३२ हनुमान् जी का सीताजीको कुशल सुनाना, सीताजीका आगमन और अग्नि-परीक्षा

मूल (चौपाई)

पुनि प्रभु बोलि लियउ हनुमाना।
लंका जाहु कहेउ भगवाना॥
समाचार जानकिहि सुनावहु।
तासु कुसल लै तुम्ह चलि आवहु॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर प्रभुने हनुमान् जीको बुला लिया। भगवान् ने कहा—तुम लङ्का जाओ। जानकीको सब समाचार सुनाओ और उसका कुशल-समाचार लेकर तुम चले आओ॥ १॥

मूल (चौपाई)

तब हनुमंत नगर महुँ आए।
सुनि निसिचरी निसाचर धाए॥
बहु प्रकार तिन्ह पूजा कीन्ही।
जनकसुता देखाइ पुनि दीन्ही॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब हनुमान् जी नगरमें आये। यह सुनकर राक्षस-राक्षसी (उनके सत्कारके लिये) दौड़े। उन्होंने बहुत प्रकारसे हनुमान् जी की पूजा की और फिर श्रीजानकीजीको दिखला दिया॥ २॥

मूल (चौपाई)

दूरिहि ते प्रनाम कपि कीन्हा।
रघुपति दूत जानकी चीन्हा॥
कहहु तात प्रभु कृपानिकेता।
कुसल अनुज कपि सेन समेता॥

अनुवाद (हिन्दी)

हनुमान् जी ने (सीताजीको) दूरसे ही प्रणाम किया। जानकीजीने पहचान लिया कि यह वही श्रीरघुनाथजीका दूत है (और पूछा—) हे तात! कहो, कृपाके धाम मेरे प्रभु छोटे भाई और वानरोंकी सेनासहित कुशलसे तो हैं?॥ ३॥

मूल (चौपाई)

सब बिधि कुसल कोसलाधीसा।
मातु समर जीत्यो दससीसा॥
अबिचल राजु बिभीषन पायो।
सुनि कपि बचन हरष उर छायो॥

अनुवाद (हिन्दी)

(हनुमान् जीने कहा—) हे माता! कोसलपति श्रीरामजी सब प्रकारसे सकुशल हैं। उन्होंने संग्राममें दस सिरवाले रावणको जीत लिया है और विभीषणने अचल राज्य प्राप्त किया है। हनुमान् जीके वचन सुनकर सीताजीके हृदयमें हर्ष छा गया॥ ४॥

छंद

मूल (दोहा)

अति हरष मन तन पुलक लोचन सजल कह पुनि पुनि रमा।
का देउँ तोहि त्रैलोक महुँ कपि किमपि नहिं बानी समा॥
सुनु मातु मैं पायो अखिल जग राजु आजु न संसयं।
रन जीति रिपुदल बंधु जुत पस्यामि राममनामयं॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीजानकीजीके हृदयमें अत्यन्त हर्ष हुआ। उनका शरीर पुलकित हो गया और नेत्रोंमें (आनन्दाश्रुओंका) जल छा गया। वे बार-बार कहती हैं—हे हनुमान्! मैं तुझे क्या दूँ? इस वाणी (समाचार) के समान तीनों लोकोंमें और कुछ भी नहीं है! (हनुमान् जी ने कहा—) हे माता! सुनिये, मैंने आज निःसन्देह सारे जगत् का राज्य पा लिया, जो मैं रणमें शत्रुसेनाको जीतकर भाईसहित निर्विकार श्रीरामजीको देख रहा हूँ।

दोहा

मूल (दोहा)

सुनु सुत सदगुन सकल तव हृदयँ बसहुँ हनुमंत।
सानुकूल कोसलपति रहहुँ समेत अनंत॥ १०७॥

अनुवाद (हिन्दी)

(जानकीजीने कहा—) हे पुत्र! सुन, समस्त सद्गुण तेरे हृदयमें बसें और हे हनुमान्! शेष (लक्ष्मणजी) सहित कोसलपति प्रभु सदा तुझपर प्रसन्न रहें॥ १०७॥

मूल (चौपाई)

