३६ पुष्पकविमानपर चढ़कर श्रीसीतारामजीका अवधके लिये प्रस्थान श्रीरामचरितकी महिमा

दोहा

मूल (दोहा)

प्रभु प्रेरित कपि भालु सब राम रूप उर राखि।
हरष बिषाद सहित चले बिनय बिबिध बिधि भाषि॥ ११८(क)॥

अनुवाद (हिन्दी)

परन्तु प्रभुकी प्रेरणा (आज्ञा) से सब वानर-भालू श्रीरामजीके रूपको हृदयमें रखकर और अनेकों प्रकारसे विनती करके हर्ष और विषादसहित घरको चले॥ ११८(क)॥

मूल (दोहा)

कपिपति नील रीछपति अंगद नल हनुमान।
सहित बिभीषन अपर जे जूथप कपि बलवान॥ ११८(ख)॥

अनुवाद (हिन्दी)

वानरराज सुग्रीव, नील, ऋक्षराज जाम्बवान्, अंगद, नल और हनुमान् तथा विभीषणसहित और जो बलवान् वानर सेनापति हैं,॥ ११८(ख)॥

मूल (दोहा)

कहि न सकहिं कछु प्रेम बस भरि भरि लोचन बारि।
सन्मुख चितवहिं राम तन नयन निमेष निवारि॥ ११८(ग)॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे कुछ कह नहीं सकते; प्रेमवश नेत्रोंमें जल भर-भरकर, नेत्रोंका पलक मारना छोड़कर (टकटकी लगाये) सम्मुख होकर श्रीरामजीकी ओर देख रहे हैं॥ ११८(ग)॥

मूल (चौपाई)

अतिसय प्रीति देखि रघुराई।
लीन्हे सकल बिमान चढ़ाई॥
मन महुँ बिप्र चरन सिरु नायो।
उत्तर दिसिहि बिमान चलायो॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरघुनाथजीने उनका अतिशय प्रेम देखकर सबको विमानपर चढ़ा लिया। तदनन्तर मन-ही-मन विप्रचरणोंमें सिर नवाकर उत्तर दिशाकी ओर विमान चलाया॥ १॥

मूल (चौपाई)

चलत बिमान कोलाहल होई।
जय रघुबीर कहइ सबु कोई॥
सिंहासन अति उच्च मनोहर।
श्री समेत प्रभु बैठे ता पर॥

अनुवाद (हिन्दी)

विमानके चलते समय बड़ा शोर हो रहा है। सब कोई श्रीरघुवीरकी जय कह रहे हैं। विमानमें एक अत्यन्त ऊँचा मनोहर सिंहासन है। उसपर सीताजीसहित प्रभु श्रीरामचन्द्रजी विराजमान हो गये॥ २॥

मूल (चौपाई)

राजत रामु सहित भामिनी।
मेरु सृंग जनु घन दामिनी॥
रुचिर बिमानु चलेउ अति आतुर।
कीन्ही सुमन बृष्टि हरषे सुर॥

अनुवाद (हिन्दी)

पत्नीसहित श्रीरामजी ऐसे सुशोभित हो रहे हैं मानो सुमेरुके शिखरपर बिजलीसहित श्याम मेघ हो। सुन्दर विमान बड़ी शीघ्रतासे चला। देवता हर्षित हुए और उन्होंने फूलोंकी वर्षा की॥ ३॥

मूल (चौपाई)

परम सुखद चलि त्रिबिध बयारी।
सागर सर सरि निर्मल बारी॥
सगुन होहिं सुंदर चहुँ पासा।
मन प्रसन्न निर्मल नभ आसा॥

अनुवाद (हिन्दी)

अत्यन्त सुख देनेवाली तीन प्रकारकी (शीतल, मन्द, सुगन्धित) वायु चलने लगी। समुद्र, तालाब और नदियोंका जल निर्मल हो गया। चारों ओर सुन्दर शकुन होने लगे। सबके मन प्रसन्न हैं, आकाश और दिशाएँ निर्मल हैं॥ ४॥

मूल (चौपाई)

