०७ पुत्रोत्पत्ति, अयोध्याजीकी रमणीयता, सनकादिका आगमन और संवाद

मूल (चौपाई)

अहनिसि बिधिहि मनावत रहहीं।
श्रीरघुबीर चरन रति चहहीं॥
दुइ सुत सुंदर सीताँ जाए।
लव कुस बेद पुरानन्ह गाए॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे दिन-रात ब्रह्माजीको मनाते रहते हैं और (उनसे) श्रीरघुवीरके चरणोंमें प्रीति चाहते हैं। सीताजीके लव और कुश—ये दो पुत्र उत्पन्न हुए, जिनका वेद-पुराणोंने वर्णन किया है॥ ३॥

मूल (चौपाई)

दोउ बिजई बिनई गुन मंदिर।
हरि प्रतिबिंब मनहुँ अति सुंदर॥
दुइ दुइ सुत सब भ्रातन्ह केरे।
भए रूप गुन सील घनेरे॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे दोनों ही विजयी (विख्यात योद्धा), नम्र और गुणोंके धाम हैं और अत्यन्त सुन्दर हैं, मानो श्रीहरिके प्रतिबिम्ब ही हों। दो-दो पुत्र सभी भाइयोंके हुए, जो बड़े ही सुन्दर, गुणवान् और सुशील थे॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

ग्यान गिरा गोतीत अज माया मन गुन पार।
सोइ सच्चिदानंद घन कर नर चरित उदार॥ २५॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो (बौद्धिक) ज्ञान, वाणी और इन्द्रियोंसे परे और अजन्मा हैं तथा माया, मन और गुणोंके परे हैं, वही सच्चिदानन्दघन भगवान् श्रेष्ठ नरलीला करते हैं॥ २५॥

मूल (चौपाई)

प्रातकाल सरऊ करि मज्जन।
बैठहिं सभाँ संग द्विज सज्जन॥
बेद पुरान बसिष्ट बखानहिं।
सुनहिं राम जद्यपि सब जानहिं॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रातःकाल सरयूजीमें स्नान करके ब्राह्मणों और सज्जनोंके साथ सभामें बैठते हैं। वसिष्ठजी वेद और पुराणोंकी कथाएँ वर्णन करते हैं और श्रीरामजी सुनते हैं, यद्यपि वे सब जानते हैं॥ १॥

मूल (चौपाई)

अनुजन्ह संजुत भोजन करहीं।
देखि सकल जननीं सुख भरहीं॥
भरत सत्रुहन दोनउ भाई।
सहित पवनसुत उपबन जाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे भाइयोंको साथ लेकर भोजन करते हैं। उन्हें देखकर सभी माताएँ आनन्दसे भर जाती हैं। भरतजी और शत्रुघ्नजी दोनों भाई हनुमान् जी सहित उपवनोंमें जाकर,॥ २॥

मूल (चौपाई)

बूझहिं बैठि राम गुन गाहा।
कह हनुमान सुमति अवगाहा॥
सुनत बिमल गुन अति सुख पावहिं।
बहुरि बहुरि करि बिनय कहावहिं॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँ बैठकर श्रीरामजीके गुणोंकी कथाएँ पूछते हैं और हनुमान् जी अपनी सुन्दर बुद्धिसे उन गुणोंमें गोता लगाकर उनका वर्णन करते हैं। श्रीरामचन्द्रजीके निर्मल गुणोंको सुनकर दोनों भाई अत्यन्त सुख पाते हैं और विनय करके बार-बार कहलवाते हैं॥ ३॥

मूल (चौपाई)

सब कें गृह गृह होहिं पुराना।
राम चरित पावन बिधि नाना॥
नर अरु नारि राम गुन गानहिं।
करहिं दिवस निसि जात न जानहिं॥

अनुवाद (हिन्दी)

सबके यहाँ घर-घरमें पुराणों और अनेक प्रकारके पवित्र रामचरित्रोंकी कथा होती है। पुरुष और स्त्री सभी श्रीरामचन्द्रजीका गुणगान करते हैं और इस आनन्दमें दिन-रातका बीतना भी नहीं जान पाते॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

अवधपुरी बासिन्ह कर सुख संपदा समाज।
सहस सेष नहिं कहि सकहिं जहँ नृप राम बिराज॥ २६॥

अनुवाद (हिन्दी)

जहाँ भगवान् श्रीरामचन्द्रजी स्वयं राजा होकर विराजमान हैं, उस अवधपुरीके निवासियोंके सुख-सम्पत्तिके समुदायका वर्णन हजारों शेषजी भी नहीं कर सकते॥ २६॥

मूल (चौपाई)

