०८ हनुमान् जी के द्वारा भरतजीका प्रश्न और श्रीरामजीका उपदेश

मूल (चौपाई)

सुनी चहहिं प्रभु मुख कै बानी।
जो सुनि होइ सकल भ्रम हानी॥
अंतरजामी प्रभु सभ जाना।
बूझत कहहु काह हनुमाना॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे प्रभुके श्रीमुखकी वाणी सुनना चाहते हैं, जिसे सुनकर सारे भ्रमोंका नाश हो जाता है। अन्तर्यामी प्रभु सब जान गये और पूछने लगे—कहो हनुमान्! क्या बात है?॥ २॥

मूल (चौपाई)

जोरि पानि कह तब हनुमंता।
सुनहु दीनदयाल भगवंता॥
नाथ भरत कछु पूँछन चहहीं।
प्रस्न करत मन सकुचत अहहीं॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब हनुमान् जी हाथ जोड़कर बोले—हे दीनदयालु भगवान्! सुनिये। हे नाथ! भरतजी कुछ पूछना चाहते हैं, पर प्रश्न करते मनमें सकुचा रहे हैं॥ ३॥

मूल (चौपाई)

तुम्ह जानहु कपि मोर सुभाऊ।
भरतहि मोहि कछु अंतर काऊ॥
सुनि प्रभु बचन भरत गहे चरना।
सुनहु नाथ प्रनतारति हरना॥

अनुवाद (हिन्दी)

(भगवान् ने कहा—) हनुमान्! तुम तो मेरा स्वभाव जानते ही हो। भरतके और मेरे बीचमें कभी भी कोई अन्तर (भेद) है? प्रभुके वचन सुनकर भरतजीने उनके चरण पकड़ लिये (और कहा—) हे नाथ! हे शरणागतके दुःखोंको हरनेवाले! सुनिये॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

नाथ न मोहि संदेह कछु सपनेहुँ सोक न मोह।
केवल कृपा तुम्हारिहि कृपानंद संदोह॥ ३६॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे नाथ! न तो मुझे कुछ सन्देह है और न स्वप्नमें भी शोक और मोह है। हे कृपा और आनन्दके समूह! यह केवल आपकी ही कृपाका फल है॥ ३६॥

मूल (चौपाई)

करउँ कृपानिधि एक ढिठाई।
मैं सेवक तुम्ह जन सुखदाई॥
संतन्ह कै महिमा रघुराई।
बहु बिधि बेद पुरानन्ह गाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

तथापि हे कृपानिधान! मैं आपसे एक धृष्टता करता हूँ। मैं सेवक हूँ और आप सेवकको सुख देनेवाले हैं (इससे मेरी धृष्टताको क्षमा कीजिये और मेरे प्रश्नका उत्तर देकर सुख दीजिये)। हे रघुनाथजी! वेद-पुराणोंने संतोंकी महिमा बहुत प्रकारसे गायी है॥ १॥

मूल (चौपाई)

श्रीमुख तुम्ह पुनि कीन्हि बड़ाई।
तिन्ह पर प्रभुहि प्रीति अधिकाई॥
सुना चहउँ प्रभु तिन्ह कर लच्छन।
कृपासिंधु गुन ग्यान बिचच्छन॥

अनुवाद (हिन्दी)

आपने भी अपने श्रीमुखसे उनकी बड़ाई की है और उनपर प्रभु (आप) का प्रेम भी बहुत है। हे प्रभो! मैं उनके लक्षण सुनना चाहता हूँ। आप कृपाके समुद्र हैं और गुण तथा ज्ञानमें अत्यन्त निपुण हैं॥ २॥

मूल (चौपाई)

संत असंत भेद बिलगाई।
प्रनतपाल मोहि कहहु बुझाई॥
संतन्ह के लच्छन सुनु भ्राता।
अगनित श्रुति पुरान बिख्याता॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे शरणागतका पालन करनेवाले! संत और असंतके भेद अलग-अलग करके मुझको समझाकर कहिये। (श्रीरामजीने कहा—) हे भाई! संतोंके लक्षण (गुण) असंख्य हैं, जो वेद और पुराणोंमें प्रसिद्ध हैं॥ ३॥

मूल (चौपाई)

