०२ भरत-विरह तथा भरत-हनुमान्-मिलन, अयोध्यामें आनन्द

दोहा

मूल (दोहा)

रहा एक दिन अवधि कर अति आरत पुर लोग।
जहँ तहँ सोचहिं नारि नर कृस तन राम बियोग॥

अनुवाद (हिन्दी)

(श्रीरामजीके लौटनेकी) अवधिका एक ही दिन बाकी रह गया, अतएव नगरके लोग बहुत आतुर (अधीर) हो रहे हैं। रामके वियोगमें दुबले हुए स्त्री-पुरुष जहाँ-तहाँ सोच (विचार) कर रहे हैं (कि क्या बात है, श्रीरामजी क्यों नहीं आये)।

मूल (दोहा)

सगुन होहिं सुंदर सकल मन प्रसन्न सब केर।
प्रभु आगवन जनाव जनु नगर रम्य चहुँ फेर॥

अनुवाद (हिन्दी)

इतनेमें ही सब सुन्दर शकुन होने लगे और सबके मन प्रसन्न हो गये। नगर भी चारों ओरसे रमणीक हो गया। मानो ये सब-के-सब चिह्न प्रभुके (शुभ) आगमनको जना रहे हैं।

मूल (दोहा)

कौसल्यादि मातु सब मन अनंद अस होइ।
आयउ प्रभु श्री अनुजजुत कहन चहत अब कोइ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कौसल्या आदि सब माताओंके मनमें ऐसा आनन्द हो रहा है जैसे अभी कोई कहना ही चाहता है कि सीताजी और लक्ष्मणजीसहित प्रभु श्रीरामचन्द्रजी आ गये।

मूल (दोहा)

भरत नयन भुज दच्छिन फरकत बारहिं बार।
जानि सगुन मन हरष अति लागे करन बिचार॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतजीकी दाहिनी आँख और दाहिनी भुजा बार-बार फड़क रही है। इसे शुभ शकुन जानकर उनके मनमें अत्यन्त हर्ष हुआ और वे विचार करने लगे—

मूल (चौपाई)

रहेउ एक दिन अवधि अधारा।
समुझत मन दुख भयउ अपारा॥
कारन कवन नाथ नहिं आयउ।
जानि कुटिल किधौं मोहि बिसरायउ॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्राणोंकी आधाररूप अवधिका एक ही दिन शेष रह गया। यह सोचते ही भरतजीके मनमें अपार दुःख हुआ। क्या कारण हुआ कि नाथ नहीं आये? प्रभुने कुटिल जानकर मुझे कहीं भुला तो नहीं दिया?॥ १॥

मूल (चौपाई)

अहह धन्य लछिमन बड़भागी।
राम पदारबिंदु अनुरागी॥
कपटी कुटिल मोहि प्रभु चीन्हा।
ताते नाथ संग नहिं लीन्हा॥

अनुवाद (हिन्दी)

अहा हा! लक्ष्मण बड़े धन्य एवं बड़भागी हैं, जो श्रीरामचन्द्रजीके चरणारविन्दके प्रेमी हैं (अर्थात् उनसे अलग नहीं हुए)। मुझे तो प्रभुने कपटी और कुटिल पहचान लिया, इसीसे नाथने मुझे साथ नहीं लिया!॥ २॥

मूल (चौपाई)

जौं करनी समुझै प्रभु मोरी।
नहिं निस्तार कलप सत कोरी॥
जन अवगुन प्रभु मान न काऊ।
दीन बंधु अति मृदुल सुभाऊ॥

अनुवाद (हिन्दी)

(बात भी ठीक ही है, क्योंकि) यदि प्रभु मेरी करनीपर ध्यान दें, तो सौ करोड़ (असंख्य) कल्पोंतक भी मेरा निस्तार (छुटकारा) नहीं हो सकता। (परन्तु आशा इतनी ही है कि) प्रभु सेवकका अवगुण कभी नहीं मानते। वे दीनबन्धु हैं और अत्यन्त ही कोमल स्वभावके हैं॥ ३॥