नारदादि सनकादि मुनीसा।
दरसन लागि कोसलाधीसा॥
दिन प्रति सकल अजोध्या आवहिं।
देखि नगरु बिरागु बिसरावहिं॥

अनुवाद (हिन्दी)

नारद आदि और सनक आदि मुनीश्वर सब कोसलराज श्रीरामजीके दर्शनके लिये प्रतिदिन अयोध्या आते हैं और उस (दिव्य) नगरको देखकर वैराग्य भुला देते हैं॥ १॥

मूल (चौपाई)

जातरूप मनि रचित अटारीं।
नाना रंग रुचिर गच ढारीं॥
पुर चहुँ पास कोट अति सुंदर।
रचे कँगूरा रंग रंग बर॥

अनुवाद (हिन्दी)

(दिव्य) स्वर्ण और रत्नोंसे बनी हुई अटारियाँ हैं। उनमें (मणि-रत्नोंकी) अनेक रंगोंकी सुन्दर ढली हुई फर्शें हैं। नगरके चारों ओर अत्यन्त सुन्दर परकोटा बना है, जिसपर सुन्दर रंग-बिरंगे कँगूरे बने हैं॥ २॥

मूल (चौपाई)

नव ग्रह निकर अनीक बनाई।
जनु घेरी अमरावति आई॥
महि बहु रंग रचित गच काँचा।
जो बिलोकि मुनिबर मन नाचा॥

अनुवाद (हिन्दी)

मानो नवग्रहोंने बड़ी भारी सेना बनाकर अमरावतीको आकर घेर लिया हो। पृथ्वी (सड़कों) पर अनेकों रंगोंके (दिव्य) काँचों (रत्नों) की गच बनायी (ढाली) गयी है, जिसे देखकर श्रेष्ठ मुनियोंके भी मन नाच उठते हैं॥ ३॥

मूल (चौपाई)

धवल धाम ऊपर नभ चुंबत।
कलस मनहुँ रबि ससि दुति निंदत॥
बहु मनि रचित झरोखा भ्राजहिं।
गृह गृह प्रति मनि दीप बिराजहिं॥

अनुवाद (हिन्दी)

उज्ज्वल महल ऊपर आकाशको चूम (छू) रहे हैं। महलोंपरके कलश (अपने दिव्य प्रकाशसे) मानो सूर्य, चन्द्रमाके प्रकाशकी भी निन्दा (तिरस्कार) करते हैं। (महलोंमें) बहुत-सी मणियोंसे रचे हुए झरोखे सुशोभित हैं और घर-घरमें मणियोंके दीपक शोभा पा रहे हैं॥ ४॥

छंद

मूल (दोहा)

मनि दीप राजहिं भवन भ्राजहिं देहरीं बिद्रुम रची।
मनि खंभ भीति बिरंचि बिरची कनक मनि मरकत खची॥
सुंदर मनोहर मंदिरायत अजिर रुचिर फटिक रचे।
प्रति द्वार द्वार कपाट पुरट बनाइ बहु बज्रन्हि खचे॥

अनुवाद (हिन्दी)

घरोंमें मणियोंके दीपक शोभा दे रहे हैं। मूँगोंकी बनी हुई देहलियाँ चमक रही हैं। मणियों (रत्नों)के खम्भे हैं। मरकतमणियों (पन्नों) से जड़ी हुई सोनेकी दीवारें ऐसी सुन्दर हैं मानो ब्रह्माने खास तौरसे बनायी हों। महल सुन्दर, मनोहर और विशाल हैं। उनमें सुन्दर स्फटिकके आँगन बने हैं। प्रत्येक द्वारपर बहुत-से खरादे हुए हीरोंसे जड़े हुए सोनेके किंवाड़ हैं।

दोहा

मूल (दोहा)

चारु चित्रसाला गृह गृह प्रति लिखे बनाइ।
राम चरित जे निरख मुनि ते मन लेहिं चोराइ॥ २७॥

अनुवाद (हिन्दी)

घर-घरमें सुन्दर चित्रशालाएँ हैं, जिनमें श्रीरामजीके चरित्र बड़ी सुन्दरताके साथ सँवारकर अङ्कित किये हुए हैं। जिन्हें मुनि देखते हैं, तो वे उनके भी चित्तको चुरा लेते हैं॥ २७॥

मूल (चौपाई)

सुमन बाटिका सबहिं लगाईं।
बिबिध भाँति करि जतन बनाईं॥
लता ललित बहु जाति सुहाईं।
फूलहिं सदा बसंत कि नाईं॥

अनुवाद (हिन्दी)

सभी लोगोंने भिन्न-भिन्न प्रकारकी पुष्पोंकी वाटिकाएँ यत्न करके लगा रखी हैं, जिनमें बहुत जातियोंकी सुन्दर और ललित लताएँ सदा वसंतकी तरह फूलती रहती हैं॥ १॥

