०५ वानरोंकी और निषादकी विदाई

दोहा

मूल (दोहा)

ब्रह्मानंद मगन कपि सब कें प्रभु पद प्रीति।
जात न जाने दिवस तिन्ह गए मास षट बीति॥ १५॥

अनुवाद (हिन्दी)

वानर सब ब्रह्मानन्दमें मग्न हैं। प्रभुके चरणोंमें सबका प्रेम है! उन्होंने दिन जाते जाने ही नहीं और (बात-की-बातमें) छः महीने बीत गये॥ १५॥

मूल (चौपाई)

बिसरे गृह सपनेहुँ सुधि नाहीं।
जिमि परद्रोह संत मन माहीं॥
तब रघुपति सब सखा बोलाए।
आइ सबन्हि सादर सिरु नाए॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन लोगोंको अपने घर भूल ही गये। (जाग्रत् की तो बात ही क्या) उन्हें स्वप्नमें भी घरकी सुध (याद) नहीं आती, जैसे संतोंके मनमें दूसरोंसे द्रोह करनेकी बात कभी नहीं आती। तब श्रीरघुनाथजीने सब सखाओंको बुलाया। सबने आकर आदरसहित सिर नवाया॥ १॥

मूल (चौपाई)

परम प्रीति समीप बैठारे।
भगत सुखद मृदु बचन उचारे॥
तुम्ह अति कीन्हि मोरि सेवकाई।
मुख पर केहि बिधि करौं बड़ाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

बड़े ही प्रेमसे श्रीरामजीने उनको अपने पास बैठाया और भक्तोंको सुख देनेवाले कोमल वचन कहे—तुमलोगोंने मेरी बड़ी सेवा की है। मुँहपर किस प्रकार तुम्हारी बड़ाई करूँ?॥ २॥

मूल (चौपाई)

ताते मोहि तुम्ह अति प्रिय लागे।
मम हित लागि भवन सुख त्यागे॥
अनुज राज संपति बैदेही।
देह गेह परिवार सनेही॥

अनुवाद (हिन्दी)

मेरे हितके लिये तुमलोगोंने घरोंको तथा सब प्रकारके सुखोंको त्याग दिया। इससे तुम मुझे अत्यन्त ही प्रिय लग रहे हो। छोटे भाई, राज्य, सम्पत्ति, जानकी, अपना शरीर, घर, कुटुम्ब और मित्र—॥ ३॥

मूल (चौपाई)

सब मम प्रिय नहिं तुम्हहि समाना।
मृषा न कहउँ मोर यह बाना॥
सब कें प्रिय सेवक यह नीती।
मोरें अधिक दास पर प्रीती॥

अनुवाद (हिन्दी)

ये सभी मुझे प्रिय हैं, परंतु तुम्हारे समान नहीं। मैं झूठ नहीं कहता, यह मेरा स्वभाव है। सेवक सभीको प्यारे लगते हैं, यह नीति (नियम) है। (पर) मेरा तो दासपर (स्वाभाविक ही) विशेष प्रेम है॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

अब गृह जाहु सखा सब भजेहु मोहि दृढ़ नेम।
सदा सर्बगत सर्बहित जानि करेहु अति प्रेम॥ १६॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे सखागण! अब सब लोग घर जाओ; वहाँ दृढ़ नियमसे मुझे भजते रहना। मुझे सदा सर्वव्यापक और सबका हित करनेवाला जानकर अत्यन्त प्रेम करना॥ १६॥

मूल (चौपाई)

सुनि प्रभु बचन मगन सब भए।
को हम कहाँ बिसरि तन गए॥
एकटक रहे जोरि कर आगे।
सकहिं न कछु कहि अति अनुरागे॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रभुके वचन सुनकर सब-के-सब प्रेममग्न हो गये। हम कौन हैं और कहाँ हैं? यह देहकी सुध भी भूल गयी। वे प्रभुके सामने हाथ जोड़कर टकटकी लगाये देखते ही रह गये। अत्यन्त प्रेमके कारण कुछ कह नहीं सकते॥ १॥

मूल (चौपाई)

परम प्रेम तिन्ह कर प्रभु देखा।
कहा बिबिधि बिधि ग्यान बिसेषा॥
प्रभु सन्मुख कछु कहन न पारहिं।
पुनि पुनि चरन सरोज निहारहिं॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रभुने उनका अत्यन्त प्रेम देखा, (तब) उन्हें अनेकों प्रकारसे विशेष ज्ञानका उपदेश दिया। प्रभुके सम्मुख वे कुछ कह नहीं सकते। बार-बार प्रभुके चरणकमलोंको देखते हैं॥ २॥

