०३ श्रीरामजीका सेनासहित समुद्र पार उतरना, सुबेल पर्वतपर निवास, रावणकी व्याकुलता

दोहा

मूल (दोहा)

सेतुबंध भइ भीर अति कपि नभ पंथ उड़ाहिं।
अपर जलचरन्हि ऊपर चढ़ि चढ़ि पारहि जाहिं॥ ४॥

अनुवाद (हिन्दी)

सेतुबन्धपर बड़ी भीड़ हो गयी, इससे कुछ वानर आकाशमार्गसे उड़ने लगे और दूसरे (कितने ही) जलचर जीवोंपर चढ़-चढ़कर पार जा रहे हैं॥ ४॥

मूल (चौपाई)

अस कौतुक बिलोकि द्वौ भाई।
बिहँसि चले कृपाल रघुराई॥
सेन सहित उतरे रघुबीरा।
कहि न जाइ कपि जूथप भीरा॥

अनुवाद (हिन्दी)

कृपालु रघुनाथजी (तथा लक्ष्मणजी) दोनों भाई ऐसा कौतुक देखकर हँसते हुए चले। श्रीरघुवीर सेनासहित समुद्रके पार हो गये। वानरों और उनके सेनापतियोंकी भीड़ कही नहीं जा सकती॥ १॥

मूल (चौपाई)

सिंधु पार प्रभु डेरा कीन्हा।
सकल कपिन्ह कहुँ आयसु दीन्हा॥
खाहु जाइ फल मूल सुहाए।
सुनत भालु कपि जहँ तहँ धाए॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रभुने समुद्रके पार डेरा डाला और सब वानरोंको आज्ञा दी कि तुम जाकर सुन्दर फल-मूल खाओ। यह सुनते ही रीछ-वानर जहाँ-तहाँ दौड़ पड़े॥ २॥

मूल (चौपाई)

सब तरु फरे राम हित लागी।
रितु अरु कुरितु काल गति त्यागी॥
खाहिं मधुर फल बिटप हलावहिं।
लंका सन्मुख सिखर चलावहिं॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरामजीके हित (सेवा) के लिये सब वृक्ष ऋतु-कुऋतु—समयकी गतिको छोड़कर फल उठे। वानर-भालू मीठे-मीठे फल खा रहे हैं, वृक्षोंको हिला रहे हैं और पर्वतोंके शिखरोंको लङ्काकी ओर फेंक रहे हैं॥ ३॥

मूल (चौपाई)

जहँ कहुँ फिरत निसाचर पावहिं।
घेरि सकल बहु नाच नचावहिं॥
दसनन्हि काटि नासिका काना।
कहि प्रभु सुजसु देहिं तब जाना॥

अनुवाद (हिन्दी)

घूमते-फिरते जहाँ कहीं किसी राक्षसको पा जाते हैं तो सब उसे घेरकर खूब नाच नचाते हैं और दाँतोंसे उसके नाक-कान काटकर, प्रभुका सुयश कहकर (अथवा कहलाकर) तब उसे जाने देते हैं॥ ४॥

मूल (चौपाई)

जिन्ह कर नासा कान निपाता।
तिन्ह रावनहि कही सब बाता॥
सुनत श्रवन बारिधि बंधाना।
दस मुख बोलि उठा अकुलाना॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिन राक्षसोंके नाक और कान काट डाले गये, उन्होंने रावणसे सब समाचार कहा। समुद्र (पर सेतु) का बाँधा जाना कानोंसे सुनते ही रावण घबड़ाकर दसों मुखोंसे बोल उठा—॥ ५॥

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