०४ राम-राज्याभिषेक, वेदस्तुति, शिवस्तुति

मूल (चौपाई)

अवधपुरी अति रुचिर बनाई।
देवन्ह सुमन बृष्टि झरि लाई॥
राम कहा सेवकन्ह बुलाई।
प्रथम सखन्ह अन्हवावहु जाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

अवधपुरी बहुत ही सुन्दर सजायी गयी। देवताओंने पुष्पोंकी वर्षाकी झड़ी लगा दी। श्रीरामचन्द्रजीने सेवकोंको बुलाकर कहा कि तुमलोग जाकर पहले मेरे सखाओंको स्नान कराओ॥ १॥

मूल (चौपाई)

सुनत बचन जहँ तहँ जन धाए।
सुग्रीवादि तुरत अन्हवाए॥
पुनि करुनानिधि भरतु हँकारे।
निज कर राम जटा निरुआरे॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् के वचन सुनते ही सेवक जहाँ-तहाँ दौड़े और तुरंत ही उन्होंने सुग्रीवादिको स्नान कराया। फिर करुणानिधान श्रीरामजीने भरतजीको बुलाया और उनकी जटाओंको अपने हाथोंसे सुलझाया॥ २॥

मूल (चौपाई)

अन्हवाए प्रभु तीनिउ भाई।
भगत बछल कृपाल रघुराई॥
भरत भाग्य प्रभु कोमलताई।
सेष कोटि सत सकहिं न गाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर भक्तवत्सल कृपालु प्रभु श्रीरघुनाथजीने तीनों भाइयोंको स्नान कराया। भरतजीका भाग्य और प्रभुकी कोमलताका वर्णन अरबों शेषजी भी नहीं कर सकते॥ ३॥

मूल (चौपाई)

पुनि निज जटा राम बिबराए।
गुर अनुसासन मागि नहाए॥
करि मज्जन प्रभु भूषन साजे।
अंग अनंग देखि सत लाजे॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर श्रीरामजीने अपनी जटाएँ खोलीं और गुरुजीकी आज्ञा माँगकर स्नान किया। स्नान करके प्रभुने आभूषण धारण किये। उनके (सुशोभित) अङ्गोंको देखकर सैकड़ों (असंख्य) कामदेव लजा गये॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

सासुन्ह सादर जानकिहि मज्जन तुरत कराइ।
दिब्य बसन बर भूषन अँग अँग सजे बनाइ॥ ११(क)॥

अनुवाद (हिन्दी)

(इधर) सासुओंने जानकीजीको आदरके साथ तुरंत ही स्नान कराके उनके अङ्ग-अङ्गमें दिव्य वस्त्र और श्रेष्ठ आभूषण भलीभाँति सजा दिये (पहना दिये)॥ ११(क)॥

मूल (दोहा)

राम बाम दिसि सोभति रमा रूप गुन खानि।
देखि मातु सब हरषीं जन्म सुफल निज जानि॥ ११(ख)॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरामके बायीं ओर रूप और गुणोंकी खान रमा (श्रीजानकीजी) शोभित हो रही हैं। उन्हें देखकर सब माताएँ अपना जन्म (जीवन) सफल समझकर हर्षित हुईं॥ ११(ख)॥

मूल (दोहा)

सुनु खगेस तेहि अवसर ब्रह्मा सिव मुनि बृंद।
चढ़ि बिमान आए सब सुर देखन सुखकंद॥ ११(ग)॥

अनुवाद (हिन्दी)

(काकभुशुण्डिजी कहते हैं—) हे पक्षिराज गरुड़जी! सुनिये; उस समय ब्रह्माजी, शिवजी और मुनियोंके समूह तथा विमानोंपर चढ़कर सब देवता आनन्दकन्द भगवान् के दर्शन करनेके लिये आये॥ ११(ग)॥

मूल (चौपाई)