मूल (चौपाई)

तब प्रभु भूषन बसन मगाए।
नाना रंग अनूप सुहाए॥
सुग्रीवहि प्रथमहिं पहिराए।
बसन भरत निज हाथ बनाए॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब प्रभुने अनेक रंगोंके अनुपम और सुन्दर गहने-कपड़े मँगवाये। सबसे पहले भरतजीने अपने हाथसे सँवारकर सुग्रीवको वस्त्राभूषण पहनाये॥ ३॥

मूल (चौपाई)

प्रभु प्रेरित लछिमन पहिराए।
लंकापति रघुपति मन भाए॥
अंगद बैठ रहा नहिं डोला।
प्रीति देखि प्रभु ताहि न बोला॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर प्रभुकी प्रेरणासे लक्ष्मणजीने विभीषणजीको गहने-कपड़े पहनाये, जो श्रीरघुनाथजीके मनको बहुत ही अच्छे लगे। अंगद बैठे ही रहे, वे अपनी जगहसे हिलेतक नहीं। उनका उत्कट प्रेम देखकर प्रभुने उनको नहीं बुलाया॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

जामवंत नीलादि सब पहिराए रघुनाथ।
हियँ धरि राम रूप सब चले नाइ पद माथ॥ १७(क)॥

अनुवाद (हिन्दी)

जाम्बवान् और नील आदि सबको श्रीरघुनाथजीने स्वयं भूषण-वस्त्र पहनाये। वे सब अपने हृदयोंमें श्रीरामचन्द्रजीके रूपको धारण करके उनके चरणोंमें मस्तक नवाकर चले॥ १७(क)॥

मूल (दोहा)

तब अंगद उठि नाइ सिरु सजल नयन कर जोरि।
अति बिनीत बोलेउ बचन मनहुँ प्रेम रस बोरि॥ १७(ख)॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब अंगद उठकर सिर नवाकर, नेत्रोंमें जल भरकर और हाथ जोड़कर अत्यन्त विनम्र तथा मानो प्रेमके रसमें डुबोये हुए (मधुर) वचन बोले॥ १७(ख)॥

मूल (चौपाई)

सुनु सर्बग्य कृपा सुख सिंधो।
दीन दयाकर आरत बंधो॥
मरती बेर नाथ मोहि बाली।
गयउ तुम्हारेहि कोंछें घाली॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे सर्वज्ञ! हे कृपा और सुखके समुद्र! हे दीनोंपर दया करनेवाले! हे आर्तोंके बन्धु! सुनिये। हे नाथ! मरते समय मेरा पिता बालि मुझे आपकी ही गोदमें डाल गया था॥ १॥

मूल (चौपाई)

असरन सरन बिरदु संभारी।
मोहि जनि तजहु भगत हितकारी॥
मोरें तुम्ह प्रभु गुर पितु माता।
जाउँ कहाँ तजि पद जलजाता॥

अनुवाद (हिन्दी)

अतः हे भक्तोंके हितकारी! अपना अशरण-शरण विरद (बाना) याद करके मुझे त्यागिये नहीं। मेरे तो स्वामी, गुरु, पिता और माता, सब कुछ आप ही हैं। आपके चरणकमलोंको छोड़कर मैं कहाँ जाऊँ?॥ २॥

मूल (चौपाई)

तुम्हहि बिचारि कहहु नरनाहा।
प्रभु तजि भवन काज मम काहा॥
बालक ग्यान बुद्धि बल हीना।
राखहु सरन नाथ जन दीना॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे महाराज! आप ही विचारकर कहिये, प्रभु (आप) को छोड़कर घरमें मेरा क्या काम है? हे नाथ! इस ज्ञान, बुद्धि और बलसे हीन बालक तथा दीन सेवकको शरणमें रखिये॥ ३॥

मूल (चौपाई)

नीचि टहल गृह कै सब करिहउँ।
पद पंकज बिलोकि भव तरिहउँ॥
अस कहि चरन परेउ प्रभु पाही।
अब जनि नाथ कहहु गृह जाही॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैं घरकी सब नीची-से-नीची सेवा करूँगा और आपके चरणकमलोंको देख-देखकर भवसागरसे तर जाऊँगा। ऐसा कहकर वे श्रीरामजीके चरणोंमें गिर पड़े (और बोले—) हे प्रभो! मेरी रक्षा कीजिये। हे नाथ! अब यह न कहिये कि तू घर जा॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

