०८ अंगदजीका लंका जाना और रावणकी सभामें अंगद-रावण-संवाद

मूल (चौपाई)

इहाँ प्रात जागे रघुराई।
पूछा मत सब सचिव बोलाई॥
कहहु बेगि का करिअ उपाई।
जामवंत कह पद सिरु नाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

यहाँ (सुबेल पर्वतपर) प्रातःकाल श्रीरघुनाथजी जागे और उन्होंने सब मन्त्रियोंको बुलाकर सलाह पूछी कि शीघ्र बताइये, अब क्या उपाय करना चाहिये? जाम्बवान् ने श्रीरामजीके चरणोंमें सिर नवाकर कहा—॥ १॥

मूल (चौपाई)

सुनु सर्बग्य सकल उर बासी।
बुधि बल तेज धर्म गुन रासी॥
मंत्र कहउँ निज मति अनुसारा।
दूत पठाइअ बालिकुमारा॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे सर्वज्ञ (सब कुछ जाननेवाले)! हे सबके हृदयमें बसनेवाले (अन्तर्यामी)! हे बुद्धि, बल, तेज, धर्म और गुणोंकी राशि! सुनिये! मैं अपनी बुद्धिके अनुसार सलाह देता हूँ कि बालिकुमार अंगदको दूत बनाकर भेजा जाय!॥ २॥

मूल (चौपाई)

नीक मंत्र सब के मन माना।
अंगद सन कह कृपानिधाना॥
बालितनय बुधि बल गुन धामा।
लंका जाहु तात मम कामा॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह अच्छी सलाह सबके मनमें जँच गयी। कृपाके निधान श्रीरामजीने अंगदसे कहा—हे बल, बुद्धि और गुणोंके धाम बालिपुत्र! हे तात! तुम मेरे कामके लिये लङ्का जाओ॥ ३॥

मूल (चौपाई)

बहुत बुझाइ तुम्हहि का कहऊँ।
परम चतुर मैं जानत अहऊँ॥
काजु हमार तासु हित होई।
रिपु सन करेहु बतकही सोई॥

अनुवाद (हिन्दी)

तुमको बहुत समझाकर क्या कहूँ! मैं जानता हूँ, तुम परम चतुर हो। शत्रुसे वही बातचीत करना जिससे हमारा काम हो और उसका कल्याण हो॥ ४॥

सोरठा

मूल (दोहा)

प्रभु अग्या धरि सीस चरन बंदि अंगद उठेउ।
सोइ गुन सागर ईस राम कृपा जा पर करहु॥ १७(क)॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रभुकी आज्ञा सिर चढ़ाकर और उनके चरणोंकी वन्दना करके अंगदजी उठे (और बोले—) हे भगवान् श्रीरामजी! आप जिसपर कृपा करें, वही गुणोंका समुद्र हो जाता है॥१७(क)॥

मूल (दोहा)

स्वयंसिद्ध सब काज नाथ मोहि आदरु दियउ।
अस बिचारि जुबराज तन पुलकित हरषित हियउ॥ १७ (ख)॥

अनुवाद (हिन्दी)

स्वामीके सब कार्य अपने-आप सिद्ध हैं; यह तो प्रभुने मुझको आदर दिया है (जो मुझे अपने कार्यपर भेज रहे हैं)। ऐसा विचारकर युवराज अंगदका हृदय हर्षित और शरीर पुलकित हो गया॥ १७(ख)॥

मूल (चौपाई)

बंदि चरन उर धरि प्रभुताई।
अंगद चलेउ सबहि सिरु नाई॥
प्रभु प्रताप उर सहज असंका।
रन बाँकुरा बालिसुत बंका॥

अनुवाद (हिन्दी)

चरणोंकी वन्दना करके और भगवान् की प्रभुता हृदयमें धरकर अंगद सबको सिर नवाकर चले। प्रभुके प्रतापको हृदयमें धारण किये हुए रणबाँकुरे वीर बालिपुत्र स्वाभाविक ही निर्भय हैं॥ १॥

मूल (चौपाई)

पुर पैठत रावन कर बेटा।
खेलत रहा सो होइ गै भेटा॥
बातहिं बात करष बढ़ि आई।
जुगल अतुल बल पुनि तरुनाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

लङ्कामें प्रवेश करते ही रावणके पुत्रसे भेंट हो गयी, जो वहाँ खेल रहा था। बातों-ही-बातोंमें दोनोंमें झगड़ा बढ़ गया। (क्योंकि) दोनों ही अतुलनीय बलवान् थे और फिर दोनोंकी युवावस्था थी॥ २॥

मूल (चौपाई)

तेहिं अंगद कहुँ लात उठाई।
गहि पद पटकेउ भूमि भवाँई॥
निसिचर निकर देखि भट भारी।
जहँ तहँ चले न सकहिं पुकारी॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसने अंगदपर लात उठायी। अंगदने (वही) पैर पकड़कर उसे घुमाकर जमीनपर दे पटका (मार गिराया)। राक्षसके समूह भारी योद्धा देखकर जहाँ-तहाँ (भाग) चले, वे डरके मारे पुकार भी न मचा सके॥ ३॥

मूल (चौपाई)

एक एक सन मरमु न कहहीं।
समुझि तासु बध चुप करि रहहीं॥
भयउ कोलाहल नगर मझारी।
आवा कपि लंका जेहिं जारी॥

अनुवाद (हिन्दी)

एक-दूसरेको मर्म (असली बात) नहीं बतलाते, उस (रावणके पुत्र)का वध समझकर सब चुप मारकर रह जाते हैं। (रावण-पुत्रकी मृत्यु जानकर और राक्षसोंको भयके मारे भागते देखकर) नगरभरमें कोलाहल मच गया कि जिसने लङ्का जलायी थी, वही वानर फिर आ गया है॥ ४॥

मूल (चौपाई)

अब धौं कहा करिहि करतारा।
अति सभीत सब करहिं बिचारा॥
बिनु पूछें मगु देहिं दिखाई।
जेहि बिलोक सोइ जाइ सुखाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

सब अत्यन्त भयभीत होकर विचार करने लगे कि विधाता अब न जाने क्या करेगा। वे बिना पूछे ही अंगदको (रावणके दरबारकी) राह बता देते हैं। जिसे ही वे देखते हैं वही डरके मारे सूख जाता है॥ ५॥

दोहा

मूल (दोहा)

गयउ सभा दरबार तब सुमिरि राम पद कंज।
सिंह ठवनि इत उत चितव धीर बीर बल पुंज॥ १८॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरामजीके चरणकमलोंका स्मरण करके अंगद रावणकी सभाके द्वारपर गये। और वे धीर, वीर और बलकी राशि अंगद सिंहकी-सी ऐंड़ (शान)से इधर-उधर देखने लगे॥ १८॥

मूल (चौपाई)

तुरत निसाचर एक पठावा।
समाचार रावनहि जनावा॥
सुनत बिहँसि बोला दससीसा।
आनहु बोलि कहाँ कर कीसा॥

अनुवाद (हिन्दी)

तुरंत ही उन्होंने एक राक्षसको भेजा और रावणको अपने आनेका समाचार सूचित किया। सुनते ही रावण हँसकर बोला—बुला लाओ, (देखें) कहाँका बंदर है॥ १॥

मूल (चौपाई)

आयसु पाइ दूत बहु धाए।
कपिकुंजरहि बोलि लै आए॥
अंगद दीख दसानन बैसें।
सहित प्रान कज्जलगिरि जैसें॥

अनुवाद (हिन्दी)

आज्ञा पाकर बहुत-से दूत दौड़े और वानरोंमें हाथीके समान अंगदको बुला लाये। अंगदने रावणको ऐसे बैठे हुए देखा जैसे कोई प्राणयुक्त (सजीव) काजलका पहाड़ हो!॥ २॥

मूल (चौपाई)

भुजा बिटप सिर सृंग समाना।
रोमावली लता जनु नाना॥
मुख नासिका नयन अरु काना।
गिरि कंदरा खोह अनुमाना॥

अनुवाद (हिन्दी)

भुजाएँ वृक्षोंके और सिर पर्वतोंके शिखरोंके समान हैं। रोमावली मानो बहुत-सी लताएँ हैं। मुँह, नाक, नेत्र और कान पर्वतकी कन्दराओं और खोहोंके बराबर हैं॥ ३॥

मूल (चौपाई)

गयउ सभाँ मन नेकु न मुरा।
बालितनय अतिबल बाँकुरा॥
उठे सभासद कपि कहुँ देखी।
रावन उर भा क्रोध बिसेषी॥

अनुवाद (हिन्दी)

