१३ लक्ष्मण-मेघनाद-युद्ध, लक्ष्मणजीको शक्ति लगना

मूल (चौपाई)

सो उठि गयउ कहत दुर्बादा।
तब सकोप बोलेउ घननादा॥
कौतुक प्रात देखिअहु मोरा।
करिहउँ बहुत कहौं का थोरा॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह रावणको दुर्वचन कहता हुआ उठकर चला गया। तब मेघनाद क्रोधपूर्वक बोला—सबेरे मेरी करामात देखना। मैं बहुत कुछ करूँगा; थोड़ा क्या कहूँ? (जो कुछ वर्णन करूँगा थोड़ा ही होगा)॥ ३॥

मूल (चौपाई)

सुनि सुत बचन भरोसा आवा।
प्रीति समेत अंक बैठावा॥
करत बिचार भयउ भिनुसारा।
लागे कपि पुनि चहूँ दुआरा॥

अनुवाद (हिन्दी)

पुत्रके वचन सुनकर रावणको भरोसा आ गया। उसने प्रेमके साथ उसे गोदमें बैठा लिया। विचार करते-करते ही सबेरा हो गया। वानर फिर चारों दरवाजोंपर जा लगे॥ ४॥

मूल (चौपाई)

कोपि कपिन्ह दुर्घट गढ़ु घेरा।
नगर कोलाहलु भयउ घनेरा॥
बिबिधायुध धर निसिचर धाए।
गढ़ ते पर्बत सिखर ढहाए॥

अनुवाद (हिन्दी)

वानरोंने क्रोध करके दुर्गम किलेको घेर लिया। नगरमें बहुत ही कोलाहल (शोर) मच गया। राक्षस बहुत तरहके अस्त्र-शस्त्र धारण करके दौड़े और उन्होंने किलेपरसे पहाड़ोंके शिखर ढहाये॥ ५॥

छंद

मूल (दोहा)

ढाहे महीधर सिखर कोटिन्ह बिबिध बिधि गोला चले।
घहरात जिमि पबिपात गर्जत जनु प्रलय के बादले॥
मर्कट बिकट भट जुटत कटत न लटत तन जर्जर भए।
गहि सैल तेहि गढ़ पर चलावहिं जहँ सो तहँ निसिचर हए॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन्होंने पर्वतोंके करोड़ों शिखर ढहाये, अनेक प्रकारसे गोले चलने लगे। वे गोले ऐसा घहराते हैं जैसे वज्रपात हुआ हो (बिजली गिरी हो) और योद्धा ऐसे गरजते हैं मानो प्रलयकालके बादल हों। विकट वानर योद्धा भिड़ते हैं, कट जाते हैं (घायल हो जाते हैं), उनके शरीर जर्जर (चलनी) हो जाते हैं, तब भी वे लटते नहीं (हिम्मत नहीं हारते)। वे पहाड़ उठाकर उसे किलेपर फेंकते हैं। राक्षस जहाँ-के-तहाँ (जो जहाँ होते हैं वहीं) मारे जाते हैं।

दोहा

मूल (दोहा)

मेघनाद सुनि श्रवन अस गढ़ु पुनि छेंका आइ।
उतरॺो बीर दुर्ग तें सन्मुख चल्यो बजाइ॥ ४९॥

अनुवाद (हिन्दी)

मेघनादने कानोंसे ऐसा सुना कि वानरोंने आकर फिर किलेको घेर लिया है। तब वह वीर किलेसे उतरा और डंका बजाकर उनके सामने चला॥ ४९॥

मूल (चौपाई)

कहँ कोसलाधीस द्वौ भ्राता।
धन्वी सकल लोक बिख्याता॥
कहँ नल नील दुबिद सुग्रीवा।
अंगद हनूमंत बल सींवा॥

अनुवाद (हिन्दी)

