सब मरमु दसानन जाना॥

अनुवाद (हिन्दी)

और फिर जैसे लक्ष्मणजीको अनुपम उपदेश दिया और शूर्पणखाको कुरूप किया, वह सब वर्णन किया। फिर खर-दूषण-वध और जिस प्रकार रावणने सब समाचार जाना, वह बखानकर कहा,॥ २॥

मूल (चौपाई)

दसकंधर मारीच बतकही।
जेहि बिधि भई सो सब तेहिं कही॥
पुनि माया सीता कर हरना।
श्रीरघुबीर बिरह कछु बरना॥

अनुवाद (हिन्दी)

तथा जिस प्रकार रावण और मारीचकी बातचीत हुई, वह सब उन्होंने कही। फिर मायासीताका हरण और श्रीरघुवीरके विरहका कुछ वर्णन किया॥ ३॥

मूल (चौपाई)

पुनि प्रभु गीध क्रिया जिमि कीन्ही।
बधि कबंध सबरिहि गति दीन्ही॥
बहुरि बिरह बरनत रघुबीरा।
जेहि बिधि गए सरोबर तीरा॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर प्रभुने गिद्ध जटायुकी जिस प्रकार क्रिया की, कबन्धका वध करके शबरीको परमगति दी और फिर जिस प्रकार विरह-वर्णन करते हुए श्रीरघुवीरजी पंपासरके तीरपर गये, वह सब कहा॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

प्रभु नारद संबाद कहि मारुति मिलन प्रसंग।
पुनि सुग्रीव मिताई बालि प्रान कर भंग॥ ६६(क)॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रभु और नारदजीका संवाद और मारुतिके मिलनेका प्रसंग कहकर फिर सुग्रीवसे मित्रता और बालिके प्राणनाशका वर्णन किया॥ ६६(क)॥

मूल (दोहा)

कपिहि तिलक करि प्रभु कृत सैल प्रबरषन बास।
बरनन बर्षा सरद अरु राम रोष कपि त्रास॥ ६६(ख)॥

अनुवाद (हिन्दी)

सुग्रीवका राजतिलक करके प्रभुने प्रवर्षण पर्वतपर निवास किया, वह तथा वर्षा और शरद्का वर्णन, श्रीरामजीका सुग्रीवपर रोष और सुग्रीवका भय आदि प्रसंग कहे॥ ६६(ख)॥

मूल (चौपाई)

जेहि बिधि कपिपति कीस पठाए।
सीता खोज सकल दिसि धाए॥
बिबर प्रबेस कीन्ह जेहि भाँती।
कपिन्ह बहोरि मिला संपाती॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिस प्रकार वानरराज सुग्रीवने वानरोंको भेजा और वे सीताजीकी खोजमें जिस प्रकार सब दिशाओंमें गये, जिस प्रकार उन्होंने बिलमें प्रवेश किया और फिर जैसे वानरोंको सम्पाती मिला, वह कथा कही॥ १॥

मूल (चौपाई)

सुनि सब कथा समीरकुमारा।
नाघत भयउ पयोधि अपारा॥
लंकाँ कपि प्रबेस जिमि कीन्हा।
पुनि सीतहि धीरजु जिमि दीन्हा॥

अनुवाद (हिन्दी)

संपातीसे सब कथा सुनकर पवनपुत्र हनुमान् जी जिस तरह अपार समुद्रको लाँघ गये, फिर हनुमान् जी ने जैसे लङ्कामें प्रवेश किया और फिर जैसे सीताजीको धीरज दिया, सो सब कहा॥ २॥

मूल (चौपाई)

बन उजारि रावनहि प्रबोधी।
पुर दहि नाघेउ बहुरि पयोधी॥
आए कपि सब जहँ रघुराई।
बैदेही की कुसल सुनाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

अशोकवनको उजाड़कर, रावणको समझाकर, लङ्कापुरीको जलाकर फिर जैसे उन्होंने समुद्रको लाँघा और जिस प्रकार सब वानर वहाँ आये जहाँ श्रीरघुनाथजी थे और आकर श्रीजानकीजीकी कुशल सुनायी,॥ ३॥

मूल (चौपाई)