अत्यन्त बलवान् बाँके वीर बालिपुत्र अंगद सभामें गये, वे मनमें जरा भी नहीं झिझके। अंगदको देखते ही सब सभासद् उठ खड़े हुए। यह देखकर रावणके हृदयमें बड़ा क्रोध हुआ॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

जथा मत्त गज जूथ महुँ पंचानन चलि जाइ।
राम प्रताप सुमिरि मन बैठ सभाँ सिरु नाइ॥ १९॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे मतवाले हाथियोंके झुंडमें सिंह (निःशङ्क होकर) चला जाता है, वैसे ही श्रीरामजीके प्रतापका हृदयमें स्मरण करके वे (निर्भय) सभामें सिर नवाकर बैठ गये॥ १९॥

मूल (चौपाई)

कह दसकंठ कवन तैं बंदर।
मैं रघुबीर दूत दसकंधर॥
मम जनकहि तोहि रही मिताई।
तव हित कारन आयउँ भाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

रावणने कहा—अरे बंदर! तू कौन है? (अंगदने कहा—) हे दशग्रीव! मैं श्रीरघुवीरका दूत हूँ। मेरे पितासे और तुमसे मित्रता थी। इसलिये हे भाई! मैं तुम्हारी भलाईके लिये ही आया हूँ॥१॥

मूल (चौपाई)

उत्तम कुल पुलस्ति कर नाती।
सिव बिरंचि पूजेहु बहु भाँती॥
बर पायहु कीन्हेहु सब काजा।
जीतेहु लोकपाल सब राजा॥

अनुवाद (हिन्दी)

तुम्हारा उत्तम कुल है, पुलस्त्य ऋषिके तुम पौत्र हो। शिवजीकी और ब्रह्माजीकी तुमने बहुत प्रकारसे पूजा की है। उनसे वर पाये हैं और सब काम सिद्ध किये हैं। लोकपालों और सब राजाओंको तुमने जीत लिया है॥ २॥

मूल (चौपाई)

नृप अभिमान मोह बस किंबा।
हरि आनिहु सीता जगदंबा॥
अब सुभ कहा सुनहु तुम्ह मोरा।
सब अपराध छमिहि प्रभु तोरा॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजमदसे या मोहवश तुम जगज्जननी सीताजीको हर लाये हो। अब तुम मेरे शुभ वचन (मेरी हितभरी सलाह) सुनो! (उसके अनुसार चलनेसे) प्रभु श्रीरामजी तुम्हारे सब अपराध क्षमा कर देंगे॥ ३॥

मूल (चौपाई)

दसन गहहु तृन कंठ कुठारी।
परिजन सहित संग निज नारी॥
सादर जनकसुता करि आगें।
एहि बिधि चलहु सकल भय त्यागें॥

अनुवाद (हिन्दी)

दाँतोंमें तिनका दबाओ, गलेमें कुल्हाड़ी डालो और कुटुम्बियोंसहित अपनी स्त्रियोंको साथ लेकर, आदरपूर्वक जानकीजीको आगे करके, इस प्रकार सब भय छोड़कर चलो—॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

प्रनतपाल रघुबंसमनि त्राहि त्राहि अब मोहि।
आरत गिरा सुनत प्रभु अभय करैगो तोहि॥ २०॥

अनुवाद (हिन्दी)

और ‘हे शरणागतके पालन करनेवाले रघुवंशशिरोमणि श्रीरामजी! मेरी रक्षा कीजिये, रक्षा कीजिये।’ (इस प्रकार आर्त प्रार्थना करो।) आर्त पुकार सुनते ही प्रभु तुमको निर्भय कर देंगे॥ २०॥

मूल (चौपाई)

रे कपिपोत बोलु संभारी।
मूढ़ न जानेहि मोहि सुरारी॥
कहु निज नाम जनक कर भाई।
केहि नातें मानिऐ मिताई॥

अनुवाद (हिन्दी)

(रावणने कहा—) अरे बंदरके बच्चे! सँभालकर बोल! मूर्ख! मुझ देवताओंके शत्रुको तूने जाना नहीं? अरे भाई! अपना और अपने बापका नाम तो बता। किस नातेसे मित्रता मानता है?॥ १॥

मूल (चौपाई)

अंगद नाम बालि कर बेटा।
तासों कबहुँ भई ही भेटा॥
अंगद बचन सुनत सकुचाना।
रहा बालि बानर मैं जाना॥

अनुवाद (हिन्दी)

(अंगदने कहा—) मेरा नाम अंगद है, मैं बालिका पुत्र हूँ। उनसे कभी तुम्हारी भेंट हुई थी? अंगदका वचन सुनते ही रावण कुछ सकुचा गया (और बोला—) हाँ, मैं जान गया (मुझे याद आ गया), बालि नामका एक बंदर था॥ २॥

मूल (चौपाई)

अंगद तहीं बालि कर बालक।
उपजेहु बंस अनल कुल घालक॥
गर्भ न गयहु ब्यर्थ तुम्ह जायहु।
निज मुख तापस दूत कहायहु॥

अनुवाद (हिन्दी)

अरे अंगद! तू ही बालिका लड़का है? अरे कुलनाशक! तू तो अपने कुलरूपी बाँसके लिये अग्निरूप ही पैदा हुआ! गर्भमें ही क्यों न नष्ट हो गया? तू व्यर्थ ही पैदा हुआ जो अपने ही मुँहसे तपस्वियोंका दूत कहलाया!॥ ३॥

मूल (चौपाई)

अब कहु कुसल बालि कहँ अहई।
बिहँसि बचन तब अंगद कहई॥
दिन दस गएँ बालि पहिं जाई।
बूझेहु कुसल सखा उर लाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

अब बालिकी कुशल तो बता, वह (आजकल) कहाँ है? तब अंगदने हँसकर कहा—दस (कुछ) दिन बीतनेपर (स्वयं ही) बालिके पास जाकर, अपने मित्रको हृदयसे लगाकर, उसीसे कुशल पूछ लेना॥ ४॥

मूल (चौपाई)

राम बिरोध कुसल जसि होई।
सो सब तोहि सुनाइहि सोई॥
सुनु सठ भेद होइ मन ताकें।
श्रीरघुबीर हृदय नहिं जाकें॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरामजीसे विरोध करनेपर जैसी कुशल होती है, वह सब तुमको वे सुनावेंगे। हे मूर्ख! सुन, भेद उसीके मनमें पड़ सकता है, (भेदनीति उसीपर अपना प्रभाव डाल सकती है) जिसके हृदयमें श्रीरघुवीर न हों॥ ५॥

दोहा

मूल (दोहा)

हम कुल घालक सत्य तुम्ह कुल पालक दससीस।
अंधउ बधिर न अस कहहिं नयन कान तव बीस॥ २१॥

अनुवाद (हिन्दी)

सच है, मैं तो कुलका नाश करनेवाला हूँ और हे रावण! तुम कुलके रक्षक हो। अंधे-बहरे भी ऐसी बात नहीं कहते, तुम्हारे तो बीस नेत्र और बीस कान हैं!॥ २१॥

मूल (चौपाई)

सिव बिरंचि सुर मुनि समुदाई।
चाहत जासु चरन सेवकाई॥
तासु दूत होइ हम कुल बोरा।
अइसिहुँ मति उर बिहर न तोरा॥

अनुवाद (हिन्दी)

शिव, ब्रह्मा (आदि) देवता और मुनियोंके समुदाय जिनके चरणोंकी सेवा (करना) चाहते हैं, उनका दूत होकर मैंने कुलको डुबा दिया? अरे ऐसी बुद्धि होनेपर भी तुम्हारा हृदय फट नहीं जाता?॥ १॥

मूल (चौपाई)

सुनि कठोर बानी कपि केरी।
कहत दसानन नयन तरेरी॥
खल तव कठिन बचन सब सहऊँ।
नीति धर्म मैं जानत अहऊँ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वानर (अंगद) की कठोर वाणी सुनकर रावण आँखें तरेरकर (तिरछी करके) बोला—अरे दुष्ट! मैं तेरे सब कठोर वचन इसीलिये सह रहा हूँ कि मैं नीति और धर्मको जानता हूँ (उन्हींकी रक्षा कर रहा हूँ)॥ २॥

मूल (चौपाई)

कह कपि धर्मसीलता तोरी।
हमहुँ सुनी कृत पर त्रिय चोरी॥
देखी नयन दूत रखवारी।
बूड़ि न मरहु धर्म ब्रतधारी॥

अनुवाद (हिन्दी)