संत असंतन्हि कै असि करनी।
जिमि कुठार चंदन आचरनी॥
काटइ परसु मलय सुनु भाई।
निज गुन देइ सुगंध बसाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

संत और असंतोंकी करनी ऐसी है जैसे कुल्हाड़ी और चन्दनका आचरण होता है। हे भाई! सुनो, कुल्हाड़ी चन्दनको काटती है (क्योंकि उसका स्वभाव या काम ही वृक्षोंको काटना है); किन्तु चन्दन (अपने स्वभाववश) अपना गुण देकर उसे (काटनेवाली कुल्हाड़ीको) सुगन्धसे सुवासित कर देता है॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

ताते सुर सीसन्ह चढ़त जग बल्लभ श्रीखंड।
अनल दाहि पीटत घनहिं परसु बदन यह दंड॥ ३७॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसी गुणके कारण चन्दन देवताओंके सिरोंपर चढ़ता है और जगत् का प्रिय हो रहा है और कुल्हाड़ीके मुखको यह दण्ड मिलता है कि उसको आगमें जलाकर फिर घनसे पीटते हैं॥ ३७॥

मूल (चौपाई)

बिषय अलंपट सील गुनाकर।
पर दुख दुख सुख सुख देखे पर॥
सम अभूतरिपु बिमद बिरागी।
लोभामरष हरष भय त्यागी॥

अनुवाद (हिन्दी)

संत विषयोंमें लम्पट (लिप्त) नहीं होते, शील और सद्गुणोंकी खान होते हैं। उन्हें पराया दुःख देखकर दुःख और सुख देखकर सुख होता है। वे (सबमें, सर्वत्र, सब समय) समता रखते हैं, कोई उनका शत्रु नहीं है, वे मदसे रहित और वैराग्यवान् होते हैं तथा लोभ, क्रोध, हर्ष और भयका त्याग किये हुए रहते हैं॥ १॥

मूल (चौपाई)

कोमलचित दीनन्ह पर दाया।
मन बच क्रम मम भगति अमाया॥
सबहि मानप्रद आपु अमानी।
भरत प्रान सम मम ते प्रानी॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनका चित्त बड़ा कोमल होता है। वे दीनोंपर दया करते हैं तथा मन, वचन और कर्मसे मेरी निष्कपट (विशुद्ध) भक्ति करते हैं। सबको सम्मान देते हैं, पर स्वयं मानरहित होते हैं। हे भरत! वे प्राणी (संतजन) मेरे प्राणोंके समान हैं॥ २॥

मूल (चौपाई)

बिगत काम मम नाम परायन।
सांति बिरति बिनती मुदितायन॥
सीतलता सरलता मयत्री।
द्विज पद प्रीति धर्म जनयत्री॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनको कोई कामना नहीं होती। वे मेरे नामके परायण होते हैं। शान्ति, वैराग्य, विनय और प्रसन्नताके घर होते हैं। उनमें शीतलता, सरलता, सबके प्रति मित्रभाव और ब्राह्मणके चरणोंमें प्रीति होती है, जो धर्मोंको उत्पन्न करनेवाली है॥ ३॥

मूल (चौपाई)

ए सब लच्छन बसहिं जासु उर।
जानेहु तात संत संतत फुर॥
सम दम नियम नीति नहिं डोलहिं।
परुष बचन कबहूँ नहिं बोलहिं॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे तात! ये सब लक्षण जिसके हृदयमें बसते हों, उसको सदा सच्चा संत जानना। जो शम (मनके निग्रह), दम (इन्द्रियोंके निग्रह), नियम और नीतिसे कभी विचलित नहीं होते और मुखसे कभी कठोर वचन नहीं बोलते;॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

निंदा अस्तुति उभय सम ममता मम पद कंज।
ते सज्जन मम प्रानप्रिय गुन मंदिर सुखपुंज॥ ३८॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिन्हें निन्दा और स्तुति (बड़ाई) दोनों समान हैं और मेरे चरणकमलोंमें जिनकी ममता है, वे गुणोंके धाम और सुखकी राशि संतजन मुझे प्राणोंके समान प्रिय हैं॥ ३८॥

मूल (चौपाई)

