३१ विभीषणका राज्याभिषेक

मूल (चौपाई)

आइ बिभीषन पुनि सिरु नायो।
कृपासिंधु तब अनुज बोलायो॥
तुम्ह कपीस अंगद नल नीला।
जामवंत मारुति नयसीला॥
सब मिलि जाहु बिभीषन साथा।
सारेहु तिलक कहेउ रघुनाथा॥
पिता बचन मैं नगर न आवउँ।
आपु सरिस कपि अनुज पठावउँ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सब क्रिया-कर्म करनेके बाद विभीषणने आकर पुनः सिर नवाया। तब कृपाके समुद्र श्रीरामजीने छोटे भाई लक्ष्मणजीको बुलाया। श्रीरघुनाथजीने कहा कि तुम, वानरराज सुग्रीव, अंगद, नल, नील, जाम्बवान् और मारुति सब नीतिनिपुण लोग मिलकर विभीषणके साथ जाओ और उन्हें राजतिलक कर दो। पिताजीके वचनोंके कारण मैं नगरमें नहीं आ सकता। पर अपने ही समान वानर और छोटे भाईको भेजता हूँ॥ १-२॥

मूल (चौपाई)

तुरत चले कपि सुनि प्रभु बचना।
कीन्ही जाइ तिलक की रचना॥
सादर सिंहासन बैठारी।
तिलक सारि अस्तुति अनुसारी॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रभुके वचन सुनकर वानर तुरंत चले और उन्होंने जाकर राजतिलककी सारी व्यवस्था की। आदरके साथ विभीषणको सिंहासनपर बैठाकर राजतिलक किया और स्तुति की॥ ३॥

मूल (चौपाई)

जोरि पानि सबहीं सिर नाए।
सहित बिभीषन प्रभु पहिं आए॥
तब रघुबीर बोलि कपि लीन्हे।
कहि प्रिय बचन सुखी सब कीन्हे॥

अनुवाद (हिन्दी)

सभीने हाथ जोड़कर उनको सिर नवाये। तदनन्तर विभीषणजीसहित सब प्रभुके पास आये। तब श्रीरघुवीरने वानरोंको बुला लिया और प्रिय वचन कहकर सबको सुखी किया॥ ४॥

छंद

मूल (दोहा)

किए सुखी कहि बानी सुधा सम बल तुम्हारें रिपु हयो।
पायो बिभीषन राज तिहुँ पुर जसु तुम्हारो नित नयो॥
मोहि सहित सुभ कीरति तुम्हारी परम प्रीति जो गाइहैं।
संसार सिंधु अपार पार प्रयास बिनु नर पाइहैं॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् ने अमृतके समान यह वाणी कहकर सबको सुखी किया कि तुम्हारे ही बलसे यह प्रबल शत्रु मारा गया और विभीषणने राज्य पाया। इसके कारण तुम्हारा यश तीनों लोकोंमें नित्य नया बना रहेगा। जो लोग मेरेसहित तुम्हारी शुभ कीर्तिको परम प्रेमके साथ गायेंगे वे बिना ही परिश्रम इस अपार संसारसागरका पार पा जायँगे।

दोहा

मूल (दोहा)

प्रभु के बचन श्रवन सुनि नहिं अघाहिं कपि पुंज।
बार बार सिर नावहिं गहहिं सकल पद कंज॥ १०६॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रभुके वचन कानोंसे सुनकर वानर-समूह तृप्त नहीं होते। वे सब बार-बार सिर नवाते हैं और चरणकमलोंको पकड़ते हैं॥ १०६॥

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