अंगदने कहा—तुम्हारी धर्मशीलता मैंने भी सुनी है। (वह यह कि) तुमने परायी स्त्रीकी चोरी की है! और दूतकी रक्षाकी बात तो अपनी आँखोंसे देख ली। ऐसे धर्मके व्रतको धारण (पालन) करनेवाले तुम डूबकर मर नहीं जाते!॥ ३॥

मूल (चौपाई)

कान नाक बिनु भगिनि निहारी।
छमा कीन्हि तुम्ह धर्म बिचारी॥
धर्मसीलता तव जग जागी।
पावा दरसु हमहुँ बड़भागी॥

अनुवाद (हिन्दी)

नाक-कानसे रहित बहिनको देखकर तुमने धर्म विचारकर ही तो क्षमा कर दिया था! तुम्हारी धर्मशीलता जग-जाहिर है। मैं भी बड़ा भाग्यवान् हूँ, जो मैंने तुम्हारा दर्शन पाया?॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

जनि जल्पसि जड़ जंतु कपि सठ बिलोकु मम बाहु।
लोकपाल बल बिपुल ससि ग्रसन हेतु सब राहु॥ २२(क)॥

अनुवाद (हिन्दी)

(रावणने कहा—) अरे जड जन्तु वानर! व्यर्थ बक-बक न कर; अरे मूर्ख! मेरी भुजाएँ तो देख। ये सब लोकपालोंके विशाल बलरूपी चन्द्रमाको ग्रसनेके लिये राहु हैं॥ २२(क)॥

मूल (दोहा)

पुनि नभ सर मम कर निकर कमलन्हि पर करि बास।
सोभत भयउ मराल इव संभु सहित कैलास॥ २२(ख)॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर (तूने सुना ही होगा कि) आकाशरूपी तालाबमें मेरी भुजाओंरूपी कमलोंपर बसकर शिवजीसहित कैलास हंसके समान शोभाको प्राप्त हुआ था!॥ २२(ख)॥

मूल (चौपाई)

तुम्हरे कटक माझ सुनु अंगद।
मो सन भिरिहि कवन जोधा बद॥
तव प्रभु नारि बिरहँ बलहीना।
अनुज तासु दुख दुखी मलीना॥

अनुवाद (हिन्दी)

अरे अंगद! सुन; तेरी सेनामें बता, ऐसा कौन योद्धा है जो मुझसे भिड़ सकेगा। तेरा मालिक तो स्त्रीके वियोगमें बलहीन हो रहा है। और उसका छोटा भाई उसीके दुःखसे दुःखी और उदास है॥ १॥

मूल (चौपाई)

तुम्ह सुग्रीव कूलद्रुम दोऊ।
अनुज हमार भीरु अति सोऊ॥
जामवंत मंत्री अति बूढ़ा।
सो कि होइ अब समरारूढ़ा॥

अनुवाद (हिन्दी)

तुम और सुग्रीव, दोनों (नदी) तटके वृक्ष हो। (रहा) मेरा छोटा भाई विभीषण, (सो) वह भी बड़ा डरपोक है। मन्त्री जाम्बवान् बहुत बूढ़ा है। वह अब लड़ाईमें क्या चढ़ (उद्यत हो) सकता है?॥ २॥

मूल (चौपाई)

सिल्पिकर्म जानहिं नल नीला।
है कपि एक महा बलसीला॥
आवा प्रथम नगरु जेहिं जारा।
सुनत बचन कह बालिकुमारा॥

अनुवाद (हिन्दी)

नल-नील तो शिल्प-कर्म जानते हैं (वे लड़ना क्या जानें?)। हाँ, एक वानर जरूर महान् बलवान् है, जो पहले आया था, और जिसने लङ्का जलायी थी। यह वचन सुनते ही बालिपुत्र अंगदने कहा—॥ ३॥

मूल (चौपाई)

सत्य बचन कहु निसिचर नाहा।
साँचेहुँ कीस कीन्ह पुर दाहा॥
रावन नगर अल्प कपि दहई।
सुनि अस बचन सत्य को कहई॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे राक्षसराज! सच्ची बात कहो! क्या उस वानरने सचमुच तुम्हारा नगर जला दिया? रावण (जैसे जगद्विजयी योद्धा) का नगर एक छोटे-से वानरने जला दिया। ऐसे वचन सुनकर उन्हें सत्य कौन कहेगा?॥ ४॥

मूल (चौपाई)

जो अति सुभट सराहेहु रावन।
सो सुग्रीव केर लघु धावन॥
चलइ बहुत सो बीर न होई।
पठवा खबरि लेन हम सोई॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे रावण! जिसको तुमने बहुत बड़ा योद्धा कहकर सराहा है, वह तो सुग्रीवका एक छोटा-सा दौड़कर चलनेवाला हरकारा है। वह बहुत चलता है, वीर नहीं है। उसको तो हमने (केवल) खबर लेनेके लिये भेजा था॥ ५॥

दोहा

मूल (दोहा)

सत्य नगरु कपि जारेउ बिनु प्रभु आयसु पाइ।
फिरि न गयउ सुग्रीव पहिं तेहिं भय रहा लुकाइ॥ २३(क)॥

अनुवाद (हिन्दी)

क्या सचमुच ही उस वानरने प्रभुकी आज्ञा पाये बिना ही तुम्हारा नगर जला डाला? मालूम होता है, इसी डरसे वह लौटकर सुग्रीवके पास नहीं गया और कहीं छिप रहा!॥ २३ (क)॥

मूल (दोहा)

सत्य कहहि दसकंठ सब मोहि न सुनि कछु कोह।
कोउ न हमारें कटक अस तो सन लरत जो सोह॥ २३(ख)॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे रावण! तुम सब सत्य ही कहते हो, मुझे सुनकर कुछ भी क्रोध नहीं है। सचमुच हमारी सेनामें कोई भी ऐसा नहीं है जो तुमसे लड़नेमें शोभा पाये॥ २३(ख)॥

मूल (दोहा)

प्रीति बिरोध समान सन करिअ नीति असि आहि।
जौं मृगपति बध मेडुकन्हि भल कि कहइ कोउ ताहि॥ २३(ग)॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रीति और वैर बराबरीवालेसे ही करना चाहिये, नीति ऐसी ही है। सिंह यदि मेढकोंको मारे, तो क्या उसे कोई भला कहेगा?॥ २३(ग)॥

मूल (दोहा)

जद्यपि लघुता राम कहुँ तोहि बधें बड़ दोष।
तदपि कठिन दसकंठ सुनु छत्र जाति कर रोष॥ २३(घ)॥

अनुवाद (हिन्दी)

यद्यपि तुम्हें मारनेमें श्रीरामजीकी लघुता है और बड़ा दोष भी है, तथापि हे रावण! सुनो, क्षत्रियजातिका क्रोध बड़ा कठिन होता है॥ २३(घ)॥

मूल (दोहा)

बक्र उक्ति धनु बचन सर हृदय दहेउ रिपु कीस।
प्रतिउत्तर सड़सिन्ह मनहुँ काढ़त भट दससीस॥ २३(ङ)॥

अनुवाद (हिन्दी)

वक्रोक्तिरूपी धनुषसे वचनरूपी बाण मारकर अंगदने शत्रुका हृदय जला दिया। वीर रावण उन बाणोंको मानो प्रत्युत्तररूपी सँड़सियोंसे निकाल रहा है॥ २३(ङ)॥

मूल (दोहा)

हँसि बोलेउ दसमौलि तब कपि कर बड़ गुन एक।
जो प्रतिपालइ तासु हित करइ उपाय अनेक॥ २३(च)॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब रावण हँसकर बोला—बंदरमें यह एक बड़ा गुण है कि जो उसे पालता है, उसका वह अनेकों उपायोंसे भला करनेकी चेष्टा करता है॥२३(च)॥

मूल (चौपाई)

धन्य कीस जो निज प्रभु काजा।
जहँ तहँ नाचइ परिहरि लाजा॥
नाचि कूदि करि लोग रिझाई।
पति हित करइ धर्म निपुनाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

बंदरको धन्य है, जो अपने मालिकके लिये लाज छोड़कर जहाँ-तहाँ नाचता है। नाच-कूदकर, लोगोंको रिझाकर, मालिकका हित करता है। यह उसके धर्मकी निपुणता है॥ १॥

मूल (चौपाई)

अंगद स्वामिभक्त तव जाती।
प्रभु गुन कस न कहसि एहि भाँती॥
मैं गुन गाहक परम सुजाना।
तव कटु रटनि करउँ नहिं काना॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे अंगद! तेरी जाति स्वामिभक्त है। (फिर भला) तू अपने मालिकके गुण इस प्रकार कैसे न बखानेगा? मैं गुणग्राहक (गुणोंका आदर करनेवाला) और परम सुजान (समझदार) हूँ, इसीसे तेरी जली-कटी बक-बकपर कान (ध्यान) नहीं देता॥ २॥

