२८ त्रिजटा-सीता-संवाद

मूल (चौपाई)

तेही निसि सीता पहिं जाई।
त्रिजटा कहि सब कथा सुनाई॥
सिर भुज बाढ़ि सुनत रिपु केरी।
सीता उर भइ त्रास घनेरी॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसी रात त्रिजटाने सीताजीके पास जाकर उन्हें सब कथा कह सुनायी। शत्रुके सिर और भुजाओंकी बढ़तीका संवाद सुनकर सीताजीके हृदयमें बड़ा भय हुआ॥ १॥

मूल (चौपाई)

मुख मलीन उपजी मन चिंता।
त्रिजटा सन बोली तब सीता॥
होइहि कहा कहसि किन माता।
केहि बिधि मरिहि बिस्व दुखदाता॥

अनुवाद (हिन्दी)

(उनका) मुख उदास हो गया, मनमें चिन्ता उत्पन्न हो गयी। तब सीताजी त्रिजटासे बोलीं—हे माता! बताती क्यों नहीं? क्या होगा? सम्पूर्ण विश्वको दुःख देनेवाला यह किस प्रकार मरेगा?॥ २॥

मूल (चौपाई)

रघुपति सर सिर कटेहुँ न मरई।
बिधि बिपरीत चरित सब करई॥
मोर अभाग्य जिआवत ओही।
जेहिं हौं हरि पद कमल बिछोही॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरघुनाथजीके बाणोंसे सिर कटनेपर भी नहीं मरता। विधाता सारे चरित्र विपरीत (उलटे) ही कर रहा है। (सच बात तो यह है कि) मेरा दुर्भाग्य ही उसे जिला रहा है, जिसने मुझे भगवान् के चरण-कमलोंसे अलग कर दिया है॥ ३॥

मूल (चौपाई)

जेहिं कृत कपट कनक मृग झूठा।
अजहुँ सो दैव मोहि पर रूठा॥
जेहिं बिधि मोहि दुख दुसह सहाए।
लछिमन कहुँ कटु बचन कहाए॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिसने कपटका झूठा स्वर्णमृग बनाया था, वही दैव अब भी मुझपर रूठा हुआ है। जिस विधाताने मुझसे दुःसह दुःख सहन कराये और लक्ष्मणको कड़ुवे वचन कहलाये,॥ ४॥

मूल (चौपाई)

रघुपति बिरह सबिष सर भारी।
तकि तकि मार बार बहु मारी॥
ऐसेहुँ दुख जो राख मम प्राना।
सोइ बिधि ताहि जिआव न आना॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो श्रीरघुनाथजीके विरहरूपी बड़े विषैले बाणोंसे तक-तककर मुझे बहुत बार मारकर, अब भी मार रहा है और ऐसे दुःखमें भी जो मेरे प्राणोंको रख रहा है, वही विधाता उस (रावण) को जिला रहा है, दूसरा कोई नहीं॥ ५॥

मूल (चौपाई)

बहु बिधि कर बिलाप जानकी।
करि करि सुरति कृपानिधान की॥
कह त्रिजटा सुनु राजकुमारी।
उर सर लागत मरइ सुरारी॥

अनुवाद (हिन्दी)

कृपानिधान श्रीरामजीकी याद कर-करके जानकीजी बहुत प्रकारसे विलाप कर रही हैं। त्रिजटाने कहा—हे राजकुमारी! सुनो, देवताओंका शत्रु रावण हृदयमें बाण लगते ही मर जायगा॥ ६॥

मूल (चौपाई)

प्रभु ताते उर हतइ न तेही।
एहि के हृदयँ बसति बैदेही॥

अनुवाद (हिन्दी)

परन्तु प्रभु उसके हृदयमें बाण इसलिये नहीं मारते कि इसके हृदयमें जानकीजी (आप) बसती हैं॥ ७॥

छंद

मूल (दोहा)

एहि के हृदयँ बस जानकी जानकी उर मम बास है।
मम उदर भुअन अनेक लागत बान सब कर नास है॥
सुनि बचन हरष बिषाद मन अति देखि पुनि त्रिजटाँ कहा।
अब मरिहि रिपु एहि बिधि सुनहि सुंदरि तजहि संसय महा॥

अनुवाद (हिन्दी)

(वे यही सोचकर रह जाते हैं कि) इसके हृदयमें जानकीका निवास है, जानकीके हृदयमें मेरा निवास है और मेरे उदरमें अनेकों भुवन हैं। अतः रावणके हृदयमें बाण लगते ही सब भुवनोंका नाश हो जायगा। यह वचन सुनकर, सीताजीके मनमें अत्यन्त हर्ष और विषाद हुआ देखकर त्रिजटाने फिर कहा—हे सुन्दरी! महान् सन्देहका त्याग कर दो; अब सुनो, शत्रु इस प्रकार मरेगा—

दोहा

मूल (दोहा)

काटत सिर होइहि बिकल छुटि जाइहि तव ध्यान।
तब रावनहि हृदय महुँ मरिहहिं रामु सुजान॥ ९९॥

अनुवाद (हिन्दी)

सिरोंके बार-बार काटे जानेसे जब वह व्याकुल हो जायगा और उसके हृदयसे तुम्हारा ध्यान छूट जायगा, तब सुजान (अन्तर्यामी) श्रीरामजी रावणके हृदयमें बाण मारेंगे॥ ९९॥

मूल (चौपाई)

अस कहि बहुत भाँति समुझाई।
पुनि त्रिजटा निज भवन सिधाई॥
राम सुभाउ सुमिरि बैदेही।
उपजी बिरह बिथा अति तेही॥

अनुवाद (हिन्दी)

ऐसा कहकर और सीताजीको बहुत प्रकारसे समझाकर फिर त्रिजटा अपने घर चली गयी। श्रीरामचन्द्रजीके स्वभावका स्मरण करके जानकीजीको अत्यन्त विरहव्यथा उत्पन्न हुई॥ १॥

मूल (चौपाई)

निसिहि ससिहि निंदति बहु भाँती।
जुग सम भई सिराति न राती॥
करति बिलाप मनहिं मन भारी।
राम बिरहँ जानकी दुखारी॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे रात्रिकी और चन्द्रमाकी बहुत प्रकारसे निन्दा कर रही हैं (और कह रही हैं—) रात युगके समान बड़ी हो गयी, वह बीतती ही नहीं। जानकीजी श्रीरामजीके विरहमें दुःखी होकर मन-ही-मन भारी विलाप कर रही हैं॥ २॥

मूल (चौपाई)

जब अति भयउ बिरह उर दाहू।
फरकेउ बाम नयन अरु बाहू॥
सगुन बिचारि धरी मन धीरा।
अब मिलिहहिं कृपाल रघुबीरा॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब विरहके मारे हृदयमें दारुण दाह हो गया, तब उनका बायाँ नेत्र और बाहु फड़क उठे। शकुन समझकर उन्होंने मनमें धैर्य धारण किया कि अब कृपालु श्रीरघुवीर अवश्य मिलेंगे॥ ३॥

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