प्रभु बिलोकि मुनि मन अनुरागा।
तुरत दिब्य सिंघासन मागा॥
रबि सम तेज सो बरनि न जाई।
बैठे राम द्विजन्ह सिरु नाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रभुको देखकर मुनि वसिष्ठजीके मनमें प्रेम भर आया। उन्होंने तुरंत ही दिव्य सिंहासन मँगवाया, जिसका तेज सूर्यके समान था। उसका सौन्दर्य वर्णन नहीं किया जा सकता। ब्राह्मणोंको सिर नवाकर श्रीरामचन्द्रजी उसपर विराज गये॥ १॥

मूल (चौपाई)

जनकसुता समेत रघुराई।
पेखि प्रहरषे मुनि समुदाई॥
बेद मंत्र तब द्विजन्ह उचारे।
नभ सुर मुनि जय जयति पुकारे॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीजानकीजीके सहित श्रीरघुनाथजीको देखकर मुनियोंका समुदाय अत्यन्त ही हर्षित हुआ। तब ब्राह्मणोंने वेदमन्त्रोंका उच्चारण किया। आकाशमें देवता और मुनि ‘जय हो, जय हो’ ऐसी पुकार करने लगे॥ २॥

मूल (चौपाई)

प्रथम तिलक बसिष्ट मुनि कीन्हा।
पुनि सब बिप्रन्ह आयसु दीन्हा॥
सुत बिलोकि हरषीं महतारी।
बार बार आरती उतारी॥

अनुवाद (हिन्दी)

(सबसे) पहले मुनि वसिष्ठजीने तिलक किया। फिर उन्होंने सब ब्राह्मणोंको (तिलक करनेकी) आज्ञा दी। पुत्रको राजसिंहासनपर देखकर माताएँ हर्षित हुईं और उन्होंने बार-बार आरती उतारी॥ ३॥

मूल (चौपाई)

बिप्रन्ह दान बिबिध बिधि दीन्हे।
जाचक सकल अजाचक कीन्हे॥
सिंघासन पर त्रिभुअन साईं।
देखि सुरन्ह दुंदुभीं बजाईं॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन्होंने ब्राह्मणोंको अनेकों प्रकारके दान दिये और सम्पूर्ण याचकोंको अयाचक बना दिया (मालामाल कर दिया)। त्रिभुवनके स्वामी श्रीरामचन्द्रजीको (अयोध्याके) सिंहासनपर (विराजित) देखकर देवताओंने नगाड़े बजाये॥ ४॥

छंद

मूल (दोहा)

नभ दुंदुभीं बाजहिं बिपुल गंधर्ब किंनर गावहीं।
नाचहिं अपछरा बृंद परमानंद सुर मुनि पावहीं॥
भरतादि अनुज बिभीषनांगद हनुमदादि समेत ते।
गहें छत्र चामर ब्यजन धनु असि चर्म सक्ति बिराजते॥

अनुवाद (हिन्दी)

आकाशमें बहुत-से नगाड़े बज रहे हैं। गन्धर्व और किन्नर गा रहे हैं। अप्सराओंके झुंड-के-झुंड नाच रहे हैं। देवता और मुनि परमानन्द प्राप्त कर रहे हैं। भरत, लक्ष्मण और शत्रुघ्नजी, विभीषण, अङ्गद, हनुमान् और सुग्रीव आदिसहित क्रमशः छत्र, चँवर, पंखा, धनुष, तलवार, ढाल और शक्ति लिये हुए सुशोभित हैं॥ १॥

मूल (दोहा)

श्री सहित दिनकर बंस भूषन काम बहु छबि सोहई।
नव अंबुधर बर गात अंबर पीत सुर मन मोहई॥
मुकुटांगदादि बिचित्र भूषन अंग अंगन्हि प्रति सजे।
अंभोज नयन बिसाल उर भुज धन्य नर निरखंति जे॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीसीताजीसहित सूर्यवंशके विभूषण श्रीरामजीके शरीरमें अनेकों कामदेवोंकी छबि शोभा दे रही है। नवीन जलयुक्त मेघोंके समान सुन्दर श्याम शरीरपर पीताम्बर देवताओंके मनको भी मोहित कर रहा है। मुकुट, बाजूबंद आदि विचित्र आभूषण अङ्ग-अङ्गमें सजे हुए हैं। कमलके समान नेत्र हैं, चौड़ी छाती है और लंबी भुजाएँ हैं; जो उनके दर्शन करते हैं, वे मनुष्य धन्य हैं॥ २॥

