२३ रावण-मूर्च्छा, रावण-यज्ञ-विध्वंस, राम-रावण-युद्ध

दोहा

मूल (दोहा)

देखि पवनसुत धायउ बोलत बचन कठोर।
आवत कपिहि हन्यो तेहिं मुष्टि प्रहार प्रघोर॥ ८३॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह देखकर पवनपुत्र हनुमान् जी कठोर वचन बोलते हुए दौड़े। हनुमान् जी के आते ही रावण ने उनपर अत्यन्त भयङ्कर घूँसेका प्रहार किया॥ ८३॥

मूल (चौपाई)

जानु टेकि कपि भूमि न गिरा।
उठा सँभारि बहुत रिस भरा॥
मुठिका एक ताहि कपि मारा।
परेउ सैल जनु बज्र प्रहारा॥

अनुवाद (हिन्दी)

हनुमान् जी घुटने टेककर रह गये, पृथ्वीपर गिरे नहीं। और फिर क्रोधसे भरे हुए सँभालकर उठे। हनुमान् जीने रावणको एक घूँसा मारा। वह ऐसा गिर पड़ा जैसे वज्रकी मारसे पर्वत गिरा हो॥ १॥

मूल (चौपाई)

मुरुछा गै बहोरि सो जागा।
कपि बल बिपुल सराहन लागा॥
धिग धिग मम पौरुष धिग मोही।
जौं तैं जिअत रहेसि सुरद्रोही॥

अनुवाद (हिन्दी)

मूर्च्छा भंग होनेपर फिर वह जगा और हनुमान् जीके बड़े भारी बलको सराहने लगा। (हनुमान् जीने कहा—) मेरे पौरुषको धिक्‍कार है, धिक्‍कार है और मुझे भी धिक्‍कार है, जो हे देवद्रोही! तू अब भी जीता रह गया॥ २॥

मूल (चौपाई)

अस कहि लछिमन कहुँ कपि ल्यायो।
देखि दसानन बिसमय पायो॥
कह रघुबीर समुझु जियँ भ्राता।
तुम्ह कृतांत भच्छक सुर त्राता॥

अनुवाद (हिन्दी)

ऐसा कहकर और लक्ष्मणजीको उठाकर हनुमान् जी श्रीरघुनाथजीके पास ले आये। यह देखकर रावणको आश्चर्य हुआ। श्रीरघुवीरने (लक्ष्मणजीसे) कहा—हे भाई! हृदयमें समझो, तुम कालके भी भक्षक और देवताओंके रक्षक हो॥ ३॥

मूल (चौपाई)

सुनत बचन उठि बैठ कृपाला।
गई गगन सो सकति कराला॥
पुनि कोदंड बान गहि धाए।
रिपु सन्मुख अति आतुर आए॥

अनुवाद (हिन्दी)

ये वचन सुनते ही कृपालु लक्ष्मणजी उठ बैठे। वह कराल शक्ति आकाशको चली गयी। लक्ष्मणजी फिर धनुष-बाण लेकर दौड़े और बड़ी शीघ्रतासे शत्रुके सामने आ पहुँचे॥ ४॥

छंद

मूल (दोहा)

आतुर बहोरि बिभंजि स्यंदन सूत हति ब्याकुल कियो।
गिरॺो धरनि दसकंधर बिकलतर बान सत बेध्यो हियो॥
सारथी दूसर घालि रथ तेहि तुरत लंका लै गयो।
रघुबीर बंधु प्रताप पुंज बहोरि प्रभु चरनन्हि नयो॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर उन्होंने बड़ी ही शीघ्रतासे रावणके रथको चूर-चूरकर और सारथिको मारकर उसे (रावणको) व्याकुल कर दिया। सौ बाणोंसे उसका हृदय बेध दिया, जिससे रावण अत्यन्त व्याकुल होकर पृथ्वीपर गिर पड़ा। तब दूसरा सारथि उसे रथमें डालकर तुरंत ही लंकाको ले गया। प्रतापके समूह श्रीरघुवीरके भाई लक्ष्मणजीने फिर आकर प्रभुके चरणोंमें प्रणाम किया।

दोहा

मूल (दोहा)

उहाँ दसानन जागि करि करै लाग कछु जग्य।
राम बिरोध बिजय चह सठ हठ बस अति अग्य॥ ८४॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँ (लंकामें) रावण मूर्च्छासे जागकर कुछ यज्ञ करने लगा। वह मूर्ख और अत्यन्त अज्ञानी हठवश श्रीरघुनाथजीसे विरोध करके विजय चाहता है॥ ८४॥

