०३ श्रीरामजीका स्वागत, भरत-मिलाप, सबका मिलनानन्द

दोहा

मूल (दोहा)

आवत देखि लोग सब कृपासिंधु भगवान।
नगर निकट प्रभु प्रेरेउ उतरेउ भूमि बिमान॥ ४(क)॥

अनुवाद (हिन्दी)

कृपासागर भगवान् श्रीरामचन्द्रजीने सब लोगोंको आते देखा, तो प्रभुने विमानको नगरके समीप उतरनेकी प्रेरणा की। तब वह पृथ्वीपर उतरा॥ ४(क)॥

मूल (दोहा)

उतरि कहेउ प्रभु पुष्पकहि तुम्ह कुबेर पहिं जाहु।
प्रेरित राम चलेउ सो हरषु बिरहु अति ताहु॥ ४(ख)॥

अनुवाद (हिन्दी)

विमानसे उतरकर प्रभुने पुष्पकविमानसे कहा कि तुम अब कुबेरके पास जाओ। श्रीरामजीकी प्रेरणासे वह चला; उसे (अपने स्वामीके पास जानेका) हर्ष है और प्रभु श्रीरामचन्द्रजीसे अलग होनेका अत्यन्त दुःख भी॥ ४(ख)॥

मूल (चौपाई)

आए भरत संग सब लोगा।
कृस तन श्रीरघुबीर बियोगा॥
बामदेव बसिष्ट मुनिनायक।
देखे प्रभु महि धरि धनु सायक॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतजीके साथ सब लोग आये। श्रीरघुवीरके वियोगसे सबके शरीर दुबले हो रहे हैं। प्रभुने वामदेव, वसिष्ठ आदि मुनिश्रेष्ठोंको देखा, तो उन्होंने धनुष-बाण पृथ्वीपर रखकर—॥ १॥

मूल (चौपाई)

धाइ धरे गुर चरन सरोरुह।
अनुज सहित अति पुलक तनोरुह॥
भेंटि कुसल बूझी मुनिराया।
हमरें कुसल तुम्हारिहिं दाया॥

अनुवाद (हिन्दी)

छोटे भाई लक्ष्मणजीसहित दौड़कर गुरुजीके चरणकमल पकड़ लिये; उनके रोम-रोम अत्यन्त पुलकित हो रहे हैं। मुनिराज वसिष्ठजीने (उठाकर) उन्हें गले लगाकर कुशल पूछी। (प्रभुने कहा—) आपहीकी दयामें हमारी कुशल है॥ २॥

मूल (चौपाई)

सकल द्विजन्ह मिलि नायउ माथा।
धर्म धुरंधर रघुकुलनाथा॥
गहे भरत पुनि प्रभु पद पंकज।
नमत जिन्हहि सुर मुनि संकर अज॥

अनुवाद (हिन्दी)

धर्मकी धुरी धारण करनेवाले रघुकुलके स्वामी श्रीरामजीने सब ब्राह्मणोंसे मिलकर उन्हें मस्तक नवाया। फिर भरतजीने प्रभुके वे चरणकमल पकड़े जिन्हें देवता, मुनि, शङ्करजी और ब्रह्माजी (भी) नमस्कार करते हैं॥ ३॥

मूल (चौपाई)

परे भूमि नहिं उठत उठाए।
बर करि कृपासिंधु उर लाए॥
स्यामल गात रोम भए ठाढ़े।
नव राजीव नयन जल बाढ़े॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतजी पृथ्वीपर पड़े हैं, उठाये उठते नहीं। तब कृपासिंधु श्रीरामजीने उन्हें जबर्दस्ती उठाकर हृदयसे लगा लिया। (उनके) साँवले शरीरपर रोएँ खड़े हो गये। नवीन कमलके समान नेत्रोंमें (प्रेमाश्रुओंके) जलकी बाढ़ आ गयी॥ ४॥

छंद

मूल (दोहा)

राजीव लोचन स्रवत जल तन ललित पुलकावलि बनी।
अति प्रेम हृदयँ लगाइ अनुजहि मिले प्रभु त्रिभुअन धनी॥
प्रभु मिलत अनुजहि सोह मो पहिं जाति नहिं उपमा कही।
जनु प्रेम अरु सिंगार तनु धरि मिले बर सुषमा लही॥

