१० श्रीराम-वसिष्ठ-संवाद, श्रीरामजीका भाइयोंसहित अमराईमें जाना

मूल (चौपाई)

एक बार बसिष्ट मुनि आए।
जहाँ राम सुखधाम सुहाए॥
अति आदर रघुनायक कीन्हा।
पद पखारि पादोदक लीन्हा॥

अनुवाद (हिन्दी)

एक बार मुनि वसिष्ठजी वहाँ आये जहाँ सुन्दर सुखके धाम श्रीरामजी थे। श्रीरघुनाथजीने उनका बहुत ही आदर-सत्कार किया और उनके चरण धोकर चरणामृत लिया॥ १॥

मूल (चौपाई)

राम सुनहु मुनि कह कर जोरी।
कृपासिंधु बिनती कछु मोरी॥
देखि देखि आचरन तुम्हारा।
होत मोह मम हृदयँ अपारा॥

अनुवाद (हिन्दी)

मुनिने हाथ जोड़कर कहा—हे कृपासागर श्रीरामजी! मेरी कुछ विनती सुनिये! आपके आचरणों (मनुष्योचित चरित्रों) को देख-देखकर मेरे हृदयमें अपार मोह (भ्रम) होता है॥ २॥

मूल (चौपाई)

महिमा अमिति बेद नहिं जाना।
मैं केहि भाँति कहउँ भगवाना॥
उपरोहित्य कर्म अति मंदा।
बेद पुरान सुमृति कर निंदा॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे भगवन्! आपकी महिमाकी सीमा नहीं है, उसे वेद भी नहीं जानते। फिर मैं किस प्रकार कह सकता हूँ? पुरोहितीका कर्म (पेशा) बहुत ही नीचा है। वेद, पुराण और स्मृति सभी इसकी निन्दा करते हैं॥ ३॥

मूल (चौपाई)

जब न लेउँ मैं तब बिधि मोही।
कहा लाभ आगें सुत तोही॥
परमातमा ब्रह्म नर रूपा।
होइहि रघुकुल भूषन भूपा॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब मैं उसे (सूर्यवंशकी पुरोहितीका काम) नहीं लेता था, तब ब्रह्माजीने मुझे कहा था—हे पुत्र! इससे तुमको आगे चलकर बहुत लाभ होगा। स्वयं ब्रह्म परमात्मा मनुष्यरूप धारण कर रघुकुलके भूषण राजा होंगे॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

तब मैं हृदयँ बिचारा जोग जग्य ब्रत दान।
जा कहुँ करिअ सो पैहउँ धर्म न एहि सम आन॥ ४८॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब मैंने हृदयमें विचार किया कि जिसके लिये योग, यज्ञ, व्रत और दान किये जाते हैं, उसे मैं इसी कर्मसे पा जाऊँगा; तब तो इसके समान दूसरा कोई धर्म ही नहीं है॥ ४८॥

मूल (चौपाई)

जप तप नियम जोग निज धर्मा।
श्रुति संभव नाना सुभ कर्मा॥
ग्यान दया दम तीरथ मज्जन।
जहँ लगि धर्म कहत श्रुति सज्जन॥

अनुवाद (हिन्दी)

जप, तप, नियम, योग, अपने-अपने (वर्णाश्रमके) धर्म, श्रुतियोंसे उत्पन्न (वेदविहित) बहुत-से शुभ कर्म, ज्ञान, दया, दम (इन्द्रियनिग्रह), तीर्थस्नान आदि जहाँतक वेद और संतजनोंने धर्म कहे हैं (उनके करनेका)—॥ १॥

मूल (चौपाई)

आगम निगम पुरान अनेका।
पढ़े सुने कर फल प्रभु एका॥
तव पद पंकज प्रीति निरंतर।
सब साधन कर यह फल सुंदर॥

अनुवाद (हिन्दी)

(तथा) हे प्रभो! अनेक तन्त्र, वेद और पुराणोंके पढ़ने और सुननेका सर्वोत्तम फल एक ही है और सब साधनोंका भी यही एक सुन्दर फल है कि आपके चरणकमलोंमें सदा-सर्वदा प्रेम हो॥ २॥

मूल (चौपाई)