(मेघनादने पुकारकर कहा—) समस्त लोकोंमें प्रसिद्ध धनुर्धर कोसलाधीश दोनों भाई कहाँ हैं? नल, नील, द्विविद, सुग्रीव और बलकी सीमा अङ्गद और हनुमान् कहाँ हैं?॥ १॥

मूल (चौपाई)

कहाँ बिभीषनु भ्राताद्रोही।
आजु सबहि हठि मारउँ ओही॥
अस कहि कठिन बान संधाने।
अतिसय क्रोध श्रवन लगि ताने॥

अनुवाद (हिन्दी)

भाईसे द्रोह करनेवाला विभीषण कहाँ है? आज मैं सबको और उस दुष्टको तो हठपूर्वक (अवश्य ही) मारूँगा। ऐसा कहकर उसने धनुषपर कठिन बाणोंका सन्धान किया और अत्यन्त क्रोध करके उसे कानतक खींचा॥ २॥

मूल (चौपाई)

सर समूह सो छाड़ै लागा।
जनु सपच्छ धावहिं बहु नागा॥
जहँ तहँ परत देखिअहिं बानर।
सन्मुख होइ न सके तेहि अवसर॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह बाणोंके समूह छोड़ने लगा। मानो बहुत-से पंखवाले साँप दौड़े जा रहे हों। जहाँ-तहाँ वानर गिरते दिखायी पड़ने लगे। उस समय कोई भी उसके सामने न हो सके॥ ३॥

मूल (चौपाई)

जहँ तहँ भागि चले कपि रीछा।
बिसरी सबहि जुद्ध कै ईछा॥
सो कपि भालु न रन महँ देखा।
कीन्हेसि जेहि न प्रान अवसेषा॥

अनुवाद (हिन्दी)

रीछ-वानर जहाँ-तहाँ भाग चले। सबको युद्धकी इच्छा भूल गयी। रणभूमिमें ऐसा एक भी वानर या भालू नहीं दिखायी पड़ा जिसको उसने प्राणमात्र अवशेष न कर दिया हो (अर्थात् जिसके केवल प्राणमात्र ही न बचे हों; बल, पुरुषार्थ सारा जाता न रहा हो)॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

दस दस सर सब मारेसि परे भूमि कपि बीर।
सिंहनाद करि गर्जा मेघनाद बल धीर॥ ५०॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर उसने सबको दस-दस बाण मारे, वानर वीर पृथ्वीपर गिर पड़े। बलवान् और धीर मेघनाद सिंहके समान नाद करके गरजने लगा॥ ५०॥

मूल (चौपाई)

देखि पवनसुत कटक बिहाला।
क्रोधवंत जनु धायउ काला॥
महासैल एक तुरत उपारा।
अति रिस मेघनाद पर डारा॥

अनुवाद (हिन्दी)

सारी सेनाको बेहाल (व्याकुल) देखकर पवनसुत हनुमान् क्रोध करके ऐसे दौड़े मानो स्वयं काल दौड़ा आता हो। उन्होंने तुरंत एक बड़ा भारी पहाड़ उखाड़ लिया और बड़े ही क्रोधके साथ उसे मेघनादपर छोड़ा॥ १॥

मूल (चौपाई)

आवत देखि गयउ नभ सोई।
रथ सारथी तुरग सब खोई॥
बार बार पचार हनुमाना।
निकट न आव मरमु सो जाना॥

अनुवाद (हिन्दी)

पहाड़को आते देखकर वह आकाशमें उड़ गया। (उसके) रथ, सारथि और घोड़े सब नष्ट हो गये (चूर-चूर हो गये)। हनुमान् जी उसे बार-बार ललकारते हैं। पर वह निकट नहीं आता, क्योंकि वह उनके बलका मर्म जानता था॥ २॥

मूल (चौपाई)

रघुपति निकट गयउ घननादा।
नाना भाँति करेसि दुर्बादा॥
अस्त्र सस्त्र आयुध सब डारे।
कौतुकहीं प्रभु काटि निवारे॥

अनुवाद (हिन्दी)