अब सोइ जतन करहु तुम्ह ताता।
देखौं नयन स्याम मृदु गाता॥
तब हनुमान राम पहिं जाई।
जनकसुता कै कुसल सुनाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे तात! अब तुम वही उपाय करो जिससे मैं इन नेत्रोंसे प्रभुके कोमल श्याम शरीरके दर्शन करूँ। तब श्रीरामचन्द्रजीके पास जाकर हनुमान् जी ने जानकीजीका कुशल-समाचार सुनाया॥ १॥

मूल (चौपाई)

सुनि संदेसु भानुकुलभूषन।
बोलि लिए जुबराज बिभीषन॥
मारुतसुत के संग सिधावहु।
सादर जनकसुतहि लै आवहु॥

अनुवाद (हिन्दी)

सूर्यकुलभूषण श्रीरामजीने सन्देश सुनकर युवराज अंगद और विभीषणको बुला लिया (और कहा—) पवनपुत्र हनुमान् के साथ जाओ और जानकीको आदरके साथ ले आओ॥ २॥

मूल (चौपाई)

तुरतहिं सकल गए जहँ सीता।
सेवहिं सब निसिचरीं बिनीता॥
बेगि बिभीषन तिन्हहि सिखायो।
तिन्ह बहु बिधि मज्जन करवायो॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे सब तुरंत ही वहाँ गये जहाँ सीताजी थीं। सब-की-सब राक्षसियाँ नम्रतापूर्वक उनकी सेवा कर रही थीं। विभीषणजीने शीघ्र ही उन लोगोंको समझा दिया। उन्होंने बहुत प्रकारसे सीताजीको स्नान कराया,॥ ३॥

मूल (चौपाई)

बहु प्रकार भूषन पहिराए।
सिबिका रुचिर साजि पुनि ल्याए॥
ता पर हरषि चढ़ी बैदेही।
सुमिरि राम सुखधाम सनेही॥

अनुवाद (हिन्दी)

बहुत प्रकारके गहने पहनाये और फिर वे एक सुन्दर पालकी सजाकर ले आये। सीताजी प्रसन्न होकर सुखके धाम प्रियतम श्रीरामजीका स्मरण करके उसपर हर्षके साथ चढ़ीं॥ ४॥

मूल (चौपाई)

बेतपानि रच्छक चहु पासा।
चले सकल मन परम हुलासा॥
देखन भालु कीस सब आए।
रच्छक कोपि निवारन धाए॥

अनुवाद (हिन्दी)

चारों ओर हाथोंमें छड़ी लिये रक्षक चले। सबके मनोंमें परम उल्लास (उमंग) है। रीछ-वानर सब दर्शन करनेके लिये आये, तब रक्षक क्रोध करके उनको रोकने दौड़े॥ ५॥

मूल (चौपाई)

कह रघुबीर कहा मम मानहु।
सीतहि सखा पयादें आनहु॥
देखहुँ कपि जननी की नाईं।
बिहसि कहा रघुनाथ गोसाईं॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरघुवीरने कहा—हे मित्र! मेरा कहना मानो और सीताको पैदल ले आओ, जिससे वानर उसको माताकी तरह देखें। गोसाईं श्रीरामजीने हँसकर ऐसा कहा॥ ६॥

मूल (चौपाई)

सुनि प्रभु बचन भालु कपि हरषे।
नभ ते सुरन्ह सुमन बहु बरषे॥
सीता प्रथम अनल महुँ राखी।
प्रगट कीन्हि चह अंतर साखी॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रभुके वचन सुनकर रीछ-वानर हर्षित हो गये। आकाशसे देवताओंने बहुत-से फूल बरसाये। सीताजी (के असली स्वरूप) को पहले अग्निमें रखा था। अब भीतरके साक्षी भगवान् उनको प्रकट करना चाहते हैं॥ ७॥

दोहा

मूल (दोहा)

तेहि कारन करुनानिधि कहे कछुक दुर्बाद।
सुनत जातुधानीं सब लागीं करै बिषाद॥ १०८॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसी कारण करुणाके भण्डार श्रीरामजीने लीलासे कुछ कड़े वचन कहे, जिन्हें सुनकर सब राक्षसियाँ विषाद करने लगीं॥ १०८॥

मूल (चौपाई)