मूल (चौपाई)

मोरे जियँ भरोस दृढ़ सोई।
मिलिहहिं राम सगुन सुभ होई॥
बीतें अवधि रहहिं जौं प्राना।
अधम कवन जग मोहि समाना॥

अनुवाद (हिन्दी)

अतएव मेरे हृदयमें ऐसा पक्‍का भरोसा है कि श्रीरामजी अवश्य मिलेंगे, (क्योंकि) मुझे शकुन बड़े शुभ हो रहे हैं। किन्तु अवधि बीत जानेपर यदि मेरे प्राण रह गये तो जगत् में मेरे समान नीच कौन होगा?॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

राम बिरह सागर महँ भरत मगन मन होत।
बिप्र रूप धरि पवनसुत आइ गयउ जनु पोत॥ १(क)॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरामजीके विरह-समुद्रमें भरतजीका मन डूब रहा था, उसी समय पवनपुत्र हनुमान् जी ब्राह्मणका रूप धरकर इस प्रकार आ गये, मानो (उन्हें डूबनेसे बचानेके लिये) नाव आ गयी हो॥ १(क)॥

मूल (दोहा)

बैठे देखि कुसासन जटा मुकुट कृस गात।
राम राम रघुपति जपत स्रवत नयन जलजात॥ १(ख)॥

अनुवाद (हिन्दी)

हनुमान् जी ने दुर्बलशरीर भरतजीको जटाओंका मुकुट बनाये, राम! राम! रघुपति! जपते और कमलके समान नेत्रोंसे (प्रेमाश्रुओंका) जल बहाते कुशके आसनपर बैठे देखा॥ १(ख)॥

मूल (चौपाई)

देखत हनूमान अति हरषेउ।
पुलक गात लोचन जल बरषेउ॥
मन महँ बहुत भाँति सुख मानी।
बोलेउ श्रवन सुधा सम बानी॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन्हें देखते ही हनुमान् जी अत्यन्त हर्षित हुए। उनका शरीर पुलकित हो गया, नेत्रोंसे (प्रेमाश्रुओंका) जल बरसने लगा। मनमें बहुत प्रकारसे सुख मानकर वे कानोंके लिये अमृतके समान वाणी बोले—॥ १॥

मूल (चौपाई)

जासु बिरहँ सोचहु दिन राती।
रटहु निरंतर गुन गन पाँती॥
रघुकुल तिलक सुजन सुखदाता।
आयउ कुसल देव मुनि त्राता॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिनके विरहमें आप दिन-रात सोच करते (घुलते) रहते हैं और जिनके गुण-समूहोंकी पंक्तियोंको आप निरन्तर रटते रहते हैं, वे ही रघुकुलके तिलक, सज्जनोंको सुख देनेवाले और देवताओं तथा मुनियोंके रक्षक श्रीरामजी सकुशल आ गये॥ २॥

मूल (चौपाई)

रिपु रन जीति सुजस सुर गावत।
सीता सहित अनुज प्रभु आवत॥
सुनत बचन बिसरे सब दूखा।
तृषावंत जिमि पाइ पियूषा॥

अनुवाद (हिन्दी)

शत्रुको रणमें जीतकर सीताजी और लक्ष्मणजीसहित प्रभु आ रहे हैं; देवता उनका सुन्दर यश गा रहे हैं। ये वचन सुनते ही (भरतजीको) सारे दुःख भूल गये। जैसे प्यासा आदमी अमृत पाकर प्यासके दुःखको भूल जाय॥ ३॥

मूल (चौपाई)

को तुम्ह तात कहाँ ते आए।
मोहि परम प्रिय बचन सुनाए॥
मारुत सुत मैं कपि हनुमाना।
नामु मोर सुनु कृपानिधाना॥

अनुवाद (हिन्दी)

(भरतजीने पूछा—) हे तात! तुम कौन हो? और कहाँसे आये हो? (जो) तुमने मुझको (ये) परम प्रिय (अत्यन्त आनन्द देनेवाले) वचन सुनाये। (हनुमान् जी ने कहा—) हे कृपानिधान! सुनिये, मैं पवनका पुत्र और जातिका वानर हूँ; मेरा नाम हनुमान् है॥ ४॥