(तब) मेघनाद श्रीरघुनाथजीके पास गया और उसने (उनके प्रति) अनेकों प्रकारके दुर्वचनोंका प्रयोग किया। (फिर) उसने उनपर अस्त्र-शस्त्र तथा और सब हथियार चलाये। प्रभुने खेलमें ही सबको काटकर अलग कर दिया॥ ३॥

मूल (चौपाई)

देखि प्रताप मूढ़ खिसिआना।
करै लाग माया बिधि नाना॥
जिमि कोउ करै गरुड़ सैं खेला।
डरपावै गहि स्वल्प सपेला॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरामजीका प्रताप (सामर्थ्य) देखकर वह मूर्ख लज्जित हो गया और अनेकों प्रकारकी माया करने लगा। जैसे कोई व्यक्ति छोटा-सा साँपका बच्चा हाथमें लेकर गरुड़को डरावे और उससे खेल करे॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

जासु प्रबल माया बस सिव बिरंचि बड़ छोट।
ताहि दिखावइ निसिचर निज माया मति खोट॥ ५१॥

अनुवाद (हिन्दी)

शिवजी और ब्रह्माजीतक बड़े-छोटे (सभी) जिनकी अत्यन्त बलवान् मायाके वशमें हैं, नीचबुद्धि निशाचर उनको अपनी माया दिखलाता है॥ ५१॥

मूल (चौपाई)

नभ चढ़ि बरष बिपुल अंगारा।
महि ते प्रगट होहिं जलधारा॥
नाना भाँति पिसाच पिसाची।
मारु काटु धुनि बोलहिं नाची॥

अनुवाद (हिन्दी)

आकाशमें (ऊँचे) चढ़कर वह बहुत-से अंगारे बरसाने लगा। पृथ्वीसे जलकी धाराएँ प्रकट होने लगीं। अनेक प्रकारके पिशाच तथा पिशाचिनियाँ नाच-नाचकर ‘मारो, काटो’ की आवाज करने लगीं॥ १॥

मूल (चौपाई)

बिष्टा पूय रुधिर कच हाड़ा।
बरषइ कबहुँ उपल बहु छाड़ा॥
बरषि धूरि कीन्हेसि अँधिआरा।
सूझ न आपन हाथ पसारा॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह कभी तो विष्ठा, पीब, खून, बाल और हड्डियाँ बरसाता था और कभी बहुत-से पत्थर फेंके देता था। फिर उसने धूल बरसाकर ऐसा अँधेरा कर दिया कि अपना ही पसारा हुआ हाथ नहीं सूझता था॥ २॥

मूल (चौपाई)

कपि अकुलाने माया देखें।
सब कर मरन बना एहि लेखें॥
कौतुक देखि राम मुसुकाने।
भए सभीत सकल कपि जाने॥

अनुवाद (हिन्दी)

माया देखकर वानर अकुला उठे। वे सोचने लगे कि इस हिसाबसे (इसी तरह रहा) तो सबका मरण आ बना। यह कौतुक देखकर श्रीरामजी मुसकराये। उन्होंने जान लिया कि सब वानर भयभीत हो गये हैं॥ ३॥

मूल (चौपाई)

एक बान काटी सब माया।
जिमि दिनकर हर तिमिर निकाया॥
कृपादृष्टि कपि भालु बिलोके।
भए प्रबल रन रहहिं न रोके॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब श्रीरामजीने एक ही बाणसे सारी माया काट डाली, जैसे सूर्य अन्धकारके समूहको हर लेता है। तदनन्तर उन्होंने कृपाभरी दृष्टिसे वानर-भालुओंकी ओर देखा, (जिससे) वे ऐसे प्रबल हो गये कि रणमें रोकनेपर भी नहीं रुकते थे॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