कह रघुबीर देखु रन सीता।
लछिमन इहाँ हत्यो इँद्रजीता॥
हनूमान अंगद के मारे।
रन महि परे निसाचर भारे॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरघुवीरने कहा—हे सीते! रणभूमि देखो। लक्ष्मणने यहाँ इन्द्रको जीतनेवाले मेघनादको मारा था। हनुमान् और अंगदके मारे हुए ये भारी-भारी निशाचर रणभूमिमें पड़े हैं॥ ५॥

मूल (चौपाई)

कुंभकरन रावन द्वौ भाई।
इहाँ हते सुर मुनि दुखदाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवताओं और मुनियोंको दुःख देनेवाले कुम्भकर्ण और रावण दोनों भाई यहाँ मारे गये॥ ६॥

दोहा

मूल (दोहा)

इहाँ सेतु बाँध्यों अरु थापेउँ सिव सुख धाम।
सीता सहित कृपानिधि संभुहि कीन्ह प्रनाम॥ ११९(क)॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैंने यहाँ पुल बाँधा (बँधवाया) और सुखधाम श्रीशिवजीकी स्थापना की। तदनन्तर कृपानिधान श्रीरामजीने सीताजीसहित श्रीरामेश्वर महादेवको प्रणाम किया॥ ११९(क)॥

मूल (दोहा)

जहँ जहँ कृपासिंधु बन कीन्ह बास बिश्राम।
सकल देखाए जानकिहि कहे सबन्हि के नाम॥ ११९(ख)॥

अनुवाद (हिन्दी)

वनमें जहाँ-जहाँ करुणासागर श्रीरामचन्द्रजीने निवास और विश्राम किया था, वे सब स्थान प्रभुने जानकीजीको दिखलाये और सबके नाम बतलाये॥ ११९(ख)॥

मूल (चौपाई)

तुरत बिमान तहाँ चलि आवा।
दंडक बन जहँ परम सुहावा॥
कुंभजादि मुनिनायक नाना।
गए रामु सब कें अस्थाना॥

अनुवाद (हिन्दी)

विमान शीघ्र ही वहाँ चला आया जहाँ परम सुन्दर दण्डकवन था, और अगस्त्य आदि बहुत-से मुनिराज रहते थे। श्रीरामजी इन सबके स्थानोंमें गये॥ १॥

मूल (चौपाई)

सकल रिषिन्ह सन पाइ असीसा।
चित्रकूट आए जगदीसा॥
तहँ करि मुनिन्ह केर संतोषा।
चला बिमानु तहाँ ते चोखा॥

अनुवाद (हिन्दी)

सम्पूर्ण ऋषियोंसे आशीर्वाद पाकर जगदीश्वर श्रीरामजी चित्रकूट आये। वहाँ मुनियोंको सन्तुष्ट किया। (फिर) विमान वहाँसे आगे तेजीके साथ चला॥ २॥

मूल (चौपाई)

बहुरि राम जानकिहि देखाई।
जमुना कलि मल हरनि सुहाई॥
पुनि देखी सुरसरी पुनीता।
राम कहा प्रनाम करु सीता॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर श्रीरामजीने जानकीजीको कलियुगके पापोंका हरण करनेवाली सुहावनी यमुनाजीके दर्शन कराये। फिर पवित्र गङ्गाजीके दर्शन किये। श्रीरामजीने कहा—हे सीते! इन्हें प्रणाम करो॥ ३॥

मूल (चौपाई)

तीरथपति पुनि देखु प्रयागा।
निरखत जन्म कोटि अघ भागा॥
देखु परम पावनि पुनि बेनी।
हरनि सोक हरि लोक निसेनी॥
पुनि देखु अवधपुरी अति पावनि।
त्रिबिध ताप भव रोग नसावनि॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर तीर्थराज प्रयागको देखो, जिसके दर्शनसे ही करोड़ों जन्मोंके पाप भाग जाते हैं। फिर परम पवित्र त्रिवेणीजीके दर्शन करो, जो शोकोंको हरनेवाली और श्रीहरिके परम धाम (पहुँचने) के लिये सीढ़ीके समान है। फिर अत्यन्त पवित्र अयोध्यापुरीके दर्शन करो, जो तीनों प्रकारके तापों और भव (आवागमनरूपी) रोगका नाश करनेवाली है॥ ४-५॥