मूल (चौपाई)

दीनबंधु रघुपति कर किंकर।
सुनत भरत भेंटेउ उठि सादर॥
मिलत प्रेम नहिं हृदयँ समाता।
नयन स्रवत जल पुलकित गाता॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैं दीनोंके बन्धु श्रीरघुनाथजीका दास हूँ। यह सुनते ही भरतजी उठकर आदरपूर्वक हनुमान् जी से गले लगकर मिले। मिलते समय प्रेम हृदयमें नहीं समाता। नेत्रोंसे (आनन्द और प्रेमके आँसुओंका) जल बहने लगा और शरीर पुलकित हो गया॥ ५॥

मूल (चौपाई)

कपि तव दरस सकल दुख बीते।
मिले आजु मोहि राम पिरीते॥
बार बार बूझी कुसलाता।
तो कहुँ देउँ काह सुनु भ्राता॥

अनुवाद (हिन्दी)

(भरतजीने कहा—) हे हनुमान्! तुम्हारे दर्शनसे मेरे समस्त दुःख समाप्त हो गये (दुःखोंका अन्त हो गया)। (तुम्हारे रूपमें) आज मुझे प्यारे रामजी ही मिल गये। भरतजीने बार-बार कुशल पूछी (और कहा—) हे भाई! सुनो, (इस शुभ संवादके बदलेमें) तुम्हें क्या दूँ?॥ ६॥

मूल (चौपाई)

एहि संदेस सरिस जग माहीं।
करि बिचार देखेउँ कछु नाहीं॥
नाहिन तात उरिन मैं तोही।
अब प्रभु चरित सुनावहु मोही॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस सन्देशके समान (इसके बदलेमें देने लायक पदार्थ) जगत् में कुछ भी नहीं है, मैंने यह विचार कर देख लिया है। (इसलिये) हे तात! मैं तुमसे किसी प्रकार भी उऋण नहीं हो सकता। अब मुझे प्रभुका चरित्र (हाल) सुनाओ॥ ७॥

मूल (चौपाई)

तब हनुमंत नाइ पद माथा।
कहे सकल रघुपति गुन गाथा॥
कहु कपि कबहुँ कृपाल गोसाईं।
सुमिरहिं मोहि दास की नाईं॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब हनुमान् जी ने भरतजीके चरणोंमें मस्तक नवाकर श्रीरघुनाथजीकी सारी गुणगाथा कही। (भरतजीने पूछा—) हे हनुमान्! कहो, कृपालु स्वामी श्रीरामचन्द्रजी कभी मुझे अपने दासकी तरह याद भी करते हैं?॥८॥

छंद

मूल (दोहा)

निज दास ज्यों रघुबंसभूषन कबहुँ मम सुमिरन करॺो।
सुनि भरत बचन बिनीत अति कपि पुलकि तन चरनन्हि परॺो॥
रघुबीर निज मुख जासु गुन गन कहत अग जग नाथ जो।
काहे न होइ बिनीत परम पुनीत सदगुन सिंधु सो॥

अनुवाद (हिन्दी)

रघुवंशके भूषण श्रीरामजी क्या कभी अपने दासकी भाँति मेरा स्मरण करते रहे हैं? भरतजीके अत्यन्त नम्र वचन सुनकर हनुमान् जी पुलकित शरीर होकर उनके चरणोंपर गिर पड़े (और मनमें विचारने लगे कि) जो चराचरके स्वामी हैं वे श्रीरघुवीर अपने श्रीमुखसे जिनके गुणसमूहोंका वर्णन करते हैं, वे भरतजी ऐसे विनम्र, परम पवित्र और सद्‍‍गुणोंके समुद्र क्यों न हों?

