०७ मन्दोदरीका फिर रावणको समझाना और श्रीरामकी महिमा कहना

मूल (चौपाई)

सयन करहु निज निज गृह जाई।
गवने भवन सकल सिर नाई॥
मंदोदरी सोच उर बसेऊ।
जब ते श्रवनपूर महि खसेऊ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अपने-अपने घर जाकर सो रहो (डरनेकी कोई बात नहीं है) तब सब लोग सिर नवाकर घर गये। जबसे कर्णफूल पृथ्वीपर गिरा, तबसे मन्दोदरीके हृदयमें सोच बस गया॥ ३॥

मूल (चौपाई)

सजल नयन कह जुग कर जोरी।
सुनहु प्रानपति बिनती मोरी॥
कंत राम बिरोध परिहरहू।
जानि मनुज जनि हठ मन धरहू॥

अनुवाद (हिन्दी)

नेत्रोंमें जल भरकर, दोनों हाथ जोड़कर वह (रावणसे) कहने लगी—हे प्राणनाथ! मेरी विनती सुनिये। हे प्रियतम! श्रीरामसे विरोध छोड़ दीजिये। उन्हें मनुष्य जानकर मनमें हठ न पकड़े रहिये॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

बिस्वरूप रघुबंस मनि करहु बचन बिस्वासु।
लोक कल्पना बेद कर अंग अंग प्रति जासु॥ १४॥

अनुवाद (हिन्दी)

मेरे इन वचनोंपर विश्वास कीजिये कि वे रघुकुलके शिरोमणि श्रीरामचन्द्रजी विश्वरूप हैं—(यह सारा विश्व उन्हींका रूप है) वेद जिनके अङ्ग-अङ्गमें लोकोंकी कल्पना करते हैं॥ १४॥

मूल (चौपाई)

पद पाताल सीस अज धामा।
अपर लोक अँग अँग बिश्रामा॥
भृकुटि बिलास भयंकर काला।
नयन दिवाकर कच घन माला॥

अनुवाद (हिन्दी)

पाताल (जिन विश्वरूप भगवान् का) चरण है, ब्रह्मलोक सिर है, अन्य (बीचके सब) लोकोंका विश्राम (स्थिति) जिनके अन्य भिन्न-भिन्न अङ्गोंपर है। भयङ्कर काल जिनका भृकुटिसंचालन (भौंहोंका चलना) है। सूर्य नेत्र है, बादलोंका समूह बाल है॥ १॥

मूल (चौपाई)

जासु घ्रान अस्विनीकुमारा।
निसि अरु दिवस निमेष अपारा॥
श्रवन दिसा दस बेद बखानी।
मारुत स्वास निगम निज बानी॥

अनुवाद (हिन्दी)

अश्विनीकुमार जिनकी नासिका हैं, रात और दिन जिनके अपार निमेष (पलक मारना और खोलना) हैं। दसों दिशाएँ कान हैं, वेद ऐसा कहते हैं। वायु श्वास है और वेद जिनकी अपनी वाणी है॥ २॥

मूल (चौपाई)

अधर लोभ जम दसन कराला।
माया हास बाहु दिगपाला॥
आनन अनल अंबुपति जीहा।
उतपति पालन प्रलय समीहा॥

अनुवाद (हिन्दी)

लोभ जिनका अधर (होठ) है, यमराज भयानक दाँत है। माया हँसी है, दिक्पाल भुजाएँ हैं। अग्नि मुख है, वरुण जीभ है। उत्पत्ति, पालन और प्रलय जिनकी चेष्टा (क्रिया) है॥ ३॥

मूल (चौपाई)

रोम राजि अष्टादस भारा।
अस्थि सैल सरिता नस जारा॥
उदर उदधि अधगो जातना।
जगमय प्रभु का बहु कलपना॥

अनुवाद (हिन्दी)

अठारह प्रकारकी असंख्य वनस्पतियाँ जिनकी रोमावली हैं, पर्वत अस्थियाँ हैं, नदियाँ नसोंका जाल हैं, समुद्र पेट है और नरक जिनकी नीचेकी इन्द्रियाँ हैं। इस प्रकार प्रभु विश्वमय हैं, अधिक कल्पना (ऊहापोह) क्या की जाय?॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

