०९ श्रीरामजीका प्रजाको उपदेश (श्रीरामगीता), पुरवासियोंकी कृतज्ञता

मूल (चौपाई)

एक बार रघुनाथ बोलाए।
गुर द्विज पुरबासी सब आए॥
बैठे गुर मुनि अरु द्विज सज्जन।
बोले बचन भगत भव भंजन॥

अनुवाद (हिन्दी)

एक बार श्रीरघुनाथजीके बुलाये हुए गुरु वसिष्ठजी, ब्राह्मण और अन्य सब नगरनिवासी सभामें आये। जब गुरु, मुनि, ब्राह्मण तथा अन्य सब सज्जन यथायोग्य बैठ गये, तब भक्तोंके जन्म-मरणको मिटानेवाले श्रीरामजी वचन बोले—॥ १॥

मूल (चौपाई)

सुनहु सकल पुरजन मम बानी।
कहउँ न कछु ममता उर आनी॥
नहिं अनीति नहिं कछु प्रभुताई।
सुनहु करहु जो तुम्हहि सोहाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे समस्त नगरनिवासियो! मेरी बात सुनिये। यह बात मैं हृदयमें कुछ ममता लाकर नहीं कहता हूँ। न अनीतिकी बात कहता हूँ और न इसमें कुछ प्रभुता ही है। इसलिये (संकोच और भय छोड़कर, ध्यान देकर) मेरी बातोंको सुन लो और (फिर) यदि तुम्हें अच्छी लगे, तो उसके अनुसार करो!॥ २॥

मूल (चौपाई)

सोइ सेवक प्रियतम मम सोई।
मम अनुसासन मानै जोई॥
जौं अनीति कछु भाषौं भाई।
तौ मोहि बरजहु भय बिसराई॥

अनुवाद (हिन्दी)

वही मेरा सेवक है और वही प्रियतम है, जो मेरी आज्ञा माने। हे भाई! यदि मैं कुछ अनीतिकी बात कहूँ तो भय भुलाकर (बेखटके) मुझे रोक देना॥ ३॥

मूल (चौपाई)

बड़ें भाग मानुष तनु पावा।
सुर दुर्लभ सब ग्रंथन्हि गावा॥
साधन धाम मोच्छ कर द्वारा।
पाइ न जेहिं परलोक सँवारा॥

अनुवाद (हिन्दी)

बड़े भाग्यसे यह मनुष्यशरीर मिला है। सब ग्रन्थोंने यही कहा है कि यह शरीर देवताओंको भी दुर्लभ है (कठिनतासे मिलता है)। यह साधनका धाम और मोक्षका दरवाजा है। इसे पाकर भी जिसने परलोक न बना लिया,॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

सो परत्र दुख पावइ सिर धुनि धुनि पछिताइ।
कालहि कर्महि ईस्वरहि मिथ्या दोस लगाइ॥ ४३॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह परलोकमें दुःख पाता है, सिर पीट-पीटकर पछताता है तथा (अपना दोष न समझकर) कालपर, कर्मपर और ईश्वरपर मिथ्या दोष लगाता है॥ ४३॥

मूल (चौपाई)

एहि तन कर फल बिषय न भाई।
स्वर्गउ स्वल्प अंत दुखदाई॥
नर तनु पाइ बिषयँ मन देहीं।
पलटि सुधा ते सठ बिष लेहीं॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे भाई! इस शरीरके प्राप्त होनेका फल विषयभोग नहीं है। (इस जगत् के भोगोंकी तो बात ही क्या) स्वर्गका भोग भी बहुत थोड़ा है और अन्तमें दुःख देनेवाला है। अतः जो लोग मनुष्यशरीर पाकर विषयोंमें मन लगा देते हैं, वे मूर्ख अमृतको बदलकर विष ले लेते हैं॥ १॥

मूल (चौपाई)

ताहि कबहुँ भल कहइ न कोई।
गुंजा ग्रहइ परस मनि खोई॥
आकर चारि लच्छ चौरासी।
जोनि भ्रमत यह जिव अबिनासी॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो पारसमणिको खोकर बदलेमें घुँघची ले लेता है, उसको कभी कोई भला (बुद्धिमान्) नहीं कहता। यह अविनाशी जीव (अण्डज, स्वेदज, जरायुज और उद्भिज्ज) चार खानों और चौरासी लाख योनियोंमें चक्कर लगाता रहता है॥ २॥

मूल (चौपाई)

फिरत सदा माया कर प्रेरा।
काल कर्म सुभाव गुन घेरा॥
कबहुँक करि करुना नर देही।
देत ईस बिनु हेतु सनेही॥

अनुवाद (हिन्दी)

मायाकी प्रेरणासे काल, कर्म, स्वभाव और गुणसे घिरा हुआ (इनके वशमें हुआ) यह सदा भटकता रहता है। बिना ही कारण स्नेह करनेवाले ईश्वर कभी विरले ही दया करके इसे मनुष्यका शरीर देते हैं॥ ३॥

मूल (चौपाई)

