०४ रावणको मन्दोदरीका समझाना, रावण-प्रहस्त-संवाद

दोहा

मूल (दोहा)

बाँध्यो बननिधि नीरनिधि जलधि सिंधु बारीस।
सत्य तोयनिधि कंपति उदधि पयोधि नदीस॥ ५॥

अनुवाद (हिन्दी)

वननिधि, नीरनिधि, जलधि, सिंधु, वारीश, तोयनिधि, कंपति, उदधि, पयोधि, नदीशको क्या सचमुच ही बाँध लिया?॥ ५॥

मूल (चौपाई)

निज बिकलता बिचारि बहोरी।
बिहँसि गयउ गृह करि भय भोरी॥
मंदोदरीं सुन्यो प्रभु आयो।
कौतुकहीं पाथोधि बँधायो॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर अपनी व्याकुलताको समझकर (ऊपरसे) हँसता हुआ, भयको भुलाकर रावण महलको गया। (जब) मन्दोदरीने सुना कि प्रभु श्रीरामजी आ गये हैं और उन्होंने खेलमें ही समुद्रको बँधवा लिया है,॥ १॥

मूल (चौपाई)

कर गहि पतिहि भवन निज आनी।
बोली परम मनोहर बानी॥
चरन नाइ सिरु अंचलु रोपा।
सुनहु बचन पिय परिहरि कोपा॥

अनुवाद (हिन्दी)

(तब) वह हाथ पकड़कर, पतिको अपने महलमें लाकर परम मनोहर वाणी बोली। चरणोंमें सिर नवाकर उसने अपना आँचल पसारा और कहा—हे प्रियतम! क्रोध त्यागकर मेरा वचन सुनिये॥ २॥

मूल (चौपाई)

नाथ बयरु कीजे ताही सों।
बुधि बल सकिअ जीति जाही सों॥
तुम्हहि रघुपतिहि अंतर कैसा।
खलु खद्योत दिनकरहि जैसा॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे नाथ! वैर उसीके साथ करना चाहिये जिससे बुद्धि और बलके द्वारा जीत सके। आपमें और श्रीरघुनाथजीमें निश्चय ही कैसा अन्तर है, जैसा जुगनू और सूर्यमें!॥ ३॥

मूल (चौपाई)

अति बल मधु कैटभ जेहिं मारे।
महाबीर दितिसुत संघारे॥
जेहिं बलि बाँधि सहस भुज मारा।
सोइ अवतरेउ हरन महि भारा॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिन्होंने (विष्णुरूपसे) अत्यन्त बलवान् मधु और कैटभ (दैत्य) मारे और (वाराह और नृसिंहरूपसे) महान् शूरवीर दितिके पुत्रों (हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु) का संहार किया; जिन्होंने (वामनरूपसे) बलिको बाँधा और (परशुरामरूपसे) सहस्रबाहुको मारा, वे ही (भगवान्) पृथ्वीका भार हरण करनेके लिये (रामरूपमें) अवतीर्ण (प्रकट) हुए हैं!॥ ४॥

मूल (चौपाई)

तासु बिरोध न कीजिअ नाथा।
काल करम जिव जाकें हाथा॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे नाथ! उनका विरोध न कीजिये, जिनके हाथमें काल, कर्म और जीव सभी हैं॥ ५॥

दोहा

मूल (दोहा)

रामहि सौंपि जानकी नाइ कमल पद माथ।
सुत कहुँ राज समर्पि बन जाइ भजिअ रघुनाथ॥ ६॥

अनुवाद (हिन्दी)

(श्रीरामजीके) चरणकमलोंमें सिर नवाकर (उनकी शरणमें जाकर) उनको जानकीजी सौंप दीजिये और आप पुत्रको राज्य देकर वनमें जाकर श्रीरघुनाथजीका भजन कीजिये॥ ६॥

मूल (चौपाई)

नाथ दीनदयाल रघुराई।
बाघउ सनमुख गएँ न खाई॥
चाहिअ करन सो सब करि बीते।
तुम्ह सुर असुर चराचर जीते॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे नाथ! श्रीरघुनाथजी तो दीनोंपर दया करनेवाले हैं। सम्मुख (शरण) जानेपर तो बाघ भी नहीं खाता। आपको जो कुछ करना चाहिये था, वह सब आप कर चुके। आपने देवता, राक्षस तथा चर-अचर सभीको जीत लिया॥ १॥

