०५ सुबेलपर श्रीरामजीकी झाँकी और चन्द्रोदयवर्णन

मूल (चौपाई)

इहाँ सुबेल सैल रघुबीरा।
उतरे सेन सहित अति भीरा॥
सिखर एक उतंग अति देखी।
परम रम्य सम सुभ्र बिसेषी॥

अनुवाद (हिन्दी)

यहाँ श्रीरघुवीर सुबेल पर्वतपर सेनाकी बड़ी भीड़ (बड़े समूह) के साथ उतरे। पर्वतका एक बहुत ऊँचा, परम रमणीय, समतल और विशेषरूपसे उज्ज्वल शिखर देखकर—॥ १॥

मूल (चौपाई)

तहँ तरु किसलय सुमन सुहाए।
लछिमन रचि निज हाथ डसाए॥
ता पर रुचिर मृदुल मृगछाला।
तेहि आसन आसीन कृपाला॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँ लक्ष्मणजीने वृक्षोंके कोमल पत्ते और सुन्दर फूल अपने हाथोंसे सजाकर बिछा दिये। उसपर सुन्दर और कोमल मृगछाला बिछा दी। उसी आसनपर कृपालु श्रीरामजी विराजमान थे॥ २॥

मूल (चौपाई)

प्रभु कृत सीस कपीस उछंगा।
बाम दहिन दिसि चाप निषंगा॥
दुहुँ कर कमल सुधारत बाना।
कह लंकेस मंत्र लगि काना॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रभु श्रीरामजी वानरराज सुग्रीवकी गोदमें अपना सिर रखे हैं। उनकी बायीं ओर धनुष तथा दाहिनी ओर तरकस (रखा) है। वे अपने दोनों कर-कमलोंसे बाण सुधार रहे हैं। विभीषणजी कानोंसे लगकर सलाह कर रहे हैं॥ ३॥

मूल (चौपाई)

बड़भागी अंगद हनुमाना।
चरन कमल चापत बिधि नाना॥
प्रभु पाछें लछिमन बीरासन।
कटि निषंग कर बान सरासन॥

अनुवाद (हिन्दी)

परम भाग्यशाली अंगद और हनुमान् अनेकों प्रकारसे प्रभुके चरणकमलोंको दबा रहे हैं। लक्ष्मणजी कमरमें तरकस कसे और हाथोंमें धनुष-बाण लिये वीरासनसे प्रभुके पीछे सुशोभित हैं॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

एहि बिधि कृपा रूप गुन धाम रामु आसीन।
धन्य ते नर एहिं ध्यान जे रहत सदा लयलीन॥ ११(क)॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार कृपा, रूप (सौन्दर्य) और गुणोंके धाम श्रीरामजी विराजमान हैं। वे मनुष्य धन्य हैं जो सदा इस ध्यानमें लौ लगाये रहते हैं॥११(क)॥

मूल (दोहा)

पूरब दिसा बिलोकि प्रभु देखा उदित मयंक।
कहत सबहि देखहु ससिहि मृगपति सरिस असंक॥ ११(ख)॥

अनुवाद (हिन्दी)

पूर्व दिशाकी ओर देखकर प्रभु श्रीरामजीने चन्द्रमाको उदय हुआ देखा। तब वे सबसे कहने लगे—चन्द्रमाको तो देखो। कैसा सिंहके समान निडर है!॥ ११(ख)॥

मूल (चौपाई)

पूरब दिसि गिरिगुहा निवासी।
परम प्रताप तेज बल रासी॥
मत्त नाग तम कुंभ बिदारी।
ससि केसरी गगन बन चारी॥

अनुवाद (हिन्दी)

पूर्व दिशारूपी पर्वतकी गुफामें रहनेवाला, अत्यन्त प्रताप, तेज और बलकी राशि यह चन्द्रमारूपी सिंह अन्धकाररूपी मतवाले हाथीके मस्तकको विदीर्ण करके आकाशरूपी वनमें निर्भय विचर रहा है॥ १॥

मूल (चौपाई)

बिथुरे नभ मुकुताहल तारा।
निसि सुंदरी केर सिंगारा॥
कह प्रभु ससि महुँ मेचकताई।
कहहु काह निज निज मति भाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

आकाशमें बिखरे हुए तारे मोतियोंके समान हैं, जो रात्रिरूपी सुन्दर स्त्रीके शृङ्गार हैं। प्रभुने कहा—भाइयो! चन्द्रमामें जो कालापन है वह क्या है? अपनी-अपनी बुद्धिके अनुसार कहो॥ २॥

मूल (चौपाई)

कह सुग्रीव सुनहु रघुराई।
ससि महुँ प्रगट भूमि कै झाँई॥
मारेउ राहु ससिहि कह कोई।
उर महँ परी स्यामता सोई॥

अनुवाद (हिन्दी)

सुग्रीवने कहा—हे रघुनाथजी! सुनिये। चन्द्रमामें पृथ्वीकी छाया दिखायी दे रही है। किसीने कहा—चन्द्रमाको राहुने मारा था। वही (चोटका) काला दाग हृदयपर पड़ा हुआ है॥ ३॥

मूल (चौपाई)

कोउ कह जब बिधि रति मुख कीन्हा।
सार भाग ससि कर हरि लीन्हा॥
छिद्र सो प्रगट इंदु उर माहीं।
तेहि मग देखिअ नभ परिछाहीं॥

अनुवाद (हिन्दी)

कोई कहता है—जब ब्रह्माने (कामदेवकी स्त्री) रतिका मुख बनाया, तब उसने चन्द्रमाका सार भाग निकाल लिया (जिससे रतिका मुख तो परम सुन्दर बन गया, परन्तु चन्द्रमाके हृदयमें छेद हो गया)। वही छेद चन्द्रमाके हृदयमें वर्तमान है, जिसकी राहसे आकाशकी काली छाया उसमें दिखायी पड़ती है॥ ४॥

मूल (चौपाई)

प्रभु कह गरल बंधु ससि केरा।
अति प्रिय निज उर दीन्ह बसेरा॥
बिष संजुत कर निकर पसारी।
जारत बिरहवंत नर नारी॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रभु श्रीरामजीने कहा—विष चन्द्रमाका बहुत प्यारा भाई है। इसीसे उसने विषको अपने हृदयमें स्थान दे रखा है। विषयुक्त अपने किरणसमूहको फैलाकर वह वियोगी नर-नारियोंको जलाता रहता है॥ ५॥

दोहा

मूल (दोहा)

कह हनुमंत सुनहु प्रभु ससि तुम्हार प्रिय दास।
तव मूरति बिधु उर बसति सोइ स्यामता अभास॥ १२(क)॥

अनुवाद (हिन्दी)

हनुमान् जीने कहा—हे प्रभो! सुनिये, चन्द्रमा आपका प्रिय दास है। आपकी सुन्दर श्याम मूर्ति चन्द्रमाके हृदयमें बसती है, वही श्यामताकी झलक चन्द्रमामें है॥ १२(क)॥

भागसूचना

नवाह्नपारायण, सातवाँ विश्राम

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