अहंकार सिव बुद्धि अज मन ससि चित्त महान।
मनुज बास सचराचर रूप राम भगवान॥ १५(क)॥

अनुवाद (हिन्दी)

शिव जिनका अहंकार हैं, ब्रह्मा बुद्धि हैं, चन्द्रमा मन हैं और महान् (विष्णु) ही चित्त हैं। उन्हीं चराचररूप भगवान् श्रीरामजीने मनुष्यरूपमें निवास किया है॥ १५(क)॥

मूल (दोहा)

अस बिचारि सुनु प्रानपति प्रभु सन बयरु बिहाइ।
प्रीति करहु रघुबीर पद मम अहिवात न जाइ॥ १५(ख)॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे प्राणपति! सुनिये, ऐसा विचारकर प्रभुसे वैर छोड़कर श्रीरघुवीरके चरणोंमें प्रेम कीजिये, जिससे मेरा सुहाग न जाय॥ १५(ख)॥

मूल (चौपाई)

बिहँसा नारि बचन सुनि काना।
अहो मोह महिमा बलवाना॥
नारि सुभाउ सत्य सब कहहीं।
अवगुन आठ सदा उर रहहीं॥

अनुवाद (हिन्दी)

पत्नीके वचन कानोंसे सुनकर रावण खूब हँसा (और बोला—) अहो! मोह (अज्ञान) की महिमा बड़ी बलवान् है! स्त्रीका स्वभाव सब सत्य ही कहते हैं कि उसके हृदयमें आठ अवगुण सदा रहते हैं—॥ १॥

मूल (चौपाई)

साहस अनृत चपलता माया।
भय अबिबेक असौच अदाया॥
रिपु कर रूप सकल तैं गावा।
अति बिसाल भय मोहि सुनावा॥

अनुवाद (हिन्दी)

साहस, झूठ, चञ्चलता, माया (छल), भय (डरपोकपन), अविवेक (मूर्खता), अपवित्रता और निर्दयता। तूने शत्रुका समग्र (विराट्) रूप गाया और मुझे उसका बड़ा भारी भय सुनाया॥ २॥

मूल (चौपाई)

सो सब प्रिया सहज बस मोरें।
समुझि परा प्रसाद अब तोरें॥
जानिउँ प्रिया तोरि चतुराई।
एहि बिधि कहहु मोरि प्रभुताई॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे प्रिये! वह सब (यह चराचर विश्व तो) स्वभावसे ही मेरे वशमें है। तेरी कृपासे मुझे यह अब समझ पड़ा। हे प्रिये! तेरी चतुराई मैं जान गया। तू इस प्रकार (इसी बहाने) मेरी प्रभुताका बखान कर रही है॥ ३॥

मूल (चौपाई)

तव बतकही गूढ़ मृगलोचनि।
समुझत सुखद सुनत भय मोचनि॥
मंदोदरि मन महुँ अस ठयऊ।
पियहि काल बस मतिभ्रम भयऊ॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे मृगनयनी! तेरी बातें बड़ी गूढ़ (रहस्यभरी) हैं, समझनेपर सुख देनेवाली और सुननेसे भय छुड़ानेवाली हैं। मन्दोदरीने मनमें ऐसा निश्चय कर लिया कि पतिको कालवश मतिभ्रम हो गया है॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

एहि बिधि करत बिनोद बहु प्रात प्रगट दसकंध।
सहज असंक लंकपति सभाँ गयउ मद अंध॥ १६(क)॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार (अज्ञानवश) बहुत-से विनोद करते हुए रावणको सबेरा हो गया। तब स्वभावसे ही निडर और घमण्डमें अंधा लंकापति सभामें गया॥ १६(क)॥

सोरठा

मूल (दोहा)

फूलइ फरइ न बेत जदपि सुधा बरषहिं जलद।
मूरुख हृदयँ न चेत जौं गुर मिलहिं बिरंचि सम॥ १६(ख)॥

अनुवाद (हिन्दी)

यद्यपि बादल अमृत-सा जल बरसाते हैं, तो भी बेत फूलता-फलता नहीं। इसी प्रकार चाहे ब्रह्माके समान भी ज्ञानी गुरु मिलें, तो भी मूर्खके हृदयमें चेत (ज्ञान) नहीं होता॥ १६(ख)॥

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