नर तनु भव बारिधि कहुँ बेरो।
सन्मुख मरुत अनुग्रह मेरो॥
करनधार सदगुर दृढ़ नावा।
दुर्लभ साज सुलभ करि पावा॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह मनुष्यका शरीर भवसागर (से तारने) के लिये बेड़ा (जहाज) है। मेरी कृपा ही अनुकूल वायु है। सद्‍गुरु इस मजबूत जहाजके कर्णधार (खेनेवाले) हैं। इस प्रकार दुर्लभ (कठिनतासे मिलनेवाले) साधन सुलभ होकर (भगवत् कृपासे सहज ही) उसे प्राप्त हो गये हैं,॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

जो न तरै भव सागर नर समाज अस पाइ।
सो कृत निंदक मंदमति आत्माहन गति जाइ॥ ४४॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो मनुष्य ऐसे साधन पाकर भी भवसागरसे न तरे, वह कृतघ्न और मन्द-बुद्धि है और आत्महत्या करनेवालेकी गतिको प्राप्त होता है॥ ४४॥

मूल (चौपाई)

जौं परलोक इहाँ सुख चहहू।
सुनि मम बचन हृदयँ दृढ़ गहहू॥
सुलभ सुखद मारग यह भाई।
भगति मोरि पुरान श्रुति गाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

यदि परलोकमें और यहाँ दोनों जगह सुख चाहते हो, तो मेरे वचन सुनकर उन्हें हृदयमें दृढ़तासे पकड़ रखो। हे भाई! यह मेरी भक्तिका मार्ग सुलभ और सुखदायक है, पुराणों और वेदोंने इसे गाया है॥ १॥

मूल (चौपाई)

ग्यान अगम प्रत्यूह अनेका।
साधन कठिन न मन कहुँ टेका॥
करत कष्ट बहु पावइ कोऊ।
भक्ति हीन मोहि प्रिय नहिं सोऊ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ज्ञान अगम (दुर्गम) है, (और) उसकी प्राप्तिमें अनेकों विघ्न हैं। उसका साधन कठिन है और उसमें मनके लिये कोई आधार नहीं है। बहुत कष्ट करनेपर कोई उसे पा भी लेता है, तो वह भी भक्तिरहित होनेसे मुझको प्रिय नहीं होता॥ २॥

मूल (चौपाई)

भक्ति सुतंत्र सकल सुख खानी।
बिनु सतसंग न पावहिं प्रानी॥
पुन्य पुंज बिनु मिलहिं न संता।
सतसंगति संसृति कर अंता॥

अनुवाद (हिन्दी)

भक्ति स्वतन्त्र है और सब सुखोंकी खान है। परन्तु सत्संग (संतोंके संग) के बिना प्राणी इसे नहीं पा सकते। और पुण्यसमूहके बिना संत नहीं मिलते। सत्संगति ही संसृति (जन्म-मरणके चक्र)का अन्त करती है॥ ३॥

मूल (चौपाई)

पुन्य एक जग महुँ नहिं दूजा।
मन क्रम बचन बिप्र पद पूजा॥
सानुकूल तेहि पर मुनि देवा।
जो तजि कपटु करइ द्विज सेवा॥

अनुवाद (हिन्दी)

जगत् में पुण्य एक ही है, (उसके समान) दूसरा नहीं। वह है—मन, कर्म और वचनसे ब्राह्मणोंके चरणोंकी पूजा करना। जो कपटका त्याग करके ब्राह्मणोंकी सेवा करता है, उसपर मुनि और देवता प्रसन्न रहते हैं॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

औरउ एक गुपुत मत सबहि कहउँ कर जोरि।
संकर भजन बिना नर भगति न पावइ मोरि॥ ४५॥

अनुवाद (हिन्दी)

और भी एक गुप्त मत है, मैं उसे सबसे हाथ जोड़कर कहता हूँ कि शङ्करजीके भजन बिना मनुष्य मेरी भक्ति नहीं पाता॥ ४५॥

मूल (चौपाई)

कहहु भगति पथ कवन प्रयासा।
जोग न मख जप तप उपवासा॥
सरल सुभाव न मन कुटिलाई।
जथा लाभ संतोष सदाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

कहो तो, भक्तिमार्गमें कौन-सा परिश्रम है? इसमें न योगकी आवश्यकता है, न यज्ञ, जप, तप और उपवासकी! (यहाँ इतना ही आवश्यक है कि) सरल स्वभाव हो, मनमें कुटिलता न हो और जो कुछ मिले उसीमें सदा सन्तोष रखे॥ १॥

मूल (चौपाई)

मोर दास कहाइ नर आसा।
करइ तौ कहहु कहा बिस्वासा॥
बहुत कहउँ का कथा बढ़ाई।
एहि आचरन बस्य मैं भाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

मेरा दास कहलाकर यदि कोई मनुष्योंकी आशा करता है, तो तुम्हीं कहो, उसका क्या विश्वास है? (अर्थात् उसकी मुझपर आस्था बहुत ही निर्बल है।) बहुत बात बढ़ाकर क्या कहूँ? हे भाइयो! मैं तो इसी आचरणके वशमें हूँ॥ २॥

