मूल (चौपाई)
इहाँ राम अंगदहि बोलावा।
आइ चरन पंकज सिरु नावा॥
अति आदर समीप बैठारी।
बोले बिहँसि कृपाल खरारी॥
अनुवाद (हिन्दी)
यहाँ (सुबेल पर्वतपर) श्रीरामजीने अंगदको बुलाया। उन्होंने आकर चरण-कमलोंमें सिर नवाया। बड़े आदरसे उन्हें पास बैठाकर खरके शत्रु कृपालु श्रीरामजी हँसकर बोले॥ २॥
मूल (चौपाई)
बालितनय कौतुक अति मोही।
तात सत्य कहु पूछउँ तोही॥
रावनु जातुधान कुल टीका।
भुज बल अतुल जासु जग लीका॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे बालिके पुत्र! मुझे बड़ा कौतूहल है। हे तात! इसीसे मैं तुमसे पूछता हूँ, सत्य कहना। जो रावण राक्षसोंके कुलका तिलक है और जिसके अतुलनीय बाहुबलकी जगत् भरमें धाक है,॥ ३॥
मूल (चौपाई)
तासु मुकुट तुम्ह चारि चलाए।
कहहु तात कवनी बिधि पाए॥
सुनु सर्बग्य प्रनत सुखकारी।
मुकुट न होहिं भूप गुन चारी॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसके चार मुकुट तुमने फेंके। हे तात! बताओ, तुमने उनको किस प्रकारसे पाया! (अंगदने कहा) हे सर्वज्ञ! हे शरणागतको सुख देनेवाले! सुनिये। वे मुकुट नहीं हैं। वे तो राजाके चार गुण हैं॥ ४॥
मूल (चौपाई)
साम दान अरु दंड बिभेदा।
नृप उर बसहिं नाथ कह बेदा॥
नीति धर्म के चरन सुहाए।
अस जियँ जानि नाथ पहिं आए॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे नाथ! वेद कहते हैं कि साम, दान, दण्ड और भेद—ये चारों राजाके हृदयमें बसते हैं। ये नीति-धर्मके चार सुन्दर चरण हैं। (किन्तु रावणमें धर्मका अभाव है) ऐसा जीमें जानकर ये नाथके पास आ गये हैं॥ ५॥
दोहा
मूल (दोहा)
धर्महीन प्रभु पद बिमुख काल बिबस दससीस।
तेहि परिहरि गुन आए सुनहु कोसलाधीस॥ ३८(क)॥
अनुवाद (हिन्दी)
दशशीश रावण धर्महीन, प्रभुके पदसे विमुख और कालके वशमें है। इसलिये हे कोसलराज! सुनिये, वे गुण रावणको छोड़कर आपके पास आ गये हैं॥ ३८(क)॥
मूल (दोहा)
परम चतुरता श्रवन सुनि बिहँसे रामु उदार।
समाचार पुनि सब कहे गढ़ के बालिकुमार॥ ३८(ख)॥
अनुवाद (हिन्दी)
अंगदकी परम चतुरता (पूर्ण उक्ति) कानोंसे सुनकर उदार श्रीरामचन्द्रजी हँसने लगे। फिर बालिपुत्रने किलेके (लङ्काके) सब समाचार कहे॥ ३८(ख)॥
मूल (चौपाई)
रिपु के समाचार जब पाए।
राम सचिव सब निकट बोलाए॥
लंका बाँके चारि दुआरा।
केहि बिधि लागिअ करहु बिचारा॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब शत्रुके समाचार प्राप्त हो गये, तब श्रीरामचन्द्रजीने सब मन्त्रियोंको पास बुलाया (और कहा—) लङ्काके चार बड़े विकट दरवाजे हैं। उनपर किस तरह आक्रमण किया जाय, इसपर विचार करो॥ १॥
मूल (चौपाई)
तब कपीस रिच्छेस बिभीषन।
सुमिरि हृदयँ दिनकर कुल भूषन॥
करि बिचार तिन्ह मंत्र दृढ़ावा।
चारि अनी कपि कटकु बनावा॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब वानरराज सुग्रीव, ऋक्षपति जाम्बवान् और विभीषणने हृदयमें सूर्यकुलके भूषण श्रीरघुनाथजीका स्मरण किया और विचार करके उन्होंने कर्तव्य निश्चित किया। वानरोंकी सेनाके चार दल बनाये॥ २॥
मूल (चौपाई)
जथाजोग सेनापति कीन्हे।
जूथप सकल बोलि तब लीन्हे॥
प्रभु प्रताप कहि सब समुझाए।
सुनि कपि सिंघनाद करि धाए॥
अनुवाद (हिन्दी)
और उनके लिये यथायोग्य (जैसे चाहिये वैसे) सेनापति नियुक्त किये। फिर सब यूथपतियोंको बुला लिया और प्रभुका प्रताप कहकर सबको समझाया, जिसे सुनकर वानर सिंहके समान गर्जना करके दौड़े॥ ३॥
मूल (चौपाई)
हरषित राम चरन सिर नावहिं।
गहि गिरि सिखर बीर सब धावहिं॥
गर्जहिं तर्जहिं भालु कपीसा।
जय रघुबीर कोसलाधीसा॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे हर्षित होकर श्रीरामजीके चरणोंमें सिर नवाते हैं और पर्वतोंके शिखर ले-लेकर सब वीर दौड़ते हैं। ‘कोसलराज श्रीरघुवीरजीकी जय हो’ पुकारते हुए भालू और वानर गरजते और ललकारते हैं॥ ४॥
मूल (चौपाई)
जानत परम दुर्ग अति लंका।
प्रभु प्रताप कपि चले असंका॥
घटाटोप करि चहुँ दिसि घेरी।
मुखहिं निसान बजावहिं भेरी॥
अनुवाद (हिन्दी)
लङ्काको अत्यन्त श्रेष्ठ (अजेय) किला जानते हुए भी वानर प्रभु श्रीरामचन्द्रजीके प्रतापसे निडर होकर चले। चारों ओरसे घिरी हुई बादलोंकी घटाकी तरह लङ्काको चारों दिशाओंसे घेरकर वे मुँहसे ही डंके और भेरी बजाने लगे॥ ५॥