सुनहु असंतन्ह केर सुभाऊ।
भूलेहुँ संगति करिअ न काऊ॥
तिन्ह कर संग सदा दुखदाई।
जिमि कपिलहि घालइ हरहाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

अब असंतों (दुष्टों) का स्वभाव सुनो; कभी भूलकर भी उनकी संगति नहीं करनी चाहिये। उनका संग सदा दुःख देनेवाला होता है। जैसे हरहाई (बुरी जातिकी) गाय कपिला (सीधी और दुधार) गायको अपने संगसे नष्ट कर डालती है॥ १॥

मूल (चौपाई)

खलन्ह हृदयँ अति ताप बिसेषी।
जरहिं सदा पर संपति देखी॥
जहँ कहुँ निंदा सुनहिं पराई।
हरषहिं मनहुँ परी निधि पाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

दुष्टोंके हृदयमें बहुत अधिक संताप रहता है। वे परायी सम्पत्ति (सुख) देखकर सदा जलते रहते हैं। वे जहाँ कहीं दूसरेकी निन्दा सुन पाते हैं, वहाँ ऐसे हर्षित होते हैं मानो रास्तेमें पड़ी निधि (खजाना) पा ली हो॥ २॥

मूल (चौपाई)

काम क्रोध मद लोभ परायन।
निर्दय कपटी कुटिल मलायन॥
बयरु अकारन सब काहू सों।
जो कर हित अनहित ताहू सों॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे काम, क्रोध, मद और लोभके परायण तथा निर्दयी, कपटी, कुटिल और पापोंके घर होते हैं। वे बिना ही कारण सब किसीसे वैर किया करते हैं। जो भलाई करता है उसके साथ भी बुराई करते हैं॥ ३॥

मूल (चौपाई)

झूठइ लेना झूठइ देना।
झूठइ भोजन झूठ चबेना॥
बोलहिं मधुर बचन जिमि मोरा।
खाइ महा अहि हृदय कठोरा॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनका झूठा ही लेना और झूठा ही देना होता है। झूठा ही भोजन होता है और झूठा ही चबेना होता है (अर्थात् वे लेने-देनेके व्यवहारमें झूठका आश्रय लेकर दूसरोंका हक मार लेते हैं अथवा झूठी डींग हाँका करते हैं कि हमने लाखों रुपये ले लिये, करोड़ोंका दान कर दिया। इसी प्रकार खाते हैं चनेकी रोटी और कहते हैं कि आज खूब माल खाकर आये। अथवा चबेना चबाकर रह जाते हैं और कहते हैं हमें बढ़िया भोजनसे वैराग्य है, इत्यादि। मतलब यह कि वे सभी बातोंमें झूठ ही बोला करते हैं।) जैसे मोर (बहुत मीठा बोलता है, परन्तु उस) का हृदय ऐसा कठोर होता है कि वह महान् विषैले साँपोंको भी खा जाता है। वैसे ही वे भी ऊपरसे मीठे वचन बोलते हैं (परन्तु हृदयके बड़े ही निर्दयी होते हैं)॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

पर द्रोही पर दार रत पर धन पर अपबाद।
ते नर पाँवर पापमय देह धरें मनुजाद॥ ३९॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे दूसरोंसे द्रोह करते हैं और परायी स्त्री, पराये धन तथा परायी निन्दामें आसक्त रहते हैं। वे पामर और पापमय मनुष्य नर-शरीर धारण किये हुए राक्षस ही हैं॥ ३९॥

मूल (चौपाई)

लोभइ ओढ़न लोभइ डासन।
सिस्नोदर पर जमपुर त्रास न॥
काहू की जौं सुनहिं बड़ाई।
स्वास लेहिं जनु जूड़ी आई॥

अनुवाद (हिन्दी)

लोभ ही उनका ओढ़ना और लोभ ही बिछौना होता है (अर्थात् लोभहीसे वे सदा घिरे हुए रहते हैं)। वे पशुओंके समान आहार और मैथुनके ही परायण होते हैं, उन्हें यमपुरका भय नहीं लगता। यदि किसीकी बड़ाई सुन पाते हैं, तो वे ऐसी (दुःखभरी) साँस लेते हैं मानो उन्हें जूड़ी आ गयी हो॥ १॥

मूल (चौपाई)