दोहा

मूल (दोहा)

वह सोभा समाज सुख कहत न बनइ खगेस।
बरनहिं सारद सेष श्रुति सो रस जान महेस॥ १२(क)॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे पक्षिराज गरुड़जी! वह शोभा, वह समाज और वह सुख मुझसे कहते नहीं बनता। सरस्वतीजी, शेषजी और वेद निरन्तर उसका वर्णन करते हैं, और उसका रस (आनन्द) महादेवजी ही जानते हैं॥१२(क)॥

मूल (दोहा)

भिन्न भिन्न अस्तुति करि गए सुर निज निज धाम।
बंदी बेष बेद तब आए जहँ श्रीराम॥ १२(ख)॥

अनुवाद (हिन्दी)

सब देवता अलग-अलग स्तुति करके अपने-अपने लोकको चले गये। तब भाटोंका रूप धारण करके चारों वेद वहाँ आये जहाँ श्रीरामजी थे॥ १२(ख)॥

मूल (दोहा)

प्रभु सर्बग्य कीन्ह अति आदर कृपानिधान।
लखेउ न काहूँ मरम कछु लगे करन गुन गान॥ १२(ग)॥

अनुवाद (हिन्दी)

कृपानिधान सर्वज्ञ प्रभुने (उन्हें पहचानकर) उनका बहुत ही आदर किया। इसका भेद किसीने कुछ भी नहीं जाना। वेद गुणगान करने लगे॥ १२ (ग)॥

छंद

मूल (दोहा)

जय सगुन निर्गुन रूप रूप अनूप भूप सिरोमने।
दसकंधरादि प्रचंड निसिचर प्रबल खल भुजबल हने॥
अवतार नर संसार भार बिभंजि दारुन दुख दहे।
जय प्रनतपाल दयाल प्रभु संजुक्त सक्ति नमामहे॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे सगुण और निर्गुणरूप! हे अनुपम रूप-लावण्ययुक्त! हे राजाओंके शिरोमणि! आपकी जय हो। आपने रावण आदि प्रचण्ड, प्रबल और दुष्ट निशाचरोंको अपनी भुजाओंके बलसे मार डाला। आपने मनुष्य-अवतार लेकर संसारके भारको नष्ट करके अत्यन्त कठोर दुःखोंको भस्म कर दिया। हे दयालु! हे शरणागतकी रक्षा करनेवाले प्रभो! आपकी जय हो। मैं शक्ति (सीताजी)-सहित शक्तिमान् आपको नमस्कार करता हूँ॥ १॥

मूल (दोहा)

तव बिषम माया बस सुरासुर नाग नर अग जग हरे।
भव पंथ भ्रमत अमित दिवस निसि काल कर्म गुननि भरे॥
जे नाथ करि करुना बिलोके त्रिबिधि दुख ते निर्बहे।
भव खेद छेदन दच्छ हम कहुँ रच्छ राम नमामहे॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे हरे! आपकी दुस्तर मायाके वशीभूत होनेके कारण देवता, राक्षस, नाग, मनुष्य और चर, अचर सभी काल, कर्म और गुणोंसे भरे हुए (उनके वशीभूत हुए) दिन-रात अनन्त भव (आवागमन)के मार्गमें भटक रहे हैं। हे नाथ! इनमेंसे जिनको आपने कृपा करके (कृपादृष्टिसे) देख लिया, वे (मायाजनित) तीनों प्रकारके दुःखोंसे छूट गये। हे जन्म-मरणके श्रमको काटनेमें कुशल श्रीरामजी! हमारी रक्षा कीजिये। हम आपको नमस्कार करते हैं॥ २॥