अंगद बचन बिनीत सुनि रघुपति करुना सींव।
प्रभु उठाइ उर लायउ सजल नयन राजीव॥ १८(क)॥

अनुवाद (हिन्दी)

अङ्गदके विनम्र वचन सुनकर करुणाकी सीमा प्रभु श्रीरघुनाथजीने उनको उठाकर हृदयसे लगा लिया। प्रभुके नेत्रकमलोंमें (प्रेमाश्रुओंका) जल भर आया॥ १८(क)॥

मूल (दोहा)

निज उर माल बसन मनि बालितनय पहिराइ।
बिदा कीन्हि भगवान तब बहु प्रकार समुझाइ॥ १८(ख)॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब भगवान् ने अपने हृदयकी माला, वस्त्र और मणि (रत्नोंके आभूषण) बालि-पुत्र अङ्गदको पहनाकर और बहुत प्रकारसे समझाकर उनकी विदाई की॥ १८(ख)॥

मूल (चौपाई)

भरत अनुज सौमित्रि समेता।
पठवन चले भगत कृत चेता॥
अंगद हृदयँ प्रेम नहिं थोरा।
फिरि फिरि चितव राम कीं ओरा॥

अनुवाद (हिन्दी)

भक्तकी करनीको याद करके भरतजी छोटे भाई शत्रुघ्नजी और लक्ष्मणजीसहित उनको पहुँचाने चले। अङ्गदके हृदयमें थोड़ा प्रेम नहीं है (अर्थात् बहुत अधिक प्रेम है)। वे फिर-फिरकर श्रीरामजीकी ओर देखते हैं,॥ १॥

मूल (चौपाई)

बार बार कर दंड प्रनामा।
मन अस रहन कहहिं मोहि रामा॥
राम बिलोकनि बोलनि चलनी।
सुमिरि सुमिरि सोचत हँसि मिलनी॥

अनुवाद (हिन्दी)

और बार-बार दण्डवत्-प्रणाम करते हैं। मनमें ऐसा आता है कि श्रीरामजी मुझे रहनेको कह दें। वे श्रीरामजीके देखनेकी, बोलनेकी, चलनेकी तथा हँसकर मिलनेकी रीतिको याद कर-करके सोचते हैं (दुखी होते हैं)॥ २॥

मूल (चौपाई)

प्रभु रुख देखि बिनय बहु भाषी।
चलेउ हृदयँ पद पंकज राखी॥
अति आदर सब कपि पहुँचाए।
भाइन्ह सहित भरत पुनि आए॥

अनुवाद (हिन्दी)

किन्तु प्रभुका रुख देखकर, बहुत-से विनयवचन कहकर तथा हृदयमें चरण-कमलोंको रखकर वे चले। अत्यन्त आदरके साथ सब वानरोंको पहुँचाकर भाइयोंसहित भरतजी लौट आये॥ ३॥

मूल (चौपाई)

तब सुग्रीव चरन गहि नाना।
भाँति बिनय कीन्हे हनुमाना॥
दिन दस करि रघुपति पद सेवा।
पुनि तव चरन देखिहउँ देवा॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब हनुमान् जी ने सुग्रीवके चरण पकड़कर अनेक प्रकारसे विनती की और कहा—हे देव! दस (कुछ) दिन श्रीरघुनाथजीकी चरणसेवा करके फिर मैं आकर आपके चरणोंके दर्शन करूँगा॥ ४॥

मूल (चौपाई)

पुन्य पुंज तुम्ह पवनकुमारा।
सेवहु जाइ कृपा आगारा॥
अस कहि कपि सब चले तुरंता।
अंगद कहइ सुनहु हनुमंता॥

अनुवाद (हिन्दी)

(सुग्रीवने कहा—) हे पवनकुमार! तुम पुण्यकी राशि हो (जो भगवान् ने तुमको अपनी सेवामें रख लिया)। जाकर कृपाधाम श्रीरामजीकी सेवा करो। सब वानर ऐसा कहकर तुरंत चल पड़े। अङ्गदने कहा—हे हनुमान्! सुनो—॥ ५॥