सेन समेति जथा रघुबीरा।
उतरे जाइ बारिनिधि तीरा॥
मिला बिभीषन जेहि बिधि आई।
सागर निग्रह कथा सुनाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर जिस प्रकार सेनासहित श्रीरघुवीर जाकर समुद्रके तटपर उतरे और जिस प्रकार विभीषणजी आकर उनसे मिले, वह सब और समुद्रके बाँधनेकी कथा उसने सुनायी॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

सेतु बाँधि कपि सेन जिमि उतरी सागर पार।
गयउ बसीठी बीरबर जेहि बिधि बालिकुमार॥ ६७(क)॥

अनुवाद (हिन्दी)

पुल बाँधकर जिस प्रकार वानरोंकी सेना समुद्रके पार उतरी और जिस प्रकार वीरश्रेष्ठ बालिपुत्र अंगद दूत बनकर गये, वह सब कहा॥ ६७(क)॥

मूल (दोहा)

निसिचर कीस लराई बरनिसि बिबिध प्रकार।
कुंभकरन घननाद कर बल पौरुष संघार॥ ६७(ख)॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर राक्षसों और वानरोंके युद्धका अनेकों प्रकारसे वर्णन किया। फिर कुम्भकर्ण और मेघनादके बल, पुरुषार्थ और संहारकी कथा कही॥ ६७(ख)॥

मूल (चौपाई)

निसिचर निकर मरन बिधि नाना।
रघुपति रावन समर बखाना॥
रावन बध मंदोदरि सोका।
राज बिभीषन देव असोका॥

अनुवाद (हिन्दी)

नाना प्रकारके राक्षससमूहोंके मरण तथा श्रीरघुनाथजी और रावणके अनेक प्रकारके युद्धका वर्णन किया। रावणवध, मन्दोदरीका शोक, विभीषणका राज्याभिषेक और देवताओंका शोकरहित होना कहकर,॥ १॥

मूल (चौपाई)

सीता रघुपति मिलन बहोरी।
सुरन्ह कीन्हि अस्तुति कर जोरी॥
पुनि पुष्पक चढ़ि कपिन्ह समेता।
अवध चले प्रभु कृपा निकेता॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर सीताजी और श्रीरघुनाथजीका मिलाप कहा। जिस प्रकार देवताओंने हाथ जोड़कर स्तुति की और फिर जैसे वानरोंसमेत पुष्पकविमानपर चढ़कर कृपाधाम प्रभु अवधपुरीको चले, वह कहा॥ २॥

मूल (चौपाई)

जेहि बिधि राम नगर निज आए।
बायस बिसद चरित सब गाए॥
कहेसि बहोरि राम अभिषेका।
पुर बरनत नृपनीति अनेका॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिस प्रकार श्रीरामचन्द्रजी अपने नगर (अयोध्या) में आये, वे सब उज्ज्वल चरित्र काकभुशुण्डिजीने विस्तारपूर्वक वर्णन किये। फिर उन्होंने श्रीरामजीका राज्याभिषेक कहा। (शिवजी कहते हैं—) अयोध्यापुरीका और अनेक प्रकारकी राजनीतिका वर्णन करते हुए—॥ ३॥

मूल (चौपाई)

कथा समस्त भुसुंड बखानी।
जो मैं तुम्ह सन कही भवानी॥
सुनि सब राम कथा खगनाहा।
कहत बचन मन परम उछाहा॥

अनुवाद (हिन्दी)

भुशुण्डिजीने वह सब कथा कही जो हे भवानी! मैंने तुमसे कही। सारी रामकथा सुनकर पक्षिराज गरुड़जी मनमें बहुत उत्साहित (आनन्दित) होकर वचन कहने लगे—॥ ४॥

सोरठा

मूल (दोहा)

गयउ मोर संदेह सुनेउँ सकल रघुपति चरित।
भयउ राम पद नेह तव प्रसाद बायस तिलक॥ ६८(क)॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरघुनाथजीके सब चरित्र मैंने सुने, जिससे मेरा सन्देह जाता रहा। हे काकशिरोमणि! आपके अनुग्रहसे श्रीरामजीके चरणोंमें मेरा प्रेम हो गया॥ ६८(क)॥

मूल (दोहा)

मोहि भयउ अति मोह प्रभु बंधन रन महुँ निरखि।
चिदानंद संदोह राम बिकल कारन कवन॥ ६८(ख)॥

अनुवाद (हिन्दी)