मूल (चौपाई)

कह कपि तव गुन गाहकताई।
सत्य पवनसुत मोहि सुनाई॥
बन बिधंसि सुत बधि पुर जारा।
तदपि न तेहिं कछु कृत अपकारा॥

अनुवाद (हिन्दी)

अंगदने कहा—तुम्हारी सच्ची गुणग्राहकता तो मुझे हनुमान् ने सुनायी थी। उसने अशोकवनको विध्वंस (तहस-नहस) करके, तुम्हारे पुत्रको मारकर नगरको जला दिया था। तो भी (तुमने अपनी गुणग्राहकताके कारण यही समझा कि) उसने तुम्हारा कुछ भी अपकार नहीं किया॥ ३॥

मूल (चौपाई)

सोइ बिचारि तव प्रकृति सुहाई।
दसकंधर मैं कीन्हि ढिठाई॥
देखेउँ आइ जो कछु कपि भाषा।
तुम्हरें लाज न रोष न माखा॥

अनुवाद (हिन्दी)

तुम्हारा वही सुन्दर स्वभाव विचारकर, हे दशग्रीव! मैंने कुछ धॄष्टता की है। हनुमान् ने जो कुछ कहा था, उसे आकर मैंने प्रत्यक्ष देख लिया कि तुम्हें न लज्जा है, न क्रोध है और न चिढ़ है॥ ४॥

मूल (चौपाई)

जौं असि मति पितु खाए कीसा।
कहि अस बचन हँसा दससीसा॥
पितहि खाइ खातेउँ पुनि तोही।
अबहीं समुझि परा कछु मोही॥

अनुवाद (हिन्दी)

(रावण बोला—) अरे वानर! जब तेरी ऐसी बुद्धि है तभी तो तू बापको खा गया। ऐसा वचन कहकर रावण हँसा। अंगदने कहा—पिताको खाकर फिर तुमको भी खा डालता। परन्तु अभी तुरंत कुछ और ही बात मेरी समझमें आ गयी!॥ ५॥

मूल (चौपाई)

बालि बिमल जस भाजन जानी।
हतउँ न तोहि अधम अभिमानी॥
कहु रावन रावन जग केते।
मैं निज श्रवन सुने सुनु जेते॥

अनुवाद (हिन्दी)

अरे नीच अभिमानी! बालिके निर्मल यशका पात्र (कारण) जानकर तुम्हें मैं नहीं मारता। रावण! यह तो बता कि जगत् में कितने रावण हैं? मैंने जितने रावण अपने कानोंसे सुन रखे हैं, उन्हें सुन—॥ ६॥

मूल (चौपाई)

बलिहि जितन एक गयउ पताला।
राखेउ बाँधि सिसुन्ह हयसाला॥
खेलहिं बालक मारहिं जाई।
दया लागि बलि दीन्ह छोड़ाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

एक रावण तो बलिको जीतने पातालमें गया था, तब बच्चोंने उसे घुड़सालमें बाँध रखा। बालक खेलते थे और जा-जाकर उसे मारते थे। बलिको दया लगी, तब उन्होंने उसे छुड़ा दिया॥ ७॥

मूल (चौपाई)

एक बहोरि सहसभुज देखा।
धाइ धरा जिमि जंतु बिसेषा॥
कौतुक लागि भवन लै आवा।
सो पुलस्ति मुनि जाइ छोड़ावा॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर एक रावणको सहस्रबाहुने देखा, और उसने दौड़कर उसको एक विशेष प्रकारके (विचित्र) जन्तुकी तरह (समझकर) पकड़ लिया। तमाशेके लिये वह उसे घर ले आया। तब पुलस्त्य मुनिने जाकर उसे छुड़ाया॥ ८॥

दोहा

मूल (दोहा)

एक कहत मोहि सकुच अति रहा बालि कीं काँख।
इन्ह महुँ रावन तैं कवन सत्य बदहि तजि माख॥ २४॥

अनुवाद (हिन्दी)

एक रावणकी बात कहनेमें तो मुझे बड़ा संकोच हो रहा है—वह (बहुत दिनोंतक) बालिकी काँखमें रहा था। इनमेंसे तुम कौन-से रावण हो? खीझना छोड़कर सच-सच बताओ॥ २४॥

मूल (चौपाई)

सुनु सठ सोइ रावन बलसीला।
हरगिरि जान जासु भुज लीला॥
जान उमापति जासु सुराई।
पूजेउँ जेहि सिर सुमन चढ़ाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

(रावणने कहा—) अरे मूर्ख! सुन, मैं वही बलवान् रावण हूँ जिसकी भुजाओंकी लीला (करामात) कैलास पर्वत जानता है। जिसकी शूरता उमापति महादेवजी जानते हैं, जिन्हें अपने सिररूपी पुष्प चढ़ा-चढ़ाकर मैंने पूजा था॥ १॥

मूल (चौपाई)

सिर सरोज निज करन्हि उतारी।
पूजेउँ अमित बार त्रिपुरारी॥
भुज बिक्रम जानहिं दिगपाला।
सठ अजहूँ जिन्ह कें उर साला॥

अनुवाद (हिन्दी)

सिररूपी कमलोंको अपने हाथोंसे उतार-उतारकर मैंने अगणित बार त्रिपुरारि शिवजीकी पूजा की है। अरे मूर्ख! मेरी भुजाओंका पराक्रम दिक्पाल जानते हैं, जिनके हृदयमें वह आज भी चुभ रहा है॥ २॥

मूल (चौपाई)

जानहिं दिग्गज उर कठिनाई।
जब जब भिरउँ जाइ बरिआई॥
जिन्ह के दसन कराल न फूटे।
उर लागत मूलक इव टूटे॥

अनुवाद (हिन्दी)

दिग्गज (दिशाओंके हाथी) मेरी छातीकी कठोरताको जानते हैं। जिनके भयानक दाँत, जब-जब जाकर मैं उनसे जबरदस्ती भिड़ा, मेरी छातीमें कभी नहीं फूटे (अपना चिह्न भी नहीं बना सके), बल्कि मेरी छातीसे लगते ही वे मूलीकी तरह टूट गये॥ ३॥

मूल (चौपाई)

जासु चलत डोलति इमि धरनी।
चढ़त मत्त गज जिमि लघु तरनी॥
सोइ रावन जग बिदित प्रतापी।
सुनेहि न श्रवन अलीक प्रलापी॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिसके चलते समय पृथ्वी इस प्रकार हिलती है जैसे मतवाले हाथीके चढ़ते समय छोटी नाव! मैं वही जगत्प्रसिद्ध प्रतापी रावण हूँ। अरे झूठी बकवाद करनेवाले! क्या तूने मुझको कानोंसे कभी नहीं सुना?॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

तेहि रावन कहँ लघु कहसि नर कर करसि बखान।
रे कपि बर्बर खर्ब खल अब जाना तव ग्यान॥ २५॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस (महान् प्रतापी और जगत्प्रसिद्ध) रावणको (मुझे) तू छोटा कहता है और मनुष्यकी बड़ाई करता है? अरे दुष्ट, असभ्य, तुच्छ बंदर! अब मैंने तेरा ज्ञान जान लिया॥ २५॥

मूल (चौपाई)

सुनि अंगद सकोप कह बानी।
बोलु सँभारि अधम अभिमानी॥
सहसबाहु भुज गहन अपारा।
दहन अनल सम जासु कुठारा॥

अनुवाद (हिन्दी)

रावणके ये वचन सुनकर अंगद क्रोधसहित वचन बोले—अरे नीच अभिमानी! सँभालकर (सोच-समझकर) बोल। जिनका फरसा सहस्रबाहुकी भुजाओंरूपी अपार वनको जलानेके लिये अग्निके समान था,॥ १॥

मूल (चौपाई)

जासु परसु सागर खर धारा।
बूड़े नृप अगनित बहु बारा॥
तासु गर्ब जेहि देखत भागा।
सो नर क्यों दससीस अभागा॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिनके फरसारूपी समुद्रकी तीव्र धारामें अनगिनत राजा अनेकों बार डूब गये, उन परशुरामजीका गर्व जिन्हें देखते ही भाग गया, अरे अभागे दशशीश! वे मनुष्य क्योंकर हैं?॥ २॥

मूल (चौपाई)

राम मनुज कस रे सठ बंगा।
धन्वी कामु नदी पुनि गंगा॥
पसु सुरधेनु कल्पतरु रूखा।
अन्न दान अरु रस पीयूषा॥

अनुवाद (हिन्दी)