आयसु मागि राम पहिं अंगदादि कपि साथ।
लछिमन चले क्रुद्ध होइ बान सरासन हाथ॥ ५२॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरामजीसे आज्ञा माँगकर, अंगद आदि वानरोंके साथ हाथोंमें धनुष-बाण लिये हुए श्रीलक्ष्मणजी क्रुद्ध होकर चले॥ ५२॥

मूल (चौपाई)

छतज नयन उर बाहु बिसाला।
हिमगिरि निभ तनु कछु एक लाला॥
इहाँ दसानन सुभट पठाए।
नाना अस्त्र सस्त्र गहि धाए॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनके लाल नेत्र हैं, चौड़ी छाती और विशाल भुजाएँ हैं। हिमाचल पर्वतके समान उज्ज्वल (गौरवर्ण) शरीर कुछ ललाई लिये हुए है। इधर रावणने भी बड़े-बड़े योद्धा भेजे, जो अनेकों अस्त्र-शस्त्र लेकर दौड़े॥ १॥

मूल (चौपाई)

भूधर नख बिटपायुध धारी।
धाए कपि जय राम पुकारी॥
भिरे सकल जोरिहि सन जोरी।
इत उत जय इच्छा नहिं थोरी॥

अनुवाद (हिन्दी)

पर्वत, नख और वृक्षरूपी हथियार धारण किये हुए वानर ‘श्रीरामचन्द्रजीकी जय’ पुकारकर दौड़े। वानर और राक्षस सब जोड़ीसे जोड़ी भिड़ गये। इधर और उधर दोनों ओर जयकी इच्छा कम न थी (अर्थात् प्रबल थी)॥ २॥

मूल (चौपाई)

मुठिकन्ह लातन्ह दातन्ह काटहिं।
कपि जयसील मारि पुनि डाटहिं॥
मारु मारु धरु धरु धरु मारू।
सीस तोरि गहि भुजा उपारू॥

अनुवाद (हिन्दी)

वानर उनको घूँसों और लातोंसे मारते हैं, दाँतोंसे काटते हैं। विजयशील वानर उन्हें मारकर फिर डाँटते भी हैं। ‘मारो, मारो, पकड़ो, पकड़ो, पकड़कर मार दो, सिर तोड़ दो और भुजाएँ पकड़कर उखाड़ लो’॥ ३॥

मूल (चौपाई)

असि रव पूरि रही नव खंडा।
धावहिं जहँ तहँ रुंड प्रचंडा॥
देखहिं कौतुक नभ सुर बृंदा।
कबहुँक बिसमय कबहुँ अनंदा॥

अनुवाद (हिन्दी)

नवों खण्डोंमें ऐसी आवाज भर रही है। प्रचण्ड रुण्ड (धड़) जहाँ-तहाँ दौड़ रहे हैं। आकाशमें देवतागण यह कौतुक देख रहे हैं। उन्हें कभी खेद होता है और कभी आनन्द॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

रुधिर गाड़ भरि भरि जम्यो ऊपर धूरि उड़ाइ।
जनु अँगार रासिन्ह पर मृतक धूम रह्यो छाइ॥ ५३॥

अनुवाद (हिन्दी)

खून गड्ढोंमें भर-भरकर जम गया है और उसपर धूल उड़कर पड़ रही है (वह दृश्य ऐसा है) मानो अंगारोंके ढेरोंपर राख छा रही हो॥ ५३॥

मूल (चौपाई)

घायल बीर बिराजहिं कैसे।
कुसुमित किंसुक के तरु जैसे॥
लछिमन मेघनाद द्वौ जोधा।
भिरहिं परसपर करि अति क्रोधा॥

अनुवाद (हिन्दी)

घायल वीर कैसे शोभित हैं, जैसे फूले हुए पलासके पेड़। लक्ष्मण और मेघनाद दोनों योद्धा अत्यन्त क्रोध करके एक-दूसरेसे भिड़ते हैं॥ १॥

मूल (चौपाई)

एकहि एक सकइ नहिं जीती।
निसिचर छल बल करइ अनीती॥
क्रोधवंत तब भयउ अनंता।
भंजेउ रथ सारथी तुरंता॥