मूल (चौपाई)

संत कहहिं असि नीति दसानन।
चौथेंपन जाइहि नृप कानन॥
तासु भजनु कीजिअ तहँ भर्ता।
जो कर्ता पालक संहर्ता॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे दशमुख! संतजन ऐसी नीति कहते हैं कि चौथेपन (बुढ़ापे) में राजाको वनमें चला जाना चाहिये। हे स्वामी! वहाँ (वनमें) आप उनका भजन कीजिये जो सृष्टिके रचनेवाले, पालनेवाले और संहार करनेवाले हैं॥ २॥

मूल (चौपाई)

सोइ रघुबीर प्रनत अनुरागी।
भजहु नाथ ममता सब त्यागी॥
मुनिबर जतनु करहिं जेहि लागी।
भूप राजु तजि होहिं बिरागी॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे नाथ! आप विषयोंकी सारी ममता छोड़कर उन्हीं शरणागतपर प्रेम करनेवाले भगवान् का भजन कीजिये। जिनके लिये श्रेष्ठ मुनि साधन करते हैं और राजा राज्य छोड़कर वैरागी हो जाते हैं—॥ ३॥

मूल (चौपाई)

सोइ कोसलाधीस रघुराया।
आयउ करन तोहि पर दाया॥
जौं पिय मानहु मोर सिखावन।
सुजसु होइ तिहुँ पुर अति पावन॥

अनुवाद (हिन्दी)

वही कोसलाधीश श्रीरघुनाथजी आपपर दया करने आये हैं। हे प्रियतम! यदि आप मेरी सीख मान लेंगे, तो आपका अत्यन्त पवित्र और सुन्दर यश तीनों लोकोंमें फैल जायगा॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

अस कहि नयन नीर भरि गहि पद कंपित गात।
नाथ भजहु रघुनाथहि अचल होइ अहिवात॥ ७॥

अनुवाद (हिन्दी)

ऐसा कहकर, नेत्रोंमें (करुणाका) जल भरकर और पतिके चरण पकड़कर, काँपते हुए शरीरसे मन्दोदरीने कहा—हे नाथ! श्रीरघुनाथजीका भजन कीजिये, जिससे मेरा सुहाग अचल हो जाय॥ ७॥

मूल (चौपाई)

तब रावन मयसुता उठाई।
कहै लाग खल निज प्रभुताई॥
सुनु तैं प्रिया बृथा भय माना।
जग जोधा को मोहि समाना॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब रावणने मन्दोदरीको उठाया और वह दुष्ट उससे अपनी प्रभुता कहने लगा—हे प्रिये! सुन, तूने व्यर्थ ही भय मान रखा है। बता तो जगत् में मेरे समान योद्धा है कौन?॥ १॥

मूल (चौपाई)

बरुन कुबेर पवन जम काला।
भुजबल जितेउँ सकल दिगपाला॥
देव दनुज नर सब बस मोरें।
कवन हेतु उपजा भय तोरें॥

अनुवाद (हिन्दी)

वरुण, कुबेर, पवन, यमराज आदि सभी दिक्पालोंको तथा कालको भी मैंने अपनी भुजाओंके बलसे जीत रखा है। देवता, दानव और मनुष्य सभी मेरे वशमें हैं। फिर तुझको यह भय किस कारण उत्पन्न हो गया?॥ २॥

मूल (चौपाई)

नाना बिधि तेहि कहेसि बुझाई।
सभाँ बहोरि बैठ सो जाई॥
मंदोदरीं हृदयँ अस जाना।
काल बस्य उपजा अभिमाना॥

अनुवाद (हिन्दी)

मन्दोदरीने उसे बहुत तरहसे समझाकर कहा (किन्तु रावणने उसकी एक भी बात न सुनी) और वह फिर सभामें जाकर बैठ गया। मन्दोदरीने हृदयमें ऐसा जान लिया कि कालके वश होनेसे पतिको अभिमान हो गया है॥ ३॥

मूल (चौपाई)