मूल (चौपाई)

इहाँ बिभीषन सब सुधि पाई।
सपदि जाइ रघुपतिहि सुनाई॥
नाथ करइ रावन एक जागा।
सिद्ध भएँ नहिं मरिहि अभागा॥

अनुवाद (हिन्दी)

यहाँ विभीषणजीने सब खबर पायी और तुरंत जाकर श्रीरघुनाथजीको कह सुनायी कि हे नाथ! रावण एक यज्ञ कर रहा है। उसके सिद्ध होनेपर वह अभागा सहज ही नहीं मरेगा॥ १॥

मूल (चौपाई)

पठवहु नाथ बेगि भट बंदर।
करहिं बिधंस आव दसकंधर॥
प्रात होत प्रभु सुभट पठाए।
हनुमदादि अंगद सब धाए॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे नाथ! तुरंत वानर योद्धाओंको भेजिये; जो यज्ञका विध्वंस करें, जिससे रावण युद्धमें आवे। प्रातःकाल होते ही प्रभुने वीर योद्धाओंको भेजा। हनुमान् और अंगद आदि सब (प्रधान वीर) दौड़े॥ २॥

मूल (चौपाई)

कौतुक कूदि चढ़े कपि लंका।
पैठे रावन भवन असंका॥
जग्य करत जबहीं सो देखा।
सकल कपिन्ह भा क्रोध बिसेषा॥

अनुवाद (हिन्दी)

वानर खेलसे ही कूदकर लंकापर जा चढ़े और निर्भय रावणके महलमें जा घुसे। ज्यों ही उसको यज्ञ करते देखा, त्यों ही सब वानरोंको बहुत क्रोध हुआ॥ ३॥

मूल (चौपाई)

रन ते निलज भाजि गृह आवा।
इहाँ आइ बक ध्यान लगावा॥
अस कहि अंगद मारा लाता।
चितव न सठ स्वारथ मन राता॥

अनुवाद (हिन्दी)

(उन्होंने कहा—) अरे ओ निर्लज्ज! रणभूमिसे घर भाग आया और यहाँ आकर बगुलेका-सा ध्यान लगाकर बैठा है? ऐसा कहकर अंगदने लात मारी। पर उसने इनकी ओर देखा भी नहीं, उस दुष्टका मन स्वार्थमें अनुरक्त था॥ ४॥

छंद

मूल (दोहा)

नहिं चितव जब करि कोप कपि गहि दसन लातन्ह मारहीं।
धरि केस नारि निकारि बाहेर तेऽतिदीन पुकारहीं॥
तब उठेउ क्रुद्ध कृतांत सम गहि चरन बानर डारई।
एहि बीच कपिन्ह बिधंस कृत मख देखि मन महुँ हारई॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब उसने नहीं देखा, तब वानर क्रोध करके उसे दाँतोंसे पकड़कर (काटने और) लातोंसे मारने लगे। स्त्रियोंको बाल पकड़कर घरसे बाहर घसीट लाये, वे अत्यन्त ही दीन होकर पुकारने लगीं। तब रावण कालके समान क्रोधित होकर उठा और वानरोंको पैर पकड़कर पटकने लगा। इसी बीचमें वानरोंने यज्ञ विध्वंस कर डाला, यह देखकर वह मनमें हारने लगा (निराश होने लगा)।

दोहा

मूल (दोहा)

जग्य बिधंसि कुसल कपि आए रघुपति पास।
चलेउ निसाचर क्रुद्ध होइ त्यागि जिवन कै आस॥ ८५॥

अनुवाद (हिन्दी)

यज्ञ विध्वंस करके सब चतुर वानर रघुनाथजीके पास आ गये। तब रावण जीनेकी आशा छोड़कर क्रोधित होकर चला॥ ८५॥

मूल (चौपाई)

चलत होहिं अति असुभ भयंकर।
बैठहिं गीध उड़ाइ सिरन्ह पर॥
भयउ कालबस काहु न माना।
कहेसि बजावहु जुद्ध निसाना॥

अनुवाद (हिन्दी)

चलते समय अत्यन्त भयङ्कर अमङ्गल (अपशकुन) होने लगे। गीध उड़-उड़कर उसके सिरोंपर बैठने लगे। किन्तु वह कालके वश था, इससे किसी भी अपशकुनको नहीं मानता था। उसने कहा—युद्धका डंका बजाओ॥ १॥