युद्धमें प्रभुका नागपाशसे बन्धन देखकर मुझे अत्यन्त मोह हो गया था कि श्रीरामजी तो सच्चिदानन्दघन हैं, वे किस कारण व्याकुल हैं॥ ६८(ख)॥

मूल (चौपाई)

देखि चरित अति नर अनुसारी।
भयउ हृदयँ मम संसय भारी॥
सोइ भ्रम अब हित करि मैं माना।
कीन्ह अनुग्रह कृपानिधाना॥

अनुवाद (हिन्दी)

बिलकुल ही लौकिक मनुष्योंका-सा चरित्र देखकर मेरे हृदयमें भारी सन्देह हो गया। मैं अब उस भ्रम (सन्देह) को अपने लिये हित करके समझता हूँ। कृपानिधानने मुझपर यह बड़ा अनुग्रह किया॥ १॥

मूल (चौपाई)

जो अति आतप ब्याकुल होई।
तरु छाया सुख जानइ सोई॥
जौं नहिं होत मोह अति मोही।
मिलतेउँ तात कवन बिधि तोही॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो धूपसे अत्यन्त व्याकुल होता है, वही वृक्षकी छायाका सुख जानता है। हे तात! यदि मुझे अत्यन्त मोह न होता तो मैं आपसे किस प्रकार मिलता?॥ २॥

मूल (चौपाई)

सुनतेउँ किमि हरि कथा सुहाई।
अति बिचित्र बहु बिधि तुम्ह गाई॥
निगमागम पुरान मत एहा।
कहहिं सिद्ध मुनि नहिं संदेहा॥

अनुवाद (हिन्दी)

और कैसे अत्यन्त विचित्र यह सुन्दर हरिकथा सुनता; जो आपने बहुत प्रकारसे गायी है? वेद, शास्त्र और पुराणोंका यही मत है; सिद्ध और मुनि भी यही कहते हैं, इसमें सन्देह नहीं कि—॥ ३॥

मूल (चौपाई)

संत बिसुद्ध मिलहिं परि तेही।
चितवहिं राम कृपा करि जेही॥
राम कृपाँ तव दरसन भयऊ।
तव प्रसाद सब संसय गयऊ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शुद्ध (सच्चे) संत उसीको मिलते हैं जिसे श्रीरामजी कृपा करके देखते हैं। श्रीरामजीकी कृपासे मुझे आपके दर्शन हुए और आपकी कृपासे मेरा सन्देह चला गया॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

सुनि बिहंगपति बानी सहित बिनय अनुराग।
पुलक गात लोचन सजल मन हरषेउ अति काग॥ ६९(क)॥

अनुवाद (हिन्दी)

पक्षिराज गरुड़जीकी विनय और प्रेमयुक्त वाणी सुनकर काकभुशुण्डिजीका शरीर पुलकित हो गया, उनके नेत्रोंमें जल भर आया और वे मनमें अत्यन्त हर्षित हुए॥ ६९(क)॥

मूल (दोहा)

श्रोता सुमति सुसील सुचि कथा रसिक हरिदास।
पाइ उमा अति गोप्यमपि सज्जन करहिं प्रकास॥ ६९(ख)॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे उमा! सुन्दर बुद्धिवाले, सुशील, पवित्र कथाके प्रेमी और हरिके सेवक श्रोताको पाकर सज्जन अत्यन्त गोपनीय (सबके सामने प्रकट न करनेयोग्य) रहस्यको भी प्रकट कर देते हैं॥ ६९(ख)॥

मूल (चौपाई)

बोलेउ काकभसुंड बहोरी।
नभग नाथ पर प्रीति न थोरी॥
सब बिधि नाथ पूज्य तुम्ह मेरे।
कृपापात्र रघुनायक केरे॥

अनुवाद (हिन्दी)

काकभुशुण्डिजीने फिर कहा—पक्षिराजपर उनका प्रेम कम न था (अर्थात् बहुत था)—हे नाथ! आप सब प्रकारसे मेरे पूज्य हैं और श्रीरघुनाथजीके कृपापात्र हैं॥ १॥

मूल (चौपाई)

तुम्हहि न संसय मोह न माया।
मो पर नाथ कीन्हि तुम्ह दाया॥
पठइ मोह मिस खगपति तोही।
रघुपति दीन्हि बड़ाई मोही॥