दोहा

मूल (दोहा)

सीता सहित अवध कहुँ कीन्ह कृपाल प्रनाम।
सजल नयन तन पुलकित पुनि पुनि हरषित राम॥ १२०(क)॥

अनुवाद (हिन्दी)

यों कहकर कृपालु श्रीरामजीने सीताजीसहित अवधपुरीको प्रणाम किया। सजलनेत्र और पुलकितशरीर होकर श्रीरामजी बार-बार हर्षित हो रहे हैं॥ १२०(क)॥

मूल (दोहा)

पुनि प्रभु आइ त्रिबेनीं हरषित मज्जनु कीन्ह।
कपिन्ह सहित बिप्रन्ह कहुँ दान बिबिध बिधि दीन्ह॥ १२०(ख)॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर त्रिवेणीमें आकर प्रभुने हर्षित होकर स्नान किया और वानरोंसहित ब्राह्मणोंको अनेकों प्रकारके दान दिये॥ १२०(ख)॥

मूल (चौपाई)

प्रभु हनुमंतहि कहा बुझाई।
धरि बटु रूप अवधपुर जाई॥
भरतहि कुसल हमारि सुनाएहु।
समाचार लै तुम्ह चलि आएहु॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर प्रभुने हनुमान् जीको समझाकर कहा—तुम ब्रह्मचारीका रूप धरकर अवधपुरीको जाओ। भरतको हमारी कुशल सुनाना और उनका समाचार लेकर चले आना॥ १॥

मूल (चौपाई)

तुरत पवनसुत गवनत भयऊ।
तब प्रभु भरद्वाज पहिं गयऊ॥
नाना बिधि मुनि पूजा कीन्ही।
अस्तुति करि पुनि आसिष दीन्ही॥

अनुवाद (हिन्दी)

पवनपुत्र हनुमान् जी तुरंत ही चल दिये। तब प्रभु भरद्वाजजीके पास गये। मुनिने (इष्टबुद्धिसे) उनकी अनेकों प्रकारसे पूजा की और स्तुति की और फिर (लीलाकी दृष्टिसे) आशीर्वाद दिया॥ २॥

मूल (चौपाई)

मुनि पद बंदि जुगल कर जोरी।
चढ़ि बिमान प्रभु चले बहोरी॥
इहाँ निषाद सुना प्रभु आए।
नाव नाव कहँ लोग बोलाए॥

अनुवाद (हिन्दी)

दोनों हाथ जोड़कर तथा मुनिके चरणोंकी वन्दना करके प्रभु विमानपर चढ़कर फिर (आगे) चले। यहाँ जब निषादराजने सुना कि प्रभु आ गये, तब उसने ‘नाव कहाँ है? नाव कहाँ है?’ पुकारते हुए लोगोंको बुलाया॥ ३॥

मूल (चौपाई)

सुरसरि नाघि जान तब आयो।
उतरेउ तट प्रभु आयसु पायो॥
तब सीताँ पूजी सुरसरी।
बहु प्रकार पुनि चरनन्हि परी॥

अनुवाद (हिन्दी)

इतनेमें ही विमान गङ्गाजीको लाँघकर (इस पार) आ गया और प्रभुकी आज्ञा पाकर वह किनारेपर उतरा। तब सीताजी बहुत प्रकारसे गङ्गाजीकी पूजा करके फिर उनके चरणोंपर गिरीं॥ ४॥

मूल (चौपाई)

दीन्हि असीस हरषि मन गंगा।
सुंदरि तव अहिवात अभंगा॥
सुनत गुहा धायउ प्रेमाकुल।
आयउ निकट परम सुख संकुल॥

अनुवाद (हिन्दी)

गङ्गाजीने मनमें हर्षित होकर आशीर्वाद दिया—हे सुन्दरी! तुम्हारा सुहाग अखण्ड हो। भगवान् के तटपर उतरनेकी बात सुनते ही निषादराज गुह प्रेममें विह्वल होकर दौड़ा। परम सुखसे परिपूर्ण होकर वह प्रभुके समीप आया,॥ ५॥

मूल (चौपाई)