मूल (चौपाई)

चली तमीचर अनी अपारा।
बहु गज रथ पदाति असवारा॥
प्रभु सन्मुख धाए खल कैसें।
सलभ समूह अनल कहँ जैसें॥

अनुवाद (हिन्दी)

निशाचरोंकी अपार सेना चली। उसमें बहुत-से हाथी, रथ, घुड़सवार और पैदल हैं। वे दुष्ट प्रभुके सामने कैसे दौड़े, जैसे पतंगोंके समूह अग्निकी ओर (जलनेके लिये) दौड़ते हैं॥ २॥

मूल (चौपाई)

इहाँ देवतन्ह अस्तुति कीन्ही।
दारुन बिपति हमहि एहिं दीन्ही॥
अब जनि राम खेलावहु एही।
अतिसय दुखित होति बैदेही॥

अनुवाद (हिन्दी)

इधर देवताओंने स्तुति की कि हे श्रीरामजी! इसने हमको दारुण दुःख दिये हैं। अब आप इसे (अधिक) न खेलाइये। जानकीजी बहुत ही दुखी हो रही हैं॥ ३॥

मूल (चौपाई)

देव बचन सुनि प्रभु मुसुकाना।
उठि रघुबीर सुधारे बाना॥
जटा जूट दृढ़ बाँधें माथे।
सोहहिं सुमन बीच बिच गाथे॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवताओंके वचन सुनकर प्रभु मुसकराये। फिर श्रीरघुवीरने उठकर बाण सुधारे। मस्तकपर जटाओंके जूड़ेको कसकर बाँधे हुए हैं, उसके बीच-बीचमें पुष्प गूँथे हुए शोभित हो रहे हैं॥ ४॥

मूल (चौपाई)

अरुन नयन बारिद तनु स्यामा।
अखिल लोक लोचनाभिरामा॥
कटितट परिकर कस्यो निषंगा।
कर कोदंड कठिन सारंगा॥

अनुवाद (हिन्दी)

लाल नेत्र और मेघके समान श्याम शरीरवाले और सम्पूर्ण लोकोंके नेत्रोंको आनन्द देनेवाले हैं। प्रभुने कमरमें फेंटा तथा तरकस कस लिया और हाथमें कठोर शार्ङ्गधनुष ले लिया॥ ५॥

छंद

मूल (दोहा)

सारंग कर सुंदर निषंग सिलीमुखाकर कटि कस्यो।
भुजदंड पीन मनोहरायत उर धरासुर पद लस्यो॥
कह दास तुलसी जबहिं प्रभु सर चाप कर फेरन लगे।
ब्रह्मांड दिग्गज कमठ अहि महि सिंधु भूधर डगमगे॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रभुने हाथमें शार्ङ्गधनुष लेकर कमरमें बाणोंकी खान (अक्षय) सुन्दर तरकस कस लिया। उनके भुजदण्ड पुष्ट हैं और मनोहर चौड़ी छातीपर ब्राह्मण (भृगुजी) के चरणका चिह्न शोभित है। तुलसीदासजी कहते हैं, ज्यों ही प्रभु धनुष-बाण हाथमें लेकर फिराने लगे, त्यों ही ब्रह्माण्ड, दिशाओंके हाथी, कच्छप, शेषजी, पृथ्वी, समुद्र और पर्वत सभी डगमगा उठे।

दोहा

मूल (दोहा)

सोभा देखि हरषि सुर बरषहिं सुमन अपार।
जय जय जय करुनानिधि छबि बल गुन आगार॥ ८६॥

अनुवाद (हिन्दी)

(भगवान् की) शोभा देखकर देवता हर्षित होकर फूलोंकी अपार वर्षा करने लगे। और शोभा, शक्ति और गुणोंके धाम करुणानिधान प्रभुकी जय हो, जय हो, जय हो (ऐसा पुकारने लगे)॥ ८६॥

मूल (चौपाई)

एहीं बीच निसाचर अनी।
कसमसात आई अति घनी॥
देखि चले सन्मुख कपि भट्टा।
प्रलयकाल के जनु घन घट्टा॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसी बीचमें निशाचरोंकी अत्यन्त घनी सेना कसमसाती हुई (आपसमें टकराती हुई) आयी। उसे देखकर वानर योद्धा इस प्रकार (उसके) सामने चले जैसे प्रलयकालके बादलोंके समूह हों॥ १॥

मूल (चौपाई)