मूल (चौपाई)

गुंजत मधुकर मुखर मनोहर।
मारुत त्रिबिधि सदा बह सुंदर॥
नाना खग बालकन्हि जिआए।
बोलत मधुर उड़ात सुहाए॥

अनुवाद (हिन्दी)

भौंरे मनोहर स्वरसे गुंजार करते हैं। सदा तीनों प्रकारकी सुन्दर वायु बहती रहती है। बालकोंने बहुत-से पक्षी पाल रखे हैं, जो मधुर बोली बोलते हैं और उड़नेमें सुन्दर लगते हैं॥ २॥

मूल (चौपाई)

मोर हंस सारस पारावत।
भवननि पर सोभा अति पावत॥
जहँ तहँ देखहिं निज परिछाहीं।
बहु बिधि कूजहिं नृत्य कराहीं॥

अनुवाद (हिन्दी)

मोर, हंस, सारस और कबूतर घरोंके ऊपर बड़ी ही शोभा पाते हैं। वे पक्षी (मणियोंकी दीवारोंमें और छतमें) जहाँ-तहाँ अपनी परछाईं देखकर (वहाँ दूसरे पक्षी समझकर) बहुत प्रकारसे मधुर बोली बोलते और नृत्य करते हैं॥ ३॥

मूल (चौपाई)

सुक सारिका पढ़ावहिं बालक।
कहहु राम रघुपति जनपालक॥
राज दुआर सकल बिधि चारू।
बीथीं चौहट रुचिर बजारू॥

अनुवाद (हिन्दी)

बालक तोता-मैनाको पढ़ाते हैं कि कहो—‘राम’ ‘रघुपति’ ‘जनपालक’। राजद्वार सब प्रकारसे सुन्दर है। गलियाँ, चौराहे और बाजार सभी सुन्दर हैं॥ ४॥

छंद

मूल (दोहा)

बाजार रुचिर न बनइ बरनत बस्तु बिनु गथ पाइए।
जहँ भूप रमानिवास तहँ की संपदा किमि गाइए॥
बैठे बजाज सराफ बनिक अनेक मनहुँ कुबेर ते।
सब सुखी सब सच्चरित सुंदर नारि नर सिसु जरठ जे॥

अनुवाद (हिन्दी)

सुन्दर बाजार है, जो वर्णन करते नहीं बनता; वहाँ वस्तुएँ बिना ही मूल्य मिलती हैं। जहाँ स्वयं लक्ष्मीपति राजा हों, वहाँकी सम्पत्तिका वर्णन कैसे किया जाय? बजाज (कपड़ेका व्यापार करनेवाले), सराफ (रुपये-पैसेका लेन-देन करनेवाले) आदि वणिक् (व्यापारी) बैठे हुए ऐसे जान पड़ते हैं मानो अनेक कुबेर हों। स्त्री, पुरुष, बच्चे और बूढ़े जो भी हैं, सभी सुखी, सदाचारी और सुन्दर हैं।

दोहा

मूल (दोहा)

उत्तर दिसि सरजू बह निर्मल जल गंभीर।
बाँधे घाट मनोहर स्वल्प पंक नहिं तीर॥ २८॥

अनुवाद (हिन्दी)

नगरके उत्तर दिशामें सरयूजी बह रही हैं, जिनका जल निर्मल और गहरा है। मनोहर घाट बँधे हुए हैं, किनारेपर जरा भी कीचड़ नहीं है॥ २८॥

मूल (चौपाई)

दूरि फराक रुचिर सो घाटा।
जहँ जल पिअहिं बाजि गज ठाटा॥
पनिघट परम मनोहर नाना।
तहाँ न पुरुष करहिं अस्नाना॥

अनुवाद (हिन्दी)

अलग कुछ दूरीपर वह सुन्दर घाट है, जहाँ घोड़ों और हाथियोंके ठट्ट-के-ठट्ट जल पिया करते हैं। पानी भरनेके लिये बहुत-से (जनाने) घाट हैं, जो बड़े ही मनोहर हैं। वहाँ पुरुष स्नान नहीं करते॥ १॥

मूल (चौपाई)

राजघाट सब बिधि सुंदर बर।
मज्जहिं तहाँ बरन चारिउ नर॥
तीर तीर देवन्ह के मंदिर।
चहुँ दिसि तिन्ह के उपबन सुंदर॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजघाट सब प्रकारसे सुन्दर और श्रेष्ठ है, जहाँ चारों वर्णोंके पुरुष स्नान करते हैं। सरयूजीके किनारे-किनारे देवताओंके मन्दिर हैं, जिनके चारों ओर सुन्दर उपवन (बगीचे) हैं॥ २॥