अनुवाद (हिन्दी)

कमलके समान नेत्रोंसे जल बह रहा है। सुन्दर शरीरमें पुलकावली (अत्यन्त) शोभा दे रही है। त्रिलोकीके स्वामी प्रभु श्रीरामजी छोटे भाई भरतजीको अत्यन्त प्रेमसे हृदयसे लगाकर मिले। भाईसे मिलते समय प्रभु जैसे शोभित हो रहे हैं उसकी उपमा मुझसे कही नहीं जाती। मानो प्रेम और शृंगार शरीर धारण करके मिले और श्रेष्ठ शोभाको प्राप्त हुए॥ १॥

मूल (दोहा)

बूझत कृपानिधि कुसल भरतहि बचन बेगि न आवई।
सुनु सिवा सो सुख बचन मन ते भिन्न जान जो पावई॥
अब कुसल कौसलनाथ आरत जानि जन दरसन दियो।
बूड़त बिरह बारीस कृपानिधान मोहि कर गहि लियो॥

अनुवाद (हिन्दी)

कृपानिधान श्रीरामजी भरतजीसे कुशल पूछते हैं; परन्तु आनन्दवश भरतजीके मुखसे वचन शीघ्र नहीं निकलते। (शिवजीने कहा—) हे पार्वती! सुनो, वह सुख (जो उस समय भरतजीको मिल रहा था) वचन और मनसे परे है; उसे वही जानता है जो उसे पाता है। (भरतजीने कहा—) हे कोसलनाथ! आपने आर्त्त (दुःखी) जानकर दासको दर्शन दिये, इससे अब कुशल है। विरहसमुद्रमें डूबते हुए मुझको कृपानिधानने हाथ पकड़कर बचा लिया!॥ २॥

दोहा

मूल (दोहा)

पुनि प्रभु हरषि सत्रुहन भेंटे हृदयँ लगाइ।
लछिमन भरत मिले तब परम प्रेम दोउ भाइ॥ ५॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर प्रभु हर्षित होकर शत्रुघ्नजीको हृदयसे लगाकर उनसे मिले। तब लक्ष्मणजी और भरतजी दोनों भाई परम प्रेमसे मिले॥ ५॥

मूल (चौपाई)

भरतानुज लछिमन पुनि भेंटे।
दुसह बिरह संभव दुख मेटे॥
सीता चरन भरत सिरु नावा।
अनुज समेत परम सुख पावा॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर लक्ष्मणजी शत्रुघ्नजीसे गले लगकर मिले और इस प्रकार विरहसे उत्पन्न दुःसह दुःखका नाश किया। फिर भाई शत्रुघ्नजीसहित भरतजीने सीताजीके चरणोंमें सिर नवाया और परम सुख प्राप्त किया॥ १॥

मूल (चौपाई)

प्रभु बिलोकि हरषे पुरबासी।
जनित बियोग बिपति सब नासी॥
प्रेमातुर सब लोग निहारी।
कौतुक कीन्ह कृपाल खरारी॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रभुको देखकर अयोध्यावासी सब हर्षित हुए। वियोगसे उत्पन्न सब दुःख नष्ट हो गये। सब लोगोंको प्रेमविह्वल (और मिलनेके लिये अत्यन्त आतुर) देखकर खरके शत्रु कृपालु श्रीरामजीने एक चमत्कार किया॥ २॥

मूल (चौपाई)

अमित रूप प्रगटे तेहि काला।
जथा जोग मिले सबहि कृपाला॥
कृपादृष्टि रघुबीर बिलोकी।
किए सकल नर नारि बिसोकी॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसी समय कृपालु श्रीरामजी असंख्य रूपोंमें प्रकट हो गये और सबसे (एक ही साथ) यथायोग्य मिले। श्रीरघुवीरने कृपाकी दृष्टिसे देखकर सब नर-नारियोंको शोकसे रहित कर दिया॥ ३॥

मूल (चौपाई)

छन महिं सबहि मिले भगवाना।
उमा मरम यह काहुँ न जाना॥
एहि बिधि सबहि सुखी करि रामा।
आगें चले सील गुन धामा॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् क्षणमात्रमें सबसे मिल लिये। हे उमा! यह रहस्य किसीने नहीं जाना। इस प्रकार शील और गुणोंके धाम श्रीरामजी सबको सुखी करके आगे बढ़े॥ ४॥