दोहा

मूल (दोहा)

राम प्रान प्रिय नाथ तुम्ह सत्य बचन मम तात।
पुनि पुनि मिलत भरत सुनि हरष न हृदयँ समात॥ २(क)॥

अनुवाद (हिन्दी)

(हनुमान् जी ने कहा—) हे नाथ! आप श्रीरामजीको प्राणोंके समान प्रिय हैं, हे तात! मेरा वचन सत्य है। यह सुनकर भरतजी बार-बार मिलते हैं, हृदयमें हर्ष समाता नहीं है॥ २(क)॥

सोरठा

मूल (दोहा)

भरत चरन सिरु नाइ तुरित गयउ कपि राम पहिं।
कही कुसल सब जाइ हरषि चलेउ प्रभु जान चढ़ि॥ २(ख)॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर भरतजीके चरणोंमें सिर नवाकर हनुमान् जी तुरंत ही श्रीरामजीके पास (लौट) गये और जाकर उन्होंने सब कुशल कही। तब प्रभु हर्षित होकर विमानपर चढ़कर चले॥ २(ख)॥

मूल (चौपाई)

हरषि भरत कोसलपुर आए।
समाचार सब गुरहि सुनाए॥
पुनि मंदिर महँ बात जनाई।
आवत नगर कुसल रघुराई॥

अनुवाद (हिन्दी)

इधर भरतजी भी हर्षित होकर अयोध्यापुरीमें आये और उन्होंने गुरुजीको सब समाचार सुनाया। फिर राजमहलमें खबर जनायी कि श्रीरघुनाथजी कुशलपूर्वक नगरको आ रहे हैं॥ १॥

मूल (चौपाई)

सुनत सकल जननीं उठि धाईं।
कहि प्रभु कुसल भरत समुझाईं॥
समाचार पुरबासिन्ह पाए।
नर अरु नारि हरषि सब धाए॥

अनुवाद (हिन्दी)

खबर सुनते ही सब माताएँ उठ दौड़ीं। भरतजीने प्रभुकी कुशल कहकर सबको समझाया। नगरनिवासियोंने यह समाचार पाया, तो स्त्री-पुरुष सभी हर्षित होकर दौड़े॥ २॥

मूल (चौपाई)

दधि दुर्बा रोचन फल फूला।
नव तुलसी दल मंगल मूला॥
भरि भरि हेम थार भामिनी।
गावत चलिं सिंधुरगामिनी॥

अनुवाद (हिन्दी)

(श्रीरामजीके स्वागतके लिये) दही, दूब, गोरोचन, फल, फूल और मङ्गलके मूल नवीन तुलसीदल आदि वस्तुएँ सोनेके थालोंमें भर-भरकर हथिनीकी-सी चालवाली सौभाग्यवती स्त्रियाँ (उन्हें लेकर) गाती हुई चलीं॥ ३॥

मूल (चौपाई)

जे जैसेहिं तैसेहिं उठि धावहिं।
बाल बृद्ध कहँ संग न लावहिं॥
एक एकन्ह कहँ बूझहिं भाई।
तुम्ह देखे दयाल रघुराई॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो जैसे हैं (जहाँ जिस दशामें हैं) वे वैसे ही (वहींसे उसी दशामें) उठ दौड़ते हैं। (देर हो जानेके डरसे) बालकों और बूढ़ोंको कोई साथ नहीं लाते। एक दूसरेसे पूछते हैं—भाई! तुमने दयालु श्रीरघुनाथजीको देखा है?॥ ४॥

मूल (चौपाई)

अवधपुरी प्रभु आवत जानी।
भई सकल सोभा कै खानी॥
बहइ सुहावन त्रिबिध समीरा।
भइ सरजू अति निर्मल नीरा॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रभुको आते जानकर अवधपुरी सम्पूर्ण शोभाओंकी खान हो गयी। तीनों प्रकारकी सुन्दर वायु बहने लगी। सरयूजी अति निर्मल जलवाली हो गयीं (अर्थात् सरयूजीका जल अत्यन्त निर्मल हो गया)॥ ५॥

दोहा

मूल (दोहा)

हरषित गुर परिजन अनुज भूसुर बृंद समेत।
चले भरत मन प्रेम अति सन्मुख कृपानिकेत॥ ३(क)॥