मूल (चौपाई)

कहुँ कहुँ सरिता तीर उदासी।
बसहिं ग्यान रत मुनि संन्यासी॥
तीर तीर तुलसिका सुहाई।
बृंद बृंद बहु मुनिन्ह लगाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

नदीके किनारे कहीं-कहीं विरक्त और ज्ञानपरायण मुनि और संन्यासी निवास करते हैं। सरयूजीके किनारे-किनारे सुन्दर तुलसीजीके झुंड-के-झुंड बहुत-से पेड़ मुनियोंने लगा रखे हैं॥ ३॥

मूल (चौपाई)

पुर सोभा कछु बरनि न जाई।
बाहेर नगर परम रुचिराई॥
देखत पुरी अखिल अघ भागा।
बन उपबन बापिका तड़ागा॥

अनुवाद (हिन्दी)

नगरकी शोभा तो कुछ कही नहीं जाती। नगरके बाहर भी परम सुन्दरता है। श्रीअयोध्यापुरीके दर्शन करते ही सम्पूर्ण पाप भाग जाते हैं। (वहाँ) वन, उपवन, बावलियाँ और तालाब सुशोभित हैं॥ ४॥

छंद

मूल (दोहा)

बापीं तड़ाग अनूप कूप मनोहरायत सोहहीं।
सोपान सुंदर नीर निर्मल देखि सुर मुनि मोहहीं॥
बहु रंग कंज अनेक खग कूजहिं मधुप गुंजारहीं।
आराम रम्य पिकादि खग रव जनु पथिक हंकारहीं॥

अनुवाद (हिन्दी)

अनुपम बावलियाँ, तालाब और मनोहर तथा विशाल कुएँ शोभा दे रहे हैं, जिनकी सुन्दर (रत्नोंकी) सीढ़ियाँ और निर्मल जल देखकर देवता और मुनितक मोहित हो जाते हैं। (तालाबोंमें) अनेक रंगोंके कमल खिल रहे हैं, अनेकों पक्षी कूज रहे हैं और भौंरे गुंजार कर रहे हैं। (परम) रमणीय बगीचे कोयल आदि पक्षियोंकी (सुन्दर बोलीसे) मानो राह चलनेवालोंको बुला रहे हैं।

दोहा

मूल (दोहा)

रमानाथ जहँ राजा सो पुर बरनि कि जाइ।
अनिमादिक सुख संपदा रहीं अवध सब छाइ॥ २९॥

अनुवाद (हिन्दी)

स्वयं लक्ष्मीपति भगवान् जहाँ राजा हों, उस नगरका कहीं वर्णन किया जा सकता है? अणिमा आदि आठों सिद्धियाँ और समस्त सुख-सम्पत्तियाँ अयोध्यामें छा रही हैं॥ २९॥

मूल (चौपाई)

जहँ तहँ नर रघुपति गुन गावहिं।
बैठि परसपर इहइ सिखावहिं॥
भजहु प्रनत प्रतिपालक रामहि।
सोभा सील रूप गुन धामहि॥

अनुवाद (हिन्दी)

लोग जहाँ-तहाँ श्रीरघुनाथजीके गुण गाते हैं और बैठकर एक-दूसरेको यही सीख देते हैं कि शरणागतका पालन करनेवाले श्रीरामजीको भजो; शोभा, शील, रूप और गुणोंके धाम श्रीरघुनाथजीको भजो॥ १॥

मूल (चौपाई)

जलज बिलोचन स्यामल गातहि।
पलक नयन इव सेवक त्रातहि॥
धृत सर रुचिर चाप तूनीरहि।
संत कंज बन रबि रनधीरहि॥

अनुवाद (हिन्दी)

कमलनयन और साँवले शरीरवालेको भजो। पलक जिस प्रकार नेत्रोंकी रक्षा करते हैं उसी प्रकार अपने सेवकोंकी रक्षा करनेवालेको भजो। सुन्दर बाण, धनुष और तरकस धारण करने-वालेको भजो। संतरूपी कमलवनके (खिलानेके) लिये सूर्यरूप रणधीर श्रीरामजीको भजो॥ २॥

मूल (चौपाई)

काल कराल ब्याल खगराजहि।
नमत राम अकाम ममता जहि॥
लोभ मोह मृगजूथ किरातहि।
मनसिज करि हरि जन सुखदातहि॥

अनुवाद (हिन्दी)