मूल (चौपाई)

कौसल्यादि मातु सब धाई।
निरखि बच्छ जनु धेनु लवाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

कौसल्या आदि माताएँ ऐसे दौड़ीं मानो नयी ब्यायी हुई गौएँ अपने बछड़ोंको देखकर दौड़ी हों॥ ५॥

छंद

मूल (दोहा)

जनु धेनु बालक बच्छ तजि गृहँ चरन बन परबस गईं।
दिन अंत पुर रुख स्रवत थन हुंकार करि धावत भईं॥
अति प्रेम प्रभु सब मातु भेटीं बचन मृदु बहुबिधि कहे।
गइ बिषम बिपति बियोगभव तिन्ह हरष सुख अगनित लहे॥

अनुवाद (हिन्दी)

मानो नयी ब्यायी हुई गौएँ अपने छोटे बछड़ोंको घरपर छोड़ परवश होकर वनमें चरने गयी हों और दिनका अन्त होनेपर (बछड़ोंसे मिलनेके लिये) हुंकार करके थनसे दूध गिराती हुई नगरकी ओर दौड़ी हों। प्रभुने अत्यन्त प्रेमसे सब माताओंसे मिलकर उनसे बहुत प्रकारके कोमल वचन कहे। वियोगसे उत्पन्न भयानक विपत्ति दूर हो गयी और सबने (भगवान् से मिलकर और उनके वचन सुनकर) अगणित सुख और हर्ष प्राप्त किये।

दोहा

मूल (दोहा)

भेटेउ तनय सुमित्राँ राम चरन रति जानि।
रामहि मिलत कैकई हृदयँ बहुत सकुचानि॥ ६(क)॥

अनुवाद (हिन्दी)

सुमित्राजी अपने पुत्र लक्ष्मणजीकी श्रीरामजीके चरणोंमें प्रीति जानकर उनसे मिलीं। श्रीरामजीसे मिलते समय कैकेयीजी हृदयमें बहुत सकुचायीं॥ ६(क)॥

मूल (दोहा)

लछिमन सब मातन्ह मिलि हरषे आसिष पाइ।
कैकइ कहँ पुनि पुनि मिले मन कर छोभु न जाइ॥ ६(ख)॥

अनुवाद (हिन्दी)

लक्ष्मणजी भी सब माताओंसे मिलकर और आशीर्वाद पाकर हर्षित हुए। वे कैकेयीजीसे बार-बार मिले, परन्तु उनके मनका क्षोभ (रोष) नहीं जाता॥ ६(ख)॥

मूल (चौपाई)

सासुन्ह सबनि मिली बैदेही।
चरनन्हि लागि हरषु अति तेही॥
देहिं असीस बूझि कुसलाता।
होइ अचल तुम्हार अहिवाता॥

अनुवाद (हिन्दी)

जानकीजी सब सासुओंसे मिलीं और उनके चरणों लगकर उन्हें अत्यन्त हर्ष हुआ। सासुएँ कुशल पूछकर आशिष दे रही हैं कि तुम्हारा सुहाग अचल हो॥ १॥

मूल (चौपाई)

सब रघुपति मुख कमल बिलोकहिं।
मंगल जानि नयन जल रोकहिं॥
कनक थार आरती उतारहिं।
बार बार प्रभु गात निहारहिं॥

अनुवाद (हिन्दी)

सब माताएँ श्रीरघुनाथजीका कमल-सा मुखड़ा देख रही हैं। (नेत्रोंसे प्रेमके आँसू उमड़े आते हैं, परन्तु) मङ्गलका समय जानकर वे आँसुओंके जलको नेत्रोंमें ही रोक रखती हैं। सोनेके थालसे आरती उतारती हैं और बार-बार प्रभुके श्रीअङ्गोंकी ओर देखती हैं॥ २॥

मूल (चौपाई)

नाना भाँति निछावरि करहीं।
परमानंद हरष उर भरहीं॥
कौसल्या पुनि पुनि रघुबीरहि।
चितवति कृपासिंधु रनधीरहि॥