मूल (दोहा)

जे ग्यान मान बिमत्त तव भव हरनि भक्ति न आदरी।
ते पाइ सुर दुर्लभ पदादपि परत हम देखत हरी॥
बिस्वास करि सब आस परिहरि दास तव जे होइ रहे।
जपि नाम तव बिनु श्रम तरहिं भव नाथ सो समरामहे॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिन्होंने मिथ्या ज्ञानके अभिमानमें विशेषरूपसे मतवाले होकर जन्म-मृत्यु (के भय) को हरनेवाली आपकी भक्तिका आदर नहीं किया, हे हरि! उन्हें देवदुर्लभ (देवताओंको भी बड़ी कठिनतासे प्राप्त होनेवाले, ब्रह्मा आदिके) पदको पाकर भी हम उस पदसे नीचे गिरते देखते हैं। (परन्तु) जो सब आशाओंको छोड़कर आपपर विश्वास करके आपके दास हो रहते हैं, वे केवल आपका नाम ही जपकर बिना ही परिश्रम भवसागरसे तर जाते हैं। हे नाथ! ऐसे आपका हम स्मरण करते हैं॥ ३॥

मूल (दोहा)

जे चरन सिव अज पूज्य रज सुभ परसि मुनिपतिनी तरी।
नख निर्गता मुनि बंदिता त्रैलोक पावनि सुरसरी॥
ध्वज कुलिस अंकुस कंज जुत बन फिरत कंटक किन लहे।
पद कंज द्वंद मुकुंद राम रमेस नित्य भजामहे॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो चरण शिवजी और ब्रह्माजीके द्वारा पूज्य हैं, तथा जिन चरणोंकी कल्याणमयी रजका स्पर्श पाकर (शिला बनी हुई) गौतम ऋषिकी पत्नी अहल्या तर गयी; जिन चरणोंके नखसे मुनियोंद्वारा वन्दित, त्रैलोक्यको पवित्र करनेवाली देवनदी गङ्गाजी निकलीं और ध्वजा, वज्र, अंकुश और कमल, इन चिह्नोंसे युक्त जिन चरणोंमें वनमें फिरते समय काँटे चुभ जानेसे घट्ठे पड़ गये हैं; हे मुकुन्द! हे राम! हे रमापति! हम आपके उन्हीं दोनों चरणकमलोंको नित्य भजते रहते हैं॥ ४॥

मूल (दोहा)

अब्यक्तमूलमनादि तरु त्वच चारि निगमागम भने।
षट कंध साखा पंच बीस अनेक पर्न सुमन घने॥
फल जुगल बिधि कटु मधुर बेलि अकेलि जेहि आश्रित रहे।
पल्लवत फूलत नवल नित संसार बिटप नमामहे॥

अनुवाद (हिन्दी)

वेद-शास्त्रोंने कहा है कि जिसका मूल अव्यक्त (प्रकृति) है; जो (प्रवाहरूपसे) अनादि है; जिसके चार त्वचाएँ, छः तने, पचीस शाखाएँ और अनेकों पत्ते और बहुत-से फूल हैं; जिसमें कड़वे और मीठे दो प्रकारके फल लगे हैं; जिसपर एक ही बेल है, जो उसीके आश्रित रहती है; जिसमें नित्य नये पत्ते और फूल निकलते रहते हैं; ऐसे संसारवृक्षस्वरूप (विश्वरूपमें प्रकट) आपको हम नमस्कार करते हैं॥ ५॥

मूल (दोहा)