जब काहू कै देखहिं बिपती।
सुखी भए मानहुँ जग नृपती॥
स्वारथ रत परिवार बिरोधी।
लंपट काम लोभ अति क्रोधी॥

अनुवाद (हिन्दी)

और जब किसीकी विपत्ति देखते हैं, तब ऐसे सुखी होते हैं मानो जगत् भरके राजा हो गये हों। वे स्वार्थपरायण, परिवारवालोंके विरोधी, काम और लोभके कारण लम्पट और अत्यन्त क्रोधी होते हैं॥ २॥

मूल (चौपाई)

मातु पिता गुर बिप्र न मानहिं।
आपु गए अरु घालहिं आनहिं॥
करहिं मोह बस द्रोह परावा।
संत संग हरि कथा न भावा॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे माता, पिता, गुरु और ब्राह्मण किसीको नहीं मानते। आप तो नष्ट हुए ही रहते हैं, (साथ ही अपने संगसे) दूसरोंको भी नष्ट करते हैं। मोहवश दूसरोंसे द्रोह करते हैं। उन्हें न संतोंका संग अच्छा लगता है, न भगवान् की कथा ही सुहाती है॥ ३॥

मूल (चौपाई)

अवगुन सिंधु मंदमति कामी।
बेद बिदूषक परधन स्वामी॥
बिप्र द्रोह पर द्रोह बिसेषा।
दंभ कपट जियँ धरें सुबेषा॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे अवगुणोंके समुद्र, मन्दबुद्धि, कामी (रागयुक्त), वेदोंके निन्दक और जबर्दस्ती पराये धनके स्वामी (लूटनेवाले) होते हैं। वे दूसरोंसे द्रोह तो करते ही हैं; परन्तु ब्राह्मण-द्रोह विशेषतासे करते हैं। उनके हृदयमें दम्भ और कपट भरा रहता है, परन्तु वे (ऊपरसे) सुन्दर वेष धारण किये रहते हैं॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

ऐसे अधम मनुज खल कृतजुग त्रेताँ नाहिं।
द्वापर कछुक बृंद बहु होइहहिं कलिजुग माहिं॥ ४०॥

अनुवाद (हिन्दी)

ऐसे नीच और दुष्ट मनुष्य सत्ययुग और त्रेतामें नहीं होते। द्वापरमें थोड़े-से होंगे और कलियुगमें तो इनके झुंड-के-झुंड होंगे॥ ४०॥

मूल (चौपाई)

पर हित सरिस धर्म नहिं भाई।
पर पीड़ा सम नहिं अधमाई॥
निर्नय सकल पुरान बेद कर।
कहेउँ तात जानहिं कोबिद नर॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे भाई! दूसरोंकी भलाईके समान कोई धर्म नहीं है और दूसरोंको दुःख पहुँचानेके समान कोई नीचता (पाप) नहीं है। हे तात! समस्त पुराणों और वेदोंका यह निर्णय (निश्चित सिद्धान्त) मैंने तुमसे कहा है, इस बातको पण्डितलोग जानते हैं॥ १॥

मूल (चौपाई)

नर सरीर धरि जे पर पीरा।
करहिं ते सहहिं महा भव भीरा॥
करहिं मोह बस नर अघ नाना।
स्वारथ रत परलोक नसाना॥

अनुवाद (हिन्दी)

मनुष्यका शरीर धारण करके जो लोग दूसरोंको दुःख पहुँचाते हैं, उनको जन्म-मृत्युके महान् संकट सहने पड़ते हैं। मनुष्य मोहवश स्वार्थपरायण होकर अनेकों पाप करते हैं, इसीसे उनका परलोक नष्ट हुआ रहता है॥ २॥

मूल (चौपाई)

कालरूप तिन्ह कहँ मैं भ्राता।
सुभ अरु असुभ कर्म फल दाता॥
अस बिचारि जे परम सयाने।
भजहिं मोहि संसृत दुख जाने॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे भाई! मैं उनके लिये कालरूप (भयंकर) हूँ और उनके अच्छे और बुरे कर्मोंका (यथायोग्य) फल देनेवाला हूँ! ऐसा विचारकर जो लोग परम चतुर हैं वे संसार (के प्रवाह) को दुःखरूप जानकर मुझे ही भजते हैं॥ ३॥