दोहा

मूल (दोहा)

कहेहु दंडवत प्रभु सैं तुम्हहि कहउँ कर जोरि।
बार बार रघुनायकहि सुरति कराएहु मोरि॥ १९(क)॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैं तुमसे हाथ जोड़कर कहता हूँ, प्रभुसे मेरी दण्डवत् कहना और श्रीरघुनाथजीको बार-बार मेरी याद कराते रहना॥ १९(क)॥

मूल (दोहा)

अस कहि चलेउ बालिसुत फिरि आयउ हनुमंत।
तासु प्रीति प्रभु सन कही मगन भए भगवंत॥ १९(ख)॥

अनुवाद (हिन्दी)

ऐसा कहकर बालिपुत्र अङ्गद चले, तब हनुमान् जी लौट आये और आकर प्रभुसे उनका प्रेम वर्णन किया। उसे सुनकर भगवान् प्रेममग्न हो गये॥ १९(ख)॥

मूल (दोहा)

कुलिसहु चाहि कठोर अति कोमल कुसुमहु चाहि।
चित्त खगेस राम कर समुझि परइ कहु काहि॥ १९(ग)॥

अनुवाद (हिन्दी)

(काकभुशुण्डिजी कहते हैं—) हे गरुड़जी! श्रीरामजीका चित्त वज्रसे भी अत्यन्त कठोर और फूलसे भी अत्यन्त कोमल है। तब कहिये, वह किसकी समझमें आ सकता है?॥ १९(ग)॥

मूल (चौपाई)

पुनि कृपाल लियो बोलि निषादा।
दीन्हे भूषन बसन प्रसादा॥
जाहु भवन मम सुमिरन करेहू।
मन क्रम बचन धर्म अनुसरेहू॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर कृपालु श्रीरामजीने निषादराजको बुला लिया और उसे भूषण, वस्त्र प्रसादमें दिये। (फिर कहा—) अब तुम भी घर जाओ, वहाँ मेरा स्मरण करते रहना और मन, वचन तथा कर्मसे धर्मके अनुसार चलना॥ १॥

मूल (चौपाई)

तुम्ह मम सखा भरत सम भ्राता।
सदा रहेहु पुर आवत जाता॥
बचन सुनत उपजा सुख भारी।
परेउ चरन भरि लोचन बारी॥

अनुवाद (हिन्दी)

तुम मेरे मित्र हो और भरतके समान भाई हो। अयोध्यामें सदा आते-जाते रहना। यह वचन सुनते ही उसको भारी सुख उत्पन्न हुआ। नेत्रोंमें (आनन्द और प्रेमके आँसुओंका) जल भरकर वह चरणोंमें गिर पड़ा॥ २॥

मूल (चौपाई)

चरन नलिन उर धरि गृह आवा।
प्रभु सुभाउ परिजनन्हि सुनावा॥
रघुपति चरित देखि पुरबासी।
पुनि पुनि कहहिं धन्य सुखरासी॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर भगवान् के चरणकमलोंको हृदयमें रखकर वह घर आया और आकर अपने कुटुम्बियोंको उसने प्रभुका स्वभाव सुनाया। श्रीरघुनाथजीका यह चरित्र देखकर अवधपुरवासी बार-बार कहते हैं कि सुखकी राशि श्रीरामचन्द्रजी धन्य हैं॥ ३॥

मूल (चौपाई)

राम राज बैठें त्रैलोका।
हरषित भए गए सब सोका॥
बयरु न कर काहू सन कोई।
राम प्रताप बिषमता खोई॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरामचन्द्रजीके राज्यपर प्रतिष्ठित होनेपर तीनों लोक हर्षित हो गये, उनके सारे शोक जाते रहे। कोई किसीसे वैर नहीं करता। श्रीरामचन्द्रजीके प्रतापसे सबकी विषमता (आन्तरिक भेदभाव) मिट गयी॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

बरनाश्रम निज निज धरम निरत बेद पथ लोग।
चलहिं सदा पावहिं सुखहि नहिं भय सोक न रोग॥ २०॥

अनुवाद (हिन्दी)

सब लोग अपने-अपने वर्ण और आश्रमके अनुकूल धर्ममें तत्पर हुए सदा वेद-मार्गपर चलते हैं और सुख पाते हैं। उन्हें न किसी बातका भय है, न शोक है और न कोई रोग ही सताता है॥ २०॥

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