कालरूपी भयानक सर्पके भक्षण करनेवाले श्रीरामरूप गरुड़जीको भजो। निष्कामभावसे प्रणाम करते ही ममताका नाश कर देनेवाले श्रीरामजीको भजो। लोभ-मोहरूपी हरिनोंके समूहके नाश करनेवाले श्रीरामरूप किरातको भजो। कामदेवरूपी हाथीके लिये सिंहरूप तथा सेवकोंको सुख देनेवाले श्रीरामजीको भजो॥ ३॥

मूल (चौपाई)

संसय सोक निबिड़ तम भानुहि।
दनुज गहन घन दहन कृसानुहि॥
जनकसुता समेत रघुबीरहि।
कस न भजहु भंजन भव भीरहि॥

अनुवाद (हिन्दी)

संशय और शोकरूपी घने अन्धकारके नाश करनेवाले श्रीरामरूप सूर्यको भजो। राक्षसरूपी घने वनको जलानेवाले श्रीरामरूप अग्निको भजो। जन्म-मृत्युके भयको नाश करनेवाले श्रीजानकीजीसमेत श्रीरघुवीरको क्यों नहीं भजते?॥ ४॥

मूल (चौपाई)

बहु बासना मसक हिम रासिहि।
सदा एकरस अज अबिनासिहि॥
मुनि रंजन भंजन महि भारहि।
तुलसिदास के प्रभुहि उदारहि॥

अनुवाद (हिन्दी)

बहुत-सी वासनाओंरूपी मच्छरोंको नाश करनेवाले श्रीरामरूप हिमराशि (बर्फके ढेर) को भजो। नित्य एकरस, अजन्मा और अविनाशी श्रीरघुनाथजीको भजो। मुनियोंको आनन्द देनेवाले, पृथ्वीका भार उतारनेवाले और तुलसीदासके उदार (दयालु) स्वामी श्रीरामजीको भजो॥ ५॥

दोहा

मूल (दोहा)

एहि बिधि नगर नारि नर करहिं राम गुन गान।
सानुकूल सब पर रहहिं संतत कृपानिधान॥ ३०॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार नगरके स्त्री-पुरुष श्रीरामजीका गुण-गान करते हैं और कृपानिधान श्रीरामजी सदा सबपर अत्यन्त प्रसन्न रहते हैं॥ ३०॥

मूल (चौपाई)

जब ते राम प्रताप खगेसा।
उदित भयउ अति प्रबल दिनेसा॥
पूरि प्रकास रहेउ तिहुँ लोका।
बहुतेन्ह सुख बहुतन मन सोका॥

अनुवाद (हिन्दी)

(काकभुशुण्डिजी कहते हैं—) हे पक्षिराज गरुड़जी! जबसे रामप्रतापरूपी अत्यन्त प्रचण्ड सूर्य उदित हुआ, तबसे तीनों लोकोंमें पूर्ण प्रकाश भर गया है। इससे बहुतोंको सुख और बहुतोंके मनमें शोक हुआ॥ १॥

मूल (चौपाई)

जिन्हहि सोक ते कहउँ बखानी।
प्रथम अबिद्या निसा नसानी॥
अघ उलूक जहँ तहाँ लुकाने।
काम क्रोध कैरव सकुचाने॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिन-जिनको शोक हुआ, उन्हें मैं बखानकर कहता हूँ। (सर्वत्र प्रकाश छा जानेसे) पहले तो अविद्यारूपी रात्रि नष्ट हो गयी। पापरूपी उल्लू जहाँ-तहाँ छिप गये और काम-क्रोधरूपी कुमुद मुँद गये॥ २॥

मूल (चौपाई)

बिबिध कर्म गुन काल सुभाऊ।
ए चकोर सुख लहहिं न काऊ॥
मत्सर मान मोह मद चोरा।
इन्ह कर हुनर न कवनिहुँ ओरा॥

अनुवाद (हिन्दी)

भाँति-भाँतिके (बन्धनकारक) कर्म, गुण, काल और स्वभाव—ये चकोर हैं, जो (रामप्रतापरूपी सूर्यके प्रकाशमें) कभी सुख नहीं पाते। मत्सर (डाह), मान, मोह और मदरूपी जो चोर हैं, उनका हुनर (कला) भी किसी ओर नहीं चल पाता॥ ३॥

मूल (चौपाई)

धरम तड़ाग ग्यान बिग्याना।
ए पंकज बिकसे बिधि नाना॥
सुख संतोष बिराग बिबेका।
बिगत सोक ए कोक अनेका॥

अनुवाद (हिन्दी)

धर्मरूपी तालाबमें ज्ञान, विज्ञान—ये अनेकों प्रकारके कमल खिल उठे। सुख, संतोष, वैराग्य और विवेक—ये अनेकों चकवे शोकरहित हो गये॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