छूटइ मल कि मलहि के धोएँ।
घृत कि पाव कोइ बारि बिलोएँ॥
प्रेम भगति जल बिनु रघुराई।
अभिअंतर मल कबहुँ न जाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैलसे धोनेसे क्या मैल छूटता है? जलके मथनेसे क्या कोई घी पा सकता है? (उसी प्रकार) हे रघुनाथजी! प्रेम-भक्तिरूपी (निर्मल) जलके बिना अन्तःकरणका मल कभी नहीं जाता॥ ३॥

मूल (चौपाई)

सोइ सर्बग्य तग्य सोइ पंडित।
सोइ गुन गृह बिग्यान अखंडित॥
दच्छ सकल लच्छन जुत सोई।
जाकें पद सरोज रति होई॥

अनुवाद (हिन्दी)

वही सर्वज्ञ है, वही तत्त्वज्ञ और पण्डित है, वही गुणोंका घर और अखण्ड विज्ञानवान् है; वही चतुर और सब सुलक्षणोंसे युक्त है, जिसका आपके चरणकमलोंमें प्रेम है॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

नाथ एक बर मागउँ राम कृपा करि देहु।
जन्म जन्म प्रभु पद कमल कबहुँ घटै जनि नेहु॥ ४९॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे नाथ! हे श्रीरामजी! मैं आपसे एक वर माँगता हूँ, कृपा करके दीजिये। प्रभु (आप) के चरणकमलोंमें मेरा प्रेम जन्म-जन्मान्तरमें भी कभी न घटे॥ ४९॥

मूल (चौपाई)

अस कहि मुनि बसिष्ट गृह आए।
कृपासिंधु के मन अति भाए॥
हनूमान भरतादिक भ्राता।
संग लिए सेवक सुखदाता॥

अनुवाद (हिन्दी)

ऐसा कहकर मुनि वसिष्ठजी घर आये। वे कृपासागर श्रीरामजीके मनको बहुत ही अच्छे लगे। तदनन्तर सेवकोंको सुख देनेवाले श्रीरामजीने हनुमान् जी तथा भरतजी आदि भाइयोंको साथ लिया॥ १॥

मूल (चौपाई)

पुनि कृपाल पुर बाहेर गए।
गज रथ तुरग मगावत भए॥
देखि कृपा करि सकल सराहे।
दिए उचित जिन्ह जिन्ह तेइ चाहे॥

अनुवाद (हिन्दी)

और फिर कृपालु श्रीरामजी नगरके बाहर गये और वहाँ उन्होंने हाथी, रथ और घोड़े मँगवाये। उन्हें देखकर, कृपा करके प्रभुने सबकी सराहना की और उनको जिस-जिसने चाहा, उस-उसको उचित जानकर दिया॥ २॥

मूल (चौपाई)

हरन सकल श्रम प्रभु श्रम पाई।
गए जहाँ सीतल अवँराई॥
भरत दीन्ह निज बसन डसाई।
बैठे प्रभु सेवहिं सब भाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

संसारके सभी श्रमोंको हरनेवाले प्रभुने (हाथी, घोड़े आदि बाँटनेमें) श्रमका अनुभव किया और (श्रम मिटानेको) वहाँ गये जहाँ शीतल अमराई (आमोंका बगीचा) थी। वहाँ भरतजीने अपना वस्त्र बिछा दिया। प्रभु उसपर बैठ गये और सब भाई उनकी सेवा करने लगे॥ ३॥

मूल (चौपाई)

मारुतसुत तब मारुत करई।
पुलक बपुष लोचन जल भरई॥
हनूमान सम नहिं बड़भागी।
नहिं कोउ राम चरन अनुरागी॥
गिरिजा जासु प्रीति सेवकाई।
बार बार प्रभु निज मुख गाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय पवनपुत्र हनुमान् जी पवन (पंखा) करने लगे। उनका शरीर पुलकित हो गया और नेत्रोंमें (प्रेमाश्रुओंका) जल भर आया। (शिवजी कहने लगे—) हे गिरिजे! हनुमान् जीके समान न तो कोई बड़भागी है और न कोई श्रीरामजीके चरणोंका प्रेमी ही है, जिनके प्रेम और सेवाकी (स्वयं) प्रभुने अपने श्रीमुखसे बार-बार बड़ाई की है॥ ४-५॥

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