अनुवाद (हिन्दी)

अनेकों प्रकारसे निछावरें करती हैं और हृदयमें परमानन्द तथा हर्ष भर रही हैं। कौसल्याजी बार-बार कृपाके समुद्र और रणधीर श्रीरघुवीरको देख रही हैं॥ ३॥

मूल (चौपाई)

हृदयँ बिचारति बारहिं बारा।
कवन भाँति लंकापति मारा॥
अति सुकुमार जुगल मेरे बारे।
निसिचर सुभट महाबल भारे॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे बार-बार हृदयमें विचारती हैं कि इन्होंने लंकापति रावणको कैसे मारा? मेरे ये दोनों बच्चे बड़े ही सुकुमार हैं और राक्षस तो बड़े भारी योद्धा और महान् बली थे॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

लछिमन अरु सीता सहित प्रभुहि बिलोकति मातु।
परमानंद मगन मन पुनि पुनि पुलकित गातु॥ ७॥

अनुवाद (हिन्दी)

लक्ष्मणजी और सीताजीसहित प्रभु श्रीरामचन्द्रजीको माता देख रही हैं। उनका मन परमानन्दमें मग्न है और शरीर बार-बार पुलकित हो रहा है॥ ७॥

मूल (चौपाई)

लंकापति कपीस नल नीला।
जामवंत अंगद सुभसीला॥
हनुमदादि सब बानर बीरा।
धरे मनोहर मनुज सरीरा॥

अनुवाद (हिन्दी)

लंकापति विभीषण, वानरराज सुग्रीव, नल, नील, जाम्बवान् और अंगद तथा हनुमान् जी आदि सभी उत्तम स्वभाववाले वीर वानरोंने मनुष्योंके मनोहर शरीर धारण कर लिये॥ १॥

मूल (चौपाई)

भरत सनेह सील ब्रत नेमा।
सादर सब बरनहिं अति प्रेमा॥
देखि नगरबासिन्ह कै रीती।
सकल सराहहिं प्रभु पद प्रीती॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे सब भरतजीके प्रेम, सुन्दर स्वभाव, (त्यागके) व्रत और नियमोंकी अत्यन्त प्रेमसे आदरपूर्वक बड़ाई कर रहे हैं। और नगरनिवासियोंकी (प्रेम, शील और विनयसे पूर्ण) रीति देखकर वे सब प्रभुके चरणोंमें उनके प्रेमकी सराहना कर रहे हैं॥ २॥

मूल (चौपाई)

पुनि रघुपति सब सखा बोलाए।
मुनि पद लागहु सकल सिखाए॥
गुर बसिष्ट कुलपूज्य हमारे।
इन्ह की कृपाँ दनुज रन मारे॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर श्रीरघुनाथजीने सब सखाओंको बुलाया और सबको सिखाया कि मुनिके चरणोंमें लगो। ये गुरु वसिष्ठजी हमारे कुलभरके पूज्य हैं। इन्हींकी कृपासे रणमें राक्षस मारे गये हैं॥ ३॥

मूल (चौपाई)

ए सब सखा सुनहु मुनि मेरे।
भए समर सागर कहँ बेरे॥
मम हित लागि जन्म इन्ह हारे।
भरतहु ते मोहि अधिक पिआरे॥

अनुवाद (हिन्दी)

(फिर गुरुजीसे कहा—) हे मुनि! सुनिये। ये सब मेरे सखा हैं। ये संग्रामरूपी समुद्रमें मेरे लिये बेडे़ (जहाज) के समान हुए। मेरे हितके लिये इन्होंने अपने जन्मतक हार दिये (अपने प्राणोंतकको होम दिया)। ये मुझे भरतसे भी अधिक प्रिय हैं॥ ४॥

मूल (चौपाई)

सुनि प्रभु बचन मगन सब भए।
निमिष निमिष उपजत सुख नए॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रभुके वचन सुनकर सब प्रेम और आनन्दमें मग्न हो गये। इस प्रकार पल-पलमें उन्हें नये-नये सुख उत्पन्न हो रहे हैं॥ ५॥

दोहा

मूल (दोहा)