क्यों रे मूर्ख उद्दण्ड! श्रीरामचन्द्रजी मनुष्य हैं? कामदेव भी क्या धनुर्धारी है? और गङ्गाजी क्या नदी हैं? कामधेनु क्या पशु है? और कल्पवृक्ष क्या पेड़ है? अन्न भी क्या दान है? और अमृत क्या रस है?॥ ३॥

मूल (चौपाई)

बैनतेय खग अहि सहसानन।
चिंतामनि पुनि उपल दसानन॥
सुनु मतिमंद लोक बैकुंठा।
लाभ कि रघुपति भगति अकुंठा॥

अनुवाद (हिन्दी)

गरुड़जी क्या पक्षी हैं? शेषजी क्या सर्प हैं? अरे रावण! चिन्तामणि भी क्या पत्थर है? अरे ओ मूर्ख! सुन, वैकुण्ठ भी क्या लोक है? और श्रीरघुनाथजीकी अखण्ड भक्ति क्या (और लाभों-जैसा ही) लाभ है?॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

सेन सहित तव मान मथि बन उजारि पुर जारि।
कस रे सठ हनुमान कपि गयउ जो तव सुत मारि॥ २६॥

अनुवाद (हिन्दी)

सेनासमेत तेरा मान मथकर, अशोकवनको उजाड़कर, नगरको जलाकर और तेरे पुत्रको मारकर जो लौट गये (तू उनका कुछ भी न बिगाड़ सका), क्यों रे दुष्ट! वे हनुमान् जी क्या वानर हैं?॥ २६॥

मूल (चौपाई)

सुनु रावन परिहरि चतुराई।
भजसि न कृपासिंधु रघुराई॥
जौं खल भएसि राम कर द्रोही।
ब्रह्म रुद्र सक राखि न तोही॥

अनुवाद (हिन्दी)

अरे रावण! चतुराई (कपट) छोड़कर सुन। कृपाके समुद्र श्रीरघुनाथजीका तू भजन क्यों नहीं करता? अरे दुष्ट! यदि तू श्रीरामजीका वैरी हुआ तो तुझे ब्रह्मा और रुद्र भी नहीं बचा सकेंगे॥ १॥

मूल (चौपाई)

मूढ़ बृथा जनि मारसि गाला।
राम बयर अस होइहि हाला॥
तव सिर निकर कपिन्ह के आगें।
परिहहिं धरनि राम सर लागें॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे मूढ़! व्यर्थ गाल न मार (डींग न हाँक)। श्रीरामजीसे वैर करनेपर तेरा ऐसा हाल होगा कि तेरे सिर-समूह श्रीरामजीके बाण लगते ही वानरोंके आगे पृथ्वीपर पड़ेंगे,॥ २॥

मूल (चौपाई)

ते तव सिर कंदुक सम नाना।
खेलिहहिं भालु कीस चौगाना॥
जबहिं समर कोपिहि रघुनायक।
छुटिहहिं अति कराल बहु सायक॥

अनुवाद (हिन्दी)

और रीछ-वानर तेरे उन गेंदके समान अनेकों सिरोंसे चौगान खेलेंगे। जब श्रीरघुनाथजी युद्धमें कोप करेंगे और उनके अत्यन्त तीक्ष्ण बहुत-से बाण छूटेंगे,॥ ३॥

मूल (चौपाई)

तब कि चलिहि अस गाल तुम्हारा।
अस बिचारि भजु राम उदारा॥
सुनत बचन रावन परजरा।
जरत महानल जनु घृत परा॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब क्या तेरा ऐसा गाल चलेगा? ऐसा विचारकर उदार (कृपालु) श्रीरामजीको भज। अंगदके ये वचन सुनकर रावण बहुत अधिक जल उठा। मानो जलती हुई प्रचण्ड अग्निमें घी पड़ गया हो॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

कुंभकरन अस बंधु मम सुत प्रसिद्ध सक्रारि।
मोर पराक्रम नहिं सुनेहि जितेउँ चराचर झारि॥ २७॥

अनुवाद (हिन्दी)

(वह बोला—अरे मूर्ख!) कुम्भकर्ण-ऐसा मेरा भाई है, इन्द्रका शत्रु सुप्रसिद्ध मेघनाद मेरा पुत्र है! और मेरा पराक्रम तो तूने सुना ही नहीं कि मैंने सम्पूर्ण जड-चेतन जगत् को जीत लिया है!॥ २७॥

मूल (चौपाई)

सठ साखामृग जोरि सहाई।
बाँधा सिंधु इहइ प्रभुताई॥
नाघहिं खग अनेक बारीसा।
सूर न होहिं ते सुनु सब कीसा॥

अनुवाद (हिन्दी)

रे दुष्ट! वानरोंकी सहायता जोड़कर रामने समुद्र बाँध लिया; बस, यही उसकी प्रभुता है। समुद्रको तो अनेकों पक्षी भी लाँघ जाते हैं। पर इसीसे वे सभी शूरवीर नहीं हो जाते। अरे मूर्ख बंदर! सुन—॥ १॥

मूल (चौपाई)

मम भुज सागर बल जल पूरा।
जहँ बूड़े बहु सुर नर सूरा॥
बीस पयोधि अगाध अपारा।
को अस बीर जो पाइहि पारा॥

अनुवाद (हिन्दी)

मेरी एक-एक भुजारूपी समुद्र बलरूपी जलसे पूर्ण है, जिसमें बहुत-से शूरवीर देवता और मनुष्य डूब चुके हैं। (बता,) कौन ऐसा शूरवीर है जो मेरे इन अथाह और अपार बीस समुद्रोंका पार पा जायगा?॥२॥

मूल (चौपाई)

दिगपालन्ह मैं नीर भरावा।
भूप सुजस खल मोहि सुनावा॥
जौं पै समर सुभट तव नाथा।
पुनि पुनि कहसि जासु गुन गाथा॥

अनुवाद (हिन्दी)

अरे दुष्ट! मैंने दिक्पालोंतकसे जल भरवाया और तू एक राजाका मुझे सुयश सुनाता है! यदि तेरा मालिक, जिसकी गुणगाथा तू बार-बार कह रहा है, संग्राममें लड़नेवाला योद्धा है—॥ ३॥

मूल (चौपाई)

तौ बसीठ पठवत केहि काजा।
रिपु सन प्रीति करत नहिं लाजा॥
हरगिरि मथन निरखु मम बाहू।
पुनि सठ कपि निज प्रभुहि सराहू॥

अनुवाद (हिन्दी)

तो (फिर) वह दूत किसलिये भेजता है? शत्रुसे प्रीति (सन्धि) करते उसे लाज नहीं आती? (पहले) कैलासका मथन करनेवाली मेरी भुजाओंको देख। फिर अरे मूर्ख वानर! अपने मालिककी सराहना करना॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

सूर कवन रावन सरिस स्वकर काटि जेहिं सीस।
हुने अनल अति हरष बहु बार साखि गौरीस॥ २८॥

अनुवाद (हिन्दी)

रावणके समान शूरवीर कौन है? जिसने अपने ही हाथोंसे सिर काट-काटकर अत्यन्त हर्षके साथ बहुत बार उन्हें अग्निमें होम दिया! स्वयं गौरीपति शिवजी इस बातके साक्षी हैं॥ २८॥

मूल (चौपाई)

जरत बिलोकेउँ जबहिं कपाला।
बिधि के लिखे अंक निज भाला॥
नर कें कर आपन बध बाँची।
हसेउँ जानि बिधि गिरा असाँची॥

अनुवाद (हिन्दी)

मस्तकोंके जलते समय जब मैंने अपने ललाटोंपर लिखे हुए विधाताके अक्षर देखे, तब मनुष्यके हाथसे अपनी मृत्यु होना बाँचकर, विधाताकी वाणी (लेखको) असत्य जानकर मैं हँसा॥ १॥

मूल (चौपाई)

सोउ मन समुझि त्रास नहिं मोरें।
लिखा बिरंचि जरठ मति भोरें॥
आन बीर बल सठ मम आगें।
पुनि पुनि कहसि लाज पति त्यागें॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस बातको समझकर (स्मरण करके) भी मेरे मनमें डर नहीं है। (क्योंकि मैं समझता हूँ कि) बूढ़े ब्रह्माने बुद्धिभ्रमसे ऐसा लिख दिया है। अरे मूर्ख! तू लज्जा और मर्यादा छोड़कर मेरे आगे बार-बार दूसरे वीरका बल कहता है!॥ २॥

मूल (चौपाई)