अनुवाद (हिन्दी)

आपको न सन्देह है और न मोह अथवा माया ही है। हे नाथ! आपने तो मुझपर दया की है। हे पक्षिराज! मोहके बहाने श्रीरघुनाथजीने आपको यहाँ भेजकर मुझे बड़ाई दी है॥ २॥

मूल (चौपाई)

तुम्ह निज मोह कही खगसाईं।
सो नहिं कछु आचरज गोसाईं॥
नारद भव बिरंचि सनकादी।
जे मुनिनायक आतमबादी॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे पक्षियोंके स्वामी! आपने अपना मोह कहा, सो हे गोसाईं! यह कुछ आश्चर्य नहीं है। नारदजी, शिवजी, ब्रह्माजी और सनकादि जो आत्मतत्त्वके मर्मज्ञ और उसका उपदेश करनेवाले श्रेष्ठ मुनि हैं॥ ३॥

मूल (चौपाई)

मोह न अंध कीन्ह केहि केही।
को जग काम नचाव न जेही॥
तृस्नाँ केहि न कीन्ह बौराहा।
केहि कर हृदय क्रोध नहिं दाहा॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनमेंसे भी किस-किसको मोहने अंधा (विवेकशून्य) नहीं किया? जगत् में ऐसा कौन है जिसे कामने न नचाया हो? तृष्णाने किसको मतवाला नहीं बनाया? क्रोधने किसका हृदय नहीं जलाया?॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

ग्यानी तापस सूर कबि कोबिद गुन आगार।
केहि कै लोभ बिडंबना कीन्हि न एहिं संसार॥ ७०(क)॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस संसारमें ऐसा कौन ज्ञानी, तपस्वी, शूरवीर, कवि, विद्वान् और गुणोंका धाम है, जिसकी लोभने विडम्बना (मिट्टी पलीद) न की हो॥ ७०(क)॥

मूल (दोहा)

श्रीमद बक्र न कीन्ह केहि प्रभुता बधिर न काहि।
मृगलोचनि के नैन सर को अस लाग न जाहि॥ ७०(ख)॥

अनुवाद (हिन्दी)

लक्ष्मीके मदने किसको टेढ़ा और प्रभुताने किसको बहरा नहीं कर दिया? ऐसा कौन है, जिसे मृगनयनी (युवती स्त्री) के नेत्र-बाण न लगे हों?॥ ७०(ख)॥

मूल (चौपाई)

गुन कृत सन्यपात नहिं केही।
कोउ न मान मद तजेउ निबेही॥
जोबन ज्वर केहि नहिं बलकावा।
ममता केहि कर जस न नसावा॥

अनुवाद (हिन्दी)

(रज, तम आदि) गुणोंका किया हुआ सन्निपात किसे नहीं हुआ? ऐसा कोई नहीं है जिसे मान और मदने अछूता छोड़ा हो। यौवनके ज्वरने किसे आपेसे बाहर नहीं किया? ममताने किसके यशका नाश नहीं किया?॥ १॥

मूल (चौपाई)

मच्छर काहि कलंक न लावा।
काहि न सोक समीर डोलावा॥
चिंता साँपिनि को नहिं खाया।
को जग जाहि न ब्यापी माया॥

अनुवाद (हिन्दी)

मत्सर (डाह) ने किसको कलङ्क नहीं लगाया? शोकरूपी पवनने किसे नहीं हिला दिया? चिन्तारूपी साँपिनने किसे नहीं खा लिया? जगत् में ऐसा कौन है, जिसे माया न व्यापी हो?॥ २॥

मूल (चौपाई)

कीट मनोरथ दारु सरीरा।
जेहि न लाग घुन को अस धीरा॥
सुत बित लोक ईषना तीनी।
केहि कै मति इन्ह कृत न मलीनी॥

अनुवाद (हिन्दी)

मनोरथ कीड़ा है, शरीर लकड़ी है। ऐसा धैर्यवान् कौन है, जिसके शरीरमें यह कीड़ा न लगा हो? पुत्रकी, धनकी और लोकप्रतिष्ठाकी इन तीन प्रबल इच्छाओंने किसकी बुद्धिको मलिन नहीं कर दिया (बिगाड़ नहीं दिया)?॥ ३॥

मूल (चौपाई)