सभाँ आइ मंत्रिन्ह तेहिं बूझा।
करब कवन बिधि रिपु सैं जूझा॥
कहहिं सचिव सुनु निसिचर नाहा।
बार बार प्रभु पूछहु काहा॥

अनुवाद (हिन्दी)

सभामें आकर उसने मन्त्रियोंसे पूछा कि शत्रुके साथ किस प्रकारसे युद्ध करना होगा? मन्त्री कहने लगे—हे राक्षसोंके नाथ! हे प्रभु! सुनिये, आप बार-बार क्या पूछते हैं?॥ ४॥

मूल (चौपाई)

कहहु कवन भय करिअ बिचारा।
नर कपि भालु अहार हमारा॥

अनुवाद (हिन्दी)

कहिये तो (ऐसा) कौन-सा बड़ा भय है, जिसका विचार किया जाय? (भयकी बात ही क्या है?) मनुष्य और वानर-भालू तो हमारे भोजन (की सामग्री) हैं॥ ५॥

दोहा

मूल (दोहा)

सब के बचन श्रवन सुनि कह प्रहस्त कर जोरि।
नीति बिरोध न करिअ प्रभु मंत्रिन्ह मति अति थोरि॥ ८॥

अनुवाद (हिन्दी)

कानोंसे सबके वचन सुनकर (रावणका पुत्र) प्रहस्त हाथ जोड़कर कहने लगा—हे प्रभु! नीतिके विरुद्ध कुछ भी नहीं करना चाहिये, मन्त्रियोंमें बहुत ही थोड़ी बुद्धि है॥ ८॥

मूल (चौपाई)

कहहिं सचिव सठ ठकुरसोहाती।
नाथ न पूर आव एहि भाँती॥
बारिधि नाघि एक कपि आवा।
तासु चरित मन महुँ सबु गावा॥

अनुवाद (हिन्दी)

ये सभी मूर्ख (खुशामदी) मन्त्री ठकुरसुहाती (मुँहदेखी) कह रहे हैं। हे नाथ! इस प्रकारकी बातोंसे पूरा नहीं पड़ेगा। एक ही बंदर समुद्र लाँघकर आया था। उसका चरित्र सब लोग अब भी मन-ही-मन गाया करते हैं (स्मरण किया करते हैं)॥ १॥

मूल (चौपाई)

छुधा न रही तुम्हहि तब काहू।
जारत नगरु कस न धरि खाहू॥
सुनत नीक आगें दुख पावा।
सचिवन अस मत प्रभुहि सुनावा॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय तुमलोगोंमेंसे किसीको भूख न थी? (बंदर तो तुम्हारा भोजन ही हैं, फिर) नगर जलाते समय उसे पकड़कर क्यों नहीं खा लिया? इन मन्त्रियोंने स्वामी (आप) को ऐसी सम्मति सुनायी है जो सुननेमें अच्छी है पर जिससे आगे चलकर दुःख पाना होगा॥ २॥

मूल (चौपाई)

जेहिं बारीस बँधायउ हेला।
उतरेउ सेन समेत सुबेला॥
सो भनु मनुज खाब हम भाई।
बचन कहहिं सब गाल फुलाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिसने खेल-ही-खेलमें समुद्र बँधा लिया और जो सेनासहित सुबेल पर्वतपर आ उतरा। हे भाई! कहो वह मनुष्य है, जिसे कहते हो कि हम खा लेंगे? सब गाल फुला-फुलाकर (पागलोंकी तरह) वचन कह रहे हैं!॥ ३॥

मूल (चौपाई)

तात बचन मम सुनु अति आदर।
जनि मन गुनहु मोहि करि कादर॥
प्रिय बानी जे सुनहिं जे कहहीं।
ऐसे नर निकाय जग अहहीं॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे तात! मेरे वचनोंको बहुत आदरसे (बड़े गौरसे) सुनिये। मुझे मनमें कायर न समझ लीजियेगा। जगत् में ऐसे मनुष्य झुंड-के-झुंड (बहुत अधिक) हैं, जो प्यारी (मुँहपर मीठी लगनेवाली) बात ही सुनते और कहते हैं॥ ४॥

मूल (चौपाई)