मूल (चौपाई)

बैर न बिग्रह आस न त्रासा।
सुखमय ताहि सदा सब आसा॥
अनारंभ अनिकेत अमानी।
अनघ अरोष दच्छ बिग्यानी॥

अनुवाद (हिन्दी)

न किसीसे वैर करे, न लड़ाई-झगड़ा करे, न आशा रखे, न भय ही करे। उसके लिये सभी दिशाएँ सदा सुखमयी हैं। जो कोई भी आरम्भ (फलकी इच्छासे कर्म) नहीं करता, जिसका कोई अपना घर नहीं है (जिसकी घरमें ममता नहीं है), जो मानहीन, पापहीन और क्रोधहीन है, जो (भक्ति करनेमें) निपुण और विज्ञानवान् है॥ ३॥

मूल (चौपाई)

प्रीति सदा सज्जन संसर्गा।
तृन सम बिषय स्वर्ग अपबर्गा॥
भगति पच्छ हठ नहिं सठताई।
दुष्ट तर्क सब दूरि बहाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

संतजनोंके संसर्ग (सत्संग) से जिसे सदा प्रेम है, जिसके मनमें सब विषय यहाँतक कि स्वर्ग और मुक्तितक (भक्तिके सामने) तृणके समान हैं, जो भक्तिके पक्षमें हठ करता है, पर (दूसरेके मतका खण्डन करनेकी) मूर्खता नहीं करता तथा जिसने सब कुतर्कोंको दूर बहा दिया है,॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

मम गुन ग्राम नाम रत गत ममता मद मोह।
ता कर सुख सोइ जानइ परानंद संदोह॥ ४६॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो मेरे गुणसमूहोंके और मेरे नामके परायण है, एवं ममता, मद और मोहसे रहित है, उसका सुख वही जानता है, जो (परमात्मारूप) परमानन्दराशिको प्राप्त है॥ ४६॥

मूल (चौपाई)

सुनत सुधासम बचन राम के।
गहे सबनि पद कृपाधाम के॥
जननि जनक गुर बंधु हमारे।
कृपा निधान प्रान ते प्यारे॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरामचन्द्रजीके अमृतके समान वचन सुनकर सबने कृपाधामके चरण पकड़ लिये (और कहा—) हे कृपानिधान! आप हमारे माता, पिता, गुरु, भाई सब कुछ हैं और प्राणोंसे भी अधिक प्रिय हैं॥ १॥

मूल (चौपाई)

तनु धनु धाम राम हितकारी।
सब बिधि तुम्ह प्रनतारति हारी॥
असि सिख तुम्ह बिनु देइ न कोऊ।
मातु पिता स्वारथ रत ओऊ॥

अनुवाद (हिन्दी)

और हे शरणागतके दुःख हरनेवाले रामजी! आप ही हमारे शरीर, धन, घर-द्वार और सभी प्रकारसे हित करनेवाले हैं। ऐसी शिक्षा आपके अतिरिक्त कोई नहीं दे सकता। माता-पिता (हितैषी हैं और शिक्षा भी देते हैं) परन्तु वे भी स्वार्थपरायण हैं (इसलिये ऐसी परम हितकारी शिक्षा नहीं देते)॥ २॥

मूल (चौपाई)

हेतु रहित जग जुग उपकारी।
तुम्ह तुम्हार सेवक असुरारी॥
स्वारथ मीत सकल जग माहीं।
सपनेहुँ प्रभु परमारथ नाहीं॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे असुरोंके शत्रु! जगत् में बिना हेतुके (निःस्वार्थ) उपकार करनेवाले तो दो ही हैं—एक आप, दूसरे आपके सेवक। जगत् में (शेष) सभी स्वार्थके मित्र हैं। हे प्रभो! उनमें स्वप्नमें भी परमार्थका भाव नहीं है॥ ३॥

मूल (चौपाई)

सब के बचन प्रेम रस साने।
सुनि रघुनाथ हृदयँ हरषाने॥
निज निज गृह गए आयसु पाई।
बरनत प्रभु बतकही सुहाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

सबके प्रेमरसमें सने हुए वचन सुनकर श्रीरघुनाथजी हृदयमें हर्षित हुए। फिर आज्ञा पाकर सब प्रभुकी सुन्दर बातचीतका वर्णन करते हुए अपने-अपने घर गये॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

उमा अवधबासी नर नारि कृतारथ रूप।
ब्रह्म सच्चिदानंद घन रघुनायक जहँ भूप॥ ४७॥

अनुवाद (हिन्दी)

(शिवजी कहते हैं—) हे उमा! अयोध्यामें रहनेवाले पुरुष और स्त्री सभी कृतार्थस्वरूप हैं; जहाँ स्वयं सच्चिदानन्दघन ब्रह्म श्रीरघुनाथजी राजा हैं॥ ४७॥

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