यह सब माया कर परिवारा।
प्रबल अमिति को बरनै पारा॥
सिव चतुरानन जाहि डेराहीं।
अपर जीव केहि लेखे माहीं॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह सब मायाका बड़ा बलवान् परिवार है। यह अपार है, इसका वर्णन कौन कर सकता है? शिवजी और ब्रह्माजी भी जिससे डरते हैं, तब दूसरे जीव तो किस गिनतीमें हैं?॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

ब्यापि रहेउ संसार महुँ माया कटक प्रचंड।
सेनापति कामादि भट दंभ कपट पाषंड॥ ७१(क)॥

अनुवाद (हिन्दी)

मायाकी प्रचण्ड सेना संसारभरमें छायी हुई है। कामादि (काम, क्रोध और लोभ) उसके सेनापति हैं और दम्भ, कपट और पाखण्ड योद्धा हैं॥ ७१(क)॥

मूल (दोहा)

सो दासी रघुबीर कै समुझें मिथ्या सोपि।
छूट न राम कृपा बिनु नाथ कहउँ पद रोपि॥ ७१(ख)॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह माया श्रीरघुवीरकी दासी है। यद्यपि समझ लेनेपर वह मिथ्या ही है, किन्तु वह श्रीरामजीकी कृपाके बिना छूटती नहीं। हे नाथ! यह मैं प्रतिज्ञा करके कहता हूँ॥ ७१(ख)॥

मूल (चौपाई)

जो माया सब जगहि नचावा।
जासु चरित लखि काहुँ न पावा॥
सोइ प्रभु भ्रू बिलास खगराजा।
नाच नटी इव सहित समाजा॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो माया सारे जगत् को नचाती है और जिसका चरित्र (करनी) किसीने नहीं लख पाया, हे खगराज गरुड़जी! वही माया प्रभु श्रीरामचन्द्रजीकी भ्रुकुटीके इशारेपर अपने समाज (परिवार) सहित नटीकी तरह नाचती है॥ १॥

मूल (चौपाई)

सोइ सच्चिदानंद घन रामा।
अज बिग्यान रूप बल धामा॥
ब्यापक ब्याप्य अखंड अनंता।
अखिल अमोघसक्ति भगवंता॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरामजी वही सच्चिदानन्दघन हैं जो अजन्मा, विज्ञानस्वरूप, रूप और बलके धाम, सर्वव्यापक एवं व्याप्य (सर्वरूप), अखण्ड, अनन्त, सम्पूर्ण, अमोघशक्ति (जिसकी शक्ति कभी व्यर्थ नहीं होती) और छः ऐश्वर्योंसे युक्त भगवान् हैं॥ २॥

मूल (चौपाई)

अगुन अदभ्र गिरा गोतीता।
सबदरसी अनवद्य अजीता॥
निर्मम निराकार निरमोहा।
नित्य निरंजन सुख संदोहा॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे निर्गुण (मायाके गुणोंसे रहित), महान्, वाणी और इन्द्रियोंसे परे, सब कुछ देखनेवाले, निर्दोष, अजेय, ममतारहित, निराकार (मायिक आकारसे रहित), मोहरहित, नित्य, मायारहित, सुखकी राशि,॥ ३॥

मूल (चौपाई)

प्रकृति पार प्रभु सब उर बासी।
ब्रह्म निरीह बिरज अबिनासी॥
इहाँ मोह कर कारन नाहीं।
रबि सन्मुख तम कबहुँ कि जाहीं॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रकृतिसे परे, प्रभु (सर्वसमर्थ), सदा सबके हृदयमें बसनेवाले, इच्छारहित, विकाररहित, अविनाशी ब्रह्म हैं। यहाँ (श्रीराममें) मोहका कारण ही नहीं है। क्या अन्धकारका समूह कभी सूर्यके सामने जा सकता है?॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

भगत हेतु भगवान प्रभु राम धरेउ तनु भूप।
किए चरित पावन परम प्राकृत नर अनुरूप॥ ७२(क)॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् प्रभु श्रीरामचन्द्रजीने भक्तोंके लिये राजाका शरीर धारण किया और साधारण मनुष्योंके-से अनेकों परम पावन चरित्र किये॥ ७२(क)॥

मूल (दोहा)