प्रभुहि सहित बिलोकि बैदेही।
परेउ अवनि तन सुधि नहिं तेही॥
प्रीति परम बिलोकि रघुराई।
हरषि उठाइ लियो उर लाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

और श्रीजानकीजीसहित प्रभुको देखकर वह (आनन्द-समाधिमें मग्न होकर) पृथ्वीपर गिर पड़ा, उसे शरीरकी सुधि न रही। श्रीरघुनाथजीने उसका परम प्रेम देखकर उसे उठाकर हर्षके साथ हृदयसे लगा लिया॥ ६॥

छंद

मूल (दोहा)

लियो हृदयँ लाइ कृपा निधान सुजान रायँ रमापती।
बैठारि परम समीप बूझी कुसल सो कर बीनती॥
अब कुसल पद पंकज बिलोकि बिरंचि संकर सेब्य जे।
सुख धाम पूरनकाम राम नमामि राम नमामि ते॥

अनुवाद (हिन्दी)

सुजानोंके राजा (शिरोमणि), लक्ष्मीकान्त, कृपानिधान भगवान् ने उसको हृदयसे लगा लिया और अत्यन्त निकट बैठाकर कुशल पूछी। वह विनती करने लगा—आपके जो चरणकमल ब्रह्माजी और शङ्करजीसे सेवित हैं, उनके दर्शन करके मैं अब सकुशल हूँ। हे सुखधाम! हे पूर्णकाम श्रीरामजी! मैं आपको नमस्कार करता हूँ, नमस्कार करता हूँ॥ १॥

मूल (दोहा)

सब भाँति अधम निषाद सो हरि भरत ज्यों उर लाइयो।
मतिमंद तुलसीदास सो प्रभु मोह बस बिसराइयो॥
यह रावनारि चरित्र पावन राम पद रतिप्रद सदा।
कामादिहर बिग्यानकर सुर सिद्ध मुनि गावहिं मुदा॥

अनुवाद (हिन्दी)

सब प्रकारसे नीच उस निषादको भगवान् ने भरतजीकी भाँति हृदयसे लगा लिया। तुलसीदासजी कहते हैं—इस मन्दबुद्धिने (मैंने) मोहवश उस प्रभुको भुला दिया। रावणके शत्रुका यह पवित्र करनेवाला चरित्र सदा ही श्रीरामजीके चरणोंमें प्रीति उत्पन्न करनेवाला है। यह कामादि विकारोंका हरनेवाला और (भगवान् के स्वरूपका) विशेष ज्ञान उत्पन्न करनेवाला है। देवता, सिद्ध और मुनि आनन्दित होकर इसे गाते हैं॥ २॥

दोहा

मूल (दोहा)

समर बिजय रघुबीर के चरित जे सुनहिं सुजान।
बिजय बिबेक बिभूति नित तिन्हहि देहिं भगवान॥ १२१(क)॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो सुजान लोग श्रीरघुवीरकी समरविजयसम्बन्धी लीलाको सुनते हैं, उनको भगवान् नित्य विजय, विवेक और विभूति (ऐश्वर्य) देते हैं॥ १२१(क)॥

मूल (दोहा)

यह कलिकाल मलायतन मन करि देखु बिचार।
श्रीरघुनाथ नाम तजि नाहिन आन अधार॥ १२१(ख)॥

अनुवाद (हिन्दी)

अरे मन! विचार करके देख! यह कलिकाल पापोंका घर है। इसमें श्रीरघुनाथजीके नामको छोड़कर (पापोंसे बचनेके लिये) दूसरा कोई आधार नहीं है॥ १२१(ख)॥

भागसूचना

मासपारायण, सत्ताईसवाँ विश्राम

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमद्रामचरितमानसे सकलकलिकलुषविध्वंसने षष्ठः सोपानः समाप्तः।

अनुवाद (समाप्ति)

कलियुगके समस्त पापोंका नाश करनेवाले श्रीरामचरितमानसका
यह छठा सोपान समाप्त हुआ।

मूलम् (समाप्तिः)

(लङ्काकाण्ड समाप्त)

अनुवाद (हिन्दी)
Misc Detail

॥ श्रीगणेशाय नमः॥
श्रीजानकीवल्लभो विजयते

भागसूचना

श्रीरामचरितमानस (सप्तम सोपान)