जे ब्रह्म अजमद्वैतमनुभवगम्य मन पर ध्यावहीं।
ते कहहुँ जानहुँ नाथ हम तव सगुन जस नित गावहीं॥
करुनायतन प्रभु सदगुनाकर देव यह बर मागहीं।
मन बचन कर्म बिकार तजि तव चरन हम अनुरागहीं॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्रह्म अजन्मा है, अद्वैत है, केवल अनुभवसे ही जाना जाता है और मनसे परे है—जो (इस प्रकार कहकर उस) ब्रह्मका ध्यान करते हैं, वे ऐसा कहा करें और जाना करें, किन्तु हे नाथ! हम तो नित्य आपका सगुण यश ही गाते हैं। हे करुणाके धाम प्रभो! हे सद्गुणोंकी खान! हे देव! हम यह वर माँगते हैं कि मन, वचन और कर्मसे विकारोंको त्यागकर आपके चरणोंमें ही प्रेम करें॥ ६॥

दोहा

मूल (दोहा)

सब के देखत बेदन्ह बिनती कीन्हि उदार।
अंतर्धान भए पुनि गए ब्रह्म आगार॥ १३(क)॥

अनुवाद (हिन्दी)

वेदोंने सबके देखते यह श्रेष्ठ विनती की। फिर वे अन्तर्धान हो गये और ब्रह्मलोकको चले गये॥ १३(क)॥

मूल (दोहा)

बैनतेय सुनु संभु तब आए जहँ रघुबीर।
बिनय करत गदगद गिरा पूरित पुलक सरीर॥ १३(ख)॥

अनुवाद (हिन्दी)

(काकभुशुण्डिजी कहते हैं—) हे गरुड़जी! सुनिये, तब शिवजी वहाँ आये जहाँ श्रीरघुवीर थे और गद्गद वाणीसे स्तुति करने लगे। उनका शरीर पुलकावलीसे पूर्ण हो गया—॥ १३(ख)॥

छंद

मूल (दोहा)

जय राम रमारमनं समनं।
भवताप भयाकुल पाहि जनं॥
अवधेस सुरेस रमेस बिभो।
सरनागत मागत पाहि प्रभो॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे राम! हे रमारमण (लक्ष्मीकान्त)! हे जन्म-मरणके संतापका नाश करनेवाले! आपकी जय हो; आवागमनके भयसे व्याकुल इस सेवककी रक्षा कीजिये। हे अवधपति! हे देवताओंके स्वामी! हे रमापति! हे विभो! मैं शरणागत आपसे यही माँगता हूँ कि हे प्रभो! मेरी रक्षा कीजिये॥ १॥

मूल (दोहा)

दससीस बिनासन बीस भुजा।
कृत दूरि महा महि भूरि रुजा॥
रजनीचर बृंद पतंग रहे।
सर पावक तेज प्रचंड दहे॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे दस सिर और बीस भुजाओंवाले रावणका विनाश करके पृथ्वीके सब महान् रोगों (कष्टों)को दूर करनेवाले श्रीरामजी! राक्षससमूहरूपी जो पतंगे थे, वे सब आपके बाणरूपी अग्निके प्रचण्ड तेजसे भस्म हो गये॥ २॥

मूल (दोहा)

महि मंडल मंडन चारुतरं।
धृत सायक चाप निषंग बरं॥
मद मोह महा ममता रजनी।
तम पुंज दिवाकर तेज अनी॥

अनुवाद (हिन्दी)

आप पृथ्वीमण्डलके अत्यन्त सुन्दर आभूषण हैं; आप श्रेष्ठ बाण, धनुष और तरकस धारण किये हुए हैं। महान् मद, मोह और ममतारूपी रात्रिके अन्धकारसमूहके नाश करनेके लिये आप सूर्यके तेजोमय किरणसमूह हैं॥ ३॥

मूल (दोहा)

मनजात किरात निपात किए।
मृग लोग कुभोग सरेन हिए॥
हति नाथ अनाथनि पाहि हरे।
बिषया बन पावँर भूलि परे॥

अनुवाद (हिन्दी)

कामदेवरूपी भीलने मनुष्यरूपी हिरनोंके हृदयमें कुभोगरूपी बाण मारकर उन्हें गिरा दिया है। हे नाथ! हे (पाप-तापका हरण करनेवाले) हरे! उसे मारकर विषयरूपी वनमें भूले पड़े हुए इन पामर अनाथ जीवोंकी रक्षा कीजिये॥ ४॥