बचन परम हित सुनत कठोरे।
सुनहिं जे कहहिं ते नर प्रभु थोरे॥
प्रथम बसीठ पठउ सुनु नीती।
सीता देइ करहु पुनि प्रीती॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे प्रभो! सुननेमें कठोर परन्तु (परिणाममें) परम हितकारी वचन जो सुनते और कहते हैं, वे मनुष्य बहुत ही थोड़े हैं। नीति सुनिये, (उसके अनुसार) पहले दूत भेजिये, और (फिर) सीताको देकर श्रीरामजीसे प्रीति (मेल) कर लीजिये॥ ५॥

दोहा

मूल (दोहा)

नारि पाइ फिरि जाहिं जौं तौ न बढ़ाइअ रारि।
नाहिं त सन्मुख समर महि तात करिअ हठि मारि॥ ९॥

अनुवाद (हिन्दी)

यदि वे स्त्री पाकर लौट जायँ, तब तो (व्यर्थ) झगड़ा न बढ़ाइये। नहीं तो (यदि न फिरें तो) हे तात! सम्मुख युद्धभूमिमें उनसे हठपूर्वक (डटकर) मार-काट कीजिये॥ ९॥

मूल (चौपाई)

यह मत जौं मानहु प्रभु मोरा।
उभय प्रकार सुजसु जग तोरा॥
सुत सन कह दसकंठ रिसाई।
असि मति सठ केहिं तोहि सिखाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे प्रभो! यदि आप मेरी यह सम्मति मानेंगे, तो जगत् में दोनों ही प्रकारसे आपका सुयश होगा। रावणने गुस्सेमें भरकर पुत्रसे कहा—अरे मूर्ख! तुझे ऐसी बुद्धि किसने सिखायी?॥ १॥

मूल (चौपाई)

अबहीं ते उर संसय होई।
बेनुमूल सुत भयहु घमोई॥
सुनि पितु गिरा परुष अति घोरा।
चला भवन कहि बचन कठोरा॥

अनुवाद (हिन्दी)

अभीसे हृदयमें सन्देह (भय) हो रहा है? हे पुत्र! तू तो बाँसकी जड़में घमोई हुआ (तू मेरे वंशके अनुकूल या अनुरूप नहीं हुआ)। पिताकी अत्यन्त घोर और कठोर वाणी सुनकर प्रहस्त ये कड़े वचन कहता हुआ घरको चला गया॥ २॥

मूल (चौपाई)

हित मत तोहि न लागत कैसें।
काल बिबस कहुँ भेषज जैसें॥
संध्या समय जानि दससीसा।
भवन चलेउ निरखत भुज बीसा॥

अनुवाद (हिन्दी)

हितकी सलाह आपको कैसे नहीं लगती (आपपर कैसे असर नहीं करती), जैसे मृत्युके वश हुए (रोगी) को दवा नहीं लगती। सन्ध्याका समय जानकर रावण अपनी बीसों भुजाओंको देखता हुआ महलको चला॥ ३॥

मूल (चौपाई)

लंका सिखर उपर आगारा।
अति बिचित्र तहँ होइ अखारा॥
बैठ जाइ तेहिं मंदिर रावन।
लागे किंनर गुन गन गावन॥

अनुवाद (हिन्दी)

लंकाकी चोटीपर एक अत्यन्त विचित्र महल था। वहाँ नाच-गानका अखाड़ा जमता था। रावण उस महलमें जाकर बैठ गया। किन्नर उसके गुणसमूहोंको गाने लगे॥ ४॥

मूल (चौपाई)

बाजहिं ताल पखाउज बीना।
नृत्य करहिं अपछरा प्रबीना॥

अनुवाद (हिन्दी)

ताल (करताल), पखावज (मृदंग) और वीणा बज रहे हैं। नृत्यमें प्रवीण अप्सराएँ नाच रही हैं॥ ५॥

दोहा

मूल (दोहा)

सुनासीर सत सरिस सो संतत करइ बिलास।
परम प्रबल रिपु सीस पर तद्यपि सोच न त्रास॥ १०॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह निरन्तर सैकड़ों इन्द्रोंके समान भोग-विलास करता रहता है। यद्यपि (श्रीरामजी-सरीखा) अत्यन्त प्रबल शत्रु सिरपर है, फिर भी उसको न तो चिन्ता है और न डर ही है॥ १०॥

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