बहु कृपान तरवारि चमंकहिं।
जनु दहँ दिसि दामिनीं दमंकहिं॥
गज रथ तुरग चिकार कठोरा।
गर्जहिं मनहुँ बलाहक घोरा॥

अनुवाद (हिन्दी)

बहुत-से कृपाण और तलवारें चमक रही हैं। मानो दसों दिशाओंमें बिजलियाँ चमक रही हों। हाथी, रथ और घोड़ोंका कठोर चिग्घाड़ ऐसा लगता है मानो बादल भयंकर गर्जन कर रहे हों॥ २॥

मूल (चौपाई)

कपि लंगूर बिपुल नभ छाए।
मनहुँ इंद्रधनु उए सुहाए॥
उठइ धूरि मानहुँ जलधारा।
बान बुंद भै बृष्टि अपारा॥

अनुवाद (हिन्दी)

वानरोंकी बहुत-सी पूँछें आकाशमें छायी हुई हैं। (वे ऐसी शोभा दे रही हैं) मानो सुन्दर इन्द्रधनुष उदय हुए हों। धूल ऐसी उठ रही है मानो जलकी धारा हो। बाणरूपी बूँदोंकी अपार वृष्टि हुई॥ ३॥

मूल (चौपाई)

दुहुँ दिसि पर्बत करहिं प्रहारा।
बज्रपात जनु बारहिं बारा॥
रघुपति कोपि बान झरि लाई।
घायल भै निसिचर समुदाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

दोनों ओरसे योद्धा पर्वतोंका प्रहार करते हैं। मानो बारंबार वज्रपात हो रहा हो। श्रीरघुनाथजीने क्रोध करके बाणोंकी झड़ी लगा दी, (जिससे) राक्षसोंकी सेना घायल हो गयी॥ ४॥

मूल (चौपाई)

लागत बान बीर चिक्‍करहीं।
घुर्मि घुर्मि जहँ तहँ महि परहीं॥
स्रवहिं सैल जनु निर्झर भारी।
सोनित सरि कादर भयकारी॥

अनुवाद (हिन्दी)

बाण लगते ही वीर चीत्कार कर उठते हैं और चक्कर खा-खाकर जहाँ-तहाँ पृथ्वीपर गिर पड़ते हैं। उनके शरीरोंसे ऐसे खून बह रहा है मानो पर्वतके भारी झरनोंसे जल बह रहा हो। इस प्रकार डरपोकोंको भय उत्पन्न करनेवाली रुधिरकी नदी बह चली॥ ५॥

छंद

मूल (दोहा)

कादर भयंकर रुधिर सरिता चली परम अपावनी।
दोउ कूल दल रथ रेत चक्र अबर्त बहति भयावनी॥
जलजंतु गज पदचर तुरग खर बिबिध बाहन को गने।
सर सक्ति तोमर सर्प चाप तरंग चर्म कमठ घने॥

अनुवाद (हिन्दी)

डरपोकोंको भय उपजानेवाली अत्यन्त अपवित्र रक्तकी नदी बह चली। दोनों दल उसके दोनों किनारे हैं। रथ रेत है और पहिये भँवर हैं। वह नदी बहुत भयावनी बह रही है। हाथी, पैदल, घोड़े, गदहे तथा अनेकों सवारियाँ ही, जिनकी गिनती कौन करे, नदीके जलजन्तु हैं। बाण, शक्ति और तोमर सर्प हैं; धनुष तरंगें हैं और ढाल बहुत-से कछुवे हैं।

दोहा

मूल (दोहा)

बीर परहिं जनु तीर तरु मज्जा बहु बह फेन।
कादर देखि डरहिं तहँ सुभटन्ह के मन चेन॥ ८७॥

अनुवाद (हिन्दी)

वीर पृथ्वीपर इस तरह गिर रहे हैं, मानो नदी-किनारेके वृक्ष ढह रहे हों। बहुत-सी मज्जा बह रही है, वही फेन है। डरपोक जहाँ इसे देखकर डरते हैं, वहाँ उत्तम योद्धाओंके मनमें सुख होता है॥ ८७॥

मूल (चौपाई)

मज्जहिं भूत पिसाच बेताला।
प्रमथ महा झोटिंग कराला॥
काक कंक लै भुजा उड़ाहीं।
एक ते छीनि एक लै खाहीं॥

अनुवाद (हिन्दी)

भूत, पिशाच और बैताल, बड़े-बड़े झोटोंवाले महान् भयङ्कर झोटिंग और प्रमथ (शिवगण) उस नदीमें स्नान करते हैं। कौए और चील भुजाएँ लेकर उड़ते हैं और एक दूसरेसे छीनकर खा जाते हैं॥ १॥