मूल (दोहा)

बहु रोग बियोगन्हि लोग हए।
भवदंघ्रि निरादर के फल ए॥
भव सिंधु अगाध परे नर ते।
पद पंकज प्रेम न जे करते॥

अनुवाद (हिन्दी)

लोग बहुत-से रोगों और वियोगों (दुःखों) से मारे हुए हैं। ये सब आपके चरणोंके निरादरके फल हैं। जो मनुष्य आपके चरणकमलोंमें प्रेम नहीं करते, वे अथाह भवसागरमें पड़े हैं॥ ५॥

मूल (दोहा)

अति दीन मलीन दुखी नितहीं।
जिन्ह कें पद पंकज प्रीति नहीं॥
अवलंब भवंत कथा जिन्ह कें।
प्रिय संत अनंत सदा तिन्ह कें॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिन्हें आपके चरणकमलोंमें प्रीति नहीं है वे नित्य ही अत्यन्त दीन, मलिन (उदास) और दुःखी रहते हैं। और जिन्हें आपकी लीला-कथाका आधार है, उनको संत और भगवान् सदा प्रिय लगने लगते हैं॥ ६॥

मूल (दोहा)

नहिं राग न लोभ न मान मदा।
तिन्ह कें सम बैभव वा बिपदा॥
एहि ते तव सेवक होत मुदा।
मुनि त्यागत जोग भरोस सदा॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनमें न राग (आसक्ति) है, न लोभ; न मान है, न मद। उनको सम्पत्ति (सुख) और विपत्ति (दुःख) समान है। इसीसे मुनिलोग योग (साधन) का भरोसा सदाके लिये त्याग देते हैं और प्रसन्नताके साथ आपके सेवक बन जाते हैं॥ ७॥

मूल (दोहा)

करि प्रेम निरंतर नेम लिएँ।
पद पंकज सेवत सुद्ध हिएँ॥
सम मानि निरादर आदरही।
सब संत सुखी बिचरंति मही॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे प्रेमपूर्वक नियम लेकर निरन्तर शुद्ध हृदयसे आपके चरणकमलोंकी सेवा करते रहते हैं और निरादर और आदरको समान मानकर वे सब संत सुखी होकर पृथ्वीपर विचरते हैं॥ ८॥

मूल (दोहा)

मुनि मानस पंकज भृंग भजे।
रघुबीर महा रनधीर अजे॥
तव नाम जपामि नमामि हरी।
भव रोग महागद मान अरी॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे मुनियोंके मनरूपी कमलके भ्रमर! हे महान् रणधीर एवं अजेय श्रीरघुवीर! मैं आपको भजता हूँ (आपकी शरण ग्रहण करता हूँ)। हे हरि! आपका नाम जपता हूँ और आपको नमस्कार करता हूँ। आप जन्म-मरणरूपी रोगकी महान् औषध और अभिमानके शत्रु हैं॥ ९॥

मूल (दोहा)

गुन सील कृपा परमायतनं।
प्रनमामि निरंतर श्रीरमनं॥
रघुनंद निकंदय द्वंद्वघनं।
महिपाल बिलोकय दीनजनं॥

अनुवाद (हिन्दी)

आप गुण, शील और कृपाके परम स्थान हैं। आप लक्ष्मीपति हैं, मैं आपको निरन्तर प्रणाम करता हूँ। हे रघुनन्दन! (आप जन्म-मरण, सुख-दुःख, राग-द्वेषादि) द्वन्द्व-समूहोंका नाश कीजिये। हे पृथ्वीकी पालना करनेवाले राजन्! इस दीन जनकी ओर भी दृष्टि डालिये॥ १०॥

दोहा

मूल (दोहा)