यह प्रताप रबि जाकें उर जब करइ प्रकास।
पछिले बाढ़हिं प्रथम जे कहे ते पावहिं नास॥ ३१॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह श्रीरामप्रतापरूपी सूर्य जिसके हृदयमें जब प्रकाश करता है, तब जिनका वर्णन पीछेसे किया गया है, वे (धर्म, ज्ञान, विज्ञान, सुख, सन्तोष, वैराग्य और विवेक) बढ़ जाते हैं और जिनका वर्णन पहले किया गया है, वे (अविद्या, पाप, काम, क्रोध, कर्म, काल, गुण, स्वभाव आदि) नाशको प्राप्त होते (नष्ट हो जाते) हैं॥ ३१॥

मूल (चौपाई)

भ्रातन्ह सहित रामु एक बारा।
संग परम प्रिय पवनकुमारा॥
सुंदर उपबन देखन गए।
सब तरु कुसुमित पल्लव नए॥

अनुवाद (हिन्दी)

एक बार भाइयोंसहित श्रीरामचन्द्रजी परम प्रिय हनुमान् जीको साथ लेकर सुन्दर उपवन देखने गये। वहाँके सब वृक्ष फूले हुए और नये पत्तोंसे युक्त थे॥ १॥

मूल (चौपाई)

जानि समय सनकादिक आए।
तेज पुंज गुन सील सुहाए॥
ब्रह्मानंद सदा लयलीना।
देखत बालक बहुकालीना॥

अनुवाद (हिन्दी)

सुअवसर जानकर सनकादि मुनि आये, जो तेजके पुञ्ज, सुन्दर गुण और शीलसे युक्त तथा सदा ब्रह्मानन्दमें लवलीन रहते हैं। देखनेमें तो वे बालक लगते हैं, परन्तु हैं बहुत समयके॥ २॥

मूल (चौपाई)

रूप धरें जनु चारिउ बेदा।
समदरसी मुनि बिगत बिभेदा॥
आसा बसन ब्यसन यह तिन्हहीं।
रघुपति चरित होइ तहँ सुनहीं॥

अनुवाद (हिन्दी)

मानो चारों वेद ही बालकरूप धारण किये हों। वे मुनि समदर्शी और भेदरहित हैं। दिशाएँ ही उनके वस्त्र हैं। उनके एक ही व्यसन है कि जहाँ श्रीरघुनाथजीकी चरित्र-कथा होती है वहाँ जाकर वे उसे अवश्य सुनते हैं॥ ३॥

मूल (चौपाई)

तहाँ रहे सनकादि भवानी।
जहँ घटसंभव मुनिबर ग्यानी॥
राम कथा मुनिबर बहु बरनी।
ग्यान जोनि पावक जिमि अरनी॥

अनुवाद (हिन्दी)

(शिवजी कहते हैं—) हे भवानी! सनकादि मुनि वहाँ गये थे (वहींसे चले आ रहे थे) जहाँ ज्ञानी मुनिश्रेष्ठ श्रीअगस्त्यजी रहते थे। श्रेष्ठ मुनिने श्रीरामजीकी बहुत-सी कथाएँ वर्णन की थीं, जो ज्ञान उत्पन्न करनेमें उसी प्रकार समर्थ हैं, जैसे अरणि लकड़ीसे अग्नि उत्पन्न होती है॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

देखि राम मुनि आवत हरषि दंडवत कीन्ह।
स्वागत पूँछि पीत पट प्रभु बैठन कहँ दीन्ह॥ ३२॥

अनुवाद (हिन्दी)

सनकादि मुनियोंको आते देखकर श्रीरामचन्द्रजीने हर्षित होकर दण्डवत् की और स्वागत (कुशल) पूछकर प्रभुने (उनके) बैठनेके लिये अपना पीताम्बर बिछा दिया॥ ३२॥

मूल (चौपाई)

कीन्ह दंडवत तीनिउँ भाई।
सहित पवनसुत सुख अधिकाई॥
मुनि रघुपति छबि अतुल बिलोकी।
भए मगन मन सके न रोकी॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर हनुमान् जीसहित तीनों भाइयोंने दण्डवत् की, सबको बड़ा सुख हुआ। मुनि श्रीरघुनाथजीकी अतुलनीय छबि देखकर उसीमें मग्न हो गये। वे मनको रोक न सके॥ १॥

मूल (चौपाई)

स्यामल गात सरोरुह लोचन।
सुंदरता मंदिर भव मोचन॥
एकटक रहे निमेष न लावहिं।
प्रभु कर जोरें सीस नवावहिं॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे जन्म-मृत्यु (के चक्र) से छुड़ानेवाले, श्यामशरीर, कमलनयन, सुन्दरताके धाम श्रीरामजीको टकटकी लगाये देखते ही रह गये, पलक नहीं मारते। और प्रभु हाथ जोड़े सिर नवा रहे हैं॥ २॥