मूल (चौपाई)

त्यागहिं कर्म सुभासुभ दायक।
भजहिं मोहि सुर नर मुनि नायक॥
संत असंतन्ह के गुन भाषे।
ते न परहिं भव जिन्ह लखि राखे॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसीसे वे शुभ और अशुभ फल देनेवाले कर्मोंको त्याग कर देवता, मनुष्य और मुनियोंके नायक मुझको भजते हैं। (इस प्रकार) मैंने संतों और असंतोंके गुण कहे। जिन लोगोंने इन गुणोंको समझ रखा है, वे जन्म-मरणके चक्‍करमें नहीं पड़ते॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

सुनहु तात माया कृत गुन अरु दोष अनेक।
गुन यह उभय न देखिअहिं देखिअ सो अबिबेक॥ ४१॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे तात! सुनो, मायासे रचे हुए ही अनेक (सब) गुण और दोष हैं (इनकी कोई वास्तविक सत्ता नहीं है)। गुण (विवेक) इसीमें है कि दोनों ही न देखे जायँ, इन्हें देखना ही अविवेक है॥ ४१॥

मूल (चौपाई)

श्रीमुख बचन सुनत सब भाई।
हरषे प्रेम न हृदयँ समाई॥
करहिं बिनय अति बारहिं बारा।
हनूमान हियँ हरष अपारा॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् के श्रीमुखसे ये वचन सुनकर सब भाई हर्षित हो गये। प्रेम उनके हृदयोंमें समाता नहीं। वे बार-बार बड़ी विनती करते हैं। विशेषकर हनुमान् जी के हृदयमें अपार हर्ष है॥ १॥

मूल (चौपाई)

पुनि रघुपति निज मंदिर गए।
एहि बिधि चरित करत नित नए॥
बार बार नारद मुनि आवहिं।
चरित पुनीत राम के गावहिं॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर श्रीरामचन्द्रजी अपने महलको गये। इस प्रकार वे नित्य नयी लीला करते हैं। नारद मुनि अयोध्यामें बार-बार आते हैं और आकर श्रीरामजीके पवित्र चरित्र गाते हैं॥ २॥

मूल (चौपाई)

नित नव चरित देखि मुनि जाहीं।
ब्रह्मलोक सब कथा कहाहीं॥
सुनि बिरंचि अतिसय सुख मानहिं।
पुनि पुनि तात करहु गुन गानहिं॥

अनुवाद (हिन्दी)

मुनि यहाँसे नित्य नये-नये चरित्र देखकर जाते हैं और ब्रह्मलोकमें जाकर सब कथा कहते हैं। ब्रह्माजी सुनकर अत्यन्त सुख मानते हैं (और कहते हैं—) हे तात! बार-बार श्रीरामजीके गुणोंका गान करो॥ ३॥

मूल (चौपाई)

सनकादिक नारदहि सराहहिं।
जद्यपि ब्रह्म निरत मुनि आहहिं॥
सुनि गुन गान समाधि बिसारी।
सादर सुनहिं परम अधिकारी॥

अनुवाद (हिन्दी)

सनकादि मुनि नारदजीकी सराहना करते हैं। यद्यपि वे (सनकादि) मुनि ब्रह्मनिष्ठ हैं, परन्तु श्रीरामजीका गुणगान सुनकर वे भी अपनी ब्रह्मसमाधिको भूल जाते हैं और आदरपूर्वक उसे सुनते हैं। वे (रामकथा सुननेके) श्रेष्ठ अधिकारी हैं॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

जीवनमुक्त ब्रह्मपर चरित सुनहिं तजि ध्यान।
जे हरि कथाँ न करहिं रति तिन्ह के हिय पाषान॥ ४२॥

अनुवाद (हिन्दी)

सनकादि मुनि-जैसे जीवन्मुक्त और ब्रह्मनिष्ठ पुरुष भी ध्यान (ब्रह्म-समाधि) छोड़कर श्रीरामजीके चरित्र सुनते हैं। यह जानकर भी जो श्रीहरिकी कथासे प्रेम नहीं करते, उनके हृदय (सचमुच ही) पत्थर (के समान) हैं॥ ४२॥

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