अनुवाद (हिन्दी)

एक-दूसरेको (कोई किसीको) जीत नहीं सकता। राक्षस छल-बल (माया) और अनीति (अधर्म) करता है, तब भगवान् अनन्तजी (लक्ष्मणजी) क्रोधित हुए और उन्होंने तुरंत उसके रथको तोड़ डाला और सारथिको टुकड़े-टुकड़े कर दिये!॥ २॥

मूल (चौपाई)

नाना बिधि प्रहार कर सेषा।
राच्छस भयउ प्रान अवसेषा॥
रावन सुत निज मन अनुमाना।
संकठ भयउ हरिहि मम प्राना॥

अनुवाद (हिन्दी)

शेषजी (लक्ष्मणजी) उसपर अनेक प्रकारसे प्रहार करने लगे। राक्षसके प्राणमात्र शेष रह गये। रावणपुत्र मेघनादने मनमें अनुमान किया कि अब तो प्राणसंकट आ बना, ये मेरे प्राण हर लेंगे॥ ३॥

मूल (चौपाई)

बीरघातिनी छाड़िसि साँगी।
तेजपुंज लछिमन उर लागी॥
मुरुछा भई सक्ति के लागें।
तब चलि गयउ निकट भय त्यागें॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब उसने वीरघातिनी शक्ति चलायी। वह तेजपूर्ण शक्ति लक्ष्मणजीकी छातीमें लगी। शक्तिके लगनेसे उन्हें मूर्छा आ गयी। तब मेघनाद भय छोड़कर उनके पास चला गया॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

मेघनाद सम कोटि सत जोधा रहे उठाइ।
जगदाधार सेष किमि उठै चले खिसिआइ॥ ५४॥

अनुवाद (हिन्दी)

मेघनादके समान सौ करोड़ (अगणित) योद्धा उन्हें उठा रहे हैं। परन्तु जगत् के आधार श्रीशेषजी (लक्ष्मणजी) उनसे कैसे उठते? तब वे लजाकर चले गये॥ ५४॥

मूल (चौपाई)

सुनु गिरिजा क्रोधानल जासू।
जारइ भुवन चारिदस आसू॥
सक संग्राम जीति को ताही।
सेवहिं सुर नर अग जग जाही॥

अनुवाद (हिन्दी)

(शिवजी कहते हैं—) हे गिरिजे! सुनो, (प्रलयकालमें) जिन (शेषनाग)-के क्रोधकी अग्नि चौदहों भुवनोंको तुरंत ही जला डालती है और देवता, मनुष्य तथा समस्त चराचर (जीव) जिनकी सेवा करते हैं, उनको संग्राममें कौन जीत सकता है?॥ १॥

मूल (चौपाई)

यह कौतूहल जानइ सोई।
जा पर कृपा राम कै होई॥
संध्या भइ फिरि द्वौ बाहनी।
लगे सँभारन निज निज अनी॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस लीलाको वही जान सकता है जिसपर श्रीरामजीकी कृपा हो। सन्ध्या होनेपर दोनों ओरकी सेनाएँ लौट पड़ीं; सेनापति अपनी-अपनी सेनाएँ सँभालने लगे॥ २॥

मूल (चौपाई)

ब्यापक ब्रह्म अजित भुवनेस्वर।
लछिमन कहाँ बूझ करुनाकर॥
तब लगि लै आयउ हनुमाना।
अनुज देखि प्रभु अति दुख माना॥

अनुवाद (हिन्दी)

व्यापक, ब्रह्म, अजेय, सम्पूर्ण ब्रह्माण्डके ईश्वर और करुणाकी खान श्रीरामचन्द्रजीने पूछा—लक्ष्मण कहाँ हैं? तबतक हनुमान् उन्हें ले आये। छोटे भाईको (इस दशामें) देखकर प्रभुने बहुत ही दुःख माना॥ ३॥

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