अनुवाद (हिन्दी)

गुरु वसिष्ठजी, कुटुम्बी, छोटे भाई शत्रुघ्न तथा ब्राह्मणोंके समूहके साथ हर्षित होकर भरतजी अत्यन्त प्रेमपूर्ण मनसे कृपाधाम श्रीरामजीके सामने (अर्थात् उनकी अगवानीके लिये) चले॥ ३(क)॥

मूल (दोहा)

बहुतक चढ़ीं अटारिन्ह निरखहिं गगन बिमान।
देखि मधुर सुर हरषित करहिं सुमंगल गान॥ ३(ख)॥

अनुवाद (हिन्दी)

बहुत-सी स्त्रियाँ अटारियोंपर चढ़ीं आकाशमें विमान देख रही हैं और उसे देखकर हर्षित होकर मीठे स्वरसे सुन्दर मङ्गलगीत गा रही हैं॥ ३(ख)॥

मूल (दोहा)

राका ससि रघुपति पुर सिंधु देखि हरषान।
बढ़ॺो कोलाहल करत जनु नारि तरंग समान॥ ३(ग)॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरघुनाथजी पूर्णिमाके चन्द्रमा हैं, तथा अवधपुर समुद्र है, जो उस पूर्णचन्द्रको देखकर हर्षित हो रहा है और शोर करता हुआ बढ़ रहा है (इधर-उधर दौड़ती हुई) स्त्रियाँ उसकी तरङ्गोंके समान लगती हैं॥ ३(ग)॥

मूल (चौपाई)

इहाँ भानुकुल कमल दिवाकर।
कपिन्ह देखावत नगर मनोहर॥
सुनु कपीस अंगद लंकेसा।
पावन पुरी रुचिर यह देसा॥

अनुवाद (हिन्दी)

यहाँ (विमानपरसे) सूर्यकुलरूपी कमलके प्रफुल्लित करनेवाले सूर्य श्रीरामजी वानरोंको मनोहर नगर दिखला रहे हैं। (वे कहते हैं—) हे सुग्रीव! हे अंगद! हे लंकापति विभीषण! सुनो। यह पुरी पवित्र है और यह देश सुन्दर है॥ १॥

मूल (चौपाई)

जद्यपि सब बैकुंठ बखाना।
बेद पुरान बिदित जगु जाना॥
अवधपुरी सम प्रिय नहिं सोऊ।
यह प्रसंग जानइ कोउ कोऊ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यद्यपि सबने वैकुण्ठकी बड़ाई की है—यह वेद-पुराणोंमें प्रसिद्ध है और जगत् जानता है, परन्तु अवधपुरीके समान मुझे वह भी प्रिय नहीं है। यह बात (भेद) कोई-कोई (विरले ही) जानते हैं॥ २॥

मूल (चौपाई)

जन्मभूमि मम पुरी सुहावनि।
उत्तर दिसि बह सरजू पावनि॥
जा मज्जन ते बिनहिं प्रयासा।
मम समीप नर पावहिं बासा॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह सुहावनी पुरी मेरी जन्मभूमि है। इसके उत्तर दिशामें (जीवोंको) पवित्र करनेवाली सरयू नदी बहती है, जिसमें स्नान करनेसे मनुष्य बिना ही परिश्रम मेरे समीप निवास (सामीप्य मुक्ति) पा जाते हैं॥ ३॥

मूल (चौपाई)

अति प्रिय मोहि इहाँ के बासी।
मम धामदा पुरी सुख रासी॥
हरषे सब कपि सुनि प्रभु बानी।
धन्य अवध जो राम बखानी॥

अनुवाद (हिन्दी)

यहाँके निवासी मुझे बहुत ही प्रिय हैं। यह पुरी सुखकी राशि और मेरे परमधामको देनेवाली है। प्रभुकी वाणी सुनकर सब वानर हर्षित हुए (और कहने लगे कि) जिस अवधकी स्वयं श्रीरामजीने बड़ाई की, वह (अवश्य ही) धन्य है॥ ४॥

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