बार बार बर मागउँ हरषि देहु श्रीरंग।
पद सरोज अनपायनी भगति सदा सतसंग॥ १४(क)॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैं आपसे बार-बार यही वरदान माँगता हूँ कि मुझे आपके चरणकमलोंकी अचलभक्ति और आपके भक्तोंका सत्सङ्ग सदा प्राप्त हो। हे लक्ष्मीपते! हर्षित होकर मुझे यही दीजिये॥१४(क)॥

मूल (दोहा)

बरनि उमापति राम गुन हरषि गए कैलास।
तब प्रभु कपिन्ह दिवाए सब बिधि सुखप्रद बास॥ १४(ख)॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरामचन्द्रजीके गुणोंका वर्णन करके उमापति महादेवजी हर्षित होकर कैलासको चले गये। तब प्रभुने वानरोंको सब प्रकारसे सुख देनेवाले डेरे दिलवाये॥ १४(ख)॥

मूल (चौपाई)

सुनु खगपति यह कथा पावनी।
त्रिबिध ताप भव भय दावनी॥
महाराज कर सुभ अभिषेका।
सुनत लहहिं नर बिरति बिबेका॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे गरुड़जी! सुनिये, यह कथा (सबको) पवित्र करनेवाली है, (दैहिक, दैविक, भौतिक) तीनों प्रकारके तापोंका और जन्म-मृत्युके भयका नाश करनेवाली है। महाराज श्रीरामचन्द्रजीके कल्याणमय राज्याभिषेकका चरित्र (निष्कामभावसे) सुनकर मनुष्य वैराग्य और ज्ञान प्राप्त करते हैं॥ १॥

मूल (चौपाई)

जे सकाम नर सुनहिं जे गावहिं।
सुख संपति नाना बिधि पावहिं॥
सुर दुर्लभ सुख करि जग माहीं।
अंतकाल रघुपति पुर जाहीं॥

अनुवाद (हिन्दी)

और जो मनुष्य सकामभावसे सुनते और जो गाते हैं, वे अनेकों प्रकारके सुख और सम्पत्ति पाते हैं। वे जगत् में देवदुर्लभ सुखोंको भोगकर अन्तकालमें श्रीरघुनाथजीके परमधामको जाते हैं॥ २॥

मूल (चौपाई)

सुनहिं बिमुक्त बिरत अरु बिषई।
लहहिं भगति गति संपति नई॥
खगपति राम कथा मैं बरनी।
स्वमति बिलास त्रास दुख हरनी॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसे जो जीवन्मुक्त, विरक्त और विषयी सुनते हैं, वे (क्रमशः) भक्ति, मुक्ति और नवीन सम्पत्ति (नित्य नये भोग) पाते हैं। हे पक्षिराज गरुड़जी! मैंने अपनी बुद्धिकी पहुँचके अनुसार रामकथा वर्णन की है, जो (जन्म-मरणके) भय और दुःखको हरनेवाली है॥ ३॥

मूल (चौपाई)

बिरति बिबेक भगति दृढ़ करनी।
मोह नदी कहँ सुंदर तरनी॥
नित नव मंगल कौसलपुरी।
हरषित रहहिं लोग सब कुरी॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह वैराग्य, विवेक और भक्तिको दृढ़ करनेवाली है तथा मोहरूपी नदीके (पार करनेके) लिये सुन्दर नाव है। अवधपुरीमें नित-नये मङ्गलोत्सव होते हैं। सभी वर्गोंके लोग हर्षित रहते हैं॥ ४॥

मूल (चौपाई)

नित नइ प्रीति राम पद पंकज।
सब कें जिन्हहि नमत सिव मुनि अज॥
मंगन बहु प्रकार पहिराए।
द्विजन्ह दान नाना बिधि पाए॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरामजीके चरणकमलोंमें—जिन्हें श्रीशिवजी, मुनिगण और ब्रह्माजी भी नमस्कार करते हैं—सबकी नित्य नवीन प्रीति है। भिक्षुकोंको बहुत प्रकारके वस्त्राभूषण पहनाये गये और ब्राह्मणोंने नाना प्रकारके दान पाये॥ ५॥

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