कौसल्या के चरनन्हि पुनि तिन्ह नायउ माथ।
आसिष दीन्हे हरषि तुम्ह प्रिय मम जिमि रघुनाथ॥ ८(क)॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर उन लोगोंने कौसल्याजीके चरणोंमें मस्तक नवाये। कौसल्याजीने हर्षित होकर आशिषें दीं (और कहा—) तुम मुझे रघुनाथके समान प्यारे हो॥ ८(क)॥

मूल (दोहा)

सुमन बृष्टि नभ संकुल भवन चले सुखकंद।
चढ़ी अटारिन्ह देखहिं नगर नारि नर बृंद॥ ८(ख)॥

अनुवाद (हिन्दी)

आनन्दकन्द श्रीरामजी अपने महलको चले, आकाश फूलोंकी वृष्टिसे छा गया। नगरके स्त्री-पुरुषोंके समूह अटारियोंपर चढ़कर उनके दर्शन कर रहे हैं॥ ८(ख)॥

मूल (चौपाई)

कंचन कलस बिचित्र सँवारे।
सबहिं धरे सजि निज निज द्वारे॥
बंदनवार पताका केतू।
सबन्हि बनाए मंगल हेतू॥

अनुवाद (हिन्दी)

सोनेके कलशोंको विचित्र रीतिसे (मणि-रत्नादिसे) अलंकृत कर और सजाकर सब लोगोंने अपने-अपने दरवाजोंपर रख लिया। सब लोगोंने मङ्गलके लिये बंदनवार, ध्वजा और पताकाएँ लगायीं॥ १॥

मूल (चौपाई)

बीथीं सकल सुगंध सिंचाईं।
गजमनि रचि बहु चौक पुराईं॥
नाना भाँति सुमंगल साजे।
हरषि नगर निसान बहु बाजे॥

अनुवाद (हिन्दी)

सारी गलियाँ सुगन्धित द्रवोंसे सिंचायी गयीं। गजमुक्ताओंसे रचकर बहुत-सी चौकें पुरायी गयीं। अनेकों प्रकारके सुन्दर मङ्गल-साज सजाये गये और हर्षपूर्वक नगरमें बहुत-से डंके बजने लगे॥ २॥

मूल (चौपाई)

जहँ तहँ नारि निछावरि करहीं।
देहिं असीस हरष उर भरहीं॥
कंचन थार आरतीं नाना।
जुबतीं सजें करहिं सुभ गाना॥

अनुवाद (हिन्दी)

स्त्रियाँ जहाँ-तहाँ निछावर कर रही हैं, और हृदयमें हर्षित होकर आशीर्वाद देती हैं। बहुत-सी युवती (सौभाग्यवती) स्त्रियाँ सोनेके थालोंमें अनेकों प्रकारकी आरती सजकर मङ्गलगान कर रही हैं॥ ३॥

मूल (चौपाई)

करहिं आरती आरतिहर कें।
रघुकुल कमल बिपिन दिनकर कें॥
पुर सोभा संपति कल्याना।
निगम सेष सारदा बखाना॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे आर्तिहर (दुःखोंको हरनेवाले) और सूर्यकुलरूपी कमलवनके प्रफुल्लित करनेवाले सूर्य श्रीरामजीकी आरती कर रही हैं। नगरकी शोभा, सम्पत्ति और कल्याणका वेद, शेषजी और सरस्वतीजी वर्णन करते हैं—॥ ४॥

मूल (चौपाई)

तेउ यह चरित देखि ठगि रहहीं।
उमा तासु गुन नर किमि कहहीं॥

अनुवाद (हिन्दी)

परन्तु वे भी यह चरित्र देखकर ठगे-से रह जाते हैं (स्तम्भित हो रहते हैं)। (शिवजी कहते हैं—) हे उमा! तब भला मनुष्य उनके गुणोंको कैसे कह सकते हैं॥ ५॥

दोहा

मूल (दोहा)

नारि कुमुदिनीं अवध सर रघुपति बिरह दिनेस।
अस्त भएँ बिगसत भईं निरखि राम राकेस॥ ९(क)॥

अनुवाद (हिन्दी)

