३४ विभीषणकी प्रार्थना, श्रीरामजीके द्वारा भरतजीके प्रेमदशाका वर्णन, शीघ्र अयोध्या पहुँचनेका अनुरोध

मूल (चौपाई)

करि बिनती जब संभु सिधाए।
तब प्रभु निकट बिभीषनु आए॥
नाइ चरन सिरु कह मृदु बानी।
बिनय सुनहु प्रभु सारँगपानी॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब शिवजी विनती करके चले गये, तब विभीषणजी प्रभुके पास आये और चरणोंमें सिर नवाकर कोमल वाणीसे बोले—हे शार्ङ्गधनुषके धारण करनेवाले प्रभो! मेरी विनती सुनिये—॥ १॥

मूल (चौपाई)

सकुल सदल प्रभु रावन मारॺो।
पावन जस त्रिभुवन बिस्तारॺो॥
दीन मलीन हीन मति जाती।
मो पर कृपा कीन्हि बहु भाँती॥

अनुवाद (हिन्दी)

आपने कुल और सेनासहित रावणका वध किया, त्रिभुवनमें अपना पवित्र यश फैलाया और मुझ दीन, पापी, बुद्धिहीन और जातिहीनपर बहुत प्रकारसे कृपा की॥ २॥

मूल (चौपाई)

अब जन गृह पुनीत प्रभु कीजे।
मज्जनु करिअ समर श्रम छीजे॥
देखि कोस मंदिर संपदा।
देहु कृपाल कपिन्ह कहुँ मुदा॥

अनुवाद (हिन्दी)

अब हे प्रभु! इस दासके घरको पवित्र कीजिये और वहाँ चलकर स्नान कीजिये, जिससे युद्धकी थकावट दूर हो जाय। हे कृपालु! खजाना, महल और सम्पत्तिका निरीक्षण कर प्रसन्नतापूर्वक वानरोंको दीजिये॥ ३॥

मूल (चौपाई)

सब बिधि नाथ मोहि अपनाइअ।
पुनि मोहि सहित अवधपुर जाइअ॥
सुनत बचन मृदु दीनदयाला।
सजल भए द्वौ नयन बिसाला॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे नाथ! मुझे सब प्रकारसे अपना लीजिये और फिर हे प्रभो! मुझे साथ लेकर अयोध्यापुरीको पधारिये। विभीषणजीके कोमल वचन सुनते ही दीनदयालु प्रभुके दोनों विशाल नेत्रोंमें (प्रेमाश्रुओंका) जल भर आया॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

तोर कोस गृह मोर सब सत्य बचन सुनु भ्रात।
भरत दसा सुमिरत मोहि निमिष कल्प सम जात॥ ११६(क)॥

अनुवाद (हिन्दी)

(श्रीरामजीने कहा—) हे भाई! सुनो, तुम्हारा खजाना और घर सब मेरा ही है, यह बात सच है। पर भरतकी दशा याद करके मुझे एक-एक पल कल्पके समान बीत रहा है॥ ११६(क)॥

मूल (दोहा)

तापस बेष गात कृस जपत निरंतर मोहि।
देखौं बेगि सो जतनु करु सखा निहोरउँ तोहि॥ ११६(ख)॥

अनुवाद (हिन्दी)

तपस्वीके वेषमें कृश (दुबले) शरीरसे निरन्तर मेरा नाम जप कर रहे हैं। हे सखा! वही उपाय करो जिससे मैं जल्दी-से-जल्दी उन्हें देख सकूँ। मैं तुमसे निहोरा (अनुरोध) करता हूँ॥ ११६(ख)॥

मूल (दोहा)

बीतें अवधि जाउँ जौं जिअत न पावउँ बीर।
सुमिरत अनुज प्रीति प्रभु पुनि पुनि पुलक सरीर॥ ११६(ग)॥

अनुवाद (हिन्दी)

यदि अवधि बीत जानेपर जाता हूँ तो भाईको जीता न पाऊँगा। छोटे भाई भरतजीकी प्रीतिका स्मरण करके प्रभुका शरीर बार-बार पुलकित हो रहा है॥ ११६(ग)॥

मूल (दोहा)

करेहु कल्प भरि राजु तुम्ह मोहि सुमिरेहु मन माहिं।
पुनि मम धाम पाइहहु जहाँ संत सब जाहिं॥ ११६(घ)॥

अनुवाद (हिन्दी)

(श्रीरामजीने फिर कहा—) हे विभीषण! तुम कल्पभर राज्य करना, मनमें मेरा निरन्तर स्मरण करते रहना। फिर तुम मेरे उस धामको पा जाओगे जहाँ सब संत जाते हैं॥ ११६(घ)॥

मूल (चौपाई)

सुनत बिभीषन बचन राम के।
हरषि गहे पद कृपाधाम के॥
बानर भालु सकल हरषाने।
गहि प्रभु पद गुन बिमल बखाने॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरामचन्द्रजीके वचन सुनते ही विभीषणजीने हर्षित होकर कृपाके धाम श्रीरामजीके चरण पकड़ लिये। सभी वानर-भालू हर्षित हो गये और प्रभुके चरण पकड़कर उनके निर्मल गुणोंका बखान करने लगे॥ १॥

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