मूल (चौपाई)

तिन्ह कै दसा देखि रघुबीरा।
स्रवत नयन जल पुलक सरीरा॥
कर गहि प्रभु मुनिबर बैठारे।
परम मनोहर बचन उचारे॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनकी (प्रेमविह्वल) दशा देखकर (उन्हींकी भाँति) श्रीरघुनाथजीके नेत्रोंसे भी (प्रेमाश्रुओंका) जल बहने लगा और शरीर पुलकित हो गया। तदनन्तर प्रभुने हाथ पकड़कर श्रेष्ठ मुनियोंको बैठाया और परम मनोहर वचन कहे—॥ ३॥

मूल (चौपाई)

आजु धन्य मैं सुनहु मुनीसा।
तुम्हरें दरस जाहिं अघ खीसा॥
बड़े भाग पाइब सतसंगा।
बिनहिं प्रयास होहिं भवभंगा॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे मुनीश्वरो! सुनिये, आज मैं धन्य हूँ। आपके दर्शनोंहीसे (सारे) पाप नष्ट हो जाते हैं। बड़े ही भाग्यसे सत्संगकी प्राप्ति होती है, जिससे बिना ही परिश्रम जन्म-मृत्युका चक्र नष्ट हो जाता है॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

संत संग अपबर्ग कर कामी भव कर पंथ।
कहहिं संत कबि कोबिद श्रुति पुरान सदग्रंथ॥ ३३॥

अनुवाद (हिन्दी)

संतका संग मोक्ष (भव-बन्धनसे छूटने) का और कामीका संग जन्म-मृत्युके बन्धनमें पड़नेका मार्ग है। संत, कवि और पण्डित तथा वेद, पुराण (आदि) सभी सद्‍ग्रन्थ ऐसा कहते हैं॥ ३३॥

मूल (चौपाई)

सुनि प्रभु बचन हरषि मुनि चारी।
पुलकित तन अस्तुति अनुसारी॥
जय भगवंत अनंत अनामय।
अनघ अनेक एक करुनामय॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रभुके वचन सुनकर चारों मुनि हर्षित होकर, पुलकित शरीरसे स्तुति करने लगे—हे भगवन्! आपकी जय हो। आप अन्तरहित, विकाररहित, पापरहित, अनेक (सब रूपोंमें प्रकट), एक (अद्वितीय) और करुणामय हैं॥ १॥

मूल (चौपाई)

जय निर्गुन जय जय गुन सागर।
सुख मंदिर सुंदर अति नागर॥
जय इंदिरा रमन जय भूधर।
अनुपम अज अनादि सोभाकर॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे निर्गुण! आपकी जय हो। हे गुणके समुद्र! आपकी जय हो, जय हो। आप सुखके धाम, (अत्यन्त) सुन्दर और अति चतुर हैं। हे लक्ष्मीपति! आपकी जय हो। हे पृथ्वीके धारण करनेवाले! आपकी जय हो। आप उपमारहित, अजन्मा, अनादि और शोभाकी खान हैं॥ २॥

मूल (चौपाई)

ग्यान निधान अमान मानप्रद।
पावन सुजस पुरान बेद बद॥
तग्य कृतग्य अग्यता भंजन।
नाम अनेक अनाम निरंजन॥

अनुवाद (हिन्दी)

आप ज्ञानके भण्डार, (स्वयं) मानरहित और (दूसरोंको) मान देनेवाले हैं। वेद और पुराण आपका पावन सुन्दर यश गाते हैं। आप तत्त्वके जाननेवाले, की हुई सेवाको माननेवाले और अज्ञानका नाश करनेवाले हैं। हे निरञ्जन (मायारहित)! आपके अनेकों (अनन्त) नाम हैं और कोई नाम नहीं है (अर्थात् आप सब नामोंके परे हैं)॥ ३॥

मूल (चौपाई)

सर्ब सर्बगत सर्ब उरालय।
बससि सदा हम कहुँ परिपालय॥
द्वंद बिपति भव फंद बिभंजय।
हृदि बसि राम काम मद गंजय॥

अनुवाद (हिन्दी)

आप सर्वरूप हैं, सबमें व्याप्त हैं और सबके हृदयरूपी घरमें सदा निवास करते हैं; (अतः) आप हमारा परिपालन कीजिये। (राग-द्वेष, अनुकूलता-प्रतिकूलता, जन्म-मृत्यु आदि) द्वन्द्व, विपत्ति और जन्म-मृत्युके जालको काट दीजिये। हे रामजी! आप हमारे हृदयमें बसकर काम और मदका नाश कर दीजिये॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