मूल (चौपाई)

एक कहहिं ऐसिउ सौंघाई।
सठहु तुम्हार दरिद्र न जाई॥
कहँरत भट घायल तट गिरे।
जहँ तहँ मनहुँ अर्धजल परे॥

अनुवाद (हिन्दी)

एक (कोई) कहते हैं, अरे मूर्खो! ऐसी सस्ती (बहुतायत) है, फिर भी तुम्हारी दरिद्रता नहीं जाती? घायल योद्धा तटपर पड़े कराह रहे हैं, मानो जहाँ-तहाँ अर्धजल (वे व्यक्ति जो मरनेके समय आधे जलमें रखे जाते हैं) पड़े हों॥ २॥

मूल (चौपाई)

खैंचहिं गीध आँत तट भए।
जनु बंसी खेलत चित दए॥
बहु भट बहहिं चढ़े खग जाहीं।
जनु नावरि खेलहिं सरि माहीं॥

अनुवाद (हिन्दी)

गीध आँतें खींच रहे हैं, मानो मछलीमार नदी-तटपरसे चित्त लगाये हुए (ध्यानस्थ होकर) बंसी खेल रहे हों (बंसीसे मछली पकड़ रहे हों)। बहुत-से योद्धा बहे जा रहे हैं और पक्षी उनपर चढ़े चले जा रहे हैं। मानो वे नदीमें नावरि (नौकाक्रीड़ा) खेल रहे हों॥ ३॥

मूल (चौपाई)

जोगिनि भरि भरि खप्पर संचहिं।
भूत पिसाच बधू नभ नंचहिं॥
भट कपाल करताल बजावहिं।
चामुंडा नाना बिधि गावहिं॥

अनुवाद (हिन्दी)

योगिनियाँ खप्परोंमें भर-भरकर खून जमा कर रही हैं। भूत-पिशाचोंकी स्त्रियाँ आकाशमें नाच रही हैं। चामुण्डाएँ योद्धाओंकी खोपड़ियोंका करताल बजा रही हैं और नाना प्रकारसे गा रही हैं॥ ४॥

मूल (चौपाई)

जंबुक निकर कटक्‍कट कट्टहिं।
खाहिं हुआहिं अघाहिं दपट्टहिं॥
कोटिन्ह रुंड मुंड बिनु डोल्लहिं।
सीस परे महि जय जय बोल्लहिं॥

अनुवाद (हिन्दी)

गीदड़ोंके समूह कट-कट शब्द करते हुए मुरदोंको काटते, खाते, हुआँ-हुआँ करते और पेट भर जानेपर एक दूसरेको डाँटते हैं। करोड़ों धड़ बिना सिरके घूम रहे हैं और सिर पृथ्वीपर पड़े जय-जय बोल रहे हैं॥ ५॥

छंद

मूल (दोहा)

बोल्लहिं जो जय जय मुंड रुंड प्रचंड सिर बिनु धावहीं।
खप्परिन्ह खग्ग अलुज्झि जुज्झहिं सुभट भटन्ह ढहावहीं॥
बानर निसाचर निकर मर्दहिं राम बल दर्पित भए।
संग्राम अंगन सुभट सोवहिं राम सर निकरन्हि हए॥

अनुवाद (हिन्दी)

मुण्ड (कटे सिर) जय-जय बोलते हैं और प्रचण्ड रुण्ड (धड़) बिना सिरके दौड़ते हैं। पक्षी खोपड़ियोंमें उलझ-उलझकर परस्पर लड़े मरते हैं; उत्तम योद्धा दूसरे योद्धाओंको ढहा रहे हैं। श्रीरामचन्द्रजीके बलसे दर्पित हुए वानर राक्षसोंके झुण्डोंको मसले डालते हैं। श्रीरामजीके बाणसमूहोंसे मरे हुए योद्धा लड़ाईके मैदानमें सो रहे हैं।

दोहा

मूल (दोहा)

रावन हृदयँ बिचारा भा निसिचर संघार।
मैं अकेल कपि भालु बहु माया करौं अपार॥ ८८॥

अनुवाद (हिन्दी)

रावणने हृदयमें विचारा कि राक्षसोंका नाश हो गया है। मैं अकेला हूँ और वानर-भालू बहुत हैं, इसलिये मैं अब अपार माया रचूँ॥ ८८॥

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