जथा अनेक बेष धरि नृत्य करइ नट कोइ।
सोइ सोइ भाव देखावइ आपुन होइ न सोइ॥ ७२(ख)॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे कोई नट (खेल करनेवाला) अनेक वेष धारण करके नृत्य करता है, और वही-वही (जैसा वेष होता है, उसीके अनुकूल) भाव दिखलाता है, पर स्वयं वह उनमेंसे कोई हो नहीं जाता,॥ ७२(ख)॥

मूल (चौपाई)

असि रघुपति लीला उरगारी।
दनुज बिमोहनि जन सुखकारी॥
जे मति मलिन बिषयबस कामी।
प्रभु पर मोह धरहिं इमि स्वामी॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे गरुड़जी! ऐसी ही श्रीरघुनाथजीकी यह लीला है, जो राक्षसोंको विशेष मोहित करनेवाली और भक्तोंको सुख देनेवाली है। हे स्वामी! जो मनुष्य मलिनबुद्धि, विषयोंके वश और कामी हैं, वे ही प्रभुपर इस प्रकार मोहका आरोप करते हैं॥ १॥

मूल (चौपाई)

नयन दोष जा कहँ जब होई।
पीत बरन ससि कहुँ कह सोई॥
जब जेहि दिसि भ्रम होइ खगेसा।
सो कह पच्छिम उयउ दिनेसा॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब जिसको (कवँल आदि) नेत्रदोष होता है, तब वह चन्द्रमाको पीले रंगका कहता है। हे पक्षिराज! जब जिसे दिशाभ्रम होता है, तब वह कहता है कि सूर्य पश्चिममें उदय हुआ है॥ २॥

मूल (चौपाई)

नौकारूढ़ चलत जग देखा।
अचल मोहबस आपुहि लेखा॥
बालक भ्रमहिं न भ्रमहिं गृहादी।
कहहिं परस्पर मिथ्याबादी॥

अनुवाद (हिन्दी)

नौकापर चढ़ा हुआ मनुष्य जगत् को चलता हुआ देखता है और मोहवश अपनेको अचल समझता है। बालक घूमते (चक्राकार दौड़ते) हैं, घर आदि नहीं घूमते। पर वे आपसमें एक-दूसरेको झूठा कहते हैं॥ ३॥

मूल (चौपाई)

हरि बिषइक अस मोह बिहंगा।
सपनेहुँ नहिं अग्यान प्रसंगा॥
मायाबस मतिमंद अभागी।
हृदयँ जमनिका बहुबिधि लागी॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे गरुड़जी! श्रीहरिके विषयमें मोहकी कल्पना भी ऐसी ही है, भगवान् में तो स्वप्नमें भी अज्ञानका प्रसंग (अवसर) नहीं है। किन्तु जो मायाके वश, मन्दबुद्धि और भाग्यहीन हैं और जिनके हृदयपर अनेकों प्रकारके परदे पड़े हैं,॥ ४॥

मूल (चौपाई)

ते सठ हठ बस संसय करहीं।
निज अग्यान राम पर धरहीं॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे मूर्ख हठके वश होकर सन्देह करते हैं और अपना अज्ञान श्रीरामजीपर आरोपित करते हैं॥ ५॥

दोहा

मूल (दोहा)

काम क्रोध मद लोभ रत गृहासक्त दुखरूप।
ते किमि जानहिं रघुपतिहि मूढ़ परे तम कूप॥ ७३(क)॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो काम, क्रोध, मद और लोभमें रत हैं और दुःखरूप घरमें आसक्त हैं, वे श्रीरघुनाथजीको कैसे जान सकते हैं? वे मूर्ख तो अन्धकाररूपी कुएँमें पड़े हुए हैं॥ ७३(क)॥

मूल (दोहा)

निर्गुन रूप सुलभ अति सगुन जान नहिं कोइ।
सुगम अगम नाना चरित सुनि मुनि मन भ्रम होइ॥ ७३(ख)॥

अनुवाद (हिन्दी)

निर्गुण रूप अत्यन्त सुलभ (सहज ही समझमें आ जानेवाला) है, परन्तु (गुणातीत दिव्य) सगुण रूपको कोई नहीं जानता। इसलिये उन सगुण भगवान् के अनेक प्रकारके सुगम और अगम चरित्रोंको सुनकर मुनियोंके भी मनको भ्रम हो जाता है॥ ७३(ख)॥

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