परमानंद कृपायतन मन परिपूरन काम।
प्रेम भगति अनपायनी देहु हमहि श्रीराम॥ ३४॥

अनुवाद (हिन्दी)

आप परमानन्दस्वरूप, कृपाके धाम और मनकी कामनाओंको परिपूर्ण करनेवाले हैं। हे श्रीरामजी! हमको अपनी अविचल प्रेमा-भक्ति दीजिये॥ ३४॥

मूल (चौपाई)

देहु भगति रघुपति अति पावनि।
त्रिबिधि ताप भव दाप नसावनि॥
प्रनत काम सुरधेनु कलपतरु।
होइ प्रसन्न दीजै प्रभु यह बरु॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे रघुनाथजी! आप हमें अपनी अत्यन्त पवित्र करनेवाली और तीनों प्रकारके तापों और जन्म-मरणके क्लेशोंका नाश करनेवाली भक्ति दीजिये। हे शरणागतोंकी कामना पूर्ण करनेके लिये कामधेनु और कल्पवृक्षरूप प्रभो! प्रसन्न होकर हमें यही वर दीजिये॥ १॥

मूल (चौपाई)

भव बारिधि कुंभज रघुनायक।
सेवत सुलभ सकल सुख दायक॥
मन संभव दारुन दुख दारय।
दीनबंधु समता बिस्तारय॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे रघुनाथजी! आप जन्म-मृत्युरूप समुद्रको सोखनेके लिये अगस्त्य मुनिके समान हैं। आप सेवा करनेमें सुलभ हैं तथा सब सुखोंके देनेवाले हैं। हे दीनबन्धो! मनसे उत्पन्न दारुण दुःखोंका नाश कीजिये और (हममें) समदृष्टिका विस्तार कीजिये॥ २॥

मूल (चौपाई)

आस त्रास इरिषादि निवारक।
बिनय बिबेक बिरति बिस्तारक॥
भूप मौलि मनि मंडन धरनी।
देहि भगति संसृति सरि तरनी॥

अनुवाद (हिन्दी)

आप (विषयोंकी) आशा, भय और ईर्ष्या आदिके निवारण करनेवाले हैं तथा विनय, विवेक और वैराग्यके विस्तार करनेवाले हैं। हे राजाओंके शिरोमणि एवं पृथ्वीके भूषण श्रीरामजी! संसृति (जन्म-मृत्युके प्रवाह)-रूपी नदीके लिये नौकारूप अपनी भक्ति प्रदान कीजिये॥ ३॥

मूल (चौपाई)

मुनि मन मानस हंस निरंतर।
चरन कमल बंदित अज संकर॥
रघुकुल केतु सेतु श्रुति रच्छक।
काल करम सुभाउ गुन भच्छक॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे मुनियोंके मनरूपी मानसरोवरमें निरन्तर निवास करनेवाले हंस! आपके चरणकमल ब्रह्माजी और शिवजीके द्वारा वन्दित हैं। आप रघुकुलके केतु, वेदमर्यादाके रक्षक और काल, कर्म, स्वभाव तथा गुण (-रूप बन्धनों) के भक्षक (नाशक) हैं॥ ४॥

मूल (चौपाई)

तारन तरन हरन सब दूषन।
तुलसिदास प्रभु त्रिभुवन भूषन॥

अनुवाद (हिन्दी)

आप तरन-तारन (स्वयं तरे हुए और दूसरोंको तारनेवाले) तथा सब दोषोंको हरनेवाले हैं। तीनों लोकोंके विभूषण आप ही तुलसीदासके स्वामी हैं॥ ५॥

दोहा

मूल (दोहा)

बार बार अस्तुति करि प्रेम सहित सिरु नाइ।
ब्रह्म भवन सनकादि गे अति अभीष्ट बर पाइ॥ ३५॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रेमसहित बार-बार स्तुति करके और सिर नवाकर तथा अपना अत्यन्त मनचाहा वर पाकर सनकादि मुनि ब्रह्मलोकको गये॥ ३५॥

मूल (चौपाई)

सनकादिक बिधि लोक सिधाए।
भ्रातन्ह राम चरन सिर नाए॥
पूछत प्रभुहि सकल सकुचाहीं।
चितवहिं सब मारुतसुत पाहीं॥

अनुवाद (हिन्दी)

सनकादि मुनि ब्रह्मलोकको चले गये। तब भाइयोंने श्रीरामजीके चरणोंमें सिर नवाया। सब भाई प्रभुसे पूछते सकुचाते हैं। (इसलिये) सब हनुमान् जी की ओर देख रहे हैं॥ १॥

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