प्रभु के बचन सीस धरि सीता।
बोली मन क्रम बचन पुनीता॥
लछिमन होहु धरम के नेगी।
पावक प्रगट करहु तुम्ह बेगी॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रभुके वचनोंको सिर चढ़ाकर मन, वचन और कर्मसे पवित्र श्रीसीताजी बोलीं—हे लक्ष्मण! तुम मेरे धर्मके नेगी (धर्माचरणमें सहायक) बनो और तुरंत आग तैयार करो॥ १॥

मूल (चौपाई)

सुनि लछिमन सीता कै बानी।
बिरह बिबेक धरम निति सानी॥
लोचन सजल जोरि कर दोऊ।
प्रभु सन कछु कहि सकत न ओऊ॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीसीताजीकी विरह, विवेक, धर्म और नीतिसे सनी हुई वाणी सुनकर लक्ष्मणजीके नेत्रोंमें (विषादके आँसुओंका) जल भर आया। वे दोनों हाथ जोड़े खड़े रहे। वे भी प्रभुसे कुछ कह नहीं सकते॥ २॥

मूल (चौपाई)

देखि राम रुख लछिमन धाए।
पावक प्रगटि काठ बहु लाए॥
पावक प्रबल देखि बैदेही।
हृदयँ हरष नहिं भय कछु तेही॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर श्रीरामजीका रुख देखकर लक्ष्मणजी दौड़े और आग तैयार करके बहुत-सी लकड़ी ले आये। अग्निको खूब बढ़ी हुई देखकर जानकीजीके हृदयमें हर्ष हुआ। उन्हें भय कुछ भी नहीं हुआ॥ ३॥

मूल (चौपाई)

जौं मन बच क्रम मम उर माहीं।
तजि रघुबीर आन गति नाहीं॥
तौ कृसानु सब कै गति जाना।
मो कहुँ होउ श्रीखंड समाना॥

अनुवाद (हिन्दी)

(सीताजीने लीलासे कहा)—यदि मन, वचन और कर्मसे मेरे हृदयमें श्रीरघुवीरको छोड़कर दूसरी गति (अन्य किसीका आश्रय) नहीं है, तो अग्निदेव जो सबके मनकी गति जानते हैं, (मेरे भी मनकी गति जानकर) मेरे लिये चन्दनके समान शीतल हो जायँ॥ ४॥

छंद

मूल (दोहा)

श्रीखंड सम पावक प्रबेस कियो सुमिरि प्रभु मैथिली।
जय कोसलेस महेस बंदित चरन रति अति निर्मली॥
प्रतिबिंब अरु लौकिक कलंक प्रचंड पावक महुँ जरे।
प्रभु चरित काहुँ न लखे नभ सुर सिद्ध मुनि देखहिं खरे॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रभु श्रीरामजीका स्मरण करके और जिनके चरण महादेवजीके द्वारा वन्दित हैं तथा जिनमें सीताजीकी अत्यन्त विशुद्ध प्रीति है, उन कोसलपतिकी जय बोलकर जानकीजीने चन्दनके समान शीतल हुई अग्निमें प्रवेश किया। प्रतिबिम्ब (सीताजीकी छायामूर्ति) और उनका लौकिक कलंक प्रचण्ड अग्निमें जल गये। प्रभुके इन चरित्रोंको किसीने नहीं जाना। देवता, सिद्ध और मुनि सब आकाशमें खड़े देखते हैं॥ १॥

मूल (दोहा)

धरि रूप पावक पानि गहि श्री सत्य श्रुति जग बिदित जो।
जिमि छीरसागर इंदिरा रामहि समर्पी आनि सो॥
सो राम बाम बिभाग राजति रुचिर अति सोभा भली।
नव नील नीरज निकट मानहुँ कनक पंकज की कली॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब अग्निने शरीर धारण करके वेदोंमें और जगत् में प्रसिद्ध वास्तविक श्री (सीताजी) का हाथ पकड़ उन्हें श्रीरामजीको वैसे ही समर्पित किया जैसे क्षीरसागरने विष्णुभगवान् को लक्ष्मी समर्पित की थी। वे सीताजी श्रीरामचन्द्रजीके वाम भागमें विराजित हुईं। उनकी उत्तम शोभा अत्यन्त ही सुन्दर है। मानो नये खिले हुए नीले कमलके पास सोनेके कमलकी कली सुशोभित हो॥ २॥

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