कह अंगद सलज्ज जग माहीं।
रावन तोहि समान कोउ नाहीं॥
लाजवंत तव सहज सुभाऊ।
निज मुख निज गुन कहसि न काऊ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अंगदने कहा—अरे रावण! तेरे समान लज्जावान् जगत् में कोई नहीं है। लज्जाशीलता तो तेरा सहज स्वभाव ही है। तू अपने मुँहसे अपने गुण कभी नहीं कहता॥ ३॥

मूल (चौपाई)

सिर अरु सैल कथा चित रही।
ताते बार बीस तैं कही॥
सो भुजबल राखेहु उर घाली।
जीतेहु सहसबाहु बलि बाली॥

अनुवाद (हिन्दी)

सिर काटने और कैलास उठानेकी कथा चित्तमें चढ़ी हुई थी, इससे तूने उसे बीसों बार कहा। भुजाओंके उस बलको तो तूने हृदयमें ही टाल (छिपा) रखा है, जिससे तूने सहस्रबाहु, बलि और बालिको जीता था॥ ४॥

मूल (चौपाई)

सुनु मतिमंद देहि अब पूरा।
काटें सीस कि होइअ सूरा॥
इंद्रजालि कहुँ कहिअ न बीरा।
काटइ निज कर सकल सरीरा॥

अनुवाद (हिन्दी)

अरे मन्दबुद्धि! सुन, अब बस कर। सिर काटनेसे भी क्या कोई शूरवीर हो जाता है? इन्द्रजाल रचनेवालेको वीर नहीं कहा जाता, यद्यपि वह अपने ही हाथों अपना सारा शरीर काट डालता है!॥ ५॥

दोहा

मूल (दोहा)

जरहिं पतंग मोह बस भार बहहिं खर बृंद।
ते नहिं सूर कहावहिं समुझि देखु मतिमंद॥ २९॥

अनुवाद (हिन्दी)

अरे मन्दबुद्धि! समझकर देख। पतंगे मोहवश आगमें जल मरते हैं, गदहोंके झुंड बोझ लादकर चलते हैं; पर इस कारण वे शूरवीर नहीं कहलाते॥ २९॥

मूल (चौपाई)

अब जनि बतबढ़ाव खल करही।
सुनु मम बचन मान परिहरही॥
दसमुख मैं न बसीठीं आयउँ।
अस बिचारि रघुबीर पठायउँ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अरे दुष्ट! अब बतबढ़ाव मत कर; मेरा वचन सुन और अभिमान त्याग दे! हे दशमुख! मैं दूतकी तरह (सन्धि करने) नहीं आया हूँ। श्रीरघुवीरने ऐसा विचारकर मुझे भेजा है—॥ १॥

मूल (चौपाई)

बार बार अस कहइ कृपाला।
नहिं गजारि जसु बधें सृकाला॥
मन महुँ समुझि बचन प्रभु केरे।
सहेउँ कठोर बचन सठ तेरे॥

अनुवाद (हिन्दी)

कृपालु श्रीरामजी बार-बार ऐसा कहते हैं कि स्यारके मारनेसे सिंहको यश नहीं मिलता। अरे मूर्ख! प्रभुके (उन) वचनोंको मनमें समझकर (याद करके) ही मैंने तेरे कठोर वचन सहे हैं॥ २॥

मूल (चौपाई)

नाहिं त करि मुख भंजन तोरा।
लै जातेउँ सीतहि बरजोरा॥
जानेउँ तव बल अधम सुरारी।
सूनें हरि आनिहि परनारी॥

अनुवाद (हिन्दी)

नहीं तो तेरे मुँह तोड़कर मैं सीताजीको जबरदस्ती ले जाता। अरे अधम! देवताओंके शत्रु! तेरा बल तो मैंने तभी जान लिया जब तू सूनेमें परायी स्त्रीको हर (चुरा) लाया॥ ३॥

मूल (चौपाई)

तैं निसिचरपति गर्ब बहूता।
मैं रघुपति सेवक कर दूता॥
जौं न राम अपमानहि डरऊँ।
तोहि देखत अस कौतुक करऊँ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तू राक्षसोंका राजा और बड़ा अभिमानी है। परन्तु मैं तो श्रीरघुनाथजीके सेवक (सुग्रीव) का दूत (सेवकका भी सेवक) हूँ। यदि मैं श्रीरामजीके अपमानसे न डरूँ तो तेरे देखते-देखते ऐसा तमाशा करूँ कि—॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

तोहि पटकि महि सेन हति चौपट करि तव गाउँ।
तव जुबतिन्ह समेत सठ जनकसुतहि लै जाउँ॥ ३०॥

अनुवाद (हिन्दी)

तुझे जमीनपर पटककर, तेरी सेनाका संहारकर और तेरे गाँवको चौपट (नष्ट-भ्रष्ट) करके, अरे मूर्ख! तेरी युवती स्त्रियोंसहित जानकीजीको ले जाऊँ॥ ३०॥

मूल (चौपाई)

जौं अस करौं तदपि न बड़ाई।
मुएहि बधें नहिं कछु मनुसाई॥
कौल कामबस कृपिन बिमूढ़ा।
अति दरिद्र अजसी अति बूढ़ा॥

अनुवाद (हिन्दी)

यदि ऐसा करूँ, तो भी इसमें कोई बड़ाई नहीं है। मरे हुएको मारनेमें कुछ भी पुरुषत्व (बहादुरी) नहीं है। वाममार्गी, कामी, कंजूस, अत्यन्त मूढ़, अति दरिद्र, बदनाम, बहुत बूढ़ा,॥ १॥

मूल (चौपाई)

सदा रोगबस संतत क्रोधी।
बिष्नु बिमुख श्रुति संत बिरोधी॥
तनु पोषक निंदक अघ खानी।
जीवत सव सम चौदह प्रानी॥

अनुवाद (हिन्दी)

नित्यका रोगी, निरन्तर क्रोधयुक्त रहनेवाला, भगवान् विष्णुसे विमुख, वेद और संतोंका विरोधी, अपना ही शरीर पोषण करनेवाला, परायी निन्दा करनेवाला और पापकी खान (महान् पापी)—ये चौदह प्राणी जीते ही मुरदेके समान हैं॥ २॥

मूल (चौपाई)

अस बिचारि खल बधउँ न तोही।
अब जनि रिस उपजावसि मोही॥
सुनि सकोप कह निसिचर नाथा।
अधर दसन दसि मीजत हाथा॥

अनुवाद (हिन्दी)

अरे दुष्ट! ऐसा विचारकर मैं तुझे नहीं मारता। अब तू मुझमें क्रोध न पैदा कर (मुझे गुस्सा न दिला)। अङ्गदके वचन सुनकर राक्षसराज रावण दाँतोंसे होठ काटकर, क्रोधित होकर हाथ मलता हुआ बोला—॥ ३॥

मूल (चौपाई)

रे कपि अधम मरन अब चहसी।
छोटे बदन बात बड़ि कहसी॥
कटु जल्पसि जड़ कपि बल जाकें।
बल प्रताप बुधि तेज न ताकें॥

अनुवाद (हिन्दी)

अरे नीच बंदर! अब तू मरना ही चाहता है! इसीसे छोटे मुँह बड़ी बात कहता है। अरे मूर्ख बंदर! तू जिसके बलपर कड़ुए वचन बक रहा है, उसमें बल, प्रताप, बुद्धि अथवा तेज कुछ भी नहीं है॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

अगुन अमान जानि तेहि दीन्ह पिता बनबास।
सो दुख अरु जुबती बिरह पुनि निसि दिन मम त्रास॥ ३१(क)॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसे गुणहीन और मानहीन समझकर ही तो पिताने वनवास दे दिया। उसे एक तो वह (उसका) दुःख, उसपर युवती स्त्रीका विरह और फिर रात-दिन मेरा डर बना रहता है॥३१(क)॥

मूल (दोहा)

जिन्ह के बल कर गर्ब तोहि अइसे मनुज अनेक।
खाहिं निसाचर दिवस निसि मूढ़ समुझु तजि टेक॥ ३१(ख)॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिनके बलका तुझे गर्व है, ऐसे अनेकों मनुष्योंको तो राक्षस रात-दिन खाया करते हैं। अरे मूढ़! जिद्द छोड़कर समझ (विचार कर)॥ ३१(ख)॥

मूल (चौपाई)

जब तेहिं कीन्हि राम कै निंदा।
क्रोधवंत अति भयउ कपिंदा॥
हरि हर निंदा सुनइ जो काना।
होइ पाप गोघात समाना॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब उसने श्रीरामजीकी निन्दा की, तब तो कपिश्रेष्ठ अंगद अत्यन्त क्रोधित हुए। क्योंकि (शास्त्र ऐसा कहते हैं कि) जो अपने कानोंसे भगवान् विष्णु और शिवकी निन्दा सुनता है, उसे गोवधके समान पाप होता है॥ १॥