स्त्रियाँ कुमुदिनी हैं, अयोध्या सरोवर है और श्रीरघुनाथजीका विरह सूर्य है (इस विरह-सूर्यके तापसे वे मुरझा गयी थीं)। अब उस विरहरूपी सूर्यके अस्त होनेपर श्रीरामरूपी पूर्णचन्द्रको निरखकर वे खिल उठीं॥ ९(क)॥

मूल (दोहा)

होहिं सगुन सुभ बिबिध बिधि बाजहिं गगन निसान।
पुर नर नारि सनाथ करि भवन चले भगवान॥ ९(ख)॥

अनुवाद (हिन्दी)

अनेक प्रकारके शुभ शकुन हो रहे हैं, आकाशमें नगाड़े बज रहे हैं। नगरके पुरुषों और स्त्रियोंको सनाथ (दर्शनद्वारा कृतार्थ) करके भगवान् श्रीरामचन्द्रजी महलको चले॥ ९(ख)॥

मूल (चौपाई)

प्रभु जानी कैकई लजानी।
प्रथम तासु गृह गए भवानी॥
ताहि प्रबोधि बहुत सुख दीन्हा।
पुनि निज भवन गवन हरि कीन्हा॥

अनुवाद (हिन्दी)

(शिवजी कहते हैं—) हे भवानी! प्रभुने जान लिया कि माता कैकेयी लज्जित हो गयी हैं। (इसलिये) वे पहले उन्हींके महलको गये और उन्हें समझा-बुझाकर बहुत सुख दिया। फिर श्रीहरिने अपने महलको गमन किया॥ १॥

मूल (चौपाई)

कृपासिंधु जब मंदिर गए।
पुर नर नारि सुखी सब भए॥
गुर बसिष्ट द्विज लिए बुलाई।
आजु सुघरी सुदिन समुदाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

कृपाके समुद्र श्रीरामजी जब अपने महलको गये, तब नगरके स्त्री-पुरुष सब सुखी हुए। गुरु वसिष्ठजीने ब्राह्मणोंको बुला लिया (और कहा—) आज शुभ घड़ी, सुन्दर दिन आदि सभी शुभ योग हैं॥ २॥

मूल (चौपाई)

सब द्विज देहु हरषि अनुसासन।
रामचंद्र बैठहिं सिंघासन॥
मुनि बसिष्ट के बचन सुहाए।
सुनत सकल बिप्रन्ह अति भाए॥

अनुवाद (हिन्दी)

आप सब ब्राह्मण हर्षित होकर आज्ञा दीजिये, जिसमें श्रीरामचन्द्रजी सिंहासनपर विराजमान हों। वसिष्ठ मुनिके सुहावने वचन सुनते ही सब ब्राह्मणोंको बहुत ही अच्छे लगे॥ ३॥

मूल (चौपाई)

कहहिं बचन मृदु बिप्र अनेका।
जग अभिराम राम अभिषेका॥
अब मुनिबर बिलंब नहिं कीजै।
महाराज कहँ तिलक करीजै॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे सब अनेकों ब्राह्मण कोमल वचन कहने लगे कि श्रीरामजीका राज्याभिषेक सम्पूर्ण जगत् को आनन्द देनेवाला है। हे मुनिश्रेष्ठ! अब विलम्ब न कीजिये और महाराजका तिलक शीघ्र कीजिये॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

तब मुनि कहेउ सुमंत्र सन सुनत चलेउ हरषाइ।
रथ अनेक बहु बाजि गज तुरत सँवारे जाइ॥ १०(क)॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब मुनिने सुमन्त्रजीसे कहा, वे सुनते ही हर्षित होकर चले। उन्होंने तुरंत ही जाकर अनेकों रथ, घोड़े और हाथी सजाये;॥ १०(क)॥

मूल (दोहा)

जहँ तहँ धावन पठइ पुनि मंगल द्रब्य मगाइ।
हरष समेत बसिष्ट पद पुनि सिरु नायउ आइ॥ १०(ख)॥

अनुवाद (हिन्दी)

और जहाँ-तहाँ (सूचना देनेवाले) दूतोंको भेजकर माङ्गलिक वस्तुएँ मँगाकर फिर हर्षके साथ आकर वसिष्ठजीके चरणोंमें सिर नवाया॥ १०(ख)॥

भागसूचना

नवाह्नपारायण, आठवाँ विश्राम

Misc Detail