मूल (चौपाई)

कटकटान कपिकुंजर भारी।
दुहु भुजदंड तमकि महि मारी॥
डोलत धरनि सभासद खसे।
चले भाजि भय मारुत ग्रसे॥

अनुवाद (हिन्दी)

वानरश्रेष्ठ अंगद बहुत जोरसे कटकटाये (शब्द किया) और उन्होंने तमककर (जोरसे) अपने दोनों भुजदण्डोंको पृथ्वीपर दे मारा। पृथ्वी हिलने लगी, (जिससे बैठे हुए) सभासद् गिर पड़े और भयरूपी पवन (भूत) से ग्रस्त होकर भाग चले॥ २॥

मूल (चौपाई)

गिरत सँभारि उठा दसकंधर।
भूतल परे मुकुट अति सुंदर॥
कछु तेहिं लै निज सिरन्हि सँवारे।
कछु अंगद प्रभु पास पबारे॥

अनुवाद (हिन्दी)

रावण गिरते-गिरते सँभलकर उठा। उसके अत्यन्त सुन्दर मुकुट पृथ्वीपर गिर पड़े। कुछ तो उसने उठाकर अपने सिरोंपर सुधारकर रख लिया और कुछ अंगदने उठाकर प्रभु श्रीरामचन्द्रजीके पास फेंक दिये॥ ३॥

मूल (चौपाई)

आवत मुकुट देखि कपि भागे।
दिनहीं लूक परन बिधि लागे॥
की रावन करि कोप चलाए।
कुलिस चारि आवत अति धाए॥

अनुवाद (हिन्दी)

मुकुटोंको आते देखकर वानर भागे। (सोचने लगे) विधाता! क्या दिनमें ही उल्कापात होने लगा (तारे टूटकर गिरने लगे)? अथवा क्या रावणने क्रोध करके चार वज्र चलाये हैं, जो बड़े धायेके साथ (वेगसे) आ रहे हैं?॥ ४॥

मूल (चौपाई)

कह प्रभु हँसि जनि हृदयँ डेराहू।
लूक न असनि केतु नहिं राहू॥
ए किरीट दसकंधर केरे।
आवत बालितनय के प्रेरे॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रभुने (उनसे) हँसकर कहा—मनमें डरो नहीं। ये न उल्का हैं, न वज्र हैं और न केतु या राहु ही हैं। अरे भाई! ये तो रावणके मुकुट हैं; जो बालिपुत्र अंगदके फेंके हुए आ रहे हैं॥ ५॥

दोहा

मूल (दोहा)

तरकि पवनसुत कर गहे आनि धरे प्रभु पास।
कौतुक देखहिं भालु कपि दिनकर सरिस प्रकास॥ ३२(क)॥

अनुवाद (हिन्दी)

पवनपुत्र श्रीहनुमान् जी ने उछलकर उनको हाथसे पकड़ लिया और लाकर प्रभुके पास रख दिया। रीछ और वानर तमाशा देखने लगे। उनका प्रकाश सूर्यके समान था॥ ३२(क)॥

मूल (दोहा)

उहाँ सकोपि दसानन सब सन कहत रिसाइ।
धरहु कपिहि धरि मारहु सुनि अंगद मुसुकाइ॥ ३२(ख)॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँ (सभामें) क्रोधयुक्त रावण सबसे क्रोधित होकर कहने लगा कि—बंदरको पकड़ लो और पकड़कर मार डालो। अंगद यह सुनकर मुसकराने लगे॥ ३२(ख)॥

मूल (चौपाई)

एहि बधि बेगि सुभट सब धावहु।
खाहु भालु कपि जहँ जहँ पावहु॥
मर्कटहीन करहु महि जाई।
जिअत धरहु तापस द्वौ भाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

(रावण फिर बोला—) इसे मारकर सब योद्धा तुरंत दौड़ो और जहाँ-कहीं रीछ-वानरोंको पाओ, वहीं खा डालो। पृथ्वीको बंदरोंसे रहित कर दो और जाकर दोनों तपस्वी भाइयों (राम-लक्ष्मण) को जीते-जी पकड़ लो॥ १॥

मूल (चौपाई)

पुनि सकोप बोलेउ जुबराजा।
गाल बजावत तोहि न लाजा॥
मरु गर काटि निलज कुलघाती।
बल बिलोकि बिहरति नहिं छाती॥

अनुवाद (हिन्दी)

(रावणके ये कोपभरे वचन सुनकर) तब युवराज अंगद क्रोधित होकर बोले—तुझे गाल बजाते लाज नहीं आती! अरे निर्लज्ज! अरे कुलनाशक! गला काटकर (आत्महत्या करके) मर जा! मेरा बल देखकर भी क्या तेरी छाती नहीं फटती!॥ २॥

मूल (चौपाई)

रे त्रिय चोर कुमारग गामी।
खल मल रासि मंदमति कामी॥
सन्यपात जल्पसि दुर्बादा।
भएसि कालबस खल मनुजादा॥

अनुवाद (हिन्दी)

अरे स्त्रीके चोर! अरे कुमार्गपर चलनेवाले! अरे दुष्ट, पापकी राशि, मन्दबुद्धि और कामी! तू सन्निपातमें क्या दुर्वचन बक रहा है? अरे दुष्ट राक्षस! तू कालके वश हो गया है!॥ ३॥

मूल (चौपाई)

याको फलु पावहिगो आगें।
बानर भालु चपेटन्हि लागें॥
रामु मनुज बोलत असि बानी।
गिरहिं न तव रसना अभिमानी॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसका फल तू आगे वानर और भालुओंके चपेटे लगनेपर पावेगा। राम मनुष्य हैं, ऐसा वचन बोलते ही, अरे अभिमानी! तेरी जीभें नहीं गिर पड़तीं?॥ ४॥

मूल (चौपाई)

गिरिहहिं रसना संसय नाहीं।
सिरन्हि समेत समर महि माहीं॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसमें सन्देह नहीं है कि तेरी जीभें (अकेले नहीं वरं) सिरोंके साथ रणभूमिमें गिरेंगी॥ ५॥

सोरठा

मूल (दोहा)

सो नर क्यों दसकंध बालि बध्यो जेहिं एक सर।
बीसहुँ लोचन अंध धिग तव जन्म कुजाति जड़॥ ३३(क)॥

अनुवाद (हिन्दी)

रे दशकन्ध! जिसने एक ही बाणसे बालिको मार डाला, वह मनुष्य कैसे है? अरे कुजाति, अरे जड! बीस आँखें होनेपर भी तू अन्धा है। तेरे जन्मको धिक्कार है॥ ३३(क)॥

मूल (दोहा)

तव सोनित कीं प्यास तृषित राम सायक निकर।
तजउँ तोहि तेहि त्रास कटु जल्पक निसिचर अधम॥ ३३(ख)॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरामचन्द्रजीके बाणसमूह तेरे रक्तकी प्याससे प्यासे हैं। (वे प्यासे ही रह जायँगे) इस डरसे, अरे कड़वी बकवाद करनेवाले नीच राक्षस! मैं तुझे छोड़ता हूँ॥ ३३(ख)॥

मूल (चौपाई)

मैं तव दसन तोरिबे लायक।
आयसु मोहि न दीन्ह रघुनायक॥
असि रिस होति दसउ मुख तोरौं।
लंका गहि समुद्र महँ बोरौं॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैं तेरे दाँत तोड़नेमें समर्थ हूँ। पर क्या करूँ? श्रीरघुनाथजीने मुझे आज्ञा नहीं दी। ऐसा क्रोध आता है कि तेरे दसों मुँह तोड़ डालूँ और (तेरी) लङ्काको पकड़कर समुद्रमें डुबा दूँ॥ १॥

मूल (चौपाई)

गूलरि फल समान तव लंका।
बसहु मध्य तुम्ह जंतु असंका॥
मैं बानर फल खात न बारा।
आयसु दीन्ह न राम उदारा॥

अनुवाद (हिन्दी)

तेरी लङ्का गूलरके फलके समान है। तुम सब कीड़े उसके भीतर (अज्ञानवश) निडर होकर बस रहे हो। मैं बंदर हूँ, मुझे इस फलको खाते क्या देर थी? पर उदार (कृपालु) श्रीरामचन्द्रजीने वैसी आज्ञा नहीं दी॥ २॥

मूल (चौपाई)

जुगुति सुनत रावन मुसुकाई।
मूढ़ सिखिहि कहँ बहुत झुठाई॥
बालि न कबहुँ गाल अस मारा।
मिलि तपसिन्ह तैं भएसि लबारा॥

अनुवाद (हिन्दी)

अंगदकी युक्ति सुनकर रावण मुसकराया (और बोला—) अरे मूर्ख! बहुत झूठ बोलना तूने कहाँ सीखा? बालिने तो कभी ऐसा गाल नहीं मारा। जान पड़ता है तू तपस्वियोंसे मिलकर लबार हो गया है॥ ३॥

मूल (चौपाई)

साँचेहुँ मैं लबार भुज बीहा।
जौं न उपारिउँ तव दस जीहा॥
समुझि राम प्रताप कपि कोपा।
सभा माझ पन करि पद रोपा॥

अनुवाद (हिन्दी)

(अंगदने कहा—) अरे बीस भुजावाले! यदि तेरी दसों जीभें मैंने नहीं उखाड़ लीं तो सचमुच मैं लबार ही हूँ। श्रीरामचन्द्रजीके प्रतापको समझकर (स्मरण करके) अंगद क्रोधित हो उठे और उन्होंने रावणकी सभामें प्रण करके (दृढ़ताके साथ) पैर रोप दिया॥ ४॥

मूल (चौपाई)

जौं मम चरन सकसि सठ टारी।
फिरहिं रामु सीता मैं हारी॥
सुनहु सुभट सब कह दससीसा।
पद गहि धरनि पछारहु कीसा॥

अनुवाद (हिन्दी)

(और कहा—) अरे मूर्ख! यदि तू मेरा चरण हटा सके तो श्रीरामजी लौट जायँगे, मैं सीताजीको हार गया। रावणने कहा—हे सब वीरो! सुनो, पैर पकड़कर बंदरको पृथ्वीपर पछाड़ दो॥ ५॥

मूल (चौपाई)

इंद्रजीत आदिक बलवाना।
हरषि उठे जहँ तहँ भट नाना॥
झपटहिं करि बल बिपुल उपाई।
पद न टरइ बैठहिं सिरु नाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

इन्द्रजीत (मेघनाद) आदि अनेकों बलवान् योद्धा जहाँ-तहाँसे हर्षित होकर उठे। वे पूरे बलसे बहुत-से उपाय करके झपटते हैं। पर पैर टलता नहीं, तब सिर नीचा करके फिर अपने-अपने स्थानपर जा बैठ जाते हैं॥ ६॥

मूल (चौपाई)

पुनि उठि झपटहिं सुर आराती।
टरइ न कीस चरन एहि भाँती॥
पुरुष कुजोगी जिमि उरगारी।
मोह बिटप नहिं सकहिं उपारी॥

अनुवाद (हिन्दी)

(काकभुशुण्डिजी कहते हैं—) वे देवताओंके शत्रु (राक्षस) फिर उठकर झपटते हैं। परन्तु हे सर्पोंके शत्रु गरुड़जी! अङ्गदका चरण उनसे वैसे ही नहीं टलता जैसे कुयोगी (विषयी) पुरुष मोहरूपी वृक्षको नहीं उखाड़ सकते॥ ७॥

दोहा

मूल (दोहा)

कोटिन्ह मेघनाद सम सुभट उठे हरषाइ।
झपटहिं टरै न कपि चरन पुनि बैठहिं सिर नाइ॥ ३४(क)॥

अनुवाद (हिन्दी)

करोड़ों वीर योद्धा जो बलमें मेघनादके समान थे, हर्षित होकर उठे। वे बार-बार झपटते हैं, पर वानरका चरण नहीं उठता, तब लज्जाके मारे सिर नवाकर बैठ जाते हैं॥ ३४(क)॥

मूल (दोहा)

भूमि न छाँड़त कपि चरन देखत रिपु मद भाग।
कोटि बिघ्न ते संत कर मन जिमि नीति न त्याग॥ ३४(ख)॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे करोड़ों विघ्न आनेपर भी संतका मन नीतिको नहीं छोड़ता, वैसे ही वानर (अंगद) का चरण पृथ्वीको नहीं छोड़ता। यह देखकर शत्रु (रावण) का मद दूर हो गया!॥ ३४(ख)॥

मूल (चौपाई)

कपि बल देखि सकल हियँ हारे।
उठा आपु कपि कें परचारे॥
गहत चरन कह बालिकुमारा।
मम पद गहें न तोर उबारा॥

अनुवाद (हिन्दी)

अङ्गदका बल देखकर सब हृदयमें हार गये। तब अङ्गदके ललकारनेपर रावण स्वयं उठा। जब वह अङ्गदका चरण पकड़ने लगा, तब बालिकुमार अङ्गदने कहा—मेरा चरण पकड़नेसे तेरा बचाव नहीं होगा!॥ १॥

मूल (चौपाई)

गहसि न राम चरन सठ जाई।
सुनत फिरा मन अति सकुचाई॥
भयउ तेजहत श्री सब गई।
मध्य दिवस जिमि ससि सोहई॥

अनुवाद (हिन्दी)

अरे मूर्ख! तू जाकर श्रीरामजीके चरण क्यों नहीं पकड़ता? यह सुनकर वह मनमें बहुत ही सकुचाकर लौट गया। उसकी सारी श्री जाती रही। वह ऐसा तेजहीन हो गया जैसे मध्याह्नमें चन्द्रमा दिखायी देता है॥ २॥

मूल (चौपाई)

सिंघासन बैठेउ सिर नाई।
मानहुँ संपति सकल गँवाई॥
जगदातमा प्रानपति रामा।
तासु बिमुख किमि लह बिश्रामा॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह सिर नीचा करके सिंहासनपर जा बैठा। मानो सारी सम्पत्ति गँवाकर बैठा हो। श्रीरामचन्द्रजी जगत् भरके आत्मा और प्राणोंके स्वामी हैं। उनसे विमुख रहनेवाला शान्ति कैसे पा सकता है?॥ ३॥

मूल (चौपाई)

उमा राम की भृकुटि बिलासा।
होइ बिस्व पुनि पावइ नासा॥
तृन ते कुलिस कुलिस तृन करई।
तासु दूत पन कहु किमि टरई॥

अनुवाद (हिन्दी)

(शिवजी कहते हैं—) हे उमा! जिन श्रीरामचन्द्रजीके भ्रूविलास (भौंहके इशारे)- से विश्व उत्पन्न होता है और फिर नाशको प्राप्त होता है; जो तृणको वज्र और वज्रको तृण बना देते हैं (अत्यन्त निर्बलको महान् प्रबल और महान् प्रबलको अत्यन्त निर्बल कर देते हैं), उनके दूतका प्रण, कहो, कैसे टल सकता है?॥ ४॥

मूल (चौपाई)

पुनि कपि कही नीति बिधि नाना।
मान न ताहि कालु निअराना॥
रिपु मद मथि प्रभु सुजसु सुनायो।
यह कहि चल्यो बालि नृप जायो॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर अंगदने अनेकों प्रकारसे नीति कही। पर रावणने नहीं माना; क्योंकि उसका काल निकट आ गया था। शत्रुके गर्वको चूर करके अंगदने उसको प्रभु श्रीरामचन्द्रजीका सुयश सुनाया और फिर वह राजा बालिका पुत्र यह कहकर चल दिया—॥ ५॥

मूल (चौपाई)

हतौं न खेत खेलाइ खेलाई।
तोहि अबहिं का करौं बड़ाई॥
प्रथमहिं तासु तनय कपि मारा।
सो सुनि रावन भयउ दुखारा॥

अनुवाद (हिन्दी)

रणभूमिमें तुझे खेला-खेलाकर न मारूँ तबतक अभी (पहलेसे) क्या बड़ाई करूँ। अंगदने पहले ही (सभामें आनेसे पूर्व ही) उसके पुत्रको मार डाला था। वह संवाद सुनकर रावण दुखी हो गया॥ ६॥

मूल (चौपाई)

जातुधान अंगद पन देखी।
भय ब्याकुल सब भए बिसेषी॥

अनुवाद (हिन्दी)

अंगदका प्रण (सफल) देखकर सब राक्षस भयसे अत्यन्त ही व्याकुल हो गये॥ ७॥

दोहा

मूल (दोहा)

रिपु बल धरषि हरषि कपि बालितनय बल पुंज।
पुलक सरीर नयन जल गहे राम पद कंज॥ ३५(क)॥

अनुवाद (हिन्दी)

शत्रुके बलका मर्दन कर, बलकी राशि बालिपुत्र अंगदजीने हर्षित होकर आकर श्रीरामचन्द्रजीके चरणकमल पकड़ लिये। उनका शरीर पुलकित है और नेत्रोंमें (आनन्दाश्रुओंका